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श्री अभियान राजेन्द्र कोश
(पष्टतो भाग)
was sties uz sieci pieczar.
विधान राजेन्द्रकोर एकासमस्या
महमदाबाद
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प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः
सकलागम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञकल्प - विद्वन्मान्य प्रातः स्मरणीय
णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य
प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित अभिधान राजेन्द्र कोष
शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव
श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज
एवं संयमवयःस्थविर मुनिराज श्री शान्तिविजयजी महाराज
फ्र पष्ठमो भागः फ [ द्वितीय संस्करण]
-: प्रकाशक :
के उपदेश से
अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ
श्री अभिधान
प्रदत्त द्रव्यसहाय से
राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद. सर्व अधिकार प्रकाशक को स्वाधीन हैं फ्र
श्री वीर संवत २५१३
प्रति : १०५० ईस्वी सन १९८६
मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका ) २५०१ ( दो हजार पांचसो एक रुपये )
श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८
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प्राप्तिस्थान
श्री अभिधान राजेन्द्रकोप प्रकाशन संस्था C/o श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद.
मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी
नयन प्रि. प्रेस, का. २-६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद--१
Prof. Sylvain Levi University of Paris :
After 5 years of Abhidhan Rajendra's continuous perusal, I can affirm that no real Indologist can dispense with a copy of this wonderful work. In its special compass, it surpasses even that jewel of lexicography, the Petersburg Dictionary. Here we have not only a complete register of words warranted by references and quotations, but a full survey of thoughts, beliefs, legends lying beyond the words. Whatever is the matter I happen to deal with. I begin with consulting my Rajendra and I never fail to get some useful information. Shall we ever have anything alike in the field of Brahmanism and Buddhism ?
Prof. Siddheshwar Varma, M.A.- Professor of Sanskrit, Prince of Wales College, Jammu (Kashmir)
"The Abhidhan Rajendra in my opinion is a colossal work which reflects credit on Indian industry and scholarship. A special feature of the work is the rich bibliographical material hitherto absolutely unknown to the world."
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोषः
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सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि- कलिकालसर्वज्ञकल्प- परमयोगिराज जगत्पूज्य गुरूदेव - प्रभुश्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ।
५
8
उ
तोलारामहाम
दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत: ।
यस्योपकतिप्रयोगकरणे नित्यं कती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाडिकतो विजयराजेन्द्रात्परः पण्यवान ? ॥ १ ॥
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प्रकाशकीय निवेदन
कलिकाल सर्वज्ञकल्प, सकलागमरहस्यवेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप, जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मन्नितिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्व का जीवनभर प्रचार, प्रसार किया । साथ ही अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया-ग्रन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल ग्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र कोश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों को युगों युगों के लिये अद्भूत प्रेरणा प्रदान की है।
बीसवीं शताब्दी के संध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टींग प्रेस, रतलाम (म. प्र.) से प्रकाशित की गई थी । प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रायः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया थो । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था
और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुरतीर्थ पर विराट अधिवेशन हुआ और उस में इस ग्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ ।
इस महान कार्य में परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद् बिजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पट्टप्रभावक परमपूज्य तीर्थ प्रभावक साहित्यमनिषो आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ हैं ।
वर्षों के बाद पुनः एक बार इस मन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है। इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्य देव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वस्जी महाराज सयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यानंदविजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एवं साध्वी मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं :
___ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-अहमदाबाद के ट्रस्टी मण्डल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला है।
इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एवं महानुभावों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का जनुभव हो रहा है।
उन को मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार । १ प्रवर्तिनी साध्वीजी गुरुणीजी प्रेमश्रीजी की शिष्या गुरुणीजी, रायश्रीजी की शिष्या साध्वीजी शिवश्रीजी को स्मृति में विदुषी साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजो श्री गभीरश्रीजी के उपदेश
से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक संघ । २ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, चोराउ (राज.) ३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेढी, श्री भाण्डवपुर तीर्थ (राज.)
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४ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक (त्रिस्तुतिक) संघ थराद (उ. गुजरात )
५ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जैन युवक मंडल, अहमदाबाद
६ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाघाल
७ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-सुराणा
८ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक सौंध - धानेरा
९ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ थराद जैन मित्रमण्डल, बम्बई ।
१० श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ नेनावा (गुजरात)
११ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, मंगलवा (राज.)
१२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ सियाणा (राज.)
१३ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ आकोली (राज.)
१४ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (राज.)
१५ श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन ट्रस्ट मद्रास
१६ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ वाघोडा ( राजस्थान )
१७ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ इन्दौर
१८ श्री भांडवपुर मोहनखेड़ा तीर्थ छ'रीपालक संघ समिति
१९ श्री राजेन्द्र जैन तपागच्छ संघ भीनमाल
२० श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर सुरत (थराद मित्र मंडळ)
२१ श्री जैन श्वेतांबर त्रिस्तुतिक संघ, महीदपुर रोड (म. प्र. )
२२ श्री यतिन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर, बामनिया (म. प्र )
२३ श्री शांतीनाथजी गोडीदासजी जैन पेढी कुक्षी (म. प्र )
२४ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर उज्जैन (म. प्र. )
२५ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर संघ रतलाम
२६ श्री जैन श्वेतांबर त्रिस्तुतिक संघ, कोशेळाव
२७ श्री थराद जैन युवक संघ, आनंद
२८ श्री भेसवाडा सिल्क मिल्स, भीवंडी (महाराष्ट्र)
२९ श्री वस्तीमलजी हेमाजी, जीवाणा (राज.)
३० शाह नेमिचन्द, देवीचन्द, मीश्रीमल, कान्तिलाल, शुकनराज, फूलचन्द, राजु बेटापोता श्री लखमाजी बलदरिया, कोशेलाब (राज.)
३१ श्री मांगीलाल, फुटरमल, शांतिलाल, किशोरचन्द्र बेटापोता शेषमलजी खसाजी रामाणी, गुडाबालोतान (राज.)
३२ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा (राज.)
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३३ श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र.) ३४ श्री चीमनलाल भीखालाल लाधाणी वासणवाला, धानेरा (गुजरात) ३५ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, वीरचंद, गौतमचन्द, अशोककुमार,
रतनलाल, गणपतराज, बेटापाता केनाजी मेंगलवा, (राजस्थान) ३६ श्री अमरचन्द देशमल, तिलोकचन्द मीठालाल ओटमल धरमाजो पटियात धाणसा ३७ शाह मगराज सुखराज एन्ड क'. मद्रास ३८ शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटापोता हांसाजी रतनपुराबोरा, मोदरा (राज.) ३९ कुंदनमल सुरेशकुमार जगदीशकुमार बेटापोता मिश्रीमल नथाजी बागरेचा, आहार ४० कुसलराज भूरमलजी बूटा, आहार (राजस्थान) ४१ चौघरी गेंदालाल गुलाबचन्दजो की धर्मपत्नी लीलाबहन सुपुत्र अशोककुमार, भाई मोतीलालजी, रिंगणांद ४२ कोठारी निर्मलाबेन धर्म पत्नी कोठारी सागरमलजी रंगलालजी छोटी सादडी वाला, उज्जैन ४३ श्री जेठमलजी सरेमलजी भीनमाल ४४ श्री सोहनराज डंगरजी भीनमाल ४५ संघवी गगलदास हालचंदभाई और संघवी भीखालाल मणीलाल अहमदाबाद ४६ शाह शांतीभाइ तालचंदजी के सुपुत्र ..केवल चंद, सुरेशकुमार, महेन्द्रकुमार, दिनेशकुमार, रमेशकुमार बेटापोता
छोगाजो कासमगोत्रा राठोड हरजी (राजस्थान)
इन के अतिरक्त गाँव नगरों के महानुभावने लाभ लिया है उन के नाम हैं.
भीनमाल, जोधपुर, मेंगलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लार, विजयवाडा, मांडवला, धाणसा, आहेर, बाग, राणकपुर, उज्जैन, मेघनगर, जावरा. भेसवाडा, सुरा, सियाणा, कामता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी. पांथेडी, बम्बई. सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ, कोशेलोव, थराद, अहमदाबाद, लोवाणा, दूधवा, आणद, बासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलोल. झाबुआ, टांडा, पारा, राजकोट, रिंगणाद, (धार)
इस प्रकार गुरु कृपा से एवं पू. आचार्यश्री के सतत प्रयत्न से यह प्रकाशन हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् ।
निवेदक श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था
अहमदाबाद
श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर रतनपाल, श्री राजेन्द्रसूरि चौक पा. अहमदाबाद २०४२ पोष सुद ७ (गुरुसप्तमी)
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प्रासंगिक वक्तव्य
विश्वविख्यात अर्धमागधी प्राकृत महाकोश 'श्री अभिधान राजेन्द्र' की संरचना अपने आप में एक भगीरथ कार्य है। इस कोश का निर्माण करके विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने जैन जगत के साथ विश्वस्थ विद्वद् जगत पर महानतम उपकार किया है। विश्व में व्याप्त इस अलौकिक रचनाने गुरुदेव श्रीको विश्व पूज्यता प्रदान की है। श्रीमद का नाम आज विश्वपुरुषों की श्रेणी में गिना जाता है।
कोश के प्रथम संस्करण के संशोधक पूज्यपाद गुरुदेव श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने लिखा है
'अभिधान राजेन्द्र' सुकोश रचा, जैन जैनेतर सब ही का अँचा । विद्वानी जगजाहिर हुयी, यश पाया राजेन्द्र सूरिवरने ।।।
विश्व के विभिन्न देश-प्रदेशों के अनेक विद्वानोने इस काश को भूरि भूरि प्रशंसा की है । वे इस कोश का अपना महाप्राण मानते है ।
जितना बृहद्-कार्य यह कोश है: उतना ही भगीरथ कार्य इसका प्रकाशन भी है। यह विपुल अर्थसाध्य और अपार कष्ट-साध्य है। इसकी प्रथमावृति श्री जैन श्वेतांबर त्रिस्तुतिक संघ के विपुल अर्थ सहयोग से हमारे परम उपकारी साहित्य विशारद विद्याभूषण पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज एवं व्याख्यान वाचस्पति गभोर गणनायक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमा विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के संशोधकत्व में श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रचारक संस्थरतलाम से. प्रकाशित हुई थी।
समय बीतता गया और धीरे धीरे इसकी सब प्रतियाँ समाप्त हो गयी । ग्रंथ अप्राप्य हो गया, पर इसकी माँग बरावर बनी रही । बढती हुई माँगने हमें इस कोश की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित करने की प्रेरणा दी; अतः अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ के आर्थिक सहयोग से अव यह दुर्लभ ग्रंथ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है । यह महाकोश जैन संघ की अपूर्व धरोहर है और राष्ट्र की असाधारण निधि हैं।
इस द्वितीयावृत्ति के प्रकाशन के पुनीत अवसर पर हम पूज्यपाद तीर्थप्रभावक आचार्यदेव श्रीमद
य जयन्तसेनीवरजी महाराज जे। गरुदेव श्रीमद विजय यतीन्द्रसरीश्वरजी महाराज के प्रतिभा संपन्न शिष्य है और गुरू गच्छ के षष्ठम पट्टधर है - का स्मरण करना हम अपना परम कर्तव्य समझते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं । इस महाकोश की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित करने की प्रेरणा और शक्ति हमें उन पूज्यपादश्री के द्वारा प्राप्त हुई है। उन्होंने ही हमारे मनोबल और संकल्प बल को बढावा दिया है।
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साथ ही संयमवयःस्थविर मुनिराज श्री शांतिविजयजी महाराज आदि मुनिडम'ल तथा विदुषी साध्वी श्री गभीरश्रीजी, साध्वोजी श्री लावण्यश्रीजी आदि साध्वी मंडल के द्वारा जो सहयोग हमें प्राप्त हुआ है, वह अविस्मरणीय है।
इसी के साथ थराद निवासी और अहमदाबाद के व्यवसायो परम गुरुभक्त जनरत्न श्रेष्ठिवर्य श्री गगलदास हालचन्द्रभाइ का स्मरण करना भी हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं १ उनका अथक श्रम इस प्रकाशन के पीछे रहा हुआ है।
श्रीमान गगलभाइ लगभग पचास वर्ष से भी संघ की विभिन्न गतिविधियों में भाग ले कर तन-मन-धन से अपना सक्रिय सहयोग समय समय पर देते रहे हैं!
दयानिधि परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में मनाये गये श्रीमद् राजेन्द्रसरि अर्द्ध शताब्दी उत्सव(मोहनखेडा तीर्थ) में उत्सव समिति के अध्यक्ष पद का कार्य भार निष्ठापूर्वक सम्हाल कर आपने अपना अपूर्व योगदान दिया है।
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन सभा के अध्यक्ष पद के अतिरिक्त श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अहमदाबाद के अध्यक्ष पद, अखिल भारतीय सौधर्म बृहत्तपागच्छीय संघ के अध्यक्ष पद, श्री सुवर्णगिरि तीर्थ ट्रस्ट के अध्यक्ष पद, श्री यतीन्द्र भवन जैन धर्मशाला पालीताणा के अध्यक्ष पद एवं श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ थराद के ट्रस्टी पद पर रह कर आप अपना अपूर्व योगदान सदा देते रहे हैं । श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेतांबर पेढी श्री मोहनखेडा तीर्थ के आप प्रमुख ट्रस्टी हैं ।
परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद बिजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से श्रमण संघ की अध्यापन व्यवस्था में भी आपने अपना असाधारण योगदान दिया है। श्री संघ के विकास कार्यो इस प्रकार से सक्रिय सहयोग देने वाले श्रेष्ठिवर्य श्री गगळदासभाई के हम बहुत आभारी हैं।
इस कोश के प्रकाशन में हमें आपका अविस्मरणीय सहयोग प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार श्री सौधर्म वृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ ट्रस्ट के ट्रस्टी बंधुआं से भी हमें जो सहयोग प्राप्त हुआ है, वह अविस्मरणीय हे । हम उन सबके आभारी हैं।
यद्यपि इस काश के द्वितीय प्रकाशन में सब प्रकार से सावधानी रखी गयी है, फिर भी यदि किसी प्रकार को कोई टि रह गयी हो, तो उसके लिए हम हार्दिक क्षमायाचना करते हैं । शुभम्
-प्रकाशक
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प्रशान्त वपुष श्रीमद् राजेन्द्रसूरि
विद्यालङ्करणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं,
विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सद्बोधिबाजपदम् । सञ्चारित्रनिधिं दयाभरविधिं प्रज्ञावता - मादिमम्
जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ १ ॥ धु या दशसंख्यकेऽपि यतिनां धर्मे दृढः संयमे,
सत्वात्मा जनतापकारनिरतेो भव्यात्मनां बाधकः । शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिर्ध्यानी क्षमावारिधि
स्तं शान्तं करुणावतार-मनिशं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ २ ॥ वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिर्महामन्जुला,
संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदेाषापहा । बुद्धिसुखानुचिंतनपरा कल्याणकर्त्री नृणां
लेाके सुप्रभिताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ ३ ॥ यः कर्त्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां,
मूर्तिश्वापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपमन्दिरे । जीर्णोद्धारमनेकजन निलयस्याचीकर च्छ्रावक
स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ ४ ॥ लोके या विहरन् सदा स्ववचनैर्वैरं मिथेो देहिनां,
दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्रीं समावर्धयत् । मूढाँचापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद्,
देशोपद्रवनाशकं तमजितं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ ५ ॥ या गङ्गाजलभिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराडू,
यं यं देशमलवकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा सच्छास्त्रामृतवाक्यवर्षणवशाद् मेघवतं योऽधरन्,
तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ ६ ॥ तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ता चलः,
शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैर्मानैस्तथा युक्तिमिः । शिष्यांस्तानकरेरात्स्वधर्मनिरतान् येो ज्ञानसिन्धुः प्रभु
स्तं सूरिप्रवरं प्रशान्त - वपुषं राजेन्द्रसूरिः नुमः ॥ ७ ॥ लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो,
जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालाडच बुद्धया चिरम् । मर्त्यान् बाधयितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधी
कोशं संव्यतनोत्तम छमनसा राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ ८ ॥ गुरुवर गुणराजिभ्राजितं सारभूतं,
परिपठति मनुष्या येोऽष्टकं शुद्धमेतद् । अनुभवति स सर्वा सम्पदं मानाबाना
मिति वदति मुनीशेो वाचको मोहनाख्यः ॥ ९ ॥ - उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज
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द्वितीयावृत्ति
प्रस्तावना
中央电
अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिध्यात्व से मुक्त
हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यज्ञान और होता है।
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, में होता है; परन्तु अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ज्ञान में समाविष्ट हैं।
आत्मिक उत्कान्ति का शुभारंभ होता है । सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित
सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिध्यात्व का पना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है। यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लोकोत्तर भावों को चिन्तनधारा में स्वयं को हुये दे "जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे
पानी पठा । '
संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आप और बन्ध । दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एव ं कारण स्थिति से स्वयं को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निबन्ध अथवा अनवस्थक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं ।
अतः इनका समावेश पक्षिज्ञान अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष
प्राह्य हैं;
जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है । सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे।
कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं स्थिति में हैं, ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म
कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है; जैसे खान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुत्र को के ई मिट्टी कहता है ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्पज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती है।
स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं।
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ज्ञानावरणीय कर्म आँखां पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपडे की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है । इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। ____ दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है । जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को गजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है । यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ दुबो देता है। अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है । ___मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म । यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है । साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असम दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन कराता है।
मोहनीय कर्म मदिरा के समान है । मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश-हवास खा बैठता है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरुप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसके ससार परिभ्रमण का । — मोह महामद पिया अनादि, भूलि आपकु' भरमत बादि ।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है ।
जो मनुष्य इस माहनीय कर्म के स्वरुप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममकार जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकडे हुए ही हैं। अहंकार और ममकार जितना जितना घटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोहगजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है । जीव को भेदविज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म है । इसने ही जीव का संसार की भूलभुलैया में अटकाये रखा है।
और बेडी के समान है आयुष्य कम । इसने जीव को शरीर रूपी बेडी लगा दी है; जे. अनादि से आज तक री आ रही है। एक बेडी टूटती है तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है। सजा की अवधि " हुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव को जन्म जन्म को कैद की अवधि पूरी नहीं होती; तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता ।
नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान | चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित करता है; ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण कर देव, मनुष्य तिर्य च और नरक गति में भ्रमण करता है।
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गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बडे बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता है।
इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समान । खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । यही कार्य अन्तराय कर्म करता हैं । इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशति ) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद ।
इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्त्व, मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं । द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है । आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है ।
ससारस्थ प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थान् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । 'सब धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि......धम्म सरणं गच्छामि ।' और 'केवलिपण्णत्त धम्म सरणं पव्वज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एव गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है । इस धर्म में प्रवेश करके जीव म्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है। जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है।
परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्यादवाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमे के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अनुशोलन अत्यन्त आवश्यक है।
आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था । विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुरुजी तलाश रहे थे; जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके।
ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध, तपोवृद्ध एव' ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे-उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । उन्होंन जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुरुजीनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलनी रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी । वह कुञ्जी है-' अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र' पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है । जैनागमों में निर्दिष्ट
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वस्तुतत्त्व जो ' अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं हैं। वह कहीं नहीं है । यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है ।
भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रहो है। निघंटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की
निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दस ग्रह दृष्टिगोचर होता है। ये सब कोश गद्य लेखन में हैं।
___ इसके पश्चात् प्रारभ हुआ पद्य रचनाकाल । जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये । एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश ।।
कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरीका 'त्रिकाण्ड' और धन्वन्तरी का निघण्टु; इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध कोशे में अमरसिह का 'अमरकोश' बहु प्रचलित है।
धनपाल का 'पाइय लच्छी नाम माला' २७९ गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है । इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है।
धनजयने 'धनब्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'घर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक बन जाते हैं जैसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता हैं।
इसी प्रकार धनरुजयने 'अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है।
कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', 'निघण्टु संग्रह' और 'देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं।
इसके अलावा 'शिलांछ कोश', 'नाम कोश', 'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', 'शब्दभेद नाममाला', 'नाम संग्रह', 'शारदीय नाममाला', 'शब्द रत्नाकर', 'अव्ययकाक्षर नाममाला', 'शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश', 'पंचवर्ग स ग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', 'एकाक्षरी-नानार्थ कोश', 'एकाक्षर नाममालिका', 'एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सहमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं ।
इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोश प्रन्यों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा ग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है। फिर भी इसकी कुछ विशेषताए प्रस्तुत करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा।
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श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्ट्प्रभाकर - चर्चाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी - श्रुतस्थविरमान्यश्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छीय- श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज ।
तोलारामनिशर्मा
विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् । हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥ १ ॥
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'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है । भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो को धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन आगों की रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है। इस महाकोश में श्रीमद ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाग्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कगया है। इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं।
वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सत्तानवे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं ।
वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है। इसमें धर्म-स'कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक लोक उद्धत किये गये हैं। इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पडेगा ।
इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने गत के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़ का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदेव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोर्ष विहार किये, प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान. संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । एसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है । इस महाग्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्ववपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है।
श्रीमद् विजय यशोदेवसूरिजी महाराज 'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं-आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है। इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा सकेत इस कोश की ओर ही होगा; जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है ।
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प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ । जा भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पाम वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये । हमने उन्हे आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है । ' अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा ।
श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास । दक्षिण में वसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस
में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पोष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमी प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज माहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते दुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में • अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके पुनर्मुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया।
इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का । आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही सघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई पर श्रेयांसि बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोघ इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी; पर मैं मजबूर था। आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है।
हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओंने ....................
............ । उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया । श्रीमद् ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा व्यवसायियों के लिये नहीं । यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि • इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है।
श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ । देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा।
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अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के ममक्ष विश्व की असाधारण कृति इस 'अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा । श्री संघने हादिक प्रसन्नता व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है।
और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश ग्रन्थ पुनर्मुद्रित हो कर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है। यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है।
इस महाप्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है। फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. वृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं।
इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते ।
त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गयी हैं। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् ।
नेनावा (बनासकांठा) दिनांक २-१२-८५
आचार्य जयन्तसेनसूरि
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श्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहसूरि
१ श्री सुधर्मास्वामी
२६ श्रीसमुद्रसूर
२ श्रीजम्बूस्वामी
२७ श्रीमान देवसूर
३ श्रीप्रनवस्वामी
२८ श्रीविवुधप्रभसूर
● श्रीसय्यंभवस्वामी
२६ श्रीजयानन्द सूरि
५ श्रीयशोभत्र सूरि
३० श्रीरविप्रसूरि
३१ श्रीयशोदेवसूरि
U
७ श्रीस्थूलभस्वामी
(श्रीमार्यसुहस्तीसूरि (श्रीमार्यमहागिरि
* श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली
Ε
श्रीसंभूतविजयजी ( श्री बाहुस्वामी
(श्री
(श्री सुप्रतिबद्ध मूरि
१० श्री इन्द्र दिन्नसूर
११ श्रीदिन्नसूर
१२ श्रीसिंदगिरिसूरि
१३ श्रीवज्रस्वामीजी
१४ श्रीवज्रसेनसूरिजी
१५ श्री चन्द्रसूरिजी
१६ श्रीसामन्तन प्रसूरि
१७ श्रीवृद्धदेवरि
१८ श्रीप्रद्योतनसूरि
१६ श्रीमानदेवसूरि
२० श्रीमानतुङ्गसूरि
२१ श्रीवीरसूरि
२२ श्रीजयदेवसूर २३ श्रीदेवामन्दसूरि २४ श्रीविक्रमसूर
出
३६
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३२ श्रीप्रद्युम्न
३३ श्रीमानदेवसूरि
३४ श्रीविमलचन्द्रसूरि
३५ श्रीउद्योतनसूर
३६ श्रीसर्वदेवसूरि
३७ श्रीदेवसूरि
३८ श्रीसर्वदेवसूर
४५
[ श्रीयशोभद्रसूरि ( श्रीनेमिचन्द्रसूरि
श्रीमुनिचन्द्रसूरि
४.
४१ श्री अजितदेवसूरि
४२ श्रीविजयसिंहसूर
४३
श्री सोमप्रनसूरि (श्रीमणिरत्नसूरि
४४ श्रीजगन्चन्द्रसूरि
[श्रीदेवेन्द्रसूरि (श्रीविद्यानन्दसूरि
४६ श्रीधर्मघोष
४७ श्रीसोमप्रभसूर ४८ श्रीसोमतिलकसूरि
४६ श्रीदेवसुन्दरसूरि
For Private Personal Use Only
५० श्रीसोमसुन्दरसूरि
५१ श्री मुनिसुन्दरसूरि
५२ श्रीरत्नशेखरसूरि
५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
५४ श्री सुमति साधुसूरि
५५ श्री हेमविमलसूरि
५६ श्रीमानन्दविमलसूरि
५७ श्रीविजयदानसूरि
५८ श्रीहीर विजयसूरि
५६ श्रीविजयसेनसूरि
६०
( श्रीविजयदेवसूरि (श्रीविजयसिंह सूरि
६१ श्रीविजयप्रभसूर
६२ श्रीविजयरत्नसूरि
६३ श्रीविजयक्षमासूरि
६४ श्रीविजयदेवेन्मसूरि
६५ श्रीविजयकल्याणसूरि
६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि
६७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरि
६८. श्री विजयधनचन्द्रसूरि
६६ श्री विजय भूपेन्द्रसूरि
७० श्री विजययतीन्द्रसूरि
७१ श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि
७२ वर्तमानाचार्य
श्री विजयजयन्तसेन सूरि
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Jain
श्रीमद् विजय धनवन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
उपाध्याय गुलायविजयजी महाराज
राजेद्र को
ESING
प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूर्यश्वरजी महाराज
શ્રીમદ્ વિજ્ઞય અને મારી મહ
For Envato & Personal Use Ohi
उपाध्याय मोहराविजयजी महाराज
विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
ary.org
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आजार-प्रदर्शनम्।
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सुविहितसूग्कुिलतिलकायमान-सकल जैनागमपारद श्व - आबाल ब्रह्मचा. री-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय--परमयोगिराज-क्रियाशुद्धथुपकारक-श्री सौधर्मबृहतपोगच्चीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव जट्टारक श्री १००८ प्रनु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने 'श्रीअनिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का सङ्कलन कार्य मरुधरदेशीय श्रीसियाणा नगर में संवत् १९४६ के आश्विनशुलद्वितीया के दिन शुभ लग्न में प्रारम्भ किया । इस महान् संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य. श्रीमद्घतचन्द्रसूरीजी महाराजने जी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् १९६० चैत्र-शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्री सूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण ( तैयार ) दुश्रा ।
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गवालियर रियासत के राजगढ (मालवा ) में गुरुनिशोत्सव के दरमियान संवत् १९६३ पौष शुक्ला १३ के दिन महातपस्वी-मुनि श्रीरूपकिजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनि महाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय-छोटे बमे ग्राम नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुश्रा किःमर्तुम-गुरुदेव के निर्माण किये हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन जैनेतर समानरूप से लान प्राप्त कर सकें, इस लिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपने के लिये रतलाम (मालवा) में सेव जसुजी चतुर्जुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूप चंदजी रखनदासजीत्-जागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत-प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंदजीत्-निहाल वंदजी, आदि प्रतिष्ठिन सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअनिधानराजेन्द्र कार्यालय और 'श्रीजैनप्रनाकरप्रिटिंग प्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रवन्ध का
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समस्त--जार मर्हम-गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीम. हिजयनूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १९६४ श्रावणसुदि ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः बपना शुरू हुश्रा, जो सं० १एर चैत्र-वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण बप जाने की सफलता को प्राप्त हुथा।
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इस महान् कोश के मुजणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभजनकेसरीबालिकाससिद्धान्तशिरोमणि-प्रातःस्मरणीय-धाचार्य:-श्रीमद्धनचन्ऽसरिजी महाराज, उपाध्याय श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज , सञ्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक--मुनिश्रीहुकुम विज. यजी महाराज, सस्क्रियावान् महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद-विद्यानूषण-श्रीमद्विजयनूपेन्ऽसरिजी महाराज , व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी, मुनिश्री लक्ष्मी विजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्री-इंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरोंने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम उगया है, श्रतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आजारी है ।
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जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्चीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषान-कार्य में आर्थिक-सहायता प्रदान की है, उनकी शुज. सुवर्षाकरी नामावली इस प्रकार है
श्रीसौधर्मवृत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा
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श्रीसष-रतलाम। " जावरा
भीसंघ-चाँगरोद।
, वारोदा-पड़ा।
श्रीसंघ-राजगढ़।
झाबुवा ।
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भीसंघ-भकणावदा।
कूकसी।
श्रीसंघ-बड़नगर। को खाचरोद।
मन्दमोर। सीतामऊ। निम्बाहेड़ा। इन्दौर। उज्जैन। महेन्दपुर। नयागाम। नीमच-सिटी। संजीत। नारायणगढ़। बरड़ावदा।
श्रीमंघ-सरमी। . मुंजाखेड़ी।
ग्वरमोद-बड़ी। चीरोला-पड़ा। मकराषन । बरड़िया। (भाट)पचलाना। पटलावदिया। पिपलोदा। दशाई। बड़ी-कड़ोद ।
धामणदा। . राजोद ।
मालीराजपुर। रींगनोद। राणापुर । पारां। टांडा। बाग। खवासा। रंभापुर। अमला। बोरी। नानपुर।
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात
श्रीसंघ-अहमदाबाद। , वीरमगाम।
सूरत। साणंद ।
श्रीसंघ-थिरपुर (थराद)। श्रीसंघ-ढीमा । " वाव ।
दूधवा। भोरोल।
वात्यम। धानेरा।
वासण। धोराजी।
जामनगर। डुवा।
खंभात।
पालनपुर।
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़
श्रीसंघ-जोधपुर ।
आहोर। जालोर। भेंसवाड़ा। रमणिया। मांकलेसर। देवावस। विशनगढ़। मांडवला।
श्रीसंघ-भीनमाल । , सांचोर ।
बागरा। धानपुर। अाकोली। साथू। सियाणा। कागोदर। देलंदर ।
श्रीसंघ-शिवगंज।
कोरटा। फतापुरा। जोगापुरा। भारुंदा। पोमावा। बीजापुर । बाली। खिमेल ।
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|本不幸事都基本本本事和非未未未未老事本书本本书本书本书本书本书本书本
श्रीसंघ-गोल। , साहेला।
पालासण। रेवतड़ा। धावसा। बाकरा। मोदरा। थलवाड़। मेंगलवा। सूराणा। दाधाल । धनारी।
श्रीसंघ-मंडवारिया।
बलद। जावाल। सिरोही। सिरोड़ी। हरजी। गुडाबालोतरा। भूति। तखतगढ । सेदरिया। रोवाडा। भावरी।
श्रीसंघ-सांडेराव। , खुडाला।
राणी। खिमाड़ा। कोशीलाव पावा। एंदला का गुड़ा। चाँणोद। इडसी।
थाँवला। " जोयला।
काचोली।
इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय सुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है।
书
श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय.
रतलाम (मालवा)
本书本书本书本書4本
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॥ श्री वीतरागो जयति ॥
श्रीअभिधानराजेन्दः।
मिग्विद्धमाणमार्मि, नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण । सारं छठे भागे, भवियजणसुहावहं वोच्छं ॥१॥
ON--
मइदंसण
श्रो. अविच्चुई धारणा तस्स ॥१॥” इति । तथा अरजरम्। उदकुम्भोऽलञ्जरमिति यत्प्रसिद्धं तत्रोदकं यत्तत्समाना प्रभूतार्थग्रहणोत्प्रेक्षणधरणसामर्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच अरजरोदकं हि संक्षिप्तं शीघ्र निष्ठितं चेति । विदरो-नदीपुलिनाऽऽदौ जलार्थो गर्तः, तत्र यदुदकं तत्समानाऽल्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वाद् झगित्यनिष्ठितत्वाच्च, तदुदकं.
ह्यल्पं तथाऽपरापरमपमल्पं स्यन्दते , अत एव क्षिप्रमम-म-पुं०।मा-कः । यमे, समये, मधुसूदने, वाच० । मन्त्रे, निष्ठितञ्चेति , सरउदकसमाना तु विपुलत्वात् बहुजनोपमन्दिरे, माने, सूर्य, चन्द्रे, शिवे, विधौ, मायाचिनि, वृथा-|
कारित्वादनिष्ठितत्वाच्च प्रायः सरोजलस्याप्येवंभूतत्वामन्त्रे,मारणे, प्रतिदाने, एका० । स्त्रीकण्ठे, बह्री, सत्यवादे,
दिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यजडे, कष्ट, सत्साक्षिणि, मदे, कपिलवणे, पिङ्गलवणे, बन्धने
न्तविपुलत्वादक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच्च , सागरजलस्यापि च । एका। मौलौ, मोघवृत्ती, नपुंसकजने च । न । एका० ।
ह्येवम्भूतत्वादिति । स्था० ४ ठा० ४ उ०। “सच्छंदबुद्धि
मइविगप्पियं ।” तत्रावग्रहे बुद्धिः, अपायधारणे मतिः। नं०। मन-मद-पुं० । अहङ्कार, “ अवलेोऽहंकारो, मो|
मनुते-अवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यया सा तथा । मरहो मरप्फरो दप्पो।" (८६) पाइ० ना० ५५ गाथा।
सूत्र०१ श्रु०६ १० । लोकालोकान्तर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रमाई-देशी-शिरोमालायाम् , दे० ना०६ वर्ग ११५ गाथा।
कृष्टातीतानागतवर्तमानपदार्थाऽऽविर्भावके केवलज्ञाने च । मह-मति-स्त्री० । मन-क्लिन् । मननं मतिः । ज्ञाने, अवधिमनः
सूत्र. १ श्रु० ११ अ० । आचा० । प्रातिभबोधे, प्राचा पर्यायकेवलजातिस्मरणभेदाच्चतुर्धा । श्राचा०१ श्रु०१ श्र० १ श्रु०५ अ०६ उ० । अध्यवसाये, आचा० १ ० ८ अ० १ उ०। शानं० । मननं मतिरववोधः । सा च मतिज्ञाना- 5 उ० । मतिरवायो, निश्चय इत्यर्थः । स०५ अङ्ग । परवाउऽदि पञ्चधेति । प्राचा०१ श्रु०१०१ उ० । श्रा० म०। द्युपन्यस्तसाधनस्यापूर्वापूर्वदृषणोहाऽऽत्मके शानविशेष, वृ० सूत्र०। मननं मतिः। पदार्थचिन्ताऽऽन्मके मानसे व्या ५ उ० । मननं मतिः । यद्वा-मन्यते इन्द्रियमनोद्वारेण नियनं पारे.प्राचा०१७०५ अ०६ उ० । कश्चिदर्थपरिच्छित्तावपि वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयति मतिः । योग्यदेशावस्थितवस्तुविसूक्ष्मधर्माऽऽलोचनरुपायां बुद्धौ, न० । विशे० । बुद्धौ, स० षये इन्द्रियमनोनिमित्तावगमविशेषे, कर्म०४ कर्म० । प्रव० । ११ अङ्ग । श्राचा० । स्था० । सूत्र० । अवबोधशक्ती, विशे० । मइअ-देशी-भर्सिते, देना०६ वर्ग १४ गाथा। अभिनिवेशे, दश ६ अ०२ उ० । मनसि च । सूत्र०१ श्रु०४ | | मइअन्नाण-मत्यज्ञान-न० । मिथ्यादृमतिशाने, “मिच्छअ०२ उ०। इच्छायाम् , स्मृतौ, तिच् । शाकभेदे च । वाच०। | द्दिहिस्स मई मइअन्नाणं ।" प्रा० चू०१ अ०। आभिनिबोधिकज्ञाने, स्था०६ ठा० । श्रा० चू० । प्रव० । (त
मइअनाणस्सणं भंते ! केवइए विसए पएणते? गोयमा! द्वक्तव्यता 'श्राभिणिबोहियणाण' शब्दे द्वितीयभागे २५५ पृष्ठे गता) बुद्धौ , " मेहा मई मनीसा, विनाणं धी चिई बुद्धी।"
से समासो चउब्बिहे पएणते । तंजहा-दबो, खेत्तो, (४२) पाइ० ना० ३१ गाथा। मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभि
कालो, भावो। दव्बोणं मइअण्णाणी मइअण्णाणनिबोध इत्यनान्तरम्। सम्म० २ काण्ड । प्राचा।
परिगयाइं दव्वाइं जाणइ, पासइ, एवं० जाव भावओ मइचउब्विहा मई पएणत्ता । तं जहा-उग्गहमई,ईहामई, अ
अण्णाणी मइअण्णाणपरिगए भावे जाणइ, पासइ । वायमई, धारणामई । अहवा-चउबिहा मई पएणत्ता । तं
(मइअण्णाणस्लेत्यादि) (मइ अण्णाणपरिगयाई ति) मत्य
ज्ञानेन मिथ्यादर्शनसंवलितेनावग्रहाऽऽदिनोत्पत्तिक्यादिना जहा-अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगस- | च परिगतानि-विषयीकृतानि द्रव्याणि यानि तानि तथा , माणा, सागरोदगसमाणा ॥ ३६४ ॥
जानात्यवायाऽऽदिना पश्यत्यवग्रहादिना । भ०८ श०२ उ० । मनने मतिः तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षस्यानि-मइप्रोग्गह-मत्यवग्रह-पुं०। भावावग्रहमेदे, प्राचा०२ श्रु०२ द्देश्यस्य रूपाऽऽदेरेव इति प्रथमतो ग्रहण परिच्छदेनमव- | चू० ७ अ० १ उ०। ग्रहः, स एव मतिरवग्रहमतिः, एवं सर्वत्र, नवरं तदर्थविशे
मइंद-मृगेन्द्र-पुं०। मृगेषु इन्द्र इव सिंह, वाच ।। षाऽऽलोचनमीहा, प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽवायः, अवग- | तार्थविशेषधरणं धारणति । उक्तं च-" सामन्नत्था
| मइगुण-मतिगुण-पुं । बुद्धिपर्याये, स०२ अङ्ग। बग्गह-णमोन्गहो भेयमग्गहणमिहेहा । तस्मावगमोऽवा-मइदंसण-मतिदर्शन-न० । मतेवुद्धर्मत्या वा दर्शनं प्रमेय
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महदंसण अभिधानराजेन्द्रः।
मउंद स्य परिच्छेदनं मतिदर्शनम् । बुद्धः परिच्छेदने, बुद्धया उ०२ प्रक० । “ मलमहल पंकमाला, धूलीमहला न ते नरा प्रमेयस्य परिच्छेदने च । भ० १५ श०।
मइला । जे पावकम्ममइला, ते मला जीवलोयम्मि ॥१॥" मइनाण-मतिज्ञान-नायतेऽनेनेति मानं मतिरूपं शान म- ध० र० १ अधि० १० गुण । दूषिते, कृशे च । अन्धकारे , तिक्षानम् । विशे। श्राभिनिवोधिकमाने, श्रा० चू० १ ० । "कालं मइलं जे पि य, वियाण तं अंधयारं ति।" सूत्र०१ प्रवाकर्मपं० सं० नंगा विशेद्रव्यभावेन्द्रियाऽऽलो- श्रु० ११०१ उ० । अस्वच्छ, “ मइल मलीमसं (९०१)" कमतिझानाऽऽवरणक्षयोपशमाऽऽदिसामग्रीप्रभवरूपाऽऽदि- पाइ० ना० २५६ गाथा । कलकल-गततेजसोः, देना०६ विषयग्रहणपरिणतिश्चावग्रहाऽऽदिरूपा मतिज्ञानशब्दवाच्य- | वर्ग १४२ गाथा। तामश्नुते । सम्म० २ काण्ड ।
| मइलण-मलिनन-न । मालिन्यकरणे, “परदारं , गच्छति विउ-मतिज्ञानवित-त्रि० । मतिज्ञानेन वैत्तीति म | ति मालि ति।" प्रश्न०२ आश्र० द्वार । स्था। तिज्ञानविद् । मतिज्ञानेन वेदितरि, विशे।
| मइलणा-मलिनना-स्त्री०। प्रतिसेवायाम् , प्रतिसेवनाया महनाणावरण-मतिज्ञानाऽऽवरण-न०ा मतिज्ञानमावियते ये-| एकाथिकान्यधिकृत्य-"पडिसेवणा मालणा।" ओघ०। न तत् मतिज्ञानाऽऽवरणम् । शानाऽऽवरणीयकर्मभेदे, पं० मइलारंभिण-मलिनाऽऽरम्भिन्-पु०। गृहस्थे, "करोति मलिसं०५द्वार।
नाऽऽरम्भी।" ध०२ श्राधः । महनाणिन)-मतिज्ञानिन--पुं० । आभिनियोधिकशानिनि,
| मइलिय-मलिनित-त्रि० । शरीराऽऽदिमलेन क्लेदिते, पिं०। विशे।
कठिनमलयुक्त च । भ०६ श०३ उ०। मइपत्तिया-मतिप्राप्तिका-स्त्री० । आचार्य्यरोहणात् निर्गत-|
| मइल्लिया-मतल्लिका-स्त्री० । तेतलिपुरस्थकनकरथनृपतेरमास्योद्देहगणस्य चतसृषु शाखासु स्वनामख्यातायां तृतीयशाखायाम् , कल्प०२ अधि०८ क्षण।
त्यस्य तेतलिपुत्रस्य पोट्टिलायां भाव्यामुत्पन्नायां स्वनाममइभंग-मतिभङ्ग-पुं०। मतेर्बुद्धेभङ्गो विनाशो मतिभः। बुद्ध
ख्यातायां दारिकायाम् , शा०१ श्रु०१४ प० । ( वक्तव्यता
'तेतलि' शब्द चतुर्थभागे २३५३ पृष्ठे गता।) विस्मृतौ, स्था० १० ठा।
मइविगप्पणाविगप्प-मतिविकल्पनाविकल्प-पुं । मतिबुद्धिमइभंगदोस-मतिभङ्गन्दोष-पुं०। मतेर्बुद्धेर्भङ्गो विनाशो विस्मृः। त्यादिलक्षणो दोषो मतिभङ्गदोषः । दोषभेदे, स्था० १० ठा०।।
स्तस्या विकल्पना विकल्पः क्लृप्तिभेदस्तथा। बुद्धेः क्लुप्तिभे
दे, औ०। मइमंत-मतिमत-पुं० । मननं मतिः सर्वपदार्थज्ञानम् , तद्विद्यते यस्यासौ तथा। केवलिनि,आचा० १श्रु०८ अ० १ उ०।
मइविहल-मतिविह्वल-पुं० । जयपुरनगरस्थस्य विक्रमसेननृआषासूत्र० सानान्विते,प्राचा०११०६ अ०४ उ०। मतिर
पतेः स्वनामख्याते मान्त्रिणि, दर्श० ३ तत्त्व । स्यास्तीति मतिमान् । विदुषि, प्राचा०११०१०५ उ० मइसंघडणा-मतिसंघटना-स्त्री० । मतेः-मतिझानस्य संघपश्चाधामतिमान् श्रुतसंस्कृतबुद्धिः। श्राचा० १७०२ टना रचना, मत्या बुद्धया वा संघटना रचना तथा ।मानस्य १०५ उ० । विवेकिनि, सूत्र० १७० ३ ० ४ उ० ।। रचनायाम् , बुद्धथा रचनायां च । सूत्र०१७०१०१उ०। प्राचा० । बुद्धिमति, दर्श० १ तत्त्व । मननं मतिः। सा | मइसंपया-मतिसंपद्-स्त्री०। संपर्दोदे, दशा०४ अ०। ध० शोभना यस्यासौ मतिमान् । प्रशंसायां मतुप् । शोभनम- | र०। स्था० । प्रव । ( मतिसंपद्भेदाः 'गणिसंपया ' शब्दे तियुक्ने, सूत्र. १ श्रु० १० अ०।
तृतीयभागे ८२६ पृष्ठे गताः) सोही देशी-सुरायाम, दे० ना०६ वगे ११३ गाथा। इसहिय-मतिसहित-त्रि०। मत्यनुगते, " मातसहित तिवा, मइय-मतिक-न० । उप्तबीजाऽऽच्छादनसाधने काष्ठमये वस्तु |
मतिअणुगतं ति वा एगटुं।" श्रा० चू० ११०। विशेष, मतिकमुप्तबीजाऽऽच्छादनम् । दश० ७०।मतिकं
तक मइसार-मतिसार-पुं० । जम्बूद्वीपाऽपरविदेहपुष्करविजयचयेन कृष्टा क्षेत्रं मृद्यते । प्रश्न० १ सम्ब० द्वार।
म्पानगरीस्थस्य सुरसिद्धनृपतेः खनामख्याते मन्त्रिणि,"पहले मइरा-मदिरा-स्त्री०। मद-किरन् । “माध्वकिं पानसं द्राक्ष,
जम्बूदीवे दीवे अवरविदेहे पुक्खरविजए चंपाए णयरीए सुर खार्जूरं तालमैक्षवम् । मैरेयं माक्षिकं टाकं मधूकं नारिके
सिद्धो नाम राया, मइसारो नाम मंती हुत्था।" ती०६ कल्प। लजम् ॥ १॥ मुख्यमन्त्रविकारोत्थ, मद्यानि द्वादशैव तु।"
महसूयग-मतिसूचक-पुं०। पापे, “रहसंच अणरहस्सं. कर इत्युक्ते मद्यसामान्ये, वाच० । वारुण्याम् , ग० १ अधिः ।
महसूयगो पुरिसो।"पं० भा०४ कल्प । पं० चू०। "कायंवरी पसरणा, हाला तह वारुणी महरा । " पाइ०
महहर-देशी-ग्रामप्रधाने, देना०६ वर्ग १२२ गाथा। ना०६४ गाथा । मत्तखजने च । रक्तखदिरे, पुं० । वाचा | मइहर-दशा मइरेय-मैरैय-न०। वारुण्याम् , “ मारे महुवारो, सीह | मई-देशी-भधे, दे ना ६ वर्ग ११३ गाथा।
सरो मह अवक्करसो (१०७)" पाइना०६४ गाथा। मउ-मृद-वि०।मृ-दुः। कोमले,अनु० । कर्म०। ज्योगकल्प। मइल-मलिन-त्रि० । मल-अस्त्यर्थे इनच् । मलीमसे, प्रश्न मउंद-मुकुन्द-पुं० । बलदेवे, “मउंदमहो वा ।” रा० । वाद्य३ आश्रद्वार। “मलो जस्स विज्जा तं मइल।" नि०यू० विशेषे च । “महामउंदसंठाणसंठिए।" भ०२ श०८ उ०। १ उ०। तं० । मलिनः शरीरेण वस्सर्वा मलीमसः । १. १] पश्चा० । प्राचा।
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( ३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मउच
द्राणायाम्, वाच० ।
33
मउ- देशी- दीने, दे० ना० ६ वर्ग ११४ गाथा । मउईया मृडीका स्त्री० मृदु-कन् श्रचा० १ श्रु० २ श्र० ५ उ० । मउड - मुकुट - न० । पुं० । “उतो मुकुलाऽऽदिष्वत्॥८१॥१०७॥ इति प्राकृतसूत्रेणादेरुकारस्यात् । प्रा० १ पाद किरीटे, शा० १ ० १ ० । सूत्र० | प्रब० । श्र० । मस्तकाऽऽभरणविशेषे च । रा० । प्रश्न० । ० म० । मुकुटं सुवर्णा 55दिमयशेखरक इति । श्र० । सूत्र० । विपा० । मुकुटाश्चतुरस्राः शेखरविशेषाः, किरोटास्त एवं शिखरजययुक्ताः । श्री० । प्रज्ञा० । जी० । कल्प० । श्रा० चू० । आ० म० भ० श्रअलिमुकुलिते उत्थिते बाहुद्वये च । अञ्जलिमुकुलितं बाहुद्वयमुच्छ्रितं मुकुट उच्यते, स च हस्तद्वयप्रमाणः । यदाह कृत्-" उस दोरवणीपमागतो हो मुणेयब्यो । " बृ० ४ उ० । ( ओोडेलकोश- गुजराती ) "कबरी कुंतलहारो, धम्मिल्लो के सहत्थो मउडो ( ३ ) " पाइ० ना० ५७ गाथा । किरीटे, " मडली मउडो किरीटो य ( २५१ ) पाइ० ना० ११६ गाथा । मउडट्ठाण – मुकुटस्थान- न० । मस्तकप्रदेशे च । स०३४ सम० मउदितसिर मुकुटदीप्तशिरम् पुं० मुकुटेन दीप्तं शिरो य स्य सः । तस्मिन् कल्प० १ अधि० ३ क्षण | मउडी - देशी- जूटे, दे० ना० ६ वर्ग ११७ गाथा । मउडीकड - मुकुटी (मौली) कृत- पुं० [अवद्धपरिधानकच्छे स० ११ सम० | उपा० । परिधानवासोऽञ्चलद्वयं कटीप्रदेशेनाऽ बलम्बयति, अग्रे पृष्ठे चोन्मुक्तकच्छो भवति । दशा० ६ ० । मण - मौन न० सुनेर्भावः मुनि- "ः पौरा358 च” ॥८|१|१६२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेणौकारस्य श्रउरादेशः । प्रा० १ पाद । वाग्व्यापारराहित्ये, वाच० । मौनं वाक्संयमः । श्रा० म०१ अ० । श्राचा०|व्य०। प्रति० । श्राव०। सूत्र०] स्था०| "मूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजनम् । सम्ध्यादि कम्मै पूजां च प्रकुर्यात्पच मीनचान् ॥ १ ॥ " ५०२ अधि० मुनेरिदं मीनं, सुभावो वा मौनम् । श्राचा० १ ० श्र० ४ उ० । संयमे, श्राचा० १ श्रु० २ श्र० ६ उ० । सूत्र उत्त० । संयमानुष्ठाने, श्राचा० १०५ श्र० ३ उ० । मौनमशेषसायद्यानुष्ठानवर्जनम् श्राचा० १ ० ४ ०३३० । “सुलभ वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुलेप्यप्रवृत्तिस्तु योगनां मौनमुत्तमम् । " अष्ट०१८ अष्ट० । मुनीनामाचारे, उत्त० १४ श्र० । साधुधर्मे, उत्त० १४ श्र० । सम्यक्त्वे, ध० १ अधि० । प्रति० ॥ मुनेः कम्म मौनम् । तच्च सम्यरूचारि श्रमिति । उत्त० १५ श्र० ।
,
।
।
जं मोणं तं सम्मं, जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति । निच्छयो इयरस्स उ, सम्मं सम्मत्तहेऊ वि ॥ ६१॥ मन्यते जगतत्रिकालावस्थामिति मुनिस्तपस्वी, तद्भायो मौनमविकलं मुनिवृत्तमित्यर्थः यन्मीनं तत् सम्व सम्प त्वं यत् सम्यक्त्वं तदिह भवति मौनमिति । उक्तं 'जं मोग ति पासहा, तं सम्म ति पासहा, जे सम्म ति पासा मोति पासा।" इत्यादि नि अपतः परमार्थेन निश्चयनयमतेनैव एतदेवमिति" जो
चाचा
मउयहिपय
जहवार्य न कुरा मिच्छतिम्रो को यमितं परस्य सकं जमायो ॥ १ ॥ " इत्यादिवचनप्रामाण्याद् । इतरस्य तु व्यवहारनयस्य सम्यक्त्वं, सम्यक्त्वहेतुरप्यईच्छाशनमीत्यादि, कारणे कार्योपचारात् । भ्र० ।
तथा
जं सम्मं ति पासहा, तं मोखं ति पासहा, जं मोखं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ॥
( समं ति पासह इत्यादि) सम्यगिति सम्यग्ज्ञानं स म्यत्वं वा तत्सहचरितम् अनयोः सह भाषादेकग्रहले जितीयहणं न्याय्यं यदिदं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वेत्येतत्पश्यत तद मुनेभयो मौनं सेवमानुष्ठानमित्येतत्पश्यतः यच्च मौनमिस्येतत्पश्यत तत् सम्यग्ज्ञानं नैश्वयिकसम्यक्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरतिफलत्वात् । सम्यकत्वस्य चाभिव्यक्रिकार सत्वात्सम्यक्त्वज्ञानचरणानामेकता यचमेवेति भावार्थः । सर्वशोक्ले प्रवचने च । श्रचा० १ ० ५ श्र० ३ उ० । | मउणचरय - मौनचरक पुं० मीनं-मौनवतं तेन चरति मी. नचरकः । स्था० ५ ठा० १ उ० । परिवाजकभेदे, चौ० । मउरापय-मौनपद-न० मुनीनामिदं मीनम् । तच्च तत्पदं च मौनपदम् । संयमे, सूत्र० १ ० १३ श्र० । मणिंद - मौनीन्द्र- पुं० । वीतरागे, वीतरागप्रवचने च । न० ।
द्वा० ८ द्वा० ।
मउसिंदपय - मौनीन्द्रपद - १० । संयमे, सूत्र० १० २०२ उ० । सर्वक्षप्रणीते मार्गेच । सूत्र० १० १३ श्र० । मउय - मृदुक - त्रि० । कोमले, श्राचा० १ श्रु० ५ ० ६ उ० । श्री० । व्य० ॥ भ० रा० । श्राव० । उत्त० । जी० । मृदुकं मार्दवगुणोपेतमकर्कशम् । जं० २वक्ष० । ० । श्री० । मृदुनेष्टस्वरेण । गेयदुने एस्वरेण यज्ञीयते सम्मृदुकम् अनुः । मधुरस्वरे - भेदे च । स्था० ७ ठा० । "कोमलय सुहफंसं, सोमालं पेलवं मउयं (१५६) " पाइ०ना० ८८ गाथा ।
मउयत्तया - मृदुत्व - न० । " त्वादेः सः " ॥ ८।२ । १७२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण क्त्वान्तात्तल् । मार्दवे, प्रा० २ पाद । मडयफासणाम- मृदुकस्पर्शनामन् - १० । नामकम्मैमेवे, पद् दयाज्जन्तुशरीरं इंसकताऽदिवन्दु भवति तन्दुस्पर्शनाम । कर्म्म० १ कर्म० ।
मउयफासपरिणय- मृदुकस्पर्शपरिणत त्रि०। हंसरुताऽदिकत्स्पर्शपरिणतभेदे, प्रज्ञा० १ पद । मउयरिभियपयसंचार- मृदुकरिभितपदसंचार मृदु मृदुना स्वरेण युक्तं न निष्ठुरेण तथा यत्र स्वराक्षरेषु घोलनास्वरविशेषेषु संचरन् रागे तीव्रता प्रतिभासते स पदसंचारो रिभित उच्यते मृदुरिमितः परेषु गेयनिवजेषु संचारो यत्र रोये तत् सुदुरिभितपदसंचारम्यमे जी० ३ प्रति० ४ अधि० । स्था० । मडपहियय-मृदुकहृदय-पुं० कुण्डलपथकुण्डलपर्व तस्थे स्वनामच्या नागकुमारे द्वी० ।
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मडर अभिधानराजेन्द्रः।
मंस्वावंत मउर-मुकुल-पुं०म० उतोमुकुलाऽऽदिष्वत्" ।८।१।१७०॥ | दृशे, "मयूरचन्द्रकाऽऽकारं, नीललोहितमामुरम् । प्रपश्यइति प्राकृतसूत्रेणाऽदेरुकारस्याऽत्वम् । प्रा०१ पाद । कुछ- न्ति प्रदीपाऽऽदे-मण्डलं मन्दचक्षुषः ॥१॥" पो०५विवा मले, कलिकायाम् , औ० । “ कुंचल-कुंपल-कोरय
मऊरापिच्छ-मयूरपिच्छ-न । मयूरपुच्छे,“ मोरपिच्छकयमुछारय-कलित्रा उ मउलं ति (८८)" पाइ० ना० ५४
द्धयं" कल्प० १ अधि० ३ क्षण। गाथा । रा०। देहे, आत्मनि च । वाच० । अपामार्गे, देख्ना० ६ वर्ग ११८ गाथा।
मऊरसिहा-मयूरशिखा-स्त्री०। मयूरस्येव शिखाऽस्याः। स्वमउल-मुकुल-पुं०। न० । 'मउर' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद ।
नामख्याते महौषधिभेदे, ती० ६ कल्प । मयूरचूडाऽऽदयो:
प्यत्र । वाच०। मउलि-मौली-पुं० । स्त्री० । मूलस्यादूरभवः इश् । चूडा.
मऊह-मयूख-पुंoामाङ्-उख मयाऽऽदेशः। “न वा मयूख-लकयाम्,किरीटे,"अउः पौराऽऽदौ च"॥८।१।१६२॥ इति
ण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकुमार-कुतूहलोप्राकृतसूत्रेणीकारस्याऽउरादेशः। प्रा०१ पाद । मौलिः शेखर
दूखलो-लूखले" ॥८१३१७१॥इति प्राकृतसूत्रेणाऽऽदेः स्वरस्य इति । स्था० ८ ठा० । मौलिर्मुकुटविशेषः । उपा० २
परेण सस्वरव्य अनेन सह श्रोद्वा । प्रा० १ पाद । विपि, अ० । मौलिः शिरोवेष्टनविशेषः । ध०२ अधिः । संयतके
किरणे, शिखायाम्, शोभायां च । वाच० "अंसू रस्सी शेषु च। अशोकवृक्ष, पुं०। भूमी, स्त्री०। डीए । वाच।
पाया, करा मऊहा गभत्थिणो किरणा।" (७३) पाह० ना. मउलि (ण)-मुकुलिन-पुं०। मुकुलं फणाविरहयोग्या शरीरावयवविशेषाऽऽकृतिः, सा विद्यते यस्य स मुकुली। फणा, | मं-मा-श्रव्य "एवं-परं-सम-ध्रुवं मा-मनाक् एम्ब पर स. करणशक्निविकले अहिभेदे, प्रज्ञा०१ पद । प्रश्न । किरीटे,
माणु ध्रुव मं मणाउं" |४१८॥ इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे "मउलो मउडो किरीडो य (२५१)" पाइ० ना० ११५ गाथा ।
मा इत्यस्य में इत्यादेशः । प्रा० ४ पाद । निषेधे, वाच । से किं तं मउलिणो ? । मउलिणो अणेगविहा पएणत्ता । तं |
| मंकारअणुओग--मकारानुयोग-पुं० । अनुस्वारोऽलाक्षाणको जहा-दिब्बागा, गोणसा, कसाहीया, वइउला, चित्तलिणो, मकर
| मकार इत्यर्थः, तस्यानुयोगो मकारानुयोगः । शुद्धवागनुयोमंडलियो,मालिणो, अही, अहिसलागा, वासपडागा, जे गभेदे, मकारानुयोगो यथा-" समणं वा महाणं व ति।" यावरणे तहप्पगारा, सेत्तं मउलिणो॥
सूत्रे माशब्दो निषेधे । अथवा-"जेणामेव समणे भगवं
महावीरे तेणामेवेति ।" अत्र सूत्रे आगमिक एव, येनैवेत्यएतेऽपि लोकतोऽवसेयाः। प्रशा० १ पद । जी० ।
नेनैव विवक्षितप्रतीतेः । स्था० १० ठा० । मउलिय-मुकुलित-त्रि० । मुकुलं-कुडमलम्-कलिका संजाता
मंकुणहत्थि ( )-मत्कुणहस्तिन--पुं० । गण्डीपदजन्तुभेदे, अस्येति मुकुलितः। कलिकोपेते, रा०। श्राव० । जं०। मुकुला
| प्रज्ञा० १ पद। 5ऽकृतीकृते च । औ०। "अंजलिमडलियहत्था।" श्रा०म०१ अ०। “संवेल्लिअंमउलिअं।" पाइ० ना०१८२ गाथा ।
मंख-मख-पुं०। चित्रफलव्यग्रकरे भिक्षुकविशेषे, भ० १५ मउली-देशी-हदयरसोच्छलने, दे ना०६ वर्ग ११५ गाथा ।
श। मङ्खाचित्रफलकहस्ता भिक्षुका गौरीपुत्र इति प्रसि
द्धाः। कल्प०१ अधि०५ क्षण। अनु० । शा। प्रश्न। जं०। मऊ-देशी-पर्वते, दे० ना० ६ वर्ग ११३ गाथा ।
रा०। श्रीश्रा० म० । श्रा० ० । पृ० । स्था० । मडवः मऊर-मयूर-पुं० । मी-उरन् । लोमपक्षिभेदे, प्रशा० १ पद ।
केदारको यः पीठमुपदर्श्य लोकमावर्जयति । पि० । अण्डे, षो । मयूराः स्वकलापवर्जिता इति । प्रश्न० १ आश्र०
दे० ना०६वर्ग ११२ गाथा। द्वार । प्रा० । रा०। स्था० । “मोरं केकाइराणं ।" अनु० । मो
| मखत-नक्षत-त्रि० । म्रक्षणं कुर्वति, नि०पू०१७ ३० । रग्गावाह वा । रा०। प्रशा०। जं० । खियां ङीष् । विद्याभेदे मंखपेक्खा-मखप्रेक्षा-स्त्री० । ये चित्रपट्टिकाऽऽदिहस्ता च । सा हि मयूरीरूपेण प्रतिवादिप्रयुक्ता वादिनमुपसर्ग- भिक्षां चरन्ति ते मयाः , तेषां प्रेक्षा मलप्रेक्षा । मङ्गप्रेक्षणे, यतीति । कल्प०२ अधि०८ क्षण । श्रा०क०। अनु०। जी०।। जी०३ प्रति ४ अधिक। मऊरंग-मयराड-पुं०।निधिस्थापके स्वनामख्याते राजनि, मंखलि-मड-खलि-पुं०। गोशालकपितरि, मजस्वल्यभिधाने नि० चू०१३ उ०।
मङ्खे , स्था० १० ठा० । " गोसालस्स मस्खलिपुत्तस्स मऊरंगलिया-मयूराङ्गचलिका-स्त्री० । अाभरणविशेष, मंखलिणामे मंखे पिया होत्था।" भ० १५ श० । कल्प। व्य० ३ उ०।
श्रा० चू० । श्रा० म०। संथा। भ०। मऊरग-मयूरक-न० । स्वनामख्याते सनिवेशे, यत्र कुण्डपु- मंखलिपुत्त-मङ्खलिपुत्र-पुं० । मङ्खल्यभिधानमहवपुत्रे रान्निगत्य भगवान् महावीरो गतः । स्था०१० ठा। कराड- गोशालके, संथा० । भ०। ले, बृ०४ उ०। मयूरपिच्छनिष्पन्ने संस्तारकाऽऽदौ च । त्रि०। मंखसिप्प-म-खशिल्प-पुं० । मजाकलायाम् , “मंसिप श्रप्राचा०२ श्रु०१०२ १०३ उ०।
हिजिनो।" प्रा०म०१०। मऊरचंदगागार-मयुरचन्द्रकाऽऽकार-त्रि० । मयूरचन्द्रकस- | मंखावत-प्रक्षयत-त्रि० । म्रक्षण कारयति, नि. चू०१७ ३० ।
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मंग अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल मंग-महा-पुं० । मङ्ग्यते-प्राप्यते स्वर्गोऽपवर्गो वाऽनेनेति तत्थ पुण असब्भावे, मंगल ठवणागतो अक्खो ॥७॥ मनः।"पुनानि यः" ॥५।३।१३०॥ इति (सूत्रेण ) करणे जे चित्तमित्तिविहिया, उघडादी ते य हंति सम्भावे । घम् । धर्मे, श्रा० म०१ अ० । विशे० । दर्श० । मंगरिया-मङ्गरिका-स्त्री० । वाद्यभेदे, अष्टशतं मङ्गरिकाणाम् .
तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु ॥5॥ अष्टशतं मङ्गरिकावादकानाम् । रा०।
या मङ्गलमिति स्थापना सद्भावतोवा सद्भूताऽऽकारनिवेशमंगल-मङ्गल-पुं० । मगि अलन् । स्वनामख्याते अङ्गारके ग्र. नेन,असतो वा सद्भूताऽऽकारस्याऽभावतो विहिता सा स्थाहे, स्था०६ ठा। वाञ्छितावाप्ती, कल्प०१अधि०१क्षण । पनामङ्गलम् । तत्र पुनरसद्भावे स्थापनामङ्गलं स्थापनागतोऽकल्याणे, पश्चा०८ विव० । मङ्गलं श्रेयः कल्याणमिति ।
क्षः। उपलक्षणमेतत् वराटकाऽऽदिवा। इयमत्र भावना-अपा० । सदृशे , दे० ना०६ वर्ग ११८ गाथा। प्रशंसावाक्ये , क्षवराटकाऽऽदिषु या मङ्गलमिति स्थापना विहिता न तत्र सूत्र०१श्रु०७०। गानविशेष, पश्चा०८ विव०। भ०। कश्चित् मङ्गलानुगत श्राकार इत्यसद्भावतः स्थापनामङ्गलम् । शा। विघ्नक्षये, मङ्गलं विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गलम् । स्था० । ये तु चित्रभित्तीचित्रकुड्ये विहिता घटाऽऽदयः,आदिशब्दात् ३ ठा० १ उ०। दुरितोपशमहेतौ स्वस्तिकादिके , श्री०।। स्थालाऽऽदिपरिग्रहः, ते सद्भावे सद्भावतः स्थापनामालानि नि। पञ्चा०म० दशा० । रा० । प्रश्न०। चं० प्र०। भवन्ति । तत्र ये देवलोकेषु चित्तभित्तौ विहिता घटाऽऽदय. सिद्धार्थदध्यक्षतदूर्वाङ्कराऽऽदिके, औ० । नि० भ० । विपा।
स्ते स्थापनामङ्गलानि यावत्कथिकानि भवन्ति, अर्थादापत्रं रा० । शा० । मङ्गलानि च सुवर्णचन्दनदध्यक्षतर्वासिद्धार्थ
यानि मनुष्यलोके तानीत्वराणि यावत्कथिकानि नाम शाश्वकाऽऽदर्शस्पर्शनाऽऽदीनि । सूत्र०२ श्रु० २ १० । पञ्चा।
तिकानि, इत्वराण्यशाश्वतानि । सियकमलकलससुत्थिय-नंदावत्तवरमल्लदामाणं । ।
द्रव्यमङ्गलमाहतेसि पि मंगलाणं, संथारो मंगलं अहियं ॥१५॥
उत्तरगुणनिप्फना, सलक्खणा जे उ होति कुंभाई। शितः-शुभ्रः कलशो विवाहाऽऽदावुत्सवे यो मराड्यते तस्यैव मालिक्यत्वाद् ग्रहणं, शितकलशश्च कमलं च स्वस्तिकश्च न- तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा ॥६॥ म्दावश्च वरमाल्यदामच सितकलशकमलस्वस्तिकनन्दाव
इह उत्तरगुणनिष्पन्ना मूलगुणनिष्पन्नापेक्षया, ततः प्रथतवरमाल्यदामानि तेषाम् , एतानि च लोके माङ्गल्यतया रूढा
मतः तद्भाव्यते। मूलो नाम-पृथिवीकायाऽऽदिजीवस्तस्य गु. नि तथापि तेषामपि मङ्गलानांमध्ये संस्तारकोऽधिकं मङ्गलमि
णात्-प्रयोगात् पुद्गलानां द्रव्याऽऽदित्वेन व्यापारणात् निष्पति भावः। संथा।
नं मूलगुणनिष्पन्नं द्रव्याऽऽदि,तस्मादुत्तरगुणेन परापरप्रयोगेतह मंगलाइ सोत्थिय-सुवएणसिद्धत्थगाईणि ॥२१६।।।
ण चक्रदण्डसूत्रोदकाऽऽदिपुरुषप्रयत्नेनेत्यर्थः। ये निष्पन्नाः समङ्गलानि नाम-स्वस्तिकसुवर्णसिद्धार्थकाऽऽदीनि पूर्व लक्षणा-लक्षणसम्पन्ना अच्छिद्रा-श्रखण्डा वारिपरिपूर्णाः देवैर्भगवतो मङ्गलबुद्धया प्रयुक्तानि ततो. लोकेऽपि तथा पद्मोत्पलप्रतिच्छन्ना इत्यादिलक्षणोपेताः कुम्भाऽऽदयः, आदि. प्रवृत्तानि । श्रा० म०१ अकादश मा भूद् गलो विघ्नो गालो शब्दात्-स्थालाऽऽदिपरिग्रहः । तत् द्रव्यमङ्गलं भवति, यथा वा नाशः शास्त्रस्येति मङ्गलम् । आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। लोके अष्टौ मङ्गलानि । वृक। दर्श। ग्रन्थाऽऽरम्भाऽऽदी विघ्नोपशमाय करीब्ये इष्ट
गंतियं अणिचं, तियं च दव्वे उ मंगलं होइ । देवतानमस्कारे , सूत्र०१ श्रु०१०१उ० । पञ्चा० । मङ्गलशब्दप्ररूपणामाह
तधिवरीयं भावे, तं पिव नंदी भगवती उ ॥१०॥ नाम ठवणा दविए, भावम्मि य मंगलं भवे चउहा । तत्पुनरनन्तरोक्नं द्रव्यमङ्गलमनेकान्तिकमनात्यन्तिकं च भएमेव होइ नंदी, तेसिं तु परूवणा इणिमा ॥ ५ ॥
वति । तथाहि-न पूर्णकलश एकान्तेन सर्वेषां मङ्गलाय, चौमङ्गलं चतुर्धा-चतुःप्रकारं भवति । तद्यथा-नाममङ्गलम् ,
रस्य कर्षकस्य च शकुनतया रिक्तं घटं प्रशंसति शकुनविदो, स्थापनामङ्गलम् , द्रव्यमङ्गल , भावमङ्गलं च । एवमेव
गृहप्रवेशे पुनः पूर्णम्। उक्नं च-'चोरस्स करिसगस्स य, रिसं नामाऽऽदिभेदेन चतुःप्रकारो भवति नन्दिः । तेषां च-नाम
कुडय जणो पसंसेइ । गेहपवेसे भन्नइ, पुनो कुंभो पसत्थो उ मङ्गलाऽऽदीनामियं वक्ष्यमाणस्वरूपा प्ररूपणा ।
॥१॥"तत एवमनैकान्तिकम् । नाप्यात्यन्तिकं,यथा कोऽपि शोतामेवाऽऽह
भनैर्द्रव्यमङ्गलैर्विनिर्गतस्तेन चाग्रे किश्चिदशोभनं दृष्ट, येन ता
नि सर्वाण्यपि प्राकृतानि प्रतिहतानि, तत एवमनात्यन्तिकएगम्मि अणेगेसु य, जीवद्दव्वे य तव्विवक्खे वा।
मिति । उक्नं द्रव्यमङ्गलम् । अधुना भावमङ्गलमाह-तद्विपमंगलसन्ना नियता, तं सन्नामंगलं होइ ॥६॥
रीतमैकान्तिकमात्यन्तिकं च भावे भावविषयं मङ्गलम् । तथा एकस्मिन् जीवद्रव्ये तद्विपक्षे वा अजीवद्रव्ये , अनेकेषु | हि-न तत् भावमङ्गलं कस्यचिद्भवति, कस्यचिन्न भवतिया जीवद्रव्येष्वजीवद्रव्येषु वा या मङ्गलमिति संशा नि किंतु-सर्वस्याऽविशेषेण भवतीत्यैकान्तिकम् । न च केनाप्ययता-नियमिता तत् “नामनामवतोरभेदोपचारात् । " न्येन प्रतिहन्यते, इत्यात्यन्तिकं, तश्च भावमङ्गलं भगवान् संशामङ्गलं-नाममङ्गलं भवति । उक्तं नाममङ्गलम् ।
नन्दिर्वक्ष्यमाणोऽवगन्तव्यः । गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् । स्थापनामङ्गलमाह
वृ० १ उ०१ प्रक०। श्रा०म० । श्रोघ० । श्रा०पू० । जा मंगल नि ठवणा, विहिता सब्भावतो व असतो वा।। दशा० । प्रहा। विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मा.
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( ६ ) मंगल अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल लबुद्धिपरिप्रहाय स्वतो मालभूतस्याप्यस्याऽऽदिमध्यावसा- कामस्य, विपरीत तुरीवेमाऽऽधुपकरणोपादाने, सर्वथा नेषुमालमभिधातव्यम्, आदिमङ्गलं विध्नेन शाखपारग- चक्रदण्डसूत्रोदकाऽऽदीनामुपकरणानामभावे या घटः । मनार्थम् , मध्यमालम्-अवगृहीतशास्त्रास्थिरीकरणार्थम्- इतरथा-अविपरीतोपकरणसद्भावे सिध्यति, यथा घट अन्तमङ्गलम्-शिष्यप्रशिष्यपरम्परया शाखास्याऽव्यवच्छेद- साधयितुकामस्य यथावस्थितानां चक्रदण्डसूत्रोदकाss.. नार्थम् ।
दीनामुपादाने घटं, न सिध्यन्ति च मङ्गलमन्तरेण उक्तञ्च (भाष्यकारैः)
विघ्नोपशमाऽऽदयो भाषा इति मालोपादानम्। पुनरप्या "तं मंगलमाईए, मज्झे पज्जतए य सत्थस्स ।
ह-यदि शाखस्याऽऽदिमध्यावसानेषु मालं ततः सापढम सत्थत्यादि-ग्धपारगमसाय निद्दिढें ॥१॥ (१३) । मादिदमायातमपान्तरालवयाऽमलामिति। तस्सेवं य थेजस्थे, मज्झिमयं अंतिम पि तस्सेव ।
प्रवाहअब्बोच्छित्तिनिमितं, सिस्सपसिस्साइवंसस्स HRA (१४)"
बइवि य तिवाणकयं, तह वि हु दोसो न वाहए इयरो । प्रज्ञा०१पद् ।
तिसमुन्भवदिढुंता, सेसं पि हु मंगलं होई ॥ २२ ॥ तत्र परः प्रश्नयति-किमर्थ मालग्रहणमित्याह
यद्यपि त्रिषु स्थानेष्वादिमध्यावसानरूपेषु कृतं माल तथा विग्धोवसमो सद्धा, भायर उवयोग निजराऽधिगमो। पि इतरोऽपान्तरालद्वयो मङ्गलत्व(त्व)लक्षणो दोषो न वाधते, भत्ती पभावणा विय,निवनिहिविजाइ अाहरणा॥२०॥
तस्यैवाभावात् । कथमभाव इति चेदत पाह-(तिसमुम्भवे
त्यादि) त्रिभ्यो गुडसमितिघृतेभ्यः समुद्भवो यस्य स मोमाले प्रकृते सति रोगाऽऽदिविघ्नोपशमो भवति, तदुप
दकः,तदृष्टान्तात् ,शेषमपि (छ) निश्चित मङ्गलं भवति । इयशमे च प्रतिबन्धकाभावात् महता प्रतिवन्धेनाऽऽचार्येणा
मत्र भावना-मोदक इव सकलं शास्त्रं द्विधा विभज्यते, नुयोगः प्रारभ्यते, तथाऽनुयोगप्रारम्भेच शिष्यस्य शास्त्रग्र
तत्राऽऽदिमो भाग आदिमङ्गलेन मजलीकृतो,मध्यमो मध्यमहणे महती श्रद्धा उपजायते, श्रद्धावतच शास्त्रावधारणे म
अलेनान्तिमोऽन्तिममलेन, ततः कुतोऽपान्तरालद्वयाऽमनहानादरः, कृताऽदरस्य शास्त्रविषयेऽनवरतमुपयोगो, यदा
लत्वप्रसङ्गः । स्यादेतत्, यदिदं शास्त्रमारब्धमेतदादिमध्यावयदा चोपयोगस्तदा सम्यग्ज्ञानत्वात् महती सानाऽऽवरणी
सानेषु सर्वाऽऽत्मना मङ्गलं, ततो यद्यन्यत्तस्य मालमुपादीयस्य कर्मणो निर्जरा,मानाऽऽवरणकर्मनिर्जरणाच स्फुटःस्फु
यते तदाऽनवस्थाप्रसङ्गः । कृतेऽपि मगले पुनरन्यतम माटतरः शास्त्रस्याऽधिगमः,अधिगतशास्त्रस्य च मुरौ शारे प्र
लमुपादेयं, विशेषाभावात्तत्राप्यन्यदित्येवं मलाऽऽनन्त्यप्रसबचने च निकृत्तिमा भक्तिरुवासति,ततःप्रभावना तां हवा क्तः । अथ नन्दी मङ्गलं शास्त्रं पुनरमजल केवलं तमन्चा मगम्येषामपितथा श्रद्धाऽऽदीनां करणात्,यदि पुनर्न क्रियतेमाल
लीक्रियते, नन्वेवं तर्हि यदा नन्दीव्याख्यानमकृत्वा शास्त्रं तत एषां विघ्नोपशमाऽऽविभावानाम् अप्रसिद्धिः अत्रोदाहर
व्याख्यातुमारभ्यते तदा शास्त्रम् अमङ्गलत्वाच्च न शान,शापानि रथन्तानृपनिधिविद्याऽऽदयः। प्रादिशब्दाद्योगो,मन्त्रा
नाभावाच्च न कर्त्तव्यस्तस्यामुपयोग इति । श्व परिगृह्यन्ते।तत्रेयं नृपदृष्यन्तस्य भावना-यथा कोऽपिपुरु
अनाऽऽहषःकार्यार्थी राजानमधिगन्तुकामो मङ्गलभूतानि पुष्पाऽऽदीन्यादाय तत्समीपमुपगच्छति । उक्तं च-"पुष्फपुडिया' पह,
नविय हहोयऽणवत्था,न विय हुमंगलममंगलं होइ। गोरसघडयो करे कज्जाई। मणिबंधम्मि पयलिते, सानुऽग्गह अप्पपराभिब्वतिया, लोणुण्हपदीवमादि व्व ॥ २३॥ होति सव्वगहा ॥१॥" उपेत्य चाञ्जलिं करोति, पादयो- नापि च (हु) निश्चितं भवत्यनवस्था, यतो नन्दी शास्त्रादनश्व प्रणिपतति, ततो राजा तुष्यति, तुष्टे च तस्मिन् य- र्थान्तरभूता, शास्त्रं च स्वतः समस्तमालं, न च तस्य मङ्गस्तदधीनोऽर्थः स सिद्धयति । अथैवमुपचारं न करोति, लकृतस्य सतोऽन्यत् मङ्गलमुपादीयते, ततो नानवस्थातदान तुष्यति, तोपाभावे च तंदधीनस्याऽप्रसिद्धिः , एवं प्रसङ्गः । यदापि नन्द्या व्याख्यानमकृत्वा शास्त्रमारभ्यते,त. निधिमुत्खनितुकामो विधा मन्त्रं वा साधयितु मो यदि दाऽपि तच्छास्त्र मङ्गलमिति तदमङ्गलं न भवति । एवं ताद्रव्यक्षेत्रकालभावयुक्तमुपचारं करोति,तद्यथा-द्रव्यतः-पुष्पा- वनन्द्या अनर्थान्तरतायाममङ्गलत्वमनवस्था च परिहता।
विषु, क्षेत्रतः-श्मशानाऽऽदिषु, कालतः-कृष्णपक्षचतुर्वेश्या सम्प्रत्यर्थान्तरत्वमधिकृत्य परिह्रियते-यद्यपि शास्त्रादर्थान्तदिषु, भावतः-प्रतिलोमानुलोमोपसर्गसाहिते, तदा निधि वि
रभूता नन्दी तथाऽप्यमङ्गलत्वमनवस्था च न भवति। कथमिचां मन्त्रं वा साधयति । द्रव्याऽऽयुपचाराभावे ते निध्यादयो
त्याह-(अप्पपरेत्यादि) नन्द्या आत्मनाऽपि मालशास्त्रमसिध्यम्ति, तस्माद्यो यत्रोपचारः स तत्र कर्तव्यः ।
मपि च मङ्गलीकरोति । शास्त्रमप्यात्मनाऽपि मङ्गलं नन्दीएतदेवाऽऽह
मपि च मङ्गलीकरोति । एवमात्मपराभिव्यक्तिता द्वयोरपि जो जेण विणा अत्थो, न सिझई तस्स तन्विहं करणं ।।
मङ्गलयोरेकीभूतयोः सुष्टुतरो मङ्गलभावो भवति । कथमिविवरीय अभावेण य,न सिझई सिझई इहरा ॥ २१ ॥
घेत्यत आह-“लोणुराहपदीवमादि व्य ।" यथा योर्लय
खयोरेकीभूतयोः सुष्ठुतरो लवणभावो, योर्वा उष्णयोयोऽर्थो येन विना नसियति तस्य निष्पत्तये तद्विधं करण- रेकत्रमिलितयोः सुष्ठुतरभावो, यथा च द्वयोः प्रदीपयोः मवश्यमुपादातव्यम् । यथा घटं साधयितुकामेन चक्रदण्डम- समीचीनतरः प्रकाशभावः, आदिशब्दात्-मधुरशीतलस्नेहात्पिण्डाऽऽदिकम् । यतो विपरीतैःकरणैः सर्वथा करलाना- ऽऽदिद्रव्याणां परिग्रहः। एवमिहापि द्वयोर्मङ्गलयोरेकीभूतयोः मभावनच, साऽधिकतोऽर्थो न सिस्थति यथा घटं साधयितु- सुष्ठुतरोमालभावः । स्यादेतत्। एवमपि प्रसजत्यनवस्था,
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मंगल अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल तीयाऽऽदिमलोपादाने सुष्ठुतरमङ्गलभावोपपत्तेः, न प्रसज | मजलं तस्यान्यमङ्गलकरणाभावत इयं नेष्यते। तत्र दूषणमाहति, प्रयोजनाभावात्तथालोकव्यवहारदर्शनात् । तथाहि-लोके
(न मंगलामिति) शास्त्रमङ्गलीकरणार्थमुपातमङ्गलस्याऽ. कस्यचिदातुरस्य शर्करापलद्वयमौषधं केनाऽपि भिषग्वरेणो- नवस्थाभयेनाऽन्यमङ्गलाकरणेन तद् मगलं न स्यात्, पादेशि, तत्र यद्यपि तृतीयाऽऽदिशर्करापलप्रक्षेपे विशि- अन्यमालाभावात् , शास्त्रवत् । इत्यर्थः । इदमुक्तं भवतिटतमो मधुरभावो भवति, तथाऽपि तन्न प्रक्षिप्यते, प्रयोज- यदि मालस्याऽपरमन्गलविधानामावेनाऽनवस्थानेष्यते त. नाभाषात्, एवमिहाप्यन्यस्तृतीयाऽऽदिकं मङ्गलं नोपादीयते- हि यथा मङ्गलमपि शास्त्रमन्यमङ्गलेऽकृते मङ्गलं न भ. प्रयोजनामावदिति । वृ० १ उ०१ प्रक० ।
वति, तथा मङ्गलमप्यन्यमङ्गलऽविहिते मगलं न भवेत, अथ तृतीयं मङ्गलद्वारमाधिकृत्याऽऽह
न्यायस्य समानत्वात् । तथा च किमनिष्टं स्यात्? इत्याह-प्रबहुविग्घाइँ सेयाइँ, तेण कयमंगलोवयारेहिं ।
मगलता मङ्गलाभावः-शाने यद् मङ्गलमुपातं तदन्य,
मङ्गलशून्यत्वाद् न मङ्गलम् , तस्य च मालत्वाभावे शा. घेतब्बो सो सुमहा-निहि व्ब जह वा महाविजा॥१२॥
स्त्रमपि न मङ्गलम् , इति व्यक्त एव मालाभाव इति भावः । "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामंपि।" इति वच
वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः, अनवस्था, मङ्गलाभावो वेत्यर्थः । नाद् येन बहुविनानि श्रेयांसि भवन्ति, तेन कारणेन परमश्रे
इति गाथाऽर्थः ॥ १५॥ योरूपत्वात् कृतमङ्गलोपचारैरेव स आवश्यकानुयोगो ग्र-1
अनोत्तरमाहहीतव्यः । किंवत् ? , इत्याह-शोभनमहारत्नाऽऽदिनिधिवद्
सत्थत्थन्तरभूय-म्मि मंगले होज्ज कप्पणा एसा । महाविद्यावद् वा । इति गाथाऽर्थः ॥ १२ ॥
सत्थम्मि मंगले किं,अमंगलं काऽणवत्था वा ॥१६॥ क्व पुनस्तन्मङ्गलं शास्त्रस्येष्यते ?, इत्याह
शास्त्राऽऽदावावश्यकाऽऽदेरर्थान्तरभूते भेदवति मङ्गले उपातं मंगलमाईए, मज्मे पजंतए य सत्थस्स । दीयमाने भवेद्-घटेत परेण विधीयमाना 'मंगलकरणा सत्थं पढम सत्थत्थाऽवि--घपारगमणाय निद्दिढे ॥१३॥ न मंगलं' इत्यादिका कल्पना-दोषोत्प्रेक्षालक्षणा; शास्त्रे त्या
वश्यकाऽऽदिके परममङ्गलस्वरूपेऽभ्युपगम्यमाने,तद्भिन्ने म. तद मङ्गलं शास्त्रस्याऽऽदौ क्रियते,तथा मध्ये, पर्यन्ते चेति ।।
गले चाऽनुपादीयमाने हन्त ! किममगलम्, का वाऽनवश्रथैकैकस्य करणफलमाह-प्रथममङ्गलं तावच्छास्त्रार्थ
स्था त्वया प्रेर्यते ? तस्मादाकाशरोमन्थमेव परस्य दोघोडास्याऽविघ्नेन पारगमनाय निर्दिष्टम् । इति गाथाऽर्थः ॥ १३ ॥
वनमिति भावः। श्राह-यदि शास्त्रं स्वयमेव मङ्गलम् , तर्हि तस्सेव य थेजत्थं, मज्झिमयं अंतिम पि तस्सेव ।
'तं मंगलमाईए०(१३) इत्यादिभाष्य)वचनात् मङ्गलं तत्र किअव्वोच्छित्तिनिमित्तं, सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥ १४॥ |
मित्युपायते?। सत्यम्, किन्तु 'सीसमइमंगलपरिग्गहत्थमेतं
तदभिहाणं ।' इत्यादिना वक्ष्यते सर्वमत्रोत्तरम् मा त्वरिष्ठाः । तस्यैव शास्त्रस्य प्रथममङ्गलकरणाऽनुभावादविध्नेन पर
इति गाथार्थः॥१६॥ म्परामुपागतस्य स्थैर्यार्थ-स्थिरताऽऽपादनार्थ मध्यमं मनलम् , निर्दिष्टमिति वर्त्तते, 'अन्तिमं पीति' अन्त्यमपि मङ्ग- अथ समर्थवादितयाऽर्थान्तरभूतत्वमपि लं तस्यैव शास्त्रार्थस्य मध्यममङ्गलसामर्थ्येन स्थिरीभूतस्या
मङ्गलस्याऽभ्युपगम्य समर्थयन्नाहऽव्यवच्छित्तिानमित्तम् , कस्य, योऽसौ शास्त्रार्थः ?, इत्याह
अत्यंतरे वि सइ मंगलम्मि नामंगलाऽणवत्थाम्रो । शिष्यप्रशिष्याऽऽदिवंशगतस्येत्यर्थः । शिष्यप्रशिष्याऽऽदिवंशे
सपराणुग्गहकारिं, पईव इव मंगलं जम्हा ॥ १७॥ शास्त्रार्थस्याऽव्यवच्छेदनिमित्तं चरममङ्गलमिति भावः । इति गाथार्थः ॥ १४ ॥
शास्त्रादर्थान्तरे भेदवत्यपि मङ्गलेऽभ्युपगम्यमाने सति नाs
मङ्गलता शास्त्रस्य, नाप्यनवस्था। कुतः?, इत्याह-यस्मात् स्वअत्राऽऽह
परानुग्रहकारि मङ्गलम्, प्रदीपवत् , यथाहि प्रदीप प्रात्मानमंगलकरणा सत्थं न मंगलं अह च मंगलस्सावि । प्रकाशयानः स्वस्याऽनुग्राहको भवति, गृहोदरवर्तिनस्तु मंगलमोऽणवत्था, न मंगलममंगलत्ता वा ॥१५॥
घटपटाऽऽद्यर्थानाविष्कुर्वाणः परेषामनुग्राहकः संपद्यते,न तु
स्वप्रकाशे प्रदीपान्तरमपेक्षते यथा च-लवणं रसवत्यामात्मनि प्रेरकः प्राह-भो प्राचार्य ! त्वदीय शास्त्रं न मङ्गल प्रा
च सलवणतामुपदर्शयत् स्वपरानुग्राहकं भवति, न त्वात्मनः प्नोति । कुतः? इत्याह-मङ्गलकरणात् अमङ्गले हि मङ्गल
सलवणतायां लवणान्तरमपेक्षते। एवमर्थान्तरभूतं मालममुपादीयते, यतु स्वयमेव मङ्गलं तत्र किं मङ्गलविधानेन, न
पिनिजसामर्थ्याच्छास्त्रे स्वाऽऽत्मनि च मङ्गलसां व्यवस्थापहि शुक्लीक्रियते, नापि स्निग्धं स्नेह्यते; तस्मात् तन्मङ्ग
यत्स्वपरानुग्राहकं भवति । ततो मङ्गलाद मालरूपताप्राप्ती लोपादानान्यथाऽनुपपत्तेः शास्त्रं न मङ्गलम् । अथ मगलं
शास्त्रस्य तावत् नाऽमलता । यदा च मागलमात्मनो शास्त्रम्, मङ्गलस्याऽपि सतस्तस्याऽन्यद् मङ्गलं क्रियत इत्य- मङ्गलरूपतायां मालान्तरं नाऽपेक्षते, तदाऽनवस्थाऽपि भ्युपगम्यते; अत एवं सति तीनवस्था-मङ्गलानामवस्थानं दूरोत्सारितैव । इति गाथार्थः ॥१७॥ न क्वचित् प्राप्नोति । तथाहि-यथा मङ्गलस्याऽपि सतः शा
पुनरन्यथा परः प्रेरयतिस्त्रस्याऽन्यद् मङ्गलमुपादीयते, तथा मङ्गलस्याऽपि तद्पस्य सतोऽन्यद् मालमुपादेयम् , तस्याऽप्यन्यत् ,अपरस्याप्यन्य-|
मंगलतियंतरालं, न मंगलमिहत्यमो पसर ते । व.इत्येवमनवस्था आपतन्ती केनवार्यतेप्रथ याने यदुपातं जइ वा सव्वं सत्यं, मंगलमिह किं तियग्गहरा ॥१॥
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मंगल अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल इह मालविचारप्रक्रमे , अर्थतोऽर्थापत्त्या एतत् (ते) तव | नन्दिरपिश्रुतरूपत्वेनाऽऽवश्यकाऽऽदिशास्त्रान्तर्गव । तस्माद् प्राचार्य ! प्रसक्तं-प्राप्तम् । किं तत् ? इत्याह-मगलाना-| नन्देमङ्गलत्वेनाऽभिधाने शास्त्रान्तर्गतमेव मालमभिहितं मादिमध्यावसानलक्षणं त्रिकं मङ्गलत्रिकं तस्याऽन्तराल- भवति । तत्रापि नाऽमङ्गलस्य सतः शास्त्रस्य मङ्गलताद्वयलक्षणमपान्तरालं न मनलमिति । यदाहि-तं मंगलमाई- 3ऽपादनार्थ तदभिधानम् , किन्तु-शिष्यमतिमालपरिग्रए मज्झे पजंतए य सत्थस्स।' इत्यादिवचनादादिमध्याव- हार्थम् , शिष्यो हि तस्मिन्नभिहिते 'मङ्गलमेतच्छास्त्रम्' सानलक्षणेषु त्रिष्वेव नियतस्थानेषु मङ्गलमुपादीयते, तदा इत्येवं स्वमतौ तन्मलतापरिग्रहं करोतीति भावः । इति तदव्याप्तमन्तरालद्वयमर्थापत्यैवाऽमङ्गलं प्राप्नोतीति भावः ।
गाथार्थः ॥२०॥ पर एवाऽऽह-यदिवा-सिद्धान्तवादिन् ! एवं ब्रूयास्त्वं यदुत
श्राह-कि मङ्गलमपि मङ्गलबुझ्या गृहीतमेव स्वकार्य कसर्वमेव शास्त्रं मनलमिति प्रागेवोक्तम् , अतः किमेवं प्रेय
रोति, नान्यथा? । एवमेतत् , इत्याहते। हन्त तर्हि 'तं मंगलमाईए.' इत्यादिना किमिह मगलत्रिकग्रहणं कृतम् ? । न हि सर्वस्मिन्नपि शास्त्रे मङ्गले
इह मंगलं पि मंगल-बुद्धीए मंगलं जहा साह । 'प्रादौ मध्येऽवसाने च मङ्गलम् ' इत्युच्यमानं युक्तियुक्त- मंगलतियबुद्धिपरि-ग्गहे विनणु कारणं भणिय।२१।। त्वमनुभवति । तस्मादपान्तरालद्वयस्याऽमङ्गलत्वं वा प्रति- इह लोके , मङ्गलमपि सद् वस्तु मङ्गलबुद्धय गृह्यमाणमपद्यस्व, मालत्रयग्रहणं वा मा कृथा इति भावः। इति गा-1 भिनन्द्यमानं वा मजलं भवति । यथा साधुः, साधुहं स्वथार्थः॥१८॥
यं मङ्गलभूतोऽपि तद्बुद्धया गृह्यमाण एव प्रशस्तचेतो. श्राचार्यः प्राऽऽह
तेर्भव्यस्य मङ्गलकार्य करोति , अमङ्गलबुद्धया तु गृह्यमाणं सत्थे तिहा विहते, तदन्तरालपरिकप्पणं कत्तो। मङ्गलमपि तत्कार्य न करोति, यथा स एव साधुः का
लुष्योपहतचेतोवृत्तेरभव्यस्य । अत्राऽऽह कश्चित्-नम्वेवं ससव्वं च निजरत्थं, सत्थमोऽमंगलमजुरां ॥ १६ ॥
त्यऽमङ्गलमयसाध्वादिकं मङ्गलबुद्धया गृह्यमाणं तत्कार्य बुद्धया शास्त्रे त्रिधा विभक्ते तस्य शास्त्रस्यान्तरालं तद
करिष्यति, न्यायस्य समानत्वात् । तदयुक्तम् , असाधोः स्वन्तरालं तस्य परिकल्पनं कुतः संभवति ?-न कुतश्चिदि
तो मङ्गलरूपताया अभावात् , सत्यमाणिर्हि सत्यमणितया गृत्यर्थः । यथा हि-संपूर्णे मोदकाऽऽदिवस्तुनि त्रिखण्डे विक
ह्यमाणो ग्रहीतुर्गौरवमापादयति, न त्वसत्यमणिः सत्यमणिल्पितेऽन्तराल न संभवति , तथाऽत्रापि , इति कस्याऽम
तया , इत्यल प्रसङ्गेन । श्राह-यद्येवम् , तहकिमेव मङ्गलजलता स्यात् ? इति । यदि नाम शास्त्रं त्रिधा विभक्तम् , त
मस्तु , तेनापि हि शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहः सेत्स्यति , थापि कथं तस्य सर्वस्यापि मनलता ? इत्याह-सर्व चाss
किं मगलत्रयकरणेन ?, इत्याह- मंगलतिये' त्यादि, वश्यकाऽऽदि शास्त्रं निर्जरार्थ कर्मापगमरूपा निर्जरा अर्थःप्रयोजनमस्येति निर्जरार्थम् , तथा च सति तपोवत् स्वय
मालत्रये हि कृते शिष्यस्य बुद्धौ तत्परिग्रहो भवति । ते.
नाऽपि किमिति चेत् ?: इत्याह-ननु तत्रापि 'पढम सत्थमेव मतलमिदमिति सामर्थ्याधगम्यते । यदि नाम निर्जरार्थत्वात् तपोवत् स्वयमेवाऽऽवश्यकाऽऽदिशास्त्र मङ्गलम् ।
स्थाविग्धपारगमणाय निद्दिटुं' इत्यादिना कारण-निमित्तं प्रा.
गेव भणितं किमिति विस्मार्यते ?। न च वक्तव्यमेकेनैव म. ततः किम् ?, इत्याह-अतोऽमङ्गलमयुक्तम् , यतः सर्वमेव |
अलेन तत् कारणत्रय सेत्स्यति, यतो यथैव शास्त्रं मङ्गलशास्त्रं मङ्गलम्, अतो मङ्गलाऽऽत्मनि तस्मिंत्रिधा विभक्ने य
मपि सद् मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मङ्गल न भवति साधुदुच्यते-'अपान्तरालयममङ्गलम् , तदयुक्तमित्यर्थः । यदि
वत् , तथा शास्त्रस्याऽऽदि-मध्या-ऽवसानानि मगलरूहि शास्त्रं स्वयं मङ्गलं न भवेत् तदाऽन्यमङ्गलाऽव्याप्तत्वा
पाण्यपि मङ्गलबुद्धिपरिग्रहं विना न मङ्गलकार्य कुर्वन्ति , त् क्यापि तदमङ्गल भवेत् , यदा तु सर्वमपि स्वयमेव त
इति मगलत्रयाभिधानम् । इति गाथार्थः ॥ २१ ॥ द मङ्गलम् , तदा क्वापि तस्याऽमलता न युक्तति भावः ।
तदेवं मङ्गलाभिधानमुपपत्तिभिर्व्यवस्थाप्य मङ्गलशब्दार्थ इति गाथार्थः॥१६॥
निरूपयितुमाहअथ प्रेरकः प्राऽऽहजइ मंगलं सयं चिय, सत्थं तो किमिह मंगलग्गहणं? ।
मंगिज्जएऽधिगम्मइ , जेण हिअं तेण मंगलं होइ । सीसमइमंगलपरि-ग्गहत्थमे तदभिहाणं ॥२०॥
अहवा मंगो धम्मो, तं लाइ तयं समादत्ते ॥ २२॥ यदि हि स्वयमेव शास्त्र मङ्गलमिभ्यते तदा 'तं मंगलमाईए
'अगि-रगि-लगि-वगि-मगि' इत्यादौ मगिर्गत्यर्थो धामज्मे०'इत्यादि वचनात् किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते?,स्वत एव
तुः, अतस्तस्याऽलचप्रत्ययान्तस्य मडग्यतेऽधिगम्यते सा. मनले मालविधानस्याऽनर्थकत्वादिति भावः । इति परेण
ध्यते यतो हितमनेन तेन कारणेन मङ्गलं भवति । श्रथ
वा-मग इति धर्मस्याऽऽख्या, 'ला' आदाने धातुः, ततश्च प्रेरिते गुरुराह-'सीसे' त्यादि, शिष्यस्य मतिः शिष्यमतिस्त
मङ्गं लाति समादत्ते इति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः । स्या मङ्गलपरिग्रहः सोऽर्थः-प्रयोजनमस्य तत् तथा तदर्थमेव शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमात्रं तदभिधानं मङ्गलाभिधान
इति गाथार्थः ॥ २२॥ मित्यर्थः। इदमुक्तं भवति-शास्त्रादनान्तरभूतमेव मङ्गलमु
अहवा निवायणाओ, मंगलमिट्ठत्थपगइपच्चयभो । पादीयते, नाऽर्थान्तरमिति प्रागेवोक्कम् , नन्दिर्हि महलत्वे- सत्थे सिद्धं जं जह, तयं जहाजोगमायोज्जं ॥ २३ ।। नाऽभिधास्यते, सा च पञ्चज्ञानाऽऽस्मिका, ततः शास्त्राण्याव| अथवा निपातनाद् मङ्गलमिति साध्यते । कथम् ?, इ. श्यकाऽऽदीनि सरायपि श्रुतज्ञानरूपतया नन्वन्तर्गतान्येव, | त्याह-दृष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययतः, तोटो विवक्षितोऽर्थो यासां
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मंगल अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल ता इष्टार्थाः प्रकृतयः । तद्यथा-'मकि मण्डने, 'मन माने' 'म- अत्राऽऽह कश्चित्-ननु कोऽयमागमो यमाश्रित्य दी हर्षे' "मुर-मोद-स्वप्न-गतिषु'' मह पूजायाम्' इत्येव- द्रव्यमङ्गलमिदमभिधीयते? । अत्रोच्यते-म. मादि, प्रत्ययस्त्वेतासां प्रकृतीनां सर्वत्र 'अलच्' एव वि.
ङ्गलशब्दार्थज्ञानमत्रागमः। तर्हि प्रेधीयते, ततो मङ्गलमिति रूपं निपात्यते। व्युत्पत्तिस्बेवम्
यंते, किम् ?, इत्याहमस्यतेऽलक्रियते शास्त्रमनेनेति मङ्गलम्, तथा मन्यते जइ नाणमागमो तो, कह दबं दबमागमो कह णु। ज्ञायते निश्चीयते विध्नाभावोऽनेन, तथा माद्यन्ति हृष्यन्ति
आगमकारणमाया, देहो सद्दो यतो दव्वं ॥३०॥ मदमनुभवन्ति, मोदन्ते, शेरते विघ्नाभावेन निष्प्रकम्पतया सुप्ता इव जायन्ते, शास्त्रस्य पारं गच्छन्त्यनेनेति, तथा मह्य
यदि मङ्गलशब्दार्थज्ञानमागमः. तर्हि तद्वता असौ कथं म्ने पूज्यन्तेऽनेनेति मङ्गलमिति । एवमादि व्याकरणशास्त्रे
व्यमङ्गलम् ?. आगमस्य भावमङ्गलत्वेन द्रव्यमालत्वानुपयद् यथा निपातनं सिद्धम् , तद् यथायोगं यथासम्बन्ध
पत्तेः । अथ द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमसौ तर्हि श्रागमः कथम् ? येना मत्र स्वधियाऽऽयोज्यं लक्ष गज्ञैः । इति गाथाऽर्थः ॥२३॥
ऽऽगमतः-श्रागममाश्रित्येत्युच्यते द्रव्ये आगमस्याऽभावात्,
भावे वा भावमङ्गलत्वप्रसङ्गात् । तस्मादागमतो द्रव्यमङ्गलमंगालयइ भवाओ, मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। मिति दूरविरुद्धमिदम् । इति परेणोक्ने प्राचार्यः प्राह-'पागभासंति सत्थवसओ, नामाइ चउब्विहं तं च ॥२४॥
में'त्यादि, इदमुक्तं भवति-श्रागमत इत्युक्तेनैतद् भावता बोच
व्यं यदुत-न साक्षादेवाऽऽगमोऽत्रास्ति किं तर्हि ?. प्रागअथवा-मां गालयति भवादिति मङ्गलं संसारादपनय
मस्य मङ्गलशब्दार्थज्ञानलक्षणस्य यत् कारण-निमित्तं तदेवेह तीत्यर्थः । इह मालविचारे एवमादि नैरुक्लाः शब्दविदः शास्त्र
विद्यत इत्यवगन्तव्यम् । किं पुनस्तदागमस्य कारणमिहाडवशतो व्याकरणानुसारेण भाषन्ते-मङ्गलशब्दार्थ व्याचक्ष
वसेयम् ?,इत्याह-श्रनुपयुक्तस्य वक्तुः सम्बधी प्रात्मा जीवो ते । श्रादिशब्दात्-शास्त्रस्य मा भूद् गलो-विघ्नोऽस्मादिति
देहः शब्दश्च, जीवशरीरे हि तावदागमस्य कारणम् , तदामङ्गलम् , अथवा-शास्त्रस्य मा भूद् गलो-नाशोऽस्मिन्निति
धारविरहितस्याऽऽगमस्याऽसम्भवात् । शब्दोऽपि प्रत्याय्य. मङ्गलम् , सम्यग्दर्शनाऽऽदिमार्गलयनाद् वा मजलमित्यादि
शिष्यगताऽऽगमस्य कारणमेव, तमन्तरेण तस्याऽभावात् । द्रष्टव्यम्, इत्यलं विस्तरेण । इह तत्त्व-पर्याय-भेदैर्व्याख्या,
यश्च कारणम् तद् द्रव्यं भवत्येव "भूतस्य भाविनो या,भावतत्र तत्वं शब्दार्थरूपम, तत्तावद् निर्णीतम् । पर्यायास्तु मङ्ग
स्य हि कारण तु यल्लोके. तद् द्रव्यम्" इत्यादिवचनात् , लम्, शान्तिः, विघ्नविद्रावणमित्यादयः स्वयमेव द्रष्टव्याः ।
इत्याह-'तोत्ति' यत एवम् , तस्माद् द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमिदभेदास्तु स्वयमेव निरूपयितुमाह-'नामाइ चउविह तं चेति'
मित्यर्थः । यद्यागमकारणमेवेह विद्यते, तर्हि कथमिदमागमो तश्च मङ्गले नामाऽऽदिभेदतश्चतुर्विधं भवति । तद्यथा-ना
येनाऽऽगमतो द्रव्यमङ्गलं स्यात् ? इति चेत् । उच्यते-आगममङ्गलम् , स्थापनामङ्गलम्, द्रव्यमङ्गलम् , भावमङ्गले च।
मस्य कारणभूता आत्माऽऽदयोऽपि कारणे कार्योपचारादाइति गाथाऽर्थः ॥ २४ ॥ विशे।
गमत्वेनोच्यन्ते, भवति च कारणे कार्यव्यपदेशः, यथा 'तन्दुशाह विनेयः-जतु सामान्थेन द्रव्यलक्षणमवगतम्, लान् वर्षति पर्जन्यः। तस्मादागमतो द्रव्यमङ्गल न विरुपरं द्रव्यमङ्गलं किमभिधीयते ?, इति
ध्यते । इति गाथाऽर्थः ॥ ३०॥ प्रस्तुतं निवेद्यताम् , इत्याह
अथ" नत्थि नयोहिं विहणं, सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि ।
श्रासज्ज उ सोयारं, नयेण य विसारो धूया ॥२॥” इति आगमओऽणुवउत्तो, मंगलसद्दाणुवासियो वत्ता ।
वचनान्जिनमते सर्वेऽपि पदार्था नयैर्विचारनमाणलद्धिसहिओ, विनोवउत्तोत्ति तो दव्यं ॥ २६ ॥ णीयाः, इत्यतो द्रव्यमङ्गलमपि नयैर्वि
चारयन्नाहइह द्रव्यमङ्गलं तावद् द्विधा भवति-श्रागमतः-श्रागममाथित्य, नोागमतश्च-नो आगनमाश्रित्य, तत्राऽऽगमो मङ्गल
एगो मंगलमेगं, णेगा णगाइँ गमनयस्स । शब्दार्थज्ञानस्वरूपोऽत्राऽभिप्रेतः, तमाश्रित्य 'द्रव्यं' द्रव्यम
संगहनयस्स एकं, सब चिय मंगलं लोए॥३१॥ रलमिति पर्यन्ते सम्बन्धः। काऽसी?, इत्याह-वक्ता मङ्ग
वश्यमाणशब्दार्थस्य नैगमनयस्य मतेनैकोऽनुपयुको मङ्गलशलशब्दार्थप्ररूपकः । किं सर्वोऽपि?, न, इत्याह-अनुपयुक्तः ब्दार्थप्ररूपक एकं द्रव्यमङ्गलम् , अनेके त्वनुपयुक्तास्तत्प्ररूपका तदुपयोगशून्यः । कि विशिष्टः ?, इत्याह-मङ्गलशब्दानुवा- अनेकानि द्रव्यमङ्गलानि । अयं हि नयः सामान्य विशेषांश्चा सितः मङ्गलशब्दार्थज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमसंस्कारानुरञ्जित. भ्युपगच्छत्येव, तत्र विशेषवादित्वपक्षे एकोऽनुपयुक्त एकं द्रमनाः तज्ज्ञानलब्धिमानिति यावत्। ननु यदि तज्शानलब्धि- व्यमालम्, अनेके त्यनुपयुक्ला अनेकानि द्रव्यमङ्गलानीत्युपपमांस्तर्हि किमिति द्रव्यम्?, इत्याह-'तन्नाणे त्यादि, तज्ज्ञान- द्यत एव,विशेषाणां पृथग भिन्नत्वादिति। संग्रहन यस्य तु वक्ष्यलब्धिसहितोऽपि मङ्गलशब्दार्थशाना ऽऽचरणक्षयोपशमवान- माणस्वरूपस्य केवलसामान्यवादिनो मतेन सवस्मिन्नपि लोके पि: नोपयुक्तस्तत्र मङ्गलशब्दार्थे यस्मादसौ. 'तो त्ति' त- एकमेव द्रव्यमङ्गलम् , सर्वेषां द्रव्यमङ्गलत्वसामान्यादव्यतिस्माद् द्रव्यमङ्गलम् । इदमुक्तं भवति- अनुपयोगो द्रव्यम्' रिकत्वात् , व्यतिरेके चाऽद्रव्यमङ्गलस्वप्राप्तेः, सामान्यस्य च इति वचनाद् मङ्गलशब्दार्थ जानन्नपि तत्रानुपयुक्तस्तं प्ररूपयं-|
यिभुवनेऽप्येकत्वात् । इति गाथाऽथेः ॥ ३१॥ स्तज्ज्ञानलब्धिसहितोऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलमेव । इति
एतदेवाऽऽहगाथाऽर्थः ॥ २६॥
एक निचं निरवय-वमक्कियं सव्वगं च सामनं।
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मंगल
निस्सामग्रताम्रो नत्थि विसेसो खष्कं व ॥ ३२ ॥ कम्-अद्वितीयत्वादेक सङ्ख्योपेतं सामान्यम् । एकमपि किं स्यात्, तत्राऽऽह - नित्यमनपायि । नित्यमप्याकाशवत् सावयवं स्यात्, तन्निरवयवत्वे सवितुरुदयाऽस्तमनाऽयोगात् इत्याइ निरययणमनंथं पूर्वापरकोडिया दिति । निरवयवमपि परमाणुवत् सक्रियं स्यात्, अत माह - अक्रियं क्रियारहितम्, परिस्पन्दविनिर्मुक्तत्वादिति । प्रक्रियमपि दिगादिवत् सर्वगतं न स्यात्, अत्राऽऽह - सर्वगं च सफललोकाऽयातसत्ताकम् इदमित्थं भूतं सामान्यमे बाऽस्ति न तु विशेषः कञ्चनाऽपि विद्यते । कुत इत्याहनिःसामान्यत्वात् - सामान्यविरहितत्वात् खपुण्यवत्, बच्चाउस्ति तत् सामान्यविरहितं न भवति यथा घटः । तस्मादेकस्माद् द्रव्यमङ्गलसामान्यादव्यतिरिक्तत्वाद् तद्व्यतिरेके चाऽद्रव्यमङ्गलताप्रसङ्गात् सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वादेकमेव संग्रहनयमते द्रव्यमङ्गलम् इति स्थितम् । इति गाथाऽर्थः ॥ ३२ ॥
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(१०) अभिधान राजेन्द्रः ।
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अत्र विशेषपारिनयमतस्थितः कचिदादननु कथमनेकानि द्रव्यमङ्गलानि न सम्भवन्ति ? यथा हि वनस्पतिरित्युक्ते वृक्ष गुल्म- लता - बीवाय विशेषा एव प्रतीयन्ते न पुनस्तदतिरिक्त कचिद् वनस्पतिः पवमिहापि क मङ्गलमित्युक्तेऽनुपयुक्ततत्प्ररूपकलक्षणा विशेषा एवाऽवगम्यन्ते, न तु तदधिकं किञ्चित् सामान्यम्, अतः किं शूम्य वाऽस्मिन् जगत्येवमभिधीयते निस्सा. न. त्थि विसेसो खपुष्कं व । ' इति १ इति विशेषवादिना प्रोक्ते सामान्यवादि संग्रहः प्राऽऽह - ननु यत एव वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षादयः प्रतीयन्ते, अत एव ते तदनथांतरभूताः, हस्त स्येवालयः, इह यस्मिन्नुच्यमाने यत् प्रतीयते, तत् ततो व्यतिरिक्तं न भवति, यथा हस्त इत्युक्तेऽङ्गुल्यादयः प्रतीमाना हस्ताद् न व्यतिरिकाः प्रतीयन्ते च वनस्पतिरि त्युक्ते वृक्षाः इत्यमी न वनस्पतिव्यतिरिकाः ततो न सामान्यादतिरिक्तः कोऽपि विशेषः समारेत इत्येकमेव सर्वत्र द्रव्यमङ्गलमिति । श्रथोपपत्यन्तरेणाऽपि सामान्यवाद्येव पृतादीनां सर्वेषामपि वनस्पतिसामान्यरूप सम धयन्नाह—
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भो वणस्स च्चिय, मूलाइगुणो ति तस्समूहो व्व । गुम्मादओ वि एवं सम्ये न वणस्सइचिसिट्टे ||३३|| पूतः - आम्रो वनस्पतिरेव वनस्पतिसामान्यं न व्यभि चरतीत्यर्थः इति प्रतिशा, मूल- कन्द-स्कन्ध-त्व- शाखाप्रवाल- पत्र-पुष्प फल- बीजाऽऽदिगुणत्वादिति हेतु:, नृतसमूहवदितिरन्तः इह यो यो मूलादिगुणः स स वनस्प तिसामान्यरूप एव यथा बृतसमूहः मूलाराधतः तस्माद् वनस्पतिसामान्यरूप एव गुल्माऽऽदयो ऽप्येवं वाच्या, तथाहि - विशेषवादिना विशेषतयाऽभ्युपगम्यमानो गुल्मोऽपि वनस्पतिसामान्यरूप एष मूलादिगुणत्वाद् गुल्मसम् इयत् इति। एवमन्येषामपि लतादिविशेषाणां वनस्पतिसामान्यादव्यतिरिक्त साधनीयम् । तद्वयतिरेके सर्वत्र - । मृदो बाधकं प्रमाणम् । तस्मात् सामान्यमेवा इस्ति, न विशेषाः । इति गाथाऽर्थः ॥ ३३ ॥
मंगल
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किञ्चसामभाउ विसेसो, अनोऽचो व होज्ज जह अएगो । सोनत्थि खपुष्कं पिवs - णमो सामनमेव तयं ॥ ३४ ॥ भो विशेषवादिन! सामान्याद् विशेषोऽन्यो वा स्यात्. अनन्यया इति विकल्पद्वयम् । बचायो विकल्पः तर्हि नास्येव विशेषः, निःसामान्यत्वात् पुष्यवत्य यत् सामान्यविनिर्मुकं तत् तद् नास्ति यथा गगनारविन्दम् सामान्यविरहित विशेषवादिना विशेषोऽभ्युपगम्यते, त स्माद् नास्त्येवाऽयमिति । अथाऽनन्य इति द्वितीयः पक्षः कविते. हन्त तर्हि सामान्यमेयाऽसौः तदनन्यत्वात्. सामान्याऽऽत्मवद् यद्-यस्मादनन्यत् तत् तदेव, यथा सामाम्यस्यैवाऽत्मा; अनन्यश्च सामान्याद् विशेषः, इति सामान्यमेवाऽयमिति । यदि च श्रतिपक्षपातितया सामान्येऽपि विशेषोपचारः क्रियते, तर्हि न काचित् क्वचित् क्षतिः, न चारेणोच्यमानो मेदस्ताविकमेकत्वं वाधितुमलम् तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति न विशेषः । इति संग्रहनयमतेन सर्वत्रैक मेव द्रव्यमङ्गलम् । इति गाथाऽर्थः ॥ ३४ ॥
प
तदेवं संग्रहेण स्वाभिमते सामान्ये प्रतिष्ठिते विशेषवादिनी नेगमव्यवहारावादतुःन विसेसत्थंतरभू - अमत्थि सामम्पमाह ववहारो । उवलंभव्ववहारा - भावाओ खरविसाणं व ।। ३५ ॥
ननु भोः सामान्यवादिन् ! भवताऽपि वनस्पतिसामान्यं बकुला शोक-चम्पक-नाग-पुनागा-33म्र-सर्जा- अर्जुना35दिविशेषेभ्योऽर्थान्तरं वाऽभ्युपगम्येत, अनर्थान्तरं वा ? । यद्यर्थान्तरम्, ताई नास्त्येव तद् विशेषव्यतिरेकेण उपल व्धिक्षणप्राप्तस्य तस्योपलम्भव्यवहाराभावाद्वासवत् क एवमाह १ व्यवहारनयः, " विउपलक्षणत्वाद् शेषवादी नैगमथ पती हि लोकव्यवहारानुयायिनी, तद्। व्यवहारश्च प्रायो विशेषनिष्ठ एव इति विशेषानेव समर्थयत इति भावः । श्रथानुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदभ्युपगम्यते, तथाऽपि नास्ति विशेषेभ्यः सर्वधाऽन्यत्वात् गगनकुसुमवदिति । अथ विशेषेभ्योऽर्थान्तरं तदिति द्वितीयपक्षः तर्हि विशेषा एव तत् तेभ्यो ऽनर्थान्तरभूतत्वात् विशेषाणामात्मस्वरूपवदिति । यदि य-विशेषेध्यपि सामाम्योपवारः क्रियते, तनि कावित् क्षतिः, न द्योपचा रिकमेकत्वं तात्विकमनेकार्य बाधते । इति गाथाः ॥३५॥
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एतदेव समर्थयते—
बाईएहिंतो को सो असो वयस्सई नाम १ । नत्थि विसेसत्यंतर भावाओ सो खपुष्कं व ।। ३६ ।। चूताऽऽदिभ्यो विशेषेभ्योऽन्यः को नाम वनस्पतिः, यो वण- पिराडी - पादलेपाऽऽदिके लोकव्यवहारे उपयुज्येत ?, न कोsपीत्यर्थः । तस्मात् समस्तलोकसंव्यवहारानुपयोगित्वाद् नास्ति सामान्यम् खपुष्पदत् इति पूर्वोक्तमेवार्थ निगमनद्वारेखा 556 – 'नत्थीत्यादि । तस्माद नास्यसी सा ' मान्यवादिनाऽभ्युपगम्यमानो वनस्पतिः समूपेभ्यो विशेपेभ्योऽथान्तरभावात् पुष्पवत् सहूपेभ्यो हि विशेष
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मंगल अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल भ्योऽर्थान्तरं भवत् असपमेव भवति तथाभूतं च | मेव, तथा साम्प्रतं च वर्तमानक्षणभाव्येव यद् द्रव्यमजावं नास्त्येव खपुष्पवत् । इति गाथाऽर्थः॥३६॥
तदेवैकमभिमतम् । अनभिमतप्रतिषेधमाह-नातीतम् , अतिकिं पुनः कारणं येन नैगमव्यवहारौ विशेषान् समर्थ- क्रान्तसमयभावि, नाऽप्यनुत्पन्नं भविष्यत्समयमावि द्रव्यमयतः ?, इत्याह
अलम् , अस्येष्टम् । 'परकं व' परकीय वा यद् द्रव्यमा जं नेगमववहारा, लोअव्यवहारतप्परा सो य । तदप्यस्य नेष्टम् , विवक्षितकप्रक्षापकस्याऽऽत्मानं विहाय यत् पाएण विसेसमो, तो ते तग्गाहिणो दो वि ॥३७॥
परस्मिन् वर्तते तदपि द्रव्यमङ्गलमसौ नेच्छतीत्यर्थः। मन्दमयद्-यस्माद् नैगमव्यवहारी लोकव्यवहारतत्परौ, सच
तिशिक्षाऽवबोधार्थवाऽनभिमतप्रतिषेधः, अन्यथा शामिमले लोकव्यवहारस्त्यागादानाऽऽदिकः प्रायेण विशेषमयो-वि
कथितेऽनभिमतमापत्तितो गम्यत एव । इति गाथाऽर्थः ।
॥४०॥ शेषनिष्ठ एव दृश्यते, सामान्यस्य व्रणपिण्ड्यादी लोकेऽनुप, योगात् । 'वन' 'सेना' इत्यादौ क्वचित् कश्चित् कथ
अमुमेवार्थ प्रयोगोपदर्शनद्वारेण समर्थयन्नाहश्चित् सामान्यस्याऽपि दृश्यते उपयोगः, इति प्रायोग्रह- नातीतमणुप्पत्र, परकीयं वा पोमणाभावा । णम् । यत एवम् , तस्मात् तौ नैगमव्यवहारौ द्वावपि दिर्सेतो खरसिंगं, परधणमहवा जहा विफलं ॥४१॥ तग्राहिणौ विशेषाभ्युपगमपरो। इति गाथाऽर्थः ॥ ३७॥
अतीतमनुत्पन्नं वस्तु नास्तीति प्रतिज्ञा, प्रयोजनस्य विकअत्र परः प्राऽऽह
क्षितफलस्य तत्राऽभावात् सर्वप्रयोजनाऽकरणादित्यर्थ . तेसि तुल्लमयत्ते , को णु विसेसोऽभिहाणओ अनो। । त्यय हेतुः, दृष्टान्तस्तु खरशृङ्गम् । असत्वे चातीतानागतयोईतुल्लते वि इहं ने-गमस्स वत्थंतरे भेत्रो ॥ ३७॥ व्यमलता दूरोत्सारितैव, धर्मिसत्व एव धर्माणामुपपद्यमातयोर्नैगमव्यवहारयोस्तुल्यमतत्वे उक्लन्यायेन विशेषवा, नत्वादिति । द्वितीयप्रयोगः क्रियते-परकीयमपि यशदचसदितया सहशाभिप्रायत्वे सति 'णु' चितर्के, अभि
म्बन्ध्यपि वस्तु देवदत्तापेक्षया नास्त्येव, प्रयोजनाऽकरणात् धानं नाम ततोऽन्यस्तद् वर्जयित्वाऽपरः को विशेषः ? , स्वरविषाणवदिति हेतुदृष्टान्तौ तावेव,अथवा-यथा परस्य यम कश्चिदित्यर्थः । एको नैगमः , अपरस्तु व्यवहार इत्ये- ज्ञदत्तस्य धनं देवदत्तापेक्षया विफलं प्रयोजनाऽसाधकं सदना. बमनयो मैव भिद्यते न त्वभिप्राय इति भावः । श्रा
स्ति, तथा सर्वमपि परकीयं नास्तीति द्वितीयोरष्टान्तः। इति चार्य आह-'तुल्लते' इत्यादि , इह विशेषाऽभ्युपगमे य
कुतः परकीयस्याऽपि द्रव्यमलत्वम् । इति गाथाऽर्थः ॥४१॥ चपि नैगमस्य व्यवहारेण सह तुल्यत्वं सदृशाभिप्रायत्वम् , शब्द-समभिरूलै-वम्भूतास्तु विशुद्धनयत्वादागमतो तथाऽपि तस्मिन् सत्यपि वस्त्वन्तरे सामान्याऽऽदिके भेदो द्रव्यमङ्गलं नेच्छन्त्येव कस्मात् ?, इत्याहनानात्वमस्त्येव । इति गाथाऽर्थः ॥ ३८॥
जाणं नाणुवउत्तोऽ-गुबउत्तो वा न याणई जम्हा। अथवा नैगमव्यवहारयोरनेन तुल्यमतत्वाऽऽख्यापनेन जाणंतोऽणुवउत्तो, त्ति बिति सहादयोऽवत्यु ॥ ४२ ॥ सामान्यविशेषग्राहकस्य नैगमस्य संग्रहव्यवहारनय
(जम्हा) इति यस्मात् जाननवबुध्यमानो, 'माल' इति गद्वयेऽन्तर्भावः सूचितो द्रष्टव्य इति दर्शयत्राह- भ्यते, नानुपयुक्तो न तज्ज्ञानोपयोगशून्यो भवति, सायकस्य जो सामग्मग्गाही, स नेगमो संगहं गओ अहवा।। शानोपयोगनान्तरीयकत्वात् । अनुपयुक्तो वा तत्र न तज्जाइयरो ववहारमिओ, जो तेण समाणनिद्देसो ॥ ३६॥ नीते न तस्य शायकोऽसौ व्यपदिश्यते; अज्ञायकत्वाभिमतअथवेति प्रकारान्तरेण समाधानमुच्यत इत्यर्थः। तत्र - वत् काष्ठाऽऽदिवत् वेत्यर्थः। तस्माजानन्ननुपयुक्तधेति पतदगमस्तावत् सामान्यं मन्यते विशेषांश्च । ततो यः सामान्यग्रा- प्यवस्तु असदभाव इति यावत् , एतद् युवते शब्दाऽऽदयः ही नैगमः स संग्रहं गतः प्राप्तोऽन्तर्भूत इति यावत् , इतर- शब्द-समभिरुदैवम्भूतनयाः। इति गाथाऽर्थ, ॥४२॥ स्तु विशेषग्राही स व्यवहारनयमितः प्राप्तोऽन्तर्गतो यो नैग
अत्राऽर्थे उपपत्तिमाहमनयस्तेन सह व्यवहारनयस्याऽयं समाननिर्देशः 'जं नेग- हेऊ विरुद्धधम्म-तणा हि जीवो व्व चेअणारहियो। गववहारा०(३७) इत्यादिना तुल्यनिर्देशः, ततश्च तेसिं तुलमयत्ते कोणु विसेसो०' (३८) इत्यादिना यदेकत्वं परेण प्रेरितं
न य सो मंगलमिटुं, तयत्थसुनो ति पावं व ॥ ४३ ।। तदस्माकं न क्षतिमावहति, नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेs-|
जानन्ननुपयुक्तश्चेत्येतदवस्तु इत्यस्यामनन्तरातिक्रान्तगाम्तर्भावस्येष्टत्वेन सिद्धसाधनादिति भावः । यद्येवं नैगमः
थापर्यन्तकृतप्रतिक्षायामय हेतुः । कः ?, इत्याह-' वि. सजायायास्त्रुट्यति, तथा च सति षडेव नयाः प्रसजन्तीति
रुद्धधम्मत्तणा हि त्ति' विरुद्धौ धौं यत्र तत् तथा चेत् । मा औत्सुक्यं भजस्व, सर्वमत्रार्थे पुरस्ताद वक्ष्यामः ।
तद्भावस्तस्माद् विरुद्धधर्मत्वादिति । दृष्टान्तमाह-यथा जीर इति गाथाऽर्थः ॥ ३६॥
वश्चेतनारहितः । इदमुक्तं भवति-यथा जीवश्चेतनारहि
तश्च माता च बन्ध्या चेत्यादि विरुद्धधर्माध्यासाववस्तु. एवं अथ ऋजुसूत्रनयमतेन द्रव्यमङ्गल विचारयितुमाह
शायकश्चाऽनुपयुक्तश्चेत्येतदप्यवस्त्वेव । भवतु वा शायको:उज्जुसुअस्स सयं सं-पयं च जं मंगलं तयं एकं ।।
नुपयुक्तश्च. तथाऽपि नास्माकमसौ मजलत्वेनेष्टः, तदर्थशून्यनातीतमणुप्पन्नं, मंगलमिटुं परकं व ॥४०॥ त्वाद्-मङ्गलार्थशून्यत्वात् , पापवदिति । भावमालग्राहियो ऋजु अतीताऽनागतपरिहारेण परकीयपरिहारेण वाs-| हमी कथं द्रव्यमालमिच्छन्ति', इति भावः । इति गाथा कुटिलं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रो नयस्तस्य स्वकमात्मीय- | ऽर्थः ॥४३॥
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मंगल अभिधानराजेन्द्रः।
मंगल तदेयं विचारितं नयद्रव्यमङ्गलम् तथा च सति समर्थि
चेतनो देहो भूतस्याऽतीतस्य मङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणस्याssसमागमतो द्रव्यमङ्गलम् । अथ नो श्रागमतस्तद- गमस्य कारण हेतुः,सचेतनस्तुभव्यदेहो भाविनो यथोक्रस्याभिधीयते । तच्च शरीरभव्यशरीरतदव्य
ऽऽगमस्य कारणम् , तस्माद् निजकार्यस्याऽऽगमस्यैकदेशेतिरिक्तभेदात् त्रिधा । तत्र शरीर
वर्तत एव, कारणं हि कार्यस्यैकदेशे वर्तत एव , यथा मृत्ति__भव्यशरीरलक्षणभेदद्वयमाह
का घटस्य । अभेद एव घट-मृत्तिकयोरिति चेत् । मंगलपयत्थजाणय-देहो भवस्स वा सजीवो ति।
नैवम् , भेदयोरेव जैनैरिष्टत्वात् , यवक्ष्यति सम्मतौ-" नत्थि
पुढवीविसिट्ठो, घडो त्ति जं तेण जुज्जर अणणो । जं नोभागमो दबं,आगमरहिओ तिजं भणिअं॥४४॥
पुण घडो त्ति पुवं , नासी पुढवी तश्रो अरणो॥५२॥" 'नोभागमो दव्वं ति 'नो श्रागमतो शरीरं द्रव्यमङ्ग
श्राह-ननु मङ्गगलपदार्थज्ञानस्य परिणामिकारण जीव एष, लमित्यर्थः । कः ?, इत्याह-मङ्गलपदार्थास्य देहः . इदमुक्तं
ततस्तस्य स्वकार्यैकदेशे वृत्तिरस्तु, यथा मृत्तिकायाः , भवति-ह मालपदार्थः पूर्व येन स्वयं सम्यग विशातः,
शरीरं त्वागमस्य परिणामिकारणं न भवति , अतः कथं तपरेभ्यश्च प्ररूपितः, तस्य सम्बन्धी जीवविप्रमुक्तः सिद्धशिला
स्य तदेकदेशवृत्तिता?। सत्यम् , किन्तु-" अएणण्णाणुतलाऽऽदिगतो देदोऽतीतकालनयानुवृत्त्याऽतीतमङ्गलपदार्थ
गयाणं, इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं । जह खीरपाणियाशानाधारत्वाद् नोबागमतो द्रव्यमङ्गलमुच्यते । नोश- ण" इत्यादिवचनात् संसारिणो जीवस्य शरीरेण सहावस्या सर्व निषेधवचनत्वात् , अागमस्य च सर्वथाऽत्राs. भेद एव व्यवह्रियते, तो जीवस्य परिणामिकारणत्वे शभावाद् नोमागमता द्रष्टव्या, अतीतमङ्गलपदार्थशानलक्षणा- रीरस्याऽपि तद विवक्ष्यते.इत्यस्याऽऽगमैकदेशता न विरुध्यऽऽगमपर्यायकारणत्वात् तु द्रव्यमङ्गलता, यथाऽतीतघृताss. ते। भवत्वेवम् , तथाऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलम् प्राग् यदुक्तं ते. धारपर्यायकारणत्वाद् रिक्तघृतकुम्भे घृतघटतेति । 'भवस्त न सहाऽस्य को भेदः? , तत्राऽपि हि-" आगमकारणमाया पति' वाशब्दो द्वितीयपक्षसमुच्चये, भव्यस्य च मङ्गलप- देहो सहो य” इति वचनाच्छरीरमेव द्रव्यमङ्गलमुक्तम् , दार्थज्ञानयोग्यस्य सम्बन्धी 'देहः' इति वर्तते, स जीवः स
अत्राऽपि च तदेवः इति कथं नैकत्यम् ? सत्यम्, किन्तु-प्राचेतनो नोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमित्यर्थः । इदमत्र गुपयोगरूप एवाऽऽगमो नास्ति, लञ्चितस्तु विद्यत एव, अ. हृदयम्-य इदानी मङ्गलपदार्थ न जानीते, भविष्यति तु
घ तूभयस्वरूपोऽपि नास्ति , कारणमात्रस्यैव सत्त्वात् । .. काले शास्यति; तस्य सम्बन्धी सचेतनो देहो भविष्यत्काल-निनोचा नयाऽनुवृत्त्या भविष्यन्मङ्गलपदार्थशानाऽऽधारत्वाद् नोभाग
तदेवं दर्शितं शरीर-भव्यशरीरलक्षण नोआगमतो मतो भव्यशरीरदव्यमालमिति । अत्राऽपि नोशब्दस्य सर्व
द्रव्यमङ्गलभेदद्वयम् । साम्प्रतं सशरीर-भव्यश निषेधपरत्वात् ; श्रागमस्य वेदानीमभावाद् नोागमता
रीरव्यतिरिक्तस्वरूपं ततृतीयभेदं दर्शयन्नाहसमवसेया । भविष्यत्काले मङ्गलपदार्थशानलक्षणस्याऽऽगम
जाणय-भव्यसरीराऽ-इरित्तमिह दव्बमंगलं होइ ।। स्य कारणत्वात् तु द्रव्यमङ्गलता, यथा भविष्यघृताऽऽधारपर्यायकारणत्वाद् रिघृतकुम्भे घृतघटता। नोश्रागमत इत्ये
जा मंगला किरिया, तं कुणमाणो अणुवउत्तो ॥४६॥ तद् विवृण्वन्नाह- श्रागमरहिनो' इत्यादि, नोशब्दस्य स- इह तावद् भावतः-परमार्थतो मङ्गलं द्विविधम्-जिमंनिषेधवचनत्वाद् नोागमत इत्यनेनैतदुक्तं भवति, किम् ?,
नप्रणीत आगमः, तत्प्रणीता मङ्गल्या प्रत्युपेक्षणाssइत्याह-मङ्गलपदार्थज्ञस्थ भव्यस्य च सम्बन्धी अचेतनः स- दिक्रिया च । इतश्च पूर्वमागमतो नोश्रागमतश्च यद चेतनश्च देहो वर्तमानकाले सर्वयैवाऽऽगमरहितः । इति द्रव्यमङ्गलमुक्तं तत्सर्वमागममङ्गलापेक्षमेव , शरीरगाथाऽर्थः॥४४॥
भव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यमङ्गलं मङ्गल्यक्रियामेवाऽऽधितदेवं सर्वनिषेधवचनत्वे नोशब्दस्यैवमुदाहरणमुपदर्शि
त्य भणियत इति परिभावनीयम् । अथ गाथार्थो व्या. तम् , यदि वा-देशनिषेधपरेऽपि नोशब्दे एतत् स.
ख्यायते-तत्र शरीर-भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तमिह द्र
व्यमङ्गले भवति । कः? , इत्याह-अनुपयुक्तः तां कुर्वाम्बध्यत एवेति दर्शयन्नाह
णो या । किम् ? , इत्याह-या प्रत्युपेक्षण-प्रमार्जनाऽऽदिका अहवा नो देसम्मी, नोआगमओ तदेगदेसाओ । मङ्गल्या क्रिया । इदमुक्तं भवति-योऽनुपयुक्तो जिनप्रणीतां भूयस्स भाविणो वा-ऽऽगमस्स जे कारणं देहो ॥४॥ मङ्गलरूपां प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियां करोति, स नोपा. अथवा 'नो' इति नोशब्दः 'देसम्मि त्ति' देशनिषेधवच- गमतो शशरीर-भव्यशरीरातिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम् , उपयोनो विवक्ष्यत इत्यर्थः । ततश्च नोागमत इति कोऽर्थः ?,
गरूपोऽत्राऽऽगमो नास्तीति नोश्रागमता । शरीर-भव्यइत्याह-तदेकदेशादागमैकदेशादागमैकदेशमाश्रित्य द्रव्यम
शरीरयोानापेक्षा द्रव्यमगलता, अत्र तु क्रियापेक्षा, अ. अलमित्यर्थः । किं पुनस्तत् ? इति चेत् । मालपदार्थशस्या:- तस्तव्यतिरिक्तत्वम्, अनुपयुक्तस्य क्रियाकरणात् तु द्रचेतना , भव्यस्य तु सचेतनो देह इत्यनुवर्तमान सम्बध्यते ।
व्यमलत्वं भावनीयम् , उपयुक्तस्य तु क्रिया यदि गृ. कः पुनरिहाऽऽगमस्येकदेशो यमाश्रित्य नोमागमतो द्रव्यम
ह्येत तदा भावमङ्गलतेव स्यादिति भावः । इति गाथालिमिदं स्यात् ? इति । अत्रोच्यते-यथोक्लो भव्यशरीररूपो
ऽर्थः॥४६॥ देव एवाऽत्राऽऽगमेकदशः। ननु जडस्य देहस्य कथमागमे
अथ प्रकारान्तरेणाऽपि प्रस्तुतमङ्गलमाहकवेशता' इति । अत्राऽऽह-'भ्यस्से 'त्यादि, यद्-यस्माद- जं भूयभावमङ्गल-परिणामं तस्स वा जयं जोग्गं ।
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मंगल
मंगल
अभिधानराजेन्द्रः। जं वा सहावसोहण-वनाइगुणं सुवस्माइ॥४७॥ नोबागमओ भावो, सुविसुद्धोखाइयाईयो॥४६॥ तं पि य हुभावमंगल-कारणओ मंगलं ति निद्दिष्टुं । मङ्गलं च तच्छ्रुतं च मङ्गलश्रुतं; मङ्गलशब्दार्थज्ञानमित्यर्थः, नोआगमो दव्यं, नोसद्दो सव्वपडिसेहे ॥४८॥ तस्मिन्नुपयुको 'वक्ता ' इति गम्यते, आगमतो भा. नोबागमतो शशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यं द्रव्य- |
वमङ्गलं भवति । अत्राऽऽह-ननु मङ्गलपदार्थज्ञानोपयोमङ्गलमित्यर्थ इति द्वितीयगाथोत्तरार्थे संबन्धः । किं
गमात्रेण कथं सर्वोऽपि वक्ता भावमङ्गलमुच्यते ?, तदुपयोतत् !, इत्याह-यद् भूतभावमङ्गलपरिणामम् , इह भाव
गमात्रस्येव तदूपताया युक्तिसङ्गतत्वात्, न ह्यग्निशानोपयुक्तो मङ्गलशब्देन चरणकरणक्रियाकलापोऽभिप्रेतः, तस्य परि
माणवकोऽग्निरेव भवितुमर्हति, तदाह-पाकाऽऽदिक्रियाकररणमने परिणतिः प्रवृत्तिर्भावमङ्गलपरिणामः, भूतः पूर्व सं
णप्रसङ्गादिति । अत्रोच्यते-उपयोगः, शान, संवेदनं, प्र.
त्यथ इति तावदनान्तरम्, अर्थाऽभिधानप्रत्ययाश्च जातो भावमङ्गलपरिणामो यस्य तद् भूतभावमालपरि
लोके सर्वत्र तुल्यनामधेयाः, बाह्यः पृथुबुध्नोदराऽऽकारोणामम् , सांप्रतं तु तच्छून्यम , तत्पुनः कस्यापि शरीरं जीवद्रव्यं वा , तद् मोबागमतो शरीर-भव्यशरीर-1
ऽर्थोऽपि घट उच्यते, तद्वाचकमभिधानमपि घटोऽभिधीय
ते, तज्ज्ञानरूपः प्रत्ययोऽपि घटो व्यपदिश्यत इत्यर्थः । तव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलं बोद्धव्यम्। ' तस्स वा जय जोग्गं
थाहि लोके वक्रारो भवन्ति-किमिदं पुरतो दृश्यते ?, ति' अथवा-तस्य-यथोक्लस्य भावमङ्गलपरिणामस्य यद् योग्यमहं शरीरं जीवद्रव्यं वा , तद् नोश्रागमतो शश
घटः। किमसौ वक्ति ?,घटम्: किमस्य चेतसि स्फुरति ?,घटः। रीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम् । अथवा-यत् स्व
एवं च सति यद् घट इति ज्ञानं तदव्यतिरिक्लो भाता भावत एव शोभनवर्णाऽऽदिगुणं सुवर्णाऽऽदिकं वस्तु, आदि- तल्लक्षणो गृह्यते , अन्यथा यदि ज्ञानज्ञानिनोरव्यतिरेको शब्दाद् रत्न-दध्य-ऽक्षत-कुसुम-मङ्गलकलशाऽऽदिपरिग्रहः, न स्यात् तदा शाने सत्यपि ज्ञानी नोपलभेत वस्तुनिवहम् , तदेतज्ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम् । ननु कथं तद् अतन्मयत्वात् , प्रदीपहस्ताऽन्धवत् , पुरुषान्तरवद् वा । न मङ्गलम् ?, इत्याह- ते पी' त्यादि, हुर्यस्मादथै , यस्मात् चाऽनाकारं तज्ज्ञानम् , पदार्थान्तरवद् विवक्षितपदार्थस्यातदपि-सुवर्णाऽऽदिकं कस्यापि भावमङ्गलकारणत्वाद् मङ्ग- ऽप्यपरिच्छेदप्रसङ्गात् । अपि च-घटाऽऽदिशानतद्वतो~लं निर्दिष्टम् । यश्च कारणं तद् “ भूतस्य भाविनो वा , भा- तिरेके बन्धाऽऽद्यभावः प्राप्नोति, यथा हि ज्ञानाऽज्ञानघस्य हि कारण तु यल्लोके । तद् द्रव्यम्" इत्यादिव-| सुख-दुःखाऽऽदिपरिणामस्याऽन्यत्वे श्राकाशस्य बन्धाऽऽदचनाद् द्रव्यतयाऽपि व्यपदिश्यते, अतो द्रब्यमङ्गलं भवति । यो न भवन्ति, एवं जीवस्याऽपि न भवेयुरिति भावः ॥ नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे, श्रागमस्येह सर्वथैवाऽभावादिति ।
आह-यदि घटोपयोगानन्यत्वाद देवदत्तोऽपि घटः, श्रपूर्व श-भव्यशरीरयोः केवलमागमाभावापेक्ष द्रव्यमङ्गलत्व
ग्न्युपयोगानन्यत्वाञ्च माणवकोऽप्यग्निः, तर्हि जलाऽऽहरणमुक्नम्, अत्र तु क्रियाऽभावमाश्रित्य इति भावनीयम् । इति
दाह-पाकाऽऽद्यर्थक्रियाप्रसङ्गः। तदयुक्तम् , न हि सर्वोsगाथाऽर्थः ॥४७॥४८॥
पि घटो जलाऽऽहरणं करोति, नापि समस्तोऽप्यग्निर्दाहतदेवं प्रतिपादितमागमतो नोश्रागमतश्च द्रव्यमङ्गलम् । अ
पाकाऽऽद्यर्थक्रियां साधयति, कोणेऽवाङ्मुखीकृतघटेन भथ भावमङ्गलमुच्यते, तस्य च लक्षणं नामस्थापना-द्रव्या
स्मच्छन्नवह्निना च व्यभिचारात् । न चाऽसौ न घटः, शामिव भाष्यकृता केनापि कारणन नोक्नम् । तच्चेत्थमवग
नाग्निर्वा, लोकप्रतीतिबाधाप्रसङ्गात् । तस्माद् मङ्गलपदार्थन्तव्यम्
शानोपयोगाऽनन्यत्वादागमतस्तदुपयुक्नो भावमङ्गलमिति"भावो विवक्षितक्रिया-ऽनु भतियुको हि वै समाख्यातः ।
स्थितम् ॥ नोागमतस्तु आगमस्य सर्वनिषेधमाश्रित्य सर्वरिन्द्रादिव-दिहेन्दनाऽऽदिक्रियाऽनुभवात् ॥१॥"इति।।
सुविशुद्धः प्रशस्तः क्षायिकक्षायोपशमिकाऽऽदिको भावो अत्राऽयमर्थः-भवनं विवक्षितरूपेण परिणमनं भावः: प्र
भावमङ्गलम् , भाव एव मङ्गलं भावमङ्गलमिति कृत्या । थवा-भवति विवक्षितरूपेण संपद्यत इति भावः। कः पु.
उपलक्षणव्याख्यानादागमवर्जझानचतुष्टय-दर्शन-चारित्राणि
च नोश्रागमतो भावमङ्गलतया वाच्यानि, भावतः परनरयम्?, इत्याह-वनुर्विवक्षिता इन्दन-ज्वलन-जीवनाऽऽदि. का या क्रिया तस्या अनुभूतिरनुभवनं तया युक्नो विवक्षित
मार्थतो मङ्गलं भावमङ्गलमिति कृत्वा । इति गाथा:क्रियाऽनुभूतियुक्तः, सर्वज्ञैः समाख्यातः । क इव ?, इत्याह--
र्थः ॥ ४६॥ इन्द्राऽऽदिवत्-स्वर्गाधिपाऽऽदिवत् , अादिशब्दाद-ज्वलन
प्रकारान्तरेणाऽपि नोश्रागमतो भावमङ्गलमाह-- जीवनाऽऽदिपरिग्रहः। सोऽपि कथं भावः?, इत्याह-इन्दनादि
अहवा सम्मइंसण-नाणचरितोवोगपरिणामो। क्रियाऽनुभवात्' इति, आदिशब्देन ज्वलन-जीवनाऽऽदिक्रि- नोबागमत्रो भावो, नोसद्दो मिस्सभावम्मि ॥५०॥ यास्वीकारः विवक्षितेन्दनाऽऽदिक्रियाऽन्वितो लोके प्रसिद्धः अथवा-प्रतिक्रमण-पत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियां कुर्वाणस्य यो पारमार्थिकपदार्थो भाव उच्यते । भावश्चासौ मङ्गलं च शान-दर्शन-चारित्रोपयोगपरिणामः, स नोागमतो भाभावमङ्गलम् , भावतो वा परमार्थनो मङ्गलं भावमङ्गलमिति
यो भावमङ्गलं भवति । नोशब्दश्चाऽत्र मिश्रवचनः, यप्रस्तुतयोजना।
स्माद् नाऽसौ शान-दर्शन-चारित्रोपयोगपरिणामः केवल एतदपि द्विविधम्-प्रागमतश्च, नोआगमतश्च ।
एवाऽऽगमः, चारित्राऽऽदेरपि सद्भावात्, नाऽप्यनागम एव, तत्राऽऽगमतस्तावदाह
शानस्याऽपि विद्यमानत्वात् , इति मिश्रता । इति गामंगलसुयउवउत्तो, आगमत्रो भावमंगलं होइ।
| थाऽर्थः ॥५॥
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मंगल
अथाऽन्येन प्रकारेणा 53द्द
ade aमुकारी- इनाण किरिया विमिस्सपरिणामो । arerana is, जम्हा से आगमो देसे ॥ ५१ ॥ अथ गोआगमतो भावमङ्गलाधिकारे नमस्करणं न मस्कारोऽर्द्वदादिप्रणतिरित्यर्थः, स श्रादिर्येषां स्तोत्राऽऽदीनां ते नमस्काराऽऽदयस्तेषु ज्ञानोपयोगो नमस्कारादिज्ञानम् क्रिया शिरसि करकमलमुकुलविधानाऽऽदिका, नमस्कारा55 दिशानं च क्रिया च नमस्कारा 55 विज्ञानक्रियेताभ्यां विमिश्रवासी परिणामध स किम इत्याह-'नो' इत्यादि । ? चैत्यवन्दनाऽद्यपस्थायां यो नमस्काराऽऽदिज्ञान क्रियामि श्रितपरिणामः स नोश्रागमतो भावमङ्गलं भण्यत इत्यर्थः । कुतः ?, इत्याह-यस्मात् (से) तस्यैव भावतः परिणामस्याऽगमो नमस्कारा 35 विज्ञानोपयोगलक्षणो देशे एकदेशेऽवयवे पर्तते नोशब्द हैकदेशवचनः । इति गाथाऽर्थः ॥ ५१ ॥
"
(१४) अभिधान राजेन्द्रः ।
तदेवमुपदर्शितं नाम-स्थापना- द्रव्य-भावभेदतश्चतुर्विधं म ङ्गलम्। पतेषु च नामाऽऽदिमङ्गलेण्याद्यत्रयस्याऽन्योऽन्यमभेदं पश्यन् परः प्रेरयति
,
अभिहायं दव्व तवत्थसुब्रत्तणं च तुल्लाई । को भाववत्रियाणं, नामाई पहविसेसो १ ।। ५२ ।। भाववर्जितानां भावमेकं वर्जयित्वा शेषायां नामाऽऽदीनां नाम-स्थापना- द्रव्याणामित्यर्थः, कः प्रतिविशेषः ?; न कश्चि दित्यर्थः । कुतः ? इति चेत् उच्यते यत एतानि त्रिष्यपि तुल्यानि कानि पुनस्तानि , इत्याह-अभिधाने तावद् नाम त्रिष्वपि तुल्यम्, नामपति पदार्थे, स्थापनायां इज्ये व मङ्गलाभिधानमात्रस्य सर्वत्र भावात् । तथा द्रव्यत्वमपि त्रिष्वपि तुल्यम्, यतः- “ जस्स गं जीवस्स वा जीवस्स वा मंगलं ति नाम कीरह।" इत्यादि वचनाद् नामनि तावद् द्रव्यमेवाऽभिसंबध्यते, स्थापनायामपि " यत् स्थाप्यते " इति वचनाद् द्रव्यमेवायोज्यते तुइयविद्यत एव इति त्रिष्वपि द्रव्यत्वस्य तुल्यता । तथा तदर्थशून्यत्वं च भावार्थशून्यत्वं च त्रिष्वपि समानम्, नाम-स्थापनाद्रव्येषु भावमङ्गलस्याऽभावात् । तस्मादभिधान- द्रव्यत्व-भा वार्थत्वानां समानत्वाद नाम स्थापना- द्रव्याणां परस्प रमभेदः भावे तु तदन्यत्वं नास्ति। इत्येतावताना Hrssदिभ्यो विशेष्यत इति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ ५२ ॥ परेशेयमविशेषे प्रेरितेोविशेषः तमभिधित्सुः सूरिराह
-
गारोऽभिप्पा, बुद्धी किरिया फलं च पाएण । जह दीसह उवशिंदे, न तहा नामे न दविदे ।। ५३ ।। यथा स्थापनेन्द्रे श्राकारो लोचनसहस्र - कुण्डल- किरीटशचीसंनिधान-करकुलिशधारण- सिंहासनाऽध्यासनाऽऽदिजनितातिशयो देदसौन्दर्यभावो दृश्यते, तथा स्थापनाकर्तु यथा सतेन्द्राभिप्राय विलोक्यते, तथा इष्टु यथा तदाकारदर्शनादिन्द्र बुद्धिरुपजायतेः यथा चैनमुपसेवमानानां परिबुद्धी नमस्करा 55दिका किया वीच्यते,
"
मंगल फलं च यथा प्रायेणोपलभ्यते पुत्रोत्पत्यादिकम् न तथा नामेन्द्रे नाऽपि इज्येन्द्रे ततो नाम-इस्याभ्यां तायर व्य एव भेदः स्थापनाया इति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ ५३ ॥ तदेवं स्पष्टतया लक्ष्यमाणत्वादादावेव नाम-द्रव्याभ्यां स्थापनाया भेदमभिधाय नाम-स्थापनाभ्यां द्रव्यस्य भेदमभिधित्सुराह-
भावस्स कारण जह, दव्वं भावो न तस्स पजाओ | उपयोगपरिणइमओ, न तहा नामं न वा ठवया ॥ ५४ ॥ यथाऽनुपयुक्तवक्लृप्रभृतिकं साधुद्रव्येन्द्राऽऽदिकं वा द्रव्यं भावस्योपयोगरूपस्य भाषेन्द्रपरितिरूपस्य वा यथासं स्पेन कारणं निमित्तं भवति यथा च उपयोगपरिणामचो ति उपयोगमयो भावेन्द्रपरिणतिमवध भाषो यथासं स्पेन तस्याऽनुपयुक्तमभूतिकस्य साधुयेन्द्राऽऽविक स्य वा द्रव्यस्य पर्यायो धर्मो भवति न तथा नाम, नाऽपि स्थापनेति । इदमुक्तं भवति यथाऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यं कदाचिदुपयुक्तत्वकाले तस्योपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, सोऽपि योपयोगलक्षको भावस्तस्थाऽनुपयुक् रूपस्य द्रव्यस्य पर्यायो भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सन् भावेन्द्ररूपायाः परिणतेः कारणं भवति सोऽपि वा भावेन्द्रपरिणतिरूपो भावस्तस्य साधुजीवद्रव्येन्द्रस्य पर्यावो भवतिन तथा नाम-स्थापने। अतस्ताभ्यां द्रव्यस्य भेदः नाम्नस्तु स्थापना- द्रव्याभ्यां भेद: सामर्थ्यादेवाऽवसीयत इति। तदेवं यद्यपि परप्रेरितप्रकारेण नाम-स्थापनाद्रव्याणामभेद:, तथाप्युक्तरूपेण प्रकारान्तरेण भेदः सिद्ध एव नहि दुग्धताऽऽदीनां त्वादिभेदेपि माधुर्यादिनाऽपि न भेदः, अन धर्माध्यासित्वा वस्तुन इति भावः । इति गाथा ॥२४॥ तदेवं भेदव्याख्यापक्षे समर्थिते भूयोऽप्यपरेण प्रकारे
णाऽऽह परः
इह भावो च्चिय वत्युं तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं ? | नामाद विभावा, जं ते वि हु वत्थुपआया ॥ ५५ ॥ इह नामाऽऽदिविचारे प्रकान्ते भाव एव वस्तु, विवक्षिताधक्रियासाधकत्वात् उभयसम्मतवस्तुचत् न हि भावेन्द्र वद् विवक्षितार्थसाधनसमर्थ गोपालदारकाऽऽद्या नामेन्द्राssयतः किमन शेपर्भावार्थशून्यैर्नामाऽऽमिन किचिदित्यर्थः । अत्रोत्तरमाह- 'नामादओ' इत्यादि । इदमु भवति यदि सामान्येनैव भावो वस्तुत्येनाऽभ्युपगम्यत तदा सिसायता, यतो नामाऽऽदयोऽपि आदिशब्दात् स्थापना- इव्यपरिग्रहः भाषाः भावविशेष इत्यर्थः । कु इत्याह-यद्यस्मात् तेऽपि नामाऽऽदयो वस्तुनः प या धर्माः, तथाहि प्रविशिष्टे इन्द्रवस्तुन्युच्चरिते नामाऽऽदिकं भेदचतुष्टयमपि प्रतीयते किमनेन नामन्द्रो विवक्षितः
3
"
होस्वित् स्थापनेन्द्रः, द्रव्येन्द्रः, भावेन्द्रो वा ?, इति । ततः सामान्यस्येन्द्र पस्तुनचत्वारोऽयमी पर्यायाः इति नामाऽद यो भावविशेष एव इति भावस्य वस्तुसाधने न किञ्चिद नः सूयते पर्यायः भेदः भाव इत्यनर्थान्तरत्वात् । अथ पि शिष्टार्थक्रियासाधकं भावेन्द्राऽऽदिकं भावमाश्रित्य वस्तुत्वं साध्यते, तथाऽपि न काचित् क्षतिः, यतो भावेन्द्राऽऽदेर्भावस्य विशिक्रियानिर्वर्तकत्वे नामेन्द्राऽऽदिपर्यायासामपि तद्
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मंगल
मंगल
,
द्रष्टव्यमेव द्रव्यरूपतया पर्यायाणां परस्परमभेदात् । इति रीतस्वरूपम् तेन विशेषतो यथा तत् पूज्यम्, नैवसितराणि । इति गाथा ऽर्थः ॥ ५६ ॥ गाथाऽर्थः ॥ ५५ ॥
अथवा भावमङ्गलादिकारणत्वात् नामाऽऽदीम्पपि भावमङ्गलाssदिरूपाण्येव, इति दर्शयन्नाहअहवा नामं -ठवणा- दव्वाई भावमंगलंऽगाई | पाएण भावमंगल परिणामनिमित्तभावाओ ॥ ५६ ॥ अथवा नाम-स्थापना- द्रव्याणि भावमङ्गलस्यैवाऽङ्गानि का रणनि । कुतः ?, इत्याह-'पारण इत्यादि' भावमङ्गलपरिणामो भाषमहलोपयोगो भावमङ्गलसाध्वादिपरिणतिरूपो या तनिमित्तभावात् तत्कारणत्वादित्यर्थः । यच यस्य कार णं तत् तद्व्यपदेशं लभत एव यथा ' श्रायुर्धृतम्' ' रूपको भोजनम्' इत्यादि लिष्टकर्मणां केषाञ्चिद् नामाऽऽदीनि भावमङ्गलकारणानि न भवन्त्यपि इति प्रायोग्रहणम् । मङ्गलविचार प्रकान्तः तेन मायमलकारणानि नामाssदीन्युक्तानि यावता भावेन्द्राऽऽदेरपि तानि कारणत्वेन द्रष्टव्यान्येव । तस्माद् भावमङ्ग लाऽऽदिकारणत्वाद् नामा दीन्यपि तपाये इति भावस्य वस्तुत्यसाधने नामा35 दीनामपि तत्कारणत्वात् तद् न तूयते । इति गाथा ऽर्थः ॥ ५६ ॥ अथ नामाऽऽदीनां भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणान्याह - जह मंगलाभिहाणं, सिद्धं विजयं जिदिनामं च । सो पेयप, जिसपडिमालक्खणाईणि ५७ परिनिव्यमणिदेहं भव्वजइजनं सुवन्नमल्लाई । दश भावमङ्गल परिणामो होइ पाएण ॥ ५८ ॥ यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः तद्यथेत्यर्थः । मङ्गलमिति - ब्दरूपमभिधानम्, तथा 'सिद्ध' सिद्धाऽभिधानम्, विजयाऽभिधानम् निन्द्राऽऽदिनाम च केनचिदुरितं श्रुत्वा कस्यचित् प्रायेण सम्यग्दर्शनाऽऽदिको भावमङ्गल परिणामो भवति इति नाम्नो भावमङ्गलकारत्वे उदाहरणम् । तथा प्रेय चाऽवलोक्य जिनप्रतिमासचयाऽऽदीनि जिनप्रतिमालस्तिकादीनी आदिशम्यादनमारपदाऽऽदिपरिग्रहः भावमङ्गलपरिणामो भवतीत्यत्राऽपि संबध्यते । एतत्तु स्थापनाया भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम् । श्रथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे दृष्टान्तमाह-परिनिर्वृतो मुक्तिं गतो योऽसौ मुनिस्तद्देहम् तथा भव्ययतिर्भविष्यद्यतिपर्यायो वोऽसी जनस्तम्, तथा सुवर्णमाल्याऽऽदि च दृष्ट्वा प्रायेण सम्यग्दर्शनाऽऽदिभावमङ्गलपरिणामो भवतीति । श्रतस्तत्कारणत्वाद् नामाऽऽदीन्यपि भावमङ्गलानि इति स्थितम् । इति गाथाद्वयाऽर्थः ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
"
,
"
ननु नामाऽऽदीन्यपि यदि भावमङ्गलानि तर्हि किं तान्यपि तीर्थंकराssदिवत् पूज्यानि ?, इत्याशङ्कया ऽऽह
किं पुरा तमतिय-मश्चन्तं च न जमोऽमिहागाई । विवरी भाव, तेण विसेसेण तं पुत्रं ॥ ५६ ॥ नामादीन्युपयुक्या भावमङ्गलानि कि पुनः यो विशेषः स उच्यते तदभिधानाऽऽविषयमनैकान्तिकम् समोदितफलसाधने निश्वयाऽभावात् तथाऽस्यन्तिकं च यतो न भवति श्रात्यन्तिकप्रकर्ष प्राप्ततथाविधविशिष्टफलसाधकत्वाभावात् । भावे भावविषयं तु मङ्गलमुक्तविप
"
( १५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
3
तदेवं भिन्नवस्तुषु विशेषतश्चिन्त्यमानानां नामाऽऽदीनां प्रधानतरभावो दर्शितः, सामान्यतः पुनर्विचिन्त्यमानानां सर्ववस्तुषु प्रत्येकं चतुर्णामप्यमीषां सद्भावः प्राप्यत एच इति दर्शय
नाह
हवा वत्थुभिहाणं, नामं ठवणा य जो तदागारो । कारणया से दव्वं, कज्जावन्नं तयं भावो ॥ ६० ॥ अथवा सर्वस्यापि घट-पटा55 दिवस्तुनो यदाऽऽत्मीयमभि धानं तद् नाम यथोर्ध्वकुण्डलेष्वायतवृत्तग्रीवो घटः, आतानवितानीभूततन्तुसन्तानः पट इत्यादि । स्थापना पुनर्यस्तस्यैय सर्वस्य वस्तुनो निज आकारः भाविकपाला 35 विकार्यापेक्ष या तु या (से) तस्य सर्वस्याऽपि वस्तुनः कारणता हेतुता तद् द्रव्यम्, “भूतस्य भाविनो वाः भावस्य हि कारण तु यलोके । तद् द्रव्यम्” इति वचनात् । मृत्पिण्डाऽऽदिवस्तुनस्तु कार्या3पनं जन्यत्वाऽऽपन्नं तदेव घटा ऽऽदिकं सर्वे वस्तु भावो ऽभिधी यतेः भवनं भाव इति कृत्वा । इत्थे सबै वस्तु चतूरूपाऽविनाभूतं एम् एवमेव सम्यग्दर्शनव्यवस्थानात् सर्वनयसमूदा35त्मकत्वाजिनमतस्य । तदेवं सर्वस्याऽपि वस्तुनश्चतूरूपतायां किमुच्यते 'इह भावो श्चिय वत्थं, तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं ।' इत्यादि न ह्येकस्मिमेव वस्तुत्येककालं विद्यमानानां पर्यायाणां मध्ये ' श्रयं वस्तु' 'अपरस्त्ववस्तु, इति वक्तुं शक्यते, द्रव्यरूपतया सर्वेषामपि तेषामेकत्वादिति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ ६० ॥ विशे० ।
तदेवमवसितं प्रासङ्गिकम् । प्रकृतमुच्यते तच्चेदम्-पूर्व नोश्रागमतो भावमङ्गलं नोशन्दस्य सर्वनिषेधवचनत्वे विपु क्षायिकाऽऽदिर्भाव उक्तः, मिश्रवचनत्वे तस्य ज्ञानदर्शनचा - रित्रोपयोगः, एकदेशवचने पुनस्तस्याऽर्द्धनमस्काराऽऽदिज्ञानक्रियाविमिश्रपरिणामः प्रोक्लः । साम्प्रतं नोशब्दस्यैकदेशवाचित्वे नागमतो भावमङ्गलं ज्ञानपञ्चकरूपा नन्द्यपि भवतीति दर्शयन्नाह -
मंगलमहवा नन्दी, चउव्विहा मंगलं च सा नेया । दव्ये तूरसमुदओ, मावम्मि य पंच नाणाई ॥ ७८ ॥ सूत्रस्य सूचकत्याद् नोआगमतो भावमङ्गलस्यैव च प्रस्तु सत्यादमलने मोमतो भावमङ्गलमिति द्रव्यम् । अथवाशब्दस्तु पूर्वोक्लपक्षत्रयापेक्षया विकल्पार्थः, ततधायम थेः- यदि वा नोश्रागमतो भावमङ्गलमन्यद् द्रष्टव्यम् । किं तत् ?, इत्यादी नदी, नन्दन्ति समृद्धिमवाप्नुवन्ति भ प्राणिनो ऽनयेति वा नन्दी इयं च सूत्रे सामान्योक्कापपि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपसेरिह शानपकरूपा गृह्यते। सामारूपेण तु वियमानाऽसौ मङ्गलवद् नामा 45दितुर्विधानयति तदेवाह चउन्वित्यादि तत्र नन्दी, इति यत् कस्य चिदू नाम क्रियते सा नामनन्दी अक्षादिषु स्थापिता स्था पनानन्दी । इयनन्दी तु विविधा-आगमतः, नोआगमतब्ध | तत्राऽगमती नदीपात्रो ऽनुपयुक्तः, नोचागमतस्तु भव्यशरीरोभयव्यतिरिक्ता द्रव्यनन्या द्वादशप्रकारस्तुसमुदयः । तद्यथा - "भंभा-मुगुन्द-महल, कडंब-झल्लरि-हुडक-कंसाला । फाइल तलिमा सो संखो परायो घारसमो " ॥ १ ॥ इह च 'दब्वे तूर समुदश्रो' इत्यनेन श-भव्यशरीरव्यतिरिक्ता नन्दी धेऽपि दर्शिता, नामयन्यादिस्वरूपं पू
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मंगल
।
नाममाऽऽद्यनुसारेण सुशेयत्वाद् नोमिति भावनन्य पि द्विधा - आगमतः, नोआगमत आगमतो नन्दिपदार्थशस्तत्रोपयुक्तः । ' erryः । नोागमतस्त्वाह- भावम्मि बेत्यादि भावे भावनन्द्यां विचार्यमाणायां पुनः ' नोश्रागमतो भावमन्दी' इति शेषः । का पुनरियम् इत्याह-पञ्च शानानि । ?, आगमस्य ज्ञानपञ्चकैकदेशाचा गोशब्दस्य वेदाप्येकदेशयात्रित्वादिति भावः । इयमेव चेह नोश्रागमतो भावमङ्गलत्वेन प्रस्तुतगाचाऽऽदौ निर्दिष्टा इति गाथार्थः ॥७८॥ विशे० । म० । श्रा० म० । श्राचा० । ० चू० । दशा० । प्रव० | पं० व० । जी० । भ० । जीत० । सम्म० । जं० । ग० । पं० सं० । क० प्र० । पृ० वी० घ०१०। स्वा० उत्त० ('तित्थयरे भगते । दर्श० । । ।
सामाइय
इति आवश्यकस्य मध्यमङ्गलप्रस्तावः शब्दे इयः) मङ्गले विधानतिरूपं, स्तुतिरूपं च । तदप्येकैकं त्रिधा - कायिक, वाचिक, मानसिकं च । दशा० १ अ० । अर्ददादीनां नमस्कारे महा० २ ० पञ्चा० अदादिके च । श्राव० ।
(११) अभिधानराजेन्द्रः ।
चत्वारः पदार्था मङ्गतमिति के पते चत्वारः १ तानुपदर्श ?, या 'अरिहंता मंगल मित्यादि, अशोका 5. यष्टमहामति हार्यादिरूपां पूजामईतीत्यन्तस्ते ऽन्तो मङ्गले सितं, मा तं येषां ते सिद्धाय सिद्धा महले निर्वासाधकान योगान् मङ्गलं, साधयन्ति इति साधवस्ते च मङ्गलं, साधुग्रहणादाचार्योपा ध्याया गृहीता एव दृष्टव्याः, यतो न हि ते न साधवः, धारयतीति धर्मः । केवलमेषां विद्यत इति केवलिनः केवलिभिः सर्वज्ञैः केवलिप्रशप्तः, सर्वः प्रज्ञतः प्ररूपितः केवलिः कोसी, धर्मः श्रुतध धारिषधर्म मङ्गलम् अनेन कपिला 55दिधर्मव्य दमाह अदादीनां च महलता तेभ्य एव हितमात्सुखप्राप्तेः । आव० ४ ० " अर्हन्तो मङ्गलं मे स्युः सिद्धा मम मङ्गलम् । साधवो मङ्गलं सम्यग् जैनो धर्मोऽस्तु मङ्गलम् ||५||” नं० | पा० । “मंगलजयसइकयालोए ।" श्र० । भ० । पञ्चा० ।
।
ती० ३१ कल्प ।
चत्तारि मंगला - अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलभत्तिचित्त- मङ्गलभक्तिचित्र- त्रि० । श्रष्टानां मङ्गलानां मंगलं, केवलिपणच धम्मो मंगलं । भक्त्या विच्छित्त्या चित्रमालेखो यस्य । मङ्गलविच्छित्त्या लेखिते जी०३ प्रति०४ अधि० ।
मंगलसह मङ्गलशब्द- पुं० मङ्गलमित्येवंरूपो मङ्गलभूतो - । वा विजयसिद्धयादिशब्दो मङ्गलशब्दः । मङ्गलमित्याकार के शब्दे मङ्गलभूत विजयसिद्धयादिशन्देन च । “सोउं मङ्गलसद्द, सउणम्मि जहा उ इट्ठसिद्धि ति । " पञ्चा० ८ विव० ।
"
मंगलकेड - मङ्गलकेतु - पुं० विदेहमङ्गलायतविजयमङ्गलालयाया नगर्व्याः स्वनामख्याते नृपे, “इहेच विदेहे मंगलापईबिजय मंगलालयाण नगरीए मंगलकेऊ नरवई ।” दर्श०
46
१ तत्त्व ।
मंगलग - मङ्गलक - न० । स्वस्तिकाऽऽदिके, “अटुटु मंगलगा पता संजा-सौधियसिविच्छुदियावत्तवरमाणपत्रद्दासणकलसमच्छदप्पणा । " रा० । मंगलचेइय-मङ्गलचैत्य - न० । गृहद्वारदेशाऽऽदिनिष्कुटितप्रतिमा35विके, जीत० । मंगलजयसद्दकयालोय-मङ्गल जयशब्दकृताऽऽलोक - पुं० । यस्य दर्शने लोकैर्जयजयशब्दः क्रियमाणोऽस्तीति ज्ञेयम् । तस्मिन्, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । मंगलडू - मङ्गलार्थ त्रि० मङ्गलेना प्राप्तुं साधयितुमि। मङ्गलेनार्थ्यते च्यते इति मङ्गलार्थः । अथवा अर्ध्यते गम्यते साध्यत इत्यर्थो, मङ्गलस्यार्थो मङ्गलार्थः । मङ्गलसाध्ये, विशे० ।
मंगलाबffere मंगलदीव मङ्गलदीप ५० माङ्गल्यदीपे पञ्चा०८ विष० । - पुं० । न० । मंगलपडिसरण - मङ्गलप्रतिसरण- मङ्गलकङ्कणे, घ० ३ अधि० । पञ्चा० ।
मंगलपाडिया - मङ्गलपाठिका श्री० । वैतालिक्यां वीणायाम, "बेयालिए वीणाए।" प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका तालाभावे च पाय इति बिताले तालाभावे भवतीति वैतालिकी जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
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मंगलपायच्छित मङ्गलप्रायश्चित्त-१०। मङ्गलं दध्यक्षतचन्दनाऽऽदि तदेव प्रायश्चित्तमिव प्रायश्चित्तम्, दुःखप्नाऽऽदि प्रतिघातकत्वेनावश्यकर्त्तव्यत्वात् । दुःस्वप्नाऽऽदिप्रतिघाता याऽऽवश्यकर्त्तव्ये दध्यक्षतचन्दनाऽऽदिके, श्री विपा० । मंगलपुर- मङ्गलपुर १० मालवदेशस्खे स्वनामध्याते पुरे,
। मंगला - मङ्गला श्री० दुर्गायाम्, हरिद्रायाम, दूर्वाग्राम, पतिव्रतायाम्, वाच० । सुमतिजिनस्य जनत्यां च । प्रव० ११ द्वार । श्रव० । स० । नं० ।
।
मंगलालया- मङ्गलाऽऽलया श्री० । मङ्गलायती विजयशेषस्था - । यां स्वनामख्यातायां नगर्थ्याम्, “इहेव विदेहे मंगलावईविजर मंगलाला नयरी मंगलकेऊ सरवई। " दर्श० १ तस्य । "धाय दीये पुण्यविदेदे मंगलालपार रायरीए मंगलाविजय दिणामी संनिपेसो " आ०० अ० । १ दर्श० । मंगलाबई - मङ्गलावती- श्री० । जम्बूद्वीपविदेह पुष्कलावतीविजयपुण्डरी किणी नगरी नृपतेर्वज्रसेनस्य धारण्यपरनामधयायां स्वनामख्यातायाम् श्रग्रमहिष्याम् आ००१श्र० । ० म० । दशार्णपुरनगर नृपतेर्दशार्णभद्रस्य स्वनामख्यातायामग्र महिष्याम् आ० चू० १ श्र० । दो मंगलावई। स्था० २ ठा० ३ उ० । मंगलावईकूड - मङ्गलावती कूट- न० । जम्बूद्वीपसौमनसवक्षस्कापर्वतस्य स्वनामच्या कुटे, मलावतीविजयदेवस्य म लावती कूटमिति । जं० ४ वक्ष० । स्था० । मंगलावईविजय मङ्गलावतीविजय पुं०। जम्बूही पसीमन - वयज्ञस्कारपर्वतमङ्गलायती कूटस्थे स्वनामख्याते देवे, स्था० ७ ठा० । स्वनामख्याते चक्रवर्तिविजय क्षेत्रे च । न० ।
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मंजु
मंगलाई विजय
श्रभिधानराजेन्द्रः। "मंगलाई विजए रयणलंचया रायहाणी । जं. ४ वक्षः। तदैवाऽऽवेद्य भव्यानां, व्यहार्युस्त्यक्तगौरवाः।" श्रा०क०४० "धातकीखंडे दीवे पुश्वविदेहे मंगलावईविजए णंदिग्गामो।" आर्यसमुद्रस्य शिष्ये स्वनामल्याते प्राचार्य , आर्यश्रा० म. १० । आ० चू० । " इहेव विदेहे मंगलावईविजए समुद्रस्यापि शिवमार्यमहुँ बन्दे, किंभूतमित्याहमंगलालयाए णयगए।" दर्श०१ तत्त्व । स्था० । जम्बूमन्दर- भणगं करगं करगं, पभावगै लाखदंसणगुणाणं । पूर्वस्यां शीताया महानद्या दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च मङ्गलाव
| वंदामि अञ्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं ॥३०॥नं० । नीविजयं नाम चक्रवर्तिविजयमिति । स्था०८ ठा० ।
(व्याख्या 'अज्जमंगु' शब्द प्रथमभागे २११ पृष्ठे गता।) मंगलावत्त-मङ्गलाऽऽवर्त पुं० । स्वनामख्याते विजये, स्था०।।
मंगुल-मङ्गल-त्रि० । सुन्दरे, दर्श० ३ तस्व । श्रा० म०। दो मंगलावत्ता । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
व्यः । उपा० । "इय मंगुल पायरिए,मंगुलसीसे मुणेयवे।" • मंगलावत्तविजय मङ्गलाऽऽवर्तविजय-नाजियक्षेत्रे, जं०।
स्था०४ ठा०४ उ०। कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मंगलाबत्ते णामं वि- मंगुवायग-मङ्गवादक-पुं० । मनुवादनकारके,प्रा०चू०११०। जए पमते? । गोयमा ! णीलवंतस्स दक्षिणेणं सीताए | मंगुस-मङ्गस पुं० । भुजपरिसर्पभेदे, प्रज्ञा० १ पद । सूत्र। उत्तरेणं णलिणकूडस्स पुरच्छिमेणं पंकाईए पच्चच्छि- मंच-मच-पु.। 'मचि' उच्छ्रये, घञ् । खट्वायाम् , स्तम्भमेणं एत्थ णं मंगलावते णामं विजए परमत्ते । जहा। न्यस्तफलकमये (शा०१ श्रु० १ अ०) वंशनिर्मिते उच्चाकच्छस्स विजए नहा एसो वि भाणिअव्यो० जाव मंग-| ऽऽसने, मञ्चः स्थूणानामुपरि स्थापितवंशकटकाऽऽदिमयो लावते अ इत्थ देवे परिवसइ, से एएणऽद्वेणं० । जं. ४
लोकप्रसिद्धः । वृ०२ उ० । प्राचा।" अकुट्टो होइ मंचो।"
स्था० ३ ठा. १ उ० । भ० । प्रेक्षणकद्रष्ट्टजनोपवेशननिमित्ते वक्षः।
मालके, झा०१श्रु०१० । श्रा० । दश । मञ्चो मञ्चस-- मंगल्ल मङ्गल्य-त्रि० । मङ्गले साधुर्मगल्यः । शा०१२०१ दृशः । योगभेदे,सू०प्र० १२ पाहु स्वाथै कन् । तत्रैव,वाच। अ० । अनर्थप्रतिघातके मङ्गलकारिणि, भ० १ श० ५ मंचामंच-मञ्चातिमश्च-पुं०। मञ्चो महोत्सवविलोकनजउ० । मङ्गल्यं दुरितोपशमसाधु । भ० २ श०१ उ० ।।
नानामुपवेशननिमित्तमालकः, अतिमञ्चस्तस्योपरि मालकः। शा० । मङ्गलाय हितं यत् । रुचिरे च । चन्दने , मङ्गला
मालकोपरिवर्तिनि मालके, “ मंचाइमंचकलिए।" कल्प गुरुणि , स्वर्णे. सिन्दूरे, दधिन च । 'सर्वमङ्गलमङ्गल्ये' इति
१ अधि० ५ क्षण । औ० । दशा० । शा० । मञ्चान व्यवहारचण्डी । अश्वत्थे, विल्वे , जीरके, मसूरके , नारिकेले, क
प्रसिद्धान द्विघाऽऽदिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चापित्थे, रीठाकरले च । पुं० । वाच ।
तिमञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमश्चः। चन्द्रसूर्ययोर्नमाङ्गल्य-न० । मङ्गलमेव मङ्गलाय हितं ष्यञ् । मङ्गले, मङ्ग
क्षत्रयोगेन जायमानेषु वृषभानुजाताऽऽदिकेषु दशसु योगेषु लसाधने च । वाच०। दुरितक्षये, साधुर्माङ्गल्यः । स्था०६ । स्वनामख्याते चतुर्थे योगे, सू०प्र० १२ पाहु । ठा। अनर्थप्रतिघातके, त्रि० । भ० ६ श० ३३ उ०। औ०निया-मश्रिका-स्त्री० । श्रासनभेदे, “निवेशयात्र तन्वति, मंगी-मडी-स्त्री० । पदजग्रामस्य सप्तसु मूच्र्छनासु प्रथम-| सत्वरं वरमश्चिके।" श्रा० क०१०। मूर्छनायाम् , स्था० ७ ठा।
मंजरी-मञ्जरी-स्त्री० । मञ्जु अच्छति । जीप । अभिनवोद्धमंगु-मङ्ग-पुं० । स्वनामख्याते प्राचार्य, श्रा० क०।
तायां सुकुमारायां पल्लवाकुररूपायां वल्लया॑म् , वाच० । तत्कथा चैवम्
औ०। श्राचा० । डीबन्तस्तु तत्र । मुक्कायाम् , तिलकल" मथुरामागमन्मङ्गु-राचार्यः श्रुतपारगः ।
तायाम् , तुलस्यां च । वाच०। धर्मोपदेशवान् लब्ध्वा, भविकप्रतिवोधकः ॥१॥ मंजरीगुंडी-मञ्जरीगुण्डी-स्त्री० । वल्लीभेदे, “ (३४५) तोसमृद्धाः श्रावका भक्त्या, भोज्यानि सरसानि च ।
मरिगुंडी य मंजरीगुंडी" पाइ० ना० १३६ गाथा। सुखेनावस्थितिस्तत्र, तस्याऽभूत्सर्वकालिकी ॥२॥
मंजार-मार्जार-पुं०। मृज-आरन् । “वक्राऽऽदावन्तः॥१ ऋद्धिरससातरूपं, ततोऽभूगौरवत्रयम् ।
२६ ॥ इति प्राकृतसूत्रेणानुस्वारः । प्रा० १ पाद । विडाले, नित्यवासी स तत्राऽऽसी-दतो लोल्याद्विशेषतः ॥ ३॥
रक्तचित्रके, खट्टासे च । ततः संज्ञायां कन् । मयूरे, वाच। श्रायुःक्षये स मृत्वाऽभू-द्यक्षो निर्धमने पुरः। ज्ञात्वाऽवधेः स्वं शिष्यान् स्वान् , संज्ञाभूमिमुपागतान् ॥४॥
मंजिद्दोणी-माञ्जिष्टद्रोणी-स्त्री० । मञ्जिष्ठरागभाजने, भ. दृष्ट्रा प्रासारयदीर्घा, जिहां बोधयितुं सुधीः ।
८श०६ उ०। तेष्वेकः सात्त्विकः साधु-रूचे त्वं कोऽसि गुह्यक !॥५॥
मंजिया-मजिका स्त्री० मध्यवर्तिनि भागे,श्रा०म०१०। स ऊचे वो गुरुर्मृत्वा, लोल्यादीदक सुरोऽभवम् । मंजु-मजु-त्रि० । मनोहरे, वाच। प्रिये, जी०३ प्रति०४ नित्यवासं ततो यूयं, परित्यज्य कृतोद्यमाः॥६॥
अधिः । रा० । ०। कोमले, भ० ६ श० ३३ उ० । कल्प० । विहरध्वं क्रियानिष्ठाः, लभध्वं मा स्म दुर्गतिम् ।
अतिकोमले, 'मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे ।" भ०६ श्रुत्वा गुरुवचीऽदृष्ट-प्रत्यया गौरवेषु ते ॥७॥
श०३३ उ० । कल्प० ।और। सुन्दरे, पाइना०८८ गाथा।
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(१७) मंजुघोस अभिधानराजेन्द्रः।
मंडलपगरण मंजुघोस-मजुघोष-त्रि०।मज्जु प्रियो घोषो यस्य सः । रा०।। वाच । अर्द्धगव्यूततृतीयान्तनामान्तररहिते प्रामे, न०। कर्णमनःसुखदायिघोषोपेते , जं. १ वक्षः। जी।
रा० । स्वार्थे कन् । तत्रैव, शा०१ श्रु०१०।१०। मंजुल-मजुल-त्रि० । मञ्ज उलच् । मनोहरे, वाच० । कोम |
मंडविय-माण्डपिक-पुं० । मण्डपाधिपे, श्री०। ले, शा०१ श्रु०१०। विपा० । स०नि० । प्रश्न । भ० ।
मंडबायण माण्डव्यायन-पुं० । गोत्रभेदे, तद्वोत्रापत्ये च । "अदु मंजुला भासंति।” मञ्जुलानि-पेशलानीति । सूत्र०१
चं० प्र० १० पाहु० १६ पाहु०पाहु० । सू०प्र० । जं०। थु०४०१ उ० । मजुलाः सुललितवर्णमनोहरा इति ।। कल्प०१ अधि०३ क्षण। पाइ०ना।
मंडल-मण्डल-न० । मडि कलच् । चक्रवाले, स्था० ३ ठा०४ मंजुलप्पलाव-मञ्जुलप्रलाप-त्र० । मञ्जुलो मधुरः प्रलापो | उ० । चक्राऽऽकारेण वेष्टने, मण्डलाऽऽकारेण विहिते पदार्थे,
जल्पो यस्य सः। मधुरजल्पे, प्रश्न०४ आश्रद्वार। द्वादशनृपचक्रे, गोले , वाच० । मण्डल वृत्तमिति । ज्ञा०१ मंजुस्सर-मन्जुस्वर-त्रि० । मञ्जुः प्रियः स्वरो यस्य । जी० श्रु० ६ ०। देशे, स्था० ५ ठा० ३ उ० । “ मण्डलं ति ३ प्रति०४ अधि० । तं० । रा० । कर्णमनःसुखदायिस्वरोपे- विसयमंडलं ।" श्राव०४०। मण्डलमिङ्कितं क्षेत्रम् । स्था० ते,जं०१ वक्षः।
७ ठा० । समुदाये, स०३४ सम। यत्र द्वावपि पादौ समी मंजूसा-मञ्जूषा-स्त्री०। मन्ज-उषन् । पेटिकायाम् , वाच०।
दक्षिणवामतोऽपसाय्य ऊरू प्रसारयति यथा मध्ये मण्डलं "वारसदीहा मंजूससंठिया जाएहवीइ मुहे।” स्था०६ ठा। भवति अन्तरा चत्वारः पादास्तन्मण्डलम् इत्युक्तलक्षणे योश्राव० । जम्बूमन्दरपूर्वस्यां शीताया महानद्या उत्तरस्या धानां स्थानभेदे, व्य०१ उ० । प्रा०म० । प्रा० चू० । नि० स्वनामख्यातायां राजधान्याम् , स्था०८ ठा० । जं० । मत | चूल । उत्त० । मण्डलं सर्वतो वृत्तिः इत्युक्तलक्षणे सैन्यव्यूहषायाम् , वाचा
भेदे, कृत्रिमरेखासनिवेशेन रचिते पदार्थे, यथा ग्रहमण्डलं दो मंजूसा । स्था० २ ठा०३ उ० ।
सर्वतोभद्रमण्डलमिति । बिम्बे, वाच० । सूर्याऽऽदीनां ममंडग-मएडक-पुं० । मडि-खुल् । पिष्टकभेदे, वाच० । मण्ड
एडले, सू० प्र०। काः सुकणिकामयाः। वृ०१उ०२ प्रक० । समितिमायास् ,
अथ मण्डलनिष्पत्तिस्वरूपमाहबृ०१उ०२ प्रक०। दक्षिणापथे कुडवार्द्धमात्रया महाप्रमाणो मण्डकः क्रियते स हेमन्तकाले अरुणोदयवेलायायग्नीष्टि- रविदुगभमणवसाओ, निप्फजइ मंडलं इहं एगं । कायां पक्त्वा धूलीजङ्घाय दीयते । बृ० १ उ० ३ प्रक० । इत्यु- तं पुण मंडलसरिसं, ति मंडलं बुच्चइ तहा हि ॥१३॥ कलक्षणे पदार्थ, वाच०।
रविद्रिकभ्रमणवशानिष्पद्यते मण्डलम् इह एकं, तमंडण-मण्डन-पुं०। मण्डयति माडि ल्युः। अलङ्कारके, वाच०
पुनर्वृत्ताऽऽकारतया मण्डलसदृशमिति हेतोर्व्यवहारेण शोभाकारिणि, स० । भावे ल्युट् । भूषायाम् , न०।
मण्डलमुच्यते । सूर्याऽऽदीनां मार्गे, मण्ड० । स्था० । वाचक मण्डनं करणाऽऽदिभिरिति । अनु० । उत्त०।
सूर्याऽऽदीनां मण्डलविष्कम्भे, मण्डलशब्देन मण्डलमंडणधाई-मण्डनधात्री-स्त्री० । मण्डिकायाम् , तद्रूपे धा- |
विष्कम्भ उच्यते । परिमाणे परिमाणवत उपचाश्रीभेदे च ।झा०१ श्रु०१०। नि० चू०।
रात् । सू० प्र० १० पाहु० ११ पाहु० पाहु० । मण्डलपमंडव (ग) मण्डप(क) पुं०।न। मडि घञ् । मण्डं भू- रिभ्रमणे, सू०प्र० १ पाहु०६ पाहु. पाहु० । वृत्ताऽऽकार षां पाति रक्षति । पा-कः । मडि कपन वा । जनवि- हृद्विशेषरूपे कुष्ठरोगभेदे , पिं० । “ संसारे से न श्रश्रामस्थाने, देवाऽऽदिगृहे, वाच० । औ० । यज्ञाऽऽदिमण्डपे, च्छर मंडले।" मण्डले चातुर्गतिकसंसारे। उत्त० ३१ अ०। प्रश्न०३ सम्ब० द्वार । नागवल्लीद्राक्षाऽऽदिभिर्वेष्टिते स्थाने, आदर्श च । वाच० । "अंकामया मंडला ।" मण्डलानि यत्र उत्त०१८ अ०। औ० । जी०। छायाद्यर्थे पटादिमये आश्रय- प्रतिबिम्बसम्भूतिः । रा०। कुक्कुरे, दश०५ अ० १ उ०। विशेषे,जी०।
सर्पभेदे च । पुं०। स्त्रियां गौरा० डीए । गण्डदूर्वायाम्, तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहिं बह- वाच०। शुनि, “ (६२) साणा भसणा इंदमहकामुश्रा मंडला वे जाइमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा णवमा- कविला" पाइ० ना०४१ गाथा। लियामंडवगा वासंतीमंडवगा दहिवासुयामंडवगा सुरिल्लि- | मंडलग्ग-पुं० । न० | मण्डलान-न०। खड्गे, (५४) "स्वग्गो मंडवगा तंबोलीमंडवगा मुहियामंडवगा णागलयामंडवगा असी किवाणं, करवाल मंडलग्गं च ।” पा०० ना० ३७ अतिमुत्तमंडवगा अप्फोयामंडवगा अमेत्तामंडवगा मालु- गाथा । “जह णाम मंडलग्गेण । " सूत्र० १ श्रु०३ १०४ यामंडवगा सामलयामडंवगा निच्चं कुसुमिया निच्चं जाव
उ० । खड्गविशेषे, प्रश्न०३ श्राश्र० द्वार । पडिरूवा। जी० ३ प्रति०४ अधि० । प्रश्न । स्था।
मंडलझयण-मण्डलाध्ययन-न० । बन्धदशानां पञ्चमेऽध्यमण्डोरपत्यं माण्डवः । गोत्रमेदे,तगोत्रापत्येच । स्था०७ ठा।
यने, स्था० १० ठा। जे मंडवा ते सत्तविहा परमत्ता । तं जहा-ते मंडवा
मंडलपगरण-मण्डलप्रकरण-न० । विनयकुशलविरचिते चते आरिट्ठा ते संमुत्ता ते हेरा ते एलावच्चा ते कं
न्द्राऽऽदिमण्डलाऽऽदिविचारप्रतिपादके ग्रन्थे, मण्ड० । डिल्ला ते खारायणा । स्था० ७ ठा० ।
पणमिश्र वीरजिणिदं, भवमंडलभमणदुक्खपरिमुक्कं । मण्डपानकर्तरित्रिका निष्पाव्याम, शूकशिम्बीभेद, स्त्री०।। चंदाइमंडलाई-विधारलवमुद्धरिस्सामि ॥१॥ मण्ड।
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मंडल पगरण अभिधानराजेन्द्रः।
मंडलसंकमण तवगणगयणदिणेसर-सूरीसरविजयसेण सुपसाया । । ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे नरखित्तचारिचंदा-इयाण मंडलगमाईणं ॥८॥ । मूरिए भेयघाएणं संकमइ, तेसि णं अयं दोसे, ता जेडएसो विधारलसो, जीवाभिगमाइआगमेहितो। णंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे मूरिए भेविणयकुसलेण लिहियो, सरणत्थं सपरगाहाहिं ॥६६॥ | दघाएणं संकमति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो ण गच्छति, स्वकृतपरकृतगाथाभिः स्मृत्यर्थे लिखितो विचारलेशः न न- पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेइ, तेसि णं अयं दो तनो विहितः, किं तु श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृतमण्डलकमेव प्रति से, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे संस्कृत जीवाभिगमाऽऽदिगाथाभिः कतिभिः नृतनाभिश्च, सूरिए कदमकलं णिवेढेति, तेसिणं अयं विससे-ता जेडशेषं स्पष्टम् ॥ ६॥ मण्ड०।
णंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे रिए कम्मकलं निव्वेमंडलपय-मण्डलपद-पुं० । मण्डलरूपं पदं मण्डलपदम् । सू-:
देति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो गच्छति, पुरतो गच्छमायोऽऽदिमण्डलस्थाने, सू० प्र०१ पाहु०७ पाहु० पाहु०।।
णे मंडलकालं ण परिहवेति, तेसि णं अयं विसेसे, तत्थ मंडलपवेस-मण्डलप्रवेश-पुं० । अङ्कखलकप्रविष्टस्यैकस्य म
जे ते एवमाहंसु-मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कम्मकलं लस्य यल्लभ्यं भूखण्डं तन्मण्डलं , तत्र वर्तमानस्य प्रति
निव्वेढेति, एएणं णएणं णेयव्वं णो चेव णं इतरेणं णेद्वन्द्विनो मल्लस्य निपाताय यः प्रवेशः स मण्डलप्रवेशः । स्वमण्डले वर्तमानस्य मल्लस्य निपाताय प्रतिद्वन्द्विनो तव्वं । (सूत्रम्-२२) मल्लस्य तन्मण्डलप्रवेशे, पिं० । यत्राऽध्ययने चन्द्रस्य (ता कहमित्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् , कथं भगवन् ! मण्डसूर्यस्य दक्षिणेषु उत्तरेषु च मण्डलेषु च सञ्चरतो यथा लात् मण्डलं सङ्क्रामन् सूर्यश्चारं चरति, चारं चरन् आख्यामएडलान्ममण्डले प्रवेशो भवति तथा व्यावर्यते तदध्ययन त इति वदेत्। किमुक्नं भवति?-कथं भगवन्नेष सूर्यश्वारं चरन् मण्डलप्रवेशः । उत्कालिकश्रुतभेदे, नं० । पा०।
मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् श्राख्यात इति। अत्र हिमण्डलान्म
राडलान्तरसंक्रमणमेव चक्रव्यमतस्तदेव प्रधानीकृत्य वाक्यमंडलमज्झत्थ-मण्डलमध्यस्थ-त्रि०। मण्डलमध्यभागवर्ति
स्य भावार्थो भावनीयः। एवमुक्त भगवानाह-(तत्थ खलु इत्यानि, ज्यो०१५ पाहु।
दि) तत्र मण्डलान्मण्डलान्तरसंक्रमणविषये खल्विमे द्वे मंडलरोग-मण्डलरोग-पुं० । वटुस्थानव्यापके रोगे, जं०२
प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते । तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः-'ता' इति वक्ष० । जी
पूर्ववत् स्वयं भावनीयं, मण्डलादपरमण्डलं संक्रामन्-संक्रमंडलबइ-मण्डलपति-स्त्री०। देशकार्यनियुक्ने,जं० ३ वक्षः। मिच्छिन् सूर्यों भेदद्घातेन संक्रामति, भेदो मण्डलस्य ममंडलवंत-मएडलवत-न । मण्डलं मण्डलपरिभ्रमणमस्या
एडलस्यापान्तराल तत्र घातो गमनम् , एतच्च प्रागेवोत, तेन स्तीति मण्डलवत् । चन्द्राऽऽदिविमाने , सू० प्र०१ पाहु०७॥
संक्रामति, किमुक्नं भवति ?-विवक्षिते मण्डले सूर्येणाऽऽ
रिते सति तदन्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीय मण्डलं संक्रामपाहु०पाहु०।
ति, संक्रम्य च तस्मिन्मएडले चारं चरतीति । अत्रोपसंमंडलवत्ता-मण्डलवत्ता-स्त्री० । मण्डलं मण्डलपरिभ्रमणम
हार:-(एगे पवमाहंसु ) एके पुनरेवमाहुः । ता' इति स्यास्तीति मण्डलवञ्चन्द्राऽऽदिविमानम् , तद्भावो मण्डलव
पूर्ववत् , मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् संक्रतुमिच्छन् सूर्यता।चन्द्राऽऽदिविमाने, तत्राभेदोपचारात् चन्द्राऽऽदिविमा
स्तदधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्द्धमारभ्य कर्णकलं निर्वेष्टयति नान्येव मण्डलवत्ता इत्युच्यन्ते । सू० प्र० १ पाहु०७ पाहु० मुश्चति, इयमत्र भावना-भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्वस्वस्थापाहु०॥
ने उद्गतः सन्त्रपरमण्डलगतं कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीमंडलवरभद्द-मण्डलवरभद्र-पुं० । कुण्डलवरद्वीपस्थे देवे, सू०
कृत्य शनैः शनैरधिकृतं मण्डलं तया कयाचनापि कलया प्र०१६ पाहु०।
मुश्चन् चारं चरति, येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति - मंडलवरमहाभद्द-मण्डलवरमहाभद्र-पुं०। कुण्डलवरद्वीपस्थे | परानन्तरमण्डलस्याऽऽदो वर्तते इति, कर्णकलमिति च किदेवे, सू० प्र० १६ पाहु०।
याविशेषणं द्रष्टव्यम् । तश्चैवं भावनीयम्-कर्णमपरमण्डल
गतप्रथमकोटिभागरूप लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणामंडलसंकमण-मण्डलसङ्क्रमण-न० । सूर्याऽऽदीनां मण्ड
दुई क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा निर्वेष्टलान्मण्डलान्तरसङ्क्रमणे, चं०प्र०।
यतीति, तदेवं प्रतिपत्तिद्वयमुपन्यस्य यद्वस्तुतत्त्वं तदुपदर्शता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए |
यति-(तत्थेत्यादि) तत्र तेषां द्वयानां मध्ये ये एवमाहःचारं चरति आहिता ति वदेजा। तत्थ खलु इमामो दु- मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् भेदघातेन संक्रामति तेषामयम् - वे पडिवत्तीओ परमत्ताओ, तत्थगे एवमाहंसु-ता मंडलातो नन्तरमुच्यमानो दोषः, तमेवाऽऽह-येन यावता कालेन अन्तमंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए भेदधातेणं संकामति
रेण अपान्तरालेन मण्डलान्मएडलं संक्रामन् सूर्यः भेदघातेन
संक्रामतीत्युच्यते, एतावतीमद्धां पुरतो द्वितीये मण्डले न एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमाहंसु-ता मंडलातो मंडलं |
गच्छति । किमुक्नं भवति ?-मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् या. संकममाणे मंकममाणे मृरिए कन्नकलं णिवेढेइ, तत्थ जे वता कालेनापान्तरालं गच्छति तावत्कालानन्तरं परि
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( २० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मंडल संकमण
,
?
अमितुमचे द्वितीयमण्डलसत्काोरात्रमध्यात् पति, ततो द्वितीये मण्डले परिभ्रमन् पर्यन्ते तावन्तं कालं न परिभ्रमेत्, तद्गताहोरात्रस्य परिपूर्णभूतत्वात् एवमपि को दोष इत्याह-पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्ते गच्छन् मण्डलकालं परिभवति यावता कालेन मण्डलं परिपूर्ण परिभ्रम्यते, त स्य हानिरुपजायते तथा च सति सकलजगद्विदितप्रति नियतदिवसरात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः । [ तेसि गमयं दोसे सि] तेषामयं दोषः ( तत्थ इत्यादि ) तत्र ये ते चादिन एचमाडु मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्योऽधिकृतमण्डलं ककले निर्देष्टयति मुञ्चति तेषामयं विशेषो गुणतमेचा SSE - ( जेणेत्यादि) येन यायता कालेनापान्तरा लेन मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः ककलमधिकृतं मण्डलं निर्देष्टयति तावतां पुरतोऽपि द्वितीयमरालपर्यन्ते ऽपि गच्छति । इयमत्र भावना - अधिकृतं मण्डलं किल कर्णकलं निम्बैष्ठित मतोऽपान्तरालगमन कालोऽधिकृतमण्डलखत्क प पाहोरात्रे ऽन्तर्भूतरतथा च सति द्वितीये मण्डले संकान्तः सन् तनतकालस्य मनागप्यहीनत्वात् यावता कालेनाऽपान्तरालं गम्यते तावता कालेन पुरतो गच्छति, ततः किमित्याह पुरतो गच्छन मण्डलकाले न परिभवति यायता कालेन प्रसिद्धेन तत् मण्डलं परिसमाप्यते तावता कालेन तन्मण्डलं परिपूर्ण समापयति न पुनर्मनागपि मण्डलका लपरिहाणिस्ततो न कश्चित्सकलजगत्प्रसिद्धप्रतिनियतदिबसरात्रिपरिमा एप तेषामेवादिन विशेषो गुणः, तत इदमेव मतं समीचीनं नेतरदित्यावेदयनाह - (तत्थेत्यादि) तत्र ये ते वादिन पत्रमाहु:- मण्डलान्मरडले संक्रामन् सूध मण्डलं ककले निर्देशयति एतेन नयेनाभिप्रायेणामस्मन्मते ऽपि मण्डलान्मण्डलान्तरसं क्रमणं शातव्यं, न चैवम् इतरेण नयेन, तत्र दोषस्योक्तत्वात् । चं० प्र० २ पाहु० २ पाहु० पाहु० । सू० प्र० । मंडलसंडिड - मण्डलसंस्थिति मि० मगड वसंस्थाने, सू०प्र० ।
2
ता कहं ते मंडलसंठिती श्राहिता ति वदेआ ! तत्थ खलु इमातो अनुपडिवतीओ पनाओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता सव्वा वि मंडलवता समचउरंससंठाणसंठिता पत्ता, एगे एवमाहं १, एगे पुण एवमाहंसु - ता सच्चा वि गं मंडलवता विसमचउरंससंठाणसंठिता पम्मत्ता, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु - सव्वा विणं मंडलवया समचउकोणसंठिता पत्ता, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु - सव्वाऽवि मंडलवता विसमचउक्कोणसंठिया पत्ता, एगे एवमाहं ४, एगे पुरा एवमाहंसु-ता सव्वा त्रिमंडलवता समचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ५, एगे पुल एवामासु वा सच्या वि मंडलवता बिसमचक्कवालसंठिया पम्मत्ता, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुरा एवमाहंसु-ता सव्वा वि मंडलवता चक्कऽद्धबालसंठिया पाचा, एगे एवमाहं ७, एगे पुरा एवमाहंसु ता सम्या वि मंडलवतानागारसंठिया पाएगे एवमाहंसु ८
मंडलअणुजीवंत तत्थ जे ते एवमाहंसु ता सव्वा वि मंडलवता छत्ताकारसंठिता पत्ता, एतेणं एवं गायव्वं णो चेव गं इतरेहिं, पाहुडगाहाओ भाणियव्वाओ। (सूत्र -१६ )
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( ता कहं ते मंडलसंठिई इत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् कथं भगवन् ! 'ते' त्वया मण्डलसंस्थितिराख्याता इति भगवान वदेत् एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सत्येतद्विषयपरतीर्थकमतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एवोपदर्शयति - तर तु इत्यादि) तत्र तस्यां मण्डलसेथिती विषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः तद्यथातत्र तेषामानां परतीधिकानां मध्ये एके प्रथमे तीर्थान्तरीया एवमाहः, 'ता' इति तेषामेव तीर्थान्त tयाणामने कक्कय्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, (सव्वा वि मंडलवति ) मण्डलं मण्डलपरिभ्रमणमेवामस्तीति एडलवन्ति चन्द्राऽऽदिविमानानि तद्भावो मण्डलबत्ता, तत्रामेदोपचारात् यानि चन्द्राऽऽपिविमानानि तापव मण्डलबत्ता इत्युच्यन्ते तथा चाऽऽह -सर्वा श्रपि समस्वा मण्डलवता मरालपरिभ्रमणपति चन्द्रादिविमानानि. समचतुरख संस्थानसंस्थिताः प्रशखाः । अपोपसंहारः-(मासु) एवं सर्वाण्युपसंहारवाक्यानि भावनीया
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॥ एकेनामा सर्या अपि मत्ताबि श्रमचतुरस्र संस्थान संस्थिताः प्रज्ञप्ताः ॥ २ ॥ तृतीया एवमाहुः सर्वा अपि मण्डलयत्ताः समचतुष्कोणसंस्थिताः प्र शप्ताः ॥ ३॥ चतुर्थी आहुः सर्वा अपि मण्डलबत्ता विषमचतुःकोण संस्थिताः प्रशप्ताः ॥ ४॥ पञ्चमा आहुः सर्वा अपि मण्डलवत्ताः समचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञताः ॥ ५ ॥ षष्ठा आहुःसर्वा अपि मण्डलयत्ता विषमचक्रवालसंस्थिताः प्रशप्ताः॥६॥ रुममा दुःसर्वा अपि मण्डलपचाचकाचक्रवालसंस्थिताः प्राप्ताः ॥ ७ ॥ श्रष्टमाः पुनराहुः सर्वा अपि म एडलाकारसंस्थिताः प्रशप्ताः-उत्तानीकृतत्राऽऽकार संस्थिताः||5|| एवमष्टावपि परप्रतिपत्तीरुपदर्श्य संप्रति स्वमतमुपदिदर्शयिषुराह - ( तत्थ इत्यादि ) तत्र तेपामानां नीचन्तरीयामध्ये सर्वाि मण्डलचत्ताश्छत्रा SSकारसंस्थिताः प्रशप्ता इति एतेन नयेन, नयो नाम प्रतिनियतैकयवंशविषयोऽभिप्रायविशेषो यदाहुः समन्तभद्राऽऽदयो नयोतुरभिप्रायः' इति तत एतेन नयेन - एतेनाभिप्रायविशेषेण सर्वमपि चन्द्राऽऽदिविमानज्ञानं ज्ञातव्यं सर्वेषामप्युत्तानीकृतकपित्थार्द्धसंस्थानसंस्थितत्वा
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"
नेतनयैः तथावस्तुतत्त्वाभावात् (पाहुडगाओ भाविययाओ ति) अत्रापि अधिकृतप्राभृतप्राभृता धप्रतिपादिकाः काथन गाथा वर्त्तन्ते ततो यथासंप्रदाय भणितव्या इति । सू० प्र० १ पाहु० ७ पाहु० पाहु० । मंडल (म्) - मण्डलिन् पुं० मण्डलं फुडलनमस्त्यस्य इति । सर्पे, विडाले, वटवृक्षे च । वाच० । श्रहीनाम न्तर्गते मुकुलिसपैभेदे, प्रज्ञा० १ पद । कौत्स गोत्रान्तर्गते गोत्रभेदे, स्था० ७ ठा० । मंडलिअगुवजीवंत - मण्डल्यनुपक्षीयत् पुं० [कारतो मण्ड ल्पमोहन साधी, पं००२ द्वार
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मंडलिउवजीवंत अभिधानराजेन्द्रः।।
मंडिय मंडलिउवजीवंत-मएडल्युपजीवत-पुं० । मण्डलीभोक्लरि सा- | मंडलीवेसण-मण्डलीवेशन-२० । मण्डलीप्रवेशने, ध०३ धौ, "दुविहो य होई साह, मंडलिउवजीवो य इयरो य।" | अधिः । पं० २०२द्वार।
मंडावग-मएडापक-पुं०। मण्डनकर्त्तरि, 'मउडाऽऽदिणा मंड मंडलितकि (ण)-मण्डलितर्किन-पु. । मण्डल्युपजीवके, |
ति जे ते मण्डापकाः ।' नि० चू० ६ उ० । वृ. १ उ०२ प्रक०।
मंडावण-मएडापन-नामण्डनकरणे, प्राचा०२ श्रु०३च्छ । मंडलिबंध-मएडलिबन्ध-पुं। मण्डलमिङ्गितं क्षेत्रम् , तत्र
| मंडावणधाई-मएडापनधात्री-स्त्री० । धात्रीभेदे, प्राचा०२ बन्धो नाऽस्मात्प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवंबन्धनलक्षणं पुरुषम
| श्रु०३ चू। एडलपरिचारणलक्षणो वा मण्डलिबन्धः । दण्डनीतिभेदे,
| मंडिय-मण्डित-त्रि० । मडि-तः। भूषिते. औ० । भ० । - "मण्डलिबन्धम्मि होइ वियाओ ।” स्था. ७ ठा० ।
लंकृते, श्राचा०२ श्रु०२चू०४ श्राऔ० । स्वनामख्याते, श्रा०म० श्राव।
चौरे, उत्तः । तत्कथा चैवम्मंडलिय-माएडलिक-पुं०। स्वमण्डलमात्राधिपती , श्रा० म. १० । राजानश्चक्रवर्तिवासुदेवाः माण्डलिकाः ,
बिनागयडे नयरे मंडितो नाम तुराणातो परदब्वहरणपससो शेषा राजानः। स्था० ३ ठा० १ उ० । माएडलिकः
आसी, सो य दुट्टगंडो मि त्ति जणे पगासेतो जाणुदेसेण सामान्यराजा अल्पर्धिकः । जी० १ प्रति० । प्रशा० ।
णिश्चमेव अहयालेवलित्तेण रायमग्गे तुरणागस्स सिप्पमुवमहाराजे, प्रश्न ५ श्राश्र० द्वार । मण्डलं चक्रवालं
जीवति, चकमतोऽवि य दंडधरिएणं पारण किलिस्संतो तदस्त्यस्य स माण्डलिकः। प्राकारवलयवदवस्थिते, स्था०
कहिं वि चंकमति, रत्तिं च खत्तं खणिऊण दबजाय घेसूण
रणगरसंनिहिए उजाणेगदेसे भूमिघरं, तत्थ णिक्खिवति, ३ठा०४उ०। मंडलियखंधावार-माएडलिकस्कन्धावार-पुं।सामान्यनृप
तत्थ य से भगिणी कन्नगा चिट्ठति, तस्स भूमिधरस्स
मझ कूवो, जंच सो चोरो दब्वेण पलोभेउं सहायं दव्यतेग्रामनिवेशे, प्रशा० १ पद।।
वोढारं आणेति तं सा से भगिणी अगडसमीवे पुब्वणस्थामंडलियपचय-माएडलिकपर्वत-पुं० । मण्डलं चक्रवालं
सणे णिवेसेउं पायसोयलक्खेण पाए गिरिहऊण तम्मि कृवे तदस्ति येषां ते माएडलिकाः प्राकारयलयवदवस्थिताः, ते
पक्खिवह, ततो सो तत्थेव विवजह, एवं कालो वशति, च ते पर्वताश्च माएडलिकपर्वताः । मण्डलेन व्यवस्थितेषु
नयरं मुसंतस्स चोरग्गाहा ते ण सकिति गिरिहां, तो मानुपोत्तराऽऽदिषु पर्वतेषु, स०८५ सम।
नयरे उवरतो जातो। तत्थ मूलदेवो राया, सो कहं राया तो मंडलियपन्चया पलता । तं जहा-माणुसुत्तरे, कुंड- संयुत्तो ?-उजेणीए नयरीए सव्यंगणियापहाणा देवदलबरे, रुयगवरे । स्था० ३ ठा०४३० ।
त्ता नाम गणिया. तीए सद्धि यलो नाम वाणियदारो मंडलिया--मएडलिका-स्त्री० । वातोल्पाम् , उत्त० ३६ श्र०।
विभवसंपराणो मूलदेवो य संवसह, तीए मूलदेवो इट्टो,
गणियामाऊर अयलो, सा भणति-पुत्ति ' किमेपण जू. जी। श्राचा०।
इकारेण ति?, देवदत्ताप भरणति-अम्मो! एस परिडतो मंडलियावाय-मण्डलिकाबात-पुं० । वातोलीरूपे बादरवा
तीए भएणइ-किं एस श्रम्ह अभहियं विरणाणं जाणति, युकायभेदे, आचा०१ ध्रु०१ अ०७ उ० । भ० । उत्त । श्रयलो बाहत्तरिक लापंडिगो एव, तीए भएणति-वच्छ ! मण्डलिकावातो मण्डलिकाभिर्मूलत प्रारभ्य प्रचुरतराभिः अयल भण-देवदत्ताए उच्छु खाइर्ड सद्धा, तीए गंतून संमिश्रो वातः । जी०१ प्रतिः । प्रज्ञा०।
भणितो, तेण धितियं-को खुताई अहं देवदत्ताए पणमंडली-मण्डली-स्त्री० । श्रावलिकाविशेषे, या विच्छिन्ना तितो, तेण सगडं भरेऊण उन्छुयलट्ठीण उवणीय, तार एकान्ते भवति मण्डली साऽऽवलिका, या पुनः स्वस्थान
भरणति-किमहं हथिणी ?, तीए भणियं-वञ्च मूलदेवं
भण-देवदत्ता उनलु खाइउं अहिलसति. तोए गतृण से एव सा मण्डली । व्य०।
कहियं, तेण य कह उल्छुलट्ठीओ छल्लेउं गंडलीतो काउं अधुना मण्डलीमधिकृत्याह
चाउज्जायगादिसु वासियाओ कार्ड पेसियायो, तीए भ. एमेव मंडलीए वि पुवाहियन धम्मकहि वादी।। रणति-पिच्छ विएणणं ति, सा तुगिहका ठिया, मूलदेवस्स अहवा पइएणग सुए, अहिजमाणे बहुमुतेवि ॥१०३।।
पोसमावराणा श्रथल भएति-अहं तहा करेमि जहा म्यथा अधस्तादावालकामामुक्तम् , एवमेव मएडल्यामपि
लदेव गिरिहस्सि ति, तेण अठुसयं दीणाराण तीए भाटि
णिमित्तं दिवं, तीए गंतु देवदत्ता भएणति-अज अपलो तुमे द्रष्टव्यम् । सा मण्डली क्व भवतीतिदुच्यते-पूर्वाधीते नये
समं वसिही, इमे दीणारा दत्ता , अवरराहवेलाए गंतुं उज्ज्वाल्यमाने, धर्मकथायां धर्मकथाशास्त्रेषु, वादे वादशाखेषु उज्ज्वाल्यमानेवधीयमानेषु वा, अथवा-प्रकीर्णकश्रुते
भणति-अयलस्स कजं तुरियं जायं तेण गामं गतो ति, देवअधीयमाने बहुतेऽपि बहुश्रुतविषयेऽपि मरा उली भवति ।
दत्ताए मूलदेवस्स पेसियं, श्रागतो भूलदेवो, तीए समाणं
अच्छह, गणिया माऊए अयलो य अप्पाहतो, अनाओ तत्राप्याभाव्यमावलिकायामिवः अथ कथमावलिकायामिव
पविट्ठो बहुपुरिससमग्गो वेदिउं गम्भगिहं मूलदेवो परमण्डल्यामपि द्रष्टव्यमिति । व्य०४ उ० । (१०४ गा०) अस्याः
संभमेण सयणीयस्स हिट्ठा शिलुको , तेण लक्खितो , व्याख्या, 'खेत्त शब्दे तृतीयभागे १६७ पृष्ठे गता।)
देवदत्ताए दासचेडीओ संयुत्ताभो अवलस्स सरीरभंगादि
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मंडिय
अभिधानराजेन्द्रः। घेतुं उपट्टिया, सो य तम्मि चेव सयणीय ठियनिसनो लदेवो उद्वितो, पगम्मि ईसरघरे खस स्वयं, सुई बजाय भणह-त्थ चेव सयणीए ठियं अभंगेहि , ताओ भांति- | णोणेऊण मूलदेवस्ल उवार चडाविउ पट्टिया नयरवाहिरियं, विणासिज्जह सयणीयं, सो भणइ-श्रहं एत्तो उक्किटुतरं दा- जातो सूलदेवो पुरतो, चोरो असिणा कहिपण पिट्टनो एह, हामो, मया एवं सुविणो दिट्ठो, सयणीय ऽभंगणउव्वलण- संपत्ता भूमिघरं, चोरो तं दव्वं णिहिणि उमारो, भणिया रहाणादि कायब्वं, ताहिं तधा कयं, ताहे रहाणगोझो भूः। अणेण भगिणी-एयस्स पाहुण्यस्स पायसोयं देहि, ताए कूवलदेवो अयलेन बालेसु गहाय कहितो, संलत्तो यऽणेण-वञ्च तडसन्निविटे आसणे संणिवेसितो,ताए पायसोयलक्खेण पा. मुक्कोऽसि, इयरहा ते अज्ञ श्रहं जीवियस्स बिवसामि, जदि श्रो गहिरो वे हामि त्ति,जाव अतीव सुकुमाय पाया तामया जारिसो होजाहि ता एवं मुच्चेज्जाहि (त्ति) अयलाऽ-! ए नायं-जहेस कोई भूपपुव्वरजो विहलियगो, तीए अतुर्कमिहितो तो मूलदेवो अवमाणितो लज्जाए निम्गो उजे. पा जाया,तो ताए फायतले सत्रितो एस्तति,मा मारिजि. णीए, पत्थयणविरहितो वेत्रायडं जतो पत्थितो, एगो से हिसि त्ति,ततोपच्छा सो पलातो,ताए बोलोकतो-गटोणटो पुरिसो मिलितो, मूलदेवेण पुच्छितो-कहिं जाति ? , तेण त्ति,सो असि कविण मग्गतो लग्गो,मूलदेवो रायपहेअरभएणति-विराणायतडम्मि, मूलदेवेण भरणति-दोऽवि समं सन्निकिट्ठ णाऊण चच्चरसिवंतरितोठितो चोरोतं सिपलिंग वचामो ति, तेण संलत्तं-एवं भवउत्ति,दोऽवि पट्टिया, अंत. एस पुरिसोत्ति काउं कंकग्गेण असिणा दुहा काऊण पडिनिराय अडवी, तस्स पुरिसस्स संबलं अत्थि, मूलदेवो विचिं. यत्तो, गतो भूमिधरं , तत्थ बसिऊल पहायाए रक्सीप त वेर-एसो मम संबलेण संविभागं करेहि ति, इरिह सुते प- श्रो निग्गंतुण गतो वीहि, अंतरावणे तुरणागतं करोत, रारेताए आसाए वच्चति, ण से किंचि देह, तहयदिवसे छि- यणा पुरिसहि सहावितो, तेण चिंतियं-जहा सो पुरिसोर एणा अडवी, मूलदेवेण पुच्छितो-अस्थि एत्थ अभासे गा- नमारितो, अवस्संच सो एस राया भविस्सह त्ति, तेहि मो?, तेण भएणति-एस णादरे पंथस्स गामो, मूलदेवेण पुरिसेहिं प्राणितो, रायणा अब्भुटाणेण पूइतो, पासणे भणितो तुम कत्थ वससि ?, तेण भएणति-अमुगत्थ गामे, णिवेसावितो , स बहुं च पिवं आभासिउं सलसो-मम
णितो-तो खाइ अहं एयं गामं वश्वामि, तेण से | भगिणीं देहि त्ति, तेण दिना, विवाहिया, रायणा भोगा य पंथो उवदिट्ठो, गओ तं गाम मूलदेवो,तत्थऽण भिवं हिं- से संपदत्ता, कइसु विदिणेसु गएसु राया मंडिओ भडतेण कुम्मासा लद्धा,पवरणो य कालो वकृति, सो य गामा- णिो -दब्वेण कजं ति, तेरप सुप्रहुं दध्वजाय दिरण, रा. तो निग्गच्छह, साहू य मासखमणपारणपण भिक्खानिमित्तं यणा संपूइतो, अएणया पुणो मग्गिलो, पुणोऽवि दिरणं, त. पविसति, तेण य संवेगमावराणेणं पराए भत्तीए ते हैं कुम्मा स्स य चोरस्त अतीव सकारसम्माणं पउंजति, एपण पसेहिं सो साधू पडिलामितो, भणियं चणेणं-'धन्नाणं खुन- गारेण सर्व दवं दवावितो, भगिणी से पुञ्छति, ताए भएण. राणं,कोम्मासा हुंति साहुपारणए ।' देवयाए अहाससिहिया. ति--इत्तियं वित्तं, ता पुवायेइयलक्खाणुसारेण सव्वं ए भएणति-पुत ! पतीए गाहाए पछद्धे जं मग्गसि तं देमि, दवावेऊणं मंडितो खुलाए आरोवितो।" उत्तपाई०४०। 'गणियं च देवदत्तं, दतिसहस्सं च रज्जं च ॥१॥'देक्या- वाराणसीनगर्यो तिन्दुकवनस्थे स्वनामख्याते यच्छे, उत्त एभरणति-चिरेण मविस्लति त्ति,ततो गतो मूलदेवो बे- १२ अ० । (तत्कथा ' हरिकेसीबल' शब्दे वक्ष्यते ) बायड, तत्थ खत्तं खणतो गहितो,वज्झाए नीणिज्जइ, तत्थ स्वनामख्याते महावीरस्य षष्ठे गणधरे च । कल्प० २ पुण अपत्तो राया मो,आसो अहियासिओ,मूलदेवसगास- अधि० - क्षण । स० । “मगहाजणवए मोरियसरिणवेसे मागतो,पट्टिदायणं रज्जे अहिसित्तो राया जानो,सो पुरिसो मंडिय-मोरिया दो भायरो।" श्रा० चू०१ श्रः। विशे० । सहाविओ,सो अणेण भणितो-तुझ तणियाए श्रासाते प्राग- अथ षष्ठगमधरवक्तव्यतां विभणिपुराहतोह,इहरहा अहं अंतरालेचेव विवज्जतो,तेण तुझएसम
ते पब्बइए सोउं, मंडिॉ आगच्छई जिणसयासं । या गामो दत्तो,मा यमम सगासं एज्जसुत्ति,पच्छा उज्जेणीएगरणा सद्धि पीति संजोएति, दाणमाणसंपूतियंच काउंदेव
बच्चामि ण वंदामी, बंदित्ता पज्जुयासामि ॥१८०२॥ वतंत्रणेण ममिगतो,तेण पच्चुवगारसंधिएण दिण्णा, मूलदेवे- व्याख्या पूर्ववत् , नवरं मण्डिको नाम षष्ठो विजोपाध्यायः ण अंतेउरे छूढा, ताए समं भोगे जति । अन्नया यलो पोयव- श्रीमजिनसकाशमागच्छतीति ॥ १८०२।। हणेण तत्थाऽऽगतो, सुक्के विज्जते मंडे जाति पाए दब्बामणा
ततः किमित्याहणि ठाणाणि ताणि जाणमाणेण मूलदेवेण सो गिराहावितो, तुमे दव्वं यूमियं ति पुरिसेहि बद्धिऊण रायसयासमवणीतो,
आभट्ठो य जिणेणं, जाइ-जरामरणविप्पमुक्केर्ण । मूलदेवेण भएलति-तुम मम जाणसि ?। सो भपति-तुमं नामेण य गोत्तेण य,सव्वएणू सव्वदरिसीणं ॥१८०३॥ राया, को तुम न जाणद ?, तेण भएणइ-अहं मूलदेवो, सक्का
आभट्ठो य' इत्यादि, व्याख्या पूर्ववत् ॥ १८०३ ॥ इति रिउ विसज्जितो, एवं मूलदेवो राया जातो । ताहे सो अणं
नामगोत्राभ्यामाभाष्य पृष्टः भगवान् महावीरो बन्धमोक्षी पगराऽऽरक्खियं ठवेति, सोऽवि नसको चोरंगिव्हिडं, ताहे
व्यवस्थाप्य बन्धमोक्षयोर्भावाभावसंशयं मण्डिकस्य निरामूलदेवो सय पीलपडं पाउणिऊण तिं णिग्गतो, मूलदेवो
कृतवान् । विशे। एज्जतो पगाए समाए णिब्बिरणो अच्छति, जाव सो मडि. पचोरो आगंतूण भणति-को इत्थ अच्छति !, मूलदेवेण भ
तदेवं भगवता छिन्नस्तस्य संशयस्ततः किमित्याहपियं-अहं कप्पडितो, तेण मरणा-पहि मासं करेमि, मू
च्छिमम्मि संसयम्मी, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण ।
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मंत
(२३) मंडिय
अमिधानराजेन्द्रः। सो समणो पन्चरो,अद्विहि सह खंडियसएहिं ।१८६३३ मंडुक्की-मण्डूकी-खी । मण्डूक इव परायमस्त्यस्य अच् । व्याख्या पूर्ववत् , नवरम् अर्दवतुर्थः शिष्यशतैः सह प्रव्र- गोरा० डोष । मधिष्ठायाम् . श्रादित्यभक्तायाम् द्राक्षायाम, जितोऽयमिति । विश० । श्रा०म०।
| प्रगल्भ नायिकायाम् , माण्डूकयोषिति , वाव । हरितयन
स्पतिभेदे, प्रज्ञा१पद । महौषधिमेदे च । ती०६ कल्प। मंडियकुच्छि-मण्डितकुक्षि-न० । राजगृहे नगराद् बहिः क्री
मंडग-मंडुक-पुं० । स्वनासस्याते श्राधके. भ० १८ श०७ उ० । डाथ मरिडत कुक्षिवने , उत्त. २० ।
(कथा ‘मडग' शब्दे वक्ष्यते) मंडियपुत्त-मण्डिकयुत्र-पुं० । मण्डिकापानामधेये महावी
मंत-मन्त्र-पु.। मत्रि-अच। गुप्त भाषणे, रहसि कर्तव्यारस्य षष्ठे गणधरे , भ. ३ श.२ उ.। " थेरे मंडियपुत्ते
वधारणार्थयुक्ती, वाच । "रहस्तियं वा मंतं मंतेति ।" आ. णं अट्ठाई समण समाई वाएइ । " कल्प० २ अधि०८
८ चा०२श्रु०१.२०३उ०। राजाऽऽदिकार्याऽऽलोचने, ध०२ क्षण । स०। श्रा. म. (एतदवक्तव्यता 'बंधमोक्खसिद्धि'
अधिशा भूताऽऽदिनिग्रहकारके,(ध०२ अघि०) *काशब्दे पश्चमभागे १२४० पृष्ठे गता।)
राऽऽदिस्याहापर्य्यन्ते ह्रींकाराऽऽदिवर्णविन्यासाऽत्मके शब्नमंडी-मण्डी-स्त्री० । अग्रकूरे , आव० ४ अ०।
भेद वाचः। उत्त० १५ अ० । मन्त्राः प्रणवप्रभृत्तिका प्र
क्षरपद्धतयःपिं०। मन्त्रो देवाधिष्ठितोऽसाधमो वा. क्षरमंडीपाइडिया-मएडाप्राभृतिका-स्त्री० । “मंडीपाहुडिया सा
रचनाविशेषः । पञ्चा० १३ विव० । झा०। प्रव....। हुम्मि पागा अग्गरमडी य । अनम्मि भायणम्मि, का- व्य०। ग० । दर्श० । रा । पाठमात्रसिद्धः पुरुषाधिष्ठानो 5 तो देह साहुस्त ॥१॥” इत्युक्तलक्षणे वस्तुनि, आव० वा मन्त्रः । ध.३ अधिः। “मंतो पुण होइ पढियसिद्धो। " ४०।
पं०भा०१ कल्प । पं. चू०। पं.वानिवृ०। मंडु-मण्डु-पुं० । स्वनामख्याते मुनी, स्था० ७ ठा।
विद्यामन्त्रयोः स्वरूप प्रतिपादयन्नाहमंडक्क-मण्डक-पुं० । मण्डयति वर्षासमयम् । मडि-उक् ।
इत्थी विजाऽभिहिया, पुरिसो मंतो ति तव्विसेसो य । तैलाऽऽदौ ॥ ८।२।६८ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण द्वित्वम् । प्रा० विजा ससाहणा वा, साहणरहितो भवे मंतो।। २ पाद । भेके जलजन्तुभेदे, प्रश्न. १ आश्र द्वार । श्रा०म० ।।
खी विद्या अमिहिता, पुरुषो मन्त्र इति अयं तद्विशेषः वि. मगड़कः शालूर इति । व्य०७ उ०। राजगृहनगरस्थो नन्दो द्यामन्त्रयोर्विशेषः । इयमत्र भावना-यत्र मन्त्रदेवता स्त्री सा माणेकारः श्रेष्ठो मृत्वा मण्डूको भूत्वा ततः सौधर्मकल्पस्थ
विद्या ( विद्यास्वरूपम् ' सुयदेवया ' शब्दे वयते) यत्र दर्दुरावत पकविमानस्थइर्दुरसिंहानस्थो दर्दुरदेवो यथा पुरुषो देवता स मन्त्र इति । अथवा-साधनसहिता विद्या, जातस्तथा ज्ञाताध्ययनानां त्रयोदशेऽध्ययने । शा०१ श्रु०१२
साधनरहितो मन्त्रः । शाबराऽऽदिमन्त्रवत् इति तद्विशेषः । अ०। (दर्दुरकथा' दद्दर ' शब्दे पश्चमभागे २४५१ पृछे।
श्रा० म०१ अ०। प्रणवनमःपूर्वके स्वाहान्ते तत्तन्नामरूपे गता)
जिनाऽऽदिमन्त्रे । द्वा०।
मन्त्रन्यासोर्हतो नाम्ना,स्वाहान्तःप्रणवाऽऽदिकः(१४) मंडुक्कजाइपासीविस-मएड़कजात्याशीविष-पुं०। जात्याशी
तथाऽर्हतोऽधिकृतस्य नाम्ना मध्यगतेन प्रणवाऽऽदिकः विषमेदे. स्था०४ ठा. ४ उ० । श्राम । (वक्तव्यता आसीविस' शब्दे द्वितीयभाग ४८६ पृष्ठे गता)
स्वाहान्तश्च मन्त्रन्यासो विधीयते, मननत्राणहेतुत्वेनास्यैव प
रममन्त्रत्वात् । द्वा०५ द्वा०। मंडुक्कज्झयण-मण्डूकाध्ययन-न०। शाताध्ययनानां त्रयो
यदाहदशेऽध्ययन, तत्र राजगृहनगरस्थो नन्दो मणिकारः श्रेष्ठी मृ. मन्त्रन्यासश्च तथा, प्रणवनमःपूर्वकं च सत्राम । त्वा मरहको भूत्वा दर्दुरदेवो जात इति (शा०१N०१०।
मन्त्रः परमो ज्ञेयो, मननत्राणे ह्यतो नियमात् ॥११॥ प्रश्न । सः । श्राव० । श्रा० चू० ।) उनम् 'दद्दर' शब्दे
मन्त्रन्यासश्च तथा जिनबिम्बे कारयितव्यतयाऽभिप्रेते चतुर्थभागे २४५१ पृष्ठे)
मन्त्रस्य न्यासो विधेयः, कः पुनः स्वरूपेण मन्त्र इत्यामंडुक्काइ-मण्डूकप्लुति-
स्त्रीमण्डकवदुरप्लुत्य गमने,श्रा- ह-प्रणवनमःपूर्वकं च तन्नाम । मन्त्रः परमो शेयः, प्रणवः व०५ अ० । " मंडुक्कगइसरिसो खलु, अहिगारो होइ सुत्त
ॐकारो नमशदश्च ती, पूर्वावादी यस्य तत्प्रणवनम.पू. स्ल" मल्कः शालूरः स यथोत्प्लुत्य गच्छति । व्य०७ उ०। र्यकं, तस्य विवक्षितस्य ऋषभाऽऽर्नाम तमाममन्त्रः परमः
प्रधानो झयो वेदितव्यः । किमित्याह-मननत्राणे ह्यतो नि. मंडुक्कपुत्त-माएडुकप्लुत्य-पुं०। मण्डूकप्लुत्या यो जातोयोनः स माण्डूकप्लुत्यः । ग्रहाणां नक्षत्रयोगेन जायमाने वृषभा
यमात् । हिर्य स्मादतः प्रणवनम पूर्वकानाम्नः सकाशात् शानुजाताऽऽदिषु दशसु योगेषु दशमे योगे, स तु प्रहेण सह वे.
नरक्षणे नियमाद् भवत इति कृत्वा मन्त्र उच्यते, तन्नामै दितव्यः, अन्यस्य मण्डूकप्लुतिगमनासम्भवात् । उक्रं च-स.
वेति ॥ ११ ॥षो० ७ वियः । ध। “बाउकुमाराई वचन्द्रनक्षत्राणि प्रतिनियतगतीनि ग्रहास्त्वनियतगतय इति।
श्रावणं णियणिएहि मंतेहिं ।" तिजनिः-स्वकीयस्वकीयः सू० प्र० १२ पाहु।
मन्त्रैः प्रणवनमःपूर्वकस्वाहान्ततन्नामरूपैः । पञ्चा० २
विव० । स्त्रीणां चतुष्पष्टिकलाऽन्तर्गते कलामेदे, कल्प. १ मंडक्कियासाग-मएकिकाशाक-पुं०। शाकभेदे,उपा० २०।। अधि. ७ क्षण । प्रश्न । औ० । जीवोद्धरणगारुडा
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( २५ ) अमिधानराजेन्द्रः।
मंताउं दिमन्त्रशास्त्रात्मके पापश्रुतभेदे, स्था० ठा।" एगे में- दपदं भवेत् , सङ्घाऽऽदिप्रयोजने मन्त्रोऽपि प्रयोक्तव्य इति ते अहिज्जति, पाणभूषविहेडिणो।" एके केचन पापोदया. भावार्थः । पिं०। मन्त्रानामिचारकानाथर्वणानिति । सूत्र० १ ध्रु०८ अ०। मनप्पहाण-मन्त्रप्रधान-कामन्त्रेण प्रधानः उत्तमः,मन्वो वा प्राचा
प्रधानमुत्तमं यस्य सः । मन्त्रेणोत्तमे,उत्तममयोपेतेच । रा०। मंतजंभग-मन्त्रजम्भक-पुं० । जृम्भकदेवभेदे, भ० १४ श०
मन्त्राश्च हरिणेगमष्यादिमन्धाः । औ०। उ01
मंतवाय मन्त्रबाद-पुं० । द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गते कलाभेदे , मंतण-मन्त्रण-न० । गुप्तभाषणे,विचारणे च । प्राचा०२ श्रु०
कल्प.१ अधि० ७ क्षण । २०२० ३३०।
मंतराय-मन्त्रराज-पुं०। प्रधाने मन्त्रे, पो०८ विव०। मंतम्सास-मन्त्रन्यास-पुं० । मन्त्राणामङ्गेषु न्यासे , ध० २ अधिक।
मंतसत्थ-मन्त्रशास्त्र-०। जीवोद्धरणगारुडाऽऽदिके पापच
तभेदे, स्था० ६ ठा०। सूत्र। मंतदोस-मन्त्रदोष-पुं। उत्पादनादोषभेदे , यदा कार्मणं मोहनं यन्त्र मन्त्र साधयित्वा कृत्वा दवा आहाराऽऽदि.
मंतसाला-मन्त्रशाला-स्त्री० । मन्त्रगृहे, नि० चू० ८ उ० । के गृहाति तदा मन्त्रदोषस्त्रयोदशः। उत्त० २४ अ०। मंतसिद्ध मन्त्र सिद्ध-पुं० । सिद्धभेदे, श्रा०चू०११०। मतपय-मन्त्रपद-न । विद्याप्रमार्जनविधी, राजाऽऽदिगुप्त- साम्प्रतं मन्त्रसिद्ध सनिदर्शनमुपदर्शयतिभाषणे, "णणिव्यहे मंतपएण गोयं।" न राजाऽऽदिना सा- साहीणसवमंतो, बहुभंतो, वा पहाणमंतो वा। ई जन्तुजीवितोपमईकं मन्त्रं कुर्यात् । सूत्र. १ श्रु.
नेत्रो स मंतसिद्धो, खंमाऽऽगरिसो व सातिसमो ॥ १४ श्र।
स्वाधीनतर्वमन्त्रो बहुमन्त्रो वा प्रधानकमत्रो वायः स मंतपिंड-मन्त्रपिएड-पुं० । मन्त्रेणावाप्तः पिएडो मन्त्रपिण्डः।।
मन्त्रसिद्धः, क इव स्तम्माऽऽकर्ष इव सातिशयः । एष गाउत्पादनादोषमेदे, श्राचा०१ श्रु. १ अ. उ० । ध०।
थाऽक्षरार्थः । श्रा० म०१०।। पश्चा। जीता पिं०। ( उदाहरणाऽऽदि मन्त्रपिण्डभोजने प्रायश्चित्तं च 'बिज्जामंतपिंड' शब्दे वक्ष्यते)
लक्ष्मीपुरं पुरं तस्मिन् , श्रीविलासो नराधिपः । संप्रति मन्त्रविषये मुरुण्डराजोपलक्षितपादलितोदा
शब्दाऽऽदिविषयाऽऽसक्तः, सततं विललास यः ॥ १॥ हरणमाह
दृश तेनान्यदा साध्वी, रूपातिशयशालिनी।
नागच्छन्त्यत्र रम्भाऽऽद्या, यल्लावएपजिताइव ॥२॥ जह जह पएसिणी जा-गुगम्मि पालित्तो भमाडेइ ।
तद्रपदर्शनाऽऽक्षिप्त-विक्षेपान्तापुरे स ताम् । तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स ॥४८॥
सदैव मिलितः सङ्घः, शासितुं तं महीपतिम् ॥ ३॥ प्रतिष्ठानपुरे मुरुएडो नाम राजा, पादलिता नाम सूर
राक्षः सौधाङ्गणे तस्य, महास्तम्भशतोद्धतः । यः, अन्यदा च मुरुण्डराजस्य बभूवातिशयेन शिरोवेव
सुधायाः प्रतिच्छन्दो, मण्डपः सौधमण्डनम् ॥४॥ ना, न केनाऽपि विद्यामन्त्राऽऽदिभिरुपशमयितुं शक्यते, तत आकारिता राक्षा पादलिप्ताः सूरयः, कृतास्तेषामा.
साधुश्चैको मन्त्रसिद्धः, सङ्घमध्येऽऽस्ति शक्तिमान् । गतानां महती प्रतिपत्तिः, कथित चाऽऽकारणकारण शि
पाचकर्ष स ताँस्तम्भान् , मन्त्रशक्त्या समण्डपान् ॥ ५॥ रोवेदनायाः, ततो यथा लोको न जानीते तथा मन्त्र क्या
उत्पेतुयोमिन सर्वे ते, स्तम्भाः सौधगतास्ततः । यद्भिः प्रावरणमध्ये निजदक्षिणजानुशिरसि पावतो नि गन्तुकामा इव तदा, जायन्ते स्म बालाचलाः ॥६॥ जदक्षिणहस्तप्रदेशिनी.यथा यथा भ्राम्यते तथा तथा राज्ञः कान्दिशीकस्तदा राजा, समागत्य कृताञ्जलिः । शिरोवेदना अपगच्छति , ततः क्रमेणापगता सकलाऽपि साध्वी तामर्पयामास, सधै चाक्षमयन मुहुः ॥ ७॥ श्रा० शिरोवेदना , जातोऽतिशयेन सूरीणामुपासकः, ततो विपुल
कार। भक्तपानाऽऽदिकं तेभ्यो दसवान ।
मैतसोय-मन्त्रशीच-म० विद्याशाऽऽचात्मके शौचभंदे, स्था० अत्र दोषानाह
५ ठा० ३ ०। पडिमंतथंभलाई, सो या अनोव से करिनाहि ।।
मंताइविहाण-मन्त्राऽऽदिविधान-न । मन्त्राऽऽदीना-मन्त्रपावाजीवियमाई, कम्मरणगारी भवे बीयं ॥ ४६॥
| विद्यामभृतीनां प्रतिवद्धस्वरूपाणां विधान-साधनषिधिः। मइह कथानके न कोऽपि दोषो जातः, पादलिप्तसूरीणां | बाऽऽदिसाधविधी, पञ्चा० ३ चिवः । मुरुपडराजं प्रत्युपकारित्वात् , केयले प्रागुक्तविद्याकथानक
यानक | मंताइसरण-मन्त्राऽऽदिस्मरण-नक । मन्त्रविद्याऽऽविध्याने, इव मन्त्रेऽपि प्रयुज्यमाने सम्भाव्यन्ते दोषाः ततस्तदुप
पञ्चा०४ विव०। दर्शनं क्रियते , तवेयं गाथा प्रागिव व्याख्येया , नवरं 'भो बीयंति' पुण्मासाचनमधिकृत्य द्वितीयम्-अपवा- मंता-मत्वा भव्य० । अवधार्येत्यर्थे, सूत्र०१६०१० मा
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( २५) मंताजोग अमिधानराजेन्द्रः।
मंदकुमारय मंताजोग-मन्त्रयोग-पुं० । मन्त्राणां योगो व्यापारो मन्त्रयो- धुं वा आसोत्थमंथु वा अरणयर वा तहप्पगार मंथुजायं।"
गः । मन्त्रव्यापारे, मन्त्रश्च योगश्च तथाविधद्रव्यसंयोगो| श्राचा०२ थु०१ चू०१ १०८ उ० । मन्त्रयोगः । मन्त्रसहिते द्रव्यसंयोगे च । “ मंताजोगं | मंद-मन्द-त्रि० । मदि-अच् । जडे, मूर्खे, सूत्र०१ श्रु०१० काउं।" ग०२ अधि०।।
१ उ० । रा० । “तत्थ मंदा विसीयति ।" सूत्र० १ श्रु० ३१० मंताणुप्रोग-मन्त्रानुयोग-पुं०। चेटकाऽऽदिमन्त्रसाधनाभि- १ उ० । उत्त। अशे,सद्बुद्धिरहिते,मन्दः सदसद्विवेकाम्पटुः। धायके पापशास्त्रे, स०२६ सम।।
सूत्र०१N०११०२ उ०।दश। श्राचा ग०। मन्दाक्षा
नावरणीयनावष्टब्धा इति । सूत्र०१श्र०३०१ उ० श्रमंताहिराय-मन्त्राधिराज-पुं० । हिमाचलस्थे जायापार्श्वे,
लसे, पृ०१ उ०३ प्रक० । पा०। अशक्त, सूत्र०१ श्रु०३० हिमाचले जायापार्थे मन्त्राधिराजः श्रीस्फुलिङ्गः । ती०
१ उ० । अल्पसत्त्वे, सूत्र०१ थु० ३ १०१ उ० । “मन्दा जड़ा ४३ कल्प।
लघुप्रकृतयः।" सूत्र. १ श्रु० ३ ० १ उ० । अल्पे, उत्त०१८ मंति (ण)-मन्त्रिण-पुं० । मन्त्रयते णिनिः । राज्याधि-|
श्र० । पं० २० । मृदौ, अभाग्ये, रोगिणि, स्वतन्त्रे, खले,वाठायके अमात्ये, कल्प० १ अधि०३ क्षण । श्रा०म० । औ० ।
च० । मन्द इव मन्दः । मिथ्यात्वमहारोगग्रस्ते च । उत्त० रा।"अप्रवृत्तिगतं भूपं, छन्दोवृत्त्या स्तुवन्ति ये । लक्ष्मीह-
८०। तिकृतोपायाः, शत्रवस्ते न मन्त्रिणः ॥१॥" सङ्घा०१ अधिक १ प्रत्ता।
सो खलु सोचो मंदो, मंदो पुण दव्वभावेणं । (६०)। मंतिपरिसा-मन्त्रिपरिषद-स्त्री० । राशो राहस्यिकायां पर्षदि,
अथ मन्द इति कोऽर्थः ?, इत्याह-मन्दः पुनद्रव्यभावेन बृ०१ उ०१ प्रक०। ('परिसा' शब्दे पञ्चमभागे ६५१ पृष्ठे
द्रव्यतो भावतश्च मन्दो भवतीत्यर्थः। विवृतिः)
एकेक पुण उवचऍ,अवचयम्मि भावे उ अवचए पगतं। मंतिय-मान्त्रिक-पुं० । मन्त्रज्ञातरि, उत्त०१०।
तलिना वुड्डी सेट्ठा, उभयमो केइ इच्छंति ॥ ७०६॥ मंतु-मन्तु-पुं० । मन-कु-तुट् च । अपराधे, मनुष्ये, प्रजापतौ,
द्रव्यमन्दो, भावमन्दश्च । एकैकः पुनर्द्विधा-उपचये,अपचवाच० । क्रोधे च । “किं पुण मंतुप्पहरणेसु ।” मंतुप्पहरणा ये च । अत्रोपचयद्रव्यमन्दो नाम-यः परिस्थूरतरशरीरतया कोहप्पहरणा ऋषयः । नि. चू०२ उ० ।
गमनाऽऽदिव्यापारं कर्तुं न शक्नोति, अपचयद्रव्यमन्दस्तु मंथ-मन्थ-पुं० । मन्थ-करणे घञ् । द्रव्यतो दधिमन्थनदण्डे, यः कृशशरीरतया कमपि प्रयासं न कर्तुमाचष्टे , उभावतः कौकुचिकाऽऽदिके कल्पपरिमन्थौ, स्था० । इह |
पचयभावमन्दः पुनर्यो बुद्धरुपचयेन यतस्ततः कर्तुं नोत्सच मन्थो द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । यत श्राह-“द
हते । अपचयभावमन्दस्तु यो निजसहजबुद्धेरभावेनान्यदीव्वम्मि मंथवो खलु, तेणा मंथिजए जहा दहियं । द-|
याया बुद्धेरनुपर्जावनेन हितप्रवृत्तिनिवृत्ति न कर्तुमीशः स हितुल्लो खलु कप्पो, मंथिजइ कुक्कुयाईहि ॥१॥" स्था०
बुद्धेरपचयेन भावतो मन्दत्वादपचयभावमन्दः । अत्र चाs ६ ठा० । मन्थ इव मन्थः, केवलिना समुद्धातसमये दक्षिणो
नेनैव भावतोऽपचयमन्देन प्रकृतं, शेषास्तु शिष्यमतिविकात्तरदिग्वयप्रसारणात् लोकान्तप्रापिणि, मन्थवत् क्रियमा
शनार्थ प्ररूपिताः । अथवा-तलिना-सूदमा- कुशाग्रीया बुणे जीवप्रदेशसधाते च । स्था० ६ ठा० । श्रा० म०। सक्नुभिः
द्धिः श्रेष्ठा ततः सा सूक्ष्मतन्तुव्यूतपटीवदन्तःसारवत्वेनोसर्पिषाभ्यक्तः,शीतवारिपरिप्लुतैः। नात्यच्छो नातिसान्द्रश्च,
पचितेति कृत्वा यः कुशाग्रीयमतिः स उपचयभावमन्दः, यमन्थ इत्यभिधीयते ॥१॥" इत्युक्त पेयभेदे, सूर्यो, अर्कवृक्ष, ने
स्तु परिस्थूरमतिः स बुद्धः स्थूलसूत्रतया स्थूलशाटिकात्रमले; किरणे च । भावे घञ् । अालोडनाऽऽदौ, वाच।
या इव अन्तर्निःसारतालक्षणमपचयमधिकृत्या पचयभावममंथणिया-मन्थनिका-स्त्री० । लघुमन्थनदण्डे, सूत्र. १ श्रु०१
न्दः, इत्यतः केचिदाचार्या उभयमपचयमन्दमिच्छन्ति ।
प्रथमव्याख्यानाऽपेक्षया निर्बुद्धिकं , द्वितीयव्याख्यानपक्षे अ०१ उ०।
तु परिस्थरबुद्धिकमपचयभावमन्दमत्र प्रस्तावे गृहन्तीति मंथर-मन्थर-न० । मन्थ-करच् । कोषे , फले , वाधे, भावः । वृ० १ उ० १ प्रक० । तृतीयायां दशायाम् , मन्धानदण्डे च । पुं० । वक्रे, नीचे , जडे , मन्दे , वाच।। स्त्री० । स्था० । उक्तं च-" तइयं च दसं पत्तो, आ'विलंबते' विलम्बितो दीर्घकालभावी। पञ्चा०६ विव० । कै| णुपुवाएँ जो नरो । समत्थो भुजिउं भोगे, जइ से कैय्या दास्याम् , स्त्री० । वाच०।
अत्थि घरे धुवे ॥ १ ॥” इति भोगोपार्जने तु मन्द इति मंथु-मन्थु-पुं । चूर्णे, प्राचा०२ श्रु० १ चू० १ ० ८ उ०।। भावना । स्था०१०ठा०। वदराऽऽदिचूर्ण,दश०५१०१ उ० प्रश्न उत्त० श्राचा। मान्द्य-न० । मन्दस्य भावः ष्यञ् । रोगे,मन्दतायां च । सूत्र० दध्नः सम्बन्धिन्यवयवविशेष, तद्पे विकृतिभेदे च । दध्नः स- १ श्रु०४०१ उ०।। म्बन्धीयो मन्थुः इति नाम्ना प्रसिद्धोऽवयवःस विकृतिरिति । मंदकुमारय-मन्दकुमारक-पुं० । उत्तानशये बालके,प्रशाउबृ०१ उ०२ प्रक०।
त्तानशयायां बालिकायाम्, स्त्री० । “मंदकुमारए वा मंदकुमा मंथुजाय-मन्थुजात-न० । चूर्णमात्रे, “से जं पुण मंथुजायं
रिया घा।” मन्दकुमारक उत्ताशयो बालको, मन्दकुमारिजाणेज्जा । तं जहा-उंबरमंधुंवा, गरगोहमंडं घा, पिलाखुम- का उत्सामशया बालिका । प्रशा० ११ पद ।
पिलाखुमः/ रिया बायाबा
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मंदक्ख
मंदक्ख मन्दाचन। मन्दं संकुचितमति यस्मात् अच्
लज्जायाम्, वाच० । वृ० ४ उ० । मंदग - मन्दक - न० । गेयभेदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । मंदगर - मन्दगति - स्त्री मन्दगमने, मन्दगमनोपेते त्रि०।
सू० प्र०१ पाहु० १ पाहु०पाहु० । मंदग्गिकढिय - मन्दाग्निक्यथित - त्रि० । मन्दमग्निना क्वथि से अत्यग्निना कथितं हि विरगन्धादि भवतीति मन्दाग्निक्वचितं गन्धेन विशिष्यते। विशे० । मंदधम्म- मन्दधर्म्म- पुं० । धर्मे मन्दो मन्दधर्मः । राजदन्ताssदिदर्शनात् धर्मशब्दस्य परनिपातः । संयमशिथिले व्य० ३३० ००। ( दुब्बलचारिय शब्दे चतुर्थभागे दुर' शब्दे चतुर्थभागे २५६३ पृष्ठे एष उदाहृतः ) मंदधी - मन्दधी - पुं० । स्त्री० । मन्दबुद्धौ, षो० ६ विष० । मंदपरिणाम–मन्दपरिणाम–पुं० । मन्दः परिणामः परिणति
।
र्यस्य । ईषल्लक्ष्यमाणस्वरूपे, श्राचा० १ श्रु० ३ ० १ उ० । मंदपुछ- मन्दपुष ० न्यूनभाग्ये आ०म० १ ०
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( २६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
स०
श्न० । उत्त० ।
मंदबुद्धि - मन्दबुद्धि - ५० सद्बुद्धिविकले, पृ०१३०३ प्रक० पञ्चा० । ० म० । अल्पमतौ, पं० व० १ द्वार । मन्दबुद्धिश्च मिथ्यात्वोदयात् । प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । मंदभग्ग- मन्दभाग्य - क्रि० न्यूनभाग्ये आ० ४ ० उ
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मंदर
गाथापूर्वाने भावमङ्गलमभिहितं पचार्थेन तु पेक्षा पूर्वकारिप्रवृत्यर्थं प्रयोजना 55 विषयमिति।"उ कार्यज्ञातसम्बन्ध, धोता प्रवर्त्तते । शाखाSS. दौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः स प्रयोजनः ॥ १ ॥ " तत्र सूत्रकृतस्येत्याभिधेषपदम् निर्युकं कीर्त्तयिष्ये इति प्रयोजनपदम् प्रयोजनयोजनं तु मोक्षावाति । सम्बन्धस्तु प्रयो जनपदानुमेय इति पृथक् नोक्तः । तदुक्तम्- " शास्त्रं प्रयोजनं चेति, संबन्धस्याऽऽश्रयावुभौ । तदुक्त्यन्तर्गतस्तस्माद्भि नो नोक्तः प्रयोजनात् ॥ १ ॥ " इति समुदायार्थः । अधुनाऽवयवार्थः कच्यते तत्र तीर्थ तीर्थे द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, तत्रापि द्रव्यतीर्थ नयादेः समुत्तरसमार्गः भावतीर्थं तु सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि, संसारार्णवादुत्तारकत्वात् तदाधारी वा सक्ष्यः प्रथमगणधरो बातत्करणशीलास्तीर्थङ्करास्तान् नत्वेति क्रिया । तत्राऽन्येषामपि तीर्थकरयसम्भवे तव्यदार्थमाह-जिनवरानिति रा गद्वेष प्रोहजितो जिनाः, एवम्भूताश्च सामान्य केवलिनो ऽपि भवन्ति तद्व्यवच्छेदार्थमाह-वराः प्रधानाश्चतुशिरतिशषसमन्वितत्वेन ताम्रत्वेति एतेषां च नमस्कारकर
मनुज
नात्यन्तधीरो मन्दमनाः । भीरौ, हस्तिभेदे, पुरुषभेदे च । पुं० ।
स्था० ४ ठा० २ उ० ।
मंदमइ - मन्दमति - त्रि० । अल्पमतौ, सूत्र० । “ये मय्यवशां व्यधुरिद्धबोधा, जानन्ति ते किञ्चन तानपास्य । मत्तोऽपि यो मन्दमतिस्तथाऽर्थी, तस्योपकाराय ममेयःपसइसारान्तर्गतेनाऽसुमता ऽवाच्याऽतिदुर्लभ सुकुलोत्पत्तिसमग्रेन्द्रियसमाग्र्याद्युपेतेनाऽर्हद्दर्शनमशेषकर्मो- मंदमण-मन्दमनस् - त्रि० । मन्दं मन्दस्येव वा मनो यस्य सः चितवे यतितव्यम् कर्मोच्छेदश्च सम्यग्विषेयपेोऽ सावव्याप्तोपदेशमन्तरेण न भवति तथात्यन्तिकाहोश्रक्षयात्, स चार्हश्नेव, अतस्तत्प्रणीताऽऽगमपरिज्ञाने यत्नो मंदया - मन्दता - स्त्री० । मन्दस्य भावः तल् । कायजडताविधेयः आगमश्ध द्वादशाङ्गाऽऽदिरूपः सोऽप्यार्यरक्षितमिश्ररैवंयुगीन पुरुषानुग्रहबुद्धया चरणकरणद्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाचतुर्धा व्यवस्थापितः, तत्राऽधारा पर रणप्राधान्येन व्याख्यातम् अधुनाऽऽवसराऽऽयातं द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताऽयं द्वितीयव्याख्यातुमारभ्यते इति । ननु चार्थस्य शासनाच्छास्त्रमिदं शास्त्रस्य चापत्योपया त्यर्थमादिमले तथा स्थिरपरिचयार्थ मध्यमले शिष्याम शिष्याविच्छेदार्थं चान्त्यमङ्गलमुपादेयं तथेह नोपलभ्यते । सत्यमेतत्, मङ्गलं हीष्टदेवतानमस्काराऽऽदिरूपम्, अस्य च प्रऐता सर्वज्ञः, तस्य चापरनमस्कार्याभावाद् मङ्गलकरले प्रयोजनाभावाच न मङ्गलानिधानम्, गणधराणामपि तीर्थका नुवादित्वान्मङ्गलाकरणम्, अस्मदाद्यपेक्षया तु सर्वमेव शामंङ्गलम्।
याम्, अलसतायाम्, पा० । मंदर-मन्दर-पुं० [मेरी नि००१ ३० । प्रा० ति० ।
स० । नि० । प्रश्न० । जं० रा० । “ दो मंदरा । " स्था० २ ठा० ३ उ० । मेरौ, जं० ।
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सम्प्रति महाविदेहवर्षस्य पूर्वापरविभागकारिणं मेरुं पृ
च्छन्नाह
अथवा नियुक्तिकार एवात्र भावमङ्गलमभिधातुकाम ग्रहतित्थवरे व जिरावरे, सुकरे गहरे व मिऊथं । सूयगडस्स भगवचो, सिन्दुति कित्तइस्लामि ॥ १ ॥
मागमार्थोपदेष्टृत्वेनोपकारित्वात् विशिष्टविशेषणोपादानं च शास्त्रस्य गौरवाssधानार्थ, शास्तुः प्राधान्येन हि शात्रस्यापि प्राधान्यं भवतीति भावः । श्रर्थास्य सूचनात्सूत्रं तत्करणशीलाः सूत्रकारास्ते व स्वयंयुद्धादयोऽपि भय न्तीत्यत आह- गणधराः, तांश्च नत्वेति, सामान्याऽऽचार्याणां गणत्वेऽपि तीर्थकरनमस्कारानन्तरोपादानाङ्गौतमाऽऽदय एवेह विवक्षिताः । प्रथमश्चकारः सिद्धाऽऽद्युपलक्षणार्थ:, द्वितीयः समुचिती त्याप्रत्यवस्य क्रियान्तरसव्यपेक्षत्वातामाह - स्वपरसमयसूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतस्तस्य म हार्थवत्त्वाद्भगवांस्तस्य श्रनेन च सर्वक्षप्रणीतत्वमावेदितं भवति । सूत्र० १० १ ० १ उ० ।
"
कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे शामं पच्चए पते । गोयमा ! उत्तरकुराए दक्खिणं देवकुराए उत्तरेणं पुच्चविदेहस्स वासस्स पचच्छिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरच्छिमेणं जंबुदीवस्स दीवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरे ग्रामं पच्च पद्मने ।
( कहि णमित्यादि) प्रश्नः प्राग्वत् । उत्तरसूत्रे गौ
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मंदर
(२७) मंदर
श्रभिधानराजेन्द्रः। तम ! उत्तरकुरूणां दक्षिणस्यां देवकुरूणामुत्तरस्यां पूर्व- परिक्षेपेण, अथाऽऽद्यपरिधिगणितं मूले विष्कम्भस्य सविदेहस्य वर्षस्य पश्चिमायां पश्चिममहाविदेहस्य वर्षस्य च्छेदत्वाद्विषममिति दर्श्यते-मूले च विष्कम्भो दशयोजनसपूर्वस्यां जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे हस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा योजनस्य १००१०जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः ।
* तत्र योजनराशावेकादशभागकरणार्थमेकादशभिर्गुणिते ऊर्द्धमुश्चत्वम्
उपरितनदशभागक्षेपे च जाता एकादश भागा लक्षमेणवणउति जोत्रणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं एगं जोअण
कमेकादश च सहस्राणि १११००० ततोऽस्य राशेर्वर्गकरणे
जातम्-एकको विकस्त्रिको द्विकः एककः षद् च शूमहस्सं उव्वेहेणं ।
न्यानि १२३२१०००००० ततोऽस्य दशभिर्गुणने जातानि सप्तनवनवतियोजनसहस्राणि ऊोच्चत्वेन एकं योजनसह- शून्यानि १२३२१००००००० अथाऽस्य वर्गमूलाऽऽनयने लसमुद्वेधेन सर्वाग्रेण पूर्ण लक्षमित्यर्थः, वर माणचूलास- ब्धस्त्रिकः पञ्चक एककः शून्यमेकको द्विकः ३५१०१२, अकानि चत्वारिंशद्योजनानि त्वधिकानि , उच्छ्यचतुर्थाशो थास्य योजनकरणार्थ ११ भागः लब्धं योजन ३१६१०, भूम्यवगाहस्तु मेरुवर्जपर्वतेषु शेय इति।
अंश २, शेषम् ५७५८५६ । ७०२०२४, अर्द्धाभ्यधिकत्वाद्रपेदउद्वेधविष्कम्भौ
ते अंशाः३, समभूतलगतपरिधावपि ३१६२२, योजनानि -
वशिष्टांशानामर्द्धाभ्यधिकत्वाद्रपे दत्ते प्रयोविंशतिर्योजनानि, मृले दसजोयणसहस्साई णवई च जोषणाई दस
शिखरपरिधौ चार्द्धतो न्यूनत्वादशानां सूत्र किश्चिदधिकत्वं य एगारसभाए जोअणस्स विक्खंभेणं धरणिश्रले
न्यवेदि, अत एव मूले विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तः उपरि तनुकः दसजोअणसहस्सई विक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाए ऊर्दू मेखलाद्वयाविवक्षया उदस्तगोपुच्छाऽऽकारेण संस्थितः मायाए परिहायमाणे परिहायमाणे उवरितले एगं जोअण
सर्वाऽऽत्मना रत्नमयः, इदं च प्रायोवचनम् , अन्यथा-काण्डसहस्सं विक्खंभेणं ।
त्रयविवेचने श्राद्यकाण्डस्य पृथ्व्युपलशर्करावज्रमयत्वं तृती
यकारडे जाम्बूनदमयत्वं च भणिष्यमाणं विरुणद्धि, शेष मूले-कन्दे दश योजनसहस्राणि नवतिं च योजनानि दश
प्राग्वत्। चैकादश भागान योजनस्य विष्कम्भेन १००६० अंशाः १०, एकादशरूपेण छेदेन क्रमादपचीयमानविष्कम्भोऽसौ धर
अथात्र पनवरवेदिकाऽऽद्याहणीतले समे भागे दशयोजनसहस्राणि विष्कम्मेन मूल- से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वसंडेणं सतो योजनसहनमूर्दध्वगमने मूलगतानि नवतियोज
यो समता संपरिक्खित्ते वालो त्ति । नानि दश च एकादश भागा योजनस्य तुघुटुरित्यर्थः, तदनन्तरं मात्रया मात्रया ऊर्द्धगमने उच्चत्वस्य यो
(से णं एगाए ) इत्यादि व्यक्तम् , अत्र चारोहेऽवरोहे जनैकादशांशवृद्धया विष्कम्भस्य योजनैकादशांशहानिस्तथो
च इष्टस्थाने विस्ताराऽऽदिकरणानि सूत्रेऽनुक्तान्यपि उत्तरचत्वैकादशयोजनवृया विष्कम्भैकयोजनहानिः, एवमेका
ग्रन्थे बहूपयोगानीति दर्श्यन्ते-तत्र कन्दादारोहे करणमिदम् दशयोजनशतवृया योजनशतहानिः, तथा एकादशयोजनस
ऊई गतस्य यत्र योजनाऽऽदौ विस्ताराजिज्ञासा तस्मिन् योहस्रवृद्ध्या योजनसहस्रहानिरित्येवंरूपेण परिमाणेन परिही.
जनाऽऽदिके एकादशभिभक्ते यल्लब्धं तस्मिन् कन्दविस्तारा
दपनीते यदवशिष्टं स तत्र प्रदेशे मेरुव्यासः । तथाहि-कन्दा. यमाणः परिहीयमाणः उपरितले शिरोभागे यत्र चूलिकाया उद्भवस्तत्र एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेण, समभूतल
द्योजनलक्षमूर्द्ध गतस्ततो योजनलक्ष भियते तस्मिन्नेकादशतो नवनवतियोजनसहस्राण्यूध्वगमने पृथुत्वगतनवयो
भिभक्ते लब्धानि नवतिशतानि नवत्यधिकानि योजनानां दजनसहस्राणि तुत्रुटुरित्यर्थः।
श चैकादश भागा योजनस्य अस्मिन् कन्दव्यासात् दश योअथास्य परिधिः
जनसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्येमले एकत्तीसं जोअणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोअण-|
त्येवं परिमाणादपनीयते शेषं योजनसहस्रम् , एतावानत्र प्र
देशे मेरूपरितले व्यासः, अथवा-योजनसहनमारूढस्ततो सए तिमि अ एगारसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं - योजनसहने एकादशभिर्भक्ने लब्धानि नवतियोजनानि रणिअले एकत्तीसं जोअणसहस्साई छच्च तेवीसे जोअण- दश च एकादश भागा योजनस्य अस्मिन् पूर्वोकात् कन्द. सए परिक्खेवेणं उवरितले तिमि जोअणसहस्साई
व्यासाच्छोधिते शेष दश योजनसहस्राणि, एवमन्यत्रापि भा. एगं च वावढे जोत्रणसयं किंचिंविसेसाहिअं परिक्खेवेणं
व्यम् । अथ शिखरादवरोहे करणं, यथा मेरुशिखरादवपत्य मूले वित्थिरणे मज्झे संक्खित्ते उवरिं तणुए गोपुच्छ
यत्र योजनाऽऽदौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन् योजनाऽऽदिके
एकादशभिर्भक्ने यल्लब्धं तत्साहितं तत्र प्रदेशे मेरुव्यासमानं,यसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे त्ति ।
था शिखरायोजनलक्षमवतीर्णस्ततो लक्षे एकादशभिर्भक्ने मूले एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि नव च शतानि दशो- लब्धानि नवतिशतानि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागाः त्तराणिं त्रींश्चैकादशभागान् योजनस्य परिक्षेपण, धर-| अस्मिन् योजनसहस्रप्रक्षेपे जातानि १००६०-यान् कणीतले एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षट् च प्रयोविंशत्यधि- दे व्यासः । अथवा-शिखरानवनवतियोजनसहनाण्य कानि योजनशतानि परिक्षेपेण उपरितले त्रीणि योजनस- वतीर्णस्ततस्तेषामेकादशभिर्भागे हते लब्धानि नवसहस्रा. हस्राणि पकं च द्वाषष्ट्यधिकं योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिकं णि तानि सहस्रसहितानि जातानि दशसहस्राणि पतावान्
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( २८ अभिधानराजेन्द्र
मंदर
धरणीतले विस्तारः, एवमन्यत्रापि, अथ मेरौ मूलादारोहे मौलितोऽवरोद्दे च विष्कम्भविषयकहानिवृद्धिज्ञानार्थ करण मिदम् - उपरितनाभस्तनयोर्षिस्तारयोविंश्लेषे कृते तयोर्मध्यपर्त्तिना पर्वतोच्छ्रयेस भने पल सा हानिवृद्धिश्च तथाहि उपरितने विस्तारे योजनलहस्रम् अधस्तानायोजन १००१०
900000
शून्य
इत्येवंरूपाच्छ्रोधिते शेषं १०६० - के सवर्णनार्थ योजनराशिमेकादशगुणीकृत्य श्रधस्तना दश भागाः प्रक्षेध्या जातम् देन अस्य च भजनार्थं मध्यवर्तिनि ) पर्वतोच्छ्रये १००००० इत्येवंरूपे एकादशीकृते जातं अत्र छेवराशेरेकादशगुणत्वाद्भागाप्राप्ती उभयोर्ल साप हते जातम् से इयती प्रतियोजन हानि दिस तथा इदमेव लग्धमकार्यम् एककस्थाद्धसंभवाछेद एव द्विगुणीकियते जातम् से इयं मेरोरेकस्मिन् पार्श्वे वृद्धिर्हानिध्येति । प्रथोद्यत्वपरिक्षानाय करणमिदम् - मेरोर्यत्र भूतलाऽऽदौ प्रदेशे यो यावान् विस्तारः तस्मिन् मूलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं तदेकादशभिर्गुणितं सत् यावद्भवति तावत्प्रमाण उत्सेधः । तथाहि -शि
"
खरव्यासो योजनसहस्रं तस्मिन् कन्दव्याप्तात्पूर्वालाच्छोघिते शेषं नवतिसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा योजनस्येत्येतदात्मकं योजनराशिरेकादशभिगुरयते जातम् ३३३३० ये च दकादशभागास्तेऽपि एकादशभिजा तम् ११० तस्यैकादशभिर्भागे हृते लब्धानि दश योजनानि पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातं योजनानां लक्षम्, एतावदधोषि - स्तारोपरितनविस्तारयोरन्तरे उच्चत्वम्, एवं मध्यभागाऽऽदा वप्युच्च त्वपरिमाणं भावनीयमिति । नन्विह कस्मादेकादशलक्षणः छेदः कस्माद्वा तेन शेषं गुण्यते । उच्यते- एकादशानां योजनानामते एकं योजनम् एकादशानां योजनशतानामन्ते एकं योजनशतम् एकादशानां योजनसहस्राणामन्ते एकं योजनसह पति तत एकादशलक्षणः देवः तेनोच्यत्वपरिज्ञानाय विस्तारशेषं गुरायते, अन्यथा योजनानां दशसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा योजनस्येत्येवं विस्तारा कन्यादारोहसे धरणीतले नवतियोंजनानि दश चैकाभागाः कथं त्रुपेयुरिति, ननु मेखलाइये प्रत्येकं परितः पञ्चयोजनशतविस्तारयोर्नन्दन सौमनसवनयोः सद्भावात् प्रत्येकं योजनसहस्रस्य युगपत् त्रुटिः, ततः किमित्येकादशभागपरिहारिणः उच्यते-क गत्या समाधेयमिति का च करूंग तिरिति वदुच्यते - फन्दादारभ्य शिखरं यावदेकान्तरूपा यां दरिकायां दत्तायां यदपान्तराले क्याऽपि कियाका त त्सर्व कर्णगत्या मेरोराभाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञा सर्वत्रैकादशभाग परिहाणि परिवर्णयन्ति । श्रयं चार्थः श्रीजिनमशिक्षमाश्रमणपूज्वैरपि विशेषवत्यां बोधि घनगणितनिरूपणावसरे दृष्टान्तद्वारेण ज्ञापित पवेति ।
सम्प्रत्वेतद्वतयनयन्पतामाह
मंदरे णं मंते ! पव्वए कह वणा पपत्ता ? । गोमा ! चचारि वया पत्ता । तं जहा मदसालवणे १, संदराव २, सोमणसवणे ३, पंडगवणे ४ ।
(मंदरे समित्यादि) प्रश्नसूत्रं ध्यक्क्रम्, उत्तरसूत्रे चत्वारि वनानि प्रशतानि । तद्यथा-भद्राः सद्भूमिजातत्वेन सरलाः
मंदर
शालाः साला वा तरुशाखा यस्मिन् तत् भद्रशालं भद्रसाल वा, अथवा भद्राः शाला वृक्षा यत्र तद् भद्रशालम् । नन्दयति आनन्दयति देवाऽऽदीनिति नन्दनम् सुमनसां देवानामिदं सौमनसं देवोपभोग्य भूमिका ऽ ऽसनाऽऽदिमत्वात्। परडते-ग च्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्येन सर्ववनेष्यतिशायितामिति
"
प्रत्यये पर इमानि चत्वापि स्वचाने मे परिक्षिप्य स्थितानि । जं० ४ वक्ष० । (नन्दनवनाऽऽदिवक्लव्यता नन्दनवनाऽऽदिशब्देषूक्ला । )
अथ मेरी कारडण्याािसुतमः पृतिमंदरस्स णं भंते ! पव्त्रयस्स कइ कंडा पहाता ।। गोश्रमा !! तो कंडा पत्ता तं जहा-देहिले कंडे, मज्झमिले कंडे, उवरिल्ले कंडे | मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हिट्ठिल्ले कंडे कतिविहे पत्ते ? । गोत्रमा ! चठविहे पते । तं जहा - पुढवी १, उबले २, वइरे ३, सक्करा ४ । मज्झिमिल्छे णं भंते ! कंडे कतिविहे परमते ? । गोश्रमा ! चउ व्विहे पाते । तं जहा - अंके १, फलिहे २, जायरूवे ३, रयए ४, वरिल्ले कंडे कतिविहे पण ते । गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते सव्यर्जवृणयामए मंदरस्स खं भंते ! पव्वयस्स हे द्विल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? । गोत्रमा ! एगं जोअणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते । मज्झमिल्ले कंडे पुच्छा ! । गोयमा ! तेवट्ठि जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पम्पते । उवरिल्ले पुच्छा ?। गोयमा ! छत्तीसं जो अणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ताई । एवामेव सपुव्वावरेणं मंदरे पव्वए एगं जो णसयसहस्सं स प (सूत्र - १०८) । (मंदर समित्यादि) मेरोदन्त पर्वतस्य कति काराडानि प्रशतानि । फाराडे नाम विशिष्टपरिणामानुगतो विच्छेदः पवैतक्षेत्रविभाग इति यावत् । गौतम ! त्रीणि काण्डानि प्रशतानि । तद्यथा - श्रधस्तनं काण्डं, मध्यमं काण्डम्, उपरितनं काण्डम् । अथ प्रथमं काण्डं कतिप्रकारमिति पृच्छति - ( मंदरस्स इत्यादि ) प्रश्नः प्रतीतः । निर्वाचनसूत्रे पृथ्वी- मृत्तिकाः, उपलाः - पाषाणाः, वज्राणि-हीरकाः, शर्कराः कर्करिकाः, एतन्मयः कन्दो मन्दरस्य । एतदेव हि प्रथमं काण्डं सहस्रयोजनप्रमाणं , ननु प्रथमकाण्डस्य चतुःप्रकारत्वात् तदीपयोजन सहस्रस्य चतुर्विभजने एकप्रका रस्य योजनसहस्रचतुर्थाशप्रमाणक्षेत्रता स्यात् तथा च सति विशिष्टपरिणामानुगतविच्छेदरूपत्वात् त एव काण्डसंख्यां कथं न वर्द्धयन्तीति ? उच्यते- क्वचित्पृथिवीबहुलं क्वचिदुपलच चपलं क्वचिच्छुकबलम् । इद मुक्तम्भवति उक्तचतुष्टयमन्तरेणान्यत्किमष्यङ्करत्नाऽऽदिकं न तदारम्भकमिति अतो नैयत्वेन पृथिव्यादिरूपविभागाभावाच काण्डसंख्यावर्द्धनावकाश इति । मध्यकाएंडगतचरतुपृच्तार्थ माह (मरिमिल्ले इत्यादि) रत्नानि - स्फटिक रत्नानि जातरूपं सुवर्ण, रजतं रूप्यम् । श्रत्राषीयं भावना - क्वचि दङ्कबहुलमित्यादि । अथ तृतीयं काण्डम् ( उवरिश्ले इत्यादि) प्रश्नो व्यक्तः । उत्तरसूत्रे एका 55कारं भेदरहितं सर्वाऽऽत्मना
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(२६) मंदर अभिधानराजेन्द्रः।
मंदरचूलिया जम्बूनदं रक्कसुवर्ण तन्मयमिति । काण्डपरिमाणद्वारा मेरुप-1 णवीसं जोषणाई परिक्खेवेणं उप्पिं साइरेगाई बारस रिमाणमाह-(मंदरस्स णमित्यादि) भगवन् ! मन्दरस्या:
जोअणाई परिक्खेवेणं मूले वित्थिमा मज्झे संखित्ता उधस्तनं काण्डं कियद्वाहल्येन-उच्चत्वेन प्रशप्तम् ? । गौतम! एकं योजनसहनं बाहल्येन प्राप्तम् । मध्यमकाण्डे पृच्छा
प्पि तणुगोपुच्छसंठाणसंठिा सबवेरुलिआमई अच्छा प्रश्नपद्धतिर्वाच्या, साच-" मंदरस्स णं भंते ! पब्वयस्स सा णं एगाए पउमवरवेइयाए • जाव संपरिक्खित्ता मन्झमिल्ले कंडे केवइयं वाहल्लेणं पण्णत्ते ?।" इत्यादिरूपा | इति उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे • जाव सिद्धायस्वयमभ्यूह्या । गौतम ! त्रिषष्टिं योजनसहस्राणि बाहल्येन प्र
यणं बहुमझदेसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विशप्तम् , अनेन भद्रशालवनं नन्दनवनं सौमनसवनं द्वे अन्तरे चैतत् सर्व मध्यमकाण्डे अन्तर्भूतमिति, यत्तु समवा
क्खंभेणं देसूणगं कोसं उड्डू उच्चत्तेणं अणेगखंभसय याने अत्रिंशत्तमे समवाये द्वितीयकाण्डविभागोऽपत्रि
जाव धूवकडुच्छुगा। शत्सहस्रयोजनान्युच्चत्वेन भवतीत्युक्तं तन्मतान्तरेणेति ।
(पंडगवणे त्ति ) पण्डकवनस्य मध्ये द्वयोः चक्रबालविएवमुपरितने काण्डे पृच्छा शेया, पत्रिंशद्योजनसहस्त्राणि ध्वम्भयोर्विचाले अत्रान्तरे मन्दरस्य-मेरोश्चूलिका शिखा बाहल्येन प्रशप्तम् , एवमुक्तरीत्या “सपुव्वावरेणं" पूर्वापर
इव मन्दरचूलिका नाम चूलिका प्रशाप्ता, चत्वारिंशतं योमीलनेन मन्दरपर्वतः एकं योजनशतसहस्रं सर्वाग्रेण सर्व
जनान्यूोच्चत्वेन मूले द्वादश योजनानीत्यादिसूत्रं प्रासङ्ख्यया प्राप्तः । ननु चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा शिरःस्था ग्वत् । केवलं सर्वाऽऽत्मना वैडूर्यमयी नीलवर्णत्वात् , सांप्रचलिका मेरुप्रमाणमध्ये कथं न कथिता?, उच्यते-क्षे- तं सूत्रेऽनुक्तोऽपि वाचयितृणामपूर्वार्थजिज्ञापयिषया चूत्रचूलात्वेन तस्या अगणनात् , पुरुषोच्छ्यगणने शिरोगतके- लिकाया इष्टस्थाने विष्कम्भपरिक्षानाय प्रसङ्गगत्योपायो शपाशस्येवेति, इयं च सूत्रत्रयी एकार्थप्रतिबद्धत्वेन समुदितै- लिख्यते,यथा-तत्राधोमुखगमने करणमिदं चूलिकायास्सोंवाऽलेखि । ज०४ वक्ष० । स०। सू०प्र०। चं०प्र० । जी०। परितनभागादवपत्य यत्र योजनाऽऽदावतिक्रान्ते विष्कम्भसमयक्षेत्रे पश्च मन्दराः प्रशप्ताः । स० ३६ सम० । (अस्य | जिज्ञासा तस्मिन्नतिक्रान्ते योजनाऽऽदिके पञ्चभिर्भक्ने लब्धषोडश नामानि 'मेरु' शब्दे वक्ष्यन्ते)
राशिश्चतुर्मिर्युतस्तत्र व्यासः स्यात् , तत्र उपरितलाद विंशधायइखंडगाणं मंदरा दसजायणसयाई उव्वेहेणं धर-|
तियोजनान्यवतीर्णस्ततो विंशतिः ध्रियते तस्याः पञ्चभिर्भाणितले देमूणाई दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं उवरि द
गे लब्धाश्चत्वारः ते चतुर्भिः सहिताः अष्टौ एतावानुपरितसजायणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । पुक्खरवरदीवनगाणं
लाद् विंशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि भावनी
यम् , यदा तूर्द्धमुखगत्या विष्कम्भजिज्ञासा तदाऽयमुपायः मंदरा दसजोयणा एवं चेव ।
चूलिकाया मूलादुत्पत्य यत्र योजनाऽऽदौ विष्कम्भजिज्ञासा (मंदर त्ति) पूर्वापरौ मेरू, तत्स्वरूपं सूत्रतः सिद्धं, विशेषत तस्मिन्नतिकान्तयोजनाऽऽदिके पश्चभिर्भक्ने यल्लब्धं तावत्प्रमा उच्यते
णे मूलविष्कम्भादपनीते अवशिष्टं तत्र विष्कम्भः । तथाहि"धायइखंड मेरू, चुलसीइसहस्सऊसिया दो थि।
मूलात्किल विंशतिर्योजनान्यूज़ गतस्ततो विंशतिर्धियते श्रोगाढा य सहस्सं, होति य सिहरम्मि वित्थिना ॥१॥ तस्याः पञ्चभिर्भागे (हृते) लब्धानि चत्वारि योजनानि तानि मूले पणनउइसया, चउणवइसया य हुंति धरणियले।" इति । मूलविष्कम्भाद् द्वादशयोजनप्रमाणादपनीयते, शेषाण्यष्टौ, स्था० १० ठा०। (मन्दरादन्येषामन्तरम् 'अंतर' शब्दे प्रथम- एतावान् मूलादूर्दू विंशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यभागे ७३ पृष्ठे उक्तम् । ) (अबाधा 'अवाहा' शब्दे प्रथम- त्रापि भावनीयम् । यथा मेरौ एकादशभिरंशेरेकोऽशः एकादभागे ६८२ पृष्ठ गता।) मन्दरवक्तव्यताप्रतिवद्धे दीर्घदशानाम- शभिरंशेरेकं योजनं व्यासस्य चीयतेऽपचीयते,तथाऽस्यां पटमेऽध्ययने, स्था० १० ठा० । मन्दरपर्वतदेवे, जं०४ वक्षः । ञ्चभिरंशेरेकोऽशः पञ्चभिर्योजनैरेक योजनं व्यासस्येति तात्पत्रयोदशजिनस्य प्रथमशिष्ये, स०।
र्यार्थः । अत्र बीजम्-द्वादशयोजनप्रमाणाच्चूलाव्यासादारोहे मंदरकूड-मन्दरकूट-पुं० । न० । जम्बूमन्दरपर्वतस्थनन्दनवन
चत्वारिंशद्योजनेषु गतेषु अष्टौ योजनानि त्रुट्यन्ति, अवस्थे कृटे, स्था०६ ठा०। जम्बूमन्दरपश्चिमदिशि रुचकबरप
रोहे च तान्येव वर्द्धन्ते, ततस्पैराशिकस्थापना-४० ।।१। तस्थे स्वनामख्याते कुटे, स्था०८ ठा।
मध्यराशावन्त्यराशिना गुणिते एकेन गुणितं तदेव भवतीति मंदरचूलिया-मन्दरचूलिका-स्त्री० । मन्दरे-मेरौ चूलिका ।
जाता अष्टौ अस्य राशेश्चत्वारिंशता भजने भागाऽप्राप्तौ द्वयो मेरोः पराडकवनमध्यगे शिखरविशेषे, स्था० ।
राश्योरटभिरपवर्ते जातम् ।। अथास्या वर्णकसूत्रम्दो मंदरचूलियारो। स्था० २ ठा० ३ उ०। “सा ण पगाए पउमवर जाव" इत्यादि प्राग्वत् । श्रथाचूलिका क्वेत्याह
स्या बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं सिद्धायतनवर्णनं चातिपंडगवणस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं मंदरचूलिया- | देशेनाऽऽह-(उप्पि बहुसम इत्यादि) अस्याश्चूलिकाया उप
रि बहुसमरमणीयो भूमिभागःप्रज्ञप्तः । स च यावत्पदकरणा णामं चूलिया पण्णत्ता, चत्तालीसं जोअणाई उ8 उच्चत्ते
त् “से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा" इत्यादिको प्रायः, णं मूले वारस जोषणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ठ जोअणाई
तथा तस्य बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं वाच्य, क्रोशमायाविक्खंभेणं उप्पि चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं मूले सा-|
मेनार्द्धक्रोश विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमुखत्वेन अनेकस्तइरेगाई सत्ततीसं जोअणाई परिक्वेवेणं मज्झे साइरेगाई प-| म्भशतसंनिविष्टमित्यादिकः सिद्धायतनवर्णको वाच्यो, याव,
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मंदरचलिया अभिधानराजेन्द्रः।
मंस पकडच्छुकानामष्टोत्तरं शतमिति । ज. ४ वक्षः । स्था०।। तृतीये धातौ ,तं । शरीरावयवे, स०। पिशिते, उत्त०५ नि० चू० । स० । “ मंदरचूलियाए सिहरम्मि।" प्रा० अ०। प्रश्न। म०१०।
श्रावकेण त्रिविधं मांस त्याज्यम्मंदराय-मन्दराज-पुं० । राजभेदे, क्षत्रिये कुलविशेषप्रवर्त
मांसंच त्रिधा-जलचरस्थलचरखेचरजन्तूवमेदाच्चर्मर के, श्रा०म०१०।
घिरमांसभेदाद्वा , तद्भक्षणमपि महापापमूलत्वावय॑म् , मंदलेस्सा-मन्दलेश्या-स्त्री० । ईषदुष्णरश्मौ , सू०प्र० १६
यदाहु:पाहु०।०।
“ पचिंदिय वहभू, मंसं दुग्गंधमसुइबीभच्छं । मंदवाय-मन्दवात-पुं० । श्रमहाबातेषु,मन्दाः शनैःसंचारिणो
रक्खपरितुलिअभक्खग-मामयजणयं कुगइमूलं ॥१॥ वाताः। भ०५श०२ उ०।
आमासु अ पक्कासु अ, विपच्चमाणासु मसपेसीसु । मंदा-मन्द्रा-स्त्री० । वर्षशताऽऽयुष्कस्य पुरुषस्य तृतीयदशा- सययं चित्र उववाओ, भणिो अनिगोअजीवाणं ॥२॥" याम् , तं० । दश । (सा च 'दसा' शब्दे चतुर्थभागे २४८४
योगशास्त्रेऽपिपृष्ठे दर्शिता)
" सद्यः संमूछितानन्त-जन्तुसन्तानदृषितम् । मंदाइय-मन्दायित-न० । मध्यभागे मूर्छनाऽऽदिगुणोपेतत-| नरकाध्वनि पाथेय, कोऽनीयागिशितं सुधीः ॥१॥" या मन्दमन्दघोलनाऽऽत्मके गेयभेदे, ज०१ वक्षः।
सद्यो जन्तुविशसनकाल एव संमूर्षिछता उत्पन्ना अनन्ता मंदाय-मन्द-न० । शनैःशब्दार्थे, "मंदाय मंदायं पव्वयाए।" |
निगोदरूपा ये जन्तवस्तेषां सन्तानः पुनःपुनर्भवनं तेन दुशनैः शनैः प्रवजितायाः। जी० ३ प्रति० ४ अधि० । मंदायं
षितमिति तद्वात्तः । मांसभक्षकस्य च घातकत्वमेव । मंदायमतिमन्दकम् । श्रा० म० १ ० । मन्दकमध्यभागे
यतःसकलमूर्च्छनाऽऽदिगुणोपेतं मन्दं मन्दं संचरन् । अथवा
"हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ता भक्षकस्तथा । मन्दम्-अयते गच्छति परिघोलनाऽऽत्मकत्वान्मन्दायम् ।
केताऽनुमन्ता दाताच, घातका एवं यन्मनुः॥१॥" गेयभेदे, जं०१ वक्षः । श्रा० म० । रा०।
तथा भक्षकस्यैवान्यपरिहारेण वधकत्वं यथामंदार-मन्दार-पुं० । कल्पवृते, " मंदारदामरमणिज्जभूयं ।" |
"ये भक्षयन्त्यन्यपलं, स्वकोयपजपुष्ये।
स एव घातको यन्न, वधको भक्षक बिना ॥१॥" ध० २ कल्प० १ अधि०१ क्षण।
अधि० । चं० प्र०। स्था० । प्रव० । मांसं विकृतिः-" जलमंदारमंजरी-मन्दारमञ्जरी-स्त्री० । पुष्करद्वीपाः मङ्गलाव
थलखहयरमंसं. चम्म वस सोणियं तिहेयं पि। प्राइल तितीविजये तमाललताया नगर्या राक्षःसमरनन्दनस्याग्रमहि- नि चलचल, श्रोगाहिमगं च विगईओ ॥५॥" आदिमानि प्याम् , दर्श० ३ तत्त्व।
त्रीणि चलचलेत्येवं पक्वानि विकृतिरित्यर्थः । स्था० ४ ठा०१ मंदारसिह-मंदारशिख-पुं० । भरतवर्षीयचोलदेशवृत्तिकञ्चन- उ०। पं०व० । मांसं निदोषमिति बौद्धाः-मांसं कल्किकमिस्थलनगरस्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, दर्श० ३ तत्त्व ।
त्युपदिश्य संज्ञान्तरसमाश्रयणानिर्दोष मन्यन्ते, बुद्धसंघाss
दिनिमित्तं चाऽऽरम्भ निर्दोषमिति । तदुक्रम्-"मंसनिवत्ति का मंदावत्थ-मन्दावस्थ-त्रि० । विपाकदारुणे, पं०व० ४ द्वार ।
उ,सेवइदं ककिगंतिधाणभेया । इय चइऊपाऽऽरम्भ, परवमंदिय-मन्दिक-पुं० । धर्मक्रियायामलसे, उत्त०८१०। धर्म
वएसा कुणइ वालो॥१॥" न चैतावता तन्निर्दोषता। न हिलूकार्यम्प्रत्युद्यते, उत्त०८ श्रा
ताऽऽदिकं शीतलिकाऽऽद्यभिधानान्तरमात्रेणान्यथात्वं भजमंदिर-मन्दिर-न० । गृहे , प्रश्न०४ श्राश्रद्वार। प्रा० म०।। ते,विषं वा मधुरकाभिधानेनेति । ('हिंसामूलममेध्यम्'इत्यादि द्वी० । स्वनामख्याते सन्निवेशे, “ मंदिरे सन्निवेशे अग्गिभू
श्लोकः 'अद्दगकुमार' शब्दे प्रथमभागे ५५७ पृष्ठे गतः।) मांसं ती णाम माहणे ।" श्रा० चू०१० । उत्त०। वेश्मनि,उत्त०
न भक्षणीयम् ,शास्त्रनिषिद्धत्वात् , “न मांसभक्षणे दोष" इति ६०। प्रशा।
मतखण्डनम्-धर्मवादमुपदर्शयता सूरिणा यथा हिंसाssमंदिरपुर-मन्दिरपुर-न० । शान्तिनाथस्य तीर्थकरस्य प्रथम- | दीनि तत्तन्त्रव्यपेक्षया युज्यन्ते यथा विचारितमथ मांसभभिक्षालाभस्थाने, श्रा० म०१ अ०।
क्षणाऽऽदिकं हिंसाऽऽदिनिवृतैरपि कुतीथिकैरदोषतयाऽभ्यु
पगतं तत्तत्तन्त्रव्यपेक्षया धर्मवादोपदर्शनार्थमेव विचारयिमंदिरमउड-मन्दिरमुकुट-न० । चन्द्रावत्यां प्रतिष्ठिते श्रीच
तुमुपक्रमते । तत्र मांसभक्षणमधिकृत्य तावदाहन्द्रप्रभे, ती०४३ कल्प।
भक्षणीयं सता मांसं, प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना । मंदरक्क-न । देशीवचनम् । मन्दु-मुख तेन रकं वृषभाऽऽदिश
प्रोदनाऽऽदिवदित्येवं, कश्चिदाहातितार्किकः ॥१॥ ब्दकरणं मन्दुरक्कम् । देवताऽऽदिपुरतो वृषभगर्जिताऽऽदिक
भक्षणीय भोक्तव्यं सता विदुपा मांसं पिशितमिति प्रतिरणे, उपा० ११०।
शा,केन हेतुनेत्याह-प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना जीवावयवत्वाद्धतोः, मंदोदरी-मन्दोदरी-स्त्री०। लङ्केश्वररावणभायाम् , ती०
श्रोदनाऽऽदिवदिति भक्तप्रभृतिकं यथा,इत्यन्वयदृष्टान्तः, इति५० कल्प।
शब्दः प्रयोगार्थसमाप्ती, प्रयोग धैवम्-यद्यत्प्राण्यङ्गं तत्तद्भय मंधादन-मन्धादन-पुं० । मेषे, स्व०१ श्रु० ३ १०४ उ०।
हटमोदनवत्,प्राण्यच मांसमिति,मांसस्य च प्राण्यङ्गतया मंस-मांस-न। पलले, प्रश्न०१आश्रद्वार। तं । ध०। प्रत्यक्षसिद्धत्वान्नासिद्धो हेतुः,ओदनस्य चकेन्द्रियप्राण्यङ्गत्वे
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मंस अभिधानराजेन्द्रः।
मंस न प्रतीतत्वान्न हेतुविकलो दृष्टान्तः। एवमित्यनन्तरोक्लप्रकारे णेन, शास्त्र सिद्धितः आत्माऽऽगमप्रतिष्ठिते प्रसिद्ध ह्यागण कश्चित्कोऽपि,सौगत इत्यर्थः। अतिशयवांस्तार्किक इत्युप- मे मांसस्य जीवसंसक्तिनिमित्तत्वम् । यदाह-"आमासु य पहासवचनं, प्रायः शुष्कतर्कप्रधानत्वात्तस्य, अधिकृतप्रमाण कासु य, विपन्चमाणासु मंसपेसीसु। श्रायतियमुववाओ, स्य वा प्रमाणाऽऽभासत्वादिति ॥१॥
भणियो य निगोयजीवाणं ॥१॥" एतेन च श्लोकेन परस्पशुष्कतार्किकतां चाऽस्य पूर्वपतिदूषणत श्राह
रमतानभिज्ञताऽपादनतोऽधिकृतप्रमाणस्य प्रसङ्गसाधना
निराकृतेति ॥ ४॥ भल्याभक्ष्यव्यवस्थेह-शास्त्रलोकनिबन्धना।
अथाऽधिकृतहेतोरेवानिष्टार्थसाधंकतां दर्शयनांहसब भावतो यस्मात्, तस्मादेवदसाम्प्रतम् ॥२॥
भिक्षुमांसनिषेधोऽपि, नचैवं युज्यते क्वचित् । ननु भक्षणीय मांसं प्राण्यङ्गत्वादित्येतत् स्वतन्त्रसाधनं, प्रसङ्गसाधनं वा। स्वतन्त्रसाधनपने प्रोदनादिवदित्ययं साध- अस्थ्याद्यपि च भक्ष्यं स्यात्,प्राण्यङ्गत्वाविशेषतः॥५॥ नविकलो दृष्टान्तः, वनस्पत्यायेकेन्द्रियाणां बौद्धस्य प्राणि- भिक्षोबोंद्धविशेषस्य मांसं पिशितं तस्य निषेधो वर्जन त्वेनासिदत्वात् , ततश्च दृष्टान्ते प्राण्यङ्गत्वलक्षणसाधनस्य भिनुमांसनिषेधः, स किल भवन्मतेन भिक्षारतिपूज्यत्वाभयत्वलक्ष साध्येन व्याप्यत्वासिद्धरसिद्धान्वयाऽभिमानो- दवश्य युक्तो भवति, सोऽपि, पास्तां गवादिमांसनिषेधः, न उनैकान्तिको हेतुः । प्रसङ्ग-साधनपक्षे विदमुच्यते-भक्ष्यं भ- च नैव, एवं प्राण्यङ्गत्वेन मांसभक्षणाभ्युपगमे सति, युक्षणीपमोदनाऽदि,अभवयं मधुमांसपलाण्डादितयोव्यवस्था
ज्यत घटते, क्वचित् कुत्रचित् देशान्तरे कालान्तरे पुरुमाँदा भयाभदयव्यवस्था, उपलक्षणवादस्य पेयापेयग
षान्तरे चा । अस्येवाभ्युशयमाह-अस्थिकीकसमादियस्य म्यागम्याऽऽदिपरिग्रहः । इहाऽस्मिन् लोके, शास्त्रमाप्तवचनं तत्तथा, तदपि च न केवलं भिक्षुमांसाऽऽदि यत्किल भक्षलोको लोकम्यवहारः,तौ निबन्धन हेतुर्यस्याः सा तथा, न तु
यितुभशक्यमस्थिशृङ्गखुराऽऽदि तदपि च भक्ष्यं भक्षणीय प्राण्यङ्गेतरमात्रनिबन्धना, सधैव निरवशेषैव, न तु काचिदेव,
स्याद्भवेत् । कुतः?, इत्याह-प्राण्यङ्गत्वस्य जीवावयवत्वस्य भावतः पारमायेन,यस्मात्कारणात्तस्मादेतदनन्तरोक्तं "भक्ष
हेतोरविशेषस्तुल्यत्वं मांसे अस्थ्यादौ चेति प्राण्यङ्गत्वाणीयं सता मोसम्।"इत्यादि साधनमसाम्प्रतमयुक्रमिति ॥२॥ विशेषस्तस्मादतोऽभक्ष्यस्य भच्यत्वाऽऽपादनेन विरुद्धा हेतुअसाम्प्रतत्वमेव हेतोरनैकान्तिकतोपदशन
रिति ॥ ५॥ तो भावयन्नाह
अत्रैव दूषणान्तरमाहतत्र प्राण्यङ्गमप्येकं, भक्ष्यमन्यतु नो तथा ।
एतावन्मात्रसाम्येन, प्रवृत्तिर्यदि चेष्यते । सिद्धं गवादिसतबीर--रुधिराऽऽदौ तथेत णात् ॥३॥
जायायां स्वजनन्यांच,स्त्रीत्वात् तुल्यैव साऽस्तु ते ॥६॥ तवेति तयोः शाखलोकयोर्वाक्योप क्षेपमात्रार्थो वा तत्र
एतदेव एतत्परिमाणमेव एतावनमात्र, तेन साम्यं साशब्दः प्राण्यङ्गमपि जीवावयवोऽपि,आस्तामप्राण्यङ्गमापे,एक
दृश्यम् एतावन्मात्रसाम्यं तेन,प्राण्यङ्गत्वमात्रसादृश्येनेत्यर्थः । किश्चिधि द्रव्यं भोज्यम् अन्यत्तु परं पुननौतथा तेन प्रकारेण,
प्रवृत्तिमांसभक्षणाऽऽदौ प्रवर्तन, यदीत्यभ्युपगमे, चशब्दःपु. अभयमित्यर्थः। सिद्वं प्रतिष्ठितम् । कुतः सिद्वमित्याह-गवा
नरर्थः, इष्यते भवताऽभिमन्यते, तदा किमस्त्वित्याह-जादीनाम् . श्रादिशब्दात् मातृप्रभृतीनां, सच्छोभनं अभिनवप्र- यायां भायायां, स्वजनन्यां चाऽऽत्मीयमातरि च स्त्रीत्वादसबधेनुसत्कादम्यत् , क्षीरंच, पयोधिरं च लोहितमादिर्य
अनात्वेन हेतुना, तुल्यैव समानवाभिगमरूपा पूज्यारूपा स्थत तथा, तत्र गवादिसत्तोररुधिराऽऽदो विषय , श्रादि- वा सा प्रवृत्तिरस्तु भवतु, ते तव, स्त्रीत्वाविशेषाद द्वयोशब्दात् गवादिमूत्रमांसाऽऽदौच, तथा तेन भदयाभत्या 55- रपि, यथा प्राण्यङ्गत्वाविशेषान्मांसौदनयोरिते ॥६॥ दिप्रकारेण, ईक्षणादवलोकनात्। तथाहि-गवां क्षीरं मूत्रं वा
प्रकरणार्थनिगमनायाऽऽहपेयतया शास्त्रे लोके च न निषिध्यते,रुधिरमांसे तु नानुमन्ये
तस्माच्छास्त्रं च लोकं च,समाश्रित्य वदेद बुधः । ते, ततश्च प्राण्यङ्गं सद्भक्ष्यं चोपलब्धमतः सपतविपतवृत्तित्वादनकान्तिको हेतुरिति ॥३॥
सर्वत्रैवं बुधत्वं स्या-दन्यथोन्मत्ततुल्यता ॥ ७ ॥ किंच-प्रसङ्गसाधनं हि पराभ्युपगमानुसारेण भ
यस्माद्भवदुक्कसाधनमनन्तरोकन्यायेन बहुदोषदुएं तस्मावति, न चाऽस्माकं प्राण्यङ्गमिति कृत्वा मांस
कारणाच्छास्त्रं चाप्तवचनं, लोकं च विशिष्टजनं,समाधिमभयमित्यभ्युपगमः, किं तु तदुत्थ
त्याङ्गीकृत्य, वदेत् ब्रूयात् , कोऽसौ ?, वुधः पण्डितः, क्व विजीवापेक्षयति दर्शयितुमाह
षये?, इत्याह-सर्वत्र न मांसभक्षणविषय एवाऽपि तु सप्राएपङ्गत्वेन न च नोऽ-भतणीयं त्विदं मतम् ।
स्मिन्नपि विषये, अन्यथा हि ब्रुवाणस्य लोकरूढिनि
राकृताऽऽदयः पतदोषाःप्रासजेयुः, एवं अवाणस्य को गुकि त्वन्यजीवभावेन, तथा शास्त्रप्रसिद्धितः ॥४॥
ण इत्याह-एवमनेन प्रकारेण लोकशास्त्र समाश्रयणपूर्वक प्रागयङ्गत्वेन जीवावयवतया हेतुना , न च नै नोऽस्मा-| वदनलक्षणेन, बुधत्वं पण्डितत्वं,स्याद्भवेत्। विपर्यये किं स्याकम् ,अमज्ञपीयमभोज्यमिदं मांसं,मतं सम्मतं,किं तुकिं पुनः दित्याह-अन्यथा अन्येन प्रकारेण लोकशास्त्रानपेक्षताअन्यजीवभावेन मांसस्वामिव्यतिरिक्तप्राणिसमुत्पादेन हेतु- वदनलक्षणेन, उन्मत्ततुल्यता ग्रहगृहीतसमानता, स्यादिति ना, अभक्षणीयमिदं मतमित्यावर्त्तते । अन्यजीवभाव एव कु. गम्यते । श्राह च-"सतो पथा प्रवृत्तस्य, तेजोवृद्धी रवेरिव । तः सिद्धः?,इत्यत्राऽऽह-तथा तेन प्रकारेण जीवसंसनिलक्ष- यदृच्छया प्रवृत्तस्य, रूपनाशोऽस्ति वायुवत् ॥१॥” इति ॥७॥
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(३२)
अभिधानराजेन्द्रः। इति बौद्धाभ्युपगताऽऽप्तवचननिषिद्धत्वं मांसभक्षणस्य भक्षयितेति स्वस्तनीप्रथमपुरुषैकवचननिर्देशः,ततो भक्षयिदर्शयन्नुपसंहारार्थमाह
ध्यत इत्यर्थः। तृन् वाऽयं शीलार्थिकः। अमुत्र जम्मान्तरे किं विशास्त्रे चाऽऽमेन वाऽप्येत-निषिद्धं यत्नतो ननु। धेय इत्याह-यस्य पश्वादेमांसं पिशितमिहास्मिन् जन्मनि श्रलङ्काऽवतारसूत्राऽऽदौ, ततोऽनेन न किश्चन ॥ ५॥
भिभक्षयामि अहमित्यात्मानं भक्षको निर्दिशति,एतदनन्तरोन केवल लोके, अस्मच्छास्त्रेचेदं निषिद्ध, शास्त्रे चाऽऽग
दितं भक्षणलक्षणं, मांसस्य पिशितस्य,मांसत्वं मांसशब्दव्युमे चाऽऽप्तेन क्षीणरागाऽऽदिदोषेण सुगतेन वाऽपि युष्माक
त्पत्तिनिमित्तं, निरुक्तमित्यर्थः। प्रवदन्ति प्रतिपादयन्ति, मनीमपि न केवलमस्माकमेव, एतन्मांसभक्षणं निषिद्धं निवारितं,
षिणो निरुक्तविधिकुशला इति ॥३॥ यत्नत श्रादरेण, नन्वित्यक्षमायां, क्व शास्त्रे निषिद्धमित्याह
एतेन च मांसभक्षणापायप्राप्तिप्रतिपादनेन मांसभक्षणे दोलङ्काऽवतारसूत्राऽऽदौ निशाचरविनयनाय लङ्कायामवतारः,
षोऽस्तीति व्यक्तमेवोक्तमतः कथमुक्तम् “ न मांसभक्षणे दोसूच्यते तथागतस्य यत्र तल्लङ्काऽवतारसूत्र, तदादौ, तत्र कि
षः" इत्येतदेवाऽऽहलोक्तम्-"न प्राण्यङ्गसमुत्थं, मोहादपि शङ्खचूर्णमश्नीयात् ।"
इत्थं जन्मैव दोषोऽत्र, न शाखाद् बाह्यभक्षणम् । श्रादिशब्दाच्छीलपटलाऽऽदिपरिग्रहः। 'तत इति' यस्मादेवंत- प्रतीत्यैष निषेधश्च, न्याय्यो वाक्यान्तराद्गतेः॥४॥ स्मादनेन मांसभक्षणसमर्थनेन, न किञ्चन नास्ति किश्चन, इत्थमनेन प्रकारेण भक्षकस्य भक्षितेन भक्षणीयत्वप्राप्तिलक्षभवतोऽपि प्रयोजनमिति शेष इति ॥८॥हा० १७ अष्ट०।। णेन यजन्म उत्पत्तिस्तदेव,किमपरदोषगवेषणेन,दोषो दूषणमतदेवं मांसं न भक्षणीय, लोकशास्त्रविरोधादिति धर्मवा- नर्थावाप्तिरित्यर्थः, अत्र मांसभक्षणे,ततः कथमुक्तम्-"न मांसदतो व्यवस्थापिते यः कश्चिदसहमान श्राह-" न मांस, भतणे दोषः।” इति हृदयम् । अत्र किल परः प्राह-(न) नैवं यभक्षणे दोषः" इति तन्मतप्रस्तावनायाऽऽह
इक्षकस्य भक्षणीयत्वप्राप्तेमांसभक्षणे दोष इति । कुत इत्याहअन्योऽविमृश्य शब्दार्थ, न्याय्यं स्वयमुदीरितम् । यतःशास्त्रादागमाद्,बाह्यभक्षणं बहिर्भूतमांसादनं,प्रतीत्याss पूर्वापरविरुद्धार्थ-मेवमाहात्र वस्तुनि ॥१॥
श्रित्य पषोऽनन्तरोन इत्थं जन्मलक्षणो दोषो,न पुनः शास्त्रीयअन्यः-पूर्वपक्षीकृतबौद्धादपरो द्विज इत्यर्थः , अविमृ.
मांसभक्षणे,तथा निषेधश्च मांसभक्षणप्रतिषेधोऽपि,"मांसभक्ष श्यापर्यालोच्य, शब्दार्थ मांसमित्यस्य ध्वनेरभिधेयम् । श्राह
यितेत्यादिनिरुक्तवलप्रापितशास्त्राद्वाह्यभक्षणमेव प्रतीत्य न्याइति संबन्धः, किंभूतं शब्दार्थमित्याऽह-न्याय्यं न्यायादनपेत
य्य उपपन्नः,कथं!,वाक्यान्तरात् “मांसभक्षयिता" इत्यादिवा म्, तथा स्वयमात्मना उदीरितं प्रतिपादितं"मांस भक्षयिता"
क्यापेक्षया यदन्यद्वाक्यं तद्वाक्यान्तरं,तस्माद्गतेः परिच्छित्ते इत्यादिना श्लोकेन । कथमाहेत्याह पूर्वस्य पूर्वोक्तस्य मांसभ
मांसभक्षणस्येति गम्यम्। अथवा-'इत्थं जन्मैव दोषोऽत्र इत्येक क्षयिता"इत्यादेमांसभक्षणनिषेधार्थस्य, अपरेण अपरोक्तेन"न
तावद् दूषणं, तथा अपरं(न नैव शास्त्राबाह्यभक्षणं प्रतीत्यैषो मांसभक्षणे दोषः" इत्यनेन "प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसम् ।" इत्यादि
ऽनन्तरोक्लो "न मांसभक्षणे दोष" इत्येवंलक्षणो निषेधो मांसभ
क्षणलक्षणे दोषप्रतिषेधः,चशब्दो दृषणान्तरसमुच्चयार्थो,न्यानावा। अथवा-"न मांसभक्षणे दोषः " इत्यस्य पूर्वस्य निवृत्तिस्तु महाफलेत्यनेनापरेण सह विरुद्धो विसंवाद्यर्थोऽभि
य्यःसङ्गतः वक्ष्यमाणप्रोक्षिताऽऽदिविशेषमांसादन एव दोष. धेयो यत्र तत् पूर्वापरविरुद्धार्थ क्रियाविशेषणं चेदम् , एव
निषेधो न्याय्यः,शास्त्रोक्तत्वादेव न पुनः सामान्येनेति भावः । मिति वक्ष्यमाणप्रकारम् , आह-ब्रवीति, अत्र मांसभक्षणे,
कुत एतदिति चेदित्यत श्राह-वाक्यान्तागतेरिति "न मांसवस्तुनि पदार्थ इति ॥१॥
भक्षणे दोष" इत्येवंविधात् सामान्यत एव मांसादनदोषाभावयदाह तदेव दर्शयति
प्रतिपादनपराद् वाक्याद्यदन्यत् प्रोक्षित भक्षयेदित्यादि वक्ष्यन मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये नच मैथुने ।
माणं वाक्यं तद्वाक्यान्तरं, तस्माद् गतेः परिच्छित्तेः शास्त्रो
क्तत्वेन मांसादनविशेषस्य निर्दोपतयाऽवगमादित्यर्थः॥४॥ प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥२॥
एतदेव वाक्यान्तरमाह(न) नैव मांसभक्षणे पिशिताशने दोष इति दूषणं कर्म- | ग्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं, ब्राह्मणानां च काम्यया । बन्धलक्षणः, अस्यैव चाऽऽद्यपदार्थस्य पूर्वश्लोकेन प्रस्ताबना कृता तत्प्रसङ्गेन च शेष पदत्रयं श्कोकस्याधीनमिति
यथाविधि नियुक्तस्तु, प्राणानामेव वाऽत्यये ॥ ५॥
प्रोक्षितं वैदिकमन्त्राभ्युतितं,भक्षयेदश्नीयात् ,मांसं पिशितं, तस्य व्याख्या-तथा (न) नैव मद्य मधुनि, पीयमाने इति गम्यते, (न) नैव, चशब्दः समुच्चयार्थः । मैथुने अब्रह्म
ब्राह्मणानां द्विजानां, चशब्दो विशेषणसमुच्चये, काम्यया इचर्ये,क्रियमाणे इति गम्यते। कुत एतदेवमित्याह-यतः प्रवृत्तिः
च्छया विजभुक्नावशेष प्रति तदनुज्ञया, विधिया॑यो या यत्र स्वभावः, एषा मांसभक्षणाऽऽदिकाऽनन्तरोक्का, भूतानां प्राणि
यागश्राद्धप्राघूर्णकाऽऽदी प्रक्रिया,तस्यानतिक्रमेण यथाविधि, नां,निवृत्तिर्विरमणं पुनर्मासभक्षणाऽऽदिभ्य इति गम्यते। महद्
तत्र यागविधिः पशुभेधास्यमेधाऽऽदिविधायकः, श्राविधिः बृहत् फलं साध्यमभ्युदयाऽऽदिकं यस्याः सामहाफलेति ॥२॥
श्राद्धशास्त्रविहितः, शास्त्रविधिस्तु मांसविशेषापेक्षोऽयम्योऽसौ स्वयमुदीरितो मांसशब्दार्थस्तमाह
"औरनेणेह चतुरः, शाकुनेन तु पञ्च वै । मांस भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् ।
पगमासान् छागमासन, पार्षतीयेन सप्त वै ॥१॥
दशमासांस्तु तृप्यन्ते, वराहमहिषाऽऽमिषैः । एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः॥३॥ ।
कृर्मशशकमांसेन, मासानेकादशैव तु ॥२॥ मामिति भक्षक आत्मानं निर्दिशति, स इति भन्यमाणो जीवः | मंवत्सरं तु तृप्यन्ति. पयसा पायसेन नु ।'
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मंस
पा
मंस
अभिधानराजेन्द्रः। प्राघूर्णकविधिस्तु याज्ञवल्क्योक्नोऽयम् “ महोतं वा महाज सभक्षणोपरतिः, चेयद्येवं मन्यसेऽयमभिप्रायः-गृहस्थतायां वा, श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत् ।" इति । तथा नियुक्तस्तु गुरुभि- प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणं मांसं भक्षणीयमेव , तस्साच्च पारियापारित एव, नियुक्नशब्दस्य वा यथाविधीति विशेषणं, । प्राज्यप्रतिपत्तिद्वारेण निवर्तत इत्येवं प्राप्तिपूर्विका निवृत्तितुशब्द पवकारार्थः, तथा प्राणानामेकेन्द्रियाऽऽदीनामेव न तु। मांसभक्षणस्य स्यात् , सा च महाफलेति , अतो 'निवृद्रव्याऽऽदीनां, वाशब्दः पक्षान्तरद्योतकः, अत्यये विनाशे, त्तिर्नाऽस्य सज्यते' इत्याचार्यवचनं परेण दृषितम् । अत्र उपस्थिते इति शेषः । मांस भक्षयेदित्यनुवर्तते । आत्मा हि-1 दूषणमाह-यः कोऽपि तदप्रतिपत्तितः पारिवाज्याप्रतिपरक्षणीयः। यदाह-"सर्चत एवाऽऽत्मानं गोपयेत्।" इति ॥५॥ त्तिमाश्रित्य फलाभावः अभ्युदयाऽऽदिप्रयोजनाप्राप्तिः, स परोक्लमेवार्थमनुवादद्वारेणाऽऽशङ्क्षय दृषगन्नाह-द्विती- एव किमपरदोषगवेषणेन,अस्य मांसभक्षणस्य दोषो दूषणम् । यव्याख्यापेक्षया पुनरुत्तरश्लोकस्यैवं पातना-भवदापादित ततः किमित्याह-निर्दोषता निर्दूषणता, एवशब्दस्यान्यत्र सं. एव शास्त्रीयमांसभक्षणे दोषाभावोऽस्माभिरभिधीयते, न बन्धानैव नास्त्येवातः कथमुच्यते-"न मांसभक्षणे दोषः" इति। सामान्येनेति परमतमाय दूषयन्नाह
तथा-"निवृतिस्तु महाफला"इत्यत्र विशेषेण किञ्चिदुच्यतेअत्रैवासावदोषश्चे-निवृत्तिर्नाऽस्य सज्यते ।
ननु निवृत्तिनिरवद्या, वस्तुनो विधीयमाना महाफला,सावद्या
वा ? । यदि निरवद्या तदा यत्याश्रमाऽऽदेरपि निवृसिरशीकअन्यदा भक्षणादत्रा-भक्षणे दोषकीर्तनात् ॥ ६॥
तव्याः तस्य निरवद्यत्वान्न चैतदिष्टम् । अथ द्वितीयः पक्षस्तअत्रैव-अनन्तराभिहित एव प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणमांसभक्ष
दा मांसभक्षणस्य सावद्यत्वेन सदोषताप्राप्तरिति ॥८॥हा. णे अन्यत्र तु दोष एव, असौ यो 'न मांसभक्षणे दोषः' इत्यनेन १८ अष्ट। वचसाऽभ्युपगतोऽदोषो दोषाभावश्चेद्यद्येवं मन्यसे, तदि
तथा स्मार्ता प्रांपेति शेषः । किं दूषणमित्याह-निवृत्तिर्विरतिः (न) नै- ___“न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । वास्य मांसभक्षणस्य, सज्यते प्राप्नोति । कुत इत्याह-अन्य प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥१॥" दाऽन्यस्मिन् प्रोक्षिताऽऽदिमांसविशेषेणाभावकाले, अभक्ष- इति श्लोकं पठन्ति । अस्य च यथाश्रुतार्थव्याख्यानेऽसंबनणादनभ्यवहरणात् ,उक्नविधिव्यतिरेकेण हि मांसं न भक्ष्यते, प्रलाप एव, यस्मिन् हि अनुष्टीयमाने दोषो नास्त्येव तस्मानिअतो मांसभक्षणस्याप्राप्तेः निवृत्तिर्नास्य प्रसज्यते इत्युच्यते, वृत्तिः कथमिव महाफला भविष्यति?, इज्याऽध्ययनदानाऽऽ प्राप्तिपूर्वको हि निषेधः सफलो भवतीति । अथ प्रोक्षिताऽऽ. देरपि निवृत्तिप्रसङ्गात् । तस्मादन्यदैदम्पर्यमस्य श्लोकस्य । दिविशेषणसद्भावे निवृत्तिर्भविष्यतीति । 'निवृत्तिस्तु महाफ- तथाहि-"न मांसभक्षणे कृते अदोषः" अपि तु दोष एव, एला' इति वचः सफलीभविष्यतीत्यत्राऽऽह-अत्र प्रोक्षिता33- वं मद्यमैथुनयोरपि । कथं नाऽदोषः?, इत्याह-यतः प्रवृत्तिरेदिविशेषणसद्भावेऽभक्षणेऽनशने मांसस्य दोषकीर्तनाद् दृष- | षा भूताना-प्रवर्तन्ते उत्पद्यन्तेऽस्यामिति प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्थाणाभिधानानिवृत्तेर्नास्य प्रसज्यते इति प्रकृतमिति ॥६॥ नं, भूतानां जीवानां, तत्तज्जीवसंसक्तिहेतुरित्यर्थः । प्रसिद्धं च दोषकीर्तनमेव दर्शयन्नाह
मांसमद्यमैथुनानां जीवसंसक्तिमूलकारणत्वमागमेयथाविधि नियुक्तस्तु, यो मांसं नात्ति वै द्विजः।
" आमासु य पक्कासु य, विपच्चमाणासु मंसपेसीसु।
आयंतिमुववाओ, भणियो उ निगोयजीवाणं ॥१॥ स प्रेत्य पशुतां याति, संभवानेकविंशतिम् ॥ ७॥
मज्जे महुम्मि अंसम्मि, नवणीयम्मि चउत्थए । योग्यो विधिः शास्त्रीयन्यायो यथाविधि तेन नियुक्तो युफ्लो
उप्पजंति अर्णता, तब्वण्णा तत्थ जंतुणो ॥२॥ व्यापारितोवा गुरुभिर्यथाविधि नियुक्तः,तुशब्दःपुनःशब्दार्थः, मेहुणसन्नाऽऽरूढो, नवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं । तस्य चैवं प्रयोगः-विधिना मांसमस्खादन निर्दोष एव यथा
केवलिणा पन्नत्ता, सद्दहियब्वा सया कालं ॥३॥" विधि नियुक्तः पुनर्योऽनिर्दिष्टनामा मांसं पिशितं (न) नैव
तथाहिअत्ति भुक्के, वै इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः,द्विजो विप्रः, " इत्थीजोणीए सं-भवंति बेइंदिया उजे जीवा। स इति द्विजः,प्रेत्य परलोके,पशुतां तिर्यग्भावं,याति प्राप्नोति, इक्को व दो व तिन्नि व, लक्खपुहुत्तं च उक्कोसं ॥४॥ कियतो भवान् यावदित्याह-संभवनानि संभवा जन्मानि, पुरिसेण सह गयाए, तेसिं जीवाण होइ उद्दवर्ण । तान् सम्भवान् , एकेनाधिका विंशतिस्तामिति ॥ ७॥ वेणुगदिटुंतेणं, तत्तायसलागनाएणं ॥५॥" प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणाभावे मांसस्य भक्षणे प्रवृत्त्यभावेन संसक्लायां योनौ द्वीन्द्रिया एते, शुक्रशोणितसंभवास्तु गनिवृत्तेरफलत्वात् प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणस्य च तस्या
भजपञ्चेन्द्रिया इमेउभक्षणे दोषकीर्तनात् ; “निवृत्तिर्नाऽस्य
"पंचिंदिया मणुस्सा, एगनरभुत्तनारिगम्भम्मि । सज्यते" इति यदुक्तं तत्र परकीयं
उक्कोसं नवलक्खा, जायंति एगवेलाए ॥ ६॥ परिहारमाशङ्क्य परिहरनाह
नवलक्खाणं मझे, जायइ इक्कस्स दुण्ह व समत्ती । पारिव्रज्यं निवृत्तिश्चे-धस्तदप्रतिपत्तितः ।
सेसा पुरण एमेव य, विलयं वच्चंति तत्थेव ॥ ७॥"
तदेवं जीवोपमईहेतुत्वान्न मांसभक्षणाऽऽदिकमदुष्पमिति प्रफलाभावः स एवाऽस्य, दोषो निर्दोषतैव न ॥८॥
योगः। अथवा-भूतानां पिशाचप्रायाणामेषा प्रवृत्तिः त एपारवाजा भावः पारिवाज्य मस्करित्वं, गृहस्थभाव-| वात्र मांसभक्षणाऽदौ प्रवर्तन्ते,न पुनर्विवेकिन इति भावः । त. स्याग इत्यर्थः । तदेव निवृत्तिनिवन्धनत्वात् निवृत्तिर्मा- देवं मांसभक्षणाऽदेर्दुएतां स्पष्टीकृत्य यदुपदेष्टव्यं तदाह-"नि
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( ३४ अभिधानराजेन्द्रः ।
मंस
वृत्तिस्तु महाफला ।" तुरेवकारार्थः, “तुः स्याद्भेदेऽवधारणे" इति वचनात्। ततब्येतेभ्यो मांसभक्षणाऽऽदिभ्यो निवृत्तिरेव महाफला वर्गापवर्गफलमा म पुनः प्रवृत्तिरपीत्यर्थः । अत एव स्थानान्तरे पठितम् -
" वर्षे वर्षे वमेधेन यो बजेत शतं समाः । मांसानि च न खादेद्य-स्तयोस्तुल्यं भवेत् फलम् ॥ १ ॥ एकरात्रोषितस्यापि, या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा क्रतुसहस्रेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ! ॥ २ ॥ मद्यपाने तु कृतं सूत्रानुवादैः, तस्य सर्वविगर्हितत्वात् । तानेवंप्रकारानर्थान् कथमिव बुधाऽऽभासास्तीर्थिका वेदितुमर्हन्ति इति कृतमतिप्रसङ्गेन । स्या० ।
मांसार्थ गच्छेत्
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा० जाव समाये से जं पुरा जायेआ-मंसं वा मच्छे वा भजिअमाणं पेहाए तेल पूर्व या आ एसाए उवक्खडिजमाणं पेहाए यो खद्धं खर्द्ध उवसंकमितु भोभासेखा, गात्थ गिलावणीसाए ।। ५१ ।।
"
स पुनः साधुर्वदि पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-मासं या मा वा, भज्यमानमिति पच्यमानं तैलप्रधानं वा पूपं तच किमर्थ क्रियते इति दर्शयति-यस्मिन्नायाते कर्म्मण्यादिश्यते परिजनः स श्रादेशः, प्राघूर्णकस्तदर्थं संस्क्रियमाणमाहारं प्रेक्ष्य लोलुपतया (नो) नैव (खद्धं खद्धं ति) शीघ्रं शीघ्रं द्विर्वचनमादरक्यापनार्थम् उपसम्पाषभाषेत् याचेत अन्यत्र ग्लाना दिकार्यादिति । श्राचा० २ ० १ ० १ ० १ ३० । मांसार्थ मांसस्थानं गच्छति
3
"
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा मंसादियं वा मच्छादियं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा श्रहेणं वा पहेणं वा समेलं वा हिंगोलं वा अरण्यरं वा तहप्पगारं विरूवरूवं वा हीरमाणं पेहाए सीए असाए ताए पिवासाए तं रयि अण्वत्थ उवाइयावे, उवायसावंतं वा साह ॥ १८६॥ जम्मि पगरणे मंसं श्रासादीए दिज्जति पच्छा ओदणादि तं सादी भरगति । मंसा वा मच् या आदावेव पकर करैति तं च सादिय आणी वा मेसेसु आदावेव जय वयस्स मंसपगरणं करेंति, पच्छा सयं परिभुंजति तं बा सादी भांति । एवं मच्छादियं पि वत्तव्यं । मंसखलं जत्थ मसावि सोमति, एवं मपि जनहितो आणि जति तं आहेणं, जमनं गिहं णिज्जति तं पणगं । श्रहवाबहुधरातो परहिं शिखति तं पण सव्वाणमादिया
1
हिजति जिति सि हिंगोले, इज्जति या हिंगोल - मतभतं वा करुसादियं हिंगोले, वीवाह भसं संमेलो गोडी या मतं संमेलं भरगति । श्रहवाकमा53म्मे सुहासिता जे ते संमेलो, तेसि जंभ तं सं मेलं गिहातो उज्जानादिसु हीरंतं नीयमानमित्यर्थःः, पेहा प्रे
लक्ष्यामीत्यसी अहवानादि मतदा द्राक्षापानकाऽऽदि पातुमिच्छा पिपासा । श्रहवा-ताए प देसार प्रतिप्रयायेत्यर्थः जो ति सा तम्मिदिये पर भ
मंस
विस्सति तस्स श्रारतो जा रयणी, तं जो अत्थ प्रतिश्रयं, उपातिणावेति नयतीत्यर्थः अन्नं या जयंतं सादिज्जति तस्व चउगुरुं, आखरिलो व दोसा श्रयसंजमविराहणा उक्तसूत्रार्थः । इवा निज्जुती, साय पायसो मतार्थैव ॥
गाहा
साइपगरणा खलु, जेत्तियमेत्ता उ अहिया सुत्ने । जायरेतराय व, जे तत्था सागते भिक्खू ।। १६६ ॥
तं पगरणं सेज्जातरस्स सेज्जातरेतरस्स जे भिक्खू तत्थ श्रासा तत्थासा ते अरणं वसहिं श्रागते श्राणाऽऽदयो दोसा भवन्ति ।
गाहा
तं स्यणि अणत्तो, उपातिया एतरे तु तत्थेव । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तबिराहणं पावे ॥१६७॥ साथ व मच्छारा व गच्छता पारियम्मि वयगादी। से आगेति संखार्ड पुरा, खलगा वा जहि य सोसिंति१६८ सेज्जायरभतो सज्जापरपिंडो कप्पियो कार्ड अस हिं गच्छति इयरे तु तत्थ गंतुं वसंति, परिवया मंसारा व गंधो गच्छमाणा संखडि करेंति, कत्तियमासादि अमंसभचणवते गहिते सम्म पुझे मंसादिपगरणं कार्ड धिजातिया दापच्छा सर्व पारैति सहवासादिमक्वणविरतिव्वतं घेत्तुं तस्स रक्खणट्ठा आदिए संखार्ड करेति, आणिए वा मंसे संखार्ड करेंति, खलगं । जत्थ । मंसंसोमिति ।
गाधा
आहे दारगह-गाण व धुइत्तगाल व पहे । बरसादि बहूणं, पणगं शिति अपत्य ॥ १६६ ॥ संमेलो य घरातो, जं वा अत्थारगाण करेंति । हिंगोलं जे भिजति, सिवदुं व सिवाइकरहुं वा (१) २०० हीरं खितं, कीरतं वा वि दिस्स तु तदासा । मत्थ वसति गंतुं, उवस्स होसिओ एसो । २०१ ॥ सेजायरस्स पिंडो, माहिति ते अगदि वसति इतरेसु परिजयट्ठा, अणागयं वसति गंतूण ॥ २०२ ॥ गतार्था, तत्थ गच्छमाणस्स अंतरा छक्कायविराहणा, कंट गविसमादिया या आयरािहला।
इमे य दोसा तत्थ
दुधिय दोषि विविडा, मम्मत्ता य तत्थ इत्थीओ। दत्ता कोउय - सरसे इराण गमवादी ||२०३ || दुप्पा दुनिया की अघाउडा दुरिविट्ठा विग्भला शिष्भरा मत्ता मदक्खई सिं सवेयणा सविकारचे हकारी उम्मता भुतभोगियो ताम्रो ददसति करणं - यराण कोउयं ततो पडिगमणाऽऽदि करेज्ज जम्हा एते दोसा तम्हा तत्थ गंतव्वं ।
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(३५) मंस अभिधानराजेन्द्रः।
मंसल वितियपदेण वा गन्छेज्जा
साधोमांसभक्षणाधिकारःअसिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे भए व गेलम्मे । बहुअद्वियं पुग्गलं, अणिमिस वा बहुकंटयं । (७३) अद्धाण रोहए वा, अप्परिणामेसु जयणाए॥२०४॥
बहुस्थिकं पुरलं-मांसम् अमिमिषं वा मत्स्य वा बहुअसिवाऽऽदिसु ससकारणेसु जति गीयत्था ततो पणगप
कण्टकम्, अयं किल कालाऽऽद्यपेज्ञया ग्रहणे प्रतिषेधः। रिहाणीए वसधिट्टिता चैव गिगहति ।
अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधानम् जतो भन्नति
पते इति । दश. ५ अ० १ उ० । ( श्रमजमंसासी परिणामेसु य अच्छति, आउलछम्मेण जाइ इतरेसु ।। सिया) श्रमद्यमांसाऽशी भवेदिति योगः, श्रमद्यपोऽमांसाऽ
जे दोसा पुन्वुत्ता, सा इतरे कारणे जय ॥ ॥२०॥ शी च स्यात् , एते च मद्यमांसौ लोकाऽऽगमप्रतीते अगीयस्था वि जति परिणामगा तो अच्छति, अह अगीतो
एव, ततश्च यत्केचनाभिदधति-श्रारनालारिष्ठाऽऽद्यपि संअपरिणामी य तो सज्जायरसंखडीते आयरितो भणति
धानाद् ओदनाऽऽद्यपि प्राण्यङ्गत्वास्याज्यमिति । तदसत्,
अमीषां मद्यमांसत्वायोगात्, लोकशास्खयोरप्रसिद्धत्वात् , गत्थ कल्लं जणाउलं भविस्सर , तो निग्गच्छामो , अन्नवसहीए ठामो श्र, सज्जायरसंखडीए पुण संवासभहया भवि
सन्धानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वादिना त्वसाध्वी, अतिप्रसनदोषास्संति काउं अन्नवसहीए वि वसेज्जा । नि०पू०११ उ० ।
त् , द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनाऽऽदिप्रसनाबहुस्थिकं मांसं न प्राह्यम्
त् । इत्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्रप्रक्रमात् । दशक
२०" पिसिधे खुलं मंसं । " पाइन्ना० ११३ गाथा । से भिक्ख वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा-बहु
हु- "हिंसे वाले मुसावाई,माइले पिसुणे सढे। भुज्जमाने सुई अद्वियं मंसं वा मच्छं वा बहुकंटकं अस्सिं खलु पडि- मंसं, सेयमेयं ति मन्नइ ॥१॥" उत्त० २ ० ( धन्वन्तरिगाहितंसि अप्पे सिया भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए रातुरार्थ मांसमुपदिशति इति उंवरदस' शब्दे द्वितीयभागे तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटगं
६८४ पृष्ठे उक्तम् ) क्वचिच्छ्रमणा मांसभक्षकाः “कम्मि य
विसए जति समणा भगवन्तो जहा मंसं न खायं ति, लामे संते. जाव णो पडिगाहेजा । से भिक्खू वा भि
कम्हि वि पुण एस मंसभक्खाभक्खवियार एव पत्थि ।" क्खुणी वाजाव समाणे सियाणं परो बहुअडिएणं मंसेणं | निचू० १ उ० । गोक्षीरपाण्डुरमांसं शोणितमिति तृतीवा मच्छेणं वा उवणिमंतेजा-आउसंतो समणा ! अभिकं- योऽतिशयस्तीर्थकृतः । स०१ सम०। औ०। फलानां वि. खसि बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहित्तए ?, एयप्पगारं णिग्घोसं |
भागे, प्रशा० १ पद । सोचा णिसम्म से पुवामेव आलोएजा-आउसो त्ति वा मसकच्छभ-मांसकच्छप-पु०मासबहुले कच्छपभेदे, प्रज्ञा भइणि त्ति वा णो खलु मे कप्पइ बहुअट्ठियं मंसं प-|
मंसखल-मांसखल-न० । मांसशोषणस्थाने, नि०० १० डिगाहेत्तए, अमिकंखसि से दाउं. जावइयं तावइयं पो
उ० । यत्र संखडीनिमित्तं मांसं छित्त्वा छित्त्वा शोच्यते, ग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाई मे सेवं वदंतस्स परो अ
शुष्कं वा पुजीकृतं स्थाप्यते । आचा० २ श्रु० १० ११० भिहट्ट अंतो पडिग्गहगंसि बहुअट्टियं मंसं परिभाएत्ता ४ उ० । णिहह दलएज्जा , तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि वा मंसखायग-मांसखादक-पुं० । मांसभक्षके पारध्यादौ, नि. परपायसि वा अफासुयं प्रणेसणिजं. लामे संते . जाव| चू०१ उ०। यो पडिगाहेजा । से माहच्च पडिगाहिए सिया तं णो हित्ति |
मंसग-मांस-न०। पलले, उत्त०२१०।। वएजाणो अणहि त्ति वएजा , से तमायाय एंगतमवक
मंसगढिय-मांसग्रथित-त्रि०। मांसानुरागतन्तुभिः सन्दर्मिते. मेजा २, अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे
| मंसचक्खु-मांसचक्षुष-पुं० । छबस्थे कामयरहिते , दशः जाव संताणए मंसगं मच्छगं भोच्चा अढियाई कंटए
४०। गहाय से तमायाय एगंतमपक्कमेला २ , अहे झामथंडि-| मंसपेसिया-मांसपेशिका-श्री०। मांसखण्डे , दशा १० लसि वा जाव पमजिय पमन्जिय परिद्ववेजा। अ०। नि० चू० । प्रा० म०। एवं मांससूत्रमपि नेयम् अस्य चोपादानं क्वचिल्लताऽऽद्युप- मंसबहि-मांसवृष्टि-स्त्री० । पललवर्षणे, यत्र वृधौ मांसखशमनार्थ सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन खेदादिना शानाss-1
एडानि पतन्ति । मांसवृष्टियस्मिन् शास्त्रे चिन्त्यते तस्मिश्च । घुपकारत्वात् फलवद् दृष्टं, भुजिश्चात्र बहिःपरिभोगार्थे, नाभ्यवहारार्थे , पदाातभोगवदिति । एवं गृहस्थाऽऽम
सूत्र०२ श्रु०२ अ० । प्रव० । न्त्रणाऽऽदिविधिपुगलसूत्रमपि सुगममिति तदेवमादिना - मंसभक्खण-मांसभक्षण-न० । पिशिताशने, हा०१८ अप०। दसूत्राऽभिप्रायेण ग्रहणे सत्यपि कण्टकाऽऽदिप्रतिष्ठापनचि- मंसख-मांसल-त्रि०।"मांसाऽऽदेवो".८।१।२६॥ घिरपि सुगम इति । प्राचा०२७०१०१०१ उ०। । त्यनुस्वारस्य वा लुग । मांसोपचिते, प्रा०१ पाद ।“ संस
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मंसल अभिधानराजेन्द्रः।
मक्वण खऽग्गहत्थी।" मांसलावग्रहस्तौ वाऽप्रभागवर्तिनी हस्तौ | खलु जंबूतेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसियासांता मांसलाग्रहस्ताः। जी०१प्रति०। कल्प०। " मंसलसठियपसत्थविउलहणुयं।" मांसल उपचितमांसः संस्थि
| लए चेतिते,सेणिए राया, तत्थ शं मकाई नाम गाहावती पतो विशिष्टसंस्थानः प्रशस्तः शुभः शार्दूलस्येव विपुलो वि
रिवसइ अड्डे जाव अपरिभूते । तेणं कालेणं तेषं समएणं सस्तीणों हनुचिबुकं यस्य स तथा । जी०३ प्रति० ४ अधि० । मणे भगवं महावीरे आदिगरे गुणसिलए० जाव विहरति, श्री०।“ (१२६) रुंदा पीणा थूला, य मंसला पीवरा थोरा।" | परिसा निग्गया तते णं से मकाई गाहावती इमीसे कहातेलपाइ० ना०७३ गाथा।
द्धढे समाणे जहा पल्पत्तीए गंगदत्ते बहवे इमो वि जेट्टपुर्त मंससुहा-मांससुखा-स्त्री० । मांससुस्वकारिण्यां संबाधनायाम्, ध०१ अधिः ।
कुटुंवे ठवेत्ता पुरिससहस्सवाहीए सीयाए निक्खंते जाप
अणगारे जाते इरियासमिते०, तते णं से मकाई अणगारे मंससोन्ल-मांसशल्य-नाशूले पच्यन्त इति शूल्यानि, मांसस्य शूल्यानि मांसशूल्यानि । मांसखण्डेषु, उपा०३ अ०।
समणस्स भगवो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए
सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं अहिजति,सेसं जहा खंदगमंसाइया-मांसादिका-स्त्री०। मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा मांसाऽऽदिका, तां मांसनिवृत्ति कर्तुकामैः पूर्णायां वा नि-|
स्स, गुणरयणं तवोकम्मं सोलसवासाई परियाओ पाउणेत्ता वृत्ती, मांसप्रचुरायां संखडौ कृतायाम्, प्राचा० २७०
तहेव विपुले सिद्धे ॥६॥अन्त० १ श्रु० ६ वर्ग । १५०१ ० ४ उ० । नि० चू० । जम्मि पगरणे मंसं मकुंद-मकुन्द-पुं० । मुरजे वाचविशेषे,प्रा०म० १ ०। रा। प्रासादीए दिज्जति पच्छा प्रोदणादि तं मंसादी भएणति, मं
मक्कडकरण-मर्कटकरण-नामर्कटमुद्दिश्य यत्किञ्चित् क्रियसाण वा मच्छं वा आदावेव पकरणे करेंति तं च मंसादिए पाणीपसु वा मंसेसु आदावेव जणवयस्स मंसपगरण
ते तारशे स्थाने , आचा०२ श्रु०२ चू० ३ ०।। करेंति पच्छा सयं परिभुजति, तं वा मंसादी भणति । नि० मक्कडग-मर्कटक-पुं० । सूक्ष्मजीवविशेषे, आचा०१श्रु०१चू० चू० १० उ०।
१०१ उ०। कोलिके, वृ०४ उ० । वानरे च । वृ० ४ उ० । मंसाणुणारि (ए)-मांसानुसारिन्-पुं० । मांसान्तधातु-मकडतंतुचारण-मर्कटतन्तुचारण-पुं०।कुजवृक्षान्तरालभाव्यापककिश्चिच्छोणितानुसारिणि वणे, स्था०६ ठा०। विनमःप्रदेशेषु, कुब्जवृक्षाऽऽदिसंबन्धमर्कटतन्त्वाऽऽलम्भमंसाय-मांसाद-पुं० । मांसान्येवाग्निना प्रताप्य भक्षक नपादोद्धरणा निक्षेपावदाता मर्कटतन्तून् छिन्दतो यान्तो मनारके, सूत्र०१ श्रु०५१०१ उ०।
कटतन्तुचारणाः । चारणभेदेषु, ग० २ अधि०।। मंसासि (ण)-मांसाशिन-पुं। मांसखादके, सूत्र० १ २०५| मका
मकडबंध-मर्कटबन्ध-पुं। नाराचसंहनिनः शरीरावयवबन्धअ०१ उ०।
प्रकारे, स्था०६ ठा। मंसु-श्मश्रु-न० । “वक्राऽऽदावन्तः"।८।१।२६॥ इति मकडसंताण-मकेटसन्तान- मर्कटः कोलिकस्तस्य ससूत्रेणानुस्वाराऽऽगमः। प्रा०१ पाद । कूर्चरोमणि, स्था० ३
न्तानो जालकम् । लूतातन्तुजाले, ध० २ अधि० । प्राचा० । ठा०४ उ० । ०। प्रश्न । जी०। औ० । झा० । उत्त० ।।
कोलिकाजाले, आव० ४ अ०। प्रा०चू० । आचा० । “(२३७) मंसू खुइंच मासुरी कुच।” पाइना० ११२ मकन-मागण-पु० । चालकापशाचिक ततायतुयाराद्यगाथा।
द्वितीयौ" ॥८।४।३२५ ॥ इति गस्थाने का, णस्य नः । वाणे, मंगल-मांसवत-पुंगी उपचितमांसवति,"प्राल्विाल्लोलाल-चन्त-| प्रा०४पाद। मन्तेत्तेर-मणा-मतोः" ॥८।२।१५६॥ इति मतुव उल्लाऽऽदेशः।
...मक्कार-मस्करिन्-पुं० । मस्करोझानं गतिर्वाऽस्त्यस्य इनि , प्रा०२ पाद ।
मा कर्तुं कर्म निषेधुं शीलमस्य इनिः। “मस्कर-मस्करिणी वेणु
परिव्राजकयोः" ॥६११५४॥ इति इनिः । परिवाजके, विधा मकरंडग-मकराण्डक-पुं० । रा० । जलचरविशेषाण्डके, ज० |
नेन खकर्मपरित्याजके, चन्द्रे च । वाच । १ वक्षः।
माकार-पुं०। तृतीयचतुर्थकुलकरकाले महत्यपराधे दातव्ये मकरकेउ-मकरकेतु-पुं० । “कगचज०-" ॥८।१ । १७७ ॥ इ.
दण्डे, स्था० ७ ठा० । कल्प० । तिश्रा० म० ज०। त्यादिसूत्रेण पैशाच्यां कलोपनिषेधः । मकरध्वजे, प्रा. १ पाद।
| मक्कुण-मत्कुण-पुं० । खेदजे, 'माकण' 'खटमल' इतिख्याते सीमराकारे भरणसिख जन्तुमेदे, भाचा०१ श्रु०१०६ उ । उत्त। जं.२ वक्षः। मकरजलजन्तुभार्यायाम् , प्रा० चू० १० मकोडय-मत्कोटक-पुं० । कृष्णवणे, 'मकोडा ' ' चींटा' मकाई-मकायिन-पुं० । राजगृहवासिनि स्वनामख्याते गृहप- इतिख्याते जन्तुविशेषे, नि० चू० १ उ० । स्था०। प्रा० म०। तौ, अन्त।
मक्खण-म्रक्षण-न० । नवनीते,स्था०४ ठा०१ उ० पाया। पढमस्स णं मंते ! अज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते । एवं वृ०। नि । तैलाऽऽदिना गात्रस्य स्निग्धताऽऽपादने, नि०
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मकवण
अभिधानराजेन्द्रः। धू०३ उ०। पर्युषितेन तैलाऽऽदिनान म्रक्षणीयम् । वृ०५ णिकायाम् , आचा। राजगृहे नगरे मगधसेना गणिका, उ। “मंखेज वा मिलिंगेज्ज वा।" प्राचा०२ श्रु० २०६ तत्र कदाचिद्धनः सार्थवाहो महता द्रव्यनिचयेन समन्वितः अ० । मंखत्ति अभंगेति एक्कम्मि मक्खे मक्खेत्ति, पुणो पु- प्रविष्टः, तद्पयौवनगुणगणद्रव्यसंपदाक्षिप्तया मगधसेनयाsहो अभंगणं । अहवा-थोवेण अभंगणं बहुणा मक्खणं ति सावभिसरितः,तेन चाऽऽयव्ययाऽऽक्षिप्तमानसेनासी नावलोअभ्यंजनम्रक्षणयोर्भेदः । नि० चू० ३ उ०।
किताऽपि, अस्याश्वाऽऽत्मीयरूपयौवनसौभाग्यावलेपान्महमक्खलि(ण)-मस्करिन्-पुं०। " सपोः संयोगे सोऽग्री ती दु.खासिकाऽभूत् , ततश्च तां परिम्लानवदनामवलोक्य "॥४॥२८६ ।। इति मागध्यां स्कस्य वा सः। परि
जरासन्धेनाभ्यधायि-किं भवत्या दुःखासिकाकारणम् ?, केन व्राजके, प्रा०४पाद।
वा सामुषितेति । सा स्ववादीत्-अमरणेति । कथमसावमर
इत्युक्ते तया सद्भावः कथितो निरूपितो यावत्तथैवाधाप्यास्त मक्खिन-प्रक्षित-त्रि० । सहमर्दिते, “मक्खियं तुप्पं । " |
इत्यतो भोगार्थिनोऽर्थे प्रसक्ता अजरामरवत् क्रियासु प्रवर्त्तन्त (७५२ ) पाह. ना. २३३ गाथा ।
इति । श्राचा०१ श्रु०२ १०५ उ०। मक्खिय-म्रक्षित-त्रि० । स्नेहिते, ध०२ अधिः। (म्रक्ष- | मरादाशिव-मराधाधिप-पं० । मगधानां देशानाम णविषयं सूत्रम् 'अभंगण' शब्दे प्रथमभागे ६८६ पृष्ठे | णिश्रो मगहाहिवो।" उत्त० २० अ० । गतम्) पृथिव्यादिनाऽवगुण्ठिते, प्रव० ६७ द्वार । पिं०।
मंगुसा-मगुसा-स्त्री० । भुजपरिसर्पविशेषे, 'खाडदिल्ल'ति आवा० । एषणाया द्वितीयो म्रक्षितो दोषः। स द्विविधः
संभाव्यते । “मंगुसपुच्छ व से मंसू।" उपा०२०। सचित्तेन खरण्टित आहारोऽचित्तेन खरण्टितश्चाऽऽहारो भवति, तदा घ्रक्षितदोष उक्तः । उत्त० २४ १०। स्था० ध०
मगुक-मद्गुक-पुं० । जलपक्षिभेदे, सूत्र० १ श्रु० ११ १०। पं० चू० । आचा। श्रा० चापिं०। मक्खियं तुप्प" (७५२)
| मग्ग-मग्-धा। सर्पणे, "शकाऽऽदीनां द्वित्वम्"८४२३०॥ पाइना०२३३ गाथा।म्रक्षिते अविकृतिप्रायश्चित्तम । जीता इत्यन्त्यस्य द्वित्वम् । मग्गइ । मङ्गति । प्रा०४ पाद । पश्चात् । (म्रक्षितद्वारम् ' एसणा' शब्दे तृतीयभागे ५५ पृष्ठे गतम्) दे० ना०६ वर्ग १११ गाथा । माक्षिक-न। मक्षिकासंचितमधुनि, स्था० ६ ठा। जीतक। मार्ग-पुं० । मृजू शुद्धौ, मृजन्ति शुद्धीभव त्यनेनातीचारकमगदमजिहाँ-पारसीकः शब्दः । दौलताबादसुलतानजन-| ल्मषप्रक्षालनादिति मार्गः। "व्यञ्जनाद् घञ्"३॥१३॥ इति
घप्रत्ययः । श्रागमे । व्य०१ उ०। प्रवचने, विशे०। न्याम् , ती०५८ कल्प।
मार्गशब्दार्थमाहमगर-मकर--पुं० । जलचरविशेषे, प्रश्न. ४ श्राश्र० द्वार ।
मञ्जिजइ सोहिजइ, जेणं तो पवयणं ततो मग्गो। रा। सू. प्र०। श्री० । प्रशा०। महामत्स्ये , उत्त० ३६
अहवा सिवस्स मग्गो, मग्गणमन्नेसणं पंथो ॥१३८१।। श्र० । श्रा०म०। स० । तं । विपासाचं.प्र० । शा० । श्रावण
ततस्तस्मात्प्रवचन मार्ग उच्यते। येन, किम् ?, इत्याह-मृजू सूत्र० । प्रज्ञा०।
शुद्धौ,मृज्यते शोध्यतेऽनेन कर्म मलिन आत्मा, तस्माद्धेतोः। से किंतं मगरा। मगरा दकिहा पामता । तं जहा-सोंड-|
अथवा-मागणं मार्गोऽन्वेषणं पन्थाः शिवस्येति ॥ १३८१ ॥ मगरा, मच्छमगरा य । सेत्तं मगरा | प्रज्ञा० १ पद । जी० । (विशे०) इति व्युत्पत्तेः । ध०र०। श्रा०म० भ०। मकग इव मकरा जलविहारित्वात् धीवरेषु , प्रश्न |
मार्गस्वरूपमाहआश्रद्वार।
मार्गः प्रवर्तकं मानं, शब्दो भगवतोदितः। मगरंद-मकरन्द-पुं०। पुष्परसे, द्वा०८ द्वा० ।
संविनाशठगीतार्थाऽऽ--चरणं चेति स द्विधा ॥१॥ मगरज्झय-मकरध्वज-पुं० । कामदेवे, जै०२ वक्षः।
मार्ग इति-प्रवर्तकं स्वजनकेच्छाजनकशानजननद्वारा प्रवृ. मगरमच्छ-मकरमत्स्य-पुं०। मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। प्रशा०। त्तिजनक, मानं प्रमाणं, स च भगवता सर्वक्षेनोदितो विधि
रूपः शब्दः, संविग्नाः संवेगवन्तः,अशठा अभ्रान्ताः, गीतार्थाः मगरमुह-मकरमुख-न। पादाऽऽभरणविशेषे, औ०।
स्वभ्यस्तसूत्रार्थाः, तेषामाचरणं चेति द्विधा विधेरिष शिमगरासण-मकराऽऽसन-न० । आसनभेदे , येषामधो लिखि
टाऽऽचारस्यापि प्रवर्तकत्वात् । तदिदमाह धर्मरलप्रकरणना पकग भवन्ति । रा०।
कृत्-" मग्गो भागमणीई, अहवा संविग्गबहुजणाइएणं ।” मगह मगध-पुं० । राजगृहनगरप्रतिबद्धे श्रार्यजनपदे, प्रशा| इति ॥ १॥ १ पासूत्र । स्था।
द्वितीयाऽनादरे हन्त, प्रथमस्याप्यऽनादरः। मगहपुर मगधपुर-न । राजगृहे, श्रा० चू०१०।
जीतस्यापि प्रधानत्वं, साम्प्रतं श्रूयते यतः ॥२॥ मगहीसरी मगधश्री-स्त्री० । राजगृहगजस्य जरासन्धस्य द्वितीयेति-द्वितीयस्य शिष्टाऽऽचरणस्य अनादरे प्रवर्तकम्वनामख्यातायां गणिकायाम , श्राव० ४ ० । श्रा. चू।
त्वेनानभ्युपगमे, हन्त प्रथमस्यापि भगवद्वचनस्यापि - मगहसुंदरी-मगधसुन्दरी-स्त्री० । राजगृहराजस्य जरासन्ध
नादर एव । यतो जीतस्यापि साम्प्रतं प्रधानत्वं व्यवहारप्रस्य बनामख्यातायां गणिकायाम, आव०४० प्रा०पू०।
तिपादकशास्त्रप्रसिद्ध श्रूयते । तथा च जीतप्राधान्याऽनादरे
तत्प्रतिपादकशास्त्रानादराद्वयनमेव नास्तिकत्वमिति मामगहसेगणा-मगधसेना स्त्रो० । गजगृहे स्वनामध्यातायां ग, |
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मग्ग
( ३८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
अनुमाय सतामुक्ताऽऽ-चारेणाऽऽगममूलताम् । पथि प्रवर्तमानानां शक्या नान्धपरम्परा ॥ ३ ॥ अनुमायेति उक्ताऽऽचारेण संविग्नाऽशठगीतार्था ऽऽचारेण, श्रागम मूलतामनुमाय, सतां मार्गानुसारिणां पथि महाजनानुयातमार्गे, प्रवर्तमानानामन्धपरम्परा न शङ्कनीया । इत्थं चात्राऽऽगमबोधितेष्टोपायता कत्वमेवानुमेयम्, श्रागमग्रहणं चान्धपरम्पराशङ्काव्युदासायेति नाऽऽगमकल्पनोत्तरं विध्यर्थबोधकल्पनाद्वारव्यवधानेन प्रवर्तकतायाः शब्दसाधारण्यक्षतिः, अप्रत्यक्षेणाऽऽगमेन प्रकृतार्थस्य बोधयितुमशक्यत्वात् व्यवस्थितस्य चानुपस्थितेः सामान्यत एव तदनुमानात् । तदिदमुक्तम् - " आयरणा वि हु आण ति । " वस्तुत उपपत्तिकेन शिष्टाऽऽचारेणैव विध्यर्थसिद्धावागमानुमानं भगवद्बहुमानद्वारा समापत्तिसिद्धये इति द्रष्टव्यम् ॥ ३ ॥
सूत्रे सद्धेतुनोत्सृष्ट-मपि क्वचिदपोद्यते । हितदेऽप्यनिषिद्धेऽर्थे किं पुनर्नास्य मानता ॥ ४ ॥ सूत्र इति सूत्रे श्रागमे, उत्सृष्टमपि उत्सर्गविषयीकृतमपि, सद्धेतुना पुष्टेनाऽऽलम्बनेन, क्वचदपोद्यते श्रपवादविषयीक्रियते, हितदेऽपी साधनेऽपि, अनिषिद्धे सूत्रावा रिते, किं पुनरस्य शिष्टाऽऽचारस्य न मानता न प्रमाण
ता ॥ ४ ॥
उदासीने ऽर्थे भवत्वस्य मानता, चारित्रं तु कारणसहस्त्रेशापि परावर्तयितुमशक्यमित्यत श्राह -
निषेधः सर्वथा नास्ति, विधिर्वा सर्वथाऽऽगमे । आय व्ययं च तुलये लाभाकाङ्क्षी वणिग्यथा ||५|| निषेध इति सूत्रे विधिनिषेधौ हि गौणमुख्यभावेन मिथःसंवलितावेव प्रतिपाद्येते, अन्यथानेकान्तमर्यादाऽतिक्रमप्रसङ्गादिति भावः ॥ ५ ॥
प्रवाहधारापतितं निषिद्धं यन्न दृश्यते ।
अत एव न तन्मत्या, दूषयन्ति विपश्चितः ॥ ६॥ प्रवाहोत - शिष्टसम्मतत्व सन्देहेऽपि तदूषणमन्याय्यं, किं पुनस्तनिश्चय इति भावः । तदिदमाह - " जं च विहिां सुत्ते, राय पडिसिद्धं जसम्मि चिररूढं । स महविगप्पियदोसा. तं पिण दूसंति गीयत्था ॥ १ ॥ " ॥ ६ ॥
संविग्नाऽऽचरणं सम्य-कल्पप्रावरणाऽऽदिकम् । विपर्यस्तं पुनः श्राद्ध - ममत्वप्रभृति स्मृतम् ॥ ७ ॥ संविग्नेति - संविग्नानामाचरणं सम्यक साधुनीत्या कल्पप्रा वरणाऽऽदिकम् । तदाह
" श्रन्नह भणियं पि सुए, किंची कालाइकारणाविक्खं । श्रान्नमन्नह थिय, दीसह संविग्गगीएहिं ॥ १ ॥ कप्पां पावरणं, श्रगोश्ररश्चाश्रो भोलिश्राभिक्खा । उवग्गहियक डाहय-तंत्रयमुहदाणदोराई ॥ २ ॥ " इत्यादि । विपर्यस्तमसंविग्नाऽऽचरणं पुनः श्राद्धममत्यप्रभृति स्मृत
म् । तदाह
"जह सहेसु ममत्तं, राढाइ श्रसुद्धवहिभत्ताई । शिद्दिव सहितूली - मसूरगाईण परिभोगे ॥ १ ॥ " इति ॥ ७ ॥
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मग्ग
द्यं ज्ञानात्परं मोहा - द्विशेषो विशदोऽनयोः । एकत्वं नानयोर्युक्तं, काचमाणिक्ययोरिव ।। ८ ।। श्राद्यमिति - ज्ञानं तत्त्वज्ञानम्, मोहो गारवमग्नता ॥ ८ ॥ दर्शयद्भिः कुलाऽऽचार-लोपादामुष्मिकं भयम् । वारयद्भिः स्वगच्छीय गृहिणः साधुसङ्गतिम् ॥६॥ दर्शयद्भिरिति - श्रमुष्मिकं प्रेत्य प्रत्यवाय विपाकफलम् ॥ ६ ॥ द्रव्यस्तवं यतीनामप्यनुपश्यद्भिरुत्तमम् । विवेकविकलं दानं, स्थापयद्भिर्यथा तथा ॥ १० ॥ द्रव्यस्तवमिति श्रपिना श्रागमे यतीनां तनिषेधो द्योत्यते, अनुपश्यद्भिर्मन्यमानैः ॥ १० ॥
पुष्टाऽऽलम्बनोत्सिक्तैर्मुग्धमीनेषु मैनिकैः । इत्थं दोषादसंविग्नै - हा विश्वं विडम्बितम् ॥ ११ ॥ पुष्टेति व्यक्तः ॥ ११ ॥
अप्येष शिथिलोल्लापो, न श्राव्यो गृहमेधिनाम् । सूक्ष्मोऽर्थ इत्यदोऽयुक्तं, सूत्रे तद्गुणवर्णनात् ॥ १२ ॥ पोति - एषोऽपि शिथिलानाम्, उल्लापः यदुत न श्राव्यो गृहमेधिनाम् सूक्ष्मो ऽर्थः इत्यदो वचनमयुक्तम्, सूत्र-भगवत्यादौ तेषां गृहमेधिनामपि केषाञ्चिद्गुणवर्णनात्, “लडट्ठा गहिट्ठा " इत्यादिना साधूलसूक्ष्मार्थपरिणामशक्तिमत्वप्रति पादनात् सम्यक्त्वप्रकरणप्रसिद्धोऽयमर्थः ॥ १२ ॥ तेषां निन्दाऽल्पसाधूनां, बह्वाचरणमानिनाम् । प्रवृत्ताऽङ्गीकृताऽत्यागे, मिध्यादृग्गुणदर्शिनी ॥ १३ ॥ तेषामिति - तेषामसंविग्नानाम्, अल्पसाधूनां विरलानां यतीनां, बह्नाचरितमानिनां “ बहुभिराचीर्णे खलु वयमाचरामः स्तोकाः पुनरेते संविग्नत्वाभिमानिनो दाम्भिकाः " इत्यभिमानवताम् निन्दा अङ्गीकृतस्य मिथ्याभूतस्याऽपि बद्दाचीर्णस्याऽत्यागेऽभ्युपगम्यमाने मिथ्यादृशां गुणदर्शिनी प्रवृत्ता, सम्यग्डगपेक्षया मिथ्यादृशामेव बहुत्वात् । तदा ह - "बहुजण पवित्तिमिच्छं, इच्छं (त्थं) तेरा इहलोइओ चेव । धम्मो न उभियो, जेण तहिं बहुजणपविती ॥१॥" ॥१३॥ इदं कलिरजः पर्व - भस्म भस्मग्रहोदयः । खेलनं तदसंविग्न- राजस्यैवाधुनोचितम् ।। १४ ।। इदमिति व्यक्तः ॥ १४ ॥
समुदाये मनाग्दोष-भीतैः स्वेच्छाविहारिभिः । संविग्नैरप्यगीतार्थैः, परेभ्यो नातिरिच्यते ।। १५ ।। समुदाय इति समुदाये मनाग्दोषेभ्य ईषत्कलहाऽऽदिरूपे भ्यो भीतैः, स्वेच्छाविहारिभिः स्वच्छन्दचारिभिः संविग्नेरपि वाह्याऽऽचारप्रधानैरपि श्रगीतार्थैः, परेभ्यो ऽसंविग्नेभ्यो, नातिरिच्यते नाधिकीभूयते ॥ १५ ॥
वदन्ति गृहिणां मध्ये, पार्श्वस्थानामवन्द्यताम् । यथाच्छन्दतयाऽऽत्मानमवन्द्यं जानते न ते ॥ १६ ॥ वदन्तीति - परदोषं पश्यन्ति, स्वदोषं च न पश्यन्तीति महतीयं तेषां कदर्थनेति भावः ॥ १६ ॥
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मग्ग
( ३६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
गीतार्थपारतन्त्र्येण, ज्ञानमज्ञानिनां मतम् । विना चक्षुष्मदाधार - मन्धः पथि कथं व्रजेत् ? ॥ १७ ॥ गीतार्थेति मुख्यं ज्ञानं गीतार्थानामेव तत्पारतन्त्र्यलक्षणं गौणमेव तदगीतार्थानामिति भावः ॥ १७ ॥
तत्त्यागेनाफलं तेषां शुद्धोञ्छाऽऽदिकमप्यहो । विपरीत फलं वा स्या- त्रीभङ्ग इव वारिधौ ॥ १८ ॥ तादेति तत्त्यागेन गीतार्थपारतन्त्र्यपरिहारेण तेषां संविनाssभासानां शुद्धोञ्छाऽऽदिकमप्यफलं विपरीतफलं वा स्यात्, वारिधाविव नौभङ्गः ॥ १८ ॥
यदि नामैतेषां नास्ति ज्ञानं, कथं तर्हि मासक्षपणाऽऽदिदुष्करतपोऽनुष्ठातृत्वमित्यत श्राह -
अभिन्नग्रन्थयः प्रायः कुर्वन्तोऽप्यतिदुष्करम् । बाह्या इवात्रता मूढाः, ध्वाङ्गज्ञातेन दर्शिताः ॥ १६ ॥ अभिनेति-- श्रभिन्नग्रन्थयो ऽकृतग्रन्थिभेदाः, प्रायः कुर्वन्तोऽप्यतिदुष्करं मासक्षपणाऽऽदिकं बाह्या इवाव्रताः स्वाभावि कव्रतपरिणामरहिताः, मूढा अज्ञानाऽऽविष्टाः, ध्वाङ्गज्ञातेन वायसदृष्टान्तेन दर्शिताः । यथा हि केचन वायसा निर्मलसलिलपूर्ण सरित्परिसरं परित्यज्य मरुमरीचिकासु जलत्वभ्रान्तिभाजस्ताः प्रति प्रस्थिताः तेभ्यः केचनान्यैर्निषिद्धाः प्रत्यायाताः सुखिनो बभूवुः, ये च नाऽऽयातास्ते मध्याह्नार्कतापतरलिताः पिपासिता एव मृताः, एवं समुदायादपि मनाग्दोषभीत्या ये स्वमत्या विजिहीर्षवो गीतानिवारिताः प्रत्यावर्तन्ते, तेऽपि ज्ञानाऽऽदिसंपद्भाजनं भवन्ति, अपरे तु ज्ञानादिगुणेभ्योऽपि भ्रश्यन्तीति । तदिदमाह - " पायं अभिन्नगठी, तवाइ तह दुक्करं पि कुव्वंता । ज्व्व ण ते साहः धंखाऽऽहरणेण विन्नेया ॥ १ ॥ " श्रामेsयुक्तम् - " नममाणा वेगे जीविश्रं विष्परिणामति । ” द्रव्यतो नमन्तोऽप्येके संयमजीवितं विपरिणामयन्ति, नाशयन्तीत्येतदर्थः । इति ॥ १६ ॥
वदन्तः प्रत्युदासीनान् परुषं परुषाऽऽशयाः । विश्वासादाकृतेरेते, महापापस्य भाजनम् ॥ २० ॥
वदन्त इति - उदासीनान् मध्यस्थान् शिक्षापरायणान् प्रति, परुषं “ भवन्त एव सम्यक् क्रियां न कुर्वते कोयमस्मान् प्रत्युपदेशः " इत्यादिरूपं वचनं वदन्तः, परुषोऽज्ञानाऽवेशादाशयो येषां ते तथा, एते श्रकृतेराकारस्य, विश्वासान्महापापस्य परप्रतारणलक्षणस्य भाजनं भयन्ति, पामराणां गुणाऽऽभासमात्रेणैव स्खलनसंभवात् ॥२०॥ ये तु स्वकर्मदोषेण, प्रमाद्यन्तोऽपि धार्मिकाः । संविग्नपाक्षिकास्तेऽपि, मार्गान्वाचयशालिनः ॥ २१ ॥ ये त्विति – ये तु स्वकर्मदोषेण वीर्यान्तरायोदयलक्षणेन, प्रमाद्यन्तोऽपि क्रियासु श्रवसीदन्तोऽपि, धार्मिका धर्मनिरताः, संविग्नपाक्षिका- संविग्नपक्षीकृतः, तेऽपि, मार्गस्यान्वाचयो भाव साध्वपेक्षया पृष्ठलग्नता लक्षणः तेन शालन्त इत्येवंशीलाः । तदुक्तम् - "लब्भिहिसि तेरा पहं ति " ॥ २१ ॥ शुद्धप्ररूपणैतेषां मूलमुत्तरसंपदः ।
मग्ग
सुसाधुग्लानिभैषज्य-प्रदानाभ्यर्चनाऽऽदिकाः ।। २२ ॥ शुद्धेति - एतेषां संविग्नपाक्षिकाणां शुद्धप्ररूपणैव मूलंसर्वगुणानामाद्यमुत्पत्तिस्थानं, तदपेक्षयतनाया एव तेषां नि
राहेतुत्वात् । तदुक्तम्- "हीणस्स वि सुद्धपरू-वगस्स संविग्गपक्ववाइस्स | जा जा हविज जयगा, सा सा से निजरा होइ ॥ १॥ " इच्छायोगसंभवाश्चाऽत्र नेतराङ्गवैकल्ये ऽपि फलवैकल्यं, सम्यग्दर्शनस्यैवात्र सहकारित्वात् । शास्त्रयोग एव सम्यग्दर्शनचारित्रयोर्द्वयोस्तुल्यवदपेक्षणात् । तदिदमुक्तम्"दंसणपक्खो सावय, चरित्तभट्ठे य मंदधम्मे य । दंसणचरितपक्खो, समणे परलोकंखिम्मि ॥१॥" उत्तरसंपद उत्कृष्टसंपदश्च सुसाधूनां ग्लानेरपनायकं यद्वैषज्यं तत्प्रदानं चाभ्यचनं च तदादिकाः ॥ २२ ॥
आत्मार्थ दीक्षणं तेषां निषिद्धं श्रूयते श्रुते । ज्ञानाssद्यर्थाऽन्यदीक्षा च, स्वोपसंपच्च नाहिता ||२३|| श्रात्मार्थमिति - श्रात्मार्थ स्ववैयावृत्त्याद्यर्थ, तेषां संविग्नपाक्षिकाणां दीक्षणं श्रुते निषिद्धं श्रूयते । "अतट्ठा न विदिरक्खइ" इति वचनात् । ज्ञानाऽऽद्यर्थाऽन्येषां भावचरपरिणामवत्पृष्ठभाविनामपुनर्बन्धकाऽऽदीनां दीक्षा च तदर्थे तेषां स्वोपसंपञ्च नाहिता नाहितकारिणी, असग्रहपरित्यागार्थमपुनर्वन्धकाssदीनामपि दीक्षणाधिकारात् । तदुक्तम्- “सइनपुणबंधगाणं, कुग्गहविरहं लहुं कुणइ " इति तात्त्विकानां तु तात्त्विकैः सह योजनमप्यस्याऽऽचारः । तदुक्तम्- " देइ सुसाहूण बोहेडं ति " ॥ २३ ॥
नाऽऽवश्यकाऽऽदिवैयर्थ्यं, तेषां शक्यं प्रकुर्वताम् । अनुमत्यादिसाम्राज्या-द्भावाऽऽवेशाच्च चेतसः ||२४|| नेति - आवश्यकाSS दिवैयर्थ्यं च तेषां स्ववीर्यानुसारेण शक्यं स्वाचारं प्रकुर्वतां न भवति । तत्करण पवाऽऽचारप्रीत्येच्छायोगनिर्वाहात् । तथाऽनुमत्यादीनामनुमोदनाऽऽदीनां साम्राज्यात् सवर्थाऽभङ्गात् । चेतसश्चित्तस्य भावाऽऽवेशादर्थाssद्युपयोगाच श्रद्धामेधाऽऽद्युपपत्तेः ॥ २४ ॥
द्रव्यत्वेऽपि प्रधानत्वा - तथाकल्पात्तदक्षतम् । यतो मार्गप्रवेशाय, मतं मिथ्यादृशामपि ।। २५ ।। द्रव्यत्वेऽपीति- तदावश्यकस्य भावसाध्वपेक्षया द्रव्यत्वेऽपि प्रधानत्वादिच्छाऽऽद्यतिशयेन भावकारणत्वाद् द्रव्यपदस्य क्वचिदप्रधानार्थकत्वेन क्वचिश्च कारणार्थकत्वेनानुयोगद्वारवृत्तौ व्यवस्थापनात् तथाकल्पात् तथाऽऽचारात्, तदावश्यकं तेषामक्षतं यतो मार्गप्रवेशाय मिध्यादृशामपि तदावश्यकं मतं गीतार्थैरङ्गीकृतम्, अभ्यासरूपत्वात्, अस्खलितत्वाऽऽदिगुणगर्भतया द्रव्यत्वोपवर्णनस्यैतदर्थद्योतकत्वा
च्च ॥ २५ ॥
मार्गभेदस्तु यः कश्चि- निजमत्या विकल्प्यते । स तु सुन्दरबुद्ध्याऽपि क्रियमाणो न सुन्दरः ॥ २६ ॥ मार्गेति व्यक्तः ॥ २६ ॥ निवर्तमाना अप्येके, वदन्त्याचारगोचरम् । श्राख्याता मार्गमप्येको,नोञ्छजीवीति च श्रुतिः ॥२७॥ निवर्तमाना इति - एके संयमाभिवर्तमाना श्रपि, आचारगोचरं यथावस्थितं वदन्ति, "वयमेव कर्तुमसहिष्णकः
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(४०) अभिधानराजेन्द्रः ।
भग्ग
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मार्गः पुनरित्थम्भूत एवेति । " यदावारसूत्रम् - "निवडु माना वेगे श्रायारगोअरमाइक्खं ति । " श्रत्र संयमालिब्राह्मा निवर्तमानाः पादादनिवर्तमानाथ लभ्यन्ते । उ भयथावसीदन्त एव योजिता यथास्थिताऽऽथारोकल्या हि तेषामेकैक वालता भवति श्राचारहीनतया न तु द्वितीया उपि थे तु हीना अपि वदन्ति " एवम्भूत पवार बारोस्तियोऽस्माभिरनुष्ठीयते, साम्प्रतं दुःषमानुभावेन बलाऽऽद्यपगमान्मध्यभूतैव वर्तनी श्रेयसी, नोत्सर्गावर इति । तेषां तु द्वितीयाऽपि बालता बलादापतति, गुणवदोषानुवादात् । यदागमः - " सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा असीला । अणुवयमाणस्स वितिश्रामंदस्स बालया ॥ ॥ १ ॥ " तथा मार्गमेक प्राख्याता न चोदजीवत्यपि श्रुतिरस्ति । तदुक्तं स्थानाङ्गे -" श्राधारसा णामं पगे, णो उंछजीवी " इति ॥ २७ ॥
असंयते संयतत्वे, मन्यमाने च पापता ।
भणिता तेन मार्गोऽयं तृतीयोऽप्यवशिष्यते ॥ २८ ॥ असंयत इति असंयते संयतत्वं मन्यमाने च पापता भणिता, “श्रसंजए संजय लप्पमाणे पावसमणु त्ति वुश्चइ " इति पापमणीयाभ्यवनपाठात् । असंयते यथास्थितवरि पापत्वानुक्तेः तेन कारणेनायं संविग्नपरूपस्तृतीयोऽपि मार्गों ऽवशिष्यते । साधुभादयोरिव संविग्नपाक्षिकस्याप्याचारेणाविसंवा दिप्रवृत्तिसम्भवात् । तदुक्तम्- "सावज्जजोगपरिवार स तमो अजहधम्मो बीच सावधम्मो ओसेवि पहो ॥१॥" योगा मार्गः संविग्नपाक्षिकाणां नासम्भ वी मैत्रयादिसमन्धितताऽऽदिमत्वेनाध्यात्माऽऽदि प्रवृत्यवा धात् अविकल्पतथाकाराविषयत्येन नेम मार्गः "कप्पाक प्पे परिनिअस ठाले पंचसु डिग्रस संगमपगस्त उ, श्रविगप्पेणं तहक्कारो ॥ १ ॥” इति वचनात् । साधुवचन एवाविकल्पेन तथा कारणादिति वेलादम्यत्र लभ्यमानस्य विकल्पस्य व्यवस्थितत्वेन व्याख्यानात् । व्यव स्थायं संनिपातिकस्य वचनेऽविनै तथाकारो म्यस्य तु विकल्पेनेवेति । विवेचितं वेदं सामाचारीप्रकरणेऽस्माभिः ॥ २८ ॥
साधुः श्राद्धश्व संविग्न-पक्षी शिवपथास्त्रयः । शेषा भवपथा गेहि द्रव्यलिङ्गलिङ्गिनः ॥ २६ ॥ साधुरितिध्यकः ॥ २८ ॥
गुखी च गुरागी च गुणद्वेषी च साधुषु । भूयन्ते व्यक्रमुत्कृष्ट-मध्यमाधमबुद्वयः ॥ ३० ॥ गुणीति - व्यक्तः ॥ ३० ॥
तेच चारित्रसम्यक्त्व-मिथ्यादर्शनभूमयः ॥
तो द्वयोः प्रकृत्यैव, वर्तितव्यं यथाबलम् ॥ ३१ ॥ ते चेति व्यक्रः ॥ ३१ ॥ *
इत्थं मार्गस्थिताऽऽचार मनुसृत्य प्रवृत्तयः । मार्गयैव लभ्यन्ते, परमाऽऽनन्दसम्पदः ॥ ३२ ॥ इत्थमिति व्यक्तः ॥ ३२ ॥ द्वा० ३ द्वा० |
मग्ग
"
भावत्थयदव्त्रत्थय - रूवो सिवपंथसत्थवाहेण । सव्वगुणा पीओ, दुविहो मग्गो सिरपुरस्स || तत्र भावः शुभपरिणामः प्रधानं यत्र स्तवे स भावस्तवः । यद्वा-भावेना अन्तरप्रीत्या तथाविधक पोपशमापेक्षया सर्वविरतिदेशविरतिमतिपत्तिस्वभावेन स्तचो भावस्तवः इव्येण वा वित्तव्ययेन जिनभवनबिम्बपूजा ऽऽदिकरणरूपः स्तवो द्रव्यस्तयः, भावस्तवश्च द्रव्यस्तवश्च भावस्तवद्रव्यस्तवौ तयो रूपं स्वभावः स्तवरूपः शिवो मोक्षः पारमार्थिकनिरुपद्रव्यस्थानं तस्य पन्था मार्गः शिवपथस्तस्य सार्थवाह इव सार्थवादलेन मोक्षपथनायकेनेत्यर्थः । तस्याऽपि लोकरूढ्या नानात्वे विशेषयितुमाह- सर्वशेन सर्वविदा प्रपीतः प्ररूपितः तदम्यकथने हि विसंवादात् द्विविधोदिमकारो मार्गः पन्थाः कस्येत्याह- शिव एव पुरं शिवनगरं तस्य यमाशयः । यो हि प्रयोजननिष्पत्तौ भवमेवावलम्ब्य यहिव्यव्यतिरेकेण प्रवर्त्तते, भगवती मरुदेवी स्वामिनी पतयश्च स्वभावेन भावशुद्धाध्यवसायेन सम्यग्विदिततत्त्वा श्रविदितत्वो वा वैरस्वामिमाषा (त्रा) दिवत्सदनुष्ठाने प्रवर्त्तते स द्विविधोऽपि भावस्वरूपो मोक्षमार्ग इति । दर्श० ४ तत्त्व । मोक्षपुरप्राचकत्वान्मार्गः । श्रावश्यके, विशे० । श्रा० खू० । अनु० । जनैः पद्भ्यां चुरणे पाथि श्राचा० २ श्रु० १ ० ३ ० १ उ० । स० । सूत्र० । ज्ञा० । अष्ट० । दर्श । मोक्षपथे, आचा० १ ० ५ ० २ उ० । उत्त० । सभ्यग्दर्शनादिके, सू० २०६०० सम्यगदर्शनशमाऽऽदिके, ध० ३ श्रधि० । दर्श० । श्रा० सू० । श्राव० । मोघे, उत० २१० नरकतिर्यमनुष्यगमनपद्धती, थाचा० १ श्रु० ५ ० २ उ० ।
"
प्रशस्तो शानाssदिको भावमार्गस्तदाचरणं चात्राभिधेयमिति नामनिष्पनि मार्ग इत्यस्याध्ययनस्य नाम, तनिक्षेपार्थ निर्युक्लिकृदाहणामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु मग्गस्स य, शिक्खेवो छत्रहो होइ ॥ १०७॥ फल गलयंदोलवि-तरज्जुदवणविलपासमग्गे य । खीलगायपक्लिप, छत्तजलाकासदव्वम्मि ॥ १०८ ॥ खेतम्मि जम्मि खेते, काले कालो जहिं वह जो उ । भावम्मि होति दुविहो, पसत्थ तह अप्पसत्थी य ॥ १०६ ॥ दुबिम्म चितिगभेदो, ओ तस्स विडिओ दुविहो सुगतिफलदुग्गतिफलो, पमयं सुगतीफलेगिरथं ॥। ११० ।। दुग्गइफलवादी, तिन्नि तिसट्टा सताइ वादीगं । खेमे व खेमरुये, चकगं मग्गपाद ।। १११ ॥ नाम स्थापनाइज्यक्षेत्रका लभावनेदान्मार्गस्थ पोटा निरोप नामस्थापने सुगम त्यानाहत्य सशरीरभव्यशरीरव्यतिरि कं द्रव्यमार्गमधिकृत्याऽऽह - फलकैर्मार्गः फलकमार्गः यत्र कर्दमाऽऽदिभयात् फलकैर्गम्यते, लनामार्गस्तु यत्र लताऽवलम्बेन मम्यते, अन्दोलनमार्गोऽपि पत्राऽन्दोलन दुर्गम
माग पत्र बेलतोपरम्मन जलाऽऽदी सम्पति तय धात्रीपर
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मग्ग अभिधानराजेन्द्रः।
मग्ग लं गतः, रज्जुमार्गस्तु यत्र रज्ज्वा किश्चिदतिदुर्गमतिलध्य- जे उवदिसंति मग्गं, कुमग्गमग्गस्सिता ते उ॥११३।। ने, 'दवनं ति' यानं तन्मागों दवनमार्गः, विलमार्गो यत्र तु गु तवसंजमप्पहाणा, गुणधारी जे वयंति सम्भावं। हाऽऽद्याकारेण विलेन गम्यते, पाशप्रधानो मार्गः पाशमार्गः सव्वजगजीवहियं, तमाह सम्मप्पणीयमिणं ॥ ११४॥ पाशकृटवागुगन्वितो मार्ग इत्यर्थः, कीलकमार्गो यत्र वालु
पंथो मग्गोणाओ,विहीँ धिती सुगती हियं तह मुहं च । कोत्कटेमरुकाउदिविषये कीलकाभिशानेन गम्यते,अजमार्गों यत्र अजेन-वस्त्येन गम्यते, तत् यथा सुवर्णभूम्यां चारुद
पत्थं सेयं णिव्वुइ, णिव्याणं सिवकरं चेव ॥११५॥ भोगत इति,पक्षिमार्गो यत्र भारुण्डाऽऽदिपक्षिभिर्देशान्तरम- सम्यग्ज्ञानं दर्शनं चारित्रं चेत्ययं त्रिविधोऽपि भावमावाप्यते, छत्रमा! यत्र छत्रमन्तरेण गन्तुं न शक्यते, जलमार्गों गः 'सम्यग्दृष्टिभिः' तीर्थकरगणधराऽऽदिभिः सम्यग्वा-ययत्र नावादिना गम्यते,आकाशमार्गो विद्याधराऽऽदीनाम् अ- थावस्थितवस्तुतत्त्वनिरूपणया प्रणीतस्तैरेव च सम्ययं सर्वोऽपि फलकाऽऽदिको 'द्रव्ये' द्रव्यवि ऽवगन्तव्य इ. | गाचीर्ण इति, चरकपरिव्राजकादिभिस्तु 'श्राचीर्णः'श्राति । क्षेत्राऽऽदिमार्गप्रतिपादनायाऽऽह-क्षेत्रमार्गे पर्यालोच्य सेवितो मार्गों मिथ्यात्वमार्गोऽप्रशस्तमार्गों भवतीति । तुमानं यस्मिन क्षेत्र ग्रामनगराऽऽदी प्रदेशे वा शालिक्षेत्राऽऽदि शष्टोऽस्य दर्गतिफलनिवन्धनत्वेन विशेषणार्थ इति । स्वके वा क्षेत्रे यो याति मार्गे यस्मिन्या क्षेत्र व्याख्यायते स क्षेत्र
यूथ्यानामपि पार्श्वस्थाऽऽदीनां घड्जीवनिकायोपमर्दकारिमार्गः, एवं कालेऽप्यायोज्यम् । भावे त्वालोच्यमाने द्विविधो
णां कुमार्गाऽऽथितत्वं दर्शयितुमाह-ये केचन अपुष्टधर्माणः भवति मार्गः, तद्यथा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति । प्रशस्ताप्रशस्त- शीतलविहारिणः ऋद्धिरससातगौरवेण 'गुरुकाः 'गुरुकभेदप्रतिपादनायाऽऽह-द्विविधेऽपि' प्रशस्ताप्रशस्तरूपे भाव
र्माण प्राधाकर्माऽऽद्युपभोगाभ्युपगमेन षड्जीवनिकायव्यामार्गे प्रत्येकं त्रिविधो भेदो भवति, तत्राप्रशस्तो मिथ्यात्वम
पादनरताश्च अपरेभ्यो 'मार्ग' मोक्षमार्गमात्मानुचीर्णमुपदि विरतिरज्ञानं चेति, प्रशस्तस्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप
शन्ति। तथाहि-शरीरमिदमायं धर्मसाधनमिति मत्वा कालति, 'तस्य' प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्य भावमार्गस्य 'विनिश्चयो'
संहननाऽऽदिहानेश्चाऽऽधाकर्माऽऽधुपभोगोऽपि न दोषायेनिर्णयः फलं काय निष्ठा द्वेधा। तद्यथा-प्रशस्तः सुगतिफलः,
त्येवं प्रतिपादयन्ति, ते चैवं प्रतिपादयन्तः कुत्सितमार्गाअप्रशस्तश्च दुर्गतिफल इति । इह तु पुनः 'प्रस्तावः' अधिकारः 'सुगतिफलेन' प्रशस्तमार्गेणेति । तत्राप्रशस्तं दुर्गति
स्तीथिकास्तन्मार्गाऽऽश्रिता भवन्ति । तुशब्दादेतेऽपि स्वयू. फलं मार्ग प्रतिपिपादयिषुस्तकर्तनिर्दिदिक्षुराह-दुर्गतिः फ
थ्या एतदुपदिशन्तः कुमाश्रिता भवन्तीति किपुनस्र्तार्थि
का इति । प्रशस्तशास्त्रप्रणयनेन सन्मार्गाऽऽविष्करणाया35 ले यस्य स दुर्गतिफलस्तद्वदनशीला दुर्गतिफलवादिनस्तेषां
ह-तपः सबाह्याभ्यन्तरं द्वादशप्रकारं, तथा संयमः सप्तदशप्रावादुकानां त्रीणि त्रिपष्टयधिकानि शतानि भवन्ति, दुर्गतिफलमार्गोपदेष्यत्वं च तेषां मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया विपरी- भेदः पञ्चाऽऽथवविरमणादिलक्षणस्ताभ्यां प्रधानास्तपःसं. तजीवाऽऽदितत्त्वाभ्युपगमात् , तत्संख्या चैवमवगन्तब्या, यमप्रधानाः, तथाऽष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि गुणास्तद्धारिणो तद्यथा-"असियसयं किरियाणं , अकिरियवाईण होइ गुणधारिणो ये सत्साधवस्त एवंभूता यं 'सद्भावं' परमार्थ चुलसीइ । अण्णाणिय सत्तट्टी , वेणइयाणं च बत्ती- जीवाजीवाऽऽदिलक्षणं 'वदन्ति' प्रतिपादयन्ति, किंभूतं-ससं ॥१॥" तेषां च स्वरूपं समवसरणाध्ययने व स्मिन् जगति ते जीवास्तेभ्यो हितं-पथ्यं तद्रक्षणतस्तेषां क्ष्यत इति । साम्प्रतं मार्ग भङ्गद्वारेण निरूपयितुमाह , सदुपदेशदानतो वा तं सन्मार्ग सम्यङ्मार्गक्षाः 'सम्यग् 'अतद्यथा-एकः क्षेमो मार्गस्तस्करसिंहव्याघ्राऽऽद्युपद्रवर- | विवरीतत्वेन प्रणीतम् ' श्राहुः ' उक्लवन्त इति । साम्प्रतं हितत्वात् तथा क्षेमरूपश्च समत्वात्तथा छायापुष्पफलवद्वे- सन्मार्गस्यैकार्थिकान दर्शयितुमाह-दशाद्विवतितदेशान्तक्षोपेतजलाऽऽथयाऽऽकुलत्वाच्च १, तथा परः क्षेमो निश्चौरः । रप्राप्तिलक्षणः पन्थाः, स चेह भावमााधिकारे सकि त्वचमरुप उपलशकलाऽऽकुलगिरिनदीकरटकगर्ताश- म्यक्त्वावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः १, तथा- मार्ग ' इति ताऽऽकुलत्वेन विषमत्वात् , तथाऽपरोऽक्षेमस्तस्कराऽऽदिभः | पूर्वस्माद्विशुद्धया विशिष्टतरो मार्गः , स चेह सम्यगयोपेतत्वात्तैमरूपश्चोपलशकलाऽऽद्यभावतया समत्वात्, त-| शानावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः २६ तथा 'न्याय' इति थाऽन्यो न क्षेमो नापि क्षेमरूपः सिंहव्याघ्रतस्काराऽऽदिदो- | निश्चयेनायन-विशिष्ट स्थानप्राप्तिलक्षणं यस्मिन् सति स न्या. षदुष्टत्वात्तथा गापाषाणनिम्नोन्नताऽऽदिदोषदुष्टत्वाच्चेति, यः, स चेह सम्यक्चारित्रावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः, सत्पुरुषाएवं भावनागोऽप्यायोज्यः, तद्यथा-झानाऽऽदिसमन्वितो द्र- णामयं न्याय एव यदुत अवाप्तयोः सम्यग्दर्शनशानयोस्तत्फव्यलिलोपेतश्च साधुः क्षेमः क्षेमरूपश्च, तथा क्षेमोऽक्षेमरूपस्तु | लभूतेन सम्यक्चारित्रेण योगो भवतीत्यतो न्यायशब्देनात्र स एव भावसाधुः कारणिकद्रव्यलिङ्गरहितः,तृतीयभङ्गकगता चारित्रयोगोऽभिधीयत इति ३, तथा विधिर्धारति विधानिह्नवाः,पर तीथिका गृहस्थाश्चरमभङ्गकवतिनो द्रष्टव्याः। एव- ने विधिः सम्यगशानादर्शनयोयोगपद्येनावाप्तिः ४, तथा धृमनन्तरोतया प्रक्रियया 'चतुष्ककं भङ्गकचतुष्टयं मार्गादिष्वा- तिरिति धरणं धृतिः सम्यग्दर्शने सति चारित्रावस्थान मायोज्यम् , श्रादिग्रहणादन्यत्रापि समाध्यादावायोज्यमिति । पतुपाऽऽदाविव विशिष्टज्ञानाभावाद्विवक्षयैवमुच्यते ५, त
सम्यमिथ्यात्वमार्गयोः स्वरूपनिरूपणायाऽऽह- । था सुगतिरिति शोभना गतिरस्मात् ज्ञानाचारित्राच्चेति सम्मप्पणियो मग्गो, णाणे तह दंसणे चरित्ते य ।
सुगतिः 'शानक्रियाभ्यां मोक्षः' इति न्यायात्सुगतिशब्देन शा.
नकिये अभिधीयेते, दर्शनस्य तु झानविशेषत्वादत्रैवान्तर्भाचरगपरिवायादी-चिएणो मिच्छत्तमग्गो उ ॥ ११२॥
वोऽवगन्तव्यः ६, तथा हितमिति परमार्थतो मुक्त्यवाप्तिस्तइड्डिरसतायगुरुया, छजीवनिकायघायनिरया य। । कारणं वा हितं तच्च सम्यगदर्शनज्ञानचारित्राऽख्यमवगन्तव्य
११
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( ५२ ) मग्ग
अभिधानराजेन्द्रः। मिति ७,अत्र च संपूर्णानां सम्यग्दर्शनाऽऽदीना मोक्षमार्गत्वे न्तर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टातीतानागतवर्तमानपदार्थाऽऽवि सति ययस्तसमस्तानां मोक्षमार्गत्वेनोपन्यासः स प्रधानोप- विका केवलज्ञानाऽऽख्या यस्यास्त्यसौ मतिमांस्तेन,यं प्रशसर्जनविवक्षया न दोषायेति । तथा सुखमिति सुखहेतुत्वा
स्तंभावमार्ग मोक्षगमनं प्रति 'ऋजु' प्रगुणं यथावस्थितपदार्थसुखम्-उपशमश्रेण्यामुपशामकं प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तियादर- स्वरूपनिरूपणद्वारेणावकं सामान्यविशेषनित्यानित्याऽऽदिसूदमसंपरायरूपा गुणत्रयावस्था ८, तथा पथ्यमिति पथि- स्याद्वादसमाश्रयणात्,तदेवंभूतं मार्ग शानदर्शनतपश्चारित्राऽऽ मोक्षमार्गे हितं पथ्यं, तच्च क्षपकश्रेण्यां पूर्वोतं गुणत्रयं,
त्मकं 'प्राप्य'लब्ध्या संसारोदरविवरवर्ती प्राणी समग्रसामग्रीतथा श्रेय इत्युपशमश्रेणिमस्तकावस्था, उपशान्तसर्वमोहा- कः श्रोघमिति भवौघं संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्तदुस्तरं, तदुत्तवस्थेत्यर्थः १० तथा निवृतिहेतुत्वानिवृतिः क्षीणमोहावस्थे रणसामग्र्या एव दुष्प्रापत्वात् । तदुक्तम्-"माणुस्सखेत जाईत्यर्थः मोहनीयविनाशेऽवश्यं निर्वृतिसद्भावादिति भावः कुलरूवाऽऽरोगमाउयं बुद्धी । सवणोग्गह सद्धा सं-जमो य ११, तथा निर्वाणमिति घनघातिकर्मचतुष्टयक्षयेण केवल- लोयम्मि दुलहाई ॥१॥" इत्यादि । स एव प्रच्छकः पुनरप्याज्ञानावाप्तिः १२, तथा 'शिव' मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्य- ह-योऽसौ मार्गःसत्त्वहिताय सर्वक्षेनोपदिष्टोशेषकान्तकौटि वस्थागमनमिति १३, एवमेतानि मोक्षमार्गत्वेन किश्चिद्भेदा. ल्यवक्रतारहितस्तं मार्ग, नास्योत्तर:-प्रधानोऽस्तीत्यनुत्तदभेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि, यदि वैते पर्यायशब्दा एका रस्तं शुद्धः-अवदातो निर्दोषः पूर्वापरव्याहतिदोषापगमात्साथिका मोक्षमार्गस्येति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । सूत्र०१ वद्यानुष्ठानोपदेशाभावाद्वा तमिति, तथा सर्वाणि अशेषाणि ध्रु०११ श्र० । उत्त० । दर्श। भ० । इह मार्गः चेतसोऽवक्र- बहुभिर्भवैरुपचितानि दुःखकारणत्वाद् दुःखानि-कर्माणि गमनं, भुजङ्गमनलिकायामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगु- तेभ्यो विमोक्षण-विमोचकं तमेवंभूतं मार्गमनुत्तरं निणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः हेतुस्वरूपफलशुद्धा सुखत्य दर्दोषं सर्वदुःखक्षयकारणं हे भिक्षो! यथा त्वं जानी षे 'णं' थः, नास्मिन्नान्तरेऽसति यथोदितगुणस्थानावाप्तिर्मागविषम- इति वाक्यालङ्कारे तथा तं मार्ग सर्वक्षप्रणीतं 'नः' अस्मातया चेतःस्खलनेन प्रतिबन्धोपपत्तेः सानुबन्धक्षयोपशमतो कं हे महामुने !'ब्रूहि ' कथयेति ॥ २॥ यद्यप्यस्माकमसायथोदितगुणस्थानावाप्तिः, अन्यथा तदयोगात् क्लिष्टदुःखस्य धारणगुणोपलब्धेर्युष्मत्प्रत्ययेनैव प्रवृत्तिः स्यात् तथाप्यन्येतत्र तत्त्वतो बाधकत्वात्, सानुबन्धं क्लिष्टमेतदिति त- षां मार्गः किंभूतो मयाऽऽख्येय इत्यभिप्रायवानाह-यदा कन्त्रगर्भः, तद्वाधितस्यास्य तथागमनाभावात्, भूयस्तदनुभ-| दाचित् 'नः' अस्मान् 'केचन' सुलभबोधयः संसारोद्विनाः बोपपत्तेः, म चासौ तथाऽतिसंक्लिष्टस्तत्प्राप्ताविति प्रवचनप- सम्यग् मार्ग पृच्छेयुः, के ते?-'देवाः' चतुर्निकायाः, तथा मरमगुह्यम्,न खलु भिन्नग्रन्थेभूयस्तद्वन्ध इति तन्त्रयुक्त्युपपत्तेः। नुष्याः-प्रतीताः, बाहुल्येन तयोरेव प्रश्नसद्भावात्तदुपादानं, एवमन्यनिवृत्तिगमनेनास्य भेदः, सिद्धं चैतत्प्रवृत्त्यादिशब्द- तेषां पृच्छतां कतरं मार्गमहम् 'श्राख्यास्ये' कथयिष्ये,तदेत. वाच्यतया योगाचार्याणां,प्रवृत्तिपराक्रमजयानन्दऋतंभरभेदः दस्माकं त्व जानानः कथयेति ॥३॥ एवं पृष्ठः सुधर्मस्वाम्याकर्मयोग इत्यादिविचित्रवचनश्रावणादिति, न चेदं यथोचित- ह-यदि कदाचित् 'वः' युष्मान केचन देवा मनुष्या वा संमार्गाभावे, स चोक्लवद्भगवद्भय इति । (सूत्र१७) लायो० सारभ्रान्तिपराभग्नाः सम्यग्मार्ग पृच्छेयुस्तेषां पृच्छताम् वि०रा० । ध० । द्वा०। पं० भा०।
इममिति वक्ष्यमाणलक्षणं षड्जीवनिकायप्रतिपादनगर्भ तदनन्तरं सूत्रानुगमे अस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार- तद्रक्षाप्रवणं मार्ग 'पडिसाहिजेति' प्रतिकथयेत् , 'मार्गयितव्यं, तश्चेदम्
सारम्' मार्गपरमार्थ यं भवन्तोऽन्येषां प्रतिपादयिष्यन्ति त
त् 'मे' मम कथयतः शृणुत यूयमिति, पाठान्तरं वा" तेसि कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मईमता ।
तु इमं मग्गं, श्राइक्खेज सुणेह मे।' इति उत्तानार्थम् ॥४॥ जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरति दुत्तरं ॥१॥
पुनरपि मार्गाभिएवं कुर्वन् सुधर्मस्वाम्याहतं मर्ग गुत्तरं सुद्धं, सव्वदुक्खविमोक्खणं ।
अणुपुव्वेण महाघोरं, कासवेण पवेइयं । जाणासि णं जहा मिक्खू !, तं णो बूहि महामुणी ।२।।
जमादाय इत्रो पुव्वं, समुदं ववहारिणो ॥५॥ जह णो केइ पुच्छिजा, देवा अदुव माणुसा।
अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया । तेसि तु कयरं मग्गं, आइक्खेज कहाहि णो ॥३॥ तं सोचा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे ॥६॥ जइ वो केइ पुच्छिजा, देवा अदुव माणुसा।
पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहागणी । तेसिमं पडिसाहिआ, मग्गसारं सुणेह मे ॥४॥ वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा ॥७॥ विचित्रत्वात् त्रिकालविषयत्वाश्च सूत्रस्याऽगामुकं प्रच्छकमा- अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया । श्रित्य सूत्रमिदं प्रवृत्तम् अतो जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमिद- एतावए जीवकाए, णावरे कोइ विजई ॥८॥ माह,तद्यथा-कतरः' किंभूतो 'मार्गः' अपवर्गावाप्तिसमर्थोऽ- यथाऽहम् 'अनुपूर्वेण' अनुपरिपाट्या कथयामि तथा शृणुत, स्यांत्रिलोक्याम् श्राख्यातः'प्रतिपादितो भगवता त्रैलोक्योद्ध- यदि वा-यथा चानुपूर्ध्या सामथ्या वा मार्गोऽवाप्यते तच्छुरणसमर्थेनैकान्तहितैषिणा मा हनेत्येवमुपदेशप्रवृत्तिर्यस्या | गुत,तद्यथा-पढमिल्लुगाण उदए' इत्यादि तावद्यावत् "बारसौ माहन:-तीर्थकत्तेन,तमेव विशिनधि-मतिः लोकालोका- सविहे कसाए,खविए उवसामिए व जोगेहिं । लम्भर चरित्त
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मग्ग अभिधानराजेन्द्रः।
मग्ग लंभो।" इत्यादि, तथा 'चत्तारि परमंगाणीत्यादि ।' किंभूतं | त्येकं पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदात्याड्डिधाः, पञ्चेन्द्रियास्तु संश्यमार्ग?, तमेव विशिनष्टि-कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्य- संक्षिपर्याप्तकापपर्याप्तकभेदाच्चतुर्विधाः । तदेवमनन्तरोक्रया घसेयत्वात् 'महाघोर' महाभयानक 'काश्यपो' महावीरव- नीत्या चतुर्दशभूतग्रामाऽऽत्मकतया षड्जीवनीकाया व्यार्धमानस्वामी तेन प्रवेदित' प्रणीतं मार्ग कथयिष्यामीति ।। ख्यातास्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिः, 'एतावान् ' एतनेदाऽऽअनेन स्वमनीषिकापरिहारमाह-यं शुद्ध मार्गम् 'उपादाय' त्मक एव संक्षेपतो' जीवनिकायो जीवराशिर्भवति, श्रगृहीत्वा (इत इति) सन्मार्गोपादानात् 'पूर्वम् ' श्रादावेवानु
एडजोद्भिज्जसंस्वेदजाऽऽदेरत्रैवान्तीवानापरो जीवराशिर्विष्ठितत्वाद् दुस्तरं संसारं महापुरुषास्तरन्ति, अस्मिन्नेवार्थे
| द्यते कश्चिदिति ॥८॥ दृष्टान्तमाह-व्यवहारः-पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते येषां तदेवं षड्जीवनिकायं प्रदय यत्तत्र विधेयं तदर्शयितुमाहते व्यवहारिणः सांयात्रिकाः, यथा ते विशिष्टलाभार्थिनः कचिन्नगर यियासवो यानपात्रेण दुस्तरमपि समुद्रं तरन्ति, ए
सव्वाहि अणुजुत्तीहि, मतिमं पडिलेहिया। वं साधवोऽप्यात्यन्तिकैकान्तिकाबाधसुखेषिणः सम्यग्दर्शना. सब्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सब्वे न हिंसया ॥६॥ 3ऽदिना मार्गेण मोक्ष जिमिषवो दुस्तरं भवोधं तरन्तीति॥५॥ मार्गविशेषणायाह-यं मार्ग पूर्व महापुरुषाचीर्णमव्यभिचारि
एयं खुणाणिणो सारं, जंन हिंसति कंचण। णमाश्रित्य पूर्वस्मिन्ननादिके काले बहवोऽनन्ताः सत्त्वा अशे
अहिंसा समयं चव, एतावंतं विजाणिया॥१०॥ षकर्मकचवरविप्रमुक्ता भवौघ-संसारम् अतार्षः' तीर्णवन्तः, साम्प्रतमप्येके समग्रसामग्रीकाःसंख्ययाः सत्त्वास्तरन्ति,महा
उड्डे अहे य तिरियं, जे केह तसथावरा । विदेहाऽऽदौ सर्वदा सिद्धिसद्भावाद्वर्तमानत्वं न विरुध्यते,त- सव्वत्थ विरतिं विजा, संति निव्वाणमाहियं ॥ ११ ॥ था अनागते च काले अपर्यवसानाऽऽत्मके ऽनन्ता एव जीवा- पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज केणई । स्तरिष्यन्ति । तदेवं कालत्रयेऽपि संसारसमुद्रोत्तारकं मोक्षगमनैककारण प्रशस्तं भावमार्गमुत्पन्नदिव्यज्ञानस्तीर्थंकृद्भि
मणसा वयसा चव, कायसा चेव अंतसो ॥१२॥ रुपदिष्टं , तं चाहं सम्यक् श्रुत्वाऽवधार्य च युष्माकं शु- सर्वा याः काश्चनानुरूपाः-पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनश्रूषूणां 'प्रतिवदयामि' प्रतिपादयिष्यामि , सुधर्मस्वामी त्वेनानुकला युक्तयः-साधनानि , यदि वा-असिद्धविरुद्धानेजम्बूस्वामिनं निश्रीकृत्यान्येषामपि जन्तूनां कथयतीत्येत- कान्तिकपरिहारेण पक्षधर्मत्वसपक्षसत्वविपक्षव्यावृत्तिरूपदर्शयितुमाह-हे जन्तवोऽभिमुखीभूय, तं चारित्रमार्ग मम तया युक्तिसंगता युक्तयः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयुक्तिभिः मतिकथयतः शृणुत यूय, परमार्थकथनेऽत्यन्तमादरोत्पादनार्थ- मान 'सद्विवेकी पृथिव्यादिजीवनिकायान् 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यामेवमुपन्यास इति ॥ ६॥ चारित्रमार्गस्य प्राणातिपातवि- लोच्य जीवत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः ' अ. रमणमूलत्वात्तस्य च तत्परिज्ञानपूर्वकत्वादतो जीवस्वरू- कान्तदु.खा' दुःखद्विषः सुखलिप्सवश्व मन्वानो मतिमान् पनिरूपणार्थमाह-पृथिव्येव पृथिव्याश्रिता वा जीवाः पृ- सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति । युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः थ्वीजीवाः , ते च प्रत्येकशरीरत्वात् 'पृथक् ' प्रत्येक संक्षेपेणेमा इति-सात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विमलवसत्वा जन्तवोऽवगन्तव्याः, तथा श्रापश्च जीवाः , एव
णोपलाऽऽदीनां समानजातीयाङ्करसद्भावाद्,अशोविकाराङ्मग्निकायाश्च , तथाऽपरे वायुजीवाः, तदेवं चतुर्महाभूत- कुरवत्।तथा सचेतनमम्भः, भूमिखननादविकृतस्थभावसंभसमाश्रिताः पृथक् सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिणोऽवगन्तव्याः, एत वाद्, दर्दुरवत् । तथा साऽऽत्मकं तेजः, तद्योग्याहाऽऽरवृया एव पृथिव्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्वाः प्रत्येकशरीरिणः , वृद्धघुपलब्धेः,बालकवत्। तथा साऽऽत्मको वायुः, अपराप्रेरिवक्ष्यमाणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरत्वेनापृथक्त्वमप्यस्ती- तनियततिरश्चीनगतिमत्त्वात्,गोवत्। तथा सचेतना वनस्पतत्यस्यार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथक् सत्त्वग्रहणमिति । बनस्प- यः,जन्मजरामरणरोगाऽदीनां समुदितानां सद्भायात्,स्त्रीवत्, तिकायस्तु यः सूक्ष्मः स सर्वोऽपि निगोदरूपः साधार- तथा क्षतसंरोहणाऽहारोपादानदौहृदसद्भावस्पर्शसंकोचसाणो, बादरस्तु साधारणोऽसाधारणश्चेति , तत्र प्रत्येकश- याह्रस्वापप्रबोधाश्रयोपसर्पणाऽऽदिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पतेगरिणोऽसाधारणस्य कतिचिद्भेदानिर्दिदिक्षुराह-तत्र तृणा- श्चैतन्यसिद्धिः । द्वीन्द्रियाऽऽदीनां तु पुनः कृम्यादीनां स्पष्टमेनि-दर्भवीरणाऽऽदीनि वृक्षाः-चूताशोकाऽऽदयः सह बीजैः- व चैतन्यं, तवेदनाश्चौपक्रमिकाः स्वाभाविकाश्च समुपलभ्य शालिगोधूमाऽऽदिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः , एते सर्वेऽपि मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्च नवकेन भेदेन तत्पीडा वनस्पतिकायाः सस्वा अवगन्तव्याः, अनेन च बौद्धा- कारिण उपमनिवर्तितव्यामिति ॥ ६॥ एतदेव समर्थयन्नादिमतनिरासः कृतोऽवगन्तव्य इति । एतेषां च पृथिव्या- ह-खुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा, 'एतदेव' अनन्तरोदीनां जीवानां जीवत्वेन प्रसिद्धिस्वरूपनिरूपणमाचारे प्र- क्तं प्राणातिपातनिवर्तनं 'शानिनो' जीवस्वरूपतद्वधकर्मबथमाध्ययने “ शस्त्रपरिज्ञाऽऽख्ये" न्यक्षेण प्रतिपादितमिति म्धवेदिनः 'सार' परमार्थतःप्रधानं, पुनरप्यादरख्यापनार्थमेनेह प्रतन्यते ॥७॥ षष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाऽऽह-तत्र तदेवाऽऽह-यत्कश्चन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैषिणं न हिनस्ति, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एकन्द्रियाः सूक्ष्मवादरपर्याप्ताप- प्रभूतवेदिनोऽपि शानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं यत्प्राणातिपाप्तिकभेदेन प्रत्येक चतुर्विधाः, 'अथ' अनन्तरम् 'अ- तनिवर्तनमिति, शानमपि तदेव परमार्थतो यत्परपीडातो निपरे' अन्ये असन्तीति प्रसाः-द्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाः कृ-] वर्तनं, तथा चोक्तम्-"किं ताए पढियाए पयकोडीए पलामिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्याऽऽदयः,तय द्वित्रिचतुरिन्द्रियाःप्र. लभूयाए । जत्थित्तियं ण णायं, परस्स पीडान कायव्वा ॥१॥"
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मग्ग
( ४४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तदेवमहिंसाप्रधानः समयः - आगमः संकेतो वोपदेशरूपस्तमेवंभूतमहिंसासमयमेतावन्तमेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन ? एतावतैव परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकारिसमातेरतो न हिंस्यात्कञ्चनेति ॥ १० ॥ साम्प्रतं क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याऽऽह -- ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च ये केचन त्रसा:-तेजोवायु द्वीन्द्रियाऽऽदयः तथा स्थावराः - पृथिव्यादयः, किं बहुनो न ?,' सर्वत्र' प्राणिनि त्रसस्थावर सूक्ष्मबादरभेदभिन्ने 'विरतिं' प्राणातिपातनिवृत्ति 'विजानीयात् ' कुर्यात्, परमार्थत एवमेवासौ ज्ञाता भवति यदि सम्यक् क्रियत इति, एषैव च प्राणातिपातनिवृत्तिः परेषामात्मनश्च शान्तिहेतुत्वाच्छान्तिर्वर्तते, यतो विरतिमतो नान्ये केचन बिभ्यति नाप्यसौ भवान्तरेऽपि कुतश्चिद्विभेति, अपि च-निर्वाणप्रधानैककारणत्वानिर्वाणमपि प्राणातिपातनिवृत्तिरेव, यदि वा - शान्तिःउपशान्तता, निर्वृतिः - निर्वाण विरतिमांश्चाऽऽर्तरौद्रध्याना भावादुपशान्तिरूपो निर्वृतिभूतश्च भवति ॥ १९ ॥ किञ्चा - न्यत् - इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुर्वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदि वा - संयमाssवारकाणि कर्माण्यभिभूय मोक्षमार्गे पालयितव्ये प्रभुः समर्थः, स एवंभूतः प्रभुः दूषयन्तीति दोषा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् ' निराकृत्य' श्र पनीय केनापि प्राणिना सार्धं न विरुध्येत न केनचित्सह विरोधं कुर्यात् त्रिविधेनापि योगेनेति मनसा वाचा कायेन चैवान्तशो- यावज्जीवं परापकारक्रियया न विरोधं कुर्यादिति ॥ १२ ॥
उत्तरगुणानधिकृत्याऽऽह
संबुडे से महापने, धीरे दत्तेसणं चरे । एसणास मिए णिचं, वजयंते असणं ॥ १३ ॥ भूयाई च समारंभ, तमुद्दिस्सा य जं कडं । तारिसं तु गिरजा, अन्नपाणं सुसंजए ॥ १४॥ पूर्वकम्मं न सेविजा, एस धम्मे वसीम । जं किंचि अभिकखेजा, सव्त्रसो तं न कप्पए । १५ ॥ हणतं खाणुजाणेज्जा, श्रयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाई संति सड्डी, गामेसु नगरेसु वा ॥ १६ ॥ श्राश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः स भिक्षुर्महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञो विपुलबुद्धिरित्यर्थः, तदनेन जीवा जीवाऽऽदिपदार्थाभिशताssवेदिता भवति, 'धीरः' अक्षोभ्यः, क्षुत्पिपासाऽऽदिपरी पहैर्न क्षोभ्यते, तदेव दर्शयति- आहारोपधिशय्या ssदिके स्वस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दत्ते सत्येषणां चरति एषणीयं गृह्णातीत्यर्थः, एषणाया एषणायां वा गवेषणहणग्रासरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितः समितः, स साधुर्नित्यमेषणासमितः सन्ननेषणां वर्जयन् परित्यजन्संयममनुपालयेत् उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः समितो द्रष्टव्य इति ॥ १३ ॥ श्रनेपणीयपरिहारमधिकृत्याऽऽहअभूवन् भवन्ति, भविष्यन्ति च प्राणिनस्तान भूतानि प्राणि. नः 'समारभ्य' संरम्भसमारम्भाऽऽरम्भैरुपतापयित्वा तं साधु म्' उद्दिश्य' साध्वर्थे यत्कृतं तदुपकल्पितमाहारोपकरणाऽऽदिकं 'तादृशम् 'आधाकर्मदोषदुष्टं सुसंयतः सुतपस्वी तदन्नं पानकं वा न भुञ्जीत तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्रैवाभ्यवहरेद्, एवं तेन मार्गोऽनुपालितो भवति ॥ १४ ॥ किञ्च -आधाक
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मग्ग
ssद्यविशुद्धकोट्यवयवेनापि संपृक्तं पूतिकर्म, तदेवम्भूतमाहाराssदिकं 'न सेवेत' नोपभुञ्जीत, एषः अनन्तरोक्को धर्मः कल्पः स्वभावः 'बुसीमा त्ति' सम्यक्संयमवतोऽयमेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहाराऽऽदिकं परिहरतीति, किञ्च यदयशुद्धत्वेनाभिकाङ्गेत्-शुद्धमप्यशुद्धत्वेनाभिशङ्केत किञ्चिदप्याहाराऽऽदिकं तत्, 'सर्वशः' सर्वप्रकारमप्याहारोपकरणपूतिकभोन कल्पत इति ॥ १५॥ किञ्चान्यत्-धर्मश्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बाऽऽदिषु वा 'स्थानानि' श्राश्रयाः सन्ति' विद्यन्ते तत्र तत्स्थाना ऽऽश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणी धर्मबुद्धया कूपतडागखननप्रपासत्राऽऽदिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूतक्रियायाः aa किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुपरोधाद्भयाद्वा तं प्राणिनो घ्नन्तं नानुजानीयात् किंभूतः ? सन्?- 'आत्मना' मनोवाक्कायरूपेण गुप्त श्रात्मगुप्तः तथा 'जितेन्द्रियों' वश्येन्द्रियः सावधानुष्ठानं नानुमन्येत ॥ १३ ॥
सावद्यानुष्ठानानुमतिं परिहर्तुकाम आह तहा गिरं समारम्भ, अत्थि पुराणं ति णो वए ।
हवा गत्थि पुराणं ति एवमेयं महन्भयं ॥ १७ ॥ दाsयाय जे पाणा, हम्मंती तसथावरा ।
संसारक्खट्ठाए, तम्हा अस्थि त्ति णो वए ॥ १८ ॥ जेसिं तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं । तेसि लाभतरायं ति, तम्हा सत्थि त्ति णो वए ॥ १६ ॥ जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जे यस पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥ २० ॥
केनचिद्राजाऽऽदिना कूपखनन सत्रदानाऽऽदिप्रवृत्तेन पृष्टः साधुः - किमस्मादनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहोस्विन्नास्तीति ?, एवंभूतां गिरं' समारभ्य' निशम्याऽऽश्रित्य अस्ति पुण्यं नास्ति घेत्येवमुभयथाऽपि महाभयमिति मत्वा दोषहेतुत्वेम नानुमन्येत ॥ १७ ॥ किमर्थं नानुमन्येत इत्याह-अन्नपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनाऽऽदिकया कियया कूपखननाSSदिकया चोपकल्पयेत् तत्र यस्माद् ' हन्यन्ते' व्यापाद्यन्ते नसाः स्थावराश्च जन्तवः तस्मात्तेषां ' रक्षणार्थ' रक्षानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र भवदीयानुष्टाने पुण्यमित्येवं नो वदेदिति ॥ १८ ॥ यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात्, तदेतदपि ब्रूयादित्याह - ' येषां जन्तूनां कृते ' तद्' अन्नपानाऽऽदिकं किल धर्मबुद्धया ' उपकल्पयन्ति ' तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टं निष्पादयन्ति तनिषेधे च यस्मात् ' तेषाम् ' आहारपानार्थिनां ततः ''लाभान्तरायो' विघ्नो भवेत्, तदभावेन तु ते पीडयेरन्, तस्मात्कृपखननसत्राऽऽदिके कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतदपि न वदेदिति ॥ १६ ॥ एनमेवार्थं पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिपुराह-ये केचन प्रपासत्राऽऽदिकं दानं बहूनां जन्तूनामुपकारीति कृत्वा 'प्रशंसन्ति ' श्लाघते ' ते ' परमार्थानभिज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण ' वधं ' प्राणातिपातमिच्छन्ति, तद्दानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः येऽपि च फिल सूक्ष्मधियो वयमित्येवं मन्यमाना
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अग्ग
आगमसद्भावानभिज्ञाः 'प्रतिषेधन्ति' निषेधयन्ति ते उपसाथीः प्राणिनां वृत्तिच्छेदं' वर्तनोपायविघ्नं कुर्वन्तीति ॥२०॥ तदेवं राज्ञा श्रन्येन वेश्वरेण कूपतडागयागसत्रदानातेन पुरुषखद्भावं पृऐमुमुचुभियं द्विषयं तयितुमाहदुओ वि तेण भाति, प्रत्थि वा नत्थि वा पुसो । आर्य रयस्स हेचा गं, निव्वाणं पाउरांति ते ॥ २१ ॥ निव्वाणं परमं बुद्धा, राखताण व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निव्वाणं संपए मुखी ॥ २२ ॥ वुज्झमाणाण पाणाणं, किचंताण सकम्मुणा । घाति साहु तं दीवं, पतिट्ठेसा पच्चई ॥ २३ ॥ आयगुचे सया देते, निसोए अणासवे । जे धम्मं सुक्खाति, परिपुत्रमलि ॥ २४ ॥ यद्यस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्यानां सूक्ष्मवादा
सर्वदा प्राणत्याग एव स्यात्, प्रीणनमात्रं तु पुनः स्वल्पानां स्वल्पका तीतोऽस्तीति न चन्यं नास्ति पुरुषमित्येवं प्रतिषेधोऽपि तदर्थिनामन्तरायः स्थादित्यतो द्विधाऽपि अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते, किं तु पृष्टैः सद्भिमनं समाश्रयणीयं निर्बन्धे वस्माकं द्विचत्वारिशदोषवर्जित आहारः कल्पते, एवं धविषये मुमुचणामधिकार एव नास्तीति उच "सत्यं शीतं शशिकरचयले वारि पौधा प्रकामं, व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्ति । शोनीने जली दिनकरकिरनन्ता विनाश, तेनोदासीनमा जति मुनिगणः कृपवप्रादिकायें ॥१॥" तदेवमुभयथापि भाषिते रजसः कर्मण' आयी' लामो भय नीत्यतस्तमा रजसो मनिद्यभाषणेन या 'हिल्या' - कृत्वा 'ते' अनवद्य भाषिणो 'निर्वाण' मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ॥२१॥ अपि च निरृतिर्निर्वाणं तत्परमं प्रधानं येषां परलोकार्थिनां बुदानां ते तथा तानेव बुद्धान निर्याण्वादित्येन प्रधाना नित्येतद् रान्तेन दर्शयति-यथा नक्षत्राणाम् 'अविम्यादीनां सौम्यत्वप्रमाणप्रकाशकत्वैरधिकचान्द्रमाः प ग्लोकार्थानां मध्ये ये स्वचक्रवर्तिसंपलिदानप रित्यागेनाशेषकर्मक्षयरूपं निर्वाणमेवाभिसंधाय प्रवृत्तास्त एव प्रधाना नापर इति, यदि वा यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः प्रधानभावमनुभवति एवं लोकस्य निर्वाणं परमं प्रधानमित्येवं 'बुद्धा' अवगनतत्त्वाः प्रतिपादयन्तीति, यस्माच्च निर्माण प्रधान तस्मात्कारणात् ' सदा ' सर्वकालं यतः प्रयतः प्रयत्नवान् इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेम दा तो 'मुनिः साधुः 'निर्वाणमभिसंधयेत् ' निसर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥ २२ ॥ किचान्यत्-संसारसागरस्रोतोभिर्मिध्यात्वकषायप्रमादाऽऽदि कः, 'उद्यमानानां तदभिमुखं नीयमानानां तथा स्वकमोंदर्शन नित्यमानानामशरणानामसुतां पराहत करतो का रणवत्सलस्तीर्थं कृदन्यो वा गणधराऽऽचार्याऽऽदिकस्तेषामायभूतं साधु शोभनं द्वीपमाख्याति यथा समुद्रापतितस्य जस्तो लालाऽऽकुलितस्य मुर्मूपारतिधा तस्य विश्राम दीक्षितया समाप्पाति
,
१२
4
( ४५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
मरग
एवं तं तथाभूतं ' द्वीप' सम्यग्दर्शनाऽऽदिकं संसारभ्रमणविश्रामहेतुं परतीर्थिकैरनाख्यात पूर्वमाख्याति, एवं च कृत्वा प्रतिष्ठान प्रतिष्ठा संसारभ्रमविरतिरूपापा सम्यग्दर्शना
यासाच्या तत्त्वते प्रोच्यत इति ।। २३ ।। किंभूतोऽसावासद्वीपो भवति ?, कीरग्धि न वासावाच्यायत इत्येतदाह (आयमुले इत्यादि) मनोवा कावेरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तस्तथा सदा सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो वश्येन्द्रियो धर्मध्यानध्यायी वेत्यर्थः । तथा छिन्नानि त्रोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथाएतदेव स्पष्टतरमाह - निर्गत आश्रवः प्राणातिपाताSSIदकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात्स निराश्रवो य एवंभूतः स शुद्धं समस्तदोषाऽपेतं धर्ममाख्याति । किंभूतं धर्म ? - प्रतिपूर्ण निर वचतया सर्ववित्यास्य मोक्षगमनक हेतु मनमनन्यसर शमद्वितीयमिति यावत् ॥ २४ ॥
एवंभूतधर्मव्यतिरेकिणां दोषाभिधित्सयाऽऽद्दतमेव अविजाता, अबुद्धा बुद्धमाणियो ।
बुद्धा मोत्तिय मन्नता, अंत एते समाहिए ॥ २५ ॥ ते व बीओ मुहिस्सा व जं कडं ॥
भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्नाऽसमाहिया ॥ २६ ॥ तमेवेत्यादि तमेवंभूतं शुद्धं परिपूर्णमनीदृशं धर्ममजानाना अबुदा अविवेकिनः परितमानिनो वयमेव प्रतिबुद्धा धर्म सत्यमित्येवं मन्यमाना भावसमाधेः सम्यग्दर्शनादप र्यन्ते ऽतिदूरे वर्तन्त इति ते व सर्वेऽपि परतीचिका द्रष्टया - ति ॥ २५॥ किमिति ते तीर्थिकाभावमार्गरूपात्समाधेदूरे वर्तन्त इत्याशङ्क्याSSह - (ते य बीश्रोदगमित्यादि) ते च शाक्या
यो जीवाजीवानभिज्ञतया बीजानि शालिगोधूमादीनि तथा शीतोदकमा (सु) कोदकं तदिश्य दादारा दिकं कृतं निष्पादितं तत्सर्वमविवेकितवा ते या यो भुक्त्वाऽभ्यवहृत्य पुनः सातर्द्धिरसगौरवाऽऽसक्तमनसः सङ्घ भक्ताऽऽदिक्रियया तदवाप्तिकृते श्रातं ध्यानं ध्यायन्ति । नकिषिणां दासीदासधनधान्या 35 दिपरिग्रहवतां धर्मध्यानं भवतीति । तथा चोक्तम्
"ग्रामादीनां गवां प्रेष्यजनस्य च । यस्मिनपरिग्रह दो ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ॥१॥ इति ।
तथा
"मोदस्याऽऽयतनं धृतेरपचयः शान्तेः प्रतीपो विधिर्व्याक्षेपस्य सुहृन्मदस्य भवनं पापस्य वासो निजः । दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः, प्राशस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥ १ ॥ " तदेवं पवन पाचनादिक्रियाप्रवृत्तानां तदेवं चातुप्रेक्षमागानां कुतः शुभध्यानस्य संभव इति । अपि च-ते तीर्थिका धर्माधर्मविवेके कर्तव्य श्रखेदशा श्रनिपुणाः । तथाहि - शाक्या मनोशाSSहारवसतिशय्याऽऽसनाऽऽदिकं रागकारणमपि शुभध्याननिमित्तत्वेनाध्यवस्यन्ति तथा चोहम-मरणं भो
भुबा इत्यादि तथा मांस ककिमित्युपदिश्य संवान्तरसमाश्रयणान्निर्दोषं मन्यन्ते, बुद्धसंङ्घाऽऽदिनिमित्तं चारम्भ निर्दोषमिति क्रम "सनिवासे कार्ड से घि णि भैया । इय चइऊ पाउडरंभ, परववरसा कुण्इ बालो ॥१॥” न चैतावता तान्नदपिता । न हि लूताऽऽदिकं शीतलिकाऽऽद्यभि
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मग
धानान्तरमात्रे पाप वा भजते विषं वा मधुराभिधानेनेति । एवमन्येषामपि कापिलाऽऽदीनामाविर्भावतिरोभावाभि धानाभ्यां विनाशोत्पादावभिधदताम नैपुण्यमाविष्करणीयम्, तदेवं ते घराका शाक्यादयो मनोशोटिभोजिनः सपरि महताऽध्यायिनोऽसमादिता मोक्षमार्गावात् भाव समावृतता दूरेण वर्तन्त इत्यर्थः ॥ २६ ॥
पथा चैते रातागोतयाऽऽर्वध्याविनो भवन्ति तथा दृष्टान्तद्वारे दर्शयितुमाह
जहा डंका य का प, कुलला मग्गुका सिही। मच्छेसणं क्रियायंति, झाणं ते कलुसाधमं ॥ २७ ॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी श्रारिया ।
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"
विसएस कियायंति, कंका वा कलुसाहमा ।। २८ ।। पवेत्युदाहरणोपन्यासार्थः यथा येन प्रकारेण 'ड कादयः पक्षिविशेषा जलाऽऽशयाऽऽभया श्रामिषजीवितो मत्स्यमानि ध्यायन्ति एवंभूतं च ध्यानमार्तद्रव्यानरूपतया इत्यन्त लुमधमं न भवतीति ॥ २७ ॥ दाष्टन्तिकं दर्शयितुमाह - एवमिति यथा ढङ्काऽऽदयो मराज्यानं ध्यायन्ति तद्ध्यायिनथ कलुषाधमा भवन्ति एवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणाः ' एके शाक्या 55दयो नार्यकर्म कारित्वात्सारम्भपरिग्रहतया अनार्याः सन्तो विषयाणां शब्दादीनां प्रति यावन्ति यानि कडा इव कलुषाधमा भवन्तीति ॥ २८ ॥
किससुविहिता इदमेगे उ दुम्मती | उम्मग्गगता दुक्खं, घायमेति तं तहां ॥ २६ ॥ जहा आसाविधि नावं जाइयंधो दुरूहिया । इच्छाई पारमार्ग, अंतरा यवति ।। ३० ।। एवं तु समया एगे. मिच्छद्दिट्ठी अणारिया । सोयं कसिणमावना, आगंतारो महन्भयं ॥ ३१ ॥ इमे च धम्ममादाय, कासवे पवेदितं । । तरे सोयं महाघोरं
( ४६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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तताए परिव्व ।। ३२ ॥ 'शुद्धम् अवदातं निर्दोषं मार्गे सम्यग्दर्शनाऽऽदिकंमोक्षमार्ग कुमार्गप्ररूपया विराज्य' पाइ अस्मिन्संसारे मोक्षमार्गप्ररूपणाप्रस्तावे वा 'एके ' शाक्या ssदयः स्वदर्शनानुरागेण महामोद्दाऽऽकुलितान्तराऽऽत्मा नो दुष्टा पापोपादानतया मतिर्येषां ते दुष्टमतयः सन्त उन्मागैण संसारावतरणरूपेण गताः-प्रवृत्ता उन्मार्गगता दुःख तीति दुःखम् अप्रकारे कर्मा वातरूपं वा तद्दुःसंघातं चान्तरास्ते तथा सन्मार्गचिराधनया उन्मार्गगमनं च ' एन्ते' अन्वेषयन्ति दुःखमरणे शतशः प्राथेयन्तीत्यर्थः ॥ २६ ॥ शाक्याऽऽदीनां चापायं दिदर्शयिपुस्तावद् दृष्टान्तमाह-यथा जात्यन्धः' आस्राविणी' शतच्छिद्रां नावमारा पारमागन्तुमिच्छति न चासौ सच्छिद्रता पारगामी भवति, किं तर्हि ?, अन्तराल एव - जलमध्य एव विषीदति निमज्जतीर्थः ॥ ३० ॥ दार्शन्तिकमाहएवमेव भ्रमणा' एके शक्याऽऽदयो मिथ्यादयो ऽनार्याः
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भग्ग
भावस्रोत कमी 55अवरूपं कृत्स्नं' संपूर्णमापचाः सन्तस्ते 'महाभय' पौन पुन्येन संसारपर्यटनया नारका 53 विश्वभा वं दुःखम् ' आगन्तारः ' श्रागमनशीला भवन्ति, न तेषां संसारोदायि नायं व्यवस्थितानामियोत्तर भयतीति भावः ॥ ३१ ॥ यतः शाक्या ऽऽदयः श्रमणाः मिथ्याहयोनयः स्रोतः समापचाः महाभयमागन्तारो भवन्ति तत इदमपदिश्यते इमामेति प्रत्यक्षादि दमनन्तरं श्रमात सर्वलोकप्रकटं च दुर्गतिनिषे धेन शोभनगतिधारणात् 'धर्म' भुतचारिचाऽऽयं यशपुनःशब्दार्थ स च पुरेसाइयतिरेकं दर्शयति यस्माच्छोदनिप्रणीतधर्मस्याऽऽदातारो महाभयं गन्तारो भयन्ति, इमं पुनर्धम् आदाय गृहीत्वा काश्यपेन ' श्री वर्धमानस्यामिना प्रवेदितंतरे लक्ष्ये द्वावस्रोतः संसारपर्यटनस्वभावं तदेव विशिनमि हाघोर' दुरुत्तरत्वान्महाभयानकं, तथाहि तदन्तर्वर्तिनो जन्तवो गर्भाङ्गर्भ जन्मतो जन्म मरणान्मरणं दुःखाद् दुःस्वमित्येवमरघट्टघटी न्यायेनानुभवन्तो ऽनन्तमपि कालमा सते । तदेवं काश्यपप्रतिधर्माऽऽदानेन सता शामनाएं - नरः काssदिरक्षा तस्मै आत्मत्राणाय परिः समन्तात् ( व्रजेत् ) परिव्रजेत्संयमानुष्ठायी भवेदित्यर्थः क्वचित्पश्चार्धस्यान्यथा पाठ-कुरजा भिक्खु मिलाएस्स, अमिलाए समादिए। ' भिक्षुः साधुः ग्लानस्य वैयावृत्त्यम् ' अग्लानः ' अपरिधान्तः कुर्यात्सम्यक्समाधिना ग्लानस्य वा समाधित्पादयन्निति ॥ ३२ ॥
6
कथं संयमानुष्ठाने परिषदत्याह-विरए गामधम्मेहिं जे केई जगई जगा ।
"
तेसिं अनुवमायाए, थामं कुव्वं परिव्वए ॥ ३३ ॥ अमाणं च मायं च तं परित्राय पंडिए । सन्त्रमेयं शिराकिचा, हिब्वागं संघ मुखी ॥ ३४ ॥ संघ साहुधम्मं च, पावधम्मं गिराकरे । वहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं ण पत्थए ||३५|| जे य बुद्धा अतिकंता, जे य बुद्धा अणागया । संति तेसि पड्डाणं भूषाणं जगती जहा ।। ३६ ।
ग्रामधर्माः -- शब्दाऽऽदयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोशेतरेवरद्विष्टाः सन्त्येके केचन 'जगति' पृथिव्यां संसारोदरे ' जगा' इति जन्तवो जीवितार्थिनस्तेषां दुःखद्विषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन् तद्वक्षणे सामथ्यं कुर्यात्, तत् कुर्वे संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥ ३३ ॥ संयमविघ्नकारिणामपनयनार्थमाह-अतीच मानोऽतिमानधारियमतिफम्य यो वर्तते चकारादेतद्देश्यः कोधोऽपि परिगृह्यते एवमतिमायां चशब्दादतिलोभं च तमेवंभूतं कषायद्यातं संयमपरिपन्थिनं परितो विवेकी परिक्षाय सर्वमेनं सेसारकारणभूतं कपास निराकृत्य निवांणमनुसन्धयेत् सति च कपाचकदम्बकेन सम्यक संयमः सफलता प्रतिपद्यते। तदुक्तम्- "सामरणमरणुचरंत स्स कसाया जस्स उक्कडा होति मरणामिकं व निष्फले तर साम॥१॥"
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(४७) मग अभिधानराजेन्द्रः।
मग्ग तनिष्फलत्वे च न मोक्षसंभवः, तथा चोक्तम्
प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुत्क्षिपन्नभ्यासवशाद निहायनं त्रि"संसारादपलायनप्रतिभुवो रागाऽऽदयो मे स्थिता- हायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरप्यभ्यासात् शनैः शनैः परीस्तृष्णाब.धनबध्यमानमखिलं किं वेत्सि नेदं जगत् ?। षहोपसर्गजयं विधत्त इति ॥ ३७ ॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपमृत्यो ! मुश जराकरेण परुषं केशेषु मा मा ग्रही
संजिहीपुरुक्क शेषमधिकृत्याऽह-स साधुः एवं संवृताऽऽश्रवरोहित्यादरमन्तरेण भवतः किं नागऽऽभिष्याम्यहम् ? ॥१॥" द्वारसया संवरसंवृतोमहती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रशः-सम्यग्द इत्यादि । तदेवमेवभूतकपायपारेत्यागादच्छिन्नप्रशस्तभा- शनशानवान् , तथा धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीवानुसंधनया निर्वाणानुसंधानमेव श्रेय इति ॥ ३४ ॥ पहापसर्गाक्षोभ्यो वा स एवंभूतः सन् परेण दत्ते सत्याहागकिच-साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः सम्यग्द- 1
दिके एषणां चरेत् त्रिविधयाऽप्येषणया युक्तः सन् संयममनुनिशानवारियाऽऽख्यो वा तम् 'अनुसन्धयेत् ' वृ
पालयेत् , तथा निवृत इव निर्वृतः कषायोपशमाच्छीतीभूतः द्धिमापादयेत् , तद्यथा-प्रतिक्षणमपूवज्ञानग्रहणेन ज्ञानं "कालं' मृत्युकालं' यावदभिकाङ्केत् एतत्' यत् मया प्राक सथा शङ्काऽऽदिदोषपरिहारेण सम्यग्जीवाऽऽदिपदार्थाधि- प्रतिपादित तत् 'केवलिनः' सर्वक्षस्य तीर्थंकृतो मतम् । गभेन च सम्यग्दर्शनम् अस्खलितमूलेोत्तरगुणसंपूर्णपाल- पतच्च जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह । तदेतद्यत्त्वया नेन प्रत्यहमपूर्वाभिग्रहग्रहणेन (च) चारिवं (च) वृद्धि- मार्गस्वरूपं प्रनितं तन्मया न स्वमनीषिकया कथितं, किं मापादयेदिति, पाठान्तरं वा-'सहहे साधुधम्म च' पूर्वो- तर्हि ?, केवलिनो मतमेतदित्येवं भवता ग्राह्यम् ॥३८॥ सूत्र०१ विशेषणविशिष्ट साधुधर्म मोक्षमार्गत्वेन श्रद्दधीत निःश- श्रु० ११ अ (अन्ययूथिकानां मार्ग प्रवेदयतीत्युक्तम् 'अरणतया गृहीयात् , चशदात्सम्यगनुपालयेच, तथा पापं- उत्थिय' शब्द प्रथमभागे ४७२ पृष्ठे) (ऋज्वादिमार्गदृष्टान्तेन पापोपादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्देन प्रवृत्त निराकुयीत् , पुरुषचातुर्विध्यम् ‘पुरिसजाय' शब्दे पञ्चमभागे १०२२ पृष्ठे तथोपधान-सपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्य यस्य स भवत्यु- उनम् ) । आकाशे, भ० ७ श० २ उ० । गौणानुपधानवीर्यः, तदेवंभूतो भितु. कोधं मानं च न प्रार्थयेत् न झायाम् , नं। वर्धयेद्वति ॥ ३५॥ अथैयंभूतं भावमार्गे किं वर्धमानस्वा. मग्न-त्रि० । बुडिते , अष्ट। म्येवोपदिष्टवान् उतान्येऽपीत्येतदाशझ्याऽऽह-ये बुद्धा.तीर्थकृतोऽतीतेऽनादिके कालेऽनन्ताःसमतिकान्ताःते सर्वेऽ
तत्र नामस्थापने सुगमे , द्रव्येण धनमदिरापानाss
दिना मग्नः द्रव्यात् धनकाञ्चनात् मनः द्रव्ये शरीप्येवंभूतं भावमार्गमुपन्यत्तवन्तः, तथा ये चानागता भविध्यदनम्तकालभाविनोऽनन्ता एव तेऽप्येवमेवोपन्यसिष्यन्ति,
राऽऽदौ मनः। अथवा-द्रव्यरूपो मग्नो द्विधा-आचशब्दाद्वर्तमानकालभाविनश्च संख्येया इति । न केवलम
गमतः मग्नपदार्थज्ञाता अनुपयुक्ताः , नोआगमतो मशपन्यस्तवन्तोऽनुष्ठितवन्तश्चेत्येतद्दर्शयति-शमनं
रीरभव्यशरीरे पूर्ववत् , तद्व्यतिरिक्तस्तु मूढः शून्यः जडः।
शान्तिः भावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्तमानकालभाविनां बुद्धानां प्र
भावमग्नो द्विविधः-अशुद्धः, शुद्धश्चेति । तत्र अशुद्धः कोतिष्ठानम्-आधारी बुद्धत्वस्यान्यथानुपपत्तेः, यदि वा-शा
धाऽऽदिमग्नः विभावभाविताऽऽत्मा। शुद्धः द्विविधः-साधकः, न्तिः-मोक्षः स तेषां प्रतिष्ठानम्-श्राधारः, ततस्तदवा
सिद्धश्च । तत्र साधकः वस्तुस्वरूपाभिमुखः श्राद्यनयचप्तिश्च भावमार्गमन्तरेण न भवतीत्यतस्ते सर्वेऽप्येनं भाव
तुष्टये तु निरनुष्ठानदग्धाऽऽदिदोषवर्जितविध्युपेतद्रव्यसाधनमार्गमुक्तवन्तोऽनुष्ठितवन्तश्च [इति] गम्यते। शान्तिप्रति
प्रवृत्तिपरिणतवस्तुस्वरूपसाधनरुचिवतः भवति । शब्दाssठानत्वे दृष्टान्तमाह-भूतानां स्थावरजङ्गमानां यथा 'जगती'
दिनयमग्नस्तु सम्यगदर्शनशानचारित्राऽऽद्यात्मसमाधिमनः पिलोफी प्रतिष्ठानम् , एवं ते सर्वेऽपि युद्वाः शान्तिप्रतिष्ठाना
संपूर्णवस्तुस्वरूपे निरावरणे मनः निष्पन्नः । अत्र हि गुणइति ॥ ३६॥
स्थानाऽऽदिविशुद्धखस्वरूपाऽऽनन्दमनवमीक्ष्यते-तत्र मनप्रतिपन्नभावमार्गेण च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह
लक्षणं गदग्नाहअह णं वयमावत्रं, फासा उच्चावया फुसे ।
प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूह, समाधाय मनो निजम् । ण तेसु विणिहम्मे जा, वारण व महागिरी ॥ ३७॥
दधच्चिन्मात्रविश्रान्ति-मन इत्यभिधीयते ॥१॥
प्रत्याहृत्येन्द्रिय इति । इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनसंवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे।।
घ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणां, यो व्यूहः समूहस्तं प्रत्याहृत्य प्रनिव्वुडे कालमाकंखो, एवं (य) केवलिणो मयं ॥३८॥ त्याहारं कृत्वा , विषयसंसारतो निवार्य, “प्रत्याहारस्वी'श्रथ ' भावमार्गप्रतिपत्त्यनन्तरं साधुं प्रतिपन्नव्रतं सन्तं न्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः" इति वचनात् । निजं स्वी. स्पर्शा:-परीषहोपसर्गरूपाः 'उच्चावचाः' गुरुजघवा नानारू- यं मनः, चेतनावीर्यकत्वविकल्परूपं समाधाय समाधौ पा वा 'स्पृशेयुः' अभिवेयुः, सच साधुस्तेरभित' सं- स्थापयित्वा विषयनिरोधम् आत्मद्रव्यैकाग्रतारूपं कृत्वा,"स. सारस्वभावमपेक्षमाणः कर्मनिर्जरांच न तेरनुकूलप्रतिकूले- | माधिस्तु तदेवार्थमात्रामासनपूर्वकम् ।" आत्मस्वरूपभासनै विहन्यात्. नेव संयमानुष्ठानान्मनागपि विवलेत् , किमिव ?, कत्वरूपसमाधिः, तत्र मनः कृत्वा, चिन्मात्रे शानमात्रे श्रामहावातेनेव महागिरिः-मेरुरिति। परीषहोपसर्गजयश्चाभ्या. त्मनि, मुख्यतः दर्शनशानमय एव प्रात्मा. " उवउसो मासक्रमेण विधेयः,अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति। णदसणगुणेहिं " इति वाक्यात् । शानस्वरूपे स्पद्रव्यं विअत्र च दृष्टान्तः, तद्यथा-कश्चिदोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षि- श्रान्ति दधत् मग्न इति अभिधीयते कथ्यते, इस्यनेन अप्य गवान्तिकं नयत्यानयाते च , ततोऽसावनेनैव च क्रमेण , नादितः अयं जावः पुद्गलस्कन्घजवर्षगन्धरसस्पर्शरसाउदिषु
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(४८) अभिधानराजेन्द्रः ।
भरग
मनोहेषु स्वजना 55दिषु च भ्रमन् विकल्पकोटिकोर्डि प्राप्त इष्टान् विषयानिच्छन् अनिष्टान् विषयान् श्रनिच्छन् वातोडूतशुष्कपलाशवत् भ्रमति । कदाचित् स्वपर विवेकरूपं भेदज्ञानं प्राप्य अनन्त ज्ञानदर्शनाऽऽनन्दमयं स्वीयं भाव स्वत्वतया निर्धार्य इदं विषयसङ्गाऽऽदिकं न मम नाहम् अपभोक्ता उपाधिरेव एषः न हि मम कर्तृत्वं भोप्रादकत्वं च परवस्तूनां मया हि स्वरूपभ्रनेवं विहितं साम्प्रतं जिना ऽऽगमा अनेन जातस्वपरविवेकेन तेषु रमणाऽऽ स्वादनं न युक्तम् इति विचार्य स्वरूपानन्तस्वभावगुणपर्यायस्याद्वादानन्ताSSत्मनि विश्रान्ति प्राप्तः, आत्मानन्ताऽऽनन्दसम्पन्नमयं ज्ञात्वा, परमात्मसत्तास्वरूपे मनः भवति, स मनः अभिधीयत इति ॥ १ ॥
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य आत्मानुभवमग्नः स कीडग् भवति ?, तदाहयस्य ज्ञानसुधासिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तरसंचार - स्तख हालाहलोपमः ॥ २ ॥ यस्येति — यस्य जीवस्य अनादिविभावविरतस्य ज्ञानसुधासिन्धी परब्रह्मणि ज्ञानामृतसमुद्ररूपे परमात्मसमाधौ मनस्य तस्य जीवस्य विषयान्तरे वगन्धाऽऽदौ संचारः प्रवर्त्तनं हालाहलोपमः - महाविषभज्ञतुल्यः यो हि - तत्वादमः स विषमवि मोतुं कथं प्रवर्त्तते मालती भोगमनः मधुकरः करीराऽऽदिषु न वसति, एवं शुद्धनिःसनिरामयनिर्द्वन्द्वस्वीयामज्योतिमंझ अनन्तजीयेषु स्वयम् अनन्तवार भुक्तमुक्तेषु, वस्तुतः प्रभोग्येषु स्वगुणाऽऽवरणहेतुभूतेषु विषयेषु, तस्य मनः न संचरति न प्रवर्त्तते इति तत्त्वम् ॥ २ ॥
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पुनस्तदेष योजयति
स्वभावसुखमग्नस्य जगतत्वावलोकिनः । कर्तृत्वं नान्यभावानां साचित्वमवशिष्यते ॥ ३ ॥
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"स्वभावसुख इति । ” स्वभावं ' सहजं सुखं सहजाऽऽत्यन्तिकैकान्ताऽऽनन्दं तत्र 'मग्नस्य' तन्मयस्य, 'जगत् ' लोकः तस्य तवं तदमे यथार्थतया विलोकिन दर्शनशीलस्य पुरुषस्य, अन्यभावानां परभावानां रामाऽऽदियिभावानां ज्ञाना
रणाऽऽदिकर्मणां वाह्यस्कन्धादाननिक्षेपाणां नृत्येन किं तु शायकस्वभावत्वात्, साक्षित्वमेव, तत्र कर्तृत्वम् एकाधिपत्ये क्रियाकारित्वं तत्, जीवे जीवगुणानामेव, चेतनवीबपकरणकारकचक्रोपकरमेन यतो हि एकाधिपत्ययाशून्यत्वेन धर्माऽऽदिद्रव्येषु न कर्तृत्वं, जीवस्यापि कर्तृत्वं स्वकार्यस्य । न हि जीवः कोऽपि जगत्कर्त्ता, किंतु स्वकीयपरिणामिकगुणपर्यायप्रवृत्तेरेव कर्त्ता न परभावानां तु कर्त्तृत्वे असदारोपसिध्यभावाऽऽदयो दोषाः ज्ञाता लोकालोकस्य, अत एव नायं परभावानां कर्त्ता, किंतु स्वभावमूढोऽशुपरिणतिपरिणतः। अशुद्धनिश्चयेन रागाऽऽदिविभावस्य - शुद्धव्यवहारमानावरणादिकर्मणां कर्त्ता जास एव सहजसुखरुचिरनन्ताविनाशिस्वरूपसुखमयमात्मानं शास्वा आत्मीयपरमानन्दभोगी, न परभावानां कर्त्ता भवति किं तु शापक एव । श्रत्र प्रस्तावना, अयं हि श्रात्मा स्वनिःसपत्नम
मग्ग
ङ्गाङ्गितया स्वीयविशेषस्वभावानां सगुणकर रोन सत्प्रवृत्तिमतामपि स्वगुणकरणावरशेन ज्ञानचेतनाचार्याऽऽदियोपरा मानां च परानुयायिनां तत्सहकारेण । चादिपरिणामानां परकर्तुत्वाऽदिविभावपरिणमनेन परकये जाने पि तेषामे य गुणानां स्वभावसंमुखीभवने यादीनां परावृत्तिः तेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतेः स्वरूपसाधनकतृत्वाऽऽदि कुर्वन् गुणकरः पूर्णः साधनकर्तृत्वं विधाय गुणप्रवृत्तिरूपं शुद्धं कर्तृत्वाऽऽदिकं करोति, अत एव साधकानां सम्मुनीनां स्वरूपसंमुखानां न परभाषम् इति किं तु मे अत्र पक्षः, तर्हि मुनानां परभावाकर्तृत्वे उक्के हेतुद्रयजन्यककर्त्तृता कुतः ?, तत्राऽऽह - स्वस्वभावमग्नानां साधकमुनीनाम् अनभिसंधिजवीर्य तदनुगतचेतनता कर्मबन्धकर्त्तृत्वमस्ति त थापि स्वायत्ताभिगुणप्रवृत्तीनां स्वभावानुगतत्वात् अकर्तृत्वम् अथवा एवंभूतसिद्धत्वाऽस्वादाऽऽनन्दमग्नानां तु न परभावकर्तृता अथवा सम्यग्दर्शनादिगुणायाशी वस्तुस्व रूपविवरसेन स्वरूपानुगतस्वरानि मनः परभावक त्वं नास्त्येव, शायकत्वमेवेति । श्रतः स्वरूपरसिकानां सभाकर स्वपरिणामिकभावस्य अतः स्वाऽऽ त्मानम् एकान्ते निवेश्य, अनाविभ्रान्ति परभावकर्त्तृत्वभो त्व ग्राहकत्वाऽऽदिकं निवारणीयं स्वरूपाखण्डाऽऽनन्दकर्तृस्वाऽऽदिकं करणीयम् । इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ परब्रह्मणि मग्नस्य, श्रथा पौङ्गलिकी कथा।
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क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दाराऽऽदराः क्व च ॥४॥ परब्रह्मणीति - परब्रह्मणि परमाऽऽत्मनि मग्नस्य तन्मयस्य स्वरूपाचलोकनरमतरस्प, पीङ्गलिकी पुलसंबन्धिनीक था नाम वार्त्ता, ' श्लथा' शिथिला इत्यर्थः । परत्वेन अग्राह्यत्वेन श्रभोग्यत्वेन निर्धारात् यस्य कथाऽपि श्लथा तस्य प्रहः कुतो भवति ?, अत एव श्रमी चामीकरोन्मादाः तस्य क्व शुद्धात्मगुणसंपतां चामीकरग्रह एच पा स्थानहेतुत्वात् कुत उन्मादः ?, च पुनः स्फारा देदीप्यमानाः दाराः वनिता तस्या आदराः क्व ? इति कुतः, नैवेति । स्वभावसुखभोगिनां पौङ्गलिकभोग एव न तर्हि मोघा कुरागपटी अशुद्धविभावनड़ी दाराकटी तथा उदरः कथं भवति ?, ने वेति । इति गाथार्थः ॥ ४ ॥
तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायद्धितः । भाषिता भगवत्पादैः; सेत्थंभूतम्य युज्यते ॥ ५ ॥ तेजोलेश्या इति-तेजोलेश्या चिगुलालाना 15नन्दाऽऽस्वादा 55श्लेषरूपा तस्थाविवृद्धिः विशेषतः वना साधोः निर्मम्यस्य, पर्यायवृदितः चारित्रपर्यावद्धिनः भव यत्पाद भाषिता लाभामा निर्मलाऽऽस्वादरूपा, इत्थंभूतस्य, आत्मज्ञानमन्नस्य रत्नत्रयैकवली लामयस्य वाचंयमस्य युज्यने-घटतेनान्यस्य मन्त्रसंवेगिनः । अत्र प्रस्तावना, तत्र प्रथमं संयमम्यरूपमुच्यते-आत्मनि वारिजनामगुणः अनन्तपर्यायो पेनानन्नाविभागरूपः अस्ति। त था व विशेषाभ्यश्य के दानादिलब्धि अचार मस्या पीच्छन्ति, तदावरणस्य तत्राप्यभावात् श्रावरणाभावे च तदसत्त्वे क्षीणमोहाऽऽदिष्वपि तदमत्वप्रसङ्गात् ततस्तन्मते चा दीनां सिद्धावस्थायां सद्भावः । चारिच चारित्रम
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मग्ग अभिधानराजेन्द्रः।
मग्ग हावृतं तच तत्त्वश्रद्धासम्यग्ज्ञानपूर्णाऽऽनन्देहाऽविर्भावपश्चा- दाणं तेऊले। अट्टमासपरिआए बंभलोगाणं लंतगाणं तेसापाऽऽदिक्षयोपशमावस्थागतं च चारित्रमोहपुद्गलेषु उदयः |
ऊलेसं बीतीवयंति । एवमासपरिआए महासुकंसहस्सा
राणं देवाणं तेऊ । दसमासपरिआए आणय-पाणयारणप्राप्लेषु भुक्नेषु अनुदितेषुविष्कम्भितेषु केषाञ्चित् प्रदेशभोगिता
चुयाणं देवाणं तेऊ इक्कारसमासपरिवाए गेविनषिमाणानीतेषु चारित्रगुणविभागानाम् आविर्भावो भवति, तत्र सर्व
णं देवाणं तेऊबारसमासपरिआए समय निग्गंथे अणुत्तरोजमन्यसयमस्थाने सर्वाऽऽकाशप्रदेशानन्तगुणतुल्यचारित्रप
ववााणं देवाणं तेऊलेसं वीतीवयंति, तेण परं सुक्क सुक्कायप्राग्भावःप्रथमं संयमस्थानम्। ते कित्तिया पपसा,सव्वा
भिजाइए भवह । तो पच्छा सिझति० जाव अन्त करेति, ऽऽगासस्समग्गणा होइ।तेतित्तिया परसा,अविभागाश्रो श्र
सेवं भंते !।"अस्य टीकायां लेश्याप्रक्रमादिदमाह-"जे इमे" नंतगुणा।।"प्रथम संयमस्थानं सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धस्था
इत्यादि । ये इमे प्रत्यक्षाः "अजसाए ति ," आर्यतयानतः अनन्तगुणविशुद्धं,द्वितीयं संयमस्थानं प्रथमस्थानात् अ
पापकर्मबहिर्भूततया , अद्यतया अधुनातनतया , वर्तमामन्ततमे भागे यावन्तः अविभागाः तावन्तः अविभागवृद्धौभ
नकालतया इत्यर्थः । 'तेऊलेसंति' तेजोलेश्या सुखाचन्ति,एवं तृतीयम् ,एवं चतुर्थम् एवमनन्तभागवृ ध्या अल
सिका, तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षण , सा चमात्राऽऽकाशक्षेत्रस्य अङ्गलासंख्यभागाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणसमानि स्थानानि भवन्ति,इदं प्रथमं कण्डकम् । ततः परम् अ
सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात् तेजोलेश्याशसंख्यातभागवृद्धिरूपं द्वितीयं कराडकम् । प्रथम संयमस्थानं
ब्देन सुखासिका विवक्ष्यते, 'वीतीवयंति' व्यतिवजन्ति प्रथमं कराडकं,चरमसंयमस्थाने तावन्तो विभागाः,तेषाम् असं व्यतिक्रामन्ति । 'असुरिंदजियाणं ति' चमरबलिवर्जिताख्याततमे भागेयावन्तः अविभागास्तावन्तोऽधिकाः क्षयोपश- नां तेण परं' ततः परं, ततः संवत्सरात्परतः, 'सुक्केति' शुक्लो मा भवन्ति, तद् द्वितीये कण्डके प्रथमं संमयस्थानं,ततः - नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी,कृतज्ञः,सदारम्भी,हितानुबन्धी,निर. संख्येयानि स्थानानि अनन्तभागवृद्धिरूपाणि असंख्यभागप्र- तिचारचरण इत्यन्ये, “सुक्काभिजाति ति"शुकाभिजात्यं परदेशराशिप्रमाणानि द्वितीयं कराडकम्। ततः परम् एकम् असं. मशुक्लमित्यर्थः, अत एवोक्तम् श्राकिश्चन्यं, मुख्यं ब्रह्मातिपर, ख्यातभागवृद्धिरूपं पुनः असंख्येयानि अनन्तभागवृद्धिरूपा
सदागमं विशुद्धं सर्वशुक्लमिदं खलु नियमात् , संवत्सरादुर्ध्वम् णि तृतीयं कराडकं,तत एकम् असंख्यातवृद्धिरूपम् पवम् अन
एतञ्च श्रमणविशेषमेवाऽऽश्रित्योच्यते, न पुनः सर्व एवंविधो न्तभागान्तरिताकुलासंख्येयभागमात्रम् असंख्यभागवृद्धिरूप
भवति, अत्र मासपर्यायेति संयमश्रेणिगतसंयमस्थानानां माम् अकुलासंख्येयभागकराडकमानस्थानरूपं द्वितीय स्थानम्।। साऽऽदिपर्यायगतसंयमभावोल्लबनेन तत्प्रमाणसंयमस्थानोततः संख्यातभागवृद्धिरूपं प्रथम संयमस्थानम् । ततः पुनः
नवी मुनिर्ग्राह्य इति । अत्र परम्परासंप्रदायः-जघन्यतः अनन्तभागवृद्धिरूपाणि असंख्येयामि, ततः पुनः एकम्
उत्कृष्टं यावत् असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रमाणेषु संयमस्थानेषु असंख्यभागवृद्धि रूपं, ततः असंख्येयानि अनन्तभागव- कमाकमवर्तिनिर्ग्रन्थेषु मासतः द्वादशमाससंयमप्रमाणसंद्धिरूपाणि, एवम् अङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्यभागप्रदेशमानक- यमस्थानोलानोपरितने वर्तमानः साधुरीहग्देवतातुल्यं सुएडकेषु गतेषु एक संख्यातभागवृद्धिरूपं स्थानम् , पव- स्वम अतिक्रम्य वर्तते इति शेयम् । उक्तं च-"मासाऽऽदिपर्याय मङ्गलासंख्येयभागतुल्यानि संख्येयभागवृद्धिस्थानानि गता- वृद्धा, द्वादशभिः परं तेजः । प्राप्नोति तत्र चारित्री, सर्वदेवेभ्य नि, एवं संख्यातगुणवृद्धद्यसंख्यातगुणवृद्धधनन्तगुण
उत्तमम् ॥ १॥" धर्मविदस्तेजश्चित्सुखलाभक्षणं वृत्ती वृद्धिरूपाणि असंख्येवानि संयमस्थानानि भवन्ति । ततः परं स्थानमसंख्येयगुणसंयमस्थानमानं भवति एकान्तरं
इत्येवम् आत्मसुखवृद्धिः आत्मज्ञानमग्नस्य भवति ॥५॥ तानि असंख्येयानि अनन्तभागवृद्धिरूपाणि संयमस्थानानि ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्तुं नैव शक्यते । भवन्ति । सर्वसंयमस्थानसंख्यालोकसमानाःअलोके असंख्येयाऽलोकाऽऽकाशाः काल्प्यन्ते, तावत्प्रदेशराशितुल्यानि संय
नोपमेयं प्रियाऽऽश्लेष-नापि तच्चन्दनद्रवैः ॥६॥ मस्थानानि भवन्ति उत्तरोत्तरनिर्मलानि । श्रादितः अनुक्र- ज्ञानमग्नस्येति-ज्ञानमग्नस्य अात्मसुखोपलब्धियुक्तस्य, यत् मसंयमस्थानाऽऽरोही नियमात् शिवपदं लभते प्रथमम् एव शर्म सुखं स्पर्शज्ञानानुभवाऽऽनन्दं तत् वक्त नैव शक्यते, उत्कृष्टमध्यमसंयमस्थानाऽऽरोही नियमात् पतति । एवं प्रथ- अतीन्द्रियत्वात् वागगोचरत्वात् , तद् अध्यात्मसुखं प्रिया मस्थानतः अनुक्रमेण संयमक्षयोपशमी तस्य चारित्रपर्या
मनोशेटवनिता तस्या-श्राश्लेषः, आलिङ्गनः, तथा चन्दयनिर्मलत्वेन चारित्रसुखस्वरूपं भगवतीवाक्यम्। पालापश्च नद्रवैः चन्दनविलेपनै!पमीयते । यतः नकचन्दनादिर्ज भगवत्याम्-"जे इमे अजत्ताए समणा निग्गंथा विहरति
सुखं वस्तुतःन सुखम् , आत्मसुखभ्रष्टः सुखबुद्ध्या श्रारोपितं, एएण कस्स तेऊलेसं बीतीयंति ? । गोयमा ! मासपरियार समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेऊलेसं वीतीवयंति ।
लोके पुद्गलसंयोगजम् आरोपसुखं, जात्या दुःखमेव । उक्तं दुमासपरिश्राए समणे णिग्गंथे असुरिंदवजिश्राणं भवणवा
च विशेषाऽऽवश्यकेसोण तेउलेस वीतीवयंति । एएलं अभिलावणं तिमासपरि
“जसोच्चिश्र पच्चक्ख, सोम्म ! सुहं नत्थि दुक्खमेवेदं । आए समणे णिग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेऊलेसं वीतीव
तप्पडियारविभतं, तो पुण्णफलंति दुक्खं ति ॥ २००५ ॥ यति । चउमासपरिश्राए गहगणणक्वत्ततागरूवाणं जोइसि- विसयसुहं दुक्खं चिय, दुक्खप्पडियारउ त्तिगिच्छि व्य । प्राण तेऊलेसं बीतीवयंति। पंचमासपरिश्राए चंदिमसरिया- सं सुंदरमुवयारो,न उवयारो विणा तच्चं ॥२००६॥ (विशे०) ण जोइसियाणं तेऊलेसं वीतीवयंति । छम्मासपरिश्राए सो- सायाऽसायं दुक्खं, तविरहम्मि य सुहं जो तेणं । हम्मीसाणाणं तेऊले। सत्तमासपरिश्राए सणकुमारमाहि-। देहदिएसु दुक्खं, सुक्खं देहिंदियाभावो ॥२०११॥
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५०) मरग अभिधानराजेन्द्रः।
मग्गट्ठाण (पतासां गाथानां व्याख्या'णिवाण शब्दे चतुर्धभागे | वानाम् , इष्टानिष्टपरभावग्रहणाग्रहणरसिकत्वेन तत्प्राप्त्यप्रा२१२५ पृष्ठे गता)
प्तौ रत्यरत्यशुद्धाध्यवसायमग्नानां जीवानां कुतः स्वरूपम
ग्नता?, अतः शङ्काऽऽद्यतिचारवियुक्तावाप्तदर्शनो हि जीवः " औत्सुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा,
शुद्धाऽऽशयः, त्रिभुवनमप्युपहतमोहमहेन्धनज्वलितकर्मदहफिलश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव ।
नक्वथ्यमानमशरणमवलोक्य गुणाऽऽवरणाद् दुःखोद्विग्नः नातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय,
निर्धारिततत्त्वश्रद्धानः श्राश्रवनिवृत्तिसंवरैकत्वप्रतिज्ञामारुहा राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवाऽऽतपत्रम् ॥१॥” इति ।
दृढीकरणार्थ पञ्चविंशतिभावनाभावितान्तरात्मा द्वादशानुतस्मात् संसार: सर्वदुःखस्वरूप एव, स्वाभाविकाऽऽनन्द
प्रेक्षास्थिरीकृताध्यवसायः, पूर्वकर्मनिराभिनवाग्रहणाऽ5एव सुखं, यावत् इन्द्रियसुखे सुखबुद्धिः तावत् सम्यग्दर्शनशाने न मग्नः, इति तत्त्वार्थवृत्तो, अतः अध्यात्मसुखं पुद्गला
विर्भावभूतस्वरूपसंपदानुभवमग्नाः सुखिनः, अत एवा5ऽश्लेपजसुखेन नोपमीयते ॥ ६॥
आमश्रवणविभावविरतितत्त्वावलोकनतत्त्वैकाग्रताऽऽद्युपायैः
स्वरूपानुभवमग्नत्वम् एव कार्य, संसारे कर्मक्लेशसततत्वमशमशैत्यपुषो यस्य, विग्रुषोऽपि महाकथा।
वगम्य संसारोद्विग्नेन विरागमार्गानुगप्रवर्तिना आत्मस्वकिं स्तुमो ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नता?॥७॥
रूपाऽविर्भावहेतुषु सम्यग्दर्शनशानचारित्रेषु वर्तितव्यमिशमशैत्यपुष इति-शप उपशमः रागद्वेषाभावः, तत्त्वाss- त्यर्थः ॥ ८ ॥ अष्ट० २ अप० । स्वादकत्वम् आत्मनि निर्धार्य इष्टानिष्टे वस्तुनि रागाऽऽदीनां
मग्गो -मार्गतम्-अव्य० । पश्चादित्यर्थे, “मग्गो पच्छा" शान्तिः, न हिरागाऽऽदयो वस्तुपरिणामाः, किन्तु विभावजा
(६६४) पाइ० ना० २७४ गाथा । “अतो डो विसर्गस्य" अशुद्धा भ्रान्तिपरिणतिः, न हि पुद्गलाऽऽदीनां शुभाशुभप
१३७॥ इति विसर्गस्य डो इत्यादेशः । प्रा० १पाद । रिणतिः कस्यापि जीवस्य निमित्ता, किन्तु पूर्णगलनपारिणा
पृष्ठतः इत्यर्थे, भ०६ श०५ उ० । श्रा० चू० । मिकत्वेन. अथवा-वर्णाऽदिकर्मविपाकाद्वा । तत्र रागद्वषता मरगयोपडिवट-मार्गतःप्रतिबट-त्रि०स्था०३ठा०२ उ०। तु भ्रान्तिरेव । उक्तं च-"कणगो लोहो न भणइ, रागो दोसो |
| (अर्थस्तु 'पव्वजा' शब्दे पञ्चमभागे ७३० पृष्ठे गतः) कुणतु मज्झ नुमं । नियतत्तविलुत्ताणं, एस प्रणाई अपरिणा
| मग्गंतराय मार्गान्तराय-पुं० । मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्विध्नकरणे, मो॥१॥"स्वरूपस्य स्वाऽऽयत्तत्वात् स्वभोग्यत्वात् परवस्तुसं.
| स्था० ४ ठा०४ उ०। योगवियोगाभ्यामिष्टानिष्टतोपाधिः । एवं शमस्य शत्यं शीतलत्वम् अतप्तत्वं, तस्य 'पुषः' पोषकस्य यस्य पुरुषस्य शमशैत्य- | मग्गगामि(ण)-मार्गगामिन-पुं० । कल्याणप्रापकपथयायिपुषः विपुषः बिन्दुमात्रस्थापि महाकथा महावार्ता, शमशत्य- नि, उत्त० २५ अ०। यो०वि० । द्वा०। विन्दुरपि दुर्लभः, यस्य ज्ञानपीयूषे तत्त्वज्ञानामृते सर्वाङ्गमग्न- | मग्गज्झयण-मार्गाध्ययन न० । भावमार्गप्रतिपादके सूत्रकृता तत्र तस्मिन् स्थाने किं स्तुमः किं वर्णयामः?, तस्य वर्णनं क- | ताङ्गस्यैकादशेऽध्ययने, सूत्र० १ श्रु० ११ १०। प्रा०चू० । तुम् असमर्था, वयमिति। यो हि स्वरूपज्ञानानुभवः सः अ- मग्गण-मार्गण-नामार्यतेऽनेनेति मार्गणम् । अन्वयधर्मपतिप्रशस्यः । उक्तं च
र्यालोचनतोऽन्वेषणे, शा० १ थु०२० । श्राभोगनं मार्ग"लब्भह सुरसामित्तं, लभा पहुअत्तणं न संदेहो।
ण मोषणमिति होकार्थाः । उक्तं च-"श्राभोगणं ति वा मम्गइको नवरि न लब्भइ, जिर्णिदवरदेसिनो धम्मो ॥१॥
णं ति वा मोसणं ति वा एगटुं"व्य०२उ०ौगा०चूधमार्गधम्मो पवित्तिरूवो, लब्भर कइया वि निरयदुक्खभया।
णमन्वयधर्माऽऽलोचनं, यथा-स्थाणौ निश्चेतव्ये इह वल्ल्युजो नियवथुसहावो, सो धम्मो दुल्लहो लोए ॥२॥
सर्पणाऽऽदयः स्थाणुधर्मा घटन्त इति । औला प्रश्नासद्भतानिवन्धुधम्मसवणं, दुलहं वुत्तं जिणिदिश्राण सुहे।
थविशेषाभिमुखमेव तदूर्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणे, नं। तफासणभेगतं, हुँति हु केसि च धीराणं ॥ ३॥"
"तत्थ वियालणं ति वा मग्गणं ति वा ईहणं ति वा एगदें।" अतः वस्तुस्वरूपधर्मस्पर्शनेन परमशीतीभूतानां परमपू
श्रा० चू०१०। भ० । " कणो सिलीमुहो म-गणो ज्यत्वमेव ।। ७॥
इलू सायश्रो सरो विसिहो (५१) " पाइन्ना० ३६ गाथा । यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिः, गिरः शमसुधाकिरः। तस्मै नमःशुभज्ञान-ध्यानमग्नाय योगिने ॥८॥
|मग्गणवाण-मार्गणास्थान-न । जीवाऽऽदीनां पदार्थाना
मन्वेषणं मार्गणा, तस्याः स्थानान्याश्रया मार्मणास्थाना'यस्येति' तस्मै शुभशानध्यानमग्नाय योगिने नमः, शुभं
नि । गत्यादिपु, प्रव०२२४ द्वार । नाम शुद्धं यथार्थपरिच्छेदनं, भेदज्ञानविभक्तस्वपरत्वेन स्व
अत्र चेयं मार्गणास्थानप्रतिपादिका बृहद्वन्धस्वामित्वगाथास्वरूपैकत्वानुभवः, तन्मयत्वं ध्यानं तत्र मग्नाय, तस्मै यो
"गइ इंदिप य काए, जोए वेए कसाएँ नाणे य । गिने मनोवाकायरोधकाय, रत्नत्रयाभ्यासशुद्धसाध्यसं
संजम दंसण लेसा, भव संमे सन्नि श्राहारे ॥१॥" साधकाय नमः । कस्य ?, यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिः परम करुणावर्षिणी, यस्य गिरः वाचां समूहः शमसुधाकिरः
तत्र गतिश्चतुर्धा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिक्रोधादिपरित्यागः शमः, स एव सुधा श्रमृतं, तस्याः ति । इन्द्रियं स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रभेदात्पश्चधा,इन्द्रियकिरः किरणं सेचने (यस्य)तच्छीला दृष्टिः कृपामयी वाक ग्रहणेण च तदुपलक्षिता एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रि शमताऽमृतमयी, तस्मै योगिने नम इति । अत्र भावना-अ. यपञ्चेन्द्रिया गृह्यन्ते। कायः पोढा-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिनादिमिथ्यात्वासंयमकषाययोगवापल्यविध्वस्ताऽऽत्मस्वमा-| त्रसकायभेदात्। योगः पश्चदशधा-सत्यमनोयोगः,असत्यमनो
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मग्गहाण अभिधानराजेन्द्रः।
मग्गट्ठाण योगः,सत्यासत्यमनोयोगः,असत्यामृषामनोयोगः,सत्यवाग्यो त्रीण्यज्ञानानि साकाराणि वर्तन्त इति वाक्यार्थः । कर्म० ४ गः, असत्यवाग्योगः,सत्यासत्यवाग्योगः, सत्यामृपावाग्यो- कर्म० । (सन्नित्ति) विशिष्टस्मरणाऽऽदिरूपमनोविज्ञानभाक गः,वैक्रियकाययोगः,अाहारककाययोगः, औदारिककाययो- संशी, इतरोऽसंशी सर्वोऽप्यकेन्द्रियाऽऽदिः॥१३॥ गः, वैक्रियमिश्रकाययोगः,श्राहारकमिश्रकाययोगः, औदारि
आहारेयर भेया, सुरनरयविभंगमइसुओहिदुगे । कमिश्रकाययोगः,कामणकाययोग इति । वेदस्त्रिधा-स्त्रीवेदः, पुरुषवेदो, नपुंसकवेदश्च । कषायाः क्रोधमानमायालोभाः। शा
सम्मत्ततिगे पम्हा-सुक्कासन्नीसु सन्निदुगं ॥१४॥ नं पञ्चधा-मतिज्ञानं, श्रुतज्ञान-मवधिशानं,मनःपर्यायशानं,के- ओजो लोमप्रक्षेपाऽऽहाराणामन्यतममाहारमाहारयतीत्यावलक्षानं च । शानग्रहणेन चाज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्य- हारकः,इतरोनाहारको विग्रहगत्यादिगतः।(भेय त्ति)चतुर्दशने, तच्च त्रिविधम्-मत्यज्ञानं श्रुताशानं विभङ्गशान चेति । शा मौलमार्गणास्थानानामिमेवाऽन्तराश्चतुरादिसंख्या भेदाभवनमार्गणास्थानमष्टधा । संयमश्चारित्रं तत्पशा-सामायिकं न्तीति शेषः,सर्वेऽपि द्विषष्टिभेदाः। तथाहि-गतिश्चतुद्धो,इन्द्रियं छेदोपस्थापनं परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसम्पराय यथाख्यातं च पञ्चधा,कायः षोढा,योगनिधा,वेदस्त्रिधा,कषायश्चतु ,ज्ञानसंयमग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतो देशसंयमोऽसंयमश्च सूच्यत पञ्चकमज्ञानत्रिकमिति,शानमष्टधा, संयमपञ्चकं देशसंयमासंइति संयमः सप्तधा । दर्शनं चतुर्विधम् चक्षुर्दशनमचतुर्दर्श- यमसहितं सप्तधा, दर्शनं चतुर्धा, लेश्या षोढा, भव्योऽभव्यनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं च । लेश्या षोढा-कृष्णलेश्या | श्चेति भव्यमार्गणास्थानं द्विधा, सम्यक्त्वत्रयमिथ्यात्वमिश्रनीललश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या ।। सासादनभेदात्सम्यक्त्वमार्गणास्थानं षोढा,संशिमार्गणास्थाभव्यः तथाविधानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यो, नं सप्रतिपक्ष द्वेधा,आहारकमार्गणास्थानं सप्रतिपक्ष वेधा,सभव्यग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतोऽभव्योऽपि गृह्यते । सम्य- वेऽप्येते एकत्र मील्यन्ते तत उत्तरभेदाः द्वाषष्टिरिति । अत्र कत्वं त्रिधा-क्षायोपशमिकमौपशमिकं क्षायिकं च, सम्य- गाथा-" चउ १ पण २ छ ३ तिय ४ तिय ५ चउ ६, अड ७ कत्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं सासादनं मिश्रं च सग ८ चउ छञ्च १० दु ११ छग १२ दो १३ दुन्नि परिगृह्यते । संझी विशिष्टस्मरणाऽदिरूपमनोविज्ञानसहिते- १४ । गइयारमग्गणाणं, इय उत्तरमेय वासट्ठी॥१॥" न्द्रियपञ्चकसमन्वितः, तत्प्रतिपक्षभूतः सर्वोऽप्यकेद्रियाss- इत्येवमुक्ता गत्यादिमार्गणास्थानानामवान्तरभेदाः । कर्म० दिरसंझी, सोऽपि संज्ञिग्रहणेन सूचितो द्रष्टव्यः । श्राहारय-- ४ कर्म० । पं०सं० । दर्श० । प्रव० । साम्प्रतमेतेष्वेव ति श्रोजोलोमप्रक्षेपाऽऽहाराणामन्यतममाहारमित्याहारकः। जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह-" सुरनरयविभंग" इत्याननु ज्ञानाऽऽदिषु किमर्थमज्ञानाऽऽदिप्रतिपक्षग्रहणं कृतम् ? , दि, सुरगतौ नरकगतौ च संक्षिद्विकं पर्याप्तापर्याप्तलक्षणं भउच्यते-चतुर्दशस्वपि मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सर्वसांसारिक- वति । अपर्याप्तश्चेह करणापर्याप्तो गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तः, तसत्त्वसङ्ग्रहार्थमिति । कर्म० ३ कर्म० ।
स्य देवनरकगत्योरुत्पादाभावात् । तथा विभने-विभङ्गशाने, उत्तरभेदानाह
मतौ मतिज्ञाने,श्रुते श्रुतज्ञाने, (ोहिदुगि त्ति) अवधिसुरनरतिरिनिरयगई, इगवियतियचउपणिदि छकाया। द्विके-अवधिज्ञानाऽवधिदर्शनलक्षणे, सम्यक्त्वत्रिके क्षायोभूजलजलणानिलवण-तसा य मणवयणतणुजोगा।॥१०॥ पशमिकक्षायिकौपशमिकलक्षणे, पालेश्यायां, शुक्ललेश्यायां, इह गतिशब्दः प्रत्येक संबध्यते । ततः सुरगतिः, नरगतिः,
संशिनि च, संशिद्विकमपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं भवति ,न शेतिर्थग्गतिः, नरकगतिः । (कर्म) इहापीन्द्रियशब्दस्य प्रत्ये
षाणि जीवस्थानानि तेषु मिथ्यात्वाऽऽदिकारणतो मतिज्ञाके संबन्धात् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रि
नाऽऽदीनामसम्भवात् । अत एव च हेतोरिहापर्याप्तकः कया इति । षट्कायाः-भूः पृथ्वी,जलमापः,ज्वलनं-तेजः,अनिलो
रणापर्याप्तको गृह्यते , न लब्ध्यपर्याप्तकः, तस्य मिथ्यारष्टिवायुः (वण त्ति) वनस्पतिः,त्रसा-द्वीन्द्रियाऽऽदयः, ततः प्रत्ये
त्वादशुभलेश्याकत्वाच्चेति । आह-क्षायिकक्षायोपशमिकं कायशब्दस्य योगात् पृथिव्येव कायः शरीरं यस्य सः
कौपशमिकेषु कथं संज्ञी अपर्याप्तको लभ्यते ?, उच्यतेपृथ्वीकायः, एवमप्कायः, तेजस्कायः, वायुकायः वनस्प
इह यः कश्चित्पूर्वबद्धाऽऽयुष्कः क्षपकणिमारभ्यानन्तानुबतिकायः, त्रसकाय इति । चः समुच्चये । योगशब्दस्य प्रत्ये
ध्यादिसप्तकक्षयं कृत्वा क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पाद्य गतिचतुष्टकं सम्बन्धात् त्रयो योगाः । तथाहि-मनोयोगः, वचनयोगः,
यस्यान्यतरस्यां गतावुत्पद्यते तदा सोऽपर्याप्तः क्षायिकस
म्यक्त्वे प्राप्यते,क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्तश्च देवाऽऽदिभवेतनुयोगः । कर्म० ४ कर्म।
भ्योऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्तीर्थकराऽऽदिरपर्याप्तकः सुप्रतीत वेयनरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ त्ति । एव । औपशमिकसम्यक्त्वं पुनरपर्याप्तावस्थायामनुत्तरसुमइसुयवहिमणकेवल-विहंगमइसुअनाणसागारा ॥११॥ रस्य द्रष्टव्यम् । इहोपशमिकसम्यक्त्वमपर्याप्तस्य केचिन्नेवेदशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो वेदाः,नरवेदः,स्त्रीवेदः,नपुंस च्छन्ति, तथा च ते प्राऽऽहुः “न तावदस्यामेवापर्याप्तावकवेदः।(कर्म०)मानकषायः,मायाकषायः,लोभकषायः,इति श- | स्थायामिदं सम्यक्त्वमुपजायते, तदानीं तस्य तथाविधब्दः कषायाणामनन्तानुबन्ध्यादिबहुभेदसूचनार्थः,सूत्रे च"मा. विशुद्धधभावात् । अथैतत्तदानीं मोत्पादि, यत्तु पारभविकं यालोभ त्ति" ह्रस्वत्वं प्राकृतत्वात्"मइसुयवहीत्यादि"इहाव- तद् भवतु, केन विनिवार्यत इति मन्येथाः, तदपि न युक्तिधीत्यत्र अकारलोपात् ज्ञानशब्दस्य च प्रत्येकं संबन्धात् एवं प्र- युक्तमुत्पश्यामः, यतो यो मिथ्यादृष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यक्त्वयोगः-मतिज्ञान,श्रुतज्ञानम् , अवधिज्ञानं,मनःपर्यवज्ञानं, केव. मौपशमिकमवाप्नोति स तावत्तद्भावमापन्नः सन् कालं न कलशानं.तथाविभङ्गमन्यज्ञान श्रुताञ्ज्ञानानि.एतानि पञ्चशानानि रोत्येव । यदुनमागमे-"अणुबंधोदयमाउग-बंधं कालं च
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( ५५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मागण्द्वाप
सासणो कुराई । उवसमसम्मदिट्ठी, चउरहमिकं पि नो कुलइ ॥ १ ॥ ” उपशमश्रेणेर्मृत्वा ऽनुत्तरसुरेषूत्पन्नस्यापर्यासकस्यैतलभ्यत इति चेन्नन्वेतदपि न बहु मन्यामहे, तस्य प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपुलोदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति न त्वौपशमिकम् । उक्तं च शतकगृहच्चूर्णी"जो उबसमसम्मदिट्ठी उवसमसेढीय कालं करे सो प डमसमप चेव सम्मत्तपुंज उदयावलियाए छोरा सम्मसपुग्गले वेयर, तेल न उवसमसम्मद्दिी अपातगो लम्भा । " इत्यादि । तस्मात्पर्याप्त संज्ञि लक्षणमेकमेव जीवस्थानकमत्र प्राप्यते इति स्थितम् । अपरे पुनराहु:-" भवत्येवापर्याप्तावस्थायामप्यौपशमिकं सम्यक्त्वं, सप्ततिचूर्यादि षु तथाऽभिधानात् । सप्ततिचूर्णी हि गुणस्थानकेषु नामकर्मणी बन्धोदयाऽऽदिमार्गणाऽवसरे अविरतसम्यग्रष्टरुदयस्थानचिन्तायां पञ्चविंशत्युदयः सप्तविंशत्युदयश्च देवनरकानधिकृत्योक्तः, तत्र नारकाः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टयो, देवास्तु त्रिविधसम्यग्दृष्टयोऽपि । तथा च तद्प्रन्थः- “ पणवीससत्तावीसो दया देवनेरइप पहुच्च नेरगो । खयगवेयगसम्मदिट्ठी, देवो तिविहसम्मदिट्ठी वि ॥ १ ॥ " पञ्चविंशत्युदयश्च शरीरपर्याप्ति निर्वर्तयतः । तथाहि - निर्माणस्थिरास्थिरगुरुलघुशुभाशुभतैजसकार्मणवर्णगन्धरसस्पर्श कचतुष्कदेवगतिदेवानुपूर्वीपचेन्द्रियजातित्र सबादरपर्याप्तकं सुभगादुर्भगयोरेकतरमादेयानादेययोरेकतरं यशः कीर्त्ययशकीयोंरेकतरमित्येकविंशतिः, ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिरपर्याप्तस्य वैक्रियद्विकोपघातप्रत्येकसमचतुरस्र लक्षणप्रकृतिपञ्चकक्षेपे देचानुपूर्व्यपनयने च पञ्चविंशतिर्भवति । ततः शरीरपर्यात्या पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिः पुनरपर्याप्तस्य पराधातप्रशस्तविहायोगतिक्षेपे सप्तविंशतिर्भवति । ततोऽपर्याप्तावस्थायामपीह देवस्योपशमिकं सम्यक्त्वमुक्तम् । तथा पञ्चसंग्र हेऽपि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकचिन्तायामीपशमिकसम्यक्त्वे "वसम समम्मि दो सन्नी" इत्यनेन प्रन्थेन संशिद्विकमुक्तम् । ततः सप्ततिचूर्यभिप्रायेण पश्चसंग्रहाभिप्रायेण चास्माभिरपि श्रपशमिकसम्यक्त्वे संशिद्विकमुक्तं, तत्त्वं तु केबलिनो विशिष्टबहुश्रुता वा विदन्तीति ॥ १४ ॥ तमसनिअपअजुयं, नरे सबायर अपज तेऊए ।
थावर इगिंदि पढमा, चउ बार असन्नि दुदु विगले ॥१५॥
तत्पूर्वोक्तं संशिद्धिकमपर्याप्ताऽसंशियुतं नरे-नरेषु लभ्यतेजातावेकवचनम् । श्रयमर्थः - इह इये मनुष्याः गर्भव्युत्का - न्तिकाः, सम्मूर्च्छिमाश्च । तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तेषु यथोक्तं संशिद्विकं लभ्यते, ये तु वान्तपित्ताऽऽदिषु सम्मूर्छन्ति तेऽन्तर्मुहूर्त्ताऽऽयुषोऽसंशिनो लब्ध्यपर्यातकाश्च द्रष्टव्याः । यदाहुः श्रीमदार्यश्यामपादाः प्रज्ञापनायाम् - "कहि णं भंते ! संमुच्छिममगुस्सा संमुच्छति ? । गोयमा ! अंतो भगुस्स खेत्तस्स पणयालीसाए जोयल्सयसहस्सेसु अहाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए कम्मभूमीसु छप्पनre अंतरदीवेसु गन्भवनंतियमणुस्साएं चैव उच्चारेसुवा पासवणे वा लेखु वा सिंधाणेसु वा वंतेसु वा पिवेसु वा सुक्केसु वा सोणिपसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडे ।
For Private
मग्गणद्वारा
सु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु वेव असुराणे इत्थ से संभुच्छिममगुस्सा संमुच्छेति संगुलस्स असंखभागमित्ताय श्रोगाहणार असनी मिच्छद्दिट्ठी अन्नाणी सम्वादि पजसीहिं अपज्जत्ता अंतोमुहुसाउया चेव कालं करंति सि । " तान सम्मूमि मनुष्यानाश्रित्य तृतीयमप्यसंश्यपर्याप्त-लक्षणं जीवस्थानं प्राप्यत इति । " सबायर अपज्जसाउप. " इति तदेवेत्यनुवर्त्तते, तदेव पूर्वोक्तं संज्ञिद्धिकं सह वाद
पर्याप्तेन वर्त्तत इति सबादरापर्याप्तं तेजोलेश्यायां ल---- भ्यते । एतदुक्तं भवति - तेजोलेश्ययां त्रीणि जीवस्थानका नि भवन्ति, संश्यपर्याप्तः संशिपर्याप्तः यादरैकेन्द्रियापर्यासध। बादरोऽपर्याप्तः कथमवाप्यत इति चेत् ?, उच्यते-इह भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाः पृथिवीजलवनस्पतिषु मध्ये उत्पद्यन्ते । यदाह दुःषमान्धकारनिमग्नजिनप्रवचनदीपो भगवान् जिनभद्रगलिक्षमाश्रमतः
" पुढवीश्राउवणस्सइ-गभे पज्जत संखजीवेसु । सग्गच्या वासो, सेला पडिसेहिया ठाणा ॥ १ ॥" ते च तेजोलेश्यावन्तः, यदभाषि
"किरहा नीला काऊ, तेऊ लेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसा-ण तेउलेसा मुणेयव्वा ॥ १ ॥ " लेश्यश्च नियते तज्ञेश्य एव अग्रेऽपि समुत्पद्यते । यलेसे मरह तलेसे उचवज्जर " इति वचनात् । तो बादरापर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्याऽवाप्यत इति सिद्धं जीवस्थानकत्रयं, तेजोलेश्यायामिति कायद्वारे स्थावरेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति लक्षणेषुः इन्द्रियद्वारे एकेन्द्रिये च प्रथमानि चत्वारि जीवस्थानानि सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तसूक्ष्मै केन्द्रियपर्याप्तबादरै केन्द्रियाऽपर्याप्तवाद - केन्द्रियपर्याप्तलक्षणानि भवन्ति । असंशिनि संज्ञिव्यतिरिक्ले कोलिकनलिकन्यायेन प्रथमशब्दस्य सम्बन्धात्प्रथमानि आदिमानि द्वादश जीवस्थानानि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंशिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि भवन्ति । सर्वेषामपि विशिष्टमनोविकलतया संक्षिप्रतिपक्षत्वाविशेषात्, संक्षिप्रतिपक्षस्य चाऽसंशित्वेन व्यवहारात् । 'दुदु विगल न्ति' विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु द्वे द्वे जीवनस्थानके भवतः । तत्र द्वीन्द्रियेषु द्वन्द्रीयोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति : वे, श्रीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियो पर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे, चतुरिन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियो ऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे ॥ १५ ॥
दस चरम तसे अजया - हारगतिरितखुकसायदुअनाणे । पढमतिलेसाभवियर - अचक्खुनपुंमित्थि सव्वे वि । १६ । से सकाये चरमाण्यन्तिमानि पर्याप्तापर्याप्तद्वित्रिचतुरसं शिसंशिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि दश जीवस्थानामि भवन्ति, द्वीन्द्रियाssवीनामेव त्रसत्वात्। श्रयते अविरते सर्वाण्यपि जीवस्थानानि भवन्ति । तथा आहारके ( तिरि ति ) तिर्यग्गती, तनुयोगे काययोगे कषायचतुष्टये, द्वयोरज्ञानयोर्मत्यज्ञानश्रुताशानरूपयोः प्रथमत्रिलेश्यासु कृष्णनीललेश्याकापोतलेश्यालक्षणा, भव्ये, इतरस्मिन् अभव्ये, (अचक्खुति) श्रखतुर्दर्शने ( नपु सि ) नपुंसकवेदे (मिच्छन्ति) मिथ्यात्वे सर्वाण्यपि चतुर्द्दशापि जीवस्थानकाल अवन्ति, सर्वजीवस्थान
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मग्गणट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः।
मग्गएट्ठाण कव्यापकत्वादयताऽऽदीनामिति ॥ १६ ॥
पर्याप्तापर्याप्तलक्षणः, षट् अपर्याप्ताश्चेत्यष्ठौ जीवस्थानानि पजसनी केवलदुगे, संजयमणनाणदेसमणमीसे ।
भवन्ति । अयमर्थः-अपर्याप्तसूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुर
संशिसंक्षिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि सप्त जीवस्थानानि, अनाहारके पण चरम पज वयणे,तिय छ व पजियर चक्खुम्मि॥१७॥
विग्रहगतावेकं द्वौत्रीन्या समयान यावदाहारासम्भवात् संभ(पजसान्नि ति) पर्याप्तसंविलक्षणमेव जीवस्थानं भवति ।। यन्ति "विग्गहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी । फ्वेत्याह-केवलाई के केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे, संयमेषु। सिद्धा य प्रणाहारा, सेसा पाहारगा जीया ॥१॥” इतिसामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायय- वचनात् । संक्षिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानकमनाहारके केवलिथापातरूपपञ्चत्रकारसंयमवत्सु (मणनाण त्ति) मनःपर्याय समुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु लभ्यते । उक्त शाने, (देसत्ति) देशयते देशविरते, श्रावके इत्यर्थः, (मण च-"कार्मणशरीरयोगी,तृतीयके पञ्चमे चतुर्थे च । समयत्रये त्ति ) मनायोगे (मीस त्ति) मिश्रे सम्यग्मिध्यादृष्टी। तत्र च तस्मिन् , भवत्यनाहारको नियमात्॥ १ ॥" (ते सुहुमकेवलद्विके संयमेषु मनःपर्यायज्ञाने, देशविरते च संशि- अपज्ज विणा सासणि त्ति) सास्वादने सम्यक्त्वे तान्येव पर्याप्त लक्षणं जीवस्थानकं विना नान्यजीवस्थानकं संभव- पूर्वोक्तानि षट् अपर्याप्तपर्याप्तसंझिद्विकलक्षणान्यष्टौ जीवति, तत्र सर्वविरतिदेशविरत्यारभावात् । मनोयोगे:- स्थानानि सूक्ष्मापर्याप्त चिना सप्त भवन्ति । एतदुक्तं भवतिप्येतदन्तरेणान्यजीवस्थानकं न घटते, तत्र मनःसद्भा- अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंक्षिपञ्चेघाऽयोगात् । भिधे पुनः पर्याप्तसंशिव्यतिरेकेण शेषं जीव- न्द्रियसंक्षिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तलक्षणानि सप्त जीवस्थानस्थानकं तथाविधपरिणामाभावादेव न सम्भवतीति । तथा कानि सास्वादने सम्यक्त्वे भवन्तीति । यत्तु सूक्ष्मैकेन्द्रियापञ्च जीवस्थानानि चरमाण्यन्तिमानि पर्याप्तानि पर्याप्त- पर्याप्तलक्षणं जीवस्थानं तत् सास्वादने सम्यक्त्वे न घटाद्वीन्द्रियपर्याप्तीन्द्रियपर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्सासंक्षिपञ्चेन्द्रि- मियति । सास्वादनसम्यक्त्वस्य मनाक् शुभपरिणामरूपयपर्याप्सशिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि (वयणे त्ति) वचनयोगे वा.
स्यात् । महासंक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाग्यागे भवन्ति,न शेषाणि, तेषु वाग्योगासम्भवात् । (तिय छ
भिधानात् । सूत्रे च सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , प्राकृते व पन्जियर चक्खुम्मि त्ति) चक्षुर्दर्शने त्रीणि जीवस्था
हिलिङ्ग व्यभिचार्यपि । यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणेनानि पर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंक्षिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंशिप
" लिङ्गं व्यभिचार्यपीति ।” उक्नानि मार्गणास्थानकेषु श्वेन्द्रियरूपाणि, नान्यानि, तेषु चतष एवाभावात् । अत्रैव जीवस्थानकानि । कर्म० ४ कर्म० । गुणस्थानकानि मतान्तरेण विकल्पमाह-पट चा जीवस्थानानि चक्षदर्शने | 'गुणट्ठाण' शब्दे तृतीयभागे ६२४ पृष्ठे गतानि ।) भवन्ति । कथमित्याह-(पज्जियर त्ति ) पूर्वप्रदर्शि- अधुना मार्गणास्थानेषेव योगानभिधित्सुः प्रथमं तावद्योतपर्याप्तत्रिकं सतरमपर्याप्त सहितं षड् भवन्ति । इद- गानेव स्वरूपत अाहमुक्तं भवति-अपर्याप्त पर्यातवतुरिन्द्रियासंक्षिपञ्चेन्द्रियसं
सच्चेयर मीस अस-च्चमोस मण वइ विउब्वियाऽऽहारा । हिपञ्चेन्द्रियरूपाणि षट् जीवस्थानानि चतुर्दर्शने भवति, चतुरिन्द्रियाऽऽदीनामिन्द्रियपर्याप्पया पर्याप्तानां शेषप
उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे ॥ २४ ॥ र्याप्त्यपेक्षया अपर्याप्तानामपि श्राचार्यान्तरैश्चक्षुर्दर्शनाभ्युपग
कर्म०४ कम० 1 ( योगव्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे मात् । यदुक्तं पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम्-" करणपर्याप्तेषु च
१६१३ पृष्ठे गता) तुरिन्द्रियाऽऽदिषु इन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनं भवति ।"
__ साम्प्रतमेतामेव मार्गणास्थानेषु निरूपयन्नाह-( कम्मइति ॥१७॥
मणहारि त्ति ) व्यवच्छेदफलं हि वाक्यमतोऽवश्य
मवधारयितव्यम् । तच्चावधारणमिहेवम्-कार्मणमेवेकमथीनरपणिदि चरमा,चउ अणहारे दु सन्नि छ अपना । नाहारके न शेषयोगा असम्भवादिति । न पुनरेवं कार्मणते मुहुम अपज विणा, सासणिं इत्तो गुणे वुच्छं ॥१८॥ मनाहारकेष्वेवेति, आहारकेष्वपि उत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणस्त्रीवेदे नरवेदे पञ्चेन्द्रिये च चरमाण्यन्तिमानि पर्याप्ता
योगसम्भवात्। “जोपण कम्मएणं, श्राहारे अणंतरं जीवो।" पर्याप्तासंक्षिसंशिपश्चन्द्रियलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि
इति परममुमिवचनप्रामाण्यात् । नापि कार्मणमनाहारकेषु भवन्ति । यद्यपि च सिद्धान्ते असंक्षिपर्याप्तोऽपर्याप्तो वा
भवत्येवेत्यवधारणमाधेयम्, अयोगिकेवल्यवस्थायामनाहा
रकस्याऽपि कार्मणकाययोगाभावात् “ गयजोगो उ अजोसर्वथा नपुंसक एवोक्नः । तथा चोक्तं श्रीभगवत्यां-" तेणं
गी" ति वचनात् । एवमन्यत्रापि यथासम्भवमवधारणभंते ! असन्निपंचेन्दियतिरिक्खजोणिया किं इथिवेयगा, पु.
विधिरनुसरणीय इति ॥२४॥ रिसवेयगा, नपुंसगवेयगा?। गोयमा ! नो इथिवेयगा, नो पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयग त्ति।" तथाऽपोह स्त्रीपुंसलिङ्गा
नरगइ पणिदि तस तणु, अचक्खु नर नपु कसाय सम्मदुगे। कारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीवेदे नरवेदे चासंझी निर्दिष्ट इत्यदो- सनि छलेसाहारग, भव मइसुरोहिदुगे सव्वे ॥ २५ ॥ षः । उकं च पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम्-"यद्यपि चासंशिपर्या- नरगती मनुष्यगतौ, पञ्चेन्द्रिये, असे प्रसकाये, तनुयोगे, सापयांप्तो नपुंसको तथापि स्त्रीपुंसलिङ्गाऽऽकारमात्रमडी- अचक्षुर्दर्शने, नरे नरवेदे पुवेद इत्यर्थः, (नपु त्ति) नपुंसकृत्य स्त्रापुंसावुक्ताविति ।" अपर्याप्तकश्चेह करणापर्याप्तको कवेदे कषायेषु क्रोधमानमायालोभेषु, सम्यक्त्वद्विके क्षायोगृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तकः, लब्ध्यपर्याप्तकस्य सर्वस्य नपुंसक- पशमिकक्षायिकलक्षणे, संझिनि मनोविज्ञानभाजि, पदस्वपि त्वात्। अनाहारके -“दुसन्निछ अपज्जति ।" द्विविधःसंक्षी | लेश्यासु, आहारके भव्ये, मतौ मतिज्ञाने, श्रुते श्रुतक्षाने,
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मग्गषट्टाय
अधिद्विके अवधिज्ञानावधिदर्शनरूपे, सर्वे पञ्चदशपि योगा भवन्ति । तेषु सर्वेष्याचे मार्गणास्थानेषु यथासंभव सर्व योगप्राप्तेः । यतु क्यापि "ओग अरुमा हारगेसु" इति पश्यते, न सम्यमवगम्यते । यत ऋजुगती विप्रगती चोत्पतिप्रयमसमये" जोपण करणं, आदारे अतरं जीवो। तेरा परंमीसेणं जाव सरीरस्स निष्कत्ती ॥ १ ॥ ' इति सकलधुतधरप्रवरपरममुनिवचनप्रामाए पाहाहारकस्यापि सतः कार्मण काय योगो ऽस्त्येव । अथोच्येत -गृह्यमाणं गृहीतमिति निषवशात्प्रथमसमये अप्योदारिकता धमाणा गृहीता एव ततो द्वितीयाऽऽदि समयेष्विव तदानीमोदारिकमिश्रकाययोग इति । तदेतदयुक्तं सम्यग्वस्तुतरवापरिज्ञानात् । यतो यद्यपि तदानीमीदारिकाऽऽदिपुङ्गला गृह्यमाणा गृहीता एव तथाऽपि न तेषां गृह्यमाणानां स्वप्रणक्रियां मात करणरूपता येन तन्नियोगः परिकल्प्यते, किं तु कर्मरूपतैव, निष्पन्नरूपस्य सत उत्तरकालं करणभावदर्शनात् । न हि घटः स्वनिष्पादनक्रियां प्रति कमरूपतां करणरूपतां च प्रतिपद्यमानो दृश्यते। द्वितीया55दिसमयेषु पुनस्तेषामपि प्रथमसमयगृहीतानामन्यपुन लोपादानं प्रति करणभावो न विरुध्यते निष्पन्नत्वाद्, अतस्तदानीमीदारिकमिश्र काययोग उपपद्यत एव। अत एवोक्रम"तेरा परे मति" तस्मादादारकस्याप्युत्पत्चिप्रथमसमये कार्म काययोग इति । श्रतः -- "जोगा अकस्मगाSSहारगेसु " इति पदं चिन्त्यमस्तीति ॥ २५ ॥ तिरिइन्छ अजय सासरा, अनाथ उपपम अभव्य मिच्छेमु । तेराऽऽहारदुगूण ते उरलद्गुण सुरनरए ।। २६ ।।
,
( तिरि सि) विनती स्त्रियां खीवेस्त्रीवेदे, अयते विरतिहीने सास्वादनसम्यक्त्वे ( श्रनाग ति ) अज्ञानत्रि मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानविभङ्गलक्षणे, उपशमे श्रपशमिकसम्यक्त्वे, अभव्येषु सिद्धिगमनानुचितेषु, मिध्यात्वे मिष्यारत्रिषु प्रयोदश योगा भवन्ति के हत्याहआहारकद्विकेन आहारकमिसन ऊना हीना आहारकद्विकोनाः। श्रयमत्राशयः- मनोयोगचतुष्टयचाग्यो गवतुष्टयरिकीदारकमिवैकिय वैशिष मिश्रकार्म लगा योगा भवन्ति तत्र कार्मणमपान्तरालगतौ उत्पत्तिप्रथमसमय एव, श्रीदारिकमि भ्रमपर्याप्तावस्थायाम, पर्याप्तावस्था यामीदारिकं मनोयागयोगच च तथा तिरधामपि केपाश्चि दैकियलब्धियोगतो वैक्रियमिश्रं वैक्रियं च घटत एव । यतु आहारकद्विकमाहारकाऽऽहारकमिश्रलक्षणं तन्न सम्भवत्येव तिरयां, तत्र सर्वविरत्यसम्भवात्, सर्वविरतस्य हि चतुईशवेदन आहारकद्विकं संभवति, “आहारं व उदयपु इत्यादिवचननामात्यादिति । तथा इह वेदों द्रम्यरूपद्रो न तु तथावसात भावरूपः तथा विवशात् पचमुपयोगमार्गायाम पि द्रष्टव्यम् । प्राक् च गुणस्थानकमार्गणायां सर्वोऽपि मेरो भाव सृतिः तथाचित्रादेव अन्यथा तेषु प्रोथान पायोगात् सयोगिकेबल्यादाच द्रव्यवेदस्य भावात् । द्रव्यवेदश्च बाह्यमाकारमात्रम् । ततः स्त्रीषु त्रयोदश योगा श्राहारकद्विकोना भवन्ति, न पुनरा
,
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( ५४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
मग्गणद्वारा
"
दारकद्विकमपि यत आहारकद्विकं चतुरंशपूर्वविद पव भवति " आहारगदुगं जाया चउदसपुब्विण इति व चनात्। न च खीणां चतुर्दशपूर्णाधिगमोऽस्ति खीणामागमे दृष्टिवादाध्ययनप्रतिषेधात् । यदाह भाग्यसुधासुधांशुःतुच्छा गारवबहुला, चलिदिया दुबला धिईप य ।
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66
इसेसज्भयणा, भूयाबादो य नो थीं ॥ १ ॥ " इति । भूतवादो दृष्टिवादः, तथा अयते सास्वदने अज्ञानत्रिके व प्रयोदश योगा आहारकद्विकोना भवन्ति । आहारकद्विकं पुनरेतेष्वज्ञानत्वादेव दुरापास्तम् । तथा श्रीप शमिकसम्पवे आहारकद्विकोनात्रयोदश योगाः - हारकं त्वत्रापि न घटामियर्ति, यत श्रीपशमिकसम्यक्वं प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाते उपशमधेश्वारांडे या भवति । न
।
प्रथमभ्ययोपादकाने चतुर्दशर्वाधिगमसंभवस्तवभावाच्च कथमाहारकद्विकभावः प्रादुर्भावपदवीमियति, उपशमश्रेण्या रूढस्त्वाहारकद्विकं नाऽऽरभत एव तस्याप्रमत्तत्वात् । श्राहारकाऽऽरम्भकस्य तु लब्ध्युपजीवननौत्सुक्यभावतः प्रमादबहुलत्वात् । उक्तं च-" श्राहारकं पमत्तो, उप्पा न अन्यमनुति " शाहारकस्थित श्रोपशम श्रेणि नारभत एव तथास्वभावत्वादिति । तथा श्रभव्ये मिध्याये च चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावादेव श्राहारक टिकवर्जाखयोदय योगाः । त पच पूर्वोक्रास्त्रयोदश योगा श्रीदारि कद्विकेनौदारिकौदारिकमिश्रलक्षणेन ऊना हीना एकादश योगाः सुरे सुरगती नरके नरकगतौ भयन्ति । तथाहिमनोवागचतुष्टयवैकपर्वक्रियमिश्रकाराला एकाद श योगाः सुरेषु नारकेषु च घटन्ते । तत्र कार्मणमपान्तरालमा पप्रियमसमय एव वैक्रियमिश्रमसाथस्थायां पयाप्तावस्थायां तु वैक्रियं मनोवाग्योगचतुष्टयं च । यत्पुनरौदारिकद्विकं तद्भवप्रत्ययादेव देवनारकाणां न संभवति, आहारकद्विकं तु सुरनारकाणां भवस्वभावतया विरत्यभावेन सर्वविरतिप्रत्ययचतुर्दशपूर्वाधिगमासम्भवादेय दुरापास्तमिति ॥ २६ ॥
कम्मुरलदुगं धावरि, ते सविदुग पंच इगे पवणे । अस्सनिचरमवइजु, विउन्विदुगृण चविगले ||२७|| कार्मणमीदारिकाद्विकम् औदारिकीदारिकमिश्र लक्षयमिति यो योगाः । वेत्याह (धावरिति स्थावरकाये पृथिव्यप्तेजोव स्पतिकायरूपे या कायिकस्य पृथग् भणिष्यमानत्वात् । अयम प्रभावः- स्वावरचतुष्के कामेोदारिकाद्विकरूपा यो योगाभ वन्ति । तत्र कार्मणमपान्तरा लगतावुत्पत्तिप्रथमसमये वा । श्रौदारिकमित्रं त्वपर्याप्ताव स्थायां पर्याप्तावस्थायां पुनरौदारिकमिति । ते पूर्वोक्तास्त्रयो योगाः सवैक्रियद्विकाः सह वैक्रियद्विकेनवैफियचैकियमिश्र लक्षणेन वसन्त इति सबैकि पद्धिकाः सन्तः पञ्च भवन्ति केत्याह (इतिति) सामान्यत एकेन्द्रियपयने वा युकाये च । तत्र कार्मणोदारिकद्विक लक्ष योगत्रयभावना । प्राम्वत् क्रियद्विकभावना वकिल चतुधा वायवो वा न्ति । तद्यथा सूदमा पर्याप्ताः, सूक्ष्माः पर्याप्ताः, बादरा अपर्या
,
वादराः पर्याप्तब्य तत्र वादपमान पायल for सम्भवोऽस्ति तानधिकृत्य वैक्रियं वैक्रियमिश्रं च लभ्यते ननु कथमुच्यते केपाञ्चि द्वे क्रिम लब्धिसम्भवोऽस्ति ?, या यता सर्वेऽपि बादरपर्याप्तवायवः सबैकिया एव अक्रिया
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मागणद्वाण अभिधानराजेन्दः।
मग्गट्ठाण णां चेष्टाया एवाप्रवृत्तेः । उक्नं च-" केइ भणंति सम्बे वेउ- मणवइ उरला परिहा-री सुहुमि नवते उ मीसि सविउवा। ब्बिया वाया वायति, अवेउब्धियाणं चिट्ठा चेव न पवत
देसे सविउव्बिदुगा, सकम्मुरलमिस्स अहखाए ॥२६॥ त्ति ।" तदयनं सम्यकसिद्धान्ताऽपरिज्ञानात्, अवाकेयाणामाप तेषां स्वभावत एव चेष्टोपपतेः । यदाह भगवान्
परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्पराये च नव योगाः। के ते इत्याश्रीहरिभद्रसूरिरनुयोगद्वारटीकायाम् “वाउक्काइया चउब्धि
ह-मनोयोगश्चतुर्दा वाग्योगश्चतुर्जा औदारिकं चेति । हा सुहुमा पज्जता अपजता बायरा पजता अपजत्ता, तत्थ
यत्त्वाहारकद्विकं वैक्रियद्विकं कार्मणमौदारिकमिथं च तन्त्र तिन्नि रासी पत्तेयं असंखेज लोगप्पप्राणप्परसरासिपमाण
सम्भवस्येव । तथाहि-आहारकद्विकं चतुर्दशपूर्ववेदिन मित्ता, जे पुण वादरा पजत्ता ते पवरा संस्व जइभागमित्ता, एव भवति , " आहारं चउदसपुग्विणो" इति वचनात् । तत्थ ताव तिराहं रासीणं वेउब्धियलद्धी चेव नस्थि बायरप-1 परिहारविशुद्धिकसंयमप्रतिपत्तिः पुनरुत्कर्षतोऽप्यधीतकिजत्ताणं पि असंखिजइभागमित्ताणं अस्थि जेसि पि लद्धी ञ्चिन्यूनदशपूर्वस्यैव तथैव सिद्धान्ते भयानुज्ञानात् तत्कथं अस्थि तो विपलिओवमासंखजभागसमयमित्ता संपयं पु-1 परिहारविशुद्धिकस्याहारकद्विकसभवः ?, नाऽपि तस्य उछासमए वेउब्वियवत्तिणो, तथा-जेण सम्बेसु चेय उहलो- वैफियद्विकसम्भवः, तस्यामवस्थायां तत्करणाननुज्ञानाजिगाइसु चला वायवो विजंति तम्हा अवेउब्धिया वि पाया नकल्पिकस्यैव तस्याप्यत्यन्तविशुद्धाप्रमादमूलसंयमघोरा. वायतितिधितव्वं सभावेण तेसिं वाइयव्वं ति।" वाताद्वायु: नुष्ठानपरायणत्वात् , वैक्रियाऽऽरम्मे च लब्ध्युपजीवनेनौत्सुरिति कृत्वा (तिएहं रासीण ति) त्रयाणां राशीनां पर्याप्ता3-1 क्यभावात् प्रमादसम्भवात् ,अत एव सूक्ष्मसम्परायसंयमेsपर्याप्तसूक्माऽपर्याप्तवादरवायुकायिकानाम् । तथा त एव पूर्वो- प्याहारकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणानां चतुणां योगानामसंभताः पञ्च कार्मणौदारिकतिकवैक्रियद्विकलक्षणयोगाश्चरमा वः । सूक्ष्मसम्परायसंयमोपेतस्याप्यत्यन्तविशद्धतया निस्तरचतुर्यः असत्यामृषारूपा वाग् वचनयोगश्चरमवागतया अमहोदधिकल्पत्वेन वैक्रियाऽऽदिप्रारम्भासम्भवात् , कार्मणयुक्ताः पड योगा भवन्ति । क्वेत्याह-असशिनि संझिव्यतिरिः | मौदारिकमिधं चापर्याप्ताऽऽद्यवस्थायामेवेति संयमद्वयेऽपि क्ने जीवे । तत्र कार्भणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च | तस्याभावः। ते पुनः पूर्वोक्ता नव योगाः सक्रियाः सह
औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायां, पर्याप्तावस्थायामौदारिकम् | वैक्रियेण वर्नन्त इति सवैक्रिया वैक्रियसहिताः सन्तो दबादरपर्याप्तवायुकायिकानां वैक्रियद्विकं, चरमभाषा शङ्खा55-1 श योगा मिश्रे सम्यग्मिध्यादृष्टौ भवन्ति । वैक्रिय दिद्वीन्द्रियाऽऽदीनामिति ते एव पूर्वोक्ताः पड़ योगा वैक्रिय-| देवनारकापेक्षया, यत्तु वैक्रियमिदं तनवाप्यते, तस्यापर्याद्विकेन वैक्रियवैफियमिश्रलक्षणेनोना हीनाश्चत्वारो भवन्ति ।। प्तावस्थाभाविश्वात् , मिश्रभावस्य च "न सम्ममिच्छो कुणा क्वेत्याह-विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु । कोऽर्थः?, | कालं ।" इति वचनप्रामाण्यादपर्याप्तावस्थायामसम्भवातत्र कार्मणीदारिकद्विकभावना प्राग्वत् । चरमभाषा च श्र- त् । स्यादेतद्वक्रियलब्धिमतां मनुष्यतिरश्चां सम्यगमिसत्यामृषारूपा शङ्खाऽऽदीनां भवात, शेषास्तु भाषा न भव-| ध्यादृशां सतां वैक्रियाऽऽरम्भसभवेन कथं वैक्रियमिधे न्त्येव, “विगलेसु असश्चमोस त्ति" वचनादिति ॥ २७॥ नावाप्यते ? , इति, उच्यते-तेषां वैकियाऽऽरम्भासम्भवाकम्मुरलमीस विणु मण,वइ समइय छेय चक्खुमणनाणे। त् , अन्यतो वा कुतश्चित्कारणारपूर्वाऽऽचार्यरेतन्नाभ्युपगउरलदुगकम्म पढम-तिम-मणवइ केबलदुगम्मि ॥२८॥
म्यत इति न सम्यगवगच्छामस्तथाविधसम्प्रदायाभाषाकार्मणमौदारिकमिश्रं विना शेषास्त्रयोदश योगा भव
त् , अतोऽस्माभिरपि तन्नेष्टमिति । देशे-देशविरते त एव न्ति, क्वेत्याह-मनोयोगे, वाग्योगे, सामायिकसंयमे, छेदो
नव पूर्वोक्ता सवैक्रियाद्वकाः वैक्रियतन्मिश्रसहिताः सन्त पस्थापनसंयमे, चक्षुर्दर्शने, मन-पर्यायशाने च । भावना सु
एकादश योगा भवन्ति, देशविरतानामम्बडाऽऽदीनां वैकियकरैव । यौ तु कार्मणौदारिकमिश्रौ तौ तेषु सर्वथा न
लब्धिमतां वैक्रियद्विकसम्भवात् । तथा त एव नव पूर्वोक्का संभवत एव, तयोरपर्याप्तावस्थायां भावात् ,मनोयोगवाग्यो
सकामणौदारिकमिश्राः सह कार्मणौदारिकमिश्राम्यां वर्तगसामायिकच्छेदोपस्थापनचक्षुर्दर्शनमन.पर्यायशानानां च
न्ते इति सकामणौदारिकमिश्राः सन्त एकादश योगा यथातस्यामवस्थायामसम्भवात् । तथा (उरलदुग ति) औदा
ख्यातसयमे भवन्ति । अयमर्थः-मनोयोगचतुष्टयवागयोगरिकद्विकमौदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ सयो- चतुष्टयकार्मणीदारिकद्विकलक्षणा एकादश योगा यथाग्यवस्थायामेव समुद्धातगतस्य वेदितव्यौ “ मिश्रौदा- ख्याते भवन्ति । तत्र मनोवाग्चतुष्कौदारिकयोगाः सुझारिकयोक्ता , सप्तमषष्ठद्वितीयेषु । कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थ
ता एव, कार्मणमौदारिकमिश्रं तु यथाख्यातसंयम कुलके पश्चमे तृतीये च ॥१॥” इति । प्रथमान्तिममनोयोगी तु. गृहस्य भगवतः केवलिनः सम्भवति, तस्य हि समुद्धातअविकलसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनबलाबलोकितनि- गतस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मण “कार्मणशरीरयोगी, खिललोकालोकस्य भगवतो , मनःपर्यायशानिभिरनुत्तरसु
चतुर्थे पञ्चमे तृतीयेच।" इति वचनात् ,द्वितीयषष्ठसप्तमसमराऽऽदिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनात् , ते हे येष्वौदारिकमिश्रम् “मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु" भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायशानेनावधिज्ञानेन इति वचनादवाप्यत इति यथाख्यातसंयमे दुयोरपि सम्भया पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते विवक्षितवस्त्वालोचनाकारान्य
वात् । कर्म०४ कर्म । अभिहिता मार्गणास्थानेषु योगाः। थाऽनुपपत्या लोकस्वरूपाऽऽदिक बाह्यमर्थ पृष्टमवगच्छन्ति, साम्प्रतमेतेष्वेवोपयोगस्वरूपनिरूपणपूर्वकप्रथमान्तिमवाग्योगौ तु देशनाऽऽदिषु व्यापृतस्य तस्यैव
मुपयोगानभिधित्सुराहभगवतो एब्याविति ॥ २८ ॥
तिअनाण नाण पण चउ,दंसणवार जिय लक्खण्वभोगा।
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मग्गणवाण अभिधानराजेन्द्रः।
मग्गहाण विणु मणनाण दुकवेल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु।३०।
स्माभिरपि नोक्तमिति । अभवे अभव्ये, मिथ्यात्वाद्वके मिश्रीण्यज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताशानविमङ्गरूपाणि, शानानि
| ध्यात्वे सास्वादने च पञ्चोपयोगा अज्ञानत्रिकदरीनद्विकरूपा मतिक्षानश्रुतज्ञानाऽवधिज्ञानमन.पर्यवज्ञानकेवलज्ञानलक्षणा
न शेषाः, अवदातसम्यक्त्वविरत्यभावादिति ॥ ३२ ॥ नि पश्च । (कर्म) चत्वारि दर्शनानि चतुर्दशनाऽचक्षुर्द- केवलदुगे नियदुर्ग,नव तिअनाण विणू खइयअहवाए। शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि, इत्येवं द्वादश उपयोगाः । दसणनाणतिगंदे-सि मीसि प्रमाण मीसं तं ॥३३॥ (कर्म)(जियलक्खण ति)प्राकृतत्वाद्विभाक्तिलोपः, जीव- केवलद्वि के केवलज्ञानकेवलदर्शन लक्षणे निजद्विकं केवलस्याऽऽत्मनो लक्षणं लक्ष्यते झायते तदव्यवच्छेदेनेति लक्षणम- शाने केवलदर्शनरूपमुपयोगद्विकं भवति , न शेषा दश । साधारणस्वरूपम् । (कर्म) (विणु मणनाणेत्यादि) विना शानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलयुगलस्य सद्भावात् , “नमनःपर्यायशानं केवलाद्वकं च केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणं
टुम्मि उ छाउमाथिए नाणे” इति वचनात् । तथा क्षायिके शेषण नवोपयोगा भवन्ति, सुरे-सुरगतो, ( तिरित्ति) ति
सम्यक्त्वे यथाख्याते च संयमे नवोपयोगा भवन्ति । के त यग्गतौ, नरके नरकगतो,अयते विरतिहीने । एतेषु सर्वेष्वपि
इत्याह-अज्ञानत्रिकं मतिश्रुतामानविभमानलक्षणं विना । हि सर्वविरत्यसंभवन मनःपर्यायज्ञानकेवलद्विकासंभवा
यतः क्षायिकयथाख्यातयोरज्ञानत्रिकं न भवत्येव, तस्य मिदिति ॥ ३०॥
थ्यात्वनिबन्धनत्वात् , निमूलतो मिथ्यात्वक्षयेणोपशमेन च तस जोय वेय सुक्का हार नर पणिदि सानि भवि सव्वे । क्षायिकसम्यक्त्वयथाख्यातोत्पादात् , अत पव तयोर्नववोपनयणेयर पण लेसा, कसायि दस केवलदुगुणा ॥३१॥
योगा भवन्ति । तथा देशे देशविरते षट् उपयोगा भवन्ति । कथ
मित्याह-दर्शनशानत्रिकं, त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं सबन्धः, दर्शनअसेषु योगेषु मनोवाकायरूपेषु, वेदेषु द्रव्यवेदरूपस्त्रीपुन
त्रिकं चतुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपं, झानत्रिकं मतिश्रुपुंसकलक्षणेषु, शुक्ललेश्यायाम् , आहारकेषु, नरगती, पञ्चे
तावधिज्ञानरूपमिति, न शेषाः, मिथ्यात्वसर्पविरत्यभावात् । न्द्रियेषु, सचिषु (भवि त्ति) भव्येषु च सर्वे द्वादशाऽप्युप
मिश्रे तदेव दर्शनशानविकमशानमिश्रं द्रष्टव्य, मतिशान मयोगाः संभवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वदेशविरतिसर्य
त्यनानमिश्रं श्रुतशानं श्रुताऽज्ञानमिश्रम् , अवधिनानं विभविरत्यादीनां सम्भवात् , ( नयणं ति) चक्षुर्दशने, ( इयर त्ति) अचतुदर्शने, पञ्चसु लेश्यासु कृष्णनीलकापोततेजः
अज्ञानमिश्रं, दर्शनत्रिक चेति भिश्रेऽपि षडुपयोगाः सिद्धा पनलेश्यासु, कषायेषु क्रोधमानमायालोभेषु दशोपयोगा भव
भवन्ति । इह चावधिदर्शनमागमाभिप्रायेणोच्यते, अन्यथा न्ति । के इत्याह-केंवलद्विकेनोना हीना शानचतुष्टयाज्ञानत्रि
एतेष्वेव मार्गणास्थानकेषु गुणस्थानकमार्गणायाम्-" अजकदर्शनत्रिकरूपाः, न तु केवलद्विकं चक्षुर्दशनाऽऽदिसद्भावे
याइ नव महसुश्रोहिदुगे।" इत्युक्तमिति ॥ ३३ ॥ अनुत्पादात्तस्य ॥ ३१॥
भणनाणचक्खुवजा,अणहारि तिमिदंसह चऊनाणा। चउरिदियसभि दुअ-नाणदंसणइग विति थावरि अचक्खु।
चउनाणसंजमोवस-मवेयगे ओहिदंसे य ॥३४॥
मनःपर्यायज्ञानचतुर्दर्शनवर्जाः शेषा दशोपयोगा अनाति अनाणं दंसणदुर्ग,अनाणतिग अभवि मिच्छदुगे।३२॥
हारके भवन्ति । यत्तु मनःपर्यवज्ञानचक्षुर्दर्शनं तच्चाऽनाचतुरिन्द्रिये असंझिनि चत्वार उपयोगा भवन्ति । के
हारके न संभवति, यतोऽनाहारको विग्रहगतौ केवलसमुत इत्याह-द्वद्यमानदशने हे अज्ञाने मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपे, वे द्घातावस्थायां च, न च तदानीं मनःपर्यायज्ञानचतुर्दर्शनसदर्शने चईर्शनाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणे इत्यर्थः । तथा-त एवं म्भव इति । तथा त्रीणि दर्शनानि चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिपूर्वोक्ताश्वत्वार उपयोगाः ( अचक्खु ति ) अचक्षुषश्च. दर्शनरूपाणि, चत्वारि ज्ञानानि मतिश्रुतावधिमन-पर्यायलतुदर्शनरहिताः सन्तखयो भवन्ति । केष्वित्याह-(हग त्ति) क्षणानीत्येवं सप्तोपयोगा भवन्ति। क्वेत्याह-चतुःशब्दस्य सामान्यत एकेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु स्थावरेषु पृथि- प्रत्येक संबन्धाश्चतुर्यु क्षानेषु मतिशानश्रुतशामावधिज्ञानमव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतिषु । कोऽर्थः ?-एकद्वित्रीन्द्रियस्थाव- नःपर्यायशानेषु । तथा-चतुषु संयमेषु सामायिकच्छेदोपरेषु मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानाऽचक्षुर्दर्शनरूपात्रय उपयोगा भव- स्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपरायेषु, औपशामके सम्यन्तीत्यर्थः, न शेषाः, यतः सम्यक्त्वाभावान्मतिश्रुतज्ञानाऽ. कत्वे, वेदके क्षायोपशमिकापरपर्याये, श्रधिद्धिके अधिशासम्भवः, सर्वविरत्यभावाच्च मनःपर्यायज्ञानकेवलज्ञानकेव. नावधिदर्शनरूपे, 'चः' समुच्चये । न शेषास्तत्सद्भावे मत्यलदर्शनाऽभावः । यत्पुनरवधिदिकं विभङ्गज्ञानं च तद्भवः ज्ञानाऽऽदीनामसम्भवात् । इहाप्यवधिदर्शने मत्यज्ञानाऽऽधुपप्रत्ययं गुणप्रत्ययं वेति । न चाऽनयोरन्यतरोऽपि प्रत्ययः सं.
योगप्रतिषेधो बहुश्रुताऽऽचार्याभिप्रायापेक्षया द्रष्टव्योऽन्यथा भवति , चतुर्दशनोपयोगाभावस्तु चक्षुरिन्द्रियाभावादेव
हि मत्यज्ञानाऽऽदिमतामपि सूत्रे साक्षादवधिदर्शनं प्रतिपासिद्धः। तथा-त्रयाणामझानानां समाहारस्यज्ञानमज्ञान
दितमेव, प्रज्ञप्तिसूत्रं च प्रागेवोक्नमिति ॥ ३४॥ उक्ना मार्गस्ताअयं मत्यज्ञानश्रुताक्षानविभङ्गरूपं. दर्शनद्विकम्-वर्दर्शना:
स्थानेषूपयोगाः। चचुईर्शनलक्षणमित्येते पञ्चोपयोगा भवन्ति । क्वेत्याह-श्र
अथ योगेषु जीवगुणस्थानकयोगोमानत्रिके मत्यज्ञानथुताज्ञानविभङ्गरूपे। यत्त्वज्ञानत्रिके अध
पयोगानधिकृत्य मतान्तरमाहधिदर्शनं पूर्वाऽऽचार्यैः कुतश्चित्कारणानेष्यते, तन्न सम्यगदमच्छामस्तथाविधसंप्रदायाभावात् । अथ च सिद्धान्ते प्र.
दो तेर तेर बारस,मणे कमा अट्ठ दु चउ चउ वयणे । तिपाद्यते , तथा च प्रज्ञप्तिसूत्र पूर्वदर्शितमेव, तदभिप्रायाद | चउ पण तिन्नि काए, जियगुणजोगोवोगन्ने ॥३॥
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मग्गणट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः।
मग्गसग अन्ये तु श्राचार्याः (मणि त्ति ) मनोयोगे द्वे जीवस्थानके | यथाख्यातसंयमे, सूक्ष्मसम्परायसंयमे च,केवलद्विके-केवलत्रयोदश गुणस्थानकानि, त्रयोदश योगाः, द्वादशोपयोगा ज्ञानकेवलदर्शनरूपे शुक्ललेश्यैवन शेषलेश्याः, यथाख्यातसइति इत्थं क्रमेण यथासंख्यमित्यर्थः । अत्रायमभिप्रायः | यमाऽऽदावेकान्तविशुद्धपरिणामभावात् तस्य च शुक्ललेश्याप्राग् योगान्तरसहितोऽसहितो वा स्वरूपमात्रेणैव काययो- ऽविनाभूतत्वात्। शेषस्थानेषु सुरगतौ तिर्यग्गतौ पश्चेन्द्रियत्रगाss-दिर्विवक्षितस्तेन तत्र यथोक्तगुणस्थानकाऽऽदिवक्तव्य- सकाययोगत्रयवेदत्रयकषायचतुष्टयमतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिता सर्वाऽव्युपपद्यते । इह तु काययोगाऽऽदियोगान्तरवि- झानमनःपर्यायज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानसामायिकरहित एव विवक्ष्यते । यथा मनोयोगवाग्योगविरहितः काय- च्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकदेशविरताविरतचक्षुर्दर्शना:योगः, मनोयोगविरहितो वाग्योगः । ततो मनोयोगे द्वे अ- चक्षुर्दर्शनावधिदर्शनभव्याभव्यक्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिन्तिमे जीवस्थानके, अयोगिकेवलिवर्जितानि त्रयोदश गुण- कसास्वादनमिश्रमिथ्यात्वसंझ्याहारकाऽनाहारकलक्षणकचस्थानानि, कार्मणौदारिकमिश्रवर्जितात्रयोदश योगाः, त्वारिंशत्सु शेषमार्गणास्थानकेषु षडपि लेश्याः। उक्ता मार्गकार्मणौदारिकमिश्रौ हि काययोगावपर्याप्ताव थायां के- णास्थानेषु लेश्याः। कर्म० ४ कर्म । ( अल्पबहुत्वविषयः वालसमुद्धातावस्थायां वा । न च तदानीं मनोयोगः, 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे ६३६ पृष्ठे गतः।) अपर्याप्तावस्थायां मनस एवाभावात् , केवलिसमुद्धा- | मग्गणा-मार्गणा-स्त्री० । मृग' अन्वेषणे । अशेषसत्त्वापीतावस्थायां तु प्रयोजनाभावात् । उक्तं च-" मनो
डयाऽन्वेषणे, ओघ । पिं० । निपुणवुद्धयाऽन्वेषणे , पिं०। वचसी तु तदा सर्वथा न व्यापारयति , प्रयोजनाभावात्"
मार्गणं जीवाऽऽदीनां पदार्थानामन्वेषणं सैव मार्गणा । प्रव० तथा-बचने मनोयोगविरहिते वाग्योगे क्रमादष्टौ जी
२२५ द्वार । अन्वयधर्मान्वेषणे , नं० । प्रा०म० । वस्थानानि पर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियास
"चउब्विधा मग्गणा, तीए इमो दिट्टतो ताव भएणतिशिपञ्चेन्द्रियरूपाणि, द्वे गुणस्थाने मिथ्यात्वसास्वादनलक्षणे, चत्वारो योगाः कार्मणौदारिकमिश्रौदारिकासत्यामृषावाग्यो
चउब्विहं पुण मग्गणं भणितं , तत्थ दिटुंतो घडो, णो गरूपाः चत्वार उपयोगा मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानचतुर्दर्शनाऽचक्षु.
घडो, अघडो, संपुरणो घडो। तस्सेव देसो णो घडो घडवदर्शनलक्षणाः । वाग्योगो हि मनोयोगविरहितस्वभावो द्वी
तिरित्तं दव्वं, अघडो णो अघडो घडदेसो न व्यतिरिकं च न्द्रियाऽऽदिष्वेवाऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु सम्भवति नान्येषु ।
अराणं दब्वं,एवं णमोकारस्स वि चतुब्बिधा मग्गणा।" प्रा० ततो यथोक्तान्येक जीवस्थानकाऽऽदीनि तत्र सम्भवन्ति न ऊ
चू० १ अ० । विशे० । नं० । याचने, आव०४ अ०। नाधिकानि । तथा केवलकाययोगे चत्वारि पर्याप्तापर्याप्तसू
| मग्गणास-मार्गनाश-पुं० । सानाऽऽदेमोक्षमार्गस्य नाशे, दक्ष्मबादरैकेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानकानि ,द्वे श्राद्ये गुण
श० ३ तत्त्व । स्थानके मिथ्यादृष्टिसास्वादनलक्षणे , पश्च योगा वैक्रियद्वि | मग्गणुसारि-मार्गानुसारिन-पुं०शानाऽऽदित्रयानुसारिणि, कौदारिकद्विककार्मणरूपाः , त्रय उपयोगा मत्यज्ञानश्रुता- पञ्चा० ११ विव० । षो। झानाचक्षुर्दर्शनवरूपाः । केवलकाययोगो हि एकेन्द्रियेष्वेवा- | मग्गत्थ-मार्गस्थ-पुं०। सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थिते, सूत्र वाप्यते, तत्र जीवस्थानकाऽऽदीनि यथोक्नान्यव घटन्त | २०१०। इति ॥ ३५ अभिहितं योगेष्वेकीयमतम् ।
मग्गद(य)-मार्गद-पुं० । मार्गो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवसाम्प्रतं मार्गणास्थानेषु लेश्या अभिधित्सुराह- णस्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददातीति मार्गदः । छसु लेसासु सठाणं, एगिदि असंनिभूदगवणेसु ।
रा० । इह मार्गों भुजङ्गमनलिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्टगु
णस्थानावाप्तिप्रवणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः, हेतुपढमा चउरो तिनि उ, नारयविगलग्गि पवणेसु ॥३६॥
स्वरूपफलशुद्धा सुखेत्यन्ये, अस्मिन्नसति न येथाचतपडलेश्यासु स्वस्थानम् स्वाः स्वाः लेश्या भवन्ति,यथा कृष्ण- गुणस्थानावाप्तिः,मार्गविषमतया चेतःस्खलनन प्रतिबन्धोपलेश्यायां कृष्णलेश्या इत्यादि। सामान्यत एकेन्द्रियेपुसंशि- पत्तेः, मार्गश्च भगवद्भ्य एवेति, मार्ग ददतीति मार्गदाः । भूदकवनेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु प्रथमाः कृष्णनीलकापोत
घ०२ अधि। तेजोलेश्याश्चतस्रो भवन्ति, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौध- मार्गदय-पुं।मार्ग सम्यग्दर्शनशानचारित्राऽऽत्मकं परमपदर्मेशानदेवा हि स्वस्वभवच्युता एतेषु मध्ये समुत्पद्यन्ते,ते च पुरपथं दयत इति मार्गदयः । स०१ सम० । भ०। औ०। तेजोलेश्यावन्तः, जीवश्च यल्लेश्य एव म्रियते अग्रेऽपि तल्ले-| जी० । मोक्षमार्गस्य दायके जिने, कल्प०१ अधि०१ क्षण । श्य एवोत्पद्यते, "जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववजह ।" इति व
मग्गदसग-मार्गदषक-पुं० शानाऽऽदिमागविराधके,पं०व०।। चनात् । तत एतेषामपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्या
मार्गदूषकमाहभवति: नारकेषु विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु, अग्निषु तेजस्कायेषु,पवनेषु वायुकायिकेषु,प्रथमास्तिस्रः कृष्ण
णाणाइविविहमग्गं, दूसइ जो जे अ मग्गपडिवो। नीलकापोतलेश्या भवन्ति नान्याः, प्रायोऽमीषामप्रशस्ताध्य- |
अबुहो जाईए खलु, भष्मइ सो मग्गदूसो त्ति ॥१६५७।। वसायस्थानोपेतत्वात् ॥ ३६॥
शानाऽऽदित्रिविधमार्गे पारमार्थिकं दूषयति यः कश्चित्
ये च मार्गप्रतिपन्नाः साधवस्ताँश्च दूषयति अवुधः-अविद्वान् अहखायसुहुमकेवल-दुगि सुक्का छावि सेसठाणेसुं।
जात्यैव परमार्थेन भण्यते, स चैवंभूते मार्गदृषकः पाप नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असंखऽणतगुणा ॥३७॥ इति । पं० २०४ द्वार ।
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(५७) मग्गसग अभिधानराजेन्द्रः।
मघवं अथ मार्गदूषणामाह
हित्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइकमावइत्ता आहारमाहानाणाऽऽदितिविहमग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवना। | रेइ, एस णं गोयमा! मग्गा कंते पाणभोयणे । भ०७ अबुहो पंडियमाणी, समुट्टितो तस्स घायाए॥ | श०१ उ०। शानाऽऽदिकं त्रिविधं पारमार्थिकमार्ग स्वमनीषाकल्पितै - मग्गाऽणुसारिणी-मार्गानुसारिणी-स्त्री० । आगमनीत्या वीतिदूषणैर्दूषयति, ये च तस्मिन् मार्गे प्रतिपन्नाः साध्वाद-| णाऽऽद्यनुसारिएयां क्रियायाम् , ध०र०।। यस्तानपि दूषयति अबुधस्तु मानविकलः, पण्डितमानी दुर्विदग्धः, समुत्थित उद्यतः, तस्य पारमार्थिकमार्गस्य घा
मग्गो आगमनीई, अहवा संविग्गबहुजणाऽऽइन । ताय-निर्लोठनायोत । एषा मार्गदूषणा । बृ० १ उ० २ उभयाणुसारिणी जा, सा मग्गऽणुसारिणी किरिया ८० प्रक०।
मृग्यतेऽन्विष्यतेऽभिमतस्थानावाप्तये पुरुषैर्यः स मार्गः; स मग्गदूसण-मार्गदूषण-न० । भावमार्गस्य तत्प्रतिपन्नसावा.
व द्रव्यभावभेदाद् द्वेधा-द्रव्यमार्गो प्रामाऽऽदे, भावभागों दीनां च दूषणे, ध०३ अधिक।
मुक्तिपुरस्य, सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपःक्षायोपशमिकभावमग्गदेसणा-मार्गदेशना-स्त्री० । ज्ञानदर्शनवारित्रलक्षणस्य रूपोवा, तेनेहाधिकारः, स पुनः कारणे कार्योपचारादागमुक्तिपथस्य देशने, कर्म० १ कर्म० । पं० चू० ।
मनीतिः सिद्धान्तभणिताऽऽचारः। अथवा-संविग्नबहुजनामग्गपडिवत्तिहेउ-मार्गप्रतिपत्तिहेतु-पुं०। शिवपथाऽऽश्रयका
ऽऽचीर्णमिति द्विरूपोऽवगन्तव्य इति । ध०र०३ अधि० १
लक्ष। रणे, पञ्चा० १६ विव०। मग्गभंग-मार्गभङ्ग-पु० । पदवीलोपे, जी० १ प्रति०।।
मग्गाणुसारित्त-मार्गानुसारित्व-न० । श्रामगारतन्त्र्ये, पं०
ब०२द्वार । प्रति० । सर्वत्र दक्षिणवर्तितायाम् , पं०३०४ मागवडिय-मार्गपतित-पुं०।मार्गश्चेतसोऽवक्रगमनभुजङ्गन-| द्वार। सिद्धिपथमत्कलवत्तिचारित्रे , पश्चा० ११ विव०। लिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही | झानाऽऽदित्रयानुसारितायाम् , पो० १ विव० । क्षयोपशमविशेषस्तत्र प्रविष्टो मार्गपतितः । भव्ये, विशे०। मग्गाणसारिया-मार्गानसारिता-स्त्री०। ल० । असग्रहविल० । योणव० । धद्वा० ।
जयेन तत्त्वानुसारितायाम्, ध०२ अधिक। मोक्षमार्गानुसरमग्गविउ-मार्गवित-पुं० । मार्गले, सूत्र०२ श्रु०१०। ।
णे , पञ्चा० ४ विव०। मग्गविप्पडिवत्ति-मार्गविप्रतिपत्ति-स्त्री० । उन्मार्गप्रतिप
मग्गाणसारियाभाव-मर्गानुसारिताभाव-पुं० । सिद्धिपथासौ, पृ०।
नुकूलाध्यवसाये, पञ्चा० १६ विव०। मार्गविप्रतिपत्तिमाह
मग्गाभिमुह-मार्गाभिमुख-पुं० । मार्गश्चेतसोऽवक्रगमनं भुजजो पुण तमेव मम्गं, सेउमपंडिओ सतक्काए । अनलिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवणः खरसउम्मग्गं पडिवज्जइ, अकोविअप्पा जमालि व्य॥५२६॥ वाही क्षयोपशमविशेषहेतुस्वरूपफलशुद्धयभिमुख इत्यर्थः,तपुनस्तमेव पारमार्थिक मार्गम् असद्भिर्दूषयित्वा अपण्डितः।
दभिमुखभावाऽऽपनो मार्गाभिमुखः । ध० १ अधि० । यो सद्बुद्धिरहितः सन् स्वतर्कया-स्वकीयमिथ्यात्वविकल्पेन वि०। मार्गप्रवेशयोग्यभावाऽऽपन्ने, द्वा०१४ द्वा०।। देशत उन्मार्ग प्रतिपद्यते अकोविदात्मा सम्यकशास्त्रार्थप- मग्गिऊण-मार्गयित्वा-श्रव्य०। अन्विष्येत्यर्थे, नि००२ उ०॥ रिशानविकलो, जमालिवत् , यथाऽसौ भगवद्वचनं क्रियमाणं
गववचन क्रियमाण | मग्गु-ददगु-पुं०।।"क-ग-ट-ड-त-द--प-श-ष-स-क-xकृतमिति दूषयित्वा कृतमेव कृतमिति प्रतिपन्नवान्, एषा. मार्गविप्रतिपत्तिः । बृ०१ उ०२ प्रक० । प०व० । ध०।।
| मूद्ध लुक" ॥८॥२ । ७७ ॥ इति दलुक । लोपे मस्य ( जमालेः शास्त्रार्थविषयः · जमालि ' शब्दे चतुर्थभागे |
द्वित्वम् । प्रा०२ पाद । जलवायसे, सूत्र०१ श्रु०७०। १४०८ पृष्ठे गतः।)
मग्गुग-मद्गुक-पुं० । जलवायसे, जै०२ वक्षः। मग्गसार-मार्गसार-पुं०ामार्गपरमाणे, सूत्र०१ श्रु०११ अ मघ-मघ-पुं० । महामेघे , प्रशा०२ पद । आ० मा मग्गसिर-मार्गशीर्ष-पुं०।मृगशिरोनक्षत्रयुक्तपौर्णमासीघटिते | मघमघंत-मघमघायमान-त्रि०। अतिशयेन सुरभी, शा० १ मासभेदे, स्था० ३ ठा०४ उ० । श्रा०म०। प्राचा०। | थु०१०।०प्र० । श्रा०मारा। बहुगन्धे , स०। मग्गसिरकीड-मार्गशीर्षकीट-पुं०। चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी0 बहुलसौरभ्ये , स० ३४ सम०। औ०। १ प्रति०। प्रशा।
मघवं-मघवत-पुं०। मघाः-महामेघास्तेऽस्य वशे सन्त्यसौममग्गसिरी-मार्गशीर्षी-स्त्री० । मृगशिरसि भवाऽमावास्या | घवान् । भ० ३ श०२ उ०। जी । इन्द्रे, कल्प० १ अधि०१ पूर्णिमा वा।र्मागशीर्षमासभाविन्यां पूर्णिमायाम्,अमायां च ।। क्षण। प्रा०माभारते वर्तमानाऽवसर्पिणीतृतीयचक्रवर्तिनि,
ति।स। ८० प्र०१० पाहु०५ पाहुपाहु । मग्गाइकंत-मार्गातिक्रान्त-न० । अर्द्धयोजनमतिक्रान्ते, भ०।।
चहत्ता भारहं वासं, चकबड्डी महिड्डिए। जेणिग्गंथो वाणिग्गंधी वा जाव साइमं पडिग्गा-] पव्वजमन्भुवगओ, मघवं नाम महायसो ॥ ३६ ॥
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मघवं
अभिधानराजेन्द्रः। पुनर्मधवानामा तृतीयचक्रवर्ती प्रव्रज्यां दीक्षाम् अभ्यु- मासोपवासमित्याहु-प्रत्युनं तु तपोधनाः । पगतः चारित्रं प्राप्तः, कीदृशो मघवा ?, महर्द्धिकः चतुर्दशर| ननवनिधानधारको बैक्रियर्द्धिधारी वा, पुनः कीदृशो',
मृत्युञ्जयजपोपेतं, परिशुद्धं विधानतः॥१३४ ॥ महायशाः विस्तीर्णकीर्तिः । अत्र मघवाऽऽख्यस्य चक्रिणः
मासं यावदुपवासो यत्र तत्तथा, इत्येतदाहुः-उक्लवन्तो मृरान्तः-हैव भरतक्षेत्रे श्रावस्त्यां नगयाँ समुद्रविजयस्य |
त्युघ्नं तु मृत्युमनामकं पुनस्तपः, तपोधनास्तपःप्रधानमुगो भद्रादेव्याः, कुक्षौ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितो मघवा
नयो, मृत्युञ्जयजपोपेतं पञ्चपरमेष्ठिनमस्काराऽऽदिरूपमृत्यु नामा समुत्पन्नः स च यौवनस्थो जनकेन वितीर्णराज्यः क्रमे
अयसंज्ञमन्त्रस्मरणसमन्वितम् , परिशुद्धमिहलोकाऽऽशंसाण प्रसाधितभरतक्षेत्रस्तृतीयश्चक्रवर्ती जातः, सुचिरं राज्यम
ऽऽदिपरिहारेण विधानतः कषायनिरोधब्रह्मचर्यदेवपूजाऽऽनुभवतस्तस्य अग्यदा भवविरकता जाता, स एवं भावयि
दिरूपाद्विधानात् ॥ १३४ ॥ योविं०।। तुं प्रवृत्तः-येऽत्र प्रतिबन्धहेतवो रमणीयाः पदार्थाः ते श्र-|
याः पदाथोः ते अ- मच्चुभय-मृत्युभय-न० । मरणभीती, श्री०। स्थिराः । उकंच"हियइच्छिया उ दारा.सुश्रा विणीया मणोरमा भोगा।
मच्चुमुह-मृत्युमुख-न।मृत्युवदने,"णाणागमो मच्चुमहस्स विडला लच्छी देदो, निरामश्रो दीहजीवित्तं ॥१॥
अस्थि ।" आबा१ श्रु०४०२ उ० । (अत्र व्याख्या भवपडिबंधनिमित्तं,एगाइवत्थु नवरस व्वं पि ।
'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६६७ पृष्ठे गता।) कावयदिणावसाणे, सुमिणो भोगु व्य न हि किंचि ॥२॥" |
मच्छ-मत्स्य-पुं०। पृथुरोमणि, सूत्र०१७०१०३ उ०। ततोऽहं धर्मकर्मणि उद्यमं करोमि, धर्म एव भवान्तरा
मीने, स्था०४ ठा०४ उ०।। नुगामी, पवमादिकं परिभाव्य पुत्रनिहितराज्यो मघवा च
तिविहा मच्छा पम्मना । तं जहा-अंडया, पोयया, संघकी परिवजन् कालक्रमेण विविधतपश्चरणेन कालं कृत्वा | च्छिमा। अंडया मच्छा तिविहा पएणत्ता। तं जहा-त्थी, सनत्कुमारे कल्पे गत इति । उत्त० :-०। क्वचिदन्यत्राऽपि नस्य मः।"भवद्भगवतोः॥८॥४॥२६५ ॥ इतिसूत्रप्राप्त
पुरिसा, णपुंसगा। पोयया मच्छा तिविहा परखचा । तं मित्यर्थः, “ मघवं पागसासणे।" प्रा०४पाद ।
जहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा । (सूत्र १२६) मघा-मघा-स्त्री०।पितृदेवके नक्षत्रे, सू० प्र० १० पाहु० ५
अण्डाजाता अण्डजाः, पोतं वस्त्रं तद्वजरायुवर्जितत्वापाहु० पाहु । ०। षष्टनरकपृथ्व्याम् , स्था० ७ ठा० । त-|
जाताः, पोतादिव वा बोहित्थाजाताः पोतजाः, संमूर्षिछमा मित्रतया षष्ठनरकपृथ्वीतुल्यत्वात् कृष्णराजी , भ० ६
अगर्भजा इत्यर्थः, सम्मूछिमानां स्त्र्यादिभेदो नास्ति, नपुं. श०५ उ०।
सकत्वासेषामिति, स सूत्रे न दर्शित इति । स्था०३ ठा० मघोख-मघवन्-पुं० । मघा महामेघास्तेऽस्य यशे सन्त्यसौ | १ उ०। सूत्र०रा०। जं० । उत्त। "सउला सहरा मीणा, मघवान । उत्त०२०।गोणाऽऽदित्वाद रूपसिद्धिः । इन्द्रे,
तिमी भसा अणिमिसा मच्छा। (६०)"पार ना०४० गाथा। प्रा०२पाद । तृतीयचक्रवर्तिनि, प्रव० २०८ द्वार।
मकरे, भ० १२ श०६ उ० । वं० प्र०। मच्च-मद-धा० । हर्षे, “बजनृतमदांचः"॥८।४ । २२५ ॥ से किं तं मच्छा। मच्छा अणेगविहा पामत्ता । तं जहाइत्यन्त्यस्य द्विरुक्तश्वः (थ)। मञ्चह । माद्यति । प्रा०४ पाद ।
सराहमच्छा खवल्लमच्छा जुंगमच्छा विज्झडियमच्छा मच्चिय-मर्त्य-पुं०।मनुष्ये मरणधर्मिणि, आचा०१ श्रु०३ १०
हलिमच्छा मगरिमच्छा रोहियमच्छा हलीसागरा गा२ उ०। मत्येषु भवे, त्रि० । सूत्र०१ श्रु०८। “मणुत्रा गरा वडा वडगरा गब्भया उसगारा तिमितिमिगिला नरा मणुस्सा; मचा तह माणवा पुरिसा।” (१००) पाइक
णका तंडुलमच्छा कणिक्कामच्छा सालिसत्थियामच्छा ना०६० गाथा। मच्चु-मृत्यु-पुं० । व्याधिकल्पे, पं० सू०२ सूत्र । यमराक्षसे,
भणमच्छा पडागा पडागाइपडागा, जे यावन्ने तहप्पगारा मा०१ श्रु०१०। उत्त० । मरणे, प्राचा०१ श्रु०३०१
सेत्तं मच्छा । प्रज्ञा० १ पद । जी। उ०। प्रश्न । उत्त।
महामत्स्यभ्रूत्पन्नस्य तन्दुलमत्स्यस्य गर्भस्थितिरान्तमच्चुंजय-मृत्युञ्जय-पुं० । परमेष्ठिनि, शिवे च । यो०वि०।। मुहर्तिक्यायुःस्थितिरप्यान्तर्मुहर्तिकी , सत्कथं मिलतीति मच्चुग्ध-मृत्युघ्न-पुं०ामृत्युञ्जयजपोपेते चित्रतपसि,योविं प्रश्ने, उत्तरम्-महामत्स्यभ्रूत्पन्नमत्स्यस्य गर्भस्थितिरायु:अथ तत्तपः प्राऽऽह
स्थितिश्चैकस्मिन्नेवान्तर्मुहूर्ते भवति, परं गर्भस्थितेरन्ततपोऽपि च यथाशक्ति, कर्त्तव्यं पापतापनम् ।
मुहूर्तस्य लघुत्वान्न किमप्यनुपपन्नम् । किं च-नव
समयादारभ्य घटिकाद्वयं यावदन्तर्मुहूर्त, तस्यासंख्येयभेदतच्च चान्द्रायणं कृच्छु, मृत्युघ्नं पापसूदनम् ।।१३१॥ त्वाम्लधुत्वमिति ॥ १५० प्र० । सेन० २ उल्ला० । सतपोऽपि च, किं पुनः प्रागुनमनुष्ठानम् । यथाशक्ति यस्य मुद्रमध्ये मत्स्यो जातिस्मरणेन कृत्वा सम्यक्त्वं देशविरति यावती शक्तिस्तया कर्त्तव्यं विधेयम् । कीदृशमित्याह-पा- च प्राप्नोति, ते प्राप्य पश्चात्तत्कालमनशनं करोति किं वा पतापनं स्मृत्यादिप्रसिद्ध तथाविधापराधवशमुत्पन्नाऽशु- कियत्कालं सम्यक्त्वदेशविरती आराधयतीति प्रश्ने, उत्तभकर्मतापकारि, तच्च तत्पुनश्चान्द्रायणं, कृच्छू, मृत्युघ्नं, रम्-कश्चित्तत्कालमनशनमुखरति, कश्चिच कालान्तरेणोपापसूदनम् इति चतुष्पकारम् ॥ १३१ ॥ यो०वि०।
धरताति बायते, निश्चयावक्षराणि तु न रानीति । ५०।
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अभिधानराजेन्द्रः।
मज्ज सेन०४ उल्ला।
गुणाऽसहने, प्रा०२ पाद। मस्त(क)-न० । मस्तके, कल्प०१ अधि०१क्षण ।
मच्छसंपुल-मत्स्यसंपुल-पुं० । दधिवाहनस्य कम्युकिनि, मच्छंडग-मत्स्याऽण्डक-पुं० । मीनाण्डे, प्रा० म०१०। नि० चू०१ उ० । मच्छडिया-मत्स्यण्डिका-स्त्री०। खण्डशर्करायाम् , जं०२ मच्छिय-माक्षिक-न० । मधुनि, श्राव०६०। विशे। वक्षः। प्रश्न । जी० । अनु । प्रक्षा।
मात्स्यिक-पुं०। मत्स्याः पण्यमस्येति मत्स्यैश्चरति वा । कैमच्छडी-मत्स्याएडी-स्त्री० । खण्डशर्करायाम् , जं० २] वर्ते, सूत्र.२१०२०। वक्ष०। जी।
मच्छियमल्ल-मातिकमल-पुं० । अट्टनमलस्य सोपारकनमरे मच्छंध-मत्स्यबन्ध-पुं०।कैवतें,व्य०३ उ०। स्था। विपा। युद्धे पराजेतरि स्वनामख्याते मल्ले, उत्त० ४ ० । तं। मच्छखल-मत्स्यखल-ज०। यत्र संखडीनिमित्तं मत्स्यं छित्त्वा | श्रा० चू० । शा० । श्राव। छित्त्वा शोष्यते शुष्को वा पुजीकृत भास्ते । तादृशे स्थाने. मच्छिया-मक्षिका-स्त्री० । “छोऽदयादौ" ॥5॥२१७ ॥ प्राचा०२ श्रु०१ चू०१ १०४ उ० । नि० चू० ।
इति तस्य च्छः । प्रा०२ पाद । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्स० २ मच्छखाय-मत्स्यखाद-पुं० । नदीहदसमुद्रेषु वसतां मत्स्या
श्रानि० चू०।"मच्छियाचडगरपहकरेणं ।” मक्षिकानां प्र. नां खादके, नि० चू०६ उ०।।
सिद्धानां चटकरप्रधानो विस्तरवान् प्रसरकः समूहः तथा । मच्छमगर-मत्स्यमकर-पुं० । मकरभेदे, प्रशा०१ पद।
अथवा-यद्वा-मक्षिकाणां चटकराणां तवृन्दानां यःप्रहरकः
स तथा। विपा० १ श्रु०१०। मच्छर-मत्सर-पुं० । असहनयुक्लाहकारे, अष्ट० २२ श्रष्ट ।
मच्छुव्वत्त-मत्स्योदवृत्त-न० । वन्दनकदोषभेदे, वृ०। परसम्पदसहिष्णुतायम् , प्रव० ४१ द्वार । मत्सरः कोपः यथा साधुभिर्याचितः कोपं करोति, सदपि मार्गितं न ददा
अष्टम दोषमाहति । अथवा-अनेन तावद्रङ्केण याचितेन दत्तं, किमहं नतो
उढित णिवसंतो, उव्यत्तति मच्छउ व्व जलमज्झे । न्यूनः, इति मात्सर्यादाति 'अत्र परोन्नतिवैमनस्य मात्स- वंदिउकामो वरम, झसो व्य परियत्तती तुरियं ॥ ये, यदुशमनेकार्थसंग्रहे श्रीहेमसूरिभिः-" मत्सरः परसंप- उत्तिष्ठन्निविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इवोर्तते उद्धे. स्य-क्षमायां तद्वति क्रुधि।" इति तृतीयः३।( ५८ श्लोक) ल्लयति यत्र तन्मत्स्योत्तम् । अथवा-एकमाचार्याऽऽदिकं व. ध०२ अधिः। स्था० । सूत्र० । कोपे, प्रव० ६ द्वार। न्दित्वा तत्समीप एवापरं वन्दनाह कञ्चन वन्दितुमिच्छंत मच्छरसिय-मत्स्यरसित-त्रि० । मत्स्यरससंसृष्टे , विपा० १ त्समीपं जिगमिषुरुपविष्ट एव भप इव त्वरितमनं परावृत्त्य य. श्रु०८ ०।
प्रगच्छति तद्वा मत्स्योत्तम्। वृ०३ उ०।आव० श्रा०पू०। मच्छरित्त-मत्सरित्व-न०। परगुणानामसहने, प्रश्न०३ संव० मच्छेसणा-मत्स्येषणा-स्त्री० । मत्स्यप्राप्ती, " मच्छेसणं मिद्वार । परप्रशंसाऽसहिष्णुत्वे, पो०४ विव०।
यायंति, भाणं ते कनुसाधर्म।" सूत्र०१ श्रु० ११ १०। मच्छरिय-मात्सर्य-०। परगुणाऽसहिष्णुत्वे,आव०६० मञ्ज-मद्य-न।"-प्याजः" ॥८।२। २४ ॥ इति मच्छरिया-मत्सरिकता-स्त्री०। मत्सरोऽसहनं साधुभिर्या- संयुक्तस्य यस्य जः । प्रा०२ पाद । गुडधातकीप्रभवे (उपा० चितस्य कोपनं, तेन रलेण याचितेन दत्तमहं तु किं ततोऽपि 5.) मधुनि, शा०१ श्रु०१६ अ० । सुराऽऽदौ, स्था० ६ हीन इत्यादिविकल्पो बा, सोऽस्यास्तीति मत्सरिकस्तद्भावो ठा० । मदिरायाम् , ध०२ अधि।“ मजं पुण कट्टपिट्टणिमत्सरिकता । पञ्चा०१ विव० । श्रा० चू०। मत्सरः कोपः, प्फन् ।” स्था०४ ठा०१ उ०। मद्यं द्विभेदं काष्ठपिष्टनिष्पत्रस विद्यते यस्येति मत्सरिकस्तस्य भावो मत्सरिकता, तया त्वेन । प्रव०४ द्वार । पं० २०। श्री०। प्रश्न। “चित्तभ्रापदाति चरति व्रतम् , कोऽभिप्रायः?, मार्गितः सन् कुप्यति, | तिजार्यते मद्यपाना-चित्तभ्रान्तेः पापचर्यामुपैति । पापं कृसदपिवस्तु नददातीति । अथवा- अनेन तावद्द्रमकेण मार्गि- | त्वा दुर्गतिं यान्ति मूढा-स्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न देयम्। १॥" तेन दत्तं मुनिभ्यः, किमहं ततोऽपि निकृष्ट इति मात्सर्यात् स्था० ४ ठा० १ उ० । द्वा। परगुणासहनलक्षणाइदतोऽतिचारश्चतुर्थः । तथा-कालस्य
मद्यं पुनः प्रमादाङ्गं, तथा सच्चित्तनाशनम् । साधूनामुचितभिक्षासमयस्यातीतमतिक्रमः, अदित्सयाऽनागतभोजनपश्चादोजनद्वारेणोलहम कालातीतम् । अयं संधानदोषवत्तत्र, न दोष इति साहसम् ॥१॥ भावः-उचितो यो भिक्षाकालः साधूना, तं लक्वयित्वा प्रथम मदयतीति मद्यं सीधु, पुनःशब्दः पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तरया भुञानस्य गृहीतातिथिसंविभागनियमस्यातिचारः प- वाक्यार्थस्य विशेषद्योतनार्थः । तथाहि-मांसं जीवसंसक्तिश्चमः । एते दोषा अतिथिविभागेऽतिथिसंविभानवते इति । निमित्तं , मद्यं पुनः प्रमादाकं प्रमदनं प्रमादोऽशुभजीवपप्रव०६ द्वार । परगुणाऽसहिष्णुतायाम् , स्था० ४ ठा० ४] रिणामविशेषस्तस्याङ्गं कारणम् । अथवा-प्रमादो मद्याऽऽदिः उ०। अपरेणेदं दत्तं किमहं तस्मादपि कृपणो होनो वाऽ. यदाह-"मजं विसय कसाया, निद्दा विगहा य पंचमी तोऽहमपि ददामीत्येवं दानप्रवर्तकविकल्पे, उपा० ११० । भणिया । एए पंच पमाया, जीर्घ पाडेंति संसारे ॥ १॥" मच्छल-मत्सर-पुं० । “खात् थ्य-श्व-त्स-प्सामनिश्चले"| तस्याङ्गमवयवः पश्चावयवरूपत्वात्तस्य , तथोत विशे॥८॥ २१ ॥ इति त्सस्य छः । रस्य लः । मच्छलः । पर- षणसमुच्चये, पच्छुभं यश्चित्तं मनः, तन्नाशयति प्रध्वंसयतीति
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अभिधानराजेन्द्रः।
मत सश्चित्तनाशनम् , तथा सन्धाने जलमिश्रितबहुद्रव्यसंस्थापने । विदंशार्थमजं हत्वा, सर्वमेव चकार सः॥७॥ ये दोषा जीवसंसक्त्यादयस्ते विद्यन्ते यत्र तत्संधानदोष
ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः, स मृत्वा दुर्गतिं गतः। वत् , यद्येवंविधं मद्य, तत्र मद्ये (न)नास्ति दोषो दृषण कमबन्धादित्येवं घदत्त इति गम्यते । साहसं धाष्टयम् । अथवा
इत्थं दोषाऽऽकरो मद्य, विज्ञेयं धर्मचारिभिः॥८॥ सब मचे गुडधातक्यादिसंधानरूपे न दोषोऽस्ति पापप्राप्ति
एषां गमनिका-कश्चित् कोऽप्यनिर्दिष्टनामा ऋषिलितपलक्षणः । क इवेत्याह-सन्धानदोषवत् काञ्जिकाऽऽदिसन्धान
स्वी किल महाटव्यां वसन् तपः-अनशनाऽऽदिकम् अतिधोरं दोषवत् । अयमभिप्रायः, यथा-श्रारनालाऽऽदी सन्धानवति तपस्तेपेतप्यते स्म दिव्यं वर्षसहस्रं यावत् , ततो भीवतो महपीयमाने कर्मबन्धलक्षणो दोषो नास्त्येवं मद्येऽपि दोषो ना- सपोऽनेन कृतं मामितो नाकिनिकायनायकपदाद पातयिष्यस्तीति एतद्वदतस्तस्य च साहसत्वं, चित्तभ्रमनिबन्धनाना- तीति भावनया भयमुपगत इन्द्रः शतमखः, ततः सुरखियः मतिबहूनां मद्यपानदोषाणां प्रत्यक्षत एवोपलभ्यमानत्वात्।
नाकिनितम्बिनीस्तिलोत्तमाप्रमुखाः क्षोभाय क्षोभणनिमित्तं यथोक्तम्
तस्येत्यस्येह संबन्धात्तस्य-ऋषेःप्रेषयामास स्वर्गात्तत्राटव्यां "बैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो,
प्रेषितवान् । ताश्च तत्तेजसा तद्वनप्रवेश कर्तुमशक्नुवविद्वेषो माननाशः स्मृतिमतिहरण विप्रयोगश्च सद्भिः ।
न्त्यो वनाहिस्तदभिमुखहृतविकसितकुसुमप्रकारा मस्तकपारुष्य नीचसेवा कुलबलतुलना धर्मकामार्थहानिः,
न्यस्तहस्तकमलसंपुटमतिप्रणम्य तगतगुणगानप्रधाननृत्यकष्ट भोः षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ।।" इति ।
प्रबन्धं विदधुः। ततोऽसौ तदाक्षिप्तान्तःकरणश्चित्रलिखित अथवा कियन्तस्ते दर्शयिष्यन्त इत्याह
इव बभूव । ततस्तत्समीपमुपजग्मुः। श्रागत्य स च समीपीकिं चेह बहुनोक्नेन, प्रत्यक्षपैव दृश्यते ।
भूय च ताः सुरस्त्रियःतकम्-ऋषिम्॥४॥विनयेन विविधचाटु
वचनाञ्जलिकरणपादपतनाऽऽदिना समाराध्य प्रसन्नमानसं दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि, तथा भण्डनलक्षणः ॥२॥
विधाय वरस्याभिलषितार्थस्य दानं वरदानं तस्य अभिमुखकिमिति प्रतिषेधे,ततश्च न किञ्चित्प्रयोजनमित्यर्थः स्यात्,वा
स्तं स्थितं सञ्जातं जगुर्नानाविधशपथदानपुरस्सरमुक्तवत्यो, शब्दोऽयथार्थः । इह मद्यपानदूषणविषये,बहुना-प्रभूतेन, उक्नेन यदुत मद्यं मधु, तथेति समुञ्चये, हिंसां प्राणिवधं, सेवस्व भणितेन, मद्यं पुनः प्रमादाङ्गम्'(१)इत्यादिना यतः प्रत्यक्षेणैव, भजस्व, अब्रह्म वा मैथुनं वा वाशब्दो विकल्पार्थः, इच्छया एवशब्दस्यापिशब्दार्थत्वादध्यक्षप्रमाणनापि, न केवलमनुमा- इष्टया यदेते तदित्यर्थः ॥५॥ स ऋषिरेवमनेन प्रकारेण गदिनाऽदिना,दृश्यते उपलभ्यते,दोषो दूषणम् अस्य मद्यपानस्य, तोऽभिहितस्ताभिः सुरस्त्रीभिर्द्धयोहिंसाऽब्रह्मणोनरकहेतुतां वर्तमानेऽपिकाले, न केवलमीतकाले द्वारकावादाहाss- निरयबन्धनताम् आलोच्य स्वशास्त्रानुसारेण निश्चित्य, तथा दि श्रूयते, तथा तत्प्रकारं सदासमञ्जसवचनप्रसरमुपपतत्प्र
मद्यरूपं मदिरास्वभावं, चशब्द आलोच्येति क्रियाऽनुकर्षणाभूतपहरणप्रहारमुपरममाणनरविसरं यद्भण्डन संग्रामस्त- थः। किंविधमित्याह-शुद्धानि निर्दोषाणि कारणानि निमित्तानि देव लक्षण रूपं यस्य स तथेति ॥२॥
गुडधातकीजलप्रभृतीनि,पूर्व मद्यावस्थायाः प्राक्काले यस्य तन केवलं प्रत्यक्षगोचरा मद्यपानस्य दोषाः, श्रुतगोचरा श्र
त्तथा ॥६॥ ततो मा मदिरां प्रपद्य तत्पास्यामीत्यङ्गीकृत्य,तस्य पीत्येतदर्शयितुमाह
विचित्रचित्रमणिखण्डमण्डिततपनीयभाजनन्यस्तस्य सौरश्रूयते च ऋषिर्मद्यात् , प्राप्तज्योतिर्महातपाः ।
हातपा।
भ्यातिशयसमाकृष्टषट्पदपटलावनद्धगगनमण्डलस्य करणस्वर्गाङ्गनाभिराक्षिप्तो, मूर्खवनिधनं गतः॥६॥ षदचरणचक्रलाम्पट्यप्रकृष्टताकारकस्य ताभिः ससम्भ्रममुश्रूयते च पुराणकथासु भाकरर्यते च, न केवल भण्डनमेव पनीतस्य मद्यस्य भोगासेवनं तद्भोगस्तस्मात् नष्टा धर्मस्य दृश्यते । कोऽसौश्रूयते?,इत्याह-ऋषिमुनिर्विसन्धिश्चेह(?)वि
कुशलानुष्ठानलक्षणस्य स्थितिय॑वस्था यस्य स तथाः ततश्च शेषलक्षणान्मद्यात्-सीधुनः सकाशानिधनं गत इति संब
मदाश्चित्तविच्युतिलक्षणाद्विदंशार्थ मद्यपानोपदेशार्थमजं छागं न्धः । किंविशिष्टोऽसावित्याह-प्राप्तमवाप्तं ज्योतिस्तेजो
हत्वा विनाश्य सर्वमेव निरवशेषमपि यत्ताभिरभिहितमनभिज्ञानरूपमष्टविधमहर्द्धिरूपं वा येन स प्राप्तज्योतिः कथ
हितं च पापमजपिशितपचननिमित्तमिन्धनार्थमाराध्यदेवतामित्याह-यतो महातपाः। पुनः किम्भूतः ?, सन्नित्याह-व- दारुमयप्रतिमास्फोटनऽऽदि तञ्चकार कृतवान् स इत्यसार्गाङ्गनाभिः नाकनितम्बिनीभिराक्षिप्त श्रावर्जितः सन् मूर्ख- वृषिः। ततश्च मद्याऽऽसेवनानन्तरं पुनर्धष्टसागो निहततघद् बालिश इव, निधनं विनाशं गतः प्राप्त इति ॥३॥ पोवीर्यः स ऋषिमृत्वा प्राणान् परित्यज्य दुर्गतिं नरकरूपां ग. एतदेव दर्शयन् श्लोकपञ्चकमाह
तः प्राप्त इति दृष्टान्तः। अथ प्रकृतयोजनायाऽऽह-इत्थमनेकश्चिद् ऋषिस्तपस्तेपे, भीत इन्द्रः सुरस्त्रियः।
नोकप्रकारेण दोषाऽऽकरोदूषणोत्पत्तिभूमिर्मचं मदिरा विशेयं तोभाय प्रेषयामास, तस्याऽऽगत्य च तास्तकम् ॥ ४॥
शातव्यं धर्मचारिभिः कुशलानुष्ठानसेवाशी लैरिति ॥८॥ हा०
१६ अष्ट। विनयेन समाराध्य, वरदाभिमुखं स्थितम् ।
मद्येऽपि प्रकटो दोषः, श्रीहीनाशाऽऽदिरैहिकः । जगुर्मद्यं तथा हिंसां, सेवस्वाऽब्रह्म वेच्छया ॥ ५ ॥
सन्धानजीवमिश्रत्वा-महानामुष्मिकोऽपि च ॥ १७ ॥ स एवं गदितस्ताभि-द्वयानरकहेतुताम् । आलोच्य मद्यरूपं च, शुद्धकारणपूर्वकम् ॥ ६॥
मद्येऽपीति-मद्येऽपि मन्धुन्यपि प्रकटो दोषः श्रीलक्ष्मीः, ही
लजा आदिना विवेकाऽऽदिग्रहः, तन्नाशादैहिक इहैव विपामद्यं प्रपद्य तद्भोगा-अष्टधर्मस्थिनिर्मदात ।
कपदर्शक तथाऽऽमुष्मिकोऽपि परभवे विपाकप्रदर्शकोऽपि,
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अभिधानराजन्द्रः।
मजणविहि महान दोषः, सन्धानेन जलमिश्रितबहुद्रव्यसंस्थापनेन जी-| सत्त्वो मरणाऽन्तेऽपि-चरमकालेऽपि नाऽऽराधयति सबरंवमिश्रितत्वाजीवसंसक्तिमत्वात, सन्धानवत्यप्यारनाला55. चारित्रं, सदैवाकुशलबुद्धया तंद्वीजाभाषाविति सूत्रार्थः । दाविव नात्र दोष इति चेन्न, शाखेतदुष्टत्वबोधनात् । त.
तथादाऽऽह-" मधं पुनः प्रमादा, तथा सञ्चित्तनाशनम् । सं
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। धानदोषवत्तत्र न दोष इति साहसम् ॥ १॥" मद्यस्यातिदुष्टत्वं च पुराणकथास्वपि श्रूयते ।
गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥४॥ तथाहि
प्राचार्याचाऽऽराधयति,अशुद्धभावत्वात् , श्रमणांचापिता “कश्चिद् ऋषिस्तपस्तेपे, भीत इन्द्रः सुरखियः।
दृशान् नाऽऽराधयत्यशुभभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनं दुष्टक्षोभाय प्रेषयामास, तस्याऽऽगस्य च तास्तकम् ॥१॥ शीलं गर्हन्ते कुत्सन्ति, किमिति?, येन जानन्ति तारशं दुष्टविनयेन समाराध्य, वरदाभिमुखं स्थितम् ।
शीलमिति गाथार्थः। जगुर्मछ तथा हिंसां, सेवस्वाब्रह्म वेच्छया ॥२॥
एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवअो । स एवं गदितस्ताभि-ईयोनरकहेतुताम् ।
तारिसो मरणते वि, नाराहेइ संवरं ॥४१॥ मालोच्य मद्यरूपं च, शुद्धकारणपूर्वकम् ॥३॥ मद्य प्रपद्य तद्भोगा-अष्टधर्मस्थितिर्मदात् ।
एवम्-उक्लेन प्रकारेण, अगुणपेक्षी अगुणान् प्रमादाऽऽदीन विदंशार्थमजं हत्वा, सर्वमेव चकार सः॥४॥
प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा गुणानां चाप्रमादाऽऽदीनां ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः, स मृत्वा दुर्गतिं गतः।
खगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण विवर्जकः त्या. इत्थं दोषाकरो मद्य, विज्ञेयं धर्मचारिभिः॥५॥"
गी, तादृशः क्लिष्टचित्तो, मरणान्तेऽपि नाराधयति सं. इति ॥ १७ ॥ द्वा०७ द्वा० । दश०।
वरं-चारित्रमिति गाथार्थः । दश ५ अ० २ उ० ।
(मद्यस्य कल्पिकाप्रतिसेवना ' मूलगुणपडिसेवणा ' शब्दे प्रतिषेधान्तरमाह
वक्ष्यते ) ( वसहि , शब्दे बसतो सुराकर्म इति प्रसुरं वा मेरगं वाऽ वि, अन वा मजग रसं।
स्तावे मद्यप्रतिसेवा) ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥३६॥ निसद-धा० । उपवेशने, “नेः सदो मजः"|४|१२३॥ सुरां या-पिटाऽऽदिनिष्पन्नां, मेरकं वापि प्रसन्नाऽऽख्यां,सु,
इति निपूर्वस्य सदेर्मज इत्यादेशः । निषद्यते । “अत्ता राप्रायोग्यद्रव्यनिष्पन्नमभ्यं वा माद्य रसं सीध्वादिरूपं, स.
पत्थ णिमजद ।" प्रा०४ पाद । “मृजेरुग्घुसलुन्छ पुछपुंससाक्षिकं सदा परित्यागसाक्षि केवलिप्रतिषिद्धं, न पिबेद्भिक्षुः,
फुसपुसलुहहुलरोसाणाः " ८।४। १०५ ॥ मृजेरेते अनेनाऽऽत्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात् । कि
नवाऽऽदेशा भवन्ति । उग्घुसइ । पले-मजा । मार्टि । प्रा० मिति न पिबेदिन्याह-यशः संरक्षनात्मनो, यशःशब्देन
४ पाद । “मजेराउडणिउड़बुडखुप्पाः " ॥८।४। १०१ ॥ संयमोऽभिधीयते, अन्ये तु-ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्रम
मजतेरेते आदेशा भवन्ति । आउद्दह । णिउड्ड। बुर । ल्पसागारिकविधानेन व्याचक्षते इति सूत्रार्थः।
खुप्पइ । पक्ष-मजाइ । मज्जति । प्रा० ४ पाद । अत्रैव दोषमाह
मजइत्ता-मञ्जयित्वा-श्रव्य० । स्नपयित्वेत्यर्थ, स्था० ३ ठा पियए एगो तेणो, न मे कोइ वियाणइ ।
१उ०। शा. तस्स पस्सह दोसाई, नियडिं च सुमेह मे ॥ ३७॥ मजगरस-माद्यरस-पं०। सीध्वादिरूपे मद्यजे रसे , दश पिबत्येको धर्मसहायविप्रमुक्तः अल्पसागारिकस्थितो वा, | ५१०२उ०। स्तेनश्चौरोऽसौ भगवददत्तग्रहणात् अन्यापदेशयाचनाद्वा, न
| मज्जण-मजन-ज० । स्नाने 'ध०२ अधिक । व्या प्रव० । मां कश्चिजानातीति भावयन् , तस्यत्थंभूतस्थ, पश्यत दोषा
नि००। मन्जनं वसन्ताऽऽदिपर्वणि । अन्यत्र वा स्त्रीणां नैहिकान्, पारलौकिकाँश्च, निकृतिं च मायारूपां, शृणुत
जलक्रीडायां सामान्यतो मलदाहापशमनार्थ स्नानं वा । बू० ममेति सूत्रार्थः।
१ उ० ३ प्रक० । जं० । उपा० ('प्राणद ' शब्दे द्वितीयबड़ई सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो।
भागे १०६ पृष्ठे सूत्रम्) अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया ॥ ३८॥
| मजणग-मजनक-न । स्नाने , प्रश्न०१आश्रद्वार । वर्धते शौण्डिका तदत्यन्ताभिष्वङ्गरूपा तस्य माया मृषावाद
मजणगमहोच्छव-मजनकमहोत्सव-पुं०। कन्यानां स्नाननेत्येकवद्भावः प्रत्युपलब्धापलापेन वर्द्धते तस्य भिक्षोः। इदं
महोत्सवे, स्था० ७ ठा०।। च भवपरम्पराहेतुः, अनुबन्धदोषात्। तथा अयशश्च स्वपक्षपरपक्षयोः, तथा अनिर्वाणं, तदलामे सततं चाऽसाधुता लोके
मजणगय--मजनगत-त्रि० । स्नानं कुर्वति , वृ०४ उ०। व्यवहारतः, चरणपरिणामवाधनेन परमार्थत इति सूत्रार्थः। मजणघरग-मजनगृहक-न० । स्नानगेहे , मज्जनगृहाणि किंच
स्वेच्छया यत्र मजनं कुर्वन्ति । जी० ३ प्रति०४ अधिः । निच्चुन्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहि दुम्मई। रा० । दशा । झा। तारिसो मरणंते वि, नाराहेइ संवरं ॥ ३९ ॥ | मजणधाई-मजनधात्री-स्त्री० । स्नापिकायाम् , शा० १. स इत्थंभूतो नित्योद्विग्नः सदाऽप्रशान्तः यथा स्तेनश्चौरः। श्रु०१० । नि० चू० । प्राचा। आत्मकर्मभिः स्वदुश्चरितैः दुर्भतिर्दु बुद्धिः तादृशः क्लिष्ट-मजणविहि-मजनविधि-पुं० । मजनं खानं तस्य विधिः
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( ६३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मज्जविहि
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प्रकारस्तैलाभ्यङ्गना 55 विमकियापुरस्सरं स्नानम् ० १३० २ प्रक० । स्नानयोग्यप्रक्रियायाम्, बृ० १३० ३ प्रक० । मजपमाव - मयप्रमाद-पुं० प्रमादः प्रमते तारसदुपयोगाभाव इत्यर्थः । मयं सुरा55दिस्तदेव प्रमादकारखत्वात् प्रमादः । मद्यप्रमादभेदे, स्था० ६ ठा० । मञ्जर- मार्जार - पुं० । “मार्जारस्य मज्जर - वज्जरौ " ॥ ८ ॥ २ १३२ ॥ इति मार्जारस्य मज्जर वज्जर इत्यादेशौ वा भवतः । मज्जरो परजरो पढ़े- माज्जरः । विडाले, प्रा० २ पाद अत्र - मद्यप - पुं० । घासुपूज्यजिनपुत्रे, ति० । ती० । पीतमद्ये, विपा०१श्रु०प्र० ।" सॉर्ड मज्जवं ।” (८३५) पाइ०ना०२४८गाथा । मजा - मजा- स्त्री० । बहुशुक्रकरे षष्ठे धातौ तं० । “ श्रज्जोमत्थुलपोर
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,
"
रुहवोदासो, हरिगत तह तंडुलेज्जगत व गमज्जा - रपोइवल्ली य पालका ॥ १ ॥ " ( ? ) तं० । मजा - मर्यादा - स्त्री० । “ द्य-य्य-य जः ॥ ८२२२४ ॥ इतिसंयुक्तस्य जः । प्रा० २ पाद । साधूनां व्यवस्थायाम्, आ० म० १ ० । नि० ० । प्रश्न० । “गणधरमेव वरेती, जम्हाजते होति मज्जादा। " पं० भा० ५ कल्प । दशम्यां गौणानुज्ञायाम्, नं० पं० चू० ३ कल्प। मञ्जायामूलीय मर्यादामूलीय पुं० मर्यादा साधूनां व्ययस्था, तस्या यन्मूलं तत्र भवो मर्यादामूलीयः । मर्यादामूलभूते इच्छुकारे, श्री० म० १ ० । मजार- मार्जार-पुं० । विडाले, शा० १ श्रु० १७ श्र० । विशे० । प्रश्नः । पिरालिकाभिधाने वनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा० १ पद मज्जारकड - माजीरकृतक २० । विडालनिर्पर्तिते, "मज्जा रकडए कुक्कुडमंस | भ० १ ० ६ उ० । केचिद्यथाश्रुतमर्थमाहुः, अन्वे त्वाद्दुर्मार्जारो अाज वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं सं. स्कृतं मार्जारकृतम् । अपरे त्वाहुः- मार्जारो विगलिकाभिघा नो वनस्पतिविशेषः, तेन कृतं भावितम् । भ० १५ २० प्रज्ञा० । मन्त्रारखइयमंसा मार्जारखादितमांसा श्री० मार्जारेण खा. दिवं मतिं मां यस्यास्सा। विडालभतिमांसायामपि० । मजारपाइया माजरपादिका स्त्री० । बलपवनस्पतिभेद,
1
॥६।२।
मज्झ-मध्य- न० । “द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः ६० ॥ इति चतुर्थस्योपरि तृतीयः । पूर्वान्तयोरन्तरे, अनु० सूत्र० । “ मध्यग्रहणे आद्यन्तयोर्ग्रहणम् ” इति न्यायात् । विशे० । मध्यं द्विधा - सद्भावमध्यम्, असद्भावमध्यं च । वृ० १ ० ३ प्रक० । नि० ० । उदरदेशे, औ० " अंतो मज्झे । ( ६६२ ) पाइ० ना० २७४ गाथा । मध्यभागे, भ० । “ मज्मतियमुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति सि ॥ " मध्यो मध्यमोउन्तो विभागो गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्त्तस्यास्ति स मध्यान्तिकः, स बासी मुहर्त्तथेति मध्यान्तिकमुहूर्त्तस्तत्र मूले च आसने देशे वष्हस्थानापेक्षा दूरेच व्यवहितदेशे द्रष्टृमतीत्यपेक्षया सूर्यौ दृइयेते, द्रष्टा हि मध्याह्ने उदयास्तमनदर्शनापेक्षयाऽऽसनं रविं पश्यति योजनाताष्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्वात्, मन्यते पुनरुदयास्तम
मज्झरह
यप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितमिति । भ० श०८ उ० । प्रश्न० ।
रागद्वेषयोरन्तराले, सूत्र०१० १०४ उ० । “मे मइ मम मह म हं मज्झ मज्भं श्रम्ह अम्हं ङसा | ८ | ३ | ११३॥ अस्मदो सा षष्ठयेकवचनेन सहितस्य पते नवाऽऽदेशा भवन्ति । मज्झ । मम । प्रा०३ पाद । " ऐ णो मज्झ अम्ह श्रम्हं अम्हे अम्हो श्रम्हाण ममाण महाण मम्हारा श्रमा ॥। ८ । ३ । ११४ ॥ श्रस्मद श्रामा सहितस्यैते एकादशाऽऽदेशा भवन्ति । 'मे मह मज्भ' इत्यादि । अस्माकम् । प्रा० ३ पाद । साध्वसध्यह्यां ज्झः” ॥ ८ । ४ । २६ ॥ साध्वसे संयुक्तस्य ध्यायोश्च ज्भो भवति । मज्झमं । प्रा०४ पाद । "ङस्ङस्योर्हेः " || ८ | ४ | ३५० ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानाचान्नः परयोसि इत्येतयो इत्यादेशो भवति । ' मज्महे । ' प्रा० ४ पाद । मज्भगय-मध्यगत-२० । अनुगामिकावधिज्ञानमेवे, नं० ।
,
से किं तं मझगवं ? मज्कमयं से जहानामए के पुरिसे उकंवा चलिये वा अलावा मणि वा पई वा जोई वा मत्थर कार्ड समुव्वहमाणे समुव्हमाणे गच्छिआ, से तं मन्यं ॥ १० ॥
"
,
(मध्यगतं वेति ) इह मध्ये प्रसिद्धं दण्डादिमध्ययत् ततो मध्ये गत मध्यगतम् इदमपि त्रिधा व्यारूपेयम्, आममदेशानां मध्ये मध्यवर्तिष्यात्ममदेशेषु गतं स्थितं मध्यगतम् । इदं च स्पर्धकरूपमवधिज्ञानं सर्वदिगुपलम्भकारण मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामयसेयम् अथवा सर्वेषामध्यात्मप्र देशानां क्षयोपशमभावे ऽच्यीदारिकशरीरमध्यभागेनोपलब्धिस्तन्मध्ये गतं मध्यगतम् उक्लं " ओरालिएसरी फडुगविडीओ सव्यायप्परसविसुद्धीओ वा सम्यदिसोवलंभन्त मझगड सि भवति । " अथवा तेनावधिज्ञानेन यदुद्योतितं क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये मध्यभागे गतं स्थितं मध्यगतम्, अवधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात् । श्राह च चूर्णिकृत् - " श्रहवा – उवलद्धिखेत्तस्स अबहिपुरसो मज्झगड तितो वा मज्भगश्रो श्रोही भन्नई । " नं० । मज्झगार - मध्यकार - पुं० । मध्य एव मध्यकारः, कारशब्दस्य स्वार्थिकत्वात् । शा० १ ० १ श्र० । स्था० । अनु० । मज्झजिन्भा - मध्यजिहा स्त्री० । जिल्लाया मध्यभागे, स्था०
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श्राचा० १ श्रु० १ ० ५ उ० । मजाररडिय मार्जाररटित न० विडालशन्दे, माजोररटितमरूपतायाम्, यथा हि माजरा पूर्व महता शब्देना 55रटति पञ्चादेवं शनैः शनैरारटति तथा प्ररूपणा मार्जाररटितक ल्पा । व्य० ३ उ० |
मज्जारी - माजरी - स्त्री० । विडाल्याम्, “मज्जरीयो विडालीश्री । " पाइ० ना० १५० गाथा ।
मजावग - मज्जक- पुं० । मज्जयन्ति ये ते मज्जकाः । स्नापकेबु, नि० ० ६ उ० । मजावेता-मज्जयित्वा - अव्य० । स्नापयित्वेत्यर्थे, स्था० ३ ठा० १ उ० ।
मजि - मार्जित - त्रि० । शुद्धे, “ मज्जिश्रं हायं । " (७८२) पाइ० ना० २३८ गाथा ।
मजिमा मार्जिता स्त्री० । सुगन्धिवस्तुमिथिते दुग्धे, "मरिज श्र रसाला उ । ” ( ७७२ ) पाइ० ना० २३७ गाथा । मञ्जिलय-मजिलक - पुं० । परस्परसहोदरभ्रातृषु, बृ० ३३० । मज्झरह - मध्याह्न - पुं० " मध्याह्ने हः॥ २८४॥ इति मध्याहे
८ ठा० ।
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मज्झरह
नतायाम्, स्था० ८ ठा० ।
।
मन्मत्थसोम्मदिट्टि - मध्यस्वसम्पदृष्टि- पुं० । एकादशगुणं प्राप्ते श्रावके, ध० र० ।
सम्प्रति मध्यस्थसौम्यदृष्टिलक्षणमेकादशं गुणमभिधित्सुराह
मज्झमबुद्धि हस्य लुग्वा । ‘मज्झरहो । मज्झनो ।' दिनमध्ये, प्रा० २ पाद। मज्झत्थभावणा-माध्यस्थ्यभावना-स्त्री० प्रकर्षवशप्रवृत्तशुस्था० । श्रा० म० । “ रविस्स गतिपरिणस्स मज्भे दरि- लभ्याने, जीवा० १ अधि० । सं सो मज्झरहकालो भवति । " श्रा० चू० १ ० । मज्झत्थ-मध्यस्थ-पुं० | मध्ये रागद्वेषयोरंन्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थः । सर्वत्रारद्विष्टे, व्य० १ उ० । पं०व० । रागद्वेषस्वनधी, प्रथ० २३८ द्वार पृ० प्रा० सर्वेषु सत्येषु मज्झत्थवयख्या--मध्यस्थवचनता-श्री० । अनिस्चितवथसमखिते, प्रव० ६५ द्वार । रागद्वेषरहिते, ध० १ अधि० । आचा० । दुःषमानुभावेन बलाऽऽयपगमान्मध्यभूतेव वर्त्तनी श्रेयसी मोत्सर्गावर इति । उहि " नात्यायतं न शिथिल, यथा युञ्जीत सारथिः । यथा भद्रं वहत्यत्र, योगः सर्वत्र पूजितः ॥ १ ॥ " आचा० १ ० ६ श्र० ४ उ० । मध्यस्थः समः य श्रात्मानमेव परं पश्यति । श्रा० म० १ ० । अत्युत्क रामद्वेषविकलतया समवेतसो मध्यस्थाः । दर्श० ५ तत्त्व । स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तराऽऽत्मना । कुतर्ककर्करचेपे - स्त्यज्यतां बालचापलम् ॥ मनोवत्स युक्तिगवी, मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पृच्छेन, तुच्छाऽऽग्रहमनः कपिः ॥ २ ॥ नयेषु स्वार्थसत्येषु मोधेषु परचालने । समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः ॥ ३ ॥ स्वस्वकर्मकृताऽऽवेशाः स्वस्वकर्मभुजो नराः । न रागं नापि च द्वेष, मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥ ४ ॥ मनः स्याद् व्यापृतं याव - त्परदोषगुणप्रहे । कार्य व्यग्रं वरं तावन्मध्यस्थेनाऽऽत्मभावने ॥ ५ ॥ मज्झदेश - मध्यदेश-पुं० | दक्षिणभरतार्द्ध मध्यभागे, ति० ।
१ ॥
मकरसोम्मद, धम्मवियारं जहाद्वयं मुखइ | कुइ गुणसंपओगं, दोसे दूरं परिश्वयः || १८ || मध्यस्था क्वचिद्दर्शने पक्षपात विकला, सौम्या च प्रद्वेपाभावाद दृष्टिदर्शनं यस्य स मध्यस्थसम्पदृष्टिः । सर्वचारक द्विष्ट इत्यर्थः, धर्मविचारं नानापापराडमडलीपोपनि हितधर्मपत्यस्वरूपं यथास्थितं सगुणनिर्गुणाल्पबहुगुत या व्यवस्थितं कनक परीक्षानिपुणविशिष्टकनकाधिपुरुषत्' मुणति' बुध्यते श्रत एव करोति विदधाति गुणसंप्रयोगंगुणेना 55दिभिः सह संबन्धदोषान् गुरुमतिपक्षभूतान( दूरं ति) दूरेण परित्यजति परिहरति सोमवसुब्राह्मणयत् । ध० २० १ अधि० ११ गुण ।
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विमिश्रा अपि पन्थानः समुद्रं सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥ ६ ॥ स्वाऽऽगमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात्पराऽऽगमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किं तु मध्यस्थया दृशा ||७|| मध्यस्थवा दशा सर्वे पुनर्वन्धकाऽऽदिषु । चारिसजीवनीचार न्यायादाशास्महे हितम् ||८|| अष्ट० १६ अष्ट० ।
( ६४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
मध्यस्थो मौनशीलः मौनशीले, दर्श० ५ तत्त्व । तद्ग्रहणाद्धि स्वप्रतीतानपि कस्यापि दोषान्न गृह्णाति अभूतलोकविरोधितया धम्मंशतिसम्भवात्। अथवाऽतिती मरागच्मोहोपशमतया यथावस्थितवस्तुस्वरूपपर्यालोast मध्यस्थस्तदन्यदृशाश्च नेदृशाः सम्भवन्ति । यत उक्तम्" रसो हुझे मूडो, पुण्य कुम्गाहिय चत्तारि । उपसर ॥ १ ॥ " दर्श० अरिहा, धरिहा पुरा हो मन्थो ॥ १ ॥ अधि० । ग० १ २ तत्व सर्वशिष्येषु समचिते, तथाहि " उवसम विशे० । ध०र० । सर्वत्र तुल्यचित्ते सारवियारो, वाद्दिज्जर नेव रागदोसेहिं । मन्थो हि कामी, श्रसग्गहं सव्वहा चयः ॥ ७३ ॥ ध० २०२ अधि० ६० " घटमीलीसुवर्णार्थी नाशोत्पत्तिस्थितिष्ययम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ १ ॥ " श्र० ४ श्र० । श्रासंसारमशुमतां मध्ये ऽन्तर्भवतीति मध्यस्थो लोभः । सूत्र० १ ० १ ० १ ३० । थो० वि० ।
"
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मज्झत्थभावभूय - मध्यस्थभावभूत-- त्रि० । मध्यस्थभावं प्राते, स्था० ८ ठा० ।
मज्झदेस भाग-मध्यदेशमाग- पुं० । मध्यश्चासौ देशभागश्च देशावयवो मध्यदेशभागः । देशमध्याऽपयये स्था० ४ ठा०
२ उ० ।
मज्झम- मध्यम- त्रि० । अन्तरालवर्त्तिनि चत्वारिंशद्वर्षेभ्यः परं यावत् सप्ततिरेकेन वर्षेणोना तावन्मध्यमं वयः । व्य० ३
उ० । द्वा० ।
मनमबुद्धि-मध्यमबुद्धि-पुं० । मध्यमययेकम्पने, पो० १ विव० ।
मध्यमवुद्धिचरितं पुनरेवम्
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अस्त्यत्र भरतक्षेत्रे, पुरं क्षितिप्रतिष्ठितम् । तब कर्मविलासाच्यो, राजा वीर्यनिधानभूः ॥ १ ॥ तस्य प्रणयिनी ज्येष्ठा, यथार्था शुभसुन्दरी । श्रन्याऽकुशलमाला ऽऽख्या, शालेव सकला ऽऽपदाम् ॥ २ ॥ तयोर्मनलपी पुत्री प्रेमपरी मिथः । स्वदेोषानमन्येस्ती गती फीडितुं मुदा ॥ ३ ॥ ताभ्यामदर्शि तत्रैकः पुमानुबन्धतत्परः । बालः पाशमपास्याऽथ, पप्रच्छाद्वन्धकारणम् ॥ ४ ॥ अमुना प्रश्नितेनाल मित्युपयन् पुनः । निवार्य सादरं पृष्टो, बालेन स ऊचिवान् ॥ ५ ॥ स्पर्शनाऽऽरूपस्य मे भद्र !, भवजन्तुरभूत्सखा । समं सदागमेनोच्चैः, स मैत्रीयन्यदाऽकरोत् ॥ ६ ॥
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मज्झमबुद्धि अभिधानराजेन्द्रः।
मज्भमबुद्धि ततः प्रभृति जशेऽसौ, ट्यत्प्रेमा ममोपरि।
गर्जितर्जितजीमूताः, ममत्वाद्या मतङ्गजाः । ललनातूलिकात्यागी, सुदुस्तपतपोरतः॥ ७॥
हेषाऽऽपूरितदिचक्राः, अशानाऽऽद्यास्तुरङ्गमाः ॥ ३०॥ अङ्गीकृतबहुक्लेशः, केशलुश्चनलालसः ।
अन्ये करणसङ्घ-प्रौढनियूंढसाहसाः । भूकाष्ठशय्याशयनः, प्रान्तरूक्षाशनो भृशम् ॥८॥ युग्मम् । चेलुगृहीतनानाखा-श्वापलाऽऽद्याः पदातयः ॥ ३१॥ स्फूर्जदूर्जस्वलध्यानो, शानोत्साहितभावनः।
प्रासर्पदर्पकन्दर्प-पटहोद्धोषणा क्षणात् । मां मुक्त्वा मदगम्यायां, स ययौ निवृतौ पुरि ॥६॥ प्राचलीदचलस्थामा, परमप्यमितं बलम् ॥ ३२ ॥ ततो मित्रवियुक्नेन, मयेदं भोश्चिकीर्षितम् ।
पृष्टो मयाऽथ विषया-ऽभिलाषस्यैव पूरुषः । श्रुत्वेति तद् दृढप्रेमा, प्रीतो बालोऽभ्यधादिति ॥१०॥
विपाकाऽऽख्यः समाचल्यौ, राज्ञः प्रस्थानकारणम् ॥३३॥ मित्रवात्सल्ययुक्तानां, दृढसौहादशालिनाम् ।
भो भद्राऽत्राऽस्ति वैरिभ-कुम्भनिर्भेदकेसरी । परोपकारशीलानां, युक्तमेतद्भवाशाम् ॥ ११ ॥
मुख्यश्वरटचक्रस्य, नरेन्द्रो रागकेसरी ॥ ३४॥ यतः
तस्याऽस्ति मन्त्री विषया-ऽभिलाषो माम विश्रुतः। मित्रस्य विरहे स्थातुं, क्षणमप्युचितं न हि ।
चण्डमार्तण्डवत् प्रौढः, प्रतापाऽऽक्रान्तविष्टपः ॥ ३४॥ मनस्विनामितीवाशु, दिवसेनास्ति मीयते ॥ १२ ॥
रागकेसरदेवेन, स मन्त्रीशोऽन्यदा मुदा। अहो ते मित्र ! वात्सल्य-महो ते स्थिररागिता।
जगदे जगदेतन्मे, वश्यं कुरु विशारद !॥ ३६ ॥ अहो तव कृतज्ञत्व-महो ते साहसं दृढम् ॥ १३॥
ओमित्युक्त्वा महामन्त्री, विश्ववश्यत्वहेतवे । भवजन्तोः पुनरहो, क्षमरतविरक्तता।
स्पर्शनाऽऽदीनि पञ्च स्व-मानुषाणि समाऽऽदिशत् ॥ ३७॥ अहो हृदयकाठिन्य-महो मौढ्यमनुत्तरम् ॥ १४॥
मन्त्रिणोचेऽन्यदा देव!, देवशासनतो मया । तथापि धीर ! धीरत्वं, कृत्वा हित्वा तथा शुचम् ।
स्वमानुपाणि प्रेष्यन्त, जगत्साधनहेतवे ॥ ३८ ॥ स्वास्थ्य धेहि मुदं देहि, मम मित्रं भवाऽधुना ॥१५॥
तैः साधितं जगत्प्रायो, ग्राहितं देवशासनम् । स्पर्शनोऽप्याख्यदित्यस्तु, भवजन्तुरिवासि मे ।
केवलं श्रूयते कश्चि-स्सस्यानामीतिसङ्घयत् ॥ ३६॥ ततस्तेन व्यधान्मैत्री, बालः प्रीतान्तराऽऽत्मना ॥ १६ ॥ सदागमत्याजितत्वा-नूनं नैष शुभाऽऽशयः।
तेषामुपद्रवकरः, स्फुटोद्भटपराक्रमः ।
सन्तोषनामा चरटः, कूटः कपटपाटवः ॥४०॥ मनीषिणेति विदधे, बहिवृत्त्या त्वसौ सखा ॥१७॥
भूयो भूयः पराभूय, तानि तेन कियान् जनः । तौ तं वृत्तान्तमाख्याता, मातापित्रोर्यथास्थितम् । ततो राजाऽभवद् भूरि-हर्षद्रमविहङ्गमः ॥१८॥
देवभुक्तेर्वहिःस्थायां, प्रक्षिप्तो निर्वृतौ पुरि ॥४१॥ उवाचाऽकुशला हृष्टा, साधु साध्वसि पुत्रक !।
तन्मन्त्रिवचनं श्रुत्वा, कोपाऽऽटोपारुणेक्षणः । यत्वया सर्वसौख्यानां, खनिरेष सखा कृतः ॥१६॥
तस्योपरि स्वयं देवः, प्रतस्थे रणकर्मणे ॥ ४२ ॥ अथ युग्मम्
इतश्चास्मारि देवेन, तातपादाभिवन्दनम् । तुषार इव पनस्य, स्वर्भानुरिव शीतगोः।
तरङ्गरणव पाथोधे-र्चवले च क्षणात्ततः ॥४३॥ स्पर्शनोऽयं सखा सौख्य-कारणं मे सुतस्य न ॥२०॥
विपाकोऽथ मया नाथ!, सम्भ्रमोभ्रान्तचक्षुषा । एवं विषादविवशा-ऽचिन्तयच्छुभसुन्दरी।
पृष्टः कोऽस्य नरेन्द्रस्य, पितेति मम कथ्यताम् ॥४४॥ किं तु नाचीकथत्किञ्चिद्, गाम्भीर्यात्स्वसुतं प्रति ॥ २१॥
ईषद्विहस्य स प्रोचे, ननु मोहो महानृपः । स्पर्शनमूलशुद्ध्यर्थे, परेद्यवि मनीषिणा ।
त्रिलोकीख्यातमहिमा, दध्यौ वृद्धोऽन्यदेति सः॥ ५ ॥ पाहय रहसि प्रोक्लो, बांधो नामाङ्गरक्षकः ॥ २२ ॥
पार्थस्थितोऽपि वीर्येण, क्षमोऽहं रक्षितुं जगत् । भद्रास्य मूलशुद्धिं मे, शीघ्रं ज्ञात्वा निवेदय ।
तेनाधुना प्रयच्छामि, साम्राज्यं निजसूनवे ॥४६॥ यदाज्ञापयति स्वामी-त्युक्त्वाऽसौ निरगात् ततः॥२३॥ राज्यं देवाय दत्त्वाऽथ, शेते मोहो निराकुलः । तेनाऽऽत्मीयः प्रभावाऽऽख्यः, प्रैषि प्रणिधिपूरुषः।
तथाऽपीद जगत्तस्य, प्रभावेणैव वर्तते ॥४७॥ प्रस्तुतार्थाय सोऽन्येधुर्यात्वाऽगाद बोधसन्निधौ ॥२४॥ तदेष मोहराजस्ते, कथं प्रष्टव्यतां गतः। ततः कृतावनामोऽसौ, बोधेनाप्रच्छि सादरम् ।
व्याहारि हारि वचनं, ततस्तं प्रत्यदो मया ॥४८॥ प्रभाव! कथयाऽऽत्मीयं, वृत्तान्तं सोऽप्यथाऽऽस्यत ॥ २५ ॥ भवता भद्र! पापोऽहं, साधु साधु प्रबोधितः । इतस्तदा हि निर्गत्य, बाह्यदेशेषु वंभ्रमम् ।
परं निवेद्यतामग्रे, किमभूत्सोऽप्यथावदत् ॥ ४६ ॥ मया न चाऽपि गन्धोऽपि, प्रस्तुतार्थस्य तेष्यथ ॥ २६ ॥ गत्वा सारपरीवार-युक्तो देवः पितुः क्रमो। अागामाऽन्तरदेशेषु, तत्र चापश्यमुल्ल्वणम् ।
ननामैनं च वृत्तान्तं, मूलतोऽपि व्यजिक्षपत् ॥५०॥ पुरं राजसचित्ताऽऽख्य, समन्तात् तमसाऽन्वितम् ॥ २७॥ मोहोऽवोचत हे वत्स!, यन्मदजस्य बाध्यते । पुरे तस्मिन्नहं यावत्, प्राप्तो राजकुलाऽन्तिकम् ।
पामाव्याप्तमयस्येव, तत्सारं किल सम्प्रति ॥५॥ तावदुलसितोऽकाण्ड, एव कोलाहलध्वनिः ॥२८॥
तत्त्वं तिष्ठ निजं राज्यं, सुचिरं प्रतिपालय । अथ त्रिभिर्विशेषकम्
सन्तोषशत्रुघातार्थ-महं यास्यामि सगरे । ५२ ॥ ब्रह्माण्डभाण्डसंव्यापि, स्फूर्जद्घणघणारवाः।
देवः श्रुती पिधायाऽऽख्य-वाः! शान्त पातकं बदः । मौल्याऽऽदिभूपाधिष्ठाना, मिथ्यामानाऽऽदयो रथाः ॥२६॥ अनन्तकालसंस्थााय, तानीयं भवताबपुः ॥ ५३ ॥
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मज्झमबुद्धि अभिधानराजेन्द्रः।
मज्झमबुद्धि देवेन वार्यमाणोऽपि, मोहः सर्वाभिसारतः।
अकार्यकरणोद्युक्तो, निषेद्धं पार्यते न हि ॥ ७ ॥ स्वयं चचाल भद्रेद, राक्षः प्रस्थानकारणम् ॥ ५४॥
अकार्य दुर्विनीतेषु, प्रवृत्तषु ततः सदा। इत्युक्त्वा स ययौ तूर्ण, चित्ते दध्यावह पुनः ।
न किश्चिदुपदेष्टव्यं, सता कार्याऽवधीरणा ॥ ७९ ॥ अये ! स्पर्शनसंशुद्धि-लब्धेयं सकला मया ॥ ५५ ॥
इत्यालोच्य स्वयं चित्ते, हित्वा बालस्य शिक्षणम् । किं विदं घटते नायं, यत्सन्तोषात्पराभवम् ।
स्वकार्यकरणोद्युक्तो, मनीषी मौनमाश्रितः ॥ ८० ॥ स्पर्शनस्याऽऽहस पुन-स्तमाचख्यौ सदागमात् ॥५६॥
अथ सामान्यरूपाऽऽख्या, प्रिया तस्यैव भूपतेः। तत्तरानुचरः कोऽपि, सन्तोषो भवता ह्ययम् ।
अस्ति मध्यमबुध्याख्य-स्तस्याश्च तनयो नयी ॥१॥ एवं वितर्कयन्त्रागात् , प्रणाम स्वाम्यतः परम् ॥ ५७ ॥ तदा देशान्तरादागा-त्स दृष्टा स्पर्शनं मुदा। बोधेनाभिदधे साधु , प्रभावानुष्ठितं त्वया ।।
बालं पप्रच्छ कोऽयं ना, स ऊचे तस्य वल्गितम् ॥२॥ तेनैव सहितो बोधो, ययौ पार्श्वे मनीषिणः ॥ ५८ ॥
ततो वालस्य वचना-स्पर्शनो मध्यमाङ्गके। कृता नतिः कुमाराय, तं वृत्तान्तं न्याविदत् ।
प्राविशत्तेन जशेऽसौ, बालविलाशयः॥८३॥ प्रभावं पूजयामास, प्रीताऽऽत्मा नृपनन्दनः ॥ ५६ ॥ मनीषी तत्तु विज्ञाय, मध्यमाय न्यवेदयत् । मनीषिणाऽन्यदा प्रोचे, स्पर्शनाऽऽख्याहि किं तव ।
मूलात्स्पर्शनसंशुद्धिं, स दध्यौ संशयाऽऽकुलः ॥ ८४ ।। चक्रे सदागमेनैव, मित्रेण विरहो मनु ॥६॥
एकतः स्पर्शसत्सौख्य-मन्यतो भ्रातृवारणम् । तत्राऽऽसीत्किमुतान्योऽपि, स स्माहाऽऽसीत्परं सखे !।
न हि जानाम्यहं सम्यक, किं विधातुं ममोचितम् ? ॥८५॥ कृतं तत्कथया यन्मां, स कदर्थयते भृशम् ॥६१॥
तत्पृच्छामि सदा सौख्य-जननी जननीमिति । कर्ता हि सैव सर्वस्यो-पदेष्टैव सदागमः ।
ध्यात्वा निवेद्य वृत्तं स्वं, कृत्यं पप्रच्छ तां ततः॥८६॥ भूयः किं तस्य नामेति, तं पप्रच्छ नृपात्मजः ॥ २ ॥
जगाद साऽपि माध्यस्थ्य-मधुना धेहि नन्दन !। भयविह्वल ऊचेऽसौ, तस्याहं क्रूरकर्मणः ।
कालान्तरे तु बलिनं, पक्षं निर्दोषमाश्रयः ॥७॥ नामाऽप्युश्चरितं नेश-स्ततोऽवादीद् नरेन्द्रसूः ॥ ६३ ॥
यतःत्वया नैवास्मदभ्यर्णे, भीतिः कार्या मनागपि ।
संशयाऽऽपन्नचित्तेन, भिन्ने कार्यद्वये सता। भद्र ! न ह्यग्निरित्युक्ते, मुखदाहः प्रजायते ॥ ६४ ॥ कार्यः कालबिलम्बोऽत्र, दृशान्तो मिथुनद्वयम् ॥ ८८ ॥ अथ शात्वाऽतिनिर्बन्धं, स्पर्शनः माह दैन्यभाक् ।
तथाहिसन्तोष इति दुर्नाम, तस्य पापशिरोमणेः ॥ ६५ ॥
पुरे कस्मिन् ऋजोः राशः, प्रगुणा नाम पत्म्यभूत् । नरेन्द्रनन्दनोदध्या-वियता सकलोऽप्यहो।
तस्याश्च तनयो मुग्धो, वधूश्वाऽकुटिलाभिधा ॥८६॥ प्रभावानीतवृत्तान्तो, घटाकोटिमटीकत ॥ ६६ ॥
पुष्पोश्चयकृतेऽन्यधु-स्ते मुग्धाऽकुटिले मधौ। अन्यदा स्पर्शनः सिद्ध-योगिवत्तत्पुरेऽविशत् ।
स्वगहोपवने याता, गृहीत्वा हेमशूर्पिके ॥१०॥ बालोऽतीव वशीभूतो, मनीषी तु तथा न हि ।। ६७॥ कः पूर्व पूरयेच्छूप-मित्याशयपरौ मिथः । ताभ्यां सर्वः प्रबन्धोऽयं, स्वस्वमात्रोनिवेदितः।
दुरं दूरतरं जातो, चिन्वानी कुसुमोश्चयम् ॥ ११॥ उवाचाऽकुशला बालं,वत्सेदं साधु साध्वभूत् ॥ ६८ ॥ इतश्च व्यन्तरयुगं, तत्रागात्केलिलालसम् । स्वसुत मरवाक्य भाषे शुभसुन्दरी।
देवी विचक्षणा नाम, देवः कालशसंक्षितः॥१२॥ वत्सास्य पापामत्रस्य, सम्बन्धस्ते न सुन्दरः ॥ ६६॥ देवो देवानुभावेना-नुरक्तोऽकुटिलां प्रति । सोऽभ्यदादेवमेवैत-मातः! किं क्रियते परम् ? |
मुग्धं प्रति पुनर्देवी, देवोऽवादीत् प्रियामथ ॥ १३ ॥ प्रतिपत्रमकाले हि, सतां हातुं न युज्यते ॥ ७० ॥
प्रिये ! गच्छ पुरो याव-द्भपालोपवनादितः। शुभसुन्दर्यथावोच-दहो ते वत्स ! सन्मतिः ।
पुष्पाण्यादाय पूजार्थ-मेष श्रायामि सत्वरम् ॥ १४ ॥ अहो ते नतवात्सल्य-महो ते नीतिनैपुणम् ।। ७१॥
संकेतं च तयोर्ज्ञात्वा, विभङ्गेन सुरः क्षणात् । तथाहि
विधाय मुग्धरूपं खं, पुष्पैर्मृत्वा च शूर्पिकाम् ॥ १५ ॥ नाकाण्ड एव मुश्चन्ति, सदोषमपि सजनाः ।
आगादकुटिलापार्श्वे, जिताऽसि त्वं प्रिये ! भणन् । प्रतिपन्नं गृहे स्थायी, तत्रोदाहरण जिनः ॥७२॥
विपन्नां तां च संभाष्य, निनाय कदलीगृहे ॥ १६॥ यस्तु मूढतया काले,प्राप्तेऽपि न परित्यजेत् ।
एवं विचक्षणाऽप्याश्व-कुटिलारूपधारिणी। सदोष लभते तस्मा-संक्षयं नात्र संशयः ॥ ७३ ॥
प्रतार्य मुग्धकं निन्ये, तदैव कदलीगृहे ॥ १७॥ कर्मविलासराजोऽपि, तज्ज्ञात्वा दायतामुखात् ।
तद्वीच्य मुग्धधीर्मुग्धो, वितर्काकुलितोऽजनि । तुष्टो मनीषिणो गाद, रुष्टो बालस्य चोपरि ॥ ७४ ॥
बभूव विस्मयस्मेरा-ऽकुटिलाऽकुटिलाशया ॥१८॥ अभूत्यकान्यकर्त्तव्यो, बालः स्पर्शनदोषतः।
दध्यौ देवाङ्गना केय, द्वितीया हुं मम प्रिया । विलसन्मृद्वपस्मारो-त्सारमारितचेतनः ॥ ७५ ॥
तत्परस्त्रीकृताऽऽसहं, हन्न पुरुषाऽधमम् ॥ ६॥ तन्मूलशुद्धिमाख्याय, बालः प्रोक्तो मनीषिणा ।
स्वैरिणी दयितां चेमां, पीडयामि दृढं तथा । स्पर्शनेऽत्र रिपौ भ्रातः!,मा विश्रम्भ कथाः क्वचित् ॥७६॥ असौ यथा नरेऽन्यत्र, विधत्ते न मनोऽपि हि ॥ १०० ॥ बालो जजल्प हे बन्धो।, निःशेषसुखदायकः।
यद्वा स्वयं सदाचार-भ्रष्टस्य मम नोचितम् । अयं वरवयस्यो मे,कथं शत्रुस्त्वयोदितः ॥७७॥
कर्तुमेतादृशं कर्म, तद्वरं कालयापना ॥ १०१॥ बध्यौ मनीची वालो-ऽसमुपदेशशतैरपि ।
ध्यात्वा विचक्षणाऽप्येवं, कालक्षेपपराऽभवत् ।
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ममबुद्धि
क्षणं प्रक्रीड्य तत्रागा-त्स्वगेहे तच्चतुष्टयम् ॥ १०२ ॥ तं दृष्ट्रा सप्रियो राजा, प्रीत आख्यादहा सुतः । वधूश्व मे द्विगुणिता, वनदेव्या प्रसन्नया ॥ १०३ ॥ सकलेऽपि पुरे हा महोत्सवचीकरत् । तेषां चतुर्णामध्ये घयो कालः कियानपि ॥ १०४ ॥ अथ तत्र पुरे मोह - विलयाSSख्ये सुकानने । सूरिः प्रबोधको नाम, ज्ञानवान् समवासरत् ॥ १०५ ॥ अथ लोका नरेन्द्राऽऽद्या, वन्दनायै मुनीशितुः । निर्ययुर्भगवांस्तेभ्य इति चक्रे सुदेशनाम् ॥ १०६ ॥ शल्यं कामाः विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः । कामार्थनापरा जीवा. कामा यान्ति दुर्गति ॥ १०७ ॥ तच्छृण्वतोर्गुरोर्वाक्यं, तयोर्देवीसुपर्वणोः ।
(६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मोहजाले प्रविध्वस्तं, जाता सम्यक्त्ववासना ॥ १०८ ॥ अत्रान्तरे तपोहान् कृष्णाऽणुसञ्चयेः । निर्गतैर्भीषणाssकारा, घटितैका नितम्बिनी ॥ १०६ ॥ सा च भागवतं तेजो- सहन्ती पर्षदो बहिः । गत्वा परामुखीभूयाऽ-वतस्थे दुःस्थिताऽऽशया ॥ ११० ॥ अथोत्थायावदद् देवः, सप्रियो भगवन्नहम् । कथमस्मान्महापापान्मुच्ये प्रोचे मुनीश्वरः ॥ १११ ॥ नायं भो भवतोदषः, किं त्वस्याः पापयोषितः । काऽसाविति गुरुः प्राहामृतकिरा गिरा ॥ ११२ ॥ भौ ! विषय (तृष्णेयं, दुर्जया त्रिदशैरपि । रजनीव तमिस्रस्य सर्वदोषततेः पदम् ॥ ११३ ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशौ, स्वरूपेण युवां पुनः । एव सर्वदोषास कारणत्वेन संस्थिता ॥ ११४ ॥ इह स्वानुमशक्रेति दूरमेणा स्थिताऽधुना । भवन्तौ मत्समीपाच, निर्गच्छन्ती प्रतीक्षते ॥ ११५ ॥ तौ प्रोचतुः कदा स्वामिन्!, मोक्षो नो भविताऽनया । गुरुः प्राऽऽह भवे नात्र, परं भावी भवान्तरे ॥ ११६ ॥ किन्तु सम्यक्त्वमाहात्म्या नात्यन्तं नो विवाधिका । प्रतिपन्नं ततस्ताभ्यां सम्यक्त्वं मोक्षसौख्यदम् ॥ ११७ ॥ ऋजुराट् प्रगुणा देवी, स मुग्धोऽकुटिला तथा । अथो विज्ञापयामासु-गुरुं स्वस्वविडम्वनाम् ॥ ११८ ॥ अत्रान्तरे तदङ्गेभ्यो, निर्गतैः परमाणुभिः । घटितं वर्णतः श्वेतं, डिम्भमेकमदम्भकम् ॥ ११६ ॥ रक्षितानि मया सूर्य बुवासमिति बोकी । पश्यद्गुरोर्मुखाम्भोजे, सर्वेषां पुरतः स्थितम् ॥१२०॥ युग्मम् । द्वितीयं कृष्णवर्णाभं डिम्भे तदनु निर्ययी। ततो जातं महाकृष्ण, डिम्भरूपं तृतीयकम् ॥ १२१ ॥ श्राहत्य तच्च शुक्लेन, वर्द्धमानं निवारितम् । ततो द्वे अपि ते कृष्णे, निर्गते गुरुपर्षदः ॥ १२२ ॥ गुरुः प्रोवाच भो भद्राः !, न दोषो वोऽत्र कश्चन । अज्ञानपापाभिधयो कि त्यसी कृष्णडिम्भयोः ॥ १२३ ॥ तथाहियत्र चेदिदमशानं युष्मदेहाद्विनिर्गतम् ।
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एतदेव समस्तस्य दोषवृन्दस्य कारणम् ॥ १२४ ॥ अनेन वर्त्तमानेन शरीरे जन्तवो यतः कार्याकार्य न जानन्ति, गभ्यांगस्याऽऽदिकं तथा ॥ १२५ ॥ ततः पापं निवन्ति दुःखदन्दोलिदायकम् ।
यत्तु पूर्व खितं दम्भे तदार्जवमुदाहृतम् ॥ १२६ ॥
मज्झमबुद्धि
अज्ञानात् वर्तमानं हि पापं वोऽवार्थताऽमुना । रक्षितानि मया धूप-मत पंवेदमान्यत ॥ १२७ ॥
यतः
धन्यानामार्जवं येषामेतचेतसि वर्तते । अज्ञानादाचरन्तोऽपि, पापं ते स्वल्पपातकाः ॥ १२८ ॥ तदेवंविधभावानां भद्राणां युज्यतेऽधुना ।
ज्ञानपापे निर्द्धय, सम्यग् धर्मनिषेवणम् ॥ १२६ ॥ उपादेयो हि संसारे, धर्म एव बुधः सदा । विशुद्ध मुये सर्व यतोऽन्यद् दुःखकारणम् ॥ १३० ॥ अनित्यः प्रियसंयोगः, ईर्ष्याशोकाऽऽदिसङ्कुलः । अनित्यं पचने चापि कुत्सिताऽऽचरणाऽस्पदम् ॥ १३२॥ अनित्यं सर्वमेवेह भवे धार्द्धितरङ्गवत् ।
अतो वदत किं युक्ता, क्यचिदास्था विवेकिनाम् ॥ १३२ ॥ श्रुत्वेति राज्ये संस्थाप्य शुभाऽऽचाराविधं सुतम् । प्रावाजीरभूपालो, जायापुत्रवधूयुतः ॥ १३३ ॥ ततस्ते कृष्णरूपे द्वे, डिम्भे तूर्ण पलायिते । शुक्ररूपं पुनर्द्विम्भं प्रविएं तनुषु क्षणात् ॥ १३४ ॥ कालशेन ततधिले सभार्ये विचिन्तितम् । पश्याहो धन्यता मीषां यैः प्राप्तं व्रतमाईतम् ॥ १३५ ॥ वयं तु देवभावेन व्यर्थ केना 55 वञ्चिताः। यद्वा सम्यक्त्वसंप्राप्त्या, सुधन्या वयमप्यहो ॥ १३६ ॥ सहर्षावथ तौ सूरेः, प्रणम्य चरणद्वयम् । तेनानुशिष्ट स्वस्थानं भातां देवदम्पती ॥ १३७ ॥ इदं पुत्र ! मया तुभ्यं कथितं मिथुनद्वयम् । संदिग्धेऽर्थे हि तत् काल - विलम्बो गुणभाजनम् ॥ १३८ ॥ यदादिशति मामम्बा, कर्त्ताऽहं तत्तथैव हि । इति जल्पन्मुदा मध्यः प्रपेदे जननीवचः ॥ १३६ ॥ बालोऽप्यथ स्वमित्रेण, मात्राऽकुशलमालया । अधिष्ठितोऽभवद्गाढ-मकृत्य करणाऽऽदतः ॥ १४० ॥ कुविन्दहुम्बमातङ्ग- जातीयास्वपि तद्वशः । अतिलीथेन नारीषु प्रापत निरन्तरम् ॥ १४१ ॥ ततश्च गतलज्जोऽयं, पापिष्ठः कुलदूषणः । एवं स निन्द्यते लोकै-र्न च पापान्निवर्तते ॥ १४२ ॥ अथ निन्दापरे लोके, स्नेहविवद्यमानसः । लोकापवादभीरुस्तं मध्यबुद्धिरभाषत ॥ १४३ ॥ भ्रातनों युज्यते कर्त्तुं तव लोकविरुद्धकम् । अगम्यागमनं निन्द्यं, सपापं कुलदूषणम् ॥ ९४४ ॥ सं प्राऽऽह विप्रलब्धोऽसि, नूनं बन्धो ! मनीषिणा । नार्दोऽयमुपदेशानां, मौन्यभूदिति मध्यमः ॥ १४५ ॥
परेद्युर्मधौ बालः, समं मध्यमबुद्धिना । यदी लीलावरोधान-संस्थिते कामधामनि ॥ १४६ ॥ तम वैशिट पार्श्वस्थ, गुप्तस्थानव्यवस्थितम् । कामस्य वासभवनं, मन्दमन्दप्रकाशकम् ॥ १४७ ॥ कुतूहलवशेनाथ द्वारे संस्थाप्य मध्यमम्
मध्ये प्रविष्टः सहसा, स बालस्तस्य सद्मनः ॥ १४८ ॥ रात्र कामस्य शयने, कोमलामललिके । मित्राम्बादोषतो बालः, शेते स्म गतपुण्यकः ॥ १४६ ॥ इस तत्रैव पुरे, बहिरङ्गनरेशितः । शत्रुमर्दनानाभूत् प्रिया मदनकन्दली ॥ १४० ॥ साssगत्य तत्र कामोऽयं, शय्यास्थ इति भक्तितः । स्पृशन्ती सर्वनात्रेषु तं बालकमपूपुजत् ॥ १५१ ॥
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(15) अभिधानराजेन्द्रः ।
बुद्धि
ययौ स्वमन्दिरे राशी, प्रपूज्य च रतीश्वरम् । बालस्तु तस्याः संस्पर्श-वश्योऽभून्नष्टचेतनः ॥ १५२ ॥ मया कथं न लभ्येयमिति चिन्तापरायणः । अल्पोदके मीन इव, तत्रास्थाश्च स दुःस्थितः ॥ १५३ ॥ बालः किं चिरयत्येष इति मध्यमबुद्धिकः । प्राविशत् कामधामान्त-स्तदवस्थं ददर्श तम् ॥ १५४ ॥ उत्थापितस्ततो ऽनेन, यावदाह न किञ्चन । बालस्तावच्च तत्रत्य - व्यन्तरेण न्यबध्यत ।। १५५ ।। अपात्यत महीपीडे, सर्वाणमपास्यत । बहिरणेऽपि लोकेभ्यस्तद् वृतं च न्यवेद्यत ॥ १५६ ॥ ततो गाढतरं प्रार्थ्य व्यन्तरान्मध्यबुद्धिना । लोकैध मोचितो बालो, निन्ये च निजमन्दिरे ॥ १५७ ॥ मध्यबुद्धिमथो बालो-माजिद बन्यो ! किमु त्वया । म्युदेति वासपना नियन्ती काऽपि नायिका ॥ १५८ ॥ समाहा यद्येवं, हे भ्रातस्ता कस्प सा है। स स्माहाचैव भूपस्य देवी मदनकन्दली ॥ १५६ ॥ तदावर्याबदद बालः कथं सा मारणामिति । मध्यमेन तदाकृतं ज्ञातमुक्तं च तं प्रति ॥ १६० ॥ भ्रातः ! केयमविद्या ते, यदेवं तप्यसे किमु ? । त्वयाऽधुनैव व्यस्मरि, यत् कृच्छ्रेणासि मोचितः ॥ १६९ ॥ 'बालको जझे, कज्जलश्यामलाऽऽननः । तच्छ्रुत्वा अयोग्यो ऽयमिति ज्ञात्वा मध्यमो मीनमाश्रयत् ॥ १६२ ॥ इतधास्तमिते सूर्ये, निःशुत्य निजमन्दिरात्। गन्तुं प्रवृते बालोऽभिमुखं नृपवेश्मनः ॥ १६३० भ्रातृस्नेहविमूढात्मा मध्यस्तत्पृष्ठतो लगत् । केनाऽपि पुरुषेणाऽथ, बालोऽबध्यत निश्चलम् ॥ १६४ ॥ प्रक्षिप्त आरटन व्योम्नि, ततो मध्यस्तमन्वगात् । रे रे क्व यासि यासीति, प्राप्तः प्राप्त इति ब्रुवन् ॥ १६५ ॥ गृहीतवालः स पुमान् क्षयेनाभूददर्शनः । भ्रातृप्राप्त्याशया मध्य-स्तथापि च बलेन हि ॥ १६६ ॥ भ्रमन् सप्तमे चाह्नि, पुरं प्राऽऽप कुशस्थलम् । नोदन्तमात्रमध्याप, खानुजस्य परं क्वचित् ॥ १६० ॥ ततो भ्रातृवियोगार्त्तः कण्ठवाशिलो पडे। पतन् नन्दनसंज्ञेन, राजपुत्रेण वारितः ॥ १६८ ॥ पृथ नन्दनायाऽस्यत् तं वृत्तान्तमशेषतः । स ऊंचे भङ्ग ! यद्येवं सित् तव ॥ १६६ ॥ तथादिहरिन्द्रो पोति स वारिभिरभितः । खेचरं रतिकेल्या. रूयं मित्रं प्रोचे कृताञ्जलिः ॥ १७० ॥ सखे ! कुरु तथा शत्रु-विघातं स्याद्यथा मम । ततो नृपाय स ददी, विद्यां शत्रुविघातिनीम् ॥ १७१ ॥ ततः पारमासिक राजा, पूर्व सेवामयीकरत्। अधुना वर्त्तते भद्र !, साधनावसरः खलु ॥ १७२ ॥ तो होमार्थमानीत, आकाशे रतिकेलिना । इतोऽष्टमे दिने कोऽपि पुमान् लक्षणलक्षिवः ॥ १७३ ॥ पो पोषाक - पललेयापरः । विद्यां प्रसाद्य राद चक्रे, पश्चात्सेवां दिनाष्टकम् ॥ ९७४ ॥ राजानातु रक्षार्थ -मर्पितोऽस्ति ममेव सः । मध्यमः प्राऽऽह यद्येवं, तर्हि तं दर्शयाऽऽशु मे ॥ १७५ ॥ वाप्य धर्मास्थि-शेषामुपलक्ष्यतम् ।
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मक्झमबुद्धि मध्योऽयाचत कारुण्यात्, सोऽपि चास्मै समार्पयत् ॥ १७६ ॥ उक्त मध्यमस्तेन, राजद्रोह्यमिदं ननु । इतोऽपसर शीघ्रं भो, आत्मानं रक्षिताऽस्म्यहम् ॥ १७७ ॥ महप्रासाद इत्युक्त्वा, बालमादाय स्वौजसा । भीतभीतोऽपचक्राम क्रमात् प्राऽऽप स्वपत्तनम् ॥ १७८ ॥ कथं कथमपि प्राssप, बलितां बालकस्ततः । आख्यन्नन्दनवन्मध्य-बुद्धेः स्वं वृत्तमुच्चकैः ॥ १७६ ॥ मनीष्यपि तदा तत्रा - ऽऽगमल्लोकानुवृत्तितः । तत्कुरायान्तरितो ऽधीषी-सर्व बालविचेष्टितम् ॥ १८० ॥ ततस्तमाह हे भ्रातः !, कथितं ते मया पुरा । यद्वेष स्पर्शनः पापः सर्वदोषनिकेतनम् ॥ १८ ॥ बालोदापि, यदि तामायतेक्षणाम् । प्राप्नुयां कोमलस्पर्श, तन्मे
॥ १०२ ॥ दभ्यो मनीषी तच्छ्रुत्वा ही (हि) बालोऽयं वराककः । नैवोपदेशमन्त्राणां, कालदष्ट इवोचितः ॥ १८३ ॥ किं च
एकं हि चतुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम्। एतद्द्वर्ष भुवि न यस्य स तस्वतोऽग्धस्तस्याप्यमार्गचलने खलु को अपराधः १ ॥ १८४ ॥ मध्यबुद्धिरधरथाप्य, प्रोस्तेन पचखिना । किश्वयाऽपि विनयं विलग्नेनास्य पृष्ठतः ॥ १८४ ॥ मनीषिणमासी प्रोचे पद्मकोशीकृताञ्जलिः । अद्यप्रभृति बालस्यः सङ्गोऽत्याजि मयाऽनघ ॥ १८६ ॥ इदानीमाश्रयिष्यामि, वृद्धमार्गानुगामिताम् । जलाञ्जलिमलं दास्ये, सकलक्लेशसंहतेः ॥ १८७ ॥ वृद्धानुगोऽभविष्यं श्वमिवाहं पुराऽपि हि । असहिष्ये तदा भ्रात व क्लेशचशां दशाम् ॥ १ ॥ ते धन्याः पुण्यभाजस्ते, ये हि वृद्धानुगाः सदा । यद्वा वृद्धानुगामित्वं, स्वयं सिद्धं व्रतं सताम् ॥ १८६ ॥ विपद्युचैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां, प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् । असन्तो नाभ्यः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ? ॥ १६० ॥ परं ममापि धन्यत्वं किञ्चनाद्यापि विद्यते । यदत्यमिवाभूवं बृजमार्गानुगामुकः ॥ १६९ ॥ किं च
रागाऽऽदिभिः समं याति शान्ति स्मरहुताशनः । धत्ते प्रसन्नतां स्वान्तं भुवं वृद्धानुगामिनाम् ॥ १२२ ॥ अहो मातेच हितद्दर्शि
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विनेत्री गुरुवाणीव, पुंसां वृद्धानुगामिता ॥ १६३ ॥ माताऽपि विकृति यायात् कदाचिदैवयोगतः । न पुनर्वृद्धसेवेयं कदापि विहिता सती ॥ १६४ ॥ वृद्धवाक्यामृतस्यन्द - सुन्दरे तस्य मानसे । ज्ञानराजमरालीयं, सुस्थिरां स्थितिमश्नुताम् ॥ १६५ ॥ यो मण्डली मन्दोऽमुपास्यैव समीहते। तत्त्वं विज्ञानुमत्युच्चैः स इच्छेम करेः ॥ १६६ ॥ वृद्धोपदेशातग्मांशु, प्राप्य यस्य मनोम्बुजम् ।
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न प्राबोधि कथं तत्र, गुणलक्ष्मीः समाश्रयेत् ? ॥ १६७ ॥
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ममबुद्धि
कथं तस्य वराकस्य, पापपङ्कः प्रहीयताम् । वृद्धवाग्वारिभिर्येन, नाऽऽत्मा प्राक्षालि कर्हिचित् ॥ १६८ ॥ वृद्धोपजीविनां पुंसां करस्थापय संपदः । किं कदापि वदन्ति फलैः कल्पभाजिनः ॥ १६६ ॥ वृद्धोपदेशबोहित्थैः, सत्काष्ठैर्गुणयन्त्रितैः । सीर्यते दुस्तरोऽप्येष भविकै रागसागरः ॥ २०० ॥ मिष्यादिनाय कल्पते । देहिनां वृद्धसेवोत्थ-विवेककुलिशो ह्ययम् ॥ २०१ ॥ यां तमिस्रमान्तं क्षीयते क्षणमात्रतः । वृद्धानुवया नूनं प्रभवेय प्रभाषते ॥ २०२ ॥ एकै वृद्धसत्सेवा, स्वातिर्निपेतुषी। स्वान्तशुक्तिषु जन्तूनां प्रसूते मीकिं फलम् ॥ २०३ ॥ विश्वविद्यासु चातुर्य, विनयेष्वतिकीशलम् । कलयन्ति गतक्लेश, वृद्धसेवापरा नराः॥ २०४ ॥ शरीराऽऽहारसंसार- कामभोगेष्वपि स्फुटम् । विरज्यति नरः क्षिप्रं, वृद्धैस्तत्त्वे प्रबोधितः ॥ २०५ ॥ ज्ञानध्यानाऽऽदिशून्योऽपि, वृद्धान् यदि महीयते । विलङ्घ्य भवकान्तारं तदा याति महोदयम् ||२०६|| कुपितपस्ती, विप्यखिलं श्रुतम् । नासादयति कल्याणं. वेद वृद्धानवमन्यते ॥ २०७ ॥ न मोके पर धाम, न तत्सोयमसरिनम । यद् वृद्धवरिवस्याकृ-नाऽऽनोति पुरुषः क्षणात् ॥ २०८ ॥ यामान्य जायते नृणां स्वप्नेऽपि न हि दुर्गतिः । चिरं विजयतां सैषा, वृद्धपादानुगामिता ॥ २०६ ॥ एवं तस्य वचः श्रुत्वा, मनीषी मोदमेदुरः । स्वं धामागमदेषोऽपि धर्ममरतोऽभवत् ।। २१० ॥ यालस्त्यवाक्कुमित्राभ्यां प्रेर्यमा मुदुर्मुहुः । शत्रुमर्दनराद सौधं, प्रदोषेऽगाद् दुराशयः ॥ २११ ॥ तदा मण्डनशालायां देवी मदनकन्दली । आत्मानं मढवल्यास विविध ॥ २१२ ॥ म पागो योगेना विशद्वासगृहे दुतम | श्रस्वासीन्नृपशय्याया महा स्पर्श इति ब्रुवन् ॥ २१३ ॥ इतश्च नृपमायान्तं दृष्ट्रा बालो भयाऽऽकुलः । शय्यातो न्यपतद भूमी, शातश्चासौ महीभुजा ॥ २१४ ॥ क्रुद्धी राद स्वनरं प्रांच, रे रे एष नराऽधमः । सोधेऽत्रैव कदथ्यों हि सर्वामपि तमस्विनीम् ॥ २१५ ॥ ततस्तेन निवद्धोऽसौ स्तम्भे दम्भोलिकण्टके । उत्सिक्तस्तप्त तेश्च कशाभिरतिताडितः ॥ २२६ ॥ अल्पध्रेषु विक्षितास्तस्याऽऽयस्थशलाकिकाः । कन्दतोऽस्य वराकस्य सा ययौ सकला निशा ॥ २२७ ॥ प्रातः क्रुद्ध नृपाऽऽदशान् तस्याऽऽरक्षकपूरुषाः। आरोपपन गरिगम ॥ २९८ ॥ शिरोनकलि च निपानिम कश्चित् केशेषु दधेऽथ, भल्लूकरिघ लुब्धकः ॥ २१६ ॥ जपाना श्वश्वपटामिना मिय मान्त्रिकः ।
न्योताडयद् गेह-प्रविप्रमिव कुक्कुरम् ॥ २२० ॥ विनापूर्य भ्रामयत्या
पादप सायमुदन्व्य, पुराऽऽरक्षोऽविशन् पुरम् ॥ २२९ ॥ धनियानटितस्तस्याः
पतितश्व क्षितौ गः जात् संभप्तवेतन ॥ २२२ ॥ १५
मज्झमबुद्धि
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६ ) अभिधानराजेन्द्रः । स्वमन्दिरे शनैरागात् प्रश्नस्तस्थिवान् सदा । गाढभीरया नरेन्द्रस्य न निर्याति स कुत्रचित् ॥ २२३ ॥ इतश्च तत्पुरोद्याने, स्वविलासाऽऽह्नये वरे । प्रबोधनतिर्नाम मुनीन्द्रः समवासरत् ॥ २२४ ॥ उद्यानपालकमुखात् श्रुत्वा गुर्वागमं मुदा । अधिष्ठितः स्वया मात्रा, मनीष्याहास्त मध्यमम् ॥ २२५ ॥ सोऽपि वाले हडेनापि समाहूय त्रयोऽप्यथ । तत्रोद्यानपरे जग्मुरिकले ॥ २२१ प्रमोदवराभिये, चैत्ये तत्र जिनेशितः । वयं युगादिदेवस्य नती मध्यमनीषिणौ ॥ २२७॥ देवदक्षिणभाग, ती नत्वा मुनीश्वरम् । शुद्धं शुश्रुवतुर्धर्म कर्ममर्मप्रदर्शनम् ॥ २२८ ॥ अम्बा कुमित्रदोषेण स बालः शून्यमानसः । गुरु ग्राम्य इवानत्वा भ्रात्रोः पार्श्वमुपाविशत् ॥ २२६ ॥ इत जिनसङ्ग-सुबुद्धिसचिवेरितः ।
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समं मदनकन्दल्या, चैत्ये तत्राऽऽगमन्नृपः ॥ २३०॥ त्या जिनं गुरुचापि राजाऽधीषीत् सुदेशनाम् । सुबुद्धिस्तु जिना, स्तोतुमित्यं प्रचक्रमे ॥ २३१ ॥ जय देवाधिदेवाऽऽधिव्याधिर्यनाशन ! सर्वदा सर्वदारिद्रय मुद्राणि ॥ २३२ ॥ अगरायपुरषकारुण्य-पल्या परावृपध्वज ! | जय सन्देहसन्दोह शैलदम्भोसिमि ॥ २३३ ॥ स्फुरत्कषायसन्ताप-संपातशमनामृत ! | जय संसारकान्तार-दावपावक पावन ॥ २३४ ॥ सदा सदागमाम्भोज - विबोधनम नत्वा नत्वा भवे भावि भविनः पतनं खलु ॥ २३५ ॥ ये देवदेव गंभीरनामे ! नाभेव ! भूरिभिः । त्वद्गुणैः निन्ति ते मुदा ॥ २३६ ॥ देव! वामसम्मत्रो, येषां वित्ते कास्ति न । मोहसर्पविषं तेषां कथं यातु क्षयं क्षणात् ? ॥ २३७ ॥ परिस्पृशन्ति ये नित्यं त्वदीयं पदपङ्कजम । तेषां तीर्थेश्वरत्वाऽऽदि - पदवी न दवीयसी ॥ २३८ ॥ नमः सदर्शनज्ञान-वीर्यानन्दमयायते । अनन्तजन्तुसन्तान - त्राण्प्रवणचेतसे ॥ २३६ ॥ एवं मादितीर्थे, ये स्तुवन्ति सदा नराः । देवेन्द्रवन्याले प्राप्नुवन्ति महोदयम् ॥ २४०॥ इति वस्तुवा, सचिवेशः प्रमोदभाक् । नन्या च सुरियावा मधीषदेशनामिति ॥ २४१ ।। यथा नरास्त्रिधा ज्ञेया, जघन्या मध्यमोत्तमाः । तेषु च प्रथमे रक्ताः, स्पर्शने दुःखदायके ॥ २४२ ॥ समतावर्त्तिनो मध्याः सदा तद्विष उत्तमाः । क्रमेण नरवर्ग शिवा रूपगतिगामिनः ॥ २४३ ॥ मनीषमद्यराजाऽऽद्या- स्तत् श्रुत्वा भाविता भृशम् । बालस्त्वेकमनास्तस्थौ पश्यन् मदनकन्दलाम् ॥ २४४ ॥ मित्राम्यामेरणा देव्याः समुखं संप्रभावितः । ये सएव वालोऽयमिन्युने कुपिनो नृपः ॥२४५॥ ततो राजभयान्नष्टः कामाऽऽवेशः स बालकः । नश्यन् भग्नगतिर्भूमौ न्यपतद्वतचेतनः ॥ २४६ ॥ अथ राजा गुरुः पृष्टः, किं पुमानेव ईदृशः । प्रौढस्परीन दोघे-त्यूचे रिति स्फुटम् ॥ २४७ ॥
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ममबुद्धि
धराधीशः पुनः प्रोचे भाव्यस्य किमतः परम् ? | गुरुः प्राऽऽह क्षणादेष, कृच्छ्रात् प्राप्स्यति चेतनाम् ॥२४८|| तो नश्यन कर्मपूर- प्रामाऽऽ सरोवरे । श्रमखिन्नशरीरश्व, स्नानायैष निमदयति ॥ २४६ ॥ तत्र स्नानकृते पूर्व-मवती स्वपाकिकाम् । यूक्रेन वाणेन चण्डालेन हनिष्पटे ॥ २५० ॥ नरकेषु ततो गन्ता, ततस्तिर्यदवनन्तशः । भूयोऽपि नरकेष्वेवं भ्रमिष्यत्येष संसृती ॥ २५९ ॥ श्रुत्वेति मन्त्रिणं प्रोचे, नृपतिः क्रोधदुर्द्धरः ।
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भो भो निवासय क्षिप्रं महेशात् स्पर्शनं धमुम् ॥ २५२ ॥ व्याघुटय यदि वा गच्छेत् तदा सोविनिर्मिते यन्त्रे क्षिप्त्वा तथा पिण्या द्यथाऽयं भस्मसाद्भवेत् ॥ २५३ ॥ अथ स्पृष्टमभाषिष्ट सुरिभों मनुजाधिप । नान्तरङ्गजनध्वंसे, बाह्योपायः प्रवर्त्तते ॥ २५४ ॥ बभाषे भूपतिर्भूयो, भक्तितस्तं गुरुं प्रति । स्वामिन्नुपाया कस्ता प्रोबेनूचानपुयः ॥ २५५ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्र तपः सन्तोपलक्षणम् । सुयन्त्रमप्रमादा] [35] स्यं साधवो वाहयन्ति यत् ॥ २४६ ॥ संदेवान्तरवैरी-प्येसे पञ्चाननायते । श्रदृष्टपारसंसार- वार्द्धः प्रवहणायते ॥ २५७ ॥ यतिधर्मकिपासी, तत् श्रुत्वा नृपमध्यमी । सम्यक्त्वमूलमन, गृहिधर्म समाधिती ॥ २४८ ॥ गाढं विशपयामास, मनीषी तु मुनीश्वरम् । भगवन ! देहि मे दीक्षां भवाम्भोनिधिमन्धिनीम् ॥ २५६ ॥ वत्स ! मा स्म प्रमादस्त्विमेवमुक्ते च सूरिणा । ततो मनीषिणं प्रोचे, राजा विस्मितमानसः ॥ २६० ॥ प्रसीद मद्गृहं ह्येहि, मुदं देहि क्षणं च मे ।
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येनाहं ते महाभाग !, कुर्वे निष्क्रमणोत्सवम् ॥ २६१ ॥ ततो राजाऽनुवस्यैष ययौ नृपनिकेतनम् । ददानो राश श्रानन्दं, तत्रास्थात् सप्तवासरीम् ॥ २६२ ॥ अथ पञ्चभिः कुलकम् - दिन मे चाहि खानविलेपनः । आमुरत्नालङ्कारः सदशांशुशोभित २६३ ॥ प्रधानस्यन्दनाऽऽरूढः, सारथीभूतभूपतिः । जङ्गमः कल्पशाखीव, ददद्दानमनुत्तरम् ॥ २६४ ॥ वीज्यमाधामराभ्यां राजितः । वैतालिकैः स्तूयमान-नितिसंस्तवः ॥ २६५ ॥ अत्यद्भुतगुरुग्राम रामणीयकर
तोपः स्तूयमानः सुरेन्द्रवत् ॥ २६६ ॥ विपादिसादिपादातिरधिकामात्यमध्यमैः ।
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मज्झिम
( ७० ) अभिधान राजेन्द्रः । अचिन्यत्वाच्च महतां संनिधेः सुनिधेरिव । सर्वेऽपि जातचारित्र परिणामास्तमूचिरे ॥ २७२ ॥ साधु साधु हितं देव !, युक्तमेतद्भवादृशाम् । संसारे यत्र निःसारे, नान्यश्चारु विवेकिनाम् ॥ २७३ ॥ ययमप्येतदेवे, कर्तुमीहामहे प्रभो !
तत् श्रुत्वा मुमुदे राजा, केकीयाम्भोधरध्वनिम् ॥ २७४ ॥ राजचिह्नार्पणाद्राज्ये, कृत्वा पुत्रं सुलोचनम् । ततो नृपानुगाः सर्वे, प्राविशन् जिनमन्दिरे ॥ २७५ ॥ जिनं संपूज्य सुरिभ्यः कथितं तेः स्वचिन्तितम् । साधु साधु महाभागाः !, इति प्रोवाच तान् गुरुः ॥२७६॥ ततः प्रवचन विधिना सुरिया स्वयम् ।
ते सर्वे दीक्षिता एवं चान्वशिष्यत सादरम् ॥ २७७ ॥
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अन्वीयमानः स प्राप, स्थानं सुपिपित्रितम् ॥ २६७ ॥ ततो रथात् समुत्तीर्य, मनीषी पातकादिव । प्रमोदशेखरामिष्यत्यारे स्थितः पम् ॥ २६८ ॥ अत्रान्तरे नृपस्यापि मनीषिरितं मुदा । परिभावयतः सम्यक निर्मलेनान्तरात्मना ॥ २६३ ॥ चारित्रपरिणामोऽभूत् कर्म कल्मषवारिदः ।
श्रहो वृद्धानुगामित्वं, देहिनां सर्वकामधुक् ॥२७०॥ ( युग्मम् ) ततः सुमात्या दे मध्यमयुदये। सामन्तेभ्यश्च भूनाचो, निजाभिप्रायमाख्पत ॥ २७९ ॥
तथाहिचत्वारि परमाङ्गानि दुर्लभानीह जन्मिनाम् । मानुषत्वं श्रुतिः श्रद्धा, संयमे वीर्यमुत्तमम् ॥ २७८ ॥ एनां समग्र सामग्री, संप्राप्य कथमप्यहो । भवद्भिर्न हि कर्त्तव्यः प्रमादोऽत्र मनागपि ॥ २७६ ॥ ततस्तैः प्रणतैः सवै-जंजल्पे सूरिसंमुखम् । एवमेतदितीच्छामः, कुर्मः पूज्यानुशासनम् ॥ २८० ॥ प्रहरेः स्वचिरभ्यस्ते सर्वेऽप्यथ सूरिभिः । अर्पिता धार्मिकाभ्यस्तु साध्वी मदनकन्दली ॥ २८९ ॥ कालं विहृत्य भूयांसमागमोक्रेन वर्त्मना । पर्यन्तकाले समाप्ते, विधायाऽऽराधनाविधि ॥ २८२ ॥ सर्वेऽपि विमलध्यानाः प्रतनुभूतकर्मकाः । मध्यमाऽऽद्या गताः स्वर्ग, मनीषी तु शिवं ययौ ॥ २८३ ॥ बालस्य तु यदादिष्टं भदन्तैर्भावि चेष्टितम् । तथैवासि जज्ञे नान्यथा मुनिभाषितम् ॥ २८४ ॥ एवं वृद्धानुगत्वमगुणगुणजुषो मध्यबुद्धेर्विशुद्धं, लोकं कुन्देन्दुशुभ्रं त्रिदिवशिवफलं धर्मकर्माऽऽद्यवेत्य । भो भव्याः ! दुःखकक्षक्षयदवदहने पुण्यकन्दाम्बुदाभे, संपत्संपत्तियीजे सफलगाकरे घरा यत्नं तत्र ॥ २७५ ॥ " ध० ० १ अधि० १७ गुण ।
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मज्झमा मध्यमा-श्री० वीरजिनेन्द्रस्य केवलोत्पत्तिस्थाने मध्यमपापायाम्, श्रा० म० १ ० ।
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मज्झलोग मध्यलोक-पुं० । लोकस्य मध्यः अस्य सकललोकमध्यवर्त्तित्वात् । मेरौ, जं० ४ वक्ष० । स० । मज्कसंघपणचक- मध्यसंहननचतुष्क- न० मध्यानि मध्यमानि प्रथमान्तिमचजनि, संहननानि अस्थिनियवाऽम कानि तेषां चतुष्कं द्वितीयतृतीयचतुर्थमसंहननवतुष्कं तानि चत्वारि--ऋषभनाराचसंहननं नाराचसंहननमनाराचसंहननं कीलिकासंहननमिति । कर्म० २ कर्म० । मकागिह- मध्वाऽऽकृति श्रीमच्यमसंस्थाने, कर्म०३ कर्म० । मझागिइचक्क - मध्याऽऽकृतिचतुष्क १० मध्या मध्यमाश्राद्यन्तवज श्रकृतयः संस्थानानि मध्याऽऽकृतयस्तासां चतु
द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमानां संस्थानानां चतुष्कं तानि चत्वारि स्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, सादियाने वामनसंस्थानं जयानमिति । कर्म० २ कर्म० ।
मज्झिम - मध्यम - त्रि० । मध्यभाविनि, उत्त० ५ ० । म ध्यमवयसि सूत्र० १ श्रु० ७ श्र० । मध्ये कायस्य भवो
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( ७१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मज्झिम
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मध्यमः । वायुः समुत्थितो नाभे-रुरो हृदि समाहतः । नाभि प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते ॥ १ ॥ लक्षणे स्वरभेदे, स्था० ७ ठा० । अनु० । मज्झिमउवरिमग- मध्यमोपरितन- पुं० । मैवेयकदेवभेदे, स्था०
इत्युक्त
६ ठा० ।
ममिग- मध्यमक- त्रि० । अन्तरालभवे, “पुरिमपच्छिमवज्जा मम्मिगा वावीसं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पभाविति । " स्था० ३ ठा० १३० । मझिमगजिस - मध्यमजिन-पुं० । अजितादिषु जिननरेन्द्रे बु, नं० ।
।
मज्झिमपावा - मध्यमपापा स्त्री० वीरजिनेन्द्रस्य केवलोत्पत्तिस्थाने, आ० चू० १ ० ॥ श्र० म० । मज्झिमपुरिस - मध्यमपुरुष-पुं० वासुदेवेषु तेषां तीर्थ
किरणां प्रतिपासुदेवानां च चलाऽऽद्यपेक्षया मध्यमपर्तित्वात् । स० । स्था० । ( मध्यमपुरुषाः ' इत्थी' शब्दे द्वितीयभाने ६१६ पृष्ठे गताः ) मज्झिमबुद्धि-मध्यमबुद्धि-पुं० (कथा' मज्झमबुद्धि' शदेऽस्मिन्नेव भागे ६४ पृष्ठे मता ) ममिमज्झिमविज्जग-मध्यममध्यमत्रैवेयक-पुं० मै
।
यकदेवभेदे, स्था० ६ ठा० । मज्झिमचय-मध्यमवयम् पुं० परिपक्वबुद्धिके, आचा० १ श्रु० ८ श्र० ३ उ० ।
मज्झिमसंघयण - मध्यमसंहनन न० । ऋषभनाराचनाराचमध्यनाराचकीलिकारूपेषु श्राद्यन्तरहितेषु संहननेषु, कर्म० ३ कर्म० ।
मज्झिमहे मिगे विज्जय- मध्यमाधस्तनग्रैवेयक- पुं० ग्रैवेयकदेवभेदे, आ० ० १ ० । मनिमिय- माध्यमिक पुं० । शून्यवादप्रतिपादके बी
सम्म० ।
मज्झिमल्ल - मध्यम - पुं० । मध्यवर्तिनि " चउरुत्तरमज्झिमिलाउ ति । श्रात्माऽङ्गुलेन चतुरुत्तरमङ्गुलशतं मध्यमाः पुरुषाः । अनु० । मज्निमिल्ला - मध्यमा श्री० सुस्थितसुप्रतिबुद्धाभ्यां निर्ग । तस्य कोटिगणस्य चतुर्थ्यां शाखायाम्, कल्प० २ अधि०
5 क्षण ।
मट्टिया - मृत्तिका - स्त्री० । “ वृत्तप्रवृत्तमृत्तिकापत्तनकदर्थिते टः ॥ ८ । २ । २६ ॥ एषु संयुक्तस्य टो भवति । प्रा० २ पाद । श्र० । मृत्तिकामयपात्रभेदे, स्था० । मृत्स्नायाम्, मट्टिवलित्त- मृत्तिकोपलिप्त - न० । मृत्तिकयाऽवलिप्ते श्रा हारे, श्राचा० २ श्रु० १ ० ७ उ० । मट्टिया मृत्तिका स्त्री० पृथिवीकार्य प्रश्न ३ सम्बद्वार विपा० । श्रा० चू० । रा० । श्राव० । श्राचा० । स्था० । उत्त० । कर्दमे, दश० ५ ० १ उ० । मट्टियापाणय- मृत्तिकापानक-न० । कुम्भकारसम्बन्धिनि मृतिकामिश्रिते पानके, भ० ३ ० २ उ० । मट्टियापाय - मृत्तिकापात्र - न० । शरावघटिकाऽऽदिके मृरम
मडगगिह
ये पात्रे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । नि० धू० । श्राचा० ( मृत्तिका - पात्रविषयः ' पत्त' शब्दे पञ्चमभागे ३६६ पृष्ठे गतः ) मडियाभक्खण-मृतिकाभक्षण - न० । मृद्भक्षणे,, मृद्भक्षणं श्रावकेण त्याज्यम् । तथा मृज्जातिः सर्वाऽपि मृत्तिका दर्दरादिपञ्चेन्द्रियमायुत्पत्तिनिमित्तत्या 55दिना मरणा33 द्यनर्थकारित्वात् त्याज्या, जातिग्रहणं खटिकाऽऽदिसूचकं, त
स्पाऽऽमाथाऽऽदि दोषजनकत्वात् मृदग्रहणं चोपल तेन सुधाऽद्यपि वर्जनीयं तस्यान्त्रशाटाऽऽद्यनर्थसम्भवात् शृङ्गावे चासयेयपृथिवीकायजीवानां विराध नाऽऽद्यपि लपणमप्यसस्यपृथिवीकायाऽऽत्मकमिति सचि तं त्याज्यं प्राशुकं ग्राह्यं, प्राशुकत्वं चाग्न्यादिप्रवलशस्त्र योगेनैव, नान्यथा, तत्र पृथिवीकायजीवानामसङ्ख्येयत्वेनात्यन्तसूक्ष्मत्वात् । तथा च पञ्चमा १२ शतकदतीयोदेशके निर्दिशोऽ यमर्थः ' वज्रमय्यां शिलायां स्वल्पपृथिवीकायस्य वज्रलो एकेनैकविंशतिवारान पेपसे सत्येके केचन जीवा ये स्पृष्टा अपि नेति । ध० २ अधि० ।
मट्ठ । ।
मदु मृष्ट त्रि० । शुद्धे, श्री० मसृणे जी० ३ प्रति०४ अधि० । मसृणीकृते, सू० प्र० २० पाहु० । शा० । तैलोदकाऽऽदिना येषां शरीरं केशा वा मृष्टास्तेषु, शा० १ ० १ ० । अनु० । चं० प्र० । सूत्र० । लेपनिकाऽऽदिना समीकृते, श्राचा० २० १ चू० २ ० १ उ० । मृष्ट इव मसृणीकृत इव मृष्टः सुकुमारशाख्या पाषाणप्रतिमावत् प्रमार्जनिया शोधिते, आ० म० १ ० | श्र० । जी० । प्रशा० । रा० । जं० । स्था० । घृष्ट्वा सुकुमालीकृते, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । मडुकभेज- मृष्टकर्णेय न० चित्रितकरणा भरणे, उपा०
।
१ श्र० ।
मट्ठगंड - मृष्टगण्ड न० । मृष्टौ - मृष्टीकृतौ गण्डौ यैस्तानि । उशिखितकपोलेपु० जी०३ प्रति०४ अधि० "मट्टगंडतले" मुठे गडतले कर्णपीठके कर्णा 33भरविशेषो यस्य सः ।
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भ० १५ श० ।
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मड मृत त्रि० । जीवविमुक्ते कल्प अधि० ४ । मड - मृतक - त्रि० । “ प्रत्यादौ डः " ॥ ८ । १ । २०६ ॥ इति तस्य डः । मडओ | जीवविमुक्ते, प्रा० १ पाद । मब-मडम्बन० तृतीयगन्यूतान्तप्रमान्तररहिते या वासे, प्रज्ञा० १ पद । सर्वतो दूरवर्त्तिसन्निवेशान्तरे, भ०१ श०१ उ० जी० दशा० । “जोतरे जस्स मोडला दीि णऽत्थि तं मडंबं । ” नि० चू०५ उ० । श्र० । प्रश्न० । ग० । अर्द्धतृतीयगच्वृतान्तर्ग्रामरहितानि ग्रामपञ्चशत्युपजीव्यानि वा मडम्बानि । जं० २ वक्ष० । ग्रामैर्युक्तं मडम्बम् । सूत्र० २ ४० २ अ । यत्र प्रामाऽऽदि योजनाभ्यन्तरे सर्वदि नास्ति तन्मडम्बम् । शा० १ ० १ श्र० । स्था० । श्राचा० । मडम्बं नाम - यत्सर्वतः सर्वासु दिनु निमदतीयगव्यूतिमयांदा यामविद्यमानग्रामादिकम्। नृ० १४०२ प्रक० यस्य पार्श्वत श्रासन्नमपरं ग्रामनगराऽऽदिकं नास्ति तत्सर्वतश्छिन्नजनाSS श्रयविशेषरूपं मडम्बमुच्यते । अनु० । श्राचा० । जी० । स्था० । मडगगिह-मृतकगृह - न० । म्लेच्छानां गृहाभ्यन्तरे मृतक - परिष्ठापनस्थाने, "महहिं ग्राम मेच्छा घरम्भंतरे मयं दो जितिन जति तं मडगगिदं" नि० ० ३ ०
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मडगच्छार अभिधानराजेन्द्रः।
मडाइ मडगच्छार-मृतकक्षार-पुं० । अभिनवदग्धे पुजीकृते मृतके, | मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्धमवे निरुद्धभवपवंचे जाव नि० चू० ३ उ०।
निट्ठियकरणिजे णो पुणरवि इत्थतं हब्बमागच्छति । मडगलेण-मृतकलयन-न । मृतकस्योपरि देवकुले, “मड
हंता! गोयमा! मडाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि अस्स उवरि जे देवकुलं तं लेणं भएणति ।" नि० चू० ३ उ०।
इत्थत्तं हव्वमाच्छति, से णं भंते ! किंति वत्तव्वं सिमडगवच्च-मृतकवचम्-न०। मृतकक्वथितभागे, नि०चू०३उ०।।
या । गोयमा ! सिद्धे ति वत्तव्वं सिया, बुद्धे ति वमडम-मडभ-पुं०। कुब्जे, व्य० ३ उ० । न्यूनाधिकप्रमाणे,
त्तवं सिया, मुत्ते ति बत्तव्वं सिया, पारगए ति बत्तव्वं स्था०६ठा।
सिया, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्वुडे अंतकडे सव्वदुक्खमडभकोढ-मडभकोष्ठ-न० । वामनसंस्थाने, स्था० ६ ठा।
प्पहीणे ति वत्तन्वं सिया, सेवं भंते ! भंते ! त्ति भगवं गोमडय-मृतक-न०।मृतकदेहे,प्रा०म०१०। श्राचा०।(मृत
यमे समणं भगवं महावीरं वंदइनमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता कं मरुदेव्याः प्रथमसिद्ध इति देवैः पूजितं ततो लोकेऽपि मृ-|
संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । (सूत्र-८६) तकपूजा प्रवृत्तेत्युक्तम् 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे ११२७ पृष्ठे)।
('मडाई ण भंते ! नियंठे' इत्यादि) मृताऽदी-मासुकभोमडयचेइय-मृतकचैत्य-न० । मृतकाऽऽलये, यत्र मृतकानां |
जी, उपलक्षणत्वादेषणीयाऽदी चेति दृश्य, निर्ग्रन्थः साधुरिप्रतिमाः स्थाप्यन्ते। प्राचा०२ श्रु०२ चू० ३ अ०। त्यर्थः 'हव्वं' शीघ्रमागच्छतीति योगः। किंविधः सन?, इ. मडयथभिया-मृतकस्तूपिका-स्त्री० दग्धमृतकोपरि कृतायां | त्याह-'नो निरुद्धभवे त्ति' अनिरुद्धाऽप्रेतनजन्मा , चसचत्वेरायां स्तूपिकायाम् , अाया० २ श्रु०२चू० ३ ० । रमभवाऽप्राप्त इत्यर्थः , अयं च भवद्वयप्राप्तव्यमोक्षोऽपि मडयदाह-मृतकदाह-पुं०। श्मशानाऽदौ, यत्र मृतको दह्यते ।
स्यादित्याह-'नो निरुद्धभवपवचे त्ति' प्राप्तव्यभवविस्तार श्राचा०२ श्रु०२ खू०३ अ०।
इत्यर्थः । अयं च देवमनुष्यभवप्रपश्चापेक्षयाऽपि स्यादित्यत मडाइ-मृतादिन-त्रिका मृतं जीववियुक्तमत्तीति । शा०१ श्रु० आह- णो पहीणसंसारे त्ति' अप्रहाणचतुर्गतिग१२ १०। प्रासुकभोजिनि,भ०२ श०१ उ०। मृताऽदिनि,भ० ।
मन इत्यर्थः , यत एवमत एव 'नो पहीणसंसारवेय
यणिजे त्ति' अप्रक्षीणसंसारवेद्यकर्मा, अयं च सकृच्चमृताऽदिनिर्ग्रन्थवक्तव्यता
दुर्गतिंगमनतोऽपि स्यादित्यत पाह- नो वोच्छिन्नसंसारे मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो नि
त्ति' अत्रुटितचतुर्गतिगमनानुबन्ध इत्यर्थः, अत एव 'नो वोरुद्धभवपवंचे, णो पहीणसंसारे, णो पहीणसंसारवेय- च्छिन्नसंसारवेयणिजे ति ''नो' नैव व्यवच्छिन्नम्--- णिजे, णो वोच्छिन्नसंसारे, णो वोच्छिन्नसंसारवेय- नुबन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेधं कर्म यस्य स तथा,
अत एव ' नो निट्टियट्टे त्ति' अनिष्ठितप्रयोजनः, अत पत्र णिज्जे, नो निट्ठियऽढे, नो निट्ठियऽट्टकरणिजे, पुणरवि इ
'नो निट्टियट्टकरणिजे त्ति' नो ' नैव निष्ठितार्थानामिव स्थत्तं हव्वमागच्छति ? । हता! गोयमा ! मडाई णं
करणीयानि-कृत्यानि यस्य स तथा, यत एवंविधोऽसावत: नियंठे जाव पुणरवि इत्थत्तं हवमागच्छइ । (सूत्र-| पुनरपीति, अनादौ संसारे पूर्व प्राप्तमिदानी पुनर्विशुद्धचर८७) से णं भंते ! किं वत्तव्वं सिया १ । गोयमा ! णावाः सकाशादसम्भावनीयम् ' इत्थत्थे ति' इत्यर्थम् , पाणेति वत्तव्वं सिया, भूतेति वत्तव्वं सिया, जीवेति वत्त
एनमर्थम्--अनेकशस्तियनरनाकिनारकगतिगमनलक्षण
(इत्थत्त इति ) पाठान्तरम् , तत्रानेन प्रकारेणथं तद्भाव व्वं सिया, सत्तेति वत्तव्वं सिया, विन्नू ति वत्तव्वं सिया,
इत्थत्वम् , मनुष्याऽऽदित्वमिति भावः । अनुस्वारलोपश्च वेदेति वत्तव्वं सिया, पाणे भृए जीवे सत्ते विन्नू वेए प्राकृतत्वात् , (हब्बं ति) शीघ्रम् । (श्रागच्छद त्ति) प्राप्नोति । ति वत्तव्वं सिया । से केणऽद्वेणं भंते ! पाणेति व-- अभिधीयते च-कषायोदयात्प्रतिपतितचरणानां चारित्रवतां तवं सिया जाव वेदेति वत्तव्य सिया ? । गोयमा !
संसारसागरपरिभ्रमणम् , यदाह--" जइ उवसंतकसानो,
लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं" इति । स च संसारचक्रगतो जम्हा आणेति पाणेति वा ऊससंति वा नीससंति
मुनिजीवः प्राणाऽऽदिना नामषट्रेन कालभेदेन युगपश्च वावा तम्हा पाणेति वत्तवं सिया, जम्हा भूते भव- च्यः स्यादिति विभगिधुः प्रश्नयनाह-' से णं' इत्याति भविस्सति य तम्हा भए ति वत्तव्वं सिया । दि, तत्र सः ' निग्रन्थजीवः, किंशब्दः प्रश्ने , साजम्हा जीवे जीवइ जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजी- |
मान्यवाचित्वाच्च नपुंसकलिङ्गन निर्दिए इति, एवमन्व
र्थयुक्तयेत्यर्थः, वक्रव्यः स्यात् , प्राक़तत्वाच्च सूत्रे नपुंबइ तम्हा जीवेति वत्तव्य सिया, जम्हा सत्ते सु
सकलिङ्गताऽस्येति , अन्वर्थयुक्तशब्दैरुच्यमानः किमसो हाऽसुहेहिं कम्मेहि तम्हा सत्तेति वत्तव्यं सिया, ज- वक्तव्यः स्यात् ? , इति भावः । अत्रोत्तरम- पाणेति म्हा तितकडुयकसायअंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा वि- वत्तव्वं ' इत्यादि , नत्र प्राण इत्येतत्तं प्रति वक्तव्यं स्यात् न्न ति वत्तव्वं सिया, वेदेइ य सुहदुक्खं तम्हा वेदे
यदोच्छासाऽऽदिमत्वमात्रमाश्रित्य तस्य निर्देशः क्रियते, एवं
भवनाऽऽदिधर्मविवक्षया भूताऽऽदिशवपञ्चकवाव्यता तति बत्तवं सिया, से तेणऽद्वेणं जाव पाण ति बत्तचं
स्य कालभेदेन व्याख्यया, यदा तूच्यासाऽऽदिधमैयुगपदसौ सिया जाव वेदेति वत्तव्वं सिया। ( सूत्र-55) विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो जीवः सत्वो विशो वेदपि
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मडाइ
अभिधानराजेन्द्रः। तेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात् , अथवा-निगमनवाक्यमेवेद- जाणामो पासामो, अह कजंण कजइ ण जाणामो ण मतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति ।' जम्हा जीवे 'इ- सीमा शिया मरां ममोपाय त्यादि , यस्मात् ' जीवः ' आत्माऽसौ 'जीवति' प्राणान् धारयति ' तथा 'जीवत्यम्' उपयोगलक्षणम् श्रा
एवं वयासी-केस णं तुम मड्डुया! समणोवासगा णं युष्कं च कर्म · उपजीवति' अनुभवति तस्माज्जीव इति | भवास, जेणं तुम एयमझु ण जाणइ, ण पासइ । तए शं वक्तव्यं स्यादिति ।' जम्हा सत्ते सुभाऽसुभहिं कम्महिं' से मड्डुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-प्रसक्नः-श्रासक्तः, शक्नो वा-समर्थः , सुन्दरासुन्दरासु] त्थि णं आउसो! वाउयाए बाति।हंता मडदया ! चेष्टासु , अथवा सक्नः-संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति । अनन्तरोक्नस्यैवार्थस्य विपर्ययमाह- पारगए त्ति' पार
वाति । तुब्भे णं आउसो ! वाउयस्स वायमाणस्स रूवं गतः संसारसागरस्य भाविनि भूतवदित्युपचारादिति | पासह ? । णो इणऽढे समझे। अत्थि णं आउसो! घाण• परंपरागए त्ति ' परम्परया-मिथ्यादृष्ट (दिगुणस्था-1 सहगया पोग्गला ? । हंता अस्थि । तुम्मे णं पाउसो! नकानां मनुष्याऽऽदिसगतीनां वा पारम्पर्येण गतो भवाऽम्भो.
घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह। णो इणद्वेसमढे धिपारं प्राप्तः परम्परागतः। इहानन्तरं संयतस्य संसारतृद्धिहानी उक्ने सिद्धत्वं चेति । भ०१ श०१ उ०।
अस्थि णं आउसो ! अरणिसहगए अगणिकाए। हंता मडासय-मृताऽऽश्रय-पुं० । मृतानामाश्रयः । श्मशाने, मृत
अत्थि तुम्भेणं आउसो! अरणिसहगयस्स अगणिकाशोकस्थाने च । नि० चू० ३ उ०।।
यस्स रूवं पासह ? । णो इणढे समझे। अत्थि णं आउमाअ-मर्दित-त्रि० । “ सम्मर्द-वितर्दि-विच्छर्द-छर्दिः सो! समुदस्स पारगयाई रुवाई। हंता अस्थि । तुम्भे कपर्द-मर्दिते दस्य" ॥ ८।२।३६॥ इति दस्य डा। मडिओ। णं आउसो! समुहस्स पारगयाई रूवाइं पासह १ । यो संघृष्टे, प्रा० २ पाद।
इणद्वे समटे । अस्थि णं आउसो ! देवलोगगयाई रूमहडक-मददक-पुं०। राजगृहवास्तव्ये स्वनामख्याते भगवतो
वाई। हंता अस्थि । तुम्भे णं अाउसो! देवलोगगयाई महावीरजिनस्य श्रावके, भ०। तत्थ शं रायगिहे नयरे मड्डुए णाम समणोवासए परि
रूवाई पासह ? । णो इणद्वे समटे | एवामेव आउसो! वसइ, अड्डे जाव अपरिभूए अभिगय . जाव विहरइ ।
अहं वा तुब्भे वा अप्लो वा छउमत्थो ण जाणइ, ण पातए णं समणे भगवं महावीरे अएणया कयाइ पुवा
सइ, तं सव्वं ण भवसि, एवं भे सुबहुं लोए ण भविस्सणुपब्धि चरमाणे जाव समोसढे परिसा जाव प- तीति कट्ट ते अामउत्थिए एवं पडिहणति, एवं पडिहज्जुवासइ। तए णं मड्डुए समणोवासए इमीसे कहाए णेत्ता जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे लद्धऽढे समाणे हद्वतुढे जाव हियए एहाए • जाव तेणेव उवागच्छह , उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीर सरीरे सयाओ गिहाम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइ- पंचविहेणं अभिगमेणं अभि० जाव पज्जुवासइ । मयादि ता पायविहारचारेणं रायगिहं णयरं जाव णिग्गच्छ- समणे भगवं महावीरे मड्डुयं समणोवासयं एवं वयासीइ, णिग्गच्छइत्ता तेसिं अम्मउत्थियाणं अदरसामंते
सुटु णं मड्डया! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-साह णं वीईवयति । तए णं से अण्णउत्थिया मड्डुयं सम
णं मड्या ! तुम्हं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-जे णं मपोवासयं अदूरसामंते वीईवयमाणं पासइ , पासइत्ता
ड्डुया ! अटुं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णायं अममम्मं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं
अदि असुअं अमंतं अविरणातं बहुजणमझे आघवेइ, खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमा कहा अविउप्पकडा इमं |
पपवेइ० जाच उवदंसेइ, से णं अरिहंताणं आसादरण्याए चणं मड्डुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं वीईवय- | वट्टइ , अरिहंतपएणत्तस्स धम्मस्स आसादणयाए वट्टइ , ति , तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं मड्डुयं सम- केवली णं आसादणयाए वट्टइ, केवलिपमत्तस्स धम्मस्स णोवाससं एयमट्ठ पुच्छित्तए त्ति कडु अम्ममरणस्स अं- आसादणयाए बट्टइ , तं सुटु णं तुमं मड्डुया! ते अतियं एयमढे पुडिसुऐति, पडिसुणेत्ता जेणेव मड्डुए स
मउत्थिए एवं वयासी-साहु णं तुमं मड्डुया ! • जाव मणोवासए तेणेव उवागच्छंति , उवागच्छित्ता महइयं एवं वयासी । तए णं मड्डुए समणोवासए समणेणं भगसमणोवासगं एवं बयासी-एवं खलु मड्डुया! तव
वया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे समणे भगवं मधम्मायरिए धम्मोवदेसए णायपुत्ते पंचत्थिकाए पएण- हावीरे मड्डुयस्स समणोवासगस्स तीसे य . जाव परिवेइ-जहा सत्तमसए अएणउत्थियउद्देसए . जाव से
सा पडिगया । तए णं मड्डुए समणोबासए समणस्स कहमेयं मड्डुया ! एवं? । तए णं से महुए समणो-| भगवओ महावीरस्स . जाव णिसम्म हडतुडे पसिणाई घासए ते अण्णउत्थिए एवं बयासी-जह कजं कजइ पुन्छइ, पुच्छइत्ता अट्ठाई परियाति, परियाइत्ता उद्याए उद्वि
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( ७४) महुक अभिधानराजेन्द्रः।
मण सा समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसह जाव पडिगए मृद-धा० । मर्दने, “मृदो मल-मढ-परिहट्ट-सह-बह-मः भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह, ण पन्नाडाः "८४ । १२६ ॥ मृदुनातेरेते सप्ताऽऽदेशा भवति । मंसइ, वंदइत्ता मंसित्ता एवं वयासी-पभू णं भंते !
मृद्धातोर्मढाऽऽदेशः । मढइ । प्रा०४ पाद । मड्डुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं. जाव प-मण-मण-न० । सार्द्धशतगद्याणनिप्पन्ने मानभेदे , तं०। व्वइत्तए ? । णो इणद्वे समढे । एवं जहेव संखे तहेव अ- | “ पट्सर्षपैर्यवस्त्वेको, गुजैकावयवैत्रिभिः । रुणाभे० जाव अंतं करेहिति ।
गुजात्रयेण बल्लः स्याद् , गद्याणस्ते च षोडश ॥१॥ “एवं जहा सत्तमे सए ।" इत्यादिना यत्सूचितं तस्या
पलं च दशगद्याणै-स्तेषां सार्द्धशतैर्मणम् ।" तं० । कल्प० ऽर्थलेशो दर्श्यते-कालोदायिसेलोदायिसेवालोदायिप्रभृतिका
१ अधि०१ क्षण। नामन्ययूथिकानामेकत्र संहितानां मिथः कथासंलापः समु- मनस-न । 'मन' झाने इत्यस्य धातोरसुच्प्रत्ययान्तस्य मस्पनो, यदुत महावीरः पञ्चास्तिकायान् धर्मास्तिकायाss- नः। अन्तःकरणे, दश० १०। प्राचा० । सूत्र०। श्राव दीन् प्रहापयति । तत्र च धर्माधर्माऽऽकाशपुद्गलास्तिकाया- औ०। स्था। सङ्कल्पव्यापारवति, स्था० ३ ठा०३ उ० । नचेतनान् जीवास्तिकायं च सचेतनं तथा धर्माधर्माऽऽकाश- उत्त० । आव० । चित्तं मनो विज्ञानमिति पर्यायाः। श्रनु । जीवास्तिकायानरूपिणः पुद्गलास्तिकायं च रूपिणं प्रशाप
__ अत्र मनःकरणब्याख्यानायाऽऽहयतीति । “से कहमेयं मरणे एवं ति।" अथ कथमेतद्धर्मास्तिकायाऽऽदिवस्तु, मन्ये वितर्कार्थः, एवं सचेतनाचेतनाऽदिना
मणणं व मन्नए वाऽ-णेण मणो तेण दव्वोतं च। रूपेणादृश्यमानत्वेनासम्भवस्तस्येति हृदयम् ।"श्रवि उप्पकडे तञ्जोग्गपोग्गलमयं, भावमणो भएणए मंता ॥३५२शा त्तिा"अपिशब्दः सम्भावनार्थ उत्-प्रावल्येन प्रस्तुता प्रकटावो
'मन ज्ञाने' "मनु बोधने' वा मननम् , मन्यते वाऽनेनेति प्रकृतोत्प्रकटावा अथवा,अविद्वद्भिरजानद्भिः प्रकृता प्रस्तुता वा अविद्वत्प्रकृता । “जह कज्जं कजइ जाणामो , पासा
मनस्तेन मन उच्यते-तश्च द्रव्यतो द्रव्यमनस्तद्योग्यपुद्गमोति।"यदि तैर्द्धमास्तिकायाऽऽदिभिः कार्य स्वकीय क्रि
लमयं द्रष्टव्यम् । भावमनस्तु मन्ता जीवो भएयते । इदमु
क्रं भवति-मनो द्विविधम्-द्रव्यमनः, भावमनश्च । तत्र यते , तदा तेन कार्येण तान् जानामः पश्यामश्चावगच्छाम इत्यर्थः । धूमेनाग्निमिव ,अथ कार्य तैर्न क्रियते तदा न
यत् तद्योग्यैर्मननयोग्यैर्मनोवर्गणाभ्यो गृहीतैरनन्तैः पुद्गलै
निर्वृत्तं तद् द्रव्यमनो भएयते । यत्तु तज्जन्यं मननं चिन्तजानीमोन पश्यामश्च,अयमभिप्रायः कार्याऽदिलिङ्गद्वारेणवा
नं तद् भावमनोऽभिधीयते । इह तु तदव्यतिरिक्रत्वाद् ग्यशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, न च धर्मास्ति
मन्ता जीवो भावमनस्त्वेनोक्त इति ॥ ३५२५ ॥ विशे० । कायाऽऽदीनामस्मत्प्रतीतं किश्चित्कार्याऽऽदिलिङ्गं दृश्यत इति
श्रा० म० । श्रा० चू० । नं०।। तदभावात्तान जानीम एवं वयमिति । अथ मदुकं धर्मास्तिकायाऽऽद्यपरिचानाभ्युपगमवन्तमुपालम्भयितुं यत्ते प्राहु
तिविहे मणे परमत्ते । तं जहा-तंमणे, तयनमणे, णो स्तदाह-केस णं' इत्यादि । क एष त्वं मद्दुक ! श्रमणोपा- अमणे । तिविहे अमणे पन्नत्ते । तं जहा-णो तंसकानां मध्ये भवसि , यस्त्वमेतमर्थ श्रमणोपासकशेयं ध. मणे. णो तयन्त्रमणे, अमणे । (सूत्र-१७५) स्था०३ मास्तिकायाऽऽद्यस्तित्वलक्षणं न जानासि न पश्यसि, न कश्चिदित्यर्थः । अथैवमुपालब्धः सन्नसौ यत्तैरदृश्यमान
ठा० ३ उ०। ('वयण' शब्दे व्याख्या) त्वेन धर्मास्तिकायाऽऽद्यसम्भव इत्युक्तं, तद्विघटनेन तान् प्र
आत्मा मनः; अन्यद् वा मनः?तिहन्तुामदमाह-अस्थि णं' इत्यादि । 'घाणसहगय त्ति ।'घा- आता भंते ! मणे अहो मणे । गोयमा! णो पाता यत इति प्राणो गन्धगुणस्तेन सहगतास्तत्सहचरितास्तद्वन्तो घाणसहगताः 'अरणिसहगए त्ति । 'अरणिरग्न्यर्थ
मणे, अम्मे मणे, जहा भासा तहा मणे वि० जाव णो निर्मन्थनीयकाष्ठं,तेन सहगतो यस्स तथा। 'तं सुट्टणं मड्डु
अजीवाणं मणे । पुधि भंते ! मणे मणिज्जमाणे मया तुमं ति।' सुष्ठ त्वं हे मड्डुक! येन त्वयाऽस्तिकायान् जा- णे ? । एवं जहेव भासा पुचि भंते ! मणे भिजइ, नता न जानीम इत्युक्तमन्यथाऽजानन्नपि यदि जानीम इत्य
नाम इत्य | मणिज्जमाणे मणे भिजइ,मणसमयवीइक्कते मणे भिजइ । भणिष्यस्तदाऽर्हदादीनामाशातनाकारकोऽभविष्यस्त्वमिति । पूर्व महुकश्रमणोपासकोऽरुणाभे विमाने देवत्वेनोत्पत्स्यत
एवं जहेव भासा । कइविहे णं भंते ! मणे परमत्ते ! इत्युक्तम् । भ० १८ श० ७ उ० ।
गोयमा! चउविहे मणे परमत्ते । तं जहा—सच्चे जाव मह-मृद-धा० । मर्दने, 'मृदो मल-मढ-परिहट्ट-खड़-चढ़- असच्चामोसे । ( सूत्र-४६४) मह-पन्नाडाः" ॥८।४। १२६॥ मृदनातेरेते सप्ताऽऽदेशा (आया भंते ! मणे इत्यादि ) एतत्सूत्राणि च भाषासूभवन्ति । मृदुनाति । प्रा०४ पाद० ।
त्रपन्नेयानि । केवलामह मनोद्रव्यसमुदयो मननोपकारी ममढ-मठ-पुं०। “ठो ढः" ॥८१२१६६ ॥" स्वरात्परस्या- नःपर्याप्तिनामकर्मोदयसम्पाद्यो, भेदश्च तेषां विदलनमात्रसंयुक्तस्यानादेष्टस्य ढो भवति । इति ठस्य ढः । वतिनामा- मिति । (अनन्तरं मनो निरूपितं, तच्च काये सत्येव भवश्रये, प्रा०१ पाद।
तीति कायनिरूपणायाऽऽह-(आया भंते ! कायेत्यादि )
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( ७५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मण
आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवनात् न ह्यन्येन कृतमन्योऽनुभव त्यकृता ऽऽगमप्रसङ्गात्, अथान्यः श्रात्मनः कायः कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य सम्पूर्णत्वेनाभ्युपगमादिति प्रश्नः, उत्तरम् - त्वात्माऽऽपि कायः कथञ्चित्तदव्यतिरेकात्क्षीरनीरवत् अग्न्ययःपिण्डवत्, काञ्चनोपल द्वा अत एव कायस्पर्शे सत्यात्मनः संवेदनं भवति, श्रत एव च कायेन कृतमात्मना भवान्तरे वेद्यते ऽत्यन्तभेदे च श्रकृताऽऽगमप्रसङ्ग इति । ) भ० १३ श० ७ उ० ।
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अत्थाणंतरचारि य, नियतं चित्तं ति कालविसयं तु । अर्थ शब्दाऽऽदाविषयापारादनन्तरं वनव्याप्रियत इत्येवंशीलमधनन्तरचारिन्द्रः प्रथमं व्यावृते पचाद् म नो व्याप्रियते इति भावः। नियतं नियतार्थविषयं नेककालमने कविषयमित्यर्थः, चित्तं मनः । पुनः कथम्भूतमित्याह-त्रिकाविषयं त्रिष्वपि कालेषु यथायोग्यं विषयो यस्य तत्तथा । वृ० १ ० १ प्रक० ।
मनसोऽप्राप्यकारितागंतुं नेए मयो, संज्म जग्गओ व सिमिरो वा । सिद्धमिदं लोयम्मि वि, अमुगत्थगओ मणो मे त्ति ॥ २१३ ॥ 'मनु' देहाद् निर्गत्य शेयेन मेरुशिखरस्थजिनप्रतिमाऽऽदिना सम्बयते संश्लिष्यते मनः । कस्यामवस्थायाम् ?, इत्याहजाग्रतः, स्वमे वा । अनुभवसिद्धं चैतद् न च ममैव किन्तु सिद्धमिदं लोकेऽपि यतस्तत्राऽप्येवं वारो भवन्तिअमुत्र मे मनो गतमिति । श्रतः प्राप्यकारि मनः । इति प्रेरकगाथाऽर्थः ॥ २१३ ॥
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अषोत्तरमाहनाऽणुग्गहोवथाया भावाच्ओ लोयां व सो इहरा । तोय-जलणाइचिंतण-काले जुञ्जेज दोहिं पि ॥ १२४ ॥ नज्ञेयेन सह संपृच्यते मनः इति गम्यते कुतः १, इत्याह-अनुमाहो वपायाभावाद सि' हेपकृतानुग्रहपघाताभावात्, लोचनवत् । यदि तस्य ज्ञेयेन सह संपर्कः स्यात् तदा किं स्यात् ?, इत्याह-- ' सो इहर त्ति ' तद् मन इतरथा -शेयसंपर्क ऽभ्युपगम्यमाने तो उचलना ऽऽदिविषयचिन्तनकाले द्वाभ्यामप्यनुग्रहोपघाताभ्यां युज्यते-तोयचन्दनाऽऽदिचिन्तनकाले शैत्याऽऽद्यनुभवनेन स्पर्शनवदनुगृहाते, दहन-विष-शस्त्राऽऽदिचिन्तनसमये तु तदेवोपहत्ये तैति भाषा, न चैवम्। तस्माज्ञोचनचदप्राप्यकार्येव मनः । इति गाथाऽर्थः ॥ २९४ ॥
किञ्च - मनसः प्राप्यकारितावादिनः प्रष्टव्याः । किम् ?, इत्याह
दव्वं भावमणो वा, वएज जीवो य होइ भावमणो । देहव्वावित्त, न देहबाहिं तत्र जुत्तो ॥ २१५ ॥ इह मनस्तावद् द्विधा द्रव्यमनः भावमनधेति । अतः सूरिः परं पृच्छति - ' दव्वं ति' द्रव्यमनः, भावमनो वा, जेद्गच्छेद् मेर्वादिविषयसन्निधी' इति गम्यते । किमनेन पृथेन । इति वेत्। उभयथाऽपि दोषः । तथादि-भावमनसश्चिन्ताज्ञान परिणामरूपत्वात् तस्य च जवादव्यतिरिवाजी एवं भावमनो भवति । जीवश्चेति चकारा
मप 'तो' इत्यस्यानन्तरं संवन्धनीयः । ततोऽयमर्थः सक स व भावमनोरूपणे जीवो देदमात्रव्यापित्वाद्देहान बहिर्निःसरन् युक्तः, इह ये देहमात्रवृत्तयः, न तेषां बहिर्निःसरणमुपपद्यते, यथा तद्गतरूपाऽऽदीनाम्, देहमात्रवृत्तिश्च जीवः । इति गाथा ऽर्थः ॥ २१५ ॥
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देहमात्रव्यापित्वस्याऽसिद्धिं मन्यमानस्य परस्य मतमाशङ्कमानः सूरिराहसव्वगउति च बुद्धी, कत्ताभावाइदोसो तथ्य | सब्वासव्वग्गहण - पसंगदोसाइयो वा वि ॥ २१६ ॥ अथ स्वाद् बुद्धिः परस्य सर्वगत आत्मा न तु देहमात्र यापी अमूर्तस्वात् आकाशवदिति। अत्र गुरुराह तदेतच । कुतः ? इत्याह- भावप्रधानत्वानिर्देशस्य कर्तुत्वाभावा35दिदोषत इति - सर्वगतत्वे सत्यात्मनः कर्तृत्वाऽऽदयो गोपानाऽऽदिप्रतीता अपि धर्मा न घटेरन्निति भावः । तथाहिन कर्ताऽऽत्मा सर्वगतत्वात् आकाशवत् । श्रादिशब्दा दभोक्ता, असंसारी, अज्ञः, न सुखी, न दुःखी श्रात्मा, तत एव हेतोः, तद्वदेव, इत्याद्यपि दृष्टव्यम् । श्राह परः-नन्दामनो निष्क्रियत्वात् कर्तुत्वाऽद्यभावः साङ्ख्यानां न बाधाये कल्पते । तथा च तैरुक्तम् - " अकर्ता निर्गुणो भोSSत्मा" इत्यादि । एतदप्ययुक्तम्, तस्य निष्क्रियत्वे प्रत्यक्षाssदिप्रमाणोपलब्धभोक्तृत्वाऽऽदिक्रियाविरोधप्रसङ्गात् । महतेरेव भोगादिकक्रिया, न पुरुषस्य, आदर्शप्रतिषियो दन्यायेनेव तत्र क्रियाणामित्यादिति चेत् । तयस ङ्गतम्, तम् प्रकृतेरचेतनत्यात् । " चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् ।" इति वचनात् श्रचेतनस्य च भोगाऽऽदिक्रियाऽयोगात्, अन्यथा घटाssदीनामपि तत्प्रसङ्गादिति । न केवलं कर्तृत्वाssद्यभावतः सर्वगतत्वमात्मनो न युक्तम्, किन्तु सर्वाऽसर्वग्रहणप्रसङ्गतोऽपि च तदसङ्गतम् । वमुक्तं भवतिआत्मनः समग्रत्रिभुवनगतत्वे प्राप्यकारित्वेनाभ्युपगतस्य तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसोऽपि सर्वगतत्वात् सर्वार्थप्राप्तेः सर्वग्रहणप्रसङ्गः, तथा च सर्वस्य सर्वज्ञत्वप्रसक्तिः। अथोक्तन्यायेन प्राप्तानपि सर्वार्थानभिदितदोषभयात् न गृह्नातीत्युच्य ते । तर्हि सर्वार्थाग्रहणप्रसङ्गः प्राह्यत्वेनेष्ठानप्यर्थान् मा महीद भावमनः, प्राप्तत्वाविशेषात्, अग्राह्यत्वेनेष्टार्थवदिति भावः । अथ प्राप्तत्वाविशिष्टत्वेऽपि कांश्चिदर्थानेतद गृहात कांधि नेत्युच्यते । तर्हि व्यमीश्वरचेष्टितम् न चैतद्युशिवेिचारे क्वचिदन्युपयुज्यत इति । श्रादिशब्दात् सर्वग तत्वे आत्मनोऽन्यदपि दूषणमभ्यूह्यम् । तथाहि यथाऽङ्गुष्ठाऽऽदी दहनदाहादिवेदनायां मस्तकादिष्यप्यसामनुभूयते, तथा सर्वत्रापि तत्प्रसङ्गः न च भवति तथाऽनुभाषाभाषात्, अननुभूयमानाया अपि भावाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् । कि- सर्वगतत्वे पुरुषस्य, नानादेशगतचन्दनाना ss दिसंस्पर्शेऽनवरतसुखासिकाप्रसङ्गः वह्नि-शस्त्र - जला दि सम्बन्धे तु निरन्तरदाह – पाटन- क्लेदनाऽऽदिप्रसङ्गश्च । यत्रैव शरीरं तत्रैव सर्वमिदं भवति नान्यत्रेति चेत् । कु· तः ? इति वक्रव्यम्। श्राज्ञामात्रादेवेति चेत्। न तस्येहाविषयत्यात् । सहकारिभावेन तस्य तदपेक्षयमिति चेत् । न नित्यस्य सहकार्यपेक्षा योगात् । तथाहि अपेक्ष्यमारोन सहकारिणा तस्य कचिद विशेषः क्रियते न था। यदि गिते, स किमर्थान्तरभूतः अनर्थान्तरभूतो वा ।
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मण
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यद्याद्यः पक्षः, तर्हि तस्य न किञ्चित् कृतं स्यात् । अथापरः, सर्दि तत्करणे तदव्यतिरिकस्याऽऽत्मनोऽपि प्रसङ्गात् कृतस्य चाऽनित्यत्वात् तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गः । अथ मा भूदेष दोष इति न क्रियते इत्यभ्युपगम्यते हन्त न त िस तस्य सहकारी, विशेषाकरणात् । अथ विशेषमकुर्वपि सहकारीप्यते तर्हि सकलत्रैलोक्यस्याऽपि सहकारिताप्राप्तिः विशेषाकरणस्य तुल्यत्वात् इति वृथा शरीरमात्रापेक्षा, इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात् । तस्मारियात्रवृतिरेवात्मा सर्वगत इति । अतस्तद्यतिरिक्रस्य भावमनसो न शरीरादहिनिसरसमुपपद्यत इति स्थितम् । इति गाथा ऽर्थः ॥ २१६ ॥ अथ द्रव्यमनोविषयदेशं व्रजतीति ब्रूयात्, तत्राऽप्याहदव्वमणो विष्पाया, न होइ गंतुं च किं तत्र कुणउ ? । अह करणभावच्यो तस्स तेग जीवो बियाणेजा |२१७| काययोग सहाय जीवगृहीतचिन्ताप्रवर्तकमनोवगणाऽन्तःपातिद्रव्यसमूहाऽऽत्मकं द्रव्यमनः स्वयं विज्ञात् न भवत्येव अचेतनत्वात् उपलशफलवत् इत्यतो गत्वाऽपि मेर्वाद विषयदेशं किं तद् वराकं करोतु ?, तत्र गतादपि तस्मादर्थावगमाभावादिति भावः । पराभिप्रायमाशङ्कते - ' ग्रह करणेत्यादि ' अथ मन्यसे यद्यपि द्रव्यमनः स्वयं न किञ्चिज्जानाति, तथाऽपि करणभावः, करणत्वं तस्य द्रव्यमनसः प्रदीपाऽऽदेरिव वस्तुनि प्रकाशयितव्ये समस्ति । ततो जीवः कर्ता तेन द्रव्यमनसा करणभूतेन विजानीयादवबुध्येत मेर्वादिकं यतियति । अत्र प्रयोगः बहिर्निर्गतेन द्रव्यमनसा प्राप्य विषयं जानाति जीवः, करणत्वात्, प्रदीप-मणिचन्द्र-सूर्याssदिप्रभयेव । इति गाथाऽर्थः ॥ २१७ ॥ अत्रोत्तरमाह
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करण तसं-ठिएग जाणिज फरिसणेणं व । एनो चिप हेऊन नीह वाहिँ फरिसणं व ।। २१८ ॥ को वे न मन्यते बहुत अपरिच्छेदे कर्तव्ये आत्मनो ज्य मनःकरणम् । किन्तु करं द्विधा भवति शरीरगतमन्तःकरणम्, तद्बहिर्भूतं बाह्यकरणं च । तत्रेदं द्रव्यमनो ऽन्तःकरणमेवाऽऽत्मनः । ततश्च' करणत्तयउ त्ति' सूत्रस्य सूचामात्रत्वात्, एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वाच्चान्तःकरणत्वादित्यर्थः तनुसंस्थितेन शरीराद् बहिर्निर्गतेन जीवस्तेन जानीयाद मेदिविषयम् पर्शनेन्द्रियेणेव कमलनालाऽऽदि स्पर्शम् | प्रयोगः- यदन्तःकरणं तेन शरीरस्थेनैव विषयं जीवो गृह्णाति यथा स्पर्शनेन अन्तःकरणं च द्रव्यमनः । प्रदीप - मणि-चन्द्र-सूर्यप्रभाऽऽदिकं तु बाह्यकरणमात्मन इति साधनविकलः परोदष्टान्तः ग्रह-ननु शरीरस्थमपि तत् पद्मनालतन्तुन्यायेन बहिर्द्रव्यमनः किं न निःसरति ? इत्याह-' एतो चियेत्यादि' इत एवान्तःकरणत्वलक्षणाद्धेतोर्बहिर्न निर्गच्छति द्रव्यमनः, स्परावित प्रयोगः- यदन्तःकरणं तच्छरीराद् बहिर्न निर्गच्छति यथा साशनम् । इति गाथा ऽर्थः ॥ २९८ ॥
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( ७६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
मण
पघाताभावात् इति यः पूर्व देतुरुक्तः, तस्य परोऽसि समुद्भावयन्नाह,
नअ उपधाओ से, दोहो- रक्खयाइलिंगेहिं । जग्गहोय हरिसा - इएहि तो सो उभयधम्मो । २१६ | इह मृतनष्टाऽऽदिकं वस्तु चिन्तयतः, अत्यार्त-रौद्रध्यानप्रवृत्तस्य च ' से ' तस्य मनस उपघातो शायते ऽनुमीयते । के, इत्याह हौर्बल्योरः तताऽऽदिलिकः दौर्बल्यं देहापचयकपम्, उरःक्षतमुरोषिपातः, हृदयवाघेति यावत् | आदिशब्दा द वातप्रकोपकल्पाऽऽदिपरिग्रहः। अनुग्रहश्व यद्यस्मात्त स्येष्टसंगम - विभवलाभाऽऽदिकं वस्तु चिन्तयतो हर्षाऽऽदिभिरनुमीयते । तत्र वदनविकाश- रोमाञ्चोद्नमाऽऽदिचिह्नगम्यो मानसः प्रीतिविशेष हर्ष, आदिशब्दाददेोपचयोसहाऽऽदिग्रहः । तत् तस्मात्कारणात् तद्मनउपघाताऽनुग्रहलक्षणोभयधर्मकमेव अयमत्र भाषार्थ:-यः शोकाऽऽद्यतिशवाद देहोपचयरूपः आर्ताऽऽदिध्यानातिशवाद हो गाऽऽदिस्वरूपोपघातः यच पुत्रजन्माऽऽद्य प्राप्तिथिन्तासमुद्ध तहर्षादिरनुग्रहः, स जीवस्य भवपि नित्यमानविषयाद् मनसः किल परो मन्यते, तस्य जीवात् कथदिव्यतिरिक्यात्। ततश्चैवं मनसोऽनुग्रहोपघातात् तच्छून्यत्वलक्षणो हेतुरसिद्धः इति गाथाऽर्थः ॥ २१६ ॥ तदेतत् सर्वं परस्याऽसंबद्धभाषितमेवेति दर्शयन्नाह - जइ दव्वमणोऽतिबली, पीलिजा हिदिनिरुद्धवाउ व्व । तयग्गण हरिसा - दउ व्व नेयस्स किं तत्थ ? | २२० | यदि नाम द्रव्यमनो मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्गलसमूहरूपमतिशयबलिष्ठमिति कृत्वा शोका 55 दिसमुद्रपीडया जी कर्मापदेयाऽऽद्यापादनेन पांड
तदेवं भावमनसो द्रव्यमनसश्च बहिश्चारिताऽऽद्यभावादप्राव्यकार्येव मन इत्युक्तम् । सांप्रतं 'नायुग्गहोवद्यायाभावाश्र लोप इत्यादिना मनसोऽप्राप्यकारितायाम् अनुमो
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युवत् हृदयदेशाधितनिविडमरुन्धिवदित्यर्थः यदि तस्यैष द्रव्यमनसो मनरूपपरिष्टपुलसंघातस्वरूपस्याअनुग्रहेण जावस्य हर्षाऽऽदयो भवेयुः, तर्हि शेयस्य चिन्तनयमेवमनसोऽनुग्रहोपधानकरणे किमायातम् । इदमत्र हृदयम्-मनस्त्यपरिणतानिपुङ्गलनियरूपं द्रव्यमनोऽनिप्रचिन्ताप्रवर्तनेन जीवस्य देहवीर्ययाऽऽयापल्या. निरुद्धवायुवदुपधातं जनयति तदेव च शुभपुङ्गलपिण्डरूपं तस्याऽनुकूलचिन्ताजनकत्वेन हर्षाद्यभिनय मेषजवदनुग्रहं विधत्त इति । अतो जीवस्यैतावनुग्रहोपथाती द्रव्यमनः करोति न तु मन्यमानमेर्वादिकं ज्ञेयं म नसः किमप्युपकल्पयति । श्रतो द्रव्यमनसः सकाशादारमन एवानुग्रहोपघातसद्भावात् मनसस्तु ज्ञेयात् तनन्ध स्याऽप्यभावाद् मस्तकाऽऽघातविह्वलभूतेनेवाऽसंबद्धभाषिया पण तोरसिद्धिरुद्रामिता इति गाथा ऽर्थः ॥ २२० ॥ आह-नवलौकिकमिदं यद्-द्रव्यमनसा जीवस्य देहोपचययाऽऽदिरूपावनुग्रहोपात कियेते. तथा प्रतीतेरेवाभावात् इत्याशङ्कयाऽऽह
इवाऽशिडाऽऽहारम्भव हारे होंति बुद्धि-हाणीयो । जह तह मणसो ताओ, पोग्गलगुगड ति को दोसो । २२१ । मनु किमिद्दाऽलौकिक, यतो भवतो सोच
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मण अभिधानराजेन्द्रः।
मण गालगोपालस्य तावत्प्रतीतमिदं यदुत-नशे मनोऽभिरु-| | पश्यन्ति; अर्वाग्दाशिनस्त्वनुमानात् । तथाहि-यदन्तरेण चितो य आहारस्तस्याऽभ्यवहारे जन्तूनां शरीरस्य पु- | यद् नोपपद्यते तदर्शनात् तदस्तीति प्रतिपत्तव्यम् , यथा धिर्भवति, यस्त्वनिष्टोऽनभिमत आहारस्तस्याऽभ्यवहारे स्फोटदर्शनाद् दहनस्य दाहिका शक्तिः, नोपपद्यते चेटाs. हानिर्भवतीति । ततश्च ' जह त्ति' यथा इष्याऽनिष्ठाऽ5- निष्टपुद्रलसंघाताऽऽत्मकद्रव्यमनोव्यतिरेकेण जन्तुनामिष्टाऽहाराभ्यवहारे तत्पुगलानुभावात् पुष्टिहानी भवतः, 'तह निष्टवस्तुचिन्तने समुपलब्धौ वदनप्रसन्नता-देहदौर्बल्याऽऽच ति' तथा यदि द्रव्यमनोलक्षणात् मनसोऽपि सकाशात् नुग्रहोपधातौ , ततस्तदन्यथाऽनुपपत्तेरस्ति यथोक्तरूपं द्र"ताउ ति ' ते पुष्टिहानी पुद्गलगुणतः पुगलानुभावाद् व्यमनः । चिन्तनीयवस्तुकृतावेतौ भविष्यत इति चेत् । न, जभवतः, तर्हि को दोषः ?, न कश्चिदित्यर्थः । यथाऽऽहार
ल-ज्वलनौदनाऽऽदिचिन्तने क्लेद-दाह-बुभुक्षोपशमाऽऽदिनइष्टाऽनिष्टपुगलमयत्वात् तदनुभावाजन्तुशरीराणां पुष्टि - सङ्गादिति । “चिन्तया वत्स! ते जातं, शरीरकमिदं कृशम्" हानी जनयति, तथा द्रव्यमनोऽपि तन्मयत्वाद् यदि तेषां इत्यादिलोकोक्लेश्चिन्ताशानकृतौ ताविति चेत् । तदप्ययुते निर्वर्तयति, तदा किं सूयते, येन पुद्गलमयत्वे समाने
कम् , तस्याऽमूर्तत्वात् , अमूर्तस्य च कर्तृत्वायोगात् , ऽपि भवतोऽत्रैवाऽक्षमा ?, इति भावः । तथा चोक्तम्-" चि
आकाशवद् , इत्युक्त्वात् : “चिन्तया वत्स!" इत्यादिन्तया वत्स! ते जातं शरीरकमिदं कृशम् ।" इति । चिन्तैव
लोकोक्तिश्च कार्ये कारणशक्त्यध्यारोपणौपचारिकत्वात् । तर्हि कार्याऽऽधुपघाताऽऽदिजनिकेति चेत् । न, तस्या अपि
खेदाऽऽदेस्तदुद्भूतिरिति चेत् । कोऽयं नाम बेदाऽऽविकि द्रव्यमनःप्रभवत्वात् , अन्यथा चिन्ताया शानरूपत्वात् ,
तान्येव मनोद्रव्याणि, चिन्ताऽऽदिशानं वा । भाचपले. सिज्ञानस्य चाऽऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च नभस इवोपघाताss
असाध्यता । द्वितीयपक्षस्तु विहितोत्तर एष । नब निहेंदिहेतुत्वायोगात्, 'जमणुग्गहो-बघाया, जीवाणं पोग्गले
तुकावेतौ , सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात् , “नित्यं सत्त्वमहिंतो।' इति वक्ष्यमाणत्वाश्च । इति गाथाऽर्थः ॥ २२१ ॥
सत्त्वं घा, हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि मावा, काअथोपसंहारगर्भ प्रस्तुतार्थविषये स्वा
दाचित्कत्वसंभवः ॥१॥” इति । न च जीवाऽऽविक एषा:भिप्रायपरमार्थ दर्शयन्नाह
न्यः कोऽपि तयोर्हेतुः, तस्य सदाऽवस्थितत्वेन तत एव सनीउं आगसिउं वा, न नेयमालंबह त्ति नियमोऽयं ।
र्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात् । एवमन्यदपि सुधिया स्वबु
या समाधानमिह वाच्यम् , इत्यलमतिविस्तरेण । तस्मातम्यकया जेऽणु-ग्गहोवघाया य ते नऽस्थि ॥२२२॥
दुक्कयुक्तिसिद्धं पुद्गलमयं द्रव्यमनो मन्तुः स्वयं कुर्यादनुग्रइह न शरीराद्'निर्गन्तुं' (निर्गत्य) द्रव्यमनो मेदिकं शेयम
होषधातौ , शेयकृतौ तु तौ मनसो न स्त एव, इति न त. र्थमालम्बते गृह्णाति, नापि तच्छरीरस्थमेव ' श्रागसिउंति' प्राप्यकारि । इति गाथाऽर्थः ॥ २२३ ॥ आक्रष्टुम् (श्राकृष्य) हठात् समाकृष्याऽऽत्मनः समी
आह-ननु जाग्रदवस्थायां मा भूद मनसो विषयप्राप्तिः पमानीय क्षेयमालम्बत इति, अयं नियमोऽस्माभिर्भुजमु
स्वापावस्थायां तु भवत्वसौ, अनुभवसिद्धत्वात् , तथाहिरिक्षप्य विधीयते-प्राप्यकारीदं न भवतीति नियम्यत इति
'श्रमुत्र मेरुशिखराऽदिगतजिनाऽऽयतनाऽऽदौ मदीयं मनोतात्पर्यम् । तराणेयकया जेऽणुग्गहो-बघाय त्ति' यो च तजयकृती तच्च तज्ज्ञेयं च तज्ज्ञेयं तत्कृती, मनसोऽनु
गतम् ' इति सुप्तः स्वप्नेऽनुभूयत एव । तथा च- गंतुं नेग्रहोपघाती परीरिष्येते, तौ तस्य न स्त एवेति च निय
एण मणो, संबज्झइ जग्गो व सिमिणे वा।' इति मया प्राम्यते। इति गाथाऽर्थः ॥ २२२ ॥
गेवोक्तम् , इत्याशङ्कय स्वप्नेऽपि मनसः प्राप्यकारितामपा
कर्तुमाहकिं पुनर्न नियम्यते ?, इत्याह
सिमिणो न तहारूवो, वभिचाराओ अलायचकं व । सो पुण सयमुवघायण-मणुग्गहं वा करेज को दोसो ?। जमणुग्गहोवघाया, जीवाणं पोग्गलेहितो ।। २२३ ॥
वभिचारो य सदसण-मुवघायाणुग्गहाभावा ॥२२४।। 'से' इति प्राकृतत्वात् पुंल्लिङ्गनिर्देशः, एवं पूर्वमुत्तरत्रा
इह 'मदीयं मनोऽमुत्र गतम्' इत्यादिरूपो यः सुप्तैरुपऽपि च यथासंभव द्रष्टव्यम् । तद् द्रव्यमनः पुनः स्वयमा
लभ्यते स्वमः, स यथोपलभ्यते न तथारूप एव ' वनोपस्मना शुभाऽशुभकर्मवशत इष्टाऽनिष्टपुद्गलसंघातघटितत्वा
लब्धमोदकस्तथाविधपरमाऽऽचार्यैरिव परैर्न सत्य एव मन्तदनुग्रहोपधातौ मन्तुः कुर्यात् , को दोषः ?-न वयं तत्र
व्य इत्यर्थः । कुतः ? , इत्याह-व्यभिचारात्-अन्यथावदनिषेद्वारः, शेयकृतयोरेव तस्य तयोरस्माभिर्निषिध्यमान
र्शनात् । किंवद्-यथा न सत्यम् ? ; इत्याह-अलातचक्रत्वादिति भावः । जीवस्याऽपि तौ द्रव्यमनःकृतौ किमिति
मिव-अलातमुल्मुकं तवृत्ताऽऽकारतया अाशु भ्रम्यमाणं न निषिध्येते ? , इत्याह-' जमणुग्गहो इत्यादि' यद्य
भ्रान्तिवशादचक्रमपि चक्रतया प्रतिभासमानं यथा न सस्मात्कारणादनुग्रहोपघाती जीवानां पुद्गलेभ्य इति यु
त्यम् , अचक्ररूपताया एव तत्राऽवितथत्वात् , भ्रमणोनमेव, इटानिएशब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शोपभोगाss- परमे स्वभावस्थस्य तथैव दर्शनात् ; एवं स्वमोऽपि न सदिषु तथादर्शनेनाऽस्याऽर्थस्य निषेद्धमशक्यत्वादित्यर्थः । त्या, तदुपलब्धस्य मनोमेरुगमनाऽऽदिकस्याऽर्थस्या ऽसत्यश्राह-ननु शब्दाऽऽदय इष्टाऽनिष्टपुद्गलाऽऽत्मका इति त्वात् । तदसत्यत्वं च प्रबुद्धस्य स्वनोपरमे तदभावात् । तदप्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणसिद्धत्वात् प्रतीमः, द्रव्यमनस्तु यदिदं कि- भावश्च तदवस्थायां देहस्थस्यैव मनसोऽनुभूयमानत्वादिति । मपि भवद्भिरुघुष्यते तदिष्टाऽनिएपुद्गलमयमस्तीति कथं आह-ननु स्वप्नावस्थायां मेर्वादौ गत्वा जानदवस्थायां निवृत्तं श्रद्दध्मः ? इति । अत्रोच्यते-यागिनस्तावदिदं प्रत्यक्षत एव | तप भविष्यति, इति व्यभिचागत् इत्यसिद्धो हेतुः : रत्याश
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अभिधानराजेन्द्रः। धाऽऽह-वभिचारो येत्यादि' यो मया व्यभिचारो हेतुत्वे- किरियाफलं तु तित्ती-मदवहबंधाऽऽदमो नत्थि ।२२७१ नोक्तः,सचेत्थं सिद्धः । कथम्?, इत्याह-'सदसणमिति विभक्ति- स्वप्ने सुखानुभवाऽऽविविषयं विज्ञानं स्वप्नविज्ञान तस्माव्यत्ययात् स्वदर्शनादित्यर्थः , स्वस्याऽऽत्मनो मेवादिस्थितः |
दुत्पद्यमाना हर्ष-विषादाऽऽदयो न विरुध्यन्ते-मतान् वयं जिनगृहाऽऽदिगतस्य दर्शनं स्वदर्शनं तस्मादिति, एतदुकं
निवारयामः जाग्रदवस्थाविज्ञानहर्षाऽऽदिवत्,तथाहि-श्यभवति-यथा कदाचदात्मीयं मनः स्वप्ने मेवीदौ गतं क
न्ते जाग्रदवस्थायां केचित् स्वमुत्पेक्षितसुखानुभवादिज्ञानाद् श्चित् पश्यति , तथा कोऽपि शरीरमात्मानमपि नन्दन
हृष्यन्तः, द्विषन्तो वा । ततश्च रहस्य निषेजुमशक्यत्वात् तरुकुसुमावचयाऽऽदि कुर्वन्तं तद्गतं पश्यति, न च तत् त
स्वप्नविज्ञानादपि नैतनिषेधं घूमः । तर्हि किमुच्यते भवथैव , इहस्थितैः सुप्तस्य तस्याऽत्रैव दर्शनात् , द्वयोश्चाss.
द्भिः?, इत्याह-'किरियेत्यादि' क्रिया भोजनाऽऽदिका तमनोरसम्भवात् , कुसुमपरिमलाऽऽद्यध्वजनितपरिश्रमाऽऽधनुग्रहोपघाताभावाच्च । इति गाथाऽर्थः ॥ २२४ ॥
स्याः फलं तृप्त्यादिकं तत् पुनः स्वप्नविज्ञानाद् नास्त्येव,
इति ब्रूमः । तदेव क्रियाफलं दर्शयति- तित्तीत्यादि' तत्र एतदेव भावयन्नाहइह पासुत्तो पेच्छइ, सदेहमवत्थ न य तो तत्थ ।
तृप्तिबुभुक्षाऽऽधुपरमलक्षणा, मदः सुरापानाऽऽदिजनितवि
क्रियारूपः, वधः शिरश्छेदाऽऽदिसमुदतपीडास्वरूपः, बन्धो न य तग्गयोवधाया-गुग्गहरूवं विबुद्धस्स ॥२२५ ॥
निगडाऽऽदिनियन्त्रणस्वभावः, श्रादिशब्दाजलज्वलनाssइह जगति प्रसुप्तः कश्चित् स्वदेहमन्यत्र नन्दनवनाऽऽदौ दिप्रवेशात् क्लेददाहाऽऽदिपरिग्रहः। यदि घेतत् तृप्स्यादिकं गतं स्वपने पश्यति । न च तकोऽसौ देहस्तत्र नन्दनवना- भोजनाऽऽदिक्रियाफलं स्वप्नविज्ञानाद् भवेत् तदा विषयऽऽदावुपपद्यते, इहस्थितैरन्यैस्तस्याऽत्रैवोपलम्भात् , इत्याद्य- प्राप्तिरूपा प्राप्यकारिता मनसो युज्येत, न चैतदस्ति, तथोनन्तरोक्लयुक्तः । न च विबुद्धस्य सतस्तगतयोरन्यत्र ग- पलम्भस्यैवाभावात् । इति गाथाऽऽर्थः ॥ २२७ ॥ मनगतयोरन्यत्र गमनविषयोरनुग्रहोपघातयो रूपं कुसुमप- अथ स्वप्नानुभूतक्रियाफलं जाग्दवस्थायामपि परो रिमल-मार्गपरिश्रमाऽऽदिकं स्वरूपमुपलभ्यते। तस्मात् स्वा.
दर्शयन्नाहपावस्थायामपि नाऽन्यत्र मनसो गमनम् , देहगमनदर्शनेन सिमिणे विसुरयसंगम-किरियासंजणियवंजणविसग्गो। व्यभिचारात् । इति गाथाऽर्थः ।। २२५ ॥
पडिबुद्धस्स वि कस्सइ,दीसइ सिमिणाणुभूयफलं ।२२८॥ अत्र विबुद्धस्य सतस्तद्गतानुग्रहोपघातानुपलम्भादित्य
स्वप्नेऽपि सुरतार्थायाऽसौ कामिनः कामिनीजनेन, कामिस्य हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थ परः प्राऽऽह
न्या वा कामिजनेन सह सङ्गमक्रिया तत्संजनितो व्यजनदीसति कासइ फुड, हरिसविसादाऽऽदयो विबुद्धस्स ।
स्य-शुक्रपुदलसंघातस्य विसर्गो निसर्गः स्वमानुभूतसुरतससिमिणाणुभूयसुखदु-क्खरागदोसाइलिंगाई ।। २२६ ॥ गमक्रियाफलरूपः प्रतिबुद्धस्यापि कस्यचित् प्रत्यक्ष एव हदह कस्याचित् पुरुषस्य स्वमोपलम्भानन्तरं विबुद्धस्य श्यते, तदर्शनाश्च स्वप्ने योषित्सामक्रियाऽनुमीयते, तथाहि सतः स्फुट व्यक्तं दृश्यन्ते हर्षविषादाऽऽदयः, आदिशब्दा
यत्र व्यञ्जनविसर्गस्तत्र योषित्सङ्गमेनापि भवितव्यम् , यथा दुन्माद-माध्यस्थ्याऽऽदिपरिग्रहः । कथंभूता ये हर्ष-विषा-| वासभवनाऽऽदौ, तथा च स्वप्ने, ततोऽत्रापि योषित्प्राप्त्या दाऽऽदयः ? इत्याह-'सिमिणेत्यादि' स्वप्ने जिनस्नात्रदर्श- भवितव्यम् । इति कथं न प्राप्तकारिता मनसः?, इति भावः इति नाऽऽदी यदनुभूतं सुखं, समीहितार्थाऽलाभादौ यदनुभूतं
गाथाऽर्थः ॥ २२८॥ दुःख, तयोर्विषये यथासंख्यं यौ राग-द्वेषौ तयोर्लिङ्गानि
अथ योषित्सङ्गमे साध्ये व्यञ्जनविसर्गहेतोरनैकाचिह्नानि हर्षः-स्वप्रानुभूतसुखं रागस्य लिङ्ग , विषादस्तु त
न्तिकतामुपदर्शयन्नाह
सो अझवसाणको, जागरगोवि जह तिव्बमोहस्स। दनुभूतदुःखद्वेषस्य लिङ्गमिति भावः।
तिव्वज्झवसाणाओ, होइ विसग्गो तहा सुमिणे ।२२६। "स्वप्ने दृष्टो मयाऽद्य त्रिभुवनमहितः पार्श्वनाथः शिशुत्वे, | स्वप्ने योऽसौ व्यञ्जनविसर्गः स तत्प्राप्तिमन्तरेणाऽपि तां द्वात्रिंशद्भिः सुरेन्द्ररहमहमिकया स्नाप्यमानः सुमेरौ।। कामिनीमहं परिषजामि इत्यादिस्वमत्युत्मेक्षिततावाध्यवसातस्माद् मत्तोऽपि धन्यं नयनयुगमिद येन साक्षात् स दृष्टो, यकृतो वेदितव्यः । कस्येव ?, इत्याह-जाग्रतोऽपि तीवमोहद्रष्टव्यो यो महीयान् परिहरति भयं देहिनां संस्मृतोऽपि ॥१॥” |
स्य प्रबलवेदोदययुक्तस्य कामिनी स्मरतश्चिन्तयतो रढं ध्याइत्यादिकः स्वप्नानुभूतसुखरागलिङ्गं हर्षः ।
यतः प्रत्यक्षामिव पश्यतो बुद्धया परिषजतः परिभुक्तामिव तथा"प्राकारत्रयदुङ्गतोरणमणिप्रेत्प्रभाव्याहता
मन्यमानस्य यत् तीव्राध्यवसानं तस्माद् यथा व्यञ्जनविसनष्टाः क्वापि रवेः करा द्रततरं यस्यां प्रचण्डा अपि ।
गों भवति, तथा स्वप्नेऽपि नितम्बिन प्राप्तिमन्तरेणाऽपि स्व. तां त्रैलोक्यगुरोः सुरेश्वरवतीमास्थानिकामेदिनी,
यमुत्प्रेक्षिततीव्राध्यवसानादसौ मन्तव्यः, अन्यथा तत्क्षण ए. हा! यावत् प्रविशामि तावदधमा निद्रा क्षयं मे गता ॥१॥"
व प्रबुद्धः सन्निहितां प्रियतमामुपलभेत् , तत्कृतानि च स्वइत्यादिकः स्वप्नानुभूतदुःखद्वेषलिङ्ग विषादः, अत्यन्तकामो
प्नोपलब्धानि नख-दन्त-पदाऽऽदीनि पश्येत् , न चैवम् । द्रेकाऽऽदिलिङ्गमुन्मादः, मुनेस्तु माध्यस्थ्यम् , इति "विबु
तस्मादनकान्तिकता हेतोः । इति गाथाऽर्थः ॥ २२६ ॥ सस्याऽनुग्रहोपघातानुपलम्भात्" इत्यसिद्धी हेतुः। इति गा थाऽर्थः ॥ २२६ ॥
सुरयपडिवत्तिरइसुह-गब्भाहाणाइ इंहरहा होज्जा । - अत्रोत्तरमाह
सुमिणसमागमजुवइए,न य जो ताइँ तो विफला।२३०॥ न सिमिणविपणाणाश्रो, हरिसविसायादयो निरुज्झति।। इतरथा स्वजे सुरतकिपमा योऽसौ प्यानविर्गः स यदि
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( 36 ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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योषित्प्राप्यव्यभिचारी स्यात्, तदा सुरतोपभुक्तयुवतेरपि 'सुरतक्रिया मुकेन सह मयाऽनुभूता' इत्येवंरूपा सुरतप्रतिपत्तिः स्यात् तथा रतिधाना 55दिकं चभवेत् दिशदादरवृद्धि दोहद पुत्रजन्माऽऽदिपरिग्रहः । पतच नेतानि तस्याः समुपलभ्यन्ते, अतो विफलैव सा स्वसुरतिक्रिया, विशिष्टस्य परिभुक्लकामिनीगर्भाऽऽधानाऽऽदि फलस्याभावात् इदमुकं भवति न रुपमे योषित्यतिपूर्विका विशिष्टा सुरतक्रिया, नापि विशिष्टं गर्भाधानादिकं तरफ लं. या तु तवेदोदयाऽऽविर्भूताऽध्यवसायमात्रकृता निधुव नक्रिया खानावसर्गमात्ररूपेव फलेन फलवती न वि शिन इति तदपेक्षया सा विफला' इत्युच्यते । अतो य चोक्कविशिष्टफलाभावात् फलमात्राद योषित्प्राप्यसिद्धे प्राप्यकारिता मनस इतिभावः । इति गाथाऽर्थः ॥ २३० ॥ पुनरप्याह परः
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सिमिच्यो वि कोई, सच्चफलो फलइ जो जहा दिट्ठो । ननु सिमिम्मि निसिद्धं, किरिया किरियाफलाई च। २३१| ननु स्वप्नोऽपि कश्चित् सत्यं फलं यस्याऽसौ सत्यफलो दृश्यते । कः ?, इत्याह-यो यथा येन प्रकारेण राज्यलाभाऽऽदिना दस्तेनैव फलति परयाऽऽदिफलदायको भवतीत्वर्थ:, तत् किमिति स्वप्नोपलब्धे मनसो मेरुगमनाऽऽदि कं सत्यतया नेष्यते ?, इति भावः । श्रत्रोत्तरमाह - नन्वित्यादि, 'नन्वयुक्तोपालम्भोऽयम्, सर्वथा स्वप्नसत्यत्वस्याऽस्मामिनिषिध्यमानत्वात् तर्हि कि निषिध्यते इत्याहस्वप्ने क्रिया मेरुमनाऽऽदिका अध्यक्षमकुसुमपरिमला55दीनि क्रियाफलानि च इत्येतद् द्वयमस्माभिः प्रागुक्तयु क्रेः सत्यतया निषिद्धम् । इति गाथाऽर्थः ॥ २३९ ॥
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तर्हि किं तत् यत् स्वप्ने भवद्भिर्न निषिध्यते १, इत्याहजं पुण विणा त - फलं च सिमिणे विबुद्धमेत्तस्स । सिमिखयनिमित्तभावं फलं च तं को निवारेह १ ।। २३२ || यत्पुनः स्वप्ने जिनस्नात्र दर्शनाऽऽदिकं विज्ञानं यच्च स्वविमात्रस्य व हर्षादिकं तत्फलं तदनुभवाऽऽदिसिइत्याको निवारयति १ तथा यो भविष्यत्फलापेक्षा स्वप्नस्य निमित्तभावः स्वप्ननिमित्तभावस्तं च को वा नियारयति यच्च तस्मात् स्वप्रनिमित्तादवश्यंभावि मविष्यत्फलं तदपि को निवारयति । यदेव हि मेरुगमनक्रियाssदिकं युक्त्या नोपपद्यते तदेव निषिद्यते, न त्वेतानिविज्ञानादीनि युयुपपन्नत्वात् न चैतेरभ्युपगतैरपि मनसः प्राप्यकारिता काचित् सिध्यतीति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ २३२ ॥
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किमिति पुनः स्वप्नस्य निमित्तभावो न निवार्यते ? इ
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त्याशङ्कयाऽऽह
देहरफुरणं सहसो इयं च सिमिगो व काइयाईणि ।
सगाई निमित्ताई सुभाशुभफलं निवेति ।। २३३ ।। स्वस्मिन्नात्मनि गतानि स्थितानि स्वगतानि निमित्तानि, एतानि शास्त्रे, लोकेऽपि च प्रसिद्धानि भविष्यच्छुभाशुभफल निवेदयन्ति । कानि पुनस्तानि ? इत्याह-काविकम् प्रतिदाद वाचिकम मानसं च । एतान्येवक्रमेण दर्शयति-कायिकं वाद्वाद देrस्कुरणं भविष्यच्छु
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भाशुभफलं निवेदयति पाचिकं तु सहसोदितं सहसा - कस्मादेवोदित सहस्रोदितं सहसैव तत् किमपि वदत
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गच्छति यत्, भविष्यच्छुभा- ऽशुभफलमावेदयति, मानसं तु निमित्तं स्वप्ने, इत्येतानि को निवारयति ? लोक- शास्त्रप्रसिद्धस्य युक्त्युपपन्नस्य च निषेतुमशक्यत्वात् । इति गाथाऽर्थः ॥ २३३ ॥
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ग्रह ननु स्त्यानविनिद्रोदये वर्तमानस्य द्विरददन्तोत्पा earss विप्रवृत्तस्य स्वप्ने मनसः प्राप्यकारिता तत्पूर्वको व्यअनावग्रहश्च सिद्धयति । तथाहि स तस्यामवस्थायां द्विरदन्तोत्पाटनादिकं सर्वमिदमहं स्वप्ने पश्यामि इति म म्यते इत्यस्वनः मनोविकल्पपूर्तिकां च दशनाऽऽद्युत्पादनक्रियामसी करोति । इति मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वकथ मनसो व्यञ्जनायो भवत्येव इत्याशङ्कयाऽऽह सिमिखमिव मनमाण स्स धीसगिद्धिस्स वंजखोग्गहया । होज व न उ सा महसो, सा खलु सोइंदियाई ॥ २३४॥
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'होज व ' इत्यत्र वाशब्दः पुनरर्थे तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः कार्यः । तद्यथा - अनन्तरोक्तयुक्तिभ्यः स्वनास्वायामपि विषषायभावाद् मनसो व्यञ्जनायो नास्ति, स्त्यानगृद्धेः पुनः स्त्यानगृद्धिनिद्रोदये पुनर्वर्तमानस्य जन्तोरित्यर्थः, मांसभक्षण - दशनोत्पाटना ऽऽ विकुर्वतो गाढनिद्रोदयवशीभूतत्वेन स्वनमिव मन्यमानस्य भवेद् व्यञ्जनावग्रहता - स्याद् व्यञ्जनावग्रह इत्यर्थः न वयं तत्र निषेद्धारः । सिद्धं तर्हि परस्य समीहितम् । सिध्येत्, यदि सा व्यनावग्रहता मनसो भवेत् न पुनः सा तस्य । कस्य तर्हि सा ?, इत्याह-सा खलु प्राप्यकारिणां श्रोत्राऽऽदीन्द्रियाणां श्रवण-रसन-प्राण-स्पर्शनानामित्यर्थः इदमुकं भवति - स्त्यानसिंनिद्रोदये प्रेक्षणकरङ्गभूम्यादी गीताऽऽदिकं यतः धोत्रेन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहो भवति कर्पूराssदिकं जिघ्रतो घ्राणेन्द्रियस्य, श्रामिष- मोदकाऽऽदिकं भक्षयतो रसनेन्द्रियस्य. कामिनीतलता 55दि स्पृशतः स्पर्शेनेन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहः संपद्यते । न तु नयन- मनसोः, वह्निक्षुरिकाऽऽदिविषयकृतदाह-पाटनाऽऽदिप्रसङ्गेन तयोर्विषयप्राप्त्यभावात्, तामन्तरेण च व्यञ्जनावग्रहासम्भवादिति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ २३४ ॥
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आह- ननु स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये स्वप्नमिव मन्यमानः किं कोउपि काति करोति येन तत्करणे व्यञ्जनावह स्पात् इत्याशक्य स्त्यानर्विनिद्रोदयोदाहरणान्याह - पोग्गलमोयगदन्ते, फरुसगवडसालभंजणे चैव । श्रीद्वियस्स एए, आहरणा होंति नायव्वा ।। २३५ ॥ स्त्यानििनद्रोदयवर्तिन एतानि पोइला न्युदाहरणान ज्ञातव्यानि भवन्ति । तद्यथा 'पोग्गलेत्यादि । तत्र समयपरिभाषया पौङ्गलं मांसमुच्यते तदुदाहरणं यथा - एकस्मिन् ग्रामे कुटुम्बिकः कोऽप्यासीत् स च मांस आमानि पक्वानि, तलितानि, केवलानि, तीमनाऽऽदिमध्यप्रक्षिप्तानि च मांसानि भक्षयति । अन्यदा च गुणातिशायिभिः स्वविरैः केचित् प्रतिबोधितो दचकणीकृतवान् । तेन व ग्रामाऽनुग्रामं विहरता कदाचित् क्वचित् प्रदेशे मांसलुब्धैः कैश्चिद् विकृत्यमानो महिषः समीक्षाञ्चके । तं
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व संवीक्ष्य तदामिषभक्षणे तस्याऽप्यभिलाषः समजायत । स चाऽभिलाषोऽस्य भुञ्जानस्य विचारभूमिं गतस्य चरमां सूत्रपौरुषीं, प्रतिक्रमणक्रियां, प्रादोषिकपौरुषी च कुर्वतो न निवृत्तः, किं बहुना ? तदभिलाषवयैव प्रसुप्तोऽसौ । ततः त्याननिय जातः । तदुदये चोत्थाय प्रामाद् बहिर्मदिपमण्डलमध्ये मत्याऽन्यं महिषमेकं विनिहत्य तदामिष भक्षितवाद। रितशेषं च समानीयोपायोरिया प्रसुप्तः समुत्थितब्ध प्रत्युपसि समवेत्थंभूतः स्वमोर इत्येवं गुर्वन्तिक श्रालोचयामास । साधुभिश्चोपाश्रयोपरि तदामिषमदृश्यत । ततः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो ऽस्याऽस्ति हतिज्ञातम्। तथा च सहेन लिक्रमपहत्य विसर्जितोऽसी ॥ इति स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये प्रथममुदाहरणमिति ॥ १ ॥ श्रथ द्वितीर्थ मोदकोदाहरणमुच्यते यथा पकः कोऽपि साधुर्भिक्षां प र्यटन कचिद् गृहे पटलका दिव्यवस्थापितानतिप्रचुरान सुर मिस्निग्धमधुरमनोशान मोदकान्द्राक्षीत् । तेन चाप्यस्थितेन ते सुचिरमुङ्गीक्षिताः । न च किमपि तन्मध्यालब्धम् । ततः सोऽप्यविच्छिन्नतदभिलाष एव सुष्वाप । स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये च रजन्यां गत्वा स्फोटयित्वा कपाटानि, मोदकाम स्वेच्या भक्षयित्वा उद्वरितांस्तु पतद्ग्रहके विपाश्रयमागत्य पतद्ग्रहकं स्थाने मुक्त्वा प्रसुप्तः । उत्थितेन च तवालोचितं गुरूणाम्। ततः प्रत्युपेक्षसासमये भाजना55दिप्रत्युपेक्षमाणेन साधुना पतद्ग्रहके रास्ते मोदकाः । त तो गुर्वादिभितोऽस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयः। तथैव च सन लिपारादिन्याऽयमपि विसर्जितः ॥ २ ॥ दन्तोदाहर
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तृतीयमुच्यते, यथा- एकः साधुर्विया द्विरदेन खेदित क यमपि पलायोपाधयमागतः। तं च दन्तिनं प्रत्यविि कोप एव निशि प्रसुप्तः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदय जातः, तदु दये च वज्रऋषभनाराचसंहननवतः केशवार्धबलसंपन्नता समये निगद्यते । श्रतो नगरकपाटानि भङ्क्त्वा मध्ये ग त्वा तं हस्तिनं व्यापाद्य दन्तद्वयमुत्पाट्य खोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा सुप्तः प्रयुजेन च खप्नोऽयम् इत्यालोच तम् ददर्श च ज्ञातः स्त्यानविनिद्रोदयः । तथैव च लिकं होत्या संघेन विसर्जितः ॥ ३ ॥ फरसग' शब्देन स मयप्रसिद्ध कुम्भकारोऽभिधीयते तदुदाहरणं चतुर्थमु यते- एकः कुम्भकारो महति गच्छे प्रवजितः । अन्यदा व सुप्तस्याऽस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो जातः । ततोऽसौ पूर्व यथावृतिकापि दानवोटयत् तथा तदभ्यासादेव साधूनां शिरांसि त्रोटयित्वा कबन्धैः सहवैकान्ते उज्झाञ्चकार । ततः शेषाः केचन साधवोऽपसृताः । प्रभाते च ज्ञातं सम्यगेव सर्व शितम् । सहेन तथैव विसर्जितः ॥ ४ ॥ अथ पटशासाभन्जनोदाहरणं पञ्चममुच्यते, यथा-कोऽपि साधुर्ब्रामान्तराट् गोचरथयां विधाय प्रतिनिवृत्तः स चणाभिहतो भृतभाजनस्तुषितो बुभुक्तिदायार्थी मार्गस्थो वटवृक्षस्याऽधस्तादागच्छन्नतिनीचैर्बर्तिन्या तचाखया मस्तके पाहता, गाढं च परितापितः, अन्यचच्छि प्रकोप प्रसुतः । स्यानविनिद्रोदये रात्री त्या पशाखां भन्योषाश्रयद्वारे सिल्वा पुनः प्रसुप्तः खप्नो दृष्टः इत्यालोचिते त्यानये हाते सिङ्गापनयनतः संपेन विसर्जित इति ॥ ५ ॥ एतान्युदाहरणानि विशेषतो । निशीथादवसेयानि । इति गाथाऽर्थः ॥ २३५ ।।
(50 अभिधानराजेन्द्रः ।
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तदेवं ' गंतुं नेपण मणो, संबज्झर जग्गनो व सिमिले वा इत्यादि पूर्वपक्षगाथायाः प्रथमार्धमपाकृतम् । सांप्रतं 'सिसमयं लोयमिवि अमुत्थगो मणो मे सि । एतदुसराईमपाकुर्वन्नाह -
जह देहत्थे च जे पड़ चंदं गये ति न य सर्व रूढं मणसो वि तहा, न य रूदी सचिया सब्वा ॥ २३६ ॥ यथा देहस्थं देहादनिर्गतमपि चतुः 'चन्द्रं गतम्' इति जल्पति लोकः, न च तत् सत्यम्, पक्षपो हत्यादिदर्शनेन तत्कृतदादाऽसकान् तथा तेनैव प्रकारेण मनसोऽपि निर्निबन्धनं रुद्रमिदं बहुत अमुर्त मे मनः इति रूढिरपि सत्या भविष्यति, इत्याह न च रूढिः सर्वाऽपि सत्या, "वटे वटे वैश्रवण-धत्वरे चत्वरे शिवः । पर्वते पर्वते रामः सर्वगो गधुसूदनः ॥ १ ॥ " इत्यादिकाया सत्याया श्रपि दर्शनात् । इति गाथाऽर्थः ॥ २३६ ॥ तदेवं विषय निषिद्धायां मनसोऽसद्ब्रहमन् परः प्रकारान्तरेणाऽपि तस्य व्यञ्जनावग्रहं प्रतिपादयन्नाहविसयम संपत्तस्स वि, संविज वंजणोग्गहो मणसो । जमसंखे असमओ, उपभोगो जं च सब्बे ।। २३७ ।। समएस मणोदव्वा -३ गिरहए वंजणं च दव्वाई । भवियं संबंधो वा तेरा तवं जुन मासो ।। २२८ ॥ विषयं मेरुशिखराऽऽदिकै, जलाऽनलाऽऽदिकं वा, श्रसंप्राप्तस्यापि श्रप्राप्य गृहतोऽपीत्यर्थः । किम् ? इत्याह-संविद्यते युज्यते व्यञ्जनावग्रहो मनसः । कुतः ?, इत्याह-' जमसंखेजसमो उवनोगो' यद् यस्मात् कारणात् " व्ययमानो न जानाति " इत्यादिवचनात् सर्वोऽपि एनस्थोप योगो ऽस्येयैः समयेर्निर्दिष्टः सिद्धान्ते न त्वेक-इयादिभिः ससु समयेसु मोदवाई मिरर ति । यस्माच्च तेषूपयोगसम्बन्धिष्वसङ्ख्येयेषु सर्वेष्वपि प्रत्येकमनन्तानि मनोद्रव्याणि मनोवर्गणाभ्यो गृह्णाति जीवः: इम्याणि च तत्सम्बन्धो वा प्राय भवद्भिः व्यञ्जनमु
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क्रम्,
तेन कारणेन तत् तादृशं द्रव्यं, तत्सम्बन्धो वा व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह इति हृदयम् युज्यते घटते मनसः । यथा हि ओषाऽऽदीन्द्रियेासवान समयान् यावद् - माणानि शब्दाऽऽदिपरिणतद्रव्याणि, तत्सम्बन्धो वा व्यज्जनावग्रहः, तथाऽत्राऽन्यसङ्ख्येयसमयान् यावद् गृहमाखानां मनोद्रव्याणां तत्सम्बन्धस्य वा किमिति पक्षपात परित्यज्य मध्यस्थैर्भूत्वाऽसौ नेष्यते ?, इति किल परस्याऽभिप्रायः । इति गाथाऽर्थः ॥ २३७ ॥ २३८ ॥ तदेयं विषयासंप्राप्तावपि भगवन्तरेस मनसो व्यञ्जनावग्रह फिल परेण समर्थितः । साम्प्रतं पयसाप्त्याऽपि तस्य तं समर्थयन्नाह - देहादणिग्गयस्स वि, सकायहिययाइयं विचिंतयओ । नेयस्स वि संबंध, वंजणमेवं पि से जुतं । २३६ ।। देहाच्छरीरादनिर्गतस्थाऽपि मेर्वाद्यर्थमगतस्याऽपि स्वस्थानस्थितस्यापीत्यर्थः स्वकाये, स्वकावस्य पादादिक. मतीसहितत्वादनिबद्धं विचिन्तयतो मनसो यो सी ज्ञेयेन स्वकापस्थितहृदयाऽऽदिना संबन्धस्तत्प्रामलक्षण
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मण अभिधानराजेन्द्रः।
मण स्मिन्नपि शेयसंवन्धे, न केवलं' विसयमसंपत्तस्स वि सं- अत्र प्रयोगः-इह यस्य शेयसंबन्धे सत्यप्यनुपलब्धिकालो ना विज्जइ' इत्याद्यनन्तरसमर्थितन्यायेन , इत्यपिशब्दार्थः । स्ति न तस्य व्यञ्जनावग्रहो दृष्टः,यथा चक्षुषः नास्ति चार्थकिम् ?, इत्याह व्यञ्जन व्यञ्जनावग्रहः ‘से' तस्य मनसो | संवन्धे सत्यनुपलब्धिकालो मनसः, तस्माद् न तस्य व्यञ्जयुक्तं घटमानकम् , एवमप्यनयाऽपि प्राप्यकारित्वभङ्ग्या ।। नावग्रहः, यत्र स्वयमभ्युपगम्यते न तस्य शेयसंबन्धे सत्यनु इति गाथाऽर्थः ॥ २३६ ॥
पलब्धिकालासंभवः, यथा श्रोत्रस्यति व्यतिरेकः । त. तदेवं प्रकारद्वयन मनसः परेण व्यञ्जनावग्रहे समर्थिते,
देवं परोक्लपक्षद्वयेऽपि मनसो व्यजनावग्रहं निराकृत्योपसंआचार्यः प्रथमपक्ष तावत् प्रतिविधानमाह
हरति-'न बंजणं तम्ह त्ति' तस्मादुक्कप्रकारेण मनसो नव्य. गिज्झस्स बंजणाणं, जं गहणं बंजणोग्गहो स मश्रो । जनावग्रहसंभवः । इति गाथाऽर्थः ॥ २४१ ॥ गहणं मणो न गिज्झ, को भागो वंजणे तस्स ॥२४॥ कस्माद न मनसो व्यञ्जनावग्रह इत्याशयाऽत्रार्थे विशेषइह-'विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जइ' इत्यादि यत्परेणो
वतीमुपपत्तिमाहक्लम् , तद् निजाऽसत्पक्ष-परकीयसत्पक्षविषयप्रसर्पन्महा
समए समए गिराहइ, दवाई जेण मुणइ य तमत्थं । गग-द्वेषग्रहग्रस्तचेतोविहुलतासूचकमेवावगन्तव्यम् , अ
जं चिंदिओपओगे, वि वंजणावग्गहेऽतीते ॥ २४२ ॥ संबद्धत्वात् । तथाहि-श्रोत्र-वाण-रसन-स्पर्शनेन्द्रियच
होइ मणोवावारो, पढमायो चेव तेण समयायो। तुष्टयग्राहास्य शब्दगन्धाऽऽदिविषयस्य संवन्धिनां व्यञ्जनानां
होइ तदत्थग्गहणं, तदरमहा न प्पवत्तेजा ॥ २४३ ॥ तपपरिणतद्रव्याणां यद्ग्रहणमुपादानं स व्यञ्जनावग्रहो. 'समए समए त्ति' प्रतिसमयमित्यर्थः , इदमुक्तं भवतिऽस्माकं संमत इति परोऽपि जानात्येव, प्रागसकृत्प्रतिपा- मनोद्रव्यग्रहणशक्तिसंपन्ना जीवः कस्यचिदर्थस्य चिन्तावदितत्वादिति । मनोद्रव्यागयपि तर्हि मनसो ग्राह्याणि भ- सरे प्रतिसमयं मनोद्रव्याणि गृह्णाति, तं च चिन्तनीयमविष्यन्ति, ततस्तस्याऽपि धोत्राऽऽदेरिव व्यञ्जनावग्रहो भवि- थ प्रतिसमय ' मुणइ त्ति ' जानाति येन कारणेन, तेन यतिः अतः किमसंबद्धम् ?, इत्याह- गहणं मणो न गि- प्रथमसमयादेव भवांत तस्य चिन्तनीयार्थस्य ग्रहणमिज्झ ति' चिन्ताद्रव्यरूपं मनो न ग्राह्यम् , किन्तु ग्रहणं गृ- ति द्वितीयगाथायां संवन्धः, प्रथमसमयादेवाऽर्थावबोधः ह्यतेऽवगम्यते शब्दाऽऽदिरोंऽनेनति ग्रहणम्-अर्थपरिच्छेदे प्रवर्तत इत्यर्थः, अर्थानुपलब्धिकालस्त्वेकोऽपि समया नाकरणमित्यर्थः । ग्राह्य तु मेरुशिखराऽऽदिकं मनसः सुप्रती- स्ति, अतो न मनसो व्यञ्जनावग्रहसंभव इति भावः ॥ तमेव । श्रतः को भागः-कोऽवसरस्तस्य करणभूतस्य मनो- आह नन्वपवरकाऽऽदिव्यवस्थितो यदेन्द्रियव्यापाररहितः द्रव्यराशेर्व्यञ्जने व्यअनावग्रहेऽधिकृते ?, न कोऽपीत्यर्थः । केबलेन मनसाऽर्थान् पर्यालोचयति तदा मा भूद मनसो व्यग्राह्यवस्तुग्रहणं हि व्यञ्जनावग्रहो भवति । न च मनाद्र- जनावग्रहः, यस्तु थोत्राऽऽदीन्द्रियव्यापारे मनसोऽपि व्या. व्याणि ग्राह्यरूपतया गृह्यन्ते, किन्तु करणरूपतया, इत्य- पारस्तत्र प्रथममनुपलब्धिकालस्य भवद्भिरपीप्यमाणत्वात् संबद्धमेव परोक्तम् । इति गाथाऽर्थः ॥ २४० ॥
किमिति व्यजनाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नेष्यते ?, इत्याशया च ' देहादणिग्गयस्स वि , सकायहिययाइयं' इत्या-| क्याऽऽह-जं चिदिनोवोगे,वि वंजणावग्गहेऽतीते। होइ दिना मनसः प्राप्यकारिता प्रोक्ता, साऽपि न युक्ता , स्व- मणोवाचारो त्ति ।' यञ्च यस्माच्च कारणादिन्द्रियस्य श्रोकायहृदयाऽऽदिको हि मनसः स्वदेश एव, यच्च यस्मिन् देशे- त्राऽऽदेरुपयोगेऽपि-शब्दाऽऽद्यर्थग्रहणकालेऽऽपीत्यर्थः । किऽवतिष्ठते. तत् तेन संवद्धमेव भवति, कस्तत्र विवादः ?, म् ?, इत्याह-व्यजनावग्रहेऽतीते सति मनसो व्यापारो भकिं हि नास तद वस्त्वस्ति, यदात्मदेशेनाऽसंबद्धम् ? । एवं वति । इदमुक्तं भवति-न केवलं मनसः केवलावस्थायां प्रथहि प्राप्यकारितायामिष्यमाणायां सर्वमपि ज्ञानं प्राप्यकायव- ममर्थावग्रह पर ब्यापारः,किन्तु श्रोत्राऽऽदीन्द्रियोपयोगकासर्वस्याऽपि तस्य जीवन संबद्धत्वात् । तस्मात् पारिशेप्याद् लेऽपि तथैव । तथाहि-श्रोत्राऽदीन्द्रियोपयोगकाले व्याप्रियते बाह्यार्थापेक्षयैव प्राप्यकारित्वाऽप्राप्यकारित्वचिन्ता युक्ता
मनः केवलमर्थावग्रहादेवाऽऽरभ्य न तु व्यजनावग्रहकाले। सच मनसाऽप्राप्ते एव गृह्यते, इति न तत्र व्यभिचारः ।
अर्थाऽनवबोधस्वरूपो हि व्यञ्जनावग्रहः, तदवबोधकारणमाभवतु वा मनसः स्वकीयहृदयाऽऽदिचिन्तायां प्राप्यकारिता,
त्रत्वात् तस्य, मनस्त्वर्थावबोधरूपमेव, मनुतेऽर्थान् मन्यन्ते. तथाऽपि न तस्य व्यञ्जनावग्रहसंभव इति दर्शयन्नाह
ऽर्था अनेनेति वा मन इति सान्वर्थाभिधानाभिधेयत्वात् । तद्देसचिंतणे हो-ज बंजणं जइ तोन समयम्मि । ।
किश्च-यदि व्यञ्जनावग्रहकाले मनसो व्यापारः स्यात् तदा पढमे चेव तमत्थं, गेरहेज न वंजणं तम्हा ॥ २४१ ।। तस्यापि व्यञ्जनावग्रहसद्भावादष्टाविंशतिभेदभिन्नता मतधिस चासौ स्वकीयहृदयाऽऽदिदेशश्च तस्य चिन्तनं तस्मिन् शय्यित । तस्मात् प्रथमसमयादेव तस्यार्थग्रहणमेष्टव्यम् । श्रसति स्याद् मनसो व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः । यदि किम् ? , न्यथा किमत्र वाधकम् .. इत्याह-'तदरणहा न प्पवत्तेज्जइत्याह-'जह तो न समयम्मि । पढमे चेव तमत्थं गेरहेज त्ति । 'यदि हि प्रथमसमयादेव मनसोऽर्थग्रहणं नेष्यते तदा ति।' यदि तद मनः प्रथम एव समय तं स्वकीयहदयाऽऽदि. तस्य मनस्त्वेन प्रवृनिरेव न स्यादनुत्पत्तिरेव स्यादित्यर्थः । कमर्थं न गृह्णीयाद्-नावगच्छेदिति । एतच्च नास्ति, यस्माद्
यथा हि-स्वाभिधेयानर्थान् भाषमाणैव भाषा भवति, नान्यथा मनसः प्रथमसमय एवार्थाऽवग्रहः समुत्पद्यते, न तु श्रोत्रा- यथा च-स्वविषयभूनानर्थानवबुध्यमानानेवाऽवध्यादिक्षाना
दीन्द्रियस्येव प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः तस्य हि क्षयोपशमा-1 न्यात्मलाभ लभन्ते, अन्यथा तेषामप्रवृत्तिरेव स्यादिति। एवं पाठवेन प्रथममर्थानुपलब्धिकालसंभवाद युक्तो व्यञ्जना- स्वविषयभूतानर्थान् प्रथमसमयाक्षरभ्य मन्वानमेव मनो वग्रहः,मतसस्तु पटुक्षयोपशमत्वाच्चक्षुरिन्द्रियस्येवाऽर्थानु | भवति.अन्यथाञ्चध्यादिवत् तस्य प्रवृत्तिव न स्यात्। तस्मात् पलम्भकालस्यासंभवेन प्रथममेवावग्रह एवोपजायते । तस्याऽनुपलब्धिकालो नास्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रह इति
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अभिधानराजेन्द्रः। स्थितम् । न चैतत् स्वमनीषिकया युक्तिमात्रमुच्यते, आग
निमित्तेति:नन्वेवं तस्याऽऽत्मसंयोगसमये श्रोत्रसंशकेन नभमेऽपि व्यजनावग्रहेऽतीत एवेन्द्रियोपयोगे मनसो व्यापारा
साऽपि संयोगात् संयुक्तसमवायाविशेषात्सुखाऽऽदिवत्भिधानात् । तथा चोक्नं कल्पभाष्ये-" अत्थाणतरचारी, चि.
शब्दोपलब्धिरपि तदैव स्यात्, निमित्तस्य समानत्वेऽपि युगतं निययं तिकालविसयं ति । अत्थे उ पडप्पराणे, विणिश्रोगं
पत् ज्ञानानुत्पत्तावपरं निमित्तान्तरमभ्युपगन्तव्यमिति नातो इंदियं लहर ॥१॥" अत्र व्याख्या-अर्थ-शब्दाऽऽदौ श्रोत्रा
मनःसिद्धिः । न च कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नाऽऽकाशदेशस्य धोदीन्द्रियव्यञ्जनावग्रहेण गृहीतेऽनन्तरमर्थावग्रहादारभ्य चर
प्रत्वात्तेन च तदैव मनसः संबन्धाभावाचायं दोषो, निरंशस्य ति प्रवर्तते. इत्यर्थानन्तरचारि मनः, न तु व्यजनावग्रह
नभसः प्रदेशाभावात् । न च संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वं, तस्य
प्रदेशव्यपदेशनिमित्तमुपचरितस्य व्यपदशेमात्रनिबन्धनस्थाकाले तस्य प्रवृत्तिरिति भावः, त्रिकालविषयं चित्तं, सांप्रतकालविषयं त्विन्द्रियम् । इत्यलं विस्तरेण ॥ इति गाथा
थक्रियायामुपयोगाभावात् । न हयुपचारिताग्नित्यो माणवकः ऽर्थः ॥ २४२ ॥ २४३ ॥
पाकनिवर्तनसमर्थी दृष्टो,नच कर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभोभागस्य
तथाविधस्यापि शब्दापलब्धिहेतुत्वमुपलभ्यत पवेतिवाच्य अमुमेव मनसोऽनुपलब्धिकालासंभवं सयुक्तिकं भावयन्नाह
तदुपलब्धेरन्यनिमित्तत्वात् किं च-चक्षुराद्यन्यतमेन्द्रियसंवनेयाउ चिय जं सो, लहइ सरूवं पईव सद्द व्य ।
न्धात् रूपाऽदिज्ञानोत्पत्तिकाले मनसः सम्बद्धसंबन्धात् मानतेणाजुत्तं तस्सा संकप्पियवंजणग्गहणं ।। २४४॥ सज्ञानं किं न भवेत्। न च तथाविधादृष्टाभावादित्युत्तरम् अहप्रतिसमय मनोद्रव्योपादानं झेयार्थावगमश्च मनसोभवत्येव, । निमित्तयुगपज्ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तितो मनसोऽनिमित्तताभान पुनस्तस्यानुपलब्धिकालः संभवति । कुतः?, इत्याह-यद् वात्। श्रश्वविकल्पसमये गोदर्शनानुभवात् युगपज्ज्ञानानुत्पयस्मात् कारणात् 'सो' इतिप्राकृतशैल्या नपुंसकमपि मनः त्तिश्चासिद्धा कथं मनोऽनुमापिकान चाश्वविकल्पगोदर्शनसम्बध्यते, ज्ञायते इति ज्ञेयम्, चिन्तनीयम्, वस्तु तस्मादेव | योयुगपदनुभवेऽपिक्रमोत्पत्तिकल्पना,अध्यक्षविरोधात्न चोस्वरूपमात्मसत्तास्वभावं लभते, नाऽन्यतः । ततो यदि त्पलपत्रशतव्यतिभेदवदाशुवृत्तेः क्रमेऽपि योगपद्यानुभवाभिः तदेव ज्ञेयं नावगच्छेत् , तर्हि तस्मादुत्पत्तिरप्यस्य कथं मानः । अध्यक्षसिद्धस्य दृष्टान्तमात्रेणान्यथा कर्नुमशक्तेः, अस्यात् ? । इदमुक्तं भवति–सान्वर्थक्रियावाचकशब्दाभि- न्यथा शुक्लशङ्खाऽदी पीतविभ्रमदर्शनात् स्वर्णेऽपि तद्भाधेया हि मनःप्रभृतयः, तद्यथा-मनुते मन्यते वा मनः, न्तिर्भवेत् । मूर्तस्य शूच्यग्रस्यौत्तराधर्यव्यवस्थितमुत्पलपत्रप्रदीपयतीति प्रदीपः, शब्दयति भाषत इति शब्दः , दहती
शतं युगपद् व्याप्तुमशक्तः, क्रमभेदेऽप्याशुवृत्तेस्तव योगति दहनः, तपतीति तपनः । एतानि च विशिष्टक्रियाकर्तृ
पद्याभिमान इति युक्तम् । श्रात्मनस्तु क्षयोपशमसव्यपेक्षस्य त्वप्रधानानि मनःप्रभृतिवस्तूनि यदि तामेवाऽर्थमननप्रदीप- युगपत् स्वपरप्रकाशनस्वभावस्य स्वयममूर्तस्याप्राप्तार्थग्राहिनभाषणाऽऽदिकामर्थक्रियां न कुर्यः तदा तेषां स्वरूपहानिरेव
णो युगपत् स्वविषयग्रहणे न कश्चिद् विरोध इति किं न युगपद स्यात् । तस्माद् यथा प्रदीपनीय-शब्दनीयवस्त्वपेक्षया प्र
शानोत्पत्तिः। न च मनोऽपि शूच्यग्रवन्मूतमिन्द्रियाणि तूत्प दीप-शब्दाभिधानप्रवृत्तेः प्रदीप-शब्दयोरर्थयोरप्रदीपनमश
लपत्रवत् परस्परपरिहारस्थितस्वरूपाणि न युगपद् व्याप्तु ब्दनं चायुक्तम्, तथा मनसोऽपि मननीयवस्तुमननादेव मनो
समर्थमिति न युगपज्ज्ञानोत्पत्तिः, तथाभूतस्यैवासिद्धेः । तऽभिधानप्रवृत्तस्तदमननं न युक्तम् , ततः किम् ? , इत्याह- थाहि-सिद्धे तद्विभ्रमे मनःसिद्धिः, तत्सिद्धौ च युगपज्शानोयेनैवम् , तेनाऽसंकल्पितान्यनालोचितानि , अनवगतानी त्पत्तिविभ्रमसिद्धिरितीतरेतराऽऽश्रयत्वान्न मनःसिद्धिः । सति यावत् , असंकल्पितानि च तानि शब्दाऽऽदिविषयभा
म्म०२काण्ड । (विशेषस्तु ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे १९३८ पृष्ठे) वेन परिणतद्रव्यरूपाणि व्यञ्जनानि च तेषां ग्रहणमसं
सर्वविषयमन्तःकरण युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिलिङ्गं मनः,तदपि द्रकल्पितव्यसनग्रहण तस्य मनसोऽयुक्तम् , किन्तु-संकल्पि- व्यमनः पौगलिकमजीवग्रहणेन गृहीतं, भावमनस्त्वात्मगुणतानामेवाऽर्थावग्रहद्वारेणाऽवगतानामेव तेषां शब्दाऽऽदि- त्वात् जीवग्रहणेनेति।सूत्ररथु०१२अा"एगे जीवा णं मणे" द्रव्याणां ग्रहणं युक्तम् । तस्माद् न मनसोऽनुपलब्धिका- स्थानमननं मनः औदारिकाऽऽदिशरीरव्यापाराऽऽहतमनो लोऽस्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रहसंभव इति स्थितम् । द्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो मनोयोग इति भावः।मन्यते इति गाथार्थः ॥२४४॥ विशे० । उत्त । ('इंदिय' शब्दे द्विती। वा अनेनेति मनो मनोद्रव्यमात्रमेवेति,तच्च सत्याऽऽदिभेदादयभागे ५५७ पृष्ठे नयनमनसोरण्यप्राप्यकारितोक्का) (युग- नेकमपि संज्ञिनां वा असंख्यातत्वादसंख्यातभेदमप्येकं मपद् शानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति — दोकिरिय' शब्दे ननलक्षणत्वेन सर्वमनसामेकत्वादिति । स्था० १ ठा० । चतुर्थभागे २६३६ पृष्ठे व्याख्यातम् ) श्रथ “युगपत् ज्ञानानु- “एगे मणे देवासुरमणुाणं तंसि तसि समयसि ।” तत्र त्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" इति वचनादात्मेन्द्रियविषयसन्निधा | मन इति मनोयोगः, तश्च यस्मिन् यस्मिन् समये विचार्यते नेऽपि यतो युगपत् शानानि नोपजायन्ते ततोऽवसीयते अस्ति तस्मिन् तस्मिन् समये कालविशेष एकमेव, वीप्सानिर्देशन तत्कारणं, यतस्तथा तदनुत्पत्तिरिति तत्कारण मनः सिद्धम्। न क्वचनापि समये तत् द्यादिसंख्यं सम्भवतीत्याह-एकननु तदनुत्पत्तिमनःप्रतिबद्धा कुतः सिद्धा, यतस्तस्यास्तद- त्वं च तस्यैकोपयोगत्वात् जीवानां स्यादेतत् नैकोपयोगो नुमायेत । अथाऽऽत्मनः सर्वगतस्य सर्वार्थः संबन्धात् पश्च- जीवो युगपच्छीतोष्णस्पर्शविषयसंवेदनद्वयदर्शनात्, नथाभिश्चेन्द्रियरात्मसंबद्धः स्वविषयसंबन्धे एकदा किमिति यु- विधभिन्नविषयोपयोगपुरुषद्वयवत् । अत्रोच्यते-यदिदं शीगपत् ज्ञानानि नोत्पद्यन्ते । यद्यणु मनो नेन्द्रियैः संबन्धमनुभ- तोष्णोपयोगद्वयं तत्स्वरूपेण भिन्नकालमपि समयमनवेत् तत्सद्भवितु यदेकेनेन्द्रियेणैकदा तत्संबध्यते न तदाऽ- सोरतिसूक्ष्मतया युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तद्युगपदेवेति । परेण, तस्य सूक्ष्मत्वादिति सिद्धा युगपत् शानानुत्पत्तिर्मनो- श्राह च-"समयातिसुहुमया, मनसि जुगवं च भिन्न
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मण अभिधानराजेन्द्रः।
मणगुत्ति कालं पि । उप्पलदलसयवेहं , व जह व तमलायचक्कं ति | नं रचयित्वा पाठयामास पिता, ततः स काले स्वर्गतः। ॥१॥" यदि पुनरेकत्रोपयुक्तं मनोऽर्थान्तरमपि संवेदयति | जै० इ० । तदा किमन्यत्र गतचेताः पुरोऽवस्थितं हस्तिनमपि न वि-
तिचताः पुराऽवास्थत हस्तिनमाप न वि. | मणगपियर-मनकपित-पुं० । मनकाऽऽख्यापत्यजनके, दश०१ पीकरोतीति । श्राह च-"अन्नविणिउत्तमन्न, विणिश्रो.
अन्नावाणउत्तमन्न, विणिश्री.] अ० । श्रीशय्यंभवसूरी," मणगपियरं मंसामि ।" कल्प०२ गं लहइ जइ मणो तेणं । हत्थि पि ठियं पुरओ, किमन्न-1
अधि०८ क्षण। चित्तो न लक्खा ॥१॥इति । इह च बहु वक्तव्यमास्त तनु
मोगर-त्रिका मनोनियन्त्रणया संवृते, मनोगुस्थानान्तरादवसेयमिति । अथवा-सत्यासत्योभयस्वभावा-1 नुभयरूपाणां चतुर्णा मनोयोगानामन्यतर एव भवत्वेकदा
प्त्या गुप्तः । उत्त० १२ अ०। यादीनां विरोधेनासम्भवादिति, केषामित्याह-(देवासुरम- | मणगुत्तयामा
मणगुत्तया-मनोगुप्तता-स्त्री० । मनसोऽशुभपदार्थाद गोपने, णुयाणं ति ) तत्र दीव्यन्तीति देवा वैमानिकज्य तिष्काः । ते | उत्त। च न सुरा असुरा भवनपतिव्यन्तरास्ते च मनोजीता म-| मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ । मणगुत्तयाए नुजा मनुष्यास्ते च देवासुरमनुजास्तेषाम् । स्था० १ णं जीवे एगग्गं जणयह, एगऽग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते ठा० । मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणामितानि वस्तुप्रवर्तकानि | द्रव्याणि मनांसीन्युच्यन्ते । अनु० । कर्म । संशयप्रतिभा-|
संजमाऽऽराहए भवइ ॥ ५३॥ स्वप्नशानोहास्सुखाऽऽदिक्षमेच्छाऽदयश्च मनसो लिङ्गानि ।
हे भदन्त ! मनोगुप्ततया जीवः किं जनयति। तदा गुरुराहसम्म०२ काण्ड । " इङ्गिताऽकारितैज्ञेयः, क्रियाभिर्भाषि-|
हे शिष्य ! मनोगुप्ततया जीव एकाग्रं धर्मे एकान्तत्वम् उपातेन च । नेत्रवत्रविकारश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥१॥" अ-|
जयति एकाग्रचित्तो जीवो गुप्तमनः सन् संयमस्याऽऽराधनु० । प्रा० क० । " शुभाशुभानि सर्वाणि , निमित्तानि |
कः पालको भवति । उत्त० २६ अ०। स्युरेकतः । एकतस्तु मनो याति , तद्विशुद्ध जयावहम् मणगुत्ति-मनोगुप्ति-स्त्री०। मनोनियन्त्रणायाम्, उत्तका मनो॥१॥" ज्ञा०१श्रु०१६ श्र० । द० प० । मनःपर्यायज्ञाने, गुप्तिखिधा-श्रातरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालवियोगः प्रमनो जीव इति बौद्धमतनिरासः यथा-" मणं च मणजी थमा १, शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिविया वयंति ति ।" न केवलं पश्चैव स्कन्धान मनश्च मन
नी माध्यस्थ्यपारेणतिदितीया २, कुशलाकुशलमनोवृत्तिनिस्कारो रूपाऽऽदिज्ञानलक्षणानामुपादानकारणभूतो यमाश्रि
रोधेन योगनिरोधावस्थाभाविन्यात्मारामता तृतीया ३ तदुक्तं त्य परलोकोऽभ्युपगम्यते बोद्धैः, मन एव जीवो येषां मते- विशेषणत्रयेण योगशास्त्रे-"विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रन ते मनोजीवाः, ते एव मनोजीविकाः , अलीकवाहिता तिष्ठितम् , आत्माराम मनस्तज्ज्ञ-मनोगुप्तिरुदाहृता ॥१॥" चैषां सर्वथाऽननुगामिनि मनोमात्ररूपे जीवे कल्पितेऽपि प. एवंविधा मनोगुप्तिरित्यर्थः।ध०३ अधिनि० चू० । द्वा० । रलोकासिद्धः, तदसिद्धिश्चावस्थितस्यैकस्याऽऽत्मनोऽसत्वा- सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य ।। त् मनोमात्राऽऽत्मनः क्षणान्तरस्यैवोत्पादनात् अकृताभ्याग- चउत्थी असच्चमोसाओ, मणगुत्ती चउबिहा ॥२०॥ माऽऽदिदोषप्रसङ्गात् कश्चिदनुगामिनि तु मनसि जीवत्वा
मनोगुप्तिश्चतुर्विधा-प्रथमा सत्या मनोगुप्तिः, तथा द्विती. भ्युपगमः सम्यक् पक्ष एवेति । प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार ।।
या असत्या मनोगुप्तिः, तथैव तृतीया सत्यामृषा मनोकल्प।
गुप्तिः । तथा चतुर्थी असत्यामृषामनोगुप्तिः। यत्सत्यं वस्तु मणइच्छिय-मनईप्सित-त्रि० । मनसीष्टे, “ मणइच्छियचि
मनसि चिन्त्यते जगति जीवतत्त्वं विद्यते इत्यादिचिन्तनस्य तत्थो, नायब्वो होइ इत्तरियो।” (११) मनसि ईप्सित इ.
योगस्तद्पा गुप्तिः सत्यामनोगुप्तिःप्रथमा १, यत् असत्यं पृश्चित्तोऽनेकप्रकारोऽर्थः स्वर्गापवर्गाऽऽदिस्तेजोलेश्यादिर्वा- वस्तु मनसि चिन्त्यते जीवो नास्ति इत्यादि चिन्तनस्य यस्मात्तन्मनईप्सितचित्रार्थम्,इत्वरिकं प्रक्रमादनशनाऽऽख्यं योगस्तद्पा गुप्तिः असत्यामनोगुप्तिः द्वितीया २, बहूनां तपो ज्ञातव्यम् । उत्त० ३० अ०।
नानाजातीयानाम् अानाऽऽदिवृक्षाणां वनं दृष्ट्वा अाम्रा
णामेव वनम् एतत् वर्तते स तत्सत्यं पुनर्मुषायुक्तम्मनएगत्तीकरण-मनएकत्वीकरण-न० । चित्तस्य नानाव्या
एव इत्यादिचिन्तनयोगस्तद्रपा गुप्तिः सत्यामृषामनोगु पारविकल्पमालाऽऽकुलस्यैकाग्रताऽऽपादने, दर्श०१ तत्व ।
प्तिस्तृतीया ३, यतोऽत्र काचित् सत्या चिन्तना काचित् मणंसि-मनस्विन-त्रि० । “अतः समृद्धद्यादौ वा" ॥5॥१॥ मृषा चिन्तना केचित् तत्र वने अाम्राः सन्ति तेन सत्या, ।१४॥ समृद्धिइत्येवमादिषु आदेरकारस्य दीर्घो भवति ।
केचित् तत्र बने धवखदिरपलाशाऽऽदयो वृक्षा अपि समाणंसी । मणसी ॥ स्वमनोऽनुगे, प्रा० १ पाद ।
न्ति तेन मृपाऽप्यस्ति चतुर्थी ५, असत्यामृषा या चिन्तना
सत्याऽपि नास्ति यत आदेशनिर्देशाऽऽदिवचनं मनसि चिमणग-मनक-पुं०। दशवैकालिककर्तृशय्यम्भवस्य पुत्रे, कल्प० न्त्यते हे देवदत्त ! घटम् अानय, अमुकं वस्तु मह्यम् श्रा२ अधि०८ क्षण । अयं च गर्भगत एवाऽऽसीद्यदाऽस्य नीय दीयताम् , इत्यादि चिन्तना व्यवहाररूपा तद्रूपा गुप्तिः पिता शय्यम्भवः प्रवव्राज, पश्चादष्टवर्षोऽयमपि त- असत्यामृषामनोगुप्तिश्चतुर्थी यत एषा चिन्तना सत्याऽपि दन्तिके प्रवजितः, षण्मासाऽवशेषाऽऽयुषं तं ज्ञात्वा नास्ति मृषाऽपि नास्ति व्यवहारचिन्तना इत्यर्थः । उत्त० २४ तदर्थसकलश्रुतनिस्यन्दभूतं दशवकालिकनामाध्ययनं नू- अ०। प्रनोगुप्तौ, प्रा० क०।
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(58) मणगुत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
मणदुप्पणिहाण " श्रावको जिनदासाऽऽख्यः, प्रतिमा सर्वरात्रिकीम् ।। सत्यामृषमनोयोग इति व्याख्यातचतुर्दा मनोयोगः । कर्म० प्रपन्नो यानशालायां , दुःशीला तस्य च प्रिया ॥१॥ ४ कर्म०। लोहकीलकयुकपादं , गृहीत्वा तल्पमाययौ।
मणजोगि (ण) मनोयोगिन-पुं० । समनस्के जीवे, स्था० अज्ञानात्तत्र पत्यहौ, लोहपादं निवेश्य सा ॥२॥
४ ठा०४ उ०॥ अनाचारं प्रकुर्वाणा-ऽविध्यत्कीलेन तत्पदम् । मणण-मनन-न० । चिन्तने, विशे० । सर्वपदार्थपरिशाने, वेदनां सोऽधिसेहे तां , न दुयानं मनोऽप्यगात् ॥३॥" |
आचा० १ श्रु०८ अ०१ उ० । सम्यक् परिच्छित्ती, सूत्र. श्रा० क०४ अ०।
१२० १५१०। मणगलिया-मनोगटिका-स्त्री०। पीठिकायाम् , मनोगुलि-मणणाणि-मनोज्ञानिन-पुं० । मनःपर्यायज्ञानिनि, प्रव०१
का नाम पीठिकति । जी० ३ प्रति०४ अधि० । रा०। द्वार। मणजीविय-मनोजीविक-पुं० । मन एव जीवो येषां ते मनो- | मणणाणिलद्धि-मनोज्ञानिलब्धि-त्रि० । मनोज्ञानिनो मनःजीवास्त एव मनोजीविकाः । मनस श्रात्मत्ववादिषु, प्रश्न०२
पर्यायशानिनो लब्धिः । मनःपर्यायज्ञानरूपे लब्धिभेदे,तश्चमपाश्रवद्वार । (ते च 'मण' शब्देऽनुपदमेव प्रतिक्षिप्ताः)
नःपर्यायशानं विमलमतिरूपमिह गृह्यते, ऋजुमतेः पृथक ल
ब्धिरूपत्वात् । श्रा०म०१०। मणजोग-मनोयोग-पुं०। मनसा सहकारिकारणभूतेन योगो
मणणिबत्ति-मनोनिवृत्ति-स्त्री० । निर्वृत्तिभेदे , भ० । मनोयोगः विशे। मनोविषयो वा योगो मनोयोगः । कर्म ४कर्म०। दर्श०। औदारिकव्यापाराद् वृत्तमनोद्रव्यसमूहसा
कइविहा णं भंते ! मणणिवत्ती परमत्ता ? | गोचिव्याजीवव्यापारे, “तह तणुवावाराहिय-मणदव्वसमूह- यमा ! चउबिहा मणणिवत्ती परमत्ता । तं जहा-सच्चजीववावारो। सो मणजोगो भएणइ, मन्नइ नेयं जो तेण।।"
मणणिवत्ती ०जाव असच्चामोसमणणिबत्ती । एवं नं०।ौ०। कर्म० । स्था०। “हितं मितं प्रियं तथ्य-मनवद्यवि
एगिदियवजं विगलिंदियवजंजाब माणियाणं । भ०१६ मृश्य च । यन्मुनिर्वक्ति बाग्योगः, शेषतद्वामवर्जनात् ॥१॥"
श०८ उ०॥ मनोयोगः पुनरय,मनसः कुशलस्य यत्।" जीत०। मनःसम्बन्धे,द्वा०२४ द्वा०।कर्मका स्था। तत्र मनोयोगश्चतु,तद्यथा- मणणिव्युतिकर-मनोनितिकर-त्रि०।मनसः निर्वृतिकरः सत्यमनोयोगः१,असत्यमनोयोगः२,सत्याऽसत्यमनोयोगः ३, | सुखोत्पादके, रा०। असत्यामृषामनोयोग४,तत्र सन्तो मुनयः पदार्था वा तेषु यथा
| मणदब-मनोद्रव्य-न० । मनोवर्गरणागते मनस्त्वेन पसंख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थिततत्त्वचिन्तनेन च हितः रिणमिते द्रव्ये, विशे। "मणदव्याणि णाम-जाणि मणसत्यः यथा अस्ति जीवः सदसवूपः कायप्रमाण इत्यादिरूपतया
पाओग्गाणि दव्वणि गहिताणि ताणि मणदवाणि भरणयथावस्थितवस्तुविकल्पनपर इत्यर्थः,सत्यश्चासौ मनोयोगश्च
ति।" श्रा० चू०१०। मनश्चिन्ताप्रवर्तके द्रव्ये, विशे० । सत्यमनोयोगः । तथा सत्यविपरीतोऽसत्योः यथा-नास्ति जीव एकान्तसद्भूतो विश्वव्यापीत्यादिकुविकल्पचिन्तनप
मणतुद्विजणण-मनस्तुष्टिजनन-न० । चित्ततोपविधाने, परः । असत्यश्चासौ मनोयोगश्च असत्यमनोयोगः २, तथा
चा०६ विव०। मिश्रः सत्याऽसत्यमनोयोगः । यथा इह धवखदिरपला
मणदंड-मनोदएड-पुं० । दण्डभेदे,स्था०३ठा०१उ०(व्याख्या शाऽऽदिमिश्रेषु बहुवशोकवृक्षेषु अशोकवनमेयेदमिति
"दंड' शब्दे चतुर्थभागे २४२१ पृष्ठे) मन एव दण्डो मनोदण्डः यदा विकल्पयति तदा तत्राशोकवृक्षाणां सद्भावात्सत्यो
वा दुष्प्रयुक्तनाऽऽत्मदण्डो दण्डेन मनोदण्ड एव । स०३ समका ऽन्येषामपि धवखदिरपलाशाऽऽदीना तत्र सद्भावादसत्य इ
मनसा “तत्थ मणदंडे उदाहरणं-कोंकणए एगो खतो सो ति सत्याऽसत्यमनोयोग इति, व्यवहारनयमताऽपेक्षया चै- उड्डजाणू अहोसिरो विमतो अत्थति साधुणो अहो खंतो वमुच्यते , परमार्थतः पुनरयमसत्य एव यथाविकल्पिता- सुभज्झाणोवगतो त्ति वंदति, चिरेण संलावं देतुमारखो।
योगात् । न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा साहहिं पुच्छितो भणति । खरो वातो वायति जदि तेहिं यत्र सोऽमृषः, असत्यश्चासावमृषश्च तं नयाऽऽदिभिन्नरिति
मम पुत्ता संपत्तं वल्लराणि पलीवेज्जा ताए तेसिं यरिकर्मधारयः असत्यामृषश्चासौ मनोयोगश्च असत्यामृषमनो
सारति सरिसाए भूमीए सुबहुसालिसंपदा भवेज्ज ति। योगः । इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया सर्व- एतं चितियं मे आयरिएणं वारितो ठितो, एवमादी जे अशतानुसारेण किश्चिद्विकल्पते यथाऽस्ति जीवः सदसदरूप सुभं मणो चिंतेति सो मणदंडो।" श्रा० चू०४ श्र०। इत्यादि, तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात् , यत्तु वि. प्रतिपत्तौ-सत्यं वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वक्षमतोत्तीर्ण किञ्चिद्
मणदक्कड-मनोदष्कृत-त्रि० । दुष्कृतनिमित्ते, श्राष० ३ विकल्पते यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेत्या
अ० । ध०। दि तदसत्यमिति परिभाषितं, विराधकत्वात् , यत्पुनर्व
मणदुप्पणिहाण-मणदुष्प्रणिधान-न० । मनसो दुष्ट प्रणिस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रप्रतिपादनपरं व्यवहार
धानं प्रयोगो दुष्पणिधानम् । कृतसामायिकस्य गृहे कर्तपतितं किञ्चिद्धिकल्पते-यथा हे देवदत्त ! घटमानय , गां
व्यतां कथयतां सकृद्दुष्कतपरिचिन्तने , उपा० १ १० । देहि मद्यमित्यादि, तदेतत्स्वरूपमात्रप्रतिपादन व्यावहारि
प्राचा कं विकल्पलानं न यधोक्ललतणं सत्यं नापि मृषेत्य-। सामाइयं तु काउं, परिचिंतं जो य चिंतए सडो।
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मलदुप्पणिहाण अभिधानराजेन्द्रः।
मणपज्जवणाण अट्टवसट्टोवगो, निरत्थयं तस्स सामइयं ॥ ३१३ ॥ प्रकटाथैव ॥ ८०६॥ सामायिकमित्येवं कृत्वा आत्मानं संयम्य परचिन्तां संसा
तदेवं प्रतिज्ञातं मनःपर्यायज्ञानमाहरे इतिकर्तव्यताविषयां यस्तु चिन्तयति श्रावक आर्तवशा- मणपञ्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतियऽत्थपागडणं । तश्च स उपगतश्चेति समासः श्रार्तध्यानसामर्थेनाऽऽतः,
माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपञ्चइयं चरित्तवओ ॥८१०॥ उप-सामीप्येन गतो भवस्येति भावार्थः । निरर्थकं तस्य
मनःपर्यायज्ञानं प्रागनिरूपितशब्दार्थम् । पुनःशब्दोऽवधिसामायिकमनात्मचिन्तावतः निष्फलं सामायिकमित्यर्थः । आत्मचिन्ता च सद्ध्यानरूपेति ॥ ३१३ ॥ श्रा० । पश्चा।
शानादस्य विशेषद्योतनार्थः । इदं हि रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वक्षा
योपशमिकत्वप्रत्यक्षत्वाऽऽदिसाम्येऽपि सत्यवधिज्ञानात्स्वामणपज्जत्ति-मनःपर्याप्ति-स्त्री०पर्याप्तिभेदे , यया पुनर्मनोयो
म्यादिभेदेन विशिष्टमिति । तत्र विषयमाश्रित्य स्वरूपत इद ग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मु. प्रतिपादयति-जायन्त इति जनास्तेषां मनांसि जनमनांसि तैः वति सा मनःपर्याप्तिः। कर्म०६कर्म०। प्रव०। प्रशा०पं०सं०। परिचिन्तितो जनमनःपरिचिन्तितः स चासावर्थश्च तं प्रमणपजवणाण-मनःपर्यवज्ञान-न० । मनसो मन्यमानमनो कटयति-प्रकाशयति जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनम् । द्रव्याणां पर्यवः-परिच्छेदो मनःपर्यवः, स एव शानं, मनःपर्या- मानुषक्षेत्रमर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं तन्निबद्धं, न खलु याणां वा तदवस्थाविशेषाणां शान मनःपर्यवज्ञानम् । भ०८श० तदहिभूतप्राणिमनांस्यवगच्छतीति भावः । गुणा विशिष्ठ२ उ०। कर्म०।०। ध०। पं०सं० । स्था० । सूत्र०। श्रा०म०। द्धिप्राप्तिक्षान्त्यादयस्त एव प्रत्ययाः कारणानि यस्य तद्गुमणपज्जवणाणे दुविहे पत्रत्ते । तं जहा-उज्जुमई चेव,
णप्रत्ययम् । चारित्रमस्यास्तीति चारित्रवाँस्तस्य चारित्रविउलमई चेव।
वत एवेदं भवति, तस्याप्यप्रमत्तद्धिप्राप्तत्वाऽऽदिसमयोक्त
विशेषविशिष्टस्यैव । इति नियुक्निगाथाऽर्थः ॥ १० ॥ स्था० २ ठा०१ उ० । पा० । प्रज्ञा |शानभेदे, विशे०। अथ मनःपर्यायज्ञानविषयां व्युत्पत्तिमाह
अथ भाष्यं तत्र पुनःशब्दार्थ तावदाहपजवणं पञ्जयणं, पजाओ वा मणम्मि मणसो वा ।
पुणसद्दो उ विसेसे, रूविनिबंधाइँ तुल्लभावे वि । तस्स व पजायादि-नाणं मणपज्जवं नाणं ॥ ५३॥ इदमोहिन्नाणाओ, सामिविसेसाइणा भिन्न ॥ ८११॥ ( पजवणं ति) 'व'गत्यादिष्वितिवचनादवनं गमनं वेद-। नमित्यवः , परिः-सर्वतोभावे, पर्यवनं समन्तात् परिच्छेदनं पर्यवः । क्वायमित्याह-(मणम्मि मणसो व त्ति ) मनसि
अथ कस्य तद्भवति ?, कियत्क्षेत्रविषयं चेत्याहमनोद्रव्यसमुदाये ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य सबन्धी पर्यवः तं संजयस्स सव्व-प्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमत्रो । मनःपर्यवः , स चासौ शानं च मनःपर्यवज्ञानम् । अथवा- समयखेत्ताभितर-सन्निमणोगयपरिमाणं ॥ १२ ॥ (पज्जयणं ति)'श्रय वय मय' इत्यादि दण्डकधातुः, अयनं गमनं वेदनमित्ययः, परिः सर्वतो भावे, पर्ययनं सर्वतः परि
प्रकटाऽर्था ॥ ८१२ ॥ विशे। च्छेदनं पर्ययः क्व पुनरसौ?, इत्याह-(मणम्मि मणसो व जाणइ य पिहुजणो वि हु, विफुडमागारेहि माणसं भावं । त्ति) मनसि ग्राह्ये . मनसो वा ग्राह्यस्स सम्बन्धी पर्ययो एमेव य तस्सुवमा, मणदव्वपगासिए अत्थे ॥ ३६ ॥ मनःपयंयः, सचासो ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानमा( पज्जाश्री व त्ति) अथवा-इण् गती, अयनम् श्रायः, लाभः प्राप्तिरिति
पृथग्जनोऽपि लोको, हुनिश्चितमाकारैर्मानसं भावं जापर्यायाः; परिस्तथैव , समन्तादायः पर्यायः । क्व?, इत्याह
नाति, एवमेव तस्यापि मनःपर्यायशानिनो मनोद्रव्यप्रका(मणम्मि मणसो व त्ति) मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य
शितेऽर्थे उपमा द्रष्टव्या । किमुक्तं भवति?-यथा प्राकृतो लोकः पर्यायो मनःपर्यायः। स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । एवं
स्फुटमाकारैर्मानसं भावं जानाति, तथा मनःपर्यवक्षान्यपि तावज्ज्ञानशब्देन सह सामानाधिकरण्यमङ्गीकृत्योक्लम । अ-| मनोद्रव्यगतानाकारानवलोक्य तं तं मानसं भावं जानाति ।
वैयांधकरण्यमङ्गीकृत्याऽऽह-(तस्स वेत्यादि ) वाशब्दः बृ०१ उ०१ प्रक०। पक्षान्तरसूचकः , तस्येति-मनसः, पर्यायाः, पर्यवाः, पर्यया | से किं तं मणपज्जवनाणं । मणपजवणाणे णं भंते ! किं धा इत्यनान्तरम् इति । आदिशब्दात्पर्यवपर्ययपरिग्रहः।
मणुस्साणं उप्पजइ, अमणुस्साणं? गोयमा! मणुस्साणं, ततश्चाऽयमर्थः,अथवा-तस्य मनसो ग्राह्यस्य संबन्धिनो बावस्तुचिन्तनानुगुणा ये पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययास्तेषां तेषु
नोअमणुस्साणं । जइ मणुस्साणं किं समुच्छिममणुस्साणं, वा इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम् इत्येवंरूपं ज्ञानं मनःपर्ययक्षा- गब्भवतियमणुस्साणं ?। गोयमा ! नो समुच्छिममणुनं, मनापर्यवधानं, मन पर्यायशानं चेति ज्ञानशब्देन सह व्यधि
स्साणं उप्पज्जइ,गम्भवतियमणुस्साणं । जइ गम्भवकंति करणः समासः। अत एव पायंच नाणसद्दो,नामसमाणाहिगरणाऽयं।" इत्यत्र प्रायोग्रहणं करिष्यतीति गाथाऽर्थः । विशे० ।
यमणुस्साणं किं कम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं, अअथ शानपश्चकभणनक्रमाऽऽयातस्य मनःपर्यायज्ञानस्य कम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं, अंतरदीवगगब्भवकप्रस्तावनां कर्तुमाह
तियमणुस्साणं ?। गोयमा ! कम्मभूमियगब्भवकंतिओहिविभागे भणियं,पि लद्धिसामन्नो मणोणाणं । | यमणुस्साणं नो अकम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं विसयाइविभागत्थं, भणई नाणकमाऽज्यातं ।। ८०६ ।। नो अंतरदीवगगम्भवतियमणुस्साणं 1 जइ कम्मभूमियग
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मणपजवणाण अभिधानराजेन्द्रः।
मणपखवणाप भवतियमणुस्साणं किं संखिजवासाऽऽउयकम्मभूमियग-| यगम्भवतियमणुस्साणं किं इड्डीपत्तअपमत्तसंजयसभवतियमणुस्साणं असंखिजवासाउयकम्मभूमियगब्भ- म्मदिद्विपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियवतियमणुस्साशं ?। गोयमा ! संखिजवासाउयक- मणुस्साणं अणिड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिद्विपञ्जत्तगसंभूमियगब्भवतियमणुस्साणं , नोअसंखिज्जवासाउयक-| खिजवासाउयकम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं ? गोयम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं । जइ संखिजवासाउयक-| मा ! इड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपजत्तयसंखेजवा म्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं किं पज्जत्तगसंखिज- साऽऽउयकम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं नो अणिड्डीबासाउयकम्भूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं, अपजत्तगसं- पत्तअपमत्तसंजयसम्मबिडिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं ? । गो- मियगम्भवभूतियमणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुपञ्जइ । यमा ! पजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवक्कंतिय- (सूत्र-१७) मणुस्साणं, नो अपञ्जतगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगन्भ
अथ किं तत् मनःपर्यायज्ञानम् ? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते वतियमणुस्साणं । जइ पञ्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमि- सति ये गौतमप्रश्नभगवनिर्वचनरूपा मनःपर्यायशानोपगन्भवतियमणुस्साणं किं सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखिजवा- |
त्पत्तिविषयस्वामिमार्गणाद्वारेण पूर्वसूत्राऽऽलापकास्तान
वितथप्ररूपणाशङ्काब्युदासाय प्रवचनबहुमानिविनयजनश्रसाउयकम्मभूमियगम्भकंतियमणुस्साणं, मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्त
द्धाऽभिवृद्धये च तदवस्थानेव देववाचकः पठति-'जावड्यागसंखिञ्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं, स- तिसमयाहारगस्स' इत्यादि नियुक्तिगाथासूत्रमिव, 'मणम्मामिच्छदिद्विपज्जत्तगसखिजवासाउयकम्मभृमियगम्भव- पजबनाणं भंते !, इत्यादि मनःपर्यायशानं 'प्राग्निरूपितकंतियमणुस्साणं ? । गोयमा ! सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्ज- |
शब्दार्थम् ‘णं' इति वाक्यालङ्कारे, भंते त्ति' गुर्जाम
न्त्रणे, 'किमिति ' परप्रश्ने, मनुष्याणामुत्पद्यते इति प्रकटावासाउयकम्मभूभियगम्भवतियमणुस्साणं नो मिच्छा
थममनुष्याणामुत्पद्यते इति, 'अमनुष्याः 'देवाऽऽदयः तेषादिट्ठिपजत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतियम - | मुत्पद्यते ? , पवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति परगुस्साणं नो सम्मामिच्छदिद्विपजत्तगसंखिजवासाउ- | मान्त्यिमहिम्ना विराजमानस्त्रिलोकीपतिभगवान् वर्द्धमानयकम्मभूमियगब्भकतियमणुस्साणं । जइ सम्मदिहि
स्वामी निर्वचनमभिधते-'गोयमा ! मणुस्साणं' इत्यादि ।
हे गौतम! सूत्रे दीर्घत्वं सेर्लोपः संबोधने हस्वो वेति' (डोपजत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं
दी? वा ॥८॥३८॥) इति प्राकृतलक्षणसूत्रे वाशब्दस्य लक्ष्याकिं संजयसम्मद्दिविपञ्जत्तगसंखिजवासाउअकम्मभूमिय- नुसारेण दीर्घत्वसूचनात् अवसेयं,यथा'-भो बयस्सा इत्यागम्भवतियमणुस्साणं असंजयसम्मद्दिविपञ्जत्तगसंखिज्ज
दौ,मनुष्याणामुत्पद्यते ना मनुष्याणां,तेषां विशिष्टचारित्रप्रति
पत्त्यसम्भवात् । अत्राऽऽह-ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरः वासाउयकम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं संजयाऽसंजय
सर्वाक्षरसन्निपाती संभिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिसम्मदिद्विपञ्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतिय
मानकुशलः प्रवचनस्य प्रणेता सर्वशदेशीय एव । उक्नं चमगुस्साणं ? । गोयमा ! संजयसम्मदिद्विपज्जत्तगसंखिजवा- "संखातीतेऽवि भवे, साहह जं वा परो उ पुच्छेज्जा । न साउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं, नो असंजयस- य रंग अखाइसेसी, वियाणई पस छउमत्थो॥१॥"
ततः किमर्थं पृच्छति ?, उच्यते-शिष्यसंप्रत्ययार्थ, तथाम्मद्दिट्ठिपजतगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भयवकंति
हि-तम) स्वशिष्येभ्यः प्ररूप्यं तेषां संप्रत्ययार्थ तत्समक्ष यमगुस्साणं, नो संजयाऽसंजयसम्महिट्ठिपज्जत्तगसं
भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छति,अथवा-इन्थमेव सूत्ररचनाकल्पः, खिञ्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं । जह ततो न कश्चिद्दोष इति । पुनरपि गौतम श्राहयदि संजयसम्मद्दिविपञ्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभृमियगब्भ- मनुष्याणामुत्पद्यते तर्हि किं संमूर्निछममनुष्याणामुत्पद्यते. वकंतियमणुस्साणं, किं पमत्तसंजयसम्मदिद्विपज्जत्लग
किं वा-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामुत्पद्यते ? । तत्र ' मू
च्र्छा' मोहसमुच्छ्ययोः । ममूर्छनं मंमूर्छा भावे घप्रप्रत्यसंखिञ्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं अ
यः,तेन निवृत्ताः संमूछिमाः, ते च बान्ताऽऽदिसमुद्भवाः, पमत्तसंजयसम्मदिद्विपजतगअसंखिज्जवासाउयकम्मभूमि
तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्-" कहि गं भंते ! समुच्छिमयगम्भवतियमणुस्साणं ? । गोयमा ! अपमत्तसं- मणुस्सा संमुच्छति ?। गोयमा ! अंतोमणुम्सम्बेते पणयाजयसम्मदिद्विपजतगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवकं- लीसाए जोयणसयसहस्सेमु अड्डाइजेसु दावसमुद्दसु पत्रतियमणुस्साणं, नो पमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखे-| रससु कम्मभूमीसुतीमाए अकम्मभूमीसु छप्पराणाए अंतरज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साण । जइ वा खेलेस वा सिंघाणेमुवा बंतेमु वा पितेमु वा सुक्के वा
दांवेसु गम्भवतियमणुस्सागं चेव उच्चारेसु वा पासवरगम अपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमि- सोणिएसु वा मुक्कपोग्गलपरिसाडेमु वा विगयकले
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मणपज्जवणाण अभिधानराजेन्द्रः।
मणपज्जवणाण बरेसु वा थीपुरिससंजोएमु या गामनिद्धमणेसु वा केरदीववासिस्स खहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स ओयणानगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु पत्थ ण संमु-|
इए अणेगविहे ढोइए तस्स उवारें न रुई न य निंदा, जो छिममणुस्सा समुच्छंति अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताप
तेण सो ओयणाइनो आहारो न कयाइ दिवो नावि सुश्रो, ओगाहणाए असरणी मिच्छादिट्ठी अराणाणी सब्बाहि पजमीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुसाउा चेव कालं करोति ।"
एवं सम्ममिच्छहिट्ठिस्स वि जीवाइपयत्थाणं उवार न य इति । तथा गर्भे व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रा
रु नावि निंद' ति, तथा 'संजय ' ति 'यम' उपरमे, न्तिकाः, अथवा-गर्भाद् व्युत्क्रान्तिः-व्युत्क्रमण निष्क्रमणं
संयच्छन्ति स्म सर्वसावद्ययोगेभ्यस्सम्यगुपरमन्ते स्माते येषां ते गर्भव्युत्कान्तिकाः, उभयत्रापि गर्भजा इत्य
संयताः, “गत्यर्थकर्मण्याधारे" ति कर्तरि तप्रत्ययः, संर्थः । भगवानाह-नो समूच्छिममनुष्याणामुत्पद्यते, ते
यताः-सकलचारित्रिणः असंयताः-अविरतसम्यग्दृष्टयःषां विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् , किंतु-गर्भव्युत्क्रान्ति
संयतासंयताः-देशविरतिमन्तः, तथा 'पमत्त ' ति प्रमाकमनुष्याणाम् , एवं सर्वेषामपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां भावा
यन्ति स्म मोहनीयादिकम्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषार्थो भावनीयः , नवरं कृषिवाणिज्यतपःसंयमानुष्ठाना55
यानद्राद्यन्यनमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्मेति दिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयो भरतपञ्चकैरवतपश्चक- | प्रमत्ताः, पूर्ववत् कतरिक्तप्रत्ययः, ते च प्रायो गच्छवासिनः महाविदेहपञ्चकलक्षणाः पञ्चदश तासु जाताः कर्मभूमि- तेषां क्वचिदनुपयोगसम्भवात् , तद्विपरीता अप्रमत्ताः, तेच जाः . कृष्यादिकर्मरहिताः कल्पपादपफलोपभोगप्रधानाः प्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रतिभूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुप- माप्रतिपन्नाः, तेषां सततोपयोगसम्भवाद्, इह तु ये गच्छयाम्चकरम्यकपञ्चकैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभूमयः ता
सिनः तन्निर्गता वा प्रमादरहिताः तेऽप्रमत्ता द्रष्टव्याः, तथा सुजाता अकर्मभूमिजाः, तथा अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये 'इहिपत्तस्से' त्यादि, ऋद्धीः-श्रामर्षोषध्यादिलक्षणाः प्राद्वीपाः अन्तरद्वीपाः एकोरुकाऽऽदयः पदपञ्चाशत् तेषु जाता
प्ता ऋद्धिप्राप्ताः । ( नं० ) तथा श्रामर्पोषध्यादीनामन्यअन्तरद्वीपजाः (नं०) (अथ लवणसमुद्रस्य मध्ये पदप
तमामृद्धिमवध्य॒द्धि वा प्राप्तस्य मनःपर्यायज्ञानमुत्पद्यते, चाशदनन्तरद्वीपा वर्तन्ते किं प्रमाणा वा ते कि स्व
नानृद्धिप्राप्तस्य , अन्ये त्ववध्यद्धिप्राप्तस्यैवेति नियममा रूपा वा इति 'अंतरदोव' शब्दे प्रथमभागे ८६ पृष्ठे चक्षते,तदयुक्त,सिद्धग्राभृताऽऽदाववधिमन्तरेणापि मनःपयांगतम् ) 'संखेज्जवासाउय ति ' सङ्ख्येयवर्षायुषः
यज्ञानस्यानेकशोऽभिधानात् । अत्राऽऽह-मनुष्याणामुत्पद्यते पूर्वकोटयादिजीविनः असङ्ख्येयवर्षायुषः-पल्योपमादिजी
इत्युक्ते सामर्थ्यादमनुष्याणां नोत्पद्यते इत्यनुमीयते. ततः क. विनः ' तथा 'पज्जलग त्ति' पर्याप्तिः-श्राहारादिपुद्गलग्रहण
थमुच्यते-"नो श्रमणुस्साणं उप्पज्जई" इत्यादि.निरर्थकत्वात्। परिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयात् ,
उच्यते-इह त्रिधा विनेयाः। तद्यथा-उदघटितशा, मध्यकिमुक्तं भवति ?-उत्पत्तिदेशमागतेन येन गृहीता आहारा
बुद्धयः, प्रपञ्चितज्ञाश्च । तत्र ये उद्घटितज्ञाः. मध्यबुद्धयो दिपुद्गलास्तेषां तथा अन्येषां च प्रतिसमयं गृह्यमाणानां त
वा ते यथोक्नं सामर्थ्यमवबुध्यन्ते. ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् सम्पर्कतः तद्रपतया जातानामुपष्टम्भेन यः शक्तिविशेषो जी- न यथोक्लसामावगमकुशलास्ते प्रपञ्चितमेवावगन्तुमीवस्याऽऽहाराऽऽदिपुद्गलानां खलरसादिरूपतया परिणमनहे- शते, ततस्तेषामनुग्रहाय सामर्थ्यलभ्यस्याऽपि विपक्षनिषेसुर्यथोदगन्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामवष्टम्भेनाऽऽहारपुद्गल
धस्याऽभिधानं , महीयांसो हि परमकरुणापरीतत्वात् अस्खलरसरूपतापादनहेतुः शक्तिविशेषः सा पर्याप्तिः , पर्याप्तयो
विशेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्तन्ते, ततो न कश्चिद् दोषः । विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः 'अभ्रादिभ्यः ॥७२४६॥ इति मत्व
द्रव्यतः क्षेत्रतस्तदाहधीयोऽप्रत्ययः। ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलाः तं च दुविहं उप्पज्जइ, । तं जहा-उज्जुमई य, विते अपर्याप्ताः, ते च द्विविधा-लब्ध्या, करणैश्च, तत्र येऽपर्या- उलमई य । तं समासो , चउबिहं परमत्तं । तं जहाप्रका एक सन्तो म्रियन्ते न पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, तेऽपि नियमादाहारशरीरे
दबो, खत्तो, कालो, भावो । तत्थ दव्बओ न्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते. नार्वाक, यस्मादागामि णं उज्जुमई णं अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ, भवायर्वद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरोन्द्रि- पासइ ,तं चेव विउलमई अब्भाहियतराए विउलतराए यपर्याप्तिपर्याप्तानामेव वध्यत इति, ये पुनः करणानि शरी- विसुद्धृतराए बितिमिरतराए जाणइ, पासइ, खत्तओ खं रोन्द्रयादीनि न तावनिर्वतयन्ति अथ चावश्यं निर्वनयि- उज्जुमई अजहबेणं अंगुलस्स असंखेजयभागं उक्कोसेणं ग्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः, इहोभयेषामप्यपर्याप्तानां प्रति
अहे देवः, उभयेगापि विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् , तथा
जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमम्मट्टि ति 'सम्यक्-अविपरीता दृष्टिः-जिनप्रणी
महेडिल्ले खुडगपयरे उडू जाव जोइसस्स उवरिमतले नवस्तुप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः, मिथ्या-विपरीता ह.
तिरियं जाव अंतोमणुस्सखिते अडाइजेसु दीवसधिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः, सम्यक् च मिथ्या च दृष्टियेषां ते| मुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसुतीसाए अकम्मभूमीसु छ सम्यमिध्यादृष्टयः येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि तत्पर्याय
प्पनाए अंतरदीवगेसु सन्त्रिपंचिंदियाणं अपजत्तयाणं या मतिदौर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञानमिथ्याशानाभावतो न सम्यक श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः ते स
मणोगए भावे जाणइ, पासइ, तं चेव विउलमई अड्डाइ म्यगमिथ्यारण्य., उपनं च शतकपहलवर्णी--'जहा नालि.' जेहिमंगुलेहिं अमहियतरं विउलतरं विसद्धतरं
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मणपज्जवणाण
मापज्जवणाण
55) श्रभिधान राजेन्द्रः । वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ, पासइ, कालो णं उज्जुमई त्युच्यते, तत्र मनोनिमित्तम्याचक्षुर्दर्शनस्य सम्भवात् । श्रह जहभेणं पलिश्रवमस्स असंखिज्जइभागं उक्कीसेणंवि पलिओमस्स असंखिहभागं अतीय मणामयं वाकालं जाणइ, पासइ, तं चैव विउलमई अन्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्वतरागं वितिमिरतरागं जाणा, पासह, भावओ से उज्जुमई अगति भावे जागर, पासह, सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ, पासइ, तं चैव बिउलमई चम्भहियतरागं बिउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागंजाइ, पासइ - "मणपजवणारां पुरा, जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं । माणुसखित्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तत्वत्र ॥ ५७ ॥ " सेतं मणपजवनाणं । [ छत्र- १८]
तत्र मनः पर्ययज्ञानमृद्धिमाप्तानाम् श्रमसंवतानाम् उत्प द्यमानं द्विधा उत्पद्यते, तद्यथा - ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च तत्र मननं मतिः, संवेदनमित्यर्थः ऋज्वी सामान्य ग्राहिणी म तिः जुमति, डोमेन चिन्तित इत्यादिसामान्या काराध्यवसायनिबन्धनभूता कतिपयपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः । उक्तं च भाष्यकृता - "रिजुसामन्नं सम्म त्तगाहिणी रिजुमई मरणोणां । पायं विसेस विमुह, घटमित्तं चितियं मुराइ ॥१॥"दिया" विसेसविमुद्दे उचलहई, नाई बहुविसेसविसिद्धं श्रत्थं उवलभइ ति भणियं होई घडो ऽ ण चितिडति जाराहति। "यशब्दः स्वगतानेकद्रव्यक्षेत्रादिभेदसूचकः। तथा विपुला विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः, घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकः अद्यतनो म हान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभृतविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः । आह व माष्यकृत्"विपुलं वत्थुविसेसरण - नागतग्गाहिणी मई विपुला । चिंतियमसुसरह धर्म, पसंगो पयसप॥ि १॥"दिप्याद"वि पुला मई विपुलमई बहुविसेसगाहिणीति भणियं होइ, दितो जहाऽणेण घडो चिंतित्रो तं च देसकालाइ श्ररोगपज्जायविसेसविसिद्धं जागर।" इति चशब्दः पूर्ववत् अस्यां च व्यु त्पत्ती स्वतन्त्रमेव ज्ञानमभिधेयं, यद्वा पुनस्तद्वानभिधेयो वि वक्ष्यते तदैवं व्युत्पतिः ऋज्यी- सामान्यप्राहिसी मतिरस्य स ऋजुमतिः, तथा विपुला - विशेषग्राहिणी मतिरस्य स विपु लमतिः । तन्मनः पर्यायज्ञानं द्विविधमपि समासतः ' संक्षेपेण चतुर्विधं प्रशतं तथा-द्रव्यतः क्षेषतः कालतः, भाचतब्ध त द्रव्यतो समिति वाक्यालङ्कारे, ऋजुमतिरनन्तान अनन्तप्रदेशिकान् अनन्तपरमाण्वात्मकान् स्कन्धान् विशिष्टैक परिणा मपरिणतान् अर्द्धतृतीय द्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्तिपर्याप्तसङ्क्षिपञ्चेन्द्रियैर्मनस्त्येन परिणामितान पुलान पुइलसमूहानित्यर्थः, जानाति साक्षात्कारेणा वगच्छति, 'पासइ त्ति' इह मनस्त्वप रिणतैः स्कन्धैरालोचितं बाह्यमर्थ घदाऽऽदिलक्षणं साक्षादध्यक्षतो मनःपर्य्यायज्ञानी न जानाति, किन्तु मनोद्रव्याणामेव त थारूपपरिणामान्यथानुपपतितोऽनुमानतः स च भाष्यकृत् ' जागा व णुमारोणं ।' इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, यतो मूर्ख इव्यालम्बनमेवेदं मनः पर्यायशानमिष्यते मन्तारस्य मूर्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्यन्ते ततो-नुमान एवं चिन्तितमर्थमवबुध्यन्ते, नान्यचेति प्रतिपत्तव्यम् । ततस्तमधिकृत्य पश्वती
"मुणित्यं पुरा पच्चयोन पेक्टर जेरा भरो दया मुतममु या सोय माथो से अमाराच पेक्ख तो पासण्या भणिया" इति । अथवा सामान्यत एकरूपेऽपिशाने क्षयोपशमस्य तत्तद्रव्याऽऽद्यपेक्षवैचित्र्यस म्भवात् अनेकविध उपयोगः सम्भवति यथा चैषमतिचिपुलमतिरूपः ततो विशिष्टतरमनोइज्याकारपरिच्छेदापेक्षया जानातीत्युच्यते, सामान्यमनोरूपद्रव्याऽऽकारपरिच्छेदापेक्षया तु पश्यतीति । तथा चाऽऽह कृित्वा म स्वरस एषणश्रोयसल विविविशेषोभवो भवर, जड़ा पत्थेव उमविपुलमणमुपयोगो भयो बिसेससामप्रत्थेसु उवजुज्जइ जाणइ पासइ ति भणियं न दोसो " इति । श्रत्र 'गहिखोषसमलं विति'सामान्यत एकरूपऽपि संयोपशमलम्भेऽपान्तरासे याऽऽद्यपेक्षया क्षयोपशमस्य विशेषसम्भवाद् विविधोपयोगसम्भवो भवतीति तदेव विशिष्टतरमनोद्रव्याऽऽकारपरिच्छेदापेक्षया सामान्यरूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदो व्यवहारतो दर्शन रूप उक्तः, परमार्थतः पुनः सोऽपि ज्ञानमेववतः सामान्यरूपमपि मनोइच्या कारप्रतिनियतमेव प श्यति, प्रतिनियतविशेष ग्रहणात्मकं च ज्ञानं न दर्शनम्, अत ए व सूत्रे ऽपि दर्शने चतुर्विधमेवोनं, न पञ्चविधमपि मनःपर्यायदशनस्य परमार्थतोऽसम्भवादिति । तथा तामेष मनस्वेन परिणामितान् स्कन्धान् विपुलमतिः श्रभ्यधिकतरान् श्रर्द्धतृतीयाप्रमाणभूमि क्षेत्रवर्तिभिः स्कन्धेरधिकतरान् साचाभिकतरता देशतोऽपि भवति, ततः सर्वासु दिक्षु अधिकतरताप्रतिपादनार्थमाह - विपुलतरकान् प्रभूततरकान्, तथा विशुद्धत रान्, निर्मलतरान, ऋजुमत्यपेक्षयाऽतीव स्फुटतरप्रकाशानित्य यः स च स्फुट: प्रतिभासो भ्रान्तोऽपि सम्भपति, यथा-द्विचन्द्रप्रतिभासस्ततो भ्रान्तता शङ्काव्युदासाय विशेषणान्तरमाह - वितिमिरतरकान् विगत तिमिरं तिमिरसंपाद्यो भ्रमो ये षु ते वितिमिरास्ततो द्वयोः । प्रकृष्टे तरप् ॥ ७३ ॥ ५ ॥ इति तरप्प्रत्ययः । ततः प्राकृतलक्षणात्स्वार्थे कः प्रत्ययः एवं पूर्वेष्वपि पदेषु यथायोगं व्युत्पत्तिर्द्रष्टव्या, वितिमिरतरकान् - सर्वथा भ्रमरहितान् अथवा - अभ्यधिकतरकान् विपुलतरकानिति द्वावपिशब्दावेकार्थी, विशुद्धतारकान् वितिमिरतरफानेतायत्कार्थी, नानादेशजा हि विनेया भवन्ति ततः कोऽपि कस्याऽपि प्रसिद्धो भवति तेषामनुग्रहार्थम् एकार्थिकपदोपन्यासः । तथा क्षेत्रतो, रामिति वाक्यालङ्कारे, ऋजुमतिरधो यावदस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः उपरितनाधस्तनान् क्षुल्लक्प्रतरान् । श्रथ किमिदं क्षुल्लकप्रतर इति ? । उच्यते इह लोकाऽऽकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनप्रदेशरहिततया विवक्षिता मण्डका ऽऽकारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्युरूयन्ते तत्र तिर्यगलोकस्व ऊर्जाधोऽपेक्षयाऽप्रायोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे दो लघुघुकप्रतरी, तयोर्मध्यभा ये जम्बूद्वीपे रत्नप्रभावा बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्ये प्रादेशिको रुचकस्तत्र गोस्तनाऽऽकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एष एव च रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्त्तकः, एतदेव च सकलतिर्यग्लोकमध्यं, तौ सर्वलघु प्रतापला सवभागवाटल्यावलोकनप्रमाणी। तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये प्रतराः ति गायभागवृद्धया वर्द्धमानास्तावद्
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वर्तती
या
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मणपज्जवणाण
यावदूर्द्धलोकमध्यम्, तत्र पञ्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत उपर्यवेऽन्ये प्रतरान्तियंग हुलासवेयभावाच्या हीयमानाताबदवसेया यावलोकान् रज्जुप्रमाणः प्रतरः इह
9
यो मध्यवर्तिनं सर्वोत्कृष्टं रज्जुमा प्रतरमयश्रीत्या उपरितना अचलनाथ कमेरा हीयमानाः हीयमानाः सर्वेऽपि क्षुल्लकप्रतरा इति व्यवहियन्ते यावल्लोकाते तिर्यग्लोके च रज्जुप्रमाणप्रतर इति, तथा तिर्यग्लोकमध्यवर्ति सर्वलघुक्षुल्लकप्रतरस्याधस्तिर्यगङ्गुलाऽसङ्ख्येयभागवृद्धया वर्द्धमानाः वर्द्धमानाः प्रतरास्तावद्वक्लव्या यादधोलोकास्ते सर्वोत्कृष्टः समरज्जुप्रमाणः प्रतरः तं ब- सप्तरजुप्रमाणम् प्रतरमपेच्या अपे उपरितनाः सर्वेऽचि क्रमेण हीयमानाः वृजकप्रतरा अभिधीयन्ते यावति ग्लोकमप्यवती सर्वलघुः सुकप्रतरः एषा जुनकप्रतरप्ररूपणा । तत्र तिर्यग्लोक मध्यवर्त्तिनः सर्वलघुरज्जुप्रमासात् कतरादारभ्य याची नदयोजनानि साथदस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ये प्रतराः ते उपरितनक्षुल्लकप्रतारा भण्यन्ते तेषामपि चाधस्ताद् ये प्रतरा यावदधोलौकिकप्रामेषु सर्वान्तिमः प्रतरः तेभ्धस्तनक्षुल्लकप्रतराः, तान् यावद्धः क्षेत्रत ऋतुमतिः पश्यति, अथवा अधोलोकस्य उपरितनभागवर्तिनः शुल्लकतरा उपरितना उच्यन्ते, ते चाधोलौकिकग्रामवर्त्तिप्र नयारभ्य तावदवसेयाः यायनिर्वलोकस्यान्तिमोभ्यस्तनः प्रत, तथा तिर्यग्तोकस्य मध्यभागादारभ्याऽघोि लकप्रतरा श्रधस्तना उच्यन्ते, तत उपरितनाश्चाधस्तनाश्च उपरितनाधस्तनाः तान् उपरितनाधस्तनान् यावत् ऋजुमतिः पश्यति । अन्ये त्या-अधोलोकस्पोपरिवर्तनः उपरितनाः, ते सर्वनिग्लोपनो, यदि या निर्वलोकस्याधी नययोज कतरामां संबन्धिनो ये सर्वान्तिमाधस्तनाः क्षुल्लकप्रतराः तान् याव पश्यति, अधिव्याख्याने तिर्यग्लोकं यावत् पश्यतीत्यापद्य ते.तश्च न युक्तम्, अधोलौकिकग्रामवर्त्ति संशिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यापरिसङ्गात्। अथवा अधोलीफिकग्रामेष्यपि संशिपञ्चेन्द्रियमनाद्रव्याणि परिनिपित उक्रम्-"इहाघोलीकिग्रामान, निग्लोकविवर्तिनः। मनोगतांस्त्यसी भावान्, वति तद्वर्त्तिनामपि ॥ १ ॥' तथा 'उहं जावेत्यादि तथा ऊर्द्ध यावत् ज्योतिश्चक्रस्योपरितनस्तिर्यग् यावदन्तोमनुष्य क्षेत्रे - मनुष्यलोकपर्यन्त इत्यर्थः । एतदेव व्याच अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिंशति चाऽकर्म्मभूमिषु पदपञ्चाशत्स
तवर्त्तिनों, ततस्तेषामेवोपरितनानां
ङ्ख्येषु चान्तरद्वीपेषु सञ्ज्ञिनां, ते चापान्तरालगतावपि तदायुष्कसंवेदनादभिधीयन्ते नच तैरिहाधिकारस्ततो विशेषसमा
"
पद्रियाणं पञ्चेन्द्रियाश्रपपातक्षेत्रमागता इन्द्रियपर्या तिपरिसमाप्तौ मनः पर्याप्त्या अपर्याप्ता श्रपि भवन्ति । न च तैः प्रयोजनमत विशेषणान्तरमाह-पर्यामानाम अथवा संवि हेतुवादोपदेशेन विकलेन्द्रिया अपि भयन्ते ततस्तपचच्छेदा ये ते बापतका अपि भवन्ति ततस्तद्यव दार्थ तेषां मनोगतान् भावान् जानाति पश्यति तदेव मनोलन्धिसमन्वितजीवाधार पुलमतिरर्द्ध तृतीयं येषु तानि अतृतीयानि श्रङ्गुलानि, तानि च ज्ञानाधिकारादुच्छ्याङ्गुलानि द्रष्टव्यानि । यत उक्रं चूर्णिकृता" अहार गुलम्माहमुस्सेहे गुलमागण नाविससमय न दोस थि।" तैरवंदनायैरकुलर २३
"
(E) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
मणपजवणाए भ्यधिकतरं तश्चैकदेशमपि भवति, तत श्राह - विपुलतरं विस्वींतरम्। अथवा आवामविष्कम्भाभ्यामभ्यधिकतरं पा स्यमाश्रित्य विपुलतरम् अधिकतरम्, अतिसुतरं चितिमिर तरमिति च प्राग्वत् जानाति पश्यति तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश इतितावत् क्षेत्रगतानि मनोद्रव्याणि जानाति पश्यतीत्यर्थः । (का श्रो समित्यादि) सुगमं, यावदुक्तस्वरूपमनः पर्यायज्ञानप्रतिपादिका गाथा । तस्या व्याख्या मनःपर्यायज्ञानं प्रानिरूपितशब्दार्थ, पुनः शब्दो विशेषणार्थः । स च रूपिविषयत्वक्षायोपश मिकत्वप्रत्यक्षत्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानादिदं मनः पर्यायशानं स्वाम्यादिभेदाद्भिन्नमिति विशेषयति । तथाहि - अवधि - ज्ञानमविरतसम्यग्रहऐरपि भवति इम्यतोऽशेषरूपिय विषय क्षेत्रतो लोकविषये कतिपयलोकप्रमाणक्षेत्रापेक्षया अलोकविषयं व कालतोऽतीतानागतासङ्ख्येयोत्सपि एयवसर्पिणीविषयं भावतोऽशेषेषु रूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसंख्येयपर्यायविषयं मनः पर्यायशानं पुनः संयतस्याऽप्रमत्तस्यामनपध्यायन्यतमर्द्धिमाप्तस्य द्रव्यतः संक्षिमनोद्रव्यविष यं. क्षेत्रतो मनुष्यक्षेत्रगोचरम्, फालतोऽतीतानागतस्योपमा संख्येयभागविषयं, भावतो मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायालम्बनं, ततो यधिशानाद्भियम् एतदेव लेशतः सूत्रवाद 'जनमनः परि चिन्तितार्थप्रकटनं ' जायन्ते इति जनाः तेषां मनांसि जनमनांसि परिचिन्तितधावावर्धय जनमनःपरिनि तितार्थस्तं प्रकटयति प्रकाशयति जनमनः परिचिन्तितार्थप्र कटनं, तथा मनुष्यक्षेत्रनिबद्धं, न तद्बहिर्व्यवस्थितप्राणिद्रव्यमनौविषयमित्यर्थः तथा गुणाः क्षान्त्यादयः, ते प्रत्ययः- कारणं यस्य तद् गुणप्रत्ययं चारित्रचतोऽप्रमत्तसंयतस्य । नं० । तदेवं क्षेत्रतस्तद्विषय उक्तः, अथ द्रव्यतः, कालतः, भावतश्च तद्विषयमाह
,
"
1
मुइ मणोदव्वाई, नरलोए सो मणिज्जमाणाई | काले भूय भविस्से, पलियाऽखिजभागम्मि ||१३|| दव्यमसोपा, जागर पासर व तग्गएते । तणावभासिए उस जागर बज्भेऽणुमाये ||१४|| स मनःपर्यायज्ञानी मुखति श्रवगच्छति । कानि ?, इत्याहमनधिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि मनोद्रव्याणि तानि किं मनोयोग्यान्यप्याकाशस्थानि जानाति ? । न, इत्याह-नरलोके तिर्यग्लोके मन्यमानानि सरिनियैः काय-मनोयोगेन गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानीत्यर्थः । तदयं द्रव्यतो विषय उक्तः । श्रथ कालतो भावतश्च तमाहकाले' इत्यादि, भावतस्ताबजानाति, पश्यति च कान ?, इत्याह- चिन्तानुगुणान् सर्वपर्यायराश्यनन्तभागरूपानन्तान रूपाऽऽदीन पर्यायान् । कस्य संबन्धिनः ?, इत्याह-मनसत्यपरिणानन्तस्कन्धसमूहमवस्य द्रव्यमनसः न तु भा वमनसः, तस्य ज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य चामूर्तत्वात् छप्रस्थस्य चामूर्तविषयाऽयोगादिति । तां लतानेव मनोद्रव्यस्थितानेव जानाति, न पुनश्चिन्तनीयबाह्यघटाऽऽदिवस्तुगतानिति भावः । न च पव्यमेते मनोद्रव्यसंवन्धिन एच न भवन्ति, किमेतद्व्यवच्छेदपरे दोन - नि मनोइव्याणि ट्रा पचादनुमानेन ते ज्ञायते इत्ये तायता मनोद्रव्यैरपि सह संबन्धमात्रस्य विद्यमानत्वात् । मनदेवा SSह तेन इन्यमनसाऽवभासितान् प्रकाशिताम् या
"
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मणपज्जवणाण अभिधानराजेन्द्रः।
मणपज्जवणार वांश्चिन्तनीयघटाऽऽदीननुमानेन जानाति, यत एव तत्परि- मन्यते , यत् प्रत्यक्षोऽर्थः सुतरामचतुर्दर्शनस्याऽनुग्राहकहातान्येतानि मनोगव्याणि, तस्मादेवं विधेनेह चिन्तनीय- इति?. केवलं प्रत्यक्षमनोद्रव्यार्थग्राहकवादित्थं मनःपर्यावस्तुना भाष्यम् इत्येवं चिन्तनीयवस्तूनि जानाति न | यज्ञानस्य प्रत्यक्षता युज्यते , न , पुनरचक्षुर्दर्शनस्य , मसामादित्यर्थः । चिन्तको हि मूर्तममूर्त च वस्तु चिन्त
तिभेदत्वेन तस्य परोक्षार्थग्राहकत्वात् । ततः प्रत्यक्षबानियेत्। न च छापोऽभूर्त साक्षात् पश्यति, ततो शायते
त्वं मनःपर्यायमानिनो विरुध्येत, इत्याशङ्कयाऽह-'नाणं जा' अनुमानादेव चिन्तनीयं वस्त्ववगच्छति । कियति कस्मैिं- इत्यादि । यदि मनःपर्यायज्ञानलक्षणं शानं प्रत्यक्षार्थग्राहश्व काले मनोद्रव्यपर्यायानसौ जानाति ? , इत्याह- कत्वात् प्रत्यक्षम् , न त्वचजुर्दर्शनलक्षणं दर्शनं प्रत्यक्षम्, प'काले भूयेत्यादि' भूतेऽतीते, भविष्यति चाऽनागते प- रोक्षार्थग्राहकत्वेन परोक्षार्थत्वात् : तर्हि हन्त ! तस्य मनापल्योपमासख्येयभागरूपे काले ये तेषां मनोद्रव्याणां भूता र्यायशानिनः प्रत्यक्षशानितायां को दोषः-को विरोधः?,न कव्यतीताः, भविष्यन्तश्चाऽनागताश्चिन्तानुगुणाः पर्यायास्तान
श्चित् , भिन्नविषयत्वात् , अवधिमानिनश्चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनजानाति ॥ ८१३ ॥ १४ ॥
वदिति । न ह्यवधिशानिनश्चक्षुरचक्षुर्दर्शनाभ्यां परोक्षमर्थ पअत्र चान्तरे' तं समासो च उध्विहं पन्नत्तं, तं जहा-|
श्यतःप्रत्यक्षज्ञानितायाः कोऽपिविरोधः समापद्यते,तद्वदिहादवओ, खेतो, कालो, भावो । दब्बों उजु
ऽपि । तस्माद् मनःपर्यायज्ञानी स्वक्षानेन मनोद्रव्यपर्यायान् मह अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासर । "
जानाति, मानसेन त्वचक्षुर्दर्शनेन पश्यतीति स्थितम् ॥१६॥ इत्यादि नन्दिसूत्रेऽभिहितम् । तत्र मनःपर्यायज्ञानं पटुक्षयो, अन्ये तु‘पश्यति' इत्यन्यथा समर्थयन्ति, इति दर्शयतिपशमप्रभवत्वाद् विशेषमेव गृहृदुत्पद्यते, न सामान्यम् , अ. ___ अन्नेऽवहिदसणओ, वयंति न य तस्स तं सुए भाणयं ।
नरूपमेवेदम् , न पुनरिह दर्शनमस्ति , सति च त- न य मणपज्जवदंसण-मन्नं च चउप्पयाराओ॥१७॥ स्मिन् पश्यतीत्युपपद्यते, इति कथमिहोतं. 'पासइ ' इति ?,
अन्ये त्ववधिदर्शनेनाऽसौ मनःपर्यायशानी पश्यति , मनःइति वेतसि संप्रधार्य प्राऽऽह
पर्यायज्ञानेन तु जानातीति वदन्ति । एतच्चाऽयुतमेव, इत्यासो य किर अचक्खुइं-सणेण पासइ जहा सुयनाणी। ह-न च-नैव तस्य मनःपर्यायशानिनस्तदवधिदर्शनं श्रुतेs. जुत्तं सुए परोक्खे, पञ्चक्खे न उ मणोनाणे ॥१५॥
भिहितम् । न हि मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञान-दर्शनाभ्या
मवश्यमेव भवितव्यम् , अवधिमन्तरेणाऽपि मति-श्रुत-मन:सच मनःपर्यायज्ञानी किलाऽचतुर्दर्शनेन पश्यति , यथा
पर्यायलक्षणशानत्रयस्याऽऽगमे प्रतिपादितत्वात् । तथा चाहश्रुतज्ञानी केषाश्चिद् मतेनाऽचक्षुर्दशनेन पश्यतीति प्रागुनम् ।
"मणपजवनाणलद्धीया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नातथा च पूर्वमभिहितम्-' उवउत्तो सुयनाणी , सव्वं दवाई
णी ? । गोयमा ! नाणी , नो अनाणी । अत्थेगइया तिन्नाजाणड जहत्थं । पासह य केइ सो पुण, तमचकाईसणेण रणी, अरथेगइया चउनाणी । जे तिनाणी ते श्राभिणिबोहियमसि॥१॥” इत्यादि. इदमत्र हृदयम्-परस्य घटाऽऽदिकमर्थ य-मणपज्जवनाणी, जे चउनाणी ते आभिणिवोहिय-सुय-ओचिन्तयतः साक्षादेव मनःपर्यायशानी मनोद्रव्याणि तावजा
हिमणपज्जवनाणी।" तदेवं मनःपर्यायशानिनोऽवधिनियमनाति, तान्येष च मानसेनाऽचक्षुर्दर्शनेन विकल्पयति, अत- म्याऽभावात् कथमवधिदर्शनेनाऽसौ पश्यतीत्युपपद्यते । स्तदपेक्षया 'पश्यति' इतीत्युच्यते । ततश्चैकस्यैव मनःप
अथैवं मन्यसे-किमेतैर्बहुभिः प्रलपितैः!, यथा-अवधेर्दर्शनम् , र्यायशानिनः प्रमातुर्मनःपर्यायज्ञानादनन्तरमेव मानसमच
तथा मनःपर्यायस्याऽपि तद् भविष्यति, ततस्तेनाऽसौ एखुर्दर्शनमुत्पद्यते, इत्यसावेक एव प्रमाता मनःपर्यायशानेन म-|
श्यति, इन्युपपत्स्यत एव; इत्याशङ्कयाऽऽह 'न य मणे' त्यादि, नौद्रव्याणि जानाति,तान्येव चाऽचनदर्शनेन पश्यतीत्यभिधी
न च-नैव चतुष्पकाराचक्षुरादिदर्शनादन्यत् पञ्चमं मनःपयत इति । अत्र कश्चित् प्रेरकः प्राह-'जुत्तमित्यादि' "मतिश्रुते
र्यायदर्शनं श्रुते भणितम् , येन पश्यतीत्युपपत्स्यते । तथाचापरोक्षम्"रति वचनात् परोक्षार्थविषयं श्रुतज्ञानम्, अचक्षुर्दर्श- ऽऽह-"कइविहे ण भंते ! दंसणे पराणते?। गोयमा ! चउब्विनमपि मतिभेदत्वात् परोक्षार्थविषयमेव,इत्यतो युनं घटमानकं हे पराणत्ते । तं जहा-चक्खुइंसणे, अचक्खुइंसणे, भोहिदसणे श्रुतज्ञानविषयभूते मेरु-स्वर्गाऽऽदिके परोऽर्थेऽचतुर्दर्शनम् | केवलदसणे।” इति । तस्मात् पश्चमम्य मनःपर्यायदर्शनस्यासस्याऽपि तदालम्बनत्वेन समानविषयत्वात्।किं पुनस्तहि न- नुकत्वात् नेन पश्यति' इत्येतदपि नोपपद्यत इति ॥८१७ ॥ युक्तम् ? , इत्याह-'न उ इत्यादि " अवधि-मनःपर्याय
अभिप्रायान्तरमाशङ्कमान पाहकेवलानि प्रत्यक्षम् ।" इति वचनात् पुनः प्रत्यक्षार्थविषयं म
अहवा मणपज्नवदं-सणस्स मयमोहिदंसणं सम्मा। नःपर्यायज्ञानम् । अतः परोक्षार्थविषयस्याऽचक्षुर्दर्शनस्य कथं तत्र प्रवृत्तिरभ्युपगम्यते , भिन्नविषयत्वान् ? ॥१५॥ विन्मंगदसणस्स व, नणु भाणियमिदं सुयाईयं ।।८१८॥ अत्र सरिराह
अथवा-कश्चिदवं मन्येत-यथा विभङ्गदर्शनमवधिदर्शनमेबो
च्यते , तथा मनःपर्यायदर्शनस्याऽप्यवधिदर्शनमिति संशाजह जुज्जए परोक्खे, पच्चक्खे नणु बिसेसो घडइ ।
भिमता भविष्यति । इदमुक्नं भवति-चक्षुरादिदर्शनचतुष्टयानाणं जइ पञ्चक्खं, न दंसणं तस्स को दोसो ?॥८१६॥ ऽऽधिक्येनाऽनुक्रमपि यथाऽवधिदर्शनेऽन्तर्भूतं विभङ्गदर्शयदि परोक्षऽर्थेऽचक्षुर्दशनस्य प्रवृत्तिरभ्युपगम्यते,तहि प्रत्य- नमिष्यते , तथा मनःपर्यायदर्शनमपि भविष्यति । ततः नेन क्षे सुतरामस्येयमङ्गीकर्तव्या, विशेषेण तस्य तदनुग्राहकत्वा- मनःपर्यायज्ञानी पश्यति इत्युपपत्स्यत एवेति । अत्र मूरिराहतु, चतुःप्रत्यक्षोपलव्यपटादिवदिति । अत्राह-को बै नाचतत् भुतातीनमागमविश्यमेष व्यपाणिनम् ॥१५॥
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१ ) मणपज्जचणाण अभिधानराजेन्द्र:।
मापदुदृवंदण कुतः?, इत्याह
दोषाश्च केऽपि कथञ्चित् , तर्खाचार्यस्य कोऽभिप्रायः!, जेण मणोनाणवित्रओ, दो तिमि व दंसणाइँ भणियाई ।। इत्याशङ्कयाऽऽहजइ अोहिदंसणं हो-ज होज नियमेण तो तिमि ॥८१६॥ भस्मइ पत्रवणाए, मणपज्जवनाणपासणा भणिया । यस्माद्-भगवत्यामाशीविषोद्देशके मनःपर्यायज्ञाने-चतु- तो एव पासए सो, संदेहो हेउणा केण ॥२२॥ रचक्षुर्दर्शनलक्षणे वे दर्शने, चक्षु-रचक्षु-रवधिदर्शनलक्ष- भण्यते स्थितः पक्षोऽत्र । कः ? , इत्याह-प्रज्ञापनायां त्रिणानि त्रीणि वा दर्शनानि प्रोक्कानि-यो मति-श्रुत-मनःप- शत्तमपदे मनःपर्यायज्ञानस्य प्रकृष्टेक्षणलक्षणा साकारोपयो
यज्ञानत्रितयवांस्तस्य द्वे दर्शने, यस्तु मति-श्रुता-ऽवधि- | गविशेषरूपा पश्यता प्रोक्ता , तयैवासौ 'मनःपर्यायज्ञानी मनःपर्यायझावचतुष्टयवांस्तस्य त्रीणि दर्शनानीति भावः । पश्यति' इति व्यपदिश्यते। तत् केन किल हेतुनाऽभिप्रातस्मादुत्सूत्रं मनःपर्यायशानवतोऽवधिदर्शनसशितदर्शना:- यान्तरवादिना सन्देहोऽत्र, येनाऽपराऽपरान् निजनिजाऽभिभिधानम् । यदि पुनरित्थं स्यात् . तदा मति-श्रुत-मनः- प्रायानत्र प्रकटयन्ति ? , तस्यैव प्रकारस्याऽऽगमोक्तत्वेन पर्यायशानायवतोऽपि दर्शनानि नियमात् त्रीण्येव स्युः, न | निर्दोषत्वादिति भावः । प्रक्षेपगाथा चेयं लक्ष्यते , चिरन्ततु क्वापि द्वे, तस्मात् श्रुतातीतमिदमिति ॥ ८१६॥ नटीकाद्वयेऽप्यगृहीतत्वात् , केषुचिद् भाष्यपुस्तकेष्वदर्शअन्ये त्वाः , किम् ? , इत्याह
नाच केवलं केषुचिद्भाष्यपुस्तकेषु दर्शनात्, किश्चित्साऽभिअने उ मणोनाणी, जाणइ पासइ य जोऽवहिसमग्गो ।
प्रायत्वाच्चाऽस्माभिगृहीता। इति द्वादशगाथाऽर्थः। सत्प
दप्ररूपणताऽऽदयोऽस्यापि * अवधिवद वाच्याः, केवलमप्रइयरो य जाणइ चिय, संभवमेत्तंसुएऽभिहियं ॥२०॥
मत्ससंयतोऽस्योत्पादस्वामी, तदनुसारेण सर्वत्र नानात्वं स्वअन्ये तु मन्यन्ते-योऽवधिज्ञानयुक्तो मनःपर्यायज्ञानी चतु
यमभ्यूह्यम् ॥ २२ ॥ विशे० प्रा०० भ० प्रा० म० । आनीत्यर्थः, असौ मनःपर्यायशानेन जानाति , अवधिदर्श
प्रज्ञा । सम्म० । रा० । * मनःपर्यायज्ञानस्यापि। नेन तु पश्यति । यस्त्ववधिरहितस्त्रिज्ञानी स मनःपर्यायज्ञानेन जानात्येव , न तु पश्यति , तस्याऽवधिदर्शनाभा
मणपजवणाणजिण-मनःपर्यवज्ञानजिन-पुं० । रागद्वेषमोवात् । अतो मनःपर्यायज्ञानमात्रमाश्रित्य संभवमात्रतो जा.
हान् जयतीति जिनस्तत्र मनःपर्यवज्ञानप्रधानो जिनो मनःनाति , पश्यति चेति नन्दिसूत्रेऽभिहितमिति ॥२०॥ पर्यवक्षानजिनः । तादृशे जिने, स्था० ३ ठा०४ उ०। अन्ये तु 'जानाति, पश्यति' इत्य
मणपज्जवणाणावरण-मनःपर्यायज्ञानाऽऽवरण-न० । मनसः न्यथा समर्थयन्ति , इत्याह
पर्याया बाह्यवस्त्वालोचनप्रकाराः धर्मा मनःपर्यायास्तेषु तेअने जे साऽऽगारं, तो तं नाणं न दंसणं तम्मि । षां वा सम्बन्धि शानं मनःपर्यायज्ञानम् , तस्याऽऽवरणं मनःजम्हा पुण पच्चक्खं, पेच्छइ तो तेण तत्राणी ॥२१॥
पर्यायज्ञानाऽऽवरणम् । झानाऽऽवरणकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म । अन्ये त्वाहुः-यद्-यस्मात् पदुक्षयोपशमप्रभवत्वाद् मनः
मणपडिचारग-मनःपरिचारक-पुं०मनस्येवोपस्थितानां स्त्री पर्यायशानं साकारमेवोत्पद्यते, 'तो त्ति ' ततस्तज्ज्ञान
णामुपभोक्तरि, स्था। मेव , तेन जानात्येवेत्यर्थः, न पुनस्तत्र मनःपर्यायज्ञानेs.
दो इंदा मणपरियारगा पएणत्ता। तं जहा-पाणए चेव, वधि-केवलयोरिव दर्शनमस्ति । तर्हि ' पश्यति' इति
अच्चुए चेव । कथम् , इत्याह-यस्मात् पुनः, प्रत्यक्षं मनःपर्यायज्ञानं, अनन्ताऽऽदिषु चतुर्यु कल्पेषु मनःपरिचारका देवा भवन्ती'तो चि' ततः प्रत्यक्षत्वात् तेनैव मनःपर्यायज्ञानेन पश्य- ति । स्था० २ ठा०४ उ० । प्रज्ञा । स्यसो तशानी-स चासौ शानी च तज्ज्ञानी, मनःपर्या
मणपडिसंलीण-मनःप्रतिसंलीन-पुं० । कुशलमनउदीरणेयज्ञानीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-शिर प्रेक्षणे' प्रकृष्ट चेक्षणं प्रत्यक्षस्यैवोपपद्यते , प्रत्यक्ष च मनःपर्यायज्ञानम् , अ
नाकुशलमनोनिरोधेन च मनःप्रतिसंलीनं यस्य सः, मनसा तस्तेन पश्यतीति घटत एव । साकारत्वेन तु तस्य शान
वा प्रतिसंलीनो मनःप्रतिसंलीनः । प्रतिसलीनभेदे, स्था० ४ त्वात् 'तेन जानाति' इति निर्विवादमेव सिद्धम् । त
ठा०२ उ०॥ स्माद् दर्शनाभावेऽपि यथोक्लन्यायात् ' मनःपर्यायज्ञानी जा
मणपद्वंदण-मन:प्रद्विष्टवन्दन-ना केनचिद् गुणेन हीनस्य नाति , पश्यति' इत्युपपद्यत पवेति । एतदपि मूलटीका
वन्द्यस्य तथैव मनसीकृत्य साऽसूयं वन्दने, प्रा० चू०३ १०। कृता दूषितमेव , तद्यथा-ननु मनःपर्यायशाने साकारत्वेन
नवममाहज्ञानत्वाद् दर्शनं नास्ति , अथ च 'प्रत्यक्षत्वेन दृइयतेऽनेन अप्पपरपत्तिएणं, मणप्पदोसो अणेगउढाणो। वस्तु इति विरुद्धवेयं वाचोयुक्तिः, साकारात्वेन निषिद्ध- मनःप्रद्वेषः अनेकोत्थानोऽनेकनिमित्तो भवति ।सच सर्वोस्यापीह दर्शनस्य 'दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्' इति व्युत्प- ऽप्यात्मप्रत्ययेन , परप्रत्येन वा स्यात् । तत्राऽऽत्मप्रत्यस्या सामार्थ्यादापत्तेः । किञ्च , 'जानाति' इत्यनेनाऽत्र येन यदा शिष्य एव गुरुणा किश्चित्सरोषमभिहितो भवति । साकारत्वं स्थापितम् , ' पश्यति ' इत्यनेन च दर्शनरूढेन परप्रत्ययेन तु यदा तस्यैव शिष्यस्य संबन्धिनः सुहृदादेः शब्देनाऽनाकारत्वं व्यवस्थाप्यते , तो विरुद्धोभयधर्मप्रा
समुख सूरिणा किमप्यप्रियमुक्तं भवतीत्येवप्रकारेणान्यैरपि 'त्याऽपि न किञ्चिदेतदिति ॥ २१ ॥
स्वपदप्रत्ययैः कारणान्तरैर्मनसः प्रद्वेषो भवतीति यत्र पाह-यद्यमी सर्वेऽपि पूर्वोक्ता अन्येषामेवाऽभिप्रायाः, स- तन्मनसा प्रद्विमुच्यते । बृ०३ उ० धावा। प्रब।
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मणपल्हायजणण
मणपन्हाय जगण-मनः प्रहादजनन-२० अन्तःकरणत्पादके, उत्त० १६ श्र० ।
( १२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मणपवणजवेग- मनःपवनजयिवेग प्रि० । मनःपवनजयी वेगो यस्य ततथा । शीघ्रवेगे, श्री० । उपा० । मप सिणविजा-मनः प्रश्नविद्या - स्त्री० । ममः प्रश्नितार्थोत्तरदायिन्यां विद्यायाम्, स० १० अ मणप्पयौगपरिणय- मनः प्रयोगपरिणत त्रि० मनस्तया प रिणते, भ० ८०१ उ० । मणपोस- मनः प्रद्वेष-पुं० । मनोजाते द्वेषे, “पुवि च इसिंह अणगये च मयोसोउ मेरिथ को है। उपखा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा हु एए हिया कुमारा ॥ १ ॥ " उत्त० ११ अ० । सूत्र० । मणवं मना अच्य० “मनाको नया इयं वियं च ॥ ८२॥
१६६ ॥ मनाकशब्दस्यार्थे डयम डियम् च प्रत्यवी या भवतः । 'मख्यं । मणियं । प्रणा ।' ईषदर्थे, मन्दे च । प्रा० २ पाद। “मणईसिं" (७७७) पाइ० ना० २३८ गाथा । मणवइकायसुसंबुद्ध-मनोवाक्कायसुसंवृत श्रि० । तिसृभिर्गु शि० १०० मणवग्गणा - मनोवर्गणा स्त्री० । मनोरूपतया परिणमय्याऽऽस्वम्य्य च निसृष्टेषु मनःप्रायोग्यद्रव्येषु, पं० सं० ५ द्वार । (ताव' वग्गणा ' शब्दे वक्ष्यन्ते )
-
मणवण - मनोवन - न० । चित्तोद्याने, अष्ट० १७ अ० । मणविणय-मनोविनय- पुं० । मनसो विनयाऽहें कुशलप्रवृत्यादो स्था० ७ डा० (विराय शब्द भेद) मविप्परियासिया- मनोविपर्यासिका - स्त्री० । अप्रशस्तस्य मनसो चिन्तने, “मगोविन्परिवासिया " पद्मशस्तमनसा चिन्तितम् " केइ पुरा श्राउलमाउलाए ।
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35
श्र०० ४ श्र० ।
,
विरिय - मनोवीर्थ - न० । श्रकुशलमनोनिरोधे, कुशलमनसश्व प्रवर्त्तने, मनसो वा एकत्वीभावकरणे, सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० । ( ' वीरिय' शब्दे इदं व्याख्यास्यते ) मणसंकिलेस - मनः संक्लेश- ५० । अरतिरतिरागद्वे लक्षणे मनसि मनसो वा संपले स्था० १० ० । मणसंजम -- मनः संयम- पुं० । मनसो द्रोहेर्थ्याभिमानाऽऽदिभ्यो निवृत्तौ धर्मध्यानाऽऽपिषु च प्रवृत्ती, प्र० १६ द्वार | मरणसच्च- मनः सत्य- न० । मनसः सत्यं मनः सत्यम् । मनःसंयमे, पा० । मणसचविउ-मनःसत्यविद्वस् पुं० मनसः सत्यं मनःसंयमः, चाकुलस्य मनो निरोधः कुशलमनः प्रचर्सनल पेति सम्यगासेपनतो जानातीति मनः सत्यविद्वान मनःसंयते, पा० ।
मणसममा हरपया - मनः समन्वाहरणता - स्त्री० । मनसः समिति सम्यक अनु इति स्वावस्थानुरूपेण चङिति मर्यादा, आगमाभिहितभावाभिव्याप्त्या या हर-संक्षेप
मणाणुकूला
मनःसमन्वाहरणं, तदेव मनःसमन्वाहरणता । मनसः स्थिरत्वाऽऽपादने, भ० १७ श० ३ ॐ० ॥
मणसमाहारणा - मनः समाधारणा श्री० मनसः शुभस्थाने स्थित्वेन स्थापने, उत्त० ।
मणसमाहारण्याए णं भंते! जीवे किं जणयई । मणसमाहारणयाए एगऽग्गं जणयह, एगऽग्गं जणइत्ता नागपजवे जणयइ, नागपञ्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्तं च निजरे ।। ५६ ।।
हे भदन्त ! मनः समाधारण्या जीवः किं जनयति ?, मनसः सम्यकप्रकारेण श्रा-मर्यादा सिद्धान्तोकमार्गम् अभिव्याप्य वा धारणा स्थापनं मनःसमाधारणा तथा जीवः किं फलमुत्पादयति । तदा गुरुराह - हे शिष्य ! मनः समाधारणया मनसो मर्यादाया रचतेन एकाग्रयं धर्मे स्पेयं जनयति ध में ऐकायमुत्पाद्य ज्ञानपर्यवान् जनयति विशिष्टान् मतिज्ञानज्ञानादीनां पर्यायान तत्वावबोधरूपान विशेपान् जनयति पुनः सम्ययविशुद्धि जनपति, मिथ्यात्वं च निर्जरयति निवारयति ॥ ५६ ॥ उत्त० २६ श्र० । मणसमिइ - मनः समिति - स्त्री० । मनसः कुशलतायां समितिः मनः समितिः। समितिभेदे, स्था० ८ ठा० । मणसमिय- मनः समित त्रि० । मनसः सम्यक् प्रवर्त्तके, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । सूत्र० ।
मरासिला मनःशिला स्त्री० “बाऽदायन्तः
प्रथमादेः स्वरस्यान्त श्रागमरूपोऽनुस्वारः । " मांसिला क्वचिन्न - 'मसिला ।' प्रा० १ पाद । पृथ्वीविकारविशेषे, प्रा० १ पाद ।
मसिला - मनःशिला स्त्री० ।' मरासिला ' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद ।
"
मणस्सि - मनस्विन् - त्रि० । स्वमनस्तन्त्रे, “श्रा श्रामन्त्रये सौ वेनोनः ४२६३ शौरसेन्याम् इनो नकारस्यामध्ये सौ परे श्राकारो वा भवति । भो मस्सिया । प्रा० ४ पाद ।
मगहर - मनोहर - त्रि० । मनांसि श्रोतॄणां हरत्यात्मवशं नयतीति मनोहर, लिहाऽऽदेराकृतिगणत्वाच्प्रत्ययः । रा० । जे० "तोऽन्योऽन्यप्रकोष्ठाऽऽतोषशिरोवेदनामनोहर सरोरुडे लोकः ॥ १४१४६६॥ इत्यतो या तस्सक्लोश्च जियोगे तु यथासंभवं वकारतफारयोर्वा ऽऽदेशः । मणहरं । मोहरं । प्रा० १ पाद मनोनिवृत्तिकरे, रा० ।
|
1
66
८।४।४१८ ॥
मला मनाक् अव्य० पद एवं परं इत्यादिसूत्रेण 'मनाको मणाई" विवि पर कुडरिविहिजसामन्नु । किंपि मा मपि समि अणुहरइ न अन्नु ॥ १ ॥ " प्रा० ४ पाद । मणाशुकूला मनोऽनुकूला श्री० । पतिमनो ऽनुकूलवृतिकाया मणाणुकूलहियइच्छियाश्रो । ”
म् भ० १२ श० ६ उ० ।
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मणाणुकूला मनोऽनुकूला ता हृदयेनेतिचेति कर्मधारयः भ०
श० ३३ ३० ।
महाम मनोऽम त्रि० मनसाऽभ्यते गम्यते सौभाग्यतो अनुस्मर्यत इति मनोऽमः । स्था० ८ ठा० । ज्ञा० । प्रशा० । श्राव । मनसाऽस्यते प्राप्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यत्तन्मनोऽमम् । श्र० । विपा० रा० कल्प० । दशा० । मनचाप ० निरुक्तिवशात् मन आप सदैव भोज्यतया जन्तूनां मनांस्याप्नोति । जी० १ प्रति० | प्रब० । पुनः पुनः सुन्दरत्वातिशयान्मनोरमे, भ० ६ श० ३३ उ० | स० । मनःप्रिया । स्था० २ ठा० ३ उ० । मणामतर- मनआपतर प्रि० इष्टमनस्यानुया त्मवशतां नयन्तीति मनापास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरपप्रत्ययः, प्राकृतत्वाश्च पकारस्य मकारे मणामतराः । श्रतिरातिमन ग्रामेषु श्रा०म० १ श्र० । स्था० | जी० । रा० । श्री० ॥ जं० ।
मणामता - मनयापता श्री मन अनुयन्ति मनसि सदा रमन्ते इति मनश्रापः । स्पृहणीयता याम् प्रज्ञा० ३४ पद ।
तद्भावस्तता
"
मणाल - मृणाल - न० । पद्मकन्दोपरिवर्त्तिभ्यां लतायाम्,
•
( 42 ) अभिधानराजेन्द्रः ।
9
श्राचा० २ श्रु० १ ० १ श्र० ८ उ० । मणिमणि० खो० रत्नचेपनीलाऽऽदिके प्राचा० १
1
1
•
ध्रु० २ श्र० ३ उ० । स० । चन्द्रकान्ताऽऽदिरत्नविशेषे, स० । श्री० । प्रव० । जी० । द्वा० । जात्यरत्ने, दश० ६ श्र० 1 भ० । नि० चू० । प्रश्न० । रा० । कर्केतनाऽऽदिके, रा० यथा मेत्रकमरिण नरसिंहाऽऽद्याः । विशे० । शा० नं०प्र० । अनु० इन्द्रनील पद्मरागादिके, स्त्र० २ ० १ ० पृथिवीकायविकारेषु भ० १२ २०८ उ० । उत्त० । ( मणयः सुगन्धयुक्ता भवन्तीति सरह' शब्दे पञ्चमभाग १४०५ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम् ) मणिअंग-मण्यङ्ग - पुं० । मणीनां मणिप्रधानानामाभरणानां कारणत्वान्नाण्यङ्गाः । प्रव० १.७१ द्वार गयो बाङ्गान्यवयवा अस्थात | स्था० ७ ठा० । श्राभरणदायिनि सुपमसुषमाजाते कल्पवृक्षे, स० १० सम० । ति० । स्था० । " भवरुक्खेसु इरणेसु । " स्था० १० ठा० । मणिमणीयक- ० मालायचे मी "प्राश्य मुहि विभतंडी, ते मणिश्रडा गणति । श्रखर निरामइ परमपइ, श्रज वि लउ न लहंति ॥ १ ॥ " प्रा० ४ पाद । मणिचणकूड-मणिकाञ्चनट १०
रुमिवर्षधरपर्यंत
स्याऽष्टमे कुटे, स्था० ६ ठा० । जंग | दो मणिकंचा खा० २४० ३४० । मणिकंच रुप्पम - मणिकाञ्चनरूप्यवर्ण त्रि० । मणिकाञ्चन भ्यामिव वाया येषां ते रत्नकानरुया । रत्नकाञ्चनरूप्यच्छायेषु, पं०व० २ द्वार । मणिकरण मणिकनक- न० । किमये जी० ५ प्रति ४ अधि"मभूमियागमणिका
२४
मणियार
सम्बन्धिनी स्तृपिका शिखरं यस्य तन्मणिकनकस्तूपिकाकम् । चं० प्र०१६ पाहु० । जी० सू० प्र० । स० । मणिकमिया मणिकर्णिका स्त्री० काश्यां गङ्गातटे नामख्याते लौकिकर्तार्थ, यत्र कमठतापसः पार्श्वस्वामिना परा स्तीकृतः । ती० ३७ कल्प ।
-- ।
मणिकम्म मणिकर्मन् - १० मणिषु निष्पादितस्वस्तिका ssदिचित्रकर्म्मसु श्राचा० २ ० २ ०५ श्र० । कल्प० । मणिकूड-मणिकूट- न० । रुचकवरपर्वत पश्चिमदिक्कूटे, द्वी० । मणिकोट्टिमतल -- मणिकुट्टिमनल- न० । मणिबद्धभूमितले, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । मणिकखंडिय - माणिक्यखण्डिक- पुं० । रत्नपरीक्षके, महा० २ चाले० ।
मणिचूड-मणिचूड - पुं० । गन्धारदेशीयरत्नवाहपुरराजे विद्या धरे, उत्त० ६ ० । ( 'मि' शब्दे चतुर्थभागे १८०पृष्ठे कथोला) मणिनाग-नणिनाग-पुं० राजगृहे नगरे महातपस्तीरप्रभनाम्नि प्रस्त्रवणे पूज्यमाने स्वनामख्याते नागे, विशे० । श्र० म० श्र० चू० । स्था० । श्रा० क० ।
मणिजाल - मणिजाल १० मणिमये रामसमूह जं० १
3
वक्ष० । रा० ।
मणितोरणा - मणितोरणा श्री० । जम्बूद्वीपे पुष्कलावतीवि जये खनामख्याते पुरीभेदे, उत्त० ६ श्र० ।
मणिदत्त - मणिदत्त - पुं० । भारते वर्षे रोहितकनगरे स्वनामख्याते यक्षे, नि० १ श्रु० ५ वर्ग १ श्र० । मणिपडिमा मणिप्रतिमा खो० मणिमयत्नप्रतिमायाम्, व्य० ६ उ० ।
मणिपेडिया- मणिपीठिका श्री० मणिमयपीठिकायाम् पत्र जिनमूर्तयः स्थाप्यन्ते ता मणिपीठिकाः । रा० । जी० । जं० ॥ स्था० भ० ।
मणिष्यभ- मणिप्रभ-पुं० गन्धारनाम्नि देशे नवानगरे स्वनामख्याते विद्याधरेन्द्रे, उत्त० ६ श्र० । अवन्तिराजपालकसुतराष्ट्रवर्द्धन पुत्रे कौशाम्बीराजे, आ० ० ४ ० । ( तत्कथा 'अरणायया' शब्द प्रथमभागे ४६४ पृष्ठे दर्शिता ) मणिप्रभो नाम राजा । श्राव० ४ श्र० । श्रा०वृ० । अयोध्याराजस्य हरिन्द्रस्य परीक्षके वनामकदेये. ती० ३७ कल्प । मणिबंध-मणिबन्ध० मध्य पबन्ध पत्र । प्रकोष्ठपारयोर्मध्यस्थे करग्रन्थी, सैन्धवलवणाऽऽकरे पर्वतभेद च । प्रज्ञा० १ पद । वाच० । मणिमय-मणिमय त्रि० मणिप्रचुरं मणिधकारच रा० । मणिमेहला-मसिमेखला स्त्री० रामाच्या ० १
।
श्रु० १ अ० ।
मशिवार मणिकार पुं० राजन खनामख्याते थेष्ठिनि आव० ६ ० । श्रा० चू० ।
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मणिरपण
मणिग्यण - मणिरत्न-न० । "रत्नं निगद्यते तज्जानी जाती यदुत्कृष्टम् । " इति वचनान्मणिजात्युत्कृष्टे. स्था० ७ ठा । स० । श्र०१० । मणिरयविभतिचित्ता । मण्यश्चन्द्रकानाऽऽयाः रत्नानि फर्केननादीनि
तिमिश्चित्रा नानारूपा श्रश्वर्यवन्तो वा । जी० ३ प्रति० ४] अधि० रा० प्रश्न० सोमशुभ शिष्ये ०
३ अधि० ।
( ६४ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
..
मणिरह - मणिरथ- पुं०। मालवदेशीयसुदर्शनपुरराजे मदनरेखा 'ज्येष्ठे उत्त०६०। (मि' शब्दे चतुर्थभांग १०७ पृष्ठे कथोक्ला) मलिक्खण-मणिलक्षण- न० । रत्नपरीक्षाग्रन्थोककाकपदमकान के हिस्पर्श करनास्वस्थच सौचितफलदायित्या ऽऽदिमणिगुणदोषविज्ञाने, जं० २ वक्ष० । औ० । स० । सूत्र० । मसिंग - मणिवंशकन मणया मणिमया यशा येषां तानि मणिवंशकानि । मणिमयवेशयुक्तेषु. जं० १ वक्ष० । जी० १ मग मशिनन० मणिप्रधानभाजन
मणु- मनु-पुं० [ मनुष्याणां परममूलपुरुपे. यदपत्यानि म बुच्या उच्यन्ते ॥ श्र० म० ? अ० । मनुना प्रणीते ग्रन्थे च । विशे० । मनुष्ये, मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा । वाचः । मणुत्र - मनुज - पुं० | नरे मश्रा नरा मरणुस्सा. मन्त्रा तह मारावा पुरिसा । " ( १०० ) पाइ० ना० ६० गाथा । मगुज मनोज्ञ भि० सुन्दरे, "करे राधे रम्मं अहिरामं बंधुरमच लठ्ठे ते सुर्य मोर चार रामणिज्जं । " (१४) पाइ० ना० १४ गाथा ।
मम मनोज त्रि० मनसा प्रायते उपादीयत इति मन शम् । तं० । मनसाऽन्तः संवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनाशः १०० मनमा सुन्दरता यतन्मनोज्ञम् । भावतः सुन्दरे, ४० ६ श० ३३ ३० । जं० । श्र० । स्वरूपतः शोभने, स्था० ३ ० १ ० । मनोशाः मनो मत बलमा सर्वस्याप्युपभोः सर्वा च शोभ
प्रविधिना स्पा०२ डा० ३ उ 1 aro | मनोशौ मनसा सम्यगुपादेयतया घातब्बान् । रा० ।
मपुरम विपाकेऽपि सुखजनकतया मनसः महाराजां १ प्रति । मनसा मचिने नि० ० २ ० । ० । ० म० जी० पंश्व० । प्रज्ञा० । ग० । जं० । विश० । मनोरमे, शा० १ ० १ श्र० । श्राव० । इष्टे आव० ४ अ० । प्रव० । श्राचा० । "मरपुराणं भोयं भोच्चा मरपुरा मथाऽऽसणं । मरणं ति अगार ति. मसुराणं भाग मुणी ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० ३ श्र० ४ उ० । श्रभिलषगाये स्था० ६ ठा० सूत्र | शुभस्वरूपे स्था० सूत्र | मनोविनोदकारिणि कल्प० १ अधि० रे क्षण । सं भोगिके व्य० १ ३० ।
।
"
गिघृताऽऽदिपात्रे जं० २ वक्ष० । मणिवना मणिपदा श्री पुरीभेदे "मणिया रायरी.मि. तो राया. संभूतिविजये अणगारे पडिलाभिए० जाव सिद्धे ।' विषा० २ श्रु० ६ श्र० ।
मणिविया मणि विजया श्री० भारतवर्षे ऽतिप्राचीनाथां स्वनामिकायां नगम् यत्र पूर्णभद्रस्य देवस्य पूर्वजन्म-मरणुदुग- मनुजाद्विकन मनुजगतिम ऽऽसीत् । नि० १ ० ३ वर्ग ५ ० । जोपलक्षित द्वये कर्म० ५ कर्म० ।
"
।
मणि सलागा- मणिशलाका०ताव मणिमरपुव्यग-मनुपूर्वक पुं० । वैतान्यपर्वते मनुविद्याप्रधाने शलाका । मद्यभेदे. जी० ३ प्रति० ४ अधि० | नं० । विद्याधरे. श्र० सू० १ श्र मणि हियय-मणिय- ५० वरस्य परस्नात् स्थितस्य मनुष-मनुज-पु० मनोजतो मनुजः । मनुष्ये । शङ्खवरस्य द्वीपस्य देवे. द्वी० । मीसा - मनीषा स्त्री० । बुद्धौ. अनु० । " मेहा मई मणीमा विना धी चिई बुद्धी । (४२) " पाइन्ना० ३१
RITO?
डा० । उत्त० । सूत्र० । नरे सूत्र० १ ० २ ० २ ० । नं० | मनुष्याश्चतुर्भेदाः । तद्यथा-संमृच्छेनजाः कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः अन्तरभूमिजाश्वेति । चाचा० ० १ अ० १ ३० । स्था० भ० श्र० । मत्ये
"
गाथा ।
स्था० उ० ।
मी यो मतान्तरेश्वरोधनेत्री वृषभवाहनधतुर्भुजमादारीद्वयो नफलावापासिद्वय प्र० २६ द्वार। स० मणुयगड- मनुजगति - स्त्री० । मनुष्याणां गतिः मनुष्यत्व संपादिका वा गतिः । गतिभेदे स्था० ५ ठा० ३ उ० । मगुबगइसहगया मनुजगति सहगता-० मनुष्यगन्यास हया सामुदयस्ता मनुजगतिसहगताः तथाविधा क प्रकृतिषु कर्म० ६ कर्म० ।
मनुयतिगमनुजत्रिक न मनुजगनिमनु जानुपूर्यमनुजामनुष्योपलक्षिते त्रिके कर्म० २ कर्म० । मनुययोनि मनुजवोनि श्री मनप्यजातीनामुत्पत्तिस्थाने,
मरम्मतर- मनोज्ञतर- त्रि । मनोशशब्दात्प्रकर्षविवक्षायां तरप। श्रतिमनोऽनुकुले, रा० जी० ३ प्रति० ४ श्रधि मनुष्यसंपथे। गसंपत्त-मनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्त १० मनो शस्य धनाऽऽदेः सम्प्रयोगो योगस्तेन संप्रयुक्तो यः स तथा । अध्यान ग० ? अधि
मसरा- मनोज्ञस्वरता खी० उपरभाषीऽपि स्वा35लम्बनप्रीतिजनको मनोज्ञः स्वरो यस्य स मनोज्ञस्वरस्तावस्तत्ता । मनोशस्वरवत्त्वे, प्रज्ञा० २३ पद । मणुतिरियाणुपृथ्वीमनुजतिगानुपूर्वी श्री मनुजानु स्य नियगानुपूज्य च कर्म० २ कर्म
"
.
--
"
"
प्रश्न० २ श्राश्रयद्वार ।
1.
मणस्स - मनुष्य - पुं० । मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा । मनोरपस्थानि मनुष्याः जातिशब्दोऽयं राजन्यादिशब्दवत् ज० १ प्रति० । नि० च० । नरे प्रश्न० २ सम्ब० द्वार । मनुजे, जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । सूत्र० 1 उत्त०
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मणुस्म अभिधानगजेन्द्रः।
मणुस्म मनुष्यभेदाः
सरीरंगा पापत्ता ?। गोयमा ! तिन्नि सरीरगा पामत्ता । तं से किं तं मणुस्सा । मणुस्सा दुविहा पत्ता । तं जहा- जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए। सेत्तं समुच्छिममणुस्सा। संमुच्छिमभणुस्सा य, गम्भवकंनियमणुस्सा य । से किसे किं तं गब्भवतियमणुस्सा। गन्भवतियमणुस्सा तं संमच्छिमगणुस्सा। कहि णं मंत ! संमुच्छिममगुस्सा तिविहा पामत्ता । तं जहा-कम्मभूमया, अकम्मभूमया, संमृच्छति । गोयमा! अंतो मणुस्सखेत्ते पणयाली- | अंतरदीवजा, एवं मणुस्सभेदो भाणियब्यो जहा साए जोयणसयसहम्मेसु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पसरससु पामवणाए तहा निरवसेसं भाशियब्वं जाव छउमत्था कम्मभूमीसुतासाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए अंतरदीवएमु | य, केवली य । ते समासतो दुविहा पामत्ता । तं जहा-पगम्भवतियमणुस्साणं चव उमारेसु वा पासवणेसु वा खे- ज्जत्ता य, अपजत्ता य । तेसिणं भंते ! जीवाणं कलेसु वा सिंघाणएमु वा वंतसु वा पित्तेसु वा पूएमु वा सो- ति सरीरा परमत्ता ?। गोयमा ! पंच सरीरया पाता । गिएसु वा सुक्केमु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेमु वा विगय- जहा-ओरालिए जाव कम्मए । सरीरोगाहणा जहामेणं जावकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएमु वा नगरनिद्धमणेसु अंगुलस्स असंखेज्जइभागा, उक्कोसेणं तिमि गाउयाई
यस चेव असइदाणेसु , एत्थ णं समुच्छिममणु- | छच्चेव संघयणा छस्संठाणा। तेणं भंते ! जीवा कि स्सा संमृच्छति, अंगुलस्स असंखिज्जइभागमेत्ताए अोगा- कोहकसायी जाव लोभकसायी, अकसायी । गोयमा ! हणाए असन्नी भिच्छदिट्ठी अन्नाणी सवाहिं पञ्जत्तीहिं | सव्वे वि । ते णं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता, अपञ्जतगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति । सेत्तं | लोभमन्नोवउत्ता, नोसन्नोवउत्ता?। गोयमा! सव्वे वि। समुच्छिममणुस्सा । मे किं तं गम्भवतियमणुस्सा ?। ग- |
ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा य . जाव - भवतियमगुस्सा तिषिहा पाम ता । तं जहा-कम्मभूम- लेस्सागोयमा सव्वे वि । सोइंदियोवउत्ता . जाव गा, अकम्मभृमगा, अंतरदीवगा।
नोइंदिओवउत्ता वि, सम्बे समुग्घाया पामत्ता । तं जहा-वे(से किं तमित्यादि ) अत्रापि सम्मूछिममनुष्यविषये यणासमुग्धाते जाव केवलिसमुग्धाते, सन्नी वि, नोसन्नी, प्रवचनबहुमानतः शिष्याणामपि च साक्षाद्धगवतेदमत असन्नी वि, इत्थिवेदा वि जाव अवेदा वि, पंच पमिति बहुमानोत्पादनार्थमङ्गलान्तर्गतमालापक पठति- ज्जत्ती, तिविहा दिट्ठी, चत्तारि दंसणा. गाणी वि, "कहिणभंत!" इत्यादि सुगम, नवरं " सव्वेसु चेव
अप्माणी वि, जे पाणी ते अत्थेगतिया दुनाणी, अअसुइट्ठाणेसु त्ति ।" अन्यान्यपि यानि कानिचित् मनुष्यसंसर्गवशादशुचिभूतानि स्थानानि तेषु सबिति । उक्नाः
त्थगतिया तिनाणी, अत्थेगतिया चउनाणी , अत्थेसंमूछिममनुष्याः । अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यप्रतिपा
गतिया एगणाणी ।जे दुस्माणी ते नियमा आभिणिबोहिदनार्थमाह-(से कि तमित्यादि ) 'कम्मभूमिगा' इति-कर्म याणाणी, सुयणाणी य । जे तिप्पाणी ते प्राभिणियोहियकृषिवाणिज्याऽऽदि मोक्षानुष्ठानं वा, कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते
णाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी य अहवा-प्राभिणिबोकर्मभूमाः, आपत्वात् समासान्तोऽप्रत्ययः, कर्मभूमा एव कर्म भूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्लकर्मविकला भूमिर्येषां ते अकर्म
हियणाणी, सुतणाणी,मणपजवणाणी य। जे चउणाणी ने भूमास्ते एवाऽकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यबाची: अन्तरे
णियमा आभिणिबोहियखाणी, सुयणाणी, अहिणाणी, लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः तद्गता अन्तरद्वीप- मणपज्जवणाणी य।जेएगणाणी ते नियमा केवलणाणी, गाः,"अस्ति पश्चानुपूर्वी" इति न्यायख्यापनार्थम् । प्रज्ञा०१ पदा एवं अल्माणी वि, दुअत्मणी,तिप्रमाणी,मणजोगी वि,वइअनु । श्राचा०। (कर्मभूमकमनुष्याणां व्याख्या 'कम्मभूमग
कायजोगी वि, अजोगी वि, दुविहउयोगे, आहारो शब्दे तृतीयभागे ३३६ पृष्टे गता ) ( अकर्मभूमकर्ममुच्याणां वक्तव्यता 'अम्मभूमग' शब्दे प्रथमभागे १२० पृष्ठे गता)।
बहिसिं । उववातो नेरइएहिं अधे सत्तमवज्जेहिं तिरिक्ख( अन्तरद्वीपमनुष्यवक्लव्यता ' अंतरदीव' शब्दे प्रथम- | जोणिएहितो, उवचाओ असंखेञ्जवासाऽऽउप्रवजेहिं मणुभागे ८६ पृष्ठे गता) (आर्यमनुष्यव्याख्या ' श्रा (य) रिय' | एहिं अकम्मभूमगअंतरदीवगाखेजवासाउयव हि, देवेशध्द द्वितीयभागे ३३६ पृष्ठे गता ) ( म्लेच्छमनुष्याणां
हिं सव्वेहि, ठिती जहमणं अंतोमुहुत्तं, उकासेणं तिमि व्याख्या ' मिलक्खु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते)
पलिओवमाई, दुविहा वि मरंति, उपट्टित्ता नेरइयादिसु से किं तं मणुस्सा ? । मणुस्सा दुविहा पामता । तं
जाव अणुत्तरोवबाइएमु अत्थेगतिया सिझति० जाव जहा-समुच्छिममणुस्सा य, गब्भवतियमणुस्सा य। कहि अंतं करेंति । ते णं मंते! जीवा कति गइया, कति श्रागति-- णं भंते ! समुच्छिममगुस्सा संपुच्छति । गोयमा ! अंतो या पलत्ता । गोयमा! पंचगतिया, चउागतिया, परित्ता मणुस्मखेने • जाव करेंति । तेसिणं भंते ! जीवाणं कति | संखेन्जा पम्मना । सेनं मणुरुण । ( सूत्रे ४१)
कानिचित् मनुष्यः । त्थेगतिर
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मणुस्स
अथ के ते मनुष्याः 21 सूरिराह- मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-संमूमिमनुष्याश्च, गर्भयुक्तकान्तिकमनुष्याध, चश
स्वगतानेकभसूचकी, तत्र संमृच्छममनुष्यप्रतिपादनामाह-कहि येते!' इत्यादि कय भइन् ! संमूमि नुष्याः संमूर्च्छन्ति ?| भगवानाह - गौतम ! " तो मगुस्सले से जाप करेंति' इति जी०) तेसि भंते! इत्यादि) शरीराणि त्रीणि श्रदानिकजसका मेगान गाना - धन्यत उत्कर्षतआला सहस्येभागप्रमाया, संदननसंस्थानकपालेश्याद्वानि यथा प्रीन्द्रियाणाम्। इन्द्रद्वारे प न्द्रियाणि, शिद्वारवेदद्वारे अपि द्वन्द्रियंवत् पयष्टिद्वारे श्र पर्यायः दर्शनानयोगोपयोगद्वाराणि (बच्चा) - थिवीकायिकानाम् आहारो यथा द्रियाणाम उपपात मैराजाख्यातवां युष्कवः स्थिति यतः उत्कर्षतोऽप्यन्तमुंह प्रमाणा नवरं जयम्यपदा दुष्टमधिकं वेदितव्यं मारणान्तिकसमुद्घातेन समवता आप म्रियन्ते असमग्रता, अनन्तरमुत्य नैरविकदेवासंस्थेवर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु स्थानेषूपपद्यन्ते श्रत एव गत्यागतिद्वारे द्वागतिका द्विगतिकास्तिर्यङ्मनुष्यगत्यपेक्षया, परीताः प्रत्येकशरीरिणोऽसंख्येयाः प्रज्ञप्ताः । हे श्रमस! दे आयुष्मन् ! उपसंहारमाह - (सेचं संमुममस्सा) उक्काः संमूमिमनुष्याः । अधुना गर्मव्युत्क्रान्तिकमनुष्याना
"
अथ के गर्भान्तकमनुष्याः । रराह-गर्भम्युत्का विक्रमनुष्यास्त्रिविधाः प्रताः, तद्यथा कम्र्म्मभूमकाः, अकर्मभूमकाः, अन्तरद्वीप जा तत्र कर्म कृषिवाणिज्यादि मान ठानं या कर्मप्रधाना भूमिर्वेषां ते कर्मभूमा समा सान्तो ऽप्रत्ययः कर्म्मभूमा एव कर्मभूमकाः एवमकर्मा यो
3
(६) अभिधानराजेन्द्रः ।
कविकता भूमिर्वेषां ते अकर्मभूमास्त एयाकर्मभूमकाः, अन्तरशाद मध्यवाची, अन्तरे समुद्रस्य मध्ये द्वीपा अ तरद्वीपास्तद्गता अन्तरद्वीपगाः । ( एवं मगुस्सभेत्री भाणियवो जहा परणत्रणाय इति ) एबम् उक्लेन प्रकारेण मनुष्यभेदो मणि यथा प्रज्ञापनायां सवातिय इति तत एव परिभावनीयः (ते समासतो इत्यादि) पर्याप्तापर्यास पाठसिजे शरीराऽऽदिद्वारफलापचिन्ता शरीरारे पक्ष शरीराणि । तद्यथा-वारिक क्रियमाहारकं तेजर्स का मेण च, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् श्रवगाहनाद्वारे जयम्यतोऽवगाहना ताब्ययभागमात्रा उत्कर्षतस्त्रीणि गानि संहननद्वारे पपि संहननानि संस्थानद्वारेashi संस्थानानि कषायद्वारे क्रोधकायिणोऽपि मानकपाथोऽपि माथापयिणोऽपि लोकायिपि अकषाfrणोऽपि वीतरागमनुष्याणामकषायित्यात् संशाद्वारेश्राहार संशोपयुका भयसंशेोपयुक्ता मैथुनसंशोषयुक्ता लोभसंशोपयुक्त नाथ निश्वयतो वीतरागमनुष्याः व्यवहारतः सर्व एव चारित्रिणो लोकोत्तरचितलाभात् तस्यापि विश्वात उस मियांसाधकं सर्व ज्ञेयं लोकोत्तराऽऽश्रयम् । संज्ञालोका 55या सर्वा, भवाङ्कुरजलं परम् ॥ १ ॥ " लेश्याद्वारे कृष्ण लेश्याद्वारे - कृष्णलेश्या मीललेश्या: कापोत लेश्यास्तेजोलेश्याः पद्मलेश्णः शुक्ललेश्या अलेश्याश्च सत्रालेश्याः परमशुक्लध्यायिनोऽयोगिनः इन्द्रपहारे-धोत्रेन्द्रियायुक्ताः यावत्प नेन्द्रियोपयुक्त नोइन्द्रियोपयुक्ताश्च तत्र मोहन्द्रियोप
"
,
मगुस्स
यः केवलिनः समुद्घातरे सप्ताऽपि समुदयाता, मनुष्येषु सर्वमात्। समुद्धातसंग्राहिका नेमा माथा-" वेवसायमर लिए परिहारे। केलियस मुम्यासस समुरा मेमहिया ॥१७" संविद्वारे संझिनो ऽपि नासशिनोऽसंशिनोऽपि तत्र कोशिनः संशिनः केवलिनः । वेदद्वारेस्त्री केश अपि पुरुषवेदा अपि नपुंसकवेदा श्रपि श्रवेदाः सूक्ष्मसं परायाऽऽदयः, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्यापर्यायः भाषामनपत्योरेक
"
"
दृष्टिद्वारे त्रिविधयोऽपि तथा केचिन मि के चित् सम्ययः केचित् सम्यगमिष्यारएवः। दर्शनद्वारेचतुर्विधदर्शनाः, तद्यथा-चतुर्दर्शना श्रन्चतुर्दर्शना अवधिदर्शनाः केवलिदर्शनाश्च ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च तत्र मिथ्यादृयोऽज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयो ज्ञानिनः (नालाखि यंत्र तिरिण श्राणाणि भयणार इति ) ज्ञानानिपञ्च मतिज्ञानाऽऽदानि अज्ञानानि त्रीणि मत्यज्ञानादी नि तानि भजनया ज्यानि सा च भजना एवं वित् द्विज्ञानिनः केचित् विज्ञानिनः केचिच्चतुर्ज्ञानिनः केचिदेकज्ञानिनः, तत्र ये द्विज्ञानिनस्ते नियमादाभिनिबोधिकक्षानिः श्रुतवानिनश्च ये विज्ञानिनस्ते मतिज्ञानिनः श्रुतज्ञाननोऽधिज्ञानिन अथवा प्राभिनियोधिकशानिक भूतकानिनो मनः पर्यवज्ञानिश्च श्रवविज्ञानमन्तरेणापि मनः पर्ययज्ञानस्य सम्भवात् । सिद्धाभूतायी तथा नेक शोऽभिधानात ये चतुनिस्ते श्रभिनियोधिनः श्रुतानि धानिनो मनः पर्यवठानिन - निमस्ते केवलशानिनः केशानसद्भावे शेपज्ञानापगमात् "नम्मि उ दाउमाथि नागे" इति पचना न केवल ज्ञानप्रादुर्भावे कर्य शेषज्ञानापगमः ?, याचता यानि शेपाि मत्यादीनि ज्ञानानि स्वस्वाऽऽवरलक्षयोपशमेन जायन्ते ततो निर्मूलस्वस्वाऽऽवरविलये तानि सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत्। उक्तं च आवरणसविगमे वि ति महसुयाऽऽईणि । श्रवरणसव्वविगमे, कह ताई न होंति जीवस्स ? ॥ १ ॥ " उच्यते-इद्द यथा जाताय मरकताSSदिलोदिन्धस्य यावाद्याऽपि समूलमलापगमस्नायत् यथा यथा देशतो मलविलयस्ता तथा देशोऽभिव्यक्तिपजायते सा च कचित् कदाचितकारा तथा मनोऽपि सकलकालकलापावलम्विनिखिल पदार्थमा परिच्छेदकर पारमार्थिक स्वरूपस्यापि श्रावणमपट उतिरोहितस्य पापप्राद्यापि निखिलकर्ममापनमस्ता पद्यथा यथा देशनः कर्ममलोषदस्तथा तथा तस्य विि म्भते सा क्यचित् कदाचित् कथञ्चिदनेकप्रकारा । उक्कं
"
मलमिति येथा उमेकप्रकारतः। कर्मविदात्मि ज्ञप्ति स्तथा ऽनेकप्रकारतः । १।" सा चाऽनेकप्रकाराता मतिश्रुता 55 दिन सेवा। ततो यथा मरकताश्मिरशमलामसंभवे समस्तास्पदेशयव्यवच्छेदेन परिस्कुटरूपैका भिव्याक्तिरुपजायते तद्वदात्मनोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रप्रभावतो निःशेषावर हातापरोपदेशज्ञानव्यवच्छेदेन एकरूपा श्रतिपरिस्फुटा सर्वचस्तुपर्यांयप्रपञ्चसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुलसति उक्त ख-यथा जास्यस्य रत्नस्य निःशेषमलहानितः । स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्ति विंशतिस्तद्वदात्मनः १' इति|ये अज्ञानि
"
"
9
2
,
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(&) अभिधान राजेन्द्र |
मस्स
नस्ते द्वज्ञानिनः, व्यज्ञानिनो वा, तत्र ये हुयज्ञानिनस्ते मत्यशानिनः श्रुत्यज्ञानिनश्च, ये व्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः, श्रुताशानिनो विभङ्गज्ञानिनक्ष, योगद्वारे मनोयोगिनो, बाग्योगिनः, काययोगोऽयोग, लत्राऽयोनिनः शैलेशीमवस्थां प्रतिपन्नाः, उपयोगद्वार माहारद्वारं च श्रीन्द्रियबत्, उपपात पतेवधः सप्तमनरकाऽदिवर्जेभ्यः । उक्तं च-" सत्तममहिनेरहया. तेऊ बाऊ अंतरुब्बट्टा । न वि पावे माणुस्सं तद्देवसंखाडया सव्वे ॥ १ ॥ " इति । स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पश्योपमानि समुद्धातमधिकृत्यमरणचिन्तायां समवहता अपि निवन्ते श्रसमवहता अपि । नवद्वारे अन्तरमुद्धृत्य सर्वेषु नैरयिकेषु सर्वेषु वतियोनिषु सर्वेषु मनुष्येषु सर्वेषु देवेष्वनुत्तरोपपातिकपर्यसानेषु गच्छन्ति श्रत्थगतिया सिज्भति ०जाब अंतं करेंति " इति । श्रस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थः, सन्त्येकका ये निष्ठितार्था भवन्ति । यावत्करणात्- "बुज्भंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सब्यदुक्वाणमंत करैति । " इति द्रष्टव्यम् । तत्र अणिमाऽऽद्यैश्वर्याऽऽप्त्या तथाविधमनुष्यकृत्यापेक्षया निष्ठि ताथा इति सर्वविदोऽपि कैश्चित् सिद्धा इष्यन्ते, ततो माभूतेषु संप्रत्यय इति तदपोहायाऽऽह - बुध्यन्ते निरावरणत्वा केवलावबोधेन समस्तं वस्तुजातम्, एते चासिद्धा अपि भवस्थषलिम एवम्भूता वर्त्तन्ते तत्र मा भूदेतेष्वेव प्रतीतिरित्याह- मुच्यन्ते ' पुण्यापुण्यरूपेण कृच्छ्रेण कर्मणा, एतेऽपि चापि निर्वृत्ता एव परारष्यन्ते मुक्तिपदे प्राप्ता अपि तीर्थमिफारदर्शनाऽऽदिहाऽऽगच्छन्ति इति वचनात्, ततो भूसगोचरा मन्दमतीनां धीरित्याह-' परिनिर्वान्ति' विध्यातसमस्त कर्म्महुतवहपरमाण्वो भवन्ति इति । किमुक्तं भवति ?सर्वदुःखानां शरीरमानसमेदानामन्तं विनाशं कुर्वन्ति, श्रत tre गत्यागतिद्वारे चतुरागतिकाः पञ्चगतिकाः, सिद्धिगतावपि गमनात्, 'परीत्ताः ' प्रत्येकशरीरिणः सङ्ख्येयाः संadeकोटिप्रमाणत्वात् प्रशप्ताः 'हे श्रमण ! हे श्रायुष्मान् ! उपसंहारमाह - 'सेत्तं मणुस्सा ।' जी० १ प्रति । श्राचा० । स्था० । सूत्र० । पं० सं० ति० । ( दण्डकप्रतिवद्धा अधिकारा श्रक्रियाssदयो ऽन्तक्रियाऽऽदिशब्देषु )
errassदिषु त्रिषष्टिरात्रिन्दिवं यौवनम् - हरिवासरम्मयवासेसु गं मगुस्सा तेवट्ठिए राईदिएहिं संपत्तजोव्वणा भवति । (स० ६३ सम० ) देवकुरुउत्तर कुरासु णं मणुया एगूणपनं राईदिएहिं संपत्त जोव्वणा भवंति । स० ४६ सम० ।
सम्प्रति मनुष्यस्य सचित्ताऽऽदिभेदात् त्रिविधस्याप्युपयोगमाह
सचित् पव्वाण, पंथुवएसे य भिक्खदाणाऽऽ । सीस चित्ते, मीसऽट्टिसरक्खपहपुच्छा ।। ५१ ।। सचि इति पठी सप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् सचित्तस्य मनुष्यस्य प्रयोजनं पथि पृष्ठे उपदेशः कथनं, तथा भिक्षाऽऽदानम्, श्रादि शब्दाइ सत्यादिदानं चोप पोगः, (अच्चित्ते) श्रचित्तस्य शिरसोऽस्थि, तद्धि लिङ्गे व्याधिविशेषापनोदाय बर्षित्वा दीयते,
२५
यद्वा-कदाचित्कप्रित्परिरुष्ट राजाऽऽदिः साधूनां विनाशाय कृतोद्यमो भवेत् । ततस्ते साधवः शिरोऽस्थिकमादाय कापालिक नंष्ट्रा देशान्तरं व्रजितुमिच्छन्तीति तेन प्रयोजनं, तथा मिश्रस्य मनुष्यस्योपयोगः, (अट्ठिसरक्खिति ) अस्थिभिराभरणकल्पैर्भूषितस्य सरजस्कस्य सरक्षाकस्य या भस्मावगुण्ठितवपुष्कस्येत्यर्थः कापालिकस्य पार्श्वे यत् पथि विषये प्रच्छनम् । पिं० । ( श्रप्रेतनविषयस्तु 'वाउकाइय ' शब्दे वक्ष्यते ) " ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतक -डिलताविलसितप्रतिमम् ॥ १ ॥ " सूत्र० १ श्रु० १५ श्र० । " मानुष्यकात्परिभ्रप्रै-र्लभ्यते न मनुष्यता । ” आ० क० १ sto | ( मनुष्यत्वस्य दौर्लभ्यम् 'चउरंग' शब्दे तृतीभागे २०५१ पृष्ठे उक्तम् ) ( मनुष्यशरीराणां जघन्योत्कृष्टपदे संख्या 'सरीर' शब्दे )
छव्हिा मगुस्सा पत्ता । तं जहा जंबूदीवगा, धासंदीपुरच्छिमद्धगा, धायइसंडदीवपच्चच्छिमद्धगा, पुक्खरखरदीवपुर च्छिमद्धगा, पुक्खरखरदी बढपच्चच्छि - मद्धगा, अंतरदीवगा । अवा- छव्विहा मगुस्सा पष्पता । तं जहा- मुमिस्सा ति०३ - कम्मभूमगा १, अक्रम्मभूमा २, अंतरदीवगा ३ । गन्भवक्कं तिश्रम गुस्सा ति० ३कम्मभूमिगा १, कम्मभूमिगा २, अंतरदविगा ३ । ( सूत्र - ४६० ) स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
"
' वारस मुहुत्तगब्भे, इश्ररे चउवीस विरह उक्कोसो । तद्विरहकालः संमूर्च्छजमनुष्याणां कियता कालेन भवतीति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - इह मनुष्या द्विविधाः सम्मूच्छंजाः, गर्भजाश्च । तत्त्राऽऽद्याः कदाचिन्न भवन्त्येव, जघन्यतः समयस्योत्कृष्टतस्तु चतुर्विंशतिमुहत्तांन्तरकालस्य प्रतिपादितत्वात् उत्पन्नानां तु जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्त्तस्थितिकत्वेन परतः सर्व्वेषां निर्लेपकत्वसम्भवात्, यदा तु भवन्ति तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कृष्टतस्तु श्रसङ्ख्याताः, इतरे तु सङ्ख्येया भवन्तीत्यनुयोगद्वारवृत्तौ । त्रसत्वं - त्रसत्वेनोत्पत्तिः सततमनवरतं, जघन्यत एकं समयमुत्कर्षत श्रावलिकाऽसङ्ख्येयभागं कालं, परतो ऽवश्यमन्तरम् । श्रपि च-आस्तां सामान्येन त्रसत्वम्, किन्तु - द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियास्तिर्यक्पञ्चेउर्जाोः शेषाः प्रत्येकं नारका अनुत्तरसुरवज्जाः शेषाः न्द्रियाः सम्मूर्छजमनुष्या अप्रतिष्ठाननरकावासनारकबप्रत्येकं देवाश्च निरन्तरमुत्पद्यमाना जघन्यत एकं समयमुत्कृष्टत श्रावलिकाया असङ्ख्येयभागं कालम् इति पञ्चसंग्रहवृत्तौ ४५ पत्रे, एतदक्षरानुसारेणोत्कृष्टतः कदाचिदावलिकाया असङ्ख्येयभागकालानन्तरं सम्मूर्छजमनुष्याणां चतुर्विंशतिमुहूर्त्तविरहकालः सम्भवतीति । ६५ प्र० । सेन० ३ उल्ला० |
;
For Private
मणुस्तक्खेत- मनुष्यक्षेत्र - न० । मानुषोत्तरपर्वत सीमात्रे मनुस्याणां क्षेत्रे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । (मनुष्यक्षेत्रे द्वौ समुद्रौ इति 'समुद्र' शब्दे द्रव्यम्)
समयखेत्ते गं भंते! केवतियं श्रयामविक्खंभेणं केवति
ए
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मणुस्सग्वेत्त
( 5 ) अभिधानराजेन्द्रः।
मणुस्सखेत्त यं परिक्खेवणं पालते। गोयमा! पणयालीसं जोयणसत-1 सोमं सोभेसुवा,सोमं सोभन्ति वा,सोभं सोमिस्संति वा ।। सहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी०जाव अ
" एसो तारापिंडो, सब्वसमासेश मणुयलोगम्मि । भितरपुक्खर परिरओ से भाणियव्वोजाव अउणपणे । बहिया पुण ताराओ, जिणेहि भणिया असंखेजा ॥१॥ (समयखेत्ते समित्यादि) मनुष्यक्षेत्र भदन्त ! कियदायाम- एवइयं तारम्गं, जं भणियं माणुसम्मि लोगम्मि । विष्कम्भन कियत्परिक्षेपेण प्राप्तम्, भगवानाह-गौतम! पञ्च- चारं कलंबुयापु--प्फसंठियं जोइसं चरइ ॥२॥ चत्वारिंशन योजनशतसहस्राणि अायामविष्कम्भेन,एका यो
रविससिगहनक्खत्ता, एवइया आहिया मणुयलोए। जनकोटी द्वाचत्वारिंशत्शतसहस्राणि त्रिंशत् सहस्राणि द्वे
जेसि नामागोतं, न पागया पगणवे हिंति ॥३॥ योजनशते एकोनपञ्चाशे किञ्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपण प्राप्तम्।
छावट्ठी पिडगाई, चंदाइच्चा मणुयलोगम्मि । सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह
दो चंदा दो सूरा, हवंति एकेक्कए पिडए ॥ ४ ॥ से केणऽदेणं भंते ! एवं बच्चति-माणुसखेत्ते. मा- छावट्ठी पिडगाई, नक्णत्ताणं तु मणुयलोगम्मि । गुसखेत्ते । गोयमा! माणुसक्खित्ते णं तिविहा मणु-|
छप्पन्नं नक्खत्ता, य हुँति इक्किक्कए पिडए ।॥ ५ ॥ स्सा परिवसंति । तं जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अं
छावट्ठी पिडगाई, महग्गहाणं तु मणुयलोगम्मि । तरदीवगा। से तेणऽद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चति--माणुसखेत्ते
लावत्तरं गहसयं, च होइ एक्केकए पिडए ॥६॥ माणुसखेते।
चत्तारि य पंतीओ, चंदाइचाण मणुयलोगम्मि । (सेकेणट्रेणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमु
छावट्ठिय छावट्ठिय, होई एक्कक्किया पंती ।। ७ ।। च्यते-मनुष्यक्षेत्र मनुष्यक्षेत्रमिति | भगवानाह-गौतम! मनु
छप्पामं पंतीओ, णक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि । ध्यक्षेत्रे त्रिविधाः मनुष्याः परिवसन्ति । तद्यथा-कर्मभूमका छावट्ठी छावट्ठी, होइ य एकेकिया पंती ।। ८ ।। अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकाश्च । अन्यच्च मनुष्याणां जन्म- छावत्तरं गहाणं, पंतिसयं होइ मणुयलोगम्मि । मरणं चाव क्षेत्रे न तद्बहिः, तथाहि-मनुष्या मनुष्यक्षेत्रस्य बहिर्जन्मतो न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च । त
छावट्ठी छावट्ठी, य होति एक्ककिया पंती ।। ६॥ था यदि नाम केनचित् देवेन दानवेन विद्याधरेण था पू
ते मेरु पडियर्डता, पहिणाऽऽवत्तमंडला सव्वे । Cनुबद्धवैरनिर्यातनार्थमेवंरूपा बुद्धिः क्रियते यथाऽयं मनु- अणववियजोगेहि, चंदा सूरा गहगणा य ॥ १० ॥ योऽस्मात् स्थानादुत्पाट्य मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः प्रक्षिप्यतां,
णक्खत्ततारगाणं, अवद्विता मंडला मुणेयव्वा । येनोर्द्धशोषं शुष्यति,म्रियते वा इति तथाऽपि लोकाऽनुभावादेव सा काचनाप बुद्धिर्भूयः परावर्त्तते, तथा संहरणमेव
ते वि य पदाहिणाव-तमेव मेलं अणुयरंति ॥ ११ ॥ न भवति, संहृत्य वा भूयः समानयति , तेन संहरणतो रयणियरदिणयराणं, उड्डे य अहे य संकमो नत्थि । ऽपि मनुष्यक्षेत्राद् बहिर्मनुष्याणां मरणमधिकृत्य न भूता मंडलसंकमणं पुण, अभितरबाहिरं तिरिए ॥ १२ ॥ न भवन्ति न भविष्यन्ति च । येऽपि जवाचारिणो विद्याचारिणो वा नन्दीश्वराऽऽदीनपि यावद् गच्छन्ति तेऽपि तत्र ग
रयणियरदिणयराणं, णक्खत्ताणं महग्गहाणं च । ता न मरणमश्नुवन्ते, किं तु मनुष्यक्षेत्रमागता एव , तेन
चारविसेसेण भवे, सुहदुक्खविही मणुस्साणं ॥ १३ ॥ मानुषोत्तरपर्वतसीमाकं मनुष्याणां संबन्धि क्षेत्र मनुष्यक्षे- तेसि पविसंताणं, तावक्खेत्तं तु वडते णियमा। प्रमिति । जी० ३ प्रति०४ अधि० २ उ० ।
तेणेव कमेण पुणो, परिहायति निक्खमंताणं ॥ १४ ॥ सम्पति मनुष्यक्षेत्रगतसमस्तचन्द्राऽऽदिसङ्ख्यापरि
तेसि कलंबुयापु-प्फसंठिता होति तावक्खेत्तपहा । माणमाह
अंतो य संकुया बा-हि वित्थडा चंदसूराणं ॥१५॥ मणुस्सखत्ते णं भंते ! का चंदा पभासेंस वा, पभासंति
केणं वड्वति चंदो, परिहाणी केण होति चंदस्स । वा, पभासिसति वा । कह सूरा तवइंसु वा, तवईति वा,
कालो वा जोण्हा वा, केणऽणुभावेण चंदस्स? ॥१६॥ तवइस्संति वा । गोयमा !
किएहं राहुविमाणं, णिच्चं चंदेण होइ अविरहियं । " बत्तीस चंदसर्य, बत्तीसं चेव सूरियाण सयं । चउरंगुलमप्पत्तं, हेट्ठा चंदस्स तं चरति ॥ १७ ॥ सयलं मणुस्सलोयं, चरति एए पभासेंता ॥१॥ वावडिं वावर्द्वि, दिवसे दिवसे तु सुकपक्खस्स । एक्कारस य सहस्सा, छप्पि य सोला महग्गहाणं तु ।। जं परिवइ चंदो, खवेति तं चेव कालेण ॥ १८ ॥ छच्च सया छम्माउया,णक्खत्ता तिमि य सहस्सा ॥२॥ पएणरसइभागेण य, चंदं पएणरसमेव तं वरइ । अडसीइ सतसहस्सा, चत्तालीस सहस्स मणुयलोगम्मि। पम्मरसइभागेण य,पुणो वितं चेवतिक्कमति ॥ १६ ॥ सत्त य सवा अणुणा, तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥", एवं वद्दति चंदो, परिहाणी एव होति चंदस्स ।
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( ८) मणुस्मवेत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मणोदुहिया कालो वा जोरहा बा, तेणऽणुभावेण चंदस्स ॥ २०॥ | माणेहिं, अरिहंताणं णाणुप्पायमहिमासु । एवं सामाणिअंतो मणुस्सखेते, हवंति चारोवगा य उववरणा । या तायत्तीसगा लोगपाला देवा अग्गमहिसीओ देवीपंचविहा जोतिसिया, चंदा सूरा गहगणा य ॥ २१ ॥ ओ परिसोवबन्नगा देवा अायाहिवई देवा पायरतेण परं जे सेसा, चंदाइञ्चगहनारणक्वत्ता ।
क्खा देवा माणुसं लोग हब्बमागच्छति । ( सत्रणस्थि गती णवि चारो, अपट्टिता ते मुणेयव्या ॥ २२ ॥ १३४) । स्था० ३ ठा० १ उ० । चउहिं ठादो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सायरे लवणतोये । पहिं देविंदा माणुसं लोगं हव्वमागच्छंति एवं जधायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूरा य ॥ २३ ॥ हा तिठाणे • जाव लोगंतिता देवा माणुसं लोगं दो दो जंबुद्दीवे, ससिसूरा दुगुणिया भवे लवरे ।
हव्यमागच्छेज्जा । तं जहा-अरहंतेहिं जायमाणेहि लावणिगा य तिगुणिगा, ससिसूरा धायईसंडे ॥ २४ ॥
जाव अरिहंताणं परिणिव्याणमहिमासु । (सूत्र-३२४) धायइसंडप्पभिई, उद्दिष्टुतिगुणिता भवे चंदा ।
स्था० ४ ठा०३ उ०। आइल्लचंदसहिता, अणंतराणंतरे खेत्ते ॥ २५॥ मगुस्सवग्गुरा-मनुष्यवागुरा-स्त्री० । मृगवन्धने, विपा० रिश्वग्गहतारग्गं, दीवसमुद्दे जहिच्छसे गाउं ।
१ श्रु०२ अ०। तस्स ससीहिं गुणितं, रिक्खग्गहतारगाणं तु ॥ २६ ॥ मगुस्ससेणियापरिकम्म-मनुष्यश्रेणिकापरिकर्मन्-न० ।चंदातो सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होति ।
ष्टिवादस्य परिकर्मसूत्रभेद, स० १२ अङ्ग। पण्णाससहस्साई, तु जोयणाणं अणुणाई ॥ २७॥ मणुस्सिद-मनुष्यन्द्र-पुं० । मनुष्येषु परमेश्वरत्वात् राजसूरस्स य सरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतरं होति ।
नि, शौ० । रा०।" सणकुमारो मणुस्सिदो, चक्कयट्टी म. माणुसनगस्स बहिया, उ जोयणाणं सयसहस्सं ॥ २८॥
हिड्विओ । पुतं रज्जे ठवेऊण , सो वि राया तवं चरे
॥१॥" उत्त०१८ अ०। स्था। सरंतरिया चंदा, चंदतरिया य दिणयरा दित्ता।
मणुस्सी-मनुषी-स्त्रो०। मनुष्यस्त्रियाम् , जी० ३ प्रति० ५ चित्तंतरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य ॥ २६ ॥
अधिः । स्था० (उत्तरकुरुमनुजीनां वर्णकः 'उसरकुरा' अट्ठासीई च गहा, अट्ठावीसं च होंति णक्खत्ता । शब्द द्वितीयभागे ७५८ पृष्ठ गतः) । एगससीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि ॥ ३० ॥
मणू-मन-स्त्री० । मनुपूर्वकाणां वैताव्यविद्याधराला विछावट्ठिसहस्साई, णव चेव सयाइ पंचसयराई ।
द्यायाम् , प्रा. चू० १ अ०। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३१ ॥
मरणूस-मनुष्य-पुं०। “कगचज." ॥८११७७॥ इति यलोपः। माणुसनगस्स बहिया, तु चंदसूराणऽवद्विता जोगा। "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां, श-प-सां दीर्घः " ॥१॥४३॥ चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण होंति पूसेहिं ॥ ३२ ॥ इति यला पे उतो दीर्घः । प्रा०१ पाद । मनुजे, उत्त०१० अ०। (सूत्र-१७७ ) जी० ३ प्रति।
मणूसजक्ख-मनुष्ययक्ष-पुं० । यक्षमेदे, प्रशा०१ पद। (आसां व्याख्या 'जोइसिय' शब्दे १५६२ पृष्ठे गता)
मणे-मणे-अब्ध० । "मणे विमर्श" ॥॥८।२।२०७॥'मणे' मणुस्सता-मनुष्यता-स्त्री० । मनुष्यभावे , स्था०।
इति विमर्श प्रयोक्तव्यम् । मणे शूरः । प्रा०२ पाद । चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताए कम्मं पगरेंति । तं मणोगय-मनोगत-त्रि० । मनस्येव यो गतो, न बहिर्वचनेजहा-पगइभद्दयाए, पगतिविणीययाए, साणुकोसयाए,
न, अप्रकाशनात् । भ०२ श०१ उ० । कल्प । रा०। मनसि
चेतसि गत स्थित मनोगतम् । उत्त० १ ० । मनसि अमच्छरियाए । ( सूत्र-३७३ )
स्थित , उत्त०१ अ०। अबहिःप्रकाशिते, भ० श. प्रकृत्या स्वभावेन भद्रकता परानुपतापिता या सा प्र- ३३ उ० । मनोविकारे .नि.१ श्रु०३ वर्ग ४ श्र०। विपा० । कृतिभद्रकता तया सानुक्रोशतया-सदयतया मत्सरिकता- ज्ञा० । “मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था ।" विपा० १ श्रु० परगुणासहिष्णुता तत्प्रतिषेधोऽमत्सरिकता तयेति । स्था० १०। मनोगतो मनसि व्यवस्थितो नाद्यापि वचसा प्र४ ठा० ४ उ०।
काशितस्वरूप इत्यर्थः । श्रा० म० १ ० । विपा। मणुस्सलोय-मनुष्यलोक-पुं० । मनुष्यक्षेत्रे यावदयं मानु-मणोज्ज-मनोज-त्रि० । “शो प्रः" २८३॥ इति शः सषोत्तरः पर्वतस्तावदस्मिलोक इति । अय मनुष्यलोक इ-म्बन्धिनो अस्थ लुग्या भवति । मणोजम् । मनोरणं । प्रा०२ ति । जी० ३ प्रात०४ अधिः । सू०प्र०।।
पाद । मनोऽनुकूल सुन्दरे, प्रज्ञा० १ पद। तिहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोग हब्वमागच्छति । तं मणोऽणुकूल-मनोनुकूल-०1 मनसोऽभिलषिते, वृ. ३ उ० । जहा-अरिहंतेहिं जायमाणेहिं , अरिहंतेहिं पव्यय-मणोदुहिया-मनोदःखिता स्त्री० । मनसो मनसा वा दुः
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मोहिया
चिता दुःखितायं दुःखहारित्वं मनोबिता । मानसदु खे स्था० ७ ठा० । मोबंध -- मनोबन्धन-नः । मनस श्रसक्लिहतो, “मणोबन्धहि गोहे " मनोबन्धनानि मज्जुलाऽऽलापस्निग्धावलोकनाङ्गप्रकटनाssदीनि । यथा - " शाह ! पिय ! कंत ! | सामिय दय जियाओ तर्म मह पिश्रोति। जीए जीयाम अहं, पहवसि तं मे सरीरस्स ॥ १ ॥ " सूत्र० १ श्रु० ४ अ० १ उ० |
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मयोऽभिराम - मनोऽभिराम त्रि० मनोऽभिविधिना बहुकालं यावद्रमयति मनोऽभिरामम् । मनसविररुबिरे, श्री० मणोमाण सिय-मनोमानसिक-त्रि० । मनोमानसिकमिति म नस्येव न चिनादिभिरप्रकाशितत्वाद यन्मानसिकं दुःखम् । भ० १५ श० । मनस्येव वर्त्तमाने वचसाऽप्रकटिते दु.खे, नि० १ ० १ वर्ग १ २ । शा० । रा० । मोरम मनोरम प्रि० । मनोऽन्तःकरणं रमयतीति नोरमः । सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । मनो रमयन्निदर्शनानन्तरमचिम्यमानमाद्वादयति मनोरमम् उत्त० १६ अ० म मोडे, उत० [अ०] स्था० मनांसि देवानामप्यतिसुरुः पतया रमयतीति मनोरमः । मेरुपर्वते, सू०प्र० ५ पाहु० । चं० प्र० । जं० । स० । मनश्चित्तं रमते धृतिमवाप्नोति यस्मिँस्तन्मनोरम् | मनोरमाऽभिधाने मिथिलाचैत्ये, “ मिहिलाचे व सीयस्काए मसोरमे " इति मूलम् । उत्त० ६ श्र० । पुरिमतालाभिधनगरे स्वाभिधान के श्रा रामे, उत्त० १३ अ । महोरगभेदे, प्रज्ञा० १ पद । किघरमेदे प्रा० १ पद रुचकनामकजीपदेवे सू० प्र० १६ पाडु० । डी० । तृतीयप्रेवेयकविमाने, न० । प्रव० १६४ द्वार अश्मदेवलोकेन्द्रस्य पारियानिके विमाने ०५ वक्ष० । श्री० । पक्षस्य द्वितीयदिवसे, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । स्था० । चं० प्र० । दक्षिणपूर्वस्य रतिकरपर्वतस्योत्तरस्यां दिशि शफा ऽप्रमदिच्या अजकाया राजधान्याम् जी० ३ प्रति० ४ अधि । स्था० । ऋषभदेवस्य निष्कमराशिविकायाम्, स० ते देवा सामंते । " तेसिं श्रदृरसामंते द्विश्या ताई उरालाई० जाव मलोरमा उत्तरवेउब्वियाई रूया नावे उपाधिति मनः स्वस्थो पभोग्यदेवसम्बन्धि रमयन्ति प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरानुरागसंपृक्तं जनयन्तीति मनोरमाणि । प्रज्ञा० ३४ पद । मणोरह-मखोरथ- पुं० । कथमिदं प्राप्येतेत्येवं मनोऽभिलाषे संथा । श्री० । नालन्दासमीपे स्वनामरूपात उद्याने, यत्र नालन्दीयमध्ययनं भगवता प्रशप्तम् । सूत्र० २ श्रु० ७ ० ॥ श्र० मी शब्दे प्रथमभागे २५७ पृष्ठे उदाह मीपजाब ० ० १ ० आचा० मणोरद्रसंपत्तिजाया । ' करूप १ अधि० ५ क्षण । महोक मनोरुचि त्रि० मनसो नै यस्य सम मोरुचिः। निर्मलचित्ते, “ मोदई चिट्ठर कम्मसंयमा ।" मनसो रुचिर्नैर्मल्य यस्य स मनोरुचिः निर्मलचितः । श्रथवा-मनमो गुरोश्वित्तस्य रुचिर्यस्य स मनोरुत्रिः । उत्त० ५ ० । मणोलथ- मनोरथ-पुं । मनः कामनायाम्, " ही ही वि
1
6
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--
( १०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मण्डली
दूषकस्य " || ८ | ४ | २८५ ॥ " ही ही संपन्ना मे, मणोलधा पियवयस्सस्स । प्रा० ४ पाद ।
मणोसिलय-- मनः शिलक - पुं० । उदकसीमावासिनि वेलन्धरनागराजे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । स्था० । मणोसिला - मनःशिला - स्त्री० । पृथ्वीविकारभेदे, उत्त० ३६
"
अ० । प्रज्ञा० । श्राचा० सूत्र० । मनःशिलस्य वेलन्धरनागराजस्याऽऽवासपर्वते उदकसीमनामके स्थितायां राजधान्याम् जी० ३ प्रति० ४ अधि० । मोमिलासमुग्ग- मनः शिलासमुद्रक-पु० । मनःशिला33धारविशेषे, जो० ३ प्रति० ४ श्रध० । मयोमुहया मनः शुभता श्री० मनसः शुभता मन शुभता, साऽपि साताऽमुभावकारणत्वात्सातानुभाव उच्यते इति । सातवेदनीयकर्मणोऽनुभावे, स्था० ७ ठा० । ममशोमुहिया मनः सुखिता श्री मनसि सुपस्थासी मनःसुखस्तस्य भाव मनः सुखिता । सुखितमनसि प्रशा० २३ पद ।
Opp
-
मगोहर मनोहर पुं० । मनश्चितं हरति
,
मात्रमाशिपति
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मनोहरम् । उत्त० १६ श्र० । जं० । नि० खू० । जी० । स्था० । मनो हरतीति मनोहरम्। "लिहाऽऽदिभ्यः ॥५।१।२० ॥ इत्यच्प्रत्ययः । नं० | श्रा० म० । रा० । उत्त० । मनोनिर्वृतिकरे, चित्ताऽऽह्लादके, कल्प० ३ अधि० १ क्षण । प्रज्ञा० । श्राम० । लोकोत्तररीत्या तृतीयदिवसे पं० प्र०१०पा० १४ पाहु० पाहु० । कल्प० । जं० ।
मणोहरी - मनोहरी - स्त्री० । अपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकनगरीराज जितराषोभर्यायां तत्रत्यबलदेवमातरि श्र० चू० १ श्र० । " पपसिं चवीसाए तित्थकराएं चउव्वसिं सीया होत्था । " ताखेका मनोहरी । स० । महोहुआस मनोहुताश-पुं । मन एवं दुःखकारणत्वाद् - ताशा मनोहुताशः । चित्ताग्नी, श्राव० ४ श्र० । मत मन्यमान- त्रि० । जानति, ४० । वं० मराठ देशी-राडे, बन्ध इति केचित् दे० ना० ६ वर्ग १११
-
गाथा ।
"
मण्डल - देशी- शुनि, दे० ना० ६ वर्ग ११४ गाथा । मण्डली - मण्डली - स्त्री० । श्रनेकविधमण्डन्याम्, सेन० । "सुते घर भोषणे, काले आवस्सएका सम्झाए। संधारए वि तहा, सत्तेया हुंति मंडलियो ॥ १ ॥ एताना थोक सप्तमण्डलीसत्यापनस्थानकानि कानि भवन्तीति प्रश्ने, उत्तरम् प्रातः स्वाध्यायकरणं सूत्रमण्डली १, व्यास्थानीय भोजन प्रतीताकालप्रवेदन कालमण्डली४ उभयकालप्रतिक्रममाश्यकमण्ड स्वास्थापन स्वाध्यायरडली ६, संस्तारकविधिभणनं संस्तारकमण्डली ज्ञायते। किं च तृतीयप्रहर प्रतिलेखनादेशमार्गणी प्रश्नोत्तरसमुच्चयवचनादावश्यकमण्ड यन्तभूतेति बोध्यम् ८२० सेन० ३ उज्ञा० ।
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(१०१) मण्डी अभिधानराजेन्द्रः।
मत्तग मण्डी-देशी-पिधानिकायाम् , दे० ना० ६ वर्ग १११ गाथा । मत्तग-मत्तक-पुं० । भागिनेये,०४ उ० । 'मत्तं था।' प्राचा० मममाण-मन्यमान-त्रि०। जानति, अध्यवस्यति, सूत्र०१ २ श्रु०१०१०६ उ० । श्रु० १ अ०३ उ० । आचा० ।
मात्रक-न० । उच्चाराऽऽदिसत्के नुल्लभाजने, व्य०८ उा पं०व०। मामा-मति-स्त्री०। मनने, स्था० । सूत्रः।
परःप्रेरयति-ननु तीर्थकरैस्तावन्मात्रकं नानुशात, एगा मन्त्रा।
कथमिति ? चेत् , उच्यतेप्राकृतत्वाद् मननं मतिः,कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मध. दव्ये एगं पायं, भणि तरुणो य एगपातो उ । र्माऽऽलोचनरूपा बुद्धिरिति यावत् । अालोचनमिति केचित्। अप्पोवही पसत्थो, चोएइ न मत्तो तम्हा ॥ ३७५ ॥ अथवा- मना मनियब्वं ।' अभ्युपगम इत्यर्थः । सूत्रद्वये
उपकरणद्रव्यावमौदरिकायामेकं पात्रमुक्तम् । तथा चागसामान्यत एकत्वम् । स्था० १ ठा। सूत्र।
मः-“एगे वत्थे एगे पाए वियत्तोवगरणे साइजह ।" तथा मषिय-मानित-त्रि० । पृजिते, जी०१ प्रति०।
यो भिक्षुस्तरुणो युगवान् स एकपात्रो भवेत् । तथा चाss मो-मन्ये-अव्य० । वितर्के, नि० १ श्रु. ३ वर्ग ४ अ०। चारसूत्रम्-"जे भिक्खू तरुणे जुगवं बलवं से एग पायं " किं मरणे कजइ ? ।” मन्ये मिपातो वितर्कार्थः । क्रियते भ
धारेज्जा।" अल्पोपधिश्च प्रशस्तः । तथा च दशवकालिकवतीत्यर्थः । स्था० ४ ठा० ३ उ० । झा० । कल्प।
सूत्रम्-"अप्पोवही कलहविवज्जणा य, विहारचरिया इसिमएहा-मृत्स्ना-खी० । मृत्तिकायाम् , अप०७ अए। ।
णं पसत्था ।” यत एवमतो न मात्रकं ग्रहीतव्यं, गाथा
यां पुंस्त्वं प्राकृत्वादिति परः प्रेरयति । मतन-मदन-पुं० । “तदोस्तः"॥८।४।३०७ ॥ पैशाच्यां--
अथ सूरिराहतकारदकारयोस्तो भवति । मतन इति । प्रा०४ पाद । “चू-|
जिणकप्पे यं सुत्तं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एग। लिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोरायद्वितीयौ"॥८।४। ३२५ ॥ इति दस्य तः । मदनः । मतनः। कामदेवे, प्रा०४ पाद ।
नियमा थेराण पुणो, वितिजनो मत्तो होइ ॥३७६।। मतिमं-मतिमत-पुं०।मनुतेऽवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयो
हे नोदक ! यदेकपात्राऽऽदिप्रतिपादकं सूत्रं तज्जिनकल्प
विषय मन्तव्यम् । तथाहि-यः सप्रतिग्रहो जिनकल्पिका त. पेतं यया सा केवलबानाऽऽख्या मतिः, साऽस्यास्तीति मति
स्य तत्प्रतिग्रहलक्षणमेकं पात्रं भवति, स्थविराखा पुनर्निमान् । केवलिनि, सूत्र०१ श्रु०६अ।
यमात् द्वितीयं मात्रकं भवति “एकं पायं जिणक-प्पिमतुय-देशी । मत्वर्थीय, उक्तं च-" मतुयथम्मि मुणेजह , |
याण थेराण मत्तत्रो बीओ।" इति वचनात् । आलावं मणं च मतुयं च ।” श्राव०४०।
नणु दव्वोमोयरिया, तरुणाइविसेसो दुमत्तो वि । मत्त-मत्त-त्रि० । सुराऽऽदिमदवति, उपा०८ अ०। प्राचा। मदकलिते,जी० ३ प्रति०१ अधि०१ उ०। पीतमदिराऽऽदौ,
अप्पोवही दुपत्तो, जेणं तिप्पभिति बहुसद्दो ॥३७७॥ पिं०।मदिरामभाविते, वृ० १ उ० ३ प्रक०। झा । दृप्ते,
यच्च द्रव्यावमौदरिकायामेकं पात्रमुक्तं तत्रयोः उत्त०५ अ० । मौ०।
पात्रयोरेण , ननु व्यावमौदरिका किं न भवअमत्र-न० भाजनविशेषे, भ०८ श०६ उ.।
ति ? । त्रिप्रभृतीनामग्रहणात् भवत्येवेति भावः । य
वाभिहितम्-"जे भिक्खू तरुणे " इत्यादि । तत्र मात्र-नका कांस्यभाजनांञ्युपकरणमात्राया प्राधारविशेष,
यदि सर्वेणापि साधुनैकमेव पात्रकं धारयितव्यम् , ततः अनु० । भाजने, श्राचा०२ श्रु०१चू० १ अ०७ उ० । सूत्र। फि तरुणाऽऽदिभिर्विशेषणैरभिहितैः?,अतो ज्ञायते तरुणाss. भाजनोपकरणे, स्था० ३ ठा० १ उ० । कांस्यभाजने, भ०५] दिविशेषतोऽभिधानाद् मात्रकमपि सामादनुसातम् । यदश०७ उ०। मदने, स्था० १० ठा० ।" मत्तमहमिव गुलगु- पि " अप्पोवही" इत्यादि अभिहितं, तत्र च द्विपात्रः पातिं।" उपा०२०।
अद्वयोपेतः अल्पोपधिरेव भवति, यतस्त्रिप्रभृतिप्वेष पदामत्तंगय-मत्तागक-पुं० । मत-मदस्तस्य कारणत्वान्मद्यमिह थेषु बहुशब्दो वर्तते, अतो ग्रहीतव्यं मात्रकम् । मत्तशब्देनोच्यते, तस्याङ्गभूताः-कारणभताः तदेव अवयवो
अथ न गृह्णाति तत इमे दोषाःयेषां ते मत्ताङ्गकाः । सुखपेयमद्यदायिषु कल्पवृक्षषु, स्था०७
अग्गहणे वारत्तग, पमाणहीणो वि सोहि अववाए। ठा० । जं०रा० । स०।
परिभोगग्गहणविति-यपयलक्खणाई मुहं जाब ॥३७८॥ मत्तानन्द-पुं०। मत्तं मदस्तस्याङ्ग-कारणं मदिरा, तद्ददाती
मात्रकस्याग्रहणे दोषा वक्तव्याः, वारत्तगदृष्टान्तश्चात्र भवति मत्ताङ्गदः । प्रव० १७१ द्वार । स्था० । “मत्तंगएसु मज।" ति,प्रमाणहीनाधिकप्रमाणेच दोषाः,शोधिर्मात्रकपरिभोगे प्रातं० । तत्र मत्तादानां फलानि विशिष्टानि विशिष्टबलवीर्य- यश्चित्तम्,अपवादोहीनाधिकधारणलज्ञणः, परिभोगः कारणं कान्तिहेतुवित्रसापरिणतरससुगन्धिविविधपरिपाका35-1 मात्रकस्य यथाऽभिधीयते । ग्रहणद्वितीयपदलक्षणादीनि गतहृद्यमद्यपरिपूर्णानि स्फुटित्वा स्फुटित्वा मद्यं मुश्चन्तीति | मुखं यावत् यानि प्रतिग्रहवाराण्यमिहितानि तदेतत्सर्वे - तेच वृक्षा विमलवाहनकुलकरकाले व्युच्छिन्नाः। प्रा० म०] क्रव्यमिति द्वारगाथासक्षेपार्थः । १०।
अथैनामेव विवरीषुराहबसंड-मार्तण्ड-पुं० । सूबे, प्रतिः । दे० मा ।
मत्त अगेपदणे गुरुगा, मिष्यते अप्पपरपरिवारो।
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मतग
(१०२) अभिधान राजेन्द्रः ।
संसत्तग्गहणम्मी, संजमदोसा सवित्थारा ॥ ३७६ ॥ माकं यदि न गृह्णाति ततचतुर्गुरुकाः ये अभिनयश्राद्धास्ते तेनैव प्रतिग्रहेण भोजनं पुनर्निर्लेपनं च कुर्वाणं दृष्ट्वा दुधर्माणोऽमीति मिथ्यात्वं गच्छेयुः । परि प्रतिग्रह आचा
नाम हाति ततथा रमपरित्यागः, अथा55त्मनो गृह्णाति ततः परेषामाचार्याऽऽदीनां परित्यागः कृतो भ वति । संसक्तं भक्तं पानं वा प्रत्युपेक्षितं यदि प्रतिग्रहे गृह्णाति । ततः संयमदोषाः सविस्तराः “छक्काय चउसु लहुगा " इत्यादि विस्तरसहिता वक्तव्याः ।
अथ वारसगरष्टान्तमाह
दारलग पव्यजा, पुतो तप्पटिम देव बलि साहू । परियरखेगपडिग्गह, प्रातमखुन्वालसा हेयो ||२८०॥ "वारसपुरं नगरं तर अभय सेो गया, तर अमो वारसगो नाम, सो पतेगबुद्धो, घरसारं पुत्तस्स दाउ निसि रिय पव्वश्रो, तस्स पुतेण पिउभरतीय देवकुलं कारिता रयहरणमुहपोलियपडिमा उपिया, तत्यय सत्तामारो पयमिश्र, तत्थ य एगो साहू एगपडिग्गहधारी पडिग्गहए भि यं घेतंभों तत्व पडिग पुलो पाल धेनुं स ateरिडं तेणेव पडियरिश्रो दिडो, तेहिं निच्छूढो, तस्स श्र सिंव साहूणं वोच्छेश्रो तत्थ जाओ ।" अथ गाथाऽक्षरा र्थः- वारत्रकेण प्रवज्यायां गृहीतायां पुत्रस्तस्य वारजकस्य प्रतिमां देवकुले करत्। तत्र च क्ली प्रचलिता, साधुर्थ केन प्रतिग्रहेण भिक्षार्थमायात्, प्रतिचरणं च कुर्वाणस्तेनैव प्रतिग्रहेणाचमनं निर्लेपनं कुर्वाणं दृष्ट्वा तस्योद्वालना- निष्काशना कृता, तस्यान्येषां च साधूनां व्यवच्छेदः कृतः । एवं मा कस्याऽग्रहणे उड्डाहो भवेत् ।
अथ प्रमाणद्वारमाह
जो माग पत्थो, सविसेसतरं तु मत्तगपमाणं । दोसु वि दव्यग्गहणं, पासावासासु अहिगारो ||३८१|| यो मागधदेशोद्भवः प्रस्थः दो असो पस दो प या हो उसेरवाहि पत्थो।" इति कर्मनिष्यन्नस्ततो मागधप्रस्थात् सविशेषतरं मात्रकप्रमाणं भवति । तेन च माप्रसद्वयोरपि ऋतुबद्धवपयासपो गुरुग्लानाऽऽदियोग्यभक्लपानद्रव्यस्य ग्रहणं क्रियते । अन्ये तु द्वावकृते ( दोसु वि नि) प्रति म मात्रके पान । वर्षावासे तु विशे
तो मात्रकेणाधिकारः, यतो वर्षासु प्रथममेव यत्र धर्मलाभयति तत्र पानकं गृह्णाति । यतः कदाचित् वर्षे निपत्ना चरितुं न शक्यते ततः पानकेन बिना प्रतिग्रहो लेपकृतो भवति । अथवा वर्षावासे भने पार्न संसम्पत इति कृत्या मात्रकेण तस्य शोधन कार्यम् ।
प्रकारान्तरेण मात्रकप्रमाणमाहसुक्कुभोदणस्स, दुगाउदारामागच्यो साहू । जति एगट्टा, एवं खलु मत्तगपमाणं ॥ २८२ ॥ शुष्कौदनस्याम्यभाजनगृहीतेन तीमनेनार्द्रस्य भृतं यदेकस्थाने एकवारं द्विगव्यूतमात्रादध्वन श्रागतः साधुर्भुङ्क्ते, तत्तु मात्रमा मन्तम्यम् ।
मतग
यदि वा
भत्तस्स व पावस्स व एमतरागस्स जो भवे भरियो । पतो साहुस्स उ, वितियं पिय मत्यपमाणं ॥ ३८३॥ भक्तस्य वा पानस्य या अनयोरेकतरस्य यद भूतं सदेकस्य साधोः पर्याप्तं भवति, पतत् द्वितीयमपि मात्रकप्रमाणमवगन्तव्यम् ।
अथ हीनद्वारमाह
हरस्सेमे दोसा, श्रोभायणे खिसखा गलते य । छबिराहणा भा-भेदों जं वा गिलाणस्स ॥ ३८४॥ डहरस्य - यथोक्तप्रमाणाम्लघुतरस्य मानकस्येमे दोषाः । तथथा - अपभ्राजना तल्लघुतरं मात्रकमतीव भ्रियमाणं दृष्ट्रा लोको ब्रूयात्-अहो अमी बुभुक्षादुःखभग्नाः प्रजन्ति । अथवा भक्तपानं परिगलद्विलोक्य अहो अमी च सन्तुष्टा एवं सिन्यमाना अपि नरायन्तीति चिसां कुर्यात् । अतिभूते
गलति पदकायानां विराधना, अथ परिगलनभवात्रघोपयोगं ददाति ततः स्थाप्याऽऽदौ प्रस्वलनस्य भाजनमेवो भवेत् । यद्वा-ग्लानस्योपलक्षणत्वाद बालवृद्धाऽऽदीनां च तेन हरमात्र केणार्या भवति, तनिष्पनं प्रायश्वितम्। तथा
पडणं पावते से, पुडीतसपाणतरुगणादीणं । आणि गामं-तराउ गलणे व छकाया ।। ३८५ || डहरमात्रके आकण्डभृते लेपकृतीकारणतया उपावृते - द्घाटिते पृथिवीरजस्त्र सप्राणितरुगणाऽऽदीनां पतनं भवेत् । अथवा प्रामान्तरादतिप्रभूते तस्मिन्नानीयमाने परिगलति पद्वाया विराध्यन्ते।
अथाऽधिकद्वारमाह
हिस्स इमे दोसा, एगयरस्सोग्गहम्मि भरितम्मि । सहसा मत्तगभरणे, भारादिविर्गिचणियमादी ||३८६ ॥ प्रमाणाधिकस्य मात्रकस्य हमे दोषाः - एकतरस्य भक्तस्य वा पानकस्य वा प्रतिग्रहे भृते सति पधानमात्रके ग्रहणं कुर्यात्, सहसा वा तस्य मात्रस्य भरणे कृते भारेण स्थाणुकण्टकादीनि न प्रेते तथा 35 मविराधना । - या अशोधने संयमविराधना अन्यथ-द्वयोरपि प्रतिग्रहमा
यो तयोर्विवेचनं च परिष्ठापनं भवेत् । तत्र पदकायचिराधना । अथ न परिष्ठापयति, ततोऽतिप्रचुरेण भक्षितेन ग्लात्वं भवेत्, यत एवमादयो दोषा अतः प्रमाणयुक्तं प्रहीतव्यम् ।
अथ शोधिद्वारमाह
जर भोषणमावहती, दिवसेणं तलिया चउम्मासा । दिवसे दिवसे तस्स उ, वितिष्णाऽऽरोवणा भणिया । २८७| यति यावतो वारान एकदियसेन मात्रके भोजनं भक्रपानमात्मनो योग्यमावहति, श्रानयतीत्यर्थः । तावन्ति चतुर्लघूनि । श्रथ दिवसे दिवसे मात्रकं परिभुङ्क्ते, ततो द्वितीयप्रायथिसेनाऽऽरोपण भणिता किमु भवति द्वितीये दिवसे मात्रकं वाचतो वारान् परिभुक्तायन्ति चतुर्गुरुकासि एवं तृतीये पहलघु, चतुर्थे षड्गुरु, पञ्चमे छेदः, षष्ठे मूलं, समे अनवस्थाप्यम् मे पाराम्बिकम् गतं शोधिद्वारम्
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(१०३) मत्तग अभिधानराजेन्द्रः।
मद्दवया अथाऽपवादद्वारमाह
मच्चा-प्रन्या । ज्ञात्वेत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु०२ ० २ उ० । प्रमाणे गारवे लुद्धे, असंपत्तीऍ जाणए ।
" एवं मत्ता अणुत्तरं धम्ममिण ।" सूत्र० १ थु०२० लहगो लहगा गुरुगा,चउत्थों सुद्रो उजाणो॥३८८।। २ उ०। इयं यथा प्रतिग्रहे तथा मात्रकेऽपि वक्तव्या।
मत्तिया-मृत्तिका-स्त्री० । पृथ्वीकाये, प्रज्ञा०१ पद । दश०। परिभोगद्वारमाह
मत्तियावई-मृत्तिकावती-स्त्री० । दशार्णदेशराजधान्याम् ,प्रवाले बुड़े सेहे, पायरियागलाणखमगपाहुणए । शा०१ पद। दुल्लभसंसत्तसं-थरंतश्रद्धाणकप्पम्मि ॥ ३८६ ॥ मत्तुबा-देशी-लज्जायाम् , दे० ना०६ वर्ग ११६ गाथा । बालस्य वृद्धस्य शैक्षस्य आचार्यस्य ग्लानस्य क्षपकस्य मत्थगोवहाण-मस्तकोपधान-न० । शीर्षोपवईणे, जी० प्राघूर्णकस्य च प्रायोग्यं मात्रके गृह्यते । यद्वा-बाल
१ प्रति। वृद्धाऽऽदयः प्रतिगृहं हिण्डापयितुं न शक्नुवन्ति , अतस्ते मात्रके भक्तमानयेयुः, भुञ्जीरन् वा , गच्छसा
मत्थय-मस्तक-न० । शिरसि, नं०। श्रा०म०१०। धारणं वा दुर्लभद्रव्यं घृताऽऽदिकं मात्रके गृह्णीयात् । यत्र मत्थयमूल-मस्तकशूल-न० । मूर्खशूले, शा०१श्रु०१३ अ०। वा भक्तपानं संसज्यते तत्र मात्रके गृह्यते , तद्धि संसक्तं मत्थुलिंग-मस्तुलिंग-न० । मस्तकस्नेहे, तं० । “ मत्युलिनेमात्रके शोधयित्वा प्रतिग्रहे प्रक्षिप्यते । अवमराजद्वेषा- ति ।" मस्तकभेजकम् । अन्ये त्याहुः–मेदःपिष्फिसाऽऽदि ऽऽदिषु चासंस्तरणे प्रतिग्रहे भृते अन्यस्मिन् लभ्यमाने मस्तुलिङ्गमिति । तं०। प्रश्न । भ० । स्था। मात्रके गृह्यते । अध्वनि कल्पोऽध्वकल्पः, कल्पग्रहणं कारणे विधिना अध्वाप्रतिपन्न इति ख्यापनार्थ, तत्रासंस्तरण
मद-मंद-पुं०। माने, आव०४०। मनस उन्मादे, ए. प्रतिग्रहे भृते सति मात्रकेऽपि गृह्यते । अथ ग्रहणद्विती
| २६ अष्ट । हर्षमात्रे, भ० १२ श० ५ उ० । अवयपदद्वारद्वयेन ग्रहणं नाम को मात्रकं गृह्णाति, तत्र निर्वचनं
लेपे, नं० । मदोदयादात्मोत्कर्षपरिणामे , प्रा. धू. ४ यथाप्रतिग्रहे द्वितीयपदं पुनरशिवाऽऽदिभिः कारणैर्यथाक
श्र० स०। तमात्रकस्य यत्र संभवस्तत्र गन्तुमशक्तः स्वस्थान एवा:- मदणसलागा-मदनशलाका-स्त्री० । सारिकायाम् , जी०३ ल्पपरिकर्मबहुपरिकर्मणी गृहीतव्ये, लक्षणाऽऽदीनि द्वाराणि प्रति०४ अधि० । प्रज्ञा० । प्रतिग्रहे इव मन्तव्यानि । अल्पपरिकर्मणि सपरिकर्मणि च पात्र लेपप्रदानं संभव
मदणा-मदना-स्त्री०। शक्रस्य देवेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामति, अतस्तद्विषयं विधिमाह
प्रमहिप्याम् , स्था०१ ठा। सोमाप्रमहिण्याम् , भ०१० श. हरिए बीए बले जुन्ने, वत्थे साणेजतट्टिए ।
५ उ० । बलेवैरोचनेन्द्रस्याग्रमहिष्यां च । स्था० ५ ठा०१
उ० भ०। पुढवीसंपातिमासामा, महॉवाए महियामिते ॥ ३६० ॥
मदणिज-मदनीय-त्रि०। मदनोदयकारिणि,स्था०६ ठा० । पुवण्हे लेवदाणं, लेवग्गहणं तु संवरं काउं ।
मद्दण-मर्दन-न० । परिमन्थने, विशे०। औ० । नि० चू० । लेवस्स आणणा लिं-पणा य जतणा य कायब्वा।।३६१।। स्वनामख्याते प्रामे, यत्र छन्मस्थविहारेण विहरन् वीरजिनो गाथाद्वयमपि पीठिकायां संप्रपञ्चं व्याख्यातमिति । बृ०३ यक्षदेवाऽऽयतने प्रतिमया स्थितो गोशालकच कदर्थितः ' उ० औ०। विशे० । सूत्र० । व्य०। नि० चू० । श्रा० म०। श्रा०म०१०। प्रा० चू०। कल्प। मत्तगय-मत्तगज-पुं० । उन्मत्तमतङ्गजे, त। “मत्तगयमहमु
मद्दल-मर्दल-पुं० । मुरजे, रा० । गृदने , रा० । प्रा०म०१
अ० जी० । मर्दले, स्था०७ ठा। महाप्रमाणे मुरजे, प्रा. हागिइसमाणा ।" मत्तो यो गजस्तस्य महदतिविशाल य
म०१०औ०।०। श्रा० चू०। न्मुखं तस्याऽऽकृतिराकारस्तत्समानास्तत्सदृशाः । जी. ३
मद्दव-मार्दव-न० । मृदुरस्तब्धस्तस्य भावः कर्म वा मार्दप्रति०४ अधिक। मात्रगत-त्रि० । पात्रगते, भाजनस्थिते, पश्चा० १३ विव०।।
वम् । नीचैवृत्तौ अनुत्सेके, प्रव० ६६ द्वार । मानपरित्यागे,
श्राव०४ अ० स्था। जात्यादिभावेऽपि मानत्यागे, दश०१० मत्तजला-मत्तजला-स्त्री० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे शी
अस। स्था०। जं०। पा०। मानपरिहारे , उत्त०२६ अ० । ताया महानद्या दक्षिणकले वत्सावाविजयेऽन्तनद्याम् ।
रामानोदयनिरोधे, औ०। मानाभावे, कल्प०१ अधि०६ ज०४ वक्ष।
क्षण । स्था। आव० । प्रश्न । अनङ्गविजये, भ० १श. ६ दो मत्तजला । स्था० २ ठा०३ उ० ।
उ०। माननिग्रहे, शा०१६०१ १० । १० । प्रा. चू० । मत्तली-देशी-बलात्कारे, दे० ना०६ वर्ग १९३ गाथा ।। स० । मानस्तब्धतापरित्यागे, आचा० १ श्रु० ६ ० ५ मत्ता-मात्रा-स्त्री० । मर्यादायाम् , उस०६ प० । अंश,
उ० स०। विशे० । व्यवच्छेदे, आव०४ का परिसछेद स्थामद्दवजुत्तया-मादेवयुक्तता-खी। मृदुस्पर्शत्वे, पृ०३ उ०। ठा० १३० । नि० ० । अल्पे, पाइ० ना० १६४ गाथा। महवया-स्त्री०मार्दव-न। मानपरिहारे, उच्च० २६ ।
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मध्यमा
मार्दवफलं प्रश्नपूर्वकमाह - मार्दवं हि मानत्यागरूपं, तनु विनयस्य कारणं, धर्मे हि विनयस्य प्राधान्यम्महयाए मते जीवे किं जगह है। महवयाए सं जी अणुस्सियत्तं जण, अणुस्सियलेणं जीवे मिठ महवसंपचे अड मगडाणा निडवेह || ४६ ॥
,
हे स्वामिन् ! मार्दवेन कोमलपरिणामेन जीवः किं जनयति । गुरुराह - हे शिष्य ! मार्दवेन मानपरिहारेण जीवः अनुत्सृतत्वम् अनहकारित्यम् अहङ्काराभावं जनयति अनुसृतत्वेन- अहङ्काराभावेन जीवो मृदुः कोमलः ख कलभव्यजनमनः सन्तोषहेतुत्वात् इष्यतो भारत सर लोऽवनमनशीलः, दोर्भावो मायं गुणावगुणयों एवं मेदः अवसरे अवनममं - मृद्गुणः यत्सर्वदा कोमल स्वभवनं तत् माईयम्। यद्वा-कायेन मानत्यागो मृद्गुणः, मनसा मानपरिवारो मार्दवं ताभ्यां सम्पन्नो भवति संयु को भवति तादृशः सन् अष्टी महस्थानानि निष्ठापयति प
-
यति ॥ ४६ ॥ उत्त० २६ श्र० ।
उ० ।
3
मद्दवसंपण्ण मार्दवसम्पन्न जि० । अन्तःकरणतोऽपि कोमलतायुक्ते, उस० २६ अ० ।
महविज- मार्दव - २० | मृदुभाषे, सर्वत्र प्रायवत्त्वे विनम्रतायाम्, सूत्र० २ श्रु० १ श्र० ।
माविक-पुं० | माईयमस्तब्धता तद् विद्यते यस्य स मावि कः । बृ० १ उ० २ प्रक० । स्तब्धताविकले, बृ०४ उ० । श्र मानिनि, पं० भा० १ कल्प | पं० चू० ।
मार्दवित - त्रि० । संजातं मार्दवमस्येति तारकादिदर्शनाssदिप्रत्ययः । मार्दव्य० १३० मविया - मादविता - बी० सञ्जातमार्दवतायाम्, व्य०५०। मtित्र - मर्दित - त्रि० । निर्दलिते, पाइ० ना० २०१ गाथा० । मद्दी - माद्री - स्त्री० । वसुदेवस्यानुजायां भगिन्याम् अन्त० १ ५० १ वर्ग० [१] [अ०] शिशुपालमातरि सू० १५० २०
3
"
( २०४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जी० १ प्रति० ।
मधु-मधु-मधे, प्रश्न० ५ संव० द्वार । प्रशा० ।
1
मदुग-मद्गु पुं० । जलवायसे, २०७ १०६ ३० ग्राहभेदे,
-
।
मधुपुर-मधुपुर-म० | स्वनामस्याने पुरे, मधुरायां चित्रपुत्री कथा कथयितुमारेभे मधुपुरे वरुणश्रेष्ठी एककरप्रमाणं देवकुलमकारयत् । उत० ६ ० ।
मधुमई- मधुमती श्री पुरी ती०१ कल्प - त्रि० । रसनासुखावहे, नि० चू० १३० । श्रवणमधुर-मधुर- | सुखकरे, स० । मधुरगतयफल- मधुरकट्फल न० मधुरतडले, "बतार मधुरगतणफलागि ।" ज्यो० २ पाहु० । मधुरोगमधुरोदक-२० मधुरपानके, नि० ५० १ ० ॥
7
ममत
मधूला-मधूला - स्त्री० । पादगराडे, बृ० ३ उ० । नि० चू० । मन्तु मन्यु- पुं० । " मन्यौ न्तो वा ॥८२॥४४॥ मन्युशब्दे संयुक्लस्य न्तो वा भवन्ति । मन्त् । मन्नू । क्रोधे, प्रा० २ पाद । मन्थर-देशी-कुसुम्भकुटिलेषु दे० ना० ६ वर्ग १४५
गाथा ।
66
मन्धा - आये, देशी- दे० ना० ६ वर्ग ११६ गाथा । मन्नेल्ली - देशी-सारिकायाम्, दे० ना० ६ वर्ग ११६ गाथा । मन्म-मन-धा० गत्यर्थे प्राचा० २ ० १ ० ३ ० १० मम्भीसा मा भैषीः- क्रियापदम् मा भैपरित्यस्य मम्मीसेति स्त्रीलिङ्गम् । “ सत्थावत्थहं श्रालबरणु, साहुवि लोड करेइ । आदनहं मम्मी सड़ी, जो बतु सो देह १॥" प्रा० ४ पाद मम- अस्मद् पञ्चम्येकवचनम् । " मे मह मम मह महंम मज्भं श्रम्ह अम्हं ङसा " || ८ | ३ | ११३ ॥ इति ङसा सहितस्यास्तदो ममाऽऽदेशः प्रा० ३ पाद । । ममए- अस्मद् - तृतीयैकवचनम्। " मिं मे ममं मम ममाह मह म मयार ॥१०६॥ इति टासहितस्वास्मदः 'मम' इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद ।
। ।
ममं - अस्मद् - द्वितीयैकवचनम् । " गं मि श्रम्हि श्रम्ह मम्ह मं ममं मियं श्रहं श्रमा " || ८ | ३ | १०७ ॥ श्रस्मदः श्रमासहते दश आदेशा भवन्ति । ममं । माम् । प्रा० ३ पाद । अहोरात्रस्य त्रिंशत् महतः तेषु पञ्चविंशतितमो ममः । जं० ७ वक्ष० ।
ममकार - ममकार - पुं० । ममेत्यस्य करणं ममकारः । पञ्चा० १० विच पात्रोपाथवाऽऽदिषु ममताकरणे ० २ अधि० | स्वपदार्थभिन्नेषु पुङ्गलजीवाऽऽदिषु इदं ममेति परिगामे, श्र० ४ श्रष्ट० । नि० चू० ।
ममत्त - ममत्व -- न० । ममैतदित्येवंरूपे भावे, श्रातु० । मूर्च्छायाम्, संथा० । श्राचा० ।
64
37
पुत्रा मे भ्राता मे, स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृतमेमेशब्दं, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ १ ॥ पुत्रकलत्रपरिग्रहं ममत्यदोषैमेरो जति नाम् । कृमिक व कोशकारः परिग्रहाद्दुःखमाप्नोति ॥ २ ॥ श्राचा०१ श्रु० २ श्र० १ उ० ।" ममाहमिति चैत्र यावदभिमा नदाहज्वरः कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशाल्युन्नयः।" सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ० । श्राव० । “न सा महं नो वि श्रहं पि तीसे इमेव ताओ विराज रा" ( न सा महंगो हिं पितीथि उदाहरणं एगो वागिदारगो सो जायं उज्झिता पवइश्रो, सो य उदायुप्पेहींभूयो इमं च घोसेति"सा सा महंतो वि वि तीसे" सो वितेर साथि म अहं तीसे सा ममारगुरता कहमहं तं हामि सि कार्ड गहियापारभंगरोपाथीचेच संपट्टियां गतं गार्म जत्थ सा, सोइण्ठिावाणतर्ड संपतो, तत्थ य सा पुग्वजाया पाणिस्स श्रागता, साय साविया जाया, पव्वइउकामा य, ताए सो नाश्रो, इयरो, तं स यास्ति, तेरा सा पुच्छियाश्रमुगधूया किं मता, जीवइ वा ?, सा चिंतेर जइ सासघरातो उष्पव्वयामि इतरहा न । ताए शातं, जहा एस पपहिकामी. तो दोषि संसारं भमिस्लामिति ।
"
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ममत्त
9
सादितम्रो सो चिडिमारो सच्चे भगवतेहिं साहहि अहं पाढियो, जहा“सा महं हो विश्रपि तीसे" परम संवेगमावण्णो, भरिणयं च रोल- पडिसिमि ती रापडियो हाऊस अणुखाखियोशिष्यं जीवयं कामभोगा इसरिया । एवं तस्स केव लप धम्मं परिवदि, अजाविव पडि गम्रो चाया पन्जा चिरीभूय एवं अप्पा साहारेयब्यो जहा ते " इति सूत्रार्थः । दश० २ ० 1 ममतर हिय-ममत्वरहित- वि० निस्सङ्गे, पञ्चा० २ चिव० "भावियजिरावा ममन्तरडियारा नहु चिखेखो। अप्पासम्म परम्मिय, तो यजे पीडमुभओ वि ॥१॥” इति । आव० ६ श्र० ।
,
१
ममार
माइ- अस्मद्वतीयैकवचनम्। "मि मे मम मम मह मर गयाह से टा " ॥ ८ ३ १०६ ॥ इदः टासहि तस्य ' ममार ' इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद । ममायिन् - त्रि० । ममेदमहमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनि सूत्र० १ ० २ श्र० २ उ० ।
3
59
मनाइयमह ममायितमति त्रि० ममाथितं मामकम् तत्र म तिर्ममा यितमतिः परिग्रहाभ्यवसायकलुषिते, "जे समायितम तिं जहाति । आचा० १ ० २ श्र० ६ उ० । ममाण- अस्मद् " से "३११४॥ इत्यादिसूत्रे णो मज् गाउमा सहितस्यास्मदो मनाला देशः बहुवचने प्रा० ३ पाद ।
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ममायं ममायम्मामक-पुं० । ममायमिति ममकारं कुर्वति नि० ० ।
जे भिक्खु वा भिक्खुणी वा समानं बंदर, बंदतं वा साइज्ज || ५५ || जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा ममायं पसंसर, पसे वा साइज्जह ||२६|| सुद्धे सूत्रे समीकार करेंते ममा ।
(१०५). अभिधान राजेन्द्रः ।
गाहा
आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे । पडिसेह व ममचं, जो कुणती मामत्रो सो उ ॥ ६६ ॥ उवकरणादिसु जहासंभवं पडिसेहं करेंति-मा मम उवकर कोई गेराइनु, एवं असु विवियारभूमिमादिपतु प डिसेहं समच्छ परगच्छयाणं वा करेति, आहाराऽऽदिसु चैव ससु मम त्ति करेति भावपडिबंधं एवं करेंतो मामश्रो भवति, विविधदेसगुणेहिं पडिबद्धो मामश्रो इमो ।
,
२७
गाहा
अह जारिओ देसो, जे य गुणा एत्य सस्सगोगादी | सुंदर अभिजातजणो, ममाइ सिकारण वर्दतो ॥१००॥
हत्तिय जारिलो देसो रुक्खवाविसरतडागोवसो भितो परिसर रात्थि सुहविहारो, सुलभवसहिभत्तो चकरणादिया य बहुगुणा, सो भिक्खुमादिया य बहु स इसा शिष्फज्जति य, गोमहिसपउरवणतो य पउरगोरसं, ससत्यादिप मुंजय अभिजात व कुसीमुदचकारी एमादिहिं गुणेहिं भाष
3
,
मम्मण डिबद्धो शिकारसमो वादयति, प्रसंसतीत्यर्थः । नि० ० १३ उ० ।
ममायमाण- ममायमान- त्रि० । ममीकरोति ममेदमित्येवं व्यवस्थापयति ममायमानः । सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० । ममेदमित्याचरति, आचा० १ ० २ श्र० ३ उ० । ममत्वेनाऽऽचरति । श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० ३ उ० । ममीकुर्वति स्वीकुर्वति श्राचा० १ श्रु० ६ श्र० २ उ० । ममायमिति स्नेहं कुर्वति, दश०२ चू० ।
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ममासुन्तो अस्मत् पञ्चमीबहुवचने, “ ममाम्दी व्यंसि ॥ ८ | ३ | ११२ ॥ श्रस्मदो भ्यसि एतावादेशौ स्तो, भ्यसस्तु यथाप्राप्तम् । प्रा० ३ पाद ।
ममाहिन्तो - अस्मद् -' ममासुन्तो' इत्यस्यार्थे, प्रा० ३ प्राद। ममेमुन्तो- अस्मद् ममासुन्तो' इत्यस्थायें प्रा० ३ पाद मम्म पुं० मर्मन् १० प्रियन्तेनेन राजादिविरुद्धेनोचारतेनेति मर्म । उत्त० १ ० । “स्नमदाम - शिरो नभः ॥ ८|१|३२|| इति प्राकृते वा पुंस्त्वम् । मम्मो ।' प्रा० १ पाद । मरणहेतौ, " एगो मदो, सो एगेश कंडेल आहो निदरं मम्मपदेसे लग्गडप्पहारेण पडितो । " श्रा० म० १ ० । शङ्खशिकाऽऽदिके शरीरावयवे, त० । सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । प्रश्न० । उत्त० ।
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"
मम्मक्का- - देशी- उत्कण्ठायाम्, दे० ना० ६ वर्ग १४३ गाथा । मम्म- मर्मग मर्मक मर्मगच्छतीति मर्मगाः । मर्मस्पर्श निःसूत्र० १ ० ६ ० "न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न तिर न सम्मर्थ "न लपेत् सावयं न च मर्मकं रूपं साधु यात् प्रियतेनेति ममं लोकराजावादिकम् - थवा मर्मणि गच्छतीति ममेयं यस्मिन् कर्मणि प्रकटीभू सति मनुष्यस्य मरणमेव स्यात् तदपि वाक्यमात्मार्थ का अथवा परार्थ वा, अथवा – उभयार्थम्, अथवा - श्रन्तरेण प्रयोजनं विनाऽपि च न वदेत् । उत्त० १ ० । मार्मक- पुं० | कुशीलभेदे सूत्र० १ श्रु० । ४ ० १ ३० ॥ प्रति० । मम्मड - मम्मट - पुं० | काव्यप्रकाशकारे, मम्मण - मम्मन - त्रि० । श्रव्यक्ते, नि० १ श्रु० ३ वर्ग ४ श्र० । श्रव्यक्तवाचि प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । मन्मनमिव मन्मनं चास्फुटे, प्रश्न० १ ० द्वार । श्राचा० । मन्मनः पुनर्भाषमाणोऽन्तराऽन्तरा स्खलति, यदि वा तस्य भाषमाणस्य वाकू चिरेण निर्गच्छति । व्य० १० उ० । अर्थोपार्जनप्रसिद्धे वणिजि, तं० । मदन - रोषयोः, दे० ना० ६ वर्ष १४१ गाथा ।
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मम्मणकथा चेयम्
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'पुरं राजगृहं नाम, श्रेणिकस्तत्र भूपतिः । सुनन्दाचिल्लरी राश्या- वभ्योऽमात्यपुङ्गवः ॥ १ ॥ मम्मणोऽभूद् वणिक्, तत्र, तेन लेशेन भूयसा । प्रभूतमर्जितं द्रव्यं किञ्चिन्न व्ययितं पुनः ॥ २ ॥ मेल मेल फोटिशस्त भिजसीधशिरोगृहे । एक निर्मापयामास स्वर्णरत्नमयं नृपम् ॥ ३ ॥ द्वितीयः किञ्चिदूनोऽस्ति, तत्कृते चिन्तयाऽऽतुरः । अत्रान्तरेऽभवद्वर्षा नयां पूरः समागमत् ॥ ४ ॥
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मम्म अभिघानराजेन्द्रः।
मयगल सकौपीनांशुकः काष्ठा-धिरूढः काष्ठसञ्चयम् ।
रिडतो लब्धिमान् अहमित्येवं तथा जात्या तापस्व्येन वुट्या तत्यूर्सये नदीपूरा-वर्षत्यप्पाचकर्ष सः ॥५॥
बा, म माद्यतेति वर्तते, जातिसपनस्तपस्वी बुद्धिमानहतदा राजा सरानीको, वातायनगतोऽभवत् ।
मित्येवम्, उपलक्षणं चेतत्कुलबलमपाणां, कुलसंपन्नोऽहं बलराशी इष्वा तथास्थं त, सामर्षा नृपमभ्ययात् ॥ ६॥ संपन्नोऽहं, रूपसपनोऽहमित्येव न माघेत । इति सूत्रार्थः ।। सत्यं धूयत एवं, सरिदब्धिनिदर्शनेन राजानः ।
दश०८ अ०२ उ०। भरितानि भरन्ति दृढं, रिकं दृश्याऽपि नेक्षन्ते ॥ ७॥
मृत-पुं० । त्यक्त्रमाणे, जी। राक्षोक्तं किमिदं वति, तयोक्नं देव! वीक्ष्यताम् ।
अहिमडेति वा गोमडेति वा सुणगमडेति वा मजारमडेरक्कः क्लिश्यनय नद्या-मुद्धर्तुमवबुध्यते ॥८॥
ति वा मणुस्समडेति वा महिसमडेति वा मुसगमडेति वा ल राहाऽऽलायितः प्रातः, पृष्टः क्लेशस्य कारणम् ।
आसमडेति वा हत्थिमडेति वा सहिमडेति वा वग्गमडेति तेनोकं देव ! मेऽद्याऽपि, वृषयुग्मं न पूर्यते ॥६॥
वा विगमडेति.का दीवियमडेति वा मयकहियचिरविण?-- ऊचे रामा गृहाण त्वं, भद्र ! भद्रशतं मम ।
कुणिमवावामदुब्भिगंधे। स वाचन तैः कार्य, पूरयाग्रिममेव मे ॥१०॥
'अहिमृत इति वा, अहिमृतो नाम मृताऽहिदेहः, एवं सर्वत्र कीरशस्तेऽस्ति भूपं स, गृहे नीत्वा तमैक्षयत् ।
भावनीय, गोमृत इति वा श्रश्वमृत इति वा माजीग्मृत इति राजाऽवदन्न मे भद्र ! , कोशेनाप्येष पूर्यते ॥ ११ ॥
वा हस्तिमृत इति वा सिंहसत इति वा व्याघ्रमृत इति वा, सोऽयम् नापूर्ययं याव-क्तावद् देव ! न मे सुखम् ।
द्वीप:-चित्रकः, सर्वत्र अहिश्वासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं सदध भिक्षुभाण्डानि, प्रेष्यन्त प्रकृता कृषिः ॥१२॥
विशेषणसमस्सा, इह मृतकं.सद्यः संपनं न विगन्धि भवति, प्रारभ्यते वृषाश्वेभ दास्याः पोषणं मया।
तत पाह- मयकुहियविणकुणिमवावराण दुब्मिगंधे ।' राजाऽभरायत तयेवं, क्रिश्यसेऽल्पकृते कथम् ? ॥ १३ ॥
इत्यादि । मुतः सन् कुथितः । जी०३ प्रति०१ उ.। सोऽवक केशसहं मेऽहं व्यापारोऽभ्योस्ति नाधुना ।
मयंग-मतङ्ग-पु०। श्रीवीरजिनस्य शासनयक्षे, मतकः यक्षः वर्षास्वेधोमहात्वं, तदर्थेऽहं करोग्यदः॥ १४ ॥
श्यामवर्णः गजवाहनो द्विभुजो, नकुलयुनदक्षिणभुजो वामनपोऽयादीन्महामाग!, पूर्यतां ते मनोरथः ।
करधृतवीजपुरकश्चेति । प्रव० २६ द्वार। स्वमेवास्य समर्थोऽसि, पूरणार्थमनतु॥१५॥ कृतमाङ्गलिक तेन ,स्वसौधेऽथागमन्नृपः।
मयंगतीरदह-मृतगङ्गातीरद-पुं० । मृतगङ्गा, यत्र, गङ्गादेशे कालेगाऽऽपूरि तेनासा-वर्थसिद्धोऽयमीदृशः ॥१६॥
जले. व्यूढमासीदिति तत्तीरे हृदः । वाराणस्यां स्थिरजलहदे, श्रा०क०१०।
"याणारसीए नयरीए उत्तरपुरच्छिमदिसिभाए गंगाए ममम्मणमृग-मन्मनमक-पु०। यस्यानुवदतः खव्यमानमिव ब. हाणईप मयंगतीरहहनामं दहे होत्था" ज्ञा०१ श्रु० ३ ०। चन सखलति समन्मनाकः। मूकभेदे,ध०३अधिकाग० श्राव०
मयंतर-मतान्तर-नः । एकस्याऽऽचार्यस्य मताद् विरुद्ध मते, मम्मह-मत्मथ-पुं०। कामदेवे, पाइ०मा०७ गाथा।
"मयंतरेहिं कंखा मोहणिज कम्मं वेहजइ । " भ० । मतं मम्माय-मम्माण-पुं० । स्वनामण्याते शैले. यत्सम्युल्थ
समान एवाऽऽगमे श्राचार्याणामभिप्रायः, तत्र च सिद्धसेन
दिवाकरो, मन्यते-केवलिनो युगपज्ज्ञानं दर्शनं च, अन्यथा रलैचोंबडः शवञ्जये संवत् १०८ वर्षे प्रतिमामकारयत् ।
तदावरणक्षयस्य निरर्थकता स्यात्, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणती०१ कल्प। मम्मी-देशी-स्त्री०। मातुलान्याम् , देना०६ वर्ग:११२गाथा ।
स्तु भिन्नसमये ज्ञानदर्शने,जीवस्वरूपत्वात् ,तथा-तदावरणक्ष:
योपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतोपयोगी, न चैकतरोपमम्ह-अस्मद-"णे मि अम्मि अम्ह मह म मम मिमं अहं
योगे इसरक्षयोपशमाभावः, तत्क्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिअमा" ।।३।१०७ ॥ इत्यस्मदोऽमा सह मम्हाऽऽदेशः ।
सागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्वमिति, इह च समाधिःदतीयैकवचने, प्रा० ३ पाद ।
यदेव मतमागमाऽनुपातिसंव, सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुमयं-मत-न०। समान एबाऽऽगमे प्राचार्याणामभिप्राये, भ०१
नरुपेत्रणीयम् , अथ.चाबहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते तदेवं श. ३ उ० । निजेऽभिप्राये, विशे। सूत्र० । अभिप्रेते, सूत्र
भावनीयम्-प्राचार्याणां सम्प्रदायाऽऽदिदोषादयं मतभेदो, ११०१५ ३० । अनुमते, त्रि०। श्री० । इष्टे दश०४.१० । जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्ध ऋ, रागाऽऽदिविराहेतत्वात् । अभिप्राये, “(८०१) समश्रो मयं." पाइ० ना० २४२ गाथा।
श्राह च-"अणुवकयपराणुमाह-परायणा जं जिणा जुगप्पवमद-पुं० । अहङ्कारे, दर्शक तत्त्व । कुलवस्त्रश्वर्यविद्या.
रा। जियरादोसमोहा, यऽनहावाइणो तेणं ॥१॥" भ०१ रूपादिमिरहकारकरणे, परप्रवर्षनिबन्धने वा। ध०१ श्री. श०३उ०। धिारापानाऽऽदिजनितेविक्रियायाम:, विशेः । गर्वे, 4- मयण-मृतक-पुं० । शवे, आ० म० २ १०।। शं. १ तत्व । श्रा०म० । प्रव० । स० । प्रातु ।
मयगंगा-मृतगङ्गा-स्त्री० । व्यूढालदेशावच्छिनायां गाया मदवर्जमार्थमाह
म्, शा०-१ श्रु०३१०। “समुई जतो गंमा पविसइ, तत्थ न बाहिरै परिभवे, अत्ताणं न समुसे ।
वरिसे वरिसे अराणण मग्गेण वहर, वीपण गंगा मयगंगा सुअलाभेण मजिजा, जच्चा तवास्सिबुद्धिए ॥ ३०॥ भन्नइ ।" श्रा० म०.१ अ० । श्रा० चू०। नबाह्यमात्मनोऽन्यं परिभवेत् , तथा श्रात्मानं.न. समुत्क- मयगल-पदकल:-त्रि० । मवमभिगृहाने, " पदे मययलपयेत् , सामान्यतेस्थंभूतोऽहमिति, श्रुतलाभाभ्यां नमायेत,प- सलिलगनिक्कमे । " चं.प्र. पाहु. पाहु. पाहू । ह
त्यस्लामे या मजिवर याच्या तामिपति ॥ ३०. मग
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मयगल अभिधानराजेन्द्रः।
मयासलागा स्तिनि, “पीलू गो मयगलो मायंगो सिंधुरो करेग्णू य। दो- 'पापिकैव' दोषबत्येव , अथवा-स्वस्थानादधमस्थाने पाघट्टा दंती वा-रणो करी कुंजरो हत्थी ॥६॥" पाइ० ना०६ तिका, तत्रेह जन्मनि सुधरो दृष्टान्तः, परलोकोऽपि पुरोहि. गाथा।
तस्याऽपि श्वाऽऽदिषुत्पत्तिरिति,इत्येवं संख्याय' परनिन्दा मयगुम्मिय-मदगुल्मित-त्रिकामदघूर्णितचेतने,वृ०१उ०२प्रक०। दोषवती ज्ञात्वा मुनिर्जात्यादिभिः यथाऽहं विशिएकुलोमयद्वाण-मदस्थान-न० । मदभेदेषु, मदो-मानस्तस्य स्था-1 द्भवः धुतवान् तपस्वी, भवांस्तु मत्तो हीन इति न मायति नानि पर्यायमेदा मदस्थानानि । श्राव. ४ अ०।
॥२॥ सूत्र १ श्रु०२ १०२ उ०। अट्ठ मयट्ठाणा पमत्तातं जहा-जाइमदे,कुलमदेवलमदे मयण-मदन-पुं । कामे , अभिलाषमात्रे च । स्था०५ रूवमदे,तबमदे,सुयमदे,लाभमदे, इसरियमदे,(सूत्र--६०६),
ठा०१ उ०। भाचा०।“ श्राणा जस्स विनइया , सासे मदस्थानानि मदभेदाः, इह च दोषो जात्यादिमदोन्मत्तः
सब्वेहि हरिहरेहिं पि । सो वि तुह झाणजलणे, मयणो पिशाचवद्भवति दुःखितः, इह जात्यादिहीनापरिभवं च
मयण पिव विलीणो ॥१॥"पश्चा०४ विव०"मयणसरापूरगं।" निःसंशयं लभते इति । स्था०८ ठा० । सूत्र० । आव० ।
कल्प०१ अधि० ३ क्षण । मधुनो विकृतिरूपेऽवयवे, पं० श्रा००। यतोऽनादी संसारे पर्यटताऽसुमताऽदृष्टा5
व०२ द्वार । विश्वपुरे परणेन्द्रराजपुत्रमित्रे श्रेष्टिपुत्रे, ग०२ यत्तान्यसकृदुचाक्चानि स्थानान्यनुभूतानि तस्मात्कश्वि
अधिः । (स्पर्शनेन्द्रियविषयविपाके कथा) मीने, “(७२३) दुचावचाऽऽदिकं मदस्थानमवाप्य पण्डितो हेयोपादेयतत्त्व-।
सित्थयं मयण " पाइ० ना० २२८ गाथा । कामदेवे, पाइ० शो न हृष्येत्-न हर्ष विदध्यात् । उक्तं च
ना० ७ गाथा। "सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मया तु संसारे। मयणकंचणा-मदनकाञ्चना-स्त्री० । पुष्कलावतीविजयपु. उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु ॥१॥ रीभेदे, दर्श० १ तत्त्व। (सूत्रकृताङ्गे)
मयणकंदली-मदनकन्दली-स्त्री० । हस्तिनापुरराजस्य जिजइ सोऽवि णिज्जरमो. पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहि। । तशत्रोभीर्यायाम् , दर्श०१ तत्त्व । श्रवसेस मयट्ठाणा, परिहरियव्या पयत्तेणं ॥४४॥"
मयणजक्ख-मदनयक्ष-पुं० । स्वनामख्याते यक्षे, यमाराध्य नाध्ययगोतस्थानावाप्तौ वैमनस्यं विदध्यात् । आह च-“णो कुप्प ।” अदृष्टवशात्तथाभूतलोकासंमतं जातिकुलरूपबल
द्विमुखगजपत्नी वनमाला मदनमञ्जरी सुषुवे । उत्स०अ०। लाभाऽऽदिकमधममवाप्य न क्रुध्येत्-नसोध कर्वीत कामयणपरवसा-मदनपरवशा-स्त्री० मन्मथविलायाम, तं। नाचस्थान शब्दानंदकं वा दुःखं मया नानुभूतमित्येवमवगम्य मयणबहूसव-मदनबहूत्सव-न। भरतवताव्यपषतस्यात्त
मयणबहसव-मदनबहत्सव-न। भरतवैताव्यपर्वतस्योत्तनागवशगेन भाव्यम् , उक्तंच
रविद्याधरश्रेणौ स्वनामख्याते नगरे, दर्श०१ सरक। "अवमानात्परिभ्रंशा-द्वधबन्धधनक्षयात् ।
मयणमंजरी-मदनमञ्जरी-स्त्री० काम्पिल्यराजद्विमुखपत्म्यां प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वाप ॥१॥ चण्डप्रद्योतस्यावन्तीराजस्य भायीयाम् , उत्तर प्र० । से ते य अविम्हइ, असोइउ पंडिपण य असते ।
मयणरहा-मदनरथा-स्त्री० । मालवमण्डलमण्डनसुदर्शनसका हु दुमो बमियहि-अएण हिययं धरतेण ॥२॥ होऊण चकचट्टी, पुहइवती विमलपंडुरच्छत्तो।
पुरराजमणिरथस्य भ्रातुर्युगबाहुभार्यायाम् , नमिमहाराज
मातरि, उत्त०६ अती । ('साम' शब्दे चतुर्थभागे १८०८ सो चेव नाम भुजो, अणाहसालालमोहोर ॥३॥" पकस्मिन्या जन्मनि नानाभूतावस्था उच्चावचाः कर्म
पृष्ठे कथोक्ता ) सिंहपुरराजस्य रत्नसारस्य भार्यायाम् , पशगोऽनुभवति । श्राचा०१ श्रु०२ अ०३ उ० ।
सङ्घा०१ अधि०१प्रस्ता। साम्प्रतं परनिन्दादोषमधिकृत्याह
मयणवल्लह-मदनवल्लभ-पुं० । खनामख्याते चारित्रप्रधाने जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई महं।
सूगै, दर्श०३ तत्त्व ।। अदु इंखिणिया उपाविया,इति संखाय मुणी ण भजई।२।।
मयणवांछा-मदनवाञ्छा-स्त्री०। कामाभिलाषे,“ मुण्डं शि
रोवदनमेतदनिपुगन्धि,भिक्षाऽटनेन भरणं बदनोदरस्य। गात्रं नियुक्तिकृदाह
मलेन मलिनं गतसर्वशोभ, चित्रं तथाऽपि मनसो मदने - जइ ताव निजरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहि ।
स्ति वाञ्छा ॥१॥" सूत्र.१ श्रु०४ ० १ उ०। अविसेसमयट्ठाणा, परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥४४॥
मयणवाराणसी-मदनवाराणसी-स्त्री० । वाराणस्याः स्वना'अष्टमानमथनैः' अर्हद्भिः, अवशेषाणि तु 'मदस्थानानि' मख्याते भागे 'मदनपुरा' इति प्रसिद्धे, ती ३७ कल्प । जात्यादीनि 'प्रयत्नेन' सुतरां परिहर्त्तव्यानीति ।४४। 'जो परि' इत्यादि, यः कश्चिदविवेकी परिभवति' अवशयति 'परं जनम्
मयणसरापूरग-मदनशराऽऽपूरक-पुंश मदनबाणतूणीरे, "मअन्य लोकम् आत्मव्यतिरिक्तं,स तत्कृतेन कर्मणा संसार'चतु
यणसरापूरगं पिच चंदो।" मदनस्य कामस्य शरापूरमिव । गतिलक्षणे भवोदधावरघट्टघटीन्यायेन परिवत्तते'भ्रमति,'म
तपीरमिव । श्रयमर्थः यथा धनुर्द्धरस्तूणीरं प्राप्य मुदितो निःहृद्' प्रत्यर्थ महान्तं वा कालं, क्वचित् 'चिरम्' इति पाठः ।
शकं मृगाऽऽदिकं शरैर्विध्यति,एवं मदनोऽपि चन्द्रोदयं प्राप्य 'अदु सि' अथशब्दो निपातः, निपातानामनेकार्थत्वात् अथ | निःशङ्कः जनान् वाणैाकुलाकरोति। कल्प०१ अधि० ३क्षण। इत्यस्यार्थे वर्तते, यतः परपरिभवादात्यन्तिकः संसारः मयणसलागा-मदनशलाका-ली। सारिकापक्षिजाती, जंक अतः । इखिणिया ' परनिन्दा, तुशब्दस्येषकारार्थत्वात् । १ वक्ष । रा०। प्रा० म० । जी । दे० ना० ।
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मयणसाला
अभिधानराजेन्द्रः। मयणसाला-मदनशाला-स्त्री०। सारिकाविशेष, प्रश्न० १ | मर--मृ-धा० । प्राणत्यागे, "ऋवर्णस्याऽर:"ET२३४॥ आश्रद्वार। औ०। प्रा००।
धातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्याऽराऽऽदेशो भवति । मरह म्रियते। मयणा-मदना-स्त्री० । पक्षिविशेष आव० १ अ०।
प्रा०४ पाद । "तृतीयस्य मिः "३३१४॥ बहुलाधिकाराद् मयणावली-मदनावली-स्त्री० । हस्तिनागपुरराजपनोत्तर
मिपूस्थानीयस्य मेरिकारलोपश्च । न मरं'न म्रिये इत्यर्थः । पुत्रमहापनस्य भार्यायाम् , ती०२० कल्प ।
प्रा०३ पाद।
मर-पुं० । मरणं मरः, स्वरान्तत्वादप्रत्ययः । प्राणवियोगे, मयणाहि-मृगनाभि-स्त्री० । कस्तूयोम् , " ( ३७६) मयणा
विशे०। प्राचा०। ही कत्थूरी” पाइ० ना० १४७ गाथा।
मरगअ-मरकत-न० । “मरकत-मदकले गः कन्दुके त्वादेः" मयणिज-मदनीय-न० । “कृद्धहुलम् " ॥ इति हैमवच
॥८।१।१८२॥ इति कस्य गः । मरगनं। प्रा०१ पाद । नाकर्तर्यनीयः प्रत्ययः । मदयतीति मदनीयम् । मन्मथज
"उश्रणिच्च लनिप्पंदा, भिसिणीपत्नम्मि रेहद बलात्रा । नने, जी० २ प्रति। मन्मथवद्धने, औ० ।
णिम्मलमरगश्रभाअण-परिट्ठिया संखसुत्ति ब्व ॥१॥" नीलरमयणिवास-देशी-कामे , दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा।
स्ने, ध०२ अधि० । शा० । उत्तरत्नविशेषे, जी०३ प्रतिक मयपतिप्रा-मृतपतिका-स्त्री० । विधवायाम् , औ०। ४ अधि०। सूत्र। औ०। मयपिंडणिवेयण-मृतपिण्डनिवेदन--न०। मृतेभ्यः श्मशाने | मरट्ट-देशी-गवे, दे० ना०६ वर्ग १३० गाथा।
मरण--मरण-न । प्रतिनियताऽयुःपृथग्भवने, द्वा०१४ द्वा०। तृतीयनवमाऽऽदिषु दिनेषु पिण्डनिवेदने, जी. ३ प्रति०४ अधि।
श्रायुःक्षये , आचा०१ श्रु० ३ १०२ उ० । दशविधप्राणविमयरंक-मकराङ्क-न। मकरचिहे, औ०।
प्रयोगरूपे (श्रा० म०१ १० । प्रशा० । आचा० । ल । मू०
प्र०। मृत्यौ, प्रश्न०३ श्राश्र० द्वार । प्राचा० । नं०। मयरद्धय-मकरध्वज-पुं० । कामदेवे, पाइ० ना० ७ गाथा ।
एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं । मयरहिय-मदरहित-त्रि। मदरहितो विशिष्टजातिलाभकुलै
एकं मरणं मृत्युरन्तिमशारीरिकाणां चरमदेहनां , श्वर्यबलरूपतपाश्रुताऽऽदिसम्पत्समन्वितावपि निरहङ्कारे,
मरणकता च सिद्धत्वे पुनर्मरणाभावादिति । स्था० १ कर्म०१ कर्म।
ठा० । श्राव० । तिर्यमनुष्ययोरायुष्कक्षये, मूत्र० १ मयरासण-मकराऽऽसन-न। येषामासनानामधोभागे मकरा श्रु०१२ श्र। सर्वथा क्षये, तं० । पञ्चत्वे, तं०। अवस्थितास्तेषु, जी. ३ प्रति०४ अधिक।
षड्विधं मरणमिात यदुक्तं तत्र नामस्थापने प्रतीते ए
वेत्यनादत्य शेषचतुष्टयमाह । अन्य त्वत्र नामाऽऽविषदविधमयसमाव-मृतसमान-पुंाशयकल्पे , वृ० १७०३ प्रक०।
निक्षपोद्देशाभिधायिनीमपि गाथामधीयते, तत्र नामस्थामयहर-महत्तर-पुं। गच्छमहति, "जे केइ आयरिएर वा
पने प्राग्वत् ,द्रव्याऽऽदिचतुएयाभिव्यञ्जनार्थमाहमयहरएर वा अगीयत्थेद वा पायरियगुणकलिएड वा
दवमरणं कुसुंभाऽऽ-इएसु भावि प्राउक्खओ मुणेयब्यो। मयहरगुणकलिपड वा भविस्सायरिएइ वा भविस्समयहर
पोहे भवतब्भविए, मणुस्सभविएण अहिगारो ॥२०६।। पहवा!" महा०४०।
द्रव्यस्य मरण द्रव्यमरण, कुसुम्भाऽऽदिकेषु, श्रादिशब्दामयहरिया-महतरिका-स्त्री० । मुख्यसाध्याम् , तां विना
दन्नाऽऽदिपरिग्रहः, यद्यस्य स्थकार्यसाधनं प्रति समर्थ रूपं श्रमण्यो न तिष्ठन्तीति । ग०३ अधिक।
तत्तस्य जीवितमिति रूद, तदभावस्तु मरणं, ततश्च कुसु. मयाइ-अस्मद-"मि मे ममं ममए ममाइ मह मए मयाइण
म्भाऽदेरजनाऽदि स्वकार्यसामर्थ्य जीधित, तदभावस्तु मरण, टा" ॥८।३।१०६॥ इत्यस्मदः टासहितस्य 'मयाई' इत्यादेशः। तथा च लोके मृतं कुसुम्भकमरञ्जकं , मृतमन्नमव्यञ्जनमिप्रा०३ पाद।
त्याधुपदिश्यते, क्षेत्रमरणं तु यस्मिन् क्षेत्र मरणम्-दिमयाणुष्मा-मतानुज्ञा-स्त्री०। निग्रहस्थाने , सूत्र० २२० नीमरणाऽऽदि वर्यते क्रियते वा यदा वा तस्य शस्या 5sg६०।
स्पत्तिक्षमत्वमुपहन्यते तदा तत् क्षेत्रमरणं, कालमरणं य
स्मिन् काले मरणमुपवय॑ते क्रियते वा, कालस्य वा प्रभयालिकुमार--मपालिकुमार-पुं० । श्रेणिकस्य धारण्यां जाते स्थनामख्याते सुते वीरान्तिके प्रव्रज्य षोडश वर्षाणि प्रश्रज्या
होपरागाऽऽदिना वृश्यादिस्वकार्याकरणम् , पते व सुगम
त्वात्तत्त्वतो द्रव्यमरणाभिन्नत्वाच्च नियुक्तिकता पृथग नोपालयित्वा वैजयन्ते कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति ।
के, यत्तु निक्षपगाथायां षड्विध इति वचनात् अनयोर्भदेअणु.१ वर्ग २० कृष्णस्य रुक्मिणीसंभवे पुत्र,सचारिने
नाभिधानं तद्विवक्षितवस्तुवैशिष्टयदर्शकं, म हि ताभ्यां मेरन्तिके प्रवज्य शत्रुअये सिद्धः । अन्त० १७१४ वर्ग
बिना नियतदेशत्वादिकं वस्तुनो वैशिष्यमाभ्यातुं शक्य२०॥
मिति , ' भावे ' भावविषये निक्षेप आयुषो-जीवितस्य मयाली-देशी-निद्राकरीलताविशेषे , दे० ना० ६ वर्ग
क्षयो-ध्वंसः आयुःक्षयो ' मुणितव्यो 'शातव्यो , मरण१५६ गाथा।
मित्युपस्कारः, तदपि च त्रिविधम्-'नोहे त्ति' श्रोधमरणमयय-मद्य-न०1"ज-ध-यां यः"||४|२६२॥ मागध्यां ।
सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मकं भवति, भवजद्ययमं स्थाने यो भवतीति द्यस्थाने यः । सुरायाम् ।। मरण-यन्नारकाऽदेनरकाऽदिभवविषयतया विवक्षितम्, 'त. मा०४ पाद।
भविय त्तिनविकमरणं यस्मिन्नेव मनुष्यभसाऽदौ मृतः पु.
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मरण
मरण
नस्तस्मिन्पय पन्द्रियते इति व्याख्यानिका ऽभिप्रायः स्मिन् तथा तथा पर्यषा: पारिशेष्याद्विशुद्धिविशेषाः प्रवृद्धास्तु व्याचतं भावमर दुविध
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.
भवरं च । तथा तद्भवमरणस्वरूपं च - जो जम्मि भवग्गहणे मरइ | तत्र च श्रहे तन्भवमरणे' इति पाठो लक्ष्यते । इह चैषां येनाधिकारस्तमाह-' मस्तभावति मनुष्यभवभाविना भवमरणान्तर्वर्त्तिना मनुष्य भविकमर सेनाधिकारः प्रकृतम् । इति गाथा ऽर्थः ॥ २०६ ॥ (१) सम्मति विस्तरतो मरवल्पतापिप
तिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुद्धया वर्तमानेत्यर्थः । सालेश्या वस्मितथेति अत्र प्रथमं कृष्णाऽऽदिलेश्यः स न यदा कृष्णादिलेश्येप्येय नारकादित्पद्यते तदा प्रथमं भवति, यदा तु नीलाऽऽदिलेश्यः सन् कृष्णाऽऽदिलेश्येपूत्पद्यते तदा द्वितीयं यदा पुनः कृलेश्याऽऽदिः सन्नीकापश्येत्पद्यते तदा दतीयम् उक्रं चान्त्यद्वयसेवादि भगवत्यां यदुत से करहलेसे, नीललेसे जाय सुफलेसे भविता काउलेसेनेरइप उपज है। ईता गोवमा ! से केरा भंते! एवं बुध गोमालेसाठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा काउलेस्सं परिणमत्र, परिणामत्ता काउलेसेसु नेरइएस उववज्जइ ति । एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्याऽऽदिविभागो नेय इति परितमरते सकिश्यमानता श्याया नास्ति से तत्वादेवेत्य बालमरणाद्विशेषः, बालपतिमरणे तु संक्लिश्यमानता विशुद्धयमानता च लेश्यायाः नास्ति मि थत्वादेवेत्ययं विशेष इति । एवं च परितमरणं वस्तु तो द्विविधमेच, संक्लिश्यमान लेश्यानिषेधे स्थितवान सेश्यत्यात्तस्य इति विधत्तु व्यपदेशमात्यादेव, बालप रिविधमेव, संक्लिश्यमानपर्ववजात लक्ष्यानियेथे अवस्थितलेश्वरयातस्येति वैविध्वं त्वस्यतरस्यावृतितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरित्ति । स्था० ३० ४ ३० प्र० स०॥ (३) सप्तदशविधमरणानि - वीचि श्रहि अंतिय, बलायमरणं वसट्टमरणं च । तोसलं तब्भव, चालं तह पंडियं मीलं ॥ २१२ ॥ छउमत्थमरण केवलि, वेहाणस गिद्धपिट्टमरणं च । मरणं मत्तपरिया, इंगिणि पावगमणं च ॥ २१३ ॥ इह च मरणशभ्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्ध यीचिम मरणम् १ अवधिमरणम् २, श्रतियति श्रार्षत्वादत्यन्तमरणम् ३, ' बलायमरणंति' तत एव वलन्मरणम् । ४, वार्तमरणं च ५, अन्तःशल्यमरणम् ६, तद्भयमरणम् ७, बालमरणम् ८ तथा पण्डितमरणम् ६, मिश्रमरणम् १०, लुप्रस्थमरणम् ११, केवलिमरणम् १२ बेहा राति तत एच पैदायसमरणम् १३ पृष्ठम १४. म परिणति भक्तपरिक्षा २५मरणम् १६, पादयोपगमनमरणं च १७ । इति गाथाद्वयार्थः ॥ २१२ – २१३ ॥ उत्त० पाई० ५ अ० । (४) अप्रशस्तमरलानि
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,
दो मरवाई समयं भगवया महावीरेणं समणाणं मि गंधा सोचे शिवाई गोविच्च किनियाई यो खिच्चं पूइयाई, यो णिच्चं पसत्थाई, गो चिं अणुनाबाई मति तं जहा बलायमर व वस मरणे व १ एवं सियाराम, भयर २, चैव गिरिपड देवरुप २. जलयवेने चैन, जलगप्प चैव ४, सिक्ख व मन्थोवा | दो मरलाई •जाब सोशिअम्भगुखायाई भवंति कारणेस पुरा अप ि जहा वेद्दाशते चेव, गिद्धपट्टे व ६ । तं
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( १०६ ) अभिधानरराजेन्द्रः ।
द्वारगाथाद्वयमाह
मरणविभत्तिपरूवण, अणुभावो चैव तह पएसग्गं । कद मरइ एगसमर्थ है, कसुत्तो वाचि इकिके १।। २१० ॥ मरणमिम इक्कमिके, कइभागो मरइ सव्वजीवाणं ? |
समय संतरं वा, इक्किक्कं किच्चिरं कालं ॥ २११ ॥ तत्र मरणस्य विभक्तिः - विभागः, तस्य प्ररूपणा - प्रदर्श ना मरविभक्तिप्ररूपणा, कार्येति शेषः । अनुभागश्च - रसः, स च तद्विषयस्याऽऽयुः कम्यः तत्रैव तत्सम्भवात् मर णे हि तदभावाऽऽत्मनि कथं तत्सम्भव इति भावनीयम्, एवेति पूरणे, तथा प्रदेशानां तद्विषयाऽऽयुः कर्म्मपुद्गलाऽऽत्मकानाम्, धर्मपरिमाणं प्रदेशास याप्यमिति गम्यते ।' क ति यिन्ति मरणानि अङ्गीकृत्य इति शेषः । म्रियतेप्राणांपजति जन्तुरिति गम्यते । एगसमयेति । सुव्यत्ययात् एकस्मिन् समये कहखुत्ता ति' कतिकृस्वः कियतो वारान, 'घा' समुच्चये, अपिः पूरणे, 'पक्केके ति एकैकस्मिन् वल्पमासमे मरणे स्त्रियंत इति योज्यम्, ' मरणे ' वक्ष्यमाणभेद एवैकैकस्मिन् 'कतिभागो ति कतिसङ्ख्यो भागो म्रियते, 'सर्वजीवानाम् श्रशेषजीचानाम् श्रणुसमयं ति प्रतिसमयं निरन्तरमिति यावम् । अन्तरं व्यवधानं सहान्तरेण वर्त्तत इति सान्तरं वा विकल्पे, किमुक्रं भवति ?-यषु कतरनिरन्तरं सान्तरे या ? तकियचिरं वित्परिमार्ग काले सम्भवतीति गाथाद्वयाक्षरार्थः ॥ २१०- २१२ ॥ उत्स० पाई० ५ ० । (२) विविधमरणम्
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तिथि हे मरणे पणत्ते । तं जहा बालमरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे पालमरणे तिविहे पयते । तं जहा - टिअलेस्से, संकि लिगलेस्से, पज्जवजातलेसे । पंडियमरमेतिबिहे पश्यते । तं जहा ठितलेस्से, यमंकिलिङ्कलेसे, पञ्जवजातले पलपंडियमरने तिविहे पद्मने। तं जहा ठिमलेस्से. असं कि लिडुलेसे, अपजातलेसे। (सूत्र - २२२ ) योग विरतिसाधकविदेकविक त्या स बालोयतस्तस्य मरणं बालमरणम् एवमितरे, केवल पडि धातोत्यधत्वेन ज्ञानार्थत्वादितिफलेन फलवद्विज्ञानसं कत्वात् पण्डितो बुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः । तथा अविर
नापितत्वेन च परितत्वाद्वापतिः संयतासंयत इति । स्थिता अवस्थिता अविशुद्धयन्यसइक्लिश्यमाना च लेश्या कृष्णाऽऽदिर्यस्मिन् तत् स्थितलेश्यः, संक्रिया संश्विमागमार्ग, सालेश्या य
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(११०) अभिधानराजेन्द्रः।
मरण (दा मरणाई इत्यादि) कण्ठ्या चेयम् , नवरं द्वे मरणे प्रत्याख्यानं-वर्जनं यस्मिस्तत् भक्तप्रत्याख्यानमिति । (नी. श्रमणेन भगवता महावीरेण श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रम- | हारिमं ति ) यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीणास्तेषां, ते च शाक्याऽऽदयोऽपि स्युः । यथोक्लम्-"णिग्गंथ | रस्य निर्हरणानिस्सारणानिर्दारिम, यत् पुनर्गिरिकन्द१ सक्क २ तावस ३, गेरुय ४ श्राजीव ५ पंचहा समणा।" राऽऽदौ तद् निर्हरणादनिर्दारिमम् (णियमं ति) विभक्तिइति। तद्व्यवच्छेदार्थमाह-निर्गता ग्रन्थाद्-बाह्याभ्यन्तरादि-1 परिणामानियमादप्रतिकर्म-शरीरप्रतिक्रियावज पादपोति निर्ग्रन्थाः-साधवस्तेषां नो नित्यं' सदा 'वर्णिते' पगममनमिति । भवति चात्र गाथा-"सीहाऽऽदिसु अभिभूतांस्तयोः प्रवर्तयितुमुपादेयफलतया नाभिहिते कीर्ति- श्रो, पायवगमणं करेह थिरचित्तो । आउम्मि बहुप्पंते, ते-नामतः संशब्दिते उपादेयधिया ( वुइयाई त्ति ) वियाणिउं नवरि गीयत्थो ॥१॥” इति । इदमस्य व्याघाव्यक्तवाचोक्ने उपादेयस्वरूपतः , पाठान्तरण-'पूजिते वा' | तवदुच्यते , निर्व्याधातं तु यत् सूत्रार्थनिष्ठित उत्सर्गतो तत्कारिपूजनतः ' प्रशस्ते 'प्रशंसिते श्लाघिते 'शंसु' द्वादश समाः(मासाः)कृतपरिकर्मा सन् काल एव करोतीति । स्तुतौ इतिवचनात् । 'अभ्यनुज्ञाते' अनुमते यथा कुरुते
तद्विधिश्वायम्ति । ( बलायमरणं ति ) बलतां-संयमानिवर्तमानानां प- “चत्तारि विचित्ताई, विगई निन्जूहियाई चत्तारि। रीषहाऽऽदिवाधितत्वात् मरण बलन्मरणम् , ( वसट्टमरणं संवच्छ्रे य दुन्नि उ, एगंतरिय च आयाम ॥१॥ ति) इन्द्रियाणां वशमधीनता मृतानां-गतानां स्निग्धदीपक- नाइविगिट्ठो य तवो, छम्मासे परिमियं च श्रआयाम । लिकावलोकनाऽऽकुलितपतङ्गाऽऽदीनामिव मरणं वशातम- अन्नेऽवि य छम्मासे, होइ विगि? तबोकम्मं ॥२॥ रणमिति । आह च-"संजमजोगविसन्ना, मरंति जे तं वासं कोडीसहियं, श्रायाम काउ प्राणुपुवीए । बलायमरणं ते । इंदियविसयवसगया, मरंति जे तं वसह संघयणादणुरूवं, पत्तो श्रद्धाइ नियमेणं ॥३॥" तु॥१॥" इति,। (एवं नियाणेत्यादि) एवमिति 'दो म
यतः
"देहम्मि असंलिहिए, सहसा धाऊहि खिजमाणेहिं । रणाई समणणं' इत्याद्यभिलापस्योत्तरसूत्रेष्वपि सूचनार्थः, ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदान तत्पूर्वकं मरणं निदानमरण ,
जायइ अट्टज्माण, सरीरिणो चरमकालम्मि ॥४॥"
किश्चयस्मिन् भवे वर्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवाऽऽयुर्बद्ध्वा पुनर्मियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम् । एतच्च सङ्ख्यातायुष्कनर
"भावमवि संलिहेई, जिणप्पणीएण झाणजोगणं । तिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्बन्धो भवतीति । उक्नं
भूयत्थभावणाहि य, परिवहइ वोहिमूलाई ॥ ५॥ च-" मोतुं अकम्मभूमग-नरतिरिप सुरगणे य नेरहप ।
भावेइ भावियप्पा, विसेसो नवरि तम्मि कालम्मि । सेसाणं जीवाणं, तम्भवमरणं तु केसिंचि ॥१॥” इति
पयईऍ निग्गुणतं, संसारमहासमुहस्स ॥६॥ (सत्थोवाडणे त्ति) शस्त्रोण-खुरिकाऽऽदिना अवपाटनं-विदा
जम्मजरामरणजलो, अणाइम वसणसावयाइनो। रणं स्वशरीरस्य यरिंस्तच्छस्त्रावपाटनम् ॥ ५ ॥ ( कारणे
जीवाण दुक्खहेऊ, कट्टु रोदो भवसमुद्दो ॥ ७॥ पुणेत्यादि) शीलभङ्गरक्षणाऽऽदौ पाठान्तरे तु-कारणेन 'अप्र
धन्नोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि नवरमेयम्मि । तिकुष्टे अनिवारिते भगवता, वृक्षशाखाऽऽदावुद्धत्वाद् वि
भवसयसहस्सदुलह, लड़ सद्धम्मजाणं ति ॥८॥ हायसि-नभसि भवं वैहायसं प्राकृतत्वेन-'तु वेहाणसं' इ
एयरस पभावणं, पालिज्जंतस्स सइ पयत्तेणं । त्युक्तमिति, गृधैः स्पृष्टं-स्पर्शनं यस्मिन् तत् गृध्रस्पृष्टं, यदि
जम्मऽतरे वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगधं ॥६॥ वा-गृध्राणां भक्ष्य पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदराऽऽदि च तद्भय
चिंतामणी अउन्यो, एस अपुवो य कप्परुक्खो त्ति । करिकरभाऽदिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्यस्मिस्त
एयं परमो मंतो, एयं परमाऽऽमयं एत्थं ॥ १०॥ त् गृध्रस्पृष्टमिति | गाथाऽत्र-“गद्धाऽऽदिभक्खणं ग-दए
एत्थं वेयावडियं, गुरुमाईणं महाऽणुभावाणं । दृमुबंधणाऽऽदिवेहासं । एते दोन्निऽवि मरणा, कारण
जैसि पभावणयं, पत्तं तह पालियं चेव ॥ ११ ॥ जाए अणुनाया ॥१॥” इति ।
तेसि नमो तेसि नमो, भावेण पुणो वि तेसि चेव नमो।
अणुवकयपरहियरया, जे एवं दिति जीवाणं ॥१२॥"इत्यादि । (५) अप्रशस्तमरणानन्तरं तत् प्रशस्तं भव्यानां भवतीति । तदाह
“संलिहिऊणऽप्पाणं, एयं पञ्चप्पिणेत्तु फलगाई। दो मरणाई समणेणं मगवया महावीरेणं सम
गुरुमाइए य सम्म, खमाविउ भावसुद्धीए ॥ १३ ॥
उववूहिऊरण सेसे, पडिबद्धे तम्मि तह विसेसणं। णाणं निग्गंथाणं णिच्च वरिणयाई० जाव अब्भ
धम्मे उज्जमियच्वं, संजोगा इह विनोगता ॥ १४ ॥ णुनायाई भवंति । तं जहा-पाओवगमणे चेव, भत्तप- अह वंदिऊण देवे, जहाविहिं सेसए य गुरुमाई। च्चक्खाणे चेव ७ । पाओवगमणे विहे परमत्ते । तं जहा- पशक्खाइत्तु तश्रो, तयंतिए सव्वमाहारं ॥ १५ ॥ णीहारिमे चेब, अणीहारिमे चेव , णियम अप्पडिक्कमे ।
समभावम्मि ठियप्पा, सम्म सिद्धतभणियमग्गेणं ।
गिरिकंदरम्मि गंतुं, पायवगमणं अह करेइ ॥ १६ ॥ मत्तपच्चक्खाणे दुबिहे पन्नत्ते । तं जहा-णीहारिमे चेव,
सव्वत्थापडिबद्धो, दंडाययमाइ ठाणमिह ठाउं । ८,पणीहारिम चेव, णियम सपडिकमेह । (मूत्र-१०२)। जावज्जीवं चिट्ठइ, निच्चेट्टो पायवसमाणो ॥ १७ ॥ (दो मरणारं इत्यादि) पादपो वृक्षस्तस्यैव छिनपतितस्योप- पढमिल्लयसंघयणे, महाणुभावा करेंति एवमिण । गमनमत्यन्तनिश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिस्तत् पादपोपगमनं पाय सुहभावच्चिय, णिच्चलपयकारणं परमं ॥१८॥ भक्त-भोजनं तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपोपगमन इव | भत्तपरिन्नाऽणसणं, चडबिहाऽऽहारचायनिष्कन्न ।
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( १११ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मरण
सपडिकम्मं नियमा, जहा समाही विखिहि ॥ १६ ॥” इति । इङ्गितमरणं त्विह नोक्लं, द्विस्थानकानुरोधात् तल्लक्षणं चेदम् - " इंगियदे सम्मि सयं चउव्विहाऽऽहारचायनिफन्नं । उव्वत्तणाइजु त्तं, नऽराण उ इंगिणीमरणं ॥ १ ॥” इति ।
स्था० २ ठा० ४ उ० ।
(६) पञ्चविधमरणानि -
कइविहे णं भंते ! मरणे पष्पत्ते ? । गोयमा ! पंचविहे मरणे परमते । तं जहा - आवीचियमरणे, ओहिमरणे, श्रादितियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे । आवीचियमरणे गं भंते! कवि पत्ते । गोयमा ! पंचविहे पम्मने । तं जहादव्वाऽऽवीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे । दव्वावीचियमरथे णं ते ! कविते । गोयमा ! चउब्विहे पण्णत्ते । तं जहा - णेरइयदव्वावीचियमरणे, तिरिक्खजोगियदव्वावीचियमरणे, मणुस्सदव्वावीचियमरणे, देवदव्वावीचियमरणे । से aus भंते ! एवं वुच्चइ - णेरइयदव्वावीचियमरणे रइयदव्वावीचियमरणे ? । गोयमा ! जहां परइया रइए दब्बे वट्टमाणा जाई दव्बाई रइयाउयत्ताए गहियाई बद्धाई पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई निविट्ठाई अभिविट्ठाई अभिसमयागयाई भवति, ताई दव्वाई आवीची
समयं खिरंतरं मरंतीतिकट्टु, से तेऽदेणं गोपमा ! एवं gas - रइयदव्वावीचियमरणे, एवं ० जाव देवदव्यावीचियमरणे । खेतावीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पत्ते । गोयमा ! चउब्विहे पम्मत्ते, तं जहा-रहयखेत्तावीचियमरणे ० जाव देवखेत्तावीचियमरणे । से के
ऽणं भंते ! एवं बुच्चइ - गरइयखेत्तावीचियमरणे - रहखेनावीचियमरणे । गोयमा ! जम्मं रइया रइयखेत्ते माणा जाई व्वाई रइयाउयत्ताए, एवं जहेव दव्वावीचियमरणे, तहेव खेत्तावीचियमरणेऽवि, एवं० जाव भावावीचियमरणे । ओहिमरणे णं भंते ! कइविहे परमते । गोयमा ! पंचविहे पष्मते । तं जहा दव्त्रोहिमरणे, खेत्तोहिमरणे ० जाव भावोहिमरणे । दव्वोहिमरणे णं भंते! कवि पमते । गोयमा ! चउव्विहे पष्मत्ते । तं जहा --
दोहिमरणे ० जाव देवदव्वोहिमरणे । से केsi भंते! एवं चरइयदव्वोहिमरणे रइयदव्वोहिमरणे ?। गोयमा ! जसं रइया रइयदव्वे वट्टमाणा जाई दब्वाई संपयं मरेंति जहां रइया ताई दव्बाई अणागए काले पुणो विमरिस्संति, से तेराऽद्वेगं गोयमा ! जाव दव्वोहिमरणे, एवं तिरिक्खजोगिय० मणुस्स० देवदव्वोहिमरणे वि । एवं एएवं गमएवं खत्तोहिमरणे वि कालोहिमरणे विभवोहिमरणे वि भावोहिमरणे वि । आदिंतियमरणे णं भंते ! पुच्छा ।। गोयमा ! पंचविहे पष्मत्ते । तं जहा
मरण
दव्याऽऽदितियमरणे खेत्तादितियमरणे० जाव भावादितियमरणे | दव्वादितियमरणे णं भंते ! कइविहे पत्ते । गोमा ! उच्च पाते । तं जहा - रइयदव्वाइंतियमरणे जाव देवदत्रातियमरणे । से केणऽणं भंते ! एवं बुच्चइ रहयदव्वाइंतियमरणे रइयदव्बाई तियमरणे । गोयमा ! जपं रइयाणं गरइयदव्बे वट्टमाणा जाई दव्वाई संपयं मरंति, जेणं गरइया ताई दव्वाई - Pure काले णो णोवि मरिस्संति, से तेराऽट्टेणं ० जाव मरणे, एवं तिरिक्ख० मणुस्स० देवादितियमरणे, एवं खेत्ताइंतियमरणे वि । एवं० जाव भावादितियमरणे वि । बालमरणे णं भंते ! कइविहे पत्ते । गोयमा ! दुवालसविहे पष्पते । तं जहा - बलयमरणं जहा खंदए० जाव गिद्धपिट्ठे । पंडियमरणे णं भंते ! कइविहे पत्ते । गोयमा ! दुविहे पत्ते । तं जहा - पावगमणे य, भत्तपच्चक्खाणे य । पागम णं भंते ! कइविहे पष्मते । गोयमा ! दुविहे पपत्ते । तं जहा - हारिमे य, अणीहारिमे य ० जावणिमा अडिक्कमे । भत्तपच्चक्खाणे णं भंते ! कवि पणते ? । एवं तं चैव वरं खियमं सपडिक मे । सेवं भंते । भंते ! ति । [ सूत्र - ४६६ ] भ० १३ श० ७ उ० ।
I
सम्प्रत्यतिबहुभेददर्शनान्मा भूत् कस्यचिदश्रद्धानमिति सम्प्रदायगर्भ निगमनमाहसत्तरसविहाणाई, मरणे गुरुणो भांति गुणकलिया । तेसिं नामविभत्तिं, वुच्छामि श्राहाणुपुव्वीए ॥ २१४॥ सप्तदश-सप्तदश संङ्ख्यानि विधीयन्ते विशेषाभिव्यक्तये क्रियन्त इति विधनानि भेदाः, 'मरणे ' मरणविषयाणि 'गुरवः ' पूज्यास्तीर्थकृद्रणभृदादयो ' भणन्ति ' प्रतिपादयन्ति, गुणैः सम्यग्दर्शनशानाऽऽदिभिः कलिता-युक्ता गुणकलिताः, न तु वयमेव इत्याकृतं वच्यमाणग्रन्थसम्बन्धनार्थमाह-' तेषां मरणानां नाम्नाम् - श्रभिधानानामनन्तरमुपदर्शितानां विभक्तिः - अर्थतो विभागो नामविभक्तिस्तां 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, 'अथ' इत्यनन्तरमेष, श्रानुपूर्व्या -. मेणेति गाथाऽर्थः ॥ २१४ ॥
यथाप्रतिज्ञातमाहअसमयनिरंतरमवी - इसन्नियं तं भांति पंचविहं । दव्त्रे खित्ते काले, भवे य भावे य संसारे ॥ २१॥ ' समयं ' समयमाश्रित्य इदं च व्यवहितसमयाऽऽश्रयणतोऽपीति मा भूद् भ्रान्तिरत आह-निरन्तरे, न सान्तरम्, अन्तरालाऽसम्भवात् किं तदेवंविधम् ? -' अवीसंनियं ति' प्राकृतत्वाद् - श्रासमन्ताद्वीचय इव बीचयः प्रति समयमनुभूयमानाऽऽयुषोऽपराऽऽयुर्दलि कोदयात् पूर्वपूर्वाssयुर्दलिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदाऽऽबीचि, ततश्चा वचीति संज्ञा सञ्जाता श्रस्मिंस्तारकाऽऽदित्यात् 'तदस्य स ञ्जातम् "तारकाऽऽदिभ्य इतच्,” (पा०५-२-४६ ) इत्यनेने -
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मरण
अभिधानराजेन्द्रः। स्यावीविसंज्ञितम्, अथवा-वीचिः-विच्छेदस्तदभावावीविः | चिन्तयन्तो नियन्ते यत्तदलता-संयमानिवर्तमानानां मतत्संक्षितम् . उभयत्र प्रक्रमान्मरण, यद्वा-संक्षितशब्दः प्रत्ये- रणं वलन्मरणं , तुर्विशेषणे , भग्नव्रतपरिणतीनां पतिकमभिसम्बध्यते, ततश्च अनुसमयसंशित-निरन्तरसंक्षितम् मामेवैतदिति विशेषयति, अन्येषां हि संथमयोगामामेवाअवीचिसंज्ञितमिति एकाथिकान्येतानि, ' तद' इत्यावीचि सम्भवात् कथं तद्विषादः ? तदभावे च तदिति । पश्चामरणं 'भणति' प्रतिपादयन्ति । पश्वविध ' पश्चप्रकारं, न वशारीमाह-इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां विषयाः-मनोगणधराऽऽदय इति गम्यते । अनेन च पारतन्त्र्य द्योतयति, शरूपाऽऽदय इन्द्रियविषयास्तद्वशं गताः-प्राप्ता इन्द्रियविषतदेवाऽऽह-'दव्वे त्ति' द्रव्याऽऽचीचिमरण 'खेत्त त्ति क्षेत्रा- यवशगताः स्निग्धदीपकलिकाऽवलोकनाकुलितपत यत् उऽवीचिमरणं ' काले त्ति' कालाऽऽवीचिमरणं भवेय त्ति' । म्रियन्ते यत्तद्धशार्त्तमरणं , कश्चिद् द्रव्यपर्याययोरभेदादेवमु भवाऽऽयीचिमरणं च, भावे यति'भावाऽऽवीचिमरणं च.सं. च्यते. एवं पर्वत्रापि भावनीयं. तशष्ट पपामप्यध्यवसामभे. सार इत्याधारनिर्देशः,तत्रैव मरणस्य सम्भवात्, तत्र द्रव्या| दतो वैचित्र्यख्यापनाऽर्थ इति गाथार्थः ॥ २१७॥ वीचिमरणं नाम यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात्
अन्तःशल्यमरणमाहप्रभृति निजनिजाऽऽयु कर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनाद्विचटनं, तब नारकाऽऽदिभेदाचतुर्विधम्, एवं नारकाऽऽदिग
लज्जाइगारवेण य, बहुस्सुयमएण वाऽवि दुश्चरिश्र । तिचातुर्विध्यापेक्षया तद्विषय क्षेत्रमपि चतुर्दुव, ततस्तत्मा
जे न कहंति गुरूणं, न हु ते बाराहगा हुंति ॥२१॥ धान्यापेक्षया क्षेत्राऽऽवीचिमरणमपि चतुर्द्धव, 'काले त्ति' य. गारवपकनिवुड्डा , अइयारं जे परस्स न कहति । थाऽऽयुष्ककालो गृह्यते, न त्वद्धाकालः, तस्य देवाऽऽदिष्व
दंसणनाणचरित्ते , ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥२१६।। सम्भवात्. स च देवाऽऽयुष्ककालाऽऽदिभेदाच्चतुर्विधः, तत
तत्र 'लज्जया' अनुचितानुष्ठानसंवरणाऽऽत्मिकया 'गौरवेल स्तत्प्राधान्यापेक्षया कालाऽऽवीचिमरणमपि चतुर्विधम् एवंमारकाऽऽदिचतुर्विधभवापेक्षया भवाऽऽवीचिमरणमपि चतु
च' सातर्विरसगौरवात्मकेन,मा भून्ममाऽऽलोचनाहमाचार्यबैंव, तेषामेव च नारकाऽऽदीनां चतुर्विधमायुःक्षयलक्षणं भावं
मुपसर्पतस्तद्वन्दनाऽऽदिना तदुक्ततपोऽनुष्ठानाऽऽसेवनेन च प्राधान्यना पेक्ष्य भावाऽऽवीचिमरणमपि चतुर्दैव वाच्यमिति
ऋद्धिरससाताभावसम्भव इति , बहुश्रुतमदेन वा-बहुगाथाऽर्थः ॥ २१५ ॥
श्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्धरिष्यति? , कथं अधुना अवधिमरणमाइ
चाहमस्मै वन्दनाऽऽदिकं दास्यामि ? अपभ्राजना हि इयं एमेव ओहिमरणं, जाणि मनो ताणि चेव मरइ पुणो । मम इत्यभिमानेन, अपिः परणे , ये गुरुकर्माणो ' न कथय'एवमेव ' यथाऽऽवीचिमरणं द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभे
न्ति' नाऽऽलोचयन्ति,केषाम्?,-'गुरूणाम् बालोचनार्हाणादतः पञ्चविधं, तथा अवधिमरणमपीत्यर्थः । तत्स्वरूपमाह-| माचार्याऽऽदीनां, किंतद्?.'दुश्चरितं-दुरनुष्ठितम्, इति सम्ब. यानि मृतः, सम्प्रतीति शेषः, तानि चैव 'मरइ पुणो त्ति'! न्धः, 'न हु' नैव 'ते' अनन्तरमुक्तरूपा आराधयन्ति-अविकपार्षत्वात्तिइन्व्यत्ययेन मरिष्यति पुनः। किमुक्तं भवति?-अ-| लसया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनाऽदीनि इत्याराधका भववधिः-मर्यादा,ततश्च यानि नारकाऽऽदिभवनिवन्धनतयाss- न्ति,ततः किमित्याह-गौरवं पङ्क इव कालुष्यहेतुतया तस्मिन् युःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय म- 'निबुडा'-इति प्राकृतत्वान्निमग्ना इव निमग्नाः तत्क्रोडीकृततरिष्यति तदा तद्ब्यावधिमरणः सम्भवति हि गृहीतोझि- या , लज्जामदयोरपि प्रागुपादाने यदिह गौरवस्यैवोपादातानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणम्, परिणामवैचित्र्याद् , नं तदस्यैवातिदुष्टताख्यापनार्थम् , ' अतिचारम् ' अपगएवं क्षेत्राऽऽदिष्वपि भावनीयम् ।
धं ये परस्य' प्राचार्याऽऽदे न कथयन्ति, किविषयम् ? , पश्चाद्धेनाऽऽत्यन्तिकमरणमाह
इत्याह-दर्शनशानचारित्रे-दर्शनशानचारित्रविषयं. तत्र दर्शएमेव माइयंतिय-मरणं न वि मरइ ताइ पुग्णो ॥२१६॥ मविषयं शङ्काऽदि.ज्ञानविषयं कालातिक्रमादि.चारित्रविष'एवमेव' अवधिमरणवदात्यन्तिकमरणमपि द्रव्याऽऽदि
य समित्यननुपालनाऽऽदि.शल्यमिव शल्य कालान्तरे ऽप्यनिभेदतः पञ्चविध,विशेषस्त्वयम-गण वि मरइ नाइ पुणो त्ति'
एफविधानं प्रत्यवन्ध्यतया, सह तेन सशल्यं, तच्च न अपिशब्दम्यैवकारार्थवाद नैव नानि द्रव्यादीनि पुनर्भियते,
मरणं च सशल्यमरणम्-अन्तःशल्यमरणं भवति , . तेइनयुक्त भवति-यानि नरकाधायुष्कतया कर्मदलिकान्य. पां' गौरवपकनिमग्नानामिति गाथाद्वयार्थः ॥२१८-२१६॥ नुभूय नियते, मृतो वा न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यति, एवं
अस्यैवात्यन्तपरिहार्यतां ख्यापयन् फलमाह-- क्षेत्रादिष्वपि वाच्य,त्रीण्यपि नाम्न्याधीच्यवध्यात्यन्तिक
एवं ससल्लमरणं, मरिऊण महब्भए दुरंताम्म । मरणानि प्रत्येकं पञ्चानां द्रष्याऽऽदीनां नारकाऽऽदिगतिभेदे- सुइरं भमंति जीवा, दीहे संसारकंतारे ।। २२० ॥ न चतुर्विधत्वाद् वितिभेदानीति गाथाऽऽर्थः ॥ २१६ ॥ एतद' उफ्नस्वरूपं सशल्यमरणं यथा भवति तथेन्युसाम्प्रतं वजन्मरणमाह---
पस्कारः , सुब्ययाहा एतेन मशल्यमरणेन । मृत्वा ' संजमजोगविसन्ना. मरति जे तंवलायमरयां तु । व्यकचा प्राणान् , के ?-जीवा इति सम्बन्धः। किम ?इंदियविसयवसगया, मरति जे तं वमट्टं तु ॥ २१७ ॥ • सुचिरं भ्रमन्ति' बहुकाल पर्यटन्ति. क्व ?--संसारः का. संयमयोगाः-संयमव्यापागस्तैम्तषु धा विषगणाः संयम- न्लार्गमवातिगहनतया संसारकान्तारः, तस्मिन्निति सगटयोगविषराणा अतिदुश्च नपश्चगामाचरितुमक्षमाः ऋतं च इः । कीशि?--महद्भयं यस्मिन् तन्महाभयं तम्मिन , तथा मोक्रमशक्नुवन्त कशिवस्माकमिवो मुक्रिस्च्यिति घि- दुःसोनान्तः पर्यन्तो गम्य नद दुरन्स तस्मिन् , तथा दी'
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मरण
अनादी पाञ्चिदपर्यवसिते चेति तत् सर्वथा परिहर्त्तव्यमेवेति भावः । इति गाथा ऽर्थः ॥ २२० ॥
तद्भवमरणमाह
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मोक्षं अम्मभूमग नरतिरिए सुरगणे अनेरइए । साणं जीवार्थ, तन्भवमरणं तु कसिं चि ।। २२१ ॥ 'मुक्त्वा ' श्रपहाय, कान् ? - श्रकम्मभूमगनरतिरिए त्ति' सूत्रत्वात् अकर्मभूमिजाश्च ते देवकुरूत्तरकुर्वादित्यप्रतया नरतिर्यञ्चश्व अकर्मभूमिजनरतिर्यस्तान् तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पाद:, तथा 'सुरगणांश्च सुरनिकायान् किमुक्रं भवति ? चतुर्निकाय तनोऽपि दे वान्, निरयो- नरकः तस्मिन् भवा नैरयिकाः, इहापि - शब्दानुवृत्तेस्तांश्च मुक्त्वेति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्भयानन्तरं तिग्मनुष्येष्येयोत्पतेः शेषाणाम् एतदुरितानां कम्र्मभूमिजनरतिरक्षां जीवानां प्राणिनां तद्भचमरलं, ते षामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः तद्धि यस्मिन् भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भयोग्यमेवापुस्तन्ायेण नियमाणस्य भवति, तु शब्दस्तेषामपि सहस्यवर्णाऽऽयुवामेवेति विशेषख्यापकः, श्रसङ्ख्येयवर्षाऽऽयुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्म भूमिजानामिव देवेष्वेवोत्पाद:, तेषामपि न सर्वेषां किन्तु 'केपाश्चित् तद्भवत्पादानुरूपमेवाऽऽयुः कम्र्मोपचिन्वतामिति गाथाऽथः ॥ २२९ ॥
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अत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु' मोन्स ओहिमरणं इत्यादिगाथा दश्यते, न वास्या भावार्थः सम्य नापि कृताऽसी व्या ख्यातेति उपेक्ष्यते । सम्प्रति बालपण्डितमिश्रमरणस्वरूपमाहअविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं विति । जाणाहि बालपंडिप- मरणं पुरा देसविरयासं ॥ २२२॥ विरम चिरतं हिंसा उतादेरुपरमये न विद्यते न येषां मी अविरताः तेषां मृतिसमयेऽपि देशविरतिमप्रतिपद्यमानानां मिध्यादयां सम्यग्दशां या मरणमचिरतमरणंबालमरणमिति ब्रुवत इति सम्बन्धः । तथा' विरतानां' सर्वसा वयनिवृत्तिमभ्युपगतानां परिमिति तमरणम्, 'विंति त्ति' ब्रुवते तीर्थकरगणधराऽऽदयः, जानीहि 'वालपण्डितमरणमिति 'मिश्रमरणं, पुनःशब्दः पूर्वापेक्षया विशेषं द्योतयति, देशान् सर्वविषयाऽपेक्षया स्थूलप्राणिव्यप रोपा देवरता देशविरतास्तेषामिति गाथाऽर्थः ॥ २२२ ॥ एवं चरणद्वारेण बालाऽऽदिमरणत्रयमभिधाय ज्ञानद्वारेण स्मरण केवलिमर प्रतिपादयितुमाहमणपञ्जवोहिनाणी, सुत्रमइनाणी मरंति जे समणा । उमत्थमरणमेयं, केवलिमरणं तु केवलियो ।। २२३ ।। मनःपानवधिज्ञानिनथ ज्ञानिशन्दस्य प्रत्येक मनिखम्बन्धात् श्रुतमतिशाननख नियन्ते प्राणांस्त्यजन्ति ये ' श्रमणाः ' तपस्विनः छादयन्तीति छद्मानि - ज्ञानाssवरणाऽऽदीनि तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः तेषां मरणं स्मरणमेतत् इह च प्रथमतो मनःपर्यायनिर्देशो पिशुजितप्राधान्यमङ्गीकृत्य चारित्रिण एव तदुपजायत ति स्वामिकृतप्रधान्यापेक्षो वा, एवमवध्यादिष्वपि यथायोगं स्वभियैव हेतुरभिधेयः केवलिमरणं तु ये केयलिनः उ. त्पन्नकेवलाः सफलकम्मेपुलपरिशाटतो त्रियन्ते तज्ज्ञेयमि
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२६
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( ११३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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मरण
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ति शेषः उभयाभेदनिर्देशः प्राग्यदिति गाथाऽर्थः ॥ २२३ ॥ साम्प्रतं वैहायसगृपृष्ठ (स्पृष्ठ) मरणे अभिधातुमाहगिद्धाइभक्खणं गि-पिट्ठ उब्बंधखाइ बेहासं ।
एए दुनिवि मरणा, कारणजाए अरणुमाया ।। २२४ ॥ 'गुद्धाः प्रतीतास्ते आदि शकुनिकाशवादीनां तैर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणाऽऽदिना तद्भक्ष्यकरिकरभाऽऽदिशरीरानुप्रवेशेन च गृध्राऽऽदिभक्षणं, तत् किमुच्यत इत्याह-' गिद्धपिट्ट ति ' गृधैः स्पृष्टंस्पर्शनं यस्मिंस्तद्गृध्रस्पृष्टम्, यदिवा - गृधारणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदराऽऽदि च मर्त्तुर्यस्मिंस्तद् गृधपृष्ठम्, सहालकपूथिकापुरप्रदानेनात्मानं दिभिः पृष्ठादी भ जयतीति पश्चानिर्दिष्टस्यापि वास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम्, 'उब्बंधणाद्द बेहासं ति ' उत्-ऊर्द्ध वृक्षशाखा53दी बन्धनमुइन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपाताऽऽदेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्बन्धनाऽऽदि ' वेहासं ति ' प्राकृतत्यायलोपे वैहायसम् उद्वद्धस्य हि विहायस्येव भवनमिति तरप्राधान्यविवक्षयेत्थमुक्र ग्रह एवं शुभ्रपृष्ठस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वहायसिकेऽन्तर्भावः सत्यमेतत् केवलमस्पसस्वैरप्यवखातुमशक्यताख्यापनार्थस्य भेदेनोपन्यासः ननु -- " भावियजिणवयरणाणं, मयत्तरहियाण रात्थि हु वि सेसो | श्रामि परम्मि य, तो बजे पीडमुभए वि ॥१॥" इत्यागमः, एते चानन्तरोक्ने मरणे श्रात्मविघातकारिणी, तथा चाऽऽत्मपीडातुरिति कथं नाऽऽगमविरोधः १ अत एव
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भक्तपरिशानादिषु पीडापरिहाराय 'बजार विचिताई, विगई ॥ २८२ ॥ इत्यादिसंलेखनाविधिः पानकाऽऽदिविधिध तत्र तत्राऽभिहितः दर्शनमालिन्यं बोभयत्रेयाशक्याऽऽह एते अनन्तरोक्ते ' द्वे अपि गृभ्रपृष्ठवेहायसाऽस्ये मरणे 'कारणजाते' कारणप्रकारे दर्शनमालिन्यपरिहाराऽऽदिके उदायिनृपानुसृततथाविधाऽऽचार्यवत् अनुशाते, तीर्थधरादिभिरिति अनेन च सम्प्रदायानुसा रितां दर्शयन्यथाकथने श्रुताऽऽशातनाया अतिदुरन्तत्वमा ह | इति गाथाऽर्थः ॥ २२४ ॥ उत्त०पाई० ५ श्र० ।
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(७) साम्प्रतमेतदेव मरणं सपराक्रमेतरभेदाद् द्विविधमिति दर्शयितुमाह
सपरिक्कमेय अपरि-क्कमए य वाघाय आणुपुत्रीए । सुत्तत्थजाणएणं, समाहिमरणं तु कायव्वं ॥ २६४ ॥ 'पराक्रम' सामर्थ्यं सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रमस्तस्मि मरणं स्यात् तद्विपर्यये चापराक्रमे जहालपरि ये तद्भपरिङ्गितमरणपादपोपगमनभेदात् विविधमपि मरणं सपराक्रमेतरान् प्रत्येकं द्वैविध्यमनुभवति तदपि व्यापातिमतरभेदान् द्विधा भवेत् त व्याघातः सिंहन्याचा SSदिकृतोऽव्याघातस्तु प्रव्रज्या सूत्रार्थग्रहणाऽऽदिकया ऽनुपू
पिममायुष्यमनुभवतो यो भवति सोऽव्याघात
पूर्वी तंत्र परमा श्रीपक्षेपेणोपसंहरति व्याघातेनाऽनुपूर्व्या वा सपराक्रमस्याऽपराक्रमस्य वा मरणे समुपस्थिते सति सूत्रार्थमेन कालक्षतया समाधिमरतमेव कर्त्तव्यं, भक्तप रितिपादयोपगमनानामन्यतरद् यथासमाधि विधेयं नहानसाऽऽदिकं बालमरणं कर्तव्यमिति गाथा ऽर्थः ॥ २६४॥
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भरण
तत्र सपराक्रममरणं दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाहसपरकममाएसो, जह मरणं होइ अजवइराणं । पायवगमणं च तहा, एवं सपरकर्म मरणं ।। २६५ ।। सह पराक्रमेण वर्त्तत इति सपराक्रमं किं तत् ? - मरणम्, आदिश्यते इत्यादेशः श्राचार्यपारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो यमैतिह्यमाचक्षते, स श्रादेशः 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथैतत्तथाऽन्यदप्यनया दिशा द्रष्टव्यम्, 'श्रार्यवैरा ' वैरस्खामिनो यथा तेषां मरणमभूत् तथा पादपोपगमनं च, एतच्च सपराक्रर्म मरणमन्यत्रा उपयायोज्यमिति गाथा ऽयं ॥ २६५ ॥ भायार्थस्तु कथानकादयसेयः तच प्रतिमेव वचाऽऽयं रैविस्मृतकर्यादितः प्रमादादयगताऽऽसन्नमृत्युभिः सपराक्रमैरेव स्थायशिखरिति पादपोपगमनमकारीति । साम्प्रतमपराक्रमं दर्शयितुमाह
,
( १९४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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अपरकममाएसो, जह मर होइ उदहिनामायं । पावगमेऽवि तहा, एवं अपरक्कमं मरणं ॥ २६६ ॥ न विद्यते पराक्रमः - सामर्थ्यमस्मिन्नित्यपराक्रमं किं तत् ?मरणं तच्च यथा जपावलपरितीयानामुदधिनाम्नाम् श्रार्यसमुद्राणां मरणमभूद्, अयमादेशो दृष्टान्तो वृद्धवादाऽऽयात इति पादपोपगमनेऽपि तथैवाऽऽदेशे जानीयाद यथा पादपोषगमनेन तेषां मरणमभूदिति, पद-पराक्रर्म मरणं यदार्थसमुद्राणां सञ्जातमेयमन्यत्राप्यायोज्यमिति मा थाऽक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकादव सेयः, तच्चेदम्-समुद्रा आचार्याः प्रकृतिकृशा एषाऽऽसन् पाच ते कृपालपरिक्षीणैः शरीराज्ञाभमनपेच्य ततित्यतुभिर्गच्छ स्पेरेवानरान विधाय प्रतिक्षयैकदेशे निहरिमं पादपापगमनमकारि ॥ २६६ ॥
साम्प्रतं व्याघातिममाहवाघाइयमारसो, अवरदो हुअ अभतरए ।
तोसलि महिसी हओ, एवं वाघाइयं मरणं ॥ २६७ ॥ विशेषेणाऽऽघातो व्याघातः सिंहादिकृतः शरीरविनाशस्तेन निर्वृत्तं तत्र वा भवं व्याघातिमं, कश्चित्सिहाऽऽद्यन्यतरेवापरा वेद-तेन यन्मरणं तद्यादिमं तवृचावा यात आदेशो दान्तः यथा-तोसलिनामाऽऽचाच महिष्या ऽऽरधधतुर्विधाऽहारपरित्यागेन मरणमभ्युपगतवान् एतद् व्याधातिमं मरणमिति गाथा उतरार्थः । भावार्थस्तु कथानका दवसेयः तच्चेदम्—तोसलिनामाऽऽचार्योऽरण्यमहिषीभिः प्रारब्धः, तोखलिदेशे वा हयो महिष्यः सम्भवन्ति, ताभि कदाचिदेकः साधुरम्यन्तरन्धः स च ताभिः क्षुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाऽऽहारं प्रत्याख्यातानि ति । श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० १० ।
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साम्प्रतमन्त्यमरणत्रयमाह
भत्तपरिष्मा इंगिणि, पावगमं च तिमि मरणाई । कमसमज्झिमजेडा, घिसंघयण उ बिसिद्धा || २२५|| मक्कं भोजनं तस्य परिक्षा परिक्षानेकधेदमस्माभि
पूर्वमेततुकं वाऽवयमिति परिक्षाने प्रत्याख्यानपरिक्ष या च " सव्वं च असणपाणं, चउव्विहं जा य वाहिरा वही । श्रग्मितरं च उबहिं, जावज्जीवं च बोसिरे ॥ १ ॥ "
मरण
इत्यागमवचनाच्चतुर्विधाऽऽहारस्य या पावरजीयमपि परित्यागाSSत्मकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिशोच्यते इङ्गयते -प्रतिनियतप्रदेश एव चेष्यते श्रस्यामनशनक्रियायामिति इङ्गिनी, पादैः अधःप्रसपिमूलात्मकं पिवति पादयो वृक्षः, उपशब्दश्रोपमेतिदत्सारश्ययेऽपि दृश्यते ततश्च पादपमुपम
ति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमं किमुक्तं भवति:यथैव पादपः क्वचित् कथञ्चिनिपतितः सममसममिति चाविभावयन्निश्चलमेवाऽऽस्ते, तथाऽयमपि भगवान् यद् यथा समविषमदेशेष्वङ्गमुपा वा प्रथमतः पतितं न तत्ततश्चलयत । तथा च प्रकीर्णकृत्-
“णिच्चल पिडिकम्मो, शिक्खिवए जं जहिं जहा गं । एवं पादोच सीहारि वा असहारि ॥ १ ॥ पाश्रयमं भरिये सर्वे जिसमे पाययोजदा पडितो
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वरं परपोगा, कंपेज्ज जहा चलतरु व्व ॥ ५४४ ॥ यः समुच्य वैविधाननोपलक्षितानि मरणान्यप्ये यमुनानि अत एवाऽहमी मरणानि एतत्स्वरूपं यथेदं विधेयं यचात्र सपरिकम् अपरिक व इत्यादिकं सूत्रकार एवोत्तर तपोमार्गनास्ति विशत्तमाध्ययनेऽभिधास्यतइति निर्मुक्रिता नोम्। द्वारनिर्देशाच्यावश्वं फिचायमिति मत्वेदमाह - 'करणसत्ति' सूत्रत्वात् कनिष्ठं -लघु जधन्यमिति यावत् मध्यमं - लघुज्येष्ठयोर्मध्ये भावि, ज्येष्ठम् श्रतिशयबुद्धमुत्कृष्टमित्यर्थः, एषां इन्द्रः तत एतानि, धृतिः - संयमं प्रति चित्तस्वास्थ्यं संहननं - शरीरसामर्थ्य - हेतुः वज्रऋषभनाराचाऽऽदि ताभ्यां प्राकृतत्यधिकवचननि देशः समाहाराऽऽश्रयणाद्वा गुम्दारसपरिकर्म्माऽपरिक साऽऽदिभिध विशेषविशिष्टानि विशेषवन्ति इदमुकं भवतियद्यपि त्रितयमप्येतत्
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"धीरेऽपि मरियम फारिग व अस मरियध्वं । तम्हा अवस्मरणे, वरं खु धीरतणे मरिउं ॥ १ ॥ संसाररंगमधील संनद्धपद्धती । हंतू मोहम, हरामि श्राराहणपडागं ॥ २ ॥ जह परमम्मि काले, पश्चिमतिरथवरदेखियमुयारं । पच्छा निष्यप उवेमि अग्भुजयं मरणं ॥ ३ ॥ इति शुभाऽऽशयवानेव प्रतिपद्यते फलमपि च विमानिकतामुक्तिलक्षणं त्रयस्याऽपि समानं, तथा चोक्तम् - " एयं पश्चखा, अपाऊण सुविहियो सम्म मावि देवो, हवेज्ज हवाऽवि सिज्झिजा ॥ १ ॥ " तथापि विशिष्टविशिष्टतरविशिष्ठतम धृतिमतामेवारिति निरा55दिस्तद्विशेष उच्यते, तथाहि भक्तपरिशामरणमार्थिकाऽऽदीनामप्यस्ति यत उक्तम्" सम्यापि सव्वेऽपि य पढमसंघयण्वजा । सव्वेऽवि देसविरया, पच्चक्खाणेण उमरति ॥ १ ॥ अत्र हि प्रत्याख्यानशब्देन परियो क्ला, तत्र प्राकू पादपोपगमनाऽऽदेरन्यथा ऽभिधानात्, इङ्गिनीमरणं तु विशिष्टतरधृतिसंहननयतामेव सम्भवतीत्याविकाऽऽदिनिषेधत पावसीयते पादपोपगमनं तु नानव विशिष्टतमधृतिमतामेवेत्युक्तप्राय ततध ततश्च वज्रऋषभनाराचसंहननिनामेवैतत् उक्रं हि " पदमम्मिय संपवणे, बट्टंते सेलकुडुसामाणे । तेसि पि य बोच्छेश्रो, चोहसपु
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण व्वीण वोच्छए. ॥ ५५० ॥" कथं चान्यथैवंविधविशिष्टधृतिसं-| ओहिं च आइअंतिय,दुन्नि वि एयाइ भयणाए ॥२२८॥ हननाभावे
ओहिं च प्राइअंतित्र, बालं तह पंडिअं च मीसं च । "पुव्वभवियवरेणं, देवो साहरइ कोऽवि पायाले ।
छउमं केवलिमरणं, अन्नुन्नेणं विरुझंति ॥ २२६॥ मा सो चरिमसगर-ण यणं किंपि पावज्जा ॥१॥"
द्वे वा त्रीणि वा, वाशब्दस्योत्तरत्रानुवृत्तेः चत्वारि वा तथा" देवो नहेण नयइ, देवारराणं व इंदभवणं वा ।
पञ्च वा मरणानि वक्ष्यमाणविवक्षातः प्रक्रमादेकस्मिन् स
मये सम्भवन्ति , आवीचिमरणे सतीति शेषः , अनेन जहियं इट्टा कंता, सब्बसुहा हुंति अणुभावा ॥२॥
चास्य सततावस्थितत्वमेतदविवक्षया च तद्वयादिभेदपउप्पराणे उबसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य ।
रिकल्पनेत्याह-कति म्रियन्त एकसमये ? , इति चतुर्थसब्बे पराजिणित्ता, पाओवगया परिहरंति ॥३॥
द्वारस्य विशेषेण भाषणं विभाषणं विभाषा-व्याख्या विपुवावरउत्तरहि, दाहिणवाहि आवडतात ।
विधैर्या प्रकारैर्भाषणं विभाषा-भेदाभिधानं तया विस्तरःजह न वि कंपद मेरू, तह झाणातो न वि चलति ॥४॥
प्रपञ्चस्तं विस्तरं जानीहि जानीयाद्वा , निगमनमेतत् , प्र. इति मरणविभक्तिकदुक्तं महासामर्थ्य सम्भवि, किश्च
स्तुतमेवार्थ प्रकटयितुमाह-'सर्वे' निरवशेषाः , तत् किं तीर्थकरसेवितत्वाञ्च पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्वं, इतरयोश्चा
मुक्तिभाजोऽपीत्याह- भवस्थ वाः' भवन्स्यस्मिन् कर्मवविशिष्टसाधुसेवितत्वादन्यथात्वं, तथा चाऽवादि
शवर्तिनो जन्तव इति भवः, तत्र तिष्ठन्ति भवस्थाः, ते च “सब्बे सधऽद्धाप, सवराणू सव्वकम्मभूमीसु ।
ते जीवाश्चेति विशेषणसमासः , म्रियन्ते , श्रावीचिकमसव्वगुरू सव्यहिया, सब्वे मेरूसु अहिसित्ता ॥१॥ वीचिकं वा मरणमाश्रित्येति शेषः , यद्वा-विभक्तिव्यत्ययासव्याहि लद्धीहि, सवेऽवि परीसहे पराजित्ता। दावीचिकेन मरणेन म्रियन्ते । ' सदा ' सर्वकालं, ' श्रो. सब्वेऽवि य तित्थयरा, पातोवगया उ सिद्धिगया ॥२॥ हिं च त्ति ' अवधिमरण , चशब्दो भिन्नक्रमः , ततश्च श्रवसेसा श्रणगारा, तीयपडुप्पराणऽणागया सव्वे । 'भाइयंतिय त्ति' प्रात्यन्तिकमरणं च , द्वे अप्येते ' भकेती पातोवगया, पञ्चक्खाणिगिणिकेती॥३॥"
जनया' विकल्पनया , किमुक्तं भवति ?-यद्यप्यावीचिइति कृतं प्रसङ्गेनेति गाथाऽर्थः ॥ २२५ ॥
मरणवत् अवध्यात्यन्तिकमरणे अपि चतसृष्वपि गतिषु इत्थं प्रतिद्वारगाथाद्वयवर्णनात् मूलद्वारगाथायां मरणचि- सम्भवतः तथाऽप्यायुःक्षयसमय एव तयोः सम्भवान्न स. भक्तिप्ररूपणाद्वारमनुवर्णितम् , अधुनाऽनुभावप्रदेशाग्रहा- दाभावः , अत श्रावचिकमरणमेव सदेत्युक्तम् , अनेना:रद्वयमाह
वीचिमरणस्य सदाभावेन लोके मरणत्वेनाप्रसिद्धिः अविसोवकमा अनिरुव-कमो अ दुविहोऽणुभावमरणम्मि ।
वक्षायां हेतुरुक्त इति भावनीयम् । सम्प्रति ' दोन्नि वि '
इत्यादि व्यक्तीकरोति- श्रोहिं च आइयंतिय ति, ' च. आउगकम्मपएस-ग्गणंतणंता पएसेहिं ॥२२॥
शब्दो भिन्नक्रमः , ततोऽवधिमरणमात्यन्तिकमरणं च , सहोपक्रमेण-अपवर्तनकरणाऽऽख्येन वर्तत इति सोपक्र.
'वालं' बालमरण च, तथेत्युत्तरभेदापेक्षया समुच्चये , मश्च, निर्गत उपक्रमान्निरूपक्रमश्च द्विविधो,द्वैविध्यं चोक्लभे
'पण्डितं च ' पण्डितमरणं, मिश्रं च बालपण्डितमरणं च , देनैव, कोऽऽसौ ?-अनुभागः,क्व?-'मरणे इत्यर्थात् मरणविष
चशब्दाद् बैहायसगृध्रपृष्टमरणे, भक्तपरिक्षेङ्गिनी पादपोपगयाऽऽयुषि,तत्र हि सप्तभिरएभिवाऽऽकर्गवामिव मरुपुजल
मनानि च , अन्योन्येन परस्परेण विरुध्यन्ते, युगगण्डूषग्रहणरूपैर्यत्पुद्गलोपादानं तदनुभागोऽतिदृढ इत्यपवर्त- पदसम्भवात् , तत्र चाविरतस्यावध्यात्यन्तिकमरणयोः अयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते, यत्सु षड्भिः पञ्चभिश्चतु- न्यतरद्वालमरणं चेति द्वे, तद्भवमरणेन सह त्रीणि, वशार्तेन भिर्वा श्रागृहीत-दलिकं तदपवर्तनाकरणनोपक्रम्यते इति चत्वारि, कथञ्चिदात्मघाते च वैहायसगृध्रपृष्ठयोरन्यतरेण सोपक्रम, न चैतदुभयमष्यायुःक्षयाऽऽत्मनि मरणे सम्भ- पञ्च । श्राह-वलन्मरणान्तःशल्यमरणे श्रपि बालमरणभेदावति, तथा एति याति च इत्यायुस्तन्निबन्धनं कर्म श्रा- वेव , यत आगमः-" बालमरणे दुवालसविहे पन्नत्ते । तं युःकर्म तस्य विभक्तुमशक्यतया प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा- जहा-वलायमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणेस्तेषामग्रं-परिमाणमायुःकर्मप्रदेशाग्रम्, अनन्तानन्ताः- गिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे, जलणप्पवेसे, विसभक्खअनन्तानन्तसङ्ख्यापरिमिता मरणप्रक्रमेऽप्यर्थादायुःपुद्ग- णे, सत्थोवहणणे, वेहाणसे, गिद्धपट्टे त्ति ।" एतेषु च यद्यपि लास्तद्विषयत्वाञ्च मरणस्यैवमुपन्यासः, किमेतावन्तः कृ-| गिरिपतनाऽऽदिषद्कस्य वैहायस एवान्तर्भावः तथापि बलस्नेऽप्यात्मनि?, आत श्राह-'पएसेहिं ति' प्रक्रमात् सुब्ब्य- न्मरणान्तःशल्यमरणयोः प्रक्षेपे कथं नोक्लसङ्ख्याविरोधः !, त्ययाचाऽऽत्मप्रदेशेषु, श्रात्मप्रदेशो ह्येकैकस्तत्प्रदेशैरनन्ता- उच्यते, इहाविरतस्यैव बालमरणं विवक्षितम् । उक्तं हिनन्तैरावेष्टितः संवेष्टितः, तथा च वृद्धव्याख्या-" इदाणि 'अविरयमरणं बालमरणं' अनयोस्त्वेकत्र संयमस्थानेभ्यो पदेस ऽग्गं-श्रणताणता पाउगकम्मपोग्गला जेहिं एगमेगो निवर्तनम् , अन्यत्र मालिन्यमा विवक्षित, न तु सर्वथा वि. जीवपएसो श्रावेढिय परिवेढितो।" इति गाथाऽर्थः ॥२२६॥
रतेरभाव एवेति कथं बालमरणे सम्भवः ? , तथा छमस्थ[=] सम्प्रति कति म्रियन्ते एकसमयेनेति द्वारमाह
मरणमपि विरतानामेव रूढमिति नोक्नसङ्ख्याविरोधः, ए
वं देशघिरतस्यापि द्वयादिभङ्गभावना कार्या , नवरं बालदुन्नि व तिन्नि व चत्ता-रि पंच मरणाइ अवीइमरणम्मि ।
मरणस्थाने बालपण्डितमरणं वाच्यं, विरतस्य त्ववध्याका मरइ एगसमयं-सि विभासावित्थरं जाणे ॥२२७॥
त्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् पण्डितमरणं चेति द्वे , छद्मस्थमन्चे भवत्थजीवा, मरंति आवीइ सया मरणं । केवलिमरणयोश्चान्यतरदिति त्रीणि , भक्तपरिझोङ्गिनीपाद
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मरण
पोपगमनानामन्यतरेण सह चत्वारि, कारणिकस्य तु वैहायसगृध्रपृष्ठयोश्चान्यतरेण सह पञ्च, दृढसंयमं प्रत्येवमुक्रम्, शिथिलसंयमस्य स्वयध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत्
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कुतश्चित्कारणाद्वैहायसगृभ्रपृष्ठयोश्चान्यतरदिति द्वे कथचिच्छयसम्भवे चान्तः शल्य मरणेन सह प्रीति, बलन्मरशेन सह चत्वादि, अस्थमरणेन तु पक्ष परिसररास्य यथोक्तभक्तपरिज्ञानाऽऽदीनां वा विशुद्ध संयमत्वादस्याङभाव एवेति । आह - विरतस्यावस्थाद्वयेऽपि तद्भयमरणप्रक्षेपे कथं न पठमरणसम्भवः उच्यते विरतस्य देवेवेवोत्पाद इति तत्रैवोत्पत्त्यभावान्न तद्भवमरणसम्भव इति गाथात्रयाऽर्थः ॥ २२७ ॥ २२८ ॥ २२६ ॥ गतं कति म्रियन्त एकसमय इति द्वारम् ।
इदानी कतिकृत्यो म्रियते एकैकस्मिन् ? इति द्वारमाहसंखमसंखमता, कमो उ इकिकगम्मि अपसत्थे । सत्तद्रुग अणुबंधो, पसत्थए केवलिम्मि सई ॥ २३० ॥ ' संखमसंखं ति' श्रार्षत्वात् सङ्ख्याः - सङ्ख्याताः असङ्ख्या अविद्यमानसङ्ख्या अनन्ता अपर्यवखिताः, बा रा इति प्रक्रमः । किमो उति' क्रमः -- - परिपाटी, तुशब्दश्च कार्यस्थितेरल्पबहुत्वा उपेक्षयाऽयं ज्ञेय इति विशेषद्योतकः । 'इक्क्कगम्मि त्ति' एकैकस्मिन् ' अप्रशस्ते ' बालमरणाssदौ निरूप्यमाणे, तत्र सामान्येन पञ्चेन्द्रियाविरतदेशविरतौ च सङ्ख्याताः, शेषाः पृथिव्युदकाग्निवायुद्धीन्द्रियत्रीन्द्रिचतुरिन्द्रियाः असङ्ख्याताः वनस्पतयो ऽनन्ताः एते हि कार्यस्थित्यपेक्षया यथाक्रमं बहुबहुतरचहुतमस्थितिभाज इति कृत्वा । प्रशस्ते कति वारा म्रियते ?, इत्याह- 'सत्तट्ठग त्ति' सप्त वाऽष्ट वा सप्ताष्टास्ते परिमाणामस्येति सप्ताएकः, कोऽसौ ? - अनुबन्धः ' सातत्येन भवनं तन्मरणानामिति, ततोऽयमर्थः - सप्त वा अष्ट वा वारा म्रियते, का ? प्रशस्तके सर्वविरतिसम्वन्धिनि परिमार, इद च चारित्रस्य निरन्तरमवाप्त्यसम्भवात् तद्वत एव च प्र शस्तमरणभावादर्थाद व्यवधानमपि देवमवैराधीयते के लिनि' यथाख्यातवारित्रयति समुत्पचवले सि सकृद् एकमेव मरणमिति गाथाऽर्थः ॥ २३०॥ उक्तं कतिकृत्वो नियत एकैकस्मिन्निति द्वारम् ।
इद्द
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[2] सम्प्रति कतिभाग एकैकस्मिन्मरणे प्रियतइति द्वारमादमर अभागो, इक्किक मरइ आइमं मोतुं ।
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( १९६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
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9
समयाऽऽई नेयं, पदमचरिमंतरं नन्थि ।। २३१ ॥ 'मरणे प्रागुक्ररूपे अनन्तभाग एकैकस्मिन् प्रियते, किं सर्वस्मिन्नपि नेत्याह-' आदिमम् श्राचिमरणं तस्यैवात्मुक्त्या अपहाय हयमत्र भावना - शेप मरस्वामिनो हि सर्वपापेक्षा अनन्तभाग एवेति तेवनन्तो भागो म्रियत इत्युच्यते आयीचिमरणस्वामिनस्तु सिद्धविरहिताः सर्व एव जीवाः, ते चानन्ता इति कृत्वा ऽनन्तभागहीनाः सर्वे जीवा म्रियन्ते इत्युच्यते । उक्कं कतिभागो म्रियते एकैकस्मिन्निति द्वारम् ॥ अधुनाऽनुस मयद्वारमाह 'अणुसमय त्ति' समयं समयमनु अनुसमयं बीप्सायामययीभावः तत्तब्धानुसमर्थ सततम्, आदि प्रथममाचीचिमरणं ज्ञेयम् अवोध्वम् याचदायुस्तस्य श्रवबोद्धव्यम्,
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मरण प्रतिपादनात् शेषाणां स्वायुषो ऽमयसमय एकत्र भायादनुसमयतानभिधानं बहुसमयविषयत्वादनुसमयनायाः । तथा
"
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च वृद्धव्याख्या- " पढमे जाव श्राउं धरइ सेसां एगलमयं जहिं मरइ" " न च मासं पायोवगया' इत्यागमेन विरोधः, तत्र पादपोपगमनशब्देन निश्चेष्टताया एवाभिधानात् मरणस्य तु तत्राप्यायुस्तु टिसमय एव सद्भावात्तुः पूरये । गतमनुसमयद्वारम् ॥ इदानीं सान्तरद्वारमाह-तत्र प्रथमचरमयोरन्तरं - व्यवधानं ' नास्ति ' न विद्यते, प्रथमस्यावचिमरणस्य सदा सम्भवात्, चरमस्य भवापेक्षया केवलिमरणस्य पुनर्मरणाभावादिति भाव इति गाथाऽर्थः ॥ २३९ ॥ शेषाणामपि किमेयमित्याह
सेसायं मरणा, नेयो संतरनिरंतरो उ गमो ।
?
साई सपजवसिया, सेसा पदमिन्दुगमगाई || २३२ ।। शेषायां मरणानाम् अवधिमरणादीनांना सहान्तरेण-व्यवधानेन वर्तत इति सान्तरः, निष्कान्तोअन्तरानिरन्तर तुशब्दस्य समुचयार्थत्वात् । उलं हि "शब्दविशेषपादपूरावधारणसमुचयेषु " कोइसी गम्यते अनेन वस्तुरूपमिति नमः प्ररूपणा इदमुकं भवति या अयत रद्वालमरणादिकं प्राप्यप्रियते मृत्वा च भवान्तरे मरणान्तरमनुभूय पुनस्तदेवाऽऽमोति तद्सान्तरमिति प्ररूपणा, यदा तु वालमरणाऽऽदिकमवाप्य पुनस्तदेवाव्यवहितमाप्नोति तदा निरन्तरं भवति, तत्प्ररूपकत्याचे गमोऽपि सान्तरो निरन्तरयुक्त । सम्मति गाथापश्चाधन कालद्वारमाह सादीनि च सपर्यवसितानि सादिवसितानि शेषाणि पोटश वस्यमाणापेया अधिमरणादीनि एक सामयिकतायास्तेषामभिहितत्वात् प्रवाहापेक्षया तु शेषभङ्गोपलक्षणमेतत् प्रवाहतोऽपि पतितानि शेषमरणानि सम्भवन्ति । तथा च वृद्धा: - " बालमरणाणि श्रणाइयाणि वा श्रपजवसि पाणि वा अादिवाणि या सपज्जवलियाणि या पंडिय मरणास साइयाणि सपजयसियादि ।" मुक्ययाप्ती तदुच्छित्तिसम्भवादिति भावः । ' पढमिल्लुगं ति ' प्रथमकम्-आयचिमरणम्' अनादि आदिरहित प्रवाहात येति भावः, प्रतिनियताऽऽयुः पुङ्गलाऽपेक्षया तु सावपि सम्भवति, उपलक्षणत्वाच्चास्यापर्यवसितं च अभव्यानां व्यानां पुनः सपर्यवसितमिति गाथाऽर्थः ॥ २३२ ॥ सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दर्शयन्नात्मौद्धत्यपरिहारायाse भगवान् निर्युक्लिकारः
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सच्चे एए दारा, मरणविभत्तीइ वमित्रा कमसो । सगलखिउणे पयत्थे, जिराचउदस भासति ॥ २३३॥ 'सर्वाणि अशेषाणि एतानि अनन्तरमुपदर्शितानि ' द्वाराणि अर्धप्रतिपादन मुखानि 'मरणविभक्तेः मरणपास्य पवनस्य वर्णितानि प्ररूपितानि मयेति शेषः । 'कमसो त्ति' प्राग्वत् क्रमतः, आहएवं सकलाऽपि मरणवक्रव्यतोफ़ा, उत नेत्याह-सकलाथ समस्ता निपुणाश्च श्रशेषविशेषकलिताः सकलनिपुणाः तानू पदार्थान् इह प्रशस्तमरणाऽऽदीन् जिनाश्च - केवलिनः चदर्शपूर्वि प्रभवाऽऽदयो जिनवर्तुदशपूर्वि भापन्ते ' तुदर्शपूर्विराश्च
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण न्यक्रमभिदधति , अहं तु मन्दमानिन्वान्न तथा वर्णयितुं ति । 'महापरणे त्ति' महती-निरावरणतया अपरिमाणा प्र. क्षम इत्यभिप्रायः । स्वयं चतुर्दशपूर्विन्वेऽपि यच्चतुर्दशपू. ज्ञा केवलज्ञानाऽस्मिका संवित् अस्येति महाप्रक्षः। स किम् ?, र्युपादानं ननेपापि पदस्थानपतितत्वेन शेषमहात्म्य- इन्याह-हमम्' अनन्तरवक्ष्यमाणं हृदि विपरिषर्तमानतया स्थापनपरमप्रमेव । भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य प्रत्यक्ष प्रक्रमातरणोपायम् , 'पटुंति' स्पष्टम्-असन्दिग्धलक्ष्यन्त इति प्रेोऽनवकाश पव । इति गाथार्थः ।। २३३॥ म् । पठ्यते च-पराहं ति' पृच्छयत इति-प्रश्नम् , प्रष्टव्यार्थ
(१०) इद्देव प्रशस्ता प्रशस्तमरणविभागमाह- रूपम् 'उदाहरे त्ति भूते लिद , तत उदाहरेद्-उदाहतवान् । एगंतपसन्था ति-पि इत्थ मरणा जिणहि पएणत्ता।
पठ्यते च-'अराणवंसि महोघंसि, एगे तिराणे दुरुत्तरं' इति ।
अत्र सुब्ब्यत्यये विशेषः, ततश्च-अर्णवाद् महौधाद् दुरुत्तरात् मनपरिष्मा इंगिणि, पाउवगमणं च कमजिट्टू ।।२३४॥ । तीर्ण इव तीर्णः-तीरप्राप्त इति योगः, एको घातिकर्मसाएकान्तेन-नियमेन प्रशस्तानि-श्लाघ्यानि, ' त्रीणि 'त्रि- हित्यरहितः, तत्रेति ' सदेवमनुजायां परिषदि, एकः-श्र. सायानि, 'अत्र' पतेष्वनन्तगभिहितेषु. मरणेषु मरणा | द्वितीयः, स च तीर्थकृदेव, शेषं प्राग्वत् । इति सूत्रार्थः ॥ १॥ नि, 'जिनः केलिभिः, 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि । तान्येवा
यदुदाहतवांस्तदेवाऽऽहऽऽह-भक्तपरिक्षा, इङ्गिनी, 'पायवगमणं च' इति । पादपोपगमने च । इदमपि त्रय किमेकरूपम् ? , इत्याह-क्रमेण-परि
सन्ति मेए दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंतिया । पाट्या ज्येष्ठम-अतिशयप्रशस्य क्रमल्येष्ठं, यथोत्तरं प्रधान- अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा ॥ २ ॥ मिति मावः । शेषमरणान्यपि यानि प्रशस्तानि तेषामत्रैवा. सन्तीति प्राकृतत्वात् वचनव्यत्ययेन स्तः-विद्येते , ' इमे' न्तर्भावः । इतराणि कानिचित् कथञ्चित प्रशस्तानि, अप-| प्रत्यक्षः चः पूरणे, पठ्यते च-'संति मेए ति ' स्त एते, राणि तु सर्वथैवाऽप्रशस्तानि । इति गाथार्थः ॥ २३४ ।।
मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्राऽपि यत्र नोच्यते तत्र भा. इह च येनाऽधिकारस्तदाह
वनीयम् । 'वे' द्विसङ्ख्येः तिष्ठन्स्यनयोजन्तव इति स्थाने इत्थं पुण अहिगारो, णायचो होइ मणुअमरणणं । 'आख्याते 'पुरातनतीर्थकृद्भिरपि कथिते, अनेन तीर्थकृतां मुतुं अकाममरणं, सकाममरणेण मरियव्वं ।। २३५ ।।
परस्परं वचनाऽव्याहतिरुपदर्शिता। ते च कीदृशे ?-' मारणं 'अत्र 'पतेषु भरणेषु, पुनःशब्दो वाक्योपन्यासार्थः, अधि
तिए त्ति' मरणमेव अन्तो-निजनिजाऽऽयुषः पर्यन्तो मरणाकाग,शातव्यो भवति मनुजमरणेन । किमुनं भवति?-मनुष्य
न्तः तस्मिन् भवे मारणान्तिके, त एव नामत उपदर्शयतिभवसम्भविना पण्डितमरणाऽऽदिना, तान्येव प्रत्युपदेशप्रवृ.
'अकाममरणम्' उक्तरूपं, अनन्तरवक्ष्यमाणरूपं च, वक्ष्य नेः । सम्प्रत्युक्तार्थसंक्षेपद्वारेणोपदेशसर्वस्वमाह-मुक्या श्र
माणापेक्षया चः समुच्चये, एवेति पूरणे, 'सकाममरणम्' काममरणं बालमरणाऽऽद्यमप्रशस्तम् , 'सकाममरणेन ।
उफ्तरूपं वक्ष्यमाणस्वरूपं च तथा । इति सूत्रार्थः ॥२॥ भक्तपरिशाऽऽदिना प्रशस्तन, मर्सव्यम्, इति गाथार्थः॥२३५॥
केषां पुनरिद कियत्कालं च ?, इत्यत आहगतो नामनिप्पन्ननिक्षेपः ।
बालाणं भकामं तु, मरणं असतिं भवे ।. । सम्प्रति मत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम्
पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सतिं भवे ॥ ३ ॥ अामसि महोहंसि, एगे तरइ दुरुत्तरं ।
बाला इव बालाः सदसद्विवेकविकलतया तेषाम् 'अकामं तु' तत्थ एगे महापरणे, इमं पएहमुदाहरे ॥ १ ॥
सि। तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् अकाममेव मरणम् , असहदश्रणों-जलं विद्यते यत्रासावर्णवः, "असो लोपश्च" (पा० वारंवारं भवेत. ते हि विषयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त ५-२-२०६ वार्निकम् ) इति वप्रत्ययः सकारलोपश्च, सच द्र- एव नियन्ते, तत एव च भवाऽटवीमटन्ति । 'पण्डितामा क्यतः जलधिः, भावतध-संसारः पतस्मिन् कीदशि ?-'महो चारित्रवतांसह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकामं हसि ति महानोध:-प्रवाहा द्रव्यतो जलसम्बन्धी . भावत। सकाममिव सकामं मरणं प्रति असंत्रस्ततया, तथात्वचोन्सस्तु-भवपरम्पराऽऽत्मकः . प्राणिनामत्यन्तमाकुलीकरणहेत: वभूतत्वात तादृशा मरणस्य । तथा च वाचक:-"सचि चरकाऽऽदिमतममूहो वा यस्मिन् स महोघ. तम्मिन महत्त्वं ततपोधनानां, नित्यं प्रतनियमसंयमरतानाम् । उत्सवभूतं स्व-उमयत्रा गाधतया अदएपरपारतया च मन्तव्यम । तत्र मन्ये, मरणमनपरावृत्तीनाम् ॥ १ ॥ " नतु परमार्थन: किमी. इन्याह-एफ इति । असहायो रागहेषादिमाहभा- नेषां सकाम सकामत्वं, मरणाभिलापस्याऽपि निषिद्धत्वात् । वविरहितो. गौमनमाऽदिरित्यर्थः। 'तरनि'पर परमाप्नोति.त- उक्तं हि-" मा मा हु विचितेज्जा, जीवामि चिरं मराकालापेक्षया बर्नमानिर्देशः। दुरुत्तरं ति विभक्तिव्यत्ययाद मि य लहुँ ति । जइ इच्छसि तरिउ जे, संसारमहोदहिमदरुत्तरे दुःखेनोरित शक्ये, दुरूसमिति कियाविशेषणं वा. पारं ॥१॥" इति । तुः पूर्वीपेक्षया विशेषद्योतकः, तब गहि यथाऽसौ नरति नथाऽपरैर्गुरुकमभिः सुखेनैव तीर्यते. • उत्कर्षेण 'उत्कर्षांपलक्षितं , केवलिसम्बन्धीत्यर्थः । श्रशात एव 'एक इति'मइल्यावचनोचा, पक एव-जिनमतप्रति- केवलिनो हि संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि , मुक्त्यवापन्ना . न तु चरका दिमताकुलितचेतसोऽन्ये तथा रितु | प्तिरितः म्यादिति । केवलिनस्तु रादपि नेच्छन्ति, श्रामीशल इति । 'नोनि' गौतमाऽऽदौ तरण प्रवृत्तेः. 'एक इति स्तां भवजीवितमिति । तन्मरणस्योत्कर्षेण सकामता. स. तथाविधार्थफरनाम कर्मोदयादनुत्तगवान विभूतिरद्वितीयः। कुद' एकवारमेव भवेद . जबन्येन तु शेषचारित्रिण: सकिमुक्तं भवति?-तीर्थकरः, स क एव भरते सम्मयती- ताऽष्ट वा वारा मवेदित्याऽऽकृतम् । इति सूत्रार्थः॥३॥
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मरण
यदुकं स्त हमे द्वे स्थाने' तत्राऽऽयं तावदाहतरिथमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं ।
कामगिद्धे जहा वाले, मिसं कृराणि कुब्वति ॥ ४ ॥ 'तत्रेति' तयोरकाममरणसकाममरणाSSख्ययोः स्थानयोर्मध्ये, ' इदम् ' अनन्त स्मभिधास्यमानरूपं, प्रथमम् 'आद्यं स्थानम्, 'महावीरेणेति चरमतीर्थकृता, तत्रैको महाम शः' इति मुकुलितोक्नेरभिव्यक्त्यथमेतत् ' देशितं ' प्ररू?, इच्छांमदनाऽऽत्मकेषु तिमकितत् इत्याह- कामेषु इच्छामदना 55मकेषु 'गृद्धः - अमिकाङ्क्षावान् कामगृद्धो, ' यथा इत्युपप्रदर्शनार्य:, 'वाल:' इत्युक्तरूपो 'भृशम्' त्यर्थ 'राग' रौद्रासि. कर्माणि इति तानि च प्रयपरोपणाऽऽदीनि. 'कुव्यति ति' करोति किवयाऽभिनिर्तयति शावशक्तावपि कूरतया तन्दुलमत्स्यवन्मनसा कृत्वा च प्रक्रमादकाम एव म्रियते । इति सूत्राऽर्थः ॥ ४ ॥
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इदमेव ग्रहणकवाक्यं प्रपञ्चयितुमाहजे गिदे कामभोगे, एगे कूडाय गच्छर ।
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न मे दिट्ठे परे लोए, चक्बुद्दिट्ठा इमारती ॥ ५ ॥ 'य' इति अनिर्दिस्वरूपी शुद्धः काम्यन्त इति कामाः भुज्यन्त इति भोगाः, ततब्ध, कामाच ते भोगा कामभोगाः, ते अभिलादिषु पहा- कामी शब्दरूपायो भोगाश्च स्पर्शरसगन्धाऽऽख्याः कामभोगाः तेषु । उक्तं हि'कामा दुविदा परणता सदा, रूवा य।' (कामानामनेकविधत्वम् 'काम' शब्दे तृतीयभागे ४३१ पृष्ठे गतम्) 'भोगा तिविधा परागुत्ता। तं जहा गंधा, रसा, फासा य' इति (किं स्वरूपाः भोगात मोग' शब्दे १६१० पृष्ठे उक्रम) (कामभोगाः कतिविधा इति कामभोग' शब्दे ४४२ पृ ठे विस्तरः ) ' एकः कश्चित् क्रूरकर्मा तन्मध्यात् कुटमिव कई प्रभूतप्राणिनां यातनांत्वारक इत्यर्थः । यथैव हि कुटनिपतितो मृगो व्याधैरनेकधा हन्यते, एवं नरकपतितोऽ पि जन्तुः परमधार्मिकेरिति तस्मै कूटाय, "गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचप० । (पा० २-३-१२) इत्यादिना चतुर्थी, गच्छु ति' याति । यद्वा-यो गृद्धः 'कामभोगेष्विति' कामेषु स्त्रीस. षु भोगेषु धूपनविलेपनाऽऽदिषु स एकः 'सुहृदादिसाहाय्यर हितः कूटाय गच्छति अथवा तो भावत तत्र द्रव्यतो मृगाssदिबन्धनम्, भावतस्तु-मिथ्याभाषणाऽऽदि तस्मै गच्छतीत्यनेकार्थत्वा स हि मांसाऽऽदिलोलुपनया गान्धिनान्वारभते मिथ्याभाषणानीमि चासेचन इति प्रेरित केचिदतिन मे' इति न मया 'दृष्टः' अवलोकितः कोऽसौ ?- परलोको भूतभाविजन्माऽऽ स्मकः कदाचिद्विपाभिरनिरप्येवंविधेव स्यात् ?-श्रत ग्राहचतुरा सोचनेन एा प्रतीता'म्' इति। तामेव प्र यक्षां निर्दिशति रम्यते ऽस्यामिति रतिः, स्पर्शनादिसम्भो गजनिता चित्तप्रह्नत्तिः । तस्यायमाशयः - कथं परित्याग परिपना/मानं विमलमेयम् । इति स्वार्थः॥५॥
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( ११८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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पुनस्तदाशयमेवाभिव्यञ्जयितुमाहहत्थाऽगया इमे कामा, कालिया ने अलागया । को जागइ परे लोए ? अस्थि वा नऽऽत्थि वा पुणो ॥ ६ ॥ सन्ति तेनाssवृत्य मुखं घ्नन्ति वा घात्यमनेनेति हस्तस्तम्
मरण
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आगताः—प्राप्ताः हस्ताऽऽगताः, उपमार्थोऽत्र गम्यते, ततो हस्ताऽऽगताः इव स्वाधीनतया, क एते ? - 'इमे' प्रत्यक्षोपलभ्यमानाः काम्यन्त इति कामाः - शब्दाऽऽदयः, कदाचिदागामिनो ऽप्येवंविधा एव स्युरित्याह-काले सम्भवन्तीति का लिफा:- अनिश्चितकालान्तरप्राप्तयो ये अनागताः भाषि जन्मसम्बन्धिनः कथं पुनरमी अनिश्चित इत्याद ' को जागरति ' उत्तरस्य पुनः शब्दस्येह सम्बन्धनात् कः पुनर्जानाति, नैय कश्चित् यथा- परलोकोऽस्ति नास्ति वेति । अयं चास्याऽऽशयः - परलोकस्य सुकृताऽऽदिकर्म्मणां या अस्तित्वनिव्ययेऽपि को हि दस्तगतं पादगामि करि व्यति' इति न्यायतः क इव हस्ताऽऽगतान् कामानपहाय का लिककामाऽयं यतेत, तत्त्वतस्तु परलोकनिश्चय एव न समस्ति तत्र प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेः । अनुमानस्य तु प्रतावपि गोपालपटिका विधूमादन्यनुमानचदन्यथा ऽप्युपलम्भनाधिचायकत्वासम्भवाच ततस्तदस्तित्वनिश्चयो, नास्तित्वनियो वा किन्तु सन्देह पच । न त्वयमेवं विवेचयति यथाऽ वाता अपि कामादुरन्ततया त्यक्नुमुचिताः, दुरन्तत्वं च तेषां शल्यविषाऽऽदिभिरुदाहरणैः प्रतीतमेव । तथा च वक्ष्यति
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'सल्लं कामा विसं कामा, कामा श्रासविसोवमा । कामे पत्थमाणा, अकामा जति दुग्गति ॥ १४" न हि विषाऽऽदीनि मुखमधुराख्याच्या यतिविरसतया विवेकिमिय परलोकसन्देहाभिधानं तदपि न पापपरिहारोपदेश प्रति बाधकं, पापानुष्ठानस्ये हैव चौर पारदारिकाऽऽदिषु महाऽनर्थ हेतुतया दर्शनात् । परलोकनास्तित्वाऽनिश्चये च तत्राऽपि तथाऽनर्थहेतुतया सम्भाव्यमानत्वाद्वल्मीककर प्रवेशनाऽऽदि यत् प्रायद्भिः परिमुचितत्वात् न व परलोकाि ति सन्देहः तत्रियायकानुमानस्य तद्हजीतचालकतनाभिलाषाऽऽदिलिङ्गबलोत्पन्नस्य तथाविधाध्यक्षवदव्यभिचारित्वेन तत्र तत्र समर्थितत्वादित्यलं प्रसङ्गेन । इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अन्यस्तु कथञ्चिदुत्पादितप्रत्ययोऽपि कामान् परिहर्तुमशक्नुवन्निदमाहजगेण सद्धिं होक्खामि, इति वाले पगब्भइ । कामभोगाणुरागेणं, केसं संपडिवजइ ॥ ७ ॥
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"
जायत इति जनो लोकः तेन साधे सह भविष्यामि, किमुक्तं भवति ? - बहुजन मांगाऽसकी तदहमपि गमिष्यामि, यद्वा-'होक्स्खामि ति भोच्यामि पालयिप्यामि, यथा हायं जनः कलात्राऽऽदिकं पालयति तथाऽहमपि, न हीयान् जनोऽश इति बालः-श्रज्ञः प्रगल्भते धार्थमवलम्बते अलीकवाचालतया च स्वयं नएः परानपि नाशयति, न विवेचयति यथा - किमुन्मार्गप्रस्थितेऽ नाविकजन पहुनापि मम विवेकिनः प्रमाणीकृतेन कर्मफलभुजा हि जन्तवः स चैवं कामभो गेषु-उक्तरूपेषु श्रनुरागः - श्रभिष्वङ्गः कामभोगानुरागः- तेन
,
"
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'क्लेशम्' इह परत्र च विविधबाधाऽऽत्मकं, सम्प्रतिपद्यते " प्राप्नोति । इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ यथा च कामभोग
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संपनयते तथा पक्रमाहतो दंडं समारभति तसेसुं धावरे य अडाए व अट्टाए, भूपग्गामं त्रिहिं ॥ ८ ॥ 'तत' इति कामभोगानुरागात् ( से इति ) सधा
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण वान् दण्डयते संयमसर्वस्वापहरणेनाऽऽत्मा अनेनेति दण्डः | दोपणे, न मद्ये न च मैथुने।" इत्यादि, तदनेन मनसा वचसा मनोदण्डाऽदिस्तं 'समारभते' प्रवर्तत इति , केषु?-त्रस्य- कायेन चासत्यत्वमस्योक्तम् । इति सूत्राऽर्थः ॥ ६॥ न्ति-तापाऽऽद्युपतप्ती छायाऽऽदिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति प्रसाः
पुनस्तद्वक्तव्यतामेवाऽऽहद्वीन्द्रियाऽऽदयस्तेषु,तथा शीताऽऽतपाऽऽद्युपहता अपि स्था. कायसा वयसा मले, विते गिद्धे य इत्थिसु । नान्तरं प्रत्यनभिसर्पितया स्थानशीलाः स्थावरास्तेषु च, अर्थ:- दुहओ मलं संचिणइ, सिसुनागु व मट्टियं ॥१०॥ प्रयोजनं वित्तावाप्त्याऽऽदिः तदर्थमर्थाय, चस्य व्यवहित
'कायस त्ति' सूत्रत्वात् , कायेन-शरीरेण, वचसा-याचा सम्बन्धत्वात् अनर्थाय च-यदात्मनः सुहृदादेर्वा नोपयु
उपलक्षणत्वात् मनसा च 'मत्तो' दृप्तः, तत्र कायमत्तो मदाज्यते , ननु किमनर्थमपि कश्चिद्दण्ड समारभते , एवमेतत्
न्धगजवत् यतस्ततः प्रवृत्तिमान् , यद्वाऽहो अहं बलवान् रूपतथाविधपशुपालवत् । तत्र सम्प्रदाय:-यथकः पशुपालः
वान् वा, इतिचिन्तयन् वचसा स्वगुणान् ख्यापयन् , अहो अहं प्रतिदिनं मध्याह्नगते रवी अजासु महान्यग्रोधतरूं समा
सुस्वर इत्यादि वा चिन्तयन् , मनसा च मदाऽऽध्मातमानसः श्रितासु “तन्थुत्ताणतो णिविराणो बेणुविदलेण अजोद्गीर्ण- 1
अहो अहमवधारणाशक्तिमानिति वा मन्वानो 'वित्ते' द्रविणे, कोलास्थिभिः तस्य बटस्य पत्राणि छिद्रांकुर्वन् तिष्ठति ,
'गृद्धो' गृद्धिमान् , चशब्दो भिन्नक्रमः , ततः स्त्रीषु च एवं तेन स वटपादपः प्रायसश्छिद्रपत्रीकृतः , अभ्नया तत्थे
गृद्धः, तत्र वित्ते गृद्ध इति श्रदत्ताऽऽदानपरिग्रहोपलक्षणं, त. गो रायपुत्ता दातियधाडितो तच्छायसमस्सितो पेच्छए
द्भावभावित्यात्तयोः,स्त्रीषु गृद्ध इत्यनेन मैथुनाऽऽसेवित्वमुक्तं, य तस्स वडस्स सर्वाणि पत्राणि छिद्रितानि , तो तेण
स हि स्त्रियः संसारसर्वस्वभूता इति मन्यते, तथा च तद्वसो पसुपालतो पुच्छितो-केणेयाणि पत्राणि छिद्दीकयाणि ?,
चः-"सत्यं वच्मि हितं वच्मि , सारं वच्मि पुनः पुनः । तेण भरणइ-मया , एयाणि क्रीडापूर्व छिद्रितानि , तेण सो बहुणा दब्बजाएण विलोभेउ भरणंति-सक्केसि जस्साह
अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचनाः ॥१॥" तदभि
रतिमांश्च मैथुनाऽऽसेव्येव भवति,स एवंविधः किम् ? इत्याहभणामि तस्स अच्छीणि छिद्देउं ? , तेण भरणात-छुई श्र
'दुहो त्ति' द्विधा-द्वाभ्यां रागद्वेषात्मकाभ्यां बहिरन्तःभासत्थो होउं तो सक्कमि । तेण णयर नीतो , रायमग्गसनिविटे घरे ठवितो , तस्स रायपुत्तस्य भाया राया , सो
प्रवृत्त्यात्मकाभ्यां वा प्रकाराभ्यां, सूत्रत्वाद द्विविधं वा इहलो. तेण मग्गेण अस्सवाहणियाए णिजई, एएण भरणति-ए
कपरलोकवेदनीयतया पुण्यपापात्मकतया वा, 'मलम्' अष्ट
प्रकारं कर्म 'संचिनोति' बध्नाति, क इव किमित्याहयस्स अच्छीणि पाडहि ति, तेण य गोलियधणुपण
'शिशुनागो' गण्डूपदोऽलस उच्यते, स इव मृत्तिकां, स हि तस्स णिग्गच्छमाणस्स दो वि अच्छाणि पाडियाणि, पच्छा सो रायपुत्तो राया जातो, तेण य सो पसुपालो
स्निग्धतनुतया बही रेणुभिरवगुण्ड्यते , तामेव चाश्नीते, भरणति-बेहि वर , किं तं प्रयच्छामि ?, तेण भरणति
इति बहिरन्तश्च द्विधाऽपि मलमुपचिनोति,तथाऽयमपि, एत. मज्म तमेव गाम देहि जत्थ अच्छामि , तेण सो दिराणो,
हान्ताऽभिधाने त्वयमभिप्रायो-यथाऽसौ बहिरन्तश्चोपवि पच्छा तेण तम्मि पच्चंतगामे उच्छू रोविश्रो तुंबीतो' य,।
तमलः खरतरदिवाकरकरनिकरसंस्पर्शतः शुष्यनिहैव क्लिश्यनिष्फरणेसु तुंबाणि गुले सिद्धिउं तं गुडतुंचयं भुक्त्वा २
तिविनाशं चाप्नोति,तथाऽयमप्युपचितमल: आंशुकारिकर्मगायति स:-"अट्टमट्टं च सिक्खिजा, सिक्खियं ण णिरत्थयं ।
वशत इहैव जन्मनि क्लिश्यति विनश्यति च । इति सूत्रार्थः॥११॥ अमट्टपसारण, मुंजए गुडतुंबयं ॥१॥" तेण ताणि वड
अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाहपत्ताणि अणटाए छिद्दियाणि, अच्छीणि पुण अट्ठाए पाडि-1
तो पुट्ठो आयकेण, गिलाणो परितप्पति । याणि ।" दगडमारभत इत्युक्तं, तत्किमसावारम्भमात्र एवाव-1 पभीयो परलोगस्स, कम्माणुप्पही अप्पणो ॥११॥ तिष्ठत इत्याह-'भूयग्गाम त्ति' भूताः-प्राणिनस्तेषां ग्रा- 'तात्ति' तकः, ततो वा दण्डारम्भणाद्युपार्जितमलतः, मा-समूहस्तं विविधैः प्रकारैर्हिनस्ति-व्यापादयति.अनेन
स्पृष्टः, केन ?-'पातकेन' श्राशुघातिना शूलविशूचिकाऽऽदिव दण्डत्रयव्यापार उक्तः । इति सूत्रार्थः॥८॥
रोगेण तत्तद्दुःखोदयाऽऽत्मकेन वा 'ग्लान' इति मन्दोपगतकिमसौ कामभोगानुरागणैतावदेव कुरुते?, उतान्यद- हर्षो वा, परीति-सर्वप्रकारं तप्यते । किमुक्तं भवति? यहिपीत्याह
रन्तश्च खिद्यते, 'प्रभीत' इति प्रकर्षेण प्रस्ता, कुतः ?--- हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सहे।
'परलोगस्स त्ति' परलोकात् सुब्ब्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे षष्टी, मुंजमाणे सुरं मंस, सेयमेयंति मन्नइ ॥६॥
किमिति ?-क्रियत इति कर्म-क्रिया तदनुप्रेक्षत इत्येवंशीलः हिंसनशीलो हिंस्रः अनन्तरोक्कनीत्या, तथैवंविधश्च सन्नसौ
कर्मानुपक्षी, यत इति गम्यते, कस्य ?-आत्मानः, स हि ई
साऽलीकभाषणादिकामात्मचेष्टां चिन्तयन् नकिश्चिन्मया शु. 'बालः ' उक्तरूपो मृषावादीति ' अलीकभाषणाला, 'मारले त्ति' माया-परवश्वनोपायचिन्ता तद्वान् , 'पिशुनः'
भमाचरितं, किंतु-सदैवाजरामरवचोष्टितमिति चिन्तयंश्वेतपरदोषोद्घाटकः 'शठः' तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूत
स्याऽऽतङ्कतश्च तनावपि खिद्यते, भवति हि विषयाकुलितच. मात्मानमन्यथा दर्शयति, मण्डिकचौरवत् । (तच्छूलारोपण
तसोऽपि प्रायः प्राणोपरमसमयेऽनुतापः । तथा चाहुःकथा 'मंडिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २१ पृष्ठे गता) अत एव
"भवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, च भुआनः ‘सुरां' मद्यं 'मांसं' पिशितं 'श्रेयः 'प्रशस्यतर
पुरा यद्यत्किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् ।
पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, मेतदिति मन्यते, उपलक्षणत्वात् भाषते च-" न मांसभक्षणे
तदेवकं पुंसां व्यथयति जराजीवपुषाम् ॥ १॥" इति १ सुष्छु, २ -याति, ३-तिष्ठामि, ४ तुभ्य, ५ पक्रया ।
सत्राऽर्थः ॥ ११॥
कथानमन्यथा दर्शशः तल
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(१२.) अभिधानराजेन्द्रः।
मरण अमुमेवार्थ व्यकीकर्तुमाह
श्रवतीर्णः-गन्तुमुपक्रान्तः, पठ्यते च- प्रोगाढो त्ति' सुया मे णरए ठाणा, असीलाणं च जा गती। तत्र चाऽवगाढ श्रारूढः प्रपन्नः इति चैकोऽर्थः, अश्नीते नबालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥१२॥ वनीतादिकमित्यक्षो-धूः तस्य भक्तो-विनाशः अक्षमत 'सुय त्ति' श्रुतानि-आकर्णितानि 'मे' इति । मया 'न-1
स्मिन् , पाठान्तरतश्चाऽक्षे भग्ने, शोचते यथा-
धिमम परिरके' सीमन्तकादिनाम्नि , कानि?-ठाणा' इति लि
शानं यज्जाननपीथमपायमवाप्तवान् । इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ गव्यत्ययेनोत्पत्तिस्थानानि घटिकाऽऽलयाऽऽदीनि येष्वतिस
सम्प्रत्युपनयमाहम्पीडितागा-दुःखमाकृष्यमाणाः बहिनिष्कामन्ति जन्त- एवं धम्म विउक्कम्म, अहम्म पडिवलिया। वः, यद्वा-नरके-रत्नप्रभादिनरकपृथिव्यात्मके स्थानानि
बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयइ ॥ १५ ॥ सीमन्तकाप्रतिष्ठादीनि कुम्भीवैतरण्यादीनि वा , अथवा
'एव मिति' शाकटिकवत् 'धर्म ' क्षान्स्यादिकं यतिस्थानानि-सागरोपमाऽऽदिस्थित्यात्मकानि , तत्किमियता
धर्म सदाचारात्मक वा — विउक्कम्म ति ' व्युत्कम्य विपि परितप्यत इत्यत आह-' अशीलानाम् ' अविद्यमान
शेषेणोलध्य न धम्मोऽधर्मः, नविपक्षेऽपि वर्तते इति सदाचाराणां या गतिर्नरकाऽऽत्मिका सा च श्रुतेति सम्ब
धर्मप्रतिपक्षः, तं-हिंसाऽऽदिकं प्रतिपद्य' अभ्युपगम्य 'बान्धः, कीरशानाम् ?-'बालानाम् ' अज्ञानां 'क्रूरकर्मणां'
लः ' अभिहितरूपः । मरणं-मृत्युस्तस्य मुखमिव मुलं हिंसमृषाभाषकाऽदीनाम् , कीदृशी गतिरित्याह-प्रगाढा ना
मृत्युमुख-मरणगोचरं । प्राप्तो' गतः , किमित्याह-अक्षे म अत्युत्कटतया निरन्तरतया च प्रकर्षवत्यो, 'यत्र' यस्यां
भग्न इव शोचति, किमुक्तं भवति ?-यथा-अक्षमले शागती, वेद्यन्त इति वेदनाः-शीतोष्णशाल्मल्याश्लेषणादयः, कटिकः शोचति, तथाऽयमपि स्वकृतकर्मणामिहैव मारणासदयमस्याशयः-ममैवंविधानुष्ठानस्येदृश्येव गतिः। इति सू-1 न्तिकवेदनात्मकं फलमनुभवनात्मानमनुशोचति. यथा हा प्रार्थः ॥ १२॥
किमेतज्जानताऽपि मयैवमनुष्ठितम् । इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ तथातत्थोववाइयं ठाणं, जहा मे तमणुस्सुयं ।
शोचनानन्तरं च किमसौ करोतीत्याहश्राहाकम्मेहिं गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्पति ॥१३॥
तो से मरणं तम्मि, वाले संतस्सई भया । तति' नरकेषु उपपाते भवमौषपातिकं ' स्थानं '
अकाममरणं मरई, धुत्ते वा कलिणा जिए ॥ १६ ॥ स्थितिः 'यथा' येन प्रकारेण, भवतीति शेषः, 'मे'म
'तत' इति श्रातकोत्पत्तौ यच्छोचनमुक्तं तदन्तरं 'सेइति स या तदित्यनन्तरोनपरामर्श 'अनुभुतम् ' अवधारितं, गु
मरणमेवान्तो मरणान्तस्तस्मिन् , उपस्थित इति शेषः, 'बालो' रुभिरुच्यमानमिति शेषः, औपपातिकमिति च धुवतोऽस्या- रागाद्याऽकुलितचित्तः संत्रस्यति'समुद्विजते विभेतीतियावयमाशयः-यदि गर्भजत्वं भवेत् भवेदपि तदवस्थायां छ- स् , कुतः?-'भयात्' नरकगतिगमनसाध्वसाद , अनेनाकामदभेदादिनारकदुःखान्तरम् , औषपातिकत्वे त्वन्तमुहान- त्वमुक्त, स च किमेवंविधात् मरणाद्विमुच्यते ? उत नेत्याहतरमेव तथाविधवेदनोदय इति कुतस्तदन्तरसम्भवः ?, अकामस्य-अनिच्छतो मरणमकाममरणं तेन , भूत्रे चानथा च-' श्राहाकम्मेहिं ति ' श्राधानमाधाकरणम् .
पत्याद् द्वितीया, म्रियते' प्राणांस्त्यजति , क इव कीरशः भात्मनेति गम्यत, तदुपलक्षितानि कर्माणि, आधाकर्माणि तः । सन् ?-'धूर्त इव' द्यूतकार इव , वाशब्दस्योपमार्थवाश्राधाकर्मभिः-स्वकृतकर्मभिः.यद्वा आपत्वात् ,'आहे त्ति' श्रा- त् , 'कलिना' एकेन, प्रक्रमात् दायेन, जितः सन्नात्मानं धाय कृत्वा , कर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव कर्मभिः, 'ग- शोचति,यथा ह्ययमकेन दायेन जितः सनात्मानं शोचति छन् ' यान , प्रक्रमानरकं .यद्वा-'यथा कर्मभिः' गमि
तथाऽसावपीत्वरैर्विपाककटुभिः सकलेशबहुलमनुजमो. प्यमाणगत्यनुरूपः तीवतीव्रतराद्यनुभावान्वितैर्गच्छंस्तदनुरू
गैर्दिव्यसुखं हारितः शोचन्नेव ब्रियते । इति सूत्रार्थः ॥ १६॥ पमेव स्थानं , 'स' इति बालः, 'पश्चाद्' इत्यायुषि हीयमाने
प्रस्तुतमेवार्थ निगमयितुमाह• परितप्यते ' यथा थिइमामसदनुष्ठायिनं, किमिदानी एयं अकाममरणं, बालाणं तु पवेइयं । मन्दभात्यः करोमि ?, इत्यादि शोचते । इति सूत्रार्थः ॥१३॥ इनो सकाममरणं, पंडियाण सुणेह मे ।। १७ ॥ अममेवा) दृष्टान्तहागरण दृढयन्नाह
'एतद् ' अनन्तरमेव दुष्कृतकर्मणां परलोकाद्विम्पता जहा सागडिओ जाणं, संमं हिच्चा महापहं। यन्मरणामुक्तं तदकाममरणं , बालानामेव , तुशमस्यैवार्थक्सिम मग्गमातिामो, अश्वभग्गम्मि योयइ ॥ १४ ॥
वास् , ' प्रवेदितं' प्रकर्षण प्रतिपादितं. तीर्थकृगणधरा.
दिभिरिति गम्यते । पण्डितमरणप्रस्तावनार्थमाह-इत्तो • यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः । शक्नोति शक्यते था
ति' इतः-अकाममरणादनन्तरं सकाममरणं परिडतानामधान्यादिकमनेन वोदुमिति शकटे तेन चरति शाकटिका
म्बन्धि 'शृणुत' श्राकर्णयत 'मे' मम, कथयत इत्युफ गन्त्रीवाहकः 'जाणं ति' जाननवबुध्यमानः 'समम्' उ.
स्कारः । इति सूत्रार्थः॥१७ परगादिरहितं हित्वा ' त्यक्त्वा, कम् ?-महांश्चासौ वि.
यथाप्रतिज्ञातमाहस्तीर्णतया प्राधान्येन च पन्थाश्च महापथः, "ऋक्पूरब्धः
मरणं पि सपुम्मायं, जहा मे तमणुस्सुयं । पथामानक्षे" (पा०५-४-७४) इत्यकारः समासान्तः, ते 'विषमम् 'उपलाऽऽदिसङ्कलं माग पन्थानम् श्रोतिराणोत्ति' । विष्यसएणमणाघायं, संजयाणं वुसीमओ ।।१८।।
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( १२१ ) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण मरणमपि प्रास्तां जीवितमित्यपिशब्दार्थः , ' पुण' क-1 वा तत्काल नियन्ते जिनमतप्रतिपन्ना अपि, तीर्थान्तरीयामणि शुभे , इत्यस्माद्धातोः 'उणादयो बहुलम् ' (पा०३-३- स्तु दृरोत्सारिता एव, तेषु हि गृहिणस्तावदत्यन्तं नानाशी१) इति बहुलवचनाद्भावे क्यपि पुण्यम् , उक्तं हि- ला एव, यतः केचिद् गृहाऽऽश्रमप्रतिपालनमेव महाव्रतमि"पुण कर्मणि निर्दिष्टः , शुभविशेषप्रकाशको धातुरयम् ।
ति प्रतिपन्नाः, अन्ये तु-सप्तशिक्षापदशतानि गृहिणां व्रतमिभावप्रत्यययोगा-द्विभक्निनिर्देशसिद्धमेतद्रपम् ॥१॥" सह त्याद्यनेकधैव बुवते, भिक्षवोऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव , तेन वर्तन्त इति सपुण्यास्तेषां न त्वन्येषामपुण्यवतां , किं यतस्तेषु केषाञ्चित्पश्चयमनियमाऽऽत्मकं व्रतमिति दर्शनम् , सर्वमपि !, नेत्याह-'यथा ' येन प्रकारेण 'मे' मम, अपरेषां तु कन्दमूलफलाशितैव इति , अन्येषामात्मतत्त्वपरि कथयत इति गम्यते, तदित्युपक्षपः, तत्रोपात्तम् ' अनु
शानमेवेति विसदृशशीलता, न च तेषु क्वचिदविकलचारिश्रुतम् ' अवधारितं, भवद्भिरिति शेषः, सुष्ठु-प्रसन्नं म.
त्रसम्भव इति सर्वत्र पण्डितमरणाभावः। इति सूत्रार्थः ॥१६॥ रणसमयेऽप्यकलुषं कषायकालुष्यापगमात् . मनः-चेतो ये- (११) विषमशीलतामेव भिक्षूणां समर्थयितुमाहषां ते सुप्रसन्नमनसः महामुनयस्तेषां ख्यातं सवेदनतः संति एगेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा । प्रसिद्धं सुप्रसन्नमनःख्यातम् , यद्वा-सुम्पसन्नेहि अक्खायं' गारत्थेहि य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ २०॥ अत्र च सष्टु प्रसन्नैः पापपकापगमनेनात्यन्तनिर्मलीभूतैः , 'सन्ति' विद्यन्ते 'एकेभ्यः' कुप्रवचनेभ्यो भिक्षुभ्यः ‘गा. शेषतीर्थकृद्भिरिति गम्यते , आख्यातम् । पठ्यते च-'वि.| रत्थ त्ति' सूत्रत्वादगारस्थाः, संयमेन-देशविरत्यात्मकेनोप्पसण्णमणाधायं ति' तत्र च विशेषेण विविधैर्वा-भावना. त्तराः-प्रधानाः संयमोत्तराः, कुप्रवचनभिक्षवो हि जीवाऽऽदिभिः प्रकारैः प्रसन्ना-मरणेऽप्यपहतमोहरेणुतयाऽनाकु. धास्तिक्यादपि बहिष्कृताः सर्वथाऽचारित्रिणश्चेति कथ न लचेतसो विप्रसन्नाः, तत्सम्बन्धि मरणमप्युपचाराद्वि-| सम्यग्दृशो देशचारित्रिणो गृहिणस्तेभ्यः संयमोत्तराः सन्तु?, प्रसन्नं , न विद्यते श्राघातः तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिना-| एवं सत्यगारस्थेष्वेव तदस्त्वित्यत आह-'अगारस्थेभ्यमात्मनश्च विधिवत् संलिखितशरीरतया यस्मिस्तदनाघातं , श्व सर्वेभ्य ' इति अनुमतिवर्जसर्वोत्तमदेशविरतिप्राप्तेभ्यो:केषां पुनरिदम् ? , उच्यते-'संयतानां ' समिति-सम्यग्
पि साधवः संयमोत्तराः, परिपूर्णसंयमत्वात्तेषाम् । तथा च यतानां-पापोपरतानां , चारित्रिणामित्यर्थः । 'सीमतो वृद्धसम्प्रदायः-" एगो सावगोसाई पुच्छति-सावगाणं सात्ति 'आर्षत्त्वावश्यवतां वश्य इत्यायत्तः . स चेहाऽऽत्मा हणं किमंतरं ? , साहुणा भरणति-सरिसवमंदरंतरं , ततो इन्द्रियाणि वा , वश्यानि विद्यन्ते येषां ते अमी वश्य- सो आउलीहो पुणो पुच्छति-कुलिंगीणं सावगाण य किवन्तः तेषाम् . अयमपरः सम्प्रदायार्थः- वसंति वा सा- मंतरं ? , तेण भरणति-तदेव सरिसवमंदरं ति , ततो समाहुगुणहिं बुसीमंतः, अहवा वुसीमा-संविग्गा तेसिं ति' सासितो, जतो भणियं-" देसक्कदेसविरया, समणाणं सापतञ्चार्थात् पण्डितमरणमेव , ततोऽयमर्थः-यथैतत् संय-| वगा सुविहियाणं । जेसिं परपासंडा, संईमवि कल न तानां वश्यवतां विप्रसन्नमनाघातं च सम्भवति , न तथा- अंग्छति ॥१॥" तदनेन तेषां चारित्राभावदर्शनेन पण्डितऽपुण्यप्राणिनाम् । “अन्ते समाहिमरणं, अभब्वजीवा - मरणाभाव एव समर्थितः । इति सूत्रार्थः॥२०॥ पावेति त्ति" वचनात् , विशिष्टयोग्यताभाजामेव तत्प्राप्ति- (१२) ननु कुप्रवचनभिक्षवोऽपि विचित्रलिङ्गधारिण एवेति सम्भवात् । इति सूत्रार्थः ॥१८॥
कथं तेभ्योऽगारस्थाः संयमोत्तराः?-श्रत पाह- यथा चैतदेवं तथा दर्शयितुमाह
चीराजिणं निगिणिणं, जडीसंघाडिमुडिणं । न इमं सव्वेसु भिक्खूसुंण इमं सव्वेसु गारिसु।। एयाई पि न तायंति, दुस्सीलं परियागतं ॥२१॥ नानासीला य गारत्था, विसमसीला य मिक्खुणो ।१६।। चीराणि च-चीवराणि अजिनं च-मृगादिचर्म चीराऽजिनं, 'न' इत्यवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नैव ' इदम् ' इति प- 'णिगिणिण ति' सूत्रत्वान्नाग्न्यं 'जडि ति' भावप्रधानरिडतमरणं, ' सव्वेसु भिक्खूसुं ति ' सूत्रत्वात् सर्वेषां त्वानिर्देशस्य जटित्वं, सवाटी-वस्त्रसंहतिजनिता, 'मुंडिण भिक्षणां परदत्तोपजीविनां वतिनामिति यावत् , किन्तु-के- ति' यत्र शिखाऽपि स्वसमयतश्छिद्यते ततः प्राग्वत् , मुपाश्चिदेव परोपचितपुण्यानुभाववतां भावभिचूणां , तथा रिडत्वम् , 'एतान्यपीति' निजनिजप्रक्रियाविरचितवतिच-गृहस्थानां दुरापास्तमेव , अत एवाऽऽह-नेदं पण्डित- वेषरूपाणि लिङ्गान्यपि, किं पुनर्गार्हस्थ्यमित्यपिशब्दार्थ:। मरणं 'सब्वेसु गारिसु त्ति' सर्वेषामगारिणां गृहिणां , किमित्याह-नैव त्रायन्ते भवाद् दुष्कृतकर्मणो वेति गम्यते, चारित्रिणामेव तत्सम्भवात् , तथात्ये च-तेषामपि तत्त्व-| कीदृशम्?-दुश्शील' दुराचारम् , 'परियागयं ति'पर्यायाऽऽगतो यतित्वाद् , उभयत्र विषयसप्तम्यन्ततया वा नेयम्- तं-प्रव्रज्यापर्यायप्राप्तम्, पार्षत्वाच्च याकारस्यैकस्य लोपः, यथा चैतदेवं तथोपपत्तित श्राह-नाना अनेकविधं शीलं यद्वा-'दुस्सील परियागयं ति' मकारोऽलाक्षणिकः,ततो दु:व्रतं स्वभावो वा येषां ते नानाशीलाः , 'अगारस्था' शीलमेव दुष्टशीलाऽत्मकः पर्यायस्तमागतं दुःशीलपर्यायाssगृहस्थाः, तेषां हि नैकरूपमेव शीलं किन्त्वनेकभङ्गसम्भवा गतं, न हि कषायकलुषचेतसो बहिर्बकवृत्तिरतिकटहेतुरपि दनेकविध, देशविरतिरूपस्य तस्यानेकधाभिधानात् , स- नरकाऽऽदिकुगतिनिवारणायाऽलं, ततो नलिङ्गधारणाऽऽदिवविरतिरूपस्य च तेष्वसम्भवात् , 'विषमम् ' अतिदुर्ल
विशिष्टहेतुः । इति सूत्रार्थः॥२१॥ क्षतयाऽतिगहनं विसदृशं वा शीलमेषां विषमशीलाः, के
(१३) आह-कथं गृहायभावेऽप्यमीषां दुर्गतिरिति ?, उच्यतेत?-भिक्षवः , न हि सर्वेऽप्यनिदानिनोऽविकलचारित्रिणो पिंडोलए व दुस्सीलो, नरगाो न मुच्चद । १-पत्र पूचा चतुर्थ-पम्चम-पठाः पाः, उत्तरादेऽष्ट चाः।
1-समाश्वरत । २–सतामपि । ३-अर्धन्ति ।
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भरण
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भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कमति दिवं ||२२|| पिंडोल व ति वाशब्दोऽपिशब्दार्थः ततच' पिडिस हाते 'पिण्डयते तत्तद्गृहेभ्य श्रादाय सङ्घात्यत इति पिराडः तमवलगति - सेवते पिण्डावलगो, यः स्वयमाहाराभावतः परदत्तोपजीवी सोऽपि, आस्तां गृहादिमानित्यर्थः । दुःशीलः प्राग्वत्, 'नरकात् ' स्वकम्मोपस्थापितात् सीमस्तकादेनं मुख्यते, अथ चोदाहरणं तथाविधकः, तत्र च सम्प्रदायः - " रायगिहे रायरे एगो पिंडोलश्री उज्जाणियाएं विणिग्गए जणे भिक्खं हिंडइ, ग य तस्स केराइ किंचि दिएसोसि वेभारपण्यवक डग सन्निविद्वारा पव्यतोवरि च डिकस महति महालयं सिलं चाले, एप उचरिं पाडेमि तिरोभाई विच्छुट्टिएँ ततो खिलातो निवडतो सिलातले संसव्वातो व मरिऊण अप्पर झणे गर समुण्यची " तर्हि किमन तत्त्वतः I सुगतिहेतुरित्याह-' भिक्खाए व त्ति' भिक्षामत्ति कति वा भिक्षादो भिक्षाको, वा विकल्पे, अनेन यतिरुक्तः । गृहे तिष्ठति गृहस्थः स वा, शोभनं निरतिचारतया सम्यग्भावानुगततया च व्रतं शीलं परिपालनात्मकमस्येति सुव्रतः, 'क्रामति' गच्छति 'दिवं देवलोकं, मुख्यतो मुक्तिहेतुस्वेऽपि व्रतपरिपालनस्य दिवं क्रामतीत्यभिधानं जघन्यतोऽपि देवलोक प्राप्तिरिति ख्यापनार्थम् उक्तं हि " अविराहियसामण्ण-स्स साहुगो सागस्स य जहरणो । उववातो सोहम्मे भणितो तेलको १ ॥ अनेन परिपालनमेव तस्यतः सुगतिहेतुरित्युक्रम्। इति सूत्रार्थः ॥२२॥ (१४) यागादस्थोऽपि दिवं कामति तदकुमाहअगारिसामाइयंगाई, सड्डी का फासए । पोसहं दुह पक्खं, एगराई न हावए ॥ २३ ॥ श्रगारिणो- गृहिणः सामायिकं सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपं नस्याङ्गानि निःशङ्कताकालाध्ययनात्रतादिरूपाणि अ गारिसामायिकाङ्गानि 'सहि ति' सूत्रत्वात् श्रद्धा-रुचिरस्था ऽस्तीति श्रद्धवान् कायेनेत्युपलक्षणत्वान्मनसा वाचा च 'फासइति' स्पृशति सेचते पोप पोषः स चेह धर्मस्य तं धत्त इति पोषधः - श्राहारपोषधाऽऽदिः, तं ' दुहतो पति तत एव द्वयोरपि सितेतररूपयोः पक्षयोधनुदेशीपूर्णिमास्यादिषु तिथिषु एगराई ' ति अपेर्गस्यमानखादेरात्रमपि उपलक्षणत्वाचकदिनमपि न हावर ति न दापयति-न हानि प्रापयति रात्रिग्रहणं च दिया व्याकु लतया कर्तुमशक्नुवन् रात्रावपि पोषधं कुर्यात्, इह च सामायिकाङ्गत्वेनैव सिद्धेः, यदस्य भेदेनोपादानं तदादरख्यापनार्थमदुष्टमेव यद्वा-यत एवं गृहस्थोऽपि सुत्रतो दिवं क्रामति अतोऽमारी सामायिकाङ्गानि स्पृशेत् पोष व न हापयेदित्युपदेशपरतया व्याख्येयम् इति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ प्रस्तुतमेवार्थमुपसंहर्तुमाह
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( १२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
एवं सिक्खासमावन्नो, गिहवासेऽवि सुव्वत्र । सुचति छवि पब्चाओ, गच्छे जक्स सलोगवं ॥ २४ ॥ एवम् ' अमुनोकन्यायेन, शिक्षया - व्रतासेवनात्मिकया समापन युक्त शिक्षासमापन गृहवासेऽपि तां प्रत्रज्यापर्याय इत्यपिशम्दार्थः सुव्रतः शोभनवतो, मुख्यते१- उद्या निकायै । २ विशु ।
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मरण
कुतः ?-- पर्याणि च जानुपरादीनि विपर्व तद्योगादौदारिकशरीरमपि छविपर्व ततः, तदनन्तरं च 'गच्छेद् ' यायात् यक्षाः - देवाः समानो लोकोऽस्येति सलोकस्तद्भावः सलोकता यचैः सलोकता यज्ञसलोकता ताम् इयं च देवगतावेव भवतीत्यर्थादेवगतिमिति अनेन च प तिमरणावसरेऽपि प्रसङ्गतो वालपरितमरणमुक्रम्। इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥
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(१५) साम्प्रतं प्रस्तुतमेव पण्डितमरणं फलोपदर्शनद्वारेणाहअह जे संपुडे भिक्खु दुहमेगपरे सिया । सब्वदुक्खप्पही या देवं वावि महिडिए ।। २५ ।। 'अथ इत्युपप्रदर्शने, 'य' इत्यनुद्दिष्टनिर्देश, 'संवृत' इति पिडितसमस्तावद्वारः, 'भिक्षु रिति भावभिक्षुः स च द्वयोरन्यतरः- एकतरः स्यात् भवेद ययोर्द्वयोरन्यतरः स्यात् तावाह - सर्वाणि - शेपाणि यानि दुःखानि - क्षुत्पि पासेवियोगानएसंयोगादीनि तैः प्रकर्षेण पुनरनुपस्यात्मकेन हीनो-रहिता सर्वदुःखप्रहीणः स्वादिति सम्बन्धः । यद्वा-सर्वदुःखानि ग्रहणान्यस्येति सर्वदुःखप्रहीणः श्राहितान्यादेराकृतिगणत्यात निष्ठान्तस्य परनिपातः स च सिद्ध एव ततः स वा देवो वा श्रपिः सम्भावने, सम्भवति हि संहननादिकल्पतो मुफ्स्यनवासी देवोऽपि स्वादिति । कीदृग् ? - महती ऋद्धिः - सुखादिसम्पदस्येति महर्द्धिकः । इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥
(१६) ह गृह्णीमो देवो वा स्यादिति यत्र चासौ देवो भवति तत्र कीदृशा श्रावासाः ? कीदशाच देवा ? इत्याह-उत्तराई विमोहाई, जुइमंतागुपुव्यो ।
समाइमाइ जक्खेहिं, आवासा जसंसिणो ॥ २६ ॥ दीहाउया इड्डिता, समिदा कामरूविणो । अणोववचकासा, भुत्रो अभिमालिप्यमा ॥। २७ ॥ उत्तरा' उपरिवर्तिनोऽनुत्तरविमानाऽऽख्याः सर्वोपरिवर्तित्वात्तेषां विमोहा इव अल्पवेदाऽऽदिमोहनीयोदयतया विमोहाः, अथवा मोटो द्विधा द्रव्यतो, भावतश्च । द्रव्यतोऽन्धकारो, भावतश्च मिथ्यादर्शनादिः सद्विधोऽपि सततरत्नोद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र सम्भवेन विगतो येषु ते विमोहाः, द्युतिः- दीप्तिरन्यातिशायिनी विद्यते येषु ते वृतिमन्तः असोसि ; प्राग्वदनुपूर्वतः क्रमेण चिमोहादिविशेषविशिष्टाः सीध र्मादिषु ह्यनुत्तरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया प्रकर्षवमत्येव विमोहत्वाऽऽझनि, 'समाकीर्णाः ' व्याप्ताः, ' यतैः देवे, आसमन्ताद्वसन्ति तेष्वित्यावासा प्राकृतत्वाच सर्वत्र नपुंसकतया निर्देशः, देवास्तु तत्र यशस्विनः ' श्लाघान्विताः सागरोपमपरिमिततया रेषामिति दीर्घायुः ऋद्धिमन्तो रत्यादिसम्पदुपेताः स मिठा अतिदीसाः कामरूपिणः कामः --- अभिलापस्तेन रूपाणि कामरूपाणि तद्वन्तः विविधर्वक्रियशक्त्यन्विता इत्यर्थः । न चैतदनुत्तरेष्वनुषपणं विशेषणमिति वाच्यम् ?, विकरणशक्लेस्तत्रापि सत्त्वात् । 'अधुनोपपन्नसङ्का१- दो हमारं इति पाठान्तरम् ।
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भरण
मरण
प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि ति गम्यते । ' विशेषं प्रक्रमाद्भक्लपरिशाऽऽदिकं मरणभेदं यावदायुस्तुल्यमेव भवति भूयोऽर्चिमाविप्रभा इति भूयः शब्दः प्रासुर्वे ततः प्रभूतादित्य नोकस्यैवाऽऽदित्यस्य तादृशी द्युतिरस्तीति भूयोग्रहणम् । इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ २७ ॥
श्रादाय बुद्धया गृहीत्वाऽभ्युपगम्येति यावत् दयाप्रधानो धम्म दया दशविधयतिधर्मरूपः तस्य सम्यन्धिनी या शान्तिस्तया उपलक्षयत्वात् माचाऽऽदिभिश्च ।
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(१७) उपसंहर्तुमाह
ताणि ठाणा गच्छेति मिक्खिया संजमं तवं ।
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प्रिसीदेत् विशेषेण प्रसन्न भवेत् न तु मरणादुद्धिजेतेति भावः । 'मेधावी ' मर्यादावर्त्ती तथाभूतेन उपशान्तमोहोदयेन, यदिवा-यथैव मरणकालात्प्रागनाकुलचेता अभूत् कालेऽपि तथैवावस्थितेन तथाभूना 55त्मना स्वयमयमपरकल्पोऽपि विप्रसीदेत् कषायपङ्कापगमतः स्वच्छतां भजेत् न तु दशवर्षसंलेखनतथाविधत पस्विषनिजाङ्गलीभङ्गादिना पाचितामचलम्बेत मेधावी । किं कृत्वा तोलयित्वा बालमरणपण्डितमरणे, ततथ 'विशेष' बालमरणात् पण्डितमरणस्य विशिष्टत्वलक्षणम्, 'आदाय' गृहीत्वा, तथा दयाधर्मस्येति चशब्दस्य गम्यमानत्वात् दयाधर्म्मस्य च यतिधर्मस्य विशेषं शेषधर्म्मातिशायित्वलक्षणमादायेति सम्बन्धः । 'कया विप्रसीदेत्?क्षान्त्या तथाभूतेनेति निष्कषायेणाऽऽत्मनोपलक्षितः । इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥
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( १२३ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
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द्वादश
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खाए वा गवा, जे संति परिनिब्बुडा ॥२८॥ 'तानि ' श्रभिहितरूपाणि तिष्ठन्त्येषु, सुकृतिनो जन्तव इति स्थानानि - आवासाऽऽत्मकानि 'गन्यन्ति यान्ति, उपलक्षणत्वाद्वता गमिष्यन्ति च उपलक्षणं चैतत् सौधमदनमनस्य तत्राऽपि तेषां केषाद्रिमनसम्भवात्। 'शि क्षित्वा' अभ्यस्य, 'संयमं सप्तदशभेदं, ' तपो ' भेदं क इत्याह-' भिक्खाए वा गिहत्थे वति प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययेन भिक्षाको वा, गृहस्थो वा भावतो यतय एवेति यावत् श्रत एवाह' जे ' इति ये, न्त्या - उपशमेन परिनिर्वृताः शीतीभूता विध्यातकषायानला शान्तिपरिनिर्वृता यद्वा-ये केचन सन्ति विद्यन्ते परिनिर्वृताः अत्र च देवो वा स्यादित्येकपयनप्रक्रमेऽपि यद्वहुवचनाभिधानं नव्यास्यर्थं ततो न व एक एवेश्वरानुगृहीतः स एव सम्यग्दर्शनादिमानपि दिवं क्रामति किन्तु सर्वोऽपि इत्युक्तं भवति । इति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥
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तथा
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मरणेऽपि यथाभूता महात्मानो भवन्ति तथाऽऽह - सिं सुचा सपुजाणं, संजयाणं सीमओ ।
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ण संतसंति मरणंते, सीलवंता बहुस्सु ॥ २६ ॥ 'तेषाम् ' अनन्तरानिहितस्वरूपाणां भावभिचूणां धुत्वा' आकर्ण्य, उक्नरूपस्थानावाप्तिमिति शेषः । कीदृशाम् ? । सत्पूज्यानां सतां पूजार्हाणां सती वा पूजा येषां ते सत्पूजास्तेषां 'संयतानां संयमवतां 'वुसीमओ ति ' प्राग्वत्, 'न संत्रस्यन्ति ' नोद्विजन्ते, कदा ? - मरणे मरशेन वाऽन्तो मरणान्तस्तस्मिन् आयीचीमरणापेक्षया बा5मत्यमरणे प्राकृतत्वाच्च परनिपातः । समुपस्थित इति शेषः । शीलवन्तः ' चारित्रिहो, 'बहुधुता ' विविधाऽऽगमश्रवणावदातीकृतमतयः इदमुकं भवति य एवाविदि तथार्मिकगतयो ऽनुपार्जितधर्माराध त एव मरादुद्विज-न्ते यथाक्ास्माभिर्मृत्वा गन्तव्यमिति उपार्जितध र्माणस्तु धर्मफलमवगच्छन्तो न कुतोऽप्युद्विजन्ते, यथाक्वाऽस्माभिर्मृत्वा गन्तव्यम् । यदुक्तम् - "चरितो निरुपक्लि टो, धर्मो हि मयेति निर्वृतः स्वस्थः । मरणादपि नोद्विजते, कृतकृत्योऽस्मीति धर्माऽऽत्मा ॥ १ ॥ " इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ इत्थं सकामा काममरणस्वरूपमभिधाय
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शिष्योपदेशमाहतुलिया विसेसमायाय, दयाधम्मस्स खंतिए । विप्पसीइज्ज मेधावी तहाभृएख अप्पणा ॥ ३० ॥ 'तोलयित्या' परीवात्मानं धृतिदाऽऽदिगुणान्वितमि
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विप्रसन्नश्च यत् कुर्यात्तदाह
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तो काले अभिप्येष सट्टी तालीसमंतिए । विणएज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए ॥ ३१ ॥ 'तत्' इति कषायोपशमानन्तर काले ' मरसकाले, 'अभिप्रेते अभिरुचिते कदा च मरणमभिप्रेतम् ? यदायोगा नोत्सर्पन्ति । ' सहि त्ति' प्राग्वत् ; श्रद्धावान्, ताशमिति भयोत्थम् अन्तिके' समीपे गुरूणां मरणस्य वा चिनयेद् विनाशयेत् कम् ? –लुनाति लीयन्ते वा तेषु यूका इति लोमानि तेषां हर्षो लोमहर्षस्तं - रोमाञ्चं, हा ! मम मरणं भविष्यतीति भयाभिप्रायसम्प्राप्यं, किं च-' भेदं ' विनाशं, 'देहस्य' शरीरस्य, कादिव कालेत् त्यक्ततत्परिकर्म्मत्वात् । अथवा 'तालिसन्ति' सुव्यपयात् तादृशो दादशः प्रयस्याप्रतिपत्तिकाले लेनाकाले वा अन्तकालेऽपि तादृशः श्रद्धावान् सन् उक्कं हि“ जाए सद्धाए णिक्खतो, परियायद्वाणमुत्तमं तमेव अनुपालेज्जति । ईदृशश्च परीषहोपसर्गजं लोमहर्ष विनयेदिति सम्बन्धः । इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ (१८) निगमयितुमाह
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अह कालम्मि संपत्ते, आघायाय समुच्छ्रयं । सकाममरणं मरति, तिराहमन्नपरं मुखी ।। ३२ ।।
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अथेति ' मरणाभिप्रायानन्तरं, ' काले ' इति मरणकाले, संप्राप्ते विष्फाइया य सीसा इत्यादिना क्रमेण समायाते, ' आघायायत्ति ' श्रार्षत्वात् श्राघातयन्, संलेखना - दिभिरुपक्रमणकारः समन्ताद् घातयन् विनाशयन् के है समुच्छ्रयम्-अन्तः फार्मगशरीरं बहिरीदारिकं यद्वा'समुस्सतं ति' सुव्यत्ययात्समुच्छ्रयस्याऽऽघाताय विनाशाय, काले सम्प्राप्त इति सम्बन्धनीयम् । किमित्याह-सकामस्य उक्लनीत्या साभिलाषस्य मरणं सकाममरणं तेन नियते प्रयाणां भक्तपरिनिपादपोपगमनानामन्यतरेण, सूत्रत्वात् सर्वत्र विभव्वित्ययः । मुनिः तपस्वी । इति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ उत० ५ ०
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( १२४ ) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण (१६)साम्प्रतमुपसंहरति एवमुक्लनीत्या तेषामेकान्तवादिनां | तद्यथा-अष्टवर्षादात्रिंशतः प्रथमः,तत ऊर्द्धमाषष्टेः द्वितीयः,तन स्वाख्यातोधमोभवति, नापि शास्त्रप्रणयनेन सुप्रज्ञापितो तःऊर्द्ध तृतीय इति अतिबालवृद्धयोयुदासः। यदिवा-यम्यते भवति । किं स्वमनीषिकया भवतेदमभिधीयते ?, नेत्याह-| उपरम्यते संसारभ्रमणादेभिरिति यामाः शानदर्शनचारित्रायदिवा-किम्भूतस्तर्हि सुप्रज्ञापितो धर्मो भवतीत्याह- णीति,ते 'उदाहृता' व्याख्याताः। यदि नामैवं ततः किम् ?,.
से जहेयं भगवया पवेइयं, आसुपनेण जाणया, पा-| त्याह-'येषु' अवस्थाविशेषेषु शानाऽऽदिषु वा. 'इमे देशार्या' सया, अदुवा-गुत्ती वोगोयरस्स ति बेमि । सव्वत्थ |
अपाकृतहेयधर्मा वा, सम्बुध्यमानाः सन्तः समुत्थिताः,
के?—ये 'निर्वृताः ' क्रोधाऽऽद्यपगमेन शीतीभूताः पापेषु संमयं पावं, तमेव उवाइक्कम्म एस महं विवेगे विया
कर्मसु 'अनिदाना' निदानरहिताः, ते व्याख्याताः प्रति हिए । गामे वा, अदुवा रमे, नेव गामे, नेव रगणे, ध
पादिता इति । म्ममाऽऽयाणह । पवेइयं माहणेण मइमया । जामा तिन्नि (२०) क्व च पुनः पापकर्मखनिदाना इत्यत आहउदाहिया । जेसु इमे आयरिया संवुज्झमाणा समुट्ठिया उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ. सव्वाति च जे णिबया पावेहि कम्मेहि अणियाणा ते वियाहिया। णं पाडियकं जीवहिं कम्मसमारंभेणं तं परिबाय , (सूत्र-२००)
मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिज्जा, तद्यथा-'इदं' स्याद्वादरूपं वस्तुनो लक्षणं समस्तव्यवहाराऽ.
नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभाविजा, नेवने एएहिं नुयायि क्वचिदप्यप्रतिहतं, 'भगवता' श्रीवर्द्धमानस्वामि- काएहिं दंडं समारंभंतेऽवि समणुजाणेजा , जे वने ना, प्रवेदितम् । एतद्वा-अनन्तरोक्तं भगवता प्रवेदितमिति ? एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति ,तेसि पि वयं लज्जाकिम्भूतेनेति दर्शयति-श्राशुप्रशेन निरावरणत्वात् सततोपयुक्तनेत्यर्थः । किं योगपद्येन ?, नेति दर्शयति-' जानता'
मो, तं परिनाय मेहावी, तं वा दंडं अग्नं वा नो दंशानोपयुक्नेन, तथा-'पश्यता ' दर्शनोपयुक्तेनैतत्प्रवेदितं , | डभी दंडं समारंभिजासि त्ति वेमि । ( सूत्र-२०१ ) यथा-नैषामैकान्तवादिनां धर्मः स्वाख्यातोभवति । अथवा- विमोक्षाध्ययनोद्देशकः ८-१। गुसिर्वाग्गोचरस्य-भाषासमितिः कार्येत्येतत्प्रवेदितं भगवता। __ ऊर्द्धमधस्तिर्यग्दिक्षु 'सर्वतः' सर्वैः प्रकारैः, सर्वा याः यदिवा-अस्तिनास्तिध्रुवाभ्रुवाऽऽदिवादिनां वादायोत्थितानां काश्चन दिशः, चशब्दादनुदिशश्च, ' ण ' इति वाक्यात्रयाणां त्रिषष्टयधिकानां प्रावादुकशतानां बादलब्धिमतां लङ्कारे, 'प्रत्येकं जीवेषु' एकेन्द्रियसूक्ष्मेतराऽऽदिकेषु, यः कप्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण तदुपन्यस्तदूषणोपन्यासेन | र्मसमारम्भः जीवानुद्दिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारच तत्पराजयाऽऽपादनतस्सम्यगुत्तरं देयम्।अथवा गुप्तिर्वाग्गो- म्भः, 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, तं कर्मासमारम्भ, - चरस्य विधेयेत्येतदहं ब्रवीमि। वक्ष्यमाणं चेत्याह-तान् वादि- परिक्षया ज्ञात्वा, प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत । कोऽनो वादायोत्थितानेवं ब्रूयाद्-यथा भवतां सर्वेषामपि पृथिव्य- सौ ?- मेधावी' मर्यादाब्यवस्थित इति , कथं प्रत्याचतेजोवायुवनस्पत्यारम्भः कृतकारितानुमतिभिरनुज्ञातोऽतः क्षीत?-इत्याह-नैव स्वयमात्मना, 'पतेषु'चतुर्दशभूतग्रामासर्वत्र 'सम्मतम्' अभिप्रेतमप्रतिषिद्धं, 'पापं पापानुष्ठानं, मम वस्थितेषु, 'कायेषु' पृथिवीकायाऽऽदिषु, 'दण्डम्' उपमतु नैतत्सम्मतमित्येतद्दर्शयितुमाह-'तदेव' एतत्पापानुष्ठानमुप- दै, समारभेत, न चापरेण समारम्भयेत्, नेवान्यान् समासामीप्येनाऽतिक्रम्य-अतिलक्ष्य,यतोऽहं व्यवस्थितोऽत एष रममाणान् समनुजानीयात् , ये चान्ये दण्डं समारभन्ते, मम विवेको व्याख्यातः। तत्कथमहं सर्वा प्रतिषिद्धाऽऽस्रवद्वारैः सुब्ब्यत्ययेन तृतीयाथै षष्ठी। तैरपि वयं लज्जाम इत्येसंभाषणमपि करिष्ये ?, श्रास्तां तावद्वाद इत्येवमसमनोशवि- वं कृताध्यवसायः सन् , तज्जीवेषु कर्मसमारम्भ महते वेकं करोतीति । अत्राऽह चोदकः कथं तार्थिकाः सम्मतपापा ऽनर्थाय , परिशाय , शात्वा, 'मेधावी' मर्यादावान् , तथा अशानिनो मिथ्यादृष्टयोऽचरित्रिणोऽतपस्विनो वेति ?, तथा पूर्वोक्नं दण्डम् , अन्यद्वा-मृषावादाऽऽदिकं दण्डाद्विभेतीति हि-तेऽप्यकृष्टभूमिवनवासिनो मूलकन्दाहारा वृक्षाऽऽदिनि- दण्डभीः सन् , नो दण्डं प्राण्युपमर्दाऽऽदिकं,समारभेथाः,कबासिनश्चेति । अत्राऽहाऽऽचार्यः-नारण्यवासाऽऽदिना धर्मः, रणत्रिकयोगत्रिकेण परिहरेदिति । इतिरधिकारपरिसमाप्ती अपितु-जीवाजीवपरिज्ञानात् तत्पूर्वकानुष्ठानाच, तच तेषां ब्रवीमि । इति पूर्ववत् । विमोक्षाध्ययने प्रथमोद्देशक इति । नास्तीत्यतोऽसमनोज्ञास्ते इति। किं च सदसद्विवेकिनो हिध
(२१)साम्प्रतं द्वितीय प्रारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःमः, सच-ग्रामे वा स्यात् अथवा-अरण्ये, नैवाधारोग्रामो, नै- इहानन्तरोद्देशकेऽनघसंयमप्रतिपालनाय कुशालपरित्यागोवारण्यं धर्मनिमित्तं, यतो भगवता न वासमितरद्वाऽऽश्रित्य ऽभिहितः , स चैतावताऽकल्पनोयपरित्यागमृते न सम्पूर्णधर्मः प्रवेदितः, अपितु जीवादितत्त्वपरिज्ञानात् सम्यगनुष्ठा- तामियाद अतोऽकल्पनीयपरित्यागार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनाच्च, अतस्तं धर्ममाजानीत । 'प्रवेदितं' कथितं, 'माहणेण नेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यैतस्योद्देशकस्याऽऽदिसूत्रम्त्ति' भगवता, किम्भूतेन?, मतिमता मननं सर्वपदार्थपरिक्षानं से भिक्खू परिकमिज वा, चिट्ठिज्ज वा, निसीइज वा, मतिस्तवता मतिमता, केवलिनेत्यर्थः । किंभूतो धर्मः प्रवेदि- |
तुयट्टिज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुत इत्याह-'यामा' प्रतविशेषाः, त्रय उदाहृताः। तद्यथा-प्राणा
हंसि वा, रुक्खमलंसि वा, कुंभाराययणंसि वा, हुरतिपातो मृषावादः परिग्रहश्चेति, अदत्ताऽऽदानमैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं । यदिवा-यामा-वयोविशेषाः, त्था वा कहिचि विहरमाणं, तं भिक्खुं उवसंकमित्तु,
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(१२५) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण गाहावई व्या-अाउसंतो! समणा ! अहं खल तव | जोपसृष्टो वा अन्येभ्यो गृहिभ्यः साधास्यामीत्याच्छिन्द्याअट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा
त् । तथा-'अनिसृष्ट' परकीयं यत्तदन्तिके तिष्ठति न
च परेण तस्य निसृष्टं-दत्तं तदनिसृष्टं , तदेवंभूतमपि बत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा पा
साधोर्दानाय प्रतिपद्यते। तथा-स्वगृहादाहत्य 'चेएमि' गाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं ति, ददामि तुभ्यं वितरामि, एवमशनाऽऽदिकमुहिश्य ब्रूपामिच्चं अच्छिजं अणिसिट्ठ अभिहडं आहहु चेएमि,
यात् । तथा-' श्रावसथं वा' युष्मदाश्रयं, समुच्छृणोमिपावसहं वा समुस्सिणोमि, से भुंजह बसह,
श्रादेरारभ्याऽपूर्व करोमि, संस्कारं वा करोमि, इत्येवं प्राजउसंतो!
लिरवनतोत्तमाङ्गः सन् श्रशनाऽऽदिना निमन्त्रयेत् । यथा-भु. समणा! भिक्खू ! तं गाहावई समणसं सवयसंपडियाइक्खे ।
दवाशनाऽऽदिकं, मत्संस्कृताऽऽवसथे वस इत्यादि । द्विवचउसंतो गाहावई ! नो खलु ते वयणं आढामि, नो | नबहुवचने अप्यायोज्ये । साधुना तु-सूत्रार्थविशारदेनादीखलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुम मम अट्ठाए ।
नमनस्केन प्रतिषेधितव्यमित्याह-श्रायुष्मन् ! श्रमण !भिअसणं वा, पा० ४ वत्थं वा, प० ४ पाणाई भू०४ वा।
तो ! तं गृहपति समनसं-सवयसमन्यथाभूतं वा प्रत्या
चक्षीत । कथमिति चेद्दर्शयति-यथा आयुष्मन् ! भो गृसमारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं अच्छिजं अणिसिटुं अ
हपते ! न खलु तवैवम्भूतं वचनमहमाद्रिये , खलुशब्दोभिहडं पाहङ चेएसि,आवसहं वा समुस्सिणासि,से विरो| ऽपिशब्दार्थे, स च समुच्चये , नापि तवैतद्वचन परिआउसो ! गाहावई । एयस्स अकरणयाए । (सूत्र-२०२)
जानामि' प्रासेवनपरिक्षानेन परिविदधेऽहमित्यर्थः । यस-कृतसामायिकः सर्वसावद्याकरणतया प्रतिक्षामन्दरमा
स्त्वं मम कृतेऽशनाऽऽदिप्राण्युपमर्दैन विदधासि,यावदावसकढो, भिक्षणशीलो भितुः, भिक्षार्थमन्यकार्याय वा, पराक्रमे
थसमुच्यं विदधासि , भो आयुष्मन् ! गृहपते ! विरतःत' विहरेत् , तिष्ठेद्वा ध्यानव्यग्रो, निषीदेहा अध्ययनाध्याप
अहमेवम्भूतादनुष्ठानात् । कथम्?-एतस्य-भवदुपन्यस्तस्यानश्रवणश्रावणाऽऽदृतः, तथा-श्रान्तः क्वचिद्ध्वनाऽऽदौ
करणतयेत्यतो भवदीयमभ्युपगमं न जानेऽहमिति । त्वगवर्त्तनं वा विदध्यात् । क्वैतानि विदध्यादिति दर्शयति
(२२) तदेवं प्रसह्याशनादिसंस्कारप्रतिषेधः प्रतिपादितो 'श्मशाने वाशवानां शयनं श्मशानं पितृवनं तस्मिन् वा
यदि पुनः कश्चिद्विदितसाध्वभिप्रायः प्रच्छन्नमेव विदध्यातत्र च त्वग्वर्तनं न सम्भवत्यतो यथासम्भवं पराक्रमणाद्या.
त्तदपि कुतश्चिदुपलभ्य प्रतिषेधयेदित्याहयोज्यम् । तथाहि-गच्छवासिनस्तत्र स्थानाऽऽदिकं न कल्प
से भिक्खं परिक्कमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंची विहरते, प्रमादस्खलिताऽऽदौ व्यन्तरायुपद्रवात् । तथा जिनक- माणं तं भिक्खुं उबसंकमित्तु गाहावई आयगयाए पेहाए, ल्पार्थ सत्त्वभावनां भावयतोऽपि न पितृवनमध्ये निवासोऽ असणं वा पा०४,वत्थं प०वा ४,०जाव आह९ चेएइ। आवनुशातः, प्रतिमाप्रतिपन्नस्य तु यत्रैव सूर्योऽस्तमुपयाति तत्रै व स्थानम् । जिनकल्पिकस्य वा तदपेक्षया श्मशानसूत्रम् ।
सहं वा समुस्सिणाइ,भिरवू परिघासेडं,तं च भिक्खू जाणिएवमन्यदधि यथासम्भवमायोज्यम् । शून्यागारे वा, गिरिगु. ज्जा सहसम्मइयाए परवागरणेण अन्नेसि वा सुच्चा अयं खलु हायां वा, 'हुरत्थाव' त्ति अन्यत्र वा ग्रामादेवहिः, तं भिक्षु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा पा०४,वत्थं वा प०४,० जाव क्वचिद्विहरन्तं, गृहपतिरुपसंक्रम्य विनेयदेशं गत्वा, 'घूयाद्' वदेदिति । यच्च बृयात्तद्दयितुमाह-साधुं श्मशानाऽऽदिषु प
आवसहं वा समुस्सिणाई, तं च भिकावू पडिलेहाए आगरिक्रमणादिकां क्रियां कुर्वाणमुपसङ्क्रम्य-उपेत्य,पूर्वस्थितो
मित्ता आणविज्जा प्रणासेवणाए त्ति वेमि । (सूत्र-२०३) वा गृहस्थः प्रकृतिभद्रकोऽभ्युपेतसम्यक्त्वो वा साध्वाचारा
तं भिलु क्वचित् श्मशानाऽऽदौ विहरन्तमुपसङ्क्रम्य प्राकोविदः साधुमुद्दिश्यैतद् ब्रूयात्-यथैते लब्धापलब्धभोजिनः
जलिर्वन्दित्वा गृहपतिः प्रकृतिभद्रकाऽदिकः कश्चित् श्रात्मत्यनारम्भाः सानुक्रोशाः सत्यशुचय एतेषु निक्षिप्तमक्षयमित्य
गतया प्रेक्षयाऽनाविष्कृताभिप्रायः,केनचिदलक्ष्यमाणो यथातोऽहमेतेभ्यो दास्यामीत्यभिसंधाय साधुमुपतिष्ठते.वक्ति च
श्रहमस्य दास्यामीत्यशनाऽऽदिकं प्राण्युपमर्देनाऽऽरभेत । श्रायुष्मन् ! भोः श्रमण ! अहं संसारार्णवं समुत्तितीर्घः, 'ख
किमर्थमिति चेद्दर्शयति-तदशनाऽदिकं भिक्षु ' परिघासलुः' वाक्यालङ्कारे, 'तवार्थाय' युष्मन्निमित्तं, अशनं वा पानं
यितुं' भोजयितुं, साधुभोजनार्थमित्यर्थः । श्रावसथं च वा खादिम वा स्वादिम वा तथा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं वा कम्ब- साधुभिरधिवासयितुमिति, तदशनाऽऽदिकं साध्वर्थ निलं वा पादपुञ्छनं वा समुद्दिश्य-श्राश्रित्य, किं कुर्यादिति द
पादितं भिक्षुः 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यात् । कथमित्याह-स्वशयति-(पागाई' इति चतुप्पदोव्याख्या स्व व शब्दे ।) तान् सन्मत्या परव्याकरणेन वा तीर्थकरोपदिष्टोपायेन वा, अन्ये. प्राणाऽऽदीन् समारभ्य उपमद्य, तथाहि-अशनाऽऽद्यारम्भ भ्यो वा तत्परिजनाऽऽदिभ्यः ध्रुत्वा, जानीयादिति वर्तते, प्राण्युपमदाऽवश्यंभावी, पतञ्च समस्तं व्यस्तं वा कश्चित्प्रति- यथा श्रयं खलु गृहपतिर्मदर्थमशनाऽऽदिकं प्राण्युपमर्दन विपश्वेत,इयं चाविशुद्धिकोटिगृहीता, सा चेमा-"श्राहाकम्म. धाय मह्य ददात्यावसथं च समुच्छृणोति, तद्भिक्षुः सम्यक् इसिय-मीसजा बायरा य पाहुडिया। पूइश्र-श्रझोयरगो. 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोन्य, अवगम्य च ज्ञात्वा, 'ज्ञापयेत् तं गृ. उग्गमको-डी अछब्भेना ॥१॥ " विशुद्धिकाटि दर्श- हातम्. अनासेवनया यथा-अनेन विधानेनोपकल्पितमाहा. यति-कीतं ' मूल्येन गृहीतं, पामिञ्चति' अपरम्मादु-| राऽऽदिकं नाहं-भुजे, एवं तस्य झापनं कुर्यात्, यद्यसौ श्राच्छिन्नमुद्यतकं गृहीतं बलात्कारितया वा न्यस्मादाच्छियग वकस्ततो लेशतः पिण्डनियुक्ति कथयेद् , अन्यस्य च प्र३२
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अभिधानराजेन्द्रः। ऋतिभद्रकस्योगमाऽऽदिदोषानाविर्भावयेत् , प्रासुकदानफलं वेत्येवमुपयुज्य यथाह-यथाशक्ति चाऽऽवेदयेत् । सत्यां व च प्ररूपयेत् , यथाशक्लितो धर्मकथां च कुर्यात् । तद्यथा- शक्को पञ्चावयवेनान्यथा या वाक्येन 'अनीशम्' अनन्यस( काले देशे क०, दानं सत्पुरुष, दुःखसमुद्रं प्रा०, अ- दृशं,स्वपरपक्ष स्थापनाव्युदासद्वारेणाऽऽवेदयदिति । अथ सा वत्यैषा श्लोकत्रयी 'दाग' शब्दे ४ भागे २४१० पृष्ठेऽस्ति ) मर्थ्यविकलः स्यात् कुप्यति वा कथ्यमानेऽसावनुकूलप्रत्यइत्यादि, इतिरधिकारपरिममाप्ती, ब्रवीमीत्येतत्पूर्वोक्तम् । नीकस्ततो वाग्गुप्तिर्विधेयेत्याह-सति सामर्थ्य शृण्वति वक्ष्यमाणं चेत्याह
वा दातरि आचारगोचरमाचक्षीत । 'अथवा' इत्यन्यथाभा. भिक्खुं च खलु पुट्ठा बा, अपुट्ठा वा, जे इमे आहच्च गं
वे तु-वाग्गुप्ल्या' व्यवस्थितः सन्नात्महितमाचरन् ' गो
चरस्य' पिण्डविशुद्धद्यादेराचारगोचरस्य 'आनुपूा ' था वा फुसंति । सेहंता, हलह, खणह, छिंदह, दहह, पयह, |
उद्गमप्रश्नाऽऽदिरूपया,सम्यग् शुद्धि,प्रत्युपेक्षेत। किम्भूतः! आलुंपह , विलुपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह, ते फासे | आत्मगुप्तः सन् , सततोपयुक्त इत्यर्थः । नैतन्मयोच्यत - धीरो पुट्ठो अहियासए । अदुवा-आयारगोयरमाइक्खे त- त्याह-बुद्धेः' कल्प्याकल्प्यविधिज्ञैः, 'एतत् ' पूर्वोक्तं , कियाणमणेलिस। अदुवा-वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुव्वेण प्रवेदितम् । (अग्रेतनं सव्याख्यं सूत्रद्वयम्-'दाण' शब्दे ४
भागे २४९२ पृष्ठे, 'मज्झिमेणं ति ' सूत्रं च-'धम्म 'शब्दे सम्म पडिलेहए,आयतगुसे बुद्धेहिं एवं पवेइयं । (सूत्र-२०४)
४भागे २६७५-२६७६ पृष्ठे गतम्) 'च' समुच्चये, 'खलुः' वाक्यालङ्कारे, भिक्षणशीलो मिक्षुस्तं
(२३)केचित्तु मध्यमवयसि समुत्थिता अपि परीषहेन्द्रियैभिलु,पृष्टा कश्चित् ,यथा भो भिक्षो!भवदर्थमशनाऽऽदिकमाव
गर्लानतां नीयन्त इति दर्शयितुमाहमर्थ वा संस्करिष्येऽननुज्ञातोऽपि तेनाऽसौ तत्करोत्यवश्यमयं चाटुभिर्बलात्कारेण वा ग्राहयिष्यते । श्रपरस्त्वीषत्साध्वा
आहारोवचया देहा, परीसहपभंगुरा पासह एगे सविदिचारविधिज्ञोऽतोऽपृष्दैव छमना ग्राहयिष्यामीत्यभिसन्धाया:- एहिं परिगलायमाणेहिं । ( सूत्र-२०८) . शनाऽदिकं विदध्यात्। स च तदपरिभोगे श्रद्धाभङ्गात् चाटुश- आहारेणोपचयो येषां ते श्राहरोपचयाः, के ते ?-दिह्यन्त ताग्रहणाच्च रोषाऽऽवेशानिःसुखदुःखतया लोकशा इत्यनुश- इति देहाः, तदभावे तु म्लायन्ते म्रियन्ते वा, तथा-' परीषयाश्च राजानुसृष्टतया च न्यक्कारभावनातः प्रद्वेषमुपगतो हप्रभञ्जिनः' परीषहैः सद्भिर्भगुरा देहा भवन्ति,ततश्चाऽऽहाहननाऽऽदिकमपि कुर्यादिति दर्शयति-एकाधिकारे बहतिदे. रोपचितदेहा अपि प्राप्तपरीषहा वाताऽऽदिक्षोभेण वा पश्यत शाये इमे प्रश्नपूर्वकमप्रश्नपूर्वकं वा आहाराऽऽदिकं 'ग्रन्थात् ' यूयम्, 'एके ' क्लीबाः, सर्वैरिन्द्रियैर्लायमानैः क्लीयतामीयुः । महतो द्रव्यब्ययाद् आहृत्य दौकित्वा,पाहतग्रन्था वा,व्ययी- | तथाहि तुत्पीडितो न पश्यति, न शृणोति, न जिघ्रतीत्यादि । कृतद्रव्या वा, तदपरिभोगे 'स्पृशान्ति' उपतापयन्ति, कथ- तत्र केवलिनोऽप्याहारमन्तरेण शरीरं ग्लानभावं यायाद्, मिति चेद्दर्शयति-'स'ईश्वराऽऽदिः प्रद्विष्टः सन् , हन्ता खतो- श्रास्तां तावदपरः प्रकृतिभङ्गुरशरीर इति । स्यान्मतम्उपरांश्च हननाऽऽदौ चोदयति । तद्यथा-हतैनं साधु दण्डाss- अकेवल्यकृतार्थत्वात् खुद्वेदीयसद्भावाचाऽऽहारयति,दयादिभिः 'क्षणुत' व्यापादयत छिन्नहस्तपादाऽऽदिकं, दहत ऽऽदीनि व्रतान्यनुपालयति । केवली तु नियमात् सेत्स्यतीत्य: अग्न्यादिना, पचत उरुमांसाऽऽदिकं, भालुम्पत वस्त्रा85- तः किमर्थ शरीरं धारयति ?-तद्धरणार्थ चाऽऽहारयतीति ?, दिक, विलुम्पत सर्वस्वापहारेण , सहसा कारयत-श्राशु अत्रोच्यते-तस्याऽपि चतुष्कर्मसद्भावाश्चैकान्तेन कृतार्थता, पञ्चत्वं नयत , तथा-विविधं परामृशत नानापीअकर- तत्कृते शरीरं बिभृयात् , तद्धरणं च नाऽऽहारमन्तरेण सुगर्वाधयत, ‘तान् ' चैवम्भूतान् ' स्पर्शान् ' दुःखविशेषान् , द्वेदनीयसद्भावाञ्चेति । तथाहि-वेदनीयसद्भावात्तत्कृता 'धीरः' अक्षोभ्यः, तैः स्पर्शः 'स्पृष्टः' सन्, अधिसहेत । तथा- एकादशाऽपि परीपहाः केवलिनो व्यस्तसमस्ताः प्रादुरुष्यन्ति, अपरैः क्षुत्पिपासापरीषहैः; स्पृष्टः सन्नधिसहेत । न तु पुनरु- इत्यत आहारयत्यव केवलीति स्थितम् । अत आहारमृते पसगैः परीषहर्वा तर्जितो विक्षतामापनस्तदुद्दोशिकाऽऽदि- ग्लानतेन्द्रियाणामिति प्रतिपादितम् । कमभ्युपेयात् । अनुकूलैर्वा सान्त्ववादादिभिरुपसर्गितो ना- (२४) विदितवेद्यश्च परीषहपीडितोऽपि कि कुर्यादित्याहदद्यात्। अपितु-सति सामर्थ्ये जिनकल्पिकादन्य प्राचार
ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयने से भिक्खू गोचरमाचक्षीतेत्याह-नानाविधोपसर्गजनितान् स्पर्शानधिसहेत । 'अथवा' साधूनामाचारगोचरम्-श्राचारानुष्ठा
कालन्ने बलने मायने खणन्ने विणयन्ने समयन्ने परिग्गहं नविषयं ; मूलोत्तरगुणभेदभिन्नमाचक्षीत । न पुनर्नयैर्द्रव्य- अममायमाणे कालेणुट्ठाइ अपडिन्ने दहश्रो छित्ता नियाई। विचारम् । तत्रापि मूलगुणस्थैर्यार्थमुत्तरगुणान् तत्रापि पि- (सूत्र-२०६) गडैषणाविशुद्धिमाचक्षीत । अत्र च पिण्डैषणासूत्राणि प-|
'प्रोजः, एको रागाऽदिरहितः सन् , सत्यपि क्षुत्पिपासा ठितव्यानि । अपि च-" यत्स्वयमदुःखितं स्या-न च |
दिपरीषहे 'दयामेव दयते' कृपां पालयति, न परीषहैस्तपरदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकरं , धर्मकृते त
र्जितो दयां खण्डयतीत्यर्थः । कः पुनर्दयां पालयतीत्याह-यो हि द्भवेद्देयम् ॥१॥" किं सर्वस्य सर्व कथयेत् ?, नेति दर्श
लघुकर्मा सम्यनिधीयत-नारकाऽदिगतिषु येन तत्सन्निधायति- तर्कयित्वा' पर्यालोच्य पुरुषं, तद्यथा-कोऽयं पुरुषः |
नं कर्म, तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं तस्य, खेदो-निपुणो, कञ्चनतोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीती मध्यस्थः प्रकृतिभद्रको
यदि वा-सन्निधानस्य-कर्मणः शस्त्रं-संयमः सन्निधानश१-याकुलीभावन् ।
खं तम्य, खेननः-सम्यक मंयमभ्य वेचा, यश्च संयमाविधिक्षा
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( १२७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मरष
सभिः कालः उचिताऽनुचिता ऽवसरः एतानि च सूत्रा णि लोकविजयपथमोदेशकन्या क्यानुसारेण नेतव्यानीति । तथा - बलज्ञो मात्रशः क्षणज्ञो विनयज्ञः समयशः परिग्रहममत्वेन श्रचरन् कालेनोत्थायी श्रप्रतिज्ञः उभयतः छत्ता, स
म्भूतः संयमानुष्ठाने निश्चयेन याति निर्यातीति । ( श्रग्रेतनं सव्याख्यं सूत्रम् —' सीयफासपरीसह ' शब्दे चतुर्थीदेशकस्य चत्वारि सम्पास्यानि सूत्राणि च रथश मयते)
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(२५) वः पुनरपसरवतया भगवदुपदिएं नैव सम्यग् जानीयात्स एतदध्यवसायी स्यादित्याहजस्सं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफा अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तस्सियो सेयं जमेगे विमाइए तत्थाऽवि तस्स हु कालपरियार, सेऽवि तत्थ विअंतिकारए इच्चेयं विमोहाऽऽपत हियं सुद्धं खमं निस्से आगामियं ति बेमि । ( सूत्र–२१५ )
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राम्' इति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्षोर्मन्दसंहननतया एवम्भूतोऽयखायो भवति तद्यथा-स्पृष्टः सत्वहमस्मि रोगात है। शीतस्पर्शाऽऽदिभिर्वा वायुपसर्वा ततो म मास्मिवसरे शरीरविमोक्षं कर्त्तुं श्रेयो 'नाले 'न समर्थ - हमस्मि 'शीतस्पर्श' शीताऽऽपादितं दुःखविशेषं, भावशीतस्पर्श वा त्र्याद्युपसर्गम् ' अध्यासयितुम् ' अधिसोदुम् इस्यतो भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनमुत्सर्गतः कर्त्तुं युक्तम्: न च तस्य ममाऽस्मिन्नवसरेऽवसरो यतो मे कालक्षेपाऽसहिष्णुरुपसर्गः समुत्थितो रोगवेदनां वा चिराय सोढुं नालमतो वेहानसं गार्द्धपृष्ठं वा श्रापवादिकं मरणमत्र साम्प्रतम् । न पुनरुपसर्गितस्तदेवाभ्युपेयादित्याह 'स' साधुः, वसुद्रव्यं स चात्र संयमः स विद्यते यस्याऽसौ वसुमान्, 'सर्वस मन्वागतप्रज्ञानेनाऽऽत्मना कश्चित् ' अर्धकटाक्षनिरीक्षणादुएसर्गसम्भवे सत्यपि तदकरणतया श्रा - समन्ताद्वृत्तो- व्यव - स्थित आवृतः पदिया- शीतस्पर्श-वाताऽऽदिजनितं दुःखविशेषमसहिष्णुस्तच्चिकित्साया प्रकरणतया वसुमान्, ससमागतानेनाऽऽत्मना आवृत्ती व्यवस्थित इति स वोपसर्गितो वाताss दिवेदनां चाऽसहिष्णुः किं कुर्यादित्याहहुर्हेती, यस्माच्चिराय वाताऽऽदिवेदनां सोदुमसहिष्णुः, यदिवा - यस्मात् सीमन्तिनी उपसर्गयितुमुपस्थिता विषभक्षणोइन्धनादुपन्यासेनाऽपि न मुञ्चति ततः तपस्विनः प्रभूततरकालनानाविधोपायोपार्जिततपोधनस्य तदेव श्रेयो यदा एकः कश्चित् निजैः सपत्नीको उपचरके प्रवेशितः, आरूडप्रणयप्रेयसीप्रार्थितस्तग्निर्ममोपायमलभमान आत्मोइन्धना
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वियोगमनं तदाऽदद्यात् वि वा भवेत् पतनं वा कुर्याद्, दीर्घकालं वा शीतस्पर्शाऽऽदिकमसहिष्णुः सुदर्शनवत् प्राणान् जह्यात् । ( सुदर्शनकथाम् सुसरा शब्दे यामि) ननु च बेहानसाऽऽदिकं पालमरणमुक्रं तच्चा:मर्याय, तत्कथं तस्याऽभ्युपगमः ?, तथा चाऽऽगमः- “इच्चेप पालमरणे माजी अभिय
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मरण हहिं अप्पाणं संजोएइ ० जाव अणाइयं च गं श्रणवयग्गं चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो भुज्जो परियट्टा ति । अत्रोच्यते-नैष दोषोऽस्माकमाईतानां नैकान्ततः किचित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं या मैथुनमेकं विहाय अपि तु द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तदेव प्रतिषिध्यते, तदेव चाभ्युपगम्यते, उत्सर्गोऽप्यगुणायाऽपवादो ऽपि गुणाय कालशस्य साधोरिति । एतद्दर्शयितुमाह- दीर्घकालं संयमप्रतिपालनं विधाय संलेखनाविधना कालपर्यायेण परिक्षा 55दिमरणं गुणायेति । एवंविधे त्ववसरे तथाऽपि बेहानसगार्डपृष्ठाऽऽदिमरणेऽपि कालपर्याय एव यद्वत्कालपर्यायमरणं गुणाय एवं बेहानसा :दिकमपीत्यर्थः । बहुनाऽपि कालपर्यायेण वावमात्रं कर्माऽली उपपति, तदसावल्पेनाऽपि कालेन कर्म्मक्षयमवाप्नोतीति दर्शयति- 'सोऽपि ' बेहानसाऽऽदेर्विधाता, न केवलमानुपूर्व्या भक्तपरिशाऽऽदेः कर्त्तेत्यपिशब्दार्थः तत्र ' तस्मिन बेहानसा ऽऽदिमरले विर्थतिकारण ति विशेषेणान्तिर्व्यन्तिः - अन्तक्रिया तस्याः कारको व्यन्तिकारकः, तस्य हि तस्मिवसरे लहानसाSsदिकमौत्सर्गिकमेव मरणं, यतोऽनेनाप्यापवादिकेन मरऐनानन्ताः सिद्धाः सेत्स्यन्ति च उपसदिराह- इत्ये तत्' पूर्वोक्तं वेहानसादिमरणं, विगतमोदानां आयतनम् आधयः कर्त्तव्यतया तथा हितम् अपायपरिहारलया, त था- 'सुख' जन्मान्तरेऽपि सुखहेतुत्वात्, तथा-' क्षम' युक्तंप्राप्तकालत्वात् । तथा-निःश्रेयसं कर्म्मक्षयहेतुत्वात्, तथा'अनुगामिकं तदर्जित पुरुषाऽनुगमनात् इति ब्रवीमि शब्द पर्यवद विमोक्षाध्यवनस्य चतुर्थोदेशकः समाप्तः । श्राचा० १० ८ श्र० ४३० । ( भक्तषरिशा 'भतपञ्चकखास' शब्दे पञ्चमभागे १३५८ पृष्ठे गता )
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(२६) तस्य च भिक्षोरभिग्रहविशेषात् रूपात्रमेकं व धारयतः परिकमितमते लघुकथा कत्यभाव
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नाऽध्यवसायः स्यादिति दर्शयितुमाहजस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ एगे अहमंसि, न मे प्र त्थि कोइ, न याऽहमवि कस्स वि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा । लाघवियं श्रागममाणे तवे से - भिसमस्यागए भवइ ०जाब समवाथिया । (सूत्र -२१६) राम इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोः, ' एवं ' इति यक्ष्यमाणं भवति तद्यथा-एको मस्मि संसारे पर्यटतो न मे पारमार्थिक उपकारकर्तुत्वेन द्वितीयोऽस्ति न चाहमम्यस्य दुःखापनवनतः कस्यचिद् द्वितीय इति, स्पकृतकर्मफ लेश्वरत्वात्प्राणिनाम् । एवमसी साधुरेकाकिनमेवा ऽअमानमन्तरात्मानं सम्यगभिजानीयात् । नास्याऽऽत्मनो नरकाSSदिदुःखशतया शरल्यो द्वितीयो ऽस्तीत्येवं सन्दधानो पद्यद्रोगादिकमुपतापकारणमापयते तत्तदपरशरीनरपतो मयेरकृतं मयैव सोढव्यमित्येतद्भ्यवसायी सम्यगधिसहते । कुत एतदधि सहते ? इत्यत श्राह - ' लाघदियं इत्यादि चतुर्थीदेशकवङ्गतार्थम् यावत् सम्मतमेव समभिजाणियति' । इह द्वितीबोद्देशके उद्वमोत्पादनैषखाप्रतिपादिता । तद्यथा-" उसंतो! समा अहं तव अट्ठा असणं या पाणं वा खाइमं वा साइमं या वत्थं
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण वा पडिग्गहं वा कम्बल वा पायपुंछण वा पाणाई भूयाई | संहननाऽऽद्युपेतो महापुरुषाऽऽचीर्णमार्गानुविधायीङ्गितं जीवाई सत्ताई समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिश्चं अच्छे- मरणं कुर्यात् । जं अणिसिटुं श्राहट्ट चेपमि।" इत्यादिना ग्रन्थेनेति । त
कथं कुर्यादित्याहथा-अनन्तरोद्देशके ग्रहणैषणा प्रतिपादिता। “सिया य से | अणुपविसित्ता गाम वाणगरं वा खेडं वा कब्बडं वा एवं वयंतस्स वि परो अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइ-1
मडंब वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा सनिवेसं वा नेमं वा साइमं वा श्राइस बलपज्जा ।" इत्यादिना ग्रन्थेन । (ततो ग्रासैषणाऽवशिष्यते, अतस्तत्प्रतिपादकं सूत्रम् 'भो-|
गर्म वा रायहाणिं वा तणाई जाइज्जा, तणाई जाइत्ता से यण' शब्दे पश्चमभागे १६२७ पृष्ठे सव्याख्यमुक्तम् ) तमायाए एगंतमवक्कमिजा, एगंतमवक्कमित्ता-अप्पंडे अ(२७) तस्य चान्तप्रान्ताशितयाऽपचितमांसशोणितस्य प्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिजरदस्थिसन्ततेः क्रियाऽवसीदत्कायचेष्टस्य
गपणगदगमट्टियमक्कडासंताणए पडिलेहिय प०(२)पमजिशरीरपरित्यागवुद्धिः स्यादित्याह
य प०(२) तणाई संथरिजा,तणाई संथरित्ता-इत्थवि समए जम्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ, से गिलामि च ख-| लु अहं, इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिव
इत्तरियं कुला, तं सच्चं सच्चवाई ओए तिने छिन्नकहंहित्तए से अणुपुव्वेण आहारं संवट्टिजा । अपुग्वेणं
कहे आईयढे अणाईए चिच्चाण भेउरं कायं संविहय
विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणयाए भेरवमआहारं संवट्टिता-कसाए पयणुए किच्चा-समाहियच्चे
णुचिन्ने तत्थावि तस्स कालपरियाए० जाव अणुगामियं फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिवुडच्चे । (सूत्र-२२१)
ति बेमि । (सूत्र-२२२) विमोक्षाध्ययने षष्ठ उद्देशकः । ‘णम्' इति वाक्यालङ्कारे, यस्यैकत्वभावनाभावितस्य भिक्षोराहारोपकरणलाघवं गप्तस्य, ' एवं ' इति वक्ष्य
('गाम' यावत् 'रायहाणि' इत्यादि शब्दार्थाः स्वस्वशब्दे) माणोऽभिप्रायो, भवति । ' से ' इति तच्छब्दार्थ, तच्छ
एतेष्वेतानि वा प्रविश्य तृणानि याचेत, ततः किमित्याह-से. ब्दोऽपि वाक्योपन्यासार्थे, 'चः' शब्दः समुञ्चये, 'खलुः'
स्तारकाय प्रासुकानि दर्भवीरणाऽऽदिकानि क्वचिद्-प्रामा अवधारणे, अहं चाऽस्मिन् 'समय' अवसरे संयमावसरे,
ऽऽदौ, तृणस्वामिनमशुषिराणि तृणानि याचित्वा स तान्या
वाय 'एकान्ते' गिरिगुहादौ, अपकमेद्-गच्छेत् , एकान्तं 'ग्लायामि' ग्लानिमेव गतो रूक्षाऽऽहारतया तत्समुस्थेन वा रोगेण पीडितोऽतो न शक्नोमि रूक्षतपोभि
रहोऽपक्रम्य च प्रासुकं महास्थण्डिलं प्रत्युपेक्षते । किम्भूतं रभिनिष्टतं, 'शरीरकमा-नुपूर्व्या' यथेष्टकालाऽवश्यकक्रि
तहर्शयति-अल्पान्यण्डानि कीटिकाऽऽदीनां यत्र तदल्पाण्डे यारूपया, 'परिवोढुं' नालमहं क्रियासु व्यापारयितुम् , अ--
तस्मिन् , अल्पशब्दोऽत्राभावे वर्तते, अण्डकरहित इत्यर्थः । स्मिन्नवसरे इदं प्रतिक्षणं शीर्यमाणत्वाच्छरीरकमिति मत्वा,
तथा-अल्पाः प्राणिनो-द्वीन्द्रियाऽऽदयो यस्मिन् तत्तथा, 'स' भिसः, भानुपूर्व्या चतुर्थषष्ठाऽऽचाम्लाऽऽदिकया श्रा
तथा-अल्पानि बीजानि नीवारश्यामाकाऽऽदीनां यत्र तत्तथा हारं संवर्तयेत्' संक्षिपेत्, न पुनद्वादशसंवत्सरसंलेखनाss
तथा-अल्पानि हरितानि-दाप्रबालाऽऽदीनि यत्र तत्तथा, नुपूर्वीह गृह्यते, ग्लानस्य तावन्मात्रकालस्थितेरभावाद् । अ
तथा-'अल्पावश्याये' अधस्तनोपरितनावश्यायविपदवर्जितम्तकालयोग्ययाऽऽनुपूा द्रव्यसंलेखनार्थमाहारं नि-| ते, तथा-'अल्पोदके भौमान्तरिक्षोदकरहिते, तथा-' उत्तिारुन्ध्यादिति । द्रव्यसंलेखनया संलिख्य च यदपरं कु- पनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानरहिते' तत्रोत्तिङ्गः-पिपीलिर्यात्तदाह-पठाएमदशमद्वादशाऽऽदिकयाऽऽनुपृाऽऽहारं, कासन्तानकः, पनको-भूम्यादावुल्लिविशेषः, उदकमृत्तिकासंवर्य-कषायान् प्रतनून कृत्वा-सर्वकालं हि कषायतानवं श्राचराष्कायाऽऽद्रीकृता मृत्तिका, मर्कटसन्तानको-लूताविधेयं, विशेषतस्तु संलेखनावसरे इत्यतस्तान् प्रतनून कृ- तन्तुजालं , तदेवम्भूते महास्थण्डिले तृणानि संस्तरेत् । किं त्या सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता अर्चा शरीरं येन स समाहि- कृत्वा ?-तत् ण्डलं चक्षुषा' प्रत्युपेक्ष्य' (२) वीप्सया तार्थः, नियमितकायव्यापार इत्यर्थः । यदिवा-अर्चा-लेश्या भृशभावमाह । एवं रजोहरणाऽऽदिना'प्रमृज्य ' (२)अत्रापि सम्यगाहिता-जनिता लेश्या येन स समाहितार्थः, अतिविशु- वीप्सया भृशार्थता सूचिता । संस्तीर्य च तृणान्युच्चारप्रस्रद्धाध्यवसाय इत्यर्थः । यदिवा-अर्चा कोधाध्यवसायाऽऽत्मि वणभूमि च प्रत्युपेक्ष्य पूर्वाभिमुखसंस्तारकगतः करतललला. का ज्वाला समाहिता-उपसमिता अर्चा येन स तथा. 'फलं' टस्पर्शिधृतरजाहरणः कृतसिद्धनमस्कार श्रावर्तितपञ्चनमकर्मक्षयरूपं, तदेव फलकं तेनाऽऽपदि-संसारभ्रमणरूपा
| स्कारोऽत्रापि समये, अपिशब्दादन्यत्र वा समये, ' इत्वरम' यामर्थः-प्रयोजनं फलकापदर्थः स विद्यते यस्याऽसौ फलका- इति, पादपोपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गितपदर्थी, यदिवा-फलकवद्वास्यादिभिरुभयतो वाह्यतोऽभ्यन्त
मरणमुच्यते न तु पुनरित्वरं साकारं प्रत्याख्यानम् । साकारतश्चावकृष्टः फलकावकृष्ट इत्येवं विगृह्याऽऽर्थत्वात् 'फलगा रप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काले जिनकल्पिकाऽऽदेरसम्भवयट्ठी' इत्युक्तं, यदिवा-तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः वात् । किं पुनर्यावत्कथिकभक्तप्रत्याख्यानावसर इति । इत्वरं कषायामावतया फलकपदवतिष्ठते तच्छीलचेति फलकाव
हि रोगाऽऽतुरः श्रावको विधत्ते । तद्यथा-यद्यहमस्माद्रोगात् स्थायी, वासीचन्दनकल्प इत्यर्थः । स एवम्भूतः प्रतिदिनं पञ्चषैरहाभिर्मुक्तः स्यां ततो भोन्ये,नान्यथेत्यादि । तदेवमित्वसाकारभक्तप्रत्याख्याथी बलवति रोगावेगे उत्थाय श्रभ्युद्यत | रम् इङ्गितमरण, धृतिसंहननाऽऽदिबलोपेतः स्वकृतत्वग्वमरणोद्यम विधायाभिनिवृत्तारर्चः शरीरसन्तापरहितो धृतिः। सेनाऽऽदिाकयो यावनीवं चतुर्विधाऽऽहारनियमं कुर्यादिति।
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण उक्तं च
यो भिक्षुः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽभिग्रहविशेषादचेलो-दिग्वासाः " पच्चक्खा आहारं, चउब्बिहं णियमो गुरुसमीवे । पर्युषितः-संयमे व्यवस्थितो 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' इंगियदेसम्मि तहा,चिटुं पि हु नियमो कुणइ ॥ १॥ भिक्षोः 'एव' मिति-वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति,तद्यथा-शउब्वत्त परिश्रत्तइ, काइकम्माईऽवि अप्पणा कुणइ । को म्यहं तृणस्पर्शमपि सोढुं धृतिसंहननाापेतस्य वैराग्यभासब्यमिह अप्पच्चिश्र, रण अन्नजोगेण धितिबलिश्रो ॥२॥ | वनामावितान्तःकरणस्याऽऽगमेन प्रत्यक्षीकृतनारकतिर्यग्वेतच्चेङ्गितमरणं किम्भूतं किम्भूतश्च प्रतिपद्यत इत्याह-तद्- दनाऽनुभवस्य न मे तृणस्पर्शी महति फलविशेषेऽभ्युद्यतस्य इङ्गितमरणं सद्भयो हितं सत्यं, सुगतिगमनाविसंवादनात् किञ्चित् प्रतिभासते, तथा-शीतोष्णदंशमशकस्पर्शमधिसोसर्वज्ञोपदेशाच्च सत्य-तथ्यम् , तथा स्वतोऽपि सत्यं वदितुं | दुमिति, तथा एकतरान् अन्यतरांश्चानुकूलप्रत्यनीकान् विरूशीलमस्येति सत्यवादी,यावज्जीवं यथोक्नानुष्ठानाद्-यथाss.
परूपान् 'स्पर्शान्' दुःखविशेषानध्यासयितुं-सोढुमिति, किं रोपितप्रतिझाभारनिर्वहणादित्यर्थः,तथा ओजः' रागद्वेषरहि- त्वहं हीः-लजा तया गुप्तप्रदेशस्य प्रच्छादनं ह्रीप्रच्छादनम् ,ततः, तथा 'तीर्णः' संसारसागरं, भाविनि भूतवदुपचारात्ती- च्याहं त्यक्तुं न शक्नोमि,पतञ्च प्रकृतिलजालुकतया साधनविणवत्तीर्ण इत्यर्थः, तथा 'छिन्ना' अपनीता 'कथं' कथमपि | कृतरूपतया वा स्यात् , एवमेभिः कारणः 'से' तस्य कया 'कथा' रागकथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंक-| ल्पते-युज्यते 'कटिबन्धन 'चोलपट्टकं कर्तुम् , स च विस्त थः,यदिवा-'कथमहमिङ्गितमरणप्रतिमा निर्वहिप्ये इत्येवंरूपा रेण चतुरङ्गुलाधिको हस्तो देध्येण कटिप्रमाण इति गणनाया कथा सा छिन्ना येन स छिन्नकथंकथः, दुष्करानुष्ठानवि- | प्रमाणनैकः । पुनरेतानि कारणानि न स्युः ततोऽचेल एव पराधायी हि कथंकथी भवति,स तु पुनर्महापुरुषतया न व्याकुल
क्रमेत। तामियादितिःतथा-श्रा-समन्तादतीव इता-ज्ञाता परिच्छिन्ना
एतत्प्रतिपादयितुमाहजीवादयोऽर्था येन सोऽयमातीतार्थः श्रादत्तार्थो वा, यदिवा- _अदुवा तत्थ परकमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति अतीताः-सामस्त्येनातिक्रान्ताःअर्थाः प्रयोजनानि यस्य स त-|
सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसगफासा था, उपरतव्यापार इत्यर्थः; तथा-श्रा-समन्तादतीव इतो-|
फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेल गतोऽनाद्यनन्ते संसार प्रातः न आतीतः अनातीतः; श्रनादत्तो वा संसारो येन स तथा, संसाराणवपारगामीत्यर्थः ।
लापवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया (सूत्र-२२४) स एवम्भूत इङ्गितमरणं प्रतिपद्यते, विधिना 'त्यक्त्वा ' प्रो-| स एवं कारणसद्भावे सति वस्त्रं विभृयाद् । अथवा-नवासी ज्भाय स्वयमेव भिद्यते इति भिदुर प्रतिक्षणविशरारु 'कायं | जिहेति ततोऽचेल एव पराक्रमेत, तं च तत्र संयमेऽचलं कर्मवशाद गृहीतमौदारिकं शरीरं त्यक्त्वा, तथा 'संविध्य' | पराक्रममाण भूयः-पुनस्तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, परीघहोपसग्गान् प्रमथ्य' विरूपरूपान् 'नानाप्रकारान् सो-| तथा-शीतोष्णदशमशकस्पशाः स्पृशन्तीति,तथकतरानन्यतहा 'कस्मिन' सर्वज्ञप्रणीत भागमे विस्रम्भणतया' विश्वासा- रांश्च विरूपरूपान् स्पर्शानुदीनधिसहते असावचेलोऽचेस्पदे तदुतार्थाविसवादाध्यवसायेन भैरवं भयानकमनुष्टानं ललाघवमागमयन्नित्यादि गतार्थ यावत् ' सम्मत्तमेव समक्लीवैदुरध्यवसमिङ्गितमरणाख्यमनुार्णवान् अनुष्ठितवा- भिजाणिय त्ति'। निति. तच्च तेन यद्यपि रोगातुरतया व्यधायि तथापि तत्का
(२६) किं च-प्रतिमाप्रतिपन्न एव विशिष्टमभिग्रहं गृह्णीलपर्यायागततुल्यफलमिति दयितुमाह-तत्राऽपि रोगपी- यात् तद्यथा-अहमन्येषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेव किञ्चिद्दास्याडाहितेङ्गितमरणाभ्युपगमेऽपि, न केवल कालपर्यायेणेत्यपि- मि, तेभ्यो वा ग्रहीयामीत्येवमाकारं चतुर्भङ्गिकयाभिग्रहषिशब्दार्थः, 'तस्य' कालज्ञस्य भिक्षोरसावेच कालपर्यायः, क-| शेषमाहमक्षयस्योभयत्र समानत्वादिति, आह च-'सेवि तत्थ वियं- | जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं तिकारए' इत्यादि पूर्ववद्गतार्थम् , इति-ब्रवीमिशब्दावपि चु
भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा राणार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य षष्ठोद्देशकः समाप्तः। (२८) साम्प्रतं सप्तमव्याख्या प्रतन्यते-अस्य चायमभि
आहट्ट दलइस्सामि आहडं च साइञ्जिस्सामि। १ । जस्स सम्बन्धः-दहानन्तरोद्देशके एकत्वभावनाभावितस्य ध्रति- णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं संहननताद्युपेतस्येङ्गितमरणमभिहितम् , इह तु सैवैकत्व- असणं वा पा०४ हट्ट दलइस्सामिाहडं च नो साइजिभावना प्रतिमाभिनिष्पाद्यते इति कृत्वाऽतस्ताः प्रतिपाद्यन्ते ।
स्सामि ।२। जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अतथा विशिष्टतरसंहननोपेतश्च पादपोपगमनमपि विदध्यादित्येतञ्चत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
सणं वा पा०४ आहङ् नो दलइस्सामि आहडं च साइजि. जे भिक्खू अचेले परिखुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भ-|
स्सामि ।३। जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु वइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए सीयफासं अ
अन्नेसि भिक्खूणं असणं वा पा०४ आहढु नो दलइस्सामि हियासित्तए तेउफासं पहियासित्तए दंसमसगफासं अहि-|
आहडं च नो साइञ्जिस्सामि ।४। अहं च खलु तेण अहाइयासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए. रित्तेण अहसणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेस वा पा०४ हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं | अभिकल साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए, अहं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए।( सूत्र २२३)
वाऽवि तेण अहाइरित्तेण अहेमणिज्जेण अहापरिग्गहिएणं
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अभिधानराजेन्द्रः।
मरण असणेण वा पायेण वा०४ अभिकंख साहम्मिएहिं की-| सेऽवि तत्थ विप्रन्तिकारए इच्चेयं घिमोहाऽऽययणं हियं रमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि लापवियं आगममाणे सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं ति बेमि । (सूत्र-२२६) जाव सम्मतमेव समभिजाणिया ( सूत्र-२२५)
णमिति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्षोरेवम्भूतो वक्ष्यमाणोऽएतच्च पूर्व व्याख्यातमेव, केवलामिह संस्कृतेनोच्यते । यस्थ
भिप्रायो भवति, तद्यथा-ग्लायामि खल्वहमित्यादि यावत्तृभिक्षोरेवं भवति-वक्ष्यमाणम् , तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्यो
णानि संस्तरेत् , संस्तीर्य च तृणानि यदपरं कुर्यात्सदाह-अभिक्षुभ्योऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहृतं च स्वादयि
त्रापि समये अवसरे न केवलमन्यत्रानुशाप्य संस्तारकमाच्यामीत्येको भङ्गकः१; तथा-यस्य भिक्षोरेवं भवति तद्य
रुह्य सिद्धसमक्ष खत एव पञ्चमहावतारोपणं करोति, तत्रथा-अहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहृतं
चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचष्टे , ततः पादपोपगमनाय कायं च नो स्वादयिष्यामीति द्वितीयः २: यस्य भिक्षोरेवं भवति
च-शरीरं प्रत्याचक्षीत, तद्योगं च-आकुञ्चनप्रसारणोन्मेषनितद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्या
मेषादिकम् , तथेरणमीयां तां च सूक्ष्मां कायवाग्गतां मनोम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीति तृतीयः ३; तथा-यस्य भि
गतां वाऽप्रशस्तां प्रत्याचक्षीत, तच्च सत्यं सत्यवादीत्याद्यक्षोरेवं भवति-तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्यो भिक्षुभ्योऽशना
नन्तरोद्देशकवन्नेयम् । इति-ब्रवीमिशब्दावपि राणार्थाविति दिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति
विमोक्षाध्ययनस्य सप्तमोद्देशकः समाप्तः। ७। उक्तः सप्तमोचतुर्थः । इत्येवं चतुर्णामभिग्रहाणामन्यतरमभिग्रहं गृह्णीया
द्देशकः । त्; अथवा-एतेषामेवाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामेकपदेनैव क.
(३१) साम्प्रतमष्टम भारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःश्चिदभिग्रहं गृह्णीयादिति दर्शयितुमाह-यस्य भिक्षोरेवंभू
इहानन्तरोद्देशकेषु रोगाऽऽदिसम्भवे कालपर्यायागतं पतोऽभिग्रहविशेषो भवति, तद्यथा-अहं च खलु तेन यथा
रिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनविधानमुक्तम् , इह तु तदेवाऽतिरिक्लेन-आत्मपरिभोगाधिकेन, यथैषणीयेन यत्तेषां प्रति
नुपूर्वीविहारिणां कालपर्यायागतमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेमाप्रतिपन्नानामेषणीयमुक्तम्-तद्यथा-पञ्चसु प्राभृतिकासु अ.
नायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रमुच्यतेप्रहः द्वयोरभिग्रहः, तथा यथापरिगृहीतेन-आत्मार्थ स्वीकृते.
अनुष्टुप्नाशनादिना निर्जरामभिकाय साधर्मिकस्य वैयावृत्त्यं अणुपुब्वेण विमोहाई, जाई धीरा समासज्ज । कुर्याद्ः यद्यपि ते प्रतिमाप्रतिपन्नत्वादेकत्र न भुञ्जते तथाऽ- वसुमन्तो मइमन्तो, सव्वं नच्चा अणेलिसं ॥१॥ प्यकाभिग्रहापादितानुष्ठानत्वात् सांभोगिका भरायन्ते, अत
दविहं पि विइत्ताणं, बुद्धा धम्मरस पारगा। स्तस्य समनोज्ञस्य करणाय उपकरणार्थ वैयावृत्त्यं कुर्यामि
अणुपुवीइ संखाए, प्रारम्भाय तिउद्दई ॥२॥ त्येवंभूतमभिग्रहं कश्चिद् गृह्णाति । तथाऽपरं दर्शयितुमाहवाशब्दः पूर्वस्मात् पक्षान्तरमाह-अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे,अहं
कसाए पयरणू किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए । वा पुनस्तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेनाश- अह भिक्खू गिलाइजा, आहारस्सेव अंतियं ॥३॥ मेन पानेन खादिमेन स्वादिमेन निर्जरामभिकाच्य साध- जीवियं नाभिकंखिज्जा, मरणं नाऽवि पत्थए । म्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि-अभिलषिष्यामि
दुहोऽवि न सजिजा, जीविए मरणे तहा ।। ४ ।। यो वाऽन्यः साधर्मिकोऽन्यस्य करोति तं चानुमोदयिष्या
श्रानुपूर्वी-क्रमः, तद्यथा-प्रव्रज्या-शिक्षा-सूत्रा-ऽर्थग्रहणपरिमि-यथा सुष्टु भवता कृतमेवं भूतया वाचा, तथा कायेन
निष्ठितस्यैकाकिविहारित्वमित्यादि, यदिवा-श्रानुपूर्वी-संच प्रसन्नदृष्टिमुखेन, तथा मनसा चेतिः किमित्येवं करोति ?
लेखनाक्रमश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि , तया-आनुपूर्त्या या'लाघविकम्' इत्यादि गतार्थम् ।
न्यभिहितानि, कानि पुनस्तानि ?- 'विमोहानि' विगतो (३०) तदेवमन्यतराभिग्रहवान् भिक्षुरचेलः सचेलो या
मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा तानि, तथा-भक्तपरिशे-ङ्गितमरशरीरपीडायां सत्यामसत्यां वा श्रायुःशेषतामवगम्योद्यतमर
ण-पादपोपगमनानि यान्येवंभूतानि यथाक्रममायातानि धीण विध्यादिति दर्शयितुमाह
राः-अक्षोभ्याः समासाद्य-प्राप्य वसु-द्रव्यं संयमस्तद्वन्तो जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं
वसुमन्तः, तथा मननं मतिः हेयोपादेयहानोपादानाध्यवसाइमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से अ-| यस्तद्वन्तो तिमन्तः,तथा सर्व कन्यमकृत्यं च ज्ञात्वा यद्यस्य णुपुव्वेणं आहारं संवट्टिज्ज संवट्टिज्जा कसाए पयगुए वा भक्तपरिज्ञानादिकं मरणविधानमुचितं धृतिसंहननाद्यपे
क्षयाऽनन्यसदृशम् अद्वितीयम् ,सर्व शान्या समाधिमनुपालये किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वु
दिति॥२॥किंच-वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं तपो बाह्यमडच्चे अणुपविसित्ता गाम वा नगरं वा जाव रायहाणिं भ्यन्तरंच, तद्विदित्वा-श्रासेन्य; यदिवा-मोक्षाधिकारे विमो वा तणाई जाइजा जाव संथरिजा इत्थवि समए कायं क्लव्यं द्विविधं, तदपि वाह्य शरीरोपकरणादि अान्तरं रागादि, च जोगं च ईरियं च पञ्चक्खाइजा , तं सच्चं सच्चा
तद हेयतया विदित्वा त्यक्त्वेत्यर्थः,हेयपरित्यागफलत्वात् शावाई ओए तिने छिन्नकहकहे आइयढे अणाईए चिच्चाणं
नस्य, 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, के विदित्वा ? 'वुद्धा'
अवगततत्वाः धर्मस्य श्रुतचारित्राख्यस्य पारगाः सम्यग्वेभेउरं कार्य संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि
त्तारः, ते बुद्धा धर्मस्वरूपवेदिनः , 'आनुपर्ध्या ' प्रव्रज्यादिविस्संभणाए भेरवमणुचिने तत्थवि तस्स कालपरियाए, क्रमेण संयममनुपाल्य मम जीवतः कश्चिद् गुणो नाम्तीन्यतः
पा
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण शरीरमोक्षाऽवसरः प्राप्तः, तथा-कस्मै मरणायालमहमित्येवं | 'अन्तरद्धाए'त्ति अन्तरकालेऽर्द्धसलिखित एव देहे देही 'शात्वा' श्रारम्भणमारम्भः शरीरधारणायाऽन्नपानाद्यन्वेष- यदि कश्चित् वातादिक्षोभात् आतङ्कः आशुजीवितापहारी णाऽऽत्मकस्तस्मात् त्रुट्यति-अपगच्छतीत्यर्थः, सुव्यत्ययेन स्यात् , ततः समाधिमरणमभिकालन् तदुपशमोपायमेषणीपञ्चम्यर्थे चतुर्थी, पाठान्तरं वा 'कम्मुणाश्रो तिअट्टई कर्मा- यविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात्, पुनरपि संलिखेत् , यदिएभेदं तस्मात् त्रुटयिष्यतीति त्रुट्यति ' वर्तमानसामीप्ये वा-श्रात्मनः आयुःक्षेमस्य जीवितस्य यत्किमप्युपक्रवर्तमानवद्वा' (पा०-३-३-१३१) इत्यनेन भविष्यत्कालस्य मणम्-आयुःपुद्गलानां संवर्तनं समुपस्थितं तज्जानीत, वर्तमानता ॥२॥ स चाभ्युद्यतमरणाय संलेखनां कुर्वन् प्रधा
ततस्तस्यैव संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितमतिः नभूतां भावसंलेखनां कुर्यादित्येतदर्शयितुमाह-कषः-संसार- क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञानादिकं शिक्षेत-श्रासेवेत पण्डितोस्तस्याऽऽया:-कषाऽऽयाः क्रोधादयश्चत्वारस्तान् प्रतनून् कृ- बुद्धिमानिति ॥ ६ ॥ संलेखनाशुद्धकायश्च मरणकालं त्वा ततो यत्किञ्चनाश्नीयात् तदपि न प्रकाममिति दर्शयति- समुपस्थितं ज्ञात्वा किं कुर्यादित्याह-ग्रामः प्रतीतो ग्राम'अल्पाहारः' स्तोकाशी, षष्ठाष्टमादिसंलेखनाक्रमायातं तपः शब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः, प्रतिश्रय एव स्थरिडलं कुर्वन् यत्रापि पारयेत् तत्राप्यल्पमित्यर्थः । अल्पाहारतया च संस्तारकभुवं प्रत्युपेक्ष्य, तथाऽरण्ये वेत्यनेन चोपाश्रयाद्वक्रोधोद्भवः स्यादतस्तदुपशमो विधेय इति दर्शयति-तितिक्ष- हिरित्येतदुपलक्षितम् , उद्याने गिरिगुहायामरण्ये वा स्थते-असदृशजनादपि दुर्भाषितादि क्षमते, रोगातकं वा सम्य- ण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य-विज्ञाय चाल्पप्राण-प्राणिरहितं प्रामादि
सहत इति; तथा च संलेखनां कुर्वन्नाहारस्याल्पतया याचितानि प्रासुकानि दर्भादिमयानि तुणानि संस्तरेत् • अथे' त्यानन्तर्ये 'भिक्षुः' 'मुमुक्षुः ग्लायेत्' आहारेण विना | 'मुनिः' यथोचितकालस्य वेत्तेति ॥ ७॥ संस्तीर्य च तृणाग्लानतां व्रजेत् ,क्षणे क्षणे मूर्छ-नाहारस्यैवान्तिकं पर्यवसा- नि यत्कुर्यात्तदाह-न विद्यते आहारोऽस्येत्यनाहारः, तत्र नं व्रजेदिति, चत्वारि विकृष्टानीत्यादिसंलेखनाक्रमं विहाया- यथाशक्ति-यथासमाधानं च त्रिविधं चतुविर्थ वाऽऽहारं शनं विदध्यादित्यर्थः, यदिवा-ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्या- प्रत्याख्यायारोपितपञ्चमहाव्रतः क्षान्तः-क्षामितसमस्तप्रान्तिक-समीपं न बजेत् , तथाहि-आहारयामि तावत्कति- णिगणः समसुखदुःख श्रावर्जितपुण्यप्राग्भारतया मरणादचिहिनानि पुनः संलेखनाशेषं विधास्येऽहमित्येवं नाहारान्ति | बिभ्यत् संस्तारके त्वग्वर्त्तनं कुर्यात् , तत्र च स्पृष्टः परीकमियादिति ॥ ३॥ किं च-तत्र संलेखनायां व्यवस्थितः स- षहोपसर्गस्त्यक्तदेहतया सम्यक तानध्यासयेद्-अधिसहेत , र्वदा वा साधुर्जीवितं-प्राणधारणलक्षणं नाभिकाखेत् , नापि 'तत्र' मानुष्यैरनुकूलप्रतिकूलैः परीषहोपसर्गः, स्पृष्टो-'व्याप्तो, सुवेदनापरीषहं सहमानो मरणं प्रार्थयेद् । 'उभयतोऽपि' जी- नातिवेलमुपचरेत्-न मर्यादोल्लबन्नं कुर्यात् , पुत्रकलत्रादिविते मरणे वा, न सङ्गं विदध्यात् ॥४॥
सम्बन्धाद् नार्तध्यानवशगो भूयात्,प्रतिकूलैर्वा परीषहोपस(३२) जीविते मरणे च तथा कि भूतस्तर्हि स्यादित्याह- गर्न क्रोधनिघ्नः स्यादिति ॥८॥ मज्झत्थो निज्जराऽपेही, समाहिमणुपालए ।
___एतदेव दर्शयितुमाहअन्तो बहिं विउस्सिज्ज, अज्झत्थं सुमेसए ॥ ५॥ संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्डमहाचरा । जं किंचू-वक्कम जाणे, पाऊखेमस्समप्पणो ।
भुञ्जन्ति मंससोणियं, न छणे न पमज्जए ॥ ६ ॥ तस्सेत्र अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज्ज पण्डिए ॥६॥
पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाप्रो न वि उन्भमे । गामे वा अदुवा रगणे, थंडिलं पडिलेहिया ।
आसवेहिं विवित्तेहिं, तिप्पमाणोऽहियासए ॥ १० ॥ अप्पपाणं तु विनाय, तणाई संथरे मुणी ॥ ७॥
गन्थेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए । श्रणाहारो तुयट्टिज्जा, पुट्ठो तत्थऽहियासए ।
पग्गहियतरगं चेयं, दवियस्य वियाणओ ।। ११ ॥ नाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहि वि पुट्ठवं ।। 5॥
अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए। रागद्वेषयोमध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, यदिवा-जीवितमरण
आयवज्ज पडीयारं, विजहिज्जा तिहा तिहा ॥ १२ ॥ योनिराकाङ्कतया मध्यस्थो निर्जरामपेक्षितुं शीलमस्येति नि
संसर्पन्तीति संसर्पकाः-पिपीलिकाक्रोष्ट्रादयो ये प्राणाःजरापेक्षी , स एवंभूतः समाधि-परणसमाधिमनुपालयेत्- प्राणिनः, ये चोर्ध्वचरा-गृध्रादयः, ये चाधश्चराः बिलवाजीवितमरणाऽऽसंशारहितः कालपर्यायेण यद् मरणमापद्यते
सित्वात् सर्पादयस्त एवंभूता नानाप्रकाराः ' भुञ्जन्ते । तत् समाधिस्थोऽनुपालयेदिति भावः । अन्तः कषायान् अभ्यवहरन्ति मांसं सिंहव्याघ्रादयः, तथा शोणितं मबहिरपि शरीरोपकरणादिकं व्युत्सृज्य आत्मनि-अधि-अ- शकादयः , तांश्च प्राणिनः आहारार्थिनः समागतानवध्यात्मम्-अन्तःकरणं तच्छुद्धं सकर्मद्वन्द्वोपरमाद् विस्रोत- न्ति-सुकुमारवद्धस्ताऽऽदिभिर्न क्षणुयात्-न हन्यात् , न सिकारहितमन्वेषयेत्-प्रार्थयेदिति ॥५॥ किंच-उपक्रमणमुप- च भक्ष्यमाणं शरीरावयवं रजोहरणादिना प्रमार्जयदिति क्रमः उपायस्तं यं कञ्चन जानीत, कस्योपक्रमः ? ' श्रायु:- ॥ ६ ॥ किंच-प्राणाः-प्राणिनो देहं मम हिंसन्ति, क्षेमस्य' आयुषः क्षेमं सम्यक पालनं तस्य, कस्य सम्ब- न तु पुननिदर्शनचारित्राणीत्यतस्त्यनदेहाशिनस्तानन्तरान्धि तदायुः ?-आत्मनः, एतदुक्तं भवति-अात्मायुषो यभयाद् न निषेधयेत् , तस्माच्च स्थानान्नाप्युद्घमेत्यं क्षेमप्रतिपालनोपाख्यं जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्- नान्यत्र यायात्; किंभूतः सन् ? आश्रवैः-प्राणातिपातादिन्यापारयेत् पण्डितो-बुद्धिमान , तस्यैव संलेखनाकालस्य | भिर्विषयकषायादिभिर्वा ' विविक्तः ' पृथग्भूतैरविद्यमानैः
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मरण
अभिधानराजेन्द्रः। शुभाऽध्यवसायी तैर्भक्ष्यमाणोऽप्यमृतादिना तृष्यमाण इव सङ्कोचननिर्विरणो हस्तादिकं प्रसारयेत् ,तेमापि निर्विरण उपसम्यक् तत्कृतां वेदना तैस्तप्यमानो वाऽध्यासयेद्-अधिस- विशेत् , यथेङ्गितदेशे सश्चरेद्धा, तथाऽप्यसौ स्वकृतचेष्टत्वादहेत ॥१०॥ किं च-ग्रन्थैः सबाह्याभ्यन्तरैः शरीररागादि- गर्दा एव । किंभूत इति दर्शयति-अचलो यः समाहितः, यद्यभिः 'विविक्तः' त्यतैः सद्भिग्रन्थैर्वा अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टैरात्मानं प्यसाविङ्गितप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति तथाऽप्यभ्युभावयन् धर्मशुक्लध्यानान्यतरोपेतः 'आयुःकालस्य' मृ- द्यतमरणाद् न चलतीत्यचलः, सम्यगाहितं-व्यवस्थापितं धत्युकालस्य 'पारगः' पारगामी स्यात् , यावदन्त्या उच्छास- मध्याने शुक्लध्याने वा मनो येनस समाहितः,भावाचलितश्चेनिःश्वासास्तावत्तद्विदध्याद् , एतन्मरणविधानकारी सिद्धि; गितप्रदेशे चङ्क्रमणादिकमपि कुर्यादिति ॥१४॥ एतद् दर्शयित्रिविष्टपं वा प्राप्नुयादिति,गतं भक्तपरिशामरणम्॥ साम्प्रत- तुमाह-प्रज्ञापकापेक्षयाऽभिमुख कमणमभिक्रमणम्-संस्तारमिङ्गितमरणं श्लोकार्धादिनोच्यते तद्यथा-'प्रगृहीततरक काद् गमनमित्यर्थः, तथा-प्रतीपं-पश्चादभिमुख क्रमण प्रतिक्र. चेदम्' प्रकर्षण गृहीततरं प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततरकम् , मणमागमनमित्यर्थः,नियतदेशे गमनागमने कुर्यादिति यावत्, 'इदमिति' वक्ष्यमाणमिङ्गितमरणम् , एतद्धि भक्तप्रत्या- तथा-निष्पन्नो निषण्णो वा यथासमाधानं भुजादिकं सोचख्यानात् सकाशान्नियमेन चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानादिङ्गित- येत् प्रसारयेद्वा, किमर्थमेतदिति चेद् दर्शयति-कायस्य शरीप्रदेशसस्तारकामात्रविहाराभ्युपगमाच्च विशिष्टतरधृतिसं- रस्य प्रकृतिपेलवस्य साधारणार्थ, कायसाधारणाच तत्पीहननाद्युपेतेन प्रकर्षण गृह्यत इति, कस्यैतद्भवति ?-द्रव्यं- डाकृतायुष्कोपक्रमपरिहारेण स्वायःस्थितिक्षयाद् मरणं यथा संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकस्तस्य 'विजानतो' गी- स्यात् , न पुनस्तेषां महासत्त्वतया शरीरपीडोत्थापितचि. तार्थस्य जघन्यतोऽपि नवपूर्वविशारदस्य भवात, नाऽन्यस्ये
त्तस्यान्यथाभावः स्यादिति भावः। ननु च निरुद्धसमस्तति, अत्रापीङ्गितमरणे यत्संलेखना-तृणसंस्तारादिकमभि
कायचेष्टस्य शुष्ककाष्ठवदचेतनतया पतितस्य प्रचुरतरपुहितं तत्सर्व वाच्यम् ॥ ११॥ अयमपरो विधिरित्याह-'श्र
रायप्राग्भारोऽभिहित इति, नायं नियमः , संविशुद्धाध्यवसायं स' इति सोऽयम् ' अपरः' अन्यो भक्तप्रत्याख्यानाद्भि
यतया यथाशक्त्याऽऽरोपितभारनिर्वाहिणः तत्तुल्य एव कर्मस इङ्गितमरणस्य 'धर्मो' विशेषो 'शातपुत्रेण' वीरवर्द्ध
क्षयः अत्राप्यसौं, वाशब्दात् तत्र वा पादपोपगमनेऽचेतनवमानस्वामिना सुष्ठाहितः-उपलब्धः स्वाहितः,अस्य चानन्तरं
त्सक्रियोऽपि निष्क्रिय एव, यदि वा-अत्रापि इङ्गितमरणे वक्ष्यमाणत्वात् प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमभिधानम् , अत्रापी.
उचेतनवच्छुककाष्ठवत्सर्वक्रियारहितो यथा पादपोपगङ्गितमरणे प्रवज्यादिको विधि संलेखना च पूर्ववद् द्रष्टव्या ।
मने तथा सति सामर्थे तिष्ठेद ॥ १५॥ पतत्सामर्थ्याभावे तथोपकरणादिकं हित्वा स्थरिडलं प्रत्युपेक्ष्यालोचितप्रतिका
चैतत्कुर्यादित्याह-यदि निषण्णम्याऽनिषण्णस्य वा गात्रभङ्गः न्तः पञ्चमहावतारुढश्चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याथ संस्तारके स्यात् ततः परिकामेत् चक्रम्याद-यथा नियमिते देशेऽकुटितिष्ठति, अयमत्र विशेषः-श्रात्मवर्ज प्रतिचारम्-अङ्गव्यापार
लया गत्या गताऽऽगतानि कुर्यात् ,तेनापि श्रान्तः सन् अथविशेषेण जह्यात्-त्यजेत् 'त्रिविधत्रिविधेने 'ति-मनोवाकायैः वोपविष्टस्तिष्ठेत् , 'यथा यतो' यथाप्रणिहितगात्र इति , कृतकारितानुमतिभिः स्वब्यापारव्यतिरेकेण परित्यजेत् , यदा पुनः स्थानेनापि परिक्लममियात् तद् यथा-निपरणो वा स्वयमेव चोद्वर्तनपरिवर्तनं कायिकयोगादिकं विधत्ते ॥ १२ ॥ पर्य३ण वा अर्द्धपर्यङ्केण बोत्कुटुकासनो वा परिताम्यति तदा (३३) सर्वथा प्राणिसंरक्षण पौनःपुन्येन विधेयमिति निपराणः स्यात ,तत्राप्युत्तानको वा पार्श्वशायी वा दण्डायतो
चा लगण्डशायी वा यथासमाधानमवतिष्ठेत् ॥ १६ ॥ दर्शयितुमाहहरिएसु न निवजिज्जा, थण्डिलं मुणिया सए।
आसीणोऽणेलिसं मरणं, इंदियाणि समीरए । विप्रोसिज अणाहारो, पुट्ठो तत्थहियासए॥ १३ ॥
कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरे सए॥ १७॥ इंदिएहि गिलायन्तो, समियं श्राहरे मुणी ।
जो वजं समुप्पज्जे, न तत्थ अवलम्बए । तहा विसे अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥१४॥
तउ उक्कमे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए ॥ १८ ॥ अभिकमे पडिक्कमे, सङ्कुचए पसारए ।
अयं चा-( ययतरे ) त्ततरे सिया, जो एवमणुपालए। कायसाहारणऽट्ठाए, इत्थं वाऽवि अचेयणो ॥१५॥
सव्वगायानगेहेऽपि, ठाणाप्रो न वि उब्भमे ॥१६॥ परिकमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्ठे अहायए ।
अयं से उत्तमे धम्मे, पुन्बट्ठाणस्स पग्गहे । ठाणेण परिकिलन्ते, निसीइजा य अंतसो ।। १६ । ।
अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥ २० ॥ हरितानि-दूर्वाङ्करादीनि तेषु न शयीत, स्थण्डिलं मत्वा श- 'आसीनः'-आश्रितः, किं तत् ?-मरणम् , किंभूयीत,तथा-स वाह्याभ्यन्तरमुपधि व्युत्सृज्य त्यक्त्वाऽनाहारः । तम् ,-' अनीदशम् ' अनन्यसदृशमितरजनदुरध्यवसे-- सन् स्पृष्टः परीवहोपसगैः 'तत्र' तस्मिन् संस्तारके व्यव- यम् , तथाभूतश्च किं कुर्यादिति दर्शयति- इन्द्रियाणी. स्थितः सन् सर्वमध्यालयेद् अधिसंहेत ॥ १३॥ किं च-स यानिस्वविषयेभ्यः सकाशाद्रागडेपाकरणतया सम्यगीरानाहारतया मुनिलायमान इन्द्रियैः शमिनो भावः मि-| येत्-प्रेरयेदिति, काला-घुणकीटकास्तेपामावासः कोलावाता-समता तां साम्यं वा पारमन्याहारयेद्-व्यवस्थापयेत्-| सस्तमन्तघुणततमुद्देहिकानिचितं वा 'समासाद्य' लनाऽऽर्तध्यानोपगतो भूयादिति यथासमाधानमास्त, तद्यथा- | ध्वा तस्माद्यद्वितथम् आगन्तुकतदुत्थजन्तुरहितमवष्टम्भ
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(१३३ ) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण नाय प्रादुरेषयेत्-प्रकटं प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुपिरमन्वेषयेत्
एतदेव प्रकारान्तरेण दर्शयितुमाह॥१७॥ इङ्गितमरणे चोदनामभिधाय यनिषेध्यं तदर्शयितुमा अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं । ह-'जो गाहा' 'यतो' यस्मादनुष्ठानादवष्टम्भनादेवज्रवद्वजं |
वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा ॥ २१ ॥ गुरुत्वात्कर्म, अवद्यं वा पापं वा तत्समुत्पद्येत प्रादुःष्यात् , |
न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम्-अचेतनं जीवरहितमिन तत्र घुणक्षतकाष्ठादाववलम्बत । नावष्टम्भनादिकां क्रियां | कुर्यात् , तथा 'ततः' तस्मादुत्क्षेपणापक्षेपणादेः काययोगाद् |
त्यर्थः । तच्च स्थरिडलं फलकादि वा समासाद्य' लब्ध्वा दुष्पणिहितवाग्योगादातध्यानादि मनोयोगाचावद्यसमुत्प
फलकेऽपि समर्थः कश्चित्काष्ठे वाऽवष्टभ्य तत्राऽऽत्मानं स्थातिहेतोरात्मानमुत्कषेद्-उत्क्रामयेत् । पापोपादानादात्मानं
पयेत् । व्यवस्थाप्य च त्यक्तवतुर्विधाहारो मेरुरिव निष्पकनिवर्तयेदिति यावत् । तत्र च धृतिसंहननाद्युपेतोऽप्रतिकर्म- म्पः कृतालोचनादिपरिकर्मा गुरुभिरनुज्ञातो ध्युत्सृजेत् । शरीरः प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायकराडकोऽपूर्वापूर्वपरिणामा- 'सर्वशः' सर्वात्मना 'कार्य' देहम् । व्युत्सृष्टदेहस्य च यदि रोही सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण पदार्थस्वरूपनिरूपणाहितम-] केचन परीषहोपसर्गाः स्युस्ततो भावयेत्-'न मे देहे परीषतिः अन्यदिदं शरीरं त्याज्यमित्येवं कृताध्यवसायः सर्वान् हाः' मत्सम्बन्धी देह एव न भवति, परित्यक्तत्वात् , तदस्पर्शान् दुःखविशेषाननुकूलप्रतिक्लोपसर्गपरीषहापादि- भावे कुतः परीषहाः ?; यदिवा-न मम देहे परीषहाः । सतान्, तथा वातपित्तश्लेष्मद्वन्द्वतरमोदभूतान् कर्मक्षयायो- म्यकरणेन सहमानस्य तत्कृतपीड़योद्वेगाभावात् , अतः चतो मयैवैतदवद्य कृतं सोढव्यं चेत्येतदध्यवसायी अध्यास- परीषहान् कर्मशत्रुजयसहायानितिकृत्वाऽपरीषहान् एव येद-अधिसहेत, यतो यन्मया त्यक्तं शरीरकमेतदेवोपद्रवन्ति- मन्येत ॥२१॥ न पुनर्जिक्षितं धर्माचरणमित्याकलय्य सर्वपीडासहिष्णुर्भ ते पुनः कियन्तं कालं सोढव्या इत्याशङ्काव्युदासार्थमाहवेदिति ॥१८॥ गत इङ्गितमरणाधिकारः ॥ साम्प्रतं पादपोपग
जावजीवं परिसहा, उवसग्गा इत्ति संखाय । मनमाश्रित्याह-(अयं गाहा) अनन्तरमभिधास्यमानत्वाद्योऽ
संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेहियासए ॥ २२ ॥ यं प्रत्यक्षो मरणविधिः स चाऽऽयततरो न केवल भक्तपरिज्ञा
यावज्जीवं ' यावत् प्राण्धारणं तावत् परीषहा याः, इङ्गितमरणविधिरायततरः, अयं च तस्मादायततरः
उपसर्गाश्च सोढव्या इत्येतत् 'सङ्ख्याय' ज्ञात्वा तानइति चशब्दार्थः । श्रायततर इत्याङभिविधौ सामस्त्येन यत
ध्यासयेदिति । यदिवा-न मे यावज्जीवं परीषहोपसर्गा इत्ये. आयतः । अयमनयोरतिशवनायत आयततरः। यदिवा-श्र
तत् सङ्ख्याय-ज्ञात्वाऽधिसहेत । यदिवा-यावज्जीव' मिति । यमनयोरतिशयनात्तो-गृहीत अात्ततरः, यत्नेनाध्यवसित
यावदेव जीवितं तावत् परीषहोपसर्गजनिता पीडेति,तत्पुनः इत्यर्थः । तदेवमयं पादपोपगमनमरणविधिरात्ततरो दृढतरः
कतिपयनिमेषाऽवस्थायि । एतदवस्थस्य ममान्तमल्पमेवेस्याद् भवेत्। अत्रापि यदिङ्गितमरणे प्रव्रज्यासंलेखनादिकमुक्तं
त्यत एतत्सङ्ख्याय-ज्ञात्वा संवृतो यथानिक्षिप्तत्त्यक्तगात्रो तत्सर्व द्रष्टव्यमिति । यद्यसावायततरः ततः किमिति दर्शय
देहभेदाय शरीरत्यागायोत्थित इति कृत्वा ' प्राक्षः ' उति-यो भिक्षुः 'एवम्' उक्तविधिनैव पादपोपगमनविधिमनुपालयेत् सर्वगात्रनिरोधेऽपि, उत्तप्यमानकायोऽपि मूर्च्छन्नपि
चितविधानवेदी, यद्यत्कायपीडाकायुपतिष्ठते तत्तत्सम्यग
धिसहेत ॥ २२॥ मरणसमुद्धातगतो वा भक्ष्यमाणमांसशोणितोऽपि कोष्टगृ. धपिपीलिकादिभिर्महासत्त्वतयाऽऽशंसितमहाफलविशेषः सं.
एवम्भूतं च साधुमुपलभ्य कश्चिद्राजादि गैरुपनिमन्त्रयेत्
तत्प्रतिपादनार्थमाहस्तस्मात्स्थानात् प्रदेशात् द्रव्यतो भावतोऽपि शुभाध्यवसायस्थानान्न व्युदॆमेत्-न स्थानान्तरं यायात् ॥ १६ ॥ किं
भेउरेसु न रजिजा, कामेसु बहुतरेसु वि। च-अयमित्यन्तःकरणनिष्पन्नत्वात्प्रत्यक्षः 'उत्तमः' प्रधानो इच्छालोभं न सेविजा, धुववनं संपेहिय ॥ २३ ॥ मरणविधिः सर्वोत्तरत्वाद्धर्मो-विशेषः पादपोपगमनरूपो भेदनशीला भिदुराः शब्दादयः कामगुणास्तेषु प्रभूततरेष्यपि मरणविशेष इति । उत्तमत्वे कारणं दर्शयति-पूर्वस्थानस्य 'नरज्येत्नरागं यायात्। पाठान्तरं वा-कामेसु बहुलेसु वि' प्रग्रह' इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी। पूर्वस्थानाद्भक्तपरिक्षेङ्गितमरणरू- इच्छामदनरूपेषु कामेषु बहुलेषु-अनल्पेष्यपीत्यर्थः । यद्यपि पात्प्रकर्षेण ग्रहोऽत्र पादपोपगमने प्रगृहीततरमेतदित्यर्थः। राजा राज्यकन्यादानादिनोपप्रलोभयेत् तथापि तत्र न गातथाहि-अत्र यदिङ्गितमरणानुमतं कायपरिस्पन्दनं तदपि यमियात् । तथा इच्छारूपो लोभ इच्छालोभः चक्रवर्तीनिषेध्यते अच्छिन्नमूलपादपवनिश्चेष्टो निष्क्रियो दह्यमानश्छि न्द्रत्वाद्यभिलाषादिको निदानविशेषस्तमसौ निर्जरापेक्षी न धमानो वा विषमपतितो वा तथैवास्ते न तस्मात्स्थानाच सेवेत, सुरद्धिदर्शनमोहितो ब्रह्मदत्तवन्निदान न कुर्यादित्यलति, चिलातपुत्रवत् । एतदेव दर्शयति-अचिरं स्थानं, तच्च र्थः । (ब्रह्मदत्तकथा 'बंभदत्त' शब्दे पञ्चमभागे १२७१ पृष्ठे स्थरिडलं तत्पूर्वविधिना प्रत्युपेक्ष्य तस्मिन् प्रत्युपेक्षिते स्थ- गता) तथा चागमः- इह लोगाऽऽसंसप्पओगे १ परलोरिडले विहरेदिति । अत्र पादपोपगमनाधिकाराद विहरण गासंसप्पयोगेर जीवियासंसप्पभोगे ३ मरणासंसप्पोगे ४ तद्विधिपालनमुक्तम्। तच्च स्थानात् स्थानान्तरसंक्रमणम् । ए. कामभोगासंसप्पोगे ५" इत्यादि, 'वर्णः' संयमो मोक्षो तदेव च दर्शयति-तिष्ठेत् सर्वगात्रनिरोधेऽपि स्थानान्तरास वा स च सूदमो दुज्ञेयत्वात् पाठान्तरं वा 'धुववन्न' मि
क्रमणं कुर्यादित्यर्थः । कोऽसौ ?'माहणे' त्ति साधुः। स हि त्यादि। धवः-अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुयवर्णस्तं संप्रेनिषाणो निषण्ण ऊर्ध्वस्थितो वा निष्पतिका यद्यथा निक्षि क्ष्य ध्रुवां वा शाश्वती यश-कीर्ति पर्यालोच्य कामेच्छालोभप्तमङ्गमचेतन इव न चालयदिति यावत् ॥ २० ॥
विक्षेपं कुर्यादिति ॥ २३॥
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण किंच
रित्यर्थः । यथा राधावेधः सकारणं राज्यादिलाभकृते केसासएहिं निमन्तिजा, दिवं मायं न सद्दहे । नापि साध्यते एवं चन्द्रकवेध्यमिवानशनं सकारण मोक्षातं पडिवुझ माहणे, सव्वं नूमं विहूणिय ॥ २४ ॥
दिलाभकृते सावधानेन साधयितव्यमिति भावः। तत्साधनो शाश्वता यावज्जीवम् अपरिक्षयात् प्रतिदिनदा
पायश्चायमित्याह-'जीवो' जीव प्रात्मा अविरहितगुणोऽमुनाद् वाऽस्तैिस्तथाभूतैर्विमवैः कश्चिनिमन्त्रयेत् तत्प्र
कक्षानदर्शनचारित्रगुणः कर्त्तव्यः। क्व? मोक्षमार्गज्ञानदर्शनचा तिबुध्यस्व-यथा शरीराऽथ धनं मृग्यते तदेव शरीर
रित्रतपोरूपे । तद्व्यवस्थितो हि चन्द्रकवेध्यसमा प्रान्तारामशाश्वतमिति । तथा दिव्यां मायां न श्रद्दधीत। तद्यथा- यदि धनां साधयतीत्यर्थः ॥ ६८ ॥ श्रातु। (अत्र विशेषः 'अणकश्चिद्देवो मीमांसया प्रत्यनीकतया वा भक्त्या वाऽन्यथा वा सण' शब्दे प्रथमभागे ३०२ पृष्ठे गतः)। कौतुकादिना नानचिदानतो निमन्त्रयेत् , तां च तन्कृतां
(३४) अत्र मरणविधिर्जिनपतिप्रकीर्णकान्तर्गते दशमे मायां न श्रद्दधीत । तथा बुध्यस्व-यथा देवमायैषा, अन्यथा
मरणविधिप्रकीर्णके उक्तस्तद्यथाकुतोऽयमाकस्मिकःपुरुषो दुर्लभमेतद् द्रव्यं प्रभूततरमेवंभूते क्षेत्रे काले भावे च दद्यात् ?, एवं द्रव्यादिनिरूपणया देव
तिहुयणसरीरिवंदं, सप्पवयणरयणमंगलं नमिउं । मायां बुध्यस्व इति । तथा देवाऽङ्गना वा यदि दिव्यं रूपं वि. समणस्स उत्तमऽढे, मरणविहीसंगहं बुच्छं ॥१॥ धाय प्रार्थयेत् तामपि बुध्यस्वेति । ' माहणे ' त्ति साधुः सुणह सुयसारनिहसं, ससमयपरसमयवायनिम्मायं । 'सर्वम्' अशेषं 'नूमं' ति कर्म मायां वा तत् तां वा 'वि- सीसो समणगुणऽटुं, परिपुच्छइ वायगं कंचि ॥ २ ॥ धूय' अपनीय देवादिमायां वुध्यस्वेति क्रिया ॥ २४ ॥
अभिजाइसत्तविकम-सुयसीलविमुत्तिखंतिगुणकलियं । किञ्चसबढेहि अमुच्छिए, उकालस्स पारए ।
आयारविणयमद्दव-विजाचरणागरमुदारं ॥३॥ तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं ॥२५॥ति बेमि।
कित्तीगुणगब्भहरं, जसखााणं तवनिहिं सुयसमिद्धं । सर्वे च तेऽर्थाश्च सर्वार्थाः, पञ्चप्रकाराः कामगुणास्तत्सम्पा
सीलगुणनाणदंसण-चरित्तरयणाऽऽगरं धीरं ॥ ४ ॥ दका वा द्रव्यनिचयास्तैस्तेषु वा अमूञ्छितः-अनध्युपपन्नः । तिविहं तिकरणसुद्ध, मयरहियं दुविहठाणपुणरत्तं । श्रायुःकालस्य यावन्मानं कालमायुः संतिष्ठते असौ आयुः- विणयेण कमविसुद्धं, चउस्सिरं वारसावत्तं ॥ ५ ॥ कालस्तस्य पारम्-आयुष्कपुद्गलानां क्षयो-मरणं तद्गच्छतीति पारगः । यथोक्तावधिना पादपोपगमनव्यवस्थितः प्रवर्द्ध
दुओणयं अहाजायं, एयं काउण तस्स किइकम्मं । मानशुभाध्यवसायः स्वायुःकालान्तगः स्यादिति । तदेवं पाद
भत्तीइभरियहियो, हरिसवसुभिन्नरोमंचो ॥ ६ ॥ पोपनमनविधि परिसमापय्योपसंहारद्वारेण त्रयाणामपि म- उवदेसहेउकुसलं, तं पवयणरयणसिरिघरं भणइ । रणानां कालक्षेत्रपुरुषावस्थाश्रयणात् तुल्यकक्षतां पश्चार्धेन द- इच्छामि जाणिउं जे, मरणसमाहिं समासेणं ॥ ७॥ शर्मति-तितिक्षा-परीयहोपसर्गापादितदुःखविशेषसहनं तत्
अब्भुज्जुयं विहारं, इच्छं जिणदेसियंविउपसत्थं । प्रयाणामपि परम-प्रधानमस्तीति ज्ञात्वा-अवधार्य 'विमोहान्यतरं हित' मिति । विगतो मोहो येषु तानि विमोहानि।
नाउं महापुरिसदे-सियं तु अब्भुज्जुयं मरणं ॥८॥ भक्तपरिशे-ङ्गितमरण पादपोपगमनानि तेषामन्यतरत् काल- तुज्झित्थ सामि सुअजल-हिपारगा समणसंघनिजवया। क्षेत्रादिकमाश्रित्य तुल्यफलत्वाद्धितम् अभिप्रेतार्थसाधनादतो
तुझं खु पायमले, सामन्नं उजमिस्सामि ॥४॥ यथाशक्तित्रयाणामन्यतरत् तुल्यबलत्वाद् यथावसर विधेयम्।
सो भरियमहुरजलहर-गंभीरसरो निसन्नो भणइ । इतिः अधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयविचारादिकमनुगतं वक्ष्यमाणं च द्रष्टव्यमिति । श्राचा०१श्रु०८०
सण दाणि धम्मवच्छल-मरणसमाहिं समासेणं ॥१०॥ ८ उ०। (मारणान्तिकसमुद्धातवक्तव्यता 'मारणंतियसमु- सुण जह पच्छिमकाले, पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं । ग्याय'शब्द) ('संथार' शब्दे 'संलेहणा' शब्देऽपि च किंचिद् पच्छा निच्छिय पच्छं, उविंति अब्भुज्जुयं मरणं ॥११॥ वक्ष्यामि) (अभुजयमरण'शब्दे प्रथमभागे ६६३ पृष्ठे अब्भु
पव्वजाई सव्वं, काऊणाऽऽलोअणं च सुविसुद्धं । द्यतमरणवक्तव्यता) यत एवं ततः किं कर्त्तव्यम् ? इति गुरुरुपदेशमाह
दंसणनाणचरित्ते,निस्सल्लो विहर चिरकालं ॥ १२॥ तम्हा चंदगविज्झ, सकारणं उज्जुएण पुरिसेणं ।
आउव्वयसमनी, तिगिच्छए जह विसारो विओ । जीवो अविरहियगुणो, कायव्यो मुक्खमग्गम्मि ॥६॥
रोगाऽऽयंकाऽऽगहिओ, सो निरुयं श्राउरं कुणइ ॥१३॥ 'तम्हा' तस्मात्कारणात् चन्द्रकवेध्यं-वामदक्षिणावर्त्त- एवं पवयणसुयसा-पारगो सो चरित्तसुद्धीए । भ्रमदष्टवक्राऽऽरकमध्यनिर्गच्छदूर्द्धमुखशरप्रयोगतो भूस्थकु- पायच्छित्त विहिन्नू, तं अणगारं विसोहेइ ॥ १४ ॥ रिडकागततेलान्तःप्रतिविम्बितगगनस्थाधोमुखपुत्तलिकावा मलोचनरूपश्चन्द्रकस्तद्रूपं वेध्यं राधावेध इत्यर्थः । साध्य
(सम्यक्त्वाऽऽराधकविषयिका अत्रत्याश्चतस्रोगाथाः श्रामित्यध्याहारः । केन पुरुषेण । किंभूतेन उद्युक्तेन-उद्यमवता
राहणा' शब्दे द्वितीयभागे ३८५ पृष्ठे उक्ताः ।) सावधानेनेत्यर्थः । कथं? सकारणं स्वर्गापवर्गादिश्रीलाभहेतो.| अरहंतसिद्धचेइय-गुरुसु सुयधम्मसाहुवग्गे य ।
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण आयरियउवज्झाए, पव्वयणे सब्बसंघे य ॥ १६ ॥ ते सुविसुद्धचरित्ता, करंति दुक्खक्खयं साहू ।। ५६ ॥ एएमु भत्तिजुत्ता, पूयंता अहरहं अणममणा । पुबमकारियजोगो, समाहिकामोऽवि मरणकालम्मि । सम्मत्तमणुसरंता, परित्तसंसारिया हुंति ॥२०॥ न भवइ परीसहसहो, विसयसुहपराइओ जीवो ॥५७।। सुविहिय इमं पइम्मं, असदहंतेहि ऽणेगजीवहिं ।
तं एवं जाणतो, महंतरं लाहगं सुविहिए। बालमरणाणि तीए,मयाइँ काले अणंताई ॥ २१॥
दसणचरित्तसुद्धी, निस्सल्लो विहर तं धीर ! ।। ५७ ।। एगं पंडियमरणं, मरिऊण पुणो बहूणि मरणाणि ।
इत्थ पुण भावणाओ, पंच इमा हुंति संकिलिट्ठाओ। न मरंति अप्पमत्ता, चरित्तमाराहियं जेहिं ॥ २२॥
आराहिंत सुविहिया, जा निचं वञ्जिणिजाओ ॥ ५ ॥ दुविहम्मि अहक्खाए, सुसंबुडा पुव्वसंगो मुक्का ।
कंदप्पा देवकिब्बिस-अभियोगा आसुरी य संमोहा । जे उ चयंति सरीरं, पंडियमरणं मयं तेहिं ॥ २३॥
एयाओं संकिलिट्ठा, असंकिलिट्ठा हवइ छट्ठा ॥६०॥ एयं पंडियमरणं, जे धीरा उवगया उवाएणं ।
कंदप्पा कोकुइया, दवसीलो निच्च हासणकहाश्रो । तस्स उवाए उ इमा, परिकम्म विहीउ जुजीया ॥२४॥
विम्हावितो उ परं, कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ ६१ ॥ जे कुम्म(केस)संखताडण-मारुअजिअगगणपंकयतरूणं ।
नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहूणं ।
माई अवमवाई, किबिसियं भावणं कुणइ ॥६२॥ सरिकप्पासुयकप्पिय-आहारविहारचिट्ठागा ॥ २५ ॥
मंताऽभियोगं कोउग, भूईकम्मं च जो जणे कुणइ । निच्चं तिदंडविरया, तिगुत्तिगुत्ता तिसल्लनिस्सल्ला।
सायरसइड्डिहेडं, अभियोगं भावणं कुणइ ॥ ६३ ॥ तिविहेण अप्पमत्ता,जगजीवदयावरा समणा ॥ २६ ॥
अणुवद्धरोसवुग्गह-संपत्त तहा निमित्तपडिसेवी । (अत्रत्या वक्तव्यता 'आराहग' शब्दे द्वितीयभागे ३७७ | पृष्ठे उक्ला तत पवावसेया।)
एएहि कारणेहिं, आसुरियं भावणं कुणइ ॥ ६४ ।। फासेहिं ति चरितं, सव्वं सुहसीलयं पजहिऊणं । उम्मग्गदेसणा णा-ण-दूसणा मग्गविप्पणासो अ। घोरं परीसहचर्मु, अहियासिंतो धिइबलेणं ।। ४५ ।। मोहेण मोहयंत-सि भावणं जाण संमोह ॥ ६५ ॥ सद्दे रूवे गंधे, रसे य फासे य निग्घिणधिईए ।
एयाउ पंच वजिय, इणमो छट्ठाइँ विहर तं धीर ।। सव्वेसु कसाएसु य, निहंतु परमोसया होहि ॥ ४६॥
पंचसमिओ तिगुत्तो, निस्संगो सव्वसंगहि ॥ ६६ ॥ चइऊण कसाए ई-दिए य सव्वे य गारवे हेतुं। एयाएँ भावणाए, विहरविशुद्धाइ दीहकालम्मि । तो मलियरागदोसो, करेह आराहणासुद्धिं ॥४७॥ ।
काऊण अंतसुद्धि, दंसणनाणे चरित्ते य ॥६७।। दंसणनाणचरित्ते, पव्वज्जाईसु जो अईयारो।। पंचविहं जे सुद्धिं, पंचविहविवेगसंजुयमकाउं । तं सव्वं आलोयहि, निरवसेसं पणिहियप्पा ॥४८॥ इह उवणमंति मरणं, ते उ समाहिं न पाविति ॥६॥ जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणद्दिओ होइ ।
पंचविहं जे सुद्धि, पत्ता निखिलेण निच्छियमईया । तह चेव उद्धियम्मि उ, नीसल्लो निव्वत्रो होइ॥४६॥ पंचविहं च विवेगं, ते हु समाहिं परं पत्ता ॥६६॥ एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेण दुक्खिो होइ । लहिऊणं संसारे, सुदुल्लहं कहं वि माणुसं जम्मं । सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वओ होइ ॥ ५० ॥ न लहंति मरणदुलहं, जीवा धम्मं जिणक्खायं ॥७॥ रागहोसाऽभिहया, ससल्लमरणं मरंति जे मूढा । किच्छाहि पावियम्मि वि, सामने कम्मसत्तिोसना । ते दुक्खसल्लबहुला, भमंति संसारकंतारे ॥ ५१ ।। सीयंति सायदुलहा, पंकासन्नो जहा नागो ॥ ७१ ॥ जे पुण तिगारवजढा, नीसल्ला दंसणे चरित्ते य ।। जह कागणीइ हेउं, मणिरयणाणं तु हारए कोडिं । विहरंति मुक्कसंगा, खवंति ते सव्वदुक्खाई ५२॥ तह सिद्धसुहपरुक्खा, अबुहा र(स)जंति कामसुं ॥७२॥ सुचरमवि संकिलिहूं, विहरितं माणसंवरविहीणं । चोरो रक्खसपहओ, अत्थऽथी हणइ पंथियं मूढो । नाणी संवर जुत्तो, जिणइ अहोरत्तमित्तेणं ॥ ५३ ॥ इय लिंगी सुहरक्खस-पहओ विसयाउरो धम्मं ॥७३॥ जं निजरेइ कम्मं, असंवुडो सुबहुणा वि कालेणं । तेसु वि अलद्धपसरा, अवियाहा दुक्खिया गयमईया । तं संवुडो तिगुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥ ५४॥ समुर्विति मरणकाले, पगामभयभेरवं गरगं ॥ ७४ ॥ सुबहुस्सुयाऽवि संता, जे मूढा सीलसंजमगुणेहिं । धम्मो न कओ साहू, न जेमिओ न नियंसियं सएहं । न करंति भावसुद्धिं, ते दुक्खनिभेलणा हुँति ॥५॥ इपिंह परंपरासु-त्ति य नेवय पत्ताइँ सुक्खाई ॥ ७५ ॥ जे पुण सुयसंपन्ना, चरित्तदोसेहि नोवलिप्पंति । साहूणं नोवकयं, परलोअच्छेयसंजमो न करो।
.
ता
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण दुहनो वितश्रो विहलो,अह जम्मो धम्मरुक्खाणं ॥७६॥ तं संखेवा दुविहं, दव्बे भावे य वोद्धव्वं ॥६६॥ दिक्खं मइलेमाणा, मोहमहावत्तसागराभिहया । वि(ति)विहं तु भावसल्लं, दंसणनाणे चरित्तजोगे य । तस्स अपडिकमंता, मरंति ते बालमरणाई ॥ ७७ ॥ सच्चित्ताऽचित्तेऽपि य, मीसए याऽवि दवम्मि ॥९७|| इय अवि मोहपउत्ता, मोहं मुत्तूण गुरुसगासम्मि। । मुहुमं पि भावसल्लं, अणुद्धरित्ता उ जो कुणइ कालं । आलोइय निस्सल्ला, मरिउं पाराहगा तेऽवि ।। ७८ ॥ लज्जाए गारवेश य,न हु सो आराहओ भणिो ॥६॥ इत्थ विसेसो भन्मइ, छलणा अवि नाम हुञ्ज जिणकप्पो । तिविहं पि भावसल्लं, समुद्धरित्ता उ जो कुणइ कालं । किं पुण इयरमुणीणं, तेण विही देसिओ इणमो ॥७॥ पव्यज्जाई सम्म, स होइ अाराहो मरणे ॥ १६ ॥ अप्पविहीणा जाहे, धीरा सुयसारझरियपरमत्था ।। तम्हा सुत्तरमूलं, अविकूलमविदुयं अणुबिग्गो। ते पायरियविदिन, उविति अब्भुजयं मरणं ॥८॥ निम्मोहियमणिगूढं, सम्मं आलोपए सव्वं ॥१०॥ आलोयणाइ संले-हणाइ खमणाइ काल उस्सग्गे । जह बालो जंपतो, कजमकज्जं च उज्जुयं भणइ । उग्गासे संथारे, निसग्ग वेरग्ग मुक्खाए॥८१॥ तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ ॥११॥ झाणविसेसो लेसा, सम्मत्तं पायगमणयं चेव ।
कयपावोऽवि मरणूसो, आलोइय निंदिउं गुरुसगासे । चउदसओ एस विही, पढमो मरणम्मि नायब्बो ॥२॥ होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरु व्व भारवहो॥१०२॥ विणओवयारमाण-स्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स । लज्जाए गारवेण य, जे नाऽऽलोयति गुरुसगासम्मि । तित्थयराण य आणा,सुयधम्माराहणाऽकिरिया ॥३॥ धम्मं तं पि सुयसमिद्धा, न हु ते बाराहगा हुंति ॥१०३॥ छत्तीसा ठाणेसु य, जे पवयणसारझरियपरमत्था । जह सुकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं । तेसिं पासे सोही, पनत्ता धीरपुरिसेहिं ॥ ८४॥
तं तह आलोयचं, सुट्टऽवि ववहारकुसलेणं ।। १०४ ॥ वयछक्कक्कायछकं, वारसगं तह अकप्प गिहिभाणं । जं पुव्वं तं पुन्वं, जहाणुपुन्धि जहक्कम सव्वं । पलियंक गिहिनिसिजा,ससोभ पलिमजण सिणाणं ।।५।।
आलोइज्ज सुविहिओ, कमकालविहिं अभिदंतो॥१०॥ यारवं च उवधा-रवं च ववहारविहिविहिन्नू य ।
अत्तंपरजोगेहि य, एवं समुवट्ठिए पोगेहिं । उब्बीलगा य धीरा, परूवणाए विहिएणू य ॥८६॥
अमुगेहि य अमुगेहि य, अमुयगसंठाणकरणेहिं ॥१०६।। तह य अवायविहिएणू,निजवगा जिणमयम्मि गहियत्था |
वमेहि य गंधेहि य, सदफरिसरसरूवगंधेहिं । अपरिस्साई य तहा, विस्सासरहस्सनिच्छिड्डा ॥८७॥
पडिसेवणा कया पज-वेहि कया जेहि यजहिं च ।१०७। पढमं अट्ठारसगं, अट्ठ य ठाणाणि एव भणियाणि ।
जो जोगयो अपरिणा-मो-अदंसणचरित्तअइयारो। इत्तो दस ठाणाणि य, जेसु उट्ठावणा भणिया ।। ८८॥
छट्ठाणबाहिरो वा, छट्ठाणऽउंभतरो वाऽवि ॥१०८॥ अणवट्ठतिगं पारं-चिगं च तिगमेय छहि गिहीभूया ।
तं उज्जुभावपरिणउ, रागं दोसं च पयणु काऊणं । जाणंति जे उ एए-सुअरयणकरंडगा सूरी ॥८६॥
तिविहेण उद्धरिज्जा, गुरुपामले अगूहिंतो ॥१०॥ सम्मईसणचत्तं, जे य बियाणंति आगमविहिन्न । न वितं सत्थं च विसं.च दुप्पउत्तु व्व कुणइ वेयालो। जाणंति चरित्ताओ, अनिग्गयं अपरिसेसाओ ॥१०॥
जं तं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥ ११०॥ जो आरंभे बट्टइ, चिअत्तकिच्चो अणणुतावी य । जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमढकालम्मि । सोगो य भवेदसमो, जेसूबट्ठावणा भणिया॥११॥ दुल्लहवोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च ।। १११ ॥ एएमु विहिविहएणू , छत्तीसा ठाणएसु जे सूरी । तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं । ते पवयणसुहकेऊ, छत्तीसगुण त्ति नायब्धो ॥१२॥
मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च ।। ११२ ॥ तेसिं मेरुमहोयहि-मेयाणि-ससि-सूर-सरिसकप्पाणं ।
रागेण व दोसेण व, भएण हासेण तह पमाएणं । पायमूले य विसोही, करणिज्जा सुविहियजणेणं ॥६॥ रोगेणाऽऽयंकेण व, वत्तीइ पराभियोगेणं ॥ ११३॥ काइयवाइयमाणसि-यसेवण दुप्पोगसंभूयं ।
गिहिविज्जापडिएण व, सपक्खपरधम्मिनोवसग्गेणं । जो अइयारो कोई, तं आलोए अगूहिंतो ॥६४ ॥ तिरियंजाणिगएण व, दिव्य मणूसोवसग्गेणं ॥११४।। अमुगम्मि इउ काले, अमुगत्थे अमुगगामभावणं । उवहीइ व नियडीइ व, तह सावयपिल्लिएण व परेणं । जं जह निसेवियं खलु, जेण य सव्वं तहाऽऽलोएहशा) अप्पाण भएण कयं, परस्स छंदाणुवत्तीए ॥ ११५ ॥ मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणसल्लं च । सहसकारमणाभो-गो अयं पवयणाऽहिगारेणं ।
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( १३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
भरण
सन्निकरणे विमोही, पुष्मागारो य पन्नता ।। ११६ ॥ उज्जुमालोइत्ता, इत्तो अकरणपरिणामजोगपरिसुद्धो । सो पrysusकम्मं, सुग्गरमग्गं अभिमुहर ।। ११७ ।। उवहीनियडिपट्टी, सोहिं जो कुणइ सोगईकामो । माई पलिकुचंता, करेइ बुंदुखियं मूढो ॥ ११८ ॥ लोणाsssदोसे, दस दोग्गइ बंधणे परिहरंतो । तम्हा आलोइजा, मायं मुत्तूण निस्सेसं ।। ११६ ॥ जेमे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते तह लोएमी, उवडिओ सव्वभावेणं १२० ॥ एवं उवट्टियस्स वि, आलोएउं विसुद्धभावस्स । जं किंचिsवि विस्सरियं, सहसाकारेण वा चुकं ॥ १२१ ॥
राह तह वि सो, गारवपरिकुंचणामयविहणो । जिणदेसियस्स धीरो, सद्दहगो मुत्तिमग्गस्स ॥। १२२ ।।
कंपण माण, जं दिट्टं बायरं च मुहुमं च । छन्नं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्ततस्सेवी ॥ १२३॥ आलोयणाऍ दोसे, दस दुग्गइवढणा पमुत्तूर्णं ।
लोज सुविहि, गारवमायामयविहूणो || १२४ ॥ तो परियागं च बलं, श्रागमकालं च कालकरणं च । पुरिमं जीयं च तहा, खित्तं पडिसेवणविहिं च ॥ १२५ ॥ जोग्गं पायच्छित्तं, तस्स य दाऊण विंति आयरिया | दंसणनाणचरित्ते, तवे य कुणमप्पमायंति ।। १२६ ॥ अणसणमूणोयरिया, वित्तिच्छेओ रसस्स परिचाओ । कायस्स परिकिलेसो, छट्टो संलीणया चैव ॥ १२७ ॥ विए वेयावच्चे, पायच्छित्ते विवेगसज्झाए |
भितरं तववहिं, छटुं भारं वियाणाहि ॥ १२८ ॥ बारस विहम्मि तवे, अभितरबाहिरे कुसलदिट्ठे | asha अत्थिनविय होहि, सज्झायसमं तवोकम्मं १९२६ | जे पय भत्तपाणा - सुयहेऊ ते तवस्सियो समए । जो तवो सुयहणो, बाहिरयो सो छुहाहारो ॥ १३० ॥ लट्ठमदसमदुवा-लसेहिं बहुस्सुयस्स जा सोही । ततो बहुतरगुणिया, हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ।१३१। कल्लं कलंपि वरं, आहारो परमिश्र पंतो अ । न य खमणो पारणए, बहु बहुत बहुविहो होइ । १३२ । गाहे तवस्सी, हविज्ज नत्थित्थ संसो कोई । गाहे सुबहरो, न होइ धन्तं पितुरमाणो ॥ १३३ ॥ सो नाम असतो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥ १३४ ॥ अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासभित्तेणं ॥ १३५ ॥
३५
मरण
नाणे उत्ताणं, नाणीणं नाणजोगजुत्ताणं । को ? निजरं तुलिजा, चरणे य परकमंताणं ।। १३६ ।। नाणेण वणिजे, जिज किजई य करणिजं । नाणी जाण करणं, कजमकजं च बजेउं ॥ १३७ ॥ नाणसहियं चरितं नाणं संपायगं गुणसयाणं । एसा जिरणा आणा, नऽत्थि चरितं विणा खाणं । १३८ । नाणं सुसिक्खियव्वं, नरेण लण दुल्लहं बोहिं । जो इच्छह नाउं जे, जीवस्स विसोहणामग्गं ।। १३६ ॥ नाणेण सव्वभावा, खजंती सव्वजीवलोम्मि । तम्हा नाणं कुसले - सिक्खियव्वं पयत्तेणं ॥ १४० ॥ न हुसका नासे, नाणं अरहंतभासियं लोए । ते धन्ना ते पुरिसा, नाणी य चरितजुत्ता य ॥ १४१ ॥ बंधं मुक्खं गहरा गयं च जीवाण जीवलोयम्मि । जाति सुसमिद्धा, जिणसासणचेइयविहि एणू ।। १४२ ।। भदं सुबहुसुयाणं, सव्वपयत्थेसु पुच्छणिज्जाणं । नाणेण जावयारे, सिद्धिं पि गएसु सिद्धे ।। १४३ ॥ किं ? इत्तो लट्ठयरं, अच्छे रयरं व सुंदरतरं वा । चंदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोएंति ॥ १४४ ॥ चंदाउ नीड़ जुहा, बहुसुयमुहाउ नीइ जिणवयणं । जं सोऊण सुविहिया, तरंति संसारकंतारं ॥ १४५ ॥ चउदसव्वधराणं, हीनागीण केवलीणं च । लोगुत्तमपुरिसाणं, तेसिं नाणं अविन्नाणं ।। १४६ ।। नाणे विणा करणं, न होइ नाणंऽपि करणहीणं तु । नाणेण य करणेण य, दोहि वि दुक्खक्खयं होइ ॥ १४७॥ दमूलमहामि वि, वरमेगोऽवि सुयसीलसंपण्णो । माहु सुसील विगला, काहिसि माणं पचयणम्मि । १४८ | तम्हा सुर्यमि जोगो, कायव्वो होइ अप्पमत्तें । जेणऽऽप्पाण परंऽपि य, दुक्खसमुद्दाउ तारेइ || १४६ ॥ परमत्थंमि सुदिट्ठे, अविणट्ठेसु तत्रसंजमगुणेसु । लभ गई विसुद्धा, सरीरसारे विट्ठेमि ।। १५० ॥ अविरहिया जस्स मई, पंच हि समिईहि तिहि विगुती हिं । नय कुण्ड़ रागदोसे, तस्स चरितं हवइ सुद्धं ॥ १५१ ।। उक्कोसचरित्तोऽवि य, परिवडई मिच्छभावणं कुणड़ | किं ? पुरा सम्मद्दिट्ठी, सरागधम्मंमि वहू॑तो ।। १५२ ।। तम्हा घतह दो वि, काउं जे उज्जमं पयत्तेणं । सम्मत्तंमि चरित्ते, करणंमि य मा पमाएह ।। १५३ ।। जावय सुई न नासर, जाव य जोगा न ते पराहिणा । सद्धा जाव न हाई, इंदियजोगा अपरिहीणा ।। १५४ ॥ जाव य खेममुभिक्खं, आयरिया जाव अस्थि निजवगा । इड्डी गारवरहिया, नाणचरणदं सांमि रया ।। १५५ ।।
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अभिधानराजेन्द्रः। ताव खमं काउंजे, सरीरनिक्खेवणं विउपसत्थं । अम्लयरेणुवहाणे-ण संलिहे अप्पगं कमसो ॥१७॥ समयपडागाहरणं, सुविहियइ8 नियमजुत्तं ॥१५६ ॥ संलेहणा य दुविहा, अभितरिया य बाहिरा चेव । हंदि अणिचा सद्धा, सुई य जोगा य इंदियाइं च । अभितरियकसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥१७६।। तम्हा एयं नाउं, विहरह तव संजमुज्जुत्ता ।। १५७॥ उग्गमउप्पायण ए-सणाविसुद्धेण अमपाणेणं । ता एवं नाऊणं, अोवार्य नाणदंसणचरित्ते ।।
मियविरसलुक्खलूहेण, दुब्बलं कुणसु अप्पागं ॥१७७॥ धीरपुरिसाऽणुचिस्मं, करिति सोहिं सुयसमिद्धा ॥१५८।। उल्लीणोल्लीणेहि य,अहव न एगंतवद्धमाणेहिं । अम्भितरवाहिरयं, अह ते काऊण अप्पणो सोहि । संलिह सरीरमेयं, आहारविहिं पयणुयंतो ॥१७८।। तिविहेण तिविहकरणं, तिविहे काले वियडभावा॥१५६।। तत्तो अणुपुव्वेणाऽऽ-हारं उवहिं सुअोवएसेणं । परिणामजोगसुद्धा, उवहिविवेगं च गणविसग्गे य।। विविहतवोकम्मेहि य, इंदियविकीलियाईहिं ॥१७६।। अजाइ य उवस्सय-चजणं च विगईविवेगं च ॥१६॥ तिविहाहि एसणाहि य, विविहेहि अभिग्गहेहि उग्गेहिं । उग्गम-उप्पायण ए-सणा विसुद्धिं च परिहरणसुद्धिं ।
संजममविराहिंतो, जहाबलं संलिहसरीरं ॥१८॥ सबिहि सबिचयमि य, तववेयावच्चकरणे य ॥१६॥
विविहाहि व पडिमाहि य, बलवीरियजई य संपहोइ सुहं । एवं करंतु सोहि, नवसारयसलिलनहतलमभावा ।
ताओ वि न वाहिति, जहक्कम संलिहंतम्मि ।। १८१॥ कमकालदव्बपज्जव-अत्तंपरजोगकरणे य ॥ १६२ ॥
छम्मासिया जहन्ना, उक्कोसा वारिसेव वरिसाई। तो ते कयसोहीया, पच्छित्ते फासिए जहाथाम्म ।
आयंबिलं महेसी, तत्थ य उक्कोसयं बिंति ॥ १८२॥ पुकाऽवकिमगम्मि य, तवंमि जुत्ता महासत्ता ॥१६३॥
छट्ठद्रुमदसमदुवा-लसेहि, भत्तेहि चित्तक हिं । तो इंदियपरिकम्मं, करिति विसयसुहनिग्गहसमत्था । मियलहुकं आहारं, करेहि आयंबिलं विहिणा ॥१३॥
परिवडिओवहाणो,एहारुविरावियवियडपासुलिकडीओ। जयहाइ अप्पमत्ता, रागद्दोसे पयणुयंता ॥ १६४ ॥
संलिहियतणुसरीरो, अझप्परो मुणी निचं ॥१८४॥ पुब्बमकारियजोगा, समाहिकामा वि मरणकालम्मि ।
एवं सरीरसंले-हणाविहिं बहविहं पि फासितो। न भवंति परीसहसहा, विसयसुहपमोइया अप्पा ॥१६॥
अज्झवसाणविसुद्धि, खणं पि तो मा पमाइत्था॥१८॥ इंदियसुहसाउलओ, घोरपरीसहपराइयपरज्झो ।
अज्झवसाणविसुद्धी, विवज्जिया जे तवं विगिट्ठमवि । अकयपरिकम्मकीवो, मुज्झइ आराहणाकाले ॥१६६॥
कुव्वंति वाललेसा, न होइ सा केवला सुद्धी ॥१८६॥ वाहंति इंदियाई, पुचि दुन्नि य मियप्पयाराई ।
एयं सरागसंले-हणाविहिं जइ जई समायरई । अकयपरिकम्मकीवं, मरणेसु असंपउत्तं पि ॥१६७।।
अज्झप्पसंजुयमई, सो पावइ केवलं सद्धिं ॥१८७॥ आगममयप्पभाविय-इंदियसुहलोलुया पइट्ठस्स ।।
निखिला फासेयव्वा, सरीरसंलेहणाविही एसा । जइ वि मरणे समाही, हुज न सा होइ बहुयाणं ॥१६८॥
इत्तो कसायजोगा, अज्झप्पविहिं परम बुच्छं ॥१८८॥ असमत्तसुओ वि मुणी, पुवि सुकयपरिकम्मपरिहत्थो।
कोहं खमाइ माणं, मद्दवया अजवेण मायं च । संजमनियमपइन्न, सुहमत्तहिओ समोइ ॥१६६।।
संतोसेण व लोह,निजिण चत्तारि वि कसाए ॥१८६।। न चयति किंचि काउं, पुब्धि सुकयपरिकम्मजोगस्स ।
कोहस्स व माणस्स व, मायालोमेसु वा न एएसिं । खोहं परीसहचमू-धिइबलपराइया मरणे ॥१७०॥
बच्चइ वसं खणं पिहु, दुग्गइगइवडणकराणं ॥१६॥ तो ते वि पुवचरणा, जयणाए जोगसंगहविहीहि ।
एवं तु कसायऽग्गि, संतोसेणं तु विज्झवयेवो । तो ते करेंति दंसण-चरित्तसइ भावणाहेउं ॥१७१ ॥ राग्गबोसपवत्ति, बज्जेमाणस्स विज्झाइ ॥१६॥ जा पुन्वभाविय किर, होइ सुई चरणदंसणे बहुहा । जावंति केइ ठाणा, उदीरगा हुंति हु कसायाणं । सा होइ वीयभूया, कयपरिकम्मस्स मरणम्मि ॥१७२॥ ते उ सया वजतो, विमुत्तसंगो मुणी विहरे ॥१६२ ॥ तं फासेहि चरित्तं, तुमं पि सुहसीलयं पमुत्तूणं । संतोवसंतधिइम, परीसहविहिं च समहियासंतो । सव्वं परीसहचमुं, अहियासन्तो घिडवलेणं ॥१७३।। निस्संगयाइ सुविहिय !, संलिहमोहे कसाए य ॥१६३॥ सद्दे रूवे गंधे, रसे य फासे य सुविहियजणेहिं । इट्ठाणिद्वेसु सया, सद्दफरिसरूवरसगंधेहिं । सब्बेसु कसाएसु अ, निग्गह परमो सया होहि ॥१७४।। सुहदुक्खनिबिसेसो, जियसंगपरीसहो विहरे ॥१६४॥ सव्वे रसे पणीए, णिज्न हेऊण पंतलुक्खेहिं । समिईसु पंचसमिओ, जिणाहितं पंच इंदिए सुट्ठ ।
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( १३६ ) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण तिहि गारवेहि रहिओ, होह तिगुत्तो य दंडेहिं ॥१६५ | आलंबणं च आया, दंसणनाणे चरित्ते य ॥ २१५ ॥ सन्नासु आसवेसु अ, अट्टे रुद्दे अतं विसुद्धप्पा । आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे तवे जोगो । रागद्दोसपवंचे, निजिणिउं सब्बणोज्जुत्तो ॥१६॥ जिणवयणविहिविलग्गो, अवसेसविहिं तु दंसेहि।२१६। को दुक्खं पाविजा ?, कस्स य दुक्खेहिं विम्हो हुज्जा ?। मूलगुण उत्तरगुणा जे मे नाऽऽराहिया पमाएणं । को व न लभिज मुक्खं ?, रागद्दोसा जइ न हुजा ॥१७॥ ते सव्वे निंदामि, पडिक्कमे प्रागमिस्साणं ।। २१७ ॥ न वितं कुणइ अमित्तो, सुट्ट विय विराहिओ समत्थो वि । एगो सयं कडाई, आया मे नाणदंसणवलक्खो । जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसोय।।११।। संजोगलक्खणा खलु, सेसा मे बाहिरा भावा ॥२१८।। तं मुयह रागदोसे. सेयं चिंतेह अप्पणो निचं । पत्ताणि दुहसयाई, संजोगस्साणुएण जीवेणं । जं तेहि इच्छह गुणं, तं वुकह बहतरं पच्छः ॥१६॥ सम्हा अणंतदुक्खं, चयामि संजोगसंबंधं ॥ २१६ ॥ इह लोए आयासं, अयसं च करेंति गुणविणासं च । अस्संजमममाणं, मिच्छत्तं सव्वो ममत्तं च । पसर्वति य परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥२०॥ जीवेसु अजीवेसु य, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२२०॥ धिद्धी अहो अकजं, जं जाणंतो वि रागदोसेहिं । परिजाणे मिच्छत्तं, सव्वं अस्संजमं अकिरियं च । फलमउलं कडुयरसं, तं चेव निसेवए जीवो ॥२०१॥ सव्वं चेव ममत्तं, चयामि सव्वं च खामेमि ॥ २२१॥ तं जइ इच्छास गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स । जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । तो तव संजमभंडं, सुविहियागण्हाहि तूरंतो ॥२०२।। ते तह आलोएमि, उवडिओ सव्वभावेणं ॥ २२२ ॥ बहुभयकरदोसाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं । उप्पन्ना उप्पणुन्ना, माया अणुमग्गो निहंतव्वा । न हु वसमागंतव्वं, रागदोसाण पावाणं ॥ २०३॥ आलोयणनिंदणगरि-हणाहि न पुणो त्ति या बिइयं२२३ जं न लहइ सम्मत्तं, लण वि जं न एइ वेरग्गं। जह बालो जंपंतो, कजमकज्जं च उज्जुयं भणइ । विसयसुहेसु य रञ्जइ, सो दोसो रागदोसाणं ॥ २०४ ॥ तं तह आलोयव्वं, मायं मुत्तूण निस्सेसं ।। २२४ ।। भवसयसहस्सदुलहे, जाइजरामरणसागरुत्तारे ।
सुबहुं पि भावसल्लं, आलोएऊण गुरुसगासम्मि । जिणवयणंमि गुणागर',खणमवि मा काहिसिपमायं २०५ निस्सल्लो संथारं, उवेइ आराहो होइ ।। २२५ ॥ दव्वेहि पज्जवेहि य, ममत्तसंगेहि सुदु वि जियप्पा । अप्पं पिं भावसल्लं, जेणालोयंति गुरुसगासम्मि । निप्पणयपेमरागो, जइ सम्मं नेइ मुक्खत्थं ॥२०६।। धंतं पि सुयसमिद्धा, न हु ते राहगा हुंति ॥२२६॥ एवं कयसंलेहं, अभितरबाहिरंमि संलेहे ।
न वि तं विसं च सत्थं, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । संसारमुक्खबुद्धी, अनियाणोदाणि विहराहि ।। २०७।। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमायो कुविओ॥ २२७ ।। एवं कहियसमाहिय, तहविह संवेगकरणगंभीरो। जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालंमि । आउरपच्चक्खाणं, पुणरवि सीहाऽवलोएणं ॥ २०८॥ दुल्लहवोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च ।। २२८ ॥ न हु सा पुणरुत्तविही, जा संवेगं करेइ भामंती ।
तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं । आउरपञ्चक्खाणे, तेण कहा जोइया भुञ्जो । २०६।। मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥ २२६ ।। एस करेमि पाणमं, तित्थयराणं अणुत्तरगईणं ।
कयपावोऽवि मरणूसो, आलोइय निंदिय गुरुसगासे । सव्वेसिं च जिणाणं, सिद्धाणं संजयाणं च ॥ २१० ॥ होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरु ब्व भारवहो ॥२३०॥ जं किचि वि दच्चरियं, तमहं निंदामि सव्वभावेणं । तस्स य पायच्छित्तं-जं मग्गविऊ गुरू उवइस्संति । सामाइयं च तिविहं, तिविहेण करेमऽणागारं ॥२११ ॥ तं तह अणुचरियव्वं, अणवत्थपसंगभीएणं ।। २३१ ।। अग्मितरं च तह बा-हिरं च उवहिं सरीरसाहारं । दसदोसविप्पमुक्कं, तम्हा सव्वं अमग्गमाणेणं । मणवययकायऽतिकरण-सुद्धोहं मित्ति पकरेमि ।।२१२।। जं किचि कयमकज्जं, आलोए तं जहावतं ॥ २३२ ।। बंधपओसं हरिसं, रइमरइं दीणयं भयं सोगं ।
सव्वं पाणारंभ, पच्चक्खामि त्ति अलियवयणं च । रागद्दोसविसायं, उस्सुगभावं च पयहामि ॥ २१३ ।। सव्वं अदिन्नदाणं, अब्बभपरिग्गहं चेव । २३३ ।। रागेण व दोसेण व, अहवा अकयमुया पडिनिवेणं । सव्वं च असणपाणं, चउव्विहं जा य बाहिरा उवही। जो मे किंचिवि भणिो , तमहं तिविहेण खामेमि।२१४। अभितरं च उवहिं, जावज्जीवं वोसिरामि ॥२३४॥ सम्बेमु य दव्वेसु य, उवडिओ एस निम्ममत्ताए । कंतारे दुभिक्खे, प्रायके वा महया समुप्पन्ने ।
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( १४० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मरण
जं पालिये न भग्गं, तं जाण पालणासुद्धं ॥ २३५ ॥ रागेण व दोसेण व, परिणामे वा न दूसियं जं तु । तं खलु पच्चक्खाणं, भावविसुद्धं मुणेयव्वं ॥ २३६ ॥ पीयं थणयच्छीरं, सागरसलिलाउ बहुयरं हुज्जा । संसारे संसरतो, माऊणं अन्नमन्नाणं ॥ २३७ ॥ astr कर सो एसो, लोए वालऽग्गकोडिमित्तोऽवि । संसारे संसरंतो, जत्थ न जाओ मो वाऽवि ॥ २३८॥ चुलसीई किर लोए, जोगीणं पमुहसयसहस्साई । shaम्म य इत्तो, श्रतखुत्तो सम्रप्पन्नो ॥ २३६ ॥ उडूमहे तिरियम्मिय, मयाणि बालमरणाणि ऽरांताणि । तो ताणि संभरतो; पंडियमरणं मरीहामि || २४० ।। माया मिति पिया मे, भाया भञ्ज ति पुत्तधूया य । एयाणि चिंतयंतो, पंडियमरणं मरीहामि ।। २४१ ॥ मायापिधूर्हि, संसारत्थे हि पूरिओ लोगो । बहुजोणिनिवासीहिं, न य ते ताणं च सरणं च ॥ २४२ ॥ इको जायर मरइ, इको अणुहवर दुक्कयविवागं । इको अणुसरइ जीओ, जरमरणचउग्गईगुविलं ॥२४३॥ उव्वेवणयं जम्मण-मरणं नरपसु वेयणाओ य । एयाणि संभरंतो, पंडियमरणं मरीहामि ॥ २४४ ॥ इकं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि । तं मरणं मरियव्वं, जेण मय मुक्कओ होइ ॥ २४५ ॥ कइयाणु तं सुमरणं, पंडियमरणं जिणेहि पद्मतं । सुद्ध उद्धियसल्लो, पावगमं मरीहामि ।। २४६ ॥ संसारचकवाले, सव्वे वि य पुग्गला मए बहुसो ।
हारिया य परिणा - मिया य न य तेसु तित्तो हं । २४७ | आहारनिमित्तेणं, मच्छावच्चं तिऽणुत्तरं नरयं । सच्चित्ताहार विहिं, तेण उ मणसाऽवि निच्छामि ॥ २४८ || तणकट्ठेश व अग्गी, लवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सको, तिप्पेउं कामभोगेहिं ॥ २४६॥ लवणमुहसामाणो, दुप्पूरो धरओ अपरिमिजो । न हुसको तिप्पेउं, जीवो संसारियसुहेहिं ।। २५० ।। कप्पतरुसंभवेसु य, देवुत्तरकुरुवंसपसूएसुं । परिभोगेण न नित्तो, ण य नरविजाहरसुरेसु ।। २५१ ॥ देविंदचकवट्टि - तणाई रजाई उत्तमा भोगा । पत्ता श्रतखुत्तो, नयहं तित्तिं गयो तेहिं ।। २५२ ।। पयखीरुच्छुरसेसु य, साऊसु महोदहीसु बहुसोऽवि । उबवनो न य तरहा, छिन्ना ते सीयलजलेहिं ॥ २५३ ॥ तिविहेण वि सुहमउलं, जम्हा कामरइविसयमुक्खार्ण । बहुसो विसमरणुभूयं, न य तुह तरहा परिच्छिन्ना ॥ २५४ ॥ जा का पत्थाओ, कया मए रागदोसवसरणं ।
For Private
मरण
पडिबंधेण बहुविहा, तं निंदे तं च गरिहामि || २५५॥ हंतूण मोहजालं, छित्तूणय अट्टकम्मसंकलियं । जम्मण मरणरहट्टं, भित्तू भवाण मुच्चिहिसि ॥ २५६ ॥ पंच य महव्वयाई, तिविहं तिविहेण आरुहेऊणं । मणवयणकायगुत्तो, सज्जो मरणं पडिच्छिा || २५७॥ कोहं मागं मायं, लोहं पिज्जं तहेव दोसं च । चऊण अप्पमत्तो, रक्खामि महत्वए पंच ॥ २५८ ॥ कलहं अभक्खाणं, पेसुन्नं पियपरस्स परिवायं । परिवतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच || २५६ ॥ किए नीलं काउं, लेसं झाणाणि अप्पसत्थाणि । परिवतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।। २६० ॥ तेऊ पम्हं सुकं, लेसा झाणाणि सुप्पसत्थाणि । उबसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच || २६१ ॥ पंचिदियसंवरणं, पंचेत्र निरंभिऊण कामगुणे |
सायणविरो, रक्खामि महत्वए पंच ॥ २६२॥ सत्तभयविप्पक्को, चत्तारि निरुम्भिऊण य कसाए । अट्टमयट्ठाणजड्डो, रक्खामि महव्वए पंच ॥ २६३|| मणसा मरणसच्चविऊ, वायासच्चेण करणसच्चेण । तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥ २६४ ॥ एवं तिदंडविरो, तिकरणसुद्धो तिसल्लनिस्सल्लो । तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥ २६५ ॥ सम्मत्तं समिईओ, गुत्तीय भावणाओ नाणं च । उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥ २६६ ॥ संगं परिजाणामि, सलं पि य उद्धरामि तिविहेणं । गुत्ती समिईओ, मज्यं ताणं च सरणं च ।। २६७ ॥ जह खुहियचकवाले, पोयं रयणभरियं समुदंमि । निजामया धरिती, कयरयणा बुद्धिसंपन्ना || २६८|| तवषो गुणभरियं परीसहुम्मीहि धणियमाइद्धं । तह आराहिंति तिऊ, उवएसवलंबगा धीरा ॥ २६६ ॥ जइ ताव ते सुपुरिसा, आयारो वि य भरा निरवयक्खा । गिरिकुहरकंदरगया, साहंति य अप्पणी अहं ॥ २७० ॥ जड़ ताव सावयाकुल- गिरिकंदरविसमदुग्गमग्गेसु । धणियं धिवद्धकच्छा, साहंति य उत्तमं अहं ॥ २७१ ॥ किं पुरा अणगारसहा - यगेण वेरग्गसंगहबलेणं । परलोएण ण सक्का, संसारमहोदहिं तरिउं ॥ २७२ ॥ जिणवयणमप्पमेयं, महुरं कन्नाऽमयं सुरांताणं । सक्का हु साहुमज्झा, साहेउं अप्पणी अ २७३॥ धीर पुरिसपमतं, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । धना सिलातलगया, सार्हेती अप्पणो श्रद्धं ॥ २७४ ॥ बाहेर इन्दियाई, पुव्वमकारिय पट्टचारिस्स |
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अभिधानराजेन्द्रः।
मरण अकयपरिकम्मकीवं, मरणेसु अ संपउत्तम्मि ॥२७॥ इक्कम्मिवि जम्मि पए, संवेगं कुणइ वीयरागमए। पुन्वमकारियजोगो, समाहिकामो वि मरणकालम्मि । सो तेण मोहजालं, छिदइ अझप्पजोगेणं ।। २६५॥ न भवइ परीसहसहो, विसयमुहपराइओ जीवो ॥२७६।।। जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वाऽऽयरेण करणिजं । पुबि कारियजोगो, समाहिकामो य मरणकालम्मि । तसवायरभूयहियं, पंथं निव्वाण मग्गस्स ॥ २६६ ।।' होइ उ पसिहसहो, विसयसुहनिवारिओ जीवो ॥२७७॥
समणोऽहं ति य पढम, बीयं सव्वत्थ संजोऽम्हि ति । पुल्बि कारियजोगो, अनियाणो ईहिऊण सुहभावो ।
सव्वं च वोसिरामी, जिणेहि जं जंपडिकुटुं ॥ २६७॥ ताहे मलियकसाओ, सञ्जो मरणं पडिच्छिज्जा ॥२७८।।
मणसावि ऽचिंतणिजं, सव्वं भासऍऽभासणिज्जं च । पावाणं पावाणं, कम्माणं अप्पणो सकम्माणं ।
कारण य ऽकरणिज्जं,वोसिरि तिविहेण सावजं ॥२६॥ सक्का पलाइउं जे, तवेण सम्मं पउत्तेणं ।। २७६ ।।
अस्संजमवोसिरणं, उवहिविवेगो तहा उवसमोअ। इकं पंडियमरणं, पडिवाइ सुपुरिसो असंभंतो ।
पडिरूवजोगविहिओ, खतो मुत्तो विवेगो य ।। २६॥ खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणताणं ॥ २८० ॥
एयं पच्चक्खाणं, पाउरजणाईसु भावेणं । किंतं पंडियमरणं, काणि व आलंबणाणि भणियाणि ।
अप्सतरं पडिवनो, जपतो पावइ समाहिं ।। ३०० ।। एयाई नाऊणं,कि आयरिया पसंसंति ॥२८॥
मम मंगलमरिहंता,सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य । अणसणपाउवगमणं, आलंबणझाणभावणाओ ।
तेसिं सरणोवगओ, सावजं वोसिरामि त्ति ॥ ३०१ ।।
सिद्धे उवसंपन्नो, अरिहंते केवली य भावेणं । एयाई नाऊणं, पंडियमरणं पसंसति ॥२८२॥
इत्तो एगत्तरेणऽवि, पएण आराहओ होइ ।। ३०२ ॥ इंदियसुहसाउलो , घोरपरीसहपराइयपरज्झो ।
समुइन्नवेयणो पुण, समणो हिययम्मि किं निवेसिजा। अकयपरिकम्मकीवो, मुज्झइ आराहणाकाले ॥२८३॥
आलंबणं च काउं, काऊण मुणी दुहं सहइ ।। ३०३ ।। लज्जाएँ गारवेणं , बहुसुयमएण वाऽवि दुच्चरियं ।
नरएसु ऽणुत्तरेसुअ, अणुत्तरा वेयणाओं पत्ताओ। जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति ।। २८४ ॥
वट्टतेण पमाए, ताओ वि अणंतसो पत्ता ॥ ३०४॥ । सुज्झइ दुकरकारी, जाणइ मग्गं ति पावए कित्ति ।
एयं सयं कयं मे, रिणं व कम्मं पुरा असायं तु । विणिगृहित्तो निंदं, तम्हा आलोयणा सेया ॥२८५॥
तमहं एस धुणामि, मणम्मि सत्तं निवेसिज्जा ।। ३०५ ।। अग्गिम्मि य उदयम्मि य, पाणेमु य पाणबीयहरिएसुं ।।
नाणाविहदुक्खेहि य, समुइन्नेहि उ सम्म सहणिजं । होइ मओ संथारो, पडिवजह जो असंभंतो॥२८६ ॥
न य जीवो उ अजीबो, कयपुवो वेयणाईहिं ।। ३०६ ।। नवि कारणं तणमो,संथारो नवि य फासुया भूमी।
अब्भुज्जयं विहारं, इत्थं जिणदेसियं विउपसत्थं । अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मरंतस्स ॥२७॥
नाउं महापुरिससे-वियं जं अब्भुज्जयं मरणं ॥३०७॥ जिणवयणमणुगया मे, होउ मई झाणजोगमल्लीणा।
जह पच्छिमम्मि काले, पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं । जह तम्मि देसकाले, अमूढसन्नो चए देहं ।। २८८ ॥
पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ अन्भुजयं मरणं ॥ ३०८॥ जाहे होइ पमत्तो, जिणवयणरहिओ अणायत्तो।
छत्तीसमट्टियाहि य, कडजोगी संगहबलेणं । ताहे इंदियचोरा, करेंति तवसंजमविलोमं ॥ २८६ ॥ उज्जमिऊणं वारस-विहे य तवनियमठाणेणं ।। ३०६ ।। जिणवयणमणुगयमई, जै बेलं होइ संबरपविट्ठो। संसाररंगमज्झे, धिइबलसंनद्धबद्धकच्छाओ। अग्गी व वायसहिओ, समलडालं डहइ कम्मं ॥ २६॥ हंतूण मोहमलं, हराहि राहणपडागं ॥३१० ॥ जह डहइ वायसहिओ, अग्गी हरिएऽवि रुक्खसंघाए। पोराणयं च कम्म, खवेइ अन्नन्नबंधणायाई । तह पुरिसकारसहिओ, नाणी कम्मं खयं नेइ ।। २६१॥ कम्मकलंकलवल्लिं, छिदइ संथारमारूदो ॥ ३११ ।। जह अग्गिम्मि व पबले, खडपूलिय खिप्पमेव झामेइ । धीरपुरिसेहि कहियं, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । तह नाणीऽवि सकम्मं, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥ २६२ ।। उत्तिामोऽम्हि हु रंगं, हरामि आराहणपडागं ॥ ३१२ ॥ न हु मरणम्मि उवग्गे, सक्को बारसविहो सुयक्खंधो। धीर ! पडागाहरणं, करेहि जह तंसि देसकालम्मि । सव्वो अणुचिंतेउं, धंतं पि समत्थचित्तेणं ।। २६३ ॥ मुत्तत्थमणुगुणितो, धिइनिच्चलबद्धकच्छाओ ।। ३१३ ।। इक्कम्मिावि जम्मि पए, संवेगं कुणइ वीयरागमए । चत्तारि कसाए ति-सि गारखे पंच इंदियग्गामे । बच्चइ नरो अविग्धं, तं मरणं तेण मरितव्यं ।। २६४।। जिणिउं परीसहमहे, हराहि आराहणपडागं ।। ३१४ ।।
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(१४२) मरण
अभिधानराजेन्द्रः। न यमणसा चिंतिज्जा, जीवामि चिरं मरामि व लहं ति।। पायरियउवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य।। जइ इच्छसि तरिउं जे, संसारमहोत्राहिमपारं ॥३१५॥ । जे मे किया सकाया, सव्वे तिविहेण खाममि ॥३३॥ जइ इच्छसि नीसरि, सव्वेसि चेव पावकम्माणं । सव्वस्स समणसंघ-स्स भावो अंजलिं करे सीसे । जिणवयणनाणदंसण-चरित्तभावुज्जुश्रो जग्ग ॥३१६।। सव्वं खमावयित्ता, खमामि सव्वस्स अहयपि ॥३३६॥ दंसणनाणचरित्ते, तवे य आराहणा चउक्खंधा। गरहित्ता अप्पाणं, अपुणकारं पडिक्कमित्ताणं । सा चेव होइ तिविहा, उक्कोसा मज्झिम जहमा ॥३१७|| नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरित्तजोगाऽइयारे य ॥३३७।। आराहेऊण विऊ, उक्कोसाराहणं चउक्खधं ।
तो सीलगुणसमग्गो, अणुवहयक्खो बलं च थामं च । कम्मरयविप्पमुको तेणेव भवेण सिज्झिज्जा ॥ ३१८॥ विहरिज्ज तवसमग्गो, अनियाणो आगमसहायो।३३८॥ पाराहेऊण विऊ, मज्झिमाराहणं चउक्खधं । तवसोसियंगमंगो, संधिसिराजालपागडसरीरो। उकोसेण य चउरो, भवे उ गंतूण सिज्झिज्जा ॥ ३१६ ॥ किच्छाहियपरिहत्थो, परिहरइ कलेवरं जाहे ॥३३॥ आराहेऊण विऊ, जहएणमाराहणं चउक्खधं ।
पच्चक्खाइ य ताहे, अननसमाहिपत्तियमित्ती। सत्तष्टुभवग्गहणे, परिणामेऊण सिज्झिजा ॥ ३२०॥ तिविहेणाहारविहि, दियसुग्गइकायपगईए ॥३४०॥ धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेणवि अवस्स मारियव्वं । इहलोए परलोए, निरासो जीविए अ मरणे य । तम्हा अवस्समरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउं ॥३२१ ॥ सायाऽणुभवे भोगे, जस्स य अवहट्टणाईए ॥ ३४१ ।। एवं पञ्चक्खालं, अणुपालेऊण सुविहिओ सम्म ।
निम्ममोनिरहंकारो, निरासयोऽकिंचणो अपडिकम्मो। वेमाणिभो व देवो, हवेज अहवाऽवि सिझिजा।।३२२॥ वोसट्टविसटुंगो, चत्तचियत्तण देहेणं ॥ ३४२ ।। एसो सवियारको, उवक्कमो उत्तमट्ठकालम्मि । तिविहेणऽवि सहमाणो, परिसहे दूसहे अ ऊसग्गे। इत्तो उ पुलो वुच्छं, जो उ कमो होइ अवियारे ॥३२३।।
विहरिज विसयतण्हा-रयमलमसुभं विहुणमाणो।३४३॥ साहू कयसलेहो, विजियपरीसहकसायसंताणो।
णहक्खए व दीवा, जह खयमुवणेइ दीववट्टिम्मि । निज्जवए मग्गिज्जा, सुयरयणसहस्सनिम्माए ॥३२४॥ खीणाहारसिणेहो, सरीरवट्टि तह खवेइ ॥ ३४४ ॥ पंचसमिए तिगुत्ते, अणिस्सिए रागदोसमयरहिए । एव परज्झा असई, परक्कमे पुव्वभणियसरीणं । कडजोगी कालगणू , नाणचरणदंसणसमिद्धे ॥३२॥ पासम्मि उत्तमऽद्वे, कुजा तो एस परिकम्मं ॥३४॥ मरणसमाहीकुसले, इंगियपत्थियसभाववेत्तारे।
आगरसमुट्ठियं तह, अज्झसिरवागत्तणपत्तकडए य । ववहारविहिविहएणू, अब्भुञ्जयमरणसारहिणो॥३२६॥ कट्ठसिलाफलगंमि व, अणभिजयं निप्पकप्पंमि ।३४६। उवएसहेउकारण-गुणनिसढा णायकारण विहएणू।। निस्संधिणातणमि व, सुहपडिलेहेण जतिपसत्थेणं । विमाणणाणकरणो-क्यारसुयधारणसमत्थे ।। ३२७॥ संथारो कायव्यो, उत्तर-पुव्यस्सिरो वावि ॥ ३४७॥ एगंतगुणे रहिया, बुद्धीइ चउबिहाइँ उववेया।
दोसुत्थ अप्पमाणे, अंधकारे समंमि अणिसिटे। छंदण्णू पब्बइया, पञ्चक्खाणंमि य विहएणू ॥३२८॥
निरुवहयंमि गुणमणे, वणंमि गुत्ते य संथारो ॥३४८॥ दुएहं पायरियाणं, दो वेयावच्चकरणणिज्जुत्ता।
जुत्ते पमाणरइओ, उभउकालपडिलेहणासुद्धो । पालगवेयावच्चे, तवस्सिणो वत्ति दो पत्ता ॥ ३२६॥ विहिविहिओ संथारो, आरुहियव्यो तिगुत्तेणं ॥३४६॥ उन्बत्तख परिवत्तण, उच्चारुस्सासकरणजोगेसुं।
आरुहियचरित्तभरो, अन्नेसु उ परमगुरुसगासम्मि। दो वायग ति सज्जा, असुत्त करणे जहन्नेणं ॥ ३३०॥ दव्वेसु पज्जवेसु य, खित्ते काले य सव्वम्मि ॥३५०॥ असद्दहवेयजाए, पायच्छित्ते पडिक्कमणए य ।
एएमु चेव ठाणेसु, चउसु सव्वो चउबिहाऽऽहारो। जोगाऽऽयकहाजोगे, पञ्चक्खाणे य आयरिश्रो ॥३३१॥ तवसंजमु त्ति किच्चा, वोसिरियव्वो तिगुत्तेणं ॥ ३५१॥ कप्पाऽकप्पविहिएणू , दुवालसंगसुयसारही सव्वं । अहवा समाहिहेऊं, कायन्बो पाणगस्स आहारो। छत्तीसगुणोवेया, पच्छित्तवियारया धीरा ॥३३२॥ तो पाणगं पि पच्छा, वोसिरियव्वं जहाकाले ॥३५२॥ एए ते निजवया, परिकहिया अट्ठ उत्तमट्ठमि । निसिरित्ता अप्पाणं, सब्वगुणसमनियम्मि निजवए। जेसिं गुणसंखाणं, न समत्था पायया वुत्तुं ॥३३३॥ संथारसन्निविट्ठो, अनियाणो चेव विहरिजा ॥३५३।। एरिसयाल सगासे, सूरीणं पवयणप्पवाईणं ।
इहलोए परलोए, अनियाणो जीविए य मरणे य । पडिवजिज्ज महत्थं, समणो अब्भुज्जयं मरणं ॥३३४॥। वासीचंदणकप्पो, समो य माणाऽयमाणेसु ॥३५४ ॥
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( १४३ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
मरण
अह महुरं फुडवियर्ड, तहप्पसायकरणिञ्जविसयकयं । कहं निजव, सुईसमन्नाहरणहेउ || ३५५ ॥ इहलोए परलोए, नाणचरणदंसणम्मि य अवायं । दंसेइ नियामि य, मायामिच्छत्तसल्लेणं ॥ ३५६ ॥ बालमरणे अवायं, तह य उवायं बालमरणम्मि । उस्सासरज्जुवेहा-णसे य तह गिद्धपट्टे य || ३५७ ॥ जह य अणुद्धियसल्लो, ससल्लमरणेण केइ मरिऊण । दंसणनाणविहूणो, मरंति असमाहिमरणेणं ।। ३५८ ॥ जह सायरसे गिद्धा, इत्थि अहंकारपावसुयमत्ता । श्रसन्नबालमरणा, भमंति ससारकंतारं ।। ३५६ ॥ ग्रह मिच्छत्तससल्ला, मायासल्लेख जह ससल्ला य । जह य नियाणससल्ला, मरंति असमाहिमरणें । ३६० | जह वेयणावसट्टा, मरंति जह के इंदियवसट्टा | जह य कसायवसट्टा, मरंति असमाहिमरणं ॥ ३६१ ॥ जह सिद्धिमग्ग दुग्गड़ - सग्गग्गलमोडणाणि मरणाणि । मरिऊण केइ सिद्धिं, उविंति सुसमाहिमरणेणं ॥३६२॥ एवं बहुप्पयारं, तु अवायं उत्तम कालम्मि |
संति वय, सल्लुद्धरणे सुविहियाणं || ३६३॥ दितिय सिं उवएस, गुरुणो नाखाविहेहिं हेऊहिं । जेण सुगई भयंतो, संसारभयहु होइ ।। ३६४ ॥ न हु तेसु वेयणं खलु, अहो चिरम्मि त्तिं दारुणं दुक्खं । सहणिज्जं देहेणं, मणसा एवं विचिंतिज्जा ॥ ३६५ ॥ सागरतरणत्थ मई, इयस्स पोयस्स जए धूवे । जो रज्जुमुक्खकालो, न सो विलंब त्ति कायव्वो ॥ ३६६ ॥ तिल्लविहूणो दीवो, न चिरं दिप्पइ जगंमि पच्चक्खं । न य जलरहिओ मच्छो, जिऋइ चिरं नेव पउमाई ॥ ३६७॥ अनं इमं सरीरं, अन्नोऽहं इय ममि ठाविज्जा । जं सुचिरेणऽवि मोचं, देहे को ? तत्थ पडिबंधो ॥ ३६८ ॥ दूरत्थं पि विणासं, वस्तभावं उवट्ठियं जाण | जो बट्ट कालो,अणाम इत्थ सिरहा । ३६६ | जं सुचिरेण वि होहि, अणावसंतम्मि को ? ममीकारो । देहे निस्संदेहे, पिएऽवि सुयणत्तणं न त्थि ॥ ३७० ॥ उवलद्धो सिद्धिपहो, न य अणुचिसो पमायदोसेणं । हा जीव ! अप्वेरिय!, न हु ते एयं न तिप्पिहिइ ॥ ३७१ ॥ नत्थिय ते संघयणं, घोरा य परीसहा अहे निरया । संसारो य सारो, अप्पमात्र तं जीव ! ॥ ३७२ ॥ कोहाऽऽइकसाया खलु, बीयं संसारभेरवदुहाणं । ते पमत्तेसु सया, कत्तो मुक्खो य मुक्खो वा १ ॥ ३७३ ॥ जाओ परव्वसेणं, संसारे वेयणाओं घोराओ । पत्ताओं नारगत्ते, अहुणा ताम्रो विचिंतिज्जा ॥ ३७४॥
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मरण
इहि सयं वासिस्स उ, निरुवमसुक्खावसणमुहकडुयं । कल्लाणमोसहं पिव, परिणामसुहं न तं दुक्खं ॥ ३७५॥ संबंधिबंध, न य अणुराओ खखं पि कायव्वो । ते च्चिय हुंति अमित्ता, जह जगणी बंभदत्तस्स । ३७६ । वसिऊण व सुहिमज्ये, वञ्चर एगाणिनो इमो जीवो ।
तू सरीरघरं, जह करहो मरलकालम्मि ||३७७॥ इसिंह व मुहुत्तेणं, गोसे व सुरू व अद्धरते वा । जस्स न गज्जइ वेला, कहिवसं १ गच्छई जीवो ॥ ३७८ ॥ एवमणुचिंतयंतो, भावणुभावाणुरत्तसियलेसो । तदिवसमरिउकामो, व होह झाणम्मि उज्जुत्तो ॥ ३७६ ॥ नरग - तिरिक्खगईसु य, माणुसदेवत्तणे वसंतेणं । जं सुहदुक्खं पत्तं तं अणुचितिज संथारे || ३८० ॥ नरएसु वेयणा, अणोवमा सीयउरहवेराओ । कायनिमित्तं पत्ता, अतखुत्तो बहुबिहाओ || ३८१ ॥ देवत्ते माणुस्से, पराहिओगत्तणं उवगएं । दुक्खपरिकिलेसविही, अतखुत्तो समभूया ॥ ३८२|| भिनिंदिय पंचिदिय-तिरिक्खकायंमिऽोगसंठाणे । जम्मणमरणरहट्टं, अंतखुत्तो गयो जीवो || ३८३ ॥ सुविहिय ! काले, अरांतकारसु तेण जीवेणं । जम्मणमरणमणंतं, बहुभवगहणं समभूयं ॥ ३८४॥ घोरम्मि गन्भवासे, कलमलजबाल असुहवीभच्छे । वसि श्रतखुत्तो, जीवो कम्मालुभावेयं ॥ ३८५ ॥ जोणीमुहनिग्गच्छं - तेण संसारे इमेल जीवेणं । रसियं अइवीभच्छं, कडीकडाहंऽतरगरतं ।। ३८६ ॥ जंसि वीभच्छं, असुई घोरम्मि गन्भवासम्मि । तं चिंतिऊण य सयं, मुक्खंमि महं निवेसिजा ||३८७॥ वसिऊण विमासु य, जीवो पसरंतमणिमऊहेसु । वसि पुणो वि सुच्चिय, जोणिसहस्संऽधयारेसु ॥ ३८८ ॥ वसिऊण देवलोए, निच्चुजोए सयंपमे जीवो । वसइ जलवेगकलमल - विउलवलयामुहे घोरे ॥३८॥ वसिऊण सुरनरीसर - चामीयर रिद्धिमलहरघरेसु । वसि नरग निरंदर - भयभेरवपंजरे जीवो || ३६०|| वसिऊण विचित्ते अ, विमाणगणभवणसोभसिहरेसुं । वस तिरिए गिरिगुह - विवरमहाकंदरदरीसु || ३६१ ॥ तू व भोगसुहं, सुरनरखयरेसु पुल पमाएणं । पियइ नरएस भेरव -कलंततउतंत्रपाणाई || ३६२ ॥ सोऊण मुइयणरवइभवे, अ जयसहमगंलरवोघं । सुणइ गरएस दुहपर-मकंदुद्दामसद्दाई ॥३६३ ॥ निहरा हरा गिरह दह पय-उब्बंध पबंध वंध रुधाद्धाहिं । फाले लोले घोले, भूरे खारेहि से गतं ॥ ३६४ ॥
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मरण
( १४४ अभिधान राजेन्द्रः ।
बेयरणिखारकलिमल - वेसल्लकुसलकरकयकुलेसुं । वसिओ नरएसु जीओ,हण हण घणघोरसद्देसुं ॥ ३६५॥ तिरिएस व भैरवसद्द - पक्खणपरवक्खणच्छणसएसु । सि उच्चियमाणो, जीवो कुडिलम्मि संसारे ॥ ३६६ ॥ मयत्तणेऽवि बहुविह - विशिवायसहस्स भेसणघणंमि | भोगपिवासाणुगओ, वसिम भयपंजरे जीवो || ३६७॥ वसि दरीसु वसियं, गिरीसु वसियं समुद्दमज्झेसु । रुक्खऽग्गेय वसियं, संसारे संसरंतेण ॥ ३६८ ॥ पीयं थणअच्छीरं, सागरसलिला बहुयरं हुज्जा । संसारंमिश्रणंते, माईणं श्रमाणं ॥ ३६६ ॥ नयोदगं पितासिं, सागरसलिला बहुयरं हुआ । गलियं रुयमाणीणं, माईणं माणं ||४००॥ नत्थि भयं मरणसमं, जम्मणसरिसं न विजए दुक्खं । तम्हा जरमरणकर, छिंद ममत्तं सरीराओ || ४०१ ॥ अनं इमं सरीरं, अप्पो जीवु त्ति निच्छियमईयो । दुक्खपरिकिलेसकरं, छिंद ममत्तं सरीराओ ।। ४०२ ॥ जावइयं किंचि दुहं, सारीरं माणसं व संसारे । पत्तो अंतखुत्तो, कायस्स ममत्तदोसेयं ॥ ४०३ ॥ तम्हा सरीरमाई, अभितर बाहिरं निरवसेसं । छिंद ममत्तं सुविहिय!, जइ इच्छसि मुविउ दुहाणं |४०४ । सव्वे उवसग्गपरी-सहे य तिविहेण निञ्जियाहि लहु । एएसु निजिए, होहिसि भाराहओ मरणे ॥४०५॥ मा हुय सरीरसंता - विश्रो म तं काहि अट्टरुद्दाई ।
वि रूवियलिंगे, वियट्टरुद्दाारी रूवंति ॥ ४०६ ॥ मित्तसुयबंधवाइसु, इट्ठाणिट्ठे इंदियत्थेसुं । रागो वा दोसो वा ईसि मणेणं न कायव्वो ||४०७ || रोगाssi पुणो, विलासु य वेयणासूइन्नासु । सम्म अहियासंतो, इणमो हियएण चिंतिजा ||४०८ || बहु पलियसागराई, सङ्ग्राणि मे नरयतिरियजाईसुं । किं १ पुण सुहावसाणं, इणमो सारं नरदुहंति ॥ ४०६ ॥ सोलस रोगाऽऽयंका, सहिया जह चक्किणा चउत्थेणं । वाससहस्सा सत्त उ, साममधरं उवगणं ॥ ४१० ॥ तह उत्तम काले, देहे निरवक्खयं उवगणं । तिलबित्त लावगा इव, आयंका विसहियन्वा ॥ ४११ ।। पारियवायगभत्तो, राया पट्टीइ सेट्टियो मूढो ।
चुरहं परमन्नं, दासी य सुकोवियमरणूसा ||४१२॥ साय सलिलुल्ललोहिय- मंसवसापेसिथिग्गलं धित्तुं । उप्पइया पट्टीओ, पाई, जह रक्खसवहु व्व ।। ४९३ ॥ तेय निव्वेएर्ण, निग्गंतूर्णं तु सुविहियसगासे ।
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मरण
आरुहियचरित्तभरो, सीहो रसियं समारूढो ।।४१४ ॥ तंमि य महिहरसिहरे, सिलायले गिम्मले महाभागो । वोसरह थिरपइनो, सव्वाहारं महतरणू य ॥ ४१५ ॥ तिविहोवसग्गसहिउं, पडिमं सो श्रद्धमासियं धीरो । ठाइ य पुव्वाऽभिहो, उत्तमधिइसत्तसंजुत्तो ॥ ४१६ ॥ साय पगतं लोहिथ - मेयवसामंसल परीपट्टी | खज्जइ खगेहि ँ दूसह, निसट्टचंचुप्पहारेहिं ||४१७|| मसएहिं मच्छियाहि य, कीडीहि वि मंससंपलग्गाहिं । खतो विन कंपइ, कम्मविवागं गणेमाणो ||४१८ ॥ रत्तिं च पयइ विहसिय, सियालियाहिं णिरणुकंपाहिं । उवसग्गज धीरो, नाणाविहरूवधाराहिं ॥ ४१६ ॥ चिंतेइ य खरकरवय- असिपंजरखग्गमुग्गरपहाओ । इमो न हु कट्टथरं, दुक्खं निरयऽग्गिदुक्खाओ || ४२० ॥ एवं च गओ पक्खो, वीओ पक्खो य दाहिणदिसाए । अवरेणऽवि पक्खो विय. समइकंतो महेसिस्स ॥ ४२१ ॥ तह उत्तरेण पक्खं, भगवं अविकंपमाणसो सहह । पडिय दुमासंते, नमो त्ति वुत्तुं जिनिंदा ४२२ ।। कंचणपुरंमि सिट्ठी, जिणधम्मो नाम सावओ आसी । तस्स इमं चरियपर्य, तउ एयं कित्तिममुणिस्स || ४२३|| जह तेण वितथ मुणिणा, उवसग्गा परमदूसहा सहिया । तह उपसग्गा सुविहिय !, सहियव्त्रा उत्तममि ॥ ४२४|| निफेडियाणि दुमि वि, सीसाऽऽवेढे जस्स अच्छीरिण । नय संजमा चलियो, मेजो मंदरगिरि व्व ॥ ४२५|| जो कुंचगाऽवराहे, पाणिदया कुंचगं पि नाऽऽइक्खे | जीवियमणुपेतं, मेयञ्जरिसिं नम॑सामि ||४२६॥ जोति हि धम्मं, समइगओ संजमं समारूढो । उवसमविवेगसंवर, चिलाइपुत्तं नम॑सामि ॥ ४२७ ॥ सोहि गयाओ, लोहियगंधेण जस्स कीडीओ । खायंति उत्तमंगं, तं दुक्करकायं वंदे ||४२८ | देहो पिपीलियाई, चिलाइ पुत्तस्स चालणि व्व कओ । तणुओऽवि मणपओसो, न य जाओ तस्स तारणुवरिं । ४२६ धीरो चिलाइyत्तो, मूइंगलियाहिं चालणि व्व कओ । न य धम्मा चलिओ, तं दुक्करकारयं वंदे ॥४३०|| गयसुकुमालमहेरी, जह दड्ढो पिइवांसि ससुरेणं । न य धम्मा चलिओ, तं दुक्करकारयं वंदे ॥ ४३१॥ जह तेण सो हुयाऽसो, सम्मं अइरेगदूसओ सहिओ । तह सहियव्व सुविहिय!, उवसग्गो देहदुक्खं च ॥ ४३२ ॥ कमलामेलाऽऽहरणे, सागरचंदोवई हि ँ नभसेणं ।
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तू सुरत्ता, संपड़ संपाइणो वारे ।। ४३३ ॥ जायस्स खमा तड़या, जो भावो जा य दुक्करा पडिमा
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मरण
( १४५ अभिधानराजेन्द्रः ।
अणगारगुणागर !, तुमं पि हियएण चिंतेहि । ४३४ | सोऊण निसासमए, नलिणिविमाणस्स वम्मणं धीरो । संभरियदेवलोओ, उज्जेणि अवंतिसुकुमालो || ४३५ ॥ वित्तूण समणदिक्खं, नियमुज्झिय सव्वदिव्व श्राहारो । बाहिं वंसकुडंगे, पायवगमणं निवनो उ ॥ ४३६॥ वोनसगो, तर्हि सो भुल्लुकियाइखइयो उ । मंदरगिरिनिकंप, तं दुक्करकारयं वंदे ॥ ४३७ || मरणंमि जस्स मुकं, सुकुसुमगंधोदयं च देवेहिं । अजवि गंधवई सा, तं च कुडंगी सरट्ठाणं ।। ४३८ ॥ जह तेण तत्थ मुणिणा, सम्मं समखेण इंगिणी तिएहा । तह तूरह उत्तम तं च मणे संनिवेसेह ॥ ४३६ ॥ जो निच्छण गिves, देहच्चाएवि न अट्ठियं कुणइ । सो साहेइ सकअं, जह चंदवाडंस राया ॥ ४४० ॥ दीवाभिग्गहधारी, दूसह घणविणयनिच्चलनगिंदो । जह सो तिनपइमो, तह तूरह तुमं परमम्मि ॥४४१॥ जह दमदंतमहेसी, पंडयकोरवमुणी थुयगरहि । आसि समो दुहं पि हु, एव समा होह सव्वत्थ | ४४२ जह खंदगसीसेहिं, सुकमहाझाणसंसियमणेहिं । न कओ मणप्पओसो, पीलिअंतेसु जंतम्मि ॥ ४४३ ॥ तह वचसालिभद्दा, अणगारा दो वि तवमहिडीया । वैभारगिरिसमीचे, नालंदार समीवंमि ||४४४ ॥ जुअलसिलासंथारे, पायवगमणं उवगया जुगवं । मासं अरणगं ते, वोसट्ठनिसट्टसव्वंऽगा || ४४५ ॥ सीयायवऽऽझडियंऽगा, लग्गुद्धियमंसाहारुणि विणट्ठा । दोsवतवासी, महेसिणो रिद्धिसंपला ॥ ४४६ ॥ अच्छेरयं च लोए, ताण तहिं देवयाऽणुभावेणं ।
विट्ठनिवे, पंकिव्व सनाममा इत्थी ||४४७|| जह ते समं सचम्मे, दुबलविलग्गेऽवि खो सयं चलिया । तह अहियासेयव्वं, गमये थेपिमं दुक्खं ॥ ४४८ ॥ अयलग्गाम कुटुंबिय, सुरइयस्रयदेवसमणयसुभद्दा | सच्चे उ गया खमगं, गिरिगुहनिलयन्नियच्छीय ॥ ४४६ ॥ ते तं तवोकिलंतं, वीसामऊण विषयपुव्वागं । उक्लद्धपुष्पावा, फासुयसुमहं करेसीह ।। ४५० ॥ सुगहियसावयधम्मा, जिणमहिमाणेसु जणियसोहग्गा । जसहरमुख पासे, निक्खंता तिव्वसंवेगा ॥ ४५१ ॥ सुगिहियजिवयणाऽमय-परिपुट्ठा सीलसुरहिगंधऽड्डा । विहरिय गुरुस्सगासे, जिणवरवसुपुञ्जतित्थम्मि ॥४५२ ॥ कणगावलिमुत्तावलि - रयणावलिसहिकी लियकलंता । काहीय ससंवेगा, आयंबिल वडमाणं च ।। ४५३ ॥
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मरण
सरिया मोहर - सिहरंतरसंचरंत पुक्खरयं । आइकरचलणपंकय- सिरसेवियमालहिमवंतं ॥ ४५४ ॥ रमणिज्जहरयतरुवर–परहुअ सिहिभमर महुयरिविलोले । अमरगिरिविसयमणहर, जिणवयणसुकाणणुदेसे ।।४५५॥ तम्मि सिलायलपुहवी, पंच वि देहट्ठिईसु मुणियत्था । कालगया उववष्मा, पंच व अपराजियविमाणे ॥ ४५६ ॥ ताओ चऊण इहं, भारहवासे असेसरिउदमणा । पंडुनराहिवतणया, जाया जयलच्छिभत्तारा ॥ ४५७ ॥ हमरणदूसह - दुक्ख समुप्पन्न तिव्वसंवेगा । सुट्ठियथेरसगासे, निक्खता खायकित्तीया ।। ४५८ ॥ जिट्ठो चउदसपुव्वी, चउरो इकारसंऽ - गवी आसी । विहरिय गुरुस्सगासे, जसपडहभरंतजियलोया ||४५६॥ ते विहरिऊण विहिणा, नवरि सुरङ्कं कमेण संपत्ता । सोउं जिखनिव्वाणं भत्तपरिनं करेंसी य ॥ ४६० ॥ घोराsभिग्गहधारी, भीमो कुंतऽग्गगहियभिक्खाओ । सत्तुंजयसेलसिहरे, पाओगओ गयभवोघो ।। ४६१ ॥ पुब्वविराहियवंतर—-उवसग्गसहस्समारुयनगिंदो ।
विकंपो सि मुणी, भाईणं इकपासम्मि ।। ४६२ ॥ दो मासे संपुष्पे, सम्मं धिधणियवद्धकच्छाओ । ताव उवसग्ग सो, जाव उ परिनिव्वुत्र भगवं । ४६३ । सा वि पंडुपुत्ता, पावगया उ निव्वुया सव्वे | एवं विपमा, अवि दुहाओ मुच्चति ॥ ४६४ ॥ दंडो वि य अणगारो, श्रयावणभूमिसंठिओ वीरो । सहिऊण बाणघायं, सम्मं परिनिव्वु भगवं ॥ ४६५॥ सेलम्म चितकडे, सुकोसलो सुट्ठियो उ पडिमाए । नियजणणीए खइओ, वग्धीभावं उवगयाए ॥ ४६६ ॥ पडिमा मुखी, लंबेस ठियो बहुसु ठाणेसुं । तह वि य अकलुभावो, साहु खमा सव्वसाहूणं । ४६७। पंच सया परिवुडया, वइररिसी पव्वए रहावत्ते । मुत्तू खुडगं कर, अन्नं गिरिमस्सियो सुजसो ॥४६८ ॥ तत्थ य सो उवलतले, एगागी धीरनिच्छयमईओ । वोसिरिऊण सरीरं, उहम्मि ठिो वियप्पाणो ॥ ४६६ ॥ ता सो इसुकुमालो, दियरकिरणऽग्गितावियसरीरो । हविपिंडु व्व विलीणो, उववष्मो देवलोयम्मि ॥ ४७० ।। तस्स य सरीरपूयं, कासीय रहेहि लोगपालाओ । तेण रहावत्तगिरी, अञ्ज वि सो विस्सु लोए || ४७१ ॥ भगवं पि वरसामी, विइयगिरिदेवयाइकयपूयो । संपूइमोत्थ मरणे, कुंजरभरिएण सक्केणं ।। ४७२ । पूइयसुविहियदेहो, पयाहिणं कुंजरेण तं सेलं || कासीय सुरवरिंदो, तम्हा सो कुंजरावत्तो ॥ ४७३ ॥
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मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण तत्तो य जोगसंगह-उवहाणक्खाणयाम्म कोसंबी। महराइमहरखमओ, अक्कोसपरीसहे उ सविसेसो। रोहगमवंतिसेणो, रुज्झेड मणिप्पभो भासो ।। ४७४॥
वीओ रायगिहम्मि उ, अज्जुणमालारदिद्रुतो ॥४६४॥ धम्मगसुसीलजुयलं, धम्मजसे तत्थरमदेसम्मि। कुम्भारकडे नगरे, खंदगसीसाण जंतपीलणया । भत्तं पञ्चक्खाइय, सेलम्मि उ वच्छगातीरे ॥ ४७५ ॥ एवंविहे कहिजइ, जह सहियं तस्स सीसेहिं ॥ ४६५ ॥ निम्मम निरहंकारो, एगागी सेलकंदरसिलाए ।
तह झाणणाणवुत्तं, गीए संपठियस्स समुयाणं । कासीय उत्तमऽटुं, सो भावो सव्वसाहणं ॥ ४७६ ।।
तत्तो अलाभगम्मि उ, जह कोहं निजिणे कराहो।४६६। उएहम्मि सिलावट्टे, जह तं अरहामएण सुकुमालं ।
किसिपारासरदंढो, बीयं तु अलाभगे उदाहरणं । विग्धारियं सरीरं, अणुचिंतिज्जा तमुच्छाहं ॥ ४७७॥
कएहबलभद्दमन्नं, चइऊण खमात्रिभो सिद्धो ॥४६७॥ गुब्बर पायोवगो, सुबुद्धिणा णिग्धिणेण चाणको।
महुरा जियसत्तुसुओ, अणगारो कालवेसियो रोगे। दड्डो न य संचलिओ, साहू धिइचिंतणिज्जाओ ॥४७८||
मोग्गल्लसेलसिहरे, खइओ किल सरसियालेणं ॥४६॥ जह सोऽविसप्पएसी, वोसट्टनिसिढचत्तदेहो उ ।
सावत्थी जियसत्तू , तणवो निक्खमणपडिमतणफासे । वंसीपत्तेहिं विनि-गएहि अागासमुक्खित्तो ॥४७६।।
वीरिय पविय विकंचण, कुसलेसणकड्ढणासहणं ।।४६६॥ जह सा बत्तीसघडा, वोसटुनिसहचत्तदेहागा ।
चंपासु णदगं चिय, साहुदुगुंछाइजल्लखउरंगे । धीरावारण उ दी-वएण विगलिम्मि ओलइया ॥४८०॥
कोसंबी जम्मनिक्खमण-वेयणं साहुपडिमाए ॥५००॥ जतेण करकरण व,सत्थेहिं व साधएहि विविहेहिं ।
महुराइ इंददत्तो, सक्कारा पायछेयणे सडो। . देहे विद्धस्संते, ईसि पि अकप्पणारुमणा ॥४८१॥
पन्नाइ अञ्जकालग, सागरखमणो य दि₹तो॥५०१।। पडणीययाइ केसि, चम्मंसे खीलएहि निहणित्ता। नाणे असगडताओ, खंभगनिधि अणहियासणे भद्दो । महुघयमक्खियदेहं, पिवीलियाणं तु दिजाहिं ॥४८२॥
दंसणपरीसहम्मिउ, आसाढभूई उ आयरिया ॥५०२॥ जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्ज ।
चरियाए मरणंमि उ, समुइएणपरीसहो मुणीएवं । सुव्बइ हु ससंवेगो, इत्थ इलापुत्तदिटुंतो॥४८३ ।। भाविज निउणजिणमय-उवएससुईइअप्पाणं ॥५०३।। समुइम्सु य सुविहिय !, घोरेसु परीसहेसु सहणेणं । उम्मग्गसंपयायं, मणहत्थि विसयसुमरियमणंतं । सो अत्थो सरणिजो, जोऽधीत्रो उत्तरऽज्झयणे॥४८४॥ नाणंकुसेण धीरो, धरेइ दित्तंषि व गइंदं ॥ ५०४ ॥ उज्जेणि हत्थिमित्तो, सत्थसमग्गो वणम्मि कट्टेणं । एए उ अहासूरा, महिड्डिएको व भाणिउं सत्तो। पायहरो संवरण-चिल्लगभिक्खावणसुरेसुं॥४८५॥ किं वातिमूवमाए, जिणगणधरथेरचरिएसुं॥ ५०५ ॥ तत्थेव य धणमित्तो, चेल्लगमरणं नईइ तहाए ।
किं चित्तं जइ नाणी, सम्मद्दिट्ठी करंति उच्छाहं । निच्छिमेसुऽणज्जंत-विंटियविस्सारणं कासि ॥४८६॥ तिरिएहिवि दुरणुचरो, केहिवि अणुपालिओ धम्मो५०६ मुणि-चंदेण विदिमस्स, रायगिहिपरिसहो महाघोरो। अरुणसिहं दद्दणं, मच्छोसमी महासमुइंमि । जत्तो हरिवंसविहू, सणस्स वूच्छं जिणिंदस्स ॥४८७॥ हाण गहिउ त्ति काले, झसत्ति संवेगमावस्मो ॥५०७॥ रायगिहनिग्गया खलु, पडिमापडिवनगा मुणी चउरो। अप्पाणं निंदंतो, उत्तरिऊणं-महनवजलाओ । सीय बिहूय कमेणं, पहरे पहरे गया सिद्धिं ॥ ४८८॥ सावजजोगविरओ, भत्तपरिमं करेसी य ॥ ५०८॥ उसिणे तगररहन्नग-चंपामसएसु सुमणभद्दरिसी। खगतुंडभिन्नदेहो, दूसहसूरग्गितावियसरीरो । खमसमण अञ्जरक्खिय,अचेल्लय यत्ते य उज्जेणी॥४८॥ कालं काऊण सुरो, उववन्नो एव सहणिज्जं ॥ ५०६ ।। अरई य जाइस्करो, भव्यो अ दुलहबोहीओ। सो वानरंजूहबई, कंतारे सुविहियाऽणुकंपाए । कोसंबीए कहिओ, इत्थीए थूलभद्दरिसी ॥४६॥ भासुरवरबुंदिधरो, देवो वेमाणिो जात्रो ॥ ५१०॥ कुल्लइरंमि य दत्तो, चरियाइपरीसहे समक्खायो। तं सीहसेणगयवर-चरियं सोऊण दुकरंऽरमे । सिट्ठिसुयतिगिच्छणणं, अंगुलदीवो य वासम्मि ।४६१॥ को हु णु तवे पमायं, करेज जाओ मणुस्सेसुं ? ॥११॥ गयपुरकुरुदत्तसुश्रो, निसीहिया अडविदेसपडिमाए। भुयगपुरोहियडक्को, राया मरिऊण सल्लइवणंमि । गाविकुविएण दड्डो, गयसुकुमालो जहा भगवं ॥४६२॥ सुपसत्थगंधहत्थी, बहुभयगयभेलणो जाओ ॥५१२॥ तो अणगारा धिजा-इयाइ कोसंबिसोमदत्ताइ । सो सहिचंदमुणिवर-पडिमापडिबोहित्रो सुसंवेगो । पाओवगयाणदिणे, सिजाए सागरे छूढा ॥ ४६३॥ । पाणवहालियचोरिय-अब्बंभपरिग्गहनियत्तो ॥५१३॥
पित्तामदास
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ताहा
(१४७) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण रागद्दोसनियत्तो, छट्ठक्खमणस्स पारणे ताहे ।
सव्वाऽवि अ अज्जाओ,सव्वेऽवि य पढमसंघयणवजा । आसासऊणं पंडं, आयवतत्तं जलं पासी ॥ ५१४ ॥ सव्वे य देसविरया, पञ्चक्खाणेण य मरंति ॥ ५४१ ॥ खमगत्तण निम्मंसो, धवणिसिरो जालसंतयसरीरो। सव्यसुहप्पभवाओ, जीवियसाराओ सव्वजणिगाओ। विहरिय अप्पप्पाणो, मुणिउवएसं विचितंतो ॥ ५१५॥ आहाराओ रयणं, न विजए उत्तमं लोए । ५४२ ।। सो अन्नयाणिदाहे, पंकोसन्नो वणं निरुत्थारो। विग्गहगए य सिद्धे, मुत्तुं लोगंमि जम्मिया जीवा । चिरवेरिएण दिट्ठो, कुकुडसप्पेण घोरेणं ॥ ५१६ ॥ सव्वे सव्वाऽवत्थं, आहारे हुंति आउत्ता॥ ५४३ ॥ जिणवयणमणुगुणितो, ताहे सव्वं चउव्विहाऽऽहारं । तं तारिसगं रयणं, सारंजं सव्वलोयरयणाणं । वोसिरिऊण गइंदो, भावेण जिणे नमसीय ।। ५१७॥ सव्वं परिचइत्ता, पात्रोवगया पविहरंति ॥ ५४४ ॥ तत्थ य वणयरसुरवर, विम्हियकीरंतपूयसकारो । एवं पाओवगम, निप्पडिकम्मं जिणेहिं पन्नत्तं । मज्झत्थो श्रासी किर, कलहेसु य जजरिज्जंतो।।५१८।। तं सोऊणं खमत्रो, ववसायपरकम कुणई ॥ ५४५ ॥ सम्मं सहिऊण तो, कालगो सत्तमंमि कप्पंमि ।। धीरपुरिसपन्नत्ते, सप्पुरिसनिसेविए परमरम्मे । सिरितिलयंमि विमाणे, उक्कोसठिई सुरो जाओ ॥५१६।। | धएणा सिलायलगया, निरावयक्खा णिवजंति ॥५४६।। सुयदिद्विवायकहियं, एयं अक्खाणयं निसामित्ता। सुव्वंति य अणगारा, घोरासु भयाणियासु अडवीसुं । पंडियमरणंमि मई, दढं निवेसिज्जभावेणं ।। ५२० ॥ गिरिकुहरकंदरासु य, विजणेसु य रुक्खहेढेसुं ।। ५४७ ।। जिणवयणमणुस्सट्ठा, दोऽवि भुयंगा महाविसा घोरा ।। धीधणियबद्धकच्छा, भीया जरमरणजम्मणसयाणं । कासीय कोसियासय, तरणसु भत्तं मुइंगाणं ॥५२॥ सेलसिलासयणत्था, साहति उ उत्तमट्टाई॥ ५४८॥ एगो विमाणवासी, जागो वरविजपंजरसरीरो । दीवादहिरमेसु य, खयरा वहियासु पुणरवि य तासु । बीओ उ नंदणकुले, बलु त्ति जक्खो महिड्डीओ ॥५२२।। कमलसिरीमहिलादिसु, भत्तपरिन्ना कया थीसु ॥५४६॥ हिमचूलसुरुप्पती, भद्दगमहिसी य थूलभद्दो य । जइ ताव सावयाकुल-गिरिकंदरविसमकडगदग्गासं । वेरोसवसमे कहणा, सुरभावे दंसणे खमणो ॥५२३॥ साहिति उत्तमलु, धिइधणियसहायगा धीरा ।। ५५० ॥ बावीसमाणुपुट्वि, तिरिक्खमणुयावि भेसणट्ठाए । किं पुण अणगारसहा-यगेण अमुन्नसंगहबलेणं । विसयाऽणुकंपरक्खण, करेज देवा उ उवसग्गं ॥५२४॥ परलोए य न सका, साहेउं अप्पणो अटुं ?।। ५५१ ।। संघयणधिईजुत्तो, नव दस पुत्री सुएण अंगा वा। समुइनेसु असुविहिय!, उवसग्गमहब्भयेसु विविहेसुं । इंगिणि पाओवगम, पडिवजइ एरिसो साहू ।। ५२५ ॥ हियएण चिंतणिजं, रयणनिही एस उवसग्गो।। ५५२ ।। निचल निप्पडिकम्मो, निक्खिवए जं जहिं जहा अंगं ।
किं जायं जइ मरणं, अहं च एगागियो इहं पाणी । एयं पाओवगम, सनिहारिं वा अनीहारिं ॥ ५२६॥ वसिओ हं तिरियत्ते, बहुसो एगागिनो ऽरमे ॥५५३॥ (अत्रत्याः पादोपगमनविषयिका श्रष्ट गाथाः 'पाओवग- वसिऊण वि जणमझे, वच्चइ एगागियो इमो जीवो। मण'शब्दे बृहत्कल्पोक्काः सव्याख्या गतास्तत एवावगन्तव्याः) मुत्तण सरीरघरं, मच्चुमुहाऽऽकड्डिओ संतो ॥ ५५४ ।। देवोनेहेण णए, देवागमणं च इंदगमणं वा ।
जह वीहंति अजीवा, विविहाण विहासियाण एगागी । जहियं इड्डी कंता, सव्वसुहा हुँति सुहभावा ॥५३॥
तह संसारगएहिं, जीवहिं विहेसिया अन्ने ॥ ५५५ ।। उवसग्गे तिविहेऽवि य, अणुकूले चेव तह य पडिकूले । सावयभयाऽभिभूयो, बहुसु अडवीसु निरभिरामासु । सम्म अहियासंतो, कम्मक्खयकारओ होइ । ५३६ ॥ सुरहिहरिणमहिससूयर-करवोडियरुक्खछायासु ॥५५६।। एयं पाओवगम, इंगिणि पडिकम्मवमियं सुत्ते। गयगवयखग्गगंडय-वग्धतरच्छच्छभल्लचरियासु । तित्थयरगणहरेहि य,साहूहि य सेवियमुयारं ।। ५३७॥ भल्लुंकिकंकदीविय, संचरसब्भावकिस्मासु ॥ ५५७ ।। सब्बे सम्बद्धाए, सव्वन्नू सव्वकम्मभूमीसु ।
मत्तगइंदनिवाडिय-भिल्लपुलिंदावकुंडियवणासुं। सवगुरू सव्वहिया, सब्वे मेरुसु अहिसित्ता।। ५३८ ॥
वसियोऽहं तिरियत्ते, भीसणसंसारचारम्मि ॥ ५५८॥ सव्वाहिऽवि लद्धीहि, सव्वेऽवि परीसहे पराइत्ता। कत्थ य मुद्धभिगत्ते, बहुसो अडवीसु पपइविसमासु । सव्वेऽवि य तित्थयरा,पाओवगया उ सिद्धिगया।॥५३॥ वग्घमुहाव डिएणं, रसियं अइभीयाहियएणं ॥ ५५६ ।। अवसेसा अणगारा, तीयपडुप्पन्नणागया सव्वे । कत्थइ अइदुप्पिक्खो, भीसणविगरालघोरवयणोऽहं । केई पाओवगया, पञ्चक्खाणिगिणिं केई ।। ५४०॥ आसिमहं वि य विग्यो, रुरुमहिसवराहविद्दवो ॥५६॥
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( १४८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
भरण
कत्थइ दुव्विहिर्हि, रक्खसवेयालभूयरूवेर्हि | छलि वहिय अहं, मणुस्सजम्मंमि निस्सारो । ५६१ । पइ कुडिलम्मि कत्थइ, संसारे पाविऊण भूयतं । बहुसो उब्वियमाणो, मए वि वीहाविया सत्ता ॥ ५६२॥ विरसं आरसमाणो, कत्थइ र सुघाइओ अह यं । सावयगहणंमि वणे, भयभीरूखुभियचित्तोऽहं ॥ ५६३॥ पत्तं विचित्तविरसं, दुक्खं संसारसागरगएणं । रसियं च असरणेणं, कयं तदंतंतरगएणं ॥ ५६४ ॥ तइया कीस न हायह, जीवो जइया सुसागपारिविद्धं । भल्लुकिकंकवास-ससु ढोकिजए देहं ।। ५६५ ।। ता तं गिजिऊि, देहं मुत्तूण वच्चए जीवो । सो जीव अविणासी, भणियो तेलुकदंसीहिं ॥५६६ ॥ तं जइ ताव न मुच्चइ, जीवो मरणस्स उब्वियंतोऽवि । तम्हा मज्झन जुञ्जइ, दाउण भयस्स अप्पाणं ॥ ५६७ || एवमणुचिंतयंता, सुविहिय ! जरमरणभावियमईया | पावंति कयपयत्ता, मरणसमाहिं महाभागा ॥ ५६८ ॥ एवं भावियचित्तो. संथारवरंभि सुविहिय ! सयाऽवि । भावेहि भावणाओ, बारसजिणवयणदिट्ठा ॥ ५६६ ॥ इह इत्तो चउरंगे, चउत्थमग्गं सुसाहुधम्मंमि । वने भावणा, वारसिमो वारसंगविऊ ।। ५७० ॥ समण सावरण य, जाओ निचं पि भावणिजाओ । दसंवेगकरी, विसेस उत्तमट्ठमि || ५७१ ॥ पढमं अणिच्चभावं असरण यं एगयं च अन्नतं । संसारमसुभयाऽवि य, विविहं लोगस्सहावं च ॥ ५७२ | कम्मस्स आसवं सं-वरं च निजरणमुत्तमे य गुणे । जिणसासांमि बोहिं, च दुल्लहं चिंतए मइमं ।। ५७३ ॥ सव्वद्वाणाइ असा-सयाई इह चैव देवलोगे य । सुरासुरनराई, रिद्धिविसेसा सुहाई वा || ५७४ || मायापिईहि ँ सहव - डिएहि मित्तैहि पुत्तदारेहिं । एगयओ सहवासो, पीई परणोऽवेि अ अणिच्चो || ५७५|| भवणेहिं व वणेहि य, सयणाऽऽसणजाणवाहणाईहिं । संजोगो विणिचो, तह परलौगेहिं सह तेहिं ॥ ५७६ | बलवीरियरूवजोव्वण, - सामग्गिसुभगया वपूसोभा । देहस्स य आरुग्गं, असासयं जीवियं चैव ।। ५७७ ॥ जम्मजरामरणभये, अभिहुए विविवाहितत्ते । लोगम्मि नत्थि सरणं, जिंदिवरसासणं मुत्तुं ॥ ५७८ ॥
सेहिय हत्थीहि य, पव्वयमित्तेहि निच्चमित्तेहिं । सावरणपहरणेहि य, बलवयमत्तेहिं जोहेहिं ॥ ५७६ ॥ महया भडचडगरपह-करेण वि चकवद्विणा मच्चू ।
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मरण
न जयपुव्वो केss, नीइबलेणाऽवि लोगंमि । । ५८० ॥ विविहेहि मंगलेहि य, विजामंतोसहीपश्रोगेहिं ।
न विसक्का तारेडं, मरणाऽवि रुम्मसोएहिं ॥ ५८१ ॥ पुत्ता मित्ताय पिया, सयणो बंधवजणो अ अत्थो य । न समत्था ताएउं, मरणा सिंदाऽवि देवगणा ।। ५८२ ॥ सयणस्स य मज्झगयो, रोगाभिहत्रो किलिस्सह इहेगो । सोऽवि य से रोगं, न विरिंचइ नेव नासेइ ॥ ५८३ ॥ ममि बंधवाणं, इक्को मरइ कलुणरुयंताणं । न य णं श्रभेति तत्रो, बंधुजणो नेव दाराई ॥ ५८४ ॥ इक्को करेइ कम्मं, फलमवि तस्सैको समणुहवई । इको जाय मरह य, परलोयं इक्कओ जाइ ।। ५८५ ॥ पत्तेयं पत्तेयं, नियगं कम्मफलमणुहवंताणं । कोकस जए सयणो ?, को कस्स व परजणो भणिओ! ५८६ कोकण समं जायर, को केण समं च परभवं जाइ । को वा करेह किंची, कस्स व को कं नियत्तेह १ ॥ ५८७ ॥ अणुसो अमजणं, अन्नभवं तरगयं तु बालजयो । न वि सोय अप्पा, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥ ५८८ | अनं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाऽविमे । एवं नाऊण खमं, कुसलस्स न तं खमं काउं १॥ ५८६ ॥ हा ! जह मोहिमा, सुग्गइमग्गं अजायमाणेयं । भीमे भवतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ।। ५६० ॥ जोसियसहस्सेसु य, असयं जायं मयं वऽणेगासु । संजोगविप्पोगा, पत्ता दुक्खाणि य बहारी ||५६१ ।। सग्गेसु य नरगेसु य, माणुस्से तह तिरिक्खजोणीसुं । जायं मयं च बहुसो, संसारे संसरंतेणं ।। ५६२ । निम्भत्थाऽवमाणण, वहबंधणरुंधणा धणविणासो ।
गाय रोगसोगा, पत्ता जाईसहस्सेसुं ॥ ५६३ ॥ सो नत्थि इहोगा सो, लोए वालऽग्गकोडिमित्तो वि । जम्मणमरणाऽवाहा, अगसो जत्थ न य पत्ता । ५६४| सव्वाणि सव्वलोए, रूवदव्वाणि पत्तपुव्वाणि । देहोवक्खरपरिभो - गयाइ दुक्खेसु य बहुसुं ।। ५६५ ॥ संबंधिबंधवत्ते, सव्वे जीवा अगसो मज्यं । विविहवहवेरजण्या, दासा सामी य मे आसी || ५६६ ॥ लोगसहावो धी धी, जत्थ व मायामया हवइ धूया ! तोsविय होइ पिया, पियाऽवि पुत्तत्तणमुवेई ||५६७ जत्थ पियपुत्तगस्स वि, माया छाया भवंतरगयस्स । तुट्ठा खाय मंसं इत्तो कि कट्ठयरमन्नं ? ॥ ५६८ ॥ वी संसारोजहियं, जुवाणओ परमरुवगव्वियओ । मरिऊण जायइ किमी, तत्थेव कलेवरे नियए ।। ५६६ ॥ बहुसो भूया, अकालम्मि सव्वदुक्खाई ।
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(१४६) मरण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण पाविहिइ पुणो दुक्खं,न करेहिइ जो जणो धम्मं ।६००। अहियाऽऽहारे मुक्के, रोगा इव उरजणस्स ।। ६२० ॥ धम्मेण विणा जिणदे-सिएण नन्नत्थ अस्थि किंचि सुहं । नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बलानिरुभंति । ठाणं वा कजं वा, सदेवमणुयाऽसुरे लोए । ६०१॥ । इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहिं ॥६२१॥ धम्म अत्थं काम, जाणिय कजाणि तिन्नि मिच्छति ।
हुंति गुणकारगाई, सुयरज्जूहिं धणियं नियमियाई । जं तत्थ धम्मकजं, तं सुभमियराणि असुभाणि ।६०२। नियगाणि इंदियाई, जइणो तुरगा इव सुदंता ॥६२२॥ आयासकिलेसाणं, वेराणं आगरो भयकरो य । मणवयणकायजोगा, जे भणिया करणसमिया तिमि । बहुदुक्खदुग्गइकरो, अत्थो मूलं अणत्थाण ॥ ६०३ ॥ ते जुत्तस्स गुणकरा, हुँति अजुत्तस्स दोसकरा ॥६२३॥ किच्छाहि पाविउं जे, पत्ता बहुभयकिलेसदोसकरा ।
जो सम्मं भूयाई, पासइ भूए अ अप्पभूए य । तक्खणसुहा बहुदुहा, संसारविवड्णा का ॥६०४॥ कम्ममलेण न लिप्पइ, सो संवरियासवदुवारो ॥६२४॥ नत्थि य इह संसारे, ठाणं किंचिऽवि निरुवयं नाम ।
धण्णा सत्तहियाई, सुणंति धरणा करंति सुणियाई । ससुराऽसुरसु मणुए, नरएसु तिरिक्खजोणीसुं ॥६०५।।
धमा सुग्गइमग्गं, मरंति धण्णा गया सिद्धिं ॥६२।। बहदक्खपीलियाणं, मइमूढाणं अणप्पवसमाणं ।
धरणा कलत्तनियले-हि विप्पमुक्का सुसत्तसंजुत्ता। तिरियाणं नऽथि सुहं, नेरइयाणं को? चेव ॥६०६।।
वारीअोव गयवरा, घरवारीअोऽवि निप्फिडिया ॥६२६॥ हयगम्भवासजम्मण-वाहिजरामरणरोगसोगेहिं ।
धरणा उ करेंति तवं, संजमजेगेहि कम्ममढविहं । अभिभूए माणुस्से, बहुदोसेहिं न सुहमत्थि ॥ ३०७॥
तवसलिलेणं मुणिणो, धुणंति पोराणयं कम्मं ॥६२७॥ मंसऽट्ठियसंघाए, मुत्तपुरिसभरिये नवच्छिद्दे ।
नाणमयवायसहिओ, सीलुजलियो तवोमो अग्गी । असुई परिस्सवंते, सुहं सरीरम्मि किं ? अस्थि ॥६०८॥
संसारकरणवीयं, दहइ दवम्गी व तणरासिं ॥ ६२८ ॥ इजणविप्पोगो, चवणभयं चेव देवलोगाओ।
सुगइगइपहो, सुदेसिउं उक्खो जिणवरेहि। एयारिसाणि सग्गे, देवाऽवि दुहाणि पाविति ॥६०६॥
ते धना जे एयं पह-मणवजं पवजंति ॥ ६२६ ।। ईसाविसायमको-हलोहदोसेहि एवमाईहिं ।
जाहे य पापियव्वं, इह-परलोए य होइ कल्लाणं । देवावि समभिभूया,तेसु वि य कह?मुहं अत्थि।६१०।
ता एयं जिणकहियं, पडिवजइ भावो धम्मं ॥६३०॥ एरिसयदोसपुतो, खुत्तो संसारसायरे जीवो ।
जह जह दोसोवरओ, जह जह विसएसु होइ वेरग्गं । जं अइचिरं किलिस्सइ, तं आसवहेउअं सव्वं ॥६११॥ तह तह वियाणयाहि, आसन्नं से पयं परमं ॥६३१।। रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेह कम्माई।
दुग्गो भवकंतारे, भममाणेहिं सुचिरं पणद्वेहिं । पासपदारहि अवि-गुहेहि तिविहेण करणेणं ॥६१२॥ दिट्ठो जिणोवइट्ठो, सुग्गइमग्गो कह वि लद्धो ॥६३२।। धिद्धी मोहो जेणिह, हियकामो खलु सपावमायरइ । माणुस्सदेसकुलका-लजाइइंदियबलोवयाणं च । नहु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियत्थिस्स ॥६१३।। विन्नाणं सद्धा दं-सणं च दुलहं सुसाहूणं ।। ६३३ ॥ रागस्स य दोसस्स य, धिरत्थु जं नाम सद्दहंतो दि ।
पत्तेसु वि एएसुं, मोहस्सुदएण दुल्लहो सुपहो । पावेसु कुणइ भावं, आउरविज व्व अहिएसुं ॥ ६१४ ॥ कुपहबहुयत्तेण य, विसयसुहेणं च लोभेणं ॥६३४॥ लोभेण अहव घत्थो, कजं न गणइ यत्रहियं पि ।
सो य पहो उवलद्धो, जस्स जए बाहिरे जणो बहुओ। अइलोहेण विणस्सइ,मच्छु ब्व जहा गलंगिलिओ।६१५।। संपत्तिच्चिय न चिरं, तम्हा न खमो पमाअोभे॥६३५॥ धम्म अत्थं कामं, तिमिऽवि वुद्धो जणो परिच्चयइ । जह जह दढप्पइमो, समणो वेरग्गभावणं कुणइ । ताई करेइ जेहि उ, किलस्सई इहं परभवे य ॥६१६॥ तह तह असुभं आयव-हयं व सायं खयमुवेइ ॥ ६३६ ॥ हुँति अजुत्तस्स विणा-सगाणि पंचिंदियाणि पुरिसस्स । एगअहोरत्तेणऽवि दड्डपरिणामा अणुत्तरं जंति । उरगा इव उग्गविसा, रहिया मंतोसहि विणा ॥६१७॥ कंडरिओ पुंडरिओ, अहरगईउड्डगमणेसुं । ६३७ ।। आसवदारेहि सया, हिंसाईएहि कम्ममासवइ । बारसवि भावणाओ, एवं संखेवो समत्तानो। जह नावाइविणासे, छिद्देहिं जलं उयहिमज्झे ॥६१८॥ भावेमाणो जीवो, जाओ समुवेइ वेरग्गं ।। ६३८॥ कम्माऽऽसबदाराई, निरूभियव्वाइँ इंदियाइं च । भाविज भावणाओ, पालिज वयाई रयणसरिसाई । हंतव्वा य कसाया, तिविहं तिविहेण मुक्खत्थं ॥६१६॥ पडिपुष्पपावखमणे, अइरा सिद्धिं पि पावहिसि ॥६३६॥ निग्गहियकसाएहिं, आसवा मूलयो हया हुंति । । कत्थई मुहं सुरसम, कत्थइ निरोवमं हवइ दुक्खं ।
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( १५० भिधान राजेन्द्रः ।
भरण
कत्थइ तिरियस रिच्छं, माणुसजाई बहुविचित्ता ॥ ६४० ॥ दवि अप्पसुहं, माणुस्सं गदोससंजुत्तं । सुवि हियमुव, कजं न मुणेइ मूढजणो || ६४१ ॥ जह नाम पट्टणम, संते मुल्लमि मूढभावेणं । न लहंति नरा लाहं, माणुसभावं तहा पत्ता ||६४२॥ संपत्ते बलविरिए, सम्भावपरिक्खणं अजाणता । न लहंति बोहिलाभं, दुग्गहमग्गं च पार्वति ॥ ६४३ ॥ अम्मापियरो भाया, भज्जा पुत्ता सरीर अत्थो य । भवसागरम्मि घोरे, न हुंति ताणं च सरणं च ॥६४४॥ asha माया नविय पिया, न पुत्तदारा न चैव बंधुजणो । नविय धणं न वि धनं, दुक्खमुनं उवसमेंति ॥ ६४५।। जइयासयणिञ्जगओ, दुक्खत्तो सयणबंधुपरिहीणो । उत्तर परियत्त, उरगो जह अग्गिमज्झम्मि ||६४६ ॥ सुइ सरीरं रोगा, जम्मणसयसाहणं छुहा तरहा । उहं सीयं वाओ पहाभिघाया यऽणेगविहा ||६४७|| सोगजरामरणाई, परिस्समोदीणया य दारिदं । तह य पियविपयोगा, अप्पियजणसंपयोगा य । ६४८ | एयाणि य अण्णाणि य, माणुस्से बहुविहाणि दुक्खाणि । पचक्खं पिक्खतो, को न मरइ तं विचिंततो ? ॥६४६ ॥ लडूण वि माणुस्सं सुदुल्लाहं केइ कम्मदोसें । सायासुहमणुरत्ता, मरणसमुद्देऽवगाहिंति ।। ६५० ॥ ते उ इहलोगसुहं, मुत्तूर्ण माणसं सियमईओ | विरतिक्खमणभीरू, लोगसुइकरण दोगुंछी ।। ६५१ ।। दारिद्ददुक्खवेयण, बहुविहसीउ एहखुप्पिवासाणं । अरइभयसोगसामिय-तकरदुब्भिक्खमरणाई || ६५२ ।। एएसिं तु दुहाणं जं पडिवक्खं सुहंति तं लोए । जं पुण अचंतमुहं, तस्स परुक्खा सया लोया || ६५३ ॥ जस्स न छुहान तरहा, न य सीउएहं न दुक्खमुक्किट्ठे । इयं सरीरं, तस्सऽसणाईसु किं कर्ज ? ||६५४ || जह निंबदुमुपपन्नो, कीडो कडुयंऽपि मन्नए महुरं । तह मुक्खसुहपरुक्खा, संसारदुहं सुहं बिंति ।। ६५५ ।। जे कडुयदुमुप्पन्ना कीडा, वरकप्पपायवपरुक्खा ।
सिं विसालवल्ली, विसं व सग्गो य मुक्खो य ।। ६५६ ॥ तह परतित्थियकीडा, विसयविसंकुरविमूढदिट्ठीया । जिणसासuकप्पतरु - वरपारुक्खरसा किलिस्संति । ६५७/ तम्हा सुक्ख महातरु, सासयसिवफलयसुक्खसत्तें । मुत्तू लोगसमं, पंडियमरणेण मरियव्वं ॥ ६५८ना जिमयभाविश्रचित्तो, लोगसुई मलविरेयणं काउं । धम्मंमि तत्राणे, सुके य मई निवेसह ||६५६ || सुगह-जह जिणवयणाम-य भावियहियएण झाणवावारो ।
मरणविभत्ति करणिजो समणं, जं झाणं जेसु झायव्वं ॥ ६६० ॥ एयं मरणविभत्तिं, मरणविसोहिं च नाम गुणरयणं । मरणसमाही तइयं, संलेहणमुयं चउत्थं च ॥ ६६१ ॥ पंचम भत्तपरिणा, बटुं आउरपच्चक्खाणं च । सत्तम महपच्चक्खाणं, अट्टम आराहणपइमो ॥ ६६२ ॥ इमा सुया, भावा उ गहियंमि लेस अत्थाओ । मरणविभत्ती रइयं, वियनाम मरणसमाहिं च ।। ६६३ ॥ इति सिरिमरणविभत्तीपइयं संमत्तं ॥ ८ ॥
द० प० १० प्र० । ( केन प्रकारेण म्रियमाणो जीवो वर्धते हापयति चेति 'खंदग' शब्दे तृतीयभागे गतम् ) । ( न केचिदकाले म्रियन्ते इति हिंसा न दोषावहेति 'हिंसा ' शब्दे निराकरिष्यते)
चोदसरज्जुलोए, गोयम ! बालऽग्गकोडिमित्तं पि । तं नत्थ पएसं जत्थ, अतमरणे न संपत्ते ॥ १ ॥
महा० ५ श्र० ।
य संसारंमि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स । जीवस अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाएउ ॥ १ ॥ महा० ६ ० । ( मरणभेदाः " मरणविभत्तिं " शब्दे ) मरणंत - मरणान्त - पुं० । मरणरूपोऽन्तो मरणान्तः । स० ३२
सम० । यावच्चरमोच्छ्रासः । ध० २ अधि० । चरमकाले, दश० ५ श्र० २ उ० । " मरणंते वीति " ( ३६ गाथायाः व्याख्या ' मज्ज ' शब्दे गता )
मरणकाल - मरणकाल-पुं० । मरणेन विशिष्टः कालो मरणकालः । श्रद्धाकाल एव, मरणमेव वा कालो, मरणस्य कालपर्यायत्वान्मरणकालः । तृतीये कालभेदे, भ० ।
से किं तं मरणकाले ? मरणकाले दुविहे पत्ते । तं जहाजीवो वा सरीराउ । सरीरं वा जीवाउ । सेत्तं मरणकाले ( सूत्र - २४४ )
( जीवो वा सरीरेत्यादि) जीवो वा शरीरात्, शरीरं वा जीवात् वियुज्यत इति शेषः । वाशब्दौ शरीरजीचयोरवधिभावस्येच्छानुसारिता प्रतिपादनार्थाविति । भ० ११ श० ११ उ० । मरणजयज्झवसिय - मरणजयाध्यवसित- न० । सुभटभावतुल्ये, मर्त्तव्यं वा जयो वा प्राप्तव्य इति प्रवृत्तसुभटाध्यवसायसद, ( गाथा - ५२० ) पं० ० २ द्वार । मरणदुक्खपडिकूल-मरणदुःखप्रतिकूल - पुं० । मरणलक्षणस्य दुःखस्य, मरणदुःखयोर्वा प्रतिकूलाः प्रतिपन्थिनः । मरणलेशपरिपन्थिषु, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । मरणदेसकाल - मरणदेशकाल - पुं० । मरणप्रस्तावे ( गाथा११ ) तं० । ( व्याख्या ' धम्म ' शब्दे चतुर्थभागे गता ) मरणभय - मरणभय - न० । मरणमायुष्कक्षयलक्षणं तदेव भयं मरणभयम् । भयस्थानभेदे, (सूत्र - ७) स०६ सम० । स्थान मरणविभत्ति-मरणविभक्ति - स्त्री० । मरणानि - प्राणत्यागलक्षखानि । तानि च द्विधा - प्रशस्तानि प्रशस्तानि च । तेषां विभजनं पार्थक्येन स्वरूपप्रकटनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा मरणविभक्तिः । नं० । आगमबाह्यत्कालिकद्वाविंशे श्रुतभेदे,
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मरणविभत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
मरीड " मरणविभत्ति त्ति” मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि अनुस- | मरमाण-म्रियमाण-त्रि० । प्राणांस्त्यजति, भ० १८ श०३उ० । मयादीनि वर्तन्ते यत्र-यथोक्तम्
मरहट्ठ-महाराष्ट्र-पुं० । "महाराष्ट्र"॥८।१ । ६६ ॥ इति सू. "प्रावीइ १ श्रोहिरातय ३-वलायमरणश्वसट्टमरणं च ५।।
बान्महाराष्ट्रशब्दे श्रादेराकारस्याद्वा भवति । मरहटुं। मरहट्ठो। अन्तोसलं ६ तब्भव ७-बालं तह पंडियं : मीसं १० ॥१॥
प्रा०१ पाद । “महाराष्ट्रे हरोः" ॥८।२ । ११६ ॥ महाराष्ट्रछ उमत्थमरण?? केवलि१२-वेहाणस१३गिद्धपट्टमरणं च १४।।
शब्दे हरोय॑र्त्ययो भवति । मरहट्ट । प्रा०२ पाद । नर्मदायाः मरणं भत्तपरिराणा १५-इङ्गिणि १६ पाओवगमणं च १७।।"
दक्षिणे कावेर्याश्चोत्तरे देशभेदे, स चानार्यदेशत्वेन परिगतत्राध्वीचिमरणम् श्रा-समन्ताद्वीचय इव वीचयःप्रतिसमय
णितः (सूत्र-४) प्रश्न०१आश्र० द्वार । मनुभूयमानायुषोऽपराऽपरायुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिन् तदाबीचिमरणम् । अथवा
मराल-मराल-पुं०। हंसे, "शानी निमज्जति शाने, मराल इव वीचिविच्छेदस्तदभावादवीचिस्तल्लक्षणं मरणमवीचिमरण
मानसे" श्लोक-(१) अष्ट ५ श्रष्ट । श्राव० । जडे, “मम् । श्रोहि त्ति' अवधिमरणम् , अवधिर्मर्यादा । ततश्च यानि
सिणं सणि मटुं, मंदं अलसं जडं मरालं च । खेलं निहुअं नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते,
सइरं, वीसत्थं मंथर थिमिश्रं ॥१५॥" पाइ० ना० १५ गाथा । यदि पुनः तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणम् । सं
हंसे, "धयरट्ठा कायम्बहंसा धवलसउणा मराला य " भवति हि-गृहीतोज्झितानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं
पाइ० ना० ५६ गाथा। परिणामवैचित्र्यादिति। "अंतिय त्ति" श्रात्यन्तिकमरणम्- मरालि-मरालि-पुं । म्रियत इव शकटाऽऽदौ योजितो यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, मृतो | राति च ददाति लतादि लीयते च भुवि पतनेनेति मरालिः। वा न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति ।
गाथा (सूत्र ४) दुष्टपशी, गवि, अश्वे च । उत्त०१ अ०। बलवन्मरण-चशार्त्तमरणस्वरूपं यथा“संजमजोगविसन्ना, मरन्ति जे तं वलायमरणं तु४।।
मराली-देशी-सारसी-दूती-सखीषु, दे० ना०६ वर्ग० १४२ इंदियविसयवसगया, मरन्ति जे तं वसट्टे तु ५॥५॥"
गाथा । अन्तःशल्यमरणस्वरूपं यथा
मरिउं-मृत्वा-श्रव्य० । मृतिम् श्रासेव्य इत्यर्थे, (गाथा-४२) “लजाए गारवेण य, बहुसुयमएण वावि दुश्चरियं ।
पञ्चा० १५ विव०। जे न कहन्ति गुरूणं, न हु ते आराहगा होन्ति ॥१॥ मतम-अव्य० । मारणं कर्तुमित्यर्थे, तं०।। गारवपङ्कनिबुड्डा, अइयारंजे परस्स न कहिन्ति । मरिएव्य-मर्तव्य-न० । “तव्यस्य इएव्व उ ए वा" ॥६४४३८॥ दसणनाणचरित्ते, ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥२॥
अपभ्रंशे तव्यप्रत्ययस्यैते आदेशाः स्युः। इति तव्यत इएव्वाएयं ससल्बमरणं, मरिऊणं महाभए दुरंतंमि ।
ऽऽदेशः । कर्तव्ये प्राणत्यागे, " एउ गृण्हेप्पिणु 9 मई, जह सुचिरं भमंति जीवा, दीहे संसारकंतारे ॥३॥-६॥"
प्रिउ उब्वारिजइ। महु करिएब्वउं किंपि एवि, मरिएब्वउं तद्भवमरणस्वरूपमिदम्
परं देजइ । प्रा०४ पाद। "मोत्तुं अकम्मभूमग-नरतिरिए सुरगणे य णेरइए । सेसाण जीवाणं, तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥७॥
मरिस-मृष-धा। मर्षणे, “ वृषादीनामरिः" ॥८४ | २३५॥ तस्मिन्नेव भवे उत्पद्यमानानामिति भावना।
वृषाऽऽदीनां धातूनामृवर्णस्यारिरित्यादेशो भवति । मरिअथ बालादिमरणसप्तकस्वरूपं यथा
सइ । मृष्यते । प्रा०४पाद । "अविरयमरणं बालं, मरणं विरयाण पण्डियं वेति । ।
मरीइ-मरीचि-पुं० । किरणे, प्रा०म० १० । रा० । औ० । जाणाहि बालपण्डिय , मरणं पुण देसविरयाणं १० ॥१॥ स्था। सः। श्रा० चू० । सू०प्र० । ०। जातमात्रोमरीचिमु, मणपज्जवोहिनाणी, सुयमदणाणी मरन्ति जे समणा । क्वानित्यतो मरीचिमान मरीचिः । अभेदोपचारान्मतुपो लो. छउमत्थमरणमेयं ११, केवलिमरणं तु केवलिणो १२२। पाद्वति । श्रा०म०१ अ० । मरीचिनामके भरतचक्रवर्तिपुत्रे, गिद्धादिभक्खणं गि-द्धपट १३ उब्बन्धणाइवेहासं १४॥ कल्प०१ अधि०२ क्षण । ऋषभपौत्रे, श्रा० म० १ अ०। एए दुन्नि वि मरणा, कारणजाए अणुनाया।३।"। पा०। (विशेषः स्वस्वस्थानादवगन्तव्यः)
अह भणइ नरवरिंदो, तायइ मीसि त्ति आइपरिसाए । मरणवसाण-मरणाऽवसान-न० । प्राणवियोगसमये, विपा० |
अन्नोवि कोऽवि होही,भरहे वासम्मि तित्थयरो॥४२२॥ १ श्रु०१०।
अथ भणति नरवरेन्द्रो भरतः। तात! अस्या एतावत्या
पर्षदो मध्यात् अन्योऽपि-एकतरो-पि कश्चिद्भविष्यति भारते मरणाऽऽसंसप्पोग-मरणाशंसाप्रयोग-पुं० । अपश्चिममार-|
वर्षे तीर्थकरः। णान्तिकसंलेखनाया अतिचारभेदे.उपा०१ अाश्रा आव०।
स्वाम्युक्तमाहकश्चित्कर्कशक्षेत्रे कृतानशनः प्रागुक्तपूजाद्यभावे तुधात्तों वा चिन्तयति,किमिति शीघ्रं न म्रियेऽहमिति मरणाऽशंसाप्रयो
तत्थ मरीई नाम, आइपरिवायगो उसभनत्ता । गः । ध०२ अधिक। आव० (अत्र विशेषः " आसंसप्प
सज्झायझाणजुत्तो, एगंते झायइमहप्पा ॥ ४२२ ॥ श्रोग" शब्दे)
तं दाएइ जिणिंदा, एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो । मरणास-मरणाशा-स्त्री० । कस्यांचिदवस्थायां मरणप्राप्ति-| धम्मवरचक्कवट्टी, अपच्छिमो वीरनामु त्ति ॥४२३॥ संभावनायाम् . (सूत्र-४४६) भ०१२ श५ उ० ।
तत्र समवसरणैकदेशे मरीचिर्नाम श्रादिः प्रथमः परिवा
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(१५२) मरीह अभिधानराजेन्द्रः।
मराह जकः ऋषभस्य नप्ता-पौत्रः स्वाध्यायध्यानयुक्तः एकान्ते ध्या. संसारे कियन्तमपि कालमटित्या स्थूणायां नगर्या जात यति महात्मा तं दर्शयति जिनेन्द्रः । एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् | इति । अमुमेवार्थ 'थूणा' इत्यादिना प्रतिपादयतिएष धर्मवरचक्रवर्ती अपश्चिमो वीरनामा भविष्यतीति शेषः ।
धूणाइ पूसमित्तो, आउं वावत्तरिं च सोहम्मे ।। श्रा०म०१ अ०।
चेइअ अग्गिजोओ, चोवट्ठीसाणकप्पमि ॥ ४४१॥ इदानी प्रकृतां मरीचिवक्तव्यतां पृच्छतां कथयतीत्यादिना प्रतिपादयति
स्थूणायां नगयाँ पुप्पमित्रो नाम ब्राह्मणः संजातः (आउं
यावत्तरिं च सोहंमे त्ति) तस्यायुष्कं द्विसप्ततिः पूर्वशतसपुच्छताण कहेई, उवट्ठिए देइ साहुणो सीसे ।
हस्राण्यासीत् । परिव्राजकदर्शने च प्रव्रज्यां गृहीत्वा तां पाल गेलनि अपडिअरणं,कविला इत्थं पि इहयं पि ॥४३७।। यित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा सौधर्मे कल्पेऽजघन्योगमनिका-पृच्छतां कथयति । उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः
स्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति । (चेइयअग्गिजोश्रो चोवट्ठी शिष्यान् ग्लानत्वेऽप्रतिजागरणं कपिलः अत्राऽपि इहाऽपि ।
साणकप्पम्मि' त्ति) सौधर्मच्युतः चैत्यसन्निवेशे अग्निभावार्थः,स हि प्राग्व्यावर्णितस्वरूपो मरीचिर्भगवति निव
द्योतो ब्राह्मणः सञ्जातः तत्र चतुःषष्टिपूर्वशतसहस्राण्याते साधुभिः सह विहरन् पृच्छतां लोकानां कथयति-धर्म
युष्कमासीत् । परिवाद च सजातो मृत्वा च ईशाने देवोऽजिनप्रणीतमेव धर्माक्षिप्तांश्च प्राणिन उपस्थितान् ददाति
जघन्योत्कृष्टस्थितिः संवृत्त इति गाथाऽर्थः। साधुभ्यः शिष्यानिति । अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः। साधवोs- __ मंदिरे अग्गिभूइ, छप्पणा उ सणंकुमारंमि । प्यसंयतत्वान्न प्रतिजापति । स चिन्तयति-निष्ठितार्थाः ख
सेअवि भारदाओ, चोआलीसं च माहिदे ॥ ४४२ ॥ ल्वेते।नाऽसंयतस्य कुर्वन्ति,नापि ममैतत् कारयितुं युज्यते। तस्मात्कञ्चन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति (श्रा०म०) (अत्रा
गमनिका-ईशानात् च्युतो(मंदिरे इति)मन्दिरसन्निवेशे अग्निन्यद्वक्तव्यं ‘कविल' शब्दे तृतीयभागे ३८७ पृष्ठे गतम् )
भूतिनामा ब्राह्मणा बभूव । तत्र षट्पञ्चाशत्पूर्वशतसहस्रामरीचिनाप्यनेन संसारोऽभिनिर्वर्तितः।
णि जीवितमासीत् । परिव्राजकश्च बभूव । मृत्वा (सणंकुमार
म्मित्ति) सनत्कुमारे कल्पे विमध्यमस्थितिर्देवः समुत्पन्न इति त्रिपदीकाले च नीचैर्गोत्रकर्मबद्धमिति । अमुमेवार्थ
(सेअवि भारद्दाए चौशालीसं च माहिंदे त्ति) सनत्कुमारा प्रतिपादयन्नाह
उच्यतः श्वेताम्ब्यां नगर्या भारद्वाजो नाम ब्राह्मण उत्पन्न इति। दुभासिएण इकेण, मरीई दुक्खसायरं पत्तो ।
तत्र च चतुश्चत्वारिंशत् पूर्वशतसहस्राणि जीवितमासीत् । भमित्रो कोडाकोडिं, सागरसरिनामधेजाणं ॥४३८॥ परिव्राजकश्चाभवत् , मृत्वा च माहेन्द्रे कल्पेऽजघन्योत्कृष्ठदुर्भाषितेन एकेनोक्तलक्षणेन मरीचितुःखसागरं प्राप्तः। भ्रा
स्थितिर्देवो बभूवेति गाथार्थः । न्तः कोटीना कोटी कोटिकोटी ताम् । केषामित्याह-(साग- | संसरिम थावरो रा-यगिहे चउतीस बंभलोगंमि । रसरिनामधेजाणं ति) सागरसदृशनामधयानां सागरोपमा
छस्सु वि पारिव्वजं,भमिओ तत्तो अ संसारे ।। ४४३ ।। नामिति गाथाऽर्थः।
गमनिका-माहेन्द्राच्च्युत्त्वा , संसृत्य कियन्तमपि कालं तम्मूलं संसारो, नीबागोत्तं च कासि तिवईमि ।
संसारे, ततः स्थावरी नाम ब्राह्मणो राजगृहे समुत्पन्न अपडिकतो बंभे, कविलो अंतद्धिओ कहए ॥ ४३६॥ इति । तत्र च चतुस्त्रिंशत् पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कं परितन्मूलं-दुर्भाषितमूलं संसारः सजातः । तथा स एव
व्राजक श्रासीत् । मृत्वा च ब्रह्मलोकेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिनीचैर्गोत्रं च कृतवान् निष्पादितवान् , त्रिपद्यां प्राग्व
देवः संजातः। एवं पदस्खपि वारासु परिव्राजकत्वमधिर्णितस्वरूपायामिति । (अपडिक्कतो बंभे त्ति) स मरी
कृत्य दिवमवाप्तवान् ( भमिश्रो तत्तो अ संसारे ) ततः चिश्चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्कमनुपाल्य तस्मात् ब्रह्मलोकाच्च्युक्त्वा भ्रान्तः संसारे प्रभूतं कालमिति दुर्भाषिताद्-दुर्वाचा अप्रतिक्रान्तोनिवृत्तः ब्रह्मलोके दशसा- गाथार्थः। गरोपमस्थितिद्देवः सजात इति । श्रा० म०१०। (अत्र रायगिह विस्सनंदी, विसाहभूई अ तस्स जुवराया । कपिलविषयकं वक्तव्यं 'कविल' शब्दे तृतीयभागे ३८७ पृष्ठे
जुवरामो विस्सभूई, विसाहनंदी अ इअरस्स ॥४४४॥ गतम्) इक्खागेसु मरीई, चउरासीई अ बंभलोगंमि ।
रायगिह विस्सभूई, बिसाहभूइसुओ खत्तिए कोडी । कोसिउ कुल्लागंमि, (गेमुं) असीइमाउं च संसारे ।४४०
वाससहस्सं दिक्खा, संभूअजइस्स पासंमि ॥ ४४५ ॥ गमनिका-इक्ष्वाकुषु मरीचिरासीत् । चतुरशीति च पूर्व- भावार्थः खल्वस्य गाथाद्वयस्य कथानकादवसेयः। तच्चेदम्शतसहस्रारयायुकं पालयित्वा · बंभलोयम्मि' ब्रह्मलोके "रायगिहे नगरे विस्सनंदीराया। तस्स भाया विसाहभूती। कल्पे देवः संवृत्तः । ततश्चायुष्कक्षयाच्युत्या ( कोसिउको- सो य जुवराया । तस्स जुवरगणो धारिणीए देवीए विस्तभूलागेसु लि) कोल्लाकसन्निवेसे कौशिको नाम ब्राह्मणो बभूव । तीनाम पुत्तो जाओ । रणोऽवि पुत्तो विसाहनंदि त्ति । तस्स (असीतिमा च संसारे त्ति ) स च तत्राशीतिं पूर्वशतसह- विस्सभूतिस्स वासकोडी श्राऊ । तत्थ पुप्फकरंडकं नाम नाण्यायुष्कममुपाल्य (संसारे त्ति) तिर्यग्नरनारकामर- | उज्जाणं । तत्थ सो विस्सभूती अंनेउरवरगतो सच्छंदसुई पविभवानुभूतिलक्षणे पर्यटित इति गाथार्थः ।
यरइ । ततो जा सा विसाहनंदिस्स माया तीसे लासचेडीओ
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(१५३ ) मरीह अभिधानराजेन्द्रः।
मरीह पुष्फकरंडए उजाणे पत्ताणि पुप्फाणि य ाणेति । पेच्छति णपुरे णगरे पुत्तो पयावइस्स मिगावईए देवीए कुच्छिसि उवय विस्सभूति कीडतं । तासि अमारसो जाओ । ताहे सा- वमो । तस्स कहं पयावती नामं? तस्स पुटिव रिउसनुत्ति नामं हंति जहा-एवं कुमारो ललइ । किं अम्ह रजेण वा बलेण या होत्था। तस्स भद्दाए देवीए अन्नए अयले नाम कुमारे होत्था।तजइ विसानंदी न भुजइ एवंविहे भोए । अम्ह नाम चेव ।। स्स य अयलस्स भगिणी मियावती नाम दारिया अतीव रूवरजं पुण जुवरनो पुत्तस्स जस्सेरिसं ललिय । सा तासि | वती । सा य उम्मुक्कबालभावा सव्वालंकारविभूसिया पिउ. अंतिए सोउं देवी ईसाए कोवघरं पविट्ठा । जइ ताव रायाणए पायवंदिगा गया। तेण सा उच्छंगे निवेसिया, सो तीसे रूवे जीवतए एसा अवत्था जाहे राया मतो भविस्सइ ताहे
जोव्वणे य अंगफासे य मुच्छिो । तं विसज्जेत्ता पउरजणइत्थ अम्हे को गणेहि त्ति? । राया गमेइ । सा पसायं न
वयं वाहरइ । ताहे भणइ । जं एत्थ रयणं उप्पज्जातं कस्स?। गिराहइ कि मे रज्जेण तुमे वत्ति । पच्छा तेण अमच्चस्स
तेभणति-तुभं एवं तिन्नि वारा साहितेसाचेडी उबट्टाविया । सिट्रं । ताहे अमच्चो वि तं गमेति तह वि न ठाइ । ताहे
ताहे लजिया निग्गया तेसिं सब्वेसिं कुबमाणाणं गंधब्वेण अमच्चो भणइ-रायं ! मा देवीए वयणातिकमो कीरउ ।
विवाहेण सयमेव विवाहिया। उप्पाइयाणणं भारिया ।सा भमा मारेहिइ अप्पाणं । राया भगति को उवाश्रो होज्जा ।
हापुत्तेण अयलेण समं दक्खिणापहे माहेस्सिरिं पुरि निवेसेह, ण य श्रम्हं वंसे अन्नम्मि अभिगते उज्जाणे अराणो अतीति । तत्थ वसंतमासं ठियो। मास जेतु अच्छइ। श्रमच्चो
महंतीए इस्सरीए कारिअ त्ति माहेस्सरी,अयले माय ठवेऊण
पिउमूलमागो । ताहे लोएण पयावतीनामं कयं । पयाणेभणइ-उवाओ कज्जह जहा अमुगो पच्चतराया उक्कट्ठो अ
ण पडिवराणा पयावति त्ति"। वेदेऽप्युक्तम् “प्रजापतिः स्वां णज्जंता पुरिसा कृडलेहे उवणेतु एवमेतेण कयगेण कूड
दुहितरभकामयत्" । ताहे महामुक्काओ डइऊणं तीए मियालेहा रन्ना उवट्ठाविया । ताहे राया जत्तं गिराहइ। तं विस्मभूतिणा सुयं । ताहे भणति । मए जीवमाणे तुम्भे किं
वतीए कुच्छिसि उववझो। सत्त सुविणा दिट्ठा। सुमिणपाटगेहिं निग्गच्छह ? ताहे सो गो । ताहे चेव इमो अइयो । सो
पढमवासुदेवो आइट्ठो।कालेण जातो तिमि य से पिटुकरंडग त्ति गयो । तं पच्चंतं जाच न किं चि पेच्छइ अहुमरं तं ताहे
तिविठू नाम कयं । मायाए परिमक्खिो उण्हतेल्लेणति जोश्राहिंडित्ता जाहे नत्थि कोइ अतिक्कमइ । ताहे पुणरवि
व्वणगमणुप्पत्तो। इत्तो य महामंडलिओ श्रासग्गीराया। सो पुष्फकरंडयं उज्जाणमागो। तत्थ दारवालादंडगहिअग्गह
निमित्तियं पुच्छइ । कतो मम भयं ति? तेण भणियं जो चंडमेहं स्था भणति-मा अईह सामी ! सो भणति। किं निमित्तं। पत्थ
दूयं आधरिसेहि त्ति । अवरते य महावलगं मारेसीहं ति। ततो विसाहनंदी कुमारो रमइ । ततो एयं सोऊण कुविप्रो वि
ते भयं ति । तेण सुयं जहा पयावतिपुत्ता महाबलगा । ताहे स्सभूई । तेण नायं केण अहं निग्गच्छाविप्रो त्ति । तत्थ
तत्थ दूयं पेसेइ,तत्थ अंतेउरपेच्छणयं चट्टइ तत्थ य दूतो पविकविट्टलता अणेगफलभरसमोण्या सा मुट्टिप्पहारेण श्रा
होराया उढिो।पेच्छयणं भग्गं कुमारा पेच्छगेण अक्खित्ता हया । ताहे तेहिं कवितुहिं भूमी अत्थुया । तो भणति-एवं
भगति । को एस? तेहिं भणियं जहा श्रासग्गीवरलो दूओ। ते अहं तुम्भं सीसाणि पाडितो । जइ अहं महल्लपिउणो गो
भणति । जाहे एस वच्चेजा ताहे कहेजाह । सो राइणा पूएऊण रवं न करेंतो । अहं मे छम्मेण नीणिो । तम्हा अलाहि
विसज्जियो । पधावित्रो अप्पणो विसयस्स कहियं कुमाराभोगोहि । तो निग्गयो भोगा अवमाणमूलं ति । श्रज्जसं
ग । तेहिं गतण अद्ध पहे हो । तस्स जे सहाया
ते सव्वे दिसो दिसिं पलाया । रराणा सुयं जहा श्राधभूयाणं थेराणं श्रीतए पवइओ । तं पब्वइयं सोउं ताहे रा
रिसिओ दृश्रो , संभंतेण निपत्तियो । ताहे रराणा विउणं या संतेउरपरियणो जुवराया य निग्गश्रो। ते तं खमावेति ।
तिउण दाऊण मा हु रणो साहिज्जसु जं कुमारेहिं कयं । ण य तेसि सो प्राणाले गेएहइ । ततो बहुहि छट्टट्ठमादिपहि अप्पागं भावमाणो विहरति । एवं सो विहरमाणो महुरं न
तेण भणिय न साहेमि । ताहे जे ते पुरओ गया तेहिं सिटुं गरिं गी । इओ य विसाहनंदी कुमारो तत्थ महुराए पिउ
जहा आधरिसिओ दूओ । ताहे सो राया कुविनो। तेण दूच्छाए रन्नो अग्गमहिसीए धूयालद्धेल्लिया। तत्थ से रायमग्गे
एण नायं । जहा-रन्नो पुवं कहिएल्लयं । जहावत्तं सिटुं । ततो श्रावासो दिन्नो । सोय विस्सभूती अणगारो मासखमणपार
आसग्गीवेण अन्नो दृश्रो पेसियो । पञ्चपयावई गंतूण भणाणगे हिंडंतोतं पपसमागते जत्थ ठाण विसाहनंदी कुमारो अ
हि-मम सालि रक्खाहि भक्खिज्जमाणं । गतो दूओ । रना स्थइाताहे तस्स पुरिसेहिं कुमारो भाइ । सामि!तुब्भे एयं न या
कुमारा उवलद्धा । किह अकालमच्चू खवलिश्रो। तेण अम्हे णह?सो भणति । न याणामि । तेहिं भणइ । एस सो विस्सभूती
आवारए चेव जत्ता आणत्ता । राया पहावित्रो। ते भणंति-श्रकुमारो। ततो तस्स तं दट्टण रोसो जाश्रो । एत्यंतरे सूइयाए
म्हे बच्चामो । ते रुभता मड्डाए गता। गंतूण खेत्तिए भणंति । गावीए पेल्लिो पडिओ। ताहे तेहिं उक्कुटिकलयलो को।।
किह अन्ने रायाणो रक्खियाइया। ते भणंति-श्रासहत्थिरइमं च तेहिं भणियं । तं बलं तुम कविट्ठपाडणं च कहिं गयं ?
हपुरिसपागारं काऊण केच्चिरं जाव करिसणं पचिटुं । ति ताहे तेण ततो पलोइयं दिट्ठो य गेण सो पावो। ताहे अमरिसे.
विठूभणति-कोएयञ्चिरमच्छई? मम तं पएसं दरिसेह । तेणं तं गावि अग्गसिंगहिं गहाय उ8 स वहति । सुदुब्वलस्स वि
हिं कहियं-एयाए गुहाए ताहे कुमारो रहेण तं गुहं पविट्ठो सिंघस्स कि सियालेहिं बल लंघिज्जइ? ताहे चेव नियत्तो इमो
लोगेण दोहिं वि पासेहिं कलयलो को । सीहो वियंभंतो दुरप्पा अज्जविमम रोसं वहद । ताहे सो नियाणं करेइ । जइ
निग्गश्रो । कुमारो चिंतेइ-एस पादेहिं अहं रहेण । विसइमस्स तवनियमस्स बंभचेरस्स फलमत्थि तो भागमेसाणं श्र
रिसं जुद्धं असिक्खेडगहत्थोरहाश्रोश्रोइन्नो।ताहे पुणो विपरिमियवलो भवामि। तत्थ सो प्रणालोइयपडिकंतो महासुक्के
चिंतेइ-एस दाढाणखायुद्धो अहमसिखेडगेण । एवमवि श्रउववगणो। तत्थुकोसठितीश्रोदेवो जातो। ततो चइऊण पोय- १वलान +: भामन्त्रितः | ३ तिप्रति ।
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(१५४) मरी अभिधानराजन्द्रः।
मरीह समंजसं। तं पि अणेण असिखेडगं छडियं । सीहस्स श्रमरिसो पुत्तो पयावइस्स, मिश्रावईदेविकुच्छिसंमृो। जाओ। एग ताहरहेण गुहमतिगतोएगागी,वितिय भूमि श्रो नामेण तिविट्ठ त्ति, आई आसी दसाराणं ॥ ४४७॥ इराणो, ततिय श्रायुहाणि विमुक्काणि । अज्जणं विणिवाएमि
गमनिका-पुत्रः प्रजापते राज्ञः मृगावतीदेवीकुक्षिसम्भूतो बयण त्ति-महया अवदालिएणं उकंद काऊण संपत्तो। महया
नाना त्रिपृष्ठः "आदिः" प्रथम श्रासीत् दसाराणं,तत्र वासुदेताहे कुमारेण एगेण हत्थेण उवरिलो प्रोटोएगणं हेढिल्लो ग
वत्वं च चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि पालयित्वाऽधःसप्तमनहिो। तो तेण जुरणपड़गो विव दुहा काऊण मुक्को । ताहे रकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति - लोगेण उकिटकलयलो को। अहासन्निहियाए देवयाए श्रा
रकः सञ्जात इति । भरणवत्थकुसुमबरिसं वरिसियं । ताहे सीहो तेण अमरिसण
अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाहफुरफुरतो अच्छहा एवं नाम अहं कुमारएण जुद्धण मारिओ
चुलसीईमप्पइटे, सीहो नरएसु तिरियमणुएसु । त्तिातंच किर काल भगवो गोयमसामी रहसारही श्रासी। तेण भरणति-मा तुम अमरिसंवहाहि । एस नरसीहो तुमं मि
पिअमित्तचक्कवट्टी, मृआइ विदेहि चुलसीइ ।। ४४८॥ याधिवो । ता जति सीहो सीहेण मारिओ को पत्थ अवमा
गमनिका-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि वासुदेवभवे खल्वागो। ताणि सो बयणाणि मधुमिव पिवति।सो मरित्ता नरएसु युष्कमासीत् । तदनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः तस्मादउववरणो। सो कुमारोतं चम्मंगहाय नगरस्स पहाविओ। ते प्युद्वृत्य सिंहो बभूव । मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति । य गामेल्लए भणइ-गच्छह भो ! तस्स घोडयगीवस्स कहेह, (तिरियमणुएसु त्ति) पुनः कतिचिद्भवग्रहणानि तिर्यग्मनुष्येजहा-अच्छसुधीसत्थो। तेहिं गंतणं सिटुं। रुट्ठो दूयं विसज्जेइ। वृत्पद्य (पियमित्तचक्कवट्टीमूनाइविदेहि चुलसीद त्ति) अपपए पुत्ते तुम मम ओलग्गए पट्टवेहि । तुम महल्लो। जाहे पेच्छा- रविदेहे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयनृपतेर्धारणीदेव्यां प्रिय मि, सकारेमि,रज्जाणि यं देमि । तेण भणिय अच्छंतु कुमारा, मित्राभिधानश्चक्रवर्ती समुत्पन्नः । तत्र चतुरशीतिपूर्वशतससय चेवणं अोलग्गामित्ति। ताहेसो भणति-किं न पेसेसि? हस्राण्यायुष्कमासीदिति गाथाऽर्थः। प्रो जुद्धसज्जो निग्गच्छति । सो दूओ तेहिं गंतूण सिटुं,रुट्ठो पुत्तो धणंजयस्स, पुट्टिल परिआउकोडि सबढे । .' दयं विसज्जेह। तेहिं श्राधरिसित्ताधाडियो। ताहे सो श्रास- णंदण छत्तग्गाए, पणवीसाउं सयसहस्सा ॥ ४४६ ॥ ग्गीवो सव्वबलेण उवट्टियो । इयरे वि देसंते ठिया । सुबहुं ___ गमनिका-तत्राऽसौ प्रियमित्रपुत्रो धनंजयस्य धारणीदेव्या. काल जुज्झिऊण हयगयरहनरादिक्खयं च पिच्छिऊण कु- श्व भूत्वा चक्रवर्तिनो भोगान् भुक्त्वा कथंचित् सञ्जातसंवेगः मारेण दूओ पेसिश्रो। जहा-श्रहं च तुमंच दोन्नि वि जुद्धं संप- सन् (पुट्टिलो इति) प्रोप्ठिलाचार्यसमीपे प्रवजितः (परियाउलग्गामो । किं वा बहुपण अकारिजणेण मारिएणं ? एवं होउ कोडिसवढे त्ति) प्रव्रज्यापर्यायो वर्षकोटिर्वभूव । मृत्वा सि ।बिइयदिवसे रहहिं संपलग्गा । जाहे आउहाणि खीणाणि | महाशुक्रे कल्पे सर्वार्थविमाने सप्तदशसागरोपमस्थितिर्देवोऽ. ताहे चकं मुयह तंतिविठुस्स तुबेण उरे पडिय। तेणेव सीसं भवत् । (गंदण छत्तग्गाए पणवीसाउं सयसहस्से त्ति ) छिन्नं, देवेहिं च घुटुं, जहेस तिविठू पढमो वासुदेवो उप- ततः सर्वार्थसिद्धाच्च्युत्त्वा छत्राग्रायां नगयो जितशत्रुनृपतेनोति । तो सब्वे रायाणो पणिवायमुवगया उययं अड- भद्रादेव्या नन्दनो नाम कुमार उत्पन्न इति । पञ्चविंशतिवभरह,कोडियसिला दंडवाहाहिं धारिया। एवं रहावत्तपब्वय पशतसहस्राण्यायुष्कमासीदिति गाथार्थः । समीवे जुद्धमासी । एवं परिहायमाणे बले कराहेण किर तत्र च बाल एवं राज्यं चकार । चतुर्विंशतिवर्षसहस्राणि जाणुगाणि जाव किह वि पाविया । तिविदठू चुलसीति वा
राज्यं कृत्वा ततःससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता कालं काऊण सत्तमाए पव्यज पुट्टिले सय-सहस्स सव्वत्थ मासभत्तेणं । पुढबीए अप्पतिट्टाणे नरए तेत्तीसं सागरोवमट्टितिलो नेरइ
पुप्फुत्तरि उववामो, तो चुप्रो माहणकुलंमि ॥४५०॥ श्रो उववन्नो।" अयमासां भावार्थः ।
गमनिका-राज्यं विहाय प्रवज्यां कृतवान ( पोट्टिले त्ति) अक्षरार्थस्त्यभिधीयते-राजगृहे नगरे विश्वनन्दिना- | प्रोष्ठिलाचार्यान्तिके (सयसहस्सं ति) वर्षशतसहस्रं यामा राजा अभृत् । विशाखभूतिश्च तस्य युवराजेति ।। वदिति । कथम् ? , सर्वत्र मासभक्तेन अनवरतमासोपवासेतस्य युवराजस्य धारिणीदेव्या विश्वभूति-नामा पुत्र नति भावार्थः । अस्मिन् भवे विंशतिभिः कारणैस्तीर्थकरनाआसीत् । विशाखनन्दिश्चेतरस्य गश इत्यर्थः । तत्थर्माध. मगोत्रं कर्म निकाचयित्वा मासिकया संलेखनयाऽऽत्मानं कृतो मरीचिजीवः ( रायगिहे विस्सभूइ त्ति ) राज- क्षपयित्वा षटिभक्तानि विहाय श्रालोचितप्रतिकान्तो मृत्वा गृहे नगरे विश्वभूतिनामा विशाखभूतिसुतः क्षत्रियोऽभवत् । (पुप्फुत्तरि उववन्नो त्ति) प्राणते कल्पे पुष्पोत्तरावतंसके तव च वर्षकोट्यायुष्कमासीत् । तस्मिंश्च भवे वर्षसहस्रं |
विमाने विंशतिसागरोपमस्थितिर्देव उत्पन्न इति (तत्तो दीक्षा प्रव्रज्या कृता सम्भूतयतेः पार्थे । तत्रैव
चुओ माहणकुलंमि त्ति ) ततः पुष्पोत्तगत् च्युतो ब्राह्मणकुगोत्तासिउ महराए, सनियाणो मासिएण भत्तेणं । । राडग्रामे नगरे ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः पत्न्याः महसुक्के उववमो, तो चुओ पोमणपुरंमि ।। ४४६ ।।
कुक्षौ समुत्पन्न इति गाथाऽर्थः । गमनिका-पारणके प्रविष्टो गोत्रासितो मथुरायां निदानं च
कानि पुनविंशतिकारणानि ? यैस्तीर्थकरनामगोत्रं कर्म कार । मृत्वा च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तो मासिकेन
तेनोपनिवमित्यत आहभक्तेन महाशुक्रे कल्पे उपपन्नः उत्कृष्एस्थितिर्देव इति । ततो |
अरिहंत सिद्ध पवयण, गुरु थेरबहुस्सुए तवस्सीसुं। महाशुफाच्च्युतः पोतनपुरे नगरे ।
वच्छलया एमि, अभिक्खनाणोवओगे य ।। १७६ ।।
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(१५५) मरीह अभिधानराजेन्द्रः।
मल दंसणविणए आव-स्सए य सीलव्वए निरइआरो।। सरुदेवज्झयण-मरुदेवाध्ययन-न० । कल्पकिरणावल्यां मरखणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ॥१८॥
देव्यध्ययनं विभावयन् वीरः सिद्धिं गतः। तत्र मरुदेव्यध्ययन अपुव्वनाणग्गहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया ।
कया रीत्या विभावितं तत्सम्यक् प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्।
कल्पसूत्रावचूर्णी मरुदेव्यध्ययनं विभावयन्-प्ररूपयन्नित्येव एएहि कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥१८१॥ व्याख्यातमस्ति न तु विभावनरीतिः। २० प्र० । सेन०१ उल्ला० । पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सव्वेऽवि फासिया ठाणा । | मरुदेवा-मरुदेवा-स्त्री०। नाभिकुलकरपत्न्याम्, श्रा० म०१ मज्झिमएहि जिणेहिं, एकं दो तिमि सब्वे वा॥१८२॥ अलाप्रा०चू० । औ० । ऋषभदेवमातरि, ति० । प्रा० क. (आव०) टीका सुगमत्वान्न गृहीता । ग्रन्थादेवावसेया। | म्था० । कल्प० । प्रव० । स०। श्राव०। माहणकुंडग्गामे, कोडालसगुत्तमाहणो अत्थि ।
| मरुदेवी-मरुदेवी-स्त्री०। प्रथमतीर्थकरमातरि, (गाथा ६२४)
पं० व० ३ द्वार। तस्स घरे उववमो, देवाणंदाऍ कुच्छिसि ॥ ४५७॥
मरुपकंदण-मरुप्रस्कन्दन-न० | मरोर्धावित्वा मरणार्थमधः अस्या व्याख्या । पुष्पोत्तराच्च्युतो ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे कोडालसगोत्रब्राह्मणः ऋषभदत्ताभिधानोऽस्ति । तस्य गृहे
कूर्दने नि० चू० ११ उ०।
मरुपडण-मरुपतन-न० । मरोः ( यत्र पर्वते श्रारूढेरधस्तलं उत्पन्नः देवानन्दायाः कुक्षाविति गाथाऽर्थः । श्राव० १ ० । श्रा०म०।
न दृश्यते) मरणबुद्धयाऽधः पतने, नि०० ११ उ०। मरीइकवय-मरीचिकवच-न। किरणजाले,रा०"मरीइकव- मरुप्पवाय-मरुप्रपात-पुं० । निर्जलदेशप्रपाते, ज्ञा०१ श्रु०६ यविणिम्मुयमाण" मरीचिकवचं किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मु
अ० । औ०। श्चन् । रा०।
मरुय-मरुक-पुं० । विप्रे, जीत। श्रा० चू० । आ०म०। णि. मरी इया-मरीचिका-स्त्री० । मरीचिः किरणजालः सैव मरी- चू०। पा० । गन्धद्रव्ये गान्धिकप्रसिद्धे,शा० १ श्रु०१७ अ०। चिका । श्री० । मृगतृष्णायाम् , जलवदवभासमाने किरणे, रा। आग्नेयापरनामकेषु लोकान्तिकदेवेषु, स्था। ज्ञा०१ श्रु०१०। रा०।
मरुया देवा दविहा पम्मत्ता तं जहा-एगसरीरे चैव मरीय-मरीच-पुं०। स्वनामख्याते कटुफलवृक्ष,तत्फले च । न ।
बिसरीरे चेव। कल्प०१ अधि०७क्षण । प्रज्ञा० । श्रा०म० ।
मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः (स्था०) ते चैकशरीरिणो मरु-मरु-पुं० । निर्जलदेशे, शा० १ श्रु. १६ अ० । श्री०।
विग्रहे कार्मणशरीरत्वात् तदनन्तरं वैक्रियभावात् । द्विशरीश्रा०म० । यत्रारूढेरधस्तलं न दृश्यते तावदुच्चैः पर्वते, नि० रिणः । द्वयोः शरीग्योः समाहारो द्विशरीरं तदस्ति येषां ते चू०११ उ०।
तथा । (सूत्र-
१०२ उ०। मरुग-मरुक-पुं०। ब्राह्मणे, वृ०१ उ०२ प्रक० । धिग्वणे, दश० मरुयग-मरुवक-
शे षे, शा०.१ श्रु०८०। ६०४ उ०।
मरुयवसभकप्प-मरुकवृषभकल्प-पुं० । देवनाथभूते, प्रश्न मरुगाहरण-मरुकाहरण-न० । ब्राह्मणोदाहरणे समयप्रसिद्धौ, ४ाथ
४ श्राश्र० द्वार। (गाथा-४६) पञ्चा० १५ विव० । (तद्वत्तम् द्वितीयभागे | मरुजवृषभकल्प-पुं। देशोत्पन्नगन्धभूते अङ्गीकृतकार्यनि४२६ पृष्ठ)
हके, प्रश्न०४ आश्र० द्वार । ममता-ममता-स्त्री० । स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहाराजाग्रम-माल-देशी-भते. प्रेते. दे० ना०६वर्ग १५ गाशा । हिष्याम् , सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य विंशतिवर्षाणि श्राम- मरो-देशी-मशके,उलूके च । दे० ना० ६ वर्ग १४० गाथा । रायं परिपाल्य सिद्धति । अन्त०७ वर्ग ५ अ०।
मल-मृद्-धा० । मर्दने, “मृदो मल-मढ-परिहद-खड-चड्डमरुत्थल-मरुस्थल-न० । देशविशेषे, (सूत्र०-२११) कल्प०१
महपन्नाडाः" ८।४।१२६ इति मृदनातेर्मलाऽऽदेशः । मलह । अधि०७ क्षण।
मढइ । मृनाति । प्रा० ४ पाद । मरुदेव-मरुदेव-पुं० । अस्यामवसर्पिण्यां भरते जातानां पञ्च
मल-अस्त्री० । पापविकिट्टेषु, इह मलाः प्रक्रमाश्चित्तस्यैव दशकुलकराणां मध्ये त्रयोदशे कुलकरे,(सूत्र-२८)ज०२वक्षः।
सम्बन्धिनः परिगृह्यन्ते, ते च रागादयो रागद्वेषमोहाः अवसर्पिण्यां भरतजेषु सप्तकुलकरेषु षष्ठे कुलकरे, ( सूत्र
जातिसंग्रहीताः । व्यक्तिभेदेन भूयांसः । षो० ३ विव० । १५१ ) स० १५७ सम० । कल्प० । स्था० । श्रा० चूछ । ति० ।
स्वदे, दे० ना० ६ वर्ग १११ गाथा । द्रव्यमलः शरीरसंभवः, ऐग्वते वर्षे श्रागमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति एकोनविंश तीर्थकरे, (५६ सूत्र ) स० १५६ सम० । प्रव० । शत्रुजयाख्य
भावमलः कर्मजनितः । कल्प० १ अधि० ६ क्षण । जविस्य तीर्थ,शत्रुञ्जयः सिद्धक्षेत्रे तीर्थराजो मरुदेवो भगीरथ इति प
ज्ञानावरणादिकर्मश्लेषनिमित्तभावे, योविं०। पापे, श्रा०
म०१०।' कम्मति वा खहंति वा वोणति वा कस्लुसति र्यायोक्तः। ती०१कल्प । मल्लिजिनसमकालिके ऐरवतजे ती
वा वोच्छंति वा वेरंति वा पंको त्ति था मलो त्ति वा एते थकरे,ति।
एट्ठिया' नि० चू०२० उ०। पूर्वबद्धं कर्ममलम् । अथवा-निका. नोट-मोमिलेति । श्रा० म० ।
चितं मलम् , अथवा-सांपरायिकं मलम् । ल । श्राव० । ध।
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( १५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मल
मवस्तु योग्यता योग-कपायाख्यात्मनो मता । अन्यथाऽतिप्रसङ्गः स्या- जीवत्वस्याविशेषतः ॥ २७ ॥ मलस्तु योगकषायाख्यात्मनो योग्यता । तस्या एव बहुत्वा स्वत्वास्यां दोषोत्कर्षापकर्षोपपते; अन्यथा - जीवत्वस्याविशेषतः सर्वत्र साधारणत्वादतिप्रसङ्गः, मुक्तेष्वपि वन्धाणले लक्षणः स्यात् ॥ २७ ॥ द्वा० १२ द्वा० । रयो मलोपकमप्यायोगो रयोबद्धो मलो पुव्वोवचितो मला श्राग श्रहवा धोरथो वजमाणो भलो पुग्योवचित सेलो भवावहो रयो नि काइओ मलो। अहया इरियापहितं रयो संपराइये मतो " श्रा० चू० २ श्र० । श्रुतिचारे, अभ्यन्तरमललिप्तोऽपि देवा नामचने लोके करोति । याह्यमलसितः पुनर्न करोति । व्य०७ उ०। ('असज्झाइय' शब्दे प्रथमभागे ८३४ पृष्ठे प्रसङ्गतः किंचिक्रम्) बाह्यसमुत्थे स्वदेहपारिसम्पर्कात्कठिनीभूते रजसि
श्राव० ४ श्र० । श्रा० म० । ज्ञा० ।
मला - देशी० । गिर्येकदेशे, पवने च । दे० ना० ६ वर्ग १४४ गा
। ।
था । " मलश्रो उज्जाणं आरामो " पाइ० ना० १३८ गाथा । मलंपि देशी-गर्विष्ठे दे० ना० ६ वर्ग १२२ गाथा । मलन- मर्दन - न० विनाशे, पो० पिं० अस्थिषु सुखत्वादिना शरीरस्य संबाधने, स्था० ४ ठा० २ उ । बृ० । फालने, स० [११ अङ्ग । मलपंकपुच्चय - मलपङ्कपूर्वक १० फरेोजनिते, उच० १ । उत्त० ० । “ मलपंकपुव्वयंति" जीवशुद्धयपहारितया मलवन्मलः स चासी "पावे वजे वेरे पंके परणए यत्ति " वचनात्पङ्कुश्च कर्ममलप स पूर्व कार्यात् प्रथमभावितया कारणमस्ये ति मलपपूर्व्यकम् । यहा-"माझी व पिऊ सुकं ति" बच नात् रक्तशुक्रे एव मलपङ्के, उत्त० १ ० । मलपरिसह - मलपरी पह पुं० । मलः प्रस्वेदजलसम्पर्कतः क ठिनीभूतं रजः स एव परिषहो मलपरीग्रह: ( ६६१ गाथा ) ०६ द्वार जलपरी पहापरनामके परीपभेदे, म० ०८ ० " मलति "श्वेदवारिसंपर्कात्कटिनीभूतं रजः मलोऽभिधीयते स यपुषि स्थिरतामितो श्री संतापजनिपजलाई तो दुग्धिमहान्तमुद्वेगमापादयति । तदप नयनाय कदाचिदभिषेकाभिलाषं कुर्यात् । आव० ४ अ० । मलो हि "श्री मातापपरिक्रिचान् सर्वाङ्गीणान्महामुनिः । नोद्विजेन सिस्ना से प्रोतयेत् सहेत तु" ० ३ अधि मलपरिसहविजय - मलपरी पहविजय - पुं० । अष्कायिकादिज
-
।
3
पीडापरिहारायामरसादस्नानत्रतधारितः परविकिरणप्रपातजनितमस्वेदपारिसम्पर्कलग्नपचनानीपांशुनियवस्थ
मलापनयनासङ्कल्पितमनसः सज्ञानदर्शनचारित्रविमलसलिलप्रचालनेन कर्ममलनिराकरणाय नित्यमुद्यतमतेपीडासहने, पं० सं० ४ द्वार ।
मलय मलय-पुं । चन्दनद्मोत्पत्तिप्रसिद्धे गिरी, जं० २ वक्ष० । शा० । रा० । जी० । श्र० । नि० । मलयोद्भवत्वान्मलयम् । श्रीखण्डे, जी०३ प्रति० ४ अधि० । श्रा० म० । प्रशा० । भद्दिलपुरे मलया ( आर्यक्षेत्रम् ) प्रव० २७५ द्वार । सूप० । नयके आस्तरणविशेषे, मलयदेशीर पद्मशेषे मलयोत्पन्नपट्टसूत्रे, अनु० । श्राचा० ।
मलयगिरि
मलय के मलयकेतु-पुं० । स्वनामख्याते सार्थवाहसुते, दर्श०
३ तत्त्व |
मलयकेदु - मलयकेतु - पुं० । स्वनामख्याते राक्षसकुमारे अय्य एशे क्खु कुमाले मलयकेदृ " प्रा० ४ पाद । मलयगा ( ग्गा ) म - मलय ग्राम पुं० । स्वनामख्याते प्रामे यत्र स्वविहारेण विहरन् वीरस्वामी पिशाचादिरूपेोपसर्गितः । श्र० चू० १ ० । मलयगिरि मलयगिरि - पुं० । सप्ततिकाव्य- पष्ठकर्मप्रन्थकर्मप्रकृतिपञ्चसंग्रह ज्योतिष्करण्डप्रज्ञापना जीवाभिगमाद्यनेक न्थवृत्तिक्षेत्रसमासाद्यनेकप्रकरणकारके स्वनामख्याते सूरी, कर्म० १ कर्म० ।
"
66
षष्ठकर्मग्रन्थस्यादिमवृत्तानि -
अशेषकर्माशतमस्समूह-क्षयाय भास्वानिव दीप्ततेजाः । प्रकाशिताशेषजगत्स्यरूपः प्रभुः स जीयाजिनमानः ॥१॥ जीयाजिनेशसिद्धान्तो मुक्तिकामप्रदीपनः ॥
9
कुश्रुत्यातपतप्तानां, सान्द्रो मलयमारुतः ॥ २ ॥ चूर्णयो नावगम्यन्ते, सप्ततर्मन्दबुद्धिभिः ॥ ततः स्पष्टावयोधार्थ, तस्पाटीकां करोम्यहम् ॥ ३ ॥ क्षहर्निशं चूर्णिविचार योगा- न्मन्दोऽपि शक्लो विवृतिं विधातुम् । निरन्तरं कुम्भनियोगाङ्गामोऽपि कृपे समुपैति वर्षी कर्म० ६ कर्म० ।
तथान्तिमवृत्तम्प्रकरणमेतद्विषर्म, सप्ततिकाख्यं विवृण्वता कुशलम् । यदयापि गलवगिरिणा सिद्धि नाश्नुतां लोकः ॥१॥ कर्म० ६ कर्म० ।
46
" यदर्थमपशब्द प्रकरणमेतद्विवृत्यतामखिलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः ॥ ३ ॥ पं० सं० ५ द्वार ५ प्रक० ।
66
"दुर्बोधातपक-पगमलेष्वेव विमलकीर्तिभरः । टीकामिमामकापी-मलयगिरिः पेलवचोभिः ॥ १ ॥ व्य० १० उ० ।
66
ज्योतिः करण्डकमिदं, गम्भीरार्थं विवृण्वता कुशलम् । यदचापि मलयगिरिया, सिद्धिं तेनाश्त लोकः ॥ २ ॥ ज्यो० २१ पाहु० |
जीवाजीचाभिगमे, विद्युत्यताऽद्यापि मलयगिरिणे । कुशलं तेन लभन्तां मुनयः सिद्धान्तसद्बोधम् ॥ ३ ॥ जी० १० प्रति० ।
"
एनामतिगम्भीरां कर्मप्रकृति चित्रवता कुशलम् । यदवापि मलयगिरि, सिद्धिः ॥ ६ ॥
क० प्र० ।
नत्वा गुरुपदकमलं, प्रभावतस्तस्य मन्दशक्तिरपि । आवश्यक नियुक्तिं विवृणोमि यथागमं स्पष्टम् ॥ ३ ॥ श्र० म० अ० श्रीमलयगिरिकृतः श्रीश्रावश्यकत्रिय मखण्डः समाप्तः । श्रा० म० १ ० १ खराड । नन्यध्ययन पूर्व प्रकाशितं येन विषमभावार्थम् । तस्मै श्री चूर्णिते नमोऽस्तु विदुषे परोपकृते ॥ १ ॥ मध्ये समस्त भूपीठं, यशो यस्याऽभिवर्तते । तस्मै श्रीहरिभद्राय नमष्टीकाविधायिने ॥ २ ॥ वृतिर्वा चूर्णिर्वा, रम्यापि न मन्दमेधसां योग्या |
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मलयगिरि अभिधानराजेन्द्रः।
मलदाम अभवदिह तेन तेषा-मुपकृतये यत्न एष कृतः ॥३॥ कण्टका यत्र तन्मलितकण्टकम् । मलितदायादे,रा०। सूत्र। यह्वर्थमल्पशब्द, मन्द्यध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । मलियशत्तु-मलितशत्रु-न० । मलितास्तद्गतसैन्यत्रासापाद यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः ॥४॥ नं० । नतो मानम्लानिमापादिताः शत्रवो यत्र तन्मलितशत्रु । कृत्वा प्रज्ञापनाटीका, पुण्यं यदवापि मलयगिरिरनवम् । मलिताः कृतमानभङ्गाः शत्रवोऽगोत्रजा यत्र राज्ये तत् । श्रतेन समस्तोऽपि जनो, लभतां जिनवचनसद्वोधम् ॥१॥ गोत्रजशत्रुरहिते, सूत्र०२ श्रु०१० ।ौ।। जयति हरिभद्रसूरि-धीकाकृद्विवृतविषमभावाऽर्थः । मलीमस-मलीमस-त्रि० । मलिने, “ (६०२) महल मलीमयद्वचनवशादहमपि, जातो लेशेन विवृतिकरः ॥२॥
सं" पाइ० ना० २५६ गाथा। प्रशा० ३६ पद।
मलुस्सग्ग-मलोत्सर्ग-पुं०। पुरीषोत्सर्गे, "मूत्रोत्सर्ग, मलोसूर्यप्रज्ञप्तिमिमा-मतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् ।
त्सर्ग-मैथुनं स्नानभोजनम् । सन्ध्यादिकर्मपूजां च कुर्यायदवापि मलयरिणा, साधुजनस्तेन भवतु कृती ॥३॥
ज्जापं च मौनवान् " ॥१॥ध०२ अधिः। (अत्र विशेषतो सू० प्र० २० पाहु।
वक्तव्यं 'थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे गतम्) चन्द्रप्राप्तिमिमा-मतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् ।
मल्ल-मल्ल-पुंगमुजयुद्धकारिणि,जं०२ वक्षः। विपा० । मौष्टियदवापि मलयगिरिणा, साधुजनस्तेन भवतु कृती ॥ ३३ ॥
कयुद्धकारिणि, औ०। निचूकाबलयुक्त, श्रा०म० ।कुड्या मलयगिरेः समयो गुरुपरंपरादिकं च न ज्ञायते तथाऽपि
वष्टम्भस्थाणी, बलहरणाश्रिते छित्त्वराधारभूते ऊर्ध्वाssहरिभद्रसूरेराक्तन इति ज्ञायते। चं० प्र० २० पाहु०।।
यते वा काष्ठे, भ० ८ श०६ उ० । कठिनीभूते रजसि, औ० । मलयप्पभमूरि-मलयप्रभसूरि-पुं०। चन्द्रगच्छीय-मानतुग
संथा। एकविंशतितमे भविष्यत्तीर्थकरे नारदजीवे, ती०२० सूरिशिष्ये, अयं विक्रम संवत्-१२६० विद्यमान आसीत् कल्प। अनेन स्वगुरुकृते सिद्धजयत्युपरि टीका कृता । जै०३० !
माल्य-"अधो-म-न-याम्"रा७८॥ इति यकारलोपः। तमलयय-मलयज-पुं० । मलयो नाम देशस्तत्संभवो मलयजः।
दनन्तरम् ,अवशिष्टस्य-'अनादौ शेषादेशयोर्द्धित्वम्॥२६॥ मलयदेशोद्भवे चन्दने, स्था०५ ठा०३ उ० । ६० ।
इति लकारस्य द्वित्वम् । माल्यम्। मल्लं । प्रा० । आत्यादिकुसुमलयरुह-मलयरुह-न० । चन्दने, “ ( ३७७ ) मलयरुहं चं
मे, शा० १ श्रु० १ ० उत्त० । अथितपुष्पे, शा०१ श्रु०१६ अ०। दनं च कंग" पा० ना०१४७ गाथा।
चउबिहे मल्ले पलत्ते । तं जहा-गंथिमे बेढिमे पूरिमे संमलयबई-मलयवती-स्त्री० । काम्पिल्यदुहितरि ब्रह्मदत्तच
घाइमे । ( सूत्र-३७४) क्रवर्तिभार्यायाम् , उत्त०१३ अ०। मलयवुची-देशी-रजस्वलायाम् , देना०६ वर्ग १२५ गाथा।
मालायां साधुः माल्यं पुष्पम् । तद्रचनापि माल्यम् ग्रन्थः सं
दर्भःसूत्रेण ग्रन्थनं तेन निवृत्तं ग्रन्थिमं मालादि । वेष्टनं वेष्टस्तेमलवट्टी-देशी-युवत्याम् , दे० ना०६ वर्ग १२४ गाथा।
न निवृत्तं घेष्टिमं मुकुटादि , पूरणेन-निर्वृत्तं पूरिमं मृन्ममलहर-देशी-तुमुले, देना०६ वर्ग १२० गाथा । यमनेकच्छिद्रं वंशशलाकादिपञ्जरं वा यत् पुष्पैः पूर्यत इति । मलार-मलार-पुं० । मलमिवारा प्राजनकविभागो यस्यासौ संघातेन निवृत्तं सङ्घातिमम् । यत्परस्परतः पुष्पनालादिसं. मलारः । गलिगवे, सम्म० ३ काण्ड ।
घातेनोपजन्यत इति । स्था०४ ठा०४ उ० सूत्र० । पुष्पध्वाज, मलावधंसि-मलापऽध्वंसिन्-त्रि०ा मलवदत्यन्तमात्मनि लीन!
ध०२ अधि०। प्रश्न | पुष्पदामनि, श्रा० म०१ १० ।
ग्रथितपुष्पमालायाम् ,जी०३ प्रति०४ अधि०। पश्चा०ाी। तया मलोऽष्टप्रकारं कर्म तदपध्वंसते इत्येवं शीलो मलाऽप
मालायाम् , (३५०) “मलं माला दाम " पाह. ना० १४० ध्वंसी । मलविनाशकृत् जीवितं बृहयित्वा लाभान्तरे लाभ
गाथा। विच्छेदेऽन्तर्बहिश्च मालाश्रयत्वान्मल औदारिकशरीरम् ,तदपध्वंसी । अष्टकर्मलक्षणमलस्यापध्वंसको-निवारको मला
मल्लइ-मल्लकिन-पुं० । राजविशेष, औ० भ० । रा। पध्वंसी । उत्त०४०। औदारिकशरीरमांचके,उत्त०४०। मल्लकिट्ट-मल्लकिट्ट-न० । एकादशे देवलोकविमानभेदे, स. मलिअ-देशी-लघुक्षेत्रकुण्योः , दे० ना०६वर्ग १४४ गाथा। । २१ सम० । मलिण-मलिन-त्रि० । कलुषे, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार। "म- | मल्लखेड-मल्लल्वेडा-स्त्री० । मल्लक्रीडायाम् , दर्श०१ तत्त्व । लिणवत्थे" मलिनानि वस्त्राणि यस्याऽसौ मलिनवस्त्रः । मल्लग-मल्लक-पुं० । न० । शरावे, नं० । शा० । नि०चू । विदर्श० ३ तत्व।
शे० । खण्डशरावे, भिक्षाभाजने, शा०१ श्रु०१६ अ०। मलिम्मुय-मलिम्लुच-पुं० । तस्करे, अष्ट०१४ अष्ट। मल्लजुज्झ-मल्लयुद्ध-न० । मल्लयोर्हस्ताहस्तियुद्धे,ौ० । ज्ञान मलिय-मलित-त्रि०। अधःकृते, संथा। कृतमानभने,ौ। मल्लजोय-माल्ययोग-पुं०ानवमालिकावकुलचम्पकपुन्नागाsपुरुषाभिलषणीययोषिदङ्गमर्दने, नशा०१ श्रु०६०। । शाव
ना | शोकमालतीविचकिलादिषु प्रथनाईकुसुमेषु, प्राचा० १ श्रु० मलियकएटय-मलितकण्टक--न । मलिता मानभजनादि-| १ अ०५ उ० । त्यथः कण्टकादयो यत्र राज्ये तन्मलितकराटकम
म ल्लदाम-माल्यदामन-नामालायै हितानि माल्यानि पुष्पाठा । मलिता उपद्रवं कुर्वाणा मानम्लानिमापादिताः नोट-1 शिवरामि-शादिमपानि छादनाधारभूतानि किलिम्जानि ।
४०
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मल्लदाम अभिधानराजेन्द्रः।
मशि णि । तेषां माला इति । शा०१ श्रु।कुसुममालासु, प्रश्न. ३ | वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम राया। तस्सेव धारिश्राक्ष द्वार। पुष्पस्रजि, औ० । आ०म० भ०।
णी पामोक्खं देविसहस्सं उवरोधे होत्था । तते णं साधामल्लदामकलाव-माल्यदामकलाप-पुं०। पुष्पमालासमूहे ,
रिणी देवी अन्नया कदाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडि“मल्लदायकलाव ति" पुष्पमालासमूहा इति । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । औ०।रा
बुद्धा० जाव महब्बले नाम दारए जाए उम्मुक्क० जाव मल्लदिम-मल्लदत्त-पुं०। मल्लीतीर्थकृदनुजे विदेहवरराजपु भोगसमत्थे । तते णं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसित्रे, स्था० ७ ठा।क्षा।
याणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचएहं रायवरकमासयाणं मल्लपेहा-मल्लप्रेक्षा-मल्लानां प्रेक्षणके,जी०३प्रति०४ अधि०। एगदिवसेणं पाणिं गएहावेंति । पंच पासायसया पंचसतो मल्लय-देशी-अपूपभेद-शराव-कुसुम्भरक्त-चषकेषु, देना। दातो. जाव विहरति । थेरागमणं इंदकुंभे उजाणे समो६ वर्ग १४५ गाथा।
सढे परिसा निग्गया । बलो वि निग्गो धम्म सोच्चा णिमल्लराम-मल्लराम-पुं०। कस्मिंश्चित् परिवर्ते गोशालकजी
सम्म जं नवरं महब्बलं कुमारं रज्जे ठावेति० जाव एक्कारवशरीरे, " विप्पजहामित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पवि
संगवी बहूणि वासाणि साममपरियायं पाउणिवा जेणेव स्सामि"भ०१५ श०।
चारुपव्वए मासिएणं भत्तेणं सिद्धे, तते णं सा कमलमल्लवाइ-मल्लवादिन-पुं०। मल्लनामके जिनानन्दसूरिशिष्ये, वल्लभीपुरराजशिलादित्यसमक्ष स्वगुरुविजेतुबौद्धाचार्यस्य
सिरी अन्नदा सीहं सुमिणे०जाव बलभद्दो कुमारो जाओ। विजयेन वादिविरुदमाप्ते स्वनामख्याते श्राचार्य, पन्नचरित्र- जुवराया याऽवि होत्था । तस्स णं महब्बलस्स रनो इमे छनामकं रामायणमनेनैव रचितम् । विक्रमसंवत् ३१४ वर्षेऽय- प्पियवालवंयसगा रायाणो होत्था । तं जहा-अयले १, मासीत् । जै००।
धरणे २, पूरणे ३, वमु ४, वेसमणे ५, अभिचंदे ६, सहजा मल्लाणि-देशी-स्त्री०। “मातुलान्याम् (८७०) मल्लाणी मामी"
यया० जाव संहिच्चा ते णित्थरियव्वे त्ति कह अन्नमत्रपाइ ना० २५३ गाथा ।
स्सेयमटुं पडिसुणेति । तेणं कालेणं तेणं समएणं ईमल्लाणी-देशी-स्त्रीगमातुलान्याम् , देना०६वर्ग-११२ गाथा।
दकुंभे उजाणे थेरा समोसढा, परिसा णिग्गया महमाल्लि-मल्लि-खी० । परीषहादिमल्लजयाधिरुतान्मलिः । तथा
ब्बले णं धम्म सोच्चा जं नवरं छप्पियवालवयंसए गर्भस्थे मातुः सुरभिकुसुममाल्यशयनीयदोहदो देवतया पूरित ति मल्लिः । ध० २ अधि०। 'इयाणि मल्लिति' इह
आपुच्छामि बलभदं च कुमारं रजे ठावमि० जाव छप्पिपरिषहादिमहजयात् प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च मल्लिः । यवालवयंसए आपुच्छति । तते णं ते छप्पिय बालवयंसए तत्थ सब्वेहि पिपरीसहमल्ला रागदोसा य 'निहय त्ति' सा
महब्बलं राय एवं वदासी-जति णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे मनं । प्रा० चू०।
पव्ययह, अम्हं के अन्ने आहारे वा० जाव पव्वयामो । तते _ विशेषस्त्वेवम्
णं से महब्बले राया ते छप्पियबालवयंसए एवं वदासीवरसुरहिमल्लसयणंमि , डोहलो तेण होइ मल्लिजिणो
जति णं तुब्भे मए सद्धि० जाव पव्वयह तो शं गच्छह (१०८६)
जेटे पुत्ते सएहिं सएहिं रज्जेहिं ठावेह पुरिससहस्सवाहिगम्भगए माऊप, सब्बोउगवरसुरभिकुसुममल्लसयणिजे दो-|
णीओ सीयारो दुरूढा जाव पाउब्भवंति । तते णं से हलो जातो। सो य देवताए पडिसमाणिो दोहलो तेण स "मलि" ति णाम कतं । श्राव०२० । अस्यामवसर्पिण्यां |
महब्बले राया छप्पियबालवयंसए पाउन्भूते पासति पाजाते भारतवर्षकोनविंशतितमे तीर्थकरे, अनु० । स्था० ।। सित्ता हट्ट तुढे कोडुषियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता बलभ___ मल्लिपूर्वभवः
हस्स अभिसेो, आपुच्छति । तते णं से महब्बले० जाव जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे | महया इड्डीए पव्वतिए एक्कारम अंगाई बहहिं चउत्थ. महाविदेहे वासे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चच्छिमे णं जाव मावेमाणे विहरति । तते णं तेसिं महन्बलपामोनिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं सीयोयाए महाणदीए खाणं संत्तएहं अणगाराणं अत्रया कयाइ एगयो सदाणिकर्ण सुहावहस्स वक्खारपब्बतस्स पञ्चच्छिमेणं पञ्च- हियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था जगणं च्छिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमेणं । एत्थ णं सलिलावती- | अम्हं देवाणुप्पिया! एगे तवोकम्मं उवसंपञ्जित्ता णं विनाम विजए पनत्ते । तत्थ शं सलिलावतीविजए वीय- हरति । तए णं अम्हेहिं सवेहिं तवोकम्म उवसंपञ्जित्ता सोया नाम रायहाणी परमत्ता, नवजोयणवित्थिना० जाव णं विहरित्तए त्ति कडु अमममस्स एयमढे पडिसुणेपच्चक्खं देवलोगभूया । तीसे गं वीयसोगाए रायहाणीए | ति पडिसुणित्ता बहुहिं चउत्थ० जाव विहरति । तते णं उत्तरपुरच्छिमे दिसिमाए इंदकुंभे नाम उजाणे तत्थ णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इत्थिणामगोयं
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मल्लि अभिधानराजेन्द्रः।
मल्लि कम निव्वत्तेसु जति ण ते महब्बलवजा छ अणगाराच- तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बत्तीसं सामरोवमाई उत्थं उवसंपजित्ता णं विहरति । ततो से महब्बले अणगारे ठिती । तत्थ णं महब्बलवजाणं छएहं देवाणं देखछ8 उवसंपजित्ताणं विहरइ । जति णं ते महब्बलवजा अ
णाई बत्तीससागरोवमाई ठिती। महब्बलस्स देवस्स पणगारा छ8 उवसंपज्जित्ता णं विहरंति ततो से महब्बले
डिपुनाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिती। तते णं ते महब्बलअणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । एवं अट्ठमं तो
वजा छप्पियदेवा ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिदसमं अह दसमं तो दुवालसं । इमेहि य णं वीसाएहि य
इक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवेदीवे कारणेहिं आसेवियवहलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्म
भारहे वासे विसुद्धपितिमातिवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं पत्तेनिव्वत्र्तिसु । तं जहा
यं कुमारत्ताए पच्चायासी, तं जहा-पमिबुद्धी इक्खागुअरहंते सिद्धं पवयणं, गुरु थेरै बहुस्सुएं वस्सीखें ।
राया चंदच्छाए अंगराया संखे कासिराया रुप्पी कुणालावच्छल्लया य तेसिं, अभिक्खणाणोवोगे य॥१॥
| हिवती अदीणसत्तू कुरुराया जितसत्तू पंचालाहिवई, तते दसणं विणए आव-स्सएँ य सीलब्बएं निरइयारं ।
णं से महब्बले देवे तिहिं णाणेहिं समग्गे उच्चट्ठाणट्ठिएसु खणलवै तवं च्चियाएं, वेयावच्चे सेमाही य ॥२॥
गहेसु सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइ तेसु सउअपुवणाणगर्हणे, सुर्यभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं, तित्थयरतं लहइ जीओ ॥३॥"
णेसु पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसप्पिसि मारुतंसि पवायसि तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्तअणगारा मासियं भि
निप्फनसस्समेइणीयंसि कालंसि पमुइयपक्कीलिएसु जणवखुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव एगराइयं उव
एसु अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवासंपञ्जित्ता णं विहरति । तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त
गएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे फग्गुणसुद्धे अणमारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्म उवसपजि
तस्स णं फग्गुणसुद्धस्स चउत्थिपक्खेणं जयंताओ विमाणा त्ता णं विहरंति ( तुद्रकसिंहनिष्क्रीडिततपस्स्वरूपम् 'सी
ओ बत्तीसं सागरोवमद्वितीयाो अणंतरं चयं चइत्ता इहेव हणिक्कीलिय' शब्दे वक्ष्यामि ) तए णं ते महब्बलपामो
जंबूदीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स क्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं दोहिं
रन्नो पभावतीए देवीए कुच्छिसि आहारवकंतीए सरीरवकंसंवच्छरेहिं अट्ठावीसाए अहोरत्तेहिं अहासुत्तंजाव आणा
तीए भववक्कंतीए गब्भत्ताए वकंते, तं रयणिं च णं चोद्दसमए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति
हासुमिणा वन्नओ । भत्तारकहणं सुमिणपाढगपुच्छा जाव उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसि
विहरति । ततेणं तीसे पभावतीए देवीए तिएहं मासाणं बहुता एवं वयासी-इच्छामो णं भंते ! महालयं सीहनिक्की-| पडिपुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूते धनाओ णं ताओ लियं तहेव जहा खुड्डागं । नवरं चोत्तीस इमाओ नियत्त- अम्मयाओ जाओ णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवए एगाए परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासे- नेणं मल्लेणं अत्थुयपञ्चत्थुयंसि सयणिजंसि सन्निसनाओ हिं अट्ठारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति (विस्तरतः महा
सम्मिवन्नाओ य विहरंति, एगं च महं सिरिदामगंडं पाडसिंहनिष्क्रीडितस्वरूपं महासीहणिकीलिय' शब्दे वक्ष्यामि)
लमल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुयगदमणगणोजकोसव्वं पि सीहनिक्कीलियं छहिं वासेहिं दोहि य मासेहिं
जयपउरं परमसुहफासदरिसणिज्जं महया गंधद्धणिं मुयंतं वारसहिं य अहोरत्तेहिं समप्पेति । तए णं ते महब्बलपा
अग्घायमाणीयो डोहलं विणेति । तते णं तीसे पभावतीए मोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुतं देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउब्भृतं पासित्ता अहासन्निहिया
जाव पाराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागळंतिवाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय जाव दसऽभूवनउवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति वंदित्ता णमं-| मल्लं कुंभग्गसो य भारग्गसो य कुंभगस्स रनो भवणंसि सित्ता बहणि चउत्थ जाव विहरंति । तते णं ते महब्बल- वा० साहरति । एगं च णं महं सिरिदामगंडं० जाव मुयंत पामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेणं सुक्का मुक्खा उवणेति । तए णं सा पभावती देवी जलथलय० जाव जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं दुरूहंति मल्लेणं डोहलं विणेति । तए णं सा पभावती देवी पसत्थदुरूहंतित्ता जाव दोमासियाए संलेहणाए सर्वासं भत्तसयं डोहला. जाव विहरइ । तए णं सा पभावती देवी नवएहं चतुरासीतिं वाससयसहस्सातिं सामसपरियागं पाउणंति | मासाणं अट्ठमाण य रतिंदियाणं जे से हेमंताणं पढमे पाउणंतित्ता चुलसीर्ति पुन्चसयसहस्सातिं सब्बाउयं पाल-| मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्स णं. एकारसीए पुइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना। (सूत्र.६४) व्यरत्तावरत्तकालसमयंसि अस्सिणीनक्खत्तेणं उच्चट्ठा
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मल्लि अभिधानराजेन्द्रः।
मल्लि ण जाव पमुइयपकीलिएस जणवएस आरोयाऽऽरोयं संनिहिअपाडिहेरे । तत्थ णं नगरे पडिबुद्धिनाम इक्खाएकूणवीसतिमं तित्थयरं पयाया। (सूत्र-६५)
गुराया परिवसति, पउमावती देवी, सुबुद्धी अमच्चे सामदंतेणं कालेणं तेर्ण समएणं अहोलोगवत्थव्वानो अट्ठ | ड०, तते णं पउमावतीए अन्नया कयाई नागजन्नए दिसाकुमारीओ मयहरीयाश्रो जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए ज- याऽवि होत्था । तते णं सा पउमावती नागजनमुवट्टियं म्मणं सव्वं नवरं मिहिलाए कुंभयस्स पभावीए अभि- जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धि० करयल० एवं वयासी-एवं लाओ संजोएयब्वो० जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा। तया | खलु सामी! मम कल्लं नागजन्नए याऽवि भविस्सति तं णं कुंभए राया बहूहिं भवणवति०४ तित्थयर० जाव क- इच्छामि णं सामी! तुब्भेहिं अब्भणुमाया समाणी नागमं० जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए| जन्नयं गमित्तए । तुब्भेऽवि णं सामी! मम नागजन्नयंसि माउए मल्लसयणिअंसि डोहले विणीते तं होउ णं णामे- समोसरह । तते णं पडिबुद्धी पउमावतीए देवीए एयमई णं मल्ली । जहा महाबले नाम० जाव परिवड्डिया। पडिसुणेति, तते णं पउमावती पडिबुद्धिणा रना अब्भणु
“सा वद्धती भगवती, दियलोयचुता अमोवमसिरीया।। माया हट्ठ० कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति कोडुंबियपुरिसं सदासीदासपरिवुडा, परिकिन्ना पीढमद्देहिं ॥१॥ हावित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कल्लं असियसिरया सुनयणा, बिंबोडी धवलदंतपंतीया। नागजम्मए भविस्सति तं तुम्भे मालागारे सद्दावेह सद्दावरकमलकोमलंऽगी, फुल्लुप्पलगंधनीसासा ॥२॥" | वेहित्ता एवं वदह-एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं ना(सूत्र-६६)। तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मु- गजन्नए भविस्सइ, तं तुम्भे णं देवाणुप्पिया! जलथलय० कवालभावा० जाव रूवेण जोव्वणेण य लावन्नेण य अ| दसऽद्धवन्नं मल्लं णागघरयंसि साहरह एगं च णं महं सितीव अतीव उक्किट्ठा उकिट्ठसरीरा जाया यावि होत्था । तते | रिदामगंडं उवणेह । तते णं जलथलय दसद्धवन्नेणं मल्लेणं गं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पि रायाणो विपु-णाणाविहभत्तिसुविरइयं हंसमियमउरकोंचसारसचकवालेण ओहिणा पाभोएमाणी श्राभोएमाणी विहरति, तं | यमयणसालकोइलकुलोववेयं ईहामिय बजाव भत्तिचित्तं जहा-पडिबुद्धिजाव जियसत्तुं पंचालाहिबई । तते णं सा
महग्धं महरिहं विपुलं पुष्फमंडवं विरएह । तस्स णे बहुममल्ली कोर्दुवियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता तुब्भे णं |
ज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं जाव गंधद्धणि मुयंत देवाणुप्पिया! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह |
उल्लोयंसि ओलंबेह ओलंबेहित्ता पउमावतिं देवि पडिवालेअणेगखंभसयसन्निविट्ठ, तस्स णं मोहणघरस्स बहुम
माणा पडिवालमाणा चिट्ठह । तते णं ते कोर्दूविया जाव ज्झदेसभाए छ गब्भधरए करेह । तेसि णं गब्भ--
चिट्ठति । तते णं सा पउमावती देवी कल्लं कोडुविए एवं घरगाणं बहुमझदेसभाए जालघरयं करेह । तस्स
वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सागेयं नगरं सणं जालघरयस्स बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह |
विभतरवाहिरियं आसितसम्मञ्जितोवलितं जाव पच्चजाव पच्चप्पिणंति । तते णं मल्ली मणिपेढियाए उवरि अ
प्पिणंति । तते णं सा पउमावती दोच्चं पि कोडुबिय० प्पणो सरिसियं सरित्तयं सरिब्वयं सरिसलावन्नजोवण-|
खिप्पामेव लहुकरणजुत्तंजाव जुत्तामेव उवट्ठवेह । तते मं गुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छि8 पउमुप्पलपिहाणं पडिमं करेति करेत्ता जं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं
तेऽवि तहेव उवट्ठावेंति । तते णं सा पउमावती अंतो अं
तेउरंसि एहाया०जाव धम्मियं जाणं दुरूढा, तए णं सा आहारेति ततो मणुन्नाओ असणपाणखाइमसाइमाओ
पउमावई नियगपरिवालसंपरिबुडा सागेयं नगरं मझ मकल्लाकल्लिं एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामतीए मत्थयछिड्डाए० जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी पक्खि
ज्झेणं णिजाति णिजित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवाग
च्छति उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ ओगाहित्ता जलम बमाणी विहरति । तते णं तीसे कणगमतीए०जाव मत्थ
जर्णजाव परमसुइभृया उल्लपडसाडया जाति तत्थ उप्पयछिड़ाए पडिमाए एगमेगसि पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खि- लाति जाव गेहति गणिहत्ता जेणेव नागधरए तेणेव प्पमाणे ततो गंधे पाउन्भवति । से जहा नामए अडिमडे त्ति
पहारेत्थ गमणाए । तते णं पउमावतीए दासचेडीयो वाजाव एत्तो अणिदुतराए अमणामतराए । (सूत्र-६७) बहूओ पुष्कपडलगहत्थगयाओ धूवकडच्छुगहत्थगयाओ
तेणं कालेणं तेणं समएण कोसलानाम जणवए, तत्थ | पिद्रतो समगच्छति, तते णं पउमावती सव्वटिए जेणं सागेए नाम नयरे तस्सणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, व नागघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता नागघरयं एत्थ णं महं एगे पागधरए होत्था । दिव्वे सचे सच्चोवाए| अणपविसति अणुपविसित्ता लोमहत्थगं उवागच्छतिजाव
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( १६१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मल्लि
धूवं हति धूवं हित्ता पडिबुद्धि, पडिवालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्ठति । तते गं पडिबुद्धी एहाए हत्थिखंधवरगते सकोरंट० जाव सेयवरचामराहिं हयगयरहजो हमहया भडगचडकरपहकरेहिं साकेयनगरं मज्कं० गिग्गच्छति णि गच्छत्ता जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता पच्चोरुहति पच्चोरुहित्ता आलो पणामं करेइ करेत्ता पुप्फमंडवं अणुपविसति
विसित्ता पासति तं एगं महं सिरिदामगंडं । तए णं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुइरं कालं निरिक्खड़ निरिक्खित्ता तंसि सिरिदामगंडंसि जायविम्हए सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी-तुमन्नं देवाप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणि गामागर • जाव सन्निवेसाई हिंडसि बहूणि रायईसर ० जाव गिहातिं पविससि तं श्रत्थि गं तुमे कहिं चि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्ठपुव्वे जारिसए गं इमे परमावती देवीए सिरिदामगंडे ?, तते गं सुबुद्धी पडिबुद्धि एवं वदासी एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाई तुब्भं दोच्घेणं मिहिलं रायहागि गते । तत्थ णं मए कुंभगस्स रनो धूयाए पउमावईए देवीए अत्तया मल्लीए संवच्छरपडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्ठपुब्वे । तस्स सिरिदामगंडस्स इमे पउमावतीए सिरिदामगंडे सयस - हस्पतिमं कलं ग अग्घति, तते गं पडिबुद्धी सुबुद्धिं अमचं एवं वदासी-केरिसिया गं देवाणुप्पिया ! मल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्स णं संवच्छर पडिले हायंसि सिरिदामगंडस्स पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सतिमं पि कलं न अग्घति ?, तते णं मुबुद्धी पडिबुद्धि इक्खागुरायं एवं दासी - विदेहरायवरकन्नगा सुपइट्ठियकुम्मुन्नयचारुचरणा वन्नश्रो, तते णं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्स श्रमच्चस्स अंतिए एयमङ्कं सोच्चा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सहावेइ सदावित्ता एवं व्यासी- गच्छाहि गं तुमं देवाणुप्पिया ! भिहिलं रायहाणि तत्थ गं कुंभगस्स रनो धूयं पभावतीए देवीए अत्तियं मल्लिं विदेहवररायकम्मगं मम भारियत्ताए बरेहि जति वि य णं सा सयं रज्जुस्सुका, तते गं से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वृत्ते समाणे हदु० पडि सुर्णेति पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता चाउरघंटं आसरहं पडिकप्पावेति पडिकप्पावेत्ता दुरूढे जाव हयगयमहया भडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छति णिग्गच्छि त्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं ६८) ज्ञा०१ श्रु० ८ श्र० । ( अत्र अरहनकवक्लव्यता 'अरहरण्य' शब्दे १ भागे घ्याख्याता तत एवावसेया )
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मल्लि
तेणं कालेणं तेणं समरणं कुणाला नाम जणवए होत्था । तत्थ गं सावत्थी नामं नगरी होत्था । तत्थ गं रुप्पी कुरणालाहिवई नामं राया होत्था । तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया होत्था । सुकुमालपाणिपाया रूवेण य जोव्वणेणं लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्कि - दूसरीरा जाया याऽवि होत्था । तीसे गं मुबाहुए दारियाए अन्नदा चाउम्मासियमजणए जाए याऽवि होत्था । तते गं सेरुप्पी कुणाला हिवई सुबाहुए दारियाए चाउम्मासियमज्जयणं उबट्ठियं जाणति, जाणित्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेति सहावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाऽणुप्पिया ! सुबाहुए दारियाए कल्लं चाउम्मासियमजणए भविस्सति, तं कल्लं तुभे गं रायमग्गमोगाढंसि चउकंसि जलथलयदसद्भवन्नमल्लं साहरेह - जाव सिरिदामगंडे ओलइन्ति । तते गं से रुप्पी कुणालाहिवती सुवन्नगारसेणि सहावेति सदावेत्ता, एवं व्यासी- खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! रायमग्गमोगाढंसि पुप्फमंडवंसि णाणाविहपंचवन्नेहिं तंदुले हिं रागरं आलिहह, तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टयं रएह रएहइत्ता० जाव पच्चप्पिति । तते गं से रुप्पी से कुणालाहिवई हत्थखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड० अंतेउरपरियाल परिवुडे सुबाहुं दारियं पुरतो कट्टु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमण्डवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता हत्थिखंधातो पच्चोरुहति पचोरुहित्ता पुप्फमंडवं अणुपविसति श्रणुपविसित्ता सीहासवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने । तते गं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पट्ट्यंसि दुरूहेंति दु०त्ता सेयपीतएहिं कलसेहिं रहाणेंति २त्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति२त्ता पिउणो पायं वंदिउं उवणेंति । तते गं सुबाहुदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवाच्छति उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेति । तते णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारियं के निवेसेति निवेसित्ता सुबाहुए दारिया रूपेण य जोव्वणे० जाव विम्हिए वरिसधरं सहावेति सद्दावित्ता एवं वयासी- तुमं णं देवाणुप्पिया ! मम दोघें बहूणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि, तं श्रत्थि याई ते कस्सइ रन्नो वा सरस्व एयारिसए मजए दिट्ठपुब्वे जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मञ्जरणए ? तते गं से वरिसधरे रुप्पि करयल० एवं बयासी एवं खलु सामी ! अहं अन्नया तुब्भेणं दोचे मिहिलं गए, तत्थ गं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए भावती देवीए अत्ताए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मजए दिट्ठे । तस्स गं मजरागस्स इमे सुबाहुए दारिपाए मजाए सुगसहस्सइमं पि कलं न अग्घेति ।
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मल्लि
(१६२ ) अमिधानराजेन्द्रः।
मल्लि राए णं से रुप्पी राया परिसघरस्स अंतिए एय
बिसया आणत्ता समाणा इहं हबमागता तं इच्छामो मद्रं सोचा णिसम्म सेसं तहेब मजणगजाणितहासे णं सामी ! तुभ बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया दयं सद्दावेति सहावेत्ता एवं वयासी-जेणेव मिहिला| निरुव्विगा मुहं सुहेणं परिवसिउं । तते णं संखे कासीनयरी तेणेव पहारित्थगमणाए ३1 (सूत्र ७१) राया ते सुवन्नगारे एवं वदासी-किन्न तुब्भे देवाणुप्पिया!
तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नाम जणवए होत्था, कुंभएणं रना निव्विसया आणता?, तते णं ते सुवतत्थ णं बाणारसी नाम नगरी होत्था । तत्थ णं संखे | नगारा संखं एवं वदासी एवं खलु सामी ! कुंभगस्स नाम कासीराया होत्था । तते णं तीसे मल्लीए विदेहराय- रन्नो धयाए पभावतीए देवीए अत्तयाए मल्लीए कंडलजुवरकन्नाए अत्रया कयाई तस्स दिव्यस्स कुंडलजुयलस्स यलस्स संधी विसंघडिए, तते णं से कुंभए सुवनगारसेणिं संधी विसंघडिए याऽवि होत्था । तते णं से कुंभए राया | सद्दावेति सद्दावित्ता० जाव निबिसया आणत्ता, तं एए सूबनगारसेणि सद्दावेति सदावेत्ता एवं वदासी-तुन्भे णं णं कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं निविसया आणत्ता, देवाऽणुप्पिया! इमस्स दिबस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघा-| तते णं से संखे सवनगारे एवं वदासी केरिसिया संदेडेह, तए णं सा सुवन्नगारसेणी एतमढे तह त्ति पडिसु- वाणुप्पिया! कुंभगस्सध्या पभावती देवी अत्तया मल्ली ऐति पडित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेएहति गएिहत्ता वि० तते णं ते सुबन्नगारा संखरायं एवं वदासी णो जेणेव सुवन्नगारभिसियानो तेणेव उवागच्छंति उवाग
खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधब्बच्छित्ता सुवन्नागारभिसियासु णिवेसेति णिवेसित्ता बहूहि | कन्नगा वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना ।
आएहि य • जाव परिणामेमाणा इच्छंति, तस्स दिव्बस्स | तते णं से संखे कुंडलजुअलजणितहासे दतं सदावति० कुंडलजुयलस्स संधि घडित्तए णो चेव णं संचाएंति संघ- जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए । (सूत्र-७२) डित्तए,तते णं सा सुवनगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवा- तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुजणवए होत्था । हत्थिणागच्छंति उवागच्छिता करयल० वद्धवावेत्ता एवं वदासी-ए- उरे नगरे अदीणसन नामं राया होत्था जाव विहरति । वं खल सामी! अज तुब्भे अम्हे सद्दावह सद्दावेत्ता० जाव तत्थ णं मिहिलाए कुंभगस्स पुते पभावतीए अत्तए मल्लीए संधि संघाडेता एतमाणं पञ्चप्पिणह । तते णं अम्हे तं दिव्वं | अणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे जाव जुबराया याऽवि कुंडलजुयलं गेएहामो जेणेव सुवनगारभिसियाओ जाव होत्था । तते णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुंबियपुरिसे नो संचाएमो संघाडित्तए । तते णं अम्हे सामी ! एयस्स सद्दावेति सदावित्ता गच्छह णं तुब्भे मम पमोदवणंसि दिव्यस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो। एगं महं चित्तसभं करेह अणेग जाव पञ्चप्पिणंति । तते तते णं से कुंभए राया तीसे सुवन्नगारसेणीए णं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणिं सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वअंतिए एयमहूँ सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं यासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हावभावविलाभिउडी निडाले साहहु एवं वदासी-से केणं तुम्भे सविव्वोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह चित्तेहिता . जाव कलायाणं भवह ? जे णं तुब्भे इमस्स कुंडलजुयलस्स | पंचप्पिणह । तते ण सा चित्तगरसेणी तह त्ति पडिसणेति नो संचाएह संधि संघाडेत्तए ?, ते सुवनगारे निबिसए | पडिसुणित्ता जेणेव सयाई गिहाई तेणेव उवागच्छति प्राणवत्ति, तते णं ते सुवनगारा कुंभेणं रगणा निधि-- उवागच्छित्ता तूलियाओ बन्नए य गेण्हिति गरिहत्ता जे सया आणत्ता समाणा जेणेव सातिं सातिं गिहातिं तेणेव णेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अणुप उवागच्छंति उवागच्छित्ता सभंडमत्तोवगरणमायाओ मि- विसंति अणुपविसित्ता भमिभागे विरंचंति विरचित्ता भमि हिलाए रायहाणीए मझ मज्झेणं निक्खामंति निक्ख-- सजेंति सज्जित्ता चित्तसभं हावभाव जाव चित्तेउं पयत्ता मित्ता विदेहस्स जणवयस्स मझ मज्झेणं जेणेव कासी- याऽवि होत्था। तते णं एगस्स चित्तगरस्म इमेयारूवा चि जणवए जेणेव बाणारसीनयरी तेणेव उवागच्छंति उवा
त्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमामागया, जस्स णं दुप गच्छित्ता अग्गुजाणंसि सगडीसागडं मोएन्ति मोएइत्ता यस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि महत्थं जाव पाहुडं गेएहति गरिहत्ता बाणारसी-1 पासति तस्स णं देसाणुसारेण तयाणुरूवं निव्वत्तेति, नयरी मज्झ मज्झेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव | तए ण से चित्तगरदारए मल्लीए जबणियंतरियाए जालंडउवागच्छति उवागच्छित्ता करयल० जाब एवं अम्हे | तरेण पायंगुटुं पासति । नते णं तस्स णं चित्तगरस्सणं सामी! मिहिलातो नयरीमो कुंभएणं रबा नि-- | उमेयासवे जाव सेयं खलु ममं मल्लीए वि पायंऽगुदाणु
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( १६३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मल्लि
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सारेण सरिसगं • जाव गुणेोववेयं रूवं निव्वत्तित्तए, एवं संपेहेति संपे हित्ता भूमिभागं सजेति सञ्जित्ता मल्लीए वि पायं गुट्ठाऽणुसारेण ० जाव निव्यत्तेति । तते गं सा चित्तगरसेणी चित्तसभ • जाव हावभावे चित्तेति चित्तित्ता जेणेव मल्ल दिने कुमारे तेणेव उवागच्छ० जाव एतमाणत्तियं पच्चप्पियंति । तए णं मल्लदिने चित्तगरसेरिंग सकारेइ सकारिता विपुलं जीवियाऽरिहं पीइदाणं दलेइ दलयित्ता पडिविसखे । तए गं मल्ल दिने अन्नया एहाइ अंतेउरपरिया
संपरिवुडे अम्माईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता चित्तसभं अणुपविसह अणुपविसि - ता हावभावविलासविव्वोयकलियाई रुवाई पासमाणे पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयागुरूवे शिव्य तिए तेणेव पहारेत्थ गमगाए । तए गं से मल्ल दिन्ने कुमारे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयागुरूवं निव्वत्तियं पासति पासिता इमेयारूवे अभत्थिए ०जाव समुप्पजित्था - एस णं मल्ली विदेहवररायकन्न त्ति कटु लजिए वीडिए विडे सणियं सणियं पच्चोसकइ । तए णं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसकंतं पासिता एवं वदासी - किन्नं तुमं पुत्ता ! लजिए वीडि विडे सयिं सखियं पच्चोसकइ ? तते गं से मल्ल दिने अमघातिं एवं वदासी - जुतं णं अम्मो ! मम जेढाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए लजणिजाए मम चितगरणिव्वर्त्तियं सभं अणुपविसित्तए ? तर णं श्रम्मधाई मल्ल दिन्नं कुमारं व० - नो खलु पुत्ता ! एस मल्ली, एस गं मल्ली विदेह • चित्तगरएणं तयागुरूवे व्वित्तिए । तते गं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयमङ्कं सोच्चा सुरुते एवं वयासी केस गंभो चित्तरए अपत्थियपत्थिए ०जाव परिवजिए जे मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए ०जाव निव्यत्तिए त कट्टु तं चित्तगरं वज्यं आणवे । तए गं सा चितरणी इमी से कहाए लद्धड्डा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयलप-रिग्गहियं ० जाव वद्धावे वद्धावेत्ता एवं वयासी - एवं खलु सामी ! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तकरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जस्स गं दुपयस्स वा ०जाव व्विति तं मागं सामी ! तुब्भे तं चित्तगरं वज्यं - वेह । तं तुभेणं सामी ! तस्स चित्तगरस्स अन्नं तया - णुरूवं दंडं निव्वत्तेह । तए णं से मल्लदिन्ने तस्स चि - नगरस्स संडासगं छिंदावेइ छिंदावेइत्ता निव्विसयं आणवे । तए रंग से चित्तगरए मल्लदिन्ने णं शिव्विस आणत्ते समाणे सभंडमत्ता वगरणमायाए मिहिलाओ गयओ क्खिमड़ क्खिमित्ता विदेहं जणवयं मज्झ म
मल्लि ज्भेणं जेणेव हत्थिणाउरे नयरे जेणेव कुरुजणवए जेणेव अदी सत्तू राया तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता भंडशिक्खेवं करेइ करिता चित्तफलगं सजे सजित्ता मल्लीए विदेह० पायंऽगुट्ठाऽणुसारेण रूवं णिव्वत्तेइ णिव्वत्तित्ता कक्खंतरंसि भइ छुभित्ता महत्थं ३, ०जाब पाहुडं गेret गरिहत्ता हथियापुरं नयरं मज्भं मज्भेणं जेणेव प्रदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तं करयल •जाव वद्भावे वद्धावित्ता पाहुडं उवणेति उवणित्ता एवं खलु अहं सामी ! महिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रनो पुत्ते पभावती देवीए अत्तणं मल्ल दिने कुमारेणं निव्विस आणते समाणे इह हव्वमागए तं इच्छामि गं सामी ! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिए ०जाव परिवसि - त । तते गं से अदीसत्तू राया तं चित्तगरदारयं एवं वदासी - किन्नं तुमं देवाप्पिया ! मल्लदिमेणं निव्विसए आणते ?, तए णं से चित्तयरदारए अदी सत्तूरायं एवं वदासी एवं खलु सामी ! मल्लदिने कुमारे अमया कयाई चित्तगरसेगिं सदावेइ सद्दा (वे) वित्ता एवं वयासी तुन्भे देवाणुप्पिया ! मम चित्तसमं तं चैव सव्वं भाणियव्वं • जाव मम संडासंगं छिंदावेह छिंदावित्ता निव्विसर्य आणवेइ, तं एवं खलु सामी ! मल्लदिनेणं कुमारेणं निव्विसए आणते । तते गं दीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वदासी से केरिसए सं देवागुप्पिया ! तुमे मल्लीए तदापुरुवे रूवे निव्यत्तिए ?, तते गं से चित्तग० कक्खंतराओ चितफलयं गीणेति खीणित्ता प्रदीणसत्तुस्स उवणेइ एवं वयासी - एस णं सामी ! मल्लीए वि० तयागुरुवस्स रूवस्स केइ आगारभावपडोयारे निव्वत्तिए णो खलु सक्का केइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकष्मगाए तयारूवे रूवे निव्वत्तित्तए । तते गं प्रदीणसत्त् पडिरूवजणितहासे दूयं सहावेति सद्दावित्ता एवं वदासीतहेव ० जाव पहारेत्थ गमणयाए । ( सूत्र - ७३ ) तेरणं कालणं तेणं समरणं पंचाले जणवए कंपिल्लपुरे नयरे जियसत्तू नाम राया पंचाला हिवई, तस्स गं जितसतु धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं आरोहे होत्था । तत्थ गं मिहिलाए चोक्खा नामं परिवाइया रिउव्वेद ० जाव परिडिया याsवि होत्था । तते गं सा चोक्खा परिव्वाइयामिहिलाए बहूणं राईसर ० जाव सत्थवाहपभितणं पुरतो दाणधम्मं च तित्थाभिसेयं च सोयधम्मं च आघवेमाणी पमवेमाणी परूवेमाणी उवदसेमाणी विहरति । तते गं सा चोक्खा परिव्वाइया अन्नया कयाइ तिदंडं च कुंडियं च ०जाव धाउरत्ताश्रय गैरहइ गे रिहत्ता परिव्वाइगाऽऽवसहाओ पडि
० त्ता
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( १६४ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
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मल्लि निक्खमइ पडिनिक्खमित्ता पविरलपरिव्वाइया सद्धि संपरिबुडा मिहिलं रायहाणि मज्भं मज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव कम्मंतेउरे जेणेव मल्लीविदेह ० तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए दब्भोवरि पच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयति निसीयतित्ता मल्लीए विदेह • पुरतो दाणधम्मं च ० जाव विहरति । तते गं मल्ली विदेहा चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासी तुब्भे गं चोक्खे ! किं मूलए धम्मे पत्ते ?, तते गं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लि विदेहं एवं वयासी - अहं णं देवाणुप्पिए ! सोयमूलए धम्मे पम्पवेमि, जराणं म्हं किंचि असुई भवर तसं उदएण य मट्टियाए •जाब अविग्घेणं सग्गं गच्छामो । तए गं मल्ली विदेह० चोक्खं परिव्वाइयं एवं वदासी-चोक्खा ! से जहानामए केई पुरिसे रुहिरकथं वत्थं रुहिरेण चैव धोवेजा अथ चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्यमाणस्स काई सोही ? नो इणट्ठे समट्ठे एवामेव चोक्खा ! तुब्भे णं पाणाइवाएणं ० जाव भिच्छादंसणसल्लेणं ase काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चैव धोव्यमाणस्स । तए गं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेह एवं वृत्ता समाणा संकिया कंखिया विइ (ति) गिच्छिया भयसमावस्या जाया याऽवि होत्था । मल्लीए णो संचाएति किंचि वि पामोक्ख माइक्खित्तए तुसिणीया संचिट्ठति । तते णं तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ होलेंति निंदति खिंसंति गरहंति अप्पेगतिया हेरुयालंति अप्पेगइया मुहमक्कडिया करेंति अप्पेगइया बग्घाडीओ करेंति अप्पेगइया तज्ञ्जमाणीओ निच्छुभंति । तए गं सा चोक्खा मल्लीए विदेह ० दासचे डियाहिं ० जाव गरहिजमाणी हीलिञ्जमाणी आसुरुत्ता • जाब भिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकस्साए पद्मसमावज्जति, भिसियं गएहति गेरिहताकतेउरा पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता मिहिलामो निग्गच्छति निग्गच्छित्ता परिव्वाइया संपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे बहूणं राईसर० जाव परुवेमाणी विहरति । तए गं से जियसत्तू अन्नदा कदा उरपरियालसद्धिं संपरिबुडे एवं ० जाव विहरति । तते णं सा चोक्खा परिव्वाइया संपरिवुडा जेणेव जितसत्तुस्त रस्मो भवणे जेणेव जितसत्तू तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता अणुपविसति अणुपविसित्ता जियसत्तुं जणं विजएणं वद्धावेति । तते गं से जितसत्तू चोक्खं परि एमाणं पासति पासित्ता सीहासणाओ - ब्भुट्टेति अन्भुट्ठित्ता चोक्खं सकारेति सकारिता असणेणं उवणमंतेति । तते सा चोक्खा उदगपरिफासिगाए०
मल्लि जाव भिसियाए निविसर, जियसत्तुं रायं रजे य ० जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ । तते गं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रनो दाणधम्मं च ० जाव विहरति । तते गं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि ० जाव विम्हिए चोक्खं एवं वदासी- तुमं णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाऽऽगर जाव अह, बहूण य रातीसरगिहातिं अणुपविससि, तं अस्थि याई ते कस्स वि रन्नो वा ०जाव एरिसए ओरोहे दिट्ठपुब्वे जारिसए णं इमे मह उवरोहे ?, तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया जियसत्तुं ( एवं वदासी ) - ईसिं अ बहसिये करेइ करिता एवं वयासी एवं च सरिसए सं तुमं देवाणुप्पिया ! तस्स अगडदुरस्स ?, के गंदेवाणुप्पिए ! से अगडदद्दुरे ?, जियसत्तू से जहानामए अगडदद्दुरे सिया । से णं तत्थ जाए तत्थेव बुड्ढे असं अगडं वा तलागं वा दहं वा सर वा सागरं वा अपासमाणे चेवं मम्मद अयं चैव अगडे वा ० जाव सागरे वा, तए णं तं कूवं अम्से सामुद्दए ददुरे हव्वमागए। तए गं से कूवदद्दुरे तं सामुद्दददुरं एवं बदासी-से केस गं तुमं देवागुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ?, तए गं से सामुद्दए ददुरे तं वददुरं एव वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सामुद्दए ददुरे, तए गं से कूवदद्दुरे तं सामुदयं ददुरं एवं वयासी के महालए गं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?, तए से सामुद्दए ददुरे तं क्रूवददुरं एवं वयासी- महालए देवाणुप्पिया ! समुद्दे । तए गं से ददुरे पाएणं लीहं कड्डेड् कड्डित्ता एवं वयासी- ए महालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?, णो इणट्टे, समट्ठे, महालए गं मे समुद्दे । तए पं से वदद्दुरे पुरच्छिमिल्लाओ तीराओ उप्पिडित्ता गं गच्छ गच्छित्ता एवं वयासी- ए महालए णं देवाणुपिया ! से समुद्दे ?, गो इट्ठे समट्ठे । तहेव एवामेव तुमं पि जियसत्तू असं बहू राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं भजं वा भगिणीं वा धूयं वा सुरहं वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चैव गं ओरोहे तारिसए णो मस्स तं एवं खलु जियसत्तू ! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धृता भावती अत्तिया मल्ली नामं ति रुवेण य जुव्र्वणेण ० जाव नो खलु अम्मा काई देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली । विदे sarvasure छिस्स वि पायंऽगुट्ठस्स इमे तवोरोहे सयसहस्ततिमंऽपि कलं न अग्घइ ति कट्टु जामेव दिसं पाउब्या तामेव दिसं पडिगया । तते गं से जितसत्तू परिव्वाइयाजणितहासे दूयं सदावेति सद्दावित्ता ० जाव पहारेत्थ गमणाए ६ । (सूत्र—७४ )
तं तसं जिस पामोक्खाणं करावं राईणं दूया
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मल्लि अभिधानराजेन्द्रः।
मल्लि जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तते णं छप्पि | उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता कुंभएणं रबा सद्धिं संपलग्गा य दूतका जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति उबाग-1 यावि होत्था। तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो च्छिता मिहिलाए अग्गुजाणंसि पत्तेयं पत्तेयं खंधावार-1 कुंभयं राय हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधद्धयप्पनिवसं करेंति करित्ता मिहिलं रायहाणी अणुपविसंति डागं किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसि पडिसेहिति । तते णं अणुपविसित्ता जणेव कुंभए तेणेव उवागच्छति उवाग- से कुंभए जितसत्तुपाभोक्खेहिं छहि राईहिं हयमहित जाव च्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं करयल० साणं साणं राईणं वय- पडिसेहिए समाणे अथामे अचवले अवीरिए०जाव अधणातिं निवेदंति-तते णं से कुंभए तेसिं दृयाणं अंतिए रिसणिजमिति कह सिग्धं तुरियं० जाव वेइयं जेणेव मिएयमहूँ सोच्चा आसुरुते जाव तिवलियं भिउडिं एवं हिला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपविवयासी-न देमि णं अहं तुभं मल्लिं विदेहवरकम ति सति अणुपविसित्ता मिहिलाए दुबाराति पिहेइ पिहेत्ता कटु ते छप्पि दुते अपकारिय असम्माणिय अवदारेणं | रोहसजे चिट्ठति, तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा छप्पि राणिच्छुभावेति । तते णं जितसनुपामोक्खाणं छण्हं राईणं
याणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता दया कुंभएणं रन्ना असकारिया असम्माणिया अवद्दारेणं मिहिलं रायहाणि णिसंचारं णिरुच्चारं सव्वतो समंताश्रो णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा सगा जाणवया रुभित्ता णं चिट्ठति । तते णं से कुभए मिहिलं रायहाणिं जेणेव सयात सयातिं णगराई जेणेव सगा सगा रायाणो! रुद्धं जाणित्ता अभंतरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणतेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयलपरि०एवं वयासी-1 वरगए तेसिं जितसत्तुपामोक्खाणं छहं रातीणं छिद्दाणि एवं खलु सामी ! अम्हे जितसत्तुपामोक्खाणं छएहं राईणं|
य विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहहिं आएहि दया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अबद्दा- य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य० ४ बुद्धीहिं परिणामेमाणे रेणं निच्छुभावेति । तं ण देइ णं सामी! कुंभए मल्ली|
परिणामेमाणे किंचि आयं वा उवायं वा अलभमाणे ओ-- वि, साणं साणं राईणं एयमढे निवेदेति । तते णं से जि- हतमणसंकप्पे०जाव झियायति । इमं च णं मल्ली विदेहरायवयसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं याणं अंतिए एयमढें
रकमगाएहायाजाव बहूहिं खुजाहिं परिवुडा जेणेव कुंभए साचा निसम्म आसुरुत्ता अम्मममस्स दूयसंपसणं करति| तेणेव उवागल्छह उवागच्छिता कुभगस्स पायग्गहणं करेकरित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छएह।
ति । तते णं कुंभए मल्लिं विदेहराय० णो आढाति सईणं दया जमगसमगं चेव जाव निच्छुढा, तं सेयं नो परियाणाइ तसिणीए संचिट्ठति । तते णं मल्ली खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गणिहत्तए त्ति | वि० कुंभगं एवं वयासी-तुब्भे णं ताओ ! अम्मदा कडु अममम्मस्स एतमट्ठ पडिसुणेति पडिसुणित्ता बहाया | पमं एजमाणं. जाव निवेसेह । किम्मं तुम्भं अज समद्धा हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामा जान सेयव- ओहतमणसंकप्पा झियायह ?, तते णं कुंभए मल्लिं रचामराहिं० महया हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरं-1 विदेह एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तब कजे जितसगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडा सब्धिड्डीए ०जाव रवेणं तुपामुक्खेहिं छहिं रातीहिं दूया संपेसिया तेणं मए अससएहिं सएहि नगरेहितो जाव निग्गच्छति निग्गच्छिता कारिया०जाव निच्छुढा,तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा तेसिं एगयो मिलायंति २ ता जेणेव मिहिला तेणेव पहारे | दयाणं अंतिए एयमटुं सोचा परिकुविया समाणा मिहिलं स्थ गमणाए। तते णं कुंभए राया इमीसे कहाए लऽढे स- रायहाणिं निस्संचारंजाव चिट्ठति । तते णं अहं पुत्ता तेसिं माणे बलवाउयं सदावेति सद्दावित्ता एवं वदासी-खिप्पा-| जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि अलभमाणे० मेव भो देवाणुप्पिया! हय जाव सेमं सबाहेह जाव | जाव झियायामि । तते णं सा मल्ली विदेहरायवरकल्पगा पञ्चप्पिणं ति । तते णं कुंभए एहाते समद्धे हत्थिखंधवरगए कुंभयं राय एवं वयासी-मा णं तुम्भे ताओ ! श्रोहयमसकारंटवरदाममल्लए सेयवरचामरए महया • मिहिलं म
णसंकप्पाजाव झियायह । तुब्भे णं ताओ! तेसिं मज्झेणं णिजाति २ ता विदेहं जणवयं मझ मज्झे- जियसत्तुपामोक्खाणं छएहं राईशं पत्तेयं पत्तेयं रहसियं णं जेणेव देसअंते तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता खं- दूयसंपेसे करेह । एगमेगं एवं वहह-तब देमि मल्लिं विदेहधावारनिवसं करेति करिताजियसत्तुप्पामोक्खा छप्पि य रा- रायवरकरणं ति कट्ट संझाकालसमयंसि पविरलमरणूसंसि याणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिति । तते णं ते | निसंतसि पडिनिसंतसि पत्तेयं पत्तेयं मिहिलं रायहाणिं जियसत्तुपामोक्खा छपि य रायाणो जणेव कुंभए तेणेव | अणुप्पधेसेह २ गम्भघरएसु अणुप्पवेसेह मिहिलाए राय
४२ Jain Education Interational
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मल्लि अभिधानराजेन्द्रः।
मल्लि हाणीए दुवाराई पिधेह पिधेत्ता रोहसज्जे चिट्ठह, तते णं कुंभए | ते णं तब्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव एवं वयासी-तं चैव०जाव पवेसेति रोहसजे चिट्ठति । तते णं | जंबहीवे दीवे जाव साई साई रजाति उवसंपञ्जिता ते जितसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्लं पाउन्भूयाजा-| णं विहरह । तते णं अहं देवाणुप्पिया! तारो देवलोयाव जालंऽतरेहिं कणगमयं मत्थयच्छि९ पउमुप्पलपिहाणं | ओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पच्चायाया। पडिमं पासति । एस णं मल्ली विदेहरायवरकाम त्ति कटु “किंथ तयं पम्हुटुं, जं थ तया भोजयंतपवरंमि । मल्लीए विदेह रूवे य जोवणे य लावले य मुच्छिया
बुत्था समयनिबद्धं, देवा ! तं संभरह जाति ॥१॥" गिद्धा. जाव अज्झोववमा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा
ततेणं तेसि जियसनुपामोक्खाणं छएहं रायाणं मल्लीए विपेहमाणा चिट्ठति । तते णं सा मल्ली विदेह० एहाया०जाव
देह अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं पसपायच्छित्ता सवालंकार० बहहिं खुजाहिं जाव परि
त्थेणं अज्झवसाणेणं लसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिक्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेव उ
जाणं० ईहावूह जाव समिजाइस्समरणे समुप्पन्ने । एयमढे वागच्छद्र उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ सम्म अभिसमागच्छति । तए णं मल्ली अरहा जितसत्तुपातं पउमं अवणेति । तते णं गंधे णिद्धावति से जहा- मोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पामजाइस्समरणे जाणित्ता गब्भनामए अहिमडेति वा • जाव असुभतराए चेव । तते णं | घराणं दाराई विहाडावेति । तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा जे ते जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया णेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति उवगच्छित्ता तते णं समाणा सरहिं सएहिं उत्तरिजएहिं आसातिं पिहेंति पि-1 महब्बलपामोक्खे सत्त वि य वालवयंसा एगयो अभि हित्ता परम्मुहा चिट्ठति । तते णं सा मल्ली विदेह० ते समन्नागया याऽवि होत्था । तते णं मल्लीए अरहा ते जितजितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किम्मं तुब्भे देवाणुप्पिया! सत्तुपामोक्खे छप्पि य रायाणो एवं वयासी-एवं खलु अहं सएहिं सएहिं उत्तरिजेहिं० जाव परम्मुहा चिट्ठह ? , | देवाणुप्पिया! संसारभयउबिग्गाजाव पव्वयामि तं तुम्भे तते णं ते जितसनुपामोक्खा मल्लि विदेह एवं वयंति णं किं करेह किं ववसह जाव किं भे हियसामत्थे ?, एवं खलु देवाणुप्पिए !। अम्हे इमेणं असुभेणं गंधणं | जियसत्तु०मल्लिं अरहं एवं वयासी-जति णं तुब्भे देवाणुप्पिअभिभूया समाणा सरहिं सएहिं० जाव चिट्ठामो । तते या! संसार जाव पब्बयह अम्हे णं देवाणुप्पिया ! के अमे णं मल्ली विदेह. ते जितसत्तुपामुक्खे० जइ ता देवा- आलंवणे वा आहारे वा पडिबंधे वा जह चेव णं देवाणुप्पिणुप्पिया ! इमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्लाकल्लि या ! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कब्जेमु य ताओ मणुम्माओ असण पा०४ एगमेगे पिंडे पक्खि- मेढीपमाणं जाव धम्मधुरा होत्था तहा चेव णं देवाणुप्पमाणे पक्खिप्पमाणे इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणाम | प्पिया ! इणिंह पि जाव भविस्सह, अम्हे वि य णं देइमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलाऽऽसवस्स वंताऽऽसव- वाणुप्पिया! संसारभउबिग्गा जाव भीया जम्मणमरणास्स पित्ताऽऽसवस्स सुक्कसोणियपूयाऽऽसवस्स दुरूवऊसास- णं, देवाणुप्पियाणं सद्धिं मुंडा भवित्ता जाव पव्वयामो। नीसासस्स दुरूवमुत्तपूतियपुरीसपुण्णस्स सडण • जा- तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-जे व धम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सति ?, तं मा णं तु- णं तुब्भे संसार जाव मए सद्धिं पव्वयह तं गच्छह म्भे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएसु कामभोगेसु सजह रज्जह | णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! । सएहिं सएहिं रज्जेहिं जेट्टे पुत्ते गिज्झह मुज्झह अज्झोववजह । एवं खलुदेवाणुप्पिया ! रज्जे ठावेह ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुतुम्हे अम्मे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलि- रूहह, दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउब्भवह । तते थे लावर्तिसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामो- ते जितसत्तुपामोक्खा मल्लिस्स अरहतो एतमट्ठ पडिसुक्खा सत्त वि य वालवयंसया रायाणो होत्था, सह जा-ऐति । तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तु . गहाय जेणेव या जाव पव्वतिता । तए णं अहं देवाणुप्यिाया! इमेणं कुंभए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि जति णं तुभ पाडेति । तते णं कुंभए ते जितसत्तु विपुलेणं असण पा०४ चोत्थं उवसंपजित्ता णं विहरह । तते णं अहं छद्रं उवसंप पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति जावडिविसज्जेजित्ता णं विहरामि, सेसं तहेव सव्वं । तते णं तुब्भे देवाणु- ति, तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा कुंभएणं रमा विप्पिया! कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववमा सजिया समाणा जेणेव साइं साई रजातिं जेणेव नतत्थ णं तुम्भे देसूणातिं वत्तीसातिं सागरोवमाई ठिती. त- गरातिं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सगाई रजाति
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( १६७ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
मल्लि
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उवसंपजित्ता विहरति । तते गं मल्ली अरहा संवच्छराज्यसा निक्aमिस्सामि त्ति मणं पहारेति । (सूत्र - ७५ ) ते काले तेणं समएणं सक्कस्साऽऽसणं चलति, तते गं सके देविंदे देवराया आसणं चलियं पासति पासित्ता ओहिं पजति परंजित्ता मल्लि अरहं श्रहिणा आभोएति आभोत्ता इमे अत्थिए ०जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभगस्स० मल्ली अरहा निक्खमिस्सामिति मगं पहारेति, तं नीयमेयंतीयपच्चुप्पन्नमणागयाणं सकाणं० ३ अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलित्तए, तं जहा'तिमेव य कोडिसया, अट्ठासीदिं च होंति कोडीओो । सीति च सयसहस्सा, इंदा दलयंति रहाणं ॥ १ ॥ ' एवं संपेहेति संपेहित्ता वेसमणं देवं सहावेति सद्दावित्ता० एवं खलु देवाप्पिया ! जंबुद्दीहे दीवे भारहे वासे ० जाव सीति च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवा - पिया ! जंबुद्दी दीवे भारहे वासे कुंभगभवसि इमेयारूवं अत्थसंपदाणं साहराहि साहरिता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पियाहि । तते रां से वेसमणे देवे सकेणं देविंदे एवं वृत्ते हट्ठे करयल •जाव पडिमुणेइ पडिसुरित्ता जंभ देवे सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुन्भेणं देवाप्पिया ! जम्बुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि कुंभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीयं च कोडीओ असीयं च सयसहस्साइं अयमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहरह साहरित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पियह । तते णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं० जाव सुत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं श्रवकमंति अवक्कमित्ता० जाव उत्तरवेउब्वियाई रुवाई विउव्वंति विउब्वित्ता ताए उकिट्ठाए० जाव वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे भार वा जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रम्मो भवणे तेणे - व उवागच्छति २त्ता कुंभगस्स रनो भवसि तिन्नि कोडिसया ० जाव साहरंति साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल ०जाव पच्चप्पियंति, ततेां से वेसमणे देवे जेणेव सके देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता करयल ० जाव पच्चप्पियति । तते गं मल्ली रहा कल्लाकाल्लं ० जाव मागहओ पायरासो त्ति बहूणं साहारा य अणाहाण य पंथियाण य पहिया य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरम्मकोर्ड खातिं सयसहस्सातिं इमेयारूवं अत्थसंपदा दलयति, तए गं से कुंभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थ तत्थ तर्हि तर्हि देसे देसे बहूओ महाणससालायो ।
मल्लि करेति, तत्थ बहवे मरणुया दिल भइभत्तवेयणा विपुलं श्रसण ०४ उवक्खर्डेति उवक्खडेत्ता जे जहा आगच्छति तं० पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पाडिया वा पासंडत्था वा गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्यस्स वीसत्थस सुहासवरगत तं विपुलं असणं पा०४परिभाएमाखा परिवेसेमाणा विहरंति, तते गं मिहिलाए सिंघाडग० जाव बहुजणो मममस्स एवमातिक्खति एवं खलु देवाणप्पिया ! कुंभगस्स रमो भवरांसि सव्वकामगुणियं किमि - च्छियं विपुलं असणं पाणं० ४ बहूणं समणाय य० जान परिवेसिजति,
"वरवरिया घोसिजति, किमिच्छयं दिजए बहुविहीयं । सुरसुरदेवदाणव- नरिंदमहियाण निक्खमणे ||१|| " तते गं मल्ली रहा संवच्छरणं तिनि कोडिसया अट्ठासीति च होंति कोडीओ असीति च सय सहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपदा दलइत्ता निक्खमामिति मं पहारेति । (सूत्र - ७६ )
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तेरणं कालें तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्ठे विमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाहिं सरहिं एहिं पासा यवर्डिसएहिं पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तर्हि अणिएहिं सत्तर्हि अगियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अहि बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महया हयनट्टगीयवाइय० जाव रखेणं भुंजमाणा विहरह, तं जहा" सारस्स य माइच्चा, वरही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वावाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥ १ ॥ तते गं तेसिं लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणार्ति चलति तहेव० जाव अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्तए ति तं गच्छामो गं अम्हे वि मल्लिस अरहतो संबोहणं करेमि त्ति कट्टु एवं संपेर्हेति संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं ० वेउब्वियसमुग्धा एणं समोहति समोहणित्ता संखिजाई जोयणाई एवं जहा जंभगा० जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रनो भवणे जेणेव मल्ली रहा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता - तलिक्खपाडवन्ना सखिखिशियाई० जाव वत्थार्ति पवरपरिहिया करयल० ताहिं इड्डा० एवं व्यासी- बुज्झाहि भगवं! लोगनाहा पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयस - करं भविस्सति त्ति कट्टु दोचं पि तच्चं पि एवं वयंति वत्ता मल्ल रहं वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूमा तामेव दिसिं पडिगया । तते गं मल्ली रहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए स
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मल्लि
माणे जेणेव अम्मापि रो तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयल० इच्छामि णं अम्मयाओ, तुम्भेहिं प्रभाते मुंडे भवित्ता जाव पव्वतित्तए, अहासुहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । तते गं कुंभए कोडुंविपुरसे सहावेति सद्दावित्ता एवं वदासी - खिप्पामेव श्र सहस्सं सोव सियाणं ० जाव भोमेजाणं ति, श्रमं च महत्थं • जातित्राऽभिसे उबट्टवेह ० जाव उबट्टवेंति । तेणं कालेणं तेयं समरणं चमरे असुरिंदे ०जाव अच्चुयपजवसाणा आगया, तते गं सके देविंदे देवराया आभिओगिए देवे सहावेति सद्दावित्ता एवं वदासी - खिप्पामेव सहस्सं सोचसियाणं ० जाव अष्मं च तं विउलं उवट्ठवेह ० जाव उबट्ठवेंति, ते वि कलसा ते चेत्र कलसे अणुपविट्ठा । तते गं से सके देविंदे देवराया कुंभराया मल्लि अरहं सीहासांसि पुरत्याभिमुहं निवेसेइ अट्ठसहस्सेणं सोवलियाणं ० जाव अभिसिंचंति । तते णं मल्लिस्स भगवओ अभिसे वट्टमाणे अप्पेगतिया देवा मिहिलं च सभितरं बाहिं जाव० सव्वतो समंता परिधावति, तरणं कुंभए राया दोच्चे पि उत्तरावकमणं •जाव सव्वाऽलंकारविभूसियं करेति करिता कोटुंविपुरिसे सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव मणोरमं सीयं वदुवेह ते उबवेंति, तते गं सके देविंदे देवराया भोगिए० खिप्पामेव श्रगखंभ० जाव मणोरमं सीयं Tags • जाव साऽवि सीया तं चैव सीयं अणुपविट्ठा । तते णं मल्ली अरहा सीहासणाओ । अन्भुट्टेति अब्भुट्ठित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहति दुरूहित्ता सीहासवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते गं कुंभए अट्ठारससेणिप्पणीओ सदावेति सद्दावित्ता एवं वदासी - तुभे गं देवाप्पिया ! एहाया ० जाव सच्चालंकारविभूसिया मल्लिस सीयं परिवहह ० जाव परिवर्हति । तते गं सक्के देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिशिल्लं उवरिल्लं वाहं हति, ईसा उत्तरिल्लं उवरिल्लं वाहं गेरहति, चमरे दाहिणिलं लिं, वली उत्तरिल्लं हेट्ठिल्लं अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति ।
।
( १६८ ) अभिधान राजेन्द्रः । मल्लि मिहिलं आसिय० अभितरवासविद्दि गाहा० जाव पधावति, तते गं मल्ली अरहा जेणेव सहस्वत्रणे उज्जाणे जेणेव असो गवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीयायां पचोरुहति पञ्चोरुहित्ता आभारणाऽलंकारं प्रभावती पडिच्छति । तते गं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, तते खं सके देविंदे देवराया मल्लिस केसे पढिच्छति, खीरोदगस मुद्दे पक्खिवइ । तते गं मल्ली अरहा मोडत्थु णं सिद्धाणं ति कट्टु सामाइयचरितं पडिवञ्जति, जं समयं च खं मल्ली अरहा चरितं पडिवञ्जति, तं समयं चणं देवा मासा य णिग्वासे तुरियनिणायगीयवातियनिग्घोसे य सक्कस्स वयण संदेसेणं तिलुके या - विदोत्था । जं समयं च णं मल्ली अरहा सामातियं चरित्तं पवने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहतो माणुस्सधम्माओ उत्तरिए मणपञ्जवनाणे समुत्पन्ने । मल्ली अरहा जे से हेमंताणं दोघे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे तस्स गं पोससुद्धस्स एकारसीपकवेणं पुत्र एहकालेसमयंसि श्रमेणं भत्तेणं अपाणएां अस्सिणीहिं नक्खजोगमुवागएवं तिहिं इत्थीसएहिं श्रभितरियाए परिसाए तिहिं पुरिससएहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धि मुंडे भविता पव्यइए, मल्लि अरहं इमे अ रायकुमारा अणुपव्वसुः तं जहा -
त्ते
|
"पुवि उक्खित्ता मागु-स्सेहिंतो हट्टरोमकुवेहिं । पच्छा हवंति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ १ ॥ जलचबलकुंडलधरा, सच्छंद विउब्वियाऽऽभरणधारी । देविददाविंदा, वहति सीयं जिगिदस्स ॥ २ ॥ तते मल्लिस रहओ मणोरमं सीयं दुरूडस्स इमे अमंगलगा पुरतो हाणु ० एवं निग्गमो जहा जमालिस्स । तते मल्लिम्स अरहतो निक्खयमाणस्स अमइया देना
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।
""
" दे यदिभित्ते, सुमित्ते बलमित्ते भाणुमित्ते य । अमरवति अमरसेणे, महसेणे चव अमए ॥ १ ॥ तए गं से भववइ - बाणमंतर - जोइसिय—- बेमाशिया मल्लिस्स अरहता निक्खमणमहिमं करेति करिता जेव नंदीसरवरे ० अट्ठा हियं करेंति करिता जाव पडिगया । तते गं मल्ली रहा जं चैव दिवसं पव्चतिए तस्सेव दिवसस्य goats ( पच्च) वरहकालसमयसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि सुहासणवरगयस्त सुहेणं परिणाम पसत्थेहिं अवसारोहिं पसत्थाहिं साहिं विसुज्झमाणीहि तया चरणकम्मरयविकरणकरं अपुव्वकरणं अ पट्टिस ते ०जाब केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने । ( सूत्र - ७७ )
तेरणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं असणातिं चलंति समोसा सुति अड्डा हियमहाम० नंदीसरं जामेव दिसं पाउ ० कुंभए वि निगच्छति । ततं णं ते जितसत्तुपामुक्खा छप्पि य० जेपुते रजे ठावेत्ता पुरिससहरुसवाहिरणीया दुरूढा सब्बड्डी ए जेणेव मल्ली अर० जाव पज्जुवासंति, तते गं मल्ली अर० तीस महालियाए कुंभगस्स तेसिं च जियसत्तुपामुक्खाणं धम्मं कहेति परिसा जामेव
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मल्लि अभिधानराजेन्द्रः।
मसाण दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। कुंभए समणो- डिबुद्धी इक्खागराया नंदच्छाए अंगराया रुप्पी कुणालाsवासए जाते, पडिगए पभावती य। तते णं जितसत्तू | हिवई संखे कासीराया अदीणसत्तू कुरुराया जियसत्तू पंचालछप्पि रायाणो धम्मं सोचा आलित्तएणं भंते ! जाव पव्व- |
राया । स्था० ७ ठा०। इया, चोद्दसपुग्विणो अगते केवले सिद्धा। तते णं मल्ली
श्रीमल्लिजिनस्य द्वादशपर्षदामवस्थितिर्देशनादौ सर्वजिनवअरहा सहसंववणाओ निक्खमति निक्खमित्ता वहिया| किवा भिन्नत्वमिति प्रश्ने, उत्तरम्-देशनाकाले द्वादशपर्षजणवयविहारं विहरइ, मल्लिस्सणं भिसगपामोक्खा अट्ठा- दामवस्थितिस्सर्वजिनसमाना वैयावृत्त्यं तु साध्व्यः कुर्ववीसं गणा, अट्ठावीसंगणहरा होत्था। मल्लिस्सणं अरहो। न्तीति । १४६ प्र० । सेन० ३ उल्ला०।। चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्को. बंधमतिपामोक्खायो मल्लिक-मल्लिक-पारसीकः शब्दः । स्वामिनि, ती० ३६ कल्प ! पणपामं अञ्जियासाहस्सीओ उक्को० सावयाणं एगासत- माल्लाजण-माल्लाजन-पु०
मल्लिजिण-मल्लिजिन-पुं० । एकोनविंशे अवसर्पिणीतीर्थकरे, साहस्सी चुलसीर्ति सहस्सा० सावियाणं तिन्नि सय- प्रव०२७ द्वार । श्रा० चू० । साहसीओ पएणढि च सहस्सा छस्सया चोहसपुवीणं वी- मल्लिज्झयण-मल्ल्यध्ययन-न० । श्रीशातासूत्रेऽष्टमाध्ययने सं सया ओहिनाणीणं वत्तीसं सया केवलणाणीणं पणतीसं
अदीनशत्रुराजस्य मल्लीस्वरूपाऽवगमाधिकारे, “तए णं से मल्ल
दिन्ने कुमारे तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिदावेति,"इत्यत्र सं. सया वेउब्बियाणं अट्ठ सया मणपञ्जवनाणीणं चोद्दस सया
दंशकशब्देन किमुच्यते? तस्य किं छेदितम् ? वृत्ती व्याख्यातं न वाईएं वीसं सया अणुत्तरोववातियाणं । मल्लिस्स अरहो
दृश्यते । आवश्यकवृत्त्युपदेशमालादौ घट्टीवृत्तिश्राद्धविधिदुविहा अंतगडभूमी होत्था, तं जहा-जुयंतकरभूमी परिया- प्रमुखग्रन्थेषु मृगावतीसंबन्धे संदशक एव लिखितोऽस्ति, यंतकरभूमी य जाव वीसतिमाअो पुरिसजुगाओ जुयं- परं संदंशकस्यैवार्थः कः ? तेन तस्यार्थः साक्षरं प्रसाद्य इति तकरभूमी, दुवालसपरियाए अंतमकासी । मल्ली णं अरहा |
प्रश्ने, उत्तरम्-संदशकशब्देनात्राङ्गुष्ठप्रदेशिन्योरग्रमुच्यते यतो
विशेषावश्यकवृत्तौ चित्रकरसम्बन्धाधिकारे निरपराधस्यैकपणुवीसं धरणूतिमुढे उच्चत्तेणं वएणणं वियंगुसमे समचउ--
चित्रकरस्याङ्गुष्टप्रदशिन्योरगं छेदितं शतानीकनरपतिरंससंठाणे वारिसभनारायसंघयणे मज्झदेसे सुहं सुहेणं
नेत्युक्तमस्तीति । १७१ प्र० । सेन० ३ उल्ला०।। विहरिचा जेणेव सम्मेयपव्वए तेणेव उवागच्छइ उवाग
मल्लियच्छ-मल्लिकाक्ष-त्रि०। माल्लिका-विचकिलस्तद्वदक्षिणी .च्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणुववरणे मल्लीण य एगं वाससतं आगारवासं पणपण्णं वाससहस्साति वाससयऊ
यस्य स मल्लिकातः । शुक्लाक्षे, “हरिमेलामउलमल्लियच्छा
णं"। श्री। माति केवलिपरियागं पाउणित्ता पणपएणं वाससहस्साई
मल्लिया-मल्लिका-स्त्री० । विचकिलपुष्पे,यल्लोके वेलीति प्रसिसव्याउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे
द्धम् । ज० ३ वक्षः । शा० । औ० । उत्त० । स्नानमल्लिकाविचित्तसुद्धे तस्स णं चतसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खत्तेणं शेषे, श्रा० म० १ अ०। कल्प० । प्रज्ञा० । अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अजियासएहिं अभितरियाए मल्लियामंडव-मल्लिकामण्डप-पुं० । मल्लिकामये मण्डपे, जी० परिसाए पंचहिं अणगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए मासि-| ३ प्रति० ४ अधि० । एणं भत्तेणं अपाणएणं वग्धारियपाणी खीणे वेयणिज्जे प्रा- मल्लिणाय-मल्लिज्ञान-न । मल्ली एकोनविंशतितमजिनस्था
एमिटेपरिनिवासासमा भासिन. नोत्पन्ना तीर्थकरी सैव शानम् । शाताधर्मकथाया अष्टमेऽध्यहा जंबुद्दीवामतीए, नंदीसरे अट्ठाहियाओ पडिगयाओ । एवं
यने, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।।
मल्लिसेण--मल्लिषण-पुं०। नागेन्द्रगच्छीये उदयप्रभसूरिशिष्ये, खलु जंबू ! समणणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झ
सच १२१४ शके वर्तमान श्रासीत् । स्याद्वादमञ्जरीम् -अन्ययणस्स अयमद्वे पामत्तेत्ति वेमि। (सूत्र७८)ज्ञा०१०८०
योगव्यवच्छेदिका टीकां च व्यरीरचत् । जै० इ० । मल्ली णं अरहा पणवीसं धणू उडूं उच्चनेणं होत्था ।| मल्दा-देशी-लीलायाम् , दे० ना०६ वर्ग० ११६ गाथा। ( स०२५ सम 1 ) मल्लिस्स णं अरहो पणपन्नवास-मस-मप-पुं० । चणकाकृतौ शरीरोत्थे कृष्णवर्णे गोलमांसे, सहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । स० ५४ सम।
मसग--मशक-पुं०। चतुरिन्द्रियजन्ती,उत्त० ३६ अ० श्राचा मालवक्तव्यता प्रतिबद्ध अष्टमे ज्ञाताध्ययने, स०१८ सम०।। विशे। श्रा० क० ० । प्रश्न । औः । शा प्रा०चू० । भरतवर्षे भविष्यत्येकोनर्विशे तीर्थकरे, (समवा-मसगघर-मशकग्रह-न० । स्वनामख्याते मशकनिवारण पर्यया त्वयं विवादशब्देनोक्तः । प्रव०७ द्वार ) प्रश्न । श्राव० ।
कच्छादनवने, ज्ञा०१ श्रु०१०। मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता अगाराप्रो मसाण-श्मशान--न । "शादेः श्मश्रुश्मशाने" ।८।२।८६। अणगारियं पन्चइए, तं जहा-मल्लिपिदेहरायवरकरणगा प- इत्यादेलुक । मसाणं । प्रा० २ पाद । पितृवने, दश० १०
पदुक्ख- अनु।
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(१७०)
अभिधानराजेन्द्रः। अ० । शवस्थाने, स्था० १० ठा० । प्रा० म० । प्रेतवने ।
मसूरग-मसूरक-पुं० । न०। श्रासनविशेषे, धान्यविशेषे व "पेवणं पिउवणं मसाण च"पाइ० ना० १५८ गाथा। दर्श० ५ तत्त्व । शा० । कल्प० । चर्मधृते कूपादिपूर्णे वल्वलगमसाणपाल-श्मशानपाल-पुं० । शवदाहस्थानरक्षके, "उज्झ दिकादिके, ०३ उ०। ति स्म श्मशाने सा, रक्कम्बलवेष्टितम् । श्मशानपालो मात- मह-कान्त-धा० । गृद्धी, "का राहाहि लकाहि लख वञ्चज, प्रेक्ष्य पत्न्यै तमर्पयत्" ॥१॥ श्रा० क०४ अ० । आव० ।।
वंफ-मह सिह विलुम्पाः" ॥ ८४ १९॥ इति कालतेमहादेशः। मसाणपिउ-श्मशानपितृ-पुं०। स्वनामख्याते यक्षे, "मसा
महइ ।कंखइ । प्रा० ४ पाद । “मे मइ मम मह महंमज्म मझ णमझे मसाणपिउनाम जक्लो इप्पसिद्धो अस्थि ” । अम्ह अम्हं इसा"॥८।३।११३॥ अस्मदो डसा षष्ठ्येकदर्श०१ तत्व।
वचने महादेशः । मह । मम । प्रा० ३ पाद । मसाणसामंत-श्मशानसामन्त-पुं० । श्मशानसमीपे, स्था० मह-महपूजायामिति धातोः क्विपि महः। गा० प्रा०म०१ १० ठा।
अ०। प्रतिनियतदिवसभाविन्युत्सवे, जं. २ वक्षः। मसार-मसार-पुं०। मसृणीकारके पाषाणविशेषे, शा० १७० महत्-त्रि० । विस्तीर्ण, चं०प्र०१७ पाहु । सूत्र। विशाले, १०।
रा०। प्रवले, प्राचा०१ श्रु०५१०४ उ० । प्रधाने, आव०४ मसारगल्ल-मसारगल्ल-पुं० ।। रत्नविशेषे,शा० १ श्रु०१ अ०।
श्र० उत्सव, ना "छणं महं (८३८)" पाइ० ना०२४८ गाथा । उत्स०। सूत्र० । रा० । प्रज्ञा । जं० । श्रा० म० । स्था०।
महअर-देशी-गह्वरपतौ, दे० ना०६ वर्ग० १२३ गाथा । मसारगल्लकांड--मसारगल्लकाएड--न० । मसारगलप्रभे रत्नप्र- महइमहालय-महातिमहाल(ता-स्त्री०)य-त्रि। महती चासाभाया नरकपृथ्व्याः काण्डे, स्था० १० ठा।
बतिमहती चेति महातिमहती तस्यै । पालप्रत्ययश्चेह प्राकृमसि-मषि-(पी)-स्त्री० । कजले, भ० १५ श० । जं० । मषी- तप्रभवः । महान्तश्च तेऽतिमहालयाश्चेति महातिमहालयाः । प्रधाने भाजने, शा०१ श्रु० अ०। मनुष्योपलक्षिते लेखन
अथवा-लय इत्येतस्य स्वार्थिकत्वान्महातिमहान्त इत्यर्थः ।
स्था० ३ ठा०४ उ० । रूढिवशादतिमहति, ध० ३ अधिक। जीविनि, पुं० । तं०।
"तए ण ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे य मसिगुलिया-मषीगलिका-स्त्रीगघोलितकजलगुटिकायाम् ,
महामहालियाए परिसाए चाउजामं धम्म परिकहेंति" जी० ३ प्रति०४ अधि।
भ०२ श०५ उ०। रा०। स्था। महामहान्त इति वक्तव्ये मसिण-मसूण-"मसृण मृगाङ्क मृत्यु शृङ्गघृष्टे वा"।८।१।१३०॥
समयभाषया " महामहालया" इत्युक्तम् । स्था०४ ठा०२ इति ऋत इद्वा । मसिणं । मसण । प्रा०१ पाद । कोमलत्व- उ० । विपा० (“ महइमहालया" इति पदं 'कुरा' चि, रा० । सुकुमारस्पर्श, बृ० ३ उ०। श्री० । अपरुषे, औ० । शब्दे तृतीयभागे ५८६ पृष्ठे विस्तरतः व्याख्यातम् ) नि००६ उ० लक्षणे, स्था०४ ठा०२ उ०। विशेष रम्ये, दे दो कुराओ पामत्तायो । देवकुरा चेव, उत्तरकरा चेव । ना०६ वर्ग ११८ गाथा । मन्दे , “मसिणं मणि मटुं, मंदं तत्थ णं दो महतिमहालता महमा पम्पत्ता । तं जहाअलसं जडं मरालं च । खेलं निहनं सहरं, वीसत्थं मंथरं थिमिश्र ॥१५॥" पाइ० ना० १५ गाथा । कोमले, पाइ० ना०६१
कूडसालमली चव, पउमरुक्खे चेव । (६३४) स्था०२
ठा०३ उ०। गाथा।
महतिमहालियं महती चासौ अतिमहालिका च गुर्वी महामासिणि-मसृणित-त्रि०।चिक्कणे, "रोसाणीमसिणिअं"
तिमहालिका अत्यन्तगुरुका इत्यर्थः । विपा०१ श्रु० ३० । (६६४) पाइ० ना० २२४ गाथा ।
अतिमहत आहमसीद-मसीति-श्रयं पारसीकः शब्दः । अल्लोपासनस्थाने ।
तो महइमहालया पामत्ता। तं जहा-जंबुद्दीवे मंदरे,मंदरेसु । यवनानां देवालये , श्रीवस्तुपालेन चतुःषष्टिमसीतयः का
सयंभुरभणे समुद्दे, समुद्देसु । बंभलोए कप्पे, कप्पेसु । (२०५) रिताः, दक्षिणस्यां श्रीपर्वतं यावत् पश्चिमायां प्रभासं वा
द्विरुच्चारणं च महच्छब्दस्य मन्दरादीनां सर्वगुरुत्वख्यावत् उत्तरस्यां केदारं यावत् पूर्वस्यां वाराणसी यावत् ।। ती०४१ कल्प।
पनार्थम् । अव्युत्पन्नो वा अयमतिमहदर्थे वर्तत इति (म
दरेसु त्ति) मेरूणां मध्ये जम्बूद्वीपकस्य सातिरेकलक्षयोजमसीमसा-मषीमपा-स्त्री० । मषीप्रधाना मूषा । मषीप्रधाने
नप्रमाणत्वाच्छेषाणां चतुणों सातिरेकपश्चाशीतियोजनसताम्रादिधातुप्रतापनभाजने, मषी च मूषकश्चेति द्वन्द्वे । कजलोन्दुरुविशेषयोः, पुं०। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०।
हस्रप्रमाणत्वादिति । स्वयंभूरमणो महान् सुमेरोरारभ्य त
स्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात् तेषां तस्य मसूर-मसूर-पुं० । स्वनामख्याते धान्यभेदे, प्राचा०१थु०१ च क्रमेण किंचिन्न्यूनाधिकरज्जुपादप्रमाणत्वादिति । ब्रहाअ०५ उ०। प्रव०। प्रज्ञा०। भिलिङ्गे, चणकिकायाम् , इत्यन्ये । लोकस्तु महान् तत्प्रदेशे पञ्चरज्जुप्रमाणत्वालोकविस्तरस्य (सूत्र २४६)। भ०६श०७ उ०। मसूरो मालवादिदेशप्रसिद्धा | तत्प्रमाणतया च विवक्षितत्वात् ब्रह्मलोकस्येति । स्था० धान्यविशेषाः। ०२ वक्षः। विश०। प्रशा०ामसरः चणकः।। ३ ठा०४ उ०। दशा०६०। "मसूरा चणइयाओ।" स्था०५ठा०३ उ०। महई महती-स्त्री० । वाद्यविशषे, रा०। प्रौढायाम, सूत्र०१ लोमयुक्त पक्षिभेदे, प्रज्ञा०१ पद।
| भु०५ अ० १ उ० । महाविषपायाम्, प्रश्न० ४ आक्ष द्वार।
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अं
प्रशस्तायाम्, विपा० १ ० ३ ० । भ० । सर्वधर्मानुष्ठानानां वृहत्याम्, प्रश्न० " महंति त्ति " सर्वधर्मानुष्ठानानां बृहती ग्रह व एकं विश्च पथ वर्ष निरि जिबरेि सव्वेहिं । पाणाऽतिवायविरमण-मवसेसा तस्स रक्खा य ॥ १ ॥ प्रश्न० १ संव० द्वार ।
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( १७१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महंगो - देशी - उष्टे, दे० ना० ६ वर्ग ११७ गाथा । महंत - महत्- त्रि० । शीघ्रादित्वात्तथारूपम् । प्रा० २ पाद। बृहत्तरे, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । विस्तीर्णे, सूत्र० १ श्रु० ५ श्र० २ उ० । महाविस्तीर्णे, विशाले, गुरुके, प्रश्न० ४ संव० द्वार । प्रशस्ते, विपा० १ श्रु० ३ श्र० । सूत्र० ।
तत्र महयन्दनिलेपार्थं नियुक्रिदाहणामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य ।
एसो खलु महंतम्मि, निक्खेवो छव्विहो होति ॥१४२॥
( सार्म उवत्यादि) नामस्थापनाइयक्षेत्रकालभावा35रमको महति परिधा निक्षेपो भवति तत्र नामस्थापने, सुशाने इव्यं महदागमतो, नो आगमतस्य आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोखागमतस्तु शरीर भव्यचरीरव्यतिरिकं सचित्ताऽचित्तमिश्रभेदात्त्रिधा । तत्रापि सचिन्तद्रव्यं महत् श्रदारिकादिकं शरीरम्, तत्रैौदारिकं योजन सहस्रपरिमार्ग मत्स्यशरीरम् वैक्रियं तु योजनशतसहस्रपरिमाणम्, तेजसकार्मणे तु लोकाssकाशप्रमाणे, तदेतदादारिकवैकियतैजकामरूपं चतुर्विधं द्रव्यं सचित्तमहद् अतिमहत्-समस्वलोकस्यापचितमहास्कन्धः मिश्र तु तदेव मत्स्यादिशरी रम् महत्] लोकाकाशं कालमहत् खर्चा-सा भावमदीद यिकादिभावरूपतया षोढा । तत्रौदयको भावः सर्वसंसारिषु विद्यत इति कृत्या पहाश्रयत्वान्महान् भवति। कालतोऽप्य सो त्रिविधः तद्यथा-अनाद्यपर्ववसितोऽभव्यानाम् अनादिसपर्यवसिता भव्यानां साहिसपर्यवसितो नारकादीनामिति सायकस्तु केवलज्ञानदर्शनात्मकः साधपर्यवसितत्वात् कालतो महान शायीपशमिको ऽप्याश्रय बहुत्वादनापर्ययतित्या
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-
महानिति । श्रपशमिकोऽपि दर्शनचारिषमोहनीयानुदय तया शुभभावत्वेन च महान् भवति पारिणामिकस्तु समस्तजीवाजीचाश्रयत्वादाश्रये महत्वान्महानिति । सान्निपाति को याहुत्वादेव महानिति सूत्र० २ ० २ ० महदभिधित्सुराह
णामं वा दविए, खेने काले पहाणे" पहभावे । एएसि महंताणं, पडिवक्ले खुट्टया होंति ॥ १७८ ॥ नाममहत्-महदिति नाम, स्थापना महत्-महदिति स्थापना, द्रव्यमहान् श्रचित्तमहास्कन्धः । दश० ३ श्र० । तत्रागमतो ज्ञातानुपयुक्तो व्यमहत्, नोश्रायमतो शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्तम् इयमहत् अचित्तमहास्कन्धादिरन यश्वतुर्भिः समयैः सकललोकमापूरयति । ( उत्त०पाई ६
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०) क्षेत्रमहल्लोकालोकाकाशम्, कालमहान् श्रतीतादिभेदः सम्पूर्णः कालः । प्रधानमहत्-सवित्ताचित्तमिश्रभेदात् सवि त्रिविधम्, द्विपरचतुष्पदापदमेदात् । तत्र द्विपदानां तीर्थकरः प्रधानः, चतुष्पदानां हस्ती, अपदानां पनसः, प्रचित्तानां वैदर्यरत्नम् मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिवि
महंत
,
भूषितः प्रधानः इत्यत एव येतेषां महत्त्वमिति प्रतीत्य महद् आपेक्षिकम् तद्यथा-आमलकं प्रतीत्य महत् विल्यम्, बिल् प्रतीत्य कपित्थमित्यादि । भावमहत्त्रिविधम् प्राधान्यतः कालतः श्राश्रयतश्चेति । प्राधान्यतः क्षायिको महान् मुक्लिहेतुत्वेन तस्यैव प्रधानत्वान्, कालतः पारिणामिकः जीवत्वाजीवत्यपरिणामस्यानाद्यपर्वयथितत्वान्न कदाचिया जी वतया परिणमन्ते अजीवाश्च जीवतयेति, श्राश्रयतस्त्वौदयिकः प्रभूत ( संसारि ) सत्त्वाश्रयत्वात्, सर्वसंसा रिणामेवासौ विद्यत इति । दश० ३ ० । प्रभुत्वे, औ० । महायामे, श्री० । महच्छन्दस्य बहवोऽर्थाः । तथाहिमहच्छन्दो बहुत्वे, यथा महाजन इति । श्रस्ति बृहत्त्वे, यथा महाघोषः । अस्तीत्यर्थे यथा महाभयमिति । अस्ति प्राधान्ये यथा महापुरुष इति तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत इति । एतन्निर्युक्लिकारो दर्शयितुमाह
,
पान्ने महसदो दब्बे खेते य कालभावे य ।
तत्र महावीरस्तव इत्यत्र यो महच्छन्दः स प्राधान्ये वर्तमानो गृहीतः तच नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् पोढा । प्राधान्ये नामस्थापने चुरणे, इज्यप्राधान्यं शरीरभरी व्यतिरिक्तं सवितावित्तमिश्रभेदात् विधा । सवित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् त्रिधैव । तत्र द्विपदेषु तीर्थकरचक्रवर्त्यादिकम्, चतुष्पदेषु हस्त्यश्वादिकम्, अपदेषु प्रधानं कल्पवृक्षादिकम्, यदिवा-इहैव ये प्रत्यक्षा रूपरसगन्धस्पर्शैरुत्कृष्टाः पौण्डरीकादयः पदार्थाः, अचित्तेषु वैडूर्यादयो नानाप्रभावा मरायो, मि तीर्थकरो विभूषित इति क्षेत्रतः प्रधाना-सि धर्मचरणाश्रयणान्महाविदे व उपभोगाङ्गीकरणेन तु देवकुर्वादिकं क्षेत्रम्, कालतः प्रधानं त्वेकान्तसुषमादि, यो वा कालविशेषो धर्मचरणप्रतिपत्तियोग्य इति भावप्रधान तु क्षायिको भावः तीर्थकरशरीरापेक्षयौदयिको वा, तत्रेह द्वयेनाप्यधिकार इति । सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । आ०म० । दीर्घे, शा० १ श्र० ८ श्र० । महत्तत्त्वे, सत्त्वरजस्तमोरूपात्प्रधानान्महान् - बुद्धिरित्यर्थः । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । महत्त्वं मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसामर्थ्यम् तथा प्राप्तिर्भूमि ठस्याङ्गुल्यग्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरादिस्पर्शनसामर्थ्यमिति योगशास्त्रवृती" कफविमगमलामर्श- सर्वोपधिमहर्द्धयः इत्यस्य व्याल्याने प्रोक्लमस्ति परमत्रोत्कर्षतोऽप्युत्सेधालमानेन तयोजनममासस्य वैपिशरीरस्य संभवान्मेरपि महत्तरशरीरकरणं भूमिष्ठस्याकृल्यन्त्रेण मेप्रादिस्प र्शनं कथं घटते इति प्रझे, उत्तरम् - यद्यपि " सरीरमुस्खे:गुलेण तह ति " उत्सेधाङ्गुलेन शरीरमानमुक्तमस्ति, तथापि तत्प्रार्थिक संभाव्यते तेन न काप्यनुपपत्तिः । अन्यथा भूमिष्ठस्याङ्गुल्यग्रेण मेरुपर्वताप्रादिस्पर्शासंभवात् । किं च-पयेकान्ततः शरीरमुत्सेधासेनैव स्यात् तदा प्रापनोपाशादायको द्वादशयोजनमा सालिकाजीद महाविदेहादिचक्रिणां प्रमाणाङ्गुलेन द्वादशयोजनप्रमाणस्य स्कन्धावारस्य विनाशहेतुः कथं संभवति । कथं वा कृतलक्षयोजनयेक्रियरूपेण सौधर्मदेवलोकं गतेन चमरेन्द्रेण एकः पादः पद्मवेदिकायां परध सुधर्मासभायामित्यादिकं मगवत्याद्युक्तं संभवतीति । ६ प्र० । सेन०२ उल्ला० ।
।
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ट०
(१७२) महंततर अभिधानराजेन्द्रः।
महग्गह महंततर-महत्तर-त्रि० । आयामतो महति,भ० १३ श० ३ उ०।। दो अग्गिल्ला, दोकाला, दो महाकालगा, दो सोत्थिया, दो महंतमलय-महामलय-पुं०।महाँश्चासौ मलयश्च महामलयः। सोवत्थिया, दो वद्धमाणगा, दो पूसमाणगा, दो अंकुसा, विन्ध्ये, स्था० ६ ठा०।
दो पलम्बा,दो निच्चालोगा,दो णिच्चुजोता, दो सयंपभा, महंतर-महदन्तर-न०। विवरे, " एवं सञ्चामहत्तरं " महद- दो अोभासा, दो सेयंकरा, दो खेमकरा, दो आभंकरा, दो न्तरं धर्मविशेषकर्मणो वा विवरं शात्वा, यदि वा-मनुष्यार्य- | पभंकरा, दो अपराजिता, दो अरया, दो असोगा, दो क्षेत्रादिकमवसरं सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा । सूत्र० १ श्रु०२ विगतमोगा. दो विमला. दो वितत्ता. दो वितत्था. दो अ०२ उ०। महाविक्कम-महाविक्रम-त्रि०।महान् विक्रमो विहारक्रमेण प्र
विसाला, दो साला, दो सुव्वता, दो अणियट्टा, दो एगभूतक्षेत्रव्याप्तिरूपो येषां ते तथा । प्रभूतं क्षेत्रं विहृतवत्सु,नं०।। जडी, दो दुजडी, दो करकरिगा, दो रायग्गला, दो पुष्फमहंऽधकार-महान्धकार-पुं० । तमस्काये,स्था०४ ठा० २ उ०।
केतू , दो भावकेऊ । (सूत्रह) महातमोरूपत्वात्तस्य । भ०६ श०५ उ० ।
अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिर्ग्रहाः सूत्रसिद्धाः, केवलमस्मदृष्ट
पुस्तकेषु केषुचिदेव यथोक्तसंख्या संवदतीति सूर्यप्रज्ञप्त्यमहक्खंधवग्गणा-महास्कन्धवर्गणा-स्त्री० । पुद्गलस्कन्धादि
नुसारेणासाविह संवादनीया। तथाहि.तत्सूत्रम्-"तत्थ खलु विनसा परिणामेन टङ्ककूटपर्वतादिसमाश्रितेषु पुद्गलेषु ,
इसे अट्ठासीई महग्गहा पन्नत्ता, तं जहा-इंगालए १ वियालपं० सं०५ द्वार।
ए २ लोहियक्खे ३ सणिच्छरे ४ आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कमहक्खया-महाख्या-स्त्री० । एकत्र पट्टे सप्तसप्ततिप्रतिमा
णे ७ कणए ८ कणकणए ६ कणवियाणए १० कणसंताणप्रतिष्ठायाम् , ध०२ अधिक।
ए ११ सोमे १२ सहिए १३ अस्सासणे १४ कज्जोयप १५ कमहगोव-महागोप-पुं० । अर्हति , विशे० ।
ब्बडए १६ अयकरए १७ दुंदुभए १८ संखे १६ संखवराणे २० अडवीए देसयत्तं, तहेव णिज्जामया समुद्दम्मि ।
संखवन्नाभे २१ कंसे २२ कंसवराणे २३ कंसवन्नामे २४ णीले छक्कायरक्खणऽट्ठा, महगोवा तेण वुच्चंति" || २६५६ ॥
२५ णीलोभासे २६ रुप्पी २७ रुप्पोभासे २८ भासे २६ भास
रासी ३० तिले ३१ तिलपुष्फवराणे ३२ दगे ३३ दगपंचधरणे विशे०। (व्याख्यातैषा 'अरिहंत' शब्दे प्रथमभागे ७६८पृष्ठे)
३४ काप, ३५ काकंधे ३६ इंदग्गी ३७ धूमकेऊ ३८ हरी ३६ महग्गह-महाग्रह-पुं० । अङ्गारकादिषु भावकेतुपर्यवसानेषु
पिंगले ४० बुहे ४१ सुक्के ४२ बहस्सई ४३ राहू ४४ अगत्थी४५ चन्द्रपरिवारभूतेषु ग्रहेषु, स० ।
माणवगे ४६ कासे ४७ फासे ४८ धुरे ४६ पमुहे ५० वियडे ५१ एगमेगस्स णं चंदिममूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ मह- विसंधी ५२ नियल्ले ५३ पयले ५४ जडियाइल्लए ५५ अरुणे ५६ ग्गहा परिवारो पणत्ता।
अग्गिल्लए ५७ काले ५८ महाकाले ५६ सोथिए ६० सोवत्थिएकैकस्यासंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः । चन्द्रमाश्च सूर्य
ए ६१ वद्धमाणगे ६२ पलंबे ६३ णिचालोए ६४ निच्चुजोए श्व चन्द्रमासूर्य तस्य, चन्द्रसूर्ययुगलस्य इत्यर्थः । अष्टाशीति
६५ सयंपभे ६६ श्रोभासे ६७ सेयंकरे ६८ खमंकरे ६६ श्राभमहाग्रहाः, पते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्यत्र श्रूयते
करे ७० पभंकरे ७१ अपराजिए ७१ अरए ७३ असोगे ७४ नथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेत एवं परिवारतया अवसेया वीयसोगे ७५ विमले ७६ वियत्ते ७७ वितत्थे ७८ विसाले ७६ इति । स०८८ सम०।
साले ८० सुब्बर ८१ अनियट्टी ८२ एगजडी ८३ दुजडी ८४ संख्यातो महाग्रहानाह
करकरिए ८५ गयग्गले ८६ पुष्फकेऊ८७ भावकेऊ. " दो इंगालगा, दो वियालगा, दो लोहितक्खा, दो सणि- स्था० २ ठा० ३ उ०। वरा, दो आहुणिया, दो पाहुणिया, दो कणा,दो कणगा,
अङ्गारको विकालकोरलोहिताक्षः३शनैश्चरः ४ाधुनिकः ५ दो कणकणगा, दो कणगविताणगा, दो कणगसंताणगा,
प्राधुनिकः६ कणः७कणकः कणकणकःकणवितानकः १०क
णसन्तानकः११सोमः१२सहितः१३ श्राश्वासनः१४ कार्योपगः दो सोमा. दो सहिया, दो पासासणा, दो कजोपगा, दो १५कर्वरकः१६अयस्कारकः१७दुन्दुभकः १८शखः१६ शङ्खकव्वडगा, दो अयकरगा, दो दुंदुभगा, दो संखा, दो सखं- नाभः२०शववर्णाभः२१कंसः २२कंसनाभः२३कंसवर्णाभः२५ वन्ना, दो संखवन्नाभा, दो कंसा, दो कंसावन्ना,दो कंस- नीलः २५ नीलावभासः२६ रूपी २७ रूपावभासः२८भस्मः २६ न्नाभा,दो रुप्पी, दो रुप्पाभासा,दोणीला,दो णीलोभासा,
भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुप्पवर्णः ३२ दकः ३३ लक
वर्णः ३४ कायः ३५ काकन्ध्यः ३६ इन्द्राग्निः ३७ धुमकेतुः ३८ दो भासा, दो भासरासी,दो तिला, दो तिलपुप्फवला, दो
हरिः ३६ पिङ्गलः ४० वुधः४१ शुक्रः ४२ वृहस्पतिः४३ गहः दगा,दो दगपंचवन्ना, दो काका,दो ककंधा,दो इंदग्गीवा, | ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७ धुरः ४८ दो धूमकेऊ, दो हरी, दो पिंगला, दोबुद्धा, दो सुक्का, | प्रमुखः ४६ विकटः ५० विसन्धिकल्पः ५१ प्रकल्पः ५२ दो बहस्सती, दो राहू, दो अगत्थी, दो माणवगा, दो
जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७
स्वस्तिकः ५८ सीवस्तिकः ५६ वर्धमानः ६० प्रलम्बः ६१ कासा, दो फासा, दो धुरा, दो पमुहा, दो-वियडा, दो
नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयम्प्रभः ६४ अवभागः विसंधी,दो नियल्ला,दो पइल्ला,दो जडियाइलगा,दो अरुणा, | ६५ श्रेयस्करः ६६ क्षेमकरः ६७ श्राभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६६
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महग्गह
अरजाः ७० विरजाः ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ विततः ७४ विचस्त्रः ७५ विशालः ७६ शालः ७७ सुव्रतः ७८ श्रनिवृत्तिः ७६ एकटी ८० द्विजटी ८१ करः ८२ करकः ८३ राजा ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतुः । कल्प० १ अधि० ६ क्षण ।
इदं संग्रहणीगाथाभिर्नियन्त्रितम् तथाहिइंगालए वियालए, लोहियक्खे सरिणच्छरे चैव । आणि पाहुलिए, कण्गसनामाड पंचेव ( ११ ) ॥ १ ॥ सोने सहिए श्रासा-ससे य कज्जोवए य वाडए । अयकरण हुंदुहए, संखसनामाउ तिन्नेव (२१) ॥ २ ॥ तिशेष कंसनामा, गीला रूप्पी व हाँति सारि । भास तिलपुष्कवने (दगे य) दगपण (पंच) वरणे य कायकाकंधे ( ३६ ) ॥ ३ ॥
इंदग्गि धूमकेऊ, हरि पिंगलए बुहे य सुक्के य ।
बहस्सइ राष्ट्र श्रगत्थी, माणवर कास फासे य ( ४८ ) ॥ ४ ॥ धूरे पमुहे विग्रडे, विसंधि सियले तहा पयले य । जडियाइलए अरुणे, अग्गिलकाले महाकाले ( ५६ ) ॥ ५ ॥ सोत्थिय सोवत्थिय व-द्धमाएंगे तहा पलंबे य । निम्वाल विरु-जोग, सपने वेब ओभासे (६७) ॥ ६ ॥ सेयंकर खेमंकर, आभंकर पभंकर य बो
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( १७३) अभिधानराजेन्द्रः ।
अरण विरएय तहा, असोग तह वीयसोगे य (७५) ॥ ७ ॥ विमल वितत्त वितत्थे, विसाल तह साल सुव्वए चेव । अनियट्टी एगजडी, य होइ विजडी य बोद्धव्वे (८४) ॥ ८ ॥ करकरए रायग्गल, बोद्धव्वे पुष्फ भावऊय ( ) | अट्ठासी गहा खलु यव्वा श्रणुपुब्बीए ॥ ६॥"
स्था० २ ठा० ३ उ० ।
महग्य - महार्थ त्रि० महामूल्ये ० १ ० १ [अ०] आय० । उत्त॰ ।“ महग्यवरपट्टणुग्गये" महा बहुमुल्य परे प्रधाने पतने वरत्नोत्पत्तिस्थाने उगता निष्पना ततः कर्मधारयस्तम् । कल्प० । प्रश्न० । संथा० । दर्श० । बहुमूल्ये, विपा० १ श्रु० ३ उ० । सू० प्र० । कल्प० । श्र० म० भ० । महतां योग्ये, भ० १५ श० । श्रा० म० । महाघय महार्थक भि० महती अर्घा यस्य स महार्थः महाएव महार्थक बहुमूल्ये उ० २००
महचंद - महाचन्द्र- पुं० । स्वनामख्याते शोभाञ्जनीपुरीराजे, विपा० १ ० ४ ० जिनदासपितरि सीगन्धिकानगरी । जे, विपा० २ श्रु० ६ श्र० ।
महच महार्थ महा-माहत्य पुं०] महाच महाच्या या मा हत्यं महत्त्वं तद्योगात् माहत्यः गुणगुणिनोरभेदोपचारात् । ईश्वरे, स्था० ३ ठा० १३० ॥ भ० । महच्चपरिसा-महार्घ्यपरिषद् - स्त्री० । महार्चानां सततपूज्यानां मदाच या परिषद् महापरिषद् प्रधानपदि पूजनीयानां पर्षदि च । भ० १ ० १ ३० । महज्जुव महायुतिकत्रि० महती पुतिः शरीरगता 33भरगगता च येषामिति महाद्युतयः । प्रज्ञा०२ पद । महती युनिस्तपोदमिजा लेश्या वा अस्वेति महायुतिः । उत्त० १ श्र० । स्था० जी० । ओ० । श्रा० म० रा० सू० प्र० । जं० ફ
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महणणया चं० प्र० । स्था० । ज्ञा०| उत्त० । शरीराभरणाद्यपेक्षया प्रतिद्युतौ, तपोदीप्तिसमुत्पन्न लेश्यायुक्ते च । भ०१ श० ७ ३० । स्था०| महऽज्भयण- महाऽध्ययन-न० । महान्ति च तान्यध्ययनानि च पूर्वधृतस्कन्धाध्ययनेभ्यो महत्वादेतेषामिति । सूत्र० २० १ अ० । श्रा० चू० । पुण्डरीकादिप्रभृतिषु सूत्रकृतो द्वितीयस्कन्धस्य सप्तस्वध्ययनेषु, बृ० ६ उ० । स्था० । महड्डि-महर्द्धि स्वी० । यावच्छक्रितुलितायां परिवारादिकायामृद्धौ, रा० ।
महट्टिय महर्दिक- त्रि० महती ऋद्धिर्विमानपरिधारादिका यस्य स महर्द्धिकः । जी० ३ प्रति २ उ० । अनुत्तरवैमानिकादौ, दश० ६ ० ४ उ० । विमानपरिवारादिकाया ऋद्धेरत्यद्भुतत्वात् । श्र० म० १ ० ॥ भ० श्र० । ऋद्धिविकुर्वतया सहिते, उत्त० १ ० । ० । विमानपरिवारादिसम्पदुपेते, शा० १ ० १ ० सू०प्र० । जं० । महती महाप्रमाया प्रशस्या वा ऋद्धिपर्तिनमपि योधयेदित्यादिका विकरणशक्तिस्तृणामादपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपा या समृद्धिरस्येति । उत्त० १ ० संप्राप्तपदखराडराज्ये उत्त० १ अ० । महती ऋद्धिश्छत्रादिराजचिह्नरूपा यस्य सः । कल्प० १ अधि० १ क्षण । महती ऋद्धिरावासरत्नादिका यस्यस महर्द्धिकः । स्था०२ ठा०३ ३० । महती ऋद्धिः सुखादिस पदस्य स महर्द्धिकः । उत्त०५ श्र० । गृहद्विभूतिके, उत्त० १३ अ० । ग्रामस्य नगरस्य वा रक्षाकारिणि, पृ० ६ उ० । व्य० । महेश्वरे पचविष० (लेश्यादिक्रमेण यथोत्तरं महर्दिकयथा अवगपदिकत्वमिति 'लेस्सा' शब्देवदते) महण - मथन - पुं० । मथने, विनाशके, पितृगेहे, दे० ना० ६ वर्ग १९४ गाथा ।
महादेवी - महादेवी श्री० स्वनामयातायां कान्यकुजे । भ्रसुतायाम्, “सा च जनका कुलिकापदे गुर्जरधरित्रीमवाप्य तदाधिपत्यं मुक्त्वा मृना सती तत्रैव देशाधिष्ठात्री समजनि ।” ती० ४१ कल्प ।
महणसिंह - महणसिंह--पुं० । (विक्रमसंवत् १२४३) अर्बुदतीर्थो पितरि ती० ७ (अत्र विस्तरः 'अ' शब्दे प्रथमभागे ६८६ पृष्ठे गतः ' तत्राऽऽद्यतीर्थस्योद्धर्ता इत्यादि ४३ श्लोकेन ) महणिमा (वा) महणिकाखी० । कान्यकुजेश्वरसुतायाम्, गुर्जरदेशाधिष्ठायां देव्याम् ०२४ कल्प ( अत्यवर्णनम् 'अरिमिश प्रथमभागे ७६७ पृष्ठ कृतम् ।)
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महणिञ्ज - महनीय - त्रि० । पूज्ये, श्रवन्तिषु प्रसिद्धस्याभिनन्दनदेवस्य स्वनामख्याते सेवके, “ महनीयाभिव्यो मे दुः स्वाङ्गुलीयं भगवदुद्देशेन कृतवान् ।” ती० ३१ कल्प । महाव- महार्णव- पुं० महासमुद्र ०४ उ० महम्वा महदा स्त्री० महार्णवा इव पापद्वहदकत्वान्महावगामिन्यो वा यस्ता महार्णवाः । “इमा पंच महण्णवागंगा जमुखा सरऊ एरावई वा कोसी मही ।" प्रति० । ग०३ अधि० । स्था० । नि० चू० । (पश्च महार्णवाः ' राईसंतार ' शब्दे व्यायाताश्चतुर्थभाने १७३२ पृष्ठे )
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महत्तर अभिधानराजेन्द्रः।
महप्प महत्तर--महत्तर-त्रि०। अयं महान् अयं महानयमनयोरतिश- | यस्याः सा महार्थरूपा। महार्थलक्षणायाम् , उत्त०१३ १०। येन महाम्महत्तरः "अतिशायने तरप्तमपाविति तरप्" प्रव०४ महऽत्थरूवा वयणप्पभूया, द्वार । पूज्ये, स्था०४ ठा० १ उ० । कञ्चुकिभिन्ने अन्तःपुरर
गहाणुगीया नरसंघमझे। क्षके, औ० । प्रामकूटे ग्राममहत्तरे, नि० चू० २ उ० ।
जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया, महत्तरकप्प-महत्तरकल्प-पुं० । पूज्यस्थानीये. औ०। ।
इह जयंते समणोऽम्हि जाओ ॥१२॥ महत्तरग-महत्तरक--पुं० । अन्तःपुरकार्यचिन्तके, भ० ११ श० उत्त०१३ अ०। ११ उ० । “जे रगणो समीवं अंतेपुरिया णयंति प्राणेंति वा महत्थार-देशी-भाण्डे, भोजने, इति सातवाहनः । दे० ना०६ रिउराहायं वा कहति कुवियं वा पसादेति कति य रराणो विदिते कारणे अगणतोऽवि य अग्गितो काउंवयंति ते महत्त
वर्ग १२५ गाथा। रगा" अन्तःपुररक्षके, औ० । ग्रामप्रधाने,व्य०७ उातदाश्रि
महद्दह-महारद-पुं० । वर्षधरपर्वतोपरितनेषु इदेषु, स्था०२ तजनापेक्षया उत्तम, शा०१ श्रु०१०। विपा० । जं० ।
। ठा० ३ उ०। (अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता 'दह' शब्दे च. गुरुतरत्वे, प्रा० म०१ अ० । राज्यकार्यकारके, व्य० ।
तुर्थभागे २४८६ पृष्ठे गता)
महद्दि-महाईि-स्त्री० । अगतो, याचने च इति वचनाददिमहत्तरकलक्षणमाह
याचा । महती सानोपष्टम्भादिकारणविकलत्वादपरिमाणा गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जाइविणयसंपन्नो।
अर्दिमहाऽर्दिः । परिग्रहे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार । जुवरमाए सहितो, पेच्छइ कजाइँ महत्तरभो ॥
महदद्म-महाद्रम-पुं० । बलेवैरोचनेन्द्रस्य पदात्यनीकाधियो गम्भीरो लब्धबुद्धिमध्यभागो, मार्दवितो मार्दवो- | पतौ, स्था० ७ ठा०। पेतः । संजातं मार्दवमस्येति तारकादिदर्शनादितच्प्रत्ययः ।
महद्धण-महाधन-त्रि०। महामूल्ये,बृ०३ उ०। औ०। प्राचा। कुशलः सकलनीतिशास्त्रवतो जातिविनयसंपन्नो युवराजेन सहितः सन् प्रेक्षते कार्याणि राज्यकार्याणि स महत्तरक इति ।
| महन्द-महान्तः--जसि विभक्तौ रूपम् । अधः क्वचित् ॥४॥ व्य०१ उ०।
२६॥इति शौरसन्यां तस्य दः । महन्दो । विशाले,प्रा०४पाद । महत्तरा-महत्तरा-स्त्री० । प्रवर्तिन्याम् , आव०६अ। महपंचभूय-महापञ्चभूत-न०। महान्ति च तानि सर्वलोकव्यामहत्तरागार-महत्तराकार-पुं०। प्रत्याख्यानापवादभेदे,पंचा०५ | पित्वाद् भूतानि महाभूतानि । पृथिव्यप्तेजोवाय्वा विव० । प्रव० । श्राप । पं०व०(विशेषार्थः 'पुरिमह्व'शब्दे |
षु भूतेषु, सूत्र० १ श्रु०१ अ०१ उ०। पञ्चमभागे १०१० पृष्ठे गतः)
महपाण-महापान--न । अतिदीर्घकालिके ध्याने, तं०। महत्तरिया-महत्तरिका-स्त्री०। प्रधानतमायाम् , स्था०६ ठा।
महापानशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहमहतरिका नाम दिशाकुमारिका । तुल्यविभवादिकुमारिका- पियइ तिव अत्थपए,मिणइत्ति व दोवि अविरुद्धा॥२५७। णामनतिक्रमणीयवचनायां दिक्कुमारिकायाम् ,श्रा०म०१०।
पिवतीति वा मिनोतीति वेति द्वावपि शब्दाचेतावविरुद्धौ महत्तो-अस्मद्-पञ्चम्येकवचनम् ङसि । “मह मम मह मज्झा तत्त्वत एकार्थावित्यर्थः । तत एवं व्युत्पत्तिः । पिबति अर्थकुसी"८३३१११॥ इति अस्मदः पञ्चम्येकवचने महादेशः।
पदानि यत्र स्थितस्तत् पानं, महञ्च तत्पानं च महापान
मिति । व्य० ६ उ०। सेस्तु त्तो श्रादेशः । प्रा० ३ पाद ।
अथ महाप्राणध्याने का कियन्तं कालमुत्कर्षतस्तिष्ठतीति महत्थ-महार्थ-त्रि०। महान् परिमितो द्रव्यपर्यायात्मकतयाs
प्रतिपादनार्थमाहर्थोऽभिधयं यस्य तन्महार्थम् । उत्त० १३ अ०। महान्प्रभूतोऽ र्थः-फलं स्वरूपाद्यभिधेयं यस्य तन्महार्थम्। महागोचरे, पा वारस वासा भरहा--ऽहिवस्स छच्चेव वासुदेवाणं । महान् प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनाओं यस्मिस्तम्महार्थ- तिमि य मंडलियस्म, छम्मासा पागयजणस्स ॥२५६॥ म् । दश०२०। महाप्रयोजने, शा०१ श्रु०१० । बृहदभि- महाप्राणध्यानमुत्कर्पतो भरताधिपस्य चक्लवर्तिनो द्वादश धेये, पश्चा०७विव०म० । विपा। पं० सं० । कर्म० । नं०1 वर्षाणि यावत् , वासुदेवानां बलदेवानां च पडेवेत्यर्थः । त्रीणि पञ्चा। चं०प्र० सामायिके द्वादशाङ्गपिण्डार्थत्वात् । आ० वर्गलिया
वर्षाणि माण्डलिकस्य, परमासान् यावत्प्राकृतजनस्य । व्य० म०१०। अल्पाक्षरलेपिद्वादशाङ्गसंग्राहित्वात् । प्रा०म०१ ६ उ० । स्वनामख्याते ब्रहालोकविमाने , उत्त० १८ अ० । श्र० । महानों-ज्ञानवैराग्यादिको यस्मात्स महार्थः । मोक्षपथे, तं० । विशे० । ' महत्थ त्ति' महानर्थो यस्य स महा
महपूजा-महापूजा-स्त्री०प्रभावनादिना वृहद्वन्दने,सर्वानाभ
रणविशिष्टाङ्गपत्रभङ्गोरचनपुष्पग्रहकदलीगृहपुत्रिकाजलयर्थः । श्रा०म० १ ० (:सिद्धपएहि महत्थं १ इत्यादिगाथाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६१ पृष्ठे व्याख्याताः)
न्त्रादिरचनानानागांतनृत्याद्युत्सवैमहापूजा । ध०२ अधिक। महऽत्थत्त-महार्थत्व-न० । बृहदभिधेयतायाम् , औ०। स०
महऽऽप्प-महात्मन-पुं० महान्निमलो निष्कषाय आत्मा यस्य
स महात्मा । अकषायिाण, उत्त० १२ १० । सम्यगात्म३५ सम।
भावपरिणने, अप० ३२ अष्टः । श्राचा०। दश० । महानामहऽत्थरूवा-महार्थरूपा-बी० । महान् द्रव्यपर्यायमेदसहि |
॥० महान् द्रव्यपयायमदसाह | त्मा । यस्य स महात्मा । अनुग्रहपरायणतया महोदारे, ध०१ तो निश्चयव्यवहारसहितवार्थों यस्य तन्महार्थ तादृशं रूपं] अधिः । स्था० । महानुभावतायाम् , शा० १ २०१६ अ०।
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महप्प अभिधानराजेन्द्रः।
महब्बल महानचिन्त्यशक्त्युपेत आत्मा-स्वभावो यस्य स महा- सोमाकारं लीलायंतं भायंतं नहयलाओ उवयमाणं निस्मा । तीर्थकर, नं० । श्रा० म०१०। महान्प्रशस्यो वि
ययवयणपतिकंतं तं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । शिएवीयोनसित आत्मा अस्यात महात्मा। उत्त०१२ अ० प्रा० म०।
तए णं सा पभावई देवी अयमेयारूवं ओरालंजाव सस्सिमहप्पगब्भ-महाप्रगल्भ-पुं० । स्फारे, प्रश्न० १ श्राश्र०
रीयं महासुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्ट द्वार।
तुजाव हियया धाराहयकलंवपुप्फगं पिव समूससियरोमहप्पवास महाप्रवास-पुं० । दीघनिद्रायाम् , प्राचा०१ श्रु० मकूवा तं सुविणं ओगिएहइ भोगिणिहत्ता सयणिज्जाओ २०४ उ०।
अब्भुढेइ अब्भुद्वित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविमहप्पभ-महाप्रभ-पुं० । इक्षुवरद्वीपदेवे, सू० ० १६ पाहु० । लंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रप्लो द्वी०।
सयणिज्जे तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता बलं रायं महप्पिय-महाप्रिय-त्रि० । अतिवल्लभे, दश०१०। ।
ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहि मणुएणाहिं मणमाहिं महब्बल-महाबल-० । पर्वतादुत्पाटनसामोपेते, शा० १ आलाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धम्माहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीश्रु०१०। स्था० । विशिष्टशारीरप्राणे, औ० । कल्प० १ याहिं मिउमहरमंजुलाहिं गिराहिं संलबमाणी संल०२पडिअधि०१ क्षण । भ० । औ० । प्रशा० । हस्तिनापुरराजस्य | बोहेइ पडिबोहेत्ता बलेणं रमा अब्भणुएणाया समाणी बलस्य पुत्रे, भ०।
णाणामणिरयणभत्तिचित्तसि सिंहासणंसि णिसीयइ णितत्कथा चैवम्
सीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं तेणं कालणं तेणं समएणं हत्थिणा(ग)पुरे णामं णयरे होत्था, |
ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं० जाव संलवमाणी सं०२ एवं वयासीवस्मो , सहसंववणे णामं उजाणे, वमओ, तत्थ णं ह
एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज तंसि तारिसगंसि सयथिणा(ग)पुरे णामंणयरे बले णामं राया होत्था,वामओ,त- णिजंसि सालिंगणं तं चेव० जाव णियगवयणमतिवयं स्स ण बलस्स रस्मो पभावईणामं देवी होत्था,सुकुमाल वम |
सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं णं देवाणुप्पिया! ओ, जाव विहरइ । तए णं सा पभावई देवी अम्मया |
एयस्स ओरालस्स० जाव महासुमिणस्स के मामे कल्लाणे कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरो सचित्त- फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? तए णं से बले राया पभावकम्मे बाहिरओ दूमियघट्ठमढे विचित्तउल्लोगचिल्लिलतले ईए देवीए अंतिए एयमहूँ सोचा णिसम्म हद्वतुट्ठा. जाव मणिरयणपणासियंधकारे बहुसमसुविभत्तदेसभाए पंचवम- हियए धाराहयणीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुयऊससरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए काला(गु)गरुपवरकुं- सियरोमकूवे तं सुमिणं ओगिएहइ ओगिरिहत्ता ईहं पदरुकतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंध- विसइ पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं पट्टिए तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगणवट्टिए उभ
बुद्धिविमाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहणं करेड़ ओ विव्वोयणे दुहओ उन्नए मझेण य गंभीरे गंगापुलिण-| करेत्ता पभावति देवि ताहिं इट्ठाहिं० जाव मंगलाहिं वालुयउद्दालसालिसए ओयविय खोमिय दुगुल्लपट्टपडिच्छ- मिउमहुरसस्सिरीयाहि संलवमाणे संलवमाणे एवं यणे सुविरइयरयनाणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगरूयबू- वयासी-ओरालेणं तुम्मे देवी ! सुविणे दिढे कल्लारणवर्णीयतुल्लफासे सुगंधवरकुसुमचुमसयणोवयारकलिए णणं तम्मे देवी सविणे दि२० जाव सस्सिरीएणं तुम्हे अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरभाणी देवी ! सुविणे दिढे आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणमंगलकाअयमेयारूवं उरालं कल्लाणं सिवं धाम मंगलं सस्सिरीयं म
रएणं तुम्हे देवी! सुविणे दिवे । अत्थलाभो देवाणुहासविणं पासित्ताण पमिबुद्धा, तं जहा-हाररययखीरसाग-| प्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए! रससंककिरणदगरययमहासेलपंडुरतरुरमणिज्जपिच्छणिज्जं रञ्जलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम्हे देवाणुप्पिए ! णथिरलट्ठपउट्ठवट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडंविय- | वण्हं मासाणं बहुपडिपुलाणं अद्धट्टराइंदियाणं विइकंमुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाइयसोभंतलट्ठउटुंरतुप्पल ताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवडिंसयं पत्तमउयसुकुमालतालुजीहं मूसागयपवरकणगतावियाव
कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकरं कुलजसकरं कुलात्तायंतवट्टतडियविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरुपडिपुरम- धारं कलपायवं कुलविवडणकरं सुकुमालपाणिपार्य अहींविउलखधं भिउविसयसुहुमलक्खणपसत्थवित्थिामकेसरा- | णपडिपुरमपंचिंदियसरीरं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंडोवसोभियं ऊसियसुनिम्मियसुजायअाफोडियलांगूलं सोम| सणं सुरूवं देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि । सेऽवि य
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( १७६ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
महब्बल
णं दारए उम्मुकबालभावे विसायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विकंते वित्थिष्मविपुलबलवाहणे रजवई राया भविस्सई । तं उराले गं तुम्हे देवी ! सुविणे दिट्ठे • जाव आरोग्गतुडि० जाव मंगलकारएणं तुम्हे देवी! सुविणे दिडे तिकट्टु पभावती देवीं ताहिं इट्ठाहिं० जाव वग्गूहिं० जाव दो पिप ह । तए गं सा पभावई देवी बलसरो अंतिए एयम सोच्चा खिसम्म हट्ट करयल ०जाब एवं वयासी- एवमेयं देवाप्पिया ! तहमेयं देवा - गुप्पिया ! वितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवाणुपिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियhi देवापिया ! इच्छयपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! से जहेयं तुम्हे वदह त्ति कट्टु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छ पडिच्छित्ता बलेणं रमा अब्भणुरणाया समाणी याणामणिरयणभत्तिचित्ता भद्दाऽऽसणाओ अभुट्ठे भुट्टेत्ता अतुरियमचवल० जाव गईए जेणेव स सयणिजे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयणिसि सियत सियित्ता एवं वयासी-मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अमेहिं पावसुमिरोहिं पडिहम्मिस्सह त्ति कट्टु देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडि० २ विहरइ । तए णं से बले राया कोडुंबिय पुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सविसेसं बाहिरियं उवड्डाणसालं गंधोदय सित्तसुइयसंमञ्जिवलित्तं सुगंधपवरपंच व पुप्फोवयारकलियं कालागरुपवर कुंदरुक ०जाव गंधवट्टिभूयं करेह कारावेह करित्ता कारवित्ता य सीहासणं रयावेह सीहासणं रयावेईत्ता तमेतं ० जाव पश्चाप्पि - यह । तए णं ते कोडुंवियपुरिसा ० जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवद्वाणसालं ०जाव पचप्पियंति । तए गं से बले राया पच्चूसकालसमयंसि सया भुइ सय णिजाओ अब्भुट्टेत्ता पायपढाओ पचोरु पायपीढाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्ट साला तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुप्पविसइ जहा उववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्झणघरे • जाव ससि व्व पियदंसणे नरवई मञ्जणघराओ पडिणिक्खमह पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद्दत्ता उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्था - मिमुहे सिीय सियित्ता अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए अट्ठ महासणाई सेयवत्थपच्चुत्थयाई सिद्धत्थगकमंगल वाराई रयावेइ रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते गाणामणिरयणमंडियं हियपेच्छणिजं सहग्घवरपट्टणुरग |
For Private
महब्बल
यं सराहपट्टभत्तिसयचित्तत्ताणं ईहामियउसभ०जाब भत्तिचित्तं श्रभितरियं जवणियं अंछावे अंळावेत्ता खाणाम गिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउमरगोच्छगं सेयवत्थपच्चु त्थं अंगसुहफासुयं सुमउयं पभावईए देवीए भद्दासगं रयावेइ रयावेत्ता कोडुवियपुरिसे सहावेह सहावेत्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अऽगमहानिमित्तसुत्तस्थधारए विविहसत्थकुसले सुविण लक्खणपाढए सद्दावेह । तए णं ते कोडुंवियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रमो अंतिया पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हत्थिणापुरं रायरं मज्भं मज्भेणं णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव तेसिं सुविशलक्खणपाढगाणं गिहाई तेणेव उवागच्छंति उबागच्छित्ता
सुविलक्खपाढए सहावेंति । तए गं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रम्मो कोडुंवियपुरिसेहिं सदाविया समागा हडतुडा एहाया कयवलिकम्मा ०जाव सरीरा सिद्धस्थगहरियालिया कयमंगलमुद्धाणा सएहिं सएहिं गिहे हिंतो णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता हत्थिणापुरं रायरं मज्झ मज्भेणं जेणेव बलस्स राम्मो भवणवरवर्डिसए तेणेव उवागच्छंति उबागच्छित्ता भवणवरबडिंसए पडिदुवारंसि एगओ मिलंति एगओ मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव बले गया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल बलं रायं जपणं विजएगं वद्धार्वेति । तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बले रमा वंदियपूइयसकारियसम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेय पुव्वम्मत्थेसु महासणेसु खिसीयंति । तए गं से बले राया पभावई देविं जवणियंतरियं ठावेह ठावेत्ता पुप्फफलपडिपुम्पहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी एवं खलु देवाप्पिया ! पभावई देवी अञ्ज सि तारिसगंसि कासरंसि ० जाव सीहं सुविणे पासित्ता गं पडिबुद्धा । तं गं देवाप्पिया ! एयस्स उरालस्स ० जाव के मम्मे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? । तए णं ते सुविलक्खणपाढगा बलस्स रपो अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठा तं सुविणं श्रगिरहंति तं इहं अणुपविसंति अणुपविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति करेत्ता ते ममेणं सद्धिं संचालेति संचालेत्ता तस्स सुविणस्स लद्धड्डा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रपो पुरो सुविणसत्थाई उच्चारेमाणे उ०२ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्यंसि वायालीसं सुविणा, तसिं महामुविणा, वावरि सव्वसुविणा दिट्ठा, तत्थ णं देवागुपिया ! तित्थगरमायरो
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महब्बल
अभिधानराजेन्द्रः। वा चकवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चकचट्ठिसि वा | भविस्सइ प्रणगारे वा भावियऽप्पा, तं ओराले णं तुम्हे गमं वक्कममाणंसि एतसिं तीसाए महासुविणाणं इमे | देवी! सुविखे दिद्वेचि कह पमावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं चउद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिवुज्झति । तं जहा- जावदोषं पितचं पि अणुबूहह । तए णं सा पभावई देवी “गय उसभ सीहअभिसेय-दामससी दिणयरं झयं कुंभ । बलस्स रस्मो मंतियं एयमढे सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठकरपउमसरसागरविमा णभवणरयणच्चुयसिहिं च ॥१॥" | यल जाव एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया! ०जाव वासुदेवमायरो वा वासुदेवास गब्भ बक्कममाणंसि एएसि तं मुविणं सम्म पडिच्छह पमिच्छित्ता बलेणं रगणा श्रचउद्दसएहं महासुविणाणं अम्पयरे सत्त महासुविणे पासि-| भणुराणाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिजाव अब्भुत्ता णं पडिबुझंति । बलदेवमायरो वा बलदेवंसि | द्वेइ अतुरियमचवल जाव गईए, जेणेव सए भवणे गभं बक्कममाणंसि एएसिं चउद्दसएहं महासुविणाणं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुप्पविट्ठा । अप्लयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति । तए णं सा पभावई देवी एहाया कयवलिकम्मा० जाव मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि | सव्वाऽलंकारविभूसिया तं गम्भं णाऽइसीतेहिं णाऽइउण्हेहिं चउद्दसएहं महासुविणाणं अप्लयरं एगं महासुविणं पासित्ता] नाऽइतित्तेहिं णाऽइकडुएहिं णाऽइकसाएहिं णाऽइअंविलेहि णं पडिबुज्झति । इमं च णं देवाणुप्पिया ! पभावईए
णाऽइमहुरेहिं उउन्भयमाणसुहेहिं भोप्रणच्छादणगंधमलेहि देवीए एगे महासुविणे दिद्वे तं अोराले णं देवाणुप्पिया ! जं तस्स गम्भस्स हितं मितं पत्थं गब्भपोसणं तं देसे य पभावईए देवीए सुविणे दिढे जाव आरोग्गतुहिदीहाउ- काले य आहारमाहारेमाणी विचित्तमउएहिं सयणासणेहिं कल्लाणमंगलकारएणं देवाणुप्पिया! पभावईए देवीए सु- पतिरिक्कसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला विणे दिद्वे, अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोगलाभो देवाणु- संपुष्पदोहला सम्माणियदोहला अवमाणियदोहला वोप्पिया ! पुत्तलाभो रजलाभी देवाणुप्पिया! एवं खलु देवा- च्छिम्मदोहला विणीयदोहला ववगयरोगसोगमोहभयपणुप्पिया ! पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं | रित्तासा तं गब्भं सुहं सुहेणं परिवड्डइ । तए णं सा पभावई
जाव वीइक्वंताणं तुभं कुलकेउं जाव दारगं पयाहि- देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुरमाणं अद्भुऽढमाणराइंदिसि । से वि य गं दारए उम्मुक्कवालभावे जाव रज्जवई याणं वीइकंताणं सुकुमालपाणिपाय अहीसपडिपुमपंचिंराया भविस्सइ, अणगारे वा भावियऽऽप्पा । तं उराले णं दियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं० जाव ससिसोमाकारं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिढे जाव आ-| कंतं पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाता । तए णं तीसे पभावरोग्गतुविदीहाउकल्लाण जाव दिह्र । तए णं से बले इए देवीए अंगपडियारियाओं पभावतिं देवि पसूयं जाराया सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमट्टं सोचा णि- णित्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्या उवागसम्म हट्ट करयल जाव कडु ते सुविणलक्खणपाढगे एवं च्छित्ता करयल० जाव बलं रायं जएणं विजएणं वद्धावयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुब्भे | वेति जएणं विजएणं बद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवदह ति कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ पडिच्छि- वाणुप्पिया! पभावई देवी णवएहं मासाणं बहपता सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असणपाणखाइमसा- डिपुरमाणं० जाव दारगं पयाता, तं रायाम देवाणुइमपुष्फवत्थगंधमल्लाऽलंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ सकारे- प्पिया! णं पियट्टयाए पियं णिवेदेमो पियं मे भवउ । त्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ द- तए णं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतिए एयम, लयइत्ता पडिविसजेइ पडिविसज्जेत्ता सीहासणाम्रो अब्भु-| सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव धाराहयणीवजाव रोमकवे टेइ अब्भुद्वित्ता जेणेव पभावई देवी तेणेव उवाग- तासिं अंगपडियारियाणं मउडवजं जहामालियमोमोयं बछड उवागच्छित्ता पभावतिं देवि ताहिं इद्राहिंजाव | दलयइ दलइत्ता से तं रययमयं विमलसलिलपुमभिंगारं संलवमाणे सं० २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिये!| पडिगिएहइ पडिगिरिहत्ता मत्थए धोवइ मत्थए धोपित्ता मुविणसत्थंसि वायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा वा-1 विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ पीइदाणं दलहत्ता वत्तरि सव्वसुविणा । तत्थ णं देवाणुप्पिए ! तित्थयरमा- सकारेइ सम्माणेइ सम्माणइत्ता पडिविसब्जेइ । (सूत्र-४२८) यरी वा चक्कवट्टिमायरो वा तं चैव० जाव अप्लयरं तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिस सद्दावेइ सदावत्ता एवं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झति । इमे णं तुम्हे | क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरे गयरे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिट्टे जाव रजबई राया | चारगसोहणं करह चारग करता माणुम्माणप्पमाणवपुर्ण
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महब्बल अभिधानराजेन्द्रः।
महब्बल करेह माणु० करेत्ता हथिणाउरंणयरं सम्भितरं बाहिरियं | तिहिकरणमुहुत्तसि एवं जहा दढप्पइले जाव अलं आसियसम्मज्जिोवलितं. जाव करेहि य कारवेहि य भोगसमत्थे जाए याऽवि होत्था । तए णं तं महब्बलं करेत्ता य कारवेना य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पू- कुमारं उम्मुक्कवालभावं अलं भोगसमत्थं विजाणित्ता यामहामहिमसक्कारं वा ऊसवेह ऊसवेत्ता ममेयमाणत्तियं अम्मापिअरो अट्ठ पासायव.सए कारेंति । अब्भुग्गयमूसिपच्चप्पिणह । तए णं से कोडुवियपुरिसा बलेणं रमा एवं यपहसिए इव वामो,जहा रायप्पसेणइज्जे०जाव पडिरूवे,तेवुत्ता समाणा० जाव पच्चप्पिणंति । तए णं से बले सि णं पासायवडिंसगाणं बहुमझदेसभाए एत्थ णं महेगे राया जेणेव उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भवणं कारेंति । अणेगखंभसयसमिविट्ठ वस्मयो। जहा रायतं चेव जाव मजणघराओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमि
प्पसेणइजे,पेच्छाघरमंडसिजाव पडिरूवे । (सूत्र-४२६) त्ता उम्मुकं उकरं उक्किट्ठ अदिजं अमेऊं अभडप्पवेसं अदं
तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अस्पया कयाई सोभडकोदंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइजकलियं अणेगता
णंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहुत्तंसि एहायं कयवलिकलाचराणुचरियं अणुद्धयमुयंग अमिलायमल्लदाम पमुदिय
म्म कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसिर्य पमपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेंति । तए णं से बले राया दसदियाएं ठिइवडियाए वट्टमाणीए
क्खणं रहाणं गीयवाइयपसोहणटुंगतिलगकंकणअविहयवसतिए य साहस्सिए य सयसाहास्सिए य जाए य दाए य
हृवणीयं मंगलं सुजंपिएहि य वरकोउयमंगलोवयारकयर्सभाए य दलमाणे य दवावेमाणे य सतिए य साहस्सिए
तिकम्मं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिब्बयाणं सरिसलावणय सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छमाणे य पडिच्छावेमाणे
रूवजोव्वणगुणोववेयासं विणीयाणं कयकोउयमंगलपायय एवं विहरइ । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो
च्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिं आणिल्लियाणं अट्ठऽट्ठपढमे दिवसे ठिइवडियं करेंति, तइए दिवसे चंदसूरदंसाच
रायवरकामाणं एगदिवसेणं पाणिं गिराहाबिसु । तए णं णियं करेंति,छठे दिवसे जागरियं करेंति, एक्कारसमे दिवसे
तस्स महब्बलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमयारूवं पी
तिदाणं दलयंति, तं जहा-अट्ट हिरमकोडीओ अट्ठ घाइते णिवत्ते असुइ जाइकम्मकरणे संपत्ते वारसाऽह
सुवामकोडीओ अट्ट मउडे मउडप्पवरे अट्ट कुंडलजोए कुंदिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति उवक्खडावेत्ता जहा सिवो जाव खत्तिए य आमंतेइ
डलजुयप्पवरे अट्ट हारे हारप्पवरे अट्ठ अद्भहारे अद्धहारप्पवरे अमंतेत्ता तो पच्छा बहाया कयबलिक० तं चव जाव
अट्ठ एगावलीअो एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ सकारेंति सम्माणेतिरत्ता तस्स व मित्तणाइ जाव (रा
एवं कणगावलीओ एवं रयणावलीओ अट्ठ कडगजोए इंण य) खतियाण य् पुरओ अज्जयपज्जयपिउपज्जयागयं |
कडगजोयप्पबरे एवं तुडियजोए अट्ठ खोमजुबलाई खोमजु बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाऽणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतं
वलप्पवराई एवं वडगजुवलाइं एवं पट्टजुवलाई एवं दुगुतुविवद्धणकरं अयमेयारूवं गोणं-गुणनिप्पएणं नामधेन्जं
लजुवलाई अट्ट सिरीओ अट्ठ हिरीओ एवं धिईयो कित्तीकरेंति । जम्हाणं अम्हं इमेदारए बलस्स रप्लो पुत्ते पभावईए|
ओ बुद्धीओ लच्छीओ अट्ठ नंदाई अट्ठ भद्दाई अट्ट तले देवीए अत्तए तै होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्ज
तलप्पवरे सव्वरयणामए णियगवरभवणकेउं अट्ट झए महब्बले तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज
झयप्पवरे अट्ट वए वयप्पवर ( दस गांसाहास्सएगण वए करेंति महब्बल इति । तए णं से महब्बले दारए पंचधाईप- णं) अट्ठ नाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसबद्धेणं नाइएणं रिग्गहिए । तं जहा--खीरधाई एवं जहा दढप्पडणेजाव णि अट्ठ श्रासे आसप्पवरे सम्बरयणामर सिरिघरपडिरूवए बायणिव्याघायं ति सुहं सुहेणं परिवति । तए णं तस्स अट्ठ हत्थी हत्थिप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए. महब्बलस्स दारगस्स अम्मापियरो आणुपुव्येणं ठिइवडियं | अट्ठ जाणाई जाणप्पवराई अट्ठ जुग्गाई जुग्गप्पवराई एवं च चंदसूरदसणावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा | सिवियाओ एवं संदमाणीया एवं गिल्लीबो थिल्लो परगामणं वा पयचंकामणं वा जमावणं वा पिंडबद्धणं वा अट्ठ वियडजाणाई वियडजाणप्पपराई अदु रहे पारिजापचंपावणं वा कामहणं वा संवच्छरपडिलेहणं वा चो- णीए अट्ठ रहे संगामिए अट्ठ प्रासे आसप्पवरे अट्ठ-- लोयणगं वा उवणयणं च अयाणि य बणि गब्भाऽऽधा- हत्थी हथिप्पवरे अट्ठ गामे गामप्पवरे ( देसकुलणजम्मणमादियाई कोउयाइं करेंति । तए णं तं महब्बलं | साहस्सीएणं गामे णं ) अदु दासे दासप्पवरे, एवं दासीकुमारं अम्मापिअरो साइरेगदवासगं जाणित्ता सोभमंसि
म्यापिअरा साइरगवासग जाणता साभणास ५-दश गोसहलेगा एको व्रज्ञः | १-दशाहिकायाम् ।
२–दश कुलस इसेध एको ग्राम ।
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महब्बल अभिधानराजेन्द्रः।
महब्बल ओ एवं किंकरे एवं कंचुइजे एवं वरिसहरे एवं- अरहो पोप्पए धम्मघोसे णामं अणगारे जाइसंपएणे महत्तरए अट्ट सोवामिए ओवलंबणीवे अट्ठ रुप्पमए ओ- | वएणओ,जहा केसिसामिस्स,जाव पंचहिं अणगारसएहिं वलंबणदीवे अट्ठ सुवस्मरुप्पमए ओवलंबणदीवे अट्ठ | सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाऽणुपुबि चरमाणे गामाऽणुगामे सोवन्मिए उकंचणदीवे एवं चव तिमि वि अट्ट सोवमिए दुइज्जमाणे जेणेव हत्थिणाउरे णयरे जेणेव सहसंववणे पंजरदीवे एवं चेव तिम्मि वि, अट्ठ सोवमिए थाले अट्ठ | उजाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता प्रहापडिरूवं उग्गहं रुप्पमए थाले अट्ट सोवमरुप्पमए थाले अट्ठ सोवमियाओ उगिण्हइ उगिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पत्तीअो ३ अटु सोपणियाई थासि (घोसि ) याई ३ अट्ठ जाब विहरइ । तए णं हथिणापुरे णयरे सिंघाडगतिसोवमियाई मंगलाई अटु सोवरिणयात्रो तलियाओ ३ अट्ठ य जाव परिसा पज्जुवासइ । तए णं तस्स महब्बलस्स सोयपियाओ काचियाओ ३ अट्ठ सोवरणमए अपवडए कुमारस्स तं महया जणसई वा जणवृहं वा एवं जहेव जअट्ट सोवमिवायो अववकाओं ३ अट्ट सोवण्णिए पा-| माली तहेव वि(इ)त्ता तहेव कंचुइञ्जपुरिसे सद्दावेद । कंचूइज्जयपीढए ३ अदु सोवरिणयाओ भिसियाओ ३ अट्ठ पुरिसो तहेव अक्खाइ, णवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स सोवमियायो करोडियायो ३ अट्ट सोवरिणए पल्लंके ३| आगमणगहियविणिच्छए करयल जाव णिग्गच्छइ । एवं अट सोवरिणयाओ पडिसेजाओ३ अट्ट हंसाऽऽसणाई अट्ठ खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मकोंचासणाई एवं गरुडासणाई उएणतासणाई पणयास- घोसे णामं अणगारे सेसं तं चव जाव सोऽवि तहेव, रहणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मकरासणाई | वरेण णिग्गच्छइ । धम्मकहा जहा केसिसामिस्स, सोऽवि अटु पउमासणाई अट्ट दिसासवित्थियासणाई अट्ट तेल्ल- तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ । णवरं धम्मघोसस्स अणसमग्गे जहा रायप्पसेणइजे० जाव अट्ट सरिसवसमुग्गे गारस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगारात्रो अणगारियं पव्वअट्ठ खुजानो जहा उववाइए जाव अट्ठ पारिसीओ अट्ठ इत्तए,तहेव वुत्तपडिवुत्तयाओणवरं इमाओ य ते जाया! विछने अदु छत्तधारीयो चेडीओ अट्ठ चामराओ अट्ट चा- पुलराजकुलवालियाओ कला सेसं तं चेव ० जाव ताहे, मरधारीश्रो चडीयो अट्ठ तालियंटे अट्ठ तालियंटधारी- अकामाई चेव महब्बलं कुमार एवं वयासी-तं इच्छामो ते श्री चेडीओ अट्ठ करोडियधारीयो चडीओ अट्ठ खीर- जाया ! एगदिवसमवि रजसिरिं पासेमि, तए णं से धाईप्रो० जाव अढ अंकधाईो अट्ठ अंगमदियाश्रो अट्ठ | महब्बले कुमारे अम्मापिउवयणमणुवत्तमाणे तुसिणीए उम्मदियाओ अट्ठ एहावियाओ अट्ठ पसाहियात्रो अट्ठ संचिट्ठइ । तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ । चंदणपसीओ अद्र चुराणगपेसीओ अ कीडाकारो एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसेओ भाणिअब्बो० अट्ट दवकारीओ अट्ठ उवत्थाणियाओ अट्ठ नाडइज्जाश्री जाव अभिसिंचइ, अभिसिंचइत्ता करयलपरि०महब्बलं कुअट्ट कोडुविणीओ अट्ठ महाणसिणीओ अदु भंडागारि-| मारं जएणं विजएणं बद्धाति जएणं विजएणं बद्धावेत्ता णीयो अट्ट अब्भाधारिणीओ अट्ठ पुष्पधारिणीअो अट्ट एवं वयासी-भण जाया ! किं देमो किं पयच्छामो ?, पाणधारिणीओ अट्ठ बलिकारियाओ अट्ट सेजाकारियाओ सेसं जहा जमालिस्स तहेब जाव । तए णं से महम्बले अदुअभितरियाओं पडिहारीओ अट्ट बाहिरियाअो प- अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतिए सामाइयमाइडिहारीयो अट्ट मालाकारीओ अट्ट पेसणकारीओ अएवं | याई चउद्दसपुब्बाई अहिजइ, अहिन्जित्ता बहूहिं चउत्थ० वा सुबहुं हिरएणं वा सुवरणं वा कंसं वा दूसं वा| जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहुपडिविउलधणकणग० जाव संतसावदेजं अलाहि. जाव पुस्माई दुवालसवासाई सामन्मपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता आसत्तमाओ कुलसानो पकामं दाउं पकामं परिभोत्तुं प- मासियाए संलेहणाए सर्द्वि भत्ताई अणसणाए आलोइकामं परिभाएउं । तए णं से महब्बले कुमारे एगमेगाए
यपडिकते समाहिपत्ते कालामासे कालं किच्चा उई चंदिभजाए एगमेगं हिरमकोडिं दलयइ । एगमेगं सुवरणको-| मसूरिय ०जहा अम्मडो ०जाव बंभलोए कप्पे देवत्ताए डि दलयइ । एगभेगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ । एवं उबवामे, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवतंचव सवंजाब एगमेग पेसणकारिं दलयइ । अण्णं च | माई ठिई पसता, तत्थ णं महब्बलस्स वि देवस्स दस सुबहं हिरवं वा सुवरणं वा जाव परिभाएउं । तए णं| सागरोवमाई ठिई परमता, से णं तुम्मं सुदंसणा! बंभलोए से महब्बले कुपारे उप्पि पासायवरगए जहा जमाली कप्पे दस सागरोवमाई दिवाई भौगभोगाई भंजमाणे विविहरइ । (सू०४३०) तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स | -प्रपौत्रः प्रशिष्य इत्यर्थः । २-विदित्वा ।
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(१०) महब्बल अभिधानराजेन्द्रः।
महल्लउह हरित्तए । तो चेव देवलोगाओ आउक्खएणं अणंतरं आचा०१२०१०६ उ । उत्त० । पौरम्पुम्येन संसाचयं चइत्ता इहेव वाणियगामे णयरे सेडिकुलंसि पुत्तत्ताए रपर्यटनतया नरकाऽऽदिस्वभावदुःखे, प्रश्न० ५ संव० द्वार। पच्चायाए । (मूत्र-४३१)
महाभयं परिग्रहस्य यद्भवति प्रकृतिरियं परिग्रहस्य
से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा धृलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं तए णं तुम्मं सुंदसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विमायपरिणयमेत्तेणं जोधणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं
वा एतेसु चेव परिग्गहावंति । एतदेव एगेसिं महन्भयं भवकेवलिपलत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए पडि
ति (सूत्र-१४६) आचा०१ श्रु० ५ अ. ३ उ०। च्छिए अभिरूहए । तं सुद्ध णं तुम सुदंसणा ! इ
| महब्भूय-म( हद )हाभूत-न० । श्रमहतो महतो भवनं मह
द्भूतम् । महत्त्वेन भवने, स्था०४ ठा०१ उ०। सूत्र। महादाणिं पि करेसि । से तेणऽदेणं सुदंसणा! एवं उच्चइ |
भूतानि सर्वलोकव्यापित्वान्महत्त्वविशेषणम् । पृथिव्यादिषु अस्थि शं एतेसिं पलिओवमसागरोवमाई खएइ वा | भूतेषु, श्रा०म०१०। सूत्र० । प्रवचएइ बा, तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स महमदपडिमा-महाभद्रप्रतिमा-स्त्री० प्रतिमाभेदे, "पुवाए दिसमणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए एयमढे सोचा णि
साए अहोरत्तं,एवं चउसु वि दिसासुचत्तारि अहोरत्ता"४८५
गा० टी० "पडिमा भद्द महाभद्दा" (४६६ गा०) प्रा०म० अ०। सम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साविसु- |
महम्मदसाह-महम्मदशाह-पुं० । पारसीकः शब्दः । स्वनामज्झमालीहिं तया (णाणा) वरणिजाणं कम्माणं खोवस
ख्याते यवनराजे, ती०४८ कल्प। मेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सप्पीपुव्वे जाईसरणे महया-महती-स्त्री० । अतिशयेन महत्याम् , रा०। औ०।मसमुप्पम्मे । एयमहूँ सम्म अभिसमेति । तए णं ते सुदंमणे हता बृहता तृतीयान्तमेतत् । औ० । सूत्र०१ श्रु०२ ०.२ सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुब्भवे दुगु
उ०। महाप्रमाणायाम् , रा०। “महया भडचडगविंदपरि
क्खित्त० " महाभटानां विस्तारवत्संघेन परिक्षिप्त इत्यर्थः । णाणि य ससंवेगे आणंदसंपुष्मणयणे समणं भगवं|
भ०७ श० ६ उ० । जं० । “महया महिंदकुंभसमाणा" अमहावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदति णमंसति तिशयेन महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः । कुम्भानामिन्द्रः इन्द्रवंदित्ता णमंसित्ता एवं वसासी-एवमेतं भंते ! जाव से | कुम्भः राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः । महाँश्चाजहेयं तुझे वदह तिकडे उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवक
साविन्द्रकुम्भश्च तस्य समानाः, महेन्द्रकुम्भसमानाः । जी०
३ प्रति०४ अधिः । “ महया वासिक्कच्छत्तसमाणा" महा. मइ । सेसं जहा उसमदत्तस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणं,
न्ति महाप्रमाणानि वार्षिकाणि-वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणवरं चउद्दसपुबाई अहिजइ बहुपडिपुष्माई दुवालसवा- णाऽर्थ कृतानि तानि वार्षिकाणि, तानि च तानि छत्राणि च साई सामपपरियागं पाउणइ, सेसं तं चेव सेवं भंते ।। तत्समानानि । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रानि० चू० । भंते ! त्ति । (सूत्र-४३२) भ० ११ श० ११ उ० ।
" महयाऽऽहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगप
दुष्पवाइयरवेणं" (सूत्र ५६७+) स्था०८ ठा० । (एतद्याख्या पादमात्रव्याख्यानपरत्यनुपयोगित्वादुपेक्षिता) |
महर-देशी-असमर्थे, दे० ना०६ वर्ग ११२ गाथा। सत्तमस्स उक्खेवो महापुरणयरं रत्तासोगं उजाणं
महरिसी--महर्षि--पुं० । महामुनी, पञ्चा० १२ विव० । साधी, रत्तपालजक्खो बले राया मुभद्दा देवी महब्बले कुमारे रत्त
सूत्र. १ श्रु० ३ ०२ उ० । ऋषय एवान्यतरलब्ध्युपेता वईपामोक्खाश्री पंच सया कपमा पाणिग्गहणं तित्थगराऽऽ
महर्षयः । " श्रामोसहिविष्पोसहि " इत्याद्यष्टाविंशतिविगमणंजाव पुत्रभवो मणिपुरंणयरंणागदत्ते गाहावई इंद- धलब्ध्युपेता महर्षयः । लब्ध्युपेतेषु साधुषु, पा० । पुरे अणगारे पडिलामिते. जाव सिद्धे । विपा०२श्रु०७ अ०। | महरिह-महार्ह-त्रि० । महच्च तदहश्च महार्हम् । स्था०८ ठा० ।
वीरंगतपितरि रोहीडकनगरराजे, नि०१ श्रु०५ वर्ग १ अ० महतां वा योग्यम् । भ० श०३३ उ० विपा। महाम्तमुपभो'सम्मईसण' शब्दे उदाहरिष्यमाणे साकेतराजे, प्रा० चू०४ | कारमहति, यदिवा-महम्-उत्सवं क्षणमहतीति महाहंम् । उअ०भरतक्षेत्रे भविष्यति षष्ठे वासुदेवे, तिमल्लिजिनस्य त्सवयोग्ये, रामहतां योग्ये, महं वा पूजामहति । महान् वा
वे सलिलावतीविजये वीतशोकानगरीराजबलस्य अर्हः पूजाऽस्येति । प्रशस्सतया पूज्ये, विपा०१श्रु०३०स०। पुत्रे, शा०१ श्रु० अ० स्था। अपरविदेहे गन्धिलावतीविजये महल्ल-महत-त्रि० । अतिशयमहति , श्राव० १ ० । झा० । गन्धमादनवक्षस्कारपर्वते गन्धारजनपदे गन्धसमृद्धनगरस्य नृहति, वृ० ३ उ० । दी, औ० । श्रा० म०। महतो वृक्षाराक्षः शतबलस्य नप्तरि अतिबलस्य पुत्रे,श्राव०१अाश्रा०म० न प्रेक्ष्य नैवं वदेद-यथा प्रासादयोग्या श्रमी वृक्षा इति । महब्मय-महाभय-न०। प्रातभाता, प्रश्न०१आश्रद्वार । म यत्तु वदेत्तदाह-"महलपहाए रुक्खा" एवं वदत् । श्राचा. हदयं यस्मादसौ महाभयः। महाभयहेतौ, त्रि० । प्रश्न०१ २ थु०१०४ अ०२ उ०। वृद्ध-निवह-पृथुल-मुखर-जलश्राश्र० द्वार । भयहेतुत्वाद् दुःखमेव महाभयम् । तच्च मर-| धिषु, द०मा०
समर धिषु, दे०मा०६ वर्ग० १४३ गाथा । णकारणमिति महदित्युच्यते । श्राचा०१ श्रु०२०४०। महल उह-महोह-न०। ऊहशतसहस्ररुयायां संख्यायाम् ,ज्यो० महश तद्यं च महाभयम् ,लातः परमल्यदस्तीति महाभयम्। २ पाहु० (स्पष्टतया काल' शब्दे तृतीयभागे ४७६पृष्ठे प्रोक्लम्)
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महलउहंग
महल्लउहंग-महोहाङ्ग - न० | महा टटशतसहस्ररूपायां संख्याज्यो० २ पाहु० । ( 'काल' शब्दे ३ भागे स्फुटीभूतम् ) याम्, महलग महत्-त्रि ज्येष्ठे " मह वा वृद्धं वा दश०५
श्र० ३ उ० । आ० म० । श्राचा० ।
महल्लियदुवारिया - महाद्वारिका -स्त्री० । वृहद्वारायां वसतौ,
श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ ० २ उ० । महल्लियाविमाणपविभत्ति - महाविमानप्रविभक्ति - स्त्री० । महा ग्रन्थार्थे विमानप्रविभक्त्याख्ये ग्रन्थे, स्था० १० ठा० । पा० । महव्वय - महाव्रत - न० । महान्ति - बृहन्ति च तानि व्रतानि च नियमतो महावतानि महत्वं चैषां सर्वजीवादिविषयत्वेन महाविषयत्वात् । पा० । सूत्र० 1 नं० । ध० । श्राव० । श्राचा० । महश्च तद्व्रतं च महाव्रतम्, महत्वं चास्य श्रावकसम्बन्ध्यसुतापेक्षयेति । सर्वथा हिंसात्यागेषु ६०३ अधि० याचा० । प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणेपु आव०४० प्र० । स्था० । पचं महम्वया पाता। तं जहा सब्दाओ पाणाऽदवायाओ वेरमणं, सव्वा मुसावायाओ वेरमणं ० जाव सव्वाश्र परिग्गहा वेरमणं । ( सूत्र - ३८६ )
(पंच महय्ययेत्यादि) " पचेति" संख्यान्तरव्यवच्छेदरतेन न चत्वारि प्रथमपश्चिमतीर्थयोः पञ्चानामेव भावात् महान्ति बृहन्तितानि तानि तानि च नियमा महाव्रतानि महत्त्वं चैषां सर्वशीवादिविषयत्वेन महाविषयत्वात् उपढ़मम्मि सयजीया, बीए चरिमेय सव्वदच्या सेसा महस्वया खलु, तदेक्कदेसेण दव्वाणं ॥ १ ॥ इति । तेषां द्रव्याणमेकदेशेने - त्यर्थः । तथा - यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रत्याख्यानरूपस्वाच्च तेषामिति । देशविरतापेक्षया महतो वागुनि मानि महतानीति, पुंलिङ्गनिर्देश प्राकृतत्वादिति । प्रशानतथाविधशिष्यापेक्षया प्ररूपितानि महावीरेण श्राद्यती
करेण च न शेवैरित्येतत् किल सुधर्म्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतिपादयामास । तद्यथा सर्वस्मात् निरवशेषात् प्रसस्थावसूक्ष्मवादभेदभिन्नात् कृतकारितानुमतिभेदाचेत्यर्थः । अथवा द्रव्यतः षड्जीवनिकायविषयात्, क्षेत्रतस्त्रिलोकसकालोऽतीता राज्यादिप्रभवाडा भावतो रागसमुत्थाच न तु परिस्थूरादेयेति भावः । प्राणानामिन्द्रियो चहासारादीनामतिपातः प्राणिनः सकाशाद्विभ्रंशः प्राणाति पातः, प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थः । तस्माद्विरमणम् सम्य
नानपूर्वकं निवर्तनमिति । तथा सर्वस्मात् सद्भावप्रतिषेधा १ सद्भावोद्भावना २ ऽर्थान्तरोक्ति ३ गभेदात् ४ कृतादिभेदाश्च । श्रथवा द्रव्यतः सर्वधर्मास्तिकायादिद्रव्यविपात् क्षेत्रतः सर्वलोकालोकगोचरात् कालतो सीतादे राज्या दिवाभावतः कषायनोपायादिप्रभवात्। मृपा - लीकं वदने यादो नृपावादस्तस्माद्विरमयं विरतिरिति तथा सर्वस्मात् कृतादिभेदात् । अथवा द्रव्यतः सचेतनाचेतनद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो ग्रामनगरारण्ख्यादिसम्भवात् कालतो ती तादे राज्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषमोहसमुत्थात् । श्रदसं स्वामिना वितीर्ण तस्यादानं ग्रहणमदत्तादानं तस्माद्विरमणमिनि तथा सर्वस्मात् कृतकारितानुमतिभेदाद् अथ
४६
"
( tet ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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महत्वय
था
"
तो दिव्यमानुषरभेदात् रूप-रूपसहगलभेाठा । तत्र रूपाणि निर्जीचानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीयानि भूषणानि वा रूपाणि भूषणसहितानि रूपसहगतानीति क्षेत्रतरित्रलोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिसमुत्थाद्वा, भावतो रागद्वेषप्रभवात् । मिथुनं स्त्रीपुंइन्हं तस्य कर्म्म मैथुनं तस्माद्विरमणमिति, तथा सर्वस्मात् कृतादेः। अथवा यतः सर्वद्रव्यविषयात् क्षेषतः लोकस म्भवात् कालतोऽतीतावे. राज्यादिप्रभवाडा भायतो रागद्वेषविषयात् परिगृहाते आदीयते परिग्रह वा परिग्रहस्तस्मा द्विरमणमिति । स्था० ५ ठा० १ उ० । उत्त० । “ पंच महव्यया रामोहराच्छाई ” । प्रव० ७२द्वार। ( एतानि सभावनानि 'पासावाचा' 55दिशब्देनानि) आ०० प्र० । अङ्ग श्राव० । पञ्चा० । ( अन्तगृहे महाव्रतानि नाख्यातव्यानीत्युक्रम्' अंतरहि शब्दे प्रथमभागे) (पाक्षिक तिक्रमणविधिगताति सूत्राणि पडिक शब्दे पक्षमभागे २६४ पृष्ठे उक्कानि) । केषां तीर्थे पक्षाच त्वारि महामतानीति पय शब्दे वदयते) (सौगतानां दश महाव्रतानि इति ' पलंब ' शब्दे ५ भागे ७१५ पृष्ठे उक्तम् ) महाव्रतानां फलानि -
"
वैरत्यागोऽन्तिके तस्य, फलं चाऽकृतकर्मणः ।
रत्नोपस्थानसद्वीर्य-लाभो जनुरनुस्मृतिः ॥ ६ ॥ तस्याऽहिंसाभ्यासवतोऽन्तिके संनिधी वैरत्यागः सहजविरोधिनामप्यहिनकुलादीनां हिंसात्यपरिहारः, तदुक्तम्(अहिंसाप्रतिष्ठायाम् तत्संनिधी वैरत्यागः " पाद २ सू० ३५) सत्याभ्यासवतथाकृतकर्मणो ऽविहितानुष्ठानस्यापि फलं तदर्थोपनतिलक्षणक्रियमाणा हि क्रिया यागादिकाः फलं स्वर्गादिकं प्रति । अस्य तु सत्यं तथा प्रकृष्यते, यथाSकृतायामपि क्रियायां योगी फलमाश्रयते तद्वचनाच्च यस्य कस्यचित् क्रियामकुर्व्वतोऽपि फलं भवतीति । तदाह - ( खत्यप्रतिष्ठायाम् - " क्रियाफलाश्रयत्वम् " पाद २ सू० ३६ ) अस्तेयाभ्यासवत रत्नोपस्थानं तत्प्रकर्षाभिरभिलापस्यापि सर्वतो रिकानि रत्नान्युपातिष्ठन्त इत्यर्थः । ब्रह्मचर्याभ्यासयता सतो निरतिशयस्य वीर्यस्य लाभः वीर्यनिरोधो हि महावर्य, तस्य प्रकर्षाथ वीर्ये शरीरेन्द्रियमनस्तु प्रकर्षमाग
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तीति (अपरिग्रहविषायिका व्याख्या 'परिग्गद्द शब्दे ५भागे ५५६ पृष्ठे ) । द्वा०२१ द्वा० आ०चू० । दश० । ( प्रथमं महाव्रतम् प्राणातिपातविरमणम् तच्च पडिकमण ' शब्दे पञ्चमभागे २८५ पृष्ठे दर्शितम् ) ( द्वितीयं महाव्रतं मृषावादविरमणं तच्च मुखाचायवेरमण शब्देऽस्मिन्नेव भागे दश्यते) (तृतीयं महामतम् अदत्तादानविरमतच दत्तादानविरमण' शब्दे प्रथमभागे ५४० पृष्ठे गतम्) ( चतुर्थ मैथुनविरमयं तच्च बंभवेर' शब्दे ऽस्मि मागे १२४६ पृष्ठे उक्तम्) (पञ्चमं महावतं परिग्रहविरम तच परि ग्गहवेरमण ' शब्दे पञ्चमभागे ५५७ पृष्ठे गतम् ) ।
6
,
3
"
इथेयाई पंच महव्यवाई राहभोपणवेरमणट्टाई अहिबट्टाए उपसंपजिया णं विहरामि (६) । ( इच्याई इत्यादि) इत्येतान्यनन्तरोदितानि पञ्च महा
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(tet 2 अभिधान राजेन्द्रः ।
महव्यय
शतानि रात्रिभोजनविरमष्ठानि किमित्याह आत्महिताय आत्महितो मोचस्तदर्थम् अनेनान्यार्थ तस्तोत्रामाद तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात् 'उपसंपद्य' सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि विहरामि साधुविहारेण तदभावे चाङ्गीकृतानामपि प्रतानामभावात् । दोपाथ हिंसादिकर्तॄणाम् अल्पायुर्जिह्वाच्छेददारिद्रयपण्डकदुःखितत्वादयो वाच्या इति । दश० ४ श्र० ।
अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यानभङ्गकशताऽधिकारः । तत्रेयं गाथा
"सीयालं भंगलयं, पच्चस्खामि जस्स उचलद्धं । सो पञ्चकखाणकुसलो, सेसा सव्वे अकुसला उ ॥ १ ॥ ". दश० ४ श्र० ।
समचत्वारिंशदधिकशतं यमागलक्षणं प्रत्याख्यानेप्रत्याख्यानविषयं यस्योपलब्धं भवति स इत्थंभूतः प्रत्याख्याने कुशलो - निपुणः शेषाः सर्वे कुशलाः- तदनभिशा इति गाथासमासार्थः ।
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श्रवयवार्थस्तु भङ्गकयोजनाप्रधानः स चैवं द्रष्टव्यः
" तिन्नि तिया तिन्नि दुया, तिन्नि केक्का य होंति जोपसु । ति दु एकं ति दु एक्वं, ति दु एकं चेच करणाई || १ || " त्रयस्त्रिकाः (३३३) प्रयो] द्विका: (२२२) जयककाः (१११) भवन्ति । योगेषु — कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणेषु त्रीणि द्वयमे आणि इयमेकं द्वियमेकं चैव करणानि म नोवाक्कयलक्षणानि इति पदघटना | भावार्थस्तु स्थापनया निर्द्दिश्यते । सा चेयम्
"
३३३-२२२-१११ कात्र भावना ? । " न करेमि न कारवेमि क३२१-३२९-३२१ तंपि अन्नं न समजावणामि मणे वा १३३-३१६-३६६ । याए काएणं ” एक्को भेदो। इयासि वि. तिचो- करे न कारवेश करतं पि अर्थ न समजणार मणं वायाए इक्को भंगो। तहा मणेणं कारणं विइओ भंगो। सहा पाया काय तो भंगो विश्व मूलमेओ गओ। इयाणि तो करे ण कारवेद करते पि अ ग्रं न समजायद म एको, बायाए विश्र, का तश्रो, गओ तति मूलभेओ । इयाणि चत्थो - करेड कारपेड मोवाया काय को करे करतं गाजा विश्र ण कारवेइ करतं गारगुजाराह तर, गओ चउत्थो मूलभेश्रो । इयाणि पंचमो - ण करेइ ण कारवेद मणेणं वायाए एको, ण करेइ करतं गारगुजाराइ विकारवेद करतं राजा तओ पर तिथि भंगा मणें वायाए लद्धा, अन्ने वि तिनि मणें कारण य सम्भंति, तहा अवरे वि वायाए कारण य लब्भंति तिनि, एवमेव सव्वे एए एव, पंचमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इयागि छट्टोकरेइ रण कारवेइ मणे पक्को, तहा ण करेइ करतं णाणुजाण्ड
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विकारखे करतं खाजाइस मनसैव तृतीयः एवं वायाए कारण वि तिन्नि तिनि भंगा लम्भंति । एते वि सव्वे एव । उक्तः षष्ठो मूलभेदः । सप्तमोऽभिधीयते - ण करेइ मरोणं वायाए कारणं एक्को, एवं ण कारवेइ मणादीहिं वितिश्रो, करंतं गाजाइ, ततिश्रो । सप्तमोऽप्युक्तो मू लभेदः । इदानीमष्टमः - ण करेइ मणेणं वायाए पक्को, मणेणं
मद्दव्वय कारण य वितिश्रो, तहा वायाए कारण य तइओ, एवं न कारवेइ एत्थं पि तिनि भंगा, एवमेव करंतं णाणु जाणइ ए
पि तिथि भंगा, पर सच्चे राव उक्कोऽहमः । इदानीं नवमः करे मरो हो, ग कारचे विविध कर गारगुजारा तो, एवं वायाए वितियं, कारण वि होइ ततियं, एवमेते सव्वे वि मिलिया नव, नवमोऽप्युक्तः । आगतगुणनमिदानीं कियते
पा
"लफलमाणमेयं, भंगा उ हवंति (अ) तीयाणा गवसंपति, गुणिये काले हो हमे ॥ १॥ सीयाल भंगसयं, कह कालतिर होति गुणणा उ । तीतस्स पडिक्कमणं, पच्चुप्पन्नस्स संवरणं ॥ २ ॥ पचक्खाणं च तहा, होइ य एसस्स एस गुणगा उ । कालति भणिवं जिलनराधरवायचि ॥ ३ ॥
33
इति गाथार्थः । दश० ४ श्र० ।
साम्प्रतं यतनाया अवसरस्तथा चाऽऽह
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविश्यपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राम्रो वा एगओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा से पुढविं वा भित्तिं वा हत्येस वा पारस का कडेस वा किलिवेश वा अंगुलि - सिलं वा लेलुं वा ससरक्खं वा कार्य ससरक्खं वा वत्थं याए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहेजा न विलिहेजा न घट्टेजा न भिंदेजा अन्नं न लिहा - aar न विलिहावेजा न घट्टावेजा न भिंदावेजा अन्नं आ लिहतं वा विलितं वा घट्टतं वा भिदंतं वा न समणुजारोजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेम करतं पिअन समगुजाणामि तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पा बोसि रामि (मूत्र - १० )
'से' इति निर्देशे स योऽसी महामतको भिक्षु भिक्षुकी या आरम्भपरित्यागाद्धम्मंकायपालनाय, भिशीलो भिक्षुः एवं मयपि पुरुषोत्तमो धर्म इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेपणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति आह-संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तत्र सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः । विविधम्- अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः । प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मेति प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृद्धयभावेन पापं कर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः । 'दिया वा रात्री वा एको वा परिषद्गतो वा सुमो वा जाग्रा रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत्, कारणिक एकः, शेषका लं परिषद्गतः, इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । ( से पुढविं वा इत्यादि ) तद्यथा पृथिवीं या मिति था, शिलो वा लो वा तत्र पृथिवीलोष्ठादिराहता, भित्तिः नदीतटी, शिला- विशालः पाषाणः, लोष्ठः- प्रसिद्धः । तथा सह रजसा- श्रारण्यपांशु लक्षणेन वर्त्तते इति सरजस्कस्तं सरजस्कं वा कार्य 'कायमिति' देहं तथा सरजस्कं यायचोतकादि "एकग्रहसे तज्जातीयग्रहणम्" इति पात्रादिपरिग्रहः, पतत्किमित्याह-हस्तेन वा पादेन वा
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महव्वय - अभिधानराजेन्द्रः।
महव्वय काष्टेन वा कलिञ्चेन वा-जुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गुल्या वा शला- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायकया वा अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा शलाकासं पावकम्मे दिया वा रात्रो वा एगो वा परिसागो वा घातरूपेण (णालिहिज त्ति) नालिखेत् न विलिखेत् । न घट्ट येत् न भिन्द्यात् तत्र ईषत्सकृद्वा लेखन, नितरामनेकशा वा
| सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंविलेखनं, घट्टनं चालन,भेदो विदारणम् ,एतत्स्वयं न कुर्यात्, टेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा तथा अन्यमन्येन वा नालेखयेन विलेखयेत् न घट्टयेत् न भेद- | पिडणेण वा पिहूणहत्थेण वा चलेण वा चलकप्मेण वा येत् । तथा अन्य स्वत एव आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घ.|
हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वाऽवि पुदृयन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् । दश०४०। (अग्रेतन सूत्रम् श्राउक्काय'शब्दे द्वितीयभागे२७
| ग्गलं न फूमेजा न वीएज्जा अन्नं न फूमावेजा न वीयापृष्ठे गतं तव्याख्याऽपि किंचित्तत्र) एतत् किमित्याह-| वेजा अन्नं मंतं वा वीयंतं वा न समणुजाणेजा। जाव(नामुसेज त्ति )नामृषेत् न संस्पृशेत् नाऽऽपीडयेत् न प्रपी
ज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि डयेत् नाऽऽस्फोटयेत् न प्रस्फोटयत् नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत् । तत्र सकृदीषद्वा स्पर्शनमामर्षणम् , अतोऽन्यत् संस्प
न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! र्शनम् । एवं सकृदीपद्वा पीडनमापीडनमतोऽन्यत् प्रपीडनम्- पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१३॥ एवं सकृदीपद्वा स्फोटनमास्फोटनम् , अतोऽन्यत्प्रस्फोटनम्, | (से भिक्खू वेत्यादि-यावत्-जागरमाणे वा) इति पूर्ववदेव । एवं सदीपद्वा तापनमातापनम् विपरीत प्रतापनम् , एत- (से सिएण वेत्यादि) तद्यथा सितेन वा विधवनेन वा तास्वयं न कुर्यात् , तथा अन्यमन्येन वा नामर्षयत् न संस्पर्श- लवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभतेन वा पेहुणेन येत् नापीडयेत् न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् वा पेहुणहस्तेन वा चलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेनातापयेत् न प्रतापयेत् , तथा छान्यं स्वत एव श्रामृषन्तं वा न वा । इह सितं चामरं, विधवनं-व्यजनं, तालवृन्तं तदेव संस्पृशन्तं वा पीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं मध्यग्रहणच्छिद्रं द्विपुटं, पत्रं पद्मिनीपत्रादि, शाखा वृक्षडालं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न सम- शाखाभङ्गं तदेकदेशः, पेडणं मयूरादिपिच्छं, पेहुणहस्तकस्तनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ।
त्समूहः, चेलं-वस्त्रं, चेलकर्णस्तदेकदेशः, हस्तमुखे प्रतीते, से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खा-1 एभिः किमित्याह-आत्मनो वा कार्य स्वदेहमित्यर्थः, बाह्य वा यपावकम्मे दिया वा राम्रो वा एगो वा परिसागो
पुद्गलम् उष्णोदनादि,एतत्किमित्याह-(न मिज्जा इत्यादि) न
फूत्कुर्यात् न व्यजेत् । तत्र फूत्करणं मुखेन धमनं,व्यजनं चमवा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा
रादिना वायुकरणम्, एतत्स्वयं न कुर्यात् , तथा अन्यमन्येन मुम्मरं वा अच्चि वा जालं वा अलायं वा सुद्धोगणिं वा
वा न फूत्कारयेत् न व्याजयेत् । तथा अन्यं स्वत एव फूत्कुउकं वा न उजिजा न घडेजा न उजालेजा न पज्जालेजा न | वन्तं वा व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव । निव्बावेजा अन्नं न जावेजा न घडावेज्जा न उजालावेजा। सेभिक्खू वा भिक्खुणीवा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायन पञ्जालावेज्जा न निव्वावेज्जा अन्नं उंजंतं वा घट्टतं वा | पावकम्मे दिया वा राम्रो वा एगो वा परिसागो वाउज्जालंतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणज्जा जावज्जीवाए
सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीयपइद्वेसु वा. रूतिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कार- ढेसु वा रूढपइट्ठसु वा जाएसु वा जायपइढेसुवा हरिएसु वा वेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडि- हरियपइद्वेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपइवेसु वा सचित्तेसु कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । सत्र-१२। वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेजा न चिडेजा (जाव जागरमाणे वत्ति ) पूर्ववदेव ( से अगणि वेत्यादि)। न निसीइजा न तुयडेजा अन्नं न गच्छावेजा न चिट्टातद्यथा-अग्निं वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अर्चि ज्वालां वा वेजा न निसीयावेजा न तुयद्यावेजा अन्नं गच्छंतं वा अलातं वा शुद्धाग्नि वा उल्कां वा इहाऽयःपिण्डानुगतोऽ चिटुंतं वा निसीयंतं वा तुयद॒तं वा न समणुजाणेजा जाग्निः, ज्वालारहितोऽङ्गारः, विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः, मूला
वञ्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेग्निविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः, प्रतिवद्धा ज्वाला, अलातमु
मि न कारवेमि करतं पिअन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! मुकम् , निरिन्धनः शुद्धोऽग्निः, उल्का गगनाऽग्निः, एतकिमित्याह-(न उंजेज्जा) नोत्सिश्चेत् (न घट्टेज्जा)न घट्ट
पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । १४ । येत् न उज्ज्वालेयत् न निर्वापयेत् । तत्रोञ्जनमुत्सेचन, घट्टनं
(से भिक्खू वेत्यादि-यावत्-जागरमाणे वेति ) पूर्ववदेव । सजातीयादिना चालनम् , उज्ज्वालनं व्यजनादिभिवृद्धया- ( से वीएसु वेत्यादि ) तद्यथा-बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा पादन, निर्वापणं विध्यापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् , तथा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा अन्यमन्येन वा नोत्सेचयेत् न घट्टयेत् नोज्ज्वालयेत् न निर्वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नप्रतिष्ठिपयेत् , तथा अन्य स्वत एव उत्सिञ्चयन्त वा घट्टयन्तं वा तेषु वा सचित्तेषु सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा, इह बीज उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि शाल्यादि तत्प्रतिष्ठितम् आहारशयनादि गृह्यते । एवं सर्वत्र पूर्ववत्।
वेदितव्यम्। रूढानिस्फुटितबीजानि,जातानि स्तम्बीभूतानि,
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( १८४) महबय अभिधानराजेन्द्रः।
महाकण्हा हरितानि दूर्वादीनि, छिन्नानि परश्वादिभिषक्षात् पृथक स्था- सट्ठीचता य हॉति महसेगा । गहमसयमेनं पुण, प. पितानि, श्रार्द्राणि अपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते, सचि-| डिवण्णो तोसगो राया" ॥ ६१५ ॥ ति०। त्ताम्यण्डकादीनि, कोलो घुणः तत्प्रतिनिश्रितानि तदुपरिव- महसेणवण-महासेनवन-न० । स्वनामके उद्याने, र्तीनि दादीनि गृह्यन्ते । एतेषु किमित्याह-"न गच्छेज्जा"
अकेवलो वीरप्रभुः संप्रस्थितः। श्रा०म०१०।" उत्पत्तन गच्छेत् न तिष्ठेत् न निषीदेत् न त्वग्वर्तेत । तत्र गमन
म्मि अणते, नझुम्मि य छाउमथिए णाणे । रातीए संपत्तो, म. मन्यतोऽन्यत्र, स्थानमेकत्रैव, निषीदनम् उपवेशनं, त्वग्वर्तनं
हसेणवण तु उज्जाणं ॥२॥" श्रा० चू०१०। महसेनवनोस्वपनम् , एतत्स्वयं न कुर्यात् । तथाऽन्यमेतेषु न गमयेत् न स्थापयेत् , न निषीदयेत् , न स्वापयेत् । तथाऽन्यं स्वत एव
धानलक्षणं क्षेत्रम् । विशे०। ति। गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा स्वपन्तं वा न समनु-|
महा-मघा-खी। पितृदेवत्ये नक्षत्रभेदे, “ दो महाऊ दो जानीयादित्यादि पूर्ववत् ।
फग्गुणाऊ । " अनु० । स्था । “ महानक्खत्ते सत्त
तारे पणते" स०७ सम० । स्था। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागो वा
महाइसाइ-महातिशायिन-त्रिका अचिन्त्यशक्ती, जी०१प्रतिका सत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पर्यगं वा कुंथु वा|
| महाकदिय-महाक्रन्दित-पुं० । व्यन्तरदेवभेदे , प्रशा० २ पिपीलियं वा हत्थेसि वा पायंसि वा बाहुंसि वा ऊरुसि वा
महाकच्छ-महाकच्छ-पुं० । ऋषभदेवसहप्रवजिते भिक्षाउदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा कंब
लाभात्तापसत्वं गते विनमिपितरि कच्छभ्रातरि, वाचू० लसि वा पायपुंछणसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उं
१०। दर्श। आ० क०। प्रा० म० । कल्प० । जम्बूद्वीपडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सिजगंसि मन्दरस्य पूर्वे शीतोदाया उत्तरे चक्रवर्तिविजये,स्था०८ ठा। वा संथारगसि का अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाये दो महाकच्छा । स्था०२ ठा० । तमो संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमन्जिय पमन्जिय कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णाम विजये एगंतमवणेज्जा नो णं संघायमावज्जेज्जा ॥ सूत्र-१५ ॥ पपत्ते । गोप्रमाणीलवंतस्स वासहरपध्वयस्स दाहि
(से भिक्खू वा इत्यादि-यावत्-जागरमाणे व त्ति) पूर्ववःोणं सीआए महाणईए उत्तरेणं पम्हकूडस्स वक्खारपञ्चदेव (से कीडं वा इत्यादि) तद्यथा-कीटं वा पतकं वा कुन्) वा पिपीलिकां वा, किमित्याह-हस्ते वा पादे वा बाहो वा
यस्स पञ्चत्थिभेणं गाहावईए महाणईए पुरत्थिगेणं एत्थ ऊरुणि वा उदरे वा वस्ने वा रजोहरणे बा गोच्छके वा उण्ड- णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पपत्ते । सेसं के वा दण्डके वा पीठे वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके जहा कच्छविजयस्स णवरं अरिट्ठा रायहाणी जाय वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उ
महाकच्छे इत्थ देवे महिडिए अट्ठो अभाणिअन्यो। पकरणजाते कीटादिरूपं वसं कथंचिदापतितं सन्तं संयत एव
मथ तृतीयं विजयं प्रश्नयनाह-कहि णमित्यादि, स्पष्ट सन्प्रयत्नेन वा प्रत्युपेक्ष्य-पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्य पौनः
नवरं यावत्पदात्-'तत्थ णं अरिए रायहाणीए महाकच्छे पुन्येनैव सम्यक-किमित्याह-एकान्ते तस्याःनुपघातके स्थाने
णामं राया समुप्पजइ, महया हिमवंत जाव सब्वं भरहो अपनयेत् परित्यजेत् नैनं वसं संघातमापादयेत् नैनं वसं संघातं परस्परगावसंस्पर्शपीडारूपमापादयेत् प्रापयेत् । श्र
अवर्ण भाणिव्वं । णिक्खमणवजं सेसं भाणिअव्वं जाव
भुंजह माणुस्सए सुहे,महाकच्छणामधेजे इति प्रायम् , ईदृशेनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्लो वेदितव्यः। “एकग्रहणे तजा
नाभिलापेनार्थो महाकच्छशब्दस्य भणितव्यः । जं०४ वक्षः। तीयग्रहणाद् " अन्यकारणानुमतिप्रतिषेधश्च, शेषमत्र प्रकटार्थमेव । नवरम्-उराडकं-स्थण्डिल, शय्या-संस्तारिका व महाकच्छा-महाकच्छा-स्त्री० । अतिकायस्य महोरगेन्द्रस्यासतिर्वेत्युक्ता यतना । दश०४०। ( महाव्रतानां विषयः | ऽयमहिण्याम् , स्था०४ ठा० १ उ०1०। 'सामाइय' शब्दे वदयते)
महाकट्ठ-महाकष्ट-त्रि० । दुरनुचरे, पो०१ विव० । महसउणिपूश्रणारिपु-महाशकुनिपूतनारिपु-पुं० । कृष्णवासु- | महाकडिल-महाकडिल्ल-ज० । गहने, पं०१०४ द्वार । देवे, कृष्णपितृवैरिण्या महाशकुनिपूतनाभिधानाया विद्याध
महाकएह-महाकृष्ण-पुं० । स्वनामख्याते महाकृष्णायाः कु रयोषितो विकुर्वितगन्त्रीरूपाया गन्त्रीसमारोपितवालावस्थ
मारे , नि० १ श्रु० १ वर्ग १ १० । स च श्रेणिकान्महाकृष्णया कृष्णपक्षपातिदेवतया विनिपातितत्वात् । प्रश्न ४
कृष्णायामुत्पद्य वर्षयपर्यायात्षष्ठे लान्तककल्पे उत्पद्य चप्राधाद्वार।
तुर्दशसागरोपमाण्युत्कृष्टस्थितिकमायुरनुपाल्य ततश्च्युतो महसिव-महाशिव-पुं० । षष्ठवलदेववासुदेवयोः पितरि,
महाविदेहे सेत्स्यतीति । नि१७०१ वर्ग ६ अ०। श्राव०१० स०। महसेण-महासेन-पुं० । ऋषभपुत्राणां सप्तचत्वारिंशत्तमे | महाकएहा-महाकृष्णा-स्त्रीय। स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहापुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । चन्द्रप्रभस्वामिजि- | राजभार्यायाम् , नि०१ श्रु०१ वर्ग १ श्र० । अन्त। नस्य पितरि, श्राव० १ ० । प्रव० । ति । बलभि- सा च वीरान्तिके प्रवज्य क्षुद्रं सर्वतो भद्मुपसंपद्य सिद्धेलराजात् पूर्वानन्तरे अवन्तीराजे, “ बलमित्तभाणुमित्ता, । ति । अन्त० १७०३ वर्ग १ अ०।
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महाकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
महागह महाकप्प-महाकल्प-पुं०। गोशालककल्पिते कालपरिमाण- |
श्रा० म०। ( तदुत्पत्तिः 'अणिस्सिोवहाण " शब्दे भेदे, भ०१५ श०।
प्रथमभागे, ३३६ पृष्ठे ) अष्टमदेवलोके स्वनामख्याते विमहाकप्पसुय-महाकल्पश्रुत-न० । स्थविरादिकल्पप्रतिपादके माने, स० १८ सम०। प्रभजनस्य वायुकुमारेन्द्रस्य वेलकल्पश्रुतभेदे, नं० । पा० । प्रा०म०।
म्बस्य द्वीपकुमारेन्द्रस्य च दक्षिणलोकपाले, स्था०४ ठा०१
उ० । महाकाल्या अयं महाकालः । श्रेणिकस्य राशो महाकामहाकमल-महाकमल-नाचतुरशीतिकमलाङ्गशतसहस्ररू
ल्यामग्रमहिप्यां जाते पुत्रे, स च संग्रामे मृत्वा चतुर्थनरकपे सेख्याभेदे, ज्यो०२ पाहु०॥ ('काल' शब्दे ३ भागे स्फुटितम्)
थिव्यामुत्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति । नि० १श्रु०१ वर्ग महाकम्म-महाकर्मन्-पुं० । महान्ति गुरूणि स्थित्यादिभि
१०। स्तथाविधप्रमाणाद्यभिव्यङ्गयानि कर्माणि यस्य सः महा
महाकालंऽतर-महाकालान्तर-नास्वनामख्याते स्थाने, यत्र कर्मा । स्था० ४ ठा० ३ उ० । स्थित्याद्यपेक्षया उलघुक
पातालचक्रवर्ती पार्श्वनाथः । ती०४३ कल्प। मणि, भ०६ श०३ उ०। महाकम्मतर-महाकर्मतर-त्रि० । अतिशयेन महत्कर्म शाना- महाकाली-महाकाली-स्त्री० । श्रेणिकभार्यायां महाकावरणादिकं यस्य स तथा । भ० ७ श० १० उ०। अतिशयेन
लमातरि, सुमतितीर्थकरस्य शासनदेव्याम् , नि०१ शु. १ महान्ति कर्माणि ज्ञानावरणादीनि वन्धमाश्रित्य यस्य सः ।
वर्ग १ अ०। (तद्वर्णनम् 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे २२६८ प्रभूतकर्मबन्धके, भ०५ श० ६ उ० ।
पृष्ठे गतम्) महाकल्लाण-महाकल्याण--न० । परमश्रेयसि, पश्चा०विवा महाकिएहा-महाकृष्णा-स्त्री० । रक्ताख्यमहानदीसमते नदी
भेदे, स्था०५ ठा०३ उ०। महाकहा-महाकथा-स्त्री० । प्रवन्धेन महाजनस्य तत्त्वदेशना
महाकिरिय-महाक्रिय-त्रि० । महती क्रिया कायिक्यादिका याम् , भ०७ श०१० उ०।
कर्मबन्धहेतुर्यस्य स महाक्रियः। प्रभूतकायिष्यादिक्रियाकमहाकाय-महाकाय-त्रि० । महान्-प्रशस्तः कायो यस्य स |
ति, स्था० ४ ठा० ३ उ०। महाकायः । भ० १४ श०२ उ० । महाशरीरे, उपा०२०। बृहदेहे, औ० । महान् कायो येषां ते महाकायाः, योजनलक्ष- |
महाकिलेस-महाक्लेश-त्रि० । महान क्लेशो यस्मिन् समप्रमाणशरीरविकुर्वणात् । सूत्र० २ श्रु० ७ ० । श्री
हाक्लेशः। अतिक्लेशसाध्ये, उत्त० २३ अ०। तराहाणां महोरगाणामिन्द्रे, प्रज्ञा० २ पद । महोरगभेदे, | | महाकुट्ट-महाकुष्ठ-न० । धात्वन्तःप्रवेशादसाध्यत्वाच्च महप्रज्ञा०१ पद । भ० । स० । स्था०।
त्कुष्ठमिति । तथाविधकुष्ठरोगे, सप्त महाकुष्ठानि , तद्यथामहाकाल-महाकाल-पुं० । अतिश्यामवर्णे परमाधार्मिके देवे, अरुणोदुम्बरनिश्यजिह्वकापालकाकनादपौण्डरीकदद्रकुष्ठायो नारकाणां श्लदणमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च | नि । श्राचा०११०६ अ०१ उ० । महाकाला भवात स महाकालः। भ०३श०७ उ०। प्रश्न० । महाकमढ-महाकमढ-न० । सप्तमदेवलोकधिमानभेदे, स० प्रव० । आव० । स० । श्रा० चू०।।
१७ सम। कप्पंति कागिणीम-सगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि। डाकमय-महाकुमुद-न० । संख्याभेदे, सा चैवम्-चतुरशीति खावंति य नेरइए, महाकाला पावकम्मरए ॥ ७७॥ | महाकुमुदाशतसहस्रारयेकं महाकुमुदम् । ज्यो०२ पाहु । महाकालाण्या नरकपालाः पापकर्मनिरतान् नारकान् ना- महाकुमुयंग-महाकुमुदाग-न०। संख्याभदे, सा चैवम्-चतुनाविधैरुपायैः कदर्थयन्ति , तद्यथा-काकिणीमांसकानि | रशीतिकुमुदशतसहस्राण्येकं महाकुमुदाङ्गम् । ( विशेषतः लक्षणमांसखण्डानि कल्पयन्ति नारकान् कुर्वन्ति । तथा | 'काल'शब्दे तृतीयभागे ४७८ पृष्ठे वर्णितम् ) ज्यो०२ पाए। (सीहपुच्छाणि त्ति ) पृष्ठीवधीस्तांश्छिन्दन्ति, तथा ये प्राक् महाकुल-महाकुल-पुं० । महत्कुलमिक्ष्याक्वादिकमस्येति । मांसाशिनो नारका श्रासन् तान् स्वमांसानि खादयन्तीति ।।
इक्ष्वाक्वादिकुलोत्पन्ने, सूत्र. १ श्रु० ८ अ० । महच्च सूत्र०१ श्रु०५१०१ उ० । निधिभेदे, जं० । श्रा०चू० । दर्श० । ति० । प्रव० । स्था०। (निधयस्तु णिहि' शब्दे
तत्कुलमिति । इभ्यकुलादौ, न० । नि० चू०८ उ० । ४ भागे २१५१ पृष्ठे दर्शिताः) एकोनषष्टितमे महाग्रहे, स्था।
| महाखंदग-महाखन्दक-पुं० । षष्ठे भूतनिकाये, प्रशा० १ पद । दो महाकाला। स्था०२ ठा०३ उ०। कल्प० । चं० महागंगा-महागङ्गा-स्त्री० । गोशालकपरिभाषिते सप्तगङ्गाप्र० । मू० प्र० ।
त्मके मानभेदे, “सत्त गंगाश्रो एगा महागंगा।" भ०१५ श०। केतुकस्य महापातालस्याधिपतौ देवे, स्था०४ ठा०२ उ०। महागर-महाकर-पुं० । बृहत्खनौ, महाकरा शानाविभावरप्रव० । श्रौत्तराहाणां पिशाचानामिन्द्रे, प्रशा० २ पद । नापेक्षया । दश० अ० १ उ० । स्था० । षष्ठ पिशाचनिकाये , प्रज्ञा०१ पद । सप्तमनरकपृथिव्यां स्वनामख्याते महानरके, प्रज्ञा०२ पद । सूत्र० । स्था।
०१ पद । सप्तमनरकथि-महागह-महाग्रह-पुं० । ग्रहभेदे, महाग्रहाश्च मनुष्यतिरश्चामुजी० । स । महारुद्रभेदे लौकिकदेवे, श्राव०६अ। उज
पघातानुग्रहकारित्वात् । स्था० । यिनीश्मशाने, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग अ०। तत्रस्थे महा
अट्ठ महागहा परमत्ता । तं जहा-चंदे १, सूरे२, सुके३, देवलिङ्गे, संथा।
| बुहे ४, बुहस्सई ५, अंगारए ६, सणिचरे ७, केऊ ८ ।
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महागह
स्था० ८ ठा० । ( अत्र महग्गह विशेषतो वर्णितम् )
"
महागिरि - महागिरि पुं० । गौतमगोत्रस्य स्थूलभद्रस्य शिष्ये ऐलापत्यगोत्रे स्थविरे, " थेरस्स गं अजथूलभद्दस्स गोथमगुत्तस्स हमे दो थेरा अंतेवासी प्रहायचा अनिशाया होत्था । तं जहा - थेरे अजमहागिरि एलावच्चसगोते, थेरे सुहत्थी वासिसगुत्ते । महागिरिशपूर्वी साधुः । कल्प० २ अधि०८ क्षण । श्राव० । शिप्पी द्वी स्थूलभद्रस्य, महागिरिसुहस्तिनी " आ० क० ४ अ० अ० चू०। अभ्यमित्रे यो हि महागिरिशिष्यस्य कीडिम्यानिधानस्य शिष्यो मिथिलायां नगयलक्ष्मीत्ये निह्नवो जातः । स्था० ७ ठा० । विशे० । श्रा० म० । श्रा० चू०| उत्त० । ध०२०। उल्लुकातीरस्थे धनगुप्त-गुरी, विशे०। मेरो, सूत्र० १ श्रु० ११ अ० । ( त्यो विशेषः गिरि' शब्दे प्रथमभागे गतः । ) महागिह- महागृह न० भ्यगृहे, महाकुले च गि००० महागुण महागुण - पुं० महांचासौ गुराश्च महागुणः सक लगुणाssधारत्वात् । महावते, पा० । -त्रि का आवा०२ ४० ४ ० । महागुरु महागुरुमहागोव- महागोप- पुं०। गोपो गोरक्षकः, स चेतरगोरक्षकेभ्यो अतिविशिष्टत्याम्महानिति महागोपः। उपा० ७ ० अतीव गोरक्षणे कुशले, व्य० ३ उ० । श्रा० म० । श्रा० चू० । ० । (विशेषतो वर्तनं 'रामोरिह' शब्दे चतुर्थभागे १८४२ पृठे गतम्) महाघोर-महापोर प्रि० । अतीवरी जी० १ प्रति० महा
'
अजमहा
19
(१८६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महाजुम्म
शब्देऽस्मिन्नेव भागे महाजंत - महायन्त्र- न० । इच्वादिपीडनयन्त्रे, उत्त० १६ श्र० । महाजवू महाजम्बू-श्री० जम्म्याः सुदर्शानायाः शेषल स्वपेक्षया प्रधानजम्ब्वाम् जी० ३ प्रति० ४ अधि० । महाजक्ख महायत पुं० अजितनाथस्य शासन, प्र०२६ द्वार । (तत्स्वरूपवर्णनम् 'जिराजक्ख' शब्दे चतुर्थभागे ) महाजण महाजन पुं० [ विशिष्टपरिषदि ०१० सूत्र० । महाजय- महाजय- त्रि० । महाञ्जयः कर्मशत्रु पराभवनलक्षणो यस्मिनसी महाजयः । महतां कर्माऽरीणां विनाशके, उस०
--
१२ अ० ।
"
भयानके, सूत्र० १ ० ११ प्र० । स्था० । महापोस-महाघोष - पुं० श्रीच्यांनां स्तमितकुमाराणामि
न्द्रे, स्था० ४ ठा० १ उ० । भ० । स० । यस्तु भीतान् पलायमानान् नारकान् पशूनिव वाटकेषु महाघोषं कुर्वन्निरुणद्धि स महाघोत्रः । पञ्चदशे परमाधार्मिकनिकाये, भ० ३ श० ७
। ।
उ० । प्रश्न । स्था० । प्रच० । श्राव० स० । ० चू० ।
भी य पलायंते, समंततो तत्थ ते शिरुभति । पसुखो जहा पसुबहे महघोसा तत्थ रहए ॥ ८४ ॥ (भीए इत्यादि) महाघोषाभिधाना भवनपत्यसुराधमवि शेषाः परमधार्मिका व्याधा व परपीडोत्पादनेनैया ह मुहन्तः क्रीडया नानाविधरुपायैर्नारिकान कदर्थयन्ति तां भीतान् प्रपलायमानान मृगानिय समन्ततः- सामस्त्येन तत्रेय - पीडोत्पादनस्थाने निरुम्भन्ति प्रतिबध्नन्ति पशून्बस्तादिकान् यथा पशुवधे समुपस्थिते नश्यतस्तद्वधकाः प्र तिनस्येयं तत्र नरकायासे नारकानिति । सू० १०५ अ० १ उ० । भारतवर्षे ऽतीतायामुत्सर्पियां जाते सममकुलकरे, स० । ऐरयतवर्षं भविष्यति द्वाविंशे तीर्थकरे, स० तृतीयदेव लोकविमानभेदे, न० । स० ६ सम० ।
महाचंद - महाचन्द्र पुं० रयते वर्षे भविष्यत्यष्टमे तीर्थकरे, । स० [१५] सम० ।" सिरिचंदे इढके महादेव केवली दीडे पासे य रहा, समाहिं पडिदिसंतु मे । " ति० ।
महाचीस - महाची (न) पुं० चीनदेशमुख्यभागे, कल्प० १ म्मकडजुम्मे, १, जे सं रासीच अवहारेणं अवरमाये
अधि० ७ क्षण ।
तिपञ्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा
1
महाजस -- महायशस् - पुं०] महद् विस्तीर्णे सर्वस्मिन्नपि जगति विस्तृतत्वाद्यशः साचाऽस्येति महायशाः सं०प्र०१७ पाहु० ॥ सू० प्र० । उत्त० । अपरिमितकीर्ती, उत्त० १२ श्र० । शा० । जे० जी० । भुवनत्रयगतस्यातिरथात् आ०म० अ० । ० चू० बृहत्स्याति ० १ ० ७४० विख्यातसद्गुणे, दश० ६ ० २ उ० । स्था० | दश० । स्था० । भरतपौत्रे श्रादित्ययशसः पुत्रे, स्था० ८ डा० । श्रा० चू० । ० म० । ऐरवतवर्षे भविष्यच्चतुर्थे तीर्थकरे, स० । महाजाइ-महाजाति - स्त्री० । गुल्मभेदे, प्रशा० १ पद । जं० । महाजारा - महायान न० यास्यनेन मोतमिति यानं चारित्रम्, तच्चानेकभवकोटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकमोदयात्स्वप्नावामनिधिसमतामवाप्नोत्यतो महदेव शेष्यते, महञ्च तद् यानं च महायानम् । मोक्षसाधके चारित्रे, यदिवा महयानं सम्यगदर्शन वारिषादित्रयं यस्य स महायानः मोक्षः । मोक्षे, पुं० । श्राचा० १ ० ३ ० ४ उ० । महाजुद्ध-महायुद्ध - न० । परस्परं मार्यमाणमारकतया युद्धे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० २ उ० । महाजुम्म- महायुग्म - न० । महान्ति च तानि युग्मानि महायुग्मानि । महाराशिपु, भ० ।
कसे ते ! महाजुम्मा पस्सना, गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पष्मत्ता, तं जहा - कडजुम्मकडजुम्मे १, कडजुम्मयोगे २, जुम्मदाबरजुम्मे ३, कटजुम्मकलिमागे ४,
गजुम्मे ५, ओगतेओगे ६, ओगदावरजुम्मे ७, तेयोगकलियोगे ८, दायर जुम्मकडजुम्मे है, दावरजुम्मतेओ गे १० दावरजुम्मदाचरजुम्मे११, दावम्मकलिओगे १२, कलिओगजुम्मे १३ कलिओ गतेओगे १४, कलिओोगदावरजुम्मे १५, कलिगलिगे १६, से केद्वेगं भंते ! एवं बुबइ सोलस महाजुम्मा पाता। तं जहा कडजुम्मक जुम्मे जाव कलिओोगकलिओगे ?, गोपमा ! जे रासीच करणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेऽचि कडजुम्मा से से कडजु
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( १८७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महाजुम्म सेतं कडजुम्मतेोगे २, जे गं रासीचउक्कएणं अवहारेणं वहीरमाणे दुपञ्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा से तं कडजुम्मदावरजुम्मे३, जे गं रासीचउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपञ्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा से तं कडजुम्मकलिओ४, जे गं रासीच उक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपञ्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमा योगे से तं
गडजुम्मे ५, जेणं रासीच करणं अवहारेणं अवरमाणे तिपञ्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया
या से तं तेोगतेोगे ६ जे गं रासीचउक्कएणं अव हारें अवहीरमाणे दुपञ्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेश्रोया से तं तेयोगदावरजुम्मे७, जे गं रासीचउक्कणं अवहारेणं अवीरमाणे एगपजबसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेया से तं तेयोगकलिओगे ८, जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपञ्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मकडजुम्मे ६, जे णं रासीचउक्क
अवहारेणं वीरमाणे तिपज्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मतेओगे १०, जे गं रासीचउक्कणं अवहारेणं अवहीरमा णे दुपजबसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मदावरजुम्मे ११, जे गं रासीच उक्कणं अवहारेणं अवहरिमाणे एगपज्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावर - जुम्मकलिओगे १२, जेणं रासीचउकरणं अवहारेणं
वहीरमाणे चउपजबसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिगा से तं कलियोगकडजुम्मे १३, जे णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा सेतं कलिगते १४, जे गं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा से तं कलियागदावरजुम्मे १५, जे गं रासीचक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा से तं कलिगलिगे १६, से तेरा ० जाव कलियोगकलि
|
ओगे। (सूत्र - ८५५ )
( कइ ं भंते ! इत्यादि ) इह युग्मशब्देन राशिविशेषा उच्यन्ते, ते च तुल्लाका अपि भवन्ति, यथा प्राक् प्ररूपिता अतस्तद्व्यवच्छेदाय विशेषणमुच्यते । महान्ति च तानि युग्मानि च महायुग्मानि, ( कडजुम्मकडजुम्मे ति ) यो राशिः सामायिकेन चतुष्कापहारेणा पहियमाराश्चतुः पर्यवसि
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महाई
तो भवत्यपहारसमया अपि चतुष्कापहारेण चतुः पर्यवसिता वाऽसौ राशिः कृतयुग्मा इत्यभिधीयते । पहियमाणद्रव्यापेक्षया तत्समयापेक्षया चेति द्विधा कृतयुग्मत्वादेवमन्यत्रापि शब्दार्थो योजनीयः । स च किल जघन्यतः षोडशा त्मकः, एषां हि चतुष्कापहारतश्चतुरप्रत्वात्समयानां व चतुःसंख्यत्वादिति १, ( कडजुम्मतेोप ति) यो राशिः प्रतिसमयं चतुष्कापहारेणा पहियमाणस्त्र पर्यवसानो भवति तत्समयाश्चतुः पर्यवसिता एवासावपहियमाणापेक्षया योजः, अपहारसमयापेक्षया तु कृतयुग्म एवेति कृतयुग्मयोज इत्युच्यते । तच जघन्यत एकोनविंशतिस्तत्र हि चतुष्कापहारेण sarsafशिष्यन्ते तत्समयाचत्वार एवेति २, एवं राशिभेदसूत्राणि तद्विवरणसूत्रेभ्योऽवसेयानि । इह च सर्वत्राप्यपहारसमयापेक्षमाद्यं पदम् अपह्रियमाणद्रव्यापेक्षं तु द्वितीयमिति, इह च तृतीयादारभ्योदाहरणानि कृतयुग्मद्वापरे राशावष्टादशादयः । कृतयुग्मकल्योंजे सप्तदशादय, ज्योजकृतयुग्मे द्वादशादयः, एषां चतुकापहारे चतुरग्रत्वात्तत्समयानां च त्रित्वादिति । त्र्योजग्योजराशौ तु पञ्चदशादयः, ज्योजद्वापरे तु चतुर्दशादयः, ज्योजकल्योजे त्रयोदशादयः, द्वापरकृतयुग्मेऽष्टादयः, द्वापरयोज राशावेकादशादयो, द्वापरद्वापरे दशादयो, द्वापरकल्योजे नवादयः, कल्योजकृतयुग्मे चतुरादयः, कल्योजत्र्योजराशौ ससादयः, कल्योजद्वापरे षडादयः कल्योजकल्योजे तु पञ्चादय इति । भ० ३५ श० ।
महाठवणिया - महास्थापनिका - स्त्री० । शवपरिष्ठापनिकायाम्, ध० ३ अधि० ।
महाडड - महाडड - न० चतुरशीतिलक्षगुणितेषु त्रुटितेषु, ज्यो० २ पाहु० । ( 'काल' शब्दे तृतीयभागे ४७८ पत्रे स्फुटितम् ) महाठका - महाढक्का - स्त्री० । भेरीवाद्ये, भ० ५ ० ४ ३० । जी० महाण - अस्माकम् - त्रि० । “ णे णो मज्झ श्रम्ह अम्हं अम्हे श्रहो श्रम्हाण ममाण महाण मज्झाण श्रामा” ||३ | ११४ ॥ इत्यस्मदः आमासहितस्य महाणाऽऽदेशः । प्रा० ३ पाद । महाराई - महानदी - स्त्री० । गुरुनिम्नगायाम्, स्था० ५ ठा० २ उ० । श्रा० म० । विस्तीर्णनद्याम् नि० चू० १२ उ० । महा० । जं० (कुत्र कति महानद्य इति 'जंबूदीव' शब्दे चतुर्थभागे १३७६ पृष्ठे गतम् )
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मन्दरदक्षिणतः षद्, उत्तरतः षट् महानद्यःजंबूमंदरदाहिणेणं छमहाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-गंगा सिंधू रोहिया रोहियंसा हरी हरिकंता । जंबूमंदरउत्तरेणं छ महाराई पत्ता, तं जहा - णरकंता गारिकंता सुवष्यकूला रुप्पक्कूला रत्ता रत्तवई । स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
जंबूमंदरदाहिणेणं चुल्ल हिमवंताओ वासहरपव्वयाओ पउमदहाओ महादहाओ तो महाणदीओ पहंति । तं जहागंगा सिंधू रोहियंसा | जंबू मंदरस्स उत्तरेणं सिहरीओ वासहरपव्त्रयाओ पोंढरीयदहाओ महादहाओ तत्र महागदी
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महा
वर्हति । तं जहा - सुवन्नकूला रत्ता रत्तावती । स्था० ३
ठा० ४ उ० ।
(१८) अभिधान राजेन्द्रः ।
(सिन्धुमहानद्या विस्तारपूर्वकवक्लव्यता 'गंगा' शब्दे तृतीयभागे ७८५ पृष्ठे गता )
|
रत्तारत्तवतीय णं महागदीओ पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पम्मत्ताओ । स० २४ सम० । जंबूमंदरदाहिणेणं गंगासिंधूओ महाणईओ दस महाणईओ समप्पेंति । तं जहा जणा १ सरऊ २ श्रावी ३ कोसी ४ मही ५ सिंधू ६ वितत्था ७ विभासा ८ एरावई ६ चंदभागा १० | जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तारत्तवईओ महाणईओ दस महाणईओ समप्पेंति, तं जहा-किएहा महाकिएहा नीला महानीला तारा महातारा इंदा० जाव महाभागा । स्था० १० ठा० ३ उ० । (गङ्गामहानदीवक्तव्यता'गंगा' शब्दे तृतीयभागे ७८५पृष्ठे गता) जंबू मंदरस्स दाहिणं सिंधु महानदीं पंच महाणईओ समपेंति । तं जहा सतद्दू विभासा वितत्था एरावई चंद्रभागा २। जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तां महाणई पंच महाणईओ समप्पेंति । तं जहा - कि हा महाकिरहा नीला महानीला महातीरा। जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तावई महाराई पंच महाणईओ समप्पेंति इंदा इंदसेणा सुसेणा वारिसेणा महाभागा ४ । (सूत्र - ४७०)
स्था० ५ ठा० ३ उ० ।
जंबुद्दीवे दीवे सत्त महादीओ पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति । तं जहा- गंगा रोहिया हरी सीता खरकंता सुवमकूला रता । जंबूदीवे दीवे सत्त महानदीओ पच्चत्थाभिमुी लवणसमुद्दे समप्पेंति । तं जहा-सिंधू रोहियंसा हरिकंता सीतोदा खारिकंता रुप्पकूला रत्तवई । स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
जंबूदीवे चउस महानईओ पुव्वावरेणं लवणसमुद्धं समप्येति । तं जहा गंगा सिंधू रोहित्रा रोहिअंसा हरी हरिकंता सीया सीओदा नरकंता नारिकंता सुवमकूला रूप्पकूला रत्ता रत्तवई । स० १४ सम० ।
सीसीयाणं महाणईओ मुहमूले दस दस जोनखाई उब्वेहेणं पम्मत्ताओ । स्था० १० ठा० ३ उ० । महाखंदियावत- महानन्द्यावर्त्त - पुं । घोषस्य स्तमितकुमारस्योत्तरदिकपाले, स्था० ४ ठा० १३० ॥ भ० । विमानभेदे, न० । स० १७ सम० ।
महागर - महानगर-पुं० । प्रभूतलोकावासे नगरे प्रश्न०
१
·
श्र० द्वार। (महानगरपागारकवा डफलिहभूयं ति ) महानगरभिव महानगरं विविधसुखहेतुत्वसाधर्म्याद्धर्म्मः तस्य प्राकार इव कपाटमिव परिधमिव यत्तन्महानगरप्राकारकपादपरिथभूतमिति । प्रश्न ४ संव० द्वार ।
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महाणिजर
महाणगरी - महानगरी - स्त्री० । तीर्थभूते पुरीभेदे, महानमर्यामुण्डविहारे श्रीमदादिनाथः । ती० ४३ कल्प । महाणडो - देशी-रुद्रे, दे० ना० ६ वर्ग १२१ गाथा । महाण्य - महानद - पुं० । ब्रह्मपुत्रादौ प्रभूतजलवाहिनि नदे, “महानय सोयपडियं समुद्दमतिगयं तच्च मच्छुमगरेहिं छिनं ।"
आ० म० १ अ० ।
महाणरग - महानरक - पुं० । बृहदायामविष्कम्भे निरये, जी० ।
सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालयामहारगा पत्ता, तं जहा - काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइट्ठाणे | जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । महाणरगसरिस-महानरकसदृश - त्रि० । रौरवादितुल्ये, दश १ चू० । महारालिग - महानलिन न० । चतुरशीतिनलिनाङ्गशतसहस्त्ररूपायां संख्यायाम्, ज्यो०२ पाहु० । ( 'काल' शब्दे ३ भागे ४७८ पत्रे स्फुटी भूतम् ) सप्तमदे लोकविमानभेदे, स०१८ सम० । महाणस - महानस - पुं० । रसवत्याम् श्रा० चू० १ ० । महाणसिणी - महानसिनी-स्त्री० । रसबतीकारिकायाम्, भ्र०
,
११ श० ११ उ० ॥
महाणसिय-महानसिक- त्रि० । महानसे नियुक्ता महानसिकाः। सूपकारेषु, शा० १ श्रु० ७ श्र० । श्राव० | महाणाग - महानाग-पुं० । प्रधानसप्र्पे, श्राव० ४ ० ॥ उत्त० । स्था० | कश्चित्क्षपकः प्रस्तुतपारणकः सत्तुल्लकः समारब्धभिक्षार्थभ्रमणकः कथंचिन्मारितमण्डू किकः क्षुल्लकप्रेरितोऽप्रतिनतद्वचनः पुनरावश्यककाले स्मारिततदथः समुत्पन्न - कोपः क्षुल्लकोपघातायाभ्युत्थितो वेगादागच्छन् स्तम्भे श्रापतितो मृतो ज्योतिष्केषूत्पन्नोऽनन्तरं च्युतो जातिस्मरदृष्टिविष सर्पतयोत्पन्नः । सर्पदृष्टमृतपुत्रेण च सर्वेषु कुषितेन राज्ञाऽऽदिष्टजनमार्यमाणेषु नागेषु नागविनाशकनरेण her suitsधिबलादाकृष्यमाणो प्रकोपविपाकतया च मदृष्टिविषेण मा घातकपुरुषविघातो भवत्विति भावनया पुच्छतो निर्गच्छन् यथा निर्गमं च खराज्यमानः कोपलक्षणभावापायं परिहृतवानिति । तथा स एवानन्तरं नागदत्ताभिधानराजसुततयोत्पन्नो बालत्व एव प्रतिपन्नप्रज्योऽत्यन्तसंविग्नस्तिर्यग्भवाभ्यासाश्चात्यन्त क्षुधालुरादित्योदयादस्तसमयं यावद्भोजनशीलो ऽसाधारणगुणावर्जितदेवताभिवन्दितोऽत एव तद्गच्छगतमासादिक्षपकचतुष्टयस्येर्ष्याविषयीभूतो विनयार्थ तेषामुपदर्शितस्वार्थानीतभोजनः तैश्च मत्सराद्भोजनमध्यनिष्ठ यूतनिष्ठीवनो ऽत्यन्तोपशान्तचित्तवृतितया संजातकेवलः पुनर्देवतावन्दितस्तेषामपि क्षपकाणां संवेगहेतुत्वेन केवलशानदर्शनसमृद्धिसंपादकः कोपरूपं भावापायं परिजहारेति । अथवा-कोपादिलक्षणो भावापायो भवति क्षपकस्येवेति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । महाणिञ्जर- महानिर्जर - त्रि० । महती निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा यस्य । बृहत्कर्मक्षयकारिणि, स्था० ३ ठा० ४ उ० । १- पार्श्वनायः ।
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(१८६) महाजिर अभिधानराजेन्द्रः।
महाणिसीह पंचहिं ठाणेहि समणे निग्गंथे महानिजरे महापजवसा- (तिहीत्यादि ) सुगमम् । नवरम्-महती निर्जरा कर्मक्षरण भवइ,तं जहा अगिलाए पायरियवेयावच्चं करेमाणे १,
पणा यस्य स तथा । महत्-प्रशस्तमास्यन्तिकं वा, पर्यवसान
म्-पर्यन्तं,समाधिमरणतो-ऽपुनर्मरणतो वा जीवितस्य,यस्य एवं उवज्झायवयावच्चं करेमाणे२,थेरवेयावच्चं करेमा०३, |
स तथा । अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति, (एवं स मणस त्ति) नवम्मिवेयावचं करे० ४, गिलाणवेयावच्चं करेमाणे ।।५।।
एवमुक्कलक्षणत्रयं, स इति-साधुः (मएस त्ति) मनसा, हस्वपंचहि ठाणहि ममणे निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे त्वं प्राकृतत्वात्, एवं (सवयस त्ति) वचसा (सकायस त्ति) भवइ । तं जहा अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे १, अ
कायेनेत्यर्थः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, त्रिभिरपि करणैरिगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे २, अगिलाए गणवेयावच्चं
त्यर्थः । अथवा-स्वमनसत्यादि, प्रधारयन्-पर्यालोचयन
क्वचिनु "पागडेमाणे त्ति" पाउस्तत्र प्रकटयन व्यक्तीकुर्वकोमासे ३, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाण ४, अगि- नित्यर्थः । यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि त्रीणि लाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे ॥ ५ ॥ (सूत्र-३६७)। निर्जरादिकारणानीति दर्शयन्नाह-" तिही " त्यादि, कमहानिर्जरी बृहत्कर्मक्षयकारी महानिर्जरत्वाच्च महदा-1 राख्यम् । स्था० ३ ठा० ४ उ० त्यन्तिकं पुनरुद्भवाभावात् पर्यवसानमन्तो यस्य स तथा । महाणिज्जामग-महानिर्यामक-पुं० । अर्हति, भवसमुद्रपार। अगिलाए त्ति ) अग्लान्या अखिन्नतया बहुमानेने- गामित्वात् तेषाम् । श्रा० चू०१०। त्यर्थः, श्राचार्यः पञ्चप्रकारः । तद्यथा-प्रव्राजनाचार्यो, दिगाचार्यः, सूत्रस्योद्देशनाचार्यः, सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यों,
| महाणिद्दा-महानिद्रा-स्त्री०। मिथ्यात्वाशानमय्यां निद्रायाम, याचनाचार्यश्चेति । तस्य वैयावृन्य व्यावृतस्य शुभव्यापारवतो
श्राचा०१ थु०३ अ०१ उ० । भावः कर्म वा वैयावृत्यं, भक्कादिभिः धर्मोपग्रहकारिवस्त- महाणिमित्त-महानिमित्त-न० । शास्त्रविशेषे, शा० १ श्रु०१ भिरुपग्रहकरणमाचार्यवैथावत्यम् , तत् कुर्वाणो विदधदिति, | अ०।" महाणिमित्तं जहा भोमुप्पातं सुविणं अंतलिक्खं अगं. एवमुत्तरपदेष्वपि, नवरमुपाध्यायः-सूत्रदाता। स्थविरः स्थि-| सरं लक्खणं वंजणं ।" श्रा० चू० ११०। रीकरणात् । अथवा-जात्या षष्टिवार्षिकः, पर्यायेण विंशतिवर्षपर्यायः । श्रुतेन सभवायधारी, तपस्वी-मासक्षपकादिः।।'
| महाणिरय-महानिरय-पुं० । बृहत्प्रमाणे नरके, स्था। ग्लान:-अशक्ता व्याध्यादिभिरिति । तथा (सह त्ति) शैक्ष- | अहोलोगेणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया परमकोऽभिनवप्रव्राजतः । साधर्मिकः समानधर्मा लिङ्गतः प्रव- त्ता,तं जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे । चनतश्चेति । कुलम्-चान्द्रादिकं साधुसमुदायविशेषरूपं प्र
(अहोलोगे त्ति) सप्तमपृथिव्यामनुत्तराः-सर्वोत्कृष्टवेदनादितीतम् , गणः-कुलसमुदायः । संघो गणसमुदाय इत्येवं सूबद्धयेन दशावधं वैयावृत्त्यामाभ्यन्तरतपाभेदभूतं प्रतिपादित
त्वात्ततः परं नरकाभावाद्वा, महत्त्वं च चतुर्णा क्षेत्रतोऽप्यसंमिति । उक्तं च-" श्रायरिय उवज्झाप, थेर तवस्सी गिला
ख्यातयोजनत्वात् । स्था०५ ठा० ३ उ०। णसेहाणं । साहम्मिय कुल गण संघ-संगयं तमिह काय- । महाणिल-महानिल-पुं० । महावाते, अष्ट०२२ अष्ट।। व्वं ॥ १ ॥" इति । स्था० ५ ठा० १ उ० ।
| महाणिसीह-महानिशीथ-न। निशीथग्रन्थाद् ग्रन्थार्थाभ्यां तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे | महत्तरे ग्रन्थे, पा० । नं० । भवइ, तं जहा-कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहि- सुयं मे पाउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इहं खलु छउजिस्सामि, कया णमहमेकल्लविहारपडिमं उवसंपञ्जित्ता णं | मत्थसंजमकिरियाए वट्टमाणे जेणं केइ साहू वा साहुणी वा विहरिस्सामि, कया णमहमपच्छिममारणंतियसंलेहणाझू- से णं इमेणं परमत्थतत्तसारसब्भूयत्थपसाहगसुमहत्थातिमणाझसिए भत्तपाणपडियाइक्खए पाओवगए कालमण- | सयपवरवरमहानिसीहसुयक्खंधसुयाऽणुसारेणं तिविहं तिवखमाणे विहरिस्सामि, एवं समणमा सवयसा सकायसा विहेणं सबभावंतरंतरेहि णं णीसल्ले भवित्ता णं आयहिपागडेमाणे (पहारेमाणे) णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे | यऽट्टाए अच्चंतघोरवीरुग्गा कट्टतवसंजमाऽणुट्ठाणेसु सव्वभवइ । तिहिं ठाणेहिं सभणोवासते महाणिज्जरे महापज्ज- पमायालंबणविप्पमुक्के । अणुसमयमहणिसमणालसत्ताए बमाणे भवति, तं जहा-कया णं अहमप्पं वा बहुअं वा | सययं अणुच्चिो अणुप्मपरमसद्धासंवेगवेरग्गमग्गगए णिपरिग्गहं परिचइस्सामि १, कया णं अहं मुंडे भवित्ता आ- मियाणे अणिगृहियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमे अगिलाणीगारायो अणगारियं पचयिस्सामि २, कयाणं अहं अ- ए वोसचत्तदेहे सुणिच्छिए एगग्गचित्तो अभिक्खणं अभिपन्छिममारणंतियसंलेहणासणाझसिए भत्तपाणपडि- | रमिज्जमाणो णं रागदोसमोहविसयकसायनाणालंबणा अयाइक्खए पाओवगए कालमणवकंखमाणे विहरिस्सामि३, णेगप्पमायं इडिरससायागारवरोद्दऽट्टज्माणविगहामिच्छत्तएवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे (जागरमाणे) विरइदुट्ठयोगअणायघणसेवणाकुसीलादिसंसग्गी पेसुष्मज्झसमणोवासए महाणिजरे महापजत्रमाणे भवइ । (सू०२१०) खाणं कलहजात्यादिमयमच्छरामरिसममीकार अहंका
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(१९०) महाणिसीह अभिधानराजेन्द्रः।
महादाण रादिअणेगमयभिष्मतामसभावकलुसिएणं हियएणं हिंसा- विव० । प्रशा० । विशिष्टवैक्रियादिकरणाऽचिन्त्यसामर्थ्य, भ० लियचोरिक्कमेहुणपरिग्गहाऽऽरंभसंकप्पादिगोयरे अज्झव
१ श०७ उ० । सू० प्र० 1 दर्श० । हा० । सिए घोरपयंडमहारोहघणविकमपावकम्ममललेवखवलिए महातमप्पभा-महातम प्रभा-स्त्री० । महातमसः प्रभा यस्यां असंवुडाऽऽसवदारे एक खणलवमुत्तणिमिसणिमिसद्ध- सा महातमःप्रभा । अतिशयकृष्णद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः । भंतरंतरमविसल्ले विरत्तेजा । महा० १ अ० ।
अनु० । महातमसोऽतिशायितमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र
सा महातमःप्रभा । सप्तमनरकपृथिव्याम् , प्रव० १७२ द्वार । महानिसीहस्स चउत्थज्झयणं । अत्र चतुर्थाध्ययने यहवः सैद्धान्तिकाः कोविदालापका न सम्यक श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधा
| महातव-महातपस्-त्रि० । महत् प्रशस्तमाशंसादिदोषरहितनैरस्माकमपि न सम्यक् श्रद्धानम् , इत्याह हरिभद्रसूरिः-न
| त्वात् तपो यस्य स तथा । जं०१ वक्षः। सू०प्र०। प्रशस्ततपपुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनम् , अन्यानि वा अध्ययनानि अ
सि, विपा०रा०। औ०। चं०प्र० । ज्ञा०। स्यैव कतिपयैः परिमितैरालापकैरश्रद्दधानमित्यर्थः, यतः महातवस्सि-महातपस्विन-पुं० । विशिष्टतपोधने, हा० । स्थानसमवायजीवाभिगमप्रशापनादिषु न कथंचिदिदमाचक्ष्ये यथा प्रतिसन्तापस्थलमस्ति, तद्गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु
महातवोवतीरप्पभव-महातपस्तीरप्रभव-न० । राजगृहस्य बच परमाधार्मिकाणां पुनः पुनः सप्ताष्ट्रवारान् यावदुपपातः,
हिर्वेभारपर्वतस्यादूरे उष्णजले प्रस्रवणे,भ०२श०५उ०। स्थान तेषां च तैर्दारुणैर्वजशिलाघरदृसंपुटैर्गिलितानां परिपीड्यमा.
आ० म० । आ० चूछ । विशे० । “महातवोवतीरप्पभवे ति" नानामपि संवत्सरं यावत्प्राणव्यापत्तिर्न भवतीति । वृद्धवा
(व्याख्याऽस्य 'अण्णउत्थिय' शब्द प्रथमभागे ४५६ पृष्ठ गता) दस्तु पुनर्यथा तावदिदमार्षे सूत्र, विकृतिर्न तावदत्र, प्रतिष्ठा
महातीरा-महातीरा-स्त्री० । रक्ताख्यमहानदीसंगते नदभेदे, प्रभूताश्चात्र श्रुतस्कन्धा, अर्थाः सुष्टतिशयेन सातिशयाः स्था० ३ ठा०२ उ० । ध। गणधरोक्नानि चेह वचनानि । तदेवं स्थिते न किंचिदाशा- महाथंडिल-महास्थण्डिल-न०। शवपरिष्ठापनभूमी, वृ०१ उ०। नीयम् । महा०५१०।
(क्षेत्रप्रत्युपेक्षणायां महास्थण्डिलप्ररूपणा 'विहार' शब्दे) "चत्तारि सहस्साई, पंच सयाओ तहेव पन्नासं। महाथल-महास्थल-न० । मथुरायां लौकिकतीर्थभूते स्वनामचत्तारि सिलोगा वी, महानिसीहमि पाएणं" प्रति०। के स्थले, ती०। ('चाय' शब्द तृतीयभागे १२२६ पृष्ठे एतत्प्रामाण्यमक्रम ) | महादाण-महादान-न० । उत्तमविश्राणने, पञ्चा०८ विव०। महाणिहाण-महानिधान-न०।गर्नेषु कृपणनिहिते धने,कल्प
दीनतपस्यादौ गुर्वनुक्षया दाने, पञ्चा०२ विव० । हा०। १ अधि०४ क्षण।
प्रकर्षवतः पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य तीर्थकरत्वं फलमुक्तं, तीर्थ
करस्य च पुण्यप्रकर्षरूपत्वेन जगद्गुरुत्वादानेन महता भाव्यं, महाणिहि-महानिधि-पुं०। चक्रवर्तिनां नैसर्गिकादिषु निधिषु,
संख्यावश्च तत्तस्य श्रूयत इति कथं तद्दानस्य महत्त्वमित्यधुस्था० ८ ठा० । (नव महानिधयः ‘णिहि' शब्दे चतुर्थभागे,
नोपदर्शयन्नाह२१५१ पत्रे उक्ताः) स्था० ६ ठा० । जं० । ति० ।
जगद्गुरोर्महादानं, संख्यावच्चेत्यसंगतम् । महाणील-महानील-पुं० । रत्नविशेषे,जी०३ प्रति०४ अधि० । शतानि त्रीणि कोटीनां, सूत्रमित्यादि चोदितम् ॥१॥ महाणीलसरिस-महानीलसदृश-त्रि० । महानीलं यत्किमपि जगद्गुरोर्भुवनभर्तुर्जिनस्य,महादानम्-अतिशायिवितरणम् घस्तुजातं लोकप्रसिद्धं तेन सदृशे, जी० ३ प्रति०४ अधिक।
वरवरिकारूपम् ,संख्यावञ्च परिगणितम् , चशब्दः समुच्चये।
इति पतदसंगतम्-विरुद्धम् । तथाहि-महादानं चेत् संख्यामहाणीला-महानीला-स्त्री०। रक्कानदीसङ्गते महानदीभेदे,
वत् कथं? संख्यावत् महादानं कथमिति ? संख्यावत्त्वं तस्य स्था०५ ठा०३ उ०।
कथं सिद्धमित्यारेकायामाह-यतः 'शतेत्यादि' इह च शतानि महाणुभाग-महानुभाग-पुं० । महाननुभागो विशिष्टवैक्रिया- त्रीणि कोटीनामित्यतः परमित्यादीति पदं द्रष्टव्यम् , ततश्च विकरणविषयाचिन्त्या शक्तिर्यस्य। चं०प्र०२० पाहु। महा- |
शतानि त्रीणि कोटीनामित्याद्येव प्रभृति श्रादिशब्दाद्-"माहात्म्यसहिते, उत्त० १२ अ० । व्य० । अचिन्त्यसामर्थ्य,
टासीइंच होति कोडीओ" इत्यादेः परिग्रहः । सूत्रमर्थसूचनशा० १ थु० १ ० । व्य० । शद्भतशापानुग्रहविषय
परं वचने चोदितम् । 'संवच्छरे दिन्नं' पाठान्तरेण शास्त्रे सामर्थ्यसद्भावात् । श्रा० म० १ अ० । महाप्रतापे, I इत्यादि चोदितमिति । तत्र शास्त्रे-श्रागमे , शेषं तथैवेति प्रशा०२ पद । भ० । नि० । महाप्रधाने, ग०१ अधि० । अचि- परवच इति ॥१॥ न्त्यशक्तियुक्ने, औ०। श्राव० । श्रा०म०। स्था० । शा० । चं० एवं जिनस्य महादानविरुद्धतामभिधाय बुद्धस्य महादानप्र० । अचिन्त्यातिशये, उत्त० १२ अ० । स्था० ।
साङ्गत्यमभिधातुं पर एवाऽऽहमहाणुमाव-महानुभा(न)व-पुं० । महानतिशायी अनुभागः अन्यस्त्वसंख्यमन्येषां, स्वतन्त्रेधूपवर्ण्यते । खर्गापवर्गप्रदानादिलक्षणं यस्य सः । पा० । महाननुभावो म. तत्तदेवेह तद्युक्तं, महच्छब्दोपपत्तितः ॥२॥ हिमा यस्य स तथा । कल्प०१ अधि०१क्षण । सूत्र। महा- | अन्यस्त्वपरैः, पुनर्जिनापेक्षया बौद्धैः,असंख्यम्-अविद्यमानपप्रभाषवति, सूत्र० १७०६अ। अचिन्त्यशक्तिके, षो०१ | रिमाणम् , अन्येषां जिनादपरेमा बोधिसत्त्वानां, स्वतन्त्रेषु स्व.
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महादाण अभिधानराजेन्द्रः।
महादाण कीयशास्त्रेषु, उपवय॑ते-प्रतिपाद्यते। तद्यथा-"एते हाटकरा. दारेसु पुरवराण, रत्थामुहमझयारेसु। शयः प्रवितताः शैलप्रतिस्पर्खिनो, रत्नानां निचयाः स्फुरन्ति वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिजए बहुविहीए । किरणराक्रम्य भानोः प्रभाम् । हाराः पीवरमौक्तिकौघरचि- सुरसुरदेवदाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे ॥५॥"इति । तास्तारावलीभासुरा, यानादौ विजहाय वस्त्रगृहतः स्वैरं अथ वरवरिकया दीयमानमर्थ्यभावात्तत्संख्यावदिति कुतः जनो गच्छति।"'तदिति' तस्मात्तदेव बुद्धदानमसंख्यातमेव ।
सिद्धमित्यत्राऽऽहइह दानविचारे तदिति 'महादान' युक्त-संगतम् , कुत इत्या. तया सह कथं संख्या, युज्यते व्यभिचारतः। ह-महच्छब्दोपपत्तितः'महाधनस्य तत्रैव बुद्धदान उपपद्य- तस्माद्यथोदितार्थ तु, संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥६॥ मानत्वात् , संख्यातदानापेक्षया असंख्यातदानस्यानुपचरि
तया-वरवरिकया, सह-सार्द्ध, कथं-केन प्रकारेण न कथं तमहत्त्वसिद्धेरिति ॥२॥
चिदित्यर्थः । संख्या-परिमाण,युज्यते-संगच्छते कुत इत्याहततः किमत अाह
व्यभिचारतो-विसंवादात् अर्थिसद्भावे सतीति गम्यम् , ततो महानुभावत्वा--तेषामेवह युक्तिमत्
तथा हि-अर्थिनःप्रभूता महेच्छाश्च दानं वरवरिकया दीयत जगद्गुरुत्वमखिलं, सर्व हि महतां महत् ॥३॥
इति कथं तन्नियतसंख्यं भवितुमर्हति । यस्मादेवं तस्माद्यथोयतो बोधिसत्त्वानां महच्छन्दोपपत्तितः महादानं युक्तं तत- |
दितार्थं तु अनन्तराऽस्मदुक्तप्रयोजनमेव, तथाविधार्थ्यभावप्र स्तस्मान् महादानयोगात्,महानुभावत्वात्-अचिन्त्यशक्तियु
तिपादनार्थपरमेव संख्यासंग्रहणं । तिनेव य कोडिसए' नत्वात्,तेषामेव-बोधिसत्त्वानामेव न जिनस्य, इहास्मिन् लो.
इत्यादिदानसंख्याविधानमिष्यतामभ्युपगम्यतां न पुनरौदाके युक्तिमत्-सोपपत्तिकम्, किं तदित्याह-जगद्गुरुत्वं भुवनभ
र्याभावद्रव्याभावाभ्यामिति । ननु यदि तीर्थकरानुभावार्तृत्वम्, किंभूतमित्याह-अविद्यमानं खिलं गुरुत्वाविषयो यत्र
दशेषदेहिनां सन्तोषभावादर्थ्यभावः स्यात्तदा संख्याजगदगुरुत्वे तदखिलम् , सर्वव्यापकं संपूर्णमिति यावत्कुत
करणमप्ययुक्तम् ? अल्पस्यापि दानस्यासंभवादित्यत्रोच्यतेएतदेवमित्याह-सर्व-निरवशेष दानादिक्रियाजालम्, हि य
देवताशेषाय इव संवत्सरमात्रेणाप्रभूतप्राणिग्राह्यत्वाद्युक्तमेव
संख्यावस्वमिति, अनेन महादानं संख्यावञ्चेत्यसकतमित्येतस्मात् महताम्-महासत्त्वानाम्, महत्सातिशयं भवति । अतो महादानयोगात्त एव महानुभावा जगद्गुरवश्च भवन्ति नान्य
त्परवचो निरस्तमिति ॥६॥ इति । इह च तेषामिति धर्मी,जगद्गुरुत्वं साध्यं,महानुभावव- अथ यदुक्तं ततो महानुभावत्वादित्यादि तदुपदर्शयन्नाहत्वं हेतुः, महतां महदिति च हेत्वसिद्धितापरिहार इति ॥३॥ महानुभावताऽप्येषा, तद्भावे न यदर्थिनः । - पूर्वपक्षमुपसंहरन्नाह
विशिष्टसुखयुक्तत्वात् , सन्ति प्रायेण देहिनः ॥७॥ एवमाहेह सूत्रार्थ, न्यायतोऽनवधारयन् ।
महानुभावताऽपि-अतिशायिप्रभावताऽपि न केवलं देहिनां कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य, न्यायलेशोऽत्र दर्श्यते ॥४॥ सन्तोषसंपत्संपादनेन संख्योपेतमेव दान महादानमित्यपिशएवम्-अनन्तरोक्तप्रकारम्, श्राह-ब्रूते पूर्वपक्षवादी, इह-प्र. |
ब्दार्थः । एषा-एषैव वक्ष्यमाणस्वरूपा न पुनर्देहिनामसंख्यातक्रमे सूत्रस्य (तिन्नेव य कोडिसया) इत्यादेरागमस्यार्थोs
वित्तवितरणरूपा। तामेवाह-तद्भावे-जगद्गुरुसद्भावे (न)नैव भिधेयः सूत्रार्थस्तमनवधारयन्निति योगः । किं सर्वथाs
'यदिति'यदेतदर्थिनस्तुच्छतया परमार्थनशीलाः सन्तीति सं. नवधारयन्नेत्याह-न्यायतो-न्यायमाश्रित्यार्थापत्तिगम्यम- बन्धः । कुत इत्याह-विशिष्टसुखयुक्तत्वादपेक्षया सातिशयानर्थमित्यर्थः । अनवधारयन् अनवबुध्यमानः, कश्चि- न्दसंपदुपेतत्वात् , सुखं च सन्तोषो,यदाह-"सज्ज्ञानं परमं मि. दित्यसंबद्धभाषित्वात् अनिर्दिश्यमानः सौगत इति भावः ।
त्र-मशानं परमो रिपुः।सन्तोषः परमं सौख्य-माकाहादुःखमु. मोहाद्-अज्ञानात् । यत एवं ततस्तस्मात्कारणात्तस्य-मृढ- त्तमम् ॥१॥" सन्ति-भवन्ति, प्रायेण-बाहुल्येन, अनेन च निबादिनो, न्यायलेशो युक्तिमात्रा, अत्र-दानव्यतिकरे, दर्य- रुपक्रमकर्मजनितधनादानवाञ्छास्तद्भावेऽप्यर्थिनः केचित् ते-अभिधीयते इति ।
संभवन्तीत्यावेदयति । भवति चैवम्, यतः-"जगत्प्रिये सुरूपे तत् प्रतिपादनायैवाऽऽह
च, शशिनो रश्मिमण्डले। सत्यप्यम्भोजिनीखण्डं, न विकाश महादानं हि संख्याव-दर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः।
प्रपद्यते" ॥१॥ अत एव संख्यातदानसंभवोऽन्यथा तद
संभव एव स्यादिति । देहिनः-प्राणिनः, दृश्यन्ते च द्रव्याणां सिद्धं वरवरिकात--स्तस्याः सूत्रे विधानतः ॥५॥
प्रभावविशेषाः, यतः"समुद्गच्छत्यसौ कोऽपि, हेतुर्गगनमण्डमहादानम्-अतिशायिविश्राणनम् , हिशब्दो दानमहत्त्व- ले । यस्मात्प्रमुदितप्राणि, जायते जगतीतलम् ॥१॥"तभावनार्थः । यत् संख्यावद्-विद्यमानपरिमाणं,तद् अर्थ्यभा
देवमसंख्येयदानस्य महादानत्वाभावादसंख्येयदानदायिनां वात्-प्रयोजनिनामविद्यमानत्वान्न पुनरोदार्याभावाद द्रव्या
महानुभावत्वासिद्धेरसिद्धो हेतुरित्यभिहितमिति ॥ ७॥ भावाद्वा,जगद्गुरोः-भुवननायकस्य जिनस्य, कुत एतदवग
तथातमित्याह-सिद्ध-निर्णीतम्, 'वरं वृणुत'२ इत्येवमाख्यानं वरवरिका, तस्या वरवरिकातो हेतोः । न च तस्या अप्यासिद्धि
धर्मोद्यताश्च तद्योगा-त्ते तदा तत्त्वदर्शिनः । रित्याह-तस्या वरवरिकायाः सूत्रे नियुक्तिरूपे आगमे वि- महन्महत्त्वमस्यैव-मयमेव जगद्गुरुः ॥ ८॥ धानतो विहितत्वात् , तथाहि
धर्मोद्यताश्च-कुशलानुष्ठाननिरताश्च भवन्ति, न केवलमन"सिंघाडगतियत्र उक, चखरब मुहमहापहपहेसु । । थिन इति चशब्दार्थः । तद्योगाज्जगदगुरुसंबन्धात,ते-देहिनः,
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महादाण अभिधानराजेन्द्रः।
महादेय तदा तस्मिन् जगद्गुरुकाले,तथा तत्त्वदर्शिनो भवन्ति । अथवा
त्तत्त्वाधिगमो भवति । यदाह-"अाग्रही वत निनीपति युक्ति, कुतस्ते धर्मोद्यता इत्याह-यतस्तत्त्वदर्शिनः,तत्त्वं च "क्लेशा
तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र त. यासपराः प्रायः, प्राणिनां बाह्यसंपदः। एकान्तेन परायत्तं,
त्र मतिरेति निवेशम् ॥१॥" रागस्याव्यभिचरितस्वरूपप्रसुखसन्तोष इष्यते॥१॥” इत्यादिकम् । ततश्च किमित्याह
तिपादनायाह-समिति-सामस्त्येन क्लेशनं विवाधनं क्लिशू महद्-अतिशायि, महत्त्वं-माहात्म्यं महानुभावत्वम्, अथवा
विवाधन इति वचनात् । संक्तशः-आत्मनः स्वाभाविकस्वामहद्यो महतां वा महत्त्वं महन्महत्वम् अस्य जिनस्यैव,व्यव
स्थ्यवाधनं, तं जनयति उत्पादयतीति सक्लेशजननः । अथ च्छेदफलत्वाद्वचनस्येति नान्येषां बोधिसत्त्यादीनाम् । एवमन
व्यभिचार एव विशेषणमर्थवद्भवति, न चासंक्लेशजननोऽपि न्तरोदितया नीत्या संख्यावद्दानतो महादानदायित्वेन महानु
रागोऽस्ति येनाऽमी व्यवच्छिद्यते न चाधिकृतमहादेवस्य प्रभावतेत्येवंरूपया अयमेव जिनपतिरेव न तु बोधिसत्त्यो जग
कारान्तरेणापि रागो विवक्ष्यते इति विशेषणमनर्थकम् ? नवमद्गुरुर्भुवनभर्तेति। अनेन च बोधिसत्त्वलक्षणे धम्मिणि म
विदितस्वभावस्य स्वभावाविर्भावनाय विशेषणस्याभिमतत्वाहानुभावत्वलक्षणस्य हेतोरसिद्धतोक्का, महानुभावत्वनिवन्धः
त्। यथा परमाणुरप्रदेश इति,कोऽसावित्याह-जीवस्वरूपोपरनमहादानस्यामहत्त्वख्यापनात्। जिनलक्षणे च धम्मिणि महा.
अनाद्रागोऽभिष्वङ्गलक्षणः,नास्त्येव न विद्यत एव,इदं चावधादानताख्यापनतो महानुभावत्वहेतोः सिद्धताभिधानेन जि
रणं रागांशस्याप्यभावप्रतिपादनार्थम् ,स चोपशान्तमोहावनस्य जगद्गुरुतोक्का, तो निरस्तं ततो महानुभावत्यादि दृ
स्थायामुदयापेक्षया,कदाचिद्रागभेदापेक्षया वा स्यादतः सपणमिति ॥ ८॥ हा० २६ श्रष्टा । न्यायात्तत्स्वल्पमपि हि
ताद्यपेक्षया ऽपि तयवच्छेदार्थमाह-सर्वथा सर्वैः प्रकारैर्वन्धो. भृत्यानुपरोधतो महादानं दीनतपस्व्यादौ गुर्वनुज्ञया दानम् ,
दयसत्तालक्षणविषयरागस्नेहरागदृष्टिरागरूपैव्यक्षेत्रकाल(अन्यत्तु 'दाण' शब्दे चतुर्थभागे २४८६ पत्रे व्याख्यातम् )
भावाभिष्वङ्गस्वभावैर्वति। तथा न च नैव द्वेपोऽप्यप्रीतिलक्षणो
न केवलं रागो नास्त्येव द्वेषोऽपि नास्त्येव सर्वथेपिशब्दार्थः । महादामढि-महादामास्थिन-पुं। ईशानेन्द्रस्य देवस्य वृषभा
केविल्याह-सत्त्वपुप्राणिषु सत्त्वग्रहणं च प्रायः संव्यवहाराह-- नीकाधिपती, स्था० ५ ठा० १ उ० ।
प्राणिनां प्राणविषयस्यैव क्रोधमानात्मकद्वेषस्य दर्शनात्, अ. महादिसा-महादिशा-स्त्री०। पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरदिनु,ताश्च प्राणिषु पुनरसी महामोहविजृम्भितमेव । उक्नं च " किं मेरुपर्वते रुचकस्थाने गोस्तनाकाराश्चतस्रो द्विप्रदेशादयो एत्तो कट्टयर, मूढा ज थाणुगंमि अप्फुडिओ । थाणुस्स तस्स द्व्युत्तराः शकटार्द्धसंस्थाना महादिशः पूर्वाद्याश्चतस्रः ।। रूसह , न अप्पणो दुप्प उत्तस्स ॥१॥" अत एव रागस्य आचा० १ श्रु०१ १०१ उ० । प्रा०म० भ० ।
विषयविशेषानभिधानेनोपादानं कृतं, तस्य संव्यवहाराह
प्राणिनामपि जीवाजीवविषयतयोपलम्भात् । जीवाजीवविमहादुम-महाद्रुम-पुं०। जम्ब्वादिषु, जम्बूद्वीपादिनामनिबन्ध
पयत्वादेव महाविषयतया प्राधान्याद्रागस्यादावुपादानम् । ननेषु शाश्वतवृतेषु, स्था० । ( अस्य वक्तव्यता तृतीयभागे
न्बप्रीतिमात्रलक्षणस्यद्वेषस्यानिटस्पशादिविषयेयप्राणियपि — कुरा ' शब्दे ५८६ पृष्ठ गता।) अष्टमदेवलोकधिमान
दर्शनाद् ,देवताविशेषस्य च सर्वविएयत्य द्वपाभावस्य वित्तिभेदे, स०१८ सम०।
तत्वान्न युक्तं सत्त्वग्रहणमिति ? नैवम् ,अनेन हि प्रतिपन्थिरूप. महादुमसेण-महाद्रमसेन-पुं० । श्रेणिकस्य धारण्यां जाते
प्राणिविषयद्वपाभावप्रतिपादनन निखिलजनविदितसपन्नपुत्रे, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य सर्वार्थसिद्ध उपपद्य महाविदेहे
निपातनादिफलद्वेपवतीनां पराभिमतदेवतानां महत्त्वाभावस्य सेत्स्यति । अणु०२ वर्ग अ।
चलमिटत्वाद्। यस्य च प्रतिपन्थ्यप्रतिपन्थिपि प्राणिपि महादेव-महादेव-पुंज लोकप्रसिद्धया शिवे, वीतरागदेवे,हा० ।
द्वेषो नाऽस्ति तस्याप्राणिपु सुतरामसी न संभवतीति । किमहादेवस्य च तात्विक महत्त्वमखिलजनामुलभस्वभावेभ्यो- खरूपो द्वेष इत्याह-शम उपशमः क्षान्त्यादिभावः स एवेन्धनं ऽतिशयेभ्यः,ते चापायापगमशानवचनसुखप्रवृत्तयः। तत्र चा- दाह्य दादि तस्य दहन दवानल इच, 'दवानलो-बपायापगमातिशयपूर्वकत्वाच्छषाणाम्, नमव तावत्तस्य शो- नाग्निः' शमन्धनदवानलः । इदपि स्वरूपविशेषणं न तु व्यकन्येनाऽऽह
बच्छेदकं सर्वस्यापि द्वेपस्यैवंरूपन्चादिति । तथा न च नैव
मोहोऽपि भूढताऽपि,न केवलं गगो ढेपश्च नास्ति सर्वथा मोयस्य संक्लेशजननो, रागो नास्त्येव सर्वथा।
होऽपि नास्त्यव सर्वथा यस्य स महादेवः, इति । प्रकृतं मोन च द्वेषोऽपि सत्त्वेपु, शमन्धनदवाऽनलः ॥१॥
हमेव म्वरूपतो विशपयन्नाह-सत् शोभनं यथावन् पदार्थन च मोहोऽपि सज्ज्ञान-च्छादनोऽशुद्धवृत्तकृत् । परिच्छदितया तच्च तत् ज्ञानं च बांधः सज्ञानम् । सतां त्रिलोकख्यातमहिमा, महादेवः स उच्यते ॥ २॥ चा सदभूतानामर्थानां ज्ञानं सज्ज्ञानं, तच्छादयितुमावरीतुं यस्य देवताविशेषस्य रागो नास्त्येव महादेवः स उच्यते । शील धर्मों वा यस्य स तथा । सज़ज्ञानच्छादकन्यादव अशुद्ध इति संबन्धः तत्र यस्य कस्याप्यनिर्धारिताभिधानस्य कल्मपकलकाङ्कितं तृत्तं वर्त्तनं चणितं करोति शरिरणां वि. पारगतसुगतहरिहरहिरगयगर्भादिदेवस्येति सामान्यनिर्द-1 दधाति यः सोऽशुद्धवृत्तकृत् । किम्भूतोऽसौ महादेव इत्याहशः, पतनच माध्यस्थ्यमात्मनो दार्शितम् , अाह च-"पक्षपातो प्रयो लोकाः समानास्त्रि लोकं त्रिभुवन, नत्र ख्यातः प्रन मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु। युक्रिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः सिद्धो महिमा महत्त्वं यस्य स त्रिलोकख्यातहिमा । त्रिपरिग्रहः ॥१॥" माध्यस्थ्यदर्शनेन चाऽऽत्मीयवचसि श्रोत- लोकण्यातमहिमा च भवत्यव निखिलननिकग्नाकिनियामुपादेयतावुद्धिरुपहिता, यस्मादनाग्रहादेव वक्रः सकाशा- कायनायकलोककदर्थनसमर्थरागादिग्पुिनिकरनिराकरणस
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महादेव
अर्थसकलपुरुषचक्रचूडामणेः पुरुषविशेषस्य यदाह "रागमहामोह, कति जनैः । नाभिभूतं मनो यस्य महिम्ना तस्य कः समः " दिव- क्रीडाविजिगीषाव्यवहारतिस्तुतिमोदमदकान्तिस्वप्नगतिष्विति वचनाद्दीव्यते स्तूयते इति देवः स्तवनीयः । स व प्रेक्षावतामसाधारणगुणगणमाणिक्यमकरनिकेतनायमानत्वेन महानेव स्तवनीय इति । मांश्चासौ देवश्चेति महादेवः । स इति असावेवोच्यते अभिधीयते,महादेवस्वरूपवेदिभिर्न पुना रागादिरिपुपराकृतपराक्रम इति । अथ सर्वप्राणिनां रागादिस यथा तदभावः कस्यापि सम्भवतीति सर्वप्राणिनामनुपलब्धेः प्रतिनियतप्राण्युपलब्धेश्च व्यभिचारित्वात् । किं च स्वात्मन्यपि क्वचिद्विपयविशेषे रागाद्यभावदर्शनात् कस्यापि सादिकः सार्वत्रिकः सर्वथा च रागाद्यभावो भ चन्न विरुध्यते । श्राह च - " दृष्टो रागाद्यसद्भावः क्वचिदर्थे यथाऽऽत्मनः । तथा सर्वत्र कस्यापि तद्भावे नास्ति वाधकम् ॥२॥” तथा रागादयो भावाः सम्भाव्यमान सर्वथाक्षयाः देशनः पोपलब्धेः वे पीलिकभाषा अल्पववतरादिय देशनः सर्वयन्तोऽपि यथा रवि कराचारिका धनपश्क्रयः देशतः पाययन्तश्च रागादयोऽतः संभाव्यमान सर्वथाक्षया इनि । आह च - " देशतो नाशिनो भाषा, दा निखिलनश्वराः । मेघपङ्क्त्यादयो यदेवं रा गायों मताः ॥ १ ॥ अथ संभवत्यप्यात्यन्तिरागाद्यभावे तस्य चित्तवृत्तिरूपत्वेन दुर्विशेयत्वात्कथं तद्वान् पुरुषविशेयोऽवगन्तव्य ? इति श्रत्रोच्च्यते तस्य स्वरूपाच्चरिताच्च । तथाहि यस्य रूपमत्कामिनीकामनायुधमनक्षमालं चरितं च शृङ्गारादिरसा परिकरितमेकान्तशान्तरसानुरञ्जित जेयान्तरारिजयासमा च स एवासामिति प्रतिपत्तव्यम् । यदाह"रागोऽङ्गनासङ्गमनानुमेयो,
( १६३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पो द्विपहारनिगम्यः । मोहः कुवृत्तागमदोपसावो
नो यस्य देवः स स चैवमर्हन् ॥ १ ॥ शृङ्गरादिरसाङ्गारैर्न दूनं देहिनां हितम् ।
एकान्त सन्ततीत माह वृत्तमद्भुतम् ॥ २ ॥ देवतान्तराणां तु रागाद्यभावानुचितरूपचरितत्वं सुप्रसि द्धमेव । तथाहि
ब्रह्मा नशिरा हरिदेशि सरकू व्यालुप्तशिनो हरः, सूर्याऽल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक् सोमः कलङ्काङ्कितः । स्वर्नाथोऽपि विसंस्थुलः खलु वपुःर संस्थैरुपस्थैः कृतः, सन्मार्गस्वलनाद्भयन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ।। १ ।। तथा
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"वद्या चतुराननः समभवदेवो हरियमना शको गुण संकुलतनुर्यच्च यी चन्द्रमाः । पनिहादलनामा पुरा शिरोमा
तृष्णे ! देवि ! विडम्बनेयमखिला लोकस्य युष्मत्कृता ॥२॥” तथा " ब्रह्मा नशिरा" इत्येतत्कथमत्रोच्यते किलेकदा त्र
देवकोट्यो मिलिताः, तत्र च ते परस्परं मातापितृचकुर्वन्ति स्म । तत्र च तैरुक्रमहो महेश्वरस्य न ज्ञायते मातापितराविति न तावस्य च देववचनमुपपञ्चममुखेन गर्दभमुखाकारेण समत्सरमभिहि
महादेव
"
तम्, यदुत मय्यपि सर्वपदार्थज्ञातरि जीवति सति क एवं ब्रुवते, यथा महेश्वरस्य पितरौ न ज्ञायते, यतोऽहं जानामि । ततः स तस्य तो मारेभे । ततो महेश्वरेणाप्रकाश्यप्रकाशनारम्भकुपितेन कनिष्ठिकानखशुक्लिकरवालव्यापारणेन निखिलसुरसमूहसमक्षं झटिति निकृत्तं तद् ब्रह्मणो गईभशिर इत्येवं ब्रह्मा लूनशिराः । श्रन्ये त्वाहुः । किल-ब्रह्मवासुदेवयोरात्ममह त्त्वविषयो विवादः समजनि । विवदन्तौ च तौ महादेवमुपस्थितौ । महादेवेन चाभिहितावलं भवतो विवादेन, य एव मदीयलिङ्गस्यान्तं लभते स एव युवयोर्महांस्तदन्यस्त्वितर इति । ततो वासुदेवो लिङ्गस्यान्तोपलम्भनार्थमधस्ताद्गतवान् स च प्रभूतं यावन्महावेगेन गत्वाऽपि श्रप्राप्ततदन्तः पातालवजाग्झिना च गन्तुमशकस्तत्सन्तापादेव च कृष्णीभूतशरीरः प्रतिनिवृत्व महादेवान्तिकमाजगाम, निवेदितवांश्च यथा नास्ति भवल्लिङ्गस्यान्त इति । ब्रह्मा तूपरिष्टात्तथैव गतोऽप्राप्ततदन्तब्ध निर्विण्णो लिङ्ग मस्तकाभिपतन्तीं मालामासादितवान्। तां चासौ पप्रच्छु, कुतो भवतीति । तयोक्तं महेश्वरलिङ्गमस्तकात् । क्रियांश्च ते कालः । ततः समागच्छन्त्या तयोक्तं परमासाः । ततो ब्रह्मलोक्रमई लिन तोपलम्भाव प्रस्थितः किं तु भवत्या यो मार्गः षड्भिर्मासैरतिक्रान्तस्तस्याति बहुत्वानिर्विरो उदं नियतिष्ये । ततो महादेवपृपया त्वया साच्यं दातव्यम् । तथाऽपि प्रतिपत्रं ततस्तां गृहीत्वा शम्भुसमीपमाजगाम। स मागत्य चोक्तवान् लब्धो मया लिङ्गान्तः । एषा च संप्रत्ययार्थ ततो माला मयाऽऽनीता । ततः पृष्टाऽसौ, तथाऽप्युक्तमेवमेतत्ततोऽनन्तमपि मसान्तं व्यवस्थापयत पतावित्यसद्भूतभा
कुपितेन शम्भुना कनिष्ठिकानखकुठारेण ब्रह्मणो गईभशिरो लून, माला स्वस्पृश्यतया शापितेति । "हरिश सरु" इत्येतदेवं श्रूयते । किल-दुर्वासा महर्षिरुर्वशीं कामितवान्, तया वासायुक्तः पचपूर्वेण यानेन त्वं स्वर्गे समागच्छसि ततोऽई भवन्तमिच्छामि तेन च प्रतिपन्नमेतत् । गत बांधासी वासुदे वसमीपं कृता च तेन तस्य प्रतिपत्तिः । पृष्टश्च तेनाऽऽगमनका रम् उक्रं च तेन रचर्गेऽहं गन्तुमिच्छामि ततो भवता स भार्येण गोरूपधारिणा रथारूढोऽहं स्वर्गे नेतव्यो न च गच्छता पधाद्भाग निरूपणीयः प्रतिपच तथा तद्भक्रिमयाभ्यां वासुदेवेन, नेतुं च प्रवृत्तः । ततः स्त्रीत्वात्तथाविधगमनशक्तिविफलां लक्ष्मी प्रजनन मुनिः पुनः पुनः प्रगुणोदत स्नेहासह मानेन वासुदेवेन तदभिमुखं निभालितं तेन चप्रतिपचैतथ्यकारित्वात् कुपितेन वासुदेवी लोचने प्राजनकदण्डेन प्रणोदित इत्येवं हरिलोंचने सरोगः संवृत इति । अन्ये त्वाद्दुः- किलैकदा वासुदेवः सरित्तटे तपस्यति स्म । तत्र च तापसी काचित् स्नाति स्म । तेन च तस्या निरावरणाया ङ्गेषु सकामा दृष्टिर्निवेशिता । तयाऽपि च लक्षितोऽसौ, ततः शापेन सरोगलोचनः कृत इति । 'व्यालुप्तशिनो हर' इत्येतत्पुनरेवं किल-दायाभिधाने तपोवने तापसाः परिवसन्ति म तदुटजेषु च भिक्षार्थ महेश्वरो गृहीतसमस्तस्वकीयालङ्कारो घण्टाटङ्कारतुम्बुरुकङ्कारश्यमुखरितदिचक्रवालः खमागच्हति। तापसी स्वदर्शनजनितकामविकाराः परिभुक्रे म ततोऽन्यदा ऋषिभिर्विज्ञातम्, तथाविधव्यतिकरैः कोपातिरेकाच्छापेन तस्ःि निखिलजनानांन छेोऽभवत् प्रजापति। ततो देवैरकाल एव संहारो मा भूदिति तापसाः प्रसादितास्ते व तिथैष समुः उक्
।
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महादेव
"
वन्तश्म पूर्वकाले सदा स्तग्धमासीदितस्तु भोगार्थित्वे एय स्तम्धीभयिष्यतीति' ततो जना अपिलिङ्गवन्तो जाताः प्रजोत्पत्तिश्येति । " सूर्योऽप्युलिखित इति एतदेवं किलसूर्यस्य रत्नादेवीनामा भार्याऽऽसीत्तस्याश्च यमाभिधानः पुत्रोऽभूत् । सा च श्रादित्यतापमसहमाना स्वकीयस्थाने स्वप्रतिच्छायां व्यवस्थाप्य समुद्रतडे गत्या वडवारूपेण तिष्ठति स्म । प्रतिच्छाया च शनैश्वरभद्राभिधाने अपत्ये ज नितयती अन्यदा यमेन पहिस्तादागतेन भोजनं वाचिता प्रतिच्छाया, सा तु तन्न दत्तवती । ततः कोपात्तेन पाणिप्रहारेण महता, तथा च तत्पादः शापेन क्षयीकृतः । तेन च पितुस्वनिवेदितम् सोऽप्यचिन्तयत्। कथं स्वमायं करोति । ततो नूनं नेयमस्य मातेत्यालोचयता दृष्टा तन्माता वडवारूपा । ततः सूर्यस्तत्र गत्वा तामनिच्छन्तीमपि बलादेव बुभुजे । तत्र चाश्विनौ देवौ जातौ । तया च रोषारुणनयनावलोकनेनाऽसौ कुष्ठीकृतः । ततब्ध सूर्यो निरुजायें धन्वन्तरिमुपतस्थी । स चोवाच । न शरीरो लेखनं विना तव प्रगुणताऽस्ति ततः सूर्येण तनुलेखनार्थे देववर्गकिरभ्यर्धितः स उपाय सहि
ना भवितव्यं, नो चेत्यक्ष्यामि त्वाम् तेनोक्लमेवमस्तु । ततो मस्तकादारभ्य जानुनी यावदुल्लेखने कृते गाढं पीडितेन सूर्येण सीत्कारः कृतः । तत उल्लेखनादसौ विररामेति । एवमनिच्छघोषिड्रोगलक्षणात् पुरुषमार्गस्थलनादसी विपदं प्राप्तवानि ति । अन्ये पुनरित्थमाहुः। वडवारूपां स्वभार्यामुपभुज्यतत्यितुरुपालम्भं दत्तवानयधेयं दुहिता मां विहायान्यत्र ति छति । स उवाच वच्रतापमसहमाना किं करोत्थिर्य यराकी । ततो यद्यनया से प्रयोजनं ततः शरीरख ततः सूयों देववर्द्धकमुपतस्थौ शेषं तथैव अनलोऽप्यखिल
( १२४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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एवमुच्यते किल-धिपः स्वकीयोजावस्थितं वानरं भक्तिभरेातिभिः पूजयति । स चान्यदा मदीयमार्या भयता रक्षणीयेत्यभिधाय प्रयोजनेन बहिर्गतः । ततः केनचिपिताऽगत्य वैश्वानरसमसमेय सोपभुक्ता, क्षयान्तरे स मागतोस तेन वेङ्गिताकारनिपुणतया परपुरुषसेवितेति लक्षिताऽसी । पृष्ठ तेन वैश्वानरः सा च य का समागत श्रासीत्ततस्तौ न किंचिदूचतुः । ज्ञानोपयोगेन च ज्ञातो
सानुपपतिस्तेन, ततो रक्षणीयस्यारक्षणात् पृच्छतश्चानिवेदनात् कुपितोऽसी वैश्वानर प्रति सर्वभाको भवत्येवं शा च दत्तवान्। ततब्धगुष्यादेरप्यसी भक्षस्वभावो जातो यच्च किल वैश्वानरो भुङ्गे तत् सर्व देवानामुपतिष्ठति, मुखं सौ देवानाम्, ततश्च देवैरशुच्यादिरसास्वादनादुद्विग्नेशनेनोपलधशापव्यतिकरैरागत्य स मुनिः प्रसादयितुमारेभे । न चासौ प्रससा, तथापि देवानुवृत्या वैश्वानरस्य सप्त जिह्वा कृताः । ततोऽसौ सप्तारिष्यते। तत्र द्वाभ्यामाहुतीरेवासी भु ताश्च देवानाममृतत्वेनोपतिष्ठन्ति । पञ्चभिस्तु सर्वभक्षक पवावस्थापित इति सोमः कलङ्काङ्कित इति तत् पुनरेवं किल-चन्द्रो बृहस्पतिसमीपेऽध्येतुं गतो देवाचार्यत्वात्तस्य तेन च तद्गृहे ऽधीयमानेन तद्भार्योपभुक्ा शा तं च तद्गृहस्पतिना शापितासी तेन यथा-रे गुरुतपग ! कलङ्किना कालं भवितव्यमिति । स्वनयो भगसहस्र संकुलतनुः पुनरेवं संवृत्तः किल गौतममुनेरहिल्यानामा भावभूष, पाक्षिप्तचेताः सुरपतिस्तदृडजे प्रविश्य तां रेमे, बहिश्च समागतो मुनिः। सोऽपि तद्भयान्मार्जाररूपं कृत्वा
।
महादेव
तद्गृहान्निर्गत्य स्वर्ग गतवान् । मुनिस्तु नायं प्राकृतो विडालः, ततः कोऽयमिति पर्यालोचयन्निन्द्रं ज्ञातवान् । ततः कोपादसाविन्द्रदेहे भगसहस्रं शापेन विहितमान बच्ात्रतदुपभोगाय प्रेषितवान् मुनिस्तु न पपी देवैयावृषिः प्र सादितस्तेन च भगा लोचनीकृता इति । ब्रह्मा चतुर्मुख' एवं जातः किस प्रह्मा महोद्याने तपस्यति, तत्क्षोभणार्थ रूप स्य तिल तिलमादाय कृता तिलोत्तमा, श्रतस्तां प्रेषयामास । अन्याश्च तस्य समाधिध्वंसनाय पूर्वाभिमुखस्थितस्याये गीतनृत्याचारं चकुः । तत्राप्तिलोचनमानसं बीच दक्षिणतो गत्वा तथैव ताः चक्रुः । स च ध्वस्तसमाधिरपि लजामानाभ्यां तदभिमुख भवितुमशक्यंस्ताः प्रति द्वितीयं मुखं कृतवान्, एवमपरस्यां दिशि गतासु तृतीयमुत्तरतो गतासु चतुर्थमुपरि च गतासु पञ्चमं गर्दभमुखम् एवं पञ्चमुखः संजातः । शम्भुना व गभशिरसि च चतुर्मुख इति । हरिस्तु वामन एवं फिल क्लेर्दानवस्य बन्धनार्थ वि
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र्वामनो भूत्वा मठिकानिमित्तं पदत्रयमात्रां भुवं तमेव या चितवान्। बलिना च प्रतिपद्ये तहाने पदयेश त्रिलोकमा क्रम्य स्थानवर्जितं तं पाताले निहितवानिति । क्षयी चन्द्रमाः थमोच्यते किल- दक्षस्य सप्तविंशतिदुहितरता चन्द्रे स परिणीताः तासु च मध्ये रोहिश्यामासो ऽसी शेषाभिस्वपमानिताभिः पितुर्निवेदितम् तेन कुपितेन शापारक्षपी कृतोऽसौ पुनर्देवैः प्रसादितेन चानुग्रहादेकत्र पक्षे वृद्धिमानिति। नागाः पुनरेवं द्विजिह्वाः, फिल देवैः शीरसमुद्रमथनाद मृतमुत्पादितं तस्य च कुण्डानि भूतानि ददानि सप्तरी नियुक्ताः तत एकान्तमाकलय्य तैस्तत्पातुमा धं, दर्भैश्च तजिह्वा द्विधाकृताः । श्रन्ये त्वाहुः श्रमृतपानभूतानां तेषामिन्द्रेण वज्रक्षेपात् जिहाभेदो विहित इति । 'राहोः शिरोमात्रता' पुनरेवम्, देवैः किलामृतस्य कुण्डानि भूतानि विष्णुतायां नियुक्तः । ततब्ध कार्यान्तरव्याक्षिप्तस्य तद्वाहुगा पातुमारब्धं विष्णुना च तथा पचशेपेण तरिच्छेदः पीतामृतत्वात्तद्विरोऽजरामरं संवृत्तमि ति । व्याख्यातं ' ब्रह्मा लूनशिरा इत्यादि वृत्तद्वयमिति । तथास एष भुवनत्रयप्रधितसंयमः शङ्करो
विभर्त्ति पाना विरहकातरः कामिनीम् । अनेन किल निर्जिता वयमिति प्रियायाः करें,
करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः ॥ १ ॥
9
."
तथा-
दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा शखस्य कि भस्मना । भस्माथाऽस्य किमङ्गना यदि च सा कामं परिद्वेष्टि किम् ॥ इत्यन्योन्यविरुद्धचेष्टितमिदं पश्यनिजामिनी, भृङ्गी सान्द्रशिरावनद्धपरुषं धत्तेऽस्थिशेषं वपुः ॥ १ ॥ एवमपायापगमातिशयद्वारेण महादेवत्वमुक्तमथगुणाति
1
शयादिप्रतिपादनतस्तदेवाऽऽहयो वीतरागः सर्वो यः शाखतसुखेश्वरः । क्लिष्टकर्मकलातीतः, सर्वथा निष्कलस्तथा ॥ ३॥ यः पूज्यः सर्वदेवानां यो ध्येयः सर्वयोगिनाम् । यः स्रष्टा सर्वनीतीनां महादेवः स उच्यते ॥ ४ ॥
"
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(१६५ ) महादेव अभिधानराजेन्द्रः।
महादेव यो वीतरागः स महादेव उच्यते क्रिया सर्वत्र योज्या। तत्र अपचयधर्माणस्ते अत्यन्तक्षयिणोऽपि संभवन्ति यथा साम'य'इति अनिर्दिष्टनामा,'वि'इति विशेषेण इतो गतो नष्टो रागः ग्रीविशेषाद्वस्त्ररत्नमालादयः, अपचयधर्मकाच ज्ञानावरणादप्रेम यस्य स वीतरागः। द्वेषक्षय एव च सति रागक्षयो भवती- योऽतः सर्वथा क्षयिणोऽपि संभवन्तीति, तेषां चात्यन्तापति बीतद्वेष इत्यपि दृएव्यम् । तथा सर्व समस्तं द्रव्यप्रदेश- चये सर्वशत्वादयो भवन्त्येव । न च ज्ञानावरणादीनामपचयपर्यायरूपं वस्तु जानाति विशेषग्रहणतः समस्तावरणक्षया- धर्मत्वमसिद्धं स्वसन्तानेऽपि शानादेरुपचयविशेषानुभूत्या विभूतकेवलसंवेदनेनावबुध्यत इति सर्वज्ञः । सर्वशत्याव्यभि- तदावरणापचयविशेषस्य सिद्धिरिति । उक्तं च-" दोषावरघरितत्वात्सर्वदर्शित्वस्येति सर्वदर्शीत्यपि दृश्यम् । ननु राग- योहानि--निःशेषास्त्यतिशायनात् । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, द्वेषमोहाभावः प्राक् प्रतिपादित एव, तत्प्रतिपादने च वीतरा. बहिरन्तर्मलादयः॥१॥" तथा-य पते बन्धमोक्षपरलोगत्वसर्वशत्वे अवगते एव तत्स्वरूपत्वादेतयोरिति, किमिह कादयोऽतीन्द्रियभावास्ते कस्यापि प्रत्यक्षाः अनुमानगोचरवीतरागसर्वशत्वोपादानेनेति ? अत्रोच्यते-यत एव रागादयो
त्वाद्, यथाऽग्न्यादय इति । उक्तं च-" सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः, न सन्त्यत एव वीतरागः सर्वशश्च,यत इत्येवं हेतुफलभावेन म- प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽन्यादि-रिति सर्वज्ञसं लक्षयात् पीतवर्णप्रकर्षवत्कनकमित्यादिन्यायेन गुणातिशय- स्थितिः॥१॥” इति । एवं च तज्ज्ञानशेयविज्ञानशून्यैरप्यविवक्षणाददोषः, एवंविधन्यायस्य वाक्येषु सद्भिस्तत्र त.
नुमानेनाऽवगम्यते असावचतुर्वेदिना चतुर्वेदीयेति । तथा त्राऽऽश्रितस्य दर्शनाच्चेति । अथवा कैश्चिद्वैराग्यज्ञानादयः 'यः शाश्वतसुखेश्वरः' क्रिया पूर्ववत्, पुनर्यच्छब्दोपादानप्राकृता इष्यन्ते, ते च कैवल्यावस्थायां प्रकृतेर्वियुक्तत्वा
मवस्थाविशेषोपदर्शकम् । अयमभिप्रायो,वीतरागत्वं सर्वशत्वं द्विनिवर्तन्ते इति, तन्मतव्यपोहार्थत्वाददोषः । तथाहि-ज्ञा- च रागादिक्षयादाविर्भूतं भवस्थकेवलाद्यवस्थायां महत्त्वनवैराग्यादयश्चैतन्यस्वभावाः,चैतन्यं चात्मनो रूपम्-"चैतन्यं कारणं, शाश्वतसुखेश्वरत्वादि तु विशेषणत्रयं भवातीतापुरुषस्वरूपम्" इति वचनादिति कथं तन्निवृत्तिः अन्ये वस्थायां महत्त्वकारणमिति । तत्र शश्वन्नित्यं भवतीति शाश्वपुनराचार्याः-" यस्य संक्लेशजनन ” इत्यादि श्लोकद्वय- तम्, तच्च तत्सुखं च निर्वाणजनितानन्दरूपप,अपरस्य शामर्हच्छमस्थावस्थामाश्रित्य व्याख्यान्ति । यतः संक्लेशजन- श्वतत्वानुपपत्तरिति शाश्वतसुखम् । तस्येश्वरः स्वामी,स्वयं नानि रागादिविशेषणानि तस्यामेवावस्थायां व्यवच्छेद- तत्प्राप्तत्वाच्छाश्वतसुखेश्वरः। ननु सर्वस्यापि वस्तुनः क्षाणफलानि भवन्ति । तथाहि-यस्य संक्लेशजनन एव रागो कत्वात्कथं सुखस्य शाश्वतत्वम् ? अनोच्यते-न हि सर्वथा नास्ति, शमेन्धनदवानल एव च द्वेषः, सज्शानाच्छादनाशु- वस्तुनः क्षणिकत्वमुत्पादविनाशध्रौव्यरूपत्वात् । इह च बहु द्धवृत्तकारक एव च मोहो नास्ति, न पुनः सत्तागततत्क- वक्तव्यं तत्तु पञ्चदशाष्टकादवसेयमिति । न च तथाभूतसुखमदलिकरूपोऽपि स महादेव इति । “यो वीतराग" इत्यादि स्यासंभव एव, सुखावरणस्यापचयदर्शनेनात्यन्तिकस्यापि तु भवस्थकेवलिनमाश्रित्येति । ननु महत्त्वं छद्मस्थावस्थाया
तदपचयस्य संभाव्यमानत्वादिति च पूर्वमुक्तप्रायमिति,अनेन मनुचितं ततो महत्तरावस्थान्तरस्य सद्भावात् ? नैवम्-एवं
च विशेषणेन प्रतिक्षणक्षयाघ्रातवस्तुवादिपरिकल्पितदेवस्य न हि सिद्धत्वलक्षणस्य महत्तमावस्थान्तरस्य सद्भावात् केव- महत्त्वम्, तन्मतेन एवंविधसुखाद्यभावात् , तदभावेच महत्त्व लिनोऽप्यमहरवप्रसङ्ग इति । अन्यथा वा कथंचिदपोनरु- व्युदासः । तस्य कल्पनामात्रत्वादिति । तथा क्लिष्टाः क्लेशक्यं भावनीयम् । इह च वीतरागग्रहणेन सरागादीनां म- स्वरूपभवहेतुत्वेन क्लेशिकाः, याः कर्मकलाः-शानावरणाद्यहादेवत्वप्रतिषेध उक्तः । तत्र च भावना प्रागुपदर्शिता । स- एप्रकारकर्माशास्तेभ्योऽतीतोऽपेतो यःस क्लिष्टकर्मकलातीतः। र्वज्ञ इत्यनेन च कपिलस्य महादेवत्वमपाकृतं, तस्य च त- अनेन च ये मन्यन्ते-"शानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं न्मतेनैव सर्वशत्वासंभवात् । तथाहि-" बूयध्यवसितमर्थ पदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः॥१॥" पुरुषश्चेतयते” इति तन्मतम् । बुद्धेश्च प्रकृतिविकारतया कै. इति । तत्संमतदेवस्य महत्त्वव्युदासः । क्लिष्टकर्मकलाभावे वल्यावस्थायां प्रकृतिनिवृत्तौ, निवृत्तित्वात्पदार्थमात्रचेतना- हि भवावतारासंभावाद् । श्राह च-"अशानपांशुपिहितं. पराऽपि तस्य न स्यात्, किं पुनः सर्वज्ञत्यम् । न चैष पक्षो ज्या- | तनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं, मुञ्चति जन्मायान् , चेतनात्मकपुरुषाभ्युपगमे हि चेतनाव्याघातकारि- न्तरं जन्तोः" ॥१॥ अशुभस्वरूपभवावतारिणश्च स्वकीयतीप्रकृतिवियोगे पुरुषस्य सर्वज्ञत्वेनैवाभ्युपगन्तुं युक्तत्वादिति । र्थनिकारासहिष्णोः प्राकृतस्येव कीदृशं महत्त्वमिति । तथा तथा अनेनैव च बुद्धस्यापि महादेवत्वं किंचिज्ज्ञानत्वा- सर्वथा सर्वैः प्रकारैः निष्कलः सर्वशरीरावयवविरहितस्तदत्तन्निवारितम् । यदाहुस्तच्छिष्यकाः-सर्व पश्यतु वा मा भावे हि सुखसंभवो, यदाह-शरीरमनसोरभावे दुःखाभावः, वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु। कीटसंशापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयु- शरीरत्वेन च दुःखसंभवे कीदृशं महत्त्वम् । अनेन च यच्छरीज्यते ॥१॥” इति । किं च किंचिज्ज्ञत्वमपि तस्य न घटते, रतोऽस्य महत्त्वं प्रतिपन्नाः "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो एकास्याप्यर्थस्य सकलखपरपर्यायविशेषितस्यासर्वशत्वेन विश्वतो बाहुरुत विश्वतः” इत्येतस्य वाक्यस्य श्रूयमाणाज्ञातुमशक्यत्वात् । यत श्राह-"एको भावः सर्वथा येन र्थाभ्युपगमात्तन्मतं व्युदस्तम् , एवंविधस्यासंभवात् , तददृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन संभवश्व विश्वस्य सर्वतश्चक्षुषैव व्याप्तत्वात्तदन्येषामवयदृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥१॥” अथ सर्वज्ञो न वानामनाधारत्वेनाभावप्रसङ्गात्, तैरेष वाक्यान्तरेणान्यथासंभवत्येव सत्तासाधकप्रमाणाग्राह्यत्वात् , तस्य शशविषा- विधस्य महत्त्वाभिधानेन स्वमतविरोधाश्च। आह च-"अपाणवत् । यदाह-"सर्वशोऽसाविति यत-तत्कालरपि बोद्धभिः। णिपादो जवनो गृहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स तज्ज्ञानशेयविज्ञान-शून्यैातुं न शक्यते ॥ १॥” इति ? नैवं | वेत्ति विश्वं न च तस्य वेत्ता,तमाहुरम्यं पुरुषं महान्तम्॥१॥ सत्तासाधकप्रमाणाग्राह्यत्वस्यासिद्धत्वादाह च-तथाहि-ये | अन्ये तु व्याख्यान्ति-'क्लिष्टकर्मकलातीतो' पातितधाति
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महादेव अभिधानराजेन्द्रः।
महादेव कर्मा भवस्थकेवली, सर्वथा निष्कलः क्षीणभवोपग्राहिकर्मा
कीर्तिता इति ॥१॥" किं च यद्यपि तस्य भगवतोऽचिन्त्यपुसिद्धकेवलीति । तथेति विशेषणसमुच्चये । तथा यः पूज्योऽ-| रयसभारतया अतिशयाः सन्ति तथापि वक्त्वविरोधना:भ्यर्थनीयः सर्वदेवानां निःशेषभवनपत्यादीनाम्,वीतरागत्वा- स्तीति । किं वक्रत्वव्याघातकारिणा कुड्यादिनिर्गतदेशनाकदिगुणयुक्तो हि पूज्यत एव देवादिभिः । तत्पूज्यत्वेनैव च ल्पोन्नति उदाहृतं शास्त्रं शिववर्मेत्यनेन पुरुषानुदाहृतस्याप्रातत्प्रतिमानामपि पूजनीयत्वम् । अथवा सर्वे अखिला हरिह- माण्यमाविष्करोति तस्यासंभवादेव , तदसंभवश्वम्-या या रादयो,देवाः स्तुत्या,येषां-तहर्शनप्रतिपन्नानां समुहापेक्षया,ते
वचनरचना सा सा पौरुषेयी दृष्टा यथाकुमारसंभवादिः,वच. सर्वदेवा बौद्धादयस्तेषां यः पूज्यः।यतः ते निजं निजं शास्तारं |
नरचना च वेद इति । तस्मात्पौरुषेयोऽसाविति । विरुद्धं च वि पूजयन्तोऽप्युक्तलक्षणं महादेवमेव पूजयन्ति । तथाहि-तदुपदे
वक्षाताल्वादिव्यापारपुरुषधर्मजन्यवचनस्वरूपस्य वेदस्याशात् खर्गापवर्गसंसर्गो भविष्यतीति मन्यमानास्तमचयन्ति ।
पौरुषेयत्वम् । यदाह-" ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो, वर्माउपदेशश्चोग्याविसंवादी , तत्परिक्षाने वीतरागद्वेषत्वे च
त्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्यासत्येव भवति नान्यथा । ततश्च सर्वशत्वादिगुणमध्यारोप्य
दपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥१॥" शास्त्रं शिववर्मेत्यनेन खशास्तारं पूजयन्तीत्यतः परमार्थतः स एव पूजितो भव
तु ये शास्त्रस्याप्रामाण्यमाश्रितास्तन्मतमपास्तम् । ये हि मतीति । ततः सुष्ठतम्"यः पूज्यः सर्वदेवानाम्" इति। तथा यो
म्यन्ते प्रत्यक्षगोचरेऽर्थे पचनस्य व्यभिचारदर्शनास तध्येयो-ध्यातव्यः, सर्वयोगिनां-निःशेषाध्यात्मचिन्तकानाम् । त्प्रमाणम् , न चैतद्युक्तं सुनिश्चिताप्तप्रणीतस्यैव वचनस्य प्रयोगिनोऽपि हि वीतरागत्वादिगुणगौरवोपगतमेव ध्यायन्ति,
माणत्वाभ्युपगमात्न चेतरवचनस्य व्यभिचारमुपलभ्य सतथाविधश्चोक्तप्रकारेणाईन्नेवेति । तथा यः स्रष्टश-उत्पादकः र्ववचनानामप्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं युक्तम्,इतरथा-मरीचिप्रकाशनद्वारेण, सर्वनीतीना-समस्तनैगमादिनयानां सामादि
कानिचयचुम्बजलावभासिप्रत्यक्षमसत्यमवलोकितमिति सनीतीनां वा । न च ऋषभेणैव सामादयो लोकव्यवहारार्थ नी
कलाध्यक्षाणामप्रामाण्यप्रसङ्गः । तदप्रामाण्ये चानुमानमतयःस्रष्टा इति स एव महादेवो न त्वजितादय इति वाच्यम् ?
पि न प्रमाणं स्यात् , प्रत्यक्षपूर्वकत्वादनुमानस्य । तथा च सर्वस्य वाग्विषयस्य पूर्वगतश्रुतेः तैरप्युपदर्शितत्वात्तेऽपि
द्वे एव प्रमाणे-प्रत्यक्षम्, अनुमानं चेति वचनं व्याहतिनीतिम्रष्टार एवेति “महादेवः स उच्यते"इति व्याख्यातमेव ।
मापद्यतेति ।। उक्तं चागमप्रामाण्यवादिभिःश्रयैतत्पूर्वमुक्तमपि पुनः कस्मादभिहितम् ? अत्रोच्यते सर्व
स्वर्गाद्यतीन्द्रियगतौ वच एव मानं, भावानां द्विविधं रूपं,व्यावहारिकं पारमार्थिकं चेति,तत्र पार
येनान्यमानविषया न भवन्ति ते हि । मार्थिकमहादेवत्वख्यापनार्थमिदमुक्तमिति ॥ ४॥
किं चागमाभिहितमेव समर्थयन्ति, अधिकृतमहादेवं लक्षणान्तरेण लक्षयितुमाह
नापूर्वमर्थमनुशासति साधनशाः ॥१॥ एवं सद्धत्तयुक्तेन, येन शास्त्रमुदाहृतम् ।
त्रिकोटीदोषवर्जितमनेन तु यत् परीक्षाक्षम न भवशिववर्त्म परं ज्योति-स्त्रिकोटीदोषवर्जितम् ॥ ५॥
ति न तच्छिववर्मेत्युक्तं भवति , अपरीक्षाक्षममपि धर्मएवमित्यनन्तरोक्कप्रकारं,यत्सद्वत्तमनिन्दितवर्तनं रागद्वेषक्ष-]
शास्त्रं कैश्चिदभ्युपगतम् , यदाहुःयकरणादिकं भवावस्थोचितं न पुनः शाश्वतसुखेश्वरत्वादिसि पुराणं मानवा धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम । द्धावस्थोचितं सिद्धावस्थायां शास्त्रोदाहरणाभावात् ,तेन युक्तः
श्राशासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ १॥ इति। संगतोयोऽसावेवं सद्वत्तयुक्तः,तेन देवताविशेषेण । येन-अनि
इहार्थेऽन्ये वदन्तिईिष्टनाम्ना, शिक्ष्यन्ते पदार्था अनेनेति शास्त्रमागमः, उदाहृतं
अस्ति वक्तव्यता काचि-तेनेदं न विचार्यते । प्रणीतम्,किंभूतमित्याह-शिवस्य मोक्षस्य वमेव वर्म-पन्थाः निर्दोष काञ्चनं चेत्स्या-त्परीक्षाया विभेति किम् ॥ १ ॥ शिववर्त्म । तथा परम्-अनन्यसाधारण, ज्योतिरिव ज्योतिः
प्राप्तशाखिकैः पुनराप्तवचनमेवमनद्यतेप्रदीपो महामोहतमाःपटलप्रतिहतिपक्ष्मलत्वात् , तथा तिसृषु
निकषच्छेदतापाभ्यां, सुवर्णामय पण्डितैः । कोटीषु आदिमध्यान्तलक्षणशास्त्रविभागेषुये दोषाः पूर्वापर
परीक्ष्य भिक्षवो ! ग्राह्य, मद्वचो न तु गौरवान् ॥१॥ विरोधादयः।अथवा-तिसृषु कोटीषु शास्त्रहेम्नः कषच्छेदता
शास्त्रगतकपादिपरीक्षात्रयस्य च स्वरूपमिदम , विधिप्रपरूपपरीक्षालक्षणासु ये दोषास्तदशुद्धयः तैर्वर्जितं विरहितं
विरहितं तिपेधः कषः । श्राह चयत्तत्तथा,स महादेवउच्यते इति प्रक्रमः । इद च एवं सवृत्तयु
पाणवहायाईणं, पावट्ठाणाण जो उ पडिसेहो। केनत्यनेन कामुकाधुचितासमञ्जसानुष्ठानवतां शास्त्राणां म
झाणज्झयणाईणं, जो य विही एस धम्मकसो ॥१॥ हादेवत्वस्य निषेध उक्तः । रागादिजन्यासमञ्जसचेष्टावताम
विधिप्रतिषेधयोरवाधकस्य सम्यक तत्पालनोपायभूतस्यापि महत्त्वकल्पने सर्वस्यापि तत्प्रसङ्गात् । श्राह च “कामानुष
नुष्ठानस्योक्तिश्छेदः। यदाहक्लस्य रिपुप्रहारिणः,अपश्चिनोऽनुग्रहशापकारिणः। सामान्यपुं
वज्झाऽणुहाणेणं, जेण न वाहिजए नये नियमा। वर्गसमानधर्मिणो, महत्त्वकतृप्ती सकलस्य तद्भवेत ॥१॥" शा.
संभवाइ य परिसुद्धं, सो पुण धम्ममि छोनि ॥१॥ स्त्रमुदाहृतमनेनत्वनुदाहृतमपि ये शास्त्रमभ्युपगच्छन्ति तन्म- बन्धमोक्षादिसद्भावनिबन्धनान्मादिभाववादस्तापः । उक्रंच तभपास्तम् ,बदन्ति च तद्वादिनः-तथा "तस्मिन् ध्यानसमा- जीवाभाववाओ, बन्धाइपसागो इहं नायो। पन्ने, चिन्तारत्नवदास्थिते । निस्सरन्ति यथा कामं,कुड्यादि- एपहिं सुपरिमुद्धा, धम्मो धम्मत्तणमुवेर ॥१॥ भ्योऽपि देशनाः ॥१॥"तन्निरासश्चैवम्-" कुड्यादिनिःसृतानां कपादिशुद्धयस्त्वेवम्-मनोवाकायकरणकारणानुमतिभितु, न स्यादाप्तोपदिष्टता । विश्वासश्च न तासु स्या-त्केनेमाः । रर्थानाश्रयेणाजन्भसून्मवादगां प्राणातिपातादीनां प्र
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महादेव अभिधानराजेन्द्रः।
महादेव तिषेधो रागादिनिग्रहप्रतिग्रहहेतुभूतयोश्च ध्यानतपसोर्वि-| न केवलम् येन शास्त्रमुदाहृतं स महादेव उच्यते यस्य च दे. धिर्यत्र शास्त्रे तत्कषशुद्धम् । श्राह च
वविशेषस्याऽऽराधनोपाय श्राक्षाभ्यास एव समहादेव उच्यसुहुमो असेसविसो, सावजे जत्थ अत्थि पडिसेहो। ते, इति चशब्दार्थः, क्रियासंबन्धश्चेति। आराधनं-प्रसादनम्, रागाइविउडणसह , झाणाइ य एस कससुद्धो ॥१॥" श्राराधनमिवाऽऽराधनं तत्फलप्रसाधकत्वात्, न पुनराराधयत्र पुनरेवंविधौ प्रतिषेधविधाने भवतो, न तत् कषशुद्धम्, नमेव सरागत्वप्रसङ्गात् । प्रसादाभावेऽपि च प्रसादफलसियथा
द्धिर्वस्तुस्वभावत्वाद् । श्राह चप्राणी प्राणिशानं, घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा ।
"वत्थुसभावो एसो, अचिंतचिंतामणी महाभागे । प्राणैश्च विप्रयोगः, पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥१॥
थोऊण तित्थयरे, पाविज वंछियो अत्थो ॥१॥ तथा अनस्नां जन्तूनां सकटभरवधे एका हिंसा। य
तथात्रैव विसंवादस्तदेव चासत्यमित्यादि, अयं हि पापप्रतिषेधो उवगाराभावंमि वि, पुजाणं पूयगस्स उवयारो। नात्यन्तिकः, यथा
मंतारसरणजलणाइ, सेवणे जह तहेहं पि ॥२॥ अष्टवर्गान्तिकं बीजं , कवर्गस्य च पूर्वकम् ।
तत्रोपायो हेतुराराधनोपायः, सदा-सर्वस्मिन्नपि दुषमावह्निनोपरिसंयुक्तं, गगनेन विभूषितम् ॥१॥
दिकालेऽपि, अनेन किल विशिष्टकाल एवाशायाः कर्तुं शक्यअहमित्यर्थः।
त्वात्तदैव तदभ्यास श्राराधनोपायः । दुःषमायो त्वनागामक एतदेव परं तत्त्वं, योऽभिजानाति तत्त्वतः ।
प्रवृत्तिरप्युपायस्तत्राऽऽशाया अभ्यसितुमशक्यत्वादिति यस्य संसारबन्धनं छित्त्वा, स गच्छेत् परमां गतिम् ॥१॥ मतिः स्यात्तन्मतं प्रत्यस्तम् । यत आह-" समयपवित्ती इत्यादिस्वरूपश्च विधिन रागादिविकुट्टनसहः यतः-सुचिर- सव्वा, पाणावज्झत्ति भवफला चेव । तिस्थयरुहेसेण वि, न मप्येतद्ध्यानध्यायिनस्तदुत्तरकालं रागादयः स्वरूपस्था एव, तत्तओ सा तदुद्देसा ॥१॥" आझायन्ते अधिगम्यन्ते मर्यारागादीनां पुनरैहिकामुष्मिकापायजनकत्वचिन्तयितुस्तदुत्त- दया अभिविधिना वा अर्था यया सा आशा-आगमः, तस्या रकालमपि ते प्रतनवो भवन्तः सर्वथा न भवन्त्यपीति रागा- अभ्यासो ग्रहण-भावना-पारतन्त्र्यलक्षण आक्षाभ्यासः । स द्यपायध्यानं श्रेष्ठो विधिः । अत एव ध्यानान्तरत्यागेन ध्यान एव न पुनस्तद्भक्तितोऽपि तदाज्ञापेता प्रवृत्तिः, पूजादिक तुतविधिरेवं सद्भिरभिधीयते
दाशाभ्यास एव तस्य द्रव्यस्तवरूपत्वात् । हिशब्दो वाक्यारागहोसकसाया-सवाइकिरियासु वट्टमाणाणं ।
लङ्कारार्थः । ननु यथोक्तस्याऽऽज्ञाभ्यासस्यातिदुष्करत्वात् , इहपरलोगावाए, भाए भावज परिवजी ॥१॥
कालसंहननादिदोषवतामनाराधनप्रसङ्ग इत्याशङ्कायामाहतथा छेदशुद्ध शास्त्रं यत्र समितिगुप्त्यादिकमुक्नविधिप्रति
यथा-शक्ति, शक्लेः-शरीरसामर्थ्यस्यानतिक्रमो यथाशक्ति,तेन षेधापायभूतं तदनुष्ठानमुपदर्श्यते । श्राह च
शक्लेरनुल्लबन्नेनाऽगोपायनेन चेत्यर्थः । एवं हि धीर्याचार:कृतो एएण न वाहिज्जइ, संभवइ यतं दुगं पि नियमेण ।
भवति । आह च-"अणिगृहियबलविरिओ, परक्कमाइ जो जहुएयवयणेण सुद्धो, जो सो छेएण सुद्धोति ॥१॥
त्तमाउंतो। जुजइ य जहाथाम, नायव्वो वीरियायारो॥४३॥" तदशुद्ध, प्राणिसंरक्षण-शुभध्यानकरण-विशुद्धपिण्डग्रह
(नि० चू०१ उ०) आशाभ्यासस्यैव विशेषणार्थमाह-विधा
नेन विधिना द्रव्यक्षेत्रकालभावानुवर्तनलक्षणेनाऽऽयव्ययतुधूपायभूतवस्त्रपात्राद्युपकरणप्रतिषेधप्रवणं बोटिकशास्त्रमिवेति । अथवा-देवताराधनाय साधूनां संगीतकरणाद्युपदे
लनारूपेणाऽऽगमिकन्यायेनेति भावः। आह च-"तम्हा सशप्रवणम् । श्राह च
व्वाणुना, सव्वनिसहो य पवयणे नत्थि। आय वयं तुलज्जा, जह देवाणं संगीश्र-याहकजम्मि उज्जमो जाणो ।
लाहाकंखि ब्व वाणियो।" नत्वाऽऽज्ञाभ्यासेनाऽऽराधितो कंदप्पाईकरणं, असज्जवयणाभिहाणं च ॥१॥
यद्यसौ फलप्रदो,ऽनाराधितस्तर्हि न तथा स्यादित्येवं विष
मवृत्तिरसौ स्यादित्यत श्राह-नियमाद-अवश्यंभावेन, 'स' तापशुद्धं पुनः। श्रात्माऽस्ति सपरिणामी, बद्धः स तु कर्मणा विचित्रेण ।
इति स एव च श्राशाभ्यासो-यस्य संबन्धी, फलप्रदोऽभिप्रे
तार्थसाधको महादेवः स उच्यते इति प्रकृतम् । अतस्तस्यमुक्तश्च तद्वियोगात् , हिंसाऽहिंसादित तुः।
फलाप्रदायित्वात्तदाज्ञाभ्यासस्यैव च फलप्रसाधकत्वात् कुइत्यादिभाववादः प्रधानम् , एवंविधे ह्यात्मादिवस्तुनि स
तो विषमवृत्तित्वदोष इति ॥ ६॥ ति विधिप्रतिषेधादिकं सर्वमुक्तरूपमुपपद्यते, न पुनरन्यथाविध इति । तदन्यथाविधवस्तु प्रणयनप्रवणं तु शास्त्रं ता
एतदेव दृष्टान्तेन समर्थयन्नाहपाशुद्धमिति । तदेवं येनैवंविधं शास्त्रमुदाहृतं महादेवः स
सुवैद्यवचनाद्यद्व-द्वयाधेर्भवति संक्षयः । उच्चते इति । एतमर्थ मुखवृत्त्या वदताऽनेन श्लोकेन गौणवृ- तद्वदेव हि तद्वाक्याद, ध्रुवः संसारसंक्षयः ॥७॥ त्या नानाविधोऽर्थ उक्त इति ॥ ५॥ ननु यो वीतरागः स कथमाराध्यते ? नतावत् स्तुत्यादिमि
सुवैद्यवचनात्-भिषग्वरोपदेशाद, यद्वद्येन प्रकारेण व्याधेः
कुष्ठादिरोगस्य,भवति-जायते, संक्षयः-सामस्त्येनापुनर्भाविसरागत्वप्रसङ्गात् ,नापि निन्दादिभिः स्तवादीनां वैयर्थ्यप्रस
तया विनाशः, तद्वदेव-तेनैव प्रकारेण तथैवेत्यर्थः। तस्य देवङ्गात् , उपेक्षयाऽप्याराधने स एव दोष इत्याशक्याऽऽहयस्य चाराधनोपायः, सदाज्ञाभ्यास एव हि ।
विशेषस्य वाक्यमुपदेशस्तद्वाक्यं तस्माद्, धुवो-ऽवश्यंभावी
संसरण संसारस्तस्य संक्षयोऽत्यन्तविनाशः संसारसंक्षयो यथाशक्निविधानेन, नियमात्स फलप्रदः ॥६॥ भवति । इह संसारशब्देन भवाद्भवान्तरसंचरणमुच्यते,
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महादेव अभिधानराजेन्द्रः।
महापउम तेन च परलोकसत्तावेदिता । तत्र चेदं प्रमाणम्-" कार्य महापडरिकतर-महाप्रतिरिकतर-त्रि० । महत्प्रतिरिक्त विजनकार्यान्तराज्जातं, कार्यत्वादन्यकार्यवत् । जन्मेदमपि कार्य- मतिशयेन येषु ते तथा। अत्यन्तजनरहितेषु,भ०१३ श०४ उा त्वं, न व्यतिक्रम्य वर्तते।" जन्म च ज्ञानसन्तानविशेषरूपमतस्तद्पमेव तदुपादानकरणभूतं जन्मान्तरमनुमी
महापउम-महापद्म-पुं० । जम्बूद्वीपे अागामिन्यामुत्सर्पिण्यां यते न पित्रादिरूपम् , तस्योपादानकारणत्वे हि तद्ध
भविष्यति प्रथमतीर्थकरे, स०। उनुगमप्रसङ्ग इति ॥७॥
महापद्मर्थिकृत्कथा चैवम्प्रकरणार्थमुपसंहरन् विवेचितगुणमहादेवनमस्करणायाह- एसणं अज्जो ! सेणिए राया भिंभिसारे कालमासे एवंभूताय शान्ताय, कृतकृत्याय धीमते ।
कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सीमंतए नरण महादेवाय सततं, सम्यग्भक्त्या नमो नमः॥८॥
चउरासीइवाससहस्सट्ठिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववएवम्भूताय-अनन्तरोक्तरूपां गुणसंपदं प्राप्ताय न परपरिकल्पिताय, शान्ताय-रागद्वेषोपशमवते, अनुवादरूपं चेदं |
अहिति, से णं तत्थ नेरइए भविस्सति । काले कालोभासे विशेषणमिति न पुनरुक्तताऽऽशङ्कनीया । तथा कृतानि-वि. जाब परमकिण्हे वन्नेणं, से णं तत्थ वेयणं वेदिहिति हितानि, न तु विधेयानि समाप्तप्रयोजनत्वात्कृत्यानि-का-| उज्जलं जाव दूरहियासं, से णं तो नरगाओ उव्यद्वित्ता र्याणि, येन स कृतकृत्यस्तस्मै । तथा धीः केवलज्ञानलक्षणा
आगमिस्साए उस्सप्पिणीए इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बुद्धिर्यस्य स्ति स धीमान् तस्मै धीमते, एतदप्यनुवादपरमेवा अन्यैस्तु-धीमते सत्त्ववते इति व्याख्यातम् । महादेवाय
वेयड्डगिरिपायमूले पुंडेसु जणयतेसु सयदुवारे नयरे संमुइअनन्तरनिर्णीतस्वरूपाय सततमनवरतं, सम्यगिति प्रशंसा- यस्स कुलगरस्स भदाए भारियाए कुच्छिसि प्रमत्ताए पञ्चायाथों निपातः । सम्यक् चासौ भक्तिश्च-प्रीतिविशेषः सम्यग्भ- हिति । तए णं सा भद्दा भारिया नवराहं मासाणं बहुपडिपुक्लिस्तया सम्यग्भक्त्या, नमो नम इति'नमस्कारोऽस्तु। द्विव
नाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं विइकताणं सुकुमालपाणिचनेन तु भक्तिकृतं संभ्रममुपदर्शितवानिति ।।८। हा०१अष्ट।
पायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजण जाव महादेवी-महादेवी-स्त्री० । काकतीयराजविशेषपुत्र्याम्, ती० ४६ कल्प।
सुरूवं दारगं पयाहिति, जं रयणिं च णं से दारए पयामहादोस-महादोष-पुं० । महान्तश्च ते दोषाश्च महादोषाः ।। हिति तं रयणिं च णं सयदुवारे नगरे सभितरबाहिरए दारुणदुःखहेतुत्वात्प्रकृष्टदूषणेषु, पा० ।
भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वामहाधणु-महाधनुष-पुं० । बलदेवस्य देवक्यां जाते स्वनाम
से वासिहिति । तए णं तस्स दारयस्स अम्मापियरो इक्कार-- ख्याते पुत्रे, स चारिएनेमेरन्तिके प्रवज्य देवलोके उपपद्य | समे दिवसे विइकंते जाव वारिसाहे दिवसे अयमेयारूवं महाविदेहे सेत्स्यतीति । नि०५ वर्ग ६०।
गोणं गुणनिष्फन्नं नामधिकं काहिति । जम्हा णं अम्हं इममहाधम्मकहि(ण)-महाधर्मकथिन्-पुं० । तीर्थकृति, उपाय
सि दारगंमि जातंसि समाणंसि सयवारे नगरे आगएण देवाणुप्पिया ! इहं महाधम्मकही ?, से केणं
सभितरबाहिरिए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य देवाणुप्पिया! महाधम्मकहीं ? समणे भगवं महावीरे म-1
रयणवासे य वासे वुढे तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्म हाधम्मकही । से केणद्वेणं समणे भगवं महावीरे महाध
नामधिकं महापउमे । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो म्मकही? एवं खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे
नामधिज्जं काहिंति महापउमेत्ति । तए णं महापउमंदारगं महइमहालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे खज्ज
अम्मापियरो साइरेगं अट्ठवासजायगं जाणित्ता महता रायामाणे छिजमाणे भिञ्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे उ
भिसेएणं अभिसिंचिहिति, से णं तत्थ राया भविस्सइ । म्मग्गपडिवन्ने सप्पहविप्पणटे मिच्छत्तबलाभिभूए अट्ठ-| महया हिमवंतमहंतमलयमंदररायवनमओ जाव रजं पसाविहकम्मतमपडलपडोच्छन्ने बहूहिं अद्वेहि य जाब वा-|
हेमाणे विहरिस्सइ । तए णं तस्स महापउमस्स रनो अगरणेहि य चाउरंतानो संसारकन्तारामओ साहत्थिं वि
अया कयाइ दो देवा महिड्डिया जाव महेसक्खा सेणास्थारेइ, से तेणद्रेणं देवाणुप्पिया! एवं बुच्चइ--समणे
कम्मं काहिंति । तं जहा-पुन्नभद्दे य माणिभद्दे य । तए णं भगवं महावीरे महाधम्मकही ॥ उपा० ७०।
सयदुवारे नगरे बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोटुंबियइमहाधायईरुक्ख-महाधातकीवृक्ष-पुं० । धातकीखण्डनामनि
ब्भसेट्ठिसेणावइसत्यवाहप्पभिईओ अन्नमन्त्रं सद्दावेहिति । बन्धने शाश्वतवृक्षे, स्था० १० ठा।
एवं वइस्संति । जम्हा णं देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स महापइट्ठा-महाप्रतिष्ठा-स्त्री०। जिनविम्वप्रतिष्ठाभेदे, पो.
| रन्नो दो देवा महिड्डिया ०जाव महेसक्खा सेणाकंमं का७विव०। महापइम-महाप्रतिज्ञ-त्रि० । दृढनताभ्युपगतवति, उत्त० रिति, तं जहा-पुनभद्दे य माणिभद्दे य, तं होउ णं अम्हं २०अ०।
। देवाणुप्पिया महापउमस्स रन्नो दच्चे विनामधिजे देवसेणे।
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महापउम अभिधानराजेन्द्रः।
महापउम तए णं तस्स महापउमस्स रन्नो दुचे वि नामधिजे भवि- माणुम्माणपमाण, तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ ३७ ॥ इति । स्सइ देवसेणे त्ति देवसेणे त्ति ।
ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि-सुष्टु जातानि सर्वा'एस णमित्यादि जस्सीलसमायारो'इत्यादिगाथापर्यन्तं सू. ण्यङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि यस्मिस्तत् , तथाविधं सुन्दरमङ्गं त्रं सुगर्म चैतन्नवरप,एपोऽनन्तरोक्तः'आर्या' इति श्रमणामन्त्र- शरीरं यस्य स तथा , तं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातणम्। (भिभित्ति)ढका सा सारो यस्य स तथा । किल तेन कु- सर्वाङ्गसुन्दराङ्गम् , तथा शशिवत्सौम्याकारं, कान्तं-कमनी. मारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्काशिता, ततः पित्रा भि- यं, प्रियं-प्रेमावहं दर्शनं यस्य स शशिसौम्याकारकान्तप्रिम्भिसार उक्त इति । सीमन्तके नरकेन्द्र के प्रथमप्रस्तटयतिनि यदर्शनस्तम् । अत एव सुरूपमिति दारकं प्रजनिष्यति भचतुरशीतिवर्णसहस्रस्थितिषु नारकेषु मध्ये नारकत्वेनोत्पत्स्य- द्रेति सम्बन्धः। ('जं रयणि च'त्ति) यस्यां च रजन्यां ते, कालः स्वरूपेण, कालावभासः काल एवावभासते पश्यतां
(तं रयणि च त्ति ) तस्यां रजन्यां, पुनरिति, अर्द्धरात्र यावत्करणात् (गंभीरलोमहरिसे) गम्भीरो मन लोमहर्षो एव तीर्थकरोत्पत्तिरिति रजनीग्रहणम् , ( से दारए पयाभयविकारी यस्य स तथा । भीमो विकरालः । (उत्तासणश्रो)। हिइ त्ति) दारकः प्रजनिष्यते उत्पत्स्यत इति, ( सम्भिउद्वेगजनकः । (परमकिरहे वन्नेणं ति)प्रतीतम् , स च तत्र
तरबाहिरए त्ति) सहाभ्यन्तरेण बाहाकेन च नगरभागेन नरके वेदनां वेदयिष्यति, उज्ज्वलां विपक्षस्य लेशेनाप्यकलङ्कि
यन्नगरं तत्र, सर्वत्र नगर इत्यर्थः । विंशत्या पलशतैर्भारो ता, यावत्करणात् त्रीणि मनोवाक्कायलक्षणानि उपरिमध्यमा
भवति । अथवा-पुरुषोत्क्षेपणीयो भारो भारक इति, यःधस्तनकायविभागत्वात् , तुलयति-जयतीति, त्रितुला तां,
प्रसिद्धः, अग्रं-परिमाणं, ततो भार एवाग्रं भारानं तेन भा. क्वचिद्विपुलामिति पाठः, तत्र विपुला-शरीरव्यापिनी ताम् ,
राग्रेण, भाराग्रशो-भारपरिमाणतः , एवं कुम्भाप्रशो, नतथा प्रगाढां प्रकर्षवती, कटुकां-कटुकरसोत्पादिकाम् ,
वरम्-कुम्भ-आढकषष्ट्यादिप्रमाणतः, पद्मवर्षश्च रत्नवर्षश्च
वर्षिष्यति भविष्यतीत्यर्थः, 'जाव' त्ति , करणात् ' निकर्कशां-कर्कशस्पर्शसंपादिकाम् । अथवा कटुकद्रव्यमिव
व्वत्ते असुइजाइकम्मकरणे संपन्ने' त्ति, दृश्यं' तत्र निकटुकामनिष्टाम् . एवं कर्कशामपि, चण्डां-वेगवतीं झटि
वृत्ते' निर्वर्तित इत्यर्थः । पाठान्तरतः 'निवत्ते' वा निवृत्तेत्येव मूच्छौंपादिकाम् , वेदना हि द्विधा, सुखा दुःखाचेति।
उपरते, अशुचीनाममेध्यानां, जातकर्मणां-प्रसवव्यापारासुखव्यवच्छेदार्थ दुःखामित्याह । दुगा-पर्वतादिदुर्गमिव क
णां, करणे-विधाने, सम्प्राप्ते-आगते, ( वारसाहदिवसे थमपि लङ्घयितुमशक्यां , दिव्यां-देवनिर्मिताम् , किं बहुना
त्ति) द्वादशानां पूरणो द्वादशः, स एवाख्या यस्य स द्वाददुराधिसहां-सोदुमशक्यामिति । इहैव जम्बूद्वीपे नासंख्येय
शाख्यः, स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः । अथवा-द्वादशं च तमे । ( पुमत्ताए ति ) पुंस्तया । (पञ्चायाहिइ त्ति ) प्रत्या
तदहश्च द्वादशाहस्तम्नामको दिवसो द्वादशाहदिवस इति, जनिष्यते. ( बहपडिपुन्नाणं ति) अतिपरिपूर्णानाम् , अर्द्धम
(अयं ति) इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्नं (एयारूवं ति) एतटमं येषु तान्य टमानि तेषु । रात्रिन्दिवेषु-अहोरात्रेषु व्य
देव रूपं-स्वभावो यस्य न मात्रयाऽपि प्रकारान्तरापन्नमित्यर्थः तिक्रान्तेषु, इह षष्ठी सप्तम्यर्थे, सुकुमारी-कोमलौ पाणी च
किं तन्नामधेयं-प्रशस्तं नाम, किंविधं गौणं न पारिभाषिकम् , पादौ च यस्य स सुकुमारपाणिपादस्तम् , प्रतिपूर्णानि स्वकी
गौणमित्यमुख्यमपि स्यादित्याह-(गुणनिष्फरणं ति) गुणायस्वकीयप्रमाणतः,प्रतिपुण्यानि वा पवित्राणि पश्च इन्द्रिया
नाश्रित्य पद्मवर्षादिनिष्पन्नं गुणनिष्पन्नमित्यक्षरघटना ( मणि-करणानि यस्मिस्तत्तथा । अहीनम्-अङ्गोपाङ्गप्रमाणतः प्र
हापउमे त्ति ) तत्पित्रोः पर्यालोचनाभिलापानुकरणम् , तिपूर्णपश्चेन्द्रियं प्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियं वा शरीरं यस्य सः
(तए णं ति ) पर्यालोचनानन्तरम् , ( महापउम इति ) अहीनप्रतिपूर्णपञ्चन्द्रियशरीरः, अहीनप्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियशरीरो वा तम्,तथा-लक्षणं-पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहितम् , 'श्र
महापद्म इत्येवं रूपम् । ( साइरेगट्टवासजायगं ति ) स्थिवर्थाः सुखं मांस' इत्यादि, मानोन्मानादिकं, व्यञ्जन
सातिरेकाणि साधिकान्यष्टौ वर्षाणि जातानि यस्य स मपतिलकादि.गुणाः सौभाग्यादयः,अथवा लक्षणव्यञ्जनयोर्ये
तथा तम् , (रायवराणो त्ति) राजवर्णको वक्तव्यः । स गुणास्सैरुपेतो लक्षणव्यजनगुणोपेतः, ' उववेश्रो ति।'
चायम्-(महता हिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे) महता तु प्राकृतत्वाद्वर्णागमतः, अथवा-उप-अपेत इति स्थिते
गुणसमूहेनान्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाद्वा महत्तया हिमांश्च वर्ष
धरपर्वतविशेषो महांश्चासी मलयश्च विन्ध्य इति चूर्णिकारः, शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोप इत्युपपेत इति , लक्षणव्यञ्ज
महामलयः स च मन्दरश्च मेरुमहेन्द्रश्च शक्रादिस्ते इव नगुणोपपतस्तम् । (दशवकालिके चतुर्थाऽध्ययने) लक्षण- सारः प्रधानो यः स तथा । ( अञ्चंतविसुद्धदीहरायकुलव्यञ्जनस्वरूपमिदमुक्तम्
वंसप्पसूए) अत्यन्तविशुद्धः सर्वथा निर्दोषः दीर्घश्च पुरुषमागुम्माणपमाणा-दिलक्खणं वंजणं तु मसगाई।
परम्परापेक्षया यो राज्ञां भूपालानां कुललक्षणो वंशः सन्ता. सहजं च लक्खणं वं-जणं तु पच्छा समुप्पन्नं ॥ ३६॥ इति। नस्तत्र प्रसूतो जातो यः स तथा । ( निरन्तररायलक्खलक्षणमेवाधिकृल्य विशेषणान्तरमाह-'माणुम्माणे' त्यादि, | णविराइयंगुवंगो ) नैरन्तर्येण राजलक्षणैश्चक्रस्वस्तिकातत्र-मान-जलद्रोणप्रमाणता,सा हवं-जलभृतेकुण्डे प्रमात- | दिभिर्विराजितान्यङ्गानि शिरःप्रभृतीन्युपाङ्गानि च अडल्या. व्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि दीनि यस्य स तथा । (बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः मानोपपन्न इत्युच्यते, उ- द्धे खत्तिए समुदिए त्ति ) प्रतीतम् । (मुद्धाभिसित्ते) पितृन्मानं-तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता, प्रमाणम्-श्रात्माङ्गुले- पितामहादिभिमूर्द्धन्यभिषिको यः स तथा । ( माउपिउसुनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता । उक्तं च
जाए ) सुपुत्रो विनीतत्वादेनेत्यर्थः । ( दयप्पत्ते ) दयाजलदोण र मद्धभारं२, समुहाई समुस्सियो व जो नवउ ३।। प्राप्तो , दयाकारीत्यर्थः । (सीमकरे) मर्यादाकारी । (सी
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( २०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महापउम
मंध) मर्यादां पूर्वपुरुषकृतां धारयति नाऽऽत्मनाऽपि लोपयति यः स तथा (खेमंकरे ) नोपद्रवकारी । ( स्मंधरे ) क्षेमं धारयत्यन्यकृतमिति यः स तथा ) ( माणुस - दे जणवयपिया) लोकपिता वत्सलत्वात् । ( जरावयपुरोहिए ) जनपदस्य पुरोधाः पुरोहितः शान्तिकारीत्यर्थः । ( सेडकरे ) सेतुं मार्गमापद्भूतानां निस्तरणोपायं करो - ति यः स तथा । ( केउकरे ) चिह्नकरः अद्भुतका - रित्वादिति । ( नरपवरे ) मरैः प्रवरो नरा वा प्रवरा यस्य स तथा । (पुरिसवरे त्ति ) पुरुषप्रधानः । ( पुरिससी) शौर्याद्यधिकतया । ( पुरिसीविसे) शापसम - र्थत्वात् । ( पुरिसपुरिपुंडरिए ) पूज्यत्वात्सेव्यत्वाच्च ( पुरिसवरगंधहत्थी ) शेषराज गजविजयित्वात्, ( अड्डे ) धनैश्वरत्वात्, (दित्ते) दर्पत्वात्, (बित्ते) प्रसिद्धत्वात्, (व त्थिरणविपुलभवण सयणास जाणवाहणाइरणे) पूर्ववत् । (ब. हुधणबहुजायरूवरयए) (श्राश्रोगपश्रोगसंपउत्ते )श्रयोगप्र - योगा द्रव्योपार्जनोपायविशेषाः संप्रयुक्ताः प्रवर्त्तिता येन स तथा । (विच्छड्डियपउरभत्तपाणे ) ( बहुदासीदासगोमहि - सगवेलगप्पभूप पडिपुराणजंतकोसकोट्ठागारायुहागारे ) यन्त्राणि - जलयन्त्रादीनि, कोशः-श्रीगृहं, कोष्ठागारं धान्यागारम्, श्रायुधागारं - प्रहरणकोशः (बलवं) हस्त्यादिसैन्ययुक्तः (दुब्बलपश्चामित्ते) श्रबलप्रातिवेशिकराजः। (श्रोह्यकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटर्य श्रकंटयं एवं श्रोहयसत्तुं) उपहता राज्यापहारात्, निहता मारणात्, मलिता मानभञ्जनाद्, उड्डता देशनिष्काशनात्कण्टका दायादा यत्र राज्ये तत्तथा, श्रतएव कण्टकम्, एवं शत्रवोऽपि, नवरं शत्रवस्तेभ्योऽन्ये (पराइयसन्तुं) विजयवत्त्वादिति ( ववगयदुभिक्खमारिभयविप्यमुकं
मं सिवं सुभिक्खं पसंतडिबडमरं ) डिम्बानि-विघ्ना, डमराणि - कुमाराद्युत्थानादीनि । (रजं पसासेमाणे प्ति ) पालयन् (विहरिस्सर त्ति) 'दो देवा महिडिया' इत्यत्र यावत्करणात् " महज्जुइया महानुभागा- महायसा महाबला" इति हश्यम् (सेाकम्मं ति) । सेनायाः सैन्यस्य कर्म व्यापारः शत्रुसाधनलक्षणः, सेनाविषयं वा कर्म इतिकर्त्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म । पूर्णभद्रश्च दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रो, माणिभद्रश्नोत्तरयक्षनिकायेन्द्र:, (बहवे राईसरेत्यादि) राजा महामाण्डलिकः, ईश्वरो युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वा । श्रन्ये तु व्याचक्षते - अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति तलवरः परितुष्टनरपतिप्रद
पट्टबन्धभूषितो माडम्बिकश्छिन्नमडम्बाधिपः, कौटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बप्रभुः,इभ्योऽर्थवान्, स च क्लि यदीयपुञ्जीकू तद्रव्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावता ऽर्थेनेति भावः । श्रेष्ठी - श्रीदेवताध्यासित सौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः, पुर· ज्येष्ठा वणिक् सेनापतिः नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः, सार्थवाहः- सार्थनाकः, एतेषां द्वन्द्वः, ततश्च राजादयः प्रभृतिरादिर्येषां ते तथा, ( देवसेणे न्ति ) देवावेव सेना यस्य, देवाधिष्ठिता वा सेना यस्य देवसेन इति । (देवसेणातीति ) देवसेन इत्येवं रूपम् ।
तए णं तस्स देवसेणस्स रनो अनया कयाइ - सेयसंखतविमलसन्निका चउ हत्थिरयणे समुपखिहिति । तर गं से देवसेणे राया तं सेयं संखवलविमलसन्निकासं हत्थरपणं रूढे समाणे सयदुवारं नगरं मज्यं म
For Private
महापउम ज्भेणं श्रभिक्खणं २ प्रतिहि पणिजाहि य, तए गं सयदुवारे नगरे बहवे राईसरतलवर • जाव अन्नमन्नं सदाविहिंति सद्दाविहित्ता एवं वइस्संति - जम्हा गं देवाणुप्पिया ! अहं देवसेस्स रपो सेतसंखतलविमलसन्निकासे चउदंते हत्थिरयणे समुप्पन्ने य, तं होउ णं अम्हं देवाणुप्पिया ! देवसेणस्स रप तच्चे वि नामधिजे विमलवाहणे, तर सं तस्स देवसेस्स रस्मो तच्चे वि नामधिजे भविस्सइ विमलवाहणे । तए णं से विमलवाहणे राया तीसं वासाई - गारवासमज्भे वसित्ता अम्मापीईहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्तरेहिं अन्भणुन्नाए समाणे उर्दुमि सरए संबुद्धे अणुत्तरे मोक्खमग्गे, पुणरवि लोगंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियार्हि मान्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं धन्नाहिं सिवाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरी आहिं वग्गूहिं अभिसंदिजमाणे अभिधुवमाणे य बहिया सुभूमिभागे उज्जा
एगं देवदुसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्याहिति, तस्स गं भगवंतस्स साइरेगाई दुबालसवासाई निचं वोसकाए वियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति (तं जंहा - दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोगिया वा) ते उप्पने समं सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सह, त गं से भगवं इरियासमिए भासासमिए० जाव गुत्तबंभयारी अममे अकिंचणे विभग्गंथे निरुवलेवे कंसपाईव सुकतोए जहा भावणाए ० जाव सुहुयहुयासणेति वा तेयसा जलते ।
कंसे संखे जीवे, गगणे वाते य सारए सलिले । पुक्खरपत्ते कुंमे, विहगे खग्गे य भारं ( रुं) डे ॥ १ ॥ कुंजरवसहे सीहे, नगराया चैव सागरमखोभे । चंदे सूरे कणगे, वसुंधराचैव सुहुयहु (य) ए ॥ २ ॥ नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भवइ, से य पडिबंधे चउव्विहे पम्मत्ते । तं जहा- अंडएइ वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पग्गहिएइ वा, जं गं जं गं दिसं इच्छइ तं णं तं गं दि णं भावेमाणे विहरिस्सइ । तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नासंपविद्धे सुचिभ्रूए लहुभ्रूए अणुप्पगंधे संजमेणं अप्पारोणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुवचरिएणं, एवं आलए विहारेणं अज्जवे मद्दवे लाघवे खंती मुत्ती गुत्ती सव्वसंजमतवगुणसुचरियसोवचियफलपरिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाशं भामाणस्स झाणंतरिया वट्टमाणस्स अते अणुत्तरे निवाघाए० जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिहिंति । तए गं से भगवं रहा जिणे भविस्सह, केवली सव्वररणू सव्वदरिसी सदेवमरणुयासुरस्त लोगस्स परियागं जाणइ, पासइ - सव्वलोए सव्वजीवाणं श्रागरं गतिं ठियं चयणं उववायं तकं १ - पुस्तकान्तरे नास्त्यऽयं पाठः ।
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महापउम
(२०१) अभिधानराजेन्द्रः।
महापउम मणोमाणसियं भुत्तं कडं परिसेवियं प्रावीकम्म,रहोकम्मअ- हिय त्ति) नगराहिस्तादिति, इतो वाचनान्तरमनुचित्य रहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणसवयसकाइए जोगेव
लिख्यते । (साइरेगाई ति)। अर्द्धसप्तमर्मासादश वर्षाणि दृमाणाणं सव्वलोए सव्यजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पा
यावत् व्युत्सृष्टे काये परिकर्मवर्जनतस्त्यक्ते देहे परीषहा.
दिसहनतः,तथा सहिष्यति उत्पत्स्यमानेषूपसर्गेषु, तथा भासमाणे विहरइ । तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवल
वतः क्षमिष्यत्युत्पन्नेषु क्रोधाभावतः,तितिक्षिष्यति दैन्याभावरनाणदंसणेणं सदेवमणुयासुरलोगंअभिसमिच्चा, स- वतः,अध्यासिष्यते अविचलतयेति, "जाव गुत्ते ति" करमणाणं निग्गंथाणं ('जे केइ उवसग्गा उप्पजंति, तं जहा- णादिदं दृश्यम्-" एसणासमिए श्रायाणभंडमत्तनिक्खेवदिव्या वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सं- णासीमए" । भाण्डमात्राया श्रादाने निक्षेपेच समित इत्यम सहिस्सइ,खमिस्सइ,तितिक्खिस्सइ,अहियासिस्सइ । तते
र्थः । ( उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणासमिए)
खेलो-निष्ठीवनं, सिधाणो नासिकाश्लष्मा,जल्लो-मलः, (मणं से भगवं अणगारे भविस्सति, इरियासमिते भासा०एवं
णगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते ) त्रिगुप्तत्वात् , गुप्तात्मेजहा-बद्धमाणसामी तं चेव निरवसेस जाव अव्यावारवि- त्यर्थः । (गुत्तिदिए) स्वविषयेषु रागादिनेन्द्रियाणामप्रवृत्तेः, उसजोगजुत्ते,तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमा
( गुत्तभचारी ) गुप्त नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभिः रक्षितं ब्रह्म
मैथुनविरमणं चरतीति विग्रहस्तथा-(अममे ) अविद्यमानणस्स दुवासहिं संवच्छरेहिं वीतिकतेहिं तेरसहि य पक्खे
ममेत्यभिलापो निरभिष्वङ्गत्वात् । (अकिंचण ) । नास्ति हिं तेरसमस्स णं संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अ- किंचन द्रव्यं यस्य स तथा । ( छिन्नग्गंथे ) छिनो ग्रन्थो णुत्तरेणं णाणेणं जहा भावणाते केवलवरनाणदसणे धनधान्यादिस्तत्प्रतिबन्धो वा येन स तथा । कचित् “किसमुप्पज्जिहिंति, जिणे भविस्सति, केवली सव्वन्नू स- नग्गंथे" इति पाठः। तत्र-कीर्णः क्षिप्तः। (निरुवलेवे) द्रव्यव्वदरिसी स परइए० जाव) पंच महव्वयाई सभावणाई तो निर्मलदेहत्वाद्भावतो बन्धहेत्वभावान्निर्गत उपलेपो यछच्च जीवनिकाए धम्म देसमाणे विहरिस्सइ।
स्मादिति निरुपलेपः,एतदेवोपमानरभिधीयते । (कंसपातीव
मुक्कतोए)। कांस्यपात्रीव कांस्यभाजनविशेष इव मुक्तं त्यक्तं (सेतेत्यादि ) श्रेयान् अतिप्रशस्यः श्वेतो वा, कीगि-1
न लग्नमित्यर्थः तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं स्नेहो येन स मुक्तस्याह-शङ्कतलेन कम्बुरूपेण, विमलेन-पङ्कादिरहितेन, सन्नि
तोयः, यथा भावनायामाचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धपञ्चदशाकाशः सङ्काशः सदृशो यः स शङ्खतलविमलसनिकाशः।
ध्ययने तथाऽयं वर्णको वाच्य इति भावः। कियद् दूरं यावदि(दुसढे त्ति) आरूढः, (समाणे त्ति) सन् अतियास्यति-प्र- त्याह-(जाव सुहुए इत्यादि) सुष्ठु हुतं क्षिप्त घृतादीति गम्यते, वेक्ष्यति,निर्यास्यति-निर्गमिष्यतीति क्वचिद्वर्तमाननिर्देशो दृ
यस्मिन् स सुहुतः,स चासो हुताशनश्च वह्निरिति सुहुतहुताश्यते, स च तत्कालापेक्ष इति । एवं सर्वत्र, (गुरुमहत्तरहिं शनस्तद्वत्तेजसा ज्ञानरूपेण तपोरूपेण वा ज्वलन्दीप्यमानः । ति) गुर्योर्मातापित्रोमहत्तराः पूज्याः । अथवा-गौरवाईत्वेन
अतिदिष्टपदानां संग्रहं गाथाभ्यामाह-"कंसे" गाहा । गुरवो महत्तराश्च वयसा वृद्धत्वाद्ये ते गुरुमहत्तराः। (पुग
'कुंजर' गाहा । ( कंसे त्ति ) कंसपा इव ( मुक्कतोये ) रवि ति) महत्तराभ्यनुज्ञातानन्तरं लोकान्ते लोकाग्रलक्ष
[संखे ति] [शंखे इव निरंगणं] रङ्गणं रागाद्युपरञ्जनं तस्माणे सिद्धस्थाने भवा लौकान्तिकाः, भाविनि भूतवदुपचारन्या- निर्गत इत्यर्थः । [ जीवे त्ति ] जीव इव । [ अप्पडिहययेन चैवं व्यपदेशः, अन्यथा-ते कृष्णाराजीमध्यवासिनो लो- गई ] संयमे गतिः प्रवृत्तिर्न हन्यतेऽस्य कथंचिदिति कान्तभावित्वं च तेषामनन्तरभव एव सिद्धिगमनादिति ।
भावः । [ गगणे त्ति ] गगनमिव निरालम्बनो न जीतकल्पः-पाचरिवकल्पो जिनप्रतिवोधनलक्षणो विद्यते
कुलग्रामाद्यालम्बन इति भावः । [ वाये य ति ] वायु येषां ते जीतकल्पिकाः । श्राचरितमेव तेषामिदं न तु तैस्ती
रिव [अप्पडिबद्धो] ग्रामादिष्वेकरात्रादिवासात् । [ साशंकरः प्रतिबोध्यते स्वयं बुद्धत्वाद्भगवत इति। (ताहि ति)
यरसालले व त्ति] [सायरसलिल व सुद्धहियये ] अकलुष. ताभिर्विवक्षिताभिः, ( वग्गृहि ति) वाग्भिर्यकांभिरानन्द
मनस्त्वात् । [पुक्खरपत्ते ति] [पुक्खरपतं पि व निरुवलेवे] उत्पाद्यत इति भावः । इष्टाभिरिप्यन्ते स्म याः, कान्ताभिः
प्रतीतम् । [ कुम्मो इव गुत्तिदिए ] कच्छपो हि कदाकमनीयाभिः, प्रियाभिः प्रेमोत्पादिकाभिः, विरूपा अपि कार
चिदवयवपञ्चकेन गुप्तो भवत्येवमसावपीन्द्रियपश्चकेनेति । णवशात्प्रिया भवन्तीत्यत उच्यते-मनोज्ञाभिः शुभस्वरूपाभिः
(विहगे त्ति) विहग इव । ( विप्पमुक्के) मुक्तपरिच्छदमनोज्ञा अपि शब्दतोऽर्थतो न हृदयंगमा भवन्तीत्यत आह
त्वादनियतवासाञ्चति । ( खग्गे य त्ति ) ( खग्गिविसाणं (मणामाहिं ति) मनः अमन्ति गच्छन्ति यास्तास्तथा, ताभि
व एगजाए ) खड्ग पाटब्यो जीवविशेषस्तस्य विषाणं रुदारेणोदात्तेन स्वरेण प्रयुक्तत्वादर्थेन वा युक्त्रत्वादुदाराभिः,
शङ्गं तदेकमेव भवति, तद्वदेकजात पकभूतो रागादिसकल्यमारोग्यम् , अणन्ति-शब्दयन्तीति कल्याणास्ताभिः,
हायवैकल्यादिति । (भारंडे त्ति ) भारुण्डपक्षीय । (अप्पमशिवस्योपद्वाभावस्य सूचकत्वात् शिवाभिः,धनं लभन्ते धने
ते ) भारुण्डपक्षिणोः किल एकं शरीरं पृथग्ग्रीवं त्रिवा साध्व्योधन्यास्ताभिः, मङ्गले दुरितक्षये साध्व्यो मङ्गल्या
पादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेते स्ताभिः, सह श्रिया वचनार्थशोभया यास्ताः सश्रीकास्ताभि
इति । तेनोपमेति ॥१॥ ( कुंजरे त्ति) कुञ्जर इव सो_ग्भिरिति संबन्धनीयम् ,अभिनन्द्यमानः समुल्लास्यमानः,(ब
एडीरे हस्तीव शूरः कषायादिरिपून् प्रति । ( घसहे त्ति) १-'जे कोइ ' इत्यारभ्य-' जाव ' इत्यन्तं पुस्तकान्तरे ।
(वसभे दब जायथामे ) गौरिवोत्पन्नवलः प्रतिशतवस्तु
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(२०२) महापउम अभिधानराजेन्द्रः।
महापउम भरनिर्वाहक इत्यर्थः । (सीहे त्ति) (सीहो इव दुद्धरिसे) प. द्वितीयाद्भेदादुत्तीर्णस्य तृतीयमप्राप्तस्येत्यर्थः । अनन्तमनन्तरीषहादिभिरनभिभवनीय इत्यर्थः । (नगराया चेव त्ति मंदरो विषयत्वाद्, अनुत्तर सर्वोत्तमत्वात्, निर्व्याघातं धरणीधराइव अप्पकंपे ) मेरुरिवानुकूलाद्युपसंगरविचलितसत्वः । दिभिरप्रतिहतत्वात् . निरावरणं सर्वावरणापगमात्, कृत्स्नं (सागरमखोहि ति) मकारोऽलाक्षणिकः । सागरवदक्षो- सर्वार्थविषयत्वात्, प्रतिपूर्ण स्वरूपतः पौर्णमासीचन्द्रवत्,केभः सागराक्षोभ इति, सूत्रसूचा सूत्रं च-सागरो व गम्भी- वलमसहायम्, अत एव वरं, झानदर्शनं प्रतीतम्, केवलवरक्षारे हर्षशोकादिभिरक्षोभितत्वादिति । (चंदे त्ति ) (चंदे इव | नदर्शनमिति । (अरह त्ति) अईन् अप्रविधमहाप्रातिहार्यकसोमलेसे) अनुपतापकारिपरिणामः । (सूरे त्ति)(सूरे इव-। पपूजायोगात् , जिनो रागादिजेतृत्वात् , केवली परिपूर्णचानादित्ततेए) दीप्ततेजा द्रब्यतः शरीरदीप्त्या, भावतो मानेन । दित्रययोगात्, सर्वशः सर्वविशेषार्थबोधात् , सर्वदर्शी सकल( कणगे त्ति ) ( जच्चकणगं पिव जायरूवे) जातं लब्धं सामान्यार्थावबोधात्ततश्च सह देवैश्च वैमानिकज्योतिष्कलरूपं स्वरूप रागादिकुद्रव्यविरहायेन स तथा । [वसुंधरा- क्षणैर्मत्यैश्च मनुजैरसुरैश्च भवनपतिव्यन्तरलक्षणर्यः स, सदेचेव त्ति ] | वसुन्धरा इव । [ सव्वफासविसहे ] स्पर्शाः | वमासुरस्तस्य लोकः पञ्चास्तिकायात्मकस्तस्य। (परिया. शीतोष्णादयोऽनुकूलेतराः। [सुहयहुय त्ति ] | व्याख्यात- गं ति) जातावेकवचनमिति, पर्यायान् विचित्रपरिणामान् । मेवेति । [ नत्थीत्यादि ] नास्ति तस्य भगवतो महापद्म- (जाणइ पासइत्ति) शास्यति द्रक्ष्यति चेत्यर्थः । एतच्च स्यायं पक्षो यदुत कुत्रापि प्रतिबन्धः स्नेहो भविष्यती- देवादिग्रहणं प्रधानापेक्ष्यमन्यथा सर्वजीवानां सर्वपर्यायान् ति। [अंडए इव ति] । अण्डजो हंसादिर्ममायमित्युल्ले- झास्यति, अत एवाह-(सव्वलोए इत्यादि) (चयणं ति) खेन वा प्रतिबन्धो भवति । अथवा-अण्डकं मर्यादी. वैमानिकज्योतिष्कमरणम् । उपपातं नारकदेवानां जन्म, तर्क नामिदं रमणकं मयूरादेः कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादिति ।। विमर्श, मनश्चित्तं, मनसि भवं मानसिकं, चिन्तितं वस्तु, भुअथवा-अण्डज पट्टसूत्रजमिति वा, पोतजो-हस्त्यादि- क्लमोदनादि, कृतं घटादि, प्रतिषेवितम्-श्रासेवितं प्राणिवरयमिति वा प्रतिबन्धः स्यात् । अथवा-पोतको बालक धादि, आविष्कर्म-प्रकटक्रियां, रहःकर्म-विजनव्यापारं, शा. इति वा । अथवा-पोतकं वस्त्रमिति वा प्रतिबन्धः स्यात् ।
स्थतीत्यनुवर्तते । तथा-अरहा, न विद्यते रहो विजनं यस्य श्राहारेऽपि च विशुद्धे सरागसंयमवतः प्रतिबन्धः स्या
सर्वज्ञत्वादसावरहा, अत एव रहस्यस्य प्रच्छन्नस्याभावो दिति दर्शयति-[ उग्गहिए व त्ति ] अवगृहीतं परिवेष
ऽरहस्यं तद्भजते. इत्यरहस्यभागी, तं तं कालमाश्रित्येति णार्थमुत्पाटितं, प्रगृहीतं भोजनार्थमुत्पाटितमिति । अथवा- शेषः । सप्तमी वेयमतस्तस्मिंस्तस्मिन् काले इत्यर्थः, (मनअवग्रहिकमित्यवग्रहोस्यास्तीति । वसतिः पीठफलादिः,औ. सवयसकाइए त्ति) मानसश्च वाचसश्च कायिकश्च मानसपग्रहिकं था दण्डकादिकमुपधिजातम् , तथा-प्रकर्षेण ग्र- वाचसकायिकं तत्र, योगे-व्यापार, इस्वत्वं च प्राकृतत्वाहोऽस्येति प्रग्रहिकम् , श्रीधिकमुपकरणं पात्रादीति । अथवा- | दिति, वर्तमानानाम्-व्यवस्थितानां, सर्वभावान्-सर्वपरिअण्डजे वा पोतजे बेत्यादि व्याख्येयम्-इकारस्त्वागमिक णामान् जानन् पश्यन्विहरिष्यति । (अभिसमेच्च त्ति) अइति । [जे जे ति ] यां यां दिशं, णमिति वाक्यालङ्कारे, भिसमेत्य अवगम्य । ( सभावणाई ति) सह भावनाभिः तुशब्दो वाऽयं तदर्थ एव इच्छति तदा विहर्तुमिति शेषः, प्रतिव्रतं पञ्चभिरिर्यासमित्यादिभिर्यानि तानि सभावनानि तां तां दिशं विहरिष्यतीति सम्बन्धः, सप्तम्यर्थे चेयं द्वि- तासांच स्वरूपमावश्यकान् मन्तव्यं पट् च जीवनिकायान् तीया, तस्यां तस्यामित्यर्थः । शुचिभूतो भावशुद्धितो लघु- रक्षणीयतया,(धम्म ति ) एवंरूपं चारित्रात्मकं, सुगतौ जी. भूतोऽनुपधित्वेन गौरवत्यागेन च, [ अणुप्पगंथे त्ति ]|
वस्य, धरणाद्धर्म श्रुतधर्म च देशयन् प्ररूपयनिति । अनुरूपतया औचित्येन विरतेन त्वपुण्योदयादणुरपि वा अथ महापद्मस्यात्मनश्च सर्वज्ञत्वात्सर्वज्ञयोश्च मताभेदात्, सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो अन्थो धनादिर्यस्य यस्माद्वाऽसावः | भेदे चैकस्याऽयथावस्तुदर्शनेनाऽसर्वज्ञताप्रसङ्गादित्युभयोर्भनुप्रग्रन्थोऽपर्वृत्त्यन्तर्भूतत्वादणुप्रग्रन्थो वा । अथवा-[ अणुः | गवान् समां वस्तुप्ररूपणां दर्शयन्नाहप्पत्ति ] अनोऽनपणीयोऽढौकनीयः परेषामाध्यात्मिक
से जहानामए अजो! मए समणाणं निग्गंथाणं एगे त्वात् , ग्रन्थवद् द्रव्यवत् ग्रन्थो शानादिर्यस्य सोऽनZग्रन्थ
प्रारम्भट्ठाणे पामत्ते । एवामेव महापउमे वि अरहा समणाइति । [ भावेमाणे त्ति ] वासयन्नित्यर्थः । [श्रणुत्तरेणं ति] नास्त्युत्तरं प्रधानमस्मादिति अनुत्तरस्तेन । ( ए- णं निगगंथाणं एगं आरम्भट्ठाणं पन्नवेहिति । से जहानावमिति) [अणुत्तरेण ति] विशेषणमुत्तरत्रापि संबन्धनी- | मए अओ! मते समणाणं निग्गंथाणं दविहे बंधणे पामत्ते । यमित्यर्थः । पालयेन वसत्या विहारेणैकरात्रादिना, आर्ज- तं जहा-पेजबंधणे दोसवंधणे । एवामेव महापउमे वि वादयः क्रमेण मायामानगीरबक्रोधलोभनिग्रहाः,गुप्तिमनः प्र
अरहा समणाणं निग्गंथाणं विहं बंधणं पनवेहिति । तं भृतीनां, तथा सत्यं च द्वितीयं महाव्रतं, संयमश्च प्रथम तपोगुणाश्चानशनादयः सुचरितं सुष्टासेवितम् । [ सोय
जहा-पेजबंधणं च दोसांधणं च, से जहानामते अजो ! वियं ति ] प्राकृतत्वात् , शौचं च तृतीय महावतम् , मते समणाणं णिग्गंथाणं तो दंडा पामत्ता, तं जहा-मणअथवा-[विय ति] विच्च विज्ञानमिति द्वन्द्वः, ततश्चैता.
दंडे वयदंडे कायदंडे, एवामेव महापउमे वि समणाणं निन्येता एव वा । [ फल त्ति ] फलप्रधानः परिनिवाणमार्गो निर्वृतिनगरीपथः सत्यादिपरिनिर्वाणमार्गस्तेन ,
ग्गंथाणं तो दंडे पम्मवेहिंति, तं जहा-मणोदंडं कायदंडं ध्यानयोः शुक्लध्यानद्वितीयतृतीयभेदलक्षणयोरन्तरं मध्यं |
वयदंडं, से जहानामए एएणं अभिलावेणं चत्तारि कसाया ध्यानान्तरं तदेव ध्यानान्तरिका, तस्यां वर्तमानस्य शुक्लस्य । पम्पत्ता, तं जहा कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लो
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महापउम अभिधानराजेन्द्रः।
महापउम हकसाए । पंच कामगुणे पामते, तं जहा-सद्दे गंधे रूबे रसे पव्वइए दुवालस संवच्छराई तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं फासे । छ जीवनिकाया पणत्ता,तं जहा-पुढवीकाइयाजाव पाउणित्ता, तेरसहिं पक्खेहिं ऊणगाई तीसं वासाई केवतसकाइया, एवामेवजाव तसकाइया। सेजहाणामए एए- लिपरियागं पाउणित्ता, वायालीसं संवच्छराई सामन्नणं अभिलावेणं सत्त भयहाणा पणत्ता, एवामेव महापउमे परियागं पाउणित्ता, वावत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइवि अरहा समणाणं निग्गंथाणं सत्त भयद्वाणे पन्नवेहिति ।। त्ता सिज्झिस्सं जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सं । एवाएवमट्ठ मयट्ठाणे, णव बंभचेरगुत्तीओ,दसविहे समणधम्मे, | मेव महापउमे वि अरहा तीसं वासाई अगारतासमज्झे बएव जाव तत्तासमासातणाओ ति, से जहानामए अ- सित्ता जाव पव्वहिति, दुवालससंवच्छराईजाव वावत्तरि ज्जो! मए समणाणं णिग्गंथाणं नग्गभाव मुंडभावे अ- वासाई सब्बाउयं पालइत्ता सिज्झिर्हिति जाव सव्वदुरहाणए अदंतवणे अच्छत्तए अणुवाहणए भृमिसेज्जा खाणमंतं काहिंति । फलगसेज्जा कट्टसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरप्प- “जस्सीलसमायारो, अरहा तित्थंकरो महावीरो। वेसे जाव लद्धावलद्धवित्तीओ जाव पामत्ताओ । एवा- तस्सलिसमायारो, होइ उ अरहा महापउमे ॥१॥" मेव महापउमे वि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावे. (सू०-६६३) जाव लद्धावलद्धवित्तीयो० जाब पनवेहिंति ।
(श्राहाकम्मिएइ त्ति) श्राधाय आश्रित्य साधून , कर्म (से जहेत्यादि) (अत्रत्या किश्चिद् व्याख्या 'श्रारंभट्ठाण' सचेतनस्याचेतनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा पाकलक्षणा शब्दे द्वितीयभागे ३७२ पृष्ठे गता) इतः शेषमावश्यके प्रायः क्रिया यत्र भक्तादौ तदाधाकर्म, तदेवाधाकर्मिकम् । उक्तं चप्रसिद्धमिति न लिखितम्, तथा फलकम्-प्रतलम्, आयतं- “सञ्चित्तं जमचित्तं , साहणट्ठाए कीरए जं च । काष्ठम्, स्थूलमायतमेव, लब्धानि च सन्मानादिना, अपल- अच्चित्तमेव पञ्चइ , श्राहाकम्मं तयं भणिय ॥१॥” इति । ब्धानि च न्यक्कारपूर्वकतया, यानि भलादीनि तैवेत्तयो नि इह च इकारः सर्वत्रागमिकः, इतिशब्दो वाऽयमुपप्रदर्शहा लब्धापलब्धवृत्तयः।
नार्थपरो,वा विकल्पार्थः । (उद्देसियं ति) अर्थिनः पाखण्डिनः से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं निग्गंथाणं
श्रमणान्निग्रन्थान् वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं वितीर्यते आहाकम्मिएइ वा उद्देसिएइ वा मीसजाएइ वा अ
तदौदेशिकामिति,उद्देशे भवमौद्देशिकम् , इति शब्दार्थः । यद्वा
तथैव यदुद्धरितं सद्दध्यादिभिर्विमिश्य दीयते, तापयित्वा ज्झोयरएइ वा पूइए कीए पामिच्चे अच्छिजे अ
वा तदपि तथैवेति । इहाभिहितम्णिसट्टे अभिहडेइ वा कंतारभत्तेइ वा दुब्भिक्खभत्तेइ वा “उद्दिसिय साहुमाई, ओमञ्चयभिक्खवियरणं जं च । गिलाणभत्तेइ वा बद्दरियभत्तेइ वा पाहुणगभत्तेइ वा
उद्धरिश्रं मीसेउ, ततियं उद्देसियं तं तु॥१॥” इति । मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेइ वा फलभोयणेइ वा वी
( मीसजाए च त्ति ) गृही संयतार्थमुपस्कृततया मिश्रं
जातमुत्पन्न मिश्रजातम् , यदाह-"पढम वि य गिहियभोयणेइ वा हरियभोयणेइ वा पडिसिद्धे एवामेव म--
संजय-मीसं उवक्खडा मीसगं तं तु" इति । ( अज्झोहापउमे वि अरहा समणाणं आहाकम्मियं वा जा- यरए त्ति) स्वार्थमूलाद् ग्रहणे साध्वाद्यर्थे कणप्रक्षेपणमव हरियभोयणं वा पडिसेहिस्सइ, से जहानामए अ- ध्यवपूरकः, आह च-" सट्टामूलद्दहणे, अज्झोयर होइ जो! मए समणाणं पंचमहव्वइए सपडिक्कमणे अचेल
पक्खेवो" इति । ( पूइए त्ति) शुद्धमपि कर्माद्यवयवैरपवि
वीकृतं पूतिकम् । उक्तं च-" कम्मावयवसमेयं, संभाविज्जर ए धम्मे पहलत्ते, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं
जयंतु तं पूई।" इति । (कीय त्ति) द्रव्येण भावेन वा क्रीतं निग्गंथाणं पंचमहव्वइयं ०जाव अचलगं धम्म प- स्वीकृतं यत्तत् क्रीतमिति । यतोऽभ्यधायि “दव्वाइपहि किनवेहिंति, से जहानामए अञ्जो ! मए पंचाणुव्वइए णण, साहुणट्ठाइ कोयं तु” इति । ( पामिश्च ) प्रामित्यर्क सत्त सिक्खाचइए दुवालसविहे सावगधम्मे पप्पत्ते, एवा
साध्वर्थमुद्धारगृहीत, यतोऽभिहितम्-" पामिच्च साहूर्ण,
अट्टानो चिंछदिविया वेइ" इति । आच्छेद्य-बलात् भृत्यादिमेव महापउमे वि अरहा पंचाणुव्वइयं जाव सावग
सत्कमाच्छिद्य यत् स्वामी साधवे ददाति । भणितं च-"श्रधम्म पन्नविस्संति, से जहानामए अजो ! मए समणाणं
छिजं वा छिदिय, जं सामी भिच्चमाईणं" इति । अनिसृष्टं सिजायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा पडिसिद्धे, एवामेव महाप- साधारण बहूनामेकादिना अननुज्ञातं दीयमानम् । श्राह चउमे वि अरहा समणाणं सिज्जायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा
"अणिसिटुं सामन्नं, गोट्ठियमाईण दयउ एगस्स" इति । पडिसेहिंति । से जहानामए अज्जो ! मए नव गणा इका
अभ्याहृतं स्वग्रामादिभ्यः आहृत्य यद्ददाति । यतोऽवाचि
" सग्गामपरग्गामा, जमाणिय अभिहडं तयं होइ” इति । रस गणहरा एवामेव महापउमस्स वि अरहो नव गणा
एषां शब्दार्थः प्रायः प्रकट एवेति, कान्तारभक्कादय आधाइक्कारस गणहरा भविस्सति । से जहानामए अञ्जो ! अहं
कर्मादिभेदा एव । तत्र कान्तारमटवी तत्र भवं भोजनं यत् तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव । साध्वाद्यर्थ तत्तथा, एवं शेषारयपि,नवरं ग्लानो रोगोपशा
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( २०४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
महाषउम
तये यहदाति ग्लानेभ्यो वा यदीयते, तथा वलिका मेघाडम्बरं, तत्र हि वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलाको भव । तीति गृहीतमर्थ विशेषतो भक्तं दानाय निरुपयतीति प्राधूका आगन्तुकमिणुका एव तदर्थ पद्ध तत्तथा प्रापूर्णको या गृही स यद्दापयति तदर्थं संस्कृत्य तत्तथा, मूलं पुनर्नवादीनां तस्य भोजनं तदेव वा भोजनं भुज्यत इति भोजनमिति कृत्वा, कन्दः - सूरणादिः, फलं - त्रवुष्यादि, बीजं - दाडिमादीनां हरितं - मधुरतृणादिविशेषः, जीववधनिमित्तत्वाच्चैषां प्रतिपेध इति । ( पंचमहत्व इत्यादि) प्रथमपश्चिमतीकराणां हि पक्ष महामतानि शेषाणां महाविदेहजानां च परवारीति पञ्चमहामतिकः । एवं सह प्रतिक्रमणेन उभयसं ध्यमावश्यकेन यः स तथा श्रन्येषां तु कारणजात एव प्रतिक्रमणमिति, उच
सडकमणो धम्मो, पुरिमस्स व पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमाण जिणार्थ, कारबजार परिक्रम ॥ १ ॥ इति । तथा अविद्यमानानि जिनकाल्पिकविशेषापेक्षया असत्वादेव, परिकल्पिकापेक्षा तु जीर्थमलिनखरितश्वेताल्पत्वादिना, बेलानि चखाणि यस्मिन्स तथा धम्मंधारित्रं, न च सति चेले अचेलता न लोके प्रतीता । यत उक्तम्जह जलमवगाहंतो बहुचेलो वि सिरवेढियकडिल्लो । भन्नइ नरो अचेलो, तह मुराश्रो संतचेला वि ॥ १ ॥
3
अतः
परिसुद्ध जुनकुच्छि धोयाऽनिययण भोगभोगेहिं । मुराधो मुच्छारहिया, संतेहि अवेलया हाँति ॥ २ ॥ अनियतैरम्यभोगे च सति भोग्यैरित्यर्थः । न च बखं संसक्तिरागादिनिमित्ततया चारित्रविधाताचाऽऽध्यात्म शरीराहारादिवदिति । न हि शरीरात् यूकादिसंसक्तिर्न भवति रागो वा नोत्पद्यते । उक्तं च
अह कुसि थुल्लवत्था - इपसु मुच्छे धुवं सरीरे वि । अज दुलभतरे, काहिसि मुच्छ्रं विससे ॥ १ ॥ इति । अशीय इत्यर्थः । अध्यात्मशुद्धयभावे अवेकत्वमपि न चारित्राय, यथोक्तम्अपरिग्गहावि परसं—तिपसु मुच्छाकसायदो सेहिं । अविणिग्गहियप्पाणो, कम्ममलमणंत मजंति ॥ १ ॥ इति । अथ जिनोदाहरणादचेलकत्वमेव श्रेय इति न वक्रव्यमेतत् यतोऽभ्यधायि
न परोवसावसया, न य उमस्था परोपणसं पि । देति न य सीसवग्गं, दिक्खति जिणा जहा सब्वे ॥ १ ॥ तह सेसेहि य सर्व्व, कजं जइ तेहि सव्वसाहम्मं । एवं च को तिथं न वेदवेल सि को गाहो ॥ २ ॥ इति । अपिच उचितचेलसद्भावे चारित्रधर्मो भवत्येव तदुपकारित्वाच्छरीराहारादिवदिति अथ कथं बेलस्य चारित्रोपकारितेति चेत् उच्यते- शीतादिवाणतो जीवसंसनिनिमित्ततृणपरिहारादिहेतुत्वादच
"महानलसेवा निवारणा धम्मसुखभागड्डा । दि कप्परगहणं, गिलाणमरणडया चैव ॥ १ ॥ " इति । तथा ( सजायरे ति) शेरते यस्यां साधवः सा शय्या, तया तरति भवसागरमिति शय्यातरो-घसतिदाता, तस्य पिण्डो भक्तादिः शय्यातरपिण्डः, स च असनादिः ४ वमादिः ४
सूच्यादि ४ धेति । तद्ग्रहणे दोपारत्वमीतित्थंकरपडिकुट्टो, अन्नायं उग्गमो वि य न सुज्भे । अधिमुलिया, दुनहसेजाविउच्छेो ॥ १ ॥ इति । रातश्चक्रवर्त्तिवासुदेवादेः पिण्डो राजपिण्डः हानीमुभयोरपि जिनयोः समानतानिगमनार्थमाह जस्सीलगाडा" यो शीलसमाचारी स्वभाषानुष्ठाने यस्य स यच्छीलसमाचारस्वावेव शीलसमाचारी यस्य स तथेति । महापयाजिनो हि महावीरवदुत्तरफाल्गुनीनजन्मादिव्यतिकर इति । स्था० ६ ठा० ३ उ० । ति० ।
महापउम
रहाणं महापउमे अट्ठ रायाणो मुंडा भवित्ता यागाराओ अगगारियं पव्वावेइस्सति । तं जहा पउमं प उमगुम्मं नलिलं नलिनगुम्मं पडमद्वयं धणुद्ध करागरहं भरई (सू०६२५)
( अरहा समित्यादि ) सुगमं, नवरम्। ( महापउमे ति ) महापद्मो भविष्यदुत्सर्पिण्यां प्रथमतीर्थकर बेसिकराजजीय इति । इहैव नवस्थानके बच्वमाराव्यतिकर इति (डा भवित्त त्ति ) मुण्डान् भावयित्वेति । स्था० ८ ठा० ३ उ० । वीरमहापद्मयोरन्तरम् ८४००७ वर्षाणि ५ मासाः । आव० [१] [अ० नं० पुष्कलावतीजिये पुण्डरीकशीनगरीराजे पुण्डरीककराडरीकयोः पितरि ० ० १ ० ० । (' तेतलिपुत्त ' शब्दे चतुर्थभागे २३५२ पृष्ठे कथा ) निधिभेदे, दर्श० । ० चू० । “ वत्थाण य उप्पत्ती, शिष्फत्ती चेव सव्वभतां । रंगाणय धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे ॥ ५ ॥ " आ० चू० १ ० | जं० । प्रव० । स्था० । ति० | महापद्मादयो निधयः शा० म० अ० भारते वर्षे आगामिन्यामुत्साख्यां भविष्यति नयमचक्रवर्तिनि स० । अवसर्पिण्यां जाते हस्तिनापुरराजे नचमचक्रवर्तिनि स०७७सम० श्राच० प्रय० । स्था० (अयमएमचक्रवतीति लक्ष्मीचाभः) उत्त० । चइत्ता भारहं वासं, चक्कवड्डी महिड्डियो । चहना उत्तमे भोए, महापउमी तवं चरे ॥ ४१ ॥ हे मुने ! महापद्मोऽपि श्रमचक्री महर्द्धिकः तपोऽचरत् । किं कृत्वा भारतं वासं त्यक्त्वा, पुनरुत्तमान् प्रधानान् भोगान् त्यक्त्वा ॥ ४१ ॥
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अत्र महापद्मचक्रवर्तित रहेव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे कुरुक्षेत्रे हस्तिनागपुरं नाम नगरम् तत्र श्रीषभप्रसूतः पद्मोत्तरो नाम राजा, तस्य ज्वाला नाम महादेवी, तस्याः सिंहस्वप्नसूचितो विष्णुकुमारनामा प्रथमः पुत्रो, द्वितीयश्चतुर्दशस्वप्नसूचितो महापद्मनामा, द्वावपि वृद्धिं गतौ, महापद्मो युवराजः कृतः । इतश्च उज्जयिन्यां नगर्यो श्री धर्मनामा राजा, तस्य नमुचिनामा मन्त्री, अन्य दा तत्र श्रीमुनिसुव्रतस्वामिशिष्यः सुव्रतो नाम सूरिः समचतः । इन्दनार्थे लोकः स्वविभूत्या निर्गतः, प्रासादोपरिस्थितेन राज्ञा दृष्टः पृष्टाश्व सेवकाः । अकालयात्रया कार्य लोको गच्छति ततो नमुचिमा भणितम् । देव ! अत्र उद्याने श्रमणाः समागताः, तेषां यो भक्तो लोकः नार्थ गच्छति राज्ञा भणितं वयमपि यास्यामः नमुचिना उक्तम् तर्हि त्वया तत्र मध्यस्थेन भाव्यम्, यथाsहं वादं कृत्वा तान्निरुत्तरीकरोमि । राजा नमुचिसहि
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महापउम सामुपरि शुण्डापातं करोति तावता दूरदेशस्थितेन महापन करुणापूर्वयेन हकितोऽसी करी, सोऽपि वेगेन च लिनः कुमाराभिमुखम्, तदानीं ताः सर्वा अपि भणन्ति । हाहाऽस्मद्रक्षणार्थं प्रवृत्तोऽयं करिणा हिंस्यते, एवं तासु प्रलपमनीषु पश्यन्तीषु च तयोः करिकुमारबोधौरः संग्रामो बभूव । सर्वेऽपि नागरजनास्तत्राऽऽयाताः । सामन्त भृत्यसहितो मह
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भगवन् ! अन निराकरिष्यामि इत्युकानसेनराजोऽपि तथाऽऽयातः । भणितं च नरेन्द्र कुमार अनेन
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सवांद निकलनः साधनासपरि गतः रात्री च चरवृत्या एकाक्येव मुनिवधार्थमागतो, देवतया स्तभितः प्रभाते तदाश्वर्य दृष्ट्रा राज्ञा लोकेन च स भृशं तिरस्कृतो चिलीभूतो तो हस्तिनापुरम् महापद्मयु वराजस्य मन्त्री जातः । इतश्च पर्वतवासी सिंहवलो नाम राजा, सब कोट्टाधिपतिरिति महादेशे विनाश्व कोई प्रविशति ततो रुपेन महापन नमुचिमन्त्री पृष्ठ सिहलराज किंचिदुपाये जानासि ? नमुचिनां सुष्ठु जानामि ततो महापद्मप्रेरितोऽसी सैन्यवृतो गतो निपुणोपायेन दुर्गे सिंहो वह अनीता महापद्मान्तिके, महापद्मेनोक्तम् नमुचे ! यत्तवेष्टं तन्मार्गय । नमुचिनोक्लम्, साम्प्रतं वरः कोशऽस्तु, अवसरे मार्गयिष्यामि. एवं यौवराज्यं पालयतो महापद्मस्य कियान् कालो गतः । अन्यदा महापद्ममात्रा ज्वालादेव्या जिनरथः कारितः, अपरमात्रा च मिथ्यात्ववासितया जिनधर्मप्रत्यनीकया लक्ष्मीनाम्म्या ब्रह्मरथः कारितो, भणितश्च पद्मोभरो नाम राजा यथा एष ब्रह्मरथः प्रथमं नगरमध्ये प रिभ्रमतु जिनरथः पश्चात्परिभ्रमतु इदं च श्रुत्वा ज्वालादेव्या प्रतिज्ञा कृता । यदि जिनरथः प्रथमं न भ्रमिष्यति तदा परजन्मनि ममाहारः । ततो राज्ञा द्वावपि रथौ निरुद्धौ, महापद्येन स्वतनन्याः परमामधूर्ति र नगरानिर्गतः केनापि न शातः, परदेशे गच्छन् महाटव्यां प्रविष्टः । तत्र च परिभ्रमन् तापसाऽऽलये गतः, ताप सेससम्मानस्तव तिष्ठति । इतश्चम्पायां नगर्य्या जनमेजयो राजा परिवसति । सच कालन प्रतिरुद्धः ततो महान् संग्रामो बभूव जनमेजयो नः। तस्यान्तः पुरमपीतस्ततो नम् जनमेजय स्य राशो नागवतीनाम भार्या, सा मदनावलीपुत्र्या समं नष्टा श्रागता तं तापसाश्रमम् । समाश्वासिता कुलपतिना तत्रैव स्थिता. कुमारमदनावल्योः परस्परमनुरागो जातः, कुलपतिना तन्मात्रा च तयोः परस्परमनुरागो ज्ञातः । कुलपतिना नागवच्या मात्रा च भणिता मदनावली, पुत्रित्वं किं न सरसि नैमिनिकवचनम् यथा चक्रवर्त्तनस्त्वं प्रथमपत्नी भविष्यसि ततः कथं यत्र तत्रानुरागं करोषि कुलपतिनाऽपि कुमारस्य विसर्जनार्थमुक्रम् कुमार ! त्वमितो गच्छ, तदानीं त्वरितमेव ततो निर्गतः मारः एवं मनोरथं चकार । यथाऽहमेतस्याः सङ्गमेन भरताधिपो भूत्वा ग्रामाकरनगरादिषु सर्वत्र जिनभवनानि कारयिष्यामीति भ्रमन् कुमारोऽथ प्राप्तः सिन्धुनन्दनं नामनगरम् । तत्रोद्यानिकामहोत्सवे नगरान्निर्गता नरा नार्यश्च विविधाभिः क्रीडन्ति मिसरे राशः पट्टहस्ती आलानस्तम्भमुन्मूल्य भित्तिभङ्गं कुर्वन् नगराइहिपतीजनमध्ये समायातः । ताथ तं तथाविधं दृष्ट्रा दूरतः प्रभावितमधीः तच स्थिताः । यावदसी ता
यथा
1
कु -
५२
मद्दापउम
तस्तत्र गतः । नमुचिना भणितम् । भो श्रमणा ! यदि यूयं धर्मतस्वं जानीथ विदथ सर्वेऽपि मुनयः चुद्रोऽय मिति कृत्वा मनेन स्थिताः, ततो नमुचिर्भृशं रुः सूरिं प्रति भगति - एप वयल्लः किं जानाति ? ततः सूरिभिर्मासनं भवामः किमपि यदि जति इदं व चः त्या अनेकशास्त्रविसेनकशिष्येण भवितम् श्रुत्वा
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( २०५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सर्वसंग्रामे मा कुरु कृतान्त इव रूपोऽसी तब विनाशं करिध्यतीति । महापद्म उवाच । राजन् ! विश्वस्तो भव, पश्य मम कलामित्युक्त्वा क्षणेन तं मत्तकारिणं स्वकुलया वशीकृतवान् आरूढश्च तं मत्तगजं महापद्मः, स्वस्थाने नीतवान्, सा
फारेण तं खोको पूजितवान् यथा एप कोऽपि महापुरुषः प्रधानकुलसमृद्धोऽस्ति अन्यथा कथमीदर्श रूपविज्ञान चास्य भवति । ततो राज्ञा स्वगृहे नीत्वा कुमारस्य विविधो. पयारकरणपूर्वकं कन्याशतं दतम् तेन समं विषयसुखमनुभ वतस्तस्य महापद्मकुमारस्य दिवसास्तत्र सुखेन यान्ति । तथाऽपि सतां मदनावलि हृदयान्न विस्मारयति । अन्यदा रजन्यां यातोऽसी वेगवत्या विद्यार्थ्यापहतः, निद्रा सा तेन
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मुष्टि दर्शयित्वा सा कुमारेण भणिता, किं त्वमेवं मामपहरसि ? तथा भणितं कुमार ! शृणु बैताडये सूरोदयनाम नगरमस्ति । तत्रेन्द्रधनुर्नाम विद्याधराधिपतिरस्ति तस्य भार्या श्रीकान्ता वर्त्तते, तस्याः पुत्री जयचन्द्रानाम्नी वर्त्तते । सा च पुरुषद्वेषिणी नेच्छति कथमपि वरम् । ततो नरपत्याशया मया सर्वत्र वरनरेन्द्रा विलोक्य २ पट्टिकायां लि खिताः सर्वेऽपि तस्या दर्शिता न कोऽपि रुचितः । श्रन्यदा मया तस्यास्तव रूपं दर्शितम्, तद्दर्शनानन्तरमेव सा कामावस्थया गृहीता, भणितं च तया यद्येष भर्त्ता न भविष्यति तदाऽवश्यं मया मर्त्तव्यम् । अन्यपुरुषस्य मम यावजीवं निसिरेय, एच तम्या व्यतिकरो मया तन्मातृपिनोपितः ताभ्यां त्वदानयनाय अहं प्रयुक्ता, अविश्वसन्त्यास्तस्या विश्वासार्थ मया इयं प्रतिज्ञा कृता, यद्यहं तं त्वरितं नाऽऽनयामि तदा ज्वालाकुले ज्वलने प्रविशामि । ततः कुमार ! यदि तव प्रसादेन मम मरं न सम्पद्यते, यथा च मे प्रतिज्ञानिर्वाहो भवति तथा प्रसादं कुरु । ततस्तदाशया तया महापद्मः सूर्योदये तत्र नीतः, खेचराधिपतिर्मिलितः । तेन च सुमुहूर्ते तस्याः पा णिग्रहणं कारितः, पूजिता च वेगवति । इतश्च जयचन्द्राया मातुलभ्रातरी गङ्गाधरमहीधरनामानी विद्याधरावतिप्रच
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इमं व्यतिकरं शास्या अनेक भटसहिती महापथेन सम संग्रामार्थमागती | महापद्मोऽपि तयोरागमनं श्रुत्वा सुरोदपुराद्वहिर्विद्याधरभटपरिवृतो निर्गतः संलग्नस्तयोः संग्रामः, तदानीं महापद्मेन स्यन्दनाः कुञ्जरा अश्वाः सुभटाः परबलसत्काः सर्वेऽपि वाणैर्विद्धाः । भग्नं स्वं बलं दृष्ट्वा गङ्गाधरमहीधरौ स्वयमुत्थितौ, महापद्मेन उभावपि हतौ । ततो लब्धजयः स महापद्मः उत्पन्नस्त्रीरत्नवर्ज सर्वरत्नः प्राप्तनवनिधित्रिशरसहखमरडलेश्वर सेवितपादपद्मः परिणीतेकोनचतुः षष्टिसहस्रान्तः पुरो हयगजरथपदातिकोशसंपशोधकर्त्ती जातस्तथापि पदखण्डभरतराज्यं स मद नावल्या रहितं नीरसं मन्यते । अन्यदा तस्मिन्नाश्रमपदे गतस्य तस्य महापद्मचक्रिणः तापसैमर्हान् सत्कारः कृतः जनमेजयेनापि राज्ञा मदनावती तस्मै दत्ता, तेन परिता
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महापउम अभिधानराजेन्द्रः।
महापउम स्त्रीरत्नं बभूव । ततो महापद्मश्चक्रवर्तिऋद्धिसमेतो हस्तिना- स्तब्धाः सर्वे पाखण्डदूषकाः निर्मर्यादा मां निन्दथ । अगपुरं प्राप्तः,प्रणनामच जननीजनकपादान् , ताभ्यामप्यधिक- तो मदीयं राज्यं मुक्त्वाऽन्यत्र यथासुखं व्रजत । यो युष्मास्नेहेन प्रेक्षितः । अत्रान्तरे तत्रैव समवसृतो मुनिसुव्रतस्वा- कं मध्ये कोऽपि नगरे भ्रमन् द्रक्ष्यते स मे वध्यो भविमिशिष्यो नागसूरिः,ततो निर्गतः सपरिवारः पद्मोत्तरराजः, प्यति । सुव्रताचार्यैरुक्तम् , राजन्नस्माकं राजवर्धापनाचारो तं वन्दित्वा पुरो निषण्णः, गुरुणा च तत्पुरो भवनिर्वेदज- नास्ति, तेन वयं त्वद्वर्धापनकृते नाऽऽयाताः । न च वयं किंननी देशना कृता, तां श्रुत्वा वैराग्यमापन्नो राजा गुरुं प्रत्येव- चिन्निन्दामः, किं तु समभावास्तिष्ठामः । ततः स रुष्टः प्रमुवाच। भगवन्नहं राज्यं स्वस्थं कृत्वा भवदन्तिके प्रव्रजिष्या- तिभणति, यदि श्रमण सप्तदिनोपरि अहं द्रव्ये तमह-- मि । गुरुणा भाणितम् ,मा विलम्ब कुर्विति । गुरुं प्रणम्य नगरे मवश्यं मारयिष्यामि, नात्र सन्देहः । एतन्नमुचिवाक्यं श्रुप्रविष्टो राजा , आकारिता मन्त्रिणः प्रधानपरिजना विष्णु- त्वा प्राचार्याः स्वस्थानमायाताः सर्वेऽपि साधवः पृष्टाः, कुमारश्च । सर्वेषामपि राशा एवमुक्तम् । भो भो! श्रुता भवद्भिः किमत्र कर्त्तव्यम् । ततः एकेन साधुना भणित, यथा सदा संसारासारता अहमेतावत्काल वश्चितः, यच्छामरायं नानुष्ठि- सेविततपोविशेषो विष्णुकुमारनामा महामुनिः साम्प्रतं तवान् । ततःसाम्प्रतं विष्णुकुमारं निजराज्येऽभिषिच्य प्रव- मेरुपर्वतचूलास्थो वर्तते, स च महापद्मचक्रिणो भ्राताज्यां गृह्णामि । ततो विष्णुकुमारेण विज्ञप्तम् , तात ! ममापि ऽस्ति, ततस्तद्वचनादयमुपशमिष्यति, श्राचार्यैरुक्तं तदाकिंपाकोपमैौगैः, सृतम् , तव मार्गमेवानुसरिष्यामि । ततो
कारणार्थ यो विद्यालब्धिसम्पन्नः स तत्र व्रजतु । तत एविष्णुकुमारस्य दीक्षानिश्चयं ज्ञात्वा पद्मोत्तरराजेन महापद्म केन साधुना उक्तम् , अहं मेरुचूलां यावद्गगने गन्तुं शआकारितो भणितश्च, पुत्र ! ममेदं राज्यं प्रतिपद्यस्व, विष्णु- क्लोऽस्मि, पुनः प्रत्यागन्तुं न शक्नोऽस्मि । गुरुणा भणिकुमारोऽहं च प्रव्रज्यां प्रतिपद्यावः। अथ विनीतेन महापद्मन च |
तम्-विष्णुकुमार एव स्वामिहानेष्यति, तथेति प्रतिभणितम् , तात !निजराज्याभिषेकं विष्णुकुमारस्यैव कुरु,अहं
पद्य स मुनिराकाशे उत्पतितः । क्षणमात्रेण मेरुचूलायां पुनरेतस्यैवाशाप्रतीच्छुको भविष्यामि । राज्ञा भणितम् , वत्स!
प्राप्तः, तमायान्तं दृष्ट्वा विष्णुकुमारण चिन्तितम् , किश्चिमयोक्नोऽव्ययं राज्यं न प्रतिपद्यते । अवश्यमयं मया समं प्रव
द्गुरुकं सङ्घकार्य समुत्पन्नम् , यदयं मुनिवर्षाकालमध्ये ऽत्राजिष्यति । ततः शोभनदिवसे महापद्मस्य कृतो राज्याभिषेकः। यातः । ततः स मुनिर्विष्णुकुमारं प्रणम्य श्रागमनप्रयोविष्णुकुमारसहितः पद्मोत्तरराजः सुव्रतसूरिसमीपे प्रवजितः।
जनं कथितवान् , विष्णुकुमारस्तं मुनि गृहीत्वा स्तोकततो महापनो विख्यातशासनश्चक्रवर्ती जातः । स्वमातृ
वेलया आकाशमार्गेण गजपुरे प्राप्तः। वन्दितास्तेन गुरवः, परमातृकारिती तो द्वावपि रथौ तथैव स्तः । महापद्मचक्रिणा गुर्वाशया साधुसहितो विष्णुकुमारमुनिर्नमुचिपर्षदि गतः, तु जननीसत्को जिनरथो नगरीमध्ये भ्रामितः,जिनप्रवचनस्य
सर्वैः सामन्तादिभिर्वन्दितः, नमुचिस्तु तथैव सिंहासने तकृता उन्नतिः। तत्प्रभृति बहुलोको धर्मोद्यममतिर्जिनशासनं
स्थिवान्, न मनाक विनयं चकार । विष्णुना धर्मकथनपूर्व प्रतिपन्नः, तेन महापद्मचक्रिणा सर्वस्मिन्नपि भरतक्षेत्रे ग्रा
नमुचेरेवं भणितम् , वर्षाकालं यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठन्ति । नमाकरनगरोद्यानादिषु कारितानि जिनायतनान्येककोटिल- मुचिना भणितम् , किमत्र पुनः पुनर्वचनप्रयासन, पञ्च दिवक्षप्रमाणानि । पमोत्तरमुनिरपि पालितनिष्कलङ्कश्रामण्यः शु- सान् यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठन्तु । विष्णुना भणितं तव उद्धाध्यवसायेन कर्मजालं क्षपयित्वा समुत्पन्नकेवलज्ञानः द्याने मुनयस्तिष्ठन्तु । ततः संजातामर्षेण नमुचिना एवं संप्राप्तः सिद्धिमिति । विष्णुकुमारमुनेरपि उग्रतपोविहार- भणितम्, सर्वैः पाषण्डाधमैर्भवद्भिर्न मद्राज्ये स्थेयम.मद्राज्यं निरतस्य वर्द्धमानज्ञानदर्शनचारित्रपरिणामस्य आकाशगम- त्वरितं त्यजत, यदि जीवितेन कार्यम् । ततः समुत्पन्नकोपानादिवैक्रियलब्धय उत्पन्नाः । स कदाचिन्मेरुवत्तुङ्गदेहो नलेन विष्णुना भाणितम्, तथापि त्रयाणां पादानां स्थान देगगने जति , कदाचिन्मदनवद् रूपवान् भवति । एवं हि । ततो भणितं नमुचिना, दत्तं त्रिपदीस्थानं परं यं त्रिनानाविधलब्धिपात्रः स संजातः। इतश्च ते सुव्रताचार्याः बहु- पद्या बहिर्द्रक्ष्यामि तस्य शिरश्छेदं करिष्यामि । ततः स शिष्यपरिवृता वर्षारास्थित्यर्थ हस्तिनागपुरोद्याने समा-1 विष्णुकुमारः कृतनानाविधरूपो वृद्धि गच्छन् क्रमेण योयाताः, शाताश्च तेन विरुद्धेन नमुचिना, अवसरं ज्ञात्वा तेन जनलक्षप्रमाणरूपो जातः । क्रमाभ्यां दईरं कुर्वन् ग्रामाकराशे विज्ञप्तम् , यथा पूर्वप्रतिपन्नं मम वरं देहि । चक्रिणा रनगरसागराकी भूमिमाकम्पयन् शिखरिणां शिखराणि उक्तम् , यथेष्ट मार्गय । नमुचिना भणितम् , राजन् ! अहं वेद- पातयति स्म । त्रिभुवने क्षोभं कुर्वन् स मुनिः शकेण भणितेन विधिना यज्ञं कर्तुमिच्छामि, अतो राज्यं मे दहि । ज्ञातः । तस्य कोपोपशान्तये शक्रेण गायनदेव्यः प्रेषिताः। चक्रिणा नमुचिः स्वराज्यऽभिषिक्तः, स्वयमन्तःपुरे प्रविश्य | ताश्चैवं गायन्ति स्म-"सपरसंतावो, धम्मवणदावो, स्थितः। नमुचिर्यशपा(वा)टकमागम्य यागनिमित्तं दीक्षितो दुग्गइगमणहेऊ । कोचो ताअोवसम, करेसु भयवं ति" एबभूव । राज्येऽभिषिक्तस्य तस्य वर्धापनार्थ जैनयतीन वर्ज-| बमादीनि गीतानि ता वारं वारं श्रावयन्ति स्म । स मुनियित्वा सर्वेऽपि लिनिनो लोकाश्च समायाताः । नमुचिना नमुचि सिंहासनात्पातितवान् , दत्तपूर्वापरसमुद्रपादः सर्वलोकसमक्षमुक्तम् , सर्वेऽपि लोका मम वर्धापनार्थ समा स सर्वजनं भापयति स्म । ज्ञातवृत्तान्तो महापद्मश्चक्री तत्रायाताः, जैनयतयः केऽपि नाऽऽयाताः, पवं छलं प्रकाश्य सु- ऽऽयातः, तेन समस्तसङ्घन सुरासुरैश्च शान्तिनिमित्तं वि. व्रताचार्या आकारिताः, श्रागताः, नमुचिना भणिताः। भो। विधोपचारैः स उपशामितः । तत्प्रभृति विष्णुकुमारत्रिविजैनाचार्याः ! यो यदा ब्राह्मणो वा क्षत्रियो वा राज्यं प्रा- क्रम इति ख्यातः । उपशान्तकोपः स मुनिरालोचितः प्रतिप्नोति स तदा पाषराडकैरागत्य दृपव्यः, इयं लोकस्थि- क्रान्तः शुद्धश्च । यत उनम्तिः, यतो राजरक्षितानि तपोधनानि भवन्ति । यूयं पुनः "आयरिए गच्छमि, कुलगणसं अचेअविणासे ।
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( २०७) महापउम अभिधानराजेन्द्रः।
महापालि श्रालायपडिकन्तो, सुद्धा जं निजरा विउला ॥१॥"
महापडिमा-महाप्रतिज्ञा-स्त्री०। गुरुप्रतिज्ञायाम्। पञ्चा० निष्कलङ्घ थामण्यमनुपाल्य समुत्पराकेवलः स वि.
१६ विव०। ष्णुकुमारः सिद्धिं गतः । महापद्मचक्रवर्त्यपि क्रमेण दीक्षां
| महापाम-महाप्रज्ञ-त्रि० । महती प्रज्ञाऽस्येति महाप्रशः । गृहीत्या सुगतिभागभूद् इति महापद्मदृष्टान्तः । उत्त० १८ अ० । ती० । ति० । श्रेणिकपुत्रसुकालस्यात्मजे , नि० ।
उत्त०३ अ० । सम्यग्दर्शनशानवति, सूत्र. १ श्रु० ४
अ०२ उ० । विपुलबुद्धौ, सूत्र० १ श्रु० ११ १०। एवं सुकालसत्कमहापद्मदेव्याः पुत्रस्य महापद्मस्थापीयमेव वक्तव्यता । भगवत्समीप गृहीतव्रतः पञ्चवर्ष
महापामवणा-महाप्रज्ञापना-स्त्री०। महत्तरे प्रज्ञापनाग्रन्थे, व्रतपर्यायपालनपरः एकादशाङ्गधारी चतुर्थषष्ठाटमादि नं०। पा० बहु तपःकर्म कृत्वा ईशानकल्पे देकः समुत्पन्नो | महापत्थाण-महाप्रस्थान-न०। मरणकालभाविनि, नि०१ द्विसागरोपमास्थितिकः । सोऽपि ततश्च्युतो महाविदेहे से- श्रु० ३ वर्ग ३ अ०।। रस्यति ॥ नि० १ २० १ वर्ग २ अ० । विन्ध्यगिरि- महापम्ह-महापक्ष्म-पुं०। जम्बूद्वीपमन्दरस्य पश्चिमे शीपादमूले पुण्डेषु जनपदेषु शतद्वारे नगरे सुमते राज्ञो भ- नोटाया महाना;
तोदाया महानद्या दक्षिणे महापुरीराजधानीभूषितविजये दायां भार्यायामुत्पत्स्यमाने गोशालकजीवे, भ० १४ श०६ | क्षेत्रे. स्था।
क्षेत्रे, स्था०८ ठा। उ० । ( · गोसालग 'शब्दे तृतीयभागे १०३१ पृष्ठादारभ्य
दो महापम्हा । स्था० २ ठा० । कथा गता) सप्तमदेवलोकविमानभेदे, नपुं० स०१७ सम० । महाहिमवदुपरि हदे, स०।
महापरिग्गह-महापरिग्रह-पुं० । धनधान्यद्विपदचतुष्पदव
स्तुक्षेत्रादिपरिग्रहवति, । सूत्र०२ श्रु० १५ अ०। महापउममहापुंडरीयदहाणं दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं पध्मत्ता । (सूत्र-११५)
महापरिग्गहया-महापरिग्रहता-स्त्रा० । अपरिमाणपरिग्रहमहापद्ममहापुण्डरीकहदौ महाहिमवद्रुक्मिवर्षधरयोरुप
तायाम् , भ०८ श०६ उ० । रिवर्तिनी हीबुद्धिदेव्योर्निवासभूताविति । स० ११५ / महापारमा-महापरिज्ञा-स्त्री० । महती परिक्षा अन्तक्रियासम० । स्था० । पाटलिपुत्रनगरराजे नवमनन्दे , प्रा०चू० ४ लक्षणा सम्यग्विधेयेति महापरिक्षा । स्था० ६ ठा। अशिखरितलकूटविशेषाधिपती देवे, द्वी०। शक्रत्रयस्त्रिं- श्राचाराङ्गप्रथमथुतस्कन्धस्य सप्तमेऽध्ययने , तश्चेदानीं शोत्पातपर्वतराजधान्याम् , द्वी० । चतुरशीतिलक्षगुणितेषु व्यवच्छिन्नम् । आचा०२७०८०१ उ०। प्रश्न । श्रावण महापद्माङ्गेषु, ज्यो०२ पाहु०। ('काल' शब्दे स्फुटितमेतत्) " जेणुद्धारा विजा, श्रागासगमा महापरिन्नाश्रो । महापउमद्दह-महापद्महद-पुं०। स्वनामख्याते हदे, स्था। वंदामि अजबइरं, अपच्छिमो जो सुअहराणं ॥१॥" दो महापउमदहा । ( स्था० २ ठा० ३ उ० ।)
श्रा० क० १ ० । श्रा०म० । स०।
महापवेसणतर-महाप्रवेशनतर-पुं० । महत्प्रवेशनं गत्यन्तदो महापउमद्दहवासिणीअो हिरीओ देवीभो । स्था०२ ठा०३ उ०
रान्नरकगती जीवानां प्रवेशो येषु ते तथा । यत्र बहवो नैर
यिका श्रागत्य प्रविशन्ति तेषु नरकेषु, भ०१३ श०४ उ० । (द्वौ त्रयः षट् वा महाइदा इति ' दह ' शब्दे चतुर्थभागे
महापव्यय-महापर्वत-पुं० । हिमवदादिषु वर्षधरपर्वतेपु, २४८६ पृष्ठे गतम्)
ओघ०। महापउमरुक्ख-महापद्मवृक्ष-पुं० । धातकीखण्डोत्तरकुरुम-| ध्यगे धातकीखण्डनामनिबन्धने शाश्वतवृत्ते, स्था० १० ठा।
महापसु-महापशु-पुं० । महापशुपुरुषे प्रशा०२ पद । व्यः । पुष्करवरद्वीपात्पश्चिमे मेरुपर्वतादुत्तरदक्षिणयोरपान्तराल
महापह-महापथ-पुं० । विस्तीर्णतया प्राधान्येन महांश्चासौ वृक्षविशेषे, । स्था०२ ठा०३ उ०।
पन्थाश्च महापथः । राजमार्गे, उत्त०५०। अनु० । शा। महापउमा-महापद्मा-स्त्री० । श्रेणिकपुत्रसुकालस्य भार्या- जी० । श्रा०म० दशा । भ० । कल्प० । औ०। रा० । प्रश्न० । याम् , नि०१श्रु०१ वर्ग १ अ०।
महापाडिहारिय-महाप्रातिहार्य-न० । जिनानामशोकवृक्षादिमहापच्चक्खाण-महाप्रत्याख्यान-न० । महच्च तत्प्रत्या- पानिटाना ख्यानं चेति समासः । चरमप्रत्याख्याने, तद्वर्णनपरे उत्कालिकश्रुतविशेषे च । पा० । "एसत्थ भावत्थो थेरकप्पेण जिण
महापाय-महाऽपाय-त्रि० । महानपायो यस्याः सकाशात्सा कप्पेण वा विहरित्ता अंते थेरकप्पिया वारसवासे सं
तथा । महतोऽपायस्य हेतौ, षो० १४ विव० । लेहणं करेत्ता, जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलीढा, तहा | महापायाल-महापाताल-पुं० । महान्तस्तदन्यतुल्लकव्यववि जहाजुत्तं सलहणं करेत्ता, निव्वाघायं सचेट्टा चेव च्छेदेन पातालमिवागाधात्वाद गम्भीरत्वात्पातालाः पातालभवचरिमं पच्चक्वंति, एयं सवित्थरं जत्थऽज्झयणे व- व्यवस्थितत्वाद् वा पातालाः, महान्तश्च ते पातालाश्चेति मनिजइ तमज्झयणं महाप्रत्याख्यानमिति" पा० नं०। । हापातालाः । लवणसमुद्रमध्यस्थितेषु वडवामुखादिषु जलमहापज्जवसाण-महापर्यवसान-न०। महत्प्रशस्तमात्यन्तिकं वा वाय्वाधारेषु, स्था० ४ ठा०२ उ०। ('लवणसमुद्द' शब्दे पर्यवसानं पर्यवसमाधिमरणान्तः,अपुनर्मरणान्तोवा जीवित- चैते व्याख्यास्यन्ते) स्य यस्य स तथा । तद्भवसिद्धिगामिनि, स्था०३ ठा०४ उ०महापालि-महापालि-स्त्री० । पालिरिव पालिर्जीवितजलधा
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महापालि अभिधानराजेन्द्रः।
महामणि पेढ रणाद भवस्थितिः, महती चासौ पालिश्चेति । सागरोपमल- वासुदेवो पुच्छइ" अपरविदेहवासुदेवे,श्राव. ४ ०। श्रा क्षणायां भवस्थितौ, तस्या एव महत्त्वाद् । उत्त०१८ अ०।
चू० । कल्प। महापिंगायतण-महापिङ्गायतन-पुं०। महापिङ्गाऽऽख्यर्यप
| महाभद्दा-महाभद्रा-स्त्री० । अहोरात्रकायोत्सर्गरूपायामहात्ये, चं० प्र० १० पाहु०।
रात्रचतुष्टयमानायां प्रतिमायाम् , स्था०२ ठा० ३ उ० । कमहापिउ-महापितृ-पुं०। पितुज्येष्ठभ्रातरि,विपा० १श्रु०३० । ल्प० । औ० । श्रा०म० । स्था०। ( अस्या व्याख्या 'पडिमा' महापीढ-महापीठ-पुं० । पूर्वविदेहपुष्कलावतीविजयपुण्डरी
शब्दे पञ्चमभागे ३३२ पृष्ठे गता) भूतद्वीपदेवे, पुं० । सू० प्र०
१६ पाहु० । स०। किणीनगरीजा ते ऋषभदेवपूर्वभवजीववज्रनाभस्य भ्रातरि, श्रा०चू०१०। श्रामपञ्चाका श्रा०का अपभपत्रे | महाभवाघ-महाभवीघ-पु०॥ चतुर्गतिके संसारसागरे. सत्र. "सुबाहय महापीढो य पच्चायाता" श्रा०च०१०। । १शु०६ अ०। । महापुंडरीय-महापुण्डरीक-पुं० । रुक्मिवर्षधरपर्वतोपरिस्थे महाभाग-महाभाग-पुं० । महांश्चासौ भागश्च महाभागः । बुद्धिदेव्यावासहदे, स्था०२ ठा० ३ उ० । स०। औ० । जी०।। भागशब्दः पूजावचनम् । महापूज्ये, सूत्र० १७०८ श्र०। कालोदसमुद्रदेवे,स्था० १० ठा० । विशाले श्वेताम्बुजे,नपुं०।
उत्त०। पञ्चा०। श्रा० म० । ग० । भागोऽचिन्त्या शक्तिराह रा। जं० । सप्तमदेवलोकविमानभेदे. स०१७ सम० ।
च भाष्यकृद्-"भागोऽचिन्त्या शक्तिरिति" महान् भागोऽ.
स्य महाभागः । अचिन्त्यशक्तियुक्ते,त्रि० । शा०म० । महान्तं महापुर-महापुर-नास्वनामख्याते नगरे, विपा०२श्रु०७०।
भजतीति महाभागः । जिनाराधके, श्रा० चू० १ अ० । महापुरा-महापुरा-स्त्री० । महापद्मविजयक्षेत्रराजधान्याम् ,
महाभागा-महाभागा-स्त्री० । रक्तावतीनदीसङ्गते नदीभेदे , महापो विजयो महापुरी राजपूर्यमावतीवक्षस्कारः, "म
स्था० १० ठा० । हापुरं गयरं रत्तासोगं उज्जाणं रत्तपालो जक्खो बले राया
महाभिताव-महाभिताप-पुं० । महाभितापिते सन्तापोपेते, सुभद्दा देवी महाबले कुमारे रत्तवती पामोक्खा ण पंच सया" विपा०२ श्रु०७ श्राधातकीखण्डान्तर्गते विजयक्षेत्रे
सूत्र० १ श्रु०५ अ० १ उ० । महादुःखैककार्ये,सूत्र. १ श्रु०५
अ०२ उ०। जातायां नगर्याम् , स्था० ।
महाभिसेय-महाभिषेक-पुं०। ईश्वरतलवरादीनामभिषेकाणां दो महापुरा । स्था० २ ठा० ३ उ०।।
महत्तरोऽभिषेको महाभिषेकः । राजत्वेनाभिषिक्ते, नि० चू० महापुरिस-महापुरुष-पुं०। प्रधानपुरुषे,आसितद्वैपायनपारा
६ उ०। शरादिमहर्षिषु , वल्कलचीर-तारागणर्षिप्रभृतौ । (एषां | महाभीम-महाभीम-त्रि०। अतिभयानके, दर्श०४ तत्त्व । श्रामहापुरुषत्वेन वर्णनं भारतादिषु) सूत्र०१ थु० ३ ० ४
व०। श्रौत्तराहाणां देवानामिन्द्रे,स्था०२ ठा० ३ उ० । प्रज्ञा आधुत्तमे, प्रश्न० ४ संव० द्वार । महापुरुषा बलदे-| भ० । अष्टमप्रतिवासुदेवे, स० । ति। धतीर्थकरादयः । पं०व० ३ द्वार। श्रौत्तराहाणां किंपुरु-|
महाभीमसेण-महाभीमसेन-पुं० । जम्बूद्वीपभरतखण्डेऽतीतापाणामिन्द्रे, स्था०२ ठा० ३ उ० । प्रज्ञा० । भ० ।
यामुत्सर्पिण्यां जाते सप्तमे कुलकरे, स्था० १० ठा० । महापुरिसचरित्त-महापुरुषचरित्र-न० । स्वनामख्याते ती-| र्थकरचरितनिबद्ध ग्रन्थे, संघा० १ अधि० । प्रश्न ।
महाभुज-महाभुज-पुं० । शिखरतलकूटविंशपाधिपती पल्यो
पमस्थितिक दवविशेष, द्वी। महापुरिससेविय-महापुरुषसेवित-त्रि०। तीर्थकरादिसेविते, पं०सू०२ सूत्र ।
महाभूयवर-महाभूतवर-पुं० । भूतवरसमुद्रदेवे, सू० प्र०१६ महापुरिसाणुचिम-महापुरुषानुचीर्ण-त्रि०ा महापुरुस्तीर्थ
पाहु। करगणधरादिभिरुत्तमनरैरनुचीर्णमेकदाऽऽसेवनात्पश्चादप्या
महाभेरव-महाभैरव-न० । मध्यमपापासमीपे उद्याने, प्रा० सेवितं महापुरुषानुचीर्णम् । तीर्थकरादिभिराचरिते, पा० ।
म०१ अ०। सूत्र।
महाभेरी-महाभेरी-स्त्री० । वृहत्प्रमाणायां भेर्याम् , अनु० । महापोय-महापोत-पुं० । महावोहित्थे, आव०४०। महामइगढिय-महामतिग्रथित-त्रि० । महावुद्धिपुरुषरचितमहाफलिह-महास्फटिक-न० । शिखरिपर्वतस्थ उत्तरकृ- सन्दर्भ, पो०६ विव० । टानामुसरदिशि कूटे, द्वी०।
|महामंडलिय-महामाएडलिक-पुं० । अनेकदेशाधिपती देवे, महाबल-महाबल-पुं० । महदलं शरीरप्राणो यस्य स महाव- अनु । जी० । प्रज्ञा० ।
लः । जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ० । सू० प्र०। प्राणवति, स्था० महामंति-महामन्त्रिन्-पुं० । मन्त्रिमण्डलप्रधाने, शा०१ श्रु० Eठावाचं० प्र० । प्रशस्तबले, स०। ऐरवते भवि- । १० । भ० । औ० । विशेषाधिकारवति, कल्प० १ अधिक प्यति त्रयोदशे तीर्थकरे, ति। जं० स०। आव०ती० ३क्षण । रा०। भारतवर्षे भविष्यति तृतीये बलदेवे, स०। कल्प।
महामगर-महामकर-पुं० । जलचरजीवभेदे, कल्प०१ अधि० महाबाहु-महाबाहु-पुं०। भारतवर्षे भविष्यति द्वितीयबल-| ३ क्षण । देवे, स० । ती० । श्रोत्रेन्द्रियलम्पटस्य ब्रह्मस्थल पुरस्थ- महामणिपेढ-महामणिपीठ-पुं० । वृहति वस्य) पीठे,जी०३ रामस्य राज्ञो लघुभ्रातरि , ग०२ भधि। “महाबाह नाम | प्रति० ४ अधिः ।
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महालक्खो
( २०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । महामरुता महामरुता स्त्री० [प्रेणिकस्य स्वनामस्यानायां महामोह-महामोह पुं० । महांधासी मोहथ महामोहः। मि
महामरुता
भार्यायाम् अन्तः १ श्रु० ७ वर्ग (सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य विंशतिवर्षपर्याया सिद्धा इत्यन्तकृदशानां सप्तमवर्गे सप्तमाध्ययने सूचितम् )
+
महामह महामह - पुं० इन्द्रमहादिषु ग्रा
।
के य ते पुण महामहा ? उच्यन्तेमासाठी इंदमहो, कनि सुगिम्हए अ बोद्धच्चे । एए महामहा खल, एएम चैव पाडिवया ।। १३३८ || श्रसादी - श्रासादपुन्निमा, इह लाडा सावणपुनिमाए भवति, दमहो श्रासोपुधिमा भवति, कलिय त्ति' कतियपुनिमाए चेव सुगिम्हओ चेत्तपुनिमा । श्राव० ४ अ० । नि० चू० । श्राचा० ।
महामहद्वारमाह
सकमहादीए व पमनमा सुराद्धले उवणा ।
पीणिजंतु व अढा, इतरे उ बहंति न पढेति ॥४१२ ॥ महामहाः शषमहादयः आदिशब्दात्मकमहादिपरि ग्रह तेषु ( ) ता गाहयोगप्रतिास्तेषां योगो निक्षिप्यते, किं कारणमिति चेत् ? अत श्राह मा तं प्रथमतः सन्तं काचित् मिथ्यादृष्टिर्देवता छलयेत् । अन्यच्य-तेषु दिवसेषु विकृतयो लभ्यन्ते ततो ये अदृढा दुर्बलाः सन्ति तैविकृतिपरिभोगत श्राप्यायन्तामिति योगनिक्षेपणम् । ये पुनतिरे- आगादयोगवाहिनः तेषां योगो न निक्षिप्यते केवलमन्यत् नो दिशन्ति नापि पठन्ति । व्य० ४ उ० । महामाउ - महामात्र-स्त्री० । पितृज्येष्ठभातृजायायाम्, मातृज्येष्ठायां सपत्न्याम्, विषा० १ श्रु० ३ श्र० ।
1
•
महामाटर- महामाटर- पुं० । ईशानेन्द्रस्य देवराजस्य स्थानी काधिपती, स्था० ४ ठा० २ उ० ।
महामाहण - महामाहन-पुं० । महाँश्चासी माहनश्चेति । मनःप्रभृतिकरणादिभिराजन्मसूक्ष्मादिभेदभिन्न जीवहनननिवृत्ते,
उत्त० ३ ० |
3
महामुखि महामुनि पुं० । मनुने मन्यते वा जगतत्रिकालाच स्थामिति मुनिः सर्वशत्वात् । महांश्चासौ मुनिश्च महामुनिः । अथवा मुनयः साधयस्तेषां महान प्रधानी महामुनिः । विशे० । महातपस्विनि, उत्त० २ श्र० । सूत्र० । जिनकल्पिकादी, सूत्र० १ श्रु० २ श्र० २ उ० । प्रशस्तयतौ उत्त० २ श्र० । यथावस्थितत्रिकालवेदिनि, सूत्र० १० १६ श्र० । श्राचा० । आ० म० । ज्ञानसम्पन्न. पो० १ विव० । श्रा० चू० । दर्श० । परमनिर्ग्रन्थे, अ० ३१ ० ।
•
•
•
महामुखिचरित- महामुनिचरित १० महालय ते मुनयस्थ महामुनयः स्थूलभद्रवज्रस्वाम्यादयः पूर्वर्षयस्तेषां चरितानिष्टितानि । महामुनिचेष्टितेषु ध० ३ अधि० । महामेह-महामेघ-पुं० । प्रभूतजलक्षर के बृहन्मेघे, अनु० (पंत उमापणी 'शब्दे द्वितीयभाग १२६६ पृष्ठे दर्शिताः ) महामेह खिउरंचभूय- महामेघनिकुरम्बभूत-पुं० महान जल भारावन्तः प्रावृदकालभावी मेघनिकुरम्यो मेघसमूहस्तथा भूतो गुणैः प्राप्ता महामेघनिकुरम्बभूतः । महामेघवृन्दोपमे, जी० ३ प्रति० १ उ० ।
५३
ध्यात्वे, दर्श० १ तस्व । भवशते दुःखवेदनीये कर्मणि, दशा० ६ श्र० । श्राचा० रा० । ( महामोहकारणानि ' मोहणिजद्वारा शब्दे वश्यामि ) योगिपरिभाषया रागे, स्था० २ ० १ उ० ।
9
महायनो देशी- आये दे० ना० ६ वर्ग १२२ गाथा । महायारकहा- महाचारकथा - स्त्री० । महत्या श्राचारकथायाः प्रतिपादके दर्शयैकालिकस्याध्ययने दश० ।
9
जो पुत्र उडिट्टो, आधारो सो अहीरामइरितो । सचैव य होइ कहा, आयारकहाए मदईए || २४५ ।। यः पूर्व क्षुल्लकाचारकथायां निर्दिष्टः उक्तः, आचारः-शानाचारादिः असावहीनातिरिक्री पव्यः सैव च भवति कथा, प्रक्षेपण्यादिलक्षणा वक्तव्या । चशब्दात्तदेव क्षुल्लकप्रतिपक्षो तं महद् वक्तव्यम् आचारकथायां महत्यां प्रस्तुतायामिति गाथार्थः । दश० ५ ० २ उ० ।
I
"
महारंभ- महारम्भ त्रि० महानारम्भी पहनोमालि कामन्त्री प्रवाहकृषिपोषादिको यस्य स महारम्भः । सूत्र० २ ० २ अ० । महानिच्छापरिमाणेनाकृतमर्यादया वृहदारम्भः पृथिव्याद्युपमर्दन लक्षणो यस्य स महारम्भः । चत्यादि स्था० ४ ० ४ ० पन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणि, स्था० ३ ठा० १ उ० । सूत्र० । दशा०| महारंभया - महारम्भता श्री० [चक्रवर्तित्वादी, स्था० ४
ठा० ४ उ० ।
महारण - महारण - न० । महासंग्रामे स० ।
महारम्म - महारम्य - त्रि० । अतिरमणीये, पञ्चा०८ विव० । महारयण - महारत्न - न० प्रधानरले, 'महारत्नं वज्रं स०|श्राव० | महारह - महारथ-पुं । प्रकरणादत्र नारायणः - तस्मिन् सूत्र० १ श्रु० ३ ० १ उ० ।
महाराय - महाराज - पुं । लोकपाले, नि० १ ० १ वर्ग ७ श्र० ।
,
श्रा० म० । स्था० भ० ।
महारायत्त - महाराजत्व - न० | लोकपालत्वे, स० ७८ सम० । महारिट्ठ - महारिष्ट - पुं० । बलैर्वैरोचनेन्द्रस्य नाट्यानीकाधिपतौ, स्था० ७ ठा० ।
1
महारिसि-महर्षि - पुं० । संयतात्मनि श्रा० म० १ ० । सूत्र० । महारिह महाई त्रि० महार्हे नं० श० महमुत्सचमतीति महार्हः । परमोत्सवाहे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० २३० । विपा० । बहुमूल्ये, प्रश्न० ५ संव० द्वार । महारोरुय - महारौरुक पुं० । सप्तमनरकपृथ्वीस्वरूपे महानरके, स्था० ५ ठा० ३ उ० । जी० । ज्यो० । सूत्र० । प्रज्ञा० । स० ।
महारोहिणी - महारोहिणी- बी० स्वनामस्यानायां महाब
द्यायाम् श्रा० ० ४ ० ।
महालक्खो-देशी-तरुणे, दे० ना० ६ वर्ग १२२ गाथा । भाद्रपदीयश्राद्धपक्षे. दे० ना० ६ वर्ग १२७ गाथा ।
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( २१० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महालच्छी
महालच्छी- महालक्ष्मी - स्त्री० । महाविष्णोर्भार्यायां पालगोपालस्यापरमातरि, तं० ।
महालय - महालय-पुं० । महान् महतां वा श्रालय श्राश्रितः । राजमार्गे, भावतस्तु महद्भिस्तीर्थकरादिभिरप्याश्रिते सभ्यग्दर्शनाविमुक्तिमार्ग, उत्त० १० श्र० । सूत्र०। स्था० । श्राचा० । क्षेत्रस्थितिभ्यां महत्सु, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार। स० । " मा कासि कम्माएँ महालयाइँ " उत्त० १३ श्र० । सूत्र० । उत्सवाश्रयभूते, स० ५३ सम० । महालयसव्वतोभद्दा - महालय सर्वतोभद्रा-स्त्री० । सर्वतोभद्रप्रतिमाभेदे, अन्त० ।
।
।
महालयं सव्वतोभद्दं तवोकम्मं उवसंपजित्ता गं विहरति । तं जहा—चउत्थं करेति, चउत्थं करिता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारिसा छहं करेति, छडं करित्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारित्ता श्रमं करेति मं करिता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारिता दसमं करोति, दसमं करिता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुबालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामणिय पारेता चोदसं करेति, चउद्दसं करिता सव्वका मणि पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता सोलसमं करेति, सोलसमं करता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुखियं पारेता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउदसं करेति, चउदसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता सोलसं करेति, सोलसं करेत्ता सव्वकामणि पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, उत्थं करेत्ता सव्वकामगुखियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेताछ करेति, छ करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता अमं करेति, श्रमं करेत्ता सन्धकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसं करेति, सोलसं करेत्ता सव्वकामगुणियं परेिति, सव्वकाम गुणियं पारेता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकासगुखियं पारेति, सव्वकामगुखियं पारेत्ता छई करेति, छठ्ठे करेसा सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता अट्टमं करेति मं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पाता दस करेति, दसमं करेता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेना दुबालसं करेति, दुबालसंछ करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुखियं पारेता चोहसं करेति, चोहसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्त्र कामगुणिय पारेतामं करेति, अदुमं करेत्ता सव्वकाम
महालय सव्य०
"
गुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दसमं करेति, दसमं करेता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दुवालसं करेति, दुबालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोदसमं करेति, चोहसं करता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता सोलसं करेति, सोलसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुखियं पारेता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, बटुं करेता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोहर्स करेति चोदसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सबकामगुणियं पारेता सोलसमं करेति, सोलसमं करेना सव्वकामगुणियं पारेति सव्वकामगुणियं पारेता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता छ करेति, छट्ठे करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता अमं करेति, अट्टमं करता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दसमं करोति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दुवालसं करेति, दुवाल सं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छट्ठे करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति सव्वकामगुणियं पारेता अमं करोति, अहम करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दसमं करोति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दुवालसं करेति, दुबालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता चोदसमं करेति, चोहसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेशा सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता चउत्थं करेति, चउत्थं करेता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दुबालसं करेति, दुबालसं करेत्ता सव्त्रकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता चोहसमं करेति, चोदसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुखियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता
करेति, छडुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्चकामगुणियं पारेत्ता अडमं करेति, अङ्कुमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेता दसमं करेति, दसमं करता, एकेकाए, लयाए ग्रह मासा पंच य दिवसा
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महालयसव्व० अभिधानराजेन्द्र:।
महाविदेह चउराहं दो वासा अद्र मासा वीस दिवसा सेसं तहेव० विमाणाउ ति ) महाविमानात् । कल्प०१ अधि० १ जाव सिद्धा । (सूत्र-२३)
क्षण । जी०। प्रा० चू। अन्त०८ वर्ग अ० महालया श्रालयप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद् ।।
महाविञ्ज-महावैद्य-पुं० । केवलिचतुईशपूर्ववित्ममृती भअतिशयातिशयगुरुके, भ० १ ० १ उ० । विपा० । अनु।
बरोगनिदानवेत्तरि, श्राव० ४ अ० । अष्टाकायुर्वेदरूपस्य
धन्वन्तरिप्रणीतस्य वैद्यकशास्त्रस्य यथाम्नायमधीतमहालो-देशी--जारे, दे० ना० ६ वर्ग ११६ गाथा।
वति, बृ०१ उ०। महालस-महालस-त्रि०। अत्यन्तमलसे, महा० ३ अ० । महाविज्जा-महाविद्या-स्त्री०महापुरुषप्रदत्तविद्यायाम्, प्रा० महालोहिअक्ख--महालोहिताक्ष--पुं० । बलेवैरोचनेन्द्रस्य | म०१०। महिषानीकाधिपतौ, स्था० ५ ठा० १ उ० ।
महाविदेह-महाविदेह-पुं० । जम्बूद्वीपमध्यगते वर्षे, जं०। महावक्कऽत्थ-महावाक्यार्थ--पुं०। प्रक्षिप्तेतरसर्वधर्मात्मकत्व
तद्वक्तव्यतामाहवस्तुप्रतिपादकानेकान्तवादविषयाथे, पो० ११ विव०।। कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णाम महावक्कथय-महावाक्यार्थज--त्रि० । अनेकान्तविषयार्थज- वासे पामते । गोत्रमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्ययन्ये, पो० ११ विव०।
स्स दक्खिणेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं महावच्छ--महावत्स--पुं० जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे शीता- पुर (च्छि) थिमलवणसमुहस्स पच्चस्थिमेण पचत्थिमलवया महानद्या दक्षिणेऽपराजिताराजधानीयुक्त विजयक्षेत्र-| णसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे युगले, स्था०८ ठा० । महावत्सो विजयोऽपराजिता रा- जाने वीगाया रटीटाटिगाविजधानी वैश्रमणकृटो नाम वक्षस्काराद्रिः । जं०४ वक्षः ।।
थिले पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरत्थिमहावञ्जा-महावा -स्त्री० । लोकपीडया सावद्यायां बस-|
म. जाव पुढे, पचत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं तो, पं०व०३ द्वार । ('वसहि' शब्दे दर्शयिष्यते)
जाब पुढे, तिती जोअणसहस्साई छच्च चुलसीए जोमहावण-महावन-न० । मथुरायां स्वनामख्याते बने, ती०८ |
अणसए चत्तारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्संगेकल्प । उत्त०। महावप्प-महावप्र-पुं० । जम्बूमन्दरस्य पश्चिमे शीतोदायाम- णं ति । तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमे णं तेत्तीसं जोअणहानद्या उत्तरे जयन्तिकापुरीप्रतिबद्ध विजयक्षेत्रयुगले,स्था०
सहस्साई सत्त य सत्तसढे जोअणसए सत्त य एगूणवी८ ठा। श्रा०क०।
सइभाए जोअणस्स आयामेणं ति, तस्स जीवा बहुमज्झदेदो महावप्पा । स्था० २ ठा०३ उ० ।
सभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरमहावराह-महावराह--पुं० । महाकायसूकरे,सूत्र०१ श्रु०७० थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुट्ठा, एवं पञ्चमहावल्ली-देशी-नलिन्याम्, दे० ना० ६ वर्ग १२२ गाथा ।
थिमिल्लाए जाव पुट्ठा, एगं जोयणसयसहस्सं आयामे
णं ति, तस्स ध[ उभो पासिं उत्तरदाहिणेणं एग जोमहावाय--महाबात-पुं० । उद्दण्डवाते, शा०१ श्रु०१० अ०।
अणसयसहस्सं अलावणं जोअणसहस्साई एगं च तेरमुत्तअनल्पवाते, भ० ५ श०२ उ० । श्राचा० ।
रं जोअणसयं सोलस य एगणवीसहभागे जोयणस्स महावाउ-महावाय-पुं० । ईशानेन्द्रस्य पीठानीकाधिपतौ
किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं ति। अश्वराजे, स्था०५ ठा० १ उ० ।
"कहि णमित्यादि' व भदन्त ! इत्यादि सूत्रं स्वयं योमहाविगइ--महाविकृति-स्त्री० । महारसे, महायिकारकारि- ज्यम्, मवरं महाविदेहं नाम वर्ष-चतुर्थ क्षेत्र प्राप्तम् ? त्वात् । महाविकृतयो महारसत्वेन महाविकारकारित्वान्म- गौतम ! नीलघतो वर्षधरपर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्रविभागहतः सत्वोपघातस्य कारणत्वात् । स्था।
कारिणो दक्षिणेनेत्यर्थः ( णिसहस्स इत्यादि ) व्यक्तम् , चत्तारि महाविगईओ पप्मत्ताओ । तं जहा-भई मंसं | नवरं पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितमायतचतुरस्रत्वात्, विस्तारण मजं णवणीयं । ( सूत्र-२७४)
त्रयस्त्रिंशदयोजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि चतुरशी
त्यधिकानि चतुरश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेमद्यभेदे च । स्था० ४ ठा० १3०।
म, निषधविष्कम्भाद् द्विगुणविष्कम्भकत्वात् । अथ बाहादिमहाविजय-महाविजय-न० । महान् विजयो यत्र तत्
सूत्रत्रयमाह-(तस्स बाहा इत्यादि) तस्य महाविदेहस्य वमहाविजयम् । पुष्पोत्तरनामके विजयिनि विमानभेदे, पस्य पूर्वापरभागेन बाहा प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राकल्प० । ( पुप्फुत्तर त्ति ) पुष्पोत्तरनामकम् ( प- णि सप्त च योजनशतानि सप्तषष्टयधिकानि सप्त च एवरपुण्डरीयाश्रोत्ति) प्रवरेषु अन्यश्रेष्ठविमानेषु पुण्डरी- | कोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेनति । ननु" मया कमिव श्वेतकमलमिव अतिश्रेष्ठमित्यर्थः । तस्मात् (महा-| धणुएटाओ, डहरागं सोहिश्रा हि धणुपटुं । जं तत्थ हवइ से
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( २१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महाविदेह
सं, तस्सद्धे णिहिंसे बाहं ॥ १ ॥ " इति वचनात् । महतो धनुः पृष्ठाद्विदेहानां दक्षिणार्द्धस्योत्तरार्द्धस्य च संबन्धिनो लक्षमेकमष्टपञ्चाशत् सहस्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिकं योजनानां षोडश च कलाः सार्द्धा योजन १५८११३ कलाः १६ क लार्द्धं चेत्येवं परिमाणाल्लघुधनुः पृष्ठं निषेधादिसंबन्धिलक्षमे - कं चतुर्विंशतिसहस्राणि नाणि शतानि षयत्वारिंशदधि - कानि योजना न च कला योजन१२४३४६ कलाः इत्येवं परिमाणं शोधय। ततश्च शेषमिदं त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि सम शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि योजनानां सप्त च कलाः सार्द्धाः योजनानां ३३७६७ कलाः ७ कलार्द्ध च एषाम पोडश योजनसहस्राणि अनौ शतानि व्यशीत्यधिकानि योजमानां त्रयोदश च कलाः सपादा इत्येवं रूपा बाहा विदेहानां सम्भवन्ति, अत्र तु त्रयस्त्रिंशत् सहस्रादिरूपा
चला तत्किमिति, उच्यते सर्वत्र बैताख्यादिषु पूर्ववादावित्थितराए चैव विपुलतराए चैव महंततराए व
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,
"
अपरबाद्दा च यावती दक्षिणतस्तावती उत्तरतोऽपि परं व्यवहितत्वेन सा समय तो तु संमिलि तत्वात्संमील्यैवोक्ला, सूत्रे दक्षिणवाहाप्रमाणैवोत्तरबाहेत्येनमर्थ बोधयितुमिति । अथास्य जीवामाह - ( तस्स जी - था इत्यादि) तस्य विदेहस्य जीवा मध्यदेशमा विदेवासे दमध्ये इत्यर्थः । अन्येषां तु वर्षवर्षां चरमप्रदेशजिया, अस्य तु मध्यप्रदेशपक्रिरित्यर्थः इयमेव ज म्बूद्वीपमध्यम् अत एव थायामेन लक्षयोजनमाना, मध्यमात्परतस्तु जम्बूद्वीपस्य सर्वत्र दक्षिणत उतरतो या लक्षान्यूनन्यूनमानत्वात्, अथास्य धनुः पृष्ठमाह - ( तस्स धणुं इत्यादि ) तस्य विदेहस्योभयोः पार्श्वयोः एतदेव विवृगोति- ( उत्तरदाहिणे णं ति ) उत्तरपार्श्वे दक्षिणपार्श्वे वा एक योजनलक्षम् अष्टपञ्चाशच योजनसहस्राणि एकं च योजनशतं त्रयोदशोत्तरं षोडश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विशेषाधिकार परिक्षेपेण यच्चान्यत्र सापोड कला उक्तास्तदत्र किंचिद्विशेषाधिकपदेन सं गृहीतम् उदरितकलशास्तु विवक्षिता इति । अत्राधिकासूचनार्थ करणान्तरं दर्श्यते - जम्बूद्वीपपरिधिस्तिस्त्रां लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके योजनानां क्रोशत्रयमष्टाविंशं धनुः शतं त्रयोदशाङ्गुलान्येकमडीङ्गुलम्, योजन ३१६२२७ क्रोश ३ धनूंषि १२८ श्रङ्गुलानि १३ अर्द्धाङ्गुलम् तत्र योजनराशिद्धीक्रियते, लब्धमेके लक्षमापचाशत् सहस्राणि शतमेकं प्रयोदशाधिक योजनानि १५८११३, यस्वेकं योजनं शेषं तत्कलाः क्रियन्ते लब्धाः एकोनविंशतिः कोशत्रये च लब्धाः सपादाश्चतुर्दश कलाः, उभयमीलने जाताः सपादास्त्रयस्त्रिंशत् फलाः तासामद्धे लब्धाः सार्द्धाः पोडश कलाः । यश्च कलाया अष्टमो भागोऽधिक उद्धरति यानि च धनुषाम लब्धानि चतुःषष्टिर्धनूंषि यानि च सार्द्धत्रयोदशाङ्गुलानामर्द्ध पावनानि साङ्गलानि तदेतत्सर्वमपत्वाच्च विवक्षतमिति । अधुना विदेहवर्षस्य पारुिपयामहाविदेहे णं वासे चउबिहे चउप्पडोआरे पते । तं जहा पुष्पविदेहे १ अवरविदेहे २, देवकुरा ३, उतरकुरा ४ || महाविदेहस्स गं भंते ! वासस्स केरि
महाविदेह स श्रागारभाव पडोरे पत्ते ? । गोयमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पहने जाय कितिहि देव कित्तिमेहिं चैव । महाविदेहे णं भंते ! वासे माणं केरिसए श्रायारभाव पडोरे पत्ते ? । गोयमा ! णं मणुत्राणं छव्विहे संघय छवि ठाणे पंच धणुसमाई उई उसने जहां अंतो उसे पुव्वकोडी आउ पार्लेति पालेत्ता अप्पेगइया गिरयगामी ० जाव अप्पेगहया सिज्यंति ० जाव अंतं करेति । से केणऽट्टेणं भंते ! एवं वृच्चइ - महाविदेहे वासे म० २ गोअमा ! महाविदेदे गं वासे भारद्देरवयहेमवरवयहरिवासरम्भगवासेहिंतो आयाम विक्खम्भसंठाणपरिणाहेणं
सुप्पमाणतराए चैव महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवति, महाविदेहे य इत्थ देवे महिड्डिए जाव पलिओट्टिईए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोअमा ! एवं वृच्चइ - महाविदेहे
म०२, अदुसरं च यं गोधमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधे पसत्ते, जं ण कयाइ खाऽसि स कवाद नस्थि व कवाइ ग भविस्सइ ।। सूत्र८५ ॥
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( महाविदे णं इत्यादि) महाविदेहं वर्षे चतुर्विधं चतुप्रकारं पूर्वविदेहाद्यन्यतरस्य महाविदेहत्वेन व्यपदिश्यमानत्वात् श्रत एव चतुर्षु पूर्वापर विदेहदेव कुरूत्तरकुरुरूपेषु क्षेत्रविशेषेषु प्रत्यवतारः - समवतारो विचारणीयत्वेन यस्य तत्तथा चतुर्विधस्य पर्यायो वाऽयम् तत्र पूर्वविदेो यो मेरोर्जम्बूद्वीपगतः प्राग्विदेहः, एवं पश्चिमतः सोऽपरविदेहः, तितो देवकुरुनामा विदेहः, उत्तरतस्तु उत्तरकु रुनामा विदेहः ननु पूर्वापरविदेहयोः समानशेषानुभावकस्पेन महाविदेहव्यपदेश्यताऽस्तु देवकुरुतरकुरू स्वकर्मभूमिकत्वेन कथं महाविदेहत्वेन व्यपदेशः ? उच्यते-प्र -प्रस्तुतक्षेत्रयोर्भरताद्यपेक्षया महाभोगत्वात् महाकायमनुष्ययोगित्वान्महाविदेहदेवाधिष्ठेयत्वाच्च महाविदेहवाच्यता - मुचितैवेति सर्व सुस्थम् । अथास्य स्वरूपं वर्णयितुमाह - ( महाविदेह इत्यादि ) प्राग्वत् अत्र यावकरसान् " आलिंगखरेद या व्जाव णाणाविह पंचमणीहि नगोह उभिए" इति प्रत्यव मनुजस्परूपमाह - 'महाविदे' इत्यादि प्राग्वत आभ्यां सूत्राभ्यामस्य कर्मभूमित्यमभाग, अन्यथा कर्मकादिवृणनां तृणादीनां कृत्रिमत्वं तद्वर्षजातानां च मनुष्याणां पञ्चमगतिगामित्वं न स्यात् । अथास्य नामार्थ प्रश्नयन्नाह - " से के द्वेणमित्यादि" प्राग्वत्, प्रश्नसूत्रं सुगमम् । उत्तरसूत्रे-गौतम महादिव भारतरत है मचत र स्पहरियरस्यकव भ्यः श्रायामविष्कम्भस्थापरिणाहेन समाहारादेकाचः। तत्राऽयामादित्रिकं प्रतीतम परिवाहः परिधिः अत्र व व्यस्ततया विशेषणनिर्देश अप योजना यथासम्भयं अपनीत्यायामेन महत्तरक एव लक्षप्रमाणजीवाकत्वात् तथा विकम्भेन पितरक एवं माविकचतुरशीनिदशनाथ
,
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महाविदेह
"
कत्रयत्रिंशद्योजन सहस्त्रप्रमाणत्वात्, तथा संस्थानेन पल्यइरुपेण विपुलतरक एवं पार्श्वयेऽपीयोस्तुल्यप्रमाणत्वासंस्थितत्येऽपि पूर्वजमतीकोगानां संवृतत्वेन पूर्वापरेयोपम्यादिति तथा परिणान सुप्रमातरक एव एतद्धनुः पृष्टस्य जम्बूद्वीपपरिध्यद्धमानत्वादिति महान प्रतिशयेन विशिषो गरीयान देड:शरीरमाभोग इति यावत् येषां ते महाविदेहाः । अथवा-महान् अतिशयेन विशिष्टो वरीयान् देहः शरीरं कलेवरं येषां ते तथा, ईदृशास्तत्रत्या मनुष्याः, तथाहि तत्र विजयेषु सर्वदापचधनुःशतोष्या देवकुरुत्तरकुरुषु त्रिगव्यूतोच्छ्रयाः ततो महाविदेहमनुष्ययोगादिदमपि क्षेत्र महाविदेदाः। म हाविदेहश्वशब्दः स्वभावाद्बहुवचनान्त एव एतच्च प्रागेबोक्रम्। ततो बहुवचनेन व्यवहिते, रश्यते च कचिदेवचनान्तोऽपि तदपि प्रमाणम् पूर्वमहर्षिभिस्तथाप्रयोगकर रणात् । अथवा-महाविदेहनामा देवोऽत्राधिपत्यं परिपालयति, तेन तयोगादपि महाविदेह इति शेषं प्राग्वत् ज० ४ वक्ष० । स्था० । प्रव० । प्रज्ञा० । विपा० । स० प्रा० चू० । ( उत्तरकुरुवक्लव्यता ' उत्तरकुरा' शब्दे द्वितीयभागे ७५७ पृष्ठे गता ) ( कच्छादिविजयानां वर्णकः कच्छा ऽऽदिशब्देषु ) पिशाचविशेषे, प्रज्ञा० १ पद ।
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जम्बुवेदीचे महाविदेहे वासे चउब्विहे पम्पते। तंजहा - पुच्वविदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा |
( २१३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
स्था० ४ डा० ( महाविदेदे कल्याणचिन्ता 'कल्ला' शब्दे तृतीयभागे ३८४ पृष्ठे कृता । ) महाविदेहा-महाविदेहा स्त्री० शरीराइडिनर
"
,
मनोवृत्ती द्वा० शरीराद्वहिर्या शरीरनैरपेच्येण मनोवृत्तिः सा महाविदेहेत्युच्यते शरीराऽहंकारविगमात् । अत एवाफल्पितत्वेन महत्त्वात् शरीराऽहंकारे सति हि बहिर्वृत्तिर्म नसः कल्पितोच्यते । तस्याः कृतसंयमायाः सकाशात् प्रकाशस्य शुद्धसत्त्वलक्षणस्य यदावरणं क्लेशकर्मादि तत्यो भवति सर्वे चित्तमलाः क्षीयन्त इति यावत् । तदुक्तम् - " बहिरकल्पितावृत्तिर्महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षय इति । द्वा० २६ द्वा० । महाविमाण - महाविमान न० अनुसरविमानेषु, स्था० ।
"
उडलोगे पंच अणुत्तरा महामहाविमाणा पणना। सं जहा -- विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे ।
स्था० ५ ठा० २ उ० । सूत्र० ।
महाविल- देशी- व्योम्नि, दे०ना० ६ वर्ग १२१ गाथा । महाविस - महाविष- पुं० । महज्जम्बूद्वीपप्रमाणशरीरस्यादिवि. बतया भवनात् विषं यस्य सः । ज्ञा० १ श्रु० अ० । प्र धानविषयुक्ते, श्राव० ४ ० । जम्बूद्वीपप्रमाणस्यापि शरीरस्य व्यापनसमर्थे विषे भ० १५ श० । महाविसय महाविषय त्रि० बृहद्गोचरे, पञ्चा०वि० श्राव० | दर्श० । महाविहि महाविधि पुं० द्विधी ०१०२०१४० महावीर - महावीर - पुं० | महांश्वासौ वीरश्व कर्मविदारणस
-
५४
महाबीर हिष्णुर्महावर नं० 'शूर' 'वीर' विकान्तो कषायादिश जयान्महाविक्रान्तो महावीरः । श्र० म० १ ० | दश०] स्था०| एगे समणे भयवं महावीरे इमीसे सप्पिणीए उब्बीसाए तित्थगराणं चरमतित्थवरे सिद्धे युद्धे मुते ० जाव सय्यदुक्खप्पी (सूत्र-५३)
( एगे समणे इत्यादि) एकः - असहायः अस्य च सिद्ध इत्यादिना संबन्धः आम्पति तपस्वतीति भ्रमणः भज्यत इति भगः समश्वर्यादिलक्षणः उक्तं च
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,
"
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पराणां भग इतीङ्गना ॥ १ ॥ " इति । स विद्यते यस्येति भगवान्, तथा विशेषेणेरयति - मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः प्रेरयति धा-कमणि निराकरोति, वीरयति वा - रागादिशत्रून् प्रति पराक्रमयति इति वीरः निरुक्रितो या वीरो यदाह" विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर इति स्मृतः ॥ १ ॥” इतरवीरापेक्षा महांधासी वीरधेति महावीर, भाष्योक्तं च
,
तिहुयणविक्खायजसो, महाजसो नामश्रो महावीरो । वितो फसाया 5-1 सनुसेप्पराजय ॥ १ ॥ ईरेइ विसेसेण व, खिवर कम्माइ गमयइ सिवं वा । गच्छ श्र ते वीरो, स महं वीरो महावीरो ॥ २ ॥ " इति । श्रस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतेस्तीर्थकराणां मध्ये वरमतीर्थकः सिद्धः कृतार्थो जातः । बुद्धः केवलज्ञानेन बुद्धवान् बोध्यम्मुक्तः कर्मभिः यावत्करणात् तकडे ' अन्तो भवस्य कृतो येन सोऽन्तकृतः परिनि बुडे ' परिनिर्वृतः कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः किमुक्तं भवति ? - " सब्वदुक्खपहीणे " सर्वाणि शारी
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राऽऽदीनि दुःखानि प्रीणानि महीणानि या यस्य स सदुःखमक्षयः सर्वदुःखही या सर्वत्र बहुवीही शा न्तस्य यः परनिपातः स श्राहिताग्न्यादिदर्शनादिति । इह च तीर्थकरेष्वेतस्यैवैकत्वं मोक्षगमने, न तु ऋषभादीनां दशसहस्रादिपरिवृतत्वेन तेषां सिद्धत्वात् उक्लं च"गो भगवं पीरो, तेतीसार सह निष्युधो पासो । तीसह पंच, सहि" नेमी उसिडिगो ॥१॥" इति। स्था० १ डा० सूत्र कर्मदारणसहिष्णी सूत्र० १ श्र० १५ अ० श्रीमद्वर्डमानस्यामिनि सूत्र० १० श्र० । सर्वलोकचमत्कृतिकारिणि, आचा० १ ० ६ श्र० ३ उ० । आव० । आ० चू० । रा० । ग० । अने० । प्रशा० । पा० । विशे० । स्था० । सूत्र० । अनु० | प्रब० । ल० । ( संपूर्णोऽधिकारः 'वीर' शब्दे वक्ष्यते )
"
समणेयं भगवया महावीरे अड रायासी मुंडे नविता अगाराओं अलगारियं पच्याविषा । तं जहा-" वीरंगय वीरजसे, संजयए गिज्जए य रायरिसी । सेयसिवे उदायसे, तह संखे कासि बढये ।। १ ।। " (मूत्र- ६२१) स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
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विव०।
महावीर अभिधानराजेन्द्रः।
महासयय बंदामि महाभागं, महामुणिं महायसं महावीरं । | महावेयणतर-महावेदनतर-त्रि० । महती वेदना जीवानां अमरनररायमाहियं, तित्थयरमिमस्स तित्थस्स ।। यस्मात्स तथा । जीवानां महत्या वेदनाया उत्पादके, भि०७ प्रा०म०१०। स्था० । पश्चा० भ० ज०। प्राचा०।। श०१० उ०। स०।० चू० । श्रीवीरतीर्थकृतो द्विसप्ततिवर्षाण्यायुर्मान- महावोंदि-महावोन्दि-स्त्री०। महाप्रभावतनौ,म०३ श०२ उ०॥ मुक्तं, तज्जन्मदिनाद्वा गर्भोत्पत्तेर्वा तदायुर्विचार्यमाणं मिथो | महास-महाऽश्य-पुं० । बृहत्तुरके, श्री० । विघटते तत्किमिति प्रश्ने, उत्तरम्-जन्मपत्राद्यपेक्षया तु जन्मतः, परमार्थतस्तु गोत्पत्तित आयुःपरिमाणं गण्य
महासंगाम-महासंग्राम-पुं० । चकादिव्यूहरचनोपेततया संते, द्वासप्तत्यादिवर्षमानप्रतिपादनं तुन्यूनाधिकमासदिवसा-|
व्यवस्थे महारयो, जं० २ वक्षः। नामविवक्षणान्न विसंवदतीति । ६४ प्र० सेन०२ उल्ला० । महासंजत्तिय-महासांयात्रिक-पुंग तीर्थकरे,प्रा०चू०१० श्रीवीरो द्वाविंशे भवे राजा, त्रयोविंशे भवे चक्री, चक्रिणो महासडि-महाश्रद्धिन-त्रि० । महती चासौ श्रद्धा र देवनारकाऽऽगता भवन्त्यन्यतो वेति प्रश्ने, उत्तरम्-आवश्य- महाश्रद्धा, सा विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स कवीरचरित्राद्यनुसारेण सिंहभवानन्तरं नारकभवादुकृत्त्य- तथा। भोगाशक्तचित्ते, "अमरायह महासड्डी" प्राचा० १ तिर्यग्मनुष्यादिभवेषु भ्रान्त्वा चक्री जातो, राजभवस्तु |
श्रु० २ १०५ उ०। स्तोत्रेवेष दृश्यते नान्यत्र, तेनादिशब्दग्रहणात्सुरादिभवोऽपि संभाव्यत इति । ११३ प्र० । सेन०२ उल्ला० । निर्वा
| महासढ-महाशठ-पुं० । अतिशठे, " जाणति य णं तहा णावसरे श्रीवीरेण षोडश प्रहरान् यावद्देशना दत्ता, सा|
पिया माइले महासढेयं ।” सूत्र०१ श्रु०७०। कस्मादिनादारभ्य कस्मिन् दिने पूर्णा जातेति प्रश्ने, उत्त
महासम्माह-भहासन्नाह-पुं० । बृहत्पुरुषाणामपि बहूनां सरम्-चतुर्दशीदिनादारभ्यामावास्यायाः पाश्चाद्धटिकाद्व- माहे, जी० ३ प्रति०४ अधिक। यरात्री देशना पूर्णा जाता संभाव्यते, यतोऽमावास्यायामे- महासत्त-महासत्त्व-पुं० । अवैक्लव्याध्यवसायवति, पक्षा कोनत्रिशन्मुहुर्ते निर्वाणं कथितमस्ति षोडश प्रहरास्तु ततो- १२विव०। ऽर्वाग जाता युज्यन्त इति । ४५० प्र० । सेन०३ उल्ला०1रायता-पायला..स्त्री० । सर्वत्र सदित्येवमनगताकामहाधीरेण कर्णशलाकाकर्षणे कथमाक्रन्दः कृतः, अनन्तब
रावयोधहेतुभूते सामान्ये, स्था० ७ ठा० । यद्वशादविलत्वादिति प्रश्ने, उत्सरम्-अनन्तबलत्वं भगवतां क्षायिकवी- | र्यमाश्रित्यैवोक्तम् ,"अपरिमियबला जिणवरिंदा" इत्यत्र तथा |
शेषेण सर्वत्र सदिति प्रत्यय इति । श्रा०म० १ ० । व्याख्यानात् , ततः प्रबलपीडावशाद्भगवत श्राक्रन्दसंभ- महासत्य-महाशल-१० । नागवार
| महासत्थ-महाशा-न० । नागवाणादि-दिव्यास्त्रेषु , नागवेऽपि न किमप्यनुपपन्नमिति । ४६५ प्र० । सेन०३ उल्ला० ।। वाणादयो हि वाणा महाशस्त्राणि तेषामद्भतविचित्रशक्तिमहावीरथइ-महावीरस्तति-स्त्री० । वीरस्तवनात्मके सूत्रक- | त्वात् । जी० ३ प्रति०४ अधिक। सागस्य षष्ठेऽध्ययने, स०१५ सम०।।
महासत्थणिवयण-महाशस्त्रनिपतन-न०। नागवाणाऽऽदीनां महावीरभासिय-महावीरभाषित-न० । प्रश्नव्याकरणानांत- दिव्यास्त्राणां प्रक्षेपणे, नागवाणाऽऽदयो हि वाणा महातीयेऽध्ययने , स्था० १० ठा० ।
शस्त्राणि तेषामद्भुतविचित्रशक्लित्वात् । जी० ३ प्रति० महावीहि-महावीथि--स्त्री०। महती चासौ वीथिश्च । सम्यग्
४ अधिक।
महासत्थवाह-महासार्थवाह-पुं० । महावणिजि,प्रा००१०। दर्शनादिरूपे मोक्षमार्गे, प्राचा०१ श्रु०११०३ उ० । महावुद्रिकाय--महावृष्टिकाय-पुं०। प्रभूतवृष्टी, स्था। महासद्द--महाशब्द-पु० । शृगाले, " भुल्लकिश्रा भसुश्रा
महासहा" पाइ० ना० १२७ गाथा। तिहिं ठाणेहिं महावुद्विकाए सिया । तं जहा--तंसि च | णं देससि वा पएसंसि वा बहवे उदगजोणिया जीवा |
महासद्दा-देशी-शृगाले, देना० ६ वर्ग १२० गाथा ।
महासमण-महाश्रमण-पुं० । महातपस्विनि, द्वादशादितय पोग्गला य उदगत्ताए बक्कमति विउक्कमंति चयंति उव
पश्चारिणि, पं०व० १ द्वार । " भाग्हायसगोत्ते, स्यगवजंति, देवा जक्खा नागा भूया सम्ममाराहिया भवंति | डंगे महासमणनामे । श्रगुणत्तीससतेहिं, जाहिं परिसाण अन्नत्थ समुद्वियं उदगपोग्गलं परिणयं वासिउकामं तं | बोच्छित्ति ॥ १०॥" ति। देसं साहरंति , अभवद्दलगं च णं समुद्वियं परिणयं महासमुह--महासमुद्र-पुं० । स्वयम्भूरमणादि-वृहत्सागरे, वासिउकाम णो वाउकातो विहुणति, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं | पञ्चा०४ विव०। महाबुट्टिकाए सिया। (सूत्र-१७६ ) स्था० ३ ठा० ३ उ०। महासयय-महाशतक-पुं० । स्फीतचित्ते राजगृहवास्तव्ये महावेग-महावेग-पुं० । महोरगविशेषे,प्रशा० १ पद । भूतनि- स्वनामख्याते गृहपती, उपा। कायभेदे, प्रज्ञा० १ पद।
___ जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं राजागिहे णयरे गुणमहावेञ्ज-महावैद्य-पुं० । अष्टाकायुर्वेदवेसरि वैधे, धृ० १ उ०। सिले चेहए सेणिए राया,तत्थ णं रायगिहे महासयए महावेयण-महावेदन-न । महापीडायाम् , भ०६श०३ उ०।। णाम गाहावई परिवयड, अड़े जहा आणंदो, रणवरं अट्ठ
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महासयय
(२१५) अभिधानराजेन्द्रः।
महासयय हिरमकोडिओ सकंसाओ णिहाणपउत्तानो अट्ठ हिरनको- एहि य सुरं च महुं च मेरगं च मजं च सीधं च पडिमो सकंसानो बुद्विपउत्तानो अट्ट हिरामकोडिओ सकं- सबं च आसाएमाणी. ४ विहरइ । ( सूत्र-४८) तए सानो पवित्थरपउत्तानो। अद्व वया दसगोसाहस्सिएणं, णं रायगिहे णयरे अएणया कयाइ अमाघाए घुट्टे याऽवएणं, तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भा- वि होत्था, तए ण सा रेवई गाहावइणी मंसलोलुया मंसेरियाभो होत्था, अहीण जाव मुरूवारो। तस्स णं म-सु मुच्छिया कोलघरए पुरिसे सदावेइ २ ता एवं हासमगस्स रेवईए भारियाए कोलघरियाो अट्ठ हिरम- |
वयासी-तुम्भे देवाणुप्पिया! मम कोलघरिएहिंतो वएकोडिभो अट्ठ क्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था । अव
हिंतो कल्लाकलिं दुवे दुवे गोणपोयए उद्दवेह उद्दवेइत्ता सेसाणं दुवाससएहं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा हिर
ममं उवणेह, तए णं ते कोलघरिया पुरिसा रेवईए गास्मकोडी एगमेगे य वए दसगोसाहस्सिएणं वए ण होत्था ।।
हावइणीए तह त्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणंति पडि( सूत्र-४६) ते ण काले णं ते ण समए णं सामी समोसढे,
सुणित्ता रेवईए गाहावइए कोलघरिएहितो वएहितो परिसा णिग्गया, जहा आणंदो तहा णिग्गच्छइ तहेव सा
कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए वहति २ ता रेवईए वयधम्म पडिवज्जइ, णवरं अट्ठ हिरामकोडियो सकंसाप्रो
गाहावइणीए उवणेति, तए णं सा रेवई गाहावइणी उच्चारेइ, अट्ठ वया रेवईपामोक्खाहिं तेरसहिं भारियाहिं
तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहि य०४ सुरं च०६आसाएमाणी०४ अवसेस मेहुणविहिं पच्चक्खाइ, सेसं सव्वं तहेव, इमं
विहरह । (मूत्र-४६) तए णं तस्स महासयगस्स समच णं एयारूवं श्रमिग्गहं अभिगिरहइ कल्लाकाल्लिं च णं
णोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोइस कप्पड़ मे वे दोमियाए कंसपाईए हिरामभरियाए संव
संवच्छरा वइक्ता, एवं तहेव जेट्ठपुत्तं ठवेइ जाव वहरिचए, तए णं से महासयए समणोवासए जाए अभि
पोसहसालाए धम्मपत्तिं उवसंपजित्ता णं विहरइ ।
तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइएणगयजीवाजीवे०जाब विहरइ । तए णं समणे भगवं महा
केसी उत्तरिजयं विकड्रमाणी वि०२ जेणेव पोसहसाला वीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ । ( सूत्र-४७) तए णं
जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ सा तीसे रेवईए गाहावइए अप्मया कयाई पुनरत्तावरत्त- मोहुम्मायजणणाई सिंगारियाई इथिभावाई उवदंसेकालसमयंसि कुडंव जाव इमेयारूवे अज्झथिए० ४ एवं
माणी महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो खलु अहं इमस्सि दुवालसएहं सवत्तीणं विघाएणं
महासयया! समणोवासया ! धम्मकामया पुस्मकामया णो संचाएमि महासयएणं समोवासएणं सद्धिं उ-|
सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकंखिया० ४ धम्मपिवारालाई माणुस्सयाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरित्तए, सिया०४ किामं तुब्भे देवाणुप्पिया धम्मेण वा पुस्मेण वा तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालस वि सवत्तियाओ | सग्गेण वा मोक्खण वा ? जसं तुम मए सद्धिं उरालाई० अग्गिप्पओएणं वा सत्थप्प ०वा विसप्प वा जीवियाओ | जाव मुंजमाणे णो विहरसि । तए णं से महासयए समणोववरोवित्ता, एयासिं एगमेगं हिरएणकोडिं, एगमेगं वयं
वासए रेवईए गाहावइणीए एयमढे णो आढाइ णो परिसयमेव उवसंपज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं
याणइ अणाढाइजमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए सद्धिं उरालाई जाब विहरित्तए, एवं संपेहेइ एवं संपे- धम्मज्झाणोवगए विहरइ, तए णं सा रेवई गाहावइणी हित्ता तामि दुवालसण्हं सवाणं अंतराणि च छि- महासययं समणोवासयं दोचं पि तच्चं पि एवं वयासीहाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ, तए णं | हं भो तं चेव भणइ, सोऽवि तहेव जाव अणाढाइजसा रेवई गाहावइणी अण्णया कयाइ तासि दुवालसएहं | माणे अपरियाणमाणे विहरड, तए णं सा रेवई गाहासवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवनीअो सत्थप्पओएणं वइणी महासयएणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणी उहवेड उहवेइत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवह अपरियाशिगजमागी जामेव दिसं पाया तामेव हिउहवेत्ता तासिं वालसएहं सवत्तीणं कोलघरिअं सं पडिगया । ( मूत्र-५०) तए णं से महासयए स एगमेगं हिरण्णकोर्डि एगमेगं वयं सयमेव पडिव- | मणोवासए पदम उवासगपडिमं उवसम्पञ्जित्ता णं विहअइ २ ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरा-- |
रइ, पढमं अहासुतं. जाव एकारस वि तए णं से लाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ । तए णं सा रेवई गा-|
महासयए तेणं उरालेसं जाब किसे धमणिसंतए हावाणी मंसलोलुया मंसेमु मुच्छिया जाव अज्झोवामा जाए। तए गं तस्स महासययस्स समणोवासयस्स बहुविहेहिं मंसेहि य होल्लेहि य तलिएहि य भजि- | अप्पया कयाइ पुन्चरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागर
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(२१६) महासयय अभिधानराजेन्द्रः।
महासयय माणस्स अयं अज्झथिए.४ । एवं खलु अहं हमेणं | ममारणंतियसलेहणाए झसियसरीरे भत्तपाणपडियाइउरालेणं जहा आणंदो तहेव अपच्छिममारणतियसलेह- क्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ, तए णं तस्स णाझसियसरीरे भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं अणव- महासययस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव विकड़े कंखमाणे विहरइ, तए णं तस्स महासयगस्स समणो- माणी २ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव वासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं . जाव खोवस- उवागच्छइ २ ता मोहुम्माय जाब एवं बयासी-तहेव मेणं ओहिणाणे समुप्पो पुरथिमेणं लवणसमुद्दे जो- जाव दोचं षि तच्चं पि एवं बयासी-तए णं से महा यणसाहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं सयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चं पि पच्चच्छिमेणं, उत्तरेणं० जाव चुल्लहिमवंतं वासहर- तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते० ४ ओर्हि पउंजइ पवयं जाणइ पासइ, अहे इमीसे रयणप्पभाए ओहिं पउंजइत्ता ओहिणा आभोएइ २ त्ता रेवई गाहापुढवीए लोलुयच्चुयं णरयं चउरासीइवाससहस्सटिइयं | वाणिं एवं वयासी-जाव उववजिहिसि, णो खलु कप्पड़ जाणइ पासइ । (सूत्र-५१) तए णं सा रेवई गाहावइणी | गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव झसियप्रापया कयाइ मत्ता. जाव उत्तरिजयं विकड्डेमा-- सरीरस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहिं तचाहिं णी विकड़ेमाणी जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव | तहिएहिं सम्भूतेहिं अणिटेहिं अकंतेहिं अप्पिएहिं अपोसहसाला तेणेव उवागच्छह २ त्ता महासययं तहेव | मणुपहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए तं गच्छह भणइ० जाव दोच्चं पि तच्च पि एवं बयासी-हं भो। णं देवाणुप्पिया ! तुम महासययं समणोवासयं एवं वतहेव. तए णं से महासयए समणोबासए वइए याहि-णो खलु देवाणुप्पिया! कप्पइ समणोवासगस्स अगाहावइणीए दोच्चं पि तच्च पि एवं वुत्ते समाणे आसुरु- पच्छिम जाव भत्तपाणपडियाइक्वियस्स परो संतेहिं ते० ४ ओहिं पउंजइ २ त्ता ओहिणा आभोएइ २ ता| जाव वागरित्तए, तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवई गारेवई गाहावइणिं एवं वयासी-हं भो रेवई ! अपत्थिय- हावइणी संतेहिं० ४ अणिद्वेहिं० ६ वागरणेहिं वागरिया पत्थिए०४ एवं खलु तुमं अंतो सत्तरत्तस्स अल-तंणं तुमं एयस्य ठाणस्स पालोएहि जाव जहारिहं च सएणं वाहिणा अभिभृया समाणी अट्टदुहट्टवसट्टा पायच्छित्तं च पहिबजाहि, तए णं से भगवं गोयमे समअसमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इमीसे णस्स भगवो महावीरस्स तह ति एयमटुं विणएणं रयणप्पभाए पुढवीए लालुयच्चुए णरए चउरासीइवा-| पडिमुणे २ ता तो पडिणिक्वमह २त्ता रायगिससहस्सटिइएमु णेरइएमु णेरइयत्ताए उववज्जिहिसि,नए हं णयरं मझ मज्झेणं अणुप्पविसइ अणुपविसित्ता णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेव महासयए वुत्ता समाणी एवं बयासी-रुद्वेणं मम महासयए समणोवा- समणोबासए तेणेव उवागच्छइ, तए णं से महासयए समसए हीणे णं ममं महासयए समणोवासए अवज्झाया- णोवासए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ २ त्ता हट्ठ० जाव णं । अहं महासयएणं समणोवासएणं ण णजइ णं अहं हियए भगवं गायम वंदइ णमंसइ, तए णं से भगवं गोयमे केणऽवि कुमारेणं मारिजिस्सामि त्ति कट्ट भीया तत्था महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पितसिया उब्बिग्गा संजायभया सणियं सणियं पञ्चोसक्कड़ | या! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्वइ एवं भासद एवं २ ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ओहय पहावेह एवं परवेइ-णो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समजाव झियायइ, तए णं सा रेवई गाहावइणी अंतो णोवासगस्स अपच्छिमजाव वागरित्तए, तुमे णं देवाणुसत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अहवसट्टा प्पिया! रेवई गाहावाणी संतेहिं जाव वागरिया तं कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लो- | णं तुमं देवाणुप्पिया ! एयस्स ठाणस्स पालोएहि. लुयच्चुए णरए चउरासीइवाससहस्सटिइएमु परइएसु जाव पडिवज्जाहि । तए णं से महासयए समणोवासए नेरइयत्ताए उववमा । (सूत्र-५२)। तेणं काले गं ते णं भगवो गोयमस्स तह नि एयम₹ विणएणं पडिसुगइ समए णं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव परिसा २ ता तस्स ठाणस्स पालोएड जाव अहारिहं च पडिगया गोयमाऽऽइसमणे भगवं महावीरं एवं वयासी- पायच्छितं पडिवाइ । तए णं से भगवं गोयमे ! मएवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे णयरे ममं अंतेवासी | हासयगस्स समणोवासयस्स अंतियानो पडिणिक्खमइ महासयए णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छि- २ ता रायगिह णगरं मज्झ मज्मेणं णिग्गच्छइ २ ता
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महापउम अभिधानराजेन्द्रः।
महासव जेणेव समण भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवाग
तथाच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदह णमंसइ णमंसित्ता सं
सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः।
अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचनाः ॥२॥ जमेणं तवसा अप्पासं भावेमाणे विहरइ । तए णं भगवं|
द्विरएवर्षा योषि-त्पश्चविंशतिकः पुमान् । समणे महावीरे अप्पया कयाइ रायगिहाओ णयरात्रो पडि
अनयोर्निरन्तरा प्रीतिः, स्वर्ग इत्यभिधीयते ॥ ३॥” इति । सिक्खमइ २ त्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ (मूत्र५३), [ सूत्र-५०] [ अलसए णं ति] विसूचिकाविशेषलक्षणेन । तए णं से महासयए समणोवासए बहूहिं सील जाव भा-|
तल्लक्षणं चेदम्वेत्ता वीसं वासाई समणोवासगपरियायं पाउणित्ता एकार
"नो बजति नाधस्ता-दाहारो न च पच्यते।
आमाशये लसीभूत-स्तेन सोऽलसकः स्मृतः॥१॥” इति। स उवासगपडिमाओ सम्म काएण फासित्ता मासियाए।
(हीणे ति],प्रीत्या हीनः-त्यक्तः(अवज्झाय ति)अपध्याता संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सढि भत्ताई अणसणाए |
दुानविषयीकृता (कुमारेण ति) दुःखमृत्युना (सूत्र ५२) छेदेत्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं (नो खलुकप्पद गोयमेत्यादि) (संतेहिं ति) सद्भिर्विकिच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिसए विमाणे देवत्ताए उ- धमानार्थैः (तश्चेहि ति) तथ्वैः-तत्त्वरूपैर्वाऽनुपचारिकैः (तववरणे । चत्तारि पलिओवमाइं ठिई महाविदेहे वासे सि
हिएहि ति) तमेवोक्तं प्रकारमापन मानयाऽपि म्यूनाधिकैः ।
किमुक्तं भवति?-सद्भूतैरिति,अनिः-अवाञ्छितः,अकान्तैःज्झिहिति बुझिहिति णिक्खेवो। (सूत्र-५४)
खरूपेणाकमनीयैः,अप्रियैः-अप्रीतिकारकैः,अमनो-मनसा अष्टम (मध्ययन ) मपि सुगम तथापि किमपि तत्र लिख्य
न शायन्ते नाभिलप्यन्तै वनुमपि यानि तैः । श्रमन श्रापैः न ते-(सकंसाओ त्ति ) सह कांस्येन द्रव्यमानविशेषेण यास्ताः मनसा आप्यन्ते-प्राप्यन्ते चिन्तयाऽपि यानि तैः, बचने सकांस्याः ( कोलघरियानो त्ति) कुलगृहारिपतगृहादाग- चिन्तने च येषां मनो नोत्सहत इत्यर्थः, व्याकरणः वचनविताः कौलगृहिकाः। (सू०४७) (अंतराणि यत्ति)अवसरान् छि- शेषैः । उपा०८० । स्था० ध०1 ध०र०। द्राणि-विरलपरिवारत्वानि विरहान् एकान्तानिति, (मंस-महासरीर-महाशरीर-पुं०। बृहत्तनौ , भ०१४ श०२ उ०। लोलत्यादि ) मांसलोलाः-मांसलम्पटाः, एतदेव विशिरयते-मांसमूञ्छितास्तदोषानभिज्ञत्वेन मूढा इत्यर्थः, मांसग्र
महासलिल-महासलिल-त्रि० । बहूदके, वृ०४ उ० । ग० । थिता-मांसानुरागतन्तुभिः संदर्भिताः, मांसगृद्धाः-तद्भो महासलिलजल-महासलिलजल-न० । महासलिला नाम गेऽप्यजातकांक्षाविच्छेदाः, मांसाध्युपपन्नाः-मांसैकाग्रचि. । गङ्गाऽऽदयो महानद्यस्तासां जलं महासलिलाजलम् । महानत्ताः, ततश्च बहुविधर्मासैः सामान्यैस्तद्विशेषैश्च , तथाचाह- दीजले, वृ०२ उ०। ( सोल्लिएहि य ति ) शूल्यकैश्च-शूलसंस्कृतकैः, तलि- महासव-महाश्रव-पुं० । महान्ति कर्मणामाधवद्वाराणि तैश्च-घृतादिनाऽग्नौ संस्कृतैः, भर्जितैश्च-अग्निमात्रपक्कैः
वर्तन्तेऽस्येति । सूत्र. १ थु० ३ अ०२ उ० । बृहन्मिसहेति गम्यते, सुरां च-काष्ठपिष्टनिष्पन्नां, मधु च-क्षौद्रं,
थ्यात्वादिकर्मबन्धहेतुके , भ०६ श०३ उ०। मेरकं च-मधविशवं, मद्यं च-गुडधातकीप्रभवं, सीधु
नैरयिकाणां महाऽऽश्रवादिकत्वमाहच-तद्विशेष, प्रसन्नां च-सुराविशेषम् , अास्वादयन्ती-ईषस्वादयन्ती , कदाचित् विस्वादयन्ती-विविधप्रकारैर्विशे
सिय भंते ! नेरइया महाऽऽसवा महाकिरिया महावेघेण वा स्वादयन्तीति, कदाचिदेव परिभाजयन्ती स्वपरि- यणा महाणिजरा ?, गोयमा ! णो इणद्वे समढे १, सिय वारस्य परिभुजाना सामस्त्येन विवक्षिततद्विशेषान (सू० भंते ! नेरइया महाऽऽसवा महाकिरिया महावेयणा अ४८) 'अमाघातो' रूढिशब्दत्वात् अमारिरित्यर्थः ( कोलघ
प्पनिजरा ? हंता सिया २, सिय भंते ! नेरहया महाऽऽरिए त्ति ) कुलगृहसंबन्धिनः, गोणपोतकौ-गोपुत्रकी, उद्दवेह त्ति ) विनाशयत (सू० ४६ ) (मत्त त्ति) सुरादिम
सवा महाकिरिया अप्पवेयणा महाणिजरा?, गोयमा ! दवती ( लुलिता ) मदवशेन धूर्णिता, स्खलत्पदेत्यर्थः, वि- णो इणटे समढे ३, सिय भंते ! नेरइया महाऽऽकीर्णाः-विक्षिप्ताः केशा यस्याः सा तथा, उत्तरीयकम्-उप- | सवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा?, गोरितनवसनं विकर्षयन्ती मोहोन्मादजनकान् कामोद्दीपकान्, शृङ्गारिकान्-शृङ्गाररसवतः, स्त्रीभवान् कटाक्षसन्दर्शना
यमा ! णो इणद्वे समढे ४ , सिय भंते ! नेरइया दीन् उपसंदर्शयन्ती (हं भो त्ति) आमन्त्रणम् । महाशयया!
महासवा अप्पकिरिया महावेदणा महानिजरा ? गोयइत्यादविरहसीतिपर्यवसानस्य रेवतीवाक्यस्यायमभिप्रायः। मा! णो इणवे समढे ५, सिय भंते ! नेरइया अयमेवास्य स्वर्गों मोक्षो वा यन्मया सह विषयसुखानु- महाऽऽसवा अप्पकिरिया महावयणा अप्पनिजरा ?, गोयभवनम् , धर्मानुष्ठानं हि विधीयते स्वर्गाद्यर्थम् , स्वर्गादि
मा ! णो इणढे समढे ६ , सिय भै ! नेरतिया मश्वेष्यते सुखार्थम् ,सुख चैतावदेव तावद् दृष्टं यत्कामासेधनमिति । भणन्ति च
हासवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा महानिजरा ? णो ति"जर नत्थि तत्थ सीमं-तिाउमणहरपियंगवणायो। समढे ७, सिय भंते ! नेरतिया महासवा अप्पतारे सिद्धतिय ब-धणं खुमोक्खो न सो मोक्यो॥१॥ किरिया अपवेदया अप्पनिजरा ?, णो तिखट्टे समडे,
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महाऽऽसय
सिय भंते! नेरइया अप्पाऽऽसवा महाकिरिया महावेदा महानिजरा ? णो तिराट्ठे समट्टे ६, सिय भंते ! नेरा पासवा महाकिरिया महावेदणा पनिअरा ? यो गिट्टे समझे १० सिय भंते! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया श्रपवेयणा महानिखरा १ गो तिट्ठे समट्ठे ११, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया वेणा अप्पनिजरा ? यो तिखट्ठे सपट्टे १२, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया भावेण महानिजरा ? यो तिखट्टे समझे १२, सिप भंते । रतिया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा : यो तिट्ठे समट्ठे १४, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्यकिरिया अप्पवेषणा महानिजरा १ यो तिगड़े समझे १५ सिप भंते! नेरया अप्पासवा अप्यकिरिया अप्पवेणा अप्पनिजरा १ गोतिखड़े समझे १६ एते सोलस गंगा सिय भंते ! अ सुरकुमारा महासवा महाकिरिया महावेदया महानिजरा ? यो तिगडे समझे एवं चउत्यो मंगो भा यिव्वो, सेसा पनरस भंगा खोडेयव्वा, एवं० जाव विकुमारा । सिय भंते! पुढविकाइया महासवा म हाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? हंता सिया । एवं० जाव सिय भंते! पुढ विकाइया अप्पासवा अप्प किरिया - पवेणा अप्पनिजरा ? हंता सिया, एवं० जाव मणुस्सा, वाण - मंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा सेवं भंते भंते ति । (सूत्र - ६५४ )
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इयं स्थापना
अम य
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( २१८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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지지지지
ना० २ श्रसुरादेः ४ पृथ्व्यादेः
१६ व्यन्तरादेः ४
'सिय भंते!' इत्यादि, 'सिय त्ति' स्युः भवेयुर्नैरयिकाःमहाधवाः प्रचुरकर्मबन्धनात् महावित्याः कायिष्यादिषियायां महत्वात् महावेदना वेदनायास्तीमत्वात् महानिर्जराः कर्मपबहुत्वात् एषां चतुर्ण पदानां पोडश भा भयन्ति, एतेषु च नारकाणां द्वितीयभङ्गकोऽनुज्ञातस्तेनामा - अयादित्रयस्य महत्त्वात् कर्मनिर्जरायास्त्यल्पचात् शेषा
"
"
तु प्रतिषेधः। असुरादिदेषेषु चतुर्थभङ्गोऽनुज्ञातः ते हि महाभया महाकियाथ विशिशविरनियुक्रन्वान प वेदनाश्च प्रायेणासातोदयाभावात् अल्पनि जराक्ष प्रायोऽशुभपरिणामत्वात् शेषास्तु निषेधनीयाः । पृथिव्यादीनां तु
महासावग
16
।
चत्वार्यपि पदानि तत्परिणतेर्विचित्यात् सत्यभिचाराड़ीति षोडशापि भट्टका भवन्तीति । उक्तं च- पीपण तु नेरइया, हौति चउत्थे सुरगणा सव्ये ओरालसरीरा पुरा, सव्येहि पहि भरिणयव्वा" । १ । इति । भ० १६८०४३० । महासपतर- महाअवतर त्रि० महाधयतरा एव महान्त - प्रयाः पापोपादानहेतवः आरम्भादयो येषामासीरन ते म हाश्रवाः अतिशयेन महाश्रवा महाश्रवतराः । श्रतिबृहत्कर्मसु, जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । महासम्बोभद्दपडिमा - महासर्वतोभद्रप्रतिमा - स्त्री० । सर्वतो भद्रप्रतिमाभेदे श्री० [सर्वतो भद्रा पुनयस्यां दशसु वि प्रत्येकमहोरात्रं कायोत्सर्ग करोति, यस्यां च दशाऽहोरात्राणि मानमिति । अथवा द्विविधा सर्वतोभद्रा शुद्रा, महती व तत्र क्षुद्रायाः स्थापना — स्थापनोपायगाथा चेयमत्र"गाई पंच ते मि तु धामणुपति । सेसे कमेण च, जाजा सम्ययमहं ॥ १ ॥ "
"
तपोदिनानीह पञ्चसप्ततिः पारणदिनानि तु पञ्चविंशतिः, सर्वाधि दिनानि शतमेकस्यां परिचायां चतसृषु त्येतदेव चतुर्गुणम् । एवं महत्यपि, नवरम्, एकादयः सप्तान्तास्तस्यामुपवासा भवन्ति ।
स्थापनोपायगाथा वियम्"एगाई सता ठपि तु सहमति सेखकमेण ठषि, जारा महासव्वश्रोभदं ॥ १ ॥ ”
१ | २ | ३ | ४ | ३ ३४१२ ५ | १/२|३|४ २ | ३ | ४ | ५.१ ४ ५/६/२/३
,
१/२/३/४/५/६/७) प्र०पक्तिः ४ |४| ६ | ७|१२|३ द्वितीयापं० ७ १ २ ३ ४ ५ ६ तृतीयापं० ३/४/५/६ ७/६/२ | चतुर्थीपं० ६/७/१/२/३/४५ पञ्चमी पं० २/३/४/५/६ ७ १ पी० ५/६/७/१/२/३ | ४ | सप्तमीपं०
इह च पवत्यधिकं शतं तपोदिनानां स्यादेको नपच पालकदिनानि एवं चाटी मासाः पञ्च दिनानि चतसृषु परिपाटीष्वेतदेव चतुर्गुणमिति । श्र० ।
3
महासामन्य - महासामान्य सर्वपदार्थानुपायिन्यां सत्तायाम. सूत्र० २ ० ७ ० । श्रा० म० विशे० । महामामस्थ महासामार्थ्य २० । महासामध्यंम् आसंहननत्रययुक्तया बज्रकुसमान तितया च कायमनसोः शी ध० ४ श्रधि० ।
महासामाण - महासामान - न० । सप्तमदेव लोकविमानभेदे, स०
१७ सम० ।
महासाल- महाशाल पुं० । पृष्ठचम्पाराजस्य शालस्य भ्रात पृष्ठचम्पायुवराजे, श्रा०क० १ ० । ० म० । ती० । उत्त० । महासाग महाश्रावक-यादानप्रधाने धावके, " एवं तस्थितो ज्यां धनं वपन् दयया चातिदीनेषु महाभाषक उच्यते ॥ १ ॥ महत्यदविशेषणे व अन्येभ्योतिशायित्वात् यतः श्रावकत्वमविरतानामेकायवनधारि
"
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महासाग अभिधानराजेन्द्रः।
महासिलाकं० णों च शृणोतीति व्युत्पत्योच्यते, यदाह
णं से कोणिए राया महासिलाकंटकं संगाम उवहिनं "संपत्तदसणाई, पइदिअहं जइ जणा सुणई ।
जाणित्ता कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वसामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं विति ॥१॥ श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तना
यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! उदाई हत्थिद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम्।
रायं पडिकप्पेह हयगयरहजोहफलियं चाउरांगणिं सेणं किरत्यपुग्यानि सुसाधुसेवना
सम्पाहेह २त्ता०जाव मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिदद्यापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥२॥"
जह । तए णं से को९वियपुरिसा कोणिएणं रामा इति निस्काश्च श्रावकत्वं सामान्यस्यापि प्रसिद्धम् ,विवक्षितस्तु निरतिचारसकलव्रतधारी सप्तक्षेत्र्यां धनवपनाद्द
एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा० जाच अंजलि कहु एवं साशनप्रभावकतां परमां दधानो दीनेषु चात्यन्तकृपापरो।
मी! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति पमहाश्रावक उच्यते इत्यलं प्रसङ्गेन ।
डिसुणेत्ता खिप्पामेव छेयायरिग्रोवएसमइकप्पणाविइदानी महाश्रावकस्य दिनचर्यारूपम्-उक्तशेषं
कप्पेहिं सुनिउणेहिं एवं जहा उववाइए० जाव भीमं संगा, विशेषतो गृहस्थधर्ममाह
मिय अोझ उदाई हत्थिरायं पडिकप्पति, हयगयरहनमस्कारेणावबोधः, स्वद्रव्याधुपयोजनम् ।
जाव समाहेति सम्माहेत्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवासामायिकादिकरणं, विथिना चैत्यपूजनम् ॥६॥ नमस्कारेण सकलकल्याणपुरपरमेष्ठिभिरधिष्ठितेन " नमो
गच्छंति २त्ता करयलपरिग्गहियं जाव कूणियस्स रणोतअरिहंताण " मित्यादि प्रतीतरूपेण, अवबोधो निद्राप
माणत्तियं पञ्चप्पिणंति । तए णं से कूणिए राया जेणेव रिहारः, तत्पाठं पठन्निद्रां जह्यादित्यर्थः । अयं विशेषतो मजणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मजणधरं गृहिधर्मो भवतीत्येवमप्रेऽप्यन्वयः । तथा स्वस्मि-श्रा- अणुपविसइ मजणघरं अणुपविसित्ता, एहाए कयवलित्मनि, द्रव्यादेः-द्रव्यक्षेत्रकोलभावानाम् , उपयोजनम्-उप
कम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्यालंकारविभूसिए योगकरणम् , (ध०) (सामायिकादीत्यादि) सामायिकम्मुहूर्त यावत्समभावरूपनवमवताराधनम्, प्रथमावश्यकं वा,
संनद्धबद्धवम्मियकवये उप्पीलियसपट्टीए लिणिद्धगेप्रादिशब्दात्यड्डिधावश्यकप्रतिबद्धरात्रिकप्रतिक्रमणग्रहणम् । विजे विमलवरवद्धचिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे सकोरंट(ध०) (विधिनेति ) विधिमा अनुपदमेव वक्ष्यमाणपुष्पा- मनदामणं छत्तणं धरिजमाणे चउचामरवालवीइयंगे मेंदिसंपादनमुद्रान्यसनादिना प्रसिद्धेन, चैत्यपूजनम्-द्रव्य- गल'जय जय सद्दकयालोए एवं जहा उववाइए० जाव उवाभावभेदाद अर्हत्प्रतिमार्चनम् । ध०२ श्रधि०। (महाधावकस्य गृहिधर्मविध्यन्तर्गतसामायिकविधिः 'सामाझ्य' |
गच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरूढे , तए णं से कूणिए शब्दादवगन्तव्यः ) (चैत्यपूजनविधिः 'चेइय' शब्दे तृती
राया (हारोत्थयसुकयरइयवच्छे जहा उववाइए०) जाव यभागे १२४४ पृष्ठे गतः)
सेयवरचामराहिं उद्भवमाणीहिं उद्ध०२ हयगयरहपवरजोमहासावजा-महासावद्या--स्त्री० । श्रमणसाधुनिश्राभेदेना- हक लियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरियुडे महया गन्यादिमत्यां वसतौ, श्राचा । (अस्या वक्तव्यता 'वसहि' भडचडगविंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटए संशब्दे वक्ष्यते)
गामे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता महासिलाकंमहासाहसिय--महासाहसिक-पुं० । सहसाऽविमर्शात्मकेन ब
टगं संगामं उयाए पुरओ य से सके देविंदे देवरालेन वर्त्तने, भाविनमर्थमविभाव्य यः प्रवर्त्तते स साहसिकः।
या एगं महं अभेजं कवयं वइरपडिरूवगं बिउब्बिता णं अविमृश्यकारिणि, स्या०।।
चिट्ठइ । एवं खलु दो इंदा संगाम संगामेवि, तं जहामहासियाल--महाशृगाल-पुं० । महादेहप्रमाणे शृगाले ,
देविंदे य, मणुस्सिदे य । एगहत्थिणा वि णं पभू कू"अणासिपा णाम महासियाला" (सूत्र०) महादेहप्रमाणा महान्तः शृगाला नरकपालविकुर्विता अनशिता बुभुक्षिताः,
णिए राया पराजयित्तए, तए णं से कूणिए राया मसूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०।
हासिलाकंटगं संगामं संगामेमाणे नव मल्लई नव लेच्छई महासिलाकंटय-महाशिलाकण्टक--पुं०। जीवितभेदकत्वात् |
कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो हयमहियपवरमहाशिलाकण्टकः । कृणिकचेटकसंग्रामे, नि० १ श्रु० १|
वीरघाइगा वि पडियचिंधवयपडागे किच्छप्पाणगए दिसोवर्ग १० । म०। तवर्णनमाह
दिसि पडिसेहित्था । से केणऽटेणं भंते ! एवं बुच्चह महाणायमेयं अरहया सयमेयं अरहया विप्लायमेयं अ-1 सिलाकंटए संगामे ?, गोयमा ! महासिलाकंटए णं संरहया महासिलाकंटए संगामे, महासिलाकंटए णं भंते ! गामे वट्टमाणे जे तत्थ पासे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा संगामे वट्टमाणे के जइत्था के पराजइत्था ?, गोयमा ! तणेण वा पत्तेण कोण वा सकराए वा अभिहम्मति वजी विदेहपुत्ते जयित्था, नव मल्लई नव लेच्छई कासीको-| सव्वे से जाणइ महासिलाए अहं अभिहए महासिलाए अहं सलगा अट्ठारस वि गणरायाणो पराजयित्था । तए | अभिहए से तेणऽदेणं गोयमा! महासिलाकंटए संगामे ।
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(२३०) महासिलाकं. अभिधानराजेन्द्र:।
महासिला महासिलाकंटए णं भंते! संगामे वट्टमाणे कइ जणसयसाह
म्बन्धिनो नव द्वितीयाः । (गणरायाणो त्ति ) समुत्पन्ने प्र
योजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजाः स्सीओ वहियाश्रो? गोयमा चउरासीइ जणसयसाहस्सीओ
सामन्ता इत्यर्थः । ते च तदानी चेटकराजस्य वैशालीवहियाभो । ते णं भंते ! मणुया निस्सीला जाव निप्पच्च- नगरीनायकस्य साहाय्याय गणं कृतवन्त इति । अथ महाक्खाणपोसहोववासा, संरुठ्ठा परिकुविया समरवाहिया अणु
शिलाकण्टके संग्रामे चमरेण विकुर्विते सति कृणिको
यदकरोत्तदर्शनार्थमिदमाह-(तए णमित्यादि ) ततो महावसंता कालमासे कालं किच्चा कहिं गया कहिं उववप्मा ? |
शिलाकण्टकसंग्रामविकुर्वणानन्तरम् । (उदायिं ति) उदागोयमा! उस्समं णरगतिरिक्खजोणिएसु उववल्मा । यिनामानम् । ( हत्थिरायं ति ) हस्तिप्रधानम् । (पडिक(महासिलाकंटए संगामे ति ) महाशिलैव कण्टको जी- प्पेह सि) संनद्धं कुरुत । (पञ्चप्पिणह त्ति) प्रत्यर्पवितभेदकत्वान्महाशिलाकण्टकस्ततश्च यत्र तृणशलाका
यत-निवेदयतेत्यर्थः । (हट्टतुट्ट त्ति) इह यावत्करणादेव दिनाऽप्यभिहतस्याश्वहस्त्यादेमहाशिलाकण्टकेनेवाभ्याहत- दृश्यम्-“ हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिया मंदिया पीइमणा" इत्यादि। स्य वेदना जायते स सङ्गामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते,
तत्र ष्टतुएम्-प्रत्यर्थ तुष्टं, हृष्टं वा विस्मितं तुष्टं च द्विर्वचनं चोल्लेखस्थानुकरणे, एवं च किलाऽयं संग्रामः तोषयच्चित्तं-मनो यत्र तत्तथा , तत् एतुष्टचितं यथा संजातः, चम्पायां कूणिको राजा बभूव , तस्य चानुजौ
भवति इत्येवमानन्दिता ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिहलविलाभिधानौ भ्रातरौ सेचनकाभिधानगन्धहस्तिनि मुपगताः, ततश्च नन्दिताः समृद्धितरतामुपगताः, प्रीतिः समारूढी दिव्यकुण्डलदिव्यवसनदिव्यहारविभूषितौ वि
प्रीणनम्-आप्यायनं मनसि येषां ते प्रीतिमनसः। (अंजलसन्तौ दृष्टा पद्मावत्यभिधाना कूणिकराजस्य भार्या लिं कटु त्ति) इदं त्वेवं दृश्यम्-" करयलपरिग्गहियं दमत्सराहन्तिनोऽपहराय तं प्रेरितवती, तेन तौ तं याचितौ, सणहं सिरसाऽवत्तं मत्थए अंजलि कट्ट" तत्र शिरसा - सौ च तद्भयाद्वैशाल्यां नगर्यो स्वकीयमातामहस्य चेटका- प्राप्तम्-असंस्पृष्टं मस्तके ऽञ्जलिं कृत्वेत्यर्थः । ( एवं सामी ! भिधानस्य राशोऽन्तिकं सहस्तिकौ सान्तःपुरपरिधारी
तह ति श्राणाए विणपणं वयणं पडिसुणेति ति) गतवन्तौ, कूणिकेन च दूतप्रेषणता मार्गितौ, न च तेन प्रे.
एवं स्वामिन् ! तथेति आशया इत्येवंविधशब्दभणमरूपो षितौ, ततः कृणिकेन भाणितम्-यदि ने प्रेषयसि तौ तदा
यो विनयः स तथा तेन, वचनं राज्ञः सम्बन्धि प्रतिशृयुद्धसज्जो भव, सेनाऽपि भाणितम्-एष सज्जोऽस्मि, ततः
एवन्ति-अभ्युपगच्छन्ति । (छयारिओवएसमइकप्पणा
बिगप्पहिं ति) छको निपुणो य प्राचार्यः-शिल्पोकृणिकेन कालादयो दश स्वकीयाऽभिन्नमातृका भ्रातरौ राजानश्चेटकेन सह संग्रामापाहूताः,तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि
पदेशदाता तस्योपदेशात् या मतिः बुद्धिस्तस्या ये कल्पहस्तिनां सहस्राणि, एवं रथानामश्वानां च, मनुष्याणां तु
ना-विकल्पाः क्लूप्तिमेदास्ते तथा तैः प्रकल्पयन्तीति योगः। प्रत्येकं तिस्रः तिस्रः कोटयः। कृणिकस्याप्येवमेव,एवं च व्य
(सुनिउणेहिं ति) कल्पनाविकल्पानां विशेषणम् । मरैर्वा तिकरं शात्या चेटकेनापि अष्टादश गणराजाः मिलिताः,
मुनिपुणः ( एवं जहा उववाइए ति) तत्र चेदं सूत्रमेतेषां चेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हस्त्यादिपरिमाणम् , ततो
चम्-( उज्जलनेवत्थहव्वपरिवच्छियं ) उज्ज्वलनेपथ्येन-नियुद्धं सम्मलग्न, चेटकराजश्च प्रतिपन्नव्रतत्वेन दिनमध्ये
मेलमेषेण (हव्वं ति) शीघ्र परिक्षिप्तः परिगृहीतः -
रिवृतो यः स तथा तम् । (सुसज्ज वम्मियसंनद्धबद्धकायं एकमेष शरं मुञ्चति,अमोघवाणश्च सः । तत्र च कृणिकसैन्यैगरुडव्यूहश्चेटकसैन्यैश्च सागरब्यूहो विचरितः। ततश्च कू
उप्पीलियवस्थकच्छगवज्जगवद्धगलगवरभूसणविराइयं ) वणिकस्य कालो दण्डनायको युध्यमानस्तावद्गतो यावश्चेट
मणि नियुक्ता वार्मिकास्तैः संनद्धः कृतसन्नाहो वामिक्सनका , ततस्तेनैकशरनिपातेनासौ निपातितो भग्नं च कृणि
द्धः, बद्धः कवचिकः सन्नाहविशेषो यस्य स बद्धकाचिकवलम् , गते च द्वे अपि बले निजं निजमावासस्थानम् ।
कः, उत्पीडिता गाढीकृता पक्षसि कक्षा हृदयरजुर्यस्य
स तथा, अवेयकं बद्धं गलके यस्य स तथा, परभूषएवं च दशसु दिवसेषु चेटकेन विनाशिता दशापि का
गर्विराजितो यः स तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तलादयः , एकादशे तु दिवसे चेटकजयार्थ देवताराधना
म्। ( अहियतेयजुसं विरइयवरकरणपूरसललियपलंवाबय कूणिकोऽष्टमभक्तं प्रजग्राह । ततः शक्रचमरावागतौ ,
चूलचामरोयरकयंऽधयारं ति ) विरचिते परकर्णपूरे सतः शक्रो बभाण, चेटकः श्रावक इत्यहं न ते प्रति प्र
प्रधानकर्णाऽऽभरणविशेषौ यस्य स तथा , स्ललितानि हरामि , नवरं भवन्तं संरक्षामि । ततोऽसौ तद्रक्षार्थ व
प्रलम्बानि अवचूलानि यस्य स तथा, चामरोकरेण - जप्रतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान् , चमरस्तु द्वौ संग्रामो तमन्धकारं यत्र स तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तम् । विकुर्वितवान् , महाशिलाकण्टकं रथमुशलं चेति ( जइ- ( चिसपरिच्छोयपच्छयं ) चित्रपरिच्छोको लघुः प्रच्छदो त्थ त्ति) जितवान् ( पराजयित्थ त्ति ) पराजितवान्-हारि वस्त्रविशेषो यस्य स तथा, अतस्तम् । (कणगघडियसुत्ततवानित्यर्थः । ( वजि ति) बजी-इन्द्रः ( विदेहपुत्ते गसुबद्धकच्छं) कनकघटितसूत्रकेण सुष्टु वद्धा कक्षा उरोत्ति) कृणिक एसावेव तत्र जेतारी नान्यः कश्चिदिति बन्धनं यस्य स तथा, तम् । (बहुपहरणावर भरियजुज्झस(नव मलहत्ति) मल्लकिनामानो राजविशेषाः। (नव लेच्छ ज्जं) बहनां प्रहरणानामावरणानां च स्फुरकङ्कटादीनां इत्ति)लेच्छकिनामानोराजविशेषा एव ।(कासी कोसलग त्ति)| भृतो युद्धसजश्च यः स तथा, अतस्तम् । (सच्छत्तं स, काशी-वाराणसी, तजनपदोऽपि काशी, तत्सम्बन्धिन आ- ज्झयं सघंट) (पंचामेलियपरिमंडियाभिरामं) पञ्चभिराया नव, कोशला अयोध्या तज्जनपदोऽपि कोशला, तत्स-| पीडिकाभिश्चूनाभिः परिमण्डितोऽभिरामश्च-रम्यो यः
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( २२१) महासिलाकं० अभिधानराजेन्द्रः।
महासीहणि स तथा,अतस्तम्, (ोसारियजमलजुयलघंट) अवसारित- सेनापतयो नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकाः, सार्थवाहाः म्-अवलम्बितं, यमलं-सम, युगलम्-द्वयं, घण्टयोर्यत्र स प्रतीताः, दूता-अन्येषां राजादेशनिवेदकाः, सन्धिपाला:-रातथा,अतस्तम्, (विज्जुपिणद्धं व कालमेह) भास्वरप्रहरणा- ज्यसन्धिरक्षकाः, एतेषां द्वन्द्वस्ततस्तैः । इह तृतीयाबहुधचभरणादीनां विद्युत्कल्पना कालत्वाच गजस्य मेघसमते- नलोपो द्रष्टव्यः। (सद्धि ति ) सार्द्ध सहेत्यर्थः, न केवलं ति । (उप्पाइयपव्वयं व सक्खं) श्रौत्पातिकपर्वतमिव सा. तत्सहितत्वमेवापि तु तैः समिति समन्तात् परिवृतः परिकक्षादित्यर्थः, (मत्त मेहमिव गुलगुलंतं) (मणपवणजइ- रित इति, (हारोत्थयसुकयरस्यवच्छे) हाराषस्तृतेन हाराणवेगं) मनःपवनजयी वेगो यस्य स तथाऽतस्तम् । शेष! वच्छादनेन सुष्टु कृतं रतिकं वक्षः उरो यस्य स तथा,
(जहा उववाइप त्ति) तत्र चैवमिदं सूत्रम्-" पालंतु लिखितमेवास्ति । वाचनान्तरे त्विदं साक्षाल्लिखितमेव | रश्यत इति । (कययलिकम्मे त्ति) देवतानां कृतबलिकर्मा ।
बपलम्बमाणपडसुकयउत्सरिजे इत्यादि " तत्र प्रलम्बन
दीघेण प्रलम्बमानेन दुम्बमानेन पटेन सुष्टु कृतम् , उत्तरी(कयकोउयमंगलपायच्छिसे ति ) कृतानि कौतुकमङ्गला
यम्-उत्सरासङ्गो येन स तथा, (महया भडवसुगविंदपम्येव प्रायश्चित्तानीव दुःस्वप्नादिव्यपोहायावश्यकर्त्तव्यत्वात् , प्रायश्चित्तानि येन स तथा, तत्र कौतुकानि म
रिक्खिते ति ) महाभरानां विस्तारवत्सङ्ग्रेन परिकरित पीपुण्द्रादीनि, पलानि सिद्धार्थकादीनि । (सन्नद्धवद्धव
इत्यर्थः, (ोयाए त्ति) उपयातः उपगतः ( अभेज्जकवयं
ति) परप्रहरणाभेद्यावरणम् ( बदरपडिरूवं ति) वजसम्मियकवए ति ) सन्नद्धः सन्नहनिकया, तथा बद्धः क
रशम् । (एगहत्थिणा वि ति) । एकेनाऽपि गजेनेत्यर्थः । शाबन्धनतो, वम्मितो वर्मतया, कृतोऽके निवेशना-|
(पराजिणित्तए ति ) परानभिभवितुमित्यर्थः। ( इयमरकवचः कङ्कटो येन स तथा, ततः कर्मधारयः । ( उप्पी
हियपवरवीरघाइयविवडियचिधद्धयपडागे ति) हता-प्रलियसरासणपट्टिए त्ति) उत्पीडिता गुणसारणेन कृता
हारदानतो, मथिता-माननिर्मथनतः, प्रवरवीराः-प्रधानभटा उधपीडा शरासनपट्टिका धनुर्दण्डो येन स तथा ,
धातिताच येषां ते तथा, विपतिताश्चिद्वध्वजाः-चक्रादिचिउत्पीडिता वा बाही बद्धा शरासनपट्टिका बाहुपाहिका
प्रधानध्वजाः पताकाश्च तदन्या येषां ते तथा,ततः कर्मधार. येन स तथा, ( पिणद्धगेवेज्जविमलवरबद्धचिंधपहे ति)
योऽतस्सान् । (किच्छप्पाणगए ति) कृच्छगतप्राणान् कष्टे प. पिनद्ध-परिहितं, अवेयक-ग्रीवाभरणं, येन स तथा, वि
तितप्राणानित्यर्थः (दिसो दिसिं ति) शिशः सकाशादन्यस्यां मलवरी बद्धश्चितपट्टो योधचिह्नपट्टो येन स तथा , ततः
विशिभभिमतदिक्त्यागाद्दिगन्तराभिमुखेनेत्यर्थः,अथवा-दिकर्मधारयः । (गहियाउहपहरणे त्ति) गृहीतानि मायु
गेषाऽपदिक, नशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषेधने तहिगपदिक तधानि,शस्त्राणि-प्रहरणाय परेषां प्रहारकरणाय येन स तथा,
द्यथा-भवत्येवम् , (पडिसेहित्थ त्ति) प्रतिषेधितवान् युद्धा. अथवा-श्रायुधान्यक्षेप्यशस्त्राणि खनादीनि, प्रहरणानि तु क्षे
निवर्तितवानित्यर्थः । (सारुटु त्ति) संरुष्टा मनसा (परिकुप्यशस्त्रालि नाराचादीनि, ततो गृहीतान्यायुधानि प्रहरमानि
विय त्ति) शरीरे समन्तादर्शितकोपविकाराः । (समरबहिय येन स तथा, ( सकोरंटमल्लदामेणं ति) सह कोरण्टप्र-IN धानः कोरएटकाभिधानकुसुमगुच्छर्माल्यदामभिः-पुष्पमा
महासीह-महासिंह-पुं० । जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अस्यामुत्सर्पिलाभिर्यत्तत्तथा तेन, (चउचामरवालवीइयंगे ति) चतुर्णा चामराणां बालैवींजितमङ्गं यस्य स तथा। (मंगलजयसद्द
ण्यां जाते षष्ठे बलदेववासुदेवस्य पितरि, स्था० ६ ठा० । कयालोए ति) मङ्गलो माङ्गल्यो जयशब्दः कृतो-जनैर्वि
पहासीहणिकीलिय-महासिंहनिष्क्रीडित-न० । बृहत्प्रमाणे हित आलोके दर्शने यस्य स तथा, “ एवं जहा उववाइए
तपसि, शा० १ श्रु०८ १० । प्रव० । जाव" इत्यनेनेदं सूचितम्-" अणगगणनायगदंडनायग
औपपातिके चैवं व्याख्यातम् । इयं च स्थापनासरतलवरमाडंबियकोडंवियमंतिमहामंतिगणगदोवारिय
एकादयः षोडशान्ताः पुनः षोडयावश्रमचचेडपीढमहणणगरणिगमसेट्ठिसेणावइसत्यवाहदूयसं
| य एकान्ताः स्थाप्यन्ते, तत्र यादीनां धिपालसचिं संपरिखुडे धवलमहामेहणिग्गए विव गहगण
षोडशान्तानामले प्रत्येकमेकादयः प. दिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससि व्व पियदसणे मरवई
श्वदशान्ताः स्थाप्यन्ते, तथा ये पोडमजणघरानो पडिनिक्खमइ मजणघराश्रो पडिनिक्ख
शादय एकान्ताः स्थापितास्तेषु पञ्चदमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेमामेव उदाई ह
| शादीनां घन्तानामादौ चतुर्दशादस्थिराया तेणामेव उवागच्छद" त्ति । तत्रानेके ये गणना
यः स्थापनीयाः चतुर्दशादिना चाभियकाः-प्रकृतिमहत्तराः,दण्डनायकाः-तन्त्रपाला,राजानो-मा
लापेन ते समुत्कीर्तनीयाः। दिनमानं एडलिका, ईश्वरा-युवराजाः, तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबग्धविभूषिता राजस्थानीयाः, माडम्बिका:-छिन्नमड
चैकस्यां परिपाट्यामिदमत्र-द्वे षोडम्बाधिपाः,कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बस्य प्रभवोऽवलगकाः,
शानां सङ्कलने १३६,१३६ एका पञ्चदमन्त्रिणः-प्रतीताः,महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः, गण
शानां १२० चतुर्दशानामप्येवमेव १०५ काः-ज्योतिषिकाः, भाण्डागारिका इत्यन्ये । दौवारिकाः
एकषष्टिश्च ६१ पारणकानीति, सर्वसं. प्रतीहाराः, अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः, चेटा:-पादमूलिकाः,
कलने च ५५८, एवं च वर्षमेकं षट्च पीठमाः-प्रास्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यर्थः,
मासा दिनान्यष्टादशेति,परिपाटीचतु नगरमिह सैन्यनिवासिप्रकृतयः,निगमाः-कारणिकाः वणिजो
ध्ये चतुर्गुणमेतदेव-६ वर्षाणि, २ मा. वा, श्रेष्ठिनः श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमालाः |
सौ, १२ दिनानि । औ०।
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( २२२ अभिधान राजेन्द्रः ।
महासीहणि०
महासिंहनिष्क्रीडितं तप श्रह
इग दुग इग तिगदुग चउ, तिग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं । अड सत्त नव ड दस नव, एक्कारस दस य वारसगं १५३३ एक्कार तेर वारस, चडदस तेरस य पनर चउदसगं । सोलस पनरस सोलाइ, होइ विवरीयमेकतं ॥ १५३४|| श्रथो शेषं दिन सर्वसंख्यां चाहएए उ अभत्तड्डा, इगसट्ठी पारणाणमिह होइ । एसा एगा लइया, चउग्गुणाए पुर्ण इमाए ॥। १५३५ || वरिसगं मासदुर्ग, दिवसाइँ तहेव वारस हवंति । एत्थ महासीहनिकी-लियंमि तिव्वे तवच्चरणे ॥ १५३६ ।। (व्याख्या स्थापना स्वरूपं चौपपातिकवत्) प्रब० २७१ द्वार । महासीहसेण - महासिंहसेन- पुं० । राजगृहे श्रेणिकराजस्य धारणिकुक्षिसंभवे पुत्रे, “ सेसा महादुमसेणमाती पंच सव्वसिद्धे " श्रणु० २ वर्ग १२ श्र० । ( स च वीरान्तिके प्रत्रज्य षोडशवर्षपर्याय: संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति ) महासुक - महाशुक्र - पुं० । सप्तमदेवलोके तदिन्द्रे च । स्था० २ ठा० ३ उ० । अनु० । प्रशा० । ( अत्रत्यं पूर्वोक्तं प्रश्नसूत्रम् ) ' तेवासि ' शब्दे प्रथमभागे गतम् ) श्रथ तत्स्वरूपप्रतिपादनायाह
ते काले ते समए गं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती गामं अणगारे० जाव अदूरसामंते उड्डुं जाणू ०जाव विहरति , तए णं तस्स भगवओो गोयमस्स भातरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्मथिए ० जाव समुपज्जित्था, एवं खलु दो देवा महिड्डिया ०जाव महाणुभागा समणस्स भगवओो महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वमागया ?, तंगच्छामि भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि ० जाव पज्जुवासामि, इमाई च णं एयारूबाई बागरणाई पुच्छिस्सामि त्तिक' एवं संपेहति सम्पेहित्ता उट्ठाए उट्ठेति २ त्ता जे
व समये भगवं महावीरे० जाव पज्जुवासति, गोयमादि । समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासीसे तव गोयमा ! झाणंतरियाए बट्टमाणस्स इमेयारूवे अथिए ०जाव जेणेव मम अंतिए तेणेव हमाग से पूर्ण गोयमा ! अत्थे समट्ठे ?, हंता अस्थि, तं गच्छाहिणं गोयमा ! एए चैव देवा इमाई एयारुवाई वागरणाई वागरेहिंति, तए णं भगवं गोयमे ! समणेणं भगवया महावीरेणं अन्भरणुन्नाए समाणे समणं भगवं महावीरं वंदह णमंसति वंदित्ता रामसित्ता जेणेव ते देवा तेणेव
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महासुम (वि) पहारेत्थ गमणाए, तए णं ते देवा भगवं गोयमं पज्जुवासमाणं पासंति पासित्ता हट्ठतुट्ठा० जाव हयहियया खिप्यामेव अति अद्वेत्ता खिप्पामेव पच्चुवागच्छंति पचुपागच्छता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता० जाव णमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु भंते! म्हे महासुकातो कप्पातो महासग्गतो महाविमाखाओ दो देवा महिडिया०जाय पाउन्भूता, तए गं अम्हे समयं भगवं महावीरं वंदामो यमंसामो वंदिता मंसित्ता मणसा वेब इमाई एयारूबाई वागरणाई पुच्छामो-- कति णं भंते । देषाचुप्पिया वं अंतेवाससियाई सिज्झिहिंति० जाव अंत करेहिंति ? , तर यं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मन्यसा पुढे अम्हं मलसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेति एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासीसयाई ० जाव अंतं करेर्हिति तए णं अम्हे समणं भगवया महावीरेणं मणसा चेव पुढेणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं बागरिया समाया समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो २० जाव षज्जुवासामोति कट्टु भगवं गोयमं बंदंति नमसंति २ ता जामेव दिसिं पाउए तामेव दिसिं पडिगए । ( सूत्र - १८६ ) ( ते णमित्यादि ) : महाशुक्रात् ' सप्तमदेवलोकात् (झाएंतरियाप त्ति ) अन्तरस्य विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका - श्रारब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः । अतस्तस्यां वर्त्तमानस्य ( कप्पाओ त्ति ) देवलोकात् (सग्गाओ त्ति) स्वर्गाद्, देवलोक देशात्प्रस्तटादित्यर्थः, ( विमाणाओ त्ति ) प्रस्तटैकदेशादिति ( वागरणाई ति ) व्याक्रियन्त इति व्याकरणाः प्रश्नार्थाः, अधिकृत एव कल्पविमानादिलक्षणाः । भ० ५ ० ४ उ० ।
9
महासुनि (वि) - महास्वप्न - पुं० । महत्तमफलसूचके स्वप्ने,
शा० भ० ।
"
महासुविणा वाचत्तरि ७२ सव्वसुविणा दिट्ठा, तत्थ गं देवाणुप्पिया ! तित्थगरमायरो वा चकवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कबहिंसि वा गर्भ वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस महासुविणे पासिता गं पडिबुज्यंति, तं जहागय १ वसह २ सीह ३ अभिसेय ४दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ भयं ८ कुंभं । पउमसर १० सागर ११ विभासभवण १२ रयणुच्चय १३ सिहिं च १४ ॥ १ ॥ ( महासुविण त्ति ) महाफलत्वात् [ बावन्तरि ति ] त्रिंशतो द्विचत्वारिंशतश्च मीलनादिति । [ गन्भं वक्कममासि त्ति ] गर्भे व्युत्क्रामति - प्रविशतीत्यर्थः [ गयवसहे त्यादि ] इह च - [श्रभिसेय ति ] लक्ष्म्या अभिषेकः [ दाम ति ] पुष्पमाला, [ विमाणभवण ति ] एकमेच, तत्र वि
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(२२३) महासुमि (वि) ण अभिधानराजेन्द्रः।
महासुमि(वि) मानाकारं भवनं विमानभवनम् , अथवा-देवलोकाधोऽव
दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तं जहा-एगं च तरति तन्माता विमानं पश्यति । यस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति । भ०११ श०११ उ०।
णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं कतिविधाः स्वप्नाः
पासित्ता णं पडिबुद्धे १ । एगं च णं महं सुकिल्लपक्खगं कतिविहे णं भंते! सुविणदंसणे पएणते ?। गोयमा!| पुंसकोइल सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे २। एगं च णं महं
सुविणदंसणे पालने । तं जहा-अहातच्चे | चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पयाणे चिंतासुविणे तबिवरीए अब्बत्तदंसणे, सुत्ते णं | पडिबुद्धे ३ । एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणामयं भंते ! सुविणं पासति , जागरे सुविणं पासति, सुत्त- सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्ध ४ । एगं च णं महं सेयगोजागरे सुविणं पासति ? । गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं | वग्गं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ५। एगं च णं महं पउपासइ,नो जागरे सुविणं पासइ, सुत्तजागरे सुविणं पासइ, मसरं सव्वओ समंता कुसुमियं सुविणे पासिसा णं पडि(भ० ) संवुडे णं भंते ! सुविणं पासइ, असंवडे सुविणं | बुद्धे ६ । एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं पासइ, संवुडांऽसंवुडे सुविणं पासइ ?। गोयमा! संवुडे
भुयाहिं तिमं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध ७। एगं च णं ऽवि सुविणं पासइ, असंबुडेऽवि सुविणं पासइ, सुवुडासंवु- |
महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे डेवि सुविणं पासइ । संवुडे सुविणं पासइ अहातच्चं पासइ
८। एगं च णं महं हरिवेरुलियवमाभणं णियगणं अंतेणं अंसवुडे सुविणं पासइ तहाऽवि तं होजा अएणहा माणुसुत्तरं पव्वयं सव्वश्रो समंता आवेढियं परिवेढियं वा तं होजा, संवुडाऽसंवुडे सुविणं पासइ एवं चेव, सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ६ । एगं च णं महं मंदरे जीवा णं भंते ! किं संवुडा असंवुडा संवुडासंवुडा ? | पव्वए मंदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविगोयमा ! जीवा संवुडावि असंवुडा ऽवि संवुडासंवुडा णे पासित्ता ण पडिबुद्धे १० । ज णं समणे भगवं महा
जहेब सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियव्यो, कइ | वीरे एगं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजिवं भंते ! सुविणा पमत्ता १ । गोयमा ! वायालीसं यं पासित्ता णं जाव पडिबुद्धे, तं णं समणेणं भगवया मुविणा परमत्ता | कइ णं भंते! महासुविणा पमत्ता।
महावीरेणं मोहणिले कम्मे मूलाओ उग्धातिए १ । जंणं गोयमा! तीसं महासुविणा परमत्ता । कइ णं भंते !
समणे भगवं महावीरे एगं महं सुकिल्लं जाव पडिबुद्धे, तं सव्वसुविणा परमत्ता ?। गोयमा ! वावत्तरि सब
णं समणे भगवं महावीरे सुक्कज्माणोवगए विहरइ २ । सुविणा पम्मत्ता । तित्थगरमायरो णं भते ! तित्थगरंसि
जं णं समणे भगवं महावीरे एग महं चित्तविचित्त० जाव गम्भं वक्कममाणसिं कइ महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति ? गोयमा! तित्थगरमायरो णं तित्थगरंसि गम्भ
पडिबुद्धे, तं णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरवक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चउद्दस
समयं दुवालसंग गणिपिडगं आघवेति पमवेति परूमहासुविणे पासित्ता ण पडिबुज्झति, तं जहागयउस
| वेइ दंसेइ निदंसेइ उवदंसेइ, तं जहा-आयारं सूयगडं भसीह जाव सिहं च । चक्कवट्टिमायरो ण भते ! चक्क
जाव दिहिवायं ३।, जं णं समण भगवं महावीरे बर्दिसि गम्भं वक्कममासांसि कइ महासुविणे पासित्ता ण
एगं महं दामदुर्ग सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता णं प-- पडिबुझंति ?, गोयमा ! चकवट्टिमायरो चक्कवादिसि डिवुद्धे, तं गं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्म पहा
जाव वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं एवं वेइ, तं जहा-अगारधर्म वा, अणगारधम्म वा ४। जहा तित्थगरमायरो जाव सिहिं च । वासुदेवमायरो णं जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सेयगोवग्गं० पुच्छा, गोयमा ! वासुदेवमायरो जाव वक्कममाणंसि | जाव पडिबुद्धे तं णं समलस्स भगवश्री महावीरस्स एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अप्लयरे सत्त महासु- चाउव्यस्माइम्मे समणसंघे पामत्ते । तं जहा-समणाओ, समविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । बलदेवमायरो वा णं पु- णीओ, सावयाओ, सावियाओ ५। ज णं समणे भगवं च्छा, गोयमा! बलदेवमायरो जाच एएसिं चउद्दसण्हं महावीरे एग महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे, तं णं सममहासुविणाणं अप्लयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं णे जाव महावीरे चउबिहे देवे पपवेइ । तं जहा-भवपडिबुझंति, मंडलियमायरो णं भते ! पुच्छा, गोयमा! णवासी, बाणमंतरे, जोइसिए, वेमाणिए ६ ज णं समणे मंडलियमायरो जाव एएसिं चउद्दसएहं महासुविणाणं | भगवं महावीरे एग महं सागरंजाब पडिबुद्धे, तं णं समअमयरं एर्ग महासुविणं०जाव पडिबुज्झति, (सूत्र-५७८)| णेणं भगवया महावीरेणं अणादिए अणवदग्गे० जाव समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे | संसारकंतारे तिले ७ । जं णं समणे भगवं महावी
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( २२४ ) अभिधानराजेन्द्रः । एवं महं दियरं० जाव पडिबुद्धे, तं णं समयस्स भगवओ महावीरस्स प्रणते अत्तरे० जाव केवलवर - यादंसणे समुप्पो ८ । जं गं समणेणं ० जाव वीरें एगं महं हरियवेरुलिय ०जाव पडिबुद्धे, तं गं समणस्स भगवओ महावीरस्स ओराला कित्तिवम्पसद्द सिलोया सदेवमणुयासुरे लोगे परिभवंति - इति खलु समये भगवं महावीरे इति खलु समणे० ६ । जं सं समस्ये भगवं महावीरे यंदरे पoar मंदरचूलियाए ०जाव पडिबुद्धे, तं गं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगए केवली धम्मं श्राघवेइ० जाव उपदंसह । ( सूत्र - ५७६ )
महासुमि (वि) क्खणामेव बुज्झइ, तेव० जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा घयकुंभं वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासह, उप्पाडे माणे उप्पाडेइ, उप्पडितमिति अप्पाणं ममइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव ० जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सुरावियडकुंभं पा सोवीरवियडकुंभं वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे पास, भिंदमाणे भिंदइ, भिन्नमिति अप्पाणं मध्पर, तक्खणामेव बुज्झइ, दोचेणं भवग्गहणेणं ० जाव अंत करेइ । इत्थी वा पुरिसे वासुवर्णते एवं महं पउमसरं कुसुमितं पासमाणे पास, इत्थी वा पुरिसे वा सुविखंडते एगं महं हयपंतिं वा गयपं श्रोगाहेमाणे श्रोगाहइ, ओगाढमिति अप्पाणं ममइ, तक्खतिं वा०जाव व सभपति वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरू- णामेव तेणेव ० जाव अंतं करेइ । इत्थी वा ० जाव सुविणंते इ, दुरूढमिति अप्पाणं माइ, तक्खणामेव बुज्झइ, एगं महं सागरं उम्मी वीयी०जाव कलियं पासमाणे पास, तेणेव भवग्गहणं सिज्झइ, ०जाव अंतं करेइ । इत्थी वा तरमाणे तरइ, तिसमिति अप्पाणं ममइ, तक्खणामेव पुरिसेवा सुविणंते एगं महं दामिणि पाईणपडीयायतं तेणेव ० जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरि ० जाव सुविणं दुह समुद्दे पुढं पासमाणे पासइ, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, एगं महं भवणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासति, दुरूहमा - संवेलियमिति अप्पाणं मरणइ तक्खणामेव अप्पा से दुरूहति, दुरूङमिति अप्पाणं माइ, अणुपविसमाणे अबुज्झर, तेणेव भवग्गहखेणं • जाव अंत करे । इ - णुपविसति, अणुपविठ्ठमिति अप्पाणं मम्मति, तक्खणामेव स्थी वा पुरिसे वा एगं महं रज्जुं पाईणपडीणायतं दुह- बुज्झति, तेणेव ० जाव अंतं करेति, इत्थी वा पुरिसे वा श्रो लोगंऽते पुठ्ठे पासमाणे पासइ, छिंदमाणे छिंदर, सुविणंते एगं महं विमाणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासइ, लिष्ठमिति अप्पाखं गमइ, तक्खणामेव जाव० तं करेइ । दुरूहमाणे दुरूह, दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खइत्थी वा पुरिसेवा सुविसंते एगं महं किएहसुत्तगं वा णामेव बुज्झइ, तेणेव० जाव अंत करे । ( सूत्र - ५८० ) • जान सुकिल्लसुत्तर्ग वा पासमाणे पासह, उग्गोवेभाणे (कवि ) इत्यादि, (सुविणदंसणे' ति ) स्वप्नस्य-स्वाठग्गोवेद, उग्गोवियमिति अप्पाणं माइ, तक्खणामेव पक्रियानुगतार्थविकल्पस्य, दर्शनम् - अनुभवनं, तच्च स्वप्न०जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसे वा सुविखंडते एगं महं भेदात्पश्ञ्चविधमिति, ( अहातचे ति ) यथा येन प्रकारेण तथ्यं सत्यं तवं वा तेन यो वर्त्ततेऽसौ यथातथ्यो यअयरासिं घा तंवरासिं वा तउयरासिं वा सीसयरासिं थातत्स्वो वा, स च दृष्टार्थाविसंवादी फलाविसंवादी वा । वा पासमा पासह, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति श्र- तत्र दष्टार्थाविसंवादी स्वप्वः किल कोऽपि स्वप्नं पश्यति, यप्पाणं मरणइ, तक्खणामेव बुज्झइ, दोघे भवग्गहणे सि- था-'म फलं हस्ते दसं' जागरितस्तथैव पश्यतीति, फज्झर, ०जाब अंत करेइ । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते लाविसंवादी तु किल कोऽपि गोवृषकुञ्जराद्यारूढमात्माएवं महं हिरमरासि वा सुवम्परासि वा रयणरासिं वा नं पश्यति बुद्धच कालान्तरे सम्पदं लभते इति, ( पयाणे सि ) प्रतननं - प्रतानो विस्तारस्तद्रूपस्स्वप्नो यथातथ्यः बहररासिं वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूह, दु- तदन्यो वर प्रतान इत्युच्यते, विशेषणकृत एव चानयोरूढमिति अप्पां मराइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव र्भेदः, एवमुत्तरत्रापि ( चिंतासुमिति ) जानदभवग्गहणेणं सिज्झइ,॰जाव अंत करेइ । इत्थी वा पुरिसे चिन्तास्वप्नः, ( तव्विवरीय त्ति ) यादृशं वस्तु स्वमे दृष्टं वस्थस्य या चिन्ता श्रर्थचिन्तनं तत्संदर्शनात्मकः स्वरः वा खुविणंते एगं महं तणरासिं वा जहा तेयणिसग्गे तद्विपरीतस्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्व• जान अवकररासि वा पासमाणे पासइ, विक्खिरमणे प्रो, यथा- कश्चिदात्मानं मेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति विक्खिरह, विक्खिणमिति अप्पाणं मरणइ, तक्खणा- जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचन प्राप्नोतीति अन्ये तु तद्विप मेव बुझ, तेव० जाव अंतं करेति, इत्थी वा पुरिसे रीवमेषमाहुः कश्चित् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्ववा सुविते एगं महं सरथंभं वा वीरणथंभं वा वंमे च पश्यत्यात्मानमश्वारूढमिति, ( श्रव्वत्तदंसणे ति ) - व्यक्तम्- अस्पष्टं, दर्शनम् - अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासावव्यक्तसीमूलथंभं वा वलीमूलथंभं वा पासमाणे पासह, उदर्शनः । स्वप्नाधिकारादेवेदमभिधातुमाह-' सुत्ते ण ' मिम्मूलेमाणे उम्पूलेइ, उम्मूलितमिति अप्पा मण्खर, तत्यादि, ( सुत्तजागरे ति ) नातिसुप्तो नाति जानादित्यर्थः,
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(२२५ ) महासु(मिण अभिधानराजेन्द्रः।
महासेणकराहा इह सुप्तो जागरश्च द्रव्यभावाभ्यां स्यात्तत्र द्रव्यतो-निद्रा- ५७६ ] [ सुविणते ति ] स्वप्नान्ते-स्वप्नस्य विभागे पेक्षया, भावतश्च विरत्यपेक्षया, तत्र च स्वमव्यतिकरो नि-| अवसाने वा' गयपतिं वा ' यावत्व
अवसाने वा' गयपति वा ' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्द्वापेक्षया उक्तः । अथ विरत्यपेक्षया जीवादीनां पञ्चविंशतेः 'नरपंतिं वा एवं किन्नरकिंपुरिसमहोरगगंधव्व त्ति' (पापदानां सुप्तत्वजागरत्वे प्ररूपयन्नाह-'जीवा ग' मित्यादि, समाणे पासइ त्ति ) पश्यन् पश्यत्तागुणयुक्तः सन् पश्यतत्र (सुत्त त्ति) सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रबोधभावात् ,(जा- ति-अवलोकयति, ( दामिणि ति ) गवादीनां बगर त्ति ) सर्वविरतिरूपप्रवरजागरणसद्भावात् । (सुत्तजागर न्धनविशेषभूतां रज्जुम् । ( दुहश्रो त्ति ) द्वयोरपि पाति ) अविरतिरूपसुप्तप्रवुद्धतासद्भावादिति । पूर्व स्वप्नदृष्टा- योरित्यर्थः । ( संवेल्लेमाणे त्ति ) संवेल्लयन्-संवर्तर उक्ताः । अथ स्वतस्यैव तथ्यातथ्यविभागदर्शनार्थ ताने- यन् ( संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नइ त्ति) संवल्लितान्तावाह- संखुडे ण ' मित्यादि , संवृतः निरुद्धाश्रवद्वारः मित्यात्मना मन्यते विभक्तिविपरिणामादिति । ( उग्गोवेमाणे सर्वविरत इत्यर्थः , अस्य च जागरस्य च शब्दकृत एव त्ति) उद्गापयन् विमोहयन्नित्यर्थः । ( जहा तेयनिसग्ग त्ति) विशेषः-द्वयोरपि सर्वविरताभिधायकत्वात् , किंतु-जागरः यथा गोशालके, अनेन चेदं सूचितम्-(पत्तरासीति वा सर्वविरतियुक्तो बोधापेक्षयोच्यते । संवृतस्तु तथाविधवोधो- तयारासीति वा भुसरासीति वा तुसरासीति वा गोमपेतसर्वविरत्यपेक्षयेति , (संखुडे सुविणं पासइ अहात- यरासीति व त्ति) [ सुरावियडकुंभं ति ] सुरारूपं यद् च्च पासइ ति) सत्यमित्यर्थः , संवृतश्चेह विशिष्टतर- विकटम्-जल तस्य कुम्भो यः स तथा । [सोवीरगवियडसंवृतत्वयुक्तो ग्राह्यः । स च प्रायः क्षीणमलत्वात् देवतानु- कुंभंव त्ति] इह सौवीरकं-काञ्जिकमिति। भ०१६ श०६ उ०॥ ग्रहयकत्वाच्च सत्यं स्वप्नं पश्यतीति । अनन्तरं संवृता-सटामियाभागा-टानावासी० । मातानि दिः स्वप्नं पश्यतीत्युक्तम् । अथ संवृतत्वाद्येव जीवादिषु द- गजवृषभादीनि भाव्यन्ते यासु ताः महास्वप्नभावनाः । अङ्गशयन्नाह-'जीवा ण ' मित्यादि । स्वप्नाधिकागदेवेदमाह- बाह्यश्रुतविशेषे, पा० । पं०व०।। 'कइ ण' मित्यादि , (वायालीसं सुविण त्ति) विशिष्ट
| महासुव्वया-महासुव्रता-स्त्री०। भगवतोऽरिष्टनेमेः प्रथमश्राफलसूचकस्वप्नापेक्षया द्विचत्वारिंशदन्यथाऽसंख्येयास्ते |
विकायाम् , श्रा० म०१ श्र० । संभवन्तीति, ( महासुविण त्ति ) महत्तमफलसूचकाः
महासेण--महासेन-पुं० । मल्लितीर्थकरस्याष्टमे गणधरे, शा० ( वावत्तरित्ति) पतेषामेव मीलनात् । (अंतिमराइयसि त्ति)
१ श्रु०८ अ० । राजगृहे श्रेणिकराजस्य धारणीकुक्षिसम्भरात्रेरन्तिमे भागे (घोररूवदित्तधर ति) घोरं यद्रूपं
वे पुत्रे, अणु०१ वर्ग २ अ० ['महासीहसण' शब्देऽस्मिन्नेव दीप्तं च दृप्तं वा तद्धारयति यः स तथा, तम् । (तालपि
भागे २२१ ऽस्य वक्तव्यतोक्ता] जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे सुप्रसायं ति ) तालो-वृक्षविशेषः, स च स्वभावादी?
तिष्ठितनगरे स्वनामख्याते राजनि, विपा० १ श्रु०६०। भवति, ततश्च ताल इव पिशाचस्तालपिशाचस्तम् , एषां
कृष्णस्य वासुदेवस्यावल्गकपुरुष, आ० म० १ प० । जच पिशाचाद्यर्थानां मोहनीयादिभिः स्वप्नफलविषयभूतैः
म्बूद्वीपे भरतक्षेत्रेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां सप्तमकुलकरे, स०। सह साधर्म्य स्वयमभ्यूह्यम् , ( पुंसकोइलगं ति ) पुस्को
ऐरबते वर्षे भविष्यति पञ्चदशे तीर्थकरे, स०। प्रा०चू० । किलं-कोकिलपुरुषमित्यर्थः, ( दामदुगं ति ) मालाद्वयम् ।
ईशानेन्द्रस्य देवस्य नाट्यानीकाधिपती, स्था० ७ ठा०। (उम्मीवीइसहस्सकलियं ति) इहोर्मयो महाकल्लोलाः वी
महासेणकएह-महासेनकृष्ण-पुं० । श्रेणिकभार्याया महासेचयस्तु हस्वाः, अथवा-ऊमीणां वीचयो विविक्तव्यानि त
नकृष्णायाः पुत्रे, नि० १ वर्ग ६ अ० [स च संग्रामे मृत्वा त्सहस्रकलितम् , (हरिवेरुलियवरणामेणं ति) हरिच्च-तनील वैडूर्यवर्णाभं चेति समासस्तेज-(भाषेढिय ति) अ
चतुर्थनरकपृथिव्यामुपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति निरयावभिविधिना वेष्टितं सर्वत इत्यर्थः । (परिवेढियं ति) पुनःपु
लिकायाः प्रथमवर्गे षष्ठेऽध्ययने सूचितम् ] नरित्यर्थः । ( उवरि ति) उपरि ( गणिपिगं ति) गणीना
महासेणकण्हा-महासेनकृष्णा-स्त्री० । खनामख्यातायां श्रेम्-अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव पिटकम्-श्राश्रयो गणिपि
णिकभार्यायाम् , नि० । अन्त। [सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य टकम् , गणिनो वा आचार्यस्य पिटअमिव 'सर्वस्वभाजन
आचामाम्ल तपःकर्मोपसंपाद्य सिद्धा] वक्तव्यता यथामिव गणिपिटकम् । [आघवेइ ति आभ्यापयति सामान्य
एवं महासेणकएहा वि, नवरं आयंबिलवड्रमाणं तवोविशेषरूपतः, [पन्नवेति ति सामान्यतः [परुयेइत्ति प्रति- कम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरति, तं जहा-आयंबिलं करेसूत्रमर्थकथनेन, [दसेइत्ति] तदभिधेयप्रत्युषेक्षणादिक्रियाद
ति, आयंबिलं करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता बे र्शनेन, [निदंसेइ त्ति ] कथञ्चिदगृहृतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनदर्शयति [उवदंसेइ तिसकलनययुक्तिभिरिति, [चा
आयंबिलाई करेति बे आयंबिलाई करेत्ता चउत्थं करेति उव्वराणाइन्नेत्ति चातुर्वर्णश्वासावाकीर्णश्च ज्ञानादिगुणैरिति
चउत्थं करेत्ता तिन्नि आयंबिलाई करेति तिम्नि आयंबिचातुर्वर्णाकीणः । [चउब्बिहे देवे पन्नवेइ ति] प्रज्ञापय- लाई करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता चत्तारि आयंति-प्रतिबोधयति शिष्यीकरोतीत्यर्थः . [अगते ति] वि.
बिलाइं करेति चत्तारि आयंबिलाई करेत्ता चउत्थं करेति षयानन्तत्वात् [अणुत्तरे त्ति ] सर्वप्रधानत्वात् 'यावत्करणादिदं दृश्यम्-'निब्बाघाए ' कटकुड्यादिना प्रतिहतत्वा
चउत्थं करेत्ता पंच आयंबिलाई करेति पंच आयंबिलाई त् , निरावरणे ' क्षायिकत्वात् , 'कसिणे' सकलार्थग्राहक
करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता छ आयंबिलाई करेत्वात् . 'पडिपुन्ने' अंशेनापि स्वकीयेनान्यत्वादिति। [सू-| ति छ आयंविलाई करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता,
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(२२६ ) महासेणकराहा अभिधानराजेन्द्रः।
महाहिमवं. एवं एकोत्तरियाए बड्डीए आयंबिलाई बड्डेति चउत्थंs- त्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं,एत्थ णं जम्बुदीवे दीवे मतरियाई ०जाव आयंबिलसयं करेति आयंबिलसयं करेत्ता | हाहिमवंते णामं वासहरपन्वए पामत्ते, पाईणपडीणायए उचउत्थं करेति, तते णं सा महासेणकण्हा अज्जा आयंबिलवड्डमाणं तवोकर्म चोद्दसहिं वासेहिं तिहि य मा- समुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुढे पञ्चत्थिसेहिं वीसहि य अहोरत्तेहिं अहासुत्तं . जाव सम्म मिल्लाए कोडीए पञ्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे दो जोयणकारणं फासेति • जाव आराहेत्ता जेणेव अज्जचंदणा सयाई उढे उच्चत्तेणं पलासं जोषणाई उम्बेहेणं चत्तारि अजा तेणव उवागच्छइ उवागच्छित्ता बंदइ नमसइ वं- जोअणसहस्साई दोस्मि अदसुत्तरे जोअणसए दस य एदित्ता नमंसित्ता बहहिं चउत्थेहिं . जाव भावेमाणी | गूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बांहा पुरविहरति , तते णं सा महासेणकण्हा अज्जा तेणं | थिमपञ्चत्थिमेणं णव जोअणसहस्साई दोलि छाव
ओरालणं • जाव उवसोभेमाणी चिट्ठइ, तए णं तीसे | त्तरे जोअणसए णव य एगूणवीसइभाए जोत्रमहासेणकण्हाए अजाए अन्नया कयाऽवि पुव्वरत्ता- णस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तवरत्तकाले चिंता जहा खंदयस्स . जाव अजचंदणं रेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरपुच्छइ जाव संलेहणा, कालं अणवखमाणी विहरति । थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्नं लवणसमुदं पुट्ठा पतते णं सा महासेणकण्हा अज्जा अज्जचंदणाए अजाए | चथिमिल्लाए जाव पुट्ठा तेवमं जोअणसहस्साई अंतियं सामाइयाति एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडि नव य एगतीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए पुनातिं सत्तरसवासातिं परियायं पालइत्ता मासियाए सं-| जोअणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं, तस्स घj लेहणाए अप्पाणं झूसत्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदे- | दाहिणेणं सत्तावरणं जोअणसहस्साई दोएिण अ ता जस्सऽडीए कीरइ जाव तमट्ठ पाराहेति चरिमउस्सा- तेणउए जोअणसए दस य एगृणवीसहभाए जोसणीसासेहिं सिद्धा बुद्धा। अन्त०८ वर्ग १० अ०। अणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंठाणसंठिए सव्वरयमहासेय-महासेक-पुं०। औत्तराहाणामिन्द्रे, स्था। णामए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दो कुंभडिंदा पएणत्ता, तं जहा-सेए चेव , महासेए | दोहि अवणसंडेहिं संपरिक्खित्ते महाहिमवंतस्स णं चेव । स्था० २ ठा० २ उ०।।
वासहरपव्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पगणमहासेल-महाशैल-पुं० । महाहिमवति, सा० १ श्रु० ११०।। ते, जाव णाणाविहपञ्चवहिं मणीहि अतणेहि अ वैताब्ये, कल्प०१ अधि०२ क्षण।
उवसोभिए०जाव पासयंति सयंति य । (सूत्र-७६) महासोक्ख-महासौख्य-त्रि० । महत्सौख्यं प्रभूतसवेंदनीयो- ( कहि णं भंते ! इत्यादि ) सर्व प्राग्वत् , नवरं द्वे दयवसायस्य स महासौख्यः । अत्यन्तसुखयुक्ते, सू० प्र० २० योजनशते उच्चत्वेन सुद्राहिमवद्वर्षधरतो द्विगुणोच्चत्वात् पाहु । जं० । औ० । श्रा० म० । जी० । प्रज्ञा० । महानदे, स्था० पञ्चाशद्योजनान्युद्वेधेन-भूप्रविष्टत्वेन , मेरुवर्जसमयक्षेत्रगि२ ठा० ३ उ० । विशिष्टसुखयोगादिति, ज्ञा० १ श्रु०१०।। रीणां स्वोच्चत्वचतुर्थांशेनोद्वेधत्वात् चत्वारि योजनसहस्था । चं०प्र०।
स्राणि द्वे च योजनशते दशोत्तरे दश च योजनकोनर्विमहासोदाम-महासौदाम-पुं०। बलेवैरोचनेन्द्रस्य पीठानीका- शतिभागान् विष्कम्भेन हैमवतक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् , अधिपतौ अश्वराजे, स्था०५ ठा०१ उ० ।
थास्य बाहादिसूत्रमाह-( तस्स त्ति) सूत्रत्रयमपि व्यमहाहरि-महाहरि--पुं० । दशमचक्रवर्तिनः पितरि, स०।
कम् , प्रायः प्राग्व्याख्यातसूत्रसदृशगमकत्वात् , नवरमत्रास्य
सर्वरत्नमयत्यमुक्तम् , बृहत्क्षेत्रविचारादौ तु पीतस्वर्णमयमहाहिताव-महाभिताप-त्रि० । महादुःखोत्पादके, सूत्र०१
त्वमिति तेन मतान्तरमवसेयम् , अनेनैव मतान्तराभिप्रायेण श्रु०५ १०१ उ०।
जम्बूद्वीपपट्टादावस्य पीतवर्णत्वं दृश्यते , अथास्य स्वरूमहाहिमवंत-महाहिमवत-पुं०। हैमवत्क्षेत्रस्योत्तरतः सीमाका
पाविर्भावनायाह-( महाहिमवंतस्स णमित्यादि ) सर्वरिणि वर्षधरपर्वते, जी० ३ प्रति० ४ श्रधिः । स्था० । रा०। जगतीपद्मवरवेदिकावनखण्डकवद् ग्राह्यम्। दो महाहिमवंता । स्था० २ ठा० ३ उ०।।
सम्प्रति अत्र हदस्वरूपमाहमहाहिमवंतकूड-महाहिमवत्कूट-न०। महाहिमवतो वर्षधर- महाविमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे पर्वतस्य स्वनामकदेवभवनाधिष्ठिते कूटे स्था० १० ठा० । महापउमद्दहे णामं दहे पामते , दो जोअणसह
कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहर- | स्साई आयामेणं एगं जोअणसहस्सं विक्खंभेणं दस पन्धए परमते । गोयमा! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स जोषणाई उव्वेहेणं अच्छे रययामयकूले, एवं आयावासस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पचत्थिमेणं पच्च- मविखंभविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स बत्तव्वया सा
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( २२७ ) महाहिमवं अभिधानराजेन्द्रः।
महाहिमवं. चेव णेशव्या, पउमप्पमाणं दो जोषणाई अट्ठो जाव समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगृणवीमहापउमद्दहवएणाभाई हिरी अ इत्थ देवी . जाव प--
सहभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया लिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणऽद्वेणं गोत्रमा ! एवं
घडमुहपवित्तिएणं मुत्ताऽऽवलिहारसंठिएणं साइरेगदुजोत्रबुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोत्रमा ! महापउमद्दहस्स सा- णसइएणं पवाएणं पवडइ, हरिकंता महाणई जो प-- सए णामधिज्जे परमत्ते । ज ण कयाइ णाऽसि, जंण वडइ एत्थ णं महं एगा जिभित्रा पएणत्ता, दोकयाइ नथि, जे प कयाइ ण भविस्सइ, तस्स णं | जोयणाई आयामणं पणवीसं जोषणाई विक्खंभेणं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहित्रा महा
अद्धं जोअणं वाहल्लेणं मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिा सव्वगई पब्बूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोणसए पंच रयणामई अच्छा , हरिकंता णं महाणई जहिं पवडइ य एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पन्च- एत्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुंडे णामं कुंडे पएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठि- | एणते. दोरिण अचत्ताले जोअणसए आ एणं साइरेगदोजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ, रोहि-| भणं सत्ताउण। जोयणसए परिक्खवेणं अच्छे, एवं आ णं महाणई जमओ पवडइ एत्थ णं महं एगा कुंडवत्तव्यया सव्वा नेयध्वा० जाव तोरणा । तस्स णं जिब्भिया परमत्ता, सा णं जिभिया जोअणं आया- हरिकंतप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं मेणं अद्भुतेरसजोषणाई विखंभेणं कोसं बाहल्लेणं | एगे हरिकंतदीवे णामं दीवे पएणते, बत्तीसं जोअणाई मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिा सब्बवइरामई अच्छा , रो- आयामविक्खंभेणं एगुत्तरं जोअणसयं परिक्खेवेणं दो हिआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे कोसे ऊसिए जलंताओ सब्बरयणामए अच्छे,से णं एगाए रोहिअप्पवायकुंडे णामं कुंडे पएणत्ते, सबीसं जोअणस- | पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते यं आयामविक्खंभेणं पएणतं, तिमि असीए जो- वण्णो भाणिअव्यो ति, पमाणं च सयणिजं च अणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवणं दस जोअणाई अट्ठो अभाणिअब्बो । तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडउबेहेणं अच्छे सण्हे सो चेव वएणओ , वइरतले | स्स उत्तरिलेणं तोरणेणं जाव पबूढा समाणी हवढे समतीरे • जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअप्पवायकुं- | रिवस्सं वासं एन्जेमाणी एन्जेमाणी विश्रडावई वट्टवेअद्वं डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअदीवे जोअणणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरिस्थामं दीवे पएणते, सोलसजोषणाई आयामविक्खंभेणं वासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी छप्पामाए सलिलाससाइरेगाई परमासं जोअणाई परिक्खेवणं दो कोसे | हस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पचत्थिमेणं लवणसऊसिए जलंताओ सब्बवइरामए अच्छे, से णं ए
मुई समप्पेइ, हरिकंता णं महाणई पवहे पणवीसं जोगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेण सम्बो अणाई विक्खम्मेणं अद्धजोधणं उबेहेणं तयणंतरं च णं समता संपरिक्खित्ते, रोहिअदीवस्स णं दीवस्स उप्पि
मायाए मा०२ परिवद्धमाणी परिवद्धमाणी मुहमूले अद्धाइवहुसमरमाणिज्जे भूमिभागे पएणत्ते , तस्स णं बहु- जाई जोयणसयाई विक्खम्मेणं पंच जोषणाई उव्वेहेणं, समरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइमाहिं, दोहि अ वणमहं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सेसं त चेव संडेहिं संपरिक्खित्ता । ( सूत्र-८०) पमाणं च अट्ठो अ भाणिअव्वो । तस्स णं रोहि
'महाहि' इत्यादि, प्रायः पनद्रहसूत्रानुसारेण व्याख्येयम् । अप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहित्रा
प्रथैतदक्षिणद्वारनिर्गतां नदी निर्दिशमाह-( तस्स णमिमहाणई पबूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी ए. २ त्यादि) तस्य महापचद्रहस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता सद्दावई वट्टवेअढपव्वयं अद्धजोअणणं असंपत्ता पुर
महानदी प्रव्यूढा-निर्गता सती षोडशपश्चोत्तराणि योजन
शतानि पञ्च चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुस्थामिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभ
खी पर्वतेन गत्वा महाता घटमुखप्रवृत्तिकेन मुक्तावलिहारजमाणी विभजमाणी अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं सम- संस्थितेन सातिरेकद्वियोजनशतिकेन, सातिरेकत्वं च रोग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ,
हिताप्रपातकुण्डोद्वेधापेक्षया बोध्यम् , प्रपातेन प्रपतति, रोहिआ णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अमुहे अ भा
षोडशेत्यादिसंख्यानयनं तु चतुःसहस्रद्विशतदशयोजन
तदेकोनविंशतिभागात्मकभागदशकागिरिव्यासात् सहणिअव्वा इति • जाव संपरिक्खित्ता । तस्स णं महाप
| स्रयोजनात्मके द्रहव्यासेऽपनीते सत्यकृताद्भवति, उमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पब्बूढा | अन्यत् सर्व रोहितांशागमेन वाच्यम् । अथ सा यतः
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महाहिमवंत
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प्रपतति तदास्पदं दर्शयति-' रोहिश्रा समित्यादि ' प्रायत् । अथ पत्र प्रपतति तदाह- रोहिया समित्यादि प्राग्व्याख्यातप्रायम्, नवरं सविंशतिकं योजनशतं गङ्गापातकुण्डतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् त्रीणि योजनशतानि अशीत्यधिकानि किचिद्विशेषोनानि ऊनायफर णेन योजनानि ३७६ क्रोशः १ कियद्धनुरधिकस्तेन किञ्चिदूनाशीतिरुक्ला इत्यर्थः, परिक्षेपेणेति । अधुनाऽस्य द्वीपचनव्यमाह तस्व ' मित्यादि व्यक्तम् नवरं गङ्गाद्वतो द्विगुणायामविष्कम्भत्यात्, पोडश योजनानि रोहितादीपप्रमाणमित्यर्थः से समित्यादि सुगमम् रोहि दीव इत्यादि ' सुगमम् नवरं शेषं विष्कम्भादिकं प्रमा तदेव कोऽर्थ - कोशं विष्कम्भेन देशोनकोशवेनेति चशब्दाद्रोहितादेवीशयनादिवर्णकोऽपि, अर्थश्व'से केणऽणं भन्ते ! रोहिश्रदीवे ' इत्यादि, सूत्रावगम्यः । सम्प्रति पचेर्य लयागामिनी तथाऽऽह तस्सत्यादि तस्य - रोहिताप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन द्वारेसेत्यर्थः, रोहिता महानदी डा निर्माता सती मतं वर्षम् आगत २ मचत क्षेत्राभिमुखमायान्तीत्यर्थः शब्दा पातिनामानं वृत्तवेतापर्वतमयोजनेन कोशासा सा-असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभजन्ती २-द्विभागं कुर्वती २ श्रष्टाविंशत्या सलिलासहस्रैः समग्रा - पूर्णा, भरतनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात्, अधोभागे जगतीं जम्बूद्वीपकोट्टं दारयित्वा पू र्वभागेन लवणसमुद्रं समुपसर्पति, प्रविशतीत्यर्थः । अथ लाघवार्थ रोहितांशातिदेशेन रोहितावक्लव्यमाह-' रोहिश्राणं ति' अतिदेशसुत्रत्वादेव प्राग्वत् अधास्म उत्तरगामिनीयं नदी काचरतीत्याशया तस्स सामति व्यक्रम 'हरिकंता ' इत्यादि कण्ठ्यम् अत्र 'सव्वरयणामई' ति पाठो बह्रादर्शष्टोऽपि लिपिमादापतित एव सम्भाव्यते बृहत्त्रांचारादिषु सर्वासां जिह्निकानां वज्रमयत्येनैव भणनात् जलाशयानां प्रायो वज्रमयत्वेनैवोपपने श्व, 'हरिकंता ए ' मित्यादि, यक्क्रम्, नवरं हरिकान्ताप्रपातकुडे हे योजनरांत चत्वारिंशदधिके आयामचिष्कभाभ्यां सप्तयोजनशतानिएकोनष्ठानि एफोनपष्टयधिका नि परिधिना इति, ' तस्स ए ' मित्यादि, सूत्रत्रयं प्रासूत्रानुसारेण बोजच्यम् नवरं चिकटापातिनं वृणयेता
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योजना सम्प्राप्ता पश्चिमेनावृत्ता सती हरिवर्ष नाम क्षेत्र वक्ष्यमाणस्वरूपं द्विधा विभजमाना २ पञ्चाशता नदीसहस्रैः समग्रा-परिपूर्ण हैमवतवनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्यात् पश्चिमेन भागेन लवणोदधिमुपैति । सम्प्रत्यस्याः प्रवाहादि कियन्मानमित्याह-'हरिकता ' इत्यादि, हरिकान्ता महानदी प्रवहे द्रहनिर्गमे, पञ्चविंशतियोजनानिविष्कम्भेन अर्जयोजनमुडेन तदनन्तरे माया मात्राप्रमेश २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोः चत्यारि शद्धनुर्बुद्धया, प्रतिपाश्र्वं धनुर्विंशतिवृद्धयेत्यर्थः, परिवर्द्धमाना २ मुखमूले- समुद्र प्रवेशेऽर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विकम्मेन पञ्च योजनान्युजेधेन, उभयोः पार्श्वभ्यां प अवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च धनसाराभ्यां सम्परिक्षिप्ता ।।
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( २२८ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
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से
अथैतस्य कूटवक्तव्यमाह
द्वे भंते ! एवं बुच्चइ महाहिमवंते वासहरपवासहरपव्दए । गोअमा ! महाहिमवंते खं वासहरपचुल्लहिमर्वतं वासहरपव्वयं पनिहाय आयामुचतुब्बेहविक्खम्भपरिक्खेवेणं महंततराए चैव दीहतराए चैव, म हाहिमवंते अ इत्थ देवे महि (वि) द्धिए ० जाव पलियमडिइए परिसव (सूत्र-८१)
I
साम्य महादिमतो नामार्थनिरुपपनाह' से केराट्टेल ' मित्यादिव्यक्तम् नवरमुत्तरसूत्रे महाहिमवान् वर्षपर्वतः वर्षचरपर्वतं प्रणिधाय प्रतीत्ये त्यर्थः योजनाया विचित्रत्वात् श्रायामापेक्षा दीर्घतरक एव उच्चत्वाद्यपेक्षया महत्तरक एवेति, अथवा महाहिमवन्नामालदेवः पत्योपमस्थितिकः परिवसति सूत्रे आयामोचत्वेत्यादावेकवद्भावः समाहाराट् बोध्यः । जं० ४ वक्ष० । स० ॥ जीवाभिगमे चैवं व्याख्यातम्
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[ महाहिमवंत मलयमंदरगिरिगुहा समग्रागयाणामिति ] म हाहिमवान-मवत क्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षभर पर्यतः उपलक्षणं शेषवर्षधरपर्वतानाम्, मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्च - मेरुपर्वतस्य च गुहासमन्वागतानाम्, वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु हि स्थानेषु प्रायः किन्नरादयः प्रमुदिता भवन्ति तत पतेषामुपादानम् [बगतो सदिया ति] एकस्मिन् स्थाने सहितानां समुदितानाम् [समुदायाति ] परस्परसंमुखागतानां संमुखं स्थितानाम् नैको ऽपि करणापि पृष्ठे दरवा स्थित इत्यर्थः पृष्ठदाने हर्षविधातोत्पत्तेः । जी० ३ प्रति० । जं० ।
महाहिलोगबल - महाहिलोकवल पुं० [भरत क्षेत्रजा र जिनस मकालिके देवलजेऽष्टादशे तीर्थकरे ति० ।
महित्र - मथित त्रि० । विलोडिते, विरोलि मंथिश्रं महिश्रं " पाइ० ना० १६१ गाथा ।
I
महिया-महिका स्त्री० नीहारे, “सिरटा नीहारो धूमिश्रा व महा धूममहिसी य" पाइ० ना० ३८ गाथा । मेघसमूहे, 'घणनिवहो कालिश्रा महिश्रा' । पाइ० ना० १५७ गाथा । महिंद महेन्द्र पुं० शफादिदेवेशा० १० अ० स्था सूत्र० । चतुर्थदेवलोके, तदिन्द्रे च श्री० सप्तमतीर्थकर स्य प्रथमभिक्षादायके, स० । नि० । [ 'ठाण' शब्दे चतुर्थभामहिंदकुंभसमान महेन्द्रकुम्भसमान त्रि० महान्तो महेन्द्रगे १७०६ पृष्ठेऽयं लोक उक्तः ] पर्वतविशेषे, औ० । प्रा० म० । कुम्भसमानाः, कुम्भानामिन्द्रः इन्द्रकुम्भः, राजदन्तादिदशनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः- महांश्चासाविन्द्रकुम्भथ तस्व समानाः महेन्द्रकुम्भसमानाः। महाकलप्रमाणे जं० १ ० । महिंदज्य-मदेन्द्रध्वज-पुं० । महेन्द्रा इत्यतिमहान्तः समपरिभाषया ते च ते ध्वजाश्चेति, अथवा महेन्द्रस्येव शक्रादेर्ध्वजा महेन्द्रध्वजा, अत्युच्छ्रितेष्विन्द्रध्वजेषु, स्था० ।
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तानि गं मणिपदिया उपरि चचारि महिंदभया पण्णत्ता ।
स्था० ४ ठा० २ उ० । राय० । विश्वपुरे धरणेन्द्रस्य राक्षः
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महिंद
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महिंद
पुत्रे० ३। मणिपीठिकामध्यगता महेन्द्रध्वजाः सिद्धाantantraवोद्धव्याः। ॐ० ४ वक्ष० । महिंदष्पभरि महेन्द्रप्रभरि पुं० अञ्चल सिंहतिलकसूशिष्ये अयमाचार्यः विक्रमसंवत् १३६२ वर्षे जातः विक्रमसंवत् १४४४ वर्षे स्वर्ग गतः । जै० ६० । महिंदफल - महेन्द्रफल - २० । इन्द्रयवे, उस० २ श्र० । महिंदसीह महेन्द्रसिंह पुं० सःकुमारस्य चक्रवर्तिनोमि त्रे सूरिकालिन्दीतनये. उत्त० १८ श्र० । स्था० । महिंदर महेन्द्रगरि ५० धर्मोपरिशिष्ये तुरत्या स्यानतिकृति, धातु माचार्यः विक्रमसंवत् १२२८ वर्षे जातः १३०६ वर्षे स्वर्गतः । विक्रमसंवत् १२१४ वर्षेऽनेन शतपदिकानाम ग्रन्थो रचितः महेन्द्रसिंहरिरित्यपरमस्य नाम । द्वितीयोऽपि महेसुमिचन्द्राचार्यशिष्यः, तद्रचितानेकार्थसप्रम्ये अनेकार्थवाकरकीमुदीनाम डीफा:स्ति । जै० इ० ।
महिच्छ - महेच्छत्रि० । महती राज्यविभवपरिवारादिका स वांतिशायिनी खच्चान्तःकरणप्रवृत्तिर्यस्य सः । सू० २ श्रु० २ श्र० दशा०] अधिकोपधियुक्ते, स्था० ६ ठा० । प्रश्न० । महि-महिष्ठ- -न० | तक्रसंसृष्टे, विपा० १ ० १ ० । महिडिय - महर्द्धिक - त्रि० । महती ऋद्धिर्यस्य सः । दिव्यानुका रिलक्ष्मी, उत्त० ११ अ० । प्रज्ञा० । चं० प्र० । महिमकिरिया महिमक्रिया स्त्री० । शवदाहस्थाने मृतमाहाकरणे, "भरहो वि भगवतो यूपं काऊ चक्करयणस्स अट्ठाहिया महिमकिरिया " श्र० म० १ ० । महिमा - महिमन् पुं० । महोत्सवे, प्रा० १ पाद - । स्त्रियाम् महिमा बी० मा ल्यायाः खियाम् ॥ १३४ ॥ महिमाशु खीलिङ्गोऽपि दृश्यते। महोत्सये. प्रा० । पञ्चा० १ विव० विशिष्टे काले पूजायाम्, प्राचा० २ ० १ ० २ उ० । श्रा०म० महत्वमाप्तौ प्रत्ययेण चन्द्रादिस्पर्शनयोग्यतायाम्, द्वा० २६ द्वा० । सूत्र० ।
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६ ।
।
महिय महित- त्रि० पूजिते, आ० ०५ ० उत० विशे० । । । । म० शा०| श्रा० म० औ०। प्रशा० । पुष्पादिभिः पूजिते, ध०२ श्रधि० । श्राव॰ । नि० । श्र० म० । श्रा० चू० । स० । श्र० नमस्कृते, प्रा० चू०५ ०। सेव्यतया वाञ्छिते, उत्त०३ श्र० । अभिष्टुते, अनु० । प्रश्न० । पूजने, न० । शा० १ ० १ श्र० । मधित त्रिविलोडिते प्रश्न० २ ० द्वार खिवाम । मथिता मानमन्थनात् विलोडितेत्यर्थः । ज्ञा० १ श्रु० १६ अ० । भ० स० प्रा० म० । रा० प्रश्न० । दध्नि, प्रव० ४ द्वार । महिवदुय महिकानुन सम्बन्धि ०१० महियल-महितल भूतले प्रश्न० १ ० द्वार । महियलपट्टिय महीतलप्रतिष्ठित त्रि० महीतलस्थिते कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
महिया महिका श्री० धूमिकारूपे अकाये ओ० - ।
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( २२६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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।
महिसी
श्रा० चू० । कल्प० । अनु० | प्रब० । जी० । गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षे, प्रशा० १ पद । दश० भ० | मि० चू" । विशे० ॥
स्था० । आव० । श्राचा० ।
महिरुह महीरुह-१०
० १ ०
महिला - मिथिला- स्त्री० | विदेहजनपदे स्वनामख्याताय नगर्याम्, 'ते समय महिला गामं पथरी होत्था' चं०प्र० १ पाहु० । ० । विशे० । निह्नवानामुत्पत्तिस्थाने, उत्त०६
अ० आ० क० । श्रा० चू० ।
-
महिला श्री० स्त्रियाम् ०२४००० को० प्र० नाणाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पवाहिं पुरिसे मोहंति चि महिलाओ।
( भावा० ) नानाविधेः कर्मभिः पिवासियादिभिः शिपकादिभिश्व कुम्भकार- सोहकार चित्रकार-तनुवादनापित-विज्ञान पुरुषान [ मोहन्तीति ] मोहं प्रापयन्ति घानामनेकार्थत्वात् विडम्बयन्त इति महिलाः । यद्वा -- नानाविधैः कर्मभिः मैथुनसेवादिभिः शिल्पादिभिका मस्तकादी वदिविशा , पुरुषान् बालनरान् मोहयन्तीति आत्मसात्कुर्वन्तीति स्वार्थपूरणायेति महिला:, [ पुरि ति ] पुरुषान् मन्सान-उन्मत्तान् मुक्तगुरुजसकजननीवान्धवभगिनीमिवान् कुर्वन्ति प्रमदाः महान्तं रार्टि कलिं जनयन्ति उत्पादयन्तीति महिलाः । तं० । रामा रमणी सीमंतिणी बहू वामलोचरणा विलया। महिला जुवई अबला, निश्रंबिणी अंगणा नारी ॥ १२ ॥ पाइ० ना० १२ गाथा । महिलासभाव- महिलास्वभाव- पुं० । श्रीस्वभाव ०३ अभि स्त्री० । रार्टि महिलिया महिलिका श्री महान्तं यदि कति जनयन्ति उत्पादयन्तीति महिलिकाः । तं० । स्त्रियाम् अनु० । महिल- महत्- त्रि० । सर्वेभ्योऽपि बृद्धतरे, बृ० ३ उ० । महिउडियाकमलसरिसोवम-महोष्ट्रिकाकमलसदृशोपमत्रि० । महाभाजनखण्डतुल्ये, उपा० २ ० । महिवड- महीपृष्ठ न० भूतले, उत्तरपदयात्।" पृष्ठे था नुत्तरपदे " || ८ | १ | १२१ ॥ इति ऋत इवं म । प्रा० । महिवाल - महीपाल - पुं० । " पो वः ॥ | १ | २३१ ॥ इति पकारस्य दन्योष्ठयो वः । महिवालो । राजनि, प्रा० १ पाद । द्विखुरजीवविशेषे, महिस-महिष पुं०। मां शेते ति महिषः द्विजशेष
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अनु० । प्रव० । आ० म० । प्रज्ञा० ।
महिसंदो- देशी- शिश्रुतरौ, दे० ना० ६ वर्ग १२० गाथा | महिसकरण - महिषकरण - न० । महिषानुद्दिश्य किंचित्करऐ तादृशे स्थाने " श्रचा० २ ० २ चू० ३ ० महिलगाम महिषग्राम- पुं० । भरतक्षेत्रे येतायते उत्तरश्रेण्यां स्वनामख्याते ग्रामे, ती० ६ कल्प ।
महिसाखिय महिषानीक १० महिषसैन्ये, स्था० ७ डा० ।
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गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा भूमिकापाती महिकेत्युच्य
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ते । श्रचा० १ श्रु० १ ० ३ उ० । ० म० । जी० । महिसी महिषी - स्त्री० । राजभार्थ्यायाम्, स्था० ४ ० १
महिसिक देशी- महिषीसमूहे, ३० ना० ६ वर्ग १२४ गाथा । - दे०
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महुर
प्रा० मा नि ? व काले, स्था" आ० २ द्वार ।
(२३०) महिसी
मभिधानराजेन्द्रः। उ० । “ सेरिही महिसी" पार ना० २१६ गाथा । विशेषकलितेषु, ये हि तथाविधलब्धिवशान्मधुतुल्यं वचनं महिहर-महीधर-पुं० । पर्वते," (७६) सेलो अयलो दही | वदन्ति । प्रा० चू०१०। पा०। श्रा०म०। सिलोच्चयो महिहरोधरो सिहरी" पाइ० ना०५० गाथा। महुकरसम-मधुकरसम-त्रि० । भ्रमरतुल्ये, दश०१०। मही-मही-खी० । पृथिव्याम् , उत्त० २७ । ७०।। महुकरी-मधुकरी-खी० । भ्रमर्याम्, श्री०। प्रा० म० । मनःशिलायाम् , जैगा० । भुवि, दश०५ महुकुंभ-मधुकुम्भ-पुं० । मधुनः क्षौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भः , अ० १ उ० । सत्रः । महाबातोत्क्षिप्तसचित्तपृथिव्याम् , मधुभृतं मध्वेव वा कुम्भः मधुकुम्भः । मधुपूरिते घटे, स्था० विशे० । रत्नप्रभादिपृथिवीषु, आव० ४ ० । समुद्रगते | ४ ठा०४ उ०। महानदीमेदे, स्था० ४ ठा० २ उ० । जै० गा० । “ वसुहा | महुकेटभ-मधुकैटभ-पुं० । चतुर्थे प्रतिवासुदेवे, प्रव० २११ वसुन्धरा वसुमई मही मेरणी धरा धरिणी " पाइ० | द्वार । श्राव । ति। ना०२६ गाथा।
महगुलिया-मधुगुटिका-स्त्री० । क्षौद्रवर्तिकायाम् , मा. १ महीरुह-महीरुह-पुं० । वृक्षे, “साही बिडवी वच्छो महीरुहो
। थु०१०। पायवो दुमो य तरू" पाइ० ना०५४ गाथा।
| महुघाय-मधुघात--पुं० । मधुग्राहकेषु, प्रश्न०१आश्रद्वार। महीवलय-महीवलय-न०। समस्तधरणीतले , दर्श० ३ तत्त्व। महुतण-मधुतण-न० । तृणविशेषे, प्रशा० १ पद। महीहर-महीधर-पुं० । चम्पायां नगर्यो कालीनामपर्व- महुप्पल-महोत्पल-न । शतपत्रे कमले, " अंबुरुहं सयतस्याधोभागे कुण्डनामसरोवरे हस्तियथाधिपती हस्ति- वत्तं, सरोरुहं पुंडरी-मरविंदं । राईवं तामरसं , महुनि, ती० १४ कल्प । प्रसन्नचन्द्रभूपालपुत्रे,दी। श्रा० क०। प्पलं पंकयं नलिणं ॥ १०॥" पाइ० ना० १० गाथा। मह-मधु-न० । अतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्ये , विशे० । महप्पिय--मधप्रिय-पुं० । सिद्धार्थपुरे विमलप्रेष्ठिनः तिक्रकश्रा०म० । क्षौदे, स्था० ५ ठा० ४ उ० प्र० । शा० । टुकषायादिषु लम्पटे पुत्रे, ग०२ अधि।। उपा० । नि० चू० । पुष्पोद्भवे मधे , उत्त० १६ अ० ।
महुप्पिहाण-मधुपिधान-त्रि० । मधुभृतं मध्येव वा पिधानं पञ्चा० । कुसुमसम्भव काले, स्था०७ ठा० । “ मधुणि तिनि-मच्छियं पोत्तियं भामरं च " श्रा० चू०६०।
स्थगनं यस्यासौ मधुपिधानः।मधुना पिहिते,स्था०४ठा०४३० । माक्षिकपोत्तिकभ्रमरभेदं त्रिधा मधु । पं०व०२द्वार । महमह-मधुमथ-पुं० । उपन्द्र, “सउरी दसारनाहो, वहकुंठो विपा० । दश० । ध० । श्रा० चू० । स्था० । मद्य- महुमहो उविंदो य" पाइ० ना० २१ गाथा ।। विशेष, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पञ्चा० । जी० । महमहण-मधुमथन--पुं०। मधुदैत्यनाशके विष्णी, विशे० । नि० चू० । औ० । नि० । “इदुतोः दीर्घः " ॥८।३।। स्था० । प्रा० म०। १६ ॥ महहिं । प्रा० । “ मइरेनं महुवारो सी-महमह-देशी-पिशुने, दे० ना० ६ वर्ग० १२२ गाथा। हू सरो महुं अवक्करसो" । पाइ० ना० ६४ गाथा । महमेह-मधमेह-पुं०। वस्तिरोगे, प्राचा०१श्रु०६ अ०१ उ०॥ मधुनि , न० । “ सारहं महुं ” पाइ० ना० २२४ | गाथा । बसन्ती , पुं० । “ सुरही महू वसंतो '
| महुमेहिय--मधुमेहिक-त्रि० । मधुमेहो विद्यते यस्यासौ मधुपाह०मा० १५६ गाथा ।“ मज्जे महुम्मि मंसंमि , न-| मेही। मधुतुल्यप्रस्राववति, प्राचा०१ श्रु० ६ ० १ उ० । पदापनि बडत्पर । उप्पजति असंखाया, तब्यमा तत्थ
मधुवर्णमूत्रानवरतप्रस्राविणि, आचा०१श्रु०६अ० १ उ०॥ यो।१॥"खा मचादिचतुके ये जीवा उत्पद्यन्ते
प्रश्न । विपा० । रा०। प्रा० क० । द्विखुरजीवविशेषे, औला से शिवपिन्द्रिा इति प्रश्ले, उत्तरम्-अधे मधुनिन-महयर-मधुकर-पुं० । भ्रमरे, शा०१ श्रु०१६ अ०। श्रा० पच्चीसेकशीबियाः, मांसे एकेन्द्रिवा पावरनिगोवरूपाद्वी-] म। मधकरभ्रमरैर्मदजलगन्धाकृष्टः-कृतमन्धकारं यस्य विचाबा, मबुबमांसे मु एकेन्द्रिमा बादरमिगोदरूपा द्वी-
| स तथा । । विशाः सम्बश्चिममनुष्यपश्चेन्द्रियमा सम्पूछताति
| महर-मधुर-त्रि० । श्रुतिपेशले, सूत्र० १७०१६ अाशा साबाबुसारेख समाध्यत इति ६७ प्र० । सेन०२ उमा।
मत्तकोकिलारुतवन्मधुरखरे, अनु० । स्था० । भाषया कोमाच-बक-० । मधुके वा ॥ ८ ।। १२२ ॥ इति
मले, शा०१ श्रु०६०। शर्कराधाश्रिते, अनु० । क्षीरदऊत महा। मधुमं । मधे । 'महुआ' नामकवृक्षभेदे, प्रा०।। ध्यादिषु, तं० । खण्डशर्कराद्याश्रिते रसभेदे, कर्म०१ कर्म० । श्रीदामाख्यपाक्षि-मागधयोः, देना० ६ वर्ग १४४ गाथा ।
कोमले, औ० । विशे० । श्राह्लादनबृंहणकृति, स्था। महुअर-मधुकर-पुं० । भ्रमरे, कल्प० १ अधि० २क्षण ।
__ एगे महुरे (सूत्र) स्था० १ ठा० । फुलंधुश्रा रसाऊ, भिंगा भसला य महुअरा अलिणो । मध्वादिके, दश०५ १०५ १०१ उ० । “ पित्तं वातं कर्फ रदिदिरा दुरेहा, धुअगाया छप्पया भमरा ॥ ११ ॥ पाइ हन्ति, धातुवृद्धिकरो गुडः । जीवनक्लेशकद्वाल-वृद्धक्षीना०११ गाथा।
णौजसां हितः ॥१॥” जं० २ वक्षः । झा० । अनु। महासव-मध्वासव-पुं०। मधु किमप्यतिशायिशर्करादिम-|
श्रोत्रप्रिये, रा० । अकठोरे, भ० ६ श. ३३ उ० । कोधुरद्रव्यं, मध्विव वचनमाश्रवन्तीति मध्वाश्रवाः । लब्धि- किलारुतवन्मधुरस्वरे , जं. १ वक्ष० । रा० । मधुरं
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महुर
त्रिधा शताभिधानतः स्था० ७ डा० । मनोरे, सूत्र० १ श्रु० ३ ० २ उ० | सूत्रार्थाभयैः श्रव्ये, दश० २ श्र० । ज० म० वृ० सी० मधुराः कोमलशब्दा, गम्भीरामहानयो, दुरवधार्यमप्यर्थ श्रोतृन् ग्राहयन्ति पास्ता ग्राहिका, पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः " मधुरगंभीरगादियादमियमधुरगम्भीरसस्सिरीया" कचिद् दश्यते । तत्र च मिताऽक्षरतो, मधुरा शब्दतो, गम्भीरा अर्थतो ध्वनितश्च सश्रीरात्मसम्पद् यासां तास्तथा । भ० ६ श० ३१ उ० । सुन्दरे, “ललि बग्णुं मंजु मंजुल पेसतं फलं मधुरं पाइ० ना० गाथा ।
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महुरणाम- मधुरनामन् - न० । रसनामभेदे यदुदयाज्जन्तुशरमिष्टत्वादिवन्मधुरं भवति तद् मधुरनाम कर्म० १ कर्म० महुररसा - मधुररसा - स्त्री० । अनन्तजीववनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा० १ पद ।
( २३१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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महुवपण मधुरवचन-पुं० मधुरं वचनं यस्यासी मधु
रवचनः । रसवद्वचने, व्य० १० उ० । दशा० । महुरवण्या - मधुरवचनता - स्त्री० । मधुरं यथावदर्थतो विशिष्टार्थताऽर्थावगाढत्वेन शब्दतथापरूपत्वसौन्दर्यगाम्भीर्य्यादिगुणोपेतत्वेन श्रोतुराहावं जनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा तद्भावो मधुरवचनता । वचनसम्पभेदे, उत्त० १ ० । स्था० ।
महुरस्सर - मधुरस्वर- पुं० । कलध्वनी, "मनुरस्सरगीयसुस्वरा
ई" मधुरस्वरगीतसुस्वराणि प्रश्न० ४ संघ० द्वार मद्दु (पुरा-मथुरा- स्त्री० घरसेन देशराजधान्याम्, "दो महुरा श्रो- दक्खिणा, उत्तरा य।" श्राव० ४ श्र० । सूत्र० । श्र० म० प्रज्ञा० । विशे० । मथुरा नगरी शूरसेनाख्यो देशः । प्रब० २७५ द्वार । श्रा० क० । विपा० । प्रा० म० । पृ० । श्रा० चू० । कृष्ण जन्मस्थाने, आव० १ ० । स्था० ।
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मथुराकल्पः
सत्तसते वीसइमे, नमिऊण जिणेसरे जयसररणे । भवियज मंगलकरं मधुराक पक्खामि ॥ १ ॥ तित्थेसु पासनाहस्स, वट्टमामि दुनि मुणिसीहा । धम्मरुद्द धम्मघोसा, नामेगं श्रासि निस्संगा ॥ २ ॥ ते मदसमवालसमलोषपासमासियोमासि तिमासिमसारं कुता भन्ने पडिवोहिता कयायि म हुराउरि विहरा दीहा नव जोलाई पिथिरा पा सजिउलाजलपफ्लावरप्यवारविभूसिया धवलहरदेउ लवाचीकृचपुखरजिराभवग्रहट्टोव सोहि पतविविहवाउत्थिज्जविष्पसत्था हुत्था । तत्थ ते मुणिवरा अणेगतरुफुसुमफललया चरणामिदा उनले उम्मार्ट अगुणचित्र वीथावासारतं चउमासं कशीववासा सि सज्झायतवचरणपसमाइगुणेहिं श्रावजिया उववणसामिणी कुवेरदेवया । तो सा रतिं पयडीहोऊण भरणइ - भयवं ! तुम्ह गुणेहिं अईयाहं हिंड्डा, तो किंपि वरं वरेह ते भयं ति श्रम्हे निस्संगा, न किं पि मग्गामो । तो धम्मं सुसावित्ता श्रविरयसावित्रा सा तेहिं कया । श्रन्नया कत्तिअधमिरगी सिजापरि नि आमा कुवेरा मुि
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मधुरा वरेहिं, जहा- साहिए ! दढसंमत्ताए जिणवंदणपूयणोवउत्ताए य होअव्वं, वट्टमाणजोगेण चउमासयं काऊ अन्नगामे पारणत्थं विहरिस्सामो। तीए ससोगाए बुत्तं भयवं ! इत्थे व उववणे कीस न सब्वकालं चिट्ठह । साधू भांति"समणारी सउगाये, भमरकुलागं च गोला च अणिया बसही, सारइयाणं व मेहाणं " इति । तीए विराणत्तं-जर एवं ता साहेह धम्मकजं जहादंसं संपाडेमि अमोहं देवईसरां ति सामूहि बु-जह से अनिबंधो ता संघसहिए अम्हे मेरुंमि नेऊया चेहयाई वंदावेहि। ती ए भणिय तुम्हे दो जसे अहं देवे तत्थ वदामि सि । महरासंधे चालिए मिच्छादिडी देवा कयाऽपि विग्धं कुर्णति । साधू भांति अदेहिं आगमयले वेव सत्ती, महुरासंघ नेउं न तुह सत्ती तो अलाहि, अम्हे दुरहं तत्थ गमतो दिलपसीभूचाए देवीए भणिज एवं ता पडिमाहिं सोहिश्रं मेरुश्रागारं काउं दावेमि, तत्थ संसहिया तुम्हे देवे बंदह । सापूदि पडिवर कंचघडिओ रयणाऽऽविचश्रो श्रगसुरपरिचरिश्रो तोरण
माला सिहरोवर निसालि रति धूभो विम्हावि मेहलातिगमेडिओ, शिकार मेहलाए बादहिसियतमा विवाई तत्थ मूलपडिमा सिरिसुपासामिणो पट्टाविया पहापाला आदि बुद्धा से घूर्म पिच्छेति परुप्परं कलहंति के भांति - वासु छणो एस सयंभूदेवो, अन्ने भांति - सेससिजाठिश्रो नारायो एस, एवं बंभ - धरणिंद-सूर - खंदाइसु विभासा, बुद्धा भनि भो किंतु बुद्धि डल तो म रिसेहि भणिश्रं मा कलहेह । एस ताव देवनिम्मिश्र ता सो देवो संसय भंजिस्सइ त्ति । श्रप्पणो देवं पडे सुलिहित्ता नियंगुट्ठीसमे श्राश्रथह, जस्स देवो भविस्सा तस्सेव इको पडो घडिस, नेपिडो देवो नासहिइ । संघेणाऽवि सुपासामिपडी लिहित लेहि २ देवपडा समुपापिया पूर्व कार्ड नवमीरतीय दरिखणिणे गाताविया श्रद्धरत्ने उद्दंडपवणो तणसक्करपत्थरजुत्तो वसरिश्रो, तेरा स
पिडा तोडिता नीया पालिया रिजरवेण ना दिलो दिखि जला, इको चेच सुपाखपडाविओो चिन्हिया लोआ, एस अरिहंतो देयो नि, सो पढो सयलपुरे भामिश्रो । यमजत्ता पवत्तिश्रा, तरहवणं पारद्धं, पढम रहबराकर कलहंता सावया । महल्लपुरिसेहिं गोलएसु नामगन्भेसु जस्स नाम कुमारीहत्थे यह सो दरिदोस वा पदमेहकरे एवं दसमरयणी ववत्था कया । तो एगारसीए दुडदहियघकुंकुमचंदाहिं फलससहस्सेहिं सड्डा रहावेसु पिनद्विश्रा सुरा रहाविति । श्रज्ज वि तदेव जत्ताए श्राविति । कमेण सव्वेहिं राहवणे कप पुप्फधूववत्थमहाधयश्राहारणाहिं आरोविंति । साधूणं वत्थधयगुलाईहिं ति वारसीए ती मालाचडाविया, पचं ते मुखिया देवं बंदि सयलसंघमादिश्रा चउमासं काउं श्ररणत्थ पारणं काऊण तित्थं पयासिन थुकमाकमेण सिद्धिं पत्ता । तत्थ सिद्धखित्तं जायं । तो मुसिविरिक्षा देवी नियं जिसका अप लियोपमं आउ भुजिता चषि मास पाविजय उत्तमपयं पत्ता । तीए ठाणे जा जा उप्पजर सा सा कुवेर
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(२३२ ) अभिधानराजेन्द्र
महुरालि ति भराणा । सीप परिरक्खिज्जतो धूमो बहुं कालं उग्वाड- सेविअकरकमलेष सिरिवपट्टसूरिणा अटुसयछब्बीविमोजाव पारससामी उप्यराणा । इत्थंतरे मधुराए रराणा से-८२६ विक्कमसंवच्छरे सिरिवारबिंब मधुराए ठाविरं । इ. लोभपरवले जाणो हकारिऊण भणिओ । पयं करणयमणि- स्थ सिरिवद्धमाणजीवेण विस्समूहमा अपरिमिअवलत्तणकए निम्मिश्र शुभ कट्टिन मह भंडारे खिबह । तो सारघड़ि- निदाणं कयं, इत्थ जउरणावंकजउगराएण हयस्स दंडश्रणअकुहाडेहि जाव लोओ कट्टणत्थं घाए पदिण्णे ताव ते गारस्स केवले उपपन्ने महिमत्थं इंदो श्रागश्रो । इत्थ जिनकुहासान लग्गति । तेसिं चेव धायदायगाणं अंगेसु धाया सत्तुनरिंदपुत्तो कालवेसिअमुणी अरिसरोगद्दिो मुग्गिललग्गति । तशा राणा अपत्ति, तेण सय वि श्रधाओ दि. गिरिमि सदेहे वि निप्पहो उबसग्गे अहिश्रासिंसु । इत्थ एणो कुहाग उच्छलिप रराणो सीस छिराण । तो देवयाए संखरायरिसी तवप्पहावं दट्टुं सोमदेवदिओ गयउरे दिक्खं कुहाए पयाडीहोऊण भरिणश्रा-जाणवया, पावा! किमेय- घेत्तूण सयं गंतूण कासिए हरिए सवलरिसी देवपुजो आढस अहा राया तहा तुम्हे विमरिस्सह । ते उ तेहि जाओ । इत्थ उप्पन्ना रायकन्ना निबुइनाम राहावेहिलो मीपहि धृक्षकडुन्छयहत्थेहि देवया खामिया, देवीए | सुरिंदस्स सयंवरा जाया। इत्थ कुबेरदिन्नाए कुबेरसेणामणि-अाइ जिणहरं अञ्चह ता उवसग्गाश्रो मुञ्चह । जो जणणी कुबेरदत्तो अभाया श्रोहिनाणेग नाउं अट्ठारसजिणपालिम लिद्धालयं धापूइस्सइ तस्स घरं थिरं होही , जनुपहिं पडिबोहिया । इत्थ अजमंग सुअसागरपारगो श्मशहा पडिस्सा । श्रश्नो चेव मंगलचेइयपरूवणाए कप्पो इतिरससायगारवेहिं जक्वत्तमुवागम्म जीहा य मारणेण छेयांशे मराभयलाई निर्दसणीकयाई एइ, बरिसं जिणप- साधूणं अप्पमायकरणथं पडिवोहमकासी । इत्थ कंबलहो पुरेभा मेयब्वोत्ति कुहाडयछट्रीय कायव्वा । जो इत्थ राया सबलनामाणो वसहपोश्रा जिणदाससंसग्गीए पडिबुद्धा अवर तेण जिणपडिमा पट्टाविश्र जीविस्सति अन्नहा नागकुमारा होऊण वीरवरस्स भगवो नावारूढस्स म जीविहिति । तं सव्यं देवयावयणं तहेव काउमाढतं उवसगं निवारिसु । इत्थ अग्निापुत्तो पुष्फचूलं पव्वावित्र लोरहि, अनाया पाससामी केवलिविहारेण विहरंतो म- संसारसायराश्रो उत्तारित्था । इत्थ इंददत्तो पुरोहिओ गवधुरै पत्तो, समोसरण धम्म साहइ, दृसमाणुभावं च भा- क्खट्टिो मिच्छदिट्ठी अहो वच्चंतस्स साधुस्स मत्थयविण पचासह तो भगवते अन्नत्थ विहरिए संघं हक्का- उरि पायं कुणतो सहेण गुरुभत्तीप पायहीणो को । इत्थ रिश भणिय-जाव राए, जहा श्रासन्ना दूसमा परुविओ भूअघरे ठिा निग्धोहवत्तब्वयं नियाओ परिमाणं च सामिणा लोनो राया य लोभत्था होहि त्ति अहं च पम
पुछिछध तुटुचित्तेण सक्केण अज्जरक्खिअसूरी बंदिश्रा ता। जयवि राओ सा उग्घाडए एयं धूभ सव्वकाल सकामि
उवस्सयस्स अन्नो जुत्तं दारं कयं । इत्थ वत्थपूसमित्ता रक्खि तओ संघाएसेण इट्टाहिं ढकेमि, तुज्झेहि वि बा
धयपूसमितो दुब्बलियापूसमित्तो अलद्धिसंपन्ना विभरिहरे पाससामी सेलमईअो पुज्जिअव्यो । जइ य श्रम्ह वइ
श्रा । इत्थ दूसहदुभिक्ख दुवालसवारिसिप नियत्ते सयसमणअन्ना वि देवी होही सा अम्भितरे पूध करिस्सइ।। लसंघमेलिअभागमाणुगो पवत्तिो खंदिलायरिएण । इत्थ तो बहुगुणं ति अणुमानिधे संघरण देवीए तहेव कयं । तो देवनिम्मिअधूमे पक्खक्खमणण देवयं आराहित्ता जिणपोरनाप सिद्धि गए साहिहिं तेरससपाहिं परिसाणं भद्दखमासमणेहि उद्देहिश्रा भक्खियपुत्थयपत्नत्तणेश तुझे ववहही सूरी उप्परागो,तेण वि पहिं तिथं उरिध। पास- भग्गं महानिसीहं संधि । इत्थ खवगस्स तवेण तुट्ठाजिलो पूश्राविभो । सासययूप्रकरणथं कारगणकृवकुट्ठा का.
सासगदेवया तब्बरिणअपरिग्गहिश्र इमं तित्थं संघराविश्रा । चउरासीइए णिए दो वि पाउसंघण इट्टाको
वयणाश्रो श्रारहंतया पत्तं अक्कासीदेवीए अइलाभपरच्चखसंतोश्रो मुणित्ता पत्थरेहिं वेढाविश्रो उचिखल्लाविउमा संजण काउं सोरिओ थूभं पच्छत्तं काउं इट्टमयं तो दत्तो युभो देवयाए सुमिणतरे धारिलो, न उग्धाउयब्बो
वप्पट्टिवयणाश्रो अउमाएण उरि सिलाकलावत्तिरं पसु ति, तो देवयावयणेणं न उग्घाडियो । सुघडिअप
कारिधे । इत्थ संखराश्रो कलायई अपंचमजम्मे देवसीहकस्थरेहि परिवदिश्रो श्र। अज वि देवेहि रविखनइ । बहुप
रणयसुदरीनामाणो समणोवासया रजसिरि भुजित्था । एवंडिमसहस्तेहिं देउलेहिं श्रावासमिश्रापएसेहि मणहराण
विहाणं अणेगेसिं संविहाणामेसा नयरी उप्पत्तिभूमी । गंधण्डीय चिणिश्रा अंबाइखित्तपालाईहि अ संजुतं
इत्थ कुबेरा नरवाहणा, अंबिया य सीहवाहणा, खित्तवालो एयं जिसमवणं विरायति । इत्थ नयरीए कण्हवासुदेवस्स
श्र सारमेश्नवाहणो तित्थस्स रक्खं कुणति । भावितित्थंकरस्स जम्मो, श्रजमंगू पायरिश्रस्स जक्खभूनइस शिप्राजक्खस्स य चारजीवस्स इत्थ दडलं चिद्रा।
"इय एस महुरकप्पो, जिणपहसूाहिं वरिणो कं पि। प्रत्थ पर शलाई । तं जहा-अकथलं चीरथलं पउमथलं
भविपहिं सह पढिश्रइ, इहपरलोइयसुहत्थीहिं ॥१॥ कुरुथल महाथलं दुवालस वरणाई. तं जहा-लोहवणं भव
भविश्राण पुराणरिद्धी, जा जायइ महुरतित्थजत्ताए। रणं मधुवणे छिलवणं तालवणं कुमुश्रवणं भंडीरवणं खइग्वणं| श्रास्स कप्पात सुए, सा जायह अवाहश्रमणाण ।।२ कामिश्रधणे कोलवणं बहुलावणं महावणं । इत्थ पंच लो-1 इति श्रीमधुराकल्पः समाप्तः । ती०८ कल्प।
अतित्थाई, तं जहा-विस्संतिअतित्थं सिकुंडतित्थं वेमहरामिहाणा-मथराभिधाना-स्त्री०। मधुरं श्रुतिपेशलमभि. कुंठतित्थ कालिंजरतित्थं चक्कतित्थं । सेमजे रिसह गि-1 रिमारे नेमि भरुअच्छे मुणिसुव्वयं माढरए वीरं मधुराए
| धानमुच्चारण यस्याः सा । मथुराभिधानगाथायुक्तायाम् , सुपासे घडिअदुगभंतर नमित्ता सोरटे हुंढण वि
| सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। श्रा० म०। हारेसा गोवालगिरिमि जो भुजेजहतेष अमरसय- | महरालिम-देशी-परिचिते. दे० ना ६ वर्ग १२५ गाथा ।
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(२३३) महुलहि अभिधानराजेन्द्रः।
पहोरग महुलट्टि-मधुयष्टि-स्त्री० । यष्टयां लः ॥८।१ । २४७ ॥ दश० अ०१ उ० । महान्तश्च ते सर्वशत्यात्तीर्थप्रवर्स
नादतिशयत्वाद् वा ऋषयश्च मुनयो महर्षयस्तैस्तीर्थकरैइति यस्य लः । मुहलेठीतिख्याते औषधिभेदे, प्रा०१ पाद ।
रित्यर्थः । तीर्थकृत्सु, प्रश्न०१आश्रद्वार । सूत्र० । श्रमहुला-मधुला-स्त्री०। पादगएडे, “पादे गडं महुला भएणति"
नुकूलप्रतिकुलोपसर्गसहिष्णुत्वान्महर्षिषु, महान् बृहत्स्वनि० चू०२ उ०। उत्त।
र्गादिफलापेक्षया मोक्षस्तमिच्छति-अभिलषतीति महेषीममहल्ल-मम-वि० । मे मह मम मह महं मझ मज्झं अम्ह
हर्षिा । सूत्र०२०१०। उत्त० । एकान्तोत्सवरूपअम्ह इन्सा ।८।३।११३ ॥ इति ममस्थाने महादेशः । ततः। त्वान्मोक्षस्तमिच्छत्येवं शीलो महेषी । उत्त० ४ ० । स्वार्थे कश्च वा ॥८।२।१६४॥ इति उल्लप्रत्ययः। स च डि- महामुनी, प्राचा० १७०५ १०५ उ० । सूत्र० । उत्त०। त् । मह पिउल्लयो । महुलं । प्रा०।
महागणधरादिषु, आतु। महुवण-मधुवन-न० । मथुरायां स्वनामप्रसिद्ध बने,
तीन
न, ती०८] महोक्ख-महोक्ष-पुं० । युवगवे, जी. ३ प्रति० १ अधिक कल्प। महुवार-मधुवार-पुं० । दारुणि, "मइरे महुवारो सीहु
महोघ-महौष-पुं० । अपारसंसारसागरे, सूत्र०१ श्रु० २ सरो महुं अवकरसो" पाइ० ना०६४ गाथा।
अ०२ उ०। महसिंगी-मधुशकी-स्त्री०। औषधिवनस्पतिभेदे,प्रशा०१ पद ।
महोदग-महोदक-पुं० । महाजले, पो०८ विव० । नि०। महुसित्थ-मधुसिक्थ-न० । मधुयुक्तं सिक्थं मधुसिक्थम् ।
महोदय-महोदय-पुं० । पुण्यानुबन्धिपुण्यविभूतिलाभे, मधूच्छिष्टे, नं० । मदने, भ०८ श०६ उ० । स०। श्रा०म०।। षो०८ विव०। अलक्रकपथो येन पदेनालक्लकः कामिन्या पात्यते तावन्मान-मटोटा-महोदर- बहुमोजिनि, “महोदरो जो बहु भुंया लिम्पति कर्दमः स मधुसिक्थकोऽभिधीयते । श्रोधः ।।
| जह"। निचू०१ उ०। महुसित्थजल-मधुसिक्थजल-न० । अलक्लकमार्गावगाहिकर्द-|
महोदहि-महोदधि-० । स्वयंभूरमणसमुद्रे, सूत्र. १ श्रु० मस्योपरि वहति जले, श्रोघ०।
६अ। महुस्सव-महोत्सव-पुं० । बहुजनजानपदादिमेलनपूर्वकमुत्स
| महोरग-महोरग--पुं० । व्यन्तरविशेषे, जं. १ वक्षः । श्रवस्थाने, प्राचा०२ श्रु०२ चू०४०।
नु० । स्था० । भ० । “ महोरगाणं अइकाया महाकामहेंद-महेन्द्र-पुं० । ऐरावतवर्षे भविष्यति पञ्चदशे तीर्थकरे,
या " प्रशा० २ पद । उरःपरिसर्पभेदे, जी० १ प्रति। प्रव०७द्वार।
महोरगास्तु मनुष्यक्षेत्रबाहि विनो यच्छरीरं योजनसहमहेड-देशी-पङ्के, दे० ना० ६ वर्ग ११६ गाथा ।
स्रप्रमाणमुत्कर्षतःपाख्यायत इति । प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। महेय(क्ख)-महेक्ष-० । ऊर्णाविशेषे, प्रशा० १ पद ।
सम्प्रति महोरगानभिधित्सुराहमहेलापहाण-महिलाप्रधान-पुं० । स्त्रीवशवर्तिषु पुरुषेषु, से किं तं महोरगा? महोरगा अणेगविहा परमत्ता। पि० । (ते च 'माणपिंड' शब्दे दर्शयिष्यन्ते)
जहा-अत्थेगइया अंगुलं पि अंगुलपुहत्तिया वि वियत्थि महेस-महेश-पुं० । ईश्वरे, " महेशानुग्रहात्केचिद्, योगसि-| पिनियथिपटनिया fire हिं प्रचक्षते । क्लेशाद्यैरपरामृष्टः, पुंविशेषः स चेष्यते ॥१॥"| कुच्छि पि कुच्छिपुहत्तिया वि धणुं पि धणुपहत्तिद्वा० १६ द्वा० । यो०वि०। स्था।
या वि गाउयं पि गाउयपुहत्तिया वि जोयणं पि महेसक्ख-महेशाख्य-पुं० । महेश्वर इत्याख्या यस्य सः । म
जोयणपुहत्तिया वि जोयणसयं पि जोयणसयपुहत्तिया हेश्वरत्वेन ख्याते, स्था०८ ठा० । सू० प्र० । ज०। महेसर-महेश्वर-पुं० । श्रौत्तराहाणां भूतवादिनामिन्द्रे, स्था०
वि जोयणसहस्सं पि, ते णं थले जाता जले वि २ ठा० ३ उ० । दर्श० । श्राव० । शिवे, श्राव० ६ अ०।।
चरंति , थले वि चरंति, ते पत्थि इहं बाहिरएसु महेसरदत्त-महेश्वरदत्त-पुं० । कौशाम्ब्यां बृहस्पतिदत्तनाम्नो
दीवेसु समुद्देसु हवंति, जे यावन्ने तहप्पगारा । सेत्तं महोरगा। ब्राह्मणस्य पूर्वभवजीवे, स्था० १० ठा०। ( ' बहप्फइदत्त'
( से किं तं इत्यादि ) सुगमम् , नवरं वितस्तिर्वादशब्द पञ्चमभागे १२६५ पृष्ठे कथा गता)
शाङ्गुलप्रमाणा , रनिहस्तः, कुतिर्द्धिहस्तमानः, धनुश्च
तुर्हस्तम्, गव्यूतं द्विधनुःसहस्रप्रमाणम् , चत्वारि गब्यूमहेसरसूरि-महेश्वरसूरि-पुं० । कालिकाचार्यकथा-संयमम
तानि योजनम् , इदं च वितस्त्यादि-उच्छ्याङ्गुलापेक्षया अर्याख्ययोग्रन्थयोः तरि प्राचार्य मुनिचन्द्रसूरिकृताऽऽ द्रष्टव्यम्,शरीरप्रमाणस्य परिचिन्त्यमानत्वात् , तथा-अस्तीवश्यकसप्तत्युपनि कारके देवसूरिशिष्ये, जै० इ०। ति निपातोऽत्र बहुत्वाभिधायी प्रतिपदं च संबध्यते , महेसि-महर्षि-पुं० । महांश्चासावृषिश्च महर्षिरत्यन्तोग्रतप- ततोऽयमर्थः-सन्त्यके केचन मरोरगा अगुलमपि शरीराश्चरणानुष्ठायित्वादतुलपरीमहोपसर्गसहनाचेति । यतौ , वगाहनया भवन्ति, तथा सन्त्येके केचन येलपृथक्त्विका सूत्र.१ ७० ६ ० । तपोविशेषशोषितकल्मषे, सूत्र अपि, अङ्गुलपृथक्त्वं विद्यते येषां ते अलपृथक्त्विकाः १ श्रु० १३ अ० । सुसाधौ, दश० १ चू० । मोक्षषिणि, | "अतोऽनेकस्वरात्" ॥७॥२॥६॥ इति हकप्रत्ययः, तेऽपि
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( २३४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महोरग
माउच्छेद
शरीरावगाहनया भवन्ति श्रङ्गुलपृथक्त्वमानशरीरावगा - हमा अपि भवन्तीति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि । (ते गं, इत्यादि) ते - श्रनन्तरोदितस्वरूपा महोरगाः स्थलचरविशेषत्वात् स्थले जायन्ते, स्थले च जाताः सन्तो जलेsपि स्थल इव चरन्ति स्थलेऽपि चरन्ति तथा भवस्वाभाव्यात्, यद्येवं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते इत्याशङ्कायामाह -- ( ते नऽत्थि इहं, इत्यादि) ते - यथोक्तस्व - रूपा महोरगा इह मानुषे क्षेत्रे ( न निस ति किं तु बाधेषु द्वीपसमुद्रेषु भवन्ति समुद्रेष्वपि च पर्वतदेवनगर्यादिषु स्थपन्जरत् । तत इह न दृश्यन्ते । ( जे यावन्ने तहप्पगारा इति ) येऽपि चान्ये अङ्गदशकादिशरीराऽवगाहनमानास्तचामकाराः सन्ति तेऽपि महोरगा ज्ञातव्याः । उपसंहारमाह(से, इत्यादि) ते समासओ, इत्यादि प्राग्वद् भावनीयम् । प्रशा० १ पद । महोरगकंठ-महोरगकण्ठ २० रस्नविशेषे, सी० ३ प्रति० माझ्य मात्रित त्रि० मात्रावति परिमिते शा० १ ० १ ० ४ अधि० । रा० ॥ श्र० । ऋक्षादिवालयुक्तत्वात् । शा०२ श्रु० १८ अ० । मयूरिते, श्र०
माई - अव्य० । माई माऽर्थे ॥ ८ । २ । १११ || माइमिति मार्थे प्रयोक्रम्यम् । माई काहिच ऐसे' मा कार्यों रोषम् । प्रा० । माइंदा देशी-श्रामलक्याम्, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा | माइगण मातृगण पुं० [ मातुरिया ११३५ ॥ इति ऋत इत्वम् । माइगणो । मातृसमूहे, प्रा० । मइट्ठाण मातृस्थान- न० । मायायाम्, मातरः स्त्रियोऽभिधीयन्ते तासां स्थानमाश्रयो मातुस्थानं माया थियो हिप्रायो मायाधिता भवन्ति । खोत्यमपि प्रायो मायानिबन्धनम् । अथवा मातृशब्देन माया उच्यते, ततश्च तस्याः स्थानं विषयो मातृस्थानम् । मायिनां वा स्थानमिति माविस्थानं मायैव प्रायो बाहुल्येन केषांवित्त संभवत्येवैति । पञ्चा० १७ विव० । श्राचा० । श्रव० । दशा० । माइदेव मातृदेव पुं० । मातुरिद् वा ॥ ८ ॥ १ ॥ १३५ ॥ इति ऋत त्वम् । माइदेवो । मातरं देवत्वेन मन्यमाने, प्रा० प्रा० क० ।
1
महोबगरण - महोपकरण-१० इव्यनिचये, प्राचा० १ ५० माइली देशी मृदुनि दे० ना० ६ वर्ग १२२ गाया। २ श्र० ३ ३० । महोसहि-महौषधि - स्त्री
०
दुर्गायाम् लज्जालुलुपे, “सहदेवी तथा व्याघ्री, बला चातिवला तथा शखपुष्पी तथा सिं ही मी सुवर्चला ॥ १ ॥ महीपध्यष्टकं प्रोक्तम् । वाच० । औषधिविशेषे, ती० ६ कल्प । महोसिस महोष्ण त्रित्युष्णे प्रश्न १ प्राथ० द्वार मा-मा-अव्य० । निषेधे, जी० १ प्रति० । उत्त० । शा० । नि०चू० । ० | औ० | दर्श० । प्रतिषेधे, श्राचा० १ श्रु० २ ५ उ० । व्य० नि० चू० । पञ्चा० । सूत्र० । स्था० । श्रनागतप्रत्युत्पन्न कालविषये प्रतिषेधे, बृ० १३० । " मा य घडं भिंद मा य भिदिहिस " माकारो वर्तमानाऽनागतकालप्रतिषेधको यथा-मा घर्ट भेत्स्यति चकारी समुच्चयार्थी । शरीरे तं० मा चन्द्रमासयेोः पुं० । ० । मालिया - देशी- मातृष्वसरि, दे० ना० ६ वर्ग १३१ गाथा माइ - मातृ - स्त्री० । मातुरिद् वा ।। ८ । १ । १३५ ॥ इति ऋत इद् वा । माइहरं । माउहरम् । प्रा० । जनम्याम्, पञ्चा० १७ विव० । श्राचा० ।
मावि त्रि० । मायाप्रतिसेवनशीले व्य० ३३० मायाविनि व्य० १ उ० । सूत्र० । उत्त० । स्था० । परयञ्चनादिबुद्धौ, सूत्र० १ ० १६ अ० । स्वशक्तिगूहनादिना मायावान् । वृ० १ उ० ।
9
माइअंग-मात्रङ्ग – न० । मात्र भ० 1 ( माइअंग ति ) श्रार्तवविकारबहुलानीत्यर्थः ( मत्थुलुंग त्ति ) मस्तकभेजकम्, अम्ये स्वादुः- मेदः फिल्किसादि मस्तुलुङ्गमिति । भ० १ श० ७ उ० | हे गणधर ! गौतम ! श्रीणि मातुरङ्गानि प्राप्तानि मया श्रन्यैश्च जगदीश्वरैः मांसम् पललम्, शोणितम- रुधिरम (मत्थुलुंगे त्ति) मस्तकलेजकम् अन्ये त्वादः - फिफिसाद मस्तुलिङ्गमिति । तं० ।
,
"
|
माइल्ल - मायाविन् - ५० । परवञ्चनोपायविदि, उत्त० ५ ० महाशठे, सूत्र० ९ श्रु० ४ ० १ उ० । उत्त० । स्था० । माइल्लया मायाविता-श्री० परवञ्चनवुद्धिमत्तायाम्, म०
८ श०६ उ० ।
मायिता श्री० परचनबुद्धिमत्तायाम् भ०८०७० माइवाहय मातृवाहक पु० विकलेन्द्रियजीवविशेषे अनु माई - देशी- रोमशे, दे० ना० ६ वर्ग १२८ गाथा ।
माउआ - मातृका - स्त्री० । उहत्वादौ । ८ । १ । १३१ ॥ इति ऋत उखम् । प्रा० । सख्याम्, " श्राली तह माउश्रा सही अत्ता” पाइ० ना० १०८ गाथा । सखी-दुर्गयोः, दे० ना० ६ वर्ग १४७ गाथा |
माउोय- मात्रोजस्- न० । जनन्या श्रार्तवे शोणिते तं० । माउक मृदुत्व न० । श्रात् कशा मृदुक-मृदुत्वे वा ॥ ८ । १ । १२७ ।। इति श्रादेः ऋत श्राद्वा । माउकं । उ । प्रा० । शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण मृदुत्वे को वा ॥ ८ । २ । २ इति संयुक्तस्य विकल्पेन ककारः । माउक्कं । माउत्तणं । मर्दने, कोमले, प्रा० ।
माउगंत मातृकान्तन यतो व्ययते तदादिभूतत्वान्मातृव मातृका । श्रन्तश्चेह दशान्त उच्यते । मातृका चान्तश्च मातृकान्तं द्वन्द्वैकवद्भावः । मातृकायामन्ते च । वृ० ३ उ० ।
माउग्गाम मातृग्राम पुं० । समयपरिभाषया स्त्रीवर्गे, पृ०
१ उ० | पं०व० "
33
पं०० " मागामो मरहट्ठत्रिसयभासार चा इत्थ माउम्गामो भएति नि०० ६ ० । ( 'मेहुए शब्दे व्याख्यास्यते)
माउ- देशी मुनि ३० ना० ६ वर्ग १२ गाथा | माउच्छंद - मातृच्छन्द- पुं० । मात्रभिप्राये, व्य०४ उ० ।
-
-
म
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माउच्छा
माठच्छा मातृष्वसुश्री
मातृपितुः वसुः सिधा
॥८॥
२ | १४२ ॥ इति स्वस्थाने छादेशः । प्रा० ० ३ पाद । मातुर्भागम्याम् माउच्छा माउसिया
पाइ० ना०
२५३ गाथा ।
46
( २३५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
33
माउजीवरसहरी मातृजीपरसहरी स्वी० । मातृजीवस्य रसरणी मातृजीवरसहरणी । नाभिजाले, तं० । मापि सुजाव मातापितृसुजात ५० मातापितृभ्यां सृजातो मातापित्सुतः । समस्तगर्भाधानमभूति-संभविशेषविकले, रा० । सूत्र० ।
माउमंडल- मातृमण्डल १० मातुरिद् वा ॥ १॥ १३५ ॥ इति मातृशब्दस्य ऋत इत्वम्, पक्षे उत्वम् । मातृसमूहे, प्रा० । माउय- मातृक -त्रि० । मातृसम्बन्धिनि, भ० १ ० ७ ० । स्था० ।
माउयएक मात्र कक-पुं० । एककभेदे, स्था० । ( माउय एक त्ति ) मातृकापदैककम् - एकं मातृकापदम् । तद्यथा - " उपपन्नेइ वेत्यादि इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादयीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति तद्यथा-"उपइ वा विगमे वा धुवे व ति । " श्रमूनि वा मातृकापदानीव -- इत्येवमादीनि सकलशब्दशास्त्रार्थव्यापारव्या पकत्वान्मातृकापदानीति । स्था० ४ ठा० २३० । माउयंग - मात्रङ्ग - न० । आर्त्तवपरिणतिप्राये, स्था० ३ ठा०
४ उ० ।
माठ्यकाय मातृकाकाय पुं० । मातृकेति मातृकापदानि उप्रवाहमादीनि तत्समूहो मातृकाकायः कायदे, ( आय० ) ' उप्पर वा धुवेद या ' इत्यादीनि । तत्पदख हे, आव० ५ ० । जं० । ( ' काय ' शब्दे तृतीयभागे ४४७ पृष्ठ दर्शितम्)
मायक्खर मातृकावर न० प्रकाराद्यरेषु स० ।
भीए से लिए छायालीसं माउयक्खरा पणत्ता । यविधी, पचत्वारिम्माकाराणि तानि चक
कारादीनि हकारान्तानि सक्षकाराणि ऋऋलृलुल्ल इत्येवं तदक्षरपञ्चकवर्जितानि संभाव्यन्ते । स०४६ सम० । माउपरा-मृदु-न० मईने प्रा०
"
माउया मातृका बी० अकाराद्यरेषु स० ४५ सम० । जनन्याम्, पाइ० ना० । उत्तरौष्ठरोमणि, झा० १ ० ६ श्र० । मातृकेय मातृका । प्रचचनपुरुषस्योत्पादव्ययधीपलक्षणायां पदत्रय्याम्, स्था० १० ठा० । विपा० । श्राच० । मायालुयोग मातृकानुयोग- पुं० इन्यानुयोगभेदे, स्था० । ( माउया श्रोगेति ) इह मातृकेव मातृका प्रयचनपुरुषस्योत्पादव्यय भौग्यलक्षणा पदत्रयी, तस्या अनुयोगो, यथाउत्पादयश्जीवयं बाल्यादिपर्यायाणामनुगमुत्पत्तिदर्श नादनुत्पादे च वृद्धाद्यवस्थानामप्राप्तिप्रसङ्गादसमञ्जसाप
तथा-ययवरजीवद्रव्ये प्रतिक्षणं बाल्याद्यवस्थानां व्ययदर्शनादव्ययवत्त्वे च सर्वदा वाल्यादिप्राप्तेरसमञ्जसमेव । तथा यदि सर्वधाऽप्युत्पादव्ययवदेव तन्न केनापि प्रकारण
मागंदिय टशनुस्मरणाभिलापाविभाधानामभावप्रसवेन च सफलेलोकपरलोकालम्बनाहानानामभावतो ऽसममेव ततो इय्यतयाऽस्य धीयमिति । उत्पादन्ययग्ययुक्रमात्मज्य मित्यादिर्मातृकापदानुयोगः । स्था० १० ठा० ।
माउयापय मातृकापदायादिकेषु सकलशब्दाव्यापारव्यापकत्वानेषाम् । स्था० ४ डा० २ उ० ॥ दिवास्स गं छायालीसं माउयापया पण्णत्ता । (दिट्टिवायरस ति) द्वादशाङ्गस्य (माउयापय त्ति) सकलवासापस्य अकारादिमात्काः पदानीच दृष्टिवादात्रपनिय नत्थेन मातृकापदानि उत्पादविगमधीव्यलक्षणानि तच सिद्धमनुष्ययादिना विषयभेदेन कथमपि
नि षट्चत्वारिंशद्भवन्तीति समभाव्यते । स०४६ सम० । दृष्टिबादान्तर्गतसिद्धश्रेणिकादिपरिकर्ममूलभेदे, स० ० ० । माउल - मातुल- पुं० । मातुश्रीतरि, प्रा० म० १ श्र० । श्राव० माउलिंग-मातुलिङ्ग - बीजपूरे, अणु० । वृ० । ० म० । श्रा चा० । प्रा० | ल० प्र० प्र० । प्रशा० । गुच्छवनस्पतिविशेषे प्रज्ञा० १ पद । अनु० ।
माउलिंगपेसिया मातुलिङ्गपेशिका - स्त्री० । बीजपूरखण्डे, द
-
शा० १० अ० । श्रा० म० ।
माडवग्ग मातृवर्ग पुं० खीजने, पृ० ४ ४० माउवाह मातृवाह-पुं० कोद्रवह प्रतीते हीन्द्रियजीवभेदे, जी० १ प्रति० । माउसिय- मातृस्यसुक पुं० । गौणान्त्यस्य || ८ | १ | १३५ ॥ इति श्रन्त्यस्य ऋतः उत् । मातृभगिनीपुत्रे, प्रा० १ पाद । माउसिया मातृष्वसृ श्री० । मातृपितुः श्री
॥ ८ । २ । १४२ ॥ इतिमातृशब्दात्परस्य स्वसृशब्दस्य सि. याऽऽदेशः । प्रा० | मातृभगिन्याम्, दश० ७ श्र० । विपा० । 'माउच्छा माउसिश्रा " पाइ० ना० २५३ गाथा माउसियावइ-मातृस्वसृपति--पुं० । जननीभगिनीभर्तरि वि
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पा० १ ० ३ ० ।
माउहर - मातृगृह- न० । गौणान्त्यस्य ॥ ८ । १ । १३४ ॥ इति ऋत उत् । मातृभवने, प्रा० १ पाद । मागंदिय - मार्कदिक - पुं० । मकन्दीपुत्राभिधाने अनगारे, भ० १७ श० १७ उ० । ( वीरेण माकन्दिकपुत्रस्य संवादः 'मा यदि ' शब्दे दशयिष्यते )
०
ते काले ते णं समए णं रायगिहे नगरे होत्था, मओ, गुणसिलए चेहए बनओ जाव परिसा पडि गया । ते गं काले गं ते गं समए गं समणस्स भवगओ महावीरस्य जाव अंतेवासी मागंदियपुत्ते नामं श्रणगारे पगइभदए जहा मंडियपुचे जाब पज्जुवासमा थे, एवं वयासी से नूणं भंते । काउलेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेर्हितो पुढविकाइएहिंतो अांतरं उच्चट्टित्ता माणुसं विग्ग लभति लभित्ता केवलं मोहिं बुज्झति, केवलं
•
स्वादा ताभ्यागमकृविच्या पू- बोहिं पुज्झित्ता तम्रो पच्छा सिज्कति • जाव तं
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( २३६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मागंदिय
करेति १, हंता ! मार्गदियपुसा ! काउलेस्से पुढविकाइए • ate अंत करेति । से नूगं मंते ! काउलेस्से आउकाइए काउलेस्से हितो भाउकाइए हिंतो अयंतरं डब्बद्वित्ता मासं विग्गहं लभति, लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति० जातं करेति ?, हंता ! मागंदियपुत्ता ! • जाव अंत करेति । से नू भंते ? काउलेस्से वणस्सइकाइए एवं चैत्र ०जाव अंतं करेति । सेवं भंते ! भंते । त्ति, मागंदियपुत्ते ! - गारे समयं भगवं महावीरं ०जाव नमसित्ता जेणेव समणे निग्गंथे तेणेव उवागच्छा उवागच्छित्ता समणे निग्गंथे एवं वयासी–एवं खलु अञ्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए तहेव ०जाव अंतं करेति, एवं खलु भओ ! काउलेस्से श्राउकाइए •जाव अंत करेति । एवं खलु अजो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए •जाव अंतं करेति । तए यं ते समणा निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स •जाव एवं परूवेमाणस्स एयमहं नो सद्दहंति नो पत्तियंति नो परूवेंति एयम असद्दहमाणा अप्पच्चयमाणा अपरूवेमाणा जेवसमये भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समं भगवं महावीरं वंदति नर्मसंति वंदित्ता नम॑सित्ता एवं वयासी- एवं खलु भंते ! मागंदियपुते अणगारे अम्हं एवमाइक्खति ० जाव परूवेति । एवं खलु अओ ! काउलेस्से पुढविकाइए ० जाव अंतं करेति एवं खलु अओ ! काउलेस्से आउकाइए • जाव अंतं करोति, एवं वस्सकाइए वि ०जाव अंतं करेति । से कहमेयं भंते ! एवं १ अजो ति समणे भगवं महावीरे ते समणे निम्गंथे आमंतित्ता एवं वयासी-जं णं अजो ! मागंदियपुत्ते अणगारे तुझे एवं आइक्खति ०जाव परूवेति एवं खलु अओ ! काउलेस्से पुढविकाइए० जाव अंत करेति, एवं खलु अओ ! काउलेस्से आउकाइए ० जाव अंतं करेति, एवं खलु अओ ! काउलेस्से वणस्सइकाइए वि० जाव अंतं करेति, सच्चेणं एसमट्ठे, अहं पिणं भजो ! एवमाइक्खामि एवं सद्दहामि एवं पच्चयामि एवं परूत्रयामि एवं खलु ओ ! कहलेस्से पुढविकाइए करहलेस्सेहिंतो पुढविकाइए हिंतो ० जातं करेति, एवं खलु अजो ! नीललेस्से पुढ विकाइए • जाव अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि जहा पुढविकाइए ० जाव अंतं करेइ, एवं आउकाइए बि, एवं वणस्सइकाइए वि, सच्चे गं एसमठ्ठे सेवं भंते ! भंते ! ति । समणा निग्गंथा समयं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नर्मसित्ता जेणेव मार्गदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मार्गदियपुत्तं अणगारं वंदंति नमसंति वंदित्ता नर्मसित्ता एयमहं सम्मं विणएणं भुजो भुजो खामेति । (सूत्र - ६१८ )
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मागंदिय
(तें काले एमित्यादि ) ( जहा मंडियपुसे ति ) अनेनेदं सूचितम् ( पगहउवसंते पगइपयस्णुकोह माणमायालोभे इत्यादि ) इह च पृथिव्यब्वनस्पतीनामनन्तरभवे मानुषत्व प्राप्तवान्तक्रिया सम्भवति न तेजोवायूनाम् तेषामानन्तर्येण मानुषत्वाप्राप्तेरतः पृथिव्यादित्रयस्यैवान्तक्रियामाश्रित्य ' से नूं ' इत्यादिना प्रश्नः कृतो न तेजोवायूनामिति । श्रनन्तरमन्तक्रियोक्ता ।
अथान्तक्रियायां ये निर्जरापुद्गलास्तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह
तणं से मागंदियपुत्ते अणगारे उट्ठाय उट्ठेति जेखेव समखे भगवं महावीरे तेखेव उवागच्छति तेणेत्र उवागच्छित्ता समयं भगवं महावीरं वंदइ नमसह वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी - अणगारस्स गं भंते ! भाविप्पण सव्वं कम्मं वेदेमाणस्स सव्वं कम्मं निज्जरेमाणस्स सव्वं मारं मरमाणस्स सव्वं सकम्मं वेदेमाणस्स रीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं चरिमं कम्मं निजरेमाणस्स चरिमं मारं मरमाणस्स चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, मारणंतियकम्मं वेदेमाणस्स मारणंतियकम्मं निजरेमाणस्स मारणंतियमारं मरमाणस्स मारणंतियसरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निजरा पोग्गला सुहुमा णं. ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वं लोगं पिसं ते उग्गाहित्ता गं चिट्ठति ?, हंता ! मागंदियपुत्ता ! अणगारस्स णं भंते । भावियप्पणो ०जाव ओगाहित्ता गं चिट्ठति । छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं निजरापोग्गलाणं किंचि आणतं वा गाणतं वा एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे ०जाव वेमाणिया ० जाव तत्थ जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति श्राहारेति, से तेणऽट्टेणं निक्खेवो भाणियम्वो त्ति-न पासंति - हारंति । नेरइया णं भंते ! निजरा पुग्गला न जासंति न पासंति आहारंति, एवं ० जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । मणुस्सा णं भंते । निजरा पोग्गले किं जाणंति पासंति श्रहारंति, उदाहु न जाति न पासंति नाऽऽहारति ?, गोयमा ! अत्थेगइया जागति पासंति आहारंति, अत्थेगइया न जाणंति न पासंति झाहारंति, से केणऽणं भंते ! एवं बुच्चर अत्थेगझ्या जागति पासंति आहारंति, अत्थेगइया न जाणंति न पासंति - हारंति ?, गोयमा ! मगुस्सा दुबिहा पत्ता । तं जहासन्नीभूया य, असन्नीभूया य । तत्थ गं जे ते असन्नीभूया ते न जाणंति, न पासंति, आहारंति । तत्थ गं जे ते सन्नीभूया ते दुबिहा पण्णत्ता । तं जहा उवउत्ता, अणुवत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवत्ता से
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मागंदिय अभिधानराजेन्द्रः।
मागंदिय न जाणंति न पासंति, आहारंति । तत्थ णं जे ते उव- (णाणत्तं व त्ति) वर्णादिकृतं नानात्वम् ( एवं जहा इंदियउत्ता ते जाणंति पासंति आहारंति । से तेणऽद्रेणं
उद्देसए पढमे त्ति) एवं यथा प्रज्ञापनायाः पञ्चदशपदस्य
प्रथमोद्देशके तथा शेष वाच्यम् , अातिदेशवायं तेन यत्रह गोयमा! एवं वुच्चइ अत्थेगइया न जाणंति, न पासं
'गोयमे 'त्ति पदं तत्र 'मागंदियपुत्ते त्ति' द्रष्टव्यम् , तस्यैव ति, आहारेंति, अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारंति,
प्रच्छकत्वात् , तश्चेदम्-" अोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा बाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया । वेमाणिया णं भंते ! ते लहुयत्तं वा जाणति पासति ?, गोयमा ! नो इण? समटे, निजरापोग्गले किं जाणंति, पासंति, आहारेंति, । उदाहु
से केणऽटेणं भंते ! एवं बुच्चइ छउमत्थेणं मणुसे तेसि न जाणंति न पासति न आहारंति ? । गोयमा! जहा मणु-1
निज्जरापुग्गलाणं णो किंचि प्राणत्तं वा०६ जाणति पासति?,
गोयमा! देवेऽवि य णं अत्थगइए जे णं तेसिं निज्जरास्सा नवरं वेमाणिया दुविहा परमत्ता, तं जहा-माइमि
पोग्गलाणं ( नो ) किंचि आणतं वा० ६ न जाणति न च्छदिट्ठीउववनगा य , अमाइसम्मदिट्टीउववनगा य ।। पासति ?, से तेणऽटेणं गोयमा ! एवं खुच्चर, छउमत्थे णं तत्थ ण जे ते मायिमिच्छदिदीउववनगा ते णं न-1 मणूसे तेसि निज्जरापोग्गलाणं ( नो) किंचि आणत्तं. जाणंति, न पासंति, श्राहारंति । तत्थ ण जे ते अमा-|
वा ६ न जाणइ न पासइ, सुहुमा णं ते पुग्गला पन्नत्ता यिसम्मदिट्ठीउवनगा ते दुविहा पएणत्ता, तं जहा
समणाउसो! सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्सा णं चिटुंति"
एतच्च व्यक्तम् , नवरम् (ओमत्तं त्ति) अवमत्वम्-ऊनता प्रणतरोववनगा य, परंपरोववनगा य । तत्थ ण जे ते
(तुच्छत्तं ति ) तुच्छत्वम्-निःसारता, निर्वचनसूत्रे तु अणंतरोववनगा ते सं न जाणंति, न पासंति, ( देवेऽवि य णं अत्यगइए त्ति) मनुष्येभ्यः प्रायेण देवः आहारंति, तत्थ णं जे ते परंपरोववनगा ते दुबिहा पटुप्रको भवतीति देवग्रहणम् , ततश्च देवोऽपि चास्त्ये पएणत्ता,तं जहा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य। तत्थ णं जे
ककः कश्चिद्विशिधावधिज्ञानविकलो यस्तेषां निर्जरापुद्गला. ते अपज्जत्तगा ते शं न जाणंति, न पासंति, आहारंति ।
नां न किञ्चिदन्यत्वादि जानाति किं पुनर्मनुष्यः । एकतत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा परमत्ता । तं जहा
ग्रहणाच्च विशिष्टावधिज्ञानयुक्तो देवो जानातीत्यवसीयते
इति, " जाव वेमाणिए ति" अनेनेन्द्रियपदप्रथमोद्देशउवउत्ता य, अणुवउत्ता य | तत्थ ण जे ते अणुवउत्ता।
काभिहित एवं प्राग्व्याख्यातसूत्रानन्तरवर्ती चतुर्विंशतिते स जाणंति न पासंति, आहारंति । ( सूत्र-६१६) दण्डकः सूचितः, स चकियद् दूरं वाच्यः ?, इत्याह-"जाव (अणगारस्सेत्यादि) भावितात्मा-शानादिभिर्वासितात्मा, तत्थ ण जे ते उवउत्ता इत्यादि " एवं चासो दण्डकःकेवली चेह संग्राह्यः, तस्य सर्व कर्म-भवोपग्राहित्रयरूप- “नेरइया णं भंते ! निज्जरा पुग्गले, किं जाणंति पासंति मायुषो भेदेनाभिधास्यमानत्वात् , वेदयतः-अनुभवतः प्रदे- आहारंति, उदाहु-न जाणति ०" शेषं तु लिखितमेशविपाकानुभवाभ्याम् , अत एव सर्व कर्म भवोपग्राहि- वास्ति इति, गतार्थ चैतत् , नवरमाहारयन्तीत्यत्र सर्वत्र रूपमेव, निर्जरयतः-श्रात्मप्रदेशेभ्यः शातयतः, तथा सर्वम्- |
श्रोज आहारो गृह्यते, तस्य शरीरविशेषग्राह्यत्वात् तस्य सर्वायुःपुनलापेक्षं, मारं-मरणम् अन्तिममित्यर्थः नि- चाहारकत्वे सर्वत्र भावात् , लोमाहारप्रक्षेपाहारयोस्तु त्व यमाणस्य-गच्छतः, तथा सर्वे-समस्तं शरीरम्-औदा- | ग्मुखयोर्भाव एव भावात् , यदाहरिकादि विप्रजहतः, एतदेव विशेषिततरमाह(चरम सरि (री) रेणोयाहारो, तया य फासेण लोमआहारो। कम्ममित्यादि) चरमं कर्म आयुषश्चरमसमयवेद्यम् । पक्खेवाहारो पुण, कावलिश्रो होइ नायव्वो ॥१॥ वेदयतः एवं निर्जरयतः , तथा चरमं चरमायुःपुद्गल- मनुष्यसूत्रे तु सझिभूता विशिष्टावधिशान्यादयो गृह्यन्ते, क्षयापेक्षम् मारं-मरणम् म्रियमाणस्य गच्छतः, तथा- येषां ते निर्जरापुद्गलाः ज्ञानविषयाः। वैमानिकसूत्रे तु वैमाचरमं शरीरं यश्चरमावस्थायामस्ति तत्यजतः, एतदेव निका-श्रमायिसम्यग्दृष्टय उपयुक्तास्तान जानन्ति ये विशिंस्फुटतरमाह-'मारणतिय कम्म' इत्यादि मरणस्य सर्वायु-| पावधयो, मायिमिथ्यादृष्टयस्तु न जानन्ति मिथ्यारष्टित्वाकक्षयलक्षणस्यान्तः-समीपं मरणान्तः आयुष्कचरमसम- | देवेति । भ०१८ श०३ उ०। यस्तत्र भवं मारणान्तिकम्,कर्म-भवोपग्राहित्रयरूपं वेदयतः
कर्माधिकारादिदमाहएवं निर्जरयतः। तथा मारणान्तिकं-मारणान्तिकायुर्दलि- जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे . जाव जे य कापेक्षम् मार-मरणं कुर्वतः, एवं शरीरं त्यजतः , ये
कजिस्सइ अत्थि याइ तस्स केइ णाणते ?, हंता अचरमाः-सर्वान्तिमाः निर्जरापुद्गलाः-निर्जीर्णकर्मदलिकानि समास्ते पुद्गलाः प्राप्ताः भगवद्भिः हेश्रमण! श्रायुष्मन् !
त्थि, से केणष्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ जीवा णं पावे कम्मे इति भगवत आमन्त्रणम्, सर्वलोकमपि तेऽवनाह्य-तत्स्वभा
जे य कडे • जाव जे य कजिस्सति अस्थि याइ तस्स वत्वेनाभिव्याप्य तिष्ठन्तीति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-'हंता मार्ग- णाणते ?, मागंदियपुत्ता! से जहानामए केइ पुरिसे धर्म्यु दियपुत्ते' त्यादि ( छउमत्थे णं ति) केवली हि जानात्येव तानिति न तद्गतं किश्चित्प्रष्टव्यमस्तीति कृत्वा 'छउमत्थे'
परामुसइ २ त्ता उसुं परामुसइ २ त्ता ठाणं ठाइ २ त्ता त्युक्तम् । छद्मस्थचेह निरतिशयो ग्राह्यः (आणतं वत्ति) |
आययकन्नाययं उसुं करेंति ययकन्नाययं त्ता उई वेहासं अन्यत्यम् । अनगारद्वयसम्बन्धिनो ये पुद्गलास्तेपां भेदः | उविहइ , से नूणं मागंदियपुत्ता! तस्स उसुस्स उड्डू
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(२३८) मागदिय अभिधानराजेन्द्रः।
माण वेहासं उब्धीढस्स समाणस्स एयति वि णाणत्तं जाव | पत्थो नेत्रो"|| त्ति मगधदेशव्यवहृते प्रस्थे.शा०१ श्रु०७ तं तं भावं परिणमति विणाणत्तं ?, हंता भगवं ! एय
अ० । तं० । औ०। (मागधप्रस्थमानम् 'पत्थग' शब्दे पश्चम
भागे ४२६ पृष्ठे गतम्) ति विणाणत्तं जाव परिणमति वि णाणतं, से तेणऽ- |
मागहभासा-मागधभाषा-स्त्री०मगधदेशप्रचलितभाषायाम्, द्वेणं मागदियात्ता! एवं वुच्चइ जाव तं तं भावं परिण
प्रा० चू०१ अ०। मति विणाणतं, नेरइयाणं पावे कम्मे जे य कडे एवं
मागहिया-मागधिका-स्त्री० । मगधदेशीयगाथायाम, श्री०। चेव नवरं जाव वेमाणियाणं । ( सूत्र-६२१)
जं० । तं० । स० । कूलवालुकसङ्गतगणिकायाम् , श्राव०४ ('जीवा ण' मित्यादि) (एयइ वि नाणत्तं ति) एजते कम्पते | अ०। झा। यदसाविषुस्तदपि नानात्वम्-भेदोऽनेजनावस्थापेक्षया, याव- माधवई-माघवती-स्त्री० । सप्तमनरकपृथिव्याम् , स्था० ७ करणात् “वेयइ विणाणत्तं” इत्यादि द्रष्टव्यम्, अयमभि
ठा० । प्रव० । भ० । जी। प्रायः-यथा वाणस्योर्ध्वक्षिप्तस्यैजनादिकं नानात्वमस्ति एवं
माडंविय-माण्डविक-पुं० । छिन्नजाश्रयविशेषरूप मण्डवमुकर्मणः कृतत्वक्रियमाणत्वकरिष्यमाणत्वरूपं तीवमन्दपरिणामभेदात्तदनुरूपकार्यकारित्वरूपं च नानात्वमवसेयमिति ।
च्यते । तस्याधिपतिर्माण्डविकः । छिन्नजनाश्रयदेशस्वामि
नि, अनु० । शा० । भ० । स्था। वृ०।जी० । कल्प। अनन्तरं कर्म निरूपितं तच पुद्गलरूपमिति
माडिअं-देशी-गृहे, दे० ना०६ वर्ग १२८ गाथा। पुद्गलानधिकृत्याहनेरइया ण भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गएहति तेसि
माढर-माठर-पुं०। माठरर्षिगोत्रापत्य,अनु। थेरे संभूयविजए णं भंते ! पोग्गलाणं से य कालंसि कति भागं आहारें
| माढरसगुत्ते'न(त)गरायां नगर्यो कस्यचिदाचार्यस्याटसु शि
प्येष्वन्यतमे शिष्ये, व्य०१ उ० । शक्रस्य देवेन्द्रस्य रथानीति कति भागं निजरेंति ?, मागंदियपुत्ता! असंखेजइ
काधिपतौ, स्था० ७ ठा० ।। भागं आहारेंति अणंतभागं निजरेंति । चक्किया णं भंते !
माढरी-माठरी-स्त्री। अनेकजीववनस्पतिविशषे, प्रशा०१पद । केइ तेसु निजरापोग्गलेसु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए
माढी-माठी-स्त्री० । कवचे, "माढी कवयं उरत्थयं " पार या ?, णो तिणढे समझे प्रणाहरणमेयं बुइयं समणाउसो!| ना० १२१ गाथा। एवंजाव वेमाणियाणं । सेवं भंते भत्ते त्ति । (सूत्र-६२२) माण-मान-न। मीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति मानम्। "नो णः" (नेरइए इत्यादि ) (से य कालंसि ति ) एष्यति काले ॥८११२२८॥ इति नस्य णः। प्रा० । स्वलक्षण मानोन्माने, ग्रहणानन्तरमित्यर्थः (असंखेजइभाग श्राहारिति त्ति) गृ- आचा०१७०३ १०२ उ० । “माणं ति वा परिच्छदं ति हीतपुद्गलानामसंख्येयभागमाहारीकुर्वन्ति गृहीतानामेवान- वा गहणप्पगारे त्ति वा एगट्ठा" प्रा००१ अ० । यथार्थतभागं निर्जरयन्ति-मूवादिवत्त्यजन्ति , ( चक्किय ति)। ज्ञाने, “मानं शानं यथार्थ स्यात्।" द्वा०११ द्वारा प्रमाणे, शक्नुयात् (श्रणाहरणमेयं वुइयं ति) अध्रियतेऽनेनेत्याध-| श्राव०४० । मीयतेऽनेनेति मानम् । कुडवपलहस्तादिके रणम्-आधारस्तनिषेधोऽनाधरणम्-श्राधर्नुमक्षमम् , ए-1 मापनप्रकारे, प्रव०६ द्वार । दुभिनिवेशारोहे, युक्तोक्लाग्रहणे तन्निर्जरापुद्गलजातमुक्तं जिनैरिति । भ०१८ श० ३ उ०।। च । ध०१ अधि०। मागह-मागध-त्रि० । मगधेषु भवं मागधम् । मगधदेशव्यव. धान्यप्रमाणं रसप्रमाणं चेति द्विविधं मानम्हते , स्था०८ ठा० । मगधदेशोद्भवे , व्य० १० उ० । भ०। से किं तं माण ?, माणे दुविहे पम्पत्ते । तं जहा-धनभट्टे , शा०१ २०१०। मङ्गलपाठके' अनु० । वन्दीभूते, माणप्पमाणे अ, रसमाणप्पमाणे अ । से किं तं धनमाजी०३ प्रति०४ श्रधिका सूते, आचा०१५०१०१ उ०।।
णप्पमाणे ?, धनमाणप्पमाणे-दो असईओ पसई, दो ('जोयण' शब्दे चतुर्थभागे १६५७ पृष्ठ व्याख्या गता ) चारणे , “ मंगलपाढयमागह-चारणवेश्रालिया बंदी "
पसईओ सेतिया, चत्तारि सेइबाओ कुडओ, चत्तारि पाइ० ना० ३२ गाथा।
कुडया पत्थो, चत्तारि पत्थया आढगं, चत्तारि आढगाइ मागहजोयण-मागधयोजन-न० । मगधेषु भयं मागध मगध | दोणो, सढि आढयाई जहन्नए कुंभे, असीइ आयाई देशब्यवहृतम् , तस्य योजनमध्वमानविशेषः-अपधनुःस-| मज्झिमए कुंभे, आढयसयं उक्कोसए कुंभे, अदु य ाढयहस्राणि । मगधदेशव्यवहृते अभ्यमानविशेष, स्था० ८ ठा० । सइए वाहे,एएणं धापमाणपमाणेणं किं पोअणं ?,एएणं ('मागहस्स०' ६३४ इत्यादिसूत्र सव्याख्यानम् 'जोयण' शब्दे चतुर्थभागे १६५७ पृष्ठ गतम्)
धम्ममाणपमाणेणं-मुत्तोली-मुह-इदर-अलिंद-ओचारि-संमागहतित्थकुमार-मागधतीर्थकुमार-पुं० । मगधदेशीयतीर्थ- सियाणं धष्ठाणं धापमाणप्पमाणनिधित्तिलक्खणं भवइ, करपुत्रे, श्रा० म०१ अ०।।
से तं धम्ममाणप्पमाणे । से किं तं रममाणप्पमाणे ?, मागहपत्थय-मागधप्रस्थक पुं० । “दो असईश्रो पसई, दो रसमाणप्पमाणे धम्ममाणप्पमाणाओ चउभागविवदिए अपसईओ उ सेतिया होइ। चउसेइमो उ कुडो, चउकुडो भितरसिहा जुने रममाणापमाण विहिजइ, तं जहा
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(२३६) माण
अभिधान राजेन्द्रः। चउसट्टिा ४ (चउपलपमाणा ) वत्तीसिया ८ सोलसि- द्धमाणिका, इदं च बहुषु वाचनाविशेषेषु न दृश्यत एव, श्रा १६ अदुमाइला ३२ चउभाइया ६४ अद्भमाणी १२८1
षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपलप्रमाणा माणिका, ठाभ्यां चतुः
पष्टिकाभ्यामेका द्वात्रिंशिका भवतीत्यादि गतार्थमेष, यापमाणी २५६दो चउसद्विआओ वत्तीसिआ,दो वत्तीसिआओ
देतेन रसमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ?, अत्रोत्तरम् एसोलसिया, दो सोलसिआओ अट्ठभाइआ, दो अट्ठभाइआ. तेन रसमानप्रमाणन वारकघटककरकगगरीतिककरोडिओ चउभाइया,दो चउभाइयामो अद्धमाणी, दो अद्धमाणी- काकुण्डिकासंश्रितानां-रसाना-रसस्य यन्मानं तदेव प्रमाण ओ माणी, एएणं रसमाणपमाणेणं किं पोपणं, एए- तस्य निवृत्तिः-सिद्धिस्तस्या लक्षण-परिशानं भवति,तत्रातीणं रसमाणेणं-बारक-घडक-करक-कलसित्र-गागरि-द
व विशालमुखा कुण्डिकैव करोडिका उच्यते, शेषं प्रतीतम् ,
क्वचित्कलसिए'त्ति दृश्यते, तत्र लघुतरः कलश एवं कलइअ-करोडिअ-कुंडिअ-संसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाणनि
शिकेत्यभिधीयते, एवमन्यदपि वाचनान्तरमभ्यूह्यम् । ‘से वित्तिलक्खणं भवइ । से तं रसमाणप्पमाणे । सेतं माणे॥
तमित्यादि,निगमनद्वयम् । अनु० । विशे० | शा। स्था०। उ. पुनरपि मानप्रमाणं द्विधा-धान्यमानप्रमाणं च, रसमा- ताप्रा०म०। पश्चासूत्र० । व्य० । नि० चू०।। नप्रमाण च । तत्र मानमेव प्रमाण मानप्रमाण धान्यवि
वारस अट्ठ य छक्कग-माणं भणियं जिणेहि सोहिकरं । षयं मानप्रमाणं धान्यमानप्रमाणम् , तच्च-(दो असईश्रो' इत्यादि) अश्नुते तत्प्रभवत्वेन समस्तधान्यमानानि
तेण परं जे मासा, साहामंता परिसडंति ॥२१६ ॥ व्याप्नोतीत्यसतिः-अवाङ्मुखहस्ततलरूपा, तत्परिच्छि
मीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति मानम् । व्य०१ उ० । मं धान्यमपि तथोच्यते, तद्वयेन निष्पन्ना नावाकारता- नि० चू० । अङ्गुलासंखेयभागादिके , विशे० । स्था० । भ० । व्यवस्थापितप्राञ्जलकरतलरूपा प्रसृतिः, द्वे च प्रसृती से- कर्म०। आचा। अनु०। उदकद्रोणपरिमाणशरीरतायाम् , तिका, सा च नेह प्रसिद्धा गृह्यते, मागधदेशप्रसिद्ध- स०। जलद्रोणप्रमाणतायाम् , कथं ? जलस्यातिभृते कुण्डे स्यैवात्र मानस्य प्रतिपिपादयिषितत्वाद् , अत इयं तत्प्रसि- पूरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं तदा द्धा काचिदवगन्तव्या, चतस्रः सतिकाः कुडवः, ते चत्वा- मानप्राप्तो भवति । ज्ञा०१ श्रु०१०। प्रध० । स्था० । र: प्रस्था, अमी चत्वारः आढक इत्यादि सूत्रसिद्धमेव, भ० । लक्षणं-मानोन्मानादि, तत्र मान जलद्रोणमानता यावदष्टभिराढकशतैर्निर्वृत्तो वाहः । अत्राह शिष्यः-पते- जलभृतकुण्डिकायां हि मातव्यः पूरुषः प्रवेश्यते । तनाऽसत्यादिना धान्यमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम्-किमनेन त्प्रवेशे च यज्जलं ततो निस्सरति तद् यदि द्रोणमानं विधीयते इत्यर्थः, अत्रोत्तरम् एतेन धान्यमानप्रमाणेन भवति तदाऽसौ मानोपेत उच्यते, भ० २ श०१ उ० । तं। 'मुक्कोलीमुखेदुरालिन्दापचारिसंश्रीतानां ' मुक्कोल्याद्या- नि०चूछा विपा० । रा० । गुणानुरागे, शा०१०१०। धारगतानां धान्यानां धान्यस्य यन्मानम्-इयत्तालक्षण औ० । कल्प०नि०। श्रादरे, उत्त०१६ अ० । मननमवगमनं तदेव प्रमाणं, तस्य निवृत्तिः सिद्धिस्तस्या लक्षण परि
मन्यतेऽनेनेति मानः । स्था० ४ ठा०१ उ० । सुबतगुर्वादीशानं भवति । एतावदत्र धान्यमस्तीति परिज्ञानं भवती
नामप्यतिभक्तिकारिणि, दर्श०१ तत्त्व । स्तम्भे, सूत्र० १६० त्यर्थः । तत्र मुक्तोली-मोट्टा ( हा ) अध उपरि च सङ्की
१६ अ०। स्तब्धतायाम् , ध०३ अधि० । बलादिसमुत्थे, श्रा र्णा मध्ये त्वीषद्विशाला कोष्ठिका, मुखं-गन्च्या उपरि
चा०१७०३ अ०४ उ०। गर्वे, पुं०। सूत्र०२ श्रु०५०। यद्दीयते सुम्बादिव्यूतं, ढश्चनकादि तत्-इदुरं, अलिन्दक
अभिमाने, सूत्र० १ श्रु० १ अ० । अहमितिप्रत्ययकुण्डुल्कम् , अपचारि-दीर्धतरधान्यकोष्ठाकारविशेषः । रस
हेतौ, उत्त० ६ ०। अहङ्कारे, सूत्र० १ श्रु०८ अ०। प्रव० । मानप्रमाणमाह-(से किं तमित्यादि) रसो मद्यादि
आव० । स्था०। (अस्य चातुर्विध्यम् 'कसाय' शब्दे तृतीयस्तद्विषयं मानमेव प्रमाणं रसमानप्रमाणम्, किमित्याह
भागे ३६६-३६८ पृष्ठे उक्तम् ) धान्यमानप्रमाणात् । सेतिकादेश्चतुर्भागविवर्द्धितम्-चतुर्भा
मानोऽपि नामादिभेदाच्चतुष्प्रकारः-कर्मद्रव्यमानः, तथैव गाधिकम् अभ्यन्तरशिखायुक्तं यद् रसमानं विधीयते
नोकर्मद्रव्यमानः, स्तब्धद्रव्यलक्षणः | भावमानस्तु तद्विक्रियते तद्रसमानप्रमाणमुच्यते, धान्यस्याऽद्रवरूपत्वात्कि
पाकः । स च चतुर्दा यथाह-" तिरिण सयला कट्टट्टिय ल शिखा भवति, रसस्य तु द्रवरूपत्वान्न शिखासम्भ
सेलत्थंभोवमो माणो” अत्रोदाहरणम् “सो सुभूमो तत्थ वोऽतो बहिः शिखाभावात् । धान्यमानाश्चतुर्भागवृद्धिलक्ष
संवट्ट । बिज्जाहरपरिग्गहितो जातो, सो किर चक्कपट्टी
भविस्सर त्ति मेघनादविज्जाहरो इत्थीरयणनियधूया पउमणया अभ्यन्तरशिखया युक्तत्वाश्चाभ्यन्तरशिखायुक्तमित्यु
सिरिदाणनिमित्तं तस्स समीवे सया इच्छह । अन्नया तेण क्लम, तद्यथा-चतुःषष्टिकेत्यादि, इदमुक्तं भवति-पदपञ्चाशदधिकशतद्वयपलमाना माणिकानाम वक्ष्यमाणं रस
विसाइहिं परिक्खिजइ । इतो य रामो नेमित्तियं पुच्छहमानम्,तस्य चतुःषष्टितमभागनिष्पन्ना अर्थादेव चतुष्पलप्र
कतो य मम विणासो ति?, तेण भणियं-जो एयं सीहामाणा चतुःषष्टिका, एवं माणिकाया एव द्वाविंशत्तमभागव
सणे निविसिहिइ एयातो दाढतो पयडीभूयातो खाहिति । तिन्यादष्टपलप्रमाणा द्वात्रिंशिका, तथा मणिकाया एव षो
ततो ते भयं । ततो तेण अवारियभत्तं कयं । तत्थ सीडशभागवर्तित्वात् पोडशपलप्रमाणा पोडशिका, तस्या पवा- हासणं धुरे ठवियं । दाढातो से अग्गतो कया तो एवं बचा एमभागवर्तित्वात् द्वात्रिंशत्पलप्रमाणा अष्टभागिका, तस्या कालो, इतो य सुभूमो मायं पुच्छर-कि एत्तिो लोगो एव चतुर्भागवर्तित्वात् चतुःषष्ठिपलमाना चतुर्भागिका , अनोऽवि अस्थि ? तीए सव्यं कहियं । सो तं सोऊणमभिमाणेतस्या एवार्द्धभागवर्तिनी अष्टाविंशत्यधिकपलशतमाना- ण हत्थिणारं गतो । तं सभं पविट्ठो, देवया रडिऊण नट्ठा ।
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( २४० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
माण
6
।
"
ततो दाढातो परमतं जीयंता माहणा तं परिहारं श्रोलग्गा मेघनादेण विज्जाहरणं ताणि पहरणाणि तेसिं चेष उवरि पाडिति सो बायो । रामस्व परिकहियं संनयो श्रागतो परसुं मुयह विज्जातो, इयरो य तं चेष थालं गद्दाय करंजा तेरा से रामस्त सीस दिनं । पच्छा तेरा सुभूमेस मागे एकवीस वारा निव्वंभणा पुढची कया गन्भा वि फालिया । श्रा० म० १ ० । आ० चू० । श्र० क० ( माने - पमदग्निपरशुरामकथा जम िशदे चतुर्थभागे १४०० पृष्ठेउला) मानफले (अवहारित महोदाहरणम् 'अर्थकारियमहा शब्दे प्रथमभागे १८१ प उक्तम् ) " न चासौ मानः क्रियमाणो गुणाय " सूत्र० १ श्रु० १३ ० । मानपरिणामजनके कर्मणि च । भ० १५ श० । मानपिण्डे, स्था० ३ ० ४ षभदेवस्यैकसप्ततितमे ठा० उ । ऋषभदेवस्यैकसप्ततितमे पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । मासइच-मानवत्-त्रि० । प्राषिशाल पन्त-मन्तेरमला मतोः ॥ ८ । २ । १५६ ॥ माणइत्तो । मानवति, प्रा० । माणंझाण–मानध्यान–न० । बाहुबलिविश्वभूतिसुभूमपर्शरामाग्निवेशागत सङ्गमकानामिव दुर्थ्यांने आतु मासी- देशी-मायाचि चन्द्रवध्योः दे० ना० ६ वर्ष १४७
"
9
"
गाथा ।
मायकर- मानकर पुं० कथमहमभ्यर्चितः कथयिष्यामीत्यवलेपसर्जिते, स्था० ४ ठा० ३ उ० ।
मायकसाइ- मानकषायिन् ५० मानेन कषायिताऽऽत्मनि
प्रशा० १४ पद । मायकसाथ मानकषाय-९० मानरूपे पाये, प्रा० १४ पद ('पकिम' शब्दे पञ्चमभागे २९६ पृष्ठे कसाय शब्दे तृतीयभागे ३५७ पृष्ठे विस्तरोऽस्य गतः ) मा किरिया - मानक्रिया - स्त्री० । जात्यादिमदमत्तस्य परेषां हेलनादिकरणे, स्था० ५ डा० २ ३० । अभ्युत्थानविन यासनदाना अलिप्रप्रहैर्मान कारापणे, श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । सूत्र० ।
मागण -- मानन - न० । पूजने, श्राचा० १ श्रु० ३ ० ३ ० । माणs - माननार्थ- पुं० । माननं पूजनं सत्कारः तेनार्थः-प्रयोजनम् माननार्थः। अभ्युत्थानविनयासनदाना अलिप्रग्रहमान निमित्ते, श्राचा० १ ० ३ ० ३३० । मासविस्त्रिय - माननिश्रित न० । माननिमित्तेषामेदे प्रज्ञा० १८ पद । मूर्च्छाभेदे, स्था० २ ठा० ४ उ० । मायतुंगसूरि-मानतुङ्गसूरि-पु० भलामरस्य कर्तरि, 'श्रीमानतुङ्गसूरिः, कर्ता भक्लामरस्य गणभर्त्ता । ग० ३ श्रषि० । एतदुत्पत्तिस्त्येयम्-वाराणस्यां धनदेवपुषः मानतु ङ्गनामा दिगम्बरजैनदीक्षां गृहीत्वा महाकीर्तिनामाऽजनि । भगिन्युपदेशाद्दिगम्बरेष्वेषणाशुद्धिमदृष्ट्वा श्रजितसिंहसूरिपार्श्वे श्वेताम्बर जैनत्वेन दीक्षित एतन्नामाऽभिदधे । तत्रस्पेन हर्षदेवेन राजा मयूरभट्टादिषु ब्राह्मणेषु सूर्यस्तोत्रा - दि भावी मातेषु निष्यप्यस्ति चमत्कृतिमयेति जि शास्यमानेन निगडबद्धोऽयं सूरिभक्तामर स्तोत्रं भणित्वा त
33
माण पिंड तस्तुष्टया शासनदेव्या छिन्नेषु निगडेषु तेनैव राशा परितोषित इति । जै० १० ।
माणदंसि (न्) - मानदर्शिन् त्रि० । मानस्य स्वरूपतो वेत्तरि, परिहर्तरि च । आचा० १ ० ३ ० ४ उ० । माणदेवसूरि - मानदेवसूरि ५० । बोलदेशे कल्याणकपुरे १२३३ विक्रमसंवत्सरे वीरप्रतिमाप्रतिष्ठापके जिनपतिसरिक्षुद्रपितरि ती० २१ कल्प । प्रद्युम्नसूरिशिष्यो मानदेवसूरिः । ग० ३ अधि० ।
मासपटिसेलीस मानप्रतिसंलीन त्रि० निरुद्धमाने, स्था
- ।
-
४ ठा० २ उ० ।
"
माणपत मानप्राप्त - वि० । मानमिते पुरुषे, तत्र मानं जलद्वोणताप्रमाणम् जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते जलं निरसरति तद् यदि द्रोणमानं भवति तदा पुरुषो मानप्राप्त उच्यते । शा० १ ० १ ० नि० । माणपव्यय - मानपर्वत- पुं० पर्वतभेदे, यत्र बाहुबलिना तपः कृतम् । श्रा० म० १ ० ।
माणपिंड - मानपिण्ड - पुं० । मानो - गर्वस्तद्धेतुकः पिण्डेो मानपिण्डः, प्रव० ६७ द्वार । अष्टमे उत्पादनादोषे, यथासाधूनां समक्षं पणं कृत्वा तदाऽहं लब्धिमान् यदा भवतां सरसमाहारममुकगृहादानीय ददामीत्युक्त्वा गृहस्थ चिम्य गृह्णाति तदा रामो मानचिएडाक्यो दोषः । उत्त० २४ श्र० । श्राचा० । पश्चा० ।
जे भिक्खू मायजितं वा साइज ॥६७॥ अभिमतो हि करेति थि माटो आयादिया व दोषाः) पतिं च चल
गाहा
जे भिक्खू माणपिंडं, भुंजेज्ज सयं तु अहत्र सातिजे । सो आणाणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥१८२॥ कंठ्यम् ।
इस मासपिंडे लवउच्छाहितो परेण व, लद्धपसंसाहि वा समुत्तइश्रो ।
3
माणि परेण व, जो एसति माणपिंडो सो ॥ १८३॥ सम्पतिरितो परो, तेरा महाकुलं पतातिपदि चयरोहि उच्छादितो ततो माराद्वितो जप सति सो माडो तहा परेस चे तुली सरसो एवं संखितो सम तर ति माणाभिभूतो विविधोपाय पसंद है भणाति देहि मे इतो असे भत्तसामिका - देमि ति फ डिभणति साहू अवस्सं दायव्वं ति । श्रतिमाणतो तलंभो उज्जर्म करेंतस्स मासपिंडो भवति । एत्थ इमं उदाहरणं । गाहाइङ्गमि परिपें-डिताण उल्ला उ को खु हु पएति । आज इट्टगातो, खुट्टो पचाऽहं आये || १८४ ॥ श्रत्थि गिरिफुशिगा गगरी, तत्थ य श्रायरिया बहुसिस्सपरिवारी परिवसंति । अण्णदा हट्टगच्छणे त्ति हट्टगा सुता । ऊसवो तम्मि ते लाइ परोपरि पिंडिता उल्लावं करेंति । को अहं अजगणे वट्टमाणे इट्टगा उप्पजतियाश्रो श्रा ज्जति । खुडगो भणति श्रहं श्रमिति । साधू भांति
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(२४१) माणपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
माणपिंड
न्दीपात्रमादाय भिक्षार्थ निर्जगाम । प्रविष्टश्च कापि कौटुजति वि यता पजत्ता, अगुलघताहिं ण ताहि मे कजं । म्बिकगृहे, दृष्टाश्च तत्र प्रचुराः सेवकिकाः घृतगुडादीनि जारिसियाओ इच्छह, ता आणेऽहं ति निक्खंतो॥१८॥
च प्रभूतानि प्रगुणीकृतानि , ततोऽनेकधा वचनभङ्गीभिः
सुलोचनाभिधाना कौम्बिकगृहिणी याचिता, तया च सजावि तुमं ता पजत्तानो प्राणेहिसि तहाऽवि अम्हं ताहिं
र्वथा प्रतिषिद्धो-न किमपि ते ददामीति, ततः संजातागुलघयवजियाहिं ण कजं, एवमरणो कोइ खडो भणति-जा
मर्षेण बभणे क्षुल्लकेन-नियमादिमाः सेवकिकाः सघृतगुडा रिसाओ तुज्झे भणह तारिसानो आणमि त्ति वोत्तुं भायणे
मया गृहीतव्याः , सुलोचनाऽपि सामर्ष शुल्लकवचः श्रुघेखें उपयोग काउं णिग्गतो, परियटुंतेण दिट्ठा एगम्मि घरे
त्वा संजातप्रकोपा प्रत्युवाच यदि त्वमेतासां सेबकिकानां पभूता उसेवइया तत्थ आगारी।
किमपि लभसे ततो में नासापुटे त्वया प्रस्रवणं कृतमिगाहा
ति । ततः क्षुल्लकोऽचिन्तयद्-अवश्यमेतन्मया विधातव्यभोभासिय पडिसिद्धो,भणति अगारिं अवस्सिमा मज्झ ।
म्, एवं च विचिन्त्य गृहानिर्ययो । पप्रच्छ च कस्याजति भणसि तो मेणा-साए कुणसु मोयं तु ॥ १८६ ॥ पि पावं कस्येदं गृहम ? इति । सोऽवादी-विष्णुतीए पडिसिद्धो, ताहे खुडो भणति-नमा इट्टगता अवस्सं मित्रस्य , ततः पुनरपि क्षुल्लकः पृच्छति-स इदानीं मझ भविस्संति, आहत्ति य । अगारी पडिभणाति-जति क वर्तते ?, तेनोक्तम्-पर्षदि , ततः पर्षदि गत्वा एया लभसि तो तुं मे हासार-मोय कतं; मूत्रित इत्यर्थः । सो सहर्ष इव पर्षज्जनान् पृष्टवान्-भो ! युष्माकं मध्ये को खुट्टो ततो घरानो णिम्गतो।
विष्णुमित्रः', चना अवादिषुः-किं साधो! तव तेन प्र. इमं गाहा
योजएम् ?, साधुरवोचत्-तं किमपि याचिये, स च तेषां कस्स घरं पुच्छिऊण, परिसाए कतरोऽमुगो य पुच्छते ।
सर्वेषामपि प्रायो भगिनीपतिरिति सहासं तैरवाचि-कृप
णोऽसौ न ते किमपि दास्यतीत्यस्मानेव याचस्व , ततो किं तो अम्हं जायसु,सो किविणो ण दाहिता तुझा१८७
विष्णुमित्रो मा मेऽपभ्राजनाऽभूदिति तेषामग्रतः कृत्वा पुच्छिए कहियं ददत्तस्स,कत्थ सो? इमो परिसाए अच्छति।
बभाण-भो! भो ! विष्णुमित्रोऽहं याचस्व मां किमपि, मा ताहे परिसंगतुं पुच्छति-कयरो तुझं इंददत्तोत्ति। तत्थ धरणे
केलिवचनममीषां कर्णेऽकार्षीः, ततोऽवादीत् क्षुल्लका-थाभणति-कं तेण, सोकिविणो इत्थिवसो य ण तुझं दाहिति ।
चेऽहं यदि त्वं महेलाप्रधानानां पराणां पुरुषाणामन्यतमो जति तो अम्हे जायसु दाहामो जहिच्छिय । ताहे इंददत्तेण- न भवति । ततः पर्षज्जना अवादिषुः के ते षट् पुरुषा महे दाहंतिणेण भणितं,जतिण भवसि छरिहमेसि पुरिसाणं।। लाप्रधानाः ? येषामन्यतमोऽयमाशङ्कयते । ततः खुल्लक अस्पतरो तो तेहिं, परिसा मझमि जायामि ॥ १८८॥
आह-श्वेताङ्गुलिः, वकोड्डायकः, किङ्करः, स्नायकः, गृध्र इव
रिखी, हदश इति, पतेषां च षण्णामपि कथानकान्यताहे खुडोभणइ-जइ इमेसिं छण्हं पुरिसाणं अण्णतरोण भ
मूनि-क्वचिहामे कोऽपि पुरुषो निजमार्याच्छन्दानुवर्ती, बसि तो ते इमाए परिसाए मज्झे किंचि पणएमि,ततो तेण
स च प्रातरेव जातबुभुक्षो निजभार्या भोजनं याचते, सा असतेहिय भणियं कयमेते छ पुरिसा इमे सुणसुानि०चू१३उ०। सम्प्रति मानपिण्डस्य संभवमाह
च वदति-नाहमालस्येनोत्थातुमुत्सहे, ततस्त्वमेव समा
कर्ष चुल्ल्या भस्म प्रक्षिप, तत्र प्रातिवेश्मिकगृहादानीय व. उच्छाहिश्रो परेण व, लद्धिपसंसाहि वा समुत्तइओ ।
हिं प्रज्वालय तमिन्धनप्रक्षेपण, समारोपय चुल्ल्याः शिअवमाणिो परेण य, जो एसइ माणपिंडो सो॥४६॥ रसि स्थालीम् , एवं यावत्यक्त्वा कथय , ततोऽहं परिउत्साहितः-स्वमेवास्य करणे समर्थ इत्येवमुत्कर्षितः, प- वेषयामीति, स च तथैव प्रतिदिवस कुरुते, ततो लोकेरेण-अपरेण साध्वादिना , ( वा ) विकल्पे , तथा ल- न प्रातरेवास्य चुल्ल्या भस्मसमाकर्षणेन श्वेतीभूतालिधिप्रशंसाभ्याम् (समुत्तइओ) गर्वितो, यथाऽहं यत्र कापि दर्शनात्सहासं श्वेताऽङ्गुलिरिति नाम कृतम् , एष श्वेता बजामि तत्र सर्वत्रापि लभे, तथैव च जनो मां प्रशंसती- लिः । तथा-क्वचिद्रामे कोऽपि पुरुषो निजभामुखदत्येवमभिमानवान् , यद्वा-न किमपि त्वया सिद्धयतीत्येव- र्शनसुखलम्पटस्तदादेशवर्ती , अन्यदा तया भार्यया बभमपमानितोऽपरेणाहकारवशाद्य एषयति पिण्ड स तस्य णे-यथाऽहमालस्येन युक्ता , ततस्त्वमेवोदकं तडागादामानपिण्डः । अत्र च जुल्लकोदाहरणम्-गिरिपुष्पिते नगरे नय, स च देवताऽऽदेशमिव भार्याऽऽदेशमभिमन्यमासिंहाभिधानाः सूरयः सपरिवाराः समाययुः, अन्यदा च नः प्रतिवदति-यदादिशसि प्रिये ! तदहं करोमि । ततो तत्र सेवकिकाक्षणः समजनि , तस्मिँश्च दिवसे सूत्रपौरु- दिवसे मा लोको मां द्राक्षीदिति रात्रौ पश्चिमयामे समुप्यनन्तरमेकत्र तरुणश्रमणानां समवायोऽभवत् , बभूव च त्थाय प्रतिदिवस तडागादुदकमानयति । तस्य च तत्र परस्परं समुल्लापः, तत्र कोऽप्यवादीत्-को नामैतेषां मध्ये यः | गमनागमने कुर्वनः पदसञ्चारशब्दश्रवणतो घटभरणबुदबुप्रातरेव सेवकिका आनेष्यति?, तत्र गुणचन्द्राभिधः तुल्ल- दशब्दश्रवणतश्च तडागपालीवृक्षेषु प्रसुप्ता वका उत्थायोकः प्रत्यवादीद्-अहमानेष्यामि । ततः सोऽभापीत्-यदि डीयन्ते । एष च वृत्तान्तो लोकेन विदितः, ततोऽस्यार्थताः सर्वसाधूनां न परिपूर्णा घृतगुडरहिता वा ततो न | स्य सूचनार्थ हास्येन पकोडायक इति नाम कृतम् । एष ताभिः प्रयोजनम् , तस्माद्यद्यवश्यमानेतव्यास्तर्हि परिपू-| पकोडायकः । तथा-कचिद् प्रामे कोऽपि पुरुषो भार्या
ः घृतगुडसम्मिभावानेतव्याः , बुल्लक आह-यादृशी- स्तनजघनादिस्पर्शलम्पटो भार्याच्छन्दानुवर्ती , स च प्रास्त्वमिच्छसि तारशीरानेष्यामि, एवं च कृत्वा प्रविशा, नातरेवोत्थाय कृताअलिप्रग्रहो वदति-दयिते ! किं करो
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(२४२) माणपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
माणवग मि ?, सा च वदति-तडागादुदकगानय, ततो यत्प्रिया | दर्शयति, दर्शयित्वा च भृतघृतगुडसवकिकापात्रो जगाम समादिशतीत्युदित्वा तडागादुदकमानयति, पुनरपि भण- निजवसताविति। ति-किं करोमि प्राणेश्वरि ?, सा वदति-कुसूलादाकृष्य
एतदेव रूपकाष्टकेन दर्शयतितण्डुलान् कण्डय, एपं यावद्भोजनादृवं मम पादान् प्र- इट्टगछणमि परिपि-डियाण उल्लावको णु हु पगेव । क्षाल्य घृतेन फाणयेति , स च सर्व तथैव करोति । तत
आणिज इट्टगाओ ?, खुड्डो पच्चाह आणेमि ।। ४६६ ।। एवं लोकेन ज्ञात्वा तस्य किङ्कर इति नाम निवे
जइ वि य ता पजत्ता, अगुलघयाहिं न ताहि णो कजं । शितम् , पप किङ्करः । तथा-क्वचिद् ग्रामे कोऽपि पुरुषो भार्याऽऽदेशवर्ती , स चान्यदा निजभार्यामवादीत्-प्राणे
जारिसियाओ इच्छह,ता आणेमि त्ति निक्खंतो॥४६७॥ श्वरि ! स्नातुमहमिच्छामि , तयोक्तम्-यद्येवं तामलका- ओहासिय पडिसिद्धो,भणइ अगारिं अवस्सिमा मझ। न् शिलायां वर्त्तय, परिधेहि स्नानपोतिकाम् अभ्यङ्गय तै
जइ लहसि तो तं मे, नासाए कुणसु मोय ति ॥४६८।। लेनात्मानं, गृहाण च घटं, ततस्तडागे स्नात्वा घटं च
कस्स घरं पुच्छिऊणं, परिसाएऽगो कयरो पुच्छित्तु । जलेन भृत्वा समागच्छेति । स च देवताऽऽदेशमिव भार्याss. देशं शिरसिनिधाय तथैव करोति,एवं च सर्वदैव ततो लोके
किं तेणऽम्हे जायसु,सो किविणो दाहिइ न तुज्झा४६६। नास्यार्थस्य प्रकटनाथै हासेनास्य स्नायक इति नाम कृतम् । दाहि त्ति तेण भणिए,जइ न भवसि छएहमेसि पुरिसाणं। एष स्नायकः। पिं०। (मानपिण्डे गृध्र इव रिडीति दृष्टान्तः
अन्नयरो तो तेव्हं, परिसामझमि पणयामि ।। ४७०।। 'गिद्धवरिंखि'शब्दे तृतीयभागे८७५ पृष्ठे गतः) तथा कचिद् ग्रामे भार्यामुखप्रलोकनसुखलम्पटस्तदादेशकारी कोऽ
सेयंऽगुलि वगुड्डावे,किंकरे राहायए तहा । पि पुरुषः, तस्यान्यदा स्वभार्यया सह विषयसुखमनुभवतः गिद्धा व रिखि हदन्नए, एए पुरिसाहमा छो॥४७१।। पुत्रो बभूव । स च पालनक एवं स्थितोऽतिबालत्वात् जायसु न एरिसोऽहं, इट्टगा देहि पुबमइगंतुं । पुरीषमुत्सृजति, तेन च पुरीषेण पालनकं बालवस्त्राणि
माला उत्तारि गुलं,भोएमि दिए त्ति आरूढा ।। ४७२ ॥ च खरण्ठ्यन्ते, ततः सा भति-बालस्य पुते प्रक्षालय, पालनकं बालवस्त्राणि च । ततो यत्प्रिया समादिशति
सिइअवणण पडिलाभण,दिस्सियरी वोलमंगुली नासं । तस्करोमीति वदस्तथैव करोति, एवं सर्वदैव । ततो लो- दुण्हेगयरपोसो, आयविवत्ती य उड्डाहो ॥ ४७३ ।। केनैतद ज्ञात्वा हदनं प्रक्षालयितुं बालस्य जानातीति कृ- सुगमम् । नवरम् ( इगछणमि) सेवकिकाक्षणे (पगवेति) त्वा हदश इति नाम तस्य कृतम् । एष हदशः । तत एव- प्रभाते एव (मोय ति) मूत्रणं, प्रणयामि इति याचे, (सिहमुक्त तुल्लकेन सर्वरपि पर्षजनैरेककालमट्टाहासेन हस- श्रवणण त्ति) निःश्रेण्यपनयनम् , इत्थम्भूतश्च मानपिण्डो झिरभाणि-तुल्लक ! एष पराणामपि पुरुषाणां गुणानाददा
न ग्राह्यः, यतो द्वयोरपि दम्पत्योः प्रद्वेषो भवति, ततस्तवति तन्मैनं महेलाप्रधानं याचिष्ट । विष्णुमित्रोऽवादीत- व्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, कदाचिदेकतरस्य ततस्तत्रापि स एव नाहं पराणां पुरुषाणां समानस्तस्माद्याचस्व मामिति, त
दोषः । अपि च-सैवमपमानिता कदाचिदभिमानवशादात्मतः खल्लकेनोक्तम्-देहि मे घृतगुडसंयुक्ताः पात्रभरणप्र- विपत्ति कुर्यात्, तत उड़ाहः प्रवचनमालिन्यम् । उक्नो मानमाणाः सेवकिकाः, विष्णुमित्रेणोक्तम्-ददामि । ततः शुल्लक पिण्डरष्टान्तः । पिं०। जीत। नि० चू० । प्राचा०। गृहीत्वा निजगृहाभिमुखं चलितवान् , समागतो निजगृ- माणमय-मानमद-पुं० । मानगर्वे, दश० अ०४ उ० । हद्वारे, ततः शुल्लकेनाभाणि-प्रथममपि तव गृहे समा
माणमाण--मानयत्--त्रि० । तदनुभावमनुभवति, भ० १ श० गतोऽहमासं परं तव भार्यया प्रतिज्ञा व्यधायि यथा-न
४ उ०। किमपि ते दास्यामि, तत इदानीं यदुक्तं तत्समाचार , तत एवमुक्ने विष्णुमित्रोऽवादीत्-यद्येवं तर्हि क्षणमात्रमेव गृह- |
माणमुंड-मानमुण्ड-त्रि० । मुण्डयत्यपनयतीति मुण्डः,मानन द्वारेऽवतिष्ठस्व पश्चादाकारयिष्यामि, ततः प्रविष्टो गृहमध्ये मुण्डः मानमुण्डः । मुण्डभेदे, स्था० १० ठा। मित्रः,पृष्टा च तेन निजभार्या-यथाराद्धाः सेवकिकाः प्रगुणी-माणमूरण-मानमरण-त्रि० । मानमर्दने, श्रा० म०१०। कृतानि घृतगुडादीनि?,तयोक्तम्-कृतं सर्वे परिपूर्णम् , ततो | सर्वगर्वोद्दलने, पा० । ध०। गुडं प्रलोक्य स्तोक एष गुडो नैतावता सरिष्यतीति माला- | माणव-मानव-पुं० । मा निषेधे, नवः प्रत्यग्रो मानवः।भ० २० दानय प्रभूतं गुडं येन द्विजान् भोजयामीति, ततः सा तद्
श० ३ उ० । पुरुषे, सूत्र० ११० १ ०१ उ० । दश०। चनादारूढा मालम् अपनीता तेन निःश्रेणितित श्राकार्य जुल्ल
श्राचा०मनुजे,आचा०११०५०४ उ०। मनुष्ये,आचा०१ कंपात्रभरणप्रमाणा ददौ तस्मै सेवकिकाः घृतगुडादीनि च
थु०२ अ०१ उ० । “मणुश्रा नरा मणुस्सा, मचा तह माण. दातुमारब्धानि , अत्रान्तरे गुडमादाय सुलोचना मालादुत्तरितुं प्रवृत्ता परं न पश्यति निःश्रेणिम् , ततो विस्मि
वा पुरिसा" पाइ० ना०६० गाथा । मनुप्राक्के, “पुराणं मा तहध्या प्रसरं यावदालोकते तावत्पश्यति तुल्लकाय घृत
नवो धर्मः,साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । पाशासिद्धानि चत्वारि, गुडसंयुक्ताः सेवकिका दीयमाना,ततोऽहमनेन शुल्लकेनाभि
न हन्तव्यानि हेतुभिः॥१॥" सूत्र०१७०३ १०३ उ०। भूतेत्यभिमानपूरितहृदया माऽस्मै देहि मा स्मै देहीति महता
| मनुष्ये, सूत्र १ श्रु०६ अ० । प्राचा० । शम्देन पूत्कुरुते, जुल्लकोऽपि तस्याः सम्मुखमवलोक्य मया माणवग-माणवक-पुं० । षट्चत्वारिंशलमे महाग्रहे, स्था। तव नासिकापुटे मूत्रितमिति निजनासापुटेऽल्पभिनयम | दो माणवगा । स्था० २ ठा०३ उ० । कल्प। चं०प्र० स०प्र०
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(२४३) माणवग अभिधानराजेन्द्रः।
माणविजय सुधर्मसभामध्यावस्थितस्वाभिधाने स्तम्भे, ज्ञा० १ श्रु० ८ चिनेदं वोत्प्रेक्ष्य व्याख्येयानीति । यथा परिभवति तथा प० । सू०प्र० स० । जी० । निधिभेदे, दर्श०१ तत्त्व । श्रा० | दर्शयति-इतरोऽयं जघन्यो हीनजातिकः, तथा मत्तः कुलचू०। नि।
बलरूपादिभिर्दूरमपभ्रष्टः सर्वजनावगीतोऽयमिति । अहं जोहाण य उप्पत्ती, आभरणाणं च पहरणाणं च।। पुनर्विशिष्टजातिकुलबलादिगुणोपेतः, एवमात्मानं समुत्कसध्वा य जुद्धनीई, माणवगे दंडनीई य ॥८॥
र्षयेदिति । साम्प्रतं मानोत्कर्षविपाकमाह-(देहच्चुए इत्या
दि) तदेवं जास्यादिमदोन्मत्तः सन्निहैव खोके गर्हितो (सूत्र-६६) । जं०३ वक्ष०। (अस्याः व्याख्या 'भरह' श
भवति, अत्र च जात्यादिपदद्वयादिसंयोगा द्रष्टव्याः, ते दे ५ भागे १४६१ पृष्ठे गता) अष्टमे निधौ,प्रव०२१३ द्वार।। द्वी। जी० । कल्प० । प्रा०म०। स्था० । ०। श्राव।
चैवं भवन्ति-जातिमदः कस्यचिन्न कुलमदः, अपरस्य कु
लमदो न जातिमदः, परस्योभयम् , अपरस्यानुभयम् इत्येवं माणवगण-मानवगण-पुं० । वसिष्ठगोत्रस्य ऋषिगुप्तानि
पदत्रयेणाटी चतुर्भिः षोडशेत्यादि यावदष्टभिः पदैः षट्गते गणे, कल्प० २ अधि० ८ क्षण।
पञ्चाशदधिकं शतद्वयमिति, सर्वत्र मदाभावरूपश्चरममा: माणवचेइयखंभ-मानवचैत्यस्तम्भ-पु०। सौधर्मकल्पे स्व
शुद्ध इति । परलोकेऽपि च मानी दुःखभाग् भवतीत्यनेन नामख्याते चैत्यस्तम्भे , सुधर्ममध्यभागे मणिपीठिकोपरि प्रदर्श्यते-स्वायुषः क्षये देहात् च्युतो भवान्तरं गच्छन् शुभापरियोजमानो माणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति । स० ।
शुभकर्मद्वितीयः कर्मपरायत्तत्वादवशः-परतन्त्रः प्रयाति,तद्यसोहकम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयखंभे था-गर्भादर्भ पञ्चेन्द्रियापेक्षम् , तथा-गर्भादगर्भ विकलेन्द्रियेहेट्ठा उवरिं च अद्भुतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता घूत्पद्यमानः, पुनरगर्भादर्भमेवमगर्भादगर्भम् , एतच्च नरककमज्झे पणतीसं जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु
ल्पगर्भदुःखापेक्षायामभिहितम् ,उत्पद्यमानदुःखापेक्षया विद जिणसकहाओ परमत्ताओ।
मभिधीयते जन्मन एकस्मादपरं जन्मान्तरं व्रजति, तथा मरणं सौधर्मकल्पे सौधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्चपञ्च
मारस्तस्मान्मारान्तरं व्रजति,तथा नरकदेश्यात्-श्वपाकादि
वासाद्रत्नप्रभादिकं नरकान्तरं व्रजति । यदिवा-नरकात्सीमसभा भवन्ति-सुधर्मसभा १ उपपातसभा २ अभिषेकसभा ३
न्तकादिकादुद्धृत्य सिंहमत्स्यादावुत्पद्य पुनरपि तीवतर अलंकारसभा ४ व्यवसायसभा ५, तत्र सुधर्मसभामध्यमागे
नरकान्तरं ब्रजति । तदेवं नटवद्रङ्गभूमौ संसारचक्रवाले मणिपीठिकोपरि पष्टियोजनमानो माणवको नाम चैत्यस्त
स्त्रीपुंनपुंसकादानि बहून्यवस्थान्तराण्यनुभवति । तदेवं म्भोऽस्ति । तत्र ( वइरामएसु त्ति) वज्जमयेषु, तथा-गोल वद् वृत्ता वर्चुला ये समुद्का-भाजनविशेषास्तेषु (जिण
मानी परपरिभवे सति चण्डो-रौद्रो भवति परस्याप
करोति, तदभावे ह्यात्मानं व्यापादयति । तथा-स्तम्धश्चसकहानो ति) जिनसक्थीनि तीर्थकराणां मनुजलोक
पलो यत्किञ्चनकारी मानी सन् सर्वोऽप्येतदवस्थो भवनिर्वृतानां सक्थीनि अस्थीनि-प्रशप्तानीति । स०३६ सम।
तीति । तदेवं तत्प्रत्यायिकम्-माननिमित्तं सापयं कर्म माणवत्तियदंड-मानप्रत्ययिकदण्ड-पुं० । जात्याधष्टमदस्था
श्राधीयते संबध्यते । सूत्र०२ श्रु०२०। प्रव० श्राव० । नोपहतमनसः पराभवदर्शिनो दण्डे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०।
श्रा० चू०। नवमं क्रियास्थानं मानप्रत्ययिकमाख्यायते
माणवाइ(न्)-मानवादिन-त्रि० । उचर्गोत्रनिमित्तमानवाअहावरे णवमे किरियाणे माणवत्तिए त्ति आहिज्जई, दशीले. “एगे गोयावादी माणवादी कसि वा एगे गिज्झे से जहाणामए के पुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा| तम्हा पंडिए" प्राचा० १ श्रु० २ ० ३ उ० । बलमएण वा रूवमएण वा तवमएण वा सुयमएण वा माणविजय-मानविजय-पुं० । श्रीविजयानन्दसूरिशिष्यपलाभमएण वा इस्सरियमएण वा पत्रामएण वा अन्नतरेण | ण्डितश्रीकान्तिविजयगणिचरणसेविनि धर्मसंग्रहवृत्तिकावा मयहाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेति निंदेति खि- रके स्वनामख्याते महोपाध्याये, ध०२ अधिः । सति गरहति परिभवइ अवमम्मेति इत्तरिए अयं अहमंसि
श्रीमद्वीरजिनेन्द्रपट्टपदवीसीमन्तिनीमण्डनं ,
प्रख्यावानजनिष्ट हीरविजयः सूरिः सतामग्रणीः। पुण विसिट्ठजाइकुलवलाइगुणोववेए एवं अप्पाणं समुक
येनाऽकव्वरराट् प्रबोध्य विहितो दुष्कर्मकर्ताऽप्यहो, स्से, देहच्चुए कम्मवित्तिए अवसे पयाइ, तं जहा- धर्मोक्त्या त्रिदिवस्य केशिगणिनेवाः प्रदेशी नृपः ॥१॥ गब्भाओ गम्भं जम्माओ जम्म, माराओ मारं, णरगाओ अमलमलमकार्षीत्सहरोस्तस्य पट्ट, गरगं, चंडे थद्धे चवले माणियावि भवइ, एवं खलुं तस्स विजयिविजयसेनः सूरिरुग्रप्रतापः। तप्पत्तियं सावजं ति आहिजइ, णवमे किरियाठाणे माण
महति सदसि शाहेर्वादिनो निष्प्रतापान ,
रविरिव निजगोभिस्तारकान् यश्वकार ॥२॥ बत्तिए त्ति आहिए । ( सूत्र-२५)
विजयतिलकसूरिभूरिसूरिप्रकृष्टो, तद्यथानाम कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जाति- दिनमणिरुदयाद्रौ तस्य पट्टे बभूव । कुलबलरूपतपःथुतलाभैश्वर्यप्रशामदाण्यैरष्टभिर्मदस्थानैरन्य- कुमततिमिरमुग्रं प्रास्य शुद्धोपदेशतरेण वा मत्तः परमवमबुद्ध्या हीलयति , तथा-निन्दति प्रसृमरकिरणैर्यो भव्यपद्मांश्चकार ॥३॥ जुगुप्सते, गहति परिभवति, एतानि चैकार्थिकानि कथ- तदीये पट्टेऽभूद्विजयिविजयानन्दसुगुरु
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(२४४) माणविजय अभिधानराजेन्द्रः।
माणि यशस्वी तेजस्वी मधुरवचनः सौम्यवदनः ।
पुत्रन्यस्तसमस्तगेहकरणी यस्य स्फुटं वार्द्धके, कषायैर्निर्मुक्तः प्रशमगुणयुक्तः सुविहित
सिद्धान्तश्रवणादिधर्मकरणे बद्धस्पृहस्यानिशम् । स्तपागच्छाधीशः सकलवसुधाधीशमहितः॥४॥ सद्धर्मद्वयसंविधानरचनाशुश्रूषणोत्कण्ठिनजयति विजयराजः सूरिरेतस्य पट्टे,
स्तस्य प्रार्थनयाऽस्य गुम्फनविधौ जातः प्रयत्नो मम ॥१८॥ सकलगुणगरिष्ठः शिष्टलोकैः प्रशस्यः ।
झानाराधनमतिना, विनयादिगुणान्वितेन वृत्तिरियम् । प्रथितपृथुजयश्रीरुपपुण्यप्रभावः,
प्रथमादर्श लिखिता, गणिना कान्त्यादिविजयेन ।। १६ ।। कलितसकलशास्त्रः प्रास्तमिथ्यात्वजालः ॥५॥
धात्री संपद्विधात्री भुजगपतिधृता सार्णवा यावदास्ते, तदनु पट्टपतिर्विहितोऽधुना,
प्रोचः सौवर्णशृङ्गोल्लिखितसुरपथो मन्दराद्रिश्च यावत् । विजयराजतषागणभूभुजा।
विश्व विद्योतयन्तौ तमनु शशिरवी भ्राम्यतह यावत् , विजयमान इति प्रथिताइयो,
ग्रन्थो व्याख्यायमानो विबुधजनवरैनन्दतादेष तावत् ॥२०॥ विजयतेऽतुलभाग्यनिधिः सुधीः॥६॥
ये ग्रन्थार्थविभावनातिनिपुणाः सम्यग्गुणग्राहिणः,
सन्तः सन्तु मयि प्रसन्नहृदयास्ते किं खलैस्तैरिह । विजयानन्दसूरीणां, विनेया विनयान्विताः॥
येषां शुद्धसुभाषितामृतरसैः सिक्कोऽपि चित्ते भृश, श्रीशान्तिविजयाहानाः, शोभन्ते पण्डितोत्तमाः॥७॥ ग्रीष्मर्ती मरुभूमिकाविव पयोलेशो न संलक्ष्यते ॥२१॥ . भाजन्मादपि शीलसत्यमृदुताक्षान्त्यर्जवाद्या गुणाः, विलोक्यानेकशास्त्राणि, विहिताद् प्रन्यतस्त्विह। भूयांसो गुरुभक्तता च विपुला येषु प्रकृष्टा अपि ।
प्रेत्यापि बोधिलाभोऽस्तु, परमानन्दकारणम् ॥२२॥ प्रोत्साहाय गुणार्थिनां स्वगुरुभिर्व्यक्तीकृता भूतले,
ध०३ अधि० । मानोदयनिरोधे, उत्त० २६१०। औ०। सर्वत्राखिलगच्छकार्यविनियोगेन प्रसन्नात्मभिः ॥८॥
माणविप्पव-मानविप्लव-पुं० । मीयतेऽनेनेति मानम्-कुडवा तेषां विनेय उदितादरतो विवो, ग्रन्थं च मानविजयाभिधवाचकोऽमुम् ।
दिपलादि हस्तादि वा, तस्य विप्लवो विपर्यासः अन्यथा का पुरणं यदत्र मतिमन्दतया भवेत्त
रणम्।मानस्य हीनाधिकत्वे, ध०२ अधिक। म्मेधाविभिमयि कृपां प्रणिधाय शोध्यम् ॥६॥
माणवी-मानवी-स्त्री०। श्रेयांसस्य श्रीवत्सापरनाम्न्यां शाससत्सर्ककर्कशधियाऽखिलदर्शनेषु,
नदेव्याम् , वैताव्यपर्वते खनामख्यातायां विद्याधरश्रेणी, मूर्धन्यतामधिमतास्तपगच्छधुर्याः।
श्रा० चू० ११०। प्रव०। काश्यां विजित्य परयूथिकपर्षदोऽग्न्या,
माणस-मानस-त्रि० । मनःपर्यायज्ञानयुक्ने, विशे०। मनासविस्तारितप्रवरजैनमतप्रभावाः ॥१०॥
म्बन्धिनि, नं० । आव० । स्था० । प्रव० । अन्तःकरणे , स. तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन,
३४ सम० । जी० । मनोमात्रवृत्तिनिर्वृत्ते, ध० २ अधिः । प्रोद्बोधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः ।
चित्ते, “चित्तं माणसं" पाह० ना० २४१ गाथा । चार्यशोविजयवाचकाराजिमुख्याः,
माणसम्मा-मानसंज्ञा-स्त्री०। मानोदयादहकारास्मिकोत्सेकाग्रन्थेऽत्र मय्युपकृति परिशोधनाधैः ॥११॥
दिपरिणतिरेव संज्ञायतेऽनयेति मानसंशा। स्था०१० ठा। बाल इव मन्दगतिः, सामाचारीविचारदुर्गम्य ।
संक्षाविशेष, प्रज्ञा० ७ पद । भ० । अत्राभूवं गतिमां-स्तेषां हस्तावलम्बन ॥१२॥ सिद्धान्तव्याकरण-च्छन्दः काव्यादिशास्त्रनिष्णातैः।
माणसपजाय--मानसपर्याय-पुं० । मानसा मनःसम्बधिनः लावण्यषिजयवाचक-शः समशोधि शास्त्रमिदम् ॥१३॥
पर्याया विषया यस्य तन्मनःपर्यायम् । मनःपर्यायशाने, नं०। वर्षे पृथ्वीगुणमुनि-चन्द्र (१७३१) प्रमिते च माधव मासे। माणसपव्वय-मानसपव्वेत-पुं० । स्वनामख्याते पर्वते, यत्र शुद्धतृतीयादिवसे, यत्नः सफलोऽयमजनिष्ट ॥१४॥ बाहुबलिना मानाध्मातेन केवलोत्पत्तये प्रतिमाऽभिगृहीता।
श्रा०म०१०। समप्रदेशोत्तमगुर्जरेषु,
माणसिय-मानसिक-त्रि० । मनसि जातं मानसिकं मनस्येव अहम्मदावादपुरे प्रधाने,
यवर्तते तन्मानसिकम् । शा० १ ०१०। मनसा चिश्रीवंशजन्मा मतित्राभिधानो,
न्तिते, स्था०६ ठा० । नि०। मनःप्रयोजनमस्य मानसिकः । वणिग्वरोऽभूच्छुभकर्मकर्ता ॥१५॥
ध०२ अधि० । मनसा निर्वृत्तः मानस एव वा मानसिकः। नित्यं गेहे दानशाला विशाला,
मनःकृते, आव०४०। उत्त० । कल्प० । प्रा० चू०। तीर्थोत्या तीर्थराजादियात्रा।
माणसियजोग-मानसिकयोग-पुं० । मनोद्रव्याणां चिन्तायां सप्तक्षेत्र्यां वित्तवापश्च यस्य,
व्यापारणे, विशे। स्तोतुं प्रायो ह्यस्मदाद्यैरशक्यः ॥ १६ ॥
माणा-माना-खीमानानुगतायां क्रियायाम् ,आव०३०। साधुः श्रीशान्तिदासः प्रवरगुणनिधिस्तत्सुतोऽभूदुदारो, धान्यां विख्यातनामा जघड्बुसमाधिकाऽनेकसत्कृत्यकृत्यः ।
माणि-मानिन्-पुं०।मानेन युक्तो मानी । अनु० । गर्विते, रानामन्त्रवस्त्रौषधिसुवितरणाधेन दुष्कालनाम,
सूत्र०१ श्रु०२१०२ उ०।नापि मानी भवेत्-न गर्वे विदध्या. प्रभ्यस्तं शस्तमूता बहुविधिमहिता जातिसाधर्मिकाचा१७।। त् । सूख०१श्रु०१६ १० । सहकारिणि, जी० १ प्रति।
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(२४५) माणि अभिधानराजेन्द्रः।
माणिवदेव जात्यादिमदोपेते, ५० प्र०१० पाहु । कच्छस्य यावत्पुष्क- चित्तेहिं परजह । अन्नया ममतेण नारयरिसिणा यहगएणं लावतीविजयस्य दीघंवैतान्यपर्वतस्य खनामख्यातेषु फूटेषु,। तं पडिमं दळूण पुच्छिश्रा विज्जाहरा, कुमो एवं पर्स। स्था० ठापदमविजयस्य यावद् गन्धिलावतीविजयस्य | तो तेहिं बुतं-अट्ठावयाो आणि ति । जप्पभिर ए. खनामख्यातेषु पर्वतेषु, स्था०६ ठा।
सा अम्हहि पूडउं पक्कंता तप्पभिड दिने दिने वडिया इहीमाणि-मानित-त्रि० । अनुभूते, "अणुहूयं माणि"|
ए, तं सोऊण नारो सग्गे इंदस्स तप्पडिममाहप्पं कहे। पाइ ना० २१३ गाथा । दे० ना०।
देणाऽवि सग्गे प्राणाविता भत्तीप पूहउमाढत्ता जाव मु. माणिकी-माणिकी-स्त्री० । रूतपूरितपट्टरूपायामाकुञ्चि- णिसुब्बयनमिनाहाणं अंतरालं । इत्थंऽतरे लंकाए तेलुककंकायाम् , जीत।
टो रावणो उप्पराणो, तस्स भज्जा मंदोदरी परमसम्ममाणिक-माणिक्य-पुं० । मणिभेदे, प्राचा०२७० ३चू०। दिट्ठी । तीए तं रयणबिंबमाहप्पं नारयाओ सोऊण तप्पकोलपाकपत्तने मन्दोदरीदेवताऽवसरे श्रीऋषभदेवे,ती०४३
आणगाढाभिग्गहो गहिरो, तं बुत्तंतं मुणित्ता महारायराबकल्प । भगवतीवृत्तिकारप्रेरके दायिकसुते वणिजि, "अस्याः
गेण इंदो पाराहियो। तेणऽवि तुट्रेण समप्पिश्रा सा पडिमा, (भगवत्याः) करणव्याख्या-श्रुतिलेखनपूजनादिषु यथार्हम् ।
महादेवीए तीए तुट्ठाए तिकालं पूजा । अन्नया दसगीवेण दायिकसुतमाणिक्यः,प्रेरितवानस्मदादिजनान्" भ०४१शा
सीश्रा देवी अवहरिया, मंदोदरीए अणुसिट्ठो चित्तं न मुंच
ति। तो सुमिणे पडिमाअहिट्टायगेण रावणविणासो लंकामाणिकचंदमूरि-माणिक्यचन्द्रमूरि-पुकाराजगच्छीये साग
भंगो अक्खिो मंदोअरीए । तो तीए बिंबं सायरे खिरचन्द्रसूरिशिष्ये, अयमाचार्यः विक्रमसंवत् १२७६ विद्यमान
विश्र तत्थ सुरेहिं पूइज्जह । इश्रो श्र कमाणदेसे कल्लाणनयरे आसीत् । पार्श्वनाथचरितनामग्रन्थं व्यरीरचत् । जै०० ।
संकरो नाम राया जिणभत्तो हुत्था । तत्थ केणऽवि मिमाणिकदंडग-माणिक्यदण्डक-पुं० । मुनिसुव्रतस्वामितीर्थे, च्छादिट्टिणा वंतरेण कुविएस मारी विउब्बिया । अहणो प्रतिष्ठानपुरे अयोध्यायां विन्याचले माणिक्यदण्डके मुनि-1 राया, तं दुक्खियं नाउं देवी पउमावई रत्ति सुविणे भणासुखतः । ती० ४३ कल्प।।
जह महाराश्रो रयणायराओ माणिकदेवं निश्रपुरे आणिमाणिकदेव-माणिक्यदेव-पुं० । कोलपाकपत्तने मन्दोदरी-1
त्ता पूरसि तो हिय होइ । तो राया सागरपासे देवतावसरे श्रीऋषभदेवे, ती० ४२ कल्प।
गंतूण उवधासं करेइ , लवणाहिवो संतुट्ठो होऊण प"श्रीकोलपाकप्रासाद-भरणं शरणं सताम् ।
यडो बयाणं भणइ-गिरहह जहिच्छाए रयणाई, रमा माणिक्यदेवनामान-मानमामि जिनर्षभम् ॥१॥" विनत-न मे रयणाइएहिं कजं, मंदोदरीठवित्रं बियं देहि श्रीमाणिक्यदेवनमस्कार:
सि । तो सुरेण बिवं कहिऊण अप्पिअं, रनो भणियं " श्रीकोलपाकपुरलक्ष्मिशिरोवतंस
च-तुह देसे सुही लोश्रो होही परं पंथे गच्छतस्स जत्थ प्रासादमध्यमनिषेध्यमधिष्ठितस्य ।
संसो होही तत्थेव बिंबं ठाहिति । तो पच्छिवो पच्छिचो माणिक्यदेव इति यः पृथितः पृथिव्यां,
ससिन्नो देवयापभावेण अन्नइ य , जुमलखंघट्टिसगडातस्याघ्रियुग्ममभिनौमि जिनर्षभस्य ॥१॥
रोविनं विवं मग्गो आगच्छह । दुग्गं मग्गं लंधित्ता तीर्थेशिनां समुदयो मुदितेन्द्रचन्द्रः,
राया संसयं मणे धरह, किं श्रागच्छद न वित्ति । तो -कोटीरकोटितटघृष्टपदासनानाम् ।
सासणदेवीए तिलंगदेसे कोल्लपाकनयरे दक्खिणवाणामद्दुःखदारुणदुरुत्खनशालिलेखा,
रसि त्ति पंडिएहि बरिणजमाणे पडिमा ठावित्रा । पुग्वि पेषाय मत्सकरिणः करणं दधातु ॥२॥
अइणिम्मलमरगयमणिमय आसि बिंब चिरकालं खारोहेतूपपत्तिसुनिरूपितवस्तुतत्त्वं,
अहिनीरसंगेण कठिणगं जायं । एकारसलक्खा असीरस्थाद्वादपद्धतिनिवेशितदुर्नयोधम् ।
सहस्सा नवसयाई पंचुत्तराई वरिसाई सग्गाश्रो प्राणीसत्सिद्धवल्लिविपिनं भुवनैकपूजा,
अस्स भगवो माणिकदेवस्स संबुद्धाई, तत्थ राया पपात्र जिनेन्द्रवचनं शरणं प्रपद्ये ॥३॥
वरं पासायं कारावेद । किं च-दुवालस गामे देवपूनआरुह्य खे चरति खेचरचक्रिणं या,
णटुं देह, तम्मि भयवं अंतरिक्खे ठिो छ सया - नामेयशासनरसालवनान्यपुष्टा ।
सीया ६५०विक्कमवरिसाई,तमो मिच्छत्तप्पवेसं नाउं सीहाचक्रेश्वरी रुचिरचक्रविरोचिहस्ता,
सणं ठिो नियतीए भविभाएं लोमणेसु श्रमयरसं वशस्ताय साऽस्तु नबविद्रुमकायकान्तिः॥४॥" ती०४६ कल्प।। रिसेह । किमेसा पडिमा टंकेहि उकिना, खाणीश्रो वा श्रासिरिकोलपाकपुरवर-मंडणमाणिकदेवरिसहस्स। णिश्रा, कि सकसिप्पिणा घडिश्रा , वज्जमई वा , नीलमलिहिमो जहासुअंकिं-चि कप्पमप्पेण गब्वेण ॥१॥ | णिवेति न निन्छिज्जा, रंभाखभनिभेव दीसइ । अज्ज पुचि किर अट्ठावयनगवरे सिरिभरहेसरेण णिश्र-णि-] विकिर भगवनो एहाबणोदगे दीयो पज्जलइ, तित्थाणुवरणप्पमाणसंठाणजुत्ताओ सीढो चेव लोप्राणुग्गहणथं भावनोबेरमंडवालो झरंता जलसीधा राजति अजतेण वेकारिश्रा सच्छमरगयमाणिमई । जहा-जुअलखंधेसु णाणं वत्थाई अल्लि त्ति । एवं प्रणेगविहपभावा सुरस्स मचिवुगे दिवायरो,भालयले चंदो, नाहीए सिवलिंग,अश्रो चेव हातित्थस्स माणिक्कदेवस्स जत्ता महसवं पूरं च जे कमाणिक्कदेवु त्ति विक्खाया। सायंकालंऽतरे जत्तागएहि सेरे रेति, कारविति, अणुमोअंति पते इह लोए परलोए प्र हिं दिट्ठा अपुब्बरूवि ति विम्हित्रमणेहिं विमाणे ठाविऊण | सुहसिरिं पाविति। बेयहगिरि नीया दक्खिणसेढीए , तिहिं भत्तिभरभरिश्र| "मालिकदेवकप्पो, इस एसो वनिो समासेणं ।
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(२४६) माणिकदेव अभिधानराजेन्द्रः।
माणुसत्त सिरिजिणपहसूरीहिं, भमिश्राणं कुणउ कल्लाणं ॥१॥” |
माणुस-मानुष-पुं० । मनुष्याणामयं मानुषः । स्था० ३ ठा० इतिश्रीमाणिक्यदेवतीर्थकल्पः । ती० ५० कल्प ।
३ उ० । मनुष्यभवसम्बन्धिनि, सू०प्र० २० पाहु० । प्रव०। माणकपुत्त-माणिक्यपुत्र-पु० । नासिकपुर ब्रह्मागारास्थत| प्राचा० । स्था० । सूत्र०1" संसारजलधिविभ्रष्टुं । मानुय जिनप्रासादोद्धारके पल्लीपालवंशोद्भवे ईश्वरपुत्रे,ती०२७कल्प। खद्योतक-तडिल्लताविलसितप्रतिमम्।” आचा०१ ध्रु० माणिकसुंदरसरि-माणिक्यसुन्दरसूरि-पुं० । अञ्चलगच्छीये २१०१ उ०। मनुष्यभवे, विशे०। खनामके प्राचार्य, अनेन मलयसुन्दरीचरित्रं यशोधरचरि- | माणुसत्त-मानुषत्व-न०। मनसि शेते मानुषः। अथवा-मनो. त्रं पृथ्वीचन्द्रचरित्रं चेति ग्रन्था रचिताः । अयमाचार्यः रपत्यमिति वाक्ये मनोर्जातावश्चतौ षुक चेत्यत्रि प्रत्यये षु. विक्रमसंवत्-१४६१ वर्षे श्रासीत् । जै० इ०।।
गागमे च मानुषत्वम् । मनुजभवे, उत्त०३१०। सूत्र। माणिभद्द-माणिभद्र-पुं० । उत्तरयक्षनिकायेन्द्रे,स्था०६ठा० ।
ये सत्त्वा मानुषत्वं न लभन्ते तानाहप्रशा। दक्षिणभरते दीर्घवैताब्यस्य माणिभद्राभिधानदेवस्या सत्तममहिनेरइया, तेऊ वाऊ अणंतसंघट्टो । ऽऽबासे चतुर्थे कूटे, स्था०६ ठा० ऐरवते वर्षे दीर्घबैतान्यस्य न लहंति माणुसत्तं, तहा असंखाउा सव्वे ॥१३६६।। चतुर्थे कूटे, स्था०६ ठा। सौधर्मे कल्पे स्वनामख्याते विमाने,
सप्तमपृथिवीनरयिकाः, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, ततद्वास्तव्ये देवे च । नि० । स्था० । भ०।पिं०। प्रा०म०। प्रा०
था-असंख्यातवर्षायुषः सर्वे तिर्यङ्-मनुष्याश्चानन्तरमुद्चू० शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारकारके स्वनामख्याते वणिजि, ती०।।
वृत्ता मानुष्यं न लभन्ति-मृत्वाऽनन्तरभवे मनुजेषु नोत्पद्यनन्दिः सूरिरथाश्चर्य-श्रीप्रभो माणिभद्रकः ।
न्ते इत्यर्थः । शेषास्तु सुरनरतियङ्नारकाः नरेषु उत्पम्ते । धनमित्रो यशोमित्र-स्तथा विकटर्मिकः ॥१॥
प्रव०२५० द्वार । ध० । महा। सुमनलः शूरसेन, इत्यस्योद्धारकारकाः। ती०१ कल्प । प्रशा० । स्था०। मिथिलायां नगर्यो स्व
गोयम ! अन्न पिजं भणसि, तं पि तुम्भ कहेमहं । नामख्याते चैत्ये, चं० प्र०१ पाहु। ति।
एत्थं जम्मे नरो कोई, कसिणुग्गं संजमे तवं ॥ माणिम-मान्य-त्रि०। अभ्युत्थानाज्ञाकरणादिना माननीये, जइ णो सकई काउं, जे तहा वि सुगइपिवासिओ निदश०१ चू०।
यमं । पक्खिक्खीरस्स एगवाल उप्पडणं स्यहरणस्स गिहं मालिय-मानित-त्रि० । सम्मानिते, अनु० । सा०।।
दंसियं पत्तियं तुपरि धारियं से कुणो पि एवं पि न जामाणी-माणी-स्त्री० । ऊर्द्धलोकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्,ति०।
बज्जीव पालेउं ता इमस्स वि । माणीपुर-माणीपुर-न० । नागदत्तगृहपत्यावासनगरे, विपा० २६०७०।
"गोयमा ! तुझ बुद्धीए, सिद्धिखित्तस्स उप्परं । माणुम्माणप्पमाणसुजायसव्वंऽगसुंदरंग-मानोन्मानप्रमाण मंडवियाए भवेयव्यं, दुकरकारि तवे तु (ए) णं ॥१॥" सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्ग-त्रि०ामानोन्मानप्रमाणैः सुन्दराण्यङ्गा- णवरं एयारिसं भवियं किमटुं, गोयमा ! एयं पुणो तं नि शिरःप्रमुखाणि यत्र एवंविधं सुन्दरमङ्गं यस्य स तथा । पुच्छामि । महा०६ अ०। मानोन्मानेन प्रमाणेन परिपूर्णसुन्दराने, कल्प० १ अधि० मनुष्यादिक्रमदुर्लभताख्यापनायाऽऽह नियुक्तिकारः१क्षण । स्था । स० । विपा० । प्रश्न । रा०। [ माणुम्मा माणुस्सखत्तजाई, कुलरूवाऽऽरोग्गमाउयं वुद्धी । णपमाणपडिपुनसुजातसव्वंगसुंदरंगी इति ] तत्र मानं समणोग्गहसद्धासं-जमो य लोगम्मि दुलहाई। ८३१॥ जलद्रोणप्रमाणता । कथमिति चेत् ? उच्यते-जलस्यातिभृते
इंदियलद्धी निव्व-तणा य पञ्जत्ति निरुवहयखेयं । कुण्डे पुरुषे स्त्रियां वा निवेशितायां यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः स्त्री वा मानप्राप्त उच्यते।
धायारोग्गं सद्धा, गाहगउवोगअट्ठा य । (अन्यदीया) तथा-उन्मानम्-अर्द्धभारप्रमाणता, सा चैवम्-तुलायामारो- चोल्लग पासग धमे, जूए रयणे य सुमिण चक्के य । पितः पुरुषः स्त्री वा यद्यर्द्धभारं तुलति तदा स उन्मानप्राप्तोऽ. चम्म जुगे परमाणू, दस दिटुंता मणुयलंभे ॥८३२ ॥ भिधीयते। प्रमाण-स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतोच्चयिता, ततो मानो- मानुष्यम्-मनुजत्वम् , क्षेत्रम्-आर्यम् , जातिः-मातृसमुमामप्रमाणैः प्रतिपूर्णान्यनूनानि सुजातानि जन्मदोषरहिता- स्था, कुलम्-पितृसमुन्थम् , रूपम्-अन्यूनाङ्गता, आरोग्यम्नि सर्वाणि अङ्गानि शिरःप्रभृतीनि यानि तैः सुन्दरागी। रा
रोगाभावः, आयुष्कम्-जीवितम् , बुद्धिः-परलोकप्रयणा, माणुम्माणियहाण-मानोन्मानितस्थान-न । मान-प्रस्थका. श्रवण-धर्मसम्बद्धम् , अवग्रहः-तबंधारणम् । अथवा- . दि, उन्मानं-नाराचादि । यदिवा-मानोन्मानमित्यश्वादीनां श्रवणावग्रहो-यत्यवग्रहः, श्रद्धा-रुचिः , संयमश्च-अ. वेगादिपरीक्षा तत्स्थानानि । मानोन्मानवर्णनस्थाने, प्राचा० नवद्यानुष्ठानलक्षणः , एतानि स्थानानि लोके दुर्लभानि, २५० २ चू०४ अ० । एगस्स बलमाणं अनेण अणु- एतदवाप्तौ च विशिष्टसामायिकलाभ इति गाथार्थः । ८३५ । मीयत इति माणुम्माणियं, जहा-धन्ने कंबलसबला । अ- श्रथ चैतानि दुर्लभानि । इन्द्रियलम्धिः-पञ्चेन्द्रियलब्धिरित्यधवा-माणपेते यो माणुम्मारिणय विज्जादिपहिं रुषवादीण र्थः, निर्वर्तना च इन्द्रियाणामेव, पर्याप्तिः-स्वविषयग्रहमिजतीति ऐमं । अथवा-णेमं वटुं सिक्खावज्ज तस्स णसामर्थ्य लक्षणा, (निरुवहत त्ति) निरुपहतेन्द्रियता-क्षेमम्अंगाणि ण मिज्जंती गहिता कव्वा । श्रथवा-वस्थपुष्फचं- विषयस्य, भातम्-सुभिक्षम्, आरोग्यम्-नीरोगता,श्रद्धा-भमादी वा कप्पं रुत्वादिभंगो। नि० चू०१२ उ० ।
क्तिः, ग्राहकः-गुरुः, उपयोगः-श्रोतुस्तदभिमुखता, (अट्ठो य
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(२४७) माणुसत्त अभिधानराजेन्द्रः।
माणुसत्त त्ति) अर्थित्वं च धर्म इति गाथार्थः। भिन्नकर्तृकी किलेयम्। वाणिययाण हत्थे विक्कीताणि, वरं अम्हेऽपि कोडिपडाजीबो मानुष्यं लब्ध्वा पुनस्तदेव दुःखन लप्स्यते, बहून्तराया- गाओ उम्भवेता , ते य वाणियगा समंततो पडिगया पारन्तरितत्वात् , ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिमित्रब्राह्मणचोलकभोजनवत् । सकूलादीणि, थेरो श्रागतो, सुतं जधा विक्कीताणि, ते अं
अत्र कथानकम्-बभदत्तस्स एगो कप्पडिओ, ओलग्गश्रो, बाडेति , लहुं रयणाणि पाणह, ताहे ते सव्वतो हिंडितुमदुसु आवत्तिसु अवत्थासु य सम्वत्थ सहायो आसि, सो य मारद्धा, किं ते सव्वरयणाणि पिडिज्ज ?, अषि य देवरज्जं पत्तो, बारससंवच्छरिश्रो अभिसेश्रो को, कप्पडियो प्पभावेण विभासा ५। तत्थ अल्लियाव पिण लहति, ततोऽणेण उवाश्रो चिंतितो, उ- ( ' सुविणए '. त्ति ) एगेण कप्पडिएण सुमिणए वाहणाश्रो धए बंधिऊण धयवाहपहिं समं पधावितो, रगणा चंदो गिलितो, कप्पडियाणं कथितं, ते भणति-संदिट्ठो, उत्तिरणणं अवगृहितो, अण्णे भणति-तेण दारवाले से- पुण्णचंदमंडलसरिस पोवलियं लभिहिसि , लद्धा घरवमाणण बारसम संवब्छरे राया दिट्ठो, तहि राया तं ददळूण च्छादणियाए , अण्णेण वि दिट्ठो, सो रहाइऊण पुसंभतो. हमो सो बराओ मम सुहदुक्खसहायगो, एत्ताहे 'फफलाणि गहाय सुविणपाढगस्स कथेति, तेण भणितकरेमि वित्तिं , ताहे भणति किं देमि त्ति? , सो भणति राया भविस्ससि । इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो देह करचोलए घरे घरे जाव सम्वमि भरहे , जाधे [हे] णि- अपुत्तो, सो य णिब्बिरणो अच्छति, जाव श्रासो अधिद्वितं होज्जा ताहे पुणो वि तुब्भ घरे श्राढवेऊण झुंजामि,
यासितो श्रागतो, तेण तं ददठूण हेसितं पदक्षिणीकतो राया भणति-किं ते एतेण ?, देसं ते देमि , तो सुहं य, ततो विलहो पुढे, एवं सो राया जातो, ताहे सो छत्तछायाए हस्थिखंधवरगतो हिंडिहिसि, सो भणति-किं
कप्पडिश्रो तं सुणेति, जधा तेण वि दिट्टो परिसो सुविमम एबहेण पाहट्टेण ?, ताहे सो दिगणो चोलगो , ततो प
णो, सो वि प्रादेसफलण किर राया जातो, सो य चि. ढमदिवसे राइणो घरे जिमितो, तेण से जुवलयं दीणा-1 तेति-वञ्चामि जत्थ गोरसो तं पिवेत्ता सुवामि , जाब रो य दिएणो, एवं सो परिवाडीए सव्वेसु रायउलेसु बत्ती- पुणो तं चेव सुमिण पेच्छामि, अत्थि पुण सो पेच्छेज्जा', साए रायवरसहस्सेसु तेसिं च जे भोइया, तत्थ य एगरे।
अवि य सो ण माणुसातो ६।। अणेगानो कुलकोडीश्रो , णगरस्स चेव सो कता अंतं क-|
(चक्क त्ति दारं) इंदपुर नगरं , इंददत्तो राया, तस्स हटाणं हिति, ताधे गामेसु ताहे पुणो भरहवासस्स, अवि सो वञ्चेजे |
वराणं देवीणं बावीस पुत्ता, अण्णे भणति-पकाए वेष देवीए अंतं ण य माणुसत्तणातो भट्ठो पुणो माणुसत्तण लहर १।
पुत्ता, राइणो पाणसमा, अण्णा एक्का अमञ्चधूया सा परं परि(पासग त्ति) चाणकस्स सुवरण नऽस्थि, ताधे केण उवारण |
णितेण दिट्ठलिया, सा अण्णता कताइ रिउराहाता समाणी विढविज सुवरणं ?, ताधे जंतपासया कता, केइ भणति-वर
अच्छति, रायणा य दिट्ठा, का एस त्ति?, तेहिं भणितं-तुम्मे दिएणगा, ततो एगो दक्खो पुरिसोसिक्खावितो, दीणारथालं देवी एसा , ताहे सो ताए समं रति एकं वसितो, सा भरियं, सो भणति-जति ममं कोइ जिणति सो थालं गेराहतु, य रितुरहाता तीसे गम्भो लग्गो, सा य अमच्चेण भअह अहं जिणामि तो एग दीणारं जिणामि , तस्स इ- णिएल्लिता-जया तुम गम्भो आहूतो भवति तदा मम च्छाए जे तं पडति अतो ण तीरइ जिणितुं , जहा सो ण साहिजसु, तार तस्स कथितं-दिवसो महत्तो जंच जिप्पा एवं माणुसलंभोऽवि, अवि णाम सो जिप्पज्ज ण य। रायाएण उल्लवितं सातियकारो , तेण तं पत्तए लिहिमाणुसातो भट्ठो पुण माणुस्सत्तणं २।।
तं, सो सारवेति, णवण्हं मासाणं दारओ संजातो, तस्स (धरणे त्ति) जत्तियाणि भरहे धरणाणि ताणि सव्वाणि दासचेडाणि तद्दिवसं जाताणि, तं जहा-अग्गियो पिण्डिताणि, तत्थ पत्थो सरिसवाणं छूढो, ताणि सव्वाणि पव्वतो बहुलियो सागरो य, ताणि य सहजातगाणि, श्राहालित्ताणि, तत्थेगा जुरणथेरी सुप्पं गयाय ते विणिज्ज तेण कलायरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइताओ गणियपुणोऽवि य पत्थं पूरेज्ज, अवि सा देवप्पसादेण पूरेज्ज ण य प्पहाणाओ कलाश्रो गाहितो, जाहे ताश्रो गाहिंति प्रामाणुसत्तणं ३।।
यरिया ताधे ताणि तं कडंति वाउल्लेति य, पुब्वपरिच(जुए ) जधा एमो राया , तस्स सभा अट्टख
एणं ताणि रोडंति, तेण ताणि ण चेव गणिताणि, भसतसंनिविट्ठा, जत्थ अत्थाणियं देति, एकेको य खंभो गहिताओ कलाओ, ते य अण्णे बावीसं कुमारा अट्ठसयसिओ, तस्स रगणो पुत्तो रजकंखी चिंतेति-थेरो
गाहिजंता तं पायरियं पिट्टेति अवयणाणि य भणंति, राया , मारिऊण रजं गिराहामि, तं च अमञ्चेण णायं ,
जति सो आयरिश्रो पिट्टति ताहे गंतूर्ण मातूण साहंति, तेण राणो सिटुं, ततो राया तं पुत्तं भएति-श्रम्ह जो ए
ताहे ताश्रो तं पायरिय खिसंति-कीस पाहणसि ? किं सहा अणुकर्म सो जूतं खेल्लति , जति जिणति रजं से
सुलभासि पुसजम्माणि ? अतो ते ण सिक्खिता । श्रो दिजति, कह पुण जिणियव्वं ?, तुज्झ एगो आओ, नव
य महुराए पब्वयत्रो राया, तस्स सुता णिती णाम ससा अम्हं श्राया, जति तुमे एगेण आएण अटुसतस्स दारिया, सा रराणो अलंकिया उवणीता, राया भणतिखंभाणं एक अंसियं अट्ठसते वारा जिणासि तो तुज्झ जो तव रोयति भत्तारो, तो ताए भणित-जो सूरो धीरो रजं, अवि य देवताविभासा४।
विकतो सो मम भत्ता होउ, से पुण रजं दिज्जा, ताधे (रतणे'ति)-जहा एगो वाणियो बुहो,रयणाणि से अस्थि, सा तं बलवाहणं गहाय गता इंदपुरं नगर, तस्स इंदतत्थ य महे महे अराणे वाणियया कोडिपडागाश्रो उन्भेंति,सो| दत्तस्स बहवे पुत्ता, ददत्तो तुट्ठो चितेह-पूर्ण अहं - ण उम्भवति, तस्स पुत्तेहि थेरे पउत्थे ताणि रयणाणि देसी-1 एणेहिंतो राईहितो लट्ठो तो आगता, ततो तेण उस्सिप्रवेशम् । २ कर भोजनम् । ३ भादम्बरेण ।
१ पारसकूलादिस्थानानि ।
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(२४५) माणुसत्त अभिधानराजेन्द्रः।
माणुसय तपडागं नगरं कारितं, तत्थ एक्कम्मि अक्खे अट्ट चक्का-] यथा समिला प्रभ्रष्टा, ' सागरसलिले '-समुद्रपानीये, णि, तेसि पुरतो धिइल्लिया ठाविया, सा अच्छिम्मि वि- (अणोरपारमिति) देशीवचनं प्रचुरार्थे, उपचारत श्राराधितब्वा, ततो इंवदत्तो राया सन्नद्धो णिग्गतो सह- दागपरभागरहित इत्यर्थः, प्रविशेत् युगच्छिद्रं कथमपि पुनहिं । सा वि करणा सव्वालकारभूसिया एगमि पासे | भ्रमन्ती भ्रमति युग इत्येवं दुर्लभं मानुष्यमिति गाथार्थः । अच्छति, सो रंगो ते य रायाणो ते य दंडभडभोड्या सा चंडवायवीची, पणुल्लिया अवि लभेज जुगछिदं । जारिसो दोवतीए, तत्थ रगणो जेट्टो पुत्तो सिरिमाली
ण य माणुसाउ भट्ठो, जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥३॥ णाम कुमारो, सो भणितो-पुत्त! एस दारिया रज्जं च घेत्तव्यं, अतो विंध एतं पुत्तलियं ति, ताधे सोऽकतक
सासमिला चण्डवातवीचीप्रेरिता सत्यपि लभेत् युगच्छिद्रं, रखो तस्स समूहस्स मज्झे धणु चेव गेरिहणुं ण तर
नच मानुष्या भ्रष्ठो जीवः प्रतिमानुषं लभत इति गाथार्थः॥॥ ति, कहऽविणेण गहितं, तेण जतो बच्चतु ततो वचतु
इदानीं परमारण १०-जहा एगो खंभो महापमाणो , सो
देवेण चुरणेऊण अविभागिमाणि खंडाणि काऊण णासि मुको सरो, सो चक्के अफिडिऊण भग्गो, एवं कस्सह एकं भरगतरं बोलीणो,कस्सइ दोरिण,कस्सइ तिरिण,अराणे
लियाए पक्वित्तो, पच्छा मंदरचूलियाए ठितेण फुमितो, सिं बाहिरेण चेव णीति, ताधे राया अधिर्ति पगतो-अ.
ताणि गट्ठाणि, अत्थि पुण कोऽवि?, तेहिं चेव पोग्गलेहि होऽहं पतेहि धरिसितो ति, ततो अमञ्चेण भणितो--की
तमेव खंभं णिब्वत्तेज ? णो त्ति, एस प्रभावो एवं भट्ठो माणुस अधिर्ति करेह ? राया भणति-पतहिं अहं अप्पधाणो
सातो ण पुणो । अहवा-सभा अणगखभसतहस्ससंनिविट्ठा, कतो, अमचो भणति-अस्थि अण्णो तुब्भ पुत्तो मम धू
सा कालंऽतरेण झामिता पडिता, अत्थि पुण कोइ?, तेहि ताए तणाश्रो सुरिंददत्तो णाम, सो समत्थो विधितुं,
चेव पोग्गलहिं करेजा, णो त्ति, एवं माणुस्सं दुल्लहं ॥ १०॥ अभिरणाणि से कहिताणि , कहिं सो ? दरिसितो, ततो इय दुल्लहलंमं मा-णुसत्तणं पाविऊण जो जीवो। सो राणा अवगूहितो, भणितो सेयं-तव, एए अट्ठ रहचक्के __ण कुणइ पारत्तहियं, सो सोयइ संकमणकाले ।।८३३॥ भेलूण पुत्तलिय अच्छिम्मि विधिता रजसुकं णिव्युतिदा इय-एवं दुर्लभलाभं मानुषत्वं प्राप्य यो जीवो न रियं संपावित्तए, ततो कुमारो जधाऽऽणवेह ति भणिऊ- करोति परत्र हित-धर्म, दीर्घत्वमलाक्षणिकम्, स शोचति, ण ठाणं ठाइ, तूणधणुं गेण्हति , लक्खाभिमुहं सरं स- संक्रमणकाले-मरणकाले, इति गाथार्थः। ज्जेति, ताणि य दासरूवाणि चउदिसं ठिताणि रोडिति,
जह वारिमझछूढो, व्व गयवरो मच्छउ व्व गलगहियो । अरणे य उभयतो पासिं गहितखग्गा, जति कह वि ल
वग्गुरपडिउब्व मओ, संवट्टइओ जह व पक्खी ॥८३७।। क्खस्स चुक्कति ततो सीसं छिदितव्वं ति, सोऽवि से उवज्झायो पासे ठितो भयं देति-मारिजसि जति चु
यथा वारिमध्यक्षिप्त इव गजवरो, मत्स्यो वा गलगृहीता, कसि, ते बावीस पि कुमारा मा एस विन्धिस्सति त्ति
वागुरापतितो वा मृगः, संवर्त जालम् इतः प्राप्तो यथा विसेसउल्लंठाणि विग्याणि करेंति, ततो ताणि चत्तारि ते य
वा पक्षी, इति गाथार्थः। दो पुरिसे बावीसच कुमारे अगणतेण ताणं अट्टएहं रहच
सो सोयइ मच्चुजरा, समोच्छुओ तुरियणिद्दपक्खित्तो। काणं अंतरं जाणिऊण तंमि लक्खे णिरुद्धाए विट्ठीए अण्णम- तायारमविदंतो, कम्मभरपणोलिओ जीवो ॥८३८ ।। तिं अकुणमाणेण सा धिइल्लिया वामे अच्छिम्मि बिद्धा, सोऽकृतपुण्यः शोचति,मृत्युजरासमास्तृतो-व्याप्तः, त्वरिततो लोगेण उकिट्ठिसीहणादकलकलुम्मिस्सो साधुकारो तनिद्रया प्रक्षिप्तः, मरणनिद्रयाऽभिभूत इत्यर्थः, त्रातारम् अ. कतो, जधा तं चकं दुक्खं भेत्तुं एवं माणुसत्तणं पि । । विन्दन्-अलभनित्यर्थः, कर्मभरप्रेरितो जीव इति गाथार्थः। (चम्मति )-जधा एगो दहो जोयणसयसहस्सवित्थिरणो
सचेत्थं मृतः सन्चम्मेण पद्धो, एग से मज्झे छिई जत्थ जत्थ कच्छभस्स काऊणमणेगाई, जम्ममरणपरियट्टणसयाई । गीवा मायति, तत्थ कच्छभो वाससते वाससते गते
दुक्खेण माणुसत्तं,जइ लहइ जहिच्छया जीवो।।८३६॥ गीयं पसारे ति, तेण कह वि गीवा पसारिता, जाव तेण
कृत्वाऽनेकानि जन्ममरणपरावर्तनशतानि दुःखेन मानुषछिद्रण निग्गता, तेण जोतिसं दि8 कोमुदीप पुष्फफलाणि
त्वं लभते जीवो यदि यदृच्छया, कुशलपक्षकारी पुनः सुखेन य, सो आगतो, सयणिज्जयाण दापमि आणत्ता सव्वतो
मृत्वा सुखेनैव लभत इति गाथार्थः। पलोयति, ण पेच्छति, अवि सो, ण य माणुस्सातो ८ ।
तं तह दुल्लहलंभ, विज्जुलयाचंचलं माणुसत्तं । _ युगदृष्टान्तप्रतिपादनायाऽऽहपुवं ते होज्ज जुगं, अवरते तस्स होज्ज समिला उ ।
लद्धण जोपमायइ, सो कापुरिसोन सप्पुरिसो ॥८४०॥
तत्तथा दुर्लभलाभ विद्युल्लताचश्चल मानुषत्वं लब्ध्वा यः जमछिम्मि पवेसो,इय संसइया मणुयलमा।।८२२ ।। प्रमाद्यति-प्रमादं करोति स कापुरुषो न सत्पुरुष इति जलनिधेः पूर्वान्ते भवेद युगम्,अपरान्ते तस्य भवेत् समिला | गाथार्थः । श्राव०१०। तु, एवं व्यवस्थिते सति यथा युगच्छिद्रे प्रवेशः संशयितः, मा य एवं संशयितो मनुष्यलाभो दुर्लभ इति गाथार्थः।
यता, माणुसत्तण-मानुषत्व-न०। मनुजत्थे, "माणुसत्तणमागया"
I प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार। जह समिला पन्भट्ठा, सागरसलिले अणोरपारंमि। माणसय-मानुष्यक-न०।मानुष्यके लोके मार्यक्षेत्रे, सूत्र०१ पविसेज्ज जुग्गछिई, कह वि भमंती भमंतंमि ।।८३४॥ शु०१६ अ०।
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(२४ ) माणुरंधण अभिधानराजेन्द्रः।
माणुसुत्तर माणुसरंधण-मानुषरन्धन-न०। चुल्ल्यादिषु, प्राचा० । स्सा अट्ट तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं,उवरि गिरिपरिरएमासुसीगम्भ-मानुषीगर्भ-पुं० । जठरसंभवे गर्भे, स्था० ।
णं एगा जोयणकोडी वायालीसं च सयसहस्साई बत्तीस च चत्तारि मणुसीगम्भा परमत्ता । तं जहा-इत्थित्ताए पु-| सहस्साई णव य बत्तीसे जोयणसते परिक्खेवणं, मूले वि. रिसत्ताए गपुंसगत्ताए बिंबत्ताए। सिलोगो
त्थिामे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुये अंतो सरहे मज्झे उदग्गे "अप्पं सुकं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजायइ । अप्पं प्रोयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्थ जायइ ॥ १॥
बाहिं दरिसणिज्जे ईसिं सम्मिसम्मे सीहणिसाई अबद्धजवरादोएहं पि रत्तसुकाणं, तुल्लभावे नपुंसओ ।
सिसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे सण्हे जाव पडिइत्थीयोज समाओगे, विंबं तत्थ पजायइ ॥२॥"
रूवे, उभो पासिं दोहिं पउमवरवेदियाहिं दोहि य वण(सूत्र-६७७)
संडेहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते वएणो दोएहवि ।। (इस्थिताए ति) स्त्रीतया, बिम्बमिति गर्भप्रतिबिम्ब ग- (माणुसुत्तरे णमित्यादि) मानुषोत्तरोणमिति वाक्यालङ्कारे भांकृतिरार्तवपरिणामो न तु गर्भ एवेति । उनं च
पर्वतः ‘कियत् '-किंप्रमाणमूर्ध्वमुस्त्वेन ? कियदुवेधेन ? "अवस्थितं लोहितमङ्गनायाः, वातेन गर्ने युवतेऽनभिशाः।
कियन्मूलविष्कम्भन ? कियदुपरि विष्कम्भेन ? कियद् अगर्भाकृतित्वात्कटुकोणतीक्ष्णैः,श्रुते पुनः केवल एव रहे ॥१॥
न्तर्गिरिपरिरयेण, गिरेरन्तः परिक्षेपण :, कियद् बहिगिरिगर्भ जडा भूतहतं वदन्ति,"इत्यादि।वैचित्र्यं गर्भस्य कारण
परिरयेण गिरेबहिः परिच्छेदेन ? कियन्मूलगिरिपरिरयेण ? भेदादिति श्लोकाभ्यां तदाह-( अप्पमित्यादि) शुक्र-रेतः
गिरेर्मूले परिरयेण, एवं कियन्मध्यगिरिपरिरयेण ? , एवं पुरुषसम्बन्धि, श्रोज-आर्तव कं स्त्रीसम्बन्धि, यत्र गर्भा- कियदुपरि गिरिपरिरयेण प्राप्तः ?, भगवानाह-गौतम ! शय इति गम्यत इति । तथा खिया श्रोजसा समायोगो- सप्तदशयोजनशतानि एकविंशानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन १७२१ वातवशेन तत् स्थिरीभवनलक्षणस्योजः समायोगस्तस्मि-| चत्वारि त्रिंशानि योजनशतानि क्रोशमेकं च ' उद्वेधन' न्सति बिम्बं तत्र गर्भाशये प्रजायते । अन्यैरप्यत्रोक्तम्- उण्डत्वेन ४३०, मूले दश द्वाविंशत्युत्तराणि योजनशतानि श्रत एव च शुक्रस्य, बाहुल्याज्जायते पुमान् ।
विष्कम्भेन १०२२ मध्ये सप्त प्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतारक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये, क्लीबः शुक्रारीवे पुनः॥१॥ नि विष्कम्भतः ७२३, उपरि चत्वारि चतुर्विंशत्युत्तराणि वायुना बहुशो भिन्ने, यथाखं बहुपत्यता ।
योजनशतानि विष्कम्भेन ४२४ एका,योजनकोटी द्वाचवियोनिविकृताकारा, जायन्ते विकृतैर्मलैः ॥२॥
त्वारिंशच्छतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे एकोनपश्चाशदइति । स्था०४ ठा०४ उ०।
धिके योजनशत किञ्चिविशेषाधिके अन्तर्गिरिपरिरयेण माणुसुत्तर--मानुषोत्तर-पुं०) मनुप्यक्षेत्रादुत्तरतः परतो वर्त
१४२३०२४६, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहतति मानुषोत्तरः । स्था० ३ ठा०४ उ० । पुष्करवरस्य | स्राणि षट्त्रिंशत्सहस्राणि सप्त चतुर्दशोत्तराणि योजनशद्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मनुष्यक्षेत्रसीमाकारिणि पर्वते, तानि बहिनिरिपरिरयेण १४२३६७१४ , एका योजचं०प्र०१६ पाहु।
नकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि चतुषिशत्सहस्राणि मानुषनगस्योचत्वादि
अष्टौ त्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतानि मध्यगिरिपरिरयेण 'माणुसुत्तरे णं भंते ! पचते केवतियं उड्डू उच्चत्तणं ? १४२३४८२३, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि केवतियं उबेहेणं ? केवतियं मूले विक्खंभेणं ? केवतियं द्वात्रिंशत्सहस्राणि नव च द्वात्रिंशदुसराणि योजनशतामज्झे विक्खंभेणं ? केवतियं सिहरे विक्खंभेणं ? केवतियं
नि उपरि गिरिपरिरयेण १४२३२६३२, इदं च मध्ये उपरि च
गिरिपरिरयपरिमाणं बहिर्भागापेक्षमवसातव्यम् , अभ्यन्तरं अंतो गिरिपरिरयेणं केवतिय बाहिं गिरिपरिरयेणं ?
छिन्नटङ्कतया मूले मध्ये उपरि च सर्वत्र तुल्यपरिरयपरिकेवतियं मज्झे गिरिपरिरयेणं १ केवतिय उवरि गिरिपरिर- माणत्वाद्,मले विस्तीर्णोऽनिपृथुत्वात् ,मध्ये संक्षिप्तो मध्ययेणं, गोयमा! माणुसुत्तरेणं पव्वते सत्तरस एगवीसाई विस्तारत्वात् , उपरि तनुकः स्तोकया हल्यभावात् , अन्तः जोयणसयातिं उडूं उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसये लक्षणो मृष्ट इत्यर्थः । मध्ये उदनः प्रधानः, बहिः दर्शनीयः, कोसं च उव्वेहेणं मले दस बावीसे जोयणसते विखंभे- नयनमनोहारी, ईषत्-मनाक सनिषण्णः सिंहनिषीदनेन णं मज्झे सत्तावीसे जोयणसते विक्खंभेणं उवरि चत्तारि
निषीदनात् तथा चाह-सिंहनिषादी सिंहवन्निषीदतीत्येवं
शीलः सिंहनिषादी, यथा सिंहोऽप्रेतनं पादयुगलमुत्तम्य चउवीसे जोयग्णसते विक्खंभेणं अंतो गिरिपरिरयेणं एगा
पश्चात्तनं तु पादयुग्मं सङ्कोच्य पुताभ्यां मनाग लग्नो निषीजोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई, तीसं च सह- दति तथा निषण्णश्च शिरःप्रदेशे उन्नतः पश्चाद्भागेतु निम्नो स्साई दोमि य अउणापमे जोयणसते किंचि विसेसाहिए निम्नतरः, एवं मानुषोत्तरोऽपि जम्बूद्वीपदिशि छिन्नटकः, परिक्खवणं, बाहिरगिरिपरिरयेणं एगा जोयणकोडी वाया
स चोन्नतः पाश्चात्यभागे तूपरितनभागादारभ्य पृथुत्वलीसं च सतसहस्साई छत्तीसं च सहस्साई सत्त चोद
प्रदेशवृद्धया निम्नो निम्नतर इति, एतदेवातिव्यक्तमाहसोत्तरे जोयणसते परिक्खेवणं, मज्झे गिरिपरिरयेणं एगा
( अबद्धजवरासिसंठाणसंठिए इति ) अपगतमद्धे य
रिपाररयणएगा | स्य सोऽपार्द्धः स चासौ यवश्च राशिश्च अपायवराजोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई चोत्तीसं च सह-| शी, तयोरिव यत्संस्थानं यस्य तेन संस्थितः, यथा ययो
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( २५० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
माणुसुत्तर
,
राशिश्च धान्यानामपान्तराले ऊर्ध्वाधोभागेन छिन्नो मध्यभागे टिप भवति बहिभांगे तु शनैः शनैः पृथुत्वा निम्न निम्नतरस्तद्वदेषोऽपि ययव्याख्यातमन्यत्र केवलापार्द्धयवसंस्थानतयाऽपि प्रतिपादनात् उक्तञ्च
"
"
"जंबूणयामश्रो सो, रम्मो श्रद्धजवसंठिश्रो भणिश्रो । सीहनिसादीएं, दुहा को पुक्खरद्दीवो ॥ १ ॥” ( सवर्जयाम इति ) सर्वात्मना जम्बूनदमयः अ च्छे० जाव पडिरूवे ' इति प्राग्वत् । ( उभश्रो पासिमि त्यादि ) उभयोः पार्श्वयोरन्तर्भागे मध्यभागे चेत्यर्थः, प्रत्येकमेकैकभागेन द्वाभ्यां पद्मबरवेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च सर्वतः - सर्वासु दिक्षु, समन्ततः -- सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि पद्मवेदिकाप्रमाणे वर्तक प्राग्वत् ।
साम्प्रतं नामनिमित्तमभिधित्सुराहसेकेण्डेणं ते! एवं वृचति- माणुसुतरे पवते मासु सुतरे पब्चते ?, गोवमा ! माणुसुत्तरस्स णं पव्वतस्स अंतो मया उपि सुचणा वाहिं देवा अदुसरं च गं गोयमा ! माणुसुतरपच्चतं मणुयाग कयाइ वीतिवसु वा बीतिवर्गति वा पीतियइस्संति या पत्थ चारणेहिं वा विजाहरेहिं वा देवकम्मुणा वाऽवि से तेराऽट्टेणं गोयमा ! अदुसरं च जाब गिथेति ।
( से केलट्ठेसमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते मानुषोत्तरः पर्वतः मानुषोत्तरः पर्व्वतः ? इति भगवानाह - गौतम ! मानुषोरपर्वतस्य अन्तःमध्ये मनुष्याः उपरि सुवर्णः - सुवर्णकुमारा देवाः, बहिः सामान्यतो देवाः, ततो मनुष्याणामुत्तरः- पर इति मानुषोत्तरः । श्रथाऽन्य गौतम । मानुषोन पर्वते मनुष्या न कदाचिदपि विजितवन्तः यतिजति व्यमिति वा कि सर्वथा न ? इत्याह-साम्यत्र चारलेन पञ्चम्य तृतीया प्राकृतत्वात् चारणात् जावारलब्धिसंपद्यात् विद्याधराहू देवकर्मण पय क्रियया देवोत्पादनादित्यर्थः चारणादयो व्यतित्यपि मानुषोस पर्वतमिति तनम् - तो मानुषाणामुत्तरा उच्चस्तरोचमानुषोत्तरः, तथा वाह से पराग इत्याद्युपहारवाक्यं गतार्थम् । जी०३०२०० महामानसे, 'गोसाला 'श दशमहाकल्पप्रतिमायुष्कवति भ० १५ ० सू०प्र० । चं० प्र० । द्वी० । स० । माणुसुहास- माणुसोलास पुं० तत्सा जी० १ प्रति०) - । चित्तोत्साहे, माणुस्स मानुष्य – १० | मनुष्यभावे, उत० ३ अ० मनुष्य
।
जत्वे, उत्त० ३ श्र० । ननु-“ पुनरिदमतिदुर्लभ-मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्य खद्योतक-तडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥१॥” श्राचा० १ श्रु० ५ ० ३ उ० । सूत्र० । मानुष्यं जलबुद्बुदसमानम् । पं० चू० २ कल्प । चं० प्र० । माणुस्तक्खेत - मानुष्यक्षेत्र - न० । कर्मभूमिकान्तीपगानां म दुष्याणामावासरूपे अतृतीय मनुष्यलोके जी० ३ प्रति० ४ अधि० । चं० प्र० । मृक्षेत्रवद्विर्वर्तिनः सिंहादयः
"
,
,
मामग व्यापदाः पलभोजिनो या भोगभूमिजतिर्यच इव पृथ्वीफलायाहारिणो वा भवन्तीति मन्ने उत्तरम् - मनुष्यक्षेत्राद्व प्रश्ने, हिर्वर्तिनां व्याघ्रादिहिंसकजीवानां प्रायः पलभोजित्वं स भाज्यते समुद्रादिमत्स्यानामिव न तु भोगभूमिजन्या प्रादीनामिव केवल पृथ्वीवृक्षफलादिभोजित्यम् । किं चयथा भोगभूमिजन्याप्रादीनामत्पकपाधित्वं भोगभूमिजव्यादीनां च यथा विधिएरसपरिणामो न तथेतरेषामिति सम्भावनानिदानम् पतद्विषये विशेषादाराणि न स्मरन्तीति ॥ ४७ प्र० ॥ सेन० २ उल्ला० । ( मानुष्यक्षेत्रे ज्योतिष्का उक्ताः ' जोइसिय' शब्दे चतुर्थभागे १५६२ पृष्ठे ) माणुस्सग - मानुष्यक - त्रि० । मनुष्यभवयोग्ये, सूत्र० २ ० २ प्र० । मनुष्यभवसम्बन्धिनि, । ज्ञा० १ ० १ ० । चं० प्र० । मनुष्योचिते, कल्प० १ अधि० ५ क्षण | स्था० | मनुव्यजत्वे, उत्त० ३ श्र० । भ० माणुस्सभव- मानुष्यभव पुं० मनुजबे, ध०२०१ अधि० माणोवदख मानोपपन्नभि० जलद्रोणप्रमाणशरीरे मार्ग जलद्रोणप्रमाणता सा ह्येवम् जलकुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद् यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषो मानोपपन्नइत्युच्यते ।
"
स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
3
मातंग-मातङ्ग-पुं० । सुपार्श्वस्य तीर्थकृतः शासनरक्ष यक्षे, स च नीलवर्णो गजवाहनश्चतुर्भुजो विल्वपाशयुक्रदक्षिणपासियो नकुलाशयुक्तवामपाधि प्र २६ द्वार । चण्डाले प्रति० । " वाटधानकमातङ्गा ब्राह्मणास्तेन चक्रिरे ।" श्रा० क० ४ श्र० । हस्तिनि, जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । श्मशानपाले, आ० क० ४ श्र० । स्था० । मातंगमुणि- मातङ्गमुनि पुं० । वाराणस्यां बलनामके मातङ्गजातीये साधी, ती० ३७ कल्प। ('वाणारसी शब्दे कथा वक्ष्यते) - | मातंजण मातञ्जन पुं० [देवतादतिपर्तिनि गजदन्तकपर्वते, स्था० ।
दो मातजणा । ( सूत्र - X ) स्था० २ ठा० ३ उ० । मातिका मातृका स्त्री० उत्पत्तिभूमी प्रश्न १ श्र० द्वार मातिद्वारा मातृस्थानन० मायाप्रधाने वचसि सू० १
-
श्रु० ६ ० ।
मातुलिंग मातुलिङ्ग १० बीजपुरे या० २०१०
अ०८ उ० । प्रज्ञा० ।
मादलिया देशी मातरि दे० ना० ६ वर्ग १३१ गाथा । माधव माधव पुं० श्रीपुरराजश्रीधरस्य पुरोहिते, प्रा०
-
।
क० १ श्र० ।
माभाई - देशी- अभयप्रदाने, दे० ना० ६ वर्ग० १२६ गाथा । मांभीसिअ - देशी- अभयप्रदाने, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा | मामग- मामक - त्रि० । ममेदमहमस्येत्येवं परिग्रहाप्रहिणि, सूत्र० १ ० २ ० २ उ० । दर्श० । श्रात्मीये, आचा० १ ० २ ० ५ उ० मा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशरियत प्रतिषेधकारि २०३०
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मामण
मामण- देशी - ममीकारार्थे, श्रा० म० १ ० । ० ० मामी - देशी--मातुलान्याम्, “मम्मी मल्लाणी मामी " त्रयोऽयमी मातुलानीवाचकाः । दे० ना० ६ वर्ग ११२ गाथा | मामि श्रव्य० | संख्यामन्त्रणे, मामि हला हले सख्या वा ॥ ८ | २ | १६५ ॥ एते सख्यामन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः । मामि सरिसक्खराण वि । प्रा० २ पाद । मामी - देशी० । मातुलस्त्रियाम्, “ मल्लाणी मामी "
पाइ०
ना० २५२ गाथा ।
( २५१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मायंग-मातङ्ग-पुं० | पाणे, आव० ४ ० । ० म० । डोम्बे मातीविद्याधाने वैताकापर्यतचाविनि विद्याथरनिकाये, आ० चू० १ ० । चण्डाले, “ मायंगा तह जंगमा पाणा ” पाइ० ना० १०५ गाथा । हस्तिनि, “पीलू मो मयगलो मायंगो सिंधुरो करेणू य | दोघट्टो दंती वारण करी कुंजरो हत्थी " ॥ पाइ० ना० ६ गाथा | " वा मायंद-चून सहारा माकन्द-पुं० पाइ० ना० १४५ गाथा ।
मायंगविजा-मातङ्गविद्या स्त्री० । विद्याभेदे, यदुपदेशाद
तीतादि कथयति । स्था० १० ठा० ।
मायंगी मातङ्गी - स्त्री० मातङ्गाण्यानां विद्याधरमनुष्याणां विद्यायाम् श्रा० चू० १ अ० । मातङ्गाख्यान्त्यजजातिस्त्रियाम् नि० चू० १ उ० ।
"
मायंजण - मातञ्जन - पुं० । जम्बूद्वीपे मेरोरुतरे सीताया महा
39
नद्या दक्षिणकूले स्वनामख्याते पर्वते, स्था० ४ ठा० २३० । मायंझाण- मायाध्यान- न० । परप्रतारणरूपा या माया तस्या ध्यानं मायाच्यानम् । परप्रतारणचिन्तने, भ्रातृयचित्तपरीक्षां कुर्वत्या धनश्रिया इव । श्रातुः । मायंद- देशी- आम्रे, दे० ना० ६ वर्ग १२८ गाथा | मायंदी (श्) - माकन्दिन् पुं० । स्वनामख्याते वणिज, शा० १ श्रु० १ ० । ( तस्य तत्पुत्रस्य च वक्तव्यता' जिणपालिय शब्दे चतुर्थभागे १४६४ पृष्ठादारभ्य गता ) मायंदी-देशी- श्येतस्यायां प्रमजितायाम्, दे० ना० ६ वर्ष
39
१२६ गाथा ।
मायाम मात्र त्रि० मात्रामद्यपानेन स्वस्योदरपूर्तिप्रमार्ण जानातीति मात्रशः । उत्त० २ अ० । श्राचा० । सूत्र० । तोऽपि मात्रोपयोगिनि उत० २०
मायलिय -- मायान्वित - त्रि० । मायाविनि, सूत्र० १० १३ प्र० । मायहि- मृगतृष्णा- श्री मृगतृष्णायाम् " मायरिद स्त्री० ।
श्रा झला पाइ० ना० २३२ गाथा ।
मायदंसि(न्)-मायादर्शिन् त्रि० मायायाः स्वरूपतो वेत्तरेि,
- । परिहर्तरि च । श्राचा० १ ० ३ ० ४ उ० ।
माया - माता - स्त्री० । जनन्याम्, सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । नि०चू० । प्रसूतौ, जं० २वक्ष० । जनकान्मातुः पूज्यत्वम्-" उपाध्यायादशाचार्य, प्राचार्याणां पिता सहस्रं तु पितुर्माता, गी शतं । वेणातिरिच्यते ॥ १ ॥ " ध० २ अधि० । नि० । स० । मात्रा - स्त्री० । समयमात्रार्थमेव परिमिताहारग्रहणे, नं० ।
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माया
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सूत्र० । भ० । श्राचा० । मीयते वाऽनयेति माया । माया हिंसनं वञ्चनमित्यर्थः स्था० ४ ठा० १ उ० । शाठ्ये, स्था० २ ठा० १ उ० । शठतया मनोवाक्कायप्रवर्त्तने, स्था० ५ ठा० २ उ० | स्वपरव्यामोहोत्पादके वचसि, उत्त० ६ श्र० । सर्वत्र स्ववीर्यनिगूहने, आचा० १४० १ ० ३ उ० । परवञ्चनयुद्ध, शा० १ ० २ श्र० । सूत्र० । परवञ्चनाभिप्राये,
व्य० ४ उ० । श्राचा० । आव० । प्रश्न० । श्र० म० ।
उत्त० । निकृतौ, श्राव० ४ श्र० । जी० । श्रपाच्छादने, श्रातु० । परवनाभिप्रायेण शरीराकारनेपथ्यमनोवाक्कायकौटिल्यफ
दर्श० तस्व शा० माया चतुर्विधा नामादिमेदतःकर्मद्रव्यमाया योग्यादिभेदाः पुद्गलाः, नोकर्मद्रव्यमाया निधा नप्रयुक्तानि द्रव्याणि भावमाया नोश्रागमतस्तत्कर्मद्रव्यविपाकलक्षणा तस्याश्चत्वारो भेदाः । “ मायाबले हि गोमिति मिढसिंगघणवं समूलसया " । श्रा० म० १ ० । "उग्गजो पसिफलसाहनस्य विजियस्स । धम्मविस वि सुहुमा, वि होइ माया अणत्थाय ॥ १॥ जह मल्लिस्स महाबलभ-वंमि तित्थयरनामबंधे ऽवि । तययिधोमाया, जावा जुबइहेति ॥२॥ ज्ञा० १०८ श्र० । ( मायायामशठ उदाहरणम् -' पच्छित्त ' शब्दे पञ्चमभागे १६६ पृष्ठे गतम् । )
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स्त्रीत्वनिबन्धने कारणमाह
से भयवं ! ता कयरेणं कम्मविवागेणं तेणं गच्छाहिवरणा होऊग पुगो इत्थितं समजियति । गोयमा ! मायापचए । से भयवं ! कयरे से मायापच्चए जेण पयणीकयं संसारे बीसलपाचा पशाचियविहज शिंदे सुरहिबहुव्वपयखंडपुन्नसुस करियस मभावपमाणपागनिष्कणमोयगमलगे इव तस्स भक्से सथलदुक्खके सासमानए सचलमुहासयस्स परमपवित्ततमस्स गं अहिंसालक्लगसमराधम्मस्स विग्पे सम्मग्लानिरयदारभूए सयलय किनिकलंककलहवेराइणव निहारण निम्मलकुलस्स णं दुद्धरिसअकञ्जकजथिए ति गोमा होतेयं गच्छाहियई तेहिएवं अनुमि लकण्डमसीखपणे तेणं गच्छाहिवणा इत्वी नावे सिन्ि त्ति । ! माया कया से तहा पुहवइचकहरे भवित्ता ण परलोगानिए शिवणकामभोगे तमित्र परिचिचाणं तं तारिसं चोहसरयण नवनिहीतो चोसट्टीसहस्से वरजुवईणं बत्तीसं साहसीओ उणादिवरनरिंदछन्नउइगामकोडीओ ०जाव सं खखंडभरहवासस्स णं देविंदोवमं महारायलच्छती हधारी महातपस्सी सुवहरे जाए, जोगे खाऊणं सुगुरुर्हि बहुपुनवाईए सीसने पञ्चइए व धोषकालेशं सपलगुणोगच्छा हिवई समणुनाए तहेव गोयमा ! तेणं सुदिट्ठसुग्गइपणं जहोवइस मट्ठेणं माणेणं उग्गाभिग्गहविहारचाए घोरपरी सहोवसम्महियास येणं रागद्दोसकसायाविवज्जयं आगमाणुसारेणं सुविहियगण परिवालणेणं आजम्मसमणाकष्पपरिभोगवज्जणेणं छकायसमारंभविवज्जणेणं ईसं पि
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माया
दिव्वोरालियमेहुणपरिधामविष्ययुकेणं इहपरलोगासंसाइणियाणमायाइसन्नविप्पमुकेणं णीसल्लालोयणदिणगरिहये जोपायनिकरणं सव्वथा पडिबद्ध स व्वपमायालंबणविप्प मुक्केणं इयइणिद्दिवसेसिकए अणेगभवसंचिए कम्मरासी असगभवे तेरा माया कया तप्पश्च ई गोयमा सविवागे से भयवं ! कपरा उस अभ्रभवे ते महाणुभागेणं माया कया जीएणं एरिसो दारुणविवागो गोयमा ! से खं महाणुभागस्स गच्छाहिवइणो जीवेण शूखाहिए फललक्ख इमेव भवग्गहणा । महा० २ चू० । उपधा, “ मायति वा उवहि ति वा एगठ्ठे " । नि० चू० १५
उ० | भ० । स० ।
( २५२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मायाफले पाण्डुरार्योदाहरणं यथा
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एगा पासत्था सरीरोवगरणवाउसा निश्यं सुकिल्लवासं परिहिता विचिति, लोगेरा से वामं कर्य -"पंडरज"सि। सा य पिज्जातचसीकरबाडकोउप य फुलला जोसु पजति जो से परासि कथंजलिओ बिति अवटुवयातिकंता वेरग्गमुवगया गुरुं विनवे - आलोयपपच्छामि ति आलोय पुणे विराणवेति स दीहं कालं श्रहं पव्वज्जं काउं समत्था ताहे गुरूहिं श्रप्यं काल परिक्रमावेसा विज्जामंताइयं सव्वं छडावेत्ता श्रणसरागं पच्चखावियं प्रायरिपहिं समणा समणीश्र अ उ भयवग्गो वि वारिऊण लोगस्स कहेयव्यं सा भत्ते पच्चक्खाएण जहा पुग्वं बहुजणपरिबुडा अत्थि तया तहा अच्छति अप्पसाडुसाडुलीपरिवारा चिट्ठा, ताहे सा घरर्ति करेति तो तीए लोगवसीकरणविज्जा मणसा आबाद्दिया, ताहे जणो पुप्फधूवगंधहत्थो अलंकियविभूसिश्रो वददेहिं एतुमाढतो । ताहे उभयवग्गो पुच्छि - श्री गुरुणा किं ते जणस्स अक्वायं, ते भांति - णेव सि सा पुच्छ्यिा भरात म विज्ञाय अभिपति गुरु भणियाण वट्टति, ताहे पडिता सम्मतितो लोगो श्रागंतु एवं तत्र वाराय सम्मं पडिकंता चउत्थवाराए पुच्छि या सम्ममाउट्टा भणति - पुण्यम्भासा अहुणा आगच्छति अणालोए उ कालगया, सोहम्मे परावणस्स श्रग्गमहिसी जाया । ताहे सा भगवश्रो वद्धमाणस्स समोसरणे श्रागया । धम्मका ऽवसाणे इत्थिणीरूवं काउं भगवतो पुरश्री ठिच्चा महता सद्देण वातकम्मं करेति, ताहे भगवं गोयमो जा
गच्छं पुच्छेति - भगवया पुल्वभवे से बागरिउमो अरणो यि कोई साइ साडुली वा मार्य काहिति तेरा पचाए वायकम्मं कर्य, भगवया वागरियं तम्हा परिसी माया दुरंता म कायव्यति ॥ ग० २ अधि० । दर्श० । आ० क० । अथ मायोदाहरणम्
" वसन्तपुरमित्यस्ति, पुरं सर्वधियां निधिः । किमेकं नगरेऽमुष्मन् वर्यते वर्णनाधिके ॥ १ ॥ स्वः पुरेण समं धात्रा, जानेऽदस्तोलितं पुरा। मलिन-मपयन्वस्वगाद्दिवम् ॥ २ ॥ जितपस्तत्र प्रताप इव मूर्तिमान् । यस्य तेजस्तमोऽरीणां वृद्धि निम्ये कुतूहलम् ॥ ३ ॥
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तत्र द्वौ भ्रातरावास्ता-माद्यो धनपतिर्वणि । धनावो द्वितीयस्तु धनधर्भगिनी तयोः ॥ ४ ॥ सा चाभूद्वालविधवा, भोगकर्मान्तरायतः । ययुस्तत्रान्यदाऽऽचार्याः श्रीधर्मघोषसुरकः ||३४|| सत्यार्थी धर्ममाकराये, कुटुम्बं प्रत्ययोधि तत् सावतं गृहती स्नेहा-द्वातृभ्यां नान्वमन्यत ॥ ६ ॥ साउथ धर्मार्थिनी धर्म-व्ययं प्राज्यं व्यधान्मुहुः । भ्रातृजाये कि वैहासिनो गृहम् ॥ ७ ॥ साउथ दध्यौ किमाभ्यां मे, भ्रात्रोश्चित्तं परीक्षये । उपवासगृहं भ्रातृजायां सा माययाऽन्यदा ॥ ८ ॥ उवाच मलिनं किं ते, मस्तकं चीवराणि च । साटिकाऽपि न चोक्षा ते, का ते शिक्षा प्रदीयते ॥ ६ ॥ त्योत्तरात दयी खेरिण्यसी भुवम् । नो वेदेवमुपालम्भं दतेऽस्याः किं मम खसा ॥ १० ॥ साऽथान्तरागता तल्पे, वारितोपविशत्यपि । मा मा भूत्वं ममासन्ना, शोरनं त्यजाधमे ! ॥ ११ ॥ सावदरिक मया कान्त !, दुष्कृतं कृतमादिश । नेनानुक्ला लुठन्त्यस्था-भूमिं रात्रि रुदत्यसी ॥ १२ ॥ विकी निरगात-नान्दो किमीदशी । मारुत्वा भी जाने मनुं निःसारिता दात् ॥ १३ ॥ तयोरुं तिष्ठ विश्व स्वस्वा मा भैमीभ्रांतरं जगी । भ्रातः किमेतत्सोवादी कार्य दुःशीलया न मे ॥ १४ ॥ तयाऽभाणि कुतो शातं, त्वदुपालम्भतः स्वसुः ! । ऊचे सा भ्रातरेतत्ते, पाण्डित्यं वाग्विचारणे ।। १५ ।। अस्नानान्मलिनं शीर्ष, वस्त्राण्यक्षालनात्तथा । शाटिका पिन चोत्युपालम्भो न दोषः ॥ १६ ॥ लखितोऽथ स्वयं तस्याः समिध्यादुष्कृतं ददौ। ददी चैत्र मम भ्राता श्वेत कृष्णप्रतीतिमान् ॥ १७ ॥ हस्तं रणेरिति प्रोफ़ा, भ्रातृजाया द्वितीयका । पत्याऽचोरीति साऽपास्ता, बोधितः सोऽपि बान्धवः ॥१८॥ धान्यानि खण्डयन्ती त्वं हस्तं रक्षेरितीरिता । निर्वृतः सोऽपि साऽशासी - तथेत्यस्यापि मद्वचः ॥ १६ ॥ मायाभ्याख्यानतः किं तु सा तत्कर्मण्यकाचयत् । साऽथान्यादा प्रववाज, सजायौ भ्रातरावपि ॥ २० ॥ परिपाल्य व्रतं सर्वे, गच्छन्ति स्म दिवं ततः । भ्रातरौ प्रथमं व्युत्त्वा पुरे साकेतनामनि ॥ २१ ॥ इभ्यस्याशोकदत्तस्य पुत्रत्वेनोदपद्यताम् । श्राद्यः समुद्रदत्तोऽन्यः ख्यातः सागरदत्तकः ॥ २२ ॥ च्युत्त्वा स्वसा गजपुरे, शङ्खश्राद्धसुताऽभवत् । सर्वाङ्गसुन्दरी नाम्ना सर्वेषु सुन्दरा २३ ॥ बातरावपि ते युवा नगरे कोशलापुरे । नन्दनस्य सुते जाते, श्रीमती कान्तिमत्यथ ॥ २४ ॥ अन्यदाऽशोक दत्ताख्यः श्रेष्ठी गजपुरं गतः । शङ्खश्रेष्ठसुतामक्षां चक्रे सर्वासुन्दरम् ॥ २५ ॥ कृते समुद्रदत्तस्य, प्रार्थिता सा ददौ स ताम् । पुत्रमानीय तत्राऽथ, चक्रे वीवाहमद्भुतम् ॥ २६ ॥ कृतश्वशुरवासागा-दन्यदा सा पितुर्गृहे । तामानेतुं जगामाथ, समुद्रः श्वाशुरान्तिके ॥ २७ ॥ उपचारोऽभवद्भूषांस्तत्र स्नानाऽनादिकः ।
माया
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(२५३ ) माया अभिधानराजेन्द्रः।
मायामिच्छ. दिव्यं वासगृहं याव-निशायां स प्रवेक्ष्यति ॥२८॥ | मायाणियडिजुत्त-मायानिकृतियुक्त-त्रिकामाया परषञ्चनयुतावत् सर्वाङ्गसुन्दर्या-स्तत्प्राकर्मोदयं गतम् ।
द्धिर्नितिर्वकवृत्त्या गलकर्तकानामिवावस्थानम् । परप्रताततोऽपश्यत्स निगच्छ-त्पुंछायामथ दध्यिवान् ॥ २६॥ अनिद्रस्तत्र तल्पस्थो, दुःशीलाऽसौ प्रिया स्फुटम् ।
रणपरे, रा०। वञ्चनाभिप्रायेण तदनुरूपबहिराकाराच्छाअथायाता प्रियोपान्ते, न तेनोलापिताऽपि सा ॥३०॥
दनेन च युक्ने, व्य०४ उ०। ततः साऽत्यन्तमुद्विना-ऽगमयत्तां निशां प्रगे।
मायाणिस्सिय-मायानिश्रित-न० । मृषाभेदे , यथा मालाएकस्याख्याय विप्रस्य, तङ्गर्ता स्वं पुरं ययौ ॥ ३१॥ कारप्रभृतय पाहुः-नष्टो गोलक इति । स्था० १० ठा। अथातो कोशलपुरे, गत्वा नन्दनपुत्रिके।
मायातणव-मायातनय-पुं० । निर्विशेषाद्वैतवादिनि, स्या। गरिष्ठः श्रीमती कान्ति-मती लघुरुपायत ॥ ३२॥
मायापडिसंलीणया-मायाप्रतिसंलीनता-स्त्री०। मायोदयनितदाकाधृतिजो, गतागतमपि स्थितम् ।
रोधे, उदयप्राप्ताया मायाया विफलीकरणे, स्था०४ ठा०२ उ०। सर्वाङ्गसन्दरी साऽथ, प्रववाज कमेण च ॥ ३३ ॥
मायापिंड-मायापिण्ड-पुं०। मायया वेषपरावर्तनादिना प्रबिहरन्ती प्रवर्तिन्या, साकं साकेतमागमत् । प्राग्भवभ्रातृजायेते, तां प्रति प्रेमतत्परे ॥ ३४ ॥
तारणेन दापयत्यात्मने भक्तादिदानाय च परं प्रयोजयति गच्छतो बन्दनाद्यर्थ, तत्पती तुन वत्सलौ ।
यः । तस्मिन् , पञ्चा० १३ विव०। उत्पादनादोषभेदे , अत्रान्तरेऽस्या द्वितीयं, मायाकर्मोदयं मतम् ॥ ३५॥
उत्त० २४ अ०। आचा। नवमे उत्पादनादोषे , जीत।
पश्चा-1 प्रव०। ध०। प्राचा। भिक्षार्थ साऽन्यदाऽऽयाता, श्रीमती वासवेश्मगा।
सम्प्रति मायापिण्डदृष्टान्तमाहगुम्फन्ती हारमुज्झित्वा, तस्यै दातुं लघूत्थिता ॥ ३६॥
रायगिहे धम्मरुई, आसाढभृई य खुडओ तस्स । भित्तेरुत्तीर्य तं हारं, चित्रकेकी तदाऽगिलत् । स्वस्थानस्था च साध्वी तद्, रष्ट्राऽऽश्चर्येण विस्मिता ॥३७॥
रायनडगेहपविसण, संभोइय मोयए लंभो ॥ ४७४ ॥ साऽऽसभिक्षा ययौ हार, श्रीमती तव नैक्षत ।
आयरियउवज्झाए, संघाडगकाणखुज तद्दोसी। पृष्टाः सर्वे तयाऽवोच-सात्रागात्कोऽप्यमुं विना ॥ ३८॥ नडपासणपजत्तं, निकायण दिणे दिणे दाणं ॥४७॥ ततः साध्याः प्रवादोऽभू-तयाऽशापि प्रवर्तिनी।
धूयदुए संदेसो, दाणसिणेहकरणं रहे गहणं । सोचे भने विचित्रोऽयं, परिणामोऽत्र कर्मणाम् ॥ ३६॥
लिंगं मुयत्ति गुरुसि-टू विवाहे उत्तमा पगई ॥४६६॥ श्रीमती-कान्तिमत्यो च, हसतस्तत्प्रियौ ततः। साध्वी साध्वीति वादिन्यौ, भाक्तिक्यौ स्तो युवामिति ॥४०॥
रायघरे य कयाई, निम्महिलं नाडगं तडागत्था। तयोर्विपरिणामस्तु, न जातो जातु तां प्रति।
ता य विहरंति मत्ता, उवरि गिहे दोऽवि पासुत्ता॥४७७।। साव्यप्युप्रैस्तपोभिस्त-दुष्कर्म निरमूलयत् ॥४१॥ वाघाएण नियत्तो, दिस्स वि चेला विरागसंबोही । अन्यदा श्रीमतीवास–वेश्मन्यस्ति सभर्तृका।
इंगियनाए पुच्छा, पजीवणं रवालम्मि ।। ४७८ ।। सहारस्तावदुद्वान्त-चित्रादुत्तीर्य केकिना ॥ ४२ ॥
इक्खागवंसभरहो, आयसघरे य केवलालोयो । ततस्तौ दम्पती दृष्टा, हारं संवेगमागतौ ।
हाराइखिवणगहणं, उवसग्ग न सो नियत्तोत्ति ॥४७६।। सैव साध्वी ध्रुवं साध्वी, न चाख्यद् दृष्टमयदः ॥४३॥ अथ तानि क्षमयितुं, प्रवृत्तान्यखिलान्यपि।
तेण समं पव्वइया, पंचनरसय त्ति नाडए डहणं । अत्रान्तरे बभूवास्याः, केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥४४॥
गेलमखमगपाहुण, थेरा दिट्ठा य बीयं तु ॥ ४८०॥ देवैध महिमा चक्रे, पृष्टास्ते प्राग्भवं जगी।
(विशेषत आसां कथानकानि व्याख्यानं च 'श्रासाढभूइ' तत् श्रुत्वा प्रास्तानि, मायाचेष्टितमीदृशम् ॥ ४५ ॥ |
शब्दे द्वितीयभागे ४७६ पृष्ठे गतम्) सूत्रं सुगमम् । नवरं प्रा० क०१०। प्राचा०1 (संज्वलनी माया 'कसाय'
(रायनडगेहपविसणं ति) राजविदितो यो नटो विश्वकर्मा शब्दे तृतीयभागे ३६८ पृष्ठे व्याख्याता) मायाप्रधानोऽति- तस्य गृहे प्रवेशः , त्वग्दोषी कुष्ठी। उपसर्गः-प्रवज्याग्रहरणे चारो मायैवेति । स्था०८ ठा। मयाविषये, स्था०३ ठा०३
निवारणम् । दहनं नाटकपुस्तकस्य । अत्रैवापवादमाह-(गेउ०। अपराधे, “ माई मायं कटु आलोएज्जा।" स्था०८
लन्नेत्यादि) ग्लानो-मन्दः, क्षपकः-मासक्षपकादिः,प्राघूर्णकः ठा० । अविद्याप्रपञ्चहेतो, वेदान्तप्रपश्चसिद्धे जगदुपादाने,
स्थानान्तरादायातः। स्थविरः-वृद्धः। श्रादिशब्दाद्-सहकार्यास्या। कपटे, "माया कवडं का " पाइ ना० १५७ गा
दिपरिग्रहः। तेषामर्थाय द्वितीयमपवादपदमिति भावः,सेव्यते था। जनन्याम् , “माया जणाणी" पाइ० ना० २५२ गाथा ।
ग्लानाद्यनिर्वाहे मायापिण्डोऽपि ग्राह्य इत्यर्थः । पि० । मायाकारग-मायाकारक-त्रि० । परवञ्चकमृगादिवन्धके,त। मायावत्त-मातृभक्क-त्रि० । बहुमानवुद्धया भक्ते,विपा०१ श्रु० इन्द्रजालिके, स्या०।
है । मायाकिरिया-मायाक्रिया-खी० । कौटिल्येनान्यद्विचिन्त्य | मायामिच्छत्तसल्ल-मायामिथ्यात्वशन्य-न । मायामिथ्यावाचाऽन्यदभिधायान्यदाचर्यते यया सा क्रिया। कियाभेदे,
| त्वरूपे शल्ये, द०प०। ध०३ अधि० । प्रा० चूछ।
इहलोए परलोए, नाणचरणदंसणम्मि य अवार्य । मायागारवसहिय-माया(त)गौरवसहित-त्रि०। मातृस्थान- | दंसेइ नियाणम्मि य, मायामिच्छत्तसल्लेणं ॥ ३५६ ।। युक्रे ऋद्धयादिगौरवयुक्त , दश.८०।
द०प० १५५१ गाथा।
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मायामुंड अभिधानराजेन्द्रः।
मायावत्तिया मायामुंड-मायामुण्ड-त्रि० । मायामुण्डिते, स्था० १० ठा०।। 'शरदि वाजपेयेन यजेते ' त्यस्य वाक्यस्यार्थ पृष्टस्तमायामोस-माथामृषा-अव्य० । माया च निकृतिर्मपा च मि- दर्थानभिशः कालातिपातार्थ शरत्कालं व्यावर्णयति, तथाध्यावादो मायया वा सह मृषा मायामृपा , प्राकृतत्वान्मा
उन्यस्मिश्चाथै कथयितव्येऽन्यमेवार्थमाचक्षते । तेषां च सर्वा यामोसम् । दोषद्वययोगे, प्रव० २३७ द्वार ।
थेविसंवादिनां कपटप्रपञ्चचतुराणां विपाकोद्भवनाय दृष्टान्तं एगे मायामोसे (सूत्र) स्था० १ ठा० ।
दर्शयितुमाह-(से जहेत्यादि) तत् यथानाम कश्चित्पुरुषः
संग्रामादपक्रान्तोऽन्तः-मध्ये, शल्यम्-तोमरादिकं यस्य मायामृषाद्वये, दशा०६अ।
सोऽन्तःशल्यः, स च शल्यघट्टनवेदनाभीरुतया तच्छल्य एयं च दोसं दळूण, नायपुत्तेण भासियं ।
न स्वतो निर्हरति' अपनयति--उद्धरति, नाप्यन्येनोद्धार. अणु माय पि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥ ४६॥ | यति , नापि तच्छल्य वैद्योपदेशनौषधोपयोगादिभिरुपायैः दश०५ ०२ उ०।
'प्रतिध्वंसयति'-विनाशयति, अन्येन केनचित्पृष्टो वाsमायावत्तिया-मायाप्रत्यया-स्त्री०। माया-अनार्जवमुपलक्षण- पृष्टो वा तच्छल्यं निष्प्रयोजनमेव निहनुते-अपलपति, तेन च त्वात् क्रोधादिरपि सा प्रत्ययः कारणं यस्याः सा माया
शल्येनासावन्तर्वर्तिना (अविउट्टमाणे ति) पोड्यमानः, प्रत्यया । भ०१श०२ उ० प्र०। मायानिबन्धने क्रियाभेदे,
(अंतो अंतो ति) मध्ये मध्ये पीड्यमानोऽपि रीयते - स०१३ सम०।
जति, तत्कृतां वेदनामधिसहमानः क्रियासु प्रवर्तत इत्यर्थः । अहावरे एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति प्राहि- साम्प्रतं दार्शन्तिकमाह-( एवमेवेत्यादि ) यथाऽसौ सज्जइ, जे इमे भवंति गूढाऽऽयारा तमोकसिया उलूगपत्तल
शल्यो दुःखभाग भवति-एवमेवासी मायी-मायाशल्यवान्
यत्कृतमकार्य तन्मायया निगृहयन् मायां कृत्वा न तां हुआ पन्चयगुरुया ते आरियाऽवि संता अणारियाअो
मायामन्यस्मै श्रालोचयति-कथयति , नापि तस्मात् भासाओ वि पति, अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मनंति, स्थानात् प्रतिक्रामति-न ततो निवर्तते, नाप्यात्मसाक्षिकं अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरंति, अन्न आइक्खियव्वं अन्न पाइ
तन्मायाशल्यं निन्दति , तद्यथा-धि मां यदहमेवंभूतमक्खंति । से जहाणामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले, तं सल्लं
कार्य कर्मोदयात्तत् कृतवान् , तथा नापि परसाक्षिकं मर्हति
आलोचनाहसमीपे गतो, नापि च जुगुप्सते, तथा 'नो विउ यो सयं णिहरति, णो अन्नण णिहरावेति, णो पडिवि«सेइ,
दृति ' नापि तन्मायाख्यं शल्यमकार्यकरणात्मकं विविधम्एवमेव निण्हवेइ, अविउट्टमाणे अंतो अंतो रियइ, एवमेव अनेकप्रकारं प्रोटयति-अपनयति, यदस्याऽपराधस्य प्रायः माई मायं कट्टयो पालोएड णो पडिक्कमेइ णो णिंद श्चित्तं तत्तेन पुनस्तदकरणतया (न) निवर्तयतीत्यर्थः, नापि णो गरहइ णो विउट्टइ णो विसोहेइ णो अकरणाए अब्भुटेइ
तन्मद्यादिकमकार्य सेवित्वाऽऽलोचनार्हायात्मानं निवेद्य णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवाइ, माई अस्सि
तदकार्याकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठते,प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यापि नांद्यु:
विहारी भवतीत्यर्थः, तथा नापि गुर्वादिभिरभिधीयलोए पञ्चायाइ माई परंसि लोए (पुणो पुणो) पञ्चायाइ
मानोऽपि यथार्हम् अकार्यनिर्वहणयोग्य प्रायः चित्तं शानिंदइ गरहइ पसंसइ णिच्चरइ ण नियट्ट णिसिरिय दंडं धयतीति प्रायश्चित्तं-तपःकर्मविशिष्ट चान्द्रायणाद्यात्मकं छाएति, माई असमाहडसुहलेस्से यावि भवइ, एवं खलु प्रतिपद्यते-अभ्युपगच्छति । तदेवं मायया सत्कार्यप्रच्छादको तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिजइ, एक्कारसमे किरिय- ऽस्मिन्नेव लोके मायावीत्येवं सर्वकार्येप्बेवाविधम्मणत्वेन
प्रत्यायाति-प्रख्याति याति, तथाभूतश्च सर्वस्यापि अविद्वाणे मायावत्तिए त्ति माहिए ॥ सूत्र-२७॥
श्वास्यो भवति । तथा चोक्लम्ये केचनामी भवन्ति पुरुषाः , किंविशिष्टाः ? गूढ
" मायाशीलः पुरुषः, यद्यपि न करोति किश्चिदपराधम् । आचारो येषां ते गूढाऽऽचाराः-गलकर्तकग्रन्थिच्छेदाद
सर्वस्याविश्वास्यो, भवति तथाऽप्यात्मदोपहतः ।।१॥" यः, ते च नानाविधैरुपायैर्विश्रम्भमुत्पाद्य पश्चादपकुर्व- इत्यादि, तथापि मायावित्वादसौ परस्मिन् लोके जन्मान्तन्ति, प्रद्योतादेरभयकुमारादिवत् । ते च मायाशीलत्वेनाऽप्र-1 रावाप्ती सर्वाधमेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषु पौनःपुन्य काशचारिणः, तमसि कषितुं शील येषां ते तमःकाषिणस्त | न प्रत्यायाति, भूयो भूयस्तेष्ववारघट्टघटीयन्त्रन्यायेन प्रत्या एव च तमःकाषिकाः पराविशाताः क्रियाः कुर्वन्तीत्यर्थः ।।
गच्छतीति । तथा नानाविधैः प्रपश्चर्यचयित्वा पर निन्दतिसे च स्वचेष्टयैवोलूकपत्रवल्लघवः, कौशिकपिच्छवल्लघीयां-1 जगप्सते, तद्यथा-अयमशः पशुकल्पो नानेन किमपि प्रयोसोऽपि पर्वतवद् गुरुमात्मानं मन्यन्ते । यदिवा-कार्यप्रवृत्तेः जनमिति, एवं परं निन्दयित्वाऽऽत्मानं प्रशंसयति, तद्यथापर्वतबन्नोत्तम्भयितुं शक्यन्ते , ते चाऽर्यदेशोत्पन्ना श्रपि असावपि मया वञ्चित इत्येवमात्मप्रशंसया तुष्यति, तथा सन्तः शाब्यादात्मप्रच्छादनार्थमपरभयोत्पादनार्थ चानार्य- चोक्तम्- येनाऽपत्रपते साधु-रसाधुस्तेन तुष्यति' इति, एवं भाषाः प्रयुञ्जते, परव्यामोहाथै स्वमतिपरिकल्पितभाषाभि- चासौ लब्धप्रसरोऽधिकं निश्चयेन वा चरति-तथाविधारपराविदिताभिर्भाषन्ते, तथाऽन्यथा व्यवस्थितमात्मानम् नुष्ठायी भवतीति निश्चरति । तत्र च गृद्धः सन् तस्मात् माअन्यथा-साध्वाकारेण मन्यन्ते व्यवस्थापयन्ति च, तथा तृस्थानान्न निवर्तते, तथाऽसौ मायावलेपेन दण्डं प्राण्युपमर्दअन्यत्पृष्टा मातृस्थानतोऽन्यदाचक्षते, यथाऽऽम्रान् पृष्टाः। कारिण निसृज्य-पातयित्वा पश्चात् छादयति-अपलपति, केदारकानाचक्षते , वादकाले वा कश्चिन्नाथ-( न्याय )| अन्यस्य वोपरि प्रक्षिपति, स च मायावी सर्वदा वञ्चनवादितया ज्याकरणे प्रवीण तर्कमार्गमवतारयति, यथा वा | परायणः संस्तन्मनाः सर्वानुष्ठानेष्वप्येवंभूतो भवति ।
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मायावत्तिया अभिधानराजेन्द्रः।
मारणंतिया असमाहृता-अनङ्गीकृता शोभना लेश्या येन स तथा| वेन प्रापल्येन घातः समुद्धातः । मरणमेव प्राणिनामन्तकारिआर्तध्यानोपहततया असावशोभनलेश्य इत्यर्थः। तदेवमप- | त्वादन्तो मरणान्तः,तत्रभवो मारणान्तिकः स चाऽसौ समुद्धा गतधर्मध्यानोऽसमाहितोऽशुद्धलेश्यश्चापि भवति । तदेवं खलु तश्च । अन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रये, प्रव०२३१ द्वार । स्था। तस्य तत्प्रत्ययिकम्-मायाशल्यप्रत्ययिकं सावा कर्मा- स० । मुमूर्षारसुमत प्रादित्सितोत्पत्तिप्रदेशे आलोकान्तादाधीयते । सत्र०२०२० स्था० श्राव०भ० मायाव- त्मप्रदेशानां भूयो भूयः प्रक्षेपसंहारात्मके समुद्धाते, श्रात्तिया दुहा-श्रायवंचणकिरिया, परवंचणकिरिया च । श्रा० चा०१ श्रु०२ १०१ उ०।
चू०४०। ('किरिया' शब्दे तृतीयभागे ५३३ पृष्ठे विशेषः) तत्स्वरूपम्-एवं मरणसमुद्धातगत आयुष्कर्मपुद्गलान् पमायावि(न)-मायाविन्-त्रि०माया-निकृतिः साऽस्यास्ती. रिशातयति, नवरं मरणसमुद्धातगतो विक्षिप्तस्वप्रदेशो ति मायावी । मायिनि, श्राव० ४ श्र०। द्वा० । श्राचा।
वदनोदरादिरन्ध्राणि स्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्य विष्कमायाविजय-मायाविजय-पुं०। मायाया विजयकरणे, उत्त०। म्भबाहल्याभ्यां स्वशरीरप्रमाणमायामतः स्वशरीरातिरे
कतो जघन्यतोऽङ्गलासंख्येयभागम् , उत्कर्षतोऽसंख्येयानि मायाविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? , माया
योजनान्येकदिशि क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तत इति वक्तव्यम् । विजएणं उज्नुभावं जणयइ, मायावेयणिजं कम्मं न बं-1 प्रशा० ३६ पद। धइ, पुधबद्धं च निजरेइ ।। ६६॥
मारणान्तिकसमुद्धातसमवहतस्योपपातःहेभगवन् ! मायाविजयेन जीवः किं फलं जनयति ? , गुरु- जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोराह-हेशिष्य ! मायाविजयेन जीवः ऋजुभावं शरलत्वम् उ-1 हणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए त्पादयति ततश्च मायावेदनीयं कर्म न बध्नाति पूर्वनिबद्धं
निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरहच कर्म निर्जरयति-क्षपयति ॥६६॥ उत्त० २६०।
यत्ताए उववजित्तए, से णं भंते ! तत्थ गते चेव प्रामायासपा-मायासंज्ञा-स्त्री०।माया-मायोदयेनाशुभसंक्लेशाद नृतसंभाषणादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयति मायासंशा । मायारू
हारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेजा ?, गोपे संशाभेदे, स्था०१० ठा। श्राचा०। प्रशा० भ०।
यमा ! अत्थेगतिए तत्थ गए चेव आहारेज वा पमायासल्ल-मायाशल्य-न० । माया-निकृतिः सैव शल्यम् । रिणामेज वा सरीरं बंधेज वा, अत्थेगतिए तो मायारूपे शल्ये, स०१ सम० । भावशल्ये, दश०५ अ० । पडिनियत्तति, ततो पडिनियत्तित्ता इह समागच्छति समामायाशल्ये पण्डुरार्या रुद्रश्चोदाहरणम् । आव० ४ ०। गच्छित्ता दोच्चं पि मारणतियसमुग्धाएणं समोहणइ दोच्च मायि ()-मायिन-त्रिकामायाऽस्यास्तीति मायी। वञ्चके,
पि मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणित्ता इमी से रयणप्पशा० १ श्रु०१४ श्र० । स्था।
भाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नमायोवम-मायोपम-त्रि० । स्वप्नेन्द्रजालसदृशे, विशे।
यरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजित्तए, ततो मार-मार-पुं० । मारयतीति मारः । यमे, सूत्र०१ श्रु०१०
पच्छा आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बं३.उ०। बहुशो म्रियन्ते स्वकर्मवशाः प्राणिनो यस्मिन् स | मारः। संसारे, सूत्र०१ श्रु०१४१०। मरणे, सूत्र०२ श्रु०
धेज्जा, एवं जाव अहे सत्तसमा पुढवी । जीवे णं भंते ! २० । प्राचा० । भ० । शा० । मृङ् प्राणक्षये धातुः ।
मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए २ जे भविए चउसट्ठीए अदेल्लुक्यादेरत श्राः॥८।३ । १५३ ॥ णेरदेल्लोपेषु कृतेष्वा- असुरकुमारावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि असुरकुमारावादेरकारस्य श्राः। मारह । प्रा०।
संसि असुरकुमारत्ताए उववज्जित्तए जहा नेरइया तहा मारग-मारक-त्रि० । प्राणवियोजयितरि, शा०१ श्रु०२०
भाणियब्वा जाव थणियकुमारा । जीवे णं भंते ! माश्राचा०। मारण--मारण-न० । प्राणवियोजने, श्राव०४ प० । श्रा० रणतियसमुग्धाएणं समोहए २ जे भविए असंखेज्जेम०। प्रश्न नि०।
| सु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अप्मयरंसि पुढविकामारणअ-मर्तृ-त्रि०। तृनः अणश्रः ॥ ८।४।४४३ ॥ इति
इयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! सूत्रात् अपभ्रंशे तन्प्रत्ययस्य श्रण आदेशः। प्राणवियोज- मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं केवतियं गच्छेजा केथितरि: प्रा०।
वतियं पाउणेज्जा ? गोयमा ! लोयंतं गच्छेजा लोयंतं मारणंतिय--मारणान्तिक-न० । मरणस्य सर्वायुषकक्षयलक्षणस्य अन्तः-सगीपं मरणान्तः-आयुष्कचरमसमयः, तत्र |
पाउणेजा, से णं भंते ! तत्थ गए चेव हारेज वा भवं मारणान्तिकम् । मरणान्तसमयोद्भवे, स०। श्रा० चू०।
परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज्जा ?, गोयमा ! अत्थेमारणंतियअहियासण-मारणान्तिकाध्यासन-न० । कल्याण
गइए चेव तत्थ गए चेव आहारेज्ज वा परिणामेज्ज वा मिति बुद्धया मारणान्तिकोपसर्गसहने, भ०१७ श०३ उ०।
सरीरं वा बंधेज्ज अत्थेगतिए तो पडिनियत्तति मारणंतियसमुग्घाय-मारणान्तिकसमुद्धात-पुं०। उत्प्रावल्येन | तो पडिनियत्तित्ता इह हव्बमागच्छइ इह हव्वमागच्छित्ता हननं वेदनीयादिकर्मप्रदेशानां निर्जरण-घातः सम्-एकीभा- | दोचं पि मारणंतियसमुग्धाएणं सत्रोहणति २ ता मंदरस्स
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(२५६ ) मारणंतिय. अभिधानराजेन्द्रः।
मालकम्म पव्वयस्य पुरच्छिमेणं अंगुलस्स असंखेञ्जभागमेत्तं वा मारा-मारा-स्त्रीय मार्यन्ते प्राणिनां यस्यांशालायांसा मारा। संखेजतिभागमेत्तं वा बालयं वा बालऽग्गपुहत्तं वा एवं | शूनायाम् , शा० १० १६ अ० मणिल क्षणविशेषे, रा०। लिक्खं जूयं यवं अंगुलं जाव जोयणकोडि वा जोयण-माराभिसंकि (न्)-माराभिशङ्किन-त्रि० । मरणं मारस्तदकोडाकोडिं वा संखेजेसु वा असंखेजेसु वा जोयणसहस्से
भिशङ्की । मरणादुद्धिजे, प्राचा।
मारामुक्क-मारामुक्त-त्रि० । मार्यन्ते प्राणिनो यस्यां शालायां सु लोगऽते वा एगपदेसियं सेढिं मोत्तूण असंखेजेसु पुढ
सा मारा-शूना, तस्या मुक्को यः स मारामुक्तः । मारणान्मारविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि
कपुरुषाद्वा मुक्तो-विच्छुटितः । माराद्विच्छुटिते, झा०१ पुढविकाइयत्ताए उववजेत्ता,तो पच्छा आहारेज वा परि- | श्रु०१६ अ०। णामेज वा सरीरं वा बंधेजा, जहा पुरच्छिमेणं मंदरस्स | मारि-मारयित्वा-अव्य०। क्त्व इ-इड-इवि-अवयः॥८।४। पव्वयस्स आलावो भणिो , एवं दाहिणणं पञ्चच्छिमे- ४३६॥ इति क्त्व हः । प्राणेभ्यो मोचयित्वेत्यर्थे, "हिजडा जा णं उत्तरेणं उड्डे अहे, जहा पुढविकाइया तहा एगिदि
वेरियघणा, तो किं अम्भिचडाहुँ। अम्हांहि बेहत्थडा, जह
पुण मारि मराई।" प्रा०। याणं सव्वेसि, एकेकस्स छ आलावगा भाणियव्वा ।
मारि-स्त्रीणअत्यन्तजनमारके रोगे,स०३४ समकानं०। जं०। जीवे यं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए २ ता जे भविए असंखेजेसु वेइंदियावाससयसहस्सेसु अमयरंसि
आ० क० । तं चेव चित्तगरं मारे अह न चिंतिजं इतो य
भूयजणमारिं करेइ । प्रा०म०१०। व्यः । स्था० । बेइंदियावाससि बेइंदियत्ताए उववजित्तए से णं भंते! मारिन-मारित-त्रि०। प्राणविहीनीकृते, उत्त० १६ अ०। तत्थ गए चेव जहा नेरइया, एवं जाव अणुत्तरोववाइया। अपभ्रंशेऽप्रत्ययः । “जह भग्गा पारकडा, तो सहि मझु जीवे णं भंते ! मारणंतियसुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता | पिपण । अह भग्गा अम्हहं तणा, तो ते मारिप्रडेण ।" जे भविए एवं पञ्चसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महावि
प्रा०४ पाद। माणेसु अण्णयरंसि अगुत्तरविमाणसि अणुत्तरोववाइय
मारिलग्गा-देशी-कुत्सितायाम्, दे० ना०६ वर्ग १३१ गाथा। देवत्ताए उववञ्जित्तए, से णं भंते ! तत्थ गए चेव जाव
|मारी-मारी-खी। मरके, "तेसिं मारी विउब्विया लोगो,
मरउमाइखो"। श्रा०म०१०। आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेञ्ज । सेवं भं
मार-मारुत-पुं० । पवने, "प्रणिलो गंधवहो मारुओ। ते ! भंते ? ति । (सूत्र-२४५)
समीरो पहंजणो पवणो" पाइ० ना० २५ गाथा । (तत्थ गए चेव त्ति) नरकावासप्राप्त एव (आहारेज वा) ।
| मारुय-मारुत-पुं०। वायो, उत्त०२०मा० । कल्प० । पुद्गलानादद्यात्, (परिणामेज व त्ति) तेषामेव खलरसविभागं कुर्यात् , (सरीरं वा बंधेज्ज त्ति) तैरेच सरीरं नि
प्रश्न० । दर्श। श्राव।। पादयेत् । (अत्यगइप ति) यस्तस्मिन्नेव समुद्धाते म्रिय
मारुयपक्क-मारुतपक्क-त्रि० । वायुपके, विपा०१ श्रु०८ अ०। ते (ततो पडिनियत्त त्ति) ततो-नरकावासात्समुद्धाता
माल-माल-पुं० । उपरितनभागे, प्रव० ५द्वार । आव० । द्वा, (इह समागच्छर त्ति) स्वशरीरे (केवइयं गच्छेज्ज पश्चा० । मञ्चादिके, पिं०। प्राचा० । श्वापदादिरक्षार्थेषु, त्ति) कियद् दूरं गच्छेत् ? गमनमाश्रित्य, (केवाइयं पाउणे- तविशेषेष्वेव गन्धमालकाकारेषु पर्वतदेशेषु, इत्यन्ये । हा०१ ज्ज ति) कियद् दूरं प्राप्नुयात् ?, अवस्थानमाश्रित्य, (अंगु- ध्रु०१० । भ० । आराममजुमश्चेषु, दे० ना०६ वर्ग १४६ लस्स असंखेज्जइभागमेतं वेत्यादि) इह द्वितीया सप्तम्य
गाथा। थे द्रष्टव्या, अङ्गलम् इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-" विह- | मालई-मालता-स्त्राला स्वनामख्याताया विजयसनराजमाहत्थि वा रयणि वा कुच्छि वा धगुं वा कोसं वा जोयणं ध्यां पुरन्दरयशसो मातरि, धर० १ अधिक १२ गुण । या जोयणसयं वा जोयणसहस्सं वा जोयणसयसहस्सं वा | लताविशेषे, " मालई नाई" पा० ना०२७३ गाथा । इति" 'लोगते वा' इत्यत्र गत्वेति शेषः, ततश्चायमर्थः-उत्पा-1 मालंकार-मालंकार-पुं०। बलेवैरोचनेन्द्रस्य हस्त्यनीकाधिदस्थानानुसारेणाङ्गुलासंख्येयभागमात्रादिके क्षेत्रे समुद्धात
पतौ, "मालंकारे हत्थिराया कुंजराणीयाहिवड ।” स्था०५ तो गत्वा, कथम् ? इत्याह-'एगपएसियं सेटिं मोत्तूण ति'
ठा० १ उ०। यद्यप्यसंख्येयप्रदेशावगाहस्वभावो जीवस्तथापि नैकप्रदेशश्रेणिवर्त्यसंख्यप्रदेशावगाहनेन गच्छति, तथा स्वभा
| मालकच्छ-मालकच्छ-पुं० । स्वनामख्याते गोशालकतेजोवत्वादित्यतस्तां मुक्त्वेत्युक्तमिति । भ०६ श० ६ उ० ।
पहतवीररुजादर्शनजखेदखिन्नस्य सिंहमुनेः रोदमस्थाने, (मारणास्तिकसमुद्धातेन समबहतस्य किंप्रमाणा महत्त्वाव- स्था० १० ठा। गाहनेति 'श्रोगाहणा' शब्द तृतीयभागे ८१ पृष्ठे गतम्) मालकड-कृतमाल-त्रि० । कता माला येन सः कृतमालः । मारणंऽतिया-मारणान्तिकी-स्त्रीगमरणमेवास्तोमरणाऽन्तः, । प्राकृतत्वात् मालकडेति । माला परिहिते, २० । तत्र भवा मारणान्तिकी। आव०६अ। स्था० । आच०।। | मालकम्म-मालकर्मन्-न । मालनिष्पादनरूपे कर्मणि, मासामरणान्ते भवायां संलेखनायाम् , स्था०२ ठा०१०। चा०१७०२०४०।
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(२५७) मालघर अभिधानराजेन्द्रः।
मालोहर मालघर-मालगृह-न० । मालाण्यवनस्पतिविशषगृह, ज०१/माला-माला-खी० । कसठसूत्रगलावलम्बिशन्खलाविशेष वक्षः।
औ०। प्राभरणविशेष, औ० । कुसुमनजि, औ.।“ बोल मालवीय-मालनीय-त्रि०। परिचारणीये, जं०१ वक्षः। | माला राई, रिछोली पावली पंती" पाइ० ना०६३ गाथा मालतीकुसुमदाम-मालतीकुसुमदाम-न० । जातिपुष्पमाला- प्राचा० । प्रज्ञा० । कुसुमदामनि, औ० । समूहे, मा०१ श्रुः याम् , उत्त०२ अ०।
८० स्था० । ज्योत्स्नायाम् , दे० ना०६ वर्ग १२८ गाथा मालय-मालक-पुं० । गृहस्योपरितनभागे, वृ०२ उ०। स्वा- | मालाउत्त-मालागुप्त-त्रिगृहस्योपरितनभागरक्षिते,मालको थे कः "अक्कुडो होइ मंचो मालो य घरोवरि होइ" स्था०
गृहस्योपरितनो भागः, अभिहितञ्च-"अक्कुडोहोर मंचो ३ ठा०१ उ० । शा०
मालो य घरोवार होह।" स्था० ३ ठा०१ उ०। मालव-मालव-पुं०। भारतवर्षीये अवन्तीजनपदे, कल्प० | मालाकुंकुम-देशी-प्रधानकुमे, दे० ना०६.वर्ग १३२ गाथा । १ अधि०६क्षण । प्रव० । म्लेच्छविशेष, व्य०४ उ०। प्र-मालागार-मालाकार-पुं० । मालाप्रन्थनोपजीविनि जातिथि बा० । सूत्र।
शेषे, श्राव०४ अ० ज०। मालवंत-माल्यवान-पु० । जम्बूद्वीपे उत्तरकुरुषु कच्छवि-मालागारी-मालाकारी-स्त्रीनहारि(त)गोत्रस्य श्रीगुप्तस्थाषिरा जये वक्षस्कारपर्वते, जं० ४ वक्षः । स्था। सा मेरोः पूर्वो- निर्गतस्य चारणपणस्य शाखायाम्,कल्प०२ अधि०८क्षण । तरस्मिन् गजदन्तपर्वते, स्था० ६ ठा०।
मालाण-मालान-वि०। विस्तीर्णे, औ०। दो मालवंता । (सूत्र-+) स्था० २ ठा०३ उ०। मालामउल-मालामुकट-पुं० । मालाप्रधाने मुकुटे, सूत्र०६ कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खा
थु०२०।
मालारोवण-मालारोपण-न० । मालानामुपर्युपरि स्थापने रपव्वए पहलत्ते ?, गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्त
जी०१ प्रति०। रपुरच्छिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणणं मालि-मालिन-पुं० । वनस्पतिविशेषे, स०७४ सम० । रा० उत्तरकुराए पुरच्छिमेणं कच्छस्स चक्कवट्टिविजयस्स पञ्च- जी० । दशग्रीवनिजके, ती० ५१ कल्प। च्छिमेणं एत्थ ण महाविदेहे वासे मालवंते णामं व-मालिअय-मालितक-त्रि० । मालाकारके," ओरालिमयं च
खारपब्बए पएणत्ते , उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण- मालिश्रयं" पाइ० १६६ गाथा । वित्थिरणे जं चेव गंधमायणस्स पमाणं विक्खंभो| मालीघरग-मालिगृहक-न । मालिवनस्पतिविशेषः तन्मया अणवरमिमं खाणत्तं सबवेरुलियामए अवसिटु तं चेव
नि गृहकाणि मालिगृहकाणि । माल्याख्यवनस्पतिगृहे, जी०
३ प्रति०४ अधि० । रा०। जं०। जाव गोयमा! नवकूडा परमत्ता।
मालिज-मालीय-न० । श्रीगुप्तस्थविरान्निर्गतस्य चारण(कहि णमित्यादि ) प्रश्नसूत्रं सुगमम् , उत्तरसूत्रे-गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्ये ईशानकोणे नीलवतो
गणस्य पश्चमकुले, कल्प०२ अधि०८क्षण । वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यामुत्तरकुरूणां पूर्वस्यां कच्छना
मालिया-मालिका-स्त्री०। मालायाम् , सजि,शा०१९०८मा म्नश्चक्रवर्तिविजयस्य पश्चिमायामत्रान्तरे महाविदेहेषु मालुगा-मालुका-स्त्री० । त्रीन्द्रियजीवविशेषे,उत्त०३६ मा माल्यवन्नाम्ना वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्त इति शेषः, पूर्वदक्षि- जी० । एकास्थिकफलीवृक्षविशेषे, जी० ३ प्रति०४ अधिः । णयोरायतः पूर्वपश्चिमयोर्विस्तीर्णः , किंबहुना विस्त- प्रशा० । ०। आचा०रा०। वल्ल्याम् ,सूत्र०१७०३५० रेण ? यदेव गन्धमादनस्य पूर्वोक्रवक्षस्कारगिरेः प्रमाणं २ उ०। प्रशा० । देशविशेषप्रतीते वनस्पती, प्रज्ञा०१ पद । विष्कम्भश्च तदेव ज्ञातव्यमिति शेषः । जं. ४ वक्षः । उज्जयिन्यामम्बाह्मणस्य भार्यायाम् , आव०४१० प्रा० (माल्यवत्कृटानां व्याख्या 'कृड' शब्दे तृतीयभागे ६२३ क०। श्रा०चू०। पृष्ठे गता)
मालुयाकच्छ-मालुकाकक्ष-पुं० । एकास्थिकफला पृशविशेमालवंतदह-माल्यवदहुद-पुं० । उत्तरकुरुषु स्वनामख्याते
पा मालुकाः प्रज्ञापनायामभिहितास्तेषां कक्षो-गहनं मानुइदे, स्था० ५ ठा०२ उ० । जी।
काकक्षः। चिटिकाकक्ष इति तु जीवाऽभिगमचर्णिकाकार। मालवंतपरियाय-माल्यवत्पर्याय-पुं०। जम्बूद्वीपमन्दरस्योत्तरे | मालुकाख्यवनस्पनिगहने, हा०१ श्रु०१०म०। रम्यकहैरण्यवतवर्षे स्वनामख्याते वृत्तवैताव्यपर्वते , स्था०। मालुयामंडवग-मालुकामण्डपक-पुं०। एकास्थिकफला वृक्ष.
दो मालवंतपरियागा। (सूत्र-+स्था०२ ठा०३उ०। विशेषा मालुकास्तदुक्का मण्डपाः । मालुकायुक्तषु मण्डपेषु, मालवतेण-मालवस्तेन-पुं० । माल्यवत्पर्वतोपरि बिषमप्रदे- रा० जी०। शवासिनि स्तेने, "मालवगो पब्बगो तस्सुपरिं सव्वं विसमं मालूर-मालूर-न० । विल्वे, “मालूरं सिरिहल विहं" पाइ० तत्थ तेणया वसंति ते मालवतेणा । तेसु पडिएसु णासते | ना० १४८ गाथा । कपित्थे, दे० ना०६ वर्ग १३० गाथा। जणेण सम इतरे वित्तिकातवेणं कोई भणेति मालवतेणा मालोहड-मालापहृत-नामालाद्-मश्चादेरपारतं-साध्वर्थपडिया। नि० चू०२ उ० ।
मानीतं यद्भक्तादितन्मालापहृतम् । पिं०ामालात्-सिककादे
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(२५८) मालोड अभिधानराजेन्द्रः।
मालोहड रपात-साध्वर्थमानीतम् मालापहतम् । प्रव०६७ द्वार । उ- णादेव समाहूताः परममन्त्रवादिनः, समानीतानि चनापस्थानादुत्तार्याऽऽनीयाऽऽहारादि ददत उद्भमनदोष, उत्त० नाविधानि भेषजानि, ततोऽद्याप्यायुरत्रुटितमिति मन्त्री२४ मा आचा। पि० ।
षधप्रभावतः सा नीरुग् बभूव, समाजगाम च भूयोऽध्य___ मालाऽपहृतद्वारमाह
परस्मिन् दिने स एव धर्मरुचिः संयतो भिक्षायै, (ध
मरुचेर्विशेषतो वृत्सम् ' धम्मरुइ' शब्दे चतुर्थभागे २७३० मालोहडं पि दुविहं, जहन्नमुक्कोसगं च बोद्धव्वं ।
पृष्ठे गतम् ) उपालेभे च यक्षदिन्नेन । यथा-दयाप्रधानो ध. अग्गतलेहि जहवं, तबिवरीयं तु उक्कोसं ॥ ३५७॥ मः तत् किं भोः साधो ! सुविहित ! तव तदानीं सर्प मालाऽपहतं द्विविधं, तद्यथा-जघन्यम् , उत्कृष्टं च । तत्र य. पश्यतोऽप्युपेक्षा प्रावर्तिष्ट ?, स प्राह-नाहमद्राक्षं तदानीं द् भून्यस्ताभ्यां पादयोरग्रभागाभ्यां फलकसंझाभ्यां पाणि
दन्दशूकम् , केवलमयमस्माकं सार्वज्ञ उपदेशो, यथा-मा प्रा. भ्यां चोत्पाटिताभ्यामूविगलितोच्चसिक्ककादिस्थितं दा- हिषुः साधवो ! मालादपहृतां भिक्षामिति, ततोऽहं प्रतिनिच्या रटेरगोचरं यहीयते तज्जघन्यं मालापहृतम् । त- वृत्तः, एवं चोक्ने यक्षदिनः स्वचेतसि चिन्तयामास-बद्विपरीतं-जघन्यविपरीतं बृहनिःश्रेण्यादिकमारुह्य प्रासा- हो निरपायो भगवता विरुपादेशि भिक्षूणां धर्मः, य एव चे. दोपरितलादानीय दीयते तदुत्कृष्टं मालापहृतम् ।
स्थ निरपायं धर्ममुपदिशति स्म स एव सर्वशो न खलु संप्रत्यनयोरेव दृष्टान्तौ सदोषौ वनुकाम पाह- सुधाभ्यवहारमन्तरेण सुधोद्वार उज्जृम्भते, एवं न याभिक्खू जहन्नगम्मी, गेरुय उक्कोसयम्मि दिटुंतो ।
वत् शेयव्यापिज्ञानमन्तरेणेत्थं सकलकालमनपायिनो धर्म
स्योपदेशप्रवृत्तिः, बुद्धिप्रागल्भ्ये हि वचसि प्रागल्भ्यमुपालअहिडसणमालपडणे, य एवमाई भवे दोसा ॥३५॥
म्भि, तस्मात् स एव सर्वज्ञ इति, इत्थं च विचिन्त्य भक्तिजघन्ये मालापहते भिक्षुर्वन्दको दृष्टान्तः, उत्कृष्टे गैरुकः
वशोच्छलितपुलकजालोपशोभिततनुः सादरं धर्मखचिश्रकापिलः, तत्र जघन्ये मालापहृते अहिदशनम्-सर्पदशनम् ,
मणमवन्दत, वन्दित्वा च जिनप्रणीतं धर्म पप्रच्छ , सच उत्कृष्ट मालात्पतनमित्येवमादयो दोषा अभूवन् ।
कथयामास संक्षेपतः, ततो जिनप्रणीतवाक्यामृतरसास्वातत्र भिखुदृष्टान्तं गाथाद्वयेनाऽऽह
दतः तेषामवजगाम सकलमपि 'मायासूनवीयादि' संपादितमालाऽभिमुहं दट्टण, आगारिं निग्गी तो साह । । कुवासनामयं गरलम्, पश्यति च यथाऽवस्थितानि हेयोपादेतच्च(ब)निय आगमणं,पुच्छा य अदिलदाणं ति।३५६।
यानि वस्तूनि, प्रमोदते च जात्यन्ध इव चक्षुर्लामे स विशेषत
रम्, ततो मध्याह्ने विशेषतो गुरुसमीपे समागत्य धर्म श्रुत्वा मालम्मि कुडे मोयग, सुगंधअहिपविसणं करे डका।
जातसंवेगौ दम्पती अपि प्रवज्यां प्रपदाते । सूत्रं सुगमम् । अमदिणसाहुअागम, निद्दयकहणा य संबोही ॥३६०॥
संप्रत्यस्मिन्नेव जघन्ये मालापहृतेऽन्यानपि दोषानभिधिजयन्तपुरं नाम नगरम् , तत्र यक्षदिन्नो नाम गृहपतिः, त- त्सुराहस्य भार्या वसुमती, अन्यदा च तद्गृहे धर्मरुचिर्नाम संयतो आसंदिपीढमंचक-जंतोडूखलपडंत उभयवहे । भिक्षार्थ प्रविवेश , तं च नियमितेन्द्रियमरक्तद्विष्टमेपणासमितमवलोक्य समुत्पन्नविशिष्टदानपरिणामेन यक्षदिनेन
वोच्छेयपोसाई, उड्डाहमनाणिवाओ य ॥ ३६१ ॥ वसुमती सादरं बभणे , यथा-देहि साधवेऽस्मै अमुकान् श्रासन्दी-मश्चिका, पीठम्-गोमयादिमयमासनम् , ममोदकानिति , ते च मोदका ऊर्ध्व विलगितोच्चसिककम-| वकः-प्रतीतः, यन्त्रम्-ब्रीह्यादिदलनोपकरणम् , उदृखलः ध्ये व्यवस्थिते घटेऽवतिष्ठन्ते , ततः सा तहणार्थमुत्थि- प्रतीतः, एतेष्वारुहा, उपलक्षणमेतत् , पापी चोत्पाट्य ता, साधुश्च तां मालापहृतां भिक्षामवबुध्यमानस्तद्गृहानि- ऊर्ध्वविगलितसिक्ककादिस्थितमोदकादिग्रहणे कथमपि यदि जगाम । ततस्तत्कालं तस्मिन्नेव गृहे भिक्षायै भिक्षुराग-| मञ्चकादिहसनतो दात्री निपतति तर्हि उभयवधः, दाज्या मत् । पप्रच्छ च तं यक्षदिनो यथा कि भोः-(समं ) तेन पृथिव्यादिकायादीनां च विनाशः । तत्र दाव्या हस्तादिसिक्कादानीय दीयमाना भिक्षा न जगृहे ? , ततः स प्र- भगतो, यदि वा-विसंस्थुलपतनतः कथमप्यस्थानाभिवचनमात्सर्यादेवमुवाच- अदत्तदाना श्रमी खलु वराकास्त- घातसंभवात् प्राणव्यपरोपणमपि, तया च निपतन्त्या भूम्यातो न लभन्ते पूर्वकर्मविनियोगतो युष्मादृशामीश्वराणां | द्याश्रितानां पृथ्वीकायादीनामपि, विनाशः । यथैतस्मै भिगृहेषु स्निग्धमधुरादिकं भोजनं भोक्रुम् , किंतु-तैर्दुगतगृहेष्व- क्षामहं ददती प्रागपि महत्यनर्थे पतितेति न कोऽप्यस्मै म्तप्रान्तादिकं लब्ध्वा भोक्तव्यमिति, ततो यक्षदिनेन त- दास्यतीति तद्गृहे तद्ब्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, तथा मुण्डे. सायपि तानेव मोदकान् वसुमती दापिता , सा तस्मिन्नेव | नानेन परमार्थतः पातितेति कस्यापि गृहस्वामिनः साधुसिकषिलागते घटे मोदकानादातुमचालीत् , घटे च म- विषयः प्रदेषोऽपि भवति । आदिशब्दात्ताडनादिपरिग्रहः । होत्तमद्रव्यनिष्पन्नमोदकगन्धाघ्राणवशतः कथमपि भुज- प्रद्वेषदग्धोऽहि कोऽपि कोपान्धतया ताडनमपि कुर्यात् । को.
गतोऽवतिघ्रते. वसमती चोत्पाट्य पारिणपादा-1ऽपि निर्मसनम्,कोऽपि वधमपि, तथा च-प्रवचनस्योहाहः प्रतलभरेल यावन्मोदकघटे कङ्केलिपल्लषोपमं करं प्रक्षिप-1 खिंसा यथा-साध्वर्थमेषा भिक्षामाहरन्ती परासुरभूत्, तति तावद् भुजङ्गमः कामुक इव सादरं तं प्रत्यगृह्णात् , स्माखामी साधवः कल्याणकारिणः लोके चाज्ञानवादःततो हा! दष्टा वष्रेति पूत्कारं कुर्वती भूमौ निपपात, द- एवंविधमपि दाव्या अनर्थमेते न जानन्तीत्येवं मूर्खताये च यक्षदिन्नेन फूत्कारं कुर्वन् दन्दशूकः, ततस्तत्त-1 प्रवादः; तस्माज्जघन्यमपि मालापहृतमवश्यं परिहर्तव्य
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( २५६) मालोहर अभिधानराजेन्द्रः।
मालोहर म् । तदेवमुक्तो जघन्यस्य मालापहतस्य सदोषो दृष्टान्तो
अवापवादमाहऽन्येऽपि च दोषाः।
दद्दर सिल सोवाणे, पुन्वाऽऽरूढे अणुचमुक्खिते। संप्रत्युत्कृष्टस्य तानाह
मालोहडं न होई, सेसं मालोहडं होई ॥ ३६४ ।। एमेव य उक्कोसे, वारण-निस्सेणि गुन्धिणीपडणं ।।
दर्दरः निरन्तरकाष्ठफलकमयो निश्श्रेणिविशेषः, शिक्षा प्रगम्भित्थिकुच्छिफोडण,पुरो मरणं कहणवोही॥३६२॥
तीता, सोपानानि-ष्टकामयान्यवतरणानि, एतान्यामा जयन्ती नाम पुरी, तत्र सुरदत्तो नाम गृहपतिः, तस्य
यद्ददाति तन्मालापहृतं न भवति । केवलं साधुरप्येषवाशुभार्या वसुन्धरा, अन्यदा च तद्गृहे गुणचन्द्राऽभिधः सा
द्धिनिमित्तं प्रासादस्योपरि दर्दरादिना चटति, अपवादेन धुर्भिक्षार्थ प्राविशत् , तं च प्रशान्तमनसमिहपरलोकनिः
भूस्थोऽप्यानीतं गृह्णाति । तथा पूर्वारूढः साध्वागमनावतः स्पृहं मूर्त धर्ममिव समागच्छन्तमवेक्ष्य सुरदत्तो वसुन्ध
स्वयोगेन निःश्रेण्यादिना प्रासादोपरि चटितो दाता यददाति रामभिहितवान् यथा देहि साधवे मालादानीय मोदका-|
साधुपात्रके, कथंभूते ? इत्याह-अनुञ्चोरिक्षासे, किमुकं निति, सा च तदानीमन्तर्वनी, परं पत्युरादेशं देवताऽऽदेश
भवति?-भूमिस्थः संयतो दृष्टेरधः पात्रं धारयन् यावत्प्रमाणे मिव प्रतीच्छन्ती मोदकानयनाय मालाभिमुखां निःश्रेणिमा
उच्चैःस्थाने स्थितो दाता पात्रे हस्तं प्रक्षिप्य ददाति रोदमयतिष, साधुश्च न कल्पते मालापहृता भिक्षा संयतानामिति तां विनिवार्य तद्गृहानिःससार, ततस्तत्क्षण एव
तावत्प्रमाणे पूर्वारुढो यद्ददाति तन्मालापहतं न भवति । कोऽपि कापिलो भिक्षार्थ तस्मिन्नेव गृहे प्राविशत् , सुरदत्तेन
शेष तु सर्वमप्यनन्तरोक्त मालापहतमवसेयम् । च स पृष्टो-यथा-भोः किं संयतेन मालादानीयमाना भिक्षा
इहानुच्चोत्क्षिप्तोच्योत्क्षिप्तयोः स्वरूपमाहन प्रतिजगृहे ?, ततः स मात्सर्यवशादसंबद्धं किमप्यभाषिष्ट तिरियायय-उज्जुगएण, गिबहई जं करेण पासंतो। ततस्तस्मायपि सुरदत्तो वसुन्धरया मोदकान् दापितवान् एयमणुच्चुक्खित्तं, उच्चुक्खित्तं भवे सेसं ॥३६५॥ वसुन्धरा च मोदकानयनार्थ निःश्रेणिमारोहन्ती कथमपि
तिर्यगायतेन-दीर्पण , ऋजुकेन-सरलेन , करेण-रसेन पादहसनतो विसंस्थुलाङ्गी न्यपतत् , अधश्च ब्रीहिदलनयन्त्रकमासीत् , ततस्तत्कीलकस्तस्या निपतन्त्याः कुाक्ष
पात्रं रथा निभालयन् यद् गृह्णाति तदित्थंभूत पात्रमनुद्विधा पाटयामास, निर्गतश्च परिस्फुरंस्ततो गर्भः , की
च्चोरिक्षप्तमुच्यते, शेषं पुनरुश्योक्षिप्तम् , इयमत्र भाषणालकविदारिततया महापीडातिशयभावतः पश्यतामेव स
यद् दृष्टरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तुग्रहणाय पात्रंघियते तसथा कललोकानां सदुःखं स्पन्दमानः पञ्चत्वमगमत् , तथा ब
ध्रियमाणमुश्योक्षिप्तमिति, एतेन चोर्ध्वाधोमालापहतण्यासुन्धरा च । तत उच्छलितः पापीयसः कापिलस्यावर्णवादः ।
ख्यानेन तिर्यगपि मालापहृतं व्याख्यातं द्रष्टव्यम्, तत्राप्ययं अन्यदा च भूयोऽपि तस्मिन्नेव गृहे स एव साधुर्भि
कल्प्याकल्पविधिः-यत्पादस्याधो मश्चिकादि दस्था गवाक्षार्थमाजगाम । सुरदत्तश्च तमनाक्षीत्-भगवन् ! यथा
क्षादौ स्थितं दानाय बाहुं प्रसार्य महता कष्टेन समाकर्षति यूयं ज्ञानचक्षुषा दाव्या विनाशमवेक्षमाणा भिक्षा परिह- तन्न कल्पते । यच्च भूमौ स्वभावस्था गवाक्षादौ स्थितमयतवन्तः तथाऽस्माकमपि किं नाचीकथत? , येन तदानीं लेन किश्चिद्वाहुं प्रसार्य साधोर्दानाय गृह्णाति तन्मालापहतं सा मालं नारोहयेत् । ततः साधुरवोचत्-नाहं किमपि न भवति, अतस्तत्कल्पते । पिं०। जाने, केवलमयमस्माकं सार्वज्ञ उपदेशः-यथा न कल्पते निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ता समारुहे। साधूनां मालापहृता भिक्षेति , ततः सपूर्ववदचिन्तयद्ध
मंचं कीलं च पासायं, समणवाए व दावए ॥ ६७॥ ममश्रौषीत् , प्रवज्यां चाग्रहीदिति । सूत्रं सुगमम् ।नवरम् , एवमेव जघन्यमालापहृते इवोत्कृष्टेऽपि मालाप
निःश्रेणिम् , फलकम्-पीठम् , (उस्सवित्ता) उत्सृस्य-ऊर्यो
कृत्वा इत्यर्थः, पारोहेन्मञ्चम् , कीलकं च उत्सृत्य, कमारोहेहते 'पडतउभयवहो' इत्यादयो दोषा वक्तव्याः । तत्र दाव्या बधे उदाहरणम् 'वारणनिस्सेणि ' इत्यादि ।
दित्याह-प्रासादम् , श्रमणार्थम्-साधुनिमित्तम् , दायकोसंप्रति मालापहृतमेव भणयन्तरेणाऽऽह
दाता आरोहेत्, एतदप्यग्राह्यम् । इति सूत्रार्थः ॥
अत्रैव दोषमाहउड्डमहे तिरियं पि य, अहवा मालोहडं भवे तिविहं ।
दुरूहमाणी पवडिजा, हत्थं पायं व लूसए । उड्डे य महोयरणं, भणियं कुंमाइस् उभयं ॥ ३६३ ।। अथवा-मालापहृतं त्रिविधम् , तद्यथा-ऊर्ध्वम् , अधः,
पुढवीजीवे विहिंसिजा, जे अतनिस्सिया जगे ॥६॥ तिर्यक् च । तत्र उर्ध्वमेतदनन्तरोक्लमूर्ध्वविलगितसिक्ककादि
(दुरूहमाणि त्ति) आरोहन्ती प्रपतेत् , प्रपतन्ती च हस्त गतम् , अधोभूमिगृहादाववतरणम्-प्रवेशः,तत्राधोऽवतर
पादं वा लूषयेत् , स्वकं स्वत एव खण्डयेत् , तथा-पृथ्वी
जीवान् विहिस्यात् , कथंचित्तत्रस्थान् , तथा यानि च तणेन यहीयते तदप्युपचारादधोऽवतरणम् , तथा-कुम्भा
निश्रितानि ( जगन्ति ) प्राणिनस्ताँश्च हिंस्याद् । इति सूदिषु कुम्भोष्ट्रिकाप्रभृतिषु यद्वर्तते देयं तदुभयम्-ऊ
त्रार्थः ॥ वा॑धोमालापाहतस्वभावं भणितं तीर्थकरादिभिः । तथाहि-वृहत्तरोश्चस्तरकुम्भादिमध्यव्यवस्थितस्य देयस्य ग्रह
एरिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । णाय येन दात्री पार्युत्पाटनादि करोति तेनोलमालाप- तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिएहंति संजया ॥६६॥ हतम् , येन त्वधोमुखं बाहुमतिप्रभूतं व्यापारयति तेनाधो| ( एवारिसे ति) ईदृशान् अनन्तरोदितरूपान्-महादशेमालापहतम् , दोषा अत्रापि पूर्ववद्भावनीया।
षान् सात्वा, महर्षयः साधवः । यस्माहोषकारिणीयं तस्मात्
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(२६०) मालोहर अभिधानराजेन्द्रः।
मालोहड मालापताम्-मालावानी भिक्षां न प्रतिगृहन्ति संयता, उभयमालोहडं-मचादिसु-मञ्चश्रेणिस्थितः । अहवा-कुंडिपाठान्तरंबा-"इंदि मालोहंति," हन्दीत्युपप्रदर्शने । इति | मादिसु भूमिठितो अधोसिरा जं.अम्गतले हिट्टाउं जं उबारे सूत्रार्थः। दश०५१०१ उ०। पञ्चा। जीत।
तं जहणं, पीठगादिसु जं आरोढुं ओप्रारहतं सव्वं उकोसं । से मिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण
गाहाजायेजा असणं पाणं खाइमं साइमं खंधसि वा थंभंसि |
मिक्ख् जहालय गेरुत, उक्कोसयंमि नायव्यो । वा मंचंसि वा मालसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि
अहिदसणमालपडणे, एवमादी भवे दोसा ॥ ४२ ॥ वा अमयरंसि वा तहप्पगारंसि वा अंतलिक्खजायंसि
सिकतो प्रोग्रारिउकामा साहुणा पडिसिद्धा तव्वनियट्ठा ।
गिराहा अहिणा डका मया,मालाश्रो श्रोआरिउकामा साहुणो या उवाणिक्खिते सिया तहप्पगारं मालोहडं असणं वा .
पडिसिद्धा, परिव्वाश्रो य वा ओतारेती पडिया जंतखीले जाव अफासुयं यो पडिग्गहेजा, केवली बूया-आयाणमे- | पोट्टं फाडियं मया । इमे उक्कोसे उदाहरणा। नि० चू० १७ पं असंजए मिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा णिस्सेणि
उ०। पं० चू०। पं० भा०। ध०। ग०।
से भिक्खुवा मिक्खुणी वा० जाव समाणे से जं पुण जावा उदूहल वा माहछु, उस्सविय दुरूहेजा, से तत्थ दुरूहमाये पयलिज वा पवडिज वा से तत्थ पयलमाणे वा पव
णेजा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा कोठियातो उमारे वा हत्वं वा पायं वा बाहुं वा उरं वा उदरं वा सीसं
वा कोलेजातो वा असंजए भिक्खुपडियाए उक्कोजिय अववा ममतरं वा कार्यसि इंदियजालं लूसेज वा पाणाणि
उजिय ओहरिय आहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारं असणं वा पाणं बा भवादिवा जीवाणि वा सत्ताणि वा अभिहणेज्ज वा
वाखाइमं साइमं वा लाभे संते णो पडिगाहेजा। (सूत्र-३७) विचासेन्जमा लेसिज्ज वा संघसेज्ज वा संघद्वेज्ज या प
निर्यदि पुनरेवंभूतमाहारं जानीयात् , तद्यथा-कोष्ठि
कातः मृन्मयकुशलसंस्थानायाः, तथा-(कोलेज्जाओ प्ति) रियावेज्ज वा किलामिज्ज वा ठाणाश्रो ठाणं संकामेज
अधोवृत्तखाताकारात् असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया-साधुमुद्दिश्य वा तं तहप्पगारं मालोहडं असणं वा पाणं वा खाइमं कोष्ठिकातः ( उक्कुन्जिय त्ति) ऊर्ध्वकायमुन्नम्य-तत कुब्जी वा साइमं वा लाभे संते सो पडिग्गहिज्जा।
भूय , तथा (कोलेजात्रो अवधज्जिय त्ति) अधोऽवनम्य, समिर्मिक्षाथै प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं चतुर्विधमप्या-|
तथा-(ओहरिय ति) तिरश्चीनो भूत्वा श्राहारमात्य द. हारं जानीयात् , तद्यथा-स्कन्धे अर्द्धप्राकारे, स्तम्भे
चात् , तश्च भिक्षुस्तथाप्रकारमधोमालाहतमितिकृत्वा लावा शैलदारुमयादौ , तथा-मञ्चके वा माले वा प्रासादे
भे सति न प्रतिगृह्णीयात् इति । वा हम्यतले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारेऽन्तरिक्षजाते
अधुना पृथिवीकायमधिकृत्याऽऽहसमाहारः, उपनिक्षिप्तः-व्यवस्थापितो भवेत् , तं च त- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणजा असणं याप्रकारमाहारं मालाहतमिति मत्वा लाभे सति न प्रतिगृ- | वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा मट्टियाउलित्तं तहप्पगारं बीयात्, केवली ब्रूयात्-यत आदानमेतदिति । तथाहि-असं
असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा लाभे संते यतो मिथुप्रतिक्षया साधुदानार्थ पीठकं वा फलकं वा निःश्रेणिया उदूखालं वाऽऽहत्य-ऊर्ध्व व्यवस्थाप्याऽऽरोहेत् ।
नो पडिगाहेजा, केवली व्या-आयाणमयं असंजए भिसतबारोहन प्रचलेद् वा प्रपतेद्वा, स तत्र प्रचलन प्रपतन् खुपडियाए मट्टिोवलितं असणं वा पाणं वा खाइमं वा वा हस्तादिकमन्यतरता काये इन्द्रियजालं (लूसेज ति) साइमं वा उम्मिदमाणं पुढविकायं समारंभिजा तह तेउवा विराधयेत् , तथा-प्राणिनो भूतानि जीवान् सत्त्वानभि
उवणस्सइतसकार्य समारंभिजा पुणरवि उल्लिंपमाणे पच्छाहन्याद् वित्रासयेद्वा, लेशयेद्वा-संश्लेषं वा कुर्यात् , तथा
कम्म करिजा, अह भिक्खू णं पुब्बोवइट्ठा एस पइना एस संघर्ष वा कुर्यात् , तथा-साई वा कुर्यात् , एतच कुर्वस्तान् परितापयेद्वा, कामयेद्वा, स्थानात्स्थानं संक्रामयेद्वा,
हेऊ एस कारणे जं तहप्पगारं मट्टिोवलितं असणं वा तदेतज्ज्ञात्वा यदाहारजातं तथाप्रकारं मालाहृतं तल्लामे सति | पाणं वा खाइमं वा साइमं वा लाभे संते नो पडिगाहिजा । नो प्रतिगृह्णीयादिति । प्राचा०२ श्रु०१चू०१०७ उ०। (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुः गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् सुतं
यदि पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-पिठरकादौ मृत्तिकयाऽवलिजे मिक्खू वा भिक्खुणी वा मालोहड वाजाव असणं वा समाहारं तथाप्रकारमित्यवलितं केनचित्परिक्षाय पश्चात्कपाणं वा खाइम वा साइमं वा दिजमाणं पडिगाहेज वा |
र्मभयाच्चतुर्विधमप्याहारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् ,
किमिति ? यतः केवली ब्रूयात्-कादानमेतदिति, तदेपडिगाहंतं वा साइजइ ।। २४८ ॥
व दर्शयति-असंयतो-गृहस्थः, भिक्षुप्रतिक्षया मृत्तिको
पलिप्तमशनादिकम्-अशमादिभाजनं तच्चोद्भिन्दन् पृथिवीमालोहडं पि तिविहं, उडमहो उभयत्रो व णायव्वं । ।
कार्य समारभेत् , स एव केवल्याह, तथा-तेजोवायुवनस्पएकेकं पिय दुविहं, जहममुक्कोसयं चेव ॥४१॥ । तित्रसकायं समारभेत् दत्ते सत्युत्तरकालं पुनरपि शेषरअंमालोहर-विभूमादिसु, अहो मालोहर-भूमिधराविसु, क्षार्थे तद्भाजनमवलिम्पन् , पश्चात्कर्म कुर्यात् , अथ भिक्षू
गाहा
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(२६१) मालोहड अभिधानराजेन्द्रः।
मास णां पूर्वोपविष्टा एषा प्रतिक्षा एष हेतुरेतत्कारणमयमुपदे- ध्यम्तिर्यङ्वा अनन्तरमुदत्य माषोभविष्यति बद्धायुको येन शः । यत् तथाप्रकारं मृत्तिकोपलिप्तमशनादिजातं लाभे माषभवायुर्बद्धम् अभिमुखनामगोत्रो यो माषभवं समुत्पत्तुसति नो प्रतिगृह्णीयादिति । श्राचा०२ श्रु०१ चू० १ ० कामः समवहतः स्वदेशान् तत्र विक्षिपन् वर्तते । अथवा७ उ० स्था।
तव्यतिरिक्को द्रव्यमाषो द्विधा-(निव्वत्तिो यति) मूमास-माष-पुं०(उडद)धान्यभेदे, प्राचा०१श्रु०११०५उ० प्रा० लगुणनिर्वर्तनानिर्वर्तितः, उत्तरगुणनिर्वर्तनानिर्मितश्च । त. म० ज०। पञ्चभिर्गुआभिः परिमिते मानविशेष, तं०। प्रशा०।
त्र मूलगुणनिर्वर्तनानिर्वर्तितो नाम-येन जीवन तत्प्रथमतया माषा:
माषभवानुगतनामगोत्रकर्मोदयतो माषद्रव्यप्रायोग्यानि द्र. मासा ते भंते ! किं भक्खया, अभक्खेया। सोमिला!
व्याणि गृहीतानि, उत्तरगुणनिर्वर्तनानिवर्तितो माषस्तम्ब
चित्रकर्मणि लिखितः। (खेत्तम्मि इत्यादि ) यस्मिन् क्षेत्रे मामासा मे भक्खेया वि, अभक्खया वि।से केणऽटेणं-जा- षस्य वर्णना स माषक्षेत्रप्राधान्यविवक्षायां तत्क्षेत्रमाषः । व अभक्खेया वि । से नूणं ते सोमिला ! बंभन्नएसु नए
उपलक्षणमेतत् । तेन यस्मिन् क्षेत्र मासकल्पः क्रियते स मा. सु दुविहा मासा परमत्ता, तं जहा-दव्वमासा य, काल
सः क्षेत्रप्राधान्यविवक्षणात्तत्र क्षेत्रे मास इत्यपि द्रष्टव्यम् ।
तथा-यत्र काले यो मासो वर्ण्यते स कालप्रधानताविवक्षणामासा य । तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं सावणाऽऽदीया
तत्कालमासः, अथवा-श्रावणभाद्रपदादिकः । यदि वा-स्वआसाढपज्जवसाणा दुवालस । तं जहा-सावणे भद्दवए लक्षणनिष्पन्नो नाक्षत्रादिकः पञ्चविधः-पञ्चभेदः कालमासः। आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फागुणे चित्ते वइसाहे
(भाष्यकारः) तानेव भेदानुपदर्शयतिजेट्ठामूले आसाढे । ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया।
नक्खत्ते चंदेया, उउ आइच्चे य होइ बोधव्यो।। तत्थ णं जे दव्वमासा ते दुविहा परमत्ता,तं जहा-अत्थमासा
अभिवड्दिए य तत्तो, पंचविधो कालमासो उ ॥१५॥
नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः। किमुक्तं भवति-चन्द्रश्चारं चरन् य, धरममासा य । तत्थ णं जे ते अत्थमासा ते दुविहा पण ता,
यावता कालेनाभिजित श्रारभ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छतं जहा-सुवन्नमासा य, रुप्पमासा य । तेणं समणाणं
ति तत्कालप्रमाणो नाक्षत्रमासः। यदि वा-चन्द्रस्य नक्षत्रनिग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धनमासा ते दुविहा मण्डले परिवर्तनतो निष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षत्रपरमत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य, असत्थपरिणया य । एवं म् । तथा-(चंदेया इति) चन्द्रे भवश्चान्द्रः युगादौ श्रावणे जहा धनसरिसवा ०जाव से तेणऽटेणं जाव अभक्खेया
मासे बहुलपक्षप्रतिपद श्रारभ्य यावत्पौर्णमासीपरिसमाप्ति
स्तावत्कालप्रमाणश्चान्द्रो मासः। एकपौर्णमासीपरावर्तश्चावि। भ०१८ श०१० उ० ।
न्द्रो मास इति यावत् । अथवा-चन्द्रचारनिष्पन्नत्वादुपचामास-पुं० । पक्षद्वयात्मके कालविशेष, विशे० । श्रा० म०।
रतो मासोऽपि चन्द्रः। चः समुचये । दीर्घत्वमौर्षत्वात्, (उउ. भ०। अनु० । कल्प० । प्रव० । ०। कर्म० । स्था। इति) ऋतुः स च किल लोकरूड्या षष्टयहोरात्रप्रमाणो द्वि
इदानीं (भाष्यकारः) मासनिक्षेपप्ररूपणार्थमाह- मासात्मकस्तस्यार्द्धमपि मासः , अवयवे समुदायोपचारात् । नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । ऋतुरेव अर्थात्परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः । एष एव ऋतुमासस्स परूवणया, पगयं पुण कालमासेणं ॥१३॥
मासः कर्ममास इति वा, सावनमास इपि वा, व्यवाहियते । (नाम ति) मासशब्दसंबन्धात् नाममासः, एवं स्थापना
उक्नं च-"एस चेव उउमासो कम्ममासो सावणमासो भ
राणइ” इति । तथा-[श्रादिश्चे इति] श्रादित्यस्यायमादित्यः । मासः । (दविए त्ति) द्रव्यमासः, एवम् क्षेत्रमासकाल
प्रत्युत्तरपदयमादित्यदितेयोऽणपवादो वेति ण्यप्रत्ययः । मासी, भावमासश्च, एषा षड्डिधा मासस्य प्ररूपणता-प्ररू
व्यञ्जनात् यम्यन्तस्य सरूपे वा। इति पाक्षिकस्य एकस्य पणस्य-प्ररूपणशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं प्ररूपणता
यकारस्य लोपः । स चैकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा प्ररूपणेत्यर्थः । प्रकृतमधिकारः पुनरत्र कालमासेन एष गा
व्यशीत्यधिकदिनशतप्रमाणस्य षष्ठभागमानः, यदि वा-माथासंक्षेपार्थः।
दित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽप्यादित्यः । (अभिसांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुर्नामस्थापने सुप्रतीतत्वाद-| वहिए य तत्तो इति) ततश्चतुर्थादादित्यान्मासादनन्तरः पञ्च नादृत्य (भाष्यकारः) द्रव्यमासादिव्याख्यानार्थमाह- मो मासोऽभिवद्धितः, अभिवदितो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचदव्वे भव्वे निन्ध-त्तिो य खेत्तम्मि जम्मि वमणया। न्द्रमासप्रमाणः, संवत्सरे द्वादशचन्द्रमासप्रमाणात्संवत्सराकाले जहि वलिञ्जइ, नक्खत्तादीव पंचविहो ॥१४॥
देकेन मासेनामिद्धितत्वात् परं तद् द्वादशभागप्रमाणो माद्रव्यमासो द्विधा-अागमतो, नोश्रागमतश्च । तत्राऽऽगमतो
सोऽप्यवयवे समुदायोपचारादभिवद्धितः, एष पञ्चविधः का
लमासः । तुः पूरणार्थः । तदेवमुक्ता नामतो नाक्षत्रादयः पमासशब्दार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोश्रागमतस्त्रिविधः, तद्य
चापि मासाः। था-सशरीरभव्यसरीरत नतिरिक्तश्च । तत्र शशरीरभव्यशरौरे प्राग्वत् । तद्वयतिरिक्तमाह-(दब्वे भव्ये निन्यत्तिो त्ति)
सांप्रतमेतेषामेव मासानां दिनपरिमाणमभिधिद्रव्ये मासो, भव्य इति भावी एकभविकादि । इह मास इति
त्सुस्तदानयनाय (भाध्यकारः) करणमाहरूपं प्राकृते माषशब्दस्यापि भवति । तत एकभविकादि
रिक्खाई मासाणं, करणमिणमं तु आणणोवाभो। 'त्र माषो द्रष्टव्यः । तत्र एकभविको नाम यो देवो मनु- जुगदिणरासि ठाविय, अहारसयातीसाई॥१६॥
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( २६२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मास
ऋक्षेषु चन्द्रस्य परिवर्तनतो मासो ऽप्याधेये श्राधारोपचा रात् ऋक्षः, ऋक्ष श्रादिर्येषां ते ऋक्षादयः, आदिशब्दात्चन्द्रमासादिपरिग्रहः । तेषामृक्षादीनां मासानामानयनोपायकरणमिदं यमाणम् । तदेवाह - ( जुगदित्यादि ) युगे चन्द्र-चन्द्राs - भिवर्द्धित-चन्द्रा - ऽभिवर्द्धितसंवत्सरप्रमाणे दिनराशिरहोरावराशिर्युगदिनराशिस्तं स्थापयित्वा, किय त्प्रमाणमित्याह श्रष्टादश शतानि त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि एतावान् दिनराशिर्युगे भवतीति, कथमवसीयते इति चेत् ?, उच्यते-इह सूर्यस्य दक्षिणम् उत्तरं वा अयनं व्यशीत्यधिकदिनशतात्मकम्, युगे च पञ्च दक्षिणायनानि पञ्श्चोत्तरायणानि सर्वसंख्यया दशायनानि, ततत्र्यशीत्यधिकं दिनशतं दशकेन गुण्यते इत्यागतो यथोक्तो दिनराशिरेवं प्रमाणं दिनराशि स्थापयित्वा ।
( भाष्यकारः ) किमित्याहताहे हराहि भागं, रिक्खाईयाण दिनकरंताणं । सत्तट्ठी - बावट्ठी- एगट्टी -सट्टिभागेहिं ।। १७ ।। ततो- दिनराशिस्थापनानन्तरमृक्षादीनामृक्षमासप्रभृतीनां, दिनकरान्तानां सूर्यमासपर्यन्तानां नक्षत्रचन्द्रवदित्यमासानामित्यर्थः । दिनमानानयनाय यथाक्रमं सप्तषष्टिद्वाषपृथेकषष्टिषष्टिभागैः सप्तषष्ट्यादिभिर्भागहारैरित्यर्थः भागं ( इराहि ति ) हर । ततो यथोक्तं नक्षत्रादिमासगतदिनपरिमाणमागच्छति । तच्चोत्तरत्र दर्शयिष्यते ।
सांप्रतमभिवर्द्धितमासगतदिनपरिमाणानयनाय नेदं करणमिति ( भाष्यकारः ) करणान्तरमाहअभिवडियकरणं पुण, ठाविय रासि इमं तु कायव्वं । ऊबालीससगाई, पट्ठाई अणूणाई ॥ १८ ॥ श्रभिवर्द्धितकरणमभिवर्द्धितमासगतदिनपरिमाणानयनाय करं पुनरिदं वक्ष्यमाणं कर्त्तव्यं प्रयोक्तव्यमिति प्रयोगः । तदेवाह - स्थापयित्वा राशि किं प्रमाणमित्यत श्राह - एकोनचत्वारिंशतानि पञ्चषष्टीनि पञ्चषष्ट्यधिकान्यन्नानि - परिपूर्णानि । केषां राशिरयमिति चेत् ?, उच्चते श्रभिवर्द्धितमासगतदिनचतुर्विंशत्युत्तरशतभागानाम् । तथाहि श्रभिवर्द्धितमासस्य दिनपरिमाणमेकाशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं भागानाम्, अहोरात्राश्च प्रत्येकम् एकलिं शत् चतुर्विंशत्युत्तरशतेन गुण्यन्ते जातान्यष्टात्रिंशत् शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि-३८४४ उपरितनं च एकविंशत्युत्तरं शतं तत्र प्रक्षिप्यते जांतो यथोक्तप्रमाणो राशिः ३६६५ ।
( भाष्यकारः ) तं स्थापयित्वा किमित्याहएयस्स भागहरणं, चउवीसेणं सएण कायव्वं । जे लद्धा ते दिवसा, सेसा भागा मुणेयव्वा ॥ १६ ॥ एतस्य अनन्त रोदितस्य पञ्चषष्यधिकैकोनचत्वारिंशच्छ राप्रमाणस्य राशश्चतुर्विंशेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, भागे च हृते ये श्रङ्का लब्धास्ते दिवसा ज्ञातव्याः । शेषास्त्वङ्का उद्व (द्ध) खिताः अहोरात्रस्य चतुर्विंशत्युत्तरशत
भागाः ।
भाष्यम्
अहवा वि तीसह गुणे, सेसे तेणेव भागहारेणं । मइयम्मि जंतु लग्भइ, ते उ मुहूत्ता मुणेयव्वा ॥ २०॥
मास अथवेति प्रकारान्तरद्योतने । तच्च प्रकारान्तरमिदम् - लब्धदिवसानामुपरि भागास्तावत्तदवस्था एव भियन्ते, तथैव शास्त्रे व्यवहारदर्शनात् । अथवा — अपिः समुच्चये । समुच्चयप्रकारान्तरस्यैवान्यस्य श्रूयमाणत्वात्, शेषे उद्ध (इ) रिते राशौ मुहूर्त्तानयनाय त्रिंशद्गुणे कृते ततस्तेनैव चतुविंशत्युत्तरशतप्रमाणेन भागहारेण भक्ते यत् लभ्यते ते मुहूर्त्ता ज्ञातव्याः ।
तस्स वि जं अवसेसं, बावट्ठीए उ तस्स गुणकारो । गुणकारभागहारे, बावट्ठीए य उववट्टो ||२१|| ( मा० ) तस्यापि मुहूर्त्तस्य संबन्धि यदवशेषमुद्ध (इ) रितं तस्य मुहूगतद्वाषष्टिभागानयनाय द्वाषष्ट्या गुणकारः-गुणकरणम् । किमुक्तं भवति — यदवशेषं तिष्ठति तन्तु द्वाषष्ट्या गुरायते, ततो ' गुणकारभागहारे इति' यस्योपरितनस्य राशेर्गुणकरमभवत्स गुणकारयोगात् गुणकारः । श्रधस्तनस्तु गुणकारश्च भागहारश्च गुणकारभागहारम् । समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदः तत एतदुक्तं भवति-गुएकारभागरयोर्द्वापष्ट्या अपवर्तः- अपवर्त्तना क्रियते ।
दोहिं तु हिए भागे, जे लद्धा तेऽवि सठ्ठिभागा उ । एएसिमागयफलं, रिक्खाईणं कमेण इमं ||२२|| ( भा० ) भागद्वारराशेश्चतुर्वित्यधिकशतप्रमाणस्य द्वाषष्ट्या पवसनायां जातौ द्वौ, ताभ्यां तु द्वाभ्यां हृते भागे येऽङ्का लब्धास्ते द्विषष्टिभागा एव । तुरेवकारार्थः । मुहूर्त्तस्य शातव्याः । सांप्रतमागतप्रतिपादनार्थमिदमाह - ( एएसिमित्या दि) एतेषां भागहाराणामृक्षादीनां नक्षत्रादिमासानां दिनरिमाणनयनाय भागं हरतां यत् श्रागतमेव फलमागतफलं तत् क्रमेण ऋक्षादिमासपरिपाट्या इदं वक्ष्यमाणम् । ( भाष्यकारः ) तदेवाहअहोरतं सत्त्वसं, तिसत्त सत्तट्टिभागनक्खत्तो । चंदो उ उगुणतीसं, विसट्टिभागा य बत्तीसं ॥ २३ ॥ नाक्षत्रो नक्षत्र संबन्धी मासः सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तष्टिभागाः, त्रिःसप्तत्रयो वाराः सप्त एकविंशतिरित्यर्थः २७ ॥ २२ ॥ तथाहि - युगदिनराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशत प्रमाणो ध्रियते तस्य सप्तषष्टिर्युगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिरहोरातस्य सप्तषष्टिभागाः । तथा चान्द्रः चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् २६| तथाहि तस्यैव युगदिनराशिस्त्रिंशदधिकाऽष्टादशशतमानस्य युगे चन्द्रमासा द्वाषष्टिरिति द्वाषष्ट्या भागे हृते एतावदेव लभ्यते इति । भाष्यम् -
उदुमासो तीस दिखा, आइच्चो तीस होइ अद्धं वा । एकतीसा, इगवीससयं च भागाणं ॥ २४ ॥ ऋतुमासः परिपूर्णानि त्रिंशद्दिनानि एकाषष्टिर्युगे ऋतुर्मासा इत्येकं पष्ट्यानन्तरोदितस्य ध्रुवराशेर्भागहरणे, एतावतो लभ्यमानत्वात् श्रादित्यः - श्रादित्यमासो भवति । त्रिंशदहोरात्रा अहोरात्रस्यार्द्ध यतः सूर्यस्य युगे मासाः षष्टिस्ततः षष्टयां ध्रुवराशेर्भागहरणे एतावल्लभ्यते इति श्रभिवर्द्धितोऽभिवर्द्धितमासः एकत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामेकविंशं शतमेकविंशत्यधिकं शत
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(२६३) मास अभिधानराजेन्द्र।
मास म् ३१ तथाहि-एकोनचत्वारिंशच्छतानां पश्चषष्ट्य- च्छति तत्प्रमाणो नाक्षत्रो मासः, यदिवा-चन्द्रस्य नक्षत्रधिकानां ३९६५ चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन भागे हियमाणे मण्डले परिवर्तनतानिष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षयथोक्तं लभ्यते पवेति ।
त्रम् (जं०) युगादी श्रावणमासे बहुलपक्षप्रतिपद प्रारअथवा (भाष्यकारः) न भागैः संख्या किंतु मुहूर्तादि- भ्य यावत् पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणधान्द्रो भिरत श्राह
मासः , एकपूर्णिमापरावर्तश्चान्द्रो मास इति यावत् , एकत्तीसं च दिणा, इगुतीस मुहुत्तसत्तरसभागा। । अथवा-चन्द्रनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः, स व एत्थं पुण अहिगारो, नायब्बो कम्ममासेणं ॥२५॥
द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरः, चन्द्रमासनिष्पन्नत्वादिति, द्वितीएकत्रिंशद्दिनानि एकोनप्रिंशन्मुहूर्ताः सप्तदश द्वाषष्टिभागाः
यतुर्यावप्येवं व्युत्पत्तितोऽवगन्तव्यौ, तृतीयस्तु युगसंवत्स
रोऽभिवर्द्धितो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणः सं३१-२६-१७-६२ एकत्रिंशहिनानि तावत्पूर्ववत् , ततो यदेक
वत्सरो द्वादशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सर उपजायते, किविंशत्युसरं शतमवशेषं जातं तत् अहोरात्रस्य त्रिशन मुहू
यता कालेन सम्भवतीत्युच्यते-इह युगं चन्द्रचन्द्राभिव" इति मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रिंशदधि
चितचन्द्राभिवतिरूपपञ्चसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सरापेक्षकानि षट्त्रिंशत् शतानि ३६३० एतेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणम् , लब्धा एकोनत्रिशन्मुहूर्ताः२६, शेषमवति
या परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि पञ्च वर्षाणि भवन्ति,
सूर्यमासश्च सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमासकोनत्रिंशष्ठते चतुरिंशत् ३४, सार्द्धषष्टिभागानयनाय द्वाषष्ट्या गुण्यते
दिनानि द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टि गा दिनस्य, ततो गणितसजातान्येकविंशतिशतान्यष्टोत्तराणि २१०८। तेषां चतुर्विंशत्यु
म्भावनया सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासात्तिकमे एकश्चान्द्रमा तरशतेन भागो हियते लब्धाः परिपूर्णाः सप्तदश १७ द्वापष्टिभागाः । अत्र पुनः प्रायश्रितविधावधिकारः प्रकृतं
सोऽधिको लभ्यते, स च यथा लभ्यते तथा पूर्वाचार्यमसातव्यो नक्षत्रादीनां मासानां मध्ये कर्ममासेन ।
दर्शितेयं करणगाथासंप्रति (भाष्कारः) भावमासप्रतिपादनार्थमाह
"चंदस्स जो विसेसो,प्राइचस्स य हविज्ज मासस्स । मूलादिवेदगो खलु, भावे जो वा वि जाणतो तस्स ।
तीसगुणिो संतो, हवा हु अहिमासगो इको ॥१॥" न हि अग्गिनाणतोऽग्गी,णाणं भावो ततोऽणलो ॥२६।।
अस्या अक्षरगमनिका-श्रादित्यसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात्
चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य यो भवति विश्लेषः, इह विश्लेषे भाव-भावमासो द्विधा-श्रागमतो, नोआगमलश्च । तत्र
कृते सति यदवशिष्यते तदव्युपचाराविश्लेषः, स त्रिंशता नोबागमतः खलु मूलादिवेदकः । मूलकन्दकाण्डपत्रपुष्प-।
गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाफलवेदकः। किमुक्तं भवति-यो धान्यमाषजीवो धान्य
णात् सार्द्धत्रिंशदहोरात्ररूपाश्चन्द्रमयसपरिमाणमेकोनत्रिंशमाषभवे वर्तमानो मूलरूपतया कन्दरूपतया काण्डरूपतया
दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यपत्ररूपतया पुष्परूपतया फलरूपतया वा धान्यमाषभवा
ते, ततः स्थितं पश्चाद्दिनमेकमेकेन द्वापष्टिभागेन न्यूनम् , तब युर्वेदयते स नोआगमतो भावमाषः, प्राकृते माषशब्दस्यापि |
दिनं त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिशद्दिनानि एकच द्वाषमास इतिरूपसंभवादागमत आह-(जो वाऽवि जाणतो
ष्टिभागस्त्रिंशता गुणितो जाताः त्रिंशद् षष्टिभागास्ते त्रि तस्स) तस्य-माषस्य मासस्य वा यो शायको-शाता अपि
शहिनेभ्यः शोध्यन्ते ततः स्थितानि शेषाणि एकोनविंशशब्दादुपयुक्तश्च स ागमतो भावमासः । " उपयोगो भाव.
दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य एतावत्परिमानिक्षेपः" इति वचनात् । अत्र-पर प्राह (नहीत्यादि) ननु यदि
पश्चन्द्रमास इति । भवति सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिमासस्य शाता तत्र चोपयुक्तस्तथापि कथमसौ भावमासः १, | क्रमे एकोऽधिकमासो, युगे च सूर्यमासाः षष्टिः ततो भूयोतयग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निः दाहपाकाद्यर्थक्रियाका
ऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिकमे द्वितीयोऽधिकमारित्वाभावात् । अत्र सूरिराह-(नाणमित्यादि ) य
सो भवति, उक्तं चदेतदुक्तम्-तदसत् सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिक्षानात् , इहाद्यर्थाभि
“ सट्ठीए श्राप, हवा हु अहिमासगो जुगद्धम्मि । धानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः, तथाहि-घटोऽपि घट इत्यभि- बावीसे पव्वसए, हवह अबीश्रो जुगंऽतमि ॥१॥" धीयते , घटशब्दोऽपि , घटज्ञानमपि घट इति । एतच्च अस्याप्यक्षरगमनिका-एकस्मिन् युगे-अनन्तरोक्तिस्वरूपे सर्ववादिनामविसंवादस्थानम् । ततो मासज्ञानमपि मास
पर्वणां-पक्षाणां षष्टौ प्रतीतायां-पष्टिसंख्येषु पक्षप्वतिशम्दवाच्यं तच्च भावो जीवगुणत्वात् । स च शानलक्षणो
क्रान्तेषु इत्यर्थः, एतस्मिन् अवसरे युगाई-युगाचप्रमाणे भावस्तस्मादात्मनोऽनन्य इति मासनानोपयुक्तो भाव
एकोऽधिकमासो भवति । द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वादिशे मासः अत्र षड़िधमासनिक्षेपमध्ये कालमासेनाधिकार
द्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽतिकान्ते युगस्यान्तेस्तत्रापि कर्ममासेनेत्यनन्तरमेवोक्तम् , शेषास्त्वपाकरण
युगस्य पर्यवसाने भवति, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेबुद्धयोपन्यस्ताः । एतदेव निक्षेपप्ररूपणायाः फलं यत्प्रस्तु
धिकमासः, पञ्चमे ति द्वौ युगेऽमिवतिसंवत्सरौ।यद्यपि तस्य व्याकरणम् , अप्रस्तुतस्य निराकरणमिति । यदुक्तम्- सूर्यवर्षपञ्चकात्मके युगे चन्द्रमासयवनक्षत्रमासाधिक्य"अप्रस्तुतार्थपाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच निक्षेपः फल | सम्भवस्तथापि नक्षत्रमासस्य लोके व्यवहाराविषयवानिति ।" तदेवं मासनिक्षेपप्ररूपणा कृता । व्य० १ उ०१॥ स्वात्, कोऽर्थः १-यथा चन्द्रमासो लोके विशेषतो प्रक० । ज्यो। वृ०। नि० चू० । दर्श० ।
यवनादिभिश्च व्यवहियते तथा म नक्षत्रमास इति । नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः किमुक्तं भवति ?-चन्द्रश्वारं चरन् | एतेषां च नक्षत्रादिसंवत्सराणां मासदिनमानानयनादियावता कालेनाभिजित प्रारभ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्तं ग-1 प्रमाणं संवत्सराधिकारे वक्ष्यते । एते व चन्द्रावयः पन्च
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३१
(२६४)
अभिधानराजेन्द्रः। मास
मास युगसंवत्सराः पर्वभिः पूर्यन्ते इति तानि कति प्रतिवर्ष | षष्ट्या गुण्यन्ते तदा पूर्णो राशिनं त्रुट्यति शेषस्य विद्यभवन्तीति पृच्छमाह-'पढमस्स ण' मिस्यादि, प्रथमस्य- मानत्वात् , तेन सूचमेक्षिकार्थ द्विगुणीकृतया द्वाषष्ट्या चयुगाऽऽदी प्रवृत्तस्य, भगवन् ! चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वा
तुर्विंशत्यधिकशतरूपया एकादश गुण्यन्ते जातम्-१३६४ णि पक्षरूपाणि प्राप्तानि ?, गौतम ! चतुर्विंशतिः पर्वाणि,
चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा अपि सवर्णनार्थ द्विगुणीक्रिमावशमासात्मकत्वेनास्य प्रतिमास पर्वद्वयसंभवात् , द्वितीय
यन्ते कृत्वा च मूलराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातम्-१४५२ एषां स्य चतुर्थस्य च प्रश्नसूत्रे एवमेव , अभिवतिसंवत्सर
द्वादशभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्युसूत्रे पर्विशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदशचन्द्रमासात्मकत्वेन
त्तरशतभागानाम् । एतावदभिवर्द्धितमासप्रमाणम्, एतेषां प्रतिमास पर्वद्वयसम्भवात् , एवमन्योऽभिवर्शितोऽपि, स
कमेणाङ्कस्थापना, यथा इदं च नाक्षत्रादिमासमानं वर्षे द्वाग्रिमाह-एवमेव पूर्वापरमीलनेन चतुर्विंश पर्वशतं भव
दशमासा इति द्वादशगुणं स्वस्खवर्षमानं जनयन्ति, तीत्याख्यातम् । अथ तृतीयः- प्रमाणसंवत्सरे' इत्यादि,
स्थापना यथाप्रमाणसंवत्सरः कतिविधःप्रशप्तः? गौतम!, पञ्चविधःप्राप्तः,
नक्षत्रः चन्द्रः ऋतुः सूर्यः अभिवर्द्धितः तद्यथा-नाक्षत्रं चान्द्रः ऋतुसंवत्सरः श्रादित्यः अभिव
दिन- २७ २९ ३० ३० चितश्च । अत्र नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धिताख्याः स्वरूपतः प्राग
भाग २१ ३२ . ३० १२१ भिहिताः, तबो लोकप्रसिद्धा वसन्तादयः तद्व्यवहारहेतुः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः, ग्रन्थान्तरे चास्य नाम सावनसंवत्सरः कर्मसंवत्सर इति । श्रादित्यचारेण द
___ नक्षत्रः चन्द्रः ऋतुः सूर्यः अभिवर्द्धितः क्षिणोत्तरायणाभ्यां निष्पन्नः आदित्यसंवत्सरः । प्रमाणप्र.
दिन ३२७ ३५४ ३६० ३६६ ३८३
भाग ५१ १२ ० ० ४४ धानत्वादस्य संवत्सरस्य प्रमाणमेवाभिधीयते, तस्य च
० ६७६७
. ६२ मासप्रमाणाधीनत्वादादी मासप्रमाणम् , तथाहि-इह किल
नाक्षत्रादिसंवत्सरमानम्, स एष प्रमाणसंवत्सर इति निचन्द्रचन्द्राभितिचन्द्राभिवर्द्धितमामकसंवत्सरपश्चकप्र
गमनवाक्यम् , एषां च मध्ये ऋतुमासऋतुसंवत्सरावेव माणे युगे अहोरात्रराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो भव
लोकैः पुत्रवृद्धिकलान्तरवृद्धयादिषु व्यवहियेते, निरंशति, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते रह सूर्यस्य दक्षि
कत्वेन सुबोधत्वात् , यदाहणमुत्तरं वाऽयनं ध्यशीत्यधिकदिनशतात्मकम् , युगे च पश्च
"कम्मो निरंसयाए, मासो ववहारकारगो लोए । दक्षिणायनानि पञ्च चोत्तरायणानि इति । सर्वसंख्यया दशा
सेसा उ संसयाए, ववहारे दुक्करा घेत्तुं ॥१॥" यनानि, ततरुयशीत्यधिकं दिनशतं दशकेन गुण्यते इत्या
अत्र व्याख्या-श्रादित्यादिसंवत्सरमासानां मध्ये कर्मसंगच्छति यथोक्लो दिनराशिः । एवंप्रमाणं दिनराशि स्था
वत्सरसम्बन्धी मासो निरंशतया-पूर्णप्रिंशदहोरात्रप्रमाणतपयित्वा नक्षत्रचन्द्रऋत्वादिमासानां दिनानयनार्थ यथाक्रम
या लोकव्यवहारकारकः स्यात्, शेषास्तु सूर्यादयो व्यवहारे सप्तपश्येकषष्टिषष्टिद्वापष्टिलक्षणैर्भागहारैर्भागं हरेत् , ततो य
ग्रहीतुं दुष्कराः सांशतया न व्यवहारपथमवतरन्तीति, निरंशथोक्तं नक्षत्रादिमासचतुष्कगतदिनपरिमाणमागच्छति, तथा
ता चैवम्-पष्टिः पलानि घटिका, तेच द्वे मुहूर्तः, ते च त्रिंशदहि-युगदिनराशेः १८३० रूपः, अस्य सप्तपष्टिर्युगे मासा
होरात्रः, ते च पञ्चदश पक्षः, तौ द्वौ मासः, ते च द्वादश संवइति सप्तषष्ट्या भागो हियते, यल्लब्धं तनक्षत्रमासमानम् ,
त्सर इति। शास्त्रवेदिभिस्तु सर्वेऽपि मासाः स्वस्वकार्येषु नितथाऽस्यैव युगदिनराशेः १८३० रूपस्य एकषष्र्युिगे ऋतु
योजिताः। तथाहि-अत्र नक्षत्रमासप्रयोजनं संप्रदायगम्यम् । मासा इति एकषष्टया भागहरणे लब्धम् ऋतुमासमानम् । “वैशाने श्रावणे मार्गे, पौषे फाल्गुन एव हि। तथा युगे सूर्यमासाः षधिरिति ध्रवराशेः १८३० रूप
कुर्वीत वास्तुप्रारम्भं न तु शेषेषु सप्तसु ॥१॥" स्य षष्टया भागहारे यल्लब्धं तत्सूर्यमासमानम् , तथा:- इत्यादौ चन्द्रमासस्य प्रयोजनम् , ऋतुमासस्य तु पूर्वभिवर्शिते वर्षे तृतीये पश्चमे वा त्रयोदश चन्द्रमासा भ.
मुक्तम् , 'जीवे सिंहस्थ धन्विमीनस्थितेऽक, विष्णौ निद्राणे वन्ति, तद्वर्षे द्वादशभागीक्रियते तत एकैको भागोऽभिव
चाधिमासे न लग्नम्' इत्यादौ तु सूर्यमासाभिवर्द्धितमासचितमास इत्युच्यते, इह किलाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रयोदश
योरिति, पूर्व नक्षत्रसंवत्सरादयः स्वरूपतो निरूपिताः, अत्र चन्द्रमासमानस्य दिनप्रमाणं त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशथ द्वाषष्टिभागाः, कथमिति चेत्, उच्यते-च.
तु दिनमानानयनादिप्रमाणकरणेन विशेषेण निरूपिता इति म्द्रमासमानं दिनानि २६१३ पतपं त्रयोदशभिगुण्यते जाता.
न पौनरुक्त्यं विभाव्यम् । निशीथभाष्यकाराशयेन नक्षत्रनि सप्तसप्तत्युत्तराणि त्रीणि शतानि दिनाना, पोडशोत्तराणि
चन्द्रर्तुसर्याभिवर्द्धितरूपकं मासपञ्चकम् । जं०७ वक्षः। चत्वारि शतानि चांशानां ते च दिनस्य द्वापष्टिभागास्ततो
बासाणं पढर्म मार्स कति णक्वत्ता ऐति , गोयमा ! दिनानयनार्थ द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि पद दिनानि,
चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तरासादा अभिई सतानि च पूर्वोक्लदिनेषु मील्यन्ते जातानि श्रीणि शतानि | वणो धणिट्ठा । उत्तरासाढा चउद्दस अहोरत्ते इ, अभिई यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, सत्त अहोरत्ते णेइ, सवणो अट्ठ अहोरते णेइ, धणिट्ठा ततो वर्षे द्वादश मासाः इति । मासाऽऽनयनाय द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः , शेषास्तिष्ठ
एग अहोरत्तं णइ । तसि च णं मासंसि चउरंऽगुलपोरिस्यहोरात्रा एकादश, ते च द्वादशानां भागं न प्रयच्छन्ति
सीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टह, तस्स णं मासस्स तेन यदि एकादश चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागमीलनार्थ द्वा- चरिमदिवसे दो पदा चत्तारि अ अंगुला पोरिसी भवइ ।
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( २६५ ) अभिधान राजेन्द्रः |
मास
गो
1
वासाणं भंते ! दोच्चं मासं कई राक्खत्ता ति १ यमा ! चत्तारि धनिट्टा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तरामदवया । धणिट्ठा णं चउदस ग्रहोरते खेइ, सयभिसया सत्त अहोरते इ, पुव्वाभवया अट्ठ अहोरते इ, उत्तरामद्दवया एगं । तंसि च णं मासंसि गुलपोरिसीए छाere are yपरियदृइ । तस्स मासस्स चरिमे दि से दो या अंगुला पोरसी भवइ । वासाणं भंते ! तइयं मासं कइ एक्खत्ता ति ?, गोयमा ! ति स्पि णक्खत्ता णेंति, तं जहा- उत्तरभवया रेवई अस्सिरणी । उत्तरभद्दवया चउद्दस राईदिए रोड, रेवई पम्मरस, अस्सि णी एगं। तंसि च णं मासंसि दुबालसंऽगुलपोरिसीए बाया सूरिए अणुपरिट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिसे लेहडाई तिमि पयाई पोरिसी भवइ । वासाणं भंते ! चउत्थं मासं कति राक्खत्ता मेंति ?, गोयमा ! तिमिअस्सिणी भरणी कत्तिया । अस्सिणी चउदस, भरणी पन्नरस, कत्तिआ एगं । तंसि च णं मासंसि सोलसंऽगुलपोरिर्साए छायाए सूरिए अणुपरिट्टइ । तस्सं मासस्स चरिमे दिवसे तिम्मि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमन्ताणं भंते ! पढमं मासं कति खक्खत्ता - वि १, गोयमा ! तिमि कत्तित्रा रोहिणी मिगसिरं । कचित्रा चउदस, रोहिणी पारस, मिगसिरं एगं अहोर खेडु | तंसि च णं मासंसि वीसंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअड्डइ | तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिबसे तंसि च णं दिवसंसि तिमि पयाई अट्ठ य अंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमताणं भन्ते ! दोचं मार्स कति क्खताति ?, गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता गेंति, तं जहामित्रसिरं अद्दा पुणव्वम् पुस्सो । मिसिरं चउदस राईदिचाई णेइ, अद्दा अट्ठ णेइ, पुणव्वसू सत्त राईदिई
पुस्सो एगं राईदियं इ । तया गं चउव्वीसंऽगुलपोरिसre छायाए सूरिए अणुपरियट्टड़ । तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहड्डाई चतर पयाई पोरिसी भवइ । हेमन्ताणं भंते ! तच्चं मासं कति णक्खत्ता ति ?, गोयमा । तिमि पुस्सो असिले सा महा । पुस्सो चोद्दस राईदिई रोड, असिलेसा पमरस, महा एकं । तया वीसंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिदृइ | तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिमि पयाई टुंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमंताणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति क्खत्ता खेंति ?, गोमा ! तिमि क्खत्ता णेंति, तं जहा महा पुव्वाफग्गुणी
६७
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मास
उत्तराफग्गुणी । महा चउद्दस राईदिखाई इ, पुष्त्राफग्गुणी पम्मरस राईदियाई इ, उत्तराफग्गुणी एगं राईदि ह । तया णं सोलसंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिट्टह । तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिमि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते ! पढमं मासं कति गक्खत्ता ति ?, गोत्रमा ! तिमि क्खत्ता मेंति, उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता । उतराफरगुणी चउदस राईदिई इ. हत्थो परणरस राईदिआई इ, चित्ता एगं राईदि इ । तया गं दुबालसंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिदृइ । तस्स मासरूस जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाई तिम्मि पयाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते ! दोच्चं मासं कति क्खत्ता ति ?, गोयमा ! तिष्मि गक्खत्ता - ति, तं जहा चित्ता साई विसाहा । चित्ता चउद्दस राईदिखाई इ, साई पारस राईदिई इ, विसाहा एगं राईदि ड् । तया गं अऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिदृइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च मं दिवसंसि दो पयाई अटुंऽगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते ! तच्चं मासं कति खक्खत्ता खेति १, गोयमा ! चत्तारि खक्खत्ता खेति, तं जहा -विसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो । बिसाहा चउद्दस राईदिई रोह,
,
राहा अट्टराईदिई इ, जेट्ठा सत्त राईदिई इ, मूलो एवं राईदि । तया गं चउरंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिदृइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिबसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति क्खत्ता ति गोयमा ! तिमि णक्खत्ता ति तं जहा-मूलो पुण्यासाठा उत्तरासादा । मूलो चउद्दस राईदिई इ, पुव्वासाढा पपरस राईदिआई गेह, उत्तरासाठा एवं राईदिइ । तया णं वट्टाए समचउरंससंठाणसंठिया गग्गोहपरिमण्डलाए सकायम रंगिया ए छायाe are परिदृइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाई दो पयाई पोरिसी भवइ । एतेसि णं पुष्ववस्मि । णं पयाणं इमा संगहणी । तं जहा
“ जोगो देवयतारग्ग-गोत्तमठाणचन्दरविजोगो । कुल पुष्पिमावमंसा, या छाया य बौद्धव्या ॥ १ ॥ " ( सूत्र - १६२ )
वर्षाणाम् वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथममासं श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तङ्गमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया क्रमेण नयन्ति ?, द्विकर्मकत्वादस्य समाप्तिमिति ग
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मास अभिधानराजेन्द्रः।
मास म्यते. कोऽर्थः ?-वक्ष्यमाणसंख्याङ्कस्वस्वदिनेषु इमानि न- भदन्त ! चतुर्थे कार्तिकलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयक्षत्राणि यदा अस्तमयन्ति तदा श्रावणमासेऽहोरात्रसमाप्ति- | न्ति ?, गौतम ! त्रीणि-अश्विनी भरणी कृत्तिका च । तत्रारित्यर्थः, तेनैतानि रात्रिपरिसमापकत्वाद्रात्रिनक्षत्राण्युच्या श्विनी चतुर्दशाहोरात्रान् ,भरणी पञ्चदशाहोरात्रान् ,कृत्तिका म्ते, भगयानाह-गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, त. एकमहोरात्र नयति । तस्मिंश्च मासे घोडशाङ्गुलपौरुष्यायथा-उत्तराषाढा अभिजिच्छ्रवणो धनिष्ठा व । तत्रोत्तरा- षोडशाङ्गलाधिकपारुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते । भावापाढा प्रथमान् चतुईश अहोरात्रान् नयति, तदनन्तरमभि- 2 पूर्ववत् । एतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि जिनक्षत्रं सप्ताहोरात्रानयति, ततः श्रवणनक्षत्रमष्ठी अहो- पदानि चत्वारि चाङ्गलानि पौरुषी भवति । गतो वर्षाकालः । रामानयति , एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्थैकोनः | अथ हेमन्तकालं पृच्छति-(हेमन्ताण मित्यादि ) हेमन्ताविशदहोरात्रा गतास्ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिन चर- नां-हेमन्तकालस्य भदन्त ! प्रथम मार्गशीर्षलक्षणं मासं ममेकमहोरात्रं धनिष्ठा नक्षत्रं नयति । एवं श्रावणमासं च- कति नक्षत्राणि नयन्ति?, गौतम! त्रीणि नक्षत्राणि-कृत्तित्वारि नक्षत्राणि नयन्ति । अस्य च नेतद्वारस्य प्रयोजन का रोहिणी मृगशिरश्च । तत्र कृत्तिका चतुर्दशाहोरात्रान् , रात्रिज्ञानादौ।
रोहिणी पश्चदशाहोरात्रान् , मृगशिर एकमहोरात्रं नयति । "जं नेइ जया रति, णक्खतं तंमि णहचउम्भागे ।
तस्मिश्च मासे विंशत्यङ्गुलपौरुष्या-विंशत्यङ्गुलाधिकपौरुसंपत्ते विरमेजा, सज्झायपोसकालंमि ॥१॥"
घ्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते । भावार्थः पूर्ववत् । ए
तदेवाह-तस्य मासस्य यश्चरमो दिवसस्तस्मिन् ! इत्यादौ, तदनुरोधेन च दिनमानशानायाह-तस्मिश्च श्रा- दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट चाङ्गलानि पौरुषी भवतीति । वणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसं--
अथ द्वितीयं पृच्छति-( हेमन्ताणं भन्ते ! इत्यादि ) हेकान्त्या तथा कथञ्चनापि परावर्तते यथा तस्य श्रावणमा
मन्तकालस्य भदन्त ! द्वितीयं पौषनामकं मासं कति नसस्य पर्यन्तेषु चतुरङ्गुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति । अत्र |
क्षत्राणि नयन्ति ? , गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति । चाय विशेषः-मस्यां संक्रान्तौ यावद्दिनरात्रिमाने तश्चतुर्थोंs
तद्यथा-मृगशिरः पार्दा पुनर्वसुः पुष्यश्च । तत्र मृगशः पौरुषीयामः प्रहर इति यावत्,आषाढपूर्णिमायां च द्विपदः।
शिरश्चतुर्दश रात्रिन्दिवान्नयति , प्रार्दा अष्टौ रात्रिंदिवान् , प्रमाणा-पौरुषी, तस्यां च धावणसत्कचतुरङ्गलप्रक्षेपे चतुर
पुनर्वसुः सप्त रात्रिन्दिवान , पुष्यः एकं रात्रिन्दिवं नयति । लाधिका पौरुषी भवति । माने मेयोपचारादभेदनिर्देशः,
तदा चतुर्विंशत्यङ्गालपौरुष्या-चतुर्विशत्यङ्गलाधिकपौरुष्या तेन चतुरङ्गलाधिकपौरुष्या छाययेति विशेषणविशेष्यभावः।
छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते । भावार्थः पूर्ववत् । तस्य एतदेवाह-तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे च
मासस्य चरमे दिवसे रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा, तत्वारि चालानि पौरुषी भवति । अथ द्वितीयं मासं पृच्छति
त्स्थानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति । किमुक्तं भवति ?'वासाण' मित्यादि, वर्षाणां वर्षाकालस्य भदन्त ! द्वितीय
परिपूर्णानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति । अथ तृतीयं भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? , अस्य वा
पृच्छति-(हेमन्ताणमित्यादि) एतत् सुगमम् । अथ चतुर्थ क्यस्य भावार्थः प्राग्बद्भावनीयः । गीतम ! चत्वारि नक्ष-पति-"हेमन्ताण भन्ते ! चउत्थं इत्यादि " सुममम् । त्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शतभिषक पूर्वभद्रपदा ऊ
अतीतो हेमन्तः । अथ ग्रीष्मं पृच्छति-' गिम्हाणं भन्ते ! तरभद्रपदा च । तत्र धनिष्ठा प्राद्यान् चतुर्दश अहोरात्रान् | पटनात्यादि तथा गिम्हाणं भन्ते ! दो' इत्यादि, नयति, तदनन्तरं शतभिषक सप्ताहोरात्रान् नयति, ततः पर
तथा ' गिम्हाणं भन्ते ! तञ्चं मासं' इत्यादि , तथा ' गिमष्टावहोरात्रान् पूर्वभद्रापदा नयति,तदनन्तरमेकमहोरात्रमु- म्हाणं भन्ते चउत्थं' इत्यादि , चत्वार्यपि इमानि ग्रीष्मकालत्तरभद्रपदा नयति । एवमेनं भाद्रपदमासं चत्वारि नक्षत्राणि
स चत्वारि नक्षत्राणि | सूत्राणि सुबोधानि, प्रायः प्राक्क्रनसूत्रानुसारित्वात् । नवरं नयन्ति, तस्मिश्च मासेऽष्टाङ्गुलपौरुष्या-अष्टाङ्गुलाधिकपी- तस्मिश्चापाढे मासे प्रकाश्यवस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया समचतुरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते। अत्र भावार्थः प्राग्वद् भाव- रस्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोनीयः । एतदेवाह-तस्य भाद्रपदमासस्य चरमे दिवसे द्वे- | धपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया उपलक्षणमेतत् पदे प्रष्ट चाङ्गुलानि पौरुषी भवति । अथ तृतीयं पृच्छति- | शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थि(वासाणं भंते ! त्ति, इत्यादि ) वर्षाणां भदन्त ! तृतीयं मासं तया । आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुकति नक्षत्राणि नयन्ति ? , गौतम! त्रीणि नक्षत्राणि-उत्तर- नो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भद्रपदा रेवती अश्विनी च । तत्रोत्तरभद्रपदा चतुर्दश रात्रि-| भवति, निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरमदिवसे तत्रापि न्दिवान् नयति, रेवती पञ्चदश रात्रिन्दिवान् नयति, अश्वि- सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये, ततो यत् प्रकाश्य वस्तु नी एकं राविन्दिवं नयति । एवं तृतीयं मासं त्रीणि नक्षत्राणि यत्संस्थानं भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते । नयन्ति, तस्मिश्च मासे द्वादशाङ्गल पौरुष्या-द्वादशाहला- तत उक्तम्-वृत्तस्य वृत्तया इत्यादि । एतदेवाह-खकायमधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते । भावार्थः पूर्ववत् । नुरङ्गिन्या, स्वस्य-स्वकीयस्य छायानिबन्धनस्य वस्तुनः पतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे रेखापादपर्यन्तवर्ति- कायः शरीरं स्वकायस्तमनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंमी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति । किमुक्तं शीला अनुरङ्गिनी, द्विषद्महेत्यादिना,श्रीसिद्ध० "युजरजभवति?-परिपूर्णानि वीणि पदानि पौरुषी भवति । अथ द्विष०" ।५-२-४० । इति घिनञ्प्रत्ययस्तया स्वकायमनुरचतुर्थे पृच्छति-( यासाणमित्यादि ) वर्षाणां वर्षाकालस्य । शिन्या छायया सूर्योऽ-बुप्रतिदिवसं परावर्त्तते । एतदुक्तं
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( २६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मास
भवति श्राषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसंक्रान्त्या तथा कथंचनापि सूर्यः परावर्त्तते यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिकाते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति । शेषं सुगमम् । इदं च पौरुषीप्रमाणं व्यवहारत उक्तम् । निश्चयतः सात्रिशताऽहोरात्रैश्चतुरङ्गुला वृद्धिहनिर्वा वेदितव्या । ॐ० ७ ० (पौरुपी प्रमाणप्रतिपादकाः पूर्वाचार्यप्रसिद्धाः 'पोरिसी' शब्दे पञ्चमभागे ११२८ पृष्ठे सव्याकरणगाथाः ख्या गताः )
अथ मासानां संख्यामाह
एगमेगस्स गं ते ! संवच्छरस्स कर मासा पम्मता ? | गोमा ! दुवाल मासा पहणता तेसि गं दुविहा णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा लोइया, लोउत्तरिया य । तत्भ लोइया णामा इमे तं जहा - सावणे भद्दवए० जाव साढे, लोउत्तरिया णामा इमे, तं जहा
"
" अभिदिए पट्टे अ, विजए पीवद्धसे । सेय सिवे चैव, सिसिरे अ सहेमवं ॥ १ ॥ वमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे । एक्कारसे निदाहे अ, वणविरोहे अ बारसमे ॥ २ ॥ " एकैकस्य भदन्त ! संवत्सरस्य कति मासाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! द्वादश मासाः प्रशप्ताः तेषां विविधानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - लौकिकानि, लोकोत्तराणि च । तत्र लोकः प्रवचनायो जनस्तेषु प्रसिद्धत्वेन तत्सम्बन्धीनि लीकिकानि । लोकः प्रागुक्त एवं तस्मात्सम्यग्ज्ञानादिगुणयुकत्वेन उत्तराः - प्रधानाः लोकोत्तराः जैनास्तेषु प्रसिद्धत्वेन सत्सम्वधीनि लोकोत्तराणि अत्र वृद्धिविधानस्य वैकल्पिकरवेन य थाथुतरूपसिद्धिः। तत्र सीकिकानि नामान्यमूनि तद्यथा था.
।
भाद्रपदः यावत्करणात् आभ्ययुजः कार्तिको मार्गशीर्ष पौष माघ फाल्गुनीत्रो वैशाखो पेष्ठ आपाद इति लो कोत्तराणि नामान्यमूनि तयथा- प्रथमः आवणः, अमिनदितो द्वितीयः प्रतिष्ठितस्तृतीयो विजयश्चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः पञ्चमः, श्रेयान् पष्ठः शिवः समः शिशिरः महिमवान् सूत्रे च पदपूरणाय सहशब्देन समासः तेन हिमवता सह शिशिर इत्यागतं शिशिरः हिमवांश्चेति, नवमो वसन्तमासः, दशमः कुसुमसम्भवः, एकादशो निदाघः, द्वादशो बनविरोध इति । अत्र सूर्यप्रशसित्ती अभिनन्दितस्थाने अभिनन्द वनचिरोहस्थाने तु पनविरोधी इति । ॐ०७ यक्ष० । अवसरे, " कालमासे कालं किया " मरसाबसरे मरणं विधायेत्यर्थः। श्र० । जं० । स० ।
आसादे गं मासे एगुणतीसइराईदियाई राईदियग्गेणं पणता, ( एवं चैव ) भद्दवए गं मासे कत्तिए गं मासे पोसे गं मासे फग्गुणे से मासे वइसाहे मासे, चंददिखेां एगुणती मुहुत्ते सातिरेगे मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ता । स० २६ सम० । मासउस - माषतुष - पुं० । श्रागमप्रसिद्धे जडसाधी, पञ्चा० ११ विव० ।
भासल पञ्चा० १७ विव० । जीत० । ध० । दर्श० । पं०भा० । पं० चू० । ध० ओ० वृ० घोष० । ( विदारशब्देऽयं व्याख्यास्यते )
1
मासकल्पद्वारमाह
दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पो चैव थेरकप्पो य । एकेको वि यदुविहो, अडियकप्पो व ठिबकच्यो ॥ द्विविधो मासकल्पः, तद्यथा - जिनकल्पः स्थविरकल्पश्च । पुनरेकैको द्विविधः - अस्थिनकल्पः स्थितकल्पश्च । तत्र मयमसाधून मास्कल्पः स्थितः पूर्वपथिमानां तु स्थितः । ततः पूर्वपश्चिमाः साधयो नियमात् नुबडे मासे मासेन विहरन्ति । मध्यमानां पुनरनियमः कदाचिन्मासं पूरयित्वा ऽपि निर्गच्छन्ति । कदाचित्तु देशोनपूर्वकोटीमप्येकत्र - सते पृ० ६.३० । ।
से गार्मसि वा० जाय कप्पर सिग्गंचा हेमंतगिम्हासु एवं मासं वत्थए ||६|
"
( इति सूत्रम् वसहि शब्दे ) त्रिंशदहोरात्रमानमेकमृतुमासं कल्पते वस्तुमिति तदनुभावार्थः । अथ येषां मासकल्पेन विहारो भवति तन्नामग्राहं गृहीत्वा तद्विविमभिधित्सुराहजिसुद्धहालंदे, गच्छे मासो तहेव अजाणं । एएस नागतं वोच्खामि महाणुपुब्दीए ॥ ३३१ ॥ जिनकल्पिकानां शुद्धपरिहारिकाणां यचालन्दकल्पिकानां गच्छ्वासिनां स्थविरकल्पि कानामित्यर्थः । तथैवाणां साध्वीनां यथा येषां मासकल्पो भवति वयेतेषां सर्वेषामपिनानात्वं स्यामि यथानुपूर्व्या यथोदिएपरिपाटया पृ० १३० | साधून मासकल्पादिविधिना बिहार ऐकान्तिकी :न्यथा वा इति ? प्रश्ने, उत्तरम् - साधूनां मासकल्पादिदिहारो नैकान्तिको, यतः कारणाभावे ते मासकल्पादिविधिनैव विहरन्ति, कारणे तु “पंचसमिश्रा तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे । वासस्यं पि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया | १|" इत्यादिवचनाद्वतरमपि कालमेकत्र तिष्टन्तीति । सेन० १ उल्ला० १५ प्र० । मासखमण मासचपण न०पयात्मकमासपर्यन्ते निराहारे, बृ० ३ उ० । मासणिव्वाहि- मासनिर्वाहिन्- त्रि० । मासनिर्वहणसमर्पके,
पं० ० ५ द्वार ।
मासपाणी - माषपणी श्री० [औषधिभेदे, प्रा० १ पद । मास ( प ) पुरिवडा - मासपरिवर्त्ता स्त्री० भङ्गदेशराजधान्यास, प्रज्ञा० १ पद । प्रश्न० । प्रव० । सूत्र० ।
1
मासप्रिया मासपुरका स्त्री० स्थविराधिगतस्थावरोदयस्योद्देहगणस्य शाखायाम्, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । मासपेया- माषपेया- स्त्री० । माषपिष्टमय्यां पेयायाम्, श्र०क०
६ श्र० ।
मासपोलिया - माषपोलिका - स्त्री० । माषपिष्टभृतायां पोलिकायाम्, स०१ सम० ।
मासफल माषफल - २० वेतसपपोडके, ज्यो० १ पाहु० ।
मासकप्प - मासकल्प - पुं० । एकत्र मासावस्थितिरूपे समाचारे, मासल- मांसल - त्रि० । मांसादेर्वा ॥ ८ । १ । २६ ॥ इत्यनुखार
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(२६८) मासल अभिधानराजेन्द्रः।
माहमाला खोपः। प्रा०। उपचितरसे, प्रज्ञा०१७ पद ४ उ० । जी। ख्यात ग्रामे , आ० चू०१०। कल्प० । आचा। वहले जी०३ प्रति ४ अधिः।
माहणकुल-ब्राह्मणकुल-न० । ब्राह्मणसन्ताने, कल्प०१५मासलोल-मांसलोल-वि०। मांसलम्पटे, उपा० ८ ०। । माससगलिया-मांससगलिका-स्त्री०। उडदफलीपाणके, भ० माहणग्गाम-ब्राह्मणग्राम-पुं० । ब्राह्मणकुण्डग्रामे , कल्प०१ १५ श०।
अधि०६ क्षण। मासिअ--देशी-पिशुने, दे० ना ६ वर्ग १२२ गाथा । माहणज्मयण-ब्राह्मणाध्ययन-पुं० । कौशाम्ब्यां बृहस्पतिमासिय-मासिक-त्रि० । मासेन निर्वृत्तं मासिकम् । मास- दत्तनामके पुत्रे, स्था० १० ठा० । ( कौशाम्ब्यां बृहस्पतिदत्त निष्पन्ने, व्य० १ उ०। स्था० । आचा० । नि० चू० ।
नामा ब्राह्मणः, तद्वृत्तम्-'कम्मविवागदसा' शब्दे तृतीयभागे मासोऽस्य परिमाण मासमहति वा मासनिष्पन्नं वा मासि
३४४ पृष्ठे गतम् ) कम् । नि० चू० २० उ० । कल्प० । ।
माहणपुत्त-ब्राह्मणपुत्र-पुं० । ब्राह्मणसन्ताने, स्था०६ ठा०। मासियभिक्खुपडिमा-मासिकभिक्षप्रतिमा-स्त्री०मासपरि. |
माहणवसिष्ठम्माय-ब्राह्मणवशिष्ठन्याय-पुं०। ब्राह्मण पायातो माणे भिक्षुप्रतिमाविशेषे,तत्र हि मासं यावदेका दत्तिभक्त
वशिष्ठोऽप्यायात इति सामान्यग्रहणेन विशेषस्यापि ग्रहणे स्यैकैव च पानकस्येति । औ०।
सत्यपि पृथगुपन्यासार्थके लोकन्याये, श्रा०म०१०। मासिया-मासिकी-स्त्री०। मासप्रमाणायां भिक्षुप्रतिमायाम् | माहणसत्थ-ब्राह्मणशास्त्र-नका ब्राह्मणसम्बन्धिनि शास्त्रे,शा० पश्चा० १८ विवाशास० प्रा० चू० । ('भिक्खुप
१श्रु०५०। डिमा' शब्दे पश्चमभागे १५७३ पृष्ठे व्याख्यातैषा)
माहणी-ब्राह्मणी-स्त्री० । ब्राह्मणस्त्रियाम् , उत्त० ४ ० ।
श्रा० म०। मासु-श्मश्रु-पुं० । श्रादेः श्मश्रु-श्मशाने ॥ ८। २।८६॥ इ
माहप्प--पुंन|माहत्म्य-न० । वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः॥८॥१॥३३॥ त्यादेवर्णस्य लुक । मास्। मंसू। मस्सू । कूर्चके, ओष्ठरोमणि, च। प्रा०।
इति पुंस्त्वं वा । माइप्पं । माहप्पो । प्रा० । अद्भुतायां शक्नौ, मासुरी-देशी-श्मश्रुणि, दे० ना०६ वर्ग १३० । गाथा । “मंसू
व्य० १ उ० । महानुभावतायाम् ,उत्त०२ अ०। द्वा० । दर्श० । खइंच मासुरी कुचं" पाइ० ना० ११२ गाथा ।
माहमाला-माघमाला-स्त्री०माघमासे मालापूजायाम्,जीवा। माह-माघ-पुं० । खघथधभाम् ॥८।१।१८७ ॥ स्वरात्परेषा
कुग्गाहुच्छाइयसुह-विवेयपसरा रसंति एवं ऽने। मसंयुक्तानामनादिभूतानामेषां प्रायो होभवति । माहो। प्रा०।
णो माहमाल जुत्ता, सिद्धंऽते जेण पडिसिद्धा ॥४३॥ माधीपूर्णिमायुक्त, प्रा० म०१ अ०। प्रश्म। जी० । कुन्दकु
कुग्राहेण-दुष्ठाभिप्रायेण, उच्छादितः-अपनीतः, शुभः-प्रसुमे, दे० ना० ६ वर्ग १२८ गाथा । माघमासे, “सिसिरो
शस्तो, विवेकप्रसरः--कृत्यानुष्ठानविभागो येषां ते रसन्तिफग्गुण-माहो" पाइ० ना०२०७ गाथा ।
जल्पन्ति । एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण, अन्ये-अपरे । तदेवाहमाहण-माहन-ब्राह्मण-पुं० मा हनेत्येवं-योऽन्य प्रति वक्ति स्वयं |
(नो)-नैव, माघमाला प्रतीता, युक्ता-संगता । किमितीत्याह
सिद्धान्ते-भागमे यस्मात्प्रतिषिद्धा-निवारितेति गाथार्थः । हनमनिवृत्तः सन्नसौ माहनः । ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य-कुशलानुष्ठान
तमेव निषेधं दर्शयितुं पराभिप्रायेण वाऽस्यास्तीति ब्राह्मणः । भ०१ श०७ उ० । मा बधीरित्येवं
किंचिदून गाथार्द्धमाहप्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनः । सूत्र०२ श्रु०२ १०। उत्तरगुणमू
लोइयतित्थेसु एहा-णदाणइच्चाइवयउ...' लगुणपति संयते, स्था० ५ ठा०२ उ० । मा हन इति परं प्रत्याचक्षाणे स्वयं हनननिवृत्ते मूलगुणधरे, स्था० ३ ठा०१
लौकिकतीर्थेषु-पराभिमतपुण्यक्षेत्रेषु,अनुस्वारोऽत्र पूर्ववत्, उ० । साधी, आचा०१(०८ १०८ उ० । सूत्र०। प्रातु०॥
| स्नानदानमित्यादिवचः,प्रादिशब्दात् संक्रान्तिग्रहः । तत्र मा. जीवहिंसानिषेधकारिणि दर्श० ५ तस्व । सूत्र० । द्वि
नं-तत्तीर्थेषु जलादिना, दानं तु तत्सम्मतक्षेत्रे द्रव्यादिवितरजातौ , सूत्र० १ ० १ ० ३ उ०। मुनौ , सूत्र० १
णं न कार्यमिति प्रक्रमाद् दृश्यम् श्रावकाणाम् , अयमभिप्रा. श्रु०२ १०२ उ०। भ०। सूत्र०। तीर्थकृति " माहणणं
यः-यत् किमपि लौकिकैर्धर्मार्थ विधीयते पूर्वोक्तं तच्छावकैः क मईमया” (१ गाथा) सूत्र०१ श्रु० ११ १० । दश०।।
तुन युज्यतेमाघमालामपि तेश्रादिशब्दाद् गृह्णन्ति इति भावः। भ० । नि० चू०। औ० । स्वयं हनननिवृत्तत्वात्परं प्रति मा
अनोत्तरार्द्धसार्हो किंचिदधिकां गाथां हनेति वादिनमुपलक्षणत्वादेव मूलगुणन इति भावः । श्रा
पराभिमतयुक्तिसहितामाह
............................."तं बके, माहनः श्रावकः । भ०२ श० ५ उ० । पाचू० ।
नो। आचा। श्रा० म०।नं। औ०। (किं ब्राह्मण्यम् , के शि- जं जं लोए कीरइ, तं तं जइ सव्वमक्कजं ॥४४॥ शः इति 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे ५६ पृष्ठे गतम् ) ग्रा- तो जत्ता रहभमर्ण, उववासो देवभवणपूयाऽऽइ । मणखियाम् , स्त्री० । “घिबाह्मणीर्धवाऽभावे, या जीवति मृता इव । धन्या मन्ये जनैश्शूद्री,पतिलक्षेऽप्यनिन्दिता॥१॥"
मा कुणह सया तुम्हा, लोए किज्जति जुत्तीतो॥४५॥ स्था०४ ठा०१ उ०।
तत्-परोक्तं, नेति निषेधे । यद्यलोके-परदर्शने क्रियते
तत् तत् यदि सर्वम्-समस्तम् , अकार्य ततस्तस्मामाहणकुंडग्गाम-ब्राह्मणकुण्डग्राम-पुं० । मगधदेशे स्वनाम
मगधवश खनाम-। त्, याबाऽपि-विशिष्टमहिमा, रथभ्रमणं-जैनस्यन्दनभ्र
तम
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माहमाला
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9
मणम् श्रादिशब्दात्प्रतिमाप्रेक्षणकादिग्रहः । मेति निषेधे, कुरत-विधन्त कर्मपदं तु सर्वत्र स्वयं संवन्धनीयम् सदासर्वदा ( तुम्हे ) वृपम् कस्मात् लोके परमते क्रियतेविधीयन्ते युक्तिः कारणादिति गाथार्थः । परोत्सादन पूर्व स्वपक्षस्य पुष्टिमाहएवं पि जुज्जड़ च्चिय, जइ सक्का, वारियं भवेज्ज इमं । समईए वारितासं, अंतरायं जतो भणियं ।। ४६ ।। एतदपि भवदुक्तमपि न केवलं मदुक्तम्, युज्यत एव घ टत एव यदि साक्षात्कटम् पारितम् निषिद्धम् भवेत् इदम्-मालारोपणं, "माघमाला न क्रियत" इति स्वमत्या-निजाभिप्रायेण वारयताम् प्रतिषेधं कुर्वताम्, अन्तरायो म कृतिविशेषो भवतीति गम्यते यस्माङ्गतिं शतककर्मग्रन्थ इति शेष इति गाथार्थः ।
तंदेवाह-पाणिबहाईनिरओ, जिणपूयामोक्खमग्गविग्धयरो ।
अंतरायं, ण लहइ जेणिच्छियं लाभं ॥ ४७ ॥ प्राणियधादिनिरतो जीवव्यापादनः दित्सुपाचादादिग्रह जिनपूजा सर्वशाभ्यर्चनम् मोक्षमागों यथावस्थितशुद्धप्ररूपणादिलक्षणः, तयोविंशकरो-भजकः, अजयति स्वीकरोति अन्तरायकर्म विशेषितस्यैव फलमाह-नो नियेथे समते प्राप्नोति येन कर्मोपार्जितेन तम्-अभि लपितं लाभम धनधान्यादिकम् । अयमभिप्रायः माय माला-जिनपूजा न भवति भवति वा? यदि न भवति ततो निर्दोषा, वारयतापि यूयम् भवति चेत् ततो निधितं मह सितं फलं भवतां हडादागच्छति इति गाथार्थः । अत्रापि जीवोपदेशमाह
"
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( २६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
मा मा तुम शिवार, पूर्व रे जीव ! जिणवरिंदाणं । जड़ सयलसोक्खवल्ली- रामप्पणो महसि उल्लासं ॥ ४८ ॥ मामेति श्रत्यादकरणार्थ वीप्सानि निषेधार्थः त्वम्भवान् निवारय निषेध, पूजा-सप रे जीवेत्यामन्त्रये, जिनघरेन्द्राणाम्-सर्वशप्रतिकृतीनास्, यदीति स्वाभिप्रायसूचकार्थः, सकलसीण्ययीनां समस्तसातलतानामात्मनोजीवस्य महसि वाञ्छसि उल्लासम् वृद्धिम् । इति गाथार्थः । तथा कोऽयं तवाभिनिवेशो यदुत लौकिकं न क्रियते अविरुद्धं तदपि विधीयते इति दर्शयन् विशेषावश्यकोक्कां गा
थामाह
-
जं त्थ अभिं, अणुत्था सो वि तह चैव । तंमि पोसो मोहो, विसेसतो जिणमयठियाणं ॥ ४६ ॥ यत् किमपि अवधारितरूपम् अर्थतः सिद्धं पेन अभिन्नम व्यतिरिक्लोचितम्, अन्वर्थात् युक्ताभिधेयात्, शब्दतोऽपि वचनतोऽपि तथा वैवामित्रमेव च तस्मिन् शब्दार्थाभिने जिनवचनमाधित्य प्रद्वेषो मत्सरो मोटो मूहतेयं विशेषतः आदरण जिनमतस्थितानाम् सर्वज्ञागमस्थितानाम् यथापचैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् अहिंसा स त्यमस्तेयं त्यागो मैथुनम् ॥१॥ इत्यादिषु इति साधार्थः सूत्रेणैव ससंबद्धां गाथामाहकिं वाऽणुमयं हरिभ-दरिणो किं वि लोइयं जेय ।
माहुरक
मणि बिस्व बिहिमागमलोगनीइए || ५० ॥
"
' किंवा ' अभ्युच्चये. अनुमतम् - सम्मतम्, हरिभद्रसुरेरावश्यकादिवृत्तिकर्तु किमाप-तत्सर्वतीर्थस्नानादिकं लौकिकम्लोकाचीरस, यस्माद्भणितं प्रतिपादितं विश्वस्थापने- विश्व - स्थापनपञ्चाशके किं भणितं तदाह ( चिडिमागम लोगनीईए ति) विधानं वच्-अभिधास्य, आगमनीत्या-लोकनीत्या वा । इति गाथार्थः ।
यद्यत्र लोकग्रहणं ततः किमित्याहलोयग्गहाउ सिरिश्रभय-सूरिहि जं तत्थ वक्खायं । अविरुद्धं लोइयमत्रि कीरह पासायकरणाई ।। ५१ ।। लोकग्रहणात् - लोकशब्दप्रतिपादनात् . श्रीश्रभयदेवसूरिभिः- भगवत्यादिशास्त्रवृत्तिकारिभिः तत्र विवस्थाप नपञ्चाशकती व्याख्यातम् विवृतम्। किं तदित्याहअविरुद्धम् अद्रूष्यम्. लौकिकमपि इतरदर्शन सत्कमपि सकलमेवेत्यपिशब्दार्थः । क्रियते विधीयते, प्रासादकरणादिश्रीवत्सादिप्रासादविधानादि, आदिशब्दात् शेषाविरुद्धपरि, ग्रहः । इदमत्र हृदयम्--सकललौकिकैर्निजदेवकुले वास्तुवियोप्रासादादिः कार्यते सेोऽस्माकमपि देवसदने विधीयते न तत्र मिथ्यात्वम्, मालापीयमस्माभिरस्मिन् आदिशब्दे क्षिप्यते, अतोऽनवद्या । इति गाथार्थः । समाप्तोऽयं माघमालाप्रतिपादकः सप्तमोऽधिकारः । जीवा० ७ अधि० । माहविच्या माधविका स्त्री० माधयलतायाम् माहविश्रा " पाइ० ना० २५६ गाथा । माहसिलाख माघस्नानन० माघमासे खाननियमे पहिनतः प्रारभ्य शेवा माघस्नानं कुते तदिनत पवारभ्य केचन आदा अपि स्वगृहे उष्णोदकादिना स्नात्वा जिनेागित्या जिनपूजां कुर्वन्ति मासप्रान्ते जिनमपत्यर्थ रात्रिजागरं मोदकादिलम्भनिकामपि कुर्वते, मायस्नान तत्क रणे च मिध्यात्वं स्यादित्युक्त्वा केचन एतत्कृत्यं निषेधयन्तः सन्ति तत्प्रमाणमप्रमाणं वेति प्रभे. उत्तरम् - माघमासं यावदुष्णोदकादिना स्नानकरणं पूजाकरणं तत्प्रान्ते रात्रिजा गरलम्भनिकादिकरणं च न युक्तिमत्यतिभाति प्रसादपादिभवादनाची त्वादिति । २०४० न० ३ उमा० । माहरयण - देशी - वस्त्रे, दे० ना० ६ वर्ग १३२ गाथा । माहिंद माहेन्द्र पुं० । चतुर्थदेवलोके, तदिन्द्रे च स० ७०
66
सम० । ० चू० । प्रव० | स्था० | जं० प्रश्न० । श्रहोरात्रस्य त्रिंशत्तमे मुहते, स०३० सम० । जं० । ज्यो० । विशे० । सं० प्र० अनु० उत्तराहाणां माहेन्द्रकल्परयेा०२ डा० ३ उ० । अनु० ।
माहिल - देशी - महिषीपाले, दे० ना० ६ वर्ग १३० गाथा । माहिवाय देशी- शिशिरबाते दे० ना० ६ वर्ग १३१ गाथा । माही- माघी स्त्री० मचानात्रे भवा पूर्णिमा माधी मचानभाविन्याममायाम्, पूर्णिमायां च । सू० प्र० १० पाहु०॥ जं० ॥ माहु-माहु-अन्य यस्माद ० ० १ ० । - देशी- शाके, दे० ना० ६ वर्ग १३० गाथा । माहुरमाहुरक माधुरक पुं० धनम्लरसे, प्रा० म० अ०
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ग्रहमुत्तो
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(२७०) माहुरयविहि अभिधानराजेन्द्रः।
मिढियमुह माहुरयविहि-माधुरकविधि-पुं० । अनम्लरसे,उपा० । ('मा- मिश्रसिर-मृगशिरस-न० । नक्षत्रभेदे, अभिजितमादिं कृत्वा हुरयविहिपरिमाणं करोइ' इत्यादिना 'श्राशंद' शब्दे द्वितीय- द्वादशं नक्षतं मृगशिरः। ०७ वक्षः। भागे ११० पृष्ठे सूत्रितम् )(माहुरय त्ति )अनम्लरसानि शा- मिश्रावई-मृगावती-स्त्री०। प्रथमबलदेववासुदेवमातरि, आलनकानि । उपा०१०।।
व०१०। माहुरवायणा-माधुरवाचना-स्त्री० । मथुराजातायां वाचना
मिउ-मृद्-त्रि० । प्रतनुपरिणामे, वृ० १ उ० । यहिवृत्त्या याम् , ज्योतिष्करण्डकातिरिकसूत्राणां माथुरी वाचना।
विनयपति, उत्त० २७ अ० । कोमले, नं० । स्था० । विशदे, ज्यो०२ पाहु०॥
मा०१ श्रु.१०।रा० । मनोझे , रा०। जं० । अस्तब्धे, माहुराहार-माधुराहार-पुं० । मथुरायाः परिभोग्ये तत्समा
ध०३ अधि० । सुकुमारे, औ० । अकर्कशे, तं० । जी० । उसन्न देशे, सूत्र०२ श्रु० ३ १०।।
त। स्पृश्ये, तिनिसलतादिगतो मृदुः । कर्म• १ कर्म०।। माहरी-माथुरी-स्त्री० । मथुरापुरीसङ्घटितत्वात् इयं वाचना मिउकम्म-मृदकर्मन-न० । मृदुसंज्ञकनक्षत्रेषु करणीये कार्य, माथुरीत्यभिधीयते । मथुरापुरीजातायां वाचनायाम् , नं०। “अणुराहा रेवई चेव, चित्ता मिसिरं तहा । मिउनेयाणि सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता| चत्तारि, मिउकम्मं तेसु कारये ॥१॥” दश०१०। तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धि प्रापिता इति तदनुयोगात्तेषामा- मिउकालुणिया-मृदुकारुणिका-स्त्री० । श्रोतुहृदयमार्दवजनचार्याणां संबन्धीति व्यपदिश्यते । नं०। ('खंदिल' शब्दे
नाम्मृद्वी चासौ कारुणिकी च कारुण्यवती मृदुकारुणिकी। तृतीयभागे ६६८ पृष्ठे अत्र मतान्तरं निरूपितम् )
पुत्रादिवियोगदुःखदुःखितमात्रादिकृतकारुण्यरसगर्भप्रलापमाहुलिंग- मातुलिङ्ग-न० । वितस्ति वसति-भरत-कातर
प्रधानायां विकथायाम् , स्था० ७ ठा० । ग०। मातुलिले ह.॥८।१।२१४ ॥ इति तकारस्य हकारः । बी-| मिउकुंडलकुंचियकेस-मृद्कुण्डलकुश्चितकेश-त्रि० । मृदवः जपूरे , प्रा०१ पाद।
कुण्डलमिव दर्भादिकुण्डलकमिव कुश्चिताश्च केशा यस्य स माहे(हिंदज्झय--माहेन्द्रध्वज-पुं० । माहेन्द्रा इत्यतिमहान्तः | तथा । श्राभुग्नकेशवति, भ० १५ श० । समयभाषया, ते च ते ध्वजाश्चेति । अथवा-माहेन्द्रस्य श- | मिउणाम-मृदुनामन्-न० । स्पर्शनामभेदे, यदुदयाज्जन्तुशरी क्रादेवंजा माहेन्द्रध्वजाः। महत्सु ध्वजेचु, इन्द्रध्वजादिषु, र हंसरुतादिवन्मृदु भवति तन्मृदुनाम । कर्म०१ कर्मः। प्रव०२६६ द्वार।
| मिउपिंड-मृत्पिण्ड-पुं० । मृत्तिकापिण्डे, पञ्चा० १ विव० । माहेसरजाया-माहेश्वरजाया-स्त्री० । मायायाम् , अने। ।
मिउमद्दवसंपम्म-मृदुमादवसम्पन्न-मृदु-मनोशं-परिणाममाहेसरी-माहेश्वरी-स्त्री० । महत्या ईश्वर्या कृतेति माहेश्वरी।।
सुखावहमिति भावः यन्मार्दवं तेन सम्पन्नाः । कपटमार्दवात्रिपृष्टपाचलाख्यबलदेववासुदेवनिवेशितायां स्वनामख्याता- नुपेतेषु, तं० । कल्प० । रा०। यां पुर्याम् , यत्र वज्रस्वामिना बौद्धानां जयोऽकारि । श्रा०
मिउमसूरग-मृदुमसूरक-पुं० । आस्तरणविशेषे, कल्प०१ अम.१०। प्रा०चू० । पञ्चा० । श्रा० क०। प्रशा० । ब्रा
धि०३क्षण । ह्यादिलिपिभेदे, स०१८ सम०।
मिउविसय-मृदविशद-त्रि०। कोमलविशदगुणयुक्तेषु, "भिउमि-मि-अव्य० । मार्दवे, पा० म०१ अ०। मीति वाक्या
विसयपसस्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाउ" मृदयः-कोमलाः, लंकारे, प्रा० म०१०। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह में विशदा-निर्मलाः, प्रशस्तानि-शोभनानि अस्फुटितत्वप्रममं मिमं अहं श्रमा ८ । ३ । १७० ॥ इत्यमा सह अस्मदो भृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः, संवेलित संवृतमि-प्रादेशः । माम्-त्यथै, प्रा०३ पाद । नि० चू०। मग्रं येषां शेखरककरणात् ते संवेल्लितायाः, शिरोजाः केशा मित्र-मित-न० । परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचित् पृष्टस्या- यासां ताः । जी० ३ प्रति० १ उ०।। क्षरसंख्यया पदसंख्यया वा परिछिन्ने, प्रा० म०१ मिजा-मिजा-स्त्री० । अस्थिमध्यवर्तिनि धाती, शा०१थ० तुच्छे, " मिश्रं तुच्छं" पाइ० ना० २६५ गाथा।। ५१०। औ० । रा०। बीजे, स्था० १० ठा० । मृग-पुं० । हरिणे, ' मृग इव' तनुत्वभीरूत्वादितद्धर्मयुक्ने, | मिजिया-मिञ्जिका-स्त्री० । त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। स्था० ४ ठा०२ उ०।
भिंठ-मिएड-पुं० । अकामनिर्जराशब्दे उक्ने स्वनामख्याते पुरुमिअंक-मृगाङ्क-पुं० । मसूण-मृगाङ्क-मृत्यु-ज-धृष्टे वा | थे, श्रा० म०१०। ॥८।१।१३०॥ इति ऋत इस्वम् । मिश्रको। प्रा० । चन्द्रे, मिंढ-मेढ़--न० । लिङ्ग. ध०३ अधि० । मेषे, स्था० ४ टा०१ पं०व०१द्वार।
उ० । हस्तिपके इति संभाव्यते । श्रा० क०४ अ०। मिअंग-मृदङ्ग-पुं० । इदुती वृष्ट-वृष्टि-पृथङ्-मृदङ्ग-नप्ल-मिंदमह-मेण्डमुख-न० । यमदग्निश्वशुरपुरे, दर्श० ४ तन्व । के ॥८।१।१३७ ॥ इति ऋत इकारोकारी। मिअंगो । पते-मिंदिया-देशी। गडरिकायाम् , " मिढिाओ अविलाश्रो" मुइंगो । वायभेदे, प्रा०। (मुइंग' शब्दे व्याख्यास्यते)
पाइ० ना०२१६ गाथा। मिअगंध-मृगगन्ध-पुं० । सुषमसुषमाकालभाविनि, जं० ४ मिदियमह-मेदिकमख-पुं० । स्वनामण्याते अनार्यदेश, प्रव० वज्ञा
| २७४ द्वार । भ० । स्वनाभख्याते सत्तिपेशे, पत्र वीरस्वामि
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मिडियमुह
नो रोगातङ्काः प्रादुर्भूताः । यत्र च रेवती धाविका अपात्सी
त् । श्र० म० १ श्र० ।
मग (ब) मृग- पुं० बालशिक्षके, व्य० ३०
प
सूत्र० १ ० १ ० २ उ० । अज्ञानिनि, सूत्र० १ ० १ ० २ उ० | दर्श० | दश० । विपा० । श्र० । मिगकोट्ठग - मृगकोष्ठक - न० । यमदनिऋषिश्वशुरपुरे, श्र०
म० १ श्र० ।
( २७१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मिगचरिया मृगचर्या स्त्री० । मृगभोजनपानविधी, उत०
-
१६ श्र० ।
।
मिगज्झय- मृगध्वज - पुं० । मृगालेख्यरूपोपेते ध्वजे, रा० । मिगतरहा- मृगतृष्णा-श्री० जलभ्रान्ती, अष्ट० ७ अट मिगमण - मृगमनस्- त्रि० । भीरौ, स्था० ४ ठा० २ उ० । मिगलुद्धय-मृगलुब्धकमिगलुय मृगलुब्धक वि० मृगानेच मारयित्वा भुजानेषु वानप्रस्थेषु श्र० । नि० । मिगरहिय-मृगरहित - त्रि० सुपत्वेन रहितो मृगराहितः । गीतार्थावस्थे, दर्श० ४ तत्व मिगलोया मृगलोचना स्त्री० राजीमत्याः खनामख्यातायां सख्याम्, कल्प० १ अधि० ७ क्षरा । मिगवण - मृगवन - न० । वीतभयनगरस्य बहिरुद्याने, भ० १३
श० ६ उ० । रा० ।
1
मिगवालुकी- मृगवालुङ्गी श्री० लोकप्रसिये पालुङ्गीतिप्रतीते वनस्पती, कटुकरसत्वात्कृष्टलेश्याया एतासदृश या स्वादः । प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० ।
मिगसमान - मृगसमान त्रि० । मृगसदृशे, व्य० २ उ० । मिगसिर - मृगशिरस् - न० । सोमदैवत्ये त्रितारे नक्षत्रभेदे, चं० प्र० १ पाहु० | सू० प्र० । ज्यो० । श्रनु० । स० । मिगसीसाऽवली - मृगशीर्षावली - स्त्री० । मृगपशोः शीर्षपुङ्गलानांदीपाय घेणे, जं० ७ ० ।
मिगावई - मृगावती स्त्री० कौशाम्यां नगर्यो सहस्रानीकस्य
राजपुत्रशतानीकभार्यायां चेटकराजदुहितरि उदयनराजमातरि, भ० २०५ उ० । श्राव० । श्रा० चू० । श्रा० म० । जम्बूद्वीप हद्द द्वीपः, पोतवल्लवणोदधौ ।
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कूपस्तम्मो यत्र मेरु- मेगा सितपटः पुनः ॥ १ ॥ तत्रास्ति भरतक्षेत्र, बहुधाऽन्यमनोरमम् । आश्चर्य खात्रपातोऽस्मिन्निदानं च न कुत्रचित् ॥ २ ॥ श्रीसंकेतनिकेतामं तत्र साकेतपत्तनम् । सदाचारपरो यत्र, ज्योतिश्चक्रायते जनः ॥ ३ ॥ नत्र येशानकोणेऽस्ति, मेदिनीमुकुटोपमम् । सुरप्रियस्य यक्षस्यायननं शिखराङ्गतम् ॥ ४॥ स च प्रातिहार्योऽस्ति यज्ञस्तः। वर्षे वर्षे चित्रयित्वा क्रियते सुमहान्महः ॥ ५ ॥ चित्रितश्च सदा तं स हन्ति चित्रकरं नरम् । विज्यते वेष लोक मारिमारभतेतराम् ॥ ६ ॥ ततचित्रकः सर्वे प्रान्त पलायितुम् । न कान्दिशीकः को वा स्यात्कृतान्तेन कटाक्षितः ॥ ७ ॥
मिगाव
राजा हा पलायते, यदि यास्यन्ति चित्रकाः । यक्षो रक्षोवदीर्ष्यालु-र्भाव्ययं तद्वधाय नः ॥ ८ ॥ प्रतिभूः संकलाबद्धा, श्रेणिश्वित्रकृतां कृता । कवलालीव यक्षस्य, क्रमग्राह्या महीभृता ॥ ६ ॥ लेखयित्वाऽथ तनाम, पत्रात्यक्षेपयद् घटे । प्रत्यब्दं नाम निर्याति, यस्य चित्र्योऽथ तेन सः ॥ १० ॥ एवं सति कीशाम्या चित्रं शिक्षितुमागमत् । चित्रकदारकचित्र-कृत पुरुपैरिवेरितः ॥ ११ ॥ बसंस्तत्र स चिह्नाणि, चित्रकर्माणि शिक्षितः । तस्यासीम्मित्रमेका, स्वविरीपुत्रमित्रकः ॥ १२ ॥ स्थविरीसुतनामाङ्कं वर्षे तस्मिम्ध पत्रकम् । कुम्भतो निरगादागा-लेखः पितृपतेरिय ॥ १३ ॥ खवरी सा तदाकर्य तत्कराकटुकं वचः। रुरोद रोदयन्ती च रोदसी अपि दैन्यतः ॥ १४ ॥ किं ममाशालतां देव, कुठारेणैव कुन्तख । सूनुर्ममैक एवायं मृतेऽस्मिन् का गतिर्मम ॥ १५ ॥ रुदन्ती विलपन्ती च खातां मित्रवत्सलः । कौशाम्बीचित्रकः कः स्माह, मातर्माऽरुन्तुदं रुदः ॥ १६ ॥ मातः कातरतां कार्षी-धरतां धारयाऽधुना । चित्रयिष्याम्यहं यक्षं, रक्षिस्यामि सुतं तव ॥ १७ ॥ बभाषे स्थविरी भए, न त्वं पुत्रोऽसि किं मम । उद्घाटयं वा पिधेयं वा, नेत्रयोः पुत्र ! किं द्वयोः ॥ १८ ॥ स ऊंचे सत्यमेतन्मातः किंतु निशम्यताम् । निजप्रारी: परमाणांखायन्ते पौरुषं हि तत् ॥ १८ ॥ परिधायांशुके धीते कृतपष्ठतपाः शुचिः । पटप्रान्तेनाष्टपडे-नावेष्टय मुसकोटरम् ॥ २० ॥ सुगन्धिपयसा स्नात्रं, विधाय कलशैर्नवैः । वर्णकान वर्गकस्थानायकात्कृचिका नव ॥ २१ ॥ सोऽथ व प्रयन, विजयामास चित्रकृत् । भक्त्या कुर्वन् जिनस्येय, मण्डनं चन्दनादिभिः ॥ २२ ॥ चित्रं निर्माय निःशेषं. यक्षमक्षमयततः ।
तुतोष सोऽपि तद्भक्त्या भक्तिमाह्या हि देवताः ॥ २३ ॥ यक्षस्तं स्माह तुष्टोऽहं तद् वरं वृणु सोऽवदत् । वरोऽयमेव मे देव !, मा वधीः कञ्चनाप्यतः ॥ २४ ॥ यज्ञस्तं पुनरप्यायरसमेतरा । परोपकारसारत्वे, खस्मे याच किञ्चन ॥ २५ ॥ aisarta ! यस्यांश-मपि पश्यामि देहिनः । तस्यानुरूपरूपस्य, चित्रे स्यानिर्मितिर्मम ॥ २६ ॥ एवमस्त्विति यक्षोक्ते. ज्ञाते राशा स सत्कृतः । ततो लब्धव हुए. कीशाम्बीनगरीमगात् ॥ २७ ॥ शतानीको नृपस्तत्र, जिगरखये। विस्तृतं वद्य बद्धं गुणगुरोरपि ॥ २८ ॥ आसीन्मृगावती तस्य राम्रो राशी शिरोमणिः । लास्य बहु श्रीडति सरदरः ॥ २६ ॥ अथान्यदा सभासीनः, पृच्छति स्म नरेश्वरः । कि मे नास्त्यस्ति वान्येषामेतद् दूत निवेश्य ॥ ३० ॥ इन मतिं देव नास्ति चित्रसभा तव । तदैव पचित्रायाऽऽदिशन्त्रिकरान्नुपः ॥३१ ॥ चित्रकृद्भिः सभा बाह्या, सर्वैर्भागेन चित्रिता ।
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मिच्छत्त
मिगावई
अभिधानराजेन्द्रः। देवानां मनसा कार्य-सिद्धिर्वाचा महीभुजाम् ॥३२॥ श्रीवीरपद्महस्तेन, प्रववाज मृगावती । तस्य चित्रकृतो यक्ष-पार्श्वप्राप्तवरस्य तु ।
अष्टावङ्गारवत्याद्याः, प्रद्योतस्य च वल्लभाः॥५७ ॥ नृपस्यान्तःपुरक्रीडा-स्थानं चित्रार्थमर्पितम् ॥ ३३ ॥
श्रा० क०१०। तिन (उपालम्भेऽप्यस्याः कथा-) स्वपु. तेन चित्रकृता तत्र, कदाचिजालिकान्तरे ।
त्रीकामुकस्य प्रजापतेभीर्याभूतायां पुत्र्यां प्रथमवासुदेवमातमृगावत्याः पदाङ्गुष्ठः, कथंचिन्निरवर्यत ॥ ३४॥
रि, कल्प०१अधि०२ क्षण । श्रा० चू० । श्रा० म०। ति। ततस्तदनुसारेण, देव्या रूपे विनिर्मिते ।
मिगिंद-मृगेन्द्र-पुं० । सिंहे, खनामख्याते दार्शनिके विदुषि मषीबिन्दुः पपातोरौ, तस्योन्मीलयतो दृशौ ॥ ३५ ॥ च । स्था०.१ ठा०। उत्सारितोऽपि तेनाऽसौ, पौनःपुन्यात्पपात सः। मिगी-मृगी-स्त्री०। मृगीरूपेणोपघातकारिण्यां विद्यायाम् , पश्चात्तेनाप्यनेनैवं, भाव्यमति निश्चितम् ॥ ३६॥ विशे० । आ० म० । कल्प० । अथ चित्रसभां पश्य-नृपस्तद्देशमागतः ।
मिगीपद-मृगीपद-न० । समयभाषया स्त्रीगुह्ये भगे, नि० ददर्श विन्दुमूरुस्थं, देव्या रूपेऽकुपत्ततः ॥ ३७॥
चू०४ उ०। नूनमेतेन मद्राशी, धर्षितेति रुषा नृपः । तं वध्यमादिशञ्चित्र-करं क्रोयो हि दुर्द्धरः ॥ ३८ ॥
मिच्चु-मृत्यु-पुं० । मसृण-मृगाङ्क-मृत्यु-शृङ्ग-धृष् वा अथोचुश्चित्रकाः क्षमापं, देवाऽयं वरलब्धिकः ।
॥८।१।१३०॥ इति ऋत इद्वा । मिच्चू । मच्चू । मरणे, प्रा। दोषासङ्गोऽपि नास्त्यस्य, ततो दिनपतेरिव ॥ ३६॥
मिच्छ-मिथ्यात्व-न० । मिथ्याभावे, विनयभ्रंश , स्था० ७ अथास्यादर्शि कुब्जास्य, राज्ञा तं सोऽलिखत्ततः। ठा० । मिथ्यादृष्टित्वे, पश्चा० १० विव० । भ० । तथापि तर्जन्यष्टौ, छेदयामास तस्य राट् ॥ ४०॥ म्लेच्छ-पुं० । पारसीकादौ, 'मिच्छं पडिवरणे' वृ०१ उ०३ सोऽपि तस्यैव यक्षस्य, गत्वाऽग्रेऽनशनोऽपतत् ।
प्रक०। यक्षेणोचे चित्रयेस्त्व-मिदानी वामपाणिना ॥ ४१॥ सोऽथ द्वेषी शतानीके, तद्देवीरूपमालिखत् ।
मिच्छकार-मिथ्याकार-पुं० । मिथ्याकरणं मिथ्याकारः ।
मिथ्याक्रियायाम , ध०३ अधि० । कस्याश्चित्स्खलितस्य तत्प्रद्योतनरेन्द्रस्य, गत्वाऽवन्तीमदर्शयत् ॥ ४२॥ तां तेन विदितां शात्वा, तदर्थी तस्य भूपतिः ।
मिथ्या मदीयं दुष्कृतमिति भणने, बृ० १ उ. २ प्रक० ।
ध० । पञ्चा० । उपा० । आ० म० । मिथ्या वितथमनृतमिति प्रैषीहतं स्मरात हि, कृत्याकृत्यं विदन्ति किम् ? ॥४३॥
पर्यायाः । श्रा०म० १ अ०। (मिच्छादुक्कड' शब्दे एतद्विसोऽपि निर्भय॑ तं दृतं, निरसार्षीन्मषीमुखम् ।
षयान् प्रादुष्करिष्यामि) प्रियापरिभवं सोढुं, रकोऽपि क्षमते न हि ॥४४॥ प्रद्योतोऽप्यागतं वीक्ष्य, दूतं नूतनमण्डनम् ।
मिच्छज्झाण-मिथ्याध्यान-न० । मिथ्या विपर्यस्तदृष्टित्वं अमर्षणस्तत्क्षणात्तं, सर्वोघेणाभ्यषेणयत्॥४५॥
तध्यानं मिथ्याध्यानम् । जमालिगोविन्दप्रभृतीनामिव शतानीकोऽपि तं ज्ञात्वा, मृतो भीत्याऽतिसारतः।
दुर्ध्याने, अातु। कातरोऽपि हि शूरः स्या-जातु शूरोऽपि कातरः ॥ ४६॥
मिच्छतिग-मिथ्या(त्व)त्रिक-न० । मिथ्यादृष्टिसास्वादनमि. मृगावत्या महासत्या, रक्षितुं शीलमात्मनः।
श्रलक्षणे मिथ्यात्वत्रये, कर्म० ४ कर्म० । बुद्धिं कृत्वा ततो दूते-नोच्यताऽवन्ति भूपतिः॥४७॥ मिच्छत्त-मिथ्यात्व-न० । प्हस्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सामनिश्चले एष्याम्यहं तवोपान्ते,परं बालो ममारिभिः ।
॥८।२।२१ ॥ इति थ्यस्थाने छः । प्रा० । उत्त । विपर्यावाधिष्यते स ऊचे तां, हष्ट्रा मां कोऽस्य बाधिता ॥४८॥
से, ज्ञा०१७०१२ अ०। तत्त्वार्थाश्रद्धाने, श्राव०५० । सा स्माहोच्छीर्षके सर्पो, योजनानां शतेऽभिषक् ।
अतत्वाध्यवसायरूपे विपर्यस्तावबोधे, सूत्र०१ श्रु०३०३ ततो निर्मापयाऽत्र त्वं, वप्रं वर्मेव मे पुरः ॥ ४६॥
उ० । कर्म। श्रा० चू०। भगवद्ववचनाश्रद्धाने, द्वा०१० द्वा०। कारयामीति राखोक्ने, देव्यूचे पुनरप्यदः ।
अतत्वरुचौ,ध०३ अधिकाविपर्यस्तश्रद्धाने,स्था०३टा०३३०। अवन्त्यामिष्टिकाः साध्व्य-स्तत्ताभिः क्रियतामयम् ॥५०॥ संप्रति मिथ्यात्वमाह-(मिच्छं जिणधम्मविवरीयं ति) चतुर्दश नृपास्तस्य, स्वाधीनाः सबलास्ततः ।
(मिच्छं ति) मिथ्यात्वं जिनधर्माद्विपरीतं विपर्यस्तं शेयमिति उपकौशाम्ब्यवन्तीत-स्ते परंपरया धृताः ॥ ५१ ॥ शेषः । अत्रायमाशयः-रागद्वेषमोहादिकलङ्काङ्किते अदेवेऽपि इष्टिकास्तैः समानाय्य, प्राकारस्तत्र कारितः ।
देववुद्धिः । “धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः । सतृणैः कणैः पूरयित्वा, रोधसजीकृता पुरी ॥ ५२ ॥ स्वानां धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते ॥३॥ इत्यादिप्रतिपासिद्धसाध्या प्रद्योतस्य, सा विसंवदिता ततः ।
दितगुरुलक्षणविलक्षणेऽगुरावपि गुरुबुद्भिः। कर्म०१ कर्मः। दध्यौ चारैति चेद्वीरः, स्वामी तत्प्रव्रजाम्यहम् ॥ ५३ ॥
(त्रिविधं मिथ्यात्वम् )प्रद्योतश्च विलक्षोऽस्था-द्यावत्तावजिनाधिपः। श्रीवीरः समवासार्षी-द्वैरं शान्तं जलेऽग्निवत् ॥ ५४॥
तिविहे मिच्छत्ते पामत्ते।तं जहा-अकिरिया अविणए प्रमाणे। श्रीवीरो धर्ममाचख्यौ, प्रतिबुद्धो वहुर्जमः।
मिथ्यात्वं विपर्यस्तश्रद्धानमिह न विवक्षितम् , प्रयोगक्रिमृगावती च प्रद्योतं, पृच्छति स्म व्रतार्थिनी ॥ ५५ ॥ यादीनां वक्ष्यमाणतद्भदानामसंबध्यमानत्वात् , ततोऽत्र मि. सोऽपि तस्यां सभायान्तां, लज्जमानोऽन्बमन्यत। ध्यात्वं क्रियादीनामसम्यग्रूपता मिथ्यादर्शनानाभोगादिजनिसाऽध पुत्रमुदयनं, तस्य न्यासमिवार्पयत् ॥५६॥ | तो विपर्यासो दुष्टत्वमशोमनत्वमिति भावः । स्था० ३ टा०३
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मिच्छत
उ० (अकिरियादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने ) पद मिथ्यात्वस्थानानि । सूत्र० १ भु० १६ श्र० । उत० । संथा० । रात्थि गसिबो कुरा कथं स वेएइ बस्थि विब्वा
थिय मोक्खोवाओ, छ मिच्छत्तस्स ठाणांई ॥ ५४ ॥ सम्म० ३ काण्ड । ( व्याख्यातानि षडपि स्थानानि ' अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे ४३२ पृष्ठे )
( २७३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मिथ्यात्वप्रतिक्रमणम्
मिच्यो भावशो य तस्य दव्ययोगम- सोभागमादि व अगविहं भावतो पुरा मिच्छतमोही कम्मोदयसमुत्थे तव भावासद्दहणाऽसग्गादिलिंगे अमुने आयपरिणामेतं निविहं संसवियं अभिमहितं अभिहितं सिमितं पुणे पतरस अयोध असदभिनिवेसो, संसओ वा आ० ० ६ ० १६८ गा थाकी टीका ।
मिथ्यात्वं च लौकिक लोकोत्तरभेदाद् द्विधा । एकैकमपि देवविषयगुरुविषयभेदाद् द्विविधम्, तत्र लौकिकदेवगतं - लौकिक देवानां - हरिहरब्रह्मादीनां प्रणामपूजादिना तद्भवनगमनादिना च तत्तद्देशप्रसिद्धमनेकविध शेषम् । लौकिकगुरुगतमपि लौकिकगुरूणां ब्राह्मणतापसादीनां नमस्कृतिकरणं, तदग्रे, पतनं तदमे नमः शिवायेत्यादिभवनं तत्कथाश्रय तदुक्तक्रियाकरणतः कथाश्रवस्तुमानकरणादिना विविधम् २। लोकोत्तरदेवगतं तु परतीर्थिकसंगृहीतजिनविस्वार्थना
दिना इहलोकार्थ जैनयात्रागमन माननादिना च स्यात् ३ । लोकोत्तरगुरुगतं च पार्श्वस्थादिषु गुरुत्ववुवा बन्दनादिना गुरुपादावैहिकफलार्थ यामोष याचितादिना बेति मेदवतुष्टयी। तदु दर्शनशुद्धिकरणे
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विलोम, देवमयं गुरुगवं मुणेयब्वं । खोउत्तरं पिदुबिई, देवमयं गुहायं च ॥ ३५ चउभे मिच्छत्तं, तिविद्धं तिविहे जो विवज्जेइ । कलंकं सम्मत्तं, होइ फुडं तस्स जीवस्स ॥ ३६ ॥ त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र भावनामेवमाडुःएवं अतरुतं मिच्छे मणसा न चिंता करेमि । सयमेव सो कारउ, अभेण कप व सुट्टू कयं ॥ १ ॥ एवं वाया न भराइ, करेह अरं च न भराइ करेहि । अनकयं न पसंसद्, न कुणइ सयमेव कापणं ॥ २ ॥ केरसन्नभमुहवेचा पनि य कारवे । अन्नकयं न पसंसइ, अरणेण कथं न खुड्डु कयं ॥ ३ ॥ ननु त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यातमिथ्यात्वस्य मिथ्याहसिंसर्गे कथं नानुमतिरूपमिथ्यात्वप्रसङ्ग इति खेच, तस्या:प्यतिचाररूपस्य वर्जनीयत्यस्यैवोक्तत्वात् । स्वकुटुम्बादिस म्वन्धिनो मिथ्यादो वर्जनाशको वासानुमतिः स्वादिति वेन आरम्भिता संवासे आरम्भक्रियाया बलात्प्रसवात् संवासानुमतिसंभवेऽपि प्रियात्वस्य भावरूपत्वेन तदसंभवातू । अन्यथा संयतस्स मिथ्यादृष्टिनिधाया अपि संभवेन तत्संवासानुमते दुर्वारत्वादिति दिकू । यद्यपि तत्त्ववृस्या अदेवादेवेत्यादिषुधाऽऽराधने एवं मिध्यात्वं तथाऽप्येहिकाद्यर्थमपि पक्षाद्याराधनमुत्सर्गतरस्याज्यमेव परम्परया
१-कायाए न करेमि । ६६
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मिथ्यात्ववृद्धिस्थिरीकरणादिप्रसङ्गेन प्रेत्य दुर्लभबोधित्वा
पत्तेः । यतः
अन्नेसिं सत्ताएँ, मिच्छतं जो जरोइ मूढप्पा |
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"
सो तेा निमिते न लहर बोहि जिसाभिदि ॥ १ ॥ रावणकृष्णाद्यालम्बनमपि नोचितमेव कालभेदात् यतस्तत्समयेऽर्हद्धर्मस्येतरधर्मेभ्यो ऽतिशायित्वेन न मिथ्यात्व - वृद्धिस्तादृशी, सम्प्रति च स्वभावतोऽपि मिध्यात्वप्रवृत्तिदुर्निवारैवेति ।
अथ मिथ्यात्वं पश्ञ्चविधम्, यदाहअभिग्यहिभ्रमणाभि-गई तह अभिनिवेसि चेव । संसश्रमणाभोगं, मिच्छत्तं पंचहा एवं ॥ १ ॥ ध० २ अधि० । ( श्रभिग्रहिकमिध्यात्वम् ' श्रभिग्गहियमिच्छत ' शब्दे द्वितीयभागे २५२ पृष्ठे गतम् ) अनाभिग्रहिकं प्राकृतजनानां सर्वे देवा वन्द्या न निन्दनीया, एवं सर्वे गुरवः सर्वे धर्मा इतीत्याद्यनेकविधम् । २ धामिनिवेशिकम् जानतोऽपि यथास्थितं दुरभिनिवेशविप्लावितधियो गोष्ठामादिलादेरिव । ३ । श्रभिनिवेशो ऽनाभोगात्प्रशापक दोषाद्वा वितथश्रद्धानवति सम्यग्दृष्टावपि स्याद्, श्रनाभोगाद् गुरुनियोगाद्वा सम्यग्दृष्टेरपि वितथश्रद्धानभणनात्, तथा चोक्तमुत्तराध्ययननियुक्ती
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'सम्मद्दिट्ठी जीवो, उवरटुं पवयणं तु सद्दहर | सहद्दर असम्भार्य, अणभोगा गुरुणिश्रोमा वा ॥१॥" इति। तद्वारणाय दुरिति विशेप, सम्यम्बवचनानिवर्त्तनीयत्वं तदर्थः । अनाभोगादिजनितो मुग्धश्राद्धादीनांचितथज्ञानरूपोऽभिनिवेशस्तु सम्यग्वर्वचननिवर्तनीय इति न दोष:, तथापि जिनभसिद्धसेनादिमाचनिकप्रधानविप्रतिपत्तिविषयपक्षद्वयेऽप्यन्यतरस्य वस्तुनः शात्रवाधितत्वातदन्यतरअडानवतोऽभिनिवेशित्वप्रसङ्ग इति तद्वारसा जानतोऽपीति शास्त्रतात्पर्ययाधप्रतिसंधानवतः सिद्धसेनादयश्च स्वाभ्युपगतमर्थे शास्त्रतात्पर्यवार्थ प्रतिसंधायापि पक्षपातेन न न प्रतिपन्नवन्तः, किन्त्वविच्छिन्नप्रावचनिकपरम्परया शास्त्रतात्पर्यमेय स्वाभ्युपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसंधायेति न तेऽभिनिवेशिनः । गोष्टामाहिलादयस्तु शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसंधायैवान्यथा अहधत इति न दोषः, इदमपि मतिभेदाभिनिवेशादिमूलभेदादनेकविधम्- जमालिगोष्ठामाहिलादीनाम् । उक्तं च [ चतुर्थोदेशे ] व्यवहारभाष्ये" महण जमाली, पुष्यि युगादियण गोविंदो । संसग्गीए भिक्खू, गोट्ठामाद्दिलअहिणिवेसे ॥ २६६ ॥ " सि सांशयिकं देवगुरुधर्मेष्वयमन्यो वेति संशयानस्य भवति । सूक्ष्मार्थादिविषयस्तु संशयः साधूनामपि भवति स च " तमेव सचं णीसंकं, जं जिरोहिं पवेइनं " इत्याद्यागमोदितभगवचनप्रामाण्यपुरस्कारेण निवर्त्तते स्वरसवाहितया अनिवर्तमान सः सांशविकमिध्यात्वरूपः सन्ननाचारापा दक पताकाङ्गामोहोदयादाकर्षप्रसिद्धिः । इदमपि खदर्शन जैनदर्शन तदेकदेशपदवाक्यादिसंशयभेदेन बहुविधम् । अनामोगिक विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेव विशेषज्ञानविकलस्प भवति । इदमपि सर्वाविषयक्रोधस्वरूपं विवक्षितकिञ्चिदेशाध्यक्षोधस्वरूपं वेत्यनेकविधम् । एतेषु मध्ये अभिग्राहिकाऽऽभिनिवेशिके गुरुके विपर्यासरूपत्वेन सा
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(२७४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मि
नुबन्धक्लेशमूलत्वात् । शेषाणि च त्रीणि विपरीतावधारणरूपविपर्यासव्या सत्वेन तेषां क्रूरानुबन्धफलकत्वाभावात्, तदुक्तं चोपदेशपदे
एसो अ पत्थ गुरुभो, खाराज्भवसातसंसया एवं । जम्हा अपवित्ती, एसो सव्वत्थणत्थफला ॥ १ ॥
दुष्प्रतिकाराऽसत्प्रवृत्तिहेतुत्वेन एष विपर्यासोऽत्र गरीयान् नत्वनध्यवसायसंशयावेवं भूतातत्त्वाभिनिवेशाभावात्, तयोः
सुप्रतीकारत्वेनात्यन्तानर्थसंपादकत्वाभावादित्येतत्तात्पर्यार्थः । ध० २ अधि० । वृ० । दर्श०। सूत्र० । पं०सं० । कर्म० । श्रतु० । मतभेदादिना मिध्यात्वं भवतीति
मतिभेया, १ पुव्वुग्गह २,
संसग्गीए य ३ अभिनिवेसेणं ४ |
गोविंदे य ५ जमाली १,
सावग २ तव्aनिए ३ गोट्ठे ४ ।। २६८ ।।
कस्यापि मतिभेदान्मिथ्यात्वं स्यात्, कस्यापि पूर्वव्युद्महातू, कस्यापि संसर्गात्, कस्यचिदभिनिवेशेन श्रत्रार्थे निदर्शनान्याह - ( गोविंदे य इत्यादि ) श्रत्र गोविन्दजमालिशब्दयोर्व्यत्ययेनोपन्यासो गाथानुलोभ्यात् परमार्थतः पुन रेवं पाठः -- जमालिगोविन्द श्रावकः तवनियः श्रावकभिक्षुः गोठे गोष्ठामाहिल, पतानि यथाक्रमं निदर्शनानि । तथा चाऽऽह
मतिभेरा जमाली, फुब्बुग्गहिए होइ गोविंदो । संसग्गसावगभिक्खू, गोट्ठामाहिल अभिनिवेसे ॥ २६६॥ मतभेदेन मिथ्याष्टिजयते यथा - जमालिः, पूर्वव्युद्गृहीतेन भवति मिथ्यादृष्टिर्यथा-गोविन्दः, संसर्गात् यथा-- श्रावकभिक्षुः श्रभिनिवेशेन यथा-गोष्ठामाहिलः पतानि च दर्शितानि सुप्रतीतानीति न कथ्यन्ते इति । व्य० ६ उ० । मिध्यात्वानि
"
इसविधे मिच्छत्ते पत्ते, तं जहा - अधम्मे धम्मसमा १ धम्मे धम्मसमा २ अमग्गे मग्गसमा ३ मग्गे उम्मग़सना ४ जीवेसु जीवसन्ना ५ जीवेसु अजीवसन्ना ६ असाहु साहुसना ७ साहुसु असाहुसमा ८ अमुत्तेसु मुन्ना & मुतेसु प्रभुतसप्पा १० | सूत्र ७३४ ।
तत्र अधम्र्मे - श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरुषेयादौ धसंज्ञा - श्रागमबुद्धिमिध्यात्वम्, विपर्यस्तत्वादिति १, धमै कपच्छेदादिशुद्धे सम्यकश्रुते श्राप्तवचनलक्षणेऽधर्म्मसंशा, सर्व एव पुरुषा रागादिमन्तो ऽसर्वशाश्च पुरुषत्वादहमित्यादिप्रमाणतो नाप्तास्तदभावान्न तदुपदिशं शास्त्रं धर्म्म इस्यादिकुविकल्पवशादनागमबुद्धिरिति २, तथा उन्मार्गों निबृंतिपुरीं प्रति अपन्थाः वस्तुतत्त्वापेक्षया विपरीतश्रद्धानज्ञा. नानुष्ठानरूपस्तत्र मार्गसंशा- कुवासनातो मार्गबुद्धिः ३, तथा - मार्गेऽमार्गसंज्ञेति प्रतीतम् ४, तथा श्रजीवेषु श्राकाशपरमाण्वादिषु जीवसंज्ञा-' पुरुष एवेदम् ' इत्याद्यभ्युपगमादिति । तथा
मिच्छत
क्षितिजलपवनडुताशन-यजमानाकाशचन्द्रसूर्याख्याः । इति मूर्त्तयो महेश्वर-सम्बन्धिन्यो भवन्त्यष्टौ ॥१॥ इति ५ | तथा जीवेषु पृथिव्यादिष्वजीवसंज्ञा, यथा न भवन्ति पृथि व्यादयो जीवाः उरवासादीनां प्राणिधर्माणामनुपलम्भाद् घटवदिति ६, तथा असाधुषु - षड्जीवनिकायवधानिवृत्तेऽप्यौदेशिकादिभोजिष्वब्रह्मचारिषु साधुसंज्ञा, यथा-साधव पते सर्वपापप्रवृत्ता अपि ब्रह्ममुद्राधारित्वादित्यादिविकल्परूपेति ७, तथा साधुषु - ब्रह्मचर्यादिगुणान्वितेषु असाधुसंज्ञा, एते हि कुमारप्रव्रजिता नास्त्येषां गतिरपुत्रत्वात् स्त्रा नादिविरहितत्वाद्वेत्यादिविकल्पात्मिकेति ८, तथा श्रमुक्तेषु सकसु लोकव्यापारप्रवृत्तेषु मुक्तसंज्ञा, यथा
अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्ये कृतिनः सदा । मोदन्ते निर्वृतात्मान – स्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥ १ ॥ इत्यादिविकल्पात्मिकेति ६, तथा मुक्तेषु सकलकर्मकृतविकारविरहितेष्वनन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्ययुक्तेषु श्रमुक्तसंज्ञा, न सन्त्येवेदृशा मुक्ताः, श्रनादिकर्म्मयोगस्य निवर्त्तयितुम शक्यत्वादनादित्वादेव श्राकाशात्मयोगस्येवेति । न सन्ति वा मुक्ताः मुक्तस्य विध्यातदीपकल्पत्वादात्मन एव वा नास्तित्वादित्यादिविकल्परूपेति १० । स्था० १० ठा० ३ उ० । देवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौच या । श्रधर्मे धर्मबुद्धिश्व, मिध्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ १॥ स्या०| कर्म० | कार्ये कृते मिथ्यात्वदोष:
मिच्छत्तं लोस्स, न वयणमेयमिह तत्तत्र एवं । वितहासेवणसंका- कारण अहिगमेअस्स || ५६३॥ मिथ्यात्वं लोकस्य भवति । कथमित्याह-न वचनम् एतज्जैनम् 'इह' अधिकारे, 'तत्वत:'-मरमार्थतः एवम्, अन्यथा - यमेवं न कुर्यादिति शङ्कया, वितथासेवनया-हेतुभूतया, शङ्काकारणत्वाल्लोकस्य श्रधिकं मिध्यात्वमेतस्य - वितथकर्तुरिति गाथार्थः ॥ ५६३॥ पं० ६० २ द्वार । नि० चू० । बृ० । मिथ्यामोहनीये कर्मणि, " मिच्छतं वेयंता, जं श्रनणी कहं परिकर । लिंगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए” | २१५। दश० ३ श्र० । यदुदयाजिनप्रणीततत्त्वा श्रद्धानं तन्मिथ्यात्वम् । पं० सं० ३ द्वार | कर्म० | मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुङ्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामे, श्राव०४ श्र० । “मिश्रं तु दरविशुद्धं, भवत्यशुद्धं तु मिध्यात्वम्" कर्म०१ कर्म० । “न मिथ्यात्वसमः शत्रुर्न मिध्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वसमो रोगो, न मिथ्यात्वसमं तमः” ॥ ५॥ ध० १ अधि० । ('असदायार' शब्दे प्रथमभागे ८४० पृष्ठे एतदाद्याः श्लोका दर्शिताः ) मिथ्याक्रिया - द्यभिलाषे श्रतु । इहलोकार्थम् एकाक्षनालिकेरादिपूजने मिथ्यात्वं भवति न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् ऐहिकफलार्थ दक्षिणावर्तशङ्खादेरिव एकाक्षनालिकेरादेरपि पूजने मिथ्यात्वं ज्ञातं नास्तीति ॥ १६ ॥ सेन० १ उल्ला० । श्राद्धानां गोत्रदेवीपूजने मिथ्यात्वं लगति न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - यस्य तथाविधं धैर्यं भवति तेन गोत्रदेवी न पूजनीया एव कुमारपालेनेव तदभावे तु कदाचितत्पूजनेऽप्युच्चारितसम्यपश्वभङ्गते न भवति यतो देवताभियोगेनेति सम्यक्त्वो
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(२७५) मिच्छत्त
अभिधानराजेन्द्रः। चारे चिण्डिकाऽप्यस्तीति ॥ ३७॥सेम०३ उल्ला। चतुर्वि- मिथ्याष्टिः जीवो गुरुभिरुपदिष्टं प्रवचन नियमात्मधमिथ्यात्वमध्ये लोकोत्तरमिथ्यात्वं गुरु किं वा लौकिकम् , इत्ते-न सम्यग्भावेनात्मनि परिणमयति, असे येत् प्राग् लोकोत्तराल्लौकिकं गुरुतरमिति श्रुतमभूद् , अधुना तु उपदिष्टमनुपदिष्टं वा प्रवचवं तर्हि , असद्भुतं मिथ्यालौकिकालोकोत्तरं श्रूयते, तद्वयक्त्या प्रसाद्यमिति ? प्रश्ने, रूपमित्यर्थः । श्रद्धत्ते, न सम्यग् यथावदिति ॥ २५ ॥ उत्तरम्-प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिप्रभृतिग्रन्थेषु मिथ्यात्वं लो- क० प्र० । श्रा० चू०। किकं देवगतं १ गुरुगतं च २, तथा-लोकोत्तरं देवगतं १
पयमक्खरं वि जो एगं, सव्वन्नूहि पवेदियं । गुरुगतं चेति चतुर्विधमिथ्यात्वमध्ये इदं महदिदं लचित्यक्षराणि तथाविधग्रन्थे न दृष्टानीति द्रव्यक्षेत्रकालभावानु
नाएज अनहा भासे, मिच्छद्दिट्ठी स निच्छियं ॥ • सारेण कथ्यते इति ॥ ३६ ॥ सेन०४ उल्ला० ।
महा० २ ० । " सूत्रोक्तस्यैकस्था-प्यरोबमादक्षरस्य • मिच्छत्तकिरिया-मिथ्यात्वक्रिया-स्त्री०।मिथ्यात्वमतत्त्वश्र
भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः सूत्र, हिनः प्रमाणं जिनाभिहि
तम् ॥१॥" आ० म०१०। स० स्थान प्राव० । “एकहिलद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया। अथवा-मिथ्यात्वे मि
मप्यर्थे, संदिग्धे प्रत्ययोऽर्हति विनष्टः । मिथ्यात्वदर्शनं तध्यादर्शने क्रिया। क्रियाभेदे, मिथ्यत्वक्रिया तु सर्वाः प्रकृती
त्स चादिहेतुर्भवगतीनाम् ॥१॥" तस्मान्मुमुखुणा ठरापगविंशत्युत्तरसंख्यास्तीर्थकराऽऽहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गत्रिकर
तशङ्केन सता जिमवचनं सत्यमेव सामान्यतः प्रतिषसध्यं हिता यया बध्नाति सा मिथ्यात्वक्रियेत्यभिधीयते । सूत्र०
संशयास्पदमपि सत्यमेव सर्वशाभिहितत्वात् , तदन्यपणार्थ२ श्रु०२ अ०भ०।
वत् , मतिदौर्बल्यादिदोषातु कात्स्र्नेन सकलपदार्थस्वभावामिच्छत्तख(ओ)उवसम-मिथ्यात्वक्षयोपशम-पुं० मिथ्यात्व
वधारणमशक्यम् । श्राव०६ श्राधा श्रा०म० (मिथ्यास्य मिथ्यात्वमोहनीयकर्मदलिकस्य क्षयेणोदीर्णस्य विनाशेन | दृष्टिराचार्योऽपि भवति । मिथ्यादृष्टः किं लिङ्गम् इति सहोपशमो विपाकोदयापेक्षया विष्कम्भितोदयत्वं मिथ्यात्व- 'पवयण' शब्दे पश्चमभागे ७८४ पृष्ठे प्रतिपादितम् ) सम्यग्क्षयोपशमः । मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमे, पश्चा०१ विव० । दृष्टान, मिथ्यादृष्टेभवेद् विपर्यासः। श्राव० १०॥ मिच्छत्तपडिक्कमण-मिथ्यात्वप्रतिक्रमण-न० । प्राभोगाना- जइ एवं तेण तुहं, अनाणी कोऽवि नस्थि संसारी।
भोगसहसाकारैमिथ्यात्वगमनानिवृत्ती, स्था०५ ठा० ३ उ०। मिच्छद्दिट्ठीणं ते, अन्नाणं नाणमियरेसि ॥ ३१८॥ मिच्छत्तपरिहाणि-मिथ्यात्वपरिहाणि-स्त्री०। मिथ्यात्वं जि- यद्येवमुक्तप्रकारेण संशयादयोऽपि भानम् , तेन तव 'श्रानप्रणीततत्त्वविपरीतश्रद्धानलक्षणं तस्य परिहाणिः सर्वथा शानी नास्ति कोऽपि संसारी जीव' इति प्राप्तम् , मोक्ष त्यागः। त्रिविधत्रिविधेन विथ्यात्व प्रत्याख्याने, ध०२अधि०।।
सर्वस्याऽपि शामं परेणाऽभ्युपगम्यत इति संसारिणामेवाडमिच्छत्तमहामवतारणतरिया-मिथ्यात्वमहार्णवतारणतरिका
यमतिप्रसङ्गलक्षणो दोषः, इत्यभिप्रायवता संसारी इति
विशेषणमकारि । एतदुक्तं भवति-'संशयादयोऽशानम् ,निस्त्री० । कुवासनोदधिपरमयाने, दर्श०५ तत्त्व ।
र्णयस्त्ववाधितो ज्ञानम्' इति तावलोकव्यवहारस्थितिः । मिच्छत्तमहामोहंधयारमृढ--मिथ्यात्वमहामोहान्धकारमूढ- यदि च-भवता संशयादीनामपि झामरूपता व्यवस्थाप्यते त्रिशमहाँश्चासौ मोहश्च महामोहः,मिथ्यात्वमेव महामोहस्त- तर्हि समुच्छिन्नोऽयमज्ञानव्यवहारः, ततः कथं नाऽतिप्रसस्य तस्मात्तेन वाऽन्धकारं सम्यक्त्वस्यावरणं तमिस्तेन वा का?, दृश्यते च लोकेऽज्ञानव्यवहारः, स कथं नीयते? मूढो मिथ्यात्वमहामोहाऽन्धकारमूढः। मिथ्यादृष्टी, दर्श०१
इति । अत्रोत्तरमाह-(मिच्छद्दिट्ठीणमित्यादि) मिथ्यातत्त्व।
टीनां सम्बन्धिनस्ते संशयविपर्ययाऽनध्यवसायाः, निर्णयमिच्छत्ताहिणिवेस-मिथ्यात्वाभिनिवेश-पुंशमिथ्यात्वा मि श्वाशानम् , इतरेषां तु सम्यग्दृष्टीनां सम्बधिनस्ते शानम् , ध्यादर्शनोदयात् योऽभिनिवेश श्राग्रहः स तथा। भ० ६ श.
इति नाऽज्ञानव्यवहारोच्छेदः । अयमभिप्राय:-लोकव्यवहार३३ उ० । विपर्यासे, स्था० ४ ठा०४ उ० ।
रूढो ज्ञानाऽझानव्यवहारोऽत्र न विवक्षितः, किन्तु-श्रागमा
भिप्रायरूढो नैश्चयिकः। श्रागमे च संशयादिरूपं, निश्चमिच्छदिदि-मिथ्यादृष्टि-पुं० । मिथ्या विपर्यासवती जिना
यरूपं वा मिथ्यारहेः सर्वमप्यमानम् , सम्यग्दृष्टस्तु तदेव भिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टिदर्शनं यस्य सः । मिथ्या
सर्व शानम् , इत्येवं झानाऽज्ञानव्यवहारो रूढः। ततश्च यत्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिनवचने , स. ८ सम० ।
दादौ संशयादित्येनाऽवग्रहादीनामझानत्वं प्रेरितम् , तदयुमिथ्या विपरीता दृष्टिर्यस्य स मिथ्यावृष्टिः । नं० । उदितमि
कम् , न हि संशयादित्वमशानभावस्य निमित्तमागमविचारे, थ्यात्वमोहनीयविशेषे , स० १४ सम० । विपर्यस्तरुचौ, प
किन्तु-मिथ्याष्टिसम्बन्धित्वम् , तह नास्ति , सञ्चा० १२ विव० । शाफ्यादिशासनस्थे, वृ०१ उ०। दर्श० ।
म्यग्दृष्टिसम्बन्धिनामेवाऽवग्रहादीनामिह विचारयितुमुपअज्ञाननियतक्रियावादिके,सूत्र०१श्रु०११०२ उ० । प्रशा० ।
क्रान्तत्वात् , इति भावः, इति गाथार्थः । विशे०। “ सम्मविपरीतबोधे, औ० । सूत्र० । स्था० । उत्त।
हिट्ठिपरिग्गहियं सम्मसुयं , मिच्छदिटिपरिग्गहियं मिच्छमिथ्यादृष्टः स्वरूपमाह
सुर्य" वृ०१ उ०। मिच्छद्दिट्ठी नियमा, उवइटुं पवयणं न सद्दहइ ।
तद् यथेह प्रदीपस्य, स्वच्छाऽभ्रपटलैगृहम् । सद्दहइ असब्मावं, उवइटुं रख अणुवइद॥ २५॥ न करोत्यावृति काश्चि-देवमेतद्रवेरपि ॥ १ ॥
पवा
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मिच्छुट्टि
एकपुजी द्विपुञ्जी च, त्रिपुञ्जी वाऽननुक्रमात् । दर्शन्युभयवाँचैव, मिध्यादृष्टिः प्रकीर्तितः ॥ २ ॥
( २७६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
कर्म० १ कर्म० । सम्यग्रदृष्टिभ्यतिरिक्रानां सर्वथा निजरा नास्त्येव ? काचिदस्ति वा इति प्रझे, उत्तरम् - सम्यग्रष्टिव्यतिरिकनां जीवानां सर्वथा निर्जरा नास्त्येव इति वक्तुं न शक्यते ।
"अनुकंपऽकामनिज्जर, वालतवे दाराचिणयषिम्भेगे। संजोगविप्पोगे वसबहिसकारे ॥ १७" इति आवश्यकनियुक्ती मिध्यादृशां सम्यक्त्यमाप्तिहेतुकामनिर्जराचा उत्वात् केषाञ्चिचरकपरिवाजकादीनो स्वाभिलाषपूर्वकं ब्रह्मचयेपासना साानपरिहारादिभिर्ब्रह्मलोकं यावच्छतां सकामनिर्ज्जराया अपि सम्भवाचेति ॥ १७॥ सेन० १०।" बरमपरिव्ययभलोगो जा " इति वचनानुसारेण द्वादशे स्वर्गे नैवेयके व मिथ्यात्वनः केऽवतरन्तीति प्रश्ने उत्तर-द्वादशे स्वर्गे गोसालकमतानुसारिण आजीविका मिध्यादसो प्रजन्ति, मैवेयके तु विलिङ्गधारिनिवादयो मिध्यादृयो जन्तीत्योपपातिकादी प्रोक्रमस्तीति १३१ सेन०३ उला। उत्सूत्रभाषिणां सम्यग्टत्वमुत मिध्यादृष्टित्यमिति मझे उत्तरम् - उत्सू प्रभाषिणां मिध्यादृत्विमाश्रित्य विप्रतिपत्तिः कापि नास्ति, "सुषोहस्यैकस्याप्यरोचनादरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः " इत्यादिवचनादिति ॥ ३७० ॥ सेन० ३ उल्ला० तहेच काणं काण ति " वचनमुद्भाव्य न मिथ्याहरेर्मिथ्यादृष्टित्ववचनव्यवहारः कठिनयचनत्वादिति केचनापि प्रतिपादयन्तीति प्रश्ने, उत्तरम् - मिध्या दृटेर्मिथ्यादृष्टिरिति कथनं तदकथनं च यथासमयं बिधेयमिति ॥ ३७३ ॥ सेन० ३ उल्ला० । “ दक्खिनदयालुतं, पियमाखित्तारविविहगुणनिवहं । सिवमग्मकारणं जं, त महं अमोधर सच्चे ॥ १॥" " "" सेसाणं जीवां० ॥ २ ॥ "
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एमा अरणं पि अ० ॥ ३ ॥ " एतदाराधनापताका गाथावयानुसारेण मिथ्यादृष्टीनां दाक्षिण्यदयालुत्वादिकं प्रशस्यते न वेति ? प्रश्ने, उत्तरम् - एतदाराधनापताका प्रकीर्णकसंवन्धिगाथात्रयमस्ति तम्मध्ये पति - १॥ देशविरतिधावका ॥ २ ॥ ऽविरतसम्यग्रहरि ३ जिनशासनसेवन्धिभिर्विना अत्येषां दाक्षिण्यदयालुत्वादिकं प्रशस्यतयो, ततो युक्तं शतं नास्ति यत एते गुणाः श्रीजिनैराने तस्याः एव कथितास्सन्तीति ॥ ४४५ ॥ सेन० ३ उल्ला० । हीरविजयसूरीश्वरप्रसादीकृतद्वादशजल्पमध्ये ऽनुभोदनाजल्पोऽस्ति तत्र दानरुचिपणं स्वाभावि विनीतपं अल्पकपापं परोपकारीपं भव्यप इत्यादिका ये वे मार्गानुसारिसाधरणगुणा मिध्यात्विसम्बन्धिनस्तथा परपणिसम्बन्धिनानुमोदना लिखितास्सन्ति, तदाश्रित्य केचन नवीन विपरीतार्थ कुर्व्वन्तः धूयन्ते तद्यथायेषामसङ्ग्रहो नास्ति तेषामेवैते गुणा अनुमोदन योग्याः, परं यस्य कस्यापि जल्पस्यासहहो भवति तस्यैते गुणा नानुमोदना इत्येतदाश्रित्य सम्यग् निर्णयः प्रसाद्य इति प्रने, उत्तरम् - असद्धमन्तरेणान्येषां ये मार्गानुसारसाधारणगुणास्तेऽनुमोदनाहां नाऽन्ये इति वदन्ति तदसत्य
safa
मेव, यतो येषां मिथ्यात्वं भवति तेषां कश्चिदसद्ग्रहो:वश्यं भवत्येवान्यथा सम्यक्त्वमेव प्रतिपाद्यते, शास्त्रमध्ये तु मिथ्यात्वरूपास दूग्रहे सत्यप्येते मार्गानुसारिगुणा अनुमोदनाहीः कथितास्सन्ति, यदुक्रमाराधनापताकायाम्
जि जम्माईऊसव - करणं तह महरिसीण पारणए । जिरासासरांमि भती, पमुदं देवा अणुमने ॥ ३०८ ॥ तिरिश्रण देसविर, पांताऽऽराहणं च श्रणुमोए । सम्मइंसलभं, अणुमधे नारयाएं पि ॥ ३०६ ॥ सेखाएं जीवाणं, दाणरुइसे सहायविशियतं । तह पर कसायचं, परोवगारितभव्यसे ॥ ३९० ॥ दयालु, पिश्रभासिताहविषिगुणनिबद्धं । सिवमग्गकारणं जं, तं सव्यं अणुमयं मज्झ ॥ ३९९ ॥ इन परकयलुकयां, बहूणमणुमोश्रणा कया एवं । अह नियसुचरियनियरं, सरेमि संवेगरंगेणं ॥ ३१२ ॥ इति । अवा सम्यं चित्र वीरावानुसार जे सुक कालत्तर वितिविहं, अनुमोपमो वयं सव्वं ॥ ५८ ॥ इति । चतुश्शरणेऽपि, अथ च मिथ्यात्विनां परपक्षिणां च दयामुखः कश्चिदपि गुणो नानुमोदनीय इति ये वदन्ति तेषां समा मतिः कथं कथ्यत इति ॥ १०३ ॥ सेन० ४ उल्ला० । चरकपरिव्राजकतामल्यादिमिथ्यादीनां तपश्चरणाद्यज्ञानकष्टं कुर्व्वतां सकामनिर्जरा भवत्यकामनिर्जरा वा इति, केचन वदन्ति तेषामकामनिर्जरैवेति साक्षरं प्रसाद्यमिति प्रभे, उत्तरम् - ये चरकपरिव्राजकादिमिथ्यादृषयोऽस्माकं क
क्षयो भवत्विति धिया तपश्चरणाद्यज्ञानकं कुर्वन्ति तेषां तत्वार्थभाष्यवृत्तिसमयसारसूत्रवृत्तियोगशास्त्रवृत्त्यादिग्रन्धानुसारेण सकामनिर्जरा भवतीति सम्भाव्यते यतो योगशास्त्रचतुर्थप्रकाशवृत्ती सकामनिर्जराया हेतुर्बाह्याभ्यन्तरमेदेन द्विविधं तपः प्रोक्रम्, तत्र पद्मकार वा तपो वात्वं च वाह्यद्रस्यापतत्वात्परप्रत्यक्षत्वार्थिहरथेध कार्यत्वाचेति तथा लोकप्रतीतत्वात्कुतीर्थिकै स्वाभि प्रायेणासेव्यत्वाद्वाह्यत्वमिति । त्रिंशत्तमोत्तराध्ययनखतुर्द्दशसहस्रीवृत्तौ एतदनुसारेण षड़िधबाह्यतपसः कुतीर्थिकासेव्यत्वमुक्तं परं सम्यगृष्टिकामनिर्जरापेक्षया तेषां स्तोका भवति यदुकं भगवत्यष्टमशतकदशमोदेशके (देसाराह सि) बालतपस्वी स्तोमेश मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः सम्यवोधरहितत्वात्कियापरत्वाच्चेति तथा च मोक्षप्रासिनं भव ति स्तोककम्मशनिरान् भवत्यपि च भावविशेषाइल्कलचीर्यादिषद्, यदुक्तम्श्रसंवरो अ सेयं-बरो अ बुद्धो य अहव अनो वा । समभावभाविप्पा, लहेर मुखं न संदेहो । १ इति ।
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यदि तेषामकामनिर्जरपायिते तर्हि " जीवे ं भंते ! असंजय अधिर अपडियपव्ययायपाचकम्मे इतो ए पेच्या देवे सिया है गोवमा अस्थेति देवे सिया - त्थेगतिर नो देवे सिश्रा से केणऽट्टे ०जाब इतो चुए पेशा अगतिए देवे सिया भरथेगतिए नो देवे सिधा ?, गोयमा ! जे इमे जीवा श्रकामतरहाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीयाऽऽयवदंसमस गधन्दाणगसेयजजमलपक परिवाहेणं अप्पतरं या भुज्जतरं या कालं
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(२७७) मिच्छदिहि अभिधानराजेन्द्रः।
मिच्छाकिरिया अप्पाणं परिकिलेस्संति, परिकिलेसित्ता कालमासे कालं स्थाने, पं० सं० १ द्वार । मिथ्या-विपर्यस्ता रहित्यकिच्या अरणयरेसु वाणमंतरेसु देवत्ताए उववत्तारो | पीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितहत्पूरपुरुषस्य भवन्ति" श्रीभगवतीसूत्रप्रथमशतकप्रथमोद्देशकौपपातिकसू. सिते पीतप्रतिपत्तिवत् , स मिथ्यादृष्टिस्तस्य गुणस्थानं श्रादौ अकाममिर्जरया व्यन्तरघूत्पादः कथितोऽस्ति, तत्कथं सानादिगुणानामविशुद्धिप्रकर्षविशुद्धधपकर्षकृतः स्वरूपविशेसङ्गच्छते, यतः संग्रहण्यादौ-" चरगपरिव्वायबंभलोगो | पो मिथ्यारष्टिगुणस्थानम् । ननु यदि मिथ्याष्टिस्ततः कजा" इति वचनात् पश्चमदेवलोके तेषामुत्पादस्य भणित-| थं तस्य गुणस्थानसंभवः, गुणा हि सानादिसापास्तत्कथं तेस्वादिति विरोधापत्तेः, हारिभद्रयामपि
दृष्टौ विपर्यस्तायां भवेयुरिति ?, उच्यते-दह यद्यपि सर्वथा:अणुकंपऽकामनिजर-बालतवे दाणविणयविभंमे। तिप्रबलमिथ्यात्वमोहनीयोदयादहत्मणीतजीवाजीवाश्विस्तु. संजोगविप्पओगे, वसणूसवरहिसकारे ॥१॥
प्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता भवति, तथाऽपि काइत्यत्राकामनिर्जराबालतपसोर्मेदवयभणनं व्यर्थमेव, एके-|
चिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता, ततो निगोदावस्थानाकामनिर्जगलक्षणेन चरितार्थत्वात् । तथा-" चाहिं ठा
यामपि तथाभूताब्यक्त्रस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता भवतिऐहिं जीवा देवत्ताए कम्मं पकरेति । तं जहा-सराग-|
अन्यथा जीवत्वप्रसङ्गात् । यदाह आगमः-"सब्बजीवाणं संजमेणं १ संजमासंजमेणं २ बालतवोकम्मेणं ३ अकामनि
पिणं अक्सरस्स अणंतभागो निच्चुग्धाडिओ चिट्ठरः जराए' ४ " पतइत्तिलेशः-सकषायसंयमेन-सकषायचा
जह पुण सोऽवि आवरिजिज्जा, तो णं जीवो अजीवत्सणं रित्रेण वीतरागसंयमिनामायुषो बन्धाभावात् १ संयमासं
पाविज्ज ति। " तथाहि-समुन्नतातिबहलजीमूतपटलेन यमस्य द्विस्वभावत्वाद्देशसंयमः २, बाला-मिथ्याशस्तेषां
दिनकररजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपि मैकान्तेन तत्प्रभातपःकर्म-तपःक्रिया बालतपःकर्म तेन ३, कामेन-नि
नाशः संपद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाभावप्रर्जरां प्रत्खनभिलास निर्जरा अकामनिर्जरणाहेतुर्बुभुक्षादि- सनात् । उक्तं च-"सुठु वि मेहसमुदये , होड पहा चंदसहनं यत्सा अकामनिर्जरा तया इति । स्थानाङ्गसूत्रचतुर्थ- राण" इति । एवमिहाऽपि प्रबलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिस्थानके तथा
दविपर्यस्ताऽपि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यारटेरपि गुअकामनिर्जरारूपा-पुण्याजन्तोः प्रजायते ।
णस्थानसंभवः । यद्येवं ततः कथमसौ मिथ्याधिरेव मनुस्थावरत्वं प्रसत्वं वा, तिर्यक्त्वं वा कथंचन ॥ १०८॥
ध्यपश्यादिमतिपत्त्यपेक्षयाऽन्ततो निगोदावस्थायामपि तथा
भूताव्यतस्पर्शमात्रप्रतिपत्त्यपेक्षया वा सम्यग्रष्टित्वादपि, इत्यत्र-पुण्यादिति-पुण्यं न पुण्यप्रकृतिरूपं, किन्तु-लाधव
नैष दोषः, यतो-भगवदर्हत्प्रणीतं सकलमपि द्वादशानारूपम् , तस्मात् स्थावरत्वादिकं प्राप्यते, तामलितापसादीनां
र्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गदितमेकप्यक्षरं न रोचयतु शास्त्रेष्विन्द्रत्वादिप्राप्तिः कथिताऽस्ति, साध सकामनि
ति तदानीमप्येष मिथ्याष्टिरेयोच्यते, तस्य भगवति सजरया भवति,यदुक्तं तत्त्वार्थभाष्यनवमाध्ययनवृत्ती-अमरेषु
वझे प्रत्ययनाशत् । तदुक्तम्तावदिन्द्रसामानिकादिस्थानानि प्राप्नोतीति'निनु श्रेया सका. मा यमिना' मित्यत्र यदि यमिनाम्-यतीनामेव, सकामगि.
पयमक्खरं पि एकं, पि जो न रोएइ सुत्तनिद्दिष्टुं । जरा प्रोच्यते श्रावकाणामविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनां च का
सेसं रोयतो वि हु, मिच्छट्टिी जमालि व्य ॥१॥ इति । गतिरिति चेत् उच्यते-यमिनामिति सामान्यतयोक्तेः श्राव
किं पुनर्भगवदर्हदभिहितसकलजीवाऽजीवादिषस्तुतत्वमकादीनामपि तारतम्येन द्वादशदेवलोकादिदायका सकामा
तिपत्तिविफल इति । कर्म०२ कर्म। भवतीति शायते, श्राद्धादीनामित्यत्रादिशब्दादालतप्रस्थि-मिच्छदग-मिथ्याद्विक-न० । मिथ्यारष्टिसास्वादमलाले नामपि कथमिति चेत् , शृसु , बालमसमर्थ सन्मार्गप्रदाने | मिथ्यादृष्टिद्विके, कर्म० ४ कर्मः। सकलकर्मक्षये वा, बालं च तत्तपश्व बालतपः, तच्चाग्निप्रवेशभृगुगिरिप्रपतनादिकायक्लेशरूपम् ,कायक्लेशश्च, ' का
मिच्छराय-म्लेच्छराज-पुं० । अनार्यनृपे, श्राव०४०। यकिलेसो सलीण्या ये' वागमववचनाद्वाह्यतपःतच्न स- मिच्छा-मिथ्या-अध्य० । विपरीते, आव० ४५०विशे। मामनिर्जराहेतुरिति ॥१०५॥ सम्यग्दृशां मिथ्यात्वशां प- सूत्र० । असमीचीने, स्था० ३ ठा० ३ उ० । उत्त। सूत्र। रपक्षिणां च तपागच्छाचार्यप्रभृतिभिः प्रत्याख्यानं कार्यते
अनु। असत्ये, उस०४०। “मिच्छा मोहं बितह अलि वन्मार्गानुसारि भवति न वा इति प्रश्ने, उत्तरम्-तत्सर्व
असच्चं असम्भूअं" पाह० ना०५३ गाथा । मिथ्या वितथम मपि प्रत्याख्यानं मार्गानुसारीति शातमस्ति, परं प्रत्याख्या
चूतमिति पर्यायाः । स्था०१० ठा। प्रश्न। ध। विपर्यस्तनकर्ता यदि प्रत्याख्यानविधि न जानाति तदा तस्य तद्विधि|
इष्ठित्वे, आतु० प्रा०म०मिच्छ ति वा वितई ति वा प्रज्ञाप्य कार्यते इति विशेषो शेयः ॥१०६॥ सेन०४ उल्ला।
असच्चं ति वा असत्वयं ति वा अकरणिजं ति वा एगट्ठा। मिच्छदिद्विय-मिथ्याष्टिक--त्रिका सम्यक्त्वगुणरहिते,स्था। आ० चू०१०।
दुविहा परइया पलत्ता । तं जहा-सम्मदिद्रिया चेव. | मिच्छाकार-मिथ्याकार--पुं। कृतपातकस्य परितापरूपे मिच्छदिडिया चेव, एगिदियवा सव्वे ।
प्रायश्चित्ते, पाव०४०। एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्वं नास्ति । स्था०२ ठा०२ उ०। मिच्छाकिरिया-मिथ्याक्रिया-स्त्री०। जिनोतरीतिविपर्ययेणेमिच्छदिद्विगुणद्वाण-मिथ्याष्टिगुणस्थान-न० । प्रथमगुण- स्यादिपदार्थाभ्युपगमे, पाचू०४०। प्राक
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मिच्छाचार अभिधानराजेन्द्रः।
मिच्छादुकड मिच्छाचार-मिथ्याचार-पुं०। मिथ्याऽलीको विशिष्टभाव- रात् ,निहवादि-श्रादिशब्दादनुपयुक्ताविपरिग्रहः। तत्रोदाह शून्य प्राचारो यस्य स मिथ्याचारः । बाह्यक्लिष्टलिने, “बा
रणम्-कुलालमिथ्यादुष्कृतम् , तच्चेदम्-एगस्स कुंभकाखेन्द्रियाणि संयम्य, य प्रास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान
रस्स कुडीए साहुणो ठिया , तत्थेगो चेल्लगो तस्स कुंविमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्यते ॥१॥" षो० १ विव०।
भगारस्स भंडाणि अंगुलिधणुहपणं ककरहिं विधई ,
कुंभगारेण पडिगयं, तेण दिट्ठो , भणिो य-कीस में मिच्छाणाण-मिथ्याज्ञान-न० । विपर्यस्तप्रतिपत्ती, प्रव०
भंडाणि विधेसि ? , खुड्गो भणह-'मिच्छा दुकडं १०७ द्वार।
ति' एवं सो पुणो वि बिंधिऊण मिच्छा दुकडं देह । मिच्छादंड-मिथ्यादण्ड-पुं०1मिथ्यैवानपराधिष्वेव दोषमाः | पच्छा कुंभगारेण तस्स खुड्गस्स करणामोडमो दिनो । रोप्य दण्डो मिथ्यादण्डः । अनपराधदण्डे, सूत्र० २ श्रु०२ सो भणइ-दुक्खाविजामि अहं, कुंभगारो भणइ-मिच्छा मि अ० दशा० । मिथ्यात्वपूर्वायां हिंसायाम् , स्था० ७ ठा० । दुक्कडं । एवं सो पुणो २ करणामोडयं दाऊण मिच्छामि दुकडं मिच्छादसण-मिथ्यादर्शन-न० । मिथ्या-विपरीतं दर्शनं मि
ति करो । पच्छा चेल्लगो भणइ-अहो सुंदरं मिच्छादुकर्ड ध्यादर्शनम् । स्था० ३ ठा० ३ उ० । मोहकर्मोदयजे.
ति । कुंभकारो भणति-तुज्झवि परिसं चेव मिच्छादुक्कड
ति । पच्छा ठितो विधियव्वस्स । “जे दुकडं ति मिच्छा, तं श्रा०चू०४० श्राव। विपर्यस्तदर्शने, पातु। अतस्वार्थश्रद्धाने, स०३ सम० । प्रज्ञा । औ० । स्था० । अत
चेष निसई पुणो पावं । पञ्चक्त्रमुसाबाई, मायानियडिप्पस
गो य ॥ ६८५॥" एवं दव्वपडिकमणं । स्वे तत्वाभिनिवेशे, तत्त्वे चातत्त्वाभिनिवेशे, सूत्र०१ श्रु०१६ अमिथ्यादर्शनं च पञ्चधा-अभिग्रहिकानभिग्राहकाभिनि
भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयतिवेशिकानाभोगिकसांशयिकभेदादुपाधिभेदतो बहुतरभेदं चे
(भावमि इत्यादि ) भावप्रतिक्रमणम् । तुदुपयुक्त एव ति । स्था० १ ठा।
तस्मिन्नधिकृते शुभव्यापारे उययुक्तो यत्करोति प्रतिक्रमणं
तद्भावप्रतिक्रमणम् । तत्रोदाहरणे मृगापतिस्तश्चेदम्-भयवं मिच्छादंसणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-अभिग्गहियमिच्छा- वद्धमाणसामी कोसंबीए समोसरितो, तत्थ चंदसूरा भयदंसणे चेव, अणभिग्गहियमिच्छादसणे चेव । स्था० २ ठा० वंतं वंदिउं सविमाणा अोइराणा । तत्थ मिगावती अज्जा १ उ० । (खखस्थाने व्याख्याते)
उदयणमाया दिवसो त्ति काउं चिरं ठिया । सेसाओ
साहुणीश्रो तित्थयरं वंदिऊण पडिगयाो । चंदसूरा वि मिच्छादसणकिरिया-मिथ्यादर्शनक्रिया-स्त्री० मिथ्यादर्श- तित्थयरं बंदिऊण पडिगया, सिग्यमेव वियालीभूयं । मिनामत्ययिक्या क्रियायाम् , भ० ३ श०२ उ०।
गावती संभंता गया अज्जचंदणासगासं । पयातो ताव मिच्छादसणकिरिया दुविहा पएणत्ता । तं जहा-आय
पडिक्कंताउं मिगावती बालोएवं पवत्ता । अज्जचंदणाए रियमिच्छादसणवत्तिया, तब्बइरित्तमिच्छादसणकिरिया
भन्नति-कीस अज्जे ! चिरं ठियाऽसि ? न जुत्तं नाम
तुम कुलप्पसूयाए एगागिणीए चिरं अच्छियं ति, सा सम्भाचेति । स्था० २ ठा०।
वेण 'मिच्छा मि दुकडं' ति, भणमासी अज्जचंदणाए पापसु मिच्छादसणलद्धि-मिथ्यादर्शनलब्धि-पुं० । मिथ्यादृष्टौ,भ.
पडिया। अज्जचंदणावि ताए वेलाए संथारगं गया, ताहे श०२ उ०।
निदा आगया पसुत्ता, मिगावतीए वि मा खुजिहि त्ति सो
हत्थो संथारगं वडावितो। साऽवि बुद्धा भणड-किमेयं ति मिच्छादंसणवत्तिया-मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी-स्त्री० मिथ्या
अज्ज च तुम अच्छसि त्ति दुक्कडं निदापमाएसं न उट्टविदर्शनं प्रत्ययो हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी। मोहोद- याऽसि मियावती तीए भणति-एस सप्पो मा ते खाहि त्ति, यजे क्रियामेदे, प्रति० । स्था० । श्राव० ।
हत्थो वडावितो । सा भणइ, कहिं से दरिसेइ, अज्जचंमिच्छादसणसल-मिथ्यादर्शनशल्य-न० । तोमरादिशल्य-|
दणा अपेच्छमाणी भणइ । अज्जे! किं ते अतिसो । सा तुल्ये मिथ्यात्वे, कल्प०१ अधि० ६ क्षण । “ मिच्छादसण
भण-आमं, तो किं छाउमत्थो केवलिगो वा। सा भणइ केवसले" मिथ्यात्वदर्शनम्-विपर्यस्तरष्टिस्तदेव तोमरादि
लिगो। पच्छा अजचंदणा पाएसु पडिऊण भणइ-'मिच्छा मि शल्यमिव शल्यं दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति । स्था० |
दुकडं' केवली श्रासाइतो, एवं भावपडिक्कमणो एत्थ गाहा। १ ठा०। प्रष।
जह य पडिक्कमियब्वं, अवस्सकाऊण पाक्यं कम्मं ।
तं चैव न कायब्वं, तो होइ पए पडिक्कतो ॥ ६८३॥ मिच्छादुक्कड-मिथ्यादुष्कृत-न० । प्रतिक्रामामीत्यत्र प्रतिक
श्रा०म०१ १०। मणे, प्रा०म०१ अ० प्रतिक्रामामीत्यत्र प्रतिक्रमणं मि- संप्रति मिथ्याकारविषयप्रतिपादमार्थमाहध्यादुष्कृतमभिधीयते, तच्च द्विधा । द्रव्यतो, भावतश्च ।।
संजमजोगे अन्भु-ट्ठियस्स जं किंचि वितहमायरियं । तथा चाह नियुर्तिकारः
मिच्छा एयं ति विया-णिऊण मिच्छ त्ति कायव्वं ।६८३। दवम्मि निराहगाई, कुलालमिच्छं ति तत्थुदाहरणं ।
संयमयोगः-समितिगुप्तिरूपः, तस्मिन् विषये अभ्युत्थिभावम्मि तदुवउत्तो, मिगावई तत्थुदाहरणं ॥
तस्य-सतो,यत् किंचिद्वितथम्-अन्यथा, श्राचरितम्-आसेब्बे-द्रव्यप्रतिक्रमणे, प्रतिक्रमणप्रतिक्रमणवतोरभेदोपचा- पितम्, संभूतमिति वाक्यशेषः। मिथ्या-विपरीतम् एतदिति
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(२७६ ) अभिधान राजेन्द्रः |
मिच्छादुक्कड
विज्ञाय, किम् ?, 'मिच्छति कायव्वं ' इति । मिथ्येति कर्त्तव्यम्, तद्विषये मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः ।
संयमयोगविषयायां च प्रवृत्तौ वितथासेवनमिध्यादुष्कृतं दोषापनयनायालं, न तूपेत्य करणविषयायां नाप्यसकृत् करगोचरायाम्, तथाचाऽमुमेवोत्सर्ग प्रतिपादयन्नाहजइ य पडिक्कमियां, अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चैव न कायव्वं, तो होइ पए पडिकंतो ॥६८३॥ यदि च प्रतिक्रन्तव्यम् - निवर्तितव्यम्, मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः । अवश्यं नियमेन कृत्वा पापकं कर्म्म, ततश्च तदेव पापकं कर्म न कर्त्तव्यम्, ततो भवति पदे - उत्सर्गपदविषये प्रतिक्रान्तः । अथवा पदे प्रतिक्रान्त इति । किमुक्तं भवति ? - सुतरां प्रतिक्रान्त इति ।
संप्रति यथाभूतस्येदं मिथ्यादुष्कृतं सुदत्तं भवति तथाभूतमभिधित्सुराह
जं दुकडं तिमिच्छा, तं भुज कारणं पूरंतो । तिविहे पडिकतो, तस्स खलु दुक्कडं मिच्छा ||६८४|| यदिति श्रनिर्दिष्टस्य निर्देशः कारणमिति योगः, ततश्च यत् कारणं यद्वस्तु दुष्टं कृतं दुष्कृतमित्येवं विशाय, 'मिच्छे' ति सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमिति शेषः । भूयः पुनरपि तत्कारणमपूरयन् -- श्रकुर्वन् श्रनाचरनिति भावः । यो वर्तत इति वाक्यशेषः । तत्र स्वयं कायेनाप्यकुर्वन् अपूरयन्नभिधीयते । तत श्राह - [ तिविहेस पडिकतो तस्स खलु दुक्कडं मिच्छा ] त्रिविधेन - मनोवाक्कायलक्षणेन योगेन कृतकारितानुमतिभेदयुक्तेन प्रतिक्रान्तो निवृत्तस्तस्माद्-दुष्कृतकारणात् तस्यैव खलुशब्दोऽवधारणे दुष्कृतं - प्रागुक्तं दुष्कृतं फलदातृत्वमधिकृत्य मिथ्या, भवतीति क्रियाध्याहारः । अथवा - तस्यैव मिथ्यादुष्कृतं भवति, नान्यस्येति । सांप्रतं यस्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तमपि न सम्यग् भवति तत्प्रतिपादनार्थमाह
जं दुक्कडं ति मिच्छा, तं चैव निसेवए पुणो पावं । पच्चक्खमुसावई, मायानियडिप्पसंगो य ।। ६८५ ॥ यत्पापरूपं किंचिदनुष्ठानं दुष्कृतमिति विज्ञाय ' मिच्छा ' मिथ्या दुष्कृतदानविषयीकृतम्, यस्तदेव निषेवते पुनः पापं स प्रत्यक्षमृषावादी, कथम् ?, दुष्कृतमेतदित्यभिधाय पुनरासेवनात्, तथा तस्य मायानिकृतिप्रसङ्गश्च स हि दुष्टान्तरात्मा निश्चयतचेतसा अनिवृत्त एव गुर्वादिरञ्जनार्थ मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छति, कुतः ? - पुनरासेवनात्, तत्र मायैव निकृतिः तस्याः प्रसङ्गो मायानिकृतिप्रसङ्गः ।
कः पुनरस्य मिथ्यादुष्कृतपदस्यार्थ इत्याह'मि' ति मिउमद्दवत्ते, 'छ' त्ति य दोसाण छायणे होई । 'मि' त्ति य मेराऍ ठिओ, 'दु' त्ति दुर्गुछामि अप्पाणं ६८६ 'क' त्ति कर्ड मे पावं, 'ड' त्ति य डेवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छादुक्कड, पयक्खरत्थो समासेण ।। ६८७ ॥ मीत्ययं वर्णो मृदुमार्दवे वर्त्तते तत्र मृदुत्वं कार्यनम्रता, मार्दवं भावनम्रता, मृदु च मार्दवं च मृदुमार्दवे । ते अस्य स्त इति मृदुमार्दवः । श्रभ्रादिभ्यः ॥ ७ । २ । ४६ ॥ इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः । तद्भावस्तस्वं तस्मिन् । तथा 'छ' इत्ययं वर्णो दोपाणामसंयमयोगलक्षणानामाच्छादने - स्थगने भवति । 'मि'
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मिच्छासुय
इत्ययं वर्णो मर्यादायां चारित्ररूपायां स्थितोऽहमित्यस्यार्थस्यऽभिधायकः । 'दु' इत्ययं बर्णो जुगुप्से - निन्दामि दुष्कृतकारिणमात्मानमित्यस्मिन्नर्थे वर्त्तते । ' क ' इत्ययं वर्णः सं मया पापमित्येवमभ्युपगमाऽर्थे वर्त्तते, 'ड' इत्ययं वर्णो डेवेमिलक्ष्यामि श्रतिक्रमामि, तत्- कृतं पापम्, केनेत्याह-उपशमेत्यस्मर्थे, एषोऽनन्तरोक्तः प्राकृतशैल्या मिथ्यादुष्कृतपदस्याक्षरार्थः । समासेन-संक्षेपेण, । श्राह-कथं प्रत्येकमक्षराणामुक्तार्थता पदवाक्ययोरेवार्थदर्शनात् । उच्यते - इह यथा वाक्यैकदेशत्वात्पदस्यार्थोऽस्ति तथा पदैकदेशत्वाद्वर्णस्यापीत्यदोषः, श्रन्यथा पदस्याप्यर्थशून्यत्वप्रसङ्गः प्रत्येकमक्षरेवर्थाभावात्, प्रयोगश्च यत् यत्र प्रत्येकं न विद्यते तत्समुदायेsपि न भवति, यथा-सिकतासु तैलम्, इष्यते च वर्णसमुदयात्मकस्य पदस्यार्थस्तस्मादन्यथाऽनुपपत्तेर्वर्णानामप्यर्थः प्रतिपत्तव्य इत्यलं प्रसङ्गेन । आ० म० १ ० । ( मिथ्यादुष्कृतभेदाश्च - श्रष्टादशलक्षाः चतुर्विंशतिसहस्राः एकं शतं बिंशतिश्च १८२४१२० भवन्ति । ते च युक्तितः ' पडिकमण ' शब्दे पञ्चमभागे २७२ पृष्ठे दर्शिताः ) मिच्छादुक्कडप्पयोग - मिथ्यादुष्कृतप्रयोग - पुं० । मिथ्यादुष्कृतशब्दप्रयोगे, " जं कहमवि पावकम्मे आसेविते अकरणितमेयं ति तदभिप्पारण पुणकरणतो य अब्भुट्टिबं मिच्छादुक्कडं ति " । श्र० चू० १ ० । मिच्छापडिवष्म-मिथ्याप्रतिपन्न - वि० । असम्यक् पिण्डेषणाद्यभिग्रहवति, श्राचा० २ ० १ चू० १ ० ११ उ० । मिच्छापवयण - मिथ्याप्रवचन- न० । शाक्यादितीर्थिकशासने, स्था० ६ ठा० । मिच्छाभिणिवेस- मिथ्याभिनिवेश-पुं० । असदभिनिवेशे, पो०
११ विव० । स्था० ।
मिच्छायार - मिथ्याचार-पुं० । मिथ्यात्वाविरतिकषायदुष्टयोगजमोक्षमार्गविपरीतसमाचारे, पञ्चा० २ विव० । मिच्छावाय - मिथ्यावाद - पुं० । जिनप्रणीततत्त्वविरुद्धत्वादसम्यग्वादे, स्था० ४ ठा० २ उ० ।
मिच्छा संठियभावण - मिथ्यासंस्थितभावन - त्रि० । मिथ्या विपरीता संस्थिता स्वानुग्रहारूढा भावना - अन्तःकरणवतिर्येषां ते मिथ्यासंस्थितभावनाः । मिथ्यात्वोपहतदृष्टिषु, सूत्र० १ श्रु० ३ ० १ उ० ।
मिच्छासुय - मिध्याश्रुत - न० । मिथ्यादृष्टेर्मिध्यादृष्टिप्रणीते - परीतार्थतया परिणते श्रुतज्ञाने, कर्म० १ कर्म० । विशे० नं० । से कि तं मिच्छासु १, मिच्छामुत्रं जं इमं ममाखिएहिं मिच्छादिट्ठिएहिं सच्छंद बुद्धिमइविगप्पित्र्यं तं जहाभारहं रामायणं भीमासुरुक्खं कोडिल्लयं सगडभद्दिद्मा
खोड (घोडग ) मुहं कप्पासिश्रं नागसुडुमं कखसतरी वइसेसिअं बुद्धवयणं तेरासिअं काविलिअं लोगाययं सततं मादरं पुराणं वागरणं भागवं पायंजली पुस्सदेवयं लेहं गणिअं सउणरुअं नाडयाई, अहवा-बावतरिकलाओ चत्तारि भवेया संगोवंगा, एमाई मिच्छदि
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(२०) मिच्छासुय अभिधानराजेन्द्रः।।
मित्तणंदि द्विस्स मिच्छत्तपरिग्गहिमाई मिच्छासुनं, एयाई चेव | ते भङ्ग एव, न बदामीति बतान्तरे न किञ्चन तथापि सहसम्मदिहिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुश्र , अहवा
साकारानाभोगाभ्यामतिक्रमादिभिर्वा मृषावादे परप्रवर्तनं
प्रतस्यातिचारः । अथवा-व्रतसंरक्षणवुद्धया परवृत्तान्त मिच्छदिद्विस्स वि एयाई चेव सम्मसुधे, कम्हा?,
कथमवारेण मृषोपदेश यच्छतोऽतिचारोऽयं व्रतसापेक्षत्वान्मृः सम्मत्तहेउत्तणभो, जम्हा ते मिच्छदिट्टिा तेहिं चेव
षावादे परप्रवर्तनाच्च भनाभग्नरूपत्वाद् व्रतस्येति द्विती समएहिं चोइमा समाणा केइ सपक्खदिट्ठीयो चयंति । |
योऽतिचारः। ध०२ अधिक। से तं मिच्छासुभं । (सूत्र-४१)
मिच्छोवजीवि-मिथ्योपजीविन-त्रि०। मिथ्याचारप्रवृत्ते मा. ('से कित' सित्यादि) अथ किं तन्मिथ्याश्रुतम् !,मा- याविनि, सूत्र. २ श्रु०५०।
जिल्पथ | मिच्छोवयार-मिथ्योपचार-पुं०।मातस्थानगर्ने क्रियाविशेष, ना लोकेऽधना उच्यन्ते, एवं सम्यग्दृष्टयोऽप्यल्पज्ञानभावा
पाव०१०। दशानिय उच्यन्ते , तत आह-मिथ्यारष्टिभिः, किं स्वछन्दबुद्धिमतिविकल्पितम् । तत्रावग्रहे हेतुर्बुद्धिः, अपायधा
मिज्जमाण-मीयमान-त्रि० तोल्यमाने, आचा। सूत्र। रणे मतिः, स्वच्छन्दन स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वशप्रणी
मार्यमाण-त्रिका हिंसायां बहुक्ररकर्मा-चौरोऽयं पारदारिक तानुसारमन्तरेत्यर्थः, बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं , स्व- इति वा इत्येवं कर्मणा परिच्छिद्यमाने हिंस्यमाने, सूत्र० १
छन्दबुद्धिमतिविकस्पितम् । स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमिस्यर्थः, तद्यथा- भारतमित्यादि, यावत् चत्तारि वेया|मज्म-मध्य-त्रा शुाचगव्य, स्था०१० ठा०॥ संगोवंगा' भारतादयश्च प्रन्था लोके प्रसिद्धास्ततो मिद-मिष्ट-त्रि० । इत्रूपादौ॥ ८।१।१२८॥ इति श्रादेलोकत पव तेषां स्वरूपमवगन्तव्यम् , ते च स्वरूपतो | श्रृंत इत्त्वम् । प्रा०१ पाद।। यथावस्थितवस्त्वभिधानविकलतया मिथ्याश्रुतमवसेयाः , | मिणगोणस्-मिणगोनस-पुं० । सर्पजातिविशेष, व्य०१ उ०। एतेऽपि च स्वामिसम्बन्धचिन्तायां भाज्याः, तथा
मिणाय-देशी-बलात्कारे, दे० ना०६ वर्ग १२६ गाथा। चाह-'एया' इत्यादि , एतानि भारतादीनि शास्त्राणि मिथ्यारमित्यात्वपरिगृहीतानि भवन्ति ततो विपरीता
मिणाल-मृणाल- कमलनाले, प्राचा०१ श्रु०११०५उ०। भिनिवेशवृद्धिहेतुत्वान्मिथ्याश्रुतम् , एतान्येव च भारता- मित्त-मित्र-न० । सुहदि,विपा०१ श्रु०३१०। कल्पनिक दीनि शास्त्राणि सम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वपरिगृहीतानि भव- भ० । जी० । औ० । पश्चात् स्नेहवति, स्था० ४ ठा०३ न्ति सम्यक्त्वेन यथावस्थिताऽसारतापरिभावनरूपेण परि- उ० । विपा० । सकलकालमव्यभिचारिहितोपदेशदायिनि,जं. गृहीतानि सस्य सम्यकश्रुतं, तद्गतासारतादर्शनेन स्थिर- २ वक्षः। विक्षातश्लोकपदवर्णादिसंख्ये, अनु । स्थाशा तरसम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात् , ( अहवे' त्यादि,)। उत्त० । सूक्ष्म० । प्राचा० । अहोरात्रस्य चतुर्थे मुहूर्त, अथवा-मिथ्यारष्टेरपि सतः कस्यचिदेतानि भारता- चं० प्र०१० पाहु०॥ सूत्र०। ज्यो।सा जं० । कल्पाअनुरादीनि शास्त्राणि सम्यकश्रुतम् । शिष्य आह-कस्मात् ? , धानक्षत्रस्य देवतायाम् , स्था०२ ठा०३ उ० । प्राचार्य श्राह-सम्यक्त्वहेतुत्वात् , सम्यक्त्वहेतुत्वमेव भा- छच्चवे य आरभडो, सोमित्तो पंचअंगुलो होई । षयति-यस्माते मिथ्यादृष्टयः तैरेव समप्रैः सिद्धान्तैर्वेदादि
चत्तारि य वहरिज्जो, दुच्चेव य सावत्र होइ॥४०॥ भिः पूर्वापरविरोधेन यथा रागादिपरीतः पुरुषस्तावना
द०प०1८६५ गाथा । जं० । मित्रनाम्नि देवे, जं०७वक्षा। तीन्द्रियमर्थमवबुध्यते रागादिपरीतत्वाद् अस्मादृशवद् वेदे.
उज्झितकदारजन्मभूमिवाणिकग्रामराजे,विपा०३७०२० पुवातीन्द्रियाः प्रायोऽर्था ज्यावण्यन्ते अतीन्द्रियार्थदर्शी
[उज्झियय' शब्दे द्वितीयभागे ७४६ पृथे कथा गता] "जगच वीतरागः सर्वज्ञो नाभ्युपगम्यते, ततः कथं वेदार्थप्रती
न्मित्रं यत्र मित्र-सुमित्रान्वयपङ्कजे । अश्वावबोधनियूंढतिरित्येवमादिलक्षणेन नोदिताः सन्तः केचन विवेकिनः स-|
व्रतोऽभूत्सुव्रतो जिनः ॥१॥" ती०१० कल्प । मार्तण्डे, फु। त्या (शाक्या) दय इव स्वपक्षदृष्टी: स्वदर्शनानि त्यजन्ति ,
"श्रको तरणी मित्तो, मत्तंडो दिणमणी पयंगो य । अहिमयभगवच्छासनं प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः,तत एवं सम्यक्त्वहेतुत्वारे-
रो पच्चूहो, दिअसयरो अंसुमाली ।" पाइ० ना० ४ गादादीन्यपि शाखाणि केषाश्चिन्मिश्यादृष्टीनामपि सम्यकश्रुत
था । वयस्ये, "मित्तो सही पयंसो" पाइ० ना० १०० गाथा । म्। ('सेत'मित्यादि) तदेतन्मिथ्याश्रुतम्। नं० । बृ०।
मणिपदायाः शास्तरि स्वनामख्याते राजनि,विपा०२७०६अ। मिच्छुकड-मिथ्यादुष्कृत-न०। प्रतिक्रमणे , महा०१०।
मित्तकेसी-मित्रकेशी-स्त्री० । जम्बूद्वीपे रुचकपर्वतस्य रत्नो मिच्छोवएस-मिथ्योपदेश-पुं०। असदुपदेशरूपे,द्वितीयेऽति
चयकूटवास्तव्यायां दिशाकुमारीमहसरिकायाम्,स्था०८ठा। चारे,धणमिण्योपदेशः-असदुपदेशः, प्रतिपन्नसत्यव्रतस्य हि
मित्तगा-मित्रका-खी । बलिलोकपालसोमस्याग्रमहिण्याम, परपीडाकरं वचनमसत्यमेव, ततः प्रसादात् परपीडाकरणे | उपदेशेऽतिचारो यथा बाह्यन्तां खरोष्ट्रादयो, हन्यन्लां दस्य
स्था०४ ठा०११०। वति । वश यथास्थितोऽर्थस्तथोपदेशः साधीयान् , वि
मित्तजख-मित्रजन-पुं० सहवर्द्धितादिसहल्लोके,स०। उसका परीतस्तुभयथार्थोपदेशः , यथा-परेण संदेहापनेन पृटेन प्रश्न: तथोपदेशः , यद्वा-विवाहे स्वयं परेण वा अन्यतराभि-मित्तणंदि-मित्रनन्दिन-पुं० । बरदनकुमारपितरि स्वनामसंधानोपायोपदेशः । अयं च यद्यपि मृषावादयामीत्यत्र - ख्याते राजनि, विषा०२ श्रु०१.०।
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(२७१) मित्तदाम अभिधानराजेन्द्रः।
मित्तसेण मित्तदाम-मित्रदामन–पुं० । जम्बूदीपे भरतक्षेत्र अतीताया- पुरुषजाते एकत्र वसति सति तत्सहयासिनो मातापित्रामुत्सर्पिण्यां जाते प्रथमकुलतीर्थकरे, स० । स्था० ।
दयो दुर्मनसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्ति । तस्मिश्च प्रवसति दे. मित्तदेव-मित्रदेव--पुं०। पारण्य कल्पोत्पन्ने धनदेवे, तद्देव्याम्, शान्तरे गच्छति गते वा तत्सहवासिनः सुमनसो भवन्ति । स्त्री०। उत्त० २२० ।
तथाप्रकारश्च पुरुषजातोऽल्पेऽप्यपराधे महान्तं दण्डं मित्तदेवा-मित्रदेवा-स्त्री० । मित्रनामा देवो यस्याः सा । - कल्पयतीति । एतदेव दर्शयितुमाह-दण्डस्य पाय दण्ड
पाव, तद्विद्यते यस्यासा दण्डपार्वी, स्वल्पतया स्तोकानुराधायाम् , सू०प्र०१० पाहु०।
पराधेऽपि कुप्यति दण्डं च पातयति । तमप्यतिगुरुमिति मित्तदोसदंड--मित्रवपदण्ड-पुं० । मात्रादीनामल्पेऽप्यपराधे
दर्शयितुमाह-दण्डेन गुरुको दण्डगुरुः । यस्य च दण्डो महादरा डनिर्वर्तने , प्रश्न०५ संव० द्वार ।
महान् भवति असौ दरडेन गुरुर्भवति । तथा दण्डः पुरमित्तदोसवत्तिय-मित्रद्वेषप्रत्ययिक--पुं०। अमित्रक्रियायाम् ,
स्कृतः सदा पुरस्कृतदण्ड इत्यर्थः । स चैवंभूतः स्वस्य मातापितृम्बजनादीनामल्पेऽप्यपराधे तावद् यद्दण्डं कुरुते परेषां चास्मिन् लोकेऽस्मिन्नेव जन्मनि अहितः प्राणिनामदहनाङ्कनताइनबधबन्धनादिकं तन्मित्रद्वेषप्रत्ययिकक्रिया- हितदण्डपातनात् , तथा परस्मिन्नपि जन्मन्यसावहितस्तस्थानम् । प्रव०१२१ द्वार । स०। श्रा० चू०। आव०। च्छीलतया चासौ यस्य कस्यचिदेव येन केनचिदेव निमित्ते. मित्रदोषप्रत्यायकं क्रियास्थानमाह
न क्षणे क्षणे संज्वलयतीति संज्वलनः, स चात्यन्तक्रोधनो अहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आ-| वधवन्धच्छविच्छेदादिषु शीघ्रमेव क्रियासु प्रवर्तते तदभाहिजड, से जहाणामए के परिसे माइहिं वा पितीहिं वा वेऽप्युत्कटद्वेषतया ममांद्वाटनतः पृष्ठिमांसमपि खादेनत्त
दसौ यात् येनासावपि परः संज्वलयेत् ज्वलितश्चान्येभाईहिं वा भइणीहिं वा भजाहिं वा धूयाहिं वा पुनेहि
षामपकुर्यात् , तदेवं खलु तस्य महादण्डप्रवर्तयितुस्तद्दण्डवा सण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे तेसि अन्नयरास श्र- प्रत्ययिक सावयं कमीऽऽधीयते । तदेतहाशमं फियास्थान हालहगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं निव्वत्तेति । तं! मित्रटोहप्रत्ययिकमाख्यातमिति । सत्र २४०२ जहा-सीओदगवियडंसि वा कायं उच्छोलित्ता भवति, मित्तप्पभ-मित्रप्रभ-पुं० । स्वनामख्याते चम्पापुरीश्वरे , प्रा० उसिणोदगवियडेण वा कायं प्रोसिंचित्ता भवति, अग- क०४ अ० । श्राव० । प्रा० चू०। ( संवेगशब्दे कथा) णिकाएणं काय उवडहित्ता भवति, जोत्तेण वा वेचेण वा मित्तबल-मित्रबल-पुं० । सुहत्पवादले,तन्मित्रबलं मे भविप्रणेतेण वा तयाइ वा कम्मेण वा छियाए वा लयाए वा |
ध्यति येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिध्यामीति । श्राचा० १
श्रु०२ १०२ उ०। श्रापयरेण वा दवरएण पासाई उद्दालित्ता भवति, दंडेण
भित्तरूप-मित्ररूप-पुं० । मित्रस्येव मयमाकारो याह्योपचावा अट्ठीणं वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा कार्य
कारणत्वाद्यस्य स मित्ररूपः। मित्राभासे, स्था०४ठा०५३० । आउट्टित्ता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए संबसमाणे दु-/
मित्तल-देशी-कन्दर्षे, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा । म्मणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवति,तहप्पगारे पुरिस-1
मिचव-मित्रवत-त्रि० । मित्राणि विद्यन्ते यस्य स मित्रवान् । जाए दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरकडे अहिए इमंसि लोगसि
उत्त० ३ अ० । सहपांशुक्रीडितादिके, उत्त० ३ ०। अहिए परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्टिमंसि यानि
सयाजन मित्तवई-मित्रवती--स्त्रीसुदर्शनश्रेष्ठिस्त्रियाम् ,पाचू०६० भवति. एवं खलु तस्स तप्पत्तिय सावजात आहजात दसम मित्तवायग--मित्रवाचक-पुं०। स्वनामख्याते सुप्रसिद्ध थतकिरियट्ठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिए॥ सूत्र-२६॥ स्थविरे, व्य० १ उ०।
तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः प्रभुकल्पो मातापितृसुहृत्स्वज- मित्तवाहण-मित्रवाहन-पुं० जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिनादिभिः सार्द्ध परिवसँस्तेषां च मातापित्रादीनामन्यतमेना
न्यामुत्सर्पिण्यां दितीये तीर्थकरे, स्था० ७ ठा। नाभोगतया यथाकथंचिल्लघुतमेऽप्यपराधे वाचिके-दुर्वच
मितविरिय-मित्रवीर्य-पुं० । सम्भवजिनशिध्ये, ति। नादिके, तथा कायिके-हस्तपादादिके, संघट्टनरूपे कृते | सति स्वयमेव आत्मना क्रोधाध्मातो गुरुतरं दण्डं दुःखोत्पा |
मित्तसिरि मित्रश्री-पुं०। आमलकल्पावास्तव्ये स्वनामख्याते दकं निर्वर्त्तयति-करोति । तद्यथा-शीतोदके विकटे-प्रभूते,
श्रावके, येन जीवप्रादेशिकनिह्नवाचास्तिष्यगुप्तः करसिशीते वा शिशिरादौ तस्य-अपराधकर्तुः कायमधो बोलयिता |
क्थादिना प्रतिचालितः । विशा आ० चू। ० मास्थाण भवति, तथोष्णोदकविकटेन कायं शरीरमपसिञ्चयिता । तत्र
मित्तसेण-मित्रसेन-पुं० । स्वनामख्याते अयोध्यानगरीराजविकटग्रहणादान न काञ्जिकादिना वा कायमुपतापयिता
जयचन्द्रमित्रे, ध०र०।। भवति । तथाऽनिकायनोल्मुकेन ततायसा वा कायमुपदाह
श्रासीत् पुर्यामयोध्याया-मयोध्यायामरातिभिः । यिता भवति । तथा-जोत्रेण वा वेत्रेण वा नेत्रेण वा त्वचा
धर्मकर्मणि निस्तन्द्रो,-जयचन्द्रो महीपतिः ॥१॥ वा सनादिकया लतया वाऽन्यतमेन वा दवरकेण ताडन
तस्य प्रियतमा चार-दर्शना चारुदर्शना । तस्तस्यापराधकर्तुः शरीरपााणि (उद्दालयितुं ति)चर्माणि सूनुश्चानूनपुण्यश्री-श्चन्द्रश्चन्द्रसहक दृशाः ॥२॥ लुम्पयितुं भवति,तथा-दण्डादिना कायमुपता यता भवती. शृङ्गारबहुलः श्येन-पुरोहिततनूद्भवः । ति। तदेवमल्पापराधियपि महामोधदएष्यति तथाप्रकारे तान्म मित्रसेनोऽभूत्-केलिकातू, प्रियः ॥ ३ ॥
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(२७२) मित्तसेण अभिधानराजेन्द्रः।
मित्ता एकदा तत्पुरोद्याने, दुयाने धनपावकः।
ततो राजाऽऽह मित्रैवं, माऽतिचारीनिजं व्रतम्। श्रागादागाम्यतीतादि-वेदिसूर्युिगन्धरः ॥४॥
सविकारवचो वक्तुं, न युक्तं शीलशालिनाम् ॥ २८ ॥ तं नन्तुं दन्तुरानन्दो-द्भिन्नरोमाञ्चकञ्चकः ।
शृङ्गारसारभाषित्व-मेव मुक्तोऽपि नोज्झति । जगाम जगतीनाथः, सुमित्रसुतसंयुतः ॥ ५॥
यदा केलिप्रियत्वेन, तदा राज्ञाऽप्युपेक्षितः ॥ २६ ॥ राजा निष्प्रतिमं रूपं, दृष्टया तस्य मुनीशितुः।
प्रोषितभर्तृत्रियोऽग्रे, सविकारगिरोऽन्यदा। पप्रच्छ स्वच्छधीरेवं , विस्मयस्मेरलोचमः ॥ ६॥
स तथाऽऽख्यद्यथा सद्यः, सा भून्मदनविला ॥ ३०॥ सत्यप्यसदृशे रूपे , साम्राज्यविभवोचिते ।
तां तथा सविकाराङ्गी, दृष्ट्वा तद्देवरः क्रुधा। कुतो वैराग्यतः पूज्यै-जगृहे दुष्करं व्रतम् ॥ ७॥
तं बबन्ध दृढैबन्धै, रेविटोऽसीत्युदीरयन् ॥ ३१ ॥ गुरुराह मया दृष्टः, सोऽरघहो नराधिप!।
तदाकर्य नृपो मङ्क्षु, मोचयित्वा तमाख्यत । सदा युक्तो वहन्नित्यं, संपूर्णो भवनामकः ॥८॥
व्रतातीचारवृक्षस्य, पुष्पं प्राप्तमिदं त्वया ॥३२॥
फलं तु नरके घोरे, लप्स्यसे तीव्रवेदनाः। चत्वारो रागविद्वेष-मिथ्यात्वस्मरसंशिताः।
यत्तदा वारितोऽपि त्वं, नातिचारादुपारमः ॥ ३३ ॥ दृढा सारथयस्तत्र, मोहः सीरपतिः पुनः॥६॥
जिनं देवं गुरून् साधू-स्तदद्यापि सखे ! स्मर । विनाऽपि चारिवारिभ्यां, सबला वेगशालिनः ।
गर्हस्व दुष्कृतं सर्वे, क्षमय प्राणिसंहति ॥ ३४॥ महाकायाः कषायाख्या , वृषभास्तन पोडश ॥ १०॥ सोऽपि प्राह सखे गाद, बन्धनैः पीडितोऽस्म्यहम्। हास्यशोकभयाद्यास्तु, कर्कशा कर्मकारकाः।
न स्मरामि ततः किंचित् , प्रतीकारं कुरुष्व मे ॥ ३५॥ जुगुप्सारत्यरत्यरत्याद्या-स्तेषां च परिचारिकाः ॥ ११ ॥ इति जल्पनसौ मृत्वा, गजोऽभूद्विन्ध्यभूधरे। दुएयोगप्रमादाख्यं , तत्र तुम्बद्वयं महत् ।
ततो बहुभवं भ्रान्त्वा, क्रमान्मोक्षमवाप्स्यति ॥ ३६ ॥ विलासोल्लासविब्वोके-हावभावादिकाः स्वराः॥१२॥ सविकारबचो वार्द्धि-कुम्भभूश्चन्द्रभूपतिः।। तत्रासंयतजीवाख्यः, कूपोऽदृष्टतलः सदा ।
राज्यं न्यस्य सुते दीक्षां, गृीत्वा च ययौ शिवम् ॥ ३७॥ पापाविरतिपानीय-संभारपरिपूरितः ॥१३॥
इत्यवेत्य कृतिनः स्वचेतसा, मित्रसेनचरितं गतांहसः । पापाविरतिनीरौघ-मग्नपूरितरेचितम् ।
चञ्चदुश्चतरदुःखलक्षितं, संत्यजन्तु सविकारजल्पितम् ।३८५ सुदीर्घ जीवलोकाख्यं घटीयन्त्रमभङ्गरम् ॥ १४॥
ध० र०२ अधि०२ लक्ष। षटकार उच्चकैर्मृत्यु-रज्ञानं तु प्रतीच्छकः ।
मित्ता-मात्रा-स्त्री० । तुल्ये, मात्राशब्दात्तात्पर्यार्थविश्रान्तेरढं मिथ्याभिमानाख्यं, तस्य दार्वटिकं सदा ॥१५॥ स्तुल्यवाची । यदाह निशीथचूर्णिकृत्-मात्राशब्दस्तुल्यअतिसंक्लिष्टचित्ताख्या , तत्र निर्वहणी पृथुः ।
वाचीति । व्य०१ उ०। श्रतिद्राधीयसी कुल्या, भोगलोलुपताऽभिधा ॥१६॥ मित्रा-स्त्री० । योगदृष्टिभेदे, मित्रादृष्टिस्तृणाग्निकणोपमा न क्षेत्रं विवक्षितं जन्म, माला दुःखस्य संहतिः ।
तत्त्वतोऽभीष्टकार्यक्षमा सम्यक्प्रयोगकालं यावदनवस्थानात् अपरापरजन्माख्याः , केदारा गणनातिगाः॥१७॥
अल्पवीर्यतया, ततः पटुबीजसंस्काराधानानुपपत्तेः विकलपानान्तिकस्त्वसद्बोधो, बीजं कर्मकदम्बकम् ।
प्रयोगभावाद् भावतो वन्दनादिकार्यायोगात्।ध०१ अधिक। दुष्टो जीवपरीणामो, वापकस्तत्र सोद्यमः ॥१८॥
मित्रां दृष्टिमत्र सप्रपञ्च निरूपयन्नाहततश्च
मित्रायां दर्शनं मन्दं, योगाङ्गं च यमो भवेत् । उप्तं तेनारघट्टेन, सिक्तं निष्पत्तिमागतम् ।
अखेदो देवकार्यादा-वन्यत्राद्वेष एव च ॥१॥ प्रभूतसुखदुःखादि, सस्यं नानाविधं नृप !॥१६॥
( मित्रायामिति) मित्रायां दृष्टौ । दर्शनं मन्दम्-स्वल्पो एवं भवारघट्टाति-भ्रमणोद्भीतचेतसा।
बोधः । तृणाग्निकणोद्योतेन सदृशः । योगाङ्गं च यमो भ. दीक्षा तद्भयघाताय, मयाऽऽदायि नरेश्वर ! ॥२०॥ वेदिच्छादिभेदः । अखेदोऽव्याकुलतालक्षणः । देवकार्यादाधुत्वेति नृपतिर्भीम-भवाद्रीतमना भृशम् ।
वादिशब्दाद्-गुरुकार्यादिपरिग्रहः । तथा तथोपनतेऽस्मिस्तभ्यस्य चन्द्रसुते राज्यं , शमसाम्राज्यमाददे ॥२१॥
थापरितोषान्न खेदः, अपि तु प्रवृत्तिरेव , शिरोगुरुत्यादिसमित्रश्चन्द्रराजोऽपि, राजन् ! राज्यश्रिया तया ।
दोषभाक्त्वेऽपि भवाभिनन्दिनो भोगकार्यवत् । अद्वेषश्चामसम्यग्दर्शनसंशुद्धं , गृहिधर्ममशिश्रियत् ॥२२॥
त्सरश्चापरत्र त्वदेवकार्यादौ तथा तत्त्वावेदितया मात्सर्यवीर्यनत्वा गुरुपद्वन्द्वं, निजं धाम जगाम राद ।
बीजसद्भावेऽपि तद्भावाङ्कुरानुदयात्,तथाविधानुष्ठानमधिअन्यत्र मुनिराजोऽपि-विजई सपरिच्छदः ॥ २३॥
कृत्यात्र स्थितस्य हि करुणांशबीजस्यैवेषत्स्फुरणमिति । १। अन्यदा मित्रसेनेन , राजाऽभाणि रहस्यदः ।
द्वा०२१ द्वा० ( यमस्वरूपं सभेदम् ' जम' शब्दे चतुर्थभागे किमप्यपूर्व विज्ञानं, दर्शयामि सखे ! तव ॥ २४ ॥
१३६१ पृष्ठे गतम् ) मित्रदेवताके नक्षत्रभेदे , स्था। स प्राह दर्शय क्षिप्रं , ततोऽसौ जम्बुकस्वरम् । तथाऽरसद् यथा रेलुः, पूर्व हि जम्बुका अपि ॥ २५ ॥
दो मित्ता । सूत्र । स्था० २ ठा० ३ उ० । चुकूजुः कुक्कुटा उच्चैः, कृते कुक्कुटकूजिते ।
बाधनेन वितर्काणां, प्रतिपक्षस्य भावनात् ।। निशीथेऽपि निशाप्रान्त-मुन्निद्रा मेनिरे जनाः ॥२६॥
योगसौकर्यतोऽमीषां, योगाङ्गत्वमुदाहृतम् ॥ ३ ॥ तथा शृङ्गारसाराणि , वाक्यान्याह यथा जनः ।
(बाधनेनेति) वितर्काणां योगपरिपन्धिनां हिंसादीनां प्रदशीलोऽपि जायेत, मन्मथोन्माधितो भूशम् ॥ २७ ॥ तिपक्षस्य भावनात् , बांधनेनानुत्थानोपहतिलक्षणेन योग
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मित्ता अभिधानराजेन्द्रः।
मित्ता स्य सौकर्यतः सामग्रीसंपत्तिलक्षणादमीषामहिसादीनां यमा- | पपत्तेरेतत्सर्व सामस्त्यप्रत्येकभावाभ्यां योगबीज मोक्षयोनां योगाङ्गत्वमुदाहृतम् , न तु धारणादीनामिव समाधेः सा- जकानुष्ठानकारणमनुत्तमं सर्वप्रधानं विषयप्राधान्यात्॥ ८॥ क्षादुपकारकत्वेन, न वासनादिवदुत्तरोत्तरोपकारकत्वेनैव, __ चरमे पुद्गलावर्ते, तथा भव्यत्वपाकतः । किंतु-प्रतिबन्धकहिंसाद्यपनायकतयैवेत्यर्थः। तदुक्तम्-"वि
प्रतिबन्धोज्झितं शुद्ध-मुपादेयधिया ह्यदः ॥६॥ तर्कवाधने प्रतिपक्षभावनामिति ॥” (२-३३)॥३॥
(चरम इति ) अदो हि एतच्च चरमेऽन्त्ये पुद्गलावर्ते भवक्रोधालोभाच्च मोहाच्च, कृतानुमितकारिताः।
ति । तथा-भन्यत्वस्य पाकतो मिथ्यात्वकटुकत्यनिवृत्त्या मृदुमध्याधिमात्राथ, वितर्काः सप्तविंशतिः ।। ४ ।। मनाग्माधुर्यसिद्धेः । प्रतिबन्धेनासङ्गेनोज्झितम्-आहारा(क्रोधादिति ) क्रोधः-कृत्याकृत्यविवेकोम्मूलकः प्रज्वलना
दिसंशोदयाभावात् , फलाभिसन्धिरहितत्वाश्च । तदुपास
स्य तु स्वतः प्रतिबन्धसारत्वात् । अत एवोपादेयघियास्मकश्चित्तधर्मस्तस्मात् । लोभः-तृष्णांलक्षणस्ततश्च । मोह
ऽन्यापोहेनादरणीयत्वबुद्धया शुद्धम् । तदुक्तम्-" उपादयधिश्व-सर्वक्लेशानां मूलमनात्मन्यात्माभिमानलक्षणः । इत्थं च
याज्यन्तं, संसाविष्कम्भणान्वितम् । फलाभिसन्धिरहितं, कारणभेदेन त्रैविध्यं दर्शितं भवति । तदुक्तम्-“लोभको
संशुद्ध ह्येतदीदृशम् ॥१॥"॥ ६॥ धमोहमूल" इति । (२-३४ पूर्वकाः) व्यत्ययाभिधानेऽप्यत्र मोहस्य प्राधान्यम् , स्वपरविभागपूर्वकयोर्लोभक्रोधयो
प्रतिबन्धैकनिष्ठं तु, स्वतः सुन्दरमप्यदः।। स्तन्मूलत्वादिति बदन्ति । ततः कारणत्रयात् कृतानुमितका
तत्स्थानस्थितिकायैव, वीरे गौतमरागवत् ॥१०॥ रिता एतेऽहिंसादयो नवधा भिद्यन्ते । तेऽपि मृदयो म- (प्रतिबन्धेति) प्रतिबन्धे-स्वासने एका-केवला निष्ठा यस्य न्दाः, मध्याश्चातीवमन्दाः, अधिमात्राश्च तीवा इति प्रत्येक तत्तथा । अदो-जिनविषयकुशलचित्तादि, तत्स्थानस्थितिकात्रिधा भिद्यन्ते । तदुक्तम्-" मृदुमध्याधिमात्राः" (इति र्येव तथास्वभावत्वात् , वीरे-वर्धमानस्वामिनि गौतमरागवत् २-३४॥ वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभ- गौतमीयबहुमानवत् । असङ्गशक्त्यैव ह्यनुष्ठानमुत्तरोत्तरपरिक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्यधिमात्रा दुःखाशानान्तफला इति वामप्रवाहजननेन मोक्षफलपर्यवसानं भवति, इति विवेचितं प्रतिपक्षभावनम् ) इत्थं च सप्तविंशतिर्वितर्का भवन्ति । अत्र | प्राक् ॥१०॥ मृद्वादीनामपि प्रत्येकं मृदुमध्याधिमात्राभेदो भावनीय इ- सरागस्याप्रमत्तस्य, वीतरागदशानिभम् । ति वदन्ति ॥४॥
अभिन्दतोऽप्यदो ग्रन्थि, योगाचार्यथोदितम् ॥११॥ दुःखाज्ञानानन्तफला, अमी इति विभावनात् ।
( सरागस्येति ) अदः शुद्धयोगबीजोपादानं ग्रन्थिमभिन्दप्रकर्ष गच्छतामेत-द्यमानां फलमुच्यते ॥ ५ ॥ तोऽपि जीवस्य चरमयथाप्रवृत्तकरणसामर्थ्यन, तथाविध
क्षयोपशमादतिशयितानन्दानुभवात् । सरागस्याप्रमत्तस्य(दुःखेति) दुःख प्रतिकूलतयाऽवभासमानो राजसश्चित्त
सतो यतेर्वीतरागदशानिभं सरागस्य वीतरागत्वप्राप्ताविधर्मः, अक्षानम्-मिथ्याशानम् , संशयविपर्ययादिरूपम् । ते
व योगबीजोपादानवेलायामपूर्वः कोऽपि स्वानुभवसिद्धोऽअनन्ते-अपरिच्छिन्ने फलं येषां ते तथोक्ताः । अमी वि
तिशयलाभ इति भावः । यथोदितं योगाचार्यैः ॥ ११ ॥ तर्का इति विभावनान्निरन्तरं ध्यानात् प्रकर्ष गच्छतां यमानामेतद्वक्ष्यमाणं फलमुच्यते ॥५॥ द्वा० २१ द्वा० । ( तत्फ
ईषदुन्मजनाभोगो, योगचित्तं भवोदधौ । लम् ' महव्यय ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम् ) ( परिग्र
तच्छक्त्यतिशयोच्छेदि, दम्भोलिन्थिपर्वते ॥ १२ ॥ हविषयः 'परिग्गह' शब्दे पञ्चमभागे ५५६ पृष्ठे गतः) (ईषदिति ) योगचित्तम्-योगबीजोपादानप्रणिधानचिइत्थं यमप्रधानत्व-मवगम्य स्वतन्त्रतः।
त्तम् , भवोदधौ-संसारसमुद्रे, ईषन्मनागुन्मजनस्याभोगः। योगबीजमुपादत्ते, श्रुतमत्र श्रुतादपि ॥७॥
तच्छते-भवशक्तेरतिशयस्योद्रेकस्योच्छेदि-नाशकम् , अ
न्थिरूपे पर्वते दम्भोलि–चनम् नियमात्तद्भदकारित्वात् । (इत्थमिति ) इत्थम्-उक्तप्रकारेण, स्वतन्त्रतः-स्वाभिमत
इत्थं चैतत्फलपाकारम्भसदृशत्वादस्यति समयविदः ॥१२॥ पातञ्जलादिशास्त्रतो, यमप्रधानत्वमवगम्य । अत्र मित्रायां दृष्टौ निवृत्तासद्ग्रहतया सद्गुरुयोगे श्रुताजिनप्रवचनात् श्रु
आचार्यादिष्यपि ह्येत-द्विशुद्धं भावयोगिषु । तमपि योगबीजमुपादत्ते तथास्वाभाव्यात्॥७॥
न चान्येष्वप्यसारत्वा-स्कूटेऽकूटधियोऽपि हि ॥ १३ ॥ उक्नयोगबीजमेवाह
(श्राचार्यादिष्वपीति )-आचार्यादिष्वपि-प्राचार्योपाध्याजिनेषु कुशलं चित्तं, तन्नमस्कार एव च ।
यतपस्व्यादिष्वपि, एतत्-कुशलचित्तादि, विशुद्धम्-संशुप्रणामादि च संशुद्ध, योगबीजमनुत्तमम् ॥॥
धमेव, भावयोगिषु-तात्त्विकगुणशालिषु, योगबीजम् , न
चान्येष्वपि-द्रव्याचार्यादिष्वाप कूटेऽकूटधियोऽपि हि अ. ( जिनेविति ) जिनेषु-अर्हत्सु, कुशलम्-द्वेषाद्यभावेन
सारत्वादसुन्दरत्वात् । तस्याः सद्योगबीजत्वानुपपत्तेः॥१३॥ प्रीत्यादिमच्चत्तम् अनेन मनोयोगवृत्तिमाह । तन्नमस्कार एव जिननमस्कार एव च, तथा मनोयोगप्रेरितः, इत्यनेन वाग्यो
श्लाघनाद्यसदाशंसा–परिहारपुरःसरम् । गवृत्तिमाह । प्रणामादि च पञ्चाङ्गादिलक्षणम् , आदि- वैयावृत्त्यं च विधिना, तेष्वाशयविशेषतः॥१४॥ शब्दान्मण्डलादिग्रहः। संशुद्धमशुद्धव्यवच्छेदार्थमेतत् तस्य | (श्लाघनेति) श्लाघनादेः-स्वकीादेः,याऽसत्यसुन्दराssसामान्वेन यथाप्रवृत्तकरणभेदत्वात्तस्य च योगवीजत्वानु- शंसा-प्रार्थना, तत्परिहारपुरस्सरम् वैयावृत्त्यं च-व्यापृत
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(२४) मित्ता अभिधानराजेन्द्रः।
मित्ता भावलक्षणमाहारादिदानेन विधिना-सूत्रोकन्यायेन, तेषु- (हेतुरिति)-अत्र सत्प्रणामादो। अन्तरङ्गश्च हेतुः । तथाभावयोगिण्याचार्येषु , आशयविशेषतश्चित्तोत्साहातिशयात् भावमलस्य कर्मसम्बन्धयोग्यतालक्षणस्याल्पता। ज्योत्स्नायोगबीजम् ॥ १४॥
दाविव रत्नकान्त्यादाविव रत्नादिमलापगम उच्यते । तत्र
मृत्पुटपाकादीनामिवात्र सद्योगादीनां निमित्तत्वेनैवोपयोभवादुद्विग्नता शुद्धौ-पधदानाधभिग्रहः।
गादिति भावः ॥२०॥ तथा सिद्धान्तमाश्रित्य, विधिना लेखनादि च ॥१५॥
सत्सु सत्त्वधियं हन्त, मले तीव्र लभेत कः। (भवादिति) भवात्-संसारात्, उद्विग्नता इष्टवियोगाद्यान मित्तकसहजत्यागेच्छालक्षणा । शुद्धः-निर्दोष औषधदानादेर
अगुल्या न स्पृशेत् पङ्गुः,शाखां सुमहतस्तरोः।।२१।। भिग्रहो भावाभिग्रहस्य विशिष्टक्षयोपशमलक्षणस्य भिन्नग्र- (सत्स्विति) सत्सु-साधुषु, सत्वधियम्-साधुत्वबुद्धिं, हन्त म्थेरेष भावेऽपि द्रव्याभिग्रहस्य स्वाश्रयशुद्धस्यान्यस्यापि तीवे-प्रबले, मले-कर्मबन्धयोग्यतालक्षणे-सति को लभेत?, संभषात् । तथा सिद्धान्तम्-आर्षे वचनमाश्रित्य, न तु ततो लाभशक्लेरयोगान कोऽपीत्यर्थः, अङ्गुल्या पङ्गुः सुकामादिशात्राणि । विधिना-न्यायात्तधनसत्प्रयोगादिलक्ष- महतस्तरोः शाखां न स्पृशेत् , तत्प्राप्तिनिमित्तस्योश्चत्वस्याऐन लेखनादिकं च योगबीजम् ॥१५॥
रोहशक्ती प्रभावात् । तद्वत्प्रकृतेऽपि भावनीयम् ।। २१ ।। लेखनादिकमेवाह
वीक्ष्यते स्वल्परोगस्य, चेष्टा चेष्टार्थसिद्धये । लेखना पूजना दानं, श्रवणं वाचनोद्ग्रहः ।
स्वल्पकर्ममलस्यापि, तथा प्रकृतकर्मणि ॥२२॥ प्रकाशनाऽथ स्वाध्याय-श्चिन्तना भावनेति च ॥१६॥
(वीक्ष्यत इति) स्वल्परोगस्य मन्दव्याधेश्चेष्टा राजसेवा
दिप्रवृत्तिलक्षणा, चेष्टार्थस्य-कुटुम्बपालनादिलक्षणस्य, सि(लेखनेति) लेखना-सत्पुस्तकेषु । पूजना-पुष्पवस्त्रादिभिः। द्धये-निष्पत्तये , वीक्ष्यते न तु तीब्ररोगस्येव प्रत्यपायाय । दानम्-पुस्तकादेः । श्रवणम्-व्याख्यानस्य । वाचना-स्वय- स्वल्पकर्ममलस्यापि पुंसः, तथा प्रकृतकमणि-योगबीजो मेवास्य, उदाहो-विधिग्रहणमस्यैव । प्रकाशना गृहीतस्य भ
पादानलक्षणे। ईदशस्यैव स्वप्रतिपन्न निर्वाहक्षमत्वात् ॥२२॥ व्येषु । अथ स्वाध्यायो वाचनादिरस्यैव । चिन्तना प्रन्थार्थताऽस्यैव भावनेति चैतद्रोचरैव । योगबीजम् ॥ १६ ॥
यथाप्रवृत्तकरणे, चरमे चेदृशी स्थितिः।। बीजश्रुतौ परा श्रद्धा-ऽन्तर्विश्रोतसिकाव्ययात् ।।
तत्त्वतोऽपूर्वमेवेद-मपूर्वासत्तितो विदुः ॥ २३ ॥ तदुपादेयभावश्च, फलोत्सुक्यं विनाऽधिकः ॥ १७ ॥
( यथेति) यथाप्रवृत्तकरणे चरमे पर्यन्तवर्तिनि च । ईद
शी-योगबीजोपादाननिमित्ताऽल्पकर्मत्वनियामिका। स्थिबीजश्रुतौ-योगवीजश्रवणे । परा-उत्कृष्टा, श्रद्धा-इदमि- तिः-स्वभावव्यवस्था, अपूर्वस्य-श्रपूर्वकरणस्यासत्तितः-सस्थमेव ' इति प्रतिपत्तिरूपा । अन्तर्विश्रोतसिकायाश्चित्ताश- निधानात् फलव्यभिचारायोगात् । इदं चरमं यथाप्रवृत्तिकाया व्ययात् । तस्याः बीजथुतेरुपादेयभावश्चादरपरिणाम
करणम् । तत्त्वतः-परमार्थतः अपूर्वमेव, विदु-र्जानते, योश्च । फलौत्सुक्यम्-अभ्युदयाशंसात्वरालक्षणम्, विनाऽधि. गविदः । यत उक्तम्-"अपूर्वासनभावेन, व्यभिचारवियोकोऽतिशयितो योगबीजम् ॥ १७ ॥
गतः । तत्त्वतोऽपूर्वमेवेद-मिति योगविदो विदुः॥१॥" ॥२३॥ निमित्तं सत्प्रणामादे-भद्रमूर्तेरमुष्य च ।
प्रवर्तते गुणस्थान-पदं मिथ्याशीह यत् । शुभो निमित्तसंयोगो-ऽवञ्चकोदयतो मतः ॥ १७ ॥ अन्वर्थयोजना नून-मस्यां तस्योपपद्यते ॥ २४ ॥ (निमित्तमिति) अमुण्य चानन्तरोदितलक्षणयोगिनो जी.
(प्रवर्तत इति) यदिह-जिनप्रवचने, गुणस्थानपदं मिथ्यावस्य । भद्रमूर्तेः-प्रियदर्शनस्य, सत्प्रणामादेर्योगबीजस्य-नि
दृशि-मिथ्यादृष्टौ पुंसि प्रवर्तते अस्खलवृत्तियोगविषयीमित्तम् । शुभा-प्रशस्तः। निमित्तसंयोगः-सद्योगादिसम्बन्धः
भवति । तस्य-गुणस्थानपदस्य, नूनम्-निश्चितम् । अस्याम् सद्योगांदीनामेव निःश्रेयससाधननिमित्तत्वाजायते । श्रव
मित्रायां दृष्टौ। अन्वर्थयोजना-योगार्थघटना। उपपद्यते । सश्वकोदयाद्-वश्यमाणसमाधिविशेषोदयात् ॥१७॥
प्रणामादियोगबीजोपादानगुणभाजनत्वस्यास्यामेवोपपत्तेः। योगक्रियाफलाख्यं च, साधुभ्योऽवञ्चकत्रयम् ।
तदुक्तं हरिभद्रसूरिभिः-प्रथमं यद् गुणस्थानं , सामान्येनो
पवर्णितम् । अस्यां तु तदवस्थायां मुख्यमन्वर्थयोगतः ॥१॥ श्रुतः समाधिरव्यक्त, इषुलक्ष्यक्रियोपमः ॥१६॥ इति ॥ २४॥ (योगेति ) साधुभ्यः--साधूनाश्रित्य । योगक्रियाफला- व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्ति-रप्यन्यत्रेयमुच्यते।। ख्यम् , अषश्चकत्रयम्-योगावश्चकक्रियावश्चकफलावश्चकल
घने मले विशेषस्तु , व्यक्ताव्यक्तधियोर्नु कः ॥२५॥ क्षणम् । अव्यक्तः समाधिः श्रुतः, तदधिकारे पाठात् । इषु
(व्यनेति) अन्यत्र-ग्रन्थान्तरे,व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिः-मिलक्ष्यक्रियोपमः-शरशरव्यक्रियासदृशः । यथा शरस्य शरव्यक्रिया तदविसंवादिन्येष,अन्यथा तरिक्रयात्वायोगात्,तथा
थ्यात्वगुणस्थानपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन । इयं मित्रा दृष्टिरेवोसद्योगायश्चकादिकमपि सद्योगाद्यविसंवाघेवेति भावः ॥१६॥
च्यते। व्यक्तत्वेन तत्रास्या एव ग्रहणात् । घने-तीने, मले तु
सति । नु इति वितर्के । व्यक्ताव्यक्योर्धियोः को विशेषः ? हेतुरत्रान्तरङ्गश्च, तथा भावमलाऽल्पता ।
दुशाया धियो व्यक्ताया अव्यनापेक्षया प्रत्युतातिदुष्टत्वान कज्योत्स्नादाविव रत्नादि-मलापगम उच्यते ॥ २०॥ थंचिद् गुणस्थानत्वनिबन्धनत्वमिति भावः । विचित्रतया नि
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मित्ता अभिधानराजेन्द्रः।
मियभासिया गमस्य बहुभेदत्वात् । तद्भेदविशषाश्रयणेन वाऽन्यत्र तथा- रुषेण नारी, वाञ्छन्ति ये व्यक्तमपपिण्डतास्ते॥१॥ इति । ध० भिधानमिति परिभावनीयं सृरिभिः ॥२५॥
र०२ अधि०। यमः सद्योगमूलस्तु, रुचिवृद्धिनिबन्धनम् ।
मित्तीवंदण-मैत्रीवन्दन-न० । मैत्रीनिमित्ते प्रीतिमिच्छतो शुक्लपक्षद्वितीयाया, योगश्चन्द्रमसो यथा ॥२६॥
वन्दने, श्राव० ३ ० " एमेव य मित्तीए" श्राव० ३ ० ।
एवमेवेति कोऽर्थो-यथा निरोहकदोषदुष्ट वन्दते, तथा मैउत्कर्षादपकर्षाच्च, शुद्धथशुयोरयं गुणः।
ज्याऽपि हेतुभूतया कश्चिद्वन्दते प्राचार्येण समं मैत्री मम मित्रायामपुनर्बन्धात्, कर्मणां स प्रवर्तते ॥ २७ ॥ भविष्यति इत्यर्थस्तदिदं मैत्रीवन्दनकम् । वृ० ३ उ०। । गुणाभासस्त्वकल्याण-मित्रयोगे न कश्चन ।
| मिदुपम्ह--मृदुपक्ष्म-न० । मृदूनि कोमलानि पक्ष्माणि दशिअनिवृत्ताग्रहत्वेना-भ्यन्तरज्वरसनिभः ॥२८॥ कारोमाग्रभागरूपाणि यस्य तन्मृदुपक्ष्म । कोमलदशाग्ररजो. मुग्धः सद्योगतो धत्ते, गुणं दोषं विपर्ययात् । हरणे, बृ० ३ उ०॥ स्फटिकोऽनुविधते हि, शोणस्यामसमत्विषम् ॥२॥ मिप्पिड-मृत्पिएड-पुं० । अर्द्धमृद्गोले, मिप्पिडो घडस्स का. यथौषधीषु पीयूषं, द्रुमेषु स्वर्द्वमो यथा ।
रणं, न घडो मिप्पिडकारणं । अनु।
मिम्मय-मृएमय-त्रि० । मृत्तिकानिष्पन्ने, वृ०१ उ०। गुणेष्वपि सतां योग-स्तथा मुख्य इहेष्यते ॥ ३० ॥
मिय-मृग-पुं० । पाटव्ये पशौ, स० ३४ सम० । सूत्र० । उविनैनं मतिमूढानां, येषां योगोत्तमस्पृहा ।
त्त० । सामान्यहरिणे, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार। भ० । प्रज्ञा० । तेषां हन्त विना नाव-मुत्तितीर्षा महोदधेः ॥ ३१ ॥
सूत्र० । मृगसदृशे भीरौ, स्था० ४ ठा०२ उ०। तन्मित्रायां स्थितो दृष्टी, सद्योगेन गरीयसा । मित-त्रि० । परिमिताक्षरे, प्रश्न०२ संव० द्वार। मितं णाम समारुह्य गुणस्थानं, परमाऽऽनन्दमश्नुते ॥ ३२॥ । जं अक्खरेहिं पदेहिं सिलोगेहिं मितं । श्रा० चू० १ अ० । शिष्टा सप्तश्लोकी सुगमा । द्वा० २१ द्वा० ।
आव० । मितं-परिमितम् । जी० ३ प्रति०२ उ० । नियतमित्तिय-मैत्रेय-पुं० । वत्सगोत्रावान्तरगोत्रप्रवर्तके ऋषौ,
वर्णादिपरिणामे, आ० म० १ अ०। परिमिते, भ० ११ श०
११ उ० । विशे० । वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिते, शा०१श्रु० तद्गोत्रीयेषु च । स्था०२ ठा०१ उ०। मित्तियावई-मृत्तिकावती-स्त्री०। दशार्णदेशप्रधाननगर्याम् ,
१० । संक्षिप्ताक्षरे, अनु० । स्था० । बा० आव० । तं०। प
रिच्छिन्ने,विशे० । उत्त० । स्तोके, उत्त०१०। परिमाणवति सूत्र० १ श्रु०५०१ उ० । प्रव० ।
गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादौ, भ० ५ श०४ उ०। मित्तिवन-देशी-ज्येष्ठे, दे० ना०६ वर्ग १३२ गाथा।
मियंक-मृगाङ्क-पुं० । चन्द्रमसि , बृ०१ उ० मृगचिहे विमिची-मैत्री-स्त्री० । स्नेहपरिणामे, ध०१ अधि० । द्वा०। माने, सू० प्र०२० पाहु ।
सुखचिन्ता मता मैत्री, सा क्रमेण चतुर्विधा । मियगंध-मृगगन्ध-पुं० । युगलिकमनुष्यजातिभेदे,जी०३ प्र. उपकारी स्वकीयस्व-प्रतिपन्नाऽखिलाश्रया ॥३॥ | ति०४ अधि० । जं० । मृगमदगन्धौ, भ० ६ श० ७ उ०। (सुखेति ) सुखचिन्ता-सुनेच्छा, मैत्री मता। सा क्रमेण
मियगमण-मितगमन-न०। प्रयोजनवशतो गमने,व्य०४ उ०। विषयभेदेन, चतुर्विधा । उपकारी स्वोपकर्ता, स्वकीयोऽनु- मियचक्क-मृगचक्र-न० मृगा हरिणशृगालादयः श्रारण्यास्तेपकर्ताऽपि नालप्रतिबद्धादिः, स्वप्रतिपन्नश्च-स्वपूर्वपुरुषा- षां ध्वनिः-रुतं ग्रामनगरप्रवेशादौ सति शुभाशुभं यत्र चिश्रितः स्वाश्रितो वा, अखिलाश्च प्रतिपन्नत्वसंबन्धनिर- त्यते तन्मृगचक्रम् । निमित्तशास्त्रभेदे, सूत्र०२ श्रु०२०। पेक्षाः सर्व एव तदाश्रया तद्विषया । तदुक्तम्-"उपकारि
| मियजस-मितयशस्-पुं० । स्वनामख्याते पुष्कलावतीविजये स्वजनेतरसामान्यगता चतुर्विधा मैत्रीति ।" द्वा०१७ द्वा०। षो । अष्ट । उत्त० । स्था।
मणितोरणपुरीराजे चक्रवर्तिनि, उत्त० ६ ०। "जो जारिसेण मिति, करेइ अचिरेण (सो) तारिसो
मियतण्हा-मृगतृष्णा-स्त्रीगमरीचिकायाम् , शा०१श्रु०१० होर । कुसुमेहिं सह वसंता , तिलावि तग्गंधिया हुंति ॥१॥" मियपणिहाण-मृगप्रणिधान-त्रि० । मृगेषु प्रणिधानमन्तःश्राव० ३ १०।११२४ । गाथाकीटीका । आ० चू०।। करणवृत्तिर्यस्यासौ मृगप्रणिधानः। क मृगान् द्रक्ष्यामीस्येतदमित्तीभाव-मैत्रीभाव-पुं० । मित्रस्य भावः कर्म वा मैत्री ।। ध्यवसायिनि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। तस्या भावो भवन सत्ता । निष्कपटतया सुमित्रवन्मैत्री- | मियप्पवाद-मितात्मवाद
मियप्पवाद-मितात्मवाद-पुं०। संख्यातीतानामात्मनामभ्युकरणे, ध० २० । संप्रति सद्भावतो मैत्रीभाव इति चतुर्थ | पगमे, स्या० । भेदमाह-(मितीभावो य सम्भाव सि) मित्रस्य भावः | मियभासि(ण)-मितभाषिन-पुं०। मितं परिमिताक्षरं तद्भाषकर्म वा मैत्री, तस्या भावो भवनं सत्ता, सद्भावानिष्क
णशीलो मितभाषी। प्रस्तावे स्तोकहितजल्पनशीले,व्य०१उ०। पटतया सुमित्रवन्निष्कपटमैत्री करोतीत्यर्थः, मैत्रीकपटभावयोश्छायाऽऽतपयोरिव विरोधात् । उक्नं च-शान्येन मित्र | मियभासिया-मितभाषिता-खी०। प्रस्तावेस्तोकहितजल्पनकलुषेण धर्म, परोपतापेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां प- शीलतायाम्, द्वा० १२ द्वा० । व्य०।
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भारतद व्यवच्छिन्नं तित्थयरे
(२५६) मियभासिया अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त संप्रति (भाष्यकार:) मितभाषित्वव्याख्यानार्थमाह- | मियाधिव-मृगाधिप-पुं० । सिंहे, प्रा० म०१०। तं पुण अणुच्चसई, वोच्छिन्नं मिय पभासए मउयं । । मियापुत्त-मृगापुत्र-पुं०। मृगप्रामाभिधाननगरराजस्य विजमम्मेसु अयंतो, सिया व परिपागवयणेणं ॥७२॥ | यनाम्नो भार्यायाः पुत्रे, स्था० १० ठा। तत इह लोकहितं,परलोकहितं वा पुनर्भाषते,अनुश्चशब्दम् , | जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं न विद्यते उच्चः शब्दः स्वरो यस्य तत्तथा । तद् व्यवच्छिन्नं
तित्थयरेणं जाव संपत्तणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा विविक्रममिलिताक्षरमित्यर्थः । मितं-परिमितं प्रभूतार्थसं
पनत्ता, तं जहा-मियापुत्ते य १, जाव अंजू य १०। पढमप्राहकं-स्तोकाक्षरमित्यर्थः । तथा मृदुकम्-कोमलं, श्रोतमनसां प्रह्लादकारि इत्थंभूतमपि मर्मानुवेधितया विपाकदा
स्स ण भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं. जाव रुणं स्यात् । अत श्राह-मर्मसु अयन्मारयविध्यन् इत्यर्थः।। संपत्तेणं के अद्वे पन्नत्ते , तते णं से सुहम्मे अणगारे स्याद्वा तथाविधं कश्चनमशिक्षणीयमधिकृत्य परुषस्य मर्मा- जंबू अणगारं एवं वयासी–एवं खलु जंबू! तेणं कालणं नुवेधकस्य च वक्ता परिपाकवचनेन-अन्यापदेशेन यथा दो
तेणं समएणं मियग्गामे नामे णगरे होत्था-वामओ, तस्स पः । स्त्रीसेवादय इह परत्र वा अकल्याणकारिणो यथा अमु-।
ण मियग्गामस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए कस्य, तस्मात्कुलोत्पन्नेन शीलप्रमुखेषु गुणेष्वादरः कर्तव्यः । एष मितभाषी । व्य०१उ०।
चंदणपायवे नामं उजाणे होत्था, सव्वोउयवस्मओ, तत्थ मियभोगि-मितभोगिन-त्रि०। स्तोकभोजिनि, आव०५०।। णं सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, चिरातीए मियमहरमंजुला-मितमधुरमजला-स्त्रीशमिता अल्पशब्दा जहा पुनभद्दे, तत्थ णं मियग्गामे णगरे विजए नाम बहाश्व, मधुराः श्रोत्रसुखकारिणः, मञ्जुलाः सुललितवर्ण- खत्तिए राया परिवसइ-वभो । तस्स णं विजयस्स मनोहराः। ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। मितमधुरमज्जुलादि- खत्तियस्स मिया नामं देवी होत्था अहीणवामओ, तस्स भिर्युकायां भाषायाम् , कल्प०१ अधि० ३ क्षण ।
णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियलंछण-मृगलाञ्छल-न० । मृगरूपे चिढ़े, नं०। ।
मियापुत्ते नामं दारए होत्या, जातिअंधे जाइमए जातिव मियलोमिय-मृगलोमिक-न० । मृगेभ्यो इस्वका मृगाकृत
हिरे जातिपंगुले य हुंडे य वायव्वे य, नथि णं तस्स यो बृहत्पुच्छा पाटविकजीवविशेषास्तल्लोमनिष्पन्नं मृग
दारगस्स हत्था वा पाया वा कन्ना वा अच्छी वा नासा खोमिकम् । मृगलोमजे सूत्रे, अनु० । प्रा० म० । स्था०।। मियवादि-मितवादिन-पुं० । मितं परिमिताक्षरं वदितुं शी
वा, केवलं से तेसि अंगोवंगाणं आगई आगतिमित्ते, तते लमस्येति मितवादी । मितभाषिणि, वृ०३ उ० । पा०।
णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंमियवाहण-मितवाहन-पुं० । जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामि-| सि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी पडिजागरन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति प्रथमकुलकरे, स०।
माणी विहरइ । (सूत्र-२) मियवित्तिय-मृगवृत्तिक-पुं० । मृगैर्हरिणैराटव्यपशुभिर्वृत्तिर्व
( एवं खलु ति ) एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण , खलुः
वाक्यालंकारे, (सव्वोउयवएणो त्ति) सर्वर्नुककुसुमसंछन्ने सनं यस्य स मृगवृत्तिकः । मृगमांसैराजीवके , सूत्र० २
(नंदणवणप्यगासे इत्यादि) उद्यानवर्णनको वाच्य इति, श्रु०२० भ०। मियवीहि-मृगवीथि-स्त्री० । ग्रहचारयोग्ये गगनभागे, मृग
(चिराइए ति ) चिरादिकं चिरकालीनप्रारम्भमित्या
दिवर्णकोपेतं वाच्यम् , यथा-पूर्णभद्रचैत्यमोपपातिके। वीथी चेन्द्रदेवतादि स्यात् । स्था० ६ ठा।
(अहीणवन्नो ति) 'अहीणपुन्नपंचिंदियसरीरे' इत्यादि मियमंकप्प-मृगसंकल्प-पुं० । मृगेषु संकल्पो यस्यासौ मृ
वर्णको वाच्यः, (अत्तए त्ति) आत्मजः-सुतः, (जाइअंधे गसङ्कल्पः । मृगवधाध्यवसिते, सूत्र. २ श्रु०२०। । त्ति) जात्यन्धो जन्मकालादारभ्यान्ध एव , (हुंडे य त्ति) मियसिंग-मृगशृङ्ग-नं० । मृगविषाणे, प्राचा० १ श्रु०१० हुण्डकश्च-सर्वावयवप्रमाणविकलः, (वायव्वे त्ति) वायुरस्या २ उ०।
स्तीति वायवो-वातिक इत्यर्थः, (आगई भागइमेत्ते ति) मियसिरा-मृगशिरस-न० । चन्द्रदेवताके नक्षत्रभेदे, स्था। अलावयवानाम् प्राकृतिः-आकारः, किंविधा? इत्याह-प्राकृ दो मियसिराओ (सूत्र) स्था०२ ठा०६ उ०। विशे०।
तिमात्रम् । आकारमात्रं-नोचितस्वरूपेत्यर्थः, (रहस्सि य
त्ति) राहसिके-जनेनाविदिते । मिया--मृगा--स्त्री०। सुग्रीवनगरे बलभद्रभूपस्याग्रमहिष्याम् , उत्त०१८ अ०। मृगग्रामाभिधाननगरराजस्य विजयनानो परिवसह, से णं एगणं सक्खुत्तेणं पुरिसेणं पुरो
तत्थ णं मियग्गामे गरे एगे जातिअंधे पुरिसे भार्यायाम् , स्था० १० ठा०। मियागाम-मृगाग्राम-पुं० । मृगापुत्रजन्मस्थाने ग्रामविशेष,
दंडएणं पगढिजमाणे पगढिजमाणे फुट्टहडाहडसीसे विपा०१ श्रु०११०।
मच्छियाचडगरपहकरेणं अमिजमाणमग्गे मियग्गामे मियाचारिया--मृगाचारिता--स्त्री० । मृगापुत्रवक्तव्यताप्रति- | नयरे गेहे गेहे कालुम्मवाडियाए वित्तिं कप्पेमाणे बद्ध उत्तराध्ययनानामेकोनविंशेऽध्ययने, स०३६ सम। विहरइ । तेणं कालणं तेणं समएवं समणे
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( २८७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
• मियापुत
भगवं महावीरे० जाव समोसरिए० जाव परिसा निग्गया । तए गं से विजय खत्तिए इमीसे कहाए लद्धड्डे समाणे जहा कोलिए तहा निग्गते० जाव पज्जुवासइ । तते गं से जातिधे पुरिसे तं महया जणसदं० जाव सुखेत्ता तं पुरिसे एवं वयासी - किन्नं देवाणुप्पिया ! अज्ज मियग्गामे गगरे इंदमहेइ वा ० जाव निग्गच्छर ?, तते गं से पुरिसे व॑ जा॒तिअ॑वपुरिसं एवं बयासी - नो खलुदेवाखुप्पिया ! इंदमहे वा०जाव णिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे ० जाव विहरति, तते गं एते० जाव निग्गच्छंति, ते गं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी- गच्छामो गं देवाप्पिया ! अम्हे वि समं भगवं० जाव पज्जुवासामो, तते गं से जातिअंधे पुरिसे पुरतो दंडणं पगढ़ज्जमाणे पगढिमाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए २ चा तिक्खुत्तो याहिणपयाहिणं करेइ करेत्ता चंदति नम॑सति वंदिता नमसित्ता० जाव पज्जुवासति, तते गं समणे भगवं महावीरे विजयस्स रनो तीसे य महइमहालियाते परिसाए विवित्तं धम्ममाइक्खति जहा जीवा वि वज्झति परिसा० जाव पडिगया, विजए वि गते । (सूत्र - ३) ( फुट्ट डाइडसीसे ति ) फुट्टन्ति-स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशम्, (इडाहडं ति ) श्रत्यर्थ शीर्षे शिरो यस्य स तथा, (मच्छियाचडगरपयरेणं ति ) मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरप्रधानो-विस्तरवान् यः प्रकरः- समूहः स तथा । अथवा मक्षिकाचटकराणां तद्वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन (अण्णिज्जमाणमग्गे त्ति ) अन्वीयमानमार्गः, अनुगम्यमानमार्गः, मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति, ( कालुराणवडियाए त्ति ) कारुण्यवृत्त्या ( वित्ति कप्पेमाणे न्ति ) जीविकां कुर्वाणः । ( जाव समोसरिए त्ति ) इह यावत्करणात् “ पुव्वाणुपुवि चरमाणे गामाशुगामं कूदज्जमाणे" इत्यादिवर्णको दृश्यः, 'तं महया जणसदं च ' त्ति, सूत्रत्वान्महाजनशब्दं च, इह यावत्करणात् " जणवूहं च जणबोलं च" इत्यादि दृश्यम् । तत्र जनव्यूहः चक्राद्याकारः-समूहस्तस्य शब्दस्तदभेदाज्जनव्यूह एवोच्यते श्रतस्तम्, बोलः श्रव्यक्तवर्णो ध्वनिरिति, (इंदमहेइ वत्ति) इन्द्रोत्सवो वा, इह यावत्करणात् -" खंदमहे वा रुद्दमहे वा०जावउज्जाणजन्त्ताइ वा जनं बहवे उग्गा भोगा, ०जाव एगदिसिं एगाभिमुद्दा' इति दृश्यम् इतो यद्वाक्यं तदेक्यनुसर्तव्यं, सूत्र पुस्तके सूत्राक्षराएयेव सन्तीति, 'तए गं से पुरिसे तं जाइधपुरिसं एवं वयासी-नो खलु देवाणुपिया ! श्रजमियग्गामे नयरे इंदमहे वा ०जाव जत्तार वा जन्नं एए उग्गा● जाव एगदिसि एगाभिमुद्दा णिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे०जाव इह समागते इह संपत्ते इहेव मियग्गामे णगरे मिगवलुज्जाणे श्रापरूिवं उग्गहं उग्गरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तप से अंधपुरिसे तं पुरिसे एवं वयासी" - इति, 'विजयस्स तीसे य धम्म' ति इदमेवं दृश्यम् -' विजयस्स रन्नो तीसे य
मियापुत
मह महालियाते परिसाए विवित्तं धम्ममाइक्खर जहा जीवा वन्ती' त्यादि परिषद्-यावत् परिगता ।
ते काणं तेणं समए समणस्स भगवओ महावीरस्स ट्ठे अंतेवासी इंदभूतिनामं अणगारे० जाव विहरह । ततं से भगवं २ गोयमे तं जातिअंधपुरिसं पासइ २ ता जायसड्ढे जाव एवं वयासी - अत्थि गं भंते ! केई पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे ? हंता अथि, कह भंते ! से पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे १, एवं खलु गोयमा ! इहेव मियग्गामे नगरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवी अत्तर मियापुत्ते नामं दारए जातिअंधे जातिचंधावे, नत्थि तस्स दारगस्स ०जाव आगतिमित्ते, तते गं सा मियादेवी •जाव पडिजागरमाली २ विहरति । तते गं से भगवं गोयमे समयं भगवं महावीरं वंदइ नमसति २ ता एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! अहं तु भेहिं अब्भणुनाए समाणे मियापुचं दारमं पासितर, हासुहं देवाप्पिया !, तते गं से भगवं गोयमे समणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे हट्ठे तुट्ठे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ पडिनिक्खम २ ना अतुरियं ० जाव सोहेमाणे २ जेणेव मियग्गामे - गरे तेणेव उवागच्छति २ चा मियग्गामं नगरं मज्झंमज्झेण जेणेव मियादेवीए गेहे तेणेव उवागए, तते गं सा मियादेवी भगवं गोयमं एजमाणं पासइ २ ता हट्ठतुट्ठ ० जाव एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपयोयणं ?, तते खं भगवं गोयमे मियादेविं एवं वयासी- हां देवाप्पिए । तव पुत्तं पासितुं हव्वमागए, तते ग सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारगस्स अपुमग्गजायते चत्तारि पुत्ते सव्वालंकारविभूसिए करेति २ चा भगवतो गोयमस्स पादेसु पाडेति २ त्ता एवं व्यासीएए गं भंते! मम पुत्ते पासह, तते गं से भगवं गोयमे मियादेविं एवं वयासी-नो खलु देवीप्पिया ! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागते, तत्थ णं जे से तब जेट्ठे मियापुत्ते दारए जाइअंधे जातिअंधारूवे जं गं तुमं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएवं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहरसि । तं गं अहं पासिउं हव्वमागए, तते सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी-से के णं गोयमा ! से तहारूवे गाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एसमट्ठे मम ताव रहस्सिकए तुब्भं हव्त्रमक्खाए जो तुब्भे जाणह ?, तते गं भगवं गोयमे मियादेविं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम धम्माऽऽयरिए समखे भगवं महावीरे जतो गं श्रहं जाणामि, ० जावं च यं मि
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(२७८) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त यादेवी भगवया गोयमेणं साद्धिं एयमद्वं संलवति तावं च णं| मझ मज्भेणं अणुप्पविसामि जेणेव मियाए देवीए गेहे मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया याऽवि होत्था,तते थे |
तेणेव उवागते, तते णं सा मियादेवी ममं एजमाणं पासा मियादेवी भगवं गोयम एवं-वयासी-तम्भे गं भंते !| सइ पासित्ता हट्ठा तं चेव सव्वं जाव पूयं च सोणियं च इहं चेव चिट्ठह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारगं उवदेसमि
आहारेति, तते णं मम इमे अज्झथिए समुप्पजित्था-अ
हो णं इमे दारए पुरा जाव विहरइ । (सूत्र-४) त्ति कट्टु जेणेव भत्तपाणघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता
(जाइअंधे त्ति ) जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः, स च चक्षुवत्थपरियट्टयं करेति वत्थपरियट्टयं करित्ता कट्टसगडियं गि-1
रुपघातादपि भवतीत्यत अाह-(जायअंधारूवे त्ति ) जाएहति कट्ठसगडियं गिरिहत्ता विपुलस्स असणपाणखाइम- तम्-उत्पन्नमन्धकं नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सितासाइमस्स भरेति विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भ
झं रूपं स्वरूपं यस्याऽसौ जातान्धकरूपः, (अतुरियं ति) रित्तातं कट्ठसगडियं अणुकडमाणीरजेणामेव भगवं गोयमे
अत्वरितं मनःस्थैर्यात् , यावत्करणादिदं दृश्यम्-"अचव
लमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरश्रो रिय ति" तत्र अ. तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी
चपल-कायचापल्याभावात् क्रियाविशेषणे चैते, तथा-श्रएह णं तुम्मे भंते ! मम अणुगच्छह जा णं अहं तु- संभ्रान्तः-भ्रमरहितः, युगम्-यूपस्तत्प्रमाणो भूभागोऽपिम्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि, तते णं से भगवं गो
युगं तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया दृष्ट्यायमे मियं देवि पिट्ठओ समणुगच्छति , तते णं सा
चक्षुषा, (रियं ति ) ईर्या-गमनं तद्विषयो मार्गोऽपीर्याऽत.
स्ताम् , (जेणेव नि) यस्मिन् देशे २, 'हटु० जाव त्ति' इह 'हट्टमियादेवी तं कट्ठसगडियं अणुकड्डमाणी २ जेषव भूमि
तुद्रमाणदिए' इत्यादि दृश्यम्,एकार्थाश्चैते शब्दाः ३ (हव्वं ति) घरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, चउप्पुडेणं बत्थेणं मुहं शीघ्रम् ( जो णं ति) यस्मात् (जाया यावि होत्था) जाता बंधेति मुहं बंधमाणी भगवं गोयमं एवं वयासी–तुब्भे |
चाप्यभवदित्यर्थः। (वत्थपरियट्टे ति) वस्त्रपरिवर्तनम् । ऽवि णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह, तते, णं से भ
(से जहा नामए त्ति ) तद्यथा नामेति वाक्यालङ्कारे।
'अहिमडेइ वा सप्पकडेवरे वा' इह यावत्करणात् 'गोमगवं गोयमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए
डेर वा सुणहमडेर वा' इत्यादि द्रष्टव्यम्, (ततो विणं ति)तमुहं बंधेति, तते णं सा मियादेवी परम्मही भमिघरस्स तोऽपि-अहिकडेवरादिगन्धादपि (अणि?तराए चेव त्ति) दुवार विहाडेति , तते गंधे निग्गच्छति से जहा नामए
अनिष्टतर एव गन्ध इति गम्यते, इह यावत्करणात् 'अकंअहिमडेति वा सप्पकडेवरेइ वा
ततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुनतराए चेव श्रमणाजाव ततोऽवि णं अ
मतराए चेव 'त्ति दृश्यम् , एकार्थाश्चैते 'मुच्छिए' इत्यत्र णिट्टतराए चेव • जाव गंधे पन्नत्ते, तते णं से मियापुत्ते 'गढिते गिद्धे अपझोववन्ने' इति पदत्रयमन्यद् दृश्यम् , एका दारए तस्स विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स गंधेणं र्थान्येतानि चत्वार्यपीति । 'अज्झथिए ' इत्यत्र 'चिंतिए अभिभूते समाणे तंसि विपुलंसि असणपाण • मुच्छित्ते
कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे' इति दृश्यम् , एतान्यप्येतं विपुलं असणं पा० ४ आसएणं आहारेति हारित्ता
कार्थानि 'पुरा पोराणाणं दुश्चिन्नाणं' इहाक्षरघटना-पुराखिप्पामेव विद्धंसेति विद्धंसेत्ता ततो पच्छा पूयत्ताए य
णानाम्-जरठाना, कक्खडीभूतानामित्यर्थः , (पुरा) पूर्वका
ले दुश्चीर्णानां-प्राणातिपातादिदुश्चरितहेतुकानाम् (दुप्पडि. सोणियत्ताए य परिणामेति । तं पि य णं पूर्य च |
कंताग ति ) दुःशब्दोऽभावार्थस्तन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यासोणियं च आहारेति , तते णं भगवओ गोयमस्स तं
दिना अप्रतिक्रान्तानाम्--अनिवर्सितविपाकानामित्यर्थः, मियापुत्तं दारयं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए (असुभाणं ति) असुखहेतूनाम् , (पावाणं ति) पापानां-दुष्ट समुप्पजित्था अहो णं इमे दारए पुरा पोराणाणं दुच्चि- स्वभावानाम् , (कम्माणं ति) झानावरणादीनाम् । माणं दुप्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्मा
से ण भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि (किं नामए वा णं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणे विहरति । ण
किं गोए वा) कयरंसि गामंसि वा नयरंसि वा किंवा मे दिट्ठा परगा वाणरइया वा पच्चक्खं खलु अयं दचा किं वा भोचा किंवा समायरित्ता केसि वा पुरा पुरिसे नरयपडिरूविर्य वेयणं वेयति त्ति कद्द मियं देविं जाब विहरति?, गोयमाऽऽइसमणे भगवं महावीरे भगवं आपुच्छति २त्ता मियाए देवीए गिहारो पडिनिक्खमति | गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेगिहा०२त्ता मियग्गामं णगरं मझ मज्झेणं निग्गच्छति ण समएणं इहेच जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे नाम
जणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति | नगरे होत्था, रिद्धस्थिमिए वन्नो , तत्थ ण सयदुवारे न२ ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपया- गरे धणबई नाम राया हुत्था वएणओ, तस्स णं सयदुवा हिणं करेइ २ त्ता वंदति नमंसति २ त्ता एवं बयासी-एवं रस्स नगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरच्छिमे दिसीभाए खलु अहं तुन्भेहि अब्भणुगणाए समाणे मियग्गामं नगरं विजयवद्धमाणे णाम खडे होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धे,
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( २८६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मियापुत
तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई आभोए याऽवि हुत्था, तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे इकाई णामं रट्ठकूडे होत्था, अहम्मिए ०जाव दुप्पडियाणंदे, से णं इकाई रट्ठक्रूडे विजयबद्धमाणस्स खेडस्स पंचरहं गामसयाणं आहेवच्चं ० जाव पालेमाणे विहरइ, तए गं से इक्काई विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई बहूहिं करेहि य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेहि य दिजेहि
भेजेहिय कुंतेहिय छपोसेहि य आलवणेहि य पंथकोट्टे हि उवीमाणे २ विहम्मेमाणे २ तजेमाणे २ तालेमाणे २ निद्ध करेमाणे २ विहरति । तते गं से इकाई रट्ठक्रूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राईसरतलबमार्डत्रियकोडुंबियसेद्विसत्थवाहाणं अनसिं च बहणं गाल पुरिसा बहु जेसु य कारणेसु य संतेसु य गुज्झेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य सुगमाणे भणति - न सुमि, असुरणमाणे भगति - सुमि, एवं पस्समाणे भासमाणे गिण्हमाणे जाणमाणे, तते णं से इक्काई रट्ठकूडे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे एयसमायारे सुबहुँ पावकम्मे कलिकलुस समजिणमाणे विहरति । (सूत्र- ५ ) 'पुवभवे के प्रसि' इत्यत एवमवध्येयम् ( किं नामए वा किं गोत्र वा ) तत्र नाम-यादृच्छिकमभिधानम्, गोत्रं तु यथा थे कुलं वा "कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दया किंवा भोच्या किंवा समायरेता केसिं वा पुरा पोराणां दुश्चिन्नां दुप्पडिकंताणं असुहाणं पावाणं कम्मा पा वर्ग फलवित्तिविसेसं पश्चणुब्भवमाणे विहरह 'ति । ( गोयमा इति ) गौतम इत्येवमामन्त्रय इति गम्यते (ऋद्वित्थिमिति ) ऋद्धिप्रधानं स्तिमितं च-निर्भयं यत्ततथा, (वरणओ त्ति ) नगरवर्णकः स चौपपातिकवद् द्रष्टव्यः, ( अदूरसामंते ति ) नातिदूरे नच समीपे इत्यर्थः, (खेडे त्ति ) धूलीप्राकारम् (रिद्धति) 'रिद्वत्थमियसमिद्धे' इति द्रष्टव्यम्, (आभोए त्ति ) विस्तारः, (रटूकूडे ति) राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिकः ४ ( अहम्मिए ति)
धार्मिको, यावत्करणादिदं दृश्यम् -' धम्मागुए श्रधम्मिट्ठे अधम्मलाई अधम्मपलंजणे श्रधम्मसमुदाचारे श्रधम्मेण चैव वित्ति कप्पेमाणे दुस्सीले दुब्वए ' ति, तत्र अधार्मिकत्व प्रपञ्चनायोच्यते-'अधम्माणुए' अधर्म - श्रुतचा. रित्राभावम् अनुगच्छतीत्यधर्मानुगः, कुत एतदेवमित्याह -
धर्म एव इष्ट वल्लभः पूजितो वा यस्य सोऽधम्मिष्ठः अतिशयेन वाऽधर्मी धर्मवर्जित इत्यधर्मिष्ठः, श्रत एवाधर्माख्यायी प्रतिपादकः श्रधर्मख्यातिर्वा: श्रविद्यमा, धर्मोऽयमित्येवं प्रसिद्धिकः, तथाऽधर्म प्रलोकयति-उपादेयतया प्रेक्षते यः स तथा श्रत एवाधर्मप्ररञ्जनः अधर्मरागी, अत एवाधर्मः समुदाचारः--समाचारो यस्य स तथा, श्रत एवाधर्मेण - हिंसादिना वृत्तिं जीविकां कल्पयन् सन् दुःशीलः - शुभस्वभावहीनः, दुर्वतश्च व्रतवर्जितः, दुष्प्रत्यानन्दःसाधुदर्शनादिना नानन्द्यत इति । १ । ( आहे वयं ति) अधि
।
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मियापुत पतिकर्म, यावत्करणादिदं दृश्यम् - "पोरेवच्चं सामित्तं भट्टि तं महन्तरगलं आणाईसर सेणावच्चं कारेमाणे " ति, तत्र पुरोवर्त्तित्वम् अवरत्वम्, स्वामित्वम्-नायकत्वं, भर्तृत्वं पोपकत्वम्, महत्तरकत्वम् उत्तमत्वम्, श्रज्ञेश्वरस्य - श्राशाप्रधान स्यः यत्सेनापतित्वं तदाशेश्वरसेनापत्यं कारयन्- नियोगिकैर्वि धापयन् पालयन् स्वयमेवेति । २ । (करेहि यति) करैः क्षेत्रा द्याश्रितराजदेयद्रव्यैः [ भरेहि यत्ति ] तेषामेव प्राचुर्यैः [ विद्धीहि यत्ति ] वृद्धिभिः कुटुम्बिनां वितीर्णस्य धान्यस् द्विगुणादेहः, वृत्तिभिरिति क्वचित्, तत्र वृत्तयो राजादेशकारिणां जीविकाः [ उक्कोडाहि यत्ति ] लञ्चाभिः [पराभएहि यति] पराभवै' (देज्जेहि यति) अनाभवद्दातव्यैः (भेज्जेहि यत्ति ) यानि पुरुषमारणाद्यपराधमाश्रित्य प्रामादिषु दण्डद्रव्याणि निपतन्ति कौटुम्बिकान् प्रति च भेदेनो ग्राह्यन्ते तानि भेद्यानि श्रुतस्तैः (कुंतेहि यति) कुन्तकम् - एतावद्द्रव्यं त्वया देयमित्येवं नियन्त्रण्या नियोगिकस्य देशादेर्यत् समर्पणमिति, (लंछपोसहि यत्ति ) लम्छा:चौरविशेषाः संभाव्यन्ते तेषां पोषाः पोषणानि तैः, ( श्रालीवरोहि यत्ति ) व्याकुललोकानां मोघरणार्थं ग्रामादिप्रदीपनकैः ( पंथकोट्ठेहि यत्ति ) सार्थघातैः ( उवीलेमाणे ति ) अपीलयन् बाधयन् । ( विहम्मेमाणे ति ) विधर्म्मयन् - स्वाचारभ्रट्रान् कुर्वन् ( तज्जमाणे ति) कृतावष्टम्भान् तजयन - शास्यथ रे यन्मम इदं च इदं च न दत्से इत्येवं भेषयन् ( तालेमाणे ति ) कशचपेटादिभिस्ताडयन् ( गिद्ध करेमाणे ति ) निर्द्धनान् कुर्वन् विहरति । ( तप गं से इकाई रकुकुटे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स ) सत्कानां (बहूणं राईसरतलवरमाडंविय को डुवियसेट्ठिसत्थवाहाणं ) इह तलवराः - राजप्रसादवन्तो राजोत्थासनिकाः, माडम्बिका:मडम्बाधिपतयो मडम्बं च - योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमान ग्रामादिनिवेशः सन्निवेशविशेषः शेषाः प्रसिद्धः । ( कजेसु त्ति ] कार्येषु प्रयोजनेषु श्रनिष्पन्नेषु [ कारसु न्ति ] सिसाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु तत्र मन्त्राः - पर्यालोचनानि गुह्यानि - रहस्यानि, निश्चया-वस्तुनिर्णयाः, व्यवहारा - वि वादास्तेषु विषये ४ । [ एयकम्मे ] एतड्यापारः एतदेव वा काम्यम् कमनीयं यस्य स तथा, [ एयप्पहाणे ति ] एतत्प्रधानः एतनिष्ठ इत्यर्थः, [ एयविज्जे ति ] एषैव विद्या - वि ज्ञानं यस्य स तथा [ एयसामायारे त्ति ] एतज्ञ्जीतकल्प इत्यर्थः [ पावकम्मं ति ] अशुभ ज्ञानावरणादि [ कलिकलुसंत ] कलहहेतुकलुषं मलीमसमित्यर्थः ।
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तते णं तस्स इकाईयस्स रट्ठकूडस्स अन्नया कयाई सरीरगंसि जगसमगमेव सोलस रोगाऽऽयंका पाउन्भूया तं जहा - सासे १ का २ जरे ३ दाहे ४, कुच्छिमूले ५ भगंदरे ६ । अरिसा ७ अजीरए = दिट्ठी ६, मुद्धसूले १० अकार ११ ॥ १ ॥ अयिणा १२ कनवेयणा १३ कंडू १४ उदरे १५ कोढे १६ । तते गं से इकाई रटुकडे सोलसहिं रोगाऽऽयंकेहिं अभिभूए समाणे कोचियपुरि से सहावे २ ता एवं वयासी- गच्छह गं तुभे देवाणुप्पिया विजयवद्धमाणे खेडे संघाडगतिगचउक्कचच्चरमहापहपहेसु
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(२६.1 मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वदह-इहं खलु विजयस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुन्ना अमणामा देवाणप्पिया! इकाई रकूडस्स सरीरगंसि सोलस रोगा- जाया यावि होत्था । तते णं तीसे मियाए देवीए अन्नया ऽऽयंका पाउन्भूया,तं जहा-सासे १ कासे २ जरे ३, जाव | कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियाए जाकोढे १६, तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया! विज्जो वा| गरमाणीए इमे एयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पञ्जित्था विज्जपुत्तो वा जाणुरो वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छी वा एवं खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुचि इट्टा कं०६ धेजा तेगिच्छीपुत्तोवा इकाई रट्टकूडस्स तसिं सोलसराह रोगार्थ- वेसासिया अणुमया आसी, जप्पभिई च णं मम इमे काणं एगमवि रोगायंकं उबसामित्तए तस्स णं इक्काई गब्भे कुच्छिसि गब्भत्ताए उववन्ने तप्पभिई च णं अहं रद्वकूडे विपुलं अत्थसंपयाणं दलयति, दोच्चं पि तच्च पि विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा०जाव अमणामा जाया याउग्घोसेह उग्घोसेइत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तते णं ते | वि होत्था। निच्छति ण विजए खत्तिए मम नाम वा गोय कोडंबियपरिसा० जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से विजयवद्ध- वा गिरिहत्तए वा किमंग! पण सगां वा परिमोगा . माणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा निसम्म बहवे | तं सेयं खलु मम एवं गन्भं बहूहिं गब्भसाडणाहि य पाविज्जा य०६ सत्थकोसहत्थगया सएहिं सएहिं गिहेहितो डणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा पा०४, पडिनिक्खमंति २ ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मझ एवं संपेहेइ संपेहित्ता बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तूमझेणं जेणेव इक्काई रट्टकूडस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ २| वराणि य गब्भसाडणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य त्ता इकाई रहकूडस्स सरीरगं परामुसंति २ ता तेर्सि इच्छति तं गम्भं साडित्तए वा०४ नो चेव णं से गम्भे सडइ रोगाणं निदाणं पुच्छंति २ ता इकाई रट्ठकूडस्स बहू हिं वा०४ तते ण सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तं गन्भं अभंगेहि य उव्वदृणाहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य | सडित्तए वा०४ ताहे संता तंता परितंता अकामिया असविरेयणेहि य अववद्दहणाहि य अवरहाणेहि य अणुवास- वसा तं गम्भं दुहं दुहेणं परिवहइ, तस्स णं दारगस्स णाहि य वत्थिकम्मेहि य निरुहेहि य सिरावेहेहि य तच्छ- | गब्भगयस्स चेव अट्ठ नालीओ अभितरप्पबहाओ अट्ठ णेहि य पच्छणेहि य सिरोवत्थीहि य तप्पणाहि य पुड-| नालीओ बाहिरप्पवहाओ अट्ठ पूयप्पवहाओ अट्ट सोणियपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि | प्पवहाओ दुवे दुवे करणंतरेसु दुवे दुवे अच्छितरेसु दुवे य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य प्रोस-1 दुवे नकंतरेसु दुवे दुवे धमणिअंतरेसु अभिक्खणं अभिहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसराहं रोगायंकाणं क्खणं पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणीअोर चेव चिट्ठति । एगमवि रोगायंकं उवसमावित्तए नो चेव णं संचाएंति | तस्स णं दारगस्स गभगयस्स चैव अग्गिए नाम वाही पाउवसामित्तए । तते णं ते बहवे विजा य विज्जपुत्ता य| उन्मए जे णं से दारए आहारेति से णं खिप्पामेव विद्धंजाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसएहं रोगायंकाणं एगमवि | समागच्छति पूयत्ताए सोणियत्ताए य परिणमति, तं पिय रोगायक उवसामित्तए ताहे संता तंता परितंता जामेव | से पूयं च सोणियं च आहारेति । तते णं सा मियादेवी अदिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया । तते णं इकाई नया कयाई नवराहं मासाणं बहुपांडपुन्नाण दारगं पयाया रडकूडे विजेहि य ६ पडियाइक्खिए परियारगपरिचत्ते जातिअंधे० जाव प्रागइमित्ते । तते ण सा मियादेवी तं दानिविएणोसहभेसज्जे सोलसरोगायंकेहिं अभिभए समाणे | रंग हुंडं अंधारूवं पासति २ त्ता भीया०४ अम्मधाई सद्दारजे य रटे य ०जाव अंतेउरे य मुच्छिए रजं च रदं च वेति २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! तुम एवं
आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अद्रदह- दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि । तते ण सा अम्मबसट्टे अड्डाइज्जाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता काल- धाई मियादेवीए तह त्ति एयमढे पडिसणेति २ ताजणेमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं | व विजए खनिए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सागरोवमट्टित्तीएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने, से णं करयलपरिग्गहियं एवं वयासी-एवं खलु सामी! मियाततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेब मियग्गामे णगरे विजयस्स देवी नवण्हं मासाणं० जाव आगतिमिने, तते णं सा मि. खत्तियस्स मियाए देवीए कृच्छिसि पत्तत्ताए उववन्ने । तते यादेवी तं हंडं अंधारूवं पासति २ ता भीया तत्था णं तीसे मियाए देवीए सरीरे घेयणा पाउन्भृया उज्जला | उधिग्गा सजायभया
उब्धिग्गा संजायभया ममं सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-गजाव जलंता, जप्पभिई च णं मियापुत्ते दारए मियाए | च्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! एयं दारगं एगते उक्कुरुडिदेवीए कम्छिामि गमत्ताए उपवने तप्पभिर्डचणं मियादेवी याए उज्झाहि, तं संदिसह णं सामी। त दारग अह
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मियापुत्त
मियापुत्त
अभिधानराजेन्द्रः। एगते उज्झामि उदाह मा ?, तते णं से विजए खत्तिए । दुःखितो, दुःखा? देहेन, वशार्तस्तु-इन्द्रियवशेन पीडितः तीसे अम्मधाईए अंतिए एयमढे सोचा तहेव संभंते उट्ठा- ततः कर्मधारयः, ( उज्जला ) इह यावत्करणादिदं दृश्यम्
" विउला कक्कसा पगाढा चंडा दुहा तिव्वा दुरहियास" ए उद्वेति उट्ठाइत्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छति
त्ति । एकार्था एव । “अणिटा अकंता अप्पिया श्रमणुन्ना २ ता मियादेवीं एवं वयासी-देवाणुप्पिया ! सुब्भं पढमं
श्रमणामा” एतेऽपि तथैव, (पुव्वरत्तावरजकालसमयगब्भे तं जइ णं तुब्भे एयं एगते उक्कुरुडियाए उज्झासि
सि त्ति) पूर्वरात्रो-रात्रेः पूर्वभागः, अपररात्रो-रात्रः पश्चिततो णं तुब्भे पया नो थिरा भविस्सति । तो णं तुम एवं मो भागस्तल्लक्षणो यः कालसमयः-कालरूपः समयः स दारगं रहस्सियगंसि भूमिधरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं तथा तत्र ( कुटुंबजागरियाए त्ति ) कुटुम्वचिन्तयेत्यर्थः पडिजागरमाणी २ विहराहि, तो णं तुब्भं पया थिरा भ- |
(अज्झथिए त्ति ) अध्यात्मिकः श्रात्मविषयः, इह चाविस्सति, तते णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तह
न्यान्यपि पदानि दृश्यानि, तद्यथा-(चिंतिए ति ) स्मृ
तिरूपः (कप्पिए त्ति) बुद्धया व्यवस्थापितः ( पत्थिप त्ति एयमढे विणएणं पडिसुणैति पडिसुणित्ता तं दारगं त्ति) प्रार्थितः प्रार्थनारूपः (मणोगए ति) मनस्येव वृत्तो रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सियभत्तपाणणं पडिजागरमा- वहिरप्रकाशितः, संकल्पः-पर्यालोचः, ' इडे ' त्यादीनि णी विहरति, एवं खलु गोयमा! मियापुत्ते दारए पुरा पु
पश्चैकार्थिकानि प्राग्वत् (धिजे त्ति) ध्येया (वेसासिय राणाणं जाव पचणुब्भवमाणे विहरति । (सूत्र-६)।
त्ति) विश्वसनीया ( अणुमय त्ति) विप्रियदर्शनस्य पश्चा
दपि मता अनुमतेति, ( नाम ति ) पारिभाषिकी संज्ञा (जमगसमगं ति ) युगपत् ('रोगायक 'ति) रोगा:
(गोयं ति) गोत्रम् अन्वर्थिकी सझैवेति (किमंग पुण व्याधयस्त पवातङ्काः-कष्टजीवितकारिणः । 'सासे' इत्यादि श्लोकः, 'जोणिसूले' त्ति अपपाठः । 'कुच्छिसूले' इत्यास्यान्य
त्ति) किं पुनः 'अंग' इत्यामन्त्रणे, ( गम्भसाडणाहि य
त्ति) शातनाः-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः (पात्र दर्शनात्, (भगंदले त्ति ) भगन्दरः ( अकारए ति )
डणाहि यत्ति ) पातनाः यैरुपायैरखण्ड एव गर्भः पतति अरोचकः, 'अच्छिवेयणा' इत्यादि श्लोकातिरिक्तम् , ( उदरे |
(गालणाहि यत्ति ) यैर्गों द्रवीभूय क्षरति ( मारणाहि त्ति) जलोदरं शृङ्गाटकादयः स्थानविशेषाः। (विज्जो व त्ति) वैद्यशास्त्रे चिकित्सायां च कुशलः ( विजपुत्तो व ति )|
यत्ति ) मरणहेतवः । ( अकामिय ति ) निरभिलाषाः
[असयंवस त्ति ] अस्वयंवशा [अट्ठनालीो ति] अष्टौ तत्पुत्रः ( जाणुओ व त्ति ) शायकः केवलशास्त्रकुशलः
नाड्यः-शिराः [अम्भितरप्पवहाउत्ति] शरीरस्याभ्यन्तर एव (तेगिच्छश्रो वत्ति) चिकित्सामात्रकुशलः, ( अत्थसंप
रुधिरादि स्रवन्ति यास्तास्तथोच्यन्ते, [वाहिरप्पवहाउ ति] याणं दलयइ त्ति ) अर्थदानं करोतीत्यर्थः। ( सत्थकोसह
शरीरादहिः पूयादि क्षरन्ति यास्तास्तथोक्लाः, पता एव स्थगय ति) शस्त्रकोशो-नखरदनादिभाजनं हस्ते गतो
षोडश विभज्यन्ते ' अटे' त्यादि कथमित्याह-[ दुवे दुवे व्यवस्थितो येषान्ते तथा, (अवद्दहणाहि य त्ति) दम्भनेः (अवराहाणेहि य त्ति ) तथाविधद्रव्यसंस्कृतजलेन स्ना
त्ति] द्वे पूयप्रवाहे द्वे च शोणितप्रवाहे, ते च क्वेत्याहनैः (अणुवासणाहि य ति) अपानेन जठरे तैलप्रवेशनैः
[ कन्नंतरेसु] श्रोत्ररन्ध्रयोः एवमेताश्चतस्रः, एवमन्या अपि (वत्थिकम्मेहि य त्ति) चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीनां
व्याख्येयाः, नवरं धमन्यः कोष्टकहड्डान्तराणि [ अग्गियए स्नेहपूरणैः गुदे वा वादिक्षेपणैः (निरुहेहि य ति) नि
त्ति] अग्निको भस्मकाभिधानो वायुविकारः 'जाइअंधे' रुहः अनुवास एव केवल द्रव्यकृतो विशेषः (सिरावहेहि
इत्यत्र यावत्करणात् 'जाइमूए' इत्यादि दृश्यम् , [हुंडं ति] यति) नाडीवेधैः ( तच्छणेहि य ति) चुरादिना त्वच
अव्यवस्थिताङ्गावयवम् [ अंधारूवं ति ] अन्धाकृतिः स्तनूकरणैः (पच्छणेहि य त्ति) इस्वस्त्वचो विदारणैः
'भीया' इत्यत्रैतद् दृश्यम् ' तत्था उब्बिग्गा संजायभया'
भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः, 'करयले' त्यत्र 'करयल(सिरोवत्थीहि य त्ति) शिरोवस्तिभिः शिरसि बद्धस्य चर्म
परिग्गहियं दसणहं मत्थए अंजलि कटु' इति दृश्यम् , 'नकोशकस्य द्रव्यसंस्कृततैलाद्यापूरणलक्षणाभिः, प्रागुलबस्तिकर्माणि सामान्यानि अनुवासनानि रुहशिरोवस्तयस्तु
वराह ' मित्यत्र ‘मासाणं वहुपडिपुन्नाण' मित्यादि दृश्य
म् , तथा-'जाइअंध' मित्यादि च, [संभंते त्ति ] उत्सुतद्भेदाः ( तप्पणाहि य त्ति) तर्पणैः स्नेहादिभिः शरीर
कः [उट्ठाते उट्टेइ ति] उत्थानेनोत्तिष्ठति, [ पय ति] बृंहणैः (पुडपागेहि य त्ति ) पुटपाकाः पाकविशेषनिष्पन्नाः औषधिविशेषाः (छल्लीहि य त्ति) छल्लयो-रोहिणीप्रभृतयः ।
प्रजाः-अपत्यानि, [रहस्सिगयंसि ति] राहस्यिके विजने (सिलियाहि यत्ति ) शिलिकाः-किराततिलकप्रभृतिकाः
इत्यर्थः । (पुरा पोराणाणं ति) पुरा-पूर्वकाले कृतानामिति [गुलियाहि य त्ति ] द्रव्यवटिकाः (श्रोसहेहि य ति )
गम्यम् , अत एव 'पुराणानाम्-चिरन्तनानाम् , इह च औषधानि एकद्रव्यरूपाणि (भेसजेहि य त्ति) भैषज्या- यावत्करणात् 'दुञ्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं' इत्यादि पावगं नि-अनेकद्रव्ययोगरूपाणि पथ्यानि चेति । (संत त्ति ) श्रा-|
फलवित्तिविसेस' मित्यन्तं द्रष्टव्यम् । न्ता देहखेदेन (तंत त्ति ) तान्ताः मनःखेदेन ( परितंत
मियापुत्ते णं भंते ! दारए इअो कालमासे कालं किच्चा त्ति) उभयखदेनेति 'रज्जे य रटे य' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-"कोसे य कोट्ठागारे य वाहणे य" त्ति। मुच्छिए ग
कहिं गमहिति ? कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! मियाढिए गिद्धे अज्झोववरणे त्ति' एकार्थाः, 'आसाएमाणे' इ.| पुत्त दारए छवास वासाइ परमाउय पालइत्ता कालमास त्यादय एकार्थाः (अंदृदुहवसट्टे ति ) भातों मनसा | कालं किचा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्रगिरि
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मियापुत
पायले सहकुलसि सीहत्ताए पच्चायाहिति से णं तत्थ सी भविस्सति श्रहम्मिए ० जाव साहसिए सुबहुं पावं० जा समजत जाव समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमट्ठितीसु • जान उपवजिहिति, से गं ततो अनंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढबीए उक्कोसेण तिनि सागरोवमाई, से णं ततो अंतरं उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववज्जिहिति, तत्थ वि कालं किच्चा तच्चाए पुढवीए सत्तसागरोवमाई, से गं ततो सीहेसु य, तयाऽयंतरं चोत्थीए उरगो पंचमीए इत्थीओ बट्ठीए मणुत्रा आहेसत्तमाएं, ततोऽयंतरं उच्चट्टित्ता से जाई इमाई जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छकच्छभगाहमगर सुसुमा राऽऽदीणं अद्धतेरसजातिकुलको डिजोखिपमुहसयसहस्साई तत्थ णं एगमेगंसि जोणीविहाणंसि अगसतसहस्सखुसो उद्दात्ता २ तत्थेव भुजो २ पच्चाचा इस्सति, से गं ततो उव्वद्वित्ता एवं चउपएस उरपरिसप्पेमु भुयपरिसप्पेसुखयरेसु चरिदिएस तेईदिएस बेईदिएस वणप्फइएस कडुयरुक्खेसु कडुयदुद्धिएस वाउ० तेऊ० श्राऊ० पुढवी० अगसयसहस्सखुत्तो, से गं ततो अनंतरं उच्चट्टित्ता सुपरट्ठपुरे नगरे गोणत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ उम्मुक •जाव बालभावे अन्नया कयाई पढमपाउसंसि गंगा महानईए खलीयमट्टियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालगए तत्थेव सुपरट्ठे पुरे नगरे सेट्ठिकुलसि
मत्ता पच्चायास्सति । से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे ० जाब जोव्वरागमणुपत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारिय पव्वइस्सति, से णं तत्थ अणगारे भविस्सति ईरियासमिए० जाव भयारी । से णं तत्थ बहूई वासाई सामन्नपरियागं पाउाणित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवताए उववजिहिति । से णं ततो अतरं चयं चत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवंति अड्डा जहा दढपने सा चैव वत्तव्वया कलाओ० जाव सिज्झिहिति । एवं खलु जंबू ! समणें भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स
मट्ठे पन तिमि । ( सूत्र - ७ ) ॥ १ ॥ 'अहम्मिए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम् 'बहुनगरनिम्गयजसे सूरे ढप्पहारी ति' व्यक्तं च । (कालमासे ति] मरणावसरे, 'सागरोवम० जाव' त्ति 'सागरोपमट्टिईएसु नेरइयत्ताए' द्रष्टव्यम्, [जाइकुलकोडीजोणिष्पमुहसय सहस्साई ति] जाती पञ्चेन्द्रियजाती कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि - योनिद्वारकाणि, योनिशतसहस्राणि तानि तथा । [ जोगीविहासि सि ]
०
( २८२ अभिधानराजेन्द्रः ।
For Private
मियापुत
योनिभेदे । (खलीणमट्टिय त्ति ) खलीनाम् - श्राकाशस्थाम्, छिन्नतटो परिवर्त्तिनी, मृत्तिकामिति (उम्मुक्क० जाव प्ति) 'उ म्मुकबालभावें विश्नयपरिणयमेत्ते जोध्यगम पत्ते ति दृश्यम् । तत्र विज्ञ एव विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्धयादिपरिणामापन एव विशकपरिणतमात्रः । (श्रणंतरं चयं चहत त्ति) अनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा च्यवनं वा कृत्वा ( जहा दृढपइन्ने ति ) औपपातिके यथा दृढप्रतिशाभिधा( सा चेव त्ति ) सैव दृढप्रतिशसम्बन्धिनी, अस्या अपि वक्तनो भव्यो वर्णितस्तथा श्रयमपि वाच्यः, कस्मादेवमित्याहव्यतेति तामेव स्मरयन्नाह - ( कलाश्री त्ति ) कलास्तेन गृहीष्यन्ते दृढप्रतिज्ञेनेव यावत्करणाश्च प्रवज्याग्रहणादिः तस्येवास्थ वाच्यम्, यावत्सेत्स्यतीत्यादि पदपञ्चकमिति ततः सेत्स्यति कृतकृत्यो भविष्यति भोत्स्यते केवलज्ञानेन सकलं ज्ञेयं ज्ञास्यति, मोक्ष्यति, सकलकर्म्मविमुक्तो भविध्यति, परिनिर्वास्यति सकलकर्मकृतसन्तापरहितो भविष्यति, किमुक्तं भवति ? - सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति । विपा० १ ० १ ० । सुग्रीवनगरराजस्य वलभद्रस्य बलश्रीः नामके पुत्रे | उत्त० ।
नामनिष्पन्ननिक्षेपे मृगापुत्रीयमिति नामतो मृगायाः पुत्रस्य च निक्षेपमाह निर्युक्लिकृत्निक्खेवो उमिश्रा, चक्क दुव्विहो उ दव्वम्मि । आगम नोश्रागमतो, नोआगमतो य सो तिविहो |४०५ | जाग सरीरभविए, तबइरिते य सो पुणो तिविहो । एगभवियबद्धाउय, अभिमुह नाम गोए य ॥ ४०६ ॥ मित्राउनामगोयं, वेयंतो भाव मिओ होइ । एमेव य पुत्तस्स वि, चउको होइ निक्खेवो ॥ ४०७ ॥ गाथात्रयं प्राग्वत् । नवरं मृगाभिलापेन नेयम् । नामनिरुक्तिमाह
मिगदेवीपुत्ता, बलसिरिनामा समुट्ठियं जम्हा | तम्हा मिगपुत्ति, अज्भय होइ नायव्यं ॥ ४०८ ॥ मृगा - नाम्ना, देवी - श्रग्रमहिषी, तस्याः पुत्रः सुतो, मृगादेवीपुत्रस्तस्माद्बलश्रीनाम्नः समुत्थितम् - समुत्पन्नम् यस्मात्तस्मान्मृगापुत्रीयम् मृगापुत्रीयनामकं, मृगाशब्देन मृगादेव्युक्तेरभ्ययनमिदमिति शेषः, भवति - ज्ञातव्यम्; अवबोद्रव्यम् इति गाथार्थः। गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः ।
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सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति श्रतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदम्सुग्गीवे नयरे रम्मे, कारणरणुजाणसोहिए । राया बलभद्दु त्ति, मिया तस्सऽग्गमाहिसी ॥ १ ॥ सिं पुत्ते बलसिरि, मियापुत्त ति विस्सुए । मापि दइए, जुवराया दमीसरे || २ || नंदणे सो उपासाए, कलिए सह इत्थिहिं । देवो दोगुंदगो चेव, निचं मुइयमाणसो || ३ || मणिरयणकुट्टिमतले, पासायाला ठि । आलोएइ नगरस्स, चक्कतियचचरे ।। ४ ।।
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(२१३) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त सुग्रीवे-सुग्रीवनाम्नि नगरे, रम्ये-रमणीये , काननैः-वृ- उत्ति) तुशब्दस्यैवकारार्थत्वादविद्यमाननिमेषयैव, क मन्येहृवृक्षाश्रयैर्वनैः , उद्यानैः-पारामैः क्रीडावनैर्वा , शोभिते- जाने, ईदृशम्-एवंविधम् , रूपम्-माकारः , दृष्टपूर्वम्राजिते, काननोद्यानशोभिते , राजा-नृपो, बलभद्र इति ना- अवलोकितं मया , (पुरा इति) पूर्वजन्मनि ?, शेषं प्रतीम्नेति शेषः । मृगा-मृगानाम्नी, 'तस्य' इति-बलभद्रस्य रा. तमेव, नवरम्, अध्यवसाने इत्यन्तःकरणपरिणामे, शोभने शः, (अग्गमाहिसि त्ति) अग्रमहिषी-प्रधानपत्नी । तयोः- | प्रधाने, क्षायोपशमिकभावधर्तिमीति यावत् , मोहं क्वेद राकोः, पुत्र:-बलश्रीः-बलश्रीनामा , मातापितृविहितनाम्ना मया दृष्टम् क्वेदमित्यतिचिम्तातश्चित्तसाहजमूर्छात्मकम् , लोके च मृगापुत्र इति, विश्रुतः-विख्यातः, ('अम्मापिऊ- गतस्य-प्राप्तस्य, सतः । तथा ( सरति त्ति) स्मरति,पौराणिणं' ति ) अम्बा-पित्रोः , दयितः-वल्लभः , युवराजः- कीम् , जातिम्-जन्म, श्रामण्य ब-श्रमसभाषम् , पुराकृतम्कृतयौवराज्याभिषेको, दमिनः-उद्धतदमनशीलास्ते च राजा जन्मान्तरानुष्ठितम् । इति सूत्रचतुएयार्थः। नः, तेषाम् ईश्वरः-प्रभुर्दमीश्वरः। यद्वा-दमिनः-उपशमिनः, एतदेवातिस्पष्टताहेतोरनुगदितुमाह नियुक्तिकृत्तेषां सहजोपशमभावत ईश्वरो दमीश्वरः , भाविकालापेक्षं
सुग्गीवे नयरंमि अ, राया नामेण मासि बलभद्दो । चैतत् । नन्दने-लक्षणोपेततया समृद्धिजनके , सः-मृगापुत्रः, 'तुः'-वाक्यान्तरोपन्यासार्थः, प्रासादे क्रीडति-विल
तस्सासि अग्गमहिसी, देवी उ मिगाई नामं ॥४०७।। सति, सह-समम् , रोभिः-प्रमदाभिः । क इव ?-देवः-सु
तेसिं दुबह वि पुत्तो, पासी नामेल पसासिरी धीमं । रः, (दोगुंदगो चेव त्ति) चः-पूरणे , दोगुन्दग इव, दोगु- वयरोसभसंघयणो, जुवराया चरमभवधारी ॥४७८।। न्दगाश्च त्रायस्त्रिंशाः । तथा च वृद्धाः-'त्रयास्त्रिंशा देवा नि- उन्नदमाणहिअओ, पासाए नंदमि सो रम्मे । त्य भोगपरायणा दोगुन्दगा” इति भणन्ति । नित्यम्-सदा मुदितमानस:-दृष्टचित्तः, । सचैवं क्रीडन् कदाचिन्मणयच.
कीलइ पमदासहिओ, देवो दोगुंदगोवेव ॥ ४०६ ।। विशिष्टमहात्म्याश्चन्द्रकान्तादयो, रत्नानि च-गोमेयकादीनि, अह अन्नया कयाई, पासायतलंमि सो ठिमओ संतो। मणिरत्नानि, तैरुपलक्षितं कुट्टिमतलं यस्मिन्नसौ मणिरत्न- आलोएइ पुरवरे, रुंदे मग्गे गुणसमग्गे ॥ ४१० ॥ कुट्टिमतलः,गमकत्वाद्बहुव्रीहिः, तस्मिन् । पालोक्यन्ते दिशो
अह पिच्छइ रायपहे. बोलंत समसंजय तत्थ । ऽस्मिन् स्थितेरित्यालोकनं प्रासादे प्रासादस्य वाऽऽलोकनं | प्रासादालोकनम् तस्मिन् , सर्वोपरिवर्तिचतुरिकारूपे गवा
तवनियमसंजमधरं, सुअसागरपारगं धीरं ॥ ४११ ।। क्षेवा, स्थितः-उपविष्टः , आलोकते कुतूहलतः पश्यति , अह देहइ रायसुओ, तं समण अणिमिसाइदिट्ठीए । कानि ?-नगरस्य तस्यैव-सुग्रीवनाम्नः, सम्बन्धीनि चतुष्क- कहि एरिसयं रूवं, दिहें मने मए पुष्वं ? ॥ ४१२ ॥ त्रिकचत्वराणि प्रतीतान्येव । इति सूत्रचतुष्टयार्थः । एवमणुचितयंतस्स, सन्नीणाणं तहिं समुप्पन्न । ततः किमित्याह
पुत्वभवे सामन, मए वि एवं कयं आसि ॥४१३॥ अह तत्थ अइच्छंतं, पासई समणसंजयं ।
गाथासप्तकं स्पष्टमेव, नवरम् धृतिमान्-चित्तस्वास्थ्यतवनियमसंजमधरं, सीला गुणागरं ॥५॥ वान् , ( वज्रऋषभमिति ) अर्थाद्वजऋषभनाराचं संतं पेहई मियापुत्ते, दिट्ठीए अणिमिसाइ उ ।
हननं यस्य स तथा, चरमभवधारी-पर्यन्तजन्मवर्ती, तथा
( उराणंदमाणहियो त्ति) उत्-प्राबल्येन, नन्दद्-आनन्द कहिं मन्नेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं मए पुरा? ॥६॥
गच्छत् , हृदयम्-मनो, यस्य स तथा , प्राकृतत्वात् शतसाहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणंमि सोहणे । विषये शानच् । तथा-रुन्दान्-विस्तीर्णान् , मार्गान्-विमोर्ह गयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं ॥७॥ पणिमार्गादीन, गुणः-ऋजुत्वसमत्वादिमिः, समग्राः-परिदेवलोगचुओ संतो, माणुस भवमागयो।
पूर्णाः गुणसमग्रास्तान् । तथा श्रुतसागरपारगं धीरमिति
तपोनियमसंयमधरमित्यस्य सूत्रपदस्य हेतुदर्शनद्वारतस्तासचिनाणसम्प्पन्ने, जाई सरह पुराणयं ॥ (प्र०)॥
त्पर्यव्याख्यानम् . अनेनैव च भावभिजुत्वमुपदर्शितम् , अत जाईसरणे समुप्पो, मियापुत्ते महिड्डिए।
एवान्यस्यैवं विशेषणायोगाच्छुमणसंयतमित्याह , संनिशान सरइ पोराणिअं जाई, सामामं च पुराकयं ॥ ८ ॥
चेह सम्यग्दृशः स्मृतिरूपमतिभेदात्मकम् । इति गाथासअथ-अनन्तरम् , तत्र इति-तेषु ! चतुष्कत्रिकचत्वरेषु,
प्तकाऽवयवार्थः। (अतिच्छतं ति) अतिक्रामन्तं पश्यति , श्रमणसंयतमिति
सम्प्रति यदसावुत्पन्नजातिस्मरणः कृतयाँस्तदाहश्रमणस्य शाक्यादेरपि सम्भवात्तद्यवच्छेदार्थ संयतग्रह
विसएहि अरजंतो, रजंतो संजमंमि य । गम् ,तपश्च-अनशनादि,नियमश्च-द्रव्याधभिग्रहात्मकः, संय- अम्मापियरं उवागम्म, इमं वयसमव्यवी ॥६॥ मश्च-उक्लस्वरूपस्तान् धारयति तपोनियमसंयमधरस्तम् (विसरहिं ति ) सुब्ब्यत्यया विषयेषु-मनोशशब्दादिषु, अत एव शीलम्-अष्टादशशीलाङ्गसहस्ररूपम् , तेनाढ्यम्- अरञ्जन् अभिष्वङ्गमकुर्वन् ,क? संयमे , उक्तरुपे , चःपरिपूर्ण शीलाव्यम् , तत एव च गुणानाम्-शानादीनामाकर पुनरर्थः, (अम्मापियरं ति) अम्मा ( म्बा ) पितरौ, उइव गुणाकरस्तम् । तमिति श्रमणसंयतम् , (पेहद त्ति)। पागम्य-उपसृत्य , इदम्-अनन्तरवक्ष्यमाणं, वचनम् । अत्रपश्यति, मृगापुत्रः-युवराजः, रठ्या-दशा, (अणिमिसाइ-| वीन् , इत्याह । इति सूत्रार्थः ।
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(२६४) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त किं तदब्रवीदित्याह
चि-स्वाभाविकशौचरहितम् । अशुचिसंभवम्-अशुसुआणि मे पंच महव्वपाणि,
चिरूपशुक्रशोणितोत्पन्नम्, अशाश्वतः-कश्चिदवस्थितत्वेऽ. नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजौणिसु ।
प्यनित्यः श्रावासः- प्रक्रमाजीवस्यावस्थानम् यस्मिन्नित्य
शाश्वतावासम्, पुनः 'इदमि' त्यभिधानमतीवासारत्वावेशसूनिबिएणकामो मि महएणवाश्रो,
चकम्, दुःखम्-असातं तद्धेतवःक्लेशाः-ज्वरादयो रोगाः,दुःअणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो! ॥१०॥
खक्लेशाः, शाकपार्थिवादिवत्समासस्तेषाम् भाजनम् , यतश्चै श्रुतानि-श्राकर्णितानि, अन्यजन्मनील्यभिप्रायः, [ मे] म- धमतोऽशाश्वते शरीरे , रतिम्-चित्तस्वास्थ्यम्, नोपलभेन या, (पंच इति) पञ्चसंख्यानि, महाव्रतानि-हिंसाविरमणा- प्रामोऽम्यहम् भोगेषु सत्स्वपीति गम्यते, शरीराश्रयत्वात्तेषादीनि, तथा नरकेषु दुःखं च-सातम् ,इहैव वक्ष्यमाणं (ति- मिति भावः । शरीराशाश्वतत्वमेवाह-पश्चात् पुरा वा रिक्सजोणिसु त्ति ) चशब्दस्याप्रयुज्यमानस्यापि “अहरह- त्यक्त्रव्ये शरीरे इति प्रक्रमः । तद्धि पश्चादिति-भुक्तभोगानयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम्" इत्यादाविव गम्यमानत्वात् | वस्थायां, वार्धक्यादौ, पुरा-अभुक्तभोगितायां वा बाल्यादौ, तिर्यग्योनिषु च, सर्वत्र चायं न्यायो द्रष्टव्यः, उपलक्षणं चैत- त्यज्यत इति, यद्वा-पश्चादिति-यथास्थित्या आयुःक्षयोद् देवमनुष्यभवयोः, ततः किमित्याह-(णिब्बिएणकामो मि त्तरकालं पुरा वेत्युपक्रमहेतोर्वर्षशताद्यासंकलितजीवितप्रमासि) निर्विएणकामः-प्रतिनिवृत्ताभिलाषोऽस्म्यहम् ,कुतः?
णात्प्रागपि, त्यक्त्रव्ये-अवश्यत्याज्ये, फेनबुदबुदसंनिभे-क्षणमहार्णव इव महार्णवः-संसारस्तस्माद् , यतश्चैवमतः
दृष्टनष्टतया, अनेनाशाश्वतत्वमेव भावितमिति न पौनरुक्त्यअनुजानीत-अनुमन्यध्वम् , मामिति शेषः, [पव्वइस्सामि
म् । इति सूत्रत्रयार्थः। सि] प्रवजिष्यामि [अम्मो ति] पूज्यतरत्वाद्विशिष्टप्रति
एवं भोगनिमन्त्रणपरिहारमभिधाय प्रस्तुतस्यैव बन्धास्पदत्वाच मातुरामन्त्रणम् ,यो हि भविष्यदुःखं नावैति,
संसारनिर्वेदस्य हेतुमाहतत्प्रतीकारहेतुं वा, स कदाचिदित्थमेवासीत् अहं तूभयत्रा. पि विज्ञ इति कथं न दुःखप्रतीकारोपायभूतां महावतात्मि
माणुसत्ते असारंमि, वाहीरोगाण आलए । कां प्रव्रज्यां प्रतिपत्स्ये । इति सूत्रगर्भार्थः।।
जरामरणपत्थम्मि, खणं पि न रमामहं ॥ १४ ॥ अमुमेवार्थमनुवादतः स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत्- जम्मदुक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । सो लबोहिलामो, चलणे जणगाण बंदिउं भणइ । अहो दक्खोह संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो॥१शा वीसजिउमिच्छामो, काहं समणत्तणं ताया!॥४१४॥
खित्तं वत्थु हिरमं च, पुत्तं दारं च बंधवा । सः इति-मृगापुत्रो, लब्धः-प्राप्तो बोधिलाभो-जिनधर्म
चइत्ताण इमं देहं, गंतव्वमवसस्स मे ॥ १६ ॥ प्राप्तिरूपो येन स तथा, चरणान्-पादान् , जनकयोःमातापित्रोः, वन्दित्वा भणति, यथा विसर्जयितुम्-मुत्कल
जह किंपागफलाणं, परिणामो न सुंदरो। यितुम् ,वयमात्मानमिति गम्यते,इच्छामः-अभिलषामः, कि- एवं भुत्ताण भोगाण, परिणामो न सुंदरो॥ १७ ॥ मिति ?, यतः--[ काहं ति ] वचनव्यत्ययात्-करिष्यामः , सूत्रचतुष्टयं स्पष्टम् , नवरम् व्याधयः-अतीव बाधाहेतश्रमणत्वम्-प्रवज्याम् , तात इति--पितः !, उपलक्षणत्वा- वः कुष्ठादयो, रोगाः-ज्वरादयस्तेषाम् पालये-श्राश्रये, त्-मातश्च । इति गाथार्थः ।
जरामरणग्रस्ते-वार्धक्यमृत्युकोडीकृते , अनेन मानुषत्वाइदानीं तो कदाचिद्भोगैरुपनिमन्त्रयेयातामित्य- सारत्वमेव भावितम् , क्षणमपि-न रमे नाभिरति लभिप्रायतः यत्तेनोक्तं तत्सूत्रकृदाह
भेऽहमिति । इत्थं मनुष्यभवस्यानुभूयमानत्वेन निर्वेदहेतुअम्म! ताय! मए भोगा, भुत्ता बिसफलोवमा। त्वमभिधाय सम्प्रति चतुर्गतिकस्याऽपि संसारस्य तदाहपच्छा कडुयविवागा, अणुबंधदुहावहा ॥११॥
'जम्म ' इत्यादिना, अंत्र च ' अहो ' इति सम्बोधने इमं सरीरं अणिचं, असुइं असुइसंभवं ।
[ दुक्खो हुत्ति ] दुःखहेतुरेव संसारो जन्मादिनिबन्धनत्वा
तस्य, यत्र-यस्मिन् , गतिचतुष्टयात्मके संसारे, क्लिश्यअसासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं । १२ ॥
न्ति-बाधामनुभवन्ति, जन्मादिदुःखैरेवेति गम्यते, जन्तअसासए सरीरंमि, रई नोवलभामहं ।
वः-प्राणिनः, इह च दुःखानुभवाधारत्वेन संसारस्य दुःखपच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुयसंनिमे ॥ १३॥ हेतुत्वमिति भावः । तथा-'खेतं' इत्यादिनेष्टवियोगोऽशसूत्रत्रयं प्रतीतार्थमेव,नवरम्, विषमिति-विषवृतस्तस्य फलं
रणत्वं च संसारानिर्वेदहेतुरुक्तः, तथा-किम्पाकः-वृक्षविषफलं तदुपमाः । तदुपमत्वमेव भावयितुमाह-पश्चात्कटु
विशेषः, तस्य फलान्यतीव सुस्वादानि । अनेन चोपसंहारक इव कटुकोऽनिष्टत्वेन विपाको येषां ते तथा, आपातत
सूत्रणोदाहरणान्तरद्वारेण भोगदुरन्ततैव निर्वेदहेतुरुक्ता । एव मधुरा इति भावः । अनुबन्धदुःखावहा:-अनवच्छिन्न
इति सूत्रचतुष्टयावयवार्थः । दुःखदायिनः । यथा हि-विषफझमास्वाद्यमानमादौ मधुरम्
इत्थं निर्वेदहेतुमभिधाय दृष्टान्तद्वयोपन्यासतः स्वाभिप्रायउत्तरकालं च कटुकविपाक, सातत्येन च दुःखोपनेत, एवमे
मेव प्रकटयितुमाहतेऽपीति । किश्व--श्री कामाः स्पर्शप्रधानाः, स्पर्शश्च श
अद्धाणं जो महंतं तु, अपाहेजो पवज्जई। रीराश्रयः, तच्चेदं शरीरम् , अनित्यम्--अशास्वतम् . अशु- गच्छंतो से दुही होइ, छुहातहाइपीडियो ।। १८ ।।
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(२५) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त एवं धम्म अकाऊणं, जो गच्छइ परं भवं ।
सव्वारंभपरिच्चागो, निम्ममत्तं सुदुक्करं ।। २8 ।। गच्छतो से दुही होई, वाहिरोगेहि पीडिओ ॥ १६॥ चउबिहेऽवि आहारे, राईभोयणवजणा । अद्भाणं जो महंतं तु, सपाहेजो पवजई ।
संनिहीसंचओ चेव, बजेयव्यो सुदुक्करं ॥ ३०॥ गच्छंतो से सुही होइ, छुहातहाविवज्जिो ॥२०॥ छुहा तण्हा य सीउएह, दंसा मसगा य वेयणा । एवं धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं ।
अक्कोसा दुक्खसिजा य, तणफासा जल्लमेव य ॥३१॥ गच्छंते से सुही होई, अप्पकम्मे अवेयणे ।।२१।। तालणा तज्जणा चेव, वहबंधपरीसहा । जहा गेहे पलितंमि, तस्स गेहेस्स जो पह।
दुक्खं भिक्खायरिया, जायणा य अलाभया ॥३२॥ सारभंडाणि नीणेइ, असारं अवउज्झइ ॥ २२॥ काबोया जा इमा वित्ती, केसलोश्रो अदारुणो। एवं लोए पलिमि, जराए मरणेण य।
दुक्खं बंभव्वयं घोरं, धारेउं अमहप्पणो ।। ३३ ।। अप्पाणं तारइस्सामि, तुम्भेहि अणुमनिओ ॥ २३ ॥
सुहोइओ तुम पुत्ता, सुकुमालो सुमजिओ। सूत्रषटुं प्रकटार्थमेव, केवलमत्र प्रथमसूत्रेण दृष्टान्त उक्तः,
न हुऽसी पभू तुमं पुत्ता!, सामन्त्रमणुपालिया ॥ ३४ ॥ अत्र च अध्वानम्-मार्गम् पथि साधु पाथेयम् सम्बलकं तद्यस्याविद्यमानं सोऽपाथेयः, प्रपद्यते-श्रङ्गीकुरुते । तृष्णा
जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महब्भरो । पीडितत्वं चेह दुःखित्वभवने हेतुः । द्वितीयसूत्रेण दान्ति- गरुओ लोहमारु व्व, जो पुत्ता ! होइ दुव्वहीं ॥३॥ कोपदर्शने, व्याधिरोगपीडितत्वं चात्र दुःखित्वभवने निमित्तं, आगासे गंगसोउ व्व, पडिसोउ व्व दत्तरे। दारिद्रयादिपीडोपलक्षणं चैतत् । उत्तरसूत्रद्वयेन चैतत्सूत्र- बाहाहिं सागरो चेव, तरियव्यो (य) गुणोयही ॥३६॥ योक्तस्यैवार्थस्य व्यतिरेक उक्तः, तत्र सुखित्वे हेतुः-लुत् तृ
वालुयाकवले चेव, निरस्साए उ संजमे । एणाविवर्जितत्वमुक्तम् । धर्म-पापविरतिरूपम् , अपिः-पूरणे, कृत्वा-विधाय , गच्छन्नुपलक्षणत्वाद्गतश्च , सः इति-ध
असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिऊं तवो ॥ ३७॥ मकर्ता, प्रक्रमात्पाथेयोपमधर्मसहितः सुखी भवति । सुखि
अहीवेगंतदिबीए, चरित्ते पुत्त ! दच्चरे। त्वे चाल्पकर्मत्वं हेतुरवेदनत्वं च । अत्र च प्रस्तावात्कर्म पापं जवा लोहमया चेव, चावयव्या सुदुक्करं ॥ ३८॥ वेदना.चासातरूपा गृह्यते, अनेन धर्मकर्मकरणाकरणयोर्गु
जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुकरं । रणदोषदर्शनाद्धर्मकरणाभिप्रायः प्रकटितः। 'जहा' इत्यादिना च सूत्रद्वयेन तमेव दृढयति। अत्र च यथा सारभाण्डानि-महा
तह दुक्करं करेउं जे, तारुम्मे समणत्तणं ॥ ३९ ॥ मूल्यवस्त्रादीनि, ((णीणेइ त्ति) निष्काशयति । असारम्- जहा दुक्खं करेउं जे, होइ वायस्स कुत्थलो। जरद्वस्त्रादि, (अवउज्झइत्ति) अपोहति-त्यजति । ए
तहा दुक्खं करेउं जे, कीवेणं समणत्तणं ॥ ४० ॥ चम् लोके जगति, (पलितमि त्ति) प्रदीप्ते अत्याकुलीक
जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करं मंदरो गिरी। ते. आत्मानम्-सारभाण्डतुल्यम् , तारयिष्यामि-जरामरणप्रदीप्तलोकपारं नेष्यामि , धर्मकरणनेति प्रक्रमः, असारं
तहा णिहुअ-णीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ॥४१॥ तु कामभोगादि त्यक्ष्यामि इति भावः । अनेन धर्म- जहा भुयाहि तरिउं, दुक्करं रयणाऽऽयरो । करणे विलम्बासहिष्णुत्वमुक्तम् । युष्माभिरिति द्वित्वेऽपि
तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दमसायरो ॥ ४२ ॥ पूज्यत्वाद् बहुवचनम् , ( अणुमनिओ त्ति) अनुमतः
भुंज माणुस्सए भोए, पंचलक्खणए तुमं । श्रभ्यनुज्ञातः। इति सूत्रपदावयवार्थः। एवं च तेनोक्ने
भुत्तभोगी तो जाया !, पच्छा धम्मं चरिस्ससि ॥४३॥ तं बितऽम्मापियरो, सामन्त्रं पुत्त ! दुच्चरं ।
सूत्रविंशतिः सुगमैव । नवरम् (तमिति ) बलश्रियम् मृगुणाणं तु सहस्साणि, धारेयव्वाइँ भिक्खुणा ॥२४॥
गापुत्रापरनामक युवराजम् , (विति ति) धूतः-अभि
धत्तः, ( अम्मापियरो सि) अम्बापितरौ श्रामण्यं पुत्र ! समया सबभूएसुं, सत्तुमित्तेसु वा जगे।
दुश्चरं , ' यतस्तत्र गुणानाम् श्रामण्योपकारकाणां शीलाङ्गपाणाइवायविरई, जावज्जीवा य दुक्करं ॥ २५ ॥
रूपाणां सहस्राणि, धारयितव्यानि-अात्मनि स्थापयितनिच्चकालप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं ।
व्यानि , प्राक् तुशब्दस्यैवकारार्थस्येह सम्बन्धाद्धारयितभासियव्वं हियं सच्चं, निच्चाउत्तेण दुक्करं ॥ २६ ॥ व्यान्येव व्रतग्रहण इति गम्यते । भिक्षुणा-भिक्षणशीलेन दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं ।।
सता, पठ्यते च-(भिक्खुणो त्ति ) भिक्षोः सम्बन्धिनां अणवजेसणिजस्स, गिण्हणा अवि दुक्करं ।। २७ ॥ गुणानामिति योगः । तथा समता-रागद्वेषाविधानतस्तुविरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा ।
ल्यता, सर्वभूतेषु-समस्तजन्तुषु, उदासीनेष्विति गम्यते.
शत्रुमित्रेषु वा-अपकार्युपकारिषु , जगति-लोके अनेन उग्गं महव्वयं बंभ, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ २८ ॥
सामायिकमुक्तमू , तथा-प्राणातिपातविरतिः प्रथमव्रतधणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवजणं ।
रूपा, (जावज्जीव त्ति ) यावजीवम्-दुष्करम् दुरनुचरमेत
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( २६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मियापुत
दिति शेषः । नित्यकालम सेनेत्यप्रमसग्रहणं निद्रादिप्रमादगोहि मृषामिति नित्याऽऽयुक्तेन सततोपयुक्लेन, अनुपयुक्तस्यान्यचापि भाषणसंभवाद् । एतच्च दुष्करं rearratorfirsाभ्यामेकस्याप्यर्थस्याभिधानं तत्स्पष्टताधमदुष्टमेवेत्येवं सर्वत्र भावनीयम् । अनेन द्वितीयवतदुष्करत्वमभिहितम् । [तसोहणमादिस्स ति ] मकारोऽलाक्षणिकः अस्य मम्यमानत्वात् दन्तशोधनादेरपि अतितुच्छस्यास्तामभ्यस्य, तथा अनवद्यैषणीयस्य दत्तस्थापीति गम्यते । [ मिल्ल सि ] प्रहणमिति तृतीयवतदुष्करत्बोक्तिः । [ कामभोगरस ति ] कामभोगाः-उक्तरूपास्तेषां रसः भारवादः कामभोगरसः । यद्वा-- रसाः शृङ्गारादयः, ततः -- कामभोगाय रसाच कामभोगरसास्तज्शेन, तदशस्य हि तदवगमा सद्विषयोऽभिलाष एव न भवेत् । तथा च-- सुकरत्वमपि स्वादित्याशयेनैवमभिधानम् श्रनेन चतुर्थवतदुष्करत्वमुन । परिग्रहः-- सत्सु स्वीकारस्तद्विवजनम्, तथा सबै निरवशेषा, ये आरम्भाः- द्रव्योत्पादनव्या पाराः तत्परित्यागः, अमेन निराकाङ्गत्वमुक्तम् । निर्ममत्वं च, गम्यमानत्वार्थस्य सर्वत्र ममेति बुद्धिपरिहारः, श्रनेन पश्चमहाव्रतदुष्करतोता । संनिधीयते नरकादिष्वनेनात्मेति संनिधिः, घृतादेरुतिकालातिक्रमेण स्थापनं स चाऽसौ सञ्चयश्च संनिधिसञ्चयः स चैव वर्जयितव्यः इत्येतत् सुदुष्करम् । श्रनेन षष्ठतदुष्करत्वमुक्तम् दिषागृहीतदिवो भुक्तादिभङ्गचतुष्टयरूपत्वात । 'कुहे' त्यादिना परीषहाभिधानम्, अत्र व दंशमशकवेदना भक्षणोत्थदुःखानुभवरूपा, दुःखशय्या चविषमोन्नतत्वादिना दुःखहेतुर्वसतिः, ताडना करादिभिराहननम्, सर्जना - मिलत्क्षेपादिरूपा, वधश्च - लकुटादिप्रहारो, बन्धय-मयूरबन्धादिः, तावेव परीषही बधबन्धपरीहौ, याचा-माना, बकारोऽनुक्ताशेषपरी पहसमुच्चयार्थः, । दुःखशब्दश्धेह दुःमित्यादिप्रत्येकं योजनीयः इह च अन्धताडने है ऽन्तर्भवतः । तर्जना - श्राक्रोश, भिक्षाचर्या वदनं च व्युत्पत्त्यर्थमिति भावनीयम् कपोताः -- पचिविशेषास्तेवामियम् कापोती, येयम्-वृत्तिःनिर्वहणोपायः, बथा हि-से नित्यशङ्किताः कणकीटकादिग्रहणे प्रवर्तन्त एवं भिक्षुरप्येषणादोषशङ्कयेव भिक्षादौ प्रवर्त्तते, व दुरनुचरत्वेन दारयति कातरमनांसीति दारुणेत्तरेस योगः, अभिधेयवशाच्च लिङ्गविपरिणामः, उपलक्षणं चैतत्समस्तोत्तरगुणानामिति । यच्चेह ब्रह्मव्रतस्य पुनर्वरत्वाभिधानं तदस्यातिदुष्करत्वख्यापनार्थम् । उपसंहारमाह- सुखम् - सातम्, तस्योचितःयोग्यः, सुखोचितः, सुकुमारः - अकठिनदेहः, सुमजित:सुष्ठु पितः, सकलनेपथ्योपलक्षणं चेतत् इह च सुमजितत्वं सुकुमारत्वे हेतुः उभयं चैतत्सुखोचितत्वे । श्रतश्च ['नहु सि सि ] नैव, असि भवसि प्रभुः समर्थः, श्रामण्यम् - - श्रनन्तरोदितगुणरूपम् [ अणुपाले ति ] श्रनुपालयितुम्, इह व खोचितत्वाभिधानमनीदृशो ही शं दुःखमपि मे समिति मन्यते । पुनरप्रभुत्वमेवोदाहरणैः समर्थयितुमाह-- विशामः -- यत्रोद्धृतेन न विश्रम्यते गुणानाम्--- पतिगुणनम्, तुः- पूरणे, महाभरः - - महासभूहो, गुरुको सहभार इव यो दुर्वहः स वोढव्य इति
"
"
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मिया
शेषः । त्वं तु सुखोचित इत्यतो न प्रभुरसीत्युत्तर प्रापि योजनीयम् ! आकाशे गङ्गाश्रोतोवद् दुस्तर इति योज्य - ते, लोकरूढ्या चैतदुक्तम्, तथा प्रतिश्रोतोवत् यथा प्रतीपं जलप्रवाहो दुस्तर:- दुःखेन तीर्यत इति, बाहुभ्याम् - ( सागरो चैव ति ) सागरबच्च दुस्तरो यः सः, तरितव्यः - पारगमनायावगाहयितव्यः कोऽसौ ?, गुणाः - ज्ञानादयस्ते उदधिरिव गुणोदधिः, कायवाङ्मनोनियन्त्रण चात्र दुष्करत्वे हेतुः निरास्वादः - नीरसो विषयगृद्धानां वैरस्यहेतुत्वात् ( अहीत्यादि ) अहिरिव एको ऽन्तो- निश्चयो यस्याः सा तथा, सा चासौ हष्टिश्चैकान्तदृष्टिस्तया - अनन्याक्षिप्तया श्रहिपक्षे-दशा, अन्यत्र तु बुद्धयोपलक्षितम्, एकान्तदृष्टिकं वा चारित्रं दुश्वरम् विषयेभ्यो मनसो दुर्निवारत्वादिति भावः, ( जवा लोहमया चैव त्ति ) एवकारस्योपमार्थत्वाद्यवा लोहमया इव चर्चयितव्याः किमुक्कं भवति ? - लोहमययवचर्वणवत्सुदुष्करं चारित्रम् । 'अग्निशिखा - श्रग्निज्वालादीप्ता इत्युज्ज्वला ज्वाला कराला वा, द्वितीयार्थे चाल प्रथमा, ततो यथाऽग्निशिखां दीतां पातुं सुदुष्करं नृभिरिति गम्यते । यदिवा-लिङ्गव्यत्ययात् सर्वधात्वर्थत्वाच्च करोतेः सुदुष्करा - सुदुःशका, यथाऽग्निशिखा दीप्ता पातुं भवतीति योगः । एवमुत्तरत्रापि भावना । 'जे' इति निपातः सर्वत्र पूरणे, 'कोत्थल ' इह वस्त्रकम्बलादिमयो गृह्यते चर्ममयो हि सुखेनैव भ्रियेतेति 'क्लीवेन' निःसत्वेन निभृतं निःशङ्कम् इत्यत्र निभृतम् - निश्चलं विषयाभिलाषा-दिभिरक्षोभ्यम् ' निःशङ्कम् ' - शरीरादिनिरपेक्षं शङ्काख्यसम्यक्त्वातिचारविरहितं वा । श्रनुपशान्तेन - उत्कटकवा येण, इह च दमसागर इत्यनेन प्राधान्यख्यापनार्थ केवलस्यैवोपशमस्य समुद्रोपमाभिधानम् पूर्वत्र तु गुणोदधिरित्यनेन निःशेषगुणानामिति न पौनरुक्त्यम् ॥ यतश्चैवम्तारुण्ये दुष्करा प्रव्रज्या श्रतो भुङ्क्ष्वेत्यादिना पितरौ कृत्यो पदेशं ब्रूतः, भुज्यन्त इति भोगास्तान् पञ्चलक्षणकान् शब्दादिपञ्चकस्वरूपान्, ततः इति-भोगभुक्तेरनन्तरम्, ( जायन्ति ) जात ! पुत्र ! पश्चादिति वार्द्धक्ये, (चरि ससि ति) चरे: । इति विंशतिसूत्रावयवार्थः ॥ २४ (०) ४३ ॥ सम्प्रति तद्वचनानन्तरं यन्मृगापुत्र उक्तवांस्तदाहतं तापियरो, एवमेयं जहा फुडं ।
इह लोगे निष्पिवासस्स, नऽत्थि किंचि वि दुकरं ||४४|| सारी माणसा चैव, वेयखाउ अतसो । मए सोढाइँ भीमाई, असई दुक्खभयाणि य ।। ४५ ।। जरामरणकंतारो चाउरंते भयागरे । मया सोहाणि भीमाई, जम्माई मरणाणि य ॥ ४६ ॥ जहंगणी उहो, इत्तोऽतगुणो तहिं । नर वेयणा उहा, अस्साया वेड्या मए ॥ ४७ ॥ जहा इहं इमं सीयं इतोऽगतगुणं तहिं । नरसु वेणा सीया, अस्साया वेइया मए ॥ ४८ ॥ कंदतो कंदुकुभी, उद्धपात्र होसिरो । हुयासणो जलंतंमि पक्कपुव्वो अंतसो ॥ ४६ ॥
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(२७) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त महादवऽग्गिसंकासे, महँमि वइरबालुए ।
तुहं पिया सुरा सीह , मेरो अमहूणि य । कालंबवालुणाए उ, दड्डपुब्यो अणंतसो ॥ ५० ॥ पजिओ मि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य ।।७०॥ रसंतो कंदुकुंभीसु, उड्डे बद्धो अबंधवो।।
निच्चं भीएण तत्थेणं , दुहिएणं वहिएण य । करवत्तकरकयाईहिं, छिन्नब्यो अणंतसो ॥ ५१ ॥ परमा दुहसंबद्धा, वेयणा वेइया मए ।। ७१ ।। अइतिक्खकंटगाइम्मे, तुंगे सिंबलिपायवे ।
तिव्वचंडप्पगाढाओ, घोरात्रो अइदुस्सहा । खेवियं पासबद्धेणं, कडोकड्डाहि दुकरं ॥ ५२ ॥ महब्भयाओ भीमाओ, नरएसुं वेड्या मए ।। ७२ ।। महाजंतेसु उच्छू वा, पारसंतो सुभेरवं ।
जारिसा माणुसे लोए, ताया दीसंति वेयणा । पोलियो मि सकम्मेहिं, पावकम्मो अणंतसो ॥ ५३ ।।
इत्तो अणंतगुणिया, नरएसुं दुक्खवेयणा ।। ७३ ।। कूवंतो कोलसुणएहिं, सामेहिं सबलेहि य ।
सबभवेसु अस्साया, वेयणा वेइया मए । पाडिओ फालियो छिन्नो, विष्फूरंतो अणेगसो ॥५४॥
निमिसंतरमित्तं पि, जं साया नत्थि वेयणा ।। ७४ ॥
सूत्राण्येकत्रिंशत् प्रतीतान्येव । नवरम् , तद्-अनन्तरो असीहि अयसिवण्णेहिं, भल्लीहिं पट्टिसेहि य ।
क्रम् , (बिति) त्रुवन्तौ-अभिद्धती, अम्बापितरौ, प्रक्रमाछिन्नो भिन्नो विभिन्नो य, उववन्नो पायकम्मुणा ॥५॥ न्मृगापुत्र आह, यथा-एवमित्यादि, पठ्यते च-'सो बे. अवसो लोहरहे जुत्तो, जलंते समिलाजुए।
अम्मापियरो ! त्ति' स्पष्टमेव । नवरमिह अम्बापितरावित्या. चोइओ तुतजुत्तेहिं, रुज्झो वा जह पाडिओ ॥५६॥ मन्त्रणपदं, पठन्ति च-[ तो वेतऽम्मापियरो ति] (बिंति हुआसणे जलंतमि, चित्रामु महिसो विव ।
त्ति) वचनव्यत्ययात् ततो ब्रूते अम्बापितरौ मृगापुत्र इति दरो एक्को अ अवसो, पावकम्मेहि पावित्रो ॥१७॥
प्रक्रमः, ( एवमिति ) यथोक्नं भवद्भ्याम् , तथा- एतत् '
प्रव्रज्यादुष्करत्वं-यथा स्फुटम् सत्यतामनतिक्रान्तमवित. बला संडासतुंडे हिं, लोहतुडेहि पक्खिहिं ।
थमिति यावत् , तथाऽपि इहलोके निष्पिपासस्य-निःस्पृ. बिलुतो विलवंतोऽहं, ढंकगिद्धेहि ऽणतसो ॥५८।। हस्य , इहलोकशब्देन च तात्स्थ्यात्तद्यपदेश' इति तहाकिलंतो धावंतो, पत्तो वेयरणिं नई ।
कृत्वा ऐहलौकिकाः स्वजनधनसम्बन्धादयो गृह्यन्ते , ना
स्ति-न विद्यते , किञ्चित् अतिकष्टमपि शुभानुष्ठानमिजलं पाहंति चिंतंतो, खुरधाराहिं विवाइओ ॥ ५६ ।।
ति गम्यते । अपिः-संभावने, दुष्करम्-दुरनुष्ठेयम् , भोगाउण्हाभितत्तो संपत्तो, असिपत्त महावणं ।
दिस्पृहायावेवास्य दुष्करत्वादिति भावः । निःस्पृहताहेअसिपत्तेहिं पडतेहिं, छिन्नपव्वो अणगसो ॥६॥ तुमाह-शारीरेत्यादिना , तत्राप्याद्यसूत्रद्वयेन सामान्येन सुग्गरेहि भुसुंढीहिं, मलेहिं मुसलेहि य ।
संसारस्य दुःखरूपत्वमुक्रम् , इह च शरीरमानसयोर्भवाः
शारीरमानस्यो वेदनाः प्रस्तावादसातरूपाः, [दुक्खभयाणि गया संभग्गगत्तेहिं, पत्तं दुक्खं अणंतसो ।। ६१॥
यत्ति ] दुःखोत्पादकानि राजविड्वरादिमितानि, (भखुरेहि तिक्खधाराहिं, छुरियाहिं कप्पणीहि य ।
यानि ) दुःखभयानि, जरामरणाभ्यामतिगहनतया कान्तारं कप्पियो फालिओ छिन्नो, उकित्तो अअणेगसो। ६२। जरामरणकान्तरं तस्मिश्चत्वारो-देवादिभवा अन्ता-अवपासेहिं कूडजालेहिं, मित्रो वा अवसो अहं ।
यवा यस्यासौ चतुरन्तः-संसारः, तत्र सोढानि तदुत्थवेदनावाहिओ बद्धरुद्धो अ, विवसो चेव विवाइओ ।। ६३ ॥
सहनेनानुभूतानि, भीमानि-अतिदुःखजनकत्वेन रौद्राणि
शारीरमानस्यो वेदना यत्रोत्कृष्टाः सोढा यथेत्यादिभिः सूत्रैः, गलेहिं मगरजालेहिं, वच्छो वा अवसो अहं ।
तदाह-यथा-इह मनुष्यलोकेऽग्निरुष्णोऽनुभूयते अतःउल्लिो फालिओ गहिओ, मारिओ अ अणंतसो। ६४। इत्येवमनुभूयमानादनन्तगुणः, (तहिं ति) तेषु , येष्वहमुत्पन्न विदसएहिं जालेहिं, लिप्पाहिं सउणो विव ।। इति भावः, तत्र च बादराग्नेरभावात्पृथिव्या एव तथाविगहिओ लग्गो अबद्धो अ, मारिओ अ अणंतसो ॥६॥
धः स्पर्श इति गम्यते , ततश्चोष्णानुभवात्मकत्वेन , असाकुहाडपरसुमाईहिं, वड्डईहिं दुमो विव ।
तः-दुःखरूपा, वेदिता मया। पठन्ति च-(इत्तोऽणतगुणा तहिं
ति) अत्र च अतः-इहत्याग्नेरनन्तगुणा नरकेषूष्णा वेदना कुट्टिओ फालियो छिन्नो, तच्छित्रो अ अणंतसो ॥६६॥ घेदिता मयेति योज्यम् ॥ तथा इदम्-यदनुभूयते , इह-मनुचवेडमुट्ठिमाईहिं, कुमारेहि अयं पिव ।
प्यलोके शीतम्-तच्च माघादिसंभवं हिमकणानुषकमात्यताडियो कुट्टियो भिन्नो, चुमिओ अ अणंतसो ॥६७॥ न्तिकं परिगृहाते, इहापि पठन्ति-' एत्तोऽणतगुणा तहिं ति' तत्ताई तंबलोहाई, तउआई सीसगाणि य ।
प्राग्वत् । (कंदुकुम्भीसु) पाकभाजनविशेषासु लोहादिमयीषु, पाइप्रो कलकलंताई, आरसंतो सुभेरवं ॥ ६८ ॥
हुताशने अग्नी देवमायाकृते, महादवग्निना संकाशः-सहतुहप्पियाई मंसाई, खंडाई सुल्लगाणि य ।
शः, अतिदाहकतया महादवाग्निसङ्काशस्तस्मिन् , इह चान्य
स्य दाहकरस्यासंभवादित्यमुपमाभिधानम् , अन्यथेहत्याग्ने खाविओ मि समंसाई, अग्गिवपाइँऽणगसो ॥६६॥ | रनन्तगुण एत्र तत्रोष्णपृथिव्यनुभाव उक्तः । मरौ इति
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(२६८) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मियापुत्त मरुवालुकानिवह इव, तात्स्थ्यात्तव्यपदेशसंभवादन्तर्भूते वा.
ति योगः, कल्पितः वस्त्रवत् खरिडतः कल्पनीभिः, पाटिर्थत्वाच्चात एव वनवालुकानदीसम्बन्धिपुलिनमपि वज्रवा
तः-विधाकृतः,ऊर्ध्व छुरिकाभिः, छिन्नः-खण्डितः सुरैरिति । लुकाः तत्र, यद्धा-वज्रवद्वालुका यस्मिन् स तथा तस्मिन्नरकप्र.
पश्चानुपूर्ध्या सम्बन्धः, इत्थं च-( उक्कतो यत्ति) उत्क्रान्तदेश इति गम्यते, कदम्बवालुकायां च-तथैव कदम्बवालुका
श्वायुःक्षये मृतश्चेत्यर्थः, पाठान्तरतो वोत्कृतः त्वगपनयनेन नदीपुलिने च महादवाग्निसङ्काश इति योज्यते । ऊर्द्धम्-उप
प्रत्येकं वा चुरादिभिः कल्पितादीनां सम्बन्धः । पाशः-कूरि वृक्षशाखादी बद्धः-नियन्त्रितो, माऽयमितो नङ्गीदित्य- टजालैः प्रतीतैरेव बन्धनविशेषैः, अवशः-परवशः, वाहितःबान्धव इति च तत्राशरणतामाह.करपत्रम प्रतीतमा क
विप्रलब्धः, पठ्यते च-(गहितो ति) गृहीतो बद्धो बन्धचमपि तद्विशेष एव, (खेदियं ति) खिन्नम् खेदः, क्लेशोऽनुभू
नेन रुद्धो बहिःप्रचारनिषेधनन , अनयोर्विशेषणसमासः तः, क्षिपितं वा पापमिति गम्यते, (कडोकड्ढाहि ति)कर्षणा
(विवाइतो ति) विपादितो विनाशित इत्यर्थः, तथा-गलैःपकर्षणैः परमाधार्मिककृतैः, दुष्करम् इति-दुस्सहम् । (उ.
बडिशैः, मकरैः-मकराकारानुकारिभिः, परमाधार्मिकैः, जाकछू व ति) वाशब्दः उपमार्थे,तत इक्षुरिव, श्रारसन्-आक्र
लैश्च तद्विरचितैर्विक्रियैः, अनयोर्द्वन्द्वः-समूहवाची वा जालन्वन , स्वकर्मभिः-हिंसाधुपार्जितैः ज्ञानावरणादिभिः, पाप
शब्दः, तत्पुरुषश्च समासः । तथा-( उलिउ त्ति) पार्षत्वाद् कर्मा-पापानुष्ठानः । (कुवंतो त्ति)कूजन , (कोलसुणपहिं ति)
उल्लिखितो गलैः, पाटितो मकरहीतश्च जालैः । यद्वा-गृहीसूकरस्वरूपधारिभिः श्यामैः शबलैश्च परमाधार्मिकविशेषैः,
तोऽपि मकरजालैरेव, मारितश्च सर्वैरपि, विशेषेण दशन्ती पातितो भुवि, फाटितो जीर्णवस्त्रवत्, छिन्नो वृक्षवदुभय
विदंशकाः श्येनादयस्तैर्जालैः-तथाविधबन्धनैः [लेप्पाहि ति] दंष्ट्रादिभिरितिगम्यते । विस्फुरन्-इतस्ततश्चलन् ( अरसाहिं
लेपैर्वज्रलेपादिभिः श्लेषद्रव्यैः [ सउणो विव त्ति ] शकुन इव ति] प्रहरणविशषैः, पठ्यते च-(असीहिं ति] असिभिः--
पक्षीव गृहीतो विदंशकैर्जालैश्च लग्नश्च, लिटो-लेपद्रव्ये खङ्गः, अत एव-[अतसीति ] अतसीपुष्पम् , तद्वर्णाभिः
बद्धः तैर्जालैश्च, मारितश्च सर्वैरपि, कुट्टितः-सूक्ष्मखकृष्णाभिः, पट्टिशैश्व-प्रहरणविशेषैः, छिन्नः-द्विधाकृतः, भि
राडीकृतः पाटितश्छिन्नश्च प्राग्वत् , तक्षितश्च त्वगपनयनः-विदारितः, विभिन्नः-सूक्ष्मखण्डीकृतः । यद्वा-छिन्नः
नतो द्रुम इवेति सर्वत्रयोज्यम् । [चवेडमुट्टिमाईहिं ति] ऊर्ध्वम् ,भिन्नः-तिर्यग् ,विभिन्नः-विविधप्रकाररूर्ध्वम् ,तिर्यक
चपेटामुष्टयादिभिः, प्रतीतैरेव, कुमारैः अयस्कारैः [अयंच। अवतीर्णो-नरक इति गम्यते । पापकर्मणति हेतुदर्शनं पा- पि व ति] श्रय इव घनादिभिरिति गम्यते । ताडितः पानुष्ठानपरिहार्यताख्यापनार्थम् । लोहरथे-लोहमयशकटे, श्राहतः, कुट्टितः इह छिन्नः, भिन्नः खण्डीकृतः, चूर्णितः [जुत्तो ति ] युजेरन्तर्भावितण्यर्थत्वाद्योजितः परमाधा- लक्षणीकृतः,प्रक्रमात्परमाधार्मिकैः, तप्तताम्रादीनि वेक्रियाणि मिकैरिति सर्वत्र गम्यते । ज्वलति-दीप्यमाने कदाचिद्दाह- | पृथिव्यनुभावभूतानि वा कलकलंत त्ति अतिक्वाथतः कलकभीत्या ततो नश्येदपीत्याह-समिलोपलक्षितं युगं यस्मिन् लशब्दं कुर्वन्ति । तव प्रियाणि मांसानि खण्डरूपाणि (सोलस तथा, तत्र समिलायुते वा, पाठान्तरतश्च-ज्वलत्समिलायु. गाणि त्ति) भडित्रीकृतानि स्मारयित्वेति शेषः । स्वमांसानि गे, (चोइओ त्ति) प्रेरितः तोत्रयोक्त्रैः-प्राजनकबन्धनविशे- मच्छरीरादेवोत्कृत्योत्कृत्य दौकितानि, अग्निवर्णानि-अतितपैमाघटनाहननाभ्यामिति गम्यते, ' रोज्झः-पशुधिशेषः, CERIENयामात गम्यत, राजपथावर
ततयाऽग्निच्छायानि, सुरादीनि-मद्यविशेषरूपाणि, इहापि वा समुच्चये भिन्नक्रमः, यथा-ौपम्ये, ततो रोज्झव- स्मारयित्वेति शेषः [पजितो मि त्ति] पायितोऽस्मि [ जलंपातितो वा लकुटादिपिट्टनेनेति गम्यते, हुताशने ज्वलति- तीनो ति] ज्वलन्तीरिव ज्वलन्तीरत्युष्णतया, वशा रुधिक्वेत्याह-चितासु-परमाधार्मिकनिर्मितेन्धनसञ्चयरूपालु, | राणि च, ज्वलन्तीति लिङ्गविपरिणामेन सम्बन्धनीयम् । [महिसो विव ति] "पिव मिव विव वा इवार्थे" इति वचनात्, [णिश्चमित्यादि] नरकवक्तव्यतोपसंहर्तृसूत्रत्रयम् , अत्र च महिष इव, दग्धा-भस्मसात्कृतः, पक्वः-भटित्रीकृतः, [पा- भीतेन उत्पन्नसाध्वसेन, तथा असी उद्वेगे , अस्तेन उद्विग्नेवितो ति] पापमस्यास्तीति भूम्नि मत्वर्थीयष्ठक, प्रापिकः ।। नात एव दुःखितेन, संजातविविधदुःखेन , व्यथितेन च बलात्-हठात् , संदंशः-प्रतीतः , तदाकृतीनि तुण्डानि कम्पमानसकलाङ्गोपाङ्गतया चलितेन, दुःखसंबद्धेति वेदनामुखानि येषां ते संदशतुण्डास्तैः , तथा-लोहवन्निष्ठु-| विशेषणं सुखसम्बन्धिन्या अपि वेदनायाः सम्भवाद् , वेदिते रतया तुण्डानि येषां ते तैलॊहतुण्डैः [ पक्खिहिं ति ]| ति चानुभूता, तीवा अनुभागतोऽत एव चण्डाः-उत्कटाःप्र. पक्षिभिर्दगृद्धैरिति योगः, एते च वैक्रिया एव , गाढाः-गुरुस्थितिकास्तत एव घोरा:-रौद्राः अतिदुस्सहाः तत्र तिरश्चामभावात् , विलुप्तः-विविधं छिन्नः, तस्य चैवं | अत्यन्तदुरध्यासास्तत एव च महद भयं यकाभ्यस्ता महाकदर्यमानस्य तृहुत्पत्ती का वार्तेत्याह-तृष्णया क्लान्तो भयाः । पठयते च-महालयाः महत्यः, भीमाः-श्रूयमाणा ग्लानिमुपगतस्तृष्णाक्लान्तः, [ पाहंतीति ] पास्यामीति अपि भयप्रदाः, एकाथिकानि वैतान्यत्यन्तभयोत्पादनायोचिन्तयन् , [ खुरधाराहि ति] क्षरधाराभिरतिच्छेदकतया कानि, इह च वेदना इति प्रक्रमः ॥ कथं पुनस्तस्यास्तीवादिवैतरणीजलोर्मिभिरिति शेषः, विपाटितः, पाठान्तरतश्च वि. रूपत्वमित्याशङ्कच 'जारिसे' त्यादिना इहत्यवेदनापेक्षया पादितः' व्यापादित इत्यर्थः, उष्णेन-वज्रवालुकादिसम्बन्धि- नरकदुःखवेदनाया अनन्तगुणत्वमाह, [वेयण त्ति] प्रक्रमाद् ना तापेन,प्राभि-श्राभिमुख्येन तप्त उष्णाभितप्तः, संप्राप्तः,प्र. दुःखवेदना । न केवलं नरक एब दुःखवेदना मयाऽनुभूता सयः-खगाः, तद्भेदकतया पत्राणि पर्णानि यस्मिस्तदसि- किन्तु-सर्वास्वपि गतिष्विति पुनर्निगमनद्वारेणाह-सवे' पत्रम्। मुद्रादिभिः-आयुधविशेषैः, गता-नष्टा, आशा-प. त्यादिना, इह च असाताः-दुःखरूपा, निमेष:-अक्षिनिमीलरित्राणगोचरमनोरथात्मिका यत्र तद्गताशं यथा भवत्ये- नम् तस्यान्तरं व्यवधानं यावता कालेनासी भूत्वा पुनर्भवति वम् , [भग्गगत्तेहि ति] भग्नगात्रेण सता प्राप्त दुःखमि- तन्मात्रमपि-तत्परिमाणमपि कात्वमिति शेषः । यद् इति]
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२६ ) मियापुत्त अभिधानराजेन्द्रः ।
मियापुत्त यस्मात् , साता सुखरूपा नास्ति वेदना, तत्त्वतो वैषयिकसु-| तपसा चेति , धर्मचरणहेतुः । यदा-श्रातः-श्राशुधाती खमसुखमेव, ईर्ष्याद्यनेकदुःखानुविद्धत्वाद्विपाकदारुणत्वाच्च । रोगो , महारण्य इति-महाग्रहणममहति हरण्येऽपि कसर्वस्य चास्य प्रकरणस्यायमाशयः-य एवमहं निमेषान्तर- | श्चित्कदाचित्पश्यत् , दृष्टा च कृपातश्चिकित्सेदपि , श्रूयते मात्रमपि कालं न सुखं लब्धवान् स कथ तत्त्वतः सुखोचितः | हि-केनचिद्भिपजा व्यावस्य चक्षुरुद्वाटितमटव्यामिति , सुकुमारो वेति शक्यतेवनम्?,येन च नरकेष्वत्युष्णशीतादयो वृक्षमूल इति-तथाविधावासाभावदर्शनम् , ( को णं ति ) महावेदना अनेकशः सोढास्तस्य महाव्रतपालनं क्षुदादिस
'अवा सन्धिलोपो बहुलम्' इति वचनाद् अज्लोपे, क एनम् हनं वा कथमिव वाधाविधायि?, तत्वतस्तस्य परमानन्दहे- | तदा-पातकोत्पत्तिकाले , चिकित्सति-औषधाधुपदेशन तुत्वात्,तत्प्रवज्यैव मया प्रतिपत्तब्येत्येकत्रिंशत्सूत्रावयवार्थः। नीरोगं कुरुते ? , न कश्चिदित्यर्थः , चिकित्सके चासति तत्रैवमुक्त्वोपरते
को वेति-वाशब्दः समुचये , औषधं ददातीत्येवमुत्तरोतं वितऽम्मापियरो, छंदेणं पुत्त ! पब्धया।
त्तराप्राप्तिरुपदर्शनीया ॥ (श्राहरितु ति) श्राहस्य , पणानवरं पुण सामो, दुखं निप्पडिकम्मया ।।७५॥
मयेत-अर्पयेत् “ अर्पः पणामः " इति वचनात् ॥
कथं तर्हि तस्य निर्वहणम् ? , इत्याह-यदा स सुखी तम्-मृगापुत्रं ब्रूतोऽम्बापितरौ, छन्दः-अभिप्रायस्तेन स्व
भवति , स्वत एव रोगाभाव इति गम्यते , गच्छकीयेनेति गम्यते, किमुक्तं भवति ?-यथाऽभिरुचितं पुत्र !
ति-याति गौरिव परिचितेतरभूभागपरिभावनारहितप्रव्रज-प्रवजितो भव, 'नवरम्' इति-केवलम् , पुनः विशे
त्वेन , चरणम्-भ्रमणमस्मिन्निति गोचरस्तं भक्तमिवपणे, श्रामण्ये-धमणभावे, दुःखम्-दुःखहेतुः, निष्पतिकर्मता कथञ्चिद्रोगोत्पत्ती चिकित्साऽकरणरूपा इति सूत्रार्थः ।
भक्तं तद्भक्ष्यम् तृणादि , तश्च पानं च भक्तपानं, तस्य अइत्थं जनकाभ्यामुक्त
र्थाय प्रयोजनाय , गोचरमेव विशेषत आह-वलराणि
गहनानि , उफ्नं च-" गहणमवाणियदेसं रराणे छेत्तं च सो वितऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं ।
वल्लरं जाण " सरांसि च-जलस्थानानि, खादित्वा निजभपरिकम को कुणई, अरमे मिगपक्खिणं ? ॥ ७६ ।। क्ष्यमिति गम्यते, वलरेषु सरःसु वेति सुष्व्यत्ययेन नेयम् . एगभूयो अरम्मे वा, जहा ऊचरई मिगो।
तथा मृगाणां चर्या-इतश्चेतश्चोत्प्लवनात्मकम् चरणं मृ
गचर्या ताम् , मितचारितां वा परिमितभक्षणात्मिकाम् , एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ।। ७७ ॥
चरित्वा-श्रासेव्य, परिमिताहारा एव हि स्वरूपेणैव मृगा जया मिगस्स आयको, महारगणंमि जायई ।
भवन्ति , विशेषाभिधायित्वाच्च न पौनरुक्त्यम् , ततश्च अच्छंतं रुक्खमूलंमि, को णं ताहे चिगिच्छई ? ।। ७८ ॥ गच्छति-याति , मृगाणां चर्या चेष्टा , स्वातन्मयोपवेको वा से ओसहं देइ, को वा से पुच्छई सुहं । शनादिका यस्यां सा मृगचर्या-मृगाश्रयभूस्ताम् । अनेन को से भत्तं व पाणं वा, आहरित्तु पणामई १॥७६ ।।
च सूत्रपञ्चकेन दृशन्त उक्तः , उत्तरेण सूत्रद्वयेनात्मन्येतदु
पसंहारः , इह च- 'एव' मिति मृगवत्समुत्थितः-संयमाजया य से सुही होइ, तया गच्छइ गोअरं ।
नुष्ठानम् प्रत्युद्यतस्तथाविधाऽऽतकोत्पत्तावपि न कश्चित् भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य ॥८॥ चिकित्साऽभिमुख इति भावः । एवमेव-मृगवदेव , ( अखाइत्ता पाणियं पाउं, बल्लरेहिं सरेहि य ।
णगय त्ति) अनेकगो यथा ह्यसौ वृक्षमूले नैकस्मिन्नेवामिगचारियं चरित्ता णं, गच्छई मिगचारियं ॥१॥
स्ते-किं तु-कदाचित्वचिदेवमेषोऽप्यनियतस्थानस्थतया ,
पठ्यत च-[अणिएयणे ति] अनिकेतनः , अगृहः , स एवं समुट्ठिए भिक्खू , एवमेव अणेगए ।
चैवं मृगचर्या चरित्या मृगवदातकाभावे भक्तपानार्थ गोचरं मिगचारियं चरित्ता णं, उट्ठे पक्कमई दिसं ॥२॥ गत्वा तल्लब्धभक्तपानोपष्टम्भतश्च विशिष्टसम्यग्ज्ञानादिभाजहा मिए एग अणेगचारी,
वतः , शुक्लध्यानारोहणादपगताशेषकर्माश ऊध्र्व दिश
मिति सम्बन्धः । प्रकर्षेण कामति-गच्छति प्रक्रामति , अणेगवासे धुवगोअरे ।
किमुक्तं भवति ?- सर्वोपरिस्थानस्थितो भवति , निएवं मुणी गोयरियं पविटे,
वृत इति यावत् , एवं च निर्वृतिरेवेह मृगचनो हीलए नो विय खिसइजा ॥८३॥ योपमार्थत उक्ना , तत्र हि मृगोपमा मुनय इत इतस इति-युवराजः, (बिंति त्ति) आपत्वाद् बेते अम्बा
श्वाप्रतिबद्धविहारितया विहृत्य गच्छन्तीति ॥ मृगचपितरौ , यथैतनिष्प्रतिकर्मतया दुःखरूपत्वं युवाभ्यामुक्तं
र्यामेव स्पष्टयितुमाह-यथा मृगः ( एग त्ति ) एकः-- यथा स्फुटमिति प्राग्वत्, परं परिभाव्यतामिदम्-परिक
द्वितीयः, अनेकचारी-नैकत्रैव भक्तपानार्थ चरतीत्येवं र्म-रोगोत्पत्ती चिकित्सारूपं, कः करोति !, न कश्चिदि
शीलः, अनेकवासः-नैकत्र वास:--अवस्थानमस्यास्तीति, त्यर्थः, क?-अरण्ये, केषां ?, मृगपक्षिणाम् , अथ चैते - | ध्रवगोचरश्च-सर्वदा गोचरलब्धमेवाहारमाहारयतीति , पि जीवन्ति विचरन्ति च , ततः किमस्या दुःखरूपत्व- एवम् मृगवदेकत्वादिविशेषणविशिष्टो मुनिः, गोचयाम्मिति भावः, यतश्चैवमतः--'एगेत्यादि ' सर्व स्पष्टमेव ।। भिक्षाटनम् , प्रविणो न हीलयद-श्रवजानीयात् , कदशनवरम , एकभूतः--एकत्वं प्राप्तोऽरण्ये (वेति) वा पूरणे, | नादीप्ति गम्यते, नापि च ( खिसपज त्ति ] निन्देत्तथा(जहा उ ति ) यथैव , एवमिति-एकभूतः , संयमेन-- I विधाहाराप्राप्ती स्वं परं वा इह च मृगपक्षिणामुभये
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( ३०० अभिधानराजेन्द्रः ।
मियाga
धामुपक्षेपे यन्मृगस्यैव पुनः पुनर्दृष्टान्तत्वेन समर्थनं तन्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदाय इति सूत्राएकार्थः ।
एवं मृगचर्या स्वरूपमुक्त्वा यत्तेनोक्तं यच्च पितृभ्यां पितृवचनानन्तरं च यदसौ कृतवांस्तदाह-मिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता ! जहासुरं । अम्मापिऊ माओ, जहाइ उवहिं तत्र ॥ ८४ ॥ मिगचारियं चरिस्सामो, सव्वदुक्खचिमुक्खगि । भेहिं अम्ब! माओ, गच्छ पुत्त ! जहासुहं ॥ ८५॥ एवं सोऽम्मापियरं, अणुमारित्ताण बहुविहं । ममत्तं छिंदई ताहे, महानागु व्व कंचुयं ॥ ८६ ॥ हड्डी वित्तं च मित्ते य, पुत्तदारं च नायओ । रेणु व पडे लग्गं, निडुणित्ताण निग्गओ ॥ ८७ ॥ गाथाचतुष्टयं स्पष्टमेव । नवरम्, मृगस्येव चर्या चेष्टा, मृगचर्या तां निष्पतिकर्मतादिरूपां चरिष्यामीति, बलश्रिया युवराजेनोक्ते पितृभ्यामभाणि - एवं यथा भवतोऽभिरुचितं तथा यथासुखं तेऽस्त्वति शेषः, एवं चानुज्ञातः सन् जहाति-त्यजसि, उपधिम्-उपकरणमाभरणादि, द्रव्यतोः भावतस्तु-यादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रव्रजतीत्युक्तं भवति । उक्तमेवार्थे सविस्तरमाह - (सव्वदुक्खविमोक्खाण ) सकला सातविमुक्तिहेतुम् ( तुम्भेहिं ति ) युवाभ्यामम्ब ! उपलक्षणत्वात् पितश्च अनुज्ञातः अनुमतः सन्तावाहतुःगच्छ मृगचर्ययेति प्रक्रमः, पुत्र ! यथासुखम्-सुखानतिक्रमेण, अनुमन्य - श्रनुज्ञाप्य, ममत्वम् - प्रतिबन्धम्, छिनति-पनयति, महानाग इव कञ्चुकम, यथाऽसावतिजरठतया चिरप्ररूढमपि कञ्चुकमपनयति एवम सावपि ममत्वमनादिभवाभ्यस्तमुपलक्षणत्वात् मायादींश्च ॥ श्रनेनान्तरोपधित्याग उक्तः, बहिरुपधित्यागमाह ऋद्धिम् - करितुरगादिसम्पदम्, वित्तम्- द्रव्यम् (गायओ त्ति) ज्ञातीन् -सोदरादीन्, (गि
सिति ] निर्द्धयेव निर्द्धय त्यक्त्वेति यावत् निर्गतःनिष्क्रान्तो गृहादिति गम्यते, प्रवजित इति योऽर्थः । इति सूत्रचतुष्टयार्थः ।
नमेवार्थ स्पष्टयितुमाह निर्युक्लिकृत्नाऊण निच्छयमई, एव करेहि त्ति तेहि ँ सो भणियो । धनोऽसि तुमं पुत्ता !, जंसि विरतो सुहसएसु ॥ ४१५|| सीहत्ता निक्खमिउं, सीहत्ता चैव विहरसु पुत्ता ! | जह नवरि धम्मकामा, विरत्तकामा उ विहरति ॥४१६॥ नाणेण दंसणेण य, चरित्ततवनियमसंजमगुणेहिं । खंती मुत्तीए, होहि तुमं वद्रुमाणो उ ।। ४१७ ।। संवेगज हिासो, मुक्खगमणबद्धचिधसन्नाहो ।
अम्मापिऊण वयणं, सो पंजलिओ पडिच्छी य ।। ४१८ ॥ गाथाचतुष्टयं पाठसिद्धमेव, नवरमाद्यगाथात्त्रयेण एवं पुत्र ! यथासुखम् इत्येतत्सूचितार्थाभिधानतो व्याख्यातम्, चतुर्थगाथया स्ववशिष्टसूत्रं भावार्थाभिधानतः, सुखशतेभ्य इति ।
मियापुत्त
बहुत्वोपलक्षणं शतग्रहणम्, ( सीहत्ता इति ) सिंहतया नि ष्क्रम्य - प्रव्रज्य सिंहतयैव विहर पुत्र ! इति जात !, किमुलं भवति ? - यथा सिंहः स्वस्थानादिनिरपेक्ष एव निष्क्रामति, frost a तथैव निरपेक्षवृत्त्या विहरति, एवं त्वमपि विहरेति, 'नवरे' ति परं धर्म एव कामः - श्रभिलाषो येषां ते धर्मकामाः, 'विरत्तकामे' ति प्राग्वत् कामविरक्ताः - विषयपराङ्मुखाः, 'चरित्रतपोनियमसंयमगुणै' रित्यत्र चारित्रान्तर्गतवे ऽपि तपःप्रभृतीनामुपदेशात्सामान्यविशेषयोश्च कथञ्च नित्वाश्च न पौनरुक्तत्यम्, तथा संवेगो-मोक्षाभिलाषस्तेन जनितो हासो - मुखविकाशत्मकोऽस्येति संवेगजनितहास:मुक्त्युपायोऽयं दीक्षेत्युत्सवमिव तां मन्यमानः प्रहसितमुख इत्यर्थः पठन्ति च - ( संवेगजयिसद्धो त्ति ) स्पष्टमेव, तथा मोक्षो - मुक्तिस्तद्गमनाय बद्धमिति धृतं चिह्नं धर्मध्वजादि, तदेव सन्नाहो- दुर्वचनशरप्रसरनिवारकः क्षान्त्यादिर्वा येन स तथा ( पङिच्छीय त्ति ) प्रत्यैषीत्, प्रतिपनवानिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥
ततोऽसौ कीटक सञ्जात इत्याहपंचमहव्वयजुत्तो, पंचसमितिगुत्तिगुत्तो । सभितरबाहिरिए, तवोकम्मंमि उज्जुओ ॥ ८८ ॥ निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चतगावो । समोसव्वभूएस, तसेसु ावरे || ८ || लाभालाभे मुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, तहा माणायमाणओ ॥ ६० ॥ गारवेसु कसाए, दंडसल्लभए । नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अबंधणो ॥ ६१ ॥
सिम इहं लोए, परलोए अणिसिश्रो । वासी चंदकप्पो अ असणेऽणस तहा ॥ ६२ ॥ असत्थेहि दारेहिं सव्वश्रो पिहियासवो । अप्पा जोगेहिं, पसत्थदमसासणो ॥ ६३ ॥ सूत्रबद्धं निगदसिद्धमेव । नवरम (सब्भितरबाहिरिए त्ति ) सहाभ्यन्तरैः- प्रायश्चित्तादिभिर्वाद्यैश्च - अनशनादिभिर्भेदैर्वर्त्तत इति सवाह्याभ्यन्तरं तस्मिन् प्रधानत्वाच्च प्रथममभ्यन्तरोपादानम् । 'निर्ममाः' - ममत्वबुद्धिपरिहारतः निस्सङ्गः-सङ्गहेतुधनादित्यागतः, समश्च न रागद्वेषवान्निर्ममत्वादेरेव ॥ लाभेत्यादिना समत्वमेव प्रकारान्तरेणाह, श्रत्र व 'समः' न लाभादौ चित्तोत्कर्षभाग् नाप्यलाभादौ दैन्यवान्, जीविते मरणे समो, नैकत्राप्याकाङ्क्षावान्, [माणावमाणओ ति] मानापमानयोः, गौरवादीनि सूत्रे सुब्वयत्ययेन सप्तम्यन्ततया निर्दिशनि पञ्चम्यन्ततया व्याख्येयानि निर्वृत्त इति च सर्वत्र सम्बन्धनीयम् अबन्धनः- रागद्वेषवन्धनरहितः । श्रत एव अनिश्रितः -- इहलोके परलोके वाऽनिश्रितो नेह लोकार्य परलोकार्थ वाऽनुष्ठानवान्, 'गो इह लोगट्टयाए तबमहिजा नो परलोगट्टयाए तवमहिट्टेज़ा 'इत्याद्यागमात् । पुनरनिथिताभिधानं च मन्दमतिविनेयानुग्रहार्थम दुष्टमेव वासचन्दनकल्प इत्यनेन समत्वमेव विशेषत श्राह वासीचन्दनशब्दाभ्यां च तद्व्यापारक पुरुषावुपलक्षितौ
, ततश्च
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मिला
मियापुत्त
अभिधानराजेन्द्रः। यदि किलैको वास्या तक्ष्णोति, अन्यश्च गोशीर्षादिना च-| गइप्पहाणं च तिलोअविस्सुतं ।। ६७ ॥ न्दनेनालिम्पति , तथाऽपि रागद्वेषाभावतो द्वयोरपि तुल्यः,
वियाणिया दुक्खचिवड्डणं धणं, कल्पशब्दस्यह सहशपर्यायत्वात् , 'अनशने ' इति च न-| आऽभावे कुत्सायां वा, ततश्चाशनस्य-भोजनस्याभावे कु
ममत्तबंधं च महाभयावहं । त्सिताशनभाये वा कल्पः, इह चेष्टितोऽधिकाराणां प्रवृत्ति- सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, रिति पूर्वत्र समस्तमपि कल्प इत्यनुवर्त्तते, अप्रशस्तेभ्यः-प्र- धारेह निव्याणगुणावहं महं ।। १८ || ति बेमि ॥ शंसाउनास्पदेभ्यः, द्वारेभ्यः-कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादि-| सूत्रद्वय निगदसिद्धमेघ, नवरम्, मृगापुत्रस्य भाषितं-संभ्यः, सर्वतः-सर्वेभ्यो य आश्रवः-कर्मसंलगनात्मकः स पि- सारदुःखरूपतावदकं यनेन पित्रोः पुरत उक्तम् , प्रधानं तपो हितः-तद्वारस्थगनतो निरुद्धो येनासौ पिहिताश्रवः,सापे- यत्र चरिते तत्प्रधानतपो, व्यत्ययनिर्देशश्च प्राग्वत् ,चरितंच. क्षस्यापि गमकत्वात् समासः, यद्वा-प्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः स- चेप्रितम् [गतिप्पहाणं च इति ] प्रधानगतिं च मुक्तिमिति वेभ्यो निर्वृत्त इति गम्यते, अत एव पिहिताश्रयः,कैः पुनरय- योऽर्थः,त्रिलोकविश्रुताम् जगत्रितयप्रतीताम्. अनेन च फल मेवंविधः?-अध्यात्मेत्यात्मनि ध्यानयोगा:-शुभध्यानव्यापा
लिप्सवो हि प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्त इति काचा फलमाह । एतरा अध्यात्मध्यानयोगास्तैः, अध्यात्मग्रहणं तु परस्थानां ते- निशमनाच्च ममत्वं बन्ध इव सत्प्रवृत्तिविघातितया ममत्वषामकिञ्चित्करत्वाद् , अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् , प्रशस्तः-प्रशंसा बन्धस्तं च, महाभयावहं तत एव चौरादिभ्यो महाभयावाप्तेः स्पदो , दमश्च-उपशमः शासनं च-सर्वशागमात्मकं यस्य | धर्मो धृरिव महासत्त्वैरुह्यमानतया धर्मधुरा-महावतपञ्चकास प्रशस्तदमशासन इति सूत्रषट्कार्थः।।
त्मिका तां, तथा निर्वाणगुणा-अनन्तज्ञानदर्शनवीर्यसुखादयः सम्प्रति तत्फलोपदर्शनायाह
स्तदावहां-तत्प्रापिका धर्मधुराम् धारयतेति सम्बन्धः । इह एवं नाणेण चरणेण, दसणेण तवेण य ।
च निर्वाणगुणावहत्वं सुखावहत्वे हेतुः [ महं ति ] अपरिमिभावणाहिं विसुद्धाह, सम्म भावितु अप्पयं ॥ १४॥
तमाहात्म्यतया महती सूत्रत्वाच्चैवं निर्देश इति सूत्रद्वयार्थः ।
इतिः परिसमाप्ती ब्रवीमीति पूर्ववत् , उक्नोऽनुगमः । सम्प्रति बहुयाणि उ वासाणि , सामन्नमणुपालिया । नयास्तेऽपि प्राग्वदेव । उत्त०१६ अ०। मासिएण उ भत्तेणं, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ।। ६५॥ मियासण-मगासन-न० । आसनभेदे, येषामधो मृगा व्यसूत्रद्वयमुत्तानार्थमेव, नवरम् , भावनाभिः-महावतसम्ब
वस्थिता भवन्ति । जं० १ वक्षः। धिनीभिर्वक्ष्यमाणाभिरनित्यत्वादिविषयाभिर्वा,विशुद्धाभिः
मिताशन-त्रि० । मितभोक्तरि, दश०८ अ० । निदानादिदोषरहिताभिर्भावयित्वा-तन्मयतां नीत्वा (अप्प
मिरित्रा-देशी-कुटयाम् , दे० ना०६ वर्ग १३२ गाथा। ये ति ) आत्मानम् , (मासीपणा उ भत्तेणं ति) मासे भवं मासिकं तेन, तुः पूरणे , भक्लेन-भोजनेन मासोपवासोपल- मिरिय-मरिच-पुं० । इः स्वप्नादौ ॥८॥१॥४६॥ इत्यादरस्येत्त्वम् , क्षकत्वादस्य मासोपवासेनेति यावत् , सिद्धिम्-निष्ठितार्थ- प्रा० । स्वनामख्याते वृक्षे, वाच । श्राचा०२ श्रु० १ चू०१ ताम्, सकलकर्मक्षयेणेति गम्यते, अनुत्तराम्-सकलसि- | अ०८ उ०। द्धिप्रधानाम् , अनेनाञ्जनसिद्धयादि व्यवच्छेदमाहेति सूत्र
मिलक्खु-म्लेच्छ पुं० । अव्यक्तभाषासमाचारेषु, ‘म्लेच्छ' द्वयार्थः ।
अव्यक्तायां वाचि इति वचनात् । भाषाग्रहणं चोपलक्षणम् , "इही" त्यादिसूत्रकदम्बकस्य तात्पर्यार्थमाह नियुक्तिकृत्
तेन शिष्टासंमतसकलव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपत्तव्यम् । इड्डीए निक्खंतो, काउं समणत्तणं परमघोरं ।
प्रशा०१ पद । सूत्र० । आर्यदेशोत्पन्नोक्लस्यानुवादकोऽपरिक्षातत्थ गयो सो धीरो, जत्थ गया खीणसंसारा ॥४१६॥ तशब्दार्थो म्लेच्छः । उक्तं चसुगमैव नवर,ऋद्ध्या-दीनानाथदानादिकया विभूत्या नि
" मिलक्खु अमिलक्बुस्स, जहा वुत्ताणुभासए । कान्तः सन् परमधोरम्-कातरजनातिशयदुरनुचरं,यत्र गताः ण हेउं से वियाणाइ, भासियं वाणुभासए ॥१॥ क्षीणसंसारा इति मोक्ष इत्यभिप्राय इति गाथाऽवयवार्थः।
एवमन्नापिया नाणं, बयंता भासियं सयं । साम्प्रतं सकलाध्ययनार्थोपसंहारद्वारेणोपदिशन्नाह सूत्रकृत्- निच्छयत्थं न जाणंति, मिलक्खु ब्व अबोहिए ॥२॥" एवं करति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा ।
नं०। [वर्वरशवरपुलिन्दादिकाः 'अणारिय' शब्दे प्रथमभाविणियटृति भोगसु, मियापुत्ते जहामिसि ॥६६॥ गे ३१६ पृष्ठे उक्ताः ] व्याख्यातप्रायमेव, संगता प्रज्ञा येषां ते संप्रज्ञाः, संपन्ना वा मिलक्खुभासाविसारय-म्लेच्छभाषाविशारद-पुं०। अनार्यज्ञानादिभिः (जहामिसि त्ति) मकारोऽलाक्षणिको यथेत्या- भाषानिपुणे, श्रा००१ अ०। पम्याभिधायी, ऋषिः-मुनिः इति सूत्रावयवार्थः ।
मिला-म्ल-धा० । हर्पक्षये, । स्वरादनतो वा ॥।४।२४०॥ इत्थमम्योक्त्योपदिश्य पुनर्भङ्गयन्तरेणोपदिशन्नाह
अकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरन्तेऽकारागमो वा भवति । महप्पभावस्स महाजसस्स,
मिलाइ । मिलाइ । म्लायति । प्रा० । म्लेर्वा-पवायौ ।।४ मियाइपुत्तस्स निसम्म भासियं ।
। १८॥ म्लायतेः वा-पब्वाय इत्यादेशी वा भवतः । पक्ष-बातवप्पहाणं चरियं च उत्तम,
इ[ पब्बाबद । प्रा०।
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(३०१) मिलाण अभिधानराजेन्द्रः।
मिहिला मिलाण-म्लान-त्रि० । म्लानियुक्ते, वाच । लात् ॥ ८।२। धर्मः-प्रवृत्त्यादिरूपः, अर्थो-विद्यादिः, कामः-इच्छा मद१०६ ॥ संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनालापूर्व इद्भवति । मिलाइ। मि-| नादिः, उपदिश्यते-कथ्यते, यत्र सूत्रकाव्येषु-सूत्रेषु काव्येषु लाणं । प्रा०।" पव्वायं वसुश्राय, सुसिभ वायं मिलापत्थे" | च-तल्लक्षणवत्सु, क्वेस्याह-लोके-रामायणादिषु, वेदेपाइ० ना०८३ गाथा।
यक्रियादिषु , समये-तरङ्गवत्यादिषु , सा पुनः कथा मिलायमाण-म्लायमान-त्रि म्लानि गच्छति, स्था० ३ मिश्रा-मिश्रानाम,संकीर्णपुरुषार्थाभिधानाद। इति गाथार्थः। अ०३ उ०।
दश० ३ अ०। मिलिच्छ-म्लेच्छ-पुं० । इस्वः संयोगे॥१४॥ दीर्घ- मिस्सकेसी-मिश्रकेशी-स्त्री०। श्रौत्तराहरुचकपर्वतवास्तव्या स्य यथादर्शनं संयोगे परे इस्वो भवति । मिलिच्छे । अना-|
यां दिक्कुमार्याम् , श्रा० चू०१०। द्वी० । जं०। ये, प्रा०१ पाद।
| मिस्सवल्ली-मिश्रवल्ली-स्त्री० । जनकसंबन्ध्यादिषु, व्य० । मिलिय-मिलित-त्रि० सहिते, स्था० १० ठा० । व्य० । समु.
संप्रति मिश्रवल्लीप्रतिपादनार्थमाहदिते, विशे० । विभक्ने, व्य० उ० । अनेकशास्त्रसंबन्धीनि माउम्माया पिया भाया, भगिणी एवं पिऊण वि । सूवारयेकत्र मीलयित्वा यत्र पठति तम्मिलितमसदृशधान्य
पुत्तो धूया य तहा, भाउयमादी चउएहं पि ॥१३६ ।। मेलकवद् । अथवा-परावर्तमानस्य यत्र पदादिविच्छेदो न प्रतीयते तन्मिलितम् । अनु०। श्रा०म० ।
अद्वैव पज्जयाणं, चउवीसं भाउभगिणिसहियाणि । मिव-अव्य० । इवशब्दार्थे, मिव पिव विव व्व व विश्र इवा- एवं इच्चिय माउल-सुयादो परयरा वल्ली॥ १३७ ॥ थे वा ॥ ८।२।१८२॥ एते इवार्थे अव्ययसंशकाः प्राकृतेवा मातुओतारपितारभ्राताभगिनीच,एवं पितुरपि चत्वारि प्रत्युज्यन्ते । कुमुग्रं मिव । प्रा०१ पाद।
वक्तव्यानि । तद्यथा-माता पिता भ्राताभगिनी च । भ्रात्रादीनां मिस-मिष-न । छले, “छलं अवएसो निहं च मिसं" पाइ० चतुर्णा प्रत्येकं द्वौ द्वौ द्रष्टव्यौ । तद्यथा-पुत्रो.दुहिता च। भ्रातुः ना० १४२ गाथा।
पुत्रो दुहिता, भगिन्या अपि पुत्रो दुहिता च, अष्टौ च प्रार्यमिसमिसंत-मिसमिसत्-त्रि०। चिकचिकायमाने,ौ० । देदी
काणि भ्रातृभगिनीसहितानि । तद्यथा-मातामह्या अपि-माता
पिता भ्राता भगिनी । पितामहस्यापि माता पिता भ्राता भप्यमाने, कल्प०१ अधि० १ क्षण । रा० । औ० । तं । श्रा०
गिनी । सर्वसंख्यया मिश्रकाणां चतुर्विंशतिः अष्टावार्यकाणि, भ० । शा० । मिसमिसीति मिलन्तः शब्दं कुर्वन्तः कृमयो यत्र अष्टौ प्रार्यकाणि, अष्टौ च मात्रादिचतुष्टयस्य प्रत्येकं द्विधातम्मिसमिसत्कृमिकम् । तं० ।
भवनाद् । तथा च-पतावत्येव मिश्रवल्ली । मातुलसुतादयः मिसमिसीमाण-त्रि० । देदीप्यमाने, सा० १७० ११० । को- परतरा वल्ली । ते च मातुलसुतादयो यदि तमपि धारयन्ति
धाग्निना दीप्यमाने, भ० ७ श० उ. । क्रोधज्वालया ज्व- तदा स लभते,अथाचार्यमभिधारयन्ति तदा आर्चायस्य । ये लिते, नि०१ श्रु०१ वर्ग १ अ०। विपा।
पुनः परतरे स्वजना ये चान्ये ते सर्वेऽनभिधारयतो वा मिस्स-मिश्र-धा० । संयोजने, मिश्रेर्वीसाल-मेलचौ ॥८॥४॥ आचार्यस्य वा भवन्ति । व्य० १० उ०। २८ ॥ मिश्रयतेर्यन्तस्य वीसाल-मेलवौ आदेशौ वा भवतः। मिस्सीभाव-मिश्रीभाव-पुं० । गृहस्थपरिव्राजकादीनां सहवीसालइ । मेलवइ । मिस्सइ । प्रा०४ पाद ।
वसतौ , प्राचा० २ थु० १ चू० १ ० ३ उ० । द्रव्यतो लिङ्ग मिश्र-न० । संभोगोत्पन्ने पक्षकर्दमादिके गन्धकरतूर्यादिके,
मात्रसद्भावाद् , भावतो गृहस्थसमकल्पत्वात् । सूब०१ श्रु० तं० । सम्यमिथ्यादृष्टिगुणस्थाने, प्रव० २२४ द्वार । संयुक्ने, ४ अ०१ उ०। उत्त०१०।
भिहिया-देशी-मेघसमूहे , दे० ना०६ वर्ग १३२ गाथा । मिस्सकहा-मिश्रकथा-स्त्री०। संकीर्णपुरुषार्थाऽभिधायके वि
| मिहिया-मिहिका-स्त्री० । प्रालेये , स्था० १० ठा० । शिशिराकथाभेदे, द्वा०।
दौ वातेरिते हिमकणे , सूत्र.२ ७० ३ अ०। धर्मार्थकामाः कथ्यन्ते, सूत्रे काव्ये च यत्र सा। मिहिला-मिथिला-स्त्री०। विदेहजनपदप्रतिबद्धे पुरीभेदे , मिश्राख्या विकथा तु स्याद् ,भक्तस्त्रीदेशराड्गता॥२०॥ सू० प्र० १ पाहु० । जं । भ० । श्रा० म०। सूत्र । उत्तः । (धर्मेति )यन सूत्रे काव्ये च धर्मार्थकामा मिलिताः कथ्य
प्रव०। प्रज्ञा० । स्था। न्ते, सा मिश्राख्या कथा, संकीर्ण पुरुषार्थाभिधानात् । विक
श्रीमल्लिनििजणाणं, पयपउमं पणमिऊण सुरपणयं । था कथालक्षणविरहिता तु स्याद । भक्करबीदेशराङ्गता भक्का
मिहिलामहापुरीए, कप्पं जपामि लेसेणं ॥१॥ दिविषया । यदाह--" इत्थिकहा भत्तकहा, रायकहा चोर
इहेव भारहे वासे पुबदेसे विदेहा णाम जणवो, जणवयकहा य ॥ नडनट्टजल्लमुट्टिय, कहा उ एसा भवे विक
संपइ काले "तीरहु" त्ति देसो ति भएणइ । जत्थ उ पइहा ॥१॥" द्वा०६ द्वा०।
गेहं महुरमंजुलफलभारोणयाणि कयलीवणाणि दीसंति । सांप्रतं मिश्रकथामाह
पहिया य विडियाणि दुद्धसिद्धाणि पायसं च भुजंति । धम्मो अत्थो कामो,उवइस्सइ जत्थ सुत्तकव्वेसुं।
पए पए वावीकृवतलायवईओ अइमहुरोदगं, पागयजणा
ऽवि सक्यभासाविसारया अगसत्थपसत्थअभत्थिाणिलोगे वेए समए, सा उ कहा मीसियाणाम ॥ २०६॥ उपाय जपा, तत्थ रिदित्यमियसमिद्धा मिहिला एवम
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मिहिला अभिधानराजन्द्रः।
मीसजाय णगरी हुत्था । संपर जगइ पसिद्धा। एयाइ नाइदूरण जणयम-मीण-मीन-पुं०। मत्स्ये, वृ०१ उ०। “सउला सहरा मीणा, हाराजस्स भाउणो कणयस्स निवासट्टाणं कणइपुरं वट्टा ।।
तिमी झसा अणिमिसा मच्छा" पाइ० ना० ४० गाथा । तत्थ मिहिलाए ण यरीए कुंमरायपभावईसंभवस्स भगवओ
मीमांसग-मीमांसक-पुं० । वेदार्थतात्पर्यनिर्धारणात्मकमीमालिणाहस्स इत्थीतित्थयरस्स मिजिणस्स य विजयनि |
मांसाशास्त्राध्येतरि, सूत्र०१ श्रु०१०१ उ० । सम्म०। नवप्पा देवी नंदणस्स चवणजम्मणदिक्खाकेवलनाणकल्लाण
मीमांसा-मीमांसा-स्त्री०। विचारणायाम् , मीमांसकाः-चोयाई जाया । इत्थ अट्ठमस्स सिरिवीरगणहरस्स अंकपियस्स जम्मो । इत्थ जुगबाहुमयणरेहाणं पुत्तो नमी नाम
| दनालक्षणो धर्मः । न च सर्वज्ञः कश्चिद विद्यते । मुक्त्यभामहाराया बलयमद्दवइयरेण पत्तेयबुद्धो सोहम्मिदपरिक्ति
वश्चेति,एवमाश्रिताः। विशे०। सद्विचारे,षो०१६ विव०। द्वारा यवेरनिच्छो संवुत्तो। इत्थेव लच्छीघरे चेहए अजमहागि-मीरा-मीरा-स्त्री०मयांदायाम् , नरकपातनास्थाने, सूत्र०१ रिसीसो कोडिन्नगुत्तो वासभित्तो सिरिवीरनिव्वाणाश्रो शु०५ १०१ उ० । चीसुत्तरे वाससयदुगेऽवालीणे अणुप्पवायपुव्वे निउणियं मीराकरण-मीराकरण-न०। करैर्धारादेराच्छादने, पृ०१० णाम वत्धुं पदंतो विप्पडिवो, सामुच्छेइयदिदि पव- नि० चू० । त्तिऊण पावयणियथेरोहिं अणेगंतवायजुत्तीहि निवारिज-मीलण-मीलन-न० । संप्रसारे समवाये, प्रा० म० १०। माणो विचउत्थो निह्नवो जाओ। सिरिमहावीरसामिपय- संधाने, आचा०१ ०३१०३ उ० । घटनायाम् संयोजने, पंकयपवित्तियजलाप्रो बाणगंगागंडईनईओ मिलित्ता एयं न- आ० म०१०। यरं पवित्तियति । इत्थ चरमतित्थयरोछब्वासारत्ते अवढिओ मीलय-मीलक-पुं० । समये एकवाक्यताकारके, सूत्र०१ श्रु० इत्थ जणयसुया ( सीया) महासईए जम्मभूमिट्ठाणे महल्लो। १०१ उ०। वडविडवीपसिद्धो । इत्थ सिरिरामसीयाणं विवाहट्ठाणं सा- मीस-मिश्र-त्रि० । लुप्त-य-र-व-श-प-सां श-प-सां दीर्घः कुल्लकुडं ति लोगे रूढं पायाललिगाई णियलोइयतित्थाणि श्र ॥१॥४३॥ इत्यादिमस्वरस्य दीर्घः। रलोपे मिश्रम् । मीसं । णेगाणि चिटुंति । तित्थयरमल्लिनाहचेइए वइरुट्टा देवी कुबेर- प्रा० । मिलिते, विशे० । सान्निपातिकनामनि, विशे० । श्राजक्खो श्र । नेमिजिणचेइए गंधारी देवी भिउडिजक्खो श्र
लोचनाप्रतिक्रमणलक्षणोभयात्वान्मिश्रम् । व्य० १ उ० । श्राराहयजणाणं विग्घे अवहरंति त्ति ।
पश्चा०।ग०। प्रायश्चित्तभेदे, स्था० ४ ठा०१ उ० । व्य० । उपइय मिहिलाकप्पमिणं , सुगति वायंति जिणपहविषाणा। माईशब्दे उक्नमेतत् सत्यं च मृषा चेति वचने, यथा-धवनतेसिं खवेइ कंठे, वरमालं मुत्तिसिरिमहिला ॥१॥ दिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदइति मिथिलातीर्थकल्पः। ती०१८ कल्प । उत्त। श्रा०म०। मिति विकल्पनपरम् । अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावाश्राव।
त् सत्यता, अन्येषामपि धवादीनां सद्भावादसत्यता, व्यमिहुण-मिथुन-न० । ख-घ-थ-ध-भाम् ॥८।१। १८७ ॥ वहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरिदमसत्यइति थस्य हः । मिहुणं । प्रा० । स्त्रीपुंसयुग्मे, रा० । ०। जी।
मेव, यथा विकल्पितार्थायोगात् । प्रव०२३७द्वार । व्य० । स्था० । दाम्पत्य, श्राचा०२ श्रु०१चू०११०३ उ०। मातखषमश्रस्कन्ध-पुष । खचतनाचतनसकाणा मिश्रः।
मीसखंध-मिश्रस्कन्ध-पुं० । सचेतनाचेतनसंकीर्णो मिश्रः। मिहुणइत्थिया-मिथुनस्त्री-स्त्री० । युगलिकत्रियाम् , श्रा० ।।
याम. श्रा०।। स चाऽसौ द्रव्यस्कन्धश्चेति मिश्रस्कन्धः । हस्त्यश्वरथखम०१ अ०। (श्रासां वर्णकः उसह ' शब्द द्वितीयभागे। हादिसेनाङ्गे, अनु०। प्रव०॥ १३३३ पृष्ठेऽकारि)
मीसग-मिश्रक-न० । साध्वर्थ गृहस्याथै वादित उपस्कृते, प्रमिहुणग-मिथुनक-नासहोत्पन्ने स्त्रीपुरुषयुग्मे,स्था०१०ठा०। श्न०५ संव० द्वार।
मीसजाय-मिश्रजात-पुं० । मिश्रेण गृहसाध्वादिप्रणिधानलमिहुणगक्खेत्त-मिथुनकक्षेत्र-न०। सदा युगलिकोत्पत्तिभूमिरूपायामकर्मभूमौ, स्था० १० ठा०।
क्षणभावेन जातमुत्पन्नं पाकादिभावमुपगतं मिश्रजातमन्नाये
वापश्चा०१३ विव० गृहिसंयतमिश्रोपस्कृते तत्र संभवत्युत्पामिहुणपुरिस-मिथुनपुरुष-पुं० । युगलिकपुरुषे,प्रा०म०१०
दनादोषे, दश०५ अ०। पञ्चा०। जीत० । ग०। ध०। पं० मिरणय-मिथुनक-न० । युगले, “ मिहुण्यं जुअले" पाइ चू० । स्था०। प्रव०। ना० २२२ गाथा।
संप्रति मिश्रजातद्वारमाहमिहो-मिथस्-अव्यापरस्परं शब्दार्थे,अष्ट०१४ अष्टायो।। मीसजायं जावं-तियं च पासंडिसाहुमीसं च । मिहोकहा-मिथःकथा-स्त्री० । परस्परं भक्तादिविकथाकरणे, सहसंतरं न कप्पड़, कप्पड़ कप्पे कए तिगुणे ॥ २७१ ॥ व्य० ३ उ० । अन्योन्यं कथायाम् , श्राचा०१ श्रु० अ०१ उ०।
मिश्रजातं त्रिधा, तद्यथा-यावझर्थिकम्, पाखण्डिमिश्रम् , मिहोसाहम्मियखामण-मिथःसाधर्मिकक्षामण-न०। परस्परं
साधुमिश्रं च । तत्र यावन्तः केचन गृहस्थाः, अगृहस्था वा साधर्मिकैः क्षमाकारणायाम् । (सा च पर्युषणायामवश्यं
भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति तेषामपि भविष्यति कुटुम्बे चेकर्तव्येति सम्प्रदायः) कल्प०१ अधि०१क्षण ।
ति बुद्धया सामान्येन भिक्षाचरयोग्यं कुटुम्बयोग्यं चैकत्र मीअ-देशी-समकाले, दे० ना०६ वर्ग १३३ गाथा ।
मिलितं यत्पच्यते तद्यावदर्थिक मिश्रजातम् । यत्तु केवलपामीढल-मीढल-न० । वर्णकद्रव्यभेदे, ल० प्र०।
खण्डियोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते तत्पाखण्डिमिश्रम् । यत्पुनः केवलसाधुयोग्यमात्मयोग्य बैकत्र पच्यते तत्सा
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मीसजाय
धुमिअम् । धमणानां पाखण्डियन्तभयविवात्ममिश्रं पृथग् नोक्तम् । एतच्च मिश्रजातं सहस्रान्तरमपि -सहस्रान्तरे गतमपि येन तत्कृतं तेनान्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मै यावत्सहस्रतमाय दत्तं, ततोऽपि परं यदि साधवे ददाति तथापि न कल्पते । भाजनशुद्धौ विधिमाह-येन भाजनन तम्मिर्थ गृहीते तस्मिन् भाजने मिश्रपरित्यागानन्तरं कल्पे प्रशालने त्रिगुणे ते अन्यत्-शुद्धं गृहीतुं कल्पते,
नान्यथा ।
एनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याविन्यासुः प्रथमतो मिश्रातस्य संभवमाह
दुग्गासे से समझ-चिक व अद्वायसीसए जन्ता । सड्डी बहुभिक्खयरे, मीसजायें करे कोई ||३३|| दुःखेन प्रासो यत्र तद् दुर्मासम् दुर्भिक्षम् तस्मिन् भिक्षाच रसत्वानुकम्पया, यद्वा-तद् दुर्भिक्षं समतिक्रान्तः कश्चित् बुभुक्षाकष्टं महत्परिज्ञाय । यदिवा - अध्वशीर्षके - कान्तारादिनिर्गमरूपे प्रवेशरूपे खिन्नभिक्षाचरानुकम्पया । यद्वा-याश्रायाम् तीर्थयात्रादिरूपे उत्सवविशेषे दानश्रद्धया का पि श्री श्रद्धावान् हुन् मिताचरानुपलभ्य मिश्रजातम् पूशब्दार्थ करोति ।
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संप्रति यावदर्थिकस्य मिश्रजातस्य परिज्ञानोपायमाह - जयंता सिद्धं नेयं तं देह कामियं जहां
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3
( ३०४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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बहुसु व अपहुप्ते, भाइ अपि रंह ॥ २७२ ॥ काचित् किमपि साधवे ददती कयाचित् प्रतिषिध्यते नेदं दीयमानं यावदर्थ सिद्धम् यावन्तः केचनापि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति तेषामर्थाय सम्-किंतु विवक्षितम् तस्मात्तदेहि यतिभ्यः, कामितं यावद् गृह्णन्ति तावत्प्रमाणम्, यद्वा-प्रचुरेषु भिज्ञाचरेषु समागच्छत्सु अप्रैतनप्रमाणे राध्यमाने, अप्रभवति -- श्रपूर्यमाणे, गृहनायको भणति, नैतावता राद्धेन सरिष्यति, ततोऽन्यदप्यधिकं प्रक्षिप्य राध्नुहि एवं श्रुते यावदर्थिकं मिश्रं परिज्ञायते, ज्ञात्वा च परिहर्तव्यमिति ।
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संप्रति पारिमिथसाधुमिधे प्रतिपादयतिअट्ठा रंते, पासंडी पि बियो भइ | निग्गंथऽड्डा तहओ, अतऽट्टाएऽवि रंघते ॥ २७३ ॥ आत्मार्थ कुटुम्बार्थ गृहिण्या, राध्यमाने - पच्यमाने, गृहनायको यावदर्थिकमिश्रप्रवर्तक गृहनायकापेक्षया द्वितीयो भ सति यथा- पाखण्डिनामप्यर्थायाधिकं प्रक्षिप तथा आरमा र्थमेव राज्यमाने तृतीयो गृहनायको बते, यथा-निर्ग्रन्थानामर्थायाधिकं प्रक्षिपेति । तत एवं श्रुते पारिडमिअसाघुमियोरपि परिशानं भवति । संप्रति यदुक्रमेतत् मिश्रजातं पुरुषसहस्रान्तरगतमपि न कल्पते इति ।
सद् दृष्टान्तेन भावयति
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विसघाइपिसियासी, मरइ तमन्नोऽवि खाइउं मरह | इय पारंपरमरणे, अणुमरइ सहस्ससो जाव || २७४ ॥ इह कोऽपि वेधकेन - विषेण घातितः, तस्य पिशितं योऽश्नाति सोऽपि नियते तस्याऽपि मांसं यो भयति सो:पिप्रियते, एवं परंपरया मरणे तावद् अनु - पाश्चात्यः, पा
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मीसजाय
त्यो नियते यावत्ते म्रियमाणाः संख्यया सहस्रशो भ वन्ति । इत्थं सहस्रवेधकस्य विषस्य प्रभावः यत्सहस्रान्तरगतममि मारयतीति भावः ।
एवं मीसजायं, चरण हराइ साहुविसु ।
तम्हा तं नो कप्पर, पुरिससहस्संतरगयं पि ॥ ३७५ ॥ एवम् सहस्रवेधकवियत्रिय यावदर्थिकपाखसाधुषियम् मिश्रजातमप्येकेनास्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मायित्येवं परम्परया पुरुषसहस्रान्तरगतमपि साधोः सुविशुद्धं वरगात्मानं हन्ति, तस्मान्न कल्पते साधूनां सहस्रान्तरगतमपि मिश्रम् ।
संप्रति साधुविषयं विधिमाहनिच्छोडिए करीसेण, वाऽवि उचट्टिए तो कप्पा । सुकाचित्ता गिरहइ, अन्नचउत्थे अमुके वि ।। २७६ ।। मिश्र कथमपि गृहीते पश्चात्तस्मिंस्त्यक्ते सति भाजने निच्छोटिने अवादिना निरवयये कृते यद्वा-करौरा शुगोमयरूपे उर्तते पश्चात् पयः कल्पा दीयन्ते तत आतपे तद्भाजनं शोषवित्वा पश्चात्तस्थिते शुद्धं गृहाति नान्यथा, पूतिदोषसंभवात् । अन्ये तु सूरयः प्रादुःचतुर्थे कल्पे दत्ते सति शुष्केऽपि गृह्णन्ति नास्ति कविदोषः । श्रयं च प्रक्षालनविधिः सर्वत्राप्यशोधिकोटिग्र हणे वेदितव्यः । पिं० । श्राचा० ।
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"
मिश्रजातग्रहणे प्रायश्रित्तमाह
जे भिक्खु वा असंतकायसंमिस्सं जुनं आहारं आहारेद हारतं वा साइजइ ॥ ५ ॥
जे भिक्लू वा तातो मूलकंदो अलगपुडादि या एवमादिसम्मिस्सं जो भुंजति तस्स चउगुरु ।
गाहासूत्रम्
जो भिक्खू असवादी, जे अतकायसंजुतं । सो आणा अणवरथं मिच्छत्तविराधनं पांवे ॥ ५३ ॥ श्राणादिया दोसा भवंति ।
इमे दोसा । गाहा
तं कायपरिच्चययी, तेरा य वत्तेण समं वयती । अतिखाणुचितेय, विसूतिगादीणि आयाए ॥ ५शा इमा आयविराधणा । तेण रसाले प्रतिखट्टे- श्रणुचितेय विसूतितादी भवे, मरेज वा अजीरंतो वा श्ररणतरो रोगको भवेज एवं धिराणा जम्दा एते दो
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सा तम्हा ण भोत्तव्यं ।
कारणे भुंजेजा । गाहा-
असिवे थोमोपरिए रायद्द्डे भए व गेलए। श्रद्धाणरोहए वा, जयण इमा तत्थ कायन्त्रा ।। ५५ ।। पूर्ववत् ।
इमा वक्खमाणजयरणा । गाहा
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ओमं तिभागम विभाग आयंबिले चडत्थादी | निम्मिस्से मिस्सेया, परिचरां ते य जतथा य ॥ ५६ ॥ जहा एव सुत्ते बक्खमाणो जहा वा पेढे भणिया, तहा asar, इमो से क्रत्थो । तुमं एसणिजं भुंजति, तिभा
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मीसजाय
अभिधानराजेन्द्रः। गेण वा ऊणं एसणिज्जं भुजति, अखं वा एसणिजं, तिभा- महंगाकार-मृदङ्गाकार-पुं०। मईलाकृती, " मुइंगाकारोवमे गं वा एसणिज्जं आयंबिलण वा अच्छति, चउत्थं वा से खंधे" मृदङ्गाकारेण मर्दलाकृत्योपमा यस्य स मृदनोपमः करेति. ण य अणंतकायसम्मिस्सं भुजति । जाहे णिम्मि-| सेनस्य कोटेशः । . सं ण लम्भति ताहे परित्तकायमिस्सं गेण्हति । जाहे तं |
मुइय-मुदित-त्रि०। हर्षवति, रा०। झा। उत्त। प्रमोपिन लम्भति ताहे अणतकायं गेएहति । जाहे तं पि न ल.| म्भति ताहे अणंतकायमिस्सं गेराहति । जा य पणगादिज
दवति , औ०। यणा सा दट्ठन्वा । नि० चू० १० उ०।।
मुइया-मुदिता-स्त्री० । परसुखेऽप्रीतिपरिहारे, सन्तुष्टी,
षो०४ विव०। पढम चिय गिहिसंजय-मीसो वक्खडाइ मसिं तु ॥६॥
आपातरम्ये सद्धता-वनुबन्धयुते परे। प्रथमत एवादित एवारभ्य गृहिसंयतयोमिथं साधारण-1
सन्तुष्टिर्मुदिता नाम , सर्वेषां प्राणिनां सुखे ॥ ५ ॥ मुपसंस्कृतं साधितं यत्तत्तथा, तदादिर्यस्य तद्गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतादि । श्रादिशब्दाद-गृहियावदर्थिकमिश्रगृहिपा
(आपातेति ) मुदिता नाम सन्तुष्टिः सा चाचाऽऽपात
रम्ये-अपथ्याहारतृप्तिजनितपरिणामासुन्दरसुखकल्पे, तखएिडमिश्रग्रहः । मिथं तु मिश्रजातं पुनः । इति गाथार्थः ।
कालमात्ररमणीये स्वपरगते वैषयिके सुखे, द्वितीया तु पश्चा० १३ विव०।
सद्धेतौ-शोभनकारणे ऐहिकसुखविशेष एवं परिदृष्टहिमीसदवियकप्प-मिश्रद्रव्यकल्प-पुं०। सचित्ताचित्तोभयद्र
तमिताहारपरिभोगजनितस्वादुरसास्वादसुखकल्पे , तृतीव्यकल्पे, पं० भा०२ कल्प । पं० चू०।
या चानुबन्धयुते-अव्यवच्छिन्नसुस्त्रपरंपरया देवमनुजमीसनाम-मिश्रनामन्-न० । उपसर्गनामसमुदायनिष्पन्ने ना- जन्मसुकल्याणप्राप्तिलक्षणे इहपरभवानुगते , चतुर्थी तु परे मभेदे, यथा संयतः । श्रा०म०१ श्र०।
प्रकृष्ट मोहक्षयादिसंभवे अव्यावाधे च सर्वेषां प्राणिनां सुखे मीसपरिणय-मिश्रपरिणत-त्रि० । त्रिविधपुद्गलभेदे, प्रयोग-1
इत्येवं चतुर्विधा । तदुक्तम्-" सुखमात्रे सद्धेतावनुबन्धयुविस्रसाम्यां परिणता यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया।
ते परे च मुदिता तु ।" द्वा०१८ द्वा०। परिणतवस्तूनि । स्था० ३ ठा०३ उ०। (विशेषार्थस्तु 'पो-|
मुइयमाणस-मुदितमानस-त्रि०। निरन्तरहरचित्ते, उत्स० ग्गल' शब्दे पञ्चमभागे ११०४ पृष्ठे गतः)
१६ श्र०। मीसपुढची-मिश्रप्रथिवी-स्त्री० । सचित्तचित्तोभयरूपाशि-मुउल-मुकुल-न० । कुड्मले, विश०। आम्रफलकोरके, स्था० व्याम् , नि०चू. १ उ०।
४ ठा० १ उ०। कोरकावस्थायां कलिकायाम् , शा०१ श्रु०१ मीसय-मिश्रक-पुं० । "सिद्धे णो असरापी यो सरणी णो भ
अ० । संकुचिते, प्रा० म०१०। जी। ध्वो णोअभब्यो" ति वचनात् । सिद्धे, विशे०।
मुंज-मुञ्ज-पुं०।शरपाम् , स्था०५ ठा० ३ उ० । शरपत्रत्वचि, मीसालिअ-मिश्र-त्रि० । मिश्राद् डालियः ॥ ८।२।१७० । ।
निचू०१ उ०। तृणविशेषे, बृ०२ उ०। सूत्र० । आचा। इति डालियप्रत्ययः । मीसालिभं । पक्षे-मीसं । संयुक्ते,
मुजकार-मुञ्जकार-पुलामुञ्जमयोपस्करकरणोपजीविनि,अनु। मीसोहि-मिश्रावधि-पुं० । श्रानुगामिकाननुगामिकोभयस्व
मुंजतिण-मुञ्जतृण-पु० । काश्यपमूलगोत्रावान्तरमूलगोत्रवि रूपेऽवधिशाने, यस्य युत्पत्रस्यावधेर्देशो बजति स्वामिना स-1
शेषप्रवर्तके ऋषौ, तदपत्येषु च । स्था० ७ ठा। हान्यत्र देशस्तु प्रदेशान्तरचलितपुरुषस्योपहतैकलोचनबद
| मुंजपाउयायार-मुजपादुकाकार-पुं०। मुञ्जमयपादुकाकरणो. न्यत्र न व्रजति असौ मिश्र उच्यते। विश०।
पजीविनि शिल्पिनि, प्रज्ञा०१ पद । मुअंगी-देशी-कीटिकायाम् , दे० ना० ६ वर्ग १३४ गाथा। मुंजमेहला-मुझमेखला-स्त्री० । मुञ्जमये कटीदवरके, शा०१ मुभाइणी-देशी-हुम्ब्याम् , दे० ना० ६ वर्ग १३५ गाथा। शु०१६ अ०।
मुंजापिच्चिय--मञ्जापिचित-न० । कुट्टितशरपर्णीत्वङ्मये रजोमुइंग-मृदङ्ग-पुं० । इः स्वप्नादौ ॥८॥१॥४६॥ इत्त्वप्राप्ती आर्षे | उकारोऽपि । प्रा० । मर्दले, स्था०७ ठा। शा०1ो
हरण, स्था०५ ठा०३ उ०।
। अनु०।। चं० प्र० । स्था०। प्रशा० । कल्प० । भ० । लघुमदले, जी०३
मुंजायणा-मौञ्जायन-पुं०। मुञ्जनामकर्षिगोत्रापत्ये । उत्सौन्द प्रति०४ अधि० । श्रा० म०। रा० । नि० च्० । श्राचा० ।। यादा ॥८।१।१०इत्यात उत् । मुजायणा। प्रा०९पाद । जं० । नं० । पिपीलिकायाम् , पाव०५०। "मुइंगो मुरो" | मुंड-मुण्ड--पुं० । लुश्चितशिरसि, सूत्र० १ श्रु०३ १०१ उ०। पाइ० ना०३६६ गाथा।
मुण्डितशिरसि, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । प्रवजिते, औ०। मुइंगमत्थय-मृदङ्गमस्तक-न० । मृदङ्गानां-मर्दलाना मस्तका- दशा । दश। नि० चू० । सुरेण मुण्डे , व्य० ४ उ०। नीव मस्तकानि । मृदङ्गानामुपरिभागेषु मृदङ्गमुखपुटेषु, भ० श०३३ उ० विपा।
पंच मुंडा पमत्ता, तं जहा-सोतिदियमुंडे० जाव-फासिंमुइंगमालिया-देशी-कीटिकाविशेषे, संथा।
| दियमुंडे २, अहवा-पंच मुंडा-परमत्ता, तं जहा-कोहमुंडे मुइंगलि(आ)पा-देशी-पिपीलिकादौ,पं०व०१ द्वार। सवा०] माण मुंडे मायामुंडे लोभमुंडे सिरमुंडे । (सूत्र-४४३)
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मुंड
मुण्डनम्-मुण्डः, अपनयनम्, स च द्वेधा द्रव्यतो, भावतश्च । ततः शिरसः केशापनयनम् भावतस्तु चेतसः इन्द्रि या पायायां वाऽपनयनमिति मुगलधर्मयोगात् पुरुषो मुण्ड उच्यते । तत्र श्रोत्रेन्द्रिये श्रोत्रेन्द्रियेण यामुः पादेन इत्यादिवत् श्रोत्रेन्द्रियमुखः शब्दे रामादिचनात् थोत्रेन्द्रियार्थमुड इति भावः इत्येवं सर्वत्र । कोघे मुल्क:- कोचमुरड स्तच्छेदना देवमन्यत्रापि तथा शिरसि शिरसा वा मुण्डः शिरोमुण्ड इति । स्था० ५ ठा० ३ उ० । शाय० । कल्प० । अणु० । प्रशा० ।
( ३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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मुंडकेवलि - ( )- मुण्डकेवलिन् - पुं० । द्रव्यभावमुण्डनप्रधाने तथाविधवायातिशयशून्ये केवलिनि, यो० वि० । संविग्न भवनिर्वेदा-दात्मनिःसरणं तु यः । मात्मार्थ संप्रवृतोऽसी, सदा स्वान्मुण्डकेवली ॥ १६०॥ तथ्ये धम ध्वस्तािप्रबन्धे देवे रागद्वेषादिमुक्ते । साधी सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने,
संवेगो सीमित वोऽनुरागः ॥ १ ॥ एवं लक्षणसंयेगभा भवनिर्वेदात्-संसारनैर्गुयाद् आत्मनि स्सरणं तु जरामरणादिदारुणदहनामानभवभवनोदाहर मात्मनो निष्काशनं, पुनर्यश्चिन्तयतीति गम्यते । श्रात्मार्थ संप्रवृतः स्वप्रयोजनमात्रप्रतिबद्धचित्तः, असी पूर्वोक्ररूपः । सदा सततमेव स्याद्भवेत् द्रव्यभावमुण्डनप्रधानो मुण्ड
केवली व केवलज्ञानदर्शनयान मुण्डकेचली । केवल्येव तथाविधवाद्यातिशयशून्यः अत्र दान्तः-पीठ- महापीठ साधुयुगलकमिति । यो० विं । [ पीठ महापीठयोर्वृत्तं द्विसीयभागे १११७ पृष्ठे गतम् ] द्वा० । स्था० । श्राव० । मुण्डकेमली लोभवतीति प्रश्ने, उत्तरम् - "संविग्नो भवनदादात्मनःसरणं तु यः । आत्मार्थे संप्रवृत्तोऽखी, सदा स्यान्मुरडवली " ॥ इति पञ्चती तदनुसारेण यः पुनः सम्यक्त्वा भवनैर्गुण्यदर्शनतस्तन्निर्वेदादात्मनिस्सरणमेव केवलमभिवाञ्छति, तथैव चेष्टते, स मुण्डकेंवली भवतीति ॥ १२ ॥ सेन० ३ उला० । मुंडग-- मुण्डक - न० | स्थण्डिले, दश० ४ श्र० । मुंड-मुण्डन न०य्यतः केशापनयने, भावतस्तु क्रोधा
अपनयने, पचा० २ वि० खा० शिरोलोचने, स्था० २ डा० उ० भा० ("अजेयं सुरमुंडे या कविर या होयव्वं सिया" इति 'पज्जु साकल्प शब्दे पञ्चमभागे २४७ पृष्ठे उक्तम् ) कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । झुंडरथल - मुण्डस्थल-म० विंशति तीर्थकृत्स्थाने, ती०४४कल्पा मुंडभाव - मुडभाव- ० दीक्षितत्वे, २०१ २०६७० शिरोलोचे, महावीरस्वामिना महापथेन चानुशातः स्था० अ० मुंड सुरुचि- ० दीक्षाग्रहणाभिरुची, उत्त० २० अ० । मुंडा - देशी - मृग्याम्, दे० ना० ६ वर्ग १३३ गाथा । मुंडावणा - एडापना - स्त्री० । शिरोलोचनेन लोचे ०४ उ० । प्रशा० । भ० । ( तओ नो कप्पर० ( ५ ) इत्यादिसूत्रं सभाष्यम् ' पव्वज्जा' शब्दे पञ्चमभागे ७७२ पृष्ठे उक्तम् )
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मुंडावणा
मुण्डापनाविधिमाह
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इयाणि मुंडावणा - सोहणे दिवसे चेतिया पुरश्र पव्वावणिज्जं, अप्परले वा समासे ठविता चेइए वंदित्ता परिहियचोलपट्टस्स रयइरणं देति । तादे अति " अस्य व्याख्या-जो धिरहस्थी आयरितो ति अट्ठातोति समत्यो वा सव्यं लोपं करेति असति आयरियरस चिरद्दत्थस्स तो पण्याचेति चिरहाथो तस्स सोचकर सामायं च मेरिसे डावे कज्जति ।
गाथा
दव्यादी अपत्ये, मो पसत्थेसु फागुगाहारं लम्गाति वा तुरंते, गुरुव्यणुकूले व होजा व ॥ ४५७ ।। अट्टिमादि अप्पसरधन्वा, ऊसरमादी अप्पा रि सातिहिमादी अप्पसत्थकालो, दिट्टिमादी अप्पसत्थो भावो, पते अप्पसरथे मोनुं पसाधे दम्यादिप पव्यादिति । तस्य गुणोय असेसु ताराबलचंद्र वलेसु जाय पा दिया सत्था व लग्मेति ताव फासुगादारं घरैति सनात गभया वा तुरंतो पत्थलग्गबलेणं पव्वाविज्जति, उभयसाहारगे अलम्भमाणे गुरुले पव्याजिति श्रदाजा ति सरियोर मुहपोलिया बोलपट्टो एवं अदाजात दातुं वामपासहियस्स आवरितो भाति इमस्स साधुस्स सामाइयस्स व्हावं करेमि काउस्सगं भतिउच्चारोव करेति उभयथाऽवि अविरुद्धं सि ०जाब पोसिरामिति "लोगस्सुजोग" चिंतितो "नमो अरिहंताणं ति " पारंति, "लोगस्सुजोयगरं "कहिता पच्छा पापजे सह सामाहयत्तं भिक्खुतो कहति । पच्छा सेहो - "इच्छामि खमासमणो” त्ति वंदति, वंदिय पभुट्ठितो भवाति संदिप किं भणामो गुरु वंदितुं प वेदेहि, ताहे बंदिय पभुट्ठितो भणाति-तुम्भेहि मे सामाइयं आरुहितं 'इच्छामि अणुस' गुरुवयणं - नित्थारगपारगो गुरुगुणेहिं वट्टाहि ति ।
गाहा
तिगुणपाणिपादे, नित्थारो गुरुगुणेहि बढाहि ।
हिंडते सिक्खं, समताखीएहि गाहंति ॥४५८|| ताहे वंदिता मोक्कारमुश्चरंतो पयाहिं करेति पादेसु निवडति, एवं वितियं ततियं च वारा। ताहे साधूण णिवेदादिति एक तरंतो या समुदिताएं वंदितुं सोभाति, गुरुदि आरुहियं मे सामाध्ये 'इच्छामि असते भ ति-नित्थारगपारगो यरियगुणे बसु, एसा मुंडावा। चू० ११ उ० ।
नि० पव्वाविओ सित्ति अ, मुंडावेउं अणायरणजोगो । अहवा मुंडाविंते, दोसा अणिवारिया पुरिमा || ५७५ ॥ तथा प्राजितः स्यात् कथंचिदनाभोगादिना मुरादधितुमनाचरणयोग्यः अनासेवनीयः यस्तं मुण्डयति तस्य मु राडयतः अमुण्डनीयदोषाः अनिवारिता भवन्त्येवेत्यर्थः । पूर्व
जीवातान् प्रवाजयत एवं सर्वत्र भावनीयम् इति गाथार्थः । पं० व० २ द्वार । १० भा० । ( 'पव्वज्जा' शब्दे पचमभागे ७४६ पृष्ठे विस्तर उक्तः)
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मुंडावली
मुंडावली - मुरडावली - स्त्री० । मुण्डाः स्थायुविशेषा येषु म दियो बाटावी परिचाः परिचियन्ते तेषामापालिः। निरन्तरव्यवस्थापितानां पड़ी अ
मुंडावितए - मुण्डयितुम् अव्य० शिरोलोचन सुि
ऐ, वृ० ४ उ० । स्था० ।
( ३०७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
नात् लुञ्चितशरसि, भ० १५ श० ।
मुंडाविय - मुण्डित - त्रि० । मुण्डितस्य तस्य शिष्यत्वेनानुमा- उपाश्रये समागच्छन् मुत्कलः श्राद्धः । ' निसिहीखि ' । तस्मादिप्रवरसहीति व िन वेति प्रश्ने उपरम्-मुत्कलः श्राद्धः 'निसिहीति ' वक्ति न त्वावश्यकीति || २७४ ॥ सेन० ३ उमा० । कलांचल-मुलाञ्चल-म० डुटितखकोरो, शा००
1
मुंडि ( ) - मुण्डिन् - पुं० । मुण्डिते, शा० १ श्रु० १ ० ॥ श्र० मुंडियमुखि ० शिरोनमुडीकृते भ० २०
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१ उ० । मुंडियम पुसिडबक-मुं० खनामख्याते सङ्घपर्वननगरराजे, ० ० ४ ० । ( भाणसंवरजोग शब्दे चतुर्थभागे १६७३ पृष्ठे कथा गता । )
3
मुंडी - देशी - नारङ्गधाम्, दे० ना० ६ वर्ग १३३ गाथा मुँदा मर्दन् पुं० [ध-मूदायें या ॥ ८ ॥ २ । ४१॥ इति संयुक्तस्य ढो वा । मुंढा । मुद्धा | प्रा० । वक्रादावन्तः ॥ ८ । १ । २६ ॥ इत्यनुस्वारः । मस्तके, प्रा० १ पाद । मुंपुर-मुर्मुर पुं० फुफुकाद, भस्ममिश्रितानिक, प्रशा० १ पद । नि० । आ० म० । चू०
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मुकुंद - मुकुन्द - पुं० । बलदेवे, अनु०। मुरजविशेषे, जं० २ वतोषविशेषे चाचा० १ ० १ ० २४० जी०
०
नं० ॥ भ० ।
33
मुक- मुक्त- त्रि० । मुत्कले, विशे० । नि०चू० । मुत्कलीकृते, शा० १ श्रु० १ श्र० । क्षिप्ते, श्री० । त्यक्ते, स्था० ६ ठा० । विशे० । उच्छृ झुले, दश०८ ० । परित्यक्ते, श्राव० ३ श्र० । श्रन्यजम्मनि जीवेनोज्झिते शरीरे, उत्त० १ ० । कल्प० । निलभे, द्वा० २७ द्वा० । निर्वृत्तिप्राप्ते, स्या० । अनु० 1 श्राव० । मुक्तः परमब्रह्मवादिनां परात्मा । यो० वि० । केषाञ्चिन्मते मुलोऽपि पुनः संसरति, " दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रम निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च प राधेशूर - स्वच्छासनप्रतिहतच्यिद मोहराज्यम् ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० १ ० ३ उ० । श्राचा० । मोक्षप्रस्तावे, विशे० । मूक- पुं० | सेवादौ वा ॥ ८ । २ । ६६ ॥ इति द्वित्वम् । मुक्को। मूख वाशक्तिविकले, प्रा० २ पाद। मुकजोगि(न्) - मुक्रजोगिन्- ५० खानादियोगे, मुकजोगी णाम जेण मुका जोगो पास्वरिततवलियमसंजमा दिसु सोय मुक्कजोगी । नि० चू० २० उ० । मुकट्टहास- मुक्ताट्टहास - पुं० । कृतमहाहा सध्वनी, प्रश्न० ३ श्रश्र० द्वार ।
बुकधुर–शुकपुर–पुँ० । धूः-संयमधुरा सा मुला-परित्यक्ता येन स मुक्तधुरः । संयम, बृ० ३३० । मुकमउड- मुक्तमुकुट - पुं० । यथोक्तप्रमाणे, मुकुटोपरिवर्तिनि
वृ० ४ उ० ।
गुग्ग
मुक्कमआय-मुक्तमर्याद - त्रि० । मर्यादारहिते, “ विशिमं भु
कमजायें " पाइ० ना० १८० गाथा |
मुकय- देशी पासी बोई प्रकृता तार्जितानामन्यासा मि मन्त्रितानां वधूनां विवाह ० ० ६ १३५ नाथा । मुक्कल-मुत्कल- - त्रि० । छुटिते, अग्रथिते, विशे० अ० म० ।
१६ श्र० ।
मुकला- मुरकला बी० स्वतन्त्रत्रियाम्, “उहा भा, निराला मुकला विचया निरवग्गहा व सारा निरंकुसा हुंति अप्पवसा " पाइ० ना० १३ गाथा । मुकलिय-मुत्कलित - त्रि० । अनुज्ञाते, दर्श० ३ तस्य । कवास-पास त्रि० पाशान्मु, उत्त०२३ ० मुक्किट्ठा - देशी-हिकायाम्, दे० ना० ६ वर्ग १३४ गाथा । मुकुरुड- देशी राशी दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाया। मुकेशय-मुक्र-त्रि० प्राकृतत्वात्स्यायें प्रत्ययः । अन्यजन्मनि जीवन शरीरे, अनु० ('सरी' पदानि मुक्तानि च शरीराणीति वक्ष्यते ) मुख-मुख्य त्रि० अनादी शेषादेशयोषि२८ ॥
66
66
मुक्खो । प्रा० । प्रधाने, स्था० १ ठा० । विशे० । प्रा० म० । गौमुख्ययोर्मुख्ये कार्यसंप्रत्ययः " । स्था० १ ठा० । मूर्ख पुं० [अ, " हि ससे! ममापि रुचिरं तस्मिन् यद गुणा, निश्चिन्तो बहुभोगमोपमाः नदिया शायकः । कार्याकार्यविचारणान्धवधिरो मानापमाने समः, प्रायेणामपवर्जितो यः सुखं जीवति ॥ १ ॥ उ २ अ० । “याला मूढा मंदा, अयाण्या गालिसा जडा भुक्खा ' पाइ० ना० ७१ गाथा ।
33
मोक्ष - पुं० । परमनिः श्रेयसि, पा० । सर्वतः कर्मक्षयो मोक्षः । स्था० १ ठा० । ( मोक्षनिर्जरयोर्भेद: ' णिज्जरा' शब्दे चतुभागे २०२६ पृष्ठ गतः )
मुक्खपउम - मोक्षपद्म- न० । कमलादभिलषणीये पङ्कजे, " एउं सोउं सरीरस्स, वासाएं गणियपागडमहत्थं । मुषखपउमस्स ईहह, सम्मत्तसहस्स पप्तस्स ॥ १ ॥ " | तं० ॥ मुखपिसाय- मुखपिशाच- पुं० । पिशाचमा १ पद मुखमंडक- मुखभागढक न० । मुखाभरणे, श्री० । मुकुंदमह - मुकुन्दमह-- पुं० । षष्ठीतत्पुरुषः । बलदेवोत्सवे, श्राचा० २ श्रु० १ ० १ ० २ उ० । वासुदेवोत्सवे च । भ० ६ श० ३३ उ० ।
मुगुंस-मुगुंस- पुं० । खाडदिलाती जन्तुमदे, प्रश्न० १ अाश्र० द्वार ।' मुगुसपुच्छं व तस्स भुमओ' उपा० २ श्र० । मुग्ग-मुद्र - पुं०। (सँग ) धान्यभेदे, जं० २ य० । श्राचा० ।
अणु० । स्था० ।
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मुग्गडा
डुग्गा सुधा- अव्य०। वृथाशनार्थे, ते मुग्गडा हराविधा जे परिगिट्ठा ताई प्रा० ४ पाद
मुग्गपपी मुद्गपर्णी - स्त्री० । साधारणवादरवनस्पतिभेदे, प्रा० १ पद ।
अभिधानराजेन्द्रः ।
मुग्गफली - मुगफली- स्त्री० । मूँगफलीतिख्याते भक्ष्यफले, श्रा
व० ६ श्र० ।
मुग्गर-- मुद्गर--पुं० । काष्ठ लोहादिमये सग्रन्थिमुष्टिको परिसडीनाथविस्तीर्फे मनोपकरणे, उत्त० १२० सू० मोगरेति याते पुष्पजातिमेरे, कल्प १ अधि०३ मुग्गल - मोगल-पुं० । पारसीकशब्दः । पवनजातिभेदे, ती० १६ कल्प |
मुग्गल - मोद्गलि-पुं० | मौद्गलापत्ये, ननु वा यथा मौद्ग. लिस्वातिपुत्राभ्यां शौद्धोदनिध्वञ्जकृत्य प्रकाशितः स्वरुचिविरचितो मार्गः । श्राचा० १ श्रु० २ श्र० ५ ३० । मुग्गस - देशी - नकुले, दे० ना० ६ वर्ग ११८ गाथा । मुग्गसू - देशी - नकुले, दे० ना० ६ वर्ग ११८ गाथा । मुग्गसेल-मुद्रशैल पुं० मुप्रमाने पाषाणविशेषे मुम्मसेले नामं पच्छा मेहस्स मूले भवति । श्र० म० १ अ ।
० ० ० मुद्रवद् चत्वत्वादिधर्मयुक्तः किञ्चिद् भूतले निमग्नः किञ्चित्प्रकाशश्चिकचिकायमानो बादरादिप्रमाणो लघुपलस्वरूपो मुद्गलः बिशे० । मुग्घुरुड - देशी - राशी, दे० ना० ६ वर्ग० १३६ गाथा । मुच्छंझाण--मूर्च्छाध्यान-म० । मूर्च्छा श्रत्यर्थ पूर्वप्राप्तस्य राज्यादेरभिष्वङ्गः कनकध्वजस्येच दुयन, अनु मुच्छणा मूर्च्छना श्री० । खरविशेषे, अनु० स्था० । ० । ( वक्तव्यं 'सर' शब्दे वक्ष्यते ) मुच्छा-पूर्च्छा - स्त्री० । द्वितीय - तुर्य्ययोरुपरि पूर्वः ॥ ८ । २ । १० । इति द्वित्वप्रसङ्गे छकारोपरि चकारः । प्रा० । सदसद्विबेकनाशे, स्था० ।
दुवा मुच्छा पत्ता, जहा -- पिजबत्तिया चेव, दोसवतिया चेव । स्था० २ ठा० ४ उ० ।
B
( व्याख्या स्वस्वशब्दे ) मोहे, स्था० २ ठा० ४ ० । इतनष्टपदार्थशोचनायाम् ध०३ अधि० मोहनेनाचेतनी अपने संरक्षणानुबन्धे व । स० ५१ सम० । परिग्रहे, स्था० १९ ठा० गृद्धौ, विशे० । श्रातु० । सूत्र० ।
।
मूर्छा-ध -धा० । मोहसमुच्छ्राययोः, प्रशा० १ पद । मुच्छावसणचेयगरुई- - पूच्छवशनष्टचेतोगुर्वी स्त्री० । मूच्र्छा वशानष्टचेतसि गुर्वी अलघुशरीरा। मूर्हितत्वेन गुर्व्याम्, भ० ६ ० ३३ उ० ।
मुखमूर्च्छित्वा अव्य० अचेतनां प्राप्येत्यर्थे महा २ चू० । मुअिंतमुच्यर्थमान च० मूर्च्छनारूपेण बाध्यमाने, आ० चू० १ ० ।
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जे प्राया० १ ० १ ० २४० । गाढम प्रहारादिना ( श्राचा० १ ० ३ श्र० १४० ) अध्युप
मूत्र
मुट्ठिय पत्रे, आचा० २ ० १ चू० १ ० ८ उ० । मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्भोवघराणे ति एगट्ठा। विपा० १ श्रु० १ श्र० । व्याकुलीभूते अष्ट० ३२ ० । (मुच्छिए इति ) मूर्छन मूच्छा सा संजाता अस्या इति मूच्छिता । उत्तरमन्दया उत्तरमन्दाभिधया गन्धारस्वरान्तर्गतथा सप्तम्या मूर्च्छनया मूच्छिता, तस्याः प्रयमाशयः । गन्धारस्वरस्य सप्त मूर्च्छना भवन्ति तथाहि
66
नंदी य खुड़िया पू-रिमा य चोत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारा विअ, हवई सा पंचमी मुच्छा ॥ १ ॥ सुत्तरमापामा दट्ठी सा नियमसो उ बोदन्या । उत्तरमंदा य तहा, हवई सा सत्तमी मुच्छा ॥ २ ॥ " अथ किस्वरूपा मूर्च्छना ? उच्यते-- गन्धारादिस्वरस्वरूपा मोचनेन गायतो ऽतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा यान् कुर्वन् आस्तां श्रोतॄन मूर्च्छितान् करोति, किं तु स्वयमपि मूर्हिछत इव तान् करोति, यदिवा स्वयमपि साक्षान्मूर्च्छा करोति ।
यदुक्तम्
"
" श्रन्नन्नसरविसेसे, उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्ता विवि, कुणए मुच्छं व सो वत्ति ॥ १ ॥ ” गन्धारस्वरान्तर्गतानां च मनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दा मूना किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्तदुपादानम् तथा मु यया वादयिता मूर्तितो भवति परमभेदोपचाराद्वाऽपि मूर्चितेत्युक्ला, साऽपि यद्यङ्के सुप्रतिष्ठिता न भवति ततो न मूईना प्रकर्ष विदधाति । जं० १ वक्ष० । प्रश्न० । श्रतो बहिं वा अयं भिरं वा मुच्छ्रयं ति वा एगहूं। नि० चू०१७ उ०। गृद्धे, अभ्युपपन्ने, ममत्वबहुले, सूत्र० १ ० १ ० १ ० । उत्त० । श्राव० । श्राचा० । मूढे, गतविवेकचैतन्ये, शा० १ श्रु० २ श्र० । सूत्र० । स्था० । एकीभावतामापत्रे, सूत्र० २ ० १ ० । कामोत्कटतृष्णे, सूत्र० १० २ ० ३ उ० । अत्यन्तासक्ते, सूत्र० १ ० ३ ० २ ३० । उत्त० । स्था० । मुज्झत-मुह्यत्-त्रि० । मुहेर्गुम्म - गुम्मडौ ॥ ८ । ४ । २०७ ॥ इति मुद्देर्गुम्मगुम्मडादेशाभावे ह्यस्य ज्झादेशः । मोहं गच्छ ति, प्रा० ४ पाद ।
मुट्ठि - मुष्टि-स्त्री० । प्रस्याऽनुष्ट्रेष्टशसंदष्टे ॥ ८ । २ । ३४ ॥ इि स्य ठः । बद्धपञ्चाङ्गुलीके हस्ते, प्रा० । ० क० । नि० भ० । उत्त० । स्था० । “बुक्का मुट्ठी" पाइ० ना० २२६ गाथा । मुद्दिजुद्ध-मुष्टियुद्ध १० यादयोः परस्परं मुष्ट्या हनमे जै
'चू०|
२ वक्ष० । स० । शा० । श्री० श्राचा० ।
मुट्ठिपोत्थय मुष्टिपुस्तक-१० चउरंगुलदीदो वा, बद्धा गिरमुत्थिगो अडवा चडरंगुलदीहोविय चउरंसो होइ विनेश्रो ॥ १ ॥ " इत्युक्तलक्षणे पुस्तकभेदे, पृ० ३ उ० । (चरंगुल) लचतुष्टयप्रमाणो दीर्घा वा प्राकृतायुक्राकृतिर्वर्तुलाकारो मुश्पुिस्तकः अथवा अङ्गुलचतुफायामः चतुष्कोणो मुष्टिपुस्तकः । स्था० ४ ठा० १ उ० । दश० । जीत० नि० ० । श्राव० । मुट्ठिय-मौष्टिक- ० मुहारमा
अनुशा
जी० । स्था० । जं० | रा० । म्लेच्छजातीये, प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार । लघुतरे घने, भ० १६० १ उ० । मुष्टिकृत - त्रि० । सङ्कुचिताने, विशे० ।
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मुट्ठिय
मुणि
(३०१)
अभिधानराजेन्द्रः। मुष्टिक-स्त्री० । लघुमुष्टी, रा०।
ग्शानेन विभक्तं स्वरूपोपादेयत्वं तच्च तथैव भवति, रमण मुद्विवागरण-मुष्टिव्याकरण-न० । व्याकरणभेदे , कल्प०१ चरणं मुनित्वम्, अतः सम्यक्श्रद्धागृहीतकरणं तदेवंभूतनअधि० १क्षण।
येन सम्यक्त्वम्, एवंभूतनयेन सभ्यगमुनित्वम् सम्यकस्वरूमुद्विवाय-मुष्टिवात-पुं०। अतिवेगेनायुद्धादिग्रहणाय मुष्टिब
पम् इति झपरिक्षाप्रत्यख्यानपरिक्षाप्राप्तमेव कार्यसाधकं तेन न्धनेनोत्पन्ने वाते, भ० ३ श०२ उ०।
सम्यक्त्वमुनित्वे अभेदः । सम्यग्दृष्टिभिः यश्चतुर्थगुलखान
कसाध्यत्वेन धारितं तथाकरणे यत्र मुनिभावे निष्पादितमुण-ज्ञा-धातु० । अवबोधने , शो जाण-मुणौ ॥८।४।७॥
सिद्धावस्थायाम् इत्यनेन शुद्धसिद्धत्वस्य धमनिधारः सजानातर्जाणभुण इत्यादेशौ भवतः । जाणइ । मुणइ । प्रा० ४ पाद । विशे।
म्यक्त्वम् । श्राचाराक-"ज सम्मसं पासह, तं मोण पासह
जं मोणं पासह, तं सम्मत्तं पासह, णमं सक कामायरेहि मुणाल-मृणाल-न० । पद्मनाले, उदृत्वादौ ॥ ८।१।१३१ ॥ इति
पनत्ताह गारवायसंठाह। उत् । प्रा०। जी। मा० श्राव०। प्रश्न । ०। प्रशा० । जं०।
"मुणी मोण समाधाय, धुणे कम्मसरीरगं । पद्मतन्तौ , जं०१ वक्षः। प्रश्न । “विसं मुणालं" पा
पंतं लूहं च सेविति, वीरा सम्मत्तदंसिणो ॥१॥": इ० ना० २५६ गाथा।
तथाच पञ्चास्तिकायेषु-"जीवः चेतनालक्षणः" । तत्र स्वी मुणालिया--मृणालिका-स्त्री०। पद्मसन्ती,जी०३ प्रति०४ यात्मबद्धोऽपि-विभावग्रस्तोऽपि, सत्तया निर्मलाऽऽनन्दी
अधिः । श्रा० म० । रा० । पभिन्याम् , नं०।०। निर्धार्य-तदावरणविगमाय मोहहेतुतद्रव्यानवान् हेमुणि-मुनि-पुं० । मुणति-प्रतिजानीते, सर्वविरतिमिति मु- यतयोपलक्षितान् हेयतया करोति इति सम्यक्त्वं मुनिनिः। विरतिमति, उत्त० १२ १०मनुते, मन्यते वा, ज
खरूपम् ॥१॥ गतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः । अतीन्द्रियशानवति परोक्ष
आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना । क्षे, श्रा०म०१०। सूत्र०। आव०। आचा। द्वा०। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्ति-रुच्याऽऽचारकता मुनेः ॥ २॥ श्रष्ट । दर्श। मुनिस्वरूपं निर्दिशति-सन्ति च लोके अनिर्ग्रन्था निम्र
(आत्मा इति) अत्र ज्ञानादिगुणानामभेदकरणभूतानां न्धाऽऽरोपमत्ता आत्मना अशुद्धा अभिमानतः तत्त्वविवेकवि
शायकत्वकार्यकर्ता श्रात्मा एव , अत्रोपादानस्वरूपे षदकलाः तेषामेवोपदेशाय विशुद्धगुरुतत्त्वावयोधार्थ चाह । त
कारकचक्रमय एव श्रात्मा । स्वयमेष कर्तृकार्यरूपोऽपि त्र-मन्यते त्रिकालविषयत्वेन प्रात्मानमिति मुनिः । तत्र
कारणरूपसंप्रदानापादानाधिकरणः स्वग्रमेवेति व्याख्यातं
भाष्ये श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणैः, अत एव आत्मा जीवः कर्द नाममुनिः, स्थापनामुनिः , सुगमः। द्रव्यमुनिः शशरीरभव्य
रूपः, आत्मना-श्रात्मीयज्ञानवीर्येण करणभूतेन प्रात्मानं शरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् अनुपयुक्नो लिङ्गमात्रद्रव्यक्रिया
अनन्तास्तित्व-वस्तुद्रव्यत्व-सत्त्व-प्रमेयत्व-सिद्धत्वधर्मकदत्तिसाध्योपयोगशून्यस्य प्रवर्तनविकल्पादिषु कषायनि- म्बकोपेतं कार्यत्वापन्नम् आत्मनि अाधारभूते अस्तित्वाचवृत्तस्य परिणतिचक्रे असंयमपरिणतस्य द्रब्यनिग्रन्थत्वम् ।। नन्तधर्मपर्यायपात्रभूते जानाति, सा इयं जानातिरूपा प्रवृ. भावमुनिः चारित्रमोहनीयक्षयोपशमक्षायिकोत्पन्नस्वरूपरम
त्तिः, सा एव रत्नत्रये सम्यग्दर्शनशानचारित्रलक्षणे इप्तिःणपरभावनिवृत्तः परिणतिविकल्पप्रवृत्तिषु द्वादशकषायोद्रे
रुचिः, आचार:-भासननिर्धाराचाररूपः, एतेषाम् एकताकमुक्तः नैगमसंग्रहव्यवहारनयैः द्रव्यक्रियाप्रवृत्तद्रव्यान- अभेदपरिणतिः, मुनेः अस्ति, इत्यनेन श्रात्मना-प्रारमानं शा. वविरक्तस्य मुनित्वम् , ऋजुसूत्रनयेन भावाभिलाषसंकल्पो
त्वा, तद्रुचिः तदाचरणं-मुनेः स्वरूपम् । भावना च मिथ्या पगतस्य शब्दसमभिरूढवभूतनयैः प्रमत्तात् क्षीणमोहं या- त्वाशानासंयमैकत्वेन पौगलिकसुखं सुखत्वेन निर्धार्य-मावत् परिणती सामान्यविशेषचक्रे स्वतत्त्वैकत्वपरमशमता- त्वा च, तदाचरणप्रवृत्तस्यानन्तकालं तत्त्वानवबोधेन दाघ मृतरतस्य मुनित्वम् अत्र सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रप्राग्भावयु- ज्वरपरिगतामृत्तिकालेप इवावगुण्ठितः कर्मपुरलेन चोक्लस्य द्रव्यभावाश्रवविरतस्वरूपरतस्यावसरः।
पलब्धः तत्त्वथद्धानज्ञानरमणानुभवलवोऽपि तेनैव निमन्यते यो जगत्सर्व , स मुनिः परिकीर्तितः। सर्गाद्विगमादिकारणेन अनादिनिधनोऽयं जीवोऽनन्तझानासम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव च ॥१॥
दिपर्यायालिप्तामूर्तस्वभावोऽवगतः, निर्धारितश्च, साध्योऽ मन्यते इति-यः शमसंवेगनिर्वदानुकम्पास्तिक्यलक्षणल
हं, साधकोऽहं, सिद्धोऽहं, शानदर्शनाद्यनन्तगुणमयोऽहम् क्षितो, जगद्-लोकं , जीवाजीवलक्षणं मन्यते , जानाति
इति शतिरुच्या आधरणरूपं मुनिस्वरूपम् । उक्नं चयथार्थोपयोगेन द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकस्वभावगुणपर्यायैः
"श्रात्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद् यदात्मनि। निमित्तोपादानकारणकार्यभावोत्सर्गापवादपद्धत्या जानाति
तदेव तस्य चारित्रं, तज ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥१॥" स मुनिः-अवगततत्वः , परिकीर्तितः-कथितः , श्री
पुनःहरिभद्रपूज्यैः षोडशकेतीर्थकरगणधरैः मुनेर्निर्ग्रन्थस्य इदं मौनम् , एवेति निर्धा
"बालः पश्यति लिङ्गं, मध्यमवृत्तिर्विचारयति वृत्तम् । रणे। तत् सम्यक्त्वं, यत् यथा शातं तथा कृतमिति तत् सभ्य
श्रागमतत्वं तु वुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥१॥" कत्वम् एव मुनित्यं, सम्यक्त्वं वा। पुनः सम्यक्त्वम्,एव मौनं
अतः तत्त्वैकत्वं चारित्रम् ॥२॥ निर्ग्रन्थत्वम् । अत्र यत् शुद्धश्रद्धाननिर्धारितात्मस्वभावः त
पुनस्तदेव द्रढयतिव अवस्थानं चरणम् , यच्च सम्यग्दर्शनेन निर्धारित सम्य- चारित्रमात्मचरणाद् , ज्ञान वा दर्शनं मुनेः।
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अभिधानराजेन्द्रः।
मुणि शुद्धज्ञाननये साध्यः, क्रियालाभात् क्रियानये ॥३॥ निर्मलनिष्कलङ्कमानदर्शनोपयोगलक्षण आत्मा, तज्ज्ञानं शा. (चारित्रमिति) आत्मचरणात्-श्रात्मस्वरूपरमणात् परभा- नम् । उक्त चवप्रवृत्तित्यागात् । चारित्रम्-श्रात्मस्वरूपावबोधः,शानं-स्वी
"देहादेवलजो वसइ, देय प्रणाचणंत । यासंख्येयप्रदेशव्यापकत्वेन सहजलक्षणशानाधनन्तपर्यायः सो परजाणहु जोइया, असत तंत नमंत ॥१॥" अहं नाम्य इति निर्धारः । दर्शनम्-इत्यनेन प्रात्मा शानदर्श- आत्मज्ञानेनैल सिद्धिः , साध्यमपि पूर्णात्मशानं , तनोपयोगगुणद्वयलक्षणः । एवम् उक्तं च भाष्ये-"आत्मनो वर्थमेव वदन्ति दर्शनान्तरीयाः , प्राणायामयन्ति-रेगुणवयमेव व्याख्यानयन्ति" इति तन्मते-शाने स्थिरत्वं चा- चकादिपवनम् , अवलम्बयन्ति मौनं , भ्रमन्ति गिरिवनरिवं, तेन ज्ञानचारित्रयोरभेद एव, शानमेवात्मपरिणाममयी निकुओषु , तथाऽप्यहत्प्रणीतागमश्रवणात् स्याद्वादस्वपरवृत्तिः । सम्यक्त्वम्-प्रास्त्रवरोधः, तस्वशानेकता चारित्रम् , परीक्षपरीक्षितस्वस्वभावावबोधमन्तरेण न कार्यसिद्धिः , एवं व्यापारभेदात् ज्ञानस्यैवावस्थात्रयम् । उक्नं च
अतः प्राप्तावसरे तदेथानन्तगुणपर्यायात्मकमात्मानमात्म"एवं जिणपण्णते, सहहमाणस्स भावो भावे। माऽऽत्मनि करणीयम् । उक्तं चपुरिसस्साभणि वाए, सणसदो हबइ जुत्तो ॥१॥" "आत्माऽज्ञानभवं दुःख-मात्मशानेन हन्यते । तथा च क्रियानये क्रियालाभात् साध्यनिष्पादनाय इति
अभ्यस्यं तत्तथा तेन, येन (आत्मा) शानमयो भवेत् ॥१॥" प्रथमं च क्रियानयसाध्यं तत्त्वप्राग्भावे च सर्व माननयसा- यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमएडनम् । ध्यमस्ति, वस्तुतः ज्ञानप्रवृत्तिरेव चरणं शानमयमेवात्मध- तथा जानन् भवोन्माद-मात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥ ६॥ मत्वात् , अतः ज्ञानस्वरूप एवात्मा ॥ ३॥
यथा इति-यथा पेन प्रकारेण, शोफस्य-पुष्टत्वं शरीयतः प्रवृत्तिर्न मणौ, लभ्यते वा न तत्फलम् । रस्थौल्यं न पुष्टत्वे इष्ट, वा-अथवा, यथा वध्यस्य-मारअताचिकी मणिज्ञप्ति-मणिश्रद्धा च सा यथा ॥४॥।
णार्थ स्थापितस्य, मण्डनं करणवीरमालाद्यारोपणात्मकम् ,
पवरूपं भवोन्मादं जानन्-भवस्वरूपम् एवंविधं जानन् , मु(यतः प्रवृत्तिरिति) अशुद्धशाने निष्कलत्वं द्रढयति, यथा-| निः-समस्तपरभावत्यागी,आत्मतृप्तः आत्मस्वरूपे-अनन्तगुअतात्विकी मणिक्षप्तिः-श्रमणो मण्यारोपे, अमणी माणिश्रद्धा, णात्मके, तृप्तः-तुष्टो भवेत् , संसारस्वरूपं विरूपमसारं निष्फतस्मिन् तत्फलं न लभ्यते-न प्राप्यते, यतः मणेः सकाशात् | लम् श्रभोग्यं तुच्छं तं ज्ञात्वा, मुनिः स्वरूपे मनोभवति ॥६॥ मणिप्रवृत्तिः विषापहाराादका भवतीत्यर्थः । उक्तं च
सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । "पुल्लेव मुट्ठी जद्द से असारे, आयंतए कूडकहावणे वा। राढामणी वेरुलवप्पगासे,अम्हग्घउ होइ य जाणएसु ।१।४॥"
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मौनमुत्तमम् ॥७॥
(सुलभमिति) वागनुच्चारम्-वचनाप्रलापरूपं, मौनम् सुतथा यतो न शुद्धात्म-स्वभावाचरणं भवेत् ।
लभ-सुप्राप्यं, तत् एकेन्द्रियष्यपि अस्ति । तन्मौनं मोक्षसाफलं दोपनिवृत्तिा , न तज् ज्ञानं न दर्शनम् ॥ ५॥ धकं नास्ति । पुद्रलेषु-पुद्गलस्कन्धजवर्णगन्धरसस्पर्शसंस्था(तथा इति)तथा-तेन प्रकारेण, यतः-एकान्तद्रव्याचरणचा- नादिषु, योगाना-द्रव्यभावमनोवचनकाययोगाना, या अप्ररित्रात्, शुद्धात्मस्वभावाचरणं-शुद्धः परभावरहितः योऽसौ
वृत्तिः रम्या, रम्यतया श्रव्यापकत्वं सदभिमुखं वीर्यापसरआत्मस्वभावः स्वरूपलक्षणः तस्याऽऽचरणं तदैकत्वं तन्म
एपरिसर्पणरहितं, मौनम् उत्समम्-प्रशस्यम् ,भावना च-पयत्वं न भवेत् , तेन प्रवर्तनेन फलं शुद्धात्मस्वभावलाभरूपं न
रभाषानुगतचेतनावीर्यप्रवर्त्तनं चापल्यं तद्रोधः मौनम् उत्तमपरमात्मपदनिष्पत्तिः,म दोषाणां-रागादीनां,निवृत्तिः श्रभावः।
म्-उत्कृष्टं, आयत्यात्मनीनं योगचापल्यं च नात्मकाय तेन न । वा-अथवा, तत्-सर्वमपि, प्रवर्त्तनं बाललीलाकल्पं शुद्धा
तद्रोधः श्रेयान् । योगस्वरूपम् कर्मप्रकृती-पात्मनो वीर्य
गुणस्य क्षायोपशमप्राप्तस्यासंख्येयानि स्थानानि सर्वजघन्य स्मस्वरूपालम्बनमन्तरेण अवेद्यसंवेद्यरूपं शान-तज्ज्ञानं,तथा
प्रथमं योगस्थानं सूक्ष्मनिगोदिनः॥ एवं सूक्ष्मनिगोदेषु उत्पद्यसकलपरभावसङ्गोपाधिकाशुद्धात्माध्यवसायमुक्ततात्विका
मानस्य जन्तोः भवति । इह जीवस्य वीय केवलिप्रशाच्छेदनके मूर्तचिन्मयानन्दात्मीयसहजभाव एवाहमिति निर्धारविकलं
न छिद्यमानं छिद्यमानं यदा विभागं न प्रयच्छति, तदा स एतदर्शनं, न-नैवेत्यर्थः, अत एव श्रुतेन केवलात्मज्ञानं तदभे
वांशो विभागः,ते च वीर्यस्याविभागाः,एकैकस्मिन् जीवप्रवेशे दक्षानम् उत्सर्गज्ञानं च श्रुताक्षरावलम्बि सर्वद्रव्योपयोगं
चिन्त्यमाना जघन्येनाप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, उभेदशानं सर्वाक्षरसंपन्नश्च यावद् द्रव्यशुभाऽवलम्बी ताबद्
त्कर्षतोऽप्येतत्संख्याः, किंतु-जघन्यपदभाविवीर्याविभागापेभेदज्ञानी । उक्तं च समयप्राभृते
क्षया असंख्येयगुणा द्रष्टव्याः,येषां जीवप्रदेशानां समाः तुल्य"जो सुएणाभिगच्छह, अप्पाणमिणं तु केबलं सुद्धं ।
संख्यया वीर्याविभागा भवन्ति सर्वेभ्योऽपि चान्यभ्योऽपि तं सुश्रकेवलमिसिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा ॥१॥
जीवप्रदेशगतवीर्याविभागेभ्यः स्तोकतमाः ते जीवप्रदेशा घ. जो सुनाणं सव्वं, जाणइ सुश्रकेवली तमाहु जिणा ।
नीकृतलोकासंख्येयभागासंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणाः नाणं श्रायासव्वं, जम्हा सुअकेवली तम्हा ॥२॥"
समुदिता एका वर्गणा । सा च जघन्या स्तोकाविभागयुक्तअात्मस्वरूपक्षानं च प्राभृते
त्वाद् , जघन्यवर्गणातः परे ये जीवप्रदेशाः एकेन घीर्याविभागे"अहमिको खलु सुद्धो, निम्मश्रो नाणदसणसमग्गो। नाभ्यधिका घनीकृतलोकासंख्येयभागवय॑संख्येयप्रतरगतप्रतम्मि ठिो तश्चित्तो, सम्वे पए खयं नेमि ॥१॥" देशराशिप्रमाणा वर्तन्ते । तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा ।
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(४) अभिधानराजेन्द्रः ।
मुखि
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ततः परं द्वाभ्यां वीर्षाविभागाभ्यामधिकानामुक्त संख्याकानामेव जीवप्रदेशानामेव समुदायस्तृतीया वर्गणा एवमेकैकबीर्याविभागवृद्धया वर्डमानानां तावन्तो जीवप्रदेशानां समुदायरूपा वर्गणा असंख्येया वक्तव्याः, ताध कियत्य इति इदं घनीकृतलोकस्य या एकेकप्रदेशपक्तिरूपा श्रेणिः तस्याः श्रेणेरसंख्येयतमे भागे यावन्तः श्राकाशप्रदेशाः तावन्मात्रा वर्गणा समुदिता एकं स्पर्द्धकम स्पर्धेतेोत्तरोत्तरहृदया वर्गणा अत्र इति स्पर्धकम् पूर्वोक्रस्पर्यगतचरमवर्गसायाः परतो जीवप्रदेशा नैकेन वीर्याविभागेनाधिकाः प्राप्यन्ते नाऽपि द्वाभ्यां नाऽपि त्रिभिः नाऽपि संख्येयैः, किं त्वसंख्येयलोकाकाशप्रमाणैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते, ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्द्धकस्य प्रथमा वर्मणा ततः जीवप्रदेशानामेकेन वीर्याविभागेनाधिकानां समुदायो द्वितीया वर्गणा, शभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिकानां समुदायः तृतीया वर्गला एवं ताय द्वाच्यं यावत् श्रेण्य संख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा वर्गया भवन्ति तासां च समुदायः द्वितीय स्पर्क ततः पुनरप्यसंख्येयलोकाकाशाः प्रदेशप्रमाणेः बीर्याविभागैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते ततस्तेषां समुदायः तृतीयस्य स्पर्कफस्य प्रथमा वर्गणा ततः एकैकवीर्याविभाग द्वितपादयो वर्गणास्तावाच्या यावत् घेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिममाणा भवन्ति तासां च समुदायः तृतीयं स्प कम्, एवमसंख्येयानि स्पर्द्धकानि वाच्यानि एवं पूर्षोक्तानि स्वर्द्धकानि निजघन्य योगस्थानम एतच सूक्ष्मनिगोदस्य सर्वा यस्य भवप्रथमसमये वर्त्तमानस्य प्राप्यते, ततः अस्य जीवस्याधिकतरवीर्यस्य येऽल्पतरीय जीवप्रदेशाः तेषां स मुदायः प्रथमा वर्गणा, तप्तः एकेन वीर्याविभागेन वृद्धानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । द्वाभ्यामधिकानां समुदायस्वतीया वर्गणा । एवमेकवीर्याविभागवर्द्धमानानां यावत् श्रेयसंख्ये भागवतप्रदेशराशियमाणा भवन्ति तासां स मुदायः प्रथमस्पर्द्धकम्। ततः प्राकृतनयोगस्थानप्रदर्शितप्रकारेण द्वितीयादीनि स्पर्द्धकानि वाच्यानि तानि च यायत् यसंख्येषभागगत प्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति त तस्तेषां समुदायो द्वितीयं योगस्थानम् । ततोऽभ्यस्य जीयस्याधिकतर वीर्यस्योपदर्शितप्रकारेण तृतीयं योगस्थानं वाच्यम् । एवमन्योऽन्यजीवांपेक्षया तावत् योगस्थानानि याच्यानि यावत्सक योगस्थान भवति । तानि च यो मस्थानानि सर्वात्यपि अत्यसंस्थेयभागवतप्रदेशराशियमा खानि भवन्ति । क्षयोपशमवैचित्रयात्सर्वमवसेयम् । ननु जीवानामनन्तत्वात् प्रतिजीवं च योगस्थानस्य प्राप्यमा
"
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ततः
वात् श्रनन्तानि योगस्थानानि प्राप्नुवन्ति कथमुच्यते असंख्येयानि ? । उच्यते यतः एकैकस्मिन् योगस्थाने सदृशे सदृशे वर्त्तमानाः स्थावरजीवा अनन्ताः प्राप्यन्ते . सर्वजीवापेक्षयाऽपि सर्वाणि योगस्थानानि केवलपरिया परिभाव्यमानानि असंख्येयान्येव प्राप्यन्ते नाधिकानि एकस्मिन योगस्थाने एको जीवः जयभ्यत एवं समयम उत्तो समयान् यावतिष्ठति । एवं योगस्थानतारतम्ये सarray योगबाहुल्य गाथाक्रमेण वक्तव्यम्"सुमनिगोचर - जोगपायरबिगल अमरामणा ।
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मुणि
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अपलमगुरु, पस्सिव असंक्षगुणो ॥ १॥ असमत्ततसुक्कोसो, पजहन्नियर एव ठिठाणा । इत्यष्टाविंशतिभेदाल्पबहुत्वमवगन्तव्यम् । योगवाहुल्ये बहुकर्मग्राही, मन्दत्ये अल्पपुलमाही इत्येवं या योगानां पुत्रलग्रहणरूपा प्रवृत्तिः तस्या रोधः मीनम् उत्तमे किसष्णस्य बाह्ययोगरोधेन । तस्मात् सफलविमलज्ञानाद्यनन्तगुणगणमहामाहात्म्यपरमात्मभावरसिकैः श्रात्मनो योगप्रवृत्तिपुङ्गलानुगतयो रोधनीया इत्युपदेशः ॥ ७ ॥
ज्योतिर्मयीव दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी । यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥ ८ ॥
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"
( ज्योतिर्मयीवेति) तस्य - तत्त्वैकत्वपरिणतस्य, मौनम् - योगनिग्रहरूपं, स्वधर्मप्राग्भावकर्त्तृत्वभोक्तृत्वे व्यापारिताशेषवी र्यस्य कर्मविकरणापूर्वकरणकिट्टीकरणादिषु स्थापितवीर्यकरणस्य परभावाप्रवृत्तत्वेन - मौनम् - योगचापल्यतावारणरूपम् अनुसरम् - सर्वोत्कृष्टं यस्य क्रियागुणप्रकर्तना प्रवृत्तस्थापि चिन्मयी स्वरूपज्ञानमयी आत्मानुभ वैकत्वरूपा तथा दीपस्य या क्रिया उत्क्षेपसनिक्षेपशादिका सा सर्वापि ज्योतिर्मयी ज्ञानप्रकाशयुक्ता, तथा यस्य वन्दननमनादिगुणस्थानारोहरूपा क्रिया तत्वज्ञानप्रकाशिका तस्य अनन्यस्वभावस्य न विद्यते - श्रन्यः परः स्वभावो यस्य सः, तस्य परभावव्यापकचेतनाभिसंधिवीर्यरहितस्य साधोः मीनम् अनुत्तरम्, वियत्सुस्वभावा
"
श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानुरोधादेव तत्कारकात् वियत्संपूर्णता, तदुत्पत्तौ, — कुम्भ
स्वेध दशाऽऽत्मनः' इति न्यायात् ज्ञानिनः क्रियान्युपका रका शातव्या ज्ञाननयस्यात्मनः तत्त्वैकत्वाध्यासितस्वरूपारोहका या क्रिया सा ज्ञानस्वरूपप्रकाशनहेतुः श्रावरणनिमित्तमसत्क्रिया श्रावरणापगमाय सत्क्रियानिमित्तं भवति, तत्त्वमस्य न कारणीभवति श्रतः तत्त्वज्ञानस्वरूपैकत्वध्यानलीनानां मुनीनां तेषाम् एव नमश्चरणयोः ॥ ८ ॥ अ० १३ श्रष्ट० । प्रतिज्ञातसावद्यविरतौ, उत्त० २७ श्र० । साधौ, आव० ४ श्र० । विशे० । सूत्र० । नि० चू० । सूत्र० । दश० । ध० । श्रद्रोहाध्यवसायवति, श्राचा० १ ० ३ ० ३ उ० । यथावस्थितसंसारस्वभाषयेसरि सूत्र० १० २ ० २ उ० । श्राचा० । तीर्थकृति, श्राचा० १ श्रु० ५ श्र० ३ उ० । यतौ, सूत्र० १० २ श्र० २ उ० भ० । श्राव० । सर्वज्ञे, सू० १ ० २ ० १ ३० । महर्षी, सूत्र० १० २ ० १ ३० । मननशीले, उत्त० ६ श्र० । वाचंयमे, उपा० २ श्र० । संयते, दश० ५ ० | मोक्षमात्रनिष्ठे, दश० ५ ० । तपस्विनि, दश० १० प्र० । मौनिनि श्र० । तस्वशानिनि, अ० २२ - पृ० । श्र० म० । रागद्वेषवर्जिते श्र० म० १ ० । त्रिविधपरीषहसहनशीले, श्रा० म० १ श्र० । “जणो तवस्सिपो ता - वारिसी भिक्खुणो मुणी समा पाइ० ना० ३२
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39
गाथा ।
-
। मुशिअज्ञात वि० विदिते, "कलिनं विश्यं विहाय - हिगयं बुजिest मुणिश्रं " पाइ० ना० ६१ गाथा । मुनिश्रतन ज्ञाततत्र- पुं० ज्ञातपरमार्थे, “मुचित " (८५१ गाथा ) पं० व० ३ द्वार । जी० ।
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( ३१२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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मुर्गिद - मुनीन्द्र- पुं० 1. इस्वस्संयोगे || ८ | १ | ८४ ॥ इति संयुक्तपरत्वाद् हस्वः । प्रा० १ पाद । परमशानिनि समयशे, पो० १ विव० । मुखिगण-मुनिगण-पुं० । व्रतादौ, आव० ३ श्र० । मुणिचंद मुनिचन्द्र पुं० | सागरचन्द्रस्य मुनेः समीपे प्रवज्य ब्रह्मदतपूर्वभवजीवस्य पुत्रस्य चित्रस्यापि च पूर्वभवजीवस्य गोपालदारकस्य प्रवाजके, उत० १३ ० ( तत्कथा म दत्त' शब्दे पञ्चमभागे १२७२ पृष्ठे उक्का) मण्डलमकरणकारके सूरी, मण्ड० । स्था० । श्रा० चू० । ( 'मेश्रज्ज ' शब्दे कथा) कुमारसन्निवेशे भगवद्वीरेण सह मिलिते पार्श्वापत्तीये साधौ, आ० म० १ अ० । श्रा० चू० । अनेकान्तजयपताकाकृति सूरी, अन० तपागच्छथमसूरी, ग०
"श्री सर्वदेवसूरि-जैज्ञे पुनरेव गुरुचन्द्रः ॥ २२ ॥ जाती तस्य विनेयी, सुरियशोभनेमिचन्द्राही । ताभ्यां मुनीन्द्रश्रीमुनि-चन्द्रौ गुरु समभूताम् ॥ २३ ॥” ग० ३ अधि० । अनेन गाथाकोश: तीर्थमालास्तवः रत्नजयकुलकं हरिमइरितधर्मविटीका चेति प्रस्था रचिताः। द्वितीयोऽप्येतनामा चन्द्रप्रभसरिशिष्यः देवयमरिगुरुः चीलुक्कवंशीयस्य अमलराजस्य प्रयाजयिता, तृतीय पडगच्छे देवसूरिगुरुः आवश्यक सप्ततिप्रन्थकर्ता । जै० इ० ।
मुलिज - मुनिजन पुं० साधुजने जी० १ प्रति । मुणिता - मुनिता - स्त्री० | प्रब्रजिततायाम्, श्रा० म० १ ० । मुणिदेवसूनि मुनिदेवरिपुं० शान्तिनाथचरित्रप्रथकृति, द्वितीयोऽपि मुनिदेवाचार्य इति प्रसिद्धः सुभाषितरत्नकोनामग्रन्थकर्त्ता । जै० ५० ।
मुखिपरिसा मुनिपर्षद् स्त्री० [मीनवत्साधुषु श्र० मुमिपुयमुनिपुङ्गव पुं० तीरधरादिषु ०४
-
3
तव ।
मुणिय-ज्ञात - त्रि० । विदिते, श्रा० चू० १ श्र० । नं० | स्वनामख्याते पिशाचे, प्रा० सू० १ ० मुणियपरमऽत्थ-ज्ञातपरमार्थ पुं० अभ्युतविहारेण हि Heसरः साम्प्रतमस्माकमित्येवमवगतार्थे, वृ० ६ ३० । ज्ञातसिद्धान्तार्थे पञ्चा० ११ वि०
मुणिरयसरि मुनिररिपुं० चन्द्रगडीये समुद्रपोष
। - रिशिष्येजिनसरिगुरी, अमेज अममवामिचरित्रनाम अन्धो रचितः अयं १९६० विक्रमसंवत्सरे आसीत् । जै० इ० । मुणिवंस-मुनिवंश-पुं० । यतिमुनिशब्दयोः पर्यायत्वात् । मुनिकुले, स० । मुनिवर- मुनिवर-पुं० भ्रमणश्रेष्ठे ग० १ अधि० । मुशिवसभ-मुनिषभ- ० सातिशयादिमुनिमुपे, पञ्चा०२ विव० ।
मुखविजय मुनिविजय-९० अधिकाचार्यपुष्पचूसक थानामग्रन्थस्य कारके अमरविजयशिष्ये । जै 이
मुत्त
मुणिवेजयंत- मुनिवैजयन्त पुं० । मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिर्भगवान् वैजयन्तः प्रधानः समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्तीवोपरिव्यवस्थित इति मुनिप्रवरे श्रीवीरजिने, सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० ।
मुणिसुंदर मुनिसुन्दर - पुं० | सोमसुन्दरगणीन्द्रशिष्ये, 'श्रीदेव सुन्दरगुरोः पट्टे श्री सोमसुन्दरगणीन्द्राः । अभवन् युगप्रधानाः शिष्याने श्रीमुनिसुन्दरस्रिः बेन स्तोत्ररत्नकोशो नाम प्रन्धो व्यचि । ग०३ अधि० । अस्य जन्मविक्रमसंवत् १४३६ दीक्षा विक्रमसंवत् १४४३ श्रस्ति । श्रयं च वाचकपदम् १४६६ सूरिपदम् १४७८ स्वर्गगमनम् १५०३ प्राप्तवान् पाण्डित्यप्रभायादयं कालीसरस्वतीयादिगोकुलपद सहस्राधिधानीत्यादि विरुदानि ले ०० "वीरात् विनन्दाङ्कशरचचीकर-सर्व त्यते भुवसेनभूपतिः । यस्मिन्महः संसदि कल्पवाचनामाद्यात्तदानन्दपुरं न का स्तुते ॥१॥" ० १ अि मुनिसुव्वय - मुनिसुव्रत- पुं० । मनुते जगतस्तिकालावस्थामिति मुनिः मुनेरुती यास्य देति प्रत्यये उपान्त्यस्योत्यम्। शोभनानि तानि यस्येति सुवतः मुनिबासी सुखतः तथागर्भस्थे जननी मुनियत्सुता जातेति मुनिसुव्रतः । ०२ अधि० "जाया जली सुरति मुख्य तन्हा " ध० २ अधि० । श्राव० । श्रस्यामवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रे जाते विंशतितमे तीर्थकरे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । स्था० । अनु० प्र० । "पकारसमो देवीबो मन्ति०२० कल्प | देवक्या जीवे भाविन्यामुत्सर्पिण्यां जनिष्यमासे एकादशे तीर्थकरे, प्रव० ४६ द्वार । ति० । श्रा० क० । मुणिले मुनिसेन पुं० पुष्पकलावतीजिये पुण्डरीकियां मग जाते सागरसेनभ्रातरि ० सू० १ ० ' उसम शब्दे द्वितीयभागे ११३३ पृष्ठ श्रेयांसन स्वपूर्वभवकथने ललितादेस्ताये कधीका )
मन्तव्ये
मुणी - देशी - अगस्ति मे, दे० ना० ६ वर्ग १३३ गाथा । मुखि ज्ञात्वा प्रयात्त्य प०६० मुनियम्य ज्ञातव्य त्रि० बाय उत्त०२० प्रव २०४ द्वार | वेदितव्ये, जं० १ बक्ष० । श्राव० । पञ्चा० । मुल-मुक्त जि० त्यह्ने, पा० सू० चतुतिविकचितकर्मबन्धमुक्तत्वान्मुक्तः। ल०। मुक्तस्त्यक्तः सङ्गो द्रव्यतः पुनर्मुक्तो भायतोऽभिष्वङ्गाभावात्। स्थान' चत्तारि पुरिसाजाया० (३६६ हम्पादि सूक्ष्म पुरिसजाय शब्दे पञ्चमभागे २०२३पृष्ठे गतम् ) निर्लोभतायुक्रे, ग०२ अधि० वाद्याभ्यन्तरपरिग्रहरहिते, याचा० ]
१ ० २ ० ६ उ० याह्याभ्यन्तरसन्धियन्धनमो०१ सम० | दश० भ० भवोपग्राहिकर्मणि, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । चतुर्गतिविपाकथितकर्मवन्ध घ० २ अधि० | सकलक कृतविकारविरहिते, स्था० १० ठा० । क्षिप्ते, जी० ३ प्र ति ४ श्रधि० | ज्ञा० | सूत्र० । न० । प्रभवणे, अष्ट० १६० । आव० । स्था० । प्रश्न० दर्श० रा० आ० क० ।
मूर्त - त्रि० । स्यादौ ८ | २ | ३०॥ इति धूर्त्तादित्वातस्य टो न । मुत्तो । प्रा० प्रघ० । वर्णादिमति, स्था० ५ ठा० ३ उ० । रूपिणि, श्राव० ४ ० । करप्रेरिते, शा० १ ० १ अ०] कर्मपरान्मुक्तः
०२
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मुत्तावली
मुत्तग
अभिधानराजेन्द्रः। मुत्तग-मुक्तक-न० । स्वनामख्याते, पुष्पे , कल्प० १ अधि०
मुक्तावलीतपः प्राह३क्षण।
एगो दुगाइ एक्कग--अंतरिश्रा जाव सोलस हवंति । मुत्तत्त-मूर्त्तत्व नका मूर्ती रूपरसगन्धस्पर्शादिसन्निवेशता त- पुण सोलस एगंता, एकंतरिया अभत्तट्ठा ॥१५३७ ।। स्या धरणस्वभावो मूतत्वम् । मूर्तस्वभावे,"मूर्ति दधाति मू| पारणयाणं सट्ठी, परिवाडी चउक्कगंमि चत्तारि । तत्वममूतत्वं विपर्ययात्।" द्रव्या०१२ अध्या०। लोकदृष्ट- वरिसाणि हुंति मुत्ता-चलीतवे दिवससंखाए ॥१५३८॥ व्यवहारेण मूर्तस्वभाव एवात्मा इत्यके । द्रव्या० ११ अध्या० । मुक्तावली-मौक्तिकहारः, तदाकारस्थापनया यत्तपः तन्ममुत्तपुरीसुस्सग्ग-मूत्रपुरीपोत्सर्ग-पुं० । मूबपुरीपत्यागे , क्नावलीत्युच्यते। तत्रादौ तावदेककः स्थाप्यते,ततो द्विकत्रि“ मूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजनम् । सन्ध्यादि
कादय एककान्तरिता भवन्ति । यावत्षोडश । ततःपुनःप्रत्या कर्मपूजां च, कुर्याजापं च मौनवत्॥१॥" ध० २ अधि० ।
गत्या पोडशादय एककपर्यन्ता एककान्तरिता स्थाप्यन्ते। नि० चू०।
स्थापना चेयम्मुत्तमल-मुक्तमल-पुं० । मलरहिते , दर्श० ४ तत्व ।
7 अयमर्थः-पूर्व तावदेक उपवासः, ततो द्वौ, मुत्तरूव मुक्तरूप-त्रि० । वैराग्यपिशुनाकारे , स्था० ४ ठा०
२| ततः पुनरेकः , ततस्रयः , तत एकः, ततश्चत्वारः, तत एकः, ततः पञ्च, तत एकः , ततः
षट् , तत एकः , ततः सप्त, तत एकः, ततो मुत्तसक्करा-मूत्रशर्करा-स्त्री० । पाषाणके मूत्ररोगे, नि० चू०
ऽष्टी, तत एकः, ततो नव , तत एकः, ततो १उ०।
१० दश, तत एकः, तत एकादश, तत एकः, ततो मुत्ता-मुक्का-स्त्री० । मुक्ताफले, प्रा०म०१ अ०। स्था। रा०।
द्वादश, तत एकः, ततस्त्रयोदश , तत एका, मुत्ताकलाक-मुक्ताकलाप-न० । मौक्तिकाहारे कल्प०१
ततश्चतुर्दश, तत एकः , ततः पञ्चदश, तत
| एकः, ततः षोडशोपवासाः, एवमर्द्धमुक्तावधि०२ क्षण।
ल्या निष्पन्नं द्वितीयमप्यर्द्धमेवं द्रष्टव्यम् , केवलमुत्ताजाल-मुक्काजाल-न० । मुक्ताफलसमूहे, ज्ञा० १श्रु०१ अ०।
मत्र प्रतिलोमगत्या उपवासान् करोति , तबमुक्ताफलमये दामसमूह, रामुक्काजालानामन्तरेषु यान्युत्सृ- |८| था-घोडशोपवासान् कृत्वा एकमुपवासं करोतानि लम्बमानानि हेमजालानि-सुवर्णसमूहाः। रा०। जी०।।
ति । ततः पञ्चदश, तत एकमित्येवमेकोपवामुत्तादाम-मुक्कादामन-न। मुक्ताफलमालायाम् , रा०ा श्री
सान्तरितमेकोत्तरहान्या तावन्नेयं यावत्पर्यन्ते मुत्ताफल-मुक्ताफल-न० । मौक्तिके , मुक्ताफलानि सचित्तानि |
द्वावुपचासौ कृत्वा एकमुपवासं करोति इति,
एते अभक्तार्था उपवासाः, सर्वाग्रेण च त्रीणि अचित्तानि वा पृथिवीकायदलान्यप्कायदलानि वेति प्रश्ने, उत्तरम्-मुक्ताफलान्यचित्तानि पृथ्वीकायरूपाणि च भव
शतानि , तथाहि-द्वे षोडशसंकलने १५०-१५०
अष्टाविंशतिश्च चतुर्थानि । तथा-षष्टिः पारन्तीति ॥ २१५ ।। सन०३ उल्ला०।
णकानि , ततो जातमेकं वर्षम् , एतदपि मुत्तामणिमय-मुक्तामणिमय-त्रि०। मुक्ता-मुक्ताफलानि,मणय
तपः प्राग्वच्चतसृभिः परिपाटीभिः समाश्वन्द्रकान्ताद्या रत्नाविशेषाः, मुक्तारूपा वा मणयो रत्नानि
प्यते , ततो भवन्ति मुक्तावलीतपसि दिवमुक्तामणयस्तद्विकारो मुक्कामणिमयः । मुक्तामणिविकारे, स०
ससंख्यया चत्वारि वर्षाणीति । अन्तकृद्दशा६४ सम०।
सु पुनर्य एव प्रथमपतिपर्यन्तवर्तिनः षोडश, मुचाऽऽलय-मुक्काऽऽलय-पुं० मुक्तानामाश्रयत्वादालयः मुक्का
द्वितीयपतिप्रारम्भेऽपि त एव, एक एव षोडश लयः । ईषत् प्राग्भारायां पृथिव्याम् , जं. ३ वक्षः । स०।
|१६|१६| क इति तात्पर्यम् । प्रव० २७१ द्वार। मुत्तावली-मुक्तावली-स्त्रीमुक्ताफलमये श्राभरणविशेष, ज्ञा० पितुसेणकण्हाऽवि नवरं मुत्तावलीतवोकम्म उवसंपजित्ता १ श्रु०१०। जी। आचा। जै० । मुत्ताफलशरीरे हारे, णं विहरति । तं जहा-चउत्थं करेति, चउत्थं करित्तास०७४ समारा औ० भ०। “ मुत्तावली य हारो” पाइ०
सबकामगुणियं परिति , सव्वकामगुणियं पारेत्ता-छड़े ना०११५ गाथा । स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च । मुक्तावलिद्वीपे मुक्तावलिभद्र-मुक्लावलिमहाभद्रौ, मुक्तावलौ समुद्रे मुक्ता
करेति, छठें करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकावलिवर-मुक्तावलिमहावगै.मुक्तावलिवरे द्वीपे-मुक्तावलिवर
मगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकाभद्र-मुक्तावलिवरमहाभदौ , मुक्तावलिवरे समुद्रे-मुक्तावलि- मगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ताअट्ठमं करेति, वर-मुक्तावलिमहावी, मुक्तावलिवरावभासे द्वीपे-मुक्ताव- अट्ठमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं लिवरावभासभद्र-मुक्तावलिवराभासमहाभदौ, मुक्तावलिवराभवासे समुद्र-मुक्तावलिवरावभासवर-मुक्तावलिवरा
पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुपियं वभासमहावरी । जी०३ प्रति०२ उ० । मुक्तावलिः-मौक्तिक
पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-दसमं करेति, दसमं हार, तदाकारस्थापनया यत्तपस्तन्मुक्तावलीत्यच्यते । तपो-| करत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेताभेदे, प्रव०
। चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, ve
and amanardarwafadnagma
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मुत्तावली अभिधानराजेन्द्रः।
मुत्ति सबकामगुणियं पारेत्ता-दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता-मुत्तावलीवर-मुक्तावलीवर-पुं० । मुक्तावलीसमुद्रस्य पूर्वाऽर्द्धा सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणिय पारेत्ता-चउत्थं | ऽधिपदेवे, स्वनामख्याते द्वीपभेदे च । तत्र मुक्तावलावरभद्रमुकरेति, चउत्थं करेत्ता-सबकामगुणियं पारेति, सन्वका- | काबलीवरमहाभद्रौ देवी । जी० १ प्रति० । मगुणियं पारेत्ता-चोदसमं करेति. चोहसंम करेत्ता-सव्व-मुक्तावलीवरभद्द-मुक्तावलीवरभद्र-पुं०। मुक्तावलीवरद्वीपस्य कामगणियं पारेति, सव्वकामगणियं पारेत्ता-चउत्थं क- समुद्रस्य च पूर्वाद्धाधिपती देवे, जी०३ प्रति०५ अधि०॥ रेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सब्वकाम- |
मुत्तावलीवरमहावर-मुक्तावलिवरमहावर-पुं० । मुक्तावलीवर
द्वीपस्य समुद्रस्य च परार्धाधिपतौ देवे,जी०३प्रति०४अधिक। गुणियं पारेत्ता-सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता-सव्व
मुत्तासुत्ति-मुक्ताशुक्ति-स्त्री० । मुक्ताफलयोन्याकारायर्या हस्तकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-अट्ठारसं
विन्यासमुद्रायाम् , पञ्चा० ३ विव० । प्रव० । सङ्का० । मुक्ता करेति, अट्ठारसं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सबका- मौक्तिकानि तासां शुक्तिरुत्पत्तिस्थानम् । मुनोत्पत्तिस्थाने, मगुणियं पारेत्ता-दीसतिमं करेति, वीसतिमं करेत्ता-सव्व
दर्श० १ तत्त्व। कामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करे
मुत्ताहल-मुक्ताफल-न० । फो भ-हो॥८॥१२२६ ॥ कचित्तु ति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सबकामगु
हः । मुत्ताहलं । शुक्निजे रत्ने, (मोती) प्रा०१ पाद । णियं पारेत्ता-बावीसइमं करेति, बावीसइमं करेत्ता--सव्व
मुत्ति-मुक्ति-स्त्री० । मोचनं मुक्तिः। लोभपरित्यागभावनायाम् ,
आव० ४ श्र० । बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृष्णाविच्छेदे, ध० ३ कामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं क
अधि०। राज्ञा० निर्लोभतायाम् , उत्त० २६ श्र० । रेति, चउत्थं करेत्ता-सब्बकामगुणियं पारेति, सव्वकाम- श्राव । स्था० । लोभोदनिरोधे,औ०।ध०। पा० । पञ्चा० । गुणियं पारेत्ता-चोवीसइमं करेति, चोव्वीसइमं करेत्ता-- धर्मोपकरणेऽप्यमूर्छायाम् , द्वा०२७ द्वा० । स्था० । प्रश्न । सम्बकामगुणियं पारेति, सब्बकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं
निरन्तरं बहवो जीवा मुक्तो यान्ति परं मुक्तौ संकीरण न जा
यते, संसारश्च रिक्को न भवति , तम्य को दृष्टान्त इति प्रश्ने , करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सबका
उत्तरम्-यथा भूमिकमृत्तिका मेघजलप्रेरिता समुद्रमध्ये निमगुणियं पारेत्ता-छव्वीसइमं करेति, छव्वीसइमं करे- रन्तरं याति, तथापि समुद्रः पूणो न भवति , भूमिकायां च त्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सबकामगुणियं पारेत्ता- गर्ता न भवन्ति, तथा, मुक्तावप्ययमेव दृष्टान्तो शेय इति । चउत्थं करोति, चउत्थं करेत्ता-सबकामगुणियं पारेति,
॥ ४५७ ॥ सेन०३ उल्ला०1
कवलभोजित्वेऽपि कृतार्थत्वं केवलिनो व्यवस्थापितम्। ससव्वकामगुणियं पारेत्ता-अट्ठावीसं करति अट्ठावीसं
र्वथा कृतार्थत्वं चास्य मुक्तौ व्यवतिष्ठते इति बहुविप्रतिपत्ति. करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति , सबकामगुणियं
निरासन मुक्तिरत्र व्यवस्थाप्यते। पारेत्ता-चउत्थं करेति, चगत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं दुःखध्वंसः परो मुक्ति -र्मानं दुःखत्वगत्र च । पारेति, सबकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं
आत्मकालान्यगध्वंस-प्रतियोगिन्यवृत्तिमत् ॥१॥ करेत्ता-सबकामगुणियं पारेति, सबकामगुणियं पारेत्ता-- दुःखध्वंस इति-परो दुःखध्वंसो मुक्तिः । परत्वं च समा. तीसइमं करेति, तीसइमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति नकालीनसमानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानदेशत्वं वर्धसव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता
मानग्रन्थे श्रूयते । तत्र च यद्यत्स्वसमानकालीनस्वसमाना.
धिकरणदुःखप्रागभावसमानदेशमिदानींतनदुःखध्वंसादि तसबकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-वत्ती
तद्भेदो निवेश्यः । अन्यथा-चरमदुःखध्वंससमानकालीनसइम,वत्तीसइमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वका- समानाधिकरणदुःखप्रागभावाप्रसिद्धेः। “वस्तुतः समानामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता- सब्बका- धिकरणदुःखप्रागभावासमानकालीनदुःखध्वंसो मुक्तिः" इमगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चोत्तीसइमं
त्येकं लक्षणम् । अपरं च-" समानकलीनदुःखप्रागभावस
मानाधिकरणो दुःखध्वंस” इति । लक्षणद्वये तात्पर्यम् । करेति, एवं तहेव ओसारेति जाव चउत्थं करेति, चउत्थं तेन नासमानदेशत्वविवेचनेऽन्यतरविशेषणवैययम् । मानकरेत्ता--सब्बकामगुणियं पारेति, एक्काए कालो-कारस प्रमाणं, चात्र मुक्ता, दुःखत्वमिति पक्षः । श्रात्मकालान्यग मासा पनरस य दिवसा चउराह तिमि वरिसा दस य
श्रात्मकालान्याकाशादिवृत्तियों ध्वंसः शब्दादेस्तत्प्रतियोगिमासा सेसं जाव सिद्धा (सूत्र-२५) अन्त०८ वर्ग अ०।
नि शब्दादाववृत्तिमदवर्तमानम् । शब्दादिवृत्तित्वेनार्थान्तर
वारणार्थमेतत् पक्षविशेषणं, बाधास्फूर्तिदशायां तसिद्धिमुनावलीभद्द-मुक्तावलीभद्र-पुं० । मुक्तावलीद्वीपस्य पूर्वार्धा
प्रसङ्गात् , नियतबाधस्फोरणेनैतत्साफल्याद् । अवृत्तिदुःखधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अधिक।
त्वमित्युक्तावसिद्धिः । दुःखत्वस्य दुःखवृत्तित्वाध्वंसेत्यामुत्तावलीमहाभद्द-मुक्तावलीमहाभद्र-पुं० । मुक्तावलीद्वीपप- धुक्तावपि ध्वंसप्रतियोगिनि कालान्यवृत्तीत्याधुक्तावपि कारा धिपे देवे, जी०३ प्रति.४ अधिक।
लान्यात्मवृत्तिदुःखध्वंसप्रतियोगिनि कालान्यत्वत्यागे चा
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मुत्ति
मुत्ति
अभिधानराजेन्द्रः। स्मान्यकालवृत्ति-दुःखध्वंसप्रतियोगिनि दुःखे विद्यमानत्वा- नैवं शमादिसंपत्त्या, स्वयोग्यत्वविनिश्चयात् । त् सैवेति संपूर्णम् । श्रात्मकालपदेन तदुपाध्योरपि ग्रहाच्च
न चान्योऽन्याश्रयस्तस्याः, संभवात पूर्वसेवया ॥५॥ न तस्यास्तादवस्थ्यम् ॥१॥
नैवमिति-एवं न यथोनं विपक्षबाधकं भवता, शमादीसत्कार्यमात्रवृत्तित्वात ,प्रागभावोऽसुखस्य यः । नां शमदमभोगाभिष्वङ्गादीनां मुमुक्षुचिह्नानां संपत्त्या । तदनाधारगवंस-प्रतियोगिनि वृत्तिमत् ॥ २॥
स्वयोग्यत्वस्य विनिश्चयात्-तेषां तदव्याप्यत्वात्। न चान्यो
न्याश्रयो योगप्रवृत्तौ सत्यां शमादिसम्बत्तिस्ततश्चाधिकारसदिति-असुखस्य-दुःखस्य, यः प्रागभावस्तदनाधारो
विनिश्चयात्सेति संभावनीयम् , तस्याः-शमादिसंपत्तेः पू. महाप्रलयस्तत्र गच्छति यो ध्वंसो दुःखी यस्तत्मतियो
सेवया योगप्रवृत्तेः प्रागपि, सम्भवात्-योगप्रवृत्तेरतिशयिगिनि दुःखे वृत्तिमदिति साध्यम् , वृतिमदित्युक्नो सिद्धसा
तशमादिसम्पादकत्वेनैव फलवत्त्वात् । सामान्यतस्तु तत्र कधनं, दुःखत्वस्य दुःखे विद्यमानत्वात् । प्रतियोगित्तित्वो
मविशेषक्षयोपशम एव हेतुरिति न किश्चिदनुपपन्नम् ॥५॥ कावपि दुःखात्यन्ताभावप्रतियोगिवृत्तित्वेन, त«सेत्याधु
शमाद्युपहिता हन्त, योग्यतैव विभिद्यते । कावपि दुःखध्वंसाङ्गीकारासदेव । प्रागभावानाधारवृत्तित्व. स्य ध्वंसविशेषणत्वे दृष्टान्तासिद्धिः । प्रदीपावयवानां
तदवच्छेदकत्वेन, संकोचस्तेन तस्य न ॥ ६ ॥ प्रदीपप्रागभावाधारत्वात्तदर्थ दुःखत्यादि । प्रदीपावयवास्तु
शमादीति-शमादिभिर्मुमुक्षुलिङ्गैरुपहिता हन्त योग्यतैष दुःखप्रागभावा (ना) धारभूता इति दृष्टान्तसंगतिः । दुः
विभिद्यते । सामान्ययोग्यतातः समुचितयोग्यतायाः प्राग् खानधिकरणेत्यादिकरणे खण्डप्रलयेनार्थान्तरता स्यादिति
भेदसमर्थनात् । तेन कारणेन तदवच्छेदकत्वेन योग्यतावच्छेदुःखप्रागभावनिवेशः । सत्कार्यमात्रवृत्तित्वादिति हेतः ।। दकत्वेन तस्य शमादेः संकोचो न योग्यतावच्छेदकत्वलक्षणः, वृत्तित्वमात्मत्वे व्यभिचारिकार्यवृत्तित्वमनन्तत्वे ध्वंसाप्रति- योग्यताविशेषस्यैव अतिशयितशमादौ तद्वारा च मोक्षे योगित्वरूपस्य तस्याकार्ये आत्मादौ कार्ये ध्वंसे च सत्त्वात् । हेतुत्वात् ॥ ६॥ कार्यमात्रवृत्तित्वमपि ध्वंसत्वे व्यभिचारवृत्तित्वे (व्यभिचारि
ननु शमादावपि संसारित्वेनैव हेतुतेनि सर्वमुक्त्याक्षेप तदर्थ भाववृत्ते) सतीति विशेषणे दीयमानेऽपि न तदुद्धारः।
इत्यत श्राहप्राग्भावध्वंसस्य प्रतियोगितद्ध्वंसस्वरूपत्वेन ध्वंसत्वस्यापि संसारित्वेन गुरुणा, शमाऽऽदौ च न हेतुता। भाववृत्तित्वात् । ततः सदिति कार्यविशेषणम् ॥ २॥ भव्यत्वेनैव किं त्वेष-त्येतदन्यत्र दर्शितम् ॥७॥ दीपत्ववदिति प्राहु-स्तार्किकास्तदसंगतम् ।
संसारित्वेनेति-संसारित्वेन नित्यज्ञानादिमद्भिन्नत्वरूपेण बाधाद् वृत्तिविशेषेष्टा-वन्यथार्थान्तराव्ययात ॥३॥ । गुरुणा नानापदार्थघटितेन शमादौ च हेतुता न तव कल्पयिदीपत्ववदिति, दृष्टान्तः, इति-तार्किकाः-नैयारिताः । इत्थं तुमुचितेति शेषः । किंतु-भव्यत्वेनैवैषा हेतुता, शमाद्यनुगतसर्वमुक्तिसिद्धौ चैत्रदुःखत्वादिकं पक्षीकृत्य तत्तन्मुक्तित्वसा- कार्यजनकतावच्छेदकतयाऽत्मत्वव्याप्यजातिविशेषस्य कल्पधनोपपत्तेः। तत्ताकिमतमसंगतम् न्यायापेतम् । वृत्ति
यितुमुचितत्वाद्। द्रब्यत्वादावण्यनुगतकार्यस्यैव मानत्वात् । विशेषस्याभावीयविशेषणतया दुःखप्रागभावानाधारवृत्ति--
श्रात्मत्वेनेय शमादिहेतुत्वे विशेषसामध्यभावेनेश्वरेऽतिप्रसत्वस्येष्टी साध्यकोटिनिवेशोपगमे बाधात् । दुःखध्वंसस्य
ङ्गाभावे समर्थनीयेऽन्यत्रापि तेन तस्य सुवचत्वाद्भव्यत्वादुःखसमवायिन्येव तया वृत्तित्वस्य त्वयोपगमात् । अन्यथा
भव्यत्वशङ्कयैव भव्यत्वनिश्चयेन प्रवृत्त्यप्रतिबन्धादिति । एसम्बन्धमात्रेण तदिष्टौ अर्थान्तराव्ययादर्थान्तरानुद्धारात्
तदन्यत्र न्यायालोकादौ दर्शितम् ॥ ७॥ आकाशादावपि दुःखध्वंसस्य व्यभिचारितादिसम्बन्धेन वृ.
परमात्मनि जीवात्म--लयः सेति त्रिदण्डिनः । लित्वात्प्रकृतान्यसिद्धेः। कालिकदैशिकविशेषरमतान्यतरस-1 लयो लिङ्गव्ययोज्वेष्टो, जीवनाशश्च नेष्यते ॥८॥ म्यन्धेन वृत्तित्वोक्तावपि कालोपाधिवृत्तित्वेन तदनपायात्।। परमात्मनीति-परमात्मनि, जीवात्मलयः-सा-मुक्तिरिति, कालिकेन दुःखप्रागभावानाधारत्वनिवेशे च दृष्टान्तासङ्गतेः।। त्रिदण्डिनो वदन्ति । अत्रैतन्मते लयो लिङ्गव्यय इष्टोऽस्मामुख्यकालवृत्तित्वविशिष्टकालिकसम्बन्धेन तन्निवेशेऽपि कमप्यभिमतः । एकादशेन्द्रियाणि पञ्च महाभूतानि च सूआत्मनस्तथात्यात् । उक्लान्यतरसंबन्धेन तन्निवेशेऽपि तथा-1 क्ष्ममात्रया संभूयावस्थितानि जीवात्मनि सुखदुःखावच्छेदसम्बन्धगर्भव्याप्त्यग्रहादिति भावः ॥ ३॥
कानि लिङ्गशब्देनोच्यन्ते , तद्वययाश्च परमार्थतो नामकर्मक्षय विपक्षबाधकाभावा--दनभिप्रेतसिद्धितः ।
एवेति । जीवनाशस्तु नेष्यते, उपाधिशरीरनाशे औपाधिकअन्तरैतदयोग्यत्वा-च्छङ्का योगापहेति चेत् ॥ ४ ॥
जीवनाशस्याप्यकामम्यत्वात् ॥ ८॥ विपक्षेति-विपक्ष-हेतुसत्त्वेऽपि साध्यासत्त्वे, बाधकस्या
बौद्धास्त्वालय विज्ञान-सन्ततिः सत्यकीर्तयन । नुकूलतर्कस्याभावात् । तथा चानभिप्रेतसिद्धितोऽनिष्टसि- विनाऽन्वयिनमाधारं, तेषामेषा कदर्थना ॥६॥ द्धिप्रसङ्गात् । कालान्यत्वगर्भसाध्यं प्रत्यपि उक्तहेतोरविशे- बौद्धास्त्विति-बौद्धास्तु , पालयविज्ञानसन्ततिः-प्रवृत्ति पात्। एतदुक्तसाध्यमन्तरा सर्वमुफ्त्यसिद्धौ अयोग्यत्वाशङ्का। विज्ञानोपप्लवरहिता संहतोयाकारा शानक्षणपरंपरा, साय एव न कदापि मोक्ष्यते तदहं यदि स्यां तदा मम विफल | मुक्तिरित्यकीर्तयन् यथोक्तम्परिव्राजकत्वमित्याकारा, योगापहा-योगप्रतिबन्धिकेत्यद “चित्तमेव हि संसारो, रागादिषलेशवासितम् । एव विपराधकमिति चेत् ॥ ४॥
तदेव तैर्विनिर्मुक्त, भवान्त इति कथ्यते ॥१॥"
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मुत्ति
अभिधानराजेन्द्रः।
मुत्ति न च शरीरादिनिमित्ताभावे तदनुपपत्तिः , पूर्वपूर्वविशि- । सर्वथोपगमे च स्या-त्सर्वदा तदुपस्थितिः॥ १६ ॥ पक्षणानामेव तद्धेतुत्वाद्विशिष्टभावनात एव तेषां विसभा- अथेति-अथैतन्मुक्तिसुखे, नित्यत्वमनादित्वं चेत्तथापि न गपरिक्षये प्रवृत्तेः । तेषामन्वयिनं त्रिकालानुगतात्मलक्ष- एष नयोऽस्तु संसारदशाया कर्माच्छन्नस्यापि सुखस्य द्रणमाधारं विना एषा मुक्तिः कदर्थना । सन्तानस्यावास्त- व्यार्थतया शाश्वतात्मस्वभावत्वात् । सर्वथोपगमे च-एकान्तवत्वेन बद्धमुक्रव्यवस्थानुपत्तेः । सर्वथाऽभावीभूतस्य क्षण- तोऽनादित्वाश्रयणे च, सर्वदा-संसारदशायामपि, तदुपस्थिस्योत्तरसदृशक्षणजननासामर्थ्यादिति ॥ ६ ॥
तिर्मुक्तिसुखाभिव्यक्तिः, स्यात् । अभिव्यञ्जकाभावेन तदा विवर्तमानज्ञेयार्था--पेक्षायां सति चाश्रये ।
तदभिव्यक्त्यभावसमर्थने च घटादेरपि दण्डाद्यभिव्यङ्गयत्वअस्यां विजयतेऽस्माकं, पर्यायनयदेशना ॥१०॥
स्य सुवचत्वे साङ्ख्यमतप्रवेशापातात् ॥ १६ ॥ विवर्तमानेति-विवर्तमानाः-प्रतिक्षणमन्यान्यपर्यायभा- वेदान्तिनस्त्वविद्यायां, निवृत्तायां विविकता। जो ये शेयार्थास्तदपेक्षायामाश्रये चान्वयिद्रव्यलक्षणे सति ।
सेत्याह साऽपि नो तेषा-मसाध्यत्वादवस्थितेः ॥१७॥ अस्याम्-उक्नमुक्ती अस्माकं पर्यायनयदेशना विजयते प्रतिक्षिप्तध्यस्य बौद्धसिद्धान्तस्य परमार्थतः पर्यायार्थिकनया
वेदान्तिनस्त्विति-वेदान्तिनस्तु, अविद्यायां निवृत्तायां, विन्तःपातित्वात् । तदुक्तं संमती (३ काण्डे)-"सुद्धोश्रणतण
विकता-केवलारमावस्थानं, सा-मुक्तिरित्याहुः । साऽपि नो यस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो" (४८) ॥१०॥
तेषां युक्नेति शेषः । अवस्थितेर्विज्ञानसुखात्मकस्य ब्रह्मणः
प्रागण्यवस्थानादसाध्यत्वात् , कण्ठगतचामीकरन्यायेन भ्रस्वातन्त्र्यं मुक्तिरित्यन्ये, प्रभुता तन्मदः क्षयी ।
मादेव नात्र प्रवृत्तिरिति तु भ्रान्तपर्षदि वक्तुं शोभत इति अथ कर्मनिवृत्तिश्चेत , सिद्धान्तोऽस्माकमेव सः ॥११॥
भावः ॥ १७॥ खातन्त्र्यमिति-वातव्यं मुक्तिरित्यन्ये वदन्ति । तत् स्वा
कृत्स्नकर्मक्षयो मुक्ति-रित्येष तु विपश्चिताम् । . तन्न्यं यदि प्रभुता तदा मदः, सच क्षयी। अथ चेत् कर्मनिवृ त्तिस्तदाऽस्माकमेव स सिद्धान्तः ॥ ११ ॥
स्याद्वादामृतपानस्यो-द्वारः स्फारनयाश्रयः ॥१८॥ पुंसः स्वरूपावस्थानं, सेति सांख्याः प्रचक्षते ।
कृत्स्नति-कृत्स्नानां कर्मणां ज्ञानावरणादीनां क्षयो मुक्तिः, तेषामेतदसाध्यत्वं, वज्रलेपोऽस्ति दूषणम् ।। १२॥ ।
एष तु विपश्चिताम्-एकान्तपण्डितानां स्याद्वादामृतपानस्यो.
द्वारः स्फारा ये नयास्तत्तत्तन्त्रप्रसिद्धार्थास्तदाश्रयः षड्दर्शपुंस इति-पुंसः पुरुषस्य,स्वरूपावस्थानम्-प्रकृतितद्विकारो |
नसमूहमयत्वस्य जैनदर्शने संमतत्वात् ॥ १८ ॥ पधानविलये चिन्मात्रप्रतिष्ठानं सा मुक्तिरिति सांख्याः प्रचक्षते। तेषामेतस्य मुक्केरसाध्यत्वं दृषणं वजलेपोऽस्ति एकान्त
नयानेवात्राभिव्यक्तिनित्यात्मरूपायास्तस्या नित्यत्वादुपचरितसाध्यत्वस्याप्रयो- ऋजुसूत्रादिभिनि-सुखादिकपरम्परा । जकत्वात् ॥१२॥
व्यङ्गथमावरणोच्छित्त्या, संग्रहेणेष्यते सुखम् ॥१६॥ पूर्वचित्तनिवृत्तिः सा-ग्रिमानुत्पादसंगता ।
ऋजुसूत्रादिभिरिति-ऋजुसूत्रादिभिनयानसुखादिकपरइत्यन्ये श्रयते तेषा-मनुत्पादो न साध्यताम् ॥१३॥
म्परा मुक्तिरिष्यते शुद्धनयस्तैरुत्तरोत्तरविशुद्धपर्यायमात्रापूर्वेति-अग्रिमानुत्पादसंगताऽग्रिमचित्तानुत्पादविशिष्टा पू
भ्युपगमात् शानादीनां क्षणरूपतायाःक्षणसत्तयाऽपि सिद्धेः, चित्तनिवृत्तिः सा मुक्तिरित्यन्ये, तेषामनुत्पादः साध्यतां
तस्याः क्षणतादात्म्यनियतत्वात् , क्षणस्वरूपे तथादर्शनात् म श्रयत इति मुफ्तेरपुरुषार्थत्वापत्तिरेष दोषः ॥ १३॥
संग्रहेण संग्रहनयेनावरगोच्छित्या व्यङ्गयं सुखं मुक्तिरिष्यसात्महानमिति प्राह, चार्वाकस्तत्तु पाप्मने ।
ते । तद्धि जीवस्य स्वभावः सेन्द्रियदेहाद्यपेक्षाकारणस्वरूपा
बरणेनाच्छाद्यते, प्रदीपस्यापवारकावस्थितपदार्थप्रकाशकत्व तस्य हातुमशक्यत्वा-त्तदनुद्देशतस्तथा ॥ १४ ॥
स्वभाव इव तदावारकशगवादिना तदपगमेनु प्रदीपस्येष सेति-श्रात्महानं सा-मुक्तिरिति चार्वाकः प्राह । तत्तु वचनं जीवस्यापिविशिष्टप्रकाशस्वभावोऽयत्नसिद्ध पवेति । शरीराथ्यमाणमपि पाप्मने भवति । तस्यात्मनो हातुमशक्य- भावे ज्ञानसुखाद्यभावोऽप्रेर्य एव । अन्यथा शरावाद्यभावे प्रदीत्वादसतो नित्यनिवृत्तत्वात् , सतश्च वीतरागजन्मादर्शन- पादेरभावप्रसङ्गात्। शरावादेः प्रदीपाद्यजनकत्वानोक्तप्रसङ्ग न्यायेन नित्यत्वात् , सर्वथा हानासिद्धः । तथा---पर्यायार्थ- इति चेत्र, तथाभूतप्रदीपरिणत्यजनकत्वे शरावादेस्तदनातया तद्धानावपि तदुद्देशत आत्महानानभिलाषात् । मुक्ति- वारकत्वप्रसङ्गादिति ॥ १६॥ पदार्थस्य च निरुपधीच्छाविषयत्वात् ॥ १४ ॥
क्षयः प्रयत्नसाध्यस्तु, व्यवहारेण कर्मणाम् । नित्योत्कृष्टसुखव्यक्ति-रिति तौतातिता जगुः ।
न चैवमपुमर्थत्वं, द्वेषयोनिप्रवृत्तितः ॥ २०॥ नित्यत्वं चदनन्तत्व-मत्र तत्संमतं हि नः ।। १५ ॥
क्षय इति-व्यवहारेण तु प्रयत्नसाध्यः कर्मणां क्षयो नित्येति-नित्यम् , उत्कृष्एं च-निरतिशयं,यत्सुखं तद्वयक्तिर्मु- मुक्तिरिष्यते , अन्वयव्यतिरेकानुविधानेन तत्प्रवृत्तेः किरिति तौतातिता जगुः । अत्र मते नित्यत्वमनन्तत्वं चेत्त- ज्ञानादीनां कर्मक्षये तदनुविधानात् । न चैवं कर्मक्षयस्य मुसदा,नः-अस्माकं, हि-निश्वितं, संमतम् । सिद्धसुखस्य साथ | क्तित्वाभ्युपगमेऽपुमर्थत्वं, मुक्तद्वेषयोनिप्रवृत्तितः साक्षाद् पर्यवसितत्वाभिधानात् । तस्य च मुक्तावभिव्यक्तः ॥ १५ ॥ दुःखहेतुनाशोपायेच्छाविषयत्वेन परमपुरुषार्थत्वाविरोधाअथानादित्वमेतच्चे-तथाप्येष नयोऽस्तु नः।
गर.
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मुत्ति
दुःखद्वेषे हि तद्धेतून्, द्वेष्टि प्राणी नियोगतः । जायतेऽस्य प्रवृत्तिश्च ततस्तन्नाशहेतुषु ॥ २१ ॥
( ३१७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
दुःखद्वेषे हीति- दुःखद्वेषे हि सति प्राणी तद्धेतून दुःखहेतून्, नियोगतो - निश्चयतो, द्वेष्टि श्रस्य दुःखहेतुद्विषश्च ततस्तन्नाशहेतुषु - दुःखोपायनाशहेतुषु ज्ञानादिषु प्रवृत्तिर्जायते, दुःखद्वेव्यस्य दुःखहेतुनाशोपायेच्छा दुःखहेतुद्वेषयोस्तयोश्च दुःखहेतुनाशहेतुप्रवृत्तौ स्वभावतो हेतुत्वात् । अनुस्यूतैकोपयोगरूपस्वेऽपि क्रमानुवेधेन हेतुहेतुमद्भावाविरोधात् क्रमिकाक्रमि, कोभयस्वभावोपयोगस्य तत्र तत्र व्यवस्थापितत्वात् ॥ २१ ॥ इत्थं चात्र दुःखं मा भूदित्युद्देशे दुःखहेतुनाशविषयकत्वं फलितमित्येतदन्यत्राप्यतिदिशन्नाह-अन्यत्राप्यसुखं मा भू-माङोऽर्थेऽत्रान्वयः स्थितः । दुःखस्यैवं समाश्रित्य स्वहेतुप्रतियोगिताम् ।। २२ ।। अन्यत्रापीति अन्यत्रापि प्रायश्चित्तादिस्थलेऽपि, सुखं मा भूत्, अत्र माङोऽर्थं ध्वंसे एवम् उक्तरीत्या दुःखस्य स्वहेतुप्रतियोगितामाश्रित्यन्वयः स्थितः । तत्पापजन्यदुःखाप्रसिड्या तद्ध्वंसस्यासाध्यत्वात् । अस्तु वा दुःखद्वेषस्यैवायमु· लेख: मुख्य प्रयोजनाविषयकेच्छाविषयत्वेन च मुख्यप्रयोजनत्वमविरुद्धमिति भावः ॥ २२ ॥ स्वतोऽपुमर्थताऽप्येव-मिति चेत् कर्मणामपि । शक्त्या चेन्मुख्यदुःखत्वं, स्याद्वादे किं नु बाध्यताम् | २३ | स्वत इति - एवमपि स्वतोऽपुमर्थता निरुपाधिकेच्छावियत्वेन सुखदुःखहान्यन्यतरस्यैव स्वतः पुमर्थत्वादिति चेत् कर्मणामपि शक्त्या चेन्मुख्यदुःखत्वं तदा स्याद्वादे किं नु बाध्यताम् ?, दुःखहेतोरपि कथंचिद् दुःखत्वात्, दुःखक्षयत्वेन रूपेण कर्मक्षयस्य त्वन्नीत्याऽपि मुख्यप्रयोजनत्वानपायाद् रूपान्तरेण तत्त्वस्य चाप्रयोजकत्वात् ॥ २३ ॥
स्वतः प्रवृत्तिसाम्राज्यं किं चाखएडसुखेच्छया । निराबाधं च वैराग्य-मसङ्गे तदुपक्षयात् ॥ २४ ॥ स्वत इति - किं च स्वतो निरुपाधिकतया प्रवृत्तिसाम्राज्यमखण्डसुखेच्छयाऽखण्डसुख संवलितत्वात् कर्मक्षयस्य, नन्वे वं सुखेच्छया वैराग्यव्याहतिरित्यत आह-सङ्गेऽसङ्गानुष्टाने तदुपक्षयात् सुखेच्छाया श्रपि विरमान्निराबाधं च वैराग्यम्, "मोक्षे भवे च सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तमः" इतिवचनात् । न चेदेवं सुखेच्या वैराग्यस्यैव दुःखद्वेषात् प्रशान्तत्वस्यापि व्याहतिरेवैति भावः ॥ २४ ॥
समानायव्ययत्वे च वृथा मुक्तौ परिश्रमः । गुणहानेर निष्टत्वा ततः सुष्टुच्यते ह्यदः ||२६|| समानेति -समानाऽऽयव्ययत्वे च सुखदुःखाभावाभ्यामभ्यु पगम्यमाने मुक्तौ वृथा परिश्रमः । गुणहानेरनिष्टत्वात्तदनुविद्धदुःखनाशोपायेऽनिष्टानुबन्धित्वज्ञानेन प्रेक्षावत्प्रवृनेरयोगात् ततो ह्यदः सुष्ठुच्यते ॥ २५ ॥ दुःखाभावोऽपि नावेद्यः, पुरुषार्थतयेष्यते । न हि मूर्द्धाद्यवस्थार्थं, प्रवृत्तौ दृश्यते सुधीः ।। २६ ॥
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मुत्ति दुःखाभावो ऽपीति- दुःखाभावोऽपि न श्रवेद्यः - स्वसमानाधिकरणसमानकालीन साक्षात्काराविषयः पुरुषार्थतयेष्यते न हि मूर्द्धाद्यवस्थार्थ सुधीः प्रवृत्तो दृश्यते । श्रन्यथा तदर्थमपि प्रवृत्तिः स्यात् । श्रतो गुणहानेरनिष्टत्वेन दुःखाभावरूपायां मुक्ौ तदर्थप्रवृत्तिव्याघात एव दूषयमिति भावः ॥ २६ ॥ एतेनैतदपास्तं हि पुमर्थत्वेऽप्रयोजकम् ।
तज्ज्ञानं दुःखनाशश्च वर्तमानोऽनुभूयते ।। २७ ।। एतेनेति - एतेन, गुणहानेरनिष्टत्वेन, हि-निश्चितम् एतदपास्तम् । यदुक्तं महानैयायिकेन पुमर्थत्वे तज्ज्ञानं पुमर्थज्ञानमप्रयोजकं दुःखनाशश्च वर्त्तमानोऽनुभूयते विनश्यदवस्थेन योगिसाक्षात्कारेणेति ॥ २७ ॥
गुणहानेरष्टित्वं, वैराग्यान्नाऽथ वेद्यते ।
इच्छाद्वेषौ विना नैवं प्रवृत्तिः सुखदुःखयोः ॥ २८ ॥ गुणहानेरिति श्रथ गुणहानेरनिष्टत्वं वैराग्यान्न वेद्यते कामान्धत्वादिव पारदार्ये बलवद् दुःखानुबन्धित्वं ततः प्रवृत्त्यव्याघात इति भावः । एवं सति इच्छाद्वेषौ विना सुखदुःखयोः प्राप्यनाश्ययोरिति शेषः । प्रवृत्तिर्न स्यात् । परवैराग्ये प्रवृत्तिकरणयोस्तयोर्निवृत्तेरपरवैराग्ये च गुणवैतृष्णयस्यैवाभावाद् गुणहानेरनिप्रत्वाप्रतिसन्धानानुपपत्तेर्गुणहानेरनिष्टवे प्रतिसंहिते प्राक्तनप्रवृत्त्यनुपपत्तौ तत्संस्कारतोऽप्यसङ्गप्रवृत्तेर्दुर्वचत्वमिति न किञ्चिदेतत् ॥ २८ ॥
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ननु श्रुतिबाधान्न मुक्तौ सुखसिद्धिरित्यत श्राह अशरीरं वा वसन्त - मित्यादिश्रुतितः पुनः । सिद्धो हन्त्युभयाभावो, नैकसत्तां यतः स्मृतम् ॥ २६ ॥ अशरीरमिति - श्रशरीरं वा वसन्तमित्यादिश्रुतितः " अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत " इति श्रुतेः, पुनरुभयाभावः सुखदुःखोभयाभावः सिद्धः एकसत्तां सुखसत्तां न हन्ति । एकवत्यपि द्वित्वावच्छिन्नाभावप्रत्ययात् । श्रस्तु वा तत्राप्रियपदसन्निधानात् प्रियपदस्य वैषयिकसुखपरत्वमेवेत्यपि द्रष्टव्यम् । यतः स्मृतम् ॥ २६ ॥
सुखमात्यन्तिकं यत्र, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
तं वै मोक्षं विजानीयाद्, दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥ ३० ॥ सुखमिति - स्पष्टः ॥ ३० ॥ उपचारोऽत्र नावाधात्, साक्षिणी चात्र दृश्यते । नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्मेत्यप्यपरा श्रुतिः ॥ ३१ ॥ उपचार इति श्रत्र मुक्तिसुखप्रतिपादिकायाम् उक्तस्मृतौ, उपचारो न दुःखाभावे सुखपदस्य लाक्षणिकत्वम् । श्रबाधादु-बाधाभावात् जन्यस्याप्यभावस्येव भावस्यापि कस्यचिदनन्तत्वसंभवात् । श्रत्र मुक्तिसुखे नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति श्रपराऽपि श्रुतिः साक्षिणी वर्त्तते, तया नित्यशानानन्दब्रह्माभेदबोधनादिति ॥ ३१ ॥
परमानं दलयतां, परमानं दयावताम् । परमान्दपीनाः स्मः, परमानन्दचर्चया ।। ३२ ।। परमानमिनि परेषामेकान्ताभिनिविष्टानां मानं कुबेतुं
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( ३१८ ) श्रभिधानराजेन्द्रः |
मुत्ति
द्धलयतां स्याद्वादमुद्गरेण, किं भूतं ? परः प्रकृष्टो मानो दर्पो यस्मात्तत्तथा । दयावतामनेकान्तप्रणयितया जगदुद्दिधीर्षावतां सिताम्वरसाधूनां परमानन्दचर्चया - महोदयमीमांसया वयं परमेणोत्कृष्टेनानन्देन, पीनाः- पुष्टाः स्मः ॥ ३२ ॥ द्वा० ३१ द्वा० ।
मुक्तिफलम् -
मुत्तीए गं भंते ! जीवे किं जणयइ १, मुत्तीए गं किंचणतं जणयइ, अकिंचणै य जीवे अत्थलोभाणं पुरस्रासं पत्थणिजे भवइ ॥ ४७ ॥
हे भगवन् ! मुक्त्या – निर्लोभत्वेन, जीवः किं जनयति ? गुरुराह - हेशिष्य ! मुक्त्या अकिञ्चनत्वम् - निष्परिग्रहत्वम् उत्पादयति । अकिञ्चनत्वेन जीवः अर्थ लोभानाम् श्र प्रार्थनीयो भवति, कोऽर्थः - योऽकिञ्चनो - निष्परिग्रहो भवतिस पुरुषोऽर्थे लोभो येषां तेऽर्थ लोभाः द्रव्यार्थिनश्चौरादयः पुरुषास्तेषाम् श्रप्रार्थनीयः - तैरवञ्चमीयः, चौरादयो हि निपरिग्रहं किं कुर्वन्ति, परिग्रहवतां चौरेभ्यो भीतिः स्यात् । उत्त० २६ श्र० । अशेषकर्मप्रच्युतौ सूत्र० २ श्रु० २ ० । भवोपप्रा हिकर्मभ्यः प्रच्युतौ, पं० सं० २ द्वार । कर्म० । ध० । मोक्षगतौ, श्रातुः । निःसङ्गतायाम्, श्रा० चू० ४ श्र० । मुच्यन्ते सकलकर्मभिर्यस्यामिति मुक्तिः । ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्याम्, स्था० ८ ठा० ३ उ० । परमपदे, " लोगं परमपयं मुत्ती सिद्धी सिवं च निव्वाणं " पाइ० ना० २० गाथा । मूर्ति - स्त्री० । शरीरे, विशे० । “ मुक्ती गतं बुंदी संघयं निग्गहो तर काओ 95 पाइ०ना० ५६ गाथा । आ० म० । स्था० । वर्णादिमस्त्रे, यद्योगान्मूर्त भवति । स्था० ४ ठा० १ उ० । गुणविशेषाश्रये सम्म० । " व्यक्तिर्गुणविशेषाश्रयो मूर्त्तिः " [ न्यायद० श्र० २ श्र० २ सू० ६६ ] इति । श्रस्यार्थो वार्त्तिककारमतेन - “विशिष्यत इति विशेषः गुणेभ्यो विशेषो गुणविशेषः कर्माभिधीयते, द्वितीयश्चात्र गुणविशेषशब्द एकशेषं कृत्वा निर्दिष्टः तेन गुणपदार्थों गृह्यते - गुणाश्च ते विशेषाश्च गुणविशेषाःविशेषग्रहणमाकृतिनिरासार्थम् । तथाहि श्राकृतिः संयोगविशेषस्वभावा, संयोगश्च गुणपदार्थान्तर्गतः ततश्चासति विशेषग्रहणे श्रकृतेरपि ग्रहणं स्यात् न च तस्या व्यक्लावन्तर्भाव इष्यते पृथक् स्वशब्देन तस्या उपादानात् । श्राश्रयशब्देन द्रव्यमभिधीयते - तेषां गुणविशेषाणामाश्रयस्तदाश्रयो द्रव्यमित्यर्थः सूत्रे 'तत्' शब्दलोपं कृत्वा निर्देशः कृतः, एवं च विग्रहः कर्त्तव्यः - गुणविशेषाश्च गुणविशेषाश्चेति गुणविशेषाः तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः, समाहारद्वन्द्व श्चायम् “ लोकाश्रयत्वात् लिङ्गस्य " [ श्र० २ पा० २ ० २६ महाभाष्ये पृ० ४७९ पं० ८ ] इति नपुंसकलिङ्गाऽनिर्देशः । तेनायमर्थो भवति - योऽयं गुणविशेषाश्रयः सा व्यक्तिचोच्यते मूर्त्तिश्चेति। तत्र यदा द्रव्ये मूर्तिशब्दस्तदाऽधिकरणसाधनो द्रष्टव्यः मूर्छम्त्यस्मिन्नवयवा इति मूर्त्तिः, यदा तु रूपादिषु तदा कर्तृसाधनः- मूर्च्छन्ति द्रव्ये समवयन्तीति रूपादयो मूर्त्तिः । व्यक्तिशध्दस्तु द्रव्ये कर्म्मसाधनः रूपादिषु क. रणसाधनः " [ ० २ श्र० २ सू० ६८ न्यायवा० पृ० ३३२
Sarve
पं० ३-२४ ] भाष्यकारमतेन च यथाश्रुति सूत्रार्थः - गुणविशेषाणामाश्रयो द्रव्यमेव व्यक्क्रिर्मूर्त्तिश्चेति तस्यैष्टम् । यथोलम् - "गुणविशेषाणां रूप-रस- गन्ध-स्पर्शानाम् गुरुत्व-द्रवत्व - घनत्व - संस्काराणाम् श्रव्यापिनश्च परिमाणविशेषस्याश्रयो यथासम्भवं तद् द्रव्यं मूर्त्ति ( मूर्त्तिः ) मूच्छितावयवत्वात् " [ न्यायद० वात्स्या० भा० पृ० २२४ ] इति । सम्म० १ काण्ड १ गाथा ।
मुत्तिअट्ठिन् - मुक्त्यर्थिन् - पुं० । मुक्तेः परमपदस्यार्थी अभिला श्री । कैवल्यसुखार्थिनि ध० ३ अधि० । मुत्तिश्रदोस - मुक्त्यद्वेष- पुं० । मनाङ्मुक्त्यनुरागे, द्वा० । उक्तेषु पूर्व सेवाभेदेषु मुक्त्यद्वेषं प्राधान्येन पुरस्कुर्वन्नाहउक्तभेदेषु योगीन्द्रे - मुक्त्यद्वेषः प्रशस्यते । मुक्त्युपायेषु नो चेष्टा, मलनायैव यत्ततः ॥ १ ॥ ( उक्तभेदेष्विति ) मलनायैव - विनाशनिमित्तमेव तद्धिभवोपायोत्कटेच्छया स्यात् । सा च न मुक्त्यद्वेष इति मुक्त्युपायमलनाभावप्रयोजकोऽयम् ।
विषान्नतृप्तिसदृशं, तद्यतो व्रतदुर्ग्रहः ।
उक्तः शास्त्रेषु शस्त्राग्नि- व्यालदुर्ग्रहसन्निभः ॥ २ ॥ (विषेति ) तन्मुक्त्युपायमलनं विषाऽन्नतृप्ति सदृशम् श्रापाततः सुखाभासहेतुत्वेऽपि बहुतरदुःखानुबन्धित्वात् । यद् - यस्माद् व्रतानां दुर्ग्रहो ऽसम्यगङ्गीकारः उक्तः । शास्त्रेषु योगस्वरूपनिरूपकग्रन्थेषु शस्त्राग्निव्यालानां यो दुर्ग्रहो-दुगृहीतत्वं तेन सन्निभः सदृशः श्रसुन्दरपरिणामत्वात् ॥२॥
,
द्वा० १३ द्वा० ।
संमोहादननुष्ठानं, सदनुष्ठानरागतः ।
तद्धेतुरमृतं तु स्याच्छ्रद्धया जैनवर्त्मनः ॥ १३ ॥ ( संमोहादिति ) संमोहात् संनिपातोपहतस्येव सर्वतोsनध्यवसायादननुष्ठानमुच्यते, अनुष्ठानमेव न भवततिकृत्वा । सदनुष्ठानरागतस्तात्विकदेवपूजाद्याचारभावबहुमाना
विधार्मिककालभाविदेवपूजाद्यनुष्ठानं तद्धेतुरुच्यते । क्यद्वेषेण मनाग् सुक्त्यनुरागेण वा शुभभावलेश संगमादस्य सदनुष्ठानहेतुत्वात्, जैनवर्त्मनो - जिनोदितमार्गस्य, श्रद्धया इदमेव तत्त्वमित्यध्यवसायलक्षणया त्वनुष्ठानममृतं स्याद्, श्रमरणहेतुत्वात् । तदुक्तम्- " जिनोदितमिति त्वाहुर्भावसारमदः पुनः । संवेगगर्भमत्यन्त-ममृतं मुनिपुङ्गवाः ! ॥ १ ॥ " ॥ १३ ॥ द्वा० १३ द्वा० | मुत्तिणिलय-मुक्तिनिलय-पुं० । शत्रुञ्जये, ती० १ कल्प । मुत्तित्थि - मुक्तिस्त्री-स्त्री० । मुक्तिरूपयोषिति, “मुञ्चाग्रहमिमं मात- मनुषीषु न मे मनः । मुक्तिस्रो सङ्गमोत्कण्ठ- मकुठमवतिष्ठते ॥ १ ॥ " कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
मुत्तिधारापुडग - मुक्तिधारापुटक- न० । मुक्तिसम्पुटे, प्रश्न०५
स
संव० द्वार ।
मुत्तिपह- मुक्तिपथ - पुं० । मोक्षमार्गे. 'ज्ञानदर्शनचारित्राणि सस्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग' इति । नं० ।
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मुत्तिमग्न
अभिधानराजेन्द्रः। मुत्तिमग्ग-मुत्तिमार्ग-पुं० । मुक्तिनिष्परिग्रह त्वम्-अलोभतेत्य-सही-देशी-चुम्बने, दे० ना०६ वर्ग १३३ गाथा । र्थः सैव निर्वृत्तिपुरस्य मार्ग इव मार्गः। वृ०६उ०।मुक्तिरहितार्थ- मुद्ध-मुग्ध-पुं० । क-ग-ट-दु-त-द-प-श-ष-स-क-:कर्मप्रच्युतिस्तस्या मार्गो मुक्तिमार्गः । ध०३ अधिक । मुक्तेर
| पामूर्ध्व लुक् ॥८॥२॥ ७॥ इति ग्लुक । प्रा० । अव्युत्पन्नमती, शेषकर्मप्रच्युतिलक्षणायाः मार्गः । सम्यग्दर्शनशानचारित्रा
जी०१ प्रति०। पञ्चा०। स्मको यस्मिस्तन्मुक्तिमार्गम् । सूत्र० १ श्रु०७ अ०। शानलक्षण
मूर्धन्-पुं० । ललाटे, प्रव०२ द्वार । शिरसि, सूत्र. १ श्रु०४ चारित्रात्मके, प्राचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० । शानदर्शनचारि। त्रात्मके, दश०६०। श्रहितविच्यतेरुपाये. भ० श०३३ अ०२ उ०॥ उ० । सकलधर्मवियोगहेती, प्राप्तनिर्लोभताके च । औ०। मुद्धजणहियय-मुग्धजनहृदय--न० । मुग्धः स्वल्पमतियों जनो मुत्तिसुह-मुक्तिसुख-न० । मोक्षसुखे, सूत्र० १ श्रु०३ अ०४] लोकस्तस्य हृदयं मानसम् । अल्पज्ञाभिप्राये , जी०१ प्रति। उ० । तथा-" तणसंथारनिसएणो वि, मुणिवरो भट्टरागमय- मुद्धमइ-मुग्धमति-पुं० । अव्युत्पन्नमतौ, मूढमतौ, पो०६ वि. मोले। जं पावर मुत्तिसुहं, कत्तोतं चक्कवटी वि ॥१॥" सूत्र०
। व०। स्था० । २७०५०। प्राचा०। सिद्धिसुखे, मुक्तिः सर्वसुखानां संसारिकाणां मध्ये साद्यपर्यवसितत्वादुत्तमम् । संथा।
| मुद्धय-मर्द्धज-पुं०। केशे, जी०३ प्रति०४ अधि०। प्रति।
प्रश्न। मुत्तुं-मुक्त्वा -श्रव्यः । छोडयित्वेत्यर्थे, व्य० ८ उ० । परित्यज्येत्यर्थे, ग०२ अधि।
मुद्धसूल-मूर्द्धशूल-न० । मस्तकपीडायाम् , विपा०१७० १ मुत्तोली-मुक्तोली-स्त्री० । अधः उपरि च सङ्कीर्णायां मध्ये |
अ० । शा०। त्वीषद्विशालायां कोष्ठिकायाम् , जं० ३ वक्ष० । अनु०। ।
मुद्धाभिसित्त-मृाभिषिक्त-पुं० । सर्वैरपि प्रत्यन्तराजैः प्रतामुदागर-मुदाकर-पुं० । हर्षजनके, सूत्र०१ श्रु०६०।
पमसहमानैर्नान्यथास्माकं गतिरिति परिभाव्य मूर्द्धभिमस्त
कैरभिषिक्तः पूजितो मूर्धाभिषिक्तः। रा०नि०चू०। सूत्र। मुदितादिगुण-मुदितादिगुण-पुं० । सद्वंशसमुत्पन्ने मूर्धाभि- | -
राजनि, सूत्र०२ श्रु०२०। अष्टमदिवसतिथौ, कल्प० १ पिनादिगुणवति राजनि, “ मुदितादिगुणो राया," मुदिता- अधि०६ क्षण। दिगुणः-सवंशजादिगुणः, अादिशब्दान्मूर्धाभिषिक्लादिग्रहः।
मुम्भ-देशी-गृहान्तस्तिर्यग्दारुणि, दे० ना० ६ वर्ग १२३ पञ्चा० १७ विव०॥
गाथा । मुद्दप्पाया-मुद्राप्राया-स्त्री० । मुद्राकल्पायाम्,पश्चा०४ विव०।
मुमुक्खु-मुमुक्ष-पुं० । संसारोद्विग्नमनसि, संसारोद्विाममुद्दय--मुद्रक-पुं० । ग्राहमेदे, प्रशा० १ पद ।
ना मुमुक्षुः संयमतपसी पीडाकरत्वेन न वेत्ति । प्राचा. १ मुद्दा-मुद्रा-स्त्री० । अङ्गुल्याभरण विशेष, अनु० । शैल्याम् , द्र.
श्रु० ३ ० १ उ० । मोक्षपुरगन्तरि, विशे०। प्रा० म०। व्या०७ अध्या० । प्रव० । हस्ताद्यङ्गविन्यासविशेषे, योगम
मुम्मुय-मूकमूक-पुं०।प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाश्च तथा रूपम्, द्राजिनमुद्रामुक्ताशुक्तिमुद्रात्मकं सूत्रपाठसमकभावितया मू। लमुद्रात्रयम् । सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ता० । दर्श । प्रति०।।
मूकादपि मूके, गद्गदभाषित्वेनाव्यकभाषिणि, सूत्र० १ श्रु०
१२ अ०। मुद्दापुरुस-मुद्रापुरुष-पुं० । मुद्रापदविभूषिते राजपुरुष, पृ०१
मुम्मुर-मुर्मुर-पुं० । अङ्गारे, पिं० । फुस्फुकाग्नौ, भस्ममिश्रिउ०३ प्रक०।
ताग्निकणे , जी० १ प्रति० । भ० । स्था० । उत्त० । मुद्दिया-मुद्रिता--स्त्री० । मृत्तिकादिमुद्रायुक्ने,बृ० २ उ० । शाका
सूत्र० । प्रविरलाग्निकणानुविद्धे भस्मनि, प्राचा० १ श्रु० १ लाञ्छिते, ज्ञा०१ श्रु०२ १० । ०। भ०।
अ०४ उ० । करीषेऽग्नौ, पिं० । करीष-करीषाग्न्योः , मुद्रिका-स्त्री० । हस्ताङ्गुलीसम्बन्धिनि आभरणे, शा०१ दे० ना० ६ वर्ग १४७ गाथा। श्रु० १ ० ० । कल्प० । औ० ।
मुम्मुही-मुमुखी-खी० । मोचनं मुछ जराराक्षसीसमाकामृद्वीका-स्त्री० । द्राक्षायाम् ,नं० । बृ० । ध०। ग०। पं०व०।
न्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रति मुखम्-श्राभिमुख्य प्रशा० । प्राचा० । स्था० । जी।
यस्यां सा मुङ्मुखीति । वर्षशतायुषो नवम्यां दशायाम् ।
स्था० १० ठा० ३ उ० । तं०। मुद्दियापिंगलंगुलि-मुद्रिकापिङ्गलाङ्गलि-त्रि०। मुद्रिकाभिः पिङ्गलाः पीतवर्णा अङ्गलयो यस्य । कल्प०१ अधि०३क्षण ।
नवमी मुम्मुहीनाम, जं नरो दसमस्सियो । मुद्दियामहुर-मृद्वीकामधुर--न० । मृद्रीका द्राक्षा तद्वत्सैव वा जराघरे विणस्संते, जीवो वसइऽकामओ ॥४॥ मधुरम् । द्राक्षामिष्टे, स्था० ४ ठा० ३ उ० ।
नवमी मुन्मुखी नाम वर्तते, यां मुन्मुखीं दशां नर आश्रितो मुद्दियासार-मृद्वीकासार-पुं० । मृवीका द्राक्षा तत्सारनिष्प-1 जराघरे-शरीरे, विनश्यति सति जीवोऽकामको विषयादिपासबविशेषो मृद्वीकासारः । पासवभेदे, जी०३ प्रति० ४]
वान्छारहितो वसति । तं० । दश । अधि०। प्रक्षा
मय-मृत-त्रि० । विनष्टे,प्राचा०११०४०३ उ०॥ सूत्र।
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मुसादंड
(३२०) मुय
अभिधानराजेन्द्रः। मुद-स्त्री० । मोदनं मुद् । हर्षे , सूत्र० १ श्रु०१३ अ०। मुरुगा-मुरुका-खी० । बीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रतिः । मुयंग-मृदङ्ग-पुं० । मर्दले, सू० प्र० १८ पाहु० । लघुमर्दले, जं० मुरुमुंड-देशी-जूटे, दे० ना० ६ वर्ग ११७ गाथा। ३ वक्ष०ारा। विपा।
| मुरुमरिअ--न० । कामचिन्तायाम् , “ मुरुमुरिअं रूरुइअं" मुयंगपुक्खर-मृदङ्गपुष्कर-न० । मृदङ्गो लोकप्रतीतो मर्दल- पाइ० ना० १८२ गाथा। स्तस्य पुष्करं मृदङ्गपुष्करम् । मर्दलस्य चर्मपुटके, रा० । मुलासिअ-देशी-स्फुलिङ्गे, दे० ना०६ वर्ग १३५ गाथा। जं०। जी०।
मुल्ल-मूल्य--न० । अर्धे, नि चू० २० उ०। आव० । “मुल्लाई यग्ग-मदन-पुं० । जीवे विभङ्गशाने, बाह्याभ्यन्तरपुद्गलर- वेणाई" पाइ० ना० १६२ गाथा। चितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भवद् , भवनपत्यादिदेवानां बाह्या- | मुब्बिसयंगारवुहाभा--मुद्विषयाङ्गारवृष्टयाभा--त्रिका सुदो हर्षभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानतो वैक्रियकरणदर्शनादिति।स्था०७ठा स्य विषयो यस्तस्मिन्नङ्गारवृष्टयाभा अकारवृष्टिसदृशा । मयन-मतार्च-मदर्च-पुं० । मृतेन स्नानविलेपनसंस्काराभा.| पोटाविषयाोशाaar
प्रमोदविषयार्थोपघातकारिण्याम् , पो०१४ विव० । वादा-सनुः; शरीरं, यस्य स मृतार्चः । यद्वा-मोचनं मुद्त-मस--मुष--धा। स्तेये , व्यञ्जनाददन्ते ॥८।४। २३६ ॥ दभता शोभना अर्चा-पद्मादिका लेश्या, यस्य स भवति मु- इति व्यञ्जनान्तधातोरन्तेऽकारः । मुसइ । मुष्णाति । प्रा०। दर्चः । प्रशस्तदर्शलेश्ये, सूत्र० १ श्रु० १३ अ० । अकषायिणि, |
मुसंढि--मुपण्ढि-पुं० । प्रहरणविशेषे, लपेटाभिधाने शस्त्रभेदे, प्राचा० १ श्रु०४ अ०३ उ०।
जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ० । प्रश्न । रा०। प्रज्ञा० । स० मुया-मुत-स्त्री०। प्रीती, द्वा०१८ द्वा०।
साधारणवनस्पतिकायभेदे, जी० १ प्रति० । उत्त०। प्रज्ञा० । मुर-स्फुट-धा। हास्येन स्फोटे, हासेन स्फुटेर्मुरः॥ ।४।पसल
मुसल-मुसल-न० । मुहुर्मुहुर्लसतीति मुसलम् । धान्यकण्ड११४॥ हास्येन करणेन यः स्फुटिस्तस्य मुरादेशो भवति । नोपकरणे , अनु० । चतुर्हस्तप्रमाणे ऽवमानविशेष , ज्यो०२ मुरह । हासेन स्फुटति । प्रा०४ पाद।
पाहु०। अनु०. । उत्त। सूत्र० । भ०। प्रश्न० । तिजं०। मुरई-देशी-असत्याम्, दे० ना० ६ वर्ग १३५ गाथा। "छराणउअंगुलिमाणणं धणूनालियाजुगे अक्खे मुसले वि"
स०६६ सम०। मुरंडी-मुरण्डी-स्त्री० । मुरण्डदेशोद्भवायाम् , रा० । सूत्र० ।
मुसलाउह-मुसलायुध-पुं० । बलदेवे, “रामो सीरी मुसलामुरय-मुरज-पुं० । महाप्रमाणे मर्दले, रा० । जं । गलघण्टि-|
उहो बलो कामपालो य" पाइ० ना०२३ गाथा।
मसह-देशी-ममयाकुलत्ये , दे० ना०६ वर्ग १३४ गाथा। भ०६ श०३३ उ० । औ०। मानविशेष, शा०१थु०७०।। वाद्यभेदे, “मुइंगो मुरओ" पाइ० ना० २६६ गाथा । मुसा-मृषा-अब्य० । मृपाशब्दस्त्वव्ययोऽलिङ्गश्चेति । स्था० मुररि-मुररि-पुं० । श्राभरणविशेषे, श्री० भ०।
१० ठा। अचौरे चौरोऽयमित्याख्यानवचन , दश०६
अ०। अन्यथास्थिततत्त्वस्यान्यथाप्रतिपादने , सूत्र० १ श्रु० मरिअ-देशी-त्रुटिते, दे० ना० ६ वर्ग १३५ गाथा ।
१ अ० ३ उ० । मिथ्याऽनृतं मृषेति पर्यायाः । विश० । पमुरियवंस-मौर्यवंश-पुं०। चन्द्रगुप्तवंशे, नि० चू०१६ उ०। ञ्चा० । “असन्तोऽपि स्वका दोषाः, पापशुद्धयर्थमीरिताः।न .
पायै विसंवाद-विरहात्तस्य कस्यचित् ॥३॥" पं०व०४ द्वार । मुरुंड-मुरुएड-पुं० । अनार्यदेशभेदे,सूत्र०१ श्रु०५ १०१ उ०॥
नि० चू० । अलीके , प्रव० ६ द्वार । आतु० । स्था० । नि० प्रव० । प्रज्ञा० । निचू । प्रश्न० । स्वनामख्याते पाटलिपुत्र- चू०। उत्त । मृषेत्यसत्यंभूतनिवादि। उत्त०१ अ । नगरराजे, स्वनामख्याते प्रतिष्ठानपुरराजे च । नं० । 'पाटली. स्था० । सूत्र। पुत्रनगरे, मुरुण्डोऽभून्महीपतिः । श्राचार्यः पादलिताख्य- |
लप्ताख्य- | मुसाणुबंधि(ण)-मृषानुवन्धिन-म० । पिशुनासभ्यासद्भूतघास्तत्र विद्याजलार्णवः ॥१॥" श्रा० क. ३ अ० व्य० । श्रा०
तादिवचनप्रणिधान , ध. ३ अधि० । म० । वृजनि० चू०। ('विजा' शब्दे कथा) मुरुण्डदेशोवे , त्रि० भ०६ श० ३३ उ० । शा०।
मुसादण्ड-मृपादएड-पुं० । अलीकजन्ये बधे, “प्रायट्ट नायमुरुंडजड-मुरुण्डजड-पुं० । मुरुण्डस्य राज्ञो हस्तिति, वृ०
गाईण , वावि अढाइ जो मुसं वयइ । सो मोसपञ्चईश्रो,
दंडो छो हवइ एसो॥१॥" श्राव०४०। ३उ०। मुरुंडदुस-मुरुण्डद्त-पुं० । मुरुण्डस्य राज्ञो दुते, बृ० १ उ०
अहावरे छठे किरियट्ठाणे मोसावत्तिए ति आहिजइ,
से जहाणामए केइ पुरिसे अायहेउं वा णाइहेउं वा अगार३प्रक०। व्य। मुरुक्ख-मूर्ख-पुं०। पद्म-छद्म-मूर्ख-द्वारे वा ॥ ८।२।११२॥
हेउं वा परिवारहेउं वा सयमेव मुसं वयति, अम्मेण विइत्यनेन संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उद्वेति खात्पूर्वमुत् । मु- |
मुसंवाएइ मुसं वयंतं पि अामं समणुजाणइ, एवं खलु बसो । मुरुमको । मूहे , प्रा० २ पाद ।
१ अत्र भूषाशब्द; सियाम् ।
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मुसापड अभिधानराजेन्द्रः।
मुसावाय तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिजइ, छठे किरियट्ठाणे इयाणिं मुसावात (द) परिसवणा दप्पकप्पेहि भएणति मोसावत्तिए ति पाहिए ॥ २२ ॥
तत्थ वि पुब्वं दप्पिया पडिसेवणा भणतिअथापरं षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते- दुविधो य मुसावातो, लोइम लोउत्तरो समासेणं । तत्र च पूर्वोक्तानां पश्चानां क्रियास्थानानां सत्यपि क्रिया- दव्वे खत्ते काले, भावंमि य होइ कोधादी ॥ २६० ।। स्थानत्वे प्रायशः परोपघातो भवतीति कृत्वा दण्डसमादान
दुविहो-दुभेदो, मुसा-अनृतं, वदनं-वादः, अलिअवयणसंक्षा कृता, षष्ठादिषु च बाहुल्येन न परब्यापादनं भवती
भासणेत्यर्थः । लोइय त्ति-असंजयमिच्छादिट्ठिलोगो घेप्पति। त्यतः क्रियास्थानमित्येषा संशोच्यते । तद्यथानाम क
उत्तरग्गहणात्संजतसम्मदिदिग्गहणं कज्जति । समासो-संखे श्चित्पुरुषः स्वपक्षावेशाद्-आग्रहादात्मनिमित्तं यावत् परि
वो, पिंडाथैत्यर्थः । यसहो मूलभेदावधारणे, पुणो पक्केको वारनिमित्तं वा सद्भूतार्थनिह्नवरूपमसद्भूतोद्भावनस्वभा
चउभेदो-दब्वे,खेत्ते, काले,भावमिय। यसहो समुच्चये। कोव वा स्वयमेव मृषावादं वदति । तद्यथा-नाहं मदीयो वा
हाति । आदिसहातो-माणमायालोभा। एत्थ लोइतो ताव कश्चिच्चौरः, स च चौरमपि सद्भूतमप्यर्थमपलपति । त
चउठिवहो भएणति। था-परम्-अचौरं चौरमिति वदति । तथाऽन्येन मृषावाद
तत्व वि दवे पुवंभाषयति,तथाऽन्यांश्च मृषावादं वदतः समनुजानीते । तदेवं
विवरीयदवकहणे, दयम्भूयो य दबहेऊ वा। खलु तस्य योगत्रिककरणत्रिकेण मृषावाद बदतस्तत्प्रत्ययिकं सावधं कर्म,आधीयते-संबध्यते । तदेतत्षष्ठं क्रिया
खत्तणिमित्तं जंमि व, खित्ते काले वि एमेव ॥ २६१ ॥ स्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यातमिति । सूत्र०२०२०।
दब्बस्स प्रणाहारणी जा भासा सादव्वमुसावाओ भरणति । मुसावाइ-मृषावादिन-पुं० । असत्यवतरि, श्राचा०२ श्रु०१ कहं पुण दवणाहारणीएभरणति?,विवरीयदव्वकहणे। वि
वरीयं-विपर्यस्तं, कहणं-आख्यान, यथा गाम् अश्वं कथयति चू०४ अ० १ उ० । अलीकभाषणशीले,उत्त०५ अ०। प्रश्नका
जीवमजीवं ब्रवीति, दब्वभूतो णाम-अणुवउत्तो भावस्तथेमुसावाय-मृषावाद-पुं० । मृषा-मिथ्या, वदनं बादः ।
त्यर्थः, सो जं अलियं भासति तो दव्वमुसाबाओ, वा-विउदोन्सृषि ॥८।१ । १३६ ॥ इति ऋत उत् । प्रा०।
कापसमुश्चये दव्वं हिरण्णादि हेऊ-कारणं, दव्वकारणत्थी अलीकभाषणे , स्था० १ ठा० । अनृताभिधाने , ध० २ मुसं वदति त्ति वुत्तं भवति । जहा-कोइ दव्वं लभीहामि त्ति अधि० । सूत्र० । पा० । असद्भतार्थभाषणे , सूत्र०१ अलियं संखेज वदति । वाकारो विकप्पसमुचये गतो दब्बश्रु. ३ अ० ४ उ० पा० | आव० । दर्श० । असदभि
मुसावातो। धानं मृषेति वचनात् । स च द्रव्यभावभेदाद् द्विधा । स्था० १
इदाणं खत्ते भएणति-खेत्तं लभीहामि त्ति मुसावातं टा०नि००।अभूतोद्भावनादिभेदाचतुर्दा । स्था०१ ठा० ।
भणति, जंमि वा खेत्ते मुसावायं भासति सो खेत्समुसावातो, पा। मृषावादश्चतुर्विधः । तद्यथा-सद्भावप्रतिषेधः, असद्भावोद्भावनम् , अर्थान्तरम् , गर्दा च । तत्र सद्भावप्रति
वाकारो विकप्पदरिसणे । इमो विकप्पो-विवरीयं वा खेतं षेधो यथा-नास्त्यात्मा, नास्ति पुण्यं, पापं च इत्यादि।
कहेति, अणुवउत्तो वा खेत्तं परवेति, एसो खेत्तमुसाबातो।
इदारिंग काले भरणति-काले वि एमेव त्ति-जहा खेत्ते, तअसद्भावोद्भावनं यथा-अस्त्यात्मा सर्वगतः, स्यामाकतन्दुलमात्रो वा इत्यादि। अर्थान्तरम्-गामश्वम् अभिदधत इत्यादि।
हाकाले वि गवरं कालणिमित्तं तिरिण घडा। गर्हा-काणं काणमभिदधत इत्यादिः । पुनरयं क्रोधादिभावो
इदाणि भावमुसावातो भएणति-भावमुसावातस्स भहबाहु पलक्षितश्चतुर्विधः । तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भा
सामिकता पक्खाणगाहावतश्च । द्रव्यतः-सर्वद्रव्येष्वन्यथाप्ररूपणात् । क्षेत्रतो-लोका
कोधाम्म पिता पुत्ता, माणे धर्म व माय उवधी य । लोकयोः । कालतः-राध्यादौ । भावतः-क्रोधादिभिरिति । द्र- लोभमि कूडसक्खी-णिक्खवगमादिणो लोगे ॥२६२॥ व्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियम्-"दब्वश्रो णामेगे मुसावाए, णोभा- कोहंमि-पितापुत्ता उदाहरणं,माणे-धरण उदाहरणं,मायाए वो । भावो णामेगे,णो दव्वो। एगे दबश्रो वि,भावो | उहि उदाहरणं, लोभंमि, कूडसक्खित्तं-उदाहरणं,जे लोभावि । एगे णो दव्वओ णो भावो । तत्थ कोइ कहिं चि हिं- भिभूता दव्वं घेत्तूण कूडसक्खित्तं करेंति एस लोभनो भावमुसुजो भणड-इश्रो तए पसुमिणाहणो, दिट्ठ त्ति, सो द- सावाश्रो।चोदगाह-गणु दव्वनिमित्तं एस दब्बे भणितो। याए दिट्ठा वि भणइ, ण दिट्ठ त्ति, एस दवो मुसावाओ, श्राचार्याह-सत्यं, तत्र तु महती द्रव्यमात्रा द्रष्टव्या । इह तु णो भावो। अवरो मुसंभणीहामि त्ति परिणो सहसा सञ्चं लोभाभिभूतत्वात् स्वल्पमात्रा एव मृषं ब्रवीति । किंच-जे भणइ, एस भावो, न दवभो । अवरो मुसं भणामि ति वणियादयो लोगे शिक्खवगं णिक्खित्तं लोभाभिभूता अवलपरिणी, मुसं चेद भणति, एस दवो वि, भावमो थि। चंति एस वि लोभतो भावमुसावातो दट्टब्यो । आदिसहाचरिमभंगो पुण सुगणा" । दश० ४ ० । जीत० ३१ गा- श्रो वि वीसंभमप्पियमप्पगासं अवलति जे । पश्चाई व्याथाकीचूर्णि।
ख्यातमेव। मुसावायं--सुहुमं, वायरं च। तत्थ सुहम-पवलाउल्ला पुब्बद्धस्स पुण सिद्धसेणायरिओ वक्खाणं करेति । मरुए एवमादि, बादरो-कन्नालीगादि । महा०३ अ०।। कोहेण ण एस पिया, मम त्ति पुत्तो ण एस वा मन्झ । आ० चू० । दश।
हत्थो कस्स व हुस्सति, पूएसु घरा छुभति घण्वं ॥२६३॥
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( ३२२ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
मुसावाय
पुसो पिउसो रुट्टो भणाति-नएस पिया ममं ति अहं पिया था। पुचस्स पिया रुट्ठो भगति एस या मोि को िपिता स ति गतं । 'धराणं माणं पि' अस्य व्याख्याइत्थोपच दुखण कुपी विवातो हरथो करम बहुसह सि, इत्यो हसत्यनेन मुखमावृत्य इति हस्तः । कस्स ति पेट, ममं मो फरसऽराणस्स बसति हरयो भवेज्ज, इतरो वि एमेव पश्चाह । श्रहवा कस्स तित्ति संसतवाती तुज्यं मज्यं वा ण राज्जति । बहुसं इति बहुधन्नकारी, एवं तेसिं विभत्यपुरसच सरिसं या जा ते ते मलते तेसु परिपूता परिसोहिता सर्वमलापनीतानीत्यर्थः । 'घरा बुभति धरण त्ति " तत्थेगो मानावपुण्यो मा जिचे गृहात् धान्यमानीय खलधान्ये प्रक्षिपति, मीयमाणेषु तस्यातिरेकत्वं संयुतं मम बस्स नि त्यो नि, एस माणतो भावमुसावातो । धरणं माण त्ति दारं गतं । इयादिमादिमिति मापदि नि उहिरिति उपकरणं, साणि य बत्थाणि तेहि उवलक्खियं-उदाहरणं भरणति, अण्णे पुणायरिया एवं भांति जहा मायत्ति वा उवहि त्ति वा एगट्ट सि, एत्थ उदाहरणं भरणति ।
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ससगेलासागटभ मूल देव खंडा व जिजाये। सामत्थणे को भत्तं अक्खातं जे प सहहति ॥ २६४ ॥ वि०६० १ ३० । (पार्थे धूर्तास्यानम पुत्तस्या' शब्दे चतुर्थभागे २७५६ पृष्ठे गतम्) गतो लोइओ मुसावातो। इयान सोडतरियो व्यादिचन्ोि मुसावात भरणति-यव्वे ताव सचित्तं, श्रचित्तं, भरणति । धम्मदव्वं श्रधम्यदम्य पचति अधम्म वा धम्मरूपेण एवं
साथि चिदव्याणि येसं लोगागासं लोगागासकयेहिं पचति लोगं या लोगपञ्जभिरतंयमवपतपहिं परूपयति हेमच या भवेपिवइ । एवं साणि खेत्ताणि । काले-उस्सप्पिणीं श्रसप्पिणीपज्जवेहिं परूदह । श्रसप्पिणि वा उस्सप्पिणिपजवहिं परूवया । एवं सुसमसुसमाहिं कालविवच्चासं करोति । समयादिवाकरे मां को वा, मारो वा माया वा, सोमेण वा. अभिभूतो वय भगति परिसो भावमुसावातो । श्रह वा - लोउत्तर भावमुसावातो दुविहो । जो मरणति ।
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गाद्दा
सुमो व चादरो वा दुविधो लोउत्तरो समासेणं । सुमो लोउत्तरित्र, गायत्रो इमेहि ठाणेहिं ॥ २६७॥ सुतुमबायरसरूवं वक्खमाणं, समासो-संखेवो, इमेहित्तिवक्खमारोह, पयलादीहिं, ठाणेहिं ति-पदेहिं, दारेहिं ति वृत्तं भवति ।
लागि मणि ठाणाणि दारगादापला उले मरुए, पञ्चक्खाणे व गमण परियाए । समुदेखी सु-इए य परिहारिय मुहीओ ॥ २६८ ॥ अवस्सगमणं दिसासु, एगगुले चेव एगदव्वे य । पडियाय, जय पयलासि किं दिया था।। २६६ ॥ पतातो दोरिण दारगाहातो ।
पयल त्ति दारं । गाहापलानि यलडुओ, दोन्द शिरले पुणो गुरुओ ।
मुसावाय
मदा इति हिवणे, लहुया गुरुगा बहुतराणं ॥ ३००॥ कोइ साहू पयलाइ दिवा, श्ररणेण साहुणा भरणति, पयलासि किं दिवा, तेरा पडिए पलामि एवमवलयंतस्स पढवारा मासलहुं । पुणो वि से उंघेउं पवत्तो, पुणौ वि ते साहुणा मा पयलाहि त्ति । सो भगति - पयलामि त्ति । एवं वितियवाराप दोच्च गिराहवे गुरुगोत्ति | बितियवाराण हिर्वेतस्स मासगृरु भवतीत्यर्थः । अरणदा इति गिरये लगति । ततो रवि पलामि निचहुगं भवति । गुरुगा बहुतरगाणं ति - तेण साहुणा दुति - गाणं दंसिश्र, पुणरवि गिरहवेति तेल से चउगुरुगा भवंति । हिवणे च्छित्तं, ढेत्ति तू हि जा सपदं । लहु गुरु मासे सुमो, लहूगााती बादरे होंति ॥३०१ || पुव्वऽद्धं कंठं । वरं समुदायत्थो भरणति - पंचमवारा ि रावेंतस्स छ लहुश्रं । छट्ठीए छ गुरुश्रं । सत्तमवाराए छेदो । अट्टमवाराए मूलं । एवमवाराए श्रणवट्ठो । दसमवाराण पारंची। चोदकाह - एस सव्वो सुद्दुममुसावातो । श्रायरियाहलद्गुरुमा मोति जन्थजन्य मासस मासगुरु या तस्थ तत्थ सुमो मुसावातो भवति चलदुगादी वा यरो मुसावातो भवतीत्यर्थः । पयले ति दारं गये ।
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इदाणि ' उल्लेत्ति' उल्लमिति वासं । गाहाकिं वच्चसि वासंते, गच्छे खणु वासविंदतो एते । भुंजंतिणीह मरुगा, कहिं ति गणु सव्वगेहेहिं | ३०२ | कोइ साहु वासे पडिमा अस्तरपञ्चोपट्टि - ओ अर साहुणा भरगति किं वचसि वासंते, किम् इति परिप्रश्ने' व्रजसीत्यर्थः, वासंते वर्ष, तेरा पतिसाहुणा भरगति, वासंतेऽहं ण गच्छे' एवं भणिऊण वासंते चैव पट्टियो ते साडुा भएतिरा चलिये, इतरो पश्चाह, ण, कहं, उच्यते-राणु वासं बिंदवो एते रागु-संकितावहारेण वा पाणी तस्स पर दिवो चितुमिति चिनुकं। सीसो पुच्छर पत्थ कतरो मुसावा ?, गुरुराह जो भगति पाई वासते गये, पस मुसाचातो छलवादोपजीवित्वाच्च । जो पुरा भगति किं वचसि वासंते, एस मुसावातो ण भवति । कहं उच्यते - " करेजवा से वासंते " इति वचनात् । उल्लेत्ति दारं गये । इदाणि 'मरूप' ति व्याख्या-मुंजति पच्कोर साहू कारले विि मगतो उबस्यमागतूण साह भवति-शी-सिगद, भुंजंति मरुा । अम्हे वि तत्थ गच्छामो । ते साहू उग्गहियभायणा भगति । कहिं ते मरुया भुंजंति ?, तेण भणियं
सव्वगेहिं । मरुप त्ति गयं । ' पश्चक्खाणे य' अस्य व्याख्या । वितिषदारगाहा से परिमो पापडिया दिक्त्तिये भुंजण्यंति, ते पडिया तिक्खित्ताणुभुंजामि ति निषिद्धेत्यर्थः । पुनरपि भोगे मृषावादः । अस्यैवार्थस्य स्पष्टता सेनाचार्यः करोतिभुंजसु पचखातं, ममं ति तक्खण पभुंजती पुट्ठो । किं च इमे पंचविधा, पञ्चक्खाता अविरती उ ॥ ३०३ ॥ कोह साह के य साहुया उबग्गहभोय मंडलिये लाकाले भणितो - एहि भुंजसु तेण भणियं भुंजह तुज्झे, पञ्चखायं ममं ति, एवं भणिऊण मंडलिवेलाए तक्खणादेव भुंजतो तेरा सा
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मुसावाय हुया पुट्ठो जो! तुमं भणासि मम पथकवा ? सो भगति 'किं च' पच्छद्धं पाणातिपातादिपंचविद्या श्रविरती, सा मम पश्चक्खाया इतिं । पञ्चक्खाण ति दारं गयं । इया गम सि अस्य व्याख्या चितियारमाहार ततिय पादो पडिश्रक्खियगमति पडियारक्खित्ता ण गच्छामि नियुतं भवति । एवमभिधाय पुरचि खिम्मम । 'मुसायायो' ऽस्यैवार्थस्य सिद्धसेनाचार्यः व्याख्यानं करोति वचसि गाई बचे, तक्ख-वसंत पुच्छि भगति । सिद्धतं विजाणसि, राणु गंमति गम्ममाणं तु ॥ ३०४|| कोति य साहुणा चेतियवंदगादिषयोयणे वञ्च्चमाणेण श्ररणो साहू मणितां वच्चसि ? सो भगति णाहं बच्चे । वच्च तुमं । सो साधू पयात इतरो तिरो तखादे पाती तेण पुण पुत्र्वपयायसामिणेण श्ररणो साधू भरणति- पुणो पुच्छितो कहं ण वच्चामि त्ति भणिऊण वचसि ? सो भगतिसिद्धं विजाराह । कहम् उच्यते राखु गंमति गम्म माणं तु गम्ममा गमागम्यमाणं, जंमिय समय तुमे अहं पुट्ठो तंमिय समय वा त्यर्थः गमति दारं गये। इयाणि परिताए निदस एतस्स व मज्झ व पुच्छितो परियाग वैति तु छलेण । मज्झ एवत्तिय वंदित, भणाति ते पंचगा दसओ ।। ३०५ ॥ कोई साहुखा वंदिकामेण पुच्छिश्रो कति वरिसाणि ते परिता ? सो एवं पुच्छितो भगति एयस्स साहुस्त मज्झ य दस वरिसाणि परियाओ । एवं छलवाय मंगीकृत्य ब्रवीति । सो पुच्छंतगसाहू भणति मम एव वरिसाणि परियाओ । एवं भरि यदि ताहे सोयिसा भणति विवसह भंते! तुझे बंदणिजा, सो साह भगति कहं मम नव वरिसाणि ?, तुज्भं दस वरिसाणि-सो छलवाई साहू भगति गु वे पंचगा दस उ । मम पंच वरिसाणि परितात । एयस्स य साहुणो पंच वरिसाणि चैव परिश्रा श्र । एवं वे पंचगा दसश्री परियाए ति गतं ।
( ३३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
इदाणी समुद्देस त्ति
वट्टति तु समुद्देसो, किं अत्थह कत्थ एस गमम्मि | बति व संखडी उ, घरेसु रागु आउखंडणता || २०६ ॥ कोति साहू कातिभोमादिविग्गतं आदिष्य परिवेस परिवियं दट्ठूण ते साहवो सत्थे अत्थमाणा तुरियं भयंति वहति समुदेखो कि अत्यह उह गच्छामो । ते साह श्रलियं भासति त्ति गहियभासणा उट्ठिता उट्ठिता पुच्छति - कत्थ सोमो । छलवादी भरपतिएस गम मग्गम्मि आदिच्च परिवेसं दर्शयतीत्यर्थः । समुदेति गये।
संखडित्ति पच्छद्धं । कोइ साहू पढमालियपाणगादिशिरंगतो, पचागश्री भगति – इज से पराओ खडी श्रो, ते य साहवो गंतुकामा पुच्छति, कत्थ ताओ संखडीओ वति?, सो छलवाई साहू भगति-वहंति संखडीओ घरेसुप्पणपणसु ति बुत्तं भवति । ते साहवो भांति --कथं ता श्रसिद्धा संखडीओ भरांति-सो छलवायसाह भरगतिगु] आखंडल्या | आसंकिता, थावधारणे पति
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मुसावाय जाइ य तमाउं भरगति-जमि वा ठियस्स सव्वकमाणि उवभोगमागच्छंति तमाउं भरणति, तस्स खंडणा - विनाशः सा ननु सर्वगृहेषु भवतीत्यर्थः । सबंदि चि गतं ।
दाण खुइति
ग
खुट्टा ! जगणी ते मता य, रुमे जियइ ति एव भणितंमि । माइला सव्वजिया भवितु तेथेसा मता ते ॥ २०७ ॥ कोई साह उपस्थयसमीचे ददहून मयं सुलीमगाति - खुड़ग ! जगणी ते मता खुट्टो वालो, जगणी माता मया जीवपरिक्षा ताहे सो खुट्टो तं दद सो साहू भगति -मा रुय जियइ प्ति, एवं भणियस्मिखुड्डो रणे य साह भांति । किं खुडं तुमं भणसि जहा म या, सो मुसावायसाह भगति - एसा जा साणी मता एसाय तुज्झ माया भवति, खुड्डो य भगति -- कहं एसा - ज्झ माता भवति, सो भवति-मादिना भि तीतकाले शासीदित्यर्थः भणिये च भगवता " एमगस्स । भंते! जीवस्स सव्वजीवा मातित्तार पियसार भातित्ताए भज्जत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए भूयपुव्वा । हंता गोयमा ! एगमेगस्स जीवस्स एगमेगे जीवे मादिलाए० जाव भूयपुब्वत्ति " तेण ते एसा साणी माता भवतीत्यर्थः । खुडे त्ति दारं गयं ।
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दाणि परिहारिय सि
सम्पेद, दिडा परिहारिय नि लहुकरणे | कत्थुजा गुरुओ अदिदिट्ठेमु लघु गुरुगा ॥ ३०८ ॥ कोइ साह उणादिसु ओसो पद आगंतू भराति मर दिडा - परिहारिगनि सो ले कहयति । इतरे पुण साहू जाति, जहा - परिहरितवावरणा अणेण दिट्ठा इति तस्स एवं छलाभिप्पायतो कहंतस्सेव मासलहुं पायछत्तं भवति । पुणो ते साहुगो परिहरियसाह दरिसोसुगात करते दिट्ठा, सो कहपति खाये एवं कहितस्त्र मास दिन परिहारियोगा लिया जाव ण पासंति ताव तस्स कहेंतस्स चउलहुगा, दिट्ठेसु श्रोसरणेसु कहंतस्स चउगुरुगा ।
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छलहुगा ययिते, आलोए तंमि छग्गुरू होंति । परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारी भवे छेदो ॥ ३०६ ॥ ते साहु ने कहयंतस्त्र एलदुगा भवति ते साहवो दरियावहियं पडिकमि गुरुण गमागम थालोएंति भरांति - श्रप्पासिया अण साहुणा, एवं तेसु आलोय तर गुरुगा भवति सो उत्तरं दाउमा रोप परिहरतीति परिहारगते परिहारमा क अपरिहारंगा एवं उत्तरप्पयाणे छेदो भवति । ते साहवो भसति किं ते परिरंति ? जेण परिहारगा भरांति । उच्यते
खानुगमादी मूलं सच्चे तुम्भेगऽहं तु अणवट्टो । सच्चे व बाहिरा वा, पवयण तुभे तु पारंची ॥ ३१० ॥ उडाय व टिगं कई खाणुभति दिखातो कंडरागड्डादि परिहरति । तेरा ते परिहारमा भगवंति एवं उत्तरपाले मूलं भवति। ततो तेहिं संवेग
साहमिति थ
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(३२४) मुसावाय अभिधानराजेन्द्रः।
मुसावाय ोऽसि, जो एवं मए वि उत्सरं पयच्छसि । ततो सो पडिभ- भिक्खायरियाए गमिस्ससि ? सो एवं पुच्छितो भणति-पुसति-सखे तुज्मे सहिता एगवयणा, एगोऽहं तु असहाश्रो व्वं । सो पुच्छंतगसाहू उग्गाहेऊ ण य गतो,अवरं विसं इयरो जिवामिण पुण परिफग्गुवयणं मे जंपियं, एवं भणंतो वि पुवदिसि गमणमादी, अवरं गो। अजो! तुमे भणिय अणषट्ठो भवति । शानमदावलिप्तो वा स्यादेवं ब्रवीति । सब्वे अहं पुव्वं गमिस्सामि, कीस श्रवरं दिसिमागतो?, पुटुंभवि-पच्छ, सव्वे असेसा, बाहिरा-आशापवयणं-दुवालसं. णइ-पुट्ठो पुच्छिउत्ति-वुत्तं भवति, 'किं वा'-पच्छद्धं-अएणगं गणिपिडगं, तुम्भे ति णिद्देसे, तुसहो तावन्मात्रावधारणे, स्स अबरगामस्स इमा पुव्वा दिसा किंण भवति ? भवति चेएवं सब्वाहिं खेवाश्रो पारंची भवांत । परिहारिए त्ति गयं । व। दिस त्ति गतं ।। इदाणि मुहीनो त्ति
'एगकुले त्ति' अस्य व्याख्याभणइ य दिवणियत्ते, आलोयाऽऽमंति घोडगमुहीओ।
अहमेगकुलं गच्छं, बच्चह बहकुलपवेसणे पुद्रो।
भणति कहं दोलि कुले, एगसरीरेण पविसिस्स॥३१॥ किं मांसा सव्वेतो, सव्वे बाहिं पवयणस्स ॥३१॥
दारंएगो साहू वियारभूमि गो, उजाणुद्देसे वलवाश्रो चरमा
वच्चह एगदव्वं,घेच्छंऽणेगग्गह पुच्छितो भणति । णीओ पासति । सो य पच्चागो, साहूण विम्हयमुहो कह
गहणं तु लक्खणं पु-ग्गलाणणे णसिते गहणे ॥३१६।। यति-सुणेह अजो । जारिसयं मे वोज्जं दिटुं तेहिं भरणतिकिमपुव्वं तुमे दिट्ट ?, सो भणति-घोडगमुहीओ मे इत्थिया
अणिकाइते लहुसओ, णिकाइए बायरो य वत्थादी। ओ विट्ठाओ, ते उज्जुसभावा-श्रणलियवारणो ति साहू,
ववहारदिसाखेत्ते, कोहातो सेवती जं वा ।। ३१७ ॥ साहुणो पत्तिया, जहा परिहारे तहा इहावि असेसं दट्टव्वं ।
मिक्खणिमित्तुट्टितेण साहुणा, साह भरणति-अजो! एहि, गवरं अक्खरत्थो भएणति-'भणति घोडगमुहीओ दिट्ठा
वयामो भिक्खाए,सोभणति-वञ्चह तुज्झे अहं एग दब्वं वेच्छं इति' साहहिं पुच्छिो कत्थ ?, उज्जाणसमीवे त्ति, विति
ते गतागते,इतरोवि अडंतोश्रोदणदोश्चंगादी बहुदब्बे गेराहतो यवयणं । साहबो दट्टब्वाभिप्पायी वयंति,त्ति ततियवयणं विट्ठ
तेहिं साहहिं दिट्ठो,पुच्छितो य-अजो!तुमे भणितं एग दव्वं त्ति बलवाओ, चउत्थं पडिणियत्ता इति, पंचमं गुरु ण श्रा
घेच्छं, एवंडोगग्गह पुच्छितो भणति त्ति, अणेगाणि दव्याणि लोएति, एवं वियमो, छटै सहोढपच्चुत्तरपयाण, आम ति गेरहंतो पुच्छितो इमं भणति-गहणं तु पच्छद्धं, गतिलक्खघोडगमुहीनो जेण दीहं मुहं, अहो मुहं च; अश्वतुल्या पवे
णो धम्मत्थिकाओ, ठितिलक्खणो अधम्मत्थिकाओ, अवत्यर्थः । सत्तमं पदं साहूहिं भएणति-कहं ता इत्थियाश्रो ?,
गाहलक्खरणो आगासथिकाओ , उवोगलक्षणो जीवसो पडिभणाति-किं खाति मणुस्सा अट्टमं पदं, सब्वे तुम्भे
थिकानो , महणलक्षणो पुग्गलस्थिकाओ, एएसि पंचएहं अहमेगो णवमं पदं, सव्वे बाहिरा पवयणस्स दसमं पदं ।
दब्बाणं पुग्गलत्थिकाय एव गहणलक्षणो एगो णगणेसि ति पतेसु दससु जहासंखेणिमं पायच्छित्तं ।
धम्मादियाण एयं गहणलक्षणं ण विद्यतेत्यर्थः । तेणेगं ति, मासो लहुओ गुरुप्रो,चउरो मासा हवंति लहु गुरुगा ।
तम्हा अहमेगं दव्यं गेराहामि त्ति वुत्तं भवति । स तेसु
पयलातिसु भणतस्सेव मासलहुं पायच्छितं,पतेसु चेव पयछम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुर्ग वा ॥३१२॥
लादिसु अभिणिवेसण एक्केवपदातो पसंगपायच्छित्तं दटुब्वं दुर्ग-प्रणवटुपारंचियं । सेसं कंठं । घोडगमुहीनो ति गतं । जाव पारंचियं । एत्थ सुहुमवायरमुसावातलक्षणं भरगति इदाणि 'अवस्सगमणं ति' अस्य व्याख्या
अणिकाचिते लहुसो मुसावातो भवति,णिकातिते बादरोमु गच्छसि ण ताव गच्छसि,किं खुण जासित्ति पुच्छितो भणति सावातो भवति । वत्था इति-अणिकायणिकायणाणं भेदो दवेलाण ताव जायति,परलोग वावि मोक्खं वा ॥ ३१३॥
रिसिजति-जहा केणति साहुणा कस्सति साहुस्स कंदप्पा
बत्थं मिय,जस्स य तं वत्थं शामियं सो सामरणण पुच्छतिगच्छसि ण ताव त्ति-कोइ साहू, केणइ साहुणा पुच्छिश्रो
अज्जो केण विमे वत्थं णूमितं?,कहयह,सब्वे भणति-णव त्ति अज्जो ! गच्छसि भिक्खायरियाए, ण ताव गच्छिसि ति ।
पवं तस्स बत्थहारिणो अवलवंतस्स अणिकातियं वयणं भवएसा पुच्छा, गच्छंति सो भणति-श्रवस्सं गच्छामि । तेण
ति । जदा पुण तस्स तस्स साहुस्स केण य कहितं-जहाऽमुसाहुणा गिहीयभायणोवकरणेण भरणति, अज्जो ! पहिच
गेण साहुणा गहियं, नेण य सो पुट्ठो भणाति-णेव त्ति, एवं यामो । सो भणइ-अवस्सगतब्वेण ताव गच्छामि । तेण सा
णिकायणा भवति । अहवा-जेण तं गहियं सो चेव पढम हुणा पुणो भरणति, तुमे भणिय अवस्सं गच्छामि । तो किं
पुटो-अजो! तुमे मे वत्थं ठवितं?, सो भणति-णेव ति, एवं खु ण जासि त्ति । एवं पुच्छितो भणति । वेला ण ताव पच्छ
अणिकाइयवयणं,तो परं जो पुच्छिज्जतोण साहेति सा णि द्ध-पर लोगगमणवेला ण ताव जायति, तो ण ताव गच्छा--
कायणा भवति। श्रादिशब्दाद्-एवमेव पात्रादिष्वप्यायोजनीय. मि, मोक्खगमणवेला वा, अपि पदार्थसंभावने । किं पुण
म् । अहवा-इमे बादरभेया ववहारं भरणहा णिति विसावहारं संभावयति-अवस्स परलोगं, मोक्खं वा, गमिष्यामीत्यर्थः ।
करेति,खत्ते वा श्राहचं ण देति,ममाभग्वं ति काउं,एवं अपहाबा विकप्पे । गमणे त्ति गतं।
रादी,कोहाईहिं सेवति, जता तया बावरो मुसावातो भवती याणि 'दिस त्ति' अस्य व्याख्या
त्यर्थः,अहवा-एते ववहारादियाण विला कोहणं ति बादरो कतरं दिसं गमिस्ससि, पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो ।
एव मुसावादो दट्ठब्वो, कोहाति सेवती बसि-प्राणस्थ वि. किंवाण होइ पुवा, इमा दिसा अवरगामस्स ॥३१४॥ द्धं कोहादियाविट्ठो मुसं भासति-सो सम्बो बादरो मुसाबाएगो साधू पगेण साहुणा पुच्छिनो-मजो! कत्तरं दिसं| दो टुब्यो रति ।
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मुसावाय
कंदप्पा परबन्धं
6 वत्था ' इति श्रस्य व्याव्यामेऊसां ग साहती पुड्डो ।
जं वा सिग्गह पुट्टो, भगि दुईतरप्या वा ॥। ३१८ ।। पुग्वद्धं गतार्थ । यवहारदिसाखेत्त पदाएं सामन्नत्थव्याख्या पच्छद्धं - जं वा वयणं संवज्झति, निग्गहो- निश्चयः, पुट्ठो-पुच्छितो, भोजभासेज, दु-कलसियं अंतरण्या-चिनं, इति एग या चिप्पा एच बाद मुसाचात भवति नियकालेऽपि पृष्ठे दुष्टान्तरात्मा भूत्वा यद्वचनमभिधते स बादरो मृषावादी भवतीत्यर्थः ।
( ३२५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
'कोहादी सेवती जं व' त्ति, अस्य व्याख्याकोहेण व मागेण व, मायालोभेण सेवियं जं तु । सुमं व बादरं वा सव्वं तं वादरं जाय ।। ३१६ ॥ सेवितं तु मुसावार व संवरभति तं सु बाबाद था। कोहादीहिं भातियं सम्यं बादरं भवतीत्यर्थः। 'णिकाइए' नि, जा गाहा एत्तिए गाहाए जे अवराहपदा तेसु पच्छितं भरगति
लहुगो लडुगा गुरुगा, अखवटुप्पो व होड़ आएसो । तिरहं एगतराए, पत्थारपसजसं कुजा ।। ३२० ॥
ओनिडुममुसावाले लिगति वायरमुसावाते प्रच्छिन- लहुग ति । दिसावहारे - चउगुरुगा पायच्छित्तं, साहम्मियतेणे वि चउगुरुगा चेव । श्रहवा-साहमिथलेसे- श्रणव हो । आदेसो नाम-सुत्ताएसो, तेण श्रणवट्टो भवति । तं चिमं सुत्तं "तत्रो णवटुप्पा पत्ता । तं जहा-सा मिया करेमा गम्मिया करेमाने हत्थ लदलेमाणे " तिराहे ति तिविहो माया हो म
कोसो रथ मासलहं भवति सेोमुखावातो । जत्थ मासगुरुं स मज्झिमो, जत्थ पारंचियं स उक्कासी । गराए बिजहरणमसावानं पढमतो भरणतिभासति त तो पत्थरपसजणं कुजा । श्रहवा-मज्झिमं पढमं भासति ततो प्रत्थारपसजण कुजा । श्रह उक्कोसं पढ़मतो भासति ततो पत्थारपसज्जं कुज्जा । प्रस्तारो - विस्तारः, प्रसञ्जनं--प्रसङ्गः कस्मिचारोपयदित्यर्थः। श्रहवा-तिरहं ति-दिसाबहारं, खतं, फोहाती से पूर्ववत् अहया-तिरहं मासलहु, चउलहु, चउगुरुगं, एतेसि एगतरातो पत्थारपसज्जणं कुजा । केति पढमं ति चउराहं एगतराए ति -- चउराहं कोहादी एगतरेणावि मुयमावस्य पत्धारदोसो भवतीत्यर्थः। एसा मुसावादप्रिया पडिसेवा गता ।
इयरिंग कप्पिया भरणति । दारगाहाउड्डाहरखट्ठा, संजमहेउं व वोहिके तेथे । खत्तंमि व पडिणीए, सेहे वा सेहलोए वा ।। ३२१ ॥ उड्डाहरड़ा मुसावानं भासति संजमहेडं वा मुसायातं भासत बोहितेहिं वा महितो मुसायातं भासति । डिणीयखेत्ते वा मुसावातो भासियो । सेहणिमित्तं वा मुसावात भयो। सेहस्स वा लोयणिमितं मुसायातो भासिजति उड्राइसेजमोहिते पक्वाति ।
दारगाष्टा
जामो कमगादिसु मिगादि विपास अहव तुतिशीए । अस्य मूलस्य व्याख्या अवटुप्प शब्दे प्रथमभागे २६२ पृष्ठे गता ।
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मुसावाय
बोहिगगह दियाती, तेणेसु व एस सत्थो चि ॥ ३२२ ॥ जति धिजातियादयो पुच्छंति-तुज्भे कत्थ भुंजह, ताहे दशव्यं भुजामो कमदगादिसु कमडगं साम- करोडगागाएं, अगेण कञ्जति । आदिसात करोड वेव पेप्यति । एवं उड्डारा मुसावातो बत्तव्यो संजमहे तिजा केह लुगादी पुच्छति तो एत्थ भगवं दिट्ठा मिगादी, आदिसहातो सूराति, ताहे दिट्ठेसु विवत्तव्वं न विपासे त्ति-न दिट्ठ त्ति वृत्तं भवति । श्रहवा-तुसिणीओ अच्छति - भराति वा न सुमि त्ति । एवं संजमहेउं मुसावातो । वोहियप
बोहिया गहितो भाति दिवादित्ति ब्राह्मणोऽपि ब्राह्मणोऽहमिति प्रधीनि तेखेषु वा गहितो भणाति । एस सत्यो त्ति चोरे भगति - णासह णासह त्ति, घेप्पह ति खे तंमि, पडिणीते प्रत्यनीकभाविते क्षेत्रे इत्यर्थः । तं च खेत्तं । दारगाहा
भिक्खुगमादि उवासग, पुट्ठो दाणस्स यत्थि खासो नि । एस समत्तो लोओ. सको अभिधारती छत्तं ॥ ३२३ ॥ भिगमा सि-पढ़ा. आदिसहातो परिब्वायादिर्दि भावियं जं खन्तं तत्थ उवासगा पुच्छति । सठा ते परमत्थे वा भगवं ! जम्हे भिक्खुगादीश्राणं दाणं दलयामो तस्स फलं कि स्थिति सो एवं पुट्ठो भगति -दावर नत्थि वासोति, जति व सदाफले तहा येवं भणाति मा ते उट्ठरुट्ठा धाडेहंतीत्यर्थः । सेहो त्ति सेहो पवज्जाभिमुहो श्रागतो, पव्वतितो वा तं च सयणसगासे पुच्छंति-तत्थ जाता विभ रांति ण जाणामो, ण वा दिट्ठो त्ति, सेहस्स वा श्रणहियासस्स लोए कज्जमा बहु एव अत्थमाणे एवं वत्तव्वं एस समत्यो सो यो अति एव साहुस्स लोए कमायें तत्र स्थित एव शो देवराजानमभिधारयतीत्यर्थः । गता मुसावायरस कपिया पडि सेवा गतो मुसावातो। नि००१ उ०
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चतुर्विधेष्वपि मृषावादेषु जयन्तो ऽतिचारे सत्येकाशनफम्, मध्यमेऽतिचारे श्राचामाम्लम्, उत्कृष्टे क्षपणम् । जीत० । पाणे व गाइवाजा, अदिनं पिव खादए।
सादियं ण मु वूया, एस धम्मे उसी ॥१॥ सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० ।
मुसावायं वहिदूं च, उग्गयं च अजाइ य ।
सत्या दाणाई लोगंसि तं वि परिजाणिया ॥ १ ॥ सृपा- ब्रसद्भूतो वादो मृषावादस्तं विद्वान् प्रत्यास्थानपरि ज्ञया परिहरेत् । सूत्र० १ ० ६ श्र० । तीर्थनानुसारेण यदतो मृषावादो न भवतिवरं ण मोक्खर पाणं, मुसावायं व आवई । अर्थ - रागं दो च मोहं व भयछेदाणुवत्तियं । तित्थंकरण यो भूषा, गो भवेजा उ गोयमा ! | मुसावायं न भासतो, गोयमा ! तिरथंकरे उ जैणं तु — केवलनाणे तेसिस पच्चखं जगं । भूयं भव्यं भविस्सं च पुत्रं पावं तहेव य किंचितिसु लोए, तं सव्वं तेसि पायडं ।
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मुसावाय
पायालं अवि उद्धमुहं, सग्गं पजा अहोमुहं रणं । तित्थयरम्हभणियं वयणं होऊ न अमहा ॥ नाणदंसणचारितं तवं घोरं सुदुकरं । सुग्गरमग्गो फुडो एस, परूवंती जहडिओ ॥ अमहा न य तित्थयरा, वाया मणसा य कम्मुखा । भति जाव भुवणस्स, पलयं हवइ तक्खणा | जं हियं सव्वजगजीव - पाणभूयाण केवलं । तमणुकंपा तित्थयरा, धम्मं भाति अवितहं ॥ जेणं तु समउविभेणंदोहग्गदुक्खदारिद्द-रोगसोगकुगइभयं । ण भविजा उ विइएणं, संतो वच्चेव तं तहा ॥ महा० ६ ० ।
( ३२६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मृषावादपरिहारे कथा
'कोङ्कणः श्रावकः कोऽपि पुंसा केनाप्यभण्यत । मश्यन्तं प्रहरार्वन्तमेतं तेनाहतो मृतः ॥ १ ॥ घातकं करणे नीत्वा ऽकथयत्तुरगाधिपः । पृष्टः कारणिकैः सोऽथ, साक्षी कस्तेऽत्र सोऽवदत् ॥ २ ॥ yarsस्यैव स पृष्टोऽवक, सत्यमेतत्ततः स तैः । सत्कृत्याऽभ्यर्च्य निर्दोषो, मुक्तो निर्द्धाटितः परः ॥ ३ ॥ " आ० क० ६ ० ।
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अत्रोदाहरणम् ('अलियवयण ' शब्दे प्रथमभागे ७७३ पृष्ठे ) ( कारणे सति मृषावादं वदेदिति ' मुसोवएस ' शब्दे वक्ष्यते )
मुसावायवत्तिय - मृषावादप्रत्ययिक- पुं० । मृषावाद श्रात्मपरोभयार्थमलीकवचनं तदेव प्रत्ययः कारणं यस्य दण्डस्य स तथा । स० १३ सम० । श्रात्मार्थ परेषां वा नायादीनामर्थाय यो मृषा वदति तस्मिन् क्रियास्थाने, नपुं० । प्रब० १२१ द्वार । श्रातु० । ('मुसादण्ड' शब्दे सूत्रं दर्शितम् ) मुसावायवाय-मृषावादवाद-पुं० । मृषावादसत्के विकत्थने,
मुसावायरस वायं वयमाणे कप्पस्स पत्थारे भवइ " मृषावादस्य सत्कं, वादं विकथनं, वार्त्ता वा वदति साधौ प्रायश्चि प्रस्तारो भवतीति । स्था० ६ ठा० । मुसावायविरह- मृषावादविरति - स्त्री० । सर्वस्मान्मृषावादाद् विरती, महा० । “अलियवयणस्स विरई सावज्जं सव्वमवि न भासिज्जा " महा० १ चू० । मुसावायवेरमण-मृषावाद विरमण-न० । श्रलीकवचनान्निवृत्तौ, अहावरे दोच्चे भंते! महब्वए मुसावायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं वएजा नेवन्नेहिं मुसं वायावे, संवार्य विन्नेन समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मरणेणं वायाए कारणं न करेमि न काखेमि करंतं पि श्रनं न समजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भंते!
For Private
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महव्व उवडिओ मि सव्वाओं मुसावायाओ वेरमणं २ | ( सूत्र - ४ )
अथापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरम, सर्व भदन्त ! मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथाक्रोधाद्वा लोभाद्वेत्यनेनाद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः भयाद्वा हास्याद्वेत्यनेन तु प्रेमद्वेषकलाहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः । (व सयं मुसं वदेज ति) नैव स्वयं मृषा वदामि, नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतत् यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । दश० ४ ० । ( मुसावायशब्दे चतुर्विधोऽयं व्याख्यातः ) ( स्थूलान् मृघावादाद् विरमणं द्वितीयमणुव्रतम् 'अलियवयण' शब्दे प्रथमभागे ७७३ पृष्ठे गतम्) एतहुतफलं विश्वासयशः स्वासिद्धिप्रियाऽऽदेयाऽमोघवचनतादि, यथा
" सव्वा उ मंतजोगा, सिज्भंती धम्मश्रत्थकामा य । सच्चेण परिग्गहिया, रोगा सोगा य नहसंति ॥ १ ॥ सच्चं जसस्स मूल, सच्चं विस्सासकारणं परमं । सच्च सग्गद्दारं सच्चं सिद्धीइ सोपाएं ॥ २ ॥ " एतदग्रहणेऽतिचरणे च वैपरीत्येन फलम् - "जं जं वश्च जाई, अपिश्रवाई तर्हि तहिं होइ। न सुइ सुहे सुसद्दे, सुराइ अ सोअव्वर सद्दे ॥ १ ॥ दुग्गंधो पूरहो, वियणो अ फरुसवयणो जडण्डमूश्रमम्मण - अलिश्रवयणजंपणे दोसा ॥ २ ॥” इहलोए चित्र जीवा, जीहाछेश्रं वहं च बंधं वा । श्रयसं धणनासं वा, पार्वती अलियवयरणाश्रो ॥ ३ ॥ " इत्यादि ॥ २६ ॥ ध० २ अधि० । पञ्चा० । श्रा० ।
।
अथ द्वितीयव्रतस्य तान् ( श्रतिचारान् ) श्राहसौ द्विधाऽणुस्थूलाभ्यां तत्राद्यः प्रचलादितः । द्वितीयः क्रोधलोभादे - भिंथ्याभाषा द्वितीयके ॥४६॥ द्वितीयके - मृषावादविरतिरूपेऽसावतिचारः, अणुस्थूला भ्याम् - सूक्ष्मवादराभ्यां प्रकाराभ्यां द्विधा-द्विप्रकारो, भवतीति शेषः । तत्र - आद्यः सूक्ष्मः, प्रचलादितो निद्राविशेषादेर्भिथ्याभाषा-असत्यभाषणं भवति, यथा- प्रचलसि किं दिया ? इत्यादि चोदितः प्राह - नाहं प्रचलामि इत्यादि । क्रोधादेःक्रोध लोभहास्यभयैर्मिथ्याभाषा द्वितीयो बादरः परिणामभेदाद्भवतीति, यतः पञ्चवस्तुके-" बिइश्रमि मुसावाए, सो सुहुमो वायरो अ गायव्वो । पयलाइ होइ पढमो, कोहादभिभासं विश्र ॥ ६५६ ॥ " ध० ३ अधि० । द्वितीयं व्रतमुच्यते
धूल मुसावायं समणोवासय पच्चक्खाइ, से य मुसावाए पंचविहे पन्नते, तं जहा - कन्नालीए गवालीए भोमाfe नासावहारे कूडसक्खि (ते) जे । धूलगमुसावायवेरमणस्स समोवासरणं इमे पंच अइयारा जाणियच्या भासियन्त्रा । तं जहा सहसभक्खाणे रहस्सन्भक्खाणे सदारमंतभेए मोसुवएसे कूडलेहकर || २ ||
मृषावादो हि द्विविधः - स्थूलः, सूक्ष्मश्च । तत्र परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलो, विपरीतस्त्वितरः । तत्र - स्थूल एव स्थूलकः स चासौ मृषावादश्चेति
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( ३२७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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मुसावापवे० अथ द्वितीयं संवरद्वारं मृषावादविरत्यात्मकम् - जंबू ! बितियं च सच्चवयणं सुद्धं सुचियं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिट्टं सुपतिट्ठियं सुपतिट्ठियजसं सु संजमियवयणबुइयं सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियज
समासः, तं श्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत् स च मृषावादः पञ्चविधः प्रशप्तः - पञ्चप्रकारः प्ररूपितः, तीर्थकर गणधरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, कन्याविषयमनृतम् - श्रभिन्नकन्यकामेव भिन्नकन्यकां वक्ति, विपर्ययो वा एवं गवानृतम् - अल्पक्षी रामेव गां बहुक्षीरां वक्ति, विपर्ययो वा, एवं भूम्यनृतम्-परसत्कामेवात्मसत्कां वक्ति, व्यवहारे वा नियुक्तोऽनाभवद्व्यवहारस्यैव कस्यचिद्भागाद्यभिभूतो वक्ति - श्रस्येयमाभवतीति । न्यस्यते - निक्षिप्यत इति न्यास:रूप्यकाद्यर्पणं, तस्यापहरणं न्यासापहारः । श्रदत्तादानरूपत्वादस्य कथं मृषावादत्वमिति ?, उच्यते - श्रपलपतो मृषावाद इति । कूटसाक्षित्वम् उत्कोचमात्सर्याद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः, सन् कूटं वक्ति, श्रविधवाद्यनृतस्यात्रैवान्तर्भीवो वेदितव्यः । मुसावादे के दोसा ? अकजंते वा के गुणा ?, तत्थ दोसा, करणगं चे प्रकरणगं भणते भोगंतराबदोसा, पट्टा वा श्रतघातं करेज, कारवेज वा, एवं सेसेसु वि भारिणयष्वा । णासावहारे य पुरोहितोदाहरणम्-सो जधा रामोकारे गुणे उदाहरणं- कोकणगसावो मगुस्सेण भणितो, घोडए णासंते श्रहणाहि त्ति, तेरा श्राहतो मतो य, करणं शीतो पुच्छितो-को ते सक्खी ?, घोडगसामिए भणियं, एतस्स पुतो मे सक्खी, तेरा दारयण भणितं सच्चमेतं ति, तुझ पूजितो सो, लोगेण य पसंसितो, एवमादिया गुणा मुसावादवेरमणे । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् । तथा चाह -( धूलगमुसावादवेरमणस्स ) व्याख्या-स्थूलकमृषावादविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचाराः शातव्याः शपरिशया, न समाचरितव्याः । तद्यथेति पूर्ववत् सहसा - अनालोच्य अभ्याख्यानं सहसाऽभ्याख्यानम्, अभिशंसनम्–असदध्यारोपणं, तद्यथा चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि । रहः -- एकान्तः, तत्र भवं रहस्यं तेन तस्मिन् वा अभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानम् एतदुक्तं भवति एकान्ते मन्त्रयमाणान् बक्लि—एते हीदं वेदं च राजापकारित्वा - दि मन्त्रयन्ति । स्वदारे मन्त्रभेदः स्वदारमन्त्रभेदः - स्वदारमन्त्र ( भेद) प्रकाशनं-- स्वकलत्रविश्रब्धविशिष्टावस्थामन्त्रितान्यकथनमित्यर्थः, कूटम् - असद्भूतं, लिख्यत इति लेखः, तस्य करणं-क्रिया कूटलेखक्रिया- कूट लेखकरणम्, श्रन्यमुद्राक्षरविम्वस्वरूपलेख करणमित्यर्थः । एतानि समाचरन्नतिचरति द्वितीयासुव्रतमिति । तत्रापायाः प्रदर्श्यन्ते--सहसम्भक्खाण खलपुरिसो सुरोज्जा सो वा इतरो वा मारिज्जेज वा, एवं गुणो, वेसि त्ति भए अप्पाणं तं वा विरोधजा, एवं रहस्सन्भक्खाणेऽवि । सदारमंतभेदे जो अप्परो भज्जाए सद्धि जाणि रहस्से वोल्लिताणि ताणि श्ररणेसिं पगासेति । पच्छा सा लज्जिता अप्पा परं वा मारेजा । तत्थ उदाहरणम् - मथुरावाणिगो दिसीयत्ताए गतो, भज्जा सो जाधे व पति ताघे बारसमे वरिसे अरण समं घडिता ।
बहुमयं परमसा हुधम्मचरणं तवनियमपरिग्गहियं सुगति पहदेसियं च लोगुत्तमं वयमिदं बिजाहरगगणगमणविजाण साहणं सग्गमग्गसिद्धिपहदेसियं अवितहं तं सचं उज्जयं अकुडिलं भूयत्थं प्रत्थतो विसुद्ध उज्जोयकरं पभासकं भवति, सव्वभावाण जीवलोके अविसंवादि, जहत्थमधुरं पच्चक्खं देवयं व जंतं अच्छेरकारकं अवत्थंतरसु बहुएसु माणुसाणं सच्चेण महासमुहमज्ये वि मूढाणिया विपोया सच्चेण य उदगसंभमंमि विन वुज्झति न य मरंति थाहं ते लभंति । सच्चेण य अगणिसंभमंमि विन डज्मं ति, उज्जुगा मरणूसा सच्चेण य तत्ततेल्लतउलोहसीसकाई छिवंति घरेंति न य डज्यंति, मरणूसा पव्वयकडकाहिं मुञ्चति न य मरंति । सच्वेण य परिग्गहिया असिपंजरगया समराओ व इिंति । अमहा य सच्चवादी वहबंधभिश्रोगवेरघोरेहिं पमुच्चति य अमित्तमज्झाहिं निईति
महाय सच्चवादी सादिव्वाणि य देवयाओ करेंतिसच्चवयणे रतां । तं सच्चं भगवं तित्थगरसुभासियं दसविहं चोदसपुत्रीहिं पाहुडत्थविदितं महरिसीण य समयप्पदिष्मं देविंदनरिंदभासियत्थं वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविज्जासाहणत्थं चारणगणसभणसिद्ध विज मणुयगणाणं वंदणिज्जं अमरगणाणं च अवणिजं असुरगणाणं च पूयणिजं अगपासंडिपरिग्गहियं जं तं लोकम्मि सारभूयं गंभीरतरं महासमुदाय थिरतरगं मेरुपव्ययाओ सोमतरगं चंदमंडलाच दित्ततरं सूरमंडलाओ विमलतरं सरयनहतलाओ सुरभितरं गंधमायणाश्रो जे वय लोग अपरिसेसा मंता जोगा जत्रा य विजा य जंभका यत्थायि सत्थाऽणि य सिक्खाओ य भागमाय सव्वाई विताई सच्चे पइट्टियाई । सच्चं पिय संजमस्स उवरोहकारकं किंचि न वत्तव्यं, हिंसामावअसंपत्तं भेयविकहकारकं अणत्थवायकलहकारकं श्रणजं
वायविवायसंपत्तं वेलंबं प्रोजधेजबहुलं निल्लअं लोयह दुद्दि दुस्सुयं अमुखियं अप्पणो थवणा
सो आगता, रन्ति श्रन्नायवेसेण कापडियत्तणेण पवि- |परेसु निंदा, न तं सि मेहावी, ण तं सि धप्पो, न तं सि पिय
सति, ताणं तद्दिवसं पगतं, कम्पडिश्रो य मग्गति, तीए, य बहितव्वगं खज्जगादि, ताधे सियगपतिं वाहेति श्ररणातच जाए ताघे पुणरवि गंतुं महता रिद्धिए श्रागतो सयणाण समं मिलितो, परोवदेसेण वयस्साण सव्वं क धेति, ताए अप्पा मारितो । श्राव० ६ ० । ( अत्रत्यमन्यद् 'मोसोवएस' शब्दे वक्ष्यते )
धम्मो, न तं कुलीणो, न तं सि दाणपती, न तं सि सूरो न तंसि पडिवो, न तं सि लट्ठो, न पंडिओ, न बहस्सुश्रो, न विय तं तवस्सी, ण याऽवि परलोगनिच्छियमती सि, सव्वकालं जातिकुलरूववा हिरोगेण वाऽवि जं होइ वजणिअं दुह उवचारमतितं एवंविहं सच्चं पि न बत्तव्वं ।
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मुसावायवे
(२२८) मुसावायवे.
अभिधानराजेन्द्रः। श्रथ कीदृशम् तत्
दिग्गमनाप्रत्ययम् ( अणिय ति) अग्रम्-तुण्डम् , अअह केरिसकं पुणाई सच्चं तु भासियव्वं ?, जंतं दब्वे- | नीकं वा-तत्प्रवर्तकं जनसैन्यं येषां ते तथा, तेऽपि,पोताहिं पञ्जवेहि य गुणेहिं कम्महिं बहुविहेहिं सिप्पेहिं आ- |
बोधिस्थाः, तथा सत्येन च उदकसम्भ्रमेऽपि-सम्भ्रमकागमेहि य नामक्खायनिवाअोवसग्गतद्धियसमाससंधिपदहे
रणत्वादुदकलवः उदकसम्भ्रमस्तत्रापि (न खुज्झइ त्ति)
वचनपरिणामानोह्यन्ते-नप्लाव्यन्ते, न च नियन्ते, स्ताघ उजोगियउणादिकिरियाविहाणधातुसरविभत्तिवनजुत्तं ति
च-गाधं च ते लभन्ते, सत्येन चाग्निसम्भ्रमे ऽपि-प्रदीपकन्लं दसविहं पि सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा नकेऽपि न दह्यन्ते, ऋजुका-प्रार्जवोपेताः, मनुष्या-नराः होइ दुवालसविहा होइ भासा, वयणं पि य होइ सोलसवियं, सत्येन च तप्ततैलत्रपुलोहसीसकानि प्रतीतानि (छिवंति त्ति) एवं अरहंतमणुन्नार्य समिक्खियं संजएण कालंमि य व
छुपन्ति-धारयन्ति, हस्ताअलिभिरिति गम्यते, न च दह्यन्ते
मनुष्याः, पर्वतकटकात्-पर्वतैकदेशाद् विमुच्यन्ते न च तन्वं । (सूत्र-२४)
म्रियन्ते, सत्येन च परिग्रहीता युक्ता इत्यर्थः, असिपञ्जरे'जंबू' इत्यादि-तत्र जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणम् , (विइयं | शक्तिपञ्जरे गताः, खड़शक्तिव्यग्रकररिपुपुरुषवेष्टिता इत्यर्थः, च ति) द्वितीयं पुनः संवरद्वारम् , सत्यवचनम्-सद्भयो- समरादपि-रणादपि, (निति त्ति) निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति, मुनिभ्यो, गुणेभ्यः, पदार्थेभ्यो वा, हितं सत्यम् । श्राह च- अनघाश्च-अक्षतशरीरा इत्यर्थः, के इत्याह-सत्यवादिनः" सच्चं हियं सयामिह, संतो मुणो गुणा पयत्था वा” | सत्यप्रतिज्ञाः, वधबन्धाभियोगवैरघोरेभ्यः-ताडनसंयमनबतश्च तद्वचनं सत्यवचनम्, एतदेव स्तुवन्नाह-शुद्धम्-नि- लात्कारपोरशात्रवेभ्यः प्रमुच्यन्ते, अमित्रमभ्याम् शत्रुमध्याहोषम् , अत एव शुचिकं-पवित्रम् , शिवं-शिवहेतुः, सुजा- | निर्यान्ति, अनघाश्च निदोषाः सत्यवादिनः, सादेव्यानि चतं-शुभविवक्षात्पन्नम् , अत एव-सुभाषितं-शोभनव्यनवाग्- | सांनिध्यानि च,देवताः कुर्वन्तिःसत्यवचनरतानाम् । श्राह चरूपं, शुभाश्रितम्, सुखाश्रितं सुधासितं वा, सुव्रतम्-शोभन- "प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने?, . नियमरूपं, शोभनो नाम मध्यस्थः कथः[कथितं] प्रतिपादको गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च । [प्रतिपादयितव्यं ] यस्य तत्सुकथितं, सुदृष्टम् अतीन्द्रि- सुराः सत्याद्वाक्याद्दति मुदिताः कामिकफलयार्थदर्शिभिः, दृढमपवर्गादिहेतुतयोपलब्ध, सुप्रतिष्ठितं-स
मतः सत्याद्वाफ्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने ॥१॥" मस्तप्रमाणरुपपादितं , सुप्रतिष्टितयशः-अव्याहतख्यातिकं,
(तमिति ) यस्मादेवं तस्मात्सत्यं द्वितीयं महा( सुसंजमियवयणवुइयं ति ) सुसंयमितवचनैः-सुनियन्त्रि- व्रतं भगवद्-भट्टारकं, तीर्थकरसुभाषितम् जिनः सु. तवचनरुक्तं यत्तत्तथा, सुरवराणां नरवृषभाणां ( पवरब- ठूक्तं दशविध-दशप्रकार, जनपदसम्मतसत्यादिभेदन लषग त्ति) प्रवरबलघतां सुविहितजनस्य च बहुमतं-स- दशवैकालिकादिप्रसिद्धं, चतुर्दशपूर्विभिः प्राभृतार्थवेदिम्मतं यत्तत्तथा, परमसाधूनां-नैष्ठिकमुनीनाम् , धर्मच- | तं-पूर्वगतांशविशेषाभिधेयतया ज्ञातं महर्षीणां च, समयेनरणम्-धर्मानुष्ठानं यत्तत्तथा, तपोनियमाभ्यां परिगृहीत
सिद्धान्तेन, (पइन्नं ति) प्रदत्तं समयप्रतिक्षा वा-समाचाराम-अङ्गीकृतं यत्तत्तथा, तपोनियमी सत्यवादिन एच स्या
भ्युपगमः । पाठान्तरे-(महरिसिसमयपइन्नचिन्नं ति ) महतां नापरस्येति भावः, सुगतिपथदेशकं च, लोकोत्तमं वृत
निभिः, समयप्रतिज्ञा-सिद्धान्ताभ्युपगमः, समाचाराभ्युपमिदमिति व्यक्तम । विद्याधरगगनगमनविद्यानां साधनं नास
गमो वेति चरितं यत्तत्तथा, देवेन्द्रनरेन्द्रर्भाषितः-जनानामुस्यवादिनस्ताः सिध्यन्तीति भावः । स्वर्गमार्गस्य-सिद्धिप
क्नोऽर्थः-पुरुषार्थस्तत्साध्यो धादिर्यस्य तत्तथा। अथवा-दे. धस्य च, देशक-प्रवर्तकम् यत्तत्तथा, अवितथम्-बितथ
वेन्द्रमरेन्द्राणां भासितः-प्रतिभासितोऽर्थः-प्रयोजनं यस्य रहितम्, (तं सच्च उज्जुगं ति) सत्याभिधानं यद् द्वितीयं
तत्तथा। अथवा-देवेन्द्रादीनां भाषिताः,अर्था-जीवादयोजिसंवरद्वारमभिहितं,तजुकम ऋजुभायप्रयतितत्थात , तथा
नवचनरूपेण येन तत्तथा,तथा वैमानिकानां साधितं प्रतिपाअकुटिलम्-अकुटिलस्वरूपत्वात् , भूतः-सद्भूतोऽर्थः
दितमुपादेयतया जिनादिभियंत्तत्तथा, वैमानिकैर्वा साधितंअभिधेयो यस्य तद भूतार्थम् , अर्थतः-प्रयोजनतों, विशुद्धं
कृतमासेवितं,समर्थितं वा यत्तत्तथा, महाथ-महाप्रयोजनम् , निहोर्ष, प्रयोजनापन्नमिति भावः, उद्योतकर-प्रकाशकारि,
एतदेवाह-मन्त्रीपधिविद्यानां साधनमर्थः-प्रयोजनं यस्य कथम्?-यतःप्रभापकं-प्रतिपादकं भवति,केषां कस्मिन्नि
तद्विना तस्याभावात्तसथा, तथा चारणगणानां-विद्यास्याह-सर्वभावानां जीवलोक-जीवाधारे क्षेत्रे, प्रभाषक
चारणादिवृन्दानां, श्रमणानां च सिद्धाः विद्या आकाशगमिति विशिनष्टि, अविसंवादि-अभिचारि, यथार्थमिति
मनवैक्रियकरणादिप्रयोजना यस्मातत्तथा, मनुजगणानां च कृत्वा,मधुरं-कोमलं यथार्थमधुरं, प्रत्यक्ष देवमिव देवतेव
वन्दनीयं-स्तुत्यम् , अमरगणानां चार्चनीयं-पूज्यम् , असुरयत्तद, आश्चर्यकारक-चित्तविस्मयकरकार्यकारक, तदीदृशं,
गणानां च पूजनीयम् , अनेकपाण्डिारगृहीतं नानाविकेषु केषामिति ? अाह--श्रवस्थान्तरेषु-अवस्थाविशेषेषु,
धग्रतिभिरङ्गीकृतं यत्तत् ,लोके सारभूतं,गम्भीरतरं-महासमु. बहुषु मनुष्याणां, यदाह
द्रादतिशयेनाक्षोभ्यत्वात् स्थिरतरक-मरुपर्वतात् अर्चाल"सत्येनानिर्भवेच्छीतो, गाधं धत्तेऽम्बु सत्यतः ।
तत्वेन, सौम्यतरं चन्द्रमण्डलात् , अतिशयेन सन्तापोपशनासिश्चिनत्ति सत्येन, सत्याद्रज्जूयते फणी ॥१॥" महेतुत्वात् , दीप्ततरं सूरमण्डलात् , यथावद्वस्तुप्रकाशनात् । पतदेवाह-सत्येन हेतुना महासमुद्रमध्ये तिष्ठन्ति | तेजस्विनां चात्यन्तानभिभवनीयत्वात् , विमलतरं शरनभन निमजन्ति, (मूढाऽणिया वित्ति) मूढं नियत- स्तलादप्तिनिर्दोषत्वात् , सुरभितरमिव सुरभितरं, गन्धमाद
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मुसावायवेक अभिधानराजेन्द्रः।
मुसावायवेक नाद्-गजदन्तकगिरिविशेषत् , सहृदयानामतीव हृदयाव- पेक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य विशेषद्योतनार्थः , ( आई ति ) जकत्वात्. येऽपि च लोके ऽपरिशेषा-निःशेश, मन्त्राः- वाक्यालंकारार्थः , ( सच्चं तु त्ति) सत्यमपि भाषितव्यं , हरिणेगमेपिमन्त्रादयः, योगाः-वशीकरणादिप्रयोजनाः, द्र- वक्तव्यं , यत्तद् द्रव्यैः-त्रिकालानुगतिलक्षणः पुनलादिभिव्यसंयोगाः,जपाश्च-मन्त्रविद्याजपनानि, विद्याश्च-प्रज्ञल्या- वस्तुभिः , पर्यायैश्च-नवपुराणादिभिः , क्रमवर्तिभिर्धर्मः, दिकाः, जम्भकाश्च-तिर्यग्लोकवासिनो देवविशेषाः, अस्त्रा-| गुणैः-वर्णादिभिः सह भाविभिर्द्धमैरेव , कर्मभिः-- णि च-नाराचादीनि क्षेप्यायुधानि, सामान्यानि वा, शा- प्यादिव्यापारः , बहुविधैः , शिल्पैः-साचार्यकैश्चित्रकर्मास्त्राणि च-अर्थशास्त्रादीने, शस्त्राणि वा-खगादीनि, अक्षप्या- दिभिः क्रियाविशेषः , आगमैश्च सिद्धान्तार्थयुक्तमिति सयुधानि, शिक्षाश्च-कलाग्रहणानि, अागमाश्च-सिद्धान्ताः,
श्व-कलाग्रहणानि, श्रागमाश्व-सिद्धान्ताः, म्बन्धः कार्यः , यनशब्दस्योत्तरत्र समनिर्देशेऽपि प्राकृसर्वाण्यपि तानि सत्य प्रतिष्ठितानि, असत्यवादिनां न केऽपि | तशैलीवशाद् द्रव्यादियुक्तत्वं वचनस्य तदभिधायकत्वाद् , मन्त्रादयोऽर्थाः स्वसाध्यसाधकाः प्रायो भवन्तीति भावः, |
अथवा-द्रव्यादिषु विषये द्रव्यादिगोचरमित्यर्थः । तथा तथा-सत्यमपि सद्भतार्थमात्रतया संयमस्योपरोधकारकं | 'नामाख्यातनिपातोपसर्गतद्धितसमाससन्धिपदहेतुयोगिको बाधकं किश्चिद् अल्पमपि न वक्तव्यं, किंरूपं तदित्याह-हि- णादिक्रियाविधानधातुस्वरविभक्निवर्णयुक्तम्' इति-(असया-जीववधेन, सावधन च पापेन, पालापादिना सम्प्रयुक्तं
स्य व्याख्या) तत्र नामेति पदशब्दसम्बन्धानामपदमेवमुयत्तत्तथा, श्राहच
त्तरत्रापि , तश्चाव्युत्पन्नेतरभेदाद् द्विधा । तत्र व्युत्पन्नम्तहेव कारण काणि त्ति, पंडगं पंडग त्ति य ।
देवदत्तादि , अव्युत्पन्नम डित्थेत्यादि , पाण्यातपद-- वाहियं वा वि रोगि ति, तेणं चोरि त्ति नो वए॥१॥ साध्यक्रियापदं, यथा-अकरोत् , करोति, करिष्यति, तत्तदभदः-चारित्रभेदस्तत्कारिका,विकथाः-सत्रादिकथाः,तत्का- द्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु निपतन्तीति निपाताः तत्परकं यत्तत्तथा,तथा अनर्थवादो-निष्प्रयोजना जल्पः,कलहश्व- दं निपातपदं, यथा-च वा खल्वित्यादि , उपसृज्यन्ते-धाकलिः,तत्कारकं यत्तत्तथा,अनार्यम्-अनार्यप्रयुक्तम् ,अन्याय्यं तुसमीपे नियुज्यन्त इत्युपसर्गास्तद्पं पदमुपसर्गपदम्-अपरा च अन्यायोपेतम्, अपवादः-परदूषणाभिधानं,विवादो विप्र- अप इत्यादिवत् , तस्मै हितं तद्धितमित्याद्यर्थाभिधायका ये तिपत्तिस्तत्सम्प्रयुक्तं यत्तत्तथा, वेलम्ब-परेषां विडम्बनकारि, प्रत्ययास्ते तद्धिताः, तदन्तं पदं तद्धितपदं,यथा-गोभ्यो हि
ओजो-बल, धैर्य च-धृष्टता, ताभ्यां, बहुलं, प्रचुरमोजोधै- तो गव्यो देशः, नाभेरपत्यं नाभय इत्यादि,समसन-समासः, र्यबहुलं, निलजम्-अपेतलज्ज, लोकगर्हणीयं-लोकनिन्द्यं, पदानामेकीकरणरूपः, तत्पुरुषादिः, तत्पदं-समासपदं, दुई एम्-असम्यगीक्षित, दुःश्रुतम्-असम्यगाकर्णितं,दुर्मु- यथा-राजपुरुषः इत्यादि,सन्धिः -सन्निकर्षः,तञ्च तत् पदं, णितम्-असम्यग्ज्ञातम् , अात्मनः स्तावना-स्तुतिः, परेषां यथा--दधीद, तद्यथेत्यादि, तथा हेतुः-साध्याविनाभूतत्वनिन्दा-गर्दा, निन्दामेवाह-(नसि त्ति ) नासि-न भवसि, लक्षणो, यथा-अनित्यः शब्दः कृतकन्वादिति, यौगिक-यत्वमिति गम्यते, मेधावी-अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियुतः, तथा देतेषामेव द्वयादिसंयोगवत् ,यथा-उपकरोति सेनयाऽभियान त्वमसि, धन्यो-धनं लब्धा, तथा नासि-न भवसि , ति अभिषेणयतीत्यादि, तथा-उणादि-उरणप्रभृतिप्रत्ययान्तं प्रियधर्मा-धर्मप्रियः, तथा न त्वं कुलीनः-कुलजातः, पदं, यथा-श्राशु,स्वादु, तथा-क्रियाविधान-सिद्धक्रियातथा न असि-न भवसि दानपतिः दानदातेत्यर्थः, तथा न विधिः, काउन्तप्रत्ययान्त [कृत्प्रत्ययान्त ] पदविधिरित्यर्थः, त्वमसि सू(शू)र:-चारभटः, तथा न त्वमसि-न भवसि प्र- यथा-पाचकः पाक इत्यादि, तथा-धातवो-भ्वादयःक्रितिरूपो-रूपवान् , न त्वमसि लष्ठः-सौभाग्यवान्, न परिष्ट- याप्रतिपादकाः, स्वरा-अकारादयः, षड्जादयो वा सप्त , तो-बुद्धिमान , न बहुश्रुतः-आकर्णिताधीतबहुशास्त्रः, ब- क्वचिद्रसा इति पाठः, तत्र रसाः-शृङ्गारादयो नव, यथाहुसुतो चा-बहुपुत्रो बहुशिष्यो वा , नापि च त्वं तप- "शृङ्गारहास्यकरुणा, रौद्रवीरभयानकाः । खी-क्षपकः, न चापि परलोकविषये निश्चिता-निःसंशया बीभत्साद्भुतशान्ताश्च,नव नाट्ये रसाः स्मृताः॥१॥" मतिरस्यति परलोकनिश्चितमतिः, असि-भवसि , सर्वका- विभक्तयः-प्रथमाद्याः सप्त, वर्णाः-ककारादिव्यञ्जनानि, एलम्-आजन्मापीति, किंबहुनोक्नेन ?, वर्जनीयवचनविषय- भिर्युक्तं यत्तत्तथा,अथ सत्यं भेदत आह-त्रैकाल्यं-त्रिकालविमुपदेशसर्वस्वमुच्यते, जातिकुलरूपव्याधिरोगेण चापीति, षयं दशविधमपि सत्यं भवतीति योगः, दशविधत्वं च सत्यइह जात्यादीनां समाहारद्वन्द्वः, ततो जात्यादिना निन्दिते- स्य जनपदसम्मतसत्यादिभेदात् , आह चन परचित्तपीडाकारित्वाद्यद्भवेद, वर्जनीयं-परिहर्त्तव्यं , "जणवय १संयम २ठवणा ३,नामे४ रूवे५ पडश सच्चे य ६॥ तदेवंविधं सत्याप न वक्तव्यमिति वाक्याथः । तत्र जा- ववहार ७ भाव - जोगे ,दसमे ओवम्मसञ्चे य१०॥१॥"त्ति। तिः-मातृका पक्षा, कुलं-पैतृकः पक्षः, रूपम्-श्राकृतिः, जनपदसत्यं यथा-उदकार्थे कोकणादिदेशरूच्या पय इति व्याधिः-चिरस्थाता कुष्ठादिः, रोगः-शीघ्रतरघाती ज्वरा- वचनं, समतसत्यं यथा-समानेऽपि पङ्कसम्भवे गोपालादीदिः, वा-विकरणे, अपिः-समुच्चये, ( दुहिल ति ) द्रोहवत् नामपि सम्मतत्वेनारविन्दमेव पङ्कजमुच्यते, न कुवलयादीति पाठान्तरेण-" दुही ति" द्रव्यतो भावतश्च । उपचारं-- स्थापनासत्यं-जिनप्रतिमादिषु जिनादिव्यपदेशः , नामसपूजाम् , उपकारं वा प्रतिक्रान्तम् , एवंविधं तु-एवंप्रकारं, त्यं यथा-कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्धन इत्युच्यते, रूपसत्य यपुनः सत्यमपि-सद्भूततामात्रेण आस्तामसत्यं, न वक्त- था-भावतोऽश्रमणोऽपि तद्पधारी श्रमण-इत्युच्यते, प्रतीव्य-न वाच्यम् , (अथ केरिसगं ति) अथशब्दः परिप्रश्ने, तसत्यं यथा-अनामिका कनिष्ठिका प्रतीत्य दीर्घत्युच्यते , कीडशकं-किंविधम्-(पुषा ति) इह पुनरपि पूर्ववापा. सैव मध्यमा प्रतीत्य हस्वेति, व्यवहारसत्यं यथा-गिरिग
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मुसावायवे० अभिधानराजेन्द्रः।
मुसावायवे. ततृणादिषु दद्यमानेषु व्यवहारात् गिरिव्ह्यत इति, भावस- एवं अणुवीतिसमितिजोगेण माविमो भवति अंतरप्पा स्यं यथा-सत्यपि पञ्चवर्णत्वे शुक्लत्वलक्षणभावोत्कटत्वात्- संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चवज्जवसंपत्रो। शुक्ला बलाकेति, योगसत्यं यथा-दण्डयोगाद्दण्ड इत्यादि, | 'इमंचे' त्यादि-इमं च प्रत्यक्ष प्रवचनमिति योगः, श्रश्रीपम्यसत्यं यथा-समुद्रवनडाग इत्यादि, तथा-(जह भ- | लीकम्-असद्भतार्थ, पिशुनं-परोक्षस्य परस्य दूषणाविष्करणिय तह य कम्मुणा होइ ति) यथा-येन प्रकारेण, भणितं
रणरूपम् , परुषम्-अश्राव्यभाष, कटुकम्-अनिष्टार्थम् , चपभणनक्रिया , दशविधसत्यं सद्भतार्थतया भवति, तथा- लम्-उत्सुकतया उसमीक्षितम् , यद्वचनम्-वाक्यं, तस्य पतेनैव प्रकारेण, कर्मणा वा, अक्षरलेखनादिक्रियया समृता- रिरक्षणलक्षणो योऽर्थस्तस्य भावस्तता तस्यै च अलीकपिर्थशापनेन सत्यं दशविधमेव भवतीति, अनेन चेदमुक्नं भव- शुनपरुषकटुकचपलवचनपरिरक्षणार्थतायै,प्रावचनम्-प्रषति-न केवलं सत्यार्थ वचनं वाच्यम् , हस्तादिकाप्यव्य- चन, शासनमित्यर्थः, भगवता श्रीमन्महावीरेण सुष्ठु कथितं भिचार्यर्थसूचकमेव कर्तव्यम् , उभयत्राप्यव्यभिचारितया प- सुकथितमित्यादि, 'पररक्खणट्रयाए 'त्ति यावत् पूर्ववत् । राव्यसनस्याकुटिलाध्यवसायस्य च तुल्यत्वादिति, तथा- नवरं द्वितीयस्य व्रतस्य-अलीकवचनस्येति विशेषः ,(पढ( दुबालसविहा य होइ भास त्ति ) द्वादविधा च भवति मंति) प्रथम भावनावस्तु अनुविचिन्त्य समितियोगलक्षभाषा, तथा च
णम् , तश्चैवम्-श्रुत्वा-आकर्य सहरुसमीपे ( संवर; ति) "प्राकृतसंस्कृतभाषा, मागधपैशाचसौरसेनी च । संवरस्य-प्रस्तावेन मृषावादविरतिलक्षणस्य , अर्थ:-प्रषष्ठोऽत्र भूरिभेदो, देशविशेषादपभ्रंशः॥१॥"
योजनं, मोक्षलक्षणं प्रस्तुतसंवराध्ययनस्य वा अर्थ:-अभि इयमेव षविधा भाषा गद्यपद्यभेदेन भिद्यमाना द्वादशधा धेयः,संवरार्थस्तम् , श्रवणाय (परमटुं सुटु जाणिऊणं ति) भवतीति, तथा बचनमपि षोडशविधं भवति, तथाहि- परमार्थ-हेयोपादेयवचनैदम्पर्य सुष्टु-सम्यक् मात्वा, न"अयणतियंलिङ्गतियं६,कालतियंहतह परोक्खपश्चक्खं११।। नैव, वेगितम्-वेगवत् , विकल्पव्याकुलतयेत्यर्थः , वक्तव्यउवणीयाइचउक्कं१५,अज्झत्थं १६ चेव सोलसम॥१॥" मिति योगः। न त्वरितम् ,वचनचापल्यतः,न कटुकम् अर्थतः, तत्र वचनत्रयम्-एकवचनद्विवचनबहुवचनरूपं , यथा | न परुष,वर्णतः,न साहसं साहसप्रधानमतर्कितं वा, न च पवृक्षः, वृक्षौ, वृक्षाः । लिङ्गत्रिकम्-स्त्रीपुंनपुंसकरूपम् , यथा- रस्य जन्तोः पीडाकर,सावद्यम्-सपापं यत् ,वचनविधि निषेकुमारी,वृक्षः,कुण्डम् ।कालत्रिकम्-अतीतानागतवर्तमानका. धतोऽभिधाय । साम्प्रतं विधित श्राह-सत्यं च-सद्भूतार्थ, लरूपम् ,यथा-अकरोत् ,करिष्यति,करोति । प्रत्यक्षं यथा-अय हितं च-पथ्यं , मितम्-परिमिताक्षरं , ग्राहकं च-प्रतिपाद्यम, एषः। परोक्ष यथा-सा । तथा-उपनीतवचनम् गुणोपनय- स्य विवक्षितार्थप्रतीतिजनकं , शुद्धम्-पूर्वोक्तवचनदोषरहितं नरूपं, यथा-रूपवानयम् । अपनीतवचनं-गुणापनयनरू, सङ्गतम्-उपपत्तिभिरबाधितम् , अकाहलं च-अमन्मनाक्षरं, यथा-दुःशीलोऽयम् । उपनीतापनीतवचनम्-यत्रैकं गुणमुप- समीक्षितम्-पूर्व बुद्ध्या पर्यालोचितं , संयतेन-संयमवता, नीय गुणान्तरमपनीयते, यथा-रूपवानय किंतु-दुःशीलः। कालच-अवसरे, वक्तव्य, नान्यथा , एवम्-उक्नेन भाषविपर्ययेण तु अपनीतोपनीतवचनं, तद्यथा-दुःशीलोऽयं किं पप्रकारेण , (अणुवीइयसमितिजोगेणं ति) अनुविचिन्त्यतु रूपवान् । अध्यात्मवचनम्-अभिप्रेतमर्थ गोपयितुकामस्य | पालोच्य , भाषणरूपा या समितिः-सम्यक्प्रवृत्तिः, सा सहसा तस्यैव भणनमिति, ( एवमिति ) उनसत्यादिस्वरू अनुविचिन्त्यसमितिः तया योगः सम्बन्धः तद्पो वा पावधारणप्रकारेण अईदनुशातं समीक्षितं, बुद्धया पर्यालो- व्यापारोऽनुविचिन्त्यसमितियोगस्तेन भाविता भवति, अचितं, संयतेन संयमवता, काले च अवसरे, वक्तव्यम्, न तु | न्तरात्मा-जीवः, किंविध इत्याह-संयतकरचरणनयनवदजिनाननुझातमपर्यालोचितमसंयतेनाकाले चेति भावना ।। नः शूरः सत्यार्जवसंपन्न इति प्रतीतमिति ॥१॥प्रश्न० २ श्राह च
संव० द्वार। "बुद्धिए निपऊण, भासेजा उभयलोगपरिसुद्धं ।
__ अहावरं दोच्चं महव्वयं पच्चखामि सव्वं मुसावायं वसपरोभयाण जं खलु, न सव्वहा पीडजणगं तु ॥१॥" | तिदोसं से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा णेव सर्य
एतदर्थमेव जिनशासनमित्येतदाह पश्च भावना:- मुसं भासिज्जा, वऽमेणं मुसं भासावेजा, आम पिइमं च अलियपिसुणफरुसकडुयचवलवयणपरिरक्खणऽ- मुसं भासंतं ण समणुजाणेजा तिविहं तिविहेणं मणसा याए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चा भावियं वयसा कायसा , तस्स भंते ! पडिकमामि० जाव वोसिआगमेसि भदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सम्बदुक्ख- रामि , तस्सिमाओ पंच भावणाश्रो भवंति , तत्थिमा पावाणं विउसमणं, तस्स इमा पंच मावणाओ बितियस्स पढमा भावणा-अणुवीयिभासी से णिग्गंथे णो अणणुवयस्स अलियवयणस्स वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पढम सो- वीयिभासी, केवली व्या०-अणणुवीयिभासी से निग्गंथे ऊण संवरहूँ परमटुं सुटु जाणिऊण न वेगियं न तुरियं | समावज्जिज्जा मोसं वयणाए, अणुवीयिभासी से णिग्गथे न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परस्स पी-| यो अणणुवीयिभासि त्ति पढमा भावणा । अहावरा दुचा लाकरं सावजं सञ्चं च हियं च मियं च गाहगं च सुद्धा मावणा-कोहं परियाणा से निग्गंथे नो कोहसे सिया,केव संगममळालं च समिक्खितं संजतेण कालंमि य वत्तम्ब ली ब्रूया-कोहप्पते कोहनं समावइजा मोसं वययाए,
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मुसावायवे
(३३)
अभिधानराजेन्द्रः। कोहं परियाणा से निग्गथे न य कोहणे सिय त्ति दुच्चा सौख्यस्य-शीतलच्छायादिसुखहेतोः कृते, तथा शय्यायाभावणा । प्राचा० २ श्रु० ३ चू०।।
वसतेः यत्र वा प्रसारितपादः सुप्यते सा शय्या तस्यै, संवितियं कोहो ण सेवियव्यो, कुद्धो चंडिक्किओ |
स्तारकस्य वा-अर्द्धतृतीयहस्तस्य कम्बलखण्डादेः कृते पा
प्रोम्छनस्य-रजोहरणस्य कृते उपसंहरणाह-अभ्येषु च मणूसो अलियं भणेज, पिसुणं भणेज, फरुसं भणेज, |
पजएवमादिषु बहुषु कारणशतेष्वित्यादि व्यक्तमेव ३ । प्रश्न अलियं पिसुणं फरुसं भणेज, कलहं करेजा,वरं करेजा,| २ संब० द्वार । (अन्यद 'भीय' शब्द) विकहं करेजा, कलहं वेरं विकहं करेजा । सच्चं हणेज, अहावरा तथा भावणा-लोभ परिजाणइ से णिग्गंथे जो सील हणेज, विणयं हणेञ्ज, सच्चं सीलं विणयं हणेज । य लोभणए सिया, केवली बूया-लोभपत्ते लोभी समावेसो हवेज, वत्थु भवेज, गम्मो भवेज, बेसो वत्थु गम्मो वइज्जा मोसं वयणाए, लोभ परिजाणा से णिग्गंथे खो भवेज। एवं अन्नं च एवमादियं भणेज । कोहऽग्गिसंपलि- य लोभणए सिय ति तच्चा भावणा।। तो तम्हा कोहो न सेवियब्बो, एवं खतीइ भावियो भवति तृतीयभावनायां तु लोभजयः कर्त्तव्यस्तस्यापि मृषावादे अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चऽऽज्जवसंपनो।। हेतुत्वादिति हृदयम् । प्राचा०२ श्रु० ३ चू०। ततियं लोभो न सेवियव्यो, लुद्धो लोलो भणेज अलि-1 अहावरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणइ से णिग्गंथे यं खत्तस्स व वत्थुस्स व कतेण १, लुद्धो लोलो भणेज णो भयभीरुए सिया, केवली व्या-भयप्पत्ते भीरु समाअलियं कित्तीए लोभस्स व करण२, लुतो लोलो भणेज वदेज्जा मोसं वयणाए भयं परिजाणइ से णिग्गंथे नो अलियं रिद्धीए व सोक्खस्स व कएण३,लुद्धो लोलो भ- भयभीरुए सिया, चउत्था भावणा । अहावरा पंचमा भारोज अलियं भत्तस्स व पाणस्स व कएण४, लुद्धो लोलो वणा-हासं परिजाणइ से णिग्गंथे णो य हासणए सिया, भणेज अलियं पीढस्स व फलगस्स व कएण ५, लुद्धो केवली ब्रूया-हासप्पत्ते हासी समावदेज्जा मोसं बयणाए, लोलो भणेज अलियं सेजाए व संथारगस्स व कएण ६, हासे परिजाणइ से णिग्गंथे णो हासणए सिय ति, पंचमी लुद्धो लोलो भणेज अलियं वत्थस्स व पत्तस्स व कएण भावणा-एतावता दोच्चे महब्बए सम्म कारण फासिए. ७, लुद्धो लोलो भणेज अलियं कंबलस्स व पायपुंछ- जाव प्राणाए पाराहिते यावि भवति दोचे भंते ! महव्वए । णस्स व करण ८, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं सीसस्स श्राचा०२ श्रु०३ चू०।। व सिस्सीणीए व कएण 8, लुद्धो लोलो भणेज अलियं पंचमगं हासं न सेवियव्वं अलियाई असंतगाई जंपति अनेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसतेसु, लुद्धो लोलो | हासइत्ता परपरिभवकारणं च हासं परपरिवायप्पियं च भणेज अलियं तम्हा लोभो न सेवियम्बो, एवं मुत्तीए| हासं परपीलाकारगं च हासं भेदविमुत्तिकारकं च हास भावित्रो भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो अप्पोम्मजणियं च होज्ज हासं अमोमगमणं च होज्जसच्चअवसपनो।
मम्मं अमोलगमणं च होज्ज कम्मं कंदप्पाभिश्रोगगमणं च (विड्यं ति) द्वितीय भावनावस्तु यत्क्रोधनिग्रहणम् , होज हासं आसुरियं किव्विसत्तं वा जणेज हासं, तम्हा एतदेवाह-क्रोधो न सेवितव्यः, कस्मात्कारणादित्याह-कु- हासं न सेवियब्वं । एवं मोणेण य भाविमो भवति अंतरप्पा शः-कुपितः, चाण्डिफ्यं रौद्ररूपत्वं, सातमस्येति चागिडक्यितो मनुष्योऽलीकं भणेदित्यादि सुगम, नवरं, वै
संजयकरचरणणयणवयणो सूरो सञ्चज्जवसंपामो ५ एवंरम्-अनुशयानुबन्ध, विकथां-परिवादरूपां, शील-समाधि मिणं संवरम्स दारं संमं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं (वेसो ति) द्वेष्यः-अप्रियो भवेत् एष वस्तु-दोषावास- पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं पागम्यः-परिभवस्थानं, निगमनमाह-(एयं ति) अलीकादिकं गृहाते, तदन्यस्य भणक्रियाया अविषयत्वात् , अन्य
मरणंतं च एस जोगो णेयन्बो धितिमया मतिमया अप-उन्नाव्यतिरिक्तमेवमादिकम्-एवंजातीय भणेत् क्रोधा
णासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो ग्निसंप्रदीप्तः सन् · तम्हेत्यादि-संपन्नो ' इत्येतदन्तं सम्बजिणमणुनाश्रो , एवं वितियं संवरदारं फासियं पाव्यक्त्रम् २ । (ततियं ति) तृतीय भावनावस्तु, किं तदि- लियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आरात्याह-लोभो न सेवितव्यः, कस्मादित्यत आह-लुब्धो-लो
| हियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पन्नवियं परूवियं भवान् लोलो व्रते चञ्चलो भणदलीकम् , एतदेव विषयभेदेनाह-क्षेत्रस्य वा-प्रामादे., कृषिभूमेर्वा, वास्तुनो-गृह
पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आपवितं सुदेसियं पसत्थं विस्य, (करण सि) कृते-हेतोः, लुब्धो लोलो भणदलीकम् ,
तियं संवरदारं समत्तं ति बेमि ।। २५ ॥ एवमन्यान्यप्यष्ट सूत्राणि नेतव्यानि, नवरं, कीर्तिः-ख्यातिः, (पंचमगं ति) पञ्चमकं-भावनावस्त्विति गम्यते, यदुत लोभस्थ औषधादिप्राप्तेः सते, तथा ऋद्ध-परिवारादिकायाः | हास्यं न मेथितष्य-परिहासो म विधेयः, यता अलीक्रानि
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terered o
सद्भूतार्थनिह्नवरूपाणि ( असंतगाई ति ) असन्ति सद्भूतार्थानि यच्चनानीति गम्यते । अशोभनानि वा अशास्तानिया-अनुपशमप्रधानानि जपन्ति (दासहस ति) हायन्त:-परिहासकारिणः, परिभवकारणं व हास्यम् अपमाननाहेतुरित्यर्थः परपरिवादः - अन्यदूषणाभिधानम् प्रियः - इष्टो यत्र तत्तथा तद्विधं च हास्यं परपीडाकारकं च हास्यमिति व्यक्तम् ( भेयविमुक्तिकारकं च त्ति ) भेदः चारित्रभेदोः विमूर्तिश्व- विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः तयोः कारकं यत्तत्तथा तच्च हास्यम् । अथवाराजदन्तादिदर्शनाद्विमुक्तेः - मोक्षमार्गस्य भेदकारकमिति वाच्ये भेदविमुक्तिकारकमित्युक्तम्, अन्योऽन्यजनितं च परस्परकृतं च भवेतास्वं यतस्ततोऽन्योऽभ्यगमनं च-परस्परस्याभिगमनीयं च भवेत् — मर्मप्रच्छनपारदार्यादिदुश्रेष्टितं तथाऽन्योन्यगमनं च-- परस्पराभिगम्यं न भयेकम्मे लोकनिन्यजीवनवृत्तिरूपं (कंदप्याभियोगगम च ति) कन्दर्पान्धकान्यपिका देवविशेषा दास्यकारिणो भाण्डप्राया अभियोग्याश्च -- अभियोगार्हा श्रादेशकारिणो देवाः, पतेषु गमनं गमनहेनुर्वन्तत्तथा तच भवेदास्यम्, अयमभिप्राय - हास्यरतिसाधुश्चारित्रलेशप्रभावाद्देवेवृत्पद्यमानः कान्दर्पिकेषु अभियोगिकेषु चोत्पद्यते न महर्द्धिकेपिति हास्यमनधायेति श्राह -
6
( ३३२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
+6
1
जो संजओ वि, प्यासु श्रप्पवत्थासु बढ्इ कहिं चि । तो त, नियमा भयो चरणो ॥ १ ॥ " ( एयासु ति) कन्दर्पादिभावनास्विति तथा--( श्रसुरियं स च जगेज हासं ति ) ( आसुरि ति ) असुरभावम्, (फिसितं ति) चाण्डालयायदेवविशेषत्वं वा विकल्पे, जनयेत् प्रापयेत् जन्मान्तरहास्यकारि चारित्रजीवम् हास्य-हासः यस्मादेवं तस्माद्धासं न सेवितव्यमिति । श्रथैतन्निगमनमाह-एवमुक्तेन हासवजेनप्रकारेण मौनेन - वचनसंयमैन, भावितो भवत्यन्तरात्मा संयतादिविशेषणः एवमिण मित्याद्यध्ययननिगमनं पूर्वाध्ययनवद् व्याख्येयमिति । प्रश्न० २ संव० द्वार | मुसुर-भञ्ज-धा० महे मजे मय-मुसुर-मूर-सर-ड
"
,
विर- पविरअ - करञ्ज-नीरञ्जः ॥ ८ । ४ । १०६ ॥ भञ्जरेते नवादेशा भवन्ति । मुसुमूरह । प्रा० ४ पाद । मुसुरिअव भग्न० चूर्णिते, “मुल"
66
पाइ० ना० १८२ गाथा ।
सोचएम गृषोपदेश - पुं०] पण अलीकं तस्योपदेशो पोष देशः। इदमेवं च मूहि त्वमेयं याभिदध्याः कुलगृहेत्यादि असत्याभिधानशिवे, प्रच० मृषा अलीकं तस्योपदेशो सृ पोपदेशः, इदम् एवं एवं मूहि त्वम् एवं च एवं च अभिध्याः, कुलगृहेष्वित्यादिकमसत्याभिधानशिक्षाप्रदानमित्यर्थः । इद्द व्रतसंरक्षखबुद्धधा परवृत्तान्तकथनद्वारेण मृत्रोपदेशं यच्छतः पञ्चमोऽतिचारः । प्रव० ६ द्वार ।
कारणे श्रोभासेजाऽवि । गाहाबितियपदं उड्डाहे, संजमहेउं व बोहिए तेथे ।
खेते वा डिणीए, सेहे वा वादिमादीसु ॥ ७० ॥ उड्डाहर
के
लाखो
-
मुहतब
देसो ए व त्ति, वत्तव्यं संजमहेउ अस्थि, ते केति मिया दिट्टा, दिवि नदिनि वलयं याधितामिच्छसि भी भ सिज्ज एसो बंधायारो पनि त तेरो एस समत्यो पति नि अवसरह । खेत्ते धायारभाविए बंभणो अहमित्ति भासए जत्थ वा साहू न नज्जति तत्थ पुच्छितो भगति से य परि व्वायगामे कोइ य कस्सइ साहुस्स पदुट्टो सो व तं न जागति ताहे भज्जा । नाहं सो, वा जाणे, परदेस वा गोति भणेज्जा, सेह वा संणायगा पुच्छति तत्थ भणिज्ज । नत्थे रिसो, ख जाणे मतो या परदेस यादे असंतेावि परचादि निगिन्हिज्जा । नि० चू०२ उ० मोसुवते से परिव्वायगो मणुस्वं भवति किं फिलिस्सासि ? अहं से आदि रूपयति सिगो चेव दव्वं विढवावेमि, जहि किराडयं उच्छिरणं मगाहि, पच्छा कालुद्दे सेहिं मग्गेज्जासि, जाधेय वाउलो जसदायगहण ताथे सोधे भगति जा विसंवदति ताधे ममं सउिति एवं कर श्रो हारितो जितो (म) वापितोय आव० ६ ० मोसोदेसो नाम मोर्स उवदिसंति, जहा - पर्वत्रमोसभासणे पगारं इंसेति सिमोसोदेसे उदाहरणं-बोरे - यं, सिंदियावत्तेहिं, वितियदिवसे तत्थ लोगो मिलितो चोरकम्मं पसति, बोरो
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तत्थ एगो परिष्वा गोभति किं बोरेस्स मुफ्त पसह, ताई चोरे विरहे सो परिव्वायश्रो पुच्छि कहं मुक्खो, ताहे भराति एवं करेंतो वज्भेज वा मारेज वा, उवाएणं तं कज्जति जेण जीवेज इति, को उवाश्रो नि, भरणति श्रहं कहेमि, के राई दामग्गणबाउले मज्जादि, ताहे सो बाउलत्तणेण पडिवणं तदेदिति तां कालुदेसे दालग्गह वाडलं चैव प्रतिदिवसं भणेज्जासि देहि तं ममं देहि तं ममंति । बहुज आहे भगत किंचि वि धमि ताहे मए सखि उव दिसिजाहि, एवं करणे ओसारिश्र दवावितो य । श्रा०० ६ श्र० ।
मुहमुख न० वदने, शा० १ ० १६० वजे तं० ॥ प्रति० । श्रस्ये स्था० ६ ठा० । प्रश्नः । नि० चू० । तुराडे, तं० । अभागे, सू० प्र० ४ पाहु० ॥ खं०प्र० । द्वारे, कल्प० १ अधि० २ क्षण । उपरितने भागे, तं० । स्था० ।
64
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वयणं मुहं च श्राणं " पाइ० ना० ११६ गाथा । मुहच्छाया-मुखच्छाया खी० मुखकान्ती, प्रा० १ पाद मुहांतय-मुखानन्तक--न० । मुखस्यानन्तकं वस्त्रं मुखानन्तकम् | मुखवस्त्रिकायाम्, प्रच० २ द्वार । ( मुखानन्तकस्य प्रमाणं मुहपोत्तिया शब् करिष्यते )
गाद्दा
मुहतगस्स गहणे, एमेव व गंतुनिसिलगडणं । संमृतिरेण वि गलते गहितो मया दो वि ॥ ३६४|| एगेण साहुखा अतीय लई गुहत आणि तगुरु गडियं एत्थ विच्यं पुत्रक्वारागसरिसं नवरं तं मुहतव पश्चपित जीते गोराया सा धुविरहं लभित्ता मुहणंतगं गिरहसि त्ति, भतो गाढं गपति स मूडेरा गुरु विसो गहितो दोऽचि मता । नि० चू० ११ ३० । जीत० । श्राव• ।
" य
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मुहत्थढी
(३३३ )
अभिधानराजेन्द्रः। महत्थदी-देशी-मुखेन पतने, दे० ना०६ वर्ग १३६ गाथा । मुहलरव-मुखररव-पुं० । वाचालशब्दे, “तुमुलं मुहलरवो" मुहपोत्तिया-मुखपोत्तिका-स्त्री० । मुखपोत्तिका मुखपिधाना- पाइ० ना० २४० गाथा । य पोतं वस्त्रं मुखपोतं, तदेव इस्वं चतुरडलाधिकवितस्ति-मुहवाम-मुखवणे-पुं० । परतीर्थिकप्रशंसायाम् , नि००। मात्रप्रमाणत्वान्मुखपोतिका । मुखवत्रिकायाम् , पिं०। प्र- जे भिक्खू मुहवामं करेइ करतं वा साइजइ ।। १७६ ॥ व० । व्य० । पं० व । ही।
मुहं ति पवेसो तस्स चउब्विहो नामातीश्रो णिक्वेचो। णाम मुखवस्त्रिकाप्रमारामाह
ट्ठवणातो गतातो, दम्बमुहं-गिहादिवत्थुपवेसो, तिन्नि सट्ठा चतुरंगुलं विहत्थी, एवं मुहणंतगस्स उ पमाणं ।
पावा दुयसया, भावमुहस्स वन्नं आदत्ते गृह्णातीत्यर्थः ।
कथं पुण सो मुहवन्नं करेति ?, गाहावितियं पि य प्पमाणं, मुहप्पमाणेण कायव्वं ।।
कुतित्थेसु कुसत्थेसु, कुधम्मकुव्वयकुदाणम्दीसु । चतुरङ्गुलं चत्वार्यङ्गुलानि वितस्तिः चैका एतन्मुखानन्तक
जे मुहवामं कुजा, उम्मग्गे आणमादीणि ॥ ७२ ।। स्य-मुखस्त्रिकायाः प्रमाणम् , द्वितीयमपि प्रमाणं भव
वितियगाहाए जहासंखं उदाहरणं गाहाति-किमित्याह-मुखप्रमाणेन मुखानन्तकं वक्तव्यम् , किमुक्तं भवति-वसति प्रमार्जयन् रजःप्रवेशरक्षणार्था , कोणद्वये
गंगाती-सक-मल्ल-गणधम्मादी य गोव्बयादीया। गृहीता नासिका मुखं च प्रच्छाद्य कृकाटिकायां यावत् वा भोमादीदाणा खलु, तिलि तिसट्ठा उ उम्मग्गा ॥७३॥ प्रन्थि शक्नोति तावत्प्रमाणा मुखवत्रिका कर्तव्या । वृ०३ गंगा आदिग्रहणातो पहास प्रयाग अपरखडसिरिमायकेउ०। “सन्ति सम्पातिमाः सत्त्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे।। यारादिया एते सव्वे कुतित्था । शाक्यमतं कपिन्नमतं ईसरतेषां रक्षानिमित्तं च,विज्ञेया मुखवस्त्रिका ॥१॥" उत्त०३ १०।। मतादिया सव्वे कुसत्था। मल्लगरणधम्मो सारस्स य गणमुहमंगल-मुखमङ्गल-न० । चाटुवचने, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।
धम्मो कृपसभादिया सब्वे कुधम्मा । गोव्वयादि सापे
क्खिया पंचग्गितावया पंचगव्वासणिया एवमादिया सव्वे मुहमंगलिय-मुखमाङ्गलिक-पुं० । मुखे मङ्गलं येषां ते मुख
कुब्वया । भूमिदाणं गोदाणं आसहत्थिसुवनादिया य सब्वे माङ्गलिकाः । चाटुकारिषु, औ० । ।भ० । कल्प० । शा। कुदाणा । कुत्सितार्थाभिधारणे खलुशब्दः। तिन्नि तिसट्टा पामुखे मङ्गलानि-प्रशंसावाक्यानीदृशस्त्वं त्वादृशस्त्वमित्येवं वा दुयसया जतिण वज्जा सेसा सव्वे उम्मग्गा। जो जत्थ भषदैन्यभावमुपगतो वक्ति। सूत्र० १ थु०७ अ०।
न्तो तदणुकूलं भासंतस्स श्राणादिया दोसा,चउगुरुगं पच्छि मुहमंडव-मुखमएडप-पुं०। मुखद्वारे आयतनस्य मण्डपा | तं, मिच्छत्ते य पवत्तीकरणं, पवयणे ओभावणया,पते अदिन
दाणपाणाइवाए ते चाटुकारिणो एतद्दोसपरिहरण ऽत्थं, तमुखमण्डपाः । पट्टशालासु, स्था० ४ ठा०२ उ० । जी।।
म्हा णो कुतित्थियाण मुहवन्नं करेज्ज । मुहमकडिया-मुखमर्कटिका-स्त्री०। मुखतिर्यक्त्वकरणे, शा०
गाथा१ श्रु०८ अ०।
असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलमे। मुहमहुर-मुखमधुर-पुं०।मुखे पादौ मधुरा महाकामरसोत्पा- एएहि कारणेहि, जयणाए कप्पती काउं ।। ७४ ॥ दकाः । परिणामासुन्दरेषु, तं० ।
सपक्खपंतासिवे परलिंगपडिवनो पसंसति । अहवा-अमुहर-मुखर-त्रिका मुखमतिभाषणमतिशयेन वदतीति मुखरः ।
सिवो मे सुअसंधरते तद्भावियखेत्तेसु वल्लीसु वा पसंसेज्ज,
परलिंगी चा जोरायद्दुटुं पसंसेज्जा तदणुवत्तिते पसंसेज्जा, स्था०६ ठा० ३ उ० । मुखमस्यास्तीति मुखरः । अनालोचित
रायभया वोहिभंगभरण वा सरणोवगतो पसंसेज्ज, अन्नभाषिणि, वाचाटे, प्रव०६द्वार । उत्त० ।
तो गिलाणपाउग्गे अलभंते तेसु चेव लब्भति पसंसेज्जा । मुह(हा)रि-मुखारि-पुं० । मुखमेवाऽरिः शत्रुरनर्थकारित्वाद्
गाहायेषां ते मुखारयः । असमीक्षितप्रलापिषु, अपर्यालोचितानर्थ- परमवणे च उवेहं, पुट्ठा वा माति बाहरं नेत ।। कवादिषु, प्रश्न०२ आश्र० द्वार।
आगाढे व अपुठ्ठो, भणेज्ज लठो तहा धम्मो ।। ७५॥ मुहरोग-मुखरोग-पुं० । मुखगते रोगे, पञ्चषष्टिर्मुखरोगाः | कारणे चरगादिभावितेसुखेनेसु ठियस्स जति ते चरगासप्तस्वायतनेषु जायन्ते, तत्रायतनानि-ओष्ठी दन्तमूलानि
दिया बहुजणमझे ससिद्धतं पन्नवेति तत्थ उहं कुदन्ता जिह्वा तालु कराठः सर्वाणि चेति । तत्राष्टावोष्ठयोः, प.
ज्जा, मा पडितहकरणे खेत्तातो णीणिजेज्ज, उवासगादिपुट्ठो ञ्चदश दन्तमूलेष्वी दन्तेषु पञ्च जिह्वायां, नव तालुनि, सप्त
अत्थि ण एतेसिं भिक्खुयाणं वये वा णियमे वा ताहे तेसिं दश कराठे , त्रयः सर्वेष्वायतनेष्विति । प्राचा०१ श्रु०६
दाणसहयाणं अणुयुत्तीए भणिज्ज, पते वि बंभब्वयं धरैति, अ० १ उ०।
आदिसहातो जीवेसु दयालुया। अन्नत्तरे वा आगाढे गिमहरोमराई-देशी-भ्रवि, दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाथा।
लाणादिकारणे भणज्ज, इमा पसंसणे जयणा।
गाहामुहल-मुखर-पुं० हरिद्रादी लः ॥ ८।१।२५४ ॥ इत्यसंयु- जे जे सरिसा धम्मा, सव्वाऽहिंसादि तेहि उ पसंसे । क्लस्य लः । मुहलः । वाचाटे, प्रा०१ पाद । दे० ना। एपसिं पिहुयाता, अस्थि य णिच्चोकुणति व ति॥७६॥
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( ३३४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मुहवण
सरिसधम्मेहिं पसंसति श्रम्ह वि तुम्हा वि सब्वे वया, अ हे वि तुम्हे वि श्रहिंसा, श्रम्ह वि तुम्ह वि श्रदिनादा वजं, श्रम्ह वि तुम्ह वि श्रत्थियया, दव्वत्तेण वा जहा तुम्हं निच्चो, तहा श्रम्ह वि निच्ची, जहा श्रम्ह कि - ता सुहासु कम्मं करेति, तहा तुम्ह वि ।
गाहा
एवं ता सव्वाssदी, भोज वेतूलिकेसिमं बूया ।
हवि सव्वभावा, इतरेतरभावतो सव्वै ॥ ७७ ॥ सत्-शोभूना, वादी - सद्वादी, श्रात्मास्तित्ववादीत्यर्थः । जे पुरा चेतुलियातीस इमं ब्रूताविगयं तुल्लभाचे वेतुलिया नास्तिस्ववादिनइत्यर्थः सव्वभावा इतरतेरभावतो । गुत्थि ति नित्यत्वं श्रनित्यत्वे नास्ति, एवं श्रात्मा, अनात्मा कर्तृत्वमकतृत्वं, मूर्त्तत्वममूर्त्तत्वं, सर्वगतत्वमसर्वगतत्वम्, घटत्वं पटत्वं परमाणुत्वं द्विपदेसिकत्वं, कृष्णत्वं नीलत्वं, गोत्वमश्वत्वं च एवमादि । नि० खू० ११ उ० । वहवास- मुखवास-पुं० । कर्पूरादिभिर्मुखस्य सौरभ्यापादने, बृ० १ उ० ३ प्रक० । “ तयागंतरं च गं मुहवासविहिपरिमाणं करेइ, गराणत्थ पंच सोगंधिएं। तंबोलेगं श्रवसेसं मुहवासविह पच्चक्खामि " एलालवङ्गकर्पूरकक्कोलजातीफललक्षणैः सुगन्धिभिर्द्रव्यैः श्रभिसंस्कृतं पञ्चसौगन्धिकम् । उपा० १ ०
मुहवीणिया-मुखवीणिका स्त्री० । मुखशब्दकरणे, नि० चू० ।
जे भिक्खू मुहवीणियं करेइ करतं वा साहजइ ॥ ३६ ॥ मुहवीणियातिर्हि वादित्रशब्दकरणं, वितियसुत्ते मुहीलियं करैतो मोहा दिक्खे सद्दे करेति श्रश्नतरग्रहणात् संयोगमवेक्खति तं पगारमावरणाणि तह पगाराणि ततविततप्रकारमित्यर्थः ।
गाहा
मुगादिवीणिया खलु, जत्तियमेत्ता य श्रहिया सुत्ते । स अदि वा उदीरए तम्मि आणादी ।। ११४ ॥ अणुदिर जो मोहं जगति उवसंतं वा उदीरति ।
गाहा
सविकार असामत्थ- मोहस्स उदीरणा य उभयो वि । पुरावत्ती दोसा, य वणिगाओ य सद्देसु ।। ११५ ।। सविगारता भवति, लोगो य भगति श्रहो इमो सविकारो पच्चतितो, मज्झत्थो रागदोस विजुत्तो सो पुण अभज्झत्थो अप्पणो परस्स य मोहमुईरेति पुणरावती णाम- कोई भुत्तभोगी पवतितो, सो वितेति अम्ह· वि महिलाओं एवं करैति, तस्स पुणरावत्ती भवति, असि वा साह सुखेता पडिगनादयो दोसा भवंति, वीणियासु वीणियासदेसु य एते दोसा भवंति ।
|
गाहा
इत्थि परियारस, रागे दोसे तहेव कंदपे । गुरुगा गुरुगा गुरुगा, लहुगा लहुगो कमेण भवे ।। ११६|| इत्थिसदे च गुरु, परियारसदे चउगुरु, श्रन्नतरसदं रागेण करेति चउगुरु, एतेसु तिसु चउगुरुगा, दोसे करेति चउलहगा, कंदपेय करेति मासल ।
मुहुत
गाहा
वितियपदमणप्पज्झे, करिज अवि कोविओ व अप्पज्झे । जागते वावि पुणो, सरया सागारमादीसु ।। ११७ ॥
४० ॥
पो करतेति श्रविकोवितो वा सेहो करेति, दिया गतो वा श्रद्धा गिलाणऽट्ठा सण्णासदं करेति, भावसागरिrusवद्धा वा वसहीप सद्दं करेति जहा तं सुर्णेति । जे भिक्खू दंतवीणियं करेइ करतं वा साइजइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खु उद्ववीशियं करेइ करतं वा साइजइ जे भिक्खू खासावीणियं करेइ करंतं वा साइजइ ॥। ४१॥ जे भिक्खु कक्खवीणियं करें करंतं वा साइजइ ॥४२॥ जे भिक्खु हत्थवीणियं करेइ करंतं वा साइजइ ||४३|| जे भिक्खु नक्खवीणियं करेइ करंतं वा साइजइ ॥४४॥ जे भिक्खू पत्तवणियं करेइ करतं वा साइज ॥ ४५ ॥ जे भिक्खू पुप्फवीणियं करेइ करंतं वा साइअह ||४६ || जे भिक्खु फलवीणियं करेइ करतं वा साइजइ ||४७|| जे भिक्खू वीवीणियं करेइ करंतं वा साइज || ४८ ॥ जे भिक्खु हरियवीणियं करेइ करतं वा साइज ॥४६॥ जे भिक्खू मुहवीशियं वाएइ वार्यतं वा साइजह ||५० || जे भिक्खू तवीणियं वाएइ वार्यतं वा साइजइ ॥ ५१ ॥ जे भिक्खू उडवीणियं वाएइ वार्यतं वा साइज ॥ ५२ ॥ जे भिक्खू खासावीशियं वाएड वार्यतं वा साइजइ ॥ ५३ ॥ जे भिक्खू कक्खवीणियं वाएइ वार्यतं वा साइजइ ॥ ५४ ॥ जे भिक्खु हत्थवीणियं वाएइ वार्यतं वा साइजड़ || ५५|| जे भिक्खू हवीणियं वाएड वार्यतं वा साइजइ ॥ ५६ ॥ जे भिक्खू पत्तवणियं वाएइ वार्यतं वा साइज ||२७|| जे भिक्खू पुष्पवीणियं वाएइ वार्यतं वा साइजइ || ५८ || जे भिक्खु फलवणियं वाएइ वार्यतं वा साइजइ ॥ ५६ ॥ जे भिक्खू वीवीशियं वाएड वार्यतं वा साइजइ ॥ ५६ ॥ जे भिक्खु हरियवीणियं वाएइ वार्यतं वा साइज ||६० || जे भिक्खू एवं पराणि तहप्पगाराणि वा अणुदिइ सद्दाई उदीरे उदीरंतं वा साइजइ ||६१|| नि० चू० ५३० । मुहा- मुधा - अव्य० । व्यर्थे, “ एमेय मुहा मुहिया " पाइ०
ना० १६६ गाथा ।
मुहिश्र - देशी - पंवमेव करणे, दे० ना० ६ वर्ग १३४ गाथा । मुहिया - मुधिका - अव्य० । व्यर्थे, “पमेय मुद्दा मुहिश्रा
पाइ० ना० १६६ गाथा ।
मुहिया - मुधिका - स्त्री० । श्रवज्ञायाम् जी० ३ प्रति० १ - धि०२ उ० ।
मुहु-मुहुर् अव्य० । वारंवारमित्यर्थे, प्रति० ॥ श्र० । उत्तः । मुहुत्त - मुहूर्त्त - पुं० । र्तस्याधूर्त्तादौ ||८||३०|| इति धूर्त्तादिपfararata car | प्रा० । मीयत इति मुहूर्तः । मुहुरियतीति वा मुहूर्तः । पृषोदरादित्वादिरूपसिद्धिः । कर्म० ५ कर्म० ।
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( ३३५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मुहुत्त
घटिकाद्वयप्रमाणे कालविशेषे, नं० । श्राव० । आ० म० । अहोरात्रस्य त्रिशतमे भागे पिटिकारूपे दर्श०५ तत्व । पञ्चा०। सूत्र० । श्या० म०! 'वे नालिया गुडुलो"ज्यो० २वाह०
।
आ० म० । विशे० । उत्त० । सूत्र० । स्था० । अनु० | तं० | मुहूर्त्तारसप्ततिलवप्रमाणाः । उक्तं च--" लवाणं सत्तहत्तरि एस मुहुत्ते वियाहिए ।" स्था० २ ठा० ४ ३० । “लवाएं सत्तहतरि एस मुहुत्ते वियाहिए " । भ० १ ० १ उ० । “ तिन्नि सहस्सा सत्त य, सयाई तेवतरि च उच्छासा । एस मुहुत्तो भदिनी ॥१॥" जी०३०४० विभिः सहचैः सखि समस्या उच्छासरेको मुहुः सं० | अनु० । शा० भ० | सू० प्र० ।
मेस
गोगमा ! तसं मुहुता पता तंज
ते ! होस्स कइ मुहुचा पाता
मूढ
चन्दने, घ०
मूत्रल्ल - देशी- मूके, दे० ना० ६ वर्ग १३७ गाथा । ज्यवेदय-मूकवन्दन-आलापाननुच्चारयतो २ अधि० । "मुउव्व सद्दरहिओ, जं वंदर मूत्रगं तं तु । श्र लापकाननुच्चारयन् यद् वन्दते तन्मूकमिति । श्राव० ३ ० सूर्य नाम-भूयो त नाचि वि उच्चारयति । श्र० चू० ३ ० | वृ० | प्रब० । नि० चू० । मूक इव हुं हुमित्यव्य
शब्दं कुर्वतित्युत्सर्गे इति मूकदोषः । कायोत्सर्गदोषभेदे, प्रव० ५ द्वार ।
मृहयकित वि० मूकीते, निःशब्दकृते ०१०१० मृगमुह मूकमुख- पुं० । स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे, नं० । । मृगापुरी - मूकापुरी - स्त्री०|स्वनामख्यातायामपरविदेहपुर्य्याम्,
"ततोऽपरविदेहेषु. मूकापुर्या महीपतिः । धनञ्जयस्य धारिएयाः, परन्याः कुक्षौ समीयिवान् ॥१॥ श्रा० क० १ अ० श्र० म० । कल्प० । प्रा० चू० ।
1
"
मूढ - मूढ - त्रि० । मुह्यत्यस्मिन्निति मूढः । नि० ० १ ३० । श्र शानाविटे द्वा० २ ० महामोहं गते, सं० यथावस्थितवस्त्यधिगमशून्यमान से ०२ अधि० स्नेहाहानादिपरतयाबस्थितयत्यधिगमशून्यमानसे, ग०५ अधि० यथार्थोपयोगरहिते, अ० १४ अष्ट० । व्यामोहवति, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । श्रपगतविवेके, श्राचा० १ श्रु० २ श्र०३ उ० । "रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः । एष मूड इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः॥१॥" आचा० १ श्रु० २ श्र० ३ उ० । मोहनीयादानाद्वा (चाचा० १ ० ५० १३०) किं. कर्त्तव्यताले केन कृतेन तद् दुःखमुपशमं यायादिति मोहिते, श्राचा० १ ० ५ ० १३० । प्रशा० । मूढाः तत्त्वश्रद्दधानं प्रति । भ्र० ७ ० ७ उ० । मूर्खे, पञ्चा०८ वि६० मोहाकुलितमानसे, उत्त०८ अ० सदसन्मार्गानभिसे, सूत्र० १० १४ अ० । महामोहमोहितमतौ, श्राचा० १ ० ३ ० १ ३० । अविनिश्चिते, ज्ञा० १ ० १७ अ० । श्रज्ञानामिती सू० १ ० ७ अ० गुणदोषानभि स्था०३
ठा० ४ उ० ।
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।
'रुद्दे सेए मिते, वाऊ सुविए तहेव अभिचंदे | माहिंद बलव बंभे, बहुसच्चे व ईसा 'त अभाविप्पा, वैसम वारुणे विजए अबीससेगे, पायावच्चे उसमे ॥ २ ॥ गंधव्व श्रग्गिवेसे, सयवसहे आयवे य श्रममे अयं भोभे वसहे, सब्बठ्ठे रक्खसे चैव । ३ । " (सूत्र - १५२ ) एकैकस्य मदन्त ! अहोरात्रस्व कति मुहर्त्ताः साः गी तम! विशन्मुः प्रब्रताः, तद्यथा प्रथमो रुद्र, द्वितीयश्श्रेयान् तृतीयो - मित्रः, चतुर्थो वायुः, पञ्चमः- सुपीतः, ष ठः - अभिचन्द्रः सप्तमौ - माहेन्द्रः, श्रष्टमो - बलवान् नमो - ब्रह्मा, दशमो - बहुसत्यः, एकादश- ऐशानः, द्वादशस्त्वष्टा, त्रयोदशो - भावितात्मा चतुर्दशो वैश्रमणः, पञ्चदशो वारुणः, षोडश आनन्द, सप्तदशो विजयः, अष्टादशो-विश्वसेनः एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः विशतितमः उपरा म एकविंशतितमो-गन्धर्वः, द्वाविंशतितमः अश्वेिश्वः, त्रयोविंशतितमः शतवृषभः, चतुर्विंशतितमः पचान्पअविंशतितमः श्रममः पविंशतितमः सवान् सप्तविंश तितमो भीमः, अष्टाविंशतितमोवृषभः, एकोनत्रिशलम:सर्वार्थः, त्रिंशत्तमो - राक्षसः । जं० ७ वक्ष० रा० ॥ श्र० म० । कर्म० | सू० प्र० । स० । ज्यो० । चं० प्र० । ( मुहूर्त लग्नदिवादिवलाचलविचार 'करण' शब्दे तृतीयभागे ३६७ पृष्ठे गतः ) मुहुत्तहियया मुहूर्त्तहृदया स्त्री० 1 क्षणिक रागरक्कायाम्, मुहतनन्तरं प्रायो ऽन्यत्र रागधारकत्वात्, कपिलाब्राह्मणी सक्त दासीवत् । तं । मुहमुरियदेशीररणके, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा मृदुमुह-मधुमुख - त्रि० । खले, "पोरच्छो पिसुणो मच्छरी खलो मुमुह य उप्फालो" पाइ० ना० ७२ गाथा । । वाचाले, “वाउल्लो जंबुल्लो, मुडुलो बमुहुल मुखर- ०ि हुजंपिरो य वायालो" पाइ० ना० ६६ गाथा । मूत्र - मूक- पुं० । अव्यक्तभाषिणि, ध० २ अधि० । श्राचा० । श्राव० ( 'जड' शब्दे चतुर्थभागे जडमूकैडमूकयोर्व्याख्या दर्शिता )
-
मूल- -देशी-मूके, दे० ना० ६ वर्ग १३७ गाथा ।
॥ १ ॥ आणंदे ।
अथ मूढस्याएधा निक्षेपमाहदव्य दिसि खेच- काले, गगणा-सारिक्य-अभिणवे वेदे । युग्गाहणमा, कसाय मते व मूढपदा ।। ३३० ॥ द्रव्यमूढो, दिग्मूढच क्षेत्रमूढः, कालमूढो, गणना मूढः, सादृश्यमृदः, अभिनय, वेदमुदति अधा मूढः । तथा( बुग्गाहे ति ) व्युप्राहेण मूढो व्युग्राहित इति च एकोअर्थः । स च वक्ष्यमाराद्वीपजातपरिसुतादिवत् (अरणाणित ) तत्र कुसाधनं मिथ्याज्ञानं तच्च भारतरामायणादिषु शास्त्रेष्वति तेन यो मूढः सेोऽपि युवाहितो भण्यते । कषाय मूढस्तीव्र कषायवान्, स च कषायडुष्ट सर्पपालादिरशन्त अन्तर्भवति मत्तो नाम यज्ञापेशे न मोहोदयेन या उत्पीभूतः स च अभिनवमूढादी अवत रतीति । एतानि मूढपदानि भवन्तीति द्वारगाथा संक्षेपार्थः । साम्प्रतमेनामेव विवृणोति
धूमादी बाहिस्तो, अन्तो धुतूरगादिया दब्बे । जो दव्यंच जायति, घडिमा बोदोष्य दिडुं वि ।। ३३१ ॥
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अभिधानराजेन्द्रः। इह यो बाधेनाभ्यन्तरेण वा द्रव्येण मोहमुपगतः स] काउं पल्लि नीनो, सो भणति-नाहं सेणाहिवो। चोरा भणति द्रव्यमूढ उच्यते । तत्र बाह्यतो-धूमादिनाऽऽकुलितो यो। पसरणपसाइउ ति पलवद । अन्नया सो नासिउं सगामं गतो। मुह्यति, अन्तरे-अभ्यन्तरे च धतूरकेण मदनकोद्रवौदनेन । ते भणति-कोसि तुम एग पिसाश्रो वा तेरण पडिरवेण वा भुक्नेन यो मुह्यति । अथवा-यः पूर्वदृष्टं द्रव्यं कालान्तरे आगो उभो साभिन्नाणा कहिए पच्छा सो गहिं उभओ दृएमपि न जानाति स द्रव्यमूढो घटिकावोद्रवत् । “ए- | वि सयणा सारिक्खमूढा। गस्स वाणियस्स पादेसियस्स भजा पंडरंगेण समं संप
अथाभिनवमूढमाहलग्गा । पंडरंगेणं भन्नति-श्रणझुयए हियए केरिसी रती
अभिभूतो संमुज्झति, सत्थग्गीवादिसावयादीहि । “विविक्तविषं न रसोहि कामः " तो नस्सामो मा पयासो होहिति ति। अणाहमडयं छोढुं पलीवित्ता नट्ठाणि,
अब्भुदयभणंगरती, वेदंमि पुरा य दिद्रुतो ॥ ३३४ ॥ गंगातई गयाई । सो वणितो अन्नया आगो, घरं दहपा
खगादिना शरण, प्रदीपनके वा अग्निना, वादकाले वादिसित्ता ताणि य अट्ठियाणि संचिउमाढत्तो, भजासिणे
ना, अरण्ये श्वापदस्तेनादिभिश्चाभिभूतो यः संमुह्यति सोहाणुरागेणं एयाणि अट्ठीणि से गंग नेसि त्ति, ताणं प्रणाह
ऽभिनवमूढः । वेदमूढस्तु स उच्यते। योऽभ्युदयेन-अतीव वे
दोदयेन, अनङ्गरतिम्-अनङ्गक्रीडां, करोति । राजदृष्टान्तश्चात्र मडयट्ठियाणि घडियाए छोढुं,गंगं गतो। तीए भजाए य दिट्ठो
भवति । जहा-पाणंदपुरं नगरं, जितारी राया, दीसत्थी न य संजाणति । तीए पुच्छितो, को तुम ? तेण अक्खायं
भारिया । तरस पुत्तो अणंगो नाम बालत्ते अच्छिपावेसियस्स घरं दई, मजा य मे दवा, ततो मए भज्जाणु
रोगेणं गहितमिव रूयंतो अत्थति, अनया जणणी ते णिरागेणं ताणिं अट्टियाणि गहियाणि, गंग नेमि त्ति श्रागतो, गंगाए छडेहिं सुगति जाहिति । एयं पिता से सेयं
गिसिहपाए अह भावेण जाण ऊरू अंतरो छोढुं उबग्गहीतो
दो वि तेसिं गुज्झा परोप्परं समुष्फिडिता तहेव तुरिहकरेमि । तीसे अणुकंपा जाया, तीए भणिय, अहं सा तव
को ठितो लद्धो यो रुवंतं पुणो २ तहेव करेति, ठायति, भजा । न पत्तियत्ति, एयाणि अट्टियाणि किं अलिक्याणि ।
रुयंतो पबट्टमाणो तत्थेव गिद्धो, मातुए वि अणुप्पियं, पिता बहुविहं भतपाणो काहे न पत्तियति । ताहे तीए जं पुब्धि
से मतो, सो रजठितो तहावि तं मायरं परिभुजति । स बि. कीलियं जंपि य भुत्तं एवमादि सव्वं साऽभिन्नाणं संवादियं |
वादीहि वच्चमाणो वि सो ठितो धूवे ति" । ताहे पत्तिजिओ । एस व्वमूढो। अथ दिग्मूढक्षेत्रमूढकालमूढानाह
वक्ष्यमासी चार्थ संगृहीतुमिमा गाथामाहदिसि मूढो पुन्वावर-मम्मति खत्ते तु खेत्तवच्चासं । राया य खतियाए, वणि महिलाए कुला कुटुंबिम्मि । दिवरातिविवच्चासो, काले पिंडारदिÉतो ॥ ३३२॥ । दीवे य पंच सीले, अंधलग-सुवामकारे य॥३३५ । विगमूढो नाम-विपरीत दिशं मन्यते, यथा पूर्वामपराम् ।
राजा-अनन्तरोक्तः, खन्तिकायामनुरफ्नो वेदमूढः, वणिक क्षेत्रमूढः-क्षेत्र न जानाति । क्षेत्रस्य वा विपर्यासं करोति
घटिकावोद्राख्यः स्वमहेलानुरक्तः-स्वमहेलामनुपलक्षयन् , विपरीतमवबुध्यत इत्यर्थः । रात्रौ वा परसंस्तारकमात्मीयं
व्यमूढः, कुटुम्बिनः सेनापतेः महत्तरस्य च कुलानि साहमन्यते एष क्षेत्रमूढः । कालमूढो-दिवसं रात्रि मन्यते । अत्र
श्यमूढे उदाहरणं, (दीवे त्ति) द्वीपाजातः पुरुषः, (एवं सीले पिण्डारदृष्टान्तः-एगो पिंडारगो उज्झामिगा सुत्तो, अनु
त्ति) पञ्च शैलवास्तव्या निझरोभिः व्युदग्राहितः, सुवर्णबहले माहिमहधे पुढंति मदं पाउं दिवसतो सुत्तो, तो उठ्ठि
कारः,(अंधलग त्ति) धूर्तव्युग्राहिता अन्धाः, (सुवरणओ,निद्दावसट्टितो जोण्हं मण्णमाणो दिवा चेव महिसीउ घरे
गारे त्ति) सुवर्णकारब्युग्राहितः पुरुषः । एते चत्वारो ब्युसुच्छोदण उज्झामिगा घरं पट्टितो किमेये ति जणकिलकिलो
ग्राहणामूढा मन्तव्याः । एष संग्रहगाथासमासार्थः। जातो। ती विलक्खीभूश्रोत्ति । एवं दिवा राइ विवच्चासं कुणतो कालमूढो भएणइ ।
साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिगणनामूढं सादृश्यमूढं चाह
बालस्स अच्छिरोगे, सागारियदेविसंफसे तसिणी। ऊणाऽहियममंतो, उट्टारूढो व गणणतो मूढो । उभयवियत्तभिसेगे, रणज्वादि वुत्तो वि मन्तीहि ॥३३६॥ सारिक्खथाणुपुरिसो, कुडुबिसंगामदिर्सेतो ।। ३३३ ॥
छोटुं प्रणाहमरयं, झामित्तुघरं पतिम्मि उ पउत्थो। यो गणयन् म्यूनमधिकं वा मन्यते स उष्ट्रारुढ इव
धुत्तहरणुज्झपति, अद्विगंगकहिते च सद्दहणा ॥३३७॥ गणनामूढो भक्यते । एगो पालो उट्टाउ एगवीसं रक्खइ। अन्नया उडीए चाबो मषितो जत्थ भारुढो तन्न गणेइ ।
सेणावतिस्स सरिसो, वणितो गामेल्लतो णियो पल्लिं । सेसा पीस गणेशपुणे विनवीसं । नथि मे एगो उद्देत्ति णाहंति रणपिसायई, घरे वि दिड्वोत्ति गच्छति।।३३८॥ मरखे पुग्दर, तिमलितो जत्थानढो एस ते इगवीसरमेण ।। इदं गाथात्रयं गताथम् । नवरम् ( उभयवियत्तभिसेग त्ति) सारश्योपचा-स्वार्थ, पुरुष मम्पते । अत्र च कुटुम्बिनो | उभयोरपि-देवी-कुमारयोः, प्रीतिकरं तद्विषयासेवनं राज्यामहत्सरसेनापती तयोः संग्रामे रटान्तः एगो गामचोर- | भिषेकेऽपि संजाते तामसौ न मुञ्चति । द्वितीयगाथायां सेणावाणा चोरेविसबागल रसीए हतो, तत्थ य गामे (धुय हरणुज्झए ति) धूर्तेन तस्या वणिकभार्याया हरणं, तजो महत्तरो सो तत्थ बोरो सेलावइस्स सरिसो। तो। स्या अपि पतिम् उज्झित्वा गङ्गातटे गमनं, तृतीयगाथायां संगामे उपट्टिए बोरसेणावई मारितो गामिलापहि महियग- (णाहंति इत्यादि ) महत्तरेण नाहं सेनापतिरित्यक्तः चौरति मन्त्रमाणेहिं दट्ठो चोरोहिय गामसहयरो घेखावर ति चिम्लयति । एष रणपिशाचकी तेनैवं वक्ति गृहेऽपि गतं तं
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मूढ
महत्तरं ते प्रामेयका दग्ध इति कृत्वा मेच्छन्ति संगृहीतुम् । व्याख्यातो : मूढः । वृ० ४ उ० । नि० चू० ।
दुविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा -- गाणमूढा चेव, दंसण मूढा चैव । स्था० २ ठा० ४ उ० । ( व्याख्या स्वस्वशब्दे ) तिविहा मूढा पहाता, संजहा- नागमूढा दंसणमूढा चरितमूढा । स्था० ३ ठा० ३ उ० । मूदिट्ठि मूढरष्टि वि० व्यामोहे, परतीर्थिनां राजादिकृतां पूजां मन्त्राद्यतिशयान या दा तदागमान् वा श्रुत्वा देशतः स्वोको मतिव्यामोदः । जीत० ।
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मूट (ल) नइय-मूढ (ल) नयिक न० मुढा अविभागस्था नया यस्मिंस्तन्मूढनयं, तदेव मूढनयिकम् । प्राकृतत्वात् स्वार्थे इकप्रत्ययः । श्रथवा-मूलाश्च ते नयाश्च मूलनयास्तेऽस्मिन् विद्यन्ते इति मूलनयिकम् । श्रतोऽनेकस्वरात् ॥ ७ । २ । ६ ॥ इतीकप्रत्ययः । श्रविभक्तनये कालिकश्रुते, श्रा० म० १ ० ॥ श्र० चू० । नि० चू० । मृददिसाभाग मृददिग्भाग पुं० । मूढोऽनिश्चितो दिशां भा गो यस्य सः । विस्मृतदिग्भागे, ज्ञा० १ ० १७ श्र० । मूढभाव - मूढभाव- पुं०। मूढतायाम्, कर्त्तव्याकर्त्तव्याशतायाम्, श्राचा० १ श्रु० २ ० १ उ० । मूढत्वे किंकर्त्तव्यताsभावे, श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । मूढमइय- मूढमतिक- पुं० । कुबोधाच्छादितधिषणे, जी० १
प्रति० । मूढलक्ख-मूढलक्ष-पुं० । समस्तशेयविपरीतवेदने, श्र० म० १ श्र० ।
श्रा
मृदसम्म मूटसंज्ञ पुं० विगतचेतने, असावधानमनसि - तु० । मूढा मूर्हिछता, संज्ञा-ज्ञानं, यस्य स मूढसंज्ञः । अस्प टाने, अपूर्णशाने, श्रातु० ।
- मौनभाव - पुं० । तूष्णींभावे, "सो य मूणभावेण श्र मृणभावत्थइ । " श्र० म० १ श्र० । मूचूण- मुक्त्वा - अव्य० । स्फेटयित्वेत्यर्थे, व्य० ६ उ० । मूया - मूका - स्त्री० | महाविदेहे स्वनामख्यातायां राजधान्याम् यत्र पूर्वभवे वीरजिनः प्रियमित्रनामा चक्रवर्त्यभूत् । कल्प० १ अधि० २ क्षण । श्र० चू० ।
पूर मजा मर्दने, भजे वेमय मुसुमूर-मूर सूर-सूडविर - पविरञ्ज - करञ्ज-नीरञ्जः ॥ ८ ।४ । १०६ ॥ इति भ जेर्मूरादेशः । मूरइ । भज्जइ । भनक्ति । प्रा० ४ पाद । मूरण-भजन- न० | मर्दने, श्रा० म० १ श्र० । मूल-मूलन० निबन्धने प्रश्न० ३ ० द्वार आधकारणे, श्राचा० १ श्रु० २ ० १ ३० । मूलमादिरित्यनर्थान्तरम् । श्र० चू० १ श्र० । " मरणस्य मूलं दुक्खं उत्त० ३२ श्र० । पिथो मरने संखितो " सू० प्र०१० पाहु० । मूले बर्फ दब्बे ओदर उचएस आइमूलं च । खिने फाले मूलं, मावे मूलं भवे तिहिं ।। १७३ ॥
५
( ३३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
99
1
मूलस्य पोदा निक्षेप:-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावमेदात् । नामस्थापने गतार्थे । द्रव्यमूलम् - शशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं त्रिधा श्रदयिकमूलम्, उपदेशमूलम्. आदिमूल खेति । तत्रादयिकद्रव्यमूलम् वृचादीनां मूलत्वेन परिणतानि यानि द्रव्याणि । उपदेशमूलम् - यश्चिकित्सको रोगप्रतिघातसमर्थ मूलमुपदिशत्यातुरायेति, तच्च पिप्पलीमूलादिकम् ! श्राविमूलं नाम- यद् वृक्षादिमूलोत्पत्तावाचं कारणम् । तद्यत् स्थाचरनामगोषप्रकृतिप्रत्ययात्- मूलनिवर्त्तनोसर प्रकृतिप्रत्ययाच्च मूल मुत्पद्यते, तदुकं भवति तेषामीदारिकशरीरत्वेन मूलनिवर्तकानां पुङ्गलानामुदयिष्यतां कामै शरीरमार्थ कारणं, क्षेत्रमूलं यस्मिन् क्षेत्रमूलमुत्पद्यते व्याख्यायते था। एवं कालमूलमपि, यावन्तं वा कालं मूलमास्ते, भावमूलं तु त्रिधा । इति गाथार्थः ।
तथा हि
ओदयं उपदिट्ठा, आइतिगं मूलभावओोदह । आरिओ उवदिट्ठा, विषयकसावादियो आइ। १ ७४ ॥ भामूलं त्रिविधम् श्रधिकभावमूलम् उपदेष्टुमूलम्, आदिमूलं चेति । तत्रयिकभावमूलं वनस्पतिकायमूलत्वमभवन्नामगोत्रकम्मोदयात् मूलजीय एय उपदेष्टुभावसूल श्वाचार्य उपदेष्टा, यैः कर्मभिः प्राणिनो मुखत्वेनोत्पद्यन्ते, तेषामपि मोक्षसंसारयोर्वा यदादिभावलं तस्य चोपदे तदेव दर्शयति-(विरायकसाइयो आई ) तत्र मोक्षस्यादिमूलं ज्ञानदर्शनचारित्रतपश्रीपचारिकरूपः पञ्चधा विनयः, तन्मूलत्वान्मोक्षाचातेः । तथा चाह
मूल
66
3
'विण्या हा णाणाउ, दंसणं दंससाहि चरणं तु । चरणाहिंतो मोक्सो, मुफ्खे सुक्खं अणावाहं ॥ १॥" " विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषा फलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरति - विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥ २ ॥ संघरफलं तपोयल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम्। तस्मात्क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृरयोगित्वम् ॥ ३ ॥ योगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ४ ॥ " इत्यादि, संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषाया इति । आचा० १ श्रु० २ ० १ उ० । घातिकर्मचतुष्टये मोहनीयकर्मणि, मिध्यात्वे च । " अगं च मूलं च विगिं च धीरे, पलिच्छिदियाणं णिक्कम्मदंसी आचा० १ श्रु० ३ ० २ उ० । (अणशब्दे प्रथमभागे १६४ पृष्ठे व्याख्यातमिदं ' सूत्रम् ) सहदेयमूलिकाकल्पादितसच्छास्त्रविदिते मूलकमणि, उत्त० १५ श्र० । मूलिकाराजहंसीशङ्खपुष्पाशरपुङ्खादिगुणसूचके शास्त्रे, उत्त० १५ श्र० । वृक्षजटायाम्, स्था० १० ठा० ३ उ । मूलानि सुप्रसिद्धानि यानि स्कन्धस्याधः प्रसरन्ति । रा० । उशीरपुनर्नवाविदारिकादिरूपे, दश० ५ ० १ उ० | वनस्पतिभेदे, स्था० ८ ठा० ३ उ० । fauro | श्राचा० । पृथिवीकायादिजीवे, वृ० १ उ० । स० । नक्षत्रभेदे, स्था० २ ठा० ३ उ० । मूलस्य निर्ऋतिर्देवता । ज्यो० ६ पाहु० चं० प्र० । सू० प्र० । ॐ० ।
35
मूले नक्खते एकारसतारे । स० ११ सम० । प्रतिस्ठा १० महावतारोपणे, भ०
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मुलकम्म
( ३३८) मूल
अभिधानराजेन्द्रः। २५ श०७ उ०। महावताना मूलत आरोपणे, पञ्चा०१६ कचिद् ग्रामे कोऽपि गृहपतिः, तस्य पुत्रिका वयःप्राप्ता, विव० । ग०। जाध०। (मूलाहप्रायश्चित्तं 'मूलारिह' शब्दे ततः कोऽपि साधुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् दृष्टा तन्मातरमेवव्याख्यास्यामि) समीपे, श्रा० म०१०। "निसनं तरु-| मभिदधाति, तव दुहिता वयःप्राप्ता-यौवनं प्राप्ता, तद्यमुलम्मि, सुकुमालं सुहोचियं ।" उत्त०२० अ०।
दि सम्प्रति न परिणी (णाय्यते ) यते, तर्हि केनापि तरुणेमलकम्म-मलकर्मन-न । मलं दशप्रायश्चित्तानां मध्येऽष्ट न सहाकार्य समाचर्य कुलमालिन्यमुत्पादयिष्यति । तथामें तत्प्राप्तिनिबन्धनं कर्म गर्भधातनाद्यपि मुलकम्मे । मूलानां (धम्मो ति) लोके एवं श्रुतिः-यदि कुमारी ऋतुमती भवा बनस्पत्यवयवानां कौषध्याधर्थ छेदनादिक्रिया मूलक- वेत् तर्हि यावन्तस्तस्या रुधिरविन्दवो निपतन्ति तावतो म। षोडश उत्पादनादोषे, ग०१ अधि० । ध० । प्रश्न। पं० वारान् तन्माता नरकं याति । तथा क्वचिद् प्रामे कस्यापि चू० प्रथा पश्चा० । यदापुत्रादिजन्मदूषणनिवारणार्थ मघा- कुटुम्बिनः पुत्रं यौवनिकामधिगतमवलोक्य साधुस्तन्माज्येष्ठाश्लेषामूलादिनक्षत्रशान्त्यर्थ मूलैः स्नानमुपदिश्याहारा- तरमेवं ब्रूते । यथा-कुलस्य गोत्रस्य कीतैश्च सन्तानो निदिकं गृह्णाति तदा षोडशो मूलकर्मदोषः । उत्त० २४ अ०।
बन्धनमेष तव पुत्रो यौवनं च प्राप्तः, ततः किं न सम्पति सम्प्रति 'मूल'त्ति व्याचिख्यासुराह
परिणाय्यते?, अपि च-परिणीतः सन् कलत्रस्नेहेन स्थिरो
भवति, अपरिणीतश्च कयाऽपि स्वच्छन्दचारिण्या सहोत्थाय अधिई पुच्छा आस-न विवाहे भिन्नकन्नसाहणया।
गच्छेत् , पश्चादपि चैष परिणाययितव्यः तत्सम्प्रत्यपि कआयमणपियणोसह-अक्खयनजीवअहिगरणं ।५०६।
स्मान्न परिणाय्यते ? इति । जंघापरिजियसड्डी, अद्धिइाणिजए मम सवत्ती। सम्प्रति " दो दंडिणीश्रो श्रायाणपरिसाडे " इत्यवयवं जोगो जोणुग्घाडण-पडिसेहपोसउड्डाहो ॥ ५०७ ।। । व्याचिख्यासुराहक्वचित्पुरे धननाम्नः श्रेष्ठिनो भाया धनप्रिया , तस्य दु- किं अद्धि इत्ति पुच्छा,सवित्तिणी गम्भिणित्ति मे देवी । हिता सुन्दरी, सा च भिन्नयोनिका , परमेनमर्थ माता जा. गब्भाहाणं तुज्झवि, करोमि मा अद्धिई कुणसु ॥५१०॥ नाति , न पिता । सा च पित्रा तत्रैव पुरे कस्यापीश्वरपुत्र- जह विसुत्रो मे होही,तह वि कणिट्ठो त्ति(इ)यरो जुवराया। स्य परिणयनाय दत्ता. समागतः प्रत्यासन्नो विवाहो, मातु:
देइ परिसाडणं से, नाए य पोसपत्थारो ॥ ५११ ।। श्चिन्ता बभूव । एषा परिणीता सती यदि भर्ना भिन्नयो
संयुगं नाम नगरं, तत्र सिन्धुराजो नाम राजा , तस्य निका शास्यते,ततस्तेनोज्झिता वराकी दुःखमनुभविष्यति ।
सकलान्तःपुरप्रधाने द्वे पत्न्यौ, तद्यथा-शृङ्गारमतिः, जअत्रान्तरे च समागतः कोऽपि संयतो भिक्षार्थ , तेन
यसुन्दरी च । तत्रान्यदा बभूव शृङ्गारमतेर्गर्भाधानम्, इतरा सा पृष्टा , तया कथितः सर्वोऽपि वृत्तान्तः । ततः साधुनो कम्-मा भैषाः, अहमभिन्नयोनिकां करिष्यामि । तत श्राच.
च जयसुन्दरी नूनमस्याः पुत्रो भविष्यतीति विचिन्त्य मामनौषधं पानौषधं च तस्यै प्रदत्तं, जाता अभिन्नयोनिका।
त्सर्यवशादधृतिं कुर्वत्यवतिष्ठते, अत्रान्तरे च समागतः तथा-चन्द्राननायां पुरि धनदत्तः सार्थवाहस्तस्य भार्या च
कोऽपि साधुः, तेन सा पपृच्छे-किं भद्रे ! त्वमधृतिमती -
श्यसे ?, ततः सा तस्मै सपत्न्या व्यतिकरमचकथत् , न्द्रमुखा, तयोश्चान्यदा परस्परं कलहः प्रवृत्तः । ततोऽभिनिवेशेन तन्नगरवास्तव्यस्यैव कस्यापीश्वरस्य दुहिता धन
साधुरयव्रवीत्-मा कार्षीरधृति, तवापि गर्भाधानमहं दसेन परिणयनार्थ वृता, ज्ञातश्चायं वृत्तान्तश्चन्द्रमुखया ,
करिष्ये, ततस्तयोक्नं भगवन् ! यद्यपि युष्मत्प्रसादेन मे पुत्रो
भावी, तथापि स कनिष्ठत्वेन यौवराज्यं न प्राप्स्यति, किंतु ततो बभूव महती तस्या अधृतिः, अत्रान्तरे च जङ्घापरिजितनामा साधुरागतो भिक्षार्थ, दृा तेनाधृति कुर्वती
सपत्न्या एव सुतः, तस्य ज्येष्ठत्वात् । ततः साधुना तस्या
भेषजमेकं गर्भाधानाय दत्तम् , अपरं तु दापितं सपत्न्या चन्द्रमुखा, ततः पृणा-किं भद्रे ! त्वमधृतिमती दृश्यसे ? , ततः कथितस्तया सपत्नीव्यतिकरः, ततः साधुना सम
गर्भशातनायेति । सूत्रं सुगमम् । नयरमेतन कर्त्तव्यं, यतो र्पितं तस्या औषधं , भणिता च सा कथमपि तस्या भ
गर्भशातने साधुकृते ज्ञाते सति प्रद्वेषो भवति, ततः शरीरनस्य पानस्य मध्ये देयं येन सा भिन्नयोनिका भवति ,
स्यापि प्रस्तार:-विनाशः । ततः स्वमर्ने निवेदयेः , येन सा न परिणीयते , तथैव कृतं,
सम्प्रति सर्वस्मिन्नपि मूलकम्मणि दोषान्न परिणीता सा भāति । सूत्रं सुगमम् । नवरम्-' जज्जी
प्रदर्शयतिवम् ' इति यावजीवमाधिकरण-मैथुनप्रवृत्तिः , 'पडिसेहि'
संखडिकरणे काया, कामपवित्तं च कुणइ एगत्थ । इति साऽभिनवा परिणेतुमारब्धा भिन्नयोनिकेति शात्वा
एगत्थुड्डाहाई, जजियभोगंतरायं च ।। ५१२ ॥ प्रतिषिद्धा । अयं चेदर्थस्तया ज्ञातो भवेत् , तर्हि तस्याः
संखडिकरणे-मा ते फं(भ)सेज कुलं, तथा-'किं न ठविजई' साधु प्रति महान् प्रद्वेषो भवेत् , प्रवचनस्योडाहः । इत्यादि गाथाद्धयोक्ने वीवाहकरणे 'कायाः' पृथिव्यादयो सम्पति 'विवाहे' इति पदं व्याख्यानयनाह
विराध्यन्ते , एकत्र पुनरक्षतयोनिकत्वकरणे गर्भाधाने च मा ते फंसेज्ज कुलं, अदिज्जमाणा सुया वयं पत्ता।
कामप्रवृत्ति करोति , गर्भाधानाद्धि पुत्रोत्पत्तौ प्राय इष्टा धम्मो य लोहियस्स, जइ बिंद तत्तिया नरया ॥५०८॥
भवति, ततः काम्या जायते, इति मैथुनसंततिः। एकत्र पुनः किंन ठविजइ पुत्तो, पत्तो कुलगोत्तकित्तिसंताणो।
गर्भपातने उड्डाहादि-प्रवचनमालिन्याऽऽत्मविनाशादि, एकत्र
पुनः-क्षतयोनिकत्वकरणे यावजीवं भोगान्तरायः, चशम्दापच्छा विय तं कजं, असंगहो मा य नासिजा॥५०६॥ दुवाहादिच,तदेवमभिहितं मूलकर्म । पिंजी० । आचा
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मूलकरण अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुण मूलकरण-मूलकरण-न०। मूलगुणेषु सप्तप्रकारायां शोधौ,
मूलगुणातिचारे प्रायश्चिसम्वृ० १ उ० । पश्चानां शरीराणां पर्याप्तौ, सूत्र. १ श्रु०१ अ०
एगिदियाण घट्टण-मगाढ-गाढ-परियावणुद्दवणे । १ उ० । मूलकरणं घटादिकं येनोपस्करण--दण्डचक्रादिना
निव्वीयं पुरिमऽद्धे-गासणमायामगं कमसो ॥ ३१ ॥ अभिव्यज्यते-स्वरूपतः प्रकाश्यते तदुत्तरकरणं, कर्तुरुपका
एकेन्द्रियाणां-पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीना, मनाक् रकः सर्वोऽप्युपस्कारार्थ इत्यर्थः ॥५॥
स्पर्शनं-संघट्टनम् , अत्राह-ननु पृथिव्यादीनां चतुर्णा घटते पुनरपि प्रपञ्चतो मूलोत्तरकरणे प्रतिपादयितुमाह--
संघट्टनम्, अप्कायस्य तुकथं संघट्टनं सम्भवति?, तस्य द्रव्यमलकरणं सरीराणि, पंच तिसु करणखंधमादीयं ।
रूपत्वेन स्पर्शमात्रेऽपि विना सम्भवात् । उच्यते-घटादिस्थ
स्याकायस्यापि मनाकरचरणादिना चालने संघट्टः सम्भवदबिदियाणि परिणा--मियाणि विसोसहादीहि ॥६॥
ति । परितापनं द्विविधा-श्रागाढं, गाढं वा । तत्र संमदैनं च मूलकरणम्-औदारिकादीनि शरीराणि पञ्च तत्र चौदारिक जनाद्यैर्वहुतरपीडोत्पादनं गाढं, बहुतमपीडोत्पादनं चाssवैक्रियाहारकेषु त्रिपुत्तरकरण कर्णस्कन्धादिकं विद्यते, त. गाढम् । उपद्रवर्ण-सर्वथा जीवावनाशनं, तच्च-पृथिव्यथाहि-"सीसमुरोयरपिट्टी दो वाह ऊरुया य अटुंग " ति। म्योरत्यन्तसमर्दनायैः, अप्कायस्य तु वह्नितापनदण्डाद्यभिप्रयाणामप्येन्निष्पत्तिमूलकरणं, करणस्कन्धाद्यङ्गोपाङ्गनि-1 घातनं पानपादादिक्षालना, वनस्पतेः पत्रपुष्पाकुरादित्रोप्पत्तिस्तू तरकरणम्, कार्मणतैजसयोस्तु स्वरूपनिष्पत्तिरेव टनादिः, ततश्चैषां पञ्चानामपि प्रत्येक संघट्टने-निर्विकृतिक मूलकरणम् ,अङ्गोपाङ्गाभावाप्नोत्तरकरणम् ,यदिवा-श्रीदारि- म् , श्रागाढे परितापने-पुरिमार्द्धः, गाढपरितापने-एकाकस्य कर्णवेधादिकमुत्तरकरण, वैक्रियस्य तूत्तरकरणम्--उ
शनम् , उपद्रवणे-चाचामाम्ल इति । त्तरक्रियं, दन्तकेशादिनिष्पादनरूपं वा, आहारकस्य तु ग
पुरिमाईखमणंतं, अणंतविगलिंदियाण पत्तेयं । मनाद्युत्तरकरणं यदिवा-औदारिकस्य मुलोत्तरकरणे गाथा- पंचिदियंमि एगा सणाइँ कल्लाणगमहेगं ।। ३२॥ पश्चार्द्धन प्रकारान्तरण दर्शयति-द्रव्येन्द्रियाणि,-कलम्बुका- अथानन्तवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येक संघटनागापुष्पाद्याकृतीनि मूलकरणः तेषामेव परिणामिनां विपौषधा- ढपरितापोपद्रवणेषु यथासंख्यं पुरिमार्दादिक्षपणान्तं तपः प दिभिः पाटवाद्यापादनमुत्तरकरणमिति ॥ ६॥ सूत्र०१ श्रु०१ चन्द्रियसंघट्टस्तदहर्जातमूपकगृहकोलिकादिविषयो द्रष्टव्यः। अ०१ उ०।
तत्रैकाशनम् । श्रागाढपरितापे-श्राचामाम्लम् ,गाढपरितापेमूलग--मूलक-पुं० । मूली इति ख्याते कन्दविशेष, स्था०७ चतुर्थ, प्रमादवशाच्चोपद्रवे-एककल्याणं, तभेदम्-निपुणएठा० । प्रब०। प्रशा० । स०। ध० श्राचा०। जी०। भ०। श्राओ" अधिकपदमधिकमक्षरं चाधिकार्थसंसूचकं भवमूलगपत्त-मूलकपत्र-न० । श्राद्ये परिपक्वप्राये पर्णे, कन्दविशे- तीस्यत्रार्थशब्दादधिकादनेकद्वीन्द्रियाद्युपधातप्रायश्चित्तमनुषस्य निस्सारपत्रे, ०१ उ०।
क्रमप्येतद्विज्ञेयम्, यथा-"एगाइदसंतेसु, एगाइदसतयं सप
च्छित्तं। तेण पर दसम चिय,बहुपसु वि सगलविगलेसु ॥१॥" मूलगवच्च-मूलकवर्चस्-न०। यत्र मूलकं शटितं पतितं त
क्वाऽप्यागमोघनदृष्टासामाचारीषु दृश्यते बहुषु युक्तिव विस्मिन् , अाचा०२ श्रु०२चू० ३ ०।
भाति पुनलिखिता गाथा, ततोऽत्रैषा एकादिषु दशान्तेषु, मूलगुण-मूलगूण-पुं० । मूलानीव चारित्रकल्पद्रमस्य मूला
द्वीन्द्रियादिपूपहतेषु एकादिदशान्ते स्वप्रायश्चित्तं भवति, यन्युसरे च तस्य शाखाद्यवयववद् ये गुणास्ते मूलगुणाः । प- द्यस्य द्वीन्द्रियादेरुपधाते अल जीतकल्पप्रायश्चित्तं भञ्चा०५ विव० । प्राणातिपातादिविरमणेषु, श्राव०५०।। णितमस्ति तत्तस्य स्वप्रायश्चित्तमुच्यते, तदेकस्य द्वीन्द्रिपश्चाणुव्रतानि मुलगुणा उच्यन्ते । श्रावकं धर्मतरोर्मूलकल्प
यादेरुपघाते एकं स्वप्रायश्चित्तं भरिणतमस्ति । द्वयोंढे, प्रयात्वात् । ध०र०२ अधिक। श्राव० । महावताणुव्रतेषु, सूत्र०२|
णां त्रीणि, यावद् दशानामुपधाते दश। तेनेति पञ्चम्यर्थे कृता श्रु०६०। विशे०। श्राव० । अनु०। पं०व० ग०। स०।। तृतीया । ततः परमेकादशादिषु बहुष्वपि यावदसंख्येयेष्यपि औ० । श्रातु० । पञ्चा।
सकलविकलेषु पञ्चेन्द्रियविकलेखूपहतेषु दशकमेव, दशैव स्वपाणातिपातविरमण-मादी णिसिभत्तविरहपज्जंता। | प्रायश्चित्तानि दातव्यानि भवन्तीत्यर्थः। समणाणं मूलगुणा, तिविहं तिविहेण णायचा ॥३०॥
इदानी द्वितीयतृतीयपञ्चमवतातिचारप्रायश्चित्तमाहप्राणातिपाविरमणादयों वधविरत्याद्याः, निशाभक्तविर
मोसाइसु मिहुणव-जिएसु दबाइवत्थुभिन्नेसु । तिपर्यन्ताः-रात्रिभोजननिवृत्त्यन्ताः,श्रमणानां-यतीनां मूलगु.
हीणे मझुक्कोसे, यासणमायामखमणाई ।। ३३ ॥ णा धर्मलक्षणकल्पवृक्षमूलकल्पा नियमाः, त्रिविधं करणका
मृषावादाऽदत्तादानपरिग्रहाश्चतुर्विधा द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कारगानुमतिरूपं वधादिक. त्रिविधेन-मनोवाकायलक्षणकरण
लतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो मृषायादो-धर्मास्तिकायान,प्रत्याख्यामीति प्रतिशया,सातव्या-शेया, इति ॥३०॥ पञ्चा०
दिसबद्रव्यविषयः, अदत्तादानं ग्रामनगराश्रयः, कालत१५ विव० । नं०।
स्त्रयो-दिवा बा, रात्रौ या । भावतस्त्रयोऽपि-रागेण वा द्वेषे. मूलगुणा-पंच महव्यवाणि राईभोयणछट्ठाई । महा० ३
ण वा । ततश्चतुर्विधेष्वपि मृषावादादत्तादानपरिग्रहेषु विष
येषु हीने-जघन्येऽतिचारे-सत्येकाशन, मध्ये-मध्यमे ऽतिचारे अ० । उत्तरगुणाणं पि भंगं नेढे, किं पुण मूलगुणाणं ।।
श्राचामाम्लभ , उत्कृष्ट क्षपणं, मैथुनाभिचारप्रायश्चित्तं च महा० ४ अ०॥
मुलपास्यायो भणिष्यते। जीता।
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मूलगुणद्वारा
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मूलगुणड्डाण मूलगुणस्थान-१०। प्राणातिपातादिनिवृत्ति रूपे संयतैरारूढे स्थाने, श्राचा० १ श्रु० २ श्र० १ उ० । मूलगुणपच्चक्खाण -- मूलगुणप्रत्याख्यान - न० । प्रत्याख्यानगुणभेदे, आ० क० ४ ० ( ' पच्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागे पृष्ठे उदाहरणम् ) मूलगुरूपडियाय- मूलगुणप्रतिपात पु० लच्छेये, "मूलच्छेज्जं ति वा मूलगुणपडिवाड त्ति वा एगट्ठा " श्र० चू० १ ० । मूलगुणपडिसेवना - मूलगुणप्रतिसेवना - स्त्री०। प्राणातिपाता दिप्रति सेवनायाम्, मूलगुणाः- श्राद्यगुणाः, प्रधानगुणा इत्यथः, तेसु पडिसेपणा जा सा हट्टाला भवति स डाले भवति नि भणियं होति, ताणि य इमाणि पाणादिवाश्र १, मुसावाच २, दत्तादा ३ मे ४ परि ५, रातिभोयं च ६ । नि० चू० ।
( ३४० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
तत्थ जा सा मूलगुणपडि सेवा साइमामूलगुले खड्डाणा, पढने ठाणम्मि णवविधो भेदो । सेसेसुकोसमज्झिम- जम्पदव्वादिया चउहा ॥ ६ ॥ ब्यास्या - मूलगुला आद्यगुणाः, प्रधानगुणा इत्यर्थः । तेसु पडिसेबला आसापाला भवति वसु ठाणेषु भवति निभलिये होति तानि यमादि-पासादिवाओं, मुसावा, अ दत्तादाणं, मेहुणं, परिग्गहो, रातीगोयणं च । एत्थ पढमं ठां-पाणातिवातो तत्थ रावविहो भेश्रो, सो य इमो-पुढविक्काओ, आउक्काओ, तेऊ-वाऊ-वणस्सइ - वेइंदिय-ते इंदि
1
- चउरिदिय-पंचिदिया। 'सेसेसु त्ति' मुसावाश्रो० जाव रा. तीभोपण। पर्सि एवं तिविदंति व हमे विभेदा उफो सो, मज्झिमो, जहरणों। 'दव्वादिया चउह त्ति'- उक्कोसमुसा वाश्रो चउव्विहो- दव्वश्रो, खेत्तश्रो, कालो, भावश्रो । मरिमो वि चउब्विहोदयादि । एवं जहर पि बडव्विहोण्याति एवं अदत्तादागमवि वालसभेदं । मेहुणं पि । परिग्गहो वि। रातीभोजं पि दुवालसभेदं । उको पुरा दव्वं एवं भवति - बहुत्ततो, सारतो वा, मुल्लो या एवं चितिथि मेदा जसेवि तिति मदा कोदाला-कोसो मुसावातो, ममिभिम जसे- जो दादाशादिसु वि जोय ओ ने अधि-ममिमं वा कालोजत्य काले अधितं ममं जहर वा भावओो विवरणादिगुणेहिं - उक्कोसं मज्झिमं जहरणं वा । एवं बुद्धीप लोपउं जोया कायया अहवा सेसेसको समझिमजहरण सि'जेरा साया अभिडियण पारंचियं भवति एस उ कोसो मुसावाओ जरा इस रारंदिवाति जाव अणय एस मज्झिमो । जेण पंच राइंद्रियाणि एस जहराणो । एवं अदत्तादावि० जाय रातीय विवादस्वादिया चहति। (नि००) ब्रहचा एवं पदं एवं पढिजति दप्यादिया चउहा जे ते मूलगुणे बट्टाणा पर दप्पादि चउहा पडिसेवणाए पडिसेवेति ।
सा य इमा दप्पे कप्पे दारगाहादप्पे कप्प पमाद--उपमनऽणाभोग- इम्बतो परिमा ।
मूलगुणपडि ० पडिलोमपरूवणता, अत्येयं होति अणुलोमा ॥ ६० ॥ दप्पपडि सेवा, कप्पपडिसेवा, पमायपडिसेवा, श्रपमायपडि सेवा । जा सा पमन्तपडिसेवा, सा दुविहा- अणा भोगा, यहव्य य परिमा साम अप्पमत्तपडिसेवा, एताि कमो वगणरथा अप्पमत्तादिपडिलोमपरूचला कायच्या, अत्थे पुरा एसा चैव अनुलोमपरूवण्या एस अक्सरस्थो । इदाणि वित्थरो भएराति -चोदकाह-जति पाणातिवायादिछट्ठाणस्स दव्वादिचउहा पडिसेवा कता, तो जा पुयं भणिया 'दप्ये सकारमिव दुविहा, '
डए । जइ दुहा चउहा ग घडए, श्रह चउहा तो दुहा ग घडए । एवं पुव्वावर विरोहो । पन्नवगाह-नो-न घडए ?, घटत एव, कथम् ? उच्चते
एसेव चतुह पडिसे - वणा तु संखवतो भवे दुविधा । दप्पा तु जो पमादो, एगत पुहच - अप्पम तस्स ॥ ६१ ॥ सेवा पुण्यभगिता चउहा- चउरो भैया, दप्पादिया, तु पूरणे। संखेवो-समासो, न वित्थारो नि भणिय भवेज दुहा दुभेया कहे, इप्याओ को जो पमाओ-सो दप्पो तम्हा एगन्ता-एगा, दप्पा पडिसेवणा। कप्पा पुरा अप्पमत्तस्स अप्पमातो कप्पो भएपति, तम्हा पगत्ता एगा कप्पिया पडिलेवणा । एवं दो भरांति । श्रहवा-कारणकजमवेक्खतो गतं पुहतं वा भवति । पमाया दप्पा भवति, अप्पमाया क प्पा भवति । जहा तंतुओ पहोतं कारणं, पडो क ज म्हा कारणंतरमावरा तय एव पडो लम्हा तंतुपा एग जम्हा पुण तंतू िपटो कजति तदा अरुणनं, एवं पमाददप्पाणं एत्तं, पुहत्तं वा । श्रप्पमायकप्पा वि एगतं पुह था जो एवं तदा दुबिहा पडिसेपणा चउबिहा वाण एत्थ दोसो |
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या सीखो पुच्छति कई पमादप्पो, अन्यमाओ वा कप्पो ?, गुरू भरणति सुरासु जहा भवति
सो विमो, आयजति तध वि सो भवे वधभो । जह अप्पमादसहिओ, आवस्मो वी अवहओ उ ॥६२॥ श्रतिवातलक्खणो दप्पो, अनुपयोगलक्खणी प्रमादः, गाणातिकारणावेक्स प्रकल्प सेवाको उपयोगपुण्यकरकि यालक्षणो श्रप्रमादः, एवं सरुवट्टितेसु गाहत्थो श्रपयारिजति इति से, सम्य इति अपरि सेसे. पती- पमायभावे तो जति। पाणतिवार्य जति वि व सो पमादभाये व प्रमाणो पाणातिषार्थ साविति तदा यि सो विमा भ वे वहश्र । सीसो पुच्छति - पालाइवायं श्रणावरणो कहं वहश्रो ? गुरुराह - पत्थ वि श्ररणो दितो कजति, जह माजा जेण पगारे अप्पमायसहिओ अन्यमाययुक्रेत्यर्थः ''पाणातिवा 'अवगो' भ वति, भणियं च - "उच्चालियम पादे० " गाहा । 66 रण य तस्स तरिणमितो०" गाहा। जहा एस सति पाणातिवाए अप्पमतो अपो भवति एवं असति पाणातिवार पम तो वहगो भवति, अश्रो एवं तम्हा चउहा पडि सेवणा दुबिहा भवति दविया कणिया य दप्पप्पा कमो वरणत्थां । पुव्वं कप्पियवक्खाणं भणामि । चोदगाद१- इग्बो - सहसाकारेण |
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मूलगुणपडिο
ततियपारण पडिलोमपरूवणता कहं दपिकायाः पूर्व निपातनं कृत्वा, कल्पकाया व्याख्या कई पूर्वम् उच्यते ? अत्रोच्यते-अत्थे होइ अणुलोमा - श्रर्थ प्रतीत्य कल्पिका एव पूर्व भवतीत्यर्थः । कहमत्थें होति अगुलोमा-भलति
"
। यथा मा
अप्पसरमच्चिवतरं, एगेसिं पुत्रजतरूपडिसेवा । तं दोराह चैव जुञ्जति, चहूण पुरा अच्चितं यंते ॥ ६३ ॥ अप्पसरति - अत्रैके आचार्या श्राहु:-" यदल्पस्वरं तसर्व द्विपूर्व निपतति " यथा-प्लक्षन्यग्रोधौ । 'अर्चिततरं ति' श्ररणे पुणराहुः- -" यदर्चितं तत्पूर्वं निपतति तापितरी वासुदेवार्जुनी इत्यादि एतानि कारण - दमाणा आवरिया पुत्रं जयपडि सेवणं भवंतिपु ब्रूमः तं दारोह चैव जुजति, तदिति अल्पस्वरत्वम्, तित्वं वा द्वाभ्यां चेति पदाभ्यां युज्यते घटतेत्यथैः । ननु बहूनां खोदका हुआ कई उच्यते-बहरा पुरा अर्चितं बहनां पदानां पुस सो अवधारणे अवि परं अंते भवति । यथा भीमार्जुनयासुदेवा उक्कमकारणाअिभिहितानि ।
·
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"
पमायस्स
( ३४१ ) अभिधान राजेन्द्रः । मूलगुणपटि पंचविहस्स इंदिवकसायविषविदाषियहा । एएसि एगतरेणावि असंपउत्तस्स श्रयुक्तस्येत्यर्थः । 'गोवउत्तरल रीयातिसु भूयत्थसु' नो इति पडिसेहे, उवउत्तो मनसा दृष्ट्या वा युगांतरपलोगी।' रीय त्ति' रीयासमितिगहितो, आदिसह तो अमसमितीतो य । एतासु समितिसुकता तिविस्तरिय अडत कथं होजा, अप्पकालं सरिते यमदेति भूत्यो बाम विचारविहार संधारभिक्यातिजसाहिका किरिया भूताधावादिको अभूतत्थो वट्टओ - पाणातिवाते, एवंगुणविसिट्ठो होय णाभोगो । श्रहवा एवं वक्खारोज्जा असंपउत्तस्स पाणा तियातेण इरियादिसमितीं जो भूयस्थी तंमि तो ताहे
भोगोलि से पूर्ववत्। इह प्रणाभोगेण जति पासाति वायं यतो का पडिवणा, उच्यते- तं उत्त भाव पडि सेवति सा एव पडि सेवणा इह नायव्या । एत्तो - अणभौगो
"
-
इदाणि समवतारोदो बच्चे पुण्य-चितं तु बहुवारा अचितं अप्पं । बच्चं तेच पुन्वं, जतया ते पडीलोमं ॥ ६४ ॥ जदा दो प्रयाणि कपिदियिया कविया यतदा 'दोरखं वयं पुव्यच्चियं तु कवियं अच्चियं पदं तं पुचं वक्त व्वमिति । यदा बहुपया कप्पिजंति, दप्पो, कप्पो, पमाओ मातो तदा बहुचाएं अच्चियं अंते अंतप अप्पमातो सो पुब्वं वत्तव्यो । ग्रहवा - अप्पं च एत्थं वते वा पुत्रं भगामो जयशा इति-जयपडिसेबया ते इति कारण पडिलोम इति पच्छात्यथेः । निश्वयतः इदं कारणं वयमिहमासा कप्पियायाः पूर्व निपातनं कृतवन्तः ।
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ण पमादो कातव्वो, जतणापडिसेवणा तो पढमं । सा उ अणाभोगेणं, सहसकारेण वा होजा ॥ ६५ ॥
जम्हा पव्वतस्येव पदमं श्रयमुचदेसो दिजति अप्रमादः करणीयः सदा प्रमादवर्जितेन भवितव्यम् अतो पतेस च कारण जयापविसार पुन्यनिवार्य इच्छामो स तु अप्पसरमच्चियं काउं, बंधणलोमताए वा ते अप्पमतपसिवा भणिता अन्थतो वक्यातेहिं पढमं वक्खाणिज्जति तेण श्रणुलोमा चैव एसा अत्थश्री, पंडिलोमा। सिद्धं श्रणुलोमचक्खाणं स अपमायपडिसेवा दुविहा- अणाभोगा हव्वतो अचरिमा तु एयं चैव पतरं यति सा श्रसाभोगेपतु कंठं । णाभोगे, सहसक्कारे य दो दारा । श्राभोगो णाम अत्यन्तविस्मृतिः ।
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,
अगाभोगापासरू -
अघातरपमादेणं, असंपत्तस्स गोवनस्स |
रीयादिगु भूनत्थे सु बढ्दो होमोगो ॥ ६६ ॥
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या सहकारी तस्सिमं सर्वपुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादभि जं पुणो पासे ।
(य) तरति णियत्तेउं पादं सहसाकरणमेतं ॥ ६७ ॥ पुव्यमिति पढमं चक्खुणा थंडिले पाणी पडिलेहेयव्वा, जति दिट्ठा तो वज।' अपासिऊं ति' जति रा दिट्ठा तंमि थंडिले पाणी 'छूढे पायमिति पुए सिय थंडिलाओ उ पादे च पडिलेहिय थंडिलं असंपले अंतरा मागे पादे 'जे पुणो पासे ति'जमिति पच्छा परसे ' तरति ए सक्रेति, पासरियावारवि तं पायं शियत्तेउं । पच्छा दिट्ठपाणिणो उवरि णिसितो पात्रो, तस् य संघट्टपरितावणकलावणोदयसादीया अप्पमनकिरियोवउत्तेण पीडा कता, एसा जा सहसक्कारेपडि सेवा- 'स हसाकरण मेयं ति' - सहसाकरणं जाणमाणस्ल परायत्तस्सेत्यर्थः । एतमिति एयं सरूवं सहसक्कारस्य । इयाणि सहसक्कारसरूपंवि समितीस पोतिति तत्पद मा हरियासमिती भगत
दिडे सहसकारे, कुलिंगादी जह असिम्मि जिसमे वा । उतो इरियाति, तडिसंकम उवहिसंथारे ॥ ६८ ॥ जता असणातिकिरियापवतेण अप्पमत्तइरिश्रवउते दिट्ठो पाणी कायजोगो य पुत्रवपयत्तो ण सक्कितो -
तुं एवं सहकारेण पायादितो, कुलिंगी आदिसतो बिंदी व जहाजे पगारे, असी-खग्र्ग विस-एगतं, उतो - अप्रमत्तः, तडिसंकमणं वा उत्तो करेति, तड़ी नाम-छिएटंका, उवहिसंथारगं वा उप्पादेतो सव्वस्थ आउन जति विकुलिंग पायादेति तह वि अवधको सो भणियो चोदगाह कि युतं कुलिंगी काणि वा लिंगासि को वा लिंगी ? ।
परण्वग श्राह
कुत्थितलिंगकुलिंगी जस्स व पंचेंदिया असंपुधा । लिगिदियाई अंतो, सलिंगतो पिप्यते तेहिं ॥ ६६ ॥ कुसो अवा, कुत्सितेंद्रियेत्यर्थः सेर्स कंठं जस्स ति- जस्सारलो, पंचेंदिया अपुरा नि पिचि
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मूलगुणपडि.
(३४२) मूलगुणपडि.
अभिधानराजेन्द्रः। दिया, किं तर्हि-संपुराणा, जहा असणिणो परिफुडत्थप- परिस्फुटं, 'अबंधी सो उ' तुसद्दो अवधारणे । गया अप्प रिच्छेइणो ण भवति त्ति भणियं भवति । एरिसे अत्थे एवं मायपडिसेवणा। वयणं ण भवति, इमं तु पंच ण पुजति त्ति भणियं भवति, ___ इयाणि अवससानो तिरिण । एतासिं कतरा पुग्वं भासिद्वींद्रियादारभ्य यावत् चउरिदियेत्यर्थः । सो कुलिंगी । लिंग | यव्वा ?, उच्यते-अल्पतरत्वात्तृतीया वक्तव्या। पच्छा पढमा, मिति जीवस्य लक्षणे, यथा-अप्रत्यक्षोऽप्यग्निधूमेन लिङ्ग्यते बितिया य । एगट्ठा भरिणहि ति । सा य पमायपडिसेवणा शायतेत्यर्थः, एवं लिगाणिदियाणि अतो आत्मा लिङ्गमस्या- पंचविहा। स्तीति लिंगी। आत्मा लिंगी कई घेप्पते ? । तेहिं इन्द्रियै
दारगाहरित्यर्थः । चोदगाह-कहं पुण सो अप्पमत्तो विराहेति ।। कसायविकहवियडे, इंदियणिद्दप्पमाय पंचविहे । परणवगाह-'असिमि विसमे वा' एयस्स वक्खाणं- कलुसस्स य णिक्खेवो,चउव्विधो कोहादि एक्कास१०४॥ असिकंटकविसमादिसु. गच्छंतो सिक्खिो वि जत्तेणं । कसायपमादो, विगहापमादो. विगडपमादी, इंदियपमादो, चुका एमेव मुणी, छलिज्जती अप्पमत्तो वि ॥१०॥ णिद्दापमादो। कलुसस्स यति' कसायपडिसेवणागहिता, असी-खग्ग, जहा तस्स धाराए गच्छंतो सुसिक्खियो चसघाउ कसाया चउब्विहा-कोहो, माणो, माया, लोभो। वि पाउत्तो वि छिजति, कंटगागिराणो वा जो पहो तेण एतेसिं पक्केकस्स णिक्खेवो चउविहो दव्वादी कायव्यो। गच्छंतस्स आउत्तस्स वि कंटो लग्गति, विसम-णिराणो
सो य जहा श्रावस्सते तहा दट्टयो,तत्थ कोहं तवे भणामि । णतं, श्रादिसदाश्रो णदीतरणाइसु जत्तण-प्रयत्नेन,चुक्कति कोहादि एक्कारे ति-कोहुप्पत्ती जा तं आदि काउं एक्कारस छलिजति, एस दिट्टतो. इण मत्थो वराणश्रो, पवमवधारणे
मेरो भवति ।
ते य एक्कारस भेयामुणी-साह, इरियासमिती गता । इदाणी भासासमिती-कोनि साहु सहसा सावज भासं भासेज, रण य सकियो णि
अप्पत्तिए असंखडि, णिच्छुभणे उवधिमेव पंतावे । ग्घेतुं वाउगो पधं भासासमितीए सहसक्कारो सो भत्थवि
उद्दावण कालुस्से, असंपती वेव संपत्ती ॥ १०५ ॥ सोहीए सुद्धो चेव । एल्थ भासासमितीसहसकारो भएणति ।। अप्पत्तियं-पच्चामरिसकरणं, असंखडं वावि गो कलहो अस्संजयमतरते, वट्टइ तं पुच्छ होज भासाए।
तसुवायं करेति जेण सगच्छातो णिच्छुभति , उवकरणं
वा वोहि घेत ति हारावेति वा । पंतावणे-लगुडादिभिः,उद्दवट्टति असंजमो से, मा अणुमति केरिसं तम्हा ॥१०॥
वर्ण-मारणं, कालुस्से-कासश्रोप्पत्ती घेप्पति । अप्पत्तियाति असंजतो-गिहत्थो, अतरंतो-गिलाणो, तं साह पुच्छेज
जाव पंतावणा असंपत्ति संपत्तीहिं गुणिया दस । आदिकसहसकारेण वति ति लद्धति । तं च किं असंजमो
साउप्पत्तीए सहिता एते एकारस। असंजमजीवियं वा एत्थ साहुणो सुहुमवायजोगेहिं श्र
इमं पच्छित्तंगुमती लम्भति, एवं होज-भासाए ति-भासासमितीए,
लहुओ य दोसु दोसु अ, गुरुगो लहुगा य दोसु ठाणेसु। से सहसकारो वट्टति । श्रसंजमों से गयत्थं मा अणुमती भविस्सति तम्हा एवं वत्तव्यं-केरिसं इह बयणे अत्थावत्ति
दो चउ गुरु दो छल्लहु, अणबढेक्कारस पदा तु ॥१०६॥ पभोगेण विहुमो वि अणुमतीदोसण लब्भति । गता भासा
गाहासमिती।
अहवा लहुगो गुरुगो, गुरुगा गुरुगा य दोसु चउगुरुगा। दाणी तिगिण समितीश्रो जुगवं भराणति
दो छल्लहु अणवट्ठो,चरिमं तह एकारस पयाणि ।।१०७।। दिट्ठमणेसियगहणे, गहणणिखेचे तहा णिसग्गे वा।। लहुओ य दोसु गुरुओ,लहुगा गरुगा य दोसु ठाणेसु । पुव्याइट्ठो जोगो, तिएणो सहसा ण णिग्धेनुं ॥१०२॥ दो चउ गुरु दो छल्लङ,छग्गुरु अछेद मूल दुर्ग ।।१०८।। दिद्वमणेसियगहणे त्ति-एसा एसणासमिती । गहाणखये आदिकसाउप्पत्तीए-लहुश्रो, असंप्पत्तीए-लहुगो,संप्पत्तीए ति-श्रादाणणिक्खेवणासमिती। तहा णिसग्गे त्ति-एसा मासगुरूं, असंप्पत्तीए असंखडे-मासगुरुं, संपत्तीए-व्ह,णिपरिट्ठावणियासमिती । पच्छद्धेण तिरह वि सरूवं कंठं। एस- स्छुभणे असंप्पत्तीए-व्ह, संप्पत्तीए-व्ह, उपकरणस्स हारवणासमितीए उवउत्तो ण दिट्ठमणेसणिजं,पच्छा दिटुं, ण सक्कि- णे असंप्पत्तीए-व्ह, संप्पत्तीए-व्ह, पंतावणस्स असंप्पनीएयो गहणजोगो णि यत्तेउं, एवं सहसकारो एसणासमितीए व्ह, संपत्तीए-अणवटुप्पो । एवं उद्दवरणवजा एकारस पदा। भवति । एवं गहणणिक्खेवसु वि, पुवाइट्ठोण सक्कितो जोगो अहवा-एक्कारस पदा आदिकसाउम्पत्तीकारणं वज्जेऊण णिग्घेत्तुं तहा णिस्सग्गे वि भणिो सहसकारो। एवं अणा- उद्दावणसहिया एकारस इमा जयणा अप्पत्तीए-असंप्पत्तीप भोगेण वा सहसकारेण वा पडिसेविए वि बंधोण भवति । मासल हुं, संपत्तीप-मासगुरुं, असंखडे असंपत्तीए-मासगुरूं, जतो भएणइ
संप्पत्तीए-व्ह, णिच्छुभणे असंप्पत्तीए-व्ह, संपत्तीए-ह, पंचसमितस्स मुणिणो,आसज विराधणा जदि हवेजा। उपकरणहारवणस्स असंपत्तीए-व्ह, संत्तीए-व्ह,पंतावणस्स रीयंतस्स गुणवतो, सुबत्तमबंधो सो उ।। १०३ ॥ असंपत्तीए-बह, संपत्तीए-अणवटुप्यो, उद्दवणे-पारंची। श्रह
वरणो-श्रादेसो भएणति-लहुओ य दोसु०' गाहा-पए पंचहिं समितीहि समियस्स, जयंतस्सेत्यर्थः । मुणिणो-सा. धोः, प्रासजति परिसमयत्थं पप्पपाणिविराहणा भवति । पराणरस पाया
परणरस पायच्छित्ता एतेसिं ठाणणिोयणा भएणति । चो. रीयंतस्स-कायद्याने पवत्तस्त, गुणवतः-गुणात्मनः, सुश्चत्तं । १-हत पूर्ववदिलथे संकेतितमिव प्रतिभाति ।
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४३) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्र:।
मूलगुणपडि. दगाह-अत्थतो ताव ठाणणिमओयणं इदं ताव माउमि- तिब्वो अणुबद्धो गृहीतेत्यर्थः, तिब्वेण वा रोसेण अणुच्छामि कहमपत्तियमुष्पराणं ।
बद्धो अप्पा जस्स सो तिव्वाणुबद्धरोसो अवमतो असक्वंपराणवगाह
तो धरेतुमिति, खेमिओ, भावकुशलतित्थकरा पडिसिद्धो सहसा व पमादेणं, अप्पडिवंदे कसाइए लहुओ। णिवारितो कोह इति वयणं दट्टब्वं, एवं सो तेण तिब्वेण अहमवि यण वंदिस्सं, असंप० संपत्ति लहुगुरुओ।१०६।।
रोसेणाणुवद्धो जेण सेसहअहिकरणसमुप्पराणं तं पासितु एगेण साहुणा साह अभिमुहो दिट्टो, सो य तेण वंदिओ,
मसकंतो गणातो वञ्चितुमारद्धो । 'तिराहं पगतराए त्ति'-बतेण य अगणकिरियावावारोवयुत्तेण, अरणतरपमायसहितेण
क्खमाणं अंतरा इति मूलगुणातो णिग्गयस्स एणं गणं चा, अप्पडिवंदे ति, तस्स साहुस्स बंदमाणस्स पडिवंदणं जं
अपार्वतस्स अंतरं भवति दोस इति विराहणा। तं पडिवंदणं-न पडिबंदणं अपडिवंदणं अप्पणेणं व ण
'तिएहमेगतराए' ति पदस्त वक्खाणं संयमातविबंदिशो एवं तमापत्तियमुप्पएणं, याणि णियोजणा तस्सेवं
राहण' गाहाकसातियमेत्तस्स चेव लहुओ, तदुत्तरं कसातितो एवं चिते
संजम पातविराधण, उभयं तत्तियं व गंधपच्छितं । ति-जया एसो बंदिस्सति-तदा अहमपि चेयं, न पडिबंदिस्सं णाणादितिगं वावि, अणवत्थाईतिगं वावि ॥ ११५ ॥ तस्स असंपत्तीए-मासलहूं, संपत्तीए-मासगुरुं, अक्खरत्थो संजमो सत्तरसविहो, तस्स वा जाव सत्तरसभेयस्स वा कंठो।
विराहणं करेइ, आत इति-अप्पा तश्विराहणं वा, वालुएमेवऽसंखडे वा, असंप० गुरुओ लहुग संपत्ते । क्वाणुकंटादीर्हि वा, उभयं णाम-संजमो, प्रायविराहणा, निच्छुभणमसंपत्ते, लहुय च्चिय णीणिते गुरुगा ॥११०॥
विराहणासहो पत्तेयं । अहवा तिगं संजमविराहणा तत्तिगं असंखडे-असंपत्तीए-मासगुरुं, संपत्तीए-व्ह,णिच्छुभणे श्र
से पच्छित्तं भवति । अहवा-तिगं णाणविराहणा सुत्तत्थे संपत्तीए-व्ह, संपत्तीए-णीणितो णाम-णिच्छ्डो धाडितेत्य
अगेराहतस्स विस्सरियं वा अपुच्छंतस्स , दंसणविराहणा र्थः-व्ह ।
अपरिणतो चरगादीहिं बुग्गाहिजति, चारित्तविराहणा ए
गागी इत्थिगम्मो भवति । अहवा-तिगं अणवत्थादितिगं वा उवधीहरणे गुरुगा, असंप० संपत्तियो य छल्लहुया ।
वि, एवं सो गणाओ णिग्गो , अराणो वि साह चिंतेति-अहं पंतावणसंकप्पे, छलहुया अचलमाणस्स ॥ १११॥ पिणिग्गच्छामि । अणवत्थीभूतो गच्छधम्मो, न जहावाइउहि हरामि वा, हारे (हराधे ) मि वा असंपत्तीए-व्ह, णो तहाकारिणो, मिच्छत्तं जणेति । अहिणवधम्माणं विसंपत्तीए-व्ह, पंताचणसंकप्पो णाम-जट्टिमुष्टिकोप्परप्पहारे- राहणा । श्रायसंजमे श्रायविराहणा ।' खाणुकंटगादीसु सं हिं हणामि त्ति चिंतयति, अवलमाणस्स ति-तदवत्थ- जमविराहणा इमा। म्सेव कार्याकार्यमयुजंतस्स-ठह ।
अथवा वायो तिविहो, एगिदियमादि जाव पंचिंदी । गाहा
पंचएह चउत्थाई, अहवा एकादिकल्लाणं ॥ ११६ ॥ पहरण मग्गण छग्गुरु, छेदो दिट्ठमि अट्टम गहिते ।
अहव नि-विकप्पदरिसणे अ, वातो-दोसो, तिविहो तिओग्गिणदिएणअममए, णवम उद्दावणे चरिमं ॥११२॥ एगिदिया वातो, विगलिदिया वातो, पंचेदिया वातो। श्रइनो प्रहरणं लउडादि मम्गिउमारद्धो तत्थ से-व्ह, तेण य हवा-वातो तिविहो त्ति-पच्छित्ता वातो, सो य पगिदियामग्गंतेण दिटुं चक्खुणिवाये कयमेत्ते चेव छेदो, गंतूण दि . जाव पंचेंदिएसु वा वातिएसु भवति, सो इमो 4हत्थेण गहियं पच्छा से अट्ठमं, मासलहुअातो गणिज्जंतं- चराह त्ति एगेंदिया जाव पंचेंदिया। 'चउत्थादि त्ति' चउत्थं मूलं अट्ठमं भवति । जस्स रुसियो तस्स उदिएणं पहरणं णव- आदि काउं जाव वारसमं । एगेंदिए चउत्थं, वेइंदिए छटुं, में भवति , दिरणपहारे जति ण मतो तहा वि एवमं चेव तेइंदिए अट्ठमं, चउरिदिए दसमं, पंचेंदिए वारसम, एको श्रा'श्रणवटुणं ति' भणिय होति, पहारे दिन्ने मतो सिया चरि- एसो। अहवा एगिदिए एगकल्लाणयं जाव पंचेंदिये पंच कमें , चरिमं णाम-पारंची, चरिमावस्थितत्वात् , पढमविति- लायं । बितिो आदेसो-एतेसु जे पगिदिएसु पच्छित्ता यततियादेसाणं "सामराणलक्षणा" गाहा।
वाश्रो सो जद्दरणो, विगलिदिएसु मज्झिमो, पं.दिएसु उविसेसो पढमा एसस्सिमा गाहा
कोसो, एस तिविहो पच्छित्ता वाश्रो। एए दो श्रादेसा दाणअप्पत्तियादि एवं, असंपसंपत्ति संगुणं दस उ ।
पच्छितं भणितं । अहवा-एए दो वि इमो ततिओ । श्रा
वत्तिपच्छित्तण भएणति । कोधुप्पादणमेव तु, पढमं एकारस पदाणि ॥११३॥ अप्पत्तियपदं आदि काउं जाव पंतावण ताव पंच पदा। ए
छक्काय घउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुगसाहारे । ते असंपत्तिसंपत्तिपदेहिं गुणिता दस भवंति । एयं तिराहं वि
संघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवायणे मूलं ॥११७॥ श्रादेसाण सामरण । इमं पढमादेसे वइसेसयं । कोहउप्पायण- छकाय ति-पुढवादी जाव तसकाइया । चउसु त्तिमेव उ पढमं । पतेण सहिता पक्कारस पदा भवंति । सेसं कंठं।
एएसि छरहं जीवणिकायाण चउसु पुढवादिवाउकाइयंएवं कोवि अहिकरणं काउं
तेसु संघट्टणे लहुगो, परितावणे गुरुगो, उद्दबणे चउलहुगा,
परित्तवणस्सइकाइए वि, एवं चेव । साहारणवणस्सति तिव्वाणुबद्धरोसे, अवमंतो धरेतु कुसलपडिसिद्धं ।
काइए संघट्टणे मासगुरु, परितावणे-ह, उद्दवणे-ठह, संघतिएहं एगतराए, वच्चंते अंतरा दोसा ।। ११४ ॥
दृणपरितावणे त्ति वयणा, सुत्तत्थे लहुगुरुगाई ति-चउलढुं
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मूलगुणपडि०
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1
चउगुरुं च गहितं । सेसा पच्छित्ता अत्थतो दटुव्वा । पंचिदियसंघट्टणे दग्गुरुगा, परितावेत्ति छेश्रो, उद्दवे त्ति मूलं, दोसु षट्टो, तिसु पारंची एस अक्सर इमो वि स्थरओ अरथोपुषि आउ तेड याड परिवारसतिकाए य ते संघट्टमास परिता मासगुरु अतिकाये संघले मागुरुं परिता यदि चल आदराति तेरदिप बडगुरु, आदगुरु अति उरिदिया - आदराति पंचेदिया दग्गुरुमा, आदर्श मूले ठाति एस पदमा सेवा तो परं अभिक्सासेवा-मिक्सासेवा द्वारा मुध्यति उपरि एवं पट्टिजति पुदवाति बजाव परितवरणस्सकाइयाण । वितियबाराए मासगुरुगाति चउगुरुने ठाति एवं जाय अट्टमवारा परिमं ( पारंची ) पावति । एवमवाराण परितावणे चेव रिमं, दसमवारा संघट्टणे चेव चरिमं । एवं सेला वि सट्टाातो चरिमं पायेय एस फोटो मगियो । सेसक सापसु वि यथासंभवं भाणियव्वं । कसाए ति दारं गये । ० ० १ (अत्र स्वीकथाद्वारम् इन्धिका शब्दे द्वितीयभागे ५८५ पृष्ठे गतम् ) ( अत्र भक्तकथाद्वारम्भतकहा ' शब्दे पञ्चमभागे १३४२ पृष्ठे गतम् ) (देशकथाद्वार म् 'देसकहा ' शब्दे चतुर्थभागे २६२८ पृष्ठे गतम्) (अत्र राजकथाद्वारम् ' रायकहा ' शब्दे वक्ष्यामि ) दादा
च
4
(a) अभिधानराजेन्द्रः ।
निर्मर्यादं विनयरहितं नित्यदोषं तथैव । निःसारानं निर्मित केन पुंसा,
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fars frees वियरति, परियाभाए तहेव परिभुंजे । लडुगा चतु जमलपदा, मददोस अगुत्ति गेही य ॥ १३१ ॥ विषमतं सह पराओ आवसाओ या गेदर केवल एवं वितियपदं वितरह सिकेरा साया बायरियाती कोर पुरतो ब्रहमासर्व गेराहामि सो भइ एवं करेहि, एवं वितरणं, एतं पढमपयं । वितियपयं बंधारणुलोमा गेरह पदपदात पापं परियाभार तिदेति परिवेपतीस्वर्थः पततियं पये परिभुजति अभ्यवहरतीत्यर्थः बडरथं परं । कमसी तराणि पच्छन्तं भवति लगानि चउलडुगा, ते चउरो भवंति । कहं वितरमाणस्स चउलहुं मेरहमाणस्स चि चडल परियाभारमागरम पिचडल परिभुजमासस्य वि बडल जमलपई साम तबकालो हि विसेसाहिया कांति-पदमपर दोहिं वि लहुं, वितियपदे कालगुरुं ततियपदे तवगुरुं चत्थे दोहिं पि गुरु । दोसदरिस भए "मददोस अगुत्तिगेही य" - मददोसो नाम । "मयं नाम प्रचुरकलहं निर्गुन
ह
उद
शीघ्रं पीत्वा ज्वलितकुलिशो याति शको नाशम् |१| वैरु व्याधिपिः स्वजनपरिभवः कार्यकालानिपत विद्वेषो ज्ञाननाश: स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं नीच सेवा कुलबललनाधर्मकामार्थदानि,
कं भो षोडशैते निरुपचयकरा-मद्यपानस्य दोषाः ||२||" अगुत्ती णाम श्रगाणि विप्लवति वायाए, कारण गच्चति, मणसा बहुचितागुलो भवति, गेही-नाम श्रत्यर्थमासकिमयेन विना स्थातुं न शक्नोति 'विडये ति दारं गर्म
मूलगुणपरि०
इदाणिं इंदिए त्ति दारं
रागेतरगुरु लहुगा, सद्दे रूवे रसे य फांसे य । गुरुगो लहुगो गंधे, जं वा आवजती जत्तो ॥ १३२ ॥ मायालोभडितो रागो भवति फोटो माहिती दोसो भयति सदे रुवे रसे फासे व पसु च इंदियत्धेस रागं फरतस्स बउगुरुगा पत्तेर्य ग्रह तेसु दोर्स करेति तो चल । हुये पत्ते, गंधे रागं करेति मासगुरुं दोर्स कति मासल अह सचितपट्टि गंधे जिग्यति मासगुरुं श्रचित्तपट्टते मांसगुरु, लडुं वा आवरजति सि जिग्यमाणो जे संघट्टप रितावं करेति तरिणप्फरणं दिज्जति । श्रहवा-जं वत्तिअनिर्दिष्टस्वरूप आवज्जति पावति । किं च तं संघट्टणादीयं जसो त पनिदियां०जाय पंदिया एत्थ पतिं दाय "छक्काये उसु लहुगा० " गाहा। इंदिए ति दारं गयं । इदाणि सिंह ति दारं सा पंचविद्या गिद्दा, निदानिदा, पवला पवलापयला, श्रीणडी, । नि० चू० १ उ० । ( अत्र निद्राद्वारम् 'सदा' शब्दे चतुर्थभागे २०७२ पृठे गतम् ) ( निद्रान्तर्गतत्यायुदाहरणम् श्रीजिशब्दे चतुर्थमांग २४१२ पृष्ठे उक्तम् । तत्रैवोक्ता सव्याख्या गाथा इहापि किञ्चिद् व्याख्यायते ) केसवो वासुदेवो जं तस्स बलं तब्बलाउं श्रद्धयबलं धीराद्धिो भवति । तं च पढमसंघरिणो य इदाणी, पुणे - सामरणवला दुगुणं तिगुणं चउगुणं वा भयति से अ एवं दत्तो मा गच्छे विणाज्ज, तम्हा सो लिंगपारंची कायव्वो । सो य सायं भरणति - मुय लिंगं रात्थि श्रहचरणं, जति एवं गुरुणा भवितो मुतो सोह, अह ए मुपति तो समुदितो घो भवति हरति एगो मा एगस्स पयसं गमिस्सति । पदुट्टो य वावादस्सिति ।
4
I
ण
लिंगावद्दारणियमणत्थं भगगति
अत्रि केवलमुप्पाडे, ग य लिंग देति अगति से सांसे । देसवत दंसणं वा गिह असित्थे पलानंति ॥ १४२ ॥ श्रवि संभावणे, किं संभावयति-इमं जति वि तेणेव भवग्गहण केवलमुप्पाडेति तह वि से लिंगं दिजति । तस्स वा, श्रृग्णस्स वा । एस यिमो श्रणसइणो, जो पुण
वहिणाणादी सति सो जात, ण पुरा एयस्स श्रीणद्विगिहोदयो भवति । देति से लिंग इतरहा ण देति । लिंगावहारे पुरा कज्जमागे श्रयमुबदेसो- देसवड त्ति सावगो होहि । धूलगपाणातिवायाइयित्तो पंच श्रणुव्वयधारी, ताग यास तस इंस गेट, इंससायगो भवाहि ति भणियं भवति य एवं पि अजिमालोनि लिंग मोतुं ता हरो उ मोनुं पलायतिः बेसांतरं गच्छतीत्यर्थः । पमापसिवे ति दारं ग
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इदाणीं पुत्रापुविकमेण कपिया पडिवणा पत्ता, मा पुरा पत्ता वि स भवति, कम्हा ? उच्यते सा सिस्सस्सेवमहट्टाहिति, पुत्र्मगुरुणा पच्छा पडिले हो- श्रतो पुत्रवं पढि सेहो भरसति पच्छा अगुणा भरिदिनि ।
दुष्पादी परिसेवण, पच्छा उ होति आणुपुत्रीए । साये सहाणे, दुविधा दुविधा य तिथि दुगा ॥ १३ ॥
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मूलगुणपटि
दरिया पविणा भगत-शादिसहातो कपिया वि पृथ्वीगत पुवि दवियं भवामि, पाकपियं केसु पुडासु पिया. कपिया या संभवति । भति जं तं हा भणियं मूलगुणउत्तरगुणे मूलगुगे पाणातिवानासु, उत्तरगुणे पिंडविसोहादिसु ताथ मूल पदमे पाणातिवाने वसु ठाणेसु पुढवातिसु सट्टा सट्टा वीसा " दुविहा दुविहा य तिरिए दुगा । "
एएस तिराह वि दुगाणं इमा वक्खारागाहादुविधा दप्पे कप्पे, दप्पे मूलुत्तरे पुणो दुविधा | कप्पंमि व दुविकप्पा, जनगणा जतथा य पटिसेवा । १४४। पढमदुगे - दपिया, कप्पिया य। वितियदुगे-एक्केका मूलुत्तरे पुणो दुविहा । ततियदुगे जा सा कप्पिया, मूलुत्तरे सा पुणो दुविहा जयणा जयरणासु, जयणाजयणा णामतिपरियां काऊ अप्पप्पाने पच्छा परागादिपडणाए पडि सेवति, एसा जयणा । श्रहवा पुढवाइसु सट्टा सट्टा दुविहा- दप्पे कप्पे य दुतियदुगं वीप्साप्रदर्शनाथम्। ततिदुर्ग मुलुसरे पुणो दुबिहा पडिवणा हवाश्रापुविग्गणा पुढवाईकाया गहिता, तेसु य दुबिहा पडिसे-मूलगु था, उत्तरगुले वा पढमसाहसेण मूलगुणा महिता दुतियखद्वाणगहण उत्तरगुणा । मूलगुणे दुविहा- दप्पिया, कप्पिया य । उत्तरगुणे वि-दप्पिया कप्पिया य । मूलगुणे जा कप्पिया उत्तरगुणे य जा कपिया, एताओ दो वि दुविहा- जयणाए य, अजयणाए य । एवे तनियदुर्ग जे सट्टामा पुढवादी अत्थती अ श्र मिहिता ते दुप्पो परिसेवमाणस्स उपरि पायरि दिज।
,
"
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( ३४५ ) अभिधानराजेन्द्रः । तत्थ पाय
पुढवी उक्काए, तेऊ वाऊ वणस्सती चेव ।
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वियतिय चउरो पंचि - दिएसु सट्ठाणपच्छित्तं ॥ १४५ ॥ एतेसु सट्टासु पायच्छित्तं इमं “छक्काए उसु लहुगा० गाहा । एसा गाहा जहा पुग्यं वन्निया तहा दट्टव्वा । पुढवा इससे पायत्तिमभिहियं ॥
इया पुढचा के पिसे पाय भएराति तत्थ पढमं पुढविकाओ सो इमेसु दारेसु अणुगंतव्वो ।
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वाह हत्थपंथे, शिक्खि सचित्तमी सपुढवीए । गमणाइपप्पदंगुल, पमाणगहणे य करणे व ।। १४६ ॥ दस दारा । एतेखि द्वारा संखेच पाया पंचादित्थपंथे शिक्खेने लहुयमासि मीसे । कट्टो कोलकरणे, लहुगा पप्पडए चैव तसपाणा १४७ पंचादिति-सरवादि सोरद्वावसाशा वारस पुर्दापका हत्था । एतेसु जो आदिससरक्वहत्थो तंमि परागं, सेसपुढविकास पंधे व मासल, सचिते विकार अन्तर रिक्खिते लहुगा । जत्थ जत्थ मीसो पुढविकाओ तत्थ तत्थ मासलहुं, मीस पुढविक्कायदरिसणं इमं कट्टोल्लकट्ठे - मेहलादिणा बाहियं, उल्लं णाम - श्राउक्कापण सो मीसो भवति, आउल्लगमादिकरणे-चउलढुगा, पप्पड व चउलहुगा, वसहाओ गम अंगुक्षप्यमाणगह से ब-चडलडुगा, पप्पड राती तसा पवितिदिज्जति का
',
८७
1
3
मूलगुणपरि० पाणी सरकसादि इस दारा पत्ते प यं पाया विपरिजति तत्थ पदम दारं-ससक्यादिभि सर आदियस्य गणस्य सोऽयं स सरवादी गो, कः पुनरसी गएः उच्यते पुरेकम्मे, उद समिणि ससरखे महिलाऊसे, हरियाले हि गुलप, मणोसिला, अंजणे, लोणे, गेरुय, वरिणय, सेढिय, सोषि, पि, कुकुस, कंचेच ते अट्ठारस कायकिरणा पिडेमलाए भणिया हस्थो तर जे पुढविकत्था ि इह पण जे आउवस्तीकावहत्था तो पुवीकायाथासेसकायस्था, एय विभागपरित्य
"
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भरगति ।
समसिद्ध दुद्दाकम्मे, रोद्धो, कुडे व कुंड एते ।
मोत्तू संजांगे, सेसा सव्वे तु पच्छिन्वा ।। १४८ ॥ हत् संविति तं ससिद्धिं दुदकम् ति पुरेकम्मः पच्छाकामं च उदउलं एत्थेव टुवं ते आ उक्कायथा रोटी नाम- लोटो लयाजोदो भवति । भरगति - उक्कुट्टो गाम- सचित्तवणस्स तिपत्तं कुरुफलाखि वा उक्केल बुति, तेहि हत्थो लित्तो एस उक्कुट्टहत्थो भरणति, कुंडगं णाम- सराहतंदुलकणियाओ, कुक्कुसा य कुंडगा भरांति एते चरासतिकायहत्था 'पंत मोतृ संजोगे' एते उचलरसहि मां संजोगो ग्राम- सह - रथो जुज्जति स संजोगो भगवति । अतो पते इत्यर्सजोगे मोनू, सेसा सव्वे उपच्छिवा - पुढविकायहरथ भिणिय भवति, ते इमे ससरवादिदत्था आदिगणातो महियादि० जाव सोरट्टिय त्ति एकारस हत्था |
"
"
तेहिं हाधिकारी तो भरणति
करमचे संजोगो, सरक्खपणगं तु मासिलोयादि । अत्थंडिलसंकमणे, करहा य पमज्जणे लहुगा ॥ १४६ ॥ करोति हत्थो, मत्तो य-भायणं, संजोगो णाम - चउक्कभंगो कायो, सो य इमो - ससरक्खे हत्थे, ससरकले मते, लोहस्थे गमने आदिभंगे संजोगे पाय दो गा वितियततियेसु एक्केकं परागं, चउत्थो भंगो सुद्धो । मासलोखादिति सीसो पुच्छति कहं सरदारंहिपादत्थं मोरा लोणादिग्ाहणं कति ?, परिय आइवयं से सहस्थास मज्भग्गह कथं अहया-पंधालुलोमा कर्ज इतरहा महियारहस्याभावा तेसु प पके करमि
भेगो को पढमभंगे दो मासल, वितियततिरसु-प केकं मासलहुं, चरिमो सुद्धो । सरक्खादिहत्थे ति दारं गये । इदा पंथेचिदारं-पंथे तो थंडिताम्र अडिल संक्रम ति श्रचित्तभूमीतो सचित्तभूमी संक्रमति त्ति भणियं भवति । करतभूमी या गीलभूमी संक्रमति । एत्थ प्रविधि विडिए, इरिस भंगा। ते हमे अपने सि पडिलेडेति सप मज्जति १, ण पडिलेहेइ पमजइ २, पडिलेहेति ण पमज्झति ३, भंगे-दो विकरोति, रापरं दुष्पटिलेहियं पुण्यमखियं, ४. दुपहिये मजिये ५ सुप्पडिलेहियं दुप्पमनियं ६, पडिलेयिं सुमतिसु मंगेषु मासलहू पढमेत काललाई, चितिए-तबल, कालगुरुचो,
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मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि ततिए-दोहिं लहुश्रो, चउत्थपंचमछट्टेसु पंच राइंदिया, एवं गुणा दुगुणेण० जाव अट्ठावीसुत्तरं सतं चरिमपदं दस ठाचेच तवकालविसेसिता, चरिमो सुद्धो । पंथे त्ति दारं गतं । णा भवंति; एत्थ पच्छितं पढमे मासलहुं जाव अट्ठावीइयाणि णिक्खित्तेत्ति दारं-णिक्खित्तं दुविहं-सचित्तपुषिणि
सुत्तरसतपदे पारंचियं भवति । एतसिं चेव अभिक्खसेवा क्खितं, मीसपुढविणिक्खितं च । जंतं सचित्तपुढविणि- भएणति-अभिक्खसेवा णाम-पुणो पुणो गमणं , तत्थ पाक्खिनं तं दुविहं-अणंतरणिक्खितं , परंपरणिक्खित्तं च ।
यच्छितं वितियवाराए सचित्तपुढवीए गच्छमाणस्स गामीसे बि दुविहं-प्रणतरे , परंपरे य।
उदादि चउगुरुगा आढतं . जाव सोलस, जोयणपदे पाएतेसु सचित्तमीसश्रणतरपरंपरणिक्खित्तेसु पच्छित्त- ।
रचिय, ततियवारा छ लहू अाढतं , अट्ठजोयणपदे पारंभरणति
चियं , एवं जाव अट्टमवाराए गाउयं चेव गच्छमाणस्स पासचित्तणंतरपरं-परलहगा य होंति लहुगा य । । रंचियं , एवं मीसपुढविकाए वि अभिक्खगमणं, पवरं दसमीसाणंतरलहो, पणगं तु परंपरपतिद्वे ॥ १५०॥ मवाराए गाउयते पारंचियं पावति । गमणेति ति दारंगतं । सचिसपुढविकाए अणंतरणिक्खिते-चउलहुयं, परंपरणि
इदाणि पप्पडए त्ति दारंपिवत्ते-मासलहुं, मीसे पुढविकाए अणतरणिषिखत्ते-मास-- पप्पडते य सचिने , लहुयादी अट्ठहिं भवे सपदं । लहुं,परंपरणिक्खित्ते-पंचरातिदिया। णिक्खित्ते त्ति दारं गयं । मासलहुगादिमीसे, दसहि पदेहिं भवे सपदं ॥१५४॥ सा पुण मीसा पुढवी कहिं हवेजा भएणति
पप्पडगो णाम-सरियाए उभयतडेसु पाणिएण जा रेखीरदुमहेटुपंथे, अभिणवकट्ठोल्लइंधणं मीसं ।
ल्लिया भूमी सा तंमि पाणिएण उहट्टमाणे तरिय बद्धा पोरिसि एग दुग तिगे, थोविघणमझबहुए य ॥१५११।। होउं उरहण छित्ता पप्पडी भवति । तेण सचित्तेण जो गखीरदुमा-बडउदुंबरपिप्पला, एतेसिं महुररुक्खाण हेट्ठा
च्छति गाउयं तस्स चउलहुयं, दोसु गाउएसु चउगुरुयं । मीसो, पंथे य अहिणबहलवाहिया य, पुढवीउजावासे य एवं दुगुणादुगुणेण जाव वत्तीस जोयणे पारंचियं, अभिपडियमितं मीसं भवति । अहवा-कुंभकारादीमट्टिया । क्खसेवा य तहेव जहा पुढविक्काए मीसे पप्पडए गाउयदुरंधलसहिया मीसा भवति, सा य कालतो एव चिरं थोविं- | गुणादुगुणेण मासलहुगादि० जाव अट्ठावीसुत्तरसते जोयणभणसहिया एगपोरिसी मीसा सचित्ता, परतो-मझिधण- सते पारंचियं। अभिक्खसेवा जहेव पुढविक्काए । पप्पडिपत्ति सहिया वो पोरिसीमो मीसा, परतो सचित्ता, बहुइंधणस- दारं गतं। हिता तिरिण पोरुसीओ मीसा, परतो सचित्ता । एगे प्रायः इदाणि अादिसद्दो वक्खाणिज्जति-'अंति- .. रिया एवं भणति । श्ररणे पुण भणन्ति-जहा एगदुगतिरिण
लदार व समुद्दो य एत्थ' गाहापोरिसीओ मीसा होउ, परो अश्चित्ता होति, एत्थ पुण ठाण णिसीय तुयट्टण, पाउल्लगमादि करणभेदे य । इंधणविसेसा दोऽवि श्रादेसा घडावेयब्वा, साहारणिधणेण होति अभिक्खासेवा,अट्ठहि दसहि व सपदं तु॥१५॥ एगदुतिपोरिसीणं मीसा, परतो सचित्ता भवति । असाधा'
सश्चित्ते पुढविकाते पप्पडए य सचित्ते ठाणं निसीयणं तुयट्टणं रणेणं पुण अचित्ता भवति । मीसकट्टउल्लगे त्ति दारं गतं ।
वा करेंति; करेंतस्स पत्तेयं चउलहुयं , वाउल्लगमाति त्तिइदाणी गमणे त्ति दारं श्रादिग्रहणे णिसीयणं तुयट्टणं य
वाउल्लगं णाम-पुरिसपुत्तलगो, तं सचित्तपुढवीए करेति, घेप्पति
चउलहुयं, काऊण वा भंजति, तत्थ वि-व्ह, आदिसहातो ग. गाउयदुगुणा दुगुणं, बत्तीसं जोयणाइ चरमपदं। यवसभातिरूवं करेति, भंजेति वा, तत्थ वि पत्तेयं चउल-- चत्तारि छच्च लहुगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ।। १५२ ।।
हुयं । एतेसि चेव ठाणनिसीयणतुयट्टणकरणभेदणे य पत्तेये सचित्तपुढविकायमझेण गाउयं गच्छति , गाउयं दुगुणं,
पत्तेयं अभिक्खसेवाए अट्ठमवाराए पारंचियं पावति । मीसश्रद्धजोयणं, श्रद्धजोयणदुगुणं-जोयण, जोयणं-दुगुण
पुढविकाए वि ठाणादीणि करेमाणस्स पतेयं मासलघु , दो जोयणाई, दो जोयणा दुगुणा-चउरो जोयणा, चउरो दु-1
ठाणादिसु पत्तेयं अभिक्खसेवाए दसमवाराए सपदं पावर । गुणा-अट्ठ जोयणा, अट्ठ दुगुणा-सोलस जोयणा, सोलस जो.
सपयं णाम-पारंचियं , आदिसइंतरालदारं गतं । यणा-दुगुणा-बत्तीसं जोयणा, चरिमपदग्गहणातो पारंचियं
इदाणि अंगुले ति दारंणेयं । दुगुणण गाउआदि बत्तीसजोयणावसाणेसु श्र
चउरंगुलप्पमाणा, चउरो दो चेव जाव चतुवीसा । ट्रसु ठाणेसु पार्याच्छतं भरणति-चत्तारि छश्च लहु ।
तं जुगमादीवुड्डी, पमाणकरणे य अद्वे वा ।। १५६ ।। गुरु, विससिया चउरो पायच्छित्ता भवंति । चउलहुअं, च
अंगुलरयणा ताव भएणति-चउरंगुलप्पमाणा । चउरो तिउगुरुगं, छल्लहुयं, छग्गुरुयं ति, मणियं भवति । छेदो, म
अंगुलादारब्भ जाव चउरो अंगुला अहो खणत्ति, एस पढमोलं, दुर्ग, अणवटुप्पं, पारंचियं, एते गाउयादिसु जहासंखं
चउकगो. चउरंगुला परतो पंवंगुलादारम्भ जाव अटुंगुलादायव्वा पायच्छित्ता।
एस बितिश्रो चउक्कगो,एवं णवम अंगुलादारब्म जाव बारस एवं ता सञ्चित्ते, मीसं पुण तेण अदुवीसे य ।
एस ततितो चउक्कगो,तेरसंगुलादारम्भ जाव सोलसमं एस. अहवा अभिक्खगमणे,अद्वहि दसहिं च चरमपदं ।१५३। चउत्थो चउक्कगो, दो चेव जाव चउवीसा, सोलस अंगुला परएवं ता सचित्ते पुढविकाए भणियं, मीसपुढविकाए. भ-| तो दो अंगुलबुड्ढी कज्जति,अट्ठारस वीसा बावीसा चउव्वीसा एणति-मीसपुतबिकाए पुरण गबमाणस्स गाउयादि दु-| अंगुलमादी बुद्धीति अंगुलादारभ चरंगुलिया दुअंगुलिया
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मूलगुणपरि०
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य एसा ही भणिया आदिसंहाओ मोसे वि एवं वरं तर प्रदीप छ चक्कगा कजंति, परतो चउरो दुगा । एवं बत्तीसंगुला भयंति इस असा एसा अंगुलरयणा । एतेसिम पतिं भगति सचिते संगुलादारम्भ जाय चउरो अंगुला खगति एत्थ चउलहुयं, पंचमातो जाव श्रमं एत्थ चउगुरुयं, रावमाओ जाव बारसमं एत्थ छल्लहुयं, तेरसमातो जाव सोलसमं एत्थ गुरुयं ससरस अट्टारसमे—यो, अ एसपी मूलं एकची सपाची अप्पो, तेवीसचवीसेसु पारंची। अभियसेवा भरणति – पमायकरय अन अभिव करेति तत्थ पमाएं अद्रुमबाराप पारंचियं । श्रहवा – पमाणकरणे य श्रट्टेव सि-पमागहणेण प्रमाणदारं हितं करणग्गहण करणदारं गद्दियं । चसदाश्रो गहवारं गहिये। अंगुलदारं पुरा अहि गतं चैव । एते च वि अभिक्ससे करेंतस्स अट्टमवारा पारंचियं भवति । इदाणि मीखगपुचिकायं स्वयंतस्स पायचि भराराति-मीसे पुढविकार-पढमं चक स्वगतस्स मासलहु, बितियचउक्के-मासगुरु, ततिपचउके चल पत्थरके बउगुरु पंचमे ब छलहु, छुट्टे चउके- छग्गुरु, पराछब्बीसंगुलेसु—छेत्रो, सतट्टवीसेसु - मूलं, उणती सतीसेसु - अणवट्टो, अतो परं पारंचियं । मीसाभिक्वसेवाए दमवाराए, पारंचिये पाचति । अपुरा आयरिया सचितपुवीकायस्य खयामिक्खासेवं एवं गण्यंति-अभिक्खणं अंगुले एक्कसि खगतिव्ह, वितियवाराए - व्ह, ततियवाराए व्ह, चउत्थवाराएव्ह, एवं जाब चडवीसति वाराप पारंचियं पावति । एवं मीसे वि बत्तीसवाराण - पारंचियं पावति ।
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(३४७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सीसो पुच्छति फीस उपरिचरंगुनिया बुट्टी कता ?, अहे दुयंगुलिया ?, आयरिओ भगवतिउवरिं तु अप्पजीवा, पुढवीसीतातवाणिलाभिहिता । चतुरंगुलपरिवुड्डी, तेणुवरिं आहे दुअंगुलिया ।। १५७ ।। गाहा कंठा। अंगुलिचि दारं गते ।
इयाणि पमाणे ति दारं, तत्थ गाहाकलमत्तादद्दामल, चतु लहू दुगुखे अहिं सपदं ।
मीसंमि दसहि सपदं, होति पमाणं स पत्थारो ॥ १५८ ॥ कलो-रागो तप्यमानं सचिनपुचिकायं गेरहति चडल हुयं, उवरिं कलमत्तातो जाव श्रद्दामलगप्पमाणं एत्थ वि-चउडुयं चेच दुगुणं ति अओ परं दुगुसा बुही पयट्टति दो अहामलगप्पमाणं सचितपुढषिकार्य गरइति गुरुपं च उम्रदामलगप्यमाणं पुढकार्य तिर्थ, अट्ट दामल गप्पमाणं हति-गुरुं सोलस अदामलगप्पा गरदतितस्सच्छेदो, सद्दामलगप्पा मेहति मूलं चट्ठि अद्दामलगप्पमाणं गैरहति- अणवट्ठो, अट्ठावीसुतरसयदामलगप्पमाणं गेरहति- पारंचियं, एवं अहिं वाराहिं सपयं पसो मीसम दस स एयं होति, पमाणमिति पमादारे, पत्थरो ति, अद्दाम लगादिदुगुणा दुगुरोगं० जाव पंचसयवारासुरासु मासलडुगादिपारंचियावसायापता एवं दहि पदं । एसेच अत्थो यो महति ।
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मूलगुणपि
अन्याचार्यरचिता माहा
कलमनादद्दामल - लडुगादी सपदमडुवीसेणं ।
पंचे वारसुत्तर, भिक्ख हि दसहि सपदं तु ॥ १५६ ॥ गाहा कंठा । वरं अभिक्खटुहि दर्लाहिं सपदं तु एसा श्रभिवसेवा गहिता, सचिचपुढविकाते श्रभिक्ख सेवाप श्रहिं सपदं, मीसे अभिक्वासेवाप दसाह सपदं । पमाणे सिपारं गये।
दाहिनेसि दारं तं चिर्म
गहणे पक्वेवंमि य, रगमयेगेहि होति चतुसंगो । जदि गहणा ततिमासा, एमेव य होति पक्खेवे ॥ १६०॥ गहणं हत्थे, पक्खेवो पुरा मुद्दे भाय वा पतेसु य गहणएक्सेस मंगो, सो इमोम एगो पखेचो एवं गहणं, अणेगे पक्खेवा, श्रगाणि गहणाणि, एगो पक्खेवो, अगाणि गणाणि भयेगे पचसेवा एवं चभंगे पूर्ववत् खितेषु पदमभंगे-दो माह सेोई तिहि संगे जतियंगढ़वा पोवा ततिया मासलड़ एवं भावयेचे मासलई मुद्दों पुरा शियमा चल गये ति दारं गये । दार्णि करणे हि दारंपाउल्लादीकरणे, लहुगा लहुगो य होति अचित्ते । परितापयादिर्य, अधिवविणासे य जं वयं ।। १६१ ।। पाउञ्जगी वा पुरिसपुत लगो, आदिसहाओ गोणादिरूयं करेति, एगं करेति चलअं, दो करेति चउगुरुगं, तिहि छल्लहुश्रं, चउहिं-छग्गुरुयं, पंचहिं-छेदो, छहि-मूलं सत्तहि-अरायो, अहिं- चरिमं ( पारंची ) मीसे वि एवं वरं - मासलहुगादि, दसाई चरिमं पावति । श्रचि पुढविक्काते पुत्तलगादि करेंति एत्थ वि श्रसमायारिणिप्फरणंमासलहुं, भवति ।' पारितावणाति रोयं ति' वाउल्लयं करेतस्स जा हत्थादिपरितावणा श्रणागाढादि भवति एत्थ पच्छितं अणागादं परियावज्जति गाढं परियावजाति-यह परि ताचियस्स महादुषणं भवति ६ महादुस्वातो मुला उपजाति, फाती मुच्छार किया जातो देदो ि ऊससिडमारो मूलं, मारतिय समुन्याते समोतो रायहो, कालगतो परिम अहवा पुललगे परविणासाय दप्पेण कति अभिमंऊ मम्मदेसे विधेति तस्स व परस्स परितावणादिदुक्खं भवति, पायच्छित्तं तदेव । 'अहिया व जे ति अहियो राया, तस्स विवासो य करेति तंमिय वितासिते बरायमचादा से रुसिया तस्स रणस्स वा संघस्स वा वहबंधमारणं भत्तपा
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"
बम वा शिवारिस्सति । एवमति भणितं म वति । गया पुढविकायस्स दप्पिया पडिसेवणा ।
दाणि पुढविकायरसचेच कप्पिया भएराति । तत्यिमा
दारगाहा
श्रद्धा कजसंभम - सागरिय पडिपहे य फिडिए य । दीहादी व गिलाणे, ओमे जतथा य जा तत्थ ।। १६२ ।। नव दारा एते नवसु दारेसु जा तत्थ जयणा घडति सा तत्थ वत्तव्वा । तत्थ - श्रद्धाणे ति पढमं दारं । तंमि य श्रद्धाणदारे सरदारा इस अववदिति ।
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( ३४८) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि० तत्थ पढभं ससरक्खादिहत्थे त्ति दारं
वति, उक्नं च-"अपि कईमपिण्डानां, कुर्यात्कुति निरन्तजति तु मलामे गहणं, ससरक्खं करहिं हत्थमत्तेहिं ।
रम्" सीसो भणति-उवरि अखणया चेव संभवति, किं अहे तति वितिय पढमभंगे, एमेव य मट्टियालिते॥१६३॥
खणति। पायरियाह-वातातवमादिहिं सोसियासरसाय तत्थ पढम ततियभंगेण, पच्छा वितिपण, ततो पढमभंगण
अहे वलिया तेण अहे खणति । अंगुले त्ति दारं गये । एसेवऽत्यो प्रतिदिहो, एमेव य मट्टियालित्ते' त्ति हत्थेत्ति दारं
इदाणी पमाणग्गहणकरणदारा एगगाहाए अववइज्जंतिअववदियं ।
जावतिया उवउज्जति, पमाणगहण व जाव पज्जतं । ___ इदाणि पंथे त्ति दारं अववतिजति
मंतेऊण य विंधति, पुत्तलममादि पडणाए ॥ १६७ ॥ सागारतुरियमणभो-गतो य अपमजणे तहिं सुद्धो।।
आवतिया उवउज्जति तावतियं गेराहति , पमाणमिति मीसपरंपरमादी, णिक्खित्तं जाव गण्हंति ॥ १६४॥ | पमाणदारं गहितं । पमाणे त्ति दारं गयं । इदाणिं गहणथंडिलाओ अराणथंडिलं संकमंते सागारिय त्ति काउं पादेण | दारं अववदिज्जति-अस्य विभाषागहणे य जाव पपजत्तं तापमजेजा, तुरंतो वा तेहिं गिलाणादिरहिं कारणेहि ण!
व गिराहति अणेगग्गहणं अणेगपक्खेवं पि कुज्जा अपज्जत्ते । पमज्जेज्जा, अणाभोगो वा ण पमजेजा, पमजतो सुद्धो, अ.
गहणे त्ति दारं गयं। प्पायच्छित्ती तहिंति अथंडिले असमायारीए वा पंथे त्ति दारं दाणी गहणवाउल्लकरणं अववतिज्जति-मंतेऊण गाहापगतं । इदाणी णिक्वित्तं ति दारं अववदति-मीसपरंपर-प- वार्द्ध-जो साहू संघवेति तप्पडिणीतो तस्स पडिमा श्वार्द्ध-पत्थ जयणा , पढमं मीसपुढविक्कायपरंपरणि- निम्माता णामंकिता कज्जति, सा मंतेणाभिमंतिऊणं क्वित्तं गेराहति आदिसहातो असति मांसपणं अणतरेणं मंमदेसे विज्झति,ततोतस्स येयणा भवति,मरति वा, पतेण गेराहति, असति सञ्चित्तपरंपरेणं गेहति असति सचि- कारणणं पुत्तलग पि पडिणीयमहणणिमित्तं कज्जंति । तपुडविकाये अणंतरणिक्खित्तं पि गेएहह । णिक्वित्तं ति डंडियवशीकरणमित्तं वा कज्जति । करणे त्ति वारं गयं । दारं गतं ।
एवं ठाण-प्रद्धाणदारे-ससरक्खादिया सव्वे दारा अववाइदाणि गमणे त्ति दारं अववतिजति, पुब्वमचित्तेण- दित्ता । श्रद्धाणे त्ति दारं गयं । गंतव्वं, तस्सासति मीसे तेणं गम्मति
इयाणि कपजसंभमा दो वि दारा जुगवं वक्खाणिज्जति तत्थिमा जयणा
असिवादियं कज्ज भरणति, अग्गिउदगचोरवोधिगादियं सं. गच्छंता तु दिवसतो, तलिया अवहेतुमग्गो अभए । भम भरणति । एतेसु गाहाथंडिल्लासति खुश्मे, ठाणाति करेंति कत्तिं वा ॥१६५।।
जह चेव य अद्धाणे, अलाभगहणं सरक्खमादीहि । गमण दुहा-सत्येण एगागिणो गच्छंति, दिवसतो त
वधकज्जसंभमंमि वि,वितियपदे जतणजा करण।।१६८।। लिया उवहणेउ तो अवणेत्ता अणवाहणा गच्छंति, तस्स य
जह अद्भाणदारे अलाभे सुद्धभत्तपाणस्स असथरंताण सत्थस्स मग्गतो पिटुओ जति अभयं तो तलियाउ अव
ससरक्खमादी दारा अववतिता , तहा कज्जसंभमद्दा णेतु पिट्ठो वच्चंति, सभए मज्झे वा पुरतो वाऽणुवा
रेसु वि वितियपदं अववायपयं तं पत्तेण ससरक्खादिदारेहि हणा गच्छंति, जत्थ अथंडिले सत्थसरािणवेसो तस्थिमा ज
जयणा कायम्वा । जाव करणं करणंति-उल्लगकरणं । करजतणा-धडिलस्स असति ज थामं सथिल्लजणेण खुराण म
संभवे ति दारं गयं। द्वियं, चउप्परहिं वा मद्दियं तत्थ टाणं करेंति । श्रादिसद्दा
इदाणि सागारि-पडिपह-फिडिय-दारा तिरिण ओ निसीयणं तुयट्टणं भुंजणं वा, कत्ति ति छवडिया ज
वि एगगाहाए वक्खाणिज्जंतिति सव्वहा थंडिलं णस्थि तो तं कत्तियं पत्थरेउं ठाणाइ पडिवत्ती य अकुसलो, सागारिय घेत्तु तं परिट्ठावे । करेंति, कत्तिप्रभावे वा वासकप्पादि पत्थरेडं टाणाह करें- दंडियमादिपडिपहे, उव्वत्तणमग्गफिडिता वा ॥१६६।। ति, सश्चित्ते वि पुढविक्काए गच्छंताणं एसेव जयणा भा- कोइ साह भिक्खाए अवइराणो तस्स य ससरक्खमट्टिया णियव्वा । गमणे त्ति दारं गतं ।
लितहि हत्यहिं भिक्खा णिप्फेडिया,तो स साह चितयति इदाणि पप्पडंगुलदारा दो वि एगगाहाए अववइजंति
एस एत्थ विज्जातितो विह चिट्ठति । एस इर्म पुच्छिरसतिएमेव य पप्पडए, सभयागासेव चिलिमिणिनिमित्तं ।
कीस ण गेगहसि, अहं च पडिवत्तीए अकुसलो । पडिवत्ती. खणणं अंगुलमादी, आहारट्ठा व ऽहे वलिया ॥१६६॥ । प्रतिवचनं, जहा एतेण कारणेण बद्दति तहा अकुसलोजहा पुढविक्काए गमणादीया जयणा तहा पप्पडए वि उत्तरदानासमर्थेत्यर्थः। ततो एव सागारिए तमकप्पियं भिअविसिट्टा जयणा गायव्वा । पप्पड़ए त्ति दारं गतं । । क्खं घेर्नु पच्छा परिट्टावेति,एवं करेंतो सुद्धोचव। सेसा पदा इदाणि खणणदारं अववज्जति-अरराणादिसु जत्थ भयम- पायसो ण संभवति । सागारिए त्ति दारं गयं । त्थि तत्थ वाडीए कज्जमाणीए खणेज्जा वि । अहवा-श्रा- इदाणी पडिपहे ति दारं-पडिपहेण उंडितो पति , आसगासे उराहेण परिताविज्जमाणा मंडलिनिमित्तं दिवसओ रहहत्थिमादिहिं पडिणीश्रो वा पडिपहेण पति, ताहे उब्वचिलिमिणीणिमित्तं खणणं संभवति, तं च अंगुलमादी जाव- त्तति पहाओ न पमरजह वा पादे एवं सञ्चित्तपुढवीए वज्जेचउव्वीसं वत्तीसं वा बहुतरणाणि वा, अहवा-मूलपलं- जा । पडिपहे त्ति दारं गयं । पणिमित्तं खणज्जा । श्रहया-आहारऽडा वा खणणं संभ- इदाणि पिडिए ति दारं-मग्गतो वि पणट्टो सश्चित्तमी
Jain Education Intemational
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(३४६) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. साए वा पुढवीए गच्छेज्जा पप्पडएण वा गच्छज्जा फि
___इदाणि गिलाणे त्ति दारं । डिए त्ति दारं गतं ।
लोणं च गिलाणट्ठा, धिप्पति मंदग्गिणं अणिट्टाए । इदाणी दीहाहि त्ति दारं तत्थ गाहा
दुल्लहलोणे देसे, जहिं व तं होति सच्चित्तं ॥ १७४ ।। रक्खाभूसणहेउं, भक्खणहेउं व मट्टियागहणं । गिलाणणिमित्तं वा लोणं घेप्पति , अगिलाणो वि जो दीहाहि व खइमाए, जतणा एसा उणायव्वा ॥१७०॥ मंदग्गी तस्सऽट्ठा वा घेप्पति तं पुण दल्लभलोणे देसे घेदीहाहिणा खइए मंतेणाभिमंतिऊण कडगबंधेण रक्खा क
प्पति, तत्थ दुल्लभलोणे देसे उवखडिज्जमाणे लोणं ण छुजति, मट्टियं वा मुहेबोज डंका आऊ सिञ्चति । आलि
भति उवरि लोणं दिज्जति, तेण तत्थ मंदग्गी गेराहति, तं प्पति वा विसाकरिसणणिमित्तं मट्टियं वा भक्खयति । स
पुण गेण्हमाणो जत्थ सञ्चित्तं भवति तत्थ ण गेएहति, तं प्पडको मारित्तकोट्ठो विसेण भाविस्सति । दीहाहिणा खइए
सचित्तट्ठाणं परिहरति ।
इमा जयणा घेत्तब्वेएसा जयणा। जया पुण सा मट्टिया घेप्पर तइया इमाए जयणाए
सीतं पउरिंधणता, अचेलकणिरोधभत्तघरवासे । दड्डे मुत्ते छगणे, रुक्खे सुसुणाय वंमिए पंथे । सुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु णायव्वे ।। १७५ ।। हलखणणकुडमादी, अंगुलखित्तादिलोणे य ॥१७१।। जंमि देसे सीयं पउरं जहा उत्तरावहे. तत्थ जे मंदपाउपढम ताव जो पदेसो अग्गिणा दहो तो घेप्पति , त-|
रणा ते पउरिंधणेहिं अम्गि करंति, तमि उज्वरगे जं लोस्सासति गोमुत्तातिभाविया, ताव ततो जमि पदेसे छग- ण तं ताव धूमादीहिं फासुतीभूतं गेराहति । गाहापुव्वद्धगछिप्पोल्लोवरिसोवटाविया ततो घेप्पति , पिचुमंदकरीर
त्थो सब्वो एत्थ भावेयवो । अहवा-सीतेण जं घत्थं बबूलादितुवररुक्खहट्ठातो वा घेप्पति, " अलसो त्ति वा तं घेप्पति, धुममाइणा वा परिंधणण जं मीसं तं घेप्पति, गंडूलगो त्ति वा सुसुणागो त्ति वा एगटुं । " ते णाहारे
अचेलगणिरोहे पुब्ववक्खाणं भत्तघरए वा जं ठियं णीहारीया जा सा वा घप्पति, तस्सासति वंमीए वम्मि
तं घेप्पति , एतेसिं असति अणिब्वराण पि घेप्पति , तो सप्पोतीतो वा घेप्पति, तस्सासति पंथे जत्थ वा ज
सञ्चित्तं तं पुण सुत्तत्थजाणएण अप्पाबहुयं णाऊण घेत्तब्वं, नपरिणग्धातविद्धत्था ततो घेष्पति, तो हलस्स चउयादि
किं पुण अप्पाबहुयं ?-इमं जइ तं लोणं ण गेण्हति तो गेलसु जा लग्गा सा वा घेप्पति, खणणं अलित्तं तस्स वा
राणं भवति, गेलराणे य बहुतरा संजमविराहणा इतरहा नजा अग्गे लग्गा सा वा घेपति , णवेसु वा गामागाग
भवति । गेलराणे त्ति दारं गयं । दिणिवेसेसु घराण कुसु घेपति , अंगुलमादी अहो ख
इदाणिं श्रोमे त्ति दारंगति खित्तादिमित्तं गिलाणणिमित्तेण लोणं घेप्पति , ओमे वि गम्ममाणे, अद्धाणे जतण होति सव्वेव । एते दो गिलाणदारा, पसि सत्थहताण असती वा कतो अत्यंता व अलाभे, पुत्तुल्लभिचारकाउंटे ।। १७६ ।। घेत्तब्वा अतो भगति
श्रामोदरियाए अण्णविसयं तं सव्वं जा तत्थ जयणा श्रद्धासत्थहयामति उरि, ओगेएहति भूमितसयदट्ठाए। । णदार भणिया, सव्वेव प्रोमोदरियाए गम्ममाणे जयणा असे. उवयारणिमित्तं वा, अह तं दूरंव खणितणं ।। १७२ ।। सा दटुब्बा । अत्यंता-गिलाणादिपडिबंधेण अरणविसयं श्रवट्टादि सत्थहताण असति ते सचित्तपुढवीए उवरिल्ल गच्छमाणा.अलाभे-भत्तपाणस्स.पुग्नुलगा-वाउलगा पाउंटेति गेहात, अखणिता खम्ममाणाए पुण भूमीए जे तसा
वाउल्लगाणं विजं साहित्ता किंचि इहिमंतं अाउंटावेति सो भमंदकादि ते विराहिजति । अहवा-भूमिट्टियाणं तसाणं
नपाणं दवाविजति। गया पुढविकायस्स कप्पिया पडिसेवणा च दयाणिमित्तं श्रहो न खणति उवरिलं गेण्हति उवया
इदागि आउकायस्स दप्पिया भरारमति । तत्थिमा दारगाहागणमिन, वा-हवा . अणुवहता सती पुडवी तीए
ससिणिद्धमादिसिण्हो, दुपयगमणे य धोव्वणे णावा । कज परिमंतेऊण किंचि कज कायव्व , अश्रो एतेण का- पमणे य गहणकरणे, णिक्खिने सेवती जवा ।। १७७॥ रणेण अंगुल वा दो वा तिमिण वा णिऊण गेराहेजा। श्र- एते दस दाग, सिराहोदए सुगमणसद्दो पत्तेयं सेवती जं गुले ति गत ।
वत्ति-पते सेअंतभावि दस दारं, तत्थ ससिणिद्धे ति दाविनादिति कोद गच्छे खित्तचित्तो दिचित्तो जक्खाइट्रो | रं-श्रादिसहाश्रो उदउल्लपुरपच्छकम्मा गहिया । सभेयससि. श्रोमायपत्ते वा होज सो रक्खियब्यो इमेण विहिणा। । णिद्धदारस्स णिक्खिनदारस्म य सेवती जवति । पुव्वखतो वर असती, खित्ता दट्ठा खणिज्ज वा अगडं ।
एतेसि तिराह वि जुगवं पच्छित्तं भराणतिअतरंतपरियरऽट्ठा, हत्था दिजंति जा करणं ।। १७३ ।।
पंचादी ससगिद्धे, उद उल्ले लहुय मामियं मीस । पुबमश्रो जो भूयगे वग तंमि सो ठविजति , असति
पुरकम्म पच्छकम, लहुगा आवञ्जती जं वा ॥ १७८ ।। पुब्बखयस्म भूवगे धरस्स वित्तादीण अट्टाणिमित्त पंच ति-पणगं तं सर्माणद्ध भवति. इमेण भंगविकप्पेण मण मजा वा, अगडं, अगडो-कृयो, एस आदिसही व- मिणिग्रे हत्थे, ससिणि मस. चउभंगा। पदम-दो पणगा,
मात्रा । दीहाहि त्ति गयं । अतरताग्यरट्टा वा, अतरता. एकेक दोसु चरिमो सुद्धा. श्रादिशब्दो सस्निग्ध एव योज्यः गिलाणो, न परिचन्ता नस्सट्रा अप्पण्टा वा समरक्सह- उद उल्लादीनामाद्यत्वान . रिणवित्तं चउबिह-सचित्ते-अणंस्थादिदाहिं जयंनि महि दाहिं जाव रणदार । नग्गरंगो, मीसे श्रणतग्गरंपरे । एते नागे एक मीसे पर
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मूलगुणपडि अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. परेणिक्खित्ते पणगं,मीसाणतरे मासियं.मीसे तिगत । सचि समुहे भवति, जहा-तेयालगपट्टणाश्रो वारवई गम्मा । तपरंपरे मासियं चेव, सश्चित्ताणंतरे चउलहुअं, उदउल्ले च- तिरिण य समुद्दातिरित्ते जले,ता य इमा 'ओयाणे'सिउभंगो, पढमे भंगे दो मासलहु, दोसु एकेक, चरिमो सुद्धो। अनुश्रोतोगामिनी, पानीयानुगामिनीत्यर्थः । 'उज्जाणे' त्तिपुरकम्मपच्छकम्मे लहुगा कंठं । 'श्रावजतीज व' त्ति-ए- | प्रतिलोमगामिनीत्यर्थः । तिरिच्छसंतारिमी नाम-कूलाकूले केके दारे योजमिदं वाक्यं । आवजति-पावति, संघट्टणा-| ऋजु गच्छतीत्यर्थः । दिक सेसकाते त दायब्वं ।
एवमवि चउबिहे गावातारिमे इमं पायच्छिनइदाणि 'सिरह' सिदार, 'दप्पं दये' त्ति दारं । तत्थ- तिरियोयाणुजाणे, समुद्दजाणे य चेव णावाए । गाउयद्गुणं बत्ती-संजोयणाई चरमपदं ।
चतुलहुगा अंतगुरू, जोयणअद्धद्ध जा सपदं ॥ १८४॥ चत्तारि छच्च लहुगुरु, छेदो मुलं तह दुगं च ॥ १७६ ॥
तिरिओयाणुजाणे समुद्दे णावा य चउसु वि चसश्चित्तेण उदगेण गाउय गच्छति, दो गाउया जोयणं, दो उलहुगा । अंतगुरु त्ति-समुहगामिणीए दोहिं वि जोयणा चउरो अट्ट सोलस बत्तीसं जोयणा पच्छद्धेण जहा- तवकालहिं गुरुगा, उजाणीए तवेण ओयाणीए कासन चउनहुगादी पच्छित्ता । दए त्ति दार गये।
लेण तिरियाणीए दोहिं वि लहुं । जोयणश्रद्धद्ध जा इदापि 'सिरह' त्ति दार भएणति
सपदं ति-पतेसि चउराहं णावप्पगाराण एगतमेणावि सिराहा मीसग हेटो-वरिं च कोसाति अट्ठ वीससतं । । श्रद्धजोयणं गच्छति चउलहुयं । अतो परं श्रद्धजोयणबड्डीए भुम्मुदयमंतलिक्खे, चतुलहुगादीउ बत्तीसा ॥ १८०॥
जोयणे--चउगुरुयं, दोवडे-व्ह, दोसु-व्ह,--अड्डाइज्जेसु
छेदो, तिसु-मूलं, तिसु-सद्धेसु श्रणवटुप्पो , चउसु-पासिराह त्ति वाउस त्ति वा एगट्ट, सा हे?तो उवरिं च । ताए
रंची, अभिक्खसेवाए अट्टाहं सपदं पारंचियं ति बुत्तं भवद । दुबिहाए मीसोदएण य गाउय गच्छमाणस्स मासलहुं; दोसु गाउपसु-मासगुरुयं , जोयणे चउलहुः दोसु--ठह,
णावोदगतारिमे पगते राणे वि उदगतरणप्पगारा भएणतिचउसु-व्ह, अट्ठसु-ह, सोलससु छेदो, बत्तीसाप-मूलं, संघट्टे मासादी, लहुगाओ जे य लेवणे उवरिं । चउसट्ठीए-श्रणवट्ठो,बीससते-पारंची । सिराह त्ति दारं गयं । कुंभे दतिए तुंवे, उडुवे पण्णी य एमेव ॥१८५॥ अविसिट्ठमुदगदार भणियं, तव्विसेसप्पदरिसणत्थं पच्छद्धं ।
णिकारणे संघट्टेण गच्छति मासलहुयं , आदिसहातो भरणति-भूमीए उदगं भूम्युदग नद्यादिषु, अंतलिक्खे उदगं
अभिक्खसेवाए दसहिं सपद । अह लेवेण गच्छति तो अंतलिक्खोदग वासादयेत्यर्थः, तेण गच्छमाणस्स चउलहु
चउलहुयं । अभिक्खसेवातो अट्टहिं वाराहि सपदं । श्रह गादीयो बत्तीसा, गतार्थम् ।
लेवोपरि गच्छति-ठह, अटुहिं सपयं । कुंभे त्ति-कुभ एव, इदाणि सचित्तोदग-सिरह-मीसोदगाणं
अहवा-चउकट्टि काउं कोणे कोणे घडो वज्झति, तत्थ अभिक्खसेवा भरणति । दारगाहा
अवलंबियं आरुभियं वा संतरणं कजति । दतिए त्ति-वासच्चित्ते लहुगादी, अभिक्खगमणम्मि अट्ठहिं सपदं । यपुराणो दतितो, तेण वा संतरणं कज्जति । तुबे लिसिराहामीसे वुदए, मासादी दसहि चरिमं तु ॥११॥ मच्छियजालसरिसं जाल काऊण अलावुगाण भरिज्जति, तं. सचित्तोदगेण सह गमणे चउलयं, वितियधाराए चउ- मि आरुहेहिं संतरणं कज्जति । उडुवे त्ति-कोट्टि वा तेण गुरुगं; एव जाव अट्ठमवाराए-पारंचियं सिराहामीसुदगे वा संतरणं कज्जइ । परिण ति-परिणमया महंता भारगा य पढमवाराए-मासलहु, बितियवाराए-मासगुरु, एवं जाव वज्जति ते जमला बंधेऊण तेण अवलबियं संतरण कजति । दसमवाराए-पारंचियं । सिराहुदग ति दार गयं ।
एमेव त्ति-जहा दगलेवादीसु चउलहुयं, अभिषखसेवाए य इदाणि 'धुवणे' नि दारं
अटुहिं सपदं, एमेव कुंभादिसु दट्टव्वं । णाव त्ति दारं गतं । सच्चित्तेण उ धुवणे, मुहणंतगमादि एव चतुलइया ।
इयाणि पमाणे ति दारं-- अञ्चित्ते धुवणंमि वि, अकारणे उवधिणिप्फम्म ॥१८२॥ कलमामद्दामलगा, करगादी सपदमट्ठवीसेणं । सच्चिसेण उदगेण जइ वि मुहणंतगं धुवति तहावि एमेव य दवउदए, बिंदुमातंजली वडी ॥ १८६ ।। चउलहुयं, अह अचित्तण उदगेण अकारणे धुवति तो
कलमो-चणगो भएणति, तप्पमाणादि जाव अद्दामलगउर्हािणप्फरणं भवति । जहरणे अकारणे-पणगं, मज्झिमे
प्पमाणं गेराहति, एत्थ चउलहुय । कह पुण कठिणोदगसंमासलह,उकोसे चउलहुं । सच्चित्तेणाभिक्खं धोवणे अट्टहिं
भवो भवति ? भण्णइ-करगादी-उदगपासाणा वासे पसपद, मीसण दसहि सपद, अचित्तेण विणिक्कारणे अभि
डति-ते करगा भरणति, आदिसद्दाश्रो हिम वा कढिक्ख धोषणे उबहिणिप्फराण, सटाणाश्रो चरिमं णेयव्यं । धो.
णं । 'सपदमट्टवीसणं ति'--श्रद्दामलगादारभ दुगुणा दुगुणेवणे ति दारं गये।
ण जाव अट्ठावीसं सतं अद्दामलगप्पमाणाणं पत्थ चउलइदाणिं 'णाव' त्ति दारं
हुगादी सपयं पावति । एमेव य दवउदगे--दवोदकेत्यर्थः । णावातरिमे चतुरो, एग समुद्दमि तिणि य जलंमि।।
कलमस्थाने विदुएव्यः , अामलकस्थाने अञ्जलिईष्टोयाणे उज्जाणे, तिरिच्छसंतारिमे चेव ॥१८३॥ व्यः । वडि त्ति-दुगुणा दुगुणा बढी जाव अट्टवीससतं णावातरिमे उदगे चउरो पायप्पगारा भवंति , तत्थ एगो अंजाणं चउलहुगादि पच्छित्तं, तहेव जहा कढिणोदके मो
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सरायगहणाती॥१७॥धकरणतणा,सावते दुविह त्ति-सारणीला तेण ति-सरीरो
(३५१) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. सोदकमेवमेव आमलकांजलीप्रमाणं, णवरं दुगुणा दुगुणण थलपहेण गम्मद, तं पुण थलपहं इमं णातिकतो परा वा चरताव णेयव्यं जाव पंच सता वारसुत्ता पच्छितं मासलहु- गो वा संडेवगो वा तेण दुजोयणिपण परिरएण गच्छतु । गादि । अभिक्खसेवाए दसहि सपदं । पमाणे ति दारं गये।
पवमाइणा चोदपण गच्छद । अह असर परिरयस्स जतो सर इदाणि गहणे त्ति दारं
वा इमेहि दोसेहिं जुत्तो परिरमो-दुविहा तेण ति-सरीरो. जति गहणे तति मासा, पक्खेवे चेव होति चतुभंगो।। वकरणतेणा,सावते दविहति-सारण, सीहा वा लेवो तेण वा कुदुंभगादिकरणा उ,लहुगा तसरायगहणाती॥१८७॥ थलपहेण भिक्य ण लम्भति वसही वा, तो दिवहजोयणगहणपक्खेवेसु चउभंगो कायब्वो, एके गहणपक्खवे-ह ।।
संघट्टेण गच्छउ मा य णावाए । अह तत्थ वि पते चेव दोसा जत्तिया गहणपक्खेवा पत्तेयं तसिया मासलहुगा | तो जोयणे लेवेण गच्छतु मा यणावाए। अहणऽस्थि लेबो सति भवंति ; गहणे त्ति दारं गतं ॥ इदाणि करणे त्ति दारं । कुदु ।
वा दोसजुत्तो तो अद्धजोयणे लेवोवरिएण गच्छउ मा य भगादिकरणे य त्ति-कुर्दुभगो-जलमंडश्रो भएणति, श्रा
णावाए। अह तं पिणऽस्थि दोसलं वा तदा णावाए गच्छतु । दिसहाश्रो मुखगणतरं वा सई करेति । कुर्दुभगादि सचि-| एवं दुजोयणहाणीए णावं पत्तो। त्तोदके करेंतस्स-चउलहुयं , अभिक्खसेवाए अहिं
संघट्टलेवउवरीण य वक्खाणं कज्जतिसपदं, मीसाउकाए कुटुंभगादि करेंतस्स मासलहु, अभि- संघट्टासंघट्टो, णाभीलेवोपरेण लेवुवरि । क्खसेवाए दसहि सपदं । कुदुभगादि वा करतो पूयरगादि | एगो जले थलेगो, णिप्पगलणतीरमुस्सग्गो ॥१६५॥ तसं विराहेजा, तत्थ तसकायणिप्फरणं । रायगहणादि त्ति |
पुब्बद्ध कंठं । संघट्टे गमणजतणा भरणति-एगं पायं जले सुदरं कुदुंभग करेसि त्ति में पि सिक्खावेहि त्ति गेराहेज्जा।
काउंएगं थले,थलमिहागासं भराणति सामाइगसपणाए, पतेण आदिग्गहणतो उन्निक्खमावेउ पासे धरेज्जा । करणे त्ति
विहाणेण वक्खमाणेण य जयणामत्तिलो जया भवति तदा दारं गय । गता पाउकायस्स दप्पिया पडिसेवणा।
णिप्पगलिते उदगे तीरे इरियावहियाए उस्सग्गं करेति । इदाणि पाउकायस्स कप्पिया पडिसेवणा भरणति
संघट्टजयणा भणिया। श्रद्धाणकज्जसंभम-सागारिय-पडिपहे य फिडिते य । __इयाणि लेवलवोवरिं च भएणति जयणादीहादी य गिलाणे, ओमे जतणा य जा जत्थ ॥१८॥ णिन्भय गारथीणं , तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे । पते श्रद्धाणादी नवाऽववायदारा । एतेसु ससणिद्धादी दस सभए अद्धद्धे वा, उत्तिमेसु घणं पढें ।। १६६॥ वि दारा जहासंभवं अववदियब्वा ।
णिभयं-जत्थ, चोरभयं णऽस्थि तत्थ गारथीणं तु-मग्गतो पत्थ पुण श्रद्धाणदारे इमे दारा पुढविसरिसा
गारथी-गिहत्था, तेषु जलमवतिराणेसु मंगगतो पच्छतो जल ससिणि उदउल्ले, पुरपच्छामाणगहणणिक्खित्ते ।
उयरइ त्ति भणियं होइापच्छितोय ठिता जहा जहा जलमवत. गमणे य सहिय जाव, तहेव अाउंमि बितियपदं।। १८६॥ रंति तहा तहा उवरुवरि चोलपट्टमुस्सारैति,मा बहु उदगघा. कंठा।
तो भविस्सति । जत्थ पुण सभयं चोराकुलेत्यर्थः । श्रद्धद्धे गमणदारस्स जइ वि पुढवीए अतिदेसो कतो जत्थ घणे तिं तत्थ । उत्तिरणसुं ति जलं अद्धेसु गिहत्थेसु तहावि शेषप्रतिपादनार्थमुच्यते
अवतिराणेसु घणं भायण पट्टे चोलपट्टे बंधिउ मध्ये अवतरतीउवरिमसिएहाकप्पे, हेडिल्लीए उ तलियमवणेत्ता।
त्यर्थः।
जत्थ संतरणे चोलपट्टो उदउल्लेज्ज तत्थ इमाएमेव दुविधमुदए, धुवणमगीएसु गुलियादि ॥१०॥
जतणाउबरिमसिण्हाए पडंतीए वासाकप्पे सुपाउयं काउं गंत
दगतीरे ता चिद्वे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु । व्वं, अहो सिराहाए पुण तलियाश्रो श्रवणे ता गंतव्वं । एसा कारणे जयणा । जहा-सिरहाए विहि घुत्तो एमेव य दुवि
सभए पलंबमाणं, गच्छति कारण अफुसंतो॥१७॥ हमुदए वि-भोमे अंतलिक्खे य । गमणे त्ति दारं गतं ॥ इदा- दगं-पानीयं, तीरं-पर्यंतं, तत्थ ताव चिट्ठ-जाव णिप्पगणि धोवणे त्ति दारं अववतिज्जति-धुवणमगीएसु गुलि
लो चोलपट्टो । तुसद्दो निर्भयाऽवधारणे। अह पुण सभयं तो यादी-गिलाणादिकारणे जत्थ सचित्तोदगेण धुवणं कायव्वं हत्थेण गेहेउं पलंबमाणं चोपलपट्टयं गच्छति । डंडगे वा काउं तथिमा जयणा-अगीयत्थ त्ति अपरिणामगा, अतिपरिणा- गच्छति । ण य तं पलंबमाणं दंडाऽग्रे वावस्थितं कायेन मगा य । तेसिं पञ्चयणिमित्तं अतिप्पसंगणिवारणत्थं च गु. स्पृशतीत्यर्थः । एसा गिहिसहियम्मि दगुत्तरणे जयणा लियाउ धुविउमाणिज्जति । दगंगुलिया पुण यक्को भरणति ।। भणिया। उदगम्मि भावियपोत्ता वा आदिसद्दाश्रो छगणादि घेत्तब्वं ।
गिहिअसती पुण इमा जयणाधुवणे त्ति दारं गयं । नि० चू०१ उ०। (नदीसंतरणविषयः
असति गिहिणालियाए,आणक्खेउं पुणो वि परियरणं । ‘णईसंतार' शब्दे चतुर्थभागे १७३८ पृष्ठे गतः)
एगा भोगपडिग्गह,केई सव्वाणि ण य पुरतो ॥१६॥ इमं जयणमतिकतो
असति सथिल्ले य गिहत्थाणं जतो पाडिवाहिया उत्तरमाअसति तप्परिरयस्स, दुविधा तेणा य सावए दुविधे। ।
णा दीसंति तो उसरियब्ध । असति वा तेसिं गालियाते, संघट्टणलेवुवरिं, दुजोयणा हाणि जाणावा ॥१६४॥ आणक्खेउ पुणो पुणों पडियरणं पायप्पमाणातो चउरंगुजत्थ णावातारिमं ततो पदेसानो दोहिं जोयणेहिं गओ। लाहिगो दंडोणालिया भएणति, तीए प्राणक्खेउं उबघेनूख
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( ३५२) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. परतीरं गंतु भारपारमागमणं पडिउत्सरणं । णालियाए
तुवररुक्खो समूलपत्तपुप्फफलो, जमि उदगे पडिसमि वा असति तरण प्रति कयकरणे जो सो तं प्राणक्खेउं तेण परिणामियं तं घेपति, अहवा-तुवरफला-हरीतजया अग्गतो भवति तदा गंतव्वं । एवं जंघातारिमे विही | क्यादयः, तुवरपत्ता-पलासपत्तादयः । रुक्ख त्ति-रुक्स्खेभणियो । इमा पुण अथाहे जयणा तं पढम णावाए भ- कोटेरे कटुफलपत्तातिपरिणामियं घप्पति । सिल त्ति राणति । एगा भोगपडिग्गहे त्ति-एगो भोगो एगो य योगो| क्वचिच्छिलायां अराणतररुक्खछल्ली कुट्टिता तंमि जं संभरणति एगट्ठबंधणे त्ति भणियं भवति, होति तं च मत्त- घट्टियमुदगं तं परिणयं घेप्पति । जत्थ वा सिलाए तुप्पगोवकरणाणं एगटुं । पडिग्गहो त्ति-पडिग्गहो सिक्कगे - परिणामियं उदगं तं घेप्पति । तुप्पो पुण मयकलेववरसा भ. होमुह काउं पुढो कज्जति तो भेदात्मरक्षणार्थम् । केय त्ति- राणति । मद्दणादीसुत्ति-हस्त्यादिमर्दितं श्रादिशब्दो हस्त्यादि केचिदाचार्या एवं बक्खाणयंति-सव्वाणि त्ति-माउगो- क्रमप्रदर्शने । एणसिं तुवरादिफासुगोदगाणं असति, तो पपकरणं पडिग्गहो य पादोपकरणमसेसं पडिलेहिय, एता- च्छद्धं-आयवतत्ते अवहे बहे पासवणे पवाते। एष क्रमः। उक्तभ्यामादेशद्वयाभ्यामन्यतमेनोपकरणं कृत्वा सीवरियं का- मस्तु बंधानुलोम्यात्पुब्वं आयवतत्ते अप्पोदगं अवहं घेप्पति । उपादे य पमज्जिऊण णावारुहणं कायव्वं । तं च ण य असइ श्रायवतत्तं वहं धिप्पति, दोरह वि असती कुंडतडापुरउ ति-पुरस्तादग्रतः प्रवर्तनदोषभयात् नो, अनबस्थान- गादिपस्सवणोदगं घेप्पति, अएणोराणपुढविसंकमपरिणयत्तादोषभयान पिट्टो वि ण दुहेज्ज मा ताव विमुश्चेज्ज सवावपातस्सासति धारोदगं धारापातविपन्नत्वात् । अत्र अतिविकृष्टजलाध्वानभयाद्वा, तम्हा मज्झे रहेज्जा । सत्वाच्च ततः शेपोदगं। तं चिमे ठाणे मुत्तुं
मद्दणादिसु त्ति जं पय अस्य व्याख्याठाणतियं मोत्तूणं, उवउत्तो ठाति तत्थऽणावाहे । जड्डे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयरमिगे य । दतिउडुव तुबेसु वि, एस विही होति संतरणे ॥१६६।। | ओप्परवाडी गहणे, चाउम्मासा भवे लहुया ।। २०२।। देवयट्ठाण कूपट्टाणं निजामगट्ठाणं । अहवा-पुरतो मज्झे पिट्ठ
जडो-हस्ती, वग्गो-एगसिंगी अरराणे भवति, महिसे-गाणे ओ, पुरतो-देवयट्ठाणं,मज्झे-सिंचणट्ठाण, पच्छा-तोरणट्ठाणं
प्रसिद्धौ, गवये, प्रसिद्धः, सूयरमृगौ प्रसिद्धौ । जहादियाण एते वजिया । तत्थऽणावाए-अणावाहे ठाणे ठायति । उव
उक्कमगहणे चउमासा भवे लहुया, अहवा-महणाइयाणं वा उत्तो ति-णमोकारपरायणो सागारपञ्चक्खाणं पञ्चक्खा
उक्कमगहणे भवे लहुया, एसा पमाणदारे जयणा भणिया । उ य ठायति । जया पुण पत्तो तीरं तदा णो पुरतो उ.
एत्थ पुण मीस चित्तोदगाणं गहण पत्त जातिय उववतरेज्जा. मासो महोदगे णिव्वुड्डेज्जा । ण य पिटुतो मा सो श्र
जति त्तियमेत्तस्स पढमभंग गहणं, असंथरण जाव अणेघसारेज्जा णाचा । एतहोसपरिहरणथं मज्झे उार
गग्गहणं अणगपक्खेवं पि कंग्जा । श्रद्धाणे ति दारं गतं । यब्वं । तत्थ य उत्तिरमेण इरियावहियाए उस्सग्गो काय- इदाणि सेसा कजादी दाग अवदिति-- वो जति विण संघट्टति दगं । दत्तियउडुवतुंबेसु वि एस जह चव य पुढवीए, कब्जे संभमसगारफिडिए य । विही होति संतरणे । णवरं ठाणतियं ति मोनुं, णावत्ति
ओमम्मि वि तह चेव तु,पडिणीया उदृणं काउं।।२०३॥ दारं गयं ।
जहा पुढाए तहा इमे वि दारा कजे संभमे सागारिते फि अधुना पमाणदारं-पत्थ पुण इमं जतणमतिकंतो सश्चित्तो
डिते य । चसद्दा पडिप्पहे या 'श्रोममि वि तह चेव तु' नुसद्दो दगग्गहण करेति,
श्रवसेसावधारणा) । इमं पुण, परिणाया उट्टणं काउंति किंजियायामासति, संसद्धसिणोदएसु वा असती।। श्रद्धाणाति जहासंभवं जोएज्जा । पडिीया उद्दरण काउं का. फासुगमुदगं सजलं, तस्सासति तसेहि ज रहियं ।२००। मोपकरणं पि करेजा । सत्त दारगाहा ।
इदाणि दाहादिगिलाणे ति दारापुब्बं ताव कंजियं गेगहति, कंजियं-देसीभासाए श्राग्नाल भरणति । आयाम-अवसामराण,पतेसि असतीए संसद्धसि-1
विसकुंभे से मंते, अगदोसधघसणादिदीहादी। गोदगं गेहति , गवंगरसभायण णिशेयणं जं तं संस
फासुगदगम असती, गिलाणकज्जट इतरं पि ।।२०४।। द्भुसुणोदगं भरणति । अहवा-कोसावसयादिसु सल्लोयणा |
विसकुंभो त्ति--लता भरणात, नन्थ से कि णिमिनं उदगं विणसेण भया सीतोदगे छुटभति, तमि य अोदणे भुणे नं |
घेतव्यं । मंते ति-आयमिउं मंसहनि , अगोसहाणं वा अंबीभूतं जर अतसा गतो घेपनि एतं वा संसद्धसिणोदगं ।
पीसामनं.विमघायमूलियाण वाघेसणहेउ,आदिसद्दानो एतेसि असतीए जं वपादिमु फासुगमुदगं तं सज घेण
विषोपयुक्तम्भुक्ने वा एवमेव । दाहादि ति दारं गतं । इदागि ति । तस्सासति त्ति-फासुयमुदगस्स असति फासुगं धम्म- |
गिलाणे त्ति-फासुगोदगस्म अति, गिलाणकायें इतरं पि करकाविपरिपूयं घप्पति । सधहा फासुगासनि सच्चित्तं ।
सच्चिनेत्यर्थः । अाउकायस्म कप्पिया पडिमेवगा गता। जं तसहि रहियं ति।
द्याणि ने उकायम्म प्पिया डिसवणा भगणरफासुयमुदगं ति जं वुत्तं एयरस इमा धक्खा- मागणियोवने य, संघट्टण तावणा य णिव्याचे । नुवरे फले य पत्ते, रुक्खसिलातुप्पमद्दणादीसु । तमो य इंधणे में कामयकरणं व जणणं व ॥ २०५॥ पासंबणे पवाए, आतवतत्तेऽवहे अवहे ।। २०१॥ | मागणिए ति दारं अस्य सिद्धमनाचार्यो व्याख्यां करोनितुवरसहो रुक्खसरे सवउझनि. नुवस्वत इत्यर्थः, मो य । सवपसव्व ग्तणिो , जोनी दीवो य होनि एकेको ।
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( ३५३ ) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. दीवमसब्बरतणिए, लहुगो सेसेसु चउलहुगा ॥२०६॥
व्ह, अत्थं णासेति-व्ह, अभंगे पुण जोती विराहिज्जति । इदा. एकेको त्ति-जोती-उहितं,दीवो-प्रदीपः, ज्योतिः सर्वरात्रं
णि मरणेतु त्ति दारं-'होइ मरणेतु रतिमरती वा, व्याख्याझियायमाणो सार्वरात्रिक, इतरस्त्वसार्वरात्रिकः । प्रदीपो.
नपदं सजोतिवसहीए जति रती होज्ज सुहं अत्थिज्जति त्ति
रागेणेत्यर्थः तो-चउगुरुयं । अह अरति मरणति-उज्जोते ऽप्येवमेव द्रष्टव्यः। एतेहिं चउराह विकप्पाण श्रगणतरेणावि
तो चउलहुयं। जा जुत्ता बसही तीए ठायमाणाणिमं पच्छित्तं-दीवे अस-| व्वरयणिए-लहुगो । सेसेसु ति-सव्वरातीए पदीवे दुबिह
श्रावस्सगपरिहाणी पुण इमाजोइंमि य-चउलहुगा।
जइ उस्सग्गे ण कुणति,तति मासा सव्वकरण लहुगा य । इमा पुण सागणियणिक्खित्तदाराणं दोण्ह विभहबा
वंदणथुती अकरणे, मासा संडासगादिथुईसु य ॥२१॥ हुसामिकता प्रायश्चित्तव्याख्यानगाथा
'जति उस्सग्गे ण करेति तइ मासा' कंठं, सब्वावस्सगस्स पंचादी णिक्खित्ते, असवराति लहमासियं मीसे ।
अकरणे-चउलहुयं, अह करे तो जत्तिया उस्सग्गा करेह लहुगा य सवरातिय, जं वा आवज्जती जत्थ ॥२०७॥ तत्तिया चउलहुया, सवम्मि चउलहुयं चेव । जत्तिया ण दे. पंच ति-पणगं तं आदि काउं जत्थ ज संभवति प्रायच्छि- ति वंदणए थुतीभो तत्तिया मासलहुया भवंति, प्रह तं तं तत्थ दायव्वं । णिक्खित्ते त्ति-सचित्तपरंपरणिक्खित्ते
करेंति तं चेव य-मासलहुं, संडासगपमज्जणे-अपमज्जणे असब्बराईए य पदीवे-मासलहुगं । अहवा-पंचादीणिक्खि
वि-मासो। तेति-प्रादिणिक्खित्ते-पणगं, मिस्सागणिपरंपरणिक्खि- णिक्खमणे पवेसिते ति दो दारा इमा व्याख्यात्तेत्यर्थः, कथं पुनराद्यं द्वितीयपदे प्राप्ते पूर्व तेन ग्रहणमिति करेजा-कृत्वा मासियं । मीसित्ति-मीसाणंतरगणिणिक्खित्ते
आवस्सिया मिसीहिय-पमज्जासज्ज प्रकरणे इमं तु । मासलहुयं, लहुगा य सब्बराइए त्ति-सव्वरातीए पदीये पणगं लहु आवडणे, पडणे चउलहुग जं वामं ॥२११॥ दुषिहजोयमि-चउलहुगा। चशब्दात्सचित्ताणतरणिक्खित्ते
सञ्चित्तमीसगणी, णिक्खित्ते संतणंतरे चेव । यावा भावज्जती जत्थ सि-एयं सब्बदाराणं सामरणपयं, जं संघहणादिकं आर्यावराहणं वा श्रायविराहणाणिप्फ
सोधी जह पुढवी ता, वणदारस्सिमा वक्खा ॥२१२॥ राणं वा,तसकायणिष्फरणं वा, पावज्जति-प्राप्नोति,जत्थ त्ति. णिक्खमंतो आस्सियं ण करेति, पविसंतो मिसीहियं ण सागणियादिसु वारेसु जहासंभवं योजमिति वाक्यशेषः । करेति, ता णितो वा ण पमज्जति, आसज्ज वा ण करेति सागणियणिक्खिसे ति दारा गता।
एतेसिमं पायच्छित्तं-आवसिगातिसु जहासंखण पणगं, इयाणि संघट्टणे ति दारं, एयस्स इमा भद्दबाहुसामिकता मासलहू, अहावस्सिणिसीहिया करेति तो पणगं चेव, वक्खाणगाहा
असमायारीणिप्फरणं वा पमज्जासज्जाणं पुण करणे उवकरणे पहिलेहा, पमजणाऽऽवासपोरिसिमणे य ।
अगणिणिप्फरणं । णिक्खमत्सपवेसि ति दारा गया । णिक्खमणे य पवेसे, आवडणे चव पडणे य ॥२०॥
आवडण-पडणे त्ति दारा-आवडण-पक्खलणं तं पुण भूमि
असंपत्तो संपत्तो वा । जाणुक्कोप्परेहिं पडिओ पुण सव्वगते उवकरणे पडिलेहति पदं,एवं-'पमजणा' आवासगपोरिसि भूमिए एत्थ श्रावडणे चउलहुग त्ति भणितं भवति । जे वर्ण मणे य निक्खमणे य पवेसे आवडणे चेव पडणे य' एतावंति ति आवडतो, पडिओ वा छण्हजीवनिकायाण विराहणं पदाणि, एतेषां सिद्धसेनाचार्यः व्याख्यां करोति
करिस्सति, तमिप्फरणेति भणियं होति । अहवा-श्रात्मवि. पेह पमञ्जण वासय, अग्गी ताणिऽकुव्वतो जा हाणी।। राधनाणिप्फरणं, अगणिणिप्फरणं । श्रावडणपडण सिदारा पोरिसिमंगमभंजण-जोई होति ममेतु रतिमरती।२०६।
गता । गतं च संघट्टणदारं। पेह ति-उवकरणे, पडिलेहा गहिता, पमजणे ति-व
इयाणि भावणे ति दारंसहिपमज्जणा गहिता, वासय ति आवासगदारं गहितं, अ- सेहस्स वि सीदणता, ओसक्कतिसक्कणम्मइंधणयं । ग्गि ति-पताणि पेहादीणि करेंतस्स अग्गी विराहिजति' लिवकसेसं । जोतियाए उबकरण पडिलेहेति मासलहुअं ।
विझविऊण तुयट्टण, अधवा विभवे पलीवणता।२१३॥ अह अगणीए छेदणगाणि वडंति तो चउलहुयं । अह अर्गाण- अगणिसहितोवस्सए ठिऊणं सीयतो सेहो अप्पाणं पि विराहणाभया पेहादीणि ण करेंति, ताणि अकुव्वतो जा प- तावेज्जा हत्थपादे वा । तावण त्ति दारं गये। उक्कमेणं रिहाणि त्ति-तमावज्जते । उवकरणपडिलेहणपरिहाणीए अ- इंधणे ति दारं वक्खाणे ति--इंधणं-- दारुय, तमेवं करेंति समायारिणिप्फरणं-मासलहुं, उवहिणिपफराणं वा घसहिं रण उसकति सक्कण ति लहुं विज्झाउति, जलमाणिधणाणं पमज्जंति,अइगणिता वाण पमजंति-मासलहुँ । अह पमजंति उकट्टणा-योसकणा भएणति । जलउ त्ति-तेसिं चेव समीतहावि-मासलहुं अपमज्जिते छगणगेहिं अगणिकाो विरा रणा अतिसक्कणा भएणति, प्रगणं वा इंधणं वा पक्खिवह । हिज्जति तो-चउलहुयं । पोरिसि त्ति दारं-'पोरिसि- इंधणे ति दारं गयं । इदाणि संकमणे ति दार-अराणेहिं भंगमभंजणजोती, व्याख्या पद-सुत्तपोरिसिं भजति-मा- गयणं ति स्थानान्तरसंक्रमेत्यर्थः, तत्पुनः शयनीयस्थानभासलई, अत्थपोरिसिं ण करेति-मासलहुगुरु, सुत्तं णासेति- वात्करोति, प्रदीपनकभयाद्वा । संकमणे ति दारं गयं ।
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मूलगुणपडि.
( ५४) अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि० इदाणि णिब्वावण सि दारं-विज्झविऊण तुयट्टणे ति- अणुकंपा पावतरी, णिक्किवता सुंदरी कहंणु ॥ २१८॥ पलीवणगभया णिवावेतुं छारधूलीहिं स्वपितीत्यर्थः । इह | अपि च-ममाभिप्रायात् , हुशब्दो-दंडावधारणे, जुत्तो-योवक्खाणुक्कमकरणं ग्रन्थलाधवाथै । णिव्वावणे त्ति दारं गतं । ग्यः, दंडणं दंडः । उवघाते ति-विनाशेत्यर्थः, न-प्रतिषेधे, इदाणिं करण व त्ति दारं-अलातचक्रादिकरणेनेत्यर्थः ।
तुशब्दः-प्रतिषेधावधारणे, स्तोकप्रायश्चित्सप्रदानविशेषणे तत्रात्मविराधना अग्निविराधना वा । अहवा वि भवे पलीव
वा । अणुग्गहे ति-अणुवधाते, उजालनेत्यर्थः, जुज्जे-युक्तं, गय त्ति-तेनालातेन भ्राम्यमाणन प्रलीपणं स्यात् । अणुकंपणं-अणुकंपा, दयति-भणियं होइ । सापावतरी कहं? तत्थ इमं पायच्छित्तं
भवति-स्यात् , कथं बहुप्पच्छित्तप्पदाणातो णिक्किविता गाउयदुगुणादुगुणं, बत्तीसं जोयणाई चरिमपदं । । णिग्धिणिया सा सुंदरा-पहाणा, कहं ? , भवति-स्यात् , द₹णं व वच्चंते, तुसिणीय पोस उड्डाहो ॥ २१४ ॥ |
कथं अप्पपच्छित्तप्पदाणातो। कहं ति प्रश्नः, नु-वितर्के। पुब्वच कंठं । णवरं चउलहुगादी पच्छित्तं ददळूण वचते।
आचार्याहतुसिणीए त्ति-देवउलादिमि पलिते आत्मोपकरणं गृही
उजालझंपगा णं, उजालो बलियो तु बहुकम्मो । स्वा आत्मापराधभयात्साधवः प्रयाताः। ते य वच्चंते तुसि कम्मार इव पोत्ता, बहुदोसयरो ण भंजंतो ॥२१६।। पीए ददळूणं गिहत्था पदोस गच्छेज्जा। उड्डाहं व करेजा। ते उज्जालः प्रज्वालकः, झपको-णिव्वावको, पशब्दो वाक्याय पदुठ्ठा भत्तोवकरण वसहिं वा ण देज्जा । पंतावणाई वा क- लंकारार्थे । एतेसि दोण्हं पुरिसाणं उज्जालो बरिणो भगरेज्जा । से य वडेहिंति दहमुड्डाहं करेजा। चसद्दो समुश्चये वतीए बहुकम्मो । तुशब्दो निश्चितार्थावधारणे । अस्यार्थकरणे त्ति वारं गये।
स्य प्रसाधनार्थे प्राचार्यो दृष्टान्तमाह-कम्मारे त्ति-कम्मकइदाणि संघट्टणादियाणं करणं ताण पच्छित्तं भरणति- । रो-लोहकारो, इव ओवम्मे, पत्रोत्ता प्रायुधाणि णिव्वतिना संघट्टणादिएK , जणणावजेसु चउलहू हुंति । सो बहुदोसतरो भवति, ण य ताणि आयुधाणि जो भंजतेछप्पइकादिविराधण, इंधणे तसपाणमादी य ॥२१॥
त्यर्थः । तरशब्दो-महादोषप्रदर्शने, यथा-कृष्णः, कृष्णतरः,
एवं बहुदोसो, बहुदोसतरो भवति । एष दृष्टान्तः । तस्योपपुम्वद्ध कंठ । तावणदारे इमं विसेस, पच्छित-छप्पतिआइविराहण नि-तावेतस्स छप्पतिगा विराहिज्जंति, त
संहारः-एवं अग्निशस्त्रं पज्जालयंतो पुरिसो बहुदोसतरो
न निर्वापयंतेत्यर्थः । तेउक्कायस्स दप्पिया पडिसेवणा गता। रिणप्फराण पायच्छित्तं भवतीति वाक्यशेषः । आदिसहातो जा वारे हत्थादी परावत्तेउ तावेति तह चउलहुगा । इंध
इयाणि तेउक्कायस्स कप्पिया पडिसेवणा भएणतिणे सिधणदारे इमं विसेसं पायच्छितं दायव्यमिति ।
बितियपद असति दीहे,गिलाण अद्धाण सावते ओमे । इदाणि जणणं ति दारं
सुत्तत्थजाणतेणं, अप्पाबहुयं तु नायव्वं ॥ २२०॥ अहिणवजणणे मूलं, संठाणणिसेवणे य चउलहुगा। | वितियं अववायपदं, उस्सग्गपदमंगीकृत्य, द्वितीय अववासंघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवायणे मूलं ।। ३१६॥
यपदं । तत्थिमे दारा-असति, दोहे, गिलाणे, अद्धाणे, सावते बलराधरअरणिमहणप्पयोगे अहिणवमग्गि जणयति तत्थ
ओमे । एए पंतीए ठावेऊण तेसिं हेट्ठातो सागणियादी जणसे मूलं भवति । इदाणि चशब्दो व्याख्यायते-सट्टाणणि
णपज्जवसाणा णव दारा ठाविजंति । तत्थ सागणियदारस्स सेवणे यत्ति-जत्थ गिहत्थाह पज्जलिया अगणी तत्थ ठियं
हेटातो पेहाती पडणपज्जवसाणा णव दारा ठाविजंति । सेवेब आयपरप्पोगण असंघट्टतो सेवति तत्थ चउलहुगं ।
सा एकसरा । एते सागणियादी सभेया असति दारे अववसय पज्जालिए पुण अगणिकाए पुढवादीयाण तसकायप
दिज्जंति। जंताण सघट्टणपरितावणलहुगुरुगा, अतिवायणे मूल । एवं
तत्थ सागणिय त्ति दारंकायणिप्फरणं ।
अद्धाण णिग्गमादी, असती ते जोतिरहियवसधीए । चोदक पाह
दीवमसच्चे सव्वे, असव्व सब्वे य जोतिमि ॥२२॥ जदि ते जणणे मूलं, हते वि णियमुप्पतीय ते चेव । श्रद्धाण महंता अडवीश्रो ताो णिग्गता, वसतिमप्राप्ता इंधण पक्खेवंमि वि, तं चेव य लक्खणं जुतं ॥२१७॥ इत्यर्थः । श्रादिसरातो इमेसु ठाणेसु वट्टमाणा-"असिवे,प्रो. यदीत्यभ्युपगमे । ते भवतः उत्तराधरारणिप्पभोगेण जणि- मोदरिए, रायभए, खुहिय,उत्तमट्टे य । फिडिय गिलाणविसेए उत्पादितेत्यर्थः मूलं भवति । एवं ते हते विधातितेत्यर्थः।। से, देवया चेव, आयरिए ॥१॥" ते य बियाले चेव, पत्ता गाम लियमा अवस्सं श्रगणो अग्गी उप्पाइज्जिस्सति, तम्हा हते असत्तीए । जोतिरहियवसहीए , ठायंताणिमा जयणा ॥ वितं चेव मूलं भवतु । किंचान्यत्-इंधणपक्खेवंमि वि अ- पढम असव्वरातीए दीवे, असति सव्वईए दीवे म्योऽग्निरुत्पाद्यते । अपिः पदार्थसंभावने । उस्सकणे वि श्र- तस्सासति असवराईए जोइए, असति सव्वरातीए जोहए, न्योऽग्निरुत्पाद्यते । तं चेव य लक्खणं ति-तदेवान्याग्न्युत्प। मि इत्ययं निपातः । सागणिय त्ति दारं गयं । णिक्खित्तदातिलक्षण । चशब्दो लक्षणाविशेषाभिधायी । जुत्त योग्यं घ- राववातो ण संभवति तो णाववइज्जति । संघट्टणं ति दारं टमानेत्यर्थः । तम्हा एतेसु वि मूल भवतु ।
भएणति । पुनरपि चोदक एवात्रोपपत्तिमाह
संघट्टणभया पेहादिसु इमा जयणा कज्जतिअवि य हु जुत्तो दंडो, उवघाते ण तु अणुग्गहे जुओ।। किडओ चिलिमिणीवा,असती सभए व बाहि अंतं ।
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मूलगुणपडि अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. ठागासति सभयंमि व,विज्झायऽगणिम्मि पेहति ।२२२।
इदाणि इंधणे त्ति दारंपदीवजोतीणं अंतरे वंसकिडगादी दिस्सासति,तस्सासति अद्भाणादी अतिणि-द्दपेल्लिो गीतो सक्कियं सुयति । पोत्तादि चिलिमिणी दिजति, एवं काऊण पेहादी सव्वदारा सावयतयउस्सिकण, तेण भए होति थाणाश्रो ॥२२७।। करेंति । असति किडगचिलिमिणीणं यहि उवकरणं पेहेतु । श्रद्धाणादिपरिस्संतो अतिनिदापग्लिो-अतिनिद्राग्रस्तः बहिं सभए 'जं अंतं' अंतमिति जूगण अचोरहरणीयमित्यर्थः,
गीयस्थग्गहणं जहा अगीयत्था ण पस्संति तहा तं जयणाए तं बाहिं पडिलहिंति सारोवकरणं अच्छति तं विज्झाय अग
उसक्किउ सुति, स एव गीयत्थो सीहसावयादिभए जयणिमि पेहंति । अगासति त्ति-अह बहिं जंतुवकरणस्स चि.
णाए उम्मुगाणि ओसवति । चोरभए उसकोषसाणाणं ट्ठाउ नऽत्थि सति वा राए अंतुवकरणस्स वि भयं तो सव्वं
भयणा । कथं जति अतिकतिया तेणा तो उसकणं न कपजति । चिय अंतसारोवहिं विज्झायऽगणिमि पेहंति । पेहत्ति दारं गतं।
मा अग्गि दठ्ठमागमिस्संति । अह थिरा चोरा तो उस्सपमजणावासपोरिसिमणदारा चउरो वि एकगाहाए ब- किजति तं जलमाणिं अग्निं दद्दु जागरंति ति णामिखाणेति- -
हवंति । एसा भयणा अपुविधणपक्खवं पि करेज्जा । गिता ण मपज्जंति, मूगावासं तु वंदणगहीणं।
अद्धाणविवित्ता वा, पक्खड असती सयं तु जालेंति । पोरिसि बाहि मणण ब,सेहाण य देंति अणुसहि।।२२३॥
मूलादि व तावेउं, कब्जे छारेणमकमणा ॥ २२८॥ णिता जिग्गच्छंता,पविसंता या वसहि न पमज्जंति त्ति वुत्तं होइ । मूगावासं ति–वायाए अणुचरणं, बंदणगहीण-वंदनं
प्रद्धाणं-पहो, विवित्ता-मुसिया, अद्धाणविवित्ता पक्वतान ददतीत्यर्थः। सुत्तत्थपोरिसीनो बाहिं करेंति । मणेण व
परेण उज्जालिया,तस्स असती तत् स्वयमात्मनैव ज्वालयंति।
एतदुक्तं भवति-शीतार्ता इंधनं प्रक्षिपति । इंधणे ति दारंगयं । ति-सजोतिवसहीए रागदोसं न गच्छति, जे य सहा होज्जा
इदाणि णिव्यावणे ति दारं भरणति-पक्वएण वासयमताण व सेहाण देति अणुसद्धिं, सेहो-अगीतार्थः, चसद्दा
पजालिएण वा सूलाति तावेडं, आदिसहातो विसूतिका कते गीतत्याण य-अणुसटिउवदेसो।
कजे निष्ठितेत्यर्थः । पलीवणभया छारेणाकामति । णिव्याव'भूगावासं तु बंदणगहीणं' अस्य व्याख्या
णे त्ति दारं गयं । भावास बाहिं असती,ठितवंदणविगडणाथुतिहीणं ।
इदाणि संकमणे त्ति दारंसुत्तत्थ बाहि अंतो,चिलिमिलि काऊण व भणति।२२४।
सावयभय आणेति व, तो उवमणा बाहि णीणिंति । अणूणमतिरित्तं बाहिमावस्सगं करेंति, बहिट्ठाणासति ठियति,जो जत्थ ठितो सो तत्थ ठितो पडिकमति । बंदणगथुती.
बाहिं पलीवणभया, छारे तस्सऽसति णिव्वावे ॥२२६॥ हिं होणं, होणसद्दो पत्तेय, वियडणा-यालोयणा, तं जय
सावयभए अण्णत्थतो प्राणयंति । तत्थ णातो वा तो उवसाए करेंति, वासकप्पपाउयाणिविट्ठा चेव ठिता भणति ।।
मणा बाहिं णीणयंति, श्रह बाहिं पलीवणभया ण णीणयंति संदिसह त्ति-पोरिसिबाहित्ति अस्य व्याख्या-सुत्तत्थपो
ताहे तत्थ ठियं छारेण छादयंति ! तस्सासति ति छारस्स रिसीओ स चिट्ठाए बाहिं करेति, असति बहिट्ठाणस्स श्रतो
असत्यभावात् णिव्वाति उज्झार्वेति सि एगटुं। असति त्ति चिंलिमिलि काऊण भणति । वा विकल्पे । चिलिामणिमादीण |
दारं गयं । असति अणुपेहादी करेतीत्यर्थः ।
दीहादिदारेसु सागणियादी दारा उपजुजंति तं जोएअणुसट्टि त्ति अस्य व्याख्या
यव्वं इमं तु दीहादिदारसरूवं तत्थ दोहे ति दारंणाणुज्जोया साधू, दव्वजोतिम्मि मा हु सखित्था। दाहच्छेयणडक्को, केण जग्गइकिरियट्ठता दीहे ।।दारं। जस्स विण एति णिद्दा,स पाउमो णिमिल्लिो गिम्हे २२५ श्राहारतवणहेऊ, गिलाणकरणे इमा जतणा ॥२३०॥ अग्न्युयोतो-द्रव्योद्योतः, भावे-शानोद्योतः, सज्जित्था- दाहत्ति यं डक्क कयाति डंभेयब्वं तरिणमित्तं अगणी घेशक्तिः, गेहीत्यर्थः । उद्योते जस्स वि ण एति णिहा स पाउ- | प्पति । छेदो या कायब्वो तस्स देसस्स तो अंधकारे पदीयो यो सुवति,अह गिम्हे पाउयस्स धम्मो भवेज्जा, तो णिमि-| जोतीवाधरिज्जति । डक्को-दष्टः,केण त्ति-सप्पेणऽस्मतरेण वा ल्लियलोयणो सुवति, मउलावियलोयणे त्ति वुत्तं भवति । च- बातपित्तसिंम्हस्स साध्येन असाध्येन वा तत्परिज्ञाननिमित्तं उरो वि दारा गता।
जोती घेप्पति जग्गति दट्ठो,जग्गाविज्जति मा विस सण णिइदाणिं णिक्खमपवेस त्ति दारा
ज्जिहिति । उल्ललिय ण वा एवं दीहदटुस्स किरियाणमितं तुसिणीमा निति णिन्ति, चउमुगमादी कोइ अस्थिवंता।।
जोई घेप्पति । दीहि त्ति दारं गयं । इयासिं गिलाणे ति दार। सेहा य जोतिरे, जग्गंति य जा धरति जोति ।। २२६ ।।
पच्छऽद्धसमुदायत्थो । श्राहारो गिलाणस्स ताब्यब्बो, तत्त्थ तुसिणीया मोषण,अनिति पविसिन्ति,णिति वाणिग्गच्छति
पुण तावणकारणे इमे दब्वा तावेयवावा आवगस्सर्गाणसीयाश्रो णो कुवंति ति वुत्तं भवा । णि
खीरुएहोदगलेवी, उत्तर णिक्खित्ते पच्छकरणं तु । क्खमपवेसा गता । इयाणिं आवडणपडणाओ मग अलापं. कायव्वगिलाणट्ठा,अकरणे गुरुगा य आणादी॥२३॥ आदिशब्दादमिशकटिका गृह्यते । आवडणपडणभयात्कचित् खीरं वा कड्डेयब्वं,उरहोदग वा वि, लेवी वा उक्खडेयव्वा अस्पृश्यमाना इत्यर्थः । गता दो दारा । तावण त्ति दार गया. इमाए जयणाए। उत्तरे सि उपचुक्लगो भएणति-णिक्खित्वं
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(३५१) अभिधानराजेन्द्रः ।
मूलगुणपडि
तत्व उचियं, सो पुरा उपल्लो एवं तप्पति, जंबुल्लीप इंधणं पचिपति तस्स अलियस जाला अवचुल्लगं गच्छति एवं अहाडगं तप्पर, उवचुल्लगस्सासति पुण्यवित्ति
जलियती तावज्जा, असति मंगालगेसु वि पुम्बकतेसु पढ़कर पर्व सव्वासतीर बुज़िमंगालगा वा काउं अगणिमाणिय इंधणं पक्खिविय कायव्वमिति । तुः सर्वप्रकारकरणविशेषये । चोदक आह-ननु अधिकरणं, आचारह-यद्यपि अधिकरणं तह वि कायव्वं, गिलाणस्स अकरणे गुरुगा य श्राणादी ।
अहसास सिया या हो तो तावने
इमा जयणा
गमणादितमुर, इंगाले इंधणेय गिव्वावे | गाढे उंछणादी, जयणा करणं व संविग्गे ॥२२२॥ आह प्रादावेव जत्थ अगली अहाको भियाति सि तत्थ मे सुलादि ताय
अजय अगणी अाकडी भिवाति तरिथमे कार होगाठागसति अचियते, गुज्भंगाणं पयावणे चैव । आतपरिस्सा दोसा, आगरासियावतं ॥२३३॥ ठीगो तत्थ रात्थि, श्रचियत्तं श्रश्वितं वा गिहपरलो, श्रहवागुरभंगाणि तावेववाणि ताणि य गिरधपुरतो एसक ति तावेडं तो ण गम्मति । श्रह तरुणीश्रो तत्थ थीओो सोय साहू इंदियणिग्गद्दं काउमसमत्थो तो श्रायसमुत्थदोसभया न गच्छति परा मित्थीच ताब तत्वसति एवं पितत्थ ण गम्मइस्सति । इस्सालुगा गिहत्था ण खमंति । दोस ति एवं बहुआ तत्थ दोसा खाऊण अगणीए तत्थ श्राणणा कायच्या कते करजे निव्याप काय उभवति
हवइ । न तर्हि तो दोसले गंतव्वं । जं पुण आणणं तं इमाए जयगाए, संतति खुड़गा थेरा वा हयसंका तगं तावेउं श्राणयंति तेण तं तावयंति। श्रह संतगं अंतरा श्राणिजमां विभाति तो मुम्मुरमारायंति। मुम्मुरो अमणिकरियासहितो सुम्हच्छारो । मुंमुरे असति तेरा वा अप्पण्णप्पमाणे इंगाले आख्यति । प्रणिजाला इंगाला भवति ते पाि हारिप श्राणयति । कते कज्जे तत्थेव ठावयंति । इंधणे तिइंगालासति वा श्रप्यप्यमारो जया वा सम्मला पश्रयणं तया इंधणमवि पक्खिवंति। एवं कारणे गहणं कडे य कज्जे गिब्वायव्वो श्रगणी छारमादीहिं, मा पलीवं भवे। श्रगाढग्गहणा इदं ज्ञापयति-जहा एस किरिया श्रगाढे यो गति उसक, आदिशब्दादम्यत्र नयनं, जलन जाल कति एक करणं ति पडिया
निमित्तं करणमपि कुर्यात् । चशब्दात् ग्लानादिकार्यमवेक्ष्य जतनमपि कार्य । संविग्गे ति-जो एताणि करेंतो वि संविगो सो व करेति । गीतार्थपरिणामकेत्यर्थः । एस पुरा पच्छत्यो सप्मे मिलाणादिदारेसुजदासंभव घडावेवयो मिला सिदारं गये ।
दार्णि श्रद्धा सावर श्रमे दारा, तिरिण वि एगगाहाए चलावेतिअद्धामि विवित्ता, सीतमि पलंचपागहेडं वा । दारं । परकड असती सयं, जाले ति व सावयभए वा ॥ २३४ ॥
१- स्ताष- अवकाशः ।
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मूलगुणपरि० अद्धा विवित्ता, मुषिता इत्यर्थः । सीतमिति — कंपाये सति सीते पडते परकडअनसीप हत्थापायसराणं तावचं करेति । पचपागहे व पिया फला, पामो-पचनं हेतुः कारणं वा विकप्पो एप एव पलम्वपचनविकल्पः । एष पलंगपागो परकडाए चैव श्रगणीए कायव्वो । परकर असतीप, सयं जालेति स्वयम्-आत्मनेय पा उपदर्शने। किं पुनस्तत्प्रदर्शयति-वं श्रमद्वारेऽप्येष एव प्रलंबार्थः । सावया. सीहाई, तस्समुत्थे भए अरिंग पजालयंति। गया तेउकायस्स कपिवा पडिले मतो काती । इदा बाउकायस्थ दनिया पडिलेपणा भरणतिसिग्गच्छति बाहरवी, छिडे पडिसेवलकरण फुमेह । दारुग्घा डकवाडे, संधावत्थे य छीयादी || २३५ ॥ धम्माभिभूतो गिलयब्भंतराम्रो बाहिं णिग्गच्छति, अलिलाभिधारणानिमित्तं । बाहरति ति शब्दयति बहिडिओ भएति-यहि हि तो सीयलो बाऊ पिडिसेबति लि लिडे ते पुसो लोए चोप्पालया भांति तेसु पुष्यकले याउपडि सेव करेति करणं ति अपुष्याणि वा हिङ्गाणि वायुप्रभिधारणनिमित्तं करेति । प्रमेति सि-धम्मदितो अण्णतरमंग फूमति, भत्तपाणमुरहं वा । दारु ति दुवारं भरणति, तं पुष्वकयमिट्टादीहिं ठाइयमुग्धाडेति, अपुव्व वा दारमुग्धाडेति त्ति वृत्तं भवति । उग्घाडसहो उभयवाई । दारे कबाडे व उन्धादेति वा कवाडं धम्मो, अदवा दारमुच्या डेति, उग्धाडं वा उग्धाडेति, उग्धाडेति त्ति वुतं भवति, एवं तिरिण पदा कति संधि त संधी दोरखं घराणं अंतरा हड्डी तर यात सातिजति यत्थं चउरस्सगं काउं पड़वार्य करेति । तदिति विकिय दिसतो कासिय ऊससियं, नीससिश्रं एते छीयादी अविहीए करेति न्ति । सुप्पे य तालवेंटे, हत्थे मत्ते य चेलको य ।
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मे पव-ए सालिय देव पत्ते य ।। २३६ ॥ सुप्पे य दालकार भराराति सव्वजख्ययष्यसि ते वार्य करेति, जहा धराणं पुर्णतीय तालो रुखो तस्स बैट तालवैरं तालपत्रशालेत्यर्थः सा व परिसा जिति हरपो-सरीगदेसोते बीययति मत्तगो-मात्रक य, तेरा वा वार्त करेति च तस्य को बेलकरतो तेरा वा बीयति । अच्छि फूमेह ति अच्छी- अक्खी, तं कंदप्पा परस्स फूमति । मणसद्दो उभयवायी । पव्वए त्ति-वंसो भरणति, तस्समके पव्वं भवति । खालिय ति अपव्वा भरणति, सा पुरा लोगे तुरली भरणति । एए वीयंति । पत्ते य ति-पत्त- पद्मिनीपत्रादितैरात्मानं भवा वीयति ।
संखे सिंगे करतल - चत्थी दतिए अभिक्खपडिसेवी । पंचैव य छीतादी, लहुया लहुया य अदेव || २३७ ॥ संखो - जलचरप्राणिविशेषः, सिंगं-- महिसीसिंग, शंखं गृहं वा धमेर करो - हस्तस्तस्य तलं करतलं दस्तसंखं पूरेति तिनं मचतिया करतलेन वाद्यं करोति । बथीयो सो व वेज्जसालाइ भवति वायपुराणं करेति । इतिश्रो- इतिका, जेण यदीमादिसु संतरखं जति तं वायपुराणं करोति । अभिरूपटिसेवीति पते
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मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपंडि० निग्गच्छबाहिराती ठाणा अभिक्खं पडिसवंतो अप्पप्पणो
| वियणादिसमुत्थो वि यस उप्पती सत्थमएणस्सा२४२। ठाणातो चरिमं पावति । पंचेव य छीयादिसु-पणगं भवति।।
। एवमेव अवधारणे, दिट्टतोपसंहारपदसणत्थे वा । देहवाओ पत्थ बीसहि वाराहिं सपयं पावति । लहुय ति-जेसु लहु
त्ति-सरीरवातः, सो य छीयादिसु संखसिंगपूरणे वा, दतिमासं, तेसु दसहि वाराहिं सपयं पावति । लहुगा य अट्टेव
यादिपूरणेसु वा भवति । सो य बाहिरवायस्स होह। सत्थं तु यति-जेसु चउलहुअं, तेसु अट्टहिं वाराहिं सपदं भवति । एवं-वियणादिसमुत्थो, वि य त्ति-श्रादिशब्दः वियणगविविणेो पुच्छति-भगवं! तुम्भे भणत-जहा णिग्गच्छदा-| हाणतालयंटाइप्पदरिसणत्थो । स इति-स्वेन स्वेन विधारादित्राण अप्पप्पणो पच्छित्तं सट्टाणातो सपय पावति,तमहं नेनोत्पन्नः, अन्योन्यशस्त्रं विशेयमिति । अनेन कारणेन सट्ठाणमेव ण याणामि कहेह । तं गुरू भणति
प्रायश्चित्तं दीयत इति । साहच्छि म हत्थे, मत्ते पत्ते य चेलकम य ।
इमे य ायसंजमविराहणा दोसा भवंतिकरतलसाहा य लहू,सेसेसु य होंति चउलहुगा॥२३८॥ संपातिमादिघातो, आउवगाओ य फूम वीयंतो । जति छिड्डा तति मासा, जा तिमि चतुलहु तेण परं । वायंतस्स य बाहा, दंडियमादी बहिकरणं ॥ २४३ ॥ एवं ता करणंमि, पुवकया सेवणे चेव ।। २३६ ॥ वीयणादिणा वीयंतस्स मच्छियादिसंपादिमादिधातो भवसाहा साइली-वृक्षसाखेत्यर्थः । अच्छिफुमणे वि एतेसु ति, एसा संजमविराहणा । आउयधातो य फूम बीयतो तिसव्येसु मासलहू भवति, सेसेसु त्ति-जे ण भणिया तेसु चउ-| फूमंतस्स मुहं सूखति, वीयंतस्स य बाहा दुक्खति , एसो लहु । साहावयवेण चसद्दा साहाभंगेण वा पेहुणेण वा पेहु
उवधातो । सिंग, संखं वा, वंसं वा वायेति दंडिओ गिण्हेणहत्थेण वा वीयह त्ति वुत्तं भवति । सेसेसु होति लहुश्रा उ, ज्जा, उप्पब्वायति ति बुत्तं भवति । आदिसहातो रायवल्लभो एतं अतिप्पसत्तं लक्खणं पायरिश्रो पच्चद्धारं करेति । जह
वा खित्तादि ति सहसा संखपूरणे कोई साहू गिहत्थो वा छिड़ा गाहा-जह छिहाणि करेति तति मासलहुजाव तिषिण,
खित्तचित्तो भवेज । आदिसद्दातो हरिसिोदित्तचित्तो भवतिराणं परेणं चउलहु भवति । एवं ता अयुबछिट्टकरणे
ति । पमनो वा जक्खाइट्ठो हवेज । उम्मानो वा से समुप्पपच्छितं । पुवकयासेवणे चेव ति-पुव्वकते एकमि वा
जिज । बहिकरणं ति-पुणो पुणो संखं पूरयंतस्स बहिरतंभतपडिसेवणं करेइ-मासलहु । दोहिं दो मासलहु-तीहिं वति । चः समुच्चये ।गता वाउक्कायस्स दप्पिया पडिसवणा। तिरिण-मासलहू, तेण परं-चउलहू, भवति ।
इदाणिं वाउक्कायस्स कप्पिया पडिसेवणा भमतिकमढगमादी लहुगो, कासे य वियंभिएण पणगं तु ।
वितियपदे सेहादी,ऽद्धाण गिलाणाइक्कमे । एकेकपयादो पुण, पसजणा होतिभिक्णणतो ॥२४०॥ समा य उत्तिमढे अ-णधियासे य देस य ॥ २४४ ॥ कमद-साहुजणपसिद्धं, श्रादिशब्दातो कसभायणादी । ए
सेहाति ति दारंतेसु मासलहु, कासिथ खासियं वियंभियं भारत-चस- सव्वे वि पदे सेहो, करिजऽणाभोगतो असेहो वि । हाओ छित्तऊससिअनीससिएसु अविहीए पणगं । एकेकप- सत्थो वच्चति तुरियं, अत्थं व उवेति आदिच्चो ॥ २४५ ॥ यादि त्ति-आत्मात्मीयपदात् अभीक्ष्णत उवरुवरि पदं पस
णिग्गमणादी सव्वे पदा सेहो अयाणमाणो करेज्ज,आदिसज्जति, भवतीत्युक्तं भवति । सिस्साभिप्पायतो किमत्थं प.
हातो आभोगतो अणाभोगतो असेहो वि णिगच्छणादी पच्छित्तं दिज्जति।
दा करेज्ज । सेहादि त्ति दारं गतं । श्रद्धाण त्ति-श्रद्धाणं पएत्थ भएणति
डिवण्णा साहू सत्येण समाणं, सो य सत्थो तुरियं वधिवाससिसिरेसु वातो-बहिता सीतो गिहेसु य स उरहो।
उकामो अत्थं वा उवेति श्राइचो, उसिणं च भत्तं तं निविवरीओ पुण गिम्हे, दियराती सत्थममाम्मं ।। २४१॥ व्वावेउ वीयणादीहिं तुरियं भायव्वमिति । श्रद्धाणे ति गवास त्ति-चरिसाकालो, सिसिरो-शीतकालो, पतेसु , यं । गिलाणादिक्कमे-“पढमालियकरण" गाहा-गिलाणवेवाओ बहिया गिहाण सीतलो भवति । गिहेसु तु गृहाभ्य
यावच्चकरो पढमालियं करेति । तं च से उसिणं भत्तपान्तरेषु सोम्हो-सोमः । एवं तावत्कालद्वय । तब्विवरीतो पुण णं लद्धं जाव य तं सयमेव सीतीभवति ताव गिलागिम्हें ति-पुवाभिहितकालदुगाो विवरीतो गिम्हे- एस्स वेयावच्चवेलातिकमो भवति, अतो तं विधुवणादीहिं उष्णकाले, गृहाभ्यन्तरे सीतो वायुः, बहिया उष्ण इति ।। तुरियं णिवावेऊण भोत्तूण य गिलाणस्स य भत्तमाणदियराइ ति-वाससिसिरगिम्हेसु पयं वाउलक्खणं दिवसओ यति भोसह वा । गिलाणे त्ति दारं गये । श्रोमे ति दारवि,रातीए वि। अहवा-दिवसो-वाऊ उण्हो भवति,रातीए पढमालियाकरणवला फिट्ट । एस पढमपादो श्रोमे वि सीयलो भवति । तत्थ-शस्त्रं, जं जस्स विणासकारणं तं | घडावेयव्वो। तस्स सत्थं भएणति । अन्योऽन्य शस्त्र-परस्परं शस्त्रमित्यर्थः,
दारगाहावाससिसिरगिहमंतरवाओ बहिवातस्स सत्थं, बहिवातो सूरत्थमेति वाऊ, ओमे विधुणाति फूमणेणं वा । विगिहवायरस सत्थं,एवं गिम्हे वि । एवं दिवा वातो सब- एतेहि कारणेहिं, सीतावण होति उभए वि ॥ २४६ ॥ रीवायरस, सव्वरीवाश्रो वि दियवायस्स। जहे तेसिं वायाणं
सूरत्थमेति-प्रामे त्ति-दुभिक्खं,तमि य दुभिक्खे अथवअरणाराणसत्थकारणत्तं दिटुं ।
णवेलाए उसिणं भत्तपाणं लद्धं, जति तं सयं सीती होएमेव देहवातो, वाहिरवातस्स होति सत्थं तु । यमाणं पडिच्छति जाव ताव य सूरस्थति, ण य सं
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(५८) मूलगुणपडि. अमिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. थरंति ताहे विधुवणादीहि, विधुवणाति ति-विषिधं धु- मासो । परित्ताणतवणस्सतिकाए मासे अणंतरणिक्खित्ते णाति विधुवणाति बीयति ति बुतं भवति । अहवा-वि- | लहुगुरुमासो । तेसु वेव परंपरे जहासंखणं लहुगुरुपणगं । धुवणाति ति-विहुअणो-वियणो, तेन वीयति । फूमणेण गमणदारे गाउया जाव तीसतिगाउयातो प्रारम्भ दुगणावत्ति-सुहेण फूमति, पतेहिं सीयावणं करेति-सीतली-1 गुणेण जाव वत्तीसं जोयणाणि गच्छह । पत्थ भट्ठसुठासेसु करणमित्यर्थः । उभए वित्ति-भत्तं, पानकं च । अहवा-सरी- चउलहुगादी।चरिमपदंति-गाउए चउलहुगं,एवं०जाय पत्तीरमाहारो य । अहवा-श्रोदनं व्यंजनं च । ओमे त्ति गतं ।। साए पारंचिय। एवं परित्ते,अणते,गाउयादिदुगुणेण जाष सो सरण त्ति दारं
लस चउगुरुगादी चरिमं पावति । चसदो अवधारणे । पणसमा य सिंगमादी, मिलणट्ठविहे महल्लसत्थे वा ।
गंतु वीयगाहा-पंचादी लहुगुरुयति-एयस्स बिराहणगाहा
पायस्स सिद्धसेनाचार्यः स्पष्टनाभिधाननार्थमभिधत्ते-पलगं सेसेसु तु अभिधारण, कवाडमादीणि वुग्घाडे ।।२४७॥
ति-वीयघट्टे गतार्थ सचेयणवणस्सती उहले धनो पीससरणं त्ति-सराणा संगारेत्यर्थः। सिंगगमादी धर्मति, संगार
णीए वा पिट्ठो सरिसो उ कुट्टो भन्नइ, सो पुण परित्तो वा णिमित्तं तस्स य एवं संभवो भवति । मिलणटुविहे ति
तस्संसट्टेण इत्थमत्तेण भिक्खं गेराहइ । परित्ते-माससह, दीहमखाणं तंमि परोप्परं फिडिया मिलगट्ठा सिंगगमा
अणते-मासगुरूं, सुहुमा फुल्ला ते परित्ताऽणता वा ते जीवंता दी धर्मति । महल्लसत्थे वा-महंतो सत्थो बंधवारादी
घवे । मासे ति परितेसु-मासलहूं, अणतेसु-मासगुरूं,सेस तंमि ण णजति, को कत्थ ठितो ताहे सिंगगमादी पूरे- सि करणछेदणदुरूहणप्पमाणगहृणहारा । एतेसु पुढविसज्जति । गुरुसमीवे ततो सव्वे आगच्छति । एतेण कारणण |
रिसं मोत्तूणं छेदणदुरूहे कज्जं । सिंगगमादीपूरणं करेजा। सरण ति दारं गयं । सेसेसु त्ति
छेदणदुरुहणवक्खाणंउत्तमट्टअपहियासदेसी दारा । तत्थ उत्तमट्टट्ठियस्स घ
छेदण पत्तच्छेजे, दुरुहण सेवा तु जत्तिया कुणति । म्मो परिडाहो वा से कजति, अपहियासो धम्म ण सहति, देसे वा जहा उत्तरावहे-अच्चत्थं घमों भवति । एते- पच्छित्ता तु अणंते, गुरुगा लहुगा परिनेसु ॥ ३५१॥ सुतिसु वि दारेसु अभिधारणं करेति, कवाडमादीणि वा छेदणं ति-छदणदारं, तत्थ पत्तच्छेज्जं करेति. नंदावत्तपुरणउग्घाडेति, आदिसहातो अपुब्बदारं उग्घाडेति छिट्टाणि कलसादी दुरुहणं, तत्थ रुहंतो जत्तिया हत्थपादेहिं सेथा करेति । गता तिएिगा वि दारा । गता वाउकायस्स क-| वा करेति तनिया पायच्छित्ता इति वक्कसेसं । ते य छेयण प्पिया पडिसेषणा । गतो बाउक्काो ।
दुरूहणेसु पच्छित्ताश्रो, अणते-गुरुगा, लहुगा य । परितेमु इदाणि वणस्सतिकायस्स दप्पिया पडिसेवणा भएणति- कंठा । छयणदुरुहणा दो दारा गता। बीयादिसुहुमवट्टण-णिक्खित्तपरत्तणंतकाए य ।
इयाणि वियहाराण अभिक्खसेवा भरणतिगमणादिकरणछेयण, दुरूहणप्पमाण गहणे या॥२४८॥
अट्ठग सत्तग दसणव, वीसा तह अउणवीस जा सपदं। बीया-परित्ता प्रणता य । आदिसहाश्रोदसविहो वणस्स- सच्चित्तमीसहरिय-त्तणंऽतऽणंते य बीयादी ।। २५२ ॥ ती।सुहुमंति-पुष्फाघट्टणसद्दो सब्वेसु पश्रेयं, णिक्खित्तं-न्य पुब्बद्धपच्छद्धाणं अत्थो जुगवं वरचति,सञ्चित्त ति-सश्चित्तस्तं, तं पुण परित्तवणस्सतिकाए अणतवणस्सतिकाए वा, परित्तवणस्सतिकाए चउलहुगादि , अहिं वाराहिं सपदं गमणादिति-परित्ते गाणतेण वा गमणं करेति । श्रादिसदाश्रो | पावति, सच्चित्तागंतवणस्सतिकाए चउगुरुगादि । सत्ताह ठाणणिसीयणतुयट्टणकरणं प्रतिमारूपं करेति । छेदणं-प- वाराहिं सप पावति । मीसहरिय त्ति-हरितम्गहरणं बीजाएणछेदं करेति, दुरुहणं-प्रारुहण, आर्द्रामलकादिप्रमाण- | वस्थातिक्रान्तप्रतिपादनाथ, मीसपरित्तवणस्सतिकाए मास. ग्गहणं हत्थेण चसहा पक्खेवो य । एस संखित्तो दारग्गहण- लहुगादि, दसहिं सपदं , अणतमीसे मासरुगादि, गवहि स्थो विषरितो।
सपदं । परित्ताणते यत्ति-उभयत्र योज्यं । हरिए बीएसु __इवाणि पच्छित भएपति---
य परिसवीएसु पणगारद्धं , वीसतिवाराए सपदं पावति, पंचादीगुरु लहुगा, लहुगा गुरुगा परित्तणंताणं । अणंतवीएसु तह अउणवीसं जा सपदं । यथाद्यपदेषु तथापि गाउय जा बत्तीसा, चतुलहुगादी य चरिमपदं ॥२४६।।
एकैकवृद्धया जाय एकोणवीसइमं पदं भवतीत्यर्थः , प्रा
दिसद्दानो एत्थ वि एयं चव । यणस्सति कायदप्पिया पपणगं तु बीयघट्टे, ओढे सुहुमघट्टणे मासे ।
डिसेवणा गता। सेसेसु पुढविसरिसं, मोत्तूणं छेदणदुरूहे ॥ २५ ॥
याणि कप्पिया पडिसेवणा भएणतिपंच ति-पणगं, आदित्ति-बीयदारे, लहुगुरुगति-जति
अद्भाणकजसंभम, सागारियपडिपहे य फिडिए य । परितवीयसंघट्टणेण भत्तं गेराहति तो लहुपणगं , अह
दीहादी य गिलाणे,ओमे जतणा य जा तत्थ ॥२५३।। अणतबीयसंघण तो गुरुमं । लहुगा गुरुगा परित्तणताणं ति-पणगा संवझति परित्तसुहुमे पादादिणा संघट्टे
पतेसु अद्धाणादिदारेसु ओमपज्जवसासेसु वीयातिदारा ति लापणगं, अणते गुरुपणगं । अहवा-लहुगा गुरुगा
अववतियब्बा, ते य जहा पुढविकाए तथाऽत्रापि द्रष्टव्याः। परित्तताणं तिरिण खित्तदारं गहियं । परित्तवणस्सति
गवरं पंथे वच्चंताणं इमा जयणाकाए प्रणतरणिक्खिते लहुगा, अगते-अणंतरणिक्खित्ते
पत्तेगे साहारण, थिराथिरक्कंत तह अणक्कते। गुरुगा, परितापंतवणस्ततिकाए परंपरपिपिकाते-लाएह-। तलिया विभासकता, मग्गउ खुते य ठाणादी॥२५४॥
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(३५६) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. पत्तेगो-पत्तेगवणस्सती, सो दुविहो-मीसो, सचित्तो य ।। एस पढमभंगो व्याख्यातः । अभिगणे य ति द्वितीयभंगप्रहसाधारणो अणतवणस्सई-सो दुविहो-मीसो सचित्तो य । णमेतत् । अबद्धट्ठियपडिवक्खो घेप्पा, बद्धट्ठिए वि एवं बमीसो णाम-धिरो-दढसंघयणे, अथिरो-अढसंघयणे, इट्टियग्रहणात्। ततियचउत्था भंगा गहिया एवंशब्दग्रहणात्। अकंतो णाम-जनेनागच्छमानेन मलिनेत्यर्थः । इतरो पुण जहा पढमबितियाण अंते भिरणाभिराण एवं तृतियचउत्थाअणकतो, एतेसु गमणे इमा जयणा-पुव्वं पत्तेगमीसत्थि- ण वि अंते भिरणाभिएणं कर्तव्यमिति । एगट्ठियपडिपक्स्यो रकतेण णिप्पच्चवापण गंतव्वं । असति एसगस्स पत्तेगमी- घेप्पति । एमेव य होइ बहुवीए त्ति-एवं बहुवीए वि चउरो सधिरणकंतेण णिप्पचवारण गंतव्वं । असतीते तस्स ] भंगा,अबद्धबद्धट्टियभिण्णाभिरणेहिं कायव्वा । एते अट्ठाभरणे पत्तेगमीसथिरकतेण णिप्पच्चवारण गंतव्वं, असति पत्तेयवणस्सतिपडिपक्खसाहारणेण अट्ट, एते सोलस । पत्तेगमीसअथिरअणकतेण णिप्पच्चवारण गंतव्वं । एते च-| अरणे फासुगपडिपक्व,अफासुगग्गहणेण सोलस। एते सव्वे उरो विगप्पा पत्तेगमीसे । एतेसिं असतीए एतेण चेव क-1 बत्तीसं भंगा हे?तो णायव्वा । मेण चउरो अणंतवणस्सतिकाए मीसे विकप्पा । एते- एमेव होंति उवरिं, एगट्ठिय तह य होंति वहुबीए । सिं पि असतीए परित्तवणस्सतिकाए सचित्ते पतेणेव साधारणस्स भावा, आदीए बहुगुणं जं वा ॥ २७॥ कमेण चउरो विकप्पा । पतेसिं असतीते अणंतवणस्स-1 उरि रुक्खस्स एमेव बत्तीसं भंगा कायव्वा, एगफासुगतिकाए सचित्ते एतेणेव कमेण चउरो विगप्पा । एते सोल
जोणिपरित्तो एगढिगबद्धभिएणस्स पडिवक्खा एवं बत्तीसं स निष्पच्चवाए विगप्पा। सपश्चवाए वि सोलस । ते पुण भंगा कायब्वा। एगट्टिगतह यहोति बहुबीय त्ति-दमं पुण ब, सव्वहा य बज्जणिज्जा । जया पुण परित्ताणतमीससश्चि-1 यणं सेसाण फासुगजोणिपरित्ताइयाण वयणाणं सपडिषजाणतएषतरेणावि सोलसराहं विगप्पाणं गच्छंति, तदा क्खाण सुयणत्थं गहितं । ताणि य इमाणि-फासुगजोणिपतलिया विभासति । तलिया गमणातो भएणति, विभा-1
रित्तो एगट्ठिगबद्धभिएणसपडिवक्खा, एवं भंगा बत्तीस उसा-जह कंटकादीहि पात्रोवघाओ अत्थि तो ताओ ए मु-| वरिं साहारणस्स भवति. अनेन अधोबरि बत्तीसभंगक्रमेण चंति, अह पत्थि तो ताओ श्रवणेति । मग्गउत्ति-पच्छि-।
फासुगस्स असति साहारणसरीरस्स अभावा अलाभेत्यतो णिभए गमणं करेंति, परित्तीकृतेत्यर्थः । कत्त त्ति-च
थः, सचित्तं गृह्णाति । तत्रेदं वाक्यं-'आदीए बहुगुणं' जंच म्मकं, जत्थ पुण अरण्णादिसु सरिणविढे थंडिलं ण भवे |
आदीए बहु गृह्णाति सेसाण बहुगुणं जनयति करोतीत्यतत्थ गोणादिखुराणे ठाणे ठाणादीणि करति, ठाणं-उस्स थः। जवत्ति-यद् द्रव्यं सचित्ते जं व्यं बहुगुणं करेति, ग्गो, आदिसहातो-णिसीयणतुयट्टणाणि घेप्पंति, असति | तं घेण्हति । परितं, अनंतं वा न तत्र क्रमं निरीक्षतेत्यर्थः। कत्तिए कप्पं काउं गोणातिखुराणे ठाणादीणि करेंति, अस-1
अहवा-साहारणस्वभावात् यद् द्रव्य बहुगुणतरं तमादीति कप्पस्स गोणातिखुराणे ठाणादी ण करेंति, असति यते गृह्णातीत्यर्थः । वणस्सतिकायस्स कप्पिया पडिसेवणा खुणस्स पदेसेसु वि करेंति । पंथजयणाऽभिहिता।
गता । गश्रो य वणस्सतिकायो। इमा दुहणदारस्स अववायविही
इदाणि बेइंदियादि ससकाए दप्पिया पडिसेषणा सावय-तेण-भये वा, पंथं फिडिया वलंबकब्जे य ।
भरणतिरोहे अछेदकरणं, पडिणीया अट्ठगीतेसु ॥ २५५ ॥ संसत्तपंथभत्ते, सेजा उवही य फलगसंथारे । सावता-सीहाती, तेहिं अभिभूतो रुक्खं रुहेज, सरीरो- संघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवातणे मूलं ॥२५८॥ वकरणतेणा तम्भया वा रुक्खं रुहेजा, पंथाश्रो वा फिडितो बेइंदियादीहिं तसहि संसजा पंथो, संसज्जति भत्त, संसगामपलोयणनिमित्तं रुक्खं रुहेज, पलंबाण वा कजे रुक्वं जति सज्जा, संसज्जति उवही, संसज्जति फलहय, संरुहेज्जा । इमो पुण छेयणदाराववातो-छदो त्ति-विदारणं, | सज्जति संथारो। जंमि य विसए बेदियादीहिं पंथभत्ताती करणं-क्रिया, तामपि कुर्यात् , पडिणीयाउट्टणणिमित्तं प- संसज्जति, तत्थ जइ दप्पणं परिगमण करेति तत्थिमेण विडिणीयस्साभिभयं तस्स पुरतो कयलिक्खंभादि वहिज्जति,
कप्पेणिमं पायच्छित्तंभिगुडीविडंबियमुहो होऊण भणति-जर ण ठासि एवं |
संकप्पे पदभिंदण, पंथे पत्ते तहेव पावले । सीसं खंडयामि जहेस कयलीखभो. एवं कयकरन्नो करेति ।। चत्तारि छच्च लहु गुरु, संठाणं चेव पावले ॥२५॥ अगीतेसु ति पलंबाणि वा अगीतेसु वि करणे णिकारणं
सकप्प इति-गमणाभिप्पायं करेति, पदभिवणमिति-गृहीकाऊण माणिज्जंति, एवं वा छेयसंभवो।
तोपकरणों प्रयातः । पंथे ति-संसत्तविसयस्स जो पंथोतं ताणि य पुण पलंबाणि घेत्तव्वा इमाए जयणाए
पत्तो, पत्ते त्ति-संसत्तविसयं प्राप्तः । तहेष प्रावने लि-तहशफासुयजोणिपरित्ते, एगट्ठियवभिन्न भिन्ने य ।
ब्दो-पादपूरणे । एवशब्दः-प्रायश्चित्तावधारते।आवरणो प्राप्त बट्ठिए वि एवं, एमेव य होंति बहुबीए । २५६ ॥
उच्यतो बेदियादिसु संघट्टणपरितावणउद्दवणमिति । चत्तारि
छञ्च लहुगुरु ति-लहुगुरुशब्दः प्रत्येकं, चत्तारि लहुगुरुए फासुनंति-बिद्धत्थं, जीवउप्पत्तिट्टाणं जोणी भवति,परि- छञ्च लहुगुरुए ते चउरो पच्छित्ता संकप्पादिसु जहासंखेण त्ता जोणी जस्स पलंबस्स तं भरपति, परित्तजोणि परितं जोएयब्बा । संकप्पे-चउलहु.पदभेदे-चउगुरु,पंथे-छलहु,पत्ते अणतं न भवति, एगट्टिय नि-एगबीयं जहा अंबगो आबद्धो छग्गुरु, सठाण चेव आवरणे त्ति-बहदियाईण संघट्टणविकप्पं अद्विल्लगो तस्स तं अबढि अनिष्पन्नमित्यर्थः, भिन्नमिति | आवरणस्स संठाणपच्छित्तं। यः-पूरले। एव-अवधारखे। इदं द्रग्यतो भावतो नियमातद्भिर्भ, कर उच्यते-फासुगमहयात् । पश्चाई ख्याल्यातम् ।
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( ३६० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मूलगुणपडο
संघट्टणपरितावणे ति - वेइंदियाणं संघट्टणं करेइ, परिता`वणं करेति, उद्दवणं करेति । लहुगुरु त्ति-वेइंदिया संघट्टेतिचउलहुत्र, परितावेति-चउगुरुश्रं, उद्दवेति-छल्लहुश्रं । तैइंदियाण संघट्टणादिसु पदेसु चउगुरुगादि छग्गुरुगे ठाति । चउरिं दियाण छन्नहु, आदिछेदे ठाति । पंचेंदियाण संघट्टणे - छग्गुरु परितावणे-छेदो, उद्दवणे अतिवातणे, मूलं ति-पंचेंद्रियं व्या पादयमानस्य मूलेत्यर्थः । एसो वेव गाहापच्छद्धत्थो । श्रनेन गाथासूत्रेण स्पष्टतरो अभिहितः । जश्रीविय तिय चउरो पंचि - दिएहि घट्ट परिताव उद्दवणे । चतुलहुगादी मूलं, एगदुगतिएसु चरिमं तु ॥ २६० ॥ गतार्था । नवरं एगदुगतिरसु चरिमं, ति, एगं पंचेंद्रियं वाबापति-मूल, दोसु - श्रणवट्ठो, तिरिण पंचेंदिया वावातेतिपारंचियं । तुशब्दो अभिक्खा सेवनप्रदर्शनाथैः । एस दारगाथार्थ:-समासार्थेनाभिहितः ।
इदाणि पंथे ति दारं व्याख्यायते-मूइंगउवइयमक्को-डगा य संबुक्कजलुगसंखणगा ।
एते उ उभयकालं, वासासणे य रोगविधा ।। २६१ ।। पंथे ति-गता, पंथो इमेहिं संसत्तो- मूइंगा - पिपीलिया, उarreमुद्देहिं का मक्कोडगा -- कृष्णवर्णा प्रसिद्धा, संबुका - अणट्टिया मंसपेसी दीर्घा पृष्टिप्रदेशे श्रावर्त्तकडाह भवति, कचिद्विषये पतितमात्रमेव भूमौ जलं जलूकाभिः संसज्जति, संखणगा— लक्ष्णा संखागारा भवंति एते मूईगादी पाणा बहुजले विसए उभयकालं भवंति, उडवासासु ति भणियं भवति । वासासरणे यति-- वासा-- वर्षाकालः आसन्नमिति - प्राप्तः, वर्षाकाल एवेत्यर्थः । श्रहवा - वर्षाकाले भवद्दासोयमासा, तस्सासरणे पाउसकालो, तंमि य पाउसकाले हिणवट्ठभूमीप अणेगविहा प्राणिनो भवंति - इत्यर्थः । चः -- पूरणे, अकालवर्षबहुप्राणिसंमूच्छेने वा । पंथे सि दारं गयं ।
इदाणि भत्ते ति दारं-
दवितर्क बिलमादी, संसत्ता सत्तुगा तु जहियं तु । मूइंगमच्छियासु य, आमहउट्ठादि संसते ॥ २६२ ॥ दहि--पसिद्धं, तकं उदसी छासि त्ति एगहूं। बिलं - पसि द्धं । श्रादिसदाश्रो - श्रीदणमादी, पते जत्थ संसत्ता श्रागंगेहिं तदुत्थेर्हि वा संसत्ता, सतूगा, तुसहो आगंतुगतदुत्थितप्राणिभेदप्रदर्शने, जहियं तु त्ति--जहिं विसए, तुशब्दोऽवधारणे, किं श्रवहारयति ?, उच्यते--नियमा तत्र संजमविराधनेत्यर्थः । मूइंगा-- पिपीलिया, मच्छिया-मक्षिका एव । मूइंगसंसत्ते प्रमेहा भवति, मेहाऽवघातो भवतीत्यर्थः । मच्छ्रियासु संसत्ते उहं भवति, वमनमित्यर्थः । एसा श्रायविराणा । चशब्दः संयमविराधनाप्रदर्शने । भत्ते ति दारं गये ।
इदाणि सेजति दारं । जत्थ सेज्जा संसज्जति तत्थिमाहिं बेाहि ते पाणिणो ऽवर्हेति-
ठाण विसीय तुट्ट, क्खिमण पत्रेस हत्थणिक्खेवे । उव्वत्तणमुल्लंघण-चिट्ठासेमासु बेच्छति ॥ २६३ ॥
For Private
मूलगुणपडि० ठां - काउस्सग्गं, हिसीयणं उवविसणं, तुयट्टणं-संवट्टणं, Purani - बहिया, पविसणं-अंतो, हत्थो सरीरेगदेसो, तta fufeat भूमीप । श्रहवा - हत्थगो - रयहरणं भण्खति । तं वा शिक्खिवर सूमीए न श्रात्मावग्रहादित्यर्थः । उव्वत्तणं नाम - परावर्तनं, एगसेज्जाए उबचिट्ठस्स तुयट्टस्स वा चिरं समाणस्स जदा सरीरं दुक्खउमारद्धं तदा परिवत्तमण्णा ठाति ति वुत्तं होइ । उल्लंघणं - एलुगस्स, श्रादिसद्दाश्रो - संथारगस्स, सितिफलगाण वा एवमादिसु चेट्ठासु ते संसत्तवसहीए पाणिणोऽवहंति । किं च जा एया ठाणनिसीयणादियाओ चिट्ठाश्रो भणिताश्रो ता जाश्रो संजमकरी ताओ इच्छति इच्छिज्जेति ण इयरातो । तो भरगति
जा चिट्ठा सा सव्वा, संजमहेउं ति होति समणाणं । संसत्तुवस्सए पुग्ण, पच्चक्खमसंजमकरी. तु ॥ २६४ ॥
जा इति - प्रणिद्दिट्ठसरूवा चेट्ठा घेप्पति । श्रहवा - जा इति कारणिक कायक्रिया प्रदर्शनेत्यर्थः, कायक्रिया - चेष्टा भरणति । सव्वा सेसा - पावविणिवत्ती संजमो भरणति । हेऊकारणं, तुसद्दोऽवधारणे, होइ भवति । समणाणं- साहगं ति बुत्तं भवति । इह पुरा संसत्तुवस्सए पच्चक्खमसंजमकरी किरिया साहूणं भवतीत्यर्थः । तुसद्दो- अवधारणे । वसहि त्ति दारं गये ।
इदाणि उवहि ति दारं-
छप्पति दोसा जग्गण, अजीर गेलम्म तासि परितावे । श्रोणपडिते भुत्ते, उदओरातिया दोसा ।। २६५ ॥ छप्पति ति - जूना भण्णति, ताहिं जत्थ विसए उवही संसज्जति तत्थ बहु दोसा भवंति ते इमे ताहि खज्जमाणो जग्गति, जागरमाणस्स भतं ण जीरति, अजीरमाणे य गेलरणं भवति । एत्थ गिलाणारोवणा भायिव्वा । श्रहवा - ताहि खज्जमाणो कंड्यइ, कंडूयमाणस् वयं भवति । एवं वा गिलाणारोवणा । तासि परितावो ति तासि छप्पयाणं कंड्रयमाणे परितावणं करेति, संघट्टेति वा, उद्दवे वा, एत्थ तरिणप्फरणं पायच्छित्तं दट्ठव्यं । इह पुव्वऽद्धे श्रयसंजमविराहणा दोऽवि दरिसिया-इमा पुण श्रायविराहणा । श्रणवडिए भुत्ते त्ति-श्रदणोकूरो, तत्थ पंडिया छुप्पतिता, सो य श्रोदणो भुत्तो, तमि य भुत्ते उहं भवति, दोयरं वा भवति । दोदरं - जलोयरं भरणति । उवहि त्ति दारं गयं ।
इयागि फलगसंथारे त्ति दारंसंसत्तेऽपरिभोगो, परिभोगामंतरेण अधिकरणं । भत्तोवधिसंथारे, पीढगमादीसु दोसा उ ।। २६६ ॥ संसते ति फलहसंथारेसु संसत्तेसु, अपरिभोगो ति श्रभुज्जमासु, परिभोगमंतरेणं ति-परिभोगस्स अंतरं परिभो गमंतरं परिभोगाभाबेत्यर्थः । अधिकरणं ति - परिभुजमानं अधिकरणं भवति । कहं ? यतो अभिधीयते जं जुज्जति । उवकारो उबकरणं, तं सेहाइडवकरणं श्रतिरेगं श्रहिकरणं श्रज
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मूलगुणपडि०
श्री अजय परिहरतो. भतोर्याहचारे पौदममादीगु दोसा उ-एते जे अधिकरणं ते भणिया । तुशब्दः दोसावधारणे । ग्रहवा इमे दोसा
( ३६२ अभिधान राजेन्द्रः ।
संमत तु भत्ता दिएस सच्चेसिमे भवे दोसा । संघट्टादि पञ्जा, अपमजण सजघातां य || २६७|| पुण्ड संघट्टा फिरवणे, दिस दानो परिताप भन्नादि
भनि । मज्जण ति-संसतो सेज्जादी जति पमज्जति तो ते चैव संघट्टत्तादिदोसा भवति । अपमज्जण ति--जइ ते सेजातिजनघातो पनि-मयो-वर्तमान एव प्राणिनां घातो भवतीत्यर्थः । चसदो-समुच्चये । फलहसंधारयति दारं गतं ।
-
इदाणि सव्वदारावसेसं भगगति । यं पुरा जन्थ जत्थदारे जुजइ तत्थ तत्थ घडावेयव्यंवेंटियगहणिक्खेवे, णिच्छुभने यातछायं वा । संधारण सिमेजा, ठाणे व मिस पट्टे ||२६||
"
"
पति-पट्टि पर्मायं दुष्पडिदियं दुष्पमज्जियं, दुहिम उपकरगलोली भनीए उवरलोलीए गहणं करेति किखेवं वा । तत्थिमे सन्त भंगा-ण पडिलेहेति स पमज्जति १ ग पडिलेहेनि मज्जेनि २ पनि पनि ३ पडले हेति मजति ४, जं त-पडिलेहिनं पमज्जितं, तं दु पडिले हियं दुष्पमजियं ५. सुप्पमज्जियं दुष्पडिलेहियं ६, सुपडलेहियं, दुप्पर्माज्जयं । एतेसु पच्छित्तं पूर्ववत् । सुप्पडि लेडिय करेमाणस्स चि संघट्टादिखि पूर्ववत्। खेलवि एवं चेच, आययो– उग आयचचज्जा छाया ततो श्रायत्रो उवकरणं छायं संकामेति एत्थ वि अपजमाणस्स प्राणिविराहणा । कहं ? उराहजोणिया सत्ता छायाए विराहित जोगिया कि उन्हे विराहिनि, अनो श्रपमजमाणस्स पाणिविराहणा । एवं संथारगेऽवि पमजंतस्स संघट्टणादिणिफरणं अकरेमाणस्स य सत्त भंगा, शिसेज ति सुत्ता जिन्थ भूपसे गिसिजा कजति तत्थ पमज्जतस्स संघट्टणादिक अकरमारास सत्त भंगा। ठाणमिति काउस्सग्गद्वारा तत्थ वि एवं चेव. गिसीय- एते वि एवं व पुढवसमस्सिएस जीवेसु एस पायच्छित्तविही भणितो । इमो पुल उपकरणसमस्सियं उपरिगादिसु विधी भएपतिपरिठाण संकामण, पप्फोडण धोव्व तावणे अविधी | तमपामि चउविहे, गायब्वं जं जहिं कमति ।। २६६ ॥
"
पादाय पति या संकति, जहा रेणुगुंडिय कथं पण्फोडिजति एवं पप्फोइति संड तुति, साडणनिमिसं वा धोवणं करेति । उरहे श्रगणी वा तावेति । सव्वेसु तेसु पत्तेयं चउलहुयं । एवं ताव शिक्कारणगता। कारणेवि विडिति कारगताएं पुरा अडिए संक्रामेतरस-बडल संपतपरिता
•
च दव्वं । तसपाणम्मि त्ति-तसकायग्गहणं, सो य तसका श्रो चो मोदिया इंडिया चउरिदिया पंचिदिया. खा ६१
मूलगुणपरि० यव्वं बोधव्वं । जं- पायच्छित्तं ' जहि ति ' बेइंदियातिकार कर्मात घडति - युज्जतेत्यर्थः तं पुरा परिद्वावणादिदारेसु जहाजाचे उदाहरसे मरकुसुकादयः ।
I
ग
विहिपमा पनिगाहाअप्पादिलेपण सुद्धं सदेस पेंटियाद्री | तिगमासव निगपणए, लहूकालतबीभए जे वा।।२७० ।। मतार्था इमो रोडियम सिसन्न भंगा गहिया. सुद्धं सुद्धेगं ति-जति व पाणे विराहेति तहावि पायच्छित्तं. शिकारराम संजम विसयग्गमणातो ते पुण सतगंगा. पॅटियादि ति आसु तिसु भंगेसु मासल ततो गतरेसुनिसुगं चरियो सुडो कार्यालया 'लहूति समासपरागसिंस अहया लई काले तवेण्य भए विससेयव्वा, मासपणगा य, 'जं वत्ति'ज च तसकायणिकरण तं च दव्वं । संकप्पादिपदेसु परिवादिपदे इमो विही दवासिक्कारविधाय वा विकले य अविधिएस। विकार अनि गति वितियभंगो महिनो शिकार विधीयति पुनं भवनि जे अवि रण कष्पति ततियभंगो गहितो, उवयुज्ज यत्र युज्यते तत्र भंगो योज्यो । गता दपिया पडिवणा ।
1
या करिया गति-
संकप्पादी तु पदा, कजंमि विधाय कप्पंति ।। २७१ ।। (इ)को गृहीतेत्यर्थः । किं कज्जे का वा विही जेण शिद्दोसो भवति ?, भरगतिपाणादिरहितदसे, असिवोमादी तु कारणा होजा । अधि तु वेल तुमगाव कुञ्ज संमनकप्पं ॥ २७२॥ पाणादिवादी हि रहिओ वर्जितेत्यर्थः । की सी देसो जमिदेशे असव होजा, भोमोयरिया वा होजा आदिसदातो
गाढरायदुकं वा होज्जा । तुसद्दा श्रवधारणे । एवमादी कारणा जागिऊण संजमचिस मोजमसिनुकाम ते य तत् अपि अस्थिकामा वा मा बेल माकुर्यात् दियादिवासाविस गमसादिकप्पं तत्थ जे ते वेले उ मणा तेसिं पंथे गच्छंताणिमा जयणाजं वेलं संमजति तं वेलं मोनू सिम्भण जं ति । सत्थ तु तलिय पिते अथिरातिसंजोगा ॥ २७३ ॥ जं वेति पश्मिना भवति भ रहादीस जे वेलं पंथी संखजति तं बलं मोनं असंत लाए गच्छति नि बुत्त भवति । शिब्भर एवं गच्छति । सत्थे उति सभए सत्थे गंतव्वं । तलिय त्ति उवाहणातो अति सत्यस्स व पितो वञ्चति अधिरादिसंजोग ति श्रक्कतजणवा थिरा-दढसंघयणा, संजोग त्तिसोय सत्थो अकंतपण गच्छेज्जा, अणक्कन वा । तत्थ जो श्रक्कतपण गच्छति तेरा गंतव्यं, सो चि थिरसंघयसु वा अथिरसंघय वा गच्छेज्जा जो थिरसंघयणो तेस गत सो सभा वा गच्छेजा, सिमरण या जो शि भो तेण गतव्वं । सो पुरा दिया गच्छेज्जा, राओ वा, जो दिया तो साथी सोलसभंगचिगप्पे या व इमे सोलस गंगा - अनंतधिर वक्तव्यो ।
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( ३६२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मूलगुणपडि०
गिग्भया दिवसतो एस पढमो भंगो, अकंतथिरणिम्भया रातो, एस बितियभंगो, एवं सोलस भंगा कायव्वा । एत्थ पढमभंगे श्रगुरणा सेसेसु पडिसेहो। एवं ताव गच्छंताण जयगा भणिया ।
इमा पुरा जत्थ सत्थो भत्तङ्कं ठाति, रंधणनिमिखं ठाति, वसति वा तत्थ जयणा भरणति
ठाण विसीय तुवट्टख गहितेतरजग्गसुवर्ण वा । उन्मासथंडिले वा, उवकरणे सो व अस्मत्थ ॥ २७४ ॥ ठाएं - उस्सग्गो भति, निसीय-उपविसरां, तुपट्ट णिवज्जणं, गहितेणं ति-उवकरणं, तसकायसंसत्तपुढवीए गहितो उवकरणा, सव्वराई उस्सग्गेण श्रजंति । श्रह ण तरंति तो गहितोचकरणा श्रेय निसराणा सम्परा अ ति । श्रह तह वि न सकैति ताहे जयणाए गहितोवकरणा विज्जति । इयर ति-उवकरणणिक्खेवो । जग्गं ति-गहिते शिक्खित्ते वा सव्वरातिं जागरणा कायव्वा । श्रह
तरंति जागरितुं तो जयणा सुवणं वा । इमा जयणापडिलेहियपमण्उयतपरायणावगुंठणपसारणा काय या सुरां पुणनिहायसगममेत्यर्थः । ग्रह सोवकरणस्स एडिलेडोज तो उम्भासथंडिले या उम्मापच्चासरणं तत्थोवकरणं ठवयति । सो वा अण्णत्थ सोवति साहू संवसति, अरणत्थ त्ति थंडिलं संबज्झति । चोद गाह-सोय एवं पढियो, सो मि किमर्थ पठ्यते १. प्राचार्याह-वा-विकल्पप्रदर्शने, जति पचास थंडिले न त पूरे विशिष्भ करेंति, उपकरणं एसेस्थो । जम्हा पुत्रं पुढविक्काए गतो तम्हा अतिदेसेण भरगतिजह व पुढविमादिसु नये जतला तहेब तु तसेसु ।
वरि पमजितु उप मोचू करेंति ठाणादि ॥ २७५॥ जहा पुढविमादीसु सुबरे जयगा भरिया, तहा तसेसुवि वसव्वा वरं विसेसो पुढवीए पमज्जणा रात्थि, सच्चित्ता पुढवी तो इह पुण अश्चित्ता पुढवी, वरं तस संता तो तसे पमजिऊण तत्थ उवर मोनू क रैति दी।
तं पुरा उपगर केरिसे ठाणे मोत भएरातिजर तु गा विलग्गती, उदइगमादी तहिं तु उवयंति । संसप्प भूमि, पमजिडं द्वारठाणं वा ।। २७६ ।। जत्थ ति भूपदे से, तुसहो थंडिलावधारणे । ण प्रतिषेधावधारणे । लग्गती - कंबल्यादिषु, उदइग ति उद्देहिया, श्रादिसहातोय धरणकारिमर्कोटकादयः, तर्हि तु तत्र भूप्रदेशे उपकरण स्थापयतीत्यर्थः । अह पुछ अभागाती विलाओ वा श्रागतूण, संसप्पपसु ति संसप्पंतीति संसप्पगा उस्परंति सि बुत्तं भवति तेसु संसण्य भूमि पमज्जिरं ति' - जे तत्थ थंडिले पुब्वागता ते पमज्जिडं भूमिं मणिमूर्ति दतीति । द्वारद्वारा व नि-अद सर्वततो उदधिगमादी संभव होज्जा ताहेरा पाडलेड सत्य डाययंतीत्यर्थः राति संजोग सि' इद व सामय अथिरातिसंजोगा कता ।
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मूलगुणपडि०
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तद्विशेषव्याख्या प्रतिपत्तिनिमित्तमुच्यतेनियतिय चउरो पंचि दिए अत तह मणकंते । थिरणिन्भतेतरेसु य, संजोगा दिवसरति वा ॥ २७७॥ दिया मादी, तेहंदिया-पिपीखियादि चरिदि या-इंदगोवादी पंचेदिया- मंडलियादी एते जनपदेस अता या अणकता था, घिरावा, सिम्मतो या पहो होजा इयरग्गहणा अथिरसभयग्गहणं, संजोगा दिवसरति वा, पूर्ववत् पुर्व बेईदिएस अकंपिरचिन्मयदिवसतो, ततो पच्छात अधिरणिम्भयदिवस तो पच्छा रनिब्भयदिवसश्रो, एते चउरो भंगा। श्रराणे एतेसु चेव ठाअराकंतचिरणिग्भवदिसतो, तो पच्छा अधियेसु रत्तिए चउरो भेगा । पते अटु राम्रो पच्छाद एवं अ ततो पच्छा चउरिदिए एवं बेच अटु तम्रो पच्छा पंचिदिए वि एवं चेव श्रट्ट । एते चउरो अट्टगा वती भंगाम्भिरण भथिया ततो पच्छादियादिसु सभए पुग्वकमेण वा श्ररणे बत्तीसं भंगा यव्वा । एते सव्वे चउस ि। एस ताव कमो भणितो । इयरहा जत्थ जत्थ अप्पतरो दोसो तेरा उक्कमेणावि गंतव्वं । एसा पंथे सट्ठाय जयणा भणिता । पंथे ति दारं गयं । इदारिंण भत्तदारजयणा भरणतिपचाणमसंसतं, उसिणं परं तु उसिख असतीए सीतं मचगपेहिय, इतरत्व भंति सागरिए । २७८ ॥ पत्ताणं जत्थ देसे भत्तपाएं संसज्जति, तं देनं पत्ताणं इमा जयगा असतं ति-अजित श्रदादि ज ति पत्तमुरहं तो गेरहंति । पउरं प्रभूतं, तु शब्दो- पादपूरणे,
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समासविमिदर्शने वा उसितस्स असति अ भावादित्यर्थः । श्रश्र उसिलाभावा असंथरमाणी व सीसंगरादति जतो भवति सीतं मत्तगयेहियं सायं सीतलं, मत्तगो-तुच्छभायणं तत्थ सीयलं गेरिय देहि-त्युपेक्ष्य, इतरत्थ ति - पडिग्गहे, छुभंति प्रक्षिपंति । तं पुण वुज्भंति सागारिए गृहस्थेनादृश्यमानेत्यर्थः । सागारियग्रहणाच ज्ञापयति कदाचित्कमढगेऽपि गृह्यते तत्र प गृहीतं, पडिग्गहे प्रक्षिप्यमानं सागारिकं भवति, श्रो असागारिके प्रदेयमिति । ग्रह मलगमादीहिं जे गहिये तं संसत्तं होजा ।
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तस्सिमा परियतिणवइसिरट्ठाणे, जीवजढे चक्खुपहिए णिसिरे । मातस्संस्सियघातो, ओदणभक्खी तसासिसु वा ॥२७६॥ तिणा-दब्भमाती, वती-वाडी, सिरसद्दो एते चैव प्रत्येकं, श्रहवा - तिणकट्टसंकरो जत्थ त सिरट्ठाणं भरणति, एते य तिणाति जति जीवजदा जीववर्जिता इर्थ तेसु तिसारसु क्युपेरिस, सिसिरे- परित्यजेत्यर्थः सा पुरा गिरिणा विहा—जका प्रकिरणा या बीजवत् श्रागतुयेसु पिपीलियादिसु पकिरणा संभवति, तदुत्थेसु fotoगादिसु पुंजका संभवति । चोदकाह-किमर्थं तिगवतिमादिसु परिद्वविजति ?, उच्यते-मा तस्संसितघातो-माहत्य प्रकृतार्थावधारणे अविधिपरित्यागप्रतिषेप्रदर्शने त्यनेन भक्त संचयते । संसिता बाधिता,
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( ३६३1 मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. घातो-मारणं, तम्मि संसिता-तस्संसिता , ताण घातो जत्थ वि वसही ण संसज्जति तत्थ वि दो वारामो दुषतस्संसितघातो केण पुण तस्संसिताण घातो भवेज? द्धिएसु मोससु वसही पमज्जिज्जति, पच्चूसे, प्रवररहे य । उच्यते-श्रोदणभक्खी तसासिसु व सि-ओयणं जे भक्ख-| एताओ चेव दो पमज्जणाओ, ततिया मज्झण्हे भवति । यति ते बोयणभक्खी, सुणगादी ते य श्रोदणं भक्खयंति । संसत्ताए पुण वसहीए बहुसो, पमज्जयं-कंठं, नवरं वजे तस्संसिया पिपीलिकादी ते वि भक्खयति त्ति वुत्तं | कारों विकल्पदरिसणे । को पुण विकप्पो !, इमो-जा उड्डभवति । पिपीलिकादितसकायं असंति भक्खयंति जे ते | वासासु संसत्ता वि बसही पुवाभिहियप्पमाणे णेष असंतसासिणा, श्रोदणभक्खि त्ति वुत्तं भवति । अतो मा तेसु सत्ता भवति, तो णाइरित्ता पमज्जणा नो चेव बहुसो पमश्रोदणभक्खिसु तसासिसु वा घातिजिससि त्ति काउंवत्ति ज्जण त्ति । अह बहुवारा परिजज्जमाणे अतिसंघट्टो पाणियातिसु परिदृविज्जति भत्तं, एस जतणा भणिता । णं भवति तो प्राणवसहिं गच्छतीत्यर्थः । अहेगदेसेसु मुई
जत्थ सत्तुका पुण संसति तस्थिमा जयणा- गादि ण गरहवेज्जा। तदिवसकताण तु स-तुगाण गहिताण चक्खुपडिलेहा ।
अन्नयपाणिसंताणगो वा तत्थिमा विहीतेण परं णव वारेऽ-सुद्धे णिसिरे तरे भुंजे ॥ २८०॥
महंगमादिणगरग, कुडमुहछारेण वा विलक्खेति । तुसदो-अवधारण, तद्दिवसकताण चेव, जवा भुग्गा
चोदेंति य अमोम, विसेसओ सेह अइगोले ॥२८३॥ पासाणतेण दलिया साहिया सनुगा भरणति, तेसिं गहिता-1
मुइंगा-पिपीलिया, आदिसहातो-मकोडादि, नगरं परघरं णं आत्मीकृतानां चक्खुडिलेहा भवतीत्यर्थः । चोदगाह
विसेसाो आश्रयतीत्यर्थः । कुडमुहो-कुडकंतोतं तत्थ ठव. गणु ण सम्वच्चियचक्खुपडिलेहणा को अभिघातो वा
यंति, छारेण वा परिहरंतो विलक्खितं कर। अणुवउसे य जेण चक्खुपडिलहण करेति इति ? उच्यते-पिंडविसोही
गच्छन्तो चोदति य अन्नोन्नो, सेहो अहिणवदिक्खितो, अइपडच्च ण चक्खूवतिरित्ता पडिलहा, इमो पुण से अभिप्पाओ
गोलो पुण बालो णिद्धम्मो वा,' पते विससओ चोदयंतीभायणस्थस्सेव वत्थुणो अवलोयणा चक्खुपडिलहा ण
त्यर्थः । बसहि त्ति दारजयणा गता। रयत्ताणविगप्पणावस्थाप्येत्यर्थः । तेण परं ति-तद्दिवसक
इयाणि उवहिदारजयणा भएणतिताण परश्रो दुदिवसातिकयाणं ति वुत्तं हवति । णव वारे त्ति
अइरेगो विधिगहणं, सत्तुवभोगेण मा हु संसज्जे । उकोसं णव वारा पडिलेहा कायब्बा । अशुद्धे त्ति-जति णव
महुरोदगेण धुवणं, अभिक्ख मा छप्पदा मुच्छे।।२८४॥ हिं वाराहि पडिलहिज्जमाणा ण सुद्धा तो णिसिरे-परि
जत्थ विसए उवही संसजति, तत्थ चोलपट्टगादि उवहित्यजेत् । इयरे भुंज त्ति, इतरेजे सुद्धा एवमवाराए अरत्तो
अतिरित्ता घेप्पति । अह किमित्थं अतिरित्तोबहिग्गहणं वा ते भोक्तव्या इति।
स्यात् ? उच्यते-ससुवभोगेण साहू संसज्जर, एगपडोब___ कहं पुण सत्तुगाणं पडिलेहा भरणति । दारं
यारस्स सततुवभोगाश्रो सततोवभोगादित्यर्थः । मा, हुरित्यरयहरण पत्तवंधे, पइरित्तुच्छल्लियं पुणो पेहिति ।
यं यस्मादर्थे द्रष्टव्यः। संसज्जे त्ति-संसज्जति तस्मात् अह ऊरणिय आगराऽसति, कप्परथेवेसु छायाए । २८१॥
रित्तोवहिग्गहणं क्रियत इति, किंचित् मधुरोदगेण मधुरपत्तगबंधे मलिनीकरणभया रयत्ताणं पत्थरेऊण तस्सुवरि
पाणपण उगहोदगादिणा धुवणं अभिक्खणं पुणो पुणो कजा पत्तगवंध,तमि पत्तगबंधे सत्तुगा पइरिनु-प्रकीर्य वाप्येत्यर्थः।
ति त्ति वुत्तं भवति । स्यात् , किमर्थम् उच्यते-मा छप्पया उच्छलियं ति-एकपाश्र्वे नयित्वा जा तत्थ पत्तगबंधे उयरि
मुच्छे संमूछेत्यर्थः। णिया लग्गा ता उद्धरेनु कप्परे कज्जति । पुणो पहिति-पुणो
जं वत्थं साहेयव्वं तम्मि जति छप्पया होजा ता इमेणपतिरिनु छल्लिन्तु पुणो पहिज्जंति त्ति बुत्तं भवति । एवं णव
विहिणा अरणवत्थे संकामयव्वावाराए सा सत्तुगपडिलेहणविही भणिया । ऊरणिया आगर
कायल्लीण कातुं, तहिं सकामेतरं तु तस्सुवरि । त्ति-जा ऊरणिया पडिलेहमाणेण कप्परादिसु कता ताओ
अहवा कोणाकोणं, मेलेतु ईसि घट्टेति ॥ २८५ ॥ आगरातिसु परिट्ठावेयव्वा । को पुण श्रागरो भएणति-जत्थ | जं वत्थं न धुवियब्वं तं कायलीणं काउं वि, कायो सरीरं घरट्टादिसमीवेसु बहुं जं व भुसुट्टे सो पागरोभरणति,असति | लीणं काउं श्रणतारय पाया
लीण काउं अणंतरियं पायरिउं तहिं संकामेति, किं. हत्थेमोति-तस्सागरस्सासति-कप्परथेवेसु त्ति-कप्परथेवा सत्तुगा त्य संक्रमन्नत्युच्यते, इतरं तु तस्सुवरि इयरं जं धुवियव्वं, छोढण तं कप्परं सीयले भूपदेसे छायाए परिट्रविज्जति, जत्थ तु:-पूरणे, तस्स त्ति-पुवपाउणस्स उवरिं पाउण । अहवापाणगं संसज्जति तत्थ आयाम उसिणोदगं गेराहति । पूतर
अराणोरणसंकामणविही भएणति-कोणमिति करणं धोठवगादिससत्तं च धम्मं करगादिणा गालिज्जति, जत्थ जत्थ गो माणस्स अधोव्वमाणस्स य वत्थस्स करणाकरणे मेलेऊणं रससोवीररसगादीहि संसज्जति तत्थ तत्थ तेसिं अग्गहणं ईसि सणय छप्पदा घडेउ संकामेति। उबाहेजयण त्ति दारं गये। सीयग्गहणं सीयग्गहियाण वा परिट्रवणविही|जा परिढावणा
इयाणि फलगजयणा भएणतिणिज्जु तीए भणिया सा दटूब्वाइति भत्तपाणदारजयणा गता। फलगादीणि अभिक्खं,पमज्जणा हेट्ठि उवरि कातव्वा । इदाणि वसहिदारजयणा भरणति
मा य हु संसजेज्जा,तेण अभिक्खं पतावेज्जा ॥२८६॥ दोमि उ पमजणाओ, उड्डूं वासासु ततिय मज्झरहे। ।
फलगा-चंगपट्टादी, आदिसहातो-संथारगमीसगपीढगा. वसहि बहसो पमञ्ज व, अतिसंवदृणेहिं गच्छे ॥२८२॥ दी, एसि अभिक्खणं पुणो पुखो, पमज्जणा रयहरणे
यहु संसादिसहावा पमजणा
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( ३६४ ) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. ण हेढुवरि कायव्वा । मा-प्रतिषेधे । चपूरणे, हुशब्दो य- कणगसाह अस्थि । गुरुणा य भणियं अजा ! जं पत्थसास्मादर्थे, जम्हा छम्पदा विज्जमाणा फलगादीणं गमणादीहिं | वयं किंचि गच्छं अभिभवति तं णिवारेयव्वं ण उबेहा कायसंसज्जति, तेण ति-तम्हा, अभिक्खणं-पुणो पुणो, तुम्हे, व्वा । ततो तेण कोंकणगसाहुणा भणियं--कहं विगहिहि पदावेज्जा । फलहसंथाराण जयणा गया।
अविराहितेहि णिवारेयन्वं?. गुरुणा भणियं-जइ सक्कइनो श्रइदाणि उवहिमादीणं सामण्णा जयणा भराणति- विराहितेहि पच्छा विगहिहि विण दोसो। ततो नेण कोंकवेंटियमाईएसुं, जतणाकारी तु सव्वहिं सुज्झे ।
णगेण लवियं, सुवह वीसत्था अहं भेगक्खस्सामि । तो
साहवो सब्वे सुत्ता, सो एगागी जागरमारणो पासति सीहं अजयस्स सत्त भंगा, सट्ठाणं चेव आवएख ॥ २८७॥
श्रागच्छमाणं, तेण डिति जंपियं, ण गतो , ततो पच्छा वेंटिगादि-उवगरणजाए गहणणिक्खवादिकिरियासु जय- उट्ठाऊण णिय लहुडेण आहो । गतो परिताविओ । णाकारी तु सम्वहिं सुद्धोः अप्रायश्चित्तीत्यर्थः । अजयणाका- पुणो श्रागतं पेच्छति । तेण चितियं न सुद्धपरिहागे रिस्स पुवाभिहिता सत्त भंगा भवंति, पायच्छित्तं पूर्ववत् । | ताविप्रो तेण पुणो आगो. पुणो गाढयरं पाहतो, गतो । अजयणाए य वट्टमाणो बेइंदियाईणं संघट्टणपरितावणउ- पुणोऽवि तियवाग एवं चेव, णवर सब्यायामेण आहदवणादी प्रावरणे सट्टाणपाच्छित्तं दट्टब्वमिति ।। तो । गता राती । खमेण पच्चूसे गर्छता पेच्छति । सीहं अह कस्सऽवि वणभगंदलादी किमिया हवेज्ज, ते
अणुपंथे मतं । पुणो अदुर पच्छति वितित, पुणों श्रदरते तसिमा णीहरणपरिट्ठावरणाविही भरणति
तिय । जो सो दुरे सो पढम सणियं श्राहो , जो वि मज्झे सो पोग्गलमाई असती, समितं भगंदले छोटु णीसरति ।
वितिओ, जो णियडे सो चरिमो गाढं पाहतो मी । तेण कों
कणएण आलोइयमायरियारणं सुद्धो। एवं पायरियादी कारणअणुण्हे किमिकुट्ठादि,किमिया पिउडादि णीणेतुं ।२८८
सु बावाएंतो सुद्धो। गता पाणातिवायरस दप्पिया कप्पिया कस्सइ साहुस्स भगंदलं होज, तस्स ततो भंगदलाओ
पडिसेवणा। गतो पाणातिवाता । (नि०चू०१ उ०। मृषावाकिमिया उद्धरियव्वा । पोग्गल-मंस, तं गहेऊण भगंदले पवे.
दस्य दर्पिकाकल्पिकामूलगुणप्रतिसेवना ' मुसावाय' शब्दे सिज्जति, ते किमिया तत्थ लग्गति । असती पोग्गलस्स
ऽस्मिन्नेवभागे गता) समिया घेप्पइ, समिता कणिका, महुघपहिं तुप्पेउं महिउं च भगदले छुभति । ते किमिया तत्थ लग्गति । जे य ते पोग्गल.
इयाणि दिराणादाणं भराणति, तस्स पडिसेवणा दप्पिया, समियादीसु लग्गा किमिया ते णीहरंति-परित्यजति । अणु
कप्पिया य । तन्थ दप्पिया ताव भराणतिराहे छायाए ति वुत्तं भवति । तत्थ वि अद्दकडेवरादिसु, कि दुविधं च होइ तेणं, लोइय लोउत्तरं समासेणं । मिकुट्टादि किमिया' आदिसहाओ वकिमियादी अद्दकले- दव्चे खेत्ते काले, भावम्मि य होइ कोहादी ॥ ३२४ ॥ वरादिसु परिवेति । आईकलेवरस्याभावात् पिउड्डादिसु
दुविध-दुभेयं, चः-पायपूरणे, होति-भवति,तेराण चौर्य, छुभंति, पिउडं पुण-श्रोझ भएणति, णीण भगंदलादिस्था
कतम-दुर्भयम् ? उच्यते-लाइयं, लोउत्तरं च । समासेन । नात्।
व्याख्या पूर्ववत् । संसत्ता पोग्गलादी, पिउडे पोगे तहेव धम्मे य ।।
तत्थ लाइयं चउबिह-दवत्ति पच्छदं । एसा चिरंतणपायरिये गच्छंमि य, बोहियतेणे य कोंकणए ॥२८६॥ गाहा । एआए चिरंतणगाहाए-इमा भद्दबाहुसासाहुणा वा भिक्स्व हिंडतेण संसत्तं पोग्गलं लद्धं, श्रादिस
मिकया चेव वक्खाणगाहाहातो मच्छभत्तं वा लद्धं, तं तं पि तहेव पुवाभिहियकडे- महिसादिछत्तजाते, जहियं वा जच्चिरं विवच्चासं । परादिसु परिवेति । पिउडे वा पोमे वा पाम' ति कुसुभय,
मच्छरभिमाण धामी, दगमाया लोभी सव्वं ।।३२५॥ अराग पुण आयरिया पोम पोममेव भराणति । आईचम्मे वा
दवअदिराणादाण महिसादि उदाहरणं, खेत्तदिनादाणमहुघयतोप्पिते, परित्यजेत्यर्थः । एवं तसकायजयणा भणि
स्स छत्तज्ञाय ति-छतं-खतं,जाय त्ति विकप्पा । कालअदिया । भवे कारण जेण तसकायविराहणं पि कुज्जा । किं पुण
राणादाणस्स वक्वाण । जहियं वा जश्चिरं वियश्चासं ति-ज. तं कारणं जेण तसकायविराहणं करेति ? भराणति-'आर्यार
म्मि काल-अवहरति, जातिय वा कालं विवच्चासितं वन्थं एत्ति'-आयरियं कोइ पडिणीश्रो विणासिउमिच्छति, सो
भुजति तं कालं तराग — भावम्मि य होति कोहादी' अस्य जइ अण्णहा ण ठाइ तो से बवरोवणं पि कुज्जा, एवं
व्याख्या-मच्छरपच्छद्धं-मच्छरे त्ति-कोहा, अहिमाणागच्छद्राए वि । बोहिगतणे य ति-जे मेच्छा माणुसाणि
तत्थ धराणादाहरणं, दगं--पानीयं, तं मायाए उदाहरणं, हरति ते बोहिगतेणा भरणति । अहवा-बोहिगा-मेच्छा, लोभी सव्वं ति-जमयं दव्वादि भणियं एयमि सर्वत्र लोभो तेणा पुण इयरे चेव, पते पारिस्स वा गच्छस्स वा वहाए भवति इत्यर्थः । ज तं लोइयं दब्बतेराणं तं तिविध-सश्चितं उवट्टिता । चसद्दातो-कोति संजति बला घेत्तुमिच्छति, चे-|
अचित्तं मीस। तियाण वा-चेतियदव्वस्स विणासं करेइ.एवं ते सब्वे
जतो भराणतिअणुसट्टीए अट्ठायमाणा ववरोवयव्वा । आयरियमादीणं
दुपयचउप्पयमादी, सञ्चित्ताचित्त होति वत्थादी। नित्थारणं कायव्वं, एवं करेंतोऽपि सुद्धो । जहा सो कोंकणे एगो पायरिश्रो बहुसिस्लपरिवारो संझकालसमए बहुमा
मीसे सचामरादी, बत्थगमादी तु खेत्तम्मि ॥ ३२६ ॥ चयं अडवि पवरणो । तमि य गच्छे एगो दृढसंघयणी कों- जाइयवत्थ दरसुं, काले दाहं ण देइ पुणे वि।
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मुलगुणपडि.
(३६५) मिधानराजेन्द्रः।
मूल गुणपति. एसो उ विवजासो, जंच परकप्पणो कुणति ॥३२७॥ सगो अराणन्थ वारए राणावदेसा पारण णिकं भेतृण, अदुपय-माणुसं, चउप्पद-महिसमादि. श्रादिसद्दातो-अप
राणावदेसा अदंसियभावो ठितो चेव, सोऽहं णिउडमासो दंतं च-अंबवडगादि, पयं जो अवहरति गयं सचित्तदव्व
दिस्सिस्सामि त्ति पाएण णिकं भत्तूण फोडेऊण अप्पणो खेतेगणं भवति । अचित्तं होर वत्थादी. आदिसहातो-हिरराणा
त्त पाणिय छभति, एवं भावो मायातेगणं भवति । 'लोदी. मीसयदव्यतेराण-सचामरादिअस्सहरणं, आदिमहातो
भतो सव्वं ति ' अस्य व्याख्या-'लोभेणं पच्छद्धं लोभेण ते. जं वा अराणं सभंडं दुपदादि अवहरिजति तं सव्वं मीसद
मं च णियमा तिरिमा-जं वाणियगा परस्स चक्खु पंचेऊणव्वतम । छेत्तजाए त्ति अस्य व्याख्या-वत्थुमादीओ खत्तम्मि.
मप्पं करोति. कृडलकृडक्कडमपहिं वा अवहरंति तं सव्वं लो. वधु तिबिह-खातं, ऊसितं. खाोसियं । खात-भूमिगिहं.
भतेराणं । अहवा-सव्वसु कोहानिसु विडति लोभो त्ति स. ऊसिय-पासादाद, खातोसियं-हेट्ठा भूमिगिह उवार
व्वसु काहातिसु लोभान्तर्भूत एवेत्यर्थः । एवं भावतो लोभपासाओ की । आदिसहाश्रो-सेतुं, केउ घेप्पति । एवमा.
तम भवति । लोइयं तेरणं गतं । दियाण खेत्ताण जो अवहारं करोति तं खेत्तम्मि तेराणं
इयाणि लोउत्तरियं तेराण भमतिभवति । 'जहिय वा चिर विवच्चासंति' अस्य व्याख्या।
सुहमं व बादरं वा, दुविधं लोउत्तरं समासेणं। जाइय गाहा-जाइता-पाडिहारिता बत्था गहिया ते य
तण डगल छार मल्लग-लेवित्ति रिए य अविदिमे।३३०॥ गहणकाल एव भासिया-अमुए काले 'दाहं ति' अमुगकालं वसते पग्भुिजऊण गिम्हे पञ्चप्पिणिस्सामि । ' ण देति सुहुमं-स्वल्पं, बादरं-णाम-बहुगं, पायच्छित्तविहागेण वा पुगण वित्ति' पुराणे वि अवहि काउं रण देति ताणि
सुहमवादरविकप्पो भवति । जत्थ पणगं-तं-सुहुमं, सेसं बावस्त्राणीत्यर्थः । एसो उ विवज्जासो, ‘एसो उत्ति'-जो
दरं । चशब्दा-भेदसमुच्चये-दुविहं-दुभेदं लोगो-जणवतो, भणियो। तुसद्दो अवधारणे, विवजासोत्ति'-ण जहा भासितं
तस्स उत्तरं-पहाणं तम्मि ठिता जे ताण तेराण लोउत्तरं तेराणं तहा करति ति वुत्तं भवति । एवं अवहिकालाओ जावतियं
भवति, तं समासेण-संखेवेण दुविहं ति वुत्तं भवति । तस्सिकाल उरि अदत्तं भुजनितं काला अदत्तादाण भवति ।
मे भेदा-तणाणि-कुमुगादीणि, डगलगा-उवलमादी, अगजं च त्ति-वत्थादिवतिरित्तस्स अणिहिटुसरुवस्स गहणं,
णिपरिणामिगमिंधणं छारो भरणति । मल्लगं-सरावं, लेबो' पर '-श्रात्मव्यतिरिक्त न स्वकीयं परकीयमित्यर्थः । तं
भायणरंगणो, इत्तिरिये यत्ति-पंथं बच्चतो जत्थ विस्समितु. पुयाभिहिएण कालविवञ्चासेण अप्पणा कुति, श्रात्मी-|
कामो तत्थोग्गहं णाणुगणवेइ । चसद्दाश्रो कुडमुहादयो घेकगतित्यथः। अहवा-जं च परकप्पणो कुर्णात त्ति' सामराणे |
प्पंति । अविदिराणे त्ति बयणं सब्वेसु तणादिसु संबझिति । ण दिव्वादियाण बक्खाण, जं च त्ति दब्बखेत्तकाला सं
कि चान्यत्वझति तेसि परसंतगाण जमप्पीकरणं त तेराणं भवति त्ति अविदिप पाडिहारिय. सागारियपढम गहणखेत्ते य । वुत्तं भवति । काले ति गयं ।
साधम्मियऽऽमधम्मिय-कुलगण संघे य तिविधं तु ।३३१॥ 'मच्छर ति' अस्य व्याख्या
अविदिण्णमिति-गुरूहि पाडिहारियं ण पश्चप्पिणति. सा. कोहा गोणादीणं, अवहारं कुणति बद्धवेरो तु ।
गारियसंतियं अदिगण भुजति, पढमसमोसरणे वा उवहिं गे. माण कस्स बहुस्सति, परधम्मसवत्थुपक्खेवो ।। ३२८॥ राहति. परखत्ते वा उवहिं गेहति , साहम्मियाण वा पुब्बद्ध-कोहा-कोवेण जं गोणादीणं अवहरणं करेति ।। किंचि अवहरति, अरणधम्मियाण बा अबहरति , कुलस्स दिसद्दातो-महिषाश्चादीनां. बद्धवैरत्वात् , तुसहो-को- |
वा अवहरति, एवं गणस्स वा संघस्स वा, चसद्दो समुहतेराणावधारण । अहवा-सीसोपुच्छति-भगवं ! कहं को
चये । निविहं सचित्तादि दव्वं भराणति । धात् स्तन्यं भवति?| श्राचायाऽऽह-गोरखादीण अवहर
पतेसिं तणाइयाण सामराणतो ताव पच्छित्तं भवामिणं कति, बद्धवैगे तु निर्णयः एवं कोहातो भावतेराण तणडगलगछारमल्लग पणगं लेवित्तिरीसु लहुगो तु । भवति । 'अहिमाणधराण' ति अस्य व्याख्या-माणे प
दव्यादि विदिप्मे पुण,जिणेहिं उवधी उणिप्फामं ॥३३२॥ च्छद्धं-जहा मुसावाए तहहावि णवर परधराण हरिऊण 'सवत्थुपक्खेयो त्ति'-स इति स्वात्मीयो. वन्थुरिति-धराणा,
तणेसु डगलगसु छारेसु महल्लगे य अदिराणे गहिए पणगं
पच्छित्तं भवति । लवे अदिएणे गहिते पणगं पच्छितं भवइ । सी,पक्खेवा पुण छुभणं भन्नति, मोह-जीविस्सामि ति पराययं धराणं अवहरिऊण सवत्थुए पक्खिवेत्ता भन्नति ।
इनिरिण य रुक्खादिसु अणणुराणविएसु लहुश्रो उ मासो
भवति । तुशब्दात्-कुडमुहादिसु य । दव्वादिविदिराणे पुण पुब मा भणित-मम बहुस्सती हत्या इदाणि पच्चख, एवं
त्ति-दव्ये पतिविमिटे अदिसे गृहीते. पुण विसेसणे.पुव्वाभिमाणतो भावतगण भवति ।
हिया पच्छिताश्रो, जिणा-तित्थगरा, तेहि उवकरणणिप्फ'दगमायं ति' अस्य व्याख्या--
राणं भणियं, जहराणोहिम्मि-पगागं. मज्झिमे-मासो, उक्कोसे वारग सारणि अम्मा वएसपारण णिक भेतृणं । च उमासो। एवं उवकरणणिप्फराणं । लोहेण वणिगमादी, सव्वेसु वि वत्ततीलाही ॥३२६॥
अविदिराणे त्ति अस्य व्याख्या-- वारगपुब्बद्ध बहवे करिसगा वारगेण सारणीण खेत्तागि
लद्धं ण णिवेदेंती, परिभुजति वा णिवेदितमदिरमं । एजति' वारगो-परिवाडी, सारणी-णिका, तत्धेगा करि तन्थोवहिणिप्फणं, अणवटुप्पो व आदेसा ।। ३३३ ॥
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(३६६) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. कोइ साहू भिक्खादिविणिग्गतो उवकरणादिजातं ल-| तवगुरुया तु गणम्मि, कालगुरू होंति संघम्मि ॥३३७॥ टुं न निवेदेति, लद्धं लभित्ताण णिवेदेति । ण इति-पडिसेहे,
एते चिय-जे साहम्मियतेरणे पच्छित्ता भणिता, ते चिय णिवेदनम्-आख्यानम् , अायरियउवज्झायाणं ण कथयती- | कुलतेराणे वि दट्टव्वा । नवरं दोहिं गुरू मुणेयम्वा, दोहि तित्यर्थः । अहवा-परिभुजति वा, अणिवेदित चेव परिभुंज- कालतवेहि, कुलपच्छित्ता गुरुगा कायब्वा इत्यर्थः । ते चिय ति । अहवा-णिवेदितं अदिण्णं भुजति , एवं अदत्तादाणं भ- पायच्छित्ता गणतेरणे तवगुरुगा दट्टब्वा काललहुगा, संघतेरणे वति । पत्थोवहिाणप्फराण दट्टव्वं । सुत्तादेसेण वा अणवट्टो | कालगुरू दट्ठव्वा तवलहुगा। भवति।
इदाणि गिहिसाहम्मिएसु पच्छितं भएणति'पडिहारिय त्ति' अस्य व्याख्या । दारगाहा-- एते चेव गिहीणं, तवकालविसेसवज्जिया होति । पडिहारियं अदंते, गिहीण उवधीकतं तु पच्छित्तं ।। डगलादिखेत्तऽवजं,पुवुत्तं तं पि य गिहीसं ॥ ३३८ ।। सागारिसंतियं वा, जं भुंजति असमणुमातं ॥३३४॥ एते च्चिय पच्छित्ता-जे कुलादिसु दत्ता, ते च्चिय गिहिसागिहिसंतियं उधकरण पडिहरणीयं पडिहारितं अदंते अण- | हम्मीणं , गवरं तवकालविसेसेण तवकाल एव विसेसो पिणते तेसिं गिहीण उवहीकयं उवहिणिप्फरणं भवतीत्यर्थः । तेण तवकालविसेसेण वज्जिया होति । तवकालेहिं ण विसे. सागारिए त्ति-अस्य व्याख्या पच्छद्धं, सागारिश्रो सेजायरो | सिज्जंति ति वुत्तं भवति। अहवा- एते चेव'पुब्वद्धं-पयं अराणतस्स संतिय स्वकीय, वा-विकल्पे, जमिति उवगरणं, भुज-|
धम्मिएसु वक्खाणिज्जति । एते च्चिय पच्छित्ता जे साहम्मिति परिभोगं करेति । असमगुराणायंतस्स-अदितस्सेत्यर्थः ।। एसु भणितातेचेव श्रएणधम्मिएसुय गिहत्थेसु, णवरं तवकाएत्याप तहेव उवहिणि फरणं ।
लविसेसवज्जिया होति । इमं खेत्तदारे अभव्वविचारे भरणति। 'पढमगहणे त्ति' अस्य व्याख्या । दारगाहा- 'डगलादि' पच्छद्धं-डगला-पसिद्धा, आसिद्दातो तणछारमगुरुगा उ समोसरणे, परखेत्ते ऽचित्त उवधिणिप्फम । । लगपीढफलगसंथारगा य घेप्पंति । खेत्तवजं ति–परगच्छि. सच्चित्ते चउगुरुगा, मीसे संजोगपच्छित्तं ।। ३३५ ॥
ल्लयाण खेत्तम्मि वजं खेत्तवज्ज, पत्थ अगारो लुत्तो वट्टन्यो। पढमसमोसरण-घरिसाकालो भएणति , तत्थ भगवया
सो जदा आविर्भूतो भवति तदा एवं भवति-डगलादिखेत्ते
अवजं, परखेत्ते डगलगादि गेराहतो वि अपच्छित्ति ति वुत्तं णाणुराणायं उवहिग्गहण, तम्मि अणुराणाते गहणं करेंत
भवति । 'पुवुत्तं ति' चोदगाह-णणु पुव्वुत्तं 'तणडगलछारमा स्स अदत्तं भवति । एत्थ चउगुरुगा पायन्छिनं भवति ।
ल्लगपणग' पुब्वं पणगपच्छित्तं दाऊण इदाणि अपच्छित्ती 'स्वत्ते त्ति' अस्य व्याख्या-तिरिण पदा,परा-श्रयणगच्छिल्लगा
भणसि?,पायरियाह-सव्यं पुवुत्तं तंपिय गिद्दीसुतं पच्छितेसिं जं खेत्तं तं परखेतं , तंमि य परखेत्ते जति अचित्तं दव्वं गेराहति तत्थ से उवहिणिप्फराणं पायच्छित्तं भवति ।
तं जो गिही साहम्मिताओ अदत्तं गेराहइ, तस्स तं भवति। सचिसे चउगुरुग त्ति-अह परखेत्ते सचित्तं गेराहति त
चसद्दो-पादपूरणे । अहवा-पायरिएणाभिहियं जहा परखेते स्थ से चउगुरुयं पच्छित्तं भवति । मीसे त्ति-मीसो सोवहितो
तगडगलाती गेराहतो वि पच्छित्ती। सीसो भणति-उगलासीसो वा तं च संजोगपच्छित्त भवति । तत्थ जं अचित्तं
दिखत्तवज्ज' पुब्बुत्तं डगलगादयो वि परखेने बजेयव्वा,एवं
पुव्व वक्खायं । श्रायरिश्रो भणइ-सव्वं तं पि य गिहीसु तत्थोवहिणिप्फगणं, ज सचित्तं तत्थ चउगुरुयं । पयं संजोग
तं पुण गिहीसुत्ति बुनं भवति ण खेत्तिएसु । पच्छित भएणति।
'तिविहं दारं' अस्य व्याख्या-- 'साहम्मिय त्ति' अम्य व्याख्या
सच्चित्तादी विविध, अहवा उक्कोसमज्झिमजहणणं । साधम्मिया यतिविघा, तेसिं तेमं तु सचित्तमच्चित्तं ।।
आहारोवधिसेजा, तिविहं चवं दुपक्खो चि ॥ ३३६ ।। खुडादी सञ्चित्ते, गुरुगोवधिणि फाममचित्ते ॥ ३३६ ।।
सचित्तं-सेहो सेही वा, दिसद्दातो-चित्तं मीसं च । समाणधम्मिया-साहम्मिया, स्वप्रवचनं प्रतिपन्नेत्यर्थः ।। तिविहं , अवहरति । अहवा तिविधं उक्कासं वासकापाबशब्दो-पादपूरणे । ते तिविहा-लिंगसाहम्मिया, पवयण- दी , मज्झिमं चोलपट्टगादी, जहगणं मुहपोत्तियादी । अहवासाहम्मिया, ठवणासाहम्मिया य, चउभगो-आदिल्ला तिगिरण श्राहारी असणादि,उहि वत्थवडिग्गहादि,सेजा वसही.पतं भंगा तिविहा साहम्मियं त्ति वुत्तं भवति । चउत्थो भगो | वा तिविधं अवहर्गत । दुपक्खो वि-दुपक्खो साधुपक्खो असाहम्मिश्रो त्ति पडिसिद्धो । अहवा-तिविहा साहम्मिया- साहुणीपक्वा य । एवं जं भणिय तगणं एयं सव्वं पि दुहासाह , पासस्थादि , सावगा य । अहवा-समणा , समणी, सुहुमवायरभेदण भिरणं दट्टब्वं । इमण पुण विहिणा सुहुमं सावगा य । तेसि ति ' साहम्मिया संवज्झति । तेगण | पि बादरं दटुव्वं कहं ?। अवहारो, तुशब्दो-यच्छब्द च द्रष्टव्यः । सचित्त-सचेयणं,
भरणतिअचित्त अचेयणं तसिं तेम ज त सचित्तमचित्तेत्यर्थः । किं पुण कोहेण व माणेण व, मायालोभेण सेवियं जंतु | सचित्त भवति? खुट्टादी सचित्ते खुडो-सिसू वालो त्ति बुत्त सुहमं च बादरं वा, सव्वं तं बादरं होति ॥ ३४०॥ भवति । आदिसहातो खुट्टो वि तंमि य चित्ते अपहृत
क्रोधेनावित,क्रोधेनापहृतमित्यर्थः । एव माणसेवितं, मागुरुगा पच्छितं भवति । अचित्ते पुण-उवहिणिप्फरणं भवति ।
यासेवितं, लोभसेवितं । यदिति द्रव्यजातं संबज्झति, तं इदाणि कुलगणसंघा जुगवं भरणति--
पण कोहादीहिं सुहुम वा बायरं वा सेवितं, जति वि सुहुमं एते चिय पच्छिता, कुलम्मि दोहिं गुरू मुणेयवा। । तदावि तं सव्यं बायां हानि ।
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मूलगुणपि
"
कोहादी सेवितं पतिपंचादी लहु लहुया, गुरु अगाव व होति आएमा । चउरा एगतराए, पत्धारपसज्जां कुज्जा ।। २४१ ।। पंचादि पंचम भवति जपण भवति त्ति वृत्तं भवति । लहु त्ति- मज्झिमे मासलहुं भ वति । लहुगा इति उक्कोसे चउलहुगा भवंति । गुरुगतिसचिते गुरुमा भवति । श्रहवा-जहरुमरिकमे मासगुरु लहु भवति लहूगा इति-उकोसे चलहुगा भवति । । गुरुगति-सचिते चउगुरुगा भवति । श्रहवा - जहरणमकिमउक्को से सचिने वा एतेसु सव्वेसु श्रवणो य होति देखा व उपाधिजतीति पट्टो, होति भवति, आदेशात्वादेशादित्यथः में इसे सुतोव पापा से जहा सामियामास्था दलदलेमा माप छ, चउरहं कोहादीरां पगतरेणावि पडिसेविते पत्था. पत्थरो गाम -कुलगण संघविरणासो भराराति, तंमि पसज्जरां पत्थरपसज्ज कुजा के ? राजादयः । तम्हा गो कोहादीहिं हावा खियंकुज्जा इति असादादपिडि सेवा गता ।
"
।
( ३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
दास कपिया डिसेना भगतअसिवे ओमोरिए, रायडे भए व गेली । दवासति वच्छेदेऽसंविग्गे वावि अगाडे ।। ३४२ ।। असि मारि अभिहितं ओमोरिता-दुभिलं, राय ति-राया दुट्टो राय भरणति । सत्तभेदो भयं भरणनि सो सप्तभेद दोहितात संभवति । गि लायतीति गिलाणो यतीतिच्च नम्स असती व्यासबोच्छेदोदो नयर्थः स य सूत्रार्थयोः संवेगमा वरण संविग्गो, संविग्गो-संविग्गो, तंमि संविग्गे कुरजा । एवमादिसु आगादे पश्चोप तिपदे खियं कुखा ।
ण
असिवेति " अस्य व्याख्यासिवग्गहिततणादी, असंथरते सयं पि गेहेज्जा । एमेव च उदि पडिहारिय पदमखेने प ।। ३४३ ।। असि मारीत ती गहिता असियगहिता ते सिवगाहिता होतूल तणाईणि जाइयाणि श्रलभंता । आदिम गलगलारमजगादी पेप्यति । परिसे कारसे
दिगुणाणि वि हंति, तहा वि शुद्धा भवति । असधरमहिंत विसर मागासवादी सयं पि रहेजा, श्रदत्तेत्यर्थः । श्रहवा - असंथरं--दुभिक्खं तत्थ अलहंता भत्तपाएं सयं पि गैरिहज्जा । एतं 'अदिति दारं असिव अवदित एमेव च अदि एति एवं जहा असिंव अदिए अववादनं तहापाहारिये चमदानी मागारियसंतियं पदमगहणेय ने य प चडगे असता होऊ द विगेरहेजा । श्रहवा - चउरो-- दव्वं, खेत्तं, कालो, भावो य । पते या अहिता होऊ असे रहेजा अहपा-ब गं- हमनुकोमोवही मेह व अहवा चउरो
मूलगुणपडि
साहम्मिसंतियं सिद्धसंतियं, सागसंनियं, अरति रवीण पाणि वा असिम्महिता होऊ रहेजा या बस पाएं, खातिमं सातिमं दया णि वा दिरणाणि गेरहेजा । एयं सामरं पाडिहारियस्स । इमा पत्तेयं विभासा भरगत्तिअसिवगहित चिकाउं देति दुक्खं ठिता य शिच्छोढुं । अविय ममत्तं द्विजति, छेययगहितोवभुते ॥ ३४४ ॥
विमादि तथातियकरणं च पारिहारिय तं गतिं तम्मिय काले असे अंतरा असि जायं ते सिवेण ते साहवो गहिता, तो असिवगहित ति काउं देति तं पारिहारिय गहितं मा त गिरथा असिपेप्पा इति ते विहित्था ते पारिहारिए ममत्तं छिजंति ममेदं जो य ममीकारस्तं ममत्तं, तेसु तणादिछिति फिडर ति स भवति । कहा ममते - १. भगवति देवनगडितोदभुत्वात् असि गंभ ति: तेरा गहिता देवहिताहिं जाति उचभुत्तादखि तफलमाणि तेषु तारा निहत्था ममन्तं दिजति स्वत्पश्चादत्तादानदौषेत्यर्थः । श्रहवा एसा गाहा एवं वक्खागिज्जति साह असिवग्गहिता इति कृत्वा ते गिहत्था तेसिं साहूण तणफलग सैज्जा ण देति असिवकारणत्वात् श्रतो श्र दत्ता विप्पति तेसु असे गाते दिने वा दुख डिलायसिस च्छिति तेसु अलगहितेसु । ' अवि य' पच्छद्ध पूर्ववत् ।
'असंथरेति श्रस्य व्याख्यासाधम्मिन्थली, जायमदेते भणावणगिहीसुं । सती पगासगहणं, पलवति दुट्ठेसु छ पि ।। ३४५ ॥ सित्रगद्दिते विसये असिवगहिया वा साह असंथरंगा सियाचिन वा दुजहमने देसे पता असंथरता, साहम्मियति--समाराधम्मा-साइम्मिया, थ ली देवी, जातिभारतपासस्थपरियविद्रोणी पुन्याचयन्तीत्यर्थः अनि जया ते पा सत्था च्छति दाउं तदा गिहत्थेहिं भणाविजांत, सव्वसामरणादेवी कि देह समितावि देताणं पगासह पगासं प्रकटं स्वयमेव गहणं क्रियते । अह से पासस्था बलवगा - राजकुलपुरवार विद्याश्रिता इत्य र्थः यः । दुट्ठेसु ति - स्वयमेव वा दुष्टा श्रासुकारिणः तदा तासु चैव साहम्मियथली छरणमप्रकाशं गृह्यतेत्यर्थः । साघम्मियत्थली, सिद्धगए सावगमादित्थीसु । उक्कोसमज्झिमजह - सगम्मि जं अप्पदोसं तु || ३४६ ॥ अह साहम्मियस्थली प्रभावो होजा, ताहे गिहस्थेसु घेत्तव्यं, ते विपुवं सिद्धपुत्तेसु, सभार्यको अभा र्यको वा सो यिमा सुक्कवरधरो खुरमुंडो सलिही प्रसिही या विमा अडगो पत्तो वि य सिद्धपूतो भवति । सि द्धपुत्ताऽसति, सावगे त्ति-सावगा ते गिहीयारणुव्वता, अगियाव्यता वा पच्छा ते पेप्पति असति साधगाणं तिनिधिया रसपदादी नारा चली पे
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मूलगुणपरि०
tus सन्वत्थ पुरा गेरातो पुच्वं जगणं गिरह, पच्छा मज्झिम, पच्छा उक्कोसं । श्रहवा उक्कौसे मज्झिमे जहर वा जत्थेव अप्पतरो दोस्रो तंत
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( ३६८ अभिधानराजेन्द्रः ।
एमेव गन्धे चि महगमादीस पडतो गिरहे । अभियोगासति ताला - सोवरिविजाऍ अन्तधाणादी ३४७ एमेव ति-जहा सिद्धपुरुसावगेसु अविदिन गहियं एमेमागिन् चि भगमादीसु पदमतो गिराहनि अरणतित्थिय समीवतो पुव्वं श्रह भहगेसु दिन्न घेत्तव्यं, पछातिथिरस य एते पुरा सन्देसु पापन वा गेरहंतस्स इमा जयगा । अभियोग ति श्रभियोगोवसीकरणं भनति तं पुरा विजाचुगलमा बीकरेत्ता गेरहण । असति त्ति वसीकरणस्स. ताहे तालुग्वाडलौर पिजा मालगासि विहाऊस, श्रसाविज्ञान प ओसो जादा अहिस्सा भवनि त ताण भगतान आदिमहानो जागि पगास तेरागमवि कज्जति । ' असिये नि ' दार गय । एमेव य मम्मि वि, रायदुडे भए व गेलम्मे । अगतोसहादिद, कलानगमनादी ॥ ३४८ ॥ जहा अविहार अदिपदिकारियादिद्वारा भगिया एवं श्रमरादुभय गेल रणदारेसु वि श्रदिर पाडिहारगादिदारा जहासंभव उवउज वक्तव्या। दव्वासति त्ति' दारं श्रस्य व्याख्या- श्रगतो पच्छद्ध-कस्स वि गिलास, जेण तंगल पराति तस्य इत्यस्य असती अभावत्यर्थः त पुरा धगतोसहादिव्यं अगत नकुलाचादि श्री एलादिगादिया, फला घृतं हंसते हंसोपी भ राति सो फाऊल मुत्तपुरीसाग सहारजनि नाहे सो हंसो द रिजति ताहे पुत्र सांगि तदनं पचति तं ते दिसानोसतपागसहस्रपागा य तेल्ला घेष्पति । एवमादियाण दवाअभियोगादी पूर्वक्रमेण सं कर्तव्यमिति ।
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'वोच्छेये त्ति' अस्य व्याख्या
पतं वा उच्छेदे गिहिखुगमादिगं तु वृग्गाहे । सिद्धम्मसुडगं वा जनउ घटउ जमउ नि ।। २४६॥ पतं णाम -- सुतत्थतदुभयस्स ग्रहणधारणाशक्लेत्यर्थः । उनिउछेख सुनाएं यति पुनं भवत मिहासमे दिला- गिहत्था, खुसिम् भवति। रिसानी बालोऽयि अहदा साम्म मियादा कारगावचार विवरीय गानपुरमा हते, मा गिवासे रम सिवृत्त भवति । सिसुमितरं वा स arrest योग्यमिच्छमानमपहरन्तीत्यर्थः । 'वोच्य ति' गये। 'संविग्गे सि' दारं-अस्य व्याख्या 'सिद्धम्स' प सिम्त धम्मा शिवम्मा, पासथानि सिनिय या मेव जहा हिताहि गावला नि भगवति जयन सुजयउ, घरजम ति षुतं भवति । तेखि पासपरितो जहा विपरिणमति उहा कुर्यात् श्रवहरति वाणी
मूलगुणपटि
त्यर्थः । चोदगाह - जुत्तं सुत्तन्धोभयवोच्छेदे गिहिसाहम्मिएतर खुड्डुगादिश्रवहरणं किं पुण सिद्धम्मखडुगादिश्रवहरणं जंगेतर या फुटं ते भवति । चावायांह
तेसुं तममा, अणुमातरगहण व सुद्धा तु । के अजम-पंकेने तु कईते ।। ३५० ।।
तेसुं ति-पासत्सु तमिति खुड्गो, सेहो वा, संवझति, अणुदहति पुष्यं पासल्या खड्गमित
या त्यजति वि ने पासयेदि -- अहन्तेत्यर्थः । ग्रहणमुपादानं नहिं सुद्ध सर्वप्रकारेत्यर्थः, तुसद्दो- पूरणे । श्रहवा-चोदक श्राह तेसु तु तमपुराणातग्गहस जुन गुणाय विसुद्ध तु कई? आयार्थ्या ह--अदले पिकं रुकारो सेवे
--
जहा को गया ?, जो ग रक्खति तेगण अवहारो - श्रसजमा अवरति पंत्री दप्यभावतो वो चली भाष संजम एप पंकी भगति असंजम एव पं तमि मुस तस्वार्थे द्रव्य गरिस, उद्ध रणमित्यर्थः । तस्याद् श्रसंजमपंकादागतस्स कं तेरणं भव तीत्यर्थः ।
अपि चसुहसीलने गहिता भवलिं ते जगडितमगाहे । जो कुणति विगत्तं, सो वमं कुणति तिन्थस्स ।। ३५१ ।। सुवासीले यो गोवहारी, गदिनः-श्रात्मीकृतो भवः संसारः बहुप्राग्युपमदों यत्र सा-पली. ते
तम्मुख जगाडतो-प्रेरितो लोगे भनि उबसियर्थः मुंह सीले सुमीले सुहसी
。
एते गहिनील तो भव एव पल्ली -भवपल्ली नेग जगडियमा सिजमागे जी, जो निकृवियत्तं जइति अट्ठा कुतिक रोति, कृविया - कुढिया भरगति जो एवं करेति सो वग करेति । सो-इति, स इति निर्देश, प्रभावणा वारणा भरगति, तं करेनि निग्धस्स नित्यं समवाल
दस्
गं वाडिया गता । गत अदिराणादाणं । याभिनिविदा परिवादप्रिया, कमिया, तदपियं ताव भणामि । दारंमपि यतिविधं दिव्यं माणुस तिरिवा दखने काल भाभि व होति काहादी ।। ३५२ ।। जभन तस्म भावमेवाह
"
असिटी-एवकारार्थे । महा गायपुर मे हुमब त्रिविधेत्यर्थः । विविह त्ति-विविध भेदं भगति । तिरिति सखा, निगिरा भेदा तिविहं के ने विरिण यभैया ? भरणति - दिव्य, माणुस, रिच्छ च । एकेक पुगो उमेद दयेन्दनगरी समुचये होनि भवति। आि छानां माणमायालोमा घेति ।
दवे नि श्रस्य व्याख्यारूस ने जैमिनि ।
य
,
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मूलगुणपडि अभिधानराजेन्द्रः ।
मूलगुणपडि. दुविधं छिएणमछिएणं, जहियं वा जचिरं कालं ॥३५३॥ पासिऊण रोसो जाओ, एसा अरहंतपडिीया इति किच्चा अणाभरणा इत्थी-रूवं भराणति । रूबसहियं पुण-तदेवाभर
(नं ) वयं से भंजामि त्ति मेहुणं सेवति । पच्छा गतुं गुरुरणसहियं । अहवा-अचेयणं इत्थीसरीरं रूवं भराणति ।।
समावं आलोएति, भगवं ! रोसेण मे वयभंगणिमित्तं महुणं तदेव सचेयणं रूवहितं भएणति । दव्यं त्ति-दब्बमेहुणे ए
सेवितमिति। श्रमणुस्सत्ति'अस्य व्याख्या-'अट्टिो पच्छद्धं वं वक्वाणं भराणइ । खेत्ते य ति दारं गहितं । 'जंमि खेत्त
अट्टियं पुणो पुणो श्रोभासति, यावतिय प्रणिच्छे अणभिलसंम्मि' अस्य व्याख्या-जम्मि य खेतम्मि मेहुणं सेविजति व
ते, साज्झिया समोसितिया। अपम ति-नपुसंक इति कहिते गिणज्जति चा, तं खेतो मेहुणं । 'काले त्ति' अस्य व्याख्या
साहू। पडियस्स य समीवे इत्थी सुरूवं भिक्खु दठूण अज्झो. 'दुविहं' पच्छद्धं-कालो जं मेहुणं तं दुविहं-छिराणं अछि.
ववराणा, सातं पुणो पुणो भणति-भगवं! मम पडिसेवसु, सो गणं च । छिराण दिवसवेलादि वाराहि वा, अछिगणं अपरि
णेच्छति । जाहे बहु वारा भणितो णेच्छंति, ताहे तीए मितं । जमि वा काले मेहुणं सेविज्जति जावतिय वा कालं सो साहू भएणनि-तुम णपुसगो धुयं जेण मे रूवजोवणे मेहुणं ति जातियं वा वरिणजति तं कालमेहुणं भरणति ।। चट्टमाणी ण पडिसेवसि, तस्सेवं भणितस्य माणो जातो रूवे रूबसहगए' ति । अस्य व्याख्या
अहमेतीए अपुमं भणितो पडिसेवामि, तेण पडिसेविया। एवं
माणे मेहुणमिति । जीवरहिओ उ देहो, पडिमाओ भूसणेहि वा वि जुतं ।
'रुय णि' अस्य व्याख्यारूवमिह सह गतं पुण, जीवजुयं भूसणेहिं वा ॥३५४|| विरहालंभे मूल-प्पतावणा एव सेवती मायी। गतार्था ।
सज्जातरकप्पट्ठी-गोउलदधि अंतरा खुड्डो ।। ३५८ ।। 'भावम्मि य होइ कोहाइ ति ' अस्य व्याख्या
विरहो-विजण, तस्स अलंभे, सूल-रोविकागे, पयावणा कोहादी मच्छरता, अभिमाणपदोसऽकिञ्चपडिणाए। । श्रग्गीए । एव त्ति-एवं-अनेन प्रकारेण,सेवती-विसोपभोग तव्यमिगि अमणुस्से, रुय धण उवसग्ग कप्पट्ठी।३५५।
करेइ । कोइ साहू समासियाए इत्थीए साहिजति, साहुस्स
बहुसाहुसमुदायतो विरहो णत्थि । ततो तेण साहुणा कोहादिग्गणाउ भावदारं सूतितं । मच्छर ति-कोहेण
अलियमेवं भरणति-मम सूलं कज्जति, अहमेतं गेहं गंतुं मेहुणं संवति । अभिमाणो-माणो, भरणति । पदोसो त्ति
तावयामि । श्रारिएप भणिय-गच्छ । सो गतो. तेण पडिमाणे गढितं तेण पदोसेणऽकिच्चं ति-अकिञ्चपर्याडिसेवणं क
सेविता । एवं मायाए मेहुणं भवति । 'घण उयसग्ग कप्पट्रिनि रेति, मायालोमा दट्ठव्वा । अहवा-किच्च करणीयं, रागकि
अस्य व्याख्या-सेज्जातरपच्छद्धं. कम्मि य णिश्रोए श्रायरिया चमिति यावत् , एसा माया घेप्पति । पडिणीयग्गहणातो
बहुसिस्सपरिवारा वसंति , तम्मि य गच्छे कविलो नाम लोभो घेप्पति. स च मोक्षप्रत्यनीकत्वात् प्रत्यनीकः । सेज्जायरधूअपञ्चमीगोवसक्खणाओ वा, पच्चणीगो लोभो
खुडगो अस्थि । सो सेज्जायरधूयाए अज्झोववरणो सोतं भरणति, तव्वरिणगी रत्तपडिणीया कोवे उदाहरण भविस्स
पत्थयति, साणेच्छति, अराणया सा कप्पट्टी दहिणिमित्तण ति । श्रमणुस्स त्ति णपुंसगं एवं माणे उदाहरणं भविस्सइ ।
गोउल गता । सो वि कविलगो तं चेव गोउल भिक्खायरिरुय ति-रोगे, एतं मायाए उदाहरणं भविस्सति । घणे त्ति
याए पट्टितो । सा तेण खुडगेण गामगोउलाणं अंतरा दिट्ठा। घणविगती, उवसग्गे ति-उवसग्ग एव, कप्पट्री-सेज्जा
उप्पातऽणिच्छपितु पर-सुच्छेए जुल्मगणियगहे। यरधूआ, कविलचेल्लगो लोभा सेज्जायरकप्पट्टीए उपसग्गं ततिरो दिप्मो पुमम्मि, इत्थीवेए सछिड्डम्मि ।। ३५६ ।। करोतीत्यर्थः।
सा तेणंतरा भारियाभावेणुप्पादिता अणिच्छमाणीयो एसेघऽत्थो किंचि विसेसिश्रो भएणति
उप्पातितं रुहिरं, अणिच्छमाणीए योनिभेदेनेत्यर्थः । तीए कोहातिसमभिभूत्रो, जो तु अभं णिसेवति मणुस्सो ।
रेणुगुडियगत्ताए गंतूण पिउणो अक्वाय, सो परसुं-(कुहा
| डं) गहाय निग्गतो, दिट्ठो यऽणेण, से पसवणं, छिन्न, ततो चउ अम्मतरा मूलु-प्पती तु सव्वत्थ पुण लोभो ।३५६।
उणिक्खंतो, सो उ एगाए जुस्मगणियाए संगहिओ। तस्स य आदिसहाप्रो-माणमायालोभतः, समभिभूतो-पात इत्यर्थः। तत्थ ततिओ गपुंसगवेदो उदिएणो । तो इत्थिवेदो, तम्मि जो अणिहिट्ठो, अबंभ-मेहुणं, णिसेवति-आसेवति श्राचर-1 य पसवणपदेसे अहोटो भगो जातो तीए गणियाए इत्थीतीत्यर्थः । मनोरपत्यं मनुष्यः,तस्स तत् तदाख्यं भवतीत्यर्थः। वेसण सो ठविश्रो, संववहरितुमाढत्तो इति अस्यैकस्मिन् चउ ति-कोहादयो, तेसि अरणतराओ भूलुप्पत्तीश्रो श्राद्यु- जन्मनि त्रयो वेदाः प्रतिपद्यन्ते । अनेन च क्रमेण आदौ पुमं, त्पत्तिरित्यर्थः । तुशब्दो-अवधारणे । सव्वत्थ पुण लोभो को ततो अपुमे,छिड़े जाते इत्थिवेदे समुदिराणे तइयवेदेत्यर्थः। एवं हुप्पराणे मेहुणाभावे लोभो भवति । एवं माणमायासु वि लो। तस्स कविलखुडगस्स सेज्जायरकप्पट्टीए लोभा मेहुणमिति । भो पुण सट्टाणे भवति वेव।।
एम माणुस्सगं भणितं, एवं कोहातीहिं दिव्वतिरिएसु वि "चेव तव्वरिणगि त्ति" अस्य व्याख्या
दट्टव्वं । एवमुक्तमिति त्रिधा भिद्यते । किं कारणं ?, उच्यतेसेहब्भागभिक्खुणि, अंतरवयभंग वियडणा कोऽवि ।
पुव्वभणियं तु कारणगाहा । इह दुहक्सिसोवलंभणिमित्तं अद्विोभासऽणिच्छे,सएझि अपुम त्ति माणम्मिा३५७/ भरणतिएगो सेहो उम्भामगं गतो, भिक्खायरियाए ति वुत्तं भव
मेहम पि य तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिच्छं च । ति । सो य गामंतरा अडवीए भिक्खुणीं पासति । तस्स तं । पडिसेवण आरोवण,जयणा तिविहे य जा भरिखता।३६०॥
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मूलगुणपडि०
पुण्य कंठे पदादियं भवियं तं एकं तिविदं उकोसं मज्झिमं जनं च । एते राव विकप्पा, दुविहे यति- पुणो एकेको भेदो दुगने मिति सि यु भवति । पडि माजुदेति युतं भवति । एते अट्ठारस विकण्या जे भणिय त्ति एतेसिं श्रद्धारसरहं विकप्पाणं एक्केके विकणे जा भणिता रोवणा सा दगुब्वा । का य सा, इमा पडिलेया आरोवण ति - डिसेबसे आरोवणा पडिलेचणा55रोवणा, पडि सेवणापच्छित्तं ति वुत्तं भवति ।
"
ठाणपायच्छित्तं च इणमेवत्थे किंचि विसेसं भरपतिदिव्याहतिगं उको सगाई एकेक तु तं तिविधं । तिपरिग्गह मे केकं सममत्तममत्ततो दुविधं ।। २६१ ।। दिव्यं माणुस्सर्व तिरियं च एकेक पुणो तिवि कोसं मस्जिद च पुणे एके तिरिह डिकोडंबियपायावच्चं च । पुणो एक्केक, दुविकल्पं - सममतामत्तभेदेण । एते य चेयणे अचेयणे भेया ।
(2100) अभिधानराजेन्द्रः ।
इमे पुण पायसो अयणे भवंति - पढिमाजुतदेह जुगं, पडिमासपिहित एतरा दुविधं । देहा तु दिव्यवज्जा, सचेतणमचेतणा होंति ॥ ३६२ ।। पडिमा जुपडिमा सह प्रतिमया सेवनमिवर्थः । जं पडिमा सिरिएपिडिमा वा असंनिहियपडिमा वादति-यतिरिवास सावि भवति दिव्या पुसया एवं अचेया भवति ज म्हापदीवजाला इव सहसा विद्धंसति । एय सप्पभेयं इहे - वज्झयणे बहुदसे भणिहिति । गया दप्पिया मेहुणपडि सेवरणा । इदाणिं कपिया भगति एवं सूरिणा भने गाहचिट्ठउ ताव काणया पडिसेवणा दप्पियाणं ताव विसेसं भगाडि, कटं या दप्यकम्पपडि सेवा भवति । गुरुराह रागद्दोसाणुगता, सुदपिया कप्पिया तु सदभावा । आराधन कप्पे, विराहओ होति दप्पेणं ॥ ३६३ ॥ पीतल रागा अपीतिलक्लो दोस्रो अनुगतासहिया, शिकारणलपवतो दयेः रागदोसागया दुनिया भवतीत्यर्थः । कारणपुन्यगो कप्पो तदभावाद्भागदोसाभा यासकार दोखाच्च कप्पिया भवतीत्यर्थः । शिष्यः पुनरपि पृच्छेदकाभ्यां सेवक भवति उच्यते'धराहरा पानामाराधको भवति, तेषां चैव दप्यत् विराधको भवति । विराधको - विनाशकः पुनरप्याह चोदक:- जति रागदोसपा तोि या पडि सेवा भवति, मेहुएकपिवार अभावो पायति, श्रहवा -- संबंध ? आचार्य एवाह, मेहुणे कपियाए अभावो । चोदगाह - गणु सव्वपाण श्रववादधम्मया जुन आचा
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कामं सव्यपदेपि उस्सग्गववातधम्मता जुना । मोतुं मेहुणधम्मं, ण विणा सो रागदोसेहिं ।। ३६४ ।। कामशब्दः इच्छा अनुमतार्थे तु अनुमतार्थे द्रष्टव्यः । सव्वपयाणि मूलु तरपदाणि, अबिसदो श्रवधारणे, तेसु य उसग्गववातधमाया जुता । उस्सग्गो-पडिसेहो, श्रववातो
मूलगुणपडि०
पुराणा, धम्मता - लक्खणता, जुत्ता- जुज्जते घटतेत्यर्थः । सव्वं सव्वेसु मूलगुण उत्तरपदेसु उस्सग्गववायलक्खणं जुजवि. तहा वि मोतुं परित्यज्य मेडुजुर्ग तस्स भावो मे भावो अभभावत्यर्थः । किमर्थ है, उच्यते - विणा रा गद्वेषाभ्यां सो मेहुणभावो भवतीत्यर्थः । रागद्वेषादिसंभवे सत्यपि संयमजीवितादिनिमित् वमाने स्वल्पप्रायश्चित्तमित्याहसंजमजीविग्रहेउं, कुसलेगा लंबा व लेणं ।
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भयमागे उ अकि, हाणी बुड्डी व पच्छिना || ३६५|| जीवितं दुविहं संजजीवितं असंयमजमजीवियबुदासो संजमजीवियकारणाए त्ति वृत्तं भवति । चिरं काले संयमजीवि जीविस्सामीत्यर्थः कुलं पहा सं. विसोहि कारणमिति बुतं भवति। आविजति तं तमा येणार भावे व-गागादि । अमित तिमाहीहि कारणेहि भ मागे अभियसेवालो तुसहो- अवधार च्च -- मेहुणं, तं कारणे सेवयंतो हाणी वा पच्छित्ते वुडी वा पच्छित्ते भवतीति । पुनरप्याह चोदकः जति कुसलालंबणसेवणे पच्छत्तं वृत्तं भवति कम्हा मेहुणे कप्पिया इति भणियं ? | उच्यतेगीयत्थो जताए, कडजोगी कारणम्मि विदेसो | एगेसि गीतको अरतदृट्टो उ जनाए ।। ३६६ ।। गीतोस गीतल्या. हतार्थ इत्यर्थः जयगा जं अप्पतरं अवराहाणं तं तं पति जपणा भरणति जोगी जोगो किरिया सा कया जैस सो जोगी भ
सातवे सिवा करतं पुरा सागादि एस पढमो भंगो। एत्थ य गिद्दोसो भवति गीयत्थो जयसामकडजोगी, सिकार सेऽसिटोसो वितिय एस भंगो, एवं सोलस भगा कायव्वा । एत्थ पदमभंगे तो पडिसेवियं तो कपिया भवतीत्यर्थः यगेसिं पुनराचावीदीनाम् इह द्वात्रिंशगङ्गा भवन्ति । गीयत्थो कडजोगी अरतो दुट्ठो जयणाए एस पढमो भंगो। गीयत्थो कडजोगी श्ररत्तो श्रदुट्टो अजयगाए एसो वितियभगो । एवं वसीसं भंगा कायव्वा । एवं एत्थ वा पढमभंगे पडिसेवयतो कप्पिया भवति । चोदगाहजर पढमभंगे कपिया राणु सिद्दोस एव श्राचार्याहजदि सम्सो अभावो, रागादीचं हवेज गिोसो | जतगाजुने तेसु तु, अप्पतरं होति पन्छिने ॥ २६७॥ यत्ययमभ्युपगमे सर्वांत अभावोस कासे किं भाया रागादी तो दोसो. मोहो य, घेण्पति, यद्येवं तो मेहुणे हवेज्ज, शिद्दोसो अप्रायश्चितीत्यर्थः स पुरा सव्वसो रागादीण मेहुणे अभावो अम्पायच्छिती वा. वरं 'जयणाजुतेसु' जयणा-य न ताए - जुता उपेता इत्यर्थः । तेसु त्ति-जयणाकारिसु पुरिसेसु तुसद्दो- अवधारणे यस्मादर्थं वा । अप्पतर होइ पहितं तदा जयवार दहिया ति उबदेखो ।
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' भयमाणे उ श्रकिच्च श्रस्य व्याख्यासामरथवि अपुते, सचिव मुखीधम्मलक्खवेसणता ।
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मूलगुणपडि.
अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि. अणहबिया तरुणुरोधो, एगेसिं पडिमदायणता॥३६॥ मंडियसाहिया ता दटुं हरिसुल्लसितरोमस्स-मूलं भवति, पगो गया अपुत्तो. सचिवो-मती, तेण समाण । सामथ
भये पुण रोमंचे छेदो, परिणा-पच्चक्खाण । सेसं कंठं । ण-संप्रसारणं, अपुत्तस्स मे रज्जं दाइपहिं परिभेज्ज किं
पडिच्छमादी एगगाहाए वक्खाणेति-- कायव्वं ?, सचिवाह-जहा परखेत्ते अगणेण बीयं बावियं
मा सीदिन परेच्छा, गच्छा फुटेज थेरसंपेच्छं । खेतिणो ग्राहव्यं भवति, एवं तुह अनेउरखेने अराणेग वि वी. गुरुणं वेयावच्चं, काहंति य सेवो लहुरो ।। ३७१ ॥ यणिस तुह चेव पुत्तो भवति,पडिसुत रगणा । को पविसि- भयमाणे उ अकिच्चे जहा वुड्डीए पच्छित तहा भन्मतिज्जतु । सचिवाह-पासंडिगो णिरुद्धेदिया भवंति । ते पवि
लहुओ य होति मासो, दुभिक्खविसजणा य साहूणं । सिज्जतु. एत्थ राया अणुमए कोइ मुणी धम्मलक्खेण पवेसज्ज । मुणी-साह भगवं ! अतेउरे धम्मकहक्खाण कायब्ध
णेहाणुरायरत्तो, खुड्डो वि य णेच्छते गंतुं ।। ३७२ ॥ लक्ख छद्म, नेण धम्मकहाख्यानच्छद्मेन प्रवेशयन्ति । ते य जे
असिवाइकारणेसु उप्पमेसु वा उप्पपिजस्सति वा गाउं तरुणा अगटुबीया ते पवेमिता अविणटुबीया इति वुत्तं भव
जह य सय गंतुमसमत्थो आयरिश्रो जघाबलपरिक्खीणो ति । अहवा-अपघा-गिरोगा, अणुवहयपवेदियसरीरा.
साह ण विसज्जेइ , तो पायरियस्स असमायारिणि फरणं बीया इति-सर्वाया, ते तरुणिन्थियाहिं समारणं , ओगेहो
मासलहुं पच्छित्त, अविसजेतस्स य प्राणादी दोसा, तत्थ अतेपुर, तत्थ बला भोगे भुजाविज्जति । एत्थ कोइ साहू
य असंथरता एसणं पेल्लेजा, मरण वा हवेज भत्ताभावो, णेच्छइ भोतुं । उक्त च
जम्हा पते दोसा तम्हा गुरुणा विसजिअब्यो । गुरुणा सव्वो
गच्छो विसज्जितो तत्थेगो खुडगो गुरूणं णेहानुरागरत्तो "वर प्रवेष्ट्र ज्वलित हुनाशन,
णेच्छति गंतुंन चापि भग्न चिरसंचितं व्रतम् । वर हि मृत्युः सविशुद्ध कर्मणो,
असती गच्छ विसजण, देसखंधाउ खुड्डो सरणं । न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥१॥" णीसा भिक्ख विमा उ,पविसितपतिदाण सेवा य।।३७३।। तस्स य एवं अगिच्छमाणस्स रायपुरिसेहिं सीसं कट्टियं । असती भत्तपाणादी सब्यो गच्छोगप्रो.खुडोऽवि अणिच्छो 'एगेसि पडिमदायणत त्ति' अराणे पुण आयरिया भणति- पेसियो । जया गच्छो देसखंधे गतो, देसंतेत्यर्थः, तदा सो जहा ण सुठ्ठ पगासे लेप्पयपडिम का लक्वारसभरि- खुडोणासिश्रोणियत्तो, गुरुणा भणियं-दुठु ते कयं, जं नियाए सीसं छिराणं, ततो पन्छा साहूणं भरणति-जहा एयस्स उत्तो, जा तस्स पायरियस्स णीसाहरेसु भिक्खा लम्भति अणिच्छमाणस्स सीस छिराण, एवं जति गच्छसि तुम पिछि तीए विभागं अहियतरं खुड्डगस्स देति, सो य खुडो चितदामो. एव साभाविते कतके वा सिरच्छेदणे कए अभोग- यति-पसो वि आयरिश्रो किलेसितो । ततो गुरुमापुच्छिउं त्वेन व्यवसितानामिदमुच्यते
वीसुं पहिंडो गतो, सो पक्कीए पविसितपतिइत्थियाए भसुदुल्लुसिते भीते, पच्चक्खाणे पडिच्छ (गच्छ) थेरविह।। मति-अहं ते भत्तं दयामि जति मे पडिसेवसि । तेण पडि. मूलं छेदो छग्गुरु, चउगुरुलहु मासगुरुलहुओ ॥३६६।।
सुयं 'पविसियपतिदाणसेवा य' अस्य व्याख्याजस्स तावासरछिराण सो सद्धो । उल्लसिओ-एतेण वि ताव
भिक्खं पि य परिहायति, भोगेहि णिमंतणा य साधुस्स । मिसेण इन्थी पावामो हरिसितो । अवरो जति ण सेवामि गिण्हति एगंतरियं, लहुगा गुरुगा य चउमासा।।३७४॥ तो मेसरं छिजाते अतो भीतो सेवति । अवरो किमेव अ- पडिसेवितस्स य तहिं, छमास छेदो उ होति मूलं च । णालोइयपडिकतो मरामि सेवामि ताव पच्छा आलोइयपडि.
अणवटुप्पो पारं-चिओ अ पुच्छा यतिविधम्मि।।३७।। कतो कतपञ्चक्खाणो मरिहामि त्ति बालबण काउ सेवति ,
सो खुडगो चिंतयति-जइ पयं पडिसेवियं गच्छामि मरीअवरो इमं श्रालंबणं काउं सेवति , जीवतो पडिच्छयाण
हामि, अह सेवामि तो जीवंतो पच्छितं.सुत्तस्थाणिय घेप्प वायणं दाहामि ति सेवति । अवरो गन्छ रक्खिस्सामीति
त्थं, दोह कालं संजम करिस्सामि.एवं चितिऊण जयणं करेसेवति । अवरो चिंतयति-मया विणा थेराण ण कोधि कि
ति, एगंतरियं भत्तं गेएहति, पडिसवति य । पढमदिवसे गे. तिकम्म काहिति अहं जीवतो थेराण वेयावच्च काहिति
राहतस्सेवं-तस्स चउलहुगं, बिति यदिघस श्रब्भत्तटुं करेति, सेवति। अवरो बिह-पायरिया, तेसिं वेयावच्च जीवतो
ततियदिवसे गेराहतस्सवं तस्स-चउगुरुगं, एवं चोद्दसमे दि. करिस्सामि ति सेवति । एतोस उल्लसियादीण पच्छद्धेणं | बसे-पारंचियं भवति, अह णिरंतरं पडिसवति, ततो बितिजहासंखं पनिछत्ता-उल्लसिए-मूलं , भीये-छेदो, पच्च
यदिणे चेव मूल भवति । एसा वुड्डी भणिता, 'पुच्छा य ति. क्खाणे-छग्गुरु, पडिच्छे-चउगुरुगा , गच्छे-चउलहुगा, विहम्मि त्ति' सीसो पुच्छति-दिव्यमाणुसतिरिच्छेसु कह थेरे-मासगुरू. विहुए-मासलहुओ त्ति ।
मेहुणामिलासो उप्पजति ?, प्राचार्याहउजसितभीतपच्चक्खाणस्स य इमा बक्खाणगाहा---
वसधीए दोसणं, दई सरिउं व पुव्वभुत्ताई। निरुबहतजोणित्थीणं, विउव्वणं हरिसमुल्लसण मूलं ।
तेगिच्छि सद्दमाती, असंजणातीसु थीजतणा ॥३७६।। भयरोमंचे वेदो, परिण काहंति छग्गुरुगा ॥ ३७० ।। वसही-सज्जा, तीए होसेण मेहुणाभिलासो उप्पज्जति, पंचपंचासहराणं वरिसाणं उरि उवहयजोणी इत्थिया भव- स्यादिसंसक्लेत्यर्थः । अहवा-इत्थि दडे पुब्वं-गिहत्थकाले ति, आरतो अणुबहयजोणी गर्भ गृहातीत्यर्थः । विउचिया जाणिं इत्थियाहिं समं भुत्ताणि वा हसियाणि वा ललियाणि
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(२७९) अभिधानराजेन्द्रः ।
मुजगुणपरि०
या ताकि समरिऊण मेहुणभावो भवति । एवं उप्पर किं काय मति- तिमिच्छा कायच्या सा तिमिच्छा शि वी. यात तर सहमादि-जत्थिरिथि रहस्सस वा श्रादिग्गहणाओ भरणति श्रालिङ्गनोवग्रहमधुंवनाश्यः, तत्रासी स्थविरसहितो स्वाप्यते यद्येवं स्वा दुपशमः 'असंजण त्ति' असंगो - अगेहीत्यर्थः । स ताए श्रचिय जयणाए गेही कायव्या इति । एवं तिसु वि दिव्वाइसु जया दटुब्वा । गता मेहुणस्स कप्पिया मेहुणस्स कप्पिया पडिलेपणा । गमे।
दाणिं परिहो भगति तदुचिपडि सेवणा-दप्पिया, कप्पिया य । तत्थ दप्पियं ताव भणामि -
दुविधो परिग्गहो पुण, लोइय लोउत्तरो समासेणं । दवे खेते काले, मायम्मि य होति कोधादी ॥ ३७७ ॥ पुरासदो - अवधारणे वा, एक्केको पुण दव्वादि दटुवो। सेसे कंठं ।
दष्यकालाहमा वक्तासच्चित्तादी दव्वे, खेत्तम्मि गिहादि जच्चिरं कालं । भावे तु कोधमादी, कोहे सव्वस्स हरणादी ॥ ३७८ ॥ सच्चित्तं दव्वं-दुपयं चउप्पयं, अपयं वा । श्रदिग्गहणातो अचित्तमीसे. चित्तं हिरण्यादि, मीसं-सहिजोगसहि यं सादिय ताणि जो परिगेरहति मुच्छितो सो दम्यपरिग् हो भवति । गिद्वाणि खासितोभयकेउगादियाणि खेनापरिहंतस्स खेतपरिमाो भवति, जम्मि वा ते व रिजति स त्तपरिग्गहो भवति । एते चैव दत्तपरिहा चिरं काले परिगेरहंति जम्मि वा वरिवति काले परिग्गहो स कालपरिग्गहो भवति । ' भावम्मि य होति कोहादि ति ' अस्य व्याख्या-भावे उ पच्छद्धं भावे तु भावपरिग्गहे सो परिग्रहवाचकः, कोहाती, आदिसहातो-मासमायालोमा पैष्यति । तत्थ कोदपरिगाहस्स व्याख्या 'कोहे सम्वस्त हरणादी' कोटे व यादी रुट्ठो सम्य हरि अप्पो पग्मि करेति, एस कोडेल भावपरिग्गही आ दिसदातो दंडेति अवकारिणो वा श्रवहरंति, कोहेण । वाणि माणे
दोगच्चवतों माणे, घणिमं पूजति ति अजियति । मायाणिधाणमाती, सुवध दुव्यम्पकरणं वा ॥ ३७६ ॥ दोगच्चं - दारिद्द, स विसयातो गतो - वइतो भरति । मायेति पर्व माग उपजिगर मणियं तत्थ दोगच्चेगवतो माण व रिगतो संदेसाते जइ वि ण दति पुरिसो को परिभूय वासाओ 1 अहवा-धनिमंतो लोगे पुति ति अहं पि पुजिसामीति परिहं न कचित्पूजयति इत्येवं भाग परिग्गदं उपज्जिति माया शिहाणमादी' माया सिहासयं विहसति श्रदिग्गहणाय इग्रेन व्यवहरति दया करा, इथे वा किंचि माहरंग मा मे कांति हरिस सि सुबह दुष्करेति । एवं मायाव भावपरिग्गहो भवति सव्यापादिता लोभइस लोभणाभिहतो जो वि एस कोदो
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मूलगुणपरि० भहितो एसो वि लोभमंतरेण स भवतीति उक्त एच लो भः । जम्हा प्रतीव मुच्छितो उवज्जिगति सो वा लोभ भावपरिग्गहो दटुग्वोति भणितो लोइयपरिग्गहो ।
इदाणि लोउत्तरिश्रो भएराति सो समासो दुविहो दारगाहाथ
सुमो व बादरो वा दुविहो लोउत्तरो समासेणं । कागादि सारा गोणे, कप्पट्टगरक्खणममत्ते ॥ ३८० ॥ सेहादीए कुठे, सच्चिने असणादि अचिते । ओरालिए हिरणे, छक्कायपरिग्गहे जं च ॥ ३८१ ॥ ईसि ममत्तभावो सुमो परिग्गहो भरगति तिब्वो यममत्तभावो बायरो परिग्गहो भरणति, एसो दुविहो वि पुणो चहा विस्थारिज्जति दव्वखेतकालभावे । तत्थ दव्वें'-कागादि पच्छ अप्पणी पाणगादिसु काकं अतशिवारेति आदिमहातो सासमालादि सायं वाइसमाणं, गोवा सहिमादिसु अपरम्भतं सेायदिवास या कप्यगं अरणायसे रक्ख सयगादिसु वा मम करे. सेहो या पडिदोपण्यातस्स परिहो भवति, अणाभयं वा पावणिजं सचित्तं पव्वावेंतस्स परिग्गहो भवति । आदिसह मेदवाचकः खीयं वा अचितं मत्तादि गेरहंतस्थ सपरिग्गहो भवति । आदिसहातो वा व थपादात अचित्तम्हणतो वा अतिरि गहणं करोति स चानुपकारित्वात् परिग्गहो भवतीत्यर्थः, घडियरूयं द्रविणं ओरालियं भगवति, अर्थविरूवं पुरा ह रं भरणति, पताणि गरहंतस्स परिग्गहो भवति, लक्कायसचित्ते जीवनिकार रहतस्स परिगाहो भवति । जं च निजं च एते कागादिसु पायच्छित्तं तं च दटुव्वमिति ।
एतेसिं कागाइयाण इमा चिरंतता पायच्तिगाहापंचादी लहुगुरुगा, एसणमादीस जेसु ठाणेसु ।
गुरुगा हिरणमादी, छक्कायविराधणे जं च ॥ ३८२ ॥ पंचगति-परागं तं श्राइ काउं एसणादिसु जत्थ जत्थ जं संभवति पायध्वमिति । लडुगा गुरुगा गा एवं संबभंति, श्रहवा-परागं श्रादिकाउं जाव चउलहुया, चउगुरुगा. जं जेसु ठाणेसु पायच्छित्तं संभवति तं दायव्वमिति । आदिसदातो पदमा पति, हिरवं राहंतस्स बउगुरुगादिसदातो-ओरालिए विचउगुरुगा। कायविराहपादातं चिमं 'कायच लडुगा,
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कारणगाहा ।
इसमेवार्थ भाष्यकारो व्याख्यानयतिगिहिणोऽवरज्झमाणे, सुखमजारादि श्रप्पणो वावि । बारेऊ न कप्पति जिगाय घेराउ गिटीगं ॥ २८२॥ मिडिसी-गिहत्यस्स अति-अवराहं करेंति, सासो मजारो वा आदिहाती गागा विपति प वा एते मादिसु प्रवरभंति से अवरमाणे विबारेक कप्पंति, जिणार, जिलपिया घेरा गया गिहत्था मरणत्था मणश्रवरज्भमाणा वारेऊण ण कम्पति । अपणो य वारेऊण स कप्पंतीत्यर्थः ।
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( ३७३ ) अभिधानरराजेन्द्रः ।
मूलगुणपडि०
एतेसु चैव कागादिसु पच्छित्तं भरणति - काकशिवारणि लहुओ, जानममनं तु लहुच सेसेसु । मज्झसवासादि त्ति व, तेरा लहू रागिणो गुरुगा ॥ ३८४ ॥ काग शिवारेति- मासलहु. सेसेसु त्ति-सारागोण-उलहुबा, सेज्ञातरममण कापडुर्ग रपयतिमज्झसवासा - एगग्रामनिवासिनः स्वजना वा तेरा सरणानगादिसु मम रति तहावि हुर्ग अह कप्प
चेय
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रागेण रक्खति तो - चउगुरुगं ।
'सेहातिपडिकुट्टे नि ' अस्य व्याख्याताऽडतालसे, दुरूवीणा तु ते भये पिंडे । पडितेतर मोरालं, पत्थादि गतं गा उ गगहंति ॥ २८५॥ अडालीसं भेदा, सेहाण अपव्वावणिज्जा य । ते य इमेअट्ठार पुरसुंदीसुं इधी. इस पुंसगेसु. पचायला अगरिदा मतिया मागे स एतनुिरूप जहा प्रणलसुते तहा दट्टव्यमिति । इह पुन सामाश्रो च उगुरुगं पच्छित्तं, श्रणाभव्वं सश्चित्तं गेरहंतस्स चउगुरुगा मेव 'असणे' इति अस्य व्याख्यारूचा ते भ पिंडे डिपिडा येऽधिकृता ते दुरुनीया मेदा पिंडे भवन्तीत्यर्थः । श्रडयालीसभेदमज्झतो दो रूवा सोहिता, जा ता छायालीसं । कहं पुरण छायालीसं भरणति"सोलसमुग्गमदोसा, सोसमुप्पायरणा य दोसा उ । इस एसणाएँ दोसा, संजोयणमादि पंनेय ॥ १ ॥" संजोयते - अप्पमार्थ, रंगालयमणिकारणा पते सच्चे समुदिता सतासी संत मीरा को यरसरिस काऊ ए फेडिज्जति तो छायालीस । श्ररणे आयरियासत का इति कार्ड के अ यति । श्ररणे पुण्- संजोयणादिनिक्कारणवज्जिया छायालीसं करेंति, एतेसिं सरूवं जहा पिंडणिज्जुतीए पछि, जहा कापडे, तहाइ पि मिति अनि म मुकोसे फिरणं व्यमिति श्रोगविरहिर स्पव्याख्यापहितेतर मांगलिये घडिये भरणादी धोराल भरणति, इतरं पुण श्रघडियं तं हिरराणं भवति । एत्थ जहाकमणिद्दे से हिरण्णसदो लुत्तो दटुव्वो । श्रहवा-घडियं, इतर
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घडियं सव्वसामराणेण श्ररालियं, भरणति । वत्थं-वासकण्यादि आदिसतो पात्रादिधम्मोपकरणं सव्यं पे स्पति । गतशब्दो धर्मोपकरणभेदावधारणे द्रष्टव्यः । श्रहवागगारो आदि पट्टिो, पत्यादिगतं गोरे पत्थादिवा सिंदेसो कारो-प्रतिषेधे तुशब्द-परिवार मे रहनीति वृत्तं भवति । वत्थादिगं धर्मोपकरणं परिग्रह मन्यन्तेत्यर्थः । तान्येव महद्धनानि मुच्छाए परिभुजंतस्स परिग्रहो भवति - चउगुरुगं च से पच्छतं भवति । परिग्गहो गतो ।
इदानो भगति
गासे संथारो, उवस्सयकुलगा मणगरदे से य । चनारि च लहूगुरु, वेदो मूलं तह दुगं च ||३८६ ॥ श्रगासो- पाइस्सगस्सेगंदसो, तम्मि पवातादिके रमणीये ममतं करेति, संथारगो-संथारगभूमी ती ममतं करेइ, रसश्रो बसही, तीए वा ममतं करेति । एवं कुले - कुलं कुटुंबं,
उव
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गुण
गामणगरा-पसिद्धा, देसो पुरा जहा- कच्छदेसो. सिंधुदेसो, सुरडाssiद, रायण भोती रजं भणति सो पुरा भोती एगविसोया होजए सामादिसु पनि जहायवेव बारि उच्च ' पच्छुद्ध-कंठ । खेतपरिग्गहो गतो । इदालिकाले भगत
कालातीते काले कालविभासकालतोऽकाले ।
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लहुओ लहंगा गुरुगा, सुद्धपदे सेवते जं च ।। २८७ ।। कालानीय ति-कालतो अतीत कालातीतं उड़बदे-मासातिरिक्तं वसंतस्स, वासासु य अतिरिक्तं वसंतस्स । काले-काले परिग्रहो भवति विनिवासदोला व भवति । कालविवश्वासो ति-कालस्स वियन्त्रासो कालविवच्चासो तं करेति कई भगत कालो अक उडुबद्धे काले स विहरति । अकाले ति वासाकाले विहरति, अहवा दिवा ण विहरति, राम्रो विहरति एस विपर्यासः । इदं प्रायश्धिनम् उबजे अतिरिने मालदुगो वासातिरिसेपलगा कालविपन्चासे-वगुरुमा पते पत्ता पत्रे भवंति सुपर्द साम-रा पत्तो तहाविपत्तिं भवतीत्यर्थः । सेवते जं च त्ति' जं संजमायराहणं सेवति तरिफ व पाि दद्रुष्यमिति । कालपरिमतो
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दाणिं भावपरिग्गहो भरगतिभावम्मि रागदोसा, ओषधिमादी ममनगिक्खिते । पासत्यम मतपरिग्गहे लहुगा गुरुगा प जे जत्था भावम्मि भावपरसाही रागेत दो य भवति। उवहीउवहिश्र श्रादिसद्दातो- उबग्गहितो घेष्यति । तंमि दुविहे विमतं करेति, शिक्खितं साम गरलिगावद्धं स्थापयति चोरभरण वा शिक्खिवति, गोपयतीत्यर्थः । पासत्थादिवाकरेति ममीकारमात्रं रागेण या परिगेल्हति श्रात्मपरि स्थापयतीत्यर्थः । यसातो- अहा - परिग वा करेति 'लडुगा गुरुगा व जे जत्थति - रागादयो संवति ते तत्र दातव्याः । पासत्थादिसु ममते- चउलडुगा, ग्रह रागं करेति तो- चउगुरुगा, दोसेण पासत्थादीसु-बउलहुगा चेव, उबहिणिक्खितेसुचउलढुगा सच्छेदित्थी सु-चउगुरुगा ।
पासत्यादादिमा मध्याख्या
मम सीस कुलि व गणि व, उवमम माति भाइणजोती । एमेव ममत्त करेंते, पच्छित्ते मग्गणा होति ।। ३८६ ॥ सुपासन्यादिसु एवं करे से कंठे । इमा भाष्यकर्तुः प्रायश्चिनगाहा-उदधिममते लहुगा, तेराभया शिक्खिवंति ते चेव । ओसम्म गिही लगा सच्छंदिरथीसु चउगुरुगा ॥ ३६० ॥ ते चैव चिडलगा, ओगले य ममते चलडुगा नेय से गतार्थगतो भावपराहो गता परिगहस्स दुनिया पडिवणा ।
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दाणि कविया भगवति --
अणॉभोगे गलगण, अदा दुल्लभा ।
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( ३७४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मूलगुणपटि
सेहे गिलाणमादी, मजाया बावऽणुड्डाहे || ३६१ । अणॉभोगे गेलणणे, अद्धा दुल्लभट्ठजाते य । सेहे गिलागमादी, पडिकमे विदुडे य ।। ३६२ ।। पयाओ दोरिण दारगाहाओ । एत्थ पढमदारगाहापुव्वदेश दयावयात महितोपदेश तायवाची महि श्रो वितियदारगाहापुव्यदेश कालाववातो गहितो पच्हदेव भाषाषयाओ गाहेतो ।
अणाभोगेति श्रस्य व्याख्यासम्पदाऽणाभोगा, गेलएखोमधिपदावणे बारे । काकादिहिपडते, दव्यममत्तं च बालादी ॥ ३६३ ॥ सम्पदा सम्पदा के ते सम्पदा ? कागादिसागोराछक्कायपरिग्गहबसाणा, एते सव्वपदा । पते जहा पडिसिद्धा तहा अणाभोगेण कुर्यादित्यर्थः । श्ररणाभोगे त्तिगतं । 'गिलागे त्ति' अस्य व्याख्या- ' गेलरणोसहि त्ति' गिलाणस्स श्रसहालि उहे कतासि साथ कागे अहिपते शिवारेति आदिसदातो सोगगोणा शिवारेति, एवं गिलाणकारण शिवारेंतो सुद्धो । गिलाणकाररेण वा कष्पट्ठगरक्खणममत्तं वा कुजा, जो मम च वालादि ि दव्यमिति दव्यदारशापनार्थ दव्यं वा लभिस्सामिनिमम तर करेति ममने अतरणिमितं वाले सुदं मा यापिरौ से गिलाणस्स पडितप्पंति वाले ति बालस्स रस्वर्ण कुजा, गिलालपडितप्पसस्यं, आदिसहानो- अवाले ताव रक्खणं कुज्जा, गिलाण्डायमिति - गेलण्ड्डा वा श्रडयासेदा पडिकुज्जा पप्यावा ।
जतो
अतरंत परियरागण व पढिकुडा तप्प अहव विजस्स । सिद्वायमसिं, विजहिरणं विसे कणगं ।। ३६४ ॥ अवरंतो- गिलास, पडिवरगा गिलासमा वा यकारो समुचये, पडिकुट्ठा - णिवारितो अपव्वावणिज्जति निवृत्तं भवति । तप्ये सियावर त्यर्थः । मिलागस्स वा पडियरगाण वा वेयावश्चं करिष्यतीत्यतः प्रव्राजयलि । श्रहबा - वेज्जस्स करिष्यति, ततो वा प्रवाजयति सिगारापडियरगविज्ञान अद्वाय करेउजा, गिलाणमंगीकृत्य बेज्जताय हिरणं पि गराउजा श्रोतस्यावयासे कति विस्तस्प - कनकं तं घे सिविसायात पा दिजति अस गिलाराट्रा ओरालियग्रहणं भवेज | गिलाराट्रा कायरिम्म नि अस्यापवादः-कायाणवि उवओोगा, गिलाणकज्जे व विज्जकजे वा ।
एमेव श्रद्धाणा, सेज्जातरभत्तदाइसु वा ॥ ३६५ ॥ कायापुढवादी खिपि उपभोगो उपभोगी भवेज | गिलास वा मिलाणसेय अपणो उबभोगाय - बादि, बेज्जस्स या उपभोगाय तदपि न दोसनिमि एवं गिलासकार कागद ये अवदिता मिलाणे ति गतं । इदाणि श्रद्धा ति अस्य व्याख्या एमेव य पच्छद्ध - एमेवाऽवधारणे, जहा गिलाण्डा कागादिया द्वारा तु ता तहेव श्रद्धाऽवीत्यर्थः । श्रद्धापडिवरणो जो सज्जात
मूलगुणपि
रो जो वा दाणाइ सहो भत्तं देति, वाकारो समुच्चये, एसि किं विसारिये आतवे होज्जा, तर फागगोलसाणा अहिवडता शिवारिजा पि जं से उप्पजड सुठुतरं परितप्यस्तीति कार्ड कप्पर्ग पि राम वा करेजा। ओरालिए हिरखे सेहाति नि परिकुट्टा ।
एस छक्कायाण एगगाहाए वक्खातिदुक्ख कप्पो वो तेरा हिरवं कताकतं गए। पडिकुट्ठा वि य तप्पे, एसणकप्पे असंथरणे ।। ३६६ ।। दोहा पडिवरणेहिं दुक्खं - श्रद्धाणकप्पो बुज्झति, तेस कारसे, हिरराव काफघडियरूचं अडिय रूपं या अा घेण्यति । श्रद्धापविलास बेय, पडिकडा-सहा भन्त पाश्विस्सामणोपकरणहरणादीहिं तपिस्संतीति काउं दिक्खेज्जा, श्रद्धाणे वा असंधरंता एसपि पेल्लेजा असणीयं गेरहंतीत्यर्थः । श्रद्धाणे वा असंथरणे कायापि उपयोग करेज्जा प्रलंबादेरित्यर्थः । श्रद्धावे ति गयं ।
इदा 'दशमे सि' दारं
दुल्लभद दाहिति ते शिवारे ममनमादि च । पढिकुराधातुं ओरालकओ व काया वा ॥ ३६७॥ दुलम्मति से दुलर्भ तं च सयपागसहस्वपानादिवं दस्तं वाहिति शिफारस कामसुरागादि सि वारेति मम वा करेति दिसतोपगादि रक्खति, पडिकुडे वा सेहे पच्चावेति । एवं दुल्लभं दव्यं लभितु समत्था भवंति | अहवा - कोइ गिही तेरासियपुत्तेग लज्जमाणो भणाति-जइ मम पुत्तं तेरासियं पच्चावेसि तो इमं जं दुल्लभं दव्वं तुमं असेसणीयं एयं चेव पयच्छामि । एवं दुल्लभवता पडिकुट्ठेति पच्चावेजा, एपिपले एवं उम्मउप्पाद दुल्लभं ददतीत्यर्थः । दुल्लतां च धारादिर देखा। तासि ओरालहिरणापि तं दुल्ल भदव्वं किजा, कायाव त्ति दुल्लभदव्वद्वता वा सचित्तकाया गरजा कहे पचालादिणा सचितपुचितंदुअद फिरोजा दुति गर्त ।
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ददामि अजाति निदा
एमेव अजातं, तेस शिवारे ममत्तमादि च । पढिकुंडु व धातु ओरालफओ व काया वा ॥ ३६८|| एमेवावहारगे, जहा दुल्लभदव एवंमेव अट्ठजाए विदइ जानशी वाचकः अर्थमंदत्यर्थः एते सेज्जातराति श्रजाय दाहितीति तेरा तेसि कागगोगसाणे अवरज्भंते शिवारजा, कम्पट्टगं वा रक्खेजा, ममत्तं वा करेजा, चकापड वा चाति, तदद्वाय दया एत्ति वृत्तं भवति । सा पडिकुसेहो पञ्चाविता दवजायं उत्पादयिष्यतीत्यर्थः । अट्टतायं पि उप्पादेनो एस पाकुले वापि भिक् रहेजा, मारुडांग दाहिति अट्टा असिमिया का ए गेरहेजा, कहं?, उच्यते-'धातु त्ति पासाणमट्टियादि गहऊग जायरूवं सुवरणं तं उप्पाज्जा धातुवायप्रयोगात् पुण्स
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(३७५ ) मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलगुणपडि० हो-विसेसण दट्टव्यो, आदिसद्दाता-रुप्पं तं च सीसगतउ- | दृति सो श्रमज्जादिल्लो,तं जो ताो श्रमजातातो उणिवागादी धाउवायप्पोगा उपाययतीत्यर्थः । अहवा-जायरूवं रितो तत्थ किं ममत्त तु, तत्थ-किमिति--श्रमज्जायपवजं च प्रवालवत् जातं तं जायरूवं भरणात । दवपरिग्गहा- नाणिवारणे, किमिति-क्षेपे, ममत्तं-ममीकारो, तुसदो ववातो गतो।
श्रममत्तावधारण, होज्ज--भवेज्ज, सिया-प्रासकाप, श्रइदाणि खेत्ताववाता भरगति
वधारणे वा, ममीकारः यदीत्यभ्युपगमे, तमिति अमज्जाएमेव अट्ठजाए, खेत्ताएँ ऽववाततो वोच्छं।
यहाणं संवझति, स्वयमिति श्रात्मना संप्रत्यासेवतीत्यर्थः ।
खेत्ताववातो गतो। सेह गिलाणमादी, मज्जाता वावऽणुड्डाहे ॥ ३६६ ॥
इदाणि कालाववातो भएणति 'श्रणाभोगे त्ति' अस्य ब्या'सहेत्ति' अस्य व्याख्या, गाहा
ख्या, गाहा-- उवासादीसु सेहो, ममतपडिसेवणं च कुजाहि ।
अणॉभोगा अतिरित्तं, वसेज अतरंतो तप्पडियरा वा । एमेव गिलाणे वी, णेह ममं तत्थ पउणिस्सं ॥४००॥
अद्धाणम्मि वि चरिमे, वाघाए दरमग्गे वा ॥ ४०४॥ उवासो आदी जेसिं ताणि उवासादीणि, ताणि संथारउव- अणाभोगो-अत्यंतं विस्मृतिः, किं उदुमासकप्पो वा, वास्सयकुलगामणगरदेसरजं च, एतेसु सेहो प्रयाणमाणो मम- साकप्पो वा,पुस्मो न पुलो वा । एवं अणुवोगाओ अतिरित्तं तं वा करेजा । अहवा-गिलाणो भणज्जा, मम पत्थ देसे पिवसिज्जा. श्रणाभोगे ति गयं । 'गेलराणे त्ति' अस्य व्यामा कोति अल्लियो । एस पडिसेहो त्ति गश्री । इदाणि गिला. ख्या-अतरंतो तप्पडियरा वा । अतरतो-गिलाणो, सो विहण ति-' एमेव ' पच्छद्ध-एवमवधारणे, जहा सही उवासा- रिउमसमत्थो उदुबद्धं वासियं वा अइरित्तं वसेज्जा, गिलादिसु ममत्तं करेजा, एवं गिलाणो वि उवासादिसु ममतं णपडियरगा वा ग्लानप्रतिबद्धत्वात् , अतिरित्तं वसेज्जा । करज्जा । अहवा-सो गिलाणा एवं भणज्जा-णह मम तं गामं गिलाण त्ति गतं । श्रद्धाणे ति' अस्य व्याख्या-'श्रद्धाण'रणगर देसं रज्जं वा, तत्थाहं णीश्रो पणिस्सामीत्यर्थः । आदि पच्छद्ध-श्रद्धाणं पहपडिवत्ती तं पडिवन्ना अंतरायं वा संसद्दातो अगिलाणा वि सन्नायगोवसग्गपत्तो भणज्जा, णेह | पडेज्जा, ततो कालविवच्चासो वि हवेज्जा । ' वाघातो ममतंगाम,तत्थाऽहं गोवसग्गिज्जामि त्ति । गिलाण त्ति गये।। त्ति' वाघातो णाम-विग्छ, तं वसहिभन्नादियाण होजा अतो इदाणि 'मज्जाय'त्ति अस्य व्याख्या--
तम्मि उप्पराणे घासासु वि गच्छेज्जा, अहवा-उदुबद्धियखेसागारिअदिग्मेसु व, वासादिसु णिवारए सेहो।
ताश्रो वासावासे खत्तं गच्छंता अतरा वाघातेण ठिता वा
सिउमारद्धो वाघातो चरमे अप्पयाया एवं वा कालविवञ्चासं ठबणाकुलेसु ठविए-सु वारए अलसणिद्धम्मे ।। ४०१॥
कुज्जा। दूरे वा तं वासकप्पखेतं अंतरा य बहू अवाया सागारिओ-सज्जातरो, तेण जे उवासाण दिन्ना, तेसु उवा
श्रतो ग गता , तत्थेव उदुवासिए खत्ते वासकप्पं करेंति, सेसु सहे अमज्जादिल्ले आयरमाणे णिवारेज्जा, आदिसहातो.
एवं वा अतिरिस वसंति । श्रद्धाणे ति गतं । उवस्सो घेप्पति । मज्जाय त्ति गतं । इदाणि 'ठवणे ति'
'दुल्लभे' त्ति अस्य व्याख्याअस्य व्याख्या 'ठवणा' पच्छद्ध-ठवणकुला अतिशयकुला भरणति, येवाचार्यादीनां भक्तमानीयते तेसु ठविण्सु अ
धुवलंभे वा दव्वे, कइचणदिवसेहि वसति अतिरित्तं । लसणिद्धम्मे पविसंते णिवारितेत्यर्थः । ठवणे त्ति गतं ।
उदुअतिरेको वासो, वासविहारे विवच्चासो ॥ ४०५॥ गामणगरदेसर जाण अबवातो भएणति-' उडाहे 'त्ति अस्य
दुल्लभदव्वटुता अतिरित्तं पि कालं वसेजा, कहं ?, उच्यतेव्याख्या
पुराण मासकप्प, वासाकप्प वा, दुल्लभदव्वस्स धुवा-श्रउड्डाहं च कुसीला, करेंति जहियं ततो णिवारेंति ।
वस्सं, लाभो भविस्सति, तेण 'कति ति' थोवदिवसे श्र
तिरित्तं पि वसेज्जा । उदुबद्धकाले अतिरेगो वासो एवं अत्यंतेमु वि तहियं, पवयणहीला य उच्छेओ ॥४०२॥
संभवति दुल्लभदब्वटुतो वासासु विहरंति, एवं कालविवजहियति-गामणगरदेसरज्जे, कुसीला-पासस्था,अकिरिय,
च्चास करेंति । दुल्लभे त्ति गतं । पडिसवणा,उड्डाहं करज्जा'ततो त्ति'-गामणगरादियाश्रोणि
इदाणि ' उत्तम?'त्ति अस्य व्याख्यावारेयब्वा-णिवारणा कायब्वा, इह गामे अकिरियपडिसवणा
सप्पडियरो परिमी, वास तदट्ठा व गम्मते वासे। ण कायव्वा । अत्यंतसु वा तेसु पासत्थेसु तहियं गामेपवयण-संघो तस्स हीला-णिदा. भवति । भत्तपाणवस
संथरमसंथरे वा, अोमे विभवे विवच्चासो ॥ ४०६॥ हिसहादियाण वा विउच्छेदो, तेसु तम्हा ततो पारं
परिणी-अणसणावविट्ठा,तस्सज वयावश्चकारिणो ते पडिचिये वि करेज्जा । उड्डाहे त्ति गयं ।
यरगा.सा परिगणी सह पडियरएहिं अतिरित्तं पि कालं वसेचोदग श्राद-गणु वारेतस्स गामादिसु ममत्तं भवति । आ
ज्जा.तदट्टत्ति परिगणी पडिरयणट्ठा वा गम्मते वासासुविएस चार्याह-रण भवति, कहं ?, उच्यते
विवश्चासी । परिणित्ति गतं । इदाणि 'ओम' इति अस्य व्या.
ख्या सथरपच्छद्धं-जन्थ-संथरं तत्थ मासकप्पो अतिरिस्तो जो तु अमजाइल्लो, णिवारए तत्थ किं ममत्तं तु ।।
विकजति,जत्थासंथरं तत्थ ण गम्मति,जत्थ पुण वासकप्पट्टिहोज सिया ममकारो, जतियं ठाणं सयं सेवे ।। ४०३॥ ताण अोम हवेजा, ततो वासासु वि गम्मति,एस विवचासो। 'जे' य इत्यनुद्दिष्टस्य ग्रहणं , तुसहो-णिद्देसे. मज्जाया- अहवा-वासकप्पट्टिताण उ गजति,जहा कत्तियमग्गसिराासु सीमा ववत्था , न मज्जाया अमज्जाया, तो तीए जो व- मासेसुप्रसंथरं भविस्सति, मग्गा य दुप्पगम्मा भविस्संति,
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मूलगुणपडि. अभिधानराजेन्द्रः।
मूलहाण अतो वासासु चव संथरे विवच्चासो कज्जति । असंथरे पु. पडिक्कमे नि गतं । इदाणि 'विज्जत्ति' अस्य व्याख्या-'विजट्ठा ण कातिका । ओमे ति गतं । गो कालो।
उभयं सेविति'-उभयं णाम-पासस्थगिहत्था, ते विज्जामइवाणि भावावधाता भएणति । तत्थ सेह त्ति' दारं । अस्य
तजोगादिणिमित्तं सेवतेत्यर्थः । केती पुण एवं पदंति-वेजट्ठा व्याख्या
उभयं सेवेति'-चेजो-गिहन्थो, पासत्थो वा हवेज, तं श्रोसिआदिए स उभयं, करेज सेधोवधिम्मि व ममतं ।
लग्गेजा सुह, एवं सो गिलाण उप्पमे गिलाणकिरियं करिअवि कोऽवि ममत्तणा तु, इयरगिहत्थेसु वि ममत्तं।४०७/ ध्यतीत्यर्थः । अहवा-उभयं वेणियल्लगा य । वेषजस्स सेहो-अगायत्थो, अभिणवदिक्खिी वा, सा सेजादिए गिलाणकिरियं करेंतस्स सेवं करेजा, वेणियल्लाण वा उभयं करेज, उभयं णाम-रागदोसा, श्रादिसद्दातो-वा- सेव करेजा, ताणि तं वेज किरियं कारयिष्यतीत्यर्थः । सकुलगामनगरदेसरजादयो धप्पंति । उवहिम्मि वा वासक- 'विज्जे ति' गत। प्पाइए ममत्तं कुज्जा । श्रवि कोऽवि ममत्तणा उ चेव इतरगि. इदाणि 'दुढे त्ति' दारं अस्य व्याख्याहत्थेसु वि ममत्तं कुजा, तुसहो-विकप्पदरिसणे । गीयत्थो
परिसं व राय दुटुं, सयं व उवचरति तं तु रायाणं । वि कुजा, इतरे-पासत्थादयो। चोदगाह अगीतो अगीयस्थ तणातो पासत्थगादिसु ममत्तं करेजा, गीतो पुण जाणमाणो,
अामो वा जो दुट्ठो, सलद्धिणीए व तं एवं ॥४११।। काहं कुजा? प्राचार्याह
दुटुं णाम-राया पो होपत्रा, तम्मि पदुट्टे जा तस्स प. जो पुण तट्ठाणाओ, णिवत्तती तस्स कीरति ममत्तं ।
रिसा सा उमयरिपब्बा, मोलग्गं कायब्वा इति वुत्तं भवति । संविग्गपक्खिोवा,कज्जम्मि व जातु पडितप्ये ॥४०८॥
जो वा तं रागावं एगरिसो उवसामहिति सो वा सेवि
यव्यो, उपसमल्लशिसंपयो वा साहू सयमेव रायाणं उबजो इति-पासत्थो पुणसहा-अवधारण, तट्टाणं पासत्थ
चरति, तंतु प्रद्विष्टराजानमित्यर्थः । अण्णो वा जो राजवद्वाणं तो जो पासत्थो निवत्तति तो णिवतमाणस्स कीर, ममत्तं न दोषेत्यर्थः । अणुज्जमंनो वि संविग्गपक्खि.
तिरित्तो भडभोरादि जइ पउट्ठा तं पि सलद्धिश्रो जो साह तो जो तस्स वा कीरइ वा ममतं, कज्जे गाणादिगतं गगह
सो पट्टणीए वा से सेवेज्ज एव पदुटुं णिउत्तं गिहत्थेसु वि तस्स जो पडिपति पासत्थो तस्स वा ममतं कज्जति,
ममत्त कुरजा । पदंद्र ति दारं गतं । गो भावपरिम्गहो। कुलगणादिगं वा कजं तं जो साहयिस्सति पासत्थो
गता परिम्गहस्स कम्पिया पडिसेवणा। (रात्रिभोजनस्य तस्स वा ममतं कज्जति , एवं गीयन्थी पासत्थादिसु
मूलगुणप्रतिसेवनां 'गइभीयण' शब्दे वक्ष्यामि )। ममतं कुजा। सहे ति' गतं ।
मूलगुणपडिसवय-मूलगुणप्रतिसवक-पुं० । मूलगुणाः प्राइदाणि 'गिलाणमादि त्ति' दारं अस्य व्याख्या
लातिपातविरमणादयस्तयां प्रातिकूल्येन सेवको मूलगुणप्रतिपासत्थादिममत्तं, अतरंतो भेसतद्वता कुज्जा । सेवकः । मूलगुणप्रतिसंवनाकारके, भ० २५ श० ६ उ० । अतरंताण करिस्सति, माणसिविज्जद्वता वितरां।।४०६।।
मूलगुणरहिय-मूलगुणरहित-पुं० । पञ्चमहाधतान्यतरखण्डअतरंतो-गिलाणो, सो पासत्थादिसु ममत्तं कुज्जा । कहं ?,
नशीले, दर्श०४ तत्त्व । उच्यते-किं कारणं?, उच्यते-भेमयता-भसह-ओसह, तं दाहिति मे तेरण कुजा । अतरंताग वा एस करिस्म
| मूलगुणविजुत्त-मूलगुणवियुक्त-त्रि० । महायतरहिते, सम्यति सि तेण से ममत्तं कुजा, अनरंतपडियरगा चा अ ताण
गज्ञानकियारहित च । पञ्चा०१, विव० । ध। असंथरंताण वहिस्सति, तण वा ममस कुज्जा । मम वा मूलगोन-मूलगोत्र-न । उत्तरगोत्रापक्षया मूलभूतान्यादिगिलाणीभूयस्स वहिस्सति तण वा कुजा । मागसिविज-भूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि। कश्यपादिपुरुषप्रभवे मनुष्यटता था ममतं कुज्जा, माणसिविज्जा राम-मासा चिति- सन्तान, स्था० ७ ठा, ३ उ० । (मूलगोत्राणि सप्त नानि ऊण जावं करेति, तं लभति, तं मे सदाहित नि ममनं | 'गोत्त'शद तृतीयभागे ५४ प्रष्ठ गतानि) कज्जा, आदिमदाओ-इतरा वि कुज्जा, इतग णाम-प्रांग-मलच्छज-मलच्छद्य नमूलनाष्टमस्थानतिना प्रायशिलाणो सो वि एवं कुज्जा । गिलाणे त्ति गर्ने ।
नन विद्यन्त अपनीयत यहापजातं नन्मूलन्छेद्यम् । अंशषइदाणि 'पडिक्कम ति' अस्य व्याख्या
चारित्राच्छदकागिण, विश । मूलं संमत्तं पुणमद्दा अन्नास पगतीए समते सा-धुजाणिो नंसि अम्ह आसामी।।
वि गुग्णाणं जसि उदय मूलच्छन्नं भवति न वि भासियध्वं । सद्दावणामवितर, विज्जट्ठा तूभयं मेवे ॥ ४१० ॥ | मूलच्छज्जे ति वा मूलगुणपाडवाउ त्ति वा पगट्ठा।' श्रा० कोइ पासस्था पासस्थतणानो पडिमिउकामो सा एवंस | चू..अ०। हाविज्जति, पगती-सभावो सभावतो तुम मम प्रियव्यर्थः। मृलजाय मूलजात-ना। जान्यादिवनस्पती, तपां हि मूलत पगतीश्रो वा बणियलोहकुंभकारादी तसि जो सम्मनो एवात्पत्तिः । आचा०२ शु०११: उ० तस्स ममतं कीरति । साहुजाणीश्री रगाम-साधपाक्षिकः, मूलद्वाण-मूलस्थान-नका नियस्मिन्निति स्थानम् , मूलम्य आत्मनिन्दकः उद्यतप्रसंसाकारी सो भराणति, तुम सदाका- | स्थान मूलस्थानम । कपायाश्रय, 'जे गुण म मूलढाण,ज मूललमेव साहुजोणिो दारिंण उज्जम अन्न च । सो भगरणति तम ठाण मे गंगा' इति । श्राचा०११०२०१० श्रम्ह सज्जेंति ओकुलिठवो य ते सुदा भरणामा. इनग पा- 'गुण' शब्द तृतीयभाग ०८ पृष्ठ व्याख्यातम् । उपपादय. सत्था से एव अन्न वयणेहिं संघाझनि, संबद्धो अभुहिति ।। प्यन च ' लोगसार' शब्द संक्षण)
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(३५) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार तविशेषप्रभवं श्रीखण्डं कालागुरुश्च कृष्णागुरुः प्रवरकुन्दुरुकं प्रभा यस्य स तथा तम् , अथवा- हाररजतखीरसागरच-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः तुरुष्कं च-सिहकं धू- दगरयमहासेलपंडुरतरोकरमणिजदरिसणिजं ' हारादिभ्यः पश्च-गन्धद्रव्यसयोगज इति द्वन्द्वः, एतेषां वा संबन्धी यो पाण्डुरतरो यः स तथा, इह च महाशैलो-महाहिमवान् धूपः तस्य दह्यमानस्य सुरभिर्यो मघमघायमानः-अतिशयवान् तथा ऊरुः-विस्तीर्णः रमणीयो-रम्योऽत एव दर्शगन्ध उदूतः-उद्भूतः तेनाभिरामम्-अभिरमणीयं यससथा नीय इति पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्तम् , तथा 'थिरल. तस्मिन् ,तथा सुष्टु गन्धवराणां-प्रधानचूर्णानां गन्धो यस्मिन् ट्ठपउट्ठपीवरसुसिलिट्टविसिट्ठतिक्खदादाविडवियमुहं' स्थिअस्ति तत् सुगन्धवरगान्धकं तस्मिन् ,यथा गन्धवर्तिः गन्ध- रो-अप्रकम्पो लष्टी-मनोशी प्रकोष्ठौ कूर्पराप्रेतनभागौ यद्रव्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद्गुटिका गन्धवर्तिस्तद्भूते स्य स तथा,पीयराः-स्थूलाः सुश्लिष्टा:-अविसर्वरा विशिष्टासौरभ्यातिशयात्तत्कल्पे, तथा मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे,
मनोहरास्तीक्ष्णा या दंष्ट्रास्ताभिः कृत्वा-'विडंबियं ति' किंबहुना वर्णकेन ? , वर्णकसर्वस्वमिदं-धुत्या गुणश्च सुर- विद्युतं मुखं यस्य स तथा ततः कर्मधारयस्तम् , तथा 'पवरविमानं विडम्बयति-जयति, यद्वरगृहकं तत्तथा तत्र तथा रिकम्मियजच्चकमलकोमलमाईयसोहंतल?जुटुं' परिकर्मितस्मिन् तादृशे शयनीये सहालिङ्गनवा-शरीरप्रमाणोपधा
तं-कृतपरिकर्मा 'माइय' त्ति मात्रावान् परिमित इत्यर्थः, नेन यसत्सालिङ्गनवर्तिकं तत्र, 'उभश्रो विव्वोयणे त्ति' उभ
शेष प्रतीतम्, तथा 'रत्तुप्पलपत्तमयसुकुमालतालुनिलालियतः उभौ शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य 'विव्वोयणे' त्ति उपधाने |
यग्गजी ' रलोत्पलपत्रमिव मृदुकेभ्यः सुकुमारमतिकोमयत्र तत्तथा तस्मिन् , 'दुहो'त्ति उभयतः उन्नते मध्ये नतंच
लं तालु च निर्लालिताना-प्रसारितामा जिह्वा च यस्य स तन्निम्नत्वाद्गभीरं च महत्त्वान्नतगम्भीरम् , अथवा-मध्येन च
तम्, तथा 'महुगुलियभिसंतपिंगलच्छं' मधुगुटिकेव-क्षौद्रभागेन तु गम्भीरे-श्रवनते गङ्गापुलिनवालुकायाः अवदातः
वतिरिव 'भिसंत' ति दीप्यमाने पिङ्गले कपिले अक्षिणी अवदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन सालिसए' सि
यस्य स तथा तम्, तथा 'मूसागयपपरकणयतावियश्रावत्तासरशकमतिनम्रत्वाद्यत्तत्तथा तत्र, दृश्यते च हंसतूल्यादि
यंतबट्टनडियविमलसरिसनयणं 'मूषागतं-मृन्मयभाजनस्वयं न्याय इति । तथा 'उयचिय' ति परिकर्मितं यत् दौम
विशेषस्थं यत्प्रवरकनकं तापितमग्निधमनात् 'आवत्तायंत' दुकलं-कापोसिकमतसीमय वा वस्त्रं तस्य युगलापेक्षया या
ति आवर्त्त कुर्वत् तद्वत् तथा वृत्ते च तर्हिते-विवृत्त पट्टः एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम्-आच्छादनं यस्य तत्तथा।
विमले च सदृशे च-समाने नयने यस्य स तथा तम् , तत्र,तथा श्रास्तरको मलको नवतः कुशक्तो लिम्बः सिंहकेस
अत्र च ' वट्टतट्ट ' इत्येतावदेव पुस्तके दृष्टं संभावनया रश्चैते धास्तरणविशेषास्तैःप्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं यत्तत्त
तु वृत्ततति इति व्याख्यातमिति, पाठन्तरेण तु वहपथा, ह चास्तरको लोकप्रतीत एव मलककुशक्ती तु रूढिग
डिपुस्तपसत्थनिद्धमहुगुलियपिंगलच्छं' स्फुटश्चार्य पाठः, त. म्यौ नवतस्तु ऊर्णाविशेषमयो जीनमिति लोके यदुच्यते ,
था — विसालपीवरममरोरुपडिपुस्मविमलखंचं' विशालोलिम्बो-बालोरभ्रस्योर्णायुक्ता कृतिःसिंहकेसरो-जटिलकम्ब- विस्तीर्णः पीयरो-मांसलः 'भ्रमरोरुः ' भ्रमरा-रोमावलः,तथा सुष्ठु विरचितं सुचि वा रचितं रजत्राणम्-आच्छा- ा उरयो-विस्तीर्णा यत्र स तथा परिपूर्णो विमलच दनविशेषोपरिभोगावस्थायां यस्मिंस्तत्तथा तत्र, रक्लांशु
स्कन्धो यस्य स तथा तम् , अथवा-'पडिपुराणसुजायबंध' कसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रावृते सुरम्ये तथा आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः रा च स्वभावादतिकोमलो
तथा 'मिदुविसदसुहुमलक्खणपसत्थविच्छिन्नकसरसडं'
मृब्रो विशदा अविमूढाः सूदमा लक्षणप्रशस्ताः-प्रशस्तलक्षभवति,तथा रुतं-कर्षासपचम, खूरो-वनस्पतिविशेषः नव
णा विस्तीर्णाः केसरसटाः-स्कन्धकेसरजटा यस्य स तथा मीत-अक्षणम् एभिस्तुल्यः स्पर्शो यस्य , तूलं वा-अर्क
तम्, अथवा-'निम्मलवरकेसरधरं' तथा 'ऊसियसुनिसूख सच पते एतेषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा तत्र, पूर्व- म्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं' उच्छ्रितम्-ऊ नीतं सुनिर्मितं रामबालावपरराषश्च पूर्वरात्रापरपात्रः स एव काललक्षा
सुष्ठु भारतया न्यस्तं सुजातं सद्गुणोपपेततया वास्कोटिसाः समवःतु सामाचारादिलक्षण पूर्वरात्रापररात्रकाल
तं भुवि लागूलं--पुच्छं येन स तथा तं सौम्यम् उपशान्तं समयस्तत्र, मध्यरात्रे इत्यर्थः , इह चार्षत्वादेकरेफलोपेन
सौम्याकारं-शान्ताकृति , 'लीलायंतं ' ति लीला कुर्वन्तं 'पुण्बरतापरले 'त्युक्तम् , अपररात्रशब्दो वाऽयमिति सुप्त
जंभायंतं ' विज़म्भमाणं शरीरचेष्टाविशेषं विदधानं आगरा-मातिसुता नातिजाग्रती, श्रत एवाह 'ओहीर
* गगणतलाओ श्रावयमाणं सीहं अभिमुहं मुहे पविमाखी २' ति वारं वारमीषन्निनां गच्छन्तीत्यर्थः , एकं
समाणं पासित्ता पडिबुद्ध' ति 'अयमेयारूवं' ति इर्म महान्तं सप्तोत्सेधमित्यादिविशेषणं मुखमतिगतं गजं दृष्ट्रा
महास्वप्नमिति संबन्धः , एतदेव-वर्णितस्वरूपं रूपं प्रतिबुद्धेति योगः , तत्र सप्तोत्सेधं सप्तसु--कुम्भादिषु
यस्य स्वप्नस्य न कविकृतमृनमधिकं वा स तथा तम् , स्थानेषूनतं सप्तहस्तोच्छ्रितं वा 'रययं ति' रूप्य 'नहयलंसि'
'उरालं ति' उदारं प्रधान कल्याण-कल्याणानां शुभसमृ. त्ति नभस्तलान्मुखमतिगतमिति योगः , वाचनान्तरे त्वेवं |
द्विविशेषाणां कारणत्वात् कल्ये वा-नीरोगत्वमणति-गमदृश्यंत-'जाव सीहं सुविणे पासित्ता ण पडिबुद्धा ' तत्र यति कल्याणं तद्धतुत्वात् , शिवम्-उपद्रवोपशमहेतुत्वात् यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्-'एकं च णं महंतं पंडुरं धव-। धन्यं धनावहत्वात् 'मंगल्यं' मङ्गले दुरितोपशमे साधुलय सेयं एकार्थशब्दत्रयोपादानं चात्यन्तशुक्लताख्यापनार्धम् , स्वात्मश्रीकं-सशोभनमिति 'समाणि' त्ति सती हष्टतुष्टाएतदेवोपमानेनाह-'संखउलविमलदहिघणगोखीर (विम- अस्यर्थ तुष्टा, अथवा-हष्टा विस्मिता तुष्टा-तोषवती, 'चित्तल) फेणरयणिकरपगासं' शाकुलस्येव विमलबध्न थ| माणंदिय'त्ति चित्तेनानन्दिता आनन्दितं वा चित्तं यस्याः घमगोषीरस्येव विमलफेनस्येव रजनीकरस्येव प्रकाशा-1 सा चित्तानन्दिता, मकारः प्राकृतत्वात् , प्रीतिर्मनसि य
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(३८६) मेहकमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार स्याः सा प्रीतिमनाः, 'परमसोमणस्सिया ' परमं सौमन
लकारए णं तुमे देवी सुमिणे दिद्वे, अत्थलाभो ते देस्थं संजातं यस्याः सा परमसौमनस्यिता, हर्षवशेन विस-1 ई-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा, सर्वाणि प्रायः
वाणुप्पिए,पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए ,रजलाभो भोगसोएकाथिकान्येतानि पदानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वात् । क्खलाभो ते देवाणुप्पिए!, एवं खलु तुम देयाए स्तुतिरूपत्वाच्च न दुष्टानि, आह च-" वक्ता हर्षभयादि- नवराहं मासाणं बहुपडिपुत्रामं अट्ठमाण य राइंदिभि-राक्षिप्तमनास्तथा स्तुवन्निन्दन् । यत्पदमसकृद् ब्रूयात् , याणं विडताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्ययं कुतापुनरुक्तं न दोषाय ॥१॥” इति ' पश्चोरुहर ' त्ति प्रत्व
लवडिंसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलवरोहति, अत्वरितं मानसौत्सुक्याभावेनाचपलं कायतः असंभ्रान्त्याऽस्खलन्त्या श्रविलम्बितया-अविच्छिन्नतया 'रा-- णदिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणजहंससरिसीए' त्ति राजहंसगमनसदृश्या गत्या ' ताहिं' कर सुकुमालपाणिपायं ०जाव दारयं पयाहिसि, से वि यति या विशिष्टगुणोपेतास्ताभिर्गीभिरिति सम्बन्धः इष्टाभिः
णं दारए उम्मुक्कवालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोव्वणगतस्य वल्लभाभिः कान्ताभिः-अभिलषिताभिः सदैव तेन
मणुपसे सूरे वीरे विकंते विच्छिन्नविपुलबलवाहणे प्रियाभिः अधेष्याभिः सर्वेषामपि मनोशाभिः-मनोरमाभिः मनःप्रियाभिश्चिन्तयाऽपि उदाराभिः-उदारनादवर्णोच्चारा
रजवती राया भविस्सइ, तं उराले णं तुमे देवीए सुदियुक्ताभिः कल्याणाभिः समृद्धिकारिकाभिः शिवाभिः-- मिणे दिढे जाव आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणकारए णं गीर्दोषानुपद्ताभिः धन्याभिः-धनलम्भिकाभिर्मङ्गल्याभिः- तुमे देवी! सुमिणे दिद्वे ति कट्टु भुज्जो २ अणुवुहेइ । मङ्गलसाध्वीभिः सथीकाभिः अलङ्कारादिशोभावद्भिः हृद
(सूत्र-१०) तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रना यगमनीयाभिः हृदये या गच्छन्ति कोमलत्यात् सुबोधत्वाच्च तास्तथा ताभिः, हृदयप्रहादिकाभिः-हृदयप्रह्लादनीयाभिः
एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठा जाव हियया करतलपरिप्रासादजनकाभिः · मितमधुररिभितगम्भीरसश्रीकाभिः' ग्गहियं जाव अंजलिं कट्ट एवं वयासी-एवमेयं देवा मिताः-वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिताः मधुराः-स्वरतः णुप्पिया! तहमेयं अवितहमेयं असंदिद्धमेयं इच्छियमेयं रिभिताः स्वरघोलनाप्रकारवत्यः गम्भीराः-अर्थतः शब्दतश्च
देवाणुप्पिए ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं सच्चे सह श्रिया-उनगुणलक्ष्म्या यास्तास्तथा, ततः पदपञ्चकस्य
णं एसमढे जं णं तुझे वदह त्ति कट्ट तं सुमिणं सम्म कर्मधारयस्ततस्ताभिः गीर्भिः-वाग्भिः संलपन्ती-पुनः पुनर्जल्पन्तीत्यर्थः, नानामणिकनफरत्नानां भक्तिभिः-विच्छि- पडिच्छइ पडिच्छइत्ता सणिएणं रना अब्भणुष्माया सतिभिश्चित्र-विचित्रं यत्ततथा तत्र भद्रासने-सिंहासने श्रा- माणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाश्वस्ता गतिजनितश्रमापगमात् , विश्वस्ता संक्षोभाभावात् , |
ओ अब्भुढेइ अब्भुटेत्ता जेणेव सए सयाणिज्जे तेणेव अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगय'ति सुखन शुभे या आस
उवागच्छइ २ सा सयंसि सयणिज्जसि निसीयइ निमगर गता-स्थिता था खा तथा, कातलाभ्यां परिगृहीतःप्रातः करतलपरिगृहीतस्तं शिरस्थावरी श्रावर्त्तनं-परिभ्र- सीयइत्ता एवं वदासी-मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ने मणं यस्य सस्था शिरसावत इत्येके,शिरसा प्राप्त इत्यन्ये, सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहमिहि त्ति कडु देवयगुतमअति मस्तके कृत्वा एवमवादीत्-' किं मन्ने' इत्यादि, रुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुमिणजाको मन्ये का कल्याणफलवृत्तिविशेषो भविष्यति, इह म
गरियं पडिजागरमाणी विहरइ । (सूत्र-११) म्ये वितर्कार्थो निपातः, 'सोच 'सि श्रुत्वा श्रवणतः मिशम्य-अवधार्य हृष्टतुष्टो यावद्विसर्पदयः । तथा याचनान्तरे
'धाराहयनीयसुरभिकुसुमचुचुमालइयतणुऊससियरोमपुनरिह राशीवर्णके चेदयुपलभ्यते
कृवे' ति तत्र नीपः-कदम्बः, धाराहतनीपसुरभिकुसुतते णं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एय
ममिव ' चंचुमालइय' त्ति पुलकिता तनुर्यस्व स तथा,
किमुक्तं भवति ?-'उससिय' ति उच्छ्रसिता रोमकूपा-रोममटुं सोचा निसम्म हट्ट० जाव हियये धाराहयनीवमु
रन्ध्राणि यस्य स तथा, तं स्वप्नमवगृह्णाति अथावग्रहतः रभिकुसुमचुचुमालइयतणुऊससियशेमकूवे तं सुमिणं उ- ईहामनुप्रविशति-सदर्थपर्यालोचनलक्षणां ततः 'अप्पणो' गिएहइ उम्भिण्हइत्ता ईहं पविसति २ ता अप्पणो साभा
ति आत्मसंबन्धिना स्वाभाविकेन सहजन मतिपूर्वेणबिएणं मइपुब्बएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अ
श्राभिनियोधिकप्रभवन बुद्धिज्ञानेन-मतिविशेषभूतात्पत्ति
क्यादिवुद्धिरूपपरिच्छेदेन अर्थावग्रह-स्वप्नफलनिश्चयं कस्थोग्गहं करेति २ ता धारणिं देवीं ताहिं जाव हिययप
रोति, ततोऽवादीत्-' उराण' मित्यादि, अर्थलाभ-इत्याल्हायणिजाहिं मिउमहररिभियगंभीरसस्सिरियाहिं वग्य- दिषु भविष्यतीति शेषो दृश्यः, एवमुपवृहयन्-अनुमोदयन् हिं अणुवूहेमाणे एवं बयासी-उराले णं तुमे देवाणु
'एवं खलु' ति एवंरूपादुक्तफलसाधनसमर्थात् स्वप्नात् प्पिए ! सुमिणे दिडे, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सु
दारकं प्रजनिष्यसीति संबन्धः, 'बहुपडिपुराणाणं' ति -
तिपूर्णेषु षष्ठ्याः सप्तम्यर्थत्वात् अर्द्धमष्टमं येषु तान्याभिणे दिवे, सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवा
टमानि तेषु राविन्दिवेषु अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु , कुणुप्पिए! सुमिणे दिवे, आरोग्गतुहिदीहाउयकल्लाणमंग-! स्केवाहीन्येकादश पदानि, तत्र केतुः-चिह्न ध्वज इत्यर्थः
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( ३८० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहकुमार
केतुरिव तुरतत्वात् कुलस्य केतुः कुलकेतुः, पाठान्तरेण 'कुलहउं ' कुलकारणम् एवं दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् पर्वतो ऽनभिभवनीय स्थिराश्रयसाधम्र्म्यात् श्रवतंसः शेखरः उत्तमत्वात्तिलको - विशेषकः भूषकत्वात् कीर्तिकरः-ख्यातिकरः क्वचिद्वृत्तिकरमित्यपि दृश्यते, वृत्तिश्व-निर्वाहः, न न्दिकरो - वृद्धिकरः यशः सर्वदिग्गामिप्रसिद्धिविशेषस्तत्करः पादपणे वृक्षः आश्रयणीयच्छायत्वात् विवर्द्धनं विविधैः प्रकारैर्वृद्धिरेव तत्करं 'विराण्यपरिणयमेत्ते ' त्ति विज्ञकः परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते, तथा शूरो दानतोऽ भ्युपेतनिर्वाहरातो वा वीरः संग्रामतः विक्रान्ता भूमण्डलाकमणतः विस्तीर्णे विपुले प्रतिविस्तीर्णे बलवाहन से - न्यगवादिके यस्य स तथा राज्यपती राजा स्वतन्त्र इत्यर्थः । ' त' मिति यस्मादेवं तस्मादुदारादिविशेषणः स्वप्नः 'तुमे' ति त्वया दृष्ट इति निगमनम् । एवमेत ' दि. ति राजवचने प्रत्ययाविष्करणम् एतदेव स्फुटयति- 'तहमे ये 'ति तथैव तद्यथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति अनेनान्वयतस्तद्वचनसत्यतोक्ला ' श्रवितहमेयं ' ति अनेन व्यतिरेकभावतः ' असंदिद्धमेय ' मित्यनेन संदेहाभावतः ' इच्छियं ' ति इम् - ईप्सितं वा 'पडिच्छियं ' ति प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा अभ्युपगतमित्यर्थः इष्टप्रतीष्टम् ईप्सितप्रतीप्सितं वा धर्मद्वययोगात्, अत्यन्तादरख्यापनाय चवंनिर्देश:, ' इति कट्टु ' ति इति भणित्वा' उत्तमे ' त्ति स्वरूपतः ' पहाण ' ति फलतः एतदेवाह - ' मंगले' ति मङ्गले साधुः स्वप्न इति 'सुमिणजागरियं ति स्वप्नसंरक्षणार्थ जागरिका तां ' प्रतिजाग्रति ' प्रतिविदधती ।
तए गं सेखिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोटुंबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वदासी- खिप्पामेव भो देवाणु पिया ! बाहिरियं उट्ठाणसालं अज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्तसुइयसंमञ्जिवलित्तं पंचवन्नसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्क धूवडजयंत मघमघंतगंधुदुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं करेह य कारवेह य एवमाणत्तियं पच्चप्पियह, तते ते कोडुंबिय पुरिसा सेणिएवं रन्ना एवं बुत्ता समाणा हट्टतुडा० जाव पच्चप्पियंति, तते गं सेगिए राया कल्ले पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमल - कोमलुम्मीलियम ग्रहापंडुरे पभाए रत्तासोगपगासकिंसुयसुयमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपारावयचलणनयणपरहुयसुरत्तलोयणजासुयणकुसुमज्जलियज्जलण तवणिजकलस हिंगुलयनिगररूवा इरं गरेहंत सस्सिरीए दिवागरे अह कमेण उदिए तस्सदिश (कर) करपरपरावयारपारद्धधियारे बालात कुंकुमेण खड्यन्त्र जीवलोए लोयणविसाणुस विगसंतविसददंसियम्मि लोए कमलागरसंडबोहर उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिएयरे तेयसा जलते सयणिञ्जाओ उट्ठेति २ ता जेणेव अट्टण - साला तेणेव उवागच्छ २ ता असाल अणुपवसति
।
महकुमार २ त्ता अगवायाम जोगवग्गणवा मद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्ते सयपागेहिं सहस्सपागेहिं सुगंधवरतेल्लमादिएहिं पीण णिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मदणिजे हिं विम्हणिज्जेहिं सव्विदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभंगएहिं अभंगिए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुष्पाणिपायसुकुमालकोमल लेहिं पुरिसेहिं एहिं दक्खेहिं पट्ठेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउरोहिं निउ सिप्पोवगतेहिं जियपरिस्समे हिं अभंगणपरिमद्दणुव्वलणकरण गुण निम्माएहिं सुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउव्विद्दाए संवाहणाए संबाहिए समाणे वगयपरिस्समे नरिंदे अट्टणसालाश्र पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता जेणेव मज्जणघरे तेव उवागच्छइ उवागच्छद्दत्ता मणघरं अणुपविसति अणुविसित्ता समंत (मुत्त) जालाभिरामे विचित्तमणिरयकोट्टिमतले रमणिज्जे एहाणमंडवंसि गाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि एहाणपीहंसि सुहनिसने सुहोदगेहिं पुप्फोदएहिं गंधोदहिं सुद्धोद एहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवर
-
air मज्जिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहि - यंगे हतसुमहग्घदूसरयण सुसंबुए सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे आविद्धमणिसुने कप्पियहारद्धहार तिसरयपालंबलंबमाणकडिसुतसुकसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जगललियंगललियकयाभरणे
णाणामणिकडगतुडियथंभियभुए अहियरूपसस्सिए कुंडलुजोइयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसुकतरइयवच्छे पालंबलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दियापिंगलंगुली गाणामणिकखगरयण विमलमहरिहनिउणोवियमिसिमिसंतविरइय सुसिलिट्ठविसिडलसंठियपसत्थयाविद्धवी रवलए कि बहुगा ?, कप्परुक्खए चैव सुत्रलंकिय विभूसिए नरिंदे सकोरिंटमल्लदा मेखं छत्तेणं धरिज्जमागेणं उभओ चउचामरवालवीइयंगे मंगलजयसद्दकयालीए अरोगगणनायगदंडणायगराई सरतलबरमाड बियकोडुं चियमंतिमहामंतिगणगदोवारियमच्चचेडपीढमद्दनगर शिगम सेट्ठि सेगाव सत्थवाहदूयसंधिवालसद्धिं संपरिवुडे धवलमहामेहनिग्गविव हगणदि पंतरिक्खतारागणारा मज्झे ससि व्व पियदंसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छ उवागच्छत्ता सीहा सण रगते पुरत्थाभिमुद्दे सनिसन्ने । तते गं से सेणिए राया अप्पणो अदुरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अभासणाई सेयवत्थपच्चुत्थुयातिं सिद्धत्थमंगलोवयारकतसंतिकम्माई रयावेइ रया
ए
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मेहकुमार
(३८) मेहकुमार
अभिधानराजेन्द्रः। वित्ता हाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छाणिज्जरूवं मह- लेंति संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लद्धट्ठा गहियऽद्वा पुच्छिग्धवरपट्टणुग्गय साहबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं ईहामियउसभ- | यट्ठा विणिच्छियऽट्ठा अभिगयऽट्ठा सेणियस्स रन्नो पुरको तुरयणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलय- | सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा २ एवं वदासी-एवं खलु अम्हं पउमलयमत्तिचित्तं सुखचियवरकणगपवरपेरंतदेसभागं अ- सामी ! सुमिणसत्थंसि वायालीस सुमिणा तीसं महासुभितरियं जवणियं अंछावेइ अंछावइत्ता अच्छरगम- | मिणा वावतार सवसुमिणा दिवा, तत्थ णं सामी ! - उअमसूरगउच्छइयं धवलवत्थपञ्चत्युयं विसिटुं अंगसु- रिहंतमायरो वा चकवट्टिमातरो वा अरहतंसि वा चकवहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रयावह हिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुमिरयावेइत्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वदासी- णाणं इमे चोद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति, तं खिप्पामेव मो देवाणुप्पिया अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपा- जहा-"गयउसभसीहअभिसे-यदामससिदिणयरं झयं कुंभ। दए विविहसत्थकुसले सुमिणपाढए सद्दावेइ सदावेइत्ता | पउमसरसागरविमा-णभवणरयणुच्चयसिहिं च ॥१॥" एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह, तते णं ते कोडुंबि- वासुदेवमातरो वा वासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएर्सियपुरिसा सेणिएणं रमा एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव | चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अनतरे चत्तारि महासुमिणे हियया करयलपारग्गहियं दसनह सिरसावतं मत्थए पासित्ता णं पडिबुज्झति, बलदेवमातरो वा बलदअंजलिं कडु एवं देवो तह त्ति आणाए विणएणं वयणं वंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसएहं महापडिसुणेति २ त्ता सेणियस्स रनो अंतियाओ पडिनि-| | सुमिणाणं अम्मतरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता गं प
खमंति पडिणिक्खमित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झं | डिबुझंति,मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गभं वक्कममामज्झणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छं- णसि एएसिं चोहसराहं महासमिणाणं अनतरं एगं महाति उवागच्छित्ता सुमिणपाढए सद्दावेंति । तते णं ते सुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झति, इमे य णं सामी ? थासुमिणपाढगा सेणियस्स रनो कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दा- रणीए देवीए एगे महासुमिणे दिटे तं उराले णं सामी ! विया समाणा हडतुट्ठा० जाव हियंया एहाया कयवलि- धारणीए देवीए सुमिणे दिवे, जाव आरोग्गतुहिदीहाकम्मा जाव पायच्छित्ता अप्पमहग्याभरणालंकियस- उक्कल्लाणमंगलकारए णं सामी ! धारिणीए देवीए रीरा हरियालियसिद्धत्थयकयमुद्धाणा सएहिं सएहिं गि- सुमिणे दिवे, अत्थलाभो सामी ! सोक्खलामो हेहिंतो पडिनिक्खमंति २त्ता रायगिहस्स मज्झ मज्झेणं सामी ! भोगलाभो सामी ! पुत्तलाभो रजलाभो एवं जेणेब सेणियस्स रनो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवाग- खलु सामी ! धारिणीदेवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुनाच्छति २ ता एगतो मिलयंति २ ता सेणियस्स रनो णं० जाव दारगं पयाहिसि,से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभवणवडेंसगढुवारेणं अणुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव | भावे विनायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकंबाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव ते विच्छिन्नविउलवलवाहणे रज्जवती राया भविस्सइ अणउवागच्छंति उवागच्छिा सेणियं रायं जएणं विजएणं गारे वा भावियप्पा तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए बद्धवावेंति, सेणिएणं रमा अच्चियवंदियपूतियमाणियस- सुमिणे दिद्वे, जाव आरोग्गतुट्ठि जाव दिट्टे त्तिकट्ठ भुकारिया सम्माणिया समाणा पत्तेयं २ पुवनत्थेसु भ-| जो २ अणुब्रहति । तते णं सेणिए राया तेसि सुमिणदासणेसु निसीयंति, तते णं सेणिए राया जबणियंत- पाढगाणं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हट्ठ जाय हिरियं धारणी देवी ठवेइ ठवेइत्ता पुफ्फफलपडिपुग्महत्थे प- यए करयल जाव एवं वदासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! रेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वदासी–एवं खलु . जाव जनं तुम्भे वदह त्तिकद तं सुभिणं सम्म पडिच्छदेवाणुप्पिया ! धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसयंसि| ति २ ता ते सुमिणपाढए विपुलेणं असणवाणखाइम-- सयणिजंसि जाव महासमिणं पासित्ता णं पडियद्धा, तं साइमेय वत्थगंधमलालंकारेण य सकारेति सम्माणेति २ एयस्स णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स | ता विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणे दलयति २ ता पडिमहासुमिणस्स के मजे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्स- विसेञ्जह । तते णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्भुति । तते णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रमो अंतिए एयम- देति २त्ता जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ उटुं सोचा णिसम्म हट्ठ०जाव हियया तं सुमिणं सम्मं योगि। वागच्छइत्ता धारिणीदेवीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुएहति २त्ता इहं अणुपविसंतिरत्ता अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संचा-! प्पिए ! सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणा जाव ए
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(३८६) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार गं महासुमिणं जाव भुजो भुजो अणुवहति, तते णं धारि- 'सूरे' आदित्ये किंभूते ? सहस्ररश्मी तथा 'दिनकरे' दिनणी देवी सेणियस्स रनो अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म ह
करणशीले तेजसा ज्वलति सतीति । 'अट्टणसाल' मिश्रट्ठ जाव हियया तं सुमिणं सम्म पडिच्छति २ ता जे
दृनशाला व्यायामशालेत्यर्थः, अनेकानि यानि व्यायामानि
योग्या च-गुणनिका वल्गनं च-उल्ललनं व्यामर्दनं च-परणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छति २ ता एहाया कय
स्परेण बाहाद्यक्रमोटनं मल्लयुद्धं च प्रतीतं करणानि च बाबलिकम्मा जाब विपुलाहिं जाव विहरति । (सूत्र-१२) | हुभङ्गविशेषा मल्लशास्त्रप्रसिद्धानि तैः श्रान्तः सामाम्येन परि'पच्चूसे' त्यादि प्रत्यूषकाललक्षणो यः समयः-अवसरः श्रान्तोऽङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया सर्वतः शतकृत्वो यत्पर्क शतेन वा स तथा तत्र कौटुम्बिकपुरुषान्-श्रादेशकारिणः सदावई' सि कार्षापणानां यत्पकं तच्छतपक्कमेवमितरदपि सुगन्धिवरतेशब्दं करोति शब्दयति 'उपस्थानशालाम्,आस्थानमण्डपंग- लादिभिरभ्यरिति योगः श्रादिशब्दात्-धृतकर्पूरपानीन्धोदकेने त्यादि गन्धोदकेन सिक्का शुचिका पवित्रा समार्जि- | यादिग्रहः किम्भूतैः ?- प्रीणनीयः ' रसरुधिरादिधाता कचवरापनयनेन उपलिप्ता छगणादिना या सा तथा ताम्, तुसमताकारिभिट्टींपनीयैः-अग्निजननैः दर्पणीयैः बलकरैः इदं च विशेषणं गन्धोदकसिकसमार्जितोपलिप्तशुचिकामि-| मदनीयैः-मन्मथबृहणीयैासोपचयकारिभिः सर्वेन्द्रियगात्येवं दृश्यम् , सिताद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, तथा | अप्रह्लादनीयैः अभ्यङ्गैः-स्नेहनैः अभ्यङ्गः क्रियते यस्य सोऽ. पञ्चवर्णः सरसः सुरभिश्च मुक्तः क्षिप्तः पुष्पपुञ्जलक्षणो यः |
भ्यङ्गितः सन् , ततस्तैलचर्मणि-तैलाभ्यक्तस्य संबाधनाउपचारः पूजा तेन कलिता या सा तथा तां 'काले '। करणाय यश्चम तत्तलचर्म तस्मिन् संबाहिते 'समाणे' त्ति स्यादि पूर्ववत् , ' आणत्तियं पच्चप्पिणह ' त्ति आ- योगः कैरित्याह ?-पुरुषैः, कथम्भूतैः?-प्रतिपूर्णानां पाणिपाज्ञप्तिम्-आदेशं प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत , दानां सुकुमालकोमलानि अतिकोमलानि तलानि-अधोभागा 'कल्ल' मित्यादि ' कल्ल' मिति श्वः प्रादुः-प्राकाश्ये ततः
येषां ते तथा तैः छकैः अवसरझेर्द्विसप्ततिकलापण्डितैरिति प्रकाशप्रभातायां रजन्यां फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलितं ।।
च वृद्धाः, दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारिभिः प्रष्टैः-वाग्मिफुलं-विकसितं तच तदुत्पलं च प फुल्लोत्पलं तच्च कम
भिरिति वृद्धव्याख्या, अथवा-प्रष्ठः-अग्रगामिभिः कुशलैःलब-हरिणविशेषः फुलोत्पलकमली तयोः कोमलम्-श्रक
साधुभिः संबाधनाकर्मणि मेधाविभिः--अपूर्वविज्ञानग्रहणठोरमुम्मीलितं-दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा त
शक्तिनिष्ठैः निपुणैः-क्रीडाकुशलैनिपुणशिल्पोपगतैः-निपुणास्मिन् , अथरजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे-शुक्ले प्रभाते-उपसि
नि-सूक्षमाणि यानि शिल्पानि-अङ्गमदनादीनि तान्युपगता'रलासोगे' त्यादि रक्ताशोकस्य प्रकाशः प्रभा सच किंशुकं च
नि-अधिगतानि यैस्ते तथा तैर्जितपरिश्रमैः, व्याख्यान्तरं तु पलाशपुष्पं शुकमुखं च गुजा-फलविशेषो रक्तकृष्णस्तदर्द्ध
छकैः-प्रयोग ईक्षैः-शीघ्रकारिभिः पत्तट्टेहिं' ति प्राप्ताथैरब.धुजीवकं च-बन्धूकं पारापतः-पक्षिविशेषः तश्चलननयः
धिकृतकर्मणि निष्ठां गतः कुशलैः-आलोचितकारिभिः मेनेच परभृतः-कोकिलः तस्य सुरतं लोचनं च 'जासुमिण'
धाविभिः सकृच्छतदृष्टकर्मज्ञैः निपुणः-उपायारम्भिभिः इति जपा-वनस्पतिविशेषाः तस्याः कुसुमं च ज्वलितज्वल
निपुणशिल्पोपगतैः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितैरिति, अभ्यङ्गनपनश्च तपनीयकलशश्च हिड्डुलको वर्णकविशेषस्तनिकरश्च
रिमर्दनोद्वलनानां करणे ये गुणास्तेषु निमातः, अस्टना सुराशिरिति द्वन्द्वः, तत एतवां यदूपं ततोऽतिरेकेण-श्राधि-1
खहेतुत्वादस्थिसुखा तया - संवाहनये ' ति विश्रामणया अक्येन 'रेहंत' ति शोभमाना स्वा-स्वकीया श्रीः-वर्णलक्ष्मी
पगतपरिश्रमः ‘समंतजालाभिरामे' त्ति समन्तात् सर्वतो यस्य स तथा तस्मिन् , ' दिवाकरे' आदित्ये श्रथ अनन्तरं
जालकर्विच्छित्तिभिः छिद्रवद् गृहावयवविशेषेरभिरामो-र.
म्यो यः स्नानमण्डपः स तथा, पाठान्तरे-' समस्तजालाक्रमेण-रजनीक्षयपाण्डुरप्रभातकरणलक्षणेन · उदिते' उद्गते |
भिरामे' त्ति तत्र समस्तैर्जालकैरभिरामो यः स तथा, पाठा'तस्स दिण (कर)करपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधकारे' ति
न्तरेण- समुत्तजालाभिरामे' सह मुक्काजालयों वर्त्ततेऽतस्य दिवाकरस्य दिने दिवसे अधिकरणभूते दिनाय वा यः
भिरामश्च स तथा तत्र, शुभोदकैः-पवित्रस्थानाहृतैः गन्धोकरपरम्परायाः-किरणप्रवाहस्थावतारः अवतरणं तेन प्रार
दकैः-श्रीखण्डादिमिथैः पुष्पोदकैः-पुष्परसमित्रैः शुद्धोद. ब्धम्-श्रारब्धमभिभवितुमिति गम्यते, अपराद्धं वा विना
कैश्च स्वाभाविकैः कथं मज्जित इत्याह-'तत्र' स्नानावसशितं दिनकर परम्परावतारप्रारब्धं तस्मिन् सति इह च त
रे यानि कौतुकशतानि रक्षादीनि तैः 'पदमले ' त्यादि पक्षम स्येति सापेक्षत्वेऽपि समासः, तथा दर्शनादन्धकारे-तम,
ला-पक्ष्मवती अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिकासि तथा बालातप एव कुकुम तेन खचित इव जीवलोके स
कपायरफ्ना शाटिका तया लूषितमङ्गं यस्य स तथा, अहतं ति,तथा लोचनविषयस्थ-दृष्टिगोचरस्य यः 'अणुयासो त्तिा
मलमूषिकादिभिरनुपढतं प्रत्यग्रमित्यर्थः, सुमहाघ दूष्यअनुकाशो विकाशः प्रसर इत्यर्थस्तेन विकसंश्चासौ बर्द्धमा
रत्नं-प्रधानवस्त्रं तेन सुसंवृतः-परिगतस्तद्वा सुष्टु संवृत-पनो विशदश्च स्पष्टः स चासो दर्शितश्चति लोचनविषयानु
रिहितं येन स तथा, शुचिनी-पवित्रे माला च-पुष्पमाला काशविशददर्शितस्तस्मिन् , कस्मिन्नित्याह-लोके श्रयम- वर्णकविलेपनं च-मराडनकारि कुङ्कमादि विलेपनं यस्य स भिप्रायः अन्धकारस्य क्रमेण हानौ लोचनविषयविकाशः क्र- तथा, श्राविद्धानि-परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा, मेणैव भवति स च विकसन्तं लोकं दर्शयत्येव, अन्धकार- कल्पितो-विन्यस्तो हारः-अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसद्भावे दृष्टेरप्रसरणे लोकस्य संकीर्णस्येव प्रतिभासनादिति, सरिकः त्रिसारकं च प्रतीतमेव यस्य स तथा, पालम्बो-भु. तथा कमलाकरा हृदादयस्तेषु खण्डानि-नलिनीखण्डानि | म्वनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिसूत्रण-कटयाभरतेषां योधका यः तस्मिन् उत्थिते उदयानन्तरावस्थावाप्ते | णविशेषण सुष्टु कृता शोभा यस्य स तथा, ततः पदत्रयस्य
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मेहकुमार
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,
सुष्ठु
कर्मधारयः, अथवा कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा तथा पिनद्धानि परिहितानि कालीयकानि येन स तथा तथा ललिताङ्गके अन्यान्यपि ललितानि कृतानि-न्यस्तानि श्राभरणाणि यस्य स तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तथा नानामणीनां कटकत्रुटिकैः- हस्तबादाभरणविशेषैर्वहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा अधिकरूपेण सश्रीकः-सशोभो यः स तथा, कुएडलोद्योतिताननः मुकुटदीप्तशिरस्कः हारेणावस्तृतम् - श्र ब्लादितं तेनेच सु कृतरति पक्ष-उरो यस्यासी द्वारावस्तृतसुकृतरतिकवक्षाः, मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलीकः - मुद्रिका :अङ्गुल्याभरणानि ताभिः पिङ्गलाः- कपिलाः अङ्गुलयो यस्य स तथा प्रलम्बेन - दीर्घेण प्रलम्बमानेन च सुष्ठु कसं पटेनात्तरीयम् - उत्तरास येन स तथा नानामशिकनकरत्नर्विमलानि महादणि महार्षाणि निपुणेन शिल्पिना उवियति परिकर्मितानि मिसिमित ' ति दीप्यमानानि यानि विरचितानि निर्मितानि सुशिलष्टानि सुगन्धीनि विशिष्टानि विशेषवन्त्यन्येभ्यो लष्टानिमनोहराणि संस्थितानि प्रशस्तानि च विद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि येन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसी मां विजित्य मोचयत्वेतानि वलयानीति स्पर्द्धयन् यानि परिदधाति तानि वीरवलयामीत्युच्यन्ते कि बहुना ? वर्णितेनेति शेषः, कल्पवृक्ष हम अलङ्कृता विभूषित फलपुष्पादि भिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटादिभिरलङ्कृतो विभूषितस्तु वस्त्रादिभिरिति सह फोरस्टकप्रधानैर्माल्यदामभिर्य तेन धियमाणेन, कोरण्टकः - पुष्पजातिः, तत्पुष्पाणि मालान्तेषु शोभार्थ दीयन्ते मालायै हितानि माल्यामि- पुष्पाणि दामानि-माला इति चतु चामराणां प्रकाजितमहं यस्येति वाक्यम् मङ्गलभूता जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने लोकेन यस्य स तथा तथा अनेके ये गणनायकाः - प्रकृतिमहत्तरा दण्डनायकाः तन्त्रपाला राजानो - माण्डलिकाः ईश्वराः - युवराजानो मतान्तरेणासमर्थश्वर्ययुक्तः तवराः परितुष्टनरपतिप्रदतपट्टबन्धविभूषिताः राजस्थानीयाः माडम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौटुम्बिकाः कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः प्रतीताः महामन्त्री-महिस्तिसाधनोपरिका इति वृद्धाः, गणका - गणितज्ञाः भारडागारिका इति वृद्धाः दीवारिका प्रतीहारा राजद्वारिका या श्रमात्या राज्याधिष्ठायकाः बेटा: पादमूलिकाः पीठमदआस्थान आसनासीनसेवा वयस्या इत्यर्थः नगरं नगरवासिप्रकृतयो निगमा:- कारणिकाः श्रेष्ठिनः -श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयः- नृपतिनिरूपितातुरङ्गसैन्यनायकाः सार्थवाहासार्थनायका नागराजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला राज्यसन्धिरक्षकाः एवं द्वन्द्वः ततस्तैः इह तीनलोपो द्रव्य, सार्द्ध-सह, न केवलं तत्सहितत्वमेवापि तु तैः समिति समन्तात् परिवृतः परिकरितां नरपतिजनगृहात्प्रतिनिष्क्रामतीति सम्बन्धः किंभूतः ? प्रियदर्शन: क इव धवलमहामेघनिर्गत इव शशी
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तथा
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( ३६० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
- -
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,
मेहकुमार
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"
'ससि व्व' त्ति वत्करणस्यान्यत्र संबन्धस्ततो ग्रहगणदीप्यमानऋक्षतारागणानां मध्ये इव वर्त्तमान इति । सियाकप्रधानो यो मङ्गलोपचारस्तेन कृतं शान्तिकर्म विनो पशमकर्म येषु तानि तथा । ' खासामणी' त्यादि यवनिकामादादयतीति संवन्धः, अधिकं प्रेक्षणीयं रूपं यस्यां रूपाणि वा यस्यां सा तथा ताम्, महार्घा चासौ वरपत्तनेपरवस्त्रोत्पत्तिस्थाने उद्गता च यूता तां तानि बहुभक्तिशतानि यानि चित्त्राणि तेषां स्थानं, तदेवाह - ईहामृगाः--- चुकाः ऋषभाः- वृषभाः तुरगनरमकरविहगाः प्रतीताः व्यालाः श्वापदभुजगाः किन्नरा व्यन्तरविशेषाः रुखो-मृगविशेषाः सरभा - श्राटव्याः महाकायपशवः पराशरेति पर्यायाः चमरा -- श्राढव्या गावः कुञ्जरा-दन्तिनः वनलता - श्रशोकादिलताः पद्मलताः पद्मिन्यः एतासां यता भयो विनयस्ताभिश्वित्रा या सा तथा तां सुष्ठु खचिता मण्डिता वरकनकेन प्रवरपर्यन्तानाम्-अञ्चलकरणवर्निलक्षणानां देशभागा अवयवा यस्यां सा तथा ताम्, आभ्यन्तरिकीम् - आस्थानशालाया श्रव्यन्तरभागवर्त्तिनीं यवनिकां काण्डपटम् ' छावेइ' ति श्रायतां का आस्तरकेस प्रतीतेन सुदुकमसूरकेण च प्रतीतेनावस्तृतं यत्तत्तथा धवलवस्त्रे प्रत्यवस्तृतम् - आच्छादितं विशि एं - शोभनमङ्गस्य सुखः स्पर्शो यस्य तत्तथा अष्टाङ्गम्अष्टभेदं दिव्योत्पातान्तरिक्षादिभेदं यन्महानिमित्तं-शास्त्रविशेषः तस्य सूत्रार्थपाठाका ये ते तथा तान् " चिरायेण वयणं पडिसुखेति ' ति प्रतिशृण्वन्ति - श्रभ्युपगच्छन्ति वचनं विनयेन किम्भूतेनेत्याह-' एव ' मिति ' यथैव यूयं भण्थ तथैव 'देवो' त्ति हेदेव ! 'तहत्ति' ति-नान्यथा श्राशया भवदादेशेन करिष्याम इत्येषमभ्युपगमसूचक पचतु भणनरूपेणेति 'जाव हियय सि' हरिसवसविसप्पमासहियया स्वानानन्तरं कृतं बलिकर्म वै स्वगृहदेवतानां ते तथा ' जाव पायच्छित्त ' त्ति 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता तप कृतानि कौतुकमङ्गलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःस्पनादिविघातार्थमवश्वकरणीयत्वाचैस्ते तथा तत्र कौतुकान मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु सिद्धार्थकध्यक्षत दीनि हरितालिका सिद्धार्थका अक्षता कृता मूर्यनि देते तथा कथित 'सिहरियालियायमंगलमुद्धाणा' एवं पाठः, स्वकेभ्य आत्मीयेभ्य इत्यर्थः । 'जविजयायेति जपेन विजयेन च वर्डस्य यमित्याचक्षत इत्यर्थः तत्र जयः - परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु परंपामभिभव इति अर्पिताः--वनताश्चन्दनादिना वन्दिताः- सद्गुणोत्कीर्तनेन पूजिताः- पुणेमानिता-रणामतः सरकारिताः फलवस्त्रादिदानःस म्मानितास्तथाविधया प्रतिपत्या 'समास' त्ति सन्तः सदिति अन्यायेन सहसंचा तिति संचालन संचारयन्तीति पर्यायीत्यर्थः लब्धाथः स्वतः पृष्टार्थाः परस्परतः गृहीतार्थाः पराभिप्रायग्रहणतः तत एवं विनिश्चितार्थाः श्रत एव अभिगताथी अवधारिता इत्यर्थः गर्भ बसमा त्ति गर्ने 'ब्यु कामति उत्पद्यमाने अभिषेक इति-- श्रियाः संबन्धी, विमानं यो देवलोकादवतरति तन्माता पश्यति, यस्तु नरकात्यात्पयत तम्माता भवति चतुर्दशय स्वप्ना वि
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मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार मानभवनयोरेकतरदशमादिति । । विराणायपरिणयमत्ते, गाओ नासानीसासवायबोझ चक्खहरं घमफरिससंविशातं-विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य स तथा क्वचिद् 'विराणय' | जुत्तं हयलालापेलवाइरेय धवलकणयखचियंतकम्मं प्रात्ति पाठः स च व्याख्यात एव , ' जीवियारिहं , ति आज-|
गासफलिहसरिसप्पभं अंमुयं पवरपरिहियाओ दुगुल्लसुन्म निर्वाहयोग्यम् । तते णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीतिकंतेसु
कुमालउत्तरिजाओ सब्बोउयसुरभिकुसुमपवरमल्लसोभित
सिराओ कालाग(गुरुधूवधूवियाओ सिरिसमाणवेसाओ ततिए मासे घट्टमाणे तस्स गब्भस्स दोहलकालसमयसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भवित्था-धन्नाओ
सेयणयगंधहत्थिरयणं दुरूढाओ समाणीओ सकोरिंटम
ल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चंदप्पभवइरवेरुलियविशं ताओ अम्मयाओ सपुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ
मलदंडसंखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासचउचाकयत्थाओ णं ताओ कयपुन्नाओ कयलक्खणाओ कय
मरचालवीजितंगीओ सेणिएणं रन्ना सद्धिं हत्थिखंधवविहवाओ सुलद्धे णं तासि माणुस्सए जम्मजीवियफले
रगएणं पिट्ठो समणुगच्छमाणीओ चाउरंगिणीए सेजाओ ण मेहेसु अब्भुग्गतेसु अब्भुज्जुएसु अब्भुन्नतेसु |
णाए महता हयाणीएणं गयाणीएणं रहाणीएणं पाअब्भुट्ठिएम सगाजएसु सविज्जुएसु सफुसिएसु साणएसु यत्ताणीएणं सव्वडीए सव्वज्जुइए जाच निग्घोसणाधंतधोतरुप्पपअंकसंखचंदकुंदसालिपिदरासिसमप्पमेसु चि टियाग रायसिंहनगरं सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मउरहरियालभेयचंपगसणकोरंटसारसयपउमरयसमप्पभमु । हमहापहपहेसु आसित्तसित्तसुचियसमाजियोवलितं जाव लक्खारससरसरत्तकिंसुयजासुमणरत्तबंधुजीवगजातिहिंगु- सुगंधवरगंधियं गंधबट्टीभूयं अवलोएमाणीओ नागरजणेणं लयसरसकुंकुमउरब्भससरुहिरइंदगोवगसमप्पभेसु बरहि- अभिणंदिजमाणीओ गुच्छलयारुक्खगुम्मबल्लिगुच्छोणनीलगुलियसुगचासपिच्छभिंगपत्तसासगनीलुप्पलनियर-| च्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सबओ समंता नवसिरीसकसुमणवसद्दलसमप्पभेसु जचंजणभिंगभेयरिट्ठ-1 आहिंडेमाणीयो २दोहलं विणियंति. तं जहणं अहमवि गभमरावलिगवलगुलियकज्जलसमप्पमेसु फुरंतविज्जुतस-| महेसु अब्भवगएम जाव दोहलं विणिजामि । (सूत्र-१३) गजिएम वायवसविपुलगगणचवलपरिसकिरेसु निम्मल- 'दोहलो पाउन्भवित्थ' त्ति दोहदो-मनोरथः प्रादुर्भूतवान् , वरवारिधारापगलियपयंडमारुयसमाहयसमोत्थरंतउवरिउ- तथाहि-धनलब्धारो धन्यास्ता या अकालमेघदोहदं विनयवरितुरियवासं पवासिएसु धारापहकरणिवायनिव्वाविय
न्तीति योगः 'अम्मयाश्रो' त्ति अम्बाः-पुत्रमातरः, स्त्रिय इ
त्यर्थः,संपूर्णाः-परिपूर्णाः आदेयवस्तुभिः (सपुण्याः)कृतार्थाः मेइणितले हरियगणकंचुए पल्लवियपायवगणेसु वल्लि
-कृतप्रयोजनाः कृतपुण्याः-जन्मान्तरोपात्तसुकृताः कृतलवियाणेसु पसरिएमु उन्नएसु सोभग्गमुवागएसु नगेसु न- क्षणाः-कृतफलवच्छरीरलक्षणाः कृतविभवाः-कृतसफलसंएमु वा वेभारगिरिप्पवायतडकडगविमुक्कसु उज्झरेसु तु- पदः सुलब्धं तासां मानुष्यकं-मनुष्यसबन्धि जन्ममि-भवे रियपहावियपलोट्टफणाउलं सकलुसं जलं वहंतीम गिरि
जीवितफलं-जीवितव्यप्रयोजन जन्मजीवितफलं, सापेक्षत्वेनदीसु सज्जज्जुणनीवकुडयकंदलसिलिंधकलिएसु उवव
ऽपिन समासः छान्दसत्वात् , या मेघेषु अभ्युद्गतेषु-श्रङ्कुर
वदुत्पन्नेषु सत्सु, एव सर्वत्र सप्तमी योज्या, अभ्युद्यतेषुणसु मेहरसियहद्वतुट्ठचिट्ठियहरिसवसपमुक्तकंठकेकारवं मु- वर्द्धितुं. प्रवृत्तेषु अभ्युन्नतेषु-गगनमण्डलव्यापनेनोन्नतिमयंतेमु वरहिणेसु उउबसमयजणियतरुणसहयरिपणच्चि- त्सु अभ्युत्थितेषु-प्रवर्षणाय कृतोद्योगेषु सगर्जितेषु-मुक्ततेसु नवसुरभिसिलिंधकुडयकंदलकलंबगंधणं मुयंतेसु
महाध्वनिषु सविद्युत्केषु प्रतीतं 'सफुसिएसु'त्ति प्रवृत्तप्र
वर्षणविन्दुषु सस्तनितेषु-कृतमन्दमन्दध्वनिषु ध्मातेन-श्रउबवणेसु परहुयरुयरिभितसंकुलेसु उहायंतरत्तइंदगोव
ग्नियोगेन यो धौतः-शोधितो रूप्यपट्टी-रजतपत्रकं स तथा यथोवयकारुनविलवितेस ओणयतणमंडिएम ददुरपयंपि- अङ्को-रत्नविशेषः शङ्खचन्द्रौ-प्रतीतौ कुन्दः-पुष्पविशेषः एमु संपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पया- शालिपिनराशि:-नीहिविशेषचूर्णपुञ्ज पतासमा प्रभा येषां सुमासवलोलमधुग्गुंजंतदेसभाएसु उववणेमु परिसामिय
ते तथा तेषु, शुक्लेष्वित्यर्थः, तथा चिकुरो-रागद्रव्यविशेष
एव हरितालो-वर्णकद्रव्यं भेदस्तद्गुटिकाखण्डं चम्पकसनचंदसूरगहगणपण?नक्खत्ततारगपहे इंदाउहबद्धचिंधपटुंसि
कारण्टकसर्षपग्रहणात्तत्पुष्पाणि गृह्यन्ते पद्मरजः-प्रतीत अंधरतले उड्डीणबलागपंतिसोभंतमेहविंदे कारंडगचकवाय तत्समप्रभेषु, वाचनान्तरे-सनस्थाने काञ्चनं सर्षपस्थाने 'सकलहंसउस्मयकरे संपत्ते पाउसम्मि काले राहाया कयव- रिसगो त्ति' पठ्यते, तत्र चिकुरादिभिः सदृशाश्च ते पद्मरजः लिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओ किं ते बरपा
समप्रभाश्चेति विग्रहोऽतस्तेषु पीतेष्वित्यर्थः,तथा लाक्षारसेन
सरसेन सरसरक्ककिंशुकेन जपासुमनोभिः रनबन्धुजीवकेन, यपत्तणे उरमणिमहलहाररइयकडगखुड्डयविचित्तवरबल
रक्तबन्धुजीवकं हि पञ्चवर्ण भवतीति रक्तत्वेन विशिष्यते जायर्थभियभुयाओ कुंडलउओवियाणणारी रयणभूसियं-। तिहिङ्गलकेन-वर्णकद्रव्येण, स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्या
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( ३९२) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार विशेषितः, सरसकुमेन, नीरसं हि विवक्षितवर्णोपेतं न तानि तथा तेषूपवनश्वित्यन्वयः, तथा अवनतहणमण्डिभवतीति सरसमुक्त, तथा उरभ्रः ऊरणः शश:-शशकस्त- तानि यानि तानि तथा तेषु, दर्दुराणां प्रकृष्ट जल्पितं येषुयो रुधिरेण-रलेन इन्द्रगोपको-वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च | तानि तथा तेषु , संपिण्डिता-मिलिताः दृप्ता-दर्पिताः समा प्रभा येषां ते तथा तेषु रक्तवित्यर्थः, सथा बर्हिणो- भ्रमराणां मधुकरीणां च 'पहकर 'त्ति निकरा येषु तानि मयूराः नीलं-रत्नाविशेषः गुलिका-वर्णकद्रव्यं शुकचाषयोः तथा , 'परिलिन्त 'त्ति परिलीयमानाः संश्लिष्यन्तो मत्ताः पशिविशेषयोः पिच्छ-पचं दृङ्गः-कीटविशेषस्तस्य पत्रं-पतः षट्पदाः कुसुमासवलोला:-मकरन्दलम्पटाः मधुरं-कलं सासको-बीयकनामा वृक्षविशेषः, अथवा-साम सि' पाठः गुअन्तः-शब्दायमानाः देशभागेषु येषां तानि तथा ततः रात्र श्यामा-प्रियङ्कः नीलोत्पलनिकरः-प्रतीतः नवशिरीष- कर्मधारयः ततस्तेषु उपवनेषु , तथा परिश्यामिताः-कृ. कुसुमानि च नवशाल-प्रत्वग्रहरितम् एतत्समप्रभेषु नीलप्र- पणीकृताः सान्द्रमेघाच्छादनात् , पाठान्तरेण-परिभ्रामिताः मेषु नीलवर्णेवित्यर्थः, तथा जात्य-प्रधानं यदञ्जन-सौवीरकं
कृतप्रभाभ्रंशा चन्द्रसूरग्रहाणां यस्मिन् प्रनष्टा च नक्षत्रभूमभेद:-भृङ्गाभिधानः कीटविशेषः विदलिलाङ्गारो वा
तारकप्रभा यास्मस्तत्तथा तस्मिन्नम्बरतले इति योगः, रिटकं-रत्नविशेषः, भ्रमरावली-प्रतीता। गवलगुलिका
इन्द्रायुधलक्षणो बद्ध इच बद्धः चिह्नपट्टो-ध्वजपटो यस्मिमहिषशृङ्गगोलिका कजलं-मषी तत्समप्रभेषु कृष्णेष्वित्यर्थः
स्तसथा तत्राम्बरसले-गगने उद्दीनबलाकापक्किशोरमानस्फुरद्विखुरकाश्च सर्जिताश्च ये तेषु, तथा वातवशेन विपुले
मेधवृन्देऽम्बरतले इति योगः , तथा कारण्डकादीनां पक्षि
णां मानससरोगमनादि प्रत्यौत्सुक्यकरे संप्राप्ने-उफ्नलक्षणगगने चपल यथा भवत्येवं परिसकिरेसु' त्ति परिष्वषिकतु शीलं थेषां ते तथा तेषु, तथा निर्मलवरवारिधाराभिः प्र
योगेन समागते प्रावृषि काले, किंभूता? 'अम्मयाश्रो?'. गलितः-क्षरितः प्रचण्डमारुतसमाहतः सन ‘समोत्थरंत'
त्याह-' राहायाश्री' इत्यादि, किं ते इति किमपरमित्यर्थः त्ति सम्बस्तारणश्व-मदीपीठमात्रामन् उपर्युपरि च सातत्यन
वरी पादप्राप्तनूपुरी मणिमेखला रत्नकाची हारश्च यासां त्वरितश्च-शीघ्रो यो वर्षो-जलसमूहः स तथा तं
तास्तथा रचितानि-न्यस्तानि उचितानि-योग्यानि कटकाप्रवृशेषु-लर्षितुमारग्धेषु मेष्विति प्रक्रमः , धाराणां पह
नि प्रतीतानि खुडुकानि च-अङ्गुलीयकानि यासां तास्तथा
विचित्रवरवलयः स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजौ यास ताकरो' सि निरस्तस्य निपातः-पतनं तेन निर्वापितं-शीत. लीकृतं यत्तसथा तस्मिन , निर्वापितशब्दाश सप्तम्येकवचन
स्तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । तथा " कुडलोज्जाति
तानना बरपायपत्तनउरमाणमहलाहाररइयउचियकडगरलोपो दृश्यः, कस्मिन्नित्याह-मेदिनीतले भूतले , तथा ह
इयएगावलिकंठमुग्यतिसरयवरवलयहमसुलकुंडलुज्जातिरितकाना-हस्वतृणानां यो गणः स एव कञ्चुको यत्राच्छा--
गागणाा " ति पाठान्तरं तत्र वरपादप्राननूपुरमणिमेखदकत्यात् तत्तथा तत्र , ' पल्लविय' ति इह सप्तमीबहुवचन
लाहारास्तथा रचितान्युचितानि कटकानि च खुद्दकानि च लोपा दृश्यः , लतः पल्लवितेषु पादयगणषु तथा वल्लीविता
एकावली च-विचित्रमाणिकृता एकसरिका कण्ठमुरजश्चमेषु प्रसृतेषु-जातप्रसंरश्वित्यर्थः , तथोन्नतषु भूप्रदेशप्वि
श्रामणविशेषः त्रिसरक च वरवलयानि च हमसूत्रकं चति गभ्यते सौभाग्यमुपगतेषु अनवस्थित जलत्वेनाकर्दमत्वात्
संकलक यासांतास्तधा,तथा कुण्डलोद्योनिमाननास्ततो बपाठान्तरे नगेनु पर्वतेषु मंदेषु वा-इदेषु तथा वैभाराभि
रपादप्राप्सनू पुरादीनां कर्मधारयः रत्नविभूषिताङ्ग्यः नासाधानस्य लिये प्रपाततटा:-भृगुतटाः कटकाश्व-पर्वतक
निःश्वासवातेनोह्यते यल्लघुत्वात्तत्तथा चतुहरं दृष्ट्याक्षेपकदेशास्सेभ्यो अभिमुशा:--प्रवृत्तास्ते तथा तेषु , केषु ?
त्वात् , अथवा-प्रच्छादनीयाङ्गदर्शनाचतुर्हरति धरति वा 'उज्मरेछु'सिनिज्मरेषु त्वरितप्रधावितेन यः 'पल्लोट्ट' त्ति
निवर्तयति यधुवत्यात्तत्तथा, वर्णस्पर्शसंयुक्तं वर्णस्पर्शातिप्रवृत्तः-उस्मस फेमस्तेन पाकुलं व्याप्तम्। 'सकलुसं 'ति
शायीत्यर्थः, हयलालाया-अश्वलालायाः सकाशात् 'पलव' सकालुण्यं जलं बहतीषु गिरिनदीषु सर्जार्जुननीपकुटजा
ति पलवचन मृत्यलधुत्वलक्षणनातिरेकः अतिरिक्तत्वं नां वृक्षविशेषाणां यानि कन्दलानि-प्ररोहाः शिलन्धाश्च
यस्य तत नथा, धवल च तत् कनकेन खचितं-मरिडतमछत्रकाणि तैः कलितानि यानि सानि तथा तेषु उपवनेषु, ।
न्तयोः-अञ्चलयाः कर्म वानलक्षण यस्य तत्तथा तच्चत तथा मेघरसितेन दृष्टतुष्टा--अतिकृयाश्वधिताश्च कृतचेष्टा
वाश्यम् , अाकाशस्फटिकस्य सदशी प्रा यस्य धवलत्वायेते तथा तेष , इदं च सप्तमीलोपात् , हर्षवशात् प्रमुग्लो तत्तथा, अंशुक-वस्त्रविशेषः प्रवर्गमहानुस्वारलापो दृश्यः मुत्कलीकृतः कराठो-गलो यस्मिन् स तथा स चाऽसी परिहिताः-निम्मिताः दुकलं च वस्त्रम अथवा-दुकुलो वृतकेकारवश्च तं मुश्चत्सु बर्हिणेषु मयूरेषु , तथा ऋतुबशन विशेषः तद्बल्कलाजातं दुकलं वस्त्रविशष एव तत् सुकुकालनिशेषबलेन यो मदस्तेन जनितं तरुणसहचरीभिः-यु- मालमुनरीयम-उपरिकायाच्छादनम् यासां तास्तथा, सर्व-- धतिमयूरीभिः सह प्रनृत्तं प्रनर्सनं येषां ते तथा तेषु, बर्हि-- नुकसुरभिकुसुमैः प्रवर्माल्य श्च-थितकुसुमैः मोभितं शिवित्यन्धयः , नवः सुरभिश्च यः शिलीन्ध्रकुटजकन्दलक- रो यासां सास्तधा, पाठान्तरे-'सर्व कसुरभिकुसुमैः सुरदम्बलक्षणानां पुष्पाणां गन्धस्तेन या प्राणिः---सृष्तिस्तां भु- चिता प्रलम्बमाना शोभमाना कान्ता विकसन्ती चित्रा
त्सु गन्मोत्कर्षतां विदधानेवित्यर्थः उपवनेषु-भवनास- माला यामां तास्तथा, एवमन्यान्यपि पदानि बहुवचनाअपनेषु , तथा परभूतानां कोकिलानां यत-रवी रिभितं- तानि संरकरणीयामि-इह धर्णके बृहत्तरी वाचानाभेदः, स्वरघोलनाबसेन संकुलानि यान्युपवनानि तानि तथा तेषु- तथा चन्द्रप्रभवरवंडूर्यविमलदाहाः शकुन्ददकरजोऽमृ-- 'उद्दातं' ति शोभमाना रक्ता इन्द्रगोपका:-कीटविशेषाः | तमधितफनपुञ्जसन्निकाशाश्च ये चत्वारश्चामगः-चामराणि स्तोककानां चातकानां कारुण्यप्रधानं विलपितं च येषु तद्वालेवींजितमहं यासां तास्तथा, अयमेवार्थो वाचनान्गारे
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मेहकुमार अभिधान राजेन्द्रः।
मेहकुमार इत्थमधीतः-'सेयवरचामगहि उडुब्बमाणीहिं २ ब्बि- यमाणीं पासंति पासित्ता एवं वदासी-किसं तुमे देवाहीण' त्ति छत्रादिराजाचह्नरूपया, इह यावत्करणादेवं द्रष्ट
णुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि? तव्यम्-'मय्वज्जुइए' सर्वन्या-पाभरणादिसंबन्धिन्या सर्वयुक्त्या या चितटवस्तुघटनालक्षणया ' सर्ववलेन ' सर्व
ते णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभिमन्यन ' सर्वसमदायन 'पीगदिमीलनन ' सादरण' स- तारयाहि दासचाडयाहिं एवं वुत्ता समाणी ना आढाति वोचितकृत्यकरणरूपण सर्वविभूत्या-सर्वसंपदा सर्व- णो य परियाणाति अढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिविभूपया -समस्तशोभया सर्वसंभ्रमरण-प्रमादकृतीत्सु
| णीया संचिति, तते णं तारो अंगपडियारियानो अक्यन सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारण 'सर्वतृर्यशब्दसंनिनादेन' तूर्यशब्दानां मीलनन यः संगता नितरांनादा-महान् घोषस्ते
भितरियाना दासचेडियाओ धारिणी देवी दोचं पि नेत्यर्थः,अल्पष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिईया अत पाह
तचं पि एवं वयासी-किं णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओ'महया इवीए महया जुईण जुत्तीए वा महया बलेणं महया स लुग्गा ओलुग्गसरीरा० जाव झियायसि १, तते शं मुदगण महया वरतुडियजमगसमगप्पवाहएण' 'यमकसमकं'
सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहि अभितरियाहिं युगपत् ,एतदेव विशेषणेनाह-संखपणवपढहभेरिझलरिखर
दासचेडियाहिं दोच्चं पि तच्च पि एवं वुत्ता समुहिहुडुक्कमुरवमुइंगदुंदुहिनिग्धासनाइयरवेणं , तत्र शङ्खादीनां नितरां घायो निर्घोषो-महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दो ना
माणी णो आढाति णो परियाणाति अणाढायमाणा दितं-ध्वनिमात्रमतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेन, 'सिं- अपरियाणमाणा तुसिणीया संचिट्ठति, तते णं ताओ घाडे ' त्यादि , सिङ्घाटकादीनामयं विशेषः , सिङ्घाटकं- अंगपडियारियाो दासचेडियाओ धारिणीए देवीए - जलजबीजं फलविशषः तदाकृतिपथयुक्तं स्थान सिङ्घाटकं,
णाहातिजमाणीओ अपरिजाणिजमाणिो त्रिपथयुक्तं स्थानं त्रिकं चतुष्पथयुक्तं चतुष्कं त्रिपथभेदि
तहेव संभंचत्वरं चतुर्मुख-देवकुलादि महापथो राजमार्गः पन्थाः-पथि
ताश्रो समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिनिमात्रम् , तथा आसिक्नं-गन्धोदकेनेत्सितं सकृद्धा सि- खमंति २ ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंक्नं, सिक्नं त्वन्यथा शुचिक-पवित्रं समार्जितम्-अपहृतक- ति २त्ता करतलपरिग्गहियं जाव कद्द जएणं चिजचवरम् । उपलिप्तं च गोमयादिना यत्तत्तथा यावत्करणा
एणं वद्धाति बद्धावहत्ता एवं वयासी-एवं खलु सादुपस्थानशालावर्णकः पूर्वोक्त एव वाच्यः , एवंभूतं नगरमवलोकयन्त्यो गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतीनां लताः सहकारा
| मी ! कि पि अञ्ज धारिणी देवी ओलुग्गा अोलुग्गसदिलता वृक्षाः सहकारादयः गुल्मा वंशीप्रभृतयः वल्ल्यः रीरा जाव अट्टज्माणोवगया झियायति, तते सं से सेअपुष्यादिकाः एतासां ये गुच्छाः पल्लवसमूहास्तैर्यत् ' श्रो- णिए राया तासिं अंगपाडियारियाणं अंतिए एयमहं सोच्छवियं ' ति अवच्छादितं वैभारगिरेर्ये कटकाः-देशास्तेषां
चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरियं चवलं ये पादाः अधोभागास्तेषां यन्मूलं-संमीपं तत्तथा तत्सर्वतः समन्तात् 'श्राहिंडन्ति' ति आहिण्डन्ते, अनेन चैवमुक्तव्य
वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छतिकरभाजांसामान्येन स्त्रीणां प्रशंसाद्वारेणात्मविषयोऽकाल- इत्ता धारिणी देवी ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टमेघदोहदो धारिण्याः प्रादुरभूदित्युक्तं,वाचनान्तरे तु-श्रोलो- ज्झाणोवगयं झियायमाणी पासइ पासित्ता एवं वदासीए माणीओ २ आहिंडेमाणीओ२ दोहलं विणिति'विनयन्त्यप
किन्नं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा अोलुग्गसरीरा जाव नयन्तीत्यर्थः, तं जति णं अहमवि मेहेसु अब्भुग्गएसु जाव |
अट्टज्माणोवगया झियायसि ?, तते णं सा धारिणी देवी दोहलं विणेजामि' विनययमित्यर्थः, संगतश्चायं पाठ इति । उन्नदोहदाप्राप्तौ यत्तस्याः संपन्नं तदाह
सेणिएणं रना एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ जाव तुतए णं सा धारणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिजमा
सिणीया संचिट्ठति, तते णं से सेणिए राया धारिणी णंसि असंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला असंमाणियदोहला देवीं दो पि तच्चं पि एवं वदासी-किन्नं तुमे देवाणुसुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलग्गा ओलुग्गसरीरा पमइल
प्पिए ! ओलुग्गा जाब झियायसि ?, तते णं सा धारिणी दुबला किलंता ओमंथियवयणनयणकमला पंडुइयमही देवी सेणिएणं रमा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता सकरयलमलिय व चंपगमालाणित्तेया दीणविवप्लवयणा माणी णो आढाति णो परिजाणाति तुसिणीया संचिजहोचियपुप्फगंधमल्लालंकारहारं अणभिलसमाणी कीडा- दुइ, तते णं से सेणिए राया धारिणी देवीं सवहसावियं रमणकिरियं च परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा करेइ २ ता एवं वयासी-किसं तुमं देवाणुप्पिए ! अहभूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा • जाव झियायइ, तते | मेयस्स अदुस्स अणरिहे सवणयाए ? ता णं तुम मम णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियानो अभितरि- | अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सीकरेसि, तते याओ दासचेडियाओ धारिणीं देवीं अोलुग्गंजाव झिया- णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रमा सवहसाविया समा१ मांगाट पति वाचस्पत्यभिधाने ।
णी सेणियं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! मम
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( ३१४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहकुमार
तस्स उरालस्स ०जाव महासुमिणस्स तिरहं मासाणं - हुडपुत्राणं श्रयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए धनी ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ ० जाव बेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ दोहणं विणिति, तं जइ णं अहमवि० जाव डोहलं विणि आमि तते गं हं सामी ! अयमेयारूवंसि अकालदो - हलंसि अविणिजमाणंसि श्रलुग्गा० जाव अट्टज्भाणोगया झियायामि, एएवं अहं कारणं सामी ! श्रोलुग्गा • जाव अट्टज्झाणोवगया क्रियायामि, तते गं से efer राया धारिणी देवीए अंतिए एयम सोचा
णिसम्म धारिणीं देविं एवं वदासी - मा गं तुमं देवागुप्पिए! श्रलुग्गा०जाब क्रियायाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुब्भं श्रयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सह त्ति कट्टु धारिणीं देवीं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहिं समासासेइ २ ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता सीहासावरगते पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने धारिणी देवी एवं कालदोहलं बहूहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य परिगामियाहि च चव्विहाहिं बुद्धीहिं श्रणुचिंतेमाणे २ तस्स दोहलस्स श्रयं वा उवायं वा ठिहं वा उपपत्ति वा अ विंद माणे हयमणसंकप्पे ० जाव झियायति । (सूत्र - १४ ) तदातरं अभए कुमारे रहाते कयवलिकम्मे ० जाव सवालंकार विभूसिए पाए वंदते पहारेत्थगमणाए, तते गं से अभयकुमारे जेणेव सेखिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता सेणियं रायं श्रहयमणसंकप्पं जाव पासइ २ त्ता अयमेयारूवे अभत्थिए चिंतिए मणोगते संकप्पे समुप जित्था - अन्नयाय ममं सेखिए राया एज्जमाणं पासति पासइत्ता श्रादाति परिजाखति सकारेइ सम्माणेइ श्रवति संलवति श्रद्धासणं उवणिमंतेति मत्थयसि घाति, इयाणिं ममं सेखिए राया हो आढाति णो परियाइ यो सकारेइ यो सम्माणेइ गो इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं ओरालाहिं वग्गूहिं आलवति संलवति नो श्रद्धासणेणं उवणिमंतेति णो मत्थयंसि अग्घाति य किं पि ओ हयमणसं कप्पे झियायति, तं भवियव्वं गं एत्थ का रणेणं,तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमहं पुच्छित्तए, एवं संपेहेइ २ ता जेणामेव सेखिए राया तेणामेव उवागच्छइ २ ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टजएगं विजएणं वद्धा वेद वद्धावइत्ता एवं वयासी तुब्भे णं ताओ ! अन्नया ममं एज्जमाणं पासिता आढाह
१- पुस्तकान्तरे धारणी व पाठः ।
मेहकुमार परिजाह ० जाव मत्थयंसि अरघायह आसणं उवणिमंतेह, इयाणि ताओ ! तुब्भे ममं णो आढाह, ०जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह किं पि श्रहयमणसंकप्पा ०जाव झियायह तं भवियव्वं ताओ ! एत्थ कारणेणं, तो तुउभे मम ताओ ! एवं कारणं गृहेमाणा संकेमाणा अनिएहवेमाणा अप्पच्छायमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्धं एयमट्टमाइक्खह, तते णं हं तस्स कारणस्स अंतगमगमिस्सामि, तते गं से सेखिए राया अभरणं कुमारेणं एवं बुत्ते समाणे अभयकुमारं एवं वदासी एवं खलु पुदोसु मासेसु श्रइकंतेसु तइयमाणे वट्टमाणे दोहलकालसत्ता ! तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए तस्स गन्भस्स मयंसि अयमेयारूवे दोहले पाउन्भवित्था-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाश्रो तहेब निरवसेसं भाणियव्वं जाव विणि— ति, तते गं अहं पुत्ता ! धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहिं ०जाब उप्पत्तिं प्रविदमाणे हयमणसंकप्पे ०जाव झियायामि, तुमं आगयं पिन याणामि, तं एतेणं कारणं श्रहं पुत्ता ! ओहय • जाव कियायामि, तते गं से अभयकुमारे सेणियस्स रनो अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म हट्ट ० जाव हियए सेणियं रायं एवं बदासी - माणं तुम्भे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा ० जाव कियायह, अहम्मं तहा करिस्सामि जहा णं मम चुमाउयाए धारिणी देवीए अयमेयारूवस्त अकालडोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सह त्ति कट्टु सेणियं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं • जाव समासासेइ, तते गं सेखिए राया
भये कुमारेणं एवं कुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे जाव अभयकुमारं सकारेति संमाणेति २त्ता पडिविसज्जेति । (सूत्र - १५) तते गं से अभयकुमारे सकारियसम्माणिए पडिविसजिए समासे सेणियस्स रनो अंतिया पडिनिक्खमइ २ ता जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २ ता सीहासणे निसन्ने, तते गं तस्स अभयकुमारस्स अ यमेयारूवे अन्भथिए • जाव समुप्पञ्जित्था, गो खलु सक्का माणुस्सरणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्ति करेत्तए सन्नत्थ दिव्वेगं उवाएणं, अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगतिए देवे महिड्डीए जाव महासोक्खे, तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारियस्स उम्मुक्कमfugarta aaगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंधारोवगयस्स - दुमभतं परिगिरिहत्ता पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमा - यस्स विहरित, तते णं पुव्वसंगतिए देवे मम चुल्लमा
०
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( ३६५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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मेहकुमार चंडाए सीहाए उयाए जतिणाए छेयाए दिव्वाए देवगतीए जेणामेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जेथामेव दाहिणभर रायगिहे नगरे पोसहसालाए अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छह २ ता अंतरिक्खपडिवो दसद्रवन्नाई सखिखिखियाई स्वरवत्थाई परिहिए अभयं कुमारं एवं वयासी-ग्रहणं देवाणुप्पिया ! पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए जहां तुमं पोसहसालाए अट्ठमत्तं परिगिरिहत्ता णं ममं मणसि करेमाणे चिट्ठसि तं एस णं देवाणुप्पिया ! अहं इहं हव्वमागए, संदिसाहि णं देवाणुप्पिया ! किं करेमि किं दलामि किं पयच्छामि किं वा ते हियइच्छितं ? तते गं से अभ कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवं तलिक्खपडिवनं पासह पासित्ता हट्ठट्ठे पोसहं पारेइ २ त्ता कर - ल अंजलि कट्टु एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पि - या ! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउन्भूते - धन्नाओ णं ताओ अम्मयाश्रो तहेव पुव्वगमेणं जाव विणिज्जामि, तपं तुमं देवाखुप्पिया ! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेरूवं कालडोहलं विणेहि, तते गं से देवे अभ एणं कुमारेणं एवं वृत्ते समाणे हट्टतुट्ठे श्रभयकमारं एवं वदासी - तुमरणं देहाणुप्पिया ! सुणिव्वयविसत्थे अच्छाहि, अहसं तव चुल्लामाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं डोहलं विमीति कहु अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमति २ ता उत्तरपुरच्छिमे णं वेभारपव्वए वेडव्वियसमुग्धाएणं समोहणति २ तासंखजाई जोयणाई दण्डं निस्सरति ० जाव दोच्चं पिवेव्वियसमुग्धाएणं समोहणति २ त्ता खिप्पामेव सगजियं सविज्जुयं सफुसियं तं पंचवन्न मेहणिणाओवसी
कारणं १० अंजणा ११ रयणाणं १२ जायरूवाणं १३ अंजणपुलगाणं १४फलिहाणं १५ रिट्ठा १६, अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ २ ता अहासुहमे पोग्गले परिगिण्हइ२ त्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुव्वभवजणियनेहपीइबहुमाणजायसोगे तो विमाणवरपुंडरियाओ रयणु तमाओ धरणियलगमणतुरितसंजणितगमणप्पयारो वाधुस्मितविमलकणगपयरगव डिंसगम उडुक्कडाडोवदंस णिजो णगमणिकणगरतणपहकरपरिमंडितभत्तिचित्तविणिउत्तगम हियं दिव्वं पाउससिरिं विउब्वेइ २ ता जेणेव अभए णगजणियहरिसे पेंखोलमाणवरललितकुंडलुञ्जलियवयण- कुमारे तेणामेव उवागच्छइ २ ता अभयं कुमारं एवं वगुणजनितसोमरूवे उदितो विव कोमुदीनिसाए सणिच्छरं- दासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए तव पियट्टयाए सगारउज्ञ्जलियमज्झभागत्थे रायणाणंदो सरयचंदो दिव्वो गजिया सफुसिया सविज्जुया दिव्वा पाउससिरी वि सहिपज्जलुञ्जलियदंसणाभिरामो उउलच्छिसमत्तजायसोहे उब्विया, तं विणेउ णं देवाणुप्पिया ! तब चुल्लपट्टगंधुजुयाभिरामो मेरुरिव नगवरो विगुब्बियविचित्तवेसे माउया धारिणी देवी अयमेयारूवं अकालडोहलं, तते गं दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मज्यं कारेण से अभयकुमारे तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स सोहवीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाते जीवलोगं राय- म्मकप्पवासिस्स अतिए एयमहं सोचा खिसम्म हट्ठहिं पुरवरं च अभयस्स य तस्स पास उवयाति दिव्वरूव- तुट्ठे सयातो भवणाओ पडिणिक्खमति २ ता जेणाधारी । (सूत्र - १६) तते गं से देवे तलिक्खपडिवने दस - मेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २ ता करयल० अंजलि कट्टु एवं वदासी एवं खलु ताओ ! मम पुव्वसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेखं खिप्पामेव स
नाई सखिखिशियाई पवरवत्थाई परिहिए एक्को ताव एसो गम, अणोऽवि गमो - ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए।
कुमार उair धारिणी देवीए अयमेयारूवे अकाल मेहेसु डोहलं विरोहिति, एवं संपेहेति २ त्ता जेणेव पोसहसाला तणामेव उवागच्छति २ चा पोसहसालं पमजति २ ता उच्चारपासवरणभूमिं पडिलेहेइ २ ता डन्भसंथारगं पडिले २ ता डन्भसंथारगं दुरूहइ २ ता अट्ठमभत्तं परिगिएहइ २ चा पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी० जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ट, तते गं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाखे पुव्वसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति, तते णं पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे असणं चलियं पासति २ ता ओहिं पउंजति, तते णं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स therea श्रभथिए ०जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु मम पुव्वसंगतिए जंबूदीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्डूभर हे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए पोसहिए अभए नामं कुमारे अमभत्तं परिगिरिहत्ता णं मम मणसि करेमाणे २ चिट्ठति, तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए - पाउ भवित्तए, एवं संपेइ २ ता उत्तरपुरच्छिमं दिसी - भागं श्रवक्कमति २ ता उब्वियसमुग्घा एणं समोहयति २ ता संखज्जाई जोयणाई दंडं णिसिरति, तं जहा - रयगाणं. १ वइराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसारगल्लाणं ५ हंसगब्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं ८ जोइ रसाणं
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( ३१६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मेहकुमार
गजता सविज्जुता पंचमेहनिना श्रवसोभिता दिव्वा पाउससिरी विउब्विया, तं विशेउ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं । तते गं से सेखिए राया - भयस्स कुमारस्स अंतिए एतमहं सोच्चा खिसम्म हट्ठतुट्ठ कोटुंबियपुरिसे सहावेति सद्दावेइत्ता एवं वदासी - खिप्पा मेव भो देवाप्पिया ! रायगिहं नयरं सिंगाडगतियचउकचचर० श्रसित्तसित्त० जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारावेह य मम एतमाणितियं पञ्चप्पियह, तते गं से कोडुंबियपुरिसा० जाव पच्चप्पियंति, तते गं से सेखिए राया दो पि कोई बियपुरिसे एवं वदासी- खिप्पामेव भो देषाणु पिया ! हयगयरहजोहपवरकलितं चाउरंगिणीं सेनं सन्नाहेह सेयrयं च गंधहत्थि परिकप्पेह, ते वि तहेव० जाव पञ्चप्पियं ति, तते थे से सेखिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणामेव उवागच्छति २ ता धारिणीं देवीं एवं बदासी एवं खलु देवाप्पिए ! सगजिया ०जाव पाउससिरी पाउन्भूता
तुमं देवाप्पिए ! एवं अकालदोहलं बिरोहि । तते णं सा धारणी देवी सेणिएवं रन्ना एवं वृत्ता समाणी हट्ट तुट्ठा जेणामेव मणघरे तेणेव उवागच्छति २ सा मज घरं अणुपविसति २ त्ता अंतो अंतेउरंसि राहाता कतबलिकम्मा कतकोउयमंगलपायच्छित्ता किं ते बरपायपत्तणेउर ०जाव आगासफालियतमप्पभं अंसुर्य नियत्था सेयणयं गंधहत्थि दुरूढा समाणी अमयमहियफेणपुंजस - सिगासाहिं सेयचामरबालवीयणीहिं वीइज्जमाणी २ संपत्थिता, तते गं से सेखिए राया रहाए कयबलिकम्मे ० जाव सस्सिरीए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छते धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वीइज्जमाणेणं धारिणीं देवीं पिट्ठतो अणुगच्छति, तते गं सा धारिणी देवी सेशिए रम्ना हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठतो पिट्ठतो समगुगम्ममाणमग्गा हयगयरहजोहक लियाए चाउरंगिणीए सेखाए सद्धि संपरिबुडे महता भडचडगखंदपरिक्खित्ता सव्विड्डीए सव्वजुइए •जाव दुंदुभिनिग्घोसनादितरवेखं रायगिहे नगरे सिंगाडगतिगचउक्काचच्चर ० जाव महापहेसु नागरजखेणं अभिनंदिज्जमाणा २ जेणामेव वैभारगिरिपव्वए तेणामेव उपागच्छति २ ता वैभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उज्जाणेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य रुक्खेसु य गुच्छेस य गुम्मेसु य लयासु य वल्लीसु य कंदरासु य दरीसु य चुण्डीसु य दहेसु य कच्छेसु य नदीसु य संगमेसु य विवरतेसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मज्जमाणी य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलागि य पल्लवाणि य गिएहसाणी य माणेमाणी य अग्वायमाणी य परिभुंजमाणी
मेहकुमार य परिभाएमाणी य वैभारगिरिपायमूले दोहलं विशेमाणी सव्वतो समता आहिंडति, तते गं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन दोहला संपनदोहला जाया यावि होत्था, तते गं से धारिणी देवी सेयणयगंधहत्थि दुरूढा समाणी सेखिएणं हत्थिखंधवरगएवं पिट्ठयो २ सम्मणुगम्ममाणमग्गा हयगय ०जाव रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति २ ता रायगिहं नगरं मज्झ मज्जेणं जेामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २ ता विउलाई माणुस्साई भोग भोगाई ० जाव विहरति । (सूत्र - १७) तते दां से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ २ ता पुव्वसंगतियं देवं सकारेइ सम्माणे २ ता पडि विसञ्जेति २ ता तते गं से देवे सगज्जियं पंचवन्नं मेहोवसोहियं दिव्यं पाउससिरिं पडिसाहरति २ ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेत्र दिसिं पडिगते । ( सूत्र - १८ ) तते णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयं सि सम्माणियडोहला तस्स गन्यस्स अणुकंपट्ठाए जयं चिट्ठति जयं श्रसयति जयं सुवति श्राहारं पियाहारेमाणी णाइतितं खातिकडुयं गातिविलं गातिमहुरं जं तस्स गन्भस्त हियं मियं पत्थयं देसे य काले य. आहारं आहारेमाखी खाइचिंतं गाइसोगं खाइदेणं साइमोहं णाइमयं णाइपरित्तासं भोयणच्छायणगंधमल्लालंकारेहिं गन्धं तं सुहं सुहेणं परिवहति | ( सूत्र - १६ )
' तर रा ' मित्यादि, ' श्रविणिजमार्गसि ' ति दोहदे श्रविनीयमाने - श्रनपनीयमाने सति असंप्राप्तदोहदा मेघादीनामजातत्वात् - असंपूर्ण दोइदा तेषामजातत्वेनैवासंपूर्णत्वात् अत एव सम्मानितदोहदा तेषामननुभवनादिति, ततः शुष्का मनस्तापेन शोणितशोषात् 'मुक्त' ति बुभुक्षाक्रास्व अत एव निर्मासा ' श्रलुग्ग' ति अवरुग्णा-जीव, कथमित्याह-' श्रलुग्गं ' ति श्रवरुग्णामिव जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा तथा, अथवा अवरुग्णा चेतसा श्रवरुग्णशरीरा तथैव प्रमलितदुर्बला - स्नानभोजनत्यागात् क्लान्ता-ग्लानीभूता ' ओमंथिय ' त्ति अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यया सा तथा पारबुकितमुखी - दीनाम्येव विवर्णे वदनं यस्याः सा तथा, क्रीडा - जलफ्रीजादिका रमणमक्षादिभिः त क्रियां व परिहापयन्ती दीना दुःस्था दुःस्थं मनो यस्याः सा तथा, यतो निरानन्दा उपहतो मनसः संकल्पः- युक्तायुमुही अट्टम्भाणोबगया कियाया ' ति आर्त्तध्यानं ध्यायतीकविवेचनं यस्याः सा तथा यावत्करणात् ' करतलपल्हत्थति, 'नो श्रढाइ 'ति नाद्रियते नादरं करोति नो परिजानाति-न प्रत्यभिजानाति विचित्तत्वात्, 'संभंताड ' सि श्रा कुलीभूताः शीघ्रमित्यादीनि चत्वार्येकार्थिकानि अतिसंभ्र मोपदर्शनार्थ ' जेणेवे ' स्यादि यत्र धारिणी देवी तत्रोपागच्छति समागत्य चावरुग्णादिविशेषणां धारणीं देवीं पश्यति, वाचनान्तरे दु- 'जेणेव धारणी देवी तेव' इत्यतः पहारे
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मेहकुमार
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स्थगमणाए ' इत्येतद्-दृश्यते, तत्र 'पहारेत्थ' संप्रधारितवा न्-विकल्पितवानित्यर्थः गमनाय - गमनार्थ-तथा 'तए से सेणिए राया जेणेव धारणी देवी तेणेव उपागच्छति २ सा पा सहति पश्यति सामान्येन ततोऽवग्यादिविशेषणां पश्यतीति दो पिरामिति गम्यते स. वहसाविय' त्ति शपथान् देवगुरुद्रोहिका भविष्यसि त्वं यदि विकल्पं नाख्यासीत्यादिकान् वाक्यविशेषान् श्राविता श्रीषेोपलम्भिता शपथैव भाविता शपथश्राविता शपथशापिता वा तां करोति, 'किरा' 'किस' मिति वा पाठो दे यातुभिये ! एतस्यार्थस्थानः श्रयतायां मोमास' ति मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद्वर्तते मानसिकं दुःखं वचनेनाप्रकाशितत्वान्मनोमानसिकं रहस्थीकरोषि गोपयसीत्यर्थः ' तिराह ' मित्यादि त्रिषु मासेषु 'बहुपडिपुन्ना सं' ति ईषदूनेषु जत्तिहामि त्ति यतिष्ये क्वचित्करिष्यामि इति पाडा, अमेयारूपस्त' ति अस्थैर्वरूपस्यमणोरह संपत्ति 'ति मनोरथप्रधाना प्रातिषेधा विचिन्तितेत्यर्थः, आ:- लारीप्सिता तूनामुपाये। अप्रतिहतलाभकार 'आर्य या या या दियं वा स्थितं वा कर्म या स्थिरहेतुदोहदानां वेप्सितार्थस्य पाठान्तरे उत्पत्ति वा तस्यैवेत्यर्थः, 'विदमाणे 'ति श्रलभमानः श्रयमेयारूवे 'ति श्रयमेतदूपः श्राध्यात्मिकः आत्माश्रयः चिन्तितः स्मरणरूपः प्रार्थितो- लब्धुमाशंसितः मनोगतः अवदि प्रकाशितः संकल्प-विकल्पः 'संपदेति त्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति 'ताओ ति हे तात्याम न्यणम् 'एयं कारणं' ति अपच्या दोहामति भावः कारणमिति कविद्याधीयत इति एवं गृहमा ति अगोपायन्तः आकारसंवरेण अराइमागा:-विवचितप्राप्ती संदेदमविदधतः अनिद्रचाना- धनपलपन्तः किमुक्तं भयति यतः यथाभूतं यथावृत्तम् अवितथं नत्वन्यथाभूतम् असंदिग्धम् - असंदेहम् ' एयमटुं ' ति प्रयोजनं दोहदपूरणलक्षणमिति भावः ' अंतगमणं गमिस्सामिति पारगमनं गमिष्यामीति बुझ्माउपाए ति लघुमातुः पुण्य संगइय'त्ति पूर्व- पूर्वकाले संगतिः- मित्रत्वं येन सह स पूसंगतिका महार्जको विमानपरियारादिसंपदुपेतत्वाद्याच त्करणादिदं दृश्यम् महाद्युतिकः - शरीराभरणादिदीप्तियोगान्महानुभागो क्रियादिकरणशक्तियुक्त्वात् महायशाः-सकीर्तियांगान्महाबलः पर्वताद्युत्पाटनसामर्थ्यापितत्वात् महासीयां विशिएयोगादिति पोसहसालार सिपीपधं पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य शाला-गृहविशेषः पौपधशाला तस्यां पौषधिकस्य-कृतोपवासादेः व्यपगतमालावर्णविलेपनस्य व चन्दनं तथा निक्षिप्त-विमुक् वर्णकं शस्त्र - तुरिकादि मुशलं च येन स तथा तस्य एकस्य श्रान्तरव्यक्तरागादिसहायवियोगात्, अद्वितीयस्य तथाविधपदात्यादिसहायविरहात् 'अट्ठमभत्तं ' ति समयभाषयो पचासत्रयमुच्यते अट्टममते परिणममा 'सि पूर्वमा प रिपूर्णप्राय इत्यर्थः, 'वेडब्वियसमुग्धारण' मित्यादि, वैक्रियसमुद्घातो वैक्रियकरणार्थी जीवव्यापारविशेषः तेन समुप हन्यते - समुपहतो भवति समुपहन्ति वा क्षिपति प्रदेशानिति गम्यते, व्यापारविशेषपरिणतो भवतीति भावः, तरस्वरूपमेवाह - ' संखेज्जाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्डः - ऊर्द्धाध प्रायः शरीरपाल्यो जीवप्रदेशक मैपुलसमूहः तत्र न
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( ३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः । मेहकुमार विविधानाद इति दर्शयन्नाह तयथा रत्नानां कर्केत नादीनां संबन्धिनः १ तथा पेरा २३ लोहिताक्षा४ मसाला ५ पुलकानां ७ सौगन्धि कानां ८ ज्योतीरसानाम् श्रङ्कानाम् १० अञ्जनानां ११ रजतानां १२ जातरूपाणाम् १३ श्रञ्जनपुलकानां १४ स्फटिकानां १५ रिष्टानां १६, किमत आह-यथा बादरान् श्रसारान् यथा सूक्ष्मान् सारान् ततो वैक्रियं करोति, ' श्रभयकुमारमणुकं - पमा अनुकम्पयन् हा तस्याष्टमोपचारूपं कष्टं वर्त्तते इति विकल्पयनित्यर्थः पूर्वभवे - पूर्वजन्मनि जनिता-जाता था स्नेहात्प्रीतिः प्रियत् न कार्यशादित्यर्थः बहुमानश्च गुणानुरागस्ताभ्यां सकाशात् जातः शोकः वित्तविरहसद्भावेन यस्य स पूर्वजनितस्नेहप्रीति बहुमानजातशोकः यावनान्तरे- पूर्वभव जनितस्नेहीतिचडुमानजनितशोभ स्तत्र शोभा पुलकादिरूपा तस्मात्स्यकीयात् विमानवरपुण्डरीका पुण्डरीकता व विमानानां मध्ये समत्वात् रु. मासि रत्नोसमा रखनोमाझा धरशीतलगमनाय ' भूतलप्राप्तये त्वरितः शीघ्रं संजनितः उत्पादितो गमनप्रचारो - गतिक्रिया नियेन स तथा पाचनान्तरे-• धरणीतलगमन संजनितमनःप्रचारः इति प्रतीतमेव व्याघूर्णितानि - दोलायमानानि यानि विमलानि कनकस्य प्रतरकाणि च -- प्रतरवृत्तरूपाणि आभरणानि च कर्णपूरे मुकुटं च मौलिः तेषामुत्कटो व आटोप: स्फारता तेन दर्शनीयः - श्रदेयदर्शनो यः स तथा तथा अनेकेषां मणिकनकरत्नानां पड़कर ति निकरस्तेन परिमण्डितो- म. ' भित्रि विनियुक्तकः-कटयां निवेशितो 'मधु'निमकारस्य प्राकृतशैलीप्रभवत्वात् योऽनुरूपो गुण. कटिसूत्रं तेन जनितो यस्य स तथा प्रेङ्गालमानाभ्यां दोलायमा नाभ्यां परललितकुण्डलाभ्यां ज्वलितम् उज्ज्वलकृतं व दनं मुखं तस्य यो गुणः - कान्तिलक्षणः तेन जनितं सौम्यं रूपं यस्य स तथा, वाचनान्तरे पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यते-"वाघुनियविमलकणगपयरगवडेंसगपकंपमाणचललोलललियपरि संयमानरममरतुरगमुदसयविग्गिदचिपवरमोनियमरायमाणमउडुक्कडाडोवरिसणिजे " तत्र व्याघूर्णितानिचञ्चलानि विमलकनकप्रतरकाणि च श्रवतंसके च प्रकम्पमाने सोलानि अतिपलानि ललितानि शोभान्ति परिल यमानानि अलभ्यमानानि नरमकरतुरगमुखशतेभ्यो-मुकुटाविनिर्मितमुखाकृतिशतेभ्यो विनिर्गतानि निःसृतानि उनी पास्तानीयोगीनि यानि प्रपरमीलिकानिवरमुनाफलानि तैविराजमानं शोभमानं यन्मुकुटं तचेति इन्द्रः तेषां य उत्कट आटोपस्तेन दर्शनीयो यः स तथा, तथा अनेगमणिकमत्यत पहकर परिमंडियभागमविणिउत्तगमणगुणजसियोलमासवरललितकुंडल
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अविनाभरणजरियसोंने' अनेकमणिकनकरत्ननिकरपरिमण्डितभागे भक्तिचित्रे विनिविचित्रे विनियुक्त क योर्निवेशिते गमनगुणेन-गति सामथ्र्यैन जनिते -कृते प्रेङ्खोलमाने पञ्चले ये बरललितकुण्डले ताभ्यामुज्ज्वलितेन उद्दीपनेनाधिकाभ्यामाभरणाम्यामुज्ज्वलिताधिकैर्वाऽऽभरणैश्च - कुण्डलव्यतिरिक्रेजेनिता शोभा यस्य स तथा तथा"गजल मलविमलदंसणविरायमाणरूवे " गतजलमलं- विगतमालिन्यं विमलं दर्शनम् - प्राकारो परपस तथा अत एव विराज
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मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकमार मानं रूपं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, अयमेवोपमीयते- लसि विणीयंसि' ति अकालमेघदोहदे विनीते सति सउदित इव कौमुदीनिशायां-कार्तिकपौर्णिमास्यां शनैश्चरा-| म्मानितदोहदा पूर्णदोहदेत्यर्थः, 'जय चिट्ठा' ति यतनया ङ्गारकयोः प्रतीतयोरुज्ज्वलितः-दीप्यमानः सन् यो मध्यभा- यथा गर्भबाधा न भवति तथा तिष्ठति ऊर्द्धस्थानेन · आसगे तिष्ठति स तथा, नयनानन्दो-लोचनालादकः शरच्चन्द्र | यइ 'त्ति आस्ते आश्रयति वा श्रासनं स्वपिति चेति हितंइति, शनैश्चराकारकवत्कुण्डले चन्द्रवच्च तस्य रूपमिति, मेधायुरादिवृद्धिकारणत्वान्मितमिन्द्रियानुकूलत्वात् पथ्यतथाऽयमेव मेरुणोपमीयते-दिव्यौषधीनां प्रज्वलनेनेव मुकु- मरोगकारणत्वात् 'नाइचिंतं' ति अतीव चिन्ता यस्मिटादितेजसा उज्ज्वलितं यदर्शनं-रूपं तेनाभिरामो- स्तदतिचिन्तं तथा यथा न भवतीत्येवं गर्भ परिवहतीरम्यो यः स तथा, ऋतुलक्ष्म्येव-सर्वर्तुककुसुमसंपदा सम- ति सम्बन्धः, नातिशोक नातिदैन्यं नातिमोहं-नातिकास्ता-सर्वा समस्तस्य वा जाता शोभा यस्य स त- मासक्ति नातिभयमेतदेवं संग्रहवचनेनाह- व्यपगते ' था, प्रकृष्न गन्धेनोद्भूतेन-उद्गतेनाभिरामो यः स तथा | त्यादि, तत्र भयम्-भीतिमात्रं परित्रासोऽकस्मात् , ऋतुषु मेरुरिव नगवर इव विकुर्वितविचित्रवेषः सन्नसौ वर्तते इति, यथायथं भज्यमानाः सुखा ये ते ऋतुज्यमानसुखाः तैः । 'दीवसमुद्दाग' ति द्वीपसमुद्राणाम् 'असंखपरिमाणनाम
तते णं सा धारिणी देवी नवराहं मासाणं बहुप धेज्जाण' ति असंख्यं परिमाणं नामधेयानि च येषां ते तथा तेषां मध्यकारण-मध्यभागेन 'वीइवयमाणे' त्ति
डिपुत्राणं अद्भुट्ठमाणरातिंदियाणं वीतिकंताणं अद्धरत्तव्यतिव्रजन् गच्छन् उद्योतयन् विमलया प्रभया जीवलोकम्
कालसमयंसि सुकुमालपाणिपादं जाव सव्वंगसुंदरंग 'अोपयह 'त्ति अवपतति, अवतरति, अन्तरिक्षप्रतिपन्नः- दारगं पयाया । तए णं ताओ अंगपडियारिपात्रो धाआकाशस्थः दशा वर्णानि सकिङ्किणिकानि-तुद्रयाण्टि-| रिणीं देवीं नवण्हं मासाणं जाब दारगं पयायं पासकोपेतानि एकस्तावदेष गमः-पाठः, अन्योऽपि-द्वितीयो |
न्ति २ ता सिग्धं तुरियं चवलं वेतियं जेणेव सेणिगमो-वाचनाविशेषः पुस्तकान्तरेषु दृश्यते , 'ताए' तया उत्कृष्टया गत्या त्वरितया-श्राकुलया न स्वाभाविक्या श्रा
ए राया तेणेव उवागच्छंति २ ता सेणियं रायं जएणं न्तराकूततोऽप्येषा भवत्यत पाह-चपलया कायतोऽपि च- विजएणं बद्धावेंति २ ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं एडया-रौद्रयाऽत्युत्कर्षयोगेन सिंहया-तहायस्थैर्येण उद्ध- मत्थए अंजलि कटु एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पितया-दतिशयन जयिन्या-विपक्षजेतृत्वेन छेकया-नि- या ! धारिणी देवी एवण्हं मासाणं जाव दारगं पयापुणया दिव्यया-देवगत्या, अयं च द्वितीयो गमो जीवाभि
या, तसं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेदेमो पियं भे गमसूत्रवृत्त्यनुसारेण लिखितः, 'किं करेमि' ति किमहं करोमि भवदभिप्रेतं कार्य किंवा 'दलयामि' त्ति तुभ्यं द
भवउ, तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियादामि, किं वा प्रयच्छामि भवत्संगतायान्यस्मै, किंवा ते ह- रियाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ० तादयेप्सितं-मनोवाञ्छितं वर्तत इति प्रश्नः, 'सुनिव्वुयवीस- ओ अंगपडियारियाो महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य त्थे ' ति सुष्टु निर्वृतः स्वस्थात्मा विश्वस्तो-विश्वासवान्
पुप्फगंधमल्लालंकारेण सकारेति सम्माणेति २ ता मनिरुत्सुको वा यः स तथा, 'तातो' ति हे तात ! 'परिकप्पेह' त्ति सन्नाहवन्तं कुरुत 'अंतो अंतेउरंसि' त्ति अन्त
त्थयधोयाओ करेति पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कप्पाते २ रन्तःपुरस्य " महया भडचडगरवंदपरिक्खित्त" त्ति महाभ
त्ता पडिविसजेति । तते णं से सेणिए राया कोडुवियटानां यश्चटकरप्रधान-विच्छईप्रधानं वृन्दं तेन संपरिक्षि- पुरिसे सद्दावेति २ ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देता, वैभारगिरेः कटतटानि-तदेकदेशतटानि पादाश्व-तदा वाणुप्पिया ! रायगिहं नगरं आसि य जाव परिगयं सन्नलघुपर्वतास्तेषां यन्मूल तत्र, तथा आरामेषु च प्रारम
करेह २ ता चारगपरिसोहणं करेह २ ता माणुम्माणन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामास्तेषु पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि
बद्धणं करेह २ ता एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणह जाव उद्यानानि तेषु च तथा सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्ना- पच्चप्पिणंति । तते णं से सेणिए राया अट्ठारस सेनि काननानि तेषु च नगरावप्रकृष्टानि वनानि तेषु च तथा| णिप्पसेणीयो सद्दावेति २ ता एवं वदासी-गच्छह णं वनखण्डेषु च-एकजातीयवृक्षसमूहेषु वृक्षषु चैकैकेषु गुच्छे । तुब्भे देवाणुप्पिया ! रायगिहे नगरे अभितरवाहिरिए षु च वृन्ताकीप्रभृतिषु गुल्मेषु च-वंशजालीप्रभृतिषु लता- उस्सुकं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिमकुदंडिमं अधरिमं सु-च सहकारलतादिषु वल्लीषु च नागवल्ल्यादिषु च कन्द
अधारणिजं अणुबुयमुइंगं अमिलायमल्लदामं गणियावरासु-च गुहासु दरीपु-च शृगालाद्युत्कीर्णभूमिविशेषषु 'चुढीसु य' लि अखाताल्पोदकषिदरिकासु यूथषु च वान
रणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरितं पमुइयपक्कीरादिसम्बन्धिषु, पाठान्तरेण-हदेषु च कक्षषु च गहनेषु च लियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह २ सरि सु संगमषु च-नदीमीलकेषु च विदरेषु च जलस्थान- त्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ते वि करेंति २ ता तविशेषेषु ' अच्छमाणी य' ति तिष्ठन्ती प्रेक्षमाणा च पश्य
हेव पञ्चप्पिणंति , तए णं से सेणिए राया बाहिरिन्ती दृश्यवस्तूनि मजन्ती च स्नान्ती 'पल्लवाणि य' ति पल्लवान् किशलयानि 'माणमाणी य'त्ति मानयन्ती स्पर्शनद्वा
याए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सरेण 'विणेमाण' ति दाहलं विनयन्ती ' तसि अकालदाह- निसने सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य
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मेहकुमार
महकुमार
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जाहिं दाएहिं भागेहिं दलयमाणे २ पडिच्छेमाणे २ उणरुतपज्जवसाणा बावत्तरिं कलाओ सुत्तश्रय अ एवं च णं विहरति, तते णं तस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेंति २ ता बितिय दिवसे जागरियं करेति २ ता ततिए दिवसे चंदसूरदंसणियं कति २ स एवामेव निव्वत्ते सुइजातकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खातिमं सातिमं उवक्खडावेति २ त्ता मित्तणातिणियगसयण संबंधिपरिजणं बलं च बहवे गणणायगदंडणायग ०जाव ग्रामन्तेति ततो पच्छा रहाता कयबलिकम्मा कयकोउय ० जाव सव्वालंकारविभूसिया महति महालयंसि भोयमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं सातिमं मित्तनातिगणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजे माणा एवं च णं विहरति, जिमितभ्रुत्तुत्तरागताऽवि य णं समाणा आयंता चो क्खा परमसुइभूया तं मित्तनातिनियगसयण संबंधिपरिजणगणणायग० जाव विपुलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति सम्माति २ त्ता एवं वदासी जम्हा गं अम्हं इस्स दारगस्स गन्भत्थस्स चेव समाणस्स अकाल मेहेसु डोले पाउन्भूते तं होउ णं म्हं दारए मेहे नामेणं मेहकुमारे तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोणं गुणनिष्पन्नं नामधे करेंति, तए गं से मेहकुमारे पंचधातीपरिग्गहिए, तं जहा- खीरधातीए मंडण धाती मज्जगधातीए कीलावणधातीए अंकधातीए - नाहिय बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणिवडभिबब्बरिवउसिजोणिय पल्ह वियइ सिणियधोरु गिणिलासियललउसियद्दविलिसिंहलियारविपुलिंदपक रिणबह लिमुरुंडि -- सबरिपारसीहिं णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगितचिंतियपत्थियवियाणियाहिं संदेसवत्थगहितवेसाहि निउ कुसलाहि विणीयाहिं चेडियाचक्कवालवरिसधरकंचुइ महयरगवंदपरिक्खित्ते हत्याओ हत्थं संहरिजमाणे अंकाओ कं परिभुज्जमाणे परिगिजमाणे चालिज्जमाणे उबलालिज्जमाणे रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिभिज्जमाणे २ णिव्वायणिव्वाघायंसि गिरिकंदरमल्ली
त्थओ य करणओ य सेहावेति सिक्खावेति, तं जहा - लेहं गणियं रूवं नट्टं गीयं वाइयं सरगयं पोक्खरगयं समतालं जूयं १० जणवायं पासयं अट्ठावयं पोरकचं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं बत्थविहिं विलेबणविहिं सयणविहिं २० अज्जं पहेलियं मागहियं गाहं गीइयं सिलोयं हिरम्मजुतिं चुन्नजुत्तिं सुवमजुत्तिं व्याभरणविहिं ३० तरुणीपडिकम्मं इत्थलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलक्खणं डंडलक्खणं असिलक्खणं ४० मणिलक्खणं कागणिलक्खखं वत्थुविज्जं खंधारमाणं णगरमाणं वूहं परिवहं चार परिचारं चकवूहं ५० गरुलवूहं सगडगृहं जुद्धं निजुद्धं जुद्धातिजुद्धं अच्छिजुद्धं मुट्ठिजुद्धं वाहुजुद्धं गयाजु ईसत्थं ६० छरुष्पवायं धणुव्वेयं हिरन्नपागं सुवन्नपागं सुत्तखेडं वट्टनालिया खेडं पत्तच्छेजं कडच्छे सञ्जीवं ७० निज्जीवं ७१ सउणरुयमिति ७२ । (सूत्र - २०) तते गं से कलारिए मेहं कुमारं लेहादिया गणियप्पहाणाश्रो सउणरुयपज्जवसाणा बाघत्तारं कलाओ सुत्तश्रो य अत्थ य करणओ य सिहावेति सिक्खावेह सिहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेति तते गं मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो तं कलायरियं मधुरेहिं वयणेहिं विपुलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेंति सम्माति २ ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति २ तापडिविसज्जेंति । (सूत्र - २१ ) तते गं से मेहे कुमारे बावरिकलापंडिए एवंगसुतपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसी भासाविसारए गीइरइगंधव्त्रनट्टकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलं भोगसमत्थे साहस्सिए वियालचारी जाते यावि होत्था, त णं से तस्स मेहकुमारस्सम्मापियरो मेहं कुमारं बावतरिकलापण्डितं • जाव वियालचारी जायं पासंति २ ता अट्ठपासायवर्डिसए करेंति अन्भुग्गयमू सियपहसिए विव, मणिकणगरयणभत्तिचित्ते वाउद्धृतविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे जालंतररयणपंजरुम्मिलिय व्व मणिकणगधूभियाए वियसितसयपत्तपुंडरीए तिलयरयणद्धयचंदच्चिए नानामणिमयदामालंकिते तो बर्हि च सराहे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थरे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासादीए० जाव पडिरूवे एगं च णं महं भवणं करेंति, अरोगखंभसयस भिविद्धं ली
( ३१८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
०
व चंपगपायवे सुहं सुहेणं वढइ, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्सम्मापियरो आणुपुव्वेणं नामकरणं च पजेमणं च एवं चकम्मणगं च चोलोवणयं च महया महया इड्डीसकारसमुदएणं करिंसु । तते णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजातगं चेव गन्भट्टमे वासे सोहांसि तिहि करणमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवर्णेति तते गं से क- लट्ठियसालभंजियागं अन्भुग्गयसुकयवइरवेतियातोरणवरलारिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ स । रइयसालभंजियासुसिलिङ्कविसिङ्कलङ्कसंठितपसत्थवेरुलिय
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(800) अभिधानराजेन्द्रः ।
मेहकुमार
०
खंभनाणामणिकणगरयणखचितउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिजभूमिभागं ईहामिय • जाव भत्तिचित्तं खंभ्रुग्गयबद्दरवेइयापरिगयाभिरामं, विजाहरजमलजुयलजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीरूवं कंचणमणिरयणधूभियागं नाणाविहपंचवभघंटापडागपरिमंडियग्गसिरं धवलमरीचिकवयं विशिम्भुयंतं लाउल्लोइयमहियं॰ जाव गंधवट्टिभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं । (सूत्र - २२ ) तते गं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं सोहणंसि तिहिकरणनक्खतमुहुत्तंसि सरिसियाणं सरिसवयाणं (सरिसव्वयाणं) सरिस - लावन्नरूवजोव्वणगुणोववेयाणं सरिसएहिंतो रायकुलेहिंतो आणिअल्लियाणं पसाहणडुंग विहवबहु श्रवयण मंगलमुपियाहिं हं रायवरकरुणाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पासिं गिरहाविंसु । तते गं तस्स मेहस्स अम्मापितरो इमं तारूवं पीतिदाणं दलय अट्ठ हिरएकोडीओ अड्ड सुवकोडीओ गाहाणुसारेण भावियन्वं० जाव पेसणकारियाश्रो, अनं च विपुलं धणकणगरयण मणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयण संतसारसावतेज्जं अलाहि ०जाव श्रसत्तमाश्र कुलवंसाओ पकामं दाउ पकामं भोत्तुं पका मं परिभाएउं, तते गं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरमकोर्डि दलयति एगमेगं सुवनकोर्डिं दलयति० जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं च विपुलं aणकणग ० जाव परिभाएउं दलयति तते गं से मेहकुमारे उप्पि पासा (य) तवरगते फुट्टमाणेहिं मुइंगमन्थएहिं बरतरुणिसंपउत्तेहिं बत्तीसहबद्धएहिं नाडएहिं उबगिज्जमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ सद्दफरिसरसरूवगंधविउले माणुस्सर काम भोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरति । (सूत्र - २३) ते काले तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुवि चरमाणे ग्रामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिए • जाव विहरति, तते गं से रायगिहे नगरे सिंधाडग • महया बहुजणसदेति वा जाव बहवे उग्गा • जाव रायगिहस्स नगरस्स मज्भं मज्मेणं एभोगा गदिसिं गाभिमुहा निग्गच्छंति इमं च णं मेहे कुमारे उपिपासा (य) तवरगते फुट्टमाणेहिं मुयंगमन्थए हिं० जाव माणुस्सर कामभोगे भुंजमाणे रायमग्गं च ओलोमा २ एवं चं विहरति । तए गं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे ० जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छ्रमाणे पासति पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति २ ता एवं व
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मेहकुमार दासी- किं णं भो देवाणुप्पिया ! अज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा खंदमहेति वा एवं रुदसिववेसमण नागजक्खभूयनईतलायरुक्खचेतियपव्वयउ आाणगिरिजत्ताइ वा ज
बहवे उग्गा भोगा ०जाव एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छति, तते गं से कंचुइजपुरि से समणस्स भ rai महावीरस्स गहिया गमरणपबत्तीए मेहं कुमारं एवं वदासी - नो खलु देवाणुप्पिया ! अज रायगिहे नयरे इंदमहेति वा • जाव गिरिजत्ताओवा, जं गं एए उग्गा ०जाव एगदिसि एगाभिमुहा निम्गच्छन्ति एवं खलु देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे इकरे तित्थकरे इहमागते इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव रायगिहे नगरे गुण सिलए चेइए अहापडि ० जाव विहरति । ( सूत्र - २४ ) 'मत्यधोयाति-धौतमस्तकाः करोति अपनीतदासत्या इत्यर्थः । पौत्रानुपुत्रिकां पुत्रपौत्रादियोग्यामित्यर्थः, वृत्तिजीविकां कल्पयतीति । रायगिहं नगरं आसिय इह यावत्करणादेवं दृश्यम् - आसियसंमजिश्रोवलित्तं श्रासिक्कमुदकच्छण्टेन समार्जितं कचवरशोधनेन उपलिप्तं गोमयादिना, केषु ? - सिंघाडगतिगच उक्कचच्चरच उम्मुहमहापहपहेसु' तथा - सित्त सुइय संमट्ठरत्थंत रावणवीहियं सिकानि जलेनात एव शुचीनि पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि श्रापणवीथयश्च हट्टमार्गा यस्मिन तत्तथा 'मंचाति मंचकलितं ' मञ्चा-मालकाः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्तम् । श्रतिमञ्चाः तेषामप्युपरि ये तैः कलितं ' गाणाविहरागभूसियज्भयपडागमंडियं नानाविधरागैः कुसुम्भादिभिर्भूषिता ये ध्वजाः सिंहगरुडादिरूपकोपलाक्षित बृहत्पटरूपाः पताकाश्च तदितरास्ताभिर्मण्डितं 'लाइयउल्लोइयमहियं ' 'लाइयं'-छगणादिना भूमौ लपनम्, ' उल्लोइयं 'सेटिकादिना कुड्यादिषु धवलनं ताभ्यां महितं
पूजितं ते एव वा महितं पूजनं यत्र तत्तथा ' गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपचंगुलितलं गोशीपस्य-चन्दनविशेषस्य सरसस्य च-रक्तचन्दनविशेषस्यैव दर्दरेण-चपेटारूपेण दत्ता - न्यस्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला--हस्तका यस्मिन् कुड्यादिषु तत्तथा उचचियचंद कलर्स ' उपचिता-उपनिहिता गृहान्तः कृतचतुष्केषु चन्दनकलशा-मङ्गत्यघटाः यत्र तत्तथा चंदणघडनुकयतोरणपडिदुवारदेसभागे' चन्दनघटाः सुष्ठु कृताः तोरणानि च प्रतिद्वारं द्वारस्य २ देशभागेषु यत्र तत्तथा ' आसत्तोसत्तविपुलवट्टवग्वारियमल्लदामकलावं' आसक्लो भूमिलग्नः उत्सक्कश्चउपरिग्मो विपुलो वृत्तो' वग्घारियत्ति प्रलम्बोमाल्यदाम्नां - पुष्पमालानां कलापः- समूहो यत्र तत्तथा पंचवन्नसरससुरभिमुकपुष्फपुंजो बयारकलियं पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्लाः- करमेरिताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचार:पूजा भूमेः तेन कलितं 'काला (गु) गरुपवर कुंदुरुक्कनुरुक्कधूवड
तमघमघंत गंधुदुग्राभिरामं' कुंदुरुकं-चीडा तुरुक्कं सिल्ह कं 'सुगंधवरगन्धियं गन्धवट्टिभूयं नडनट्टगजलमलगमुट्ठिrajaकहकहगपवगला सगश्रक्खा यगलं खमंग्वनृगइल्लतुं -- बीगितालावरपरिगीचं' तत्र नढा-नाटकानां नाट
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मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार यितारः नर्तकाः ये नृत्यन्ति अङ्किला इत्यक जल्ला-चरत्राखेल- रिजनो-दासीदासादिः बलं च-सैन्यं च गणनायकादयस्तु प्रा का रामः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्लाः-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला | गभिहिताः, 'महामहालइ' त्ति अतिमहति, मास्वादयन्ती एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति विडम्बकाः-विदूषकाः कथाकथ- प्रास्वादनीयं, परिभाजयन्तौ अन्येभ्यो यच्छन्ती मातापिकाः-प्रतीताः प्लवका ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति तराविति प्रकमः, 'जेमिय' त्ति जेमितौ भुक्तवन्तौ भुत्तुत्तर' लासका:-ये रासकान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्कारो वा भा- त्ति भुक्नोत्तरं-भुक्नोत्तरकालम् ' आगय'त्ति श्रागतावुरवेशएडा इत्यर्थः, आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति लखा
नस्थान इति गम्यते, 'समाण' ति सन्ती, किंभूतो भूत्वेत्याह?वंशखेलकाः मल्वाः-चित्रफलकहस्ता भिक्षाटाः तूणइल्ला:--
आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चोक्षा लेपसिक्थाद्यपनयनेन अत तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः , तुम्बवीणका-वीणावादका
एव परमशुचिभूताविति, अयमेयारूवे' त्ति इदमेतद्रूपं गौण अनेके ये तालाचराः-तालाप्रदानेन प्रेक्षाकारिणः तेषां परि
कोऽर्थो ?-गुणनिष्पन्नं नामधेयं-प्रशस्तं नाम मेघ इति । क्षीसमन्तागीत-ध्वनितं यत्र तत्तथा कुरुत स्वयं, कारयतान्यैस्तथा चारगशोधनं कुरुत कृत्वा च मानोन्मानवर्द्धनं कुरुत,
रधाच्या-स्तन्यदायिन्या मण्डनधाच्या-मण्डिकया मज्जनधातत्र मान-धान्यमानं से(ति)टिकादि उन्मानं-तुलामानं कर्षा
च्या स्नापिकया क्रीडनधाच्या-क्रीडनकारिण्या श्रधाच्या दिकं श्रेणयः-कुम्भकारादिजातयः प्रश्रेणयः-तत्प्रभेदरूपाः ।
उत्सङ्गस्थापिकया कुग्जिकाभिः-चक्रजलाभिः चिलातीभिः'उत्सुक्क' मित्यादि, उच्छुल्काम्-उन्मुक्तःशुल्कां स्थितिपति
अनार्यदेशोत्पन्नाभिर्वामनाभिः-हस्वशरीराभिः बटभाभिः तां कुरुतेति संबन्धः, शुल्कं तु विक्रेतव्यं भाण्डं प्रति रा
महत्काष्ठाभिः वर्बरीभिः-वर्बरदेशसंभवाभिः बकुसिकाजदेयं द्रव्यम् , उत्कराम्-उन्मुक्तकरां , करस्तु गवादीनां |
भिर्योनकाभिः पलविकाभिः इसिनिकाभिः धोरुकिनिप्रतिवर्षे राजदेयं द्रव्यम् , अविद्यमानो भटाना-राजपुरुषा
काभिः लासिकाभिः लकुसिकाभिर्द्राविडीभिः सिंहलीभिः
आरवीभिः पुलिन्द्रीभिः पक्कणीभिः बहलीभिः मुरुण्डीभिः णाम् आशादायिनां प्रवेशः कुटुम्बिमन्दिरेषु यस्यां सा तथा
शबरीभिः पारसीभिः 'नानादेशीभिः' बहुविधाभिः अनार्यतामभटप्रवेशां, दण्डेन निर्वृत्तं दण्डिम कुदण्डेन निर्वृत्तं कुदण्डिमं राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तामदण्डिम
प्रायदशोत्पन्नाभिरित्यर्थः,विदेशः स्वकीयदेशापेक्षया राजगृहकुदण्डिमां, तत्र दण्डोऽपराधानुसारेण राजग्राह्य द्रव्यम् ,
नगरदेशस्तस्य परिमण्डिकाभिः इङ्गितेन-नयनादिचेष्टाविशेकुदण्डस्तु कारणिकानां प्रक्षाद्यपराधान्महत्यप्यपराधिनोऽ
पेण चिन्तितं च-अपरेण हदि स्थापितं प्रार्थितं च-अभिलपराधे अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यम् , अविद्यमानं 'धरिम' ति ऋ.
षितं विजानन्ति यास्ताः तथा ताभिः, स्वदेश यनेपथ्य-परि
धानादिरचना तद्वद् गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, रणद्रव्यं यस्यां सा तथा ताम् , अविद्यमानो धारणीयः
निपुणानां मध्ये कुशला यास्तास्तथा ताभिः , अत एव अधमर्णो यस्यां सा तथा ताम् , 'अणुधुयमुइंग' ति अलु
विनीताभिर्युक्त इति गम्यते, तथा चेटिकाचक्रवालेन अर्थात् द्धृता श्रानुरूप्येण वादनार्थमुत्क्षिप्ता अनुद्ध(द्ध)ता वा-वादना
स्वदेशसंभवेन वर्षधराणां-वर्धितकरिन्थनरुन्धनप्रयोगेण र्थमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा-मर्दला यस्यां सा तथा ताम् ,
नपुंसकीकृतानामन्तःपुरमहल्लकानां 'कंचुइज' ति कञ्चु'श्र [म्मा ] यमिलायमल्लदाम ' ति अम्लानपुष्पमालां| गणिकावरैः विलासिनीप्रधानैर्नाटकीयैः-नाटकप्रतिबद्धपा
किनामन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरत्रैः कलिता या सा तथा ताम् , अनेकतालाचरानुचरितां
काणां च-अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्तो यः
स तथा, हस्ताद्धस्तं हस्तान्तरं संहियमाणः अङ्कादम्प्रेक्षाकारिविशेषैः सेवितां प्रमुदितैः-दृष्टैः प्रक्रीडितैश्च
उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं, परिभोज्यमानः परिगीयमानः तथाक्रीडितुमारब्धैर्जनैरभिरामा या सा तथा तां 'यथार्हाम्'यथो
विधवालोचितगीतविशेषः उपलाल्यमानः क्रीडादिलाचितां स्थितिपतितां स्थिती-कुलमर्यादायां पतिता-अन्तर्भूता
लनया, पाठान्तरे तु-'उवणच्चिरजमाणे २ उबगाया प्रक्रिया पुवजन्मोत्सवसंबन्धिनी सा स्थितिपतिता ताम्, | इजमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ अवगूहिज्जमाणे २' श्रावाचनान्तरे दसदिवसिय ठियपडियं' ति दशाहिकमहि- लिङ्ग्यमान इत्यर्थः, 'अवयासिज्जमाणे' २कथञ्चिदालिमानमित्यर्थः कुरुत कारयत वा , 'सपहिं ' ति शतपरि- गन्यमान एव, 'परिवंदिज्जमाणे ' २ स्तूयमान इत्यर्थः, माणैः, दापहि ति दानैः वाचनान्तरे शतिकांश्चेत्यादि,यागान्- 'परिचुंबिज्जमाणे'२ इति प्रचुम्ब्यमानः २ चङ्गम्यमाणः, देवपूजाः दायान्-दानानि भागान्-लब्धद्रव्यविभागानि-| निर्वाते-निर्व्याघाते 'गिरिकन्दर'ति गिरिनिकुळे आलीति, प्रथमे दिवसे जातकर्म-प्रसवकर्म नालच्छेदननिखन- न इव चम्पकपादपः सुखं सुखेन वर्द्धते स्मेति,प्रचङ्क्रमणकंनादिकं द्वितीयदिने जागरिकां-रात्रिजागरणं तृतीये दिवसे भ्रमण चूडापनयन-मुण्डन, ' महया-इड्डीसक्कारसमुदएचन्द्रसूर्यदर्शनम् उत्सवविशेष एत इति,पाठान्तरे तु-प्रथमदि- णं' ति महत्या ऋद्धया एवं सत्कारेण पूजया समुक्येन च वसे स्थितिपतितां तृतीये चन्द्रसूर्यदर्शनिका षष्ठे जागरिका जनानामित्यर्थः, ' अर्थत ' इति व्याख्यानतः करणतः'निवते असुइजायकम्मकरणे ' ति निवृसे-अतिक्रान्ते प्रयोगतः सहावएं ' ति सेधयति निष्पादयति शिक्षयतिअशुचीनां जातकर्मणां करणे · निव्वत्ते सुइजायकम्मकर- अभ्यासं कारयति ' नवंगसुसपडियोहिए ' ति नवाङ्गानि णे ति' वा पाठान्तरं, तत्र निर्वृत्ते-कृते शुचीनां जातकर्मणां द्वे द्वे श्रोत्रे नयने नासिके जिकैका त्वगेका मनश्चैकं सुप्तानीच करणे 'बारसाहे दिवसे' ति द्वादशास्ये दिवसे इत्यर्थः, सुप्तानि-बाल्यादव्यक्तचेतानि प्रतिबोधितानि-यौवनेन अथवा-द्वादशानामह्नां समाहारो द्वादशाहं तस्य दिव- व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यवहारसो येन द्वादशाहः पूर्यते तत्र तथा , मित्राणि-सुहृदः भाष्ये-'सोत्ताई नव सुत्ता' इत्यादि, अष्टादश विधिप्रकासातयो-मातापितृभ्रात्रादयः निजकाः-स्वकीयाः पुत्रादयः राः-प्रवृत्तिप्रकाराः अष्टादशभिर्वा विधिभिः-भेदैः प्रचास्वजनाः-पितृव्यादयः संबन्धिनः-श्वशुरपुत्रश्वशुरादयः प- र:-प्रवृत्तिर्यस्याः सा तथा तस्यां, देशीभाषायां--देशमे
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(४०२) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार देन वर्णावलीरूपायां विशारदः-पण्डितो यः स तथा, गीति-| यं-परिवारणीयं 'भिसमाणं 'ति दीप्यमानं 'भिब्भिसमाण' रतिर्गन्धर्व-गीते नाट्ये च कुशलः, हयेन युध्यत इति ह-। ति अतिशयेन दीप्यमानं चक्षुःकर्तृ लोकने-अवलोकने दर्शने ययोधी एवं रथयोधी बाहुयोधी बाहुभ्यां प्रमृगातीति बा- सति लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयात् श्लिष्यतीव यत्र तहुप्रमी साहसिकत्वाद्विकाले चरतीति विकालचारी । सथा, नानाविधाभिः पञ्चवर्णाभिघण्टाप्रधानपताकाभिः प. 'पासायवडिसए ' ति अवतंसका इवावतंसकाः शेखराः, रिमण्डितमनशिखरं यस्य तत्तथा,धवलमरीचिलक्षणं कवचंप्रासादाश्च तेऽवतंसकाश्च प्रासादावतंसकाःप्रधानप्रासादा कण्टकं तत्समूहमित्यर्थः विनिमुश्चन्-विक्षिपन् सदृशीनां शइत्यर्थः 'अब्भुग्गयमूसिय'त्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितान् श्रत्युश्चा- रीरप्रमाणतो मेघकुमारापेक्षया परस्परतो वा सरग्वयसा नित्यर्थः, अत्र च द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः, 'पहसिए समानकालकृतावस्थाविशेषाणां सदृक्त्वचा सदृशच्छवीनां विष' त्ति प्रहसितानिव श्वेतप्रभाप्रबलपटलतया हसन्त सहशावण्यरूपयौवनगुणैरुपपेताना, तत्र लावण्यं-मनोशइवेत्यर्थः, तथा मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभि- तारूपम् आकृतियौवनं-युवता गुणाः-प्रियभाषित्वादयः,तथा श्चित्रा येते तथा वातोद्धृता याः विजयशृचिका वैजयन्त्य- प्रसाधनानि च मण्डनानि अष्टासु चाङ्गेषु अविधववधूभिःभिधानाः पताकाः छत्रातिच्छत्राणि च तैः कलिता येते जीवत्पतिकनारीभियदवपदन-प्रोवनकं तच्च मङ्गलानि च तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान् , तुङ्गान् कथमिव?-गगन- दध्यक्षतादीनि गानविशेषो वा सुजल्पितानि च-श्राशीतलमभिलक्लयच्छिखरान् 'जालंतररयणपंजरुम्मिल्लिय व्व'ति चनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभूतैरिति, इदं चास्मै प्रीतिदानं जालान्तेषु मत्तालम्बपर्यन्तेषु जालान्तरेषु वा जालकमध्येषु दत्ते स्म, तद्यथा-अष्टौ हिरण्यकोटीः हिरण्यं च रूप्यम्, एवं रत्नानि येषां ते तथा ततो द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः, सुवर्णकोटीः, शेषं च प्रीतिदानं गाथानुसारेण भणितव्यं पअरोन्मीलितानि च-पृथक्कृतपञ्जराणि च प्रत्यग्रच्छाया- यावत्प्रेक्षणकारिकाः । गाथाश्चेह नोपलभ्यन्ते, केवलं ग्रन्थानित्यर्थः, अथवा-जालान्तररत्नपञ्जरैः-तत्समुदायविशेषरु- न्तरानुसारेण लिख्यन्तेन्मीलितानीवोन्मीलितानि चोन्मीलितलोचनानि चेत्यर्थः, "अट्टहिरराणसवनय, कोडीश्रो मउडकुंडला हारा। मणिकनकस्तूपिकानिति प्रतीतं विकसितानि शतपत्राणि
अष्ट्रहार एका-बली उ मुत्तावली अट्ट ॥१॥ पुण्डरीकाणि च प्रतिरूपापेक्षया साक्षाद्वा येषु ते तथा तान् ,
कणगावलिरयणावली-कडगजुगा तुडियजोयखोमजुगा। तिलकैः-पुण्ड्रैः रत्नैः- कर्केतनादिभिः अद्धचन्द्रः-सोपान
वडजुगपट्टजुगाई, दुकूलजुगलाई अट्ट ( वग्ग) ॥२॥ विशेषैः भित्तिषु वा चन्दनादिमयैरालेख्यैः अर्चिता येते तथा
सिरिहिरिधिइकित्तीउ, बुद्धी लच्छी य हॉति अटुट । तान् , पाठान्तरेण–' तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रान् ' नाना
नंदा भद्दा य तला, झयवयनाडाई पासव ॥ ३॥ मणिमयदामालंकृतान् अन्तर्बहिश्च श्लदणान्-मसूणान् त--
हत्थी जाणा जुग्गा, सीया तह संदमाणि गिल्लीओ। पनीयस्य या रुचिरा वालुका तस्याः प्रस्तर:--प्रतरः थिल्लीइ वियडजाणा, रहगामा दासदासीओ ॥ ४॥ प्राङ्गणेषु येषां ते तथा तान् , सुखस्पर्शान् सश्रीकाणि सशो- किंकर कंचुह मयहर-बरिसधरे तिविहदीवथाले य । भनानि रूपाणि-रूपकाणि येथु ते तथा तान् , प्रसादीयान्- पाई थासग पल्लग, कति वि य अवएड अवपक्का ॥५॥ चित्ताहादकाम् दर्शनीयान्-यान् पश्यञ्चलुन श्राम्यति , पावीड भिसिय करोडि-याओ पल्लंकए य पडिसिज्जा। अभिरूपान्-मनोज्ञरूपान् द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं येषां हंसाईहि विसिट्ठा, पासणभेया उ अटुट ॥६॥ ते तथा तान् , एकं महद्भवनमिति, श्रथ भवनप्रा- हंसे? कुंचे२ गरुडे३, श्रोण य४ पणए५ य दीह६ भद्दे७ य। सादयोः को विशेषः ?, उच्यते-भवनमायामापेक्षया कि- पक्खे मयरे पउमे१०, होइ दिसासोत्थिए११ कारे ॥७॥ श्चित् न्यूनोच्छायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणो- तेल्ले कोटुसमुग्गा, पत्ते चोए य तगर एला य । च्छ्राय इति, अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यत्तत्तथा, ली. हरियाले हिंगुलए, मणोसिला सासव समुग्गे ॥८॥ लया स्थिताः शालभञ्जिकाः-पुत्रिका यस्मिन् तत्तथा, खुजा चिलाइ वामणि, बडभीओ बब्बरी उ बसियाओ। अभ्युद्गता-सुकृता वज्रस्य वेदिका-द्वारमुण्डिकोपरि वेदि- जोणियपल्हवियाओ, ईसणिया धोरुइणिया य ॥६॥ का तोरण च यत्र तत्तथा, वराभिः रचिताभिः रतिदाभिर्वा लासिय लउसिय दमिणी, सिंहलि तह प्रारबी पुलिंदीय! शालभञ्जिकाभिः सुश्लिष्टाः संबद्धाः विशिष्टा लष्टाः संस्थि- पक्कणि वहणि मुरंढी, सबरीश्रो पारसीओ य ॥ १० ॥ ताः प्रशस्ताः वैडूर्यस्य स्तम्भा यत्र तत्तथा, नानामणिकन- छत्तधरी चेडीओ, चामरधरतालियंटयधरीश्रो । करत्नैः खचितं च उज्ज्वलं च यत्तत्तथा, ततः पदत्रयस्य क- सकरोडियाधरीश्रो, खीराती पंच धायीओ ॥ ११ ॥ मधारयः, 'बहुसम' त्ति अतिसमः सुविभक्तो निचिता-नि- अटुंगर्माहयात्रा, उम्मद्दिगविमंडियाोय । विडो रमणीयश्च भूभागो यत्र तत्तथा, ईहामृगवृषभतुरग- वरणयचुरणय पीसिय, कीलाकारी य दवगारी ॥ १२ ॥ नरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुअरवनलतापम- उच्छाविया उ तह ना-डइल्ल कोडंबिणी महापासणी । लताभक्तिचित्रमिति यावत् करणात् दृश्यम् , तथा स्तम्भोग- भंडारि अजधारी, पुष्फधरी पाणियधरी य ॥१३॥ तया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वज्रस्य वेदिकया परिगृहीतं-परि- बलकारिय सेजाका-रियाा अभंतरी उ बाहिरिया । वेएितमभिरामं च यत्तत्तथा 'विजाहरजमलजुयलजतजुत्तं' पडिहारी मालारी, पेसणकारीउ अटुट ॥ १४ ॥” ति विद्याधरयोर्यत् यमलं समश्रेणीकं युगलं-द्वयं तेनैव यन्त्रे- अत्र चायं पाठक्रमः, स्वरूपं च-'अट्ट मउडे मउडपवरे - ण-संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तं यत्तत्तथा श्रापवा- 8 कुंडले कुंडलजोयप्पवरे' एवमोचित्यनाध्ययम्, हाराद्धचैवंविधः समास इति,तथा अर्चिषां किरणानां सहस्रर्मालनी- हारौ अष्टादशनवशरिको एकावली-विचित्रमणिका, मु
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( ४०३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
कुमार
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लावली - मुक्ताफलमयी, कनकावली -- कनकमाणिकमयी, फटकानि कलाचिकाभरणानि योगो युगलं तुटिका-या रक्षिका सीमकार्पासिकं बटर्फ मिसरीमधे पई-पट्टसूत्र मयं दुकूल - दुकूलाभिधानवृक्षनिष्पन्नं बल्कं वृक्षवल्कनिध्यक्ष श्रीप्रभृतयः पद देवताप्रतिमाः संभाव्यन्ते, नन्दादीनां लोकतो ऽर्थोऽवसेयः अन्ये त्वाडुः - नन्दं वृत्तं लोहासनं भद्रं - शरासनं मूढक इति यत्प्रसिद्धं, 'तल' ति-श्रस्यैवं पाठः अतले तलप्पवरे सव्वरयणामए नियगवरभवणकेऊ " ते च तालवृक्षाः संभाव्यन्ते, ध्वजाः-केतयः, 'पति' गोकुलानि दशसाहस्रफेस गोवत्येश्यम्' नाडय ' त्ति' बत्तीसहबद्धेणं नाडगेण ' मिति दृश्यम. द्वाद्वात्रिंशत्याद्धमिति व्याख्यातारः, 'खासे 'त्ति' से श्रसम्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडिरुषे श्री भाण्डागारम् एवं हस्तिनोऽपि यानानि शकटादीनि युग्यानि - गोल्लविषये प्रसिद्धानि जम्पानानिस्तिप्रमाणानि चतुरस्राणि बेदिकोपशोभितानि शिबिका:-फूटाकारेणाच्छादिताः स्यन्दमानिका:- पुरुषप्रमागायामा - जम्पानविशेषाः, गिल्लयः- हस्तिन उपरिकोल्लररूपा मानुषं गिलन्तीवेति गिल्लयः, लाटानां यानि अड़पल्यानानि तान्यन्यविषयेषु 'थिल्ली श्रो' अभिधीयन्ते, 'वियङजाति अनाच्छादितानि वाहनानि, 'रह'ति-संग्रामिका परिवानिका थाटात तत्र संग्रामस्थाना कीप्रमासा-फलकवेदिका भवन्ति' वाचनान्तरे - रथानन्तरमभ्वा हस्तिनआभिधीयन्ते तत्र ते वाहनभूताः शेषाः गाम' चिदशकुलसाहस्रिको ग्रामः तिविदीयति त्रिविधा दीपा अबलम्बनदीपाः शृङ्ग (स) लाडा इत्यर्थः, उत्कम्पनदीपाः ऊर्ध्वदयन्तः पञ्जरदीपा अभ्रपटलादिपराः प्रयोऽप्येते विविधाः सुरूप्यतदुभयमयत्वादिति एवं स्थालादीनि सौवर्णादिभेदात् त्रिविधानि वाच्यानि, 'कविका कलाचिका 'अवएज ' इति तापिकाहस्तकः ' श्रवपक्क ' ति श्रवपाक्या तापिकेति संभाव्यते, 'मिसियाश्रो' श्रासनविशेषाः करोटिकाधारिकाःस्थनिकाधारिकाः बकारिका: परिहासकारिकाः शेषं रुदितोऽयसेयम् येत्यादि विपुलं प्रभूतं धनं-गणिमधरिममेयपरिच्छेचमेदेन चतुर्विध, कनकं सुवर्णरत्नानि चकत नादीनि स्वस्वजातिप्रधानवस्तूनि वा मण्यः - चन्द्रकान्तद्या मौलिकानि व शङ्खाश्च प्रतीता एव शिलाप्रपालानि व-विदुमाणि, अथवा - शिलाश्च - राजपट्टा गन्धपेषणशिलाश्च प्रवालानि च विद्वमासि ररत्नानि च पद्मरागादीनि एतान्येव 'संत' ति सत् विद्यमानं यत् सारं - प्रधानं स्वापतेयं द्रव्यं तद्त्तयन्ताविति प्रक्रमः किंभूतम् !-- हि ' त्ति अलं - पर्याप्तं परिपूर्ण भवति 'याव' ति यावत्परि मागम् आसप्तमात् कुल वंशे भवः फलपश्यस्तस्मात् सप्तमं पुरुषं यावदित्यर्थः, प्रकामम्प्रत्यदादीनादिभ्यो दाने एवं भोकं स्वयं भोगे परिभाजयितुं दावादादीनां परिभाजने तत्परिमाणं दत्तवन्ताविति प्रकृतम्, प्पति उपरि कुट्टमारोदि मुयंगमत्यहिं स्फुरद्भिरिया तिरभसास्फालनात मलमुखः 'रायगि नगरे सिंपादन] इत्यनेनालापव्यम् सिघाडगति
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'उ
मेहकुमार
गचउकचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु 'महया जसदेव वा ' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् जनसमूह या बोले वा एकलकले वा जम्मी वा अनुकलियाई वा जसशिवाय वा बहुजनो श्रन्नमन्नस्स एवमाइक्खर एवं पनवे एवं भासह एवं परुवे एवं देवापिया! समसे भगवं महावीर आइगरे तित्थगरे जाव संपाविउकामे पुण्यापुचि चरमा गामाशुगामं दूइजमागे इदमागए एह संपले
समोसढे इहेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेहए - हापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमें तवसा अप्पारां भावमा बिहरतं महाफलं खलु भो देवाप्पिया ! तहारूचाएं अरहंताएं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवयया किमंग ! पुरा अभिगमणवंदात्मंसणपडिपुच्णपज्वाख्या एगस्स वि आयरियरस धम्मियस्स सुबयस सवण्या किमंग ! पुरा विउलस्स अट्ठस्स गहण - याए ?, तं गच्छामो गं देवाणुप्पिया ! समं भगवं महावीरं दामो रामसामो सकारेमो सम्मारोमो कलाएं मंगल देवयं चेयं पचासामी एवं नो पेशा भवे हियार मुहार - मा निस्सेसार अनुगामित्ताए भविस्सर' ति कट्टु सि 'बहवे उगा इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्' उम्मापुता भोगा भोगपुत्ता एवं राइना खत्तिया माहणा भडा जोहा मलई लेच्छई अन् य वहये राईसरतलपरमाबियोलेसियासावाहयभिविध अप्पमया दत्तअप्पे गइया यवनिये एवं सकारयतियं सम्मान कोउल्लवत्तिय अनुवाई सुविसामो सुपाई निस्संकिया क रिस्तामो अप्पेगइया मुंडे भविता आगाराओ अरागारि पव्वसामो अपेगइया पंचाणुव्वइयं सत सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामो, श्रप्पेगश्या जि
भत्तिरागेणं अप्पेगइया जीयमेयं ति कट्टु एहाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपापचिता सिरसा कंठेमालफडा श्रविद्धमसुिवचा कपियहारद्धहारतिसरयपासंपलंयमाएकडिसुतयकयसोभाभरणा पवरचत्थपरिडिया बंद - गोवत्तिगासरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयरहसिवियासंद मागिया अप्पेगइया पायविहारचारिणो पुरिसषम्यु रापरिक्खित्ता महया उकिट्टिसीहणायबोलकलकलरवेगं समुहरचभूयं पिच करेमाण रायगिहस्स नगरस्समझ म उभे ति' अस्यायमर्थः - शृङ्गाटिकादिषु यत्र महाजनशम्हादयः तत्र बहुजनो ऽन्यो ऽन्यमेवमाख्यातीति वाक्यार्थः
महया जणसद्दे व त्ति महान् जनशब्दः - परस्परालापादिरूपः कारो वाक्यालङ्कारार्थः वाशब्दः पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः । अथवा ' सहेइ व 'त्ति-इह संधिप्रयोगाद् इतिशब्दो द्रष्टव्यः स चोपप्रदर्शने, यत्र महान् जनशब्द इति वा, यत्र जनव्यूह इति वा, तत्समुदाय इत्यथे, जनबोलः अव्यय ध्वनिः कलफलः स एवोपलभ्यमानवचनविभागः ऊमिः संबाधः पचमुत्कलिकालघुतरः समुदाय एवं सचिपातः अपरापरस्थानभ्यो ज नानामेकत्र मीलनं तत्र बहुजनो ऽन्योऽन्यस्थात्पातिसामान्येन प्रज्ञापयति विशेषेण एतदेवार्थद्वयं पदद्वयेनाहभाषते प्ररूपयति चेति, अथवा श्रख्याति सामान्यतः प्रशापपति विशेषता बोधयति वा भाषते व्यरूपषयवचनतः
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मेहकुमार
(४०४) मेहकुमार
अभिधानराजेन्द्रः। प्ररूपयति उपपतितः 'इह आगए' ति राजगृहे 'इह संपत्ते' तः-प्रतीत उद्यानयात्रा-उद्यानगमनं गिरियात्रा-गिरिगति गुणशिलके 'इह समोसढे 'त्ति साधूचितावग्रहे । एतदे | मनं 'गहियागमणपवित्तिए 'त्ति परिगृहीतागमनप्रवृत्तिको वाह-'हेव रायगिहे' इत्यादि 'अहापडिरूयं ' ति यथाप्र- गृहीतवार्स इत्यर्थः। तिरूपम्-उचितमित्यर्थः 'तमिति' तस्मात् 'महाफलं ' ति |
तते णं से मेहे कंचुइञ्जपुरिसस्स अंतिए एतमहूँ सोमहत्फलम्-अर्थो भवतीति गम्यम् , ' तहारुवाणं 'तितप्रकारस्वभावानां महाफलजननस्वभावानामित्यर्थः , 'ना
चा णिसम्म हट्ठतुढे कोडुवियपुरिसे सद्दावेति २ त्ता मगोयस्स'त्ति नानो यादृच्छिकस्याभिधानकस्य गोत्रस्य एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया !चाउग्घंट गुणनिष्पन्नस्य ' सवणयाए ' त्ति श्रवणेन 'किमङ्ग ! आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, तह ति उवणेति, तते णं पुण' ति किमङ्ग! पुनरिति पूर्वोक्लार्थस्य विशेषद्योतनार्थम् , से मेहे राहाते जाव सव्वाऽलंकारविभूसिए चाउग्घंटे प्राअनेत्यामन्त्रणे, अथवा-परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थ | इति, अभिगमनम्-अभिमुखगमनं वन्दनं-स्तुतिः नमस्यनं
| सरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिप्रणमनं प्रतिप्रच्छनं-शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासन-सेवा
जमाणेणं महया भडचडगरविंदपरियालसंपरिखुडे रायपतग्रावस्तसा तया,तथा एकस्याप्यार्यस्य धार्यप्रणेतृकत्वात् | गिहस्स नगरस्स मज्झ मज्झणं णिग्गच्छति २ ता जेधार्मिकस्य-धर्मप्रतिबद्धत्वात् 'वन्दामो' ति-स्तुमो नम
णामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ ता स्यामः-प्रणमामः सत्कारयामः-श्रादरं कुर्मो वस्त्राद्यर्चनं या सन्मानयामः-उचितप्रतिपत्तिभिः कल्याण-कल्याणहेतुं|
समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं पडागातिमङ्गलं-दुरितोपशमहेतुं दैवतं-दैवं चैत्यमिव चैत्यं पर्युपास- पडागं विजाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पययामः-सेवामहे, एतत् नः-अस्माकं प्रैत्यभवे-जन्मान्तरे | माणे पासति पासित्ता चाउग्धंटाओ आसरहाश्रो पहिताय पथ्याऽभवत् सुखाय-शर्मणे क्षेमाय-संगतत्वाय
चोरुहति २ ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अनिःश्रेयसाय-मोक्षाय प्रानुगामिकत्वाय-भवपरम्परासु
भिगमेणं अभिगच्छति, तं जहा-सचित्ताणं दवाणं विखानुबन्धिसुखाय भविष्यतीति कृत्वा-इति हेतोबहव उग्राआदिदेवावस्थापिता रक्षवंशजाः उग्रपुत्राः-त एव कु
उसरणयाए अचित्ताणं दव्वास अविउसरणयाए एगमाराद्यवस्था एवं भोगाः-आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंश- साडियउत्तरासंगकरणेणं चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं मजाताः राजन्या-भगवद्भयस्यवंशजाः क्षत्रियाः-सामान्यरा- णसो एगतीकरणेणं जेणामेव समणे भगवं महावीरे जकुलीनाः भटाः-शौर्यवन्तो योधाः-तेभ्यो विशिष्टतरा म
तेणामेव उवागच्छति २ ता समणं भगवं महावीर लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथा श्रूयन्ते चेटकराजस्याष्टादशगणराजानो नव मल्लकिनो नव लेच्छ- तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २ चा वंदति किन इति, 'लेच्छह त्ति' क्वचिद्वणिजो व्याख्याताः लिप्सव णमंसइ २ ता समणस्स भगवो महावीरस्स णञ्चासइति संस्कारणेति, राजेश्वरादयः प्राग्वद , 'अप्पेगइय'त्ति
ने नातिरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अंजलियउडे अभिअप्येके केचन 'धंदणवत्तियं' ति वन्दनप्रत्ययं वन्दनहेतोः | शिरसा कण्ठे च कृता-धृता माला यैस्ते शिरसाकण्ठे
मुहे विणएणं पज्जुवासति, तए णं समणे भगवं महामालाकृताः कल्पितापि हारार्द्धहारभिसरकाणि प्रालम्बश्च-| वीरे मेहकुमारस्स तसे य महतिमहालियाए परिसाए प्रलम्बमानः कटिसूत्रकं च येषान्ते तथा, तथाऽन्यान्यपि सु- मझगए विचित्तं धम्ममातिक्खति जहा जीवा वझकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, चन्द
ति मुचंति जह य संकिलिस्संति धम्मकहा भणियव्वा नावलिप्तानि गात्राणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते तथा, 'पुरिसवग्गुर'त्ति-पुरुषाणां वागुरेव वागुरा-परिकरं च मह
जाव परिसा पडिगया । (सूत्र-२५) था-महता उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः गम्भीरध्वनिः सिं- 'चाउग्घंटं आसहं' ति चतस्रो घण्टा अवलम्बमाहनादश्च बोलच-वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च- ना यस्मिन् स तथा, अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः , युक्तव्यक्तवचनः स एच एतल्लक्षणो यो रवस्तेन समुद्ररवभूतमिव मेव अश्वादिभिरिति , 'दुरूढे' ति प्रारूढः · मया' जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थो नगरमिति गम्यते इयादि महद् यत् भटानां चटकरं वृन्दं विस्तारवत् सकुर्वाणाः 'एगदिसिं' ति एकया दिशा पूर्वोत्तरलक्षणया सूहस्तल्लक्षणो यः परिबारस्तेन संपरिवृतो यः स तथा । एकाभिमुखा-एकं भगवन्तम् अभिमुखं येषां ते एका- जृम्भकदेवास्तिर्यग्लोकचारिणः 'ओवयमाणे' त्ति अवभिमुखा निर्गच्छन्ति, 'इमं च णं' ति इतश्च ‘रायमग्गं च पततो व्योमागणादवतरतः ' उप्पयंते ' त्ति भूतलादुत्पआलोएमाणे एवं च णं विहरइ, तते णं से मेहे कुमारे ततो दृष्ट्वा 'सचित्ते' त्यादि सचित्तानां द्रव्याणां पुष्पते बहवे उग्गे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासह ताम्बूलादीनां विउसरणयाए ' ति व्यवसरणेन व्युत्सपासित्ता' इत्यादि स्फुटम् , इन्द्रमहः-इन्द्रोत्सवः एवम- जनेनाचित्तानां द्रव्याणागलङ्कारवस्त्रादीनामव्यवसरणेनन्यान्यपि पदानि, नवरं स्कन्दः-कार्तिकेयः रुद्रः प्रतीतः श्रव्युत्सर्जनेन क्वचिद् वियोसरणयति ' पाठः , तत्र शिवो-महादेवः वैश्रमणो-यक्षराद् नागो-भवनपतिविशेषः अचेतनद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेन-परिहारेण , थक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ चैत्यं सामान्येन प्रतिमा पर्व-। उक्तं च-अवरोह पंचककुहाणि रायवरवरसभचिंधभूया
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(४०५) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार णि । छत्तं खग्गो वाहण,मउडं तह चामराओ य ॥१॥' त्ति' प्पियं अमणुनं अमणामं असुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा एका शाटिका यस्मिस्तत्तथा तच्च तदुत्तरासङ्गकरण च णिसम्म इमेणं एतारूवेणं मणोमाणसिएणं महया पुत्त-- उत्तरीयस्य न्यासविशेषस्तेन, चक्षुःस्पर्श-दर्शने अञ्जलिप्रग्रहेण-हस्तजोटनेन.मनस एकत्वकरणेन एकाग्रत्वविधा-|
दुक्खेणं अभिभूता समाणी सेयागयरोमकूवपगलंतविलीनेनेति भावः, क्वचिद्-' एगत्तभावणं' ति पाठः, अभिग- णगाया सोयभरपवेवियंगी णित्तेया दीणविमणवयणा कच्छतीति प्रक्रमः, ' महइमहालयाए ' ति महातिमहत्याः | रयलमलिय व्य कमलमाला तक्खणओलुग्गदुब्बलसरीरा धर्म-श्रुतचारित्रात्मकम् आख्याति, स च यथा जीवा बध्य-| लावन्नसुन्ननिच्छायगयसिरीया पसिढिलभूसणपडंतखुम्मिन्त कर्मभिः मिथ्यात्वादिहेतुभिर्यथा मुच्यन्ते तैरेव ज्ञाना
यसंचुन्नियधवलवलयपन्भट्ठउत्तरिजा सुकुमालविकिन्नकेसद्यासवनतः यथा संक्लिश्यन्ते अशुभपरिणामा भवन्ति तथा आख्यातीति, इहावसरे धर्मकथा उपपातिकोक्ता भणित
हत्था मुच्छावसणट्ठचेयगरुई परसुनियत्तव्य चंपकलया निव्या, अत्र च बहुम्रन्थ इति न लिखितः।
व्वत्तमहिम व्व इंदलट्ठी विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवो महावीरस्स अं| सव्वंगेहिं धसत्ति पडिया, तते णं सा धारिणी देवी ससंतिए धम्म सोचा णिसम्म हट्ठतुढे समणं भगवं महावीरं | भमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजतिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २ ता वंदति न- लविमलधाराए परिसिंचमाणा निव्वावियगायलट्ठी उक्खेमंसइ २ ता एवं वदासी-सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं | वणतालवंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिपावयणं एवं पत्तियामि णं रोएमि णं अन्भुमि णं भंते? | जणणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडंतअंनिग्गंथं पावयणं एवमेयं भंते ! तहमेयं अवितहमेयं | सुधाराहिं सिंचमाणी पोहरे कलुणविमणदीणा रोयइच्छितमेयं पडिच्छियमेयं कंते ! इच्छितपडिच्छियमेयं | माणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी बिलवमाणी मेहं भंते ! से जहेव तं तुब्भे वदह जे नवरं देवाणुप्पिया ! कुमारं एवं वयासी-(सूत्र-२६) अम्मापियरो आपुच्छामि तो पच्छा मुंडे भवित्ता णं |
__ 'सदहामी' स्यादि , श्रद्दधे-अस्तीत्येवं प्रतिपये नैर्ग्रपव्वइस्सामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवंधं करेह, न्थं प्रवचन-जैन शासनम् , एवं ' पत्तियामि' ति प्रत्ययं तते णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति नम- करोम्यत्रेति भावः , रोचयामि-करणरुचिविषयीकरोमि सति २ त्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवा
चिकीर्षामीत्यर्थः, किमुक्तं भवति?-अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युपग
च्छामीत्यर्थः , तथा एवमेवैतत् यद्भवद्भिः प्रतिपादितं गच्छति २ त्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहति २ त्ता महया
तत्तथैवेत्यर्थः , तथैव तद्यथा वस्तु , किमुक्तं भवति ?भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मझ मज्झेणं
अवितर्थ-सत्यमित्यर्थः , अतः 'इच्छिए ' इत्यादि प्राग्वत् , जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २ ता चाउ- 'इच्छिए 'त्ति इष्टः , पडिच्छिए ' त्ति पुनः पुनरिष्टः भाव, ग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहति २ ता जेणामेव अ
तो वा प्रतिपन्नः अभिरुचितः-स्वादुभावमिवोपगतः ' श्राम्मापियरो तेणामेव उवागच्छति २ त्ता अम्मापिऊणं पा
गाराश्रो' त्ति गेहात् निष्कम्यानगारिता-साधुतां प्रत्र
जितुं मे , 'मणोमाणसिएणं' ति मनसि भवं यन्मानसियवडणं करेति २ ता एवं वदासी–एवं खलु अम्मया
कं तम्मनोमानसिकं तेन अबहिर्वृत्तिनेत्यर्थः, तथा स्वेओ ! मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मे | दागताः-आगतस्वेदाः रोमकूपा येषु तानि स्वेदागतरोणिसंते से वि य मे धम्म इच्छिते पडिच्छिते अभिरुइए, मकूपाणि, तत एव प्रगलन्ति-क्षरन्ति विलीनानि च क्लितते णं तस्स मेहस्स अम्मापियरोएवं वदासी-धन्ने सि तुम
नानि गात्राणि यस्याः सा तथा, शोकभरेण प्रवेपिताजी
कम्पितनात्रा या सा तथा, निस्तेजा, दीनस्येव-विमनस जाया! संपुन्नो० कयत्थो० कयलक्खणोऽसि तुम जाया!
इव वदनं वचनं वा यस्याः सा तथा, तत्क्षणमेव-प्रवजाजणं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे मीति वचनश्रवणक्षणे एव अवरुग्णं म्लानं दुर्बलं च शणिसंते से वि य ते धम्मे इच्छिते पडिच्छिते अभिरुइए, रीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या लावण्यशून्या नितते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्चं पि तचं पि एवं
च्छाया-गतश्रीका च या सा तथेति, पदचतुष्टयस्य कर्म
धारयः, दुर्बलत्वात् प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः सा वदासी-एवं खलु अम्मयातो ! मए समणस्स भगवओ
तथा, कृशीभूतबाहुत्वात्पतन्ति-विगलन्ति 'खुम्मिय' तिमहावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते से वि य मे धम्मे० इ- भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि चूर्णितानि च-भूपाच्छियपडिच्छिए अभिरुइए तं इच्छामि णं अम्मयाओ तात् एव भग्नानि धवलवलयानि यस्याः सा तथा, प्रभाषतुम्भेहिं अब्भणुनाए समाणे समणस्स भगवतो महावी
मुत्तरीयं च यस्याः सा तथा , ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः,
सुकुमारो विकीर्णः केशहस्तः-केशपासो यस्याः सा तथा, रस्स अंतिए मुंडे भवित्ता णं आगारातो अणगारियं प
मूच्र्छावशान्नष्टे चेतसि सति गुर्वी-अलघुशरीरा या सा ब्बइत्तए, तते णं सा धारिणी देवी तमणिटुं अकंतं अ-1 तथा, परशुनिकृत्तेव पम्पकलता कुट्टिमतले पतितेति सं
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मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार बन्धः, निवृत्तमहा इव इन्द्रयष्टिः-इन्द्रकेतुर्वियुक्तसन्धिबन्ध- | वदासी-तहेव णं अम्मायाओ! जनं तुब्भे ममं एवं वदहना श्लथीकृतसन्धाना धसतीत्यनुकरणे ससंभ्रमं व्याकुलचि
| इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ जाव समणस्स भगवसतया 'उवत्तियाए ' ति अपवर्तितया क्षिप्तया त्वरितंशीघ्रं काश्चनभृङ्गारमुखविनिर्गता या शीतलजलविमलधारा
श्रो महावीरस्स अंते पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! तया परिषिच्यमाना निर्वापिता-शीतलीकृता गात्रयष्टि- माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तायस्याः सा परिषिच्यमाननिर्वापितगात्रयष्टिः , उत्क्षेपको सवा खलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो डण्डमध्यभागः तालवृन्तं ता- दुरूयमुत्तपुरीसपूयबहुपडिपुन्ना उच्चारपासवणखेलजल्ललाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं पत्रच्छोट इत्यर्थः, तदाकारं वा चर्म
सिंघाणगवंतपित्तसुक्कसोणितसंभवा अधुवा अणित्तिया मयं बीजनकं तु-वंशादिमयमेवान्तादण्डम् एतैर्जनितो यो वातस्तेन 'सफुसिएणं सोदकविन्दुना अन्तःपुर
असासया सडणपडणविद्धसणधम्मा पच्छा पुरं च णं जनेन समाश्वसिता सती मुक्तावलीसन्निकाशा याः प्र- अवस्सविप्पजहणिज्जा, से के म अम्मयाओ! जाणति पतन्त्योऽश्रुधारास्ताभिः सिञ्चन्ती पयोधरौ, करुणा च विम | के पुन्धि गमणाए के पच्छा गमणाए ?, तं इच्छामि गं नाश्व दीना च या सा तथा, रुदन्ती-साश्रुपातं शब्दं वि
अम्मयाओ! जाव पव्वतिनए । तते णं तं मेहं कुमारं दधाना फ्रन्दन्ती ध्वनिविशेषेण तेपमाना-स्वेदलालादि क्षरन्ती शोचमाना-हृदयेन विलपन्ती-प्रार्तस्वरेण ।
अम्मापितरो एवं वदासी-इमे य ते जाया! अज्जयपजतुमं सिमं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इद्वे कंते पिए मणुन्ने म- यपिउपज्जयागए सुबहुहिरन्ने य सुवरणे य कंसे य दूसे य णामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगस
मणिमोत्तिए य संखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतिमाणे रयणे रयणभृते जीवियउस्सासयहिययाणंदजणणे |
ज्जे य अलाहिजाब आसत्तमाअो कुलवंसाओ पगाम उंबरपुप्फंव दुल्लमे सवणयाए किमङ्ग! पुण पासणयाए?णो
दाउं पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं तं अणुहोहि ताव खलु जाया! अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पोगं सहित्तते तं जाव जाया ! विपुलं माणुस्सगं इड्डिसकारसमुदयं तो मुंजाहि ताव जाया! विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव | पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स वयं जीवामो तो पच्छा अम्हेहिं कालगतेहिं परिणयवए
अंतिए पव्वइस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियर वड्डियकुलवंसतंतुकजम्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ
एवं वदासी-तहेवणं अम्मयात्रओ! जणं तं वदह इमे ते महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारियं
जाया! अज्जगपज्जग जाव तो पच्छा अणुभूय पव्वइस्ससि । तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं कल्लाणे पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयात्रो ! हिरने य खुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं वदासी-तहेव णं तं अम्म- सुवरणे य० जाव सावतजे अग्गिसाहिए चोरसाहिए तायो ! जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह तुमं सि णं जाया! |
रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चुसाहिए अग्गिसामन्न जाव अम्हं एगे पुत्ते तं चेव० जाव निरावयक्खे समणस्स भग- मच्चुसामने सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं वो महावीरस्स० जाव पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मया
अवस्सपिप्पजहणिजे से के णं जाणइ अम्मयाओ! के ओ! माणुस्सए भवे अधुवे अणियए असासए वसण- जाव गमणाए, ते इच्छामि णं जाव पव्वतित्तए । तते सभोवद्दवाभिभूते विज्जुलयाचंचले अणिच्चे जलबुब्बुयस- णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचालेइ माणे कुसग्गजलविंदुसन्निभे संझब्भरागसरिसे सुविण
मेहं कुमार बहूहिं विसयाणुलोमाहि आघवणाहि य पन्नदंसणोवमे सडणपडणविद्धसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अ
वणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पन्न वस्सविप्पजहणिज्जे से के णं जाणति अम्मयाओ ! के
वित्तए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा ताहे विसयपडिपुवि गमणाए के पच्छा गमणाए ? , तं इच्छामि णं
कूलाहिं संजमभवउब्बेयकारियाहिं पत्रवणाहिं पनवेमाणा अम्मयाो! तुम्भेहिं अब्भणुनाते समाणे समणस्स भ- एवं वदासी-एस पं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अगवतो जाव पव्वतित्तए, तते णं तं मेहं कुमारं अम्मा- | गुत्तरे केवलिए पडिपुन्ने णयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिपियरो एवं वदासी-इमातो ते जाया ! सरिसियाओ |
द्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निजाणमग्गे निवाणमम्गे सव्वदुक्खप्पसरिसत्तयाओ सरिसवयाओ सरिसलावबरूवजोव्वण- होणमग्गे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरो इव एगंतधाराए लोहगुणोक्वेयाओ सरिसेहिंतो रायकुलेहितो आणियल्लिंयाओ मया इव जवा चावेयव्या बालुयाकवले इव निरस्साए गंगा भारियाओ, तं भुंजाहि णं जाया ! एताहिं सद्धिं विपुले इव महानदी पडिसोयगमणाए महासमुद्दो इव भुयाहिंमाणुस्सए कामभोगे तो पच्छा भुत्तभोगे समणस्स० दुत्तरे तिक्खं चकमियव्वं गरुडं लंबेयव्वं असिधार ब्व जाव पव्वइस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरं एवं संचरियव्वं, णो य खलु कप्पति जाया! समणाणं नि
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(४०७) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार ग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कीयगडे वा ठवि- पद्रवैः स्वपरसंभवैः सदोपद्रवैर्वाऽभिभूतो-ठयाप्तः,शटनं-कुयए वा रइयए वा दुभिक्खभत्ते वा कंतारभत्ते वा बद्द
प्ठादिना अङ्गुल्यादेः पतनं-बाहादेः खङ्गच्छेदादिना विध्वंलियाभत्ते वा गिलाणभत्ते वा मूलभोयणे वा कंदभोयणे
सन-क्षयः एते एव धर्मा यस्य स तथा, पश्चात्-विवक्षि
तकालात्परतः 'पुरं च 'त्ति पूर्वतश्च णमलंकृतौ 'अवस्सवा फलभोयणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए विप्पजहणिजे' अवश्यं त्याज्यः । 'से के णं 'जाणइ' त्ति अथ वा पायए वा, तुमं च णं जाया ! सुहसमुचिए णो चेव णं को जानाति ? न कोऽपीत्यर्थः, अम्ब तातक ! पूर्व-पित्रोः दुहसमुचिए णालं सीयं णालं उपहं णालं खुहं णालं
पुत्रस्य चान्योऽन्यतः गमनाय परलोके उत्सहते कः पश्चाद्गम
नाय तत्रैवोत्सहते इति, कः पूर्व को वा पश्चाम्रियते इत्यर्थः पिवासं णालं वाइयपित्तियसिभियसनिवाइयविविहे रो
वाचनान्तरे-मेघकुमारभार्षावर्णक एवमुपलभ्यते 'इमाश्रो ते गायके उच्चावए गामकंटए वावीसं परीसहोवसग्गे उदि- जायाओ विपुलकुलबालियानो कलाकुसलसव्वकाललालियने सम्म अहियासित्तए, भुंजाहि ताव जाया! माणुस्सए सुहोइयाश्रो मद्दवगुणजुत्तनिउणविणोवयारपंडियवियफ्खकामभोग ततो पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महा
णाओ' पण्डितानां मध्ये विचणाः पण्डितविचक्षणाः अवीरस्स जाव पव्वतिस्ससि, तते ण से मेहे कुमार अम्मा
तिपण्डिता इत्यर्थः ' मंजुलमियमहुरभणियहसियविप्पेक्सि
यगइविलासवट्टियविसारयाओ' मञ्जुलं-कोमलं शब्दतः पिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेव | मित-परिमितं मधुरम्-अकठोरमर्थतो यद्भणितं तत्तथा रंग तं अम्मयाओ! जनं तुम्भे ममं एवं वदह एस णं अवस्थित-विशिष्टस्थिति शेष कण्ठयम् 'अविकलकुलसीलजाया ! निग्गंथे पावयणे सचे अणुत्तरे० पुणरवि तं चेव
सालिणीश्रो विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगब्भुन्भवप्प
भाविणीश्रो' विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुः विस्तारवत्सजाव तो पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावी
न्तुः तद्बर्द्धना ये प्रकृष्टा गर्भाः-पुत्रवरगर्भास्तेषां य उद्भवःरस्स० जाव पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयात्रो ! णिग्गंथे | संभवस्तल्लक्षणो यः प्रभावो-माहात्म्यं स विद्यते यासां ताः पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिब- तथा ' मणोणुकूलहिययइच्छियायो ' मनोऽनुकूलाश्च ता द्वाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स हो
हृदयेनेप्सिताश्चेति कर्मधारयः, ' अट्ठ तुझगुणवल्लहा
श्रो' गुणैर्वल्लभा यास्तास्तथा 'भजाओ उनमाओ निश्चं चेव णं धीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स एत्थं किं
भावाणुरत्ता सव्वंगसुंदरीओ'त्ति 'माणुस्सगा कामभोदुक्करं करणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयात्रो! तु- ग' त्ति इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषब्भेहिं अन्भणुनाए समाणे समणस्स भगवो जाव | शरीराण्यभिप्रेतानि अशुचयः अशुचिकारणत्वात् वान्तंपव्वइत्तए । (सूत्र-२७)
वमनं तदाश्रवन्तीति बान्ताश्रवाः एवमन्यान्यपि , नवरं 'जाय ' त्ति हे पुत्र ! इष्टः इच्छाविषयत्वात् कान्तः कम
पित्तं प्रतीतं खेलो निष्ठीवनं शुक्रं-सप्तमो धातुः शोणितंनीयत्वात् प्रियः प्रेमनिबन्धनत्वात् मनसा ज्ञायसे उपादेय
रक्तं दुरूपाणि-विरूपाणि यानि मूत्रपुरीषपूयानि तैर्बहुप्रतयेति मनोशः मनसा अभ्यसे-गम्यस इति मनोऽमः, स्थैर्य-1 तिपूर्णाः उच्चारः-पुरीषं प्रस्रवणं-मूत्रं खलः-प्रतीतः गुणयोगात् स्थैर्यो वैश्वासिको-विश्वासस्थानं संमतः कार्य- सिङ्घाणो-नासिकामलः वान्तादिकानि प्रतीतान्यतेभ्यः करणे बहुमतः बहुष्वपि कार्येषु बहुर्वाऽनल्पतयाऽस्तोक- संभवः-उत्पत्तिर्येषां ते तथा · इमे य ते ' इत्यादि, तया मतो बहुमतः, कार्यविधानस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः, इदं च ते आर्यकः पितामहः प्रार्यकः दितुः पितामहः पि'भाण्डकरण्डकसमानो' भाण्डम्-श्राभरणं, रत्नमिव रत्नं तृप्रार्यकः-पितुः प्रपितामहः तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तमनुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः , रत्नभूतः था, अथवा-श्रार्यकप्रार्यकपितृणां यः पर्यायः परिपाटिरिचिन्तामणिरत्नादिकल्पो जीवितमस्माकमुच्छासयसि-बर्द्ध- त्यनान्तरं तेनागतं यत्तत्तथा, ' अग्गिसाहिए ' इत्यादि, यसीति जीवितोन्लासः स एव जीवितोच्लासिकः, अग्नेः स्वामिनश्च साधारणं 'दाइय' त्ति दायादाः पुत्रादयः, वाचनान्तरे तु-'जीविउस्सइए'त्ति-जीवितस्योत्सव इव जी- एतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थ पर्यायान्तरेणाहवतोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः,हृदयानन्दजननः उदुम्बर- · अग्गिसामराणे ' इत्यादि, शटनं वस्त्रादेरतिस्थगितस्यपुण्यं लभ्यं भवति अतस्तेनोपमानं, 'जाव ताव श्रम्हहिं जी-| पतन-वर्णादिविनाशः विध्वंसनं च-प्रकृतेरुच्छेदः धर्मो वामो'त्ति इह भुव तावद्भोगान् यावद्वयं जीवाम इत्येताव. यस्य तत्तथा, ' जाहे नो संचाएति ति ' यदा न शक्नुतैव विवक्षितसिद्धौ यत्पुनः तावत् शब्दस्योच्चारणं तद्भाषा- वन्तौ. 'बहूहि विसए' त्यादि, बहीभिः विषयाणां-शब्दामात्रमेवेति, परिणतवया 'वड्वियकुलवंसतंतुकजम्मि' वर्द्धि- दीनामनुलोमाः तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेन अनुकूला विषयाते वृद्धिमुपागते पुत्रपौत्रादिभिः कुलवंश एव-सन्तान एव
नुलोमास्ताभिः आख्यापनाभिश्च-सामान्यतः प्रतिपादनैः तन्तुः दीर्घत्वसाधात् कुलवंशतन्तुः स एव कार्य-कृ
प्रज्ञापनाभिश्च-विशेषतः कथनैः संज्ञापनाभिश्व-संबोधनास्यं तस्मिन् , ततः ‘निरवेक्खे' त्ति निरपेक्षः सकलप्रयो- भिर्विज्ञापनाभिश्च-विज्ञप्तिकाभिश्च सप्रणयप्रार्थनैः चकाराः जनानाम् 'अधुवे' त्ति न ध्रुवः सूर्योदयवत् न प्रतिनियतकाले समुश्चयार्थाः श्राख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा संहापयितुं वा अवश्यंभावी, अनियतः ईश्वरादेरपि दरिद्रादिभावात् ,अशा- विज्ञापयितुं वा न शक्नुत इति प्रक्रमः ' ताहे' त्ति तश्वतः क्षणविनश्वरत्वाद् व्यसनानि-यूतचौयादीनि तच्छतैरु- दा विषयप्रतिकूलाभिः शब्दादिविषयाणां परिभोगनिषेध
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HHHHHHHH
(४०८) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार कत्वेन प्रतिलोमाभिः संयमाद्भयमुद्वेगं च-चलनं कुर्वन्ति | म्भवर्जितानामत एव कापुरुषाणां कुत्सितनराणां, विशेषणयास्ताः संयमभयोद्वेगकारिकाः संयमस्य दुष्करत्वप्रति- द्वयं तु कण्व्यम्, पूर्वोक्कमेवार्थमाह-दुरनुचरं-दुःखासेव्यं पादनपरास्ताभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन्तौ एवमवादिष्टाम्- नैर्ग्रन्थं प्रवचनमिति प्रकृतं , कस्येत्याह-प्राकृतजनस्य , 'निग्गंथे' त्यादि , निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषामिदं नैर्ग्रन्थं प्र- एतदेव व्यतिरेकेणाह-'नो चेव ण ' नैव धीरस्य-साहवचनमेव प्राषचनं सद्भ्यो हितं सत्यं सद्भूतं वा नास्मा- सिकस्य दुरनुचरमिति प्रकृतम् , एतदेव वाक्यान्तरेणाहदुसरं-प्रधानतरं विद्यत इत्यनुत्तरम् , अन्यदप्यनुत्तरं भ- निश्चितं-निश्चयवद् व्यवसितं-व्यवसायः कर्म यस्य स विष्यतीत्याह-कैवलिकं केवलम्-अद्वितीयं केवलिप्रणीत- तथा तस्य, 'एत्थ' त्ति अत्र नैर्ग्रन्थे प्रवचने किं दुष्कर?, स्वाद्वा कैवलिकं प्रतिपूर्णम्-अपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भूतं नयन- न किञ्चित् दुरनुचरमित्यर्थः, कस्यामित्याह- करणतायां' शीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः, न्याये वा भवं नैया- करणानां-संयमव्यापाराणां भावः करणता तस्यां, संयमयिकं मोक्षगमकमित्यर्थः संशुद्ध सामस्त्येन शुद्धमेकान्ता-| योगेषु मध्ये इत्यर्थः, तत्-तस्मादिच्छाम्यम्ब ! तात! । कलङ्कमित्यर्थः शल्यानि मायादीनि कृन्ततीति शल्यकर्तनं । तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति सेधनं सिद्धिः हितार्थप्राप्तिस्तन्मार्गः सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्गः अहितकर्मविच्युतेरुपायः, यान्ति तदिति यानं निरुपम
बहूहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आयानं निर्यानं सिद्धिक्षेत्रं तन्मार्गों निर्याणमार्गः एवं नि
घवणाहि य पन्त्रवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य णमार्गोऽपि नवरं निर्वाणं-सकलकर्मविरहजं सुखमि- आपवित्तए वा पनवित्तए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए ति सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः सकलाशर्मक्षयोपायः अहिरिव ए- वा ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वदासी-इच्छामो कोऽन्तो निश्चयो यस्याः सा एकान्ता सा दृष्टिः बुद्धि
ताव जाया ! एगदिवसमवि ते रायसिरिं पासित्तए, तते यस्मिनिर्भन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम् । अद्विपक्षे आमिषग्रहणकतानतालक्षणा एकान्ता-एक
णं से मेहे कुमारे अम्मापितरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संनिश्चया रष्टिः दृक् यस्य स एकान्तदृष्टिकः क्षुरप्र इव एक
चिट्ठति तते ण से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेधारा द्वितीयधाराकल्पाया अपवादक्रियाया अभावात् , पा- ति २ ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! ठान्तरेण-एकान्ता-एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा,लो
मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्यं महरिहं विउलं रायाभिहमया इव यवाः चर्वयितव्याः प्रवचनमिति प्रक्रमः, लोहमययवचर्वणमिव दुष्करं चरणमिति भावः, वालुकाकवल
सेयं उवट्ठवेह, तते ण ते कोडुंबियपुरिसा जाव ते वि इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया प्रवचनम् , गङ्गेव |
तहेव उवट्ठवेंति, तते णं से सेणिए राया बहूहिं गणणामहानदी प्रतिश्रोतसा गमन प्रतिश्रोतोगमनं तद्रावस्त- यगंदंडणायगेहि य० जाव संपरिखुडे मेहं कुमारं अट्ठसएणं त्ता तया, प्रतिधोतोगममेन गङ्गेव दुस्तरं प्रवचनमनुपा- सोवन्त्रियाणं कलसाणं एवं रुप्पमयाणं कलसाणं सुलयितुमिति भावः, एवं समुद्रोपमानं प्रवचनमिति ती- वनरुप्पमयाणं कलसाणं मणिमयाणं कलसाणं सुबक्ष्णं खगकुन्तादिकं चङ्क्रमितव्यम्-आक्रमणीयं यदेत
नमणिमयाणं कलसाणं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं प्रवचनं तदिति, तथा खङ्गादि क्रमितुमशक्यमे
सुवन्नरुप्पमणिमयाणं कलसाणं भोमजाणं कलसाणं षमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, गुरुकं महाशिलादिकं लम्बयितव्यम्-अवलम्बनीयं प्रवचनं गुरु,
सव्वोदएहिं सब्वमट्टियाहि सवपुप्फेहिं सव्वगंधेहि कलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, असिधारायां सं- सब्बमल्लेहिं सव्वासहीहि य सिद्धत्थएहि य सव्विचरणीयमित्येवंरूपं यवृतं-नियमस्तदसिधाराव्रतं च- डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं जाव दुंदुभिनिग्घोसणादिरितव्यम्-आसव्यं यदेतत्प्रवचमानुपालनं तदेतद्दष्कर
तरवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचति २ ताकमित्यर्थः, कस्मादेतस्य दुष्करत्वमत उच्यते 'नो य कप्पई'
रयल जाव कटु एवं वदासी-जयजयणंदा ! जयत्यादि, 'रइए व ' त्ति औद्दशिकभेदस्तच मोदकचूर्णादिपुनर्मोदकतया रचितं भक्तमिति गम्यते, दुर्भिक्षभक्तं यद्भि
जय भद्दा ! जय दाभद्दा ! भई ते अजियं जिणेहि तुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते, एवमन्यान्यपि, नवरं कान्तारम्- जियं पालयाहि जियमझे वसाहि अजियं जिणेहि सअरण्यं बईलिका-वृष्टिः ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति
तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्खं० जाव भरहो इव तद् ग्लामभक्तम् , मूलानि पद्मसिन्नाटिकादीनां कन्दाः
मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहूणं गामासूरणादयः फलानि-म्रफलादीनि बीजानि-शाल्यादीनि हरितं-मधुरतणकटुभाण्डादि भोक्नु वा पातुं वा नालं
गरनगर० जाव सन्निवेसाणं आहेवचं० जाच विह-. न समर्थः शीताद्यधिसोढुमिति योगः, रोगाः-कुष्ठादयः राहि त्ति कट्टु जयजयसदं पउंजंति, तते णं से मेहे
| राया जाते महया० जाव विहरति, तते णं तस्स मेहस्स न ग्रामकण्टकान्-इन्द्रियवर्गप्रतिकूलान् , ' एवं खलु अ-|
२, एव खलु अ-1 रनो अम्मापितरो एवं वदासी-भण जाया ! कि दलम्मयाओ !' इत्यादि यथा लोहचर्वणाद्युपमया दुरनुचरंदुःखासव्यं नैर्ग्रन्थम् प्रवचनं भवद्भिरुक्तमेवं-दुग्नुचरमेव, |
| यामो किं पयच्छामो किं वा ते हियइच्छिए सामत्थे केषां ?-क्रीवाना-मन्दसंहननानां कातराणां--चित्तावष्ट- (मन्ते), तते णं से मेहे राया अम्मापितरो एवं व
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( ४०६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहकुमार
दासी - इच्छामि णं अम्मयाओ ! कुत्तियावणाश्रो रयहरणं पडिग्गहगं च उवह कासवयं च सहावेह, तते गं से सेखिए राया कोईचियपुरिसे सहावेति सदावेत्ता एवं वदासी - गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! सिरिघरातो तिन सय सहस्सातिं गहाय दोहिं सयमहस्सेहिं कुत्तिया - वाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह सय सहस्सेणं कासवयं सहावेह, तते गं ते कोईचियपुरिसा सेखिए रना एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्टा सिरिघराओ तिनि सयसहस्सातिं गहाय कुत्तियावरणाओ दोहिं सयसहस्सेहिं रयहरणं पडिग्गहं च वर्णेति सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेंति, ते रंग से कासव तेहिं कोटुंबिय पुरिसेहिं सदाविए समाणे हट्ठे ० जाव हयहियए रहाते कतबलिकम्मे कयकोउमंगलपायच्छत्ते सुद्धप्पावेसातिं वत्थाई मंगलाई पत्ररपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकितसरीरे जेणेव सेणिएररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं घंटावलिमराया तेणामेव उवागच्छति २ ता सेखियं रायं करयलहुरमणहरसरं सुभकंतदरिसणिजं निउणोविय मिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं अब्भुग्गयवइखेतियापमंजलि कट्टु एवं वयासी - संदिसह गं देवागुप्पिया ! जं भए करणिजं, तते ं से सेखिए राया कासवयं एवं वरिगयाभिरामं विजाहरजमलजंतजुत्तं पित्र अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिमाणं भिब्भिसमाणं दासी - गच्छाहि गं तुमं देवाणुप्पिया ! सुरभिणा गंधोचक्खु लोयलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरितं are fra हत्थपाए पक्खालेह सेयाए चउप्फालाए पोचवलं वेतियं पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं उबद्ववेह, त तीए मुहं बंधेता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवजे क्खिमणप।उग्गे अग्गकेसे कप्पेहि, तते गं से कासव से ग ते कोचियपुरिसा हट्टतुट्ठा ० जाव उबट्ठवेंति, तते णं से मे कुमारे सीयं दुरूहति २ ता सीहासणवरगए पुररिना एवं वृत्ते समाणे हट्ठ ० जाब हियए ० जाव पत्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते गं तस्स मेहस्स कुमारस्स माडिसुति २ त्ता सुरभिणा गंधोदरखं हत्थपाए पक्खा - या रहाता कयबलिकम्मा ०जाव अप्पमहग्घाभरणालंकि लेति २ त्ता सुद्धवत्थेणं मुहं बंधति २ ता परेणं जत्तेणं यसरीरा सीयं दुरूहति २ ता मेहस्स कुमारस्स दाहि मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवजे क्खिमणपाउग्गे अरगपासे भासांसि निसीयति, तते णं तस्स मेहस्स कुमाकैसे कप्पति, तते रंग तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिरस्स अंधाती रयहरणं च पडिग्गहगं च गहाय सीयं हेणं हंसलक्खणेणं पडसाडणं असे पडिच्छति २ दुरूहति २ चा मेहस्स कुमारस्य वामे पासे भद्दासरांसि त्ता सुरभिणा गंधोदणं पक्खालेति २ त्ता सरसेणं गो- निसीयति, तते गं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठतो एगा सीसचंदणेणं चच्चा आदलयति २ ता सेयाए पो - वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसियमणियचेती बंधेति २ तारयणसमुग्गयंसि पक्खिवति २ ता यिविलासला बुल्लावनिउजु त्तोवयारकुसला आमेलगमंजूसाए पक्खिवति २त्ता हारवारिधारसिंदुवारछिन्नम्भु - जमलजुयलवट्टियन्भुन्नयपीणरतियसंठितपचहरा हिमत्तावलिपगासाई अंनई विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी २ रययकुंदेंदुपगासं सकोरंटमल्लदामधवलं श्रयवत्तं गहाय कंदमाणी २ क्लवमाणी २ एवं बदासी- एस अहं सलीगं ओहारेमाणी २ चिट्ठति, तते गं तस्स मेहस्स मेहस्स कुमारस्स प्रभुदयमु य उस्सवेसु य पव्वेस य कुमारस्स दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचास्बेसाओ० जाव तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य अपच्छिमे कुसलाओ सीयं दुरूहंति २ ता मेहस्स कुमारस्स उभ दरिस भविस्स त्ति कट्टु उस्सीसा मूले ठवेति तते पासि नाणामणिकरण गरयण महरिहतवणिज्जुअल विचित्तणं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो उत्तरा - दंडाओ चिल्लियाओ सुहुमवरदीहबालाओ संखकुंददगरयवक्रमणं सीहासणं रयावैति मेहं कुमारं दो पि तच्चं अमयमहिय फेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलीलं पिपीयएहिं कलसेहिं एहावेति २ ता पम्हलमुकुहारेमाणी २ चिति तते गं तस्स महकुमारस्स मालाए गंधकासाइयाए गायातिं लूति २ चा सर- १- दूरुदति इत्यपि पाठ: ।
"
"
२०३
मेहकुमार सेणं गोसीसचंदणं गायातिं अणुलिंपति २ तानासानीसासवायबोज्यं० जाव हंसलक्खणं पडगसाडगं नियंसेंति २ चा हारं पिद्धति २ ता श्रद्धहारं पिद्धति २त्ता गावलिं मुत्तावलिं कणगावलि रयणावलिं पालनं पायपलंचं कडगाई तुडिगाई केउरातिं अंगयातिं दसमुद्दियागतयं कडिसुत्तयं कुंडलातिं चूडामणि रयणुक्कडं मउडं पिरार्द्धति २ ता दिव्वं सुमणदामं पिद्धति २ ता दद्दुरमलयसुंधिए गंधे पिणद्धंति, तते णं तं मेहं कुमारं गंठिमवेहिमपूरिमसंघाइमेण चउब्विणं मल्लेणं कप्परुक्खर्ग पिव अलंकितविभूसियं करेंति, तते रंग से सेखिए राया कोइंबिय पुरिसे सहावेति २ ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! रोगखंभसयसन्निविद्धं लीलट्ठियसा लभंजियागं ईहामिगउस भतुरयन र मगरविहगवालगकिन्न
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(४१०) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कुसला सीयं जाव दुरू
उपस्थापयत-सम्पादयत, सौवर्णादीनां कलशानाम
शतानि चतुःषष्टयधिकानि 'भोमेज्जाणं' ति भौमानां पाहति २त्ता मेहस्स कुमारस्स पुरतो पुरस्थिमेणं चंदप्पभ
र्थिवानामित्यर्थः सर्वोदकैः-सर्वतीर्थसंभवैः एवं मृत्तिकावइखेरुलियविमलदंड तालविंटं गहाय चिट्ठति, तते णं भिरिति । 'जयजये त्यादि, जय जय त्वं जयं लभस्व नन्दति तस्स मेहस्स कुमारस्स एगा वरतरुणी जाव सुरूवा | नन्दयतीति वा नन्दः-समृद्धः समृद्धिप्रापको वा तदामन्त्रणं
हे नन्द!, एवं भद्र! कल्याणकारिन् ! हे जगन्नन्द ! भद्रं ते भवसीयं दुरूहति २ त्ता मेहस्स कुमारस्स पुयदक्खिणेणं
त्विति शेषः,इह गमे यावत्करणादिदं दृश्यम्-'इन्दो इव देवाणं सेयं रययमयं विमलसलिलपुन्नं मत्तगयमहामुहाकितिस- चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चन्दो इव ताराणं' ति, माणं भिंगारं गहाय चिट्ठति । तते णं तस्स मेहस्स 'गामागर' इह दण्डके यावत्करणादिदं दृश्यम्-' नगरखेड
कब्बडदोणमुहमडंबपट्टणसंवाहसन्निवेसाणं आहेवञ्चं पोरेवकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति २ ता एवं
चं सामित्तं भत्ति(
ट्टितं महत्तरगत्तं प्राणाईसरसेणावचं कावदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयाणं सरि- | रेमाणे पालेमाणे महया ह्यनदृगीयवाइयतंतीतलतालसत्तयाणं सरिसवयाणं एगाभरणगहितनिजोयाण कोडुबि- तुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुज
माणे विहराहि' ति, तत्र करादिगम्यो ग्रामः श्राकरो-लवयवरतरुणाणं सहस्सं सद्दावेह० जाव सद्दावेति । तए णं
णाद्युत्पत्तिभूमिः अविद्यमानकरं नगरं धूलीप्राकारं खेटं कुनकोडुबियवरतरूणपुरिसा सेणियस्स रनो कोडंचियपुरि- गरं कर्वटं यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्यागच्छन्ति तद्सेहिं सद्दाविया समाणा हट्ठा एहाया० जाव एगाभरणग- द्रोणमुखं यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतो ग्रामादि नास्ति तन्महितणिजोया जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छं
डम्बम् , पत्तनं द्विधा-जलपत्तनं, स्थलपत्तनं च । तत्र जलति २ ता सेणियं रायं 'एवं वदासी-संदिसह णं देवा
पत्तनं यत्र जलेन भाण्डाम्यागच्छन्ति, यत्र तु स्थलेन तत्
स्थलपत्तनम् , यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहन्ति स णुप्पिया ! जंणं अम्हेहिं करणिजं । तते णं से सेणिए तं
संवाहः, सार्थादिस्थान सनिवेशः, आधिपत्यम् अधिपतिककोडुंबियवरतरुणसहस्सं एवं वदासी-गच्छह णं देवाणु- में रक्षेत्यर्थः, 'पोरेवच्चं' पुरोवर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः स्वाप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणी सीयं
मित्व-नायकत्वं भर्तृत्व-पोषकत्वं महत्तरकत्वम्-उत्तमपरिवहेह । तते णं तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं सेणिएणं रन्ना
त्वम् आशेश्वरस्य-आशाप्रधानस्य सतः तथा सेनापतेर्भावः,
आशेश्वरसेनापत्यं कारयन् अन्यैर्नियुक्तकैः पालयन स्वयमेव एवं वुत्तं संतं हटुं तुटुं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्स
महता-प्रधानेन 'अहय' त्ति आख्यानकप्रतिबद्धं नित्यावाहिणीं सीयं परिवहति । तए णं तस्स मेहस्स कुमा- नुवन्धं वा यन्नाट्यं च-नृत्य गीतं च-गानं तथा वादितानि रस्स पुरिससहस्सवाहिणी सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठ
यानि तन्त्री च-वीणा तलौ च-हस्तौ तालश्च-कांसिका ऽट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुवीए संपट्ठिया, तं०
त्रुटितानि च वादित्राणि तथा धनसमानध्वनियों मृदङ्गः सोत्थियसिरिवच्छणं दियावत्तबद्धमाणगभद्दासणकलसम -1
पटुना पुरुषेण प्रवादितः स चेति द्वन्द्वः ततस्तेषां योरवस्ते
नेति, 'इति कटु'-इति कृत्वा एववभिधाय जयजयशब्दं प्रयुच्छदप्पण जाव बहवे अत्थऽस्थिया जाव ताहिं क्ने श्रेणिकराज इति प्रकृतम्, तोऽसौ राजा जातः, महया' इटाहिं० जाव अणवरयं अभिणंदंता य अभिथुणंता| इह यावत्करणात् एवं वर्णको वाच्यः-" महया हिमवन्तय एवं वदासी- जय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! भई ते
महंतमलयमंदरमहिंदसारे अच्चतविसुद्धदीहरायकुलवंसअजियाई जिणाहि इंदियाइं जियं च पालेहि समणधम्म ।
प्पसूए निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमा
णपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते" जियविग्धोऽवि य वसाहि तं देव ! सिद्धिमझे निहणा-|
पित्रादिभिमूर्धन्यभिषिक्तत्वात् ' माउपिउसुजाए दयपत्ते' हि रागदोसमल्ले तवेणं धितिधणियबद्धकच्छे मदाहि य | दयावानित्यर्थः, सीमंकरे' मर्यादाकारित्वात् ' सीमंधरे' अदु कम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो पाव य वि-1 कृतमर्यादापालकत्वात् , 'एवं खमंकरे खेमंधरे'क्षेमम्-अनुपतिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं गच्छ य मोक्खं परमपयं सासयं
द्रवता, ' मस्सिदे जणवयपिया ' हितत्वात् 'जणवय
पुरोहिए' शान्तिकारित्वात् 'सेउकरे ' मार्गदर्शकः 'केउच अयलं हंता परीसहचमु णं अभीअो परीसहोवसग्गाणं
करे' अद्भुतकार्यकारित्वात् , केतुः-चिह्न. 'नरपवरे' नराः धम्मे ते अविग्धं भवउ ति कट्टु पुणो पुणो मंगलजयजय- प्रवराः यस्येति कृत्वा, 'पुरिसवरे' पुरुषाणां मध्ये वरसदं पउंजंति, तते णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स णगरस्स
त्वात् , 'पुरिससीहे' शूरत्वात् , 'पुरिसश्रासीबिसे ' मझ मज्झेणं णिग्गच्छति २ ता जेणेव गुणसिलए चे
शापसमर्थत्वात् , 'पुरिसपुंडरीए 'सेव्यत्वात् , ' पुरिस
वरगंधहत्थी' प्रतिराजगजभञ्जकत्वात् , 'अहे ' श्रादयः तिए तेणामेव उवागच्छति २ ता पुरिससहस्सवाहिणी- 'दित्ते' दर्पवान् ' वित्ते' प्रतीतः 'विच्छिन्नविउलभवणओ सीयारो पच्चोरुहति । (सूत्र-२८)
सयणासणजाणवाहणाइने' विस्तीर्णविपुलानि-अतिवि‘महत्थं ' ति महाप्रयोजनं महार्घ-महामूल्यं महार्ह-महा- स्तीर्णानि भवनशयनासनानि यस्य स तथा यानवाहनापूज्यं महतां वा योग्यं राज्याभिषेक राज्याभिषेकसामग्रीम् । न्याकीर्णानि-गुणवन्ति यस्य स तथा, ततः कर्मधारयः,
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मेहकुमार श्रभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार 'बहुधणबहुजायरूवरयए ' बहुधनं-गणिमादिकं बहुनी देन भेदो दृश्यः, दशमुद्रिकानन्तकं-हस्ताङ्गलिसंदच जातरूपरजते यस्य स तथा, ' आयोगपयोगसंपउत्ते, न्धि मुद्रिकादशकम् 'सुमणदाम' ति पुष्पमालां पिनश्रायोगस्य-अर्थलाभस्य प्रयोगा--उपायाः सप्रयुक्ता- तः-परिधत्तः दर्दरः चीवरावनद्धकुण्डिकादिभाजनमुणं व्यापारिता येन स तथा 'विच्छडियपउरभत्तपाणे ' विच्छ- तेन गालितास्तत्र पक्का वा ये 'मलय' त्ति मलयोद्भवं दिते-त्यक्ने बहुजनभोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसंभवात् संजा
श्रीखण्ड तत्संबन्धिनः सुगन्धयो गन्धास्ान् पिनह्यतः, तविच्छ वा नानाविधभक्निके भक्तपाने यस्य स तथा 'ब- हारादिस्वरूपं प्राग्वत् , ग्रन्थिम-यद अध्यते सूत्रादिना वेहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए ' बहुदासीदासश्चासौ
ष्टिमं-यद् प्रथितं सद्वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसकः गेन्दुक - गोमहिषगवेलगभूतश्चेति समासः, गवेलका-उरभ्राः, प.
त्यर्थः , पूरिमं-येन वंशशलाकामयपजरकादि कूर्चादि वा डिपुराणजंतकोसकोटागाराउहागारे' यन्त्राणि-पाषाण
पूर्यते सांयोगिकं-यत्परस्परतो नालसंघातनेन संघात्यते क्षेपयन्त्रादीनि कोशो-भाण्डागारं कोष्टागारं-धान्यगृहम् श्रा
अलंकृत कृतालङ्कारं, विभूषितं जातविभूषम् । 'सद्दावेह
जाव सदाविति''एगा वरतरुणी 'त्यादि शृङ्गारस्यागायुधागारं-प्रहरणशाला, ' बलवं दुबलपञ्चमित्ते' प्रत्यामचाः-प्रतिवेशिका', ' श्रोहयकंटयं निहयकंटयं गलियक
रमिव शृङ्गारागारम् , अथवा-शृङ्गारप्रधान श्राकारो यस्या टयं उद्भियकंटयं अकंटयं' कण्टकाः-प्रतिस्पर्द्धिनो गोत्रजाः
श्चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा, सङ्गतेषु गतादिषु निपुणा उपहता विनाशनेन निहताः समृझ्यपहारेण गलिताः मा
युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, तत्र विलासो नेत्रविनभङ्गेन उद्धृता देशनिर्वासनेन अत एवाकण्टकमिति, एवम्
कारो,यदाह-"हावो मुखविकारः म्या-द्रावश्चित्तसमुद्भवः। 'उवहयसत्त' मित्यादि , नवरं शत्रवो गोत्रजा इति ,
विलासो नेत्रजो शेयो, विभ्रमो भूसमुद्भवः ॥ १ ॥ 'ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं खमं सिवं सुभिक्खं प
संलापो मिथो भाषा, उल्लपः काकुवर्णनम् ।" आह चसडिंबडमरं' अन्वयव्यतिरेकाभिधानस्य शिष्टसंमतत्वा- " अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। काका चत् न पुनरुक्ततादोषोऽत्र' रजं पसाहेमाणे विहरइ 'त्ति । र्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः ॥१॥” इति । 'श्रा'जाया ' इति हे जात ! पुत्र ! 'किं दलयामो' त्ति भ
मेलग' त्ति आपीड:-शेखरः स च स्तनः प्रस्तावाच्चूचुवतोऽनभिमतं कि विघटयामो विनाशयाम इत्यर्थः, अ
कस्तत्प्रधानौ आमेलको वा परस्परमीषत् संबद्धौ यमलौ-स थवा-भवतोऽभिमतेभ्यः किं दद्मः, तथा भवते एव किं
मणिस्थितौ युगलौ-युगलरूपौ द्वावित्यर्थः, वर्तितौ-वृत्तौ प्रयच्छामः ?, 'किं वा ते हियइच्छियसामत्थे 'त्ति को वा
अभ्युन्नतौ-उच्चौ पीनौ-स्थूलौ रतिदौ-सुखप्रदौ सस्थितौ वि तव हृदयवाञ्छितो मन्त्र इति · कुत्तियाघणाउ' त्ति देव
शिटसंस्थानवन्तौ पयोधरौ-स्तनौ यस्याः सा तथा, हिम ताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तु
च रजतं च कुन्दश्चेन्दुश्चेति द्वन्द्वः पषामिव प्रकाशो यस्थ त. संपादक श्रापणो--हट्टः कुत्रिकापणः तस्मात् श्रानीतं का- तथा संकोरण्टानि कोरण्टकपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामाश्यपकं च-नापितं शब्दितुम्-श्राकारितुमिच्छामीति वर्तते, नि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा, धवलमातपत्र-छत्रं, नानामणिश्रीगृहात्-भाण्डागारात् 'निक्के' त्ति सर्वथा विगतमलान् कनकरत्नानां महार्हस्य महाघस्य तपनीयस्य च सत्कावु'पोत्तियाइ' त्ति वन्त्रेण · महरिहे ' त्यादि, ' महरि
ज्ज्वलो विचित्रौ दण्डी ययोस्ते तथा, अप कनक-तपनीययोः हेणं' ति महतां योग्येन महापूज्येन वा हंसस्येव लक्षण,
को विशेषः ?, उच्यते-कनकं पीतं, तपलीयं रनम्, इति । स्वरूपं शुक्लता हंसा वा लक्षण-चिह्न यस्य स तथा तेन!
'चिल्लियात्रो' त्ति दीप्यमाने लीने इत्यके सूक्ष्मवरदीर्घवाशाटको-वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पटोऽभिधीयत इति प-1 ले शंखकुन्ददकरजसाम् अमृतस्य मथितस्य सतो यः फेनटशाटकस्तेन — सिंदुवारे ' त्ति वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति पुजस्तस्य च सन्निकाशे सदृशे येते तथा, चामरे चन्द्रप्रकेचित् तत्कुसुमानि सिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानि । भवज्रवैडूर्यविमलदराडे, इह चन्द्रप्रभः चन्द्रकान्तमणिः, ता'एस णं' ति एतत् दर्शनमिति योगः णमित्यलंकारे, अ
लवृन्त-व्यजनविशेषः मत्तगजमहामुखस्य आकृत्या आकाभ्युदयषु-राज्यलाभादिषु उत्सवेयु-प्रियसमागमादिमहेषु प्र. रेण समानः-सदृशो यः स तथा तं भृङ्गारम् 'एगे' त्यादि, सवेसु-पुत्रजन्मसु-तिथिपु-मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु-क्षणषु-द- एक:-असदृशः श्राभरणलक्षणो गृहीतो निर्योगः-परिकरो न्द्रमहादिषु यज्ञेषु-नागादिपूजासु पर्वणीषु च-कार्तिक्यादि- यैस्ते तथा तेषां कौटुम्बिकवरतरुणानां सहस्रमिति । 'तए षु अपश्चिमम्-अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थत्वात् पश्चिमं द- णं ते कोढुंबियवरतरुणपुरिसा सद्दाविय ' त्ति शब्दिताः 'सशन भविष्यति , एतत्केशदर्शनमपनीतकेशावस्थस्य मेघ- माण' त्ति सन्तः, 'अटुट्ठमंगलय 'त्ति अष्टावष्टाविति वीकुमारस्य यद्दर्शनं सर्वदर्शनपाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, प्सायां द्विवचनं मङ्गलकानि-माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये त्याहु:अथवा-न पश्चिममपश्चिम-पौनःपुन्येन मेघकुमारस्य दर्शन
असंख्यानि अष्टमङ्गलसंज्ञानि वस्तूनीति 'तप्पढमयाए' मेतदर्शनेन भविष्यतीत्यर्थः । 'उत्तरावकमणति उत्तरस्यां दि
सि तेषां विवक्षितानां मध्ये प्रथमता तत्प्रथमता तया 'चश्यपक्रमणम्-अवतरणं यस्मात्तदुत्तरापक्रमणम् उत्तराभिमुखं
द्धमाणयं ' ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, स्वस्तिकपराज्याभिषेककाले पूर्वाभिमुखं तदासीदिति, दोश्चं पि' द्विरपि। चकमित्यन्ये, प्रासादविशेष इत्यन्ये 'दप्पण' त्ति श्रादशः, इह 'त पि' त्रिरपि ' श्वेतपीतैः' रजतसौवर्णः 'पायपलब'! यावत्करणादिदं दृश्यम्-" तयाऽणंतरं च ण पुण्णकलसभिति पादौ यावद् यः प्रलम्बते अलङ्कारविशेषः स पादप्र
गारा दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा सणरदयालोइयदलम्बः, ' तुडियाई' ति बाहरक्षकाः, केयरादयोयति रिसणिज्जा वाउट्टयविजयवजयती य ऊसिया गगणतलनाम कोश बाह्वाभरणतया न विशेषः तथाऽपीहाकारभे- १-कोरेण्ट शब्दोऽपि ।
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(४५२) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार मणुलिहंती पुरो प्रहाणुपुवीए संपट्टिया। तयाऽणतर च आलोके-दृष्टिविषये क्षेत्र स्थिताऽत्युचतया दृश्यते या सा वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंबकोरंटमल्लदामोवसोहियं चं- पालोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, अथवा-दर्शने दृष्टिपथे दमंडलनिभं विमलं प्रायवत्तं पवरं सीहासणं च मणिरयण- मेघकुमारस्य रचिता-धृता या पालोकदर्शनीया च या सा पायपीढं सपाउया जोयसमाउत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिस-1 तथा, वातोद्धता विजयसूचिका च या वैजयन्ती-पतापायत्तपरिक्खित्तं पुरओ श्रहाणुपुब्बीए संपट्टियं । तयाऽणंतरं काविशेषः सा तथा, सा च 'ऊसिया'-उच्छिता ऊर्ध्वकृता च गं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा धयग्गाहा
पुरतः--अग्रतः यथानुपूर्वीक्रमेण सम्प्रस्थिता-प्रचलिता, चामरग्गाहा कुमरग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलयग्गाहा पढिय
'भिसंत' त्ति दीप्यमानः,मणिरत्नानां सम्बन्धि पादपीठं यस्य ग्गाहा वीणग्गाहा कृवग्गाहा हडप्फग्गाहा पुरो अहाणु
सिंहासनस्य तत्तथा, स्वेन-स्वकीयेन मेघकुमारसम्बन्धिना पुवीए संपट्ठिया। तयाऽणतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडियो
पादुकायुगेन समायुक्तं यत्तत्तथा, बहुभिः किङ्करैः-किंकुर्वासिहिणो पिंछियो हासकरा डमरकरा चाडुकरा कीडंता य वायंता य गायता य नचंता यहासंताय सोहिंता य सार्वि
णैः कर्मकरपुरुषैः पादात्येन च-पादातिसमूहेन शस्त्रपाणिना ता य रक्खता य आलोयं च करेमाणा जयजयस च पउंज
परिक्षिप्तं यत्तत्तथा 'कूय'त्ति कुतुपः 'हडप्फो' त्ति श्रामाणा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्रिया । तयाऽणतरं च णं
भरणकरण्डकं 'मुंडिगो' मुण्डिताः 'सिहिणो' शिखावजच्चाणं तरमंलिहायणाणं थासगाहिलाणाणं चामरगेडपरि
न्तः 'डमरकराः' परस्परेण कलहविधायकाः 'चाटुकराः' मंडियकडीणं अट्ठसयं वरतुरगाणं पुरश्रो अहाणुपुब्बीए सं.
प्रियंवदाः 'सोहिता य'त्ति शोभां कुर्वन्तः 'साविता य' पट्टियं । तयाऽणंतरं च णं ईसिदन्ताणं ईसिमत्ताणं ईसिउ
त्ति श्रावयन्तः श्राशीर्वचनानि रक्षन्तः न्यायम् आलोकं छंगविसालधवलदंताणं कंचणकोसिपविट्ठदंताणं अट्ठसय
च कुर्वाणाः-मेघकुमारं तत्समृद्धि च पश्यन्तः , जात्यागयाणं पुरश्रो अहाणुपुष्वीए संपट्टिअं । तयाऽणतरं च णं |
नां काम्बोजादिदेशोद्भवानां तरमल्लिनो-बलाधायिनो सत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराण |
वेगाधायिनो वा हायना:-संवत्सरा येषां ते तथा तेषाम् , सनंदिघोसाण सखिखिरणीजालपरिक्खित्ताणं हेममयचित्त
अन्ये तु- भायल' त्ति मन्यन्ते, तत्र भायला-जात्यविशेषा तिणिसकणकनिज्जुत्तदारुयाणं कालायससुकयनेमिजंतक
एवेति गमनिकैवैषा,थासका-दर्पणाकाराः अहिलाणानि च माणं सुसिलिट्ठवित्तमंडलधुराणं आइराणवरतुरगसंपउत्ताणं
कविकानि येषां सन्ति ते तथा, मतुब्लोपात् , 'चामरदण्डा' कुसलनरछेयसारहिसुसंपरिग्गहियाणं वत्तीसतोणपरिमंडि
चामरदण्डास्तैः परिमण्डिता कटी तेषां ते तथा तेषाम् , याणं सकंकडवडंसकाणं सचावसरपहरणावरणभरियजुद्ध
ईषद्दान्तानां-मनाग ग्राहितशिक्षाणामीषन्मत्तानां, नातिमत्तां सजाणं अट्ठसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टियं त
ते हि जनमुपद्रवयन्तीति, ईषत्-मनागुत्सङ्गः इवोत्सङ्गःयाऽणतरं च णं असिसत्तिकोततोमरसूललउडभिंडिमालध
पृष्ठिदेशस्तत्र विशाला-विस्तीर्णा धवलदन्ताश्च येषां ते तगुपाणिसजं पायसाणीयं पुरो प्रहाणुपुव्वीए संपट्टियं ।
था तेषां, कोशी-प्रतिमा, नन्दिघोषः-तूर्यनादः, अथवातए णं से मेहे कुमारे हारोत्थसुकयरहयवच्छे कुंडलुजोया
सुनन्दीसत्समृद्धिको घोषो येषां ते तथा तेषाम्, सकिङ्कि
णि-सखुद्रघण्टिकं यजालं मुक्ताफलादिमयं तेन परिक्षिणणे मउडदित्तसिरए अभहियरायतेयलच्छीए दिपमाणे सकारण्टमल्लदामेणं छत्तणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं
ता येते तथा तेषाम् , तथा हैमवतानि-हिमवत्पर्वतोद्भवाउद्धवमाणीहिं हयगयपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणा
नि चित्राणि तिनिशस्य--वृक्षविशेषस्य सम्बन्धीनि कनक
नियुक्तानि-हेमखचितानि दारूणि--काष्ठानि येषां ते तथा प समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव गुणसिलए चेहए तेणेव पहारे
तेषाम् , कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृतं नेमेः-गण्डमास्थ गमणाए । तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरश्रो महं
लायाः यन्त्राणां च रथोपकरणविशेषाणां कर्म येषां ते श्रासा आसधरा उभो पासे नागा नागधरा करिधरा पिट्रश्रो रहा रहसंगेली । तर णं से मेहे कुमारे अभागयभिंगारे
तथा तेषाम्, सुश्लिष्टे वित्त' त्ति-वेत्रदण्डवत् मण्डले वृ. पग्गहियतालयंटे ऊसवियसेयछत्ते पवीजियबालवीयणीए
ते धुरी येषां ते तथा तेषाम् , अाकीर्णा-वेगादिगुणयुसब्बिड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरण
क्लाः ये वरतुरगास्ते संप्रयुक्ता-योजिता येषु ते तथा तेषाम् , सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वगन्धपुष्फम
कुशलनराणां मध्ये ये छेकाः-दक्षाः सारथयस्तैः सुसंप्रगृही.
ता येते तथा तेषाम्, 'तोण' त्ति-शरभस्त्राः सह कण्टकैःजालङ्कारेणं सवतुडियसहसन्निनाएणं महया इड्डीए महया
कवचैर्वशैश्च वर्तन्ते येते तथा तेषाम् , सचापा:-धनुर्युक्ता जुईए महया बलेणं महया समुदएण महया वरतुडियजमगपवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमहिहुडुक्कमुरवमुइंग
ये शराः प्रहरणानि च खगादीनि श्रावरणानि च-शीर्षकादुंदुभिनिग्घोसनाइयरवेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झे
दीनि तैर्ये भृता युद्धसज्जाश्च युद्धप्रगुणाश्च येते तथा तेषाम् ,
'लउड' त्ति लकुटाः अस्यादिकानि पाणो हस्ते यस्य तएं णिग्गच्छदातए णं से तस्स मेहस्स कुमारस्स रायगिहस्स
तथा तश्च तत्सज्जं च-प्रगुणं युद्धस्येति गम्यते, पादातानीनगरस्स मज्झ मज्झणं णिग्गच्छमाणस्स बहवे अत्थस्थिया
कं-पदातिकटकं हारावस्तृतं सुकृतरतिकं विहितसुखं वक्षो कामस्थिया भोगस्थिया लाभत्थिया किदिवसिया करोडिया
यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्का, 'पहारेत्थ गमणयाए' त्ति कारवाहिया संखिया चक्किया लंगलिया मुहमंगलिया पूस
गमनाय प्रधारितवान् , ' मह 'त्ति महान्तः श्रश्वाः, अश्वमाणगा बद्धमाणगा ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मन्नाहिं धराः ये अश्वान् धारयन्ति, नागा हस्तिनः नागधरा ये हमणामाहि मणाभिरामाहि हिययगमणिजाहिं वग्गहि" ति।। स्तिनो धारयन्ति, क्वचिद्वरा इति पाठः, तत्राश्वा नागाश्च अयमस्यार्थ:-तदनन्तरं च छत्रस्योपरि पताका छत्रपताका| किं विधाः ?-अश्ववरा अश्वप्रधानाः, एवं नागवराः, तथा सचामरा चामरोपशोभिता तथा दर्शनरतिदा-दृष्टिसुखदा । रथा रथसंगिणल्ली' रथमाला क्वचित् — रहसंगेली 'इ.
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( ४१३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहकुमार
ति पाठः, तत्र - रथसङ्गेली - रथसमूहः । ' तर गं से मेहे कुमारे अब्भागयभिंगारे ' इत्यादि वर्णकोपसंहारवचनमिति न पुनरुक्तम् 'सव्वीप' त्यादि दोहदावसरे व्याख्यातम् शङ्गः प्रतीतः, पणवो-भाण्डानां पटहः, पटहस्तु प्रतीत एव, भेरी-ढक्काकारा झल्लरी-वलयाकारा खरमुद्दी - काहला हुडका प्रतीता महाप्रमाणो मईलो मुरजः, स एव लघुदङ्गो, दुन्दुभिः भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां निर्घोषो महाध्वानो नादितं च घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी स तथा तद्ध्वनिस्तल्लक्षणो यो रवस्तेन श्रर्थार्थिनो-द्रव्यार्थिनः कामार्थिनः - शब्दरूपार्थिनः भोगार्थिनः गन्धरसस्पशर्थिनः लाभार्थिनः - सामान्येन लाभेप्सवः किल्विषिकाःपातकफलवन्तो निःस्वान्धपवादयः कारोटिका: -- कापालिकाः करो -- राजदेयं द्रव्यं तद्वहन्ति ये ते करवाहिकाः करेण वा बाधिताः पीडिता ये ते करवाधिताः, शंखवादनशिल्पमेषामिति शांखिकाः शंखो वा विद्यते येषां माङ्गल्यचन्दनाधारभूतः ते शांखिकाः, चक्रं प्रहरणमेषामिति चा किकाः योद्धारः चक्रं वाऽस्ति येषां ते चाक्रिका:- कुम्भकारतैलिकादयः चक्रं वोपदर्श्य याचन्ते ये ते चाक्रिकाः चक्रधरा इत्यर्थः, लाङ्गलिकाः हालिकाः लाङ्गलं वा प्रहरणं येषां गले वा लम्बमानं सुवर्णादिमयं तद् येषां ते लाङ्गलिकाःकापटिकविशेषाः मुखमङ्गलानि -चाटुवचनानि ये कुर्वन्ति वे मुखमाङ्गलिकाः पुण्यमाणवा-नग्नाचार्या, बर्द्धमानकाः स्कन्धारोपित पुरुषाः, इट्ठाही त्यादि पूर्ववत् 'जियविग्धो fa य साहि' ति इहैव संबन्धः, श्रपि च-जितविघ्नः त्वं हेदेव ! अथवा देवानां सिद्धेश्च मध्ये वस श्रासस्व, 'निहरणाहि, त्ति विनाशय रागद्वेषौ मल्लौ, केन करणभूतेनेत्याहतपसा - अनशनादिना किंभूतः सन् ? धृत्या चित्तस्वास्थ्येन धणियं ति श्रत्यर्थे पाठान्तरेण बलिका --हढा बद्धा कक्षा येन स तथा मल्लं हि प्रतिमल्लो मुष्ट्यादिना करन वस्त्रादिदृढवद्धकक्षः सन्निहन्तीति एवमुक्तमिति, तथा मर्दय अष्टौ कर्मशत्रून् ध्यानेनोत्तमेन - शुक्लेनाप्रमत्तः सन् तथा पावय' ति प्राप्नुहि वितिमिरम् - अपगताज्ञानतिमिरपटलं नास्मादुत्तरमस्तीति अनुत्तरं केवलज्ञानं गच्छ व मोक्षं परं पदं शास्वतमचलं चेत्येवं चकारस्य सम्बन्धः किं कृत्वा ?, हत्वा परिषहचमूं—परिषहसैन्यम्, समित्यलङ्कारे, अथवा किंभूतस्त्वं ?--हन्ता विनाशकः परिषहचमूनाम् । तते तस्स मेहस्स कुमारस्स श्रम्मापियरो मेहं कुमारं पुरो कट्टु णामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति २ चा वंदति नर्मसंति २ ता एवं वदासी-एस णं देवाणुप्पिया ! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते ० जाव जीविया उसासए हिययसंदिजणए उंच - पुपि दुल्हे सवण्याए किमंग ! पुरण दरिसणयाए ?, से जहानामए उप्पलेति वा परमेति वा कुमुदेति वा पंकेजाए जले संवडिए नोवलिप्पर पंकरएणं गोवलिप्पइ जलरए एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संबुड्ढे नोवलिप्पति कामरणं, नोवलिप्पति भोगरएणं, एस गं देवा
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मेहकुमार
या संसारगे भीए जन्मणजरभरणाणं इच्छ देवाप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वतित्तए, अम्हे गं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाप्पिया ! सिस्सभिक्खं । तणं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स - म्मापिउएहिं एवं वुत्ते ससाणे एयम सम्मं पडिसुखेति । तते गं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं श्रवकमति २ तासयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति । तते णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणं पडसाडए आभरणमल्लालंकारं पडिच्छति २ ता हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासातिं सूणि विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी २ कंदमाणी २ बिलवमाणी २ एवं वदासी- जतियव्वं जाया ! घडियव्वं जाया ! परिक्कमियव्वं जाया ! अस्सि चट्ठे नो पमादेयव्वं श्रहं पिणं एमेव मग्गे भवउ ति कट्टु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदति नर्मसंति २ ता जामेव दिसिं पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया । (सूत्र - २६ )
' एगे पुते' इति धारिण्यपेक्षया, 'श्रेणिकस्य बहुपुत्रत्वात् जीवितोच्छ्रासको हृदयनन्दिजनकः, उत्पलमिति वा - नीलोत्पलं पद्ममिति वा - श्रादित्यबोध्यं कुमुदमिति वा चन्द्रबोध्यम् । 'जइयव्व' मित्यादि, प्राप्तेषु संयमयोगेषु यत्नः कार्यों हे जात ! पुत्र ! घटितव्यम् - श्रप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या पराक्रमितव्यं च - पराक्रमः कार्यः, पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्तव्य इति भावः किमुक्तं भवति ?एतस्मिन्नर्थे - प्रव्रज्यापालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति ।
ततेां से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति २ ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो
याहिणं पयाहिणं करेति २ ता वंदति नम॑सति २ ता एवं वदासी - आलित्ते णं भंते । लोए पलित्ते गं भंते ! लोए आलितपलिते गं भंते ! लोए जराए मरणेण य से जहाणामए केई गाहावती गारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवति अप्पभारे मोलगुरुए तं गहाय आयाए एगंत अवकमति एस मेणिस्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए - स्साए श्रणुगामियत्ताए भविस्सति एवमेव मम वि एगे आया भंडे इट्ठे कंते पिए मणुने मरणामे एस मे निस्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सति । तं इच्छामिणं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सेहावियं सिक्खावियं सयमेव श्रायारगोयरविण -
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( ४१४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहकुमार
इचरणकरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं । तते समये भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेति सयमेव आयार० जाव धम्ममातिक्खड़ एवं देवाणुपिया ! गंतव्वं चिट्ठितव्यं णिसीयव्वं तुयट्टियां भुंजिrai भासियoi एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमितव्वं असि च गं अट्ठे गो पमादेयन्त्रं । तते गं से मेहे कुमारे समणस्स भगक्यो महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएस सिम्म सम्मं पडिवजह तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठइ० जाव उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमइ । ( सूत्र - ३० ) जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता गारा अणगारयं पव्वइए तस्स णं दिवसस्स पुव्वावरहका समयंसि समणाणं निग्गंथाणं आहारातिणि
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सेजासंधारry विभजमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले संथार जाए यावि होत्था । तते गं समया सिग्गंथा पुव्वरत्तावरतकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियदृणा धम्मा जोगचिंताए य उच्चारस्स य पासवणस्स
अगच्छमाणाय निग्गच्छमाणा य अप्पेगतिया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टंति एवं पाएहिं सीसे पोट्टे कार्यसि अप्पेगतिया ओलंडेंति अप्पेगइया पोलंडर अप्पेगतिया पायरयरेणुगुंडियं करेंति । एवं महालियं च गं रयणीं मेहे कुमारे णौ संचाएति खणमवि अच्छि निमीलित्त ततें वस्त्र मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए • जाव समुपखित्था एवं खलु अहं सेणियस्स रनो पुत्ते धारिणी देवीए नए मेहे ० जाव समण्याए तं जया गं
अगरम वसामि तथा णं मम समणा णिग्गंथा श्राढायंति परिजाणंति सकारेंति सम्माति अट्ठाई हेऊर्ति परिणातिं कारणाई वाकराई यातिक्खंति इट्ठाहिं कंताहि वग्गूहिं आवेंति संलवेंति, जप्पभितिं च णं श्रहं मुंडे भत्ता आगारा अणगारियं पव्त्रइए तप्पभिति चणं मम समया नो आढायंति० जाव नो संलवंति । अदुत्तरं च णं मम समणा शिग्गंथा राम्रो 'पुव्वरत्तावरतकालसमयंसि वायणाए पुच्छरणाए ०जाव महालियं च णं रतिं नो संचाभिणिमीलावेत्तए, तं सेयं खलु मज् कल पाउपभायाए रयणीए ०जाव तेयसा जलते समयं भगवं महावीरं पुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्भे वसित्त एति कट्टु एवं संपति २ ता हट्टवसट्टमाणस गए freeusरूवियं च णं तं रयरिंग खवेइ २ त्ता कल्लं पाउपभायाए सुविमलाए रयणीए ०जाव तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ ता
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मेहकुमार
तिक्खुत्तो श्रदाहिणं पदाहिणं करेइ २ त्ता वंदइ नमसइ २ त्ता जाव पज्जुवासइ । (सूत्र - ३१ )
श्रादीप्तः - ईषद् दीप्तः प्रदीप्तः - प्रकर्षेण दीप्त श्रदीप्तप्रदीप्तोअत्यन्तप्रदीप्त इति भावः, ' गाहावर ' त्ति गृहपतिः 'भियायमाणंसि ' त्ति धमायमाने भाण्डं - परायं हिरण्यादि अल्पभारम्, पाठान्तरे - श्रल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारं मूल्यगुरुकम् 'श्रयाए 'ति श्रात्मनः 'पच्छा पुरा य' त्ति पश्चादागामिनि काले पुरा च पूर्वमिदानीमेव लोके जीवलोके, अथवा पश्चालोके श्रागामिजन्मनि पुरालोके इहैव जन्मनि, पाठान्तरे- 'पछाउरस्स' त्ति पश्चादग्निभयोत्तरकालम् श्रातुरस्य-बुभुक्षादिभिः पीडितस्येति । एगे भराडे' ति एकम् श्रद्वितीयं भा एडमिव भाण्डं 'सयमेवे' त्यादि-स्वयमेव प्रवाजितं वेषदानेन श्रात्मानम् इति गम्यते भावे वा क्तः प्रत्ययः प्रत्राजनमित्यर्थः, मुण्डितं - शिरोलोचेन सेधितं-निष्पादितं करण प्रत्युपेक्षणादिग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः, श्राचारो-ज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि गोचरो - भिक्षाटनं विनयःप्रतीतो वैनयिकं तत्फलं कर्मक्षयादि चरणं व्रतादि करणंपिण्डविशुद्धयादि यात्रा - संयमयात्रा मात्रा तदर्थमेवाहारमात्रा ततो द्वन्द्वः तत एषामाचारादीनां वृत्तिः वर्त्तनं यस्मिन्नसौ आचारगोचर विनयवैनयिकचरण करणयात्रामात्रावृत्तिकस्तं धर्ममाख्यातम् श्रभिहितम्, ततः श्रमणो भगवान् महावीरः स्वयमेव प्रव्राजयति यावत् धम्मैमाख्याति कथमित्याह - एवं गन्तव्यं युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः ' एवं चिट्ठियव्वं ति शुद्धभूमौ ऊर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम्, एवं निपीदितव्यम् उपवेष्टव्यं संदेशक भूमिप्रमार्जनादिन्यारणपूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विधाय संस्तारकोतरपट्टयोर्बायेनेत्यर्थः एवं त्वग्वर्त्तितव्यं - शयनीयं सामायिकाद्युच्चाहुपधानेन वामपार्श्वत इत्यादिना न्यायेनेत्यर्थः भोक्तव्यंवेदनादिकारणतोऽङ्गारादिदोषरहितमित्यर्थः, भाषितव्यंहितमितमधुरादिविशेषणतः एवमुत्थायोत्थाय - प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्धय २ प्राणादिषु विषयेषु संयमो - रक्षा तेन संयन्तव्यम् ' -संयतितव्यमिति तत्र - " प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चे न्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥ १ ॥ " किं बहुना ? अस्मिन् प्राणादिसंयमे न प्रमादयितव्यम् उद्यम एव कार्य इत्यर्थः । प्रत्यपराह्नकालसमयो - विकालः, ' श्रहाराइणियाए ति यथा रत्नाधिकतया यथाज्ये ष्ठमित्यर्थः, शय्या - शयनं तदर्थ संस्तारकभूमयः, अथवा - शय्यायां वसतौ संस्तारकाः शय्यासंस्तारका वाचनायै-वाचनार्थ धर्मार्थमनुयोगस्य - व्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगस्य वा-धव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगचिन्ता तस्यै अतिगच्छन्तःप्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्चाऽऽलयादिति गम्यते, 'ओलंडिति, त्ति उल्लङ्घयन्ति 'पोलंडेन्ति' त्ति प्रकर्षेण द्विस्त्रिवल्लङ्घयन्तीत्यर्थः, पादरजोलक्षणेन रेणुना पादरयाद्वा तद्वेगात् रेणुना गुण्डि - तो यः स तथा तं कुर्वन्ति । एवं महालियं च तं रयगि ति' इति महती च रजनीं यावदिति शेषः मेघकुमारो 'नो संचापति' त्ति न शक्नोति क्षणमप्यक्षि निमीलयितुम्निद्राकरणायेति श्रध्यात्मिकः - आत्मविषयश्चिन्तितः स्मरः रूप प्रार्थित अभिलाषात्मकः मनोगतः- मनस्येव वर्तते यो
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मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार न बहिः स तथा सङ्कल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः प्रागारमध्ये- ट्टियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धि संपरिगेहमध्ये वसामि अधितिष्ठामि , पाठान्तरतो-गारमध्ये | वुडे हथिसहस्सणायए देसए पागट्ठी पढवए जूहबई श्रावसामि, 'श्राढायंति' श्राद्रियन्ते परिजानन्ति' यदुतायमे
वंदपरियट्टए अन्नेसिं च बहूणं एकल्लाणं हथिकलमावविध इति 'सकारयंति' सत्कारयन्ति च वस्त्रादिभिरभ्यर्च- | यन्तीत्यर्थः 'सन्मानयन्ति' उचितप्रतिपत्तिकरणेन, अर्थान्
णं आहेवचं . जाव विहरसि । तते णं तुम मेहा! णिजीवादीन् ,हेतून्-तद्गमकानन्वयव्यतिरेकलक्षणान्,प्रश्नान्-प- च्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे यैनुयोगान् कारणानि-उपपत्तिमात्राणि व्याकरणानि-परेण | कामभोगतिसिए बहहिं हत्थीहि य० जाव संपरिवुडे वेप्रश्ने कृते उत्तराणीत्यर्थः, आख्यान्ति ईषत् संलपन्ति मुहुर्मु-| यगिरिपायमले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदहुः, 'अदुत्तरं च ण'ति,अथवा-परम्-'एय संपेहेइत्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति — अट्टदुहवसट्टमाणसगए ' त्ति आर्तन
रासु य उज्झरेसु य निझरेसु य वियरएसु य गद्दासु ध्यानविशेषेण दुःखार्त-दुःखपीडितं वशात-विकल्पवश-| य पल्लवेसु य चिल्ललेसु य कडयेसु य कडयपल्ललेसु मुपगतं यन्मानसं तद्गतः-प्राप्तो यः स तथा, निरयप्रति- य तडीसु य वियडीसु य टंकेसु य कूडेसु य सिहरेसु य रूपिकां च नरकसदृशीं दुःखसाधर्म्यात् तां रजनी क्ष
पम्भारेसु य मंचेसु य मालेसु य काणणेसु य वणेसु य पयति-गमयति ।
वणसंडेसु य वणराईसु य नदीसु य नदीकच्छेसु य तते णं मेहातिसमणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं
पार मह कुमार एव | जूहेसु य संगमेसु य वावीसु य पोक्खरिणीसु य दीहिबदासी-से गुणं तुमं मेहा ! राश्रो पुब्बरतावरत्तका- यासु य गुंजालियासु य सरेसु य सरपंतियासु य सरलसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए सरपंतियासु य वणयरएहिं दिनवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाव महालियं च णं राई णो संचाएसि मुहुत्तमवि जाव सद्धिं संपरिबुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे अच्छि निमीलावेत्तए । तते णं तुब्भं मेहा ! इमे एया- निब्भए निरुव्विग्गे सुहं सुहेणं विहरसि । तते णं तुम मेहा! रूवे अब्भत्थिए समुप्पजित्था-जया णं अहं अगारम- अन्नया कयाइ पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसंतेसु कमेण ज्झे वसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आ
पंचसु उउसु समतिकतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलदायंति जाव परियाणंति, जप्पभितिं च णं मुंडे भवि- मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतणपत्तकयवरमारुतसंजोगत्ता आगाराओं अणगारियं पव्वयामि तप्पभितिं च णं| दीविएणं महाभयंकरेणं हयवहेणं वणदवजालासंपलितेमम समणा णो आढायंति जाव नो परियाणंति अ- |
सु वणंऽतेसु धूमाउलासु दिसासु महावायवेगेणं संघट्टिदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राम्रो अप्पेगतिया वाय- एस छिन्नजालेसु आवयमाणेसु पोल्लरुक्खेसु अन्तो २ णाए जाव पायरयरेणुगंडियं करेंति. तं से यं खलु मम मियायमाशोस मयकहितविगाटकिमियकमनटीवियागकल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता खीणपाणीयंतेसु वर्णतेसु भिंगारकदीणकंदियरवेसु खरफरुपुणरवि आगारमझे आवसित्तए ति कडु एवं संपेहेसि २ सअणिहरिद्ववाहितविहुमग्गेसु दुमग्गेसु तण्हावसमुक्तपक्ख त्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे०जाव रयणी खवेसि २ त्ता जेणा- पयडियजिब्भतालुयअसंपुडिततुंडपक्खिसंघेसु ससंतेसु गिमेव अहं तेणामेव हव्वमागए? , से पूर्ण मेहा !एस म्हउण्हवायखरफरुसचम्ममारुयसुक्कतणपत्तकयवरवाउलिअत्थे समटे ?, हंता अत्थे समटे । एवं खलु मेहा! तुम भमंतदित्तसंभंतसावयाउलमिगतएहाबद्धचिएहपट्टेसु गिइओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयड्ढागिरिपायमूले वणय- विरेस संवट्टिएसु तत्थ भियपसयसिरीसिवेसु अवदालिरेहिं णिव्वत्तियणामधेजे से ते संखदलउज्जलविमलनि- यवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे महंततुंबइयपुनको संम्मलदहिघणगोखीरफेणरयणियरप्पयासे सत्तुस्सेहे णवा- कुचियथोरपीवरकरे ऊसियलंगूले पीणाइयविरसरमियसगए दसपरिणाहे सत्तंगपतिहिए सोमे समिए सुरूवे पुरतो देणं फोडयंतेव अंबरतलं पायदइरएणं कंपयंतेव मेइणिउदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठो वराहे अजिया- तलं विणिम्मुयमाणे य सीयारं सव्यतो समंता वल्लिविकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराह- | याणाई छिंदमाणे रुक्खसहस्सातिं तत्थ सुबहणि णोलारकरे धणुपट्टागिइविसिट्ठपुढे अल्लीणपमाणजुत्तवट्टियापी- यंते विणदुरटे व्व परवरिंदे वायाइद्वे ब्व पोए मंडलवाबरगत्तावरे अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छे पडिपुनसुचारुकुम्म- ए ब्व पारब्भमत आभक्खण लडाणयर प चलणे पंडुरसुबिसुद्धनिद्धणिरुवहयर्विसतिणहे छइंते सु- णे २ बहूहिँ हत्थीहि य जाच सद्धिं दिसो दिसि विप्पमेरुप्पभे नामं हत्थिराया होत्था । तत्थ णं तुम मेहा ! | लाइत्था। तत्थ णं तुम मेहा ! जुन्ने जराजजरियदेहे पाउरे बहुहिं हत्थीहि य हत्थीणियाहि य लोट्टएहि य लो- जुंजिए पिवासिए दुबले किलंते नहसुइए मूढदिसाए स
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मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार यातो जूहातो विप्पहणे वणदवजालापारद्धे उण्हेण त- | सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाए ब्व, तते ण पएहाए य छुहाए य परब्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए रिब्भमंते भीते तत्थे जाव संजायभए बहहिं हत्थीहि उन्विग्गे संजातभए सव्वतो समंता अाधावमाणे परिधा- य० जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे सम्बतो समंता वमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं दिसो दिसि विप्पलाइत्था । तते णं तव मेहा ! तंवणपाणियपाए उइन्नो । तत्थ णं तुम मेहा! तीरमतिगते पा- दवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए . जाव समुप्पणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसन्ने । तत्थ णं त-| जित्था । कहिं णं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गि मं मेहा! पाणियं पाइस्सामि त्ति कह हत्थं पसारेसि, से णुभृयपुव्वे ?, तव मेहा! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि अवि य ते हत्थे उदगं न पावति । तते णं तुम मेहा ! पुण- ज्झवसाणेणं सोहणेणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिरवि कार्य पच्चुद्धरिस्सामीति कट्ट बलियतरायं पंकसि जाणं कम्माणं खोवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेखुत्ते । तते णं तुमे मेहा ! अन्नया कदाइ एगे चिरनिज्जू- | माणस्स सन्निपुब्वे जातिसरणे समुप्पज्जित्था । तते णं दे गयवरजुवाणए सगाओ जूहाओ करचरणदंतमुसलप्प- तुम मेहा ! एयमटुं सम्मं अभिसमेसि, एवं खलु मया हारेहिं विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पाएउं| अतीए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे समोयरेति । तते णं से कलभए तुम पासति २ ता तं पु- वेयङगिरिपायमूले जाव तत्थ णं महया अयमयारूवे वरं सुमरति २ त्ता आसुरुत्ते रुद्वे कुविए चंडिकिए मिसि- अग्गिसंभवे समणुभूए । तते णं तुम मेहा ! तस्सेव दिवमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छति २ ता तुमं तिक्खेहि सस्स पुवावरणहकालसमयंसि नियएणं जूहेणं सद्धिं दंतमसलेहिं तिक्खत्तो पिद्धतो उच्छभति उच्छभित्ता पुन्च- समन्नागए यावि होत्था । तते णं तुम मेहा! वेरं निजाएति २त्ता हडतुडे पाणियं पिवति २ ता जामेव जाव सन्निजाइसमरणे चउदंते मेरुप्पभे नाम हत्थी होत्था । दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए । तते णं तब मेहा ! तते णं तुझ मेहा ! अयमयारूवे अज्झथिए० जाव ससरीरगंसि वेयणा पाउब्भवित्था उजला विउला तिउला मुप्पञ्जित्था-तं से यं खलु मम इयाणिं गंगाए महानदीए कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहव- दाहिणिलंसि कूलंसि विझगिरिपायमले दवग्गिसंताकंतीए यावि विहरित्था । तते णं तुमं मेहा! तं उज्जलं णकारणट्ठा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए ति
जाव दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेदेसि सीसं वा- कहु एवं संपेहसि २त्ता सुहं मुहेणं विहरसि । सते णं तुससतं परमाउं पालइत्ता अट्टवसट्टदुहट्टे कालमासे कालं में मेहा ! अनया कयाई पढमपाउमंसि महावुद्विकार्यकिच्चा इहेव जबुद्दीव भारहे वासे दाहिणभरहे गंगाए म- सि सनिवइयसि गंगाए महानदीए अरमामते बहूहि हहाणदीए दाहिणे कूले विझगिरिपायमले एगणं मत्तवर- स्थीहिं० जाव कलभियाहि य सत्तेहि य हथिसएहिं संपगंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणुए कुच्छिसि गयकलभए | रिखुडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महतिमहालयं मंडलं जणिते । तते णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं! घाएसि । जं तत्थ तणं वा पत्त वा कट्ठ वा कटए वा वसंतमासम्मि तुमं पायाया । तते णं तुम मेहा ! गम्भवा- लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा तं सव्वं साओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तुप्प- तिखुत्तो पाहुणिय एगते एडेमि २ ता पाएणं उद्धवसि लरत्तसूमालए जासुमणारत्तपारिजातयलक्खारससरसकुंकु- हत्थेणं गएहसि । तते णं तुम मेहा ! तस्सेव मंमसंझन्भरागवन्ने इडे णिगस्स जूहवइणो गणियायारकणे डलस्स अदूरसामंते गंगाए महानदीए दाहिणिल्ल कूले रुकोत्थहत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिबुडे रम्मेसु गिरिकाणणे- विझगिरिपायमूले गिरीसु य • जाव विहरसि । तते णं सु सुहं सुहेणं विहरसि । तते णं तुम मेहा! उम्मुक्कबालभावे मेहा ! अन्नया कदाइ मज्झिमए वरिसारत्तसि महावुट्टिजोव्वणगमणुपत्ते जूहवइणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जहं| कायंसि सन्निवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छमि सयमेव पडिवञ्जसि । तते णं तुमं मेहा! वणयरेहिं निव्वत्तिय | २ ता दोचं पितचं पि मंडलं घाएसि २ ता एवं चरिम वा नामधेज्जे०जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था । तत्थ रत्तंसि महावुट्ठिकार्यसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले णं तुम मेहा! सत्तंगपइट्टिए तहेव. जाव पडिरूचे । तत्थ तेणेव उवागच्छसि २ ना दोचं पितचं पिमंडलघायंक णं तुम मेहा ! सत्तसइयस्स जूहस्स आहेबच्चं. जात्र तत्थ तणं वा जाव सुहं मुहेण विहरसि । अह मेहा ! तुमं
परमेत्था । ततं णं तुमं अन्नया कयाइ गिम्ह- | गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं नलिणिवण विविहणगरे हेमते कालसमयंसि जेट्टामले वणदवजालापलिनेसु वणंऽनेस कुंदलोद्धउद्धतत्मारपउरम्मि अनिकंते अहिणवे गिम्हमम
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( ४१७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मेहकुमार
कुमार यंसि पते वियट्टमासु वणेसु वणकरेणुविविहदिष्ाकय- चिल्लला य तं वणदवं निट्ठियं ०जाव विज्झायं पासंति पंघाओ तुमं उउयकुसुमकयन्चामरकनपूरपरिमंडियाभिरामो मयवसविगसंतकडतडकिलिन्नगंधमदवारिणा सुरभि - जणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउसमत्तजणितसोभो काले दिगरकरपयंडे परिसोसियतरुवर सिहर भी मतरदंसखिज्जे भिंगाररवंत भेरवरवे खाणा विहपत्तकट्ठतरणकयवरुद्धतपइमारुयाइद्धनहयलदुमगणे वाउलियादारुणतरे तरहावसदोसदूसियभमंतविविहसावयसमाउले भीमदरिसजे व दारुम्मि गिम्हे मारुतवसपसरपसरियवियंभिएणं अन्भहियभीमभेरवरवप्पगारेणं महुधारापडिय - सित्तउद्धायमाणधगधगधगंतसदुदुएणं दित्ततरसफुलिंगेणं धूममालाउलेणं सावयसयंत करणेणं अन्भहियवणदवेणं जालालोवियनिरुद्धधूमंधकारभीयो आयवालोय महंततुंत्रइयपुन्नकम्नो आकुंचियथोरपीवरकरो भयवसभयंतदित्तनयणो वेगेण महामेो व्व पवणोल्लियमहल्लरूवो जेणेव क
२ ता अग्गिभयविष्यमुक्ा तहाए य छुहाए य परम्भाहया समाणा मंडलातो पडिनिक्खमंति२त्ता सव्वतो समंता विप्पसरित्था, (तए णं ते बहवे हत्थि • जान छुहाए य परम्भाया समाणा तत्र मंडलाओ पडिनिक्खमंति २ ता दिसो दिसिं विसरित्था । ) तए गं तुमं मेहा ! जुन्ने जराजञ्जरिदेहे सिढिलवलितया पिसिद्धगते दुब्बले किलंते जुंजिए पिवासिते अथामे अब अपरक्कमे अ चकमणो वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि ति कट्टु पाए पसारेमाणे विज्जुहते विव रयतगिरिप्पन्भारे धरतिलसि सव्वंगेहि य सन्निवइए । तते णं तत्र मेहा ! सरीरगंसि वेणा पाउन्भूता उजला ० जाव दाहवकंतिए यावि विहरसि । तते गं तुमं मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्निराईदियाई वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एवं वाससतं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीये दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रनो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारताए पच्चायाए । (सूत्र - ३२ )
ते पुरा दवग्गिभयभीयहियएवं अवगयतणप्पएसरु-क्खो रुक्खुदेसो दवग्गिसंताणकारणडाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए, एक्को ताव एस गमो १। तते गुं तुमं मेहा ! अन्नया कयाई कमेणं पंचसु उउस समतिक्कंतेसु ग्रिम्हकालसम्यंसि जेट्ठामूलं मासे पायवसंघससमु ट्ठिए जाव संवट्टिएस मियसुपक्खिसरीसिवेसु दिसो दिसिं विप्पलायमाणेसु तेहिं बहूहिं हत्थीहि य सार्द्धं जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तत्थ णं असे बहवे सीहा य वग्धा य विगा य दीविया य अच्छा य तरच्छा य पारासराय सरभा य सियाला विराला सुखहा कोला ससा कोकंतिया चित्ता चिल्लला पुव्वपविट्ठा अग्गिभयविहुया गया बिलधम्मेणं चिद्वैति । तए णं तुमं मेहा ! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २ त्ता तेहिं बहूहिं सीहिं० जाव चिल्ललए हिय एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठसि । तते गं तुमं मेहा ! पाएणं गतं कंडुइस्सामित्ति कट्टु पाए उक्खिते तंसि च यं अंतरंसि अनेहिं बलन्तेर्हि सत्तेहिं पणोलिञ्जमाणे २ ससए अणुष्पविट्टे । तते गं तुमं मेहा ! गायं कंडता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामि त्ति कट्टु तं ससयं अणुपविट्ठ पाससि २ ता पाणाणुकंपाए भूयाशुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए सो पाए अंतरा चैव संधारिए, नो चेवणं शिक्खिते । तते गं तुमं मेहा ! ताए पाणाणुकंपाए ० जाव सत्ताणुकंपाए संसारे परित्ती कते मासाउ निबद्धे । तते गं से वणवे अद्धातिजाति रातिंदियाई तं वर्ण झामेइ २ त्ता निट्ठिए उवरए उवसंते विकाए यावि होत्था । तते गं ते बहवे सीहा य ० जाव
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'मेहाइ' ति हे मेघ ! इति, एवमभिलाप्य महावीरस्तमवादीत् -' से गुण 'मित्यादि, श्रथ नूनं निश्चितं मेघ ! श्रस्ति एषोऽर्थः ? 'हंते 'ति कमलामन्त्रणे येोऽर्थ इति मेघेनोत्तरमदायि । 'वनचरकैः' शवरादिभिः, 'संखे' त्यादि विशेषणं प्रागिव ' सतुस्सेहे ' सप्तहस्तोच्छ्रितः, नवायतोनवहस्तायतः, एवं दशहस्तप्रमाणः मध्यभागे सप्ताङ्गानि - पादकर पुच्छलिङ्गलक्षणानि प्रतिष्ठितानि भूमौ यस्य स तथा, समः - श्रविषमगात्रः सुसंस्थितो विशिष्टसंस्थानः, पाठान्तरेण सौम्यसम्मितः तत्र सौम्यः श्ररौद्राकारो नीरोगो वा सम्मितः- प्रमाणोपेताङ्गः, पुरतः - श्रग्रतः उदद्यः- उच्चः समुच्छ्रितशिराः शुभानि सुखानि वा श्रासनानि-स्कन्धादीनि यस्य स तथा पृष्ठतः - पश्चाद्भागे वराह इवशूकर इव वराहः अवनतत्वात् श्रजिकाया इवोन्नतत्वात् कुक्षी यस्य स तथा अच्छिद्र कुक्षिः मांसलत्वात्, अलम्बकुक्षिरपलक्षणवियोगात्, 'पलस्बलं बोयराहरकरे ' सि-प्रलम्बे च लम्बी च क्रमेणोदरं च जठरमधरकरौ च श्रोष्टहस्ती तेरिव अधरकरौ यस्य स तथा धनुः पृष्ठाकृतिः- आरोपियस्य स तथा, पाठान्तरे - [ प्र ] लम्बौ लम्बोदरस्येव गणपतज्यधनुराकारं विशिष्टं प्रधानं प्रष्टुं यस्य स तथा आलीनानि सुशिष्टानि प्रमाणयुक्तानि वर्त्तितानि-वृत्तानि पीवराणि - उपचितानि गात्राणि - अङ्गानि अपराणि-वर्णितगात्रेभ्योऽन्यानि अपरभागगतानि वा यस्य स तथा अथवा थालीनादि विशेषं गात्रम् - उरः अपरश्व-पश्चाद्भागो यस्य स तथा वाचनान्तरे विशेषणद्वयमिदम् श्रभ्युद्धता- उन्नता मुकुलमलिकेव- कोरकावस्थविचक्लिकुसुमवद्धवलाध दन्ता यस्य सोऽभ्युद्गतमुकुलमल्लिका धवलदन्तः, श्रानामितं यच्चापं धनुस्तस्येव ललितं-विलासो यस्याः सा तथा, सा च संवक्षिता च संवलन्ती सङ्कोचिता वा अप्रसुण्डा सुरडा
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मेहकुमार
(४१८). मेहकुमार
अभिधानराजेन्द्रः। ग्रं यस्य स ानामितचापललितसंवेल्लिताग्रसुराङः पालीन घंससमुट्ठिएण' भित्यादिषु णकाराणां वाक्यालङ्कारार्थत्वाप्रमाणयुतपुच्छः प्रतिपूर्णाः सुचारवः कूर्मवच्चरणा यस्य स सप्तम्येकवचनान्तता व्याख्येया, तथा धूमाकुलासु दि. सथा, पाराकुराः-शुक्लाः सुविशुद्धाः-निर्मलाः स्निग्धाः- तु, तथा महावायुवेगेन संघट्टितेगु छिन्नज्वालेषु-यु. काम्ता निरूपहताः-स्फोटादिदोषरहिता विंशतिनखा यस्य टितज्वालासमूहेषु आपतत्सु-सर्वतः संपतत्सु तथा स तथा, रात्र त्वं हे मेघ! बहुभिहस्त्यादिभिः सार्द्ध संपरि- 'पोल्लरुक्खेसु 'त्ति शुषिरवृक्षसु अन्तरन्तः-मध्ये मध्ये वृतः आधिपत्यं कुर्वन् विहरसीति सम्बन्धः । तत्र हस्तिः | ध्मायमानेषु-दह्यमानेषु तथा मृतैमूंगादिभिः कुधिताःगः-परिपूर्णप्रमाणाः लोट्टकाः-कुमारकावस्थाः कलभाः- कोथमुपनीता विनष्टाः-विगतस्वभावाः 'किमियकद्दम ' बालकावस्थाः हस्तिसहस्रस्य नायकः-प्रधानः न्यायको त्ति कृमियत्कर्दमा नदीनां विवरकाणां च क्षीणपानीयाः श्राया-देशको हितमार्गादेः प्राक(-पाकर्षकोऽग्रगामी प्र- न्ताः-पर्यन्ताः येषु, कचित् किमव ' ति पाठः तत्र मृतैः स्थापको-विविधकार्येषु प्रवर्तको यूथपतिः-तत्स्वामी
कुथिताः विनष्टकृमिकाः कर्दमाः-नदीविदरकलक्षणाः क्षी. वृन्दपरिवर्द्धकः-तद्वद्धिकारकः 'सई पललिए'त्ति सदा
रणा जलक्षयात्पानीयान्ता-जलाशया येषु ते तथा तेषु वनाप्रललितः-प्रक्रीडितः कन्दर्परतिः-केलिप्रियः मोहनशीलो
न्तेषु-वनविभागेषु सत्सु, तथा भृङ्गारकाणां पक्षिविशेषाणां निधुवनप्रियः अवितृप्तो मोहने एवानुपरतवाञ्छः, तथा
दीनः क्रन्दितरवो येषु ते तथा तेषु वनान्तेष्यिति-वर्तते,तथा सामान्येन कामभोगेऽतृषितः गिरिषु च-पर्वतेषु दरीषु च.
खरपरुषम्-अतिकर्कशमनिष्टं रिष्ठाना-काकानां व्याहृतं कन्दरविशेषेषु कुहरेषु च-पर्वतान्तरालेषु कन्दरासु च- शब्दितं येषु ते तथा विठुमाणीव-प्रवालानीव लोहितानि गुहासु उज्झरेषु च-उदकस्य प्रपातेषु निर्भरेषु च-स्य
अग्नियोगात्पल्लवयोगाद्वा अग्राणि येषां ते विद्रुमानास्ततः न्दनेषु घिदरेषु च-चंद्रनद्याकारेषु नदीपुलिनस्यन्दजल
पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, ततस्तेषु-दुमाग्रेषु वृक्षोत्तमेषु सगतिरूपेषु वा गर्तासु च-प्रतीतासु पल्वलेषु च-प्रह्लादन-- त्सु, वाचनान्तरे-खरपरुषरिष्ठव्याहृतानि विविधानि दुशीलेषु चिश्ललेषु च-चिक्खिल्लमिश्रेषु कटकेषु च--पर्वतत- माग्राणि येषु ते खरपरुरिष्ठव्याहृतविविधमाप्रास्तेषु टेषु कटकपल्वलेषु पर्वततटव्यवस्थितजलाशयविशेषेषु तटी.
बनान्तेष्विति, तथा तृष्णावशेन मुक्तपक्षाः-श्लथीकृतपक्षाः पुच-नद्यादीनां तटेषु वितटीषु च-तास्वेव विरूपासु, अ
प्रकटितजिह्वातालुकाः असंपुटिततुण्डाश्च-असंवृतमुखाः थवा-वियडिशब्देन लोके अटवी उच्यते, टङ्केषु च-एक
ये पक्षिसजास्ते तथा तेषु' ससंतेसु' त्ति-श्वसत्सु श्वास दिशि छिशेषु पर्वतेषु कुटकेषु च–अधोविस्तीर्णधूपरिसं-| मुश्चत्सु, तथा ग्रीष्मस्य ऊष्मा च-उष्णता उष्णपातश्च-रविकीर्णेषु वृत्सपर्वतेषु हस्त्यादिबन्धनस्थानेषु वा शिखरेषु च- करसंतापः खरपरुषचण्डमारुतश्च-अतिकर्कशप्रबलवातःशुपर्वतोपरिवर्तिकृटेषु, प्राग्भारेषु च-ईषदवनतपर्वतभागेषु। कतृणपत्रकचवरप्रधानवातोली चेति द्वन्द्धः ताभिभ्रमन्तःमश्चेषु च-स्तम्भन्यस्तफलकमयेषु नद्यादिलकुनार्थेषु मालेषु। अनवस्थिता दृप्ताः संभ्रान्ता ये श्वापदाः-सिंहादयः तैराकुला च-श्वापदाधिरक्षार्थेषु तद्विशेषेष्वेव मञ्चमालकाकारेषु पर्वत. ये ते तथा, मृगतृष्णा-मरीचिका तल्लक्षणो बद्धः चिह्नपटो देशेष्वित्यन्ये काननेषु च-स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य येष ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषु सत्सु, भोग्येषु वनविशेषेषु, अथवा-यत्परतः पर्वतोऽटवी वा भव- गिरिवरेषु-पर्वतराजेषु, तथा संवर्तकितेषु-संजातसंवर्तकेषु ति तानि काननानि-जीर्णवृक्षाणि वा तेषु वनेषु च-एक- प्रस्ता-भीता ये मृगाश्च प्रसयाश्च-आटव्यचतुष्पदविशेजातीयवृतेषु वनखण्डेषु च-अनेकजातीयवृक्षेषु वनराजीषु पाः,सरीसृपाश्च-गोधादयस्तेषु,ततश्चासौ हस्ती अवदारितच-एकानेकजातीयवृक्षाणां पक्लिषु नदीषु च-प्रतीतासु नदी- वदनविवरो निर्लालिताप्रजिहुश्च य इति कर्मधारयः 'मकक्षेषु च-तरहनेषु यूथेषु च-बानरादियूथाश्रयेषु सङ्गमेषु हंततुंवझ्यपुस्मकरणं' महान्तो तुम्बकितौ-भयादरघट्टतुम्बाच-नदीमीलकेषु वापीषु च-चतुरस्नासु पुष्करिणीषु च- कारी कृती स्तब्धावित्यर्थः , पुण्यौ-व्याकुलतया शब्दवर्तुलासु पुष्करवतीषु वा दीर्घिकासु च-ऋजुसारिणीषु गु. ग्रहण प्रवणी कर्णी यस्य स तथा, संकुचितः 'थोर ' ति आलिकासु च-बक्रसारिणीषु सरस्सु च-जलाशयविशेषेषु
स्थूलः पीवरो-महान् करो यस्य स तथा, उच्छ्रितलासरःपङ्क्तिकासुच-सरसा पद्धतिषु सरःसर पत्रिकासुच
गूलः 'पीणाइय ' त्ति-पीना या-मड्डा तया निर्वृत्तं यासु सरःपनिषु एकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्य- पैनायिकं तद्विधं यद्विरसं रटितं तल्लक्षणेन शब्देन स्फोघेवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहुविधास्तर- टयन्निवाम्बरतलं पाददर्दरेण पादधातेन कम्पयन्निव मेपझवाः प्रचुराणि पानीयतृणानि च यस्य भोग्यतया स दिनीतल' मित्यादि, कण्ठ्यम् , 'दिसो दिसिं' ति दिनु चातथा, निर्भयः शूरत्वात् , निरुद्विग्नः सदैव अनुकूलविषय- पदिक्षु च विपलायितवान् , आतुरो-व्याकुलः 'जुजिए.' प्राप्तेः, सुखं सुखेन अकृच्छेण, 'पाउसे' त्यादि, प्रावृद- त्ति बुभुक्षितः दुर्वल:-कान्तो ग्लानः नष्टश्रुतिको-मूढदिआषाढश्रावणी वर्षा-भाद्रपदाश्वयुजौ शरत्-कार्तिक
का परब्भाहए 'त्ति पराभ्याहतो बाधितो भीतो जातमार्गशीर्षों हेमन्तः-पौषमाधौ वसन्तः-फाल्गुनचैत्रौ एतेषु
भयः अस्तो जातक्षोभः । तसिए ' त्ति शुष्क श्रानन्दरस. पञ्चसु ऋतुषु समतिक्रान्तेषु, 'ज्येष्ठामूलमासे 'त्ति-ज्येष्ठ- शोषात् उद्विग्नः---कथमितोऽनान्मोदयेऽहमित्यध्यवसामासे पादपघर्षणसमुत्थितेन शुष्कतृणपत्रलक्षणं कचवरं यवान् , किमुक्तं भवति ?-संजातभयः-सर्वात्मनोत्पन्नभयः मारुतश्च तयोः संयोगेन दीप्तो यः स तथा तेन महाभयं-- श्राधावमानः-ईषत् परिधावमानः-समन्तात् 'पागी (णि)करेण-अतिभयकारिणा हुतबहेन-अग्निना यो जनित यपाए 'ति-पानं पायः पानीयस्य पायः पानीयपायस्तइति हृदयस्थम् , वनदयो-बनाग्निः तस्य ज्वालाभिः संप्र- स्मिन् , जलपानायेत्यर्थः, 'सेयसि विसन्न' त्ति पङ्के निमदीप्ता ये ते तथा तेषु च वनाऽन्तेषु सत्सु, अथवा-'पायव-1 ग्नः, कायं प्रत्युद्धरिप्यााति कृत्वा कायमुख मारब्ध इति
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(४१६ ) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार शेषः, 'बलियतराय' ति गाढतरम् । 'तए ण' मित्यादि , ति तुवो इस्वशिखः शाखी पाहुणिय ' सि प्रकम्प्य इहैवमक्षरघटना-त्वया हे मेघ! एको गजवरयुवा करचर- | चलयित्वेत्यर्थः, 'उहवेसि 'सि उद्धरसि ' पडेसि ' सिपदन्तमुशलप्रहारैर्विप्रालब्धो विनाशयितुमिति गम्यते, वि- | छईयसि, 'दोच्चं पि' द्वितीयं तस्यैव मण्डलस्य घातम् , पराद्धो था-हतः सन् अन्यदा कदाचित् स्वकाद् यूथात् एवं तृतीयमिति, नलिनीयनविवधनकरे, इह शिवधनं विचिरम् 'निज्जूढे' ति निर्धाटितो यः स पानीयपानाय तमेव नाशः, 'हेमंते' त्ति शीतकाले कुन्दाः-पुष्पजातीयविशेषाः महाह्नदं समवतरति स्मेति , ' आसुरुत्ते' त्ति स्फुरितकोप- लोधाश्च-वृक्षविशेषास्ते च शीतकाले पुष्यन्त्यतस्से उनलिङ्गः रुष्टः-उदितक्रोधः कुपितः-प्रवृद्धकोपोदयः चारितु- ताः-पुष्पसमृद्धया उद्धरा इव यत्र स तथा, तथा तुपारं क्यितः-संजातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, 'मिसि
हिमं तत् प्रचुरं यत्र सं तथा, ततः कर्मधारयः ससस्सत्र, मिसीमाणे ' त्ति-क्रोधाग्निना देदीप्यमान इव, एकाथिका
ग्रीष्मे-उष्णकाले विवर्तमानो-विचरन् बनेषु यमकरेणूना वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थ नामादेशजविनेयानुग्र
ताभिर्वा विविधा 'दिन्न' त्ति दत्ताः कजप्रसः-पासुहार्थे वा , ' उच्छुहा '-अवष्टभ्नाति विध्यतीत्यर्थः ,
मै_ताः-प्रहारा येषु यस्य वा स तथा 'बलरेणुधिषिह• निजाए ' त्ति-निर्यातयति समापयति , वेदनाः किं
दिनकयपंसुधाओ' त्ति पाठान्तरे तु वनरेखयो-वणांशको विधाः ?-उज्ज्वला विपक्षलेशेनापि अकलङ्किता विपुला
विविधम्-अनेकधा ' दिन्न' ति दत्ता विश्वात्मनि व क्रीडाशरीरव्यापकत्वात् कचित्-'तितुले' त्ति पाठस्तत्र त्रीनपि
परतया क्षिप्ता येन स तथा, तथा क्रीडयैव कृताः पांशुधाता मनोवाकायलक्षणानांस्तुलयति जयति तुलारूढानिव वा
येन स तथा, ततः पदवयस्य कर्मधारयः, 'तुम' ति त्वम् , करोतीति वितुला कर्कशा-कर्कशद्रव्यमिवानिष्टत्यर्थः ,
तथा कुसुमैः कृतानि यानि चामरवत्कर्णपूराणि सैः परिमप्रगाढा प्रकर्षवती चण्डा-रौद्रा दुःखा-दुःखरूपा न सु
ण्डितोऽभिरामश्च यः स तथा. कचित्-' उउयकुसुम 'सि खेत्यर्थः , किमुक्नं भवति ?-दुरधिसह्या , ' दाहयकंतीए'
पाठः, तत्र ऋतुजकुसुमैरिति व्याख्येयम् , तथा मदवशेग जित्ति दाहो व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नो यस्य स तथा स एव कसन्ति कटतटानि-गण्डतटानि क्लिन्नानि-श्राकृतानि दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अवसट्टदुहट्टे' त्ति-आर्सवशम्-श्रात
येन तत्तथा तच्च तद्गन्धमदवारि च तेन सुरभिजनितध्यानधशतामृतो-गतो दुःखार्तश्च यः स तथा, 'कणेरुए'
गन्धः-मनोज्ञकृतगन्धः करेणुपरिवृतः ऋतुभिः समस्ता त्ति-करेणुकायाः ' रत्नप्पले' त्यादि रनोत्पलवद्रतः सुकु
समाप्ता वा-परिपूर्णा जनिता शोभा यस्य स तथा, काले मारकश्च यः स तथा, जपासुमनश्च श्रारलपारिजातकश्च
किंभूते ?-दिनकरः करप्रचण्डो यत्र स तथा तत्र, परिशोवृक्षविशेषो लाक्षारसश्च सरसकुमं च सन्ध्याभ्ररागश्चेति
षिताः-नीरसीकृताः तरुवराः श्रीधराः-शोभाषन्तो येन द्वन्द्वः, एतेषामिव वर्णो यस्य स तथा, 'गणियार' त्ति
परिशोषिता वा तरुवराणां श्रीः-संपद् धरायां-भुवि वा येन, गणिकाकाराः-समकायाः करेणवस्तासां 'कोत्थ 'ति
पाठान्तरे-परिशोषितानि तरुवर शिवराणि येन स तथा स उदरदेशस्तत्र हस्तो यस्य कामक्रीडापरायणत्वात् स तथा,इह
चासौ भीमतरदर्शनीयश्चेति, तत्र भृङ्गाराणां-पक्षिविशेषाणां चेत्समासान्तो द्रष्टव्यः । 'कालधम्मुण' त्ति कालः-मरणं स ए-1
रुवता-रवं कुर्वतां भैरवो-भीमो रवः-शब्दो यस्मिन् स तथा व धर्मो-जीवपर्यायः कालधर्मः 'निव्वत्तियनामधेजो' इह थाव- तत्र, नानाविधानि पत्रकाष्ठतृणकचवराण्युतानि-उत्थाकरणेन यद्यपि समनः पूर्वोक्लो हस्तिवर्णकः सूचितस्तथापि टितानि येन स तथा स चासौ प्रतिमारुतश्व-प्रतिफलवाश्वेततावर्णकवज्यों द्रष्टव्यः,इह रक्तस्य तस्य वर्णितत्वादत- युस्तेन आदिग्ध-व्याप्त नभस्तलं-व्योम ‘पहुममाणे' ति एवाग्रे ' सत्तुस्सेहे ' इत्यादिकमतिदेश वक्ष्यति यत् |
पटुत्वादुपतापकारि यस्मिन् , पाठान्तरे उक्तविशेषणेग प्रतिपुनरिह दृश्यते ' सत्तंगे' इत्यादि तद्वाचनान्तरम् , वर्ण
मारुतेनादिग्धं नभस्तलं मगणश्च यस्मिन् स तथा, सत्र काक्षेपं तु लिखितमिति । 'लेस्साही' त्यादि तेजोलेश्या
वातोल्या-वात्यया दारुणतरो यः स तथा तत्र, तृग्लाथद्यन्यतरलेश्यां प्राप्तस्येत्यर्थः, श्रध्यवसानं-मानसी परिणतिः
शेन ये दोघा-वेदनादयस्तैोषिता-जातदोषा दृषिता था परिणामो-जीवपरिणतिः, जातिस्मरणावरणीयानि कर्मा
भ्रमन्तो विविधा ये श्वापदास्तैः समाकुलो यः स तथा तत्र णि मतिज्ञानावरणीयभेदाः क्षयोपशमः-उदितानां क्षयोऽ
भीमं यथा भवत्येवं दृश्यते यः स भीमदर्शनीयः तत्र वर्तनुदितानां विष्कम्भितोदयत्वम् ईहा-सदाभिमुखो वितर्क
माने दारुणे ग्रीष्मे, केनेत्याह-मारुतवशेन यः प्रसरः-प्रस
रणं तेन प्रसृतो विजृम्भितश्च-प्रबलीभूतो यः स तथा तेन, इत्यादि प्राग्वत् , संशिनः पूर्वजातिः-प्राक्तनं जन्म तस्या यत्
वनदवेनेति योगः, अभ्यधिकं यथा भवत्येवं भीमभैरवःस्मरण तत्संक्षिपूर्वजातिस्मरणम् , व्यस्तनिर्देशे तु संज्ञी पूर्वो
अतिभीष्मो रवप्रकारो यस्य स तथा तेन, मधुधाराया यभवो यत्र तत्संशिपूर्व संझीति च विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थम्, |
त्पतित-पतनं तेन सिक्न उद्धावमानः प्रवर्द्धमानो धगधगा. नासंक्षिनो जातिविषयं स्मरणमुत्पद्यत इति, 'अभिसमेसि' |
यमानो-जाज्वल्यमानः स्पन्दोद्धतश्च-दह्यमानदारुस्पन्दत्ति-अवबुध्यसे प्रत्यपराह्नः-अपरातः, "तए ण' मित्यादि
प्रबलः, पाठान्तरे-शब्दोद्धतश्च यः स तथा तेन दीप्ततरोको ग्रन्थो जातिस्मरणविशेषणमाश्रित्य वर्णितः, ' दवग्गि- यः सस्फुल्लिङ्गश्च तेन धूममालाकुलेनेति प्रतीतम् , श्वापदशजायकारण?' ति दवाग्नेः संजातस्य कारणस्य-भयहेतो
तान्तकरणेन-तद्विनाशकारिणा ज्वालाभिरालोपिता-कृनिवृत्तये इदं दवाग्निसंजातकारणार्थम् , अर्थशब्दस्य नि- ताच्छादनो निरुद्धश्च-विवक्षितदिग्गमनेन निवारितो धूमजवृत्त्यर्थत्वात् , कचित्-' दवग्गिसंताणकारण?' ति हु- नितान्धकाराद् भीतश्च यः स तथा, श्रात्मानमेध पालयतीश्यते, तत्र दवाग्निसन्त्राणकारणायेति व्याख्येयम् , ' मंडलं. त्यात्मपालः, पाठान्तरेण-श्रायवालो य' सि तत्र आतघाएसि' वृक्षाद्युपघातेन तत्करोतीत्यर्थः 'खुवेतयति व' | पालोकेन-हुतवहतापदर्शनेन महान्तौ तुश्चकिती स्तब्धत
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(४२०) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार या भरघट्टतुम्बाकृती-ससंभ्रमौ कौँ यस्य स तथा, आकु- वं उढाणबलवीरियपुरिसगारपरक्कमसंजुत्ते णं मम अंतिए शितस्थूलपीवरकरः भयवशेन भजन्ती दिश इति गम्यते,
| मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारियं पन्वतिए समाणे समबीते नयने यस्य स तथा, 'आकुंचियथोरपीवरकराभोयसव्वभवंतदित्तनयणों' ति पाठान्तरम्, तत्र-आभोगो-वि.
णाणं निग्गंथाणं रामओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसिवायणास्तारः सर्वा दिशो भजन्ती दीप्ते नयने यस्येति, वेगेन महामेघ ए० जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणइव वातेनोदितमहारूपः,किमित्याह-येन यस्यां दिशि कृतो- स्स वा अतिगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघविहितः ते त्वया पुरा-पूर्व दवाग्निभयभीतहृदयेन अपगता
दृणाणि य संघपायट्टणाणि य० जाव रयरेणुगुंडणाणि य नि तृणानि तेषामेव च प्रदेशा-मूलादयोऽवयवा वृक्षाश्च
नो सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि ? तते यस्मात्सोऽपगततृणप्रदेशवृक्षः, कोऽसौ ?-वृक्षोद्देशः-वृक्षप्रधानो भूमेरेकदेशो, रुक्षोद्देशो वा । किमर्थम् ?-दवाग्निसं
णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवतो महावीत्राणकारणार्थ-दवाग्निवाणहेतुरिद भवत्वित्येतदर्थम् , | रस्स अंतिए एतमलु सोचा णिसम्म सुभेहि परिणामेहि तथा येनैव-यस्यामेव दिशि मण्डलं तेनैव तत्रैव प्रधा पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं रितवान् गमगाय, कथं बहुभिहस्त्यादिभिः सार्वमित्यय
तयावरणिज्जाणं कम्माणं खोवसमेणं ईहावूहमग्गणगमेको गमः ११ यत् पुनः ' तए ण तुम मेहा ! अण्णया कयाई कमेण पंचसु ' इत्यादि दृश्यते तद्गमान्तरं मन्यामहे
वेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जातीसरणे समुप्पन्नेतच्च एवं द्रष्टव्यम्-'दोच्च पि मंडलधार्य करेसि. जाव सु. एतमढे सम्मं अभिसमेति । तते णं से मेहे कुमारे सहै सुहेण विहरसि, तए णं तुम मेहा ! अन्नया कयाह पंच- मणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुब्वजातीसरणे दुसु उउसु श्रइकंतेसु ' इत्यादि, यावत् ' जेणव मण्डले
गुणाणीयसंवेगे आणंदयंसुपुन्नमुहे हरिसवसेणं धाराहतेणेव पहारेत्थ गमणाप 'त्ति, सिंहादयः प्रतीताः नवरं वृ. का-वरुक्षाः द्वीपिका:-चित्रकाः-'अच्छ' त्ति रिक्षाः त. यकदंबकं पिव समुस्ससितरोमकूवे समणं भगवं महारच्छा-लोकप्रसिद्धाः परासराः-शरभाः शृगालविडालशु- वीरं वदति नमसति २ ता एवं वदासी-अञ्जप्पभितीणं मकाः प्रतीताः कोला:-शूकराः शशकाः प्रतीताः कोकन्ति
भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समकाः-लोमटकाः चित्राः चिल्ललगाः-श्रारण्या जीवविशेषाः, एतेषां मध्येऽधिकृतवाचनायां कानिचिन्न दृश्यम्ते, अग्नि
णाणं णिग्गंथाणं निसट्टे त्ति कट्ठ पुणरवि समणं भगवं भयविद्वताः-अग्निभयाभिभूताः 'एगो' त्ति एकतो बिलध- महावीरं वंदति नमंसति २ ता एवं वदासी-इच्छामि मेण विलाचारेण यथैकन बिले यावन्तो मार्कोटकादयः णं भंते ! इयाणि सयमेव दोचं पि सयमेव पन्चाविसमान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति, एवं तेऽपीति, ततस्त्वया हे मेघ !
यं सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जागात्रेण गावं कराडूयिष्ये इति कृत्वा-इति हेतोः पाद उत्क्षिता-उत्पाटितः, 'तंसि च णं अंतरंसि' तस्मिश्चान्तरे पादाका यामायावत्तियं धम्ममातिक्खह । तए णं समणे भगवं स्तपूर्वे अन्तराले इत्यर्थः । 'पादं निकनेविस्सामि त्ति कट्ट' इह महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ जाव जायामायाभुवं निरूपयनिति शेषः, 'प्राणानुकम्पये' त्यादिपदचतुष्टयमे
वत्तियं धम्ममाइक्खइ, एवं देवाणुप्पिया ! गन्तब्य एवं कार्थ दयाप्रकर्षप्रतिपादनार्थम्, 'निट्टिए'ति निष्ठां गतः कृतस्वकार्यों जात इत्यर्थः, उपरतोऽनालिङ्गितेन्धनाद् ध्यावृत्तः
चिट्ठियव्वं एवं णिसीयव्बं एवं तुयट्टियव्वं एवं भुंजिउपशान्तो-ज्वालोपशमात् 'विमातो-ऽङ्गारमुर्मुराद्यभावात् यव्वं भासियव्वं उट्ठाय २ पाणाणं भूयाणं जीवाणं स'बाऽपी' ति समुच्चये, 'जीर्ण' इत्यादि शिथिला बलिप्रधाना
त्ताणं संजमेणं संजमितव्वं । तते णं से मेहे समणस्स भया त्वक तया पिनद्धं गात्र-शरीरं यस्य स तथा, अथामा शारीरबलविकलत्वात् अबलः-अवष्टम्भवर्जितत्वात् ,
गवतो महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म अपराक्रमो-निष्पादितस्वफलाभिमानविशेषरहितत्वात् , अ- पडिच्छति २ ता तह चिट्ठति जाव संजमेणं संजमति । चकमणतो वा 'ठाणुखराडे ' त्ति ऊर्ध्वस्थानेन स्तम्भित
तते ण मेहे अणगारे जाए इरियासमिए अणगारवन्नो गात्र इत्यर्थः ‘रययगिरिपब्भारे' त्ति इह प्राग्भार--ईषद
भाणियव्यो । तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवतो वनतं खण्डम्, उपमा चानेनास्य महत्तयैव, न वर्णतो रक्तत्वात्तस्य, वाचनान्तरे तु सित एवासाविति।
महावीरस्स अंतिए एतारूवार्ण थेराणं सामातियमातते णं तुम मेहा! आणुपुव्वेणं गम्भवासाो निक्खंते | तियाणि एक्कारस अंगाति अहिजति २ ता बहूहिं चसमाणे उम्मुक्कबालभावे जोवणगमणुप्पत्ते मम अंतिए मुंडे | उत्थछट्ठऽटुमदसमंदुवालसेहिं मासऽद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भविसा आगाराओ अणगारियं पव्वइए,तं जतिजाव तुमे | भावेमाणे विहरति । तते णं समणे भगवं महावीरे मेहा ! तिरिक्खजोणियभावमुवगएणं अपडिलद्धसम्मत्तर- रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेतियामो पयणलंभेणं से पाणे पाणाणुकंपयाए० जाव अंतरा चव सं
डिनिक्खमति २ ता बहिया जणवयविहारं विहरति । धारिते नो चेवणं निक्खित्ते किमंग पुण तुमं मेहा! इयाणि
किन पुणतुम महा इयाण (सूत्र-३२) विपुलकुल समुब्भवे णं निरुवहयसरीरदंतलपंचिदिए णं ए। 'अपडिलद्धसम्मत्तरयणलंभेणं' ति-अप्रतिलब्धः-प्रसं
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हमार आत:, 'विपुलकुलसमुब्भवे
(४२१ अभिधानराजेन्द्रः । मित्यादी शंकारा वाForaget freपहतं शरीरं यस्य स तथा दान्तानि-उपशमं नीतानि प्राकाले लब्धानि सन्ति पञ्चेन्द्रियाणि येन स तथा ततः कर्मधारयः, पाठान्तरे--निरुपहतशरीरप्राप्तश्वासौ लब्धपञ्चेन्द्रियश्चेति समासः ' एवं ' मित्युपल. भ्यमान रूपैरुत्थानादिभिः संयुक्तो यः स तथा तत्र उस्थानं-- चेष्टाविशेषः, बलं --शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकारः – अभिमानविशेषः पराक्रमः - स एव साधितफल इति, नो सम्यक् सहसे भयाभावेन क्षमसे क्षोभाभावेन तितिक्षसे देन्यानवलम्बनेन अभ्यासयसि अविचलि वकायतया, एकाfर्थकानि वेतानि पदानि तस्य मेघस्थानगारस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नमिति सम्बन्धः । समु त्पन्ने च तत्र किमित्याह-- एतमर्थ पूर्वोक्तं वस्तु सम्यक ' अभिसमेइ ' त्ति अभिसमेति श्रवगच्छतीत्यर्थः । ' संभारिपुव्वजाईसरणे' ति संस्मारितं पूर्वजात्योः - प्राक्तनजन्मनोः सम्बन्धि सरणं - गमनं पूर्वजातिसरणं यस्य स तथा, पाठान्तरे - संस्मारितपूर्वभवः, तथा प्राकालापेक्षया द्विगुण आनीतः संवेगो यस्य स तथा आनन्दाश्रुभिः पू
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भृतं प्लुतमित्यर्थो मुखं यस्य स तथा, 'हरिसवस ' ति अनेन 'हरिसवसविसप्पमाणहियर' त्ति द्रष्टव्यम्, धाराहतं यत्कदम्बकं-कदम्बपुष्पं तद्वत् समुच्छ्रितरोमकूपो रोमाञ्चित इत्यर्थः, ' निसट्ठे ' त्ति निसृष्टो दत्तः अनगारवर्णको वाच्यः, सचायम् - "हरियासमिए भासासमिए एसणा समिए श्रायाणभंडमसनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवराखेलसिंघाणजम्लपरिट्ठावसिंयासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुसे वयगुसे कायगुसे' मनःप्रभृतीनां समितिः - सत्प्रवृत्तिः गुतिस्तु-निरोधः, श्रत एव ' गुत्ते गुतिदिए गुत्तभयारी ' ब्रह्मगुप्तिभिः ' चाई 'सङ्गानां ' बणे लज्जू '--रज्जुरिवा वक्रव्यवहारात् लज्जालुर्वा संयमेन लौकिकलज्जया वा 'तarer तिखमे ' क्षान्त्या क्षमते यः स तथा जिदिए सोही ' शोधयत्यात्मपराविति शोधी शोभी वा 'अणिदाणे rayer ' अल्पौत्सुक्यो ऽनुत्सुक इत्यर्थः, 'अवहिले ' संयमादवहिर्भूतचित्तवृतिः'सुसामण्णय इणमेव निग्गंध पर ari पुरोति कट्टु विहरह' निर्प्रन्थप्रवचनानुमार्गेण इत्यर्थः ।
ततेां से मेहे अणगारे अमया कदाइ समयं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति २ ता एवं वदासी- इच्छामि गं
दे ! तुमेहिं अन्भनाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा परिबन्धं करेह । तते गं से मेहे समणेणं भगवया महावीरेण अन्भणुनाते समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । मासिय भिक्खुपडिमं श्रहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं० सम्मं कारणं फासेति पालेति सोभेति तीरेति किट्टेति सम्मं कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता कित्ता पुणरवि समयं भगवं महावीरं वंदति नमसति २ ता एवं वदासी - इच्छामि णं भंते ! तुन्भेहिं अब्भणुन्नाते समाणे दोमासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजिता । यं विहरित, अहासुहं देवाशुप्पिया ! मा पडिबन्धं
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मेहकुमार करेह, जहा पढमाए अभिलावो तहा दोषाए तबाए उत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासिवाए पढमसत इंदियाए दोषं सतरातिंदियाए तवं सतरातिंदियाए अहोरातिंदियाए वि एगराईदियाए वि, तते
से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमा सम्म काएगं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता किना पुरवि बंदति नमसइ २ ता एवं वदासी - इच्छामि वं मंते ! तुन्भेहिं अन्भणुनाए समाये गुणरतणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपजित्ता गं विहरित्तए । ज्ञा० । ( गुणरत्नसंवत्सरतपःकर्म ' गुणरयणसंवच्छर' शब्दे तृतीयभागे ६२६ पृष्ठे गतम् ) तते गं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं श्रहासुतं ० जाव सम्मं कारणं फासेर पालेड़ सोइ तीरेइ कि अहासुतं महाकप्पं जाव किट्टेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति २ ता बहूहिं लट्ठमदुसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचितेहिं तवोकमेहिं अप्पा भावेमाणे विहरति । (सूत्र - ३३ ) । 'अहासुहं' ति यथासुखं सुखानतिक्रमेण मा पडिबन्धंविघातं विधेहि विवक्षितस्येति गम्यम्, भिक्खुपडिमं ' ति श्रभिग्रहविशेषः, प्रथमा एकमासिकी एवं द्वितीयाद्याः ससम्यन्ताः क्रमेण द्वित्रिचतुष्पञ्चषट्सप्तमाः समानाः, अष्टमीनवमीदशम्यः प्रत्येकं सप्ताहोरात्रमानाः एकादशी कहोरात्रमाना द्वादशी एकरात्रमानेति । तत्र -
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" पडिवज्जइ एयाश्रो, संघयणधिरज्जुश्री महासतो । पडिमा भॉवियथ्या, सम्मं गुरुणा अणुओं ॥ १ ॥ गच्छे श्चिय निम्माओ, जा पुग्वा दस भवे असंपुषा । नवमस्स तयवत्थू, होइ जहन्नो सुयाहिगमो ॥ २ ॥ बोसट्टचत्तदेहो, उवसग्गसहो जहेब जिएकप्पी | पण श्रभिग्गहिया, भसं व अलेवरं तस्स ॥ ३ ॥ दुस्सहत्थिमाई, तो भरलं पयं पि मो सरई । एमाइनियमसेवी, विहरह जाऽखंडियो मासो ॥ ४ ॥ इत्यादि ग्रन्थान्तराभिहितो विधिरासां द्रष्टव्यः । यच्चेह एकादशाङ्गविदोsपि मेघानगारस्य प्रतिमानुष्ठानं भणितं तसर्ववेदिसमुपदिष्टत्वादनवद्यमव सेयमिति, यथासूत्रम् -स्श्रानतिक्रमेण यथाकल्पम् - प्रतिमाचारानतिक्रमेण, यथामार्गम्-ज्ञानाद्यनतिक्रमेण, क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण या कायेन न मनोरथमात्रेण, फासेइ ' ति उचितकाले विधिना ग्रहणात् पालयति - श्रसकृदुपयोगेन प्रतिजागरखात् शोभयति — चारणकदिने गुरुदत्तशेष भोजनकरणात्, शोधयति वा अतिचारपङ्कक्षालनात् तीरयति - पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात् कीर्तयति-- पारणकदिने इदं वेदं चैतस्याः कृत्यं कृतमित्येवं कीर्त्तनात् । ० । ( गुणरत्नसवत्सरतपः कर्मव्याख्या गुणरयणसंवच्छर ' शब्दे तृतीयभागे ६२६ पृष्ठे गता )
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"
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ततेां से मेहे अणगारे तेणं उरालेयं विपुलेखं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कलाणेणं सिवेलं घमेलं मंगलेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेवं महाणुभावेनं तत्रोत
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(४२२ ) मेहकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
मेहकुमार म्मेवं सुके सुक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोगिए किडकिरिया- णस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिते. जाव समुप्पअित्था-एवं भृए अद्विसम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाते याऽवि हो- खलु अहं इमेख अोरालेणंजाव जेणेव अहं तेणेव हब्वमात्था, जीवं जीवेणं गच्छति जीवं जीवेणं चिट्ठति भासं गए,से गुण मेहा! अव समढे ?,हंता! अस्थि महासुहं देवाभासित्ता गिलायति भासं भासमासे गिलायति भासं गुप्पियामा पडिवंधं करेह । तते णं से मेहे अणगारे समभासिस्सामिति गिलायति से जहा नाम ए(व)इंगालसगडि- | येणं भगवया महावीरेणं अम्मणुनाए समाणे हड० जाव याइ वा कट्ठसगडियाइ वा पत्तसगडियाइ वा तिलसगडि- हियए उट्ठाइ उद्वेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिपाइ वा एरंडकट्ठसगडियाइ वा उण्हे दिना सुक्का समाणी खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करई २ ता वंदइ नमसइ २ ससई गच्छइ ससई चिट्ठति एवामेव मेहे अणगारे ससई ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुभेइ २ त्ता गोयमातिसगच्छा, ससई चिट्ठइ, उवचिए तवणं अवचिते मंससो- मणे निग्गंथे निग्गंथीयो य खामेति खामेत्ता य तहासवेहिएणं हुयासणे इव भासरासिपरिच्छो तवेस तेएवं तव- हिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं २ दुरूहतेयसिरीए अतीव अतीव उवसोमेमाणे२ चिट्ठति । तेणं का- | ति २ ता सयमेव मेहघणसनिगासं पुढविसिलापट्टयं लेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थ- पडिलेहति २ ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहति २ ता गरे०जाव पुथ्वाणुपुब्धि चरमाणे गामाणुगामं दुतिजमाणे दम्भसंथारगं संथरति २ त्ता दम्भसंथारगं दुरूहति २ ता सुहं सुहेशं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव | पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसने करयलपरिग्गहियं सिरगुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ ता अहाप- | सावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वदासी-नमो त्थु णं अडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमणं तवसा अप्पाणं भा- रिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमो त्थु णं समवेमाणे विहरति । तते णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ णस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम पुष्वरतावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स धम्मायरियस्स, चंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इहगए पाअपमेयारूबे अज्झत्थितेजाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं! सउ मे भगवं तत्थ गते इहगतं ति कद वंदति नमसइ २ ता इमेणं उरालणं तहेव जाव भासं भासिस्सामीति गिलामि एवं वदासी-पुव्वं पि य णं मए समणस्स भगवओ महातं अस्थि ता मे उहाणे कम्मे बले वारिए पुरिसक्कारपरक्कमे चीरस्स अंतिए सब्बे पाणाइवाए पञ्चक्खाए मुसावाए सद्धा धिई संवेगे तंजाव तामे अस्थि उहाणे कम्मे बले पीरि अदिनादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे पेले ए पुरिसगारपरकमे सद्धा धिई संवेगे जाव इमे धम्मायरिए दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरतिरति धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरति | मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाते, इयाणि पिणं ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए.जाव तेयसा अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणातिवायं पच्चक्खामि जाव जलंते सूरे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता समणेणं | मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि, सव्यं असण भगवता महावीरेणं अन्भणुनायस्स समाणस्स सयमेव पंच मसातिमं चउब्विहं पि आहारं पञ्चक्खामि जावजीवाए, महब्बयाई आरुहिता गोयमाऽऽदिए समणे निग्गंथे निग्गं-जंपि य इमं सरीरं इलु कंतं पियं जाव विविहा रोगायंका थीमो य खामेत्ता तहारूवेहि कडाईहिं थेरेहिं सद्धि विउलं प- परीसहोवसग्गा फुसंतीति कट्ठ एवं पि य णं चरमेहिं ऊव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं | सासनिस्सासेहिं वोसिरामि ति कह सलेहणाझसणाभूपुढविसिलापट्टयं पडिलेहेत्ता संलेहणाझूसणाए झूसियस्स सिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवर्कभरपाणपडियाइक्खित्तस्स पाश्रोवगयस्स कालं अणवक-1 खमाणे विहरति । तते णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगाखमाणस्स विहरित्तए, एवं संपेहेति २ त्ता कल्लं पाउप्प- रस्स अगिलाए वेयावडियं करेंति । तते णं से अहे अणभायाए रयमीए जाव जलते जणव समण भगवं महा-गारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं चीरे तेणेय उवागच्छति २ ता समणं भगवं महावीरं ति- अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजित्ता बहुपत्तो श्रादाहिणं पदाहिणं करेइ २ ता वंदति नमंसति | पडिपुन्नाई दुवालस परिसाई सामनपरियागं पाउणित्ता २ सा नचासो नातिदूरे सुस्लमाणे नमसमाणे अभि- मासियाए सलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सढि भत्ताई अणमहे विणएणं पंजलियपुडे पज्जुवासति,मेहे त्ति । समणे भग सणाए छेदेत्ता आलोयियपडिकंते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते वं महावीरे मेहं अणगारं एवं वदासी-से राणं तब मेहा ! | आणुपुब्वेखं कालगएत । ते णं ते थेराभगवंतो मेहं अमगारं रामो पुल्बरतापरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमा- आणुपुच्वेणं कालगयं पासंति २ तापरिनिव्वाणवत्तियंका
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( ४२३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
हमार उस्सग्गं करेति २त्ता मेहस्स आहारमंडयं गएहंति२त्ता विउलामो पदयात्रो सहियं २५पोरुहंति२ सा जेणामेव गुरुसिae are aणामेव समणे भगवं महावीरे तेयामेव उद्यागच्छति २ ता समयं भगवं महावीरं वदंति नमसंति २ ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे याम अणगारे पगइभद्दए ० जाव विणीते से गं देवाखुप्पिएहिं अम्भणुमाए समाणे गोतमातिए समये निग्गंथे निग्गंधीयो यखामेचा श्रम्हेहिं सद्धिं विउलं पव्त्रयं सशियं २ दुरूहसि २ सा सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलं पट्टयं पडिलेहति २ सा भतपारापडियाइक्लिसे श्रणुपुच्चेणं कालगए | एस ं देवाणुपिया | मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए । (मूत्र - ३४ ) ' भंतेत्ति ' भगवं गोतमे सम उ वंदति नम॑सति २ चा एवं वदासी एवं खलु देवाप्पियाणं वासी मेहे गामं अणगारे से गं भंते ! मेहे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहि उवत्र१, गोतमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! मम अंतवासी मेहे णामं serenit urfarer ०जाव विणीए से गं तहारुवाणं थेराणं प्रति सामाइयमाइयातिं एकारस अंगाति - हिजति २ सा वारस भिक्खुपडिमा गुणरयणसंचच्छरं तवोकम्मं कारणं फासेत्ता जाव कित्ता मए अब्भगुनाए समाणे गोयमाइथेरे खामइ २ त्ता तदारूवेहिं ० जाव विउलं पव्त्रयं दुरूहति २ ता दम्भसंधारगं संथरति २ ता दव्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेइ वारस वासातिं सामापरियायं पाउणित्ता मासि या संलेहगाए अप्पाणं भुसित्ता सद्वि भत्तार्ति अणसगाए केद्रेत्ता आलोइयपडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उद्धं चंदिमसूरग्गहगणणक्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्माई बहूई जोयणसयसहस्सा बहूई जोयणकोडीओ बहूई जोश्रणको डाकोडीओ उड्डुं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणस
कुमारमाहिंदचं भलंत गमहासुक्कसहस्साराणयपाण्यारण च्चुते तिमि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजय महाविमाणे देवत्ताए उववसे । तत्थ गं अत्थे गइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पत्ता, तत्थ गं मेहम्स वि देवरस तेत्तीसं सागरोवमातिं ठिती पष्यत्ता। एस गं भंते ! मेहे देवे ताओ देवलोयात्रा आउक्खएं ठिक्खिणं भवक्खणं अंतरं वयं चइता कहिगच्छहिति कहिं उववज्जिहिति ?, गोगमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिनिव्या
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महकुमार हिति सब्वदुक्खाणमंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! समं भगवया महावीरेणं श्रइगरेसं तित्भगरें • जाव संपत्तें अप्पोपालंभनिमित्तं पदमस्स नामज्झयणस्स श्रयमठ्ठे पअत्तेति बेमि । ( सूत्र - ३५ )
' उरालेख ' मित्यादि, उरालेन - प्रधानेन विपुलेन - बहुfereafterीन सभीकेण - सशोभेन ' पयलेलं ' ति गुरुणा प्रदर्शन प्रयत्नवता या प्रमादरहितेनेत्यर्थः, प्रगृहीतेनबहुमानप्रकर्षाद् गृहीतेन, कल्याखेन-नीरोगताकरणेन शिवेम- शिवडेतुत्वात्, धन्येन - धनावहत्वात्, माङ्गल्येन - दुरितोपशमे साधुत्वात् उदद्रेण - तीव्रण, उदारेण - श्रौदार्यवता निःस्पृहत्वातिरेकात्, 'उसमें ' ति ऊर्ध्व तमसः - श्रशानाथा तेन प्रशानरहितेनेत्यर्थः, महानुभागेन- अचिन्त्यसामर्थ्येन, शुष्को - नीरसशरीरत्वात्, 'भुक्खे' तिबुभुक्षावशेन- रुक्षीभूतत्वात्, किटिकिटिका-निर्मासास्थिलraन्धी उपवेशनादिक्रियाभावी शब्दविशेषः तां भूतः प्राप्तो यः स तथा अस्थीनि चर्मणाऽवनद्धानि यस्य स तथा कृशो- दुर्बलो, धमनीसन्ततः नाडीव्याप्तो, जातश्चाप्यभूत्, 'जीवं जीवेण गच्छति' जीवबलेन - शरीरबलेनेत्यर्थः, 'भासं भासमा' इत्यादौ कालत्रयनिर्देशः 'गिलायति ' त्ति ग्लायति ग्लानो भवति, 'से' इति श्रथार्थः श्रथशब्दश्च वाक्योपक्षेपार्थः यथा-दष्टान्तार्थः, नाम- इति संभावनायाम् एव इति वाक्यालङ्कारे, अङ्गाराणां भृता शकटिका-गन्त्री श्रङ्गारशकटका, एवं काष्ठानां पत्राणां-पर्णानां ' तिल' सि तिलदण्डकानाम्, एरण्डशकटिका-परण्डकाष्ठमयी. आतपे दत्ता शुका सतीति विशेषण आर्द्रकाष्ठपत्रभृतायाः तस्या न ( शब्दः ) संभवति, इनिशब्द उपप्रदर्शनार्थः वाशब्दाः-विकल्पार्थाः सशब्दे गच्छति तिष्ठति वा, एवमेव मेघो:नगारः सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः, ' तवेलं ' ति तपोलक्षणेन-तेजसा, श्रयमभिप्रायो -- यथा भस्मच्छन्नोऽग्निर्बहिर्वृस्या तेजोरहितोऽन्तर्वृत्या तु ज्वलति एवं मेघोऽनगारोऽपि बहिर्वृस्याऽपचितमांसादित्वान्निस्तेजा अन्तर्वृत्या तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति उक्तमेवाह - तपस्तेजः श्रिया श्रतीवातीव उपशोभमानः २ तिष्ठतीति ! 'तं श्रत्थि ता मे ' ति तदेवमस्ति तावमे उत्थानादि न सर्वथा क्षीणं तदिति भावः । ' तं जाव ता मे ' मात्रेण यावश्च मे धर्माचार्य: ' सुहत्थी ' ति पुरुषषरगन्धति तत्-तस्मात् यावन्मेऽस्ति उत्थानादि ता इति-भाषाहस्ती शुभाः वा क्षायिकज्ञानादयोऽर्था यस्य स तथा, 'ताव ता व 'ति तावश्च तावश्चेति वस्तुझ्यापेक्षया द्विरुक्तिः ' कडाई' ति कृतयोग्यादिभिः, 'मेहघणसन्निगासं' ति घनमेधसदृशम् -- कालमित्यर्थः, 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्स' प्रित्याख्यात भक्तपानस्य' 'काल'ति मरणम्, 'जेणेव इहं' ति इहशब्दविषयं स्थानम् इदमित्यर्थः ' संपलियंकनिसरणे 'सिपद्मासनसन्निविष्ट: ' पेज्जे' ति श्रभिष्वङ्गमात्रं 'दोस ' कि श्रप्रीतिमात्रम् श्रभ्याख्यानम् - असद्दोषारोपणं पैशुन्यं-पिशुनकर्म परपरिवादः - विप्रकीर्यपरदोषकथा श्ररतिरती ध माधर्माङ्गेषु मायामृषा वेषान्तरकरणतो लोकविप्रतारणं संलेखनां कषायशरीरकृशतां स्पृशतीति संलेखनास्पर्शकः, पाठान्तरेण - संतपासणा भूलिय ' ति संलेखना सेवनाजु
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मेहकुमार
(४२४) मेहकुमार
अभिधानराजेन्द्रः। इत्यर्थः । ' मासियाए ' ति मासिक्या मासपरिमा- मेहचंद-मेषचन्द्र-पुं० । तिलङ्गजनपदस्थामरकुण्डनगरवामाया अप्यास झसिसे ' ति क्षपयित्वा षष्टि भक्कानि सिनि पमिनीदेव्यपासके स्वनामख्याते दिगम्बरे, ती०'अणसणाए' ति अनशनेन, छित्त्वा-व्यवच्छेध, किल
ल ४६ कल्प। पिने २२ भोजने लोकः कुरुते, एवं च त्रिंशता दिनैः | षष्टिभक्तानां परित्यक्ता भवतीति , ' परिनिव्वाणवत्तिय '
मेहचारण-मेघचारण-पुं० नभोवम॑नि प्रविनतजलघरपटसि परिनिर्वाणम्--उपरतिः, मरणमित्यर्थः, तत्प्रत्ययो--नि
प नि लपटास्तरणे जीवानुपातिचङ्क्रमणप्रभवे चारणविशेष, मितं यस्य सः परिनिर्वाणप्रत्ययः-मृतकपरिष्ठापना-कायो-| ती०४६ कल्प। त्सर्ग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, ' आयारभंडगं' ति | मेहच्छीर-देशी-जले, दे० ना०६ वर्ग १३६ गाथा । प्राचाराय-शानादिभेदभिशाय भाण्डकम्-उपकरणं व- मेहण-मेहन-न। मैथुनप्रधानाङ्के, प्रजनने, लिने, भगे च । किस्पादि-श्राचारभाएडकम् , 'पगाभदए' इत्यत्र यावत्क
| स्था० ३ ठा० ३ उ०। रणादेवं दृश्यम्-'पगइउवसन्ते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने प्रामीण भइए विणीए' सि तत्र प्रकृ- मेहणाद-मेघनाद-पुं० । स्तनामख्याते वैताख्यपर्वतविद्याधरे, स्वैर-स्वभावेनैव भद्रकः-अनुकुलवृत्तिः प्रकृत्यैवोपशा- | कृष्णेन स्थापिते रैवतक्षेत्रपाले, प्रा. ०१०। प्रा० म०। न्स:--उपशान्ताकारः, मृदु च तन्माईवं च मृदुमाईवम्- | नालन्दाक्षेत्रपाले , ती० १० कल्प । ('माण' शब्देऽस्मिन्नेव अत्यन्तमार्दवम् इत्यर्थः,अालीनः-आश्रितो, गुर्वननुशासने - भागे २३६ पृष्ठे उदाहरणम् )। पि सुभद्रक एव यः स तथा 'कहिं गए 'त्ति कस्यां गतौ गतः १ क च देवलोकादी उत्पन्नो ? जातः, विजयविमानम
मेहपुर-मेघपुर-न० । स्वनामख्याते भारतपुरे, दर्श० १ तत्व। नुसरविमानानां प्रथम पूर्वदिगभागवर्सि, तत्रोत्कृष्टादिस्थिते-मेहमालिणी-मेघमालिनी-स्त्री०। अवलोकवास्तव्यायां दि. र्भावावाह-'तत्थे' त्यादि, श्रायुःक्षयेण-श्रायुर्दलिकनिर्जर- कुमार्याम् , जं०५ वक्षा श्रा० चूल आ० क०। प्रा० म०। णेन स्थितिक्षयेण-आयुष्कर्मणः स्थितेर्वेदनेन भवक्षयेण-देव.
| नन्दनवने हैमवतकूटस्थायां मेघमालिन्यां देव्याम् , स्था० भवनिवन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेनेति । अनन्तरं 3301 देवभवसम्बन्धिनं 'चयं'-शरीरम् 'चड्स ' ति त्यक्त्वा, अथवा-च्यये-च्यवनं कृत्वा, सेत्स्यति निष्ठितार्थतया वि-मेहमुणि-मेघमुनि-पुं० । लुम्पकगच्छं त्यक्त्वा हीरविजयस्य
समिनियमपिाप्या वा भोत्स्यते शिष्यतां गते स्वनामख्याते मुनौ, “हित्वा लुम्पकगच्छसूरिपकेवलालोकन मोच्यते सकलकाँशैः परिनिर्वास्यति-स्वस्थो दवीं गाईस्थ्यलीलोपमा, प्रोद्यद्बोधिरतो यदाह भजत श्रीहीभविष्यति. सकलकर्मक्रतविकारविरहिततया. किग भ- रवीरान्तिकम् । प्रागस्त्यागपुनर्वतग्रहपरो यो भाग्यसौभापति ?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति । एवं खल्वि' त्यादि | ग्यभूः,स श्रीमेघमुनिर्न कैः सहदयैर्धर्मार्थिषु श्लाध्यते ॥१॥" निगमनम् 'अप्पोपालंभनिमितं ' आप्न-हितेन गुरुणेत्यर्थः, प्रति। उपालम्भो-विनेयस्याविहितविधायिनः आप्तोपालम्भः स | मेहमुह-मेघमुख-पुं० । स्वनामख्याते भवनपतिदेवे मेघकुनिमित्तं यस्य प्रज्ञापनस्य तसथा। प्रथमस्य काताध्ययन
मारे, श्रा० म० १ ० । स्वनामख्याते नागकुमारे, तद्द्वीपस्य अयम्-अनन्तरोदितः मेषकुमारचरितलक्षणोऽर्थो-ऽभि
वासिनि जने च । प्रशा०१पद । प्रव० । स्था० । स्वनामख्याते घेयः-प्राप्तः-अभिहितः । प्रविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य गुरुणा
आपातकिरातामा नागकुमारे देवे, जं० ३ वक्षः । दर्श। मार्गे स्थापनाय उपालम्भो देयो यथा-भगवता दत्तो मेघकुमाराम इवेवमर्थ प्रथममध्ययनमित्यभिप्रायः । इह गाथा- | | मेहरह-मेघरथ-पुं० । जम्बूद्वीपे भारतवर्षे चतुर्विंशतिस्ती'मादुरोहि निउहि, वयणहि चाययोत श्रायरिया। सीसे | र्थकरास्तेषु षोडशः शान्तिनामा: तस्य पूर्वभविकजीवे, कहिं चि खलिप, जह मेहमुणि महावीरो॥१॥" इतिशब्द: सास्वनामख्याते विद्याधरे पमश्रियाः पितरि, आ० चू० समाप्ती, प्रवीमीति-प्रतिपादयाम्येतदहं तीर्थकरोपदेशेन, न १ ('माण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा) स्वकीयखया, इत्येचं गुरुवचनपारतन्ध्यं सुधर्मस्वामी श्रामनोजयस्वामिम प्रति
मे हराई-मेघराजी-स्त्री० । मेघराजीव या सा कृष्णत्वाम्मेभवितव्यमित्येतदुपदर्शनार्थमिति । ज्ञाताधर्मकथायां प्रथमं घराजीति वाऽभिधीयते । स्था०८१०३ उ० । मेघराजीति सातविवरण मेघकुमारकथानकाख्यं समाप्तम् । शा०१ श्रु०१ | याकालमेघरेखातुल्यत्वात्। द्वितीयकृष्णराजौ,भ०६।०५उ० । म०।मेषकुमारस्य पाश्चात्यभये हस्तिरूपस्य यन्नाम दृश्यते | मेहला-मेखला-स्त्री० । खघयधभाम् ॥ ८ । १ । १८७ ॥ तस्केन दत्तमिति ? प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र तत्पर्यतनितम्बादिनि
स्वरात्परेषामसंयुक्तानामनाविभूतानां ख-घ-थ-ध-भ इत्येबासिपमेयरैस्तनाम दत्तमिति श्रीक्षाताधर्मसूत्रे उक्नमस्तीति
तेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । घ-मेहला । प्रा० । काबोध्यम् । ही०३ प्रकाश मेघकारिभवनपतिदेवे, पञ्चा०२ विवा
श्वीनामके कठ्याभरणविशेष, औ० । प्रश्न । काश्चीमेमेषङमारवाहण-मेषकुमारवाहन-न। मेधकारिदेवसंशब्दने,
खलयोः कल्याभरणयोर्यद्यपि नामकोशे एकार्थताऽभिधीपशा०२ विध०।
यते तथापि इह विशेष रूढेरवसेयः । भौ०। रत्नकाच्याम् , मेहषोस-मेषपोष-पुं०। कल्किप्रपौत्रधर्मदसपौत्रे स्वनामख्या- शा०१०१० । रसनायाम् ,शा०१७०६०ा अनु० वे मितशघुपुत्रे, ती०१कल्प ।
"कच्छा कांची य मेहला रसणा" पाइ० ना० ११५ गाधा।
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मेहवई मेवमेघवती
श्र० चू० १ अ० । स्था० आ० म० । आ० क० ।
( ४३५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ऊर्ध्वलोकवाव्यायां दिशाकुमार्याम्
। । ।
मेहुण
पटुप्रज्ञावान् १, धारणामेधावी - पूवधीतयोः प्रभूतयोरपि सूपार्थयोधिरमवधारणाबुद्धिमान २, मर्यादामेधावी - वरसकरणप्रचणमतिमान ३, पमिस्त्रिभिः परेर भन्न त द्यथा-ग्रहणमेधावी धारणा मेधावी मर्यादामेधावी १, महणमेधावी धारणा मेधावी श्रमर्यादामेधावी २, इत्यादि इह यत्र यत्र भङ्गो न भवति तत्र तत्र न दातव्यं, यदि ददाति तदा प्रायश्चित्तम् तत्र यदि पार्श्वस्थादिभ्यः सूत्रमर्थ वा ददाति तदा चत्वारों लघवः, यथाच्छन्देभ्यः प्रददाति ( तदा चत्वारो गुरुमासाः । 'तिविहम्मि श्रीगारो' तिमर्यादामेधाविनो ग्रहणधारणामेधाभ्यां संपन्नस्य श्रसंपन्नस्य या दातव्य मर्यादाविकलयोरितरयोर्न दातव्यमिति त्रिविधेनापि दानरूपतया यथायोगमत्राधिकार इति गाथायां तृती पायें सप्तमी अथ मर्यादामेधाविनोत्पतिमाह- मेरासंतुन मेदाविति मेरा मर्यादा तामेभावी मर्यासंजुत्ता तत्संयुक्तो दामेधावी शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः ०१ उ० १ प्रक० ।
2
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मेहसिरि - मेघश्री - स्त्री० । चमराप्रमहिष्या मेघायाः पूर्वभवमातरि, शा० २ श्र० ३ वर्ग १ श्र० । मेहसीह - मेघसिंह पुं० । पष्ठबलदेववासुदेवयोः पितरि ति० । मेहस्सर - मेघस्वर - त्रि० मेघस्वाति खरो यस्येति । मेघगम्भीरशब्दे जी०३ प्रति अधि० रा० तं । मेहा मेधा खी० श्रुतमहराशी, स्था० ८ डा० ३ ३० । पूर्वश्रुतग्रहणबुद्ध, स० । व्य० । सच्छास्त्रग्रहणपटुत्वे, पापथुतावज्ञाकारिज्ञानावरणीय क्षयोपशमजे चित्तधर्मे, घ० २ अधि० प्रथमं विशेष सामान्यार्थावग्रहमतिरिच्योत्तरः स यऽपि विशेषे सामान्यार्थावग्रहः । नं० हेयोपादयधिषि, । । जं० ३ वक्ष० । श्रजडत्वे, ल० । श्रवधारणायाम्, विशे० । हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपायां प्रशायाम्, सूत्र० १ श्रु० १२ अ० । सामान्यप्रशायाम, सूत्र० १ ० १ ० ३ उ० । पटुतायाम्, आव०५ प्र० । बुद्धी, मेहा मई मणीसा विन्ना थी थिई बुद्धी 'पाइ० ना० ३१ गाथा मर्यादायाम, । सूत्र० २ ० १ ० । मेघा - स्त्री० । चमरस्या सुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याग्रमहिच्याम्, स्था०५ ठा० १३० । (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा 'श्रमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १६६ पृष्ठे उक्ता ।) हाखीय- मेघानीकन० । श्रभ्रपटले, जं० ३ वक्ष० । महावि- मेधाविन - ० । मेधया मर्यादया धावत्येवंशीलमिति निरुविशादेवंभूतो हि गणस्य मर्यादाप्रवर्त्तको भवति अथवा मेधा-धुतग्रहणशस्तिद्वानेवंभूतो हि श्रुतमन्यतो टिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवति । स्था० ६ ठा० ३ ३० । विज्ञानवति प्रा० ० ३ ० सू० अपूर्वश्रुत ग्रहणशक्तिमति, उपा० ७ श्र० । कल्प० । स्था० । प्रश्न० । । ।
•
सकृच्युतदृष्टकर्मज्ञे,अनु॰ । उपा० श० हिताहितशाप्तिषरिहाराभिशे, सू० १ श्रु० १२ श्र० । तत्त्वदर्शिनि, श्राचा० १ ० ३ ० २ उ० । बुद्धिमति, आचा० १ श्रु० २ श्र० ६ उ० | व्य० | उत्त० । कुशले, आचा० १ ० १ ० २ उ० । मर्यादावति, विवेकिनि च । सूत्र० १ ० १० प्र० । मर्यादाव्यवस्थिते विदितयेये न सूत्र० १ ० १३० सदसद्विवेकिनि च । सूत्र० १ ० १५ श्र० । मेधावी --ग्रह
धारणमर्यादा मेधाविभेदात्त्रिधा । वृ० ६ उ० | सूत्र० । श्र ध्ययनाधवचारशक्रिमति, मर्यादावर्तिनि च । उ० १ श्र० । न्यायावस्थिते, श्राव० ३ अ० । संयते, सूत्र० १ ० १ ० २ उ० । प्रति० । परस्पराभ्याहतपूर्वापरानुसन्धानदक्षे, रा० । जी० । श्रा० म० । स्वामिपदसंज्ञादिप्राप्तार्थाधारके, जं० ३ वक्ष० । अवधारणशक्तिमति, उत्त० २ श्र० । सर्वभावशे, श्राचा० १ ० ६ ० १ उ० । श्रा० म० । अथ मेधाविद्वारमाहउम्हणधारणाए, मेराए चैव होइ मेधावी । तिविम्मि अहीकारो, मेराजुतों मेघावी ॥ मेधावी त्रिविधस्तद्यथा अवग्रहणमेघावी --सूवार्थग्रहण
२०७
।
मेहिय मेधिक - न० | स्थविरात्कामधेर्निर्गतस्य वैश्यपाटिकगणस्य द्वितीयगणे, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । मेहुण मैथुन-न० | मिथुनं दाम्पत्यं तत्र भवं मैथुनम् । श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ ० ३ उ० । मिथुनस्य स्त्रीपुंसलक्षणस्यभावः कर्म वा मैथुनम् । श्रतु० । ध० । प्रश्न० । वृ० । स्था० । श्राचा० । श्रब्रह्मन्त्ररणे, आ० चू० ४ श्र० । व्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरवेपथुलक्षणे स्था० १० डा० ३ उ० प्र० प्र० । स्याद्यभिलापसंज्ञानिषेदमहोदयसंये इने, आ० चू० ४ श्र० । घ० । स्त्रीसंपर्के, सूत्र० २ श्रु० ६ अ० । कामसुखे, उत० २ ० कामक्रीडायाम् ध० २ अधि० । कामाभिलाषे, सूत्र० १ ० ४ ० १ उ० ।
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त्रिविधं मैथुनम् -
-
तिविहे मेहुणे पते । तं वहा दिव्ये, माणुस्सए, तिरिक्खजोगिए । तयो मेहुणं गच्छेति । तं जहा देवा, मणु। पुरिसा, सपुंसगा (सूत्र - १२३ ) स्सा, तिरिक्खजोणिया । तत्र मेहुणं सेवंति । तं तहा- इत्थी, ।
"
'तिषिहे मेरी इत्यादि कयं नवरं मिथुनं स्त्रीपुंसयुग्मं तत्कम्मं मैथुनम् मारकाणां तन सम्भवति द्रव्यत इति चतुर्थ नास्त्येवेति नोक्तम् । मिथुनकर्म्मण एव कारकानाह'तो' इत्यादि कव्यम् तेषामेव भेदानाह' तो मेडुलं इत्यादि - कण्ठ्यम् । स्था० ३ ठा० १ उ० । सूत्र० । अथ मैथुनमभिधित्सुराह
"
मेपि यतिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च । ठाणाई मोनू, पडिसेबनसोधि सभ्चेव ।। ६५ ।। मैथुनमपि त्रिविधं तद्यथा- दिव्यं मानुष्यं तैरिश्वं च । अत्र च येषु स्थानेष्येतानि दिव्यादीनि मैथुनानि सम्भवन्ति तानि मुक्त्वा स्थातव्यं, यदि तेषु तानि वा दिव्यादीनि प्रतिसेवते तदा तदेव स्थानप्रायश्चिसं सेव च प्रतिसेवनायां शोधिर्वा प्रथमोंदेश सागारिकसूत्रे अभिहिता ।
अथ द्वितीयपदं सप्रायश्चित्तमुच्यते तत्र परः प्रेरयतिमुलुत्तरसेवासुं अवरपदम्मि य शिसिज्झती सोधी । पुतिविहे, सोधीऽवट्ठायतो किहि गु ॥ ६६ ॥
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मेहण
(४२६), मेहुण
अभिधानराजेन्द्रः। मूलगुणोत्सरगुणप्रतिसेवनासु प्राणातिपातपिण्डविशोधिप्र
साध्व्या सह मैथुने दोषाःभृतिविषयासु, अपरपदे-उत्सर्गापेक्षया अन्यस्मिनपवादा
अणॉलोयंतो हु एक पि, ससल्लमरणं मरे । ख्ये स्थाने शोधिः-प्रायश्चितम् तावनिषिध्यते न दीयते इत्य
सयसाहस्स नारीणं, पोट्ट फालिन्तु निग्घियो ।। थः । मैथुने-पुनस्त्रिविधेऽपि किमर्थमपवादतः प्रतिसेव्यमाने शोधिरभिधास्यते ? सूरिराह-द्विविधा प्रतिसेवना-दर्पिका,
सत्तट्टमासिगब्भे च, फडफडते णिगित्तई। कल्पिका च।
जो तस्स जत्तियं पावं, तत्तियं तं नवं गुणं ।। अनयोः प्ररूपणार्थ तावदिदमाह
एकसित्थीपसंगणं, साहू बंधिज्ज मेहुणे । रागद्दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा । साहुणीए सहस्सगुणं, मेहुणे क्खु णिसेविए । पाराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेणं ॥६७।।
कोडीगुणं तु पज्जेणं, तइए बोही पणस्सइ । रागद्वेषाभ्याम्-अनुगता-सहिता या प्रतिसेवना सा द- जो साहू इत्थि ( मेराए, मेहुणे इत्थिया ठिए )॥ पिका, या तु कल्पिका सा तदभावात्-रागद्वेषाभावाद्भव- बोहिलाभपरिभट्ठो, कहं चरो सहाहिही। ति। शिष्यः प्राह-दर्पण कल्पेन वा सेविते किं भवतीति ?, उच्यते-कल्पेनासेविते शानादीनामाराधना भवति । दर्पण
अबोहिलाभियं कम्म, संजओ संजई वि य । प्रतिसेविते तेषामेव विराधना भवति । वृ०४ उ । ( अत्र
मेहुणे सेविए आऊ, तेउक्काई पबंधई ॥ विशेषः ' मूलगुणपडिसेवणा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३७० जम्हा तीसु वि एएसु, ऽवरज्झतो हु गोयमा!। पृष्ठे गतः)
उस्सग्गे ववहारे, मग्गंठ (निट्ठ) वइ सव्यहा भगवंता॥ त्रिविधे दिव्यमानुष्यतैरश्चलक्षणे मैथुने कथमभिलाष उ- एएणं नाएणं, जे गारत्थी मउक्कडो य। त्पद्यते ?. सूरिराह
रतिंदिया ण छइंति, इत्थियं तस्स का गई। वसहीए दोसेणं, दटुं सरिउं व पुव्वभुत्ताई।
ते सरीरं सहत्थेणं, छिंदिऊणं तिलं तिलं । तेगिच्छं सद्दमादी, असजणातीसु वा जतणा ॥८३॥ अग्गिए जइ वि होमंति, तो विसुद्धी ण दीसह ॥ यसतेयॊषेण-स्त्रीपशुपण्डकसंसक्किलक्षणेन । यद्वा-स्त्रिय- महा०६ श्र० (मैथुनसङ्कल्पो न करणीय इति 'परदारगमण' मालिङ्गनादिकं वा दृष्या गृहस्थकाले वा यानि स्त्रीभिः शब्दे पञ्चमभागे ५२८ पृष्ठे गतम्) साई भुक्तानि वा हसितानि वा उल्ललितानि वा. तानि स्मृ.
मैथुनं सेवमानस्य कीदृशोऽसंयमःस्वा मैथुनाभिष उत्पद्यते । एवमुत्पन्ने किं कर्त्तव्यमित्याह
__ मेहुणे णं मो! सेवमाणस्स केरिसे असंजमे कज्जइ ?, 'तेगिच्छ' इत्यादि चिकित्सा कर्तव्या । सा च निर्विकृतिकप्रभृतिका । तामतिक्रान्तस्य शब्दादिका वा यतना कर्त
गोयमा ! से नहानामए केइ पुरिसे रूयनालियं वा बरव्या । किमुक्तं भवति-यत्रस्थः-स्त्रीशब्दं रहस्यशब्दं वा शु
नालियं वा तत्तेणं कणएणं समभिधंसेज्जा एरिसएणं णोति तत्र स्थविरसहितः स्थाप्यते । श्रादिशब्दाद्यत्रालिङ्ग- गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ, सेवं भंते ! नादिकं पश्यति. तत्रापि स्थाप्यते । ' असज्जण ति' तस्यां सेवं भंते ! त्ति • जाव विहरइ । (सूत्र-१०६) शब्दश्रवखादिरूपायां चिकित्सायां सञ्जनं-सङ्गो गृद्धिरिति
• मेहुणवत्तिए नामं संजोए'त्ति प्रागुक्तम् । अथ मैथुनयावत् , सा तेन न कर्त्तव्या । एवं त्रिष्वपि दिव्यादिषु
स्यैवासंयमहेतुताप्ररूपणसूत्रम्- रूयनालियं व 'त्ति रूतं मैथुनेषु यतना मन्तव्या।
कर्पासविकारस्तद्भता नालिका शुषिरवंशादिरूपा रूतनाइदमेव सविशेषमाह
लिका ताम् , एवं बूरनालिकामपि, नवरं बरं वनस्पतिविविइयपदे तेगिच्छं, णिव्वीतियमादिगं अतिकते। शेषावयबविशेषः । 'समभिधंसेज त्ति' रूतादिसमभिध्वंसनिमित्त निमित्तं पुण, उदयाहारे सरीरे य ।।८४॥ सनाद् , इह चायं वाक्यशेषो दृश्यः । एवं-मैथुनं सेवद्वितीयपदे निर्विकृतिकावमौदारिकनिर्बलाहारोर्द्धस्थाना
मानो योनिगतसत्त्वान्मेहनेनाभिध्वंसयेद । एते च किल ग्रचाम्लाभक्तार्थषष्ठाटमादिरूपां चिकित्सामतिक्रान्तस्य शब्दा
न्थान्तरे पञ्चेन्द्रियाः श्रूयन्त इति । 'परिसए ण' मित्यादिच दिका अनन्तरोना यतना भवति । एषा च सनिमित्ते -
निगमनमिति । भ०२ श०५ उ० । निमिसे वा मैथुनाभिलाषे भवति । तत्र सनिमित्तो-व
मैथुने दोषाः। दिनिमित्तसमत्थः । अनिमित्नः पन:-कमेटन प्रबंभचरियं घोरं, पमायं दरहिद्रियं । आहारतः शरीरपरि वृद्धितश्च य उत्पद्यते । सर्वमेतद्यथा नि- नायरंति मुणी लोए, भेयाययणवजिणो॥१५॥ शीथे प्रथमोद्देशके भणितं तथैव द्रष्टव्यम् । वृ० ४ उ० । अब्रह्मचर्य प्रतीतम् , घोरं-रौद्रं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात् , प्रमा(चतुर्विध मैथुनम् 'मेहुणवेरमण' शब्दे वक्ष्यते ) ( संखडि- दम्-प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात्, दुराश्रयम्-दुःसेवं विदिविषये मैथुनसंभावना, अतः तत्र गमननिषेधसूत्रम् संखडि' तजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात् , यतश्चैवमतो नाचरन्तिशब्दे वक्ष्यते) (योनौ नवलक्षजीवास्तत्र हि स्त्रीपुरुषान् मैथुनं नासेवन्ते, मुनयो लोके-मनुष्यलोके, किं विशिष्टाः ?,इत्याहसेवमानान् दृया शुक्रं निष्काशयतो दोषाः, प्रायश्चित्तञ्च भेदायतनवर्जिनः-भेदः-चारित्रभेदः तदायतनं तत्स्थानमिद'पच्छित्त' शब्द पञ्चमभागे २०० पृष्ठे अवादिषत) मेवोक्लन्यायात्तद्वर्जिनः-चारित्रातिचारभीरवः। इति सूत्रार्थन
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मेहुण
एतदेव निगमयति
मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सर्य ।
( ४२७ ) अभिधानरराजेन्द्रः ।
तम्हा मेहुणसंसर्ग, निम्गंधा वज्जयंति णं ॥ १६ ॥ मूलम्-वीजम् एतद् अधर्मस्थ- पापस्येति पारलौकिकापायः महादोषसमुच्छ्रयम्- महतां दोषाणाम्-चौर्यप्रवृत्त्यादीनां-ससंघात इथेहिकापायः यस्मादेवं तस्मान मैथुनसं सर्गम्-मैथुनसंबन्ध योषिदालापाद्यपि निर्मन्था वर्जयन्ति स fift वाक्यालंकारे । इति सूत्रार्थः । दश०६ श्र०२ उ० । ( मैथु नस्य दर्पिका कल्पिका च प्रतिसेवना-' मूलगुणपडि सेवणा शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३७० पृष्ठे गता ) " न य किंचि असायं परिसिद्ध पाथि जिनवारदेहि में मेहभावं न विणा तं रागदोसेहि १।" ०३ अधि० । कथमेकान्ततो निषेध ! अभीच्यते-नैप दोषोऽस्माकमाहतानाम् नैकान्ततः किंचि तिषिद्धम् अभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय अपि तु द्रव्यक्षेत्र कालमापनाधित्य देव प्रतिषिध्यते तदेव चाभ्युपगम्यते । उत्यगुणाय अपवादो ऽपि गुणाच कालशस्य साधोः । आचा० १० ८ ० ४ उ० । मैथुनदोऽकम् ।
अथ यदुक्रम् "न च मैथुने" दोष इति तनिराचिकीर्षुराहरामादेव नियोगेन मैथुनं जायते यत्तः । ततः कथं न दोषोऽत्र, येन शास्त्रे निषिध्यते ॥ १ ॥ रागः- अभिष्यलक्षणः अथवा स्नेह रागविषपरागरागभेदात् त्रिविधो रागः तत्राचः- अपत्यादिषु द्वितीयः- वेदा दिरूपः, तृतीयः - वादिनां स्वदर्शनपक्षपातरूपः । तत्र रागात्कामोदयरूपादेव शब्दोऽनाभोगमाध्यस्थ्यादिव्यवच्छेदार्थः, नियोगेन अवश्यंभावेन अनेन च मैथुने माध्यस्थ्येन प्रवृत्यसंभवोपदर्शनेन मैथुनवतस्य निरपवादतामाह आह चन विकिपिडिसिद्धं पावि जिगरिदेहिमा मे
?
,
भाना राम ॥१॥ इति मैथुनस्य प्रायः स्त्रीपुरुषस्य कर्म मैथुनं जायते उपपद्यते यतो- यस्मात् तस्मात्कथम् केन प्रकारेसन- नैव दोषो दूपणम् रागलशरास्तज्जन्यकर्मबन्धलक्षणों या अद्वैतस्मिन मैने देन का रसेन शास्त्रे न च मैथुने दोष इत्येयं ग्रन्थे, निषिध्यतेनिराक्रियते त्वया दोष इति गम्यम् । अथवा चकारदर्शनाद्येन च यतश्च शास्त्रे निषिध्यते मैथुनमतः कथं न दोषः इति हृदयम् । अथवा यदि नाम रागाज्जायते मैथुनं तदा जायताम् कुतोऽत्र दोपसद्भावः उच्यते येन कारणेन शास्त्रे निषिध्यते राग इत्यनुवर्त्तते । श्राह च - " को दुक्खं पाविजा, कस्स व सोक्खेहि विम्हश्र हुजा । को वन लभेज मोक्खं, रागद्दोसा जइ न होजा ॥ १ ॥ " अतः शास्त्रनिषिद्धपूर्वकम्मैथुने कथं न दोष इति दम्प्रयोगोत्र वागजन्यं तत्सदोषम" यथा हिंसाविशेषो राजन् च मैथुनम्, अतः सदोषमिति ॥ १ ॥
अथ पक्षैकदेशात्सिद्धोऽयं हेतुरिति परमतमाशङ्क
मान आह
धर्मार्थं पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन परस्यादोषो न तत्र चेतु ॥ २ ॥
मेहुण
"
धर्मार्थम् - पुण्यनिमित्तम्, पुत्रकामस्य सुतार्थिनः अपुत्रस्य हि धर्मो न भवति । यदुच्यते--" अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, एकग नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चाद चरि ध्यति ॥ १ ॥" इति । खदारेषु सकलत्रेषु परकल वेश्यायां वा तदधिगमस्थानत्वात् यदाह" कुलानि पातयन्त्यष्टी, परदारानधिश्रयन् । स्वयं च नएसंस्कारः, पदार्थ लभते सुतः ॥ १ ॥ " तथा " सुचलीफेनपीतस्य, निःश्वासोपहतात्मनः । तस्याधिय प्रसूतेध, निष्कृतिनोंपपद्यते ॥ १॥ तस्यापि प्रभूते नृपतीप्रसवस्य च । निः ष्कृतिः - प्रतिक्रिया सुद्धिरित्यर्थः अधिकारिणे --गृहस्थस्य न यतेः तस्य कलश्राद्यभावात् । ऋतुकाले- श्रार्त्तवसंभयावसरे अम्पदा दोपसंभवात् । यदाह ऋतुकाले यतिशान्ते, वस्तु सेवेत मैथुनम् ब्रह्महत्याफलं तस्य सूतकंच दिने दिने || १ || ” विधानेन -- स्त्रीशरीरे नवानीतदर्भाच्छादनद मणिमूलबन्धनादिना स्मृतिमागौभिहितेन विधिना - थुनं स्याद्भवेद्दोषो- दूषणं, न- नैव, तत्र - मैथुने प्रवृत्तत्वाद्वेदनाकारणाश्रितभोजन हवेति वेद्यदि मन्यसे त्वम् परम् अनेन च पक्षकदेशा सिद्धता हेतोर्दर्शिता, न च मैथुने दोष इत्यस्य य पक्षस्य विषयविशेषोपदर्शनेनाप्यादतिरभिहितेति । अत्राचार्य उत्तरमाहनापवादिककल्पत्वा-मैकान्तेनेत्यसंगतम् ।
वेदं धीत्य स्त्रावाय दधीत्यैवेति शासितम् ॥ ३ ॥ 'धर्मार्थम् इत्यादिविशेषणोपेतमैथुने न दोषः इति यदुकं तत् नवकुत्याह- अपवाद विशेषविधिः तत्रापवादे भव आपवादिकः स चासौ कल्पश्चाचार श्रापवादिककल्प आपयादिकमाये चापवादिककल्पं तद्भावस्तत्त्वं तस्मादापयादवाद, व्यसनगतस्य श्यमांसभक्षणवदिति दृष्टातोऽभ्युहाः। अयमभिप्राय यद्यप्यपवादेन मांसाद्यासेव्यते तथापि तत्स्वरूपेण निर्दोषं न भवति प्रायश्चित्ताद्यप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् किं तईि गुणान्तरकारणत्वेन गुणान्तरार्थिना सदापद्यत इति । एवं मैथुन स्वरूपेण सदोषमप्याकीमाराद्यतित्व पालनासहिष्णुः गुणान्तरापेक्षी समाश्रयते सर्वथा निर्दोषांचे कुमारत्यात् पतित्वपालनोपदेशो ऽनर्थकः स्याद्गार्हस्थ्य त्यागोपदेशश्चेत्यतः साधूकं धर्मार्थादिविशेषणेन मैथुने दोषाभावः अपवादिककल्पत्वात्तस्पेति । ततय नैकान्तेन सर्वथा मैथुने दोष शेत यदुकम् ' न च मैथुने ' इत्यनेन च वचनेन इत्येतदसङ्गतमयुक्तं रागादिभावेन कथंचित्तस्य सदोषत्वादमधिनोऽपि हि पुंसो मैथुने मेहनविकारकारिणः कामोदयस्य तथाविधारम्भपरिग्रहयोयावश्यंभावित्वात् न च कामोद्रेकं विना मेहनविका रविशेषः संभवति, भयाद्यवस्थायामिवेति । श्रापवादिककल्पत्वादिति कचित् पठ्यते । तत्रैकवाक्यतया व्याख्या कार्या । अथ कथमापयादिक कल्पत्वं धर्मार्थादिविशेषणयुक्तमैथुनस्वेत्याह-वेदम् ऋगादिकं हिशब्दो मायाकारार्थः श्रधीत्य पठित्वा, स्नायात्- कलत्रसंग्रहाय स्नानं कुर्यादित्यत्र वेदवाक्ये वेदन्याच्यातृभिर्यदिति यस्मादपत्ये पाठ स्वैच, नाऽपडित्या स्नायादित्येवावधारणे शासितं व्याख्यातमिति ।
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( ४२८) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहुण
विपर्यमाह
स्नायादेवेति न तु य- रातो होनो गृहाश्रमः । तत्र चैतदतो न्यायात्, प्रशंसाऽस्य न युज्यते ||४|| वेदमधीत्य स्नायादेव, वेदाध्ययनानन्तरं कलत्रसंग्रहाय स्नानं कुर्यादेव इत्येव, न तु-न पुनरवधारणं शासितम्, अतः औत्सरिंगको मैथुनपरिहारः। श्रापवादिकमैथुनमित्यभिहितमनेम चापवादिकेऽपि तत्र रागभावसूचनातो- रागजन्यत्वहेतोः, पक्षैकदेशा सिद्धता परिहृता । श्रथाधिकृतवाक्यार्थनिगमनायाऽऽह - यदिति --- यस्मादेवमवधारणविधिः, ततस्तस्माद् कारणात् हीनः - जघन्यो, गृहाश्रमो गृहस्थत्वम्, यत्याश्रमापेक्षयेति गम्यम् । ततः किमित्याह -तत्र च तस्मिन् पुनर्गृहस्थाश्रमे, एतत्-मैथुनम्, धर्मार्थादिविशेषणं संभवति । तत्रैव दारसंग्रहाद्, अतः - एतस्माद्, न्यायाद्-नीतेः प्रशंसा-श्लाघा अस्य-मैथुनस्य न युज्यते न घटते यत्याश्रमापेक्षया हीनगृहाश्रमसंभवित्वेन हीनत्वादस्येति भावः । यथोक्तं पुत्रार्थमित्यत्र 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' इति, तदयुक्तम्- परमतेनैव तस्य वाधितत्वात् । यदाह-" अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्राला-मकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥ १ ॥ " इति ॥ ४ ॥
अथ यदुक्तम् ' प्रशंसा ऽस्य न युज्यते ' इति, अत्र परमत
माशङ्कमान आह
अदोषकीर्तनादेव, प्रशंसा चेत्कथं भवेत् । अर्थापया सदोषस्य, दोषाभावप्रकीर्त्तनात् ||५|| अदोषः- दूषणाभावः तस्य कीर्त्तनं “ न च मैथुने" इत्यनेन मनुवचनेन संशब्दनमदोषकीर्त्तनम्, तस्मादेव निमित्तान्तरoresceार्थमवधारणम्, प्रशंसा - श्लाघा मैथुनस्य युज्यत इति शेषः ?, चेद्यद्येवं मन्यसे तदा यो दोषस्तमाह- कथम् - केन प्रकारेण न कथंचिदित्यर्थः भवेत् — जायेत, प्रशंसेति वर्त्तते । श्रर्थापत्त्या च वेदं ह्यधीत्य स्नायादिति पूर्वोक्कप्रमाणेन सदोषस्य -- पापस्वरूपस्य मैथुनस्य दोषभावप्रकीर्त्तनात् । न च मैथुने इत्येवं लक्षणाद्दोषाभावोक्तिमात्रादेवाप्रमाणकादिति । न हि यदर्थापस्या दोषवदिति निश्चितं तदप्रमाणकेन वचनमात्रेण निर्दोषमिति प्रतिपत्तुं शक्यमिति भावः । श्रथवा 'प्रशंसाऽस्य न युज्यत' इति यदुक्तम् तदयुक्तम्, यतो न मया तत् प्रशतितम्, किंतु निर्दोषमित्युक्तशङ्कां परिहरन्नाह-'श्र दोषे' त्यादि श्रदोषकीर्त्तनमात्रादेव कथं प्रशंसाऽस्य भवतीति चेदिति परमतं, सूरिराह श्रर्थापत्या भवति । अथ तामेवाहसदोषस्य दोषाभावप्रकीर्त्तनात्प्रशंसा कृता भवतीति ॥ ५ ॥ यदुक्तमदोषकीर्त्तनात्प्रशंसाऽस्य युक्तेति तत्त्रादोषतोक्लेरेवान्याय्यत्वमुपदर्शयन्नाह -
तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वा - न्याज्यबुद्धेरसंभवात् । विध्युक्तेरिष्टसंसिद्धे - रुतिरेषा न भद्रिका ॥ ६ ॥ उक्ति:-'न मांसभक्षणे दोष' इत्यादिभणनम् । एषा श्रनन्तराभिहिता इति, धर्मिनिर्देशः, न भद्रिका-न शोभनेति साध्यध
निर्देश:, कुत इत्याह-तत्र मैथुनेऽर्थापस्या प्रागुपदर्शितदोषे प्रवृत्तिहेतुत्वात् प्राणिनां प्रवर्तननिबन्धनत्वादिति हेतु:, प्रयोग या प्राणिनां सदापपदार्थे प्रवृत्तिहेतुभूतोक्तिः सा न भद्रिका यथा हिंसानिर्दोषतोक्तिः सदोषमैथुनप्रवृत्तिहेतुश्चेयम्,
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मेहु
न मांसेत्यादिक्रोक्तिरिति । प्रवृत्तिहेतुत्वमेव कुत इत्याह- "त्या ज्यं मैथुनम् "एवंभूता या बुद्धिस्तस्या असंभवात् अनुत्पादात् न मैथुने दोष एतामुक्ति श्रद्दधानस्य न मे त्याज्यमिदमित्येषा बुद्धिराविरस्तीति त्याज्यबुद्धयभावे च को हि नाम न तत्र प्रवर्तेत, इत्यादित्याज्य बुद्धयसंभवः कुत इत्याह-विधिर्विधानमनुष्ठानं मैथुनस्य तस्योक्तिः- भणितिर्विध्युक्तिस्ततो वि tयुक्तेः, को हि नाम मैथुने न दोषोऽस्तीति वचनाद्विधेयं मैथुनं न प्रतिपद्यते इति । नन्वनेन वचनेन दोषाभावमात्रमेव मैथुनस्योक्तमिति कथमियं विध्युक्तिः स्यादित्याह - इष्टस्यानादिमहामोहवासनावासितमानसानां देहिनामभिलषितस्य
मैथुनस्तो मैथुननिर्दोषताभिधायकवचनात्संसिद्धिर्निष्पत्तिरिष्टसंसिद्धिस्तत इष्टसंसिद्धेः, को हि तस्य निर्दोषतामवग म्य तदिष्टं न निष्पादयति । इष्टं चेदं सर्वप्राणभृतामित्याह च" कामिनीसंनिभा नास्ति, देवताऽन्या जगत्त्रये । यां समस्तोs पि पुंवर्गो, धन्ते मानसमन्दिरे ॥ १ ॥ " श्रत उक्तिरेषान भद्विकेति व्याख्यातमेव । श्रथवा-उक्तिरेषा न भद्रिकेत्यस्यां प्रतिशायां प्रवृत्तिहेतुत्वादयो भिन्नाश्चत्वारो हेतव इति ॥६॥
मैथुनं प्रकारान्तरेण दूषयन्नाह - प्राणिनां बाधकं चैत-च्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नालिकात प्रकरणक- प्रवेशज्ञाततस्तथा ॥ ७ ॥ प्राणिनां जीवानां बाधकमुपघातकम्। चशब्दो दूषणान्तरसमुच्चयार्थः । एतन्मैथुनं शास्त्रे व्याख्याप्रज्ञप्त्याख्यपञ्चमाने गीतं - गदितं महर्षिभिः— महामुनिभिः श्रीवर्द्धमानस्वामिप्रमुखैः । कथं बाधकं गीतमित्याह - नलिकायां वेणुपर्वादिरूपायां तप्तस्याग्निना दीप्तस्य कणकस्य -- लोहशलाकाविशेषस्य प्रवेशः -- प्रक्षेपः स एव ज्ञातमुदाहरणम्, ततो नलिकातकणकप्रवेशज्ञाततः, तथेति तत्प्रकारात् रूतभृतनलिकेति विशेषणयुक्ता । तथा हि ( भगवत्याम्- ) " हेडुणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसप श्रसंजमे कज्जर ?, गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे दूरनलियं वा रूयनलियं वा तत्ते २ श्रोकणपणं २ समहिधंसेज्जा मेहुणं सेवमाणस्स एरिसए - संजमे कजर ति ( भ० २ श०५ उ० ) ॥ ७ ॥
दूषणान्तर माप्तवचनप्रसिद्ध मैथुनस्य ब्रुवाणः प्रकरणपसंहारायाऽऽह-
मूलं चैतदधर्मस्य, भवभावप्रवर्द्धनम् । तस्माद्विषान्नवन्याज्यमिदं मृत्युमनिच्छता ॥ ८ ॥
मूलम् - कारणम्। चशब्दः समुच्चये । एतन्मैथुनमधर्मस्य-पापस्य यत एवमत एव भवभावस्य - संसारसन्तायाः, अथवाभवे संसारे ये भावा- उत्पादास्तेषां भवहेतूनां वा भावानांपरिणामानां प्राणवधाविक्रोधादीनां प्रवर्द्धनं वृद्धिकरमिति विग्रहः । उक्तञ्च--"मूलमेयमहम्मस्स, महादोसममुस्वयं । तम्हा मेहुण संसगं ग्गिंथा वज्जयंति गं ॥ १ ॥ " यस्मादेवं तस्मात्कारणाद्विषान्नवत् हालाreforभोजनमिव त्याज्यं परिहार्य मृत्युं मरणमनिच्छता - अनभिलषता श्रमुमूर्षुणा यथा विषानं त्यजनीयमेवं मैथुनं त्याज्यमिति भावः ॥ ८ ॥ हा० २० अ० । सूत्रo (यो ह्याचायों गणावच्छेदको वा गणादपक्रम्य गरामनिक्षिप्य वा मैथुनं प्रतिसेवते स नोपदेष्टुं शक्नोतीति 'उ
द्वा० ।
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(४२६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मेहु
देश' शब्दे द्वितीयभागे ८०६ पृष्ठे गतम् ) ( संयत्या मैथुनासक्कायाः प्रतिक्रिया 'आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे ४२६ पृष्ठे दर्शिता )
भयवं निम्भट्ठसीलाणं, दरिसणं तं पि निच्छसी । पच्छितं वागरेसी य, इति उभयं न जुज्जए ॥ गोयमा ! भट्ठसीलाणं, दुत ( त ) र संसारसागरे । धुवं तमणुकंपित्ता, पायच्छित्ते पदरिसिए । भयवं ! किं पायच्छित्तेणं, छिंदिजा नारगाउयं । (अणु) चरिऊ विपच्छित्तं, बहवे दुग्गरं गए ॥ गोयमा ! जे समजेजा, ऽणतं संसारियत्तणं । पच्छित्ते धुवं ते पि, छिंदे किं (पुणो ) नरयाउयं || पायच्छित्तस्स भावेण, नासत्तं किंचि वञ्जए । बोहिलाभं पमोत्तू, हारियं तं न लब्भए ॥ तं वाउकायपरिभोगे, तेउकायस्स निच्छियं । अहिलाभि कम्मं, वज्जए मेहुणेण य ।। मेहुणं आउकायं च, तेउकायं तहेव य । तम्हा तो विजं तेणं, वजेजा संजईदिए । महा० २ ० ।
निर्ग्रन्थ्याः उच्चारप्रस्रवणे कुर्वन्त्या इन्द्रियजातं परामृशेत् निर्ग्रन्थिः स्वदेत् हस्तकर्मप्रति सेवनाप्राप्ता
निग्गंथीए य रातो वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विfर्गचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजातए वा पक्खिजातीय वा अन्यरं इंदियजायं परामुसेज्जा, तं च fariथी साइजेज हत्थकम्मपडि सेवणप्पत्ता श्रावजइ मासियं परिहारद्वाणं अगुवाइयं ॥ १३ ॥ निग्गंधीए य राम्रो वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजाती वा पक्खिजातीए वा अन्नयरंसि सोयंसि श्रोगाहिजा, तं च निग्गंथी साइजिजा मेहुणपडि सेवणपत्ता आज चउम्मासिंयं परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं ॥ १४ ॥ अस्य सूत्रद्वयस्य संबन्धमाहपढभिल्लुगततियाणं, चरितो णत्थोवताण रक्खट्ठा । मेक्खट्ठा पुरा, इंदियसोए य दो सुत्ता ॥ २३६ ॥ प्रथमतृतीययोर्वतयोः प्राणातिपातादत्तादानविरतिलक्षणयोः रक्षणार्थ तीर्थकराननुज्ञातशीतोदकपरिभोगे तयोर्भङ्गो मा भूदिति कृत्वा पूर्वसूत्रस्यार्थश्वरितो -- गतो भणित इत्यर्थः । संप्रति तु मैथुनव्रतरक्षणार्थमिन्द्रियश्रोतो-वि
ये द्वे सूबे श्रारभ्येते । अनेन संबन्धेनायातस्थास्य व्याख्यानिर्ग्रन्ध्या रात्रौ वा विकाले वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा विकुर्वत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरपशुजातीयो बानरादिकः पक्षिजातीयो वा मयूरादिको ऽन्यतरदिन्द्रियजातं परामृशेत्-स्पृशेत् सा च निर्ग्रन्थी तत्स्पर्श स्वादयेत् सुवरोsस्य स्पर्श इत्यनुमन्येत हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्ता श्रा१०८
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पद्यते मासिकमनुद्धातिकं स्यात् । इह निर्ग्रन्थीनां परिहारतपो भवतीति कृत्वा ' परिहारट्ठाणं ' ति पदं न पठनीयमेव । द्वितीयसूत्रमेवमेव व्याख्येयं नवरमन्यतरस्मिन् श्रोतसि योन्यादौ वानरादिरवगाहेत सा च मैथुनप्रति सेवनप्राप्ता यदि स्वादयेत् ततश्चतुर्गुरुकमिति सूत्रार्थः । अथ भाष्यविस्तरःवानरछगलाहरिणा, सुणगादीया य पसुगणा होंति । वरिहिणि चासा हंसा,कुक्कुडसुणगादिणो पक्खी ।२४० । वानरछगलाहरिणाः शुनकादयश्च पशुगणा मन्तव्याः, बणिश्चषा हंसाः कुकुटाः शुनकादयश्च पक्षिण उच्यन्ते । जहि यं तु अणायणा, पासवरणुच्चारतहिं पडिकुटुं । लहुगो य होइ मासो, आणादि सती कुलघरे वा ।। २४१॥ यत्रैते पशुजातीयाश्च प्राणिनः संभवन्ति तदनायतनमुच्यते, तत्र निर्ग्रन्धीनामवस्थानं प्रस्रवणोच्चारपरिष्ठापनं च प्रतिष्टम्, यदि कुर्वन्ति तदा लघुमासः श्राशादयश्च दोषाः । ' सई कुलघरे वत्ति ' भुक्तभोगिन्याश्च स्मृतिकरणं कुलगृहे वा भूयस्तासां बान्धवादिभिर्नयनं क्रियते । इदमेव व्याचष्टे
तात्तविभासा, तस्सेवी कायि कुलघरे आसी । बंधवत पक्खी वा, दट्ठूण णयंति लजाए || २४२ ॥ भुक्ताभुक्तविभाषा – भुक्तभोगिन्याः स्मृतिकरणम्, अभुक्तभोगिन्याश्च कौतुकमुत्पद्यत इत्यर्थः । तथा ' तस्सेविति गृहवासे तैः पशुजातीयादिभिः प्रतिसेविता काचित् कुलगृहे आसीत् सा तान् दृष्ट्रा स्मृतपूर्ववरा प्रतिगमनादीनि कुर्यात् । यद्वा-तासां बान्धवास्तत्पाक्षिका वा सुहृदस्तादृशेऽनायतने स्थितां तामार्थिकां दृष्ट्वा लज्जया भूयः गृहमानयन्ति । किं च
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लिंगणादिया वा अणिहुयमादीसु वा णिवेदेजा । एरिसगाण पवेसो, ण होति अंतेपुरेसुं पि ॥ २४३ ॥ ते पशुजातीया वानरादयस्तां संयतीमालिङ्गेयुः, सा वा संयती तानालिङ्गेत् एवमादयो दोषा भवेयुः । अपि च-पते वानरादयः स्वभावादेवानिभृताः कन्दर्पबहुला मायिनश्च भवन्ति श्रतस्तैरनिभृतमायिभिः सा कदाचिदात्मानं निषेवयेत् । ईदृशानां च पशुपक्षिजातीयानां प्रवेशो राशोऽन्तःपुरेष्वपि न भवति न दीयते । कारणेन पुनरन्यस्या वसतेरभावे तत्रापि तिष्ठेयुः ।
कारणगमणे उ तर्हि, विविंचमाणीऍ आगतो लिहेजा । गुरुगोय होत मासो, णादि सती तु सच्चैव ॥ २४४॥ कारणे तत्रापि स्थितानामुच्चारभूमौ प्रस्रवणभूमौ वा गत्वा fafaaत्याः परिष्ठापयन्त्या वानरादिः समागच्छेत् श्रागतश्च तामालिङ्गेत् । सा च यदि लिह्यान्तरस्पर्श स्वादयेत् ततो गुरुमासः, आज्ञादयश्च दोषाः, स्मृतिश्च सा चैव पूर्वोक्का भवति । अथ न स्वादयति ततः सा शुद्धा । यतना चेयं तत्र कर्त्तव्या
वंदे दंडहत्था, णिग्गंतुं श्रायरंति पडिचरणं । पविते वारेति य, दिवा वि स उ काइए एक ॥२४५॥
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मेहुण अभिधानराजेन्द्रः।
मेहुणसुमिण वृन्दन-द्विव्यादिवतिनीसमुदायेन दण्डकहस्ता निर्गच्छन्ति, मेहणधम्म-मैथनधर्म-पुं० । ब्रह्मव्यापारे, आचा०२ भु०१ निर्गस्य कायिकादिकमाचरन्ति,वानरादीनां च प्रतिचरण कु
| चू० १ ०३ उ०। वन्ति,ये तत्राऽभिद्रवन्ति तान् दराडकन ताडयन्ति, प्रतिश्रये वा प्रविशतो निवारयन्ति। दिवा अपि च-कायिकभूमिमेका- |
| मेहुणधम्मपरियारणा-मैथुनधर्मप्रतिचारणा-स्त्री० । मैथुनध किनी न गच्छति । व्याख्यातमिन्द्रियसूत्रम् ।
मप्रतिसैधनायाम् , अाचा०२ श्रु०१० २ १०१ उ०। संप्रति श्रोत-सूत्रं व्याचष्टे
मेहुणभाव-मैथुनभाव-पुं० । द्वन्द्वकर्मणि, "ण य किंचि अणुएवं तु इंदिएहिं, सोते लहुगा य परिणए गुरुगा।
माय,पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि। मोतु मेहुणभावं,ण विणा
तं रागदोसेहिं ॥१॥" प्राचा०१श्रु०२०५उ०। वितियपदकारणम्मि य,इंदियसोए य आगाढे।।२४६॥ एवं तावदिन्द्रियसूत्रे प्रायश्चित्तविधिश्वोक्तः। यत्र तु पशुजा
| मेहुणवडिया-मैथुनप्रतिज्ञा-स्त्री० । मिथुनभावो मैथुनं, मिथु. तीयादयः श्रोतोऽवगाहनं कुर्वन्ति तत्र तिष्ठन्तीनां चतुर्लघु ।।
| नकर्म वा मैथुनम् : अब्रह्मेत्यर्थः । मिथुनभावे प्रतिपत्तिः-प्र. तेषु श्रोतोवगाहनं कुर्वाणेषु यदि सा सुन्दरमिदमिति परिण
तिक्षा मैथुनप्रतिज्ञा । मैथुनसेवनप्रतिक्षायाम् , नि० चू०५ उ०। ता ततश्चनर्गुरू । द्वितीयपद भागाकारणे इन्द्रिये श्रोत- मेहुणवत्तिय-मैथुनप्रत्ययिक-पुं० । स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति सि च परामर्श स्वादयेदपि । इदमुत्तरत्र भावयिष्यते- । पूर्वकर्मनिवर्तितेारणिकाष्ठयोरिव संयोगे,सूत्र०२ श्रु०३०। कारणे एकाकिन्यास्तिष्ठन्त्यास्तावदियं यतना। मेहुणविरइ-मैथुनविरति--स्त्री० । मिथुनं स्त्रीपुंसद्वन्द्वं तस्य गिहिणिस्मा एगागी, तहिं समं णिति रत्तिमुभयस्स । | कर्म मैथुनं तस्माद् विरतिः। मैथुनविरमणे, प्रब०६६ द्वार। दंडगमारक्खणया, वारेति दिवा य पेल्लंते ॥ २४७॥ मेहुणविहि-मैथुनविधि-पुं० । मैथुनप्रकारे, उपा० । “तदाणेगृहस्थानश्रया कारणे काचिदेकाकिनी वसन्ती ताभिरवि- | तरं च णं सदारसंतोसिए परिमाणं करेइ, णरणत्थ एकाए रतिकाभिः समं राबावुभयस्य प्रस्रवणोच्चारणस्यव्युत्सर्जना- सिवाणंदाए भारियाए, अवसेसं सवं मेहुविहिं पचक्याथं निर्गच्छति, निर्याम्ती च वानरादीनभिद्रवतो दण्डकेन सं. मि ।" उपा०१०। रक्षति । दिवा च प्रतिश्रयं प्रेरयतः-प्रविशतो निवारयति। मेहुणवरमण-मेथुनविरमण-न। मिथुनं स्त्रीपुंसद्ध तस्य अथ गाढकारणं व्याच -
कर्म मैथुनं तस्माद् विरमणम् । पा० । ब्रह्मचयें, (तच देशतः अट्ठाणसद्दालिं-गणादिपयकम्मऽतित्थिता संती। । श्रावकस्य चतुर्थमणुव्रतं भवतीति । 'सदारसंतोस 'शअचित्तं पिंप(बिम्ब) अणिहुत,कुलघरसङ्गादिगेहे वा।४।
ब्दे वक्ष्यते ) सर्वतः साधोश्चतुर्थे महावते, दश० ४१०। कस्याधिदार्यिकायाः सनिमित्तोऽनिमित्तो वा मोहोद्भवः
(अत्रत्यसूत्रम् 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभाग २६१ पृष्ठे गतम्) संजातस्ततो निवृत्तिकादिकायां मोहचिकित्सायां कृताया
मेहुणसमग्ग-मैथुनसंसर्ग-पुं० । मैथुनसम्बन्धे, “मूलमेयममपि यदा न तिष्ठति तदा अस्थाने शनिबद्धायां वसती
| हम्मस्म, महादोससमुम्सयं । तम्हा मेहुणसंसर्ग, निग्गंथा स्थापनीया, ततो यत्राविरतिकानामालिङ्गनादिकं क्रियमाणं |
वजयंति णं ॥१६॥" दश०६०२ उ०।। दृश्यते तत्र स्थाप्यते । तथाऽप्यनुपरते मोहे पादकर्म करोति। मेहणसम्मा-मैथुनसंज्ञा-स्त्री० । मैथुनं संज्ञायते ऽनयेति मैथुनतदप्यतिक्रान्ता सती यदचि पिम्पं हुण्डुशिरादिकं तेन प्रति- | संज्ञा। पुंवदादयान्मैथुनाय स्ख्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भिसेवयति । तथाऽप्यतिष्ठन्ती योऽद्य न वृतस्तेनास्थानादिकंस- तारुवेपथुप्रभृतिलक्षणायां क्रियायाम् ,स्था०१ ठा०३ उ० भ०। र्वमपि कृत्वा ततः कुलगृहे भगिन्या भ्रातृजायाया वा श्रा- श्राव । स्यादिवदादयरूपायां संज्ञायाम, श्राचा०१ २०२ लिङ्गनादिकं क्रियमाणं प्रेक्षते, तदभाव श्राद्धिकायास्तदप्रा
अ० १ उ० । चतुर्भिहेनुभिमैथुनसंशोत्पद्यत । स्था० । सौ तथा भद्रिकाया अपि प्रेक्षने । प्रथममिन्द्रिये पश्चात् श्रो
__ चउहि ठाणेहिं मणमन्ना ममुप्पज्जति, तं जहा-चितनास्वपि यतनयन्ति । वृ० ५ उ० । " मेहणं पडिमेवमाणे सबले भवति" स. २१ सम०। ('सबल'शरदे-व्याख्या) मैथु
मंसमाणिययाए मोहणिजम्म कम्मस्स उदएणं मतीए तनमब्रह्म अतिक्रमादिना सेवमानोऽनुद्धानको भवति । स्थान दह्रोवोगेणं । ( सूत्र-४) ठा०२ उ० । (यो हि खिया सह संयोगं नाभिलपति स धन्य चित-उपचिते, मांसशोणिने यस्य म नथा, नद्भावस्नना इति 'इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे ६२० पृष्ठे उक्कम ) ( मातृग्रा- तया चिनमांसशागिततया, मत्या-मुग्नकथाश्रवणादिजमस्य मैथुनप्रतिक्षया प्रतिसेवनादिकं निशीथचूर्णिसप्तमोद्देश- नितबुद्धया, तदर्थोपयोगेन-मैथुनलक्षणार्थानुचिन्तने त । कादवसेयम् ) (मैथुनाथ हस्तकर्म निशीथचर्णी प्रथमोहेश अविमुक्ततया-माग्ग्रहनया मत्या सचेतनादिग्ग्रिहदर्शनाके व्याख्यातम् ) ( सागारिकायां वसतौ न स्थेयं नत्र मैथुन दिजनितबुद्धया नदापयोगेन-परिग्रहानुचिन्तनेनेनि । स्थान दोपः स च 'वसहि' शब्दे वक्ष्यते) (प्रश्नव्याकरणाका चतुर्था. ४ ठा०४ उ० । मैथुनविग्तर्गतक्रमः पडिक्कमण' शब्द पश्च नवद्वारोक्का निखिला वक्तव्यता 'अबंभ ' शब्द प्रथमभागे मभाग २६५ पृष्ठ गतः) ६७५ पृष्ठे उक्का )मधुसर्पिषि, पौणिकमते मैथुनशब्देन मधु-मेहणशाल-मैथुनशाल-न० । रतिगृह, निचू०८ उ०। सर्पिषार्ग्रहणं भवति । स्या० । मातुलपुत्रे, पुं० । बृ० उ०।
| महुणसुमिण--मैथुनस्वप्न-पुं० । स्वप्न मैथुनकरण, 'मेहुणमेहणकम्म-मैथुनकर्मन्--न । हस्तकर्मणि, व्य०२ उ०।।
सुमिण अट्ट मय' मथुनस्वप्ने ऽएशतमशेत्तरशनोच्छासमान मेहुणट्टि(ण)-मैथुनार्थिन-पुं० । उद्भ्रामके, बृ०१०।।
कायान्सग कुर्यादित्यर्थः । जीता।
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मेहुणिमा अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्रव
प्यनयोः सहचरत्वात् । सम्यग्ज्ञानस्य क्रियातः पृथगुमेह (धु) णित्रा-देशी-श्याली-मातुलात्मजयोः, देना
पादानाद् या क्रिया सम्यग्ज्ञानपूर्विका सैव तत्कारणं न पुन ६ वर्ग १४८ गाथा।
मिथ्यात्वमलपटलावलुप्तविवेकविकलानां मिथ्याज्ञानपूर्विका मेहणिय-मैथुनिक-पुं०। मातुलपुले, वृ०४ उ०।
- फलमूलशैवालकवलनादिका । कृत्स्नस्य-अष्टप्रकारस्यामेहणिया-मैथनिकी-स्त्री०। मैथुनजीवनायां पण्याङ्गनायाम,
पि न तु कतिपयस्य जीवन्मुक्केरनभिधित्सितत्वात् । कर्मणः व्य०१ उ० । मातुलदुहितरि, बृ०४ उ०।
झानावरणीयादेरदृष्टस्य न तु बुद्धधादिगुणानामपि, नापि शामेहोदय-मेघोदक-न । मेधेषु वर्षत्सु यत्कस्मिश्विनिलपे शु- नमात्रसन्तानस्य, क्षयः-सामस्त्येन प्रलयः स्वरूपं यस्याःसा भे स्थानेऽधिक्रियते तन्मेघोदकम् । मेघजले, ज्यो०२ पाहु.। तथाः एतेन नैयायिकसौगतोपकल्पितमुक्तिप्रतिक्षेपः । एवंमहोह-मेघौघ-पुं०। मेघानामोघः-संघातो मेघौघः । मेघ-| विधा सिद्धिांक्षो भवति । रत्ना०७ परि० । “सम्यग्भासमूहे, "मेहोहरसियं "मेघस्येवौधेन प्रवाहेन रसितं
वपरिज्ञानाद् , विरक्ताभावतो जनाः । क्रियां सत्कृत्याऽवि. यस्याः सा मेघौधरसिता। प्रा० म०१०। रा०।
भेन, गच्छन्ति परमां गतिम् ॥१॥" दशा०१०। (मोक्षमोश-देशी-अधिगतचिर्भिटिकादिबीजकोशयोः, देना ।
सिद्धिः केवलिसमुग्घाय'शब्दे तृतीयभागे६५६पृष्ठे तत्रैव के
वलिनः सर्वा समुद्धातक्रिया व प्रत्यपादि) “विनिर्मुक्काशेष६ वर्ग १४८ गाथा।
बन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरूपस्यात्मनो लोकान्तेऽवस्थानं मोक्षः मोक्कणिश्रा-देशी-असितपद्मोदरे, दे० ना०६ वर्ग १४० गाथा।
"बन्धवियोगो मोक्षः” इति वचनात् । सम्म० ३ काण्ड । मोक्ख-मोक्ष-पुं० । मुच्-षः। परित्यागे, श्रा० । निसर्गे, ('बंध' शब्दे पञ्चमभागे ११६४ पृष्ठेऽत्र विशेषो गतः) सविशे० । प्रात्यन्तिके पृथग्भागे, उत्त०१० । छटने, आ.
र्वकर्मनिर्जरावद्भिस्तु स्वसंवेदनाध्यक्षतः परमपदप्राप्तिहेतोः चू. १ अ० । संसारप्रतिपक्षभूते, जी० १ प्रति० । दुःखापगमे,
सम्यग्दर्शनशानदेः स्वसंवेदितत्वात्सर्वकर्मापगमाविर्भूतचैमोक्षकारणे वा संयमानुष्ठान, प्राचा० १ थु०६अ०१उ० ।
तन्यसुखस्वभावात्मस्वरूपस्य मोक्षस्याप्यनन्तरोकन्यायतः निर्वाणे, पञ्चा० १ विव० । सम्यग्दर्शनशानचारित्रेभ्यः कर्म- प्रतिपत्तिःमता,तथाहि-यदुत्कर्षतारतम्याद्यस्यापचयतारतणामत्यन्तोच्छदे, ध०१ अधि० । सूत्र० । जीवस्य रागद्वेषम
म्यं तत्प्रकर्षनिष्ठागमने भवति तस्यात्यन्तिकः क्षयः यथा-उष्णदमोह जन्मरोगादिदुःखक्षयरूपेऽवस्थाविशेषे, ध०२ अधिक। स्पर्शतारतम्याच्छीतस्पर्शस्य, भवति च ज्ञान-वैराग्यादेरुसकलकांशः (नि.१ श्रु.१ वर्ग १०) मुक्तत्वे, पाचू०१
(कर्षतारतम्यादज्ञान-रागादेरपचयतारतम्यमित्यनुमानतो अ०। सकलकर्मवियोगे, औ० । सर्वकर्माभावलक्षणे,आत्मन
भगवदागमतश्चास्मदादेरपवर्गसिद्धिः । भगवतां तु केवलास्तादात्म्यावस्थाने, अष्ट०२७ श्रष्ट । सव्वकम्मावगमो मो- ध्यक्षत इति । सम्म०३ काण्ड०६३ गाण्टी। आचा०।०। खो भरणति। नि०चू १ उ० । कृत्स्नकर्मक्षये,स्या० । उपा०।। स्था० । विशे० । (निव्वाण' शब्दे 'बन्ध राब्दे च मोनीसेसकम्मविगमो, मुक्खो जीवस्स सुरूवस्स ।।
क्षतत्त्वसिद्धिर्विस्तरेण प्रपश्चिता)
एगे मोक्खे ( सूत्र-१०) साइणपज्जवसाणं, अव्वाबाहं अवत्थाणं ॥३॥ निःशेषकर्मविगमो मोक्षः-"कृत्साकर्मक्षयान् मोक्ष" इति व-
मोचन कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोक्षः , आह च-- चनात् । (तत्त्वार्थाऽधिगमसूत्रम्-१०१) जविस्य शुद्धस्वरू
त्स्नकर्मक्षयान्माक्षः , ' स चैको ज्ञानावरणीयादिकर्मापस्य-कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्येत्यर्थः । साद्यपर्यवसानम्
पेक्षयाऽष्टविधोऽपि मोचनसामान्यात् , मुक्तस्य वा पुनर्मोअव्याबाधम्-व्याबाधावर्जितमवस्थानम्-अवस्थितिः जीव
ताभावात् । ईषत्प्रारभाराव्यक्षेत्रलक्षणो वा द्रव्यार्थतयैकः, स्यासौ मोक्ष इति । साद्यपर्यवसानता चेह व्यक्त्यपेक्षया न
अथवा-द्रव्यतो मोक्षो निगडादितः , भावतः कर्मत
स्तयोश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति । स्था०१ ठा। तु सामान्येन , तेन मोक्षस्याप्यनादिमत्त्वमिति । श्रा० ।
स०। 'गस्थि बंधे य मोक्खे य, ऐवं सन्नं निवेसए । कर्मविचटने, प्राचा० १ श्रु० ४ ० ४ उ० । “ पुष्टिः
अस्थि बंधे य मोक्खे य, एवं सन्नं निवेसए ॥ १५॥' सूत्र पुण्योपचयः, सुद्धिः पापक्षयेण निर्मलता । अनुबन्धिनि
२ श्रु०५०। ('अस्थिवाय' शब्द प्रथमभागे ५२० पृष्ठे द्वयेऽस्मिन् , क्रमण मुक्तिः परा ज्ञेया ॥१॥" षो० ३ विव० ।
व्याख्यातैषा) (सिद्धशब्दोऽप्यत्र वीक्ष्यः) (मोक्षे सुखम(धम्म' शन्दे चतुर्थभागे २६६६ पृष्ठे व्याख्यातम्)
स्तीति 'सिद्ध' शब्दे वक्ष्यामि) तस्योपात्त'खाशरीरस्य सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां कृत्स्नकर्म
सश्चिदानन्दलक्षणं ब्रह्मपरमार्थतत्त्वं तत्संप्राप्तिर्मोक्ष इति वेक्षयस्वरूपा सिद्धिः ॥ ५७॥
दान्तिनः । शानं सुख वा मोक्षेऽवतिष्ठते ससातत्त्वादिति तस्य-अनन्तनिरूपितस्वरूपस्य आत्मनः, उपासपुंस्त्री- नैयायिकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते-एवं च श्रात्मविशेषगुणोच्छेदशरीरस्य-स्वीकृतपुरुषयोषिद्वपुषः, एतेन स्त्रीनिर्वाणद्वे- | स्वरूपां मुनिमशानादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाहपिणः काष्ठाम्बरान् शिक्षयन्ति । सम्यग्ज्ञानं च यथाव- | न संविदानन्दमयी च मुक्तिः, सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः। स्थितवस्तुतत्वाववोधः, क्रिया च तपश्चरणादिका , तथा न संविदित्यादि, मुक्ति-मोक्षः; न संविदानन्दमयीताभ्याम् । ननु सम्यग्दर्शनमपि कृत्स्नकर्मक्षयकारणमेव ।। न ज्ञानसुखस्वरूपा । संविद्-शानम् , अानन्दः-सौख्यम् , यदाहुः-(उमास्वातिवाचकाः)-" सम्यग्दर्शनशानचारि- | ततो द्वन्द्वः, संविदानन्दो प्रकृती यस्यां सा संविदानन्दत्राणि मोक्षमार्गः " इति । तत्कमिह नोपदिष्टम् ? । मयीः एतादृशी न भवति । “बुद्धिसुखदुःखेन्छाद्वेषप्रयत्नधउच्यते-सम्यग्ज्ञानोपादानेनैव तस्याक्षिप्तत्यात् , योर- | धिर्म संस्काररूपाणां नवानामात्मनो वैशेषिकगुमनामस्य
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मोक्ख
लोच्छेदो मोक्ष " इति वचनात् शब्दः पूर्वोक्राभ्युपगमद्वयसमुच्चये । ज्ञानं हि क्षणिकत्वादनित्यम् सुखं च सप्रक्षयतया सातिशयतया च न विशिष्यते, संसारावस्थातः इति । तदुच्छेदे आत्मस्वरूपेणावस्थानं मोक्षः इति । प्रयोगश्चात्र नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानः - श्रत्यन्तमुच्छि - सन्तानत्वात्, यो यः सन्तानः सः सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते यथा प्रदीप सन्तानः तथा चायम् तस्मादत्यन्तमुि द्यत इति तच्छेद एव महोदयः, न कृत्स्नकर्मक्षय लक्षण इति । " न हि वे सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपदतिरस्ति " | अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः 39 । इत्यादयोऽपि वेदात्तास्ताशीमेव मुक्तिमादिशन्ति । अत्र हि प्रियाप्रिये सुखदुःखे ते वाशरीरं मुहं न स्पृशतः । अपि च
"
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9
"
,
यावदात्मगुणाः सर्वे नोझा वासनादयः । तावदात्यन्तिकी दुःखावृत्तिर्न विकल्प्यते ॥ १ ॥ धर्माधर्मनिमित्तो डि. सम्भवः सुखदुःखयोः । मूलभूतौ च तावेव स्तम्भौ संसारसद्मनः ॥ २ ॥ तदुच्छेदे च तत्कार्य- शरीराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुखदुःखे स्तः, इत्यसौ मुक्त उच्यते ॥ ३ ॥ द्वेषप्रयत्नादि, भोगाऽऽयतनबन्धनम् । उभोगाऽऽयतनो, नाऽऽत्मा तैरपि युज्यते ॥ ४ ॥ तदेयं पादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वसः सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः ॥ ५ ॥ ननु तस्यामवस्थायां कीरगारमा वशिष्यते । स्वरूपप्रतिष्ठानः परित्यको खिलेगुणे ॥ ६ ॥ ऊर्मिषट्काऽतिगं रूपं तदस्याऽऽहुर्मनीषिणः । संसारबन्धनाऽधीन - दुःखक्लेशाद्यदूषितम् ॥ ७ ॥" कामक्रोध लोभगर्वरम्भद-ऊर्मिषदकमिति । तदेतदभ्युपगमत्रयमित्ये समर्थवद्भिः अत्य-वदावावहिर्भूतेः कणादमतानुगामिभिः सुसूत्रमा सूषितम्-सस्वगागमः प्रपखतः अथवा 'सुमितिक्रियाविशेषणम् शोभनं सूत्रं वस्तुव्यवस्था घटनाविज्ञानं यत्रैवमासूत्रितं ततच्छास्त्रार्थोपनिबन्धः कृतः, इति हृदयम् । " सूत्रं तु सूत्रनाकार प्रन्धे तन्तुव्यवस्थयोः " इत्यनेकार्थवचनात् । अत्र सुमितिविपरीतोपहासगर्भ प्रशंसावच नम् । यथा-" उपकृतं बहुत मुते, सुजनता प्रथिना भवता रिम्" इत्यादि उपहसनीयता व क्रियान् तदङ्गीकाराणाम् (स्या० ) यदपि "न संविधानन्दमयी च मुकिरिति " व्यवस्थापनाय अनुमानमवादि सन्तानत्वादिति । तत्राभिधीयते - ननु किमिदं सन्तानत्वम् - स्वतन्त्रम् - अपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा एकाश्रया अपरापरोत्पत्तियां ता द्यः पक्षः सव्यभिचारः, अपरापरेषामुत्पादकानां घटटकटा दीनां सन्तानात्यन्तमनुच्यिमानत्वात् । अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि ताशं सन्तानत्वं प्रदीपे नास्तीति साधनविकलो दृष्टान्तः । परमाणुपाकजरूपादिभिश्च व्यभिचारी हेतु:, तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभाषात् । अपि च-सन्तानत्यमपि भविष्यति अत्यन्तानुभविष्यति विपाभावान् इति से
।
(४३२) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
,
मोक्ख
दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिको ऽयम् । किं चस्पाादादिनां नास्ति कचिदत्यन्तमुच्छेद द्रव्यरूपतया स्वास्नूनामेव सतां भावानामुत्यादयययुक्तत्वाद् इति विरु जोति नाधिकृतानुमानाद् बुद्धधादिगुणोच्छेदरूपासिद्धिः सिध्यति । नापि न हि वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ती" त्यागमेन शरीरराहित्ये सुदुःखाभा तिपादनान्न मोक्षे सुखमध्यव सातव्यम् । तत्र हि शुभा - शुभा परिपाकजन्ये सांसारिकप्रियाप्रिये परस्परानुष
66
अपेय व्यवस्थितः मुदिशायां तु सकलातवडेतुकमैकान्तिकमात्यन्तिकं व केवलं प्रियमेतत्प्रतिविध्यते ? आगमस्य चायमर्थ:-- सशरीरस्य गतिचतुरयाम्यतमस्थानवर्तिनात्मनः प्रियाप्रिययाः परस्परानुषक्रयाः सुखदुःखयोः, अपहतिः -- श्रभावो नास्तीति श्रवश्यं हि तत्र सुखदुःखाभ्यां भाव्यम् परस्परानुषक्लत्वं च समासकरणादभ्यूह्यते । श्रशरीरं मुक्काऽऽत्मानं वाशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् अशरीरमेव वसन्तं सिद्धिक्षेत्रमध्यासीन प्रियाप्रिये परस्परानुपले सुखदुःखेन हृदययथा फिल संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुपले स्वातां न तथा मुफ़ात्मनः, किंतु केवलं सुखमेव दुःखमूलस्थ शरीरस्यैवाभावात् सुखं तु श्रात्मस्वरूपत्वावस्थितमंत्र, स्वस्वरूपावस्थानं हि मोक्षः, श्रत एव चाशरीरमित्युक्तम् । श्रागमार्थश्यायमित्थमेव समर्थनीयः यत तदर्थानुपाति देव स्मृतिरपि दृश्यते" सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिमाह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद्, दुष्प्रापम कृतात्मभिः ॥ १ ॥ " म नायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते - मुख्यसुखवाsयतायां बाधकाभावात् अयं रोगाद् विप्रमुक्तः सुखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च । दुःखाभावमात्रस्परोपाद्विमुक्तः इतीयतेव गतत्वात् भयदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः, को हि नाम शिला कल्पमपगत सफलसुखसंवेदनमा स्मानमुपपादयितुं यतेत दुःखसंवेदनरूपत्वादस्यः सुखदुःखयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्ये भात्रात् । श्रत एव तदुपहास:श्रूयते - "वरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् । न तु वैशपिकी मुक्ति, गौतम गन्तुमिच्छति ॥२॥ सोपाधिकसाधि कपरिमितानन्दनिष्यन्दा स्वर्गादधिकं तद्विपरीतानन्दम म्लानज्ञानं च मोक्षमाचक्षते विचक्षणाः । यदि तु जडः पापानिर्विशेष एव तस्यामवस्थायामात्मा भवेत् तदलमपवर्गेण, संसार एव वरमस्तु । यत्र तावदन्तराऽन्तराऽपि दुःखकलुतिर्माफिया सुखमनुभुज्यते म्यितां तावत् किमल्पसुखानुभवो भव्यः उत सर्वसुखोच्छेद एव । श्रथास्ति तथाभूते मोजे लाभातिरेकान्त संसारे तावद् दुःखास्पृष्टं सुखं न संभवति दुःखं चावश्यं देवम्, विवेकानं चानयोरेकभाजनपतितविषमधुनोरिय
:
म्, अत एव द्वे अपि त्यज्येते, अतश्च संसारान्मोक्षः श्रेयान् । यतोऽत्र दुःखं सर्वथा न स्याद् । वरमियती कादाचिकसुखमात्राऽपि त्यक्ला, न तु तस्याः कृते दुःखभार इयान् व्यूद इति । तदेतत्सत्यम्, सांसारिकसुखस्य मधुदिग्धधाराकरालमण्डलाग्रासपद्यादेव युक्रे मुमु
सान्तिक सुखविशेषलिप्सुनामेव इहापि
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मोक्ल
1
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विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव, तद्यदि मोक्षे विशिष्ट नास्ति ततो मोक्षो दुःखरूप एवापद्यत इत्यर्थः । ये श्रपि विष-मधुनी एकत्र संपूने स्वज्येते ते अपि सुखशेष लिप्सदेव किञ्च यथा प्राणिनां संसारापस्थायां सुखमि दुःखं चानिष्टं, तथा मोक्षावस्थायां दुःखनिवृत्तिरिठा सुखनिवृतिस्तु अनिचैव ततो यदि त्वदभिमतो मोक्षः स्थातदा न प्रेक्षावतामच प्रवृत्तिः स्यात् भवति चेयम् । ततः सिद्धो मोक्षः सुखसंवेदनस्वभावः प्रेक्षावत्यनृतेरन्यथाअनुपपत्तेः । अथ यदि सुखसंवेदनेकस्वभावो मोक्षः स्यात्तदा सद्रागेण प्रवर्तमानो मुमुक्षुनं मोमधिगच्छेत्। न हि रा मियां मोशोऽस्ति रागस्य बन्धनात्मकत्वात् नैवम् । सांसारिक सुख एव रायो बन्धनात्मक विषयादिप्रवृतिहेतुत्वाद्, मोक्षसुखे तु रागस्तन्निवृत्तिहेतुत्वान्न बन्धनात्मकः । परां कोटिमारूढस्य च स्पृहामात्ररूपोऽप्यसौ निवर्तते, "मो भये च सर्वव निःस्पृहो मुनिसत्तमः" इति वचनात्। अन्यथा भयन्यतेऽपि दुःखनिरात्मकमोक्षाकृती दुः पावकाण्यं केन निषिध्यत इति सिवं कृरत कर्मचारपरमसुखसंवेदनात्मको मोल न युड्यादिविशेषगुणोच्छेदरूप इति । स्या० । ध० । श्राव० । सकलकर्मक्षयाद्यत्स्यात्तद्दर्शयितुमाहकृत्स्नकर्मक्षयान् मोक्षो, जन्ममृत्त्वादिवर्जितः । सर्वाधाविनिर्मुक्त, एकान्तसुखसङ्गतः ॥ १ ॥ मोक्ष यवान्देः परमपदसंज्ञयाऽभिहित इति परमपदरूपं दर्शय नाह
( ४३३ ) अभिधानराजेन्द्रः।
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यत्र दुःखेन संभिन्नं न च भ्रष्टमनन्तरम् । लिपी यत् तज्ज्ञेयं परमं पदम् ॥ २ ॥ एकान्तसुखसंगतो मोक्ष इत्युकं तत्र परविप्रतिपत्ति दर्श
यन्नाह -
कश्चिदानादि भोगाभावादसंगतम् । सुखं सिद्धिनाथानां प्रय्यः स पुमानिदम् ॥ ३ ॥ तदेव प्रष्टव्यमाह - फिलो नदि संभोगो, बुभुक्षादिनिवृत्तये । तन्निवृत्तेः फलं किं स्यात्, स्वास्थ्यं तेषां तु तत्सदा ॥ ४ ॥ अमुमेवार्थ भगवन्तरेणाऽऽहअस्वस्थस्येव भैषज्यं, स्वस्थस्य तु न दीयते । अवाप्तस्यास्थ्यकोडीनां भोगोऽनादेरपार्थकः ॥ ५ ॥ यत एवमत एवम् - अकिञ्चित्कारकं ज्ञेयं, मोहाभावाद्वताद्यपि । तेषां कराद्यभावेन हन्त कण्डूयनादिवत् ॥ ६ ॥ सिद्धसुखं स्वरूपत श्राहअपरायल मीत्सुक्यरहित निष्यतिश्रियम् । सुखं स्वाभाविकं तत्र नित्यं भयविवर्जितम् ॥ ७ ॥
इदं च परैः परमानन्द इत्यभिहितमेतदेवाऽऽदपरमानन्दरूपं तद् गीयतेऽचिः।
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इत्थं सकलकल्याण - रूपत्वात्सांप्रतं ह्यदः ॥ ८ ॥ अथ मिदमवसेयमित्यत श्राह - संवेद्यं योगिनामेत—दन्येषां श्रुतिगोचरः । उपमाsभावतोऽव्यक्त-मभिधातुं न शक्यते । ०३२०
मोक्ग्व
( ' ठाण' शब्दे 'सिद्ध' शब्दे च सिद्धानां स्थानप्ररूपणाव - सरेऽयुक्त एषोऽर्थः सम्मतितर्के च" ठाणमगोत्रभसुखमुत्रगया" इति सम्मतितर्फे द्वितीये काण्डे प्रथमगाधाया ध्याख्यानावसरे प्रपञ्चतो भावितं तत एवावगन्तव्यम् पिस्तरभियाऽत्र न लिख्यते ) विशे० ।
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व संसारम्मि सुहं जाइजरामरणदुक्खगहियस्स । जीवस अस्थि जम्हा, तम्हा मोक्सो उपाए उ । सव्वभावंतरेहिं णं गोयम ! त्ति बेमि ।
महा० ६ ० । (न स्त्री मोक्षमेतीति दिगम्बरमतम्, स्त्री आप नि गन्तुं शक्नोतीति स्वमतप्रदर्शनपुरःसरममा भिरुपपादि इरिथलिंगसिद्ध शब्दे द्वितीया २२० पृष्ठे ) ( कृत्स्नकर्मक्षयान् मोक्षो भवत्वितीदमपि निदानत्वेन मन्यते इत्यादि ' श्राग्वोहिलाभ' शब्द द्वितीयभागे ३८६ पृष्ठ ) आव० । ० । ( ज्ञानमात्रान्मोक्षः क्रियाया एव मोक्षः, समुदिताद्वा हयादिनिशाय 'फिरियारायाकिरियाer' - शब्देषु व्यवस्थितम् ) श्रा० चू० । श्राचा० । ज्ञानक्रियामिश्रतयैवैताः क्लेशहानोपायभूता भवन्ति नाम्यथेति विधेयाज्ञानं च सदनुष्ठानं, सम्यसिद्धान्तवेदिनः । क्लेशानां कर्मरूपाणां हानोपायं प्रचचते ॥ १ ॥ (ज्ञानं चेति) सज्ञानम् - सदनुष्ठानं च सम्यग-अ परीत्येन सिद्धान्तवेदिनः कर्मरूपाणां क्लेशानां हानोपायम् - त्यागसामग्रीम् प्रचक्षते प्रकथयन्ति । " संजोगम द्धी फलं वयंति " इत्यादिग्रन्थेन ॥ १ ॥ नैरात्म्यदर्शनादन्ये, निबन्धनवियोगतः । क्लेशप्रहाणमिच्छन्ति, सर्वथा तर्कवादिनः ॥ २ ॥ ( नैरात्म्यति ) नैरात्म्य दर्शनात् सर्वत्रैवात्माभावावलोकनात् । अन्ये-बीडाः, निवन्धनबियोगतो-निमित्तविरहात् क्लेशप्रहाणम् - तृष्णाहानिलक्षणमिच्छन्ति, सर्वथा - सर्वः प्रकारस्तर्कवादिनः। न तु शाखानुसारिणः ॥ २ ॥ अत एव स्वतं पुरस्कर्तुमाडु:समाधिराज एतच्च तदेतत्तच्च दर्शनम् ।
ग्रहाच्छेदकार्येत तदेतदमृतं परम् ।। ३ ।
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( समाधिराज इति ) समाधिराजः संयोगासरत्वात् । एतच्च नैरात्म्यदर्शनम् तदेतदर्शनम् परमार्थावलीकनतः आग्रहच्छेदकारि-मूहबिच्छेदकम् एतत्तदेतदमृतम् - पीयूपम् परं - भावरूपम् ॥ ३ ॥ जन्मयोनिर्यतस्तृष्णा, ख़ुदा सा चात्मदर्शने ।
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9
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तदभावे च नेयं स्याद्वीजाभाव इवाङ्कुरः ॥ ४ ॥ ( जन्मेति ) यतः यस्मात् तृष्णा-लोभलक्षणा जन्मयोनिः - पुनर्भवहेतुः भुवा निश्चिता सा चदुष्णा आत्मदर्शनेअहमस्मीति निरीक्षणरूपे तदभाये आत्मदर्शनाभावे च नेयं तृष्णा स्यात् अङ्कुर इव बीजाभावे ॥ ४ ॥ नापश्यअहमिति स्नियत्यात्मनि कथन |
न चात्मनि विना प्रेम्णा, सुखहेतुषु धावति ॥ ५ ॥
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(४३४) मोक्रव अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्ख (नहीति ) न-नैव हिः-यस्मात् अपश्यन्-अनिरीक्षमा
अन्यजन्मस्वभावत्वे-सदृशापरक्षणोत्पादकस्वभावत्वे स्व. णः अहमित्युल्लेखन, स्निह्यति-नेहवान् भवति : आत्म- निवृत्तिरसंगता तदजननस्वभावत्वादेव ॥ ६॥ नि विषयभूते कश्चन बुद्धिमान् । नचात्मनि प्रेम्णा विना
तृतीये त्वाहसुखहेतुषु धावति-प्रवर्तते कश्चन । तस्मादात्मदर्शनस्य वै- उभयैकस्वभावत्वे, न विरुद्धोऽन्वयोऽपि हि । राग्यप्रतिपन्थित्वान्नैरात्म्यदर्शनमेव मुक्तिहेतुरिति सिद्धम्।५। न च तद्धेतुकः स्नेहः, किं तु कर्मोदयोद्भवः ॥१०॥ एतद् दूषयति--
(उभयेति ) उभयकस्वभावत्वे स्वनिवृत्तिसदृशापरक्षणोनेरात्म्यायोगतो नैत-दभावक्षणिकत्वयोः।
भयजननैकस्वभावत्वे, अन्वयोऽपि हि न विरुद्धः । यदेव आद्यपक्षेऽविचार्यत्वा-धर्माणां धर्मिणं विना ॥६॥
किञ्चिनिवर्तते तदेवापरक्षणजननस्वभावमिति शब्दार्था(नैरात्म्येति ) एतदन्येषां मतं न युक्तम् , श्रभावक्षणिक
न्यथानुपपस्यैवान्वयसिद्धेः, उक्नोभयैकस्वभावत्ववत् पूर्वापरत्वयोः-श्रीद् श्रात्मना विकल्पमानयोः सतोः: नैरात्म्यायो
कालसंबन्धैकस्वभावत्वस्याप्यविरोधात् । इत्थमेव प्रत्यभिगतः । श्राद्यपक्षे-आत्मनोऽभावपक्षे धर्मिणम्-श्रात्मानं वि- शाक्रियाफलसामानाधिकरण्यादीनां निरुपचरितानामुपपत्ते नाः धर्माणाम्-सदनुष्ठानमोक्षादीनाम् अविचार्यत्वाद-वि
रिति निर्लोठितमन्यत्र । न च तद्धेतुकः-आत्मदर्शनहेतुकः चारायोग्यत्वात् , नहि वन्ध्यासुताभावे तद्गतान् सुरूपकु
स्नेहः किं तु कर्मोदयोद्भवो-मोहनीयकर्मोदयनिमित्तकः । रूपत्वादीन् विशेषांश्चिन्तयितुमारभते कश्चिदिति ॥६॥
अतो नायमात्मदर्शनापराध इति भावः ॥ १०॥
ननु यद्यप्यात्मदर्शनमात्रनिमित्तको न स्नेहः, क्षणिकस्यावक्त्राद्यभावतश्चैव, कुमारीसुतबुद्धिवत् ।।
प्यात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण समवलोकनात्तदुद्भवप्रसङ्गात् , विकल्पस्याप्यशक्यत्वा-द्वक्तुं वस्तु विना स्थितम् ।।७।।
किंतु-ध्रवात्मदर्शनतो नियत एव स्नेहोद्भवस्तद्गतागामि(वक्त्रादीति) वक्त्रादीना--नैरात्म्यप्रतिपादकतद्रष्ट्रा
कालसुखदुःखावाप्तिपरिहारचिन्तावश्यकत्वादित्यत्राऽऽहदीनाम् अभावतश्चैव । श्राद्यपक्ष नैराम्यायोगतो नैतदिति
ध्रवे क्षणेऽपि न प्रेम, निवृत्तमनुपप्लवात् । संबन्धः । मानवादिमते त्वाह--कुमारीसुतबुद्धिवत्-अकृत
ग्राह्याकार इव ज्ञाने-ऽन्यथा तत्रापि तद्भवेत् ॥ ११ ॥ विवाहस्त्रीपुत्रज्ञानवत् । विकल्पस्यापि प्रतिपादकादिगतस्य स्थितं वस्तु विना वक्नुम् अशक्यत्वात् । कुमारीसुतबुद्धि
(धवेक्षणेऽपीति ) ध्रवे क्षणेऽपि-ध्रवात्मदर्शनेऽपि, न रपि हि प्रसिद्धयोः कुमारीसुतपदार्थयोः संबन्धमेवारोपित
प्रेम-समुत्पत्तमुत्सहते ! निवृत्तम्-उपरतम् उपप्लवात्-संक्लेमवगाहते, प्रकृते त्वात्मन एवाभावात्तत्प्रतिपादकादिव्यप
शक्षयात् विसभागपरिक्षयाभिधानात् , झाने ग्राह्याकार इव देशी निर्मूल एव । क्वचित्प्रमितस्यैव क्वचिदारोप्यत्वात् ।
भवन्मते उपप्लववशाद्धि तत्र तदवभासस्तदवभासे तु तनिवृ.
त्तिरिति । तथा च सिद्धान्तो व:-"ग्राह्य न तस्य ग्रहणं न इत्थं च-"यथा कुमारी शयनान्तरेऽस्मिन् , जातं च पुत्रं वि.
तेन,शानान्तरमाहतयाऽपि शून्यम् । तथापि च शानमयः प्रगतं च पश्येत् । जाते च हृष्टाऽपगते विषाणा, तथोपमान
काशः, प्रत्यक्षरूपस्य तथाऽऽविरासीत् ॥१॥” इति । अन्य। जानत सर्वधर्मान ॥१॥” इत्यादि परेषां शास्त्रमपि संसारासारतार्थवादमात्रपरतयैवोपयुज्यते इति द्रष्टव्यम् ॥ ७॥
थोपप्लवं विनाऽपि ध्रवात्मदर्शनेन प्रेमोत्पत्यभ्युपगमे तत्रा
पि त्वम्मतप्रसिद्धात्मन्यपि तत्प्रेम भवेत् , श्रात्मदर्शनमात्रद्वितीयेऽपि क्षणार्ध्व, नाशादन्याप्रसिद्धितः ।
स्यैव लाघवेन प्रेमहेतुत्वात् । ध्रवत्वभाधनमेव मोहादिति तु अन्यथोत्तरकार्याङ्ग--भावाविच्छेदतोऽन्वयात् ॥८॥ स्ववासनामात्रमिति न किश्चिदेतत् ॥ ११ ॥ (द्वितीयेऽपोति ) द्वितीयेऽपि पक्ष , नैरात्म्यायोगतो नै- विवेकख्यातिरुच्छेत्री, क्लेशानागनुपप्लवा । तदिति संबन्धः । क्षणार्ध्वम् क्षणिकस्यात्मनो नाशात् अ
सप्तधा प्रान्तभूप्रज्ञा, कार्यचित्तविमुक्तिभिः॥१२॥ न्यस्य-अनन्तरक्षयस्य अप्रसिद्धितः-श्रामाश्रयानुष्ठानफला
(विवेकेति) विवेकख्यातिः प्रतिपक्षभावनाबलादविद्याप्रविद्यनुपपत्तः । अन्यथा-भावादेव भावाभ्युपगमे उत्तरकार्य प्रनिअङ्गभावन-परिणामिभावन अविच्छदतोऽन्वयात् , पूर्व
लये विनिवृत्तशातृत्वकर्तृत्वाभिमानाया रजस्तमोमलानभिभूक्षणस्येव कथञ्चिदभावीभूतस्य तथापरिणमने क्षणद्वयानु
ताया बुद्धेरन्तर्मुखायाश्चिच्छायासंक्रान्तिः अनुपप्लवा अन्तरावृत्तिधोव्यात् । सर्वथाऽसतः खरविषाणादेरिवोत्तरभावप
न्तराव्युत्थानरहिता क्लेशानामुच्छेत्री । यदाह-'विवेकख्याति
रविप्लचा हानोपायः'(२-२६)साच सप्तधा सप्तप्रकारैःप्रान्तभूप्र रिणमनशक्यभावात् , सदृशक्षणान्तरसामग्रीसंपत्तरतियो
शा-सकलसालम्बनसमाधिपर्यन्तभूमिधीभवति । कार्यचित्तग्यताविच्छिन्नशक्त्यैवोपपतेरिति ॥८॥
विभुक्तिभिः-चतुस्त्रिप्रकाराभिः । तत्र न मे ज्ञातव्यं किंचिदकिं च-क्षणिको ह्यात्माऽभ्युपगम्यमानः स्वनिवृत्तिस्वभाकः
स्ति, क्षीणा मे क्लेशाः, न मे क्षेतव्यं किंचिदस्ति, अधिगतं स्यात् , उतान्यजननस्वभावः, उताहो उभयस्वभावः ?, इति |
(ता) मया हानप्राप्तविवेकख्यातिरिति कार्यविषयनिमलशा. त्रयी गतिः । तत्राद्यपक्ष पाह
नरूपाश्चतस्रः कार्यविमुक्तयः । चरितार्था मे बुद्धिगुणाः कृ. स्वनिवृत्तिस्वभावत्वे, न क्षणस्यापरोदयः ।
ताधिकारा मोहबीजाभावात् कुतोऽमीषां प्ररोहः, सात्मीअन्यजन्मस्वभावत्वे, स्वनिवृत्तिरसंगता ॥८॥ भूतश्च मे समाधिरिति, स्वरूपप्रतिष्ठोऽहमिति गुणविषय(स्वनिवृत्तीति) स्वनिवृत्तिस्वभावत्वे क्षणस्य आत्मक्षण
मानरूपास्तिस्रः कार्यविमुक्तय इति । तदिदमुक्तम्-"तस्य स्य अभ्युपगम्यमाने नापरोदयः-सदृशोत्तरक्षणोत्पादः स्या
सप्तधा प्रान्तभूप्रक्षेति" (२-२७ ) ॥ १२ ॥ त्, पूर्वक्षणस्योलरक्षण जननास्वभावत्वात् । द्वितीये त्याह- -विस' इति बौद्धानां पारिभाषिक शब्दः । विष इति वा ।
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मोक्ख अभिधानगजन्द्रः।
मोक्रव बलानश्यत्यविद्याऽस्या, उत्तरेषामियं पुनः ।
तदुक्तम्-"सुखानुशयी रागः” इति (२-७) दुःखाना
नाम-दुःखकारणानाम् ' निन्दनं दुःखाभिज्ञस्य तदनुस्मृति प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो-दाराणां क्षेत्रमिष्यते ॥ १३ ॥
पूर्वकं विगर्हणं द्वेषः । यत उक्तम्-"दुःखानुशयी द्वेषः” इति (बलादिति ) अस्या-विवेकख्यातेः बलादविद्या नश्यति ।।
(२-5) ॥ १६॥ (अत्रत्या विंशतितमः श्लोकः 'अभिणिवेस' इयम-श्रविद्या पुनरुत्तरेषाम्-अस्मितादीनां क्लेशानां प्रसुप्त- शब्दे प्रथमभागे ७१५ पृष्ठे गतः) तनुविच्छिन्नोदाराणां क्षेत्रमिष्यते । तदुक्तम्-"अविद्या क्षेत्र
एभ्यः कर्माशयो दृष्टा-दृष्टजन्मानुभूतिभाक् । मुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणामिति" (२-४) ॥१३॥
तद्विपाकश्च जात्यायु-भॊगाख्यः संप्रवर्तते ॥ २१ ॥ स्वकार्य नारभन्ते ये, चित्तभूमौ स्थिता अपि ।
(एभ्य इति) एभ्यः-उनेभ्योऽविद्यादिभ्यः क्लेशेभ्यः , विना प्रबोधकबलं, ते प्रसुप्ताः शिशोरिव ॥१४॥
कर्माशयो भवति । दृष्टादृष्टजन्मनोरनुभूति भजति यः स (स्वकार्यमिति) ये-क्लेशाः चित्तभूमौ स्थिता अपि स्व-|
तथा, तद्विपाकः-कर्मविपाकश्च जात्यायुभॊगाण्यः संप्रवर्तते कार्य नारभन्ते विना प्रबोधकस्य-उद्बोधकस्य बलम्-उद्रे
निरूपिततत्त्वमेतत् ॥ २१ ॥ कम् । ते-क्लेशाः प्रसुप्ताः शिशोरिव-बालकस्येव ॥ १४ ॥
परिणामाच्च तापाच्च, संस्काराद् द्विविधोऽप्ययम् । भावनात्प्रतिपक्षस्य, शिथिलीकृतशक्तयः । तनवोऽतिबलापेक्षा, योगाभ्यासवतो यथा ॥ १५॥ ।
गुणवृत्तिविरोधाच्च, हन्त दुःखमयः स्मृतः॥ २२ ॥ ( भावनाादति) भावनाद्-अभ्यासात् प्रतिपक्षस्य-स्ववि.
(परिणामाञ्चेति ) अयम्-कर्मविपाको दुःखालादफलत्वेन
द्विविधोऽपि ते हादपरितापफला' (२-१४) (पुण्यापुण्य. रोधपरिणामलक्षणस्य शिथिलीकृता कार्यसंपादनं प्रति शक्लियेषां ते तथा तनवो-वासनावरोधतया चेतस्यवस्थि
हेतुत्वात् ) इत्यत्र तच्छब्दपरामृष्टानां जात्यायुभॊगानां हैताः, न तु बालस्येवानवरुद्धवासनात्मानः । अतिबलापेक्षाः
विध्यश्रवणात् । परिणामाञ्च-यथोत्तरं गार्धाभिवृद्धस्तदस्वकार्यारम्भे प्रभूतसामग्रीसापेक्षाः, नतद्वोधकमात्रापेक्षाः
प्राप्तिकृतदुःखापरिहारलक्षणाद् दुःखान्तरजननलक्षणाच्च । योगाभ्यासवतो यथा-रागादयः क्लेशाः ॥ १५॥
तापाच्च-उपभुज्यमानेषु-सुखसाधनेषु सुखानुभवकालेऽपि अन्येनोच्चबलवता-ऽभिभूतस्वीयशक्तयः ।
सदावस्थिततत्प्रतिपन्थिद्वेषलक्षणात् । संस्काराच-अभिम
तानभिमतविषयसन्निधाने सुखदुःखसंविदोरुपजायमानयोः तिष्ठन्तो हन्त विच्छिन्ना, रागो द्वेषोदये यथा ॥ १६॥
स्वक्षेत्रे तथाविधसंस्कारतथाविधानुभवपरंपरया सस्कारानु(अन्येनेति ) अन्येन-स्वातिरिक्लेन उच्चैर्बलवता-अति
च्छेदलक्षणात् । गुणवृत्तिविरोधाच-गुणानां सत्त्वरजस्तशयितबलेन क्लेशेन अभिभूतस्वीयशक्लयस्तिष्ठन्तो हन्त
मसां वृत्तीनाम्-सुखदुःखमोहरूपाणां परस्पराभिभाव्याभिविच्छिन्नाः क्लेशा उच्यन्तेः यथा-रागो द्वेषोदये । न हि
भावकत्वेन विरुद्धानां जायमानानां सर्वत्रैव दुःखानुवेधारागद्वेषयोः परस्परविरुद्धयोयुगपत्संभवोऽस्तीति ॥ १६ ॥
श्वेत्यर्थः । हन्त दुःखमयो-दुःखैकस्वभावः स्मृतः । तदुसर्वेषां सन्निधिं प्राप्ता, उदाराः सहकारिणाम् । क्लम्-"परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखनिवर्तयन्तः स्वं कार्य, यथा व्युत्थानवर्तिनः ॥ १७ ॥ मेव सर्व विवेकिनः" इति (२-१५) ॥२२॥ ( सर्वेषामिति) सर्वेषां सहकारिणां सन्निधिम्-सन्निकर्ष इत्थं दृग्दृश्ययोगात्माऽ-विद्यको भवविप्लवः । प्राप्ताः स्वं कार्य निर्वर्तयन्त उदारा उच्यन्ते; यथा-व्युत्थान- नाशानश्यत्यविद्यायाः, इति पातञ्जला जगुः ॥ २३ ॥ वर्तिनो योगप्रतिपन्थिदशावस्थिताः ॥ १७ ॥
( इत्थमिति ) इत्थं-दुःखरूपो दृग्दृश्ययोः-पुरुषबुद्धिअविद्या चास्मिता चैव, रागद्वेषौ तथापरौ।
तत्वयोः योगो-विवेकाख्यातिपूर्वकः संयोग प्रात्मा-कारणं पञ्चमोऽभिनिवेशश्च, क्लेशा एते प्रकीर्तिताः ॥१८॥ यस्य स तथा । अविद्यकः-अविद्यारचितो भवविप्लवः-सं(अविद्या चेति ) क्लेशानां विभागोऽयम् । तदुक्तम्-"अ. सारप्रपञ्चोऽविद्याया नाशान्नश्यति । अविद्यानाशात्स्वकाविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः” इति (२-३) ॥१८॥ र्यग्दृश्यसंयोगनाशे तत्कार्यभवप्रपञ्चनाशोपपत्तेरिति पातविपर्यासात्मिकाऽविद्या, ऽस्मिता दृग्दर्शनकता। ञ्जला जगुः-भणितवन्तः ॥ २३ ॥ रागस्तृष्णा सुखोपाये, द्वेषो दुःखाङ्गनिन्दनम् ।। १६ ।।
एतद् दूषयति(विपर्यासात्मिकेति) विपर्यासः-अतस्मिस्तवहस्तदात्मिका
नैतत्साध्वपुमर्थत्वात्, पुंसः कैवल्यसंस्थितेः। अविद्या; यथा-अनित्येषु घटादिषु नित्यत्वस्य, अशुचिषु का- क्लेशाभावेन संयोगा-जन्मोच्छेदो हि गीयते ॥२५॥ यादिषु शुचित्वस्य, दुःखेषु विषयेषु सुखरूपस्य, अनात्मनि (नैतदिति) न एतत्-पातञ्जलमतं साधु-न्याय्यम् पुंसः च शरीरादावात्मत्वस्य अभिमानः । तदुक्तम्-“ अनित्याशु- | कैवल्यसंस्थितेः सदातनत्वेनापुमर्थत्वात्-पुरुषप्रयत्नासाध्यचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्येति" (२-५) ।
त्वात् , हि-यतः , क्लेशाभावेन संयोगस्याविद्यकस्य हग्नर्शनयोः-पुरुषरजस्तमोऽनभिभूतसात्त्विकपरिणामयोः स्वयमेव निवृत्तस्याजन्मानुत्पाद उच्छेदो गीयते । तदेव च भात-भोग्यत्वेनावस्थितयोरकता अस्मिता। तदुक्तम् "दृग्दर्श
पुरुषस्य कैवल्यं व्यपदिश्यत इति न पुनर्मूर्तद्रव्यवत्संयो. नशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता" (२-६)। सुखोपाये-सुखसाधने
गपरित्यागोऽस्य युज्यते; कूटस्थत्वहानिप्रसङ्गात् इति हि तृष्णा सुखशस्य सुखानुस्मृतिपूर्वो लोभपरिणामो रागः।
परसिद्धान्तः । तदुक्तम्-" तदभावात्संयोगाभावो हानमिति" १ आख्याति संज्ञावाचके ख्यातिशब्दोऽपि ।
(२-२५) ॥२४॥
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मोग्व अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्रव एतदेवाऽऽह--
मदुःखमुत्पाद्य तन्नाशस्यैव पुरुषार्थकत्वादिति भावः ॥२७॥ ताविको नात्मनो योगो, ह्येकान्तापरिणामिनः।।
एतदपि मतं दृषयतिकल्पनामात्रमेवं च, क्लेशास्तद्धानमप्यहो ॥ २५॥ । ब्रूते हन्त विना कश्चि-ददोऽपि न मदोद्धतम् । (तात्त्विक इति ) तात्त्विकः-पारमार्थिको नात्मनो हि यो- ___ सुखं विना न दुःखार्थ, कृतकृत्यस्य हि श्रमः ॥२८॥ गः-संबन्धः एकान्तापरिणामिनः सतो युज्यते । एवं च श्रहो (बूत इति ) अदोऽपि वचनं मदोद्धतं विना कश्चिदिइति आश्चर्ये, क्लेशास्तद्धानमपि कल्पनामात्रम् : उपचरितस्य त्यनन्तरमपेगम्यमानत्वात् , कश्चिदपि न ब्रूते । हि-यतः , भवप्रपञ्चस्य प्रकृतिगतत्वं विनाऽपि अविद्यामाननिर्मितत्वेन कृतकृत्यस्य सुखं विना-स्वसुखातिशयितसुखं विना दुबौद्धनयेन, वेदान्तिनयेनाऽपि च वक्तं शक्यत्वात् । मु- खार्थ श्रमो नास्ति । राजसेवादावपि हि सुखार्थ प्रवृत्तिख्यार्थस्य च भवन्मतनी त्याऽद्याप्यसिद्धत्वादित्यर्थः ॥२५॥ | दृश्यते । कटुकौषधपानादावपि श्रागामिसुखाशयैवः अन्यथा काल्पनिकत्वेनैवैतन्मतम् , अन्यदपीत्थं दृषयन्नाह- विवेकिनो-दुःखजिहासोमरणादावपि प्रवृत्त्यापत्तेः । न च नृपस्येवाभिधानाद्यः, सातबन्धः प्रकीर्तितः।
मोक्षे सुखमिष्यते भवद्भिरिति व्यर्थः सर्वः प्रयासः ॥२८॥ अहिशङ्काविषज्ञाना-चेतरोऽसौ निरर्थकः ॥२६॥ किं च-चरमदुखत्वं तत्त्वज्ञानजन्यतावच्छेदकमपि न (नृपस्येति)नृपस्येव तथाविधनरपतेरिवाभिधनाद् राजाऽय
संभवतीत्याह---.. मिति भणनरूपाद् यः सातबन्धः-सुखसंबन्धरूपः प्रकीर्तितः,
चरमत्वं च दुःखत्व-व्याप्या जातिर्न जातितः। नित्ये ऽप्यात्मनि परैः। अहिनाऽदष्टस्यापि तथाविधप्रघट्टकव तच्छरीरप्रयोज्याऽतः, साङ्कान्नान्यदर्थवत् ॥ २६ ॥ शादहिशङ्काविषज्ञाञ्चतरोऽसातबन्धः असो निरर्थकः कल्प- (चरमत्वं चेति) चरमत्वं च दुःखत्वव्याप्या जातिः न तच्छनामात्रस्यार्थासाधकत्वादव ? अथ प्रकृती कर्तृत्वभोक्तृत्वा- रीरप्रयोज्या, अतो-जातितः सार्यात् मैत्रीयचरमदुःखचैभिमानोपवर्णनमात्रमेतत् , तन्निरासार्थमेव च सकलशास्त्रा- | त्राचरमदुःखवर्तिन्योस्तयोश्चैत्रचरम दुःख एव समावेशात् । थोपयोग इति को दोषः? तत्त्वार्थसिद्धयर्थमुपचाराथणस्या- चैत्रशरीरप्रयोज्यजातिव्याप्यायाश्चैत्रचरमसुखदुःखादिनिष्ठापि अदुषत्वादिति चेन्न, तत्त्वार्थस्यैवात्मनाश्चद्रूपत्वे मुक्त्य- या भिनाया एव चरमत्वजातेरुपगमे तु सुखत्वादिनैव साङ्कर्यावस्थायां विषयपरिच्छदकत्यस्याप्यापनेः शानस्य शानत्व- त्। अन्यत्समानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानकालीनत्वलक्षवत्सविषयकत्वस्यापि स्वभावत्वात् ,अन्तःकरणाभावेऽर्थपरि णं चरमत्वं नार्थवत्, न तत्त्वाक्षानजन्यतावच्छेदकम् अर्थादेव च्छेदाभावस्य च निरावरणशाने तस्याहतुत्वेन वक्रमशक्य- समाजातदुपपत्तेः। कार्यवृत्तियावद्धर्माणां कार्यतावच्छेदत्वात् , दिक्षाभावेऽपि दर्शनानिवृत्तः । प्राकृताप्राकृतज्ञान- कत्वे चैत्रावलोकितभैत्रनिर्मितघटत्वादेरपि तथात्वप्रसयोः सविषयकत्वाविषयकत्वस्वभावभेदकल्पनस्य चाम्या- ङ्गात् । तथा च नियतितत्त्वाश्रयणापत्तेरिति दिक् ॥ २६ ॥ य्यत्वात् । आत्मचैतन्येऽविषयकत्वस्वाभाव्यवत्सविषयक- अन्यमतदूषणेन नियूढं स्वमतमुपन्यस्यन्नाहत्वस्वाभाव्यकल्पने बाधकाभावात् । किं च-विवकाख्यातिरू
सुखमुद्दिश्य तदुःखा-निवृत्त्या नान्तरीयकम् । पसंयोगाभावोऽपि विवेकाख्यातिरूप एवेति, विषयग्राहकचैतन्यस्य स्वतन्त्रनीत्यैवोपपत्तेः; मुक्तावपि निर्विषयचि
प्रक्षयः कर्मणामुक्तो, युक्तो ज्ञानक्रियाध्वना ॥ ३०॥ मात्रतत्त्वार्थासिद्धिः । तदुक्तं हरिभद्राचार्य:-"आत्मदर्श
( सुखमिति) तत्-तस्मात् दुःखानिवृत्त्या नान्तरीयकं नतश्च स्या-मुक्तियत्तन्त्रनीतितः । तदस्य ज्ञानसद्भाव
व्याप्तं सुखमुद्दिश्य कर्मणाम्-ज्ञानावरणादीनां प्रक्षयो स्तन्त्रयुक्त्यैव साधितः ॥१॥” इति । ननु विवेकाख्याति
शानक्रियाध्वना युक्त उक्तः ॥ ३० ॥ रपि अन्तःकरणधर्म एव , तस्मिश्च प्रकृतौ प्रविलीने न
नेशाः पापानि कर्माणि, बहुभेदानि नो मते । तद्धर्मस्थित्यवकाशः , नचैवं संयोगोन्मजनप्रसङ्गः परेषां योगादेव क्षयस्तेषां, न भोगादनवस्थितेः ।। ३१ ।। घटविलयदशायां घटप्रागभावानुन्मजनवदुपपत्तेः इत्थं च ततो निरुपम स्थान-मनन्तमुपतिष्ठते । प्रकृतेरेव तत्वतः संयोगहानम् , आत्मनस्तूपचारादिति भवप्रपञ्चरहितं, परमानन्दभेदुरम् ॥ ३२ ॥ नास्माकमयमुपालम्भः शोभत इति चेन्न , उपचारस्यापि द्वा०२५ द्वा० । (अनयोाख्या'जोग'शब्दे चतुर्थभागे १६३३ संबन्धाविनाभावस्याश्रयणे चिन्मात्रधर्मकत्वत्यागात्सर्वश- पृष्ठे गता)एवं पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मोक्ष इति भागवताः। स्वस्वभावपरित्यागस्य स्ववासनामावविजृम्भितत्वादित्या- श्राचा०१ श्रु०४ अ०२ उ० । “पडिन्द्रियाणि पड् विषयाः चार्याणामाशयात् ॥ २६॥
षड बुद्धयः सुखं दुःखं शरीरश्चेत्येकविंशतिभेदभिन्नस्य पुरुषार्थाय दुःखेऽपि, प्रवृत्तेज्ञानदीपतः।
दुःखस्यात्यन्तोच्छेदान्माक्ष" इति नैयायिकमतम् । बुद्धिसुख हानं चरमदुःखस्य, क्लेशस्येति तु तार्किकाः॥ २७॥
दुःखेच्छा-द्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काररूपाणां नवानां विशेष(पुरुषार्थायेति ) शानदीपतः-तत्त्वज्ञानप्रदीपाद अशान- गुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्षः । जै० गा०। (अत्र विस्तरः ध्वान्तनाशात् , पुरुषार्था-पुरुषार्थनिमित्तं, दुःखेऽपि प्र
सम्मतितर्कग्रन्थादवसेयः) वृत्तेः राजसेवादी तथा दर्शनात् । चरमदुःखस्य कलेश
मोक्षस्वरूपमाहस्य स्वयमुत्पादितस्य हानामति तु तार्किकाः-नैयायिकाः मोक्षः कर्मक्षयो नाम, भोगसंक्लेशवर्जितः । अतीतस्य स्वत एवापरतत्वात् , अनागतस्य हातुमशक्यत्वा । तत्र द्वेषो दृढाज्ञाना-दनिष्टप्रतिपत्तितः ॥ २२॥ त् , वर्तमानस्यापि विरोधिगुणप्रादुर्भावेनैव नाशात् । बर- (मोक्ष इति ) दाशानाद्-अबाध्यमिथ्याशानात् । भवा
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मोक्ख
( ४३७ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
freerandarfनाननुबन्धिन्यपि मोक्षेऽनिष्टानुबन्धित्वेनाविष्टप्रतिपत्तेः ॥ २२ ॥
भवाभिनन्दिनां सा च भवशर्मोत्कटेच्छया ।
श्रूयते चैतदालापा, लोके शास्त्रेऽप्यसुन्दराः ।। २३ ॥ ( भवेति ) सा च - मोक्षेऽनिष्टप्रतिपत्तिश्च भवाभिनन्दिबाम् — उक्तलक्षणानाम् भवशर्मणो विषयसुखस्योत्कटेच्छया भावति, द्वयोरेकदोषजन्यत्वात् ॥ २३ ॥
मदिराची न यत्रास्ति, तारुण्यमदविह्वला ।
जडस्तं मोक्षमाचष्टे, प्रिया स इति नो मतम् ॥ २४ ॥ ( मदिराक्षीति ) लोकालापोऽयम् ॥ २४ ॥ चरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् । न त्वेवाविषयो मोक्षः, कदाचिदपि गौतम ! ॥ २५ ॥ ( वरमिति ) गौतमेति गालवस्य शिष्यामन्त्रणम् । ऋषिचचनमिदमिति शास्त्रालापोऽयम् ॥ २५ ॥
द्वेषोऽयमत्यनर्थाय तदभावस्तु देहिनाम् । भवानुत्कटरागेण, सहजाल्पमलत्वतः ॥२६॥ (द्वेष इति ) अयम्-मुक्तिविषयो द्वेषोऽत्यनर्थाय - बहुलसंसारवृद्धये ।' तदभावस्तु मुक्तिद्वेषाभावः पुनर्देहिनाम्-प्रागिनाम् भवात्कट रागेण-भवोत्कटेच्छाभावेन सहजम्स्वाभाविकम् । यदल्पमलत्वं ततः मोक्षरागजनकगुणाभावेन तदभावेऽपि गाढतरमिध्यात्वदोषाभावेन तदद्वेषाभावो भवतीत्यर्थः ॥२६॥ ( " मलस्तु० " ( २७ ) इति श्लोकः 'मल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः ) प्राबधान बन्धवेत् किं तत्त्रैव नियामकम् ।
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योग्यतां तु फलोनेयां, बाधते दूषणं न तत् ||२८|| ( प्रागिति ) प्राकू-पूर्वम् श्रबन्धाद्-वन्धाभावाज्जीवत्वरूपाविशेषेऽपि न बम्धो मुक्तस्य चेत् किं तत्रैव-प्रागबन्धे एव, नियामकम् ; योग्यताक्षयं विना । योग्यतां तु फलोनेयाम्-फलबलकल्पनीयां तदूदूषणं न बाधते । तत्र कुतो न योग्यता ?, इत्यत्र फलाभावस्यैवोत्तरत्वात् । युक्तं चैतत् वन्धस्य बध्यमानयोग्यतापेक्षत्वनियमाद्वस्त्रादीनां मञ्जिष्ठादि
रूपवन्धने तथा दर्शनात् तद्वैचित्र्येण फलभेदोपपतेस्तस्या अन्तरङ्गत्वात्तत्परिपाकार्थमेव हेत्वन्तरापेक्षणादित्याचार्याः ॥ २८ ॥ ( " दिदृक्षा० " ( २६ ) इतिश्लोकः ' दिदिक्खा' शब्दे चतुर्थभागे २५२० पृष्ठे गतः )
प्रत्यावर्त व्ययोऽप्यस्या - स्तदन्यत्वेऽस्य संभवः । अतोऽपि श्रेयसां श्रेणी, किं पुनर्मुक्तिरागतः ॥ ३० ॥ ( प्रत्यावर्तमिति ) प्रत्यावर्तम् - प्रतिपुद्गलावर्तम् व्ययोऽपि श्रपगमोऽपि अस्या:- योग्यतायाः दोषाणां महासं विना भव्यस्य मुक्तिगमनानुपपत्तेः । तदल्पत्वे-योग्यताल्पस्वे श्रस्य - मुक्त्यद्वेषस्य संभव उपपत्तिः । तदुक्तम्- " एवं चापगमो ऽप्यस्याः प्रत्यावर्ते सुनीतितः । स्थित एव तदल्पत्वे भावशुद्धिरपि भुवा ॥ १ ॥ " अतोऽपि मुक्त्यद्वेषादपि श्रेयसां श्रेणी - कुशलानुबन्धसन्ततिः, किं पुनर्वाच्यं मुक्तिरागतस्तदुपपतौ ॥ ३० ॥
नचायमेव रागः स्यान्मृदुमध्याधिकत्वतः ।
११०
मोकख
तत्रोपाये च नवधा, योगिभेदप्रदर्शनात् ॥ ३१ ॥ (न चेति ) न चायमेव-मुक्त्यद्वेष एव रागः स्यात्-मुक्तिरागो भवेदिति वाच्यम्. मृदुमध्याधिकत्वतो जघन्यमध्यमोकष्टभावात् । तत्र मुक्तिरागे उपाये च नवधा नवभिः प्रकारैगभेदस्य प्रदर्शनाद्-उपवर्णनात् ( श्रतः परं नवधा योगिभेदप्रतिपादिकाव्याख्या 'जोइ' शब्दे चतुर्थभागे १५८७ पृष्ठे ) द्वेषस्याभावरूपत्वा-दद्वेषश्चैक एव हि ।
रागात् क्षिप्रं क्रमाच्चातः, परमानन्दसंभवः ॥ ३२ ॥ (द्वेषस्येति ) अद्वेषश्च द्वेषस्याभावरूपत्वादेक एव हि । अतो न तेन योगिभेदोपपत्तिरित्यर्थः फलभेदेनापि भेदमुपपादयति ततो मुक्तिरागात् क्षिप्रमनतिव्यवधानेन श्रतो मुक्स्यद्वेषात्क्रमेण मुक्तिरागापेक्षया बहुद्वारपरम्परालक्षणेन परमानन्दस्य निर्वाणसुखस्य संभवः ॥ ३२ ॥ द्वा० १२ द्वा० । मुक्त्यद्वेषं प्राधान्येन पुरस्कुर्वन्नाह - उक्तभेदेषु योगीन्द्रैर्मुक्त्यद्वेषः प्रशस्यते । मुक्त्युपायेषु नो चेष्टा, मलनायैव यत्ततः ॥ १ ॥ विषान्नतृप्तिसदृशं तद्यतो व्रतदुर्ग्रहः ।
उक्तः शास्त्रेषु शस्त्राग्नि-व्यालदुर्ग्रहसन्निभः ॥ २ ॥ (अनयोर्व्याख्या 'मुक्तिश्रदोस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता ) ननु दुर्गृहीतादपि श्रामण्यात्सुरलोकलाभः केषांचिद्भवतीति कथमत्रा सुन्दरतेत्यत्राऽऽहग्रैवेयकाप्तिरप्यस्मा-द्विपाकविरसाऽहिता । मुक्त्यद्वेषश्च तत्रापि, कारणं न क्रियैव हि ॥ ३ ॥ ग्रैवेयकाप्तिरिति ) अस्माद् - व्रतदुर्ग्रहात् ग्रैवेयकाप्ति -- रपि-- शुद्धसमाचारवत्सु साधुषु चक्रवर्त्यादिभिः पूज्यमानेषु दृष्टेषु संपन्नतत्पूजास्पृहाणां तथाविधान्यकारणवतां च केषांचियापन्नदर्शनानामपि प्राणिनां नवमत्रैवेयकप्राप्तिरपि विपाकविरसा - बहुतरदुःखानुबन्धबीजत्वेन परिणतिविरसा, अहिता - श्रनिष्टा तस्वतश्चौर्यार्जितबहुविभूतिवदिति द्रष्टव्यम् । तत्रापि - नवमत्रैवेयकप्राप्तावपि च मुक्त्यद्वेषः कारणं न केवला क्रियैव हि श्रखण्डद्रव्यश्रामण्यपरि पालनलक्षणा । तदुक्तम्- “ श्रनेनापि प्रकारेण, द्वेषाभाaisa तत्त्वतः । हितस्तु यत्तदेतेऽपि तथा कल्याणभागिनः ॥ १ ॥ " इति ॥ ३ ॥
लाभाद्यर्थितयोपाये, फले चाप्रतिपत्तितः । व्यापन्नदर्शनानां हि, न द्वेषो द्रव्यलिङ्गिनाम् ॥ ४ ॥ ( लाभेति ) व्यापद्मदर्शनानां हि द्रव्यलिङ्गिनामुपाये-चारिक्रियादी लाभाद्यर्थितयैव न द्वेषो रागसामग्र्यां द्वेषानवकाशात् । फले च-मोक्षरूपे अप्रतिपत्तित एव न द्वेषः । न हि ते मोक्षं स्वर्गादिसुखाद्भिनं प्रतीयन्ति, यत्र द्वेषावकाशः स्यात् । स्वर्गादिसुखाभिन्नत्वेन प्रतीयमाने तु तत्र तेषां राग एव । वस्तुतो भिन्नस्य तस्य प्रतीतावपि स्वष्टविघातशङ्कया तत्र द्वेषो न स्यादिति द्रष्टव्यम् ॥ ४ ॥ मुक्तौ च मुक्त्युपाये च, मुक्त्यर्थं प्रस्थिते पुनः ।
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(४३८ । मोकन अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्व यस्य द्वेषो न तस्येव , न्याय्यं गुर्वादिपूजनम् ॥ ५॥ (विषमिति ) लब्ध्याद्यपेक्षातो-लब्धिकीत्यादिस्पृ( मुक्तौ चेति )-स्पष्टः ॥ ५॥
हातो यदनुष्ठानं तद्विषम् उच्यते । क्षणात्-तत्काल चित्तस्य गुरुदोषवतः स्वल्पा , सक्रियाऽपि गुणाय न । शुभान्तःकरणपरिणामस्य, नाशनात् तदासभोगेनैव तदुभौतहन्तुर्यथा तस्य , पदस्पर्शनिषेधनम् ॥ ६॥
पक्षयात् । अन्यदपि हि स्थावरजङ्गमभेदभिन्नं विषं तदा(गुर्विति ) गुरुदोषवतः-अधिकदोषवतः स्वल्पा-स्तो
नीमेव नाशयति । दिव्यभोगस्याभिलाष-ऐहिकभोगनिरपेका सत्क्रियाऽपि सच्चेष्टाऽपि गुणाय न भवति यथा-|
क्षस्य सतः स्वर्गसुखवाञ्छालक्षणस्तेन अनुष्ठानं गर उच्यते। भौतहन्तुः-भस्मव्रतिघातकस्य तस्य-भौतस्य पदस्पर्शन
कालान्तरे-भवान्तरलक्षणे, क्षयाद्-भोगात्पुण्यनाशेनानर्थस्य-चरणसंघट्टनस्य निषेधनम् । कस्यचित् खलु शबर
संपादनात् । गरो हि कुद्रव्यसंयोगजो विषविशेषः, तस्य स्यः कुतोऽपि प्रस्तावात्-"तपोधनानां पादेन स्पशन महते
च कालान्तरे विषविकारः प्रादुर्भवतीति उभयापेक्षाजनिऽनर्थाय संपद्यत" इति श्रुतधर्मशास्त्रस्य, कदाचिन्मयूरपि तमतिरिच्यते नोभयापेक्षायामप्यधिकस्य बलवत्त्वादिति मछः प्रयोजनमजायत । यदाऽसौ निपुणमन्वेषमाणो न संभावयामः ॥१२॥ लेभे : तदा श्रुतमनेन यथा-भौतसाधुसमीपे तानि सन्ति,
संमोहादननुष्ठन, सदनुष्ठानरागतः । ययाचिरे च तानि तेन तेभ्यः : परं न किंचिल्लेभे । ततो
तद्धेतुरमृतं तु स्या-च्छुद्धया जैनवर्त्मनः ॥ १३ ॥ ऽसौ शस्त्रव्यापारपूर्वकं तान्निगृह्य जग्राह तानि , पादेन स्पर्श च परिहतवान् । यथाऽस्य पादस्पर्शपरिहारो गुणोऽपि
(व्याख्या 'मुत्तिदोस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) शस्त्रव्यापारेणोपहतत्वान्न गुणः , किं तु दोष एव । एवं चरमे पुद्गलावर्ते, तदेवं कर्तृभेदतः । मुक्तिद्वेपिणां गुरुदेवादिपूजनं योजनीयम् ॥६॥
सिद्धमन्यादृशं सर्व, गुरुदेवादिपूजनम् ।। १४ ॥ मुक्त्यद्वेषान्महापाप-निवृत्त्या यादृशो गुणः ।
(चरम इति ) निगमनं स्पष्टम् ॥ १४ गुर्वादिपूजनात्तादृक् , केवलान्न भवेत् क्वचित् ।। ७॥ सामान्ययोग्यतैव प्राक, पुंसः प्रववृते किल । (मुक्त्यद्वेषादिति )-स्पटः ॥ ७॥
तदा समुचिता सा तु, संपन्नेति विभाव्यताम् ॥ १५ ॥ एकमेव ह्यनुष्ठानं , कर्तृभेदेन भिद्यते ।
(सामान्येति ) सामान्ययोग्यता-मुक्त्युपायस्वरूपयोग्य. सरुजेतरभेदेन , भोजनादिगतं यथा ॥ ८॥
ता, समुचितयोग्यता तु तत्सहकारियोग्यतेति विशेषः । (एकमेवेति ) एकमेव ह्यनुष्ठानम्-देवतापूजनादि कर्तृ
पूर्व ोकान्तेन योग्यस्यैव देवादिपूजनमासीत् , चरमावर्ते भेदेन चरमाचरमावर्तगतजन्तुककतया भिद्यते-विशिभेदेन चरमाचरमावर्तगतजन्तकर्तकतया भिद्यते-विशि- तु समुचितयोग्यभावस्येति'चरमावर्तदेवादिपजनस्याम्याव
तदेवादिपूजनादन्यादृशत्वमिति' योगबिन्दुवृत्तिकारः॥ १५ ॥ दिगतम् भोजनपानशयनादिगतम् , यथा अनुष्ठानम् । एकस्य चतुर्थ चरमावर्ते, प्रायोऽनुष्ठानमिष्यते । गेगवृद्धिहेतुत्वात् , अन्यस्य बलोपचायकत्वादिति । सहका
अनाभोगादिभावे तु, जातु स्यादन्यथाऽपि हि ॥१६॥ रिभेद एवायं न तु वस्तुभेद इति चेन्न , इतरसहकारिस
(चतुर्थमिति ) चरमावर्ते प्रायो-बाहुल्येन चतुर्थम्-तद्धमवहितत्वे न फलव्याप्यतापेक्षया तदवच्छेदकं कारणं भेद
तुनामकम् अनुष्ठानमिष्यते । अनाभोगादिभावे तु जातु-कस्यैव कल्पनौचित्यात्तथैवानुभवादिति "कल्पलतायां" विप
दाचिदन्यथाऽपि स्यादिति प्रायोग्रहणफलम् ॥१६॥ ञ्चितत्वात् ॥ ८॥
शङ्कतेभवाभिष्वङ्गतस्तेना-नाभोगाच विषादिषु ।
नन्वद्वेषोऽथवा रागो, मोक्षे तद्धेतुतोचितः। अनुष्ठानत्रयं मिथ्या , द्वयं सत्यं विपर्ययात ॥४॥
आये तत्स्यादभव्याना-मन्त्ये न स्यात्तदद्विषाम् ।१७। (भवेति ) तेन कर्तृभेदादनुष्ठानभेदेन भेदनम् भवाभि
(नन्विति ) मुक्त्यद्वेषप्रयुक्तानुष्ठानस्य तद्धेतुत्वे-अभव्यानुवङ्गतः-संसारसुखाभिलाषात् । अनाभोगतः-सन्मूर्छन
प्ठानविशेषे अतिव्याप्तिः ; नवमवेयकप्राप्तेर्मुक्त्यद्वेषप्रयुक्तजप्रवृत्तितुल्यतया च विषादप्वनुष्ठानेषु मध्ये अनुष्ठानत्रयमादिम मिथ्या-निष्फलम् , द्वयमुत्तरं च सफलम् ।।
त्वप्रदर्शनात् । मुक्तिरागप्रयुक्नानुष्ठानस्य तत्त्वे तु मनाग रा
गप्राकालीनमुक्त्यद्वेषप्रयुक्तानुष्ठाने ऽव्याप्तिरित्यर्थः ॥ १७ ॥ विपर्ययात्-भवाभिष्वङ्गानाभोगाभावात् ॥ ६ ॥
न चाद्वेष विशेषस्तु, कोऽपीति प्राग निदर्शितम् । इहामुत्र फलापेक्षा, भवाभिप्यङ्ग उच्यते । क्रियोचितस्य भावस्या-नाभोगस्त्वतिलचनम् ॥१०॥
ईपद्रागाद्विशेषश्चे-दद्वेषोपक्षयस्ततः ॥ १८॥
(न चेति ) अद्वेषे विशेषस्तु न च कोऽप्यस्ति अभावत्वा(इहेति ) प्रागेव शब्दार्थकथनाद्गतार्थोऽयम् ॥ १० ॥
दिति प्राक्-पूवद्वात्रिंशिकायां निदर्शितम् । ईषद्रागाच्चेद्विशे विषं गरोऽननुष्ठानं, तद्धेतुरमृतं परम् ।
पस्तर्हि तत एवाद्वेषस्योपक्षयः विशेषणेनैव कार्यसिद्धौ विगुर्वादिपूजानुष्ठान मिति पञ्चविधं जगुः ॥ ११॥ शेष्यबयोत् । इत्थं च मुक्त्यद्वेषेण मनाग मुक्त्यनुरागे(विषमिात-) पञ्चानामनुष्ठानानामयमुद्देशः ॥ ११॥ ण वा तद्धेतुत्वमिति वचनव्याघात इति भावः ॥१८॥ विषं लब्ध्याद्यपेक्षातः, क्षणात्सञ्चित्तमारणात् । उत्कटानुत्कटत्वाभ्यां, प्रतियोगिकृतोऽस्त्वयम् । दिव्यभोगाभिलाषेण, गरः कालान्तरे क्षयात् ॥१२॥। नेवं सत्यामुपेक्षायां, द्वेषमात्रवियोगतः ॥ १६॥
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(४३६) मोक्ख अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्व (उत्कटेति ) अभव्यानां मुक्तौ उत्कटद्वेषाभावेऽप्यनुत्क- गुणरागस्य बीजत्व-मस्यैवाव्यवधानतः ॥२५॥ टद्वेषो भविष्यति, अन्येषां तु द्वपमात्राभावादेवानुष्ठानं त
धारालग्नः शुभो भाव, एतस्मादेव जायते । हेतुः स्यादिति पूर्वार्धार्थः । नैवम्--उपेक्षायां सत्यां द्वेषमात्रस्य वियोगतः । अन्यथा स्वेटसांसारिकसुखविरोधित्वेनो
अन्तस्तत्त्वविशुद्धथा च, विनिवृत्ताग्रहत्वतः ॥ २६ ॥ कटोऽपि द्वेषस्तेषां मुक्तौ स्यादित्युत्तरार्धार्थः ॥ १६ ॥ अस्मिन् सत्साधकस्येव, नास्ति काचिद्विभीषिका । समाधत्ते
सिद्धेरासन्नभानेन, प्रमोदस्यान्तरोदयात् ।। २७ ॥ सत्यं बीजं हि तद्धेतो-रेतदन्यतरार्जितः ।
चरमावर्तिनो जन्तोः, सिद्धेरासन्नता ध्रुवम् । मुक्त्यद्वषो न तेनाति-प्रसङ्गः कोऽपि दृश्यते ॥ २० ॥
भृयांसोऽमी व्यतिक्रान्ता-स्तेष्वेको बिन्दरम्बुधौ।।२८|| (सत्यमिति ) तद्धेतोः-अनुष्ठानस्य हि बीजम् । एतयोर्मु
मनोरथिकमित्थं च, सुखमास्वादयन् भृशम् । क्यद्वेपरागयोरन्यतरेणार्जितः-जनितः क्रियारागः-सदनु
पीड्यते क्रियया नैव, बाद तत्राऽनुरज्यते ॥ २६ ।। ष्ठानरागः । तेनातिप्रसङ्गः कोऽपि न दृश्यते । अभव्यानामपि स्वर्गप्राप्तिहेतुमुक्त्यद्वेषसत्त्वेऽपि तस्य सदनुष्ठान
प्रसन्नं क्रियते चेतः, श्रद्धयोत्पन्नया ततः। रागाप्रयोजकत्वाद्बाध्यफलापेक्षासहकृतस्य सदनुष्ठानरा
मलोज्झितं हि कतक-क्षोदेन सलिलं यथा ॥ ३० ॥ गानुवन्धित्वात् ॥ २० ॥
वीर्योल्लासस्ततश्च स्या-त्ततः स्मृतिरनुत्तरा। अपि बाध्या फलापेक्षा, सदनुष्ठानरागकृत् ।
ततः समाहितं चेतः, स्थैर्यमप्यवलम्बते ॥ ३१ ॥ सा च प्रज्ञापनाधीना, मुक्त्यद्वेषमपेक्षते ॥ २१ ॥
अधिकारित्वमित्थं चाऽ-पुनर्बन्धकतादिना । (अपीति) बाध्या-बाधनीयस्वभावा फलापेक्षाऽपि-सौ
मुक्त्यद्वेषक्रमेण स्यात् , परमानन्दकारणम् ॥ ३२ ॥ भाग्यादिफलवाञ्छाऽपि सदनुष्ठाने रागकृत्-रागकारिणी ।
जीवातुरित्याद्यारभ्याष्टश्लोकी सुगमा । ३२ । द्वा० १३ द्वा। सा च-बाध्यफलापेक्षा च प्रज्ञापनाधीना-उपदेशायत्ता
"जे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खे। मुक्त्यद्वेषमपेक्षते कारणत्वेन ॥२१॥ यतः
गणणाईया लोया, दोण्ह वि पुणा भवे तुल्ला ॥१॥" अबाध्या सा हि मोक्षार्थ-शास्त्रश्रवणघातिनी।
अस्या व्याख्या-रागद्वेषज्ञानवतां जन्तूनां वधाद्यनिवृत्तानां
वितथप्ररूपणादिप्रवृत्तानां ये-सूक्ष्मवादरजीवसर्वद्रव्यादयो मुक्त्यद्वेषे तदन्यस्या, बुद्धिर्मार्गानुसारिणी ॥ २२ ॥
भावा यावन्मात्राश्च हेतवो निमित्तानि संसारस्य रागादिविर(अबाध्यति) अबाध्या हि सा-फलापेक्षा मोक्षार्थशा
हितानां सम्यश्रद्धानवतामवद्यावितथप्ररूपणादिप्रवृत्तानां स्त्रश्रवणघातिनी तत्र विरुद्धत्वबुड्याधानाद्वथापन्नदर्शना
त एव सर्वजीवादयो भावास्तावन्मात्रा हेतवो मोक्षे मोक्षस्यानां च तच्छवणं न स्वारसिकमिति भावः । तत्-तस्मान्मु- पीत्यर्थः । उक्नं च-" अहो ध्यानस्य महात्म्य, येनैकाऽपि क्त्यद्वेषे सति अन्यस्यां-बाध्यायां फलापेक्षायां समुचित
हि कामिनी । अनुरागविरागाभ्यां, स्याद्भवाय शिवाय च योग्यतावशेन मोक्षार्थशास्त्रश्रवणस्वारस्योत्पन्नायां बुद्धिर्मा
॥१॥" ननु भवत्वेवं. किं त-कियत्संख्या अमी भवशिवर्गानुसारिणी-मोक्षपथाभिमुख्यशालिनी भवतीति; भवति ते- हेतवः ? इत्याह-द्वयोरपि भवमोक्षयोः संवन्धिना हेतूनां प्रषां तीवपापक्षयात् सदनुष्ठानरागः ॥२२॥
त्येकं गणनया-एकद्विव्यादिरूपया अतीता-अतिक्रान्तातत्तत्फलार्थिनां तत्त-तपस्तन्त्र प्रदर्शितम् ।
लोका भवन्ति पूर्णा नैकेनापि अाकाशप्रदेशेन हीनाः परमुग्धमार्गप्रवेशाय, दीयतेऽप्यत एव च ॥ २३ ॥ स्परं तुल्या अन्यूनाधिकसंख्याः , न तु त्रैलोक्यान्तर्व(तत्तदिति) तत्तत्फलार्थिनां-सौभाग्यादिफलकालिणा
तिजीवादिपदार्थानामनन्तत्वेनानन्ता एव भवमोक्षयोर्हेतवो म् : तत्तत्तपो-रोहिण्यादितपोरूपम् अत एव तन्त्रे प्रद- भवन्त्यतस्ते कथमसंख्येया इत्युक्तम् ? , सत्यम्-यद्यपि जीशितम् । अत एव मुग्धानां मार्गप्रवेशाय दीयतेऽपि गी-1 वादयो भावा अनन्तास्तथापि तैः सवैरपि विसरशान्यसंतार्थः । यदाह-" मुद्धाण हियट्टया सम्म" | नोवमत्र वि- |
ख्येयान्येवाध्यवसायस्थानानि जन्यन्ते नानन्तानि ; तेभ्यः पादित्वप्रसङ्गो न वा तद्धतुत्वभङ्गः, फलापेक्षाया बाध्यत्वा- परतोऽन्याध्यवसायानां पूर्वाध्यवसायेष्वेवान्तर्भावात् । अतत् । इत्थमेव मार्गानुसरणोपपत्तेः॥ २३ ॥
स्तजन्याध्यवसायस्थानानामसंख्ययत्वेनार्था अप्युपचारादइत्थं च वस्तुपालस्य, भवभ्रान्तो न बाधकम् ।
संख्येयत्वेनोक्ता इत्यदोषः, अतः स्थितमेकाऽपि जीवोपमर्दागुणाद्वेषो न यत्तस्य, क्रियारागप्रयोजकः ॥ २४ ॥
दिका विराधना परिणामवैचित्र्येण कर्मबन्धहेतुस्तनिर्जरा( इत्थं येति ) इत्थं च-मुक्त्यद्वेषविशेषोक्तौ च वस्तुपा
हेतुश्च जायते । इति गाथार्थः । पञ्चा० टिप्पणी १ विव० । लस्य पूर्वभवे साधुदर्शनेऽप्युपेक्षया अज्ञाततद्गुणरागस्य
अथ द्वादशाङ्गम्य सारमाहचौरस्य भवभ्रान्तो-दीर्घसंसारभ्रमणे न बाधकम् । यद्-य
सोउं सुयएणवं वा, दुग्गेज्झं सारमेत्तमेयस्स । स्मात्तस्य गुणाद्वेषः क्रियारागप्रयोजको नाभूत् । इष्यते घेच्छं तयंति पुच्छइ, सीसो चरणं गुरु भणइ॥११२७।। च तादृश एवाऽयं तद्धत्वनुष्ठानोचितत्वेन संसारहासकार- | 'वा' इति-अथवा पातनान्तरसूचकः 'सोउंति'-सामामिति ॥ २४ ॥
यिकादिबिन्दुसारपर्यन्तं श्रुतार्णवम् दुर्ग्राह्यम्-अतिदुस्तरं जीवातुः कर्मणां मुक्त्य-द्वेषस्तदयमीदृशः ।
श्रुत्वा यदि समस्तमपि तं ग्रहीतुं न शक्ष्यामि तर्हि सारमात्र
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( ४४० अभिधान राजेन्द्रः ।
मोक्ख
प्रेतस्य श्रुतार्थवस्य ग्रहीष्यामि इति सञ्चिन्त्य शिष्यासारमात्रं पृच्छति कोऽस्य द्वादशाङ्गस्य सारः ? इति सोपस्कारमिह व्याख्येयम् । तत्र गुरुर्भणति तस्यापि श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणमिति । एतत्पुनरपृष्ठेनापि गुरुणा निर्युक्तिगाथान्ते प्रोक्ल म्-" सारश्वरणस्य निर्वाण " मिति ॥ ११२७ ॥ अथ प्रेरकः प्राह
अन्नाओ हयत्ति य, किरिया नायकियाहि निव्वाणं। भणियं तो किह चरणं, सारो नाणस्स तमसारो । ११२= । ननु 'हर्ष मा कियाही हया अन्नाओ किया इत्यादि वचनादज्ञानतो तय किया, इति, ज्ञान-क्रियाभ्यां समुदिताभ्यामेव निर्वाणमागमे भणितम् - अनेकस्थानेषु प्रतिपादितम् । ततः कथं ज्ञानस्य सारश्चरणम्, तनु ज्ञानमसारः ?, इति ॥ ११२८ ॥
अत्रोत्तरमाहचरणोवलद्विद्देऊ, जं नाणं चरण व निष्वायं । सारो जितेस चरणं, पहाणगुणभावो भणियं ११२६ नाणं पयासयं विगु-ति विमुद्धिफलं च जं चरणं । मोक्खो य दुगाहीणो, चरणं नागस्स तो सारो । ११३० । यद्यस्माद् मतिश्रुतादिकं ज्ञानं चरणोपलब्धेः — चारित्र - प्राप्तेरेव मुख्य कारणम्, शानं विना चरणविषयस्य जीवाजी वादेर्हेयोपादेयादेश्व वस्तुनोऽपरिज्ञानात्, अपरिज्ञातस्य च य थावत् कर्तुमशक्यत्वात् । चरणाच्य तपःसंयमरूपाद निर्वाणमुपजायते। अतो निर्वाणस्य सर्वसंचररूपस्य चरणमेव मुख्यम्-प्रधानं कारणम, ज्ञानं तु कारणकारणत्वाद् गी तस्य कारणम् । अतस्तेन कारणेन प्रधानगुणभावाज्यानस्य सारक्षरणं भणितम् प्रधानगुरुभावमेव भावयति" नारामित्यादि " ज्ञानं यस्मात् कृत्याकृत्यादिवस्तुनः प्रकाशकमेव वस्तुपरिज्ञानमात्रे व्याप्रियत इत्यर्थः । चरणं पुनर्गुप्तिविशुद्धिफलम् गुप्ति-संबर: विशुद्धिस्तु कर्मनिर्जरा, तिथिशुद्धी फलं यस्य तत् तथा । एवं च सति ज्ञान-चरणलक्षणद्वयाधीनो मोक्षः, केवलं प्रधानतया चरणस्याऽधीनोऽसौ गोणतयैव च ज्ञानस्य ततः प्रधानगुरुभायाच्चानस्य सार इति ॥ ११२६ ॥ ११३० ॥
प्रकारान्तरेणापि ज्ञानाच्चारित्रस्य प्रधानत्वं भावयन्नाहजं सव्वनालाभा-यंतरमहवा न मुच्चए सव्वो । मुच य सव्वसंवर-लाभे तो सो पहाण्यरो ||११३१ ॥ अथवा-यद् - यस्मात् सर्व जानातीति सर्वज्ञानम् केय लज्ञानं तज्ञाभानन्तरमेय सर्वोऽपि प्राणी न मुच्यते-न मुक्ति प्राप्नोति मुच्यते च यस्माच्छलेश्यावस्थायां सर्वसंवर लाभेऽवश्यमेव सर्वः, ततो ज्ञायते केवलज्ञानादप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मुख्यो मोक्षकर्ता सर्वसंघर एव प्रधानतरः, स च क्रियारूपत्वाच्चारित्रमिति ॥ ११३१ ॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह -
लाभे वि अस्स मोक्खो, न होइ जस्स य स होइ स पहाणो । एवं चिय सुद्धनया, निव्वाणं संजमं बेंति ।। ११३२ ॥ यस्य-मत्यादिज्ञानपञ्चकस्य लाभेऽप्यनन्तरमेव मोक्षो न भवति, तज्ज्ञानं मोतस्यानन्तर्येण कारणत्वाभावात् अ
मोक्ख
धानम्' इति शेषः । यज्ञामानन्तरमेव च स मोक्षोऽवश्यं भवति स संवरो ज्ञानात्प्रधानः । एवमेव च संयमस्य प्रधानकारणतां मन्यमानः शुद्धनया:- ऋजुसूत्र शब्दादयः संयममेव निर्वाणमाहुः, अत्यन्तप्रत्यासन्नकारणे सर्वसंवरसंयम कार्यस्य निर्वाणस्योपचारात् न तु शानं निर्माते ते तस्य व्यवहितकारणत्वादिति भावः तथा बोक्रम्- 'तवसंजमो श्रणुमश्रो, निग्गंधं पवयणं च ववहारो । सह-सुया पुरा निव्या संजमो देव ॥ १॥ इति ॥ १३२ ॥ प्रेरकः प्राह
यह पहाणं नाणं, न चरितं नाणमेव वा सुद्धं । कारणमिह न उ किरिया, सा वि हु नाखष्फलं जम्हा | ११३३ ज्ञानवादी माह-ज्ञानमेव प्रधानं मोणकारणं न चारित्रम् । यदिया - शुद्धं ज्ञानमेवैकं मोक्षस्य कारणं न तु क्रिया यस्मादसावपि ज्ञानफलमेव-ज्ञानकार्यमेव । ततश्च यथा मृतिका घटस्य कारणं भवन्त्यपि तदपान्तरालपनि पिएडशिवक-कुलादीनामपि कारणं भवति, एवं ज्ञानमपि मोक्षस्य कारणं तदपान्तराभाषितां सर्वसंयमक्रियादीनामपीति । यथा च क्रिया ज्ञानस्य कार्यम्, तथा शेषमपि यंकियानन्तरभाषि मोत्तादिकम् पथ क्रियाया अवग्भावि बोधिलाभकाले तत्वपरिज्ञानादिकं राग-द्वेषनिग्रहादिकं च तत् सर्व ज्ञानस्यैव कार्यम् । यच्चेह सकलजनम नश्चिन्तितमहामन्त्रपूतविषभक्षण-भूत-शाकिनीनिग्रहादिकं तत् सर्व क्रियारहितस्य ज्ञानस्यैव कार्यम् । अतो रथेनाएमपि निर्या ज्ञानस्यैव कार्यमित्यनुमीयत इति ॥१३३॥ एतदर्शयन्नाह
जह सा खाणस्स फलं, तह सेसं पि तह बोहकाले वि । नेयपरिच्छेयमयं, रागादिविणिग्गहो जो य ॥ ११३४॥ जं च मणोचिंतियमं-तपूतविस भक्खणाइवहुभेयं । फलमिह तं पश्च किरियारहियस्स नागस्स ॥ ११३५ ।। द्वे श्रप्युक्तार्थे एव ॥ १९३४ ॥ ११३५ ॥
एवं ज्ञानपादिना परेगोले सत्याचार्यः प्राहजेणं चिप नागाओ, किरिया ततो फलं च तो दो वि । कारणमिहरा किरिया - रहियं चिय तं पसाहेजा ।। ११३६ ।।
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येनैव च यस्मादेव कारणात् ज्ञानात् क्रिया भवति, ततस्त स्याश्च क्रियायाः समनन्तरमिष्टं फलमवाप्यतेः तत एव तेज्ञानकिये हे अप्यभीष्टफलस्य मोक्षादेः कारणं भवतः । अन्यथा - शानक्रियाभ्यां मोक्षभवनपरिकल्पनमनर्थकमेव स्यात् शिपारहितमेव ज्ञानमात्मलाभानन्तरमेव भगित्यभीष्टफलं केवलमपि प्रसाधयेत् क्रियावदिति ॥ ११३६ ॥ अपि च
नार्य परंपरमर्थ-तरा उ किरिया त पहाणवरं । जुचं कारणमहवा, समयं तो दोणि जुलाई ॥ ११३७॥ यदि ज्ञानं परम्परया कार्यस्योपकुरुते क्रिया त्यानन्तर्येण ततो देवानन्तरमुपकुरुते तदेव प्रधानं कारणं यु अथ समर्क- युगपद में अपि ज्ञानकिये कार्योत्पातः तर्हि द्वयोरपि प्राधान्यं युक्तम्, नत्वेकस्य ज्ञानस्येति ॥ ११३७ ॥
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मोक्ख
किंव-शानात् क्रिया भवन्त्यपि मोक्षस्य कारणमसावि च्यते नचा? यदि नेप्यते तर्हि तामनश्चैव केवलादपि ज्ञानात् क्रियावद मोतो पि भवेत् अकरणस्याऽनपेक्षणीयत्वात् ॥ ११३७ ॥
४४१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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अथ वाऽपि कार्यस्य कारणमिष्यते, तत्राऽऽहकारणमंत मोत्तुं, किरियमांतं कहं मयं नाणं ? | सहचारिचे व कहं, कारणमेकं न पुरेकं ? ।। ११३८ ।। नन्वेवं सत्यानन्तयोंपकारित्वादत्यकारणभूतां क्रियां मु या कथं परम्परोपकारित्वादनन्त्यं ज्ञानं कारणं भवतोअभिमतम् ? इति निवेद्यताम् ? । श्रथ ब्रूषे-नेहा ऽन्त्यानन्त्यविभागः, किंतु पोस्सिो सदैव युगपद् द्वे अप्युपकुरतः तो हन्त ! इयोरपि सहचारित्वे कथमेकं ज्ञानं मोक्षस्य कारणम्, न पुनरेकं क्रियारूपं कारणमिष्यते ? | न ह्याग्रहग्रस्ततां विहायापरो हेतुरिहोपलभ्यत इति
भावः । १९३८ ॥
यदुक्तम् -' रागादिविणिग्गहो जो यत्ति ' तत्राऽऽह - रागाइसम संजम किरिय चिय नागकारा होजा । तीसेफले विवाच तं ततो नारासहियाओ ।।११३६।। रागादिशमो रागादिनिग्रहस्तावत्संयमक्रियेय भरायते, नापरं किञ्चित् सा च ज्ञानं कारणं यस्याः सा ज्ञानकारणाशानफला भवेदेव, नेहाऽस्माकं काचिद विप्रतिपत्तिः किंतुयत् तस्याः समनन्तरं मोक्षादिकं फलमुपजायते तत्र विच दामः तथादितरिक शानादेव केवलादुपजायते, आहोस्वित् केवलशियातः, उत-ज्ञान-क्रियोभयात् इति त्रयी गतिः । तत्र न तावदाद्यः पक्षः, ज्ञानादपान्तराले भवताऽपि क्रियोत्पत्तेरभ्युपगमात् नापि द्वितीयः पक्षो युक्तः, ज्ञानशून्यक्रियातो मोक्षादिकार्याभ्युपगमे उन्मत्तादिक्रियातोऽपि मुक्तिप्रसङ्गात् । तस्मात् तृतीय एव पक्षो युज्यते श्रत एवाह - "तं तत्तो नारासहियाउ प्ति" तद् मोहादिकार्य ततस्याः कि यायाः सकाशादुत्पद्यते कथंभूतायाः १ शानसहिताया इति ।। ११३६ ।।
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यदुक्तम् 'जं च मनोचिन्तियर्मतपूतेत्यादि । तथाऽऽहपरिजवणाई किरिया, मंतेसु वि साहणं न तम्मतं । रामाय य न फलं तं नाग जेणमकिरियं ॥ ११४० ॥ विषघात नभोगमनादिहेतुषु मन्त्रेष्वपि परिजनादिक्रिया मन्त्रसहायिनी कार्यस्य साधनं - कार्यसाधिकेत्यर्थः, न तु तन्मात्रे - मन्त्रमात्रमेव तत्साधकम् । अथाभिधासे- ननु प्रत्य मिदम् यतो टएं कचिद् मन्त्रानुस्मरणशानमात्रादप्यभीप्रुफलम्ः इत्याह- तज्ज्ञानाश्च्च केवलाद् मन्त्रानुस्मरज्ञानाश्च न तत्फम्, येन कारणेनाऽक्रियमेव तज्ज्ञानम्, अत्यचानि तत्कार्याणि कुरुते, यथा-आका शम् विज्ञानम् इति कथं कार्याणि कुर्यात् यथ करोति तत् सक्रियं दृष्टम् यथा- कुलालः, न चैवं ज्ञानम्, इ. ति न तत्केवलं किमपि करोति । न चेदं प्रत्यक्षविरुद्धम्, न हि क्रियासाहाय्यरहितं ज्ञानं क्वचिदपि फलमुपाहरलभ्यत इति ।। ११४० ॥
अथ प्रयमाशय परिहरन्नाह
तो तं कत्तो भन्न, तं समय निपदेववहियं ।
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मोक्ख
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किरियाफलं चिय जो, न मंतनाणोवयोगस्स । ११४१ । यदि केवलमन्यज्ञानकृतं नभोगमनादि कार्य न भवति तत स्तर्हि कृतस्तत् इति वाच्यम् भएयतेोत्तरम् तद् नभोगमनादिकार्य समयनिदेवतोपहितं सत् क्रियाफलमेव यस्मात् ततो न ज्ञानोपयोगमात्रस्यैव फलमिति । - दमुकं भवति समय:- संकेतस्ततो यत्र यत्र देवतानां समये सङ्केते उपनिबद्धा मन्त्रास्तत्र तत्र देवताकृतमेव तत्तत् फलम् देवताथ सक्रिया एव । अतः सकियदेवताभिरुपाइतं सत् तत्क्रियाफलमेव यतः, अतो न केवलस्य ज्ञानमात्रोपयोगस्य फलमिति स्थितम् । श्राह-ननु देवताह्नानं तावत् केवलादेव मन्त्रानुस्मरणशानोष-योगाद भवति न वा इति क्रव्यम्। यदि भवति, तर्हि शेषकार्यापि केवलात् तत एव किं नेष्यन्ते । अथ न भवति तहिं कथमसाविह 33गत्य नभोगमनयिषवीर्याप हारादिकार्याणि कुर्यात् ? । श्रत्रोच्यते देवताह्वानं भवति, परं न केवलादेव मन्त्रस्मरणशानोपयोगमात्रात् किंतु-पुनः पुनस्तापन-पूजनादिक्रियासहायात् तस्माद देता मपि संपद्यते इत्यलं विस्तरेणेति । ११४१ ॥
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ग्रह किं ज्ञानं सर्वधय निष्क्रियम्? कि या कांबिदेश विशिष्टां क्रियामधित्य तनिष्क्रियम, इति अशोच्यतेवस्तुपरिच्छेदमा तत् करोति तत्करणादेव च सहकारिकारणतया जीवस्य चारित्रक्रियां जनयति यन्तु विशिषं मोक्षलक्षणं कार्य, तनिर्वर्त्तकं ज्ञानमानन्तर्येण न भवति, ६त्येतद् दिदर्शयिषुः तथा वच्यमाणं च संबन्धयितुमाहवत्थुपरिच्छेयफलं, हवेज किरियाफलं च तो नाथं ।
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न उ निव्वत्तयमि, सुद्धं चिय जं तोऽभिहियं । ११४२१ फिरियाफलं ति कियेव फलं यस्य तत् क्रियाफलम् । शेपं सुगमम् । इति गाथार्थः ॥ १९४२ ॥
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किं पुनरभिहितम् ?, इत्याह
सुगनाथम्म वि जीवो, वो सो न पाउण्ड मोक्खं । जो तवसंजममइए, जोगे न चएइ वोढुं जे ।। ११४३ ॥ ज्ञानेऽपि अपिशब्दाद–मत्यादिज्ञानेष्यपि जीयो वर्तमा नः सन् न प्राप्नोति मोक्षम् इत्यनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः । यः कथंभूतः ? इत्याह--यस्तपः संयमात्मकान् योगान् न शोतियो इत्यनेन हेत्वर्थ इति दृष्टान्तस्त्वभ्यूहाः, वक्ष्यति वा । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ ११४३ ॥
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अथ सूचितप्रयोगम्, वक्ष्यमाणनिर्युक्तिगाथा संबन्धं च विवराहसकिरियाविरहाओ इन्द्रियसंपावर्य न नाणं ति । मग्गए वाऽचिट्ठो, वायविडीयोऽहवा पोचो ।। ११४४॥ केवलमेव ज्ञानं नेप्सितार्थ संप्रापकम् सत्क्रियाशून्यत्वात् यथा स्वसमीहित देशप्रापणक्षमस थेराविरहितो मार्गशः पुरुपः स्वाभिलषित देशाप्रापकः । अथवा – सौत्र एव दृष्ट्रन्तः, यथा - ईप्सितदिक्संप्रापकबात सत्क्रियारहितः पोत संप्राः सन्क्रियाविरहितं च ज्ञानम् तस्माद् टार्थसंपादन] इनि गाथार्थः । ११४४ ॥
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(४४२) मोक्ख अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्य तथाहि
गमसुखमनुभूय दुष्पापोऽयं जिनवचनबोधिलाभः इत्येवं जाजह छेयलद्धनिजा-मो वि वा णियगइच्छियं भूमि । नन्नपि स्वजनस्नेहविषयानुरक्तचित्ततया पुनरपि तत्रैव भववाएण विणा पोओ, न चएइ महमवं तरिउं ॥११४॥
सागरे निमजेत् । अत उच्यते-'मा त्वमित्थमस्मिन्नेव भवसा
गरे निमालीः, किंतु-सदनुष्ठानेष्वप्रमादपरो भव' इति । अक्षतह नाणलद्धनिजा-मनो वि सिद्धिवसहिं न पाउणइ ।
रार्थस्तु सुगम एव, नवरं मनुष्यभवप्राप्त्यावारककर्मैव चर्मनिउणो विजीवपोओ,तवसंजममारुयविहीणो॥११४६।। शेवालः कर्मचर्म तस्य विवरोऽनुदयावस्था तेन । 'जहससारसागराया, उच्छुड्डा मा पुणो निबुड्डेजा। णमित्यादि' जैन ज्ञानादिप्रकाश-ज्ञानदर्शनचारित्रस्वचरणगुणविप्पहीणो, बुइइ सुबह पि जाणतो॥११४७|| रूपावबोधात्मकं तत्स्वरूपश्रवणादिद्वारेण गुरुभ्यः समाछेको-दक्षो लब्धः-प्राप्तो निर्यामको येन-पोतेन स त
साद्येति । 'तयं ति' ज्ञानादिप्रकाश दुर्लभमपि 'जानानः '
इत्यत्र संबध्यते, स्वजनस्नेहादिना ततो वियोजितः संयमथाविधः, अपिशब्दात्-सुकर्णधाराधिष्ठितोऽपि, वणिज इ.
क्रियारहितः पुनरपि तत्रैव भवसागरे निमजेदेष संसारिट्रां-वणिगिष्टां तां भूमि महार्णवं तीर्खा वातेन विना पोतो न शक्नोति प्राप्तुम् ' इति वाक्यशेषः । उपनयमाह
जीवः । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ११४८ ॥ ११४६ ॥
अत्र प्रेरकः प्राहतथा श्रुतज्ञानलब्धनिर्यामकोऽपि, अपिशब्दान्-सुनिपुण
आहऽमाणी कुम्मो, पुणो निमज्जेज न उण तत्राणी । मतिकर्णधाराधधिष्ठितोऽपि संयम-तपो नियममारुतसक्रियारहितो निपुणोऽपि जीवपोतो भवार्णवं तीर्खा स
सक्किरियापरिहीणो,बुडइ नाणी जहऽनाणी॥११५०॥ मनोरथवणिजोऽभिप्रेतां सिद्धिवसतिं न प्राप्नोति । त-| नेच्छइ य न य मएण, अन्नाणी चेत्र मो मुणन्तो वि । स्मात्-तपःसंयमानुष्ठानेऽप्रमादवता भवितव्यमिति । तथा नाणफलाभावाओ,कुम्मो व निबुड्डएँ भवोहे ॥११५१॥ चोपदेशमाह-'संसारेत्यादि' विनेयस्योपदिश्यते भो-दे
श्राह परः-ननु चाज्ञानी-हिताहितविभागपरिज्ञानशून्यः, षानुप्रिय ! कथं कथमपि महता कष्टेनातिदुर्लभं श्रीस- पुनरपि तत्रैव जले निमज्जेत् कूर्मः, नेह किमपि चित्रम् । वंशधर्मान्वितं मानुषजन्म त्वया लब्धम् । तल्लाभाश्च सं- पत्तनु न विदुषां मतं, यत्-जैनमार्गको हिताहितविभागवसारसागरादुन्मग्न इवोन्मग्नस्त्वं वर्तसे । अतश्चरणकर- त्ता शान्यपि भवसागर पुनर्निमजति । अत्राचार्यः प्राहणाद्यनुष्ठानप्रमादन मा तत्रैव निमाक्षीरिति । न च वक्त- शान्यपि पुनर्भवसागरे निमजति, सत्क्रियाविरहात् , अज्ञाव्यम्-विशिष्श्रुतज्ञानयुक्तोऽहं तद्बलेनैव-वस्तुपरिशानमा- निर्मवत् समुद्र इति । वा इति-अथवा, निश्चयनयमतेन त्रादेव मुक्तिमासादयिष्यामीति; यतश्चरणगुणविप्रहीणः सु- | जानन्नयज्ञान्यवासौ सन्क्रियापरिहीणः, ज्ञानफलस्य विरबपि श्रुतशानेन जानन् ब्रुडति-निमजति, पुनरपि संसा
तरभावात् । अतोऽज्ञानी कूर्म इव पुनर्बुडति-निमजति भरसमुद्रे । अतो ज्ञानमात्रसमुत्थमवष्टम्भमपहाय चरणकर
वौघे संसारसमुद्रसंबन्धिनि जन्मजगऽऽमयमरणसलिलणानुष्ठान एवोद्यमो विधेयः । इति नियुक्निगाथात्रयार्थः
प्रवाहे । इति गाथाद्वयार्थः॥ ११५० ॥ २१५१ ॥ ॥११४५ ॥ ११४६ ॥ ११४७॥
अत पवाह नियुक्तिकारःसृतीयगाथाभावार्थ भाष्यकारो दृष्टान्तेनाऽऽह
सुबह पि सुयमहीयं, किं काही चरणविप्पहाणस्स । संसारसागराओ , कुम्मो इब कम्मचम्मविवरेण ।
अंधस्स जह पलित्ता,दीवसयराहस्स कोडी वि?।११५२। उम्मजिउमिह जइणं, नाणाइपगासमासज्ज ।। ११४८॥ सुबहपि श्रतमधीतं चरणविहीणस्य निश्चयतोऽज्ञानमेव । दुलहं पि जाणमाणो, सयणसिणेहाइणा तयं तत्तो । अतस्तस्य फलशून्यत्वादकिश्चित्करमेव । यथा-अन्धस्य दीसंजमकिरियारहिओ, तत्थेव पुणो निबुड्डेजा ॥११४६॥
पशतसहस्रकोट्यपि प्रदीप्ता न किश्चित् करोति । दीपानां श्रयमत्र भावार्थ:-यथा-कश्चित् कूर्मः कच्छपस्तृणपत्रपट
शतसहस्राणि लक्षा इत्यर्थः, तेषां कोटी, अपिशब्दातलप्रचुरातिनिविडशेवालाच्छादितोदकान्धकारमहाहदान्तर्ग
तद्वयादिकोटयोऽपि । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥११५२।।
अथ भाष्यम्तोऽनकजलचरक्षाभादिव्यसनव्यथितमानसः सर्वतः परि
संतं पि तमामाणं, नाणफलाभावो सुबहयं पि । भ्रमन् कथमपि शेवालरन्ध्रमासाद्य-तेनैवोपरि निर्गत्य च शरत्पार्वणचन्द्रचन्द्रिकास्पर्शसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वय
सक्किरियापरिहीणं,अंधस्स पईवकोडि व्य ॥११५३॥ धुभूतान्यजलचरस्नेहाकृष्णचित्तः , तेषामपि वराकाणाम
गतार्थव ॥ ११५३ ॥ दृष्टकल्याणानामहमिदं सुरलोककल्पं किमपि दर्शयामि,
अत्र प्रर्यमुत्थाप्य परिहरतिइत्यवधार्य पुनस्तदेव हृदमध्यं प्रविष्टः । अथ समाव
अंधोऽणवयोहो च्चिय, बोहफलं पुण सुयं किमामाणं । ताशेषजलचरवृन्दस्तद्रन्ध्रापलब्ध्यर्थ पर्यटन , अपश्यंश्चः क
बोहो वि तो विफलो,तस्स जमंधस्स अवबोहो।११५४| एतरं व्यसनमनुभवति । एवमयमपि जीवकच्छपोऽनादि
श्राह नन्वत्र दृष्टान्तदान्तिकाईपम्यमेव, यतोऽन्धाऽकर्मसन्तानाच्छादिताद् मिथ्याज्ञानतिमिरानुगताद विविध
नववोध एव । न खलु तस्य बहुभिराप प्रदीपकाटिभिः प्रज्वशिरोनेत्रव्यथाज्वरकुष्ठभगन्दरादिशारीरेविप्रयोगानिटसंप्र.
लिनाभिघटाद्यवबाधा जन्यते, स्वयं चक्षुर्विकलत्वात् नम्य । योगादिमानसदुःखजलचरसमूहानुगतात् संसारसागरात्
श्रुतज्ञानं तु सज्जचक्षुषः प्रदीपवत् बाधफलमेव, ततः किकश्चिदेव मनुष्यभवप्राप्तियोग्य कर्मोदय लक्षणं रन्ध्रमासाद्य
मिदमज्ञानमभिधीयते ? किमिति केवलाधीतश्रुतस्य तदमानुषत्वप्राप्त्योन्मग्नः सन् जिनवरेन्द्रचन्द्रवाचन्द्रिकासं- १-सेवाल इति दन्त्यादिरपि ।
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मोक्ख अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्ख किञ्चित्करमुच्यते ?, इति भावः । अत्रोत्तरम्-बोधोऽपि
काहिइ नाणच्चायं, किरियाए चेव मोक्खमिच्छतो। तकोऽसौ श्रुतजनितस्तस्य करणहीनस्य विफलो यस्मात् , तस्माद् अनवबोध एव,इति भावः, यथा-ऽन्धस्य 'अवबोहो
मा सीसो तो भमइ,हया य अन्नाणो किरिया ।११६१॥ त्ति' अवबोधः । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ११५४ ॥
हतमिह ज्ञानम् । किंविशिष्टम् ?, इत्याह-क्रियाहीनमिति व्यतिरेकमाह
यत्र चारित्रक्रिया नास्तीत्यर्थः। ननु कथं क्रियाहीनं शान अप्पं पि सुयमहीयं, पगासयं होइ चरणजुत्तस्स । हतम् उच्यते ?, इत्याह-यतो यस्माद् यद् विफलं तदिह एक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्सा पयासेइ ॥११५॥
हतं विवक्षितम् , फलं च शानस्य क्रियैव । ततो विगतफलं अल्पमपि श्रुतमधीतं चरणयुक्तस्य तद्धेतुत्वात् प्रकाशकं
सानं क्रियाहीनमेवोच्यते, नान्यत् । अत्र च प्रयोगः-हतं
शानमेव केवलम् सत्क्रियाहीनत्वात् महानगरप्रदीपनकदाभवति-प्रकाशकं भरायते, क्रियाहेतुत्वेन सफलत्वाज्यानत्वेन
हे पलायनक्रियारहितपकुलोचनझानवदिति । एवमुक्ते सति व्यपदिश्यत इति तात्पर्यम् । यथैकोऽपि प्रदीपो हेयोपादेयपरिहारोपादानादिक्रियाहेतुत्वाञ्चक्षुष्मतः प्रकाशयति प्र
क्रियात एव मोक्षमिच्छन् मानेऽनाहतस्तत्त्याग मा कार्षीकाशको भण्यते । इति नियुक्निगाथार्थः ॥ ११५५ ।।
च्छिष्यः, इत्यतो भण्यते-हताऽझानतःक्रिया-हता मोक्ष
लक्षणफलरहिताऽज्ञानपरिगृहीता निह्नवादेः क्रिया,सम्यग्डभाष्यम्किरियाफलसंभवओ, अप्पं पि सुयं पगासयं होइ ।
हेरपि ज्ञानोपयोगशून्यस्य क्रिया हतैव तथाविधफलविकल
त्वात् सर्वतः संकटप्रदीप्तनगरे दह्यमानगृहाद्यभिमुखपलायएक्को विह चक्खुमओ, किरियाफलदोजह पईवो।११५६।
मानान्धगतिक्रियावदिति । तस्मादन्योऽन्यापेक्षे समुदिते एव पूर्वार्धस्यान्ते 'चरणयुक्तस्य ' इति शेषः । शेषमुक्तार्थ- शानक्रिये मोक्षस्य साधनमेष्टव्ये,न प्रत्येकमिति॥११६०।११६१॥ मेव ॥ १९५६ ॥
एतदेवाह__वक्ष्यमाणवृत्तं संवन्धयन्नाह
अइसकड पुरदाह-म्मि अंधपरिधावणाइकिरिय व्व । नहि नाणं विफलं चिय,किलेसफलयं पि चरणरहियस्स।
तेणऽन्नोन्बावेक्खा,साहणमिह नाणकिरियाओ।११६२। निष्फलपरिवहणाओ,चंदणभारो खरस्सेव ॥११५७।। न हिमानं चरणरहितस्य विफलम् , इत्येतावनैव तिष्ठति,
गताथैव ॥ ११॥२॥
अत्र परः प्राहकिन्तु-पठनगुणनचिन्तनादिभिः क्लेशफलदमपि भवति, यथा निष्फलवहनाच्चन्दनकाष्ठभारः खरस्य विफलः, क्ले
पत्तेयमभावाओ, निव्वाणं समुदियासु वि न जुत्तं । शप्रदश्च ॥ इतिगाथाद्वयार्थः ॥११५७ ॥
नाणकिरियासु वोत्तुं,सिकतासमुदायतेल्लं व ॥११६३ ॥ तथा चाह नियुक्तिकारः
आह-ननु भवत्प्रतिपादितन्यायेन प्रत्येकावस्थायां ज्ञानजहा खरो चंदणभारवाही,
क्रिययोर्निर्वाणसाधकसामर्थ्याभावात् समुदिताभ्यामपि भारस्स भागी न उ चंदणस्स ।
शानक्रियाभ्यां निर्वाण वक्तुं न युक्तम् , सिकतासमुदाये तैलएवं खु नाणी चरणेण हीणो,
वत् । अत्र प्रयोगः-इह यद् यतः प्रत्येकावस्थायां नोत्पद्यते नाणस्स भागी न उ सुग्गईए ॥ ११५८ ॥
तत् ततः समुदायेऽपि न भवति, यथा सिकताकणेषु प्रत्येयथेह खरश्चन्दनकाष्टभारमुद्वहस्तजनितश्रमादिकष्टभाज
कमभवत् तैलं तत्समुदायेऽपि न भवति । न जायते च नमेव भवति, न तु चन्दनस्य तद्रसोपकल्पितविलेपनादिभा
प्रत्येक शानक्रियाभ्यां मोक्षः, अतस्तत्समुदायादप्यसौ न ग भवतीत्यार्थः । एवं चरणेन हीनः श्रुतशान्यपि तद्भारमुद्ध- ।
युज्यत इति । तदेतदयुक्तम् , प्रत्यक्षविरुद्धत्वात् । तथाहिहुन् शानभागेव भवति, तत्पठन-परावर्तन-चिन्तनादिकृत
मृत्तन्तुचक्रचीवरादिभ्यः प्रत्येकमभवन्तोऽपि तत्समुदायाकष्टभाजनमेव भवतीत्यर्थः, न तु सुदेवत्व-सुमानुषत्व-सि-|
द् घटादिपदार्थसार्थाः प्रादुर्भवन्तो दृश्यन्त,अतोऽदृष्टस्य मोद्धिलक्षणायाः सुगतेरिति ॥ ११५८ ॥
तस्यापि ज्ञानक्रियासमुदायात्प्रादुर्भूतिरविरुद्धैवेति॥११६३॥ अथ मा भूदित्थं विनयस्यैकान्तेन शानेऽनादरः, फ्रियायां
किञ्चचैतन्यमायामपि पक्षपातः, इत्यतो द्वयोरपि केवलयोरिष्ट-|
वीसुं न सव्वह चिय, सिकतातेल्लं व साहणाभावो । फलासाधकत्वमुपदर्शयन्नाह
दसोवगारिया जा,सा समवायम्मि संपुण्णा ॥११६४॥ हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणो किया । न च विष्वक्-पृथक सर्वथैव सिकताकणानां तैल इव साध्ये पासंतो पङ्गुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ ॥ ११५६ ।।
मानक्रिययोर्मोक्ष प्रति साधनत्वाभावः, किन्तु-या च यावती अत्राक्षराथः सुगम एव, भावार्थ तु भाष्यकारो वक्ष्यति ।
च तयोर्मोक्ष प्रति दशोपकारिता प्रत्येकावस्थायामप्यस्ति,सा इति नियुक्तिवृत्तश्लोकार्थः ॥ ११५६ ।।
च समुदाये संपूर्णा भवति, इत्येतावान् विशेषः, अतः संअथ भाष्यकारोऽनन्तरोक्तश्लोकभावार्थमाह
योग एव शानक्रिययोः कार्यसिद्धिः । इति गाथापचका
र्थः ॥ ११६४ ॥ हयमिह नाणं किरिया-हीणं ति जोहयं तिजं विफलं ।
एतदेवाहलोयणविनाणं पिव, पंगुस्स महानगरदाहे ॥ ११६० ।। संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, १-छन्दोऽनुरोधारसौत्रवादा दीर्घान्तः ।
नहे (हुए) गचक्कण रहो पयाइ ।
___ संजोगसिद्दीइ फलं वयंलि रही पयाइ
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मोक्स्त्र
(४४४) मोक्ख
अभिधानराजेन्द्रः। अंधा य पंगू य वणे समिच्चा,
वाताकृष्टादिप्रचुररेणुकचवरपूरितं शून्यगृहम् । तत्र च
वस्तुकामः कोऽपि तत् सुशोधयिषुद्वीरवातायनजालते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ ११६५ ।।
कानि सर्वाण्यपि बाह्यरेणुकचवरप्रवेशनिषेधार्थ स्थगज्ञानक्रिययोः संयोगनिष्पत्तावेव मोक्षलक्षणं फलमाचक्ष
यति । मध्ये च प्रदीप प्रज्वलयति । पुरुष च कचते तीर्थकराः । न हि लोकेऽप्येकचक्रेण रथः प्रवर्तते। एव
वराधाकर्षणाय व्यापारयति । तत्र च प्रदीपो रेरावादिमन्यदपि सर्व सामग्रीजन्यमेव कार्यमवगन्तव्यम् । तथा
मलप्रकाशनव्यापारेणोपकुरुते, द्वारादिस्थगन तु बाह्य-- चान्धपणूदाहरणमिह वक्तव्यम् । तद्यथा-कस्यापि नगर- |
रेरावादिप्रवेशनिषेधेन, पुरुषस्तु रेण्वाद्याकर्षणात् तच्छोस्य सत्को लोकः कुतोऽपि राजभयादरण्यं गतः । तत्रा
धनेन । एवमिहापि जीवापवरक उद्घाटाश्रवद्वारः सपि तस्करधाटीभयाद् वाहनादिकमुज्झित्वा प्रपालयितः ।
द्गुणशून्यो मिथ्यात्वादिहेत्वाकृष्टकर्मकचवरपूरितो मुक्तिसुअन्धपणू पुनरनाथौ तत्रैव स्थितौ । तत्र च दवाग्नी स
खनिवासहेतोः शोधनीयो वर्तते । तत्र च प्रदीपस्थानीयं र्वतः प्रदीप्ते तो परस्परं संप्रयुक्ती पङ्करन्धेन खस्कन्धमा- |
झानं जीवादिवस्तूनां प्रकाशकम् , तपस्तु पुरुषस्थानीय रोपितः । स चान्धस्य सम-विषम-स्थाणु-कण्टकादिकं
कर्म कचवरशोधकम् , संयमस्तु द्वारादिस्थगनकल्पो गुाप्त-- कथयति । अतस्तस्य सत्केन चाक्षुषज्ञानेन, अन्धसत्कया च
करो नूतनकर्मकचवरप्रवेशनिषेधकः । एवं त्रयाणामपि गतिक्रियया सम्यग मार्गप्रवृत्त्या क्षेमेण नगरं प्रविष्टाविति ।
ज्ञानादीनां समायोगे समवाये मोक्षो जीवस्य जिनशासने एवं सर्वत्र संयोगात् फलसिद्धिर्भावनीया । इति नियुक्ति
भणितः । एवं शुद्धस्वरूपे जीवमन्दिरे सिद्धिसुखानि संततं वृत्तार्थः ॥ ११६५॥
निवसन्ति । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ ११६६ ।। अत्र भाष्यम्दुगसंजोगम्मि फलं, सम्मक्किरिओवलद्धिभावाप्रो ।
श्राह-ननु जीघापवरकशोधने किमिति ज्ञानादीनां त्रित
यमप्यपेक्ष्यते, यावताऽन्यतरेणैकेनापि तन्छुद्धिर्भविष्यति ?, इट्ठपुरागमणं पिव, संजोए अन्धपंगूणं ॥ ११६६ ॥ इत्याशक्यकैकस्मात् कार्यसिद्धिनिराकरणेन त्रितयसमुदावइरेगो जं विफलं, न तत्थ सम्मक्किोवलद्धीओ।। यादेव तत्सिद्धिं समर्थयन्नाह भाष्यकार:दीसति गमणविफले, जहेगचक्के भुवि रहम्मि ॥११६७।। असहायमसोहिकरं, नाणमिह पगासमेत्तभावायो। अनेन गाथाद्वयेन प्रस्तुतार्थसिद्धयेऽन्वय-व्यतिरेकप्रयोगी सोहेइ घरकयारं, जह सुपगासो वि न पईवो ॥११७०॥ निर्दिष्टौ, तथाहि-द्विकं ज्ञानक्रियालक्षणं तत्संयोग एव फलं |
न य सव्वविसोहिकरी,किरिया वि य जमपगासधम्मा सा। मोक्षलक्षणं भवति । कुतः ?, अत्र संयोगे सम्यक्रियोपलब्धिभावादिति । क्रिया-चारित्ररूपा , उपलब्धिस्तु-शा
जह न तमो गेहमलं, नरकिरिया सव्वहा हरइ ॥११७१॥ नम् । इह यत्र यत्र सम्यकक्रियाशाने तत्र तत्रेष्टफलसि- दीवाइपयासं पुण, सक्किरियाए विसोहियकया। दिः, यथा-अन्धपङ्गसभ्यक्रियाज्ञानसंयोगे, सम्यकक्रिया- संवरियकयारागम-दारं सुद्धं घरं होइ ॥ ११७२ ।। शाने चात्र द्वयसंयोगे, तस्मादतो मोक्षफलसिद्धिः । इत्य
तह नाणदीवविमलं, तवकिरियासुद्धकम्मयकयारं । न्धयप्रयोगः । अथ व्यतिरेकप्रयोग उच्यते-यद विफलं न
संजमसंवरियमुहं, जीवघरं होइ सुविसुद्धं ॥ ११७३ ॥ तत्र सम्यक्रिया-झाने दृश्येते यथा-भुवि पृथिव्यां गतिक्रियारहिते विघटितैकचके रथे, सम्यक्रिया-शाने चात्र
इह न ज्ञानमसहायमेकाक्येव शोधयितुमलम् : प्रकाशमाद्वयसंयोगे, तस्मादतो मोक्षफलमाप्तिरिति ॥ ११६७ ॥
अस्वभावत्वात् , यदप्रियं प्रकाशमात्रस्वभावं न तद् विशु
द्धिकरं दृष्टम् , यथा न गृहरजोमलविशुद्धिकृद दीपः । यथ _वक्ष्यमाणनियुक्तिगाथासंबन्धनार्थमाह
विशुद्धिकरं न तत् प्रकाशमात्रस्वभावम् , यथेष्टाऽनिष्टप्रासहकारिते तेसिं, किं केणोवकुरुते सहावेणं ।
प्तिपरिहारपरिस्पन्दवान् नयनादिप्रकाशधर्मा देवदत्तः, प्रनाण चरणाणमहवा,सहावनिद्धारणमियाणिं ॥११६८।। काशमात्र स्वभावं च ज्ञानम् , तस्मादसहायत्वाद् न विशुद्धिआह-शानक्रिययोः सहकारित्वे सति किं केन स्वभावेनो
करं तदिति । क्रियाऽप्येकाकिनी न सर्वशुद्धिकरी. प्रकाश
धर्मकत्वात् , यद् यदप्रकाशधर्मकं न तत् सर्वविशुद्धिकपकुरुते-किमविशेषेणोपकुरुतः, शिबिकावाहकपुरुषसहा
रम् , यथा-न समस्तगृहरजोमलविशुद्धये ऽन्धक्रिया, चरनतवत् ?, आहोस्विद् भिन्नस्वभावतया, गतिक्रियायां नयन
मतो वा क्रिया; यथा-तमायुक्तं गृहं तमोगृहं तस्य न सर्वचरणादिवत् । अत्रोच्यते-भिन्नस्वभावतया, यत आह
विशुद्धयेऽलम् । या च सर्वविशुद्धयेऽलं न साऽप्रकाशम्ब'नाणं पयासयमित्यादि' इत्येका वक्ष्यमाणगाथायाः प्र
भावा, यथा-चक्षुष्मनो नरस्य विनमस्कगृह समस्तरजास्तावना । अथवा-संक्षिप्ताऽन्या प्रस्तावनोच्यते, यथा
मलापनयन क्रया, अप्रकाशस्वभावा चैकाकिनी क्रिया, श्र तयोरेव ज्ञानचरणयोरिदानी स्वभावनिर्धारण क्रियते, इति
तो न सर्वविशुद्धिकर्गति । त्रितयार्दाप सदितान् तर्हि संक्षेपविस्तरकृत एव भेदः, न तु पारमार्थिकः । इति गाथा
सुद्धिन भविष्यतीति चत् ? नैवम , इत्याह-दीपादिप्रकाप्रयार्थः ॥ १९६८ ॥
शं पुनर्यथा गृहं सक्रियया विशोधितकनवरं संभृतकनाणं पयासयं सो-हो तवो संजमो य गुत्तिकरो। ।
चवरागमहतुभूतद्वारं सर्वथा शुद्ध भतिः तथा तेनैव तिराहं पि समारोगे,मोक्खो जिणसासणे भणिो११६६ | प्रकारेण शानदीपविलितं तपःक्रियया शोधितकर्मकचवर द्रह यथा किश्चिदुद्धाटद्वारे बहुवातायनजालकच्छिदं । संयमेन संभृतसमस्ताश्रवद्वारं जीवगृहं सुविशुद्ध सिद्धि
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मोक्ख श्रमिधानराजेन्द्रः।
मोक्ख सुखसंदोहनिवासयोग्यं भवतीत्यर्थः । इति ॥ ११७० ॥ पाह-यद्येवं क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वेनैव श्रुताद् मोक्षो ११७१ ॥ १९७२ ॥ ११७३॥
निषिद्ध इत्यतश्चरणसहितात् ततः प्राग् यद् मोक्षाभिधाने श्राद्द-ननु पूर्व शानक्रियालक्षणाद द्वयाद मोक्षः , तच्छ्न्यचित्तभाषितमेव । नैवम् , यतः साक्षादानन्तर्येणेव इदानीं तु मानतपःसंयमरूपात् त्रितयादसावुच्यते , इति श्रुताद् मोक्षो निषिध्यते , पारम्पर्येण तु तस्मादप्यसो भवकथं न पूर्वापरविरोधः? , इत्याशङ्कयाऽऽह
त्येव , यस्मात् श्रुतशानचारित्राभ्यां क्षायिकशानचारित्र संजमतवोमई जं, संवरनिजरफलानया किरिया। लभ्येते , ताभ्यां च मोक्षः संप्राप्यते । ततश्चारित्रयुक्त श्रुतं तो तिगसंजोगो वि हु,ताउ च्चिय नाणकिरियाओ।११७४
मोक्षहेतुरिति यदुक्तं प्राक्, तदप्यविरुद्धमेवेति । संयमतपोमयी संघरनिर्जरफला च यद्-यस्मात् ती
एतदेवाहर्थकरगणधराणां मता-संमता क्रिया , ततस्तस्माजशा
जं सुयचरणेहिंतो, खाइयनाणचरणाणि लब्भंति । नतपःसंयमरूपत्रिकसंयोगोऽप्यसौ ; ते एव पूर्वोक्ने
तत्तो सिर्व सुयं तो, सचरणमिह मोक्खहेउ त्ति ।११७७। ज्ञानक्रिये, नाधिकं किञ्चिदिति । इदमुक्तं भवति-ए- व्याख्याताथैव ॥ ११७७ ॥ कैव चारित्रक्रिया संयमतपोभेदाद् द्विधा भिद्यते , ननु कुतः पुनरिदमवसीयते यत् क्षायोपशामके भाचे श्रुतं तपःसंयमरूपत्वाच्चारित्रस्य । अत एव-संवरो निर्जरा च वर्तते । उच्यते-भागमे तथैवाभिधानात् । कः पुनरेवमातस्याः फलम् , संयमस्याऽऽश्रवद्वारसंवरहेतुत्वात् , तप- गमः ? इत्याह-भावे स्वोयसमिए ' इत्यादि इत्येवमेकया सस्तु कर्मनिर्जराकारणत्वात् । अतो यद्यपीह ज्ञानादित्रयाद् पातनयेयं गाथा संबध्यते। मोक्ष उच्यते, तथापि तपःसंयमयोः क्रियायामेवैकस्यामन्त
अथ पातनान्तरं चिकीर्षुराहर्भावामानक्रियालक्षणद्वयादेवायम् , इति न कश्चिद विरोधः। अहवा निजिएणे च्चिय, कम्मे नाणं ति किं य चरणेणं । अपरस्त्वाह-ननु-" सम्यग्दर्शनशानचारिवाणि मोक्षमार्गः"
न सुयं खयो केवल-नाणचरित्ताइँखइयाई ॥११७८।। इति प्रसिद्धम् , अत्र तु शानचारित्राभ्यां स प्रतिपाद्यते , इति कथं न विरोधः। एतदप्ययुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात्,
तेसु य ठियस्स मोक्खो, तो सुयमिह सचरणं तदहाए । यतो-शानग्रहणेनैवेह सम्यक्त्वमाक्षिप्यते, सम्यक्त्वमन्तरे- तं कह मीसं खइयं, च केवलं जं सुएऽभिहियं ॥११७६।। ण भानस्याप्यभावात् , मिथ्याटिशानस्याज्ञानत्वेनास
'अहव त्ति' अथवा, पर प्राह ननु च स्वावारके कर्मणि तावत् कृत्प्रतिपादनात् , तथा-ज्ञानविशेष एव सम्यक्त्वम् , इति- सर्वथा निर्जीणे-परिक्षीणे सर्वमपि ज्ञानमुत्पद्यते, न तूदयप्राप्ते । प्रागत्राप्युक्तमेव, तद्यथा-'नाणमवायधिश्रो , दसणमिटुं। ततश्च यथा चारित्रमन्तरेणापि कथमपि तज्शानावरण जहोग्गहेहाओ। तह तत्तरुई सम्म, रोइजाजेण तं नाणं १' कर्म क्षीणम् , तथा मोक्षलाभावारकमपि कथमप्येवमेव तस्माज्झानान्तर्गतमेव सम्यक्त्वम् , अतो शानग्रहणात् तद् क्षयमुपयास्यति , ततो झानादेव केवलाद् मोक्षो भविगृहीतमेव, इत्यल प्रसङ्गेन । तदेवं व्याख्याता' नाणं पयास- यति, किं चारित्रेणेति ? । अत्रोत्तरमाह-' न सुयं यं' इत्यादि गाथा ॥ ११७४ ॥
खयउ ति' सर्वमपि शानं स्वावरणे सर्वथा क्षीणे सअथ 'भावे खोवसमिए' इत्याद्युत्तरगाथासंबन्धनार्थमाह- मुत्पद्यते , इत्येतदसिद्धम् , यस्मात् श्रुतज्ञानम् , उपलन लहइ सिर्व सुयम्मि वि, वस॒तो अचरणो त्ति जं तस्स ।
क्षणत्वाद् मत्यवधिमनःपर्यायज्ञानानि च न स्वावरणक्ष
यात्, किन्तु-तत्क्षयोपशमादेवैतानि जायन्ते । क्षायिक हेऊ खोवसमओ, जह बढ़ंतोऽवहिमाणे ॥ ११७५ ।।
त्वेकमेव केवलज्ञानम् , तथा क्षीणमोहसबन्धि चारित्रं इह 'जंति' 'सुयनाणम्मि वि जीवो वढ्तो सो न पाउ- च क्षायिकम् , तयोश्च स्थितस्याऽऽनन्तर्येण मोक्षो जायते। सर मोक्खं ' इत्यादि गाथायां यत् पूर्व प्रतिशातमित्यर्थः । । ततः सचरणं श्रुतमिह तदर्थाय क्षायिकज्ञान-चारित्रलाकिं प्रतिज्ञातम् ?, इत्याह-' न लभते शिव-मोक्षं श्रुतेऽपि भाय भवति , इत्येवं परम्परया चारित्रसहितात् श्रुताद् वर्तमानोऽचरणो जीवः' इति । तस्य प्रतिज्ञातस्य हेतुरयं मोक्षप्राप्तेः पूर्वोक्तं न विरुध्यते। परः प्राह-कथं पुनरिद्रष्टव्यः। कः?,इत्याह-खोवसमश्रोत्ति' क्षायोपशमिकत्वा- दं विज्ञायते-तत् श्रुतक्षानं मिश्रं क्षायोपशमिकं, केवलत्-श्रुतज्ञानस्थ क्षायोपशमिकभाववर्तित्वात् , मोक्षस्य च शानं तु क्षायिकमिति ? । प्राचार्यः प्राह-यद्-यस्मात्, क्षायिकशान एव भावादिति भावः। यथाऽवधिशाने वर्तमान | श्रुते-आगमेऽभिहितमेतत् । इति गाथादशकार्थः ॥ ११७६ ॥ इति दृष्टान्तः॥ ११७५॥
किं तदभिहितम् ? , इत्याहअत्र परः प्राह-ननु यद्येवम् , तर्हि चरणसहितादपि थु
भावे खोवसमिए, दुवालसंग पि होइ सुयनाणं । ताद् मोक्षो न भवत्येव , अस्मादेव हेतोः अमुष्मादेव च दृष्टान्तादिति । कः किमाह ?-क्षायोपशमिके चरणसहितेऽपि
केवलियनाणलंभो,ऽनएणत्थ खए कसायाणं ॥११८०॥ माने न भवत्येव मोक्ष इति सिद्धसाध्यतैव, किन्तु-क्षायिक
भवनम्-भावः , भवतीति वा-भावः, तत्र भावे श्रुतमानचारित्राभ्यामेव मोक्ष इति । एतदेवाह
ज्ञानं भवति । कस्मिन् ? , इत्याह-क्षयोपशमाभ्यां निर्व
त्तः , क्षयोपशमावेव वा क्षायोपशूमिकस्तत्रैव भवति, न सक्किरियम्मि विनाणे,मोक्खो खइयम्मिन उखोवसमे।
त्वौदयिकादिके। कियत् ? , इत्याह-द्वादशाकानि यत्र सुत्तं च खोवसमे, न तम्मि तो चरणजुत्ते वि।११७६।।
तद् द्वादशाङ्गम् , अपिशब्दाद्-बाह्यमपि सर्वम् , मताथैव ॥ ११७६॥
तथा-प्रत्यवधिमनःपर्यायज्ञानत्रयमपि, तथा-क्षायिकोप११२
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मोक्ख
शमिकभाववृत्तिखामायिकचतुष्टयमपि केवलस्य भावः कैवल्यं धातिकर्मवियोग इत्यर्थः तस्मिन् कैवल्ये सति ज्ञाने केल्याने केवलज्ञानमित्यर्थः तज्ञामः पुनः कपायाणाम् - क्रोधादीनां सर्वथा क्षये सत्येव भवति नान्यत्र नान्येन प्रकारेण । इह च यद्यपि धातिकर्मसु चतुर्ष्वपि क्षीणेषु केवलज्ञानं भवति नतु केवलेषु कषायेषु त यापि प्राधान्यख्यापनार्थे तेषामेव प्रहतम्, तत्क्षये शेषकर्मक्षयस्याऽवश्यंभावित्वात् । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ ११८०॥ भाष्यम् -
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( ४४६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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"
स पि किमुय देसो, केवलवआणि वावि सद्देणं । चचारि खओवसमे, सामइयाई च पाएवं ।। ११८१ ॥ सव्वकसायावगमे केवलमिह नागदंसणचरि देसक्खए वि सम्मे, पुर्व सर्व सव्वखं ।। ११८२ ॥ सर्वमपि तं क्षायोपशमिकभाषयति किमुत तदेशः, इत्यपिशब्दभावार्थः । अथवा अपिशब्दात् केवलज्ञानवयनि चत्वारि ज्ञानानि सामाविकानि च सम्यदेशafaरमणरूपाणि चत्वारि, प्रायोग्रहणादक्षायिकौ पशमिका नीति । इह ' नरणत्थ खए कसाया इति केवलज्ञानविषयसामान्यापतिप्रसङ्गाद् विशेषं दर्शयति-केवलशानम्, केवलदर्शनम् केवलं परिपूर्ण शायिकं चारिषं चेति । एतानि त्रीणि सर्वेषामेव कोधादिकषायाणामपगमे क्षये भवन्ति । क्षायिकं सम्यक्त्वं पुनस्तेषामनन्तानुबन्धिचतुएयरूपदेशज्ञयेऽपि भवति । ततः सर्वेष्वपि शानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रेषु क्षायिकेषु जातेषु सत्सु ध्रुवं - निश्चितं शिवं मोक्षो भवति जीवस्येति ॥ ११८ ॥ ११८२ ॥ विशे० । ६० प० । (मोक्षे नवसद्भावपदार्थज्ञानं मोक्षतत्त्वप्रतिपादकमिति 'तत' शब्दे चतुर्थमा २१८१ पृष्ठे गतम् ) ( धर्मस्य फलं मोक्षः इति ' अत्थ ' शब्दे प्रथमभाग ५०७ पृष्ठे गतम् ) (केवलज्ञानानन्तरं मोक्षः इति 'धम्म' शब्दे चतुर्थभाग२६ पृष्ठे गतम् ) ( प्रातः स्नानादिषु मोक्षमिच्छतां मतम् उदग शब्दे द्वितीयभागे ७६६ पृष्ठे गतम् )
मद्देशानुग्रहान्मोक्ष इति पातञ्जलमतमवशिष्यतेएतदेवाह
,
७
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अन्यतोऽनुग्रहोऽप्यत्र, तत्स्वाभाव्यनिबन्धनः । अतोऽन्यथा त्वदः सबै न मुख्यमुपपद्यते ॥ ७ ॥ "मदेशानुप्रहाद्बोधनियम" इति वचनाद् अन्यतो-महेशाद् अनु अपि उपकारोऽपि शुद्धमानक्रियालाभल किं पुनः पूर्वोकी संसारापवर्गादित्यपिशब्दार्थः । अज योगचिन्तायाम् किम् ? इत्याह- तत्स्वाभाव्यनिबन्धनःस- महेशानुग्रहयोग्यः स्वभावो यस्य स तथा तद्भावस्तस्वाभाग्यम् : तन्निबन्धनं-हेतुर्यस्य स तथा । विपर्यये बाधामाह- अतः तत्स्वाभाव्यात् अन्यथा तु श्रन्येन प्रकारेल, पुनः केवलमहेशानुमहादिरूपेण अदः - संसारि त्यादि सर्वम् म्नने मुख्यम्-अनुपचरितम्, उपपद्यते -घटते । यथा हि-कर्पासादिः स्वभावत एवायोग्यो लाक्षारसादिना राज्यमानोऽपि न तात्विक राप्र तिपद्यते, किंतु रामाभासमेव एवमात्मनां योग्यताविरहे
-
मोक्ख
महेशेन क्रियमाणाप्यनुग्रहनिग्रही न तारिवको स्थातामिति तत्स्वाभाव्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् । तदभ्युपगमे व तत एव संसारमोक्षोपपत्या न किचिन्मदेशानुप्रदादिना प्र योजनमस्तीति सिद्धम् "आत्मा तदन्ययोगात्संसारी" इत्या दि ॥ यो० वि० ।
अनुग्रहो ऽप्यनुखाद्य योग्यतापेच एव तु।
कदाचिदात्मा या देवतानुग्रहादपि ॥ १२ ॥ अनुग्रहोऽपि महेशकृतः किं पुनः शेषक्रियाविशेष इत्यपिशब्दार्थः । अनुग्राह्यस्य – अनुग्रहविषयस्य, जन्तोर्योग्यतापेक्ष एव तु योग्यतामेवापेत्य न पुनरन्यथा । अमुमेवार्थे प्रतिवस्तूपमया भावयति-न-नैव, अणुः पुत्रलविशेषः कदाचित् - कापि काले, आत्मा - जीवः स्यात् । कुतोऽपीत्याह- देवतानुग्रहादपि — देवताया दिव्यविशेषरूपाया, अ नुग्रहः प्रसादः, तस्मादपि किं पुनस्तद्भाव इत्यपि शब्दार्थः । अमुमेवार्थ भावयति
कर्मणो योग्यतायां हि, कर्ता तद्व्यपदेशभाक् । नान्यथाऽतिप्रसङ्गेन, लोकसिद्धमिदं ननु ॥ १३ ॥ कर्मणः -- क्रियाविषयस्य, सामान्येन मुद्गादेर्वस्तुनो योग्यतायाम् - योग्यभावे, हि यस्मात्कारणात्, कर्ता - पाचकादिपदेशमा पाचकादिरूपं व्यपदेशं भजते या स तथा । विपक्षे बाधामाह-न- नैव, श्रन्यथा-- श्रन्येन प्रका रेण कर्मणः पाकादियोग्यताविरहे कर्ता तद्व्यपदेशभाक् । कधमित्याह--अतिप्रसङ्गेन अतिम्या शिलक्ष लोकसिद्धं बालावालादिजनप्रतीतम् इदम् पूर्वोक्तं वस्तु ननु निश्चितम, नास्मिन्नर्थे ऽन्यरप्रमापीयमिति भावः । पुनरप्यमुमेवार्थे पुरस्कृत्याऽऽद्द
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अन्यथा सर्वमेवैत- दौपचारिकमेव हि । प्राप्नोत्यशोभनं चैत- तत्त्वतस्तदभावतः ॥ १४॥
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अन्यथा स्वयोग्यतामन्तरेणापि कर्मणो यदि कर्त्ता तद्यप्रदेशभागिष्यते तदा सर्वमेवैतद् पाहाम अभ्यन्तरं च कार्यजातम् किमित्याह श्रीपचारिकमेव-उपचारमालो बंभव, हि-स्फुटम् प्राप्नोति प्रसज्यते, माख्यसित्यवत्। यदि नामैवं, तथापि को दोष इत्याह- श्रशोभनं च श्रशोभनं पुनः, एतत् सर्वमेवौपचारिकतयाऽभ्युपगम्यमानम् । कुत इस्वाह तस्वतः पारमार्थिक्या वृस्या, सद्भावतः श्रीपचारि कवस्तुनोऽभावात् न ह्युपचरिता भाषा मारायसिंहतादयः पारमार्थिकं सिंहादिरूपं भजन्ते । एवं मोक्षादयोऽष्यात्मनः स्वयोग्यताया विरहे मदेशानुसारे पररभ्युपगम्यमाना न पारमार्थिकरूपभाजो भवेयुरिति ।
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किंवउपचारोऽपि च प्रायो, लोके वन्मुख्यपूर्वकः । रहस्ततोऽप्यदः सर्व मित्थमेव व्यवस्थितम् ।। १५ ।। उपचारोऽपि च- उपचरितवस्तुव्यवहाररूपः किं पुनर्मुख्यपूर्वको व्यवहार इत्यपिशब्दार्थः । प्रायो- बाहुल्येन लोकेव्यवहारार्हे जने यद् -- यस्माद् मुख्यपूर्वकः -- निरुपवरितव
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( ४४७) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
मोक्ख
स्तुव्यवहारापेक्षः, दः- उपलब्धः । प्रायोग्रहणं कचिद् व्यभिचारार्थम् " तेन मेरुमन्थानेन मथितो नीरनिधिः सुरैः " इत्यादयोऽत्यन्तमसंबद्धाः, केचिल्लोकव्यवहारपूर्वकाः, किं तु मिथ्याविकल्पवासनाप्रकोपपूर्वका इति । ततोऽपि मुख्यपूर्वकत्वादप्युपचारस्य किं पुनः -- प्रागुक्तयुक्तेरित्यपिशब्दार्थः । श्रदः - एतत्स्वयोग्यताया एव सकाशात्कर्मवन्धादि सर्वम्-निरवशेषम् इत्थमेव व्यवस्थापितनीत्यैव व्यवस्थितम् – प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ यो०वि० । श्रविद्या - निवृत्तिर्मोक्षः । सम्म० १ काण्ड । प्रकृतिपुरुषदर्शनाभिवृत्तायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपावस्थानं मोक्षः इति साङ्ख्याः जै० गा० । “ ग्रहः सर्वत्र तत्त्वेन मुमुक्षूणामसंगतः | मुक्तौ धर्मा अपि प्राय - स्त्यक्तव्याः किमनेन तत् ॥ १ ॥ इति ॥ ३२ ॥ द्वा० २३ द्वा० । [ भव्यानामेव मोक्ष इति 'बन्धमोक्खसिद्धि' शब्दे पञ्चनभागे १२४३ पृष्ठे गन्धमात्रसभा - वे प्रत्यपादि] “ निर्जितमदमदनानां वाक्कायनीविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशाना- मिहैव मोक्षः सुविहितानाम्” |र्वतवनादिदुर्गाश्रयणकल्पे, पञ्च
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यो० वि० । [ हवनात्सिद्धिं वदतां मतम् ' श्रग्गिद्दोत्त' शब्दे प्रथमभागे १७७ पृष्ठे गतम् ] [ मोक्षोपायं ' मोक्खमग्गगइ' शब्दे वक्ष्यामि ] [ वेदयित्वैव पापकर्मणो मोक्षः इति ' पापकरेम ' शब्दे पञ्चमभागे ८७६ पृष्ठे गतम् ] केवलिभि यस्मिन् काले येषां जीवानां मोक्षगमनं दृष्टं तस्मिन्नेव काले ते जीवा मोक्षं यान्ति नवेति केचन वदन्ति - पुण्यं पापं च कुर्वतां जीवानां कालस्थिते र्द्धानिर्वृद्धिश्च भवतीति ? प्रश्ने, उत्तरम् - येषां जीवानां यस्मिन् काले केवलिभिर्मोक्षगमनं दृष्टमस्ति तस्मिन्नेव काले ते जीवा मोक्षं यान्ति परं केवलि - भिः सर्वसामध्यपि सहैव दृष्टाऽस्ति तस्मान्न काऽप्याशङ्केति ॥ ५० ॥ सेन० ३ उल्ला० । त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानयोर्द्विस्वरमसमयं यावत् पदसंहननसत्ता केन हेतुना ? यतो मोक्षगमनमाद्येनैव भवतीति ? प्रश्ने, उत्तरम् - यद्यपि मोक्षगमनमाद्येनैव भवति तथापि प्राक्तनसंहननानां सत्तासद्भावे को विचार इति । ॥ १६६ ॥ सेन० ३ उल्ला० । मोक्खंग- मोक्षाङ्ग - न० । मोक्षकारणे, पं० ६० ३ द्वार । सिद्धिकारणे, पञ्चा० ६ विव० । मोक्खंगपत्थणा-मोक्षाङ्गप्रार्थना - स्त्री० । मोक्षाङ्गानाम्-निवृतिकारणानां प्रार्थना - श्राशंसा, अथवा - मोक्षा चासौ प्रार्थना चेति, मोक्षाङ्गस्य वा प्रार्थना मोक्षाङ्गप्रार्थना । मोक्षाशंसायाम्, पञ्चा० ४ विव० । मोक्खंगया–मोक्षाङ्गता-स्त्री० । निर्वाणहेतुतायाम्, पञ्चा०
६
मोक्खमग्ग शीलमस्येति मोक्षान्वेषी । सिद्धिमार्गयितरि, आचा० १ ० २ ० ६ उ० ।
मोक्खतरु- मोक्षतरु-पुं० । मोक्षरूपे वृक्षे, संथा० । मोक्खतित्थ-मोक्षतीर्थ - न० । अयोध्यान्तर्गते स्वनामस्या तीर्थे, तत्र हि नमिस्तीर्थकृत्पूज्यते । ती० ४३ कल्प । मोक्खत्थ- माचार्थ- पुं० । सिद्धपर्थे, पञ्चा०८ बिब० । मोक्खत्थि - मोक्षार्थिन् - त्रि० सिद्धिकामे, पञ्चा०८ विव० । मोक्खदेव - मोक्षदेव - पुं० । 'कोकावसहिपासणाह' शब्दे तृतीयभागे ६७३ पृष्ठे उक्ते स्वनामख्याते श्रावके, ती० ३६ कल्प । मोक्ख (द्दे) दोस- मोक्षद्वेष- पुं० । सर्वाङ्गसुखखानिभूतायां मुक्तौ मत्सरे ने० वि० । ( ' मोक्ख ' शब्देऽत्रैव प्रत्यपादि ) मोक्खद्ध - मोक्षाध्वन्- पुं० । निर्वाणमार्गे, पञ्चा० ३ विव० । मोक्खद्धदुग्गग्गहण - मोक्षाध्व दुर्गग्रहण-न०। निर्वाणमार्गे प
विव० । मोक्खकंखिय-मोक्षकाङ्क्षित - त्रि० । मोक्षे काङ्क्षा संजाताऽस्येति मोक्षकाङ्क्षितः । सिद्धिकाङ्गके, तं० । मोक्खकामय- मोक्षकामक- लि० । मोक्षे- शिवेऽनन्तानन्तसुखमये कामोऽभिलाषो यस्य सः मोक्षकामकः। सिद्धिकामुके, तं० मोक्खऽड-मोचार्थ-पुं० | सकलकर्मविनिर्मुक्लिनिमित्ते, हा०४ अष्ट० । सिद्ध्यर्थे, पञ्चा० ८ विव० । मोक्खष्पेसि(ण)-मोक्षान्वेषिन् - त्रि० । स्थित्यनुभागप्रदेशरूver चतुर्विधस्यापि यो मोक्षस्तदुपायो वा तमन्वेष्टुं मृगयितुं |
अथ वन्दनामेव मोक्षाध्वदुर्गतया समर्थयन्नाह - मोक्खद्धदुग्गगहणं, एयं तं सेसगाण वि पसिद्धं । भावेयव्वमिगं खलु, सम्मति कयं पसंगेणं ॥ १६ ॥ मोक्षाध्वनि - निर्वाणमार्गे दुर्गग्रहणमिव- पर्वतवनादिदुर्गाश्रयणमिव मोक्षाध्वदुर्गग्रहणम् । यथा ह्यध्वनि प्रवृत्तस्य तस्कारादिभिरभिभूयमानस्य दुर्गसमाश्रयणं श्राणं भवति, एवं मोक्षाध्वनि प्रवृत्तस्य कर्मचौरादिभिरभिभूयमानस्य यत्त्राणहेतुस्त मोक्षाध्वदुर्गग्रहणमुच्यते, अथवा - मोक्षाध्वा च दुर्गग्रहणमिव दुर्गग्रहणं च मोक्षाध्वदुर्गग्रहणम् । पञ्चा० ३ विव०। मोक्ख (द्ध) द्वाणसेवा - मोक्षाध्वसेवा - स्त्री० । मोक्षो - निर्वाणं, तस्य श्रध्वा – मार्गः, सम्यग्दर्शनशानचरणलक्षणः, तस्य सेवा- अनुष्ठानम्, मोक्षाध्वसेवा। संमयानुष्ठाने, हा० ४ अष्ट० । मोक्खपय - मोक्षापद - न० | सद्बोधकारणत्वात्कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणस्य मोक्षस्य प्रतिपादके पदे । श्रबन्धपदे, अनु० । मोक्खपह- मोक्षपथ - पुं० । मोक्षस्य पन्थाः । श्रपवर्गमार्गे, श्रीव० ४ ० | तीर्थकरे, तत्प्रदर्शकत्वात् कारणे कार्योपचारात् । श्रव० ५ ० | जैनशासने, श्रा० चू० ५ श्र० । मोक्खपहसामिय- मोक्षपथस्वामिक-पुं० । सिद्धिमार्गप्रभौ, पञ्चा० ८ विव० ।
मोक्ख पहो (हाव ) यारग - मोक्षपथावतारक-पुं० । सम्यग्दर्शनादिषु प्राणिनां प्रवर्तके, स० ।
मोक्खपिवासिय- मोक्षपिपासित - त्रि० । मोक्षफलातृप्ते, तं० । मोक्खफल- मोक्षफल - त्रि० । मोक्षः फलमस्मादिति मोक्षफलः । मोक्षजनके, पञ्चा० ८ विव० । मोक्खमग्ग - मोहमार्ग - पुं० । मोक्षोऽष्टकर्मणां न्यासस्तम्य मागौ ज्ञानादिर्मोक्षमार्गः । तस्मिन्, उत्त०३२० । मोक्षस्य मार्गइव मार्गों यत्तत्तथा। प्रश्न० ५ संव० द्वार । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रास्ये, ( सूत्र० १ ० १३ अ० ) । निर्वाणपथे, ग २ अधि० । कर्म० । दश० । जिनपूजा - सर्वशाभ्यर्चनं मोक्ष
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माक्स्वमग्ग अभिधानराजेन्द्रः।
मोक्खमग्ग गर्गः । जी०१ प्रति०। आचा। सूत्र० । स्था० । वृ० । नं०। एस मग्गुत्ति पनत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥२॥ विशिष्टमेव सुखमभिलषणीयं न यत्किञ्चित् तर्हि विशिष्टमे
मायते अवबुध्यतेऽनेन वस्तुतत्त्वमिति झानं, तच सम्यकान्तेन सुखं मोक्ष एव विद्यते न रागादौ चुदादौ वा तस्मा. सदेवाभिलषणीयं ,न शेषमिति । योऽपि च सम्यग्दर्शनशा
रहानमेव शानावरणक्षयक्षयोपशमसमुत्थं मत्यादिभेदम् । हनचारित्ररूपो मोक्षमार्ग उक्तः सोऽपि युक्त्या विचार्यमाणः
श्यते तत्त्वमस्मिन्निति दर्शनम् , इदमपि सम्यग्रूपमेव,
दर्शनमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमसमुत्पादितमर्हदभिहितप्रेक्षावतामुपादेयतामश्नुते । तथाहि-सकलमपि कर्मजालं मि.
जीवादितत्त्वरुचिलक्षणात्मशुभभावरूपम् , 'एवं' अवधारणे थ्यात्वाशानप्राणिहिंसादिहेतुकम् । ततः सकलकर्मनि
भिन्नक्रमथोत्तरत्र योच्यते, चरन्ति-गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति गर्मूलनाय सम्यग्दर्शनाद्यभ्यास एव घटते । नं० ।
चरित्रम् , एतदपि सम्यग्रूपमेव, चारित्रमोहनीयक्षयादित्रयमोक्खमग्गगइ-मोक्षमार्गगति-न० । मोक्षमार्गगतेः प्रति
प्रादुर्भूतसामायिकादिभेदं सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणपादके अष्टाविंशे उत्तराध्ययने, उत्त।
म् , तपति पुरोपात्तकर्माणि क्षपणेनेति सपो-बाह्याभ्यन्तरसम्पति यथाऽस्य मोक्षमार्गगतिरिति नाम
भेदभिन्नं यदद्वचनानुसारि तदेव समीचीनमुपादीयते । तथा दर्शयितुमाह
इत्थं चैतत् , सर्वत्र मोक्षमार्गगतिप्रस्तावाद्विपर्यस्तझानादिना मुक्खो मग्गो गई, वणिजइ जम्ह इत्थ अभाणे। तत्कारणतानुपपत्तेः अन्यथा-अतिप्रसङ्गात्तथेति, सर्वत्र चतं एअं अज्झयणं, नायव्वं मुक्खमग्गगई ॥ ५०२॥ शब्दः समुच्चये, सर्वत्र समुच्चयाभिधानं समुदितानामेव मुमोक्षः प्राप्यतया मार्गस्तत्प्रापणोपायतया , चशब्दो भिन्न- निमार्गत्वख्यापकम् एष एव 'मार्ग' इति मार्गशब्दवाच्यः, फमः, ततः गतिश्व-सिद्धिगमनरूपा तदुभयफलतया वर्यते अस्यैव मुक्तिप्रापकत्वात् प्रज्ञप्तः-प्रशापितःजिन:-तीर्थकृद्भिः प्ररूप्यते यस्माद् अत्रेति-प्रस्तुतेऽध्ययने तत्-तस्मादे- वरम्-समस्तवस्तुव्यापितया, अव्यभिचारितया च द्रष्टुम्तदध्ययनं ज्ञातव्यं मोक्षमार्गगतिः इति; मोक्षमार्गगतिनाम- प्रेक्षितुं शीलमेषां ते वरदर्शिनस्तैः । इह च चारित्रभेदत्वेऽपि कम् अभिधेयेऽभिधानोपचारादिति भावः । इति गाथार्थः । तपसः पृथगुपादानमस्यैव क्षपणं प्रति असाधारणहेतुत्वमुपउक्लो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रा
दर्शयितुम् , तथा च वक्ष्यति-"तवसा (व) विसुझा" ति। नुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तश्चेदम्
इति सूत्रार्थः। मुक्खमग्गगई तचं, सुणेह जिणभासियं ।
सम्प्रत्येतस्येवानुवादद्वारेण फलमुपदर्शयितुमाहचउकारणसंजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं ॥१॥
नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । मोक्षणं मोक्षः-अष्टविधकर्मोच्छेदस्तस्य मार्गः उक्तरूपस्तेन
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सुग्गइं ॥ ३ ॥ गतिः-अनन्तरोना मोक्षमार्गगतिस्ताम् , कथ्यमानामिति ग
पूर्वार्द्ध व्याख्यातमेव, एनम्-इति-अनन्तरम्। उक्तरूपं मार्गम्यते । तच्चं' ति तथ्याम्-अवितथा श्रुणुत-आकर्णय
म्-पन्थानम् अनुप्राप्ताः-आश्रिता जीवाः गच्छन्ति-यान्ति त जिनभाषिताम्-तीर्थकृदभिहितां, चत्वारि कारणानि व-।
'सुग्गई ' ति सुगतिम्--शोभनगतिम् , प्रक्रमान्मुक्तिम् । क्ष्यमाणलक्षणानि तैः संयुक्ता-समन्विता चतुष्कारणसंयु
इति सूत्रार्थः । उत्त० । सानादीनि मुक्तिमार्ग इत्युक्तम् , अतका ताम्। नन्वनि-चत्वारि कारणानि कर्मक्षयलक्षणस्य मो
स्तत्स्वरूपमिहाभिधेयम् , तच्च तद्भेदाभिधानेऽभिहितमेव क्षस्यैव , गतेस्तु तदनन्तरभावित्वात् स एवेति कथं
भवतीति मत्वा यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायतो हाचतुकारणवतीत्वमस्या न विरुध्यते ?, उच्यते-व्यवहा
नभेदानाह-(ते च शानभेदाः 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे १९३७ रतः कारणकारणस्यापि कारणत्वाभिधानाददोषः, अत एव
पृष्ठे गताः) (अन्येषां पदानां व्याख्या वस्वस्थानादवसेया) चानन्तरकारणस्यैव कारणत्वमित्याशङ्काऽपोहार्थमस्य विशेषणस्योपन्यासः, अन्यथा हि मोक्षमार्गेण गतिरिति विग्रहे
शानादीनां मध्ये कस्य कतरो व्यापारः ?, उच्यतेगति प्रति मार्गस्य कारणत्वं प्रतीयत एव, तद्रूपाणि चा- नाणेण जाणई भावे, संमत्तेण य सद्दहे । मूनि चत्वारि कारणानीति । तथा-शानदर्शने लक्षणं-चिहं यस्याः सा शानदर्शनलक्षणा, यम्य हि तत्सत्ता तस्याव
चरित्तेण निगिएहाइ, तवेण परिसुझई ॥ ३५ ॥ श्यंभाविनी मुक्तिरिति निश्चीयते, अत एव चानयोर्मूलका
ज्ञानेन-मत्यादिना जानाति-अपयुध्यते भावान्-जीवादीरणतां दर्शयितुमित्थमुपन्यासः । यद्वा-मोक्ष-उक्नलक्षणे
न , दर्शनेन च-उक्तरूपेण 'सद्दहि' त्ति श्रद्धत्ते,चारित्रेण-अनमार्ग:-शुद्धो 'मृजू शुद्धौ' इति धातुपाठात्तस्य गतिः-प्रा
न्तराभिहितेन 'निगिएहाति'त्ति निराश्रवो भवति पठ्यते प्तिस्तां, शानदर्शने-विशेषसामान्योपयोगरूपे लक्षणम्-अ
च-'न गिएहति' त्ति तत्र न गृह्णाति-नादत्ते कर्मेति गम्यते, साधारणं स्वरूपं यस्याः सा तथा ताम् । न चेह नियुक्तिकृता
तपसा परिशुद्ध्यति-पुरोपचितकर्मक्षपणतः शुद्धो भवति, मार्गगत्योरन्यथा व्याख्यानात्तद्विरोधः, अनन्तगमपर्यायत्वा
उक्नं हि-"संजमे अणएहयफले तवे वोदाणफले" ति । इतिसूत्रस्य, शिष्यासमोहाय कस्यचिदेवार्थस्य तेनाभिधामात्,
सूत्रार्थः । अनेन मार्गस्य फलं मोक्ष उक्तः । शिषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः।
सम्प्रति तत्फलभूतां गतिमाहयदुक्तं 'मोक्षमार्गगतिं शृणुत' इति तत्र मोक्षमार्ग तावदाह- खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । माणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ।
सव्वदुक्खप्पहीणष्ट्ठा, पक्कमति महेसिणो ॥ ३६॥
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( ४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मोक्लमग्गगह
-
।
पत्नीत्वा पूर्वकर्माणि-पूर्वोपचितज्ञानावरणा दीनि संयमः सम्यक पापेभ्य उपरमयं चारित्रमित्यर्थः तेनतपसा उरूपेण चशब्दाद् ज्ञानदर्शनाभ्यां च नन्वेवमनतरं तपस एच कर्मक्ष पहेतुत्वमुक्रम् इह तु ज्ञानादीनामपीति कथं न विरोधः, उच्यते तपसोऽप्येतत्पूर्वकस्यैव क्षपण सुत्यमिति ज्ञापनार्थमित्थमभिधानम् अत एव मोक्षमार्गत्यमपि चतुर्णामप्युपपत्रं भवति ततश्च सम्यदुक्खप्पीस ति प्रकृत्यात्मक पैस होनानि-हानि तानि प्रीणानि या सर्वदुःखानि यस्मिन्, यद्वा-सर्वदुःखानां प्रहीणं प्रक्षीणं वा यस्मितधातच सिद्धिक्षेत्रमेव तदर्थयन्तस्वार्थयन्ते सर्वा
च्छोपरमेऽपि तद्भामितया ये ते तथाविधाः प्रक्रामन्तिभृथे गच्छन्ति । अथवा प्रहीणानि या सर्वदुःखान्यप्रयोजनानि येषां ते तथाविधाः प्रक्रामन्ति सिद्धिमिति शेषः, ' महेसिणो 'ति महर्षयोः महैषिणो वा प्राग्वन्महामुनयः । इति सूत्रार्थः ॥ उत्त० पाई० २८ श्र० । मोक्रमुमिग- मोचरमार्ग पुं० मोकलकर्म मुक्रिरे निलोभतेव मार्गः पन्थाः मो परमुक्तिमार्गः मोक्षानाशंसायाम् प्रश्न० ५ [सं०] द्वार मोक्सविगुणमोचनगुण पुं० सिचननुगुणे, पञ्चा० ६ विव० ।
मोक्सविय- मोक्षविनय पुं० मोतविषयो विनयो मोक्ष
विनयः । ' विण्य' शब्दे वक्ष्यमाणस्वरूपे विनयभेदे, दश० ६०१ उ० !
मोक्खविसारव - मोक्षविशारद पुं० मोक्षमार्गस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनचारितरूपस्य प्ररूपके, सू० १ ० ३ ०३३० मोक्खमुह मोचमुख न० सिद्धि, प्राचा० । मोक्खहेउ - मोक्षहेतु - पुं० । सर्वकर्मक्षयकारणे, पञ्चा०३ विव० । मोक्खोवाय- मोक्षोपाय- पुं०। मोक्षस्य निर्वृतेरुपायः - सम्यक् - साधनम् । सम्यग्दर्शनचारित्ररूपेषु मुक्तिसाधनेषु, ध० २ अधि० । " दोसा जेण शिरंभति, जेण खिजंति पुत्र्वकम्माई । सो सो मोवो, रोगावस्थासु धमव ॥ १ ॥ नि० चू० १६ उ० ।
,
मोग्गर- देशी मुले दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाथा | मोग्गर- मुद्गरक - पुं० | न० । श्रोत् संयोगे || ८ | १ | ११६ ॥ इति संयोगपरत्वादादेशतः श्रोत्यम् । प्रा० मगदन्तिकापुष्प, अधि० । ०२ क-म-द-ह-त-द-प-शून्यसक पार्श्व लुक ॥ २७७ ॥ एष संयुक् न्धिनामध्ये स्थितानां तुग्भवति प्रा० । गुल्मविशेषे जं०। काष्ठादिमये मल्लोपकरणे, प्रश्न० ९ श्राश्र०द्वार | मोगरपाणि- मुद्रपाणि - पुं०॥ मुद्गरहस्ते नामख्याते यक्षे, अन्तः । ( अस्य' प्रज्जुण्य' शब्दे प्रथमभागे २२४ पृष्ठे कथाक्ला ) मोग्गलायण मौद्गलायन - पुं० मुलगी त्रापत्ये अभिजिनक्षत्रं मोगलाय नगोत्रम् | चं० प्र० १० पाहु० । सू०प्र० । जं० । मोच मोच पुं० । प्रस्रवणे, कायिकायाम्, सूत्र० १ श्रु० ४ अ० २ उ० । श्रर्द्धजध्याम्, दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाथा ।
११३
मोण्ड
मोचमेह मोचमेह ५० । मोचः प्रखवर्णः कायिकेत्यर्थः तेन मेह:- सेचनम् । कायिकव्युत्सर्जने, “कोर्स व मोचमे हाए, सुप्पुक्खलगं च खारगलणं च । सूत्र० १ ० ४
अ० २ उ० ।
मोडाय-रम्-पा० क्रीडायास् रमेः संखु खेोभाव-किलिकिञ्च कोट्टम - मोहाय सीसर बेज्ञाः ॥ ८ । ४ । १६८ ॥ इति रमतेमोंट्टायादेशः । मोट्टायइ । रमते । प्रा० ४ पाद । भोट्ठिय-मौष्टिक- पुं० । मुष्टिप्रमाणे प्रोतचर्मरज्जुके पाषाणगोलके, उपा० २ श्र० ।
मोठेर-मौठेर न० 1 मोठजातीयब्राह्मणवणिजामुत्पत्तिपुरे, तत्र वीरजिनः पूज्यते । ती० ४३ कल्प । मोड-देशी- जूटे, दे० ना० ६ वर्ग ११७ गाथा !
मात्रमोटने ० १ ३० बालिताङ्गेषु,
। दशा० । भग्नाङ्गेषु, प्रश्न० ३ श्राश्र० ० ६ ० ।
मोडणा- मोटना - स्त्री० । गात्रभञ्जनायाम्, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । मर्दने, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । मोडिय - मोटित न० विपा० १ ० ६ ० द्वार । भग्नेषु, शा० १ मोण - मौन - पुं० । न० । मुनेरयं मौनः । मुनेर्भावो वा मौनम् । वाचः संयमने, श्राचा० १ ० २ ० ६ उ० । संयमानुष्ठाने, आचा० १० ५ ० ३ ३० अशेषसावधानुष्ठानवर्जने श्राचा० १ श्रु० ५ श्र० ३ उ० । व्य० । प्रति० । सून० । श्रव । साधुधर्मे, उत्त० १४ श्र० १ सूत्र० । मुन्याचारे, उत्त० १४ श्र० । सम्यक्चारित्रे, उत्त० १५ श्र० । मौनव्रते, स्था० ५ ठा० १ उ० । श्राचा० । सम्यक्त्वे, प्रति० । श्रा० । सुरिदं मौनम् । सर्वशोक्ने प्रवचने, श्राचा० १ श्रु० ५ ० २ उ० । ध० । “ मुणी मोणं समादाय धुणे कम्म सरीरगं " मुनिर्जगत्त्रयस्य मन्ता मौनं मुनित्वमशेषसावद्यानुष्ठानवजनरूपं समादाय गृहीत्वा धुनीयारद्वारीरकमौदारिक कर्मः शरीरं वेति । श्राचा० १ ० २ श्र० ६ उ० । “ मूत्रो त्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजनम् । सन्ध्यादिकर्म पूजां च कुर्याजापं च मौनवत् ॥१॥" ध० २ अधि० । “सुलभं वागनुच्चार -- मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु योगानां मौनमुत्तमम् ॥ १। " ० १३ श्र० । श्रा० म० । (मीनाटकम मुणि 'शब्देऽस्मि व भागे गतम् ) । मोराचरय - मौनचरक - ० मीनम्-मौनमतं तेन चरति मन चरकः । तथाविधाभिग्रहवशान मनिनेय भिक्षाचरके, स्था० ५ ठा० १ उ० । श्र० । मोरापय मौनपद १०
"
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3
मुनीनामिदं मीनं तच्च तत्परं च मौनपदम् । संयम, सूत्र० १० १३ श्र० । मोदि - मौनीन्द्र- पुं० । वीतरागे, तत्प्रवचने च । द्वा० ८ द्वा०| मोदिपय मौनीन्द्रपद-न० मौनीन्द्रं पद्यते गम्यतेऽनेनेशि मौनीन्द्रपदम् । संयमे, सूत्र० १ ० २ ० २ उ० । सर्वशप्रणीते मार्गे, सूत्र० १ ० १३ श्र० । मोएड-मुण्ड न० । श्रत्संयोगे ॥ ८ । १ । ११६ ॥ इति संयुपारात ओरथम मोरई मुझे प्रा० १ पाद
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(४५०) मोत्तव्व अभिधानराजेन्द्रः।
मोय मोत्तन्व-मोक्तव्य-त्रि० । रुदभुजमुचा तोऽन्त्यस्य ॥८।४।। एअं महाविमाणं, महुररवेकंतभायणं जायं।। २१२॥ एषामन्त्यस्य क्त्वा-तुम्-तव्येषु परतः तो भवति ।। कत्थऽविऽन्नत्थ नऽस्थि, एरिसं सहमहरा मोत्तब्वं । छोटनीये, प्रा०४ पाद ।
तत्थ विमाणम्मि सुरा, तन्नार रसेगमोहिअसचित्ता। मोति-मक्रि-स्त्री० । लोभनिग्रहे, स्था०४ ठा०१ उ० । निष्प- समयग्गि (३३) सायरम्मि अ, सुहेण पूरंति निश्रमाउं रिग्रहत्वे, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
॥१०॥" ही०४ प्रका। मोत्तिमग्ग-मनिमार्ग-पुनमुक्तिः-निष्परिग्रहत्वम् अलोभत्व मोत्तुं-मोक्तुम्-अव्य० । क्त्वः तुमत्तूणऽतुश्राणाः २।१४६॥ मित्यर्थः । सैव मार्ग इव मार्गः । निर्वृतिपुरस्य मार्गकल्पे
क्त्वाप्रत्ययस्य तुम्-अत्-तूण-तुप्राण इत्येते श्रादेशा भवन्ति। अलोभे, स्था० ६ ठा०३ उ०।
इति क्त्वाप्रत्ययस्य तुमादेशः । प्रा०। रुद्-भुज-मुचां तो
अन्त्यस्य ।।८।२।२१२॥ एषामन्त्यस्य क्वा-तुम्-तब्येषु मोत्तिय-मौक्तिक-न० । मुक्ताफले, श्रा०म०१ १० । झा० ।
भवति । मोत्तुं । प्रा० । हातुमित्यर्थे, वृ० ३ उ० । अनु० । औ० । तदाश्रिते द्वीन्द्रियविशेषे, प्रशा० १ पद । जी० । इहैके सत्त्वाः पूर्वे नानाविधयोनिकाः स्वकृतकर्म
मोत्तूण-मुक्त्वा -श्रव्य० । युवर्णस्य गुणः ॥ ८।४। २३७ ।। वशगास्त्रसस्थावरशरीरेषु सचिसाचित्तेषु पृथ्वीकायत्वे
| धातोरिवर्णस्योवर्णस्य च कित्यपि गुणो मवति । प्रा० । नोत्पद्यन्ते, यथा-शिरःसु-मणयः; करिदन्तेषु-मौक्तिकानि,वि.
रुद भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य ॥८।४।२१२ ॥ एषामन्त्यस्य
क्यातुम्तव्येषु परतः तो भवति । मोत्तण । प्रा० । परिहकलेन्द्रियेष्वपि शुक्त्यादिषु यौक्तिकानि, स्थावरेष्वपि पारकरादिषु जीवा लवणभावनोत्पद्यन्ते, एतान्यक्षराणि सूत्र- |
त्येत्यर्थे, पि० । विहायेत्यर्थे, श्रा० । कृदङ्गदीपिकायां सन्तीत्युक्त्वा मौक्तिकानि सचित्तानि स्वर- मोत्था-मुस्ता-स्त्री० । ओत्संयोग ।।८।१।११६॥ इत्यकातराः कथयन्तः सन्ति, प्रश्नोत्तरग्रन्थे त-अचित्तानि तानि रस्यीकारः। 'नागरमोथा' इति ख्याते गन्धद्रव्ये. प्रा०। भवन्तीत्युक्तमस्ति, तत्कथम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-सूत्रकृदङ्गदी-मोदग-मोदक-पुं० । लड्डुके, प्रज्ञा० १७ पद ४ उ०। पिकादौ मौक्तिकानि यद्यपि सचित्तत्वेनोत्पद्यन्ते इत्युक्तम- | मोय-मोक-पुं० । कायिक्याम् , व्य०६ उ०। प्रस्रवणे, व्य० स्ति, तथापि तान्यनुयोगद्वारादौ श्रचित्तत्वेनोनानि, तेनो
| ६ उ०। ६० । ग० । उत्त। त्पत्तिस्थाने तानि सचित्तानि, तन्निर्गतानि चाचित्सानीति
अन्योऽम्यस्य मोकमादारं न कल्पतेबहुश्रुताः, ये च सर्वदा तेषां सचित्तत्वं वदन्ति तेषां श्रा
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अनमन्त्रस्स योधादिहस्तेन विहरणाद्यप्रसङ्गः ॥२८६ ॥ सेन० ३ उल्ला। मौक्तिकानि सचित्तानि, अचित्तानि वा कुत्र वा कथितानि
एणं पायमित्तए, नन्नत्थ गाढागाडेहिं रोगायङ्केहि॥४७॥ सन्ताति ?, अत्र मौक्तिकानि विद्धानि, अविद्धानि वा श्र- नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोचित्तानि शेयानि, यतः श्रीअनुयोगद्वारसूत्रे मौक्निकरत्ना- ये आइत्तए नबत्थ गाढागादेहिं रोगायंकेहिं ॥४८॥ दीनि अचित्तपरिग्रहमध्ये कथितानि सन्तीति ॥१६॥ तथा
नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्योन्यस्य-परसर्वार्थसिद्धविमाने मौक्तिकवलयानि शास्त्रे कथितानि?, प
स्परस्य मोकमाचमितुमापातुं वा, किं सर्वथैव नेत्याह-गारंपरातो वाऽभिधीयन्ते?. शास्त्रे चेत्तदक्षराणि प्रसाद्यानीति?,
ढाः-अहिविपविशचिकादयः, आगाढाश्व-ज्वरादयो रोगातअत्र सर्वार्थसिद्धविमाने मौक्निकवलयाक्षराणि छुटितगाथासु
झास्तेभ्योऽन्यत्र न कल्पते, तेयु कल्पते इत्यर्थः । एप सूत्रार्थः । परंपरया भुवनभानुकेवलिचरित्रे च सन्ति, तथा च तद्गाथा:
संप्रति नियुक्तिविस्तर:"तत्थ य महाविमाणे, उवरिमभागं पि बट्टए एग। सायररस (६४) मणमाणं, मुत्ताहलमुज्जलजलोहं ॥१॥
मोएण अम्मममस्स, आयमणे चउगुरुं च प्राणाई । मज्झगयस्स इमस्स य, वलयाकारेण ताव सोहंति । मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा भावसंबन्धो ॥ २६७ ।। चत्तारि मुत्तिाई , नित्तानल (३२) माणपमॉणाई ॥२॥ | अन्योन्यस्य-संयतः संयतीनानां मोकेन निशाकल्प इनि पुणरवि बीए वलप,अड (E) संखा कलिअमुत्तिप्रकलायो । कृत्वा रात्रौ यद्याचामति तदा चतुर्गुरु, आमादयश्च दोषाः, निउचंद (१६) मणपमाणा, दिप्पइ खजलं च मलसुको ॥३॥ | मिथ्यान्वं च भवेत् । न यथा वादी तथा कारति कृत्वा, यचंदकला (१६) संखाई, चंदकलानिम्मलत्तजुत्ताई। द्वा-कश्चिदभिनवधर्मा तं निरीक्ष्य मिथ्यात्वं गच्छन् । अतइए बलए अडमण-पमिश्राई मुत्तिआणि तो ॥ ४॥ | हो अमी समला इति, उद्दाहश्च भामिनीटिकादिज्ञापने भव लोअणकिसाणु३२ पमिश्राणि,मुत्तिअफलाणि तुरिअवलयमि ति, विराधना च संयमस्याऽऽत्मनो वा भवति । तत्र संयम. जलहि (४) मणसरीराई, नायव्याई विअडेहिं ॥ ५॥ | विराधना तेन स्पर्श कतरस्य भावसंबन्धो भवेत् । ततश्च बेअरस (६४) संखया पुण, पंडियमुत्तिअफलाणि जाणाहिं । प्रतिगमनादयो दोषाः । श्रात्मविराधना च-"चिंतेइ ददरपंचमपलयम्मि तो, लोश्रण (२)मणभारमाणाई ॥६॥ मिच्छइ” इत्यादि क्रमेण ज्वरदाहादिका । कुंजरलोअणवसुहा (१२८)-मिआणि मुत्ताहलाणि नेपाणि ।
किञ्चइगमणभारवहाई, छठे बलयम्मि बट्टाई ॥ ७॥
दिवस पि ताण कप्पड़, किं पुण णिसि मोएणऽमाणस्स। मुत्ताहलमंतट्टि-अणेगवजंतवायलहरीहिं।
अत्थंगते किमार्ग, न करेज अकिच्चपडिसेवं ।। २६८ ।। वलयगमुत्तिअनिअरो, समुत्थलिअ आहणेइ जया ॥5॥
दिवसेऽपि तावन्न कल्पते अन्योन्यस्य मोकेनामितुं कि १-पुस्तकदवे पारकरादिषु इत्येव पाठः । २-विहरणं भिक्षाऽऽदानम्। । पुनः निशि-रात्री, अम्तं गने हि परस्परं मोकाचमनेऽपि
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मोय अभिधानराजन्द्रः।
मोय कृते किनाम तदकृत्यमस्ति यस्य प्रतिसेवां न कुर्याताम्।।
त्यर्थः । तत्र उच्छिष्ट्र मन्त्रं विद्यां वा परिजप्य तं साधुमाशु
शीघ्रं प्रगुणं कुर्यात् । वत्तुं पिता गरहितं, किं पुण पित्तुं करा विलातो वा।।
अत्र यतनामाहसस्सपइट्ठो गोणो, दुरक्खो सस्सअब्भासे ॥ २६ ॥
मनगे मोयायमणं,अभिगय आइल एस निसि कप्पो । वक्मपि तावदेतत् मोकरमणं गर्हितम् , किं पुनः संयत्याः
संफासुड्डाहादि य, मोयगमत्ते भवे दोसा ॥ ३०४॥ कराद् विलाद् वा मोकं ग्रहीतुम् । अपि च-घासः-चारित
कायिकामात्रके मोकं गृहित्वा तेनाचमनं कर्तव्यम् , अभिगस्याश्चरणार्थम् गौः प्रविष्टः सन् तस्याभ्यासे धान्यमूले चरन् दरदयो भवति, धान्यं महादुःखेन रक्ष्यते इत्यर्थः । एवम
तस्य-गीतार्थस्याचीर्णमेतत् एष च निशाकल्प उच्यते । पानयमपि संयत्या मोकेनाचामनप्रसङ्गतः सेवनक्रियां कुर्वन्नवा
काभावेन रात्रावेव प्रायः क्रियमाणत्वात् । अथ मोकं विना स्व
पक्षसागारिकान् गृह्णन्ति ततः संस्पर्शाहाहादयो दोषाः, एवं रयितुं शक्य इति भावः।।
रात्रौ मोकेनाचमनीयं, न पुनस्तदर्थ द्रवं स्थापनीयम् । दिवसउ सपक्ख लहुगा, श्रद्धाणाऽऽगाढगच्छजयणाए। द्वितीयपदे स्थापयेदपि कथमित्याहरत्तिं च दोहि लहुगा, विइयं आगाढजयणाए ॥३०॥ पिट्ट को च्चिय सेहे, जइ सरई मा व हुज से सना। दिवसतः स्वपक्षऽपि संयतः संयतीनां,संयतिःसंयतानां मो जयणाऍ ठवेंति दवं,दोसा य भवे निरोहम्मि ॥ ३०५ ।। केन यदाचामति तदा चतुर्लघु, शैक्षाणां तदवलोकनादन्य | यदि कोऽपि शैक्षः पिट्टे सरति, अतीव व्युत्सर्जन करोति थाभावो भवेत् । गृहस्थपरतीर्थिकाश्चोडाहं कुर्युः। इत्यर्थः । स चाद्यापि मोकाचमनेनाभावित इति कृत्वा तदर्थ कथमित्याह
यतनया द्रवं स्थापयन्ति । सामान्यतो वा 'से' तस्य शैक्षअद्विसरक्खा वि जिता,लोए णत्थरिसेऽएणधम्मसुं । स्य रजन्यां न कस्माद् व्युत्सर्जनं भवेदिति कृत्वा द्रवं स्थासरिसेणं सरिससोही, कीरइ कत्थाइ सोहेजा। ३०१॥। पयन्ति । अथ न स्थाप्यते ततः स रात्रौ संज्ञासंभवे पानअहो अमी ते श्रमणा यैरेवं मोकेनाचामभिरस्थिसरजस्का
काभाचे निरोधं कुर्यात् : निरोधे च परितापमरणादयो दोषा अपि जिताः,अस्मिन् लोके अन्ये बहवो धर्मा विद्यन्ते परं कु भवेयुः । एवं तावदाचमने भणितम् । त्रापीदृशं शौचं न दृष्टं, सदृशेन च सदृशस्य या शोधिः
अथापि च तान्दोषानाहक्रियते सा कि कुत्रचिच्छोधयेत्-शुद्धं कुर्यात् ? अशुचिना मोयं तु अन्नमन्नस्स, आयमणे चउगुरुं च प्राणाई। क्षाल्यमानं न शुध्यतीति भावः । द्वितीयपदे-अध्वनि मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा देविदिद्रुते ॥ ३०६ ॥ वर्तमानस्य गच्छस्यान्यस्मिन् वा श्रागाढे कारणे अन्योन्यस्य मोकं यद्यापिवति तदा चतुर्गुरु , आझादयश्च तेन यदि कश्चन मोकेनाचामेत् , अथ रात्रौ निष्का
दोषाः, मिथ्यात्वं च सागारिकादिस्तदवलोक्य गच्छेत् , उड़ारण मोकेनाचामति ततश्चतुर्लघु ; द्वाभ्यामपि तपःका- हो वा भवेत् , विराधना च संयमस्यात्मनो वा भवति । तत्र लाभ्यां लघु ।' रत्तिं दवे वि लहुगो' त्ति-पाठान्तरम् , तत्र
च देवीदृष्टान्तः । रात्रौ द्रवं पानकमाचमनार्थ यदि परिवासयति ततश्चतु
तमेवाऽऽहलघु, संवयपनकसम्मूर्छनादयश्चानेकविधा दोषाः । श्राह च दोहे अोसहरचितं, मोय देवीएँ पजिओ राया । वृहद्भाष्यकृत्-' रतिंदवपरिवासे , लहुगा दोसा हवंत
आसाय पुच्छ कहणं,पडिसेवा मुच्छिो गलितं ॥३०७।। रोगविहा' इति द्वितीयपदे आगाढे-कारणे यतनया रात्रावपि मोकेनाचामेत् द्रवं वा परिवासयेत् ।
अह रने तो रते, सुक्कग्गहणं तु पुच्छणा बेजे । तत्राध्वनि द्वितीयपदं व्याचष्टे
जइ सुक्कमत्थि जीवइ,खीरेण य भच्छिोण मओ।३०७ निच्छुभई सत्थाओ, मनं वारेइ तक्करदुगं वा । एगो राया महाविसेण अहिणा खइओ, विजेण भणियंपरमुहवंचनलगभइ, सा वि य उचिट्ठविजाउ ॥३०२॥
जइ परं मोयं प्रायइ तो न मरइ. तो देवीए तेण श्रो
सहेहि वासेऊण दिन्नं । तेण थोवावसेसं आसाइयं । तो यद्यध्वनि प्रतिपनं गच्छं प्रत्यनीकः सार्थवाहादिः सार्थानिष्काशयति, भक्तं वा वारयति । यद्वा-तस्करद्विकम्-उप
पउणे पुच्छह-किं श्रोसहं ? तेहिं कहिश्रो, सोराया तेण वसी
को. दिया रत्ति च पडिसेविउमारद्धो । देवीए नायं. मश्रो धिशरीरस्तेनद्वयमुपद्रोतुमिच्छति:तत्र कस्यापि साधोराभि
होइ त्ति, सकं कप्पासेण सावि य अवमाणे सीसो होजा चारिका विद्या समस्ति,यया परिजापितया सावज्यते।स
उ मरिउमारगो । विजेए भणियं-जइ पयस्स चेव सुकं च साधुस्तदानी संज्ञालेपकृतः, पुनः प्राशुकं द्रवं तत्र न ल
अत्थि तो जीवइ. तीए भणियं-अस्थि । खीरेण सम कडे भ्यते,साऽपि चोच्छिष्टविद्या नतो मोकेनाचम्य तां परिजपत्।
दिन्नं पउणो जाओ "अक्षरगमनिका-दीर्घेणाहिना भक्षितो अथाऽऽगाढपदं व्याख्याति
राजा. देव्याः सबन्धि मोकनौषध भावितं पायितः । तत्र श्रा अत्तुकडे व दुक्खे, अप्पा वा वेयणा अवेत्रा य ।।
स्वादे जाते पृच्छा कृता. ततः कथनं, ततो दिवा रात्री च तत्थ वि सो चेव गमो, उनिद्रगमंतविजा वा ॥३०३।।। प्रतिमेवां मूर्छितः करोति, प्रभूतं च शुक्रं गलितम् । श्रश्रत्युत्कटं वा शलाादकं दुःख कस्याप्युत्पन्नमल्पा वा वेद- | थानन्तरंगशि मरणाय त्वरमाणे देव्या शुक्रग्रहणं. वैद्यना सर्पदशनादिरूपा संजाता या शीघ्रमायुः क्षयेत् . ततस्त- स्य च पृच्छा. यदि शुक्रमस्ति ततो जीवति । एवं कथिते त्रापि स एव गमो मन्तव्यः,प्राशुकद्रवाभावे मोकेनाचामेदि-। क्षीरण समं नदेव शुक्रं पायितस्ततो न मृतः । एवमेव मो
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( ४५२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मोय
केन पीतेन साधुरपि यशीकियेत वशीकृतधात्र भाषेत, प्र. तिगनादीनि वा कुर्यात् । तस्मान्न पातव्यम् । कारणे पुनराचमनमापानं वा कुर्यात् ।
तथा चाऽऽह
सुववचाओ, आयम पिवेज बावि आगाडे । आयमखं आमयऽथा - मए व पिवणं तु रोगम्मि ॥ ३०६ ॥ सूत्रेणैवापवादो दर्श्यते-बगाडे रोगात चाचामेद्, पि बेद बेति यदुकं सूत्रे तथाचमनं निर्लेपनमामये रोगे, अनामये च निशाकल्पं भवतिः पानं तु रोग एव संभवति नान्यदा । तत्रायं विधिः
दीहरवणादिगमगं, सागारियपुछिए य अगमणं । रति सागारियजुगाणं, कप्पड़ गमणं जहिं च भयं ॥ ३१० ॥ दी एकस्याऽपि साधो रहनेन च ते पक्षमेकाभावे संयतिप्रतिश्रये गमनम्, ततस्तासां सागारिके पृष्टे सति श्रतिगमनम् - प्रवेशः कर्तव्यः । अथ संयत्याः सर्पदशनं जातं ततस्तासां खागारिष्युक्तानां साधुसती गमनं कल्पते। त च भयं तदा दीपको ग्रहीतव्यः इति वाक्यशेषः इति । एष संग्रहगाथा समासार्थः ।
3
साम्प्रतमेनामेव विवृणोति - निहात्ता उपवासिया व योसिडमत्तगा वावि । सागारियाइसहिया, सभए दीवेण य ससदा ।। ३११ ।। अहिना भक्षितः साधुः स्वपक्ष एव साधूनां मोकं पाय्यते, अथ तेषां नाऽस्ति मोकम् कुत इत्याह-नियमाहारं तदिवसं भुक्ता उपवासिका वा ततो नास्ति मोकम् । अथवाव्युत्प्रमावास्ते तत्क्षण व मोकं युत्रमपरं चनास्तीति भावः । ततो निर्ग्रन्थीनां प्रतिश्रये गन्तव्यम् । यदि निर्भयं तत एवमेव गम्यते । अथ सभयं ततः सागारिकादिना केनचित् द्वितीयेन दीपकेन च सहिताः सदा गच्छ न्ति । ततः संयतीवसतिं प्रविशन्तो यदि नैषेधिकां कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरु ।
तथा
तुसिखीए चउगुरुगा, मिच्छते सारियस्स भार्मका । पडिबुद्धबोहियासु य सागारियकजीवणया ||३१२॥ तूष्णीका अपि यदि प्रविशन्ति तदा चतुर्गुरु, मिध्यात्वं वा कश्चित् तुष्णीभावेन प्रविशतो रागच्छेत् । सागारिकस्व या शङ्का भवति । किमत्र कारणं यदेवममी अस्यां वेलायामागता इति स्तेना श्रमी इति वा मन्यमानो ग्रहणाकर्षशादिकं कुर्यात् ग्रहम्याद वा ततस्तूष्णीकैरपि न प्रवेष्टव्यं किन्तु प्रथमं सागारिक उत्थापनीयः ततस्तेन प्रतियुजेनो - स्थितेन बोधितासु संपतीषु सागारिकस्य कार्यदीपना क र्तव्या । एकः सारदिना दह चीर्थ स्थापितमस्ति त दथे वयमागताः ।
ततः प्रवर्तिनी भगति
मोयं ति देव गणिणी, धोवं चिय ओस लई सेव मा मग्गेज सॉगारो, पडिसेहे बावि कुच्छे ||३१३ || दिदस्योषधं मोकमिति । ततो गणिनी प्रवर्ति
मोपणवंदण
भी पतनया मोकं गृहीत्वा साधूनां ददाति सति च स्तोकमेवेदमौषधमत्र दैववशान्नातः परमन्यदस्तीत्यर्थः । श्रतो लघु शीघ्रं नयत । किमर्थमित्थं कथयति ? इत्याह- मा सागारिको 'ममापि एतदौषधं प्रयच्छत ' इत्येवं मार्गयेत् । यदा तु नास्स्थतः परमिति प्रतिषेधः कृतस्तदा व्यवच्छेदः कृतो भवतीति न भूषणे मार्गयति इत्यर्थः ।
न बिते कर्हिति अमुको सहओ सवितापि एत अमुईए । घेणं खियं ते पिवसहिं समुर्वेति ॥ ३१४ ॥
ते साधयो न कथयन्ति यथा अमुकः साधुदिना खादितः ता अध्यार्थिका न कथयन्ति यथैतन्यकममुकस्याः सत्कमि तिः गृहीत्वा च क्षिप्रं नयनं कर्तव्यं पूर्वोक्शेन च विधिना ते स्वकाम् आत्मीय वसतिमुपयान्ति ।
"
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आह— अमुकः साधुः दष्टोऽमुकस्या या मोकमिदमिति कथ्यते ततः को दोषः? इत्याहजायति सिंगहो एवं, भिम्मरहस्सत्तया य वीसंभो । सम्हा न कहेपब्वं को व गुणो होइ कहिए ।। ३१५।। एवं कथ्यमाने तथा स्नेहो जायते, भिन्नरहस्यता च भवति । रहस्ये मि विश्रम्भो भवति । यत पते दोषास्तस्मान कध तिम्यम् को वा गुगास्तेन कथितेन भवति न कोऽपीत्यर्थः यदा स यतिजानीयेन दो भवति तदाऽयं विधिःसागारिय सहियाँ नियमा, दीवगहत्था वज जइनिलयं । सागारियं तु बोहे, सो वि जई स एव य विही उ ॥ ३१६॥ श्रर्यिका नियमात्सागारिकसहिताः शय्यातरसहायाः सभये वा दीपकहस्ता यतीनां निलयं प्रजेयुः । स च संयतिसागारिक इतरसंयतसागारिकं बोधयति, सोऽपि प्रतिबुद्धः साधून बोधयति । अत्रापि स एव विधिर्मोकदाने द्रष्टव्यः । वृ० ५ उ० ।
3
मोयग-मोचक-पुं० मोचयत्यन्यानपीति मोचकः ६० २ अधि० । चतुर्गतिविपाकचित्रकर्मबन्धादुच्छोटके तीर्थकरे, ल०।" मोषगाणं तिरणारी तारयागं, "ए० जी० स० । सेवकानां मोचके, कल्प० १ अधि० २ क्षण । मोदक - पुं० | लइडुके, प्रश्न० ५ संव० द्वार । मि० चू० । वृ० । ('कप्पिय' शब्दे प्रथमभागे ११६ पृष्ठे संसकत्वमुक्तम् ) ss मोदकदृष्टान्तं पूर्वसूरयो व्यावर्णयन्ति - यथा - वातापहारी द्रव्यनिचयनिष्पन्नो मोदकः प्रकृत्या वातमपहरतिः पिलापयनिर्वृतः पितं सेायजनिता मामित्यादि । स्थित्या तु स एव कधिदिनमेकमयतिष्ठते, अपरस्तु-दिनयम अन्यस्तु दिवस यायमालादिकमपि काल कतिः परं विनश्यत । स कश्चिदतिष्ठते, । यानुभावेन रसापांचे खिग्धमरत्वादिककगुणानुभावः परस्तु दिगुणानुभावः, अन्यस्तु त्रिगुणाभावइत्यादि प्रदेशाः साहित्यप्रमाणरूपाने प्रदे शैः स एव कश्चिदेकप्रतिप्रमाणः अपरस्तु प्रतिमानः, अन्यस्तु पुनः - प्रसृतित्रयप्रमाण इत्यादि । कर्म० ५ कर्म० । मोयण - मोचन न० । पृथग्भावे, प्रव० २ द्वार । ६० । मोद मोचनचंदन
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मोयणचंद
कराउ मुक्का, न मुश्चिमो वन्दकरम्स, आ० चू० ३ श्र० । आय० । करमिव - राजदेयभागमिव मन्यते, ददद् बन्दनकमाईतकर इति गृहीता वयं लीफिककरान्मुकास्तावन्न मुख्यामहे तु चन्दनकरस्थानस्येति मि ति । प्रव० २ द्वार ।
"
मोयपडिमा - मोकप्रतिमा स्त्री० । प्रश्रवणप्रतिमायाम्, स्था० ४ ठा० १ ० | नि० चू० । सा चनुद्रा, महती चेति द्विविधा | व्य० ।
(५३) अभिधानराजेन्द्रः ।
33
दोपडिमा पम्मत्ताओ । तं जहा खुड्डिया चेव मोयपडिमा १ । महल्लिया चैव मोयपडिमा २ । खुड्डिया मोयपडिमं पडिवायस्स असगारस्य कम्पति से पदम शिदाहकालसमयंसि वा, चरिमणिदाहकालसमयंसि वा बहिया ठाइयव्वा गामस्स वा नगरस्स वा ० जाव (बृहरकल्प १ उद्दे० ६ सुत्रात् खेडस्म वा कम वा मडबस्स वा पट्टणस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा निगमस्स वा ) राहाणीए वा वांसि वा वदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयदुग्गंसि वा भोच्चा आरुभइ चोदसमेणं मारे, अमोबा आरुभइ, सोलसमे पारेह जाए जाए मोए आ ( प ) ईयच्वे दिया आगच्छे । आईपव्वे रावं आगच्छर, यो आईयन्ये य सपाखे मत्ते आगच्छ यो आईये अप्पा मते आगच्छा, आई एवं सीएससद्धेि ससरक्खे मते आगच्छ यो आईयव्वे असरक्खे मत्ते आगच्छर आईयव्वे ताए जाए जाए मोए आईब्बे, तं जहा अप्पे वा बहुए वा एवं खलु एसा खुडिया मोयपडिमा हासुतं ० जाव अणुपालिया भवइ ॥ ३७ ॥ महल्लिया णं मोयपडिमं पडिवमस्स अणगारस्स कप्पति से पढमसरयकालंसि० जाव पव्वयविदुग्गंसि वा भोचा श्ररुभइ सोलस मेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अट्ठारसमे पारेह जाए जाए मोए आईबच्चे तह चैव प्राणाए अनुपालिया भवइ ।। ३८ ।।
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1
प्रति तथा बुनिका च मोकप्रतिमा । महती मोकप्रतिमा २ मोकं कार्यिकी तत्प्रधान प्रति मा मोकप्रतिमा तव त्रिकाणामिति प्राग्वत् । मोकप्रति मां प्रतिपन्नस्याsनगारस्य कल्पते ( से ) तस्य प्रथमनिदाघकालसमये वा वहिग्रमस्य वा यावत्करणात् नगरादिपरिग्रहः । राजधान्यां वा वने वा, एकजातीयद्रमसंङ्घातः - वनं, बिदुर्गे वा-नानाजातीयद्रुमसघाते, पर्वते प्रतीते, पर्वतविदु- अनेक पर्वतसङ्घातरुपे कृत्वा यदि प्रतिमामारोहति पनि पद्यते, तदा शनेन भक्तेन पारयति - समापपति थ प्रभुकृत्या आरोहति तदा षोडशकेन भक्तेल पारयति तेन च जात जातं मोकं कायिकी (श्रईयध्ये) पातव्यम्, आगमने च दिवा आगच्छति । एवं महत्या अपि प्रतिमायाः सूत्रं वाच्य म विशेषोऽपि पाठसिद्ध एव ।
११४
मोयपडिमा
संम्प्रति भाष्यप्रपञ्चः तत्र मोकप्रतिमाशब्दार्थमाहसव्वातो पडिमातो, साधुं मोयंति पावकस्मेहिं ।
एएस मोयपडिमा अहिगारों इह तु मोएवं ॥ 55 ॥ मोचयति पापकर्मभ्यः साधुमिति मोफा उदकादित्वादन्यदपिकुर्वन्निसा पासी प्रतिमान मोकप्रतिमा । एतेनान्यर्थेन सर्वा श्रपि प्रतिमाः साधुं पापकर्मभ्यो मोचयन्तीति कृत्वा मोतिमाः प्राप्नुवन्ति ततो विशेषप्रतिपादनार्थमिहाधिका - प्रयोजनं मोकेन, मोका परित्यागप्रधान प्रतिमा मोकप्र तिमेति । (६०) (अत्रत्यधिपमपदानां व्याख्या 'व' शब्दे
सम्प्रति येन विधिना बहिर्निर्गच्छति तं विधिमाहनिसि च चोलपट्ट करणं धेनूगा मत्तगं चेव । एगते पडिवज्जति, काऊण दिसाण वाऽऽलोयं ॥ ६० ॥ निपयां सोतरा बोलपट्टकल्पं माषकं च कायिकीमात्रक गृहीत्वा प्रामादेर्धिनिर्गच्छति । विनिगत्यैकान्ते प्रतिमां प्रतिपद्यते । नत्र कायिकीसमागमे तां मानके व्युत्सृज्य ना पाते असलो दिशां पाउलो कृयाविति यद्यपि सः ज्ञानातिशयतियज्ञानेनेव जानाति सागारिकोऽस्ति न वेति तथापि सामाचारी पालिता भवत्विति कृत्वा दिशालोकं कृत्वा व्युत्त्वापयति वा
सम्प्रतिकादिग्रहणे प्रयोजनमा
पाउण्ड तं पवार, तत्थ निरोहेण जिजए दोसा । सिरहाइपरित्ताणं च कुरणति अच्चु एहवाते वा ॥ ६१ ॥ तं कल्पं प्रतियाते प्रावृगोति तत्र च प्रावरणे कृते वातनिरोधेन यः प्रयाते या तत्सम्पर्केणापादितो दोषः स जीयेते । यदि वा स कल्पः 'सिरहादिपरित्ताणं ' श्लक्ष्णादि-सचित्तरजः परित्राणं करोति । अथवा - प्रत्युष्णे वा वाति स प्राव्रियते मोकमापिवेदित्युक्तम् ।
तत्र मोकस्वरूपमाह
साभावि च मोर्य, जासह जं वाऽवि होइ विवरीयं । पाणवीय ससद्धिं, ससरक्खाधिराय न पिएजा ||२|| स प्रतिमाप्रतिपन्नो यन्मोकं स्वाभाविकं, यश्च भवति विपरीतं तरस जानाति। तत्र खाभाविकमापिवति । इतरद विपरीतं प्राणसंसकम् - बीजसन्मिश्रं सस्निग्धं सरजस्काधिराजकलितं न पिबति ।
तत्र प्राण कथयतिकिमिकुट्टे सिया पाया, ते य उहाभिताविया । मोएण सह मेजर, निसिरे ते उ छायाए ॥ ६३ ॥ कृमिसंकुलं कोष्ठम् - उदरं तत्र कृमिकोष्ठे प्राणिनः कृस्युः मिरूपास्ते चोष्णेनाभितापिताः सन्तो मोकेन कायिक्या सार्धमागच्छेयुस्ततस्तान् छायायां निसृजेत् ।
यजादिप्रतिपादनार्थमाह
चीयं तु पोग्गला मुका, ससगिद्धा तु चिकया। पडति सिथिले देहे, खमणुहाभिताविया ॥ ६४ ॥ बीजे नाम शौका पुलास्ते व द्विधा चिकणाः, अचिकसाथ तवाचिकणा बीजमन गृहीनाः कलाः स
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मोरंड
चाता
मोयपडिया
अभिधानराजेन्द्रः। स्निग्धा उच्यन्ते । ते उभयेऽपि शिथिले देहे क्षपणेनोष्णेन | णमेतत् अन्यैर्वा यूषप्रकारैः सह भक्तं भुने, ततः परमन्यान् वाऽभितापिताः सन्तः पतन्ति । (व्य०६ उ.) (प्रमेहकणि- सप्तसप्तकान् यानि तस्य व्याधेरविरुद्धानि तैर्दध्यादिभिः का 'पमेहकणिया' शब्दे पञ्चमभागे ५०१ पृष्ठे गता) सह भावयित्वा भुते । तदनन्तरं सर्वप्रचारा भवति । ___ संप्रति द्रव्यादितो मार्गणामाह
एतदेवाऽऽहदब्बे खेत्ते काले, भावम्मि य होइ सा चउविगप्पा । महरेणं सत्तन्ने, भाविता उल्लणादिणा । दव्वे उ होइ मोयं, खेत्ते गामाइयाण बहिं ।। ६८॥
दहिगादीण भाविता, ताहे । सत्तसत्तए ॥१०४ ।। काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इयरं वा ।
अत्रादिशब्दादन्येषां यूपप्रकाराणा परिग्रहः। व्याख्यातप्रायम्। सिद्धाए पडिमाए, कम्मविमुक्को हवइ सिद्धो ।। ६६ ॥ _ साम्प्रतमुपसंहारमाहदेवो महड्डितो वाऽवि, रोगातोऽहवा मुञ्चति ।
एवमेसा उ खुड्डीया, पडिमा होइ समाणिया । जाती कणगवप्लो उ, आगते य इमो विही ॥ १०० ॥ भोच्चाऽऽरुहंते चोदसेण,प्रमोच्चा सोलसेण तु ।।१०।। सा सुल्लिका मोकप्रतिमा चतुर्विकल्पा-चतुराश्रिता भवति,
एवमेषा तुल्लिका मोकप्रतिमा भवति । सा च भुक्त्वा श्रातद्यथा-द्रव्ये, क्षेत्रे, काले, भावे च। तत्र-द्रव्ये भवति । मोक
रोहता-प्रतिपद्यमानेन चतुर्दशकेन समानीता-समाप्ति नीता मापातव्यम् , क्षेत्रे-ग्रामादीनां बहिः, काले-दिवा रात्री वा, | भवति । अभुक्त्वा प्रतिपद्यमानेन-बोडशकेन । पारुहन्ते इत्यभावे-तन्मोकं स्वाभाविकम् : इतरद वा । तत्र स्वाभाविक- त्र सप्तमी तृतीयार्थे प्रतिपत्तव्या। मापिबति. इतरद त्यजति । अस्यां च प्रतिमायां सिद्धायां क- संप्रति महती मोकप्रतिमां व्याख्यातुमाहश्चित्कालं कुर्वन् कर्मविमुक्तः सिद्धो भवति । यदि वा-देवो एमेव महल्ली वि उ, अट्ठारसमेण नवरि निट्ठाति । महर्द्धिकः, अथवा-काले-कारणाभावे रोगाद् विमुच्यते ।
परिहारों अदु दिवसा,नहुरोगि वलिस्स वा एसा।१०३। शरीरेण कनकवों जायते । पालितायां प्रतिमायामुपाश्रय.
एवमेव-अननैव प्रकारेण महत्यपि मोकप्रतिमा द्रष्टव्या। मागतस्यायं वक्ष्यमाणो विधिः । तमेवाऽऽह
नवरं सा अष्टादशकेन निष्ठां याति, परिहारस्तपोऽष्टौ दिवउपहोदगे य थोवे, तिभागमद्धे तिभागथोवे य ।।
सान्, न च स रोगी भवति प्रतिमाप्रभावात्। यदि वा-बलिन
एषा प्रतिमा भवति, नेतरस्य। महुरमभिन्ना महुरग, एक्केकं सत्त दिवसाइं ॥१०१॥
पडिवत्ती पुण तासिं, चरमनिदाहे व पढमसरते वा ॥ उष्णोदकादिकमधिकृतगाथोपन्यस्तमुक्तक्रमेण एकैकं सप्त
संघत्तणधितिजुत्तो, फासुयती दो वि एयातो ॥१०७।। दिवसान् कुर्यादिति गाथापदयोजना । भावना त्वियम्-सप्त
प्रतिपत्तिः पुनरतयोः प्रतिमयोश्चरमनिदाघे वा प्रथमशरदि दिवसानुरणोदकेन श्रोदनं भुङ्क्ते, चशब्दाद्-द्वितीयान् सप्त
वा । एते च द्वे अपि प्रतिमे स्पर्शयति श्राद्यं संहननं च योऽदिवसान् जूषमण्डेन पाययेत् ( जापयेत् )। एतदेवाऽऽह
न्यतमसंहननयुक्तो धृत्या च वज्रकुड्यसमानः । व्य० ६ उ० । प्रोदणं उसिणोदेणं, दिणे सत्त तु भुंजिउं ।
मोयमही-मोकमही-स्त्री० । प्रश्रवणभूमी, व्य० ६ उ० । जूसमंडेण वा अन्ने, दिणे जावेइ सत्तो ।। १०२॥
मोया-मोचा-स्त्री०। कदलीवृक्ष, ल० प्र०। पाउसिद्धम् । 'थोव' ति अन्यान् तृतीयान् सप्त |
मोयाफल-मोचाफल-म० । कदलीवृक्षफले, ल० प्र०। दिवसान् त्रिभागे उष्णोदके स्तोकं मधुरमोलणं मि- मोयावइत्ता-मोचयित्वा-श्रव्य० । प्रव्रज्याभेदे, यथैकेन साश्रयित्वा तेन सह भुङ्क्ते, 'तिभागे' त्ति तदनन्तरम- धुना तैलार्थत्वादासन्नप्राप्तभगिनीवदिति । स्था० ४ न्यान् सप्त दिवसान् मधुरस्यालणस्य त्रिभागं द्वौ। ठा० ४ उ० । भागौ उष्णोदकस्य मीलयित्वा तेन सह भुङ्क्ते , ' श्रद्धे ' | मोयाविय-मोचित-त्रि० । छोटिते, श्रा० म०१०। इति-ततः परमन्यान् सप्त दिवसानीमधुरोल्लणस्य मिथयिःमोर-मोर-पुं० । केकिनि, अनु। स्था। रा० । जं० । मोरो मत्वा तेन सह कूरं भुङ्क्ते, 'तिभाग' त्ति तदनन्तरमन्यान्
उरो इति तु मोर-मयूर-शब्दाभ्यां सिद्धम् । प्रा०१ पाद । सप्त दिवसान विभागमुष्णोदकस्य द्वौ भागौ मधुरोलणस्य
श्वपचे, दे० ना०६ वर्ग १४० गाथा । मयूर, " मोरो सिही मिश्रयित्वा तेन सह भुक्ने 'थोवे यत्ति ततः परमन्यान्
बरहिणो " पाइ० ना०४२ गाथा । सप्त दिवसान् मधुरोल्लणे स्तोकमुष्णोदकं प्रक्षिप्य तेन सह भुङ्क्ते । एवं पञ्च सप्तकान् मधुरकभिन्नान् स्तोकादिकान् म
मयुर-पुं० । बर्हिणि, रा.। धुरकसहितान् भुले।
मोरउल्ला-श्रव्य० । मुधाशब्दार्थे, मोरउल्ला मुधा ॥ ८ ।२। एतदेवाऽऽह
२१४ ॥ मोरउल्ला इति मुधाशब्दार्थे प्रयोक्तव्यम् । मोरउला मधुरोल्लणेण थोवेण, मीसे तइयसत्तए ।
मुधेत्यर्थः । प्रा०२ पाद । तिभागवजुयं चेव, तिभागो चेव मिस्सियं ॥१०३॥
मोरंगचूलिया-मयूराङ्कचलिका-स्त्री०। प्राभरणविशेषे, व्य. पूर्वव्याख्यानुसारेणेयं गाथा स्वयं भावनीया , अधिकार्थाभावात । तदनन्तरमन्यान् मधुरकेण उल्लणेण सह उपलक्ष- मोरंड-मोरण्ड-(क)-पुं० । तिलादिमोदके, बृ०१ उ०।
३ उ०॥
, अधिका-
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मोरग अभिधानराजेन्द्रः।
मोसा मोरग-मयुरक-न० । मयूरपिच्छनिप्पन्ने संस्तारकादी,प्राचा.
मृषावादस्य चतुर्विधत्वमाह२ श्रु० १ चू०२ श्र० ३ उ० । कुण्डले, वृ०४ उ० । मयुर
चउबिहे मोसे परमत्ते, तं जहा-कायमणुज्जुयया,भासकाभिधाने सन्निवेशेः यत्र कुण्डपुरानिर्गत्य महावीरस्वामी अणुज्जुयया, भावअणुज्जुयया, विसंवादणाजोगे। गतः । स्था० १० ठा।
मृषा-असत्यम् , नवरम्-ऋजुकस्व-अमायिनो भावः कर्म मोरग्गीवा-मयरग्रीवा-स्त्रीकामयूरकण्ठे, रा० । प्रज्ञा०। । वा ऋजुकता कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता, न ऋजुकता मोरत्त-देशी-श्वपत्र, चाण्डाले इत्यन्ये देना०६ वर्ग१४० अनृजुकता पवमितरे अपि, नवरं भावो-मन इति । काय
र्जुकतादयश्च शरीरवाङ्मनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थाः गाथा।
प्रवृत्तयः, तथा अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यवदति मोरपिच्छ-मयूरपिच्छ-नामयूरबहे, "मोरपिच्छकयमुजयं"
कस्मैचित् किञ्चिदभ्युपगम्य वा यन्त्र करोति सा विसंवादना। कल्प० १ अधि० ३ क्षण।
स्था०४ ठा०१०। मोरासेहा-मयुरशिखा-स्त्री० । महौषधिभेदे, ती० ६ कल्प।
दसविहे मोसे परमत्ते। तं जहा-"कोहे माणे माया,लोभे मोराग-मोराक-पुं०। स्वनामख्याते सनिवेश, यत्र विहरन्तं पिजे तहेव दोसे य । हास भये अक्खाइय, उवघाए निबोरस्वामिनं तापसाश्रमे सिद्धार्थमित्रकुलपतिमिलितः ।
स्सिए दसमे ॥१॥" कल्प०१ अधि०६ क्षरण । श्रा० क०। श्रा०म० प्रा०चू०।
(दसेत्यादि) 'मोसे' त्ति । प्राकृतत्वात् मृषा-अनृतमित्यर्थः । मोरिय-मौर्य-पुं० । मगधजनपदेषु स्वनामख्याते सनिवेशे,
'कोहे' गाहा 'कोहे' ति क्रोधे निश्रितमिति सम्बन्धात् क्रोधा. यत्र मौर्यो मरिडकपुत्रश्च जश, श्रा० ० १ अा"रायगिहे श्रितं (कोपाश्रितं) मृषेत्यर्थः। तच यथा-क्रोधाभिभूतोऽदा. मोरियवंसप्पसूओं बलभद्दो नाम राया समणोवासो" उत्त० समपि दासमभिधस इति । माने-निश्रितं यथा-माना३०। श्रा० क.। चन्द्रगुप्ते, ती० २० कल्प।
ध्मातः कश्चित्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्टः सन्नाह-महाधनोमोरियग्गाम--मौर्यग्राम-पुं० । चन्द्रगुप्तग्रामे,श्रा०क०१ श्र०। ऽहमिति । 'माय' ति मायायां निश्रितं यथा-मायाकारप्रभृमोरियपुत्त-मौर्यपुत्र-पुं० । मण्डिकमातृपुत्रे मौर्यात्मजे वीर- तयश्चाहुः-नष्ट गोलकः, इति । 'लोभे' ति। लोभे निश्रित जिनस्थ सप्तमे गणधरे, स०११ समाकल्प० । श्राम।
वणिकप्रभृतीनामन्यथा क्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि । 'पिज्ज' (मौर्यपुत्रगणधरवक्तव्यता 'देव' शब्दे चतुर्थभागे २६०७ |
त्ति प्रेमगि निःश्रितमतिरक्कानां दासोऽहं तवेत्यादि, 'तहेवपृष्ठे गता)
दोसे य'त्ति द्वेषे निश्रितं मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोड
यमित्यादि । 'हासे' ति हासे निश्रितं यथा-कन्दर्पिकाणां थेरे णं मोरियपुत्ते पणसद्विवासाई अगारमज्झे वसित्ता।
कस्मिश्चित्कस्यचित्सम्बन्धिनि गृहीते पृष्टानां न द्रष्टमिमुंडे भवित्ता अगारात्रो अणगारियं पवइए। (मू०६६)। त्यादि । 'भये' त्ति भयनिश्रितं तस्करादिगृहीतानां तथा तमौर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गणधरः तस्य पश्च
था असमञ्जसाभिधानम् , 'अक्खाइय' ति आख्यायिकापष्ठिवर्षाणि गृहस्थपर्यायः । स०६५ सम० ।
निश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः, 'उघघायनिस्सिय' ति। थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइ वासाई सवाउयं पालइ
उपघाते-प्राणिवधे निश्रितम्-आश्रितं दशम मृषा, अचौरे
चौरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनम् , मृषाशब्दस्त्यव्ययोऽलिङ्गत्ता सिद्धे बुद्ध० जाव प्पहीणे । (सू०६५)
श्चेति । स्था०१० ठा० ३ उ० । ('मुसावाय' शब्देऽस्मिन्नेव तस्य (मौर्यपुत्रस्य) पञ्चनवतिर्वर्षाणि सर्वायुः। कथम्- भागे ३२० पृष्ठे वक्तव्यतोक्का) गृहस्थत्वछमस्थत्वकेवलित्वेषु क्रमेण पञ्चषष्टिचतुर्दशषोडशा
मोसमणप्पोग-मृषामनःप्रयोग-पुं० । मनःप्रयोगभेदे, स. नां वर्षाणां भावात् । स०६५ सम० ।
१३ सम। मोरियवंस-मौर्यवंश-पुं० । चन्द्रगुप्तराजवंशे, ती०२ कल्प। मोसलि-मोसलि-पुं० । स्वनामख्याते प्रामे, यत्र तोसलिमोरी-मौरी-स्त्री० । परिव्राजकप्रयकसर्वविधाप्रतिपक्षमतायां प्रामाद् गतो वीरभगवान् विहतः। श्रा०म०१० प्रा० विद्यायाम् , श्रा०म०१ अ० । विशे।
चू० मोलिकड-मौलिकत-त्रि० । आबद्धपरिधानकच्छ, स०११ ।
मोसली (लि)-स्त्री० । ऊर्ध्वाधस्तिर्यककुज्यादिपरामर्श , सम०।
उत्त० २६ अ० । प्रत्युपेक्षमाण्वस्त्रभागेन तिर्यग्रवमधो
वा घट्टने, स्था०६ ठा० ३ उ०। मोल्ल-मूल्य-न० । श्रोत् कूष्माण्डी-तूणीर-कूपर-स्थूल-ता | मोसवत्तिय-मृषाप्रत्ययिक-न० । सद्भूतनिह्ववासद्भूतारोम्वल-गुडूची-मूल्ये ॥८।१।१२४ ॥ अनेनोकारस्य श्रोत्त्वम्। पणे. सूत्र०२०२०।"अहावरे छठे किरियाठाणे मोमोल्लं । प्रा०१ पाद। अये, श्रा० म०। उस०।
। सवत्तिए ति " इत्यादिषष्ठक्रियास्थानप्रतिपादकं सूत्रम् मोस-मृषा-अव्य० । प्राकृतत्वात् मृषा । अनुते, स्था० ५ (२२) मुसादंड' शब्दे अस्मिन्नेव भागे गतम् । ठा०१ उ०। मृषावादे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । असदा-|मोसा-मृषा-श्रव्या असत्ये भाषाभेदे,स्था०४ ठा०१उ०प्रभिधाने, आचा०२ श्रु०१ चू० ४ अ० १ उ० । असत्ये, वा प्रज्ञा०। (मृषा दशधा सा च 'भासा' शम्दे पश्चमभागे स्था०३ठा०३ उ०1 प्रश्न। पव० । उत्त० स०।
इहापि 'मोस' शब्दे उक्का)
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मोह
मोसाणुबंधि
अभिधानराजेन्द्रः। मोसाणुवंधि-मृषानुबन्धिन-न० । मृषा असत्यं तदनुबध्नाती- वनादिवयोविशेषाः, पुनर्विषयकषायादिना कर्मोपादाया:ति पिशुनाऽसभ्याऽसद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि ।।
युषःक्षयान्मरणमवाप्नोति , आदिग्रहणात्पुनर्गर्भमित्यादि , रौद्रध्यानभेदे, भ० २५ श० ७ उ०। पिसुणाऽसभासम्भूय
नरकादियातनास्थानमेतीत्यतोऽभिधीयते 'पत्थ' इत्यादि, भूयघायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽतिसंधण, परस्स प
अत्र-अस्मिन्ननन्तरोक्ने मोहे-मोहकार्य गर्भमरणादिके पौन छापावस्स ॥१॥" स्था०४ ठा० १ उ० । अलीकवचनेन
पुन्येनाऽनादिकमपर्यन्तं चतुर्गतिक-संसारकान्तारं पर्यट. स धर्मोपघातकुमार्गप्ररूपणनिन्दादि विधत्ते । दर्श०४ तत्त्व ।
ति, नास्मादपैतीति यावत् । कथं पुनः संसारे न बंभ्रम्यात् !, मोसमासाणुगय-मृषाभाषानुगत-त्रि० । असत्यवादान्विते ,
तदुच्यते-मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषाभावात् । असावेत
कुतो?, विशिष्टशानोत्पत्तेः । सैव कुतो?, मोहाभावात् । यपश्चा०४ विव०।
घेवमितरेतराश्रयत्वम् , तथाहि-मोहोऽज्ञानं मोहनी मोसोवएस-मृषोपदेश-पुं० । असदुपदेशे, श्राव० ६ १० । परे
वा , तदभावो विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः , साऽपि तदभावादिति पामसस्योपदेशे, उत्त० १ ० । अज्ञातमन्त्रौषधाद्युपदेशने,
भणता स्पष्टमेवेतरेतराश्रयत्वमुक्नम् ।) प्राचा०१ श्रु०५ श्र. ध०२ अधि।
१ उ० । (निराकरणं 'संसार' शब्दे वक्ष्यते । “पत्थ मोहे पुर। मोसोवएसया-मुषोपदेशता-स्त्री०। मृषा अलीककथनविषय
पुणोर" अत्र-अस्मिन्निन्छाप्रणीतादिके हर्षाकानुकले मोहे, उपदेशः यस्य स तथा , तद्भावस्तत्ता। मृषोपदेशकता कर्मरूपे वा मोहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत् कुर्वन्ति । प्राचा इदमेवं चैवं च ब्रूहि इत्यादिकमसत्याभिधानशिक्षणे , | १ श्रु० ४ ० २ उ० । मूर्खायाम् , ध० २ अधि० । पश्चा० १ विव० । प्रा० चू० ।
अथ स्थिरता मोहत्यागाद् भवति, श्रात्मनः परिणतिचापमोह-मयूख-पुं० । न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थचतुर्द- ल्यं मोहोदयात् , मोहोदयश्च निर्धाररूपसम्यग्दर्शनस्वरूप - श-चतुर्वार-सुकुमार-कुतूहलोदुखलोलूखले ॥८।१।१७१ ॥
मणचारित्रवारकश्च, क्षयोपशमी चेतनावीर्यादीनां विपर्यास - इत्यादेः स्वरस्य परेण व्यञ्जनेन सहोद् वा। ततः खस्य
पररमणतप्तत्वादिपरिणमनरूप इति, तेन चापल्यम् , असे हः । किरणे, प्रा. १ पाद ।
मोहोदयवारणेन स्थिरता भवति, तेन त्यागाष्टकं वितन्यरे,
नामस्थापनामोहः, सुगमः । द्रव्येण मदिरापानादिना मोह :मोघ-त्रि० । ख-घ-थ-ध-भाम् ॥ ८।१ । १८७॥
मूढतापरिणामः, द्रव्याद्-धनस्वजनवियोगात् द्रव्ये-शरीर :इति घस्य हः । प्रा०१ पाद । निष्फले, वृ०४ उ०। “मिच्छा
रिग्रहादौ द्रव्यरूपो मोहः,मोहनगीतादिषु गन्धर्वादीनां वावरे मोहं विहलं, अलिय असचं असम्भूअं" पाइ० ना०५३ गाथा।
षु,अनुपयुक्तस्य भागमतो नोभागमतो रागवत् । भावतो मेंमोह-पुं० । मोहनं मोहः । वितथग्रहे, विशे० । तदोपदर्शने हः अप्रशस्तः, समस्तपापस्थानहेतुपरद्रव्येषु, कुदेवकुगुरु:मूढत्वे, शा० १७०८० । रागद्वेषरूपे , सूत्र. १ श्रु०४ धर्मेषु । प्रशस्तो मोक्षमार्गे-सम्यग्दर्शनशानचारित्रतपोहेतुषु ०२ उ० । विपर्यासे, विशे० । द्विविधो मोहः-शान-दर्श- सुदेवगुर्वादिषु । तत्र मोहत्याग उत्सर्जनं,भिन्नीकरणम् , अत्र नभेदात् । स्था।
यावाम् भप्रशस्तमोहस्तावान् सर्वथा त्याज्य एव अशुद्धरू -
निबन्धनत्वात् । प्रशस्तमोहसाधने असाधारणहेतुत्वेन पूर्णमोहे दुविहे परमत्ते, तं जहा-णाणमोहे चेव, दंसण
तत्वनिष्पत्तः अर्वाक क्रियमाणोऽपि अनुपादेयः । श्रया विमोहे चेव ।
भावत्वेनैवावधार्यः । यद्यपि-परावृत्तिस्तथापि अशुद्धपरि. सानं मोहयति-आच्छादयतीति शानमोहो-शानावरणादयः, | गतिरतः साध्ये सर्वमोहपरित्याग एव श्रद्धेय श्राधनयचतुएवम्-'दसणमोहे चेव' सम्यग्दर्शनमोहोदय इति । स्था० | ये कर्मवर्गणापुद्गलेषु तद्योगेषु तग्रहणप्रवृत्त्या सङ्कल्पे क२ ठा०४ उ० । “ रागो द्वेषश्च मोहश्च, भवमालिन्यतयः।। मपुद्गलेषु वध्यमानेषु सत्तागतेषु चलोदीरितेषु उदयप्राप्तेषु एतदुत्कृर्षतो शेयो, हन्तोत्कर्षोऽस्थ तत्वतः॥१॥" द्वा०६ अशुद्धविभावपरिणामरूपमोहहेतुषु मोहत्त्वस्,शब्दादिनयत्रये द्वा० । सदसद्विवेकनाशे , स्था० २ ठा०४ उ० । तिमिरोप-| मोहपरिणतचेतनापरिणामेषु मिथ्यात्वासंयमप्रशस्ताप्रशप्लुतबुद्धिलोचनस्यानिश्चये, दश० १ ० । श्रात्मनो वैचि- स्तरूपेषु मोहत्यम् । श्रत आत्मनः अभिनवकर्महेतुः मोहपव्यकारणेऽशानत्वे, पातु । अज्ञाने, उत्त० १६ अ० । षो।। रिणामः । मोहेनेव जगद् बद्धं मोहमूढा एव भ्रमन्ति संसारे। द्वा० । प्रा० चू० । श्राप० । अबोधी, स्था० ३ ठा० १ उ०। यतो शानादिगुणसुखरोधकेषु च तेषु अनन्तवारम् अनन्तचित्तव्याकुलतायाम् , सूत्र०१ श्रु० ४ अ० १ उ० । मूढता- जीवैभुक्तमुक्तेषु जडेषु अग्राह्येषु पुद्गलेषु मनोज्ञाऽमनोज्ञेषु याम् , पञ्चा०४ विव० । प्रश्न । गृहकर्तव्यताजनितवैचि-| ग्रहणाऽग्रहणरूपो विकल्पो मोहोद्भवः तेनाय पुदगलासध्यात्मके हेयोपादेयविवेकाभावे, उत्त० ३ ० । श्रा०म०।। क्तो मोहपरिणत्या पुद्गलानुभवी स्वरूपानवबोधेन मुग्धः मोहेण गम्भं मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो ।
परिभ्रमति । अतो मोहत्यागो हितः । उक्नं च(सूत्र-१४२ +)
"आया नाणसहावी, दसणसीलो विसुद्धसुहरूवो।
सो संसारे भमई, एसो दोसो खु मोहस्स ॥१॥ (मोहेणेति ) मोहःप्रशानं मोहनीयं वा मिथ्यात्वकषायवि
जो उ अमुत्तिकत्ता,असंगनिम्मलसहावपरिणामी। षयाभिलाषमयम् , तेन मोहेन मोहितः सन् कर्म बध्नाति,
सो कम्मकवयबद्धो, दीगो सो मोहवसगत्ते ॥२॥ तेन च गर्भमघामोति, ततोऽपि जन्म पुनर्यालकुमारयौ,
ही दुक्खं प्रायभवं, मोहमहऽऽप्पाणमेव धंसेई। १-माधुनिकपुस्तके 'असत्ये ' ति पाहः।२-भयं ,पाठटोकायामस्ति ।। जस्सुदये णियभावं, सुद्धं सब्वं पिनो सरई॥३॥"
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मोह
इत्येवंमोहस्य विजृम्भितं मत्या त्याज्य इति कथपतिअहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्यकृत् । अयमेव हि नजपूर्वः प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥ १ ॥ अहं ममेति- मोहस्याऽऽत्मा शुद्धपरिणामस्य उपचारतो नृपेतिसंशस्य, अहं ममः इति श्रयं मन्त्रः जगदान्ध्यकृत्-ज्ञानचतुरोधकः। अहमिति स्वस्वभावेनोम्मादः, पर इत्यनेन अहं ममेति परभाव करणे कर्तारूपोऽहङ्कार आहे. सर्वस्वपदातो भिधेषु पुलजीचादिषु इदं ममेति परिणामो ममकारः । इत्यनेन 'अहं ममेति' परिणत्या सर्वपरत्वं स्वतया कृता । एषोऽशुद्धाध्यवसायो मोहजः मोहोद्योतकश्च, शुद्धानाअ मरहितानां जीवानां धान्य स्वरूपावलोकनशयिंसकृन्, 'डीति निश्चितम् । अयमेव नमपूर्वः प्रतिमन्त्र विपरी तमन्त्रः मोहजित्-मोहजये मन्त्रः । तथा त्र - नाहं, एते मे परे भावा ममापि एते न भ्रान्तिः एषाः साम्प्रतं यथार्थपदा ज्ञानेनाहं पराधिपो न परभावा मम । उक्तं च-
(४७) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
" एगो हं नऽत्थि मे कोऽई, नाहमन्नस्स कस्स वि । एवं अदीम अप्पारामसाई ॥१॥ एगो मे सानो अप्पा, नाणदंसण संजु । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ २ ॥ संजोगमूला जीवेण पत्ता दुस्वपरंपरा तम्हा संजोग संबंध, सव्वं तिविहेश वोसिरे ॥ २ ॥
इत्येवं विभाव्य द्रव्यकर्मतनुधनस्वजनेषु भिन्नतां नीते स्वभावैकत्वेन मोहजयो दृष्टः, अतः श्रहङ्कारममकारत्याग इष्ट इति ॥ १ ॥
पुनस्तदेव भावयति
शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम ।
यो न ममान्ये चेत्यदो मोहासमुन्वणम् ॥ २ ॥ शुद्धात्मद्रव्यमिति शुद्धो निर्मलः सफलापरहिता गुरुप
त्याद्यनन्तस्वभावमयः असंख्यप्रदेशी स्वभावपरिणामी स्वरूपकर्तृत्वभोकूत्वादिधर्मोपेतः, आत्मा शुद्धात्मा तदेव शुद्धात्म द्रव्यम् एव श्रहं अनन्तस्याद्वादस्वसत्ताप्राग्भवरसिकः, श्रनवनानन्दपूर्णः परमात्मा परमज्योतीरूपः अहं शुद्धं निराच
सूर्यचन्द्रादिसहायविकलप्रकाशम् एकसमये त्रिकालत्रिलोकसर्वद्रव्यपययोत्पादस्ययान्याधानं गु गः कर्त्ता में कार्य ज्ञान, ज्ञानकरणान्वितो ज्ञानपात्रो ज्ञानात् जानन् वानराधारोऽहम् ज्ञानमेव मम स्वरूपम्, इत्ययगच्छन् अन्यधर्माधर्माकाशपुङ्गवास्ततोऽन्यत् जीवपदार्थ सार्थः जीवपुङ्गलसंयोगजपरिणामः अन्यः सर्व नमतोभिन्ना एवं एते पूर्वोक्ता भावा मम द्रव्यादिचतुष्टयेन भि नत्वात् । यो हि व्याप्यव्यापकभावाद् भिन्नः स मम न यः अव्यपदेशे स्वतंत्र अभदया स्वपरिणामः स मम इति । स्वस्वरुप स्वयं परे परत्यपरिणाम 'मोह'-मोह छेदकम् अस्त्रम् ईदग्भेदशानविभक्तेन मोहक्षयः, श्रतः सर्पपरभावभिन्नत्वं विधेयम्। श्रत एव निर्ग्रन्थास्त्यजन्ति श्रस्त्रवान. धयन्ति गुरुचरतान् वसन्ति वनेषु उदासीभवन्ति
१.१५
मोह
विपाकेषु अभ्यस्यन्ति आगमव्यूहम अपरभावच्छेदाय प्रयत्न उत्तमानाम् ॥ २ ॥
यो न मुह्यति लग्नेषु भावे दयिकादि आकाशमिव पंडून, ना यते । ३ ॥
'यो न मुह्यति' इति यो जी. तत्त्वबलासी श्री. रेकादिषु भावपु- शुभाशुभकर्मविपाकेषु श्रादिशब्दात्-परभावानुगक्षयोपशमे शुद्धपरिणामिकभावग्रहः, तेषु लग्नेषुआत्मनि स्पषीभूतेषु यो न मुह्यति महीभान प्राप्ताति भेदशानचिवेकेन त्यक्कपरसंयोगः श्रवश्योदिरेषु यः अव्यापकः स पापेन कर्मणा न लिप्यते । किमिव न श्राकाशमिव । यथा श्राकाशस्थपङ्कः श्राकाशस्थ त् तत्र - अपरिणमनात् । एवं शमसंवेगनिवेदन यस्य अवश्यायविपाके भुज्यमानेापन लपः । स हि - पूर्वकर्मनिर्जरारूपं कार्य के स्वीयपरिणामस्य निरक्षणन कर्तृत्वं तस्य परभावानाम् । उक्कं न अध्यात्मविन्दी
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'स्वत्वेन स्वं परमपि परत्वेन जानन् समस्तायेभ्यो विरमणमियच्चिन्मयत्वं प्रपन्नः । स्वात्मन्येवाभरातमुपयन स्वात्मशीली स्वदर्शीस्येयं कर्त्ता कथमपि भवेत् कर्मणो ने जीयः ॥ १ ॥ कामभोगा समर्थ उपैति न याचि भोगा विगई उपैति । जे सप्पोसी परिमाही असो तेसु मोहा बिग उहा२" एवं परद्रव्ये अरमन् श्रात्मा मुच्यते श्रत एव सर्वसङ्गपरिहार हि मुच्यतां यास्यामि मितान् घनस्वजनाभीभोजनादीन त्यजति कारणाभावे कार्याभाव:, इति भावाथवरतिरोधसंयमः लक्षणवृत्यर्थ हिताय श्रवत्यागो भनीनाम् भावनाब-पैः परभावा श्रभोग्या अग्राह्याः कृताः ते कथं तत्र रमन्ते १ ॥ ३॥ पश्यमेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरःस्थोऽपि नादः परिथियति ॥ ४ ॥ 'पश्यमेवेति' स्वरूपाच्युतिस्वधर्मकत्वे समूहः- तत्वज्ञानी. स्वरूपसाधनोद्यतः प्रतिपाठकम् एकेन्द्रियकिलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियरूपपाटके नरतिर्यग्देवनरकलक्षणे सर्वस्थाने परद्रव्यनाटकं जन्मजरामरणादिरूपं संस्थाननिर्माणवर्णादिभेद पश्यन् एव न परिस्थिति--न खवान् भवति जानाति पुलकर्मविपाकजां चित्रतां न मत्स्यरूपं भ्रान्तानां भवत्येव न तस्यपूर्णानाम् कथंभूतः अमूद्र भव चक्रपुरस्थः अपि अनादिस्वकृतकर्मपरिणामनुपराजधानीचतुर्गतिरूपभवचक्रक्रोडगतोऽपि श्रात्मानं भिन्नं जानन् न वियति, परस्मैपदं तु काव्ये प्रयुक्वान् वितिका जड इति पाउदर्शनात् । इत्यनेन कर्मविपाचित्र
1
खिन्नः तिष्ठति: कर्तृत्वकालं न रतिः - अनादरः तर्हि भोगकाले को द्वेष उदद्यागतभोगकाले इष्टानिष्टापरिणतिरेय अ मिनचकर्महेतुः ताकतया भवितव्यम् शुभद पि आपण अशुभदा त्वात् का इष्टानिष्टता ? ॥ ४ ॥
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विकल्पचप कैरात्मा, पीतमोहासवां ह्ययम् ।
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मोह
(४५७) मोह
अभिधानराजेन्द्रः। भवोच्चतालमुत्ताल-प्रपश्चमधितिष्ठति ॥५॥
आश्चर्यवान् भवति, वक्त्रं न समर्थो भवति सुखाभावात् सु.
खकारणाभावात् । तश्च वस्तुवृत्त्या दुःखरूपे सुखम् रति लोविकल्पचषकैरिति-विकल्पाश्चित्तकल्लोला एव चषकाः
कार्थम् उक्लेऽपि स्वयम् आश्चर्यवान् भवेत् । किमुक्तम् ?-इदं मद्यपानपात्राणि तैः, हीति-निश्चितम् , अयं जीवः पीतो मो
मया ?, नेदं सुखम् अतः परसंभवे सुख सुखाभासो निवारह एव आसवो-मादकरसो येन सः पीतमोहासवः पुरुषो,
णीयो मोहमूलत्वात् , पौगलिके सुखे सुखभ्रान्तिरेव श्राभ्यभवोच्चताल-भवः-संसारः स एव, उच्चतालं-मद्यपगोष्ठी
न्तरमिथ्यात्वादिति ॥७॥ क्षेत्र प्रति उच्चतालं पुनः पुनः उच्चस्वरेण तालदानरूपं प्रपञ्च-विस्तारमधितिष्ठति-प्राप्नोति । इत्यनेन मोही जीवो
यश्चिद्दर्पणविन्यस्त-समस्ताचारचारुधीः । मदिरामसवत् चापल्यवैकल्यं करोति, परं स्वत्वेन, स्वं च क्व नाम स्वपरद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति ॥८॥ परत्वेन; कलयन् आत्मानम् अकायनिष्पादनपटिष्ठं प्रवर्तयन्
(यश्चिद्दर्पण इति)-यः पुरुषः श्रागमानुगताशयः चिद्-शान स्वस्थानभ्रष्टो भ्रमति । अत एव मोहत्यागः श्रेयान् ॥ ५॥
सर्वपदार्थपरिच्छेदकं तदेव दर्पणम्-आदर्शः तेन विन्यस्ताःनिर्मलस्फटिकस्येव, सहज रूपमात्मनः।।
स्थापिताः समस्ता ज्ञानाद्याचाराः तेन चारुः मनोहरा धीअध्यस्तोपाधिसम्बन्धो, जडस्तत्र विमुह्यति ॥६॥ बुद्धिर्यस्य स पुरुषः, नाम इति-कोमलामन्त्रणे परद्रव्ये
पुद्गलादी अनुपयोगिनि अकिञ्चित्करे कस्मिन्नपि कार्ये गृ'निर्मलस्फटिकस्येवेति,' निर्मलस्फटिकस्य वरणनिस्सङ्ग
हीतुमयोग्ये क मुह्यति ? इत्यर्थः, यो शानादिपश्चाचारेण स्फटिकस्य इव श्रात्मनो शापकद्रव्यस्य सहज-स्वाभाविकं |
संस्कारितोपयोगी श्रात्मानन्दं ज्ञानदर्पणे पश्यति स परद्रव्ये शुद्ध रूपम् अस्ति इत्यनेन वस्तुवृत्त्या श्रात्मा स्फटिकवत्
कथं मुह्यति ?, नैवेति । तत्त्वज्ञानविकलानाम् अनादिमिथ्यानिर्मल एव-निस्सङ्ग एव । संग्रहनयेन आत्मा परोपाधिसङ्गी
त्वाऽसंयमवतां स्वरूपानुभवशून्यानामेव परद्रव्यानुभवः । एव नास्ति परमज्ञापकचिदानन्दरूपः अध्यास्तोपाधिसम्ब- |
तत्र सुखभ्रान्तिरूपो मोहः । स्वभावधर्मनिर्धारभासनरमन्धः, प्राप्तपुद्गलसंसर्गजकर्मोपाधिसम्बन्धः अनेकग्लानम्लानावस्थो जडः वस्तुस्वरूपापरिझानी। तत्र उपाधिभावे मुहा
णानुभवमुखाऽऽस्वादलीनानां न मोहः, अत श्रात्मस्वरूपैक
त्वमेव मोहत्यागोपायः, अत एव अनादिभ्रान्तिमपहाय ति, एकत्वं प्राप्नोति, यथा-मूखः श्यामनीलपीतादिपुष्पसंयो
आत्मानुभवरसिकतया भवितव्यम् । श्रात्मस्वरूपश्रद्धानगात् स्फटिकामेदरीत्या नीलपीतस्वभावं जानाति; तथा वस्तुस्वरूपावबोधविकलो जीवो मिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोग
भासनरमणानुभववता स्थातव्यम्, इति तत्त्वम् । श्रागनिमित्ताद् बद्धकेन्द्रियादि-नामकर्मोदयात् एकेन्द्रियादिभाव
मश्रवणकुसङ्गत्यागात् तत्त्वरूचिस्तत्त्वज्ञानबलेन संयोगजं स
बमनित्यम्,अशरण संसारहेतुः,श्रात्मा एकः,सर्वपदार्थान्तरम् मापन्नम् एकेन्द्रियादिरूपमेव मन्यते। एकेन्द्रियोऽहं, विकलोऽह, पञ्चेन्द्रियोऽहं जानाति । परं शुद्ध स्वीयं सच्चिदान
आत्मव्यतिरिक्तं परस्पर्श एवाशुचि, परानुयायिता एव श्राग्दरूपं निर्मल स्वरूपं नाववोधतीति
श्रवाः , स्वरूपानुगमनं संवरः, उदीरमके श्रमग्नता इत्यादि मूर्खतापरिणतिः
परिणत्या मोहत्यागो विधेयः। श्र.४ अष्ट। लोभतत्त्वज्ञः खानिस्थवजं समलं सावरणं समृदपि रत्नपरी- क्रोधमाहेषु मोहः प्रधानम् , स्वपरविभागपूर्वकयोलों-- क्षकवत् वज्रत्वेन अवधारयति । एवं ज्ञानावरणाद्यावृतम्
भक्रोधयोस्तन्मूलत्वात् । द्वा० २१ द्वा० । मुख्यत्यनेन जाअतदाकारं ज्ञानज्योतिः प्रकाशविकलमपि श्रात्मानं पूर्णा
नन्नपि जन्तुरिति मोहः । दर्शनमोहनीयादौ , उत्त०८ श्रा। नन्दं सहजाप्रयासानन्दसंदोहं सर्वशं सर्वतत्वस्वरूपाभिन्नमा
मिथ्यादर्शने , सूत्र० १ थु० ३ ०१ उ०। मुह्यति-मूढो त्मानं सम्यग्ज्ञानबलेन निर्धारयति इति, इत्यनेन आत्मा शृद्ध
भवति जीवोऽनेनेति मोहः । मद्यवति मोहनीय कर्मणि , एव श्रद्धेयः । उपाधिदोषस्तु सन्नपि तादाम्याभावात् संसर्ग
उत्त०३३ अ० । सूत्र०। पुरुषवेशुदयरूपे ( वृ० १ उ० ३ त्वात् भिन्न एव निर्धार्थ इति ॥ ६॥
प्रक०।) कामोद्रेके, व्य०४ उ० । (माहेनाऽऽचार्योपाध्याया-- मोहात् जीवः; परवस्तु आत्मत्वेन जानन आरोपज सुखं
नामवधावनम् ' श्रायरिय' शब्दे द्वितीयभागे ३१८पृष्ठे दर्शि-- सुखत्वेन अनुभवति, भेदज्ञानी तु आरोपज सुख दुःखमेवेति तम् ) कामानुरागे , ग०३ अधिः। मोहनीयोदये , मोहनिवारणाय यत् तदुपदिशन्नाह
नीयं नाम येनाऽऽत्मा मुह्यति तश्च झानावरणं मोहनी
वा यथायथं द्रष्टव्यम् , । तादृशं मोहं प्राप्तस्य चिकित्सा । अनारोपसुखं मोह-त्यागादनुभवन्नपि ।
व्य०२ उ०। पं० सू। विकृतित्यागिनो मोहोदयः । आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ? ।। ७॥ पं०व०॥ अनारोपे-अनारोपज सहज सुखं स्वगुणज्ञाननिर्धार
श्रोघतो विकृतिपग्भिोगदोषमाहप्राग्भावरूपं सुख मोहत्यागात्-मोहक्षयोपशमात् अनुभ-| विगई परिणइधम्मो, मोहो जमुदिजए उदिस्मे । वनपि-भुअन्नपि, आरोपो-मिथ्योपचारः प्रियो येषां ते सुट्ट वि चित्तजयपरा, कहं अकजे न वट्टिहिई ॥३८३।। आरोपप्रियाः तेच ते लोकाश्च प्रारोपप्रियलोकाः तेषु प्रारो
विकृति परिणतिधर्मः कीदृगित्याह-मोहो यत् उदीर्यते पसुखं वक्तुम् आश्चर्यवान् भवेत् ? अत्र काक्तिः अपितु
ततः किमित्याह-उदीर्णे च माहे सुष्ठपि चित्तजयन भवेत् , येन आरोपज सुखं प्राप्तं स आरोपसुखे आश्चर्यवान्-चमत्कारवान् भवति । अथवा-अनारोपसुखानुभवी
परः प्राणी कथमकार्य न वर्तिप्यत इति गाथार्थः । भारोपप्रियलोकेषु अप्रे आरोपजं सुखं सुखम् इति वनमपि दावानलमज्झगो, को तदुवसमट्ठयाएँ जलमाई।
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मोह अभिधानराजेन्द्रः।
मोहणिज संतेऽविन सेविजा, मोहानलदीविए उवमा ॥ ३८४॥ मोहणकरा-मोहनकरी-स्त्री०। मोहोदयकरणशीले विद्याभे, दावानलमध्यगतः सन् कस्तदुपशमार्थ जलादीनि स-| सूत्र०२ श्रु०२०। न्त्यपि न सेवेत ? सर्व एव सेवत इत्यर्थः,। मोहानलदीप्तेऽप्यु- मोहणघर-मोहनग्रह-न० । मोहनं मैथुनसेवा तत्प्रधानानि एमेति जलादिसंस्थानीया योषितः सेवेत इति गाथार्थः । गृहकाणि । वासभवनेषु, ०१ वक्षः।राशा । सम्मो . पं०व०२ द्वार। मिथ्यात्वमोहनीयोदये, षो० ११ विव०। होत्पादके गृहे, रतिगृहे वा । झा०१ श्रु०८० । जी० । आचा० । मोहयति शानिनमपि प्राणिनं सदसदविवेकविकलं करोतीति मोहः। लिहादित्वादच्प्रत्ययः । कर्म०१ |
मोहणसील-मोहनशील-त्रि० । निधुवनप्रिये, शा० १ श्रु०१ कर्म । मोहनीयकर्मणि, पं० सं० ५ द्वार । दर्श०। त्रिंश
अ० । निधुवनशीले, भ०१४ श०८ उ०। न्मोहनीयस्थानेषु, आतु० । मुह्यतीति मोहः। मिथ्याप्रत्यये, | मोहगिंदा-मोहनिन्दा-स्त्री०। मूढताया अनादरे, ध०। 'उ. सम्म०१ काण्ड । वृ०।
पायतो मोहनिन्दा' इति-उपायतः-उपायेनानर्थप्रधानानां अथ मोहद्वारमाह
मूढपुरुषलक्षणानाम् प्रपञ्चनरूपेण मोहस्य-मूढताया निन्दा
अनादरसीयताख्यापनेति । यथाभावोवहयमईओ, मुझइ नाणचरणंतराईसु।
" अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्र द्वेष्टि हिनस्ति च । इड्डीओ य बहुविहा, दटुं परतित्थियाणं तु ॥ ३८५॥
कर्म चारभते दुष्ट, तमाहुर्मूढचेतसम् ॥१॥ भावेन शङ्कादिपरिणामेनोपहता दूषिता मतिर्यस्य स भावोप- अर्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च । हतमतिकः, एवंविधो मुह्यति-वैचित्त्यमुपयाति, शानावरणा- नैव मूढो विजानाति, मुमूर्षुरिव भैषजम् ॥२॥ न्तरादिपु। सानान्तराणि नाम ज्ञानविशेषास्तद्विषयो व्यामोहो सम्प्राप्तः पण्डितः कृच्छं, पूजया प्रतिबुध्यते। यथा-यदि नाम परमारवादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषय- मूडस्तु कच्छमासाद्य, शिलेवाम्भसि मज्जति ॥ ३॥" प्राहकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि तत् किमपरेण
अथवोपायतो मोहफलोपदर्शनद्वारलक्षणान्मोहनिन्दा करमनापर्यवज्ञानेनेति । चरणान्तरव्यामोहो यथा-यदि सामा
र्या । ध०१ अधि०। यिक सर्वसायद्यविरतिरूपं छेदोपस्थापनीयमप्येवंविधमेव तत्को नामाऽनयोर्विशेषः । श्रादिशब्दाद्दर्शनान्त चनादि
मोहणिज-मोहनीय-न० । मोहयति सदसद्विकलं करोत्यापरिग्रहः। ऋद्धिश्च बहुविधा-अनेकप्रकारा, समृद्धिः पर-|
त्मानमिति मोहनीयम् । प्रव० २१५ द्वार । मोहाय योग्य तीथिकानां दृष्टा यन्मुह्यति स मोह उच्यते । वृ० १ उ०
मोहनीयम् । उत्त० ३३ १०। “मज व मोहणीयं " इति २ प्रक० । एष च मोहः संमोहभावनाया हेतुः। सूक्ष्मभा
मद्यमिव मदिरासदृशं मोहयतीति मोहनीयं कर्म । प्रव-- वेषु परतीर्थिकसमृद्धद्यालोकने च मोहने, ध०३ श्रधिः ।।
चनीयादयः॥ ५ ॥१॥८॥ इति सूत्रेण कर्तर्यनीयप्रत्ययः । यथा आचा। योगिपरिभाषयाऽविद्यायाम्, स्या।मोहनं मोहः।।
हि मद्यपानमूढः प्राणी सदसद्विवेकविकलो भवति । तथावेदरूपमोहनीयोदयसम्पाद्यत्वादज्ञानरूपत्वाद् वा मैथुने,
मोहनीयेनापि कर्मणा मूढो जन्तुः सदसद्विवेकविकलो प्रश्न० २ आश्र० द्वार। मोहहेतुत्वात् मोहः। कर्मबन्ध
भवति । कर्म०१ कर्म । कर्मभेदे, उत्त० २ ०। विशेष माहनीयकर्मवन्धने, प्राचा० १ श्रु०२ अ०४ उ०। मोहणिजे कम्मे दविहे परमत्ते, तं जहा-दसणमोहणिमोहंझाण-मोहध्यान-न० । मोहनं मोहः आत्मनो वैचित्यं
जे चेन, चरित्तमोहणिजे चेव । (धूत्र-१०५) हा करणमज्ञानत्वमित्यर्थः, तस्य ध्यानम् । मोहात्कृष्णतर्नु
मोहयतीति मोहनीयम् , तथाहि-"जह मजपाणमूढो, लोए यहत बलभद्रस्येव दुर्ध्याने, अातु।
पुरिसा परव्वसो होइ । तह मोहेण वि मूढो, जीवो उ परन्वसो मोहंत-मुद्यत-त्रि० । कामक्रीडां कुर्वति, नि० चू० १७ उ०।।
होइ ॥१॥” इति । स्था० २ ठा०४ उ०। प्राचा० । अनु० । प्राचा०।
पं०सं० । उत्त। मोहगम्भवेरग्ग-मोहगर्भवैराग्य-न० । “ एको नित्यस्तथा
मोहणिज्ज पि दुविहं,दंसणे चरणे तहा । बद्धः, क्षय्यसत्येह सर्वथा । आत्मेति निश्चयाद भूयो, भवनैगुण्यद ॥१॥ त्यक्त्वा मायोपशान्तस्य, सद्वृत्तस्यापि
दंसणे तिविहं वुनं, चरणे दुविहं भवे ॥८॥ भावतः । वैराग्यं तद्गतं यत्त-मोहगर्भमुदाहृतम् ॥२॥" सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । इति वेग्ग' शब्दे वक्ष्यमाणलक्षणे वैराग्यभेदे, हा० १० एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स देसणे ।। अष्टाद्वा०।
चरितमोहणं कम्म, दुविहं तु वियाहियं । मोहजाल-मोहजाल-न । सान्तरप्रकृतिके मोहनीयकर्मणि,
कसायमोहणिज्जं च, नोकसायं तहेव य ॥१०॥ " माहणिजं कम्मं सभेद मोहजालं भन्नति, "पप्फोडियमोह
सोलसविहभेए-णं कम्मं तु कसायजं । जालस्स" श्रा० चू०५०। मोहण-मोहन-न । मैथुनासवनायाम् , “रमिय मोहरणाई" सत्तविह नवविहं, वा कम्मं नोकसायजं ॥११॥ इति नाममालावचनात् । जी०३ प्रति०४अधिः । निधवने, मोहनीयमपि द्विविधम् , न केवलं वेदनीयम् , विषयताई माहकारणे च झा०१ श्रु०३ अ०भ०।
तद् द्विधेति । द्वैविध्यमाह,-दर्शने-तत्त्वरुचिरूपे चरणे-चा
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मोहणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः।
मोहणिज रित्रे तथा-किमुक्तं भवति?-दर्शनमोहनीयं, चारित्रमोहनीयं म्मामिच्छत्तवेयणिशं सोलस कसाया णव नोकसाया। च। तत्र दर्शने-दर्शनविषयं प्रक्रमान्मोहनीयं त्रिविध-1 (सू०२८)स०२८ सम। मुक्तं भवति, चरणे-चरणविषयं मोहनीयं द्विविधं भवेत् ।। वथा । दर्शनमोहनीयत्रैविध्यम् तथाह-सम्यग्भावः सम्यक्त्वं
यावन्मोहनीयं तावदोषाःशुद्धदलिकरूपं यदुदयेऽपि तत्त्वरुचिः स्यात् , चैव इति-पूरणे। कम्माण रायभृयं, वेअंतं जाव मोहणिजंतु । मिथ्याभावः मिथ्यात्वम्-अशुद्धदलिकरूपं यतस्तत्वे अत- संभावणिज दोसा, चिदुइ ता चरमदेहाऽवि ।। ६३ ।। स्वम् अतत्त्वेऽपि तत्त्वमिति बुद्धिरुत्पद्यते , सम्यगमिथ्या
पं०व०१ द्वार । व्याख्याऽस्या गाथायाः 'पवजा' शब्दे • त्वमेव च-शुद्धादशुद्धदलिकरूपम् । यतः-उभयस्वभावता
पञ्चमभागे ७३८ पृष्ठे गता) जन्तार्भवति, इह च सम्यक्त्वादयो जीवधर्मास्तद्धेतुत्वाश्च दलिकेषुपतद्व्यपदेशः। एतास्तिस्रःप्रकृतयो मोहनीयस्य दर्श
____ कति कर्मवृक्षाः किंमूलाश्चेत्याहने-दर्शनविषयस्य ॥ ६ ॥ चरित्रे मुह्यते ऽनेनेति मोहनं च- अढविहकम्मरुक्खा, सव्वेते मोहणिजमूलागा । रित्रमोहनं कर्म, यतः श्रद्दधानोऽपि यदि कथंचनाहमेने प्र
कामगुणमूलगं वा, तम्मलागं च संसारो ॥ १७८ ।। तिपद्य इति जाननपि तत्फलादि न प्रतिपद्यते, उत्तरत्र तुशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् तत्पुनद्विविधं व्याख्यातं श्रुतधरैरि
प्रविधकर्मवृक्षाः,ते सर्वेऽपि मोहनीयमूलाः, न केवलं कति शेषः,पठन्ति च"चरितमोहणिजं दुविहं वोच्छामि अणुपु
पायाः, कामगुणा अपि मोहनीयमूलाः, यस्माद् वेदोदयाद व्यसो' ति स्पष्टमेव, कथं तद द्विविधम् ? इत्याह-का
कामाः, वेदश्व मोहनीयान्तःपातीत्यतस्तन्मोहनीयं मूलम्याः क्रोधादयस्तद्पेण वेद्यतेऽनुभूयते यत्तत्कषायवेदनीयं
प्राचं कारण यस्य संसारस्य स तथा इति गाथार्थः । तचः समुच्चये । 'नोकषायमिति प्रस्तावानोकथायवेदनीयम्।। देवं पारम्पर्येण संसारकषायकामानां कारणत्वान्मोहनीयं नोकषायाः कषायसहवर्तिनो हास्यादयस्तद्रूपेण यद् प्रधानभावमनुभवति , तत्क्षये चावश्यंभावी कर्मक्षयस्तवेद्यत । तथेति समुच्चये ।१०। अनयोरपि भेदानाह-पोडश- | था चाभाणि-"जहा मत्थयसूईए , हयाए हम्मए तलो। तहा विधः-षोडशप्रकारो यो भेदो-नानात्वं तेन , लक्षणे- कम्माणि हम्मन्ति , मोहणिजे खयं गए.॥ १ ॥ " प्राचा तृतीया । यद्वा-षोडशविधं, भेदेन-भिद्यमानतया चिन्त्य १ श्रु०२१०१ उ०। (मोहनीयस्य कर्मखोऽनुभावः 'अनुमानम् , प्राकृतत्वादनुस्वारलोपः, कर्म-क्रियमाणत्वात् । तुः- भाग' (व) शब्दे प्रथमभागे ३६७ पृष्टे गतः) . पुनरर्थे मित्रक्रमश्च । कषायेभ्यो जायत इति कषायजम् 'यं मोहणिजस्स णं कम्मस्स सत्तर सागरोवमकोडावेयति तं बंधा' इति वचनात्कषायवेदनीयमित्यर्थः। षोड.
कोडीओ अबाहूणिया कम्मट्टिई कम्मणिसेगे पम्पत्ते । शविधत्वं चास्य क्रोधमानमायालोभानां चतुर्णामपि प्रत्यकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदत
(मू० ७०४) चतुर्विधत्वात् , ' सत्तविह' त्ति प्राग्वद्विन्दुलोपात्सप्तविध 'अबाहणिया कम्मट्टिई कम्मणिसेगे यामते 'ति इह किथा कर्म, मोकषायेभ्यो जायत इति नोकषायज, नो- लाऽऽत्मा अविशिष्टमेव कर्म पुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं कषायवेदनीयमित्यर्थः । तत्र सप्तविधम्-हास्यरत्यरति- ज्ञानावरणीयादिकर्मणां स्वं स्वमबाधाकालं मुक्या ज्ञानाभयशोकजुगुप्साः षड, वेदश्च सामान्यधिवक्षयक एवेति, वरणीयादिप्रकृतिविभागतया अनाभोगिकन चीयेंणोदयसयदा तु वेदः स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन विधेति घिवच्यते तदा | हितं तदलिकं निषिञ्चति, उदययोग्यं रचयतीत्यर्थः । अषभित्रयो मिलिता नव भवन्तीति नवविधमिति । उत्त० तो द्विविधा स्थितिः-कर्मन्यापादनमात्ररूपा, अनुभवरूपा ३३ अ० । कर्म । प्रव०।
च । यतः स्थितिः-अवस्थानं तन भावनाप्रच्यवनम , तत्र मोहनीयकाशानाह
कर्मत्यापादनरूपां तामधिकृत्य सप्ततिः सागगपमकाटीको
स्या, अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सप्तवर्षसहस्रानात, तव' अअभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिजस्स कम्मस्स छब्बी- बाह ' ति किमुक्तं भवति-? बन्धावलिकायाः आरभ्य यासं कम्मंसा संतकम्मा पमत्ता, तं जहा-मिच्छत्तमोहणिज्जं, |
वत्सप्तवर्षसहस्राणि तावत्कर्म न बाधते, नादयं यातीत्यर्थः ।
ततोऽनन्तरसमये कर्मदलिकं पूर्वनिपिनमुदये प्रवेशति । सोलस-कसाया, इत्थीवेदे, पुरिसवेदे, नपुंसकवेदे, हास, |
निषेको नाम-शानावरणादिकर्मदलिकस्यानुभवनार्थ रचना, अरति-रति-भयं, सोगं, दुगुंछा, । ( सू० २६ +) तश्च प्रथमसमय बहुकं निषिञ्चति, द्वितीसमय विशपहीमोहणिजस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतक
नं, तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुस्थति कर्मद
लिकं ताबद् विशेषहीनं निषिञ्चति । तथा चाक्रम्-" मानम्मंसा परमत्ता । (मू० २७+)
ण समगवाह, पढमाए ठिईणें बहुतरं दव्वं । सस विससमोहनीयकर्मणोऽयाविंशतिविधस्य मध्ये सप्तविंशतिरुत्तरप्र- हीणं , जावुक्कासं ति सबासि ॥१॥" वा लाइन , कृतयः सत्कर्माशाः सत्तायामित्यर्थः,एकस्यालितत्वादिति।। बाधत इति बाधा , कर्मण उदय इत्यर्थः, न बाधा अबाधा,
अन्तरं कर्मोदयस्यत्यर्थः, तया ऊनिका अवाधानिका, कमोहणिजस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मा प
मस्थितिः कर्मनिषको भवति इत्येवमेक प्राहुः । अन्य पुनमत्ता , तं जहा-सम्मत्तवेयणिज्जं मिच्छत्नवेयणिजं स | गह:-श्रवाधाकालन वर्षसहस्रसप्तकलक्षणनांना कर्म
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मोहणिज्ज
स्थिति:- सहस्राधिकसम्मति सागरोपमफोटाकोटिला कर्मनिषेो भवति स च कियान ? उच्पनेस तर सागरोवमकोडाकोडीओ ति । स० ७० सम० । ( मोहनीयस्य कर्मणः वग्धोदयसत्तास्थानः सह संवेधः। कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६३ पृष्ठे चिन्तितः ) ( काकंवामोहणिज ' शब्दे हामोहनीयकर्मणो पता तृतीयभागे १६४ पृष्ठे उक्का )
मोहनीयवन्धादि
जीवे णं भंते! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिम्पेणं उट्ठाएजा ? हंता ! उबट्टाएजा । से भंते! किं वीरियलाए उवद्वावेजा वीरियत्ताए उवडावेखा ?, गोयमा ! वीरियाए उबट्टाएजा, नो अवी रियत्ताए उवट्ठाएजा, ज वीरित्ताए उवट्ठाएजा किं बालवीरित्ताए उवट्ठाएजा पंडि तवीरित्ताए उट्ठाएजा बालपंडियवीरियत्ताए उदट्ठाएजा ?, गोयमा ! बालवी रिपनाए उपसा यो पंडियवीरित्ताए ऊबडाएजा नो वालपंडियवीरियत्ताए उबट्टएजा । मोदविति मिध्यात्वमोहनीयेननि उदितेन ' उबट्टापज्ज' त्ति उपतिष्ठेत उपस्थानम्--परलोकक्रियास्वभ्युपगमं कुर्यादित्यर्थः । वरियता 'तिवीर्ययोगाद्वीपः प्राणी सद्भाव पीता अथवा मे स्वार्थिकप्रत्ययाद वीर्यता वीर्याणां वा भावो वीर्यता तथा अपीरियनाथ 'अविद्यमानतया वीर्यामायेनेत्यर्थ:,
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(४६१) अभिधान राजेन्द्रः ।
नो अयरियाए 'चिवीर्यहेतुकत्वादुपस्थानस्येति । 'बालवीरित्ताए ' ति बालः सम्यगर्थानवबोधात् सद्धोधकार्यविरत्यभावाच मिध्यादृष्टिस्तस्य वा वीर्यता - परिण तिविशेषः सा तथा, तथा 'पंडियवीरित्ताए 'त्ति परिडतः सकलाचचचर्जकस्तदन्यस्य परमार्थतो निशनत्ये नासत्या पदाह" तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मि मनुदिते विमाति रामगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्ति दिनकरकिरणाग्रतः स्थातु ॥ इति सर्वविरत इत्यर्थः । 'बालपंडियवीरित्ताए ' ति बालो देशे विरत्यभावात् पण्डितो देश एव विरतिसद्भावादिति वालपण्डितो - देशविरतः । इह च मिथ्या उदिते मिध्यादृत्यिवस्थ बालवी सैवोपस्थानं स्थानेतराभ्याम् । एतदवाह - गोयमेत्यादि ।
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उपस्थानविपक्षी उपक्रमरामतस्तदाश्रित्याऽऽह जीणं भंते! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिमेणं अवकमेजा ?, हंता ! अवकमेजा, से भंते ! ०जाव वालडियचीरियताए अवकमेजा २१, गोषमा ! बालवीरित्ताए अवकमेजा, नो पंडियवीरियत्ताए अवकमेजा, सय बालपंडियबीरियताए अचक्रमेजा जहा उदिभेयं । दो बालावगा, तहा उपसंयदि दो आलावा भाणि यब्वा, नवरं उबट्टाएजा पंडियबीरिवत्ताए, अवकमेजा वालपंडियवी रित्ताए ।
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जीये इत्यादि अयकमेल' ति अपक्रामेद्-अपसपैंत्, उत्तमगुणस्थानका डीनदरं गच्छेदित्यर्थः, बालवीयंत
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मोहविज्जद्वाल या कामेन मिध्यात्यमोहोदये सम्यकृया संयमादेश यमाद् वा अपक्रामेत्- मिध्यादृष्टिर्भवेदिति । गो पंडियमीरियता अवकमेजन पण्डितवादका मे न हि परितत्वावधान्तरं गुणस्थानकमस्ति यतः परिनबीर्येणापसत् मियालरिया
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निस्याद् वालपनिवीय व्यादपक्रामेत् स्यात्क दाविचारित्रमोहनीयोदयेन संयमादपगत्य बालपण्डितवीयेंदेशविरतो भवेदिति । वाचनान्तरे वेयम-बालवीर ताप नो पंडियवीरित्ताए नो बालपण्डियवीरित्ताए 'त्ति तत्र च मिथ्यात्यमोहोदय बालवीर्यस्यैव भावादिनरवीर्यज्ञय निषेध इति उदीर्णविपक्षत्वादुपशान्तस्येत्युपशान्तसूत्रद्वयं तथैव, नवरम् —' उवट्टाएजा पंडियवीरित्ताए ' ति उदीर्णालापकापेक्षया उपशान्तलापकयोरथं विशेषः - प्रथमालापके सर्वथा मोहनीयेनोपशान्तेन सता उपतिष्ठत किया प लिपी, उपशान्तमोहावस्थायां परस्येव भावादिनरोधाभावात् स्तु काचिद् वाचनामाश्रित्य स्थानम मोदनीयेनोपशान्तेन सता न मिथ्यारजीयते, साधुः श्रावको वा भवतीति । द्वितीयालापत्रे तु 'श्रवक्कमेज बालपेडियमीरयता मिोहनीयेन हि उपशान्तेन संयतत्वाद वालपरिचीणकामन्देशसंयतो भवति, देशस्त स्य मोहोपशमसद्भावात् न तु मिथ्यादृष्टि मोडोदय एव तस्य भावात् मोहोपरामस्य बेहाधिकृतत्वादिति ।
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श्रथापक्रामतीति यदुक्तं नत्र सामान्येन प्रश्नयन्नाहसे मेते ! कि आयाए अवकम असायाए अपक्रम है, गोयमा ! आयाए अवकमद यो अथायाए अवकम, मोहणि कम्मं वेदेमाणे से कहमेयं भंते ! एवं १, गोयमा ! पुवि से एवं एवं रोयइ, इयाणि से एवं एवं नो रोयइ एवं खलु एयं एवं | (सूत्र - ३६ )
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'से भंते किं' इत्यादि सेति असी जीवः अथार्थी वा 'से' शब्द ' श्रयाए ' ति श्रात्मना 'श्रणायाए' ति श्रनात्मना परत इत्यर्थः । अपक्रामति अपसर्पति, पूर्व परित्य भूत्वा पचामिरचिर्मिभ्यारुचिर्या भवतीति कोऽसौ ?, इत्याह- मोहनीय कर्म मिध्यात्वमोहनीयं चारिजमोहनीयं यादव उदीम इसे कहमेयं भेतेति कथं केन प्रकारेण एतद् अपक्रमणम् एवं ति मोदनीय वेदद्यमानस्येति । इदोत्तरम् गोयमेत्यादि पूर्वमपक्रमणात्यागखी अपक्रमणकारी जीवः पतजीवादि सादि या वस्तु एवं यथा जिने रोचते करोति वा इदानीं मोहनीयोदयकाले सजीवतीचादिहिंसादि या एवं यथा जिने नो रोचते न अडते न करोति वा प खलु उक्तप्रकारेण एतत्-पराम् एवं मोहनीयवेदन इत्यर्थः भ० शु०४० मोहयतीति मोहनीयम्। मिथ्यादर्शना दिके ज्ञानावरणीयादिके वा कर्मणि सूत्र ०१ ०२०३० मोहणिजद्वारा मोहनीयस्थान-१० मोहनीयं सामान्येनाट प्रकारं कर्म विशेषतश्चतुर्थी प्रकृतिस्तस्य स्थानानि निमित्तानि मोहनीयस्थानानि । मोहनीय कर्मबन्धनिमित्तेषु, स० २६
सम० । दशा० ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, व
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मोहविज्जद्वाण
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श्री- पुनभद्दे चेइए, कोणिए राया, धारिणी देवी, सामी समोसढे, परिसा ग्गिया, धम्मो कहितो, परिसा पडिगया, जो त्ति समणे भगवं महावीरे बहवे निग्गंथा य निग्गंथीय आमंतेत्ता एवं वदासी एवं खलु अजो! ती मोहजिट्ठाणाई जाई इत्थी वा पुरिसो वा अभिक्ख
२ आयारमाणे वा मोहणिअत्ताए कम्मं पकरेति । तं जहाजे केइ तसे पाणे, वारिभजं विगाहिता । उदए कम्ममारेति, महामोहं पकुव्वति ॥ १ ॥ व्याख्या प्राग्वत्- 'तेणं कालेणं' इति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्मिन् पूर्णभद्रे त्येसम भगवं महाबीरे ति श्रमणो भगवान् महावीरः श्रर्हन् सर्वदर्शी सप्तहस्तप्रमाणशरीराच्द्रयः समचतुरखसंस्थानो पनाह कजलप्रतम कालिमोपेतस्निग्धाकुचिप्रदक्षिणामूर्द्धजः उतपनीयाभिरामकेशान्त केशभूमिरातपत्राकारोनमा - ङ्गसन्निवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादण्यधिकतरवदनशोभः पद्मोत्पलसुरभिगन्धनिःश्वासो पदभागमाः शश चारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूरणविपुलस्कन्धप्रदेशो महापुरकपाट वत्पृथु लवक्षस्थलाभोगो यथास्थितलक्षणोपेतश्रीवक्षः परिघोपमप्रलम्बबाहुयुगलो रविशशिचक्र कोशादिप्रशस्तलक्षणोपेतपाणितलः सुजातपाय झषोदरः सूकरस्पर्शजातविको शपथोपमनाभिमण्डलः सिंहवत्संवतिकटीप्रदे शो निगूढजानुः कुरुविन्दवृत्तगुम्फयुमला सुप्रतिष्ठितचारुचरणः प्रशस्तलक्षणाङ्कितचरणनतप्रदेशोऽनाश्रवः निममः धोता निरुपलेपोपगतप्रेमरामोद्वेगः चतुि योपेतो गगनगतेन धम्मंथरा आकाशतेन प्रकाशगताभ्यां चामराभ्याम् आकाशगतेनातिस्वच्छ स्फटिकविशेमयेन पादपउन सिहासनेन पुरता देवैः प्रकृष्यमान २ धम्मप्यजेन चतुर्दशभिः भ्रमणसहस्रैः परिवृतो यथा - कल्पं सुखेन विहरन, यथारूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा चात्मानं भावयन्, 'जाव' ति यावत्करणात् तीर्थकरसाधुवर्णकः सर्वोऽपि वाच्यः । ' समोसरणं 'त्ति समयसरणवर्णनं भगवत श्रपपातिकग्रन्थादवसेयम् ' परिसागेय' सि चम्पानगरीवास्तव्यो लोको भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगद्वन्दनार्थे स्वस्मात्स्वस्मादाश्रयादाकृष्टः कृतकौतुकमङ्गलप्रायखितोऽल्पमभिरलङ्कृतशरीरः स्वस्वपरिकरसमे तो इत्यादिवाहनारूढो निजवरविहारचारी व सन् निर्गतः, भगवता च धर्मकथा कथिताः श्रुत्वा च तां हृष्टचित्तो दिया- भगवन् ! स्वास्थातो भगवत्युक्त्यापर्यत् स्वस्थानं प्रतिगता । तदा-' जो 'ति प्राग्वत् 'तीस सि - त्रिंशत्संख्यानि ' मोहणिज्जद्वाणाई 'ति मोहनीयस्थानानि मोहनीयं सामान्येनाप्रकारं कर्म विशेषतअतुर्थी प्रकृतिः, तस्याः स्थानानि निमित्तानि मोहनीयस्थानानि यानि इति पूर्वतनी प्रतिपादितानि यानि इमानि अनन्तरवक्ष्यमाणानि स्त्री या पुरुषो वा अम्माचरन् असकृच्छठाध्यवसायादितया वा समाचरन् असकृतीवाध्यवसायपरिगतो वा मोहनीयतया इति- मोहनीयकर्मत्वेन १- पंडिग इत्यपि पाठः ।
( ४६२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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मोहज्जिद्वारा
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कर्म प्रकरोति । तद्यथा- 'जे के' इत्यादि श्लोकः । यः कश्चन त्रसान् स्त्रीपुरुषगृहस्थपाखण्डिप्रभृतीन् वारिमध्ये विगाह्य-प्र विश्य परिव्राजकवत् 'उदपणं' ति उदयेन तथा हिंसादिप्रवर्तककमोंदयेन उदकेन वा शस्त्रभूतेन मारयति कथमित्याहआक्रम्य पादादिना स इति गम्यते । मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वात् संक्लिष्टचित्तत्वात् भवशते दुःखवेदनीयमात्मना महामोहं प्रकरोति-जनयति तदेवंभूतं समा रणेनैकं मोहनीयस्थानमेवं सर्वत्रेति ।
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पाणिया संपिहिता सं. सोयमावरिय पाणिणं । अंतो दंतं मारेति, महामोहं पव्व ॥ २ ॥ पाणिना होन संविधाय स्थगयित्वा किं तत् श्रोतमुखमित्यर्थः तथा प्रावृत्य-अवरुभ्यं प्राणिनं ततः अन्तर्नदन्तं-गलमध्ये रयं कुर्यन्तं घुरघुरायमामित्यर्थः स इति गम्यते महामोहं करोतीति द्वितीयम् ॥ २ ॥ जायतेयं समारम्भ, बहुं ओरुज्झिय जणं । अंतो मेरा मांरेति, महामोहं पकुब्वति ॥ ३ ॥ जाततेजसम् - वैश्वानरं समारभ्य - प्रज्वाल्य बहु-प्रभूतम् - अवरुध्य महामण्डपबाटादिषु प्रक्षिप्य जनं लोकमन्तमध्ये पायेंमेन पडिलिट्रेन, अथवा अन्तमो यस्यासावन्तर्धूमः तेन जाततेजसा विभक्तिविपरिणामात् मारयति या असी महामोहं प्रकरोतीति तृतीयम् ॥ ३ ॥ सीसम्म जो पहले, उत्तमंगम्मि चेपसा । विभा मत्थर्य फाले, महामोहं पकुब्वति ॥ ४ ॥ शी-शिरसि पयः प्रति समुद्गरादिना महरति प्राणिनमिति गम्यते किंभूते शिरसि स्वभावतः उत्तमाङ्गे सर्वाच बवानां प्रधानावयवे तद्विधाऽवश्यं मरणात् चेतसा संक्रिऐन मनसा न यथाकथंचिदित्यर्थः तथा विभाग्य मस्तकं प्रकृष्टप्रहारदानेन स्फोटयति ग्रीवादिकं कायमपीति गम्यते । स इत्यस्य गम्यमानत्यात्, स महामोहं प्रकरोतीति चतुर्थम् । सीसावेदेश जे केद्र, आवेदेह अभिक्खणं । तिब्बासुभसमायारे, महामोहं पकुब्वइ ।। ५ ।। शीर्षावेष्टेनार्द्रचर्मादिमयेन यः कश्चिद् वेष्टयति स्त्रीपुरुधादिः त्रसान् इति गम्यते । श्रभीच्णं भृशं तीव्रोऽशुभसमाचारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात्स मार्यमाणस्य महामोहोस्पादकत्वेन आत्मनो महामोदं प्रकुरुते इति पञ्चमम् ॥ ५ ॥ पुणे पुणो पखिहिए, नासे उवहसे जणं । फले अव दंडे, महामोहं पकुव्व ॥ ६ ॥ पौनःपुन्येन प्रणिधिना - मायया पथा - वाणिजकादियेषं विधाय गलाकर्तकाः पथि गकता सह गत्या बिजन वि अन्धं वा मारयन्ति तथा विनाशे उपहसेत् आनन्दातिरेकात् मूर्खलोकं हन्यमानं केन हत्या फलेन योगविभावेन मातुलादिना अथवा तथा दण्डेन प्रसिद्धेन इति गम्यते महामोहं प्रकरोतीति षष्ठम् ॥ ६ ॥
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गूढापारी निगूहेजा, मायं माषाएँ छायए । असवाई सिरहाइ, महामोहं पव्व ॥ ७ ॥ गूढाचारी प्रच्छाचारवान् निगृहयेत् — गोपयेत् वीर्य प्रच्छन्नं दुष्टमाचारं तथा मायां परकीयां, मायया स्वकीयया
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मोहणिजहाण अभिधानराजेन्द्रः।
मोहणिज्जद्वाण छादयेत-जयत्। यथा-शकुनिमारकाः छदैरात्मानमावृत्य अब्रह्मचारी मैथुनादनिवृत्तो यः कश्चित्तत्काल एवाऽऽसेव्य, शकुनीन् गृहन्तः स्वकीयमायया शकुनिमायां छादयन्ति, तथा 'ब्रह्मचारी सांप्रतमह मित्यतिधूर्ततया परप्रवञ्चनाय वदति । असत्यवादी निववी अपलापकः स्वकीययोर्मूलगुणोत्तरगुण- तथा य एवमशोभावहं सतामनादेयं भणन् , गर्दभ इव गवां प्रतिषधयोः सूत्रार्थयार्वा महामोरं प्रगतीति सप्तमम ॥७॥ मध्ये विचरन् वृषभवन्मनोझं नदति-नदं नादं शब्दमित्यधंसद जो अभृएणं, अकम्मं अनकम्मुणा ।
र्थः , तथा य एवं भणन् , श्रात्मनोऽहितो न हितकारी बालो अवा तुम मकासि त्ति, महामोहं पकुव्वइ ॥८॥
मूढो माया मृपा बहुशो व्यावृत्तं प्रभूतं भाषतेऽसूचं निध्वंसयति छायायां भंशयति यः पुरुषान् अभूतेनासद्भूतेन
न्दितं भाषते , कया स्त्रीविषयगृद्धया हेतुभूतया यः स इत्थंकम?अकर्मकम-अविद्यमानं दुश्चेष्टितम् ,प्रात्मकर्मणा-भान्म
भूतो महामोहं प्रकरोतीति द्वादशम् ॥ १२ ॥ कृतऋषिघातादिना दुष्टितेन दुष्टव्यापारण, अथवा-यद
जं णिस्सितो उवहइ, जससाहिगमेण वा। न्येन कृतं तदाश्रित्य परस्य समक्षमेव त्वमकारितन्महा- तस्स लुब्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुव्वति ॥ १५ ॥ पापमिति वदति । क्रियाया गम्यमानत्वात् स इत्यस्यापि ग-1 यं राजानं राजामात्यादिकं वा निश्रित उद्बहते जीविम्यमानत्वात् महामोहं प्रकरोतीत्यष्टमम् ॥ ८॥
कालाभेनात्मानं धारयति । कथं यशसा, तस्य राजादेः सेजाणमाणो परीसाए, सच्चमोसा ण भासए ।
कोऽयमिति प्रसिद्धचा अभिगमेन वा सेवया आश्रितराअच्छीण डंडोल्लुरए, महामोहं पकुव्वति ॥४॥ जादेस्तस्य-निर्वाहकारकस्य राजादेर्लुभ्यते वित्ते-द्रव्ये यःस जानाना यथा अनृतमतत्परिषदः सभायां बहुजनमध्ये
महामोहं प्रकरोतीति त्रयोदशम् ॥ १३ ॥ इत्यर्थः, सत्यामृषा किश्चित्सत्यानि सत्यनिबद्धानि किश्चिद- इस्सरेणऽदुवा गामे-ण ऽणिस्सरे. इस्सरीकए । सत्यानि वस्तूनि वाक्यानि वा भाषते अक्षीणं दण्डोल्लुयरत- | तस्स संपग्गहीयस्स, सिरी तुलयमागया ॥ १६ ॥ कल हः यः स इति गम्यते महामोई प्रकरोतीति नवमम् ॥६॥ |
ईसादोमेण आभट्ठो, कलुसाऽऽविलचेतसा। अणायगस्स नयवं, दारं तस्सव धंसई ।
जो अंतरायं चेएइ, महामोहं पकुब्बइ ॥ १७ ॥ विपुलं विक्षोभइत्ता णं, किच्चा णं पडिबाहिरं ॥१०॥
ईश्वरेण-प्रभुणा 'अदुवा' अथवा ग्रामेण जनसमूहेन अअनायकः-अविद्यमाननायको राजा तस्य नयवान्-नीति- नीश्वर ईश्वरीकृतः, तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य संप्रगृहीमान् अमात्यः, स तस्यैव गंशो दारान्-कलत्रं द्वारं वा अर्था- तस्य पृच्छादिना श्रीलक्ष्मीरतुला असाधारणा भागता-प्रागमस्योपायं धंसयित्वा भोगभोगान् विदारयतीति सम्बन्धः, प्ता अतुलं वा यथा भवतीत्येवं श्रीः समागता, आगतश्रीकिं कृत्वा विपुल प्रचुरमित्यर्थः, विक्षोभ्य सामन्तादिपरि- कश्च प्रभ्वाद्युपकारकविषये ईादोषणाविष्टो युक्तः कलुकरभेदेन संक्षोभ्य नायकं तस्य क्षोभं जनयित्वेत्यर्थः, कृत्वा- षेण द्वेषलोभादिलक्षणया येनाबिलमाकुलं वा चेतो यस्य विधाय णमित्यलकार प्रतिबाह्यमनधिकारिणं दारेभ्योऽर्था- स तथा । यः अन्तरायम्-व्यवच्छेदं तं भोगानां चेतयतेगमद्वारेभ्यो वा दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः ॥१०॥ करोति प्रभ्वादेरसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुर्दशम् ॥ १४ ॥ उवगतं पि डंपित्ता, पडिलोमाहि वग्गुहिं ।। सप्पी जहा अंडपुडं, भत्तारं जो विहिंसइ । भोगभोगे वियारेइ, महामोहं पकुव्वति ॥ ११॥ | सेणावति पसत्थारं, महामोहं पकुव्वइ ॥ १८॥ तथा उपगतमपि समीपमागच्छन्तमपि सर्वस्वमपहरत् एते. सपी-नागी यथा 'अण्डपुडं' अण्डकपुटं स्वकीयमनानुलोमैः करुणश्च वचनैर्निरनुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः, गडकसमूहमित्यर्थः, अण्डकस्य वा पुटं संबद्धदलद्वयरूपं हिडम्पयित्वा-नष्टवचनावकाशं कृत्वा प्रतिलोमाभिस्तस्य प्रति- नस्ति, एवं भर्तारम् पोषयितारं यो विहिनस्ति सेनापतिम्कूलाभिवाग्भिवचनरेतादृशस्तादृशस्त्वमित्यादिभिरित्यर्थः , राजानं, प्रशास्तारम् राजामात्य धर्मपाठकं वा स महामोहं भोगभोगान् विशिएशब्दादीन् विदारयति-हरति यो:- प्रकरोतीति, तन्मरण बहुजनदुस्थता भवतीति पश्चदशम् ।१५॥ सौ महामोहं प्रकरोतीति दशमम् ॥ ११ ॥
जो णायगं च रदृस्स, नेयारं निगमस्स य । अकुमारभूतो जे केइ, कुमारभृए त्ति हं वए ।
सेटुिं बहुरवं हंता, महामोहं पकुव्वइ ॥ १६॥ इत्थीहि गिद्धे वसए, महामोहं पकुम्बइ ॥ १२ ॥ यो नायकं वा-प्रभु राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरादिकमिति भावः अकुमारभूतः-अकुमारब्रह्मचारी सन् यः कश्चित्कुमार- तथा-नेतार-प्रवर्तयितारं प्रयोजनेषु निगमस्य, वाणिजकभूतोऽहं कुमारब्रह्मचारी अहमिति वदति , अथवा- समूहस्य कं श्रेष्ठिनं-श्रीदेवताङ्कितपट्टबन्धम् , किम्भूतं बहुस्त्रीषु गृद्धो वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त इत्यर्थः , अथवा- रवं भूरिशब्दं प्रभूततरयशसमित्यर्थः हत्वा महामोहं प्रकुरुवसति प्रास्ते स महामोहं प्रकरोतीत्येकादशम् ॥ ११ ॥ ते । इति षोडशम् ॥ १६॥ अभयारी जे केइ, बंभयारि त्ति हं वए ।
बहजणस्स नेयार, दीवं ताणं च पाणिणं । गद्दहो व्व गवं मज्झे, विस्सरं नदती नदं ॥ १३ ॥
एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुव्वइ ।। २०॥ अप्पणो अहियं बाले, मायाप्रोसं बहुन्न से ।
बहुजनस्य-पञ्चषादीनां लोकानां नेतारं-नायक द्वीपः-स
सारसागरान्तरगतानाश्वासनम् । अथवा-दीप इव दीपोऽक्षा इत्थीविसयभावीए, महामोहं पकुब्बति ॥१४॥
नान्धकारावृतबुद्धिदृष्टिप्रसराणां हेयोपादेयवस्तुस्तोमप्रका१-मोहनीचस्थान पर कमिदम् ।
शकत्वात् । अत एव त्राणम्-श्रापद्रक्षण प्राणिनामेतार
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( ४६४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मोहणिज्जद्वाण
शा गणधरादयो भवन्ति, नवरं प्रायवनिकादिपुरुष हवाम हामोह प्रकरोतीति सप्तदशम् ॥ १७ ॥
उचट्ठियं पडिविरयं, संजतं सुसमाहियं । विउकम्पधम्माउ सेह, महामोहं पकुब्वइ ॥ २१ ॥ उपस्थितं - प्रव्रज्यायां प्रत्रजिषुमित्यर्थः, प्रतिविरतं-सावयोगेभ्यो निवृत्तं प्रवृजितमित्यर्थः, संयतं साधुमुपस्थितं तपांसि कृतवन्तं शोभनं था तपः श्रितमाश्रितं कचित्- 'जे भिक्खू जगजीव' ति पाठः तत्र जगन्ति जङ्गमानि अि सकत्वेन जीवतीति जगजीवनस्तं विविधेः प्रकारैरुपक्रम्या 53क्रम्य बलादित्यर्थः । धर्माद् व्रतचारित्राद्शयतियः स महामोदं प्रकरोतीति अपादम् ॥ १८ ॥ तवागतगाणीयं, जिणाणं वरदंसिणं । तेसि भवा वाले, महामोहं पकुब्व ॥ २२ ॥ यथेव प्राकृतं मोहनीपस्थानं तथैवेदमपि अनन्तज्ञानिनां ज्ञानस्यानन्तविषयत्वेन अक्षयत्वेन वा जिनानामतां वरदशिनां क्षायिकदर्शनात् तेषां ये ज्ञानाद्यनेकातिशयसंप दुपेतत्वेन भुवनत्रये प्रसिद्धाः अवश्य यादवकृप्यत्येन यस्यास्ति सोऽवर्णवान् यथा नास्ति कश्चित सर्वशो शेयस्यानन्तत्वात्, तत्रोच्यते--प्रदूषणं चैतदुत्प तिसमय एव केवलज्ञानं युगपल्लोकालोको पश्यदुपजायते यथा श्रपवरकान्तर्तिदीपकलिकाऽपवरकमध्य प्रकाशस्वरूपा इत्यभ्युपगमादिति, बालोऽशानो महामोहं प्रकरोतीति एकोविशतितमम् ॥ २६७
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वाइअस्स मग्गस्स, दुड्ढे वरई पहुं
तं तिप्पयंतो भावेण महामोहं पकुब्वइ ॥ २३ ॥ मैयायिकस्य -न्यायमनतिक्रान्तस्य मार्गस्य सम्यग्दर्शनादेशपथस्य दुष्टो द्विशे या अपकरोतीति- अपकारं करोतीति बहु- अत्यर्थ पाठान्तरेणापहरति बहुजनं विपरिणमयतीति भावः, तं मार्ग' तिप्पयंतो ' ति निन्दया द्वेषेण वा वासयति परम्, अपरम् च यः स महामोहं प्रकरोतीति विंशतितमम् २०| आयरियउवज्झाएहि, सुत्तं विषयं च गाहिए । ते चैव खिसई बाले, महामोहं पकुब्वइ ।। २४ ।। श्राचार्योपाध्यायैः श्रुतं स्वाध्यायं विनयं च ग्राहितः-शिक्षितः तानेव खिंसति निन्दति अल्पश्रुता एते इत्यादि ज्ञानतः ज्ञानवन्तः झभ्यतीर्थिकसंसर्गकारिण इत्यादि दर्शनतः, मन्दधर्माणः पार्श्वस्थादिस्थानवर्तिनः सहालापनाभिवादनादिकरणाविदः इत्यादि चारितः यः सर्वभूतो बालो महामोहं प्रकरोतीत्येकविंशतितमम् ॥ २१ ॥ पायरियउवज्झायाणं, सम्मं नो परितप्पइ ।
अप्पडिपूयए श्रद्धे, महामोहं पकुब्वइ ।। २५ ।। श्राचार्यादीन् श्रुतदानग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तर्पितयतः उपकृतयतः सम्य न प्रतितति विनयाद्वारोपयादि मिर्न प्रत्युपकरोति तथा अमतिपूजको न पूजाकारी तथा स्त धः-मानवान् स महामोहं करोतीति द्वाविंशतितमम् ||२२|| अवस्तुए वि जे केर, सुपय पवित्र । सज्झायवायं वय, महामोई पकृष्यं ।। २६ ।। अतः तेनानेन विध्यते-स्वा
मोहज्जिद्वाल
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घाम् करोति, यथा-गण्यहं वाचकोऽहं केनचित्पृष्टं यथा भवान् स बहुश्रुतो योऽस्माभिः श्रुतः, तदा स एवं वदति सोऽहमिति सद्भाववादं भवति । तत्सदृशत्वम् आत्मनः ख्यापयति यः स महामोहं प्रकरोति । श्रुतवानहमनुयोगधरोमित्येवम् अथवा कस्मिंश्चित्वमनुयोगान्नाय वाचको वेति पृच्छति प्रतिभगति श्रात्मनः स्वाध्यायवादं वदति विशुद्ध पाठको दमित्यादिकं यः स महामोहं भुतालाभहेतु प्रकरोतीति त्रयोविंशतितमम् ॥ २३ ॥
अवसि य जे केइ, तवेणं पविकत्थइ ।
सव्वलोए परे तेणे, महामोहं पकुव्वइ || २७ ॥
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सुगमम्। पूर्वाचं कल्यम् नवरं सर्वलोकात् सर्वजनात् सकाशात्परः प्रकृष्टः स्तेनः चीरो भीरा स महामोहं तपस्विताऽलाभहेतु प्रकरोतीति चतुर्विंशतितमम् ॥ २४ ॥ साहारणऽड्डा जे केड, गिलासम्म उपडिते । पभूण कुव्वती किचं, मज्झऽप्पेस ण कुव्वति ॥ २८॥ सटे शिपला लुसाउलचेयसा । अप्पयो व अबोहीए, महामोहं पकुब्व ॥ २६ ॥ साधार सार्थमुपकारार्थे यः कचिदादिलाने-रोगति उपस्थिते - प्रत्यासन्नीभूते प्रभुः - समर्थ उपदेशेनौषधादिदामेन व स्वतोऽन्यतश्चोपकारं न करोति कृतमुपेव्रत इत्यर्थः केनाभिप्रायेणेत्यर्थः ममाप्येष न करोति कि. ञ्चनापि कृत्यम् समर्थोऽपि समिति द्वेषेणासमर्थोऽयं वा बालत्वादिना किंकृतेनास्य पुनरुपकर्तुमशक्लस्वादिति लोभेनेति शठ: - कैतवयुक्तः शक्तिलोपनात्, निकृतिर्माया तद्विषये प्रज्ञानं यस्य स तथा । ग्लानः प्रतिजागरणीयो मा भवत्विति ग्लानवेषमहं करोमिति विकल्पवानित्यर्थः, श्रत एव कलुषाकुलचेताः श्रात्मनधाबोधिको भवान्तराप्राशन्यजिनधर्मको ग्लानामतिजागरणेनाशाविराधनात् । यशब्दात्परेषां वा बोधिकः अविद्यमानायाधिरस्मादिति व्युत्पादनात् यदि तदीयं ग्लानामतिचरणमुपलभ्य जिनधर्मपराहमुखी भवति तेषामवोधिस्तत्कुत इति स एवंभूतो महामोहं प्रकरोतीति पञ्चविंशतितमम् ॥ २५ ॥
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जे काहिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो । सव्वतित्थाय मेयाए, महामोहं कुव्व ॥ ३० ॥ यः कथा - वाक्यप्रबन्धशास्त्रमित्यर्थः, तर पायधिकरलानि कथाधिकरणानि कौटिल्यशास्त्रादीनि प्राण्युपमनवर्तकत्वेन तेषामात्मनो दुर्गतावधिकरणात् कथा वा क्षेत्राणि कृषि - गानरूपतेत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि । अथवा - कथा - राजकथादिका अधिकरणानि च] यन्त्रादीनि कलहा या कथाधिकरणानि तानि संयु पुनः पुनः, एवं सर्वतीर्थानां भेदाय संसारतरण करणात् तीर्थानि ज्ञानादीनि तेषां सर्वथा नाशाय प्रवर्तमानः स महामोहं प्रकरोतीति पविशतितमम् ॥ २६ ॥
जो अहम्मिए जोए, संपउंजे पुणो पुणो ।
य
सहाहेउ सब्बहे, महामोहं पकुष्वह ।। ३१ ।। व्यम् नवरम्-अधार्मिको योगनिमित्तवशीकरणादिप्रयो गः । किमर्थ श्लाघाहेतोः सर्वहेतोर्मित्रनैमित्त इत्यर्थः, इति सप्तविंशम् ॥ २७ ॥
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मोविजट्टाण
जो य माणुस्सए भोगे, अदुवा पारलोइए । तेऽतिष्पतो सायद, महामोहं पकुब्वइ ।। ३२ ॥ • मानुष्यकान् भोगान्, अथवा पारलौकिकान 'ते' इति विभक्तिविपरिणामत्वात् तेषु वा अतृप्यन् तृप्तिमगच्छन् आस्वादते-अभिलपति प्रथयति या स महामोहं प्रकारो तीति अष्टाविंशतितमम् ॥ २८ ॥
हड्डी खुद जसो बच्चो, देवाखं बलवीरियं ।
तेसिं श्रमयं वाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ ३३ ॥
ऋद्धिः विमानादिसम्पत् युतिः- शरीराभरणदीशिः, यशः कीर्तिः वर्णः - शुक्लादिः शरीरसम्बन्धी देवानां सम्यगडशाम् वैमानिकादीनां बलम् - शारीरं वीर्यम्-जीवप्रभवमस्तीस्वध्याहारः तेषामिह अपेम्यमानत्वात् तेषामपि देवानामनेकातिशायिगुणवतामवर्णवान् श्रश्लाघाकारी अथवाअवान् केनोओवेन देवानामृद्धिदेवानां युतिरित्यादि का का व्याख्येयं न किश्विदेवानामुत्यादिकमस्ति इत्यवर्णवादभावार्थः । यज्ञा-किममी कामग्रस्ता धर्मानुष्ठानं कर्तुमसममर्थाः अविरता इति कथनमपि महान् दोषः । तथा चोक्तम्" पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पकरैति, तं जहा - अरहंताणमवन्नं वदमाणे १, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मरस अयमाणे २ आयरियडभायाराम बदमा णे ३, चाउवन्नस्स संघस्स श्रवनं वदमाणे ४, विवक्कतवबंभचेराणं देवाणमवनं वदमासे ५, " तत्र पञ्चमपदव्याख्या'विपर्क सुपरिनिष्ठितं प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः तपश्च ब्रह्मचर्यच भवान्तरे येषां विपकं वा उद्यागतं तपो ब्रह्मचये
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( ४६५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
देवायुकादि कर्म येषां ते तेषामवर्णवाद बदन दुर्ल भोधितया कर्म करोति । तदेवम्-"न सम्येव देवाः कदाच नानुपलभ्यमानत्वात् किं वा ते विटेरिय काममनोभिरविरतैः, तथा निर्नाथैरचेप्रैश्च क्रियमाणैरिव प्रवचनकायनुपयोगित्यादिकम् " व पवंभूतः स महामोदं प्रकरो तीत्येकोनत्रिंशत्तमम् ॥ २६ ॥
अपरसमाग्री पस्सामि देवा जक्खा व गुज्झगा ।
पाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्व ॥ ३४ ॥ अपश्यपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादि । तत्र देवा वैमा निकज्योतिष्काः पचान्तरागुकाथ-भवनवासिनः तान् तान् स्वरूपेणाज्ञानी, जिनस्येव पूजामर्थयते यः स जिनपूजार्थी गोशालकवत् स महामोहं महामोदं करोतीति त्रिंशत्तमम् ॥ ३० ॥
साम्प्रतमुक्तरूपाणि मोहनीय स्थानानि उपसंहरन्नुपदेश सर्वस्वमाह
एते मोहगुणा वृत्ता, कम्मता चित्तवया ।
जे तु भिक्खु चरितवेस ॥ ३५ ॥ एन- अनन्तरोक्ताः मोहगुणाः, अथवा मोहानां गुणाः गु कारका मोहसम्बन्धं प्रतीति मोहगुणाः न मोक्षं प्रति यद् वा मोहाथ से मांगा मोहगुणाः प्रकृत्पद पः यथा-गुणेहिं - साहुगुणेहिं' इत्यादी, कथं भूताः ?, इत्याहकर्मता - कर्मकारणानि अथवा कर्मायेय अन्तःसा फलं येषां ते कर्मान्ताः, चित्तवर्धनाः - मोहरूपस्य चित्तस्य वर्धना वृद्धिकारणानि चित्त वा पाठ:: नापि १.१७
मोहनिद्वाण
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चित्तम्-संक्लेशरूपम् श्रशुभम् बन्धरूपं तद्वर्धनाः, तान् इत्यध्याहार्यम् जे या मोहप्रकारान् भिक्षुःउ त्ति यान् महात्मा वर्जयित्वा चरेत् संयमाध्यनि चरेत् वावरेत् क्षान्त्यादिकं दशप्रकारं धर्मम् कथंभूतः सन् अगवेसर' आप्ताः तीर्थकरा तेषां गवेषको नाम-तद्वचनानुसरणपरः श्राप्तगवेषकः, यद्वा श्रात्मानं गवेषयति, न परम् इत्यात्मगवेषकः संवेगपर आत्मचिन्तकः । पुनः कुर्याद् इत्याह
जं पि जाणे इतो पुत्रं किमाचिसं बहुं ज
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तं चत्ता ताणि सेवेजा, जेहिं आयारखं सिया || ३६ || यतः जानीयात् वक्ष्यमाणम् इतः - श्रस्मात्प्रव्रज्याकालात् पूर्व रुत्यम्-कुटुम्बपोषणसुतोत्पादनादिकम् ग्रत्वम्-चीरहननकूटतुला व्यापारपरयञ्चनादिकं बहु अनेक प्रकार ज स्वस्, तथा बहुजई नाम मातापित्राजितं त्य क्त्वा वान्त्वा वा तानि यथोचितानि सेवेत यैराचारवान् चारित्रवान् स्यात् भवेत्।
आयुगुत्तो उ सुद्धप्पा, धम्मे ठिचा अत्तरे।
बमे कम्मे सए दोसे, विसमासीविसो जहा ॥ ३७ ॥ आचारवानिति अध्याहार्यम् एवंविधश्च सन् या गुप्तो गुप्तियुक्तः, अथवा – आचारेण ज्ञानाचारादियुक्तः शुद्धःपापकृत्यपरित्यागेन आत्मा यस्यासौ शुद्धात्मा, धर्मे दशवि
ज्ञात्यादि स्थित्वा अनुतरे तो जीवः निर्मलस्वादेव वमेत्-त्यजेत् स्वीयान- आत्मीयान् दोषान् विष यकषायरूपान् कः ? किमिव श्राशीविषशे - विषमिव, यथासर्पों विषं त्यजेत् त्यक्त्वा वा न पुनरावर्तेत एवमसावपीति उपनयो व्यक्तः ।
स च यथाभूतो यच्चाप्रोति तदादसुवंतदोसे सुद्धप्पा, धम्मट्ठी विदितापरे । इहेव लभते किसिं, पेच्चाय सुगतिं चरिं ।। ३८ ॥ सुष्ट्वतिशयेन वान्तदोषः शुद्धात्मा धर्मः- धुतचारित्रलक्षणस्तस्यार्थो विद्यतेऽस्मिन्निति धर्मार्थी विदितं ज्ञातम् अपरं-मोक्षो येन स विदितापरः, अपरग्रहणात् पूर्वग्रहणमपिः दत्त इत्युक्ते, देवदत्तग्रहणवत् । स चैवंभूत इहैव लभते प्राप्नोति कीर्ति प्रशंसारूपाम् अथवा - कीर्तिमित्युपलक्षणमामपध्यादिकमवाप्नोति 'पेश्चाय' ति प्रेत्य परलोके सुगतिसुष्ठु गतिं मुक्तिरूपां लभते ।
उक्लोपसंहारमाहएवं अभिसमागम्म पूरा दडपरकमा सम्मोहविशिम्मुका, जातीमरणमिच्छया ।। ३६ ॥ एवम् - पूर्वोक्तप्रकारेण श्रवधारणे वा, अभिः - अभिमुख्ये सम् एकीभावे आद- मर्यादाऽभिविध्योः गम्सृपृ गतौ । सर्वे गत्यर्थाः धातवः ज्ञानार्था ज्ञेयाः । ज्ञात्वा गुणदोषानित्यर्थः शूराः तपसि परीपसहेन च पराकमाः समावृततपउपधानाद्यनुष्ठाननिर्वाहकात भञ्जकाः, अथवा ज्ञाननयकथनात् करणनयोऽपि गृहीतोऽत्र, ते चैवं कुर्वन्ति ततः किमस्य फलमित्युच्यते, 'सबमोहे चि सर्वमोह:- अकर्मप्रकृतिरूपः तस्माद्विशेषेण निगमतिशयेन मुयः या मिरचशेषो मोहो तो भवति
१
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( ४६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मोहणिज्जडाण
तदा कारणस्याभावात् कार्यस्याभावो भवति, तत्त्वाभावे तवकरणं मोहकार्यम्, जातिमरणे श्रतिक्रान्ते श्रतीते काले एवं सांप्रतागामिकालयोर्भावना कार्या । ब्रवीमि इति पूर्ववत् । दशा० ६ श्र० । श्रा० चू० । स्था० । प्रन० आ० ।
मोहविग्ग - मोहनीयवर्ग-पुं० । मोननीयप्रकृतिसमुदाये,
क० प्र० १ प्रक० ।
मोहतरु- मोहतरु-- पुं० । मोहस्तरुरिव अशुभपुष्पफलदानभावे न मोहतरुः । तरुरूपत्वेन विवक्षिते मोहे, पं० ० १ द्वार । मोहति मिच्छा- मोहचिकित्सा - स्त्री० । तपसा मोहक्षये, नि० चू० ४ उ० ।
मोहतिमिरंसुमालि -- मोहतिमिरांशुमालिन् - पुं० । मोहस्तिमरमिव मोहतिमिरं सद्दर्शनावारकत्वेन तस्यांशुमालीवांशुमा ली । मोहापनयनादादित्यकल्पे, पं० सू० ४ सूत्र । मोहद्दंसि - मोहदर्शिन् - पुं० । मोहं स्वरूपतो वेत्यनर्थपरित्या गरूपत्वात् ज्ञानस्य परिहरति च समानमपि पश्यति परिहरति चेति । मोहपरिशाशातरि, आचा० १ श्रु० ३ ० ४ उ० । मोहदुग- मोहद्विक-न० | दर्शनमोहनीयच्चारित्रमोहनीययुग्मे,
क० प्र०२ प्रक० ।
मोहदुगुंच्छा--मोहजुगुप्सा - स्त्री० । स्त्रीपरिभोगहेतुवेदादिमोहनीयनिन्दायाम्, पञ्चा० १ विव० । मोहद्धंतविणासिणी - मोहध्वान्तविनाशिनी - स्त्री० । अज्ञानतिमिरापहारिण्याम्, द्वा० २४ द्वा० । मोहपयडि - मोहप्रकृति - स्त्री० | मोहनीय कर्मभेदे, श्राव०५ श्र० मोहपसत्त- मोहग्रसक्त- त्रि० । विषयरक्ले, तं० । मोहपास-मोहपाश-पुं० । मोहरूपे बन्धनरज्जौ, “वेरग्गतिaarगेहि, छिदिउं मोहपासचं जे उ । गिरहंति महासता, श्रदिपियसंगमा दिक्ख" सङ्घा० १ अधि० १ प्रस्ता० । मोहभेसज - मोहभैषज्य न० । मोहचिकित्सने, बृ० १ ३० । मोहमहब्भयप (वट्ट) यट्ठय- मोहमहाभयप्रकर्षक- त्रि० । मोहोमूढता महाभयम् श्रतिभीतिस्तयोः प्रकर्षकः - प्रवर्तकः यः स मोहमहाभयप्रकर्षकः प्रवर्तको वा । अज्ञानभयजनके, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार ।
मोहमोहियमइ-मोहमोहितमति - त्रि० । मोहेन मोहिता मति र्यस्य स तथा । मुग्धेषु कामकीडासक्तेषु, प्रश्न०४ श्राश्र० द्वार । मोहर-मौखर–न० | मौखर्येण पूर्वसंस्तवपश्चात्संस्तवादिना बहुभाषित्वेन यल्लभ्यते तत् मौखरम् । उत्पादनादोषे, प्रश्न० ५ संव० द्वार। मुखर एव मौखरः । मुखरतया चाटुकरणतः श्रात्मानं पुत्रतयाऽभ्युपगमयति, स्था० १० ठा० ३ उ० । मोहरज - मोहराज्य - न० । मूढताप्रकर्षे, “ दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृ
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मोहोदय तभवश्च परार्थशून्य-स्त्वच्छासनप्रतिहतेषु न मोहराज्यम् । १।” आचा० १ श्रु० ५ ० ६ उ० ।
मोहरिय- मौखरिक - त्रि० । मुखमतिभाषणातिशयेन वदतीति मुखरः । अथवा - मुखेनारिमावहतीति निपातान्मौखरिकः । मुखरे, स्था०६ ठा०३३० । नानाविधासम्बद्धाभिधायिषु श्र० । ध० २० । “ मोहरिए सच्चवगणस्स परिमंधू " बृ० । मुखं प्रभूतभाषणातिशायि वदनमस्यास्तीति मुखरः; स एव मौखरिको- बहुभाषी विनयादेराकृतिगणत्वादिकण्प्रत्ययः । यद्वा-मुखेनारिमावहतीति व्युत्पत्त्या निपातनात् मौखरिकः । सत्यवचनस्य मृषावादविरतेः परिमन्थुः मौखर्ये सति मृषावादसम्भवात् । वृ० ६ उ० ।
( सच मौखरिकः 'कुक्कुइय' शब्दे तृतीयभागे ५७४ पृष्ठे गतः) (Haftarasvatदः' कप्प' शब्दे तृतीयभागे २३० पृष्ठे गतः ) मौखर्य - न० । मुखमस्यास्तीति मुखरोऽनालोचितभाषी वाचाटस्तस्य भावः कर्म वा मौखर्यम् । धाष्ट प्राये ऽसत्यासंबद्धापलापित्वे, अनर्थदण्डविरतेर्द्वितीयेऽतिचारे, अतिचारत्वं चास्य पापोपदेशसंभवात् । प्रव० ६ द्वार ।। पञ्चा० । ६० । ० चू० । मोहरियो मुद्देण श्रायरियाण । जहा कुमारा मध्ये रनो तुरियं किं पि कजं० जाव को सिग्धं श्रोहोजति । श्रा० चू० ४ ० ।
मोहली - मौखली - स्त्री० । महौषधिभेदे, ती० ६ कल्प । मोहविगारसमेय - मोहविकारसमेत त्रि० । मनोविभुमद्दोषसमन्विते, पो० ११ वित्र० ।
मोहविस - मोहविष - न० । विवेकचैतन्यापहारिणि विषे, पञ्चा० १४ विव० । मोहसता- मोहसंज्ञा स्त्री० । मिथ्यादर्शनरूपाद् मोहोदयात्संज्ञाने, आचा० १ श्रु० १ ० १ ३० । मोहसम-मोहशम-पुं० । मोहस्य मोहनीयस्य शमः शमक उपशमकः । उपशमश्रेण्यारूढे निवृत्तिवादरे, सूक्ष्मसंपरायेच । कर्म० ५ कर्म० ।
मोहावत्त-मोहावर्त -- पुं० । मोहो- मोहनीयं कर्म तदेवातिभ्रमिजनकत्वादावर्त्तत इत्यावर्त्तः, सोऽस्मिन्नस्तीति मोहावतः । मोहरूपावर्तसङ्कुले, दर्श० ४ तत्त्व । मोहिय-मोहित - त्रि० । मैथुनसेवां कुर्वति, रा० । निधुवने,
न० । ज्ञा० १ ० ६ ० ।
मोहुद्दाम - मोहोद्दाम - पुं० । सकलसमनप्लोषकत्वाद्दावानलकल्पे मोहे, प्रति० ।
मोहुम्माद - मोहोन्माद - पुं० । मोहजनिते उन्मादे, प्रति० । मोहुम्मायजणण - मोहोन्मादजनन - न० । कामोद्दीपके, उपा
५ श्र० ।
मोहोदय- मोहोदय- पुं० । क्लिष्टचिन परिणामे, पं०व० ४ द्वार ।
इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय-कलिकाल सर्वज्ञकल्पश्रीमद्भट्टारक - जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते 'अनिधानराजेन्द्रे ' मकाऽऽदिशब्द सङ्कलनं समाप्तम् ॥
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श्रीश्रभिधान राजेन्द्रः ।
रकार
र-र-अव्य० । पुं० । श्रयं वर्णः मूर्द्धस्थानीयः अन्तस्थः रा-ड । वह्नौ, उग्रे, कामानले, वाच० । सूर्ये, अग्नौ, धने, एका० । शिवे, वज्रे, कामे, नरे, रुवौ, श्राराधने, निधौ, पिण्डे, निरये च । एका० । जले, रोगे, वेगे, न० । एका० । विरसे, स्त्याने, तीक्ष्णे च । त्रि० । एका० । किलशब्दार्थे, दश० १ ० । पादपूरणे च । बृ० ३ उ० । व्य० । ग० । श्रा०
म० । श्रव० ।
रन-रच-धा० । प्रतियत्ने, चुरा० । पर० । रचेरुग्गाहा - ऽवहचिडविडाः ॥ ८ ॥ ४ ॥ ६४ ॥ इति श्रादेशत्रयाभावे, रश्रइ । रचयति । प्रा० ४ पाद ।
रजस्- न० धूली, " रेणू पंसू रो पराओ य
१३ गाथा ।
53 पाइ० ना०
रत्र - रजत - न० | क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक |८|१|१७७|| इति । जकारतकारयोर्लुक् । रश्रश्रं । रूप्यधातौ प्रा० । लुकि सति । श्रवर्णो यः श्रुतिः ॥ ८ । १ । १८० ॥ इति अकारौ यश्रुतिकौ । रययं । प्रा० । प्राकृते तु रश्रश्रमित्येव भवति । श्रदं तु-सौरसेनीमागध्योः । प्रा० १ पाद । रण - रत्न - न० | क्ष्मा-श्लाघा -रत्ने ऽन्त्यव्यञ्जनात् ॥ ८ । १। १०१ ॥ इत्यनेन तकारनकारयोर्मध्ये हस्वाकारः । प्रा० । माक्यादिप्रस्तरे, स्वस्वजातिषु श्रेष्ठे च । वाच० । रणिर- रजनिचर- पुं० । राक्षसे, चौरे, यामिकभटे च ।
प्रा० ४ पाद ।
रइ-रति- स्त्री० । रमणं रतिः । क्रीडायाम् श्राचा० १ श्रु० २ श्र० २ उ० । श्रा० म० । श्र० । उत्त० । सूत्र० । ज्ञा० । रा० ।
मानसे विकारे, श्राचा० १ ० ३ ० ३ उ० । श्रभीष्टपदार्थानामुपरि मनःप्रीती, प्रव० ४१ द्वार । मनोऽभिप्रेतवस्तुनःप्राप्तिजनितचित्तानन्दे, दर्श० १ तत्त्व । मन्मथवाञ्छायाम्, तं । दयिताङ्गसङ्गजनितायाम् (उत्त० १६ श्र०) मैथुनप्रीती, उत्त० १४० । विषयाभिष्वङ्गे, सूत्र० १० १६ श्र० । श्रासक्तौ चं० प्र० २० पाहु० । “एगा रई " रतिश्च तथाविधानन्दरूपा । स्था० १ ठा० । मोहनीयकम्मोदयजन्ये तथाविधानन्दरूपे विकारे, ध० २ अधि० । विषयेषु मोहनीयोदयाच्चित्ताभिरतौ, दशा० ६ श्र० । रुच्या कामभोगे, नि० चू० १ ३० । असंयमे प्रीती, उत्त० ६ श्र० । रम्यते अस्यामिति रतिः । स्पर्शनादिभोगजनितायां चित्तप्रहृत्ती, उत्त० ५. अ० । रम्यतेऽनयेति रतिः । कीडायाम्, दश० १ श्र० ।
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रतिवेदनीयकर्म्मणि : दश० १ चू० । उपचारात् रतिकारणे सुरतव्यापाराङ्गे ललनादौ, अनु० । रतिविषयगते ललनावगूहनादिके, आचा० १ श्रु० २ श्र० १ ३० । “ नग्नः प्रेत इवाविष्टः, क्वणन्तीमुपगृह्य ताम् । गाढायासित सर्वाङ्गः, स सुखी रमते किल ॥ १ ॥ " विशे० । प्रश्न० । पद्मप्रभस्य षष्ठजिनस्य प्रवर्त्तिन्याम् प्रव० ८ द्वार । स० । भूतानन्दस्य नाट्यनीकाधिपतौ पुं० । स्था० ५ ठा० २ उ० । मनोशेषु श्रसंयमे वा रमणं सा रतिः । श्राभ्यन्तरपरिग्रहे, बृ० १३० । रहाण - रचिताशन- न० । लोकोत्तररीत्या त्रयोदशतिथिदिने, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । रइकम्म- रतिकर्म्मन् - न० यदुदयेन सचित्ताचि त्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते - तस्मिन् कर्म्मणि, स्था० ६ ठा ३ उ० । रइकर - रतिकर - पुं० । नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वाऽऽदिकोणवर्तिषु स्वनामख्यातेषु पर्वतेषु, रा० । रइकरपव्वय-रतिकरपर्वत - पुं० : नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थितेषु पर्वतेषु, स्था० ।
रतिकरपर्वतवक्तव्यता-
गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल विक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपन्त्रता पत्ता । तं जहा- उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपव्वते, दाहिपुरच्छिमिल्ले रइकरगपव्वए दाहिणपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते, उत्तरपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्त्रए । ते णं रतिकरगपव्वता दस जीयणसयाई उडूं उच्चतेणं दस गाउयसताई उब्वेहेणं सव्वत्थसमा झल्लरिसंठा णसंठिया दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छच तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वरयणा मया, अच्छा ०जाव पडिरूवा । तत्थ गं जे से उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपव्वते, तस्स गं चउदिसिं ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउरहमग्गमहिसीणं जंबुद्दीवपमाणाओ चनारि रायहाणी सत्ताओ, तं जहा—दुत्तरा गंदा उत्तरकुरा देवकुरा, करहाते करहरातीते रामाए रामरक्खियाते । तत्थ णं जे से दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपव्वते, तस्स णं चउद्दिसिं सक्कस्स देविदस्स देवरभो चउरहम
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महिसणं जंबुद्दीवपमाणातो चत्तारि रायहाणीओ पपताओ, तं जहा - समणा सोमणसा अच्चिमाली मणोरमा पउमाते सिवाते सतीते अंजूए । तत्थ णं जे से दाहिणपश्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते तत्थ गं चउद्दिसिं सक्कस्स देविदस्स देवरनो चउरहमग्गमहिसीणं जंबुद्दीवपमाणमेत्तातो चारि रायहाणी सत्ताओ, तं जहा-भूता भूतवडेंसा गोधूभा सुदंसणा, अमलाते अच्छराते यवमिताते
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(४६) रहकरपव्यय अभिधानराजेन्द्रः।
रहवका रोहिणीते । तत्थ णं जे से उत्तरपच्चथिमिल्ले रति-रइप्पिया-रतिप्रिया-स्त्री०। किन्नरस्य किन्नरेन्द्रस्य अग्रमकरगपध्वते तत्थ णं चउद्दिसिमीसाणस्स देविंदस्स हिष्याम् , शा. २ श्रु०४ वर्ग १ अ०भ० । पूर्वोत्तरजन्मकथा देवरमो चउराहमग्गमहिसाणं जंबुद्दीवप्पमाणमित्तातो च- 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १७१ पृष्ठे उक्ता) त्तारि रायहाणीमो पपत्ताओ, तं जहा-यणा रतणु-रइमंदिर-रतिमन्दिर-न० । रतिक्रीडागृहे, “सोवणयं रहमच्चता सब्बरतणा रतणसंचया वसूते वसुगुत्ताते वसमि-| दिरं " पाइ० ना० १०८ गाथा । ताते वसुंधराए । (सू० ३०७)
रहमेल्ल-देशी-अभिलषिते, दे० ना०७वर्ग ३ गाथा। बहुमध्यदेशभागे-उक्तलक्षणे विदिख-पूर्वोत्तराद्यास रतिक-रइमोहणिज्ज-रतिमोहनीय-नका यदुदयात्सनिमितमनिमित्तं रणादतिकराः,४ राजधान्यः क्रमेण कृष्णादीनामिन्द्राणीना- वा बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु जीवस्य रतिः प्रमोदो भवति । मिति, तत्र दक्षिणलोकार्द्धनायकत्वाच्छक्रस्य पूर्वदक्षिणदक्षि- मोहनीयकर्मणि, कर्म०६ कर्म । पं० सं०। णापरविदिग्द्वयरतिकरयोस्तस्येन्द्राणीनां राजधान्य इतरयो- रइय-रचित-त्रि० । निर्मिते, न्यस्ते, शा०१ श्रु० १ अ। रीशानस्योत्सरलोकार्दाधिपतित्वात् तस्येति,एवञ्च नन्दीश्वरे
पश्चा० । औ० । स०। रा०। विहिते, औ०। रचितमौहेद्वीपे अजनकदधिमुखेषु४-१६विंशतिर्जिनायतनानि भवन्ति,
शिकादिभेदाद्यन्मोदकचूर्मादि पुनर्मोदकतया कूरदध्याअत्र च देवाः चातुर्मासिकप्रतिपत्सु सांवत्सरिकेषु चान्येषु च। बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाह्निका महिमाः
दिकं वा यत्करम्बकादितया विरचितं तद्रचितमित्युच्यते।
औ० । रा० । रचितं नाम-संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादी कुर्वन्तः सुखं सुखेन विरहन्तीत्युनं जीवाभिगमे, ततो यद्य
मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यन्जनानि बहुविधानि स्थान्यान्यपि तथाविधानि सन्ति सिद्धायतनामि तदा न बिरोधः, सम्भवन्ति च तानि उक्तनगरीषु विजयनगर्यामिवेति,
प्यन्ते । औद्देशिकतया विरचिते भक्तादी, व्य०३ उ० । तथा दृश्यते च पश्चदशस्थानोद्धारलेश:-" सोलसदहिमु
रतिद-त्रि० । रम्ये, सुखप्रदे च । जी० ३ प्रति०४ अधिक। हसेला, कुंदामलसंखचंदसंकासा । कणयनिमा बत्तीसं, र- | ज्ञा। औ० । रा० । प्रश्न । करगिरि बाहिरा तेसि ॥१॥" द्वयोर्द्धयोर्वाप्योरन्तराले | रइय(य)भोइ-रचितकभोजिन-पुंरचितकं नाम कांस्यपात्राबहिःकोणयोः प्रत्यासी द्वौ द्वावित्यर्थः, " अंजणगाइगि
| दिदेयबुद्धया वैचित्र्येण स्थापितं तद् भुक्के इत्येवंशीलो रीणं, हाणामणिपजलतसिहरेसु । बावन्नं जिणणिलया,
रचितकभोजी । धातुपात्रभोजिनि साधौ, व्य०१ उ० । मणिरयणसहस्स कूडवरा ॥१॥" इति, तत्त्वन्तु बहुश्रुता विदन्तीति पतच पूर्वोत्रं सर्वे सत्यं जिनोक्लत्वात् । स्था० ४
रहल्लिय-रजस्वल-त्रि० । रजोयुक्त, भ०८ श०३ उ०। ठा०२ उ०।
रइवंत-रतिमत-पुं०। रतिः कामप्रिया विद्यतेऽस्येति रति__रतिकराणामुच्चत्वादिवक्तव्यता
मान् । कन्दर्प, तं। सव्वे विणं रहकरगपव्वया दस जोयणसयाई उड्छं उच्चत्ते
रहवका-रतिवाक्या-स्त्री० । रतिकारकाणि-रतिजनकानि
तानि वाक्यानि येन कारणेनास्यां चूडायां तेन निमित्तेन णं दस गाउयलयाई उव्वेहेणं सव्वत्थसमा झल्लरिसंठिया
रतिवाक्याएषां च रतिकर्तृणां वाक्यानि यस्यां सा रतिवादस जोयणसहस्साई विखंभेणं परमत्ता। (सू० ७२५)
क्या । रतिजनकवाक्यदोषप्रतिवद्धायां चूडायाम् , दश। रतिकरा नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थिताः चत्वारश्चतु:
प्रथमा रतिवाक्यचूडा, अस्याश्वानुयोगद्वारोपन्यासः। पूर्वस्थानकाभिहितस्वरूपाः । स्था०१० ठा०३ उ०। द्वी। जी।
वत्तावद्यापनामनिष्पन्न निक्षेपे, रतिवाक्येति द्विपदं नाम , ( रतिकरपर्वतामामुश्चत्वाविवक्तव्यता ' अंजणग' शब्दे
तत्र रतिनिक्षेप उच्यते-तत्रापि नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यप्रथमभागे ४६ पृष्ठे विस्तरतो गता)
भावरत्यभिधित्सयाऽऽहरहगेली-देशी-रतितृष्णेति केचित् । दे० ना०७ वर्ग ३ गाथा ।
दब्वे दुहा उ कम्मे, नो कम्मरई असद्ददव्वाई । रहणाह-रतिनाथ-पुं०। कामदेवे, 'मयरद्धी अणंगो, राणा
भावरई तस्सेव उ, उदए एमेव अरई वि ।। ३६२ ॥ हो वम्महो कुसुमबाणो"। पाइ० ना०७ गाथा ।
द्रव्यरतिः-आगमनोभागमशशरीरेतगतिरिका द्विधा, कर्मरइतरंगा-रतितरङ्गा-स्त्री० । तरङ्गनन्दननामराजस्य भार्या
द्रव्यरतिः, नोकर्मद्रव्यरतिश्च । तत्र कर्मद्रव्यरती रतिवेदनीयाम् , दश०५ १०१०।
यं कर्म, एतच्च बद्धमनुदयावस्थं गृह्यते , नोकर्मद्रव्यरतिरहप्पभा-रतिप्रभा-स्त्री० । किन्नरेन्द्रस्य अनमहिन्याम् , स्तु शब्दादिद्रव्याणि, आदिशब्दात्-स्पर्शरसादिपरिग्रहः । किनरस्सणं किमरिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीनो परम
रतिजनकानि-रतिकारणानि । भावरतिः । तस्यैव तु'
रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये भवति , एवमेवारतिरपि दताभो । तं जहा-बडेंसा, केतुमती, रतिसेणा , रति
व्यभावभेदभिन्ना यथोक्करतिप्रतिपक्षतो विक्षेया इति गाप्पभा । (सू० २७३) स्था० ४ ठा० १ उ० । थार्थः । उक्का रतिः। रइप्पिय-रतिप्रिय-पुं० । किन्नरेन्द्र, नयमे किन्नग्मेदे च ।
इदानीं वाक्यमतिदिशन्नाहप्रहा.१ पद।
वकं तु पुब्बभणिअं, धम्मे रडकारगाणि वकाणि ।
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( ४६६ अभिधान राजेन्द्रः ।
रहवका
जेण मिमीए तेणं, रहबक्के सा हवइ चूडा ।। ३६३ ॥ वाक्यं तु पूर्वभणितं - वाक्यशुद्धयध्ययनेऽनेकप्रकारमुक्तम् धर्मे - चारित्ररूपे रतिकारकाणि - रतिजनकानि तानि च वाक्यानि, येन कारणेन अस्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रति कर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्या इति गाथार्थः ।
इह च रत्यभिधानं सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्योपदर्शनार्थम् । आह च
जह नाम आउरस्सिह, सीवणछेत्रेसु कीरमाणेसु । जंतणमपत्थकुच्छाss - मदोसविरई हिमकरी उ || ३६४॥ यथा नामेति - प्रसिद्धमेतत् श्रातुरस्य - शरीरसमुत्थेन श्रागन्तुकेन वा वणेन ग्लानस्य इह लोके सीवनच्छेद्येषु -सीवनच्छेदनकर्मसु क्रियमाणेषु सत्सु ---किमित्याह-यन्त्रणं गलयन्त्रादिना अपथ्यकुत्सा - अपथ्यप्रतिषेधः श्रामदोषविरतिः- श्रजीर्णदोषनिवृत्तिः हितकारिरायेव विपाकसुन्दरत्वादिति गाथार्थः ।
दान्तिक योजनामाह
अट्ठविहकम्मरोगा - उरस्स जीवस्स तह तिमिच्छाए । धम्मेर धम्, र गुणकारिणी होइ || ३६५॥ अष्टविधकर्मरोगातुरस्य - ज्ञानावरणीयादिरोगेण भावग्लानस्य जीवस्य - श्रात्मनः तथा तेनैव प्रकारेण चिकित्सायाम्-संयमरूपायां प्रक्रान्तायामस्नान लोचादिना पीडाभवेऽ पि धर्मे श्रुतादिरूपे रतिः - श्रासक्तिः श्रधर्मे - तद्विपरीते श्ररतिः - अनासक्तिः गुणकारिणी भवति, निर्वाणसाधकवेनेति गाथार्थः ।
एतदेव स्पष्टयतिसज्झायसंजमतवे, वेयवच्चे अ झाणजोगे | जोरम नो रम असं-जमम्मि सो वच्चई सिद्धिं ॥ ३६६ ॥ स्वाध्याये - वाचनादौ संयमे - पृथिवीकाय संयमादौ तपसि - अनशनादौ वैयावृत्ये च श्राचार्यादिविषये ध्यानयोगे चधर्मध्यानादौ यो रमते - स्वाध्यायादिषु सक्त श्रास्ते, तथा न रमते-न सक्क श्रास्ते असंयमे प्राणातिपातादौ स व्रजति सिद्धि गछति मोक्षम् । इह च संयमतपोग्रहणे सति स्वाध्यायादिग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः । उपसंहरन्नाह—
तम्हा धम्मेरइका-रगाणि रइकारगाणि उ (य) अहम्मे । ठाणाणि ताणि जाणे, जाई भणियाइँ अज्झयणे ।। ३६७।। तस्मात् धर्मे चारित्ररूपे रतिकारकाणि - रतिजनकानि अरतिकारकाणि च - श्ररतिजनकानि च श्रधर्मे असंयमे थानानि तानि वच्यमाणानि जानीयात् : यानि भणितानि प्रतिपादितानि इह अध्ययने प्रक्रान्ते इति गाथार्थः । उक्को नामनिष्पन्नो निक्षेपः । दश० १ चू० । रइसेट्ठ - रतिश्रेष्ठ - पुं० | किन्नरभेदे, प्रशा० १ पद । रइसेणा - रतिसेना- स्त्री० । किन्नरस्य श्रग्रमहिष्याम् स्था०
४ ठा० १ उ० । भ० ।
रउग्घाय- रजउद्धात - पुं० । रजस्वलासु दिक्षु, यासु समन्ततो धार इव दृश्यते । व्य० ७ उ० भ० श्रावण | महासंधा११८
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रोहरण
वारगमनसमुद्धता इव विश्वसा परिणामतः समन्तात् रेणु - पतनं रउग्घातो भरणति, श्रहवा एस रउग्धाओ पुण पांसु रता भरणति । नि० चू० १६ उ० । श्रा० चू० । रोहरण-रजोहरण - न० । बाह्यम्, श्रभ्यन्तरं च । रजो हियते श्रनेनेति रजोहरणम्, तत्र बाह्यरजोऽपहारित्वमस्य सुप्रतीतम्, श्रान्तररजोऽपहरणसमर्थश्च परमार्थतः संयमयोगस्तेषां च कारणमिदं धर्मलिङ्गमिति कारणे कार्योपचाराद्वजोहरणमित्युच्यते । पिं० । रजो हियते अपनीयते येन तद्वजोहरणम् । स्था० ५ ठा० ३ उ० । पं० व० । ( रजोहरणशब्दार्थः ' पवज्जा' शब्दे पञ्चमभागे ७४६ पृष्ठे गतः ) प्रव० १ द्वार। पादपोछने, पञ्चा० १० विव० । रजोहरणप्रमाणम्
वत्तीसंऽगुलदीहं, चउवीसं अंगुलाई दंडस्स ।
सदसापडिपुष्पं, रयहरणं होइ माणेणं ।। ८१४ ॥ द्वात्रिंशदकुलदीर्घ रजोहरणं भवति सामान्येन, तत्र चतुर्विशतिरङ्गलानि दण्डस्य, तस्य रजोहरणस्य शेषाः अष्टाङ्गुला दशाः प्रतिपूर्ण सह पादपुननिषद्यया रजोहरणं भवति मानेन - प्रमाणेन इति गाथाऽर्थः ॥ पं० व० ३ द्वार । ध० । रजोहरणस्वरूपमाह घणं मूले थिरं मज्झे, अग्गे मद्दवजुत्तया । एगंगिये सिरं, पोरायामं तिपासियं ।। २६२ ॥ मूले - हस्तग्रहणप्रदेशे रजोहरणं धनम् - निविडवेष्टितम् । मध्ये-मध्यभागे स्थिरम् - दृढम् अग्रे दशिकापर्यन्ते मादेवयुक्तता, दर्शिका मृदुस्पर्शा विधेया इत्यर्थः । एकाङ्गिकं नाम तज्जातदशिकं नवाद्यादिखण्डनिष्पन्नम् श्रज्भुषिरम्-न रोमबहुलं, न वा ग्रन्थिलम्: 'पोरायामं' ति पर्वायामम् अकुष्ठपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या यावत्तदपान्तरालं तावत्प्र माणायामम् 'तिपासियं' ति त्रिभिर्दवरकवेष्टिकैः पाशितं बद्धम्, एवंविधं रजोहरणं कर्त्तव्यम् ।
इदमेव स्पष्टतरमाह - अप्पोलं मिदुपए, पडिपुत्रं हत्थपूरिमं ।
तिपरियल्लमणीस, रयहरणं धारए मुणी || २६३ ॥ eढवेष्टनादस्य शिरः दण्डं वा, तथा मृदूनि कोमलानि पचमाणि-दशिकारोमाग्रभागरूपाणि यस्य तम्मृदुपदमकम् । प्रतिपूर्ण बाह्येन निषद्याद्वयेन युक्तं, हस्तपूरिममेव यथा हस्तं पूरयति तथा कर्त्तव्यमित्यर्थः । त्रिपरिवर्त - श्रीन् वारान् वेष्टनीयम्, अनिसृष्टं नाम हस्तप्रमाणादवग्रहा दस्फेटितम् एवंविधं रजोहरणं मुनिर्धारयेत् ।
.
उन्नियं उट्टियं चेव, कंबलं पायपुंछ । रयणी माणमित्तं, कुजा पोरपरिग्गहं ॥ २६४ ॥
किम् - ऊर्णमयम् श्रष्ट्रिकं वा उष्ट्र रोममयं यत्कम्बलं तत्पादप्रोञ्छनं रजोहरणं कर्त्तव्यम्, रत्निप्रमाणं - हस्तप्रमाणायामं दण्डकं, पर्वपरिग्रहम् अङ्गुष्ठपर्वलग्नप्रदेशिनी शुषिरपूरकम् एवंविधं रजोहरणं कुर्यात् । वृ० ३ उ० । पञ्च रजोहरणानि । सूत्रम् -
कपर निरगंथाण वा ग्गिंथीण वा इमाई पंच रयहरणाई धारितए वा परिहरितए वा तं जहा - उलिए य उट्टिए
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( ४७० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
रोहरण
सागर वच्चयपिप्पए मुंजविप्पए नाम पंचमे ॥ ३० ॥
अथास्य सम्वन्धमाह
उदितो खलु उकोसो, उबहिं मज्झिममिदाणि वच्छामि । संखा व एस सरिसी, पाउंड सुत्तसंबंध ।। २७५ ।। उदितो भणितः खलु अनन्तरसवे और्थिको मौलिककल्परूप उपधिः, इदानीं तु मध्यम उपधिः - रजोहरणलक्षणमहमस्मिन् सूत्रे वक्ष्यामि । यद्वा अनयोः सूत्रयोर्या पञ्चलक्षणा सङ्ख्या एषा सदशी वस्त्राणां रजोहरणानां च तुल्या, अत इदं पादप्रोञ्छनं रजोहरण तद्विषयं सूत्रमारभ्यतेः एप सम्वन्धः, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य ( सूत्रस्य ३०) व्याख्याकल्पते निन्यानां निग्रन्थीनां इमानि पञ्च रजोहरणानि धारयितुं वा परिहर्तुं वा । तद्यथेत्युपदर्शनार्थः । श्रर्णिकम् ऊर्णिकानाम्, ऊर्णाभिर्निर्वृत्तम् किम् । उपरोमनिर्वृत्तम् श्रौष्टिकम्, सानकं सनवृक्षजातम् । वल्कलाजातं बल्कलस्ट विशेषस्तस्य 'विष्पकः' कुट्टितस्त्वग्रूपः तेन निष्पन्नं वल्कलविष्पकम् मुञ्जः शरस्तम्वस्तस्य विष्पकाद्यातं पुञ्जविष्पकं नाम पञ्चमम् इति सूत्रार्थः ।
अथ भाष्यविस्तरः
1
अभंतरं च ब हरति रयं तेरा होइ स्वहरणं । तं उम्म उट्टि सायं वचयविष्पं च मुंजं च ॥ ३७६ ॥ यस्माद् श्रभ्यन्तरं वाह्य च रजो हरति तेन रजोहरं भवति । तत्र यद्वा रजो हरति तदाभ्यन्तरं कथं पुनरपह रतीति, उच्यते रजोदरशेन प्रमार्जित भूमा आदाननिक्षेपाद्रयः संयमापारा विधीयन्ते अकर्मरूपमा भ्यन्तरं रजो हरति, अतः कारणे कार्याध्यारोपं विधाय सद्याभ्यन्तररजोहरने उ " संजमजोगे रोहरा तेसि कारणं जेणं । स्यहरणं उपयारा, संजम भन्नइ रकम्" तथ थिमीकि किस शान वञ्चकचिप्पकम, मुखविष्पकं चेति । तत्राद्यानि त्रीणि सुप्रसिद्वानि, अन्त्यद्वयं व्याख्यानयतिचकमुझे कति विष्पितुं तेहि भूयए गोणी । पाउरयत्थरयाणि य करेंति दोमं ममास ॥ ३७७ ॥ क्वचिद्धर्म्मच भूमिकादौ देशे यच्च दर्भाकार तृविशेष मुजे शरस्तच प्रथमं चिकिया बिन्दा तदीयां यः क्षेोस्त कत्तयन्ति नतस्तै सबै असश्च गोणीवारका भूयते प्रास्तानि च देश-देशविशेषमासा कुर्वन्ति, अनिष्पर्ण जोहर वचक मुकिं वा भण्यते ।
।
रहरणमगम, परिवाडीए व होति गहणं तु । उप्परिवाडीगहणे, अनि मासि लहु ।। ३७८ ।। रजोहरणपञ्चकस्यानन्तरोक्तस्य परिपाटिकया ग्रहणं भवति व्यत्ययपरिपाख्यातु आपने मासिकं लघुकम् । का पुनः परिपादिरित्याह
1
तिचिहोमि असई, उट्टियमादी महाधरणं तु । उपपरिवाडीगहणे, तत्थ वि सहाणपच्छितं ॥ ३७६ ॥ यथा कृतादिशत्रिमिती यथा कृत लाभवर्गः प्राग्वत् द्रष्टव्यः । अधोर्षिकं न प्राप्य
aa
रोहरण कादीनामपि चतुर्णा यथाक्रमं ग्रहणं धारण वा कर्त्तव्यम् । अथोर परिपाटया यथोक्तव्यत्यासेन ग्रहणं करोति ततस्तत्राऽपि स्वस्थानं प्रायश्वितं मध्यमोपधिनिष्पनं लघुमासिकमिति भावः ।
पन
लकाः
आह- किमर्थं प्रथममौलिकं स्तूयतेउट्टणा कुत्थंती, ओल्ला रयरेसु मुद्दवं णत्थि । तेोमयं पत्थं असतीए उक्कम्मं कुजा || ३८०|| 'उट्टसरा 'त्ति उष्ट्रिकसणकरजोहरणके वर्षाकाले व्यवधारितवृष्टिकायेनार्द्रीभवने सति कुध्यतः, ततश्च कसम्मूर्छनादयो दोषाः, प्रमार्जनाकार्य च न भवति । अधाणाऽपि प्रमाजने कृते सति दशिकान्तेषु गोप्रतियध्यन्ते । मलिनीभूते च तत्राप्कायवियोमार्दवं नास्ति, स्वभावत एव कठिनत्वात् तेन कारणेराधना तथा इतरयोर्वप्यकमुजविष्यकारजोहरणनौकर जो हर समष्टिकादिभ्यः प्रशस्तम् । श्रर्थिकस्यासत्यभावे उत्कर्म कुर्यात् श्रष्ट्रिकादीम्यपि यथालाभ गृह्णीयादिति भावः ०२४० स्था० (द्वितीयरजोहरप्रयोजनम् उपदिशब्दे द्वितीयभागे २०६६ पृष्ठे दर्शितम् ) " जन्तवो बहवः सन्ति, दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्यः स्मृतं दयार्थ तु, रजोहरणधारणम् ||१||" उत्त० ३ ० । ० । रजोहरी दारुदकं गृहीयात् सूत्रम्
4
जे भिक्खु दारुदंड पायपुंगवं गिरहद्द गिरहंतं वा साइज ।। १ ।।
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5
जेत्ति - गिद्दे से भिक्खू - पूर्वोक्तः दारुमत्रो दंडो जस्स तं दारुदंडयं पादे पुंछति जेण तं पाउपुंछ, वा पट्टो य निसिजयजियं रथीहरणमित्यर्थः ।
तं जो करे करते वा साइज ।। २ ।।
तं जो करेति करतं वा सातिजति तस्स मासलहुं षच्छित्तं, एस सुत्तत्थो । एयं पुरण सुत्तं श्रववातियं । दावित्थरो गाहा
,
पाउंछणगं दुविधं उस्सग्गियमाववातियं चैव । एकेक पि यदुविधं व्यापात वाघानं ॥ ४ ॥ पाउंछ-- श्री हरणं तं दुविधं - उस्सग्गियं, श्राववातियं च उस्सग्गियं द्विविधं व्यापातियं वाघातियं च । आवासिय च दुविधं विघातितं वाघातितं च । एतेसिं वक्वाणमियां भसति । गाहाजं तं सिध्यायानं तं एवं उमियं तु गाव बाघातडियं पुरा म पप्पय मुंजविष्यं च ॥ ५ ॥ जं उस्सग्गियं णिव्वावातितं तं एवं ति उमियं भवति । इयालि उस्सगोयापातियं भगति तस्सेव थ गाओ दिसाम्रो असति तस्सेव उदसाओ, असति तस्सेवाओ सिस्से ददसाओ। विदर्भानिर्भवति । अतिरसे मुं दिसाथ नया बिगिन्ति वा कुट्टितो ति या एगई। अनि रिस उनि पट्टो एगंगदोषगंगासति उपादि उसका या सगादिपनि उदिखाओ काव्या । एते उग्गाचा प्रकारा अभिहिता इत्यर्थः ।
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रोहरण अभिधानराजेन्द्रः।
रोहरण इदाणीमववातिक द्विविधं भरणति-गाहा
पट्टए उस्मियादिदसा णेया। वञ्चगे वि एगंगियं उरिणयाअहवा तं तधहेवा, तण उवरिं दारुदंडगं होति । । दिदसा सव्वा कारेयब्बा , एवं मुंजादिसु वि । गवरं पेवाघाते अतिरेगो, इमो विसेसो तहिं होति ॥६॥
च्छे पट्टयं ण भवति । चोदक श्राह-गणु सणवच्चगादिजहा उम्सग्गितं णिवाघातं ओरिणयं, सवाघातितं च उ
पट्टगेसु कोसेजपट्टगादिदसा अणाइम्मा ? श्रायरियाऽऽह ता ट्टादिदसं भणियं अववातिकं तथा वक्तव्यमित्यर्थः। रोहरण
एव वरं ण दारुदंडयं पादपुंछणं । कहं ? जतो दारुदंडे य बपट्टयं दुणिसेजवजियं दारुदंडयमेव तं भवति । उस्सग्गिय
हु दोसा।
के य ते दोसा?-इमेअववातितवाघाते अइरेगो इमो, अण्णो वि दसाविसेसो भवति ।
इहरह वि ताव गरुयं, किं पुण भत्तोग्गहे अहव पाए । गाहा
भारे हत्थुवघातो, पडमाणे संजमा ताए ।॥ १३ ॥ उवरिनं मुंजयसा, कोसेज य पट्टपोत पिच्छे य । इहरहे त्ति विणा भत्तपाणण स्वभावेन गुरुरित्यर्थः, किसंबद्ध वि य तत्तो, एस विसेसो तु वाघाते ॥ ७॥ । मित्यतिशये , पुण-विशेषणे । जदा पडिग्गहे भत्तं वा रोहरणपट्टे दारुदंडे वा मुंजदसा भवति, मुंजदसाऽसति
पाणं वा गहितं तदा पुव्वगुरु ततो गुरुतरं भवतीत्यर्थः । कोसेज्जदसा, कोसेजो-बडो भएणति । तस्सासति दुगुल्ल
गुरुत्वात् हस्तोपघातः । पडमाणं गुरुत्वात् जीवोपघातं कपट्टदसा, तस्सासति पोत्तदसा, पोत्तदसासति मोरंगपिच्छ- रोति । पादोवरि पातोऽवघातं वा । चसद्दा-प्राणादो दो. दसा संबद्धे विय तत्तो ति ततः कोसेतगादिविगप्पेसु वि सं. सा, तम्हा-दारुदंडगं पायपुंछण न गेरिहयव्वं । कारणबंधासंबंर्धावकप्पेण रोहरणविकप्पा कार्याः। श्राद्यभेदा- ओ गेरहेज्ज। नामभावादित्यर्थः ।
इमे य ते कारणाचतुर्भङ्गार्थनिरूपणार्थ गाथाद्वयमाह
संजमखेत्तयथोवा, अद्धाणादिसु हिते विणढे वा । जं जं णिवाघातं, एगं तं उमियं तु घेत्तन्वं । पुव्वुत्तस्स उ गहणं, उमिदसा जाब पिच्छं तु॥१४॥ उस्सग्गियवाघातं, उट्टिय-सण-पप्प-मुंजं च ॥८॥ जत्थ श्राहारोवहिसेजा काले वा सति ततो अविरुद्धो यत्थ पूर्वार्द्धन प्रथमभाङ्गार्थः, पश्चार्द्धन द्वितीयभङ्गार्थः । उवही लब्भति तं संजमखेत्तं । तो असिवादिकारणेहिं बुगाहा
त्ता । सेस कंठं। णिव्बाघातऽववादी, दारुगदंड उप्पियाहि दसियाहि ।
तस्स इमो दंडोअववातियवाघातं, उट्टिय-सण-पप्प-मुंजदसं ॥६॥
वेणुमओ वित्तमओ, दारुमत्रो वा वि दंडगो तस्स । पूर्वार्द्धन तृतीयभङ्गार्थः, पश्चाद्धेन चतुर्थभङ्गार्थः । एवमेते
रयणीपमाणमेत्तो, तस्स दसा होति भइयव्वा ॥१५॥ चउरो भङ्गा विशेषार्थदर्शनार्थमर्थेनाभिधानप्रकारेण प्रद-| दसा तस्स भेजा, कथं-यद्यसौ बयोविंशाङ्गुलस्तदा पवा. यन्ते ।
कुला दसा । अथासो चतुर्विशाङ्गुलस्तदा अष्टाङ्गुला दसा । गाहा
यद्यसी पञ्चविंशाङ्गुलस्तदा सप्ताङ्गला दसा, दंडदसाभ्याम् अहवा उसग्गुसग्गिय, चउस्सग्गो य अववातं ।।
अहो कतमे द्वितीयभजनीयमित्यर्थः । अहवा उस्सग्गं वा, अववाअोवाइयं चेव ॥१०॥
गाहाउस्सग्गियर्याणव्याघातादि चउरो जे भेया त एव चतुरः तं दारुदंडयं पाद-पुंछणं जो य कारए भिक्खू । उत्सर्गोत्सर्गादि द्रव्याः । प्रथमद्वितीयभङ्गप्रदर्शनार्थ तृती- सो आणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ १६ ॥ यचतुर्थभङ्गप्रतिषेधार्थ च इदमाह
कंठा। गाहा
गाहाएगंगि उस्मियं खलु, असती तस्स दसिया उ ता चेव ।। णद्वेहि तवस्सरिते, भामियछूढे तहेव परिजुम्मे । तत्तो एगंगोट्टी, आमियउट्टियदसा तस्स ॥ ११॥ । असती दुल्लभपडिस्स, ततो य जतणा इमा तत्थ ॥१७॥ संबद्धदमागं जं तं उस्सग्गितं, इदाणी उस्सग्गाववा
उस्सग्गियस्स पुव्वं, णिव्याघाते गवेसणं कुजा । तितं भराणति । असति संबद्धदसागस्स उरिणए पट्टए उ
तस्सासति वाघातिम, तस्सासति दारुदंडगए ।। १८ ॥ गिरणयदसा लातिजति. तस्सासति एगगिय उट्टिय. तस्सासति उट्टियपट्टए उरिणयदसा, तस्सासति उट्टियपट्टए
तम्मि वि णिव्याघाते, पुन्यकतो चेव होति वाघाते । उट्टियदसा, तस्मासति उगिणयपट्टए सणादिदसा, सव्वा असती पुबकयस्स तु, कप्पति ताहे सयंकरणं ॥१९॥ गया जो भरागति।
तम्मि वि श्राववातिते णिवाघातिते पुवकए गहणं ।जे भिगाहा
क्खू धरेति गहियं अपरिभोगेन धारयति । एवं सण पप्प मुंज, विप्पिते कोसपट्टद्गल्ले य ।
दारुदण्डकं रजोहरणं वितरति परिभाजयति पोत्तो पच्छा य तहा, दारगदंडे तहा दोसा ॥ १२ ॥
धरति च । सूत्राणिअसति उरिणयपट्टयस्स उट्टियपट्टए सणादिदसा सव्वा
जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं वियरइ वियरंतं वा गया। उष्ट्रियपट्टासति सणयं एगंगियं, तस्सासति सण- साइजइ ।। ३॥
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( ४७२ ) रोहरण अभिधानराजेन्द्रः।
रोहरण जे भिक्खू अण्णमएणस्स वियर-अन्योन्यस्स साधोहणं | बितियम्मि सुत्तवजंततियम्मि तु दो वि वज्जेआ॥२६॥ प्रतिपुढे वियरति । ग्रहणानुक्षां ददातीत्यर्थः। सूत्रम्- बितियं अवयाउस्सग्गिय, ततिय अववाताववातितं । जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं परिभाएइ परिभावेयंत
गाहावा साइजइ ॥४॥
चत्तारि अधाकडए, दो मासा होंति अप्पपरिकम्मे । जे भिक्खू परिभाएति त्ति नयनं दानमित्यर्थः ।
तेण पर वि मग्गेजा, दिजयमासं सपरिकम्मं ।। २७ ।। सूत्रम
एवं वि मग्गमाणे, जदि अम्मं पादपुंछसं न लभे । जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं परिभुजइ परिभुजतं तं चेव णु कड्डेआ, जावऽम ण लब्भती ताव ॥ २८॥ वा साइजइ॥ ५॥
पूर्ववत्।
गाहाजे भिक्खू परि जति, परिभोगो तेन कार्यकरणमित्यर्थः।
एसेव कमो णियमा, समणीणं पादपुंछणे दुविधो । गाहाएसेव गमो णियमा, गहणे धरणे तहेव य वियारे।।
णवरं पुण णासत्तं, कुञ्जति चप्पदंडओ तासिं ॥ २६ ॥
दुविहं उस्सग्गिय अववातितं च । तासिं डंडए च विसेपरिभायणपरिभोए, पुवे अवरम्मि य पदम्मि ॥२०॥।
सो-हत्थकम्मादिपरिहरणत्थं चप्पडंडो कजति न वृत्ताककंठा।
तिरित्यर्थः। गाहा
सूत्रम्काउं सयं व कप्पति, मुच्चकितुं पि हु ण कप्पती घेत्तुं ।। जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं विसूयावइ विम्यावंतं धरणं तु अपरिभोगो, वितरणपुढे पराणुस्मा ॥२१॥
वा साइज्जइ ॥७। परिभायणं तु दाणं, सयं तु परिजणं तदुपभोगो।
गाहागहणं पुव्वकतम्मि उ,सयं तु परकते य धरणादी ॥२२॥ विसुआवणसुकवणं, तं कप्पय मुंजपिच्चसंबद्धे । गहरणं णियमा पुवकयस्स, धरणादिपदा पुण चउरो य तं कड्डिएण दौसा, कारण कप्पती सुक्कबेतुं जे ॥३०॥ सयंकते परकते वा भवति ।
तं विसुश्रावणं पडिसिझंति पञ्चयं मुंजयपिचिएसु तहसूत्रम्
सिएसु वा ते य सुक्खा अतिकठिणा भवंति । मजणादिसु जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं परं दिवढाउ मासाउ य चोदकाह-तहोसपरिहारस्थिणा सव्वहा ण कायब्वमेव धरेइ धरंतं वा साइजइ ॥६॥
प्राचार्याह-नेत्युच्यते 'गडे-गाहा-" एवमादिकारणेहि, काजे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परं दिवट्ठ मासातो ध- यब्वं इमाएँ जयणाए” 'उस्सग्गियस्स' गाहा कंठा । मा जीरेति धरतं वा साइजति तस्स आणादिश्रा य दोसा, संज- वविराहणा भविस्सति अतो ण उल्लेति ण वा सुक्केति, कमविराहणा य । मासलहुयं पच्छित्तं ।
रणमओ उल्लेजा वि। गाहा
गाहाउस्सग्गियवाघातं, अहवा तं खलु तहेब दुविधं तु । बितियपदे वासासुं, उदुबद्धे वा सिय त्ति ते मेज्जा । जो भिक्खू परियदृति, परं दिवा उ मासातो ॥२३॥ विसुयावणछायाए, अद्धातवमानवेमलणा ॥३१॥ उस्सग्गियवाघातादि तिरिण वि, परं दिवट्ठातो मासाउ प. वासाकाले वग्धारियवुट्टिकायम्मि सग्गामे परग्गामे भिक्खा रिकद्वंतस्स दोसा इमे।
दिगतस्स उल्लेजा, उदुबद्धे वा सिय त्ति स्यात्-कदाचित् । गाहा
कथम् ? उच्यतेसो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविधं ।
गाहापावति जम्हा तेणं, अस्मं पाउंछणं मग्गे ॥२४॥ उत्तरमाणस्स नदि, सोधेतस्स व दवं तु उल्लेजा। 'अण्णं ' ति उस्सग्गियणिवाघातं ।
पडिणीयजलक्खेवे, धुवणे फिडिते व्व सिण्हाए ॥३२॥ गाहा
पडिणीपण वा जले खित्तो सम्बोवहिकप्पे वा तं धोतं इतरह वि ताव गरुयं, किं पुण भत्तोग्गहे अहव पाए ।। पंथातो वा पडियस्स उपपहे उत्तिोसु उरणए उल्लेज, असुभारे हत्थुवघातो, जति पडणं संजमा ताए ॥ २५ ॥
क्खवेतस्स इमे दोसा। पूर्ववत् । तेण गुरुणा दण्डपादपुंछणेण हत्थोवघाहिं घेप्पति, पडतं वा पायं विराहेजा । तत्थ श्राणा गाढातिविरा
कुच्छण दोसा उल्ले-ण दावितं कजपूरणं कुणति । हणा वा छक्कायविराहणा वा करेजा, तम्हा परं दिवढातो
डंडा य पमजंते,मलो य आउं ततो विसुवे ।। ३३ ।। मासा । तेण वोढव्वं (इ) अण्ण मग्गियव्वं । इमाए जयणाए । | उल्ले असुक्खवेतस्स कुहए पमजणकजं च ण करेति, श्रह गाहा
उल्लेण पमज्जति तो दसंतेसु गोलया पडिवज्झन्ति,मलिणे य उस्सग्गियवाघाते, सुत्तत्थं करेइ मग्गणा होति । १-३मा गाथामाकाकारण स्वास्योपदर्शनाथ पारिताः।२-रसाय नि पुरुटके।
गाहा
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रोहरण अभिधानराजेन्द्रः।
रमोहरण चासासु आउवधो भवति । एवं दोसगहणं गाउं वि सुक्खा
गाहाबेति छायाए वि जति ण सुक्खेज तो अटाए वेदेति तह विश्र
पडिपुस्महत्थपूरिम, जुत्तपमाणं तु होति णायव्वं । सुक्खंते प्रायवे सुक्खवेति । अंतरंतरे मलेउ पुणो आयये ठ
अप्पोल्लंभेउ पोम्हं, एगखंडं च णुमातं ।। २७० ॥ वेति । एवं जाव सुक्खं मृदुकारणत्वात् । नि००२ उ०। अतिरिक्तप्रमाणं रजोहरण धरति
बत्तीसंगुलपडिपुराणं बाहिरणिसेज्जाए संसहत्थपूरिमं परिसं जे भिक्खू अतिरेगप्पमाणं रयहरणं धरेइ धरतं वा साइ
जुत्तमाणं रोहरणं, पोलडयं पोल्लं ण पोज़ अपोल्लं अज्झुसि
रमित्यर्थः । मेरो अदसम्मि उपोम्हं एगखंडं च परिसं अणुजइ ॥७ ॥
राणातं भवे, कारण जेण सम्वाण वि धरेजा। रो-दब्वे भावे य, तं दुविहं पि रयं हरतीति रयोहरणं ।
गाहाअतिरेग धरेंतस्स मासलहूं।
बितियपदमणप्पज्झे, असइ पुव्वकयदुल्लमे चेव । गाहागणणाएँ पमाणेण य,हीणऽतिरित्तं च अवचितोवचितो। सण्हे वुत्ते य खरे, एगस्सऽसती य दुगतिमादी।।२७१।। झुसिरं खरपम्हं वा, अणेगखेडं व जो धारे ॥ २६६॥ श्रणप्पज्झो सम्वाणि करेति-धरेति वा, अप्पज्झो वि असति गणणाए उदुबद्धे एग, वासासु दो । पमाणेण वत्तीसगुलदी
जहा ऽभिहियस्स हीणातिरित्तातिए करेज धरेज वा। पुब्वहं जदि हीणं एत्तो पमाणाश्रो करेति, तो प्रोणमंतस्स कडि
कतं वा हीणातिरित्तादियं दुल्लभं वा जुत्तपमाणं जाव लभवियडणा,अपमजंतस्स पाणिविराहणा,अतिरिसे अधिकरण। |
ति ताव हीणातिरित्ताए वि धरेति , असती ते सराहं वा धभारो य संचयदोसो य । श्रह वासारत्ते एग धरेति तं हिंडत-|
रेति । खरदसं वा धरेति एगखंडस्स वा असति दुगादिखंड स्स उल्लं जति तेण उल्लेस पमज्जति तो उंडया भवंति तारिसेण धरेति । पमज्जंतस्स असंजमो, अपजंतो असंजतो,भारिये प्रायविरा
गाहाहणा । पोरप्पमाणाश्रो जं ऊणं अविचियं तंमि ताण विराहणा सण्हे करेंति थुलं, उगम्भयं परिहरेंति तं थुल्ले । जं पोरप्पमाणातो अतिरित्तं उवचियं तम्मि भारो भवपरिता
असिरे ऽवणेति लोमे, खरं तु उल्लं पुणो मलए ।२७२। वणाऽपि अतिरिते अधिकरणं च । संचयदोसो झुसिरं कोयबगपावारगणषयगेसु अतिरोमधूयलं वा झुसिरं,एतेसुसंजम
सरहे रयहरणपट्टते थूलं गम्भं करेति,अह थूले रयहरणे पट्टतो विराहणा पडिलेहणा य ण सुज्झति, खरा-णिसट्ठा दसा
ताहे रयहरणगम्भयं परिवेंति, गम्भए वा थूले तं पट्टयं
परिवेति रोमझुसिरतो रोमे श्रवणेति , अथ खरदसं श्रो जस्स तं खरपम्हं । एत्थ पमज्जणे कुंथुमातिविराहणा अगसिन्वणीहि अणेगखंडमुसिरं भवति । एत्थ वि संज
ताहे उल्लेउं पुणो मलिज्जति। मषिराहणा । सिव्वंतस्स य सुत्तत्थपलिमंथो । जो एरिसं रजोहरणस्य सूक्ष्मा दशा न कुर्यात् । सूत्रम्धरेति । “सो प्राणा।" गाहा
जे भिक्खू सुहुमाई रयहरणसीसाइं करेइ करतं वा गाहा
साइज्जइ ॥ ७१ ॥ हीणे कजविवत्ती, अतिरेगसंवत्तो अवधिकरणं ।
सुहुमा सण्हा रयहरणसीसगा दसानो। झुसिरादि उवरिमेसुं,विराहणा संजमा होति ।।२६७।।
गाहाबत्तीसंगुलातो होणतरं । शेषं गतार्थम् ।
जे भिक्खू सुहुमाई, करेज रयहरणसीसगाई तु । गाहाहीणाधिए य पोरा, भाणविवत्ती य होति भारो य ।
सो आणाअणवत्थं, मिछत्तविराहणं पावे ॥ ७२ ॥
इमे दोसा। कडिवीयणा य अदीहे, ऊणम उड्डाहमादी य ॥२६॥
गाहाअंगुट्ठपोराओ हीण-अवचियं, अहिय-उपचियं, हीणे भाय
मूढेसुं संमद्दा, झुसिरमणाइम्मदुप्पला चेव । णे विन्ती, अधिभारो बत्तीसंगुलातो हीणं अदीहं भवति ।। तमि ओणमंतस्स कडिवियडणा अतिऊणते य जलहरपलं
सुहुमेसु होंति दोसा, बितियं कासी य पुवकते।।२७३॥ क्णे उहाहो।
मूढेसु सम्महदोसो झुसिरदोसो साधूहि प्रणाइराणो दुन्व। उदुवसासु धरणे इमं पमाणं ।।
लाइ भवंति, 'बितियपदमणप्पज्झो 'ऽऽदि पुबकते वा । एवं उडुबद्धम्मि वि, वासावासासु होइ दो वेव।
कण्डूसकं बन्धने बध्नाति । सूत्रम्दंडो दसा य तस्स तु, पमाणतो दोएह बी भइए।२६।। जे भिक्खू रयहरणं कंडूसगबंधणं बंधह बंधंतं वा साइजति दंडो हत्थपमाणो तो दसा अटुंगुला, इह दंडग्गहणा-1 ज्जइ ॥७३॥ तो गम्भगइंडिया रयोहरणपट्टगो वा, अह इंडो वीसंगुलो कंडूसगबंधो णाम-जाहे रयहरणं तिभागपएसो खोमिएतो वसा वारसंगुला । अह दंडगो छवीसंगुलो तो दसा छ ण उरिणपण वा चीरेण वा वेढियं भवति, ताहे उन्निदोरेण अंगुला । एवमाति भयणा । इमेरिसं धरेयव्वं ।
तिपासियं करेति तं चीरं कंडूसगपट्टनो भएणति । १-अत्रैव ४.१ पृषे उका टीकाकृता स्मारिता चतुर्विशतितमा गाथा ।। १-स्वस्वहस्त । २-इयं ( २७१) टीकाकृता स्मारिता । (३-२७४)
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रोहरण अभिधानराजेन्द्रः।
रोहरण गाहा
_णिज्जुत्तीए इमा गाहाकंड्सगबंघेणं, जइवा इतरेण जो उ रयहरणं । दव्वे खित्ते काले, भावेऽपि य वच्चमुंज अणिसिटुं। बंधति कंडूसो पुण, पट्टओ आणादिणो दोसा।२७५। | बितिओऽवि य आएसो, विदिमं गुरुजणेण॥२८॥ आणाहणो दासा मासलहुं च । इमे दोसा
पंचतिरित्तवञ्चेसु, अञ्चित्तं दुल्लभं व दोसुं च । गाहा
भावम्मि वाममोल्ला, अणणुमातं च जं गुरुगा ॥२२॥ अतिरेगउवधिअधिकरण-मेव सज्झायज्माणपलिमंथो ।
दव्यतो पंचराहं अहरितं उरिणयं उट्टियं सणय बच्चयं कंड्सगबंधम्मि य, दोसो लोभे पसजणता ॥ २७६ ॥
मुंजपिचं वा, पतेसिं पंचराहं परतो णाणुन्नातं । दोसु खेतअतिरेगोवधी निरुवोगताए य, अधिकरणं तस्स सि- कालेस जंअश्चित्तं दलभं वा तं जाणमातं.भावतो जं वरणव्वणधोवणबंधणमुवणेहि सुत्तत्थपलिमंथो, लोमे य पसं
किट्ट महग्घमोल्लं वा तं णो तित्थकरहिं णिसिटुं ण दत्तगो, गडेहि य विस्सरिएहि य अधितो भवति ।
मित्यर्थः । अहवा-बितिो श्राएसो जं गुरुजणेण नो अणुगाहा
सायं तं अणिसिटुं। बितियपदमणप्पज्झे, असतीए दुबले अपडिपुग्मे ।।
गाहाएतेहि कारणेहिं, संबद्धे कप्पती काउं ।। २७७ ॥ एतेसा-मम्मतरं, रयहरणं जो हरिज अणिसिद। एगम्मि पएसे दुचलं ताहे पडिसडिं करेति अपडिपुत्रं आणा य विराहणया, संजममुच्छा य तेणादी।।२८३॥ था तेण घेढेत्ता हत्थपूरिम करेति, एतेहिं कारणेहि तथेव- । थिग्गलकरेण संबद्ध करेइ जेण पुण पडिलेहणा भवति।।
महग्घाण वराणुकि? वा मुच्छा भवति । रागो रागेण संजम
विराहणा तेणादिपहिं वा हरिजति । अविधिबन्धने निषेधसूत्रम्
गाहाजे भिक्ख रयहरणं अविहीए बंधा बंधतं वा साइजइ।७२।
बितियपदमणप्पज्झे, घरेज अवि कोवि नेव अप्पज्झे । अवस्सगादि अववादियव्वो।
जाणते वावि पुणो, धरेज असिवादिणेगागी ॥२८४॥ सूत्रम्जे भिक्खू रयहरणस्स एक्कबंधं देयइ देयंतं वा साइजइ ।७३।
असिवेण एगागी जातो, तेन कस्स णिवेए गुरूणऽस्थि, एवं
अणिसिटुं पि धरेज। एगबंधो पगपासियं ।
रजोहरणं व्युत्सृष्टं धरतीति । सूत्रम्सूत्रम्जे भिक्खू स्यहरणस्स परितिमि बंधणे देएड देयंतं वा।
जे भिक्खू रयहरणं वोसटुं धरेइ धरंतं वा साइजइ ॥७६।।
गाहासाइजइ ।। ७४ ॥
आउग्गहखेत्ताओ, परेण जं तं तु होति वोसट्टे । तिपासितातो परं चउपासियादि, प्राणादियो य दोसा | बहुबंधणे सज्झायज्झाणे य पलिमंथो य भवति । एतसि
ओरेणमवोसटुं, वोसद्वधरंत आणादी ॥ २८५ ॥ तिराह वि सुत्ताण इमो अत्थो ति।
बोसटुं णाम जं आउग्गहारो परेण,जं पुण अनुग्रहे वट्टति तं गाहा
अवोसटुं आयपमाणं खेनं श्राउग्गहो इह पुण रजोहरणं पतिएहवरिं पत्र्याणं, दंडतिभागस्स हेद्रुतो उवरि । दुश्च समंततो हत्थो हत्थाओ परंण पावति ति वोसटुंभमति। दोरेण असरिसेणं, संतरणं बंधणाणादी ।। २७८ ।।
वोसट्टधरणे इमे दोसा
___ गाहादंडतिभागस्स जति हेटो बंधति उरि वा असरिसेण वा दोरेण अतिब्बो दूरण बंधे तीएण वा संतरं दोरं करेति, तो मूइंगमादिखइते, अपमजंते तु ता विराधेति । आणविणो दोसा । सब्बेसु मासलहुं । जम्हा एते दोसा: सप्पे व विच्छुगे वा,गेएहति खइए य आताए ॥२८६॥ गाहा
मुइंगा-पिपीलिका एताहि खइता, श्रादिसद्दाता मक्कोडगातम्हा तिपासिए खलु, दंडतिभागे उ सरिसदोरेण ।
दिणा जइ अपजिउं रयोहरगण कंडूयति तो तं विगहेति,
रयहरणं अप्पहेंता वा सहसा कंडूयति तो विराहेति, अरयहरणं बंधेजा, पदाहिण-णिरंतरं भिक्खू ॥२७६।।
थ सप्पो बिच्छुगो वा अागतो जाव रयहरणं गेगहति बितियपदमणप्पज्झे, संघे अविकोविते व अप्पज्झे ।
ताव खातो मतो आयविराहणा। जाणते वावि पुणो, असती सरिसस्स दोरस्स ।।२८०॥
गाहाअराणासति तजातीयस्स।
बितियपदमणप्पज्झे, वोत्तुल्लगिलाणसंभमेगतरे। अनिसृष्टधारणे दोषः। सूत्रम्
असिवादी परलिंगे, वोसटुं जा धरेजाहि ॥ २८७ ।। जे भिक्खू रयहरणं अणिसिद्ध धरेइ धरंतं वा साइजइ ७५॥ |
अणप्पज्झो धरेति, धाउं वा जाव ओदब्बादि नेह संतरणे अणिसिटुं णाम-तित्थकरेहि अदिराणं तस्स मासलहूं, प्रा| वा उन गिलाणो गिलाणपडिरयगो वा उच्चत्तणार कारणेहि लादियो य दोसा।
वोसिटुं पि धरेजा।
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( ४७५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
रोहरण
गाहा---
सुहपुत्ती जाए, एसेव गमो उ होइ खायन्वो । समवोसट्टे, सुच्चे अवरम्मि य पदम्मि ॥ २८८ ॥ मुहपोत्तीए खिसेज्जा एसेव गमो । वोलट्ठेसु पुण्यावरपसु ।
सूत्रम्
जे भिक्खू रयहरणं अट्ठेिइ अहितं वा साइज ७८ हिट्ठायं साम सखिसेज्जवेढिए चेव उवविसं पयं श्र हिट्ठा मासलहुं, आणादिया य दोसा ।
गाहा-
तिरहं तु विकप्पाणं, अतराएण जो अधिट्ठेजा । पाउंछणगं भिक्खु, सो पावति आगमादीणि ॥ २८६॥ दोहि विखिसिजसोहिं, एक्केण व वितियततियपादेहिं । raat area rai, दोहि वि पासेहि दोस्ति भवे । २६० | इमे तिरिए विकप्पा दोहि वि उवविसति एक्को विकल्पो, एगेण वा वितियो विकल्पो, दोस्रु विकप्पेसु परिहयासुश्रवक्कमति ततिय विकप्पो । श्रहवा - मग्गतो ति पिट्ठतो कमति एगो विगप्पो, दोसु पासेसु पुतोरूपसु श्रक्कमति । एते दो विगप्पा, एते वा तिनि ।
गाहा
बितियपदमणप्पज्झे, अधिठेजा कुट्टिते व अप्पज्झे । जाते वा वि पुणो, मूसगतेणादिमादीसुं || २६१|| मूसगेण वा कुट्टिज्जाति, तेणगेण वा हरिजति, श्राद्ग्गिहरातो चतुरूवाणि वा हरेज्जा पडिणीओ वा तेरा अधिट्ठेजा ।
सूत्रम्
जे भिक्खू रयहरणं उसीसमूले ठवर ठवंतं वा साइजइ । ७६/ सीसस्स समीवं-उवसीसं वकारलोपात्, स्थानयात्री मूलशब्दः । सीसस्स वा उक्खंभग उसीसवणं क्विो सु
डिसेधितं सेवमाणे, श्रजेति पावतिः मासियं, परिहरणं परिहारो चिट्ठति जम्मि तं ठाणं लहुगमिति उवघातियं । सूत्रम्
जे भिक्खू रयहरणं तुयट्टेइ तुयट्टंतं वा साइजइ ||८०||
गाहा
जे भिक्खू तुयते, रयहरणं सीसए ठवेजाहि ।
व मग्गतो वा, गमगपासे सिम वा ॥ २६२॥ त्वग्वर्त्तनं वट्टणं शयनमित्यर्थः, वामपाले दाहिणपासे वा उवरि हत्थदसं पादमूले वा ठवेति ण केवलं णिवरणो णिसरणो वा पुरश्रो मग्गश्रो वा वामपासे ठवेति ।
गाहा
सो आणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, दोहि ण पासम्म तं कुञ्ज || २६३ || तम्हा ताणि णिवण्णो णिसरणेो वा दाहिणपासे अधोद
करेज |
गाहा
पितिपद मणप्पज्भे, करेज अवि को वि नेव अप्पज्झे ।
रंतिदेव
प्रवास सति मूसग, तेलगमादीसु, जाणमवि | २६४ | नि० चू० ५ उ० । पं० व० ।
रजोहरण-प्रयोजनमाह
आयाणे निक्खेवे, ठाणनिसी अणतु अट्टसंकोए ।
पुव्वि पमअड्डा, लिंगट्ठा चैव रयहरणं ।। ८१५ ॥ श्रादाने - ग्रहणे कस्यचित् निक्षेपे मोक्षे स्थाननिषीदनत्वग्वर्त्तनसङ्कोचनेषु पूर्वम्-श्रादौ प्रमार्जनार्थं भूम्यादेर्लिहार्थ चैव साधो रजोहरणं भवति इति गाथार्थः । पं०
व० ३ द्वार ।
अविही नियंसत्तरी परं पहरणदंडगं वा परिभ्रंजे चउत्थं सहसा रयहरणं खंधे निक्खवर उवद्वावणं, अंगं वा उवंगं वा संवाहावेज खवणं रयहरणं ! वामुस्संगे धरेह चउत्थं । महा० : चू० ।
ऋतुबद्धे रजोहरणं प्राह्यं वर्षासु पादलेखनिका । पं० भा० १
कल्प |
रंक-रङ्क-पुं० । कृपणे, स्था० ५ ठा० ३ उ० ।
रंकय - रङ्क(क) - पुं० । बलभीपुरवास्तव्ये श्रेष्ठिनि यो रत्नजटितकङ्कणलुब्धेन बलभीपुरराजेन शिलादित्येन पराभूतः गजनीपति म्लेक्षराजमानीय तद्राजविनाशाय निमित्तमभूत् । ती० १६ कल्प |
खोलिर - दोलक - त्रि० । उत्क्षेपके " रंखोलिरं पट्टोलिरं "
1
पाइ० ना० १८६ गाथा ।
रंग-रङ्ग-न० । नाटथस्थाने, व्य० ८ उ० । 'रायाए रंगोवजीवि याए' आ० म० १ श्र० । मल्लयुद्धमण्डपे, कल्प० १ अधि० ५ क्षण । रङ्गमण्डपे, “ रंगो पिच्छाभूमी ” पाइ० ना० २७२ गाथा । रक्तावयवच्छविविचित्ररूपे, दश०२ अ०। स्था०। वृ० । पुणि, दे० ना० ७ वर्ग १ गाथा । रंगण - रङ्गण-पुं० । रङ्गणं रागस्तद्योगाद्रङ्गणः । जीवे, भ०
२००२ उ० ।
रंज - रञ्ज - धा० । रागे । रञ्जे रावः ॥ ८ । ४ । ४६ ॥ इत्यनेन रज्जेर्यन्तस्य रावादेशो वा । रावेइ । रज्जेह । प्रा० ४ पाद । रंजण - रञ्जन - न० | रागे, शा० १०५ श्र० । घटे, दे० ना० ७ वर्ग ३ गाथा । कुण्डमिति केचित् । दे० ना० ७ वर्ग ३ गाथा । पाइ० ना० २२२ गाथा ।
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रंडक - राण्डक्य- पुं० । रण्डकर्ण्यपत्ये, राण्डक्यो नाम भोजः कामात् ब्राह्मणकन्यामभिगम्यमानः विनष्टः । ध० १ अधि० । रंडा - रण्डा - स्त्री० । मूषिकपर्याम् वाच० । विधवायाम्,
महा० २ चू० ।
रंडिया - रण्डिका - स्त्री० । व्यभिचारिण्यां स्त्रियाम्, तं० । रंदुअं- देशी- रज्जौ, दे० ना ७ वर्ग ३ गाथा ।
रंतिदेव - रन्तिदेव- पुं० । चन्द्रवंशे स्वनामख्याते नृपे, “यो मचुम्विशिखरं मनोहरं रन्तिदेवतटिनीतटस्थितम् । द चैत्यमवलोक्य Tः, शैत्यमाशु ददति स्वचक्षुषोः ॥ १॥" ती० ४३ कल्प |
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अभिधानराजेन्द्रः। रंदण-रन्त्वा-अव्य० । क्रीडित्वेत्यर्थे , क्त्व इयणौ ॥ ८ रग-रक्त-त्रि० । रक्त, "गो वा" ॥८॥२॥१०॥ रक्तशब्दे संयु
।४।२७१॥ति हत्यादेशः। पक्षे-रत्वा । प्रा०४ पाद। | तस्य गो वा भवति । इति क्रस्य गः। प्रा० अनादौ शेरंध-रन्ध्र-न० छिद्रे, दूषणे च । व्य०७ उ० । शा० । “विवरं | षादेशयोर्तुित्वम् ॥ ८ । २।८६॥ इति गस्य द्वित्वम् । रग्गो। कुहरं धं, कुच्छिन्नं अंतरं कुडिल्लंच" पाइ० ना०६३ गाथा।
नील्यादिभी रजिते, प्रा०२ पाद। रंधण-रन्धन-न० । अन्नादीनां पाचने, प्रव० ३८ द्वार | शा० ।
| रग्गय-देशी-कौसुम्भरक्तवस्त्रे, दे० ना० ७ वर्ग ३ गाथा। रन्धनविषयकविशेषपरिज्ञानरूपे ५१ स्नीकलाभेदे, कल्प०१ "रग्गयं च नवरंग" पाइ० ना०२६१ गाथा। अधि०७ क्षण।
रडखोल-दोलि-धा० । उत्क्षेपणे, दुल-स्वार्थे णिच् । दुले र(म्म)म-गम-धा० । गतौ, गमे ई-अइच्छाणुवजावज- रङ्लोलः॥८॥४॥४८॥ दुलेः स्वार्थे ण्यन्तस्य रखोलसोकुसाकुस-पचड़-पच्छन्द-णिम्मह-णि-णीण-णीलुक्क-प
इत्यादेशो वा भवति। रखोलइ । दोलह । दोलयति । प्रा०। दम-रम्भ-परिमल-बोल-परिचाल-णिरिणास-णिवहावसे- रचिय-रचित-त्रिका निहिते, सकारचनाविशेषे, प्रश्न०३ हावहराः॥४॥१६२॥ इति गमधातोरम्भादेशे वा । रम्भा ।। आश्र० द्वार । गच्छति, प्रा० ४ पाद । अन्दोलमफलके, दे० ना० ७ वर्ग १ | रच्छामअ-देशी-शुनि, दे० ना०७ सर्ग ४ गाथा। गाथा।
रज्ज-राज्य-न० । यावत्सु देशेषु एकभूपतेराशा तायदेशरंभा-रम्भा-स्त्री० । वैरोचनेन्द्रस्य बलेरप्रमहिण्याम् , शा०२
प्रमाणे राष्ट्रे , वृ० ४ उ० । जीत० । उस० । शा श्रु० ३ वर्ग १ अ० । भ० । कदल्याम् , “ रंभा कयली"
राजादिपदार्थसमुदाये, “स्वाम्यमात्यश्च राष्टं च, कोशो दुर्ग पाह० ना० २५४ गाथा।
बल सुहृत् । सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं , बुद्धिसत्त्वसमाश्रयम् रक-रक-न० । वृषभादिशब्दकरणे, अनु० ।
॥१॥"भ०१५ शाराग०। कल्प० । नृपत्वे, तं० । रक्ख-रचस-पुं० । राक्षसे, “ रयणियरजाउद्दाणा, कव्वाया। प्रभुतायाम् , स्था०५ ठा०३ उ०। कोणवा रक्खा" पाइ० ना० ३० गाथा ।
ऋषभः स्वपुत्रादिभ्यो राज्यं दत्तघानत्र दोषविचारः। रखंत-रक्षत-त्रि० । अन्यायात् रक्षां कुर्वति, औ०भ०।। एवं जगद्गुरुविषयां महादानविप्रतिपत्तिनिरतस्यैव राज्य
दानविषयां तां निरस्यन् परमतं तावदाहरक्खण-रक्षण-न० । आहारादिना उपजीव्ये, सूत्र०१ श्रु०४
अन्यस्त्याहाऽस्य राज्यादि-प्रदाने दोष एव नु। अ०१ उ। तंगसम्यक्त्ववतानामनुपालनोपाये, ध१२ अधिक
महाधिकरणत्वेन, तत्त्वमार्गे विचक्षणः ॥१॥ रक्खस-राक्षस-पुं० । मांसास्वादनपरे,उत्त०१६ अ० व्यन्त
अभ्यस्तु-जगद्गुरुमहादानपूर्वपक्षवाद्यपेक्षया, अपरः पुनविशेषे, उत्त० पाई०१६ अ० औ०। प्रश्न स्था। सूत्र
र्वादी पाहते अस्य-जगद्गुरोः राज्यादिप्रदाने-स्वप्रव०।ौ०।सा व्यन्तरमात्रे,सूत्र०१ श्रु०१२ अाप्रशा। पुत्रादिभ्यो नरनायकत्वकलत्रकलाकर्मशिल्पप्रभृतीनां वित
रक्खा समासमो दुविहा परमाता, ते जहा-पज्जत्तगाय, रणे दोष एव-प्रशुभकर्मबन्धलक्षणं दूषणमेव । तुशब्दः-पूरणे अपजत्तगा य । प्रज्ञा०१ पद।
केन हेतुनेत्याह-महा-तद्गुरुकमधिकरणं च-दुर्गतिहेस्वनुराक्षसाः सप्तविधा प्राप्ताः , तद्यथा-भीमा १ महाभीमा २|
ठानं महाधिकरणं तद्भावस्तत्त्वं तेन, राज्यादिप्रदानं हि
महाधिकरणं महारम्भमहापरिग्रहकुणिमाहारपञ्चेन्द्रियवधाविघ्ना३ विनायका जलराक्षसा५ राक्षसराक्षसा६ ब्रह्मरा- दिहेतुत्वात्तस्य अग्निशस्त्रादिदानमिवेति दृष्टान्तोऽभ्यूह्यः । क्षसा७ । प्रशा० १ पद । अहोरात्रस्य त्रिंशे मुह च ।। क एवमाहेत्याह-तत्त्वमार्गे-वस्तुपरमार्थाध्वनि परिच्छेत्सव्ये कल्प०१ अधि०६क्षण । चं० प्र० । ज्यो । जं.। स०। अविचक्षणः-अपण्डितः । अविचक्षणत्वं चास्य वक्ष्यमाणरक्खिय-रक्षित-त्रि० । गुप्ते, स्था० ६ ठा० ३ उ० । उत्त। राज्यदानादिहेतोरपरिज्ञानादिति । अथवा-विचक्षण इत्युपदुर्गतिपतनात् निवारिते, उत्त० १५ अ० । प्रश्न । हासवचनमिति ॥१॥ अनुयोगचातुर्विध्यकारके सोमदेवेन ब्राह्मणन रुद्रसोमायां
उत्तरमाहभार्यायां जाते आर्यवर्यशिष्ये पूर्वधरे सूरी। प्रा०म० अ०। अप्रदाने हि राज्यस्य, नायकाभावतो जनाः। प्रा० चू०। (तत्कथा 'अज्जरक्खिय' शब्दे प्रथमभागे २१२
मिथो वै कालदोषेण, मर्यादाभेदकारिणः ॥२॥ पृष्ठे प्रत्यपादि) “वन्दामि अजरक्खिय-खमण थियचरित्तसव्वस्सो। रयणकरंडगभूओ, अणुओगो रक्खिो जेहिं
विनश्यन्त्यधिकं यस्मा-दिहलोके परत्र च । ॥१॥"। नं०। आर्यसुहस्तिनो द्वादशशिष्याणां सप्तमे, कल्प
शक्ती सत्यामुपेक्षा च, युज्यते न महात्मनः ॥३॥ २ अधि० क्षण।
तस्मात्तदुपकाराय, तत्प्रदानं गुणायहम् । रक्खिया-रक्षिता-स्त्री०। धनेन सार्थवाहेन भद्रायां भार्यायां |
परार्थदीक्षितस्यास्य, विशेषेण जगद्गुरोः ॥ ४ ॥ जनितस्य धनगोपाख्यपुत्रस्य भार्यायाम् , शा०१ श्रु०७ मा अप्रदान-पुत्रादिभ्योऽवितरण सति, हिशब्दः-पूर्वपक्षपअष्टादशतीर्थकरस्य स्वनामख्यातायां प्रवर्तिन्याम् , ति०।।
रिहारभावनार्थः, गज्यस्य-भूपतित्वस्य नायकाभावतःरक्खी-रक्षी-स्त्री० । अष्टादशजिनस्य स्वनामख्यातायां प्रव
स्वामिकाभावात् जनाः-लोकाः मिथ:-परस्परेण विनश्यतिन्याम् , प्रश्न १ आश्र द्वार ।
स्तीति योगः । वैशम्दा वाक्यालङ्कारे । कालदोघेण-अवसर्पि
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(४७७) अभिधानराजेन्द्रः।
रजजिया पीलक्षणस्य हीनहीनतरादिस्वभावस्य समयस्यापराधेन निवारणलक्षणसम्पादनेन न दोषवान् अयमिति योगः । हेतुना मर्यादाभेदकारिणः-स्वपरधनदारादिव्यवस्थालोपः | अथ किमल्पस्यापि दोषस्याभावेन महानर्थरक्षां मकरोतीकारकाः सन्तः विनश्यन्ति-क्षयमुपगच्छन्ति । नायकसद्भावे त्याह-अन्यथा-भन्येन प्रकारेणाऽल्पस्याप्यनर्यस्यानाश्रयऽपि केचिद्विनश्यन्तो रश्यन्ते इत्यत्राऽऽह-अधिकम्-प्रत्यर्थे । णलक्षणेनासम्भवात्-महानर्थरक्षणस्याघटनात् , अयमिति यस्मात् कारणात्-क नश्यन्तीत्याह-हलोके-हैव मनु- जगद्गुरुरिति । उक्तञ्चव्यजन्मनि प्राणादिक्षयात्, परत्र च-परलोके च हिंसानृत- " तत्थ पहाणो पासो, बहुदोसनिवारणाउ जगगुरुणो। धनदारापहारादेः, तथा-शक्ती-सामर्थे सत्याम्-विद्यमाना- नागाइरक्खणे जह, कहणदोसे वि सुहलोगो ॥१॥ याम् उपेक्षा अषधीरणा चशब्दो-हेन्वन्तरसमुच्चये, युज्यते | गत्तातडम्मि बिसमे, टुसुयं पिच्छऊण कीलतं । घटते, न-नैव महात्मनो-जगदगुरोर्युगादिदेवादेर्यस्मादेवं तप्पचवायभीया, तयाणपट्टा गया जणणी ॥२॥ तस्मात्कारणानेषां परस्परेण विनश्यतामुपकारोऽनयंत्राणम् विट्ठो यती नागो, तं पर इंतो दुनो य खडाए। सदुपकारस्तस्मै तदुपकाराय तत्पदानम्-राज्यदानम् तो कहिओ तो तह, पीडा' घिसुद्धभावाए ॥३॥" गुणावहम , राज्यहातुरुपकारकमेव न पुनर्दोषावहम् । परस्मै अधिकदोषनिवारणार्था प्रवृत्तिरस्य किश्चिदोषवस्यपि म एवं परार्थम् परोपकारार्थमित्यर्थः, दीक्षितस्य कृतनिश्चयस्य | दुऐत्येतस्य पक्षस्याभ्युपगमे बाधामाहपरार्थोचतस्येत्यर्थः, अस्य-जगद्गुरोः विशेषण-सुतरां इत्थं चैतदिहैष्टव्य-मन्यथा देशनाऽप्यलम् । सामान्यराज्यदायकापेक्षया जगदगुरोर्भुवनमर्नुः जिनस्येति,
कुधर्मादिनिमित्तत्वा-दोषायैव प्रसज्यते ॥ ८॥ अनेन च राज्यप्रदानस्य महाधिकरणस्वभावत्वं व्युवस्तम् । तदानस्यैव महाधिकरणत्वेन प्रसाधनतः परोक्तो महाधिकर
इत्थं चैतदिहैव अनन्तरोक्तेन गुरुतरानर्थनिवारकत्वलक्षणेणत्वलक्षणो हेतुरसिद्ध इत्युक्तम् , तदसिद्धेश्च राज्यादिदाने
न चशब्दोऽवधारणे एतदनन्तरोदितं राज्यप्रदानादिकं वस्तु दोष एवेत्यपहसितमिति ॥ ४॥
इह-प्रक्रमे पटव्यम्-अभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा-एतस्यानराज्यादिदानेषु दोष एवेत्यत्रादिशब्देन विवाहा
भ्युपगमे देशनाऽपि-तत्वप्ररूपणाऽप्यास्ताम् राज्याविदानं दिव्यवहारदर्शनं भगवतः सदोषमित्यास
दोपायैवेति योगः, अलम्-अत्यर्थम् । कुतः इत्याह-कुधर्माः___ जितम् । तत्र परिहारातिदेशमाह
शाक्यादिप्रवचनानि आदिर्येषां-श्रुतचारित्रप्रत्यनीकत्वादि
भावानां ते तथा तेषां निमित्तं हेतुस्तद्भावस्तत्त्वं तस्माजिनदेएवं विवाहधर्मादौ, तथा शिल्पनिरूपणे ।
शना हिनयशतसमाकुला, नयाश्च-कुलप्रवचनालम्बनभूतान दोषे घुत्तमं पुण्य-मित्थमेव विपच्यते ॥५॥ दोषायैव अनर्थायैव न पुनर्गुणाय प्रसज्यते-प्राप्नोति । न चयथा राज्यादिदाने न दोषो महाधिकरणत्वाभावात् गुणाव- भगवद्देशनाया अनर्थनिबन्धनत्वमम्युपगन्तव्यम् अनन्योहत्वाच, एवम्-अनेनैव प्रकारेण विवाहः-परिणयनं तद्रपो- पायत्वेनार्थप्राप्तेरभावप्रसङ्गादिति ॥ ८॥ हा० २८ अष्ट। धर्म:--समाचारो व्रतबन्धो वा विवाहधर्मः, तदादौ-तत्प्र- रजचिंध-राज्यचिट-न। मुकुटचामरादिषु,प्रव०१द्वार। भृतिके आदिशब्दाद्राजकुलग्रामधादिपरिग्रहः, तथा
रजजिया-राज्यार्या-स्त्री० । स्वनामख्यातायामाथिकाशब्दः समुच्चये शिल्पनिरूपणो-घटलोहचित्रवस्त्रनापित
याम् , महा। व्यापारोपदर्शने, किमित्याह-न दोषः, नैवाशुभकर्मबन्धलक्षणं दूषणमस्ति भगवतः । इह प्रतिज्ञायां हेतुमाह--हि
सारासारमयाणिता, भगीयत्थत्तदोसओ। शब्दो-यस्मादर्थः, ततश्च यस्मादुत्तमम्-प्रकृष्ट तीर्थकरना
वयमेतेण विराए, पावगं जं समअियं । मकर्मलक्षणं पुण्यम्-शुभकर्म इत्थमेव-अनेनैव विवाह
तेणं तीए अहं ताए, जा जा होइ नियंतणा। शिल्पादिनिरूपणप्रकारेण विपच्यते विपाकं याति स्वफलं नारय-तिरिय-माणुस्से, तं सोचा को घिई लमे । ददातीत्यर्थः ॥ ५॥
कथानकम्इहाभ्युपचयमाह--
से भयवं! का उण सा रज्जज्जिया किंविवाया । तीए अकिं चेहाधिकदोषेभ्यः, सचानां रक्षणं तु यत् । .
गीयस्थत्तदोसेणं घयमेत्तेणं पि, पावं कम्मं समज्जिय। जस्स उपकारस्तदेवैषां, प्रवृत्यङ्गं तथाऽस्य च ॥६॥
णं विवागयं सोऊणं को धिई लभेज्जा । गोयमा! णं
हेव मारहे वासे भद्दो नाम आयरियो अहेसि , तस्स नागादे रचणं यद-द्गाद्याकर्षणेन तु ।
य पंचसए साहणं महाणुभागाणं दुधालससप निग्गन्थीम् । कुर्वन्नदोषवांस्तद-दन्यथाऽसम्भादयम् ॥ ७॥ तत्थ य गच्छे चउत्थरसियं ओसावणं तिदंडोऽचित्तं नागादेः-सर्पगोनसादः सकाशाद्रक्षणम्-पटपुत्रादित्राणम् च कदिनोदगं विप्पमोतुणं चउत्थं न परिभुज्जा , अयत्-यथा गर्तादेः-श्वभ्रादेः सकाशाद् आदिशब्दात्सोपा- नया-रज्जा नामाए अज्जियाए पुव्बकायअसुहपावकम्मोनपङ्कत्यादिपरिग्रहः,आकर्षणमाक्षपण गर्ताद्याकार्षणं तेना- वपण सरीरगं कुट्टवाहीए परिसडिऊण किमिएहिं समुदिधिकरणभूतेन हनुजानुप्रभृत्यङ्गघर्षणलक्षणानर्थकरणेनान्य- सिउमारखं । अहऽनया परिगलंतपहरुहिरतर्पु ता रज्जजिथारक्षणस्यासम्भवादिति भावः । तुशब्दोऽपिशब्दार्थः,कुर्वन् यां पासिया ताओ य संजईश्रो भणति । जहा-हालाहलविदधद्रक्षणमिति योगः, (न)-नैव दोषवान्-दृषणवान् मात्रा- दुकरकारगे किमेयं ति, ताहे गोयमा! पडिभणियं तीए दिरिति स्टान्तः। अथ दार्शन्तिकमाह-तत्-तथा राज्यादि| महापावकम्माए भग्गलक्खणसंजमाए रज्जज्जियाए । जयपन्छन् घर्षणतुल्यानथसम्भवेऽपि नागादिरक्षणकल्पमहान-1 एएणं फासुगपाणपणं सेविज्जमाणेणं विणटुं मे सरी
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(४७८) रज्जज्जिया अभिधानराजेन्द्रः।
रज्जु रगं ति। जाव इयं पलवे लावण संखहियहिययं गोयमा !| पच्छित्तमेव नऽत्थि, जेणं ते सुद्धी भवेजा। रज्जाए भणियंसव्वसंजईसमूहं जहा णं विवज्जामो , फासुगपाणगं
भयवं ! किं कारणं ति । केवलिणा भणिय, जहा-जंते संजहति । तो एगाए तत्थ चितिय संजईए, जहाणं जर सं- वंदपुरओ गिराइयं । जहा-मम फासुयपाणपरिभोगेण सरीचयं चेव मम एयं सरीरगं एगनिमिसम्भंतरेणव पडि- रंग विहडियं ति । एयं च दुट्ठपावं सहासमुदाए कहियं पडिमडिऊण खंडखंडहिं परिसढेजा तहावि अफासुगोदगं वयणं सोच्चा संखुद्धाओ सव्वाश्रो चेव इमाओ संजइयो । इत्थ जमे ण परिभुंजामि , फासुगोदगं ण परिहरामि, अ-|
चितियं च एयाहि, जहा निच्छयो विमुच्चामो फासुग्रोअंच किं सब्वमेयं फासुगोदगेण इमीए सरीरगं विण- दगं, भयज्झवसायाण पालोइयं निदियं गरहियं चेयाहि, टुं सव्वहा ण सब्वमेयं, जं उण पुवकयअसुहपावकम्मोद- दिन्नं च मए एयाणं पायच्छित्तं । तत्थं च एए तब्बयणदोसणं एणं सबमेयविहं हवा त्ति सुदठुयरं चिंतिउं पयत्ता; ज
जं ते समज्जियं श्रच्चंतकडविरसं दारुणबद्धपुट्ठनिकाइयं तुंग हा णं जहा भो पेन्छ्इ अत्ताणदोसोवहयाए दढमूढहि- जं च पावरासिं, तंच कुटुभगंदरजलोदरवायुगुम्मसासनिरोययाए विगयलज्जाए इमीए महापावकम्माए संसारघोरदु-| हहारसागंडमालाहि अणेगवाहियणापडिगयसरीराए दाक्खदायगं केरिसं दुठुवयणं गिराइयं, जं मम कन्नविवरे- रिहदुक्खदोहग्गयस ऽभक्खाणसंतावुब्वेगसंदीवियपज्जासुं पि ण पविसज्जति । जो भवंतरकरणं असुहपाव- लियाए अणतेहिं भवगहणेहि सुदीहकालेणं तु अहन्निसाकम्मोदएणं जं किंचि दारिद्ददुक्खदोहग्गअयस्सऽभक्खा- णुभवयव्वं । एएणं कारणण ण समा गोयमा ! सा रज्जणकुट्राइवाहिकिलेससन्निवायं देहमि संभवइ, न अन्नह- ज्जिया जा अगीयत्थत्तदासेणं वायामेत्तेणेव पमहंतं दुरूखत्ति । जेण तु परिसमागमे पढिजइ । तं जहा-" को देइ | दायगं पावकम्म समजियं ति । महा०६०। कम्ह देजर, विहियं को हरइ हारए कस्स । सयमप्पणो | रज्जधम्म-राज्यधर्म-नाप्रतिराज्य भिन्ने करादिके,दश०१अना विढतं, अल्लिययह दुहं पि सुक्खं पि ॥१॥" चिंतमाणीए चेव
रजपालिया-राज्यपालिका-स्त्री०। कामर्द्धिकस्थविरान्निर्गउप्पन्नं केवलनाणं । कया य देवहिं केवलिमहिमा । केवलिणा विणरसुरासुराणं पणासियं संसयतमपडलं अजिया
तस्य वेसपाटिकगणस्य द्वितीयशाखायाम् , कल्प। णं च । तो भत्तिभरनिब्भराए पणामपुव्वं पुट्ठो केवली
रजमाण-राज्यमान-त्रि० । रागवति, झा० १ श्रु० १७ अ०। रजाए, जहा-भयवं ! किमट्ठमहं पयाणं महंताणं महावाहि- | रज्जवइ-राज्यपति-पु० । स्वतन्त्र राजान,शा० १७० ११०। वेयणाणं भायण संवुत्ता। ताहे गोयमा ! सजलजलहरसुरदुं. | रज्जवद्धण-राज्यवर्द्धन-पुं०। अवन्तिराजपालकपुत्रे अवन्तिदुहिनिग्धोसमयोहारिंगंभीरसरेणं भणियं केवलिणा, ज
वर्द्धनलघुभ्रारि , श्रा० चू० ४ ०। हा-सुणसु दुकरकारिए ! जे तुझ सरीरविहरणकारणं ति। रजहीण-राज्यहीन-पुंगाराज्यच्युते, सूत्र०२ श्रु०३अ०१उ० । तए रत्तपित्तदूसिए अभंतरो सरीरगे सिणिद्धाहारमाकंठाए कोलियमीसं परिभुत्तं । अन्नं च एत्थ गच्छे पतीए।
| रजाहिवइ-राज्याधिपति-पु० । महामन्त्रिणि, राजनि च ।
बृ०४ उ०। साहुसाहुणीए, तहाऽवि जावइयं अच्छीणि पक्खालिज्जंति तावइयं पि बाहिरपाणगं सागारियट्ठापनिमित्तेण विण
रज्जु-रज्जु (ज्ज)-स्त्री० । रज्ज्वा यत्संस्थानं तद् रज्जुरभिकयाइ परिभुंजद । तए पुण गोमुत्तपडिग्गहणगयाए तस्स
धीयते । क्षेत्रगणिते, स्था० १० ठा० ३ उ०। मच्छियाहि भिणिभिणितसिंघाएगलालालोलियवयणस्स सं
सम्प्रति रज्जूस्वरूपमाहसटुगमुवगयस्स बाहिरपाणगं संघट्टिऊणं मुहं पक्खालिय। ते- सयंभुपरिमंताओ, अवरंतो जाव रज्जुमाईश्रो । ण य बाहिरपाणयसंघट्टणविराहणेणं ससुरासुरजगवंदाणं पि एएण रज्जुमाणेण, लोगो चउद्दसरज्जुओ ॥३१॥ अलंघणिज्जा गच्छमेरा अइक्कमिया । तं च णं खमिय तुज्झ केवलद्वीपपयोधिपर्यन्तवर्तिनः स्वयंभूरमणाभिधानजलनिपववणदेवयाए, जहा-साहुणाणं च पाणावरमे विच्छिप्पे धेः परतटवर्तिपूर्ववेदिकान्तादारभ्य यावत्तस्यैव तोयधेरपरहत्येणाधि, जं कृवतलायपुक्खरिणीसरियाइमतिगयं उदगं | वेदिकान्तः, एतावत्प्रमाणा रज्जुरवगन्तव्या । अनेन च रज्जूति, केवलं तु जमेव विराहिय अववगयसयलदोसं फासुगं |
मानेनोच्छ्रयतो लोकश्चतुर्दशरफ्जूप्रमाणो भवतीति। प्रव०१४३ तस्स परिभोगं पन्नत्तं वीयरागेहिं , ता सिक्खामि एसा द्वार। दुरायारा जेणऽनो वि को वि ण एरिसं समायारं पवनेइत्ति रजवः कस्मिन् स्थाने कति सन्तीतिचिंतिऊणं अमुगं २ चुन्नजोग समुद्दिसमाणाए पक्खित्तं अ- माघवईएँ तलाओ, ईसिप्पन्भार उबरिमतलं जा। सणमझमि तं देवयाए । तं च तेणोवलक्खियं ति देवयाए । चउदसरज्जू लोगो, तस्साऽहो वित्थरे सत्त ॥ १०६॥ एपण कारणेणं ते सरीरं विडियं ति, ण उण फासुगप
उवरिं पएसहाणी, ता नेया जाव भूतले एगा। रिभोगणं ति । ताहे गोयमा! रज्जाए विभावियं , जहाएवमेयं ण अन्नह त्तिः चिंतिऊण विन्नधिो केवली । जहा
तयणुप्पएसवुड्डी, पंचमकप्पम्मि जा पंच ॥ ६१०॥ भयव ! जर अहं जहुतं पायच्छित्तं चरामि, ता किं पनप्पर
पुणरवि पएसहाणी, जा सिलाएँ एकगा रज्जू । मज एव तणुं । तो केबलिणा भणियं । जहा-जइ कोइ पाय- घम्माऍ लोगमज्झे, जोयणयअसंखकोडीहिं ।। ६११॥ च्छितं पयच्छह ता पन्नप्पड़ । रज्जाए भणियं । जहा-भयवं! माघवत्याः-तमस्तमःप्रभापराभिधानायाः सप्तमनरकपृथिजह तुम चिय पायच्छित्तं पयच्छसि,अन्नो को एरिसो महप्पा। व्यास्त लादलोकपृथिव्याः संस्पर्शिनः सर्वाधस्तनभागादातो कोवलिना भणियं, जहा दुक्करकारि पयच्छामि अहं तहा। रभ्य ईषत्यागभापया: सिद्धशिलायास्सर्वोपरितनतलं लोका
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अभिधानराजेन्द्रः। न्तलक्षणं यावदृर्वाधोभागेन चतुर्दशरज्जूप्रमाणो लोको भव
स्थापितसप्तपञ्चाशदेखाभिरूर्वाधोभावेन षट्पञ्चाशत्खण्डति,तस्य च लोकस्याधस्तात्सप्तमपृथिव्या अधोभागे चिस्तर
कानि जायन्ते । चतुर्भिश्च खण्डकैरेका रज्जूरिति पदपञ्चातो देशोनाः सप्त रजयः। सूत्रकारेण त्वल्पत्याद्देशोनत्यं न विव- शतश्चतुर्मिीगहारे ऊर्ध्वाधश्चतुर्दश रजवो लभ्यन्ते इति,तिक्षितम् । ततोऽधोलोकान्तादुपरिप्रदेशहानिस्तियगङ्गलासं- र्यकत्रसनाडीमध्ये सर्वा एकैव रज्जूरुपर्यधोभावविनिवेशितख्ययभागहानिस्तावद् ज्ञातव्या यावद् भूतले तिर्यग्लोकम
रखापञ्चकेन खण्डचतुष्कस्यैव निष्पन्नत्वात् । एवं तावत् ध्यवर्ति समभूमिभागे विस्तरत एका रज्जूः , तदनु समभू..
त्रसनाडीमध्ये ऊर्ध्वाधाभावेन वण्डकान्युक्तानि । मिभागादुपरिमुखं प्रदेशवृद्धिस्तिर्यगङ्गलासंख्येयभागवृ- अथ सकलस्यापि लोकस्य तिर्यग्वर्तीनि खण्डकान्यभिद्धिस्तावद् द्रष्टव्या यावदृ लोकमध्ये पञ्चमे ब्रह्मलोकाभि- धातुकामः प्रथमं तावदूर्ध्वलोके रुचकादारभ्य लोकान्तं धे कल्पे विस्तरतः पञ्च रजवः, ततः पुनरप्यूचे प्रदेशहा
यावत्तियकखण्डान्याहनिस्तावदवसेया यावत्सिद्धशिलाया उपरिष्टाल्लोकान्ते
तिरियं चउरो दोसु, छ घोसुं अट्ठ दस य इक्किक्के । विस्तरत एकैकरज्जूः । घर्मायां च रत्नप्रभापराभिधानायां वारस दोमुं सोलस, दोसुं वीसा य चउसुं वि।। ६१४॥ प्रथमपृथिव्यां योजनानामसंख्याताभिः कोटिभिर्बहुसमभू-| रुचकसमाद् भूभागादूर्व द्वयोः पङ्क्त्योरेकोनत्रिंशत्तमरेमिभागादतिक्रान्ताभिर्लोकमध्यम् । इयमत्र भावना-इह साम-| खापरिवर्तिन्योस्तियतिरश्चीनानि चत्वारि चत्वारि खण्डस्त्येन चतुर्दशरज्ज्वात्मको लोकः, स च त्रिधा भिद्यते, तद्य-1 कानि सनाडीमध्यगतान्येव भवन्ति, प्रसनाड्या बहिस्तत्र था-ऊलोकस्तिर्यग्लोकोऽधोलोकश्च । तत्र तिर्यग्लो-1
खण्डकानामभावात् । तत उपरितन्योईयोः पङ्क्त्योः षट् स्वकस्य ऊर्ध्वाधोऽपेक्षया अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य म-1 ण्डकानि । तत्र चत्वारि प्रसनाडीमध्यवर्तीन्येव एकैकं तु ध्यभागे जम्बूद्वीपरत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुबहुमध्ये |
वसनाच्या बहिः प्रत्येकमुभयपार्श्वयोरिति । तत एकैकस्यां उष्टप्रादेशिको रुचकः, तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः पतौ मध्ये क्रमेणाऽौ दश च खण्डकानि, तथाहि-एकस्यां प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः । एष एव रुचकः सर्वासां दिशा पक्की नाडीमध्ये चत्वारि,बहिश्चैकपार्श्वे द्वयम्, द्वितीयपाश्चेविदिशां च प्रवर्तकः । एतस्माच्च रुचकादधिस्तिर्यग्लो
ऽपि द्वमित्यप्टो,परस्यां च पडतौ चत्वारि, मध्ये बहिश्च उभकविभागाः, तथाहि-रुचकस्याधस्तादुपरिष्वाच्च नव नव
यतः प्रत्येक त्रितयं त्रितमिति दश । ततोऽपि द्वयोः पङ्क्त्योः योजनशतानि तिर्यग्लोकस्याधस्तादधोलोक उपरिणादृर्ध्व
प्रत्येकं द्वादश खण्डकानि । चत्वारि मध्ये, बहिश्चत्वारि लोकः । देशोनसप्तरज्जूप्रमाण ऊर्ध्वलोकः , समधिकसप्तर
चत्वारीति । तदनन्तरं द्वयोः पङ्क्त्योः प्रत्येकं षोडश ज्जूप्रमाणोऽधोलोकः, मध्येऽष्टादशयोजनशतोच्छ्यस्तिर्य
पोडश खण्डानि । चत्वारि मध्ये पार्श्वयोश्च पर पडिति । ग्लोकः , ततो रुचकसमभूतलभागादधोमुखमसंख्याता|
तत उपरितनीषु चतसृषु पक्तिषु प्रत्येक विशतिखण्डकायोजनकोटीर्गत्वा रत्नप्रभायां चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्य- नि, चत्वारि मध्ये, बहिश्चैकपाद्येऽष्टावपरपार्श्वे ऽप्यपाविति । मभागः परिपूर्णसप्तरज्जूप्रमाणो भवतीति ।
तदेवमूर्ध्वलोके चतुर्दशसु पङ्क्तिषु यथासंभवं खण्डकानां संप्रति लोकस्य संस्थानमाह
वृद्धिरुक्ता। हेटाहोमुहमलग-तुल्लो उवरिं तु संपुडठियाणं ।
अथ चतुर्दशस्वपि पतिषु हानिमाहअणुसरइ मल्लगाणं, लोगो पंचत्थिकायमओ ॥१२॥ पुनरवि सोलस दोसुं, वारस दोसुं पि हुँति नायव्वा । अधस्तादधोभागोऽधोमुखमल्लकतुल्याऽधोमुखीकृतशराव- तिसु दस तिसु अट्ठ, छ दोसु दोसुं पि चत्तारिश६१५|| सदृक्षाकारः उपरि पुनः संपुरस्थितयोर्मल्लकयोः शरावयोरा-1 पुनरप्युपरितनपङ्क्तिद्वये घोडश खण्डकानि, भावना च कारमनुसरति लोकः । अयमर्थः प्रथमं तावदेकं शरावमधोमु- सर्वत्र प्राग्वदवसेया। तत ऊर्व द्वयोः पङ्कत्योर्दादश द्वादश समवस्थाप्यते,ततस्तस्योपरि द्वितीयमुपरिमुखं,तस्याप्युपरि खण्डकानि । ततोऽपि तिसृषु पक्लिषु दश दश खस्तकानि, तृतीयमधोमुखमित्येवं व्यवस्थितशरावत्रयसदृशाकारः स-1 तिसृषु पनिषु अष्टावष्टौ खण्डकानि । तदनु द्वयोः पङ्क्त्योः कलोऽपि लोको भवतीति, स च पश्चास्तिकायमयो धर्माध-|
षट् षट् खण्डकानि । ततोऽपि सर्वोपरिवर्तिन्योर्द्वयोः र्माकाशजीवपुद्गललक्षणैः पञ्चभिरस्तिकायैाप्तः।। पङ्क्त्योर्नाडीमध्यगतान्येव चत्वारि खण्डकानि भवन्तीति । अथ चतुर्दशरज्ज्वात्मकपि लोकमसत्कल्पनया स्वराड- इत्थं तावनिजगुरुप्रदर्शितस्थापनानुसारतो रुचकादारभ्य
कप्रविभागेन दिदर्शयिषुः खण्डकनिष्पादनाय तावदाह- लोकान्तं यावत् तिरियं चउरो दोसुं' इत्यादि गाथाद्वयं तिरियं सत्तावन्ना, उड्डू पंचव हुंति रेहायो।
व्याख्यातम् । अपरे तु वैपरीत्येन पट्टेषु स्थापना पश्यन्तः पाएसु चउसु रज्जू, चउदस रज्जू य तसनाडी।।६१२॥ |
एतद्गाथाद्वयं लोकान्तादारभ्य लोकमध्यं यावद्व्याख्यानतिर्यक्-तिरश्चीनाः सप्तपश्चाशत्संख्या रेखाः पट्टिकादौ |
यन्तीति । स्थाप्यन्ते, ऊर्ध्वमुपर्यधोभावेन पुनः पञ्चेव रेखाः स्थाप्या
अथाधोलोके सप्तस्वपि पृथिवीषु ऊर्ध्वाधोभावेनभवन्ति । तथा-'पाएसु चउसु'त्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वा
खण्डकान्याहचतुर्भिः पादैः खण्डकैरेका रज्जूभवति । इह चतुर्भिः खण्ड
उवरिय य लोयमझा, चउरो चउरो य सव्वहिं नेया । कैरेका रज्जूः परिकल्पिता, ततो रज्जूचतुर्थभागत्वात् ख-| तिग तिग दुग दुग एकि-कगो य जा सत्तमी पुढवी।।१६। ण्डकं पाद इत्यभिहितम् । चतुर्दशरज्जूश्च ऊर्ध्वाधोभावेन अवतीर्य लोकान्ताल्लोकमध्यं समागत्य ततो लोकमध्याद् चतुर्दशरज्जूप्रमाणा त्रसनाडी । इयमत्र भावना-तिर्यग्व्यव-1 रुचकलक्षणादारभ्य सर्वत्र सर्वासु पृथिवीषु प्रसनाडीमध्ये
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रज्जु
यानि
ऊधोभावेन चत्वारि चत्वारि बराडकानि जसनाज्याश्च वहिः खण्डकानामभाव एव ततः शर्करामभाषा उपरितनतलादारभ्य दक्षिणवामभागयोः प्रतिपति सिरीजानि भीणि त्रीणि चण्डकानि तावदूयधोमावेन हेयानि यावत्सप्तमपृथिव्या अधस्तनो भागः। ततो बालुकाप्रभावा उपरितलादारभ्य उपरि पार्थयोः बडकयात्पु रतः पुनरपि त्रीणि त्रीणि भडकानि तावदवसेयानि याव त्सप्तमी पृथिषी । ततः पद्मभाषा उपरि तलादारभ्य द्वयोः पाश्वयोः पूर्वोलखण्डकेभ्य परतो हे हे खडके तावदवगस्तव्ये यावत्सप्तमी पृथिवी । ततः पुनरपि धूमप्रभावा आरभ्य चावद्वयेऽपि द्वे द्वे खडके तावद्भवन्ति यावत्सप्तमी पृथिवी ततो भूयोऽपि तमःप्रभाषा भारभ्य पार्श्वद्वयोस्तायदेकैकं स्वराडकं स्थापनीयं यावत् सप्तमी पृथिवी । ततः सप्तम्यामपि पृथिव्यां पूर्वोएडकेभ्यः परत उभयपार्श्वयो एकं प्रतिपािचपति यावत्सर्वास्नी पतिरिति तदेवमधोलोके ऊयथोभावेन सरकान्युक्तानि ।
अथ तमस्तमः प्रभाया आरभ्य रजप्रभा यावत्पृथिवीतिर्यकखण्डकप्रमाणमाह
( ४८० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अडबीसा छब्बीसा, चवीसा बीस सोल (स) दस चउरो । सत्तासु वि पुढवीसुं, तिरियं खड्ड्यगपरिमाणं ॥ ६१७ ॥ सप्तम्यां तमस्तमः प्रभायां नरकपृथिव्यामष्टाविंशतिः खराड कानि तिर्यग्भवन्ति । तत्र सनाज्या बहिरेकपार्श्वे द्वादशद्वितीयपार्श्वेऽपि द्वादश, प्रसनाडीमध्ये च चत्वारीति । तमःप्रभायां पविशतिः खण्डकानि चत्वारि मध्ये बहिर्भागयोबेकादशेति । धूमप्रभायां चतुर्विंशतिः चत्वारि मध्ये उभयपार्श्वयोध दस बरोति। पद्मभायां विंशतिः मध्ये चारि पहिभांगयोधाष्टाष्टाविति । वालुकाप्रभायां पोरामध्ये च त्यादि उभयपार्श्वयोः पद पडित शर्करातिद श खण्डकानि चत्वारि मध्ये, दक्षिणवामभागयोश्च त्रीणि त्रीणीति । रत्नप्रभायां च जलनाडीमध्यगतान्येव खत्वारि तिर्यक्खण्डकानीत्येवं सप्तस्वपि तमस्तमःप्रभाद्यासु पृथिश्रीषु तियंकिरधीनखराडकानां कल्पितचतुरखाकारनभोभागरूपाणां परिमाणं सख्यानां समवसेयमिति ।
काय सफलस्यापि लोकस्य खण्डकसर्वसंख्यामाहपंचसयनारसुत्तर, हेट्ठा तिसयाउ चउर अन्भहिया । अह उडुं अट्ठ सथा, सोलहिया खण्डया सव्वे ॥ १८ ॥ पश्च शतानि द्वादशोत्तराणि द्वादशाधिकानि खराडकानाम् ' हे ति ' अधोलोके भवन्ति । तथाहि - ' अडवीसा' इत्या दिगाथोहान अष्टाविंशत्याचङ्कान मीलयित्वा प्रतिपृथिवीम् अष्टाविंशतिपदविशत्यादिखण्डकसक्योपेतपविश्यसद्भावाच्चतुर्भिर्गुणयेत् । ततो जायन्ते पञ्चशतानि द्वार शोत्तराणीति । उ ति प्रथाधोलोकादनन्तरम्लोके श्रीणि शतानि चतुर्भिरभ्यधिकानि खल्डकानां भचन्ति । तिरियं चउरो दोसुं' इत्यादि माथा द्वितयोदितम esकमीलने यथोक्तसंख्या सद्भावात् सर्वाणि चाधोलोकोसम्बन्धीनि बराडकानि मिलितानि अष्टौ शतानि षोडशाधिकानि (१६) भवन्तीति ।
"
रज्जु
अथ सर्वस्मिन्नपि लोके यावन्त्यो पावन्त्यो रजवी भवन्ति तावतीदर्शयितुमाह
बत्तीसं रज्जूओ, हेडा रूपगस्स हुंति नायम्या एगोणवीसमुवरिं, ऍगवचा सम्बपिंडेखं ।। ६१६ ॥ रुचकस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्याधस्ताद्-अधोलोके इत्यर्थः, शात्रिशद रजयो भवन्ति ज्ञातव्याः । इह फिल त्रिधा रज्जू:सूचीरज्जूः, प्रतररज्जुः, घनरज्जूश्च । तखायामतः - एडकचतुष्टयप्रमाणा बाहल्यतः पुनरेकमा कश्रेणिसूच्याकारव्यवस्थापितखण्डकचतुष्टयनिष्पन्नत्वात्सूधीरज्जुः । तथा एव मा प्रदर्शिता खडकचतु कात्मिका सूचिस्तथैव गुण्यते, अतः प्रत्येकं खण्डकचतुष्टनिष्पन्नसूचीचयात्मिका उपरितनाऽधस्तनखण्डकरद्दिता पोडशखएडकसंख्या प्रतररज्यू संपद्यते । तथा प्रतर एव सूच्या गुणितो देभ्ये विष्कम्भतः पिण्डतथ समसंयचरडकोपेता सर्वतचतुरक्षा धनरज्जू देयांदिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव घनस्येह रूढत्यात् । प्रतररज्जु दीर्घविष्कम्भाभ्यामेव समानपिण्डस्तस्यैकखण्डकमानत्वादिति भावः । एषा च धनरज्जूश्वतुःपण्डिकात्मिका, पूर्वोक्रसूच्या नन्तरोदितोडक प्रमिते प्रतरे गुणिते एतावतामेव चण्डकानां भावात् स्था पना व प्राशुषोडश खडकात्मकप्रतरस्योपरि न वारान् पोड पोट खण्डकानि हत्या भावनीया । तथा च देयंविष्कम्भपिण्डैस्तुल्यो ऽयमापद्यत इति । उक्तं च- "सूईरज्ज्व उहि उखड गहिं सोलसेहि पयररज्जू व चंडसट्टि डगेहि, घणरज्जू होइ विज्ञेया ॥ १ ॥ " ततो द्वादशोत्तरपञ्चशतरूपस्याधोलोक खण्डराशेः प्रतररज्ज्वानयनाय षोडशभिर्मागे हते शातिर भवन्ति । तथा उपरि ऊर्ध्वलोके एकोनविंशतिः प्रतररजवः । चतुरुत्तरशतत्रयस्य षोडशभिर्भागाहारे एकोनविंशतेरेव लभ्यमानत्वात् । तथा सर्वपिण्डेनाधोलोको लोकसम्वन्धिसर्वरज्जूमनेन एकपात्तररञ्जयो भवन्तीति ।
साम्प्रतं धनरज्जूच्यां प्रतिपादयिषुः प्रथमं तावलोकपनीकरणमाह-दाहियो उ दुखण्डा, बामे संधिन विदिपविवरीयं । नाडीजुयातिरज्जू, उड्डाऽहो सत्ततो जाया ।। ६२० ॥ हेडाम वामखंडं, दाहिणपासम्म बसु चिचरीयं । उमरिमतिरज्जुखंड, वामे ठाणम्मि संधिजा ॥ ६२१ ॥ ऊर्ध्वलोके असनाच्या दक्षिणावर्तिनीये हे खडे ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च खण्डं परिगृह्य-विपर्यंत च विधाय, अथस्तनभागमुपरितनं चाहत्य थे वामपादयात् संयोजयेत् । ततस्ते द्वे करा र ज्जुभिस्ततया माया युते सर्वत्र विस्तरतस्तिस्रो
यो जाता, ऊर्ध्वाधोऽधोये सप्त रखा ह लोकसम्बन्धिनं, 'हेडाउ नि' अधस्ताद्धोलोके पुनागाडीतो वामभागमूर्तिच या गृहीत्वा दक्षिणपा बिपरीत कृत्या स्थापयेत्। तत उपरितनवर्तितोलोकरूपं चरा विरहविस्ती संवर्तिताधोलोकस्य पामे स्थाने वामपार्श्वे सङ्घातयेत् । इत्र भावना-द
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रज्जु
स्वरूपतस्तावलोकश्चतुर्दशरज्जू प्रमाणः, अधस्ताद्विस्तरतो देशोनससरज्जूप्रमाणः तिर्यग्लोकमध्यभागे एकरज्जू ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जू, उपरि च लोकान्ते एकरज्जुः शेषस्थानेषु पुनरनियतविस्तरः । एवं प्रमाणस्य लोकस्य वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य घनीकरणाय प्रथममुपरितनलोकार्थे संवत्येते । तथाहि - सर्वत्रैकरज्जूविस्तीर्णायास्त्रसनाड्या दक्षिणभागवर्तिनि ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च ये द्वे खडे कूर्षराकारसंस्थिते प्रलोकमध्ये प्रत्येकं द्विरविस्तीर्णे देशोनार्थचतुवरज्जू च्छ्रेये, ते बुद्धिकल्पनया समादाय त्रसनाड्या एवमुत्तरपायें वैपरीत्वेन सात्येते । एवं चोपरितनं लोकार्थे प्रिरज्जूविस्तारं देशोनसप्तरज्जूच्यम्, बादल्पतस्तु ब्रह्मलो कमध्ये पञ्च रज्जूप्रमाणमन्यत्र त्वनियतबाहल्यं जायते । ततोऽधोलोके त्रसनाड्या दक्षिणभागवधोलोकखण्डमधोभागे देशोनरज्जू विस्तारं क्रमेण हीयमानविस्तरं तावद्यावदुपरिष्टाद्रज्जूसंख्येयभागविष्कम्भं समधिकतर बुद्धया परिगृह्य सनाढ्य एयोसरपार्श्व भागवि पर्यासेन संयोजयेत् । एवं च कृतेऽधस्तनं लोकार्थ देशोनचतुरज्जूविस्तारं सातिरेकसतरज्जूयम् बाहयतो उपय धः किचिनसशरज्जुमानम् अन्यत्र त्वनियतवाहल्य जायते। तत उपरितनमधे बुद्धया गृहीत्याऽथस्तनस्वार्थ स्योत्तरपार्श्वे संघात्यते । तथा च सति क्वचित्सातिरेकससरजूयः क्वचिच्च देशोन सतराजूच्यः विस्तरतस्तु देशोनसप्तरज्जूप्रमाणो घनो जातः, ततः सप्तरज्जूनामुपरि यधिकं तत्परिगृा उत्तरपा ऊर्जा आयतं संपात्यते ततो विस्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्त रञ्जयो भवन्ति । तथा संघातितोपरिखण्डस्य बाहल्यं क्वचित्पञ्च रजवः । अधस्तनरस्य तु पाहल्यै अधस्ताद्यथासंभवं देशोनाः सप्त र जवः । ततः उपरितनखण्डबाहल्याद्देशो नरज्जूद्वयमत्रातिरिच्यते इत्यस्मादतिरिच्यमानबाहल्यादधे गृहीत्वा उपरितनखण्डबाहल्ये संयोज्यते एवं च कृते बाहल्यतस्तायत् कियत्यपि प्रदेशे किंचिना पद रज्जयो भवन्ति । व्यबहारतस्तु सर्वमप्येतच्चतुरस्रीकृतन मः खएडसतरज्जुप्रमाणमुच्यते । व्यवहारनयो हि किंचिन्न्यून सप्तहस्तादिप्रमाणमपि पटादिस्तु परिपूर्णसहस्तादिमानं व्यपदिशति देश तोऽपि वर वाहत्यादिधर्म परिपूपि वस्तुनि व्यवस्थ ति स्थूलदृष्टित्वादिति भावः । श्रत एव तम्मतेनैवात्र सप्तमरज्जूबाहल्यता 'सर्वगताऽवगन्तव्या । श्रायामविष्कम्भाभ्या मपि यत्र देशोनसप्तरज्जूप्रमाणमिदं व्यवहारतस्तत्रापि प्रत्येकं सप्तरज्जूप्रमाणता दृश्या । तदेवं व्यवहारनयमतेनायामविष्कम्भवाहल्यैः प्रत्येकं सप्तरज्जूप्रमाणो घनो जायते । एतच्च पट्टिकादौ लिखित्वा भावनीयमिति । [ प्रव० ] ( धनीकृत स्य लोकस्य रज्जूसंख्यां ' घणरज्जु' शब्दे तृतीयभागे २०४ पृष्ठे गता )
9
(१) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
थोर्ध्वलोके यावत्सु खण्डकेषु यावन्तो देवलोका भवन्तीत्येतदाहअखंड व दुर्ग उसु दुर्ग दस ति चचारि । चउसु चउकं गेवे-जणुत्तराई चउकमि ॥ ३० ॥
१२१
रटुवाल
रुचकस्माद् भूभागादुपरिमुखेषु पदम् खएडकेषु सार प्रमाणे क्षेत्रे इत्यर्थः, द्विकं सौधर्मेशानलक्ष देवलोकद्वयं भवति । ततोऽप्युपरितनेषु चतुर्षु खण्डकेषु रज्जूमाने क्षेत्रे समकुमार माहेन्द्ररूपं देवलोकाद्विकं भवति । ततोऽप्युपरि दशसु खण्डकेषु अधीरज्जुमिते भवन्ति ब्रह्मलोफलान्तफफसहस्रारस्वरूपाश्चत्वारो देवलोकाः। तदनु चतुर्षु खराडकेषु रज्जुपरि क्षेत्रे अनतप्राकृतारहाच्युतनामकानां देवलोकानां चतुष्कं भवति । ततः सर्वोपरिवर्तिनि खण्डकचतुष्टयेऽन्तिमरजी नववेकविजयज यन्तजयन्तापराजित सर्वार्थसिद्धाख्यानि पञ्चानुत्तरविमानानि सिद्धक्षेत्रं च भवन्तीति । प्रब० १४३ द्वार । सूत्र० । स्था० । सनादिमये दवरिके, भ० श० ६ उ० । ३० ।
66
'रज्जू वरता य" पाइ० ना० २१० गाथा । रज्जुग-रज्जुक - पुं० | लेखके, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । रज्जुगसभा-रज्जुकसमा स्वी० । रज्जुका लेखकाः । 'कारकून' शालायाम्, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । रज्जुग्धाय रजउद्घात पुं० विश्वसः परिणामतः समन्ता देणुपतने, स्था० १० ठा० ३ ३० । रज्जुचिलिमिलिया-रज्जुचिलिमिलिका-श्री० श्रकिदबरके, वृ० १ ० ३ प्रक० । रज्जुपिनद्ध-रज्जुपिनद्ध त्रि० । रश्मिनियन्त्रे प्रश्न० ४ सं
1
व० द्वार ।
रज्जुमग्ग-रज्जुमार्ग पुं० यत्र रज्ज्या किञ्चिदतिदुर्गम इष्यते तार मार्गे ०१०१०
-
रज्भिय रहित त्रि० अनिरन्तरे, "न तत्थ सायं लहनी ऽभिदुग्गे, अरहि (ज्भ) याभितावा तहवी तविंति " ॥ १७ ॥ सूत्र० १ श्रु० ५ ० १ उ० । रट्ठ-राष्ट्र-न० । अनपदे, देशे, शा० १ ० १ ० । कल्प० । रा० । जनपदेकदेशे भ० १५ २० ऋषभदेवस्य स्वनामस्याने चतुस्त्रिंशे पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । रहउड-राष्ट्रकूट- पुं० राष्ट्र महसरे, पृ० ३ ० मरडलोपजीविनि राजनियोगिके, विपा० १ ० १ ० रट्ठकूट - राष्ट्रकूट- पुं० । वेभेलसंनिवे से स्वमातुलसुतायाः सोमानान्याः पत्यौ, नि० १ श्रु० ३ वर्ग ४ श्र० । रट्ठधम्म- राष्ट्रधर्म्म- पुं० । देशाचारे, स्था० १० ठा० ३ उ० । रट्ठवण - राष्ट्रवर्द्धन - पुं० । श्रवन्तिराजस्य पालकस्य पुत्रे
।
प्रद्योतस्य पौत्रे, श्राव० ४ ० । श्रा० चू० ।
रटुवाल - राष्ट्रपाल - न० । भरतचक्रवर्त्तिनः चरितप्रकाशके
पादभूतिना ते नाटके, यदि सिंहरथस्य राज्ञः सभायामप्रतिनर्तितं सत्तानां राजपुत्राणां नाख्यपात्रीभूतानां कारणमभूदिति पि(अग्नी प्रवेशितमिति नेदानीमु पलभ्यते ) ' आसाढ भूइ सादर शब्दे द्वितीयभागे ४७७ पृष्ठे उदाहृतम्)
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(४२) रट्टिय अभिधानराजेन्द्रः।
रत्तप्पभ रद्विय-राष्टिक-नं० । राष्ट्रमहत्तरे, नि० चू० २ उ०।
परमत्ता, गोअमा! मंदरचूलिआए उत्तरेणं पंडगवणउरडिय-रुदित-न० । अश्रुविमोचने, प्रश्न०५ संव० द्वार।
त्तरचरिमंते एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला रटित-न० । कलहायिते, “ कलहाइअं रडिअं" पाइ० ना.
पमत्ता, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिमा सव्वत२३२ गाथा । रण-रण-पुं० । कातरजनक्षोभके संग्रामे , स० १४१ सूत्र ।
वणिजमई अच्छा जाव मज्झदेसभाए सीहासणं, तध०। सूत्र० । प्रव० । कलहे, " संगामो संजुभं आहवं | त्थ णं बहूहिं भवणवइ जाव देवेहिं देवीहि अएरावयरणं संगरं समरं" पाइ० ना० ३३ गाथा । शब्दे, “ रणो गा तित्थयरा अहिसिचंति । (सू०१०७) सहो" पाइ ना० २६६ गाथा ।
सम्प्रति चतुर्थी शिला-'कहि ण' मित्यादि , प्रश्नः प्राग्वरणरणअ-रणरणक-पुं०। पीडायाम् ,"अदिही अरई यर
त् , उत्सरसूत्रे सर्व द्वितीयशिलानुसारेण वाच्यम् , वर्णतश्च गरणो" पाइ० ना०१६४ गाथा।
सर्वतपनीयमयी , श्रीपूज्यैस्तु सर्वा अर्जुनस्वर्णवर्णा उन्ना रणसीस-रणशीर्ष-न० । संग्रामशिरसिं, सूत्र०१ श्रु० ३ ० |
इति , 'ऐरावतका' इति ऐरावतक्षेत्रभवाः , सिंहासनस्यै१ उ०। प्रश्न । रणशब्दस्यापभ्रंशे सप्तम्यां रणिः । (१) प्राणि
कत्वं भरतक्षेत्रोक्लयुक्त्या वाच्यम् । जं०४ वक्षः। स्था० । चिट्ठदि नाई, धुं रणि करदिन भ्रन्त्रि" प्रा०४ पाद।
रत्तकूड-रककूट-न० । शिखरधरपर्वते षष्ठे कूटे, ज०४ वक्षा रस्म-अरण्य-न । वने, “वाऽलावरण्ये लुक" ॥८।१।। ६६ ॥ इत्यनेन श्राद्याकारस्य लुग् वा । प्रा०१ पाद।
रत्तक्ख-रनाक्ष-त्रि० । अरुणदिवाकरनयने, भाव० ४ अ०। रतनुच्चय-रत्नोच्चय-पुं० । रत्नानां नानाविधानामुत्प्रावल्येन रत्तक्खर-देशी-सीधुनि, दे० ना० ७ वर्ग० ४ गाथा । चयः-उपचयो यत्र स रत्नोश्चयः । मेरुपर्वते, सू०प्र० ५
रत्तचंदण-रक्तचन्दन-न० । लोहितवर्णे चन्दनविशेषे, स० । पाहु०। (अस्मादेव दिशां विभागः स च 'दिसा' शब्दे रा०। प्रशा० । औ०। चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे दर्शितः) (अस्य षोडश नामानि 'गि
पृष्ठ दांशतः) (अस्य षोडश नामानि गि- रत्तच्छ-रक्काक्ष-त्रि० । लोहितलोचने, उपा० २ अ०। रिराय' शब्दे तृतीयभागे८७६ पृष्ठे गतानि) (अस्य उचत्वादिकम् 'मंदर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २७ पृष्ठे गतम्)
| रत्तडी-रात्रि-स्त्री० । “ रजन्याम् , ढोला मइ तुहुँ वारिश्रा, रत्त-रक्त-त्रि० । रञ्जिते, शा०१ श्रु० अ०। उत्त० । श्र-1
मा कुरु दीहा माणु । निदरा गमिही रत्तडी, दडवड होइ रुणे, " अरुणं सोणं रत्तं पाडलमायबिरं तंबं" पाइ०
विहाणु"प्रा०४ पाद । ना० ६३ गाथा । अत्यन्तसम्यक्त्ववासितान्तश्चेतसि ,
रत्ततल-रक्ततल-न० । लोहिताधोभागे, औ०। तं। सूत्र०२ श्रु०७ अ०। प्रदत्तरागे, वृ०२ उ०। धातुप्रभृतिभि- रत्तधाउ-रक्तधातु-पुं० । कुण्डलवरद्वीपमध्यगतस्य कुण्डलद्रव्यैः रक्कीकृते, वृ०१ उ०२ प्रक० । कुसुम्भरागे, वृ०१ उ० शैलस्य दक्षिणश्रेण्यां चतुर्णा कूटानां मध्ये द्वितीयकृटे, द्वी०।। ३ प्रक० । लोहिते, रक्तवणे, भ०१श०१उ०। प्रश्न।" रत्ता- रत्तपड-रक्कपट-पुं० । सौगते, परिव्राजके च । वृ०१ उ० २ सोगपगासकिंसुअसुअमुहगुञ्जद्धरागसरिसे" रक्ताशोकप्रकाशस्य किंशुकस्य-पुष्पितपलाशस्य शुकमुखस्य गुजार्द्ध
प्रक० । ज्ञा०। स्य च रागेण सदृशो यः सः तथा तस्मिन् । पारनेत्य
रत्तपालजक्ख-रक्तपालयक्ष-पुं० । महापुरं नाम नगरं रक्ताथे, अनु० । रुधिरे, न० । तं० । स्था० । रागयुक्ने , तद्भावि
शोकं नाम उद्यानम् । तस्मिन् पूज्यमाने यक्षे, विपा०२ श्रुक तमूर्ती च । त्रि० । आचा०१ श्रु० ३ अ०२ उ०। श्राव०।। ७०। गेयरागानुरक्तेन यद् गीयते तद् रक्तम् । द्वितीयगेयगुणे,
| रत्तप्पभ-रक्तप्रभ-पुं० । कुण्डलवरद्वीपमध्यगतस्य कुण्डलजी०३ प्रति०४ अधि० । अनु०। जं०रा० । मनोहरे । औ०। गृद्धे, प्राचा० १ श्रु०२ १०३ उ० । अत्यन्तोत्कट
शैलस्य दक्षिणश्रेसयां चतुर्णा कूटानां मध्ये प्रथमे कूटे, द्वी। रागतया प्रधानमपि वस्तु विरूपतयाऽध्यवस्यति इति आरक्तः
रक्तप्रभकूटस्थोश्चत्वादिश्रावकगुणः। दर्श०२ तत्त्व ।
एएसि कूडाणं, उस्सेहो पंच जोयणसयाई । रत्तंसुय-रक्नांशुक-न० । मशकगृहाभिधे, चं० प्र० २० पाहुः ।
पंचव जोयणसए, मूलम्मि उ वित्थडा कूडा ।। ७७ ॥ रत्तंसुयसंबुड-रक्तांशुकसंवृत-त्रि० । रक्तांशुकेनातिरमणीयेन
तिन्नेव जोयणसए, परमत्तरि जोपॅणसयाइँ मज्झम्मि । मशकगृहाभिधानेन वस्त्रेण संवृते आच्छादिते, कल्प०
अड्राइजे य सए, सिहरितले वित्थडा कूडा ॥७८ ॥ १ अधि०२ क्षण । जी० । रा० । भ०। रत्तकंबलसिला-रक्तकम्बलशिला--स्त्री० । मेरौ, पण्डकवन- तिमेव जोयणसए, पंचेव सयाइँ एकवीसाई । मध्ये चूलिकायाः पश्चिमदिशि चतुर्योजनोच्छितसर्वकाञ्च
मूलम्मि उ कूडाणं, सविसेसो परिरो होइ ॥ ७६ ।। नमयचन्द्राद्धसंस्थानसंस्थितायां चतुर्थ्यां शिलायाय, स्था। एगं चेव सहस्सं, चूलसियं चेव होइ सममेगं । 'दो रत्तकंवलसिलाओ' स्था०२ ठा० ३ उ० ।
मज्झम्मि उ कूडाणं, विसेसहीणो परिक्खेवो ॥८॥ कहिणं भन्ते! पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला|
| १-नायक ! मया त्वं वारितः, मा कुरु दीर्घ मानम् । निद्रवा गमिष्यति (१) पारणे तिष्ठति नाथो यः स रखे करोति न प्रान्तिः। | रात्रिः, शानं भवति प्रभातम् ।
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( ४८३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
रतप्पभ
सत्तेव जोयणसए, एकाणउयं च जोयणा होंति । सिहरितले कूडाणं, सविसेसो परिरश्रो होइ ॥ ८१ ॥ पलिओ मडिईओ, नागकुमारा हवंति एएसुं । द्वी० । रत्तप्पवायदह- रक्तप्रपातहूद-पुं० । जम्बूद्वीपे पेरवतवर्षे, दीर्घवैतान्यपर्वते पूर्वोदधिगामिन्याः रक्तवत्याः महानद्याः उद्गमस्थाने गङ्गाप्रपात दसदृशे, स्था० ।
जंबूमंदरउत्तरेणं एखए वासे दो पवायद्दहा पत्ता, तं जहा - बहुसमतुल्ला • जाव रत्तप्पवायद्दहे चेव, रत्तावइप्पवायह चैव । (सू०८८ ) स्था० २ ठा० ३ उ० । रचफुड–रक्तस्फुट–पुं० । वदरीवननिवासिनि स्वनामख्याते, नागे, “येन रक्तस्फुटो नागो निवसन् वदरीवने । पातितः क्षतिशस्त्रेण, क्षत्रियः सैष वै भवान् ॥ १ ॥ " प्रव० २ द्वार । रत्तय- देशी-बन्धके, दे० ना० ७ वर्ग ३ गाथा ।
रत्तरयण- रक्तरत्न - न० । पद्मरागादिके, सूत्र० २ श्रु० १ ० ।
भ० । ज्ञा० ।
रसवई - रक्तवती - स्त्री० । जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे शिखरिवर्षधरपर्वतात् निर्गत्य पश्चिमसमुद्रसङ्गतायां महानद्याम्, स्था० ३ ठा० ४ उ० ।
एवं जह चैव गंगासिंधूओ तह चैव रत्ता -- रत्तवईओ यव्वा । पुरच्छिमेणं रत्ता, पच्चत्थिमेणं रत्तवई अवसिद्धं तं चैव । ( सू० ११ )
थैव गङ्गासिन्धू तथैव रक्तारक्तवत्यौ नेतव्ये, तत्रापि दिग्व्यक्तिमाह पूर्वस्याम्-रक्ला, पश्चिमायाम् - रक्तावती । जं०४ वक्ष० । ( जम्बूद्वीपे द्वीपे महानदीनां मध्ये गता एषा चतुर्दशनदीसहस्त्रैः सह पश्चिमसमुद्रं गच्छतीत्यादिवक्तव्यता 'जंबूदीव ' शब्दे चतुर्थभागे १३७८ पृष्ठे उक्ता )
रत्तारत्तवती णं महागदीओ पवाहे सातिरेगे चउव्वीसं कोसे वित्थारेणं पन्नत्ता । ( सू० २४ )
' पवह ' इति - ' यतः स्थानान्नदी प्रवहति-वोढुं प्रवर्त्तते, स च पद्मदात्तोरणेन निर्गम इह संभाव्यते, न पुनर्योऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वा विवक्षितः, तत्र हि जम्बुद्वीपप्रज्ञप्त्यामिह च पञ्चविंशतिकोशप्रमाणा गंङ्गाऽऽदिनद्यां विस्तारतोऽभिहिताः ॥ २४ ॥
स० २४ सम० ।
जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तावई महारादिं पञ्च महाणईओ सपेंति इंदा इंद सेणा सुसेणा वारिसेगा महाभागा । स्था० ५ ठा० ३ उ० ।
जंबू ! मन्दरउत्तरेणं रत्तारत्तवईओ महाणईओ दस महाणईओ समप्पेंति । तं जहा - किएहा महाकिरहा नीला महानीला तारा महातारा इंदा • जाव महाभागा । ( सू० ४७० ) स्था० १० ठा० ३ उ० ।
०
१- आदिशब्दा रक्तावती ।
रत्ततिष् चम्पाराजदत्तस्य भार्यायां महाचन्द्रकुमारमातरि, विपा० २ श्रु० है ० ॥ रत्तवइप्पवायदह-रक्तवतीप्रपातइद- पुं० ॥ म्बूद्वीपे ऐरवतवदीर्घवैतान्यपर्वते पश्चिमोदधिगामिन्याः रक्तवत्याः नद्याः उद्गमस्थाने सिन्धुप्रपातसदृशे प्रपातइदे, स्था० २ ठा० ३७० ॥ दो रत्तवइप्पवायद्दहा ! स्था० २ठा ३ उ० । रतसिला - रक्तशिला- स्त्री० । मेरौ पण्डकवने तृतीयशिलायाम्, जं० ।
अथ तृतीयशिला -
कहि णं भंते ! पडंगवणे रत्तसिला यामं सिला पत्ता, गोयमा ! मन्दरचूलिआए पच्चत्थिमेणं पंडगवणपच्चत्थिमपेरंते, एत्थ णं पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पपत्ता । उत्तरदाहिणायया पाईणपडीयवित्थिमा ०जाव तं चैव पमाणं सव्वतवणिजमई अच्छा उत्तरदाहिणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पम्मत्ता, तत्थ खं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवणइहाइ तित्थयरा अहिसिचंति, तत्थं णं जे से उत्तरले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवण ० जाव वtoise तित्रा अहिसिच्चति (न्ति ) | ( सू० १०७ ) 'कहि ण 'मित्यादि, इदं च सूत्रं पूर्वशिलागमेन बोध्यम्, केवलं वर्णतः सर्वात्मना तपनीयमयी रक्तवर्णत्वात्, सिंहा-. सनद्वित्वभावना त्वेवम् एषा पश्चिमाभिमुखा तद्दिगभिमुखंच क्षेत्रं पश्चिममहाविदेहाख्यं शीतोदादक्षिणोत्तररूपभागद्वयात्मकम्, तत्र च प्रतिविभागमे कैकजिनजन्मसम्भवाद्युगपजिनद्वयमुत्पद्यत तत्र दाक्षिणात्ये सिंहासने दक्षिणभागगतपक्ष्मादिविजयाष्टकजाता जिनाः स्त्राप्यन्ते, श्रीत्तराहे च उसरभागगतवप्रादिविजयाष्टकजाता इति । जं० ४ वक्ष० । रत्ता- रक्ता - स्त्री० । जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे शिखरिवर्षधर पर्वतानिर्गत्य पूर्वलवणसमुद्रसङ्गतायां महानद्याम्, (तद्वक्तव्यता गङ्गावक्तव्यतावशेया ) स्था० ३ ठा० ४ उ० । रत्ताकुंड - रक्ताकुण्ड न० । रक्लाख्यमहानद्युद्गमस्थानीभूते कुराडे, स्था० ८ ठा० ३ उ० । रत्ताभ-रक्ताभ-पुं० । रक्तवर्णे, जी० ४ प्रति० । रत्तावईकुंड- रक्नावतीकुण्ड न० । रक्लाख्यमहानद्युद्गमस्थानीभूते कुण्डे, स्था० ८ ठा०३ उ । रत्तावंग — रक्नापाङ्ग———त्रि० । लोहितनयनोपान्ते, जं० १ वक्ष० । जी० ।
रत्तासोग - रक्ताशोक-पुं । अशोकवृक्षविशेषे, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । श्र० ।
रत्तासोगप्पगास-रक्ताशोकप्रकाश-पुं० । रक्तस्याशोकस्य प्रभासमूहे, कल्प० १ अधि० ३ क्षण | दशा० । रति - रात्रि-स्त्री० । रजन्याम् सर्वत्र ल-व- रामचन्द्रे ||२| ७० ॥ इति रेफस्य लोपो भवति । रात्रिः । रत्ती ।। प्रा० । रतितिहि-रात्रितिथि- स्त्री० । तिथेः पश्चार्द्धभागे, बं० प्र०१
पाहु० ।
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( ४८४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
रतिय
रतिय-रात्रिक- त्रि० । रात्रौ भवं रात्रिकम् । रात्रियाते, उस० २६ अ० । रात्रेरन्ते भवे, प्रव० ३ द्वार । रचियर - रात्रिचर - त्रि० । चौरादिके, स्था० ४ ठा० ३ उ० । रचिविणास - रात्रिविनाशक- पुं०भरात्रिविनाशकारणे, कल्प० १ अधि० ३ क्षण |
66
रती - देशी - आशायाम्, दे० ना० ७ वर्ग १ गाथा । रत्ती - रक्तिक-- पुं० | नापिते, “ वच्छीउतं जाणइ य, चंडिलं रहाविश्रं च रतीनं " पाइ० ना०६१ गाथा । दे० ना० । रतुक्कडा--रक्लोत्कटा - स्त्री० । मासान्ते त्रीणि दिनानि यावचिरन्तरमफ अयति तदत्र रक्कमुच्यते तेन रन रुधिरेण उत्कटा या सा । रजस्वलायाम्, तं०। आव० । रतुप्पल - रक्तोत्पल-- न०। रक्तपद्मपत्रे, प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वार । रा०] लोहितकमले श्री० भ० कप० । रतुप्पलपत्तसुकुमालकोमलतला” रक्तं-लोहितम् उत्पलपत्रवत् । जी० ३ प्रति० २ उ० । “रसुप्पलपडमकरचरणकोमलङ्गुलितला "रक्लोत्पलवत् करचरणानां कोमला अङ्गुल्यो येषाम् । तं० । "तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीहं " रक्तोत्पलं रक्तकमलम् । कल्प० १ अधि० २ क्षण । रतोयाकूड रक्क्रोदाकूट -२० शिखरधरपर्वते अश्मे कूटे,
66
"
स्था० २ ठा० ३ उ० ।
9
रत्थंतर - रथ्यान्तर - न० । मार्गमध्ये कल्प० १ अधि० ५ क्ष। श्री० ।
रत्या रथ्या स्त्री० सेरिकायाम् उत० ३० उ० ॥ रत्थामुह - रथ्यामुख - न० । मार्गप्रवेशे, श्रा० म० १ ० । रध्यायाः पार्श्वे, वृ० १ ० ३ प्रक० । रथकार- रथकार पुं० काफलाभिने कारुके, “पुरं खोपारकं तत्र रथकारो ऽभवत्सुधीः। तदास्याथ द्विजाजातः कोकसो नाम दारकः ॥ १ ॥ " । श्रा० क० १ अ० । रद्ध-राद्ध-न० । पाचिते, पक्के च । आव० ४ श्र० । नि० चू० । जी० ।
,
रही देशी प्रधाने दे० ना० ७ वर्ग २ गाथा । रन- अरण्य - न० | वने, कंतारं कारणं रनं " पाइ० ना०
66
१३५ गाथा ।
रप्पुयरप्पुक - पुं०। वल्मीकरोगे, पञ्चा० १६ विव० । श्रा० । रफ - देशी वल्मीके, दे० ना० ७ वर्ग १ गाथा रप्फडिया--गोधायाम्, दे० ना० ७ वर्ग ४ गाथा ।
रफा- स्त्री० । देशी वल्मीके, " रफ्फा बम्मीश्र - वामलूरा य' पाइ० ना० १७१ गाथा ।
रफस - रमस - पुं०। वेगे, "चूलिका पैशाविके दतीय-तुर्ययोराद्य- द्वितीयौ " || || ४ | ३२५ ॥ इति भस्य फः । रभस । रफस । प्रा० ४ पाद । रम-रम- धा० । क्रीडायाम्, प्रा० ४ पाद । रमते - हर्षितो भवति । उत्त० पाई० ४ श्र० । अभिरतिमान् भवति । उस० पाई १० रतिं कुरुते । शा० १ ० १ ०
रमेः
रम्मग
संखुट्ट-खेडोम्भाव—किलिकिञ्च-कोडुम-मोहाय - सिर-वेशाः ११ रमतेरेतेऽष्टादेशा वा भवन्ति । संखु से उम्भव फिलिकिञ्चर कोडुमह मोट्टावर बी रह । वेल्लइ । रमइ । प्रा० । “हसताणि वा, रमताणि वा, मोहंताणि वा । आचा० २ श्रु० २ ० ४ ० ।
रमंत रममाण- त्रि० । अक्षादिना रतिं कुर्वति । भ० १३ श० ६ उ० ।
रमण - रमण - न० । नितम्बे, “रमसं तियं नियंबो” पाइ० ना० ११५ गाथा । पत्यौ, “रमणो कंतो पण्ड, पाणसमो पिययमो दइओ " पाइ० ना० ६१ गाथा । रमणि - रमणीय पुं०। जम्बूमन्दरस्य पूर्वे सीतायाः महानयाः दक्षिले सुभाष्यराजधानीविभूषिते विजयले स्थाय ठा० ३ उ० । रमणीये, मनोहरे, स्था० ६ ठा० । ० । कल्प० । श्र० । महाविदेहान्तर्गतायां स्वनामख्यातायां नगर्याम्, स्था० ।
-
दो रमणिजाओ । स्था० २ ठा० ।
रतिजनके त्रि०। रमणीया मनोहरा रूपं शोभा यस्य । कल्प० १ अधि० ३ क्षण । सुन्दरे, “मणोरमं चारु रमणिजं " । पाइ० ना० १४ गाथा ।
रमणी - रमणी - स्त्री० । प्रियायाम्, " रामा रमणी सीमं-तिणी बहू वामलोचरणा विलया " पाइ० ना० १२ गाथा । रमिच - रन्त्वा (मित्वा) अन्य क्रीडत्वेत्यर्थे, "यदूणौ” ॥ ८ । ४ । २७२ ॥ इति कत्बास्थाने इत्र आदेशः । प्रा० । रमिय- रमित - न० । मैथुनसेवायाम्, जी० ३ प्रति०४ अधि
रा० ।
रम्प - तक्ष-धा० । तनूकरणे, "तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रस्फा: " ||८|४|१६४॥ इति तक्षेः रम्परम्फावादेशौ वा । तक्षति | प्राण रम्फा रम्भा स्त्री० स्वनामस्थातायां स्वर्वेश्यायाम्, "चूलि का - पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य द्वितीयौ ” ॥ ८ ॥ ४ । ३३५ ॥ इति भस्य फः । रम्भा । रम्फा । प्रा० ४ पाद । रम्म- रम्य न० । रमयति मनांसि इष्ट्णामिति रम्यम् । रमणीये, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा० । जं० । पञ्चा० । उत्त० । जम्बूमन्दरस्य पूर्वे सीताया महानद्याः दक्षिणे अङ्कवत्याख्यराजधानी भूषितविजयशेले, स्था० २ ० ३३० रम्यो पिज यः अङ्कावती राजधानी अञ्जनो वक्षस्कारः । जं० ४ वक्ष० । दो रम्मा । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
सुन्दरे, “रुइरं राहं रम्मं, अहिरामं बंधुरं मयुजं च । लटुं कंसं सुहयं, मणोरमं चारु रमणिज्जं " पाइ० ना० १४ गाथा । रम्मग- रम्यक- पुं० पदमावती राजधानीभूषिते विजयने
स्था० ।
दो रम्मगा । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
जम्बूद्वीपे वर्षविशेषे, स० ७ सम० । प्र० । “रम्मए विज पदाव राहाणी " ०
द
कहि गं भंते ! जम्बुदीचे दीवे रम्मए सार्म वामे पाने १, गोयमा ! शीलवन्तस्स उत्तरेणं रुप्पिस्स
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(४५ ) रम्मग
अभिधानराजेन्द्रः। क्खिणेणं पुरत्थि(च्छि)मलवणसमुद्दस्स पञ्चत्थिमणं पच्च- वर्षे सुखमसुखमाकालः । स्था० २ ठा०३ उ०। प्रशा० । थिमलवणसमहस्स परत्थिमेणं एवं जह चेव हरिवासं जं० । स० । अनु०। रुक्मिवर्षधरपर्वते तृतीयकृटे, जं०४ तह चेव रम्मयं वासं भाणिअव्वं, णवरं दक्खिणेणं
वक्ष० । स्था०।
रम्मगकूड-रम्यककट-न० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे नीलवजीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेत्र ।
तो वर्षधरपर्वतस्याष्टमे कूटे, स्था० ६ ठा० । प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे नीलवत उत्तरस्यां रुक्मिणो- रम्मगमग-रम्यकवर्षक-पुं० । रम्यकवर्षजाते मनुष्ये, स्था० वक्ष्यमाणस्य पञ्चमवर्षधरादेर्दक्षिणस्याम् एवं यथैव हरिवर्ष
७ ठा । तथैव रम्यक वर्ष यश्च विशेषः स नवर्गमत्यादिना सूत्रेण सा
रय-रज-पुं० । सूचमधूलीरूपे, दशा० ७ ० । वातोत्खाते क्षादाह-'दक्खिणणं जीवे' त्यादि व्यक्तम् , अथ यदुक्तं नारीकान्ता नदी रम्यकवर्ष गच्छन्ती गन्धापातिनं वृत्तवैताढ्यं |
आकाशवर्तिनि ( स० ३४ सम०) श्लक्षणतरे रेणुपुरले, जी० योजनेनासम्प्राप्ने, तदेष गन्धापाती कास्तीति पृच्छति
३ प्रति०४ अधि० । तं०। औ० । पृथ्वीकाये, नि० चू०१६
उ० । मले, औ० । श्रा० चू० । जीवस्वरूपोपरञ्जनाद्रज कहि णं भन्ते ! रम्मए वासे गन्धावई णामं वट्टवेअड्ड
इव रजः । कर्माणि, स्था०५ ठा०२ उ० । ध० । अष्ट० । पव्वए पामते ?, गोअमा! णरकंताए पच्चत्थिमेणं णा- श्रा० म० । विशे० । सूत्र० । वद्यमाने कर्मणि , भाव. रीकंताए पुरथिमेणं रम्मगवासस्स बहुमझदेसभाए
३ अ० । वयमानकं कम्म रजो भण्यते । नं०। एत्थ णं गन्धाबईणामं वट्टवेअड्डे पव्वए पम्मत्ते, जं चेव
रत-त्रि० सक्ने, प्रा. चू०१०। विशे० । औ० । स्था० । विअडावइस्स तं चेव गंधावइस्स वि वत्तव्यं, अट्ठो बहवे
मैथुनक्रीडिते, स० समः । व्यवस्थिते, सूत्र० १ श्रु० १०
श्र० । स्त्रीभिः सह निधवने, ध०३ अधिक। स्था० । "रउप्पलाइं • जाव ग(न्धा)धावइवस्माई गंधावइप्पभाई पउमे
मियमोहरयाई" इति नाममालावचनात् । जी० ३ प्रति. अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, | ४ अधि० । रायहाणी उत्तरेणं ति । से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ रम्मए रय-पुं० । वेगे, श्रौ०। श्राव० । वासे वासे २१, गोयमा! रम्मगवासे णं रम्मे रम्मए रम- रया-रजक-पुं० । (धोवी ) इतिख्याते वस्त्रमलहारके मनुणिजे रम्मए अइत्थ देवेजाव परिवसइ, से तेणऽद्वेणं । प्यजातिविशेषे, “ सोझो रयो " पाइ० ना० २३७ (सू० १११)
गाथा। 'कहि ण' इत्यादि, क भदन्त ! रम्यके वर्षे गन्धापाती- |
रयउज्जोय-रजउद्योद-पुं०। रजस्वलादिके, अनु। नाम वृत्तवतान्यपर्वतः प्रशप्तः ? , गौतम ! नरकान्ताया म-रयंत-रदत-त्रि० । रद विलेखने, शतृ । उत्पाटने, तं०। हानद्याः पश्चिमायां नारीकान्तायाः पूर्वस्यां रम्यकवर्षस्य-यंधकार-जोऽन्धकार-पुं० । रेणोः यो रयो वेगः तेनान्धकाबहुमध्यदेशभागे । अत्रान्तरेगन्धापाती नाम वृत्तवैताढयःप्र-।
| रः रेणुवेगेनान्धकारे , प्रश्न. ३ श्राश्र० द्वार । सप्तः, यदेव विकटापातिनो हरिवर्षक्षेत्रस्थितवृत्तवैताढय
रयग-रजक-पुं० । स्त्री० । वस्त्रप्रक्षालके, व्य०३ उ०। स्योच्चत्वादिकं तदेव गन्धापातिनोऽपि वक्तव्यम् , यश्च सविस्तरं निरूपितस्य शब्दापातिनोऽतिदेश विहाय विकटा
रयण-रत्न-न । कतनादौ रत्नविशेषे, रा०। श्रा०म० । पातिनोऽतिदेशः कृतस्तत्र तुल्यक्षेत्रस्थितिकत्वं हेतुः ,
स० । झा० । प्रश्न० । दर्श० । सू० प्र० । संथा० । अत्र यो विशेषस्तमाह-अर्थस्त्वयम्-वक्ष्यमाणो बहून्यु
जी० । कल्प० । भ० । शा० । औ० । चं० प्र०। रत्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि-तृतीयवृत्तवैताढयवर्णानि
नानि द्विविधानि-द्रव्यरत्नानि, भावरत्नानि च । तत्र मरगन्धापातिवर्णसदृशानीत्यर्थः रकवर्णत्वात्, गन्धापातिप्रभा
कतवजेन्द्रनीलवैडूर्यादीनि द्रव्यरत्नानि , सुखमधिकृत्य णि-गन्धापातिवृत्तवैताढ्याकाराणि सर्वत्र समत्वात् तेन
तेषामनेकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च भावरत्नानि । श्रा० तद्वर्णत्वात् तदाकारत्वाञ्च गन्धापातीनीत्युच्यन्ते । पद्मश्चा- म० १ ० । स्था०। ('भरह' शब्दे पश्चमभागे १४६३ त्रदेवो महर्द्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तद्यो- पृष्ठे विस्तरः ) गात्तत्स्वामिकत्वाच्च गन्धापातीति, यथा च विसरशना
अधुना रत्नविभागमाहमकवामिकत्वेन नामान्वर्थोपपत्तिस्तथा प्रागभिहितम् । रयणाणि चउव्वीसं, सुवपतउतंबरययलोहाई। अस्याधिपस्य राजधान्युत्तरस्याम् । अथ रम्यकक्षेत्रनाम- सीसगहिरमपासा-ण-वइरमणिमोत्तिअपवालं।। २५४॥ निबन्धनमाह-'से केण?णं' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदमत ! एवमुच्यते-रम्यकं वर्ष २? , गौतम ! रम्यक
संखो तिणिसाऽगुरुचं-दणाणि वत्थामिलाणि कट्ठाणि । वर्ष ; रम्यते-क्रीड्यते नानाकल्पदुमैः स्वर्णमणिखचितैश्च
तह चम्मदंतवाला, गंधा दब्बोसहाई च ॥ २५५॥ तैस्तैः प्रदेशैरतिरमणीयतया रतिविषयता नीयते इति रम्यं रत्नानि चतुर्विंशतिः , सुवर्णत्रपुताम्ररजतलोहानि सीसरम्यमेव रम्यकं रमणीयं च त्रीण्यकार्थिकानि रम्यतातिश- कहिरण्यपाषाणवज्रमणिमौक्तिकप्रवालानि । सङ्खतिनिशायप्रतिपादकानि, रम्यकश्चात्र देवो यावत् परिवसति तेन गरुचन्दनानि वस्त्रामिलानि काष्ठानि तथा चर्मदन्तवाला तद रम्यकमिति व्यवहियते । जं०४ वक्षः । स्था० । रम्यके गन्धा द्रव्योषधानि च । एतान्यपि प्रायो लौकिकसिद्धान्ये
१२२
नाम वृत्तवाभायां नारीकान्तापापाती नाम वृत्तवेताला
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( ४८६) अभिधानराजेन्द्रः ।
रयण
9
।
नवरं रजतं रूप्यम् हिरवं रूपकादि पाषाणा-विजा तीयरत्नानि मणयो जात्यानि तिनिशो-वृक्षविशेषः - मिलामि ऊचत्राणि कष्टानि श्रीपयदिफलकादीनि य मणि सिंहादीनां दन्ता गजादीनां वालाः चमर्यादीनां द्रधान-पिप्पल्यादीनि इति गाथाद्वयार्थः । दश०६०३ उ० ( मानुषत्वदभ्ये रत्नदृष्टान्तः 'माणुसन्त शब्देऽ स्मिन्नैव भागे २४७ पृष्ठे गतः ) ( चक्रिणः चतुर्दश रत्नानि 'चक्कवट्टि ' शब्दे तृतीयभागे ११०२ पृष्ठे दृश्यानि ) स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवति वस्तुनि, स० १४ सम० । स्था० । पर्वतस्याग्रिकोणीयकूटे, डी० सुवप्रविजये राजधान्याम्, स्त्री० ! स्था० २ ठा० ३ उ० । रदन - न० । दन्ते, "दसणा रयणा दंता " पाइ० ना० ११०
|
गाथा ।
रयणकंड - रत्नकाण्ड - न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः षोडशविधरत्नमये प्रथमकाण्डे, स०८ सम० ।
रयणकरंडग-- रत्नकरण्डक - पुं० । रत्नानां रक्षणपुटके, रा० ।
तद्वक्तव्यतामाह
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो चित्ता रयणकरंडगा पता से जहासामए राम्रो चाउरंतचकवसि चि रयणकरंड वेरुलियमणी फालिहं पडलपच्चोयडे साएप्पभाए पएसे सब्यओ समंतातो भासति, उञ्जोइतवतिष्पभासति एवमेव ते विश्चित्ता रयणकरंडगा सातिप्पभाए ते परसे सव्वच समेता भाति, उजवंति तयंति पगासंति
रा० । जी० । उत्त० ।
रयणकूड - रत्नकूट - न० | जम्बूमन्दरस्य उत्तरे रुचकरपतस्य प्रथमकूटे, स्था० ८ ठा० ३ उ० । मानसोत्तरपर्व्वतस्य गरुडस्य वेणुदेवस्य निवासभूते कूटे: स्था० ४ ठा० २ उ० । रयणणिकररासि -- रत्नानिकरराशि - पुं० । रत्ननिकराणामुच्छितसमूहे, कल्प अधि० ३ क्ष
--
रयणणिहारा रत्ननिधान १० खरतरगजिनचन्द्र रिशिष्ये, पं० व०५ द्वार ।
रणतय रत्नत्रय स्वी० शाननचारित्रये अ
',
अष्ट० ।
रयणत्थाल - रत्नस्थाल- न० । रत्नभृतस्थाले, व्य० ६ उ० । रयणत्थि - रत्नार्थिन् त्रिनानि चैर्यादीनि तान्यर्थवतीत्येवंशीला ते रत्नार्थिनः। यद्वा-अर्थ:-प्रयोजनं यते येषां ते तथा रत्नार्थिनः कामेषु दर्श० २ तस्व रणदीव - रत्नद्वीप -- पुं० । लवणसमुद्रमध्यगे स्वनामख्याते द्वीपे, यत्र माकन्दीपुत्रौ तदधिष्ठात्र्या देवतया छलितौ ०१० अ० महा० शाताधर्मकथाङ्ग नवमाध्ययने रत्नद्वीपपेषी मौलशरीरेण समुद्रशोधनार्थं गतेन्युक्रमस्ति परं मौलशरीरेसाम्यत्र गमनं कथं सङ्गच्छते इति ? अत्र शाताम ये रत्नद्वीपमध्ये देवी मौलशरीरेण समुद्रशोधनार्थं गताऽस्ति परं तस्याः मौलशरीरेण गमनप्रतिषेधो ज्ञातो नास्तीति १५ | ही ० ३ प्रका० ।
3
रयणमामा रणदीवदेवया - रत्नद्वीपदेवता स्त्री० । रत्नद्वीपस्वामिन्यां देवतायाम्, शा० ९ श्रु० ६ श्र० । रवणदोससिरिपुरणवर - रत्नदो (पक्षी) ससिरिपुरनगर - २० भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपे सिंहलद्वीपे रत्नदो (पश्री) ससिरिपुरनगरे, यत्र चन्द्रगुप्तो राजा तस्य चन्द्रलेखा भार्या । ती० ६ कल्प। रयणपुर - रत्नपुर - पुं० | मालवदेशप्रसिद्धे नगरे, अणु० । (तद्वृत्तम् 'पेढालपुत्त' शब्दे पञ्चमभागे १०८० पृष्ठे विस्तरतो गतम् ) रयणप्पभसूरि - रत्नप्रभसूरि-पुं० | वडगच्छीयदिगम्बरजेतुर्देवसरिशिष्यभद्रेश्वरमूरिशिष्ये, स च विक्रमसंवत् १२३८ वर्षे आसीत् तेन च उपदेशमालाटीका, रानाकरावतारिका - न्थश्च व्यरचिषाताम् । जै० इ० ।
रयणप्पभा - रत्नप्रभा स्त्री० रत्नानि यजवैर्यादीनि प्रभा स्वरुप यस्यां सा रत्नबलायां रत्नमय्यां गोत्रे धम्मनाम्यां नरकप्रथमपृथिव्याम् प्रशा० १ पद जी० श्री० स० । विपा० । सू० प्र० प्र० । अनु० । स्था० ।
।
इमीसे गं रयणप्पभाते पुढवीए रयणे कंडे दस जोगसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते, इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए वह (तं) रे कंडे दस जोयसाई वाले पाने एवं वेरुलिए लोहितक्खे मसारगले हंसगमे पुलए सोगंधिने जोतिर से अंजणे अंजणपुलते रयए जायरूवे अंके फलिहे रुट्ठे जहा रयणे तहा सोलसविधा भाणियव्वा । (सू०७७८)
6
इमीसेरा' मित्यादि येयं रज्जुरायामविष्कम्भाभ्यामशीतिसहस्राधिकं योजनलक्षं बाहल्यतः उपरि मध्येऽधस्ताच्चयस्याः खरकाण्डपङ्कबहुलकाण्ड जलबहुलकाण्डाभिधानाः क्रमेरा षोडशचतुरशीत्यशीतियोजन सहस्रवाहल्या विभागास न्ति, इमीसेति एतस्याः प्रत्यक्षासन्नायाः रत्नानां प्रभा यस्यां रनैष प्रभाति शोभते या सा रत्नप्रभा तस्याः पृथिव्याः भूमेर्यत्तत् खरकाण्डं तत्पोडशविधरत्नात्मकत्वात् षोडशविधम्, तत्र यः प्रथमो भागो रत्नकाण्डं नाम तद्दश योजनशतानि वाहस्पेन, सहस्रमेकं स्थूलतवेत्यर्थः । चमन्यानि पञ्चदशापि सूत्राणि वाच्यानि, नवरं प्रथमं सामान्यरत्नास्मर्क शेपालि तद्विशेषमयानि चतुर्दशानामतिदेशमाह'मित्यादि पूर्वमिति पूर्वाभिलापेन सर्वाच्या नि, 'बेरुलिय त्ति वैडूर्यकाण्डम् एवं लोहिताक्षकाण्डं मसारगञ्जकार्ड हंसगर्भकाण्डमेयं सर्वाणि नवरं रजते रूप्यं जातरूपं सुवर्णमेते अपि रत्ने एवेति । स्था० १० डा० ३ उ० । भीमस्य राक्षसेन्द्रस्य अग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०९. उ० भ० । (अस्याः सर्वा वक्तव्यता' गरय' शब्दे चतुर्थभागे १६०६ पृष्ठे उक्का)
,
3
"
रयणभूय-रत्नभूत- त्रि० । चिन्तारत्नादिसदृशे भ० ६०
३३ उ० ।
रयणमणिभेय रत्नमणिभेद ५० रत्नमणिभेदपरिक्षाना 35रमके त्या ४७ खीकलाभेदे ०१०७ क्षण |
रयणमाला - रत्नमाला - स्त्री० । रत्नशेखरराजपालिते नगरे, श्रीरत्नमालनगरे, राजाभूद्रत्नशेखरः । सोऽनपत्यतया
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(१८७) रयणमाला अभिधानराजेन्द्रः ।
रयणसेहरसरि दुनः, प्रैपीमछाकुनिकान्यहिः ॥१॥" ती०७ कल्प । सूत्रः।। च्छिदे ।ततः कोपाटोपात्तेन नागकुमारेण रे पापिष्ठ ! रहस्यभेरयणवई-रत्नवती-स्त्री० । पक्षहरिलकन्यायां ब्रह्मदत्तचक्रि- | दं करिष्यति गाद निर्भर्त्य स दारको दंष्ट्रासम्पुटेन दष्वा भार्यायाम , उत्त० पाई० १३ अ०।
ध्यापादितः,पिता च । रोषप्रकर्षात्सकलान्यपि कुलालकुलानि रयणवडंसय-रत्नावतंसक-न । ईशानकल्पे रत्नमयेऽवतंस- कालकवलितानि कृतानि। ततःप्रभृति च न कश्चन चक्रजीवके, प्रज्ञा०२ पद।
नजातीयस्तत्र रत्नवाहपुरेऽद्यापि निवसतीति कौलालभाण्डारयणवास-रत्नवास-पुंगा रत्नवर्णरूपे वर्षे, भ०१५ शास्थान नि स्थानान्तरादेवानयति जनता, तत्र च तथैव नागमूर्तिप
रिवारिता श्रीधर्मनाथप्रतिमाऽद्यापि सम्यग्दृष्टियात्रिकजरयणवाह-रत्नवाह-न० । अयोध्यासमीपे नागमहिते श्रीध
नैरनेकविधिप्रभावप्रभावनापुरस्सरं पूज्यते । अद्यापि च परर्मनाथावासरूपे पुरभेदे, ती० ४३ कल्प।
समयिनो धर्मराज इति व्यपदिश्य कदाचिदवर्षति वर्षासु, पतत्कथा यथा
जलधरक्षीरघटसहभगवन्तं स्मपयन्ति; सम्पद्यते च तत्श्रीधर्मनाथमानम्य, रत्नवाहपुरे स्थितम्।
क्षणाद्विशिष्टा मेघवृष्टिः । कन्दर्पा शासनदेवी, किन्नरश्च शातस्यैव पुररत्नस्य, कल्पं किञ्चिद् ब्रवीम्यहम् ॥१॥
सनयक्षः श्रीधर्मनाथापादपद्मसेवाहेवाकचश्चरीकाणामनर्थ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे कौशलषु जनपदेषु नाना
प्रतिघातमर्थप्राप्तिं चात्र सूत्रयतीति । जातीयोच्चस्तरशाखिशाखावहलदलकुसुमफलाच्छन्नताच्छादिधर्मघृणिकरगहनवनमण्डितं शीतलविमलबहुलजलनिर्भ- इतिधीरत्नवाहस्य, श्रीजिनप्रभसूरिभिः। रघर्घरनदबन्धुरं रत्नवाहं नाम पुरम् ,तत्र चेक्ष्वाकुकुलप्रदीपः
कल्पः कृतो रत्नपुरा-ख्यपुरस्य यथाश्रुतम्॥१॥ती०१६कल्प। कनककान्तकायकान्तिः कुलिशलाग्छितपादः पश्चचत्वारिंश-| रयणविचित्त-रत्नविचित्र-त्रि०। रत्नखचिते, श्रा०म०२०। चापोच्छायकायः पञ्चदशतीर्थपतिविजयविमानदेवतीर्थे श्री- रयणसंकडुक्कड-रत्नसङ्कटोत्कट-न० । रत्नसङ्कटे उत्कृष्टवस्तुभाननरेन्द्रवेश्मनि सुव्रतादेवीकुक्षी तनयतयाऽवततार, क्रमे- नि, भ० श०३३ उ०।। ण गुरुवितीर्णधर्मनामधेयो जननिष्क्रमणकवलज्ञानानि तत्र- रयणसंचय-रत्नसञ्चय-पुं० । रत्नपुरवास्तव्ये रत्नगुणसाव समाससाद, निर्वृतश्च सम्मेतशिखरिशिखरे । तस्मिन्नेव च |
गरपितरि सुमङ्गलापतौ, ध० २० २ अधि० । पुरे जननयनजनितशैल्यं श्रीधर्मनाथचैत्यं नागकुमारदेवा
रयणसंचया-रत्नसंचया-स्त्री० । उत्तरपश्चिमे रतिकरपर्खते धिष्ठितं कालेन निर्वृत्तं,तत्र च नगरे कुम्भकार एकः स्वशिल्प
उत्तरस्यां दिशि ईशानेन्द्रस्य देवस्य वसुन्धरानामिकाया अ. च्छेक आसीत्,तस्य तनयस्तरुणिमानमधिगत्य क्रीडादुर्ललि
ग्रमहिष्यां राजधान्याम् ,जी०३ प्रति०४ अधि० द्वीती। ततया नवरामणीयकशालिनि चैत्ये गृहादागत्याऽऽगत्य स्वैरं द्यूतादि तत्तत्क्रीडाविधाभिश्चिक्रीड, तत्रैको नागकु
स्था० । जं० । सुवप्रविजयराजधान्याम् , स्त्री० । स्था। मारः कलिप्रियतया कृतमानुषतनुस्तेन कुम्भकारदारकेण
दो रयणसंचयाओ । स्था० २ ठा०३ उ० । सार्द्ध प्रत्यहं प्रववृते क्रीडितुम् । तत्पित्रा च स पुत्रः कुलक- रयणसंचयाकूड-रत्नसञ्चयाकुट-पुं० न० जम्बूद्वीपे मेरोरुमागतकुलालकाण्यनिर्मिमाणः प्रतिदिनं दुर्वाग्भिरुपालेभे, त्तरे रुचकपर्वते चतुर्थे कूटे, स्था०८ ठा० ३ उ० । न च तद्वचनमसौ प्रत्यपादि । ततः पित्रा गाढं प्रत्यहं बलादपि रयणसार-रत्नसार-पुं० । सिंहपुरराजे मदनरेखापतौ स्वना वकर्माणि मृत्खननायनादीनि कारयितुमुपक्रान्तः ।
मख्याते राजनि, सङ्घा० १ अधि०१ प्रस्ता० । स्था। अन्तरमवलोक्य पुनस्तञ्चत्ये गत्वा अन्तराऽन्तरा तथैव तेन
रयणसिरि-रत्नश्री-स्त्री० । श्रामलकल्पायां नगर्या रत्निनो नागकुमारेण साकं खेलितुं लग्नः, पृष्टश्च नागकुमारण, किं | कारण पूर्ववन्निरन्तरं न क्रीडितुमायासि ? तेनोक्तम्-जनकः
गृहपतेर्भार्यायां रत्नायाः अग्रमहिष्याः पूर्वभवमातरि,शा०२ कुष्यति मां, स्वकर्मनिर्माणमन्तरेण कथमिव जठरपिठर
श्रु०१ वर्ग ४० विवरणमुपपद्यत इति । तदाकर्ण्य दृक्कर्णकुमारो वाचमुवाच। रयणसीहसूरि-रत्नसिंहमूरि-पुं० । तपागच्छीये सैद्धान्तिकयद्येवं तर्हि क्रीडान्ते भूपीठे विलुप्तो भविष्याम्यहमहिर्मत् | मुनिचन्द्रसूरिशिष्ये, पुद्गलषत्रिंशिका-निगोदषट्त्रिंशिकापुन्छ चतुरङ्गलमात्र लोहेन मृत्खननोपकरणेन छित्त्वा
दिग्रन्थानां कर्ता स प्राचार्यः विक्रमसंवत् १२०० वर्षे वित्वया ग्राह्य, तच्च चारुचामीकरमय भविष्यति, तेन हेना त
द्यमान आसीत् । जै० इ०।। व कुटुम्बस्य वृत्तिनिर्वाहो भविष्यतीति, सौहार्देनाभिहिते
रयणसेहरमूरि--रत्नशेखरसूरि-पुं०। तपागच्छीयमुनिसुन्दरस तथैव प्रतिदिवसं कर्तुं प्रवृत्तः, पितुश्च तत्कनकमर्पयतिस्म,न च रहस्यमभिन्दत्। अन्यदाऽतिनिर्वन्धं विधाय पृच्छ
सूरिशिष्ये , तस्य जन्मविक्रमसंवत् १४५७, दीक्षाप्राप्तिसंवत् ति सति पितरि भयाद्यथाऽवस्थितमचकथत। ततः सस्मि
१४६३, पण्डितपदप्राप्तिसंवत् १४८३, वाचकपदप्राप्तिसंवत् तेन विस्मितेन जगदे जनकेन, रेमूर्ख! चतुरङ्गालमात्रमेव कि
१४६३, सूरिपदसंवत् १५०२ स्वर्गतिसंवत् १५१७ । मिति छिनत्सि, बहुतरे हि छिन्ने भूरितरं भवति । तेन भणि
श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्तिः,श्राद्धविधिवृत्तिः, आचारप्रदीपः, लतम् ,तात! नातः समतिरिक्तमहं छत्तुमुत्सहे परमसुहृदेवताव
घुक्षेत्रसमासश्चेति ग्रन्थाः अनेन रचिताः। द्वितीयश्च रत्नचनातिक्रमप्रसङ्गात् . ततस्तजनकेन लोभसंक्षोभाकुलितमन- शेखरसूरिः नागपुरीयतपागच्छीयहेमतिलकसूरिशिष्यः विसा तस्मिस्तनये क्रीडार्थ चैत्यमुपेयुषि प्रच्छन्नमनुवबजे, या- क्रमसंवत्सरे१४२०विद्यमान आसीत् , श्रीपालचरित्रगुणस्थावत् प्रकीड्य धरणिपीठे विलुप्य स पन्नगतामापनस्तावत् | नक्रमारोहणाचनेकग्रन्थानामयं कर्ता । फीरोजशाहतुवलक कुम्भकारेण विले प्रविशतस्तस्य वपुरई कुहालिकया विचि-1 नाम्नो दिल्लीपतेरयं मानपात्रश्वासीत् । जै०१० ।
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रयणा अभिधानराजेन्द्रः।
रयणावलि रयणा-रत्ना-स्त्री० । उत्तरकुरुपश्चिमे रतिकरपवते पूर्वस्यां | श्राभरणविशेषे, रा०। विशे०। रा०। तपोविशेषे , च । दिशि ईशानेन्द्रस्य देवस्य रत्नवसुनामिकाया अग्रमहिण्याः | प्रव० । राजधान्याम् , जी०३ प्रति०४ अधि० । स्था० । ती।
रत्नावलीतपः स्वरूपमाहरयणाइच-रत्नादित्य-पुं० । अहिलपट्टनराजे चौलुक्यवं- इग दु ति काहलियासु, दाडिमपुप्फेस हंति अतिगा। शीये नृपभेदे, ती० २५ कल्प ।
एगाइसोलसंता, सरियाजुयलम्मि उववासो ॥१५३६।। रयणागर-रत्नाकर-पुं० । माणिक्योत्पादनस्थाने, समुद्रे च ।
अंतम्मि तस्स पयगं, तत्थं कट्ठाणमेकमह पंच । पञ्चा० १२ विव०। ६० । शा० । उत्त० । प्रश्न । गवेषणा
सत्तय सत्तय पण पण,तिनिकं तेसु तिगरयणा।१५४० यामुदाहतस्य शुद्धगवेषकक्षपकस्य गुरी एकदा पोतनपुरस
पारणदिणदासी, पडिचउक्कमे वरिसपणगं । मवस्ते सूरौ, पिं०।
नव मासा अट्ठारस,दिणाणि रयणावलितवम्मि।१५४१॥ रयणागरसूरि-रत्नाकरसरि-पुं० । देवप्रभसरिशिष्ये , येन विक्रमसंवत् १३०८ रत्नाकरपञ्चत्रिशिका नाम आत्मनिन्दा
रत्नावली-आभरणविशेषः, रत्नावलीव रत्नावली, यथा हि प्रतिपादको ग्रन्थो लिखितः । जै००।
रत्नावली उभयत आदिसूक्ष्मस्थूलस्थूलतरविभागकाहलिका
ख्यसौवर्णावयवद्वययुक्ता, तद्नु दाडिमपुष्पोभयोपशोभिता, रयणायर-रत्नाकर-पुं० । समुद्रे, "मयरहरो सिंधुबई सिंधू
ततोऽपि सरलसरिकायुगलशालिनी, पुनमध्यदेश सुश्लिष्टरयणायरो सलिलरासी।" पाइ० ना०८ गाथा।
पदकसमलंकृता च भवति, एवं यत्तपः पट्टादावुपदर्शमारयणावतारिया-रत्नावतारिका-स्त्री०। स्याद्वादरत्नाकरटी
नमिममाकारं धारयति,तद्रत्नावलीत्युच्यते। तत्रैककद्धिकत्रि कायाम् , रत्ना।
का उत्तरार्धक्रमण काहलिकयोः स्थाध्या भवन्ति। तदनुद्वयो"सिद्धये वर्धमानः स्तात् , ताम्रा यन्नखमण्डली ।
रपि दाडिमपुष्पयोः प्रत्येकमष्टी त्रिकाः, ते चोभयतो रेखाप्रत्यूदशलभप्लोषे, दीप्रदीपारायते ॥१॥
चतुष्टयेन मवकोष्ठकान् विधाय, मध्ये च शून्यं कृत्वा पकयैरत्र स्वप्रभया, दिगम्बरस्यार्पिता पराभूतिः।
यः स्थाप्यन्ते । ततश्चाधोऽधः सरिकायुगले एकादयः षोडप्रत्यक्षं विबुधानां, जयन्तु ते देवसूरयो नव्याः ॥२॥
शान्ताः स्थायाः, तस्य च सरिकायुगलस्यान्ते पर्यन्ते पदस्याद्वादमुद्रामपनिद्रभक्त्या,
कंपकपटकन चतुस्त्रिंशादङ्कस्थानानि कोष्ठका इत्यर्थः । क्षमाभृतां स्तौमि जिनेश्वराणाम् ।
तत्र प्रथमायां पङ्कावेकमङ्कस्थान, द्वितीयस्यां पश्च, तृतीयसन्न्यायमार्गानुगतस्य यस्यां,
स्या सप्त, चतुर्थ्यामपि सप्त, पञ्चम्यां पञ्च, षष्ठयामपि च सा श्रीस्तदन्यस्य पुनः स दण्डः ॥३॥"
पञ्च, सप्तम्यां त्रीणि, अष्टम्यां त्वेकमेवाङ्कस्थानम् । तेषु चइह हि लक्ष्यमाणाऽक्षोदीयोऽर्थाथूणाक्षरक्षीरनिरन्तरे, तत
तुर्विंशत्यपि कोष्टकेषु त्रिकरचना त्रिकाः स्थाप्यन्ते इति भाइतो दृश्यमानस्याद्वादमहामुद्रामुदितानिद्रप्रमेयसहस्रोतुङ्ग
वः । इदमत्र तार्पयं-रत्नावलीतपसि प्रथममेकमुपवासं कतङ्गसरङ्गभङ्गसङ्घसौभाग्यभाजने, अतुलफलभरभ्राजिष्णुभू- रोति, ततो द्वौ, ततस्त्रीन् , इत्येका काहलिका । अन्तरा च यिष्ठागमाऽभिरामातुच्छपरिच्छेदसन्दोहशाद्वलासन्नकानन - सर्वत्र पारणकं वाच्यम्,ततोऽष्टावष्टमान्युपवासत्रिकत्रिकात्मनिकुळे, निरुपममनीषामहापानपात्रव्यापारपरायणपूरुषप्रा- कानि करोति । एतैः किल काहलिकाया अधस्तादाडिमपुष्पं प्यमाणाप्राप्तपूर्वरत्नविशेषे, क्वचन वचनरचनानवद्यगद्यप- निष्पद्यते । ततश्चैकमुपवासं करोति, ततोऽपि द्वौ, ततस्त्रीरम्पराप्रपालजालजटिले, क्वचन सुकुमारकान्तालोकनीया- न्, ततोऽपि चतुरः, इत्येवं पश्च षट् सप्ताष्टौ नव दशैकादशं स्तोकश्लोकमौक्तिकप्रकरकरम्बिते, क्वचिदनेकान्तवादोपक- द्वादश त्रयोदश चतुर्दश पञ्चदश षोडशोपवासान् करोति । ल्पितानल्पविकल्पकल्लोलोल्लासितोहामदूषणाद्रिविद्राव्यमा
एषा हि दाडिमपुष्पाधस्तादेका सरिका । ततश्चतुनिणानेकतीर्थिकनकचकचक्रवाले, क्वचिदपगताशेषदोषानु- शदष्टमानि करोति । एतैः किल पदकं सम्पद्यते । ततः मानाभिधानोवर्तमानासमानपाठीनपुच्छच्छटाकछोटनोच्छ- षोडशोपवासान् करोति, ततः पञ्चदश, तसश्चतुर्दश, इत्येलदतुच्छशीकरश्लेष संजायमानमार्तण्डमण्डलप्रचण्डच्छम- वमेकैकहान्या तावन्नेयं यावदेक उपवासः । एषा द्वितीया कारे, क्वापि तीर्थिकग्रन्थप्रन्थिसार्थसमर्थकदर्थनोपस्थापि- सरिका भवति । ततश्चाष्टावष्टमानि करोति । एतैरपि वितार्थानवस्थितप्रदीपायमानप्लवमानज्वलन्मणिफणीन्द्रभीष
| तीयं दाडिमपुष्पं निष्पद्यते । ततस्त्रीनुपवासान् करोति, रणे, सहृदयसैद्धान्तिकतार्किकवैयाकरणकविचऋचक्रवर्तिसु- ततो द्वौ, ततः एकमुपवासं करोति । पतैर्द्वितीया काहलिविहितसुगृहीतनामधेयास्मद्गुरुश्रीदेवसूरिभिर्विरचिते स्या
का निष्पद्यते । एवं सति परिपूर्णा रत्नावली सिद्धा भवति । द्वादरत्नाकरे न खलु कतिपयतर्कभाषातीर्थमजानन्तोऽपाठी
अस्मिन् रत्नावलीतपसि काहलिकायास्तपोदिनानि १२, ना अधीवराश्च प्रवेष्टुं प्रभविष्णवः; इत्यतस्तेषामवतारदर्शनं
दाडिमपुष्पयोः षोडशभिरष्टमैर्दिनानि ४८ । सरिकायुगले कर्तुमनुरूपम् । तञ्च संक्षेपतः शास्त्रशरीरपरामर्शमन्तरेण नोपपद्यते । सोऽपि समासतः सूत्राभिधेयावधारण विना न;
द्वाभ्यां षोडशसङ्कलनाभ्यां दिनानि २७२ । पदके चतुति
शताष्टमर्दिनानि १०२। सकत्वे चत्वारि शतानि चतुर्तिइति प्रमाणनयतत्त्वालोकाख्य-तत्सूत्रार्थमात्रप्रकाशनपरा रत्नाकरावतारिका नाम्नी लघीयसी टीका प्रकटीक्रियते ।
शदुत्तराणि, अष्टाशीतिश्च पारणकदिनानि, उभयमीलने
पञ्च शतानि द्वाविंशत्युत्तराणि । पिरिडतास्तु वर्षमेकं, मारत्ना०१ परि०।
साः पश्च, दिनानि च द्वादश । इदमपि च तपः पूर्ववच्चएयणापलि(ली)-रत्नावली-स्त्री० । रत्नमयमणिकात्मिके-|
माणकात्मिक-| तसृमिः परिपाटिभिः समर्थ्यते । ततश्चतुभिर्गुणने वर्षाणि
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( ४ ) रयणावलि अभिधानराजेन्द्रः।
रयणावलि पञ्च, मासा नव, अष्टादश च दिनानीति । प्रव० २७१ द्वार। ति । बत्तीसइमं करेत्ता सबकामगुणियं पारेति । सन्चका.
मगुणियं पारेत्ता चोत्तीसइमं करेति, चोत्तीसइमं करेत्ता तथा च सूत्रम्
सधकामगुणियं पारेति । सबकामगुणियं पारेत्ता चोत्तीचउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता
सं अट्ठाई करेति, चोत्तीस छट्ठाई करेत्ता सम्वकामगुणियं | सव्वकामगुणियं पारेति । सव्व
पारेति । सबकामगुणियं पारेत्ता चोत्तीसं करेति, चोत्तीसं | कामगुणियं परित्ता छ8 करेति,
करेत्ता सन्चकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता छ8 करेत्ता सव्वकामगुणियं पा
बत्तीसं करेति, बत्तीस करेत्ता सब्यकामगुणियं पारेति । रेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता,
सबकामगुणियं पारेत्ता तीसं करेति, तीसं करता अट्ठमं करेति अट्ठमं करेत्ता स
सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता अ-- व्वकामगुणियं पारेति । सव्वका
ट्ठावीसं करेति , अट्ठावीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं-- मगुणियं पारेत्ता अट्ठ छट्ठाई क
पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता छन्वीसं करेति, रेति, अट्ठ छट्ठाई करेत्ता सबका
छव्वीसं करेत्ता सम्बकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं मगुणियं पारेति । सव्वकामगुणि
पारेत्ता चउवीसं करेति, चउवीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं यं पारेत्ता, चउत्थं करेति, चउ- यं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता बावीसं करेति, बावीत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पा- सं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पाररेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता| त्तावीसं करेति. वीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । छटुं करेति, छटुं करेत्ता सव्व- सव्वकामगुणियं पारत्ता अट्ठारसं करेति, अट्ठारसं करेता कामगुणियं पारेति । सव्वकाम- सव्वकामगुणियं पारेति । सन्चकामगुणियं पारेत्ता सोलससं | गुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अ- करेति, सोलसमं करेत्ता सबकामगुणियं पारेति । सबकादुमं करेत्ता सबकामगुणियं पा- मगुणियं पारेत्ता चोदसमं करेति, चोद्दसमं करेत्ता सम्म रेति । सम्बकामगुणियं पारेत्ता | कामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता बारसमं करेदसमं करेति , दसमं करेत्ता, | ति, बारसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामसव्वकामगुणियं पारेति । सव्व-| णियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं
कामगुणियं पारेता दुवाल-- | पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता अदुमं करेति, अट्ठमं समं करेति, वालसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पा- करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेता रेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोद्दसमं करेति, चो- छटुं करेति, छटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सबइसमं करेत्ता सम्बकामगुणियं पारेति । सव्वकामगु- कामगुणियं पारत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सबणियं पारेत्ता सोलसमं करेति,सोलसमं करेत्ता सव्यकामगु- कामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठ छट्ठाई णियं पारेति । सब्बकामगुणियं पारेत्ता अट्ठारसमं करे- करेति, अट्ठ छट्ठाई करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सव्व ति, अट्ठारसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सम्बकाम | कामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अमटुं करेत्ता सव्वकाम गुणियं पारेत्ता वीसइमं करेति, वीसइमं करेत्ता सय्य- गणियं पारति । सव्वकामगुणियं पारेता अट्ठावीसं करेकानगाणयं पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता बावीसइ- ति, अट्ठावीसं करेत्ता सव्यकामगुणियं पारेति । सव्वकाममं करेति , बावीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे- गुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामति । सम्बकामगुणियं पारेत्ता चउवीसइमं करेति, चउ-| गुणियं पारेति । एवं खलु एमा रयणावलीए तवोकम्मवीसइमं करेत्ता सबकामगुणियं पारति । सव्वकामगुणि- | स्स पढमा परिवाडी । एगणं संवच्छरेणं तिहिं मासेहिं य पारेत्ता छब्बीसइमं करति, छब्बीसइमं करेत्ता सव्यका- | बावीसाए य अहोरत्तेहिं अहासुत्ता जाव पारामगुणिय पारेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठावीसइमं करे- हिया भवति । तदाणंतर च णं दोच्चाए परिवाडीए ति,अट्ठावीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सबकाम- | चउत्थं करेति, विगतिवज्जं पारति । विगतिवज्जं पारेता गुणियं पारेत्ता तीसइमं करेति, तीसइमं करेत्ता सबका- | छठें करेति छठें कोत्ता विगतिवज्जं पारेति । एवं
मगुणियं पारेति । सयकामगुणियं पारेत्ता बनीसदमं करे- | जहा पढमाए वि नवरं सव्वपारणते विगतिवज्जं पारेति Jain Education Internal 3
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(४६०) रयणावलि अभिधानराजेन्द्रः।
रय(ता)ताण •जाव पाराहिया भवति । तयाऽणंतरं च णं तच्चाए परि- “रयणी विहावरी स-व्वरी निसा जामिणी राई" पार वाडीए चउत्थं करेति चउत्थं करेता अलेवाडं पारेति । | ना० ४७ गाथा । सेसं तहेव, एवं चउत्था परिवाडी नवरं सवपारणते प्रा- रत्नि-पुं० । स्त्री० । हस्ते, जं० २ वक्षः । अनु । “ रयणी यंबिलं पारेति । सेसं तं चेव "पढमम्मि सव्वकामं, पार- हत्थो" पाइ० ना० २६० गाथा । रणयं बितियते विगतिवजं । ततियम्मि अलेवाडं, आयं
रयणीपच्चक्खाण-रजनीप्रत्याख्यान-न० । रात्रिभोजनबिलमो चउत्थम्मि॥१॥" अन्त०८ वर्ग १ अ०। ।
विरमणे, "रयणीपञ्चक्खाणस्स, तीरणरूवासिहा समुट्ठिा ।
नवकारेण समेया, नवकारणवच्चचूला वा" ॥२५॥ ल० प्र० । रयणावलिमहावर-रत्नावलिमहावर-पुं० । रत्नावलिवरसमुद्रदेवे, जी०३ प्रति०४ अधिः।
रयणुच्चयकूड-रत्नोच्चयकूट-पुं० । मानसोत्तरपद्धतस्थ
दक्षिणस्य गरुडस्य वेलम्बसुखदमित्यपरनामकवेलम्बस्य रयणावलिवर-रत्नावलिवर-पुं० । स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्र
वायुकुमारेन्द्रस्य निवासभूते कुटे, स्था० ४ ठा०२ उ० । च । तत्र द्वीपे रत्नावलिवरभद्र-रत्नावलिवरमहाभद्रौ स-| जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रुचकरपर्वते द्वितीये कृटे, स्था०८ मुद्रौ, रत्नावलिवर-रत्नावलिमहावरी देवो । जी. ३ प्रति ठा। ४ अधि।
रयणोश्चय-रत्नोच्चय-पुं०। रत्नानां नानाविधानामुत्प्रावरयणावलिवरभद्द-रत्नावलिवर मद्र-पुं० । स्वनामख्याते र-| ल्येन चयः उपचयो यत्र स रनोश्चयः । मन्दरे, जं. ४ नावलिवरद्वीपाधिपतौ देवे, जी० ३ प्रति०४ अधि०। ।
वक्षस रयणापलिवरमहाभद्द-रत्नावलिवरमहाभद्र-पुं० । रत्नावलि
मन्दर १ मेरु २ मणोरम ३ , वरमहाभद्रद्वीपाधिपतो देवे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
सुदंसण ४ सयंपमे अ५ गिरिराया ६।। रयणावलिवरोभास-रत्नावलिवरावभास-। स्वनामण्या
रयणो ( णु ) च्चय ७ सिलोच्चय ८, ते द्वीपे, समुद्रे च । तत्र द्वीपे रत्नावलिवरावभासरत्ना
मझे लोगस्स ह णाभी य १० ॥१॥ बलिवरावभासमहाभद्रा देवी, जी० ३ प्रति०४ अधिक। अच्छे अ११ म्ररित्रावते १२,मूरित्रावरणे १३ त्ति । रयणावलिवरोभासवर-रत्नावलिवरावभासवर-पुं० । रत्ना- | उत्तमे१४ अदिसादी अ१५, वडेंसेति१६ असोलसे॥२॥ बलिवरावभाससमुद्रदेवे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
जं. ४ वक्षः। रयणावहसत्थवाह-रत्नावहसार्थवाह-पुं० । रत्नवतीभर्सरि ('गिरिराय' शब्दे तृतीयभागे ८७६ पृष्ठ व्याख्या गता) स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि. दर्श०१ तत्व ।
रत्नोस्चयस्योच्चत्वादि ' मन्दर' शब्देऽस्मिन्नव भागे २६
पष्ठ गतम) (अत्र भद्रसालवनवनव्यता 'भहसालवण, रयणाहिय-रत्नाधिक पुं० । पर्यायज्येष्ठे, श्राव. ३०।।
शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३७३ पृष्ठ गता) रयाण-रजनि-स्त्री०।रात्री, प्रा० म०१ अाही । उत्त।
रयणोच्चया-रत्नोच्चया-स्त्री० । उत्तरपाश्चात्यरतिकरपर्वरनि-पुं० । स्त्री हस्तपरिमाणे, जी०१ प्रतिनि० चू।
तस्य दक्षिणस्यां वसुगुप्तायाः ईशानाग्रमहिष्याः राजधाभ०।"चउव्वीसअंगुलाई रयणी"। भ०६ श०७ उ०।।
न्याम् , स्था० ४ ठा०२ उ० । ती। रयणि (ग)र-रजनिकर-पुं० । निशाकरे, श्रा० चू०
रयणोरुजालय रत्नोरुजालक-न० ! रत्नसम्बन्धि ऊर्वोह१० म०प्र०ाी०।निकारागा०म०मा०1"स्व
जड़योर्जालकम् । उरःप्रदेशे लम्बमाने रत्नमये जालके, प्रश्न रस्योवृत्ते" ॥८॥१८॥ इति सन्धिर्न । राणश्रगे। प्रा०।
५ संव० द्वार। रयणिणाह-रजनिनाथ-पुं० । चन्द्रमसि , " इंदू निसा
रय(ता)त्ताण-रजवाण-न०। पात्रावेष्टनके,वृ०३ उ० बाग यरो सस-हरो विद गहवइ रयणिणाहो।" पाइ० ना०
प्रव०। ५ गाथा।
इदानी रजस्त्राणमाहश्यणिय-देशी-कुमुदे, दे० ना०७ वर्ग ४ गाथा ।
माणं तु रयत्ताणे, भायणपमॉणेण होइ निष्फन । रयणिविराम-रजनिविराम-पुं० । प्रातःकाले, " गोसो रथ
पायाहिणं करतं, मज्झे चउरंगुलं कमई ॥ ५११ ॥ णिविरामो, गोसग्गो दिणमुहं च पञ्चूसो " । पाइ० ना० मानं तु-प्रमाणं रजस्राण-रजस्त्राणविषयं भाजनप्रमाणेन ४६ गाथा।
भवति निष्पन्न, तच्च येदितव्यमित्याह-प्राक्षिण्यं कुर्वन् रयणी-रजनी-स्त्री०। ईशानेन्द्रलोकपालसोमराजस्याग्रमहि- पात्रस्य मध्ये चतुरगुलामति चत्वार्यङ्गुलानि याव-कामध्याम् , स्था० ४ डा.१ उ० । भ० । चरमासुरेन्द्रस्याप्रम- यधिकं तिष्ठति । एतदुक्तं भवति-पात्रकानुरूपं रजत्राग हिण्याम् , स्था०५ ठा०१ उ० (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा
कर्तव्यम् । किं बहुना ? तिर्यकप्रदक्षिणाक्रमेण भाजने 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १६७ पृष्ठे उक्का ) षड्जमा- | वेश्यमाने भाजनस्य मध्यभागो यथा चतुर्भिरङ्गले रजमस्य चतुर्थमूर्च्छनायाम् , स्था०७ ठा०३ ३० । निशायाम् , | स्वारीनातिकम्यते, तथा रजस्थाणं विधयं कार्य वा । प्रयोजन
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(४५) रयता)ताण
अभिधानराजेन्द्र:। चास्य मूषकभक्षणरेणूत्करवर्षोदकावश्यायसचित्तपृथिवी-रख-रव-पुं०। नादितरूपे शब्दे, औ० । स्था० । विपा० । कायाऽऽदिसंरक्षणम् । उनं च-" मूसगरयोकेरे, वासा-रव-
धाशब्दे "ते रुख-रुण्टौ" ॥४ा ५७ ॥ इति रुते, सिल्हारपयररक्खट्टा । होति गुणा रयताणे, एवं भणिय | अरुण्टादेशाभावे । प्रा०।" उवर्णस्यावः" ॥८॥४॥२३३॥ जिणिदेहि ॥१॥" प्रव०६१द्वार ।
इति उवर्षस्याचादेशः। रवइ । रौति । प्रा०।" रवं अलसं जनसायकल-न। प्यमये कूले, जी० ३ कलमंजुलं" पाइ० ना० २०४ गाथा। प्रति०४ अधिक।
रखन-देशी-मन्थाने, दे० ना०७ वर्ग ३ गाथा । रयमल-रजोमल-पुं०। रज इव रजः । मल इव मलः । संक्रम- रवण-रुवत-त्रि० । रवं कुर्वति, शा०१ श्रु०१०। मणोद्वर्तनापवर्तनादियोग्ये निधत्तनिकावितावस्थे कर्मणि, रवण्य-रम्य-त्रि० । “शीघ्रादीनां बहिल्लादयः" ॥१४४२२॥ व्य०३ उ० । दश।
इति सूत्रेण सूत्रान्तरपठितस्य रम्यस्य स्थाने रवरणादेशः। रयय-रजत-न। जातरूपे रौप्ये, शा०१श्रु०१०। अनुन
"सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं, नवि उज्जाण वणेहिं । देसशा० । स्था। दशऔ०रा०प्रश्न । ध०। “कलहोत्रं
रवण्णा होति बढ, निवसंतेहि सुवणेहिं" प्रा०४ पाद।। रुप्पयं रययं" पाइ० ना० ११६ गाथा ।
रवि-रवि-पुं० । सूर्ये, अर्कवृक्षे च । प्रश्न २ आधद्वार। रययकलस-रजतकलश-पुंगरूप्यघटे,कल्प०१अधि०३ क्षण ।
औ०। “ रविकिरणतरुणबोहियसहस्सपत्तसुरभितरपिंजरययकूड-रजतकूट-पुंगना मेघमालिन्यावासभूते (स्था
रजलं" प्राकृसत्वाद्विशेषणस्य परनिपातात् तरुणो नूतनो ठा० ३ उ०।) जम्बूद्वीपस्य पूर्वे रुचकपर्वते चतुर्थकूटे, स्था० यो रविस्तस्य ये किरणास्तैः"बोहिय" ति-बोधितानि याति ठा०३ उ०।
सहस्रपत्राणि महापानि तैरत्यन्तं सुगन्धि पीतरकं च जलं रययमय-रजतमय-त्रि० । रूप्यविकारे, उपा० ७ ०।रा।
यस्य तत्तथा । कल्प०१ अधि०३क्षण । रययमयकूल-रजतमयकूल-त्रिका रूप्यमये कले,जं०१ वक्ष०ा रविगय-रविगत-न० । यत्र रविस्तिष्ठति तादृशे नक्षत्रे, प्रा. स्य पमहासेल-रजतमहाशैल-पुं०। रजतस्य-रूप्यस्य महा- म०१ अ०। विशे० । नि० चू० । द. प० । जीत। शैलो-पर्वतः । वैताब्ये, कल्प०१अधि०२क्षण । भ०।
रविप्पहा-रविप्रभा-स्त्री०। तरणिकान्तौ, प्रति०। स्ययहार-रजतहार-पुं० । रजतमये श्राभरणदितोष, रजतं रविभत्ता-रविभक्का-स्त्री०। औषधभेदे, ती०६ कल्प ।
जातीयरूप्यं हारो मुक्ताहारः ताभ्यां सदृशः। उत्त० ३४ अ रविय-रुत-न । शब्दायिते, शा०१ श्रु०६०। रययागर-रजताकर-पुं० । रूप्यखनी, श्रोधः।
वेहि-देशी--क्रियावाची । श्रार्द्रता नेष्यतीत्यर्थके,। "हे. ग्यरेणविणासण-रजोरेणुविनाशन-न०। श्लक्ष्णतरा रेणु-| ही से उगदविन्द ,जे ण तं मल्लगं रवेहिह।" नं०। पुद्गला रजः, त एव स्थूला रेणवः रजांसि रेणवश्व रजोरेण-रस-रस--पुं० । रसनेन्द्रियविषये, स्था। वस्तेषां विनाशनं रजोरेणुविनाशनम् । जी० ३ प्रति० ४ एगे रसे । (सू०४७) अधिक। वातोत्पाटितस्य व्योमवर्तिनो रजसः भूमिवर्तिपां- रस्यते श्रास्वाद्यते इति रसः । स्था०१ठा। शूनां रेणूनां चोपशमके, भ०१५ श०।
दुविहा रसा परमत्ता, तं जहा-अत्ता चेव, प्रणताचेव। स्यवृद्रि-रजोवृष्टि-स्त्री । पांशुवृष्टी, “ आसारो रयषुट्टी "
जाव मणामा । (सू० ८३) स्था० २ ठा० ३ उ० । पंच पाइ० ना०२४३ गाथा। रयसंसट्टहडा-रजःसंसृष्टहता-स्त्री० । पृथिवीरजःसम्बद्धानी
रसा पमत्ता, तं जहा–तित्ताजाव महरा । (सू०३६०) तायां भिक्षायाम् , श्राव०४ अ०।
स्था०५ ठा०१ उ०। रसः पञ्चधा-तत्र श्लेष्मनाशकृत्तिक्तः वैरयहरण-रजोरहण--न । बाह्याभ्यन्तरमलापहारके, नि० चू० शद्यच्छेदनकृत्कटुकः २ अनरुचिस्तम्भनकृत्कषायः, ३ माघ(वक्तव्यता रयोहरण शब्दे ) नवरम्-श्राद्धानां चरबलकग्र
वणक्नेदनकृदम्लः,४ द्वादनबृंहणकृन्मधुरःश स्था०५ ठा०१ उ०। हणं 'बदप्पिकरण 'त्ति विना व्यक्तरीत्या कचिरुचर्या
रस्यते प्रास्वाद्यत इति रसः (अनु०) स च तिककटुकषायादावभिहितं स्यात् तदा तान्यक्षराणि प्रसाद्यानीति प्रश्ने , उ
मलमधुरभेदात् पञ्चविधः । तत्र श्लेष्मादिदोषहन्ता निम्बासम्म साहणं सगासाश्रो रयहरणं निसिजं वा मग्गं
द्याश्रितस्तिको रसः, तथा च भिषक्शास्त्रम्-"श्लेष्माणति, अह घरे नो से उवग्गहिरयहरणं अत्थि ' इत्यादि
मरुचि पित्तं, तृपं कुष्ठं विषं ज्वरम् । हन्यात् तिको रसो कान्यावश्यकचूमर्यादा रजोहरणाक्षराणि सन्ति, श्राद्धानां च
बुद्धेः, कर्ता मात्रोपसेवितः ॥१॥" गलामयादिप्रशमनो मरजाहरणं चरवलक एवेति ॥ ३३३ ॥ सन० ३ उल्ला० ।
रिचनागराद्याश्रितः कटुः । उक्तं च-"कटुर्गलामय शोफं, हरयावंत-रञ्जयत-वि० । रञ्जनं काग्यति, नि० चू०१७ उ० ।
न्ति युक्त्योपसेवितः । दीपनः पाचको रुच्यो; बृहणोऽ..
तिकफापहः ॥२॥" रक्तदोषाचपहर्ता बिभीतकामलकग्यावेइयत्ता-रचयित्वा-अव्य० । रचनां कृत्वेत्यर्थे, कल्प० १
कपित्थाद्याश्रितः कषायः, प्राह च-" रक्तदोषं कर्फ पिअधि० ३ क्षण।
तं कषायो हन्ति सेवितः । रुक्षः शीतो गुणग्राही, रोचकरल्लग-रलग-पुं०। दुमविशेष, जं०२ वक्ष।
श्च स्वरूपतः॥३॥" अग्निदीपनादिकदम्लीकाद्याश्रितो:रला--देशी-प्रियङ्गवे, दे० ना०७ वर्ग १ गाथा।
म्लः । पठ्यते च-"अम्लोऽग्निदीप्तिकृत् स्निग्धः, शोफपिसक १-प्राकृते रयतामय रतिदीय एव ।
फापहः । वदनः पाचनो रुच्यो, मूढवातानुलोमकः॥४॥"
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रस
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पितादिप्रशमनः खशर्कराचाश्रितो मधुरा तथा चोक्रम्"पितं वातं विषं हन्ति धातुवृद्धिकरो गुरुः । जीवनः क्रे शरुद्वाल-वृद्धक्षीतीजसां हितः ॥ ५ ॥" इत्यादि स्थानान्तरेस्तम्भिताहारबन्धविध्वंसादिकर्ता सिन्धुलवणाद्याश्रितो लवशोऽपि रसः पठ्यते स चेह नोदाहृतो, मधुरादिसंसर्गजत्वात् तद्भेदेन विवक्षणात्, सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः सर्वरसानां लवक्षेप एव स्वात्वप्रतिपत्तेरित्य विस्तरेण । अनु० । अनुरागे, “नेहो पिम्मं रसो य अराश्री " पाइ० ना० १२० गाथा । विशे० भ० । प्रज्ञा० । प्रव० । षो० । कर्म्म० । पं० सं । श्राचा० । श्रा० म० । भोजनस्वादे, ग० २ अधि० । रस्यत इति रसः । मकरन्दे, दश० १ ० । “ जेण धातुपाणिपल संबगादि आसनं सुवक्षादि भवति सो रसो भच्छति । नि० ० १३ उ० । स्नेहे, क० प्र० १ प्रक० । रसाः क्षीरादयः । स्था० ६ ठा० ३ ० मचादिके अनु० (देशघातिरसस्वरूपम् 'देसधार' शब्दे चतुर्थभागे २६२६ पृष्ठे गतम्) । तीमनकञ्जिकादौ, स्था० ७ ठा० ३ उ० । रस्यन्ते श्रन्तरात्मना - नुभूयन्ते इति रसाः । तत्सहकारिकारणसन्निधानेषु चेतोविकारविशेषेषु, रसाः शृङ्गारादयः । उत्त०३२ श्र० । (ते च 'कश्वरसशब्दे तृतीयभागे ३६३ पृष्ठे दर्शिताः) (लेश्वाइव्याणां रसः 'लेस्सा' शब्दे बदयते) ( कर्म्मपुङ्गलानां रसो 'बंपण शब्दे पञ्चमभागे १२२० पृष्ठे दर्शितः) रसंत रसत् त्रि० भृशं शब्दं कुर्बति तं प्रक्षिपति सूत्र०१ श्रु० ५ ० १ उ० । प्रलपति, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार | आरटति, सूत्र० १० ५ ० १ ० । रसकारणओ-रसकारणतम् अभ्यः सर्वधात्यादित्सकक
I
(W) अभिधानेराजेन्द्रः ।
"
9
रसणा- रसना - स्त्री० । गुणे रजौ, जिह्वायाम् श्राचा० २ श्रु०१०२०१ उ० | "रसणा जीहा" पाइ० ना० २५१ गाथा | श्राचा० । मेखलायाम्, “कच्छा कंची य मेहला रसणा पाइ० ना० ११५ गाथा ।
रसणाम-रसनामन्- न० । रस्यते - श्रास्वाद्यते इति रसस्तिक्रादिस्तशियन्धनं रसनाम जन्तुशरीरे तिक्ादिरसहेतुके कर्म कर्मकर्म० पं० [सं० । रसाभिधायके नामनि अनु० । तं
से किं तं रसनामे ? रसनामे पंचविहे प जहा - तित्तरसणा कडुअरसणामे कसायरसणालरसणामे महुररसणामे अ से रसलामे । अनु० । ( व्याख्या 'रस' शब्दे मता ) रमखिजूद रसनि पुं० [सर्वगुन
०० रणमधिकृत्येत्यर्थे, पं० सं० ५ द्वार । रसग-रस-० रसमनुगच्छन्तीति रखगाः कटुतिकरसद्द देशीचुली, दे० ना० ७ वर्ग २ गाथा ।
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पायादिरसास्वादिनि, श्राचा० १ ० ७ ० १ ३० । रसगारव - रसगौरव - पुं० । रसेन तत्प्राप्त्यभिमानम् । तदप्राप्तिप्रार्थनद्वारेण 55मनोऽशुभभावगीर, स०३ सम० । रसगिद्ध रसगृद्ध - ५० मधुराहारलम्पटे, पृ० ४ ० (अत्र विषये व्याकरणमूलम् 'जिग्मिदिवसंवर' शब्दे चतुर्थमागे १५१० पृष्ठे गतम्) (तद्व्याख्या परिगवेरमणशब्दे पञ्चमभागे ५६५ पृष्ठे गता )
रसगेही - रसगृद्धि - स्त्री० । मधुरादिरसेष्वभिकाङ्क्षायाम्, उत० पाई० ७ ० ।
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रसघाय - रसघात ५० सतो ऽपवर्त्तनाकरन कर्म० । क० प्र० । पं० सं० । रसच्चाय-- रसत्याग--पुं० । दुग्धदध्यादीनां त्यागे, पञ्चा० १६ विव । ६० । रसत्यागो ऽनेकधा-यथोपपातिके-" लिमिति पणीवरसपरिपाई आर्थविले य श्रायामसिरथे भोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लहाहारे " इत्यादि । ग० १ अधि० । बाह्यतपोभेदे नं० । सच्चायतन- रसत्यागतपम्-नं०] रसत्यागतपसि
३० अ० ।
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कर्मपुङ्गलानां रसस्य प्रबुरीभूतस्य ने अल्पीकरणे, कं० २
3
उत्त०
अथ रसत्यागाख्यं तप आहखीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाराभेोयणं । परिवजणं रसाणं तु, भणियं रसवित्राणं ।। २६ ।। एतद्रसविवर्जनं रसत्यागास्यं तपस्तीर्थङ्करभणितं रसाना परिवर्जनं रसपरिपर्जनं क्षीरं दुग्धं दधि तथा सति क्षीरं च दधि सर्व तीरदधिस तान आदिस्य स तत् क्षीरदधिसर्पिरादि प्रीत-पुष्टिकारकं पान-पानयो ग्याहारं भोजनं भ यस्मिन पीते भुक्रे सनि बहुकामोद्दीपनं स्यात् तस्य परिवर्जनं रसत्यागाख्यं तप उच्यते । प्राकृतस्वात् पष्ठीस्थाने द्वितीया पाणी पासो' 'परिवज' इत्यत्र ज्ञेयम् ॥ २६ ॥ उत्त० ३० अ० ।
"
रसमाप
रसपरिचाय- रसपरित्याग पुं क्षीरादीनां परित्याग ०५ उ० | पा० | दश० । स्था० । बाह्यतपाद, स० ६ सम० । विकृतीनां परित्यागे, उत्त० ३० अ० ।
से किं तं रसपरिच्चाए ? रसपरिचाए अरोग विहे पम्पते । तं जहा - गिव्विगितिए पणीयरसविवञ्जाए जहा उबवाइए जाव लहाहारे, सेतं रसपरिच्चाए । भ० २५ श० ७३० । रमपरिणाम- रसपरिणाम सालानां परा
मे, स्था० १० ठा० ३ उ ।
रमपुलाग - रमपुलाग न० अतीसारकर्ता द्वाजादि. ०४ उ० । ( व्याख्या 'पुलागभन शब्दे पञ्चमभागे १०६० पृष्ठ ( ३६७ ) गाधाव्याख्यान गता )
रसफड्डय - रसस्पर्धक न० । कर्म्मपुङ्गलानां परस्परं संश्लेषनियम्यक कर्म
रसध सन्धानमेवात्यानी वा यो रयः सोऽनुभागन्धगन्धः कम्पु लानां शुभाशुभे घात्यधातिनि वा रसे, कर्म० ४ कर्म 1 रसमा - रसत-नः । शध्दायमाने प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार ।
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रसमाणप्पमाण
अभिधानराजेन्द्रः। रयमाणप्पमाण-रसमानप्रमाण-न। मद्यादिविषयकमानेन | रसालु-रसाल-पुं० । आल्विल्लोल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणा प्रमाणे, अनु० । (रसमानप्रमाणम् 'माण' शब्देऽस्मिन्नेव | मतोः॥८।२।१५६ ॥ इति मतोः स्थाने भालु इत्यादेशः।। भागे गतम्)
रसालो । प्रा० । दाडिमाम्रादिषु, श्राव०४०। रसमेह-रसमेघ-पुं०। रसजनको मेघः रसमेघः । दुषम- रसालु-पुं०। मजिकायाम् , तल्लक्षणम्-" दो घयदुषमाभाविनि रसजनकवारिवर्षणकारके मेघे, ति० । । पला महुपलं, दहियस्सऽद्धाढय मिरियवीसा । दस खंडगुरसय-रसज-पुं० । रसाजाता रसजाः । तक्रारनालदधि- लपलाई, एस रसालू निवइजोग्गो ॥१॥" भ०७ श०१० उ०
चं० प्र० । भोजनमेदे, स्था० ३ ठा० १ उ० । सू० प्र०। तीमनादिषु कम्याकृतितयाऽतिसूक्ष्मेषूपपन्नेषु जीवेषु,आचा० १७०१ अ०६ उ०। प्रश्न०। सूत्र० । स्था० । दश० । दधि- रसावण-रसापण-पुंछ। मद्यहट्टे, वृ०२ उ०। दर्श। नि००। सोवीरकादिषु रूपपक्षमसन्निभेषु जीवेषु,सूत्र०१ श्रु०७ अ० रसिणी-रसिनी-स्त्री० । सौवीरिण्याम मदिरायाम् , वृ० रसरूव-रसरूप-पुं०। रसप्रधाने, तं०।
१ उ०२ प्रक०। रसबई--रसवती--स्त्री० । बहुरसायाम् , अाचा० २७०१० रसिय-रसिक-न । माधुर्याऽऽद्युपेते, स्था०६ ठा। रसित४१०२ उ० । सूपकारशालायाम् , श्रोधः । शा० प्रा०म०।। दाडिमाम्रादिरसाले, श्राव० ४ ०। गर्जिते, रा। अनु।
आचा। शूकरादिशब्दमिव शब्दकरणे, प्रश्न० ५ संव० रसवंत--रसवत-न० । देवानामाहारभेदे, स्था०४ ठा० ४ उ० ।
द्वार । झपिते, प्रा० चू०४ १०। रसवाणिज-रसवाणिज्य-न० । मधुमद्यमांसभक्षणवसामजा
रसेसि (ण)-रसैषिण-पुं० । रस्थत श्रास्वाद्यत इति रसदुग्धदधिघृततैलादिविक्रये, ध०२ अधि० । श्राव० । उत्त। स्तमे, शीलमेषां ते रसैषिणः । रसान्वेषणे, प्राचा०२ ध्रु० भ० । ध०। प्रव० । पञ्चा० । श्रा० चू०।
१चू०१०६ उ० । पानार्थिनि, प्राचा० १ ध्रु०६ रसविवागा-रसविपाका--स्त्री० । अहेतुमधिकृत्य विपाकशा- अ०४ उ० । लिनीषु कर्मप्रकृतिषु । पं० सं०३ द्वार। (ताश्च 'कम्म' शब्दे रस्सि-पुं०स्त्री०-रश्मि-पुं० । किरणे,जं० ३ वक्षः । श्रा०म०। तृतीयभागे २७२ पृष्टे दर्शिताः)
रज्जौ,दश०७ अ०। “अधो मनयाम्" ||७८॥ इति संयुक्तरसवेजयंत-रसवैजयन्त--पुं० । स्वगुणैरपरपताकेवोपरि व्य- स्याधो वर्तमानस्य मस्य लुक् । रस्सी । प्रा० । “वेमाऽञ्जवस्थिते, सूत्र० १ श्रृ०६०।
ल्याद्याः खियाम्" ॥८।१। ३५॥ इत्यम्जल्यादित्वात् स्त्रीत्वं रससेस--संशष--न० । रसशेषेऽजीणे, “आम विदग्धं वि-| वा । प्रा०।" अंसू रस्सी" पाइ० ना०४७ गाथा । ब्ध, रसशेषं तथाऽपरम् । श्रामे तु बद्धगन्धित्वं, विद
रह-रथ-पुं० । स्यन्दने, भ० ८ श०६ उ०। “संदणो रहो" ग्धे धूमगन्धिता ॥१॥ विष्टब्धे गात्रभङ्गोऽत्र, रसशेषे तु
पाइ० ना० २२३ गाथा । रथा द्विधा-यानरथाः, संग्रामरजाड्यता"।ध०१अधि०।
थाश्च । जी०३ प्रति०४ अधि० । अनु। रहसि, एकान्ते, स्सहरणी-रसहरणी-स्त्री० ।रसो हियते आदीयते यया सा
विजने, श्राव०६ अ०। स्था० । सूत्र० । ज्ञा० । प्रच्छन्ने,
स्था०३ ठा०४ उ०। रहस्ये, स्था०५ठा०३ उ० | स्थविरसहरणी । नाभिनाले, तं।
रस्य आर्यवज्रस्य त्रयाणां शिष्याणामन्यतमे शिष्ये, कल्पक रसाअल-रसातल-न० । 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो।
२ अधि०८ क्षण। लुक' ।।८।१।१७७॥ इति तस्य लुकि सति। 'अवर्णो यश्रुतिः' रहंग-रथा--न० । चक्रे, ज्यो०१० पाहु । चातके, "चका॥८१।१८०॥ इति यकाराभावे। भूमेरधोभागे, प्रा०१ पाद ।
यो रहंगो" पाइ० ना० १३२ गाथा। "चकाई रहंगाई" रसाउ-रसायुस-पुं० । भ्रमरे, “ फुल्लंधुश्रा रसाऊ" पाइ०
पाइ० ना० १२२ गाथा । ना० ११ गाथा । भ्रमरे, दे० ना०७ वर्ग २ गाथा।
रहकार--रथकार--पुं० । रथनिर्माणकर्त्तरि,सूत्र०१ श्रु०४० रसाणु-रसाणु-पुं० । रस्यते विपाकानुभवनेनास्वाद्यत इति |
१ उ०। रसोऽनुभागस्तस्याणवोंऽशा रसाणवः । कर्मणामनुभाग-रघणघणारय-थधनघनायित-न । रथानां यत् घनघनास्यांशे, कर्म० ५ कर्म।
यितम् । घनघनेत्येवं रूपे शब्दे, प्रश्न० ३ आश्रद्वार। प्रा० रसायण-रसायन--न० । रसः-अमृतरसस्तस्यायनं प्राप्ती |
म० । औ०। रसायनम् । वयःस्थापने आयुर्मेधाकरणे रोगापहरणसमर्थे
रहचकवालसंठाण--रथचक्रवालसंस्थान-न० । रथाङ्गस्य चच क्रियाभेदे,स्था०८ ठा०३ उ० । पञ्चा०। विपा० आचा।
वालमण्डलं तस्येव संस्थानम् । अथवा-चक्रवाल मण्डलं पुरुषकलाभेदे, कल्प०१ अधि० ७ क्षण ।
मण्डलत्यधर्मयोगाच्च रथचक्रमपि रथचक्रवालम् । वलयरसायल-रसातल-न० । पाताले, " पायालं च रसा
त्ताकार, ०१ वक्षः । श्री। यलं" पाइ० ना० १७१ गाथा ।
रहजसा-रथयात्रा-स्त्री० । शृङ्गारितप्रवररथे जिनप्रतिमा संरसाला-रसाला-स्त्री० । सुगन्धिवस्तुमिश्रितदुग्धे, “ मजि
स्थान्य समहं स्नानपूजादिपुरःसरं समस्तनगरे पूजाप्रवनश्रा रसाला उ" पाइ० ना० २३७ गाथा । मार्जितायाम् ।। नादिरूप यात्राभेदे, (तविधिः ' अणुजाण' शब्दे प्रथमभागे दे० ना०७ वर्ग२ गाथा ।
३६७ पृष्ठे विस्तरतो दर्शितः)
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(४१४) रहजत्ता अभिधानराजेन्द्रः।
रहणेमि सा च-हमपरिशिष्टपर्वणि
सामंतमंतिसहिश्रो, वञ्च निवमंदिरम्मि रहो ॥४॥ सुहम्त्याचार्यपादाना-मवन्त्यामेव तस्थुषाम् ।
राया रहस्थपडिम, पढेंसुअकणयभूसणाईहिं। चैत्ययात्रोत्सवश्चके, सङ्गेनान्यत्र वत्सरे ॥१॥
सयमेव अश्चिउं का-रवेइ विविहाइ नहाइ ॥५॥ मण्डपं चैत्ययात्रायां, सुहस्ती भगवानपि ।
तत्थ गमिऊण रयणि, नीहरिश्रो सीहबारबाहम्मि । एत्य नित्यमलचक्रे, श्रीसलेन समन्वितः ॥२॥
वारण चलिअधयतं-डवम्मि पडमंडवम्मि रहो ॥६॥ सुहस्तिस्वामिनः शिष्यः, परमाणुरिवाग्रतः ।
तत्थ पभाए राया, रहजिणपडिमाइ विरइर्ड पूअं । कृताञ्जलिस्तत्र नित्यं, निषसाद च सम्प्रतिः ॥ ३॥
चउविहसंघसमक्खं, सयमेवारत्तिनं कुणइ ॥ ७ ॥ यात्रोत्सवाङ्गे सङ्केन, रथयात्रा प्रचक्रमे ।
तत्तो नयरम्मि रहो, परिसक्का कुंजरेहि जुत्तेहिं । यात्रोत्सवो हि भवति, सम्पूर्णो रथयात्रया ॥४॥
ठाणे ठाणे पडम-डवेसु विउलेसु चिटुंतो॥८॥" इत्यादि । रथोऽथ रथशालाया, दिवाकररथोपमः ।
ध०२ अधि० । वृ०। निर्ययौ स्वर्णमाणिक्य-द्युतिद्योतितदिङ्मुखः ॥ ५॥ रहजोही-रथजोधी-पुं०। रथेन युध्यते इति रथयोधी । रथक श्रीमदर्हत्प्रतिमाया, रथस्थाया महर्द्धिभिः ।
रणकयुद्धकतरि, औ०। झा० । विधिः स्नात्रपूजादि, श्रावकैरुपचक्रमे ॥६॥
रहणेमि-रथनेमि-पुं० । अरिष्टनेमिजिनभ्रातरि, तत्कथा राक्रियमाणेऽहंतः स्नात्रे, स्नात्रा-म्भो न्यपतद्रथात् । जन्मकल्याणके पूर्व, सुमेरुशिखरादिव ॥ ७॥
जीमत्या सह तत्सम्बादश्च । उत्त० । श्राद्धैः सुगन्धिभिव्यैः, प्रतिमाया विलेपनम् ।
चरणसहितेन धृतिमता चरण एव शक्यते कर्नुमतो रथस्वामिविज्ञाप्सुभिरिवा-कारि वक्त्राहितांशुकैः ॥ ८॥
नेमिवञ्चरणम् । नत्र च कश्चिदुत्पन्नविश्रोतसिकेनाऽपि ध्रमालतीशतपत्रादि-दामाभिः प्रतिमाऽर्हतः। ,
निश्चाधेयेत्यनेनोच्यत इत्यमुना सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम्, पूजिताभात्कलेवेन्दो-वृत्ता शारदवारिदैः ॥ ६ ॥
अस्याऽपि चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद्विधाय नामनिष्पन्ननि
क्षेप एवाऽभिधेय ति चेतसि व्यवस्थाप्याऽऽह नियुक्तिकृत्दह्यमानागरूत्थाभि-धूमलेखाभिरावृता। अराजत्प्रतिमा नील-वासोभिरिव पूजिता ॥ १० ॥ रहनेमीनिक्खेवो, चउक्को दुबिह होइ दबम्मि । भारार्तिकं जिनाचीयाः, कृतं श्राद्धचलच्छिखम् ।
आगम नोआगमतो,नोआगमतो य सो तिविहो ।४३७। दीप्यमानौषधीचक्र-शैलशृङ्गविडम्बकम् ॥ ११ ॥
जाणगसरीरभविए, तब्बइरित्ते य सो पुणो तिविहो । वन्दित्वा श्रीमदर्हन्त-मथ तैः परमाईतैः।
एगभविष बद्धाऊ, अभिमुहरो नामगोए य ॥४३८॥ रध्यैरिवाग्रतो भूयः, स्वयमाचकृष रथः ॥ १२॥ नागरीभिरुपक्रान्त-सहल्लीसकरासकः।
रहनेमिनामगोश्र, वेणंतो भावप्रो अरहनेमी। चतुर्विधाऽऽतोधवाद्य-सुन्दरप्रेक्षणीयकः ॥१३॥
तत्तो समुट्ठियमिणं, रहनेमिजं ति अज्झयणं ॥४३६॥ परितः श्राविकालोक-गीयमानोरुमङ्गलः ।......
प्राग्वद् व्याख्येयम् , नवरं रथनेमिशब्दोच्चारणमिह विशेष प्रतीक्छन् विविधां पूजा, प्रत्यहं प्रतिमन्दिरम् ॥ १४ ॥ इत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः । सम्प्रति सूत्राऽऽलापकबहुलैः कुमाम्भोभि-रभिषिक्काग्रभूतलः।
निष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवत्यतः सूत्राऽनुसम्प्रनेः सदनद्वार-माससाद शनै रथः ॥१५॥
गम, सूत्रमुचारणीयम् , तश्चेदम्त्रिभिर्विशेषकम्
सारियपुरम्मि नयर, आसि राया महथिए । राजाऽपि संप्रतिरथ, रथपूजार्थमुद्यतः ।
वसुदेव ति नामेणं, रायलक्खणसंजुए ॥१॥ आगात् पनसफलव-सर्वाङ्गोद्भिन्नकण्टकः ॥१६॥ रथाधिरूढां प्रतिमां, पूजयाऽष्टप्रकारया।
तस्स भन्जा दुवे आसि, रोहिणी देवई तहा । अपूजयन्नवानन्द-सरोहंसोऽवनीपतिः ॥ १७ ॥” इति ।
तासि दुण्हं पि दो पुत्ता, इट्ठा (जे) रामकसवा ॥२॥ महापद्मचक्रिणाऽपि मातुर्मनोरथपूर्तये रथयात्राऽत्याड
सोरियपुरम्मि नयर, आसि गया महड्डिए । म्बरैश्चके।
समुद्दविजये नामं, रायलक्खणसंजुए ॥ ३॥ कुमारपालरथयात्रा त्वेवमुक्ता
तस्स भज्जा सिवा नाम, तीसे पुत्तो महायसो । "चित्तस्स अट्टमिदिणे, चउत्थपहरे महाविभूईए।
भयवंऽरिट्ठनेमि त्ति, लोगनाहे दमीसरे ॥ ४ ॥ सहरिस-भिलतनायर-जणकयमंगल्लजयसद्दो ॥१॥
सोऽरिट्ठनमिनामो अ, लक्खणस्सरसंजुओ । सोवरणजिणवररहो, नीहरइ चलंतसुरगिरिसमाणो । कणगोरुदंडधयछत्त-चामरगाइहिं दिपंतो ॥२॥
(अट्ठ)सहस्सलक्खणधरी, गोयमो कालगच्छवि ॥५॥ राहविन विलितं कुसुमेहि, पूरअं तत्थ पासजिणपडिमं ।
वारिसहसंघयणो, समचउस्सो झमोदरो । कुमरविहारदुवारे, महायणो ठवइ रिद्धीए ॥ ३ ॥
तस्स राईमई कन, भज्जं जायइ केसवो ॥६॥ तूररवभरिप्रभुषणो, सरभसणश्चंतचारुतरुणिगणो । अह सा रायवरकन्ना, सुसीला चारुपेहिणी ।
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रहणेमि अभिधानराजेन्द्रः।
रहणेमि सव्वलक्खणसंपन्ना, विज्जुसोप्रामणिप्पभा॥ ७॥ मिनि समुद्रविजयादेशतो यश्चेष्टत तदाह,-तस्य-अरि
घनेमिनो राजीमती भायाँ गन्तुमिति शेषः, याचते केशवअहाऽऽह जणो तीसे, वासुदेवं महाड्यं ।
स्तज्जनकमिति प्रक्रमः । सा च कीहशीस्याह-' अथ'-इत्युइहागच्छउ कुमरो, जा से कन्नं ददामहं ॥८॥
पन्यासे, राजवर इहोग्रसेनस्तम्य कन्या राशो वा-तस्यैव सव्वोसहीहिं एहवित्रो, कयकोउयमंगलो ।
वरकन्या राजवरकन्या सुष्ठ शील-स्वभावो यस्याः सा सुदिव्यज्जुयलपरिहियो, आभरणेहिं विभूसिओ ॥६॥
शीला, चारु प्रेक्षितुम्-अवलोकितुं शीलमस्याः चारुप्रेक्षि
णी, नाधोदृष्टितादिदोषदुणा, 'विज्जुसोयामणिप्पह त्ति' विमत्तं च गंधहत्थिं च, वासुदेवस्स जिट्ठयं ।
शेषेण द्योतते दीप्यत इति विद्युत् : सा चासौ सौदामनी च आरूढो सोहई अहियं, सिरे चूडामणी जहा ॥१०॥ विद्युत्सौदामनी, अथवा-विद्युदग्निः सौदामनी च तडित् , अह ऊसिएण छत्तेणं, चामराहि य सोहिो । अन्ये तु सौदामनी प्रधानमणिरित्याहुः । 'अथ' इति यादसारचक्केण तो, सव्वो परिवारिओ ॥ ११॥
श्वानन्तरमाह-जनकस्तस्याः राजीमत्या उग्रसेन इत्युक्तवान्,
'जासे ति' सुब्यत्ययात् येन तस्मै ' ददामि' विवाहविचउरंगिणीए मेणाए, रइयाए जहक्कमं ।
धिनोपढौकयाम्यहम्।एवं च प्रतिपन्नायामुग्रसेनेन राजीमत्यातुडियाणं सन्निनाएणं, दिव्वेणं गगणं फुसे ।। १२॥ | मासनेच कौटिक्यादिष्टे विवाहलग्ने यदभूत्तदाह-सर्वाश्च ता एयारिसीए इड्डीए, जुईए उत्तसाइ य ।
औषधयश्च-जयाविजयर्द्धिवृद्धधादयः सर्वोषधयस्ताभिः स्वपिनियगाओ भवणो, निजाओ वहिगवो ॥ १३ ॥ तः-अभिषिक्तः, कृतकौतुकमङ्गल इत्यत्र कौतुकानि-ललाटस्य अह सो तत्थ निजातो, दिस्सपाणे भयहुए ।
मुशलस्पर्शनादीनि मङ्गलानि च-दध्यक्षतर्वाचन्दनादीनि
'दिव्वजुयलरहिय त्ति' प्राग्वत्परिहितं दिव्ययुगलमिति वाडेहिं पंजरेहिं च, संनिरुद्धे सुदुक्खिए ॥१४॥
प्रस्तावाद् दृष्ययुगलं येन स तथा, वासुदेवस्य सम्बन्धिनमिजीवियं तु संपत्ते, मंसट्ठा भक्खियव्वए ।
ति गम्यते, ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम्-अतिशयप्रशस्यमतिवृद्ध पासित्ता से महापामे, सारहिं इणमव्ववी ।। १५ ।। वा गुणः , पट्टहस्तिनमित्यर्थः, शोभत इति वर्तमाननिर्देशः कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सब्वे सुहेसिणो।
प्राग्वत् , चूडामणिः-शिरोऽलङ्काररत्नम् । अथ-अनन्तरम्
उच्छ्रितेन-उपरि घृतेन पाठान्तरतश्च श्वेतोच्छितेन 'चावाडेहिं पंजरेहिं च, संनिरुद्धा य अच्छहिं १ ॥ १६ ॥
मराहि य त्ति' चामराभ्यां च शोभितः 'दसारचकेणं ति' सूत्रपोडशकं प्रायः प्रकटार्थमेव, नवरं राजव राजा तस्य
दशार्हचक्रेण-यदुसमूहेन चतुरङ्गिण्या-हस्त्यश्वरथपदालक्षणानि-चक्रस्वतिकाऽङ्कशादीनि त्यागसत्यशौर्यादीनि
तिरूपाङ्गचतुष्टयान्वितया रचितया-न्यस्तया यथाक्रमवा तैः संयुतो-युक्तो राजलक्षणसंयुतोऽत एव राजेत्युक्त,
यथापरिपाटि तूर्याणां-मृदङ्गपटहादीनां सन्निनादेनेति'भजा दुवे श्रासि त्ति' भार्ये वे अभूताम् , 'तासिं ति' तयो
सनात इत्यादिषु समो भृशार्थस्यापि दर्शनादतिगाढध्वगेहिणीदवक्योर्वी पुत्री इष्टौ-वल्लभो 'रामकेशवौ' बलभ
निना ' दिव्येन' इति प्रधानेन देवागमनस्याऽपि तदा सवासुदेवावभूतामितीहाऽपि योज्यते, तत्र रोहिण्या रामो
म्भवाद्देवलोकोद्भवेन वा 'गयणं फूसे त्ति ' श्रार्षत्वाद् गदेकफ्याश्च केशवः । इह च रथनेमिवक्तव्यतायां कस्यायं तीर्थ इति प्रसङ्गन भगवञ्चरितेऽभिधित्सितेऽपि तद्विवाहादिषू
गनस्पृशा-अतिप्रबलतया नभोऽङ्गणव्यापिना, सर्वत्र च पयोगिनः केशवस्य पूर्वोत्पन्नत्वेन प्रथममभिधानम् , तत्स
लक्षणे तृतीया, एतादृश्या-अनन्तराभिहितरूपया ऋद्धया
विभूत्या द्युत्या-दीप्त्या उत्तरत्र चशब्दोऽभिन्नक्रमतो द्युहचरितत्वाच्च रामस्येति-भावनीयम् । पुनः सौर्यपुराभिधानं
त्या चोत्तमयोपलक्षितः सनिजकाद्भवनात् निर्यातः-निच समुद्रविजयवसुदेवयोरेकत्रावस्थितिदर्शनार्थम् । इह च
ष्क्रान्तः वृष्णिपुङ्गवः-यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिराजलक्षणसंयुत इत्यत्र राजलक्षणानि-छत्रचामसिंहास
ति यावत् । ततश्चाऽसी क्रमेण गच्छन् प्राप्तो विवाहमनादीन्यपि गृह्यन्ते । दमिनः--उपशामिनस्तेषामीश्वरः-अत्य एडपासन्नदेशम् । अथ-अनन्तरं स तत्र निर्यन् अधिक न्तोपशमवत्तया नायको दमीश्वरः । कौमार एव क्षतमारवी- गच्छन् 'दिस्स त्ति' दृष्टा अवलोक्य प्राणान् स-प्राणिनः यत्वात्तस्य । लक्खणसरसंजुतो त्ति' प्राकृतत्वात्स्वरस्य मृगलावकादीन् भयद्रुतान्-भयत्रस्तान् वाटैरिति-वाटकैःयानि लक्षणानि-सौन्दर्यगाम्भीर्यादीनि तैः संयुतः स्वरल- वृत्तिवरण्डकादिपरिक्षिप्तप्रदेशरूपैः पञ्जरैश्च-बन्धनविशेषैः क्षणमंयुतः, लक्षणोपलक्षितं वा स्वरो लक्षणस्वरः प्राग्व- सन्निरुद्धान्-गाढनियन्त्रितान् , पाठान्तरतस्तु-बद्धरुद्धान् , मध्यपदलोपी समासः तन संयुतो लक्षणस्वरसंयुतः । पठ- अत एव सुदुःखितान् , तथा जीवितस्यान्तो-जीवितान्ति च-' वंजणस्सरसंजुश्रो त्ति' व्यञ्जनानि-प्रशस्तति
न्तो, मरणमित्यर्थस्तं संप्राप्तानिव सम्प्राप्तान् , अतिप्रत्यालकादीनि स्वगे--गाम्भीर्यादिगुणोपेतस्तसंयुतः , अष्ट- सन्नत्वात्तस्य । यद्वा-जीवितस्यान्तः-पर्यन्तवर्ती भागस्तमुक्तसहस्रलक्षणधरः-अष्टोत्तरसहस्रसवयशुभसूचककरादिरखा- हेतोः सम्प्राप्तान मांसार्थ-मांसनिमित्तं च भक्षयितव्यान् द्यात्मकचक्रादिलक्षणधारकः , गौतमः--गौतमसगोत्रः
मांसस्यैवातिगृद्धि हेतुत्वेन तद्भक्षणनिमित्तत्वादेवमुक्तम । य'कालकच्छविः कृष्णत्वक । 'झसोदरोत्ति' झषो-मत्स्य- दिवा-मांसेनैव मांसमुपचीयते' इति प्रवादतो मांसमुपचितं स्तदुदरमिव तदाकारतयोदरं यस्यासी झषोदरा, मध्यपद-। स्यादिति मांसार्थ भक्षयितव्यानविवकिभिरिति शेषः। 'पासिलोपी समासः । इतश्च गतेषु द्वारकापुरी यदुषु, निहते जरा- त्तति' दृया, कोऽर्थः ?- उक्नविशेषणविशिष्टान् हृदि निसिन्धनपतावधिगतभरतार्द्धराज्य केशवो यौवनस्थेऽरिष्टने-| धाय 'सः' इति भगवानरिष्टनेमिर्महती प्रज्ञा-प्रक्रमान्मति
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(४६६) रहणेमि अभिधानराजेन्द्रः।
रहणेमि भ्रतावधिज्ञानत्रयात्मिका यस्याऽसौ महाप्रशः, सारथि-प्रव
ति,पापहेतुत्वादस्येति भावः। भवान्तरेषु परलोकभीरुत्वस्या संयितारं प्रक्रमानन्धहस्तिनो हस्तिपकमिति यावत् , य
त्यन्तमभ्यस्ततयैवमभिधानमन्यथा चरमशरीरत्वादतिशयद्वाऽत एवं तदा रथारोहणमनुमीयत इति रथप्रवर्तयि- शानित्वाच्च भगवतः कुत एवंविधचिन्तावसरः १, एवं च तारम् । 'कस्स ति' कस्य ' अर्थात् ' निमित्तादिमे प्राणाः, विदितभगवदाकृतेन सारथिना मोचितेषु सत्त्वेषु परितोषिपते सर्वे 'इमे' इत्यनेनैव च गते ' एते' इति पुनरभिधान
तोऽसौ यत्कृतवांस्तदाह- सो' इत्यादि 'सुस्तकं चेति' प्रतिसादादयतया पुनः पुनस्त एव भगवतो हृदि विपरि
कटीसूत्रम् , अर्पयतीति योगः, किमेतदेवत्याह-श्राभरणानि वसन्त इति ख्यापनार्थम् । यदि वा-इमे-प्रत्यक्षाः एते
च सर्वाणि शेषाणीति गम्यते । ततश्च मनःपरिणामश्चसमीपतरवर्तिनः, उनं हि-" इदमः प्रत्यक्षगतं, समीपतर- अभिप्रायः कृतो निष्क्रमणं प्रतीति गम्यते, 'देवाः 'चतुर्निवति चैतदो रूपम् ," पठ्यते च-'बहुपाणे' लि प्रतीतं, काया एव यथोचितम्-औचित्यानतिक्रमेण समवतीर्णाः , सुखैषिणः-साताभिलाषिणः 'संनिरुद्ध य ति' सन्निरुद्धाः पाठान्तरतः समवपतिताः । चकाराभ्यां चेह समुच्चयार्थानः पूरणे अच्छिहि ति' श्रासत इति षोडशसूत्रार्थः ॥ भ्यामपि तुल्यकालताया ध्वन्यमानत्वात्तदैवेति गम्यते, सर्वएवं च भगवतोक्ने
द्वर्या-समस्तविभूत्या सपरिषदः बाह्यमध्याभ्यन्तरपर्ष
स्त्रयोपेताः ' निष्क्रमणम् ' इति प्रक्रमानिष्क्रमणमहिमानं अह सारही (तो) भणइ, एए भद्दा उ पाणियो।
'तस्य' इति भगवतोऽरिष्टनेमिनः कर्तुं 'जे' इति निपातः तुझं विवाहकअम्मि, भोपावेउं बहुं जणं ॥१७॥
पूरण । शिविकारत्नं देवनिर्मितमुत्तरकुरुनामकमिति गसुगममेव, नवरम् 'अथ' इति-भगवद्वचनानन्तरं 'भद्दा उ
म्यते , ततः-तदनन्तरं समारूढः-अध्यासीनः निष्कति' भद्रा एव-कल्याणा एब न तु श्वशृगालादय पव कुत्सि
म्य-निर्गत्य द्वारकातः-द्वारकापुर्याः रैवतके उज्जयन्ते ताः, अनपराधतया वा भद्रा इत्युक्तं भवति, तब विवा
स्थितः-गमनानिवृत्तः । तत्राऽपि कतरं प्रदेश प्राप्तः स्थि
त इत्याह-उद्यानं सहस्राम्रवणनामकं सम्प्राप्तः , तत्र अनेन यदुक्तं 'कस्यार्थादिति' तत्प्रत्युत्तरमुक्तमिति सूत्रा- चावतीर्णः 'सीयातो ति' शिबिकातः 'साहस्सी यत्ति' ऽर्थः ॥
सहस्रेण प्रधानपुरुषाणामिति शेषः, परिवृतः-परिवेष्टितः इत्थं सारथिनोक्ने यद्भगवान् विहितवांस्तदाह
अथेत्यानन्तर्ये निष्कामति-धामण्यं प्रतिपद्यते । 'तुः " सोऊण तस्स वयणं, बहुपाणिविणासणं ।
पूरण 'चित्ताहिं ति' चित्रासु-चित्रानाम्नि नक्षत्रे । कथमिचिंतेइ से महापने, साणुकोसे जिएहि उ॥१८॥ त्याह-सुगन्धिगन्धिकान्-स्वभावत एवं सुरभिगन्धीन जइ मज्झ कारणा एए, हम्मति सुबहू जिया।
त्वरितम्-शीघ्र मृदुकत्वकुञ्चितान्-कोमलकुटिलान्
स्वयमेव-आत्मनैव लुश्चति-अपनयति केशान् — पश्चान मे एयं तु निस्सेयं, परलोगे भविस्सई ॥ १६ ॥
टाभिः '-पञ्चमुष्टिभिः समाहितः-समाधिमान् , सर्व सो कुंडलाण जुयलं, सुत्तग च महायसो ।
सावा ममाकर्त्तव्यमिति प्रतिक्षारोहणोपलक्षणमेतत् । इह आभरणाणि य सन्बाणि, सारहिस्स पणामई ॥२०॥ नु घन्दिकाचार्यः सत्त्वमोचनसमये सारस्वतादिप्रबोधनभवमणपरिणामो अ को, देवा य जहोइयं समोइना । नगमनमहादानानन्तरं निष्क्रमणाय पुरीनिर्गममुपवर्णयांबभूसब्बिड्डीइ सपरिसा, निक्खमणं तस्स काउंजे ॥२१॥
वेति सूत्रसप्तकार्थः॥
एवं च प्रतिपन्नप्रव्रज्ये भगवतिदेवमणुस्सपरिघुडो, सिविया रयणं तो समारूढो ।
वासुदेवो अणं भणई, लुत्तकेसं जिइंदियं । निक्खमिय वारगाओ, रेवययम्मि विप्रो भयवं ॥२२॥
इच्छियमणोरहे तुरियं, पावसू तं दमीसरा ! ॥ २५ ॥ उजाणे संपत्तो, अोइनो उत्तमाउ सीयायो ।
माणेणं दसणेणं च, चरित्तेणं तवेण य । साहस्सी य परिवुडो, अह निक्खमई उ चित्ताहि ॥२३॥
खंतीए मुत्तीए, वड्डमाणो भवाहि य ॥२६॥ अह सो मुगंधगंधिय-तुरियं मउअदुंचिए ।
एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहू जणा। सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीसमाहिओ ॥२४॥ अरिट्टनेमि वंदित्ता, अइगया बारगाउरि ॥२७॥ सुगममेव नवरं तस्य-इति सारथेः बहूना-प्रभूतानां सत्रत्रयं स्पष्टम् , नवरं वासुदेषश्चेति चशब्दावलभद्रसप्राणाना-प्राणिनां बिनाशनं-हननमर्थादभिधेयं यस्मिंस्त- मुद्रविजयादयश्च 'लुप्तकेशम् ' अपनीतशिरोरुहम ईप्सितःद्वहुप्राणविनाशनं स-भगवान् सानुक्रोशः-सकरुणः अभिावतः स चाऽसौ मनोरथश्च भगवन्मनारविषयकेषु ?- जिएहिउ लि' जीवेषु तुः-पूरणे मम कार- त्वान्मुक्तिरूपोऽर्थः ईपिसतमनोरथस्तं ' तुरिय' ति चरितं णादिति-हेतोर्मद्विवाहप्रयोजने भोजनार्थत्वादमीषामित्य- 'पावसुत्ति' प्राप्नुहि, आशीर्वचनत्वादस्य । " आशिषि लिभिप्रायः, 'हम्मति ति ' हम्यन्ते वर्तमानसामीप्ये लद,ततो ङ्लोटी" ॥ ३ । ३ । १७३ ॥ इत्याशिपि लोद । 'तम् इतिहनिष्यन्त इत्यर्थः, पाठान्तरतः ' हम्मिहति सि' स्पघम् , त्वं 'वर्द्धमानः' इति-वृद्धिभाक 'भवाहि य नि' भव. चशसुबहवः--अतिप्रभूताः 'जिय त्ति' जीवाः, एतदिति- ब्द आशीर्वादान्तरसमुच्चये । एवम्--उन्नप्रकारेण वजीवहननं तुः' एवकारार्थों नेत्यनेन योज्यते, ततः न तु- न्दित्या--स्तुन्वेति योगः, इह चैवंविधाशीर्वचनानामपि गुमैव निस्सेयं ति''निःश्रेयस' कल्याणं परलोके भविष्य-| गोत्कर्षरसूचकत्वेन स्तवनरूपत्वमविरुद्धमिति भावनीयम् ,
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रहणेमि अभिधानराजेन्द्रः।
रहणेमि 'दसारा य सि' दशार्हाः, चशब्दो भिन्नमस्ततः 'बहुति' सा-राजीमती स्थिता इत्यासिता , असंयमभीरुतयेति बहवो जनाश्च अतिगताः-प्रविष्टा इति सूत्रत्रयार्थः। गम्यते, तत्र च चीवराणि-सङ्घाट्यादिवस्त्राणि विसारयन्ती
तदा च कीरशी सती राजीमती किमचेष्टतेत्याह- विस्तारयन्ती; अत एव यथा जाता-अनाच्छादितशरीसोऊण रायकन्ना, पव्यजं सा जिणस्स उ ।
रतया जन्मावस्थोपमा 'इती' त्येवं रूपा 'पासिय' ति णीहामा उ निराणंदा, सोगण उ समुच्छिया ॥२८॥
दृष्टा । तदर्शनाच रथनेमिः-रथनेमिनामा मुनिः
भग्नचित्तः-भग्नपरिणामः सन् प्रक्रमात्संयम प्रति , स राईमई विचिंतह, धिरत्थु मम जीवियं ।
हि तामुदाररूपामवलोक्य समुत्पन्नतदभिलाषातिरेकः परजाऽहं तेणं परिच्चत्ता, सेयं पव्वइउं मम ॥२४॥ वशमनाः समजनि। पश्चाद् दृष्टश्च तया-राजीमत्या अह सा भमरसन्निभे, कुम्चफणगप्पसाहिए।
अपिः पुनरर्थे , प्रथमप्रविष्टैर्हि नान्धकारप्रदेशे किञ्चिदसयमेव लुचई केसे, धिमंती ववस्सिया ॥३०॥
वलोक्यते , अन्यथा हि वर्षणसम्भ्रमादन्यान्याश्रयगतासु मत्रत्रयं स्पष्ट, नवरं निष्क्रान्ता हासान्निर्हासा, चशब्दो |
शेषसाध्वीवेकाकिनी प्रविशदपि न तत्रेयमिति भावः , भिन्नमस्ततो निरानन्दा च । समवसृता-अवष्टब्धा ।
भीता च मा कदाचिदसौ मम शीलभङ्गं विधास्यतीति , धिगस्तु मम जीवितमिति स्वजीवितनिन्दोद्भावकं खेदवचो,
तस्मिन् इति लयने दृष्ट्वा एकान्ते-विविक्ते तकम् इतियाऽहं तेन परित्यक्तेति खेदहेतूपदर्शनम् , ततश्च श्रेयः
रथनेमि , किं कृतवत्यसावित्याह-' बाहाहिं ति' भतिशयप्रशस्य प्रबजितुं-प्रवज्यां प्रतिपक्तुं मम, येनान्य
बाहुभ्यां कृत्वा संगोपं-परस्परबाहुगुम्फनं स्तनोपरिम
केटबन्धमिति यावत् , वेपमाना शीलभाभयात्कम्पजन्मन्यपि नैवं दुःखभागिनी भवेयमिति भावः। इत्थं चाऽसौ तावदवस्थिता यावदन्यत्र प्रविहत्य तत्रैव भगवाना
माना निषीदति-उपविशति , तदाश्लेषादिपरिहारार्थमिति जगाम, तत उत्पन्न केवलस्य भगवतो निशम्य देशनां विशे
भाष इति सूत्रचतुष्टयार्थः॥
- अत्रान्तरेषत उत्पन्नवैराग्या किं कृतवतीत्याह-'अहे' स्यादि, अथअनन्तरं सा-राजीमती भ्रमरसन्निभान्-कृष्णतया प्रा.
अह सोऽवि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगो । कुञ्चिततया च, कूर्ची-गूढकेशोन्मोचको वंशमयः फणक:
भीयं पवेवियं दटुं , इमं वकमुदाहरे ॥ ३६ ।। कतकस्ताभ्यां प्रसाधिताः-संस्कृता ये तान् , स्वयम्- रहनेमी अहं भदे, सुरूवे ! चारुभासिणी! मात्मनेव, लुश्चति-अपनयति, भगवदनुशयेति गम्यते । ममं भयाहि सुअणु !, न ते पीला भविस्सई ॥ ३७॥ केशान्-कचान् ‘धिहमति त्ति' धृतिमति व्यवसितेति
एहि ता भुंजिमो भोगे, माणुस्सं सु सुदुब्रहं । अध्यवसिता सती, धर्म विधातुमिति शेष इति सूत्रत्रयार्थः। तत्प्रवज्यातिपत्तौ च
भुत्तभोगा पुणो पच्छा , जिणमग्गं चरिस्सिमो ॥३८॥ वासुदेवो अणं भणइ, लुत्तकेसि जिइंदियं ।।
अथ च सोऽपीति-स पुनः राजपुत्रः-रथनेमिः भीसंसारसागरं पोरं, तर को! लहुं लहुं॥ ३१ ॥
तां प्रवेपितां च प्रक्रमाद्राजामतीम् 'उदाहरे त्ति' उदाहरत्
उक्तवान् , किं तदित्याह-'रथनेमिरहमिति' अनेनात्मनि स्पष्टमेव, नवरं तर-त्युल्लमय, आशीर्वचनत्वादयमप्याशि
रूपवत्याद्यभिमानतः स्वप्रकाशनं तस्या अभिलाषोत्पादनार्थ षि लोट् , लघु लघु-त्वरितं, २ संभ्रमे द्विर्वचनमिति सूत्रार्थः।
विश्वासविशसनहेत्वन्यशङ्कानिरासार्थ वा स्वनामल्यापनं , तदुत्तरवक्तव्यतामाह
'ममंति' मां भजस्व-सेवस्व सुतनु ! न ते तप सा पवईया संती, पवावेसी तहिं बहुं।
पीडा--बाधा भविष्यति , सुखहेतुत्वाद्विषयसेवनस्यति सयणं परियणं चेव, सीलबंता बहुस्सुभा ॥ ३२॥ भावः । यद्वा-तां ससम्भ्रमां दृष्ट्रवमाह-"म म भयाहि सि' गिरि रेवययं जंती, वासेणोलाउ अंतरा ।
मा मा भैषीः सुतनु! यतो न ते-तब पीडा भविष्यति, वासंते अंधयारम्मि, अंतो लयणस्स सा ठिया ॥३३॥
कस्यचिदिह पीडाहेतोरभावात् , पीडया शङ्कया च भयं
स्यादित्येवमुक्तम् , एहि-आगच्छ-'ता' इति-तस्मात्तावना चीवराणि विसारंती, जहा जाय ति पासिया।
मानुष्यं 'खुः' इति-निश्चितं सुदुर्लभम् , तदेतदवाप्तारहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिट्ठो अतीइ वि ॥३४॥ विदमपि तावद्भोगलक्षणमस्य फलमुपभुज्महे इत्याशगः । भीया य सा तहिं दर्दू, एगते संजयं तयं ।
भुक्तभोगाः पुनः-पश्चाद् इति वार्धक्ये जिनमार्ग-जिबाहाहिं काउँ संगुप्फं, वेवमाणी निसीयई ॥३॥ नोक्तमुक्तिपथं 'चरिस्सामोति' बरिष्यामः, शेष स्परमिति सूत्रचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं सा इति-राजीमती 'पव्वा- सूत्रत्रयार्थः॥ बेसि' त्ति प्राविवजत्-प्रवाजितवती ' तहि ति' तस्यां
ततो राजीमती किमचेष्टतेत्याह-- द्वारकापुरि, रैवतकम्-उज्जयन्तं यान्ती-गच्छन्ती, भ. दठूण रहनेमि तं, भग्गुञ्जोयपराइयं । गवद्धन्दनार्थमिति गम्यते, वर्षेण वृष्ट्या 'उल्ल'त्ति-आर्द्रा
राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३६॥ स्तिमितसकलचीवरेति यावत् , अन्तरे-अन्तराले अर्द्धपथ
अह सा रायवरकबा, सुडिया नियमब्बए । इत्यर्थः, 'वासंति' ति-वर्षति नीरद इति गम्यते। अन्धकारेअपगतप्रकाशे, कस्मिन् ?--अन्तः--मध्ये, उनं हि, अन्तः
जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वदे॥४०॥ शब्दोऽधिकरणप्रधानम् , मध्यमाह-लयनमिह गुहा तस्यां। जहऽसि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो।
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रपणेमि
तावि ते न इच्छामि, जइऽसि सकखं पुरंदरो ||४१ ॥ धिरत्धु तेजसो कामी, जो तं जीविवकारथा ।
तं इच्छसि आवे, सेयं ते मरणं भये ।। ४२ ।। अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि भगवहिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ ४३ ॥ जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ । बायावि व्य हो, अप्पा भविस्यसि ||४४ | गोवालो भंडवालो वा, जहा तद्दव्वऽस्सिरो । एवं अणीस तं पि, सामनस्स भविस्यसि ॥ ४५ ॥ सूत्रसप्तकं पाठसिद्धं, नवरं भग्गुज्जोयपराइयं ति' भग्नो योग:- अपगतोत्साह प्रस्तावात् संयमे स वासी पराजि तथ-अभिभूतः स्त्रीपरीषण मनोयोगपराजितस्तम् असम्भ्रान्तानाये बलाहकायें प्रवर्त्तयितेत्यभिप्रायेणास्ता आत्मानं एवं संवरे ति समवारीत् श्रादितयती बीयरैरिति गम्यते तस्मिन् इति लयनमध्ये पीडया शङ्कया च भयं स्यादित्येवमुक्तम् । सुस्थिता - निश्चला
"
नियमव्रते इतीन्द्रियनोइन्द्रियनियमने- प्रव्रज्यायां च जाति कुलशीले चरपथमासि सि रक्षन्ती, शीलध्वंशे हि कदाचिदस्या एवंविधैव जातिः कुलं वेति सम्भावनातस्ते श्रपि विनाशिते स्यातामित्येवमुक्तम्, यद्यपि असि - भवसि रूपेण - श्राकारसौन्दर्येण वैश्रमणः - धनदः ललितेन सविलासचेष्टितेन नलकूबर: देवविशेषः 'ते' इति त्वां साक्षात् - समक्षः पुरन्दरः- इन्द्रो रूपाद्यनेकगुशाक्षयो य इति भावः रूपाथभिमानी चायमित्येवमुक्तः । अपरं च धिगस्तु ते तय पौरुषमिति गम्यते, अयशः कामिनिव प्रयशः कामिन् ! - श्रकीर्यभिलाषिन् !, दुराचारवाsिछतया, यद्वा ते- - तव यशो - महाकुलसम्भवोद्भूतं धिगस्त्विति सम्बन्धः कामिन् ! - भोगाभिलाषिन् ! जीवितकारणात् जीवितनिमित्तमाश्रित्य तदनासेवने हि तथाविधदशावासौ मरणमपि स्यादित्येवमभिधानम्, वान्तम्- उद्गीर्णं यत् शृगालैरपि परिहृतं तदिच्छुस्यापातुम्, यथाहि कश्चिद्वान्तमापातुमिच्छत्येवं भवानपि प्रव्रज्याग्रहणतस्त्यक्लान् भोगान् पुनरापातुमिवापातुम् - उपभोक्तुमिच्छति अतः ब्रेक फल्यास ते तय मरणं भवेत् न तु यान्तापानं, ततो मरणस्यैवात्पदोषत्वान् । अनूदितं चैतद्"विज्ञाय वस्तु निन्यं त्यक्त्वा गृहति किं कचित्पुरुषाः । वान्तं पुनरपि भुक्रे न च सर्वः सारमेयोऽपि ॥ १ ॥ " 'अहमित्यात्मनिर्देशे चापूरणे भोजराजस्प-उम्रसेनस्य त्वं च श्रसि भवसि अन्धकवृष्णेः कुले जातः इत्युभयत्र शेषः, श्रतश्च मा इति निषेधे कुले -- श्रन्वये गन्धनानां सर्पविशेषाणां 'होमो सि' भूष, सच्चेषितानुकारितयेति भावः ते हि वान्तमपि विज् इडिभीतया पुनरपि पियन्ति तथा च वृद्धा:-" सप्पा
"
फिल दो-गंधा य, अगंधा यथासाम जे दखिए मंतहिं आकहिया तं पिसं बसमुहाती येति, अमेध उस अनि मरणमन्भवसंति व संतमावियं ति" किं तर्हि कृत्यमित्याह-संयमं निभृतः स्थिरः पर
-
وا
(४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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रयणेमि
सेव, यदि त्वं भावं प्रक्रमाद्भोगाभिलापरूपं या याः 'दिच्छसि सि ' द्रक्ष्यसि तासु तास्विति गम्यते, ततः किमित्याह - वातेनाविद्धः समन्तात्ताडितो वाताविद्धो भ्रमित इति यावत् । हठो-वनस्पतिविशेषः स इवास्थितात्माचञ्चलचित्ततयाऽस्थिरस्वभावः । गोपालः - यो गाः पालयति, भाण्डपालो वा यः परकीयानि भाण्डानि भाटकादिना पालयति पठ्यते दडपालो या नगर रक्षको वा यथा तव्यस्य गयादेः सततरक्षणीयस्य अनीश्वरः प्रभुः पिशितत्फलोपभोगाभावात् पचमनीश्वरस्त्वमपि भ्रमरायस्य भविष्यसि भोगाभिलाषतस्तस्फलस्यापि विशिष्टस्याभावादिति भाव इति कार्थः।
पर्वतको रथनेमिः किं कृतवानित्याह :तीसे सो वयणं सुच्चा, संजईए सुभासियं । अंकुश जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ ४६ ॥ मणगुत्तो वयगुतो, कायगुत्तो जिईदियो ।
सामर्थ निचले फासे, जावजीवं ददम्बयो । ४७ ॥
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सूत्रद्वयम् तस्याः- राजीमत्याः सः - रथनेमिः वचनम् - अनन्तरोकानुशिष्टिरूपं त्या आकरा संयताया-प्रजितायाः सुष्ठु संवेगजनकत्वेन भाषितम्-उक्तं सुभापितम् अन प्रतीतेन यथा - नाग:- हस्ती पथि इति शेषः एवं धर्मे चारित्रधर्मे 6 संपडिवाइ ति 'सम्प्रतिपातितः संस्थितः तद्वचसंवेति गम्यते । अत्र च सम्प्रदाय" पंडियाएवं भणिज ० जाव ततो रुट्ठे राइणा देवी मेंठो हस्थी व तिथि निकड बडावियाति भणिश्रो व मठो हत्थि दीहि पाहि सुमहा ठबिया जाय एगो पाओ आगासे वो जो भरणाकिं एस तिरियो जाह, पयाणि मारयाणि तहावि राया ऐन मुखति ततो अतिथि पाया प्रायासे रो कथा, एगेण ठितो लोगेल अक्कंदो कतो- किमेये ह स्थिर वाचाजति राशा मिठो भणिश्रोतरसि ? " यित्तेउं ?, भणइ -- जइ दुयग्गाणवि श्रभयं देसि दिलं, ततो ते कुसेण नियत्ति हत्थि सि । इह चायमभिप्रायः- यथा - श्रयमीदृगवस्थो द्विपोऽङ्कुशवशतः पथि संस्थित एवमयमप्युत्पन्नचिश्रोतसिकस्तद्वचेनन अहितमसिनियर्सकलया कुराप्रायेण धर्म इति तत भ्रमरायं निलंस्थिरं फासे ति अस्यासीदासेवितवान् शे पं स्पष्टमिति सूत्रद्वयार्थः ।
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•
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उभयोरप्युतरवल्पतामाह
उग्गं तवं चरितार्थ, जाया दुखि वि केवली ।
सव्वं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥ ४८ ॥ उसे कर्म रिपुदारतया तपः-अनशनादि चरिसाएं ति परित्या जाती-भूती द्वावपीति रथनेमिराजीमस्यौ, 'केवली ति' केवलिनी सर्व निरवशेषं कर्म-भवोपग्राहि 'खवितारां ति क्षपयित्वा सिद्धिं प्राप्तावनुत्तरामिति सूत्रार्थः । सम्प्रति निर्युक्तिरनुश्रियतेसोरियपुरम्म नगरे आसी राया समुदविओ चि ।
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( ४६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
रहणेमि
रहमुसल
एवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । विनियति भोगे, जहा सो पुरिसोत्तमो ॥४६॥ त्ति वेमि । एवम् इति वक्ष्यमाणं कुर्वन्ति - विदधति संबुद्धाः बोधिलाभतः, पण्डिताः बुद्धिमत्वेन, प्रविचक्षणाः प्रकर्षेण शास्त्रशतया न त्वनीडशाः किमित्याह - विशेषेण कथञ्चिद्विश्रोतसिकोत्पत्तावपि तन्निरोधलक्षणेन निवर्त्तन्ते, 'भोगेसुं ति' भोगेभ्यो यथा सः पुरुषोत्तमो रथनेमिः, अनीदृशा ह्येकदा भग्नपरिणा मान पुनः संयमे प्रवर्त्तितुं क्षमाः, ततो भोगविनिवर्त्तनात् सम्बुद्धादिविशेषणान्वितत्वेन कथमयमवशास्पदं भवेदिति भावः । उपदेशपरतया वा प्राग्वयाख्येयमिति सूत्रार्थः ॥ ' इति ' परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत्, उत्त० २२० । दश० । कल्प० ।
तस्सासि अग्गमहिसी, सिव त्ति देवी अणुअंगी । ४४३ । णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विनायमेयं अरहया तेसिं पुत्ता चउरो, अरिनेमी तहेव रहनेमि । रहमुसले संगामे, रहमुसले गं भंते । संगामे वट्टमाणेतो अ सच्चनेमी, चउत्थओ होइ दढनेमी || ४४४॥ के जत्था के पराजइत्था : गोयमा ! वजी विदेहपुत्ते चजो सो रिट्ठनेमी, बावीसह मो अहेसि सो अरिहा । मरे सुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लई नव लेरहने मिसच्चनेमी, एए पत्तेयबुद्धा उ ।। ४४५ ।। च्छई पराजइत्था । तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संरहने मिस्स भगवओ, गिहत्थए चउर हुंति बाससया । गामं उवट्ठियं सेसं जहां महासिलाकंटए, नवरं भूया - संवच्छरउमत्थो, पंचसए केवली हुंति ॥ ४४६ ॥ गंदे हत्थराया • जाव रहमुसलसंगामं श्रयाए, पुरो नववाससए वासा-हिए उ सव्वाउगस्स नायव्वं । य से सके देविंदे देवराया, एवं तहेव० जाव चिट्ठति, एसो उचेव कालो, राव (य) मईए उ नायव्वो ।। ४४७ ॥ मग्गय से चमरे सुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं अत्र च प्रथमगाथया रथनेमेरन्वय उक्तः । ' तेसिं ति आयासं किढिपडिरूवगं विउव्वित्ता गं चिट्ठा, एवं तयोः - समुद्रविजयशिवादेव्योः प्रसङ्गतश्चेह शेषपुत्रा खलु तो इंदा संगामं संगामेंति, तं जहा- देविंदे य भिधानम् ' अहेसि त्ति ' अभूत् इह च यदरिष्टनेमे रर्हत्वं मणुइंदे य असुरिंदे य । एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिरथनेमेश्च प्रत्येकबुद्धत्वमुक्तं तदद्भातृत्वेन स्वगुणप्रकर्षेण च ए राया जइत्तए तहेव जाव दिसो दिसिं पडिसेहिरथनेमेर्माहात्म्यख्यापनार्थम् । चतुर्थगाथया पर्यायपरिमाणाभिधानम्, तत्र चत्वारि वर्षशतानि गृहस्थपर्यायः, वर्ष छ- त्था | सेकेट्टे भंते ! रहमुसले संगामे १, रहमुसले नस्थपर्यायः, वर्षशतकपञ्चकं केवलिपर्याय इतिः मिलितानि संगामे, गोयमा ! रहमुसले गं संगामे वट्टमाणे एगे र नव वर्षशतानि वर्षाधिकानि सर्वाऽऽयुरभिहितम्, एष चैव हे श्रणासए असारहिए अारोह सम्मुसले महया त्विति' च तु शब्दौ पूरणे, तत एष एव च वर्षाधिकवर्षशarrai जणवहं जणप्पमदं जणसंवट्टकप्पं रुहिरकतनवकलक्षणः, शेषं स्पष्टमिति गाथापञ्चकार्थः । सम्प्रति प्रतिभग्नपरिणामतया मा भूद्रथनेमा कस्यचिदव- दमं करेमाणे सन्वत्र समंता परिधावित्था, से तेणऽट्टें० शेति सूत्रदाहजाव रहमुसले संगामे । रहमुसले गं भंते ! संगामे वट्टमा कति जणसयसाहस्सीओ बहियाओ ?, गोयमा ! छनउतिं जणसयसाहस्सी ओ बहियाओ । ते णं भंते ! मया निस्सीला ०जाव उववन्ना १, गोयमा ! तत्थ खं दस साहस्सी एगाए मच्छीए कुच्छिसि उववन्नाओ, एगे देवलोगेसु उवबन्ने, एगे सुकुले पच्चायाए, अवसेसा प्रसनं नरगतिरिक्खजोगिएसु उववन्ना । ( सू० - ३०१ ) कम्हा णं भंते ! सके देविंदे देवराया चमरे श्रसुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रनो साहेजं दल - त्था १, गोयमा ! सके देविंदे देवराया पुव्वसंगतिए चमरे सुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए, एवं खलु गोमा ! सक्के देविंदे देवराया चमरे य असुरिंदे - सुरकुमारराया कूणियस्स रनो साहिजं दलहत्था | ( सू० ३०२ ) बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति० जाव परूवेंति एवं खलु बहवे मणुस्सा - नयरेसु उच्चावसु संगामेसु अभिमुहा चैव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अनयरेसु देवलोएसु देवता उववत्तारो भवंति से कहमेयं भंते ! एवं १, गोयमा ! जण्णं से बहुजणो श्रममन्नस्स एवं इक्खति ० जाव उववत्तारो भवन्ति, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि ०जाव ( १ - 'महासिलाकटय' शब्दे अस्मिन्नेव भागे गलम् )
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रहणेमिज - रथनेमी - न० । रथनेमिवक्तव्यताप्रतिपादके द्वा
विंशे उत्तराध्ययने, उत० २२ श्र० । स० ।
रहपह - रथपथ - पुं० । शकटचक्रद्वयप्रमिते मार्गे भ० ७ श०
६ उ० ।
रहपहगर - रथपथकर - पुं० । रथनिकरे, श्री० ।
रहमद्दण - रथमर्द्दन - न० । धातकीखण्डे अतरकङ्कायां नगर्यो स्वनामख्याते कोठे, शा० १ श्रु० १६ श्र० । रहमुसल - रथमुशल- पुं० । यत्र रथो मुशलेन युक्तः परिधाव
वन् महाजनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशलः । स्वनामख्याते कोणिकपुत्राणां चेटकेन राज्ञा सार्द्ध संग्रामे, भ० ७ ० ६ उ० । नि० । ( रथमुशलाख्यसंग्रामस्योत्पत्तौ किं निबन्धनमिति 'काल' शब्दे तृतीयभागे ४८१ पृष्ठे गतम् )
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(५००) अभिधानराजेन्द्रः।
रहमुसल परूवेमि-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं यकमाययं उसु करेत्ता वरुणं णाग णत्तुर्य गाढप्पबेसाली नाम नगरी होत्था, वामओ, तत्थ णं वेसालीए | हारी करेह । तए णं से वरुणे णागनत्तुए तेण पुरिसे णगरीए वरुणे नामं णागनत्तुए परिवसइ अड्डे •जा- गाढप्पहारीकए समाणे आसुरुत्ते . जाव मिसिमिसेमाव अपरिभृए समणावामए अभिगयजीवाजीवे जाव | णे धणुं पगमुसइ धणुं मरामुसित्ता उसुं परामुसइ उसुं पडिलाभेमाणे छ8 छटेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं | परामुसित्ता आययकमाययं उसुं करेइ प्राययकन्नाययं उअप्पाणं भावमाणे विहरति, तए णं से वरुणे णाग- सुं करेत्ता तं पुरिसं एगाहचं कूडाहच्वं जीवियाओ ननुए अनया कयाइ रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं ब-1 बवरोवइ । तए णं से वरुणे णागणतुए तेणं पुरिसेणं लाभियोगेणं रहमुसले संगामे आणने समाणे छट्ठम- गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले अबीरिए अपुरिसत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवढेति अट्ठमभत्तं अणुवतॄत्ता को- कारपरकमे अधारणिजमितिकडु तुरए निगिण्हइ तुरए
यपुरिसे सहावेइ सद्दावेइत्ता एवं वदासी खिप्पामेव निगिरिहत्ता रहं पराबत्तेइ रहं परावत्तित्ता रहमुसलाओ भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं पासरहं जुतामेव उवट्ठा- मंगामात्रा पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता एगंतमंतं अबेह हयगयरहपवर जाव सन्नाहेत्ता मम एयमाणत्तियं | वक्रमह एगंतमंतं अवकमित्ता तरए निगिण्हड निगिणिहत्ता पच्चप्पिणह । तए णं से कोटुंबियपुरिमा जाव पडिमुणोत्ता रहं ठवेइ ठवेइत्ता रहाओ पच्चोरुहइ रहाओ पच्चोरुहइत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवट्ठावेंति हयगयरह रहाओ तुगए मोएइ तुरए मोएत्ता तुरए विसजेइ विसजित्ता, जाव यमाहेति सन्नातिना जेणेव वरुणे नागनचए | दम्भसंथारगं संथरइ दम्भमंथारगं संथरहत्ता ( पुरच्छाभिजाव पञ्चप्पिणति । तए णं से वरुणे णागनत्तुए जेणेव मज
मुहे दुरूहइ दन्भसंथारगं संथरइ संथरइत्ता) पुरच्छाभिगधरे तेणेव उवागच्छति जहा कूणिओ जाव पाय- मुहे संपलियंकनिसने करयल जाव कट्ट एवं वयासीच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धे सकोरेंटमवदामेणं
नमोऽत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं नमोऽत्थुर्ण समजाव धरिजमाणेणं अणेगगणनायग०जाव दूरसंधिपाल- णस्स भगवो महावीरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकासद्धिं संपरिखुडे मजणघराओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमि
मस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स बंदामि ताजेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे पासरहे णं भगवन्तं तत्थगयं इहगए पासउ मे से भगवं तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता चाउग्घंटं भासरहं दुरूहइ | तत्थगए जाव बंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं दुरूहइत्ता हयगयरह जाव संपरिबुडे महया भडचडगर• वयासी-पुबि पि मए समणस्स भगवो महावीरजाव परिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छद स्स अंतिए थूलए पाणातिवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए उवागच्छइत्ता रहमुसलं संगाम ओयाभो । तए णं से वरु- एवं जाव थूलए परिग्गहे पञ्चक्खाए जावजीवाए, णे णागणतुए रहमुसलं संगामं ओयाए समाणे अयमेया- इयाणि पिणं अरिहंतस्स भगवो महावीरस्स अंतियं रूवं अभिग्गहं अभिगिएहइ-कप्पति मे रहमुसलं संगाम सं- सव्वं पाणातिवायं पच्चक्खामि जावजीवाए एवं जहा गामेमाणस्स जे पुचि पहणइ से पडिहणित्तए अवसेसे नोक- खंदो जाव एवं पिणं चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिप्पतीति, अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ अभिगेण्हहत्ता रिस्सामि त्ति कडु सन्नाहपढें मुयइ समाहपट्ट मुइत्तासल्लुद्धरहमुसलं संगाम संगामेति । तएणं तस्स वरुणस्स नागनत्तु-रणं करेति सल्लुदूरणं करेत्ता आलोइयपडिकते समाहिपयस्स रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए । ते आणुपुब्बीए कालगए । तए णं तस्स वरुणस्स णागनसरिसत्तए सरिसव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडि- तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे रहं हबमागए, तए णं से पुरिसे वरुणं णागणत्तुयं एवं एगे णं पुरिसे णं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले वयासी-पहण वरुणा! णागणत्तुया ! प० २, तए णं | .जाव अधाराणिअमिति कट्ट वरुणं णागनत्तुयं रहसे वरुणे णागणत्तुए तं पुरिसं एवं वदासी-नो खलु मे मुसलामो संगामाओ पडिनिक्खममाणं पासइ पासइत्ता कप्पइ देवाणुप्यिया! पुचि अहयस्स पहणित्तए, तुमं चेव तुरए निगेएहइ तुरए निगेणिहत्ता जहा वरुणे०जाव तुरए वि णं पुव्वं पहणाहि । तए णं से पुरिसे वरुणे णागणतुएणं | सञ्जति पडिसंथारगं दुरूहइ पडिसंथाइगं दुरूहित्वा पुरत्थाएवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिगिसेमाणे धM परामु भिमुहे .जाव अंजलिं कहु एवं वयासी-जइ णं सइ परामुसइत्ता उसुं परामुसइ उसुं परामुसित्ता ठाणं ठा- भंते ! मम पियबालवयस्सस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स ति ठाणं ठिच्चा पाययकमायचं उसु करेइ आय- सीलाई बयाई गुणाई चेरमलाई पञ्चक्खाणपोसहो
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रहमुसल
ववासाई ताइ णं ममं पि भवंतु ति कट्टु सन्नाहपठ्ठे मुयइमुयइत्ता समुद्धरणं करेति सल्लुद्धरणं करेता
पुत्री कालगए । तए णं तं वरुणं लागण तुयं कालगये जागिता अहामभिहिएहिं वाणमंतरहि देवेहि दिव्ये सुरभिगंधादगवा बुट्टे, दमद्धव कुसुंग निवाढिए, दिव्वे य गीयगंधव्वनिनादे कए याऽवि होत्था । तए गं तस्य वरुणस्य गागननुपम ने दिव्वं देविहिं दिवं देवज्जुर्ति दिव्वं देवाणुभागं सुणित्ता य पामित्ताय बहुज णो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ०जाव परुवेति एवं खलु देवाप्पिया ! बहवे मणुस्सा जाव उबवत्तारो भवंति । ( सू० ३०३ ) । वरुणे से मेते ! नागननुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उबवने ?, गोयमा ! सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवताए उबवने, तत्थ यं अरथेगतिया देवागं चनारि पलियोमाणि ठिनी पत्ता, तत् सं वरुणस्स पि देवस्य चत्तारि पतिमाई ठिवी पत्ता से से भंते! वरुणं देवे ताम्री देवलीगाओ उक्खणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं ० जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति० जाव अंत करेहिति । वरुणस्स णं भंते ! गागणत्तुयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उववन्ने ?, गोयमा ! सुकुले पच्चायाते । से णं भंते ! तहिंतो अनंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छहिति कहिं उववज्जहिति ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जान अंतं करेति सेवं भेत ! • । सेवं भंते ! ति । ( सू० ३०४ )
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'सारुडु त्ति' संरुष्टाः मनसा 'परिकुविय त्ति ' शरीरे सम न्ताद्दर्शितकोपविकाराः ' समरवहिय त्ति ' संग्रामे हताः रहमुसले ति ' यत्र रथो मुशलेन युक्तः - परिधावन् महाजनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशलः, 'मग्गश्रोत्ति' पृष्ठतः श्रा यसंति सोहमयम डिलरूति कठिन- वंशम यस्तापससम्बन्धी भाजनविशेषस्तत्प्रतिरूपकम् - तदाकारं वस्तु' अणासए ति श्रश्वरहितः असारहिए ति ' श्र सारधिकः अगारोहण सि अनारोहकः -- योधवर्जितः 'महता जणक्खयं ति महाजनविनाशं जणवहं ि जनवधं जनव्यथां वा ' जणपमहं ति लोकचूर्णनं 'जणसंवट्टकप्पं ति ' जनसंवर्त्त इव- लोकसंहार इव जनसंवर्त्तकल्पो ऽतस्तम् | 'एगे देवलोगेसु उवबन्ने एगे सुकुलपच्चायाए त्ति ' एतत्स्वभावत एव वक्ष्यति । 'पुव्वसंगइए सि' कार्त्तिकयवस्थायां शक्रस्य कृतिकजीव मित्रम वत्. 'परियायसंगइए त्ति' पूरणतापसावस्थायां चमरस्याऽ सौ तापसपर्यायवर्त्ती मित्रमासीदिति । ' जन्नं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ' इत्यत्रैकवचनप्रक्रमे जे ते मासु' इत्यत्र यो बहुवचननिर्देशः स व्यक्त्यपेक्षा बसे य. 'अहिगयजीवाजीवें' इत्यत्र यावत्करणात् उचलद्धपुन
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( ४०१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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म्हमुसल पावा' इत्यादि दृश्यम् ' पडिलामेमाणे ति' इदं च सम निग्गंथे फाएं एसणिजेां श्रसणपारगुवाइमसाइमें धन्यपडिगाहर्कचलोहर पीढफलग से ज्जासंधारण पडिला मेमाणे विहरह' इत्येवं दृश्यम् 'चाउरघंटं ति' घण्टा मनुष्योपेतम् आसरहं ति अश्ववहनीयं रथेनामे त्ति' युक्तमेव रथसामग्र्येति गम्यम्, 'सज्झयं' इत्यत्र यावकरादिदं दृश्यम्-सर्ट खपडा सतोरयरं सदियो सकिंकिणी हेमजालपरंतपरिक्खित्तं ' सकिङ्किणीकेन क्षुद्रटिकायुक्रेन हेमजालेन पते परिक्षित यः स तथा दे मयतविरागनदारया' मानि-हिमन द्विरिजानानि विषावास निशानि-तिनिशाभिधावृतसम्बन्धीनि सहमतीति त फनफनियुकानि निथुक्ककनकानि दाणि यत्र स तथा तम् 'सुकर्म डलघुरागं ' सुष्ठु संविद्धे चक्रे यत्र मण्डला च वृत्ता धूर्यत्र स तथा तम कालायसनमित' कालायसेनलोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नमः -- चक्रमण्डलमालाया यन्त्रकर्म--बन्धनक्रिया यत्र स तथा तम्, ' आइन्नवरतुरयसुसंपान्यप्रधान संक्रमित्यर्थः, कुसल नरच्छेयसार्गहसुसंपग्गहिये' कुशलनर रूपो यश्छेकसारथिःदक्षप्राजिता तेन सुष्ठु सम्प्रगृहीतो यः स तथा तम्, 'सरसयवनीयोपरिमंडियां शतेशरशतास्तद्वात्रिंशता गोल:- शधिभिः परिमण्डितो या स तथा तम 'सकस' सह कङ्कः- करवतंसेशेखरकैः शिरस्त्राणभूतैर्यः स तथा तम, सचावसरपहरगावरण भरियजोह जुद्धसज्जं सह चापशरैर्यानि प्रहरणानि सद्वादीनि आवरणानि च स्फुरकादीनि तेषां भृतोऽतएव योधानां युद्धसजश्च - युद्धप्रगुणो यः स तथा तम्, 'चाउपेट आसरहं जुनामेवति वाचनात तु साक्षादेवेदं दृश्यत इति 'अयमेवाति प्राकृत्यादिदम् तम्वच्यमाणरूपं सरिसए सि' सदृशक:-- -समानः सरिसत्तए 'त्ति सदृशत्वक् सरिसव्वए नि ' सहग्वयाः रिसभंडमोगरणे' त्ति सदृशी भाण्डमात्रा--प्रहरणकोशादिरूपा उपकरणं त्र-- - कङ्कटादिकं यस्य स तथा पडिरहेति रथे प्रति 'सु' आशु शीघ्रं रुकोपोदया द्विः रुपमा स्फुरितको पलङ्गो वा, यावत्करणादिदं दृश्यम् - रुट्ठे कुविए चंडिक्किए ति तरुः कुपितः प्रवृद्धकोपोदयः चाएिडकितः सञ्जातवाक्यः प्रकटितद्ररूप इत्यर्थः मि समिसे प्रोधाग्निना दीप्यमान इव एकाधिका देते कोकप्रतिपादनार्थमुक्रा, ठारां ति पाद स्याविशेषणंाति सि करोति यायचं ति ' आयतः -- आकृष्टः सामान्येन स एव कर्णायतः -- श्राकर्णमाकृष्टः श्रायतकर्णायतस्तम् 'एगाहच्चं ति ' एका हस्वाइनने प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोप तदेकात्यं तद्यधाभवति कृडाहवंति कूडे इव तथाविधपाषाणसपुटादौ कालविलम्वाभावसाधर्म्यादा हत्या--ग्रहननं यत्र तत् क्रूटाहत्यम् ' अत्थामे सि अस्थामा सामान्यतः शक्तिविकलः ' अवले ति शरीरशक्तिवर्जितः श्रवीरिए चि' मानसशक्षिर्जितः अपुरिसकारपरक मे लिय नयरं पुरुषक्रिया पुरुषकारः पुरुषाः स एव निष्पा
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रहमुसल अमिधानराजेन्द्रः।
राइ दितस्वप्रयोजनः पराक्रमः 'अधारणिज्जं ति' आत्मनो ध-| प्रव० । रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्यम् । राजादिकार्यसम्वरणं कर्तुमशक्यम् ' इति कटु त्ति' कृत्वा इति हेतोरि-| खं यदन्यस्मै न कथ्यते , तस्य दूषणम् , अनधिकृतेन वाssत्यर्थः 'तुरए णिगिराहइ त्ति' अश्वान् गच्छतो निरुणद्धी- कारङ्गितादिभिर्शात्वा अन्यस्मै प्रकाशनं रहस्यदूषणम् , यत्यर्थः 'एगंतमंतं ति' एकान्तम्-विजनम् अन्तम्-भूमिभाग था-रहसि मन्त्रयमाणान् कांश्चिदवलोक्य गृहीतमृषावतः 'सीलाई ति' फलानपेक्षाः प्रवृत्तयः ताश्च प्रक्रमाच्छुभाः कश्चिद्वदति-एते हि राजापकारादिकारकमिदमिदं च 'वयाई ति' अहिंसादीनि ‘गुणाई ति' गुणवतानि 'वेरम- मन्त्रयन्ते , यद्वा-रहस्य दूषणं पैशून्यम् , यद्वा--द्वयोः प्रीती णाई ति' सामान्येन रागादिविरतयः 'पच्चक्खाणपोसहो- सत्यामेकस्यैकस्याकारणादिनोपलभ्याभिप्रायमितरस्य तथा ववासाई ति' प्रत्याख्यानं-पौरुषादिविषयं पौषधोपवासः- | कथयति यथा प्रीतिः प्रणश्यति , इति द्वितीयोऽतिचारः । पर्वदिनोपवासः 'गीयगंधवनिनाए त्ति' गीत-गानमात्रं प्रव०६ द्वार। गन्धर्व-तदेव मुरजादिध्वनिसनाथं तल्लक्षणो निदानः- रहस्सब्भक्खाण-रहस्याभ्याख्यान-न । रह एकान्तस्तत्र भवं शब्दो गीतगन्धर्वनिनादः । ' कालमासे ति ' मरणमासे रहस्यं रहस्येनाभ्याख्यानमभिशंसनमदसध्यारोपणं रह-- मासस्योपलक्षणत्वात् कालदिवसे इत्यापि द्रष्टव्यं 'कहिं
स्याभ्याख्यानम् । स्थूलमृषावादविरते द्वितीयातिचारे, ध० गए कहि उववन्ने ति ' प्रश्नद्वये ' सोहम्मे ' स्यायेकमे- २ अधि० । पञ्चा० । ध० । रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्य वोत्तरं गमनपूर्वकत्वादुत्पादस्योत्पादाभिधानेन गमनं सा- तेन तस्मिन्वा अभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानम् , एतदुक्तं मादवगतमेवेत्यभिप्रायादिति । 'आउक्खएणं ' आयुः। भवति एकान्ते मन्त्रयमाणान्वक्ति--पते हीदं चेदं च राजाकर्मदलिकनिजेरणेन 'भवक्खएणं ति' देवभवनिबन्धनदेवग- पकारित्वादि मन्त्रयन्ति । श्राव० ६ ० । ध० र० । त्यादिकर्मनिर्जरणेन ठिइक्खएणं ति' आयुष्कादिकर्मणां उपा०। श्रा०। स्थितिनिर्जरणनेति । भ० ७ श० ६ उ०॥
रहस्सयंत-हस्ववन्त--पुं० । वामनकुब्जादिषु , सूत्र०२ Q० रहयार--थकार-पुं० । बईकिनि, " रहयारा बडइणो" पाइ ला ना० १०३ गाथा।
रहस्सिय-रह(स्यि)सिक-न० । अकार्यसम्बद्धमन्त्रे, आचा०२ रहरेणु-रथरेणु-पुं० । रथेन गम्छता उत्खातो रेणुः रथरेणुः । श्रु०१चू०२० ३ उ० । रहसिके जने, विपा०१ श्रु० १ वा, रथे गच्छति तदुत्खातो य ऊर्ध्वतियरेणुः रथरेणुः, अ० । एकान्तयोगिनि, शा० १ श्रु० १ १० । गुप्ते, शा० १ अष्टत्रसरेणुपरिमिते परिमाणे, ज्यो० २ पाहु० । अनु। ध्रु०१०। स्था० । जं०। प्रव० । भ० ।
रहावट्टगिरि-रथावर्तगिरि-पुं० । बज्रस्वामिनोऽनशनेन शरीरहवर-रथवर पुं०। ऋषभदेवस्य चतुर्दशे पुत्रे, कल्प० १ रत्यागस्थाने , कल्प०२ अधि०८ क्षण । प्रति। श्राचा० । अधि० ७ क्षण।
ग्रा० म०।" तत्थ य देवा पडिणीया, ते साहुणो साविरहवीरउर-रथवीरपुर-न० । अष्टमनिहवानां बोटिकानाम् उ- यारूवेण भत्तपाणण निमंतेइ,-अज भे पारणयं करेह, ताहे त्पत्तिस्थाने, श्रा० म०१ अ । विशे० । प्रा० क । प्रा०
पायरिएहिं णायं जहा अवियत्तोग्गहो ति, तत्थ य अभासे चू० । उत्त । कल्प।
अनो गिरी, तं गया, तत्थ य देवयाए काउस्सग्गो कतो, सा
आगंतूण भइ-अहो मह अणुग्गहो अच्छह, तत्थ समारहसंगल-रथसंगेल्ल-पुं० । रथसमुदाये, औ० । झा० । दशा।
हीए कालगया, ततो इदेण रहेण बंदिया, पयाहिणीकरेंतेण त. रहसिय (ग)-राहसिक-न० । विजने, विपा० १ श्रु०१०।
रुवरादीणि दासिलाणि; कयाणिः तेण तस्स रहावत्तो नामं रहस्स-रहस्य-न० । रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्यम् । विवि- जायं ॥ ७४४ ( गा०) प्रा० म०१ श्रा० । श्रा० चूछ। कोपाश्रयादौ, प्रच्छन्ने, गुहो, गुप्ते, प्रव०६ द्वार । “गुज्झ रहिय-रहित-पुं० । परित्यक्त , वियुक्त च । श्राव० ४ रहस्सं" पाह० ना० २७१ गाथा । श्राव । उत्त०। सूत्र।
अ०। विशे। अनु० । भ० । स्था० । प्रश्न । नि००। ज्ञा० । ऐदम्पये, दवस-राघवंश-पुं०। रघुकुले , " तहा नवमस्स सिरिवीरझा० १ श्रु०५०।
गणहरस्स अयलभाउणा जन्मभूमी रहुवंसभवाणं " ती० हस्व-न० । अपवादपदे, इहापवादपदानि रहस्यमुच्यते । १२ कल्प। बृ० ६ उ० । अदीर्घ, " एगे रहस्से।" स्था० १ ठा। रहोकम्म-रहःकर्म-न० । विजनव्यापारे , स्था० ६ ठा। रहस्सकड-रहाकृत--पुं०। प्रच्छनकृते, भ.२श०१ उ०।
रात्र-राज-धा। द्वीप्तौ , राजेरग्घ-छज-सह-रीर-रेहाः रहस्सगय--रहस्यगत-न० । कलाभेदे, स० ७२ सम।
॥८।४।१०० ॥ इति श्रादेशाभावे । राइ। राजति । प्रा०। रहस्सगारवपरिणाम-इस्वगौरवपरिणाम-पुं० । परिणामभेदे, राप्रघर-राजगृह-न० | गृहस्य घरोऽपतौ ॥ ८। २ । यस्माद्ध त्वं गमनं स हस्वगौरवपरिणामः । स्था० ६ ठा० । १४४ ॥ इति गृहेः घरादेशः । मगधदेशप्रधाननगरे, प्रा० । रहस्सट्ठाण-रहस्यस्थान--न० । गुह्यापवरकमन्त्रगृहादी, दश० राअला—देशी-प्रियङ्गवे , दे० ना० ७ वर्ग १ गाथा । ५०२ उ०।
राइ-राजि-स्त्री० । अवल्याम् , पतो, तं० । “ओली मालारहस्सदसण-रहस्यपण--न । मृषावादस्य द्वितीयातिचारे, | राई रिछोली प्रावली पंती" पाइ० ना० ६२ गाथा । औ० ।
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गड़
राह
/ ५०३ श्रभिधानराजेन्द्रः । जता गं सूरिए सव्वमंतरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदाणं उत्तमकट्टपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहसिया दुवालसमुहुत्ता राती भवति, से निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं श्रयमाणे पढमंसि अहोरचंति भितरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया गं सूरिए अभिंतराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्टभागमुहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राती भवति दोहिं एगट्टिभागनुहुत्ते अधिया से क्खिममाणे सूरिए दोचंसि अहोर तंसि अन्भन्तरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुते दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुतेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए एगमेगे मंडले दिवसे खेत्तस्स गिबुड्ढेमाणे २ तणिक्खेत्तस्स अभिवुढेमागे २ सव्वबाहिरमंडलं उवसंकभित्ता चारं चरति ता जया णं मूरिए सव्व - अंतरातो मण्डलाच सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सव्वन्भंतरमंडलं पणिवाय एगेणं तेसीतेणं राईदियसतेणं तिमि बावट्ठ एगट्टिभागमुहुत्ते सते दिवसे खेत्तस्स विड्ढित्ता रतणिक्खेत्तस्स - भिवुड्डित्ता चारं चरति तदा गं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुत्ता राती भवति जहाए बारसमुहुत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस पढमं छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविसमा सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे ( आयमाणे ) पढमंसि अहो - रत्तंसि बाहिरातरं मंडलं उवसंकमेत्ता चारं चरति, ता जया गं सूरिए बाहिरातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा गं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, दोहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं अहिए, से पविसमा सूरिए दोचंसि श्रहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया गं सूरिए बाहिरं तचं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा गं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुबालसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतरातो तयातरं मंडलातो मंडलं संकममाणे दो दो एगट्टिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले रतणिखेत्तस्स गिबुड्ढेमाणे २ दि - वसखेत्तस्स अभिवडेमाणे २ सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमिसा चारं चरति सा जया गं सूरिए सव्ववाहिराओ में -
एकानेकजातीयवृक्षाणां पङ्गिषु, शा० १ ० १ अ० । रेखायाम्, स्था० ४ ठा० ३३० ।
रात्रि-स्त्री० । रज्यते इति रात्रिः । रजन्याम्, सा च सूर्यकिरणास्पष्टव्योमखण्डरूशश्चतुर्यामात्मिका । पा० । विशे०। सूत्र० ।
पक्षस्य पश्चदश रात्रयः
ता कहं ते रातीओ आहिताति वदेजा ?, ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पारस राई पम्मत्ताओ, तं जहा- पडिवाराई बिदियाराई • जाव पारसा राई, ता एतासि गं पारसहं राईणं पमरस नामधेजा पत्ता, तं जहाउत्तमाय १ सुणक्खत्ता २ एलावच्चा ३ जसोधरा ४ । सोमणसा ५ चैव तथा, सिरिसंभूता ६ य बोद्धव्वा ॥१॥ विजया य ७ वैजयंता, ८
जयंति ६ अपराजिया य १० गच्छा य ११ ॥
समाहारा १२ चैत्र तधा,
या १३ य तहा य अतितेया १४ ।। २ ।। देवागंदा १५ निरती रयणीयं गामधे जाई (सूत्र ४८ ) । 'ता' कहमित्यादि, ता इति - पूर्ववत् कथम् केन प्रका रेण, केन क्रमेणेत्यर्थः, रात्रय श्राख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह - ' ता एगमेगस्स ए' मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश २ रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा प्रतिपत्
प्रतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा रात्रिः, द्वितीयदिवससम्बन्धिनी
द्वितीया रात्रिः, एवं पञ्चदशदिवससम्बन्धिनीपञ्चदशी रात्रिः,
एतश्च कर्म्ममासापेक्षया द्रष्टव्यम्, तत्रैव पक्षे पक्षे परिपूर्णानां पञ्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात् ' ता एसिए' मित्यादि, तत्र पतासां पञ्चदशानां रात्रीणां यथाक्रममभूनि पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- प्रथमा प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्रिरुत्तमा– उत्तमनामा, द्वितीया -सुनक्षत्रा, तृतीया - एलापत्या, चतुर्थी - यशोधरा, पञ्चमी-सौमनसी, षष्ठी श्री सम्भूता, सप्तमी - विजया, अष्टमी-वैजन्ती, नवमी-जयन्ती, दशमी - श्रपराजिता, एकादशी इच्छा, द्वादशी-समाहारा, त्रयोदशी - तेजा, चतुर्दशी - अतितेजा, पञ्चदशी देवानन्दा, श्रमूनि क्रमेण रात्रीणां नामधेयानि भवन्ति । सू० प्र० १० पाहु० । ज्यो० । जं० । चं० प्र० । कल्प० ।
जइ खलु तस्सेव आदिचस्स संवच्छरस्स सयं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, सई अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, सई दुवालसमुहुत्ता राती भवती, पढमे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, दो छम्मासे अथ अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि अट्ठार समुहुत्ता राती, अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति पढमे छम्मासे, दोच्चे छम्मासे णत्थि पम्मरसमुहुत्ते दिवसे भवति णत्थि पम्परसमुहुत्ता राती भवति, तत्थ णं कं हेतुं वदेजा ?, त अयणं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वन्तराए ० जाव विसेसाहिए परिक्खेणं पपत्ते, ता
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राइ
डलाओ सव्वन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तदाणं सव्यवाहिर मंडल पणिधाय एगे तेसीएणंराईदियस तिथि छाडे एगडिभागमुडुत्तसते रयणिखेतरस नियुड़िता दिवसखेत्तस्स अभिवड़िता चारं चरति गया से उत्तमकडुपते उकोसए अट्ठारसमुहले दिवसे भवति, जहरिणया दुवालसमुहुत्ता राती भवति, एस णं दोघे जम्मासे एस से दुधस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे एस गं आदिच्चस्स संवच्छरस्स पजवसाणे, इति खलु तस्सेवं आदिचस्स संवच्छरस्स सई अङ्कारसमुने दिवसे भवति सई अ द्वारसमुहुत्ता राती भवति, सई दुवालसमुहुत्ता राती भवति पढने धम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुते दिवसे अथ दुवालसमुते दिवसे नत्थि दुवालसमुत्ता राई अथ दुबाला राई नत्थि दुवालसमुदुने दिवसे भवति पढने वा धम्मासे रात्थि परणरसमुडुते दिवसे भवति, रात्थि परागरसमुत्ता राई भवति सत्थि रातिदिवाणं बोबडी महतारा वाचयोवचएणं, गगणत्थ वा अणुवायईए, गाधाओ माणिताओ (सूत्र - ११)
,
"
4
(५०४) अभिधानराजेन्द्रः ।
9
,
'जइ खलु' इत्यादि, यदि खलु पदषष्टयधिकरात्रिन्दियशतत्रयपरिमाणायामदायां शीतं मण्डलशतं द्विस्वधरति द्वे च मगडले एकैकं पारमिति तत एवं सति यदेतद्भगवद्भिः प्ररुष्यते, तस्य षट्षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणस्य सूर्य संवत्सरस्य मध्ये सकृद् एकवारमप्रादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति, सकृश्चाष्टादशमुहूर्त्ता रात्रि तथा एकवारं दिवसो भवति सहच द्वारा रात्रिः तत्रापि परमासे प्रथमेऽस्ति अष्टादशमुहुर्ता रात्रिर्तत्वादशमुह दिवसा तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे परमासे द्वादशमुहर्ती दिवसो न तु द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, द्वितीये परमासेऽस्त्यष्टादशमुर्ती दिवसो नत्वष्टादशमुहर्त्ता रात्रिः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव द्विसीय परमासे द्वादशमुहर्त्ता रात्रिन्तु द्वादशमुत्तों दिय सा तथा प्रथमे परमासे द्वितीये या परमासे नास्त्येतत् यदुत - पञ्चदशमुहर्त्ताऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहर्त्ता रात्रिरिति, तत्र एवंविधे वस्तुतत्त्वागमे को हेतुः किं कारणं कया युक्या प्रतिपत्त व्यमिति भावार्थ:, 'इति वदे' दिति, अत्रार्थे भगवान् प्रसादं कृत्वा वदेत् । श्रत्र प्रतिवचनमाह ' ता श्रयण 'मित्यादि, श्रयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो रामिति वाक्यालकारे 'जम्बूद्वीपो चम्बूदीपनामा दीपः स च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः--सर्वमध्यवर्ती सर्वेषामपि शेषद्वीप समुद्राणामित आरभ्य यथागमोक्कक्रमद्विगुणविष्कम्भतया भवनात् ' जाव परिक्खेवेशं पश्नत्ते' इति, अत्र याव दोपादानादिदमन्यद् प्रथान्तरे प्रसिद्धं सूत्रमवगन्तव्यम् । चट्टे तेलापूर ठाडिए बट्टे रचकवालसंटाडिए बट्टे पुकारकनियासंलडिए पढिपुन
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3
राइ
चंदावि जोयसहस्वमायाविभेतिथि जोयसपसहरुलाई दोत्रिय समासे जो तिथि फोसे चट्टावी व धस तेरस य अङ्गलाई अ
साहिए परिइति अस व्वखुडाग' ति सर्वेभ्यो ऽप्यन्येभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको लघुरायामविष्कम्भाभ्यां योजनाप्रमाणत्या शेर्पा प्रायः सुगम, परिधिपरिमाणं गणित व क्षेत्रसमासीकातः परिभावनीयम् 'ता' इति ततो यदा समिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा समिति प्राग्वत्, उत्तमकाष्ठाप्राप्तः श्रत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षवाची परमप्रक प्राप्तो यतः परमन्योऽधिको न भवति स इत्यर्थः, 'उक्कोस ' त्ति, उत्कर्षतीत्युत्कर्षः उत्कर्ष एवोत्कर्षकः उत्कृष्ट इत्यर्थः, अ
दशमुत्तों दिवसो भवति तस्मिव च सर्वाभ्यन्तरे मरा ले सूर्ये चारं चरति जघन्या सर्वलघ्वी द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, एषोऽहोरात्रः पाश्चात्यस्य सूर्यसंवत्सरस्य पर्यवसानं ततः स सूर्यस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला निष्कासन नये सूर्यसंवसरमाददानः प्रवर्तमानः प्रथमे अहोरात्रे अम्भितरानतरंति स्तम्डलाइनन्तरं द्वितीयं मण्डलपसंक्रम्य चारं चरति ततो यदा सूर्योऽभ्यन्तरानन्तरं स बीभ्यन्तरान्डलाइनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ती दिवसो द्वाभ्यां मुहुर्त्तकपरिभागाभ्यामूनो भवति द्वाभ्यां च भागाभ्या मधिका द्वादशमुत्त रात्रिः कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, हे मण्डलमेनाहोरा द्वाभ्यां सूर्याभ्यां परि समाप्यते, एकैकध सूर्यः प्रत्यहोरा मल विशदघिकोऽष्टादशशतसंख्यान् भागान् परिकल्प्य एकैकं भार्ग दिवसक्षेत्रस्य रात्रिक्षेत्रस्य वा यथायोग्यं हापयिता वर्द्धयिता या भवति सबैको मण्डलगत त्रिंशदधिकाष्टादशशततमो भागो द्वाभ्यां मुपभागाभ्यां गम्यते, तथाहि तानि मण्डलगतानि त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि भागानां द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकेनाहोरात्रेण गम्यते अहोरात्रश्च शिन्तंप्रमा राः ततः सूर्याभ्यन्तरा विकाशः, यदि पट्या मुरादश शतानि त्रिंशदधिकानि मण्डलस्य भागानां गम्यन्ते तत एकेन मुहूर्त्तेन किं गम्यते?, राशित्रयस्थापना - । ६० । १८३० | १ अत्रान्त्येन राशिना एककलशयेन मध्यस्य राशेगुरानाजातानि तान्येवाटादशशतानि त्रिंशदधिकानि तेषामाद्येन राशिना परिलक्षणेन भामोहिते लक्ष्धाः साखागा, तावन्नगम्यते मुकभागीक्रियते तत आगतमेको भागो द्वाभ्यां मुष्टिभागाय गम्यते, यदि वा यदि व्यशीत्यपिकेनाहोरावशतेन पदानी वृद्धी या प्राप्यन्ते तत एकेनाहोरात्रेण किं प्राप्यते ?, राशित्रयस्थापना - १९८३ । ६ १ अत्रान्येन राशिना एककलशयेन मध्यराशिपते, जातास्त एवं पद तेषां त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागहरणम्, अत्रोपरितनराशेः स्तोत्याद्भागी न लभ्यते ततदकराश्योखिकेनापवर्त्तना, जात उपरितनो राशिद्विकरूपोऽ धस्तन एकटिरूपः आगतं द्वावेकपटिभागी मुहर्त्तस्य एकस्मदोरात्रे वृद्धी हानी वा प्राप्येते इति तथा 'ता' इति तस्माद् द्वितीयामण्डलाकामन सूर्यो द्वितीये अहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलय तृतीयं मदमुपसंकाय चा
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राह अभिधानराजेन्द्रः।
राह चरति, 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्सर्वा- स्माद्विषक्षितान्मराउलात् 'तयारणंतर ' मिति तद्विवक्षित-- भ्यन्तरं मण्डलमपेक्ष्य तृतीये मण्डल उपसभ्य चार चर- मनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले ति तदा चतुर्भिर्मुहतस्यैकष्टिभागहीनोऽष्टादशमुहर्सप्रमाणो मुहर्नस्य द्वौ द्वावेकष्टिभागी रनिक्षत्रस्य निर्वेष्टयन दिदिवसो भवति, चतुर्भिमुहूर्तस्यैकष्टिभागैरधिका द्वादशमु- वसक्षेत्रस्थ प्रतिमण्डल द्वा द्वौ महत्तस्यैकर्षाप्रभागी अभिहुर्नप्रमाणा रात्रिः, एवमुक्तनीत्या 'खलु' निश्चितमेतेनानन्त- | वर्द्धयन अभिवर्द्ध यन् यीत्यधिकशततमे अहोरात्र हिरोदितेनोपायन प्रतिमण्डल दिवसरात्रिविषयमुहर्तकपष्टि- | तीयपरमासपर्यवसानभूते सव्वम्भतरं' ति सर्वाभ्यन्तर-- भागद्वयहानिवृद्धिरूपेण निष्क्रामन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति. ' ता ' इति-ततो यदा-- शनैः शनैर्दक्षिणाभिमुखे गच्छन् सूर्यः, 'तयाणंतरा' इति यस्मिन् काले मिति पूर्ववत् , सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलान्मतस्माद्विवक्षितादनन्तरान्मण्डलात् 'तयाणतर' मिति- एडलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनेग्भ्यन्तरं प्रविश्य सर्वाभ्यन्तर तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् एकैकस्मिन् मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा सर्वबाहामण्डलं'. मण्डले मुहूर्नस्य द्वौ द्वाकष्टिभागौ दिवसक्षेत्रस्य निर्वे णिधाय' मर्यादीकृत्य तदर्वातनाद् द्वितीयान्मण्डलादारएयन निर्वेष्टयन हापयन् हापयन् रजनिक्षेत्रस्य प्रतिमण्डल भ्येत्यर्थः, एकेन व्यशीत्यधिकेन रात्रिदिवशतेन श्रीणि - द्वौ द्वौ मुहर्तस्यैकषष्ठिभागो अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् षष्टीनि-पट्पयधिकानि मुहूर्तस्यैकष्टिभागशतानि २व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे प्रथमषरामासपर्यवसानभूते जनिक्षत्रस्य निर्वेय हापयित्वा दियसक्षेत्रस्य च तान्येष सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति ' ता- इति-तत्तो | ' त्रीणि पदषष्टीनि मुहत्तैकर्षाप्रभागशतानि अभिवद्ध यदा तस्मिन् काले अहोरावरूपेणमिति प्रागिव सूर्यः सर्वाः | चारं चरति, तदा गमिति वाक्यलंकारे. उत्तमकाष्ठा भ्यन्तरान्मण्डलान्मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैः निष्क्रम्य प्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षका उत्कृोऽष्टादशम् - सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा सर्वाभ्यन्तरम- हत्ती दिवसो भति, जघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, राडल 'प्रणिधाय' मर्यादीकृत्य द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एतद् द्वितीय पराभासं, यदि वा---एपा द्वितीया परमाएकेन व्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि षट्पष्टीनि सी, सूत्र पुस्त्वनिर्देश प्रार्थत्वात् एष पदपाट्यधिक . . पदपटश्यधिकानि मुहूत्तकषष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्य त्रिशततमोऽहोरात्रो द्वितीयस्य एरामासस्य पर्यवसानभू. 'निर्वेष्टव हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य तान्येव त्रीणि मुहर्तक- तः, 'एष' एवंप्रमाण आदित्यसंवत्सरः, एष पटवाय-- पष्टिभागशतानि षट्पष्टयधिकानि अभिनय : चरति ,
धिकत्रिशततमोऽहोरात्रः 'श्रादित्यस्य' श्रादित्यसम्बन्धितदा णमिति पूर्ववत् , उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षप्राप्ता
नः संवत्सरस्य पर्यवसानम् । सम्प्रत्युपसंहारमाहउत्कर्षिका-उत्कृष्टा श्रष्टादशमुहूत्ती श्रष्टादशमुहूर्तप्रमाणा खलु तस्सव ' मित्यादि, यस्मादेवम् ' इति ' तस्मात्कारणरात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः , एषा त्तस्यादित्यस्य-श्रादित्यसंवन्तरस्य मध्ये ' एवम् ' उपनेन प्रथमा षण्मासी , दिवा-एतत् प्रथमं षण्मासं , प्रकारेण ' सकृद्' एकवारमादशमुहत्तों दिवसो भवति सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश प्रार्षत्वात् , एष व्यशीत्यधिकशतत- सकृष्चाशदशमुहूर्ता रात्रिः, तथा सकृद द्वादशमुहत्तों दिय-- मोहोरात्रः प्रथमस्य परामासस्य पर्यवसानम् । ' से पवि- सो भवति सकृश्च द्वादशमुही रात्रिः , तत्र प्रथमे प.. समाणे ' इत्यादि, सः-सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं एमासे अस्त्यष्टादशमुहर्ता रात्रिः, सा च प्रथमषरमासपप्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानः-प्रतिपद्यमानो द्वितीय- र्यवसानभूतेऽहोरात्रे, नत्वष्टादशमुहत्तों दिवसः, तथा श्रस्य षण्मासम्य प्रथम अहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वागन
स्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहों दिवसः, सोऽन्तर द्वितीय मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता' इति- पि प्रथमपएमासपर्यवसाने होरात्र, भतु द्वादशमुहर्ता रातत्र यदा सूर्यो बाह्यात्--सर्वबाह्यान्मण्डलादालनं द्विती
त्रिः, द्वितीये परमासेऽस्त्येतद् यदुत अष्टादशमहत्तों दियं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां मुहर्सक- वसो भवति, स च द्वितीयपरामासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे पष्टिभागाभ्यामूना अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति , द्वाभ्यां नत्वष्टादशमुहर्ता रात्रिः, तथा अस्त्येतत् यदुत तस्मिन्नेव मुहकपष्टिभागाभ्यामधिको द्वादशमुहूर्नप्रमाणो दिवसः, द्वितीयषणमासे अस्ति द्वादशमुहर्ता रात्रिः, साऽपि तततस्ततोऽपि द्वितीयान्मण्डलादभ्यन्तरं स सूर्यः प्रविशन स्मिन्नेव द्वितीयपरमासपर्यवसानभूतेऽहोगत्रे, न पुनरस्त्यद्वितीयस्य परमासस्य द्वितीये अहोरात्र ' बाहिरं तच्चं'। तत् यदुत द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवतीति, तथा प्रथमे नि ह्यान् मण्डलादर्वाननं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य | वा परमासे नास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमहत्ती दिवसो भवचारं चरति 'ता जया णमित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्व-- ति, नाप्यस्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहर्ता रात्रिः, किं सवत्, सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं , तृतीयं मण्डलमुपसं- र्वथा नेत्याह-नान्यत्र-गत्रिन्दिधानां वृद्धद्यपवृद्धेरन्यत्र न क्रम्य चारं चरति तदा श्रादशमुहर्ता गविश्चतुर्भिः 'एग- भवति, रात्रिन्दिवानां तु वृद्धथपवृद्धौ च भवत्येव पञ्चदविभागमुहुत्तेहिं 'ति प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पदोपन्यासः, । शमुहर्ता गत्रिः पञ्चदशमुहतो दिवसः, ते च वृद्धधपतृद्धी एवं तु यथास्थितपदनिर्देशो द्रष्टव्यो-मुहकांष्टभागैमना | रात्रिन्दिवानां कथं भवत इत्याह- मुहुत्ताग चयोवचए-- भवति,चतुर्भिमुहकपष्टिभागैरधिको द्वादशमुहुर्ती दिवसः। ण 'मुहर्तानां पञ्चदशसख्यानां चयोपच येन चयेन-अधि-- ' एवं खलु एणण' मित्यादि , एवं-उक्लनीत्या खल्वेनेन- कन्वेन वृद्धिः, अपचयेन-हीनत्वेनापवृद्धिः । इयमत्र भादअनन्तरोदितेनोपायन प्रतिमगडलं गत्रिदिवसविषयमुहुः-1 ना-परिपूर्णपञ्चदशमुहुर्तप्रमाणे दिवसरात्री न भवतो, हीन्दा कटिभागवयहानिवृद्धिरूपेण प्रविशन् मण्डलपरिभ्रमण- | धिकपञ्चदशमुहूर्त प्रमाणे तु दिवसरात्री भवतः, एवम् गत्या शनैः शनैरुत्तराभिमुख गच्छन ' तयागनगर निन| अन्नत्थ वा अणुवायगई । इनि. वाशब्दः प्रकारान्तर
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(५०६) अभिधानराजेन्द्रः।
राइ सूबने अन्यत्रानुपातगतेः-अनुसारगतेः पञ्चदशमहत्तों दि- अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते, सब्बबाहिरं उत्तरं अवसः पञ्चदशमुहर्ता वा रात्रिर्न भवति , अनुसारगत्या तु।
मंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति । ता जया गं भवत्येव । सा चानुसारगतिरवम्-यदि ज्यशीत्यधिकशततमे मण्डले परामुहर्ता वृद्धौ हानौ वा प्राप्यन्ते ततोऽर्धा
सरिए सब्बबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता क तदर्द्धगतौ त्रयो मुहूर्ताः प्राप्यन्ते , त्र्यशीत्यधिकशतस्य चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुवाऽद्ध सार्दा एकनवतिः, तत भागतम्-एकनवतिसंख्येषु हुत्ता राई भवति, जहामए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । मण्डलेषु गतेषु द्विनवतितमस्य च मण्डलस्याः गते प
एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमछम्मासस्स पञ्जवश्चदश मुहर्ताः प्राप्यन्ते, ततस्तत ऊर्ध्व रात्रिकल्पनायां पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः, पञ्चदशमुहूर्ता च रात्रिर्लभ्यते नान्यथे
साण, से पविसमाणे सरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे पढति, 'गाहाओ भणितब्वानो' ति अत्र अनन्तरोनार्थसन्मा- मंसि अहोरसि उत्तराते अंतरभागाते तस्सादिपदेसाते हिका अस्या एव सूर्यप्रझर्भद्रबाहुस्वामिना या नियुक्तिः | बाहिराणंतरं दाहिणं अद्भूमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चार कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा
चरति, ता जया णं सरिए बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंगाथा वर्तन्ते ता भणितव्याः-पठनीयाः , ताश्च सम्प्रति कापि पुस्तकेषु न दृश्यन्त इति व्यवच्छिन्नाः सम्भाव्यन्ते
डलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा शं अट्ठारसमुततो न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते , यो वा यथा
हत्ता राई भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुबालसम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा शिष्येभ्यः कथनीया व्या- | समुहुत्ते दिवसे भवति दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, ख्यानीयाश्चेनि । स०प्र०१ पाहु।
से पविसमाणे मूरिए दोसि अहोरत्तंसि दाहिणासम्प्रति द्वितीयमर्द्धमण्डलसंस्थितिप्रतिपादक
ते अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए बाहिरंतरं तच्च विवजुरिदं प्रश्नसूत्रमाह
उत्तरं अद्धमंडलसंठित उवसंकमित्ता चार चरति , ता कहं ने अमंडलसंठिनी आहिताति वदे आ ?, तत्थ
ता जया णं मूरिए बाहिरं तच्चं उत्तरं अद्भुमंडलसंठित खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिती पम्पत्ता,तंजहा-दाहिणा चेव
उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहत्ता राई अद्धमंडलसंठिती, उत्तरा चेव अद्धमंडलसंठिती । ता कह
भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया एवं खलु ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिती आहिताति वदेजा ?, ता अ
एतेणं उवाएणं पविसमाणे मूरिए तदाणंतराउ तदाणंतरं यमं जंबुहीवे दी सव्वदीवसमुदाणं जाव परिक्खेवेणं ता जया णं मूरिए सव्यब्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसं
तंसि तंसि देसंसि (म्मि) तं तं अद्धमंडलसंठिति संकपमाठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते
णे संकममाणे उत्तराए अंतराभागाते तस्सादिपदेसाए स
व्वभंतरं दाहिणं अद्धमंठलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरउक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जहमिया दुवालसमु
दि, ता जया णं मूरिए सव्वभंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंमुत्ता राती भवति, से णिक्खममाणे मूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तैसि दाहिणाए अंतराए भा
ठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते गाते तस्सादिपदेसाते अभितराणतरं उत्तरं अद्भूमंडल
उक्कोसए अट्ठारममहत्ते दिवसे भवति, जहमिया दुवालसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति, जता णं मृरिए अभि- समुहुत्ता राई भवति, एस णं दोच्च छम्मासे, एस णं दोतराणतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चर- च्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिच्चे संवच्छरे, ति तदा णं अट्ठारसमुहुने(हिं) दिवसे भवति दोहिं एग
एस णं आदिच्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे । (मूत्र-१२ ) ता ट्ठभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहता राती दोहिं एगद्विभा- कहं ते उत्तरा अद्भूमंडलसंठिती आहिताति वदेजा ?, ता गमुहुत्तेहिं अधिया से णिक्बममाणे मूरिए दोश्चंसि अहो । अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सब्बदीव जाव परिक्खेवेणं, ता रत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाते तम्सादिपदेसाए अभि- जता णं मूरिए सबभंतरे उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवतरं तचं दाहिणं अमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं | संकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अचरति । ता जया णं मूरिए अभितरं तच्चं दाहिणं अद्भमं- ट्रारसमुहत्ते दिवसे भवति जहम्मिया दुवालसमुहत्ता राई डलसंठिति उवमंकमित्ता चार चरति, तदा णं अट्ठारत- भवति, जहा दाहिणा तहा चेव णवरं उत्तरट्ठिो अभिमुहत्ते (हिं) दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहूतेहिं ऊणे तराणंतरं दाहिणं उवसंकमइ, दाहिणातो अभिंतरं तचं दुवालममुहुत्ता राई भवति चउहिं एगविभागमुदुत्तेहिं अ- उत्तरं उवसंकमति । एवं खलु एएणं उवाएणं • जाव धिया । एवं खलु गाणं उवाएणं णिक्खममाणे मूरिए सव्वबाहिरं दाहिणं उवसंकमंति, सव्वबाहिरं दातदणंतरातोऽणंतरमि तंसि सि देमम्मि तं तं अद्धमंड- हिणं उपसंकमित्ता दाहिणाओ बाहिराणंतरं उत्तरं लसंठितिं संकममाणो संकममाणो दाहिणाए दाहिणाए। उवसंकमति, उत्तरातो वाहिरं तचं दाहिणं तच्चातो
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(५०७) शह
अभिधानराजेन्द्रः। दाहिणातो संकममाणे २ ० जाव सबभंतरं उव-| संस्थितरुक्कप्रकारेण स सूर्यो निष्कामन् अभिनवस्य सूर्यसंकमति, तहेव एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स संवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्र उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोछम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिच्चे संवच्छरे, एस णं म्तराद् द्वितीयोत्तरार्द्धमण्डलगताटाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिआदिच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे गाहाओ। (सूत्र-१३)
भागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद् विनिःसृत्य
'तस्साइपएसाए ' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्या'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' इति प्रक्रमार्थः, पूर्ववद् भाव
जमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'अम्भितरं तच्चं ' ति सर्वानीयः, कथं-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-तव मते अ
भ्यन्तरमण्डलमपेक्ष्य तृतीयां दक्षिणामीमण्डलसंस्थितिमुप. मण्डलसंस्थितिः अर्द्धमण्डलब्यवस्था श्राख्यातेति वदेत्
संक्रम्य चारं चरति, अत्रापि तथा चारं चरति भादिपृच्छतश्चायमभिप्रायः-इह एकैकः सूर्य एकैकेनाहोरात्रेणे
प्रदेशादृर्व शनैः शनैरपर मण्डलाभिमुखं येन तस्याहोरात्रस्य कैकस्य मण्डलस्यालमेव भ्रमणेन पूरयति, ततः संशयःकथमकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रमेकैकार्द्धमण्डलपरिभ्रम
पर्यन्ते तन्मण्डलगतानष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागानपरे
च योजने अपहाय चतुर्थस्योत्तराईमण्डलस्य सीमायाणव्यवस्थेति, अत्र भगवान् प्रत्युत्तरमाह-'ता खलु' इत्या
मवतिष्ठते, 'ता जया ण' मित्यादि, ततो यदा णमिति दि, 'ता' इति तत्राद्धमण्डलव्यवस्थाविचारे खलु-निश्चि
पूर्ववत् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयां दक्षिणामीमण्डलसंतमिमे द्वे अर्द्धमण्डलसंस्थिती मया प्रश्नप्ते, तद्यथा-एका
स्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूतों दिवसो दक्षिणा चैव-दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थि
भवति चतुर्भिर्मुहकषष्टिभागैरूनः , द्वादशमुहूर्ता रात्रिः तिः-अर्द्धमण्डलब्यवस्था, द्वितीया उत्तरा चैव-उत्तरदिग्भा.
चतुर्भिर्मुहकषष्टिभागैरभ्यधिका, ' एवं खलु'इत्यादि, विसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, एवमुक्नेऽपि भूयः पृ
एवम्-उक्लनीत्या खलु-निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहो-- च्छति- ता कहं ते इत्यादि, इह द्वे अपि अर्द्धमण्डलसं
रात्रमष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयविस्थिती सातव्ये तदं तावत्पृच्छामि-कथं त्वया भगवन् !
कम्पनरूपेण निष्कामन सूर्यस्तदनन्तगदर्द्धमण्डलात्तदनन्तरं 'दक्षिणा' दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थिति
तस्मिन् २ देश-दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा तां ताम्राण्याता इति वदेत् ?, भगवानाह- ता अयम' मित्यादि,
अर्द्धमण्डसंस्थितिं संक्रामन् २ व्यशीत्यधिकशततमाइदं जम्बूद्वीपवाक्यं प्रागिव स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयम् ,
होरात्रपर्यन्ते गते दक्षिणस्मात्-दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरात् 'ता जया ण' मित्यादि, तव यदा, णमिति व गालंकारे,
द्वयशीत्यधिकशततममण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिसूर्यः सर्वाभ्यन्तरां सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणामर्द्धमण्ड
भागाभ्यधिकतदनन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद्भालसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा समिति पूर्ववत् , गात् 'तस्साइपएसाए ' इति तस्य-सर्वबाह्यमण्डलगतस्या उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः, उत्कर्षक-उत्कृष्टोऽष्टादश-1
तरस्यार्द्धमण्डलादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वबाह्यामुत्तरार्द्धमएयुमुहत्तों दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमूहर्ता रात्रिः।
लसंस्थितिमुपसक्रम्य चारं चरति , स चादिप्रदेशाध्ये इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादृवं शनैः |
शनैः२ सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा शनैः सर्वाभ्यन्तगनन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथ
कथश्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वबाह्याश्चनाऽपि मण्डलगत्या परिभ्रमति येनाहोरात्रपर्यन्ते सर्वा- नन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलसीमायाँ भवति, ततो यदा णभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागानपरे च द्वे| मिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यामुत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंयोजने अतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयोत्तराईमण्डल- क्रम्य चारं चरति, तत्र उत्तमकाष्ठां प्राप्ता (परमप्रकर्ष सामायां वर्तते, तथा चाह-से निक्खममाणे' इत्यादि स गता ) उत्कर्षिका उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरगतात् प्रथमक्षणार्ध्वं शनैः शनैर्निक्रामन् जघन्यश्च द्वादशमुहत्तों दिवसः, 'एस ण' मित्यादि, निगअहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति नवम्-अभिनवं संवत्सरमाददानो मनवाक्यं प्राग्यत्, ‘स पविसमाणे' इत्यादि, सूर्यः सर्वबाह्यो नवस्य प्रथमेऽहोरात्रे दक्षिणस्माद्-दक्षिणदिग्भाविनोऽनन्त- तरार्द्धमण्डलादिप्रदेशादृवं शनैः शनैः सर्वबाह्यानन्तरद्धिरात्-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभा- तीयदक्षिणार्डमण्डलाभिमुखं संक्रामन् तस्मिन्नेवाहोरात्रेतिगाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद्विनिर्गत्य 'तस्सा- क्रान्ते सति अभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददामो दिपएसाए' इति तस्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरार्द्धमण्ड-- द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्र उत्सरस्मादुत्तरविलगानिदेशमाश्रित्याभ्यन्तरानन्तरां-सर्वाभ्यन्तरमण्डला- ग्भाविसर्वबाह्यमण्डलगतादन्तरात् सर्वबाह्यान्तरार्द्धमण्डनन्तरामुत्तरामद्धमण्डलसस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति, लगताशाचत्वारिंशद्याजनकष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरार्वाग्स चादिप्रदेशादृा शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखमत्रापि भावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद् भागात् 'तस्साइपतथा कथञ्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तदपि एसाप ' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनः सर्वबाह्यानन्तरस्य मगडलमन्ये च द्वे योजने परित्यज्य दक्षिणदिग्भाविनस्तृ- दक्षिणस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'बाहिराणंतरं' ति तीयस्य मण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जयाण' मित्यादि सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यानन्तरामभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डल. ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयामुत्तरामर्द्ध- संस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति, अत्रापि चार प्रादिनमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा दिवसोऽष्टा- दशादृव तथा कथञ्चनाप्यभ्यन्तराभिमुखं वर्तते येनाहोदशमुहतों द्वाभ्यां मुह तैकष्टिभागाभ्यामूनो भवति, जघन्या राषपर्यन्त सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरस्य तृतीयाईमण्डलस्य च द्वादशमुहर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहूर्तेकाष्ठभागाभ्याम- सीमायां भवति, 'ता जया ण' मित्यादि,ततो यदा सूर्यो बाह्याभ्यधिका, ततस्तस्या अपि द्वितीयस्या उत्तरार्द्धमण्डल-I नन्तरां-सेर्वबाह्यादनन्तरां दक्षिणामडमण्डलसस्थितिमुपर
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(५० ) राइ
अभिधानराजेन्द्रः। संक्रम्य चार चरति तदा अष्टादशमहा रात्रिाभ्यां मु- उत्तरं उवसंकमइ, उत्तराओ बाहिरं तथं दाहिणं तथाश्रो एर्ने कषष्टिभागाभ्यामूना भवति , द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिव- दाहिणाश्रो संकममाणे २ जाव सम्वन्भंतरमुत्तरं उबसंसो द्वाभ्यां मुहर्तकष्टिभागाभ्यामधिकः ‘से पविसमाणे' कमइ' इति, नवरमयं दक्षिणार्द्धमण्डलव्यवस्थितेरस्यामुइत्यादि, ततस्तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति सूर्योऽभ्यन्तरं
त्तरार्द्धमण्डलव्यवस्थायां विशेषो-यतुत सर्वाभ्यन्तरे उत्तरप्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे दक्षिण- स्मिन्नर्द्धमण्डले स्थितः सन् तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते नवं स्माद्भागाहक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरादक्षिणदिग्भाविसर्वबाह्या - संवत्सरमाददानः प्रथमस्य पगमासस्य प्रथमेऽहोरात्रे मन्तरद्वितीयमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकपष्टिभागाभ्य- अभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरां दक्षिणाधिकतदनन्तरार्वाग्भावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपा -- मर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति , स्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते द्भागाद्विनिःसृत्य ' तस्साइपएसाए ' इति तस्य- प्रथमस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरतृतीयां सर्वा-- सर्वबाह्यादभ्यन्तरस्य तृतीयस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशा- भ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयाभुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपत्-श्रादिप्रदेशमाश्रित्य बाह्यतृतीयां सर्वशाया अर्द्ध- संक्रामति,एवं खल्वनेनोपायेन प्रागिव तावद् वक्रव्यं यावत्प्रथमण्डलसंस्थितेस्तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थतिमुपसंक्र--
| मस्य परामासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे पर्यवसानम्य चारं चरति , अत्रापि चार आदिप्रदेशादारभ्य भूत सर्वबाह्यां दक्षिणामधमण्डलसंस्थितिमुपसकामति, शनैः शनैरपरार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि प्रवर्त- एतत्प्रथमस्य परमासस्य पर्यवसानं, ततो द्वितीयस्य परामामानो द्रष्टव्यो येन तदहोरात्रपर्यन्ते सर्वबाह्यादर्द्धमण्डलात्त
सस्य प्रथमेऽहोरात्रबाह्यानन्तरां सर्ववाहास्य मण्डलस्यातीयामक्किनीमर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति क्लिनीमुत्तरामईमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति ततस्तस्मितदा अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिश्चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरूना भव- अहोरात्रेऽतिक्रान्ते द्वितीयस्य परमासस्याऽहोगने उत्तरस्या ति , द्वादशमुहूर्तश्च दिवसश्चतुर्भिर्मुहतैकष्टिभागैरभ्यधि- अर्द्धमण्डलसंस्थितेर्विनिःसृत्य याहातृतीयां सर्यबाह्यस्य कः, 'एव' मित्यादि, एवम्-उक्तप्रकारेण खलु-निश्चितमे
मण्डलस्याननी तृतीयां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमपतेनोपायेन-प्रत्यहोरात्रमभ्यन्तरमाचत्वारिंशद्योजनकषष्टि
संक्रामति, तस्याश्च तृतीयस्या दक्षिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थि भागयोजनद्वयविकम्पनरूपेण शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रवि
तेरे कैकेनाहोरात्रेणकामर्द्धमण्डलसंस्थिति संक्रामन् २ तावशन् सूर्यस्तदनन्तराद् अर्द्धमण्डलात् सदनन्तरां तस्मिन् २
दवसेयो यावद् द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोगत्रे सर्वाप्रदेश दक्षिणपूर्वभागे उत्तरापरभागे वा तां ताममण्डल
भ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंकामति, तदेवं दक्षिसंस्थितिं संक्रामन् द्वितीयस्य षण्मासस्य घशीत्यधिकशत
रणस्या अर्द्धमगलसंस्थितेः उत्तरस्यामर्द्धमण्डलसंस्थिती तमाहोरात्रपर्यन्ते गते उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तरात्स
नानात्वमुपदर्शितम्, पतदनुसारेण च स्वयमेय मूत्रालापको बबाह्यमण्डलमपेक्ष्य यद् ह्यशीत्यधिकशततम मण्डलं तद्- यथावस्थितः परिभावनीयः, स चैवम् “स निक्खममाणे गताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तराभ्यन्त. सूरिए नवं संवच्छरमयमारणे पढमसि अहोरत्तसि २ रयोजनवयप्रमाणादपान्तरालरूपाद्भागात् 'तस्साइपएसाए' उत्तराए अंतराप भागाए तस्साइपएसाए अम्भितराखंतरं इति तस्य-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतस्य दक्षिणस्यार्द्धमण्डल- दाहिरणं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, जया स्यादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थि- णं सूरिए अम्भितराणंतरं दाहिसं श्रद्धमंडलसंठिनि उवतिमुपसंक्रम्य चार चरति, स चादिप्रदेशाचं शनैः शनैः संकमित्ता चारं चरति तया णं अट्ठारसमुहुने दिवसे सर्वाभ्यन्तरानन्तरबाह्योत्तराईमण्डलाभिमुख तथा कथश्च
भवति दोहिं एगट्ठिभागमुत्तेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता नापि चारं प्रतिपद्यते येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्याभ्यन्त
राई भवति दोहि पगट्टिभागमुहुत्तहि अंहिया , से निरानन्तरस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलस्य सीमायां भवति, ' ता जया क्खममाणे सूरिए दोश्चंसि अहोरसि दाहिणाग अंतगए ण' मित्यादि,तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्ड
भागाए तस्सादिपदेसाए अम्भितरं तच्चं उत्तरं अद्धमडललसंस्थितिमुपसंक्रम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त
संठिई उवसंकमित्ता चारं चर्गत, नया अट्ठारसमुहुत्ते उत्कर्षका उत्कृष्टः अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, स
दियसे भवति चाहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुजघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः 'एस रण' मित्यादि, नि- हुत्ता गई भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहि अहिया, एवं गममवाक्यं प्राग्वत् , तदेवमुक्ता दक्षिणा अर्द्धमगडलसंस्थि- खलु एएणं उवाएणं निखममारणे सारण नयागनराओ तिः । साम्प्रतमुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिं जिज्ञासुः प्रश्नयति- तयाणतरं सांस संमि देससि तं तं श्रजमंडलाठर संकम'ता कहं ते' इत्यादि, पतत्प्राग्वद् व्याख्ययम् , ' ता जया माणे उत्तराए भागाए नस्साइपएसाग सब्बवाहिरं दाहिणण, मित्यादि, ततो यदा सर्यः सर्वाभ्यन्तगमुत्तगमर्द्धमराउ-1 मद्धमंडलसाठई उपसंकमित्ता चारं चरति, ता जया ग मरि लसंस्थितिमुपसंगम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त ए सव्वयाहिरं दाहिणं श्रद्धमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चारं उत्कर्षकोऽष्टादशमहनों दिवसो भात, जघन्या च द्वादश- चरति तया णे उत्तमकटुपत्ता उकोसिया अट्ठारसमुहुत्ता मुहर्ता रात्रिः, 'जहा वाहिणा तह चेव' ति यथा दक्षिणा गई मति, जहन्नए दुवालसमुहले दिवसे भया, एस गं अ मण्डलव्यवस्थितिः प्रागभिहिता तथा चैव-तेनैव पढमे छम्मासे एस रंग पढमस्स छम्मासम्स पज्जवसाणे, से प्रकारेणैषाऽप्युसराईमराइलव्यवस्थितिराख्येया, नबरम् 'उ- पविसमाणे सरिए दो छम्मासमयमारणे पढमसि अहोरसरे ठिो अम्भितराणंतरं दाहिणं उवसंकमा, दाहिणाओ| तसि वाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएमाए बाहिगअम्भितरं तचं उत्तरं उवसंकमइ,पएणं उवाएणं जाब सव्व- तरं उत्तरं श्रद्धमंडलसाठामुवसंकमित्ता चारं चरति, ता गहिरं दाहिरा उक्संकरा , सम्बवाहिरायो बाहिराणंतरं जया ए मारिए वाहिरातरं उत्तरं अडमंडलठिमुवकिमि
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(५०) अभिधानराजेन्द्रः ।
राह
"
,
सा चारं चरति तया गं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवर दोहि य भागमुहिंसा दुवालसमुहले दिवसे भर ब ( दो ) हि एगडुभागमुटुलाई अहि वयं खलु एष उवापत्रिसमा मुरिए तयागतराश्रो तयागतरं तंसि तंसि देसि तं तं श्रद्धमंडलसेटिदं संकममाणे दाहिणार अंतराए भागाए तमादिपसार सम्बम्भेतरं उत्तरं मंडलसंडमुवसंकमत्ता चारं चरह ता जया गं सरिए सम्वन्धंतरं उत्तरं श्रद्धमंडल संठिरं उवसंकमित्ता चारं चरह, तया गं उत्तमकटुपत्ते उक्कौसिए श्रद्धारस मुहते दिवसे भवति जहनिया दुवालसमुत्ता राई भवति त्ति एस गं दुच्चे छम्मासे, इत्यादि प्राग्वत् । सू० प्र० १ पाहु० । तत्र राशिन्दे आदेश केचिदाचा प्रयते सच्यायतो राजते शोभते तेन निरुक्तिवशात्-रात्रिरुरूयते यस्तु संख्याया अपगमः स हि कालः अन्ये तु ब्रुवते -यतः सन्याया अपगमे वीरपारदारिकाइयो रमन्ते नवोऽसी रा त्रिरिति परिभाष्यते । वृ० १ उ० । विपा० । स्था० । रात्रौ सफलापानमध्ये सूमा नया जीवा उत्पयते प्रभाते विलयं यान्ति तत्सत्यमसत्यं वा इति प्रश्नः ?, श्रत्रोनरम गर्न समस्तान्नपानमध्ये तपाः सूक्ष्मा जीवा उत्पप्रभावितवान्तीत्येतत् शास्त्रमध्ये कापि ज्ञातं नास्तीति ॥ १५० ॥ सेन० ४ उल्ला० । चमरलोकपालसोममहाराजस्याग्रमहिष्याम् स्था० ५ ठा० उ० ॥ भ० । राधे राविकं प्रि० । रजनिनिले आव०४ अ० गईदिय-राविदिव २० अहोरात्र स०
राभोषण | १४८ ॥ इति प्रत्याने कादेशः । राजकीयम् । राइकं । रानकेरं | राजसम्बन्धिकार्यादी. प्रा० २ पाद । राइड्डि-राजर्द्धि-य० । त्रिधा २ प्रकाराभ्यां बहा राजर्जिः । । । राजसंपत्ती, स्था० ३ ठा० ४ उ० । ( व्याख्या इहि शब्दे डि. तीयभागे ४८२ पृष्ठे गता ) राइणिय - रात्निक - पुं० । से
रत्नैर्ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति रात्रि
कः । बृहत्पर्याये, स्था० ५ ठा० १ उ० । स० । पञ्चा० ।
9
अथ सूर्ये त्रिनवतिस्थानके गते किमपि वितन्यते
मंडलगते से सरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमासे वा समं अहोरतं विसमं करेइ ॥ ६३ ॥
'उमडलेत्यादि तत्र अतिवर्तमानो या सर्वचा छात् सर्वाभ्यन्तरे प्रतिनिवर्तमानो वा-सर्वाभ्यन्त रात् सर्ववाहां प्रति गच्छन् व्यत्ययो वा व्याख्येयः, सममहोरात्रं विषमं करोतीत्यर्थः । अथ रात्रि अहोरात्र व योः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश मुहूर्त्ता उभयोरपि भवन्ति, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहर्तमहर्भवति रात्रिश्च द्वादशमुहर्त्ता सर्वपाये तु व्यत्ययःथा व्यशीत्यधिकशते ही कभी पढ़ते ही येते च यदा च दिनवृद्धिस्तदा रात्रिहानिः रात्रिवृद्धौ च दिनहानिरिति । तत्र द्विनवतितमे मण्डले प्रतिमण्डलं मुह
त
,
पष्टिभागवृद्धा भयो मुहर्त्ता एकेनैकपटिभांगनाधिकाः वर्तन्ते वा हीयन्ते वा तेषु च द्वादशमुद्दर्भेषु मध्ये त्रिषु अष्टादशभ्यो ऽपसारितेषु या पञ्चदशर्ना उभयत्रेकेनैकटिभागेनाधिका होना वा भवन्तो द्विनवतितममण्डलस्वादें समाऽहोरात्रता तस्यैव चान्ते निष्माऽहोरात्रता भय ति, द्विनवतितमं मण्डलं चादित श्रारभ्य त्रिनवतितमं तत्र च मण्डले यथोक्तः सूत्रार्थ इति ॥ स० ६३ सम० । ज्यो० । स्था० । सूत्र० । शा० । चं० प्र० । ( श्रसंख्येयलोके अनन्तानि गनिन्दिवानि इति लोग श राइक - राजकीय - त्रि०। पर-राजभ्यां क डिक्कीच ॥ ८ ॥२
.
१२८
.
श्राचा० । वृ० । (अन्यगच्छसका रत्नाधिकतरा श्राचार्यस्वाऽपि नाधिका भवन्ति इति फिकम्म' शब्दे तृतीयभागे २१० पृष्ठे दर्शितम )
राइस - राजन्य पुं० [ भगवद्वयस्ययंशजे सत्रियजातिविशेषे ये हि षभदेवेन मित्रस्थाने स्थापिताः ०१०२
श्र० । कल्प० । भ०
रापमखाग-रात्रिप्रत्याख्यान न० रात्रिभाजनप्रत्याख्यान ल० प्र० ।
"
राइभत - रात्रिभक्त - न० । रजनिभोजन, प्रव० २३७ द्वार । द
श० । सूत्र० ।
1
। रात्रौ भक्कं रारामायण - रात्रिभोजन १० भोजनं शुक्ि त्रिभोजन तथ रात्रिभोजनं चतुर्विधमिति 'परिक्रमण' शब्दे पञ्चमभाग २६४ पृष्ठे गतम् ) निशि भोजने, तत्याज्यं बहुदोपसम्भवात् (ध०) बहुजीय सम्पातसम्भवेनेहिकपारलौकिकानेकोपवान् यदहनम् -"मेहं पियीलिओ हति यम च मच्छया कुरा जुधा जलोदरतं, कोलिओ कुट्ठरोगं च ॥ १ ॥ वालो सरस्स भंग, कंटो लग्ग गलम्मि दारुं च । तालुम्मि विधद अली, वंजतो ॥ २ वाकशाकरूपमभिप्रेतम तच वृश्चिकाकारमेय स्यादिति वृश्चिकस्वासूक्ष्मस्यापि तन्मध्यपतिस्थायोग्यतासम्म वतीति विशेषः। निशीथप मिहकोहलप सम्मिस्मेग तेस पोहे किल गिरोहला सम्मुनति एवं सर्पादिवालामलमूत्रादिपातापि तथा-" मालिति व महीअ जामिणिस रयशिरा य (भ) मले तो विछति हु फुडं रयणीए भुंजमाणं तु ॥ १ ॥ अपि च निशाभोजने क्रियमागे पाकम्भवी, तब षड्जीवनिकायवधो ऽवश्यम्भावी भा-जनधावनादी च जलगतजन्तुनाशः, जलोकनेन भूमिगतकुन्थुपिपीलिकादिजन्तुधानभवति तत्का पि निशाभोजनं न कत्तव्यम् यदाहु:--" जीवास कुंधुमाई, घायणं भागधोश्रणाईसुं । एमाइ रणभोयण-दो को साहि तरह ॥१॥ यद्यपि समोदकादियाक्षादिभक्षणे नास्त्यन्नपाको, न च भाजनधायनादिसम्भवः तथाऽपि कुन्थुपनका दिघातसम्भवात्तस्याऽपि त्याग एव युक्लो, यदुक्तं निशीथभाप्ये
,
,
"
जइ वि हु फासुगदव्वं, कुंथू परागा तहाऽवि दुप्पस्सा | पचपाणियोऽवि राम परिहरति ॥ १ जचि पिधीलगाई, दीसेति परंपमा
तह विखन्तु अशाइन्नं मूल्यपचिराज ॥ २ ॥
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सहभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
गहभोयण एतत्फलं व
सूक्माः प्राणिनो-जीवाः, असा दोन्द्रियादयः, अथवाउलूककाकमार्जार-गृधशम्बरशुकराः ।
स्थावगः-शिव्यादयः यान प्राणिना रात्रावपश्यन चक्षुग अहिवृश्चिकगोधाच, जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥ १॥ कथम पपणीयं-सत्त्यानुगगंधन चरिष्यति भोग्यतेच. परेऽपि पठन्ति
सम्भव एव गत्रावरणीयनरणस्यति सूत्राथः ॥ २३ ॥ मृते स्वजनमात्रेऽपि, सूतक जायते किल ।
एन रात्री भोजने दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाहअस्तंगते दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ॥१॥ उदउल्लं बीअसंसत्तं, पाणा निवडिया महि । रतीभवन्ति तोयानि, अन्नानि पिशितानि च ।
दिया ताई विवजिजा, राम्रो तत्थ कह चरे॥२४॥ रात्री भोजनसक्लस्य, प्रासे तन्मांसभक्षणम् ॥ २॥
'उदउल्लं तिसूत्रम्, उदकाई पूर्ववदेकग्रहणे तजातीयग्रहणास्कन्दपुराणे रुद्रप्रणीतकपालमोचनस्तोबे सूर्यस्तुतिरूपेऽपि |
त्सस्निग्धादिपरिप्रहः, तथा 'बीजसंसक्तम्' बीजैः संस] एकभक्काशनाान्नत्य-मग्निहोत्रफलं लभेत् ।
मिश्रम् , प्रोदनादीति गम्यते । अथवा-बीजानि पृअनस्तभोजनो नित्य, तीर्थयात्राफलं लभेत् ॥१॥
थग्भूतान्येष, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति, तथा-प्राणिनःतथा
सम्पातिमप्रभृतयो , निपतिता मह्याम्-पृथिव्यां सम्भवनैवाहुतिर्नच स्नानं. न श्राचं देवतार्चनम् ।
न्ति, ननु दिवाऽप्येतत् संभवत्येवं?, सत्यम् . किंतु-परलोकदानं वा विहितं रात्री, भोजनं तु विशेषतः ॥२॥
भीरुश्चक्षुण पश्यन् दिवा तान्युदकादीनि विषर्जयेत् , आयुवर्देऽपि
रात्री तु तत्र कथं चरेत् संयमानुपरोधेन ?. असम्भव एवं हन्नाभिपनसोच-श्वएडरोचिरपायतः ।
शुद्धचरणस्येति सूत्राऽर्थः ॥२४॥ अतो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि ॥३॥ तस्माद्विवेकिना रात्रौ चतुर्विधोऽप्याहारः परिहार्यः, तद
उपसंहरनाहशक्ती त्वशनं खादिम व त्याज्यमेव, स्वादिमं पूगीफला- एभं च दोसं दणहूं, नायपुत्तेण भासिझं। धपि दिवा सभ्यक शोधनादियतनयैव गृह्णात्यन्यथा प्रस-1 सम्बाहारं न मुंजंति, निग्गंथा राइभोरणं ।। २५॥ हिंसादयोऽपि दोषाः: मुख्यवृत्या च प्रातः सायं च रात्रि- 'एअंच सि सत्रम-पतं च-नन्तगोरि गिाप्रत्यासन्नत्वाद् द्वे घटिके भोजनं त्यजेद् . यतो योगशास्त्र- हिंसारूपमन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं दोषं रष्ट्रा मतिचक्षु"अहो मुखेऽवसाने च यो वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोज- षा शातपुत्रेण-भगवता भाषितम्-उक्तम् सर्वाहारम-चतुर्विनदोषज्ञोऽभात्यसौ पुण्यभाजनम्" अत एवागमे सर्वजघन्यं | धमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जते, 'निर्ग्रन्थाः-साधप्रत्याख्यानं मुहर्सप्रमाणं नमस्कारसहितमुच्यते, जातु तत्त- घो रात्रिभोजनमिति सूत्रार्थः ॥२५॥ दश०६०२ उ० । कार्यव्यप्रत्वादिना तथा न शक्नोति, तदाऽपि सूर्योदयास्त
किंचनिर्णयमपेक्षत एवाऽऽतपदर्शनादिना. अन्यथा रात्रिभोजन
अत्थंगर्याम्म आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए। दोषः, अन्धकारभवनेऽपि वीडया प्रदीपाकरणादिना प्रसा- | दिहिंसा-नियमभङ्ग-मायामृषावादादयोऽधिकदोषा अपि ।
आहारमइयं सव्वं, मणसाऽवि ण पत्थए ॥ २८॥ ध०२ अधिक।
'अत्थं ति 'सूत्रम्, 'अस्तं गत आदित्ये' अस्तपर्वतं प्राप्ते अधुमा परमधिकृत्याऽऽह
प्रदर्शनीभूते वा 'पुरस्ताचानुगते' प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः, श्रा अहो नि तवोकम्म, सबबुद्धेहिं बस्मिथ ।
हारात्मकं सर्वम् निरवशेषम् आहारजातं मनसाऽपि न प्रार्थ
येत् , किमल पुनर्वाचा कर्मणा वेति ॥२८॥ दश० अ० २उ। जाव लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोअणं ।। २२ ।।
दिवसस्याएमे भागे, मन्दीभूते च भास्करे । 'अहोति' सूत्रम् . अहो नित्यं तप.कर्मेति-अहो-विस्मये,
तं नक्तं च विजानीया-मननं निशि भोजनम् ॥१॥ नित्यं नामापायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसम्भवादप्रतिपात्येव
नैवाहुतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् । तपःकर्म-तपोऽनुष्ठानम्. सबबुद्धैः सर्वतीर्थकरैः वर्णितम्
दानं वा विहितं रात्री, भोजनं च विशेषतः॥२॥ देशितम् . किं विशिष्टमित्याह-यावल्लज्जासमावृत्तिः-लजासंयमस्तेन समा-सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः, व-1
पतरकीटमण्डक-सत्त्वसवातघातकृत् ।
प्रतोऽतिनिन्दितं ताव-धर्माध निशि भोजनम्॥३॥ तेनं वृत्तिः-देहपालना, 'एकभक्तं च भोजनम् -एकं भक्तं
पशनां मानवानां च, शीलसंयमनं विना । द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत्तथा । द्रव्यत कम्
रात्री दिवाऽवतां तात!, को विशेष इहोच्यताम् ॥४॥ एकसंख्यानुगतम् ,भावत एकम्-कर्मबन्धाभावादद्वितीयम् ,
दश०२ तत्व। तदिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावतं एकत्वाभा
अथ रात्रिभोजनमाहवादिति सूत्रार्थः ॥ २२॥
रातो य भोयगम्मि, चउरो मासा हवंतिऽणुग्धाया। रात्रिभोजन प्राणातिपातसम्भवेन कर्मबन्धस
प्राणादियो य दोसा, आवजण संकणा जाव ॥५॥ द्वितीयतां दर्शयति
रात्री भोजने क्रियमाणे चत्वारो मासा अनुदाता गुरसंतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा ।
वो भवन्ति, प्रासादयश्च दोषाः । ये च प्राणातिपातादिविषजाई राम्रो अपासंतो, कहमेसणि चरे१॥ २३॥ | या आपसिशादोषाः परिग्रहस्यापति शङ्कां च याव'संतिमे ति सूत्रम् , सन्त्यते-प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः प्रथमोद्देशके " नो कप्पा राप्रो वा बियाले वा असमं का
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(४११ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
राहभोषण
गाणं या खाहमं वा साइमं वा" इत्यादी रात्रिभक्तसूत्रे इहैवाभिहितास्ते सर्वेऽपि द्रव्याः । अथ द्वितीयपदमाह
विद्द व मं, होडिति रस्मो व कीरए संती । श्रद्धा निग्गतादी, देवीपूया य अभियमं ॥ ८६ ॥ उपद्रो नाम गलरोगादिकं वा तस्याभावो निरुप मर्म-परचक्रायुपप्रवाभावः मे व मदीयदेशे भवि भ्यतीति परिभाव्य राजा शान्तिकर्तुकामस्तपस्विनो रात्रौ भोजयेत् यज्ञा- राजपुत्रो वा नागरा वा राशः शान्ति क्रिनामिति कृत्वा, ये रात्री न भुञ्जते सुतपस्विनश्च ते रात्री भोजनीयाः, एवं तस्या विद्याया उपचार इति भावयन्ति । से व साधवोऽध्वनिर्गतादयस्तव सम्प्राप्तास्ततो मा यो विधिर्विधातव्यः । यद्वा-राज्ञः कस्याऽपि देवी वाणमस्तरपूजां कृत्या तपस्विनां रात्रिभोजनलक्षणम् अभिय कम् ' उपयाचितं मन्यते ।
कुत इति चेदयते
अवधीरिया व पतिरणा, सपत्तिणीए व पुत्तमाताए । गेलोण व पुट्ठा, बुग्गहउप्पायसमणट्ठा ||८७॥ पत्या भर्त्रा श्रवधीरिता-अपमानिता सा देवी, यद्वा-या तस्याः सपत्नी सा पुत्रमाता तया न सुष्ठु बहु मान्यते ग्लानत्वेन वा सा गाढतरं स्पृष्टा विग्रहो वा तस्याः केनापि सामुत्पततो विग्रहोत्यादस्य शमनार्थं वाणमन्तरपूजा व्यास व वारान्तरो रात्री साधुषु भोजितेषु परितोचमुद्रइति ॥
ततः
1
एकेक जतिखेतुं निमंतरणा भोयणेण विउलेणं । भोतुं अणिमा, मरणं च तर्हि ववसितस्स |||| एकैकं साधुं बलाभियोगेन राजभवनेऽद्य प्रतिनीय प्रविश्य रात्री विपुलेन भोजनेन निमन्त्रणा कृता, श्रभिहिताश्च साधयः यदि सम्पति न वा भोये ततो व्यपरोप ध्यामः, एवमुक्ते तेषामेकस्य साधोः तदानीं भोक्तुमनिच्छतो मरणं च तत्र व्यवसितस्य शिश्यं द्वितीया हर्षाल सितस्तृतीयभीत इत्यादि। यथा मैथुने तथा मन्तभ्यम् ॥ अथ प्रायश्चितमाह
3
मुखसिते भीए, पचक्खाणे पढिच्छगच्छा व विए मूलं छेदो, हमासचउरो य गुरुलहुआ || गातार्थ
अत्र यतनामाह
तत्थेव य मोक्लामो, अणि भि) जामो अन्धकारम्मि । कोणा दीपकखेवो, पोलभावेण जति खीता ॥ ६० ॥ रात्री भोश्यमानः साधुभिरभिधातव्यं भाजनेषु गृहीत्वा ततस्तत्रेय स्वप्रतिभये भोग्याम न वर्तते गृहस्थानां पुरतो भोक्तुमचमुकल्या ततोऽल्पसागारिकं नीत्वा परितापयथियन प्रतिभांन्त अस्माकं पुरतो भयम् ततः प्रदीपमयनयत अन्धकारे भोजनं कुर्मः ततः स्तेषामपश्यतां कोणेषु प्रादिशब्दाद्-अपरत्र कालान् प्रक्षिपन्ति अथवा वस्त्रेण पोट्टल बच्चा तत्र प्रक्षिपन्ति ।
"
राहभयण
भाजन या प्रशिपन्त, यदि निजकानि अलानि भर्यान्त । अथ प्रदीपं नापनयन्ति तत इदं वक्तव्यम्गेलास व पुट्ठा, वाहादरुची व अंगुली वादि
भुंजंता विउ सदा, सालंवा ऽमुच्छिता सुद्धा ॥ ६५ ॥ यदि मे दुर्बलास्ततो भवन्ति ग्लानत्वेन स्पृष्टा वयम् एतच्चास्माकमपथ्यम्, यदि समुद्दिशामस्ततो क्रियामाहतस्मान् न ऋषिहत्यां कुरुत । अथवा भणितव्यम् अस्माभिर्गला पाच प्रभूतं कुतो विप जायते, यद्येवं न प्रत्ययन्ति ततो मातृस्थानेनाङ्गुली वदने प्रक्षिप्य वमनमुत्पादयन्ति यदि तथाऽपि न प्रत्ययन्ति ततः स्तोकं तन्मध्यात् स्वादयन्ति श्रथ तथाऽपि न विसर्जयन्ति तत एवं सालम्बा - अशठा रामद्वेषरहिता अमूच्छिताः स्तोकं भुआना अपि शुद्धाः ॥
"
उपसंहरन्नाह—
एत्थं पुरा अधिकारी, अणुषाता जेसु जेसु ठाणेसु । उच्चारयसरिसाई, सीसाथ विकोवणद्वाए ॥ ६२ ॥ अत्र पुनः प्रस्तुतसूत्रे हस्तकर्ममैथुनरात्रिभविषयै । स्थानैरधिकारः प्रयोजनम्, कैरित्याह-येषु येषु स्थानेषु अनु दातानि गुरुकाणि प्रायश्चित्तानि भणितानि तैरेवाधिकारः । शेषाणि पुनरुच्चारितार्थानि शिष्या विकोपनार्थमुक्तानि ॥ बृ० ४ उ० । ( रात्रौ भिक्षा न महीतव्या अत्र सूत्रम् नोकप्uro " ( ४२ ) इत्यादि तso ' गोयरवरिया' शब्दे तृतीयभागे १७८ पृष्ठे गतम् ) नोदकः प्रेरयति । किमिति रात्रिभोजनं परिहियते ?, उच्य - बहुदोषदर्शनात् पुनरपि परः प्राह- युष्माकं वाचत्वारिंशदोपेषु रात्रिभोजनं न काऽपि प्रतिषितम् अप्रतिषिद्धत्वचावश्यमेव निर्दोषमिति मे मतिः, अस्य नोदकवचनस्य प्रतिघातम् - प्रतिषेधम् आचार्यः करोति, नोदक ! भवत एवं
चालयााभङ्गादयो दोषाः तथाहि यच्च त्योदितम्रात्रिभोजनमतिषेधः काऽपि अस्माभिनं इत्यादि, तदेतदज्ञानप्रलपितमिव लक्ष्यते । यतः
जड़ वि य न प्पडिसिद्धं, वायालीसा य राइभत्तं तु । उट्टे महवयम्मि पडिसेहो तस्स व बुतां || ७०० || यद्यपि द्वाचत्वारिंशतिदोषेषु रात्रिभन प्रतिषिद्धं तथापि षष्ठे महामते पदजीवनिकाया तु तस्य निषेध उक् पच, तथा सूत्रम्-"अहार पट्टे मेते महन्यर राईभोषणाओ बेरम" इत्यादि । तच्च सूत्रम् 'पडिक्रमण' शब्दे प मभागे २६४ पृष्ठे गतम् ) ।
अपि च
जड़ ता दिया न कप्पर, तमं ति काऊया कोडुगादीसुं । किं पुण तमस्सिनीए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ ॥ ७०१ ॥ यदि तावत्तमः अन्धकारमिति कृत्या तमः कोष्टकादि दिवाऽपि भक्तं पानं हतुं न कल्पते, "नीयधारं तमसं ग्रहीतुं को परिचय " इति वचनात् ततः किं पुनस्तमस्विन्यां बहलतमः पटलफलितायां शर्व रात्री कल्पिष्यते यति मायः । यच्चो रात्रिभने दोषा न सन्तीति तद्यपरिभाषि तभाषितम् ।
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(५१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
राह भोषण
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यतः साक्षादेवाऽमी दोषास्तत्रोपलभ्यतेमिच्छतम्मिय भिक्खु, विराहणा होइ संजमायाए । पक्खला खाणुकंटग - विसमदरी बालसा य ।।७०२ || भगवता प्रतिषिद्धं रात्रिभोजनं कुर्वता श्राशाभङ्गः कृतो भवति, तं दृष्टा अन्येऽपि रात्रिभक्ते प्रवर्त्तन्ते, इत्यनवस्थापि स्यात् मिथ्यात्वे मिशन्तो वन्यः- “जहा कालोदाई नाम भिक्खुगो रवणीय एगस्स माहसस्स गिहं भिचट्टाए पविट्ठो, तो माहणी तस्स भिक्खानिमित्तं जाव मज्झे पविसर ताव अंधयारवहलयाए अग्गओ खीलश्रो न दि, तत्थ वडियार तीसे खीलएण कुच्छी फोडिया, सा च गुब्विणी आसि, गब्भो फुरफुरंतो पडिओ, मनो य । सा वि मया, तं दद्धुं लोगेण भणियं श्रदिट्ठधम्माणो ए नि ।” एवं साधुरपि रात्री भिक्षामटन् भगवत्य सर्वशत्यामुत्पादयति विराधना द्विविधा-संयमे आत्मनि च तत्र आत्मविराधना भाव्यते रात्री मार्गमपश्यतः स्खलनं भवति, स्थासुकटकावा पादयोः परितप्यते समन्ति उदरीगर्तः त यो प्रत्यासन वा दृश्येतयोरा पद्रवं कुर्युः।
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गोणे य तेणमादी, उन्भामग एवमाइ आयाए । संजमविराहणाए, छकाया पाणवहमादी || ७०३ ॥ गौ:-बलीवईस्तेन इत्येत सोना आदिशब्दादारक्षिकादयो वातमःकाले पर्यटन्तं गृह्णीयुः, यद्वा स एव साधुरकाले पर्यरेत् तेन आदिशन्दाचारिको वा अभिमरो वा उद्भ्रामको या आरक्षिपुरुषः शक्येत ततध प्रतापनादयो दोएवमादयो दोषा आत्मविराधनाविषया भवन्ति । सानेव भाव - पाणवह पाणगहणे, कप्पट्ठोदागए म संकाउ | मणिमो भवाइ साणे, मोसमिति संकणा ठाणे ॥७०४|| दिवा जीवसंसोदकाम सुप्रत्युपेक्षतया सुखेनैव साधुः परिहर्तुमी रात्री तु दुष्प्रत्युपेक्षतया तेषां परिहारः कर्तुं न शक्यते, अतः प्राणिग्रहणे प्राणमधी भवति कल्पस्थळे पापद्वारोऽगारिणो वयमानाशङ्का भवेत् श्रहमेनापायित इति, तथा कोऽपि साधुरगारिणा भवि तो- रात्री मा मदीयं गृहमायासीरिति ततः श्वानले गृहमा यास्यन्तीति प्रतिज्ञां कृत्वा गतः परमसौ स्थाने स्ववचने न तिष्ठति, ततश्च मृषावादमसौ ब्रूते इति शङ्का गृहस्थस्य स्यात्, एतदुत्तरत्र भावयिष्यति ।
अथ कल्पस्थके अपद्रावणे यथा शङ्का भवतितदेतदुपदर्शयति
इंं सबतिणिसुपं, पडियरई काउ मग्गदारम्मि ।
समय सोनियम्मिय, देवणं जणस्स आसंका ॥७०५ | काचिदविरतिका रजन्यां सपत्नीसुतं हत्वा ततस्तमभद्वारे कृत्वा कपाटस्य पृष्ठतस्तमवष्टभ्य प्रतिचरति प्रतिजाप्रती तिष्ठति, धमध तदानीं भिक्षार्थमायातः तेन पार्ट मेरि सब दारका सहसैव भूमी पतितः। ततस्तया च देवनं कृतं
राइभोषण पूत्कृतमित्यर्थः । यथा - श्राः कृष्टं संयतेन दारको व्यापादित इति, ततश्च जनस्याऽऽशङ्का भवति, किं मन्ये सत्यमेवेदमिति तत्र ग्रहणाकर्षणादयो दोषाः।
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अथ पावावे विराधनामाशङ्कां वाह
मा निसि मेकं एज, भगाइ एहिंति ते गिहं सुखगा । पुरेतं सिट्ठिपई, भणा मुखओ सि किं जातो ? || ७०६ ॥ एवं चि मे रति कुसु दिजाहि तं च सुराए । खइयं ति य भगमा भगाइ जाणामि ते मुगगए। ७०७|| काचिरितिका कस्याऽपि साधोरुपशान्ता सा तस्य रात्रावप्यागतस्य भक्तपानं प्रयच्छति, तद् दृष्ट्रा तदीयेन भर्त्रा स साधुरभिहितो मा निशि-रात्रौ मदीय को गृहमायासीः ततः साधुर्भवति एयति वदनाति ततः स साधुर्जिद्दादण्डदोषेणाकृष्यमाणः पुनश्च तदीयं गृहमागतवान. पुनरायातं धाविकापतिर्भगति किमेवं त्वं श्वानो जातः, एवं मृषावाददोषमापयते । अथ पयं केनचिदगारि साधुनिशि समागच्छन् प्रतिषिद्धः श्वानले गृहमागमिष्यन्तीति प्रतिकृतवान् अन्यदा च तेनाविरतन दिया भुञ्जानेन महेला भगिता मनिमित्तमय कृपणं स्थापयेः पथाच मम रात्रौ 'भुञ्जानस्य दृष्ट्वा परिवेषयेमः, ः, ततस्तया स्थापितं ततथ शुनकेन भक्षितम् रात्री च सा भणिता परिवेषयत त्कुसणम् । तया भणितं शुनकेन भक्षितम् । स प्राह-जानाम्यहं त्वदीयान् शुनकान्, एवं मृषावादविषयाऽऽशङ्का भवेत् । अथ तृतीयचतुर्थव्रतयोर्विराधनामाशङ्कांच प्रतिपादयति-
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सयमेव कोइ लुद्धो, यवहरती तं पड़च कम्मकरी | पाणिगी मे बहुसो य चिरं च संका य ॥७०८|| चिरं च कचिल्लुब्धो भिक्षार्थं प्रविष्टो रजन्यामाकीर्णमिव कीर्ण हिरण्यादि दृष्ट्रा स्वयमेवापहरेत् अथवा तं संयतं प्रतीरथ कर्मकरीकाचिदपहरेत् संयतेन हते भविष्यतीति गृहपतिप्रभृतयश्विन्तयन्तीति बुद्धधाऽस्य दर वेदिति भावः तथा काचिद्वारिकामैथुन
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भाषेत तद्वचनाभ्युपगमे चतुर्थजतविराधना । तथाआहारनिमित्तं बहुशः प्रवेशनिर्गमौ कुर्वाणश्विरं चालापसंलापादिभिस्तिष्ठन मैथुनप्रतिषिद्धायां शनैः शन
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अथ पञ्चमतविषये विराधनाशङ्कां दर्शयतिअणॉमोगेश भए व पहिला मीस भत्तपा तु । दिजा हिरण्यमादी आवजण संकथादि । ७०६ ॥ कधिदाभोगेन भक्तपानोमिश्रितं हिरण्यादिदान् भ येन वा यथा कयाचिक्षरिकया हिरण्यादिकमपहृतं सा च तं न शक्नोति सोपयितुं वा ततः संयतस्य भक्ष्येण समं दद्यात् प्रत्यनीकतया वा कष्टे श्रेष्टिनः साधोज्यांनामिका प्राक्रनमर्थयति एवं हिरपादिके गृहीने सति कश्चित्रैव मूच्छ्रेया चैकान्ते सङ्गोप्य धारयेत् ततः परिग्रहदोषस्थापतिर्भवति तथा तत्सुर्गादिकं पानसंमिश्रं दीयमानं दवा प्रतिग्रहे जायल्यमानं कचित्यश्येत् तस्य शङ्खा जाये कि ये जानन दृष्टे च मन्ये श्रयं
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राहभोयण सुन्धतया गृह्णाति उताऽजानानः प्रमादादित्यादि । यत एते | भोक्खंसु य दाराइसु, ठवेइ साभिग्गहऽनो वा॥७१२।। दोश अतो रात्रौ न पर्यटितव्यम् ॥
इह साधूनां भिक्षामटतां क्वचिदतर्कितः प्रभूतभक्त्रस्य श्रथ रात्रिभक्कमेव भेदतः प्ररूपयन्नाह
लाभो भवेत् , संखड्यां वा प्रचुरमवगहिमादि लब्धम् तं पि य चउन्विहं रा-इभोयणं चोलपट्टमइरेगे। अनुचितक्षेत्रे वा गुरुग्लानादीनां वा योग्यग्रहणार्थमथैपरियावन विगिचण, दरगुलिया रुक्खसुष्मघरे ॥७१०॥ रपि सवाटकर्मात्रकाणि व्यापादितानि एवमादिभिः
कारणैः प्रायोग्यद्रव्यमतिरिक्त ग्रहीतव्यम् , तच्चोद्वतदपि रात्रिभोजनं चतुर्विधम् । तद्यथा-दिवा गृहीतं दिवा
रितम् , तत श्रावलिकाम्-अचोल्लिकाभकार्थिकादिभुकम् , दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तम् , रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्त म् , रात्री गृहीतं रात्रौ भुक्तं वेति । एतेषु चतुर्ध्वपि भङ्गेषु य
परिपाटीरूपां विधिना प्रत्याख्याननियुक्त्यादिशास्त्रप्रसिद्धन थाक्रमं तपःकाललघुकालगुरुतपोगुरुकोभयगुरुकरूपाश्चत्वा
प्रकारेण पृष्टा निमन्त्र्य तथाऽप्यतिरिक्तपरिष्ठापनाय गत
एकान्तमनापातं बहुप्राशुकं स्थण्डिलं तत्र च प्राप्तः । उत्कृष्टरो गुरवः तत्र प्रथमभङ्गो भाव्यते-'चोलपट्ट ति ' कस्याऽ पि संयतस्य संज्ञातकानां सङ्खडिरुपस्थिता, स च तस्मिन्
विनाशिद्रव्यलोभेन च कल्यं भोक्ष्येऽहमिति चिन्तयित्वा दरे दिवसे प्राप्ते वा भक्तार्थे प्रत्याख्यातवान् , ततो मामेते अ
आदिशब्दाद्-गुलिकावृक्षशून्यकोटरगृहेषु स्थापयति, स च
साभिग्रहो वा स्यादन्यो वा। अनभिग्रहो नाम-यत्किञ्चिदाहा भक्नार्थिनं न शास्यन्तीति कृत्वा पात्रकैरनुग्राहितैश्चोलपट्ट
रोपकरणादिकं परिष्ठापनायोग्यं भवति तत्सर्वे मया परिष्ठाकसहितो गतः संज्ञातकगृहम् , पृष्टश्च किं भवद्भिर्भाज
पयितव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहः,तद्विपरीतोऽनभिग्रह इति । नानि नानीतानि ? ततस्तेनान्येन वा भणितम् । अद्याभक्ता- | र्थिक इति ततस्ते संज्ञातकाः कल्ये वयं दास्याम इति कृत्वा |
_ श्रथैतेषु स्थापयतः प्रायश्चित्तमाहयत्तदर्थ स्थापयन्ति ततः प्रथमभङ्गो भवति 'अाइरेग त्ति'
विलें मूलं गुरुगा वा, अणत गुरु लहुग सेस जं बन । सङ्घडिगतमन्यत्र वा क्वचिदतिरिक्तमवगाहिमादि लब्धं तच्च
थेरी य उ निक्खित्ते, पाहुणसाणाइ खइए वा ।।७१३।। पर्यापन्नं परिष्ठापनायोग्यतां प्राप्तं ततस्तस्य विगिञ्चन आरोवणा उ तस्स उ, बंधस्स पुरूवणा य कायव्वा । च-परिष्ठापनं तदर्थ निर्गतः तच्चोत्कृष्टमविनाशि द्रव्यं कुल-नाम-द्विगमाउं, मंसो जिन्नण जा उट्ठो॥७१४॥ मत्त्वा द्वितीये दिने समुद्देशनार्थ दरगुलिकायां वृक्षशन्यगृहे
बिले स्थापयतो मूलं,गुरुका वा। यदि वसिमे बिले स्थापयस्थापयति । दरो विलकुलिका नाम पिकं बुसपुजओ वा, वृक्ष
ति तदा मूलम् , उद्वासे चत्वारो गुरुवः,अनन्तवनस्पतिकोटरे शब्देन वृतकोटरमुच्यते । यद्वा गुलिकया 'रुक्ख त्ति' गुलि
स्थापयतः चतुर्गुरवः, शेषेषु प्रत्येकवनस्पतिकोटरगुलिकाकाः पण्डकाः तान् कृत्वा वृक्षकोटरे स्थापयेत् । शून्यगृहं भ्रान्यगृहेषु चतुर्लघवः । यच्चान्यदात्मसंयमविराधनादिकमाप्रतीतम्, एतेष्वपि स्थापयित्वा द्वितीयदिवसे भुञानस्य प्र- पद्यते तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथ स्थविरगृहे स्थापयति थमभङ्गो भवाति गाथार्थः ॥
ततस्तत्र निक्षिप्ते चत्वारो लघवः, अथ यदि प्राघूर्णकाय अथ भाध्यकार एवैनां व्याख्यानयति
दत्तं, स्वयमेव वा प्राघूर्णकेन भुक्तं, श्वगवादिभिर्वा भक्षितं खमणं मोह तिगिच्छा,पच्छित्तमजीरमाण खमत्रो वा।।
तदा तस्य स्थापकस्याऽऽरोपणा कर्तव्या, चतुर्लघुकादिकं गच्छइ स चोलपट्टो, पुच्छ ठ्ठवणं पढमभंगो ॥ ७११॥ यथायोगं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति भावः। तत्र च प्राघूर्णएकेन साधुना क्षपणं कृतम् , उपवास इत्यर्थः , तश्च मो
कादिना भुक्ने कियन्तं कालं यावत्कर्मबन्धो भवतीत्याशङ्काहचिकित्सार्थ वा प्रायश्चित्तविशुद्धिहेतो, अजीर्यमाणभ- यां बन्धस्य प्ररूपणा कर्तव्या, सा चेयम्-'कुल' इत्यादि केचि तपरिणतिनिमित्तं वा क्षपको वा एकान्तरितादिक्षपणक- दाचार्यदेशीया ब्रुवते-यावत्तस्य प्राघूर्णकस्य सप्तमं कुलं वंशः
ऽसौ तद्दिने च तस्य संज्ञातकानां संखडिरुपस्थिता, तावदनुसमयं तस्य स्थापकस्य साधोः कर्मवन्धो मन्तव्यः, तैश्च साधवो भिक्षाग्रहणार्थमामन्त्रिताः क्षपकसाधुश्वा
अपरे प्राहुः-यावत् तस्य नाम गोत्रं नाद्यापि प्रक्षीणे, अन्ये नुग्राहितयाचकः स चोलपट्टः द्वितीये समये अत्र स्थित
भणन्ति यावत्तस्यास्थीनि धियन्ते, इतरे त्रुवते-यावदसामभक्कानि न ज्ञास्यन्ति अज्ञाताश्च न तदर्थ संविभागं
वायुर्धारयति, तदपरे कथयन्ति-यावत्तस्य तत्प्रायो मासोस्थापयिष्यन्तीति बुद्धया प्रस्थितः, प्राचार्यान् प्रति ब्र
पचयो धियते, अन्ये प्रतिपादयन्ति-यावत्तस्य तद्भक्तपानमवीति च, ते स्वभावत पवातिप्रान्ता मां विना न पर्याप्तं प्र
द्याऽपि न जीर्णम् , अाचार्यः प्राह-एते सर्वेऽप्युपदेश्याः,सिदास्यन्ति, न वा अवगाहमादीन् उत्कृष्द्रब्याणि ढौक
द्धान्तसद्भावः पुनरयम्-यावदसौ स्थापकसाधुरद्यापि तयिष्यन्ति, ततोऽहं गच्छामीति। स च तत्र गतः सन्ननुदग्रा
स्मात् स्थानान्नावृत्तो नालोचनप्रदानादिना प्रतिक्रान्तः तावहितपात्रको दृष्टः, तैः पृष्टः किमद्योपवासी ज्येष्ठार्य इति । स
तस्य कर्मबन्धो न व्यवच्छिद्यते । गतः प्रथमो भलः। प्राह-आमन्त्रितस्तदर्थमवगाहिमादिसंविभागमणिता अपि
अथ शेषभङ्गत्रयीं भावयतिते स्थापयन्ति, कल्ये पारणकदिवसे दास्याम इति कृत्वा । संखडिगमणे बीओ, बीयारगयस्स तइयत्रो होइ । यद्यपि ते न स्थापयन्ति, तथाऽपि क्षपकस्य चत्वारो गु- सन्नायगमणे चरिमो, तस्स इमे वन्निया भेदा ॥७१५॥ रुकाः, भावतस्तेन सन्निधौ स्थापनायाः कारितत्वात् । द्वि
अपराह्ने या संखडी तस्यां गमने-दिवा गृहीतं रात्रौ तीदिवसे न तदुद्गृहीतं भुजानस्य प्रथमभङ्गो भवति ।।
भुक्तमिति द्वितीयभङ्गो भवति । अनुदगते सूर्ये बहिर्विचारअथातिरिक्तादिपदानि व्याचऐ
भूमिमागतस्य बलिना निमन्त्रितस्य-गत्री गृहीतं दिवा कारणगहि उव्वरियं,प्रावलिय विहिए पुच्छिऊण गो। भुक्तमिति तृतीयो भङ्गः, संज्ञातकुलगमने संचातकानामेव च
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राइ भोयण
तेनात्मीयलोचनता रात्रौ गृहीत्वा रात्रावेव भुञ्जानस्य वरम: चतुर्थी भङ्गः तस्य चतुर्थभङ्गस्य हमे पयमाणाः प्रायश्चित्तनेदाः वर्तिताः इति निर्गुलिगाथासमासार्थः । अवेनामेव गाथां व्याख्यानयति
(२९४) अभिधान राजेन्द्रः ।
गिरिजन्न ताई व संखडि उक्कोस लेमें चिहथो उ । मंगली, पंथिगवड़गाइ तहओ ।। ७१६ ।। गिरियज्ञो नाम - कोइरादेशेषु सायाह्नकालभावी प्रकरणविशेषः, श्रह चूर्णिकृत् - गिरियज्ञः कोकणादिषु भवति उसूरे ति । विशेष चूर्णिकारः पुनराह - "गिरिजनो मत्तवालसंखडी भन्नइ, सा डाल (लाट) विसर वरिसारते भवइत्ति तदादिषु सखीषु सूर्ये भिमा उत्कृष्टमवगाहिमं यदि अयं लब्ध्वा यावत्प्रतियमतितास्तमुपगतो रविः ततो रात्रौ भुङ इति द्वितीयो भङ्गः तथा दक्षिणापथे कुडवा ईमात्रया महाशमा मडक कियते स देमन्तकाले रुणोदयवेलायाम् अनीटिकायां पक्त्वा धूलीजङ्काय दीयते, तं गृहीत्वा भुञ्जानस्तृतीयो भङ्गः, आडो या प्राततुकामः साधुं विचारभूमी गच्छन्तं दा मलार्थी अनुसू निमन्त्रयेत् पथिकायां पन्थानं प्रति व्रजन्तो निमन्त्रयेयुः, जिकायां या अनुने सबै उच्चलिनुकामाः साधु प्रतिताभयेयुः एवमादिषु वृहीत्वा भुञ्जानस्य तृतीयो भङ्गो भवति । अपव्याख्यानयति
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इंदिया व सभायगखडी बीमरणं । दिवसे गते भर खामण कलं न हरिहति ।।७१७॥ ज्ञान स्थिता, नत्र ने ए न्दिता - निमन्त्रिताः, स्वयं वा श्रनिमन्त्रिता गताः, ततः संज्ञातकैस्ते संपता अभिहिताय सूर्य मा पर्यटन पपमेय पर्याप्तं प्रदास्याम इति । ते च संयता गताः, भोजनकाले परिवेषणादिप्राणां तेषां विस्मरणमुपागताः तनो यदा लोकस्य यद्दातव्यं तद्दत्तं यश्च कर्त्तव्यं तत्कृतम्। ततः क्षणिकाभूदितेि सति संपतानां सं स्मरणं कृतम् तस्राः पादयोः पतित्या सामन्ति परिवेषयबेरस्माभि न संस्मृताः क्षमण्यमस्मदपरार्ध गृहीच्यमस्मदनुग्रहाय भक्रपानमिति । संयतावते, कल्ये ग्रहीष्यामो नेदानीं रात्राविति । गृहस्थाः प्रश्नयन्ति किं कारणं ? संयताः प्रतिभुवनेसंसत्ताइ न सुज्झर, तरणुजोराहा अभिय दो विउ सिखाई । काले अभए वा मणिदीबुद्दित्तए वेंति ।। ७१८ ॥ रात्री पाने कीटकादिभिः संसक्रम निशु विदिशा-मस्मदर्थे भिक्षामानपरतो मार्गे कीटका दिजन्तूनामाक्रमणं कुरुध्वम् । तच्च यूयं वयं च न पश्यामः, तदा तनुचन्द्रज्योत्स्ना वर्तते । श्रथ कालः कृष्णेऽसौ पक्षो वर्तते, शुक्लपक्षो वा नो रजनी वा चन्द्रो भवेत् ततस्ते गृहस्थाः 'विति' ति ब्रुवते अस्माकं मणि रत्नमस्ति तेन दिवसो विशिष्यते प्रीत्या या उवा पूर्व विद्यते, तेन परिस्फुटः प्रकाशो भवति । एवमुक्ते यदि गृहन्ति भुजन्ते या नदारदं प्रतिमजोरहामणीपदीचे उद्दिन जहलगाएँ दावाई |
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गुरुगा गुरुगा क्षेत्रो मूल जम्म ।। ७१६ ॥
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राहूभोषण ज्योत्स्नाया उद्योने भुञ्जानस्य बप्यारी गुरवः मोप गुरवः, प्रदीपप्रकाशे छेदः, उद्दीप्तोद्योते मूलम् । श्रमूनि प्रायधितानि ज्योत्स्नादिपदोपलक्षितानि यथाक्रममघोऽवस्थापमीयानि एतानि जपन्यानि स्थानानि किमुक्रं भवति-प्रस मन्तरेस जघन्यतोऽपि तानि इज्यानि । अथ प्रसङ्गतो यत्प्रायश्चित्तं भवति तद्विभणिपुराहभोय आयमणं, गुरूहिं वसभेहि कुलगणे संधे ।
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रोवण कायन्त्रा, विझ्या य अभिक्खगहणेणं ॥ ७२० ॥ रात्रौ ज्योत्स्ना प्रकाशादिषु भुक्वा गुरूणां समीपे तेपा-मागमनम् आगतश्यालोचनापरिणतिरन्यथा वा गुरुतां कथि ततो रुरुदुएं कृतं भवद्भिश्रिशाभक्रमासेवितम, इत्युक्ते यदि सम्यगावृत्ता मिथ्यादुष्कृतं न भूयः करिष्याम इति ततब्धनुरयः अथ नावृत्ताः किं तु गुरुवचनानिफर्म कुर्वन्त को नाम दोषो यदि ज्योत्स्नाकाशे दिवसमा शे भुक्तमिति ततः षड्गुरुकाः । वृपभैरभिहिताः - श्रार्याः ! किमेवं गुरूणां वचनमतिक्रामन्ति, यदि वृषभवचने सम्यगावृत्तास्ततः षड्गुरुका एच, अथ वृषभवचनातिक्रमं कुर्वन्ति ततः छेदः, एवं कुलेन कुलस्थविरैर्वा प्रतिनोदितानां सम्यगावसानो छेद एवं अनावृत्तानां मूलम् गणेन स्व नोदिता द्यावृतास्ततो मूलमेव अथ नानास्ततो न स्थाप्यम् । सङ्घस्थविरैर्वा नोदिताः किमिति गण गणस्थविरान वा अतिकामथ इत्युक्रे यद्यावर्त्तन्ते ततोऽनवस्थाप्यमेव, अनावर्तमानानां पराक्रम एषा चारोपण प्राधि दिर्गुरुभादियातिक्रमनिष्णा प्रान् स्थानेभ्यो दक्षिणतः काया रात्रिभस्यैव यद भीग्रहणं पुनरासेवा तनिष्पन्ना वामपार्श्वतः कर्तव्या । यथा एवं पारं ज्योत्स्नाकाशे भुतो चत्वारो गुरव, द्वितीयं वारं परः तृतीयं पारं देवः चतुर्थ पारं पञ्चमं चारमनवस्थाप्यम्, षष्ठं वारं भुञ्जानस्य पाराञ्चिकमाएपा ज्योत्स्नाप्रकाशे प्रायश्चित्तवृद्धिरुक्ता । एवं मणिप्रकाशे, नवरं गुरुभिः प्रतिमोदिता पयात गुरु अथ गुरुवच नमतिक्रामन्ति ततः छेदः, एवं वृषभवचनातिक्रमे मूलं. कुल स्थविगतिक्रमे पाराचिकम अभीक्ष्णमेवान पाराञ्चिकम् । एवं प्रदीपेऽपि दक्षिणनां वामनश्चारोपणाः नवरनिमलस पभातिकमे अनवस्थाप्यं कुलग सङ्घस्थचिरातिक्रमे पाराञ्चिकम् । श्रभीक्ष्णसेवायां तु चतुि परासिया निरमाचायतिक्रमे अनवस्थाप्यम् वृषभकुलगणसङ्घस्थविराणां चतुराणामव्यतिक्रमे पाराचिकसभायां तु त्रिभ पाराञ्चिकम् । एषा प्रथमा नौरसातव्या । द्वितीयादयोऽपि वच्यमाणा एवमेव स्थाप्याः । शिष्यः प्राह -कुलगण संघस्थ यद गुरुतरं प्रायश्चितमु नत्र किं कारणम् ? अत्रोच्यते-पते त्रयोदपि स्थविरा श्राचार्यादपि गयां मन्तव्याः प्रमाणपुरुषतया स्थापितत्वात् ।
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कथं पुनरेते प्रमाणपुरुष उच्यतेतिहि थेरेहि कथं जं, सङ्काणे तं तिगं न बोलेति । हेला व उबर, उवरिमथेरा उ भयन्त्रा ।। ७२१ ।। त्रिभिः कु सङ्घस्थविरैर्यद्—व्यवहारादिविषयं कार्य
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण कृतं तत्कार्य स्वस्थाने त्रिकं कुलगणसंघलक्षण न बोल- रुच्यते । एकैकस्यां च नावि हे द्वे प्रायश्चिने भवतः, यतिः न व्यतिक्रामतीत्यर्थः। किमुक्तं भवति-कुलस्थविरेण तद्यथा-दक्षिणपार्श्ववर्तिनी वामपार्श्ववर्तिनी, च । तकृतं कुलं नातिकामति, गणस्थविरेण कृतं गणो नातिकामति, तश्चतसृषु नौषु सर्वसंख्ययाऽष्टौ लता लभ्यन्ते, तथा चाड संघस्थविरेण कृतं संघो नातिकामति । 'हेनिला वि उवरिमे यौ सवाटका मन्तव्याः , यत आह चूर्णिकृत्-" अट्ठस नि ' अधस्तनाः कुलस्थविरास्तेऽप्युपरितनैर्गणस्थविरैश्च | घाड त्ति जोराहामणिपदीवुदित्तेसु मूलपरिच्छित्ता चत्तारो कृतं नातिकामन्ति, तथा गणस्थविरेभ्योऽधस्तना ये सं- तस्स इतो वि चत्तारि पच्छित्तलया उ ति सव्वे ते यतस्थविरास्तैः कृतं तद्गणस्थविरा नातिकामन्ति । उपरितना अट्ट संघाडगा । संघाड त्ति वा लय त्ति वा पगारो ति वा स्तु स्थविरा भक्तव्या-विकल्पयितव्याः, कथमिति चेद् ? एगटुं ति"। उच्यते-कुलस्थविरैररक्तद्विष्यत्कृतं तद्गणस्थविरा नान्यथा ___ अथ ज्योत्स्नादिविरहितं सामान्यतः प्रायश्चित्तमाहकुर्वन्ति, अथागमोक्तविधिमन्तरेण रक्तद्विष्टः कृतं ततस्तन्न सन्नातगागमणे, संखडि राप्रो य भोयणे मूलं । प्रमाणयन्ति । एवं गणस्थविरैरपि यदरनद्विष्टैः कृतं तत्संघस्थविरा नातिकामन्ति । अथ रक्तद्विष्टेः कृतं ततो न प्रमाण
बितिए अणवट्ठप्पो, ततियम्मि य होइ पारंची ॥७२३।। यन्ति । एवमेतेषु गुरुतरं प्रायश्चित्तम् ।
संज्ञातककुले आगमनं कृत्वा संखड्यां वा गत्वा रात्री अथद्वितीयतृतीयचतुर्थनौदर्शनार्थमाह
यदि भुङ्क्ते तदा मूलव्रतविराधनानिष्पन्नं मूलं नाम प्राय
श्चित्तम् । द्वितीयं वारं रात्रौ भुञ्जानस्य अनवस्थाप्यं, तृतीय चंदुञ्जोएँ को दोसो, अप्पप्पाणे य फासुये दब्बे।
वारं पाराश्चिकम् । अथवा-भिक्षोः रात्रौ भुञानस्य मूलम् , भिक्खूबसमायरिए, गच्छम्मि य अट्ठ संघाडा ॥७२२॥
द्वितीय उपाध्यायस्तस्यानवस्थाप्यम् , तृतीय आचार्यस्तस्य ज्योत्स्नाप्रकाशे भुक्त्वा समागत्य गुरूणामालोचयन्ति| रात्रौ भञानस्य पारातिकम। ततो भिक्षुभिः प्रतिनोदिता यदि सम्यगावर्तन्ते तत
अथ यदुक्तमल्पप्राण प्राशुकद्रव्ये को दोष एष श्चतुर्गुरुकमेव,अथ बुबते-चन्द्र द्योते को नाम दोषः ? को वा
इति तदेतत्परिहरन्नाहस्वल्पप्राणेऽवगाहिमादौ प्राशुके द्रव्ये?, एवं भणतां षड्
जइ वि य फासुगदव्यं, कुंथपणगाइ तह वि दुप्पस्सा । लघवः,ततो वृषभैरभिधीयन्ते, आर्या ! मा भिक्षुणामतिक्रम कुरुत,यद्यावर्तन्ते ततः पहलघुका एव, अथ वृषभानतिक्रम
पच्चक्खनाणिनो वि हु, राईभत्तं परिहरंति ॥ ७२४ ।। न्ति ततः षड्गुरुकाः,तत श्राचार्यैरभिहिताः यद्यावृत्तास्ततः
यद्यपि तत्प्राशुकद्रव्यमवगाहिमादि तथापि कुन्थुपनकापड़गुरुका एव, अनावृत्तानां छेदः, 'गच्छम्मि यति 'कुल- दय. आगन्तुकाः, तदुद्भवाश्च जन्तवो रात्री दुर्दर्शा भवन्ति । गणसंघा इह गच्छशब्देनोच्यन्ते । ततः कुलेन भणिता यदि
किश्च-येऽपि तावत्प्रत्यक्षज्ञानिनः केवलिप्रभृतयस्ते यद्यपिसमुपरतास्ततः छेद एव, अथ नोपरमन्ते ततो मूलम् । गणे- शानालोकेन तद्भवागन्तुकसत्त्वविरहितं भक्तपानं पश्यन्ति नाऽप्यभिहिता यद्यावृत्तास्ततो मूलम् , अथ नावृत्तास्ततो तथाऽपि रात्रिभक्तं पारहरन्ति मूलगुणविराधना मा भूदिति उनवस्थाप्यम् । ततः संघेनाऽभिहिता यपरमन्ते ततोऽनव- कृत्वा । स्थाव्यम् , अथ नोपरमन्ते ततः पाराश्चिकम् । एपा प्रायश्चि- अथ यदुक्तं चन्द्रप्रदीपादिप्रकाशे को दोष इति , तत्र सवृद्धिदक्षिणतः कर्नव्या। अभीक्षणसेवायां द्वितीयं वारं
परिहारमाहज्योत्स्नाप्रकाशे भुञ्जानम्य पड़लघुकम . सृतीयं वारं पड़गु- जइ वि य पिपीलियाई, दीसंति पईवजोइउज्जोए । रकम , चतुर्थ छेदः, पञ्चमं मूलम् , पष्ठमनवस्थाप्यम् . स
तह वि खलु अगाइ, मूलवयविराहणा जेणं ॥७२॥ मम पागश्चिकम, एषा वामतः स्थापयितव्या । एवमपि।
यद्यपि प्रदीपज्योतिपो रुपलक्षणत्वाच्चन्द्रस्योद्योते पिपीप्रदीपोद्दीनप्रकाशवपि भितुवृषभव्यतिक्रमनिष्पन्ना दक्षिण
लिकादयो जन्तयो दृश्यन्ते, तथाऽपि खलु-निश्चये श्रतोऽभीक्ष्णसेवानिप्पन्ना तु वामतो यथाक्रम प्रायश्चित्तवृद्धिः
नाचीणमिदं रात्रिभक्तम् । कुत इत्याह-मूलवतानां प्रास्थापनीया । पपा द्वितीया नौग्वमेव तृतीया कर्तव्याः नवरं
णातिपातव्रतानाम्-प्रागातिपाविरमणादीनां प्रागुनीतत्र ज्योत्स्नादिप्रकाशेषु भुक्त्वा न कस्याप्याचार्यादेः क-1
त्या विगधना येन रात्रिभक्केन भवति । अतो रात्रौ न भोथर्यान्त, किं नु भिक्षुप्रभृतयः तेषां परस्परं सलापं धुन्या
तव्यम् । अन्यस्माद्वा श्रावकादिमुपादाकार्य तान् प्रति नोदयन्ति.शेष
अथ ' गच्छम्मि यत्ति' पदं व्याच - सर्वमपि द्वितीयतो द्रष्टव्यम् । चतुर्थी पुनरियम्-भिन्नूणाम
गच्छगहणेण गच्छो, भणाइ अहवा कुलाइनो गच्छो । निकम चतुर्गक, वृषभाणामतिक्रमे पड़लघु, श्राचार्याणामनिकमे पइनर गच्छस्य साधुसमूहरूपस्यातिकमे छेदः, गच्छग्गहणे व कए, गहणं पुण गच्छवासीणं ॥७२६।। कुलस्यानिकमे मृलम् . गणस्याऽतिक्रमे अनवस्थाप्यम् . स- गच्छग्रहणन गच्छ:-साधुसमूहरूपस्त्रिरात्रिभक्तानघस्या तिक्रमे पागश्चिकम् . एपा दक्षिणतः प्रायश्चित्तवृ- सेवकान् भवति नोदयतानि मन्तव्यम् । यथा-चतुया नादिः, द्वितीया चाभीदरासेवा निप्पन्ना चतुर्गुरुकादारभ्य वि चतुर्थे पदे. अथवा-गच्छ ग्रहणेन कुलादिकं-कुलगणसमतभिवारैः पाश्चिकं यावत् वामतः स्थापनीया ' हुरूपो गन्छो नोदयनीति मन्तव्यम् , यथा-सास्वपि नौपु, गवं ज्योत्स्नायामुकम् । मणिप्रदीपोद्दीप्तेष्वपि यथाक्रम यद्वा-गच्छग्रहणे कृते गच्छवासिनां ग्रहणं विज्ञेयं , तेषापडलघु पइगुरुकच्छदनादी कृत्वा पागांचकान्तां दक्षिणतो। मेवेद प्रायश्चित्तानकुरम्ब न जिनकल्पिकादीनाम् । इह पूर्व वामतश्चैवमेव प्रायश्चित्तवृद्धिद्रष्टव्या । एण चतुर्थी नौ-] भाष्यकारेण प्रथमा नी परिस्पटमुपदर्शिता न द्वितीयादयः
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण अतो यथाक्रम तासां व्याख्यानमाह
को दोसो को दोसो-त्ति भणंते लग्गई वितियठाणं । विइयादेसे भिक्खू, भणंति दु8 में कयं ति बोलिति । |
| अहवा अभिक्खगहणे, अहवा वत्थुस्स अइयारो।७३२। छल्ला वसमे छग्गुरु, छेदो मूलाइ जा चरिमं ॥७२७॥ अग्निचन्द्रोद्योतादिषु को दोष इत्युत्तरोत्तरप्रदानेन द्विती-- द्वितीयादेशो नाम द्वितीयो नौसंस्थितः प्रायश्चित्तप्रकार- यं प्रायश्चित्तस्थानं लगति-प्राप्नोति, अथवा-अभीक्षणस्तत्र तथैव भुक्त्वा गुरूणां निवेदिते भिक्षवो भणन्ति ग्रहणे पुनः पुनरासेवायाम् , अथवा-वस्तुन आचादुष्टमेव भवद्भिः कृतमिति, तश्च वचनं यदि ते बोलयन्ति । योपाध्यायादिरूपस्य योऽतिचारो रात्रिभक्तलक्षणं तन प्रतिपद्यन्ते तदा पदलघुकं, वृषभवचनातिक्रमे पदगुरु- स्मात् प्रायश्चित्तवृद्धिर्भवति, यत एवं प्रायश्चित्तजालम् अतो कम् , प्राचार्याणामतिक्रमे छेदः, कुलस्थविरस्याप्रमाणी
न कल्पते चतुर्विधमपि रात्रिभक्कम् । कारणसद्भावात् करणे मूलम् , गणस्थविरस्याप्रमाणने अनवस्थाप्यम् , स- |
पुनः कल्पते। स्थघिरस्यातिक्रमे पाराश्चिकम् , एवं मणिप्रकाशा
तान्येव कारणानि दर्शयतिदिष्वपि मन्तव्यम् , नवरं मणिप्रकाशे षड्गुरुकाद् , प्रदी- बिइयपयं गेलन्ने, पढमे बिइए य अणहियासम्मि । पप्रकाशे छेदात् , उद्दीप्ते मूलादारब्धम् , अभीषणसेवायां तु फिइ चंदगवज्झ, समाहिमरणं च अद्धाणे ॥ ७३३॥ सप्तभिवारैः पाराश्चिकम् । भावना प्रागेव कृता।
द्वितीयपदं नाम-यदिवा गृहीतं दिवा भक्तमित्यादि चतुतृतीया भाव्यते
भङ्गी प्रतिसेवनात्मकं तदागाढे ग्लानत्व आसेवितव्यम् । प्रथततियादेसे भोत्तूण, आगया नेव कस्सइ कहिंति ।। मद्वितीयपरीषहानुरतायां वा 'अपहियासम्मि त्ति' असतेसं ततो व सोचा, खिसंतह भिक्खुणो ते उ ॥७२८॥ हिष्णुतायां वा, चन्द्रकवेधं नाम अनशनं तदसमाधिमुपगततृतीयादेशे तृतीयायां नावि तथैव भुक्त्वा समागताः |
स्य स्फिटति न निर्वहतीति भावः । अप्राप्तस्य यथा समाधि सन्तो नैव कस्याऽपि कथयन्ति, नवरं भिक्षवस्तेषां परस्परं
मरणं भवति तथा चतुर्भङ्गयाऽपि यतितव्यम् , श्रध्वनि चसंलापं श्रुत्वा तैर्वा अन्यस्य कस्यापि श्रावकादेः कथितं
तुर्वपि भङ्गेषु ग्रहणं कर्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः । ततो वा श्रुत्वा भिक्षवस्तान् कथयन्ति । अथ श्रवणानन्तरं
अथैनामेव विवरीपुर्लानत्वद्वारं व्याख्यानयतिखिंसन्ति खरण्टयन्तीत्यर्थः ।
पइदिणमलब्भमाणे, विसोहिसमइच्चिउं पढमभंगो। खररिटताश्च यद्यतिकामन्ति तत इयं प्रायश्चित्तवृद्धिः- दुल्लभदिवसंते वा, अहिमूलरुयाइK विइओ ।। ७३४ ।। भिक्खुणो अतिकमंते, छल्लहुगा वसभे होंति छग्गुरुगा। एमेव तइयभंगो, आइतमो अंतए पगासो उ। गुरुकुलगणसंघाइ-कमेइ छेदाइ जा चरिम ॥७२६ ॥ .दुहमओ वि अप्पगासो, एमेव य अंतिमो भंगो ॥७३५।। भिक्षूनतिक्रामन्ति पडलघुकाः गुरूणामतिक्रमे छेदः, कुल- यदा ग्लानस्य प्रतिदिन विशुद्धं भनपानं न लभ्यते, तदा स्यातिकमे मूलम् , गणस्याऽतिक्रमे अनवस्थाप्यम् , सङ्घ- पञ्चकपरिहाण्या विशोधिकादयो दोषास्तेषु प्रतिदिवसं ग्रस्याऽतिक्रमे पाराश्चिकम् ।
हीतव्यं यावश्चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् , यदा तदपि समतिकाअथ चतुर्थी नावमुपदर्शयति
न्तस्तदा प्रथमो भङ्गो भवति, रात्री परिवारस्य दिवा दातभिक्खू वसभायरिए, वयणं गच्छस्स कुलगणे संघे।। व्यमित्यर्थः । तथा-दुर्लभं-ग्लानप्रायोग्यमशनादि द्रव्यम्, तश गुरुगादतिकमते, जा सपदं चउत्थ आदेसे ॥ ७३०।। गृहीन्या यावत्प्रतिश्रयमागच्छति तावदस्तमुपगतः सविता ज्योत्स्नाप्रकाशादिषु भुक्त्वा गुरूणामालोचिता भिक्षुभि- अतो दिया गृहीत्वा रात्रौ ग्लानस्य दातव्यम् ,अथवा-कश्चिमोदिता यद्यावृत्तास्ततश्चतुर्गुरुकाः, अथ भिक्षूणां वचनम
हिवसान्तेष्वहिना सण खाद्यत,शलरुग्वा कस्यापि तदानीमन्ति ततोऽपि चतुर्गुस , वृषभाणां वचनमति- मुद्भवेत् आदिग्रहणाद्-विपविचिकादिकादिष्वागाढेषु सकामतः षड्लघुकाः प्राचार्यानतिकामतः षड्गुरुकाः, गच्छ- | मुत्पन्नेषु सर्पडकाद्युपशमनलब्धप्रत्ययमगदाद्योषधमानीय या. ममन्यमानस्य वेदः, कुलमप्रमाणीकुर्वतो मूलम् , गणमप्र- वहीयते तावदस्तं गतो रविः, अतो रात्रावपि दातव्यम् । माणतोऽनवस्थाप्यम् , सावं व्यतिक्रामतः स्वपदं पाराश्चिकम् ।। एष द्वितीयो भतः । एवमेव तृतीयो भङ्गो चक्रव्यः । यानि अभीक्षणसेषायामपि प्रथमे द्वितीये च वारे चतुर्गुरुकं तृ- प्रथमद्वितीयभन्योः कारणानि तानि तृतीयभङ्गेऽपि भवन्तीतीयादिष्वष्टमान्तेषु वारेषु षड्लयुकादि पाराश्चिकान्तम् ,
ति भावः। अत्र च भने आदौ तमोऽन्धकारंगत्रिपदमित्यर्थः। एष चतुर्थ श्रादेशः-चतुर्थी नौः।
अन्ते च प्रकाशादि वा पदम्। अन्तिमश्चतुर्थी भक्तः। सोऽप्ये अथ पूर्वोक्तानेव प्रायश्चित्तवृद्धिहेतून संदर्शयति
वमेव अहिदशदावागाढकारणे प्रतिसेवितव्यः, नवरमसी पेच्छध उ अणायारं, रतिं भुत्तं न कस्सइ कर्हिति ।
द्विधाऽप्ययं प्रकाशो मन्तव्य इति । गतं ग्लानद्वारम् ।
अथ प्रथमद्वितीयासहिष्णुपदानि ध्याचष्टेएवं एकेकनिवे-दणेण वुड्डी उ पच्छित्ते ॥ ७३१ ॥ पश्यताममीषामनाचारं यदेवं रात्रौ भुक्त्या न कस्याऽ
पढमवितियाउरस्स, असहस्स हवेज अहव जुगलस्स। पि कथयन्ति , एवं भिक्षुभिः खरण्टिता यदि नावर्त्तन्ते
कालम्मि दुरहियासे, भंगचउक्केण गहणं तु ।। ७३६ ।। ततो भिक्षवो वृषभाणां कथयन्ति । वृषभा गुरूणां, गुरवोऽ
प्रथमः जुधापरीपहो, द्वितीयः पिपासापरीषहस्ताभ्यामा पि कस्येत्यादि,एवमेकैकस्य वृषभादिनिवेदितेन प्रायश्चित्त- तुरस्य असहिष्णोर्वा स्थूलभद्रम्वामिलघुभ्रातृश्रीयकस्य वृद्धिर्भवति ।
कल्पस्य युगलं बालवृद्धरूपं तस्य वा असहिष्णोः काले
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण पा दुरधिसहे अवसौन्दर्यलक्षणे भनचतुष्केनाऽपि ग्रहणं | दर्शनविशुद्धिः कारणीया, गोविन्दनियुक्तिरादिशब्दात्-भगाकर्त्तव्यम्।
दितस्वार्थे प्रवृत्तिं गच्छेत् शास्त्राणि तदर्थस्तत्प्रयोजनं तेन एमेव उत्तिमद्वे, चंदगवेझ सरिसे भवे भंगा। प्रमाणशास्त्रकुशलानामाचार्याणां समीपे गच्छेत् ॥ उभयपगासे पढमो, आदीयंते असच्चतमो ॥ ७३६ ॥
अथ चारित्रार्थमिति द्वारमाहचन्द्रको नाम-चक्राष्टकोपरिवर्तिन्याः पुत्तलिकाया वामा- पडिकुट्ठदेसकारण, गया उ तदुवरम्मि निति य चरणट्ठा। क्षिगोलकः तस्य वेधः-ताडनं तत्सदृशे तद्वद्विराधे उत्तमार्थे अनशने प्रतिपन्ने सति यदि कदाचिदसमाधिरुत्पद्यते तदा
असिवाई व भविस्सइ, भूते व वयंति परदेसं ॥ ७४१ ॥ स नमस्कारं नाराधयिष्यति असमाधिमृत्युना वा मा म्रि
सिन्धुदेशप्रभृतिको योऽसंयमविषयः स भगवता प्रतिक्रुष्टो यतामिति कृत्वा चत्वारोऽपि भङ्गाः प्रयोक्तव्याः । तत्र च
न तत्र विहर्त्तव्यम् , परं तं प्रतिषिद्धदेशमशिवादिभिः कारप्रथमो भङ्ग उभयप्रकाशो , द्वितीयो भङ्गः श्रादौ प्रकाशवान्
गगताः, ततो यदा तेषां कारणानामुपरमः परिसमाप्तिर्भवति अन्ते तमस्वान् , तृतीयोऽन्ते प्रकाशवान् , चतुर्थों भङ्गः
तदा चारित्रार्थ ततोऽसंयमविषयान्निर्गच्छति निर्गस्य च स. सर्वत उभयथाऽपि मतो युक्तो रात्रौ गृहीत्वा रात्रौ चैव भो
यमविषयं गच्छन्ति । यद्वा-तत्र क्षेत्रे वसतां निमित्तबलेन गभावादिति ॥
शातं यथा अशिवादिकमत्र भविष्यति । अथवा-भूतमापन्नअथाध्वद्वारं सविस्तरं व्याचिख्यासुराह
मत्राशिवादि अतः परदेश व्रजन्ति, एवमादिभिः कारणरध्वा
गन्तव्यतया निश्चित्य गच्छोपग्रहकरमिदमुपकरणं गृह्णन्ति । श्रद्धाणम्मि व होजा, भंगा चउरो उ तं न कप्पई उ । दुविहा उ होंति उदरा,पोट्टे तह धन्नभाणा य ॥७३७॥
चम्माइलोहगहणे, नंदीभाणे य धम्मकर (णे य) यस्स । अध्वनि वा वर्तमानानां चत्वारोऽपि भङ्गाः भवेयुः। परंतम
परउत्थियउवगरणे, गुलियाओ खोलमाईणि ।। ७४२॥ ध्वानं गन्तुमूर्ध्वरे न कल्पते ते च दरा द्विविधाः, तद्यथा-पो- एक्कम्मि य ठाणे, चउरो मासा हवंतिऽणुग्धाया । दृदरा,धान्यभाजनदराश्च । पोट्ट सुन्दरं तद्भवा दरा पोहदराः, | आणादियो य दोसा, विराहणा संजमाई य ।। ७४३ ॥ धान्यभाजनानि कटपल्यादयः तान्येव दराधान्यभाजनदराः।
चर्मशब्देन चर्ममयं तलिकायुपकरणं गृह्यते आदिशऊर्ध्वं यत्र पूर्यन्ते तत्तूचंदरमुच्यते।
ब्दात् सिक्थकादिपरिग्रहः । लोहग्रहणेन पिप्पलकादिलोहउद्धदरे य सुभिक्खे, अद्धाण-पवजणं तु दप्पेणं ।। मयोपकरणेन ग्रहणमध्वनि गच्छता कर्त्तव्यम् । नन्दीभाजनं लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवजई जत्थ ॥ ७३८ ॥ धर्मकारकस्य, तया परतीथिकोपकरणं वक्ष्यमाणरूपं, तथा ऊर्ध्वदरमनन्तरोक्तं सुभिक्षम्-सुलभभैक्षम् , अथ चत्वारो गुलिका नाम-तुंबरवृक्षचूर्णगुटिका, खोला गोरसभाविभगाः ऊर्ध्वदरमपि सुभिक्षमपि१, ऊर्द्धदरमसुभिक्षम,सुभिक्षं ता नियमत एवमादीन्युपकरणानि ग्रहीतव्यानाति माथाद्वय नोर्ध्वदरम्शनोर्ध्वदरं न सुभिक्षम्४,अत्र द्वितीयचतुर्थभङ्गयो- समासार्थः ॥ रध्वगमनं कर्तव्यम् ,अथ प्रथमतृतीयभङ्गयोरध्वप्रतिपत्ति द
अथाऽस्या एवाद्यपदं व्याचिख्यासुः प्रतिद्वारगाथामाहपतः करोति तदा ऊर्ध्वपदेऽपि चत्वारो लघुकाः, यद्वा-यत्र संयमविराधनादिकमापद्यते तत्र तनिष्पन्नं न प्रायश्चित्तम् ।
तलिय पुडगा व खेल्लय,कोसग कत्ती य सिक्कए काए । प्रथमतृतीयभङ्गयोरप्येतैः कारणैर्न गन्तुं कल्पत इति । पिप्पलगइनारिय, नक्खच्चणि सत्थकोसे य ॥७४४॥ दर्शयति
नलिका-उपानहः, पुटकानि-खल्लकानिच, प्रतीताःकोशकोनाणट्ठ दसणट्ठा, चारिसट्ठवमाइ गंतव्वं ।
नखभङ्गरक्षार्थ यत्राङ्गल्यः प्रक्षिप्यन्ते, कृत्तिः-चर्म सिक्थकं उवगरणपुचपडिले-हिएण सत्येण गंतव्वं ॥ ७३६ ॥ प्रतीतं कायो नाम-कायोतिका, पिप्पलकः सूची प्रारिका शानार्थ दर्शनार्थ चारित्रार्थम् ,एवमादिभिः कारणैर्गन्तव्यम् ,
च प्रतीता, नखार्चनी-नखहरणिका, शस्त्रकोशः-शरवेधादिगच्छद्भिश्च तलिकादिकमुपकरणं ग्रहीतव्यम् , पूर्वप्रत्युपे
शस्त्रसमुदायः इति प्रतिद्वारगाथासंक्षेपार्थः । वृ०१ उ. ३ क्षितेन च सार्थेन सह गन्तव्यमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ।
प्रक० । (तलिय." ७४५ इत्यादि गाथा 'तलिया' शम्दे अथैनामेव व्याख्यानयति
चतुर्थभागे २१६६ पृष्ठे गता) सुगुरुकुलसदेसे वा, नाणे गहिए सति य सामत्थे । कोसग नहरक्खऽट्ठा, हिमाहिकंटाइपच्चखपुसादी । बच्चइ उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइ अत्थो वा ॥ ७४० ।। कत्ती वि विकरणट्टा, विवित्त पुढवाइरक्खट्ठा ॥७४६।। शानम् आचारादिश्रुतं तद्यावत् गुरूणां समीपे सूत्रतोऽर्थ- श्रङ्गालीकोशो नखभङ्गरक्षार्थ गृह्यते, स च पादयोरङ्गाल्यो तश्च विद्यते तावति सम्पूर्णे गृहीते ततः स्वदेशे यदात्मीयं रङ्गष्ठके च प्रतिप्यते, तथा हिम-शीतम् , अहिकण्टको कुलं तत्र तदभावे परकुले वा गत्वा शेषश्रुतग्रहणं कर्त्तव्यम् । प्रतीतो, तदादिप्रत्ययाय रक्षणार्थम् खपुसा श्रादिशब्दादर्द्धअथ नास्ति स्वदेशे तथाविधः कोऽपि बहुश्रुत आचार्यस्त- जडिकादयश्च गृह्यन्ते । कृत्तिः-चर्म तत्प्रलम्बादि विकरणातोऽन्य देशं गच्छति , तत्रापि ये श्रासन्ने एकवाचनाचा- थै मा धूल्या लोलीभावमनुभूय मलिनानि भवन्त्विति कृत्वा र्यास्तेषां समीपे अवशिष्यमाणश्रुतं गृह्णाति, यदा च परि- 'विवित्तं ति' ते साधवः कदापि स्तेनैर्विविक्ता मुषिता भवेयुः पूर्णमपि विवक्षितयुगसम्भवि श्रुतं गृहीतं तदा यद्यात्मनः | ततो वस्त्राऽभावे कृत्ति प्रावृण्वन्ति, यत्र वा पृथिवीकायो भप्रतिभादिसामर्थ्य मास्ति ततो 'दसणजुत्ताह अत्थो वत्ति'| वति तत्र कृत्ति प्रस्तीर्य समुपविशन्ति, एवं पृथिवीकायरक्षा
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राह भोषण
आदिशब्दात्-प्रतिलोमे वनदवे तृणरहितप्रदेशाभावे कृत्ति प्रस्तीर्य तिष्ठन्तीति कृत्वा तेजःकायरक्षाऽपि कृता स्यात् । गतं चर्मद्वारम् ।
अथाऽऽदिग्रहणलब्धे सिक्कककापोतिके
व्याख्यानयति
हि सिकहिं हिंडति, जत्थ विवित्ता व पल्लिगमणं वा । परलिंगम्महणम्मि वि, निवडा व अत्थ ॥७४७॥ यत्र विधिका मुषितास्तत्र बन्धाभावे चीरपत्य पार्थि गमनं पिधाना अलायुकानि सिककेषु कृत्वा हिरड चकचरादिलिङ्गेन वा पान प्राप्ते सिककेन पडि तब्धम् अथ कल्पादेय सिकके निक्षेपणं कार्य प्रलम्बादिकं
,
(५१) अभिधान राजेन्द्रः |
वा सिकवानीयान्यत्र स्थविरगृहादी निक्षिप्यते । जे चैव कारणा सि- कगस्स ते चैव होंति काये वि । कप्युवधी बालादी व वहिति तेहिं पर्ल वा ॥ ७४८ ॥ यान्येव कारणानि सिक्ककस्योक्लानि तान्येव कायेऽपि कापोतिकायामपि भवन्ति, पद्या सिकका पोतिकयोरपि उपयोगः, कल्पम् - अध्वकल्पम् उपधिमाचार्यासहिष्णुप्रभृतीनां यासादीन् वा प्रलम्पानि या उपलक्षादाममूलविया ताभ्यां सिकायोतिकाभ्यां वहति । अथ लोदग्रहणारं भावयतिपिप्पलओ विकरणट्ठा, विवित्तजुने व संधणं सूई । आरतलिसंधगडा, नखचण नक्खकंटाई ।। ७४६ ॥ पियलका प्रलम्बे विकरणार्थे गृह्यते यद्वापिविज्ञानां यदवशिष्यमाणं वस्त्रं यथा खभावजी तस्य सन्धानार्थं वा सूखी प्रीतच्या शुटिलिकानां सारा गृह्यते नखाने नखहरणिका सा नखच्छेदनार्थं कण्टकादिशल्योद्धरणार्थ वा गृह शखको वा पुनरशिरा मे दकटिका संदेशिका |
,
एवमादिकस्य शस्त्रकोशस्योपयोगं दर्शयतिकोसाहि सल्लकंटग, अगदोसाधमाइयं तु वग्गहणा ।
"
हवा खेत्ते काले, गच्छे पुरिसे य जं जोग्गं ।। ७५० ॥ शस्त्रकोशेनेदं प्रयोजनम्, अहिः - सर्पस्तेन यावन्मात्रमङ्गभवशम्भो या शिल्पं वा करटको व महारशिया हर्तुमशक्यस्तेन उद्भियते । इह प्रतिद्वारगाधायां सत्यको से य चि यशदस्तसाद्दीपधादिकं तस्य यवनेकद्रव्ये निष्पनं तद्गः यत्पुनरेकाहि तत्समचथम, ' अथवा ' शब्दोपादानात् दक्षिणापथादी पद्यत्र दुर्लभं काले- ग्रीष्मादौ यत्तु शक्नुप्रभृतिकं शीतलद्रव्यमुपयोगि मइति गच्छेया शक्ररेय इत्यादिकं साधारणं पुरुषस्य या आचार्यदेवस्य यद्योग्यं तद्यथायोगं गृहीतव्यम् । पृ० १०३ प्रक० (नदीभाजनवारको रुपयोगप्रतिपादिका " ए कं भरेमि " (७५९) इत्यादि गाथा संदभाणशब्दे
चतुर्थभागे १७५७ पृष्ठे उक्का )
परतीर्थिकोपकरणमाह
परतित्थिय उवगरणं, खेत्ते काले य जं तु अधिरुद्धं । तंगितलं पुट्ठा, पडिणीऍ दिया वा कोट्टादी || ७५२ ।। परतीर्थिका पाकिस्तेषां सम्वन्धि उपकरणं यत्र क्षेत्रे
राह भोषण काले वा अवरुद्धमर्चितं च तत् रजन्यां मानणार्थ प्र लम्यानयनार्थं वा कर्तव्यम् पत्र वा प्रत्यनीका भवन्ति तत्र पर तीर्थान्ति भक्तपानं वा उत्पादयन्ति । म्लेच्छकोई या गता: परतीर्थिक दिया पुलाऽऽदिकं युद्धन्ति आदिन्यात्प्रत्यन्तकोट्टादिपरिग्रहः ॥
अथ गुलिका-बोले द्वारे व्याख्यानयतिगोरसभावियपोत्ते, पुव्वकयदव्वस्त संभवे बोधे । असई व तु गुलियाम्मिय, सुखे नवरंग दइयादी ।।७५३ ।। गोरसभाषितानि वस्त्राणि कोलानि भगवन्ते तेषु पूर्वतेषु अध्वानं प्रविष्टानां यदा प्राशुकद्रव्यस्यासम्भवस्तदामी पोतानि भावयेयुः प्रक्षालयेयुः, भगीतार्थप्रत्ययोत्पादनार्थं वाऽऽलोच्यते गोकुलादिदं संम्रष्टपानकमानीतम् । अथ न सन्ति बोलानि ततो गुलिकाः तुवरवृक्षचूर्णगुलिकाः तद्भा वितपानकं प्राशुकीकृत्य मृगा श्रगीतार्थाः तेषां चित्तरक्षणार्थ शून्ये ग्रामे प्रतिसार्थिकादीनां नवरं गच्छतिकादेरिदं गृहीतमित्यालोचयन्ति । विशेषचूर्णौ तु गुलिकाखोलपदे इत्थं व्याख्याते - " जत्थ य पव्वयकोट्टासु पंडुरंगादी पुज्जंति संजयाण मे पडिणीया होजा तत्थ गुलियति वक्कलाणि घेप्पंति । खोलति सीसखोलाती परिसं वेढियव्वं । जहा न भज्जइ लोयहयं सीसं ससरक्खण्ट्ठाए वा ।
श्रथैषामुपकरणानां ग्रहणं करोति ततः-एकेकम्मि य ठाणे, चउरो मासा हवंति ऽणुग्घाता । आणाइगो व दोसा, विराहसा संजमायाए । ७५४ ॥ एकैकस्मिन् स्थाने एकैकस्योपकरणस्य ग्रहणे इत्यर्थः च त्वारो मासा अनुद्धाता - गुरवो भवन्ति, श्राशादयश्च दोषाः, विराधना संयमात्मविषया।
अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाहएमाइअगागपदोस रक्खणडा अगेद गुरुगा। अणुले निग्गमओ, पच्छा सत्तस्स सउसे ।।७५५ ।। एवमादीनामुपकरणानामनागतमेव संयमात्मविराधनादिरक्षणार्थ ग्रहणं कर्तव्यम् । अथ न गृह्णाति ततः प्रत्येकं चस्वारों गुरवः । गनमुपकरणद्वारम अथ पूर्वप्रत्युपेक्षतेसा चैन गन्तव्यमिति व्याख्याति अणुले इत्यादि अनु कूलं चन्द्रबलं ताराबलं वा यदा सूरीणां भवति तदा निमका प्रस्थान क्रियते, निर्गताश्चोपाधयायात् सन प्राप्नुवन्ति तावश्वात्मनैव कुशलं गृह्णन्ति सार्धं प्राप्तास्तुसाधे सउनेन शकनेन ।
'
इदमेव सविशेषमाह
,
अप्पत्ताण निमित्तं, पत्ता सत्यम्मि तिनि परिसा उ । सुद्धेत्ति पत्ताणं, श्रद्धाणे भिक्खपडिसेहो || ७५६ ॥ साथै अप्राप्तानां निमिनेशन भवनि प्राप्तानां तु यः सार्धस्य यथा कुलसंपतानामपि भवति । साथै च प्राप्ताः सन्तस्तिस्रः परिषदः कुर्वन्ति । तद्यथासिहपरिषद, मृगपरिषदम नृपभपरिषद तथा सर्वशुद्धो निर्दोष इति कृत्वा स्थिताः परं यदा अध्वनि अटवीं प्राप्ता
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गइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण भवन्ति तदा कोऽपि प्रत्यनीको भिक्षायाः प्रतिषेधं कुर्यादि- प्रतिसार्थिकाद्वा लब्धम , एवमपि यदि तैमूंगैतिं भवति ति । वृ०१ उ०३ प्रक०। (अथ सिंहादीनां पर्षदा व्याख्या | ततस्तेषां प्रशापना कर्त्तव्या । भो भद्रा! नास्त्यशरीरविरहि'परिसा' शब्दे पञ्चमभागे ६४८ पृष्टे गता) 'अट्ठसुद्धि'त्ति 'श्र- तो धर्मः, अत इदं शरीरं सर्वप्रयत्नेन रक्षणीयं, पश्चादिदं चा. पत्तयाणं ति' पदं व्याख्यायते-साधुभिः प्रथमत एव सार्था- न्यत्र प्रायश्चित्तेन विशोधयिष्याम इति । धिपतिरभिधातव्यः,वयं युष्माभिः समं वजामो यद्यस्माकमु
अथ पूर्वोक्तानां तिसृणामपि पर्षदां गमनविधिमाहदन्तसुद्वहत, एवमुक्तं यद्यर्थमसावभ्युपगच्छति ततः शुद्धसार्थ इति मत्वा प्रस्थिताः परमटवीं प्राप्तानां कोऽप्यवं कुर्यात् ।
पुरतो वचंति मिगा, मज्झे वसभा उ मग्गो सीहा । सिद्भुत्थगपुप्फे वा, एवं वुत्तुं पि निच्छुभइ पंतो।।
पिट्ठउ वसभाऽन्नेसि,पडिया स हु रक्खगा दोएहं।।७६२॥ भत्तं वा पडिसेहइ, तिण्हणुसट्ठाइ तत्थ इमा॥७५८।।
पुरतो मृगा अगीतार्था मध्ये वृषभाः मार्गत सिंहा गीतार्था सिद्धार्थाः सर्पपाश्चम्पकपुष्पाणि वा शिरसि स्थापितानि |
ब्रजन्ति, अन्येषामाचार्याणां मतेन पृष्ठतो वृषभा ब्रजन्ति ।
किं कारणमित्यत श्राह ?-द्वयानां मृगसिंहानां बालवृद्धानां काश्चिदपि पीडां न कुर्वन्ति एवं यूयमपि मम कमपि भारं न
वा ये पतिताः परिश्रान्ता ये चासहिष्णवः सुधापिपासापरीकुरुध्वम् , पवमुक्त्वाऽपि कश्चित्प्रान्तो भिक्षपासकादिरटवीमध्ये सार्थानिष्काशयति न ह्ययस्माभिः सार्धमाग
पहाभ्यां पीडितास्तेषां वृषभाः पृष्ठतः स्थिता व्रजन्ति । च्छति,भक्तपानं वा प्रतिषेधयति, मा अमीषां कोऽपि किञ्चि
अथवादपि दद्यात् । ततस्त्रयाणां सार्थवाहायात्रिकाणामनुशिष्या- पुरतो अ पासतो पि-द्वतो य वसभा हवंति श्रद्धाणे । दिका इयं यतना कर्तव्या
गणवइपासे वसभा, मगमज्भे नियम वसभेगो।।७६३।। अणुसिट्ठी धम्मकहा, विजनिमित्ते पउस्सकरणं वा।।
अध्वनि बजतां वृषभाः पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतश्च भवन्ति परउत्थिया य वसभा,सयं च थेरी य चउभंगो।।७५६।। गणपतिराचार्यस्तस्य पार्थे नियमादेव वृषभा भवन्ति, मृयदि लोकापायप्रदर्शन क्रियते सा अनुशिष्टिरुच्यते, य- गाणां च मध्ये नियमादेको वृषभो भवति । त्पुनरिह परत्र च स्वयं च कर्मविपाकोपदर्शनं सा धर्म
ते च वृषभाः किं कुर्वन्तीत्याहकथा, तया अनुशिष्ट्या धर्मकथया वा सार्थवाह आप
वसभा सीहेसु मिए-सुमेव थामावहारिविजढा उ । निका वा उपसमयितव्याः। विद्यया मन्त्रेण वा वशीक
जो जत्थ होइ असहू, तस्स तह उवग्गहं कुणति ॥७६४।। नव्याः,निमित्तेन वा आवर्तनीयाः । यो वा प्रभुः सहस्रयो
वृषभाः स्थामापहारविमुक्ता अनिगृहीतबलवीर्याः सन्तो धी बलात् स सार्थवाहं बध्वा स्वयमेव सार्थमधिष्ठाय
मृगेषु सिंहेषु वा यो यत्र तेषां मध्ये असहिष्णुर्भवति, तस्य प्रभुत्वं करोति । एषा निष्काशने यतना। भिक्षाप्रतिषेधे पु
तथा उपग्रहं कुर्वन्ति । नरियम्-सर्वथा भिक्षाया अलाभे वृषभाः परयूथिकाः भूत्वा
कथमित्याहभक्तपानमुत्पादयन्ति, सार्थवाहं वा प्रज्ञापयन्ति यदि च-साधेऽपि गीतार्थस्ततः स्वयं स्वलिङ्गेनैव रात्रिभक्तविषयया
भत्ते पाणे विस्सा-मणे य उवगरण देहवहणे य । चतुर्भद्या यतन्ते, अथ गीतार्था मिश्रास्ततः स्थविराया थामावहारविजढा, तिमि वि उवगिएहए वसभा।।७६॥ गृहे निक्षिपन्ति ।
मृगाणां सिंहानां वृषभाणां च मध्ये यः क्षुधातॊ भवतिः अमुमेवान्त्यपदं व्याख्यानयति
तस्य भक्तं प्रयच्छन्ति, पिपासितस्य पानकं ददति, पपडिसेह अलंभे वा, गीयत्थेसु सयमेव चउभंगो।
रिश्रान्तस्य विश्रामणां कुर्वन्ति । य उपकरणं देहं वा
बोढुं न शक्नोति, तस्य तयोर्वहनं कुर्वन्ति । एवं स्थानापथेरिसगासं तु गिए, पेसे तत्तो व आणीयं ।। ७६० ॥
हारविमुक्ता वृषभास्त्रीनपि-मृगसिंहवृषभानुपगृह्णन्ति । सार्थाधिपतिना भक्तपानस्य प्रतिषेधः कृतो, यद्वा-न प्रतिपेधः परं स्तेनेः मार्थः मर्वोऽपि लुण्ठितः अतो भक्तपानं न
जो सो उवगरणगणो, पविसंताणं अणागयं भणियो । लभ्यते, ततः सर्वेऽपि गीतार्थास्तदा स्वयमेव परलिङ्गमन्त- ___ सट्ठाणासट्ठाणे, तस्सुवोगो इदं कमसो ॥७६६॥ रेण त्रिभक्कचतुर्भङ्गी यतनया प्रतिसेवितव्या । गाथायां श्रध्वनि प्रविशतां योऽसौ तलिकादिरुपकरणगणः अनापुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । श्रगीतार्थमिश्रास्ततो याद तव सार्थे भ- गतं भणितः, तस्येह स्वस्थानास्वस्थाने अचक्षुर्विषयगमनाद्रिका स्थविग विद्यते तदा तस्याः समीपे निक्षिपन्ति, ततः दाबुपस्थिते क्रमशः-क्रमेण उपयोगः कर्तव्यः । येन यदा स्थविरायाः सकाशं मृगान् प्रेष्य तेषां पार्वादानाययेत्। ततो प्रयोक्तव्यमिति भावः ।। वा स्थविगसमीपादायान्तमिति भात ।
असई य गम्ममाणे, पडिसन्थे तेणसुन्नगामे वा । अथवा
रुक्खाईण पलोयण, असई नंदी दुविहदव्ये ॥७६७।। कुत एयं पल्लीउ, सट्टा थेरीपडिसत्थिगो वा ।
तत्रावान गम्यमाने भनपानस्य प्रतिसार्थे वा स्तेनपल्ल्यां नायम्मि य पनवणा. न ह असरीरो भवइ धम्मो ७६११
घा शून्य ग्रामे वा भक्तपानादिनिमित्तं प्रलोकनं कर्त्तव्यम् । वृषभैः स्थविरातमीपादानीते सति यदि ते मृगाः प्र- सर्वथा संस्तरणासन द्विविधं परीतानन्तादिभेदाद द्विप्रकार श्नयेयुः कुत पतदानीतं ततो वक्तव्यम् . पल्ल्याः सकाशादि- यद् द्रव्यं तेन यथा नन्दि:--तपःसंयमयोगानां स्फूतिर्भवति दमानीतम् , दम्भादियाद्धा दत्त, स्थविरया वा वितीर्ण, तथा विधेयमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ।
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(५२०) राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभायण अथैनामेव विवरीषुराह
दोसऽमाइ जहन्नं, गिरहंते आयरियमादी ॥७७३ ।। भत्तेण व पाणेण व, निमंतए णुग्गए व अत्थमिए । उत्कृष्टं द्रव्यं विकृतयो-दधिदुग्धघृतादयः , मध्यम द्रआइचो उदिय तिव, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥७६८।।
व्य-कृरकुसणादीनि, जघन्यं द्रव्यम्-दोषान्नादि । एतानि गृहअध्वानं गच्छतां यदि कोऽपि प्रतिसार्थों मिलितः। तत्र के
तामाचार्यादीनामाज्ञादयो दोषाः । चिद् भाद्धा भक्तेन वा पानेन वा रात्रावनुद्गते वा अस्तमिते
अथ पुरुषविभागेन प्रायश्चित्तमाहवा स्र्ये निमन्त्रयेयुः यदि सर्वेऽपि गीतार्थाः ततो गृह्णन्ति ।
श्रद्धाणे संथरणे, सुन्ने गामम्मि जो उ गिरहेजा। अथ गीतार्थमिश्रास्ततो गीतार्था ब्रुवते-गच्छत यूयं, वयम- छेदादी आरोवण, नेयव्वं जाव मासलहू ।। ७७४ ॥ दित श्रादित्ये भक्तं पानं गृहीत्वा पश्चादागमिष्याम इति, ततः अध्वनि संस्तारणे शून्यग्रामे विकृत्यादि द्रव्यं यो गृह्णीयाप्रस्थितेषु मृगेषु गीतार्थास्तत्क्षणमेव गृहीत्वा सार्थमनुग- त्तस्य छेदमादौ कृत्वा मासघुकं यावदारोपणा शातव्या । च्छन्ति । स्थिते साथै मृगाणां शरावतामालोचयन्ति । श्रा
इदमेव स्पष्टतरमाहदित्य उदित इति मत्वा वयं ग्रहणं कृत्वा समागताः, एवं- छेदो छग्गुरु छल्लहु, चउगुरु चउलहु य गुरुलहू मासो। विधां यतनां गीतार्थः संविग्नः करोति ।
आयरियवसभभिक्खू , उक्कोसे मज्झिमजहन्ने ॥७७॥ किमर्थ गीतार्थसंविग्नग्रहणमित्याह
प्राचार्यस्य विकृत्यादिकमुत्कृष्टद्रव्यं शून्यग्रामे अन्तद्रव्यं गीयत्थग्गहणेणं, सामाए गिण्हते भवे गीओ।
गृह्णतः छेदः, अदृष्टं गृह्णतः षड्गुरुकाः, बहिर्दष्टे षड्लघुकाः, संविग्गग्गहणेणं, तं गेएहंतो वि संविग्गो ॥ ७६६ ।।
अदृष्टे चतुर्गुरवः, जघन्यं दोषान्नादिकमन्तदृष्टं गृह्णतः षड्लगीतार्थग्रहणेन इदमावेदितं, यो गीतार्थो भवति स एवं घुकाः चतुर्गुरवः, बहिदृष्टे चतुर्गुरवः, अदृष्ट चतुर्लघुकाः, एश्यामायां-रात्रौ गृह्णाति, नागीतार्थः । संविग्नग्रहणेन तु घमाचार्यस्योक्नम् । वृषभस्यानयैव चारणिकया षड्गुरुकादा नद्रात्रिभक्तं गृह्णन्नपि असौ संविग्न पवेत्युक्तं भवति । गतं रब्धं मासगुरुके, भिक्षोस्तु पहलघुकादारब्धं मासलघुके प्रतिसार्थद्वारम् ।
तिष्ठति । यत एवमतः संस्तरेण ग्रहीतव्यम् । असंस्तरेण न अथ स्तेनपल्लीद्वारं तस्यां च पिशितं
ग्रहीतव्यम्। सम्भवति, सत्राऽयं विधिः
असंस्तरेण गृह्णतां यतनामाहबेइंदियमाईणं, संथरणे चउलहुं व सविसेसा ।
विलोलए व जायइ, अहवा कडवालए अणुन्नवए । ते चेव असंथरणे, विवरीयसभावसाहारे ।। ७७० ॥ इयरेण व सत्थभया, अन्नभया बुट्टिते कोट्टे ॥७७६।। यदि संस्तरणे द्वीन्द्रियादीनां पुद्गलं गृह्णन्ति, तदा चतुर्ल- 'बिलोलग त्ति देशीपदत्वात् लुण्ठाका यैः स ग्रामो मुषित घवः । सविशेषास्तपःकालविशेषिताः । तद्यथा-द्वीन्द्रियपु. इत्यर्थः । तत्र शून्यग्रामे विकृत्यादि द्रव्यं याचते। अगल गृहति सति चत्वारो लघवः, तपसा कालेन चतुर्लघु- थवा-कटपालका ये तत्र वृद्धादयः, अजङ्गमाः गृहपालकाः काः । त्रीन्द्रियपुद्लेन त एव कालेन गुरुकास्तफ्सा लघुकाः। स्थिताः नष्टास्तान् तज्ज्ञापयेत् 'इयरेण व त्ति' स्वलिङ्गेन चतुरिन्द्रियपुद्गलन तपोगुरुकाः । अथापवादव्यायापवाद अलभ्यमाने इतरेण-परेण परलिङ्गेनाऽपि गृह्णन्ति। तथा कोह उच्यते द्वीन्द्रियादीनां पुद्गलमधिकतरेन्द्रियपुद्गलादधिकत- नाम यद् द्रव्यं चतुर्वर्णजनपदमिश्रं भिल्लदुर्ग वसतिः तस्मिरबलम् , ततो यत् स्वभावेनैव साधारण तदुपगृह्णन्ति- नपि सार्थभयाद्वा अन्यभयाद्वा-परचक्रगमादिलक्षणादुत्थिजत्थ विसेसं जाणं-ति तत्थ लिंगेण चउलहू पिसिए । ते उद्वसीभूते सति जघन्यादिरूपव्यस्य ग्रहणं कल्पते ।
तत्रेयं यतनाअन्नाए ण उगहणं, सत्थम्मि वि होइ एमेव ॥७७१॥ यत्र प्रामे विशेष जानन्ति यथा-साधवः पिशितं न भुञ्जते,
| उढसेसबाहहि , अंतो वी पंत गिराहतं दिदै। तत्र यदि स्वलिलेन पिशितं गृह्णन्ति तदा चतुर्लघवः, बहिअंततओ दिटुं, एवं मझे तदुक्कोसे ।। ७७७ ।। अतोऽशातेनैव ग्रहणं कार्य परलिनेनेत्यर्थः । तेम पल्ल्या- 'उदृढं ति' देशीवचनत्वान्मुषितस्य यच्छेषं लुण्ठकैर्भुक्त्या दीनामभावे सार्थेऽपि पुद्गलग्रहण एप च कमो विशेयः । ग्रामादेर्वहिः परित्यक्त्रं तजघन्यमदएं गृह्णन्ति, नस्यासात ग्राअथ शून्य ग्रामद्वारमाह
मादेरम्तःप्रान्तं दृष्टा ततो ग्रामादेरन्तरेऽपि प्रान्तं दृष्ट्वा गृश्रद्धाणे संथरणे, सुन्ने दव्वम्मि कप्पई गहणं । हन्ति । तथा लाभे मध्यमे ऽप्येवमेवोच्चारणीयम् , तदप्राप्तावलहुओ लहुया गुरुगा, जहन्नए मज्झिमुक्कोसे ||७७२॥ । नुत्कृटमप्यनयव चारणिकया ग्रहीतव्यम् । अथवा-किमनेन अध्वप्रतिपन्नानामसंस्तरणे जाते शून्यग्रामे तं सार्थमायान्तं | जघन्यादिविकल्पदर्शनेन । दृष्णा चौरसेना समागच्छतीति शङ्कयोद्वसिते ग्रामे अधन्य- तुल्लम्मि अदत्तम्मि, तं गिएहसु जेण आवइं तरसि । मध्यमोकृष्टभेदभिन्नस्य द्रव्यस्य आहारादिग्रहणं कर्नु क- तुल्लो तन्थ अवाओ, तुल्लबलं वजए तेणं ।। ७७८ ।। ल्पते, अथ संस्तरे गृह्णाति तत इदमायातं प्रायश्चित्त-जघन्ये जघन्यमध्यमोत्कृष्ट तुल्ये-समाने श्रदनदोषे सति तद्विकमासलघु, मध्यमे चत्वारो लघवः उत्कृष्ट चत्वारो गुरवः ।
त्यादिकं द्रव्यं गृहाण येन आपदमसंस्तरणलक्षणं तरसिआह-जघन्यमध्यमोत्कृष्टान्येव वयं न जानीमः । अतो
पारं प्रापयसि, यतस्तुल्य एव तत्र संयमान्मविराधनारूपो निरूप्यतामेतत्स्वरूपम् । उच्यते
उपायः तेन हेतुना स्वबलं दोपान्नादिद्रव्यं वर्जयः । गतं शूउक्कोसं विगहओ, मज्झिमगं होइ करमाईणि । न्यग्रामद्वारमा
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण अथ 'रुक्खाईण पलोयण' त्ति पदं व्याख्यानयति- टरे कटुकफलपत्रादिपरिणामितम् , एवंविधस्याभावे 'सिल फासुग जोणिपरित्ते, एगट्ठिय वड्डभिन्नभिन्ने य ।। त्ति' सिलाजतुभावितम् , तदभावे 'उप्प त्ति' मृतककलेवरव(द्ध)इट्ठिये वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए ॥ ७७६ ॥
वशाघृतादिभिः परिणामितम् , तदप्राप्ती 'महणाईसु त्ति' - प्राशुकम्-अचित्तीभूतं, परीत्ता योनिरस्यति परीत्तयोनि
स्त्यादिमर्दनेनाक्रान्तम् , अादिशब्दो हस्त्यादीनामेवानेकभेदका,गाथायां प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः।एकास्थि.
सूचकः । तदभावे प्रस्यन्दनं-निर्भरणं तत्पानकं प्रपातो नास कम्-एकबीजम् अथवा-एकास्थिकं नाम अद्याप्यवहुबीजम् ,
यत्र पर्वतात्पानीयं निपतति यथा-उज्जयन्तादिगिरिः, तदअनिष्पन्नमित्यर्थः । भिन्नम्-विदारितम् एतेन प्रथमो भङ्गः ।
भावे श्रातपेन यत्तप्तं तत्प्रथममवहमानकं पश्चात्तदेव वहमाल
कं ग्रामिति । 'अभिन्ने यत्ति' अभिन्नम्-अविदारितम् अनेन द्वितीयो भङ्ग
अथ 'मद्दणाईसु त्ति' पदं व्याचष्टेउपात्तः । उच्चारणविधिः पुनरेवम्-प्राशुकं परीत्तयोनि
जड्ढे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयर मिगे य । कम् एकास्थिकम् अवद्धास्थिक, परीत्तयोनिकम एकास्थिकम् अभिन्नम् । एवं बद्धास्थिकेऽपि द्वौ भङ्गो वक्तव्यौ । एते
उप्परिवाडीगहणे, चाउम्मासा भवे लहुगा ।। ७८४ ॥ एकास्थिके चत्वारो भङ्गा लब्धाः । बहुबीजे ऽप्येवमेव चत्वा
'जहो' हस्ती, खनो नाम-एकशृङ्गः पाटव्यतिर्यविशमः, रो लभ्यन्ते । जाता श्रष्टौ भङ्गाः । एते परीत्तयोनिपदममुञ्चाना गोमहिषौ प्रसिद्धौ, गवयो-गवाकृतिराटव्यजीवविशेषः, शलब्धाः । एवमेवानन्तयोनिपदेनाप्यष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते,जाताः
करमृगौ प्रसिद्धौ, एतैर्जहादिभिमर्दनेन परिणामितं पानक षोडश भङ्गाः । पते प्राशुकपदेन लब्धाः। एवमेवाप्राशुकपदेना
यथाक्रमं ग्रहीतव्यम् । अथोत्परिपाट्या यथोक्नक्रममुलाय ऽपि षोडशावाप्यन्ते,सर्वसङ्ख्यया जाता द्वात्रिशद्भङ्गाः। एते |
प्रहणं करोति ततश्चत्वारो लघुका भवेयुः । च वृक्षस्याधस्तात्पतितं प्रलम्बमधिकृत्य मन्तव्याः ।
सूत्रम्एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए ।
नन्नत्थ एगेणं पुन्वपडिलेहिएणं सेजासंथारएणं ॥४४॥ साहारणस्स भावा, आदीए बहुगुणं जं च ॥ ७८० ॥
'न कल्पते रात्रौ वा विकाले घेति' योऽयं प्रतिषेधःस एकएवमेव वृतस्योपर्यपि एकास्थिकपदे, तथैव बहुबीजप
स्मात्पूर्वप्रत्युपेक्षितात् शय्यासंस्तारकादन्यत्र । इहान्यत्रशब्दः दे. उपलक्षणत्वात्प्राशुकादिशेषपदेषु च द्वात्रिंशद्भङ्गाः कर्त्त
परिवर्जनायाम,यथा-'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां, सर्वे योधाःपव्याः। अथ यो यः पूर्वो भङ्गकः स प्रथममासेनिनव्यः, सर्व
राङ्मुखाः'। द्रोणभीष्मी वर्जयित्वेत्यर्थः । ततश्चैकं शय्यास
स्तारकं विहायापरं किमपि रात्रौ ग्रहीतुं न कल्पते इति सूत्र था वाऽधस्तात्पतितानां प्रलम्बानामप्राप्तौ वृक्षोपरिवर्तिप्रल. म्ब विषया अपि द्वात्रिंशद्भङ्गकाः यथाक्रममेवमेवावसितव्याः।
संक्षेपार्थः।
अथ नियुक्तिविस्तर:अथापवादस्य अपवाद उच्यते-स्वभावात्-प्रकृत्यैव साधारण शरीरोपष्टम्भकहरीतकद्रव्यमेकास्थिकमनेकास्थिकं वा,
सिज्जासंथारगहणे, चउरो मासा हवंति उग्घाये । बद्धास्थिकं परीत्तमनन्तं वा, तदुत्क्रमेणाप्यादत्ते-गृह्णाति य.
आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमायाए ॥ ७८५ ।। यस्मात्तस्यामवस्थायां तदेव बहुगुणं संयमादीनां बहुप
शेरतेऽस्यामिति शय्या-वसतिः. सैव शय्या संस्तारका, कारकम् । वृ०१ उ०३ प्रक०। (अथ द्वारगाथान्तर्गतं नन्दि-| यद्वा-शय्या वसतिरेव संस्तारको द्विधा-(वृ०)(इति 'संथार' पदम् णदि' शब्दे चतुर्थभागे १७५३ पृष्ठे व्याख्यातम्) शब्दे वक्ष्यते) शय्योपलक्षितः संस्तारकः शय्यासंस्तारकः। नन्दिद्रव्यं द्विविधम् , तद्यथा
यद्यपि सूत्रे रात्रौ ग्रहणमनुज्ञातं तथाऽप्युन्सर्गतो न कल्पते । परिनिट्ठिय जीवजढं, जलयं थलयं अचित्तमियरं च। यदि गृह्णाति ततश्चत्वारो मासा, उद्धातः-प्रायश्चित्तम्, श्रापरिते तरं च दुविहं, पाणगजयणं अतो वोच्छं॥७८२।। शादयश्च दोषाः । विराधना च संयमात्मविषया। द्विधा द्रव्य-परिनिष्ठितम् ,जीवविप्रमुक्तं च । परिनिष्ठितं ना
तामेव भावयतिम यत्परार्थमचित्तीकृतम्, जीवविप्रमुक्तं तु साध्वर्थमचित्तीक. छक्कायाण विराहण, पासवणुच्चारमेव संथारे। तम्,प्राधाकर्मेति हृदयम् । श्राह च चूर्णिकृत्-"परिनिट्टियं ति पक्षलणखाणुकंटग-विसम दरी-बाल गोणे य।।७८६॥ जं परकडमचित्तं,जीवजढं ति श्राहाकम्मं ।" यद्वा-द्विविधं द. रात्रावप्रत्युपेक्षितायां भूमौ उच्चारं प्रश्रवणं वा व्युत्सृजतः व्यम्-जलज,स्थलजं चेति। अथवा-अचित्तेतरभेदाद द्विधा,त- षटकायानां पृथिव्यादीनां विराधना । अथैतदोषभयान ब्युवाचत्त नाम-यन्न परार्थमचित्तीकृतं,नापि संयमार्थे,केवल- त्सृजति तत आत्मविराधना, यत्र वा व्युत्सृजति तत्र विलामायुःक्षपणादचित्तीभूतम् । यत्पुनरायुर्धारयति तत्सचित्तम् । निर्गत्य दीर्घजातीयेन भयत एवमप्यात्मविराधना । 'संथारे अथवा-परीतं-प्रत्येकस इतरदनन्तमिति वा द्विविधं तदेव- त्ति' अप्रत्युपेक्षितायां भूमो संस्तारकं प्रक्षिप्तमेवं षद्कायमुक्ता तावदाहारयतना । अथ पानकयतनामत ऊध्व वक्ष्ये।। विराधना, विलाद् श्रात्मविराधनाऽपि । तथा स्थाणुकण्टके यथाप्रतिक्षातमेव निर्वाहयति
तत्र प्रस्खलन भवेत् कण्टकैर्वा विध्येत, विषमे निम्नानते तुवरे फले अ पत्ते, रुक्खसिलातुप्पमद्दणाईसुं । दरीषु वा बिलेषु प्रस्खलत्-प्रपतेद्वा, ब्यालाः-सास्तैर्दश्येत, पासंदणे पवाए, आयवतत्ते वहे अवहे ।। ७८३ ॥
गोबलीवर्दस्तेनाभिघातो भवेत् । अध्वनि वर्तमानैः काञ्जिकादिप्राशुकपानकाप्राप्तावीदशानि
किञ्चग्रहीतव्यानि, तद्यथा-तुम्बरफलानि हरीतकीप्रभृतीनि तु
एरंडईय सेणा, गोम्मि य आरक्खि तेणगा दुविहा । वररसपत्रादीनि तैः परिणामितस्,तथा 'रुक्खे त्ति' वृक्षको- एए हवंति दोसा, बेसित्थिणपुंसएसुं वा ।। ७८७॥
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( ५२२) अभिधानराजेन्द्रः ।
राइ भोयल
'परंड खाऐ सि' इडवितः श्वा तेन खायेत, गौरिमस्थानः क्षपाने:-आरक्षिय वीरागृह स्तेनका द्विविधाः शरीरस्तेनाः उपधिस्तेनाश्च तेरपडियेत साधवो वा हियेरन् । एते दोषा रात्रौ शय्या संस्तारक ग्रहणे भवन्ति । वेश्यास्त्री नपुंसकेषु वा वेश्यापाटके नपुंसकपाटके वा स्थितानां रात्रौ परिवर्तयतां स्वाध्यायशब्दं श्रुत्वा लोकः प्रचचनावादं कुर्यात् । अहो साधवस्तपोवनमासेवन्ते । यत एते दोषा अतो न रात्रौ शय्यासंस्तारको प्रही तब्य इति । आह यद्येवं ततः
सुतं निरत्थगं का-रणिक मिणमो ऽद्धारा निग्गया साहू । मरुमाण कोडगम्मी, पुण्वदिट्ठम्मि संझाए ॥ ७८८ ॥ सूत्रं निरर्थकं प्राप्नोति सरिराह-न भवति सूत्रं निरर्थ कम्. किं तु कारणिकम् किं पुनः कारणमित्याह-दमनम्तरमेवोच्यमानम् । अध्यनिर्गताः केचन साधवोऽस्तमनवेला यां ग्रामं प्राप्ताः, तत्र तैर्मरुकारणां कोष्ठको ऽध्ययनोपरतो दृष्टः परं तदीयस्वामी त सन्निहितो न विद्यते ततस्ते साथवस्तं मरुककोष्ठकम् उच्चार प्रस्त्रवणकालभूमिकाश्च प्रत्युपेक्ष्य स्वामिनमध्यापकं समागतं याचन्ते, याचित्वा च तत्र कोष्ठके पूर्व सन्ध्यायां गृह्यमाणे सूत्रनिपातो दगुव्यः। एवं सन्ध्यालक्ष रात्रिमङ्गीकृत्योक्रम्। न केवलं सन्ध्यायां किं तु विका लेऽपि शय्यासंस्तारकस्यामीभिः कारणं कल्पते ।
दूरे व अन्नगामो, उग्घाया तेण सात्रय नई वा । दुल्लभवसहिग्गामे, रुक्खाइठियाण समुदाणं ।। ७८६ ॥ यतो प्रामात् प्रस्थिता ततो यत्र गन्तुमीप्सितं सोऽम्यप्रामाद्दूरे अथवा बढ़ाता। परिभ्रान्तास्ततो विभ्राम्यम् । ततः समायाताः स्तेनाः स्वापदभयाद्वा सार्थमन्तरेण गन्तुं न शक्यते स य साधरण लग्धः, नदी वा प्रत्युदा पतेः का रणैर्यस्मिन् ग्रामे प्रस्थितास्तमसम्प्राप्ता अपान्तरालग्रामे भिक्षावेलायां प्राप्तास्तत्र च वसतिदुर्लभा ततो मार्गयद्भिरपि ततः प्रथमलन्धा, ततो वृक्षादिम्ले बहिः स्थिताः सर्वेऽपि समुदानम्-मैक्षं हिण्डितवन्तः, तैश्च हिण्डमानैरमूषां वसतीनाम् एकतरा दृष्टा भवति ॥
कम्मारणंतदारग कलाय समभुजमाणिये दिड्डा । तेसु गए वि संते, जहि दिड्डा उभयभोमाई ॥ ७६० ॥ कर्मकरा लोहकारास्तेषां शाला कमरशाला नन्तकानि वत्राणि तानि उद्व्यूयन्ते यत्र सा नन्तकशाला, दारका बालकास्ते यत्र निवसन्तः पठन्ति सा दारकशाला लेखशालेत्यर्थः । कलादाः सुवर्णकारास्तेषां शाला कलादशाला, सभा बहुजनोपवेशनस्थानम् यद्वा-सभाशब्दः शालापर्यायः, अतः प्रत्येकमभिसम्बध्यते कम्मारसभा नन्तकसभा इत्यादि पतेषामेकतराऽपि वा भुज्यमाना दृष्टाः । ततो व्यतीतायां सतेषु लोहकारादिषु गतेषु तत्र कर्मकरशालादी प्रविशन्ति । तत्राऽपि यदि वसतः एतद् उभयभूमिके उच्चारत्रस्रवणभूमिकालक्षसे आदिशब्दात् कालभूमि यत्र दष्टा तत्र रजन्यामपि गन्तु कल्पते। तत्र च सूत्रतो निपात ए
मादिके सूत्रे भूयोऽप्यर्थतो द्वितीयपदमुच्यते । पूर्वमप्रत्युपेचितेऽपि संस्तारको बारप्रसव एभूमिषु तिष्ठन्ति ।
गाभोषण
कथमित्याह
मझे व देउलाई चाहि ठवियाण होइ अहगमणं । सावय मकोडग ते सवाल मसवऽयगरे साये ॥७६१ ॥ मध्ये व ग्रामादेर्मध्यभागे यदेवकुलम् ग्रात्-कोएकशाला वा तत्र दिवसतो विधिना स्थिताः । अथवा ग्रामादेहिदेवकुलादी सकलमपि दिवस स्थिताः, ततो लोकस्तत्र स्थितान् दृष्ट्रा ब्रूयात् ' सावय' इत्यादि अत्र देवकुलादौ रात्री स्वापदः सिंहव्याघ्रादिस्तद्भयं भवति, श्रतो नात्र भवतां वस्तुं युज्यते । तथा मर्कोटका अत्र रात्रापुत्तिष्ठन्ति, स्तेना वा द्विविधा रजन्यामभिपतन्ति, प्या लो वा सर्पः स खादति मशका या निशायामत्राभिद्रवन्ति, अजगरो वाऽत्र रात्रौ गिलति, श्वा वा सगागत्य दशति । एतेर्व्याघातकारणी रात्रावयस्यां वसतावतिगमनं प्रवेशो भवति ।
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इदमेव स्फुटतरमाह - दिवसट्टिया विरतिं, दोसे मक्कोडगाइए नाउं ।
तो वयंति अनं, वसहिं बहिया व अंतो उ ॥ ७६२ ॥ देवकुलादौ दिवसतः स्थिता अपि रात्रौ मर्कोटकादीन् दोषान् ज्ञात्वा यदि अन्तः- ग्रामाभ्यन्तरे स्थितास्ततो ग्रामातर्वर्तिनीयायां वसति प्रजन्ति तदप्रामी बाहिरिकायां गच्छन्ति दिवसतो बहिर्देवकुलादिषु स्थिताः ततस्तत्राऽ पिरात्री पूर्वोक्तान दोषान् मत्या दिवदिरिकाया वा अन्तः समागच्छन्ति ।
अधोलमेचार्थमन्याचार्यपरिपाल्पा प्रतिपादयतिपुम्बडिए व रतिं दा जसो गा मा एत्थं । निवसह इत्थं सावय-तकर माई उ अहिलिति । ७६३ ॥ देवकुलादी पूर्वस्थितान् साधून रात्री जनो भवति-या मात्र निवसत यतो रात्री स्वापहतस्करादयोऽमि लीयन्ते समागन्ति ।
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इत्थी नपुंसो वा खंधारो आागतो त्ति अइगमणं । गामाशुगामिएहिं होज विगालो इमेहिं तु । ७६४ ॥ लोको यात् अत्र देवकुलादी रात्री स्त्री या नपुंसको था समागत्योपसर्ग करोति स्कन्धावारो वा आगतः, पचमादि
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कारणैर्याद्दिरिकायाः सकाशादन्तरविगमने प्रवेश कु - प्रामाभ्यन्तराद्वा बहिर्गच्छेयुः । एवं तावद्वनिर्गतान यतनोक्ला । अथ विहरतां प्रतिपाद्यते (गामाशुगामि इत्यादि) मासकल्पविधिना प्रामानुप्रामं विहरन्ति तेषामप्येभिर्यक्ष्यमाणकारणैर्विकालो भवेत् ।
तान्येवाऽऽह
वितिगिट्ठि ते सावय, फिडिय गिलाणेव दुब्बल नई वा । पडिसीय सेह सर, तु पत्ता पदमथितिचाई ॥ ७६५ ॥ यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तस्माद्यमन्यं ग्रामं प्रस्थिताः सयतिकृष्टो दूरदेशवर्ती, स्तेना वा द्विविधाः उपधिस्तेना श्यापदा वा पथि वर्त्तन्ते तद्भयाश्चिरलम्ध सार्धेन सहागताः स्फि टिता वा सार्थात्परिभ्रष्टास्ततो यावदनुमार्गमवतीर्णास्तावद् दूरतरं समजनि। यद्वा-साधुः कोऽपि स्फिटितः स यावदन्वेषि
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राभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
रामायण तस्तावश्चिरीभूतं, ग्लानी वा साधुरधुनोत्थितः शनैः शनैः | परित्यक्ता भवन्ति, सर्पश्वापदादिभिरात्मविराधनासद्भवात् समागच्छति, दुर्बलो वा स्वभावेनेव कश्चित् सोऽपिन शीघ्र तरमाद्विधिना प्रवेशव्यम् । गन्तुं शक्नोति, नदी वा पूरार्णा यावदपरिच्यते तावत्प्रती
तमेव विधिमाहक्ष्यमाणाः स्थिता यदा नदी यावत्परिन्हियते तावद्विलम्बो बाहि काऊण मिए, गीया पविसति पुंछणे घेत्तुं । लग्नः, प्रत्यनीका पन्थाः समंततो रुद्धः नतो यावदपरेण
देउलमभपरिभुत्ते, मग्गंति सजोइए चेव ॥८००॥ मार्गेणाऽऽगम्यते तावद् दूरतरं जातं, शैक्षो वा कश्चिदुत्पन्नः
मृगान बहिः कृत्वा-स्थापयित्वा प्रोञ्छनादि दारुदण्ड स पथि प्रतीक्षितः, अथवा-तस्य दिवा बजतः सागारिकः
कानि गृहीत्वा गीतार्थाः प्रविशन्ति, प्रविश्य च देवकुलससार्थो वा शनैः शनैरागच्छति, यद्वा-तं साथै प्रतीक्षमाणानां
भादीनि परिभुञ्जमानानि सयोगेनेव ज्योतिःसहितानि मार्गविकालः सञ्जातः। पतैः कारणेः प्रथमद्वितीयपौरुष्योः श्रादि.
यन्ति । अथ पूर्व कृतं ज्योतिस्तत्र न प्राप्यते ततस्तदानग्रहणानृतीयचतुर्योरपि पौशष्योन्तु-नैव प्राप्ताः भवेयुः ।
यन्ति श्रानाययन्ति वा समुच्चारादिभूमिकाः प्रत्युपेक्ष्य अर्थादापत्रं विकाल रात्री प्राप्ताः । ततश्च तदानीं प्राप्तस्तैर्वि
मृगानानयन्ति। धिना प्रवेष्टव्यं नाऽविधिना ।
परिभुजमाण असई, सुन्नागारे वसंति सारविए। यताह
अहणुब्बासिय सकवा-ड निन्चिले निश्चले चव।।८०१॥ अाइगमणे अविहीए, चउगुरुगा फुव्ववन्निया दोसा ।
परिभुज्यमाना वसतिन लभ्यते तदा शून्यागारम्-शून्यगृह पाणाइणो विराहण, नायव्या संजमायाए ॥ ७६६ ॥
गवेषयन्ति. तयाधुनोद्वासितं साम्प्रतमेयोद्वसीभूतं सकपाट यद्यविधिना अतिगमनं प्रवेशं कुर्वन्ति ततः चत्वारो गुरुकाः
कपाटयुक्तं निर्बिलम्-सपादिबिलरहितं निश्चलं-दृढं नयन्ति पूर्ववर्णिताश्च पदकायविराधनादयो दोषा अत्रावसातव्याः,
प्रकामम् । अत्र चतुर्भिः पदैः षोडश भगा भवन्ति । एषां च आशादयश्च दोषा, विराधना च संयमात्मविषया शातव्या ।
मध्ये यः प्रथमो भक्तः तदुपेते शून्यगृहे सारविते-प्रमार्जिते यत एवमतो विधिना प्रवेष्टव्यम् ।
वसन्ति । कः पुनर्विधिरित्यत आह
अत्र सर्वेषु गीतार्थेषु विधिमाहसव्वे वा गीयत्था, मीसा वा अजयणाएँ चउगुरुगा।
जइ नाऽऽणयंति जोई,गिहिणो तो गंतु अप्पणा आणे। आणाइणो विराहण, पुच्वं पविसंति गीयत्था।।७६७॥ कालोभयसंथारग, भूमीओ पेहए तेणं ॥ ८०२॥ ते साधवो यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततः सर्व एव प्रविशन्ति,
यदि गृहिणः प्रेरिता अपि ज्योति नयन्ति तत आत्मतदा चतुर्गुरुकाः, प्राक्षादयो दोषाः, विराधना च संयमात्म
नाऽपि गत्वा पानयन्ति, ततस्तेन ज्योतिषा कालोभयसंसाविषया । का पुनर्यतना? इत्यत आह-पूर्व प्रथमं तावद् गीता
राणां भूमि प्रत्युपेक्षत, कालभूमि संस्तारकभूमि चेत्यर्थः । ः प्रविशन्ति, पश्चादगीतार्था इति संग्रहगाथासंक्षपार्थः । असई य पईवस्स, गोवालाकंबुदारदंडेणं । अथैनामेव विवृणोति
बिलपुंछणेण ढक्कण, मंतेण व जा पमायं तु ॥८०३।। जइ सव्वे गीयत्था, सव्वे पविसंति ते वसहिमेव ।। एमेव य भूमितिए, हरितादी खाणुकंटबिलमादी। विहि-अविहिए पवेसो,मीसे अविही य गुरुगा उ७ि६८।। दोसदुगवजणट्ठा, पेहिय इतरे पवेसंति ॥८०४॥ यदि ते साधवः सर्वे गीतार्थास्ततः सर्वेऽपि ते समकमेव प्र- अथ प्रदीपो न प्राप्यते यथा सर्वेषां गीतार्थानां विधिरुक्तविशन्ति, अथागीतार्थामिश्रास्ते ततो द्विधा प्रवेशो विधिना | स्तथा गीतार्थमिश्राणामप्येवमेव ज्ञातव्यः, नवरं तानगीअविधिना च । यद्यविधिना प्रविशन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः अ- तार्थान् बहिः-स्थापयित्वा गीतार्थाः प्रविश्य भूमित्रिके विधिर्नाम-यद्यगीतार्थमिश्राः सर्वेऽपि प्रविशन्ति । संक्षायककालभूमिलक्षणे रहितबीजादीन् जन्तून् स्थाणुककः पुनस्तत्र दोषो भवतीत्युच्यते
एटकविलादींश्च प्रत्यपायान् दोषद्वयवर्जनार्थम्-संयमाविप्परिणामो अप्प-च्चो य दुक्खं व चोदणा होइ ।।
त्मविराधनालक्षणदोषद्वयपरिहाराऽर्थ प्रत्युपेक्ष्य इतरान् मृ
गान् वसतिं प्रवेशयन्ति। पुरतो जयणा करणं,प्रकरणे सव्वे वि खलु चत्ता ७६६।
ठाणासती य बाहि-तेणग दोच्चा व सव्वें पविसंति । यदि मृगाणां पुरतो ज्योतिरानयनादिकं वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्ति ततस्तेषां विपरिणामो भवेत् , न वर्तते अग्निकाय
गुरुगा उ अजयणाए, विप्परिणामाइ ते चेव ।। ८.३॥ समारम्भं कर्तुमित्युपदिश्य सम्प्रति तमेव स्वयं समारभते ।
यदि बहु स्थानं नास्ति, यत्र मृगाः स्थाप्यन्ते 'तेणग दोश्चा अप्रत्ययोऽपि तेषामुपजायते; यथैतदलीकं तथा सर्वमध्यमी
वत्ति' स्तेनकभयं वा बहिर्वत्तते ततः सर्व एव प्रविशन्ति, पामेवंविधमिति, ततश्च प्रतिगमनादयो दोषाः। तथा तेषां |
प्रविष्टाश्च यदि यतनां न कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः त एव मृगाणां पश्चादग्निकायसबट्टादि कुर्वतामपरां वा सामा
विपरिणामाः-प्रत्यपायादयो दोषाः। चारी वितथामाचरतां दुःखनोदना भवति । तदा स्वयमे
अथ यतनामेव च वयं न जानीम इति प्रश्नावकाशमाशव अग्निकायसमारम्भं कृत्वा सम्प्रत्यस्मान् वारयत इत्यादिस
क्य तत्स्वरूपमाहम्मुखवल्गनतः सम्यक् शिक्षां न प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः। अथेत
अवगीयत्थविमिस्साणं,जयणे इमा तत्थ अंधकारम्मि। दोषभयादेनांज्योतिर्यतनां न कुवन्ति,ततः सर्वेऽप्याचार्यादयः | आणणयोभोगेणं, अणागयं कोइ वारेइ ।। ८०६ ॥
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(५२४) राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण अगीताथमिश्राणां तत्र वसतावन्धकारे इयं यतना-'श्रा- एवमेव यदि मृगाणां परोक्षं गृहे गत्वा गृहस्थो भणितगणणोभोगेरंग ति' तथा ते मृगा नाभोगयन्ति तथा दीपस्य स्तथापि याद ते मृगाः कथमपि जानन्ति यथा एतेन साधुना अन्यव्यपदेशेनानयन विधेयम् । अथ गृहस्थोऽन्यव्यपदेशे- गृहस्थो भणितः प्रदीपानयनाय प्रेरितः, तत्राऽप्यपरेण नोनोक्नोऽपि दीपं गृहीत्वा नागच्छति ततस्तमनागतं गृहमपि द्यमानः स तु भगति-सहसाकारेण अनाभोगतो वा मयेदगत्वा प्रज्ञापयन्ति,यथा-दीपमानय । यदि कश्चिद्वारयति तत- मुक्तं मिथ्यादुष्कृतमिति । स्तस्य शिक्षा प्रदातव्या । विशेषचूर्णी तु-श्रराणाणणे कोइ वारे शि' पाठः । अन्येन गृहस्थेनाग्नेरानयने यदि कोऽपि अगी
गिहिगम्मि अनिच्छंते, सयमेवाणेइ आवरित्ताणं ।। ताओं वारयति ततस्तस्य नोदना कर्तव्या।
जत्थ दुगाई दीवा, ततो मा पच्छकम्मं तु ॥ ८१२ ।। इदमेव भावयति
अथ गृहीं प्रदीपमानेतु नेच्छति. ततः स्वयमेव मल्लकसम्पुअम्हेहि अभणिो अ-प्पणाणु आओ णु अम्ह अट्ठाए।
टेन वा कापरेण वा कल्पे वा प्रदीपो भवति. तत्रापि यत्रआणेइ इह जोई, अयगोलं मा णिवारेह ।।८०७॥
गृहे द्विकादयो द्वित्रप्रभृतयो दीपाः , ततो गृहादानयति , यदा गृही दक्षतया स्वयमेव ज्योतिरानयति , तं च को
कुत इत्याह-'मा पच्छकम्मं तु त्ति यत्रक पव दीपो भवति, प्यगीतार्थो वारयति,तदा स वक्तव्यः, अस्माभिरभणितः स्वः |
तत्रापरप्रतापकरणलक्षणं पश्चात्कर्म मा स्यादिति कृत्या योगेन यथेष गृहस्थ श्रात्मनोऽर्थ नुरिति संशये, 'उताहो'
ततः प्रदीपो वानेतव्यः ।। अस्मदर्थ ज्योतिरानयति, ततः किमस्माकम् एतदीयया चि
ततश्चतया, अत एव तमयोगोलकल्पं मा वारयत ।
उजोषिऍ आयरिओ, किमिदं अहगम्मि जीवियट्ठी उ । गिहिणं भणंति पुरो, अइतमसमिणं न पस्सिमो किंचि। आयरिए पन्नवणा, नट्ठो य मयो य पब्बइतो ।।१३।।
आणिति जइ अवुत्ता, तहेव जयणा निवारेंते ॥१०॥ ज्योतिः प्रतिश्रये सति प्राचार्यो भणति,हन्त किमिदं भवता श्रथ ते गृहस्थाः स्वयं नानयन्ति , ततो गीतार्थी श्रन्य- कृतम् , स प्राह-क्षमाश्रमणा! अहमद्यापि जीवितार्थी, तो व्यपदेशेन तेषां गृहिणां पुरतो भणन्ति-अतितम-अती- विलादिपग्ज्ञिानार्थ मयेत्थं कृतम् , तत प्राचार्यो मातृस्थानेवान्धकारमिति न पश्यामो वयं किञ्चिदपीति । यद्येवमनुक्ताः
न तस्य प्रज्ञापनों करोति, हन्त मृत एव त्वं,कुतो भवतो जी. साक्षादभणिताः सन्तो ज्योतिरानयन्ति । ततः सुन्दरमेव ।
वितं,यत एवं कुर्वन् प्रवजितो नष्टश्च-सन्मार्गपरिभ्रष्टः, मृतयश्च तत्र निवारयति; तस्य यतनया तथैव नोदना कार्या । श्च संयमजीवितविरहितो भवति।। अथ ते गृहस्था अन्यव्यपदेशेनोफ्नं नावबुध्यन्ते
तस्सेव य मग्गेणं, वारणलक्खेण निति वसभा उ। ततः किं कर्तव्यमित्याह
भूमितियम्मि उ दिद्वे,पञ्चप्पिय मो इमा मेरा ॥१४॥ गंतूण य पनवणा, आणण तह चेव पुचभणियं तु । तस्यैव ज्योतिरानेतुः साधोर्मार्गेण पृष्ठतो वारणलक्ष्येण भणण ऑदायणा असई, पच्छायणामल्लगाईसुं15०६।।
निवारणब्याजेन वृषभा गच्छन्ति , ततो भूमित्रिके उच्चागीतार्थैर्गत्वा चशब्दाद् अगत्वाऽपि तत्र स्थितैहिणां प्र
रप्रश्रवणकालभूमिलक्षणे दृष्टे सति प्रदीपं समर्पयत, मो' ज्ञापना विधेया,यथा-न पश्यामो वयमत्र बिलादिकं स्थाणुंक
इति निपातः पादपूरणे इयं मर्यादा सामाचारी। एटकादिकं वा,अत उद्योतो यथा भवति,तथा कुरुत। एवं परि- खरंटण वण्टियभायण-गहिय निक्खिवण बाहिपडिलेहा स्फुटमभिहताः सन्तः ते प्रदीपस्यानयनं कुर्वन्ति , यद्यगीता
बसएहि गहियचित्ता, इयर पसादेंति कल्लाणं ।।८११॥ धो मिवारयति तस्य तथैव नोदनायामयोगोलं मा निवारय
येन प्रदीपानयनाय अविरतकः प्रेरितो, येन वा प्रदीप श्राइत्यादिकं पूर्वभाणतमेव द्रष्टव्यम् . ' भणण त्ति' गृहिषु प्रदीपमानयेति प्रज्ञाप्यमानेषु यो ब्रवीति, किमेवं सावद्यप्रवृ
नीतः, तस्य खरण्टना कर्त्तव्या , ततोऽसौ वेरिएटकां भाजति कारयसीति, तस्याग्ने मिथ्यादुष्कृतभणनं कर्तव्यम् 'अ
नानि च गृहीत्वा निक्खिवण त्ति' बहिः स्थाप्यते, निर्गसह ति 'अथ गृहस्थः प्रदीपमानेतुं नेच्छति , ततः 'श्रादा
कछास्माकं गच्छात्न त्वया कार्यम्। ततोऽसौ कैतवनिष्काशियणपच्छायणमल्लगाईसु त्ति ' मृगाणामदर्शने मलगादि
तो बहिःस्थितःप्रतिलेखयति.प्रतिक्रमणं च विदधाति । ततो भिः पृच्छा , अद्य प्रदीपः स्वयमेवानेतव्यः।
वृषभैहीतचित्ता इतरे मृगा गुरुं प्रसादयन्ति । ततो गुरुवअथेदमुत्तरार्द्ध विवरीषुराह
स्तं भूयोऽप्यन्योऽपि पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति । गिहिजोति मग्गंतो, मिगपुरो भणइ चोइरो इणमो ।
अथ कथं वृषभा मृगाणां चित्तग्रहणं कुर्वन्तीत्याहणाभोगेण मउत्तं-मिच्छाकारं भणामि अहं ॥ ८१० ॥
तुम्हय अम्हय अट्ठा, एवमकासी न केवलं सभया । गुहिणां समीपे ज्योतिः-प्रदीपं मृगपुरतो मृगाणां शृण्वता
खामेसु गुरुं पविसउ, बहुसुंदरकारओ अम्हं ।।१६।। मने यदि केनचिन्नोदितः किमेवं सावधं कारयसीति? ततो.
आर्याः ! युप्माकमस्माकं च सादिप्रत्यपायरक्षणार्थमेष ऽसौ गीतार्थः 'इत्थं भणति'-अनाभोगेन मयेदमुक्तं ततोऽहं
एवमकार्षीत् , न केवलं स्वभयादेव । अत आगच्छत , येन मिथ्याकारं भणति , मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छामीत्यर्थः ।
सर्वेऽपि गुरुं क्षमाश्रमणक्षमयामः,प्रविशतु यहुसुन्दरकारक
प्रत्यपायरक्षकतया बहुकल्याणकरोऽस्माकं भूयः प्रतिश्रयम् । एमेव जइ परोक्खं,जाणंति मिगा जहेमिणा भणियो । |
एवमुक्ता मृगा वृषभैः सह समागत्य गुरुं प्रसादयन्ति । ततो वत्थ वि चोइजंतो, सहसा णाभोगभो भणइ ॥८११॥ गुरवः यक्ष्यमाण शुवते-पार्याः यूयमपि निर्धर्माणः सञ्जाताः ।
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण यतः
गिरिनइतलागमाई, एमेवागम ठयंति विआई। अन्ने वि विद्दवेहि य, अलमजो अहब तुम्भ मरिसेमि ।। ___एगइगे तिदिसि वा, ठयंति असई असव्वत्तो ॥२२॥ तेसि पि होइ बलियं, अकजमेयं न य तुदंति ॥ ८१७॥ | गिर्दिवा नहीं
८रणा | गिरिं वा नदी वा तडाग वा श्रादिग्रहणाद् दिकं च निमांएष एवं कुर्वन्नन्यानपि साधून विद्रावयिष्यात-विनाशयि
कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां च यत्रैक एव प्रवेशस्तत्र प्रथमतस्तिष्ठष्यति। अत आर्याः अल-पर्याप्तमस्माकमेतेन । साधवो ब्रुवते
न्ति, तदभावे यत्र द्वयोर्दिशोः प्रवेशस्तत्र तदप्राप्तौ यत्र त्रिषु क्षमाश्रमणाः!न भूय एवं करिष्यति । एकवारमपराध क्षमयन्तु | दिक्षु प्रवेशस्तत्रापि तिष्ठन्ति । तेषां चागमं प्रवेशमुखे च भगवन्तः। गुरवो भणम्ति-यद्येवं ततोऽहं युष्माकं न मर्षयामि, विद्यादिभिः स्थगयन्ति 'असई असम्बत्तो त्ति' प्राकारादिपरमेतस्य पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तं दीयते । एवमुक्ने तेषा
निधाया एकप्रदेशादीनां वा अप्राप्तावाकाशे बसन्तः सर्वतो मप्यगीतार्थानां वलिकमत्यर्थ हृदये भवति । यथा-नूनमका विद्याप्रयोगेण स्थगयन्ति-दिशाबन्धं कुर्वन्ति । विद्याया यमेतदिति, न च पश्चाज्ज्योतिःस्पर्शनादी नोद्यमानास्तुद- अभावे कण्टिकाभिः सर्वतो कुर्वन्ति , तदभावे गुरवः प्राक्षान्ति, प्रतिनोदनया अन्यथा-उत्पादन्तीत्यर्थः ।।
प्ररूपणं कुर्वन्ति। एसो विहीउ अंतो, बाहिं रुद्धे इमो विही होइ ।
केन विधिनेति चेदुच्यतेसाबय तेणय पडिणी-य देवयाए विही ठाणं ॥१८॥ नाउमगीयत्थ बलि-ण ताव तेसि च बलसारं। एप विधिरन्तस्तिष्ठतामभ्यन्तरे प्रविष्टानामुक्तः। अथ बहि
घोरे भयम्मि थेरा-भणंति अविगीयथेअत्थं ॥ ८२३ ॥ स्तिष्ठतां विधिरुच्यते । निरुद्धे-स्थगितेद्वारे ग्रामादौ विकाले वा तत्रापूर्वः प्रवेशे न लभते इत्यादिकारणसम्भव बहिःस्थि
ज्ञात्वा कमप्यगीतार्थे बलिनम्-समर्थम् , यद्धा-अविजातानां यदि श्वापदभयं स्तेनकभयं वा भवति, तदा वक्ष्यमाणा नन्तस्तेषां स्वसाधूनां पराक्रममाहात्म्यं कस्य कीरशः यतना कर्तव्या। यावद्देवताया श्राकम्पनार्थ विधिना स्थान पराक्रमो विद्यते इत्येघमजानन्त इत्यर्थः । घोरे रौद्रे स्वाकायोत्सर्गलक्षणं क्षपणकेण कर्तव्यमिति ।
पदादिभये स्थविरा प्राचार्या अविगीतस्थैर्य स्थिरीकर__ यतनामेवाऽऽह
णार्थ भणन्ति ॥ भूमिघरदेउले वा, सहिया वरणे व रहिय आवरणे ।
कथमित्याह ?रहिए विज्जा अच्चित-मीसं सच्चित्त गुरुआणा ॥८१६।।
आयरिए गच्छम्मि य, कुलगणसंघे य चेश्यविणासे । यहिस्तिष्ठतां यदि श्वापदादिभयं, तथा भूमिगृहे देवकुले आलोइयपडिकंतो, सुद्धो जं निजरा विउला ॥८२४॥ वा आवरणं-कपाटं तेन सहिते तिष्ठन्ति । गाथायां प्राकृतत्वात् पष्टीसप्तम्योरथ प्रति अभेदः । प्राचार्यस्य वा गच्छस्य वा व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः । श्रथ सकपाटं न प्राप्यते, तत
कुलस्य वा गणस्य वा चैत्यस्य वा विमाशे उपस्थिते आवरणरहितेऽपि तिष्ठन्ति,दिशां वा विद्याप्रयोगेण बन्धं वि
सति सहस्रयोधिप्रभृतिना स्ववीर्यमहापयता तथापरादधति,यतः श्वापदादयो न प्रविशन्ति,विद्याया अभावेऽचित्त
क्रमणीयं यथा, तेषामाचार्यादीनां विनाशो नोपजायेत । कण्टिकाभिस्तदप्राप्ती मिश्रकण्टिकाभिस्तदलाभे सचित्तकण्टिकाभिरपि स्थगयन्ति । तदभावे 'गुरुश्राण' त्ति गुरवो
स च तथा पराक्रममाणो यद्यपराधमापनस्तथाऽप्यालो
चितप्रतिक्रान्तः शुद्धः , गुरुसमक्षमालोच्य मिथ्यादुष्कभागवतीमाशांप्ररूपयन्ति । यथा-प्राचार्यादीनां मारणान्तिक
तप्रदानमात्रेणेवाऽसौ शुद्ध इति भावः। कुत इत्याहउपसर्गे उपस्थिते यः समर्थो भवति, तेन यथासामर्थ्य
यद्यस्मात् कारणात् विपुला महती निर्जरा कर्मक्षयलक्षया तनिवारणे पराक्रमणीयमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ।
तस्य भवति, पुशलम्बनमवलम्ब्य भगवदासया प्रवर्त्तमाअथैनामेव विवरीषुराह
नत्वादिति। सकवाडम्मि उ पुचि, तस्सासइ आणइति उ कवाडं।
सोऊण य पन्नवणं, कयकरणस्सा गयाइणो गहणं । विजाएँ कंटियाहि व,अचित्तचित्ताहि ठगयति ॥२०॥
सीहाई चेव तिगं, तवबलिपदे ववट्ठाणं ॥ २५ ॥ पूर्व सकपाटे भूमिगृहे देवकुले वा स्थातव्यम्, तस्याऽसति
एवंविधां प्रशापनां श्रुत्वा यः कृतकरणसहस्त्रयोधिप्रभृअकपाटे तिष्ठन्तः कपाटमन्यत पानयन्ति । अथ नास्ति कपाटं, ततो विद्यया द्वारं स्थगयन्ति, तदभावे कण्टिकाभिः
तिकस्तस्य गदाया श्रादिशब्दालगुडस्य वा प्रहणं भवति, प्रथममचित्ताभिस्ततो मिश्राभिस्ततः सचित्ताभिरपि
गृहीत्वा गदादिकमसौ गुरुन् ब्रवीति; भगवन् ! शेरत विस्थगयन्ति।
श्वस्ताः सर्वेऽपि साधवः, अहं सिंहाऽऽदीनां निवारण करि
च्यामि । ततः सुप्ता साधवः, स पुनरेकाकी गदाहस्तः प्रएएसिं असईए, पामारवई व रुक्खनीसाए ।
तिजाग्रदवतिष्ठते । तस्य च प्रतिजाप्रतः सिंहत्रिकं समागपरिखेव विज अञ्चित्त-मीससच्चित्तगुरुवाणा ॥८२१॥ च्छत् आदिशब्दाव्याघ्रादिपरिग्रहः । (वृ०) (अस्मिन् एतेषां भूमिगृहादीनामसति प्राकारं वाऽऽवृत्तिं वा वृक्ष वा विषये 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्यानिधये निश्रां कृत्वा तिष्ठन्ति । तत्राऽपि विद्यया परिक्षेपं कु. घ्रष्टान्तो गतः) ईशस्य कृतकरणस्याभावे यस्तपोववन्ति। तदभावे कण्टिकाभिर्यथाक्रममचित्तमिश्रसचित्ताभिः लिको विकृष्टतपसा बलीयान् क्षपकः स देवताया आकम्पनपरिक्षिपन्ति, गुरवश्वासाप्ररूपणां कुर्वन्ति ।
निमित्तं स्थानं कायोत्सर्ग करोति एतवतो भावयिष्यते। १३२
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रामायण . अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण अथ तेन कृतकरणेन साधुना प्राभातिकप्रतिक्रमणवेलायां ___स पुनरध्वकल्पः कीदृशो ग्रहीतव्यः ? इत्युच्यतेपथा गुरुसमक्षमालोचितं तथा प्रतिपादयति
सक्करघत-गुलमीसा, अगंथिमा खज्जुरा व तम्मासा । हिंछिम्मि पुरा सीह, खुडयाइ इयाणि मंदथामो मि ।
सत्तू पिल्लागो वा, घतगुलमिस्सं खरेणं वा ।।१४७ ।। तिभावाए सीहो, रत्तिं पहनो मया न मो॥२६॥ शर्करया घृतेन च मिश्राणि अग्रन्थिमानि कदलीफलानि शमाश्रमण ! पुरा-पूर्वमहं प्रबलशरीरतया खुडकामात्रणव खण्डाखण्डीकृतानि गृह्यन्ते । अथ शर्करया न प्राप्यन्ते ततो सिंह हन्ताऽस्मि, इदानी मन्दस्थामाऽस्मि । ततः 'तिनावाए' गुडेन घृतेन च मिश्रितानि, एषामभावे खजूराणि घृतगुडसि विभक्तिव्यत्ययात्रिष्वापातेषु गदाघातेन सिंहो रात्री मिश्राणि , तदप्राप्तौ सक्नुकान् घृतगुडमिश्रान् , तदलामे पिमया प्रहतः परं न मृतोऽपद्राणः, एवमालोच्य मिथ्या दुष्क- ण्याकोऽपि । घृतं न प्राप्यते ततः खरसंशकेन तैलेन हे दत्तवान् । एतावतैव चासौ शुद्धोऽदुष्टपरिणामत्वात् । । मिश्रितः पिण्याकः। नितेहि तिमि सीहा, आसन्ने नाइदूर दूरे य ।
एतेषां ग्रहणे गुणमुपदर्शयतिनिग्गयजीवा दिट्ठा, स चावि पुट्ठो इमं भणई ॥२७॥
थोवा वि हणंति खुहं, न य तरह करेंति एते खजंता । प्रभाते निर्गतैः–पन्धानं गच्छद्भिस्त्रयः सिंहा निर्गतजीवा
सुक्खोदण व लंभे, समितिम-दंतिकचुमं वा ॥४८॥ दृष्टाः । तत्रैक आसन्ने, द्वितीयो नातिदूर, तृतीयो दूरे । स |
एतानि अग्रन्थिमादीनि खाद्यमानानि स्तोकान्यपि क्षुधं पाऽऽचार्यैः पृष्टः। आर्य! किमेवं सिंहत्रय विपन्नमवलोक्यते।
प्रन्ति, न चैतानि भुक्तानि सन्ति तृष्णां कुर्वन्ति,अत ईदृशोततः इदं भणति
ऽध्वकल्पो गृह्यते । ईदृशस्यालाभे शुष्कौदनः-शुष्ककूरः, तदमा मरिहिति तो गादं, न आहओ तेण पढमश्रो दरे ।
लाभे समितिमाः-शुष्कमण्डकाः, तदप्राप्तौ दन्तिकचूर्णम्
तन्दुललोट्टः । यद्वा-दन्तिकम्-तन्दुलचूर्णः, चूर्णम् तुगाढतरं बितितईओ, न य मे नायं जहऽप्लो मो।।८२८॥
मोदकादिखाद्यकचूरिः । एतत्सर्वमपि घृतगुडेन मिश्रयित्वा भगवन् ! यदा प्रथमः सिंह पायातस्तदा मा मरिष्यतीति
स्थापनीयम्। यदि शुद्ध भक्तं लभन्ते ततो नाध्वकल्पं भुञ्जते । कृत्वा गाद नाहतः तेनासो दूरे गत्वा विपन्नः, द्वितीयस्तु स
यावन्मात्रेण वा न्यून शुद्धं लभन्ते तायन्मात्रमध्वकल्पात्परिरवायं भूयोऽप्यायात इति बुद्धया गाढतरमाहतः तनासौ।
भुञ्जते । अनुपस्थापितेभ्यो वा प्रयच्छन्ति । नासन्ने नातिदूरे, तृतीयस्तु द्वितीयादपि गाढतरमाहतस्तेना
तिविहाऽऽमयभेसञ्जा, वणभेसज्जा य सप्पि महु पट्टे । सौ, इत्यासन्न एव भूभागे गत्वा मृतः। न च मया मातं थाऽयमन्यान्यसिंहः समागतो न स एवेति ।
सुद्धासतितिपरिरए, जा कम्मं णाउमद्धाणं ॥१४६।। ईदृशस्य कृतकरणस्य भावे देवतायाः कायोत्सर्गः कर्तव्यः ।
विविधाः-त्रिप्रकारावातजपित्तजश्लेष्मजभेदाद ये श्रामया
रोगास्तेषां यानि भेषजानि भैषज्यानि, यानि च व्रणस्य भैसच केन कियद्वा कालं यावदित्यत्रोच्यते
षज्यानि समिधुमिश्राणि वा व्रणेषु दत्त्वा पट्टैध्यन्ते तानि खममो व देवयाए, उस्सग्गं करेइ जाव आउट्टा ।। गृहन्ति, सर्वमप्येतदध्वकल्पादिकं प्रथमतः शुद्धं, तदभावे रक्खामि जा पभातं, सुवंतु जइणो सुवीसत्था ।।८२६।। अशुद्धमपि त्रिपरिरयं यतनया पश्चकपरिहाण्या ग्रहीतव्यम् , क्षपको वा देवताया आकम्पननिमित्तं कायोत्सर्ग करोति, यावदाधाकर्मेति । प्रमाणतः पुनरध्वानं स्तोक वा बहुं वा यावदसावावृत्ता श्राराधिता सती ब्रूते-भगवन् ! पारय ज्ञात्वा तदनुसारेणाध्वकल्पोऽपि प्रहीतव्यः। कायोत्सर्ग; यावत् प्रभातं तावदहं श्वापदाद्युपसर्ग रक्षामि । एवं यदा सर्वमप्युत्पादितं भवति तदा किं विधेयमित्याहखपन्तु यतयः सुविश्वस्ता इति । बृ०१ उ० ३ प्रक० । अद्धाण पविसमाणो, जाणगनीसाएँ गाहए गच्छं । (रात्री वस्त्रादिधारणनिषेधः ‘उवहि ' शब्दे द्वितीयभागे
अह तत्थ न गाहिज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ।।९५०॥ १०७२ पृष्ठे गतः) (विहारविषयः 'विहार' शब्दे वक्ष्यते)
अध्वानं प्रविशन् सूरिः प्रथमत एष यस्य गीतार्थस्य यादृश आहारो रात्रौ रक्षितुं शक्यते-तद् भैक्ष्यद्वारेऽभिहि
निश्चयान्तं पुरस्कृत्य गच्छमध्वकल्पं प्राहयति, अथ तनातम् , नवरं केवलमिह कल्पे अध्वकल्पविषयं तदेवाऽऽह- ध्वप्रवेशे गच्छं न ग्राहयति ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः। अग्गहणे कप्पस्स उ,गुरुगा दुविधा विराधना णियमा। अतो गीतार्थ पुरस्कृत्य गीतार्थत्ययनिमित्तमन्तराऽन्तरा पुरिसट्ठाणं सत्थं,णाउं ता वीण गिएिहजा ॥ ६४६ ॥ कानिचिदर्थपदानि परित्यजन् सूरिर्गच्छमध्वकल्पं प्राहयेत् । छिन्ने च पथि यद्यध्वकल्पं न गृह्णन्ति तदा चतुर्गुरवः, द्वि
एवंविधन विधिना निर्गतानामयं विधिः । विधा चात्मसंयमे विराधना । भक्कालाभे तुधार्तस्य परिता
__सभए सरभेदादी, लिंगविप्रोगं च काउ गीयत्था । पनादिना प्रात्मविराधना, संयमविराधना तु क्षधातः सन्नध्व- खरकम्मिया व होउं,करेंति गुत्तिं उभयवग्गे ॥५१॥ कल्पं विना कन्दादिग्रहणं कुर्यात्: अतो ग्रहीतव्योऽध्वकल्पः । ___ यत्र सभयं तत्र वृषभाः स्वरभेदवर्णभेदकारिणीभिर्गुलिकापभिः कारणैर्न गृह्णीयादपि,यदि पुरुषाः सर्वेऽपि संहननधृति | भिस्तादृशं स्वरं वर्ण च कृत्वा गच्छन्ति, अथवा-यथैते संयबलवन्तः, अध्वाऽप्येकदैवसिको वा,सार्थेऽपि प्रभूतभैक्षमवा- ता इति न झायन्ते तथा लिवियोगं कृत्वा गीतार्था गच्छप्यते, तदपि धवलाभम् , सार्थश्च भद्रकः कालभोजी काल- | न्ति । खरकर्मिका वा सन्नद्धपरिकरा यथा सभये गृहीतायुधा स्थायीच। एवमादीनि कारणानि शात्वा छिन्नपथे न गृह्णीयात्। भूत्वा उभयवर्गे साधुसाध्वीरक्षणे गुप्ति-रक्षां कुर्वन्ति ।
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(५२७) राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण किञ्च
नियशांति कृत्वा कालिकाया तिष्ठन्तश्चुडलिकया संस्तारिकजे पुन्छ उवकरणा, गहिया अद्धाणे पविसमाणेहिं । भूम्यादिषु बिलादिकं गवेषयन्ति, नवमादिषु षोडशान्तेष्वष्टसु जं जं जोग्ग जत्थ तु, अद्धाणे तस्स परिभोगो।।९५२।।
भङ्गेषु अकालोत्थायीति कृत्वा रात्रौ गन्तव्ये उपस्थिते मार्गतः यानि पूर्व धर्मकरणादीन्युपकरणानि श्रध्वानं प्रविशद्भिर्मू
पृष्टतः स्थिता गच्छन्ति । क सतीत्याह-अभये यदि पृष्ठहीतानि तेषां मध्ये यद्यस्मिन् काले योग्य तस्य तदाऽध्वनि
तो गच्छुतां स्तेनादिभयं न भवेत, भक्तार्थ न तु । यः सार्थोंपरिभोगः कर्नव्यः ।
ऽकालस्थायी तत्र निर्भये पुरतो गत्वा तथा समुद्दिशन्ति सुक्खोदणो समितिवा, भुंजसुणादेहि उपहविय मुंजे ।
यथा समुद्दिष्टे सार्थस्तत्र प्राप्नोति, वसतिं च मध्ये गृह्णाति । गृलुत्तरे विभासा, जतिऊणं गिग्गते विवेगो।९५३॥
सावय अप्पटुकडे, अट्ठा सुक्खे सय जोइजयणाए । इह लाटदेशे अवश्रावणं काञ्जिकं भरायन्ते, यदाह चूर्णि- | तेण वयणवडगरं, तत्तो व अवाउडा होति ।। ६५७ कृत्-"अवसावणं लाडाणं कजिनं भराणइ त्ति," ततो| श्वापदभयेऽन्यैः साथिकैरान्मार्थ यो वृत्ति परिक्षेपः कृतस्तत्र उवधावणेनोप्णोदकेन वा शुष्कौदनं शुष्कं समितिमांश्चोष्ण- तिष्ठन्ति, तदभावे ' अट्ट' त्ति साधूनामर्थाय कृते वृत्तियित्वा मुहुः भोजनार्थमुष्णीकृतं भुञ्जीत ' जइऊणं निग्गए-1 परिक्षेपे तिष्ठन्ति, तदभावे 'सुक्खे सय 'त्ति शुष्ककण्टिविवेगो त्ति' एवमादिकया यतनया यतित्वा यदा श्रध्वनो कादिभिः स्वयमेव वृत्तिपरिक्षेपं कुर्वन्ति 'जोइजयणाए 'त्ति निर्गतास्तदा तमध्वकल्पमभुक्तं भुक्नोद्वरितं वा विविचन्ति
यदि श्वापदभये ज्योतिषा अग्निना कार्य ततः परकृतमग्निं परिष्ठापयन्तीत्यर्थः। मूलुत्तरे विभास त्तिमूलोत्तरगुणविषया सेवन्ते । श्रथ चैते सेवितं न प्रयच्छन्ति ततः परकृतमेवाग्नि विभाषा कर्तव्या। तद्यथा-शिष्यः पृच्छति, यः अध्वकल्प गृहित्वा प्राशुकदारुभिः प्रज्वलयन्ति, यत्र तु स्तेनभयं तत्र आधाकम्मिकः परिवासितश्च स तावदाधाकर्मिकत्वेनोत्त
तथा वचनवटकरं वागाडम्बरं कुर्वन्ति यथा ते स्तेना भयादेव रगुणोपधाती,परिवासितत्वे तु मूलगुणोपघाती,ततः किमेष
शीघ्र नश्यन्ति । अथ यदि ते स्तेनाः समागच्छन्ति तदा तदभुज्यताम् ? उत प्रतिदिवसं लभ्यमानामाधाकर्म?,अत्रोच्यते
भिमुखीभूय प्रवृत्ता भवन्ति । एवविधं विधि कुर्वाणा अध्वानो अकल्प्यो भुज्यतां नाऽऽधाकर्म।
निस्तन्ति । श्रथायं व्याघातो भवेत्। ननु दोषद्वयदुष्टोऽसौ ? त्रिराह
सावयतेणपरद्धे, सत्थे फिडिया न उ जति हवेजा। कामं कम्मो तु सो कप्पो, णिसिं च परिवासितो।
अंतिमवइगा विटिय,णियट्टण य गोउलं कहणा ॥१५॥ तहा वि खलु से सेयो, ण य कम्मं दिणे दिणे ॥५४॥ महाटव्यां सिंहादिभिः श्वापदः स्तेनैर्वा साथः प्रारब्धः सन् कामम्-श्रनुमतं यदसावध्वकल्पकं तावदाधाकर्म, अपरं दिशो दिशि प्रनष्टः, साधवोऽप्येकां दिशं गृहीत्वा विप्रनष्टाः, च निशि रावौ परिवासितः तथापि खलु निश्चितं स एवा- ते च सार्था न स्फेटिता यदि भवेयुः,ततो दिग्भागमजानन्तो ध्वकल्पः श्रेयान , न त्वाध्याकर्म दिने दिने लभ्यमानं वरम् ।
वनदेवतायाः कायोत्सर्ग कुर्वन्ति । सा च वजिकां विकुर्वती कुत इति चेदुच्यते
अन्तिमायां च प्रजिकायामुपकरणं विण्टिको विस्मारयति प्राधाकम्मा सतिं घातो, सई पुब्ब हते ति य । तस्या ग्रहणार्थ साधयो निवर्त्य यावत् तत्रागताः तावद्रोये उ ते कम्म मिच्छंति,णिग्घिणा ते ण मे मता ।।५।। कुलं न पश्यन्ति, ततो गुरूणां समीपे कथनं यथा नास्ति सा यदाधाकर्म दिने दिने लभ्यते तत्र असकृदनेकवारं जीवोप
वजिकेति। घातः, अध्वकल्पे तु यदाधाकर्म तत्र सकदेकमेव वारं जीवो
... इदमेव स्पष्टयतिपघातः । पूर्वहताश्च ते जीवाः न दिने दिने हन्यन्ते। ततोऽध्व- - अद्धाणम्मि महंते, वटुंतो अंतरा तु अडवीए । कल्प एव बरं नाऽऽधाकर्म । ये पुनः अविदितप्रवचनरहस्या
___ सत्थे तेण परद्धे, जो जत्तो सो ततो नट्ठो।। ६५६ ।। श्रध्वकल्पं मूलोत्तरगुणोपघातिनं मत्वा न भुञ्जतेः प्राधाकर्म तु केवलोत्तरगुणोपघातकमिति मत्वा दिने दिने भोक्र
संजयजणो य सव्वो, हंचि सथिल्लयं अलभमाणो । मिच्छान्त,ते अत्यन्तनिघृणाः सत्त्वेषु । अत एव न ते मम सं
पंथं अजाणमाणो, पविसेज महाडविं भीमं ।। ६६०॥ मता इति ।
अध्वनि महति वर्तमानः सार्थः सर्वोऽप्यन्तरा महाटव्यां भैक्षद्वारे एव विशेषं दर्शयति
स्तेनेः प्रारब्धः, ततश्च यो यत्र वर्तते स च तत एव नष्ट:कालुट्ठाईमादिसु, भंगेसु जतंति वियभंगादी।
पलायितः संयतजनश्च सर्वः कथंचिदपि सार्थिकमलभमानः लिंगविवेगो काउं, चुडलीए मग्गतो भसए ॥ ६५६ ।।
पन्थानं वा अजानन् भीमा महाटवीं प्रविशत् ।
ततः किं कर्तव्यमित्याहकालोत्थायिप्रभृतिषु भङ्गेषु संभवति तत्र द्वितीयभङ्गमादौ कृत्वा यतन्ते, तथाहि-कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्था
सम्वत्थामेण ततो, वि सव्वकज्जुज्जुया पुरिससीहा । यी कालभोजी इत्यत्र प्रथमभङ्गे नास्ति यतना सर्वथाऽपि शु- वसभा गणीपुरोगा, गच्छं धारिंति जतणाए ॥१६॥ इत्वात् । द्वितीयादिषु संभवति तत्र-द्वितीयभङ्गे अकालभो. ततः सर्वस्थाना-सर्वादरेण वृषभाः-सर्वकार्योद्यताः सकजीति कृत्वा-स्वलिङ्गविवेकं विधाय रात्रौ परलिङ्गेन गृह्णन्ति । लगच्छकार्यकबद्धकक्षाः पुरुषसिंहाः सातिशयपराक्रमतया तृतीयचतुर्थभङ्गयोरस्थानस्थायीति कृत्वा यद् गवादिभिरा- पुरुषाणां मध्ये सिंहकल्पाः गणिपुरोगाः आचार्यपुरस्सरा कान्तं स्थानं तब तिपन्ति । पश्चिमादिषु चतुर्यु भोषु अकाल- ईदृश्यां विषमदशायां प्रपतन्तं गच्छं यतनया धारयन्ति ।
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राइभोयण
(१३ ) अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण तामेवाह
एतान् तथा भावयत यथा खादन्ति ततस्ते सार्थिका रज्जुजइ तत्थ दिसामुढो, हवेज गच्छो सबालवुडो उ। | वलनं कुर्वन्ति,ततो गीतार्थाः कृतसङ्केताः पृच्छन्ति । कथयत वणदेवयाए ताहे, णियमपगंपं तह करेंति ॥ ६६२॥ ।
किमेताभी रज्जुभिः प्रयोजनम् ? सार्थिका भणन्ति-वयमेयदि तबाटव्यां सबालवृद्धोऽपि गच्छो दिग्मूढो भवेत् त-|
कनावारूढा अतो योऽस्माकं कन्दादीनि न भक्षयति तं वयतो नियमेन-निश्चयेन प्रकम्पो-देवताया आकम्पो यस्मादिति
मताभिर्विहायसि लम्बयामः, इतरथा तस्य बुभुक्षात्तस्य पु. नियमप्रकम्पः-कायोत्सर्गस्तं वनदेवताया श्राकम्पनार्थ तथा
रतः खादितुं दुष्करं न वयं भक्षयितुं शक्नुम इति भावः । कुर्वन्ति यथा सा आकम्पिता सती दिग्भागं पन्थानं वा इहरा वि मरति एसो, अम्हे खायामो सो विउ भएणं । कथयति।
कंदादि कञ्जगहणे, इमा तु जतणा तहिं होति । ६६८।। यतः
कन्दादीन्यभक्षयनितरथाऽप्यस्यामटव्यामवश्यमेव म्रियते सम्मद्दिठी देवा, वेयावच्चं करेंति साहूणं ।
अतो विहायसि लम्बनेन तं मारयित्वा सुखेनैव वयं भक्षयागोकुलविउवणाए, आसासपरंपरा सुद्धा ॥ ६६३ ॥ मः, इत्युक्तो सोऽप्यपरिणतो भयेन कन्दादिभक्षणं करोति । ये सम्यग्दृष्टयो देवास्ते साधूनां वैयावृत्त्यं भक्तपानोपदा- एवमादिषु कार्येषु कन्दादिग्रहणे प्राप्ता इयं यतना भवति । नादिना दिव्यापदायुद्धरणात्मकं कुर्वन्तीति स्थितिः। ततः
- तामेवाऽऽहसम्यग्दृष्टिदेवता काचिद् गोकुलं विकुर्वती साधूनां तद्दर्श- फासुगजोणिपरित्ते, एगट्ठियवद्धभिन्नभि श्र। मेनाश्वासः, ततस्तया देवतया साधवो गोकुलपरंपरया
बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होइ बहुचीए ।। ६६६ ।। तावनीता यावजनपद प्राप्ताः । तया एवं नीता अपि शुद्धा
एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए । निर्दोषाः। अमुमेवार्थ सविशेषमाह
साहारणस्स भावा, आईए बहुगुणं जं च ॥ ६७०॥ सावयतणपरद्धे, सत्थे फिडिया न उ जइ हवेज्जा।
द्वेअपि व्याख्यातार्थे।
पानकयतनामाहअंतिमवडगा विटिय,णियट्टण य गोउलं कहणा।।६६४॥ श्वापदैः स्तनैश्च प्रारब्धा इतस्ततो गतास्ते च सार्था न
तुबरे फले य पत्ते, रुक्खसिला तुप्पमद्दणादीसुं। स्फिटिता यदि भवेयुः ततः कायोत्सर्गेण देवतामाकम्पयेत् , पासंदणे पवाते, आतवतत्ते वहे अवहे ।। ७७१ ।।
आकम्पिता च काचित्पन्थानं कथयत् बजिकाः परंपरया एषाऽपि गतार्था । गता अशिविषया यतना। विकुळ जनपदं प्रापयेत् , अन्तिमायां च वजिकायाम् उप
अथावमौदर्यविषयां यतनामाहकरणविण्टिकाम् उपधि विस्मारयेत् , तदर्थे साधवो निवर्त्य ओमे एसणसोहिं, पजहति परितावितो दुगुलाए । यावत्तत्रागतास्तवादोकुलं न पश्यन्ति । ततो गुरूणां समीपे अलभंते विय मरणं, असमाही तित्थवोच्छेदो ॥१७२।। कथनं , यथा नास्ति सा जिकेति । गुरुभिश्व शातं तथैव
अवमौदारिकं विज्ञाय अनागतमेव द्वादशभिर्वनिर्गच्छन्ति सर्व देवताकृतमिति ।।
ततश्च गुर्वाज्ञादयो दोषाः । तत्र च तिष्ठन् जुगुप्सया सुधा भंडी वहिलगभरवा-हिंगेसु एसा तु वलिया जतणा । परितापितः सन्चेषणाशुद्धिं प्रजहाति । अथवा-भक्तपानम
ओदरिय विवित्तेसु य, जयण इमा तत्थ णायवा॥६६॥ लभमानो मरणं प्राप्नोति, एवं चान्यान्यसाधुषु म्रियमाणेषु भण्डीवहिलकभारवाहिकेषु-सार्थेष्वेषा अनन्तरोक्का यतना तीर्थस्य व्यवच्छेदो भवति। वर्णिता । अथौदरिकेषु विविक्तेषु च कापीटकेषु इयं यतना
यत एवमत:ज्ञातव्या।
प्रोमोदरियागमणे, मग्गे असती य पंथजयणाए । तामेवाऽऽह
परिपुच्छिऊण गमणं, चउन्विहं रायदुटुं च ॥६७३ ॥ ओदरियपच्छणासइ, पच्छयणं तेसि कंदमूलफला।
अवमौदरिकायां गमने प्राप्ते पूर्व मार्गेण गन्तव्यम् , मार्गअग्गहणम्मि य रज्जु,वलेंति गहणं च जयणाए।।६६६।। स्याभावे पथाऽपि किं छिनः प्रच्छिन्नो वाऽयं पन्था इति पआगाढे राजद्विष्टादिकार्ये औदरिकादिभिरपि सह गम्य-1 रिपृच्छय यतनया अशिवद्वारोक्लया गमनं विधेयम् । अथ माने पथ्योदनस्य शम्बलस्याभावे यदि तेषामौदारिकादीनां राजद्विष्टद्वारं तश्च निर्विषयाादमिर्वक्ष्यमाणभेदैश्चतुर्विधम् । कन्दमूलफलाचाहारो भवेत् , ततः साधूनामपि तमेवाहारं तत्र स राजा कथं प्रद्वेषमापन इत्याशङ्कावकाशमवलोस्वयं प्रयच्छन्ति, ये च तत्रापरिणतास्ते कन्दादि न गृह्णन्ति ।
क्येदमाहअग्रहणे च ते सार्थिका अपरिणतानां भीषणार्थ रज्जु बलय- ओरोहधरिसणाए, अब्भरहितसेहदिक्खणाए वा । न्ति । ततो यतनया ग्रहणं कुर्वन्ति।
अहिमरअणिद्वदरिसण, बुग्गाहणया अणायारे ॥१४॥ इदमेध स्पश्यति
अवरोधः अन्तःपुरं तस्य लिङ्गस्थेन केनाप्याघर्षणा कृता,राकंदाइ अझुंजते, अपरिणए सत्थिगाण कहयंति ।
शोधा अभ्यर्हितो गौरविको राजामात्यादिपुत्रः शैक्षो दीक्षितो पुच्छा वेहासे पुण, दक्खिहरा खाइउं पुरतो ॥ ६६७॥ भवेत, साधुवेषेण वा केचिदभिमरा प्रविष्टा,अनि; वा साधुझापरिणते कन्दादिकमभुजाने वृषभाःसार्थिकानां कथयन्ति । दर्शनं स्वयमेव पुरोहितप्रभृतिभिर्वा न्युग्राहितो मन्यते, सं.
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(५२६). राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण यतो वा कयाचिदविरतिकया सममनाचारं प्रतिसेव- शब्दादुद्गमोत्पादनयोश्च यतितव्यम् । भक्कार्थन्तु द्वयो रामानो दृष्टः । एवमादिभिः कारणैः प्रद्विष्ट इत्थं चतुर्विधं दण्डं | धगमनयोर्मण्डल्यादिविधिनैव कुर्वन्ति । तृतीये तु गमने राप्रयुञ्जीत ।
जपुरुषसमीपे भुञ्जानानांन मण्डल्यादिनियमः । स्थरिजलसानिविसउ ति य पढमो, बितिम्रोमा देह भत्तपाणं से ।। माचारी तु त्रिष्वपि न हापयन्ति, राजपुरुषसमीपे स्थिता वा ततितो उवकरणहरो, जीयचरित्तस्स वा भेदो ॥१७॥
कुरुकुचां कुर्वन्ति । यदि ते बुवीरन् अस्मत्समीपे बस्तव्यं त
तो वसतावसत्यां यत्राल्पदोषतरं तत्र निवसनं कर्त्तव्यम् । प्रथमो राजदण्डो निर्विषयाज्ञापनलक्षणः, द्वितीयो मा भ
अथ प्रकारत्रयमेव व्यक्तीकुर्वन्नालपानममीषां प्रयच्छतेत्येवं लक्षणः , तृतीयः पुनरुपकरण
सच्छंदो य एकं, वितियं अण्णत्थ भोतिहं एह । हरः, चतुर्थो जीवितस्य चारित्रस्य वा भेदः कत्र्तव्यः।।
ततिए भिक्खं घेत्तुं, इह भुंजह तीसु वी जतणा ॥९८०॥ एवंविधे राजद्विष्टे श्राज्ञातिक्रमं कुर्वाणानां प्रायश्चित्तमाह
एकं स्वछन्दतो गमनम् , द्वितीयं पुनरन्यत्र भुक्त्वा इह सगुरुगा आणालोवे, बलियतरं कुप्पे पढमए दोसा।
मागच्छत, तृतीयम् इह समागत्य भोजनं कुरुत । एषुत्रिष्वगिएहंत देंत दोसा, बितिततिचरिमे दुविहभेयो ॥६७६।। पि भैक्षादियतना कर्तव्या। येन रामो निर्विषयाशातिक्रमे राजा बलिकतरम्-गा- बितिइज्जए व मुंचति, आणावे तं च तुल्लपदे। इतरं कुप्यति; एष प्रथमभेददोषोऽभिहितः । द्वितीयतृती
अम्हुग्गमाइसुद्धं, अणुसिट्ठि अणुच्छ जे अन्नं ॥१८॥ पभेदयोः-यत्र राज्ञा प्रामनगरादिषु भनपानमुपकरणं वा
वाशब्दः प्रकारान्तरोपन्यासे । कश्चिदतिप्रान्तः स द्विबारितं तत्र ये साधवो गृहन्ति, ये च गृहस्थाः तेषां प्रयच्छ
तीयान् साधून मुञ्चति । किमुकं भवति । साधूनां भिक्षामन्ति, तेषामुभयेषामपि दोषा-ग्रहणाकर्षणादयो भवन्ति । च
टतां राजपुरुषान् दृष्ट्वा पृष्ठतः स्थिता स्थातुर्हिण्डापयति ते एमश्चतुर्थो भेदो भवति जीवितभेदः, चारित्रभेदश्चेत्यर्थः ।
च यद्युत्सुकायमाना अनेषणीयं ग्राहयन्ति । यदि वा-स ग. अथ निर्विषयाशप्तानां गमनविधिमाह
जपुरुष एकत्र स्थाने साधून्निरुध्य धोलकभोजनमानाय्य सच्छंदेण य गमणं, भिक्खे भत्तट्टणे य वसहीए। ।
ददाति, यथा सर्वेऽप्येतदाहारयत ततोऽसौ वक्तव्यः । अदारे ठियो निरुम्भति, एगट्ठठितो व आणाए ॥९७७॥ स्माकमुन्द्रमादिशुद्धं ग्रहीतुं कल्पते । एवमुक्तो यद्युत्संकलयति यत्र राक्षा भणिताः स्वच्छन्दं गच्छन्तु भवन्तो नाहं गच्छ- ततो भिक्षां हिण्डन्ते, श्रथ नोत्संकलयति ततो अनुशितां किमपि निरोधं कुर्वे, तत्र भैक्षे भिक्षार्थेन वसतिविषयां ष्टिः कर्तव्या । तथापि मोक्मनिच्छति यञ्चोलकम् अन्नं पिव सामाचारी न परिहारयन्ति । अथ द्वारे-प्रामादिप्रवेश- ण्याकदोषान्नादि तद् गृह्णन्ति। मुखे स्थितो राजपुरुषवर्गः साधून भिक्षागतानिरुणद्धि, ए- पुव्वं च उवक्खडियं, खीरादी वा अणिच्छे दिति । कत्र वा सभादेवकुलादौ स्थितः साधून भुक्तानात्मसमीपे कमढगभुत्ते सपणा, कुरुकुय दविहेण वि दवेणं ॥१८॥ श्रानाययति; ततो वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्तीति नियुक्लिगा- अथवा-चोल्लके श्रानीते तन्मध्याद् यत्पूर्वमात्माथे तैरुपथासमासार्थः।
स्कृतं राद्ध क्षीरदध्यादि वा तद्भुञ्जते, यदि पूर्वराद्धं नेच्छति ___साम्प्रतमिदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह
प्रदातुं ब्रवीति च, यदहं भोजयामि भणामि वा तत् समुहिसच्छंदेण उ गमणं, सयं व सत्येण वाऽवि पुवुत्तं ।। शत, ततः शुद्धमशुद्ध वा यत्ते प्रयच्छन्ति तद्भुञ्जते । तत्र चेयं तत्थुग्गमादिसुद्धं, असंथरे वा पणगहाणी ।। ७८ ॥ यतना-कमठकेषु परस्परं सान्तरमुपविष्टाः सन्तो भुञ्जते यत्र राक्षा स्वच्छन्दन गमनमनुभातं तत्र स्वयं वा साथै
भुक्नोत्तरकाल संशाविसर्जनानन्तरं च प्रायः प्राशुकमृतिन वा सहिता गच्छन्ति, पूर्वोक्नमिद्देवाऽशिवद्वारे अोधनियु-1
कया द्रावणं च द्विविधेनाऽपि सचित्ताचित्तभेदमिनेन कुको वा भणितं भैक्षं षट्काययतनादिकं कर्तव्यं, नवरं तत्र
रुकुचां कुर्वन्ति । पूर्वमपि तेन पश्चात् सचित्तेनापि पूर्व मिस्वच्छन्दगमने उद्गमादिशुद्धं भक्तपानं ग्राह्यम् , असंस्तरणे प
श्रेण पश्चाद् व्यवहारसचित्तेनेति गमनं निर्विषयज्ञापनद्वारम्। श्वकपरिहाण्या गृहन्ति । अथ राजा मा अत्रैव जनपदे
श्रथ भक्तपाननिवारणद्वारं व्याचष्टेकचित्प्रदेशे निलीय स्थास्यतीति बुद्धया पुरुषान् सहा |
बिइए वि होइ जयणा, भत्ते पाणे अलम्भमाणम्मि । पान् प्रयच्छन्ति, यूयं ग्रामं प्रविशत तत्र भिक्षामटित्वा | दोसा तक्कपिंडी, एसणमादीसु जतितव्वं ।। ६८३॥ भुक्त्या च प्रत्यागच्छत , वयमिहैव ग्रामद्वारे स्थिताः प्रती- द्वितीयेऽपि राजद्विष्टे भक्तपाने अलभमाने इयं यतना भवतामहे । ततस्ते तत्र स्थिताः यो यथा साधुः समागच्छ-| ति-यावदथापि जनो न संचरति तावत्प्रत्यूषवेलाय दोषा ते तं तथा निरुम्भन्ते यावता सर्वे मिलिताः। अथवा-ते तकं च गृह्णन्ति, पिण्याकपिण्डिका वायसपिण्डिका वा गृहजपुरुषाः सभायां देवकुले वा स्थिता युवते, यूयं भिक्षा-1 न्ति । तत एषणादिषु यतितव्यम् । टित्वा गृहीत्वा सेह समागच्छत, अस्माकं समीपे समु
केषु पुनस्तद्गृहीत इत्याहदिशतेति।
पुराणादिपम्मवेतुं, णिस्सियं गीतत्थ होति गहणं तु । ततश्चतिराहेगयरे गमणे, एसणमादीसु होति जतियवं।
अगीते दिवग्गहणं, सुम्मघरे वा इमेहिं च ॥ १८४॥
पुराणं धावकं वा साधुसमाचारिकुशलं प्रज्ञाप्य सर्वे भत्तद्रण धंडिल्ले, असती बसहीऍ जं जन्थ ।। ६७६ ॥ पिगीतार्था मिश्रेषु तु पुराणादिप्रशापितः शून्यगृहे वाशब्दात्रयायां प्रकागणामेकतरस्मिन् गमने एषणायाम् आदि-| देवकुलादौ बलिनिवेदनलक्ष्येण पौगालिकं स्थापयन्ति , तस्य
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राइभोयण
अभिधानराजेन्द्र। दिवा ग्रहणं कर्मव्यम्, एतेषु वा स्थानेषु स्थापितं गृहन्ति ।। द्विविधे जीवितचारित्रव्यपरोपणात्मके मेरवे समुत्पन्न तं तान्येवाऽऽह
राजानं विद्यया निमित्तेन या चूर्णे, वशी कुर्यात् । या च देवी उंचरकोडिंबेसु व, देवउले वा णिवेदयाऽरो । तस्य राज्ञ इष्टा सा विद्याभिरावय॑ते । एवमप्यनुपशान्तौ श्रेकतकरणे करणं वा, असती नंदी दुविहदम्वे ॥१८॥ ष्ठिनममात्यं वा उपलक्षणत्वात् पापण्डिगणं वा प्रज्ञापयन्ति । देवकुलादिषु ये उदुम्बरास्तेष्यर्च निकालक्ष्यणोपदौकितं कू
ततस्तद्वारेणोपशमयन्ति, अथवा-यावन्नृपतिमुपशमयन्ति रादिकं गृहन्ति, कोहिबा नाम यत्र गोभक्तं दीयते, तत्र गो
तावत् श्रेष्ठिनोऽमात्यस्य वा अवग्रहे तिष्ठन्ति । एषणादिषु भक्तलक्ष्येण स्थापितम् , अरण्ये या यद्देवकुलं तत्र बलिनि
प्राग्वदेव यतितव्यम्। वेदनं गृह्णन्ति, यदि राजा बहुभिरप्युपायैरुपशम्यमानो नोप
आगाढे अनालंग, कालक्खेवो य होति गमणं वा । शाम्यति ततो यः संयतः कृतकरणः इषुशास्त्रे कृताभ्यासः सहस्रयोधि स करणं करोति, तं राजानं बध्वा शास्तीत्यर्थः ।
कयकरणे करणं वा, पच्छादण थावरादीसुं ॥ ६६० ॥ विद्याबलेन वा वैक्रियलब्धिसंपन्नो वा विष्णुकुमारादेरिव- आगाढे-राजद्विष्टे अन्यलिङ्गं विधायाऽज्ञायमानस्तत्रैव तस्य शिक्षा करोति । 'असह त्ति' यदा कृतकरणादयो न कालोपः कर्त्तव्यः, विषयान्तरगमनं वा कर्तव्यम् । यो वा प्राप्यन्ते तदा अध्वानं गच्छद्भिः नन्दिः-प्रमोदो येन द्रव्ये- कृतकरणः स नृपतेः शिक्षा करोति । अथ तदपि नास्ति,ततः ण गृहीतेन स्यात्तद् द्विविधमपि ग्रहीतव्यम् । तद्यथा-प्रा- स्थावरा-वृक्षाः तेषां गहनेषु तडागसरःप्रभृतिषु वा आत्माशुकमप्राशुकं वा, परीत्तमनन्तं वा, परिवासितमपरिवासि-| नं प्रच्छाद्य दिवा निलीना आसते, रात्री च वजन्ति । गतं तं वा, एषणीयमनेषणीयं वा । गतं भनपानप्रतिषिद्धद्वारम् । राजद्विष्टद्वारम् । अथोपकरणहरद्वारं व्याख्यानयति
अथ भयादिद्वाराणि युगपदाहतइए वि होति जतणा, वत्थे पत्ते अलन्भमाणम्मि। ।
बोहियमिच्छादिभए, एमेव य गम्ममाणजतणाए । उच्छुडविप्पइले, एसणमादीसु जतितब्वं ॥८६॥ तृतीयं राजद्विष्टं नाम,यत्र राक्षा प्रतिषिद्ध मा अमीषां वस्त्रं
दोण्हट्ठा व गिलाणे, णाणटुं दाव गम्मते ।। ६६१ ॥ पात्रं वा कोऽपि दद्यात् , अपहर्तव्यं वा । तत्र वस्ने वा पात्रे
बोधिका-मालवस्तेनाः म्लेच्छाः-पारशीकादयः तदादीनां या अलभ्यमाने यतना कर्तव्या। कथमित्याह-देवकुला- भये समुपस्थिते गन्तव्यम , तत्र च गम्यमाने एवमेवाशिदिषु कार्पटिकैर्यद्वस्त्रादिकमुच्छूदं परित्यक्तं यच्च विप्रकी
वादिद्वारबद् रक्षादिकं यतनया कर्तव्यम् । आगाढं तु किंमुरुकुटिकादिस्थापितं तद् गृहन्ति । एषणादिदोषेषु वा य.
चिदौत्पत्तिकं कार्यम् , यथा संज्ञातकैः संदिष्टम्-इदं कुतितव्यम् ।
लं प्रवज्यामभ्युपगच्छतु यदि यूयं नागमिष्यथ, ततो हियसेसगाण असती,तण अगणी सिक्कगा व गिएहति ।।
विपरिणमिष्यति , अन्यस्मिन् वा शासने प्रवजिष्य
ति, ईडशे अगीतार्थसमीपं गच्छेत् शानदर्शनचारित्रार्थ पेहुणचम्मग्गहणं, भुत्तं तु पलासपाणिसु वा ॥९८७॥
वा गन्तव्यम् । एतैः कारणैर्गम्यमाने पूर्व मार्गेण पश्चादच्छि. राशा साधूनामुपकरणानि हृतानि ततस्तेषां शेषाणां तदु
नेन पथा गन्तव्यम्। दरितानामभावः संवृत्तः, किंचिदयशिष्यमाणं नास्तीति
अत्र यतनामाहभावः । ततः शीताभिभूताः सन्तस्तृणानि गृह्णन्ति, अग्निं या सेषन्ते, पात्रकबन्धाभावे तृणादिसिककानि गृहन्ति । 'पहुणे'
एगावमं च सता, वीसं च द्धाणि णिग्गमा णेया। ति मयूराङ्गमयी पिच्छिका रजोहरणस्थाने कर्मव्या । चर्म- एत्तो एक्के कम्मि य,सतग्गसो होति जयणाओ|२|| यो वा प्रस्मरणप्रावरणार्थ ग्रहणं कार्यम् , भुक्तं तु पलाशपत्रा
सार्बपञ्चकेन कालोत्थायिप्रभृतिभिश्चतुर्भिः पदैः सप्रदिषु तेषामभावे पाणिष्वपि गृह्णीयावा भुजीत वा ।
तिपक्षरेकपश्चाशत् शतानि विंशत्यधिकानि अध्यनि गअसई य लिंगकरणं, पणवणऽट्ठा सयं व गहणष्ट्ठा ।
माः प्रकारा भवन्ति । पते च प्राक् सप्रपञ्च भाविताः। एतेआगादे कारणम्मि, जहेव हंसादिणं गहणं ॥४८॥ भनकेषु एकैकस्मिन् अशिवादिकारणे च तादृशः प्रागुयदि राजा स्वलिङ्गेनोपशाम्यमानो नोपशाम्यति, स्वलि-क्लनीत्या यतना भवन्ति । वृ० १ उ०३ प्रक० । अन मृग्यमाणं न लभते ततः परलिकं कुर्वन्ति । किमर्थमि
| रात्रिभोजनं प्रशंसति, दिवा प्रतिग्रहणात् रात्रौ वा भुझेस्याह-प्रज्ञापनार्थ स्वयं वा ग्रहणाथैम । किमुक्तं भवति-चौ.
जे भिक्ख दियाभोयणस्स अवाम बदइ अवमं वदंतं वा खादिना राजानुगतेन परलिङ्गेन स्थिताः स्वसमयपरसमयवेदिनो वृषभा युक्तियुक्तर्वचोभिस्तं राजानं प्रज्ञापयन्ति, तेन | साइजइ ।। १७८ ।। जे भेक्खू राइभोयणस्स वमं बदइ वा परलिजन स्थिता उपकरण स्वयमेवोत्पादयन्ति । ईदशे
वर्ष वदंतं वा साइजइ॥ १७ ॥ आगाढे कारसे यथैव हंसतैलादीनां ग्रहरणं तथा वस्त्रपात्रा. देरप्यवस्थापनतालोद्घाटनाप्रयोगैः कर्तव्यमिति । गतमुप--
दियाभोयणस्स अवाण-दोसं भासति, रातीभोयणस्स करणहरद्वारम् ।
वन-गुणं भासति। अथ जीवितचारित्रभेदवारं भावयति--- दुविहम्मि भेरवम्मि, विजणिमित्ते य चुप-देवी य। दियभत्तस्स अवर्ण, जे तु वदे गतिभोयणे वम । सेदिम्मि भमच्चम्मि य, एसणपादीसु जतितन्वं ।।६८ चउग्ररु प्राणादीया, कहति अवयं च वयं वा ११०॥
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( ५३१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
राइभोयल
श्रगादिया य दोसा चउगुरुगं च से पच्छित्तं । कहं पुरा दियाभोयणस्स श्रवरणं भासति - वायायवेहि सूसति, यो हीरति य दिट्ठिदिट्ठस्स । मच्छिमाति णिपातो, बलहाणी चैत्र चकमणे ॥ १११ ॥ दियाभोयं वातेण श्रातवेण य सुसियं अवलकरं भवति । प्रोयो - तेयो भन्नति, दिट्टिणा दि दिट्ठिदिट्ठे, परजनदृष्टः स्यात्तस्य प्रोजोपहारो भवतीत्यर्थः दिवसतो मच्छियमादी शिवतंति, उट्टेव गुलियादि दोसा, दिवसयो य भुंजिला कम्मचेट्ठासु श्रवस्सं चकमियवं, तत्थ पस्सेदो भ वति । श्रायासोस्सासो बहुं च दगमादीयति । एवं तं अबलकरं भवति ।
इमं रातीभोयणस्स वनं वदति - आउं बंभं च वडति, पाणेति य इंदियाइँ खिसि भत्तं । व जिजइ य देहो, गुण दोसविवजय चेव ।। ११२ ।। रातो भुत्ते श्रकम्मस्स सत्थेदियस्स चिट्ठतो सुभपोग्गलोवचयो भवति, सुभपोग्गलोवचयातो श्रायुबलादयाण बुड्डी भवति । रसायने पयोगवत् सुभपोग्गलोवचयातो शीघ्रं देहो न जीर्यते । एते गुणा रातीभोयणे । एयस्स वि
ओ दिवसे । तो तम्मि एते चेव गुणा, विवरीया दोसा भवंति । इमम्मि कारणजाते वपज्जा ।
गाहा—
वितियपद मणप्पज्झे, वएज अवि कोविए व अप्पज्झे । जाणते वावि पुणो, कारणजाते वएजा उ ।। ११३ ॥ श्रणपभो - श्रणष्पवसो खेत्तादितो सो दियातो वरणस्स अवनं वदेजा, राई भोयणस्स वा वनं वरज । श्रवि कोविसो वा श्रग्गीयत्थो अप्पज्भोऽवि वएज । बहुसु या असिवोमगिलाणरायदुट्ठादिकारणेसु गुणबुडिहेडं गीयत्थो वि य वनं वा वपजा ।
सूत्रम्
जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा डिग्गाहित्ता दिया भुंजइ, दिया भुंजंतं वा साइजइ ॥ १८० ॥ जे भिक्खू दिया असणं वा० ४ पडिग्गाहित्ता रतिं भुजइ, तं वा साइज ।। १८१ ॥ जे भिक्खू रतिं असणं वा ०४ डिग्गा हित्ता दिया भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ ॥ १८२ ॥ जे भिक्खु रतिं असणं वा० ४ पडिग्गाहेत्ता रतिं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ १८३ ॥
चउसु वि भंगेसु श्रणादिया य दौसा चउगुरुं पच्छिलं, एवं कालविसेसियं दिज्जति । नि० चू० ११ उ० ।
रात्रिकं गृहीतं स्यात् श्रज्ञानात् रात्रिकं गृहीयात् ।
सूत्रम्-
भिक्खु य उगवित्तीए श्रणत्थमियसंकप्पे संथडिए निव्वितिभिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वडिग्गाहिता श्राहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जाअग्गए सूरिए अत्यमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिसि,
राइ भोयण जं च पडिग्गहिये तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे नाइकमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अनेसिं वा श्रणुप्पदेमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं
ग्वाइयं || ६ || भिक्खु य उग्गयवित्तीए णत्थमियकप्पे संघडि वितिमिच्छासमावभे असणं वा० ४ प - डिग्गाहित्ता श्राहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणेजा, agree सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जंच पाणिसि जं च पडिग्गहे तं विर्गियमाणे विसोहेमाणे नाइकमर, तं अप्पणा भुंजमाणे अने सिं वा अप्पदेमाणे राह भोयणपडि सेवणपत्ते आवज चाउम्मासियं परिहार
अधायं ॥ ७ ॥ भिक्खु य उग्गयवित्तीय अरात्थमिय कप्पे असंथडिए निब्बिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता श्राहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा - अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहे जं च पाणिसि जं च पडिग्गहे तं विभिञ्चमाणे विसोहेमाणे नाइकम; तं श्रपणा भुञ्जमाणे अन्नेसिं वा अणुपदेमाणे वञ्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुघायं ||८|| भिक्खु य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंक
संथse विगच्छासमावने असणं वा पां वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारमाहारेमाणे श्रह पच्छा जागेञ्जा - अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिसि जं च पडिग्गहे तं विगिश्चमाणे विसोहेमाणे नाइकमइ, तं अप्पण्णा भुञ्जमा अन्नेसिं वा अणुप्पदेमा आवज चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं श्रणुग्धा इयं ६ ॥
अस्य सूत्रचतुष्टयस्य सम्बन्धमाह
अगणं वच्चतो, परिणिव्यवितो व तं गणं पत्तो । विहसंथरेतरे वा, गेण्हे(ज) सामाऍ जोगो य ।। १०३ ॥ अधिकरणं कृत्वा श्रनुपशान्तोऽन्यगणं व्रजन् परिनिपितो वा भूयस्तमेव गणमागच्छन्, 'विहे 'श्रध्वनि सं स्तरणे इतरस्मिन् वा असंस्तरणे श्यामायाम् - रजन्याम् श्राहारं गृह्णीयात् एष योगः सम्बन्धः । श्रनेनाऽऽयातस्या स्य सूत्रचतुष्टयस्य व्याख्या - भिक्षुः - पूर्ववर्णितः, चशब्दाद श्राचार्य उपाध्यायश्च परिगृह्यते, उद्गते श्रादित्ये वृत्तिः जीवनोपायो यस्य स तवृत्तिकः । पाठान्तरं वा- 'उग्गयमुती सि' मूर्त्तिः- शरीरम् उद्गते रवौ प्रतिश्रयावग्रहाद्वहिः प्रचारवती मूर्त्तिरस्येत्युद्गतमूर्त्तिको मध्यमपदलोपी समासः, श्रनस्तमिते सूर्ये सङ्कल्पो भोजनाभिलाषो यस्यासौ अनस्तमितसङ्कल्पः । संस्कृतो नाम-समर्थस्तद्दिवसं पर्याप्तभोजी वा 'तिवितिमिच्छत्ति ' विचिकित्सा-चित्तविलुतिः सन्देह इत्येकोऽर्थः । सा निर्गता यस्मात् स निर्विचिकिसः, उदितोऽस्तमितो वा रविरित्येवं निश्चयवानित्यर्थः, एवविधविशेषणयुक्तोऽशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा प्रतिगृह्या ssहारमाहरन् भुञ्जनः । अथ पश्चादेव जानीयात् अनुव्रतः सूर्यः अस्तमितो ना । एवंवि
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राइमोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण शाय (से) तस्य यच्च मखप्रक्षिप्तं, यच्च पाणेरुरपाटितं, यवनप्रायश्चित्ती,अस्तमितेऽपि वास्तगत इत्यभिप्रायेण भुजानः प्रतिगृहे स्थित, तद्विविचन् वा परिष्ठापयन् वा विशोधयन् | सदोषः । अथवा-मणसंकप्पे य होति प्रादेस' अनुदितवा निरषयवं कुर्वन् , (न) नैव भगवतामामामतिकामति । तद मनःसङ्कल्पास्तमितमनःसङ्कल्पयोः कतरो गुरुतरो लघुतरो शनादिकम् धात्मना भुआनः, अन्येषां वा दवानो रात्रिभोजन | वेति चिन्तायां द्वापादेशी भवतः । ती चोसरत्र अभिप्रतिसेवनप्राप्त प्रापद्यतेचातुर्मासिकंपरिहारस्थानमनुदाति धास्येते । अनुदिते अस्तमिते वा कथं ग्रहणं सम्भवतीत्याहकम् । एवमपरमपि सूत्रत्रयं मन्तव्यम्. नवरं द्वितीयसूत्रसंस्त- 'हीने पुण संखडी पुरतोत्ति' ध्यातं सुभिक्षमिति चैकार्थः । तो विचिकित्सासमापनश्च यो भुतेविचिकित्सासमापनो ना. तत्र संखडी सम्भवति, सा च द्विधा । पुरःसंखडी, पश्चात्संम-किमुदितोवा रविः,अथवा-अस्तमितो वेति सन्देहदोलाय- खडी वा । तत्र पूर्वाहे या क्रियते सा पुरःसंखडी । अपराह मानमानसः एवं भुञ्जनस्य अन्येषां वा ददानस्य चतुर्गुरुकम् , तु क्रियमाणा पश्चात्संखडी । इह पुनरनुदिते रवी पुरःसंखडी। तृतीयसूत्रे असंथडिय'त्ति-श्रसंस्तुतः अध्वप्रतिपन्नः क्षपको पुनःशब्दग्रहणादस्तमिते पश्चात्संखडीति । ग्लानो या भण्यते स नैव विचिकित्स्यो नियमादनुद्गतः - सूरे अणुग्गतम्मि, अणुदित उदियो य होति संकप्पो। स्तमितो वा रविरित्येवं निःसन्देहं जानानो यदि भुते तदाऽ
एवं अत्थमियम्मि वि, एकतरं होति णिस्संको ॥१०॥ पि चतुर्गुरुकम् । शेषं प्रथमसूत्रवज्नेयम् । चतुर्थसूत्रे संस्तृतो विचिकित्सासमापन्नश्च यो भुक्ने स श्रापद्यते चातुर्मासिकं
सूर्ये अनुगते अनुदितसंकल्पः, उदितसङ्कल्पो वा भवेत्। परिहारस्थानमनुवातिकम् , एक सूत्र चतुष्टयार्थः।
उपलक्षणं चैतत्-उदितोऽप्यनुदितः, उदितो वा सकल्पो अथ नियुक्तिविस्तरः
भवेत् । एवमेवास्तमितेऽप्येकतरः अस्तमितः अनस्तसंखडमसंखडे वा, निबितिगिच्छे तहेव वितिगिच्छे।
मितो वा निशको मनःसङ्कल्पो भवति, उपलक्षणत्वाद
नस्तमितेऽप्यस्तमितसंकल्पः, अनस्तमितसंकल्पो भवेत् । काले दव्वे भावे, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ १०४॥
इहानुदितोदितविषया अनस्तमितास्तमितविषया च प्रत्येक प्रथमसूत्र संस्तृते निर्विचिकित्से, द्वितीय संस्तृते विचिकि- षोडशभकी भवति । तद्यथा-अनुदितमनःसंकल्पः अनुसासमापने, तृतीयमसंस्तृते निर्विचिकित्से, चतुर्थमसंस्तुते दितगवेषी अनुदितग्राही अनुदितभोजी, एवं चतुर्भिः पदैः विचिकित्सासमापने मन्तव्यम् । तत्र प्रथमसूत्रे तावत्रिवि- सप्रतिपक्षः भङ्गरचनालक्षणा घोडशभङ्गी रचयितव्या । धा प्रायश्चित्तमार्गणा भवति-कालतो द्रव्यतो भावतश्च । रचितेषु भङ्गेषु यत्र द्वयोर्मध्यपदयोः परस्परं विरोधोतत्र कालतस्तावदाह
रश्यते, मध्यपदेषु वा द्वयोरेकस्मिन् उदितो दृष्टोऽन्यअणुगयमणसंकप्पे, गवसणे गहणझुंजणे गुरुगा। पदेषु पुनरनुदितस्ते भङ्गा विरुद्धत्वेन वजनीयाः,शेषा प्राह्याः। भह संकियम्मि भुंजति,दोहि वि लहु उग्गते सुद्धो।१०॥
तथा अनस्तमितसंकल्पोऽनस्तमितगवेषी अनस्तमितग्राही
अनस्तमितभोजी, एवमपि षोडश भङ्गाः कर्त्तव्याः । अत्रा:अनुगतो नाऽद्याप्युद्गतोरविरित्येवं निःशङ्कितेन मनःसकल्पे.
पि यत्र मध्यपदेषु परस्परं विरोधो दृश्यते, यत्र मध्यपदेषु न यो भक्तपानस्य गवेषणं ग्रहणं भोजनं च करोति तस्य चतु
द्वयोरेकस्मिन् वा अस्तमितो दृष्टः, अन्यपदे वा अनस्तमितगुरवो द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरुकाः। अथ शङ्कितेन म
स्ते भनाः अविद्यमानकत्वेन वर्जनीयाः, शेषाः ग्राह्याः । नःसंकल्पेन भुकते। ततस्त एव चतुर्गुरुका द्वाभ्यामपि लघवः। उगतः सूर्य इति निस्सन्दिग्धे मनःसङ्कल्पे भुखानः शुद्धः।
अनुदितोदितास्तमितानस्तमितेषु चतुर्घ पि स्थानेषु यावअत्थंगयसंकप्पो, गवेसणे गहणे भुञ्जने गुरुगा।
न्तो भङ्गा घटमानकास्तत्प्रदर्शनार्थमाहमह संकियम्मि भुंजइ,होहि वि लहुऽणत्थमिएँ मुद्धो।१०६।
अणुदियमणसंकप्पे, गहणगवेसी य झुंजणे चेव । अस्तंगतो रविरित्येवंविधेन सङ्कल्पेन गवेषणे ग्रहणे भोजने उग्गयणथमिए वा, अत्थंपत्ते वि चत्तारि ॥१०६ ।। व चतुर्गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः । अथास्तंगतोऽनस्तं. अनुदितमनःसंकल्पे गवेषणग्रहणभोजनाण्यस्तिभिः पदैर्य गतो वा इति शङ्कितं भुक्ते,ततश्चतुर्गुरुकाः,द्वाभ्यामपि तपः- अष्टौ भङ्गास्तेषु चत्वारः प्रथमद्वितीयचतुर्थाटमा भक्ताः कालाभ्यां लघवः । यः पुनरनस्तमितो रविरित्येवं निःसंदि
घटन्ते, शेषाश्चत्वारोऽघटमानकाः । उद्तमनःसंकल्पेऽप्येत घिन चेतसा भक्के स शुद्धः।
एव चत्यारो घटन्ते न शेषाः । अनस्तमितसङ्कल्पे अस्तंअथ 'उग्गयवित्ती' इत्यादिपदव्याख्यानमाह- प्राप्तसङ्कल्पेऽपि चैते एव चत्वारो ग्राह्याः, शेषास्तु ततीयपउग्गयवित्ती सुद्धो, मणसंकप्पे य होंति पाएसा । श्वमषष्ठसप्तमा असम्भवित्वावर्जनीयाः ।। एमेव प्रणथमिए, धाए पुण संखडीपुरतो ।। १०७ ।। अथैतेषामेव घटमानकभङ्गानां विभागत:-- उगते रवौ वृत्तिर्वर्त्तनं यस्य स उगतवृत्तिः , पाठान्तरेण
प्ररूपणामाहउद्गतमूर्तिरिति वा, उगते सूर्ये मूर्तिः-शरीरं वृत्तिनिमि
अणुदितमणसंकप्पे, गवेसगहभोयणम्मि पढमलता। संबहिः सप्रचारं यस्य स उद्तमूर्तिः, मनःसङ्कल्पेनोदितं मन्यते स भुधानोऽपि न दोषभाक भवति । यः पुनरुदितेऽ
वितियाऍ तिसु असुद्धो, उग्गयभोई तु मंतिमझो।।११०॥ पि रवी नाऽद्याप्युदित इति चेतसा मन्यमानो मुझे स स- अनुदितमनःसङ्कल्पोऽनुदितगवेषी अनुदितग्राही अनुदिदोषः, एवमेवामस्तमितेऽपि मन्तव्यम् । किमुक्नं भवति-- तभोजी एषा प्रथमा लता; प्रथमो भा इत्यर्थः। द्वितीयस्यां स्तमितेऽपि रचौ नाऽद्याप्यस्तङ्गत इति बुद्धया भुश्रानोऽपि तु लतायां विषु पदेषु अविशुद्धः , तद्यथा--अनुदित
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण सङ्कल्पोऽनुदितगणी अनुदिन ग्राही उद्गतमोजी, इय हि
संकप्पेण विमुद्रा, निमुवि असुद्धा उ अंतिमिया।।११७।। लता मल्पगवेषणग्रहणपर्दाग्वाभाशुद्वा । उद्गतभाजिन्व
श्रस्तमितमना अम्तमित वा सूर्य यो नियमादनस्तमित मरूपेणान्त्यपदेन तु शुद्रा।
न्यते.तस्य प्रथमा लता-अनस्तमितसंकल्पः अनस्तमितगवे. तइयाएँ दो अमुद्रा, गहणे भोति य दोमि उ विमुद्रा। पी अनम्तमितग्राहा अनमितभोजी । अत एवाऽऽहसंकप्पम्मि अमुद्धा, निमु मुद्धा अन्तिमलया उ॥१११।।
• पढमा पानी य गहाणभोजी यत्ति' प्रथमायामनस्तमिनैपी तृतीयस्यां लतायां २ मङ्कल्पगवेषणपदे अशुद्धे, ग्रहणभो
अनम्तमित ग्रहगभोजी चेति. द्वितीया तु लता-मनःसङ्कजनपदे तु हे विशुद्धे । तद्यथा-अनुदिनमङ्कल्पोऽनुदिनगवेषी
रूपेषणग्रहणपदेपु त्रिषु विशुद्धा, अन्त्यपदे अविशुद्धा २, तृदितग्राही उदिनभोजी चेति, अन्त्य लतानामनुदितसङ्कल्प
नाया लता-मनःसङ्कल्पैपणीया शुद्धा.ग्रहणे भोजने चाऽविशुम्य चरमा लता चीत्यर्थः । मा सङ्कल्पपदे अविशुद्धा
डा। श्रन्त्या नाम-चतुर्थी लता मा नवरं संकल्पपदे विशुद्धाशेपेखिभिः पदेः शुद्धा। नद्यथा-अर्नादनमकल्प दितगर्षी
शेषेषु त्रिषु गवेषणग्रहणभोजनपदेषु अशुद्धा। उदितग्राही उदिनभोजी । एवमदिनमनःसङ्कल्पस्य च
अथैनास्वविशुद्धलतासु प्रायश्चित्तमाहतस्रो लता उक्ताः।
पढमाए वितियाए, नतिय चउत्थी' नवमदसभाए । अथोदितमनःसङ्कल्पम्य चतम्रो लता पाह
एकारस वारसीएँ, लताएँ चउरो अणुग्याता।। ११८ ।। उग्गयमणसंकप्पे, अणुदितगवेसी य गहणभोई य।। प्रथमायां द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुथ्यां नवम्यां दशम्याएमेव वितियलता, सुद्धा प्रादिम्मि अंते य ॥ ११२ ।। मेकादश्यां द्वादश्यां चेत्यष्टासु लतासु भावस्याविशुद्धतया ततियलताएँ गवेसी, होइ असुद्धो उ सेसगा सुद्धा ।
चन्यागेऽनुद्धाता मासाः । सव्यविसुद्धासु भवे, चउत्थलनिया उदियचित्ते ॥११३।।
पंचमिछस्सनमिया, अदुमिया तेर (स) चोदसमिया य । श्रादित्य उद्गतोऽनुगतो वा भवतु स नियमात उद्गनं मन्यते
पारस सोलसा वि य, लताउ एया विसुद्धा उ॥११६।। इत्युद्गतमनःसंकल्प उच्यते, यस्य प्रथमलता उद्गतमनःस- पञ्चमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशी कल्पोऽनुदितगवेपी अनुदितग्राही अनुदितभोजी । एवमेव षोडशी चेत्यष्टौ लता विशुद्धाः प्रतिपत्तव्याः , सर्वत्राऽपि द्वितीयलताऽपि द्रष्टव्या,नवरमादिपदे अन्यपदेच,सा शुद्धा भावस्य विशुद्धत्वात् । मध्यमे पदद्वये अशुद्धा , तृतीय लतायामेकं गवेपणापद
अत्र शिप्यः पृच्छतिमशुद्धं, शेषाणि संकल्पग्रहणभोजनपदानि त्रीरायपि शुद्धानि । दोएहं वि कतरो गुरुओ, अणुग्गतत्थम्मि भुंजमाणाणं । चतुर्थी तु लता सर्वेषु पदेषु शुद्धा ४ पताश्चतस्रोऽप्युदितचि
आदेस दोमि काउं. अणुग्गए लहु गुरू इयरो॥१२०॥ तविषया लता भावस्य विशुद्धतया शुद्धाः प्रतिपत्तव्याः ।।
अनुद्गतास्तमितभुनानयोद्वेयोर्मध्ये कतरो गुरुतरो-महापवमस्तमितानमितसंकल्पयोरप्यष्टौ लता भन्ति ।
दोपः । सूरिराह-आदेशद्वयं कर्तव्यम् , एके प्राचार्या वतेतासामेव विभागमुपदर्शयति
अनुगतभोजिनः अस्तमितमोजी गुरुतरः । कुत इति चेदुअत्थंगयसंकप्पे, पढम धरेंतेसि गहणभोजी य। च्यते-सः संक्लिष्टपरिणामो दिवसतो भुक्त्वा भूयो रजन्याः दो संतेसु असुद्धा, वितिया मज्झे भवति सुद्धा ॥११४।। प्रमुख एव भुङ्क, तदानीं चाविशुद्धधमानः कालः, अनुदिततिया गवसणाए, होति विमुद्धा उ तीसु अविसुद्धा ।
तभोजी पुनः सकलां रजनीमधिसह्य नक्कान्ते भुक्ते
विशुद्धयमानश्च तदानीं कालः अतोऽसौ लघुतरः । अपरे चत्तारि वि होंति पदा,चउत्थलतियाएँ अत्थमिते ।११५॥ भणन्ति-अस्तमितभोजिनः अनुदितभोजी गुरुतरः , यस्माइहास्तमितमनस्तमितं वा विं यो नियमादस्तमितं मन्य- दसौ सी रात्रिमधिसह्य स्तोकं कालं न प्रतीक्षते, ततः ते सोऽस्तङ्गतसंकल्पः , तस्य प्रथमा लता-अस्तमि
संक्लिष्टपरिणामः । इतरस्तु चिन्तयति भूयान् मया कालः तसंकल्पः अनस्तमितगवेषी अनस्तमितग्राही अनस्तमित
सोढव्यः, अतो भुङ्के एवमसौ लघुतरः । एवमादेशद्वयं कभोजी १, अत एवाऽऽह-प्रथमायां लतायां 'धरेतेसि
त्या स्थितपक्ष उच्यते, अनुद्गतम्र्ये प्रतिसमयं विशुद्धथत्ति' ध्रियमाणे सूर्ये भक्तपानस्यैपणं ग्रहणं भोजनं चा:- मानकालो भवतीति कृत्वा अनुदितभोजी लघुतरः , इतरः स्तंगतो विरिति वुद्धया करोति, द्वितीया तु लता द्वयो
पुनरस्तमितभोजी स तदानीं प्रतिसमयविशुद्धयमानः काराधन्तपदयोरशुद्धा मध्ये गवेषणाग्रहणपदयोः शुद्धा २, लो भवतीति कृत्वा गुरुतरः । उक्त कालानप्पन्न प्रायश्चित्तम्। तृतीया गवेषणायां विशुद्धा, त्रिषु शेषेषु संकल्पादिष्यविशु
अथ द्रव्यभावनिप्पन्नमभिधित्मराहद्धा, चतुर्थलतायां चाऽस्तमितविषयत्वात् । चत्वार्यपि पदा. गेएहणगहिए आलो-यण नमुकारे भुंजणे य संलेहे। न्यविशुद्धानि अस्तमितमनःसंकल्प इति कृत्वा चतस्रोऽप्ये
सुद्धोविगिंचणे अवि-गिचणा सो विदव्य भावे य१२१ ता अशुद्धाः । अथ विशुद्धलता पाह
अनुदितोऽस्तमितो वा रविग्नेषु स्थानेषु ज्ञातो भवेत् । अणत्थगयसंकप्पे, पढमा एसी य गहण भोजी य।।
गेरहण त्ति' कृते उपयोगे पदभेदे कृते ज्ञातं यथा नाद्या
प्युद्गतोऽस्तमितो वा तदा तत एव निवर्तमानः शुद्धः । अथ मणएसिगहण सुद्धा,बितिया अंतम्मि अविसुद्धा ।११६।।
ग्रहणं गवेषणां कुर्वता ज्ञातं तदाऽपि निवर्तमानः शुद्धः । मणएसणाए सुद्धा, ततिया गहभायणेसु अविमुद्धा । । अथ गृहीते मातं, ततो यद् गृहीतं तत्परिष्ठापयन् शुद्धः ।
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(१३४) अभिधान राजेन्द्रः ।
राइ भोवण
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अथालोचयता ज्ञातं तदाऽपि विविञ्चयन् शुद्धः । श्रथ भोकुकामेन नमस्कारं भणता ज्ञातं ततोऽपि विविञ्चयन् शुद्धः, भुञ्जनेन शातं शेर्पा परित्यजन् शुद्धः । अथ सर्वस्मिन भुले संलेखनाकल्पं कुर्यति ज्ञातं तथाऽपि विवियन शुद्धो न प्रायश्चित्ती । श्रथ न विविनक्ति ततो द्रव्यतो भावतश्चाशोधिः प्रायश्चित्तं भवति ।
तत्र इव्यनिष्पन्नं तावदाह
संलेहरा व विभागे४, दो माए ५ पंच मोजु भिक्युस्ता मासो चउ छल्लहु गुरु अभिक्खगह तिनू मूलं । १२२ । संलेखः कवलत्रयप्रमाणस्तमेवाशेषमनुगते श्रस्तमिते वा ज्ञातेऽपि भुल्के मासलघु पञ्चानविशिष्यमान भु
मासगुरु विभागा दशकवलास्तान् अशेषान् भुक्के चतु र्लघु, अपरार्द्ध पञ्चदश कवलास्तान् श्रशेपान् भुञ्जानस्य त्रतुगुरु' दो भाग त्ति ' द्वौ त्रिभागौ विंशतिः कवलास्तान् भुवानस्य लघु पंच मोतुं तो मध्यप क्त्वा ये शेषाः पञ्चविंशतिः कवलास्तान् यदि भुङ्क्ते तदा षड्गुरु, एवं यथा यथा द्रव्यवृद्धिः तथा तथा प्रायश्चित्तमपि वर्द्धते, अभीक्ष्णग्रहणं पुनः ताः सर्वाः प्रतीत्य द्वितीयवारमेव भुज्ञानस्य मासगुरुकांनी पारं घुकादारभ्य मूलं यावचेतव्यम्। एवं विषु वारेषु मूलं या भिक्षोरुक्रम ।
एमेव गणायरिए, अवटुप्पो य होइ पारंची।
मिवि सो चेव गमो भावे पडिलोम वोच्छामि । १२३ । यमेव गणिन उपाध्यायस्य आचार्यस्य च पारणिकागमः स एव कर्त्तव्यः, नवरमुपाध्यायस्य प्रथमवारं मासगुरुकादारब्धं छेदे, द्वितीयवारं चतुर्लघुकादारब्धं मूले, तृतीयवारं चतुर्लघुकादारब्ध मनवस्थाप्ये तिष्ठति । एवमाचार्यस्याऽपि प्रथमवारं चतुर्लघुकादारब्धं मूले, द्वितीयवारं चतुर्लघुकादाधमनयस्थाप्य तृतीयारं लघुकादारवं पाराचिके पर्यवस्यति । गतं द्रव्यनिष्पन्नम् । अथ भावप्रतिलोमप्रायविषयामि पूर्व द्रव्य प्रायभिवृद्धिका ।
"
सम्प्रति यथा यथा व्यपारिहाणिस्तथा तथा परिमाणकलेशी वृद्धिमङ्गीकृत्य प्रायश्चित्तवृद्धिमभिधास्येतावा पणऊण तिभागद्धे, तिभागसेसे य पंच मोतु संलेहं । सम्म सोचे गमो सायं पुरा पंचहि गतेहिं ।। १२४ । तत्राऽपि भावप्रायश्चिते यो द्रव्यनिष्णने यार मत उक्त स च द्रष्टुप्पो नवरं पराऊ निपञ्चभिः कलेना या ि शतिशेषाः पञ्चविंशतिः कवला भवन्ति, ततः पञ्चसु कथलेषु गतेषु यदि शातमनुदितोऽस्तमितो या रवि पान् पञ्चविंशतिकवलान् भुञ्जानस्य मासलघु 'तिभाग त्ति' त्रिशद्भागेन हीना विंशतिः कवलास्तान भुञ्जानस्य मासगुरु । 'श्रद्ध त्ति' अर्द्ध पञ्चदश कवलास्तान भुञ्जानस्य चतुर्लघु, त्रिभागो दश कवलास्तान भुआनस्य चतुर्गुरु, त्रिंशतः पञ्चकवलान् मुक्त्वा शेषाः पञ्चविंशतिरज्ञाने भुक्त्वा ज्ञाते भुषा तु प शेषान् भुञ्जानस्य यः संलेखना शेष मुखागस्य षड्गुर इह प्रभूततरतम कलेषु अधिकाधिकतरायामपि तृमशेषस्तो लोकतरमपि च ज्ञाने सति भु
सहभोषण के तत्र परिणामः संश्लिष्टः संशिष्टतर इति कृत्या बहु बहुतरं प्रायश्चित्तम् ।
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एमेवभिक्खगह भावे ततियम्मि भिक्खुगो मूलं । एमेव गणायरिए, सपदा सपया पदं हसति ।। १२५ ।। पत्रमेव अभीवेऽपि भावनिष्य प्रामितो व्यम् नवरं द्वितीयं वारं माखगुरुकादारब्धं देदे तिष्ठति, तृतीयं वारं चतुर्लघुकादारब्धं मूलं यावनेयम् । एवमेव गपिन आचार्यस्य द्रष्टव्यम्। नवरं स्वपदात् स्वपदमेकं तु तयोरपि सति तत्रोपाध्यायस्य प्रथमवारं मासगुरुकादार तृतीयवायामनपस्थाप्ये, आनार्यस्य प्रथमवारं चतुधुकादारब्धं तृतीयबारायां पाराञ्चिके तिष्ठति । इह पूर्वमुङ्गतवृतिपदमनस्तमितसपपदं च व्यापातं न शेषाखि संस्तु
तादीनि
अनस्तानि व्याचऐसंथडियो संथरंतो, संतयभोजी व होइ नायव्वो । पजत्तं लभतो, असंखडी छिन्नभत्तो य ॥ १२६ ॥ संस्तृतो नाम पर्यात भक्तपानं लभमानः संस्तरति अथवायः सततभोजी दिने दिने पर्याप्तमपर्याप्तं वा भुङ्क्ते स संस्तृत ज्ञातव्यः । यस्तु पर्या मनपानं न लभते चतुर्थादिना नित्यभक्तो वासोऽसंस्तुतः ॥
निर्वाचित
निस्संकमणुदिनोति-स्थितो व सूरो त्ति गेएहती जो तु । उदितधरेतें विहु सो, लग्गति अविसुद्ध परिणामो | १२७| निर्विचिकित्सो नाम - निश्शङ्कमनुदितोऽतिक्रान्तो वा सूर्य इति मन्यते एव, यो निःशङ्कितेन मनसा गृह्णाति स उ वानस्तमितेरी तथावधिपरिणामेन स प्रायश्चित्तं लभते ।
एमेव य उदिति व धरति सोगतं जस्स । स विज विदो विशुद्धपरिणामसंजुतो ।। १२८ ।। एवमेव यस्य सोढुं निस्सन्दिग्धं चित्ते उपगतं यदुताssदित्य उदितो भियते वा नाद्याऽप्यस्तमेति स यद्यपि विपर्य ये विपर्यासज्ञाने वर्त्ततेः तथाऽपि विशुद्धपरिणाम इति कृत्वा विशुद्ध नाविनी ।
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अथ यदुकं सूत्रे अह पुरा जाना अगुग्गए अत्थमिएवत्ति' तत्रोतमनस्तमितं वा रविं चेतसि कृत्वा गृहीतं पश्चात्पुनर्ज्ञातं यथा अनुगतोऽस्तमितो वा कथं पुनस्तयातमित्याह
समिर्चिचिणिगादी, पत्ता पुप्फा य खलिखिमादीणं । उदयस्थम रविणो, कहिंति विगत मउलेना ।। १२३ ।। शमीनिञ्चिणिकादीनां तरूणां पत्राणि नलिनीप्रभृतीनां च पुष्पाणि विकसन्ति वेरुदयं कथयन्ति एतान्येव मुकुलयन्ति सन्ति वेरस्तमनं कथयन्ति । कथं पुनरादित्य उदितोऽस्तमितो वा न दृश्यते इत्याहमहिमवासमहिया, महागिरीराहुरेणुरयो ।
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दिस व बुट्टी, वंदे गेहे मते मिरिए ।। १३० । श्रभ्रसंस्तृते गगने, हिमनिकरे वा पतति, वर्षणे वा, महिकया वा पतन्त्याssच्छादिते, महागिरिणा वा श्रन्तरिते, रा.
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राइभोय
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हुणा वा सर्वग्रहणेनोदयास्तमनयोरगृहीते रवौ रेणु:कटकगमनाद्युत्थितो धूलिः रज इत्यादिकं ताभ्यां वा छन वारचया दिश मन्यने समयमादित्यं विलोक्पोमात्र आदित्य इति बुवा मपानं गृहीन्या वसतिं प्रवि स्तावदन्धकारं जातम्, ततो जानाति अस्तमिते श्रहं भुक्त इति । अथवा गेहे -गृहाभ्यन्तरे कारणजाने दिवा सुप्तः प्रदोषे च उदिते वियोग ज्योत्स्नां प्रतिष्ठां चन्द्रे दृष्टा चिन्तयति, एपः श्रादित्यातपः प्रविष्टः । स च तैमिरिको मन्दं मन्दं पश्यति । ततो गृहिणा निमन्त्रितो भुक्तः । एवमादिभिः कारवेदनादतं मम्येत उदिया अनुदिनम्, घस्नमितमनस्तमितम् ।
ततः
सुपच महिने, गाउं इहरा उसो ग गेहंतो । जो पुण हति गाउं, तस्सेगट्ठाणगं बड्ढे ॥ १३१ ॥ यद्युद्गतः अस्तमितो घेति वुवा सूतं प्रतीत्य ' उग्गयfafa अत्थत्थमियक' इति सूत्रप्रमाण्येन गृहीतं पञ्चाच्च ज्ञातमनुगतः अस्तमितो वा रविः, ततो यन्मुखे यच्च पाणौ
प्रति तत्सर्वमपि व्युजेत् इतरद्वापूमेवादिनं वा अशास्यत् ततो नाहीष्यन् । यः पुनरनुगतमस्तमितं या शान्या गृहानिया या भुषां वा ददाति तस्यैकं स्थान प्र सीत्य तं भुञ्जमा प्रेस या दलमा आवज बाउस्पासिये अणुवाद इत्युत्तरं सूत्रख दिति
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भावः ।
(४३४) अभिराजेन्द्रः ।
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अथ विवेचनविशोधनपदेध्याय-सम्धस्स छ विचिगाउ मुहत्थपादस्स । फुरासाविसहरास किंबहुना ॥ १३२ ॥ अनुमितमितं वा ज्ञात्या यन्मुखे प्रति तस्य ज्ञा सति प्रक्षेपण यथ हस्ते पाणी वाऽस्य प्रति ग्रहे यत्पात्रप्रतिग्रहे तस्य स्थण्डिले एवं सर्वस्याऽपि यत्परिष्ठापन सा विवेचना यनु स्पर्शनं इस्तेनामर्पण धावनं कल्पकरणं सा विशोधना, अथवा -- सकृदेकशः परिष्ठापनस्पर्शनभावनानां कर विवेचना तेषामेव बहुश करणं विशोधनम् एतद्धि विवेचनविशोधनयोर्नानात्वमुक्तम्, अथ 'नो कमर ' त्ति पदं व्याख्यातिनातिकमती आर्य, धम्मं मेरं व रातिभनं वा ।
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गागी वा सयभुंजे सो स देजाऽपि ।। १३३ ॥ एवं विविञ्चन विशोधन या तीर्थकृतामाशां नातिकामति । श्रथवा श्रुतधर्म चारित्रमयाद रात्रिभक्तवतं वा नातिक्रामति " भुञ्जमाणो अन्नसिं वा दलमाणो " त्ति पदद्वयं व्याख्यायते - ( अत्त इत्यादि) आत्मार्थिक श्रात्मलीनो निग्रहकरणे वा य एकाकी स स्वयं भुङ्क्ते, नान्येषां ददाति इति शेषः पुनरनात्मलीनः अनेकाकी या अन्येषामपि दद्यात् स्वयमपि भुञ्जीत गतं प्रथमं संस्तुतनिर्विचिकि रस सूत्रम् ।
राहूभोयण अथ द्वितीय संस्तुतचिचिकित्ससू व्याख्यातिएवं वितिमिच्छो वा, दोहि लहू गवरि ते तु तवकाले । सरस पुरा हति लता, अड्ड सुद्धा ग इतरा उ || १३४|| विचिकिन्सने किमुदितो रविः नवेति उदितानुदित इत्यादि संशयं करोतीति विचिकित्सः सोऽप्येवमेव वक्तव्यो नवरं यानि तस्य तपोहानिप्रायश्चित्तानि तपसा कालेन च लघुकानि तस्य च विचिकित्स्य पुनरशुद्धा एव केवला - टौ लता भवन्ति, नेतरा सङ्कल्पस्य शङ्कितत्वेन प्रतिपक्षाऽभावात् ।
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कथं पुनरसी ? शङ्कां करोतीत्याहअदिय उदओ किंग हु, संकप्पो उभयहा अदि उ । धरति वत्ति व मुरो, सो पुरा नियमा चउरहेको ।। १३५ ।। उभयथा - उदयकाले अस्तमनकाले वा श्रभ्रहिमादिभिः का रखैरदृष्टे आदित्ये सङ्कल्पो भवति, किमनुदित उदितो वा रविः, श्रस्तमनकालेऽपि भूयो ध्रियते न वेति शङ्का भवति, स पुनः सूयों नियमादनुदित उदितः श्रनस्तमितः अस्तमितो बेतियानामेकतरस्मिन् वर्तते । भङ्गाः पुनर वयमुचारणीयाः । उदप्रतीत्य विचिकित्से मनःसङ्कल्पे सति विचिकित्सितगवेषी विचिकित्सितग्राही विचिकित्सितभोजी एचमटी भद्रा, अलमनमपि प्रतीत्यैवमेषा भङ्गाः, द्वयोरप्यष्टग्योः प्रथमद्वितीयचतुर्थामा भङ्गा घटमानकस्वाद् ग्राह्याः शेषाधत्वारोऽप्राथाः। गतं संस्तुतविधिफिटसूत्रम् ।
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अथ तृतीयमसंस्तृतविचिकित्ससूत्रं व्याचिख्यासुराहतवगेला, तिविहो तु असंथटो तिहे तिविहो । नवसंथडमीसस्ता, मासादारोवणा इमो ॥। १३६ ।। ( अस्याः गाथाया अक्षरार्थः ' असंथड ' शब्दे प्रथममागे २४ पृष्ठे गतः। इह ततो विशेष उच्यते )
दापि पूर्वकमेपोला कव्याः कालनिष्णच मान्यत् प्रयभावानियोवर्ष विशेषः तपोऽस्तुनो विकृतपःकान्तः पारखके अनुझते अस्तामते वा उदितानस्वमिनबुद्ध्या भक्तपानीये भुवन यदा उइतमस्तमितं या जानाति ततः परं भुवनस्येदं प्रायश्चितम् -
एक दुग तिमि मासा, चउमासा पंचमास छम्मासा । सच्चे चि होति लहुगा, एगुत्तरवट्टिया जें ।। १३७ ।। संलेखना शेषं यदि ज्ञातो भुके, ततः एकमासिकं, पञ्च कवलान् समुद्दिशति द्वैमासिकं दश कवजान् समुद्दिशति त्रैमासिकं पञ्चदश कवलान् भुञ्जानस्य चतुमसिकं विशति भुआनस्य पञ्चमासिकम् । अथ पक्ष कमला विशुद्धभावेन समुदिताः शेषान् पञ्चविंशति फलान् ज्ञाते भुझे ततः पारमालिकम् तानि सर्वापि लघुकानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति । कुत इत्याह-येन कारणेनैकोत्तरवृद्धयाद्विध्यादिरूपया अमूनिर्जितानि ।
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इदमेव विनिि
दुविहाय होइ बुड्ढी, सट्टाणे चैत्र होइ परठाणे | सम्म उ गुरुगा, पठाणे लहुग गुरुगा वा ।। १३८ ॥
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(५३६ ) राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइ भोयण द्विविधा च भवति वृद्धिस्तद्यथा-लघु का गुरु का भवति । | पुनर्जिनभयो नातिलान्तश्चातः शीघ मपद प्रापितः । अत्रे तत्र लघुकथानादारब्धा लघुका. गुरुकस्थानादारधा | कैकस्मिन् पदे श्राशादयो रात्रिभोजनदोषाश्च । श्रगीतार्थस्य गुरुका भवति । अत्र च मासलघुकादारधा अतः चैतन्मन्तव्यं, न गीतार्थस्य। सर्वाण्यपि लघूनि द्रव्यानि
कुत इति चेदुच्यतेभिक्खुस्स ततियगहणे, सहाणे होइदननिष्फन । उग्गतमणुग्गते वा, गीतत्थो कारणेणऽतिकमति । भावम्मि उ पडिलोम, गणिवायरिए वि एमेव ।।१३६।। दूता हिंडविहारी, ते वि य होंती सपडिववखा ॥१४२॥ भिक्षोर्द्वितीयवारं द्वैमासिकादारब्धं छेदे तिष्ठति, तृतीय
गीतार्थः श्रध्वप्रवेशादौ कारण उत्पन्ने उगते श्रनुगते वा वारग्रहणे त्रैमासिकादारम्धं स्वस्थान मूलं यावनेयम् । एवं
सूर्य यतनया अरनोऽद्विणे भुनानो भगवतामाक्षां धर्म द्रव्यनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमुक्तम् ।भावनिप्पन्न पुनरेतदेव प्रतिलो- वा नातिकामति. ते चाध्वीतपन्नास्त्रिविधा-द्रवन्तः, श्रामं मन्तव्यम् । गणिन प्राचार्यस्यापि द्रव्यभावयोरुभयोरप्य- हिण्डकाः, विहारिणश्च । तत्र द्रवन्तः-ग्रामानुग्राम गन्छयमेव प्रायश्चित्तं,नवरमुपाध्यायस्य द्वैमासिकादारब्धं त्रिभि- न्तः, श्राहिण्डका:-सततपरिभ्रमणशीलाः, विहारिणःवोरैरनवस्थाप्ये, प्राचार्यस्य त्रैमासिकादारब्धं त्रिभिवारैः मासं मासेन विहरन्तः । तेऽयि प्रत्येक सप्रतिपक्षाः। पाराश्चिके पर्यवस्यति । गतस्तयोरसंस्तुतः ॥
तद्यथाअथ ग्लानासंस्तृतमाह--
दृइज्जंता दुविहा, णि कारणिगा तहेव कारणिगा। एमेव य गेलणे, पट्टवणा तत्थ णवर भिमेणं । असिवादी कारणिया, चके मूलाइया इतरे ।। १४३ ।। चउहि गहणेहि सपदं, काम अगीतत्थ सुत्तं तु ।१४०11 उवदेस अणुवदेसा, दुविहा आहिंडगा मुणयव्व।। ग्लानासंस्तृतस्याऽप्येवमेव प्रायश्चित्तम् , नवरं तत्र तत्र विहरंता वि य दुविहा,गच्छगता निग्गता चैव ॥१४४॥ ' भिरणेणं ' ति भिन्नमासात्प्रस्थापना कर्तध्या । प्रथमं ।
द्रवन्तो द्विविधा-निष्कारणिकाः, कारणिकाश्च । तत्राशिवार पश्चमासलघुके, द्वितीय परामासलघुके , तृतीय
वावमौदर्यराजद्विादिभिः, कारणैरुपधेयस्य वा निमित्त छेदे, चतुर्थवारं मूले तिष्ठति । अत एवाऽऽह-चतुर्भिम्र
गच्छस्य वा बहुगुणभरमिति कृत्वा श्राचार्यादीनां वा श्राहणैर भीक्ष्णं सेवारूपैः स्वपदं मूलं भिक्षुः प्राप्नोति । उपा.
गाढे कारणे द्रवन्ति ते कारणिकाः, ये पुनरुत्तरापथे धर्मध्यायस्य लघुमासादारब्धं चतुर्भिवारैरनवस्थाप्ये, प्राचा
चक्रं, मथुरायां देवनिर्मितः स्तम्भः, आदिशब्दात्-कोशलायां यस्य द्विमासलघुकादारब्धं चतुर्भिर्वारैः पाराश्चिके पर्यव
जीवस्वामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमय एवमादिस्यति । शिष्यः पृच्छति-कस्यैतत्प्रायश्चित्तम् ? सूरिशह-यदु
दशेनार्थ द्रवन्तो निष्कारणिकाः। अाहिराडका अपि द्विधा उ. क्रं यश्च वक्ष्यमाणमेतत् सर्वमगीतार्थस्य सूत्रं भवति. प्रस्तुत- शाऽऽहिराहका, अनपदेशाssहिराडकाश्च । तत्र ये सत्रार्थी सूत्रोक्तं प्रायश्चित्तमित्यर्थः । स हि कार्य वा पतनामयतनां वा |
गृहीत्या भविष्यदाचार्यगुरूणामुपदेशेन विषयाचारभापोपन जानीते अतस्तस्य प्रायश्चित्तम् । गतो ग्लानासंस्तृतः।।
लम्भनिमित्तमाहिराडन्ते ते उपदेशाऽऽहि सका। ये तु कौतुश्रथाध्वासंस्तृतमाह
केन देशदर्शनं कुर्वन्ति ते अनुपदशाऽऽहिराडकाः । विहरन्तोश्रद्धाणा संथडिए. पवेस-मज्झे तहेव उत्तिमे । ऽपि द्विविधा-गच्छगता गज़नर्गताश्च । गच्छवासिनः मज्झम्मि दसगवुडी, पवेस-उत्तिमपणएणं ॥ १४१॥ ऋतुबद्धे मासं मासेन विहरन्ति, गन्तुकेन देशदर्शनं कुर्वन्ति अध्वनि-मार्गे यः असंस्तृतः स त्रिविधः । तद्यथा-श्र
ते गच्छगताः। गच्छनिर्गता द्विधा-विधिनिर्गताः, अविधिनि ध्वनः प्रवेशे मध्ये उत्तरे च । तत्र प्रथम मध्ये भाव्यते-भि
गताश्च । विधिनिर्गताश्चतुर्द्धा जिनकल्पिकाः, प्रतिमाप्रतिपक्षाः संलेखनादिषु षट्सु स्थानेषु दशरात्रिन्दिवमादौ कृ
नाः, यथालन्दिकाः (शुद्धाः) पारिहारिकाश्चेति । अविधित्वा प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्तव्या । उपाध्यायस्य पश्चदश
निर्गताः साधारणादिभिः त्याजिता एकाकीकृताः। त्रिन्दिवादिकमाचार्यस्य विंशतिरान्दिवादिकं प्राय- एतेषां भेदानामितरयोः प्रायश्चित्तं लगतिश्चित्तं भवेत् । एतदेव प्रतिलोमं वक्तव्यम् । अथ प्रवेशे उ । निक्कारणिगाऽणुवदे-सिगा य लग्गंतणुदिय अत्थमिते । तरणे च भरायते-पवेस उत्तिमपणएणं ' ति प्रवेशे तथा ।
गच्छा विणिग्गता वि हु, लग्गेजति ते करेजेवं ॥१४॥ उत्तरणमुत्तीर्ण तत्र च पञ्चकेन स्थापना क्रियते। संलेखनादिषु
मिष्कारणिका द्रवन्तः, अनुपदेशाऽऽहिण्डकाः,अवधिनिर्गपसु पदेषु पञ्चरात्रिन्दिवान्यादौ कन्या मासलघुकं याव
ताश्च अनुदिते अस्तमिते वा यदि गृह्णन्ति भुञ्जते वा ततः प्रेतव्यमिति । तथा उभयोरपि अभिर्भार मूलं प्राप्नोति , उपाध्यायस्य दशराबिन्दिवादिकं दशमबारायामनवस्था
पूर्वोक्तप्रायश्चित्तं लगति । ये तु कारणिका उपदेशाऽऽहिराडप्यम्। आचार्यस्य पञ्चदशगत्रिन्दिवादिकं पारा शिकान्तं भवे
का गच्छगताश्च ते कारणे यतनया गृह्णन्तः भुञ्जानाश्च शुद्धाः। त् । एतदेव प्रतिलोम प्रायश्चित्तम् । शिष्यः पृच्छति---
ये तु गच्छनिगता जिनकल्पिकादयस्तेऽपि यद्येवमनुदिते वा श्वासंस्तृतो मध्ये क्षिप्रमेव स्वपद प्रापितः, प्रवेशे उत्तरणे व
ग्रहणं कुर्युस्ततो लगति, नियमात्तदानीं न गृह्णन्ति त्रिकालचिरेण न तावदेय कथम् ? लोच्यते-अध्वनः प्रवेशे भयमुत्प
विषयज्ञानसम्पन्नत्वात् । द्यते.वयमध्वानं निस्तरिष्यामः। उत्तरणेऽपि बुभुक्षातृषादिभि
अथवा तेसि ततियं, अप्पत्तो अणुदितो भवे सूरो। रत्यन्तं क्लान्तः, अत एतौ चिरेण स्वपरं प्रापितो। अध्वमध्ये पत्तो उ पत्थिमं पो-रिसिं च अत्थंगतो होति ॥१४६।।
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(५३) राइभोयण श्रभिधानराजेन्द्रः।
राइभोयण अथवाशब्दः प्रकारान्तरे वा । तेषां जिनकल्पिकादीनां तृती- यो विशिष्टमनुकूलोऽनेन भूयः प्रत्यापिवति ततो यदि दिवस. यां पौरुषीमप्राप्तः सूर्योऽनुदितो भण्यते । पश्चिमां च पौरु- स्तत एकलम्बनमादौ कृत्वा यावत्पञ्चलम्बनास्तावदापिवति पी प्राप्तोऽस्तंगत उच्यते । अत एव भक्तं पन्थाश्च तेषां तृ- ततश्चत्वारो लघवः । ततः पञ्चरुत्वस्त्रिंशतं यावत् कत्तव्याः । तीयपौरुष्यामेव भवति, नान्यथा । गतं संस्तृतनिर्विचिकि- तद्यथा-षट्प्रभृति यावद्दशलम्बना एतेषु चतुर्गुरवः । एकाससूत्रम् ।
दशादिषु पञ्चदशान्तेषु षड्लघवः, षोडशादिषु विंशत्यन्तेषु अथासंस्तृतविचिकित्ससूत्रं व्याचष्टे
षड्गुरवः, एकविंशत्यादिषु पञ्चविंशत्यन्तेषु छेदः, षड्विंशवितिगिच्छ अब्भसंथड, सत्यो उ पहावितो भवे तुरियं ।
त्यादिषु त्रिंशदन्तेषु लम्बनेषु प्रत्यवगिल्यमानेषु मूलम् ।
एवं भिक्षोरुक्तम्। अणुकंपदाएँ कोई, भत्तेण निमंतणं कुज्जा ॥ १४७ ।।
गणि आयरिए सपदं, एगग्गहणे वि गुरुग आणादी। अभ्रसंस्तृते-हिमानीसंछादिताभिरदृश्यमाने सूर्ये विचिकित्सो भवति, ते च साधवः सार्थनाध्वानं प्रतिपन्नाः अन्तरा
मिच्छत्तमच व दुए, विराहणा तस्स वमस्स ॥ १५ ॥ वाऽभिमुख वा अपरः सार्थ आगतः । द्वाप्येकस्थाने आव
गणी उपाध्यायस्तस्य चतुर्गुरुकादारब्धं स्वपदमनवस्थाप्य सिती। अभिमुखागन्तुकसार्थिकोऽप्यनुकम्पया साधूनां भक्तेन
यावन्नय , प्राचार्यस्य षड्लघुकादारब्धं स्वपदपाराश्चिक निमन्त्रणं कुयात् , यस्मिश्च साथै साधवः सञ्चलिताः अतः
यावद् द्रष्टव्यम्, एवं दिवसत उक्तम् । रात्री तु यद्येकमपि सिसूर्योदयवेलायामुदितोऽनुदित इति शङ्कया गृह्णीयुः, इहाऽपि
क्थं गृह्णाति प्रत्यादत्ते ततश्चतुगुरु आज्ञादयश्च दोषाः । मिथ्यात्रिविधे असंस्तुते तथैवाऽसौ लता नवरं संस्तृते निर्वि
त्वं चासौ अन्येषां जनयति-यथा वादिनस्तथा कारिणो चिकित्से तपः प्रायश्चित्तान्युभयगुरुकाणि असंस्तृते विचि
न भवन्त्यमी इति राजा वा तं ज्ञात्वा भिक्षादीनां प्रतिकित्से पुनरुभयलघूनि । शेष सर्वमपि प्राग्वत् । वृ०५ उ० ।
षेधं कुर्यात् , मा वा कोऽप्यमीषां मध्ये प्रावाजिदिति अत्र प्रायश्चित्तं विवेकाहम् । जीत । रात्रिभोजनं प्रतिगृही.
वारयेत् , असारं च प्रवचनं मन्येत । अस्थिसरजस्का अप्यतं सत्परिष्ठापयेत् ।
मीभिर्यान्तमापिबद्भिर्जिता इति तस्य वा वान्ताशिनः असूत्रम्
न्यस्य वान्तं पश्यतो विराधना भवति । अत्रामात्यदृष्टान्तः
"एको रंकवहुगो संखडीए मजिया कृरं अइप्पमाणं जिमिइह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा रातो वा वियाले
तो.निग्गयस्स रायमग्गमागाढस्स हिययमुच्छत्तं अतिपिपावा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेजा तं विगिंचमाणे
सियस्स हिट्ठा वमिउमारद्धो । अमञ्चेण य पयोयणट्टिएण वा विसोहेमाणे वा, नो अतिक्कमइ, तं उग्गिलित्ता पच्चोगि- दिवसे य वमित्ता तमहारमविणटुं पासित्ता लोभेण भुंलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवजइ, चाउम्मासियं
जिउमारद्धो । तं दळूण अमञ्चअंगाणि उद्धसिसियाणि उहुं
च जातं । अमञ्चो दिणे दिणे जेमण्वेलाए समुद्दिसंतो संपरिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ॥१०॥
भरेत्ता उखु करेइ । एवं तस्स बग्गुली वाही जातो। तो अस्य सम्बन्धमाह
मो। सो विधिजा ईओ एवमेव विणट्ठो। जम्हा पते दोसा निसिभोयणं तु पगतं, असंथरंतो बहू व भोत्तूणं । तम्हा पमाणपतं भोत्तव्वं"। उग्गालमुग्गिलिजा, कालपमाणं च दव्वं तु ॥१४८॥ एवं भाव दिवसतो, रातो सित्थे वि चउगुरू होंति । निशि भोजनं पूर्वसूत्र प्रकृतम् , इहाऽपि तदेवाभिधीयते,य. उड्डद्दरगहणा पुण, अववातं कप्पो एवं ॥१५१ ॥ द्वा-असंस्तग्न बहु-प्रभूतं भुक्त्वा रजन्यामुगारमुद्गिरते तन्नि- एवम् तावत् कवलपञ्चकमादौ कृत्वा पञ्चकवृद्ध्या चतुर्लषेधार्थामद सूत्रम् । अथवा-कालप्रमाणमनन्तरसूत्रे उक्तम् ,
घुकादिकं प्रायश्चित्तं दिवसत उक्नम् , राबावेकसिक्थस्याइह तु कालप्रमाणादनन्तरं द्रव्यप्रमाणमुच्यते अनेन सम्बन्धे.
ऽपि ग्रहणे चतुर्गुरुको भवति । यच्च नियुक्तिगाथायामूनाऽऽयातस्यास्य (सूत्रस्य-१०) व्याख्या-इहाऽस्मिन् मौनी
र्द्धदरग्रहणं कृतं तदेव ज्ञापयति-अपवादपदे अधस्तने प्रत्यन्द्रे प्रवचने ग्रामादा वा वर्तमानस्य खलुक्यालङ्कारे निम्र
स्तनमपि कल्पते । न्थस्य वा निग्रन्थ्या वा रात्री वा विकाले वा सह पानन स
अत्र शिष्यः प्राहपानः सह भोजनेन सभोजनः, उद्गार आगच्छेत् । किमुक्तं ।
रातो व दिवसतो वा, उग्गाले कत्थ संभवो होजा। भवति-सा विरहिनामकं पानीयमुद्गारेण सहागच्छति, कूर्गसक्थं वा केवलमागच्छति, कदाचिदुभयं वा । तमुद्गारं
गिरिजएणसंखडीए, अट्ठाहियतोसलीए वा ॥ १५२ ॥ विचिन्तयन् सकृत् परित्यजन् , विशोधयन् वा बहुशः परि
रात्री दिवसतो वा कुत्रोद्दारस्य सम्भवो भवेत् । सूरिराहत्यजन् नो आज्ञामतिकामात, तमुद्गीर्य प्रत्यवगिलन् भूयोऽ
गिरियशादिषु संखडीपू तोसलिविषय वा श्रष्टाहिकादिप्यास्वादयन् श्रापद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमनुदद्घा- महिमासु प्रमाणतिरिक्तं भुआनानामुगारः सम्भवति । तिकमेवात सूत्रार्थः ।
तत्र प्रायश्चित्तमभिधित्सुः प्रस्तावनार्थ तावदिदमाहसम्प्रति नियुक्तिविस्तरः
अद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ता य जोयणदुगे य । उदरे वमित्ता, आदिअणो पणगवुडिजाती सा।
पत्ता य संखडि जे, जतणमजतणाएँ ते दुविहा ।१५३। चतारि लव लहु गुरु, छेदो मूलं च भिक्खुम्स ।।१४६।। ते संखडीमोजिनः साधवो द्विधा-अध्वप्रतिपन्नाः, वास्त
द्वारमनितेषयप्तिारानादिकं भुक्त्वा वमित्वा च । ज्यान । तत्र गे वास्तव्यास्ते दिया-सम्बझ्याः प्रेनिणः,
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्र:।
राइभोयण अप्रेक्षिणश्च । अध्वप्रतिपन्ना अपि द्विधा-तत्र च गन्तुकामाः | जरिष्यन्तीति कृत्वा, तत श्राचार्यानापृच्छय स्वपन्तः शुद्धाः अन्यत्र वा गन्तुकामाः । येऽन्यत्र गन्तुकामास्ते द्विधा-प्राप्त- त पव यदि बैरात्रिकं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति; तदा पञ्चभूमिकाः,अप्राप्तभूमिकाश्च । प्राप्तभूमिका नाम-ये संखडिग्राम- रात्रिंदिवानि तपोगुरूणि, कालगुरूणि । अथोद्गार आगतस्तं पार्श्वतो गन्तुकामाः, संखडीमाभधार्यार्द्धयोजनादागच्छ- च यदि विचिन्वन्ति, ततो भिन्नमासस्तपोगुरु काललघु । न्ति । अप्राप्तभूमिका ये योजनात् योजनाधिकादुपलक्षणत्वा- अथ तमुद्रारमापिचन्ति, ततो मासलघु. तपसा कालेन च धावत् द्वादशयोजनेभ्यः संखडीनिमित्तमागताः। ये तत्रैव गुरुकम् । ये प्रयतनाप्राप्ताः येच वास्तव्याः संप्रलोकिनः, गन्तुकामाः, संखडीग्रामे प्राप्तास्ते द्विविधा-द्विप्रकारा-यत- एते द्वयेऽपि संखड्यां भुक्त्वा प्राषिकं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति माप्राप्ता, अयतनाप्राप्ताश्च । ये पदभेदमकुर्वन्तः सूत्रार्थपौ- तदा मासलघु. द्वाभ्यामपि लघुकम् । त्रैरात्रिकं न कुर्वन्ति, रुष्यो विदधाना वागतास्ते यतनाप्राप्ताः, ये तु संखडी कृत्वा मासलघु कालगुरुकम् । उद्गारमागतं परित्यजन्ति मासलघु सूत्राऽर्थी हापयन्त उत्सुकीभूता आगताः ते श्रयतनाप्राप्ताः । तपसा कालेन च गुरुकम् ।
अत एवाहवत्थव्व जयणपत्ता, एगगमा दो वि होंति तव्या।
तिसु लहुगगुरुग एगे, तीसु य गुरुत्रो उ चउलहू अंते । अजयणवत्थव्वा वि य, संखडिपेही उ एकगमा।।१५४॥ भिन्ना ये वास्तव्याः संखडीलोकिनो ये च तत्रैव गन्तुकामाः
तिसुचउलहुगा चउगुरु,ति चउगुरु छल्लहू अंते।। १५ ।।
त्रिषु स्थानेषु प्रादोषिकस्वाध्यायत्रैरात्रिकाकरणोद्वारयतनाप्राप्ता,पते द्वावपि प्रायश्चित्तवा(चा)रणिकायामेकगमा भवन्ति-सातव्याः, ये तु तत्रैव गन्तुकामा प्रयतनाप्राप्ता ये
विवेचनरूपेषु लघुको मासः । एकस्मिन् चतुर्थे प्रत्यवगिलव वास्तव्याः संखडीप्रलोकिनः, एते द्वयेऽपि वा(चा) रणि
नाण्ये स्थाने मासगुरु । ये अन्यत्र गन्तुकामाः प्राप्तभूमिकाः कायामेकगमा भवन्ति ।
संखडिहतोः अर्द्धयोजनादागताः तेषां प्रादोषिकस्वाध्या
याकरणादिषु त्रिषु स्थानेषु मासगुरु, अन्त्यस्थाने चतुर्लधु । " पत्ता य संखडि जे" इति पदं व्याख्याति
ये अप्राप्तभूमिकाः संखडिनिमित्तं योजनादागतास्तेषां प्रातत्थेव गन्तुकामा, वोलेउमणा व तं उवरिएणं ।
दोषिकादिषु त्रिषु पदेषु चतुर्लघु, अन्यपदेषु चतुर्गुरु । ये तु पदभेदे अजयणाए, पडिच्छ उव्वत्त सुतभंग ॥१५॥ योजनद्वयादायातास्तेषामादिपदेषु त्रिषु चतुर्गुरु, अन्त्यपदे यत्र प्रामे संखडिस्तत्रैव आगन्तुकामा ये वा तस्य ग्रामस्य षड्लघु। परिवोलयितुमनसस्ते यदि स्वभावगतेः पदभेदं कुर्वन्ति तिसु छल्लहुगा छग्गुरु, तिसु छग्गुरुगा य अंतिमे छेदो। एकत्यादीनि वा दिनानि प्रतीक्षन्ते अवेलायामुद्वर्तन्ते वा छेदादी पारंची, वारसगादीसु य चउकं ।। १६०॥ सूत्रार्थपौरुषीभङ्गेन वा प्राप्ता भवन्ति, तदा प्रयतनाप्राप्ताः ।। ये योजनचतुष्टयादागतास्तेषां त्रिष्वाद्यपदेषु षड्लघु, अइतरथा यतनाप्राप्ताः।
न्स्यपदे षड्गुरु । ये योजनाटकादागतास्तेषां त्रिषु पड्गुरु, प्राप्तभूमिकानप्राप्तभूमिकाँश्च व्याख्याति
अन्त्यपदे छेदः । ये द्वादशयोजनादागताः ते प्रादोषिकं स्वासंखडिमभिधारेता, दुगाउया पत्तभूमिगा होति । ध्यायं न कुर्वन्तीति छेदः । श्रादिशब्दाद्-द्वैरात्रिकमकुर्वतां जोयणमाइअपत्ते, भूमीया वारस उ जाव ॥ १५६ ॥ । मूलम् । उगारविविञ्चतामनवस्थाप्यम् , प्रत्यापिवतां पारासंखडिग्रामपावतो ये गन्तुकामास्ते यदि संखडीमभिधार्य
श्चिकम् । वारसगादीनु य चउक्कं ति प्रतीपक्रमेण यानि गव्यूतिद्वित्रान्तरं गच्छन्ति । तदा प्राप्तभूमिका भवन्ति । ये
द्वादशयोजनप्रभृतीनि स्थानानि तेषु सर्वेष्वपि प्रत्येक प्रत्येक पुनयोजनादायोजनद्वयात्-द्वादशयोजनेभ्यः आगच्छन्ति ते
प्रादोषिकादिचतुष्कं मन्तव्यम । चतुर्वपि पदेषु तपोऽहाणि सर्वे अप्राप्तभूमिकाः ।
प्रायश्चित्तानि प्राग्वत् तपःकालविशेषितानि कर्तव्यानि। खेत्तंतो खेत्तपहिं, अप्पत्ता बाहि जोयणदुगे य ।।
अस्यैवार्थस्य सुखावबोधनार्थमिमां प्रस्तावनामाहचत्तारि अदु वारस,जग्गसुव विगिंचरणाऽऽपियणा १५७।।
खेत्ततो खेत्तबहिया, अप्पत्ता बाहि जोयणद्गे य । संखडिं कृत्वा क्षेत्रान्तः क्षेत्रबहिर्वा श्रागच्छेयुः। ये क्षेत्रान्तः
चत्तारि अट्ट वारस,जग्ग सुव विगिचणाऽऽपियणा ।१६॥ सार्द्धकोशद्वयादागच्छन्ति ते प्राप्तभूमिकाः , ये पुनः क्षेत्र
इहोर्वाधः क्रमेणारी गृहाणि स्थापनीयानि, तिर्यक पुनश्चबहिर्योजनात् योजनद्वयाश्चतुर्योजनादष्टयोजनाधावत् द्वाद
त्वारि, एवं द्वात्रिंशद् गृहकाणि कर्तव्यानि । प्रथमगृहाएकपशयोजनादागच्छन्ति ते अप्राप्तभूमिकाः । एते सर्वेऽपि
पत्यामधोऽध पते अष्टौ पुरुषविभागा लेखितव्याः, ये तत्र संखज्यामतिमात्र भुक्त्वा प्रदोषे न जाग्रति त्रैरात्रिककालवे- व गन्तुकामा यतनाप्राप्ता ये च वास्तव्या यननाकारिण पष लायामपि स्वपन्ति नोत्तिष्ठन्ते 'विगिचण त्ति' उदारमुद्गीर्य
एकः पुरुपविभागः, ये तु तत्रैव गन्तुकामा ण्वायतनया प्रापरित्यजन्ति 'आपियणति तमेव प्रापिवन्ति प्रत्यबगिलन्ति।
ता वास्तव्याश्च यतनाकारिणः, एप द्वितीयः । यतु अन्यत्र
गन्तुकामाते क्षेत्रान्तः हिर्वा श्रागता भवेयुः, ये क्षेत्राएतेषु चतुर्यु पदेषु इयमारोपणा
न्तस्ते प्राप्तभूमिका उच्यन्ते, पण तृतीयः । ये तु क्षत्रवाहिस्ते वत्थन जयणपत्ता, सुद्धा पणगं च भिष्ममासो श्र।
अमाप्तभूमिका उच्यन्ते, ते च योजनादागताः स एष चतुर्थः तवकाले हि विमुद्धा,अजयणमादीवि तु विसुद्धा ॥१५८।। पुरुषविभागः । योजनद्वयादागताः पञ्चमः । चतुर्योजनादाग. संखड्यालोकिनो वास्तव्या यतनया प्राप्ताश्चागन्तुकाः सं- ताः षणः, अयोजनादायाताः सप्तमः, द्वादशयोजनादागताः बयां यावद् व्रतं भुक्त्वा प्रादोषिकी पौरुपीं न कुवन्ति मान । अष्टमः । उपरितननिर्यगायनचतुष्कपङ्क्त्या उपक्रमणामी
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(५३४) गइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राहभोयण चत्वारो विभागा लेखितव्याः। प्रदोषे अजागरणं त्रैरात्रिकखा
तत्रानन्तरोक्नं कवली (ल्ली) राधान्तं भावयतिध्यायवेलायां स्वपनम् , उद्गारविवेचनं प्रत्यवगिलनम् आदिमः।
अतिभुते उग्गालो, तेणो संभुंज जुम्म उत्तिग्गसि । चतुष्कपङ्क्त्या द्वितीयगृहादमूनि प्रायश्चि
छड्डिजति अतिपुरमा, तत्ता लोहीण पुण ओमा॥१६७१ तानि क्रमेण स्थापयितव्यानि
गतार्था । पणगं च भिलमासो, मासो लहुओ य पढमतो सुद्धो।
नेगमपक्षाश्रिताः पुनराचार्यदेशीया इत्थं वदन्तिमासोतवकालगुरू,दोहि वि लहुओ य गुरुओ य।।१६२।।
तत्तऽत्थमिते गन्धे, गलगपडिगते तहा प्रणाभोए । द्वितीयगृहे पञ्चकं. तृतीयगृहे भिन्नमासः, चतुर्थे मासलघु । एतेण होंति दोलि वि,मुहणिग्गतणाउमोगिलणा १६८५ प्रथमगृहे शुद्धः, चतुर्थे तु पदे मासस्तपसा कालेन च गुरुकः।
एको नैगमपक्षाधितो भणति- भत्ते कवल्लिते बिंदुपतितो यत्र चादिपदेऽपि प्रायश्चित्तं भवतिः तत्र द्वाभ्यामपि लघुकं,
यथा तत्क्षणादेव नश्यति तथा यद्भक्तमात्रं जीर्यति ईदृशममध्यपदयोरपि यथासंख्यं कालेन तपसा च गुरुकम् ।
वममाहरणीयम् , एवमपरोऽस्तमिते रवी यजीर्यते , तृतीयो द्वितीयादिचतुर्पु गृहेषु पङ्खयः सर्वा
गन्धेन रहितः सहितो वा यथोद्गार एति, चतुर्थो गलक अमुना प्रायश्चितेन पूरयितव्याः
यावदुद्गार आगम्यते भोगेनाजानान एवं प्रतिगच्छति भूय लहुओ गुरुओ मासो, चउरोलहुगा य होंति गुरुगा य ।
प्रविशति । ईदृशं समुद्दिशतां गुरुराह-एते द्वयेऽपि छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ १६ ॥
प्रकारा न भवन्ति । द्वये नाम-यत्प्रथमद्वितीयादिष्वप्युद्वितीयस्यां पङ्की त्रिषु गृहेषु लघुमासश्चतुर्थे गुरुमासः। तृ- द्वारं प्रतिषेधयन्ति , ये च तृतीयचतुर्थरात्राबुद्गारमनुमन्यतीयस्यां त्रिषु गुरुमासः,चतुर्थे चतुर्लघु । चतुर्थी त्रिषु चतुर्ल- न्ते, पते हुयेऽपि न घटन्ते, किं येनावश्यकयोगानां न हानिघु.चतुर्थे चतुर्गुरु । पञ्चम्यां त्रिषु चतुर्गुरु,चतुर्थे षड्लघुषिष्ठ्यां स्तावदाहारयितव्यम् । मुखनिर्गतं चोद्गारं ज्ञात्वा यः प्रत्यविषुषलघु,चतुर्थे षड्गुरु।सप्तम्यांत्रिषु षड्गुरु,चतुर्थे छेदः।।
वगिलति तत्र निपातः। अष्टम्यां पतौ चतुषु गृहेषु छेदमूलानवस्थाप्यपाराश्चिकानि ।
एतां संग्रहगाथां विवरीपुराहतथा चाऽऽह
भणति जति ऊणमेवं, तत्तकवल्ले व बिंदणासणया । जह भणियचउत्थस्स, तह इयरस्स य पढमे मुणेयव्वं ।।
बितिओ न संधर बं, तं भुंजसु सूरे जं जिज्जे ॥१६६।। पत्ताण होइ भयणा, जे जतणा गंतु वत्तव्यो ।। १६४।।
एको नैगमनयाश्रितो भणति-यद्यून भोक्तव्यम् ततस्तारे यस्यां पूर्वम्यां पकौ चतुर्थे स्थाने भणितम् । गाथायां सप्त- कवल्ल प्रक्षिप्तस्योदकबिन्दोः तत्कालमेव यथा नशनं भम्यर्थे षष्ठी, तथेतरस्था अग्रेतन्याः पङ्केः प्रथमेषु त्रिषु स्थानेषु । वति, तथा यद्भक्तमात्रमेव जीर्यते ईदृशं भोक्तव्यम् . द्वि-- प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् । अन्त्यपदेषु पुनत्तत एव यतना, यथा | तीयः प्राह-एवमीशे भुक्ने न संस्तरति. तस्मात्तदीदर्श यतनाप्राप्ता येऽध्वप्रपन्ना ये च वास्तव्या यतनाकारिणस्तेषां|
भुच्च यत् मूरों अस्तमयति जीर्यत ।। चतुर्थे स्थान मासलघुरूपं यत्पुनः प्रायश्चित्तमुक्तं तदेव |
निग्गंधे उग्गालो, वितिए गंधो य एतिण उ सित्थं । तेपामवायतनावतामाद्येषु त्रिषु स्थानेषु भवति । अन्यपदे तु
अविजाणंत चउत्थे, पविसति गलगं तु जो पप्प||१७०॥ मासगुरुकमित्येवं प्राप्तभूमिकादिष्वपि भजना-प्रायश्चित्त
गन्धे द्वावादेशी । एको भणति-सूर्यास्तमिते जीणे श्रारचना विज्ञया, नवरमन्त्यपकायां छदमू नानवस्थाज्यपा
हार गत्राघसंस्तरं भवति , तस्मादशं भुङ्क्तां येनास्तराश्चिकानि भवन्ति।
मितेऽपि निर्गन्धोऽनगन्धरहित उद्गार पति । द्वितीयः एतेण सुत्तनुगतं, मुत्तणिवाते इमे तु आदेसा ।
प्राह--यदि गन्ध उद्गारस्य एति---श्रागच्छति तत आगलोही य अउमपुमा, केइ पमाणं इमं ति ॥ १६५ ।। च्छतु यथा सिक्थं नागच्छति तथा भुक्ताम् । पतौ द्वावतत्तत्थमिते गंधे, गलगपडिगते तहा अणाभोगे।
प्येक गव , 'ततिया बी उग्गालो गन्थि किं.पुण विसाती य' एते ण होति दोणि वि.महणिग्गतणा तु योगिलणा।१६६
श्रादेशः । चतुथों भणति--ससिक्थ उद्गारो गलकं प्रापतत्सर्वमपि प्रसङ्गतो विनेयानुग्रहार्थमुक्तम् , नैंतेन मत्रं
मोऽविजानत पव यावद् भूयः प्रविशति तावद्भुइनाम् । एते गतार्थ त्रस्य निघानां भवति । तत्रामी आदेशा भव
चत्वारोऽप्यनादेशाः।।
तथा चाह-- न्ति-'लाही य उमपुमति' गुर्भगति-गुणकारित्वादव
पढमे बितिए दिया वी, उग्गालोणत्थि किं पुण णिसाए। भोक्तव्यं यथोद्भागमागच्छति । तथा चात्र लोटी-कवली)ली नत्र रटान्त.. ...यथा कपल्यां यद्यपम प्रमाणादनमागृह्यते त
गंध य पडिगते पुण, एए दो वी अणाएसा ॥१७१।। तोऽन्तरन्तदर्तते , उपरि मुखं न निगच्छति । श्रथ पूर्ण
प्रथमद्वितीययोरादेशयोर्दिवाऽप्युद्गारो नास्ति किं पुनर्निशाश्राकण्ठं भृता नत उहर्तिता सर्वपि परित्यजाति, अग्निमपि
याभित्यतस्तावदनादशी , यस्तृतीयो गन्धादेशो, यश्चतुर्थ विमापयति; एवमेव यद्यधमप्राइयते । ततो वातः शरीग- उद्गारस्य गलके प्रतिगमनादेश, एतौ द्वावपि सूत्रार्थाभिप्रायन्तः सुखनैव प्रतिच-ति, तस्मिन्नुराग नाऽऽयाति । अथा
बहिभूतत्वादनादेशी। तिमात्रं समुद्दिश्यत नतोऽन्तर्वायुपूरित उद्गार आगच्छ
कः पुनगदेश इत्याहति, तस्मादवममय भीकम्यम् । कचित्पुनगचार्यदेश्या इदं
पडुपनऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। वक्ष्यमाणं प्रमाणं वृवत ।
यवि जायति तं जाणम, माहस्म पमाणमाहारं १७२।
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( ५४० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
राह भीषण
प्रत्युत्पन्ने वर्तमाने अनागतः कालो येन यावता भुक्क्रेन संयमयोगानां प्रत्युपेक्षणादीनां परिहाणि जायते तदाहारस्य प्रमाणं साधोजानीहि ।
एवं पमाणजुतं, अतिरेगं वाऽवि भुञ्जमाणस्स । वायादखमेण व पजादि कई वि उग्गालो ॥ १७३ ॥ एवंविधं प्रमाणयुक्तं कारणे वा अतिरिक्तमपि श्राहारं भुञ्जा नस्य वातादिज्ञोभेण वा कथंचिदुद्द्वार श्रागच्छेत् । ततः किमित्याह
जो पुरा सभोय या सित्यं खाऊण सिग्गतं गिलति । तहियं सुचनिवाओ तत्वाऽऽएसाइमे होति ॥ ९७४ ॥ पुनः शब्दो विशेष स तद्विशिनष्टि-यस्तमुहारमागतं प रित्यजति तस्य न प्रायश्चितम् पस्तु नमुनारे सभोजनं सिक्थं यामागचा मुखाचितं भूयो गिलति तत्र सूत्रनिपातः प्रस्तुतसूत्रनिपातः प्रस्तुतसूत्रस्था बेमे आदेशा भवन्ति
अच्छे ससित्थ बच्चिय, मुहणिग्गतकवलभरिय हत्थे य । अंजलिपडिने दिडे, मासादारोवणा चरिमं ।। १७५ ।। मागतं यदि रामापति ततो मासलपु अथ दृष्टं ततो मासगुरु । ससिक्थमागतं परेणादृष्टमाददास्मगुरु लघु तं सवित ततश्चतुर्लघु, ऐ चतुर्गुरु । मुखान्निर्गतं कबलमे कहस्तेना
मापिवति चतुर्गुरु । दृटे पडलघु । श्रथैकहस्तपुटभरिनमदृमाविति ततः पलघु, इटे पडगुरु । श्रथाञ्जलिभरिनापति गुरुत्वादय
माँ पतितं तदप्यदृष्टमापिवति छेदः, ऐ मूलम् । एवं भि क्षोरुक्क्रम् । उपाध्यायस्य मासगुरुकादारब्धम् अनवस्थाप्ये तिष्ठति । आचार्यस्य चतुर्लघुकादारब्धं चरमे तिष्ठति । एवं मासादिका चरमं यावदारोपणा मन्तव्या । प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाह
दिय रातो लहु गुरुगा, बितिए रतणसहितेण दिहंतो । अद्धाणसीए वा, सत्थो व पहावितो तुरियं । १७६ ।। अथवा ससिथर्मासकथं वा मधुं वा दिवा प्रत्यव गिलतश्चतुर्लघु, रात्रौ चतुर्गुरु । द्वितीयपदमत्र भवति । कारणे वान्तमथापिवेत् न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात्, तत्र च रत्नसहित टान्तः कर्त्तव्यः पुनरिदं सम्भवतीत्याह-अध्वशीर्ष के मनोज्ञं भक्त, भुक्तं तच्च वान्तमन्यच्च न लभ्यते, सार्थो वा त्वरितं प्रधावितस्ततस्तदेव सुगन्धि-द्रव्येण वासयित्वा भुक् ।
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अथ रत्नसहितवणिगद्दान्तमाहजलथल हेसुरा - Sणुवजणं तेरा अडवि पचंते । निक्लगण फुडपत्थर मा मे रप हर पल ॥९७७॥ घेण निसिपलायण बीमभावित तिसियो । पिवि रवणाय भोगी, जातो सच समागम ॥ १७८ ॥ जहा एगो कवि जलप महता कि सतसहस्से मोजाई पंच राई उप पच्छा संदेसं पत्थितो । तत्थ य अंतरा पच्चतविसर
"
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राह भोषण गाडी सवरपुलियोरा किया। सोविति-विषेश गिरिजामि च ते र कम्म चिजले पदे क्खिति, अन्न फुट्टपत्थरे घेत्तुं उम्मत्तगवेस करेति । चोराकुलं च पपासिता भति अहं सागरदत्तो नाम रयण्वाणिश्रो मा मे डक्कह, मा मे रथणे हरीहह । सो पलवंतो चोरेहिं गहितो, पुच्छितो । कतरे ते रयणा । फुडपत्थरे दंसेति । चोरेहिं खातं, केणाऽवि एय स्वरया हरिता उम्नो जातो. मुक एवं तापुष्पफलकंदमूलाहारेग सो अवीपयो व आगमगमं क राजा भाविता वादे ने सिर धेनुं पिवनोजा भागगतो ताडे लम्हा परे जमाणो एगम्मि सिलातल कुंडे गवयादिमडदेहभावितं विवनगंधरसं उदगं पातुं चिंतेति, जति एवं न पिवामि तो मे रोषध्ये निरयं कामभोगाव अगाभोगी भवामि । ताहे तं पवित्ता विं नित्थिमो सयणजनकामभोगेण व सप्पे जागो जाओ। अक्षरगमनिकाकस्यापि जलस्थलपयोमानामुपार्जनं कृत्वा प्रत्य विषये श्रटव्यां बहवः स्तेनाः सन्तीति कृत्वा रत्नानां कचित्प्रदेशे निखननफुटितप्रस्तराणां च ग्रहणे मा मदीयानि रत्ना नि हरनेति प्रलापेन भाववित्वा निशि-रात्रीमानि गुडीरवा पलायनम् । अटव्यां तृषितो मृतदेह भावितं जलं पारा स्वजनवर्ग समागम्य रत्नानामाभोगी जातः । एष दृष्टान्तः ।
श्रयमर्थोपनयः
वयस्थाश्री साहू, रतन्धासी बता तु पंचव I मितुदयसरिसं वतं, तमापियं रक्खए ताणि ॥ १७६ ॥
"
स्थानीयाः साधयः रत्नस्थानीयानि पञ्च महावतानि तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् तस्करस्थानीया द्रव्यापदादय इति द्रष्टव्यम्। मृतोदकसदृशं वान्तम्, तत्कारणे पिवन् तानि महाव्रतान्यात्मानं च रक्षेत् । कथं पुनरापियेदित्याह -
दियरातो ग्रम्म गिरहति असति तु रंते उ सत्थ तं चैव । गिसिलिंगेरामं वा तं चैव सुगंधदव्वं व ॥ १८० ॥ अशी मनानं शुद्धं परं वन्न दिवारात्री वा अन्यद गृह्णाति अलभ्यमाने या निशि-वाङ्गनान्यद् गृह्णाति । तस्याप्यभावे सार्थे वा त्वरमाणे तदेव वान्तं गृही त्या चतुजातकादिना सुगन्धद्रव्ये वासवान कश्चिोपः । वृ०५ उ० ।
रात्रिभोज प्राधनानि
लेवाड परिवासे, अभत्तो मुक्कसन्निहीए य । इयराभनं अमगं समनिगिभने । ३४ ॥ पदव्योपलम्गाव पावकाः तशीच कनिकादिकायामला इतरस्यानायां गुलादिकायाम उत्तरत्र, शेपग्रहणादिह दिवा गृहीनं रात्रिं परिवस्य दिव ति
मित्यर्थः । शेषनिशाभते प्रथम विमुच्य पत्रिभिर्दि
"
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राइभोयण अभिधानराजेन्द्रः।
राइमायण गृहीतं रजन्यामेव भुक्तमिति द्वित्रिचतुर्थभङ्गकैर्निशाभक्ने 'अत्रार्थापत्त्याऽऽक्षिप्तमनवगच्छन्नाह परःरात्रिभोजने जाते सत्यएममिति । उक्तं रात्रिभोजनप्रायश्चित्त- निसिभत्तविरमणं पि हुनणु मलगुणो कहं न गहिय। म । जीत । कल्प० । (रात्री कल्पनीयाः श्रोषधयः 'श्राहार
वयधारिणो चिय तयं,मलगुणो सेसयस्सियरो।१२४० पञ्चखाणशब्दे द्वितीयभाग ५२६ पृष्ठे उक्ताः) स्थानाङ्गरप्रपञ्चमाध्ययनद्वितीयोद्देशके 'राइमोश्रण-भुजमाणे' इत्य
आहारविरमणाओ, तबो व तव एव वा जोऽणसणं । स्य वृत्ती दिवा गृहीतं दिवा भुक्नमिति भङ्गकम्य कथं अहव महब्बयसर-क्खत्तणो समिइउ व्य ॥१२४१॥ रात्रिभोजनता ?. पर्युषितरक्षणादन्यथा वेति ? प्रश्नः अत्रो- ननु रात्रिभोजनविरमणमपि मूलगुणः , तदिह किमिति तरम्-रात्रिभोजनचतुर्भङ्गयां दिवा गृहीतं दिया भुक्तमिति मूलगुणन्वेन नोपात्तम् ? । अत्रोत्तरमाह-व्रतधारिणः संभङ्गस्य पर्युषितरक्षितभक्षणेन रात्रिभोजनता क्षेया. हारि- यतस्यैव तद् रात्रीभोजनविरमण मूलगुणः , शेषस्य तु गृभन्यो दशवकालिकवृत्तौ पाक्षिकसूत्रवृत्तौ च सन्निधिपरि- हिणो देशविरतस्योत्तरगुण इत्यर्थः । कुतः ?, आहारविरभोगाधिकारे तथैव प्रतिपादनादिति ॥३६॥ सेन० १ उल्ला० । मणरूपत्वात् , तपोवत् । अथवा-तप एव वा तद् निशिरात्रिभोजनप्रत्याख्यानवताऽन्नादिविषये रात्रिसिद्धदिवा भु- भोजनविरमणमिात प्रतिज्ञा, यतोऽनशनम्-अशनत्यागरूकादि चतुर्भङ्गयां विभङ्गी वा, तथा पक्काम्नेऽपि सा पत्वादिति हेतुः, चतुर्थादिवत् , इत्यनुक्तोऽपि दृष्टान्तः स्वयं बज्यैव न वा ?, आद्यन्नादिष्विव न तथा, तत्र तन्यवहा- दृश्यः, तपश्चोत्तरगुण एवेति भावः । इतश्चेदमुत्तरगुणः । रोऽद्य यावत् तत्र किं निदानमिति ?, द्वितीय प्रारम्भसा- कुतः ?, महावतसंरक्षणात्मकत्वात् , समित्यादिवदिति म्येऽप्यनादिष्वेव तद्वज्यता न पक्कान्नेबिति किम्?, अथ ज- | ॥१२४०॥ १२४१॥ लश्लेषाभाव एव तत्र तदोपपरिहारनिदानम् , अत एव त
अत्राह-यद्येवम् , उक्तयुनेर्वतधारिणोऽपि तमूलगुणो न स्थ मासाद्यवधिकल्ल्यता कालमानाद्यपीति चेत्तदा राज्युषि
प्राप्नोति, इत्याहतकल्प्यस्य करम्भादेपि रात्रिसिद्धस्य किमकल्ल्यताव्य- तहवि तयं मूलगुणो, भामइ मूलगुणपालयं जम्हा । वहारः ?, तेनारम्भादिदूषणलाम्येऽप्यन्त्रपक्वान्नयो रात्रिसिद्ध- मूलगुणग्गहणम्मि य, तं गहियं उत्तरगुण व्य ।१२४२॥ वजनीयतायां पतिभेदश्चेतःसंशयाकुलमातनोतीति प्रश्नः,
तथाऽपि प्रतिनस्तन्मूलगुणो भरायने, समस्तव्रतानुपाअनोत्तरम्-गत्रिसिद्धा दिवा भुक्ताादेका सा शास्त्रे क्वापि दृष्टा ।
लनात् , समस्तवतसंरक्षणेनाऽन्यन्तोपकारित्वात् , प्राणानास्तीति, तेन रात्रिभोजनप्रत्याख्यानवतां तामाश्रित्य वयं
तिपातविरमणवत् , मूलगुणग्रहणाच्च साक्षादनुपात्तमपि तद् ता का ?, कश्च पक्वान्नदृष्टान्तोऽपि ? , स्वयमेव सम्यक्तया पर्यालोच्यम्, परं विरन्धने महानारम्भो भवतीति श्रा
गृहीतमेव द्रष्टव्यम् , उत्तरगुणवदिति ॥ १२४२ ॥ द्वैस्तद्वारणार्थ स्वशक्त्या रात्रिरन्धन वर्जनीयम् ,न तु रात्रि
कस्माद् मूलग्रहणे तद् गृह्यते ?, इत्याहभोजनप्रत्याख्यानभाभयेन, ततो न कोऽपि पक्तिभेदः। सा
जम्हा मूलगुण च्चिय, न होंति तब्धिरहियस्स पडिपुत्रा। धुमाश्रित्य तु दिवा गृहीतरात्रिभुक्तादिका चतुर्भङ्गी शास्त्रे तो मूलगुणग्गहणे, तग्गहणमिहत्थो नेयं ॥ १२४३ ॥ प्रोक्ताऽस्ति, न तु श्राद्धानाश्रित्येति ध्येयम् ॥८६॥ सेन०१ यस्मात् तद्विरहितस्य-रात्रिभोजनविरमणविरहितस्य मउल्ला० । अन्धकारे आहारकरणे रात्रिभोजनदोषो लगति हाव्रतादयो मूलगुणा एव परिपूर्णा न भवन्ति, अतो मून वा ?इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-"जे चेव रणिभोयण-दोसा लगुणग्रहणे तद्ग्रहणमिहार्थतो विज्ञेयम् । तथाहि-रात्री ते चव संकडमुहम्मि । जे चेव संकडमुहे, ते दोसा अं- भोजने विधेये रात्री भिक्षार्थमचक्षुर्विषये पर्यटनाद् वह्निधयारम्मि ॥१॥" इत्योपनियुक्तिवचनात् रात्रिभोजनदोषो | प्रदीपनादिभिः स्पर्शनात् , पुरःकर्म पश्चात्कर्माद्यनषणालगतीति ज्ञायते ॥ ७२ ॥ सेन० ३ उ०। ये केचन रात्रिभो- दोषदुष्टाहारग्रहणादेश्च प्राणातिपातव्रतविघातः । अन्धकाजनप्रत्याख्यानिनो घटिद्वयशेषे दिवसे भोजनं कुर्वन्ति ते- रवशेन च पतितहिरण्यादिद्रविणग्रहणादेः, योषिपरिभोपां रात्रिभोजनप्रत्याख्यानभङ्गो भवति न वा? इति प्रश्नः, गसम्भवाच्च शेषव्रतविलोपः । इत्येवं रात्रिभोजनविरमणअनोत्तरम्-घटीद्वयशेषे दिवसे भोजनं कुर्वतां रात्रिभो- मन्तरेण न सम्भवन्त्येव प्राणातिपातचिरत्यादिमूलगुणाः । जनस्यातीचारो लगति , न तु तद्भङ्ग इति ॥ १८ ॥ सेन अत एव तद्ग्रहणेऽत्यन्तोपकारित्वाद् गृहीतमेवार्थतस्तदि४ उल्ला ।
ति ॥ १२४३॥ राइभोयणवेरमण-रात्रिभोजनविरमण-न। निशि भोजनव
__अत्र प्रेरकः प्राहजेने, पा० । सूत्र।
जइ मूलगुणो मूल-व्यय उवगारि त्ति तं तवाईया । षष्ठव्रतम्
तो सब्वे मूलगुणा, जइव न तोतं पि मा होजा ।।१२४४॥ चतुर्यिधस्याऽऽहारस्य, सर्वथा परिवर्जनम् ।
यदि तद् निशि भोजनविरमणं मूलगुणोपकारित्वाद् मूलषष्ठं व्रतमिहैतानि, जिनैर्मूलगुणाः स्मृताः ॥ ४६॥ ।
गुण इष्यते, ततस्तर्हि तपःप्रभृतयः सर्वेऽपि मूलगुणाः प्रा
प्नुवन्ति, तेषामपि तदुपकारित्वात् , अतो विशीर्णोत्सरगुचतुर्विधस्य अशनपानखादिमस्वादिमभेदभिन्नस्य श्राहा- णकथा । यदि पुनस्ते तपःप्रभृतयो मूलगुणा न भवन्ति, तरस्य-अभ्यवहारस्य सर्वथा-त्रिविधत्रिविधेन परिवर्जनम् | हि तदपि रात्रिभोजनविरमणं मूलगुणो मा भूत् , उपकाविरमणं तत्पष्ठ व्रतं भवतीति क्रियान्वयः । ध० २ अधि०।। रित्वाविशेषात् । पूर्वापरविरोधश्चैवमनभ्युपगच्छतो भवतः। पं०1०। रात्रिभोजनविरमणस्य मूलगुणत्वमाह। | तथाहि-भवतैवानन्तरमुक्तं यथा 'महावतसंरक्षणादुत्तरगु
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राइभोगण
महात
या इदम समितियत्' इति इदानीं त्यभिघ रक्षणाद् मूलगुण एतदिति । अत्रोच्यते किमिह विरुद्ध
उपधर्म हि रात्रिभोजनविरमच यतोस्य तदुत्तरगुणः, तस्याऽऽरम्भजप्राणातिपातादनिवृत्तत्वा
त्, निशि भोजनेऽपि मूलगुणानामखण्डनात्.' अत्यन्तोपकाराभावादिति वतिनस्तु तदेव मूगुणः, तस्याऽऽरम्भजादपि प्राणातिपातानिवृत्तत्वात् रजनिभोजने च तत्सम्भवात् अतस्तद्विधाने बगुवानां वनात् । तद्विरम तु तेषां संरक्षणमात्यन्तोषकारात् तत् तस्य मूलगुणः तपःप्रभृतीनां रथमत्यन्तोपकारित्वाभावादुत्तरत्व-
मिति ॥ १२४४ ॥
( ५४२ ) अभिधानराजेन्द्रः।
श्राह च
सव्वव्ययवगारि, जह तं न तहा तवादओ वीसुं । जं ते तेगुत्तरिया, होति गुणा तं च मूलगुणो ॥ १२४५॥ 'जंति' यस्मात् कारणाद् यथा तद् रात्रिभोजनविरमं सर्वव्रतोपकारकम्, न तथा तपःसमित्यादयो विष्वक् पृथकू, तेन कारणेन ते उत्तरिका-उत्तरगुणा भवन्ति । तनु रात्रिभोजनवतं मूलगुणानामत्यन्तोपकारित्वाद् मूलगुणः । यथा हि-प्राणातिपातादिवतानां पञ्चानामेकस्थामा - षाणामभावाद् मूलगुणत्वम्, एवं रात्रिभोजनव्रतस्याऽप्यभावे सर्वव्रताभावादत्यन्तोपकारित्वाद मूलगुराम्यमिति भावः ॥ १२४५ ॥ विशे० । दश० । ध० । मनुष्यलोकाद्वहिः क्कचिद्वात्रिरेव कचिदिचैव तत्र कालप्रत्याख्यानं रात्रिभोजनप्रत्याख्यानं च घटते न वा ? इति प्रश्नः, श्रत्रोत्तरम् - मनुष्यलोकाद्वहिः कालप्रत्याख्यानं रात्रिभोजनप्रत्याख्यानं चेहेत्यपेक्षया सम्यक्काल स्वरूपपरिज्ञाने भवत्यन्यथा तु सङ्केतप्रत्याख्यानमिति ॥ १२४ ॥ सेन० १ उल्ला० । (रात्रिभोजनविरमणसूत्रम् ' पडिक्कमण' शब्दे पश्चमभागे २८४ पृष्ठे ऽस्ति ) राहय-रात्रिक० रात्रौ भयः रात्रिः रात्रियाते तु
श्राव० ।
·
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"
राइयपोसह रात्रिकपौषध-पुं० पौषधभेदे, सेनमज्म - । रहाथो पर जाव दिवसरस अंतोमुडुत्तो ताय धिप्पा' इति सामाचारीमध्ये विद्यते तेन दतीययामादर्या
"
मध्याहारपरतः रात्रिपौषधः कर्तुं कल्पते न था ? इति मनः अत्रोत्तरम्-मध्य हा परतः पोषधयति परं साम्प्रतीनप्रवृत्त्या प्रतिलेखनात् अर्वाग् न कार्यंते, किन्तु परत इति ॥ ३०२ ॥ सेन० ३ उल्ला० । खाद्याः कथयन्त्यस्माकं पौषधिका राधेस्तुर्थधामे समुधाय पौषधमध्ये सामायिकं कुर्वन्ति तदक्षराणि च प्रतिक्रमयासूत्रचूख सांगत, तेन श्रीमतां श्रीया सामाधिकं कथं न कारयन्ति इति प्रश्नः अत्रोत्तरम् - रात्रिपौषधमध्ये पाश्चात्य रात्री सामायिककरणमाश्रित्य यानि चूर्वक्षराणि सन्ति तानि सामाचारीविशेषेण समर्थनीयानि न तु दूषणीयानि, तस्याः शिष्टकृतत्वात् । न चात्मनां तदक्षरदशनेन तस्कर्त्तव्यतापत्तिः बच्चेंऽपि सामाचारीविशेषाः सर्वैरपि अवश्यंभावेन विधेया एवेति शाखाक्षरानुपलम्भादिति । किन खरतरपक्षीयाणां चूर्णितेपचनं युक्तिम
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राक्खमतीव
तिभाति, तद्गतसकलसामाचार्यास्तैरकरणात् यदि च-तेषां चूर्णैः प्रामाण्यमेव तदा तद्वता सकलाऽपि सामाचारी तैः कथं न विधीयत इति बहुयतव्यमस्तीति ॥ ३९६ ॥ सेन० ३ उन्ना० । प्रातरूपवत्रं कृत्या सायं रात्रिपौषधं करोति तथाऽऽचाम्लं कृत्वाऽहोरात्रिकं करोति स उपधानाऽऽलोचनामध्ये समेति किं वा न ? इति प्रश्नः, श्रत्रोत्तरम् - उप
कृत्यायः प्रातरोराषिकपौषधः कृतो भवति स उपधानाssलोचनामध्ये समेति नान्य इति ॥ १२५ ॥ सेन० ४ उल्ला० ॥ राइया रात्रिका श्री० अतिलघुसपे सूत्र०१०४०१४ । राइयाखाड राजिकाखाट न० करमथितनि, ध० २ अधि० ।
राइसिरी - राजश्री - स्त्री० । चमरेन्द्रस्याऽग्रमहिष्या मातरि, शा० २ श्रु० १ वर्ग २ श्र० । राई- रात्री स्त्री० निशायाम्, "रयणी विहावरी स निसा जामिणी राई | पाइ० ना० ४७ गाथा । राईमई - राजीमती - स्त्री० । उग्रसेनपुत्र्यामरिष्टनेमिभार्यायाम्, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । ( श्रस्या व्याख्या 'रहणेमि ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४६४ पृष्ठे उक्का ) ऐरवते राजीमतीतिमा । ती० २ कल्प ।
राईमईगुहा राजीमतीगुहा खी० पत्र राजीमत्या रथनेमिः प्रतिबोधितस्तादृशायां गुहायाम्, ती ३ कल्प | ( व्याख्या 'उज्जयन्त' शब्दे द्वितीयभागे ७३६ पृष्ठे गता ) राईव - राजीव- न० । कमले 'राईवं ' पाइ० ना० १० गाथा । राउग्गह- राजावग्रह - पुं० । राजा - चक्रवत्र्त्ती तस्याऽवग्रहःपखण्डभरतादिशेषं राजावग्रहः । अवग्रहमेवे भ० १३० २ उ० । प्रति० । श्राचा० ।
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रस्य न वा
राउल - राजकुल- न० ।' लुग्भाजन - दनुज - राजकुले जः सस्व॥ ८ | १ | २६७ ॥ इति सस्वरस्य जकारस्य लुग्वा । राउं । राउलं । प्रा० । नृपकुले, पं० चू०३ कल्प । राक्खसदीय राचसद्वीप पुं० खनामख्याते द्वीपे सेन० । - - । राक्षसद्वीपो जम्बूद्वीपेऽस्ति लवणसमुद्रे वा ? स च प्रमाणालेनोत्सेधाङ्गलेन या इति प्रश्नः प्रत्रोत्तरम् -- ? लवणोदे पयोराशी, दुर्जयो घुसदामपि ।
"
योजनानां सप्तशती, दिक्षु सर्व्वसु विस्तृतः ॥ ३१ ॥ राक्षसद्वीप इत्यस्ति, सर्वद्वीपशिरोमणिः । तदन्तरे त्रिकूटाद्रि-भूमिनाभौ सुमेरुवत् ॥ ३२ ॥ महर्द्धिर्वलयाकारो, योजनानि नवोन्नतः । पञ्चाशतं योजनानि, विस्तीर्णोऽस्त्यतिदुर्मदः ॥ ३३ ॥ तस्योपरिष्टात्सौवर्ण- प्राकारगृहतोरणा । मयालति नाम्ना रघुनैयास्ति कारिता ॥ २४ ॥ पदयोजनानि भूस्तस्या-मतिक्रम्य चिरंतनी । शुद्धस्फटिकवप्राङ्का, नानारत्नमयालया ॥ ३५ ॥ सपादयोजनशत प्रमाणा प्रवरा पुरी । मम पाताललङ्केति विद्यते चातिदुर्गमा ३६ पुरीद्वयमिदं वत्सा 53वत्स्व तन्नृपतिर्भव। भयचैव तीर्थ नाथदर्शनजं फलम् ॥ ३७ ॥
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राक्सीव
इत्युक्त्या राक्षसपनिमांगिदैर्नवभिः कृतम् । ददौ तस्मै महाहारे सद्यो विद्यां च राक्षसीम् ॥ ३८ ॥ भगवन्तं नमस्कृत्य, सदैव धनवाहनः ।
(xv) अभिधानराजेन्द्रः ।
श्रागत्य राक्षसद्वीपे राजाऽभूलङ्कयोस्तयोः ॥ ३६ ॥ राक्षसद्वीपराज्येन, राक्षस्या विद्ययाऽपि च । तदादि तस्य वंशोऽपि ययौ राक्षसवंशनाम ॥ ४० ॥ इति श्री अजितनाथचरित्रानुसारेण राक्षसद्वीपो लवणसमुद्रेऽस्ति प्रमाणातैथेति ध्येयम् ॥ १६० ॥ सेन० ४
उल्ला० ।
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राम-राम पुंनं रामः कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादने उत्तपा १ ० । रज्यतेऽनेनेति रागः । सीपीरादिके अञ्जने, सू० १ ० ६ श्र० । श्र० स० । रञ्जनं रज्यते वा अनेन जीव इति रागः । श्रा० ० ४ ० । रागवेदनीयकपादितेष्वङ्गपरिसामरूपे भावे, पं० सू० १ सूत्र | श्री० प०। अर्ना मध्यक्रमायालो भलक्षणभेदभावे वङ्गमात्रे, पा । ना० म० । सूत्र० । श्रातु० । श्राव० । ध० | नं० | ० | ग० । प्रव० नि० चू० । रागे उदाहरणम्चिनिप्रतिष्ठिर्वनाम पुरं हौ तत्र सोइरी भायां लपौ रता १ ॥ लघुर्नेच्छति तां चाऽऽह, भ्रातरं मे न पश्यसि ? | पति व्यापाद्य सा भूय-स्तम्चे नाऽन्यमंस्त सः ॥ २ ॥ निर्वेदेनाऽच तेनैव स घुमाददे।
"
साऽपि वा भ्रामेार्तिता शुनी ॥३॥ साधवोऽपि ययुस्तत्र, शुन्याऽदर्शि मुनिः स च । देवासा, मुर्मुरियाकरोत् ॥ ४ ॥ नष्टः साधुमृता सा च ततोsव्यां च मर्कटी । तस्या एव च मध्येना-ढव्यायातं कथंचन ॥ ५ ॥ अन्तर्मुनीनां तं वीक्ष्य, प्रेम्णा शिश्लेष मर्कटी । तां विमोच्याथ कष्टेन, स कथंचित्पलायितः ॥ ६ ॥ मृत्वा तत्राऽपि सा जज्ञे, यक्षा तं प्रेक्ष्य सावधेः । नैच्छन्मा मेष तच्छिद्रा - पीक्षते न त्वयैक्षत ॥ ७ ॥ समानवयसोऽवोचन् हसन्तस्तं च साधवः । ! धन्योऽसि यच्तुनीमडीप्रियः ८ ॥ श्रन्यदा क्रमलङ्घय स, जलवाहं विलङ्घितुम् । प्रमादाद्वतिभेदेन, पदं प्रसारयन्मुनिः ॥ ६ ॥ तस्य समासाद्य साहितः । स मिश्रा दुष्कृतं जल्प-नपत्तश्च जलाद्बहिः ॥ १० ॥ सम्यगष्टिः सुतां च नियतं मुनेः मम् । देवाऽगयो, देवतातिशयेन सः ॥ ११ ॥
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आ० क० १ ० । ० म० । अने भांति सो भिक्खस्सश्रो गामे, तत्थ ताप वाणमंतरीप तस्स रूवं छात्ता तस्स रूवे पंथे तलाए राइ, अन्नेर्दि दिट्ठो सिहं गुरुपं, आवत्सर आलो, गुरुहिं भणिस चालोपछि अनो! सो उपडतो मुलगाइ भद्रन संमरामि खमासमणा ! तेहिं पडिभिन्नो नधि सि. आयरिया अणुर्वायरस न देता सो वि-किं कद्र व तिसा उचलता साह एवं मद कयं सा साविगा जाया, सव्वं परिकर । एस
भण्इ
राग
तित्रिहो असत्थो, तस्स अप्पसत्थस्स इमा गिरुत्तगा[हा--" रज्जति श्रसुभकलिमल - कुणिमाणिट्टेस पाणिणो जेण । रागो ति तेरा भएइ, जं रज्जइ तत्थ रागत्धो ॥१॥" पोऽप्रशस्त ( आव० २ ० ) दीसंसारहेतुत्वादृश्ययसायात्मकत्वात् । ( श्र० म० १ ० ) प्रशस्तस्तु रागोऽईदादिविषयः ।
उक्रं च
अरहंते व रागो, रागां साहस बंभपारीसु ।
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एस पसत्थो रागो, अज सरामण साहूणं ॥ १ ॥ एवंविधं रागं नामयन्तः- अपनयन्तः, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदादपनीत एव गृह्यते । श्रह - प्रशस्तनामनमयुक्तं न तस्याऽपि बन्धात्मकत्वात्, यद्येवम् ततः एस पसन्थो रागो" इत्यादि चिरुजम् नैष दोषः सरागसंयतानां कृपलननोदाहरणतस्तस्य रागस्य प्राशस्त्यादित्य प्रसङ्गेन । श्राव० १ अ० । " रागं च दोषं च तहेव मोहं उद्धसुकामेव समूलजाले जे जे उदाया पतेि कि तस्सामि महा०ि३२० रामदों य दो पाये, पावकम्मपदल जे भिक्खू भई नियं से न अच्छर मण्डले,” उत्त०३१ श्र० । “रागतृष्णा सुखोपाये" -सुखोपाये सुखसाधने तुष्यासुखस्य सुखानुस्मृतिपूर्वी लोभपरिणामो रागः । द्वा० २५ द्वा० । विशे० ।
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विस्तराम भिधित्सुस्तावामस्वरूपं विवृणोतिरजति तेण तम्मि व रंजयमहा निरूवियो राम्रो । नामाइ उम्मेओ, दब्बे कम्मेयरविभियो ।। २६६१ ।। रज्यन्ते तेन तस्मिन या सति क्रिएसच्या:-- प्राणिनः त्र्यादिष्विति रागः । श्रथवा-रञ्जनं रागः । स च नामादिचतुभेदः स्थानान्तरे निरूपितो रागः । तत्र नाम स्थापनाशशरीरभव्यशरीरद्रव्यरागावचारः सुज्ञेय एव । श-भव्यशरीरव्यतिरिक्ते तु द्रव्ये विचारों को रागः ?, इत्याह-कमेयरविभिन्नोति कर्मद्रव्यगः कर्मद्रव्यरागधेत्यर्थः ॥। २६६१ ॥
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तत्र कर्मद्रव्यरा' व्याधिष्यासुगहजग्गा बड़ा व तया य पत्ता उईरणावलियं । अह कम्मदव्यराओ, चउव्हिा पोग्गला हुति ॥२६६२ ॥ 'अति' अधयायानमुच्यते तत्र कर्मद्रव्यरागःचतुर्विधाः पुद्गला भवन्तिः तद्यथा-- योग्या-बन्धपरिणामाभिमुखाः, बध्यमानाः- प्रारब्धवन्धक्रियाः बद्धा - उपरतबन्धक्रियाः । गाथावन्धानुलोम्याच व्यत्ययेनोपन्यासः । तथा उदीरयोदशरणालिकां प्राता यावदद्यायुदयं न गति उदयेन वेद्यमानानां भावरागत्वेन वच्यमाणस्वादिति । २६६२ ॥
नोकर्मद्रव्यरागमादनोकम्मदब्बराओ, पयोगओ सो कुसुंभरागाई । बीओबीससाए, नेत्रो संभम्भरागाई ।। २६६३ ॥ नोकपरागस्तु द्विविधा प्रयोगत, विश्वसातयः रात्र प्रयोगतः कुसुम्भरागादिः, वित्रसातस्तु सन्ध्यागादिरिति ॥ २८६३ ॥
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राग
भावगगमाह
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जं रायवेयणिज्जं समुइमं भावओो तम्रो राम्रो । सो दिट्टि - विसय-नेहा, गुरारूपो अभिसंगो | २६६४। कुप्पचयसु पदमो विओो साइए विसए । विसयादनिमित्तो वि हु, सिणेहराओ सुयाईसु || २६६५॥ यद् रागेण वचन रति रागवेदनीयं माया-लोभलक्षणं कर्म समुदमुदप्राप्तं विपाकेन वेद्यते, तज्जनितश्च जीवपरिग्रामरूपाऽभिष्वङ्गस्तकोऽसौ भावतो रागो भावरागः । स च त्रिविधोऽभिष्वङ्गरूपः तद्यथा चनुरागः, विषयानुरागः, कोहानुरागश्चेति तत्र प्रथमः कुप्रवचनेषु द्रष्टव्यः द्वितीयस्तु शब्दादिविषयेषु स्नेहरागस्तु विषपाद्यनिमितोऽविनीतेष्यपसुतबान्धवादिष्विति || २६६४ || २६६५ ॥ विशे० । (यादृशं वस्तु ताडगेय रागो भवतीति वक्ष्यते यरूहि शब्दे )
रागे दुषिते । तं जहा माया य, लोभे य
प्रशा० २३ पद । प्रा० म० । स० । प्रा० चू०| श्रा० श्राव० । पुत्रादिषु स्नेहे, प्रश्न० ४ संव० द्वार ।
समाह पैदाइ परिव्ययंतो,
(RVW) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नो वि पि तसे इच्छेवताओ बिइज्ज रागं ॥ ४ ॥ तस्यैवं त्यागिनः समया - श्रात्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यते ऽनयेति प्रेक्षा- दृष्टिस्तया प्रेक्षया-दृष्ट्या परि-स - समन्ताद् व्रजतोगच्छतः परिब्रजतः गुरुपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्वेत्यर्थः स्यात् कदाचित्कर्मगते मनो निःसरति पहिया पहि भुक्रभोगिनः पूर्वपीडितानुस्मरिचपालो अकंपिओ महाभागो गा
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रादिना अमोगिनस्तु कुतूहलादिना मनः अन्तःकरणं निःसरतिः निर्मम हाइहिरित्यर्थः । ए स्थ उदाहरणम्" जहा एगो रायपुत्लो बाहिरिया उपडाएसालाए अभिरतो दासी व ते ते जलभ रिघडेरा बोले तो तेरा तीर दासीर सो घडो गोलियामिश्र तं करिति पुरावती जाया चिंतियं च - " जे चेव रक्खगा ते, चैत्र लोलगा कत्थ कुविउँ सका? उगाउ समुजलियो, अग्गी कि पुणे चिखलगोलग तक्खणा एव लहुहत्थ्याए तं घडढिकि एवं जर संजयस्स संजमे करेंतस्स बहिया भयो णिग्गच्छ तत्थ पसत्थे परिणामेण तं असुहसंकल्पदिडुं चरिचजलचराद्वार ढकेपवं केनालम्बनेनेति १ यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयम् - न सा मम नाऽप्यहं तस्याः पृथकर्मफलभुजो दि प्राणिन इति पर्व ततस्तस्याः सकाशाद्व्यपनयेत रागम्, तत्त्वदर्शिनो हि सनिवर्त्तन्त एव । अतत्त्वदर्शननिमित्तत्वाज्ञस्पेति । तथ' न सा महं णोऽवि अहं वि तीसे ' नि, एत्थ उदाहर एगो वाणियदारो, सो जायं उस्मिता पञ्चाओ। सौ य श्रावणुप्पेही भूश्रो, इमं च घोसेइ " न सा महंगो विश्रपि तीसे " सो चिंतेइ-सा वि मर्म अहं पि तीसे, सा मारना हम तं हामि कार्ड गहियायारभं डगवत्थो चैव संपट्टि । गओ तं गामं जत्थ सा । सो य णिवाणतडं संपतो । तत्थ य सा पुन्वजाया पा
कंपणार, बुच्छिती कया तित्थे ॥ १ ॥ " रागेण-स्वजनमित्रादिमेम्णा न तु गुणवचबुझ तथा द्वेपेस-ह द्वेषः साधुनिन्दाख्यो, यथा धनधान्यादिरहिता ज्ञातिजनपरित्यक्ताः चुधार्त्ताः सर्वथा निर्गतिका श्रमी उपष्टम्भाहाइवे निन्दापूर्व या अनुकम्पा साऽपि निन्देय, अशुभदीर्घायुष्कहेतुत्वाद्, यदागमः - 'तहारूवं समणं वा माहसेवा संजयचिरयपडियपश्चतापपादक हीलितानिदिसा सिंखिता गरिदा मामने अपी इकारमेणं असणपाएखाइमसाहमेयं पडिलाना असुहदीहाउअत्ताए कम्मं पगरे ति । यद्वा- सुखितेषु दुःखितेषु वा श्रसंयतेषु पार्श्वस्थादिषु शेषं तथैव परं द्वेषेण ' दगपाणं पुष्फल, असणिज्ज ' मित्यादि तद्तदोषदर्शनान्मत्सरेण अथवा - श्रसंयतेषु - षड्धिजीवचधकेषु कुलिङ्गिषु रागेण - एक देशग्रामगोप स्थादित्या द्वेषेण जिनप्रययनप्रत्यनीकता दिदर्शनोरथेन | ननु प्रवचनप्रत्यनीका दर्शनमेव कुतः उच्यते-तद्भलभूपत्यादिभयात् तदेवंविधं दानं निन्दानि गर्दै - नरौचित्येन दीनादीनां तदप्यनुकम्पादानम्, यतः- “ कृपsनाथदरिद्रे, व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थमनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥ १ ॥ " समर्थदेहस्यापि प्रार्थनाकारिणा दरिद्रप्रायत्वादनुकम्पादानम् तच्च न निन्दा, जिनेन्द्रैरपि वार्षिकदानावसरे तस्य दर्शितात् मोफले दाने, पात्रापात्रविचारणा । दया
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राग
गियरस श्रागया । सा थ साविया जाया पव्वइउकामा य । तार सो साओ, इपरो न यारा तेरा सा पुछिया
मुगस्स धूया किं मया, जीवइ वा ? सो चिंते-जह सासहरा तो उप्पब्वयामि, इयरहा ण ताए सायं-जहा एस पवज्जं पर्याहउकामो, तो दो वि संसारे भमिस्सामो । ति भणियं च श्रणाएसा श्ररणस्स दिरणा : तो सो चिडिमारो सधै भगवंत साहा अहं पाडिओ जहा 'सामहं सो विहं पिती' परमसंवेगमायो। भरियं -तामितीय रम्यपदिति साऊ अणुवासिन्विं जीवयं कामभोगा इत्तरिया एतस्स केवलितं धम्म पडिक असिडा जा डिगो परियसगास पचजाए घिरीभूय एवं अप्पा साहारेतवो जहा तेगं ति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ दश० २ ० । रागद्वेषौ विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि ? अथ तो निर्जिताती फिमरवं करिष्यसि । सूत्र० २ श्रु० ६ ० | रागाद्दत्तदानस्यापि निषेधः- “ सुहिए दुहि अ. जा मे अस्संजय अणुकंपा राव दोसेल व. तं निंदे तं च गरिहामि " ॥ १ ॥ एतद्द्वाथाव्याख्यानं प्रसा द्यम् ? इति प्रश्नः अत्रोत्तरम् - साधुष्विति विशेष्यम नुक्तमपि संविभागप्रतप्रस्तावादध्वाहार्यम् ततः साधुषु कीरशेषु :सुष्ठु हितं - ज्ञानादित्रयं येषां ते सुहितास्तेषु पुनः कथभूतेषु ?- दु.खितेषु-रोगेण तपसा या ग्लानीभूतेषु उपधिरहितेषु वा पुनः कीदृतु ? -न स्वयं-स्वच्छन्देन यताउद्यता श्रस्वयतास्तेषु गुर्वाज्ञयैव विहरत्सु इत्यर्थः, या मया कृताऽनुकम्पा - कृपाऽन्नपानयखादिदानरूपा भक्ति, अनुकम्पाशब्देनात्र भक्ति सूचिता यथोक्रम्" घाय
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(४५) राग अभिधानराजेन्द्रः।
रागदोसविजेता दानं तु सर्वज्ञैः , कुत्रापि न निषिध्यते ॥१॥" तथा- गिराम्-वाचाम् ईम्-लक्ष्मी शोभां, श्यति यः, तम्: प
यत्प्रथमोपकारिणि न तत्प्रायः स एवार्यते, दी-| रमार्थतः पदार्थप्रतिपादनं हि वाचां शोभा, तां च ताने याचनमूल्यमेव दयिते तत्कि न रागाश्रयात् । पात्रे सामपोहमात्रगोचरतामाचक्षाणस्तथागतस्तनूकरोत्येवः इति यत्फलविस्तरप्रियतया तद्वार्द्धषीकं न किं, तहानं यदुपेत्य विशेषणावृत्त्या सुगतोपतेपः । पुनः कीदृशं तम् ?, शातारम्निःस्पृहतया क्षीणे जन दीयते ॥ १॥” इति गाथार्थों विश्ववस्तुनः-नोऽस्माकं श्वेतभिक्षूणां सम्बन्धि , विश्ववशेयः ॥ १७० ॥ सेन० ४ उल्ला० । मन्मथपारवश्ये, तं० । स्तु समस्तजीवादितत्त्वं कर्मताऽऽपन्नम् , समानतन्त्रत्वारागकिरिया-रागक्रिया-स्त्री० येन परस्य राग उत्पद्यते ज्ज्ञातारम् । इति दिगम्बरावमर्शः । ज्ञातारमिति च तादृशे क्रियाभेदे, प्रा० चू०४ अ०।
तृन्नन्तम् , इति " तृन्नुदन्त०"-इत्यादिना कर्मणि षष्ठीप्र
तिषेधः । नन्वेकस्मिन्नेव वक्तरि स्वात्मानं निर्दिशति कथरागज्झवसाण-रागाध्यवसान-न० । रागहेतुके ऽध्यवसान
म् ' पानये' इत्येकवचनम्, 'नः' इति बहुवचनं च सभेदे, श्रा० चू० १ ०। ( अस्य कथा ' आउ' शब्दे
मगंसाताम् ?, इति चेत् । नैतद् वचनीयम्, 'नः' इत्यत्राद्वितीयभागे ११ पृष्ठे गता)
पि वक्त्रा स्वस्यैकत्वेनैव निर्देशात् ; बहुवचनं त्वेकशेषवरागज्झाण-रागध्यान-न० । रागविषयकदुर्ध्याने, पातु।
शात् । तथाहि-ते चान्ये सर्वे श्वेतवाससः, अहं च प्र" रागज्झाणे" रागोऽभिष्वङ्गमात्रम्, स च कामरागस्ने- चिक्रसितशास्त्रसूत्रधारः , वयम् : तेषां नः, " त्यदादिः" हरागदृष्टिरागभेदात्रिधा । तत्र कामरागो विष्णुधियां वि- इत्यनेनाऽस्मच्छब्दोऽवशिष्यते, बहुवचनं च भवति । तकमयशोराजस्येव । स्नेहरागो दामत्रकस्य सुरथेष्ठिन इव तोऽस्माकं श्वेतवासोदर्शनाश्रितानां सर्वे तत्त्वं यो जास्वपुत्रमरणश्रवणतो हृदयस्फाटात् , दृष्टिरागो ब्रह्मलोका- नाति, तं च स्मरामीत्युक्तं भवति । इत्थं चैकशेषशालिविदागत्य स्वदर्शनानुरागतः स्वशिष्यं प्रति-आसुरे! रमसे इत्या- शेषणं कुर्वाणैस्तच्छन्दोपदिष्टमार्गस्थाशेषश्वेताम्बरपारतदिभणतः कपिलस्यैव तस्य ध्यानम् । तस्मिन् , अातु । व्यं खस्याऽऽविश्चके । पुनः कीदृक्षं तम् ?, रागद्वेषविजेता
रम्-इतम्-प्राप्तसम्बन्धम् , अारम्-सांसारिकानेकक्लेशरागदोसविजेता-रागद्वेषविजेत-पुं०। जिने, रत्ना० ।
स्वरूपशत्रुसमूहो यस्मिस्तीर्थेशे स तथा, तं च; कथमरागद्वेषविजेतारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः ।।
तादृशं तम् ?, इत्याह-रागद्वेषविजा-रागद्वेषाभ्यां कृत्वा शक्रपूज्यं गिरामीशं, तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥१॥ याऽसौ विक श्रीमदर्हत्प्रतिपादितत्वात् पृथग्भावः , तया । तीर्थस्य चतुर्वर्णस्य श्रीश्रमणसङ्घस्य , ईशम्-स्वामिनम् , भगवदहत्प्रतिपादित तत्त्वमनुभवन्तोऽपि हि रागद्वेषकाश्रासनोपकारित्वेनात्र श्रीमहावीरम् प्रहमिह प्रक्रमे स्मृति- लुप्यकलङ्काक्रान्तस्वान्ततया परेऽपरथैव प्रलपन्तः संसारिमानये, इति सण्टङ्कः । रागद्वेषयोः प्रतीतयोः, विशेषेण अपु- कक्लेशशात्रवगोचरतां गच्छन्त्येव । अनेन चाशेषाणां शेषानर्जेयतारूपेण जयनशीलमिति ताच्छीलिकस्तृन् : ततः णामपि सम्भवैतिराप्रमाणवादिचरकप्रमुखाणामाविष्करणम्। "न कर्तृतजकाभ्याम्" इति तृचा षष्ठीसमासप्रतिषेधात् क- न खलु मोहमहाशैलूषस्यैको नर्तनप्रकारो यदशेषतीथिकाथमत्रायम् ?: इति नाऽऽरेकणीयम् । तथा विश्ववस्तुनः नां प्रत्येकं स्मृतिः कत्तुं शक्येत। नन्वेवमेतान् प्रतिक्षेपाकालत्रयवर्तिसामान्यविशेषात्मकपदार्थस्य, शातारम् , अ- र्थमुपक्षिपतोऽस्य रागद्वेषकालुष्यवृद्धिः स्यात्, इति श्रेयोमलकेवलालोकेन । शक्राणाम्-इन्द्राणाम् पूज्यम्-अर्च, विशेषार्थमुपस्थितस्याऽश्रेयसि प्रवृत्तिरापन्नाः इति शङ्का नीयम् , जन्मस्नात्राटमहाप्रातिहादिसम्पापनेन । गिरा- निरसितुं 'रागद्वेष-' इति विशेषणं श्लिष्टमजीघटन्-अरम्-वाचाम् ईशम्-ईशितारम् , अवितथवस्तुब्रातविषयत्वेन |
म्-अत्यर्थम् , रागद्वेषयोर्विजयनशीलः । तेषां स्मृतिमस्मि तासां प्रयोक्तृत्वात् । अनेन च विशेषणचतुष्टयेनाऽमी य- करोमि, न त्वन्यथा, इति तत्र भवदभिप्रायः : प्रमाणनथाक्रम भगवतो मूलातिशयाश्चत्वारः प्ररूपिताः । तद्य- यतत्त्वं खल्वत्र शुचिषिचारचातुरीपूर्वमालोकनीयम् । न था-अपायापगमातिशयः, ज्ञानातिशयः , पूजातिशयः, च गगद्वेषकषायितान्तःकरणैर्विरच्यमानो विचारश्चारुतावागतिशयश्चेति । एतेनैव च समस्तेन गणधरादेः मञ्चति । इत्यन्तरङ्गापकारिस्मरणम् । ननु तथाऽपि कथस्वगुरुपर्यन्तस्य स्मृतिः कृतैव द्रष्टव्या : तस्याप्ये- मैतैर्दिव्यदृग्भिरर्वागदृशोऽस्य तत्त्वविचारः" साधीयाकदेशेन तीर्थशत्वात् , निगदितातिशयचतुएयाधारत्वा- न् ? , इत्यारेकामपाकतु लैपेणैव व्यशीशिषन्-शाताऽरं च । इति परापरप्रकारेण द्विविधस्याप्युपकारिणः सूत्र- विश्ववस्तुनः । विमलकेवलालोकाऽऽलोकितलोकालोककाराः सस्मरुः । अपकारिणस्तु तथाभूतस्येत्थमनेनैव श्रीमदहत्प्रतिपादितागमवशात् खल्वहमपि कामं विश्ववलोकेन स्मृतिमकुर्वन् तीर्थस्य-प्रागुतस्य , तदाधेयस्याऽऽ
स्तूनां शातैवेति । बृहदवृत्तौ तु स्वकर्तृकत्वाद नामीषामगमस्य वाः ईम्-लक्ष्मी, महिमानं वाः श्यति तत्तदसद्भ- पकारिणां निचिकीर्पितत्वेन स्मरण व्याख्यायि, न खलु तदूषणोद्घोषणः स्वाभिप्रायेण तनूकरोति यः स तीर्थशः, महतामीदृशमर्थमित्थं प्रकटयतामौचिती नातिवर्तते । तीर्थान्तरीयो बहिरङ्गापकारी, तम् । कि रूपम् ? , शक्रः
| फलानुमेयप्रारम्भन्वात् नेषाम् । सुचामात्र तु सूत्रे कतिपपूज्या यागादो हविर्दानादिना यस्य स तथा, तम् : ए
यात्यन्तसहृदयहृदयसंवेद्यमविरुद्धर्भाित । गन्ना० १ परि। तावता वेदानुसारिणी भट्टप्रभाकर कणभक्षाक्षपादकपिलाः | रागदोसाभिभृय रागद्वपाभिभूत-न। रागश्च-प्रीतिलक्षणो सचयाश्चक्रिरे । पुनः किं भूतं तीर्थशम् ?.-गिरामीशं-वा- द्वेपश्च द्विपरीतलक्षणस्ताभ्यामभिभृत श्रान्मा येषाम् । राचम्पतिम : इति नास्तिकमतप्रवयितहम्पनेः सूचा । तथा| गढेगाभिभूतस्वरूपे, मूत्र... श्रु० ३ ० ३०।
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रागदोस विम०
राग दोसविसपरममंत - रागद्वेषविषपरममन्त्र- पुं० | रागद्वेषौ विषमिवेति रागद्वेषविषं तस्य परममन्त्रः तद्घातित्वादिति । रागद्वेषविनाशने, पं० सू० १ सूत्र । रागदोसा गया- रागद्वेषानुगता श्री० प्रीतिलो रागः, अतिलठेषः ताभ्यामनुगता सहिता । निष्कारसदरागद्वेषानुगतायां दर्षिकाप्रतिषेणायाम् नि० ० १ ० रागबंध-रागबन्धन न० रञ्जनं रज्यते वाऽनेन जीव इति रागः । राग एव बन्धनं रागबन्धनम् । बन्धनभेदे, चू० ४ अ० ।
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श्र०
,
दुविहे बंधणे पम्प ने तं जहा- रागबंधणे, दोसबंधणे चैिव । स० २ सम० । रागमंडल - रागमण्डल- नवम्ादिरागसमूहे, ग०३ अधि रागरत - रागरक्त - न० । श्रभिष्वङ्गलक्षणो रागः तेन रक्तः । तद्भावितमूत्तौं, श्राव० ४ श्र० । विषयासक्ते, तं० । रागविहि- रागविधि - पुं० । रञ्जनं रागः कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादनं तद्विधयः । स्निग्धत्वादित्यादिषु क्रियाभेदेषु, उत्त० १ ० । रागाइकिलेवासिय-रागादिक्वासित ० रागादिरी: सर्वधा चिचादयतिरिकै संस्कृते ०१ अधि० । रागाहरहिय-रागादिरहित पुं० वीतरागे ०१० द्वार रागाइविणासण - रागादिविनाशन- न० । रागद्वेषमोहापोहके, पञ्चा० १८० ।
1
रामाइविधुरवा रागादिविधुरता श्री० अधिपत्ये ० चू० १६३० । राधे राजन् पुं०" चूलिका पैशाचिके तृतीय-तुयो - |" - राध -- द्वितीयौ " ॥ ८ | ४ | ३२५ ॥ इति जकारस्थाने चकारादेशः । राजा-राचा । नृपतौ प्रा० ४ पाद । राजपथ - राजपथ - पुं० । " थो धः " ॥ ८ । ४ । २६७ ॥ इति
( ५४६ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
-
थस्य धः शौरसेन्याम् । राजमार्गे, प्रा० ४ पाद । राडी-राठी - स्त्री० । कलहे, स्था० १ ठा० । संग्रामे, दे० ना० ७ वर्ग ४ गाथा ।
राम-राम- पुं० । बलदेवे, श्राव० १ श्र० । पाइ०ना० स० । ( दसारमंडल शब्दे ४ भागे चलदेवा वासुदेवाय दर्शिताः) "अयले विजये भई, सप्पभे सुदंससे। श्रादे दने प में, रामेश्रावि पच्छिमे ॥ १ ॥ आव० १ अ० | प्रब० । रामेणं बलदेवे दुवालयवाससवाई सच्चाउ पालिना देवत्तं गओ । स० १२ सम० ।
श्रा० म० । ० चू । नवमे बलदेवे, स० १० सम० । रेणुकायां याते जमदग्नेः पुत्रे, आ० फ०१० । दर्श । ( यो ह्रि कार्तवीर्य प्रति क्रुद्धः त्रिःसप्तकृत्वा निःत्रियां प्रथिवीमकरोत्तद्वत्तं जमदग्गि' शब्द चतुर्थभागे १४०० उदाहनम) स्वनामस्याने राजपुत्रे ० । लिख्यते तत्र रामकथा- 'यथा ब्रह्मस्थलपुरे भुवनचन्द्रो राजा रामः सुतः प्रतिफला कुतः अन्यदा राशा मन्त्री
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राम पृष्टः रामाय पीपराज्यपदं ददामीति मन्याह-नाये योग्यः । को दोष इति राम्रो मन्याह-देय अयमयशश्रोत्रेन्द्रियः प्रत्यहं गीतप्रियः । राजा हसित्वाऽऽह मन्त्रिन् ! राज्ञां गीतप्रियत्वं गुणः, अहो तव चतुरता । मन्त्रयाह-देव! अत्यासलत्वं दोषः । "जह अग्गीह लवो वि हु, पसरंतो दहइ गामनगराई । seafमंदियं पि हु, तह पसरतं समग्गगुणे ॥ १ ॥ ततः पतस्य लघुभ्रातुः सम्प्रति जातस्य राजलक्षणलक्षितस्य यौवराज्यं दीयतामिति, मन्त्रिणि कथयत्यपि राशा रामस्यैव दत्तम् । क्रमेण राजनि मृते स एव राजा जातः कनीयान् भ्राता युवराजः रामोऽहर्निशं गीतानि शृणोति स्वयमपि गायति, करोत्यभिनवानि गीतानि शिक्षयति इम्वादीनित्यं गीतास एवास्ते, न राज्यचिन्तां करोति । अन्यदा तरुणीम्बीभगत पमोदितो ऽवगणय्य निजकुलादिम तास्सेवते, अनाचारी सततं तदासक्त एवास्ते । ततो मन्त्रिप्रभृतिभिर्विचार्य तस्य लघुभ्राता महावलो राज्य स्थापितः रामो निर्धाटितो देशात् विदेशे भ्रात्वा मृत्या हरिणो जातः । गीतश्रवणासक्तो व्याधेन हतो । जातो महाबलपुरोहितस्य पुत्रोऽपि गीतत्रियः अयशश्रयरोन्द्रियः धन्यदा महालनुपेण रात्री कुटुम्बे गायनि पार्श्वस्थपुरोहितपुत्रो भणित- यन्मम निद्रासमये पते गायनतः खाप्याः। तेन सरसगीतासक्तेन न वारिताः । पश्चाद्रात्रौ राजा प्रबुद्धो रुपः, तैले पक्त्या तस्य कर्णयोः क्षिपति, स मृतः । राज्ञः पश्चात्तापो जातः यत्स्वल्पेऽप्यपराधे मया गुरुर्दएडः कृतः । इतश्च तत्रायातः केवली, राजा तं वन्दित्वा तस्य कथां पृच्छति । रामभवादारभ्य यथास्थितमाख्यात । श्रग्रस्तस्य भूयान् संसार इति श्रुत्वा श्रवणेन्द्रियविपाकं दारुणं दृष्ट्वा महावलः प्रव्रजितः, शिवमाप, इति श्रवणेन्द्रियविषयविपाके रामकथा || ग० २ अधि० । क्षत्रियपरिवाजकमेदे श्री० । स्वनामस्याने दशरथात्मजे स० १० सम० तत्कथा चैवम्
,
।
,
सीता जनकाभिधानस्य मिथिलानगरीराजस्व दुहिता वैदेहीनाम्याद्भार्यायाः देवजा भामण्डलस्य सहजातस्य भगिनी विद्याधरोपनीतं देवताधिष्ठितं धनुः स्वयंवरमराडये नानारमा किनिकरसमक्षमयोप्याभिधाननगरीनियासिनो दशरथाभिधानस्य नरनायकस्य सुतेन रामदेवेन पद्मापरनाना बलदेवेनाभिधानादेव ज्येष्ठभ्रात्रा स्वप्रभावेोपशान्ताधिष्ठादेयतमारोपितगुणं विधाय प्रासाधुवादेन महाबलेन परिणीता, ततो दशरथराजे प्रजिपी रामदेवाय राज्यदानार्थमभिन्नाभिधान च रामदेवस्य मात्र अस्वस्थिति भ्रातरि प्रब्रजितुकामे भग्नमाचा पूर्वप्रतिपन्नवरयाचनोपायेन राज्ये भरताय दा पिने बन्धुस्नेहाच्चाप्रतिपद्यमाने राज्यं भरते पितृवचनसत्यनाथै भरतस्य राज्यमा वनवासमुपाधितेन स लक्ष्ममेन रामेण यह धनवानर्माताम कौतुकेन तत्र दण्डकारण्ये सञ्चरता श्राकाशस्थं खड्गरनमादाय कौतुकेनेव वंशजालिच्छेदे कृते छिन्ने च तन्मध्यवर्त्तिनि विद्यासाधनपरायणे रावणभागिनेये खरदूषणचन्द्रनखाने संयुकाभिधाने विद्याधरकुमारे दृष्ट्वा च तं प वासायमुपगतेन मनागत्य भ्रातुर्निवेदितेऽस्मिन् प लक्ष्मणेनागत्य
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राम अभिधान राजेन्द्रः।
राय तिकरे एतद्यतिकरदर्शनकुपितायां चन्द्रनखायां पुना राम- | विधमुख्यानाम् । अभ्यर्थनाऽपि हेतु-विशेयोऽस्याः कृतौ वि. लदाणयोदर्शनात् सातकामायां कृतकन्यारूपायां तत्प्रा- | वृत्तेः ।" कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । र्थनापरायां ताभ्यामनिटायां च पुत्रमारणादिव्यतिकरे च
| रामसयण-रामशयन-पुं० । स्वनामख्याते तीर्थे, श्रीरामशयतया शोकरोषाभ्यां खरदूषणस्य निवेदिते तेन च वैरनिर्यातनाद्यतेन सह लक्ष्मणन योद्धमारब्धे ज्ञातभागिनेयमरणा
ने प्रद्योतकारी श्रीवर्धमानः । ती० ४३ कल्प । दिव्यतिकरण लङ्कानगरीत आकाशेन गच्छता रावणन | रामा-रामा-स्त्री० । श्रीअरिएनेमिना सह रमते गोबिन्दनिदृष्टा, दृष्टा च तां तेन कुसुमशायकशरप्रसरविधुरितान्तःक- तम्बिनीवत् क्रीडयतीति । तं०। ईशानेन्द्रस्याग्रमहिण्याम् , रणन अगणितकुलमालिन्येन अपहसितविवेकरत्नेन विमुक्त- ज्ञा०२०८ वर्ग १० भ० । सुग्रीवराजभार्यायाम . धर्मसंक्षेन अनाकलितानर्थपरम्परेण विमुक्तपरलोकचिन्तनेन पुष्पदन्तनवमतीर्थकरमातरि, स्था०५ ठा० १ उ० । ति० । जातसीतापहारबुद्धिना विद्यानुभावोपलब्धरामलक्ष्मणस्व- श्राव । प्रय० । स० स्त्रियाम् , “ रामा " पाइ० ना० रूपेण विज्ञाततत्सत्कसिंहनादसङ्केतकरणेन लक्ष्मणसंग्राम
१२ गाथा। स्थाने गत्वा मुक्त सिंहनादे चलिते तदभिमुखे रामे एका-रामायण-रामायण-न । वाल्मीकिकृते दाशरथिरा किनी सती अपहृता, झिगिति नीता च लङ्कायां विमुक्ता तप्रतिबद्ध स्वनामख्याते महाकाव्ये , अनु०। सम्म० । गृहोद्याने प्रार्थिता च दशकन्धरेणानुकूलप्रतिकूलवाग्भिर्वहुशो न च तमिष्टवती। रामेण च सुग्रीवभामण्डलहनुम
राय-राजन-पुं० । राजते इति राजा । नरपतौ , स्था०५ दादिविद्याधरवृन्दसहायन महारणविमई विधाय नानावि
ठा० ३ उ० । दश०। ज्ञा० । जं० । प्रश्न० । औ० । धानरेश्वराग्निहत्य दशवदनं च विनिपात्य नीता स्वगृ
चक्रवादी, सूत्र०१ श्रु० ३ अ०२ उ०। राजा-चक्रवती हमिति । प्रश्न०४ श्राश्रद्वार।
बलदेवो वासुदेवो महामारडलिको वा । जी. ३ प्रति० ४ रामकरह-रामकृष्ण-पुं० । कृणिकमहाराजभार्यायाः राम
अधिः । राजा द्विविधो भवति आत्माभिषिक्तः, अपराभिषि
फ्नश्च । आत्मनैव-निजवलेन राज्येऽभिषिक्तः श्रात्माऽभिषिकृष्णायाः अपत्ये, नि. १ श्रु०१ वर्ग १ श्र०। ( तहक्लव्य
क्तः, गरेणाभिषिक्तः पराभिषिक्तः । तत्राऽऽत्माभिषिक्तो भरतता कालकुमारवक्तव्यतावद् भावनीया इति निरयावलिका
श्चक्रवर्तीतस्य पुत्र आदित्ययशाः पराभिषिक्तः । व्य०५ उ०। या अष्टमेऽध्ययने सूचितम्)
राजलक्षणमाहरामगुत्त-रामगुप्त-पुं० । साकेतनगरस्थिते भद्रपुत्रे, अणु० । स्था०। (स च द्वात्रिंशत् कन्याः परिणीय वीरान्तिके प्रवज्य
उभतो जोणिविसुद्धो, राया दसभागमेत्तसंतुट्ठो। संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्य
लोए वेदे समए, कयाऽऽगमो धम्मितो राया ॥३०८।। तीति अनुत्तरोपपातिकस्य तृतीये वर्गे पञ्चमाध्ययने
यो राजा उभयांत्रिशुद्धः-मातृपितृपक्षपरिशुद्धः , तसूचितम् । ) स्वनामख्याते लौकिकराजर्षों, रामगुप्तश्च रा
था प्रजाभ्यो दशभागमात्रग्रहणसन्तुष्टः, तथा लोके-लोकाजर्पिगहारादिकं भुक्त्वैव भुञ्जान एव सिद्धि प्राप्तः । सूत्र०
चारे वेदे-समस्तदर्शनिनां सिद्धान्ते समये-नीतिशास्त्रे कृ१ श्रु० ३ ० ४ उ० । द्विगृद्धिदशानां दशमाध्ययनोले स्व
तागमः-कृतपरिक्षानो धार्मिको-धर्मश्रद्धावान् स राजा,शेनामख्याने पुरुष, स्था० १० ठा।
षस्तु राजाऽऽभासः ।। रामचंदमूरि-रामचन्द्रसूरि-पुं० । कुमारपालप्रतिबोधकश्री
तथाहेमाचार्यशिष्ये , अनेन निर्भयभीमव्यायोग-रघुविलासना
पंचविहे कामगुणे, साहीणे मुंजए निरुवसग्गे । टक-विहारशतक-द्रव्यालङ्कार-राघवाभ्युदयमहाकाव्य-या. वावारविप्पमुक्को, राया एयारिसो होइ ।। ३०६ ।। दवाभ्युदयमहाकाव्य-नलविलासमहाकाव्यादिग्रन्थशतं नि- पञ्चायधान्-पञ्चप्रकारान् रूपरसगन्धस्पर्शशब्दल क्षणामम इति प्रबन्धशतककर्तृनामविरुदेन प्रसिद्धः । जै० इ०।
न कामगुणान्स्वाधीनान्-स्वभुजोपार्जितान् निरुद्विग्नः-प्र. रामण-रामण-न । मञ्चाक्रीडने , ग०३ अधिक।
त्यन्तराजकृतमनोदुःखासिकाया अभावात् , व्यापारविरामदेव-रामदेव-पुं० । कोकापार्श्वनाथप्रतिमोद्धारके सौ- प्रमुक्तो-देशपरिपन्थ्यादिव्यापारविप्रमुक्नो युवराजादीनां तवणिकनायकवंशोत्पन्ने विक्रमसंवत्सराणां १२६२ समये। व्यापाराध्यारोपणात् यः स पतादृशा राजा भवति । व्य गुर्जरदेशीये स्वनामख्याते पुरुषे. ती०४६ कल्प ।
१ उ०। राजवर्णको लिख्यते-'महयाहिमवंतमहंतमलयरामय रामक-पुं० । म्लेच्छदेशमेदे, तद्वास्तव्ये जने च । प्रव०
मंदरमहिंदसारे' महाहिमवानिव महान् शेषराजपर्वता
पेक्षया. तथा मलयः-पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः महेन्द्रः-प२७४ द्वार।
विशेषः शक्रो या, तद्वत्सारः-प्रधानो यः स तथा । रामरक्खिया-रामरक्षिता-स्त्री०। ईशानेन्द्रस्याग्रमहिप्याम् ,
'अच्चन्तविसुद्धदोहरायकुलवंससुप्पसूए” अत्यन्तविशुभ० १० श०५ उ । नी । ( अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा 'श्र.
द्धो-निदोषो दीर्घः-चिरकालीनो यो राज्ञां कुलरूपो वंशग्गाहसी शब्दे प्रथमभागे १६६ पृष्ठे उक्ना)
स्तत्र सुष्ठ प्रसूतो य स तथा। 'णिरंतरं रायलक्खणविरामविजय-रामविजय-पुं०। कथासूत्रस्य कल्पसुबोधिका- गइयंगमंगे' राजलक्षणः--स्वस्तिकादिभिः विगजितमानामवृत्तेः कारकस्य विनयविजयस्य वृत्तिकरणाभ्यर्थके- महं-गात्रं यस्य स तथा, मकारस्तु प्राकृतशैलीप्रभवः । श्रीविजयगुरौ , " श्रीरामविजयपण्डित-शिष्यश्रीविजयवि- 'मुइए' ति मुदितः-प्रमोदवान् , अथवा-निर्दोषमातृको ,
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(५४८) राय अभिधानराजेन्द्रः।
राय यदाह-'मुइओ जो होइ जोणिसुद्धो' त्ति । मुद्धाहसि- त्ति क्वचित्पाठः, तत्राऽप्ययमेवार्थः, विहरति-वर्तते। अथ रा. ने 'त्ति पितृपितामहादिभिः राजभिर्वा यो राज्येऽभिषि- शीवर्णकं लिख्यते-'अहीणपडिपुरणपंचिंदियसरीरा' क्वकः । 'मापिउसुजाए' त्ति पित्रोविनीततया सत्पुत्रः। 'द. चित्तु-अहीणपुमपंचिदियसरीरा' अहीनानि-अन्यूनानि यपत्ते 'त्ति प्राप्तकरुणागुणः । 'सीमकरे' ति सीमाकारी, लक्षणतः, पूर्णानि-स्वरूपतः , पुण्यानि वा-पवित्राणि मर्यादाकारीत्यर्थः । ' सीमंधरे' त्ति कृतमर्यादापालकः । पश्चापीन्द्रियाणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा एवं खमंकरे खमंधरे ' ति क्षेमं पुनरनुपद्रवता । 'मणु- 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणानि-स्वस्तिकचक्रादीस्सिदे' ति मनुजेषु परमेश्वरत्वात् ।' जणवयपिय ' ति नि व्यञ्जनानि-मीतिलकादीनि तेषां या गुणः-प्रशस्तजनपदानां पितेव हितत्वात् । 'जणवयपाले ' ति तद्रक्षक- त्वं तेनोपपता-युक्ता या सा तथा । ' माणुम्माणप्पमाणपत्वात् । 'जणवयपुरोहिए' त्ति जनपदस्य शान्तिकरत्वात् ।
डिपुगगासुजायसव्वंगसुंदरंगी' तत्र मानम्-जलद्रोणप्रमाण'सेउकरे' ति मार्गदर्शक इत्यर्थः । 'केउकरे ' ति श्रद्ध
ता, कथम् ?-जलस्यातिभृते कुण्डे प्रमातव्यमानुषे नियेतकार्यकारित्वेन चिह्नकारी । ' णरपवरे' ति नराः प्रवरा
शिते यजलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं स्यात्तदा तन्माअस्येति कृत्वा पुरिसवरे' त्ति पुरुषाणां मध्ये प्रधानत्वा
नुष मानप्राप्तमुच्यते तथा उन्मानम्-अर्द्धभारप्रमाणता, त् । 'पुरिससीहे' ति क्रूरत्वात् । 'पुरिसवग्घे ' त्ति रोषे
कथम् , तुलारोपितं मानुषं यद्यर्द्धभारं तुलति तदा तदुसति रौद्ररूपत्वात् । 'पुरिसासीविसे' त्ति पुरुषश्वासावा- न्मानप्राप्तमित्युच्यते, प्रमाणं तु-स्वाङ्गलनाष्टोत्तरशतोच्छूशीविषश्च पुरुषाशीविषः, आशीविषश्च सर्पः, कोपसाफ-| यता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि-न्यूनानि ल्यकरणसामर्थ्यात् । 'पुरिसपुंडरीए ' त्ति सुखार्थिनां से- सुजातानि-सुनिष्पन्नानि सर्वाण्यङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि यत्र व्यत्वात् , पुण्डरीकं च सितपद्मम । 'पुरिसवरगंधहत्थी' तत्तथाविधं सुन्दरमहं-शरीरं यस्याः सा तथा । 'ससिसो. ति प्रतिराजगजभक्षकत्वात् । 'अहे' ति समृद्धः 'दित्ते' ति माकारकंतपियदंसणा'शशिवसौम्याकारं-कान्तं च-कमदृप्तो दर्पवान् 'वित्ते' त्ति प्रसिद्धः । 'विच्छिराणविउलभव- नीयमत एव च प्रियं-वल्लभं द्रष्टणां दर्शनं-रूपं यस्याः णसयणासणजाणवाहणाइराणे ' ति विस्तीर्णानि-विस्तारव- सा तथा । अत एव ' सुरूव' त्ति शोभनरूपा ।' करयलपन्ति विपुलानि-प्रभूतानि भवनशयनासनानि प्रतीतानि य- रिमिअपसत्थतिवलियवलियमझा' करतलपरिमितो-मुस्य स तथा, यानवाहनानि-रथाश्वादीनि आकीर्णानि-गु- टिग्राह्यः प्रशस्तः-शुभस्त्रिवलिको-वलित्रययुक्तो वलितःणाकीर्णानि यस्य स तथा , ततः कर्मधारयः, अथवा- सजातलमध्यो-मध्यभागो यस्याः सा तथा,। 'कुंडविस्तीर्णविपुलभवनानि शयनासनयानवाहनाकीर्णानि य- लुल्लिहियगंडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता गण्डलेखाःस्य स तथा । 'बहुधणबहुजायरूवरयते' बहु-प्रभूतं धनं- कपोलपत्रवल्ल्यो यस्याः सा तथा, 'कुण्डलोल्लिखितपीनगणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते-सुवर्णरौप्ये यस्य स गण्डलेखति' पाठान्तरं, व्यक्तं च । 'कोमुईरणियरवितथा । 'श्राोगपभोगसंपउत्ते' त्ति आयोगस्य-अर्थलाभस्य मलपडिपुराणसोमवयणा' कौमुदी-चन्द्रिका कार्तिकी वाप्रयोगाः-उपायाः सम्प्रयुक्ताः-व्यापारिता येन तेषु वा तत्प्रधानस्तस्यां वा यो रजनीकरः चन्द्रस्तद्वद्विमलं प्रतिपूसम्प्रयुक्नो-व्यापृतो यः स तथा 'विच्छड्डियपउरभत्तपा-1 ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा। सिंगारागारचारुवेसा' णे' ति विच्छर्दिते-त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनाविशिष्टोच्छिष्ट- शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिव-स्थानमिव चारुः-शोभनो सम्भवात् सातविच्छहैर्वा नानाविधे प्रचुरे भक्तपाने वेषो-नेपथ्य यस्याःसा तथा। अथवा-शृङ्गारो-मण्डनभूषणाभोजनपानीये यस्य स तथा । 'बहुदासीदासगोमहिसग- टोपस्तत्प्रधानः श्राकार:-संस्थानं चारुश्व वेषो यस्याः सातवेलगप्पभूए' ति बहवो दासीदासा गोमहिषगवेलकाश्च प्रभू
था। 'संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसंलावता यस्य स तथा, गवेलका-उरभ्राः पडिपुराणतकोस- णिउणजुत्तोवयारकुसला' सङ्गता-उचिता गतहसितमणिकोडागाराऽऽउधागारे' प्रतिपूर्णानि यन्त्राणि च-पाषाणक्षप- तविहितविलासा यस्याः सा तथा, तत्र विहितं-चटितं यन्त्रादीनि कोशो-भाण्डागारः कोष्ठागारश्च-धान्यगृहम् विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन-प्रसन्नतया ये संश्रायुधागारश्व-प्रहरणशाला यस्य स तथा । 'बल' ति लापाः-परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा । तप्रभूतसैन्यः 'दुब्बलपञ्चमित्ते' ति दुर्बलाः प्रत्यमित्रा:-प्राति- था युक्ताः-सङ्गता ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशला वेश्मिकनृपा यस्य स तथा ' श्रोहयकंटयं ' ति उपहता- या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । क्वचिदिदमचिनाशिताः कण्टका:-प्रतिस्पर्धिगोत्रजा यत्र राज्ये त- न्यथा दृश्यते- सुंदरथणजघणवयणकरचरणनयणलावतथा, क्रियाया वा विशेषणमेतत् , एवमन्यान्यपि, नवरं गणवलासकलिया' व्यक्तमेव, नवरं जयन-पूर्वकटीभागः निहताः-कृतसमृद्धयपहाराः, मलिताः-कृतमानभङ्गाः, लावण्यम्-आकारस्य स्पृहणीयता विलासः-स्त्रीणां चेष्टाउद्धृता-देशानिर्वासिताः, अत एवाविद्यमाना इति । तथा विशेषः,ग्राह च-"स्थानासनगमनानां, हस्तभ्रनेत्रकर्मणां चैशत्रवः-अगोत्रजा निर्जिताः-स्वसौन्दर्यातिशयन परि- व । उत्पद्यते विशेषो, यः श्लिष्टः स विलासः स्यात् ॥१॥" भूताः , पराजितास्तु तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावना- इति । तथा-(श्री०।) 'अणुरत्ता अविरत्ता इट्टे सहफरिभकाः, 'ववगयदुभिक्खमारिभयविष्पमुक' मिति । व्यक्त्रम् सरसरूवगंधे पंचविहए माणुस्सए कामभाए पच्चणुब्भव'पसंर्ताडबडमरं' ति डिम्बाः--विघ्नाः डमराणि-राज- माणी विहरति ' व्यक्कमेव, नवरम् , अनुरक्ता-अविरफ्ना अकुमारादिकृतवैराज्यादीनि, 'पसंताहियडमरं ' ति क्वचि- नुरज्य न विप्रियेऽपि विरक्ततां गत्यर्थः । ७। औ०। (रा. पाठः, तत्राहितडमरं-शत्रुकृतडमरोऽधिकडमरो वा । जादगत्मीकरणम् अर्चीकरणं च स्वस्वस्थान व्याख्याते) 'रजं पसासेमाणे' ति प्रशासयन-पालयन् 'पसाहेमाणे माण्डलिक, भ. ६ श० ३३ उ० । कल्प ।
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राय अभिधानराजेन्द्रः।
रायकहा मेघदृष्टान्तेन राजवर्णनं भावयति
था चामराणि । पञ्चापनयति यानि, राक्षश्चिभूतानि ॥१॥) चत्तारि महा पापत्ता, तं जहा-देसवासी णाममगे णो |
स्था० ५ ठा० उ०। सधवामी ४, १३, एवामेव चत्तारि रायाणो पम्मत्ता,
रायकहा-राजकथा-स्त्रीलाराजसम्बन्धियां विकथायाम् ,स्था। तं जहा देसाधिवती णाममेगे णो सब्बाधिवती ४,१४ ।।
रायकहा चउबिहा पम्पत्ता, तं जहा–रन्नो अतिता(मू ३४६)
कहा रनो निजाणकहा रामो बलवाहणकहा रन्नो कोसविवक्षितभरतादिक्षत्रस्य प्रावृडादिकालस्य वा देशे श्रा
कोट्ठागारकहा । (सू० २८२) न्मनो वा देशेन वर्षतीति देशवर्षी १, यस्तु तयोः सर्व- तथा अतियानं-नागरादौ प्रवेशस्तत्कथा अतियानकयोः सोन्मना वा वर्षति स सर्ववर्षी, अन्यस्तु क्षेत्रतो | था , यथा-"सियांसधुरखधगया , सियचमरा सयछत्तदेशे कालतः मर्वत्रान्मना वा सर्वतः २, अथवा-कालतो छन्नमहो। जणणयणकिरणसेश्रो,एसो पविसइ पुरेराया।" दशे शेत्रतः सर्वत्र ३, प्रात्मनो वा सर्वतः ४, अथवा इति , एवं सर्वत्र , नवरं निर्याण-निर्गमः , तत्कथा यथा
आत्मनो देशन क्षेत्रतः ५, कालतो वा सर्वत्र ६, अथवा "वज्जताउजमम-दवंदिसई मिलंतसामंतं । संखुद्धसेन्नमुक्षेत्रकालतो देशेन श्रात्मनः सर्वतः ७, अथवा-क्षत्रतो दे- द्धय-चिधं नयग निवा नियई ॥ १ ॥" बलं-हस्त्यादि शे, श्रात्मनो देशेन कालतः सर्वत्र ६, अथवा-कालतो दे- वाहन-वेगसरादि , नत्कथा, यथा-"हेसंतहयं गजंतश श्रात्मनो देशन क्षत्रतो न सर्वत्र ८, इत्यवं नवभिर्वि- मयगलं घणघणतरहलक्खं । कस्सऽनम्स वि सेनं. णिन्नाकल्पपति स देशवर्षी सर्ववर्षी चेति, चतुर्थः सुज्ञात इति सिथसत्तुसिन्नं भो ! ॥१॥" कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागा१३. राजा तु यो विवक्षितक्षेत्रस्य मेघवद्देश एव योगक्षम- र-धान्यागामिति, तत्कथा, यथा-" परिसपरंपरपत्तेकारितया प्रभवति स दशाधिपतिनं सर्वाधिपतिः स च ण, भग्यिविस्संभरेण कोसेणं । णिजियवेसमणणं , पल्लीपत्यादिः, यस्तु न पल्ल्यादी देशेऽन्यत्र तु सर्वत्र प्रभ- तेण समो को निवो अन्नो ? ॥ १॥” इति । इह चैवति स सर्वाधिपतिर्न देशाधिपतिः। यस्तूभयत्र स उभया- ते दोषाः-"चारिय चोरा १ भिमरे , हिय १ मारिय २ धिपतिः , अथवा-देशाधिपतिर्भूत्वा सर्वाधिपतियों भवति संककाउकामा वा । भुत्ताभुतोहाणे, करेज वा श्राससपवासुदेवादिवत् स देशाधिपतिश्च सर्वाधिपतिश्चेति, चतु- ओगं ॥१॥" स्था० ४ ठा०२ उ०। "राजाऽयं रिपुवारदारथों राज्यभ्रष्ट इति १४, ॥ स्था०४ ठा० ४ उ० । लक्ष्म्या णसहः क्षेमंकरश्चौरहा , युद्धं भीममभूत्तयोः प्रतिकृतं देदीप्यमाने, प्रश्न०४ आश्र० द्वार । पञ्चाशीतितमे महाग्रहे, साध्वस्य तेनाधुना । दुष्टोऽयं म्रियतां करोतु सुचिरं राज्यं मृ० प्र० २० पाहु० । चं० प्र० । कल्प० ।
ममाप्यायुषा, भूयो बन्धनिबन्धनं बुधजनै राज्ञां कथा हीयरायंचय-देशी-न०। वेतसीतरौ, "रायंछुयं च वेडिसं" पाइ० ताम् ।३६।" ध०र०१ अधि०१३ गुण । श्राव० । नि० चू०। ना० २५८ गाथा।
राशो कहा राजकहा सा चउविहारायंत-राजमान-पुं० । देदीप्यमाने, कल्प०१ अधि०३ क्षण।।
अइयाणं णिज्जाणं, बलवाहणकोसमेव मट्ठाणं । रायंतेउर-राजान्तःपुर-न० । राजमहिषीगृहे, स्था०५ ठा०२
एता कहा कहते, चर जमला कालगा चउरो ॥२२८॥ उ०। रा।
बलवाहणं ततिओ भेत्री कोसमेव कोट्रागारं च उत्थो भेश्रो रायंब-देशी-येतसद्रुमे; शरभे च । दे० ना० ७ वर्ग १४ गाथा।। केवि एयं एवं पढति कोसमेव सट्ठाण, तत्थ वलबाहरणकोरायंस-राजां(श)स-पुं० । राजयक्ष्मणि, श्राचा०१ श्रु०६० समेव सव्वं पक्कं संठाणमिति चउत्थं, संसं गाहाए कंठं । १उ०।
पुरिमद्धवक्खाणं इमंरायंसि-राजां(शि)सिन-त्रिका राजांसः-राजयक्ष्मा सोऽस्या- अज्ज अतियाति णिती, पंतो वा सोभए एवं ।
स्तीति राजांसी । क्षयिण, श्राचा० १ श्रु०६ १०१ उ०। बल कोसे य पमाणं, संठाणं वप्लनेवत्थं ॥ १२ ॥ रायककुह-राजककुद-पुं० । न० । राजचिह्न, प्रव० १ द्वार ।। अज्ज इति अज दिणं अतिजाति पविसति णीति-णिग्गदशा० । औ० । दर्श० । स्था।
च्छति जातस्स रराणो णिन्ताणितस्स विभूती तं दट्टणं अ
नेसि पुरतो सिलाघयति । अहवा-सो राया धवलतुरअधुना खड्गादिरूपं राज्ञां तदेवाऽऽह
गादिरूढो कयसेहरो विलवणोवलित्तगत्तो पुरो पउंजपंच रायककुहा पामत्ता । तं जहा—खग्गं छत्तं उप्फेसं माणजयसद्दो अणेगगयतुरगरहकयपरिवारो णितो अयंतो उपाणहाओ बालवीअणी । (मू०४०८)
वा एवं सोभति । वलं-सारीरं, सेवणालं वा । वाहणं एत्ति'पंच रायककुदा' इत्यादि व्यक्तम् , नवरं राज्ञां-नृपतीनां |
यं तेसु एत्तियं पमाणं एयं कहं करेति, कोसो-जहिं रयणाककुदानि-चिह्नानि राजककुदानि, 'उप्फेसि 'त्ति शिरोवे
दियं दब्वं, कोट्ठागारो-जत्थ सालिमाइधराण, तम्मि वा एपृनं शेखरक इत्यर्थः, 'उपाहणाउ' त्ति उपानही, बालव्यजनी त्तियं पमाणं । ज पुण सट्टाणं पढ़ति तस्सिमं वक्खाणं-सट्टाणं चामरमित्यर्थः, श्रूयते च-"श्रवणइ पंच ककुहाणि, जाणि
वमणेवत्थं सट्टाणं रूवं वो सुद्धसामादिणेवत्थं परिहरणं । गयाण चिंधभूयाणि । खग्गं छत्तोवाहण, मउडं तह चाम
रायकहादोसदरिसपत्थं भरणतिराश्रो य ॥१॥” इति । (खई छत्रम् उपानहौ, मकुटं त. चारितचाराऽहमरा-हित-मारितसंककाउकामा वा।
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एप०
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(५०) रायकहा
अभिमानराजेन्द्रः। भुताभुनोहाणं, करिज वा पासपपयोगं ।। १३० । व्येति । अत्रोत्तरम-'पुढवी वि नगरं 'इत्यादि . पृथिव्याटमाइ णिलयद्विता रायकह कहेमागा अत्यति । ते य सु
समुदायो राजगृह. न पृथिव्यादिसमुदायादते गज शाद.. ता गयपरिहिं. ताण य गयपरिमाण एवमट्रियं चित्त- प्रवृत्तिः, 'पुढवी जीवाइ य श्रीवार य नगरं गणित स्स जड परम थेगिमे साह तो कि मे एसि रायकहाण, रण:
पबुच्चई ति जीवाजीवस्वभावं गजगृहमिनि प्रतीतं. लत णं एते चारिया-भडिया चोग वा वेसपरिच्छमा अहिमग
विधानता पृथिवी सचेतनाचेतनत्वेन जावाश्चाजीवाश्चेति गाम दहरचोग, श्रस्नरयणं वाहियं केणइ ग्राणो वा सयणो राजगृहमिति प्रोन्यत इति ॥ भ० ५ श० ६ उ० । केणइ अदिट्टेण अरिणा मारितो एतेसु संकिर्जात । अहवा-1 रायग्गपय-राजाग्रपद-पुं० । स्वनामख्याते तीर्थविशेषे.प्रतिका नोरिया-चोरेसु सका अहिमरतं अस्सहरणं वा मारणं वा
रायग्गल-राजार्गल-पुं०। षष्टाशीतितमे महाग्रह. स्था.! काउकामा,वा-विगप्पदरिसणे,अहवा-गयकहाए रायदिक्खि यस्स अणुसरण भुत्तभोगिणो सइकरणं इतरेसु कोउयं पुन
"दो रायग्गला" स्था० २ ठा० ३ उ० । स्सरणकोउएणं ओहावणं करेज्ज, कारिग्ज वा पाससपा
रायजक्ख-राजयक्ष्मन्-पुं०। रोगविशेषे, प्राचा० १ २० २ गं। प्राससपोगो नाम-निदानकरण, रायकह त्ति दारं गयं ।। अ०१ उ०। नि००१ उ०। श्री०। ग० । दर्शा राजकथा यथा-शुगेरायणिय-रालिक-त्रि० । रत्नाधिके, व्य० २ उ० । स्था० । उस्मदीयो राजा सधनाश्चेमाः गजपनिर्गौडः अश्वपतिस्तुरुष्क, ज्ञानादिभावरत्नाभ्युच्छिते, दश० ६ ० ३ उ० । रत्नाधिइत्यादि । ध०२ अधि० । स० । आ० चू० ।
कस्तु पर्यायज्येष्ठः । यद्वा-"रायणिो नाम-जो नाणदमणरायकुल-राजकल-न। 'राउला' इति ख्याते राजवंशे, चरणमाहणेमु सुदटु पयो" त्ति । ध०२अधिक कल्पका
श्रा० चू० । चिरदीक्षितादिषु, दश० ८ अ०। अनु०। श्रा० म०।
रायणियत्तवाद-रात्निकत्ववाद-पुं० । रत्नाधिकोऽयमिति रायखुड्य-राजक्षुल्लक-पुं० । राजबालके , वृ० ६ उ० । (एकस्य राजदुल्लकस्य क्षिप्तचित्तस्य कथा · खिचित्त' प्रवादे. व्य०४ उ०। शब्दे तृतीयभागे ७४१ पृष्ठे उक्का)
रायणि(णी)यपरिहासी-राजनीतिपरिमापिन् पुं० । अचार्यारायगई-देशी-जलौकसि , दे० ना० ७ वर्ग ५ गाथा । दिषु परिभवकारिलि, स०२० सम । " राइणियपरिभासी
| राइणिो-श्रारिश्रो श्रगणो वा जो महल्लो जाइसुयपरियायारायगिह-राजगृह-न० । मगधेषु जनपदेषु वैभारगिर्युपत्यका-|
दीहि तस्स परिभासी परिभवकारी असुद्धचित्तत्तणी अयां प्रधाननगरे, प्रज्ञा० १ पद । सूत्र० । प्रव० । श्राव० । श्रा०
प्पाणं परे य असमाहीए जोजयति । " आव०४ अ । दश० । मा भ० । स्था०। अणु। अन्त० । श्रा०० । गज- | गृहोत्पत्तिः 'सेणिय' शब्द वक्ष्यते ) (पतत्कल्पः 'वेभार' |
रायणीइ-राजनीति-स्त्री० । राज्ञां नीतिः । राजझये लामाधु. शब्दे वक्ष्यते)
पाये, तत्प्रतिपादक शास्त्रे च । शा० १ ० १ ० । इदं किलार्थजातं गौतमो गजगृहे प्रायः पृष्टवान्
रायदंसण-राजदर्शन-न । राशो नृपतेदर्शनम् । नृपतिमीबहुशो भगवतस्तत्र विहारादिति राजगृहा
लके, पञ्चा० ६ विव। दिस्वरूपानर्णयपरसूत्रप्रपञ्च नवमो
रायदद-राजद्विष्ट न० । द्वेषणं द्विष्टं राज्ञा द्विएं राजद्विष्टम् । दशकमाह
राजद्वेष , व्य० १ उ० । आव० । ( कल्पिकायां प्रतितेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-किमिदं सेवनायां यान्यपवादपदानि अशिवादीनि तेष्वन्यतमं राजभंते ! नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ ?, किं पुढवीनगरं
द्विएम् । तत्र किं कथं कल्पत तदुक्तं ' मूलगुणपडिसेवणा'
शब्दे पश्चमभागे ३६७ पृष्ठे) (अनवस्थाप्याhण राजप्रशमनार्थ रायगिहं ति पवुच्चइ ?, आउनगरं रायगिहं ति पवुचइ ?,
यथा गन्तव्यं, तथा राजप्रशमद्विष्टेविहरतां यथा रात्री भोजनं जाव वणस्सइ ?, जहा एयणुद्देसए पंचिंदियतिरिक्खजो
कल्पते तथा 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नव भागे ५२७ पृष्ठे उक्कम) णियाणं वत्तव्वया तहा भाणियव्यं० जाव सचित्ताचित्त
रायधम्म-राजधर्म-पुं० । दुष्ट नरनिग्रहपरिपालनादिरूप लोमीसयाई दवाई नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ ?, गोयमा ! किकधर्मभेद, दश०१० । आखेटकेन विनोदक्रियायाम, पढवी वि नगरं रायगिह ति पयुच्चइ० जाब सचित्ताचित्त- सूत्र० १ श्रु०५ अ०१ उ० । मीसियाई दवाई नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ । से केणऽद्वे- | रायपध-राज
रायपध-राजपथ-पुं० । “थो धः शौरसेन्याम्" ॥1॥ णं ?, गोयमा ! पुढवी जीवाति य अजीवाति य नगरं |
२६७ ॥ इति थस्य धः। राजपथो । राजपधो। प्रा० । राजरायगिहंति पवुच्चई जाव सचित्ताचित्तमीसियाई दव्वाई
गमनयोग्यमार्गे, स्था० ५ ठा० १ उ.। औ०।
रायपसेणीय राजप्रश्नीय-न । गशः-प्रदेशिनानः प्रश्नानि जीवाति य अजीवाति य नगरं रायगिह ति पञ्चति । से
राजप्रश्नानि । तत्प्रतिपादके सूत्रकृताङ्गम्योपाङ्गे. ग०। तेणऽटेणं तं चेव । (सू०२२३)
"प्रणमत वीरजिनेश्वर-चरणयुगं परमपाटलच्छायम् । 'नेणमि' त्यादि. 'जहा एयणुद्देसए 'त्ति एजनोद्देशकोs- अधरीकृतनतवासव-मुकुस्थितरत्नरुचिचक्रम् ॥१॥ स्यैव पञ्चमशतस्य सप्तमः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वनव्यता राजप्रश्नीयम, विवृणामि यथाक्रमं गुरुनियागात् । 'टङ्का कृडा सेला सिहरी त्यादिका या उक्का सा इह भणित- तत्र च शक्तिमशक्ति. गुरवो जानन्ति मे काश्चित् ॥२॥
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(५१) गरपमगीय अभिधानराजेन्द्रः।
रायपिंट अथ कम्मादिदमुपाङ्गं गजप्रश्नीयाभिधानमिनि?. उच्यते- तत्र मुदितो नाम-योनिशुद्धः शुद्धोभयपक्षसम्भृतो यस्य मा इह प्रदेशी नाम गजा भगवतः काशकुमारश्रमणम्य समीप तापितगै राजबंशीयाविति भावः, यः पुनः परेण मुकुटबद्धेन यान जीविपथान प्रश्नानकापीत् , यानि च तस्मै केशि- | गशा प्रजया वा गज्ये ऽभिपिक्तः,यो वा स्वयमात्मनवाभिषिक्तो कुमारश्रमगा गगाभृत व्याकरणानि व्याकृतवान , यश्च व्या- यथा भरतो राजा, एप मूर्दाभिषिक्त उच्यते । करानम्यकपरिणानभावती बोधिमासाद्य मरणान्त:---
प्रषु विधिमाहशुभानुशपयागतः प्रथमं सीधम्मिनाम नाकलोकविमानमाधिपत्यनाध्यनिष्ठत । यथा च विमानाधिपत्यप्राप्त्य
पढमगभंग वज्जो, होउ व मा वा वि जे तहिं दोसा। नन्तरं सम्यगधिशानाभोगतः श्रीमद्धमानस्वामिनं भग- सेमेसु होति पिंडो, जहि दोसा तहि विवजेंति ॥ ३०६॥ वन्नमालोक्य भक्त्यतिशयपगतचेताः सर्वस्वसामग्रीसमेत प्रथमे भने गजपिगडी वयः-परित्यक्तव्यो. ये तत्र गजदहावीर्य भगवतः पुग्नो द्वात्रिंशाधन नाटयमन नृत्यत् | पिगडे गृह्यमाणे दोपास्ते भवन्तु वा मा बा तथाऽपि वर्जनीयः। नर्तित्वाञ्च यथायुक्तं दिवि सुखमनुभूय नतश्च्युत्वा यत्र | शेपेषु विपु भङ्गेषु पिण्डो राजपिगडो न भवात , तथाऽपि समागन्य यथा मुक्तिपदमवाप्स्यति । नंदतत्सर्वमम्मिन्नु। येषु दोषा भवन्ति तान् द्वितीयादीनपि भङ्गान् वर्जयन्ति । पाङ्गमभिधयं परं सकालवक्तव्यनामूलम् । गजप्रश्न नि
इयमत्र भावना-यः सेनापतिमन्त्रिपुरोहितष्टिसार्थवाहगजप्रश्नेषु भवं गजप्रश्नीयम् , अथ कस्याङ्गस्येदमुपाङ्गम !
सहितो गज्यं भुते तस्य पिगडो वर्जनीयः । अन्यत्र तु उच्यते-सूत्रकृताङ्गस्य । कथं तदुपाङ्गनेति चेत् ?
भजनेति. गतं कीदृशा गजेति द्वारम् । सत्रकृते ह्यङ्गम् , अशीयधिकं शतं क्रियावादिनां, च-1
अथ के तस्य भेदा?, इति द्वारं चिन्तयन्नाहतुरसीतिक्रियावादिनाम् , सप्तपष्टिरक्षातकानां , द्वात्रि
असणाईया चउरो, बत्थं पाद य कंबले चव । शत् बनायकाना, सर्वसंख्यया त्रीणि त्रिपष्टयधिकानि पापण्डिकशतानि प्रतिक्षिप्य च समय स्थाप्यत । उक्त
पाउंछणए य तहा, अद्वविधो रायपिंडो उ ।। ३०७ ।। च-नन्द्यध्ययने " सयगडेगं असीयसई किरियावाई- अशनादयः अशन पानर खादिम ३स्वादिमटरूपा ये चन्वागे णं, चउरासी अकिरिया वाइण, सत्तसट्ठी अन्नाणियवाई गं भेदाः यच्च वस्त्रं ५ पात्रं ६ कम्बलं ७ पादपोछनकम् ८ वत्तीसा वेणइयचाईणं । तिराहं तिसट्टाणं पासंडियसयाग एषां एविधो गजपिराडः । वृहं कित्ता ससमय वाविजइत्ति" प्रदेशी च राजा पूर्व
अथ के तस्य दोषाः ? इनि द्वारमाहमक्रियावादिमतभावितमना श्रासीत् , अक्रियावादिमतमेव | अट्टविहरायपिंडे, अप्पतरं यं तु जो पडिग्गाहो। चालम्च्य जीवविषयान प्रश्नानकरोत् , केशिकुमारश्रमणश्च सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पाये ॥ ३०८।। गणधारी सूत्रकृताङ्गमचितमक्रियावादिमतप्रतिक्षेपमुपजीव्य
अष्टविधे गजपिण्डे अन्यतरदशनादिकं यः प्रतिगृह्णाति स व्याकरणानि व्याकार्षीत् । ततो यान्येव सूत्रकृताङ्गसूचिता
माधगज्ञाभङ्गमनवस्थां मिथ्यान्वं विगधनां च प्राप्नुयात् । नि केशिकुमारश्रमणेन व्याकरणानि व्याकृतानि तान्येवाऽत्र
एत चापरे दोषाः। सविस्तरमुक्तानीति सूत्रकृताङ्गगतविशपप्रकटनादिदमुपाझं
ईसरतलवरमाडं-चिएहि सिट्ठीहि सत्थवाहेहिं । सूत्रकृतास्यति । पतद्वक्तव्यता च भगवता वर्द्धमानस्वामिना गौतमाय साक्षादभिहिता । रा।।
णितेहि अर्तितेहि य, वाघातो होति भिक्खुस्स ॥३०॥ रायपिंड-राजपिंड-पुं० । राक्षश्चक्रवर्तिवासुदेवादेः पिण्डो ईश्वरतलवरमाडम्बिकैः श्रेष्टिमार्थवाहश्च निर्गच्छद्भिः अतिराजपिण्डः । नृपाहारे , स्था० ठा० । दशा०। से-1
! यद्भिः प्रविशद्भिर्भिक्षार्मिक्षार्थ प्रविएस्य व्याघाता भवति । मार्पातपुरोहितश्रेष्ठयमात्यसार्थवाहलक्षणैः पञ्चभिः सह
एतदय व्याचष्टेगज्यं पालयन्मू भिषिको यो राजा; तस्य अशनादिचतु ईसर भोइयमाई-तलवरपट्टेण तलबगे होति । कं-वस्त्रं, पात्रं, कम्बलं, रजोहरणं चेत्यष्टविधे पिण्डे, क- वेढणबद्धो सेट्ठी, पच्चंत हिवो उ माडवी ॥ ३१ ॥ ल्प०१ अधि०१ क्षण । वृछ ।
ईश्वरो-भोगिकादिग्रामस्वामिप्रभृतिक उच्यते, यस्तु परिराजपिण्डद्वारमाह
तुष्टनृपतिप्रदत्तेन सौवर्णेन तलबरपट्टेनाङ्कितशिराः स तकेरिसगो त्ति व राया, भेदा पिंडस्स के व से दोसा। | लवरो भवति । श्रीदेवताध्यासिनपट्टो वेटनकमुच्यते, तद्यस्य केरिसगम्मि व कजे,कप्पति काए व जयणाए ॥३०४॥ राजानुज्ञात स वेटनकबद्धः श्रेष्ठी, यस्तु प्रत्यन्ताधिपच्छन्नकादशोऽसौ राजा यस्य पिण्डः पगिहियते इति । के मडम्बनायकः स माडम्बिकः, सार्थवाहः प्रतीत इति कृत्वा या तस्य राजपिण्डस्य भेदाः, के वा (से) तस्य ग्रहणे दोषाः । न व्याख्यातः। कीदृशे वा कार्य गजपिण्डो गृहीतुं कल्पते, कया वा| जा णिति इंतिता अच्छयो य सुत्तादिभिक्खहाणी य । यतनया कल्पते । पतानि द्वाराणि चिन्तनीयानि ।
इरिया अमंगलं ति य, पेल्लाहणणा इयरहा वा ।। ३११॥ तत्र प्रथमद्वारे निर्वचनं तावदाह
एते ईश्वरादयो यावनिर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च तावदसौ मुइते मुद्धभिसित्ते, मुइतो जो होइ जोणिसुद्धो उ ।
साधुः प्रतीक्षमाण प्रास्ते । तत एवमासीनस्य सूत्रार्थयोर्भअभिसित्तो व परेहिं, सयं व भरहो जहा राया ॥३०॥ तस्य च परिहाणिर्भवति, अश्वहस्त्यादिसम्मन चयाँ राजा चतुर्धा-मुदितो मूर्धाभिषिको १,न मुदितो मूर्धाभिषि- शोधयितुं न शक्नोति। अथ शोधयति ततस्तैरभिघातो भवति ।
क्नः२,न मूर्धाभिषिक्तो मुदितः३, न नुदितो न मूर्धाभिषिक्तश्च४, कोऽपि निर्गच्छन् प्रविशन् वा तं साधुं विलोक्यामङ्गलमिति
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( ५५२ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
रायfis
मन्यमानस्तैनैवाश्वहस्त्यादिना प्रेरणं कशादिना वा श्रहननं कुर्यात् ' इतरहा वत्ति यद्यपि कोऽप्यमङ्गलं न मन्यते तथाऽपि जनसंमदे प्रेरणमाहननं वा यथाभावेन भवेत् । किंच
लोभे एसघाते, संका तेथे नपुंस - इत्थी वा । इच्छंतमणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ।। ३१२ ॥ राजभवनप्रविष्टो लोभे उत्कृष्टद्रव्यलोभवशत एषणाघातं कुर्यात्, स्तेनोऽयमित्यादिका वा शङ्का राजपुरुषाणां भ चेत्, नपुंसकाः स्त्रियो वा तत्र निरुद्धेन्द्रियाः साधुमुपसर्गबेयुस्तत्रेच्छतोऽनिच्छतश्च संयमविराधनादयो बहवो दोघाः । राजभवनं च प्रविशतः शुद्धः शुद्धेनाऽपि चत्वारो माला गुरुकाः प्रायश्चित्तम् ।
एनामेव गाथां व्याख्यानयतिनत्थ एरिसं दुल्लभं ति रहेजसणिअं पि । विहिते, संकिजति एस तेणो त्ति ||३१३॥ अन्तःपुरिकाभिरुत्कृष्टं द्रव्यं दीयमानं दृष्ट्रा नास्त्यन्यत्रेदृशं दुर्लभं वेति लोभवशतोऽनेपणीयमपि गृह्णीयात् । राशश्च प्रकीर्णे सुवर्णादौ द्रव्ये अन्येनाऽप्यपहृते स एव साधुः शङ्कयते एव स्तेन इति ।
संका चारिग चोरे, मूलं निस्संकियम्मि अणवट्टो | परदारियऽभिमरे वा, गवमं णिस्संकिए दसमं ॥ ३९४ ॥ चारिकोऽयं चौरो वा श्रयं भविष्यतीति शङ्कायां मूलम् ; निःशङ्कते अनवस्थाप्यम् पारदारिकशङ्कायामभिमरशङ्कायां च नवमम्-अनवस्थाप्यम्, निःशङ्किते दशमम्-पाराश्चिकम् । अलभता परियार, इत्थिनपुंसा बला वि गेरहेजा । आयरिय-कुलगणे वा, संधे व करेज पत्थारं ॥ ३१५॥ तत्र प्रविचारं बहिर्निर्गममलभमानाः स्त्रीनपुंसका बलादपि साधुं गृह्णीयुः तान् यदि प्रतिसेवते तदा चारित्रविराधना, अथ न प्रविसेवते तदा ते उड्डाहं कुर्युः । ततः प्रतापनादयो दोषाः । अथवा राजा रुट श्राचार्यस्य कुलस्य गणस्य वा सङ्घस्य वा प्रस्तारम् - विनाशं कुर्यात् ।
वि होंति दोसा, आइसे गुम्मरतणमादीया । मिस्साऍ पत्रेसो, तिरिक्खमणुया भवे दुट्ठा ||३१६॥ अन्येऽपि तत्र प्रविष्टस्य दोषा भवन्ति । तद्यथा - रत्नादिभिराकीर्णे ' गुम्म 'त्ति गौल्मिकास्तत्स्थानपालास्ते अतिभूमिं प्रविष्ट इति कृत्वा तं साधुं गृह्णन्ति, प्रतापयन्ति वा एवमादयो दोषाः । श्रथवा तन्निश्रया तस्य साधोः यथा रत्नादिमोषणार्थ स्तेनकाः प्रवेशं कुर्युः, तिर्यञ्चो-वानरादयो मनुजाश्च- म्लेच्छादयो दुष्टास्तत्र राजभवने भवेयुस्ते साधोरुपद्रवं कुर्वीरन् ।
एनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यातिइसे रयणादी, गेरहेज सयं परो व तन्नीसा । गोम्मियगहणाहणणं, रम्मो य णिवेदयंते तो ॥३१७॥ रत्नादिमिराकीर्णे स प्रविष्टः स्वयमेव तत्र रत्नादिकं गृह्णीयात्, , परो वा तनिश्रया गृह्णीयात्, गौल्मिकाश्च ग्रहणमाहननं वा कुर्युः, राशो वा ते तं साधुं निवेदयन्त्युपढौकयति, ततो निवेदिते सति तत्प्रतापनादिकमसौ करिष्यति ।
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रायपिंड
तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमाह ।
चारियचोराभिमरा, कामी पविसंति तत्थ तम्मीसा । वाणरतरच्छुवरघा, मेच्छादिखरा व घातेा ॥ ३१८ ॥ चारिकाचीरा अभिमरा कामिनो वा तत्र तस्य साधीनिश्रया प्रविशेयुः, तथा वानरतरतुव्याघ्रा म्लेच्छादयो वा नराः तत्र साधुं घातयेयुः ।
अथ कीदृशे कार्य कल्पते कया वा यतनया इति द्वारद्वयमाह
दुविहे गेलम्मम्मि णिमंत दव्वदुल्लभे सिवे । ओमोरियपदोसे, भए य गहणं श्रणुमायं ॥ ३१६ ॥ तिक्खुत्तो सक्खत्ते, चउद्दिसिं जो गणंसि कडजोगी । दव्वरस य दुल्लभया, जयगाए कप्पई ताहे ॥ ३२० ॥ गाथाद्वयं शय्यातरपिण्ड च द्रष्टव्यम् । नवरमागाढे ग्लानत्वे क्षिप्रमेव राजपिण्डं गृह्णाति श्रनागाढे तु त्रिःकृत्यो मार्गयित्वा यदा न लभ्यते तदा पञ्चकपरिहाराया चतुर्गुरुप्राप्तो गृह्णाति । निमन्त्रणे - राज्ञा निर्बन्धेन निमन्त्रितो भति यदि भूयो भणसि ततो गृह्णीमो वयं नान्यथा, श्रवमे शिवे वाऽ न्यत्रालभ्यमाने राजकुलं वा नाशिवेन गृहीतं ततस्तत्र गृहाति । राजद्विष्टे तु परस्मिन् राशि कुमारे वा प्रद्विष्टे बोधिकम्लेच्छभये वा राज्ञो गृहान्निर्गच्छन् गृह्णीयात् । बृ० ६ उ० ।
दश० ।
राजान्तःपुरं प्रविश्य गृहाणेति परं वदति, तत्र सूत्रम्जे भिक्खू रायतेपुरं वि वजा श्राउसो रायंते पुरिए नो खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरं क्खिमित्तए वा पविसित्तए वा अम्हे तुम्हें पडिग्गहं गहाय रायंतेपुराउ - सरणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आह दलयामो जो तं ते एवं वद वदतं वा साइज ॥ ४ ॥
गाहा -
जे भिक्खू वएज्जाहि, अंतेउरियं ण कप्पते मज्यं । अंतेउरमतिगंतुं, आहारपिंडं इहाऽऽणाहि ॥ २६ ॥ नीहारय - निष्क्राम्य गृहीत्वा वा श्राह स मम ददातीत्यर्थः, इहैव बाहि ठियस्स मम श्राहारादि श्रानय । इमे दोसा गाहा
गमणादि अपडिलेहा, दंडिय कोवे हिरम्म संचिते । अभियोगविसे हरणं. भिंदे विरोधे य लेवकडे ||२७|| गच्छति श्रागच्छति य छक्कायं विराहेज अपडिलेहिएय गमागमे भिक्खा ण कप्पति, अपडिलेहिए वा भायो गेरहेज, इंडि वा दठ्ठे पडुसेज वा संकेज्ज वा श्रगायारं हिरणादि वा किंचि तेणियं पच्छातीया तत्थ भेज्ज पलंबादि वा संचिते-भेज्ज, श्रीरालियमरस्स वा वसीकरणं देज्ज । श्रपणा पट्टा असे वा पउता विसं देज्ज । भायणं वा हरेज्ज अजाती वा भायं भिंदेज्ज, खीरं विवाविरोहिदव्वे एकतो गेरिहज्ज, पोग्गलादि वा संजमविरुद्धं गेरहेज्ज लेवाडेज्ज वा ।
गाहा
लोभे एसघाते, संका तेणे चरितभेदे य ।
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( ५५३ ) अभिधान राजेन्द्रः |
रायपिंड
इच्छंत मणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा || २८ ॥ उकोसलोभेण एसघातं करेज, पूर्ण स उज्झामगो, संकिते-ह्न, स्लिंकिते मूलं ते वा संकेज किं पि हरिडं एयस्त परिणाम य आयपरोभयसमुत्थेहिं दोसेहिं चरितभेदो अगारीए य बलागहिए इच्छंते चरित्तभेदो, उड्डाहभया अणिते - हु ।
गाहा
दुविधे गेलम्मम्मि णिमंत दव्दुल्लभे सवे | ओमोयरियपदोसे, भए य सा कप्पते भणितुं ॥ २६ ॥ पूर्ववत् । नि० ० ६ उ० । पञ्चा० । पं० भा० । पं० चू० । राज्ञां पिण्डं कीदृशमपि कथमपि न गृह्णीयात् ।
साम्प्रतमजुगुप्सितेष्वपि केषुचिद्दोषदर्शनात्प्रवेशप्रतिषेधं दर्शयितुमाह
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जाई पुरा कुलाई जाणिजा । तं जहा-खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायसट्ठियाण वा अंतो वा बाहिं वा गच्छंताण वा संनिविद्वाण वा निमंते माणा वा अनिमंते माणा वा सवा पाव खाइमं वा साइमं वा लाभे संते नो पडिगाहिज्जा । ( सू० २१ )
स भिक्षुर्यानि पुनरेवम्भूतानि कुलानि जानी रात् तद्यथा क्षत्रियाः चक्रवर्त्तिवासुदेववलदेवप्रभृतयस्तेषां कुलानि, राजान:- क्षत्रियेभ्यो ऽन्ये, कुराजानः- प्रत्यन्तराजानः, राजप्रेष्याः- दण्डपाशिकप्रभृतयः, राजवंशे स्थिता राज्ञो मानुलभागिनेयादयः, एतेषां कुलेषु संपातभयान्न प्रवेष्टव्यम्. तेषां च गृहान्तर्वहिर्वा स्थितानां गच्छतां पथि वहतां सन्निविष्टानाम् - आवासितानां निमन्त्रयतामनिमन्त्रयतां वाऽशनादि सति लाभे न गृह्णीयादिति । श्राचा० २ श्र० १ चू० १ ० ४ उ० ।
अथ राजपिण्डं गृह्णाति तत्र सूत्रम् -
जे भिक्खु रम्पो खत्तियागं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं पिंडं मुत्तेहिंसु वा समवाए जाव सहेसु वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहइ पडिगार्हतं वा साइज ।। १५ ।।
वत्तिय इति-जातिग्गहणं. मुदिनो जातिग्गहणं, मुदितो जातिशुद्ध पिउमादिएण अभिसित्तो मुद्धाभिसित्तो. समवापी - गणभतं पिंडगिरी - दाइयभत्तं पितिपिंडपदा वा पिंडगिरी, इंदमहो संदकुमारो भागियो रुद्रः मुकुंदो बलदेवो चेति । तं देवकुलं कहि चिरुक्खस्स जता कीरई गिरिपव्ययजन्त्ता गागदरिगादिऽधो उच्चायविलं वा सेसा प्रसिद्धा । एतेसि एगतरमहे जत्थ रणो सियापत्ते गंधार भत्ते जो गेरहार - हु ।
गाहा
समवायादी तु पदा, जत्तियमेत्ता तु श्राहिता सुत्ते । तेसिं असणादी, गेरहंताणादिशो दोसा ।। १३७ ॥ गणभत्तं समवाय, तत्थ कथं जहिं विस्संसो ।
१३६
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रायपिंड
पितिकाले विवेद, वणी मगापिंड गिर साममे । १३८ । पितृvिesप्रदानकालो मघा, श्राद्धेषु भवति ।
गाहा
इंदमहादव-हार विस्संसजणवतपुरे वा । तति मिस्सितो ण कप्पति, भदगपंतादिदोसेहिं ॥ १३६ ॥ इन्दादी वा महेसु जे उवहारा णिजंति वलिमादिया जण पुरेण वा ते जइ विपिंडविमिस्सा तो ग संकप्पंति भद्दपंतादिया य दोसा ।
गाहा
रमो पत्तो प्रत्थवि, होजा व विमिस्सिता ते उ । गहणाऽगहणेगस्स तु, दोसा उ इमे पसर्जति ॥ १४० ॥ अरणस्स संतियं गेरहंति रराणो संतियम्स अग्गहं श्र हरणं अस्स व संतियस्स गहणे अग्गहणे वि दोसा । गहणे दुविधा भदपंतदोसा ।
गाहा
भतो तमीसा, पंतो घेप्पंते दट्टू भगति । अंतोघरे ण इच्छध, इह गहणं दुट्ठधम्म ति ।। १४१ ॥ भदंतो चिंतेति परां उवापण गेरहंति, ताहे अभिक्खणं समवायादिसंखड़ी तो करेति लोगेण वा समं पत्तेगं वा पत्तो तत्थ समवादियासु घेप्पते दट्ठूण भणति श्रतो मग घरे इच्छह इह मम संतियं जणवयमत्तेण सह गेरहह, अटो दुधम्मो । ततो सो रुट्ठो ।
गाहा
भत्तोवधियोच्छेद, सिव्विसयचरित्तजीवभेदं वा । गमण पदोसे उ, कुजा पत्थारमादीणि ।। १४२ ।। तेसु भत्तादिवोच्छेदं करेज, मा एतेसि को वि उवगरणं देऊज, गिव्विस वा करेज, चरिताओ वा भंसेज. जीवियाश्रो दा ववरोवेज, एगस्स वा पदुसेज श्रगाण वा कुलगणसंघे वा पत्थरं करेज ।
इमे राहणे दोसा ।
गाहा
तेसु हितेसुं, तीसे परिसाएँ एवमुपजे ।
को जाति किं एते, साधू घेतुं ण इच्छंति ॥ १५३॥ साहिं अहंतेहिं तीसे गोट्ठिपरिसाए एवं चित्तमुपजति, को पुरा कारणं जाणेज किमिति कस्माद्धेतोरित्यर्थः ।
गाहा
इतरेसिंगहणम्मी, विचोल्लगञ्ज हु जणसंका | जाती दोससे ते, जागंताऽऽगंतु सोय ॥ १४४ ॥ इयरे गोडियजातेसि चोल्लगस्स गहणे विचोल्लगस्स वजणे जगस्स आसंका भवति । एते साधुणिसेहिर जाति नि जाति, दोस्रो य । तत्थ आगंतुको करकण्डूवन् जखेण धमियं वा उवालई, नाहे पट्टो भत्तोवहबोलेदादिग दोसा करेजा।
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(५५४) रायपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
रायपि गाहा
गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं।१५७ अम्हाण तत्थ गमणं, समवायादीसु जन्थ रामो तु । कंठा।
गाहापत्तेगं वा भत्तं, अामेगे वाण गिण्हज्जा ।। १४५ ।।
सालत्ति णवरि णाम, उज्जाणपथे व सव्वहिं वज्जो। राणी दुवारमादी, भुत्ताऽभुत्ता उ जत्तिया सुते ।
सालाणं पुण गहणं, हयादिहितणमासंका ॥१५८।। गहणागहणे तत्थ य, दोसा उ इमे पसजंति ॥१४६॥
णिवमेत्तं णाम उदाहरणमात्रं हयादिहिते गाटे वा सका दोवारिय पुबुत्ता, पलंवगादीसु हयगयादी य ।। भवति,कलं पत्थ संजया आगया, तेहि हिडतेहिहडेन अभमे य घरे न य इच्छह, इह गहणं दधम्म त्ति ।।१४७।। सिं काहय, तेहिं हडं. हरितु वा अराणास कहियं, तहि हड। भिन्नोवहिवोच्छेयं, णिव्यिसयचरित्तजीवभेदं वा । उत्तरसालागिहाण इमं वक्खाणं ।
गाहागमणे एगपदोसे, कुजा पत्थारमादीणि ॥ १४८ ॥
मूलगिहमसंबद्धा, गिहा य साला य उत्तरा होति । तेसु अगिएहंतसुं, तीसे परिसाएँ एवमुप्पज्झे ।
जत्थ व ण वसति गया,पच्छा कीरति जावराण ।१५६। को जाणति किं एते, साहू घेत्तुं ण इच्छंति ।। १४६ ।
जत्थ या कीडापुव्वं गच्छति, ण वसंतिः उत्तरमाल आगाढे गेलामे, णिमंतणा दव्यदल्लभे असिवे । गिहा वत्तवा । जे वा पच्छा कीपति ते उत्तरमाला पहा. प्रोमोयरिएँ पदासे, भए य गहणं अणुण्णायं ॥१५०॥
एतेसु ठाणेसु मीसं अमीसं वा जो गेराहति तस्स ते चव दो
सा, तं चेव पच्छित्तं, तं चव वितियपदं । छद्दोसायतणे पुण, रगणो अविजाणितूण जे भिक्खू ।
सूत्रम्-- चउराय-पंचरायं, परेण पविसाणमादीणि ।। १५१ ॥ ।
जे भिक्खू रगणो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिमिना कोट्ठागारा य तहा, भंडागारा य पाणगारा य ।
हयसालगयाणं वा गयसालगयाणं वा मंतमालगया । खीरघरगंजमाला, महाणमाणं व जा यतणा ॥ १५२॥ |
गुज्झमालगयाणं वा रहमालगयाणं वा महुणमालग - गहणाईया दोसा, आययणं संभवो त्ति वेगट्ठा।।
याणं वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिदिट्ठतर पुच्छिगवे-सणगंजसालाउ कुणिया ।।१५३।।
गाहेइ पडिगाहंतं वा साइज्जइ ॥ १७॥ पढमे बितिए ततिए, चउत्थमामादि चउगुरू अंतो।
हयगयमाला उ हयगयाण उ वा जन्थ पिंडमाणीय दंति उग्घातो पढमदिणे, बितिया एगेमि ते चेव ।। १५४ ॥
तत्थ गयपिंडो अंतरा पदोसो य समसालासु पट्टा भत्ता, अहह्वा पढमे दिवसे, भिएणमामादि पंचमे गुरुगा। । अहवा सुत्ताऽभिहयसालासु ठिनादीण अणाहादियारा वीसादि व एगसिं, परण पंचएह दिवसाणं ॥ १५५ ॥
भत्तं पयच्छति जो गेगहति-हु ।
गाहाभद्दसु रायपिंडं, आवञ्जति गहणमादि पिंडेसु ।
हयमादी साला खलु, जत्तियमत्ता तु आहिता सुत्ने । असिवे ओमोयरिए, गेलापए य वितियपयं ॥१५६।।
गहणाऽगहगे तत्थ उ,दोमा तेतं च वितियपदं । १६०।। गोष्ट्रियसमवायभत्तेमु वा पत्तेयं भद्दकुलजणसम्मिस्सं चा
गगगो गयपिडो त्तिण गेगहति, श्रराणेसि गेगर्हान । कहं पुण रमो णा गगह जा "वितियपदगाहा" आगाढे गेलम्मे अरागतो
अगसिगेगहति जईसगदिया दमणपिंडगे प्रागति अगाम न लब्भति ताहे घपति,अभिक्खणं णिमतमागम्स व पमंग
नम्न गाभवा भवति । वारेति । ज वा से गस्थि तं मग्गति दुलभ दव्यं तमगरातो न.
सुत्रमनि असिवगहिया अगर गिहिणो श्रोमे ग्गगो गंह ल- जे भिक्ख गगा खत्तियाणं मुदियाणं मद्धाभिमित्तागं सम्भंति,अराणो अधिकतगे राया पदुट्टो अगगातो बोहिगादिभयं एवमादिहि कारणेहिं गहणं अणुगणायं ।
पिहिसंचयाउ खीरं वा दहिं वा णवरणीयं वा मपि वा तेलं
वा गुलं वा खंडं वा सकरं वा मच्छंडियं वा अमायरं वा भो_ राजपिराडम् उत्तरशालादिपु
यणजायं पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा माइज्जड़ ।। १८ ।। जे भिक्खु रगणो खत्तियाणं मुद्दि(दि)याणं मुद्धाभिसित्ताणं
जे भिक जाव मांगहिसंचयाउ मांगणही नाम-दधिउत्तरसालंसि वा उत्तरगिहंसि वा रायाणं असणं वा गऽऽदिया जं विणानिदव्य, जे पुण घयतेलवन्यपगगुणवंडपाणं वा खाइमं वा माइमं वा पडिगाहेइ पडिगाहंत वा| सकाइअं अविगामिदव्यं विग्मति, अच्छइ न विगम्मा साइज्जई।॥ १६॥
सो सरओ विडंकलवर्ग मामुहकादि उभिज ।
गाहाअत्थातिगादिमंडवो उत्तरमाला हयगयाण साला उत्त
समिधिऽममिहिघाना, खीगदी वत्थपनमादी चा । रसाला, मुलगिहमसंवद्धं उत्तरगिहं। गाहा
गहणाऽगहण तत्थ तु, दोसा ते तं च विनियपदं ।१६१। उत्तरमाला उत्तर-गिहा य रामो हवंति दविधाओ। । प्रोदणगोरसमादी, विणामिदव्या उ माणिधा होति ।
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पिंड
राक्कुमितघनगुला, अविणासी संचयदव्या ॥ १६२ ।। सक्कुलिः पर्पटिः ।
( ५५५ ) रायपिंड अभिधानराजेन्द्रः । वापडिया निक्खनिए वा पत्रिभिनए वा निक्ख तं वा पवितं वा साइजड़, तं जहा कोट्ठागारसाला खि वा१भंडागारसालागि वा२पाणसालागि वा३खीरमाला - णि वागंजमा लागि वा महायसमालागि वा ६ ||७|| इमेति प्रत्यती पनि संख्या होसा आयाअजय-अविज्ञाय भिक्षायाः प्रविशति धनुरात्रात्परतः प्रदेशन या पञ्चरात्रात्परत: द्वादशपरि सनिवााहिरियं णिग्गदति धरणागार-कोडागारो भंडागारो-हिरा जन्थ उदगादि सा पाणसाला भरगति, खीरघरं - खीरसाला, जन्थ ध उभिजति सा गंजसाला, उबक्खडणसाला - महायो पुब्वदिट्ठे पुच्छा पुब्वै गवेसणा श्रपुच्छंतस्स हु ( अत्र प्रवक्लबृहत्कल्पव्याख्यानुगतार्थत्वाच्चूर्णिनं गृहीता ) (दर्शनप्रतिज्ञया कर्तव्यं यत् तत् चक्खुदंसणवडिया शब्दे तृतीयभागे १२०७ पृष्ठ गतम् )
सूत्रम्
जे भिक्खु । खनिया मुद्दयावं मुद्धाभिसिता ओस टुपिंडे वा संसदुपिंडं वा अणाहपिंडं वा किविणपिंडं वा मगपिं वा पगिडेद पडिगाई या साइज ।। १६ ।।
गाहा
ओस उज्झितध-म्म ए उ संसते सावसेसे उ ।
मग जातगाडे, असाहपिंडे अपूर्ण ॥। १६३ ।। चोस यियम्मिए, संडो-भुतागपिंडो खाम जो जायगवित्तिणो दाणादिफलं लवित्ता लभनिति अबंध
या तेखि जो को पिंडो
सिजो
गाहा
एतेसामम्मतरं, जे पिंडं रायसंतियं गिरहे ।
ते चैव तत् दोसा तं चैव तत्थ चितियपदं ।। १६४|| नि० चू० उ० ।
राजगृहन्तं वा स्वयं तत्र सूत्रम जे भिक्खु रापि गहर गिरहंत या साइज || १ | जे भिक्खू रायपिंडं परिभुंजइ परिभुंजंतं वा साइज ||२|| मोसंबंधो।
गाहा
पत्विधिकारे अयमवि तरसेव एस रामस्य । सो कतिविध नि पिंडी, केरिसर विवज्जो उ || १ || अमुदेगस्य अतिमसुते पश्चिवर्षिविवारी इहापि
मस्स दिने सो देवाधितो एस संबंधी सोफ तिविहो पिंडो रिसस्स वा रराणो वज्जेयच्वो ? |
गाहा
जो मुद्धा अभिसित्तो, पंचहिं सहितो य भुंजए रजं । तस् य पिंडो वज्जो, तविव्वरीतम्मि भयणा तु ॥ २ ॥ पाश्रयमित्यर्थः तस्वादि अभि सत्ता मुद्रा मुद्धाभिसित्तो. गावइश्रमचपुरोहियसट्ठिसाहति एपि मा भयगा - जति श्रन्थि दोसो तो वज्जी, श्रह रात्थि दोसो तो ण बज्जा । नि० चू० ।
यावत्प्राघूर्णकभक्तं गृह्णाति तत्र सूत्र
ज
भिक्खू पो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिसितारणं दुबारियभत्तं वा वसुमत्तं वा भयगभत्तं वा बलभत्तं वा कयगमनं वागयभनं वा कंतारभनं वा दुभिक्खभनं वा दुम गमनं वा दमगमनं वा गिलाणभतं वा वदिलियाभतं वा पागमनं वा पडिगहिनि पडिगार्हतं वा साइज ।। ६ ।। राजः कोशागारादिषु प्रविशनि
जे भिक्खु रनो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिमि हेमिया इमाई होमाई आयतनयं बजागिय अ गियि परं चपचरनाओं गाहाबक पिंड
:
सूत्रम्
जे भिक्खु रामो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिमिना मसखाया वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया सिग्गया अम वा पावा खाइर्म वा साइमं वा पडिगाहेइ पडिगार्हतं वा साइज्जइ || १० ||
·
"
मिगादिपादिता मंसखाया दहराइसमुदे प च्छुखागा छवी कलमादि संगता खागा, तिरिण गया उजा सिवाए कुएं
गाहा
सवाचे उद् सिग्गमा समस्या | महागणे तत्थ उ दोसा ते तं च वितियपदं ॥ ५६॥ तेसु सु उउसु राम्रो पुरा विग्गताण तत्थेव असणानाइमसातिमं उवकरैति । तडियकप्पडियाण वा तत्थ भत्तपंतादयो दोसा, गहणे पूर्ववत् ।
असि गो अगह इसे यया-मंगखाया पार -दिग्गिया मच्छादिदहसमुंद ! छलिमादी संगा, जे य फला जम्मि तु उडुम्मि ||१७|| तत्थगया पगते कारवेति ।
मांसाशिराजानां पिण्डं गृह्णाति । तत्र सूत्रम् - जे भिक्खु रनो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिमित्ताणं यम्यरं उववृहणियं समीहियं पेहाए ताए परिसाए अणुट्टियाए अभिपाए वोच्छिपाए जे तं असणं वा पाणं वा खाइ वा साइमं वा पडिगाहेड़ पडिगार्हतं वा साइज्ज
इ ।। ११ ।।
जनान्त्रयस्तीति त्रयोदशम पनि समीहिता सम तं पुरा पाहुडे पेहा-प्रेक्ष्य उपवृहणियति । अपपदस्य व्याख्या । गाहा
महाधारणईदिय, देहाऊ चिबडुए जम्हा ।
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रायपिंड
तम्हा उबवूहणिया, चउव्विहा सा उ असणादी || ५८ | शीघ्रं ग्रन्थग्रहणं मेधा, गृहीतस्य अविस्मरणे निर्वृत्तिर्धासोर्तिदियमादियाणं सर्विस पावजगणं देहस्सोवचश्रो, श्राउसंवडणं, जम्हा एते एव उवब्रूहणियाए । सा य चउव्विहा असणादि ।
रणा
( ५५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
।
'ताए परिसाए श्रणुट्टिताए ' अस्य व्याख्या । गाहा— आसणमुक्का उट्ठिय, भिष्मा उ व खिग्गया ततो के वि वोच्छिमा सच्चे णि-ग्गया तु पडिपक्खसुत्तं वा ॥ ५६ ॥ जेमंतस्स रराणो उबवृहणियापट्टओ त्ति वृत्तं भवति, तं जो ताए परिसाए अणुट्ठिताए गेरहति तस्स छ । रायपिं - st चैव सो, असणाणि मोतुं उडिया अच्छंति, ततो के वि लिग्गता भिरणा अनेसु णिग्गतेसु वोच्छिणा. एरिसे रायfist for सुत्तं श्रणुट्ठिताए त्रभिरणाए अवोच्छिरणायेत्यर्थः ।
गाहा
रमो उवृहणिया, समीहितोवक्खडा यदुविहाओ । गणगहणमछिने, दोसा ते तं च वितियपदं । ६०| उवक्खडा य-खीरदहिमादी, अणुवक्खडा - सच्चे उ afa छिरणा परिस्समाणी अच्छा सा उवज्झहणिवा तसे परिरणाए श्रणुवट्ठिताए दिराणा अवछिन्नाए वा उबवूहणिया घेप्पमाणीपतिं चैव भद्दपंता दोसा, तं चैव वितियपदं । नि० चू० ६ उ० । ( " जे भिक्खू ह ( १२ ) इत्यादि-सूत्रम् ' वसहि ' शब्दे वक्ष्यते ).
33
राज्ञां यात्रासंस्थितानामशनादि गृह्णाति । तत्र सूत्रम्जे भिक्खू रस्मो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तासंठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहे पडिगार्हतं वा साइजइ ॥ १३ ॥ जे भिक्खू रमो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तापडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहे पडिगार्हतं वा साइजइ ॥ १४ ॥
जाहे परविजयट्ठाय गच्छति ताहे मंगलं संतिणिमित्तं दीगादी भोय काउं गच्छति पडिणियत्ता विविजए संखार्ड करेति ।
"
गाद्दा
जग्गतरादीगं, हवा जत्तातो पडिणियत्ताणं । गणगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च वितियपदं ग ६७ ।। गहणाऽगहणे भद्दतदोसा रराणो ण गेरहांत रहि वा अत्तट्ठियं गेरहंति, ते चेव दोसा तं चैव वितियपदं ।
गाहा
मंगलममंगलत्था, नियत्तमणियत्त य अहिकरणं । जावंति गमादीया, एमेव य पडिणियते वि ॥ ६८ ॥ जताभिहस्स विस्स वा मंगलबुद्धीप वा मंगबुद्धी वा गच्छति पविसति वा अमंगलबुद्धीए ए गच्छति ण वा हिं पत्रिसति दुहा अधिकरणं जावंतिय गमावी वा दोसेरा दुडुं भत्तं गगहेंजा ।
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रामपिंड
सूत्रम्
जे भिक्खू रमो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं खदीजत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥ जे भिक्खू रमो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं खदीजत्तापडिणियत्ताणं असणं व
वा खाइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइजइ ||१६|| जे भिक्खू रणो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं गिरिजत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहे पडिग्गार्हतं वा साइजइ ॥ १७ ॥ जे भिक्खु रमो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं गिरिजत्तापडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइ मं वा पडिग्गाहे पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १८ ॥ ततो पडिण्यित्ताण वेत्यादि । गिरिजत्तापट्टियाएं गहणागहणे तत्थ उ ते चैव दोसा तं च वितियपदं ।
गाहा-
गिरिजत्तागयगहणी, तत्थ उ संपट्टियानियत्ताणं । गहणाऽगह तत्थ उ, दोसा ते तं च चितियपदं ||६६ || नि० चू० उ० ।
सूत्रम्
जे भिक्खू पो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिमित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स श्रीहर्ड पडिग्गins पडिरगार्हतं वा साइज्जइ, तं जहा खत्तियाणं वा १, रायाणं वा २, कुराईणं वा ३, रायसस्सियाणं वा ४, रायऐसियाणं वा ५, ॥ २१ ॥
क्षतात् त्रायन्तीति क्षत्रिया आरक्षकेत्यर्थः, श्रभिसित्ता-राया कुच्छितो गया-कुराई, श्रथा- पञ्चतणियो कुरायी जे एतेसि चैव प्रप्यति पसिता, एसि गीयं सि दत्तमित्यर्थः ।
गाहा
खत्तियमादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ आहित्ता मुने । तेसु य बीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ।। ६८ ।।
सूत्रम्
जे भिक्खु रन खत्तियागं मुद्दियागं मुद्राभिभित्नाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहड पडिग्गाहे पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ १। तं जहा नडाग वा नया वा २, कल्लयाग वा ३, जन्लाग वा ४, मलाग वा ५, मुडियारण वा ६, बेलंवगाण वा ७, कहगाण वा ८, पवगारण वा ६, लामगारण वा १०, खलाण वा ११, छत्ता वा १२, ।। २२ ।।
गाडगादि गाडयंता नडा गड्डा ग्राकल्ला राशः-स्तोत्र पाठकाः अगाहजलपत्र जल्लामा गुट्टिया जुज्भला
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( ५५७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
रायfve
ला वैवकारगा वेलं वा अइकालिगा, कहकारगा- कहगा गदी समुद्दादिसुं जे तरंति ते पवगा जयसद्दपयोत्तारो लासगा भंडा इत्यर्थः ।
गाहा
मादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ श्राहिता सुत्ते । तमु य सीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ।। ६६ ॥
सूत्रम्
जे भिक्खू रम्पो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडs डिग्गा पडिग्गार्हतं वा साइजइ, तं जहा - श्रासपोसया वा १, हत्थिपोसयाणं वा २, महिसपोसयाणं वा ३, वसभपोसयाण वा ४, सीहपोसयाण वा ५, वग्घपोसयावा ६, मिंठगपोसयाण वा ७, सुणहपोसयाण वा ८, मृयरपोसयाण वा ६, मिगप|सयाण वा १०, कुक्कुडपो सयाण वा ११, तित्तरपोसयाण वा १२, वट्टयपोसयाण चा १३, लावगपोसयाग वा १४, चासगपोसयाण वा १५ हंमपोसया वा १६, मयूरपोसयाण वा १७, सुयपोस - या वा १८, सग्गाणपोसयाण वा १६ ॥ २३ ॥ बृहत्तररक्रपादा वट्टा अल्पतरा लावगा । गाहा
भंगाई ठाणा, जत्तियमेत्ता तु श्रहिया सुत्ते | तेंसुंगीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ १०१ ॥ पोसगमाई ठाणा, जत्तियमेत्ता तुहिया सुत्ते । तेसुं णीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ।। १०२ ॥
सूत्रम् -
जे भिक्खु र खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइजह, तं जहा आसदमगाण वा १, हत्थिदमगाण वा२, आसमद्दाण वा ३, हत्थिमदाण वा ४ || २४ || जे भिक्खू रमो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीडं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइजर, तं जहा - आसमेठाण वा हत्थिमेंठाण वा ॥ २५ ॥ जे भिक्खू रमो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइजइ, तं जहा - सरोहाण वा हत्थि रोहाण वा ।। २६ ।। दमगादीया ठाणा, जत्तियमेत्ता तु याहिया सुत्ते । सुं नीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ १०३ ॥
गाहा
इमं सुत्तवक्खाणं ।
गाहा
साय हत्थी य, दमगा जे पढमताए विणएंति ।
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रायपिंड
परिट्ट मेरठ पच्छा, आरोहा जुद्धकालम्मि ॥ १०४ ॥ जे पढमं विषयं गार्हेति ते दमगा, जे जण जोगासरोहिं वावारे वा वाति ते मैंठा, जुद्धकाले जे श्ररुदांत ते श्रारोहा ।
सूत्रम्
जे भिक्खू रमो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जर, तं जहा -- सत्थवाहयाण वा १, संवाहावयाण वा २, अभिगावयाण वा ३, उबट्टणावयाण वा ४, मज्जणावयाण वा ५, मंडावयाण वा ६, छत्तगाहीण वा ७, चामरगाहीण
हडफगाही वा ६, परियद्वयगाहीण वा १०, दीवियग्गाहीण वा ११, असिग्गाहीण वा १२, धणुग्गाहीण वा १३, सत्तिगाहीण वा १४, कुंतगाहीण वा १५, हत्थिपगाही वा १६, ।। २७ ।।
सत्थमादियाणि रायसत्थणि श्राहयति-कथयति ते सत्थवाहा, पडिमनि जे ते परिमद्दा सथनकाले परिपिट्टति शतपाकादिना तैलेन अभंगति पदेहिं उच्चति, राहावेति ज ते मज्जावका, मउडादिया मंडति जे ते मंडावगा, वस्त्रपरावर्त गृहंति जे ते परिवट्टगा । श्राभरणभंडयं हडप्पो वा धरणुयाई समग्गं ।
गाहा—
संवाहगठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ अहित्ता सुत्ते । सुं नीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ।। १०३ ॥
सूत्रम्
जे भिक्खू रस्मो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, परस्स नीहडं पडग्गा पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ । तं जहा - वरिसद्धरा
वा १, कंचुईण वा २, दोवारियाण वा ३, दंडरक्खियाण वा ॥ २८ ॥ गतार्था ।
गाहा-
वरिसधरद्वाणादी, जत्तियमेत्ता उ अहिया सुत्ते । तेसुं गीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ १०४ ॥
सूत्रम्
जे भिक्खू रमो खत्तियागं मुद्दियाणं मूद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं वा, परस्स नीहड पडिग्गा पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ । तं जहा - खुज्जाण ० जाव पारसी || २६ ॥
तं सेवमाणा श्रवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ॥ २६ ॥
जे भिक्खू सरीरवका, खुज्जा कुड्डी कंवुगाण णिग्गता asनहा सेसा विसयाभिहाणेहिं वतव्या ।
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(५५८) रायपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
रायसुया गाहा
चित्रसेनपद्मावतीचरित्रनाम्नो ग्रन्थस्य कारके, स्वनामख्याखुज्जादीया ठाणा, जत्तियमित्ता उ आहिया सुत्ते। ते पाठके, जै० इ० । तेसु य नीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ॥१०शारायवल्ली-राजवल्ली-स्त्री०। राजते इति राजा अच् । सा चासो अद्धाण-सदोमा, दगंछिता लोगसंक सतिकरणं । । वल्ली राजवल्ली । क० प्र० । लताभदे, प्रशा० १ पद । आतपरसमुत्थेहिं, गेण्हणगहणाइया दोसा ॥ १०६॥
रायवाडिया-राजवाटिका-स्त्री० । राज्ञां विहारार्थे लघूद्याने, खुज्जादियासु गच्छंतस्स श्रद्धाणदोसा, गीयादिया य सद्द
ती० ४६ कल्प। दासा, दुगुंछियातिया य तो लोए अणायारसेवणे संकिजं-रायविजय-राजविजय-पुं० । तन्दुलवैचारिकग्रन्थसंशोधनति सुत्ताण सतिकरणादिया दोसा । इतराण कोउयं पायप
| कर्त्तरि , स्वनामख्याते सूरौ, तं०। रउभयसमुत्था य दोसा-पुरिसो वा इत्थी वा तं बलारायविरुद्ध-राजविरुद्ध-न । राशः सम्मतानामसम्माने, ध० गेण्हेजा गेराहण-कढण-दोसा । नि० चू०६ उ०।
२ अधिक। रायपुर-राजपुर-पुं० । स्वनामख्याते नगरे, तत्र समरकेतु-रायवुग्गह-राजव्युद्ग्रह-पुं० । राज्ञां संग्रामे स्था०१०ठा०३उ० । नाम राजा परिवसति, तस्य शृङ्गारमञ्जरी नाम भार्या । दशगयवेदि-राजवेति-स्त्री० । भतिशून्ये राजकाये. उत्त०२७० १०। प्राव।
रायसंमय-राजसम्मन गजगणाः सम्मताश्चति राजसरायपुरो--राजपुरी स्त्री । अयोध्याथाम् , ती०१२ कल्प ।
म्मताः । मन्त्र्यादिकेषु, दश०३ अ। व्य०।। गयपेसिय-राजप्रेष्य-त्रि० । दण्डपाशप्रभृतिषु, आचा० २
रायसद्दल-राजशार्दूल-पुं०। शार्दूलशब्दः सिंहपर्यायः । राजा थु०१ चू० १ ३ उ०।
शार्दूल इव राजशादृलः । चक्रवर्तिनि, प्रव०२०८द्वार । ति०। रायभय-राजभय-न० । राशो भयं राजभयम् । राजसम्ब
रायसिरि-राजश्री-स्त्री० । राजशोभायाम् , राजैश्वर्ये च । न्धिनि भये , औ०।
श्रा० म०१ अ० । उत्त। रायभाव-रागभाव-पुं० । रागोत्पादके, पं० ब० ३ द्वार ।
रायसुया-राजसुता-स्त्री० । राशः सुतायाम् , श्रा० क०। रायभोत्ति-राजभुक्ति-स्त्री० । राज्ये, नि० चू ० १ उ० ।
अत्र राजसुताकथारायमसंड-राजमार्तण्ड-पुं० । अन्तर्बहिर्मुखव्यापारद्वयवि
एकेन भूभुजा पुत्री, दत्ताऽन्यस्य महीभृतः । रोधात्तनिष्पाद्यफलद्वयस्यासंवेदनाच्च बहिर्मुखतयैवार्थ- स मृतः स्वसुताऽऽनीय, भणिता जनकेन सा ॥१॥ निष्ठत्वेन चित्तस्य संवेदनार्थनिष्ठमेव तत्फलं न स्वनिष्ठ-1 धर्म कुरु सुते! दानं, दत्ते पाषण्डिनां ततः। मिति राजमार्तण्डः । ग्रन्थविशेषे, द्वा० ११ द्वा०।
अन्यदा कार्तिके धर्म-मास इत्यामिषस्य सा ॥२॥ रायमाण-राजमाण-त्रि०। शोभमाने, प्रव०२६६ द्वार। प्रत्याख्यानं विधत्ते स्म, पारणस्य दिने ततः। रायमास-राजमाष-पुं० । चवलकाख्यधान्यविशेषे, ग. २ राजाऽनेकानि मांसार्थ, हरिणादीन्युपानयत् ॥ ३ ॥ अधि० । ध० । दश।
दत्ते स्म साऽन्नपानानि, मांसानि विविधानि च ।
आसन्नाः साधवो यान्त-स्तयाऽऽनीता निमन्त्र्य ते ॥४॥ रायरक्खिय-राजरक्षिक-त्रि० । राजपालके, नि० चू०४ उ० ।
भक्तं जगृहिरे मांसं, नैषुस्ते साऽह किं न वः । रायरिसी-राजर्षि- पुं० । राजा ऋषिरिव श्रेष्ठत्वात् , संयत
पूर्यते कार्तिकस्तेऽपि, प्राहुर्नः कार्तिकः सदा ॥५॥ स्वाच्च । राजश्रेष्ठे, उत्त० १८ अ०। प्रा० म० ।
सोचे कथमथोचुस्ते, तस्या धर्मकथां तदा। रापरुक्ख-राजवृक्ष-पुं० । वृक्षविशेषे, वाच । वृक्षाणां राजा
भूयसो मांसदोषांश्च, प्रबुद्धा प्रावजत्ततः॥६॥ राजवृक्षः, वृक्षशब्दस्य परनिपातः। श्रारग्वधे, 'सोन्दाल' प्रागासीद् द्रव्यतस्तस्याः, प्रत्याख्या भावतोऽन्वभूत्। इति राजप्रियो वृक्षस्ततत्फलबीजजातलडकानां राजप्रिय- अदित्सा प्रत्याख्यानं, हे ब्राह्मण! श्रमण ! यत्त्वं याचसे तद्वित्वात् । प्रियाले, रा० । औ०।
षया मेऽदित्सा । इह श्रावकधर्मस्य मूलं सम्यक्त्वं प्रस्तुतम रायलक्खण-राजलक्षण-न० । राज्यसूचकचिह्ने, “ रायल- अतस्तद्विधिमाह-राजाभियोगादिना अन्यतीर्थिकपाषक्खणविराइयंगमंगा" रा०।
एड्यादिषु दानादि कुर्वतोऽपि न सम्यक्त्वस्यातिचारः ।
अत्र कथा-पृथिवीभूषणं नाम नगरं गतदूषणम् । एवं गणारायललित-राजललित-पुं० । नवमबलदेवस्य पूर्वभवजीवे
भियोगेन बलाभियोगेन देवताभियोगेन च । "महीयान् राजललितः” श्रा० क० १० प्रा०म० । स्था० ।। (तत्कथा सामायिकव्यसनेन सामायिकलाभे वक्ष्यते)
अत्र देवताभियोगे कथा
"एकोऽजनि गृही श्राद्धः, सोऽत्यजयन्तरादिकान् । रायवंसतिलग-राजवंशतिलक-पुं० । राजवंशमण्डनभूते, प्र
चिराराद्धानपि ततो, व्यन्तर्येका खुधातुरा ॥१॥ ४ श्राश्र० द्वार।
गोरक्षकं सुतं तस्य, गोभिः सममपाहरत् । रायवट्टय-राजवर्तक-न० । “तस्याऽधूर्तादौ"॥ ८।२।।
तर्जयन्त्यवतीर्योचे, मामद्यापि किमुज्झसि? ॥२॥ ३०॥ इति तस्य टः । रा (य) अवट्टयं । रत्नविशेष, प्रा० ।। मा मे धर्मातिचारोऽभू-दिति तां श्रावकोऽवदत् । रायवल्लभ-राजवल्लम-पु०। विक्रमसंवत् १५२४ वर्षे कृतस्य भव त्वं जिनपादान्ते. स्यात्तवाऽपि यथाऽर्चना ॥३॥
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गयसूया अभिधानराजेन्द्रः।
रायहाणी ततस्तथैव तस्थौ सा, सुतो गोभिः समागतः" ।
एएणेव कमेणं, सोमस्स वि होंति अवरपासम्मि । प्रा० क०६ श्रा।
सोमप्पभसेलस्स वि, चउहिसिं रायहाणीश्रो ॥१२॥ रायमहर-राजशेखर-पुं० । हर्षपुरीयगच्छोद्भवतिलकसूरिशि- पुब्वेण होइ सोमा, सोमप्पभदक्खिणे दिसीभाए । प्ये, तेन विक्रमसंवत् १४०५ वर्षे श्रीधररचितन्यायक- सिवपागारा अवरे-ण होइ नालियाण उत्तरो ॥ ३॥ न्दलीनाम्नः प्रशस्तपादभाष्यटीकायाः पञ्जिका नाम वृ
पएणव कमेणं, अंतकरस्स वि य होति अवरेणं । तिः प्रबन्धामृतं दीर्घिका नाम ऐतिहासिकग्रन्थश्च विरचि
समवित्तिपभसेलस्स, चउद्दिसिं रायहाणीश्रो ॥ ४॥ तः । जै० इ०।
पुव्वेण ऊ विसाला, अतिग्विसाला उ दाहिणे पासे। रायहंस-राजहंस-पुं० । हंसानां गजा श्रेष्ठत्वात् । रक्तवर्णच- सज्जप्पभाऽवरेणं, अमुया पुण उत्तरे पासे ॥ १५॥" इति । अचुचरणयुक्त श्वेतवर्णे हंसभेदे, कलहंसे च । राजा हंस इव |
इह च ग्रन्थे सौधर्मावतंसकादीशानावतंसकाच्चासंख्ये
या योजनकोटीर्व्यतिक्रम्य प्रत्येकं पूर्वादिदिक्षु स्थितासारग्रहणात् । नृपश्रेष्ठ, प्रव०२ द्वार । प्रज्ञा० । प्रश्न ।
नि यानि सन्ध्याप्रभादीनि सुमनःप्रभृतीनि च विमानानि रायहंससरिस-राजहंससदृश-पुं०। राजहंसगतिसदृशे, भ०
तेषामधोऽसंख्याता योजनकोटीग्वगाह्य प्रत्येकमेकैका नग११ श०११ उ०।
युना, ततः कथं न विरोधः? , इति अत्रोच्यते-अन्यास्ता रायहाणी-राजधानी-स्त्री० । राजा धीयते विधीयतेऽभिषि
नगर्यो याः कुण्डलेऽभिधीयन्ते एताश्चान्या इति, यथा शक्रेच्यते यस्यां सा राजधानी । जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्याम् , शानाग्रमहिषीणां नन्दीश्वरद्वीप कुण्डलद्वीपे चेति । भ० ४ राजाधिष्ठाननगरे, यत्र राजा स्वयं वसति । स्था० १० श०८ उ०। स्था। ठा०३ उ० जी० भ० । दशा०। उत्त०। प्राचा० । प्रज्ञा०।।
सक्कस्स देवरन्नो, जाओ य हवंति अग्गमहिसीओ। नि०चू० । बृ० । राजकुलस्थाने, सूत्र०२ श्रु०२०।
तासि पि य पत्तेयं, अद्वेव य रायहाणीओ ।। ६६॥ इन्द्राणां राजधान्यः
जनामा देवीओ, तन्नामा होति रायहाणीओ । रायहाणीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणियव्या जाव एव
सकस्स देवरनो, ताओ य हवंति दक्खिणओ ॥१७॥ महिड्डिए जाव वरुणे महाराया। (मू०१७३)। चउ
इसाणदेवरनो, जागो य होंति अग्गमहिसीओ । त्थे सए पंचम-छट्ठ-सत्तम-ट्ठमा उद्देसा समत्ता । ४-८ ।
तासि पि य पत्तेय, अद्वेव य रायहाणीओ ॥ १८ ॥ 'रायहाणीसु चत्तारि उद्देसा भाणियब्वा 'ते चैवम्
जन्नामा देवीओ, तन्नामा होति रायहाणीओ। 'कहिं णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारनो सोमा नाम रायहाणी परमत्ता?. गोयमा ! सुमणस्स
ईसाणदेवरन्नो, तासि तु हवंति उत्तरो ॥ १६ ॥ महाविमाणस्स अहे अपक्खि ' इत्यादि पूर्वोक्तानुसारण
कुंडलवरस्स बाहिं, छसु चेव हवंति सयसहस्सेसु । जीवाभिगमोक्तविजयराजधानीवर्णकानुसारेण चैकैक उ- तेत्तीसं रइकरगा, पव्वया सच्छरम्माअो ॥ १०॥ देशकोऽध्येतव्य इति, नन्वेता राजधान्यः किल सोमादीनां शक्रस्येशानस्य च सम्बन्धिनां लोकपालानां प्रत्येकं चतस्त्र
सक्कस्स देवरनो, तायत्तीसा हवंति जे देवा । एकादशे कुण्डलवराभिधाने द्वीपे द्वीपसागरप्राप्त्यां श्रूय- उप्पायपव्वया खलु, पत्तेयं तेसि बोधव्वा ॥ १०१॥ न्ते, उक्तं हि तत्संग्रहिण्याम्
पत्ते एकेकस्स उ, चउदिसिं होंति रायहाणीओ। " कुंडलनगरस अभि-तरपासे होति रायहाणीयो। सोलस उत्तरपासे, सोणस पुण दक्निण पासे ॥५॥
जंबुद्दीवसमाओ, विक्खंभायामश्रो ताओ ॥ १०२ ॥ जा उत्तरेण सोलस, ताओ ईसाणलोगपालाणं ।
पढमा उ सयसहस्सा, बिइया तिसु चेव सयसहस्सेसु । सकस्स लोगपालाण, दक्खिणे सोलस हवंति ॥८६॥" पुवाइयाणुपुची, तासिं नामाइँ कित्तेमि ।। १०३ ॥ पताश्च सोमप्रभ-यमप्रभ वैश्रमणप्रभ-वरुणप्रभाभिधानानां विजया य वेजयंति, जयंति अपराजिया य बोधव्वा । पर्वतानां प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु भवन्ति,तत्र वैश्रमणनगरीरादी कृत्वाऽभिहितम्
तत्तो य नलियॉनामा, नलिणगुम्मा य पउमा य।१०४। " मज्झे होइ चउराहं, वेसमणपभो नगुत्तमो सेलो।
तत्तो य महापउमा, अद्वेव य होंति रायहाणीओ। रइकरगपव्वयसमो, उब्वहुश्चत्तविक्खंभे ॥८७॥
चकझया य सव्वा, सव्वा वइरज्झयाओ य ।।१७।। तस्स य नगुत्तमस्स उ, चउद्दिसिं होंति रायहाणीयो। जंबुद्दीवसमाओ, विक्खंभायामश्रो ताओ ॥८॥
सकस्स देवरन्नो, तायत्तीसाण अग्गमहिसीणं । पुवेण अयलभद्दा, समकसा रायहाणिदाहिणो ।
तासि खलु पत्तेयं, अद्वे व य रायहाणीओ ।। १०६ ।। अपरेण ऊ कुबेरा, घणप्पभा उत्तरे पासे ॥६॥
जनामा देवीओ, तन्नामा तासि रायहाणीओ। एएणेव कमेणं, वरुणस्स वि होंति अवरपासम्मि।
ईसाणदेवरन्नो, तायत्तीसाण उत्तरओ ॥ १०७ ॥ वरुणप्पभसेलस्स वि, चउद्दिसिं रायहाणीश्रो ॥६॥ पुग्वेण होइ वरुणा, वरुणपभा दक्षिण दिसीभाए ।
बाव बायाला, चुलसीदसजोयणसहस्सा। अवरेण होर कुमुया, उत्तरओ पुंडरिगिणिया ॥१॥ गोतित्थेण विरहियं, खित्तं खलु कुंडलसमुद्दे १०८(द्वी)
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( ५६० ). अभिधान राजेन्द्रः ।
रायहाणी
सकस्स देवरन्नो, सामाणिय खलु हवंति जे देवा | उववायपव्वया खलु, पत्तेयं तेसि बोधव्या ॥ १४८ ॥ पत्ते एककस्स उ, चउद्दिसिं होंति रायहाणीओ । जंबुद्दीवसमायो, विक्खंभायाम ताओ ।। १४६ ॥ पढमा उ सयसहस्से, बिइया - चैव सयसहस्सेसु । पुव्वाइयाणुपुव्वी, तेसिं नामाणि कित्तेहि ॥ १५० ॥ पुव्वाइयाणुपुव्वी, तत्तो नंदाइ होइ नंदवई । अवरेण उत्तरा उ, उत्तरत्र नंदिसेणा उ ।। १५१ ।। भद्दा उ सुभद्दा य, कुमुया पुण होइ पुंडरिगिणी उ । चक्कज्झया य सव्वा, सव्वा वइरज्झया चेव ।। १५२ ॥ द्वी० । जंबूदीवे दीवे भरहे वासे दस रायहाणीओ पष्पत्ताओ । तं जहा
" चंपा महुरा वाणा-रसी य सावत्थी तह य साएयं । हत्थणपुर कंपिल्लं मिहिला कोसंवि रायगिहं ॥ १ ॥" ' रायहाणीश्रोत्ति राजा धीयते - विधीयते श्रभिषिच्यते यासु ता राजधान्यः -- जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्यः, ' चंपा ' गाहा - चम्पा नगरी अङ्गजनपदेषु मथुरा शूरसेनदेशे, वाराणसी काश्याम्, श्रावस्ती कुणालायाम्, साकेतमयोध्येत्यर्थः, कोशलेषु जनपदेषु, हत्थिणपुरं ति नागपुरं कुरुजनपदे, काम्पिल्यं पाञ्चालेषु, मिथिला विदेहे, कौशाम्बी वत्सेषु, राजगृहं मगधेष्विति । एतासु किल साधवः उत्सर्गतो न प्रविशन्ति तरुणरमणीयपश्यरमण्यादिदर्शनेन मनःक्षोभादिसम्भवात् मासस्यान्तर्द्विस्त्रिर्वा प्रविशतां त्वाशादयो दोषा इति एताश्च दशस्थानकानुसारेणाभिहिता न तु दशैवैताः, अर्द्धषद्विशताचार्य जनपदेषु षड्विंशतेर्नगरीणामुक्लत्वादिति । अयं च न्यायोऽन्यत्र ग्रन्थे तेषु तेषु प्रायश्चित्तादिविचारेषु प्रसिद्ध एवेति व्याख्यातं च दशराजधानीग्रहणे शेषाणामपि ग्रहणं निशीथभाष्ये, यदाह - " दसरायहाणिगहणा, सेलाएं सूयणा कया होइ। मासस्संतो दुगतिग-ताम्रो अतम्मि आणाई ॥ १ ॥ " स्था० १० ठा० ३ उ० ।
जे भिक्खू रमो खत्तियागं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमा दस अभिगरायहाणीओ उद्दिट्ठाओ गणियाओ जियाओ तो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा निक्खमंतं वा पविसंतं वा साइजइ । तं जहा - चंपा १, महुरा २, वाणारसी ३, सावत्थी ४, साकेयं ५, कंपिल्लं ६, कोसंबी ७, मिहिला ८, हत्था पुरं ६, रायगिहं १० ॥ २० ॥ इमा प्रत्यक्षीभावे दस इति संख्या " राईगठाणं रायधाणि त्ति उद्दिद्वातो गणियाओ दस, वंजियाओ सामेहिं । तो मासस्स दुक्खुत्तो तिक्खुत्तो वा क्खिमपवेसं करें
तस्स ह ।
गाहा
दसरायहाणिगहणा, सेसाणं सूयणा कया होति ।
रायहाणी
मासस्संतो दुगतिग-ता अतितम्मि आणादी ॥ ८६ ॥ अण्णा वियरीश्रो बहुजणसंपगाढाश्रो णो पविसियव्वं ।
इमा सूत्रव्याख्या । गाहा
इम इति पच्चक्खम्मी, दस संखा जत्थ राइणो ठाणा । उद्विरायहाणी, भणिता दस वंज चंपादी ॥ ६० ॥ गामेहिं वंजिता ।
गाहा
चंपा महुरा वाणा-रसी य सावत्थिमेव साएतं । हत्थिणपुर कंपिल्लं, मिहिला को संवि रायगिहं ।। ६१ ॥ वारस चक्कीणं एयाओ रायहाणी श्री । गाहा—
संती कुंथू य अरो, तिमि वि जिणचक्किएकहिं जाया । ते दस होंति जत्थ व केसव जाया जणाइमा ॥ ६२ ॥ जासु वाणरसीणगरीसु केसवा, अण्णावि जा जगाइरणा सा विवज्जणिज्जा, तत्थ को दोसो ? ।
गाहा
तरुणी वेसित्थिविवाह रायमादीसु सतिकरणं । कोउयमादी आउज, गीयसद्दे य सवियारे ॥ ६३ ॥ तरुणी रहायविलेवेत्थी गुम्मपरिवुडे दद्रा वेसित्थी उरउत्तरे वेउब्वियाउ बीवाहे रिद्धिसमिद्धे श्रहिंडमाणो रायाणो य विविहरिद्धिजुत्ते र्णिताणिते दटुं भुक्तभोगी सतिकरणं अभुत्ताण कोतुयं पडिगमणादिदोसा, श्रादिसदातो - बहूण अट्ठादि श्रउज्जाणि वा ततवितयादीणि गीतसद्दाणि वा ललियविलासहसियभणियाणि मंजुलाणि य सद्दाणि, सविगारग्गहणातो मोहोदीरणा ।
किञ्चान्यत्
रूवं आभरणविही, वत्थालंकारभोय गंधे । मत्तुम्मत्तविव्वण, वाणजाणे सतीकरणं ॥ ६४ ॥ सिंगारागाररूवं, गिहार व्व हारादीया - श्राभरणविधी वत्था श्रादिणा सहिरणादिया समुद्दा समभिहिता, केसपुष्पादि - अलङ्कारा, विविधवंजणोववेयं भौयणजातियं भुजमाएं पासित्ता मिगंडकपूरागरुकुंकुमचंद तुरुक्खादिए गंधे तहा मत्ते - विलेषे, कपोलतलयाण उत्प्रावल्येन मत्तो उन्मन्तः, दरमतो या उन्मत्तो, विविधवेसेहिं विउब्विया
सादिवाहणारूढा सिवियादिपहिं वा जाहिं गच्छ्रमाणे पासित्ता सतिकारणादिपहिं दोसेहिं संजमाओ भंसेज्ज, अहवा - वेहाणगयङ्कं वा करेज ।
इमे य विराहरणादोसा । गाहाहयगयरहसंमद्दे, जणसम्मद्देण श्रयवावनी | भिक्खवियारविहारे, सज्झायज्झाणपलिमंथो ॥ ६५ ॥ हयगयरहजणसम्मद्देण श्रायविराहणा भवे, बहुजणसम्मद्देण रोहियरत्थासु दिक्तस्स भिक्खावियारे विहारेसु सम्झासु य पलिमंथो, जम्दा एते दोसा तम्हा तत्थ ण गंतव्वं ।
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रायहाणी अभिधामराजेन्द्रः।
रायाभिसेय कारणे गच्छेत्
गाहाबितियपदे असिवादी, उवहिस्स व कारणे व लेवे वा ।। रमो महाभिसेगे, वस॒तो जो उ णिक्खमे भिक्ख । बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियादीण आगाढे ॥६६॥ अहवा पविजाही, सो पावति आणामादीणि ॥७॥ अमओ असिवं तेण अतिगम्मति, उवही वा अराणो ण | मंगलममंगले वा, पवत्तणणिवत्तणे य थिरमथिरे । लब्भति तत्थ सुलभो, लेवो वा तत्थ सुलभो, गच्छवासी
विजए पराजए वा, वोच्छेए वा वि पडिसेहं ।। ७१ ।। ण वा तं बहुगुणखतं, श्रायरियाण वा तत्थ जवणिज पाउग्गं वा लब्भति । श्रादिसद्दाश्रो बालवुडगिलाणाण वा श्र
मंगलबुद्धीए पवत्तणे श्रहिकरणं, अमंगलबुद्धीए णियसतरे वा आगाढे पोयणे अहवा।
त्तणे अहिकरणं दोसा वोच्छेदादिया य, जद से थिररज
विजो वा जातो पुणो पुणो मंगलिएसु अत्थेसु साहवो गाहा
तत्थ ठविजंति अहिकरणं व अस्थिरे पराजये वा बोच्छेदं रायादिगाहणऽट्ठा, पट्टउवसामणदुकजे वा।
पडिसेहं वा णिविसयादि वा करेज । सेहे व अनिच्छंता, गिलाणवेज्जोसहट्ठा वा ।। ६७ ।।
गाहारगणो धम्मगाहणट्ठा; रगणो अरणस्स वा पदुट्ठस्स उव
दहण व राइडिं, परिसहपराजिओ य कोई तु । समणट्ठा, सेहो वा तत्थ ठितो, संराणायगाण य अगम्मो तं
आसंसं वा कुजा, पडिगमणाईणि व पयाणि ॥ ७२ ॥ मज्भेण वा गच्छिउकामा गिलाणस्स वा वेजोसहणिमि- पूर्ववत् । सं । नि० चू०६ उ० । स्वयम्भूरमणसमुद्रस्योपरि ये ज्यो
गाहातिष्कासन्ति तेषां राजधानी उत्पातस्थानं च क्वास्ति ? इति बितियपदमणप्पज्झे, अभिचारकि कोविते व अप्पज्झे। प्रश्नः, अत्रोत्तरम्--स्वयम्भूरमणसमुद्रस्योपरिस्थज्योति
जाणंते वावि पुणो, अणुलवणादीणि कब्जेहिं ।। ७३ ।। काणां राजधानी स्वयम्भूरमणसमुद्रमध्येऽस्तीति जीवाभि
कोविए विहिए अणुएणवितब्बो किं पुब्बि पच्छा मज्झे गमे उनमस्ति, तेषामुत्पातस्थानं स्वस्वविमानेऽस्ति, प्रज्ञा
अणुएणवेयब्वो? पनोपाङ्गादिष्विति ॥ १३ ॥ सेन० ४ उल्ला० ।
उच्यते-गाहाराया-राजन-पुं०। राशि, “ नरनाहो पत्थिवो निब्यो राया"
नाऊणमणुमवणा, पुब्बि पच्छा अमंगलावमा । पाइ नव० १०० गाथा।
उवोगपुच्छिऊणं, नाए मज्झे अणुनवणा ।। ७४ ॥ रायादण-राजादन-पुं० । वृक्षविशेषे, “राजादनश्चैत्यशाखी,
ओहावीयाभोगिणि, णिमित्तवसएण वाऽवि णाऊणं । श्रीशम्पाद्भुतमान्यतः । दुग्धं वर्षति पीयूष-मिव चन्द्रकरो.
भद्दे पुन्वाणुस्मा, पंतमणाए य मज्झम्मि ॥ ७५ ॥ करः ॥१॥" ती० १ कल्प।।
श्रोहिमादिणाणाणविसेसेण अभोगिणिजाए वा अविरायाभियोग-राजाभियोग-पुं०। राशो नृपादेरभियोगोरा
तहणिमित्तेण वा उवउज्जिऊण अप्पणो असति असं वा जाभियोमः । राजपरतन्त्रतायाम् , ध०२ अधिः । उपा० । पुच्छिऊणं थिरंति रजं पाऊणं अणुराणवणा पुब्बि भवति, प्रति० । गच्छान्तरीयसम्यक्त्वदेर्शावरत्युञ्चारविधिपत्रेषु स- अथिरं वा रजं गाऊण पुटिव अणुराणविजंतो अमंगलम्यक्वोच्चारालापकप्रान्तवत् द्वादशवतोच्चारालापकप्रान्तेषु
बुद्धी वा से उप्पजति पच्छा अवशाबुद्धी उप्पजति । अपि रायाभियोगणमि' त्यादिषडाकारोच्चारणमस्ति तद् यौ
ओहिमादिणाणाभावे वा मज्झे अणुराणा वेति । क्लिकमन्यथा वा? इति प्रश्नः-अत्रोत्तरम्-आवश्यकनियु
गाहाकत्युपासकदशाङ्गादौ श्रावकाणां सम्यक्त्वोच्चार एव षडा.
अणणुप्मविते दोसा, पच्छा वा अप्पियो अवमो वा । कारा उक्नाः सन्ति, न तु द्वादशवतोचारे, तेन सम्यक्त्वोच्चार एव राजाभियोगादिषडाकारोच्चारणं युक्तिमत्प्रति
पंते पुव्वममंगल, णिच्छुभणपोसपत्थारो ॥ ७६ ॥ भातीति ॥ ३५४ ॥ सेन०३ उल्ला० ।
मम रजाभिसए अट्ठारस पगतीओ सवपासंडा य अम्गे रायाभिसेय-राजाभिषेक-पुं० राशोऽभिषेकक्रियायाम्,नि०चू० ।
घेत्तुमागया इमे य भिक्खुणो णागया , त एते श्र
प्पड्डा-अलोकशा। अहवा-अहमेतसि अप्पिो णिव्विसया. राजाभिषेकसमये निष्क्रामति । सूत्रम्
दी करेजा । पत्थादि अवज्ञा दोसा भवंति । पुवं अमंगलजे भिक्खू रस्मो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं
दोसा, तम्हा अणुगणावेयव्वं । महाभिसेयवट्टमाणंसि णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा
गाहा-- णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ ।। १६ ॥
आभोए जाणह किं, पुब्धि पच्छा णिमित्तविसरण । जे त्ति-णिसे, भिक्खू पुव्ववरिणओ, राज दीप्ती ईसरत- राया किं देमि ति य, जं दिमं पुव्वरादीहिं ॥ ७७ ।। लवरमादियाणं अभिसेगाण महंततरो शभिसेश्रो महाभि- धम्मलाभेत्ताणं ति अणुजाणह पाउग्गं, ताहे जड जाणति सेश्रो. अवि रायत्तेण अभिसेश्रो तम्मि वट्टते जो तस्स समी- पाउग्गं भद्दगो वा ताहे भणति जं दिएणं पुबरातीहि, राजा वेण वा मज्मेण वा णिक्खमति पविसति वा तस्स श्राणा- भणति किं दिगणं पुवरातीहिं , साहवो भणति-दम दीदोसा-ह।
सुणसु-"आहार" गाहा--एवं भणिये ।
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रायाभिसेय
भदो स वितरति दिक्खावजमगुजाणते पंतो । अणुसङ्काति अकाउं, र्णिते गुरुगा य आणादी ॥ ७८ ॥ भदो भणाति मा पवावेह सव्यं श्रणुषायं, जर तुज्भे सव्यं लोगं पण्याचेह किं करेमो एवं पडिसिद्धा सट्टादि कार्ड ततो रातो रिति चरगुरुं आणादिलो इमेय दोखा ।
(२६२) अभिधान राजेन्द्रः ।
गाहा
गाहा—
बेतियसादय पव्वति कुमयतरंत बालवृड्डी व
"
-
वत्ता अजंगमा विय, अभत्तितित्थस्स हाणी य ॥ ७६ ॥ पते सच्चे परिध्यता भयंति चेतियतित्थकरे भली पवयणे हासी कता । एत्थ पडिसिद्धं पडिसिद्धं, एवं ए को वि पव्वयति । एवं हाणी । गाहा
धाि
अच्छंता वि गुरुगा, अभत्तितित्थे य हाणि जा वृत्ता । भांति भणावेंति य, अच्छंति अणिच्छ गच्छति ॥ ८० ॥ पडिसिद्धे वि श्रच्छंताण चउगुरुं श्ररणत्थ वि भवियजीवा वोहियव्वा तेण बार्हेति, अश्रो तत्थ ता सयं भंति भणेदिय भावैति किंचिकाले पति सम्य हा श्रणिच्छंते श्ररणरजं गच्छति ।
गाहा
संदि सह य पाउग्गं, दंडिंग क्खिमण एत्थ वारेति । गुरुगा अणिग्गमम्मी, दोसु वि रज्जेसु अप्पय ॥ ८१ ॥ पुग्वभणियं तु जं भरणति दारगाहा एत्थ पडिसेहे दोसारामो दो रज्जेस अप्प सि तम्हा दो रजे पेरजा ।
गाहा
एकहि विदिन रजे, एगत्थे होंति अविदिष्ां । एत्थ इथियाथ पूरिसजाता व एत्थ ।। ८२ ॥ तरुणा घेरा य तहा, दुग्गयगा अड्ड कुलपुत्ता। जणचयमा गागरगा, अभंतरगा कुमारा य ॥ ८३ ॥ श्रहवा सौ भणेज - एगस्थ फवावेह: एगत्थ मा पवावेह | साइयो ज्जेस अप्प जाणिक जाय बहुधा पप्ययंति तत्थ गच्छति, अहवा - एगत्थरज्जे इत्थियात्र अन्भगुरणाया एत्थ पुरिसा, दो पि रज्जेसु पगतरं वा । श्रहवा भज्ज धेरे पम्याद मा तरुये, श्रहवामा धेरे तरुणे, अहषा- दुम्म पवावेह मा अड्डे अहवा-अड्डे मा दुग्गए, श्रहवा - कुलपुते कुलपुत्ता णाम- सुसीला, सुसीले पवावेह मा दुस्सीले श्रहवा - दुस्सीले मा सुसीले । एवं जाणपदा गागरा नगरअंतरा बाहिरा कुमारा, कुमारा- श्रकतदारसंगहा ।
9
रायावकारि - राजापकारिन् पुं० । गृहान्तःपुरनृपतिशरीरतत्पुत्रादिद्रोहकारिणि, ग० १ अधि० । ध० | पं० भा० | पं० चू० । नि० चू० ।
राम
राजापकारिस्वरूपमाह - रमोऽन्तेऽवरद्धो, संबंधे तहय दव्वजायम्मि | उडितो विवासा - होति रायावकारी तु ॥ ३७४ ॥ इमो रायाबकारी र अंडरे अवरद्धो, यो वा किंचि दव्वजातं वा श्रवहितं, रणो रयणदव्वस्स वा विणासाय भुट्टितो रायावगारी ।
गाहा
सच्चिने अथित्ते, व मीसर कूडलेहवह करगे ।
समणाय व समणीय व, य कप्पती तारिसे दिक्खा । ३७५ | जे रखो सचितं दयं पुनादि अनं आहारावि, मी वा दूत वा विरोदो कतो फुडलेदेग वा रायविरु कथं इंडियविरोहो वा पुत्तादि से वाहितो, एरिसो ण कप्पति पण्याचे
गाहा
साहत्थी खरिगा, तिवाहिता कतक-तंव-कणकादी । दोष विरुद्धं च कर्ष, लीहावहि नो व से काइ ॥ ३७६ ॥ तंतु अणुदिंडं, जो पब्वावेति होति मूलं से। एगमगपदोसे, पत्थारपसओ वाऽवि ॥ ३७७ ॥ कंठा, 'बधबंध' गाहा 'अयसो ' गाहा, एवमादिदोसे जो पव्वावेति तस्स मूलं ।
कारणे वा पव्वावेज्जा । गाहाउक्को व मोइतो वा, हवा वीसज्जितो नरिंदेणं । अद्वाय परविंदेसे दिक्खा से उत्तम वा ॥ ३७८ ॥ पूर्ववत् नि० चू० ११ ४० । रायाहीण - राजाधीन पुं० । राम्रो दूरेऽपि वर्तमानाः । राजपर्तिनि ० १ ० १४० राग-रालक-पुं० । कङ्गुविशेषे, स्था० ७ ठा० । श्राव० । दश० । प्रज्ञा० । जं० ॥ भ० । ग० ।
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राला देशी-प्रियङ्गचे दे००७ वर्ग १ गाथा ।
राव - रंजि-धा० । रागे, " रजेः रावः " ॥ ८ । ४ । ४६ ॥ इति रञ्जर्यन्तस्य रावाऽऽदेशो वा । राधेइ । रंजेइ । प्रा० । शब्दे, पुं० । “रोलो राम्रो ” पाइ० ना० ३४ गाथा । रावण-रावण-पुं० । दशग्रीवे लङ्काराजे स च अष्टापदगिरि वालिऋषिसहितम् उत्पाटयन् महर्षिपादाङ्गुष्ठानमिर्तागरिणा पीडितः श्रारावं मुञ्चन् रावणेति प्रसिद्धिं गतः । ती० ४७ कल्प | ति० । अष्टमस्य वासुदेवस्य लक्ष्मणस्य प्रतिवासुदेवे, प्रव० २११ द्वार । रावि देशी-आस्वादिते दे० ना० ७ वर्ग ५ गाथा । रास रास-पुं० शने, ध्वनी, द्वयोर्द्वयोर्मध्यस्थित्या फीडासति ति हिमादीण पुरिसे पव्वावेति जो वा विभेदे, कोलाहले च । वाच० । भेडे, कोलाहले च वाच० "रासो हल्लीसओ पुरिसाविवाद बहुत पोतं पयायेति नि० चू० १४० ना० २७९ गाथा ।
गाहा—
श्रीमाती गातुं, जे दिक्खमुर्वेति तत्थ बहुगाओ ।
तं वेति समासु असती पुरिसे व जे व बहू ॥८४॥
35 पाइ०
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सभ अभिधानराजन्द्रः।
रिगिभ
युक्तः ततश्च कार्यान्तरब्याक्षिप्तस्य तदाहुणा पातुमारब्धं, पि. राम-रासभ-पुं० । गर्दभे, सूत्र०१ श्रु.३ अ०४उ० । “रास-1
ष्णुना च तं तथा वीक्ष्य चक्रक्षेपेण तच्छिरश्छेदः कृतः,पीताहो गद्दहो य खरो" पाइ० ना० १५० गाथा ।
मृतत्वात्तच्छिरोऽजरामरं संवृत्तमिति पौराणिकाः। हा०१. रापभी-रासभी-स्त्री० । गर्दभस्त्रियाम् , प्रशा० ११ पद ।
ट०। मण्डलाराहुविमानेनातिनीचत्वात्सूर्यविमानं कथमावियरासि-राशि-पुं० । समूहे , औ०। प्रोघ० । अनु० । विशे०। तेऽत्युषत्वाच तेन चन्द्रविमानम्? इति प्रश्नः,अनोत्तरम्-तपुजे, शा० १ श्रु०१०। पूगीफलादिसमुदाये, पिं० । इह | स्वार्थभाष्यवृत्त्यनुसारेण चन्द्रविमानाद्राहुविमानमुपरिष्टाङ्कलजातीयवस्तुसमुदायो वर्गाणां समूहो वर्गो राशिरिति प-1 तते, तच्चानियतचारत्वात्कदाचित्सूर्यविमानस्याधस्तादृशपीयाः । विशे०। शालिधान्यादिराशिवराशिः, विप्रकीर्णपुजी- योजनानि यावश्चाधश्वरतीति चन्द्रसूर्ययोरावरणे न काफतधान्यादिपुजवत् पुञ्जः । अनु० । स०।
प्याशङ्केति ॥ २०७ ॥ सेन० २ उल्ला । दुवे रासी परमत्ता । तं जहा-जीवरासी अजीवरासी य॥राहुकम्म-राहुकर्मन्-न । राहुक्रियाख्यायाम् , सू० प्र०२० सर्वे तदक्षरमध्येतव्यं, किमवसानमित्याह-जाव से| पाहु०।०प्र०। किं तं' इत्यादि , केवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्य चायं वि-राहुचरिय-राहुचरित-न० । ४१ कलाभेदे, स. ७२ सम० । शेषः, इह ' दुवे रासी पण्णत्ता ' इत्यभिलापसूत्रम् ।| राहुहय-राहहत-न० । रविशशिनोर्यत्र प्रहणमभूत् ताशे स० १४६ सम० । स्था० । गच्छे , व्य० १ उ० । धान्यादेरु- नक्षत्रे , निचू०२० उ०। प्रा०म० विशे। "राहुहयं तु करस्तद्विषयं संख्यानं राशिः; स च पाट्यां राशिव्यव- | जहिं गहणं, राहुहयम्मि य मरणं ।" पं०व०१द्वार । द० हार इति प्रसिद्धः । स्था० १० ठा० । त्रैराशिकपश्च-1 प०। राहुणा मुखेन पुच्छेन वा आक्रान्ते नक्षत्रे, जीतः । राशिकादिषु, स्था०४ ठा०३ उ० । वर्गराश्यादिषु, विशे०1रित्र-ऋत-न । गमने, रङ्गभूमेनिष्कामणे, जं. ५वक्ष० । श्रा०म०। धान्यादीनां पुजे, ज्योतिश्चक्रस्य द्वादशांशे मेषा
प्रवेशे, " प्रविशे रिमः" १८३॥ इति प्रविशे रिश्र इत्यादौ, द०५०।
देशो वा । रिश्रह । पविसइ । प्रा०४ पाद । अथ राशीकृतादिपदानां व्याख्यानमाह
रिउ-ऋत-पुं० । अत्र केचित् ऋत्वादिषु 'द' इत्यारब्धवन्तः, पुंजो य होति वट्टो, सो चेव य ईसि आयतो रासी।
स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते । कुलिया कुडुल्लीणा, भित्ति कडा संसियाभित्ती।
प्राकृते तु ऋतुः। रिऊ । उऊ । प्रा० । पाइ० ना०।"ऋणवृत्तो वृत्ताकारो धान्योत्करः पुञ्ज इत्युच्यते , स एव ईष-| वृषभत्र्वृषौ वा "॥८।१।१४१ ॥ इति ऋतोः ऋकादायतो मनाक दीर्घो राशिः।अपुजः पुनः कृतानीति व्युत्पस्या- रस्य'रिः'या। रिऊ। मासद्वयात्मके काले, प्रा०।( पुजीकृतानि, एवं राशीकृतानीति । बृ०२ उ०। शनैश्वरादीनां स्या वक्तव्यता 'उउ' शब्दे द्वितीयभागे ६७६ पृष्ठे गता) राशिपरावर्त्तदिनमिदमिति ज्ञात्वा ये जिनपूजाऽऽचाम्लादि- रिपु-पुं० । “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां-प्रायो लुक " कं कुर्वते तेषां सम्यक्त्वं म्लानं भवति न वा ? इति प्रश्नः,
1१।१७७ ॥ इति पस्य लुक् । रिऊ । द्विषि, प्रा० । अत्रोत्तरम्-शनैश्चरराशिपरावर्सदिने विशेषतपःपूजादिकरणे
प्रव० । शत्रौ, “सत्तू परी अमित्तो रिऊ" पार० ना० । सम्यक्त्वम्लानिर्माता नास्तीति ॥ ३०३ ॥ सेन० ३ उल्ला० ।
३५ गाथा। राह-राध-त्रि० । सुन्दरे , “ रुइरं राहं" पाइ० ना० १४ गा
रिउकाल-ऋतुकाल-पुं०। मासान्ते यत् स्त्रीणामजनमसक था। दयिते, निरन्तरे, शोभिते , सनाथे , पलिते, दे० ना० दिनत्रयं सवति स ऋतुकालः। स्त्रीणां रजःप्रवृत्तिकाले , तं०। ७ वर्ग १४ गाथा।
रिउपडिसम्प-रिपुप्रतिसंज्ञ-पुं० । अचलबलदेवस्य पितरि प्रगहव-राघव--पुं० । मत्स्यविशेषे, " अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम,
जापतौ,स च पूर्व रिपुसंझनामाऽऽसीत्, ततः स्वपुत्री मृगावशतयोजनविस्तृतः । तिमिलिगिलोऽप्यस्ति , तद्रिलोड ती परिणयन् अचलं नाम बलदेवं तत्रोत्पाद्य पुत्रीपतित्वेन प्यस्ति राघवः ॥ १॥" सूत्र०२ श्रु०५०।
प्रजापतिरिति प्रसिद्धो जातः। प्रा० म०११०। राहस्सिय-राहसिक-पुं० । रहसि भवा राहसिकाः। पुरुषेण
रिउमइ-ऋजुमति-स्त्री० । सामान्यप्राहिण्यां मती , पा० । परिभुज्यमानायाः स्त्रियाः स्तनितादिषु शब्देषु , वृ० १ (व्याख्या ' उज्जुमर' शब्दे द्वितीयभागे ७३६ पृष्ठे) उ० ३ प्रक० । नि० चू०।
रिउया-ऋजुता-स्त्री०। प्रार्जवे, विशे० । राहावेहग-राधावेधक-न० । राधायाः प्रसिद्धाया वेधो यत्र ।
रिउव्वेय-ऋग्वेद-पुं० । चतुर्णा वेदानां प्रथमे व्यवस्थितशाने तद्राधावेधकम् । चन्द्रकवेधे , पञ्चा० १४ विव ।
पादात्मकऋगात्मके वेदे, भ० २० १ उ०। औ०। . राहु-राहु-पुं० । महाग्रहे , “ दो राहू,” स्था०२ ठा०३ उ०
ग्वेदाहितनिीयव्यापारे, स्था० ३ ठा०३ उ०। "अब्भपिसाओ राहू" पाइ० ना० ३० गाथा । कल्प० । प्र- रिंखा-रिडखा-स्त्री० । सर्पणक्रियायाम् , १०१ उ०। ज्ञा। सू० प्र०। प्रश्नाचं० प्र०। स्वनामख्याते ज्योतिषि-: कदेवे, औ०। स च द्विधा नित्यराहुः, पर्वराहुश्चेति । चं० प्र०
रिंगंत-रिङ्गत-धा० । रिगि-गती, प्रवेशऽपि । रिंगह। प्रविज्यो। स०। (कथं चन्द्रं सूर्य वा राहुर्गृहातीति 'गहण' शब्दे
शति । गच्छति वा । प्रा०४ पाद ।। तृतीयभागे ८६१ पृष्ठे उक्तम् ) राहोः शिरोमात्रता पुनरेवम्- |
रिंगण--रिङ्गण-न। किश्चिचलने, प्रव०२ द्वार । प्रायः। देवैः किलामृतस्य कुण्डानि भृतानि, विष्णुश्च तक्षायां नि-| रिंगिन-देशी--भ्रमणे, दे० ना० ७ वर्ग ६ गाथा ।
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रिंगिसिया अभिधानराजेन्द्रः।
रिभिय रिंगिसिया-रिङ्गिसिका-स्त्री० । वाद्यभेदे, रा०।
रिद्वाभ-रिष्टाभ-न० । पञ्चमदेवलोकविमानभेदे,स०८ समः । रिंछोली-स्त्री० श्रेणी, "अोली माला राई रिंछोली" पाह० कृष्णराजीमध्यमभागवर्तिनि रिष्टाख्यलोकान्तिकदेवाऽऽवाना०६३ गाथा। दे० ना।
सभूते विमाने, भ०६ श०५ उ०। रिंडी-देशी--कन्थाप्रायसि, दे० ना०७ वर्ग ५ गाथा।
रिद्विसाल-रिष्टिशाल-न० । अष्टमदेवलोकविमानभेदे, स०१८
सम०। रिक-रिक्त-ना त्यक्ते, नि० चू०१६ उ०। प्राचा। स्तोके, दे० |
| रिण-ऋण-न । “ऋणर्वृषभवृषौ वा "॥८॥१॥ १४१ ॥ मा०७ वर्ग ६ गाथा । “रिक रित्तं" पाइ० ना० २१८ गाथा। इति रितो रिर्वा । रिणं । अणं । अधमणेन उत्तमर्णात् पुनर्देरिकिन-देशी-शटिते, दे० ना०७ वर्ग ७ गाथा ।
यत्वेनाभ्युपगम्य गृहीते धने, प्रा०१पाद । रिक्ख-ऋक्ष-न० । “रिः केवलस्य " ॥८।१।१४०॥ इति | रितंभरा-ऋतम्भरा-स्त्री० । अध्यात्मप्रसादानन्त विन्यां केवलस्य व्यअनेनाऽसम्पृक्तस्य तो 'रि' इत्यादेशः। रि- योगिप्रज्ञायाम् , द्वा०। न्छ । प्रा० । "ऋतेवा" ॥८॥२॥ १६ ॥ इति क्षशब्द- अध्यात्म निर्विचारत्व-वैशारद्ये प्रसीदति । स्थस्य तस्य छो वा । रिच्छं । रिक्खं । नक्षत्रे,प्रा०।०प्र० । ऋतम्भरा ततः प्रज्ञा, श्रुतानुमितितोऽधिका ॥१२॥ " रिक्खं उडु नक्खतं" पाइ० ना०६६ गाथा । श्रा० म०।। द्वा० २० द्वा०। (व्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६३० वयःपरिणामे, दे० ना०७ वर्ग ६ गाथा । वृद्धे, दे० ना०७ पृष्ठे गता) वर्ग ६ गाथा । रिक्ख (च्छ)। क्षुद्रे, क्रूरे, जन्तुविशेष,स्था०रित्त-रिक्त-न० । तुच्छे, प्राचा०१ श्रु०२ १०६ उ० । “रिक ६ ठा०३ उ०।
रितं" पाइ० ना० २१८ गाथा। रिक्खण-देशी-उपालम्भे, कथने च । दे० ना० ७ वर्ग १४ |
| रित्तग-रिक्तक-पुं०। शुद्धे, प्रा० चू०४०। गाथा। रिग्ग-देशी-प्रवेशे, दे० ना० ७ वर्ग ५ गाथा।
रित्तमुद्वि-रिक्तमुष्टि-स्त्री० । पोल्लकमुष्टौ, तं०।
रित्तहत्थ-रिक्तहस्त पुं० । फलादिशून्यकरे, “रिक्तहस्तो न वै रिच्छ-अक्ष-पुं० । नक्षत्रे, प्रा०। भल्लूके, "रिच्छो य अच्छ
पश्येत् , राजानं देवतां गुरुम् । निमित्तत्वं विशेषेण, फलेन हल्लो" पाइ० ना० १२८ गाथा । वृद्धे,देना० ७ वर्ग ६ गाथा।
फलमादिशेत् ॥१॥"कल्प०१ अधि०४क्षण । रिच्छज्झय-ऋक्षध्वज--पुं० । ऋक्षाङ्कितध्वजे, रा०।
रित्तूडिअ-देशी-शातिते, दे० ना० ७ वर्ग ८ गाथा । रिच्छभल्ल-देशी-ऋक्षे, दे० ना०७वर्ग ७ गाथा ।
रित्थ-रिक्थ-न० । धने, " रित्थं दविणं" पाइ० ना० ५० रिजु-ज-पुं० । “ऋणर्वृषभवृषौ वा"।१।१४१॥
इति रिर्वा । रिजू । उजू । सरले, प्रा० १पाद ।। रिद्ध-ऋद्ध-न० । संपत्ती, धनधान्यभवनादिभिर्वृद्धिमुपगते, रिजुभाव-ऋजुभाव-पुं० । ऋजुरकुटिलो मोक्ष प्रति प्रगुणो | त्रिका
यो भावः परिणामः स ऋजुभावः । मोक्षौपयिकपरिणामे,० "रिथिमियसमिद्धा" । डा भवनैः पौरजनश्चातीय १ उ०२ प्रक०।
वृद्धिमुपगता “ऋद्धवृद्धौ” इति वचनात् । रा० । श्री० । रिद-रिष्ट-पुं०। रत्नविशेष, प्रा०म०१०। ती० । औ०। भ० । चं० प्र० । आगामिन्यामुत्सर्पिरायां भारते भविष्यति शा० । जं०। रा०। प्रव० । जी० । काके, दे० ना० ७ वर्ग ६ द्वादश चक्रवतिान । ति० । पक्के, दे० ना० ७ वर्ग ६ गाथा । गाथा। चेलम्बस्य प्रभञ्जनेन्द्रस्य च तृतीये लोकपाले, स्थारिद्धमेहवण--ऋद्धमेघवन-न० । भारते वर्षे रोहिडनगरस्य ४ ठा०१ उ० । महाकच्छविजयाख्यराजधान्याम् , स्था० २ | | समीपोद्याने, नि। ठा० ३ उ०पक्षिविशेषे, कलविशेषे च । औ० । शा० । काके. | रिद्धि-ऋद्धि--स्त्री०। "रिः केवलस्य" ॥८।१।१४० ॥ इति "बलिउट्ठा रिट्ठा" पाइ० ना०४४ गाथा । दे० ना० । व्यञ्जनेनासम्पृक्तस्य तो रि इत्यादेशः। रिद्धी । प्रा० । "इत रिट्ठकंड-रिष्टकाण्ड-न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याश्चतुर्दशे का- कृपादौ" ॥८।१।१२८ ॥ इति ऋत इत्त्वम् " श्रद्धद्धिमूर्धार्धेएंड, स्था० १० ठा।
उन्त वा" ॥ ८।२। ४१ ॥ एण्वन्ते वर्तमानस्य संयुक्तस्य दो रिकूड-रिष्टकूट-पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे रुचकरपर्व
वा भवति । इड्डी । रिद्धी । प्रा० । अनेककोटीसंख्यद्रव्यादि. तस्य प्रथमे कूटे, स्था० - ठा।
सम्पद्विशेषे, प्रा० । स०। समूहे, दे० ना० ७ वर्ग ६ गाथा । रिट्ठपुर-रिष्टपुर--पुं० । कच्छगावत्याख्यराजधान्याम् , " दो |
"विच्छडो सामिद्धी रिद्धी" पाइ ना० ६२ गाथा। रिटुपुरे" स्था०२ ठा० ३ उ०।
रिद्धिविद्धिजुत्त--ऋद्धिवृद्धियुक्त-त्रि० । ऋद्धिवृद्धधभिधानीरिट्ठमय-रिष्टमय-त्रि० । रिटरत्नमये, जी० ३ प्रति०४
पधिसनाथे, " मंगलपडिसरणा इचित्ताई रिद्धिविद्धिजुत्ताई" अधि० । जं० । रा०।
पञ्चा० ८ विव०। रिद्रा-रिष्टा-स्त्री० । मदिरायाम् , शा० १श्रु०१७ अ०। रिप्प-दशा-पृष्ठ, द० ना०७ वग ५ गाथा । या शास्त्रान्तरे जम्बूकलकालिकेति प्रसिद्धा । जं. २ वक्षः। रिभिय--रिभित--न० । स्वरघोलनाप्रकारे, शा० १ श्रु०१७ पञ्चमनरकपृथिव्याम् , स्था० ७ ठा० ३ उ०। जी । “दो श्र० । त्रि० । स्वरघोलनाप्रकारोपेते , यत्र स्वरोऽक्षरेषु रिटायो" स्था० २०२ उ०।
| घोलनास्वविशेषेषु च मञ्चग्न रिङ्गनीव प्रतिभापत स
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रिभिय
पदसञ्चारः रिभित उच्यते । ज्ञा० १ ४० ६६ श्र० । रा० स्थान न० | नाट्यभेदे, श्रा० म० अ० । स्था० । रिमिस - देशी- रोदनशीले, दे० ना० ७ वर्ग ७ गाथा । रिय ऋत- न० । सत्ये, भ० ८० ७ उ० ।
(५६५) अभिधानरराजेन्द्रः ।
|
-
रिपारिष रितारित २० गमनागमने रा० जी० ० ० रिरंसा-रिरंसा--स्त्री० कदलीगृहादिक्रीडायाम् श्र०म० अ० । गिरि-देशी-लीने दे० ना० ७ वर्ग ७ गाथा । रिसजिह रिश्यजिह० महाकुठभेदे, प्र०५ सं०] द्वार रिसभ ऋषभ पं० "भाषा"३८ । । १ । १४१ ॥ इति ऋतो रिर्वा । रिसहो । उसहो। वृषभे, प्रा० १ पाद । प्रथमतीर्थकरे, आ० म० । ( व्याख्या 'उसभ' शब्दे ११३ पृष्ठ) ऋषभो - वृषभस्तद्वद्यो वर्त्तते स ऋषभ इति श्राह च - "वायुः समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः । नद्त्यृषभवद्यस्मात्, तस्माद्दपभ उच्यते ॥ १ ॥ " इत्युक्तलक्षणे स्वरभेदे, स्था० ७० अनु० अस्थिस्याष्टके पट्टे तं रिसमपुर ऋषभपुर-न० जम्बूद्वीपे मदरस्य पूर्वतः शीतो दायाः महानद्याः दक्षिणस्थे राजधानीभेदे, ती० १० कल्प । रिमि ऋषि पं० वा ११४१
--
-
46
इति ऋतो रिर्वा । रिसि । इसि । गच्छ्रगतगच्छनिर्गतादिभेदेषु साधुषु प्रा० । पा० । मुनौ जो तपस्सो तावसा रिसी " पाइ० ना० ३२ गाथा ।
"
9
रिमिघायण पापघातन न० ऋऋविधे, "विजं परिभवमा सो. या गुपासितोरियालो ब मिन "० प०।
रिसिदास - ऋषिदास - पुं० । " साकेतनगरे याते सार्थवाहपुत्रे, ० । ( स च वीरान्तिके प्रव्रज्य बहुवर्षाणि श्रामएयं परिपाल्य सर्वार्थसिद्धे उत्पद्य महाविदेहे सेन्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां ३ वर्गे तृतीयाध्ययने सूचितम् ) रिसिभासिय- ऋषिभाषित-न० । उत्तराध्ययनादिश्रुते, विशे० । "देवलोपाइ चोपाली इतिभासियमदेवलोगच्चुयाणं
"
यणा
स० । “परहवागरणदसाणं दस अभयरणा परणत्ता, तं जहा - उबमा - संखा - रि (इ) सिमासियाई” स्था० १० ठा० । रिसियरका ऋषिहत्या स्त्री० [पियापादने, "राचं पि वज्रणह रिसिवज्झा जह न सुंदरी होइ ।" वृ०१ उ० ३ प्रक०। रिसिवाइय ऋषिवादिक-पुं० । गन्धर्वभेदे, प्रशा० १ पद ।
।
इ - रीति- स्त्री० । स्वभावे, अनु० ॥ भ० । रीया रीतिका बी०ला धातुविशेषे श्री० [द्याचा० रीड - मडि-धा० । इदित् । चुरा० भूषायाम्, “मण्डेः चिञ्चचिञ्चित्र-चिञ्चिल -- रीड - टिविडिक्काः " ॥ ८ । ४ । ११५ ॥ इति मण्डे : रीडादेशः । रीडर । मण्डयति । प्रा० ४ पाद । री-देशी- अगराने दे० ना० ७ वर्ग माथा ।
रीढा -- रीढा - स्त्री० । यदच्छायाम्, घुणाक्षरन्याये, बहुधम्मचरसहस्रणं, रोडा जणपूयणिज्जाणं वृ० १३०३ प्रक० जी० । | । अनादरे, "हेला य अनादरो रीढा" पाइ० ना० १६२ गाथा । रीयमाण - रीयमाण -- त्रि० । संयमानुष्ठाने, गच्छति, विहरति
ર
रुक्रव
च । आचा० १ ० ६ श्र० २३० । उत्त० भ० । वृ० ।
रीर- राज धा० । दीप्तौ, "राजेरग्घ छज-- सह - रीर--रेहाः "
|| ४|१०० ॥ इति राजे रीर आदेशः । रीरइ । राजति । प्रा०| रुअरुइया - देशी -- उत्कण्ठायाम् . दे० ना० ७ वर्ग ८ गाथा | रुरुचि स्त्री० परमश्रद्धायाम्, आत्मनः परिणामविशेषरूपे, वृ० १ ० १ प्रक० | चेतोऽभिप्राये, सूत्र० २ ० १ ० । ध० । विशे० । श्रभिलाषरूपे, स्था० १० ठा० । प्रीती, श्राव० ४ श्र० । विशे० । नैर्मल्ये, उत्त० १ ० । तिविहा रुई पम्पता । तं जहा सम्मरुई मिच्लरुई सम्मामिरुई । स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
पाइ० ना० १४ गाथा ।
रुइर रुचिर न० । मनोशे, उत्त० ३२ प्र० । स्निग्धे, जं० १ वक्ष० । सुन्दरे, “ रुइरं राहं रम्मं " रुइल- रुचि (र) ल-त्रि० । रुचिदीप्तिस्तां लान्त्याददतीति रुचिलानि सहभिमन्सु सू० २ ० १ ० मनोशे, श्री० जं० जी० स०ह्मलोके स्वनामख्याने विमाने. २० । लोके हि "पले" इत्यादि विमानानि सन्ति । स० ६ सम० ।
"
रुंचणी - देशी -- घरट्याम्, दे० ना० ७ वर्ग ८ गाथा । रुचिजमाण - रुंचीयमान- त्रि० । चणखराडीयमान, जं० १
वक्ष० । श्रा० म० ।
रंज-शब्दे "जी"७॥ इति रौतेः रुजादेशः । रुंजइ । प्रा० ४ पाद । रुं(रु) जगरुपक- ० दुमेकस्मिधिदेशे दुमाः रुका इत्या ख्यायन्ते । दश० १ ० ।
रुंटिय--रुत- त्रि० । गुञ्जितध्वनौ, पाइ० ना० २६२ गाथा | कंद्र- देशी प्रक्षिके, फितच इत्यर्थः । दे० ना०७ धर्म ८ गाथा । रुंढि - देशी - - सफले, दे० ना ७ वर्ग १८ गाथा | रुंद रुन्द प्रि० विस्तीर्णे ० १ ० ३ प्रक० श्री०प०। नि० चू० मं० प्रश्न शिखरितलकूटाधिपतिदेवे द्वी० । स्थूले, पाइ० ना० ७३ गाथा । विपुले, मुखरे व । दे० ना० ७ वर्ग १४ गाथा |
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रुंधतिया - रुन्धन्तिका -स्त्री० । यन्त्र के ग्रीहिकोद्रवादीनां निस्तुपत्वकारिकायां क्रियायाम्, ज्ञा० १ श्रु० ७ श्र० । रुंघरुन्ध-धा० आापरणे, " १३३ ॥ इति रुधेः रुत्थङ्घ इत्यादेशो वा । उत्थव । संधर । प्रा० । “ व्यञ्जनाददन्ते " || ८ | ४ | २३६ ॥ इति व्यञ्जनाद्धातोरन्ते श्रकारः । रुंधइ । रुद्धि । प्रा० । “भो दुद्दइ-लिह - वह रुधामुश्चातः " || ८ | ४ | २४५ ॥ इति द्विरुक्तेः भो वा । रुम्भइ । रुधिजइ । प्रा० ४ पाद । रुंभण- रोधन- न० । श्रावरणे, प्रश्न० १ अन० द्वार | गुप्तप्रक्षेपणे, बृ० ३. उ० ।
रुक्ख- पुं०न० पृच-पुं०। "वृक्ष-क्षिप्तयोः रुख-टूढी" ॥ ८ ॥२ ॥ १२७ ॥ इति वृद्धे रुक्खादेशो या रुक्यो। चच्छो। प्रा० । "गुणायाः क्रीये पा॥ २३४॥ इति प्राकृते
वा
11=181
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अभिधानराजेन्द्रः।
रुस्खासण • कयम् । रुक्खाई । रुक्खा । वृश्यत इति वृक्षाः । चूताऽऽशो- | मानां सञ्चयं कृत्वा तदधोभागवर्तिनां पुरुषाणां तदारोहकादिकेषु तरुषु, कल्पादिटुमेषु च । प्रा० । उत्स० । (भेदाः णासमर्थानामनुकम्पया कुसुमानि विसृजति, तेऽपि च भू'एगट्टिय' शब्दे तृतीयभागे ११ पृष्ठ गताः)
पातरजोगुण्डनभयात् विमलविस्तीर्णपटैः प्रतीच्छन्ति, पुनसे किं तं रुक्खा पामता । गोयमा! तिविहा रुक्खा
यथोपयोगमुपभुजानाः पुरेभ्यश्चोपकुर्वाणाः सुखमाप्नुवन्ति ।
एवं भाववृक्षेऽपि सर्वमिदमायोज्यम् । (८६ गा० टी०) श्रा० पापत्ता । तं जहा-संखेज्जजीविया, असंखेज्जजीविया,अ
म०१०। विश०। (श्रमणार्थ निष्पादित आम्रवृक्ष साणंतजीविया ॥ (भ० ) से किं तं अणंतजीविया ?,
धूनां न कल्पते इति प्राधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे २५२ अणंतजीविया अणेगविहा पम्पत्ता , तं जहा-आलुए| पृष्ठ उक्तम् ) मूलए सिंगबेरे । भ० ८ श० ३ उ० ।
रूक्ष-पुं० । पुद्गलद्रव्याणां मिथोऽसंयुज्यमानानामबन्ध निबबहुबीजकवृक्षप्रतिपादनार्थमाह
न्धने भस्माद्याधारे स्पर्शनभेदे, कर्म०१ कर्म ।
रुक्खकालिय-वृक्षकालिक-न० । अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिसे किं तं बहुवीयगा ?, बहुबीयगा अणेगविहा पम-| णीमाने, श्रा०म०१०। त्ता । तं जहा
रुक्खगिह-वृक्षगृह-न० । वृक्ष एव गृहाकारः वृक्षगृहं, वृक्ष अस्थिय तेंदु कविटे, अंबाडग माउलिंग विल्ले य । वा गृहं वृक्षगृहम् । वृक्षप्रधाने, तदुपरि वा गृहे, नि० चू० आमलग फणिस दालिम, आसोठे उंबर वडे य ॥१॥
१२ उ० । श्राचा०।
रुक्खगुंद-वृक्षगुन्द-न० । वृक्षनिर्यासे, ल०प्र०। णग्गोह णंदिरुक्खे, पिप्परी सयरी पिलुक्खरुक्खे य ।
रुक्खगेहालय-वृक्षगेहालय-पुं० । वृक्षरूपाणि गेहानि आकाउंबरि कुत्थुभरि, बोद्धब्बा देवदाली य ॥ १६॥ |
लया आश्रया येषाम् । वृक्षरूपगेहनिवासिषु. जं. २ वक्षः। तिलए लउए छत्तो ह-सिरीस सतवन्न दहिबन्ने । रुक्खपइट्रिय-वृक्षप्रतिष्ठित-न० । स्फुटितीजप्रतिष्ठित श्रालोद्धधवचंदणऽज्जुण-णीमे कुडए कयंबे य ।। १७॥ | हारशयनादौ, दश० ४ १०।
जे यावन्ने तहप्पगारा, एतेसि णं मला वि असंखेञ्जजी-| रुक्खफासणाम-रूक्षस्पर्शनामन्-न । यदुदयाज्जन्तुशरीरं विया कंदा वि खंदा विसाला वि, पत्ता पत्तेयजीविया,
भूत्यादिवच्च रूक्षं भवति तद्रक्षस्पर्शनाम । स्पर्शनामभेदे,
कर्म० १ कर्म०। पुप्फा अणेगजीविया, फला बहुबीयगा । सत्तं बहुबायगा, | रुक्खमल-वृक्षमल-न० । वृश्च्यत इति वृक्षः, तस्य मूसेत्तं रुक्खा ।
लम् । सहकारादिवृक्षस्याधोभागे, उत्त० २ अ० । वृ० । अथ के ते बहुबीजकाः ? , मरिराह-बहुबीजका अनेक-| औ०। विधाः प्राप्ताः, तद्यथा-' अस्थिये ' त्यादि गाथात्रयम् , रुक्खमूलगिह-वृक्षमूलगृह-न० । वृश्च्यत इति वृतः तस्य एते च अस्थिकतिन्दुककपित्थाम्बाडकमातुलिङ्गविल्या- मले गृहम् । सहकारादिवृक्षस्याधोभागे गृहे. उत्त० २ १०। 55मलकपनसदाडिमाश्वत्थोदुम्बरवटन्यग्रोधनन्दिवृक्षपिप्प- |
वृ० । औ० । वृक्षस्य करीरादेर्निर्गलस्य मूलमधोलीशतरीप्लक्षकादुम्बरिकुस्तुम्भरिदेवदालितिलकलवकच्छत्रो
भागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहम् । वृक्षाधोगृहे, स्था० ३ पगशिरीषसप्तपर्ण दधिपण लोधवचन्दनार्जुननीपकुटजकद- ठा०४ उ०। म्बकानां मध्ये केचिदतिप्रसिद्धाः केचिद्देशविशेषतो
| रुक्खमलिअ-वृक्षमलिक-पुं० । वृक्षम्ल एव सदा वासिनि वेदितव्याः, नवरामिहामलकादयो न लोकप्रसिद्धाः
वानप्रस्थे, औ० । नि० चू । वैताढयपर्वतवासिनि विद्याप्रतिपत्तव्याः, तेषामेकास्थिकत्वात् , किन्तु-देशविशेषप्रसि
धरमनुष्य, प्रा० चू० १ अ०। द्धाः बहुबीजका एव केचन, 'जे यावन्ने तहप्पगार त्ति,' येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः-एवंप्रकारास्तेऽपि च व रुक्खविगुब्बणा-वृक्षविकुर्बणा-स्त्री०। वृक्षविक्रियापादने, न्धीजका मन्तव्याः, एतेषामपि मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखा
स्था०। प्रवालाः प्रत्यकमसंख्येयप्रत्येकशरीरजीवकाः, पत्राणि प्र
वृक्षविभूषामाहयेकर्जावकानि. पापाण्यनेकजीवकानि. फलानि बहीज- चउबिहा रुक्खविगुन्बणा परमत्ता । तं जहा-पवालत्ताए कानि, उपसंहारमाह-सेत्तमित्यादि निगमनद्वयं सुगमम् । पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलताए ।। (सू० ३४४४) प्रज्ञा०१ पद । स्था० 1 जी० । आचा० । स०। सूत्र० । शा० ।
__ 'चउब्बिहे' त्यादि, अथवा-पूर्वमुञ्छजीविकासम्पन्नः सादश० । व्य० । ('संखजजीविय' शब्दे संख्यातजीविकान् धुपुरुष उक्तः, तस्य च वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधप्रयोजने वक्ष्यामि ) (असंख्यातजीविकाः 'असंखेजजीविश्र' शब्दे | वृक्ष विकुर्वतो यद्विधा तद्विक्रिया स्यात्तामाह-' चउब्बिप्रथमभागे ८२० पृष्ठे गताः)
हा' इत्यादि, पातनयैवोक्तार्थ, नवरं 'प्रवालतयेति' नवाअथ वृक्षनिक्षेपमाह
करतयेत्यर्थः । स्था० ४ ठा०४ उ०। वृक्षोद्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । द्रव्यतः प्रधानो वृक्षः कल्पः | | रुक्खासण-वृक्षासन-न० । स्नेहरहितमोजने, वृ० १ उ० वृक्षः, यथा-तमारुह्य कश्चिद्गन्धादिगुणसमन्वितानां कुसु-| ३ प्रक० ।
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(XED) अभिधानराजेन्द्रः ।
रुग्ग
रुग्गरुम-त्रि० । जीतां गते, शा० १ ० ७ ० । रोगिणि,
पाइ० ना० २४३ गाथा ।
रुट्ट - रुष्ट - त्रि० । क्रोधविमोहिते, नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । विपा० । उदितक्रोधे, भ० ७ श० ६ उ० । शा० । प्रश्न० । रुडुबंदय - रुष्टवन्दन - न० क्रोधाध्यातो वन्दते
धामातं
वा । वन्दनदोषविशेषे, श्राव० ३ श्र० ।
66
"
रोसे धमधमं तो जं वंदर रुटुमेनं तं " रोषेण केनाऽपि स्वविकल्पजनितेन धमधर्मतो' नि जाज्वल्यमानो यन्दते तत् रुपन्दनकमिति । श्राव० ३ ० | प्रब० । ० चू० । रुष्ट-रु-धा० । शब्दे, "रुतेः रुञ्ज-रुण्टौ ॥ ८ । ४ । ४७ ॥ इति रौतेरेतावादेशौ वा । रुञ्जइ । रुण्टइ । रौति । प्रा० । रुम्प - रुदित - न० | " रुदिते दिना छः " ॥ ८ | १ | २०६ ॥ इति रुदिते दिना सह तस्य द्विरुक्लो गो भवति । प्रा० । रुराणं । श्रश्रु विमोचने, प्रश्न० ५ ० द्वार भगवत्यपवर्गे गते, भरतः खमसाधारणमवबुध्य तदपसरणाय शक्रेण कृतस्ततो लोकेऽपि ततः कालादारभ्य रुदितशब्दः प्रवृत्तः । तथा चाहलोकोऽपि तथा भरतवद् शक्रवद् वा रुदितशब्दं प्राकृतः कर्तु
मारब्धवान् । श्रा० म० १ अ० |
रुतजोगि रुदितयोनि-२० रुदितं योनिजतिः समानरूपतया यस्य तत् रुदितयोनिकम् । रुदितसमाने गीते, “सत्त सरा णाभी, भवंति गीतं च रुत्तजोणी यं" स्था० ८
ठा० ३ उ० ।
11
रुद रुद्र- पुं०।" द्रे रो न वा ॥ ८२ ॥ ८० ॥ इति द्रशब्दे रेफस्य वा लुक् । रुद्दो । रुद्रो । हरे, प्रा० । अनु० ॥ भ० ॥ श्राव० । पानक्षत्रस्याऽभिपती जं० ७ वक्ष० । ( तामनिरुकिः जैनशास्त्रप्रसिद्धा) नारका पदके असुरकुमारविशेषे, प्रश्न० ५ संव० द्वार । स० ॥ भ० | प्रब० ।
9
श्राव० ।
9
अपि चअसिसत्तिकोंततोमर - मूलतिमूलेसु मूहवियगासु । पोयंति रुकम्मा उ, गरगपाला नहिं रोदा ॥ ७४ ॥ तथा अन्यर्थाभिधाना रौद्राच्या नरकपाला रोद्रकर्माणो नानाविधेष्यसिशक्त्यादिषु प्रहरषु नारकानशुभकमययनिः प्रोतयन्तीति । सूत्र० ६ ० ० तयदेवासु देवपितरि श्राव०१ प्र० । ति० । स्था० । पार्श्वनाथतीर्थाधिठाके देवे ती०२ कल्प अहोरात्रस्य प्रथमे मुह क्यो २ पाहु० | सू० प्र० । जं० । स० । कल्प० । श्राचा० । चं० प्र० । पर्युषणायां कलहक्षामणावसरे उदाहृते खेटवास्तव्ये बलीईमारके द्विजे, कल्प० १ अधि०५ रौद्रे, प्राणिनां भयोत्पादके, त्रि० । सूत्र० १० ५ श्र० २३० । रोदयत्यपरानिति रुद्रः प्राविधादिपरित सारमेय तस्यैकं कर्म रीद्रम् । ध्यानविशेषे, न० । प्रव० ६ द्वार । चण्डे, तीव्र च । सूत्र० २ श्रु० ३ श्र० । महादेवे, तत्कथा चैवम्-" वेसालि - जो सच्चो महेसरेण नीलवंतम्मि सादरियो । को महेसरोति ? तस्सेव चेडगस्स धूया सुजेट्ठा वेरग्गा पव्वइया, सा उवस्तयस्संतो आयावेर, इश्रो य पेढालगो नाम परिव्वायम विज्जासिद्धो विज्जाउ दाउकामो पुरिसं
,
रुद्द.
मगर, जइ बंभचारिणीए पुत्तो होज्जा तो समत्थो होज्जा, तं आपाती द धूमिगावामोदं काऊ विज्ञाविवजाखो तरथ से रितुकाले जाए गमे प्रतिपादि कडियन या कामविकारो जानो सहयकुले वडावि समोसरणं गयो सामुहि सह तत्य य कालीयो - दित्ता सामि इ-कत्रो मे भयं ?, सामिणा भणियं-एपुच्छरयाश्रो सच्चती ताहे तस्सं मूलं गो, श्रवण्णाए भराइअरे तु मर्म माहिसि ति पारसु बला पाडियो, संवडिश्रो, परिव्वायगेण तेण संजतीणं हिश्रो, विजाश्रो सिसाथियो, महारोहिण व साहे. इमं समतं भयं पंचसु मारिश्रो, छट्टे छम्मासावसेसाउपण नेच्छिया, अह साहेतुमारो श्रणाहमडर चितियं काऊण उज्जालेत्ता श्रलचंमं fasser वामेण गुट्टपण ताव चंकमर जाव कट्ठाणि जलंति, एत्यंतरे कालसंदीवो श्रागश्रो कट्ठाणि लुब्भर, ससत्तरते गए देवया सयं उपडियामा विग्यं करेहि, अहं
यस सिकिउफामा सिद्धा भइ धर्म अंगं परिष्वय जेल पविसामि सरीरं, तेल निलाडेल पडिडिया, तेस
इयया, तत्थ बिलं जायं, देवयाए से तुट्टाए तइयं श्रच्छि कालो मारिओ कीस ले मम माया राय
या से कहो ना जाये, पच्छा कालसंदी भोपा, बिडी, पलाओ, मग्गो लग्ग एवं डेडा उरि च नासर, कालसंदीवेण निनि पुराणि विविता, सामिपायले अाणि देवयाणि पहओ, ताहे वाणि भ ति श्रम्हे विजाश्रो, सो भट्टारगपायमूलं गो नि तत्थ गयो, एकमेकं वामिभांति लबने महापायाले मारिओ पहा सो बिज्ञा चक्रचट्टी तिसंभं सम्बतित्थगरे पच्छा वंदित्ता एवं च दाइत्ता पच्छा अभिरमइ, तेरा इंदेल नाम कयं महेसरो नि सो वि फिर जाया पद्मोसमा जायगारा सयं २ विगासे अने अंतरे अ भिरमा त प भांति दो सीसा सरो नंदी य एवं पुरण विमाण अभिरमा एवं कालो पर अया उजेगी पोरस अंडरे सिर्व मोनू साथ विद्धंसे. पोओ विरोहको उपाधी होजा जे एसो बिसा जा, तत्येगा उमा नाम गणिया रूपस्थिती, साफिर - ग्गहणं गेराहर जाहे ते संतेण एइ, एवं वच्चर काले उइरालो, ताप दोसि पुप्फाणि वियसियं मउलियं च मउलियं पणामियं महेसरेण वियसियस्स इत्थो पसारियो, सामड मे यस रहसि ति कई वादे भरा परिसि
कणा
को,
ममं ताव पेच्द्रह, ती सह संचसा हिवहियओ पर कालो। सा पुच्छरकार बेलाय देवयाओ श्री सरंति ?, तेरा सिट्ठे-जाहे मेहुणं सेवामि, तीए रराणो सिद्धं मा ममं मारेहि त्ति, पुरिसेहिं श्रंगस्स उवरिं जोगा दरिखिया एवं रक्खामो, ते व पजोपण भणिया सह प्यार तेहिं संसट्टो मारिओ सह तीए, ताहे नंदीसरो ताहिं वि मारेह माय दुरारखं करेहिह, ताहे मनुस्सा पच्णं गया, आदि अहिडियो आमा सिलेबिया भग्रह-दा दास! मो. तासनगरी राया उपसागोमा गावराहं ति, सो भगइ - एयस्स जइ एणमेतदवत्थं श्रचेह तो मुयामि, एयं च खयरे २ एवं श्रवाउडियं ठावेह
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अभिधानराजेन्द्रः।
रुद्दज्माण त्ति तो मुयामि, तो पडिवराणो, ताहे आययणाणि कारावि- मायाविणोऽइसंधण-परस्स पच्छन्नयावस्स ॥२०॥ याणि, एसा महेसरस्स उप्पत्ती।" आव०४०।
पिशुनासभ्यासद्भूतभूतघातादिवचनप्रणिधानम्-इत्यत्रारु (रो) द्दज्झाण-रौद्रध्यान-न। रोदयत्यपरानिति रुद्रः।। निष्टस्य सूचकं पिशुनं पिशुनमनिष्टसूचकम् । ' पिशुनं प्रागयुपघातादिपरिणत आत्मैव तस्येदं कर्म रौद्रम ।। सूचकं विदुः ' इति वचनात् , सभायां साधु सभ्यं, न सउत्तः पाई० ३० अ० । हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् । भ्यमसभ्यम्-जकारमकारादि, न सद्भूतमसद्भूतमनृतमित्यस्था०४ ठा० १ उ०। श्रावकारौद्रभावं गतो रौद्रः । उक्त्रं र्थः, तच्च व्यवहारनयदर्शनेनोपाधिभेदतस्त्रिधा, तद्यथाच-हिंसानुरञ्जितं रौद्रम् । श्रा० चू०४ १० । तच्च ध्यानं अभूतोद्भावनम् , भूतनिहवा,ऽर्थान्तराभिधानं चति, त. चेति । हिंसानृतचौर्यधनसंरक्षणाभिधानलक्षणे ध्यानभेदे, | त्राभूतोद्भावनं यथा-सर्वगतोऽयमात्मेत्यादि, भूतनिवस०४ सम० । “संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्व, बन्धप्रहारदम- स्तु-नास्त्येवात्मेत्यादि, गामश्वमित्यादि अवतोऽर्थान्तरानैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पा-ध्या- भिधानमिति , भूतानां-सत्त्वानामुपघातो यस्मिन् तद्भूनं तु रौद्रमिति तत् प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥" दश०१०।
तोपघात, छिन्धि भिन्धि व्यापादय इत्यादि, श्रादिशब्द: श्राव० । पा० ।
प्रतिभेदं स्वगतानेकदप्रदर्शनार्थः , यथा-पिशुनमनेकरौद्रध्यानभेदानाह
धाऽनिएसूचकमित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनेष्वप्रवर्त्तमान
स्यापि प्रवृत्ति प्रति प्रणिधानं-दृढाध्यवसानलक्षणं रौरोद्दे झाणे चउबिहे परमत्ते । तं जहा-हिंसाणुबंधि १
ध्यानमिति प्रकरणाद्गम्यते । किं विशिष्टस्य सत इत्यत मोसाणुबंधि २ तेणाणुबंधि ३ संरक्खणाणुबंधि ॥ ४ ॥ श्राह-माया-निकृतिः साऽस्यास्तीति मायावी तस्य मा.
याविनो बणिजादः, तथा अतिसन्धानपरस्य-परवञ्चनाहिंसा-सत्त्वानां वधवेधबन्धनादिभिः प्रकारैः पीडामनुबध्नाति-सततप्रवृत्तं करोतीत्येवं शीलं यत्प्रणिधानं, हिंसानु
प्रवृत्तस्य, अनेनाशेषेष्वपि प्रवृत्तिमस्याऽऽह , तथा--'प्र
च्छन्नपापस्य' कूटप्रयोगकारिणस्तस्यैव, अथवा-धिग्जाबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिसानुबन्धि रौद्रध्यानमिति प्रक्रम
तिककुतीथिकादेरसद्भूतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापयतः, इति । स्था०४ ठा०१ उ० श्राव०। (रौद्रध्यानलक्षणानिल
तथाहि-गुणरहितमप्यात्मानं यो गुणवन्तं ख्यापयति न तक्खण'शब्दे वक्ष्यन्ते) साम्प्रतं रौद्रध्यानावसरः, तदपि चतुविधमेव, तद्यथा-हिंसानुवन्धि, मृषानुबन्धि, स्तेयानुबन्धि,
स्मादपरः प्रच्छन्नपापोऽस्तीति गाथाऽर्थः ॥ २० ॥ उक्नो
द्वितीयो भेदः। विषयसंरक्षणानुबन्धि च । उक्तं चोमावातिवाचकेन-"हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम् ” इत्यादि, (तत्त्वार्थे,
साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयतिअ०६ सू० ३६)
तह तिब्बकोहलोहा-उलस्स भूभोवघायणमणजं । तत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाऽऽह
परदव्वहरणचित्तं, परलोयायायनिरवेक्खं ॥ २१ ॥ सत्तवहवेहबंधण-डहणं कणमारणाइपणिहाणं ।
तथाशब्दो दृढाध्यवसायप्रकारसादृश्योपदर्शनार्थः, तीवौअइकोहग्गहपत्थं, निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥१६॥
उत्कटौ तौ क्रोधलोभौ च ताभ्यामाकुलः--अभिभूतस्तसत्त्वा-एकेन्द्रियादयः तेषां वधवेधबन्धनदहनाङ्कनमारणा- स्य, जस्तोरिति गम्यते, कि ?-भूतोपहननमनार्यम्-इति दिप्रणिधानम्, तत्र वधः-ताडनं करकशालतादिभिः, वेधस्तु हन्यतेऽनेनेति हननम् उप-सामीप्येन हननम् उपहननं नासिकादिवेधनं कीलकादिभिः, बन्धनम्-संयमनं रज्जुनि- भूतानामुपहननं भूतोपहननम् , श्राराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य गडादिभिः, दहनम्-प्रतीतमुल्मुकादिभिः, अङ्कनम्-लाञ्छ- इत्यार्ये न आर्यमनाये, किं तदेवंविमित्यत आह-परद्रव्यनं श्वशृगालचरणादिभिः , मारणम्-प्राणवियोजनमसिशक्ति- हरणचित्तं, रौद्रध्यानमिति गम्यते, परेषां द्रव्यं परद्रव्यं कुन्तादिभिः, अादिशब्दाद्-आगाढपरितापनपाटनादिपरि- सचित्तादि तद्विषयं हरचितं परद्रव्यहरणचित्तम् , तदेव ग्रहः, एतेषु प्रणिधानम्-अकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाध्य- विशेष्यते--किम्भूतं तदित्यत बाह-परलोकापार्यानरपेक्षघसानमित्यर्थः,प्रकरणाद्रौद्रध्यानमिति गम्यते, किं विशिष्टं | म्, इति, तत्र परलोकापायाः-नरकगमनादयस्तनिरपेक्षमिप्रणिधानम ?-अतिक्रोधग्रहग्रस्तम-अतीबोत्कटो यः ति गाथार्थः ॥ ११ ॥ उक्तस्तृतीयो भेदः । क्रोधः-रोषः स एवापायहेतुत्वाइह इव ग्रहस्तेन प्रस्तम्
साम्प्रतं चतुर्थ भेदमुपदर्शयन्नाहअभिभूतम् , क्रोधग्रहणाच मानादयो गृह्यन्ते; किं विशिपृस्य सत इदमित्यत आह-निघृणमनसा-निघृणम्-निर्ग- सदाइविसयसाहण-धणसारक्खणपरायणमणिहूँ । तदयं मना-चित्तम्-अन्तःकरण यस्य स निघृणमनास्तस्य । सव्वाभिसंकणपरो-वघायकलुसाउलं चित्तं ॥ २२ ॥ तदध विशेष्यते-अधमविपाकम् इति-अधमः-जघन्यो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाकः-परिणामो यस्य तत्तथाविधमिति |
शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधनगाथार्थः ॥ १६॥ उक्नः प्रथमो मेदः।
कारणं शब्दादिविषयसाधनम् । तच्च तद्धनं च शब्दासाम्प्रतं द्वितीयमभिधित्तुराह
दिविषयसाधनधनं तत्संरक्षणे-तत्परिपालने परायणम्--उ.
शुक्नमिति विग्रहः, तथा अनिएं-सतामनभिलषणीयमित्यर्थः, पिसुणासम्भॉसन्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाणं । इदमेव विशेष्यते-सर्वेषामभिशङ्कनेनाऽकुलमिति सम्बध्यते,
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अभिधानराजेन्द्रः। न विद्मः कः किं करिष्यतीत्यादिलक्षणेन, तस्मात्सर्वेषां य- | त्वक्षणनयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवथाशक्त्योपघात एव श्रेयानित्येवं परोपघातेन च, तथा क- तंत इति नानाविधदोषः, महदापद्गतोऽपि स्वतः महलुषयन्त्यात्मानमिति कलुषाः-कषायास्तैराकुलं व्याप्तं यत्त- दापगतेऽपि च परे आमरणादसजातानुतापः कालसौत्तथोच्यते, चित्तम--अन्तःकरणं, प्रकरणाद्रौद्रध्यानमिति करिकवद् , अपि त्वसमाप्तानुतापानुशयपर इत्यामरणदोष गम्यते , इह च शब्दादिविषयसाधनं धनविशेषणं किल | इति तेष्वेव हिंसादिषु , अादिशब्दान्मृषावादादिपरिग्रहः, श्रावकस्य चैत्यधनसंरक्षणेन रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति | ततश्च तेष्वेव हिंसानुबन्ध्यादिषु चतुर्भेदेषु, कि ?--बाह्यकगाथाऽर्थः ॥ २२॥
रणोपयुक्तस्य सत उत्सन्नादिदोषलिङ्गानीति, बाह्यकरणश__साम्प्रतं विशेषणाभिधानगर्भमुपसंहरनाह
ब्देनेह वाक्कायौ गृह्यते, ततश्च ताभ्यामपि तीवमुपयुक्तस्येइय करणकारणाणुम-इविसयमणुचितणं चउन्भेयं । । ति गाथाऽर्थः ॥ २६ ॥ अविरयदेसासंजय-जणमणसंसेवियमहामं ॥ २३ ॥
किंच• इय ' एवं करणं स्वयमेव कारणमन्यैः कृतानुमोदन- परवसणं अहिनंदइ, निरवेक्खो निद्दो निरणुतावो । मनुमतिः। करणं च कारणं चानुमतिश्च करणकारणानुमत
हरिसिजइ कयपावो, रोदभाणोवगयचित्तो ॥ २७ ॥ यः । एता एव विषयः-गोचरो यस्य तत्करणकारणानुमति
इहाऽऽत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तस्य व्यसनम्-श्राविषयं, किमिदमित्यत श्राह--अनुचिन्तनं--पर्यालोचनमि
पत् परब्यसनं तद् अभिनन्दति-अतिक्लिएचित्तत्वाद्बहु मत्यर्थः, चतुर्भेदम्--इति हिंसानुबन्ध्यादिचतुष्प्रकार, रोद्र-| ध्यानमिति गम्यते, अधुनेदमेव स्वामिद्वारेण निरूपयति
न्यत इत्यर्थः, शोभनमिदं यदेतदित्थं संवृत्तमिति, तथाअविरताः-सम्यग्दृष्टयः, इतरे च देशासंयताः--श्रावकाः,
निरपेक्ष-इहान्यभविकापायभयरहितः , तथा निर्गतदयो अनेन सर्वसंयतव्यवच्छेदमाह--अविरतदेशासंयता एव
निई यः-परानुकम्पाशून्य इत्यर्थः, तथा निर्गतानुतापो निरजनाः २ तेषां मनांसि--चित्तानि तैः संसेवितं, सञ्चिन्तित
नुतापः-पश्चात्तापरहित इति भावः, तथा किं च-दृष्यते
तुष्यति कृतपापः-निवतितपापः सिंहमारकवत् , क? इत्यमित्यर्थः,मनोग्रहणमित्यत्र ध्यानचिन्तायां प्रधानाङ्गख्यापना
त आह-रौद्रध्यानोपगतचित्त इति, अमूनि च लिङ्गानिद र्थम् ,'अधन्यम्' इत्यश्रेयस्करं पापं निन्द्यमिति गाथार्थः॥२३॥
वर्तन्त इति गाथाऽर्थः ॥ २७ ॥ श्राव० ४ ० । रोदअधुनेदं यथा भूतस्य भवति यद्वर्द्धनं चेदमिति दे
यति परानिति रुद्रः-दुःखहेतुः तेन कृतं तस्य वा कर्म-- तदभिधातुकाम आह--
रौद्रम् । दुःखहेतौ, न० । ध०२ अधिः । एयं चउव्विहं रा-गदोसमोहाउलस्स जीवस्स।
रुद्ददेव-रुद्रदेव-पुं० । अङ्गारमर्दकाचायति प्रसिद्ध अभव्यारोद्दज्झाणं संसा-रवद्धणं नरयगइमूलं ।। २४॥
| चार्य, पञ्चा० ६ विव० । काङ्कतीग्रामवास्तव्ये स्वनामख्याते एतद्--अनन्तरोक्नं चतुर्विधम्--चतुष्प्रकारं रागद्वेषमो-| राजनि, ती० ४६ कल्प। हाङ्कितस्य प्राकुलस्य बेति पाठान्तरं कस्य ?--जीवस्य- रुदय-रुद्रक-पुं० । आर्जवशब्दे उदाहृते ज्योतिर्यशसो मारके श्रात्मनः, किं ?-रौद्रध्यानामति, इदमत्र चतुष्टयस्याऽपि क्रि- कौशिकार्यशिष्ये, प्रा० क०४ अ०। श्रा० चू०। या, किं विशिष्टमिदमित्यत आह-संसारवर्द्धनम्-ओघतः, नरकगतिमूल विशेषत इति गाथाऽर्थः ॥ २४॥
| रुद्दसेण-रुद्रसेण-पुंधरणिनागकुमारेन्द्रस्य पदात्यनीकाधिसाम्प्रतं रौद्रध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते
पतो, स्था० ७ ठा। कावोयनीलकाला, लेसाओ तिव्वसंकिलिट्ठाओ ।
रुद्दसोमा-रुद्रसोमा-स्त्री० । दशपुरनगरे शोमदेवनामब्राह्मरोद्दज्माणोवगय-स्स कम्मपरिणामजणियाओ ॥२५॥
णस्याग्रमहिण्याम् आर्यवज्रमारि , विशे० । दर्श० । प्रा०
क० । सङ्घा० । श्रा० चू० । प्रा० म०। पूर्ववद् व्याख्येया, एतावांस्तु विशेषः-तीव्रसंक्लिष्टा-अति संकिपा एता इति ।
रुद्दा-रुद्रा-स्त्री० । तुरिमिण्यां नगर्या दत्तस्य मातरि कालिअाह पथं पुनः रौद्रध्यायी ज्ञायत इति ? , उच्यते-लि
काचार्यसूरेभगिन्याम् , दर्श. ३ तत्त्व । अभ्यः, तान्येवोपदर्शयति
रुद्ध-रुद्ध-न० । स्थगित, वृ०३ उ०। लिंगा तस्स उस्सएण-बहुलनाणाविहा मरणदोसा । | रंध (म्भ) (झ)-रुध-धा० । श्रावरणे, "रुधो न्ध-म्भौ च" तेसिं चिय हिंसाइसु, बाहिरकरणोवउत्तस्स ॥ २६ ॥ ॥८।४ । २१८ ॥ इति धोऽन्त्यस्य न्ध म्भ इत्यतौ श्रादेशी, लिङ्गानि-चिह्नानि तस्य-रोध्यायिनः , ' उत्सन्नवह- सूत्रे चकागद् ज्झश्च । सन्धइ । रुम्भइ । रुज्झइ । प्रा०४ पाद । लनानाविधा मरणदोण' इत्यत्र दोषशब्दः प्रत्येकभिस- रुधिर-रुधिर-न० । रक्त, स०। म्वध्यते, उत्सन्नदोषः बहुलदोपः नानाविधदोषः अामरणदा
रुधिरपाल रुधिरपाल-पुं० । उज्जयिन्यां तोसलिनगरवास्तपश्चेति , तत्र हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतर्गस्मन् प्रवर्तमान | उत्सन्नम्-अनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तते इन्युन्सन्नदोपः, स
व्ये वणिज, वृ०३ उ०। प्याप चवमेव प्रवन्त इति बहुलदापः । नानाविध न्य-रुप्प-रूप्य-न । रजन, ध०२ अधि० । श्रा०च।
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(५७०). अभिधान राजेन्द्रः ।
रुपकुंभ
रुष्पकुंभ - रुप्यकुम्भ - पुं० । वासुपूज्यजिनशिष्ये, ती० ३४
कल्प
रूप्पड - रूप्यकूट- पुं०। जम्बूद्वीपे मेरे रुक्मिनामवर्ष धरपवतें षष्ठे कूटे, स्था० ३ उ० । जं० । ( सच 'कूड दे तृतीयभागे ६२५ पृष्ठे वर्णितः) रुष्पकूलप्पवायदह-रूप्यकूलप्रपातहूद- पुं० । रोहितप्रपातहदमानवक्तव्यता के रूप्यकूलोद्गम स्थाने, स्था० २ डा०
३ उ० ।
रूप्पकूला- रूप्यकूला- स्त्री० । जम्बूद्वीपे पूर्वावरेण लवणसमुइगामिम्यां महानद्याम् स० १४ सम० सा च महापुरी कहदस्योत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ऐरण्यबद्ध विभजन्ती रोहि
तुल्यवक्तव्या परसमुद्रं गच्छतीति । स्था० २ ठा० ३
उ० । रा० ।
रूप्पच्छद-रूप्यच्छद--पुं०। रुप्याच्छादने त्रे, जी०३ प्रति० ४ अधि० ।
रूप्पनाम - रूपनामन् पुं० मङ्गलाचतीजिये वज्रसेनसुतस्य वज्रनाभनाम्नः ऋषभपूर्वभवजीवस्य कनिष्ठभ्रातरि श्रा० चू० १ ० । ० म० । रूप्पपट्ट--रूप्यपट्ट- पुं० । रूप्यो रूप्यमयो पट्टो येषां ते रूप्यपट्टाः । रजतपट्टकेषु, रा० । जी० । श्रा० म० । ज्ञा० । रुपय- रूप्यक- न० | रूपाय श्रहन्यते स्वर्णादि यत् । श्रलङ्कारादिनिर्माणाय श्रहन्यमाने खर्गे रजते य स्वार्थे यत्रजतमात्रे, आव० ३ श्र० । “ रुप्पयं रययं पाइ० ना० ११६ गाथा । रुप्पागर - रूपयाकर- पुं० । रजतखनौ, स्था० ८ ठा० । जी० । रुप्पाभास - रुप्याभास -पुं । श्रष्टाविंशतितमे महाग्रह, चं० प्र० २० पाहु० " दो रुप्पाभासा । " स्था० २ ठा० ३ उ० ।
कल्प० ।
1
रुप्पि रुक्मिन् पुं०।" इम मोः ॥ ६२ ॥ ५२ ॥ इति प था। कचित् मोप रुच्मी रूप्पो मा० " अनादी शे वादेशयोर्द्वित्वम् ||८२८६॥ इति द्वित्वम् । प्रा० कृष्णामहिष्या मिराया आतरि भीमस्ते कल्पिनगरराजे शा० १ ० १६ श्र० । मल्लीनाथतीर्थकरेण सह प्रब्रजिते कुबालराजे, शा० १० ८ श्र० । स्था० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्योतरे स्वनामख्याते वर्षधर पर्वते, जं० ।
सहरपब्चए
"
कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वापणते ? गोयमा ! रम्मगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवास्स दक्खिणं पुरत्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थमेवं रथ गं अम्बुदीचे दीवे रुप्पी सामं वा सहरपण्यए पते पाईप गायए उदीगदाहिवित्थि एवं जा चैव महाहिमवंतपत्तव्यया सा चैव रुप्पि स वि, वरं दाहिणं जीवा उत्तरेणं धणु श्रवसेसं तं वेव । महापुंडरीए दहे गरकंता यदी दक्खिणेणं
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रुपिय
व्वा जहा रोहिया पुरत्थमेणं गच्छइ, रुप्पकूला उत्तरेण अब्दा जहा हरियंता पच्चत्विमे णं गच्छा, असे तं चैव ति रूप्पिम्मि गं भंते ! वासहरपन्दर का कूठा पत्ता गोयमा ! अड कूडा पयत्ता १ तं जहा" सिद्धे १ रुप्पी २ रम्मग ३, सरकंता ४ बुद्धि ५ रुप्पलाय ६ । हेरसय ७ मणिकंचा अ य रुप्पिम्मि कूडाई ॥ १ ॥ " सच्चे वि एए पंचमइया रायहाणीओ उत्तरे से केलट्टे भंते! एवं युच रूप्पी वासहरपव्वए ?, रुप्पी वासहरपच्चए गोश्रमा ! रुप्पी खाम वासहरपच्चए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पोभासे सव्वरुप्यामए रूप्पी अ इत्थ देवे पलियोमडिईए परिवसर,
rasi गोमा ! एवं बुच्चइ ति । (सू०-१११) 'कहि त क भइन् ! जम्बूद्वीपे द्वीपे रुकमी गं ! नाम पर्वतः प्रथमः १, गौतम ! रम्यकवर्षस्य उत्तरस्यां वक्ष्यमाण हैरण्यवतक्षेत्रस्य दक्षिणस्यां पूर्वलचणसमुद्रस्य पश्चिमायां पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्याम् अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम्ना पञ्चमो वर्षधरः प्रज्ञप्तः । प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः उत्तरदक्षिणयोविंस्तीर्णः एवमुक्ानुसारेण यैव महाहिमवर्षधरता से रुक्मिणोऽपि परं दतिसतो जीवा उत्तरस्यां धनुः पृष्ठम् अवशेष व्यासादिकं तदेव-द्वितीयवर्षधरप्रकरणेोक्तमेव, द्वयोः परस्परं समानत्वात्, महापुण्डरीको (दो) ब्रहो महापद्महस्य, असाध्य नि र्गता दक्षिणतोरणेन नरकान्ता महानदी नेतव्या, अत्र च का नदी निदर्शनीयेत्याह-' जहा रोहिय' ति यथा रोहिता 'पुरन्धिमें गच्छ' ति पूर्वेण गच्छति समुद्रमिति शेषः, यथा रोहिता महाहिमवतो महापद्मद्रहतो दक्षिऐन प्रव्यूढा सती पूर्वसमुद्रं गच्छति तदेवाऽपि प्रस्तुतवपंधराह विलेन निर्गता पूर्वेणान्धिमुपसर्पतीति भावः रूप्यकृता उत्तरेग उत्तरतोरलेन निर्मता नेतव्या यथा हरिकाला हरिय वाहिनी महानदी पस्थिमे मन्दति पश्चिम गच्छति । अथ नरकान्तायाः समानक्षेत्रवर्त्तित्वेन हरिकान्तायाः रूप्यकृलायास्तु रोहिताया श्रतिदेशो वकुमुचित इत्याह- श्रवशवं - गिरिगन्तव्य मुखमूलव्याससरित्सम्पदादिकं वक्तव्यम्, तदेवेति समान क्षेत्रवर्त्तिसरित्प्रकरणेोक्तमेव, तश्च नरकान्ताया हरिकान्ताप्रकरणोक्लं, रूप्यकृत्लायास्तु गे हिताकरलोक्रम यन्तु नरकान्ताया अनुया हितया सह रूप्यकृलायास्तु हरिकान्तया महानिदेशकथनं तत्र समानदानित यं समानदगामिन्यं च हेतुः । अथाफुटपकन्यनामाहरुयामि इत्यादिपर्वत भगवन्! कनि फुटानि मानि गौतम ए कुटानि मानि तद्यथा प्रथमं सदिश सिद्धायन
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परपनि रम्प-कलेशाधिक नरकान्तानदीदेवीकूटं बुद्धिकुटं महापुण्डरीकद्र हसुरीक्टं नदीसुवनत्राधिपदे
फुटमणिका अनकम् एतानि शक्यता व्यव स्थितानि परातिकानि सर्वाण, राजधान्यः कृटाधिपदेवानामुत्तरस्याम् ! सम्प्रत्यस्य नामनिदानं पर्यनुयुङ्क्ते - से
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रुप्पि
अभिधानराजेन्द्रः। केण्डेणं' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रु- ठा०। (रुचकवरपर्वते अष्टसु कटेषु अष्ट दिक्कुमार्यः कमी वर्षधरपर्वतः २ इति ?, गौतम ! रुक्मी वर्षधरपर्वतो | स्वस्वस्थाने दर्शिताः) रुक्म-रूप्यं शब्दानामनेकार्थत्वात् तदस्यास्तीति रुक्मी, एष
अथास्य द्वीपस्योश्चत्वादिकमाहसर्वदा रूप्यमयः शाश्वतिक इति नित्ययोगे इन् प्रत्ययः, रू- दसकोडिसहस्साई, चत्तारि सयाइ पंचसीयाई। प्यावभासो-रुप्यमिव सर्वतोऽवभासः-प्रकाशो भास्वरत्वे
बावत्तरिं च लक्खा, विक्खंभो रुयगदीवस्स ॥१०॥ न यस्याऽसौ तथा, एतदेव व्याचऐ-सर्वात्मना रूप्यमय इति, रुक्मी चात्र देवस्ततस्तन्मयत्वात् तत्खामिकत्वाच्च
रुयगवरस्स उ मज्झे, नगुत्तमो होइ पवनो रुयगो। रुक्मीति व्यपदिश्यते । जं०४ वक्षः। स्था० । स० । जम्बू
पागारसरिसरूवो, रुयगं दीवम्मि भयमाणो ॥११॥ द्वीपे मन्दस्योत्तरे रुक्मिवर्षधरपर्वते द्वितीये कूटे , स्था० रुयगस्स उ उस्सहो, चउरासिं भवे सहस्साइँ । ८ ठा० । सप्तविंशतितमे महाग्रहे, स्था० २ ठा०३ उ० ।।
एगं चेव सहस्सं, धरणियलमहे समोगादो ॥१११ । (धातकीखण्डद्वीपे द्वौ रुक्मिनामानौ पर्वतौ तौ च 'पायइसंडदीव' शब्दे चतुर्थभागे २७४६ पृष्ठे उक्नौ)
दस चव सहस्सा खलु, बावीसं जोयणा बोधव्वा । रुप्पिणी-रुक्मिणी-स्त्री०।" इम-मोः"॥ २॥५२॥ मूलम्मि उ विक्संभो, साहिओ रुयगसेलस्स ॥११२।। इति पो वा । रुप्पिणी । रुक्मिणी । प्रा० । कृष्णवासुदेवस्याग्र- सत्तेव सहस्सा खलु, तेवीसं जोयणाई बोधव्वा । महिण्याम्, स्था० ८ ठा० । रुक्मिणीपरिणयनम् । प्र- मज्झम्मि य विक्खंभो,रुयगस्स उ पव्वयस्स भवे।११३ श्न । तथा रुक्मिण्याः कृते संग्रामोऽभूत् , तथाहि- चत्तारि सहस्साई, चउवीसं जोयणा य बोधव्वा । कुण्डिन्यां नगर्या भीष्मनरपतेः पुत्रस्य रुक्मिणो नृपस्य भागनी रुक्मिणी कन्या बभूव, इतश्च द्वारिकायां कृष्णवासुदे
सिहरितले विक्खंभो, रुयगस्स उ पव्वयस्स भवे।११४॥ यस्य भार्या सत्यभामा, तद्गहे च नारदः कद्राचिदवततार,
सिहरितलं रुयगस्स उ, होंति कूडा चउद्दिसिं तत्थ । तया तु व्यग्रतया न सम्यगुपचरितः, ततः कुपितोऽसौ पुव्वाणुपुव्वी तेसिं, इमाई नामाई कित्तीहि ॥११॥ तां प्रति सापत्न्यमस्याः करोमीति विभाव्य कुण्डिनी नग- पुव्वेण अट्ठ कूडा, दक्खिणो अट्ट अट्ट यऽवरेणं । रीमुपगतः, रुक्मिण्या च प्रणतः सन् कृष्णम्य महादेवी उत्तरओ अट्ठ भवे, चउद्दिसिं होंति रुयगस्स ॥११६॥ भवेत्याशिषमवादीत् , कृष्णगुणांश्च तत्पुरतो यावर्णयन् |
कणगरचणगे २तवणे३,दिसासोवत्थिए४अरिद्वे य तं प्रति तां सानुरागामकरोत् , तद्रूपं च चित्रपटे विलिण्य | कृष्णस्य तदुपदर्य तां प्रति तमपि साभिलाषमकार्षीत् ,
चंदण६ अंजणमूले७,वइरे- पुण अट्ठमे भणिए ॥११७७ ततः कृष्णो रुक्मिणं, तां याचितवान् , रुक्म्यपि न
नाणारयणविचित्ता, उजोवंता हुयासणसिहु व्व । दत्तवान् , शिशुपालाभिधानं च महाबलं राजसूनुमानीय एए अट्ठ वि कूडा, हवंति पुग्वेण रुयगस्स ॥ ११८ ।। विवाहमारम्भितवान् , क्मिणीसत्कया पितृष्वना च
फलिहेश्रयणेरतवणे३,पढमे४नलिणेश्समी य६नायव्वे। कृष्णस्य रुक्मिण्यपहरणार्थों लेखो दत्तः, ततश्च रामकेशवौ तां नगरीमागतो, रुक्मिणी च पितृष्वना सह चेटिकापरि
वेसमणेश्वेरुलिए८,रुयगस्स हवंति दक्खिणो।।११।। वृता देवतार्चनव्याजेनोद्यानमागता. कृष्णेन रथमारोपिता
नाणारयणविचित्ता, अणोवमा वनरूवसंकासा । संतस्तौ द्वारिकाभिमुखी तां गृहीत्वा प्रचलितो. प्रत्कृत एए अट्ठ वि कूडा, रुयगस्स हवंति दक्खिणो ।१२०॥ च चेटिकाभिः निर्गतौ सदी चतुरङ्गसैन्यसमग्रो रुक्मि- अमोहे १ सुप्पवढे २ य, हिमवं ३ मंदिरे ४ तहा। णीव्यावर्त्तनाथ मिशिशुपालमहाराजौ, ततो विनिवृत्य रुयगे ५ गुत्तरे ६ चंदे ७, अट्ठमे य सुदंसणे ॥१२१।। हलिना हलमुशलाभ्यां दिव्यास्त्राभ्यां चूर्णितं तद्वलं विमुक्ती
नाणारयणविचित्ता, अणोवमा रूवसंकासा। कृच्छू जीवितौ शिशुपालरुक्मिणाविति । प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वार । ( सा च अरिष्टनेमेरन्तिके प्रवजिता विंशतिवर्षाणि
एए अट्ठ वि कूडा,रुयगस्स वि होंति पच्छिमओ।।१२२।। श्रामण्यं परिपाल्य मासिक्या प्रतिलेखनया मृत्वा सिद्धा
विजये य वेजयंते, जयंत अवराइया अबोधव्वा । हत्य ....शानां चतुर्थवर्गस्य अष्टमेऽध्ययने सूचितम्।) कुंडलरुयगारयणु-वरा य तह सव्वरयणे य ॥ १२३॥ (रुक्मिण्याः सर्वा वक्तव्यता पद्मावतीवक्तव्यतावत् . तहक्क
नाणारयणविचित्ता, उज्जोयंता हुयासणसिहु ब्व । व्यता च 'पउमावई 'शब्ने पञ्चमभागे १६ पृष्ठे गता) रुय-रुत-न । रवणं रुतम् । शब्दकरणे, दश० ४ १०। झा०।।
एए अट्ठ वि कूडा, रुयगस्स वि होंति उत्तरभो ॥१२४॥ रुयग रुचक-पु० । वर्णे, औ० । कृष्णमणिविशेषे, प्रा. क. पलिओवमट्टिईया, एएसिं खलु हवंति कूडेसु । १०। प्रज्ञा । उत्त । सूत्र० । औ० । जम्बूद्वीपापेक्षया पुवेण आणुपुवी, दिसाकुमारीण ते हंति ॥ १२५ ॥ म्वनामख्याते त्रयोदशे द्वीपे. द्वी० । कुण्डलवरावभाससमुद्र- नंदुत्तरा य नंदा, आणंदा नंदिसेसा य । परिक्षेपी रुचको द्वीपः (जी०) रुचकद्वीपपरिक्षेपी रुच- विजया य वेजयंती, जयंति अवराइया चेव ।। १२६ ।। कः समुद्रः । स्वनामख्याते समुद्रे, जी०३ प्रति०२ उ० । प्रशा। अनु० । शा० । (रुयगदीव' शब्ने वक्तव्यता
एया पुरिमच्छेणं, रुयगम्मि उ अट्ट हुंति देवीभो । सूत्रं वक्ष्यामि) रुचकदीपपर्तिनि चक्रपालपळते , स्था०। पुवाइयाणुपुवी-दिसा कुमारीण ते हंति ।। १२७॥
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(५७२) रुयग अभिधानराजेन्द्रः।
कयग लच्छिमई सेसमई, चित्तगुत्ता वसुंधरा । (चेव) । रुयगेणं मंडलियपव्वए पंचासीई जोयणसहस्साई सव्वसमाहारा सुप्पदिना, सुप्पबुद्धा हु (ज) सोधरा ।।१२८।।। ग्गेणं परमत्ता । (सू० ८५) एया उदक्खिणेणं, हवंति अट्ट य दिसाकुमारीयो। रुचको-रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती जे दक्खिणेण कूडा, अट्ठ वि रुयगे तहिं एया।।१२६॥ रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एव माण्डलिकपर्वइलॉदेवी सुरॉदेवी, पउमा पउमावई य विन्नेया।
तो, मण्डलेन व्यवस्थितत्वात् , स च सहस्रमवगाढश्चतुरशी
तिरुच्छित इति पञ्चाशीतिः सहस्राणि सर्वाग्रेगति । स० एगनासा णवमिया, सीया भव्या य अट्ठमिया ।१३०।
८५ सम०। एया उ पच्छिमदिसा, समासिया अट्ट दिसॉकुमारीओ।
अस्य विष्कम्भमाहअवरेण जे य कूडा, अट्ठ वि रुयगे तहिं एया ॥१३१ ।।
रुयगवरे णं पव्बए दस जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले अलंबुसा मीसकेसी, पुंडरिगिणी वारुणी य तहा।।
दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं उवरि दस जोयणसयाई आसा सगपत्ता चेव, सिरिहिरी चेव उत्तरओ ॥१३२॥
विक्खंभेणं पामत्ता । एवं कुंडलवरे वि । (सू० ७२६ )
रुचको रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपवर्ती चक्रबालपर्वतः । एया दिसाकुमारी, कहिया सव्वन्नुसव्वदरिसीहिं ।
कुण्डलः कुण्डलाभिधान एकादशद्वीपवर्ती चक्रबालपर्वतः जे उत्तरेण कूडा, अट्ठ वि रुयगे तहिं एया ॥१३३ ॥
एव, ' एवं कुण्डलवरेऽवि' इत्यनेनेह कुण्डलवर उद्वेधमूलजोयणसाहस्सीया, रुयगवरे पव्वयम्मि चत्तारि । विष्कम्भोपरि विष्कम्भैः रुचकवरपर्वतसमान उक्लो, द्वीपसा पुव्वाइयाणुपुब्बी, दीवाहिबईण आवासा ॥ १३४ ॥ गरप्रज्ञप्त्यां त्वेवमुक्तः-“दस चेव जोयणसए, बावीसे वित्थडो पुव्वेण उ वेरुलियं, मणिकूडं पच्छिमे दिसाभाए ।
उ मूलम्मि । चत्तारि जोयणसए, चउवीसे वित्थडो सिहरे
॥१॥” इति । रुचकस्याऽपि तत्राऽयं विशेष उक्तः-मूलविरुयगं पुण दक्खिणओ, रुयगुत्तरमुत्तरे पासे ॥ १३५ ॥
कम्भो दश सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि,शिखरे तु चत्वारि जोयणसहस्सियाणं, एए कूडा हवंति चनारि।
सहस्राणि चतुर्विंशत्यधिकानीति । अनन्तरं गणितानुयोग पुव्वाइयाणुपुव्वी, ते होंति दिसाकुमारीणं ॥ १३६ ॥ उक्तः । स्था०१० ठा०। सूत्र० । नं० । सा (दिक) च मेरुमध्ये पुव्वेण य वेरुलियं, मणिकूडं पच्छिम दिसाभाए । अष्टप्रदेशिकरुचकाद्भावनीया; तथाहि-तिर्यग्लोकस्य मरुयगं पुण दक्खिणओ, रुयगुत्तरमुत्तरे पासे ॥१३७॥
ध्यभागे श्रआयाम-विष्कम्भाभ्यां प्रत्येकं रज्जुप्रमाणौ सर्व
प्रतराणां चुल्लको द्वौ नमः-प्रदेशप्रतरौ विद्यते । तयोश्च रुप्पंसा य सुरूवा, रूववई रूवकंता य ।
मेरुमध्यप्रदेश मध्यं लभ्यते । तत्र च मध्य उपरितनप्रतरस्य पुव्वाइयाणुपुव्वी, चउद्दिसिं तेसु कूडेसु ॥ १३८॥ ये चत्वारो नभःप्रदेशास्तथा-अधस्तनप्रतरस्य तु ये चत्वापलिओवमं दिवई, बिइयाओ ऍयासि होइ सव्वासि । रो व्योमप्रदेशास्तेषामष्टानामपि प्रदेशानां समय रुचक इति एकेक्कमपरियाई, होइ य अट्ठण्ह कूडाणं ॥ १३६ ।।
परिभाषा । अयं चाष्टप्रदेशिको रुचकः समस्ततिर्यग्लोक
मध्यवर्ती गोस्तनाकारः क्षेत्रतः घमामपि दिशां चतसृणामपुब्वेण सोस्थिकूडा, अवरेण य नंदणं भवे कूडं ।
पि च विदिशां प्रभवः ( उत्पत्तिस्थानम् ) मन्तव्यः; उक्नं दक्खिणो लोगहियं, उत्तरी सव्वभूयहियं ॥१४॥
च-(प्राचागङ्गनियुक्ती ) “ अट्टपएसा रुयगो , तिरिय जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हवंति चत्तारि ।
लोयस्स मज्झयाम्म । एस पभवो दिसाणं , एसेव पुव्वाइयाणुपुवी, दिसा गइंदाण ते होंति ॥१४१।। भवे अणुदिसाणं ॥ ४२॥" (अस्या गाथाया व्याख्या पढमुत्तरनीलवंतं, सुहत्थी अंजणागिरी य ।
• दिसा ' शब्द चतुर्थभागे २५२३ पृष्ट गता) अस्मा
च्च रुचकाद् दिशो विदिशश्च यथा प्रभवन्ति तथोएए दिसागइंदा, दिवड्डपलिओवमद्वितिया ॥ १४२ ॥
च्यते-यथोक्तरुचकाद् बहिश्चतसृपि दिक्षु प्रत्येकमादी पुव्वेण होइ विमलं, सयंपभे दक्खिणे दिसाभाए। द्वौ द्वौ नभःप्रदशी भवतः, तदग्रतश्चत्वारः, तत्पुरतः घट् , अवरे पुण पच्छिमओ, तिब्बुजोयं च उत्तरओ ॥१४३॥ ततोऽप्यग्रतोऽसौ व्योमप्रदेशा इत्येवं ह्यादिद्वयत्तरश्रेण्या जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हवंति चत्तारि । चतसृष्वपि दिक्षु पृथग नेतव्यम् । तत एताः शकटोर्ध्वपुब्बाइयाणुपुब्बी, विज्जुकुमारीण ते हुंति ॥१४४ ॥
संस्थानाः पूर्वादिका महादिशश्चतस्रो भवन्ति । एतासांच
चतसृणामपि दिशां चतुर्वन्तगलकोणे वेकैकनभःप्रदेशनिचित्ता य चित्तकणगा, सतेरसा सोमणी य नायव्या ।
एपन्ना अनुत्तग यथोत्तरं वृद्धिहिताश्छिन्नमुक्तावलीसस्थिएया विञ्जकुमारी, साहियपलियोवमद्वितिया ॥१४॥
ताश्चतस्र एव विदिशो भवन्ति । ऊर्ध्वं तु चतुगे नभःप्रदविज्जुकुमारीणं द-क्खिणकूडा दिसागइंदाणं । शानादी कृत्वा यथात्तरं वृद्धिरहितत्वाच्चतुःप्रदेशिकव तत्तामयहरियाणं, विज्जुकुमारीण इय हुंति ॥१४६।।
रुचकनिभा च चतुरस्रदण्डाकारकैव भवति, अधोऽप्येवं
प्रकारा द्वितीयेति । रुयगवरस्स उ बाहिं, ओगाहित्ताणु अट्ठ लक्खाई।
उक्नं चचुलसीइसहस्साई, रइकग्गा पचया रम्मा ॥१४७॥दी । “दुपएसाइदुरुत्तर, एगपएसा अणुत्तराचेव ।
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रूपग अभिधानराजेन्द्रः।
रुयगुत्तमकूड चउरो चउरो य दिसा, चउरो य अणुतरा दोस्मि ॥१॥ ।
रा दाम ॥१॥ |यगवरभद्द-चकवरभद्र-पुं० । रुचकवरद्वीपाधिपे देवे.स० सगडुद्धिसंठियाओ,महादिसाओ हवंति चत्तारि। प्र०१६ पाहु। मुत्तावली व चउरो, दो चेव य हौति रुयानभा। विशेष
रुयगवरमहाभद्द-रुचकवरमहाभद्र-पुं० । रुचकवरद्वीपदेवे, "जे मंदरस्स पुवे-ण मणुस्सा दक्षिणेण अवरेणं । जे
सू०प्र०१६ पाहु० । जी० । श्रावि उत्तरेणं, सब्वेसि उत्तरो मेरू" ॥ १ ॥ रुचकापेक्ष पूर्वादिदिकत्वं वेदितव्यम् । श्राचा.१५०१ ० १ उ०।
|रुयगवरमहावर-रुचकवरमहावर-पुं० । रुचकवरोदसमुद्रदेवे, (रुचकादेव पूर्वादिदिशां व्यवहार इति । दिसा ' शब्दे
जी० ३ प्रति०२ उ०। चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे उक्तम् )।
रुयगवरोद-रुचकवरोद-पुं० । रुचकवरद्वीपपरिक्षेपिसमुद्रे, रुयगकुमारी-रुचककुमारी-स्त्री० । रुचकपर्वतवास्तव्यासु चं० प्र०२० पाहु० । सू० प्र०। दिककुमारीषु, नि । कल्प० । (ताश्च 'दिमाकुमारी' शब्दे
रुयगवरोभास-रुचकवरावभास-पुं० । रुचकोदसमुद्रपरिक्षेचतुर्थभागे २५३५ पृष्ठे दर्शिताः) चतुर्यु रुचकपर्वतेषु प्रत्ये- पिणि द्वीपे, जी। कमष्टसु कृटेषु दिक्कमार्यः । स्था०८ ठा०।
ग्यगवरावभासे दीवे यगवरावभासभद्द-गुयगवरावभासरुयगकूड-रुचककूट-न० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे रुचक
महाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्डिया । बरपर्वते पञ्चमे कुटे, रुचकश्चक्रवालपर्वतः तदधिष्ठातृदेवनिवासो रुचककूटमिति । निषधस्याष्टमे कूटे, स्था० ६
( रुचकवरसमुद्रपरिक्षपी ) रुचकवरावभासो द्वीपः । ठा० । ज० । सुवत्सादेव्यधिष्ठितस्थानके, स्था० ६ ठा० ।
तत्परिक्षेपी रुचकवरावभासः समुद्रः। ( जी. ) रुचक('धायइसंडदीव' शब्दे चतुर्थभागे २७४६ पृष्ठे रुचक
वरावभासे द्वीपे रुचकवरावभासभद्र-रुचकवरावभासमद्वयकूटवक्तव्यता उता ।)
हाभद्रौ (देवौ महर्द्धिको परिवसतः)। जी०३ प्रति०२ उ० । रुयगजसा-रुचकयशा-स्त्री०। रुचकपर्वतस्य मध्यदेशे दक्षि- स्वनामख्याते समुद्रे च । जी। रणदिवास्तव्यासु दिक्कुमारीषु, ति।
सुयगवरावभासे समुद्दे उयगवरावभासवर-उयगवरावभारुपगदीव-रुचकद्वीप-पुं० कुण्डलवरायभासपरिक्षेपिणि द्वी-| समहावरा एत्थ दो देवा महिड्रिया । पभेदे, जी०।
रुचकवरावभासे समुद्रे रुचकवरावभासवर-रुचकवराकुंडलवरोभासं णं समुदं रुचगे णामं दीवे बट्टे वलया० वभासमहावरी (देवौ महर्द्धिको परिवसतः) । जी०३ प्रति० जाव चिट्ठति, किं समचक्कवालसंठाणसंठिए विसमच-| २ उ०१ कवालसंठाणसंठिए ?, गोयमा! समचक्कवालसंठाणसंठिए, | रुपा
रुयगवगेभासभद्द-गुचकवरावभासभद्र-पुं० । रुचकवरावभानो विसमचकवालसंठाणसंठिते, केवतियं चक्कवालसंठा
संद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ पाहु० । जी० । णसंठिए परमत्ते?,सबटु-मणोरमा एत्थ दो देवा सेसं तहेव ।।
गुयगवरोभासमहाभद्द-उचकवरावभासमहाभद्र-पुं० रुचककुण्डलवरावभाससमुद्रपरिक्षेपी रुचको द्वीपो, रुचकद्वीप
वरावभासोदसमुद्रदेवे, जी० ३ प्रति०२ उ० । परिक्षेपी रुचकः समुद्रः (जी०) रुचकद्वीपे सर्वार्थ-मनोरमौ रुयगवराभासवर-रुचकवरावा देवौ । जी०३ प्रति०२ उ० ।
ससमुद्रदेवे, सू० प्र० १६ पाहु०।। रुयगवडिंसग-रुचकावतंसक-न० । रुचकायां राजधान्यां ग्यगवरोभासोद-रुचकवरावभासोद-पुं० । रुचकवरावभा
रुचकाया देव्या श्रावासभवने,शा०२१०४ वर्ग १ उ.। द्वी।। सद्वीपपरिक्षेपिणि समुद्रे, जी० ३ प्रति०२ उ० । रुयगवर-रुचकवर--पुं० रुचकवरसमुद्रपरिक्षेपिणि द्वीपे.जी। ग्यगमिरी-रचकश्री-स्त्री० । चम्पायां नगयाँ रुचकगृह पतेरुयगवर णं दीवे बट्टे रुयगवरभद्द-रुयगबरमहाभद्दा एत्थ
| भर्यायाम् , यन्सुता रुचका जन्मान्तरे भूतानन्द्रस्याप्रमदो देवा महिड्डिया।
हिषी जाता । शा०२ श्रु०३ वर्ग । रुचकसमुद्रपरिक्षेपी रुचकवरो द्वीपः । तत्परिक्षपी रुचक-ग्यगा-रचका-खी० । रुचकपर्वतमध्यभागे पूर्वदिग्वास्तवरः समुद्रः। (जी०)रुचकवरसमुद्रे रुचकवरभद्र-रुचकवर- व्यायां दिक्कुमा-म् , ति। महाभद्री (देवी महद्धिको परिवसतः) जी. ३ प्रति० २
उयगावई-चकावती-स्त्री० । रुचकपर्वतस्य मध्यभागे उउ० । स्वनामख्याते समुद्रे, प्रज्ञा० १५ पद १ उ० । सू० प्र०।।
त्तरदिग्वास्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम् , श्रा०म०१ स्था० । चं० प्र० । अनु०।
अ०। जं० । भूतानन्दस्याग्रमहिष्यां च । भ० १० श०५ उ० । रुयगवरदीवे रुयगवर--रुयगवरमहावरा एत्थ दो देवा
उयगिंद-गुचकेन्द्र-पुं० । बलेः वैरोचनराजस्य उत्पातपर्वते, महिड्डिया। तत्- रुचकवरसमुद्र-) परिक्षेपी रुचकवरावभासो द्वीपः।।
स्था० २ ठा० ३ उ० । (स च ' उप्पायपवय' शब्दे (जी०) रुचकवरे समुद्रे रुचकवर-रुचकवरमहावरौ (दे- |
द्वितीयभागे ८३७ पृष्ठे दर्शितः) वी महर्द्धिको परिवसतः) जी० ३ प्रति०२ उ०। ('रुयग' यगुत्तमकूड-उचकोत्तमकूट-पुं० । जम्बूमन्दरस्य पश्चिमे शब्दे बहु वक्तव्यमत्र गतम् )
रुचकपर्वते पष्टे कूटे, स्था०८ ठा।
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रुपगुतरा
रूव
।
रुयगुत्तरा - रुचकोतरा - श्री० [eosपर्वतस्य मध्यभाग रूपगावई - रूपकायती स्त्री० हकपर्वतवास्यायां दिक । विक्कुमार्थ्याम् द्वी० ।
रुपगोद रुमकोद - पुं० रुचीपपरिपणि समुद्रे, जी०। बगोदे नामं समुदे जहा खोदोदे समुदे संखेआई जो गणसतसहस्साई चक्रवालविक्रमेणं संखेआई जोवल सतसहस्साई परिक्खेवेशं दारा, दारंतरं पि संखेजाई, जोतिसं पिसव्यं संखे भाणियव्वं, अड्डो यि जहेव खोदो दस्त नवरि सुमण सोमणसा एत्थ दो देवा महिड्डिया तदेव रूपगाओ आढचं असंखे विक्खंभपरिक्खेवो द्वारा दारंतरं च जोइसे च सवं असं भागिय जी० ३ प्रति० २३० ।
( ५७४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
रुपण - रुदन - न० | रुदितप्राये, शा० १ ० १८ श्र० । रुणिया - रुदनिका - स्त्री० । रुदितक्रियायाम्, ज्ञा० १ श्रु०
१६ श्र० ।
रुरु-रुरु-पुं० । मृगविशेषे, ज्ञा० १ ० १ ० । कल्प० । प्र शा० । रा० । प्रश्न० । श्राचा० । वनस्पतिकायभेदे, म्लेच्छजा, तिभेदे च । प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । रुरुकवह रुरुकृष्ण-पुं० । साधारणवाद्रवनस्पतिकायमे प्रज्ञा० १ पद ।
रुलंत - रुलत- पुं० । भूमौ लुठति, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । रूह रुह - वि० रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे, रोहयतीति -त्रि० रुहः । पुनरुत्पत्तिशालिंनि, आचा० १६०५ श्र० ६ उ० । रुहिर - रुधिर न० शोणिते प्रश्न० १ ० द्वार "कीला लं सोणि रुहिरं " पाइ० ना० ११३ गाथा ।
रुहिरबिंदु रुधिरविन्दु-पुं०। शोतिविन्दी ० ७ यक्ष रूढ रूढ- पु० । प्रादुर्भूते, दश० ७ श्र० । शुष्के, विशे० । प्रगुगे, " रूढं पउं " पाइ० ना० २६८ गाथा । (अ) न० बीजरहिने लोडितफपीले ०१०३ प्रक० नि० चू० तूले, दे० ना० ७ वर्ग ६ गाथा । कार्पासपदमणि, सू० प्र० २० पाहु० । ज्ञा० भ० । रूप- पुं० द्वीपकुमारेन्द्रस्य लोकपाले भ० ३ ०८ ४० । स्था० । स्वभावे, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार ।
रूयंती रुतवन्ती - स्त्री० । कर्पासलोठिन्या लोठयन्त्याम्, पिं० । रूस रूपांश-पुं० द्वीपकुमारेन्द्रस्य लोकपाले २०३ ।
श०८ उ ।
,
रूयंसा-रूपांशा - स्त्री० । भूतानन्दस्याग्रमहिष्याम् भ० ११ श०५ उ० | दक्षिणदिककुमार्य्या मातरि प्रा०म० १ श्र० । रूपकंत रूपकान्त पुं० विशिष्टेन्द्रस्य लोकपाले स्था० ४
1
ठा० १ उ० ।
"
रूपकंता रूपकारता श्री० मध्यमरुचकवायायां दि कुमारी महत्तरिकायाम स्था०६ डा० डी० भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्याप्रमहिष्यां च स्था० ६ ठा० भ०
1
कुमार्य्याम् आ० क० १ ० । रूयजुष- रूपयुक्त- -त्रि० रूपवति, लोकानां विशिष्ट बहुमा नभाग जायते । 'माइतिस्तत्र गुणा वसन्ति इति प्रादात् कुरूपस्य अनादेयादिसङ्गाच इति रूपत्वं सूरिगुणः ।
प्रव० ६५ द्वार ।
२०५ उ० ।
- |
,
रूपणालिया - रूतनालिका - स्त्री० । रुतं कार्पासविकारस्तद्भृता मालिका शुरिवंशादिरूपा तालिकायाम् ० रूपप्पमारूपप्रभावी भूतानन्दस्याग्रमहिष्याम् ००१ ० ३३ ३० दिकुमार महतरिकायाम्, स्था० ६ डा० । भ० | मध्यमरुचक पर्वतवास्तव्यायां दिक्कुमार्थ्याम् द्वी० । रूपवग्ग-रूपवर्ग पुं० सोमर्पासविशेषे जी० १ प्रति । रूयसीह--रूपसीह-पुं० । द्वीपकुमारेन्द्रस्य उत्तरदिग्लोका
-
ले भ० ३ ०८ उ० ।
,
रूया-रूपा स्त्री० । रुचकपर्व्वतस्य पूर्वदिग्वास्तव्यायां दिककुमार्य्याम् आ० क० १ ० जे० पूर्वदिग्वास्तव्याया दि कुकुमार्थ्याः मद्दतरिकायाम् ०१० स्था० भूतानन्दस्याग्रमहिष्याम् ० २ ० ४ वर्ग १ ० शुक्तिकायाम्, पो० १४ विव० ।
"
रूयार-रूपकार - पुं० । चित्रकारे, विशे० । रूपासिया रूपासिका स्त्री० मध्यमरुचरूपर्वतवास्तव्याय दिक्कुमार्य्याम् श्रा० क० १ ० ॥ जं० । रुरुदय-रोरुचित--न० कामचिन्तायाम्, “मुस्मुरि इअं " पाइ० ना० १८२ गाथा ।
,
रूप-रूप-१०रुप रुपः रूप्यते अवलोक्यते इति रूपम् । आकारे चक्षुर्विषये, स्था० १ ठा० । अणु० | पं०० । स्था० ॥ श्र० म० । श्र० । " करणी रूवं " घाइ० ना० २३६ गाथा । पृथिव्युदकज्वलनवृत्तिचाक्षुषगुणे, सम्म० ३ काण्ड । एगे रूवे स्था० १ ठा० आचा० ।
9
दुविहारू (वा) या पत्ता, तं जहा अत्ता चैव, अत्ता चेत्र ० जाब मणामा, अमलामा चैत्र । (०८३) स्था० २ठा०३३० । शरीरसौन्दर्ये, स्था० ४ ठा० २३० | स० । प्रश्न० । शा० । मीरादिवलाये उस० ३२ प्रती शा० १ श्रु० १ [अ०] । प्रश्न० । श्रा० म० । स्था० । नि० । ० । नयनमनोहारिणि, सूत्र० १० १३ श्र० । वर्णादिमखे, भ० १७ श० २ उ० । मूर्त्ती, स्था० ५ ठा० ३३० । नेपथ्यादौ, अन्यूनाङ्गतायाम्, उत्त० ३ श्र० । सम्म० । स्था० ३ ठा० १ उ० । स्वरूपे, सुत्र० २ ० १ ० । स्वभावे, स्था० ६ ठा० | ४० लेप्यशिलावमणिचित्रादिषु रूपनिर्माणरूपे कलाभेदे, जं० २ व क्ष० । नि० चू० ( तच्च भगवता ऋषभेण भरतस्य प्रथमसुपदिष्टम् इति 'उस' शब्दे द्वितीयमागे ११२६
अचेतने श्रीशरीरे, “अत्रेय इत्थीसरीरं कथं भवति ।
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(१७५) अभिधानराजेन्द्रः।
रूववं नि. चू०१ उ० । भूषणविकले वा जीवत्स्त्रीशरीरे, दश ४ च दण्डनीतिषु ये कुशला इति गम्यते, तथा न कस्याऽपि
अास्वगतस्त्रीचित्रादिगते, प्रज्ञा० २३ पद । “ अशक्यं | लश्चमुत्कोचं गृह्णन्ति । नाप्यात्मीयोऽयमिति कृत्वा पक्षं गृहरूपमद्रष्ट्र, चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ च यो तत्र, तौ बु-| न्ति त एतादृशोऽलचा अपक्षग्राहिणो रूपयक्षा रूपेण मूर्त्या धः परिवर्जयेत् ॥१॥" ध० ३ अधि०।।
यक्षा इव रूपयक्षाः, मूर्तिमन्तो धम्मैकनिष्ठा देवा इत्यर्थः । रूपनिक्षेपः-चक्षुरिन्द्रियमाश्रित्य रागद्वेषोत्पत्तिर्निषिध्यते, व्य०१ उ०। प्रति०। प्रा०म०। तत्र रूपस्य चतुर्धा निक्षपः, नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभा
रूवजढ-रूपत्यक-त्रि० । रूपं त्यक्तं येन स रूपत्यक्तः । सुखायनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृद् गाथाऽर्द्धमाह
दिदर्शनात् क्लान्तस्य परनिपातः । त्यकवेष, व्य०१० उ०। दव्वं संठाणाई, भावो वनकसिणं सभावो य । (दव्वं सद्दपरिणयं,भावो उ गुणा य कित्तीय )॥३२४॥।
रूवतेणय-रूपस्तेनक-पुं० रूपवन्तम् उपलभ्य स त्वं यो मया तत्र द्रव्यम् नोश्रागमतो व्यतिरिनं पञ्च संस्थानानि परिम
विवक्षितो रूपवान् इत्यादि भावनया परसम्बन्धिरूपमाराडलादीनि , भावरूपं द्विधा-वर्णतः , स्वभावतश्च । तत्र व.
त्मनि सम्पादयति, प्रश्न० ३ संव० द्वार। तः-कृत्स्नाः -पश्चापि वर्णाः, स्वभावरूपं त्वन्तर्गतकोधा-रूवदेस-रूपदेश-पुं० । श्रादित्यमण्डलादिसमाक्रान्तप्रदेशे, दिवशात् भ्रललाटनयनारोपणनिष्ठुरवागादिकम् , एत- विशे० । ('इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे ५६१ पृष्ठे विस्तर उक्तः) द्विपरीतं प्रसन्नस्येति, उक्तश्च-" रुटस्स खरा दिट्टी, उप्पल-| रूवधम्म-रूपधर्म-न० । रजोहरणादिके स्वलिङ्गे धर्मशाधवला पसन्नचित्तस्स । दुहियस्स आमिलायइ, गंतुमणस्सु- नाादके शानादित्रिके, "धम्मे रुवं होति सलिङ्ग,धम्मो नाणस्मश्रा हाइ ॥१॥" सूत्रानुगमे सूत्रम् । श्राचा० २ श्रु०२] ब्वतियं होर" ॥ व्य०१० उ०। चू०५ अ०। (तच्च सूत्रम् ' चक्खुदसणवडिया' शब्दरूवपरियारग-रूपपरिचारक-पुं० । रूपतः परिचारकः रूपतृतीयभागे ११०६ पृष्ठ गतम् )
परिचारकः । रूपतो मैथुनासेवके, स्था० २ ठा० ४ उ०। रूत-न । कर्पासे, "पहली ववणं तूलो रूवा" पाइ० ना०]
('कम्प 'शब्दे तृतीयभागे २३१ पृष्ठे एतद्विषयं सूत्रं गतम् ) २५५ गाथा । रूवंगी-रूपाङ्गी-स्त्री० । रूपेणातिर्शायना युक्तमहं शरीरं य
रूवमय-रूपमद-पुं०। रूपेण मदो रूपमदः । मदभेदे, स.८
सम० । स्था। स्याः सा रूपाङ्गी । सुरूपायाम , व्य०३ उ० ।
रूवमिणी-देशी-रूपवत्याम् , दे० ना०७ वर्ग गाथा। रूवंझाण-रूपध्यान-न० । रूपविषयके ध्यान, पातु ।
रूवलक्ख-रूपलक्ष्य-त्रि० । कथितानुसारप्रसरत्प्रज्ञानां चतु. रूबंधार-रूपंधार-पुं० । मुनिवेषधारिणि, उत्त०१७ १०।।
| रचेतसां सुझये विश। रूवकहा-रूपकथा-स्त्री० । विकथाभेदे, स्था०४ ठा०। (व्या.
रूव-रूपवान-पुं०। शुभशरीरसंस्थाने, द्वा०१४ द्वारा प्रशख्या' इत्थीकहा' शब्द द्वितीयभागे ५८५ पृष्ठे गता)
स्तरूपे, विशे० । प्रशस्तरूपे स्पटपञ्चन्द्रिये, ध० १ अधिः । रूवखंध-रूपस्कन्ध-पुं० । बौद्धपरिभाषिते अवयविद्रव्यवि
तद्योगन्द्रियपाटबापते विशिष्टसमस्तशरीरावयवे सुन्दराकाशेषे. स च पृथिवीधात्वादिरूपो रूपादिरूपश्च । सूत्र०१ श्रु० रधारके, दर्श०२ तत्व । ध०र० । मतोः प्रशंसावाचित्वाद् , १०१ उ०।
रूपमात्राभिधाने पुनरिनेव, यथा-रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ता रूवग-रूपक-न । रजतमुद्रायाम् , ग० । रूपकप्रमाणं चेदम्
इति । ध० र०१ अधि० १ गुण । ग०।। द्वीपसत्करूपद्विकेनोत्तरापथरूपक एकः पाटलिपुत्रीयो
सम्प्रति रूपगुणमाहरूपकः । अथवा-दक्षिणापथरूपकद्वयन काञ्चीपुरीयरूपक
संपुन्नंऽगोवंगो, पंचिंदियसुंदरो सुसंघयणो। एकः स्यात्. तद्वयेन पाटलिपुत्रीय एकः,एवंविधो रूपकोऽत्रावगन्तव्यः । ग०१ अधि० । बृ०। नि० चू०। रा० । रूप
होइ पभावणहेऊ, खमो य तह रूववं धम्मे ॥ ६ ॥ कप्रतिरूपदर्शनीये, रा०।" तद्रपकमभेदो य उपमानोपमेय- सम्पूर्णम्यन्यूनान्यङ्गानि शिरउदरप्रभृतीनि उपानानि-चायो" रित्युक्तलक्षणे काव्यालङ्कारे, प्रतिः। श्रा०म०। इल्यादीनि यस्य स सपूर्णाङ्गोपाङ्गोऽव्यकिताङ्ग इत्यर्थः । रूवगदोस-रूपकदोष-पुं०। स्वरूपभूतानामवयवानां व्यत्य
पञ्चेन्द्रियसुन्दर:-काणकेकरवधिरमूकत्वादिविकल इत्यभिये, अनु । श्रा० म०। रूपकदोषो यथा-पर्वते रूपयितव्ये
प्रायः । 'सुसंघयणु'त्ति शोभनं संहननं-शरीरसामर्थ्य यतत्स्वरूपभूतान् शिखरादीनवयवानिरूपयाते, अन्यत्र वा
स्य न पुनराद्यमेव, संहननान्तरेऽपि धर्मप्राप्तः " सव्वेसु षि समुद्रादेः सम्बन्धिनस्तांस्तत्र रूपयतीत्यादि । विश०।
संठाणेसु, लहइ एमेव सव्यसंघयणे" इति वचनात् सुसंह
ननस्तपःसंयमाधनुष्ठानसामयोपेत इत्याकृतम् । एवंविघरूवजक्ख-रूपयक्ष-पुं० । रूपेण मूर्त्या यक्ष इव रूपयक्षः। ध.
स्य धर्मप्रतिपत्तो फलमाह-भवति-जायते प्रभावनाहेतुमैकविशिष्टे देवकल्पे प्राधिकरणके, ब्य
स्तीर्थोन्नतिकारणम्, तथा क्षमश्च-समर्थो रूपवान् धर्मे ध__ श्रधुना रूपयक्षस्वरूपमाह
मकरणविषये स्यात् , सुसंहननत्वात्तस्येति । सुजातवत् । भंभीऍ मासुरुक्खे, माढरकोडिन्नदंडनीतीसु ।
न च नन्दिषेणहरिकेशबलादिभिर्व्यभिचार उद्भावनीयअल्लंव-पक्खगाही, एरिसया रूवजक्खा ते ॥३३२। । स्तेषामपि सम्पूर्णाङ्गोपाङ्गत्वादियुक्तत्वात् । प्रायिकं चैतत्भाम्भ्यामाशुवृते माढरे-नीतिशास्त्रे कौण्डिन्यप्रणीतासु | शेषगुणसद्भावे कुरूपस्य गुणान्तराभावस्य चादुष्टत्वात् ,
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रूववं
अभिधान राजेन्द्रः। अत एव वक्ष्यति, " पायद्धगुणविहणा, एएसिं मज्झिमा-| उविहे पएणत्ते, तं जहा-खंदा खंददेसा खंधप्पएसा पवरा नेया" इति । ध०र० १ अधि०२ गुण ।
रमाणुपोग्गला, ते समासतो पंचविहा पएणत्ता, तं जहारूवबई-रूपवती-स्त्री० । भूतानन्दस्याऽअमहियाम् , भ० १० |
वएणपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया श० ५ उ० । स्था० । शा०। उत्तरदिग्वास्तव्यायां दिक्कुर्माराम
संठाणपरिणया, एवं ते ५ जहा पामवणाए, सेतं रूविहत्तरिकायाम् , स्था०६ ठा०।
अजीवाभिगमे । (सू०५) रूवसंपत्ति-रूपसम्पत्ति-स्त्री०। रूपणं रूपः रूप्यत इति रूपम्।
‘से किं तं रूविश्रजीवाभिगमे १, रूविअजीवाभिगमे चतस्य संपत्तिः रूपसम्पत्तिः । निरुपहतेन्द्रियतायाम् , पं० चू०
उब्विहे पण्णत्ते, तं जहा-खंधा खंघदेसा खंधपएसा पर१कल्प।
माणुपुग्गला' इह स्कन्धा इत्यत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धारूबसच्च-रूपसत्य-न० । रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यम् । सत्यभे- नामनन्तत्वख्यापनार्थम् , तथा चोक्तम्-" दव्यतो णं पुग्ग
दे, यथा प्रपञ्चयति प्रवजितरूपं धारयन् प्रवजित उच्यते न लथिकाए णं अनन्ते” इत्यादि. 'स्कन्धदशा' स्कन्धाचासत्यताऽस्येति । स्था० १० ठा० । रूपतः सत्या रूपस- नामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहता बुद्धिपरिकल्पिता द्वथात्या । सत्यमृषाभाषाभेदे, स्त्री०। यथा-दम्भतो गृहीतप्रवजि- दिप्रदेशात्मका विभागाः, अत्रापि बहुवचनमनन्तप्रदेशिकेतरूपः प्रवजितोऽयमिति । प्रज्ञा० ११ पद । ध०।
षु स्कन्धेषु स्कन्धदेशानन्तत्वसंभावनार्थम् , स्कन्धप्रदेशाःरूवसत्तिकय-रूपसप्तेकक-न० । रूपमभिक्षाप्रतिबद्धे, प्राचा०२ स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाममजहतां, प्रकृष्णा देशाः-निर्विश्रु०२ चू० ५ ०। प्राचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पञ्च
भागाभागाः परमाणव इत्यर्थः , परमाणुपुद्गलाः-स्कन्धमाध्ययने, स्था०७ठा०।
त्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणवः । अत ऊर्ध्व सूत्ररूवसहगय-रूपसहगत-पुं। सजीवे स्त्रीशरीरे, भूषणसहिते
मिदम्-'ते समासतो पंचविधा पन्नत्ता, तं जहा-वस्मपरि
गया गंधपरिणता रसपरिणता फासपरिणता संठाएपरिवा स्त्रीशरीरे, दश० ४ अ० । नि० चू०।।
णता, तत्थ णं जे वएणपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता,तं जहारूवसाली-रूपशालिन्-पुं० । किन्नरभेदे, प्रशा० १ पद।।
कालवस्मपरिणता नीलवरणपरिणता' इत्यादि तावद् यावत् रूवसिरी-रूपश्री-पुं० । वटगच्छापरपयर्यायस्य । वृद्धगच्छस्य | 'सत्तं रूविअजीवाभिगमे । जी०१ प्रति। प्रवर्तकानां देवसूरीणां नृपतिप्रदत्तविरुदे , “ रूपश्रीरिति | रूविणी-रूपिणी-स्त्री० । समुद्रपालस्य मातरि पालकस्य नृपतिप्रदत्त विरुदोऽथ देवसूरिरभूत् " ग०३ अधि०।
भार्यायाम् , उत्त० २१ अ० । अतिशयेन रूपवत्याम् ,) रूवसोभग्गमयमत्ता-रूपसोभाग्यमदमत्ता-स्त्री०ाचावोकृत्या | व्य०२ उ। स्वकीर्तिश्रवणादिरूपेण सौभाग्येन मन्मथजगर्वेण च मत्ता- रूवी-रूपी-स्त्री० । गुच्छवनस्पतिभेदे, प्रशा० १ पद । यां स्त्रियाम् , तं०।
| रूस-रूप-धा। क्रोधे, “रुषादीनां दीर्घः" ॥८।४।२३६॥ य-रूपानुपात-पु०। अभिगृहातदशाद्वाहाप्रयाजन-| रूसह । रुष्यति । प्रा०४ पाद । सद्भावे शब्दमनुच्चारत एव परेषां स्वसमीपे नयनार्थ स्व-रे-रे--अव्य । सम्भाषणादौ, "रेअरे संभाषणरतिकलहे" शरीररूपानुदर्शनं रूपानुपातः । देशावकाशिकवतस्य च-| | ॥८।२।२०१॥ अनयोरर्थयोर्यथासंख्यमेतौ प्रयोक्तव्यो । तुर्थे ऽतिचारे, उत्त०१०। आव० । ध०।
रे-संभाषण, "रे हिश्र यमडहसरिया । अरे-तिकलहे रूवावई-रूपावती-स्त्री० । मध्यरुचकवास्तव्यासु अर्हतो जात-I
रसा मात्रस्य नालकर्तनादिकारिकासु , स्था० ४ ठा०१ उ०। अव-मच-धा० । मोचने, “मुचेश्छडावहेड-मेलोस्सिक-रे रूवि (न)-रूपिन-त्रि० । रूपं मूर्त्तिवर्णादिमत्त्वं तदस्ति येषां |
अव-णिल्लुञ्छ धंसाडाः" ॥८।४।११॥ इत्यनेन मुच धाते रूपिणः । स्था०४ ठा० १ उ० । प्रज्ञा० । मूलद्रव्येषु, तो रेअव इत्यादेशः । रेश्रवइ । मुश्चति । प्रा०४ पाद । स्था०५ ठा० ३ उ० । भ० । अर्कद्रुमे, दे० ना०७ वर्गगाथा।| रेअविश्र-मुक्त-त्रि० । रिक्त, " रेअविश्रं सुराणग्रं" पाइ० अतिशये मत्वर्थीयः । अतिशयरूपवति, सू०प्र०१३ पाहु०। ना० १६३ गाथा । क्षणीकृते, दे० ना०७ वर्ग ११ गाथा । रूवित्र(य)जीव-रूप्यजीव--पुं० । स्कन्धादिषु मुत्तेषु द्रव्येषु, | रोकिअ-देशी-आक्षिप्ते, लीने, वीडिते च । द० ना० ७ प्रज्ञा० १ पद।
| वर्ग०१४ गाथा। रूविश्राय)जीवाभिगम-रूप्यजीवाभिगम--पुं० । जीवाभिगम | रेका-रेका-पुं० । विरेचने, शङ्कायां च । 'अवाप्य सम्यक्त्वम
पेतरेकम् ' । हा० ३२ अष्ट। भेदे, जी० ३ प्रति। रूविय(य)मास-रूप्यमाष-पुं० । गुञ्जाद्वयपरिमाणे कर्ममा- | रेकार--नेकार--पुं० । तिरस्कारे, ध०२ अधिक।
रेणा-रेणा-स्त्री० । स्वनामख्यातायां स्थूलभद्रभगिन्याम् , घे, ज्यो०२ पाहु। रूविजीव-रूपिजीव-पुं०अनादिकर्मसन्तानपरिगते जीवभेदे श्रा० क०४०। ती०। श्रा० चू० । कल्प० ।
श्रा०म०२०। देवानां वैक्रियशरीरवतां दर्शनादप्येव जीव | रेणी-देशी-पके, दे० ना० ७ बर्ग गाथा। इत्येवमवष्टम्भसदृशे षष्ठे विभङ्गाने , स्था०४ ठा० २ उ० । रेण-रेण-पुं । भूवर्तिनि धूलीरूपे, स० ३४ सम०। प्रश्न ।
से किं तं रूविधजीवाभिगमे, रूविधजीनाभिगमे च-1 निचू । रेणुना-धूल्या कलुष-मलिना रेणुकलुषास्तमः
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अभिधानराजेन्द्रः।
रेषय पटलनान्धकारेण निरालोका-निरस्तप्रकाशा निरस्त दृष्टिप्र- | पहत-वीरस्वामिवेदनोपशमनार्थ कपोतशरीरं मार्जारकृते सरा वा तमःपटलानरालोकास्ततः कर्मधारयः । भ०७ श०| कुक्कुटमांसं च उपस्कृतमिति ‘गोसालग' शब्दे १०३० पृष्ठे) ६ उ० । स्थूलतरे पृथ्वीपुरले, लक्षणतरा रेणुपुद्गला रजः, त | रेवई-देशी-मातृषु, दे० ना० ७ वर्ग १० गाथा । एव स्थूला रेणवः । जी० ३ प्रति०४ अधि० । पांशुषु, शा०१
रेवईनक्खत्त-रेवतीनक्षत्र-पुं० । श्रार्थनागहस्तिनां स्वनामश्रु०१७ अ० । शा० । "रेरण पंसू रो पराओ य" पाइ०
ख्याते शिष्ये, नं०। ना० १३७ गाथा।
जच्चंजणधाउसम-पहाण मुद्दियकुवलयनिहाणं । रेणुया-रेणुका-स्त्री० । परशुराममातरि यमदनेः भार्यायाम् ,
वउ वायगवंसो, रेवइनक्वत्तनामाणं ।। २१ ॥ प्राचा० १ श्रु० २ ०१ उ० । श्रा० क० तं० । श्रा० म०।
'जच्चंजणेत्यादि आर्यनागहस्तिनामपि शिष्याणां रेवति(पतत्कथा 'कोह' शब्दे तृतीयभाग १४०० पृष्ठे उक्ना) अ-|
नक्षत्रनाम्नां वाचकानां वाचकवंशो वर्द्धताम् कथं भूतानामिनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
त्याह-जात्याञ्जनधातुसमप्रभाणाम्-जात्यश्वासावञ्जनधारेभ-रेफ-पुं० । “फो भ-हौ”।८।१।२३६ ॥ इति फस्य
तुश्च तेन समा-सहशी प्रभा-देहकान्तिर्येषां ते तथा तेषां, भः । रेफः । रेभः । रकारात्मके वर्णे, प्रा०१ पाद ।
मा भूतदत्यन्तकालिम्नि सम्प्रत्यय इति विशेषणान्तरमाहरेय-रेत-पुं० । पुरुषसम्बन्धिनि शुक्रे, स्था० ४ ठा०४ उ०। मुद्रिकाकुवलयनिभाना-परिपाकागतरसद्राक्षया नीलोत्पलेन रेयग-रेचक-पुं० । बहिर्वृत्तौ श्वासे, द्वा० २२ द्वा०।
च समप्रमाणाम् . अपरे पुनराहुः-कुवलयमिति मणिविशेषः । रेयगाव-रेचकावर्त्त-पुं० । अङ्गप्रावर्त्तने, यदङ्गपरावर्तन त-1. तत्राप्यावरोधः । न० । स्था० । द्रेचकावत इत्यभिधीयते । प्रव०२द्वार।
रेवई मित्त-रेवतीमित्र-पुं० । दशपूर्विणि स्वनामख्याते युगप्ररोल्लि-रेल्लि स्त्री० । श्रोतसि, तं०।
धानसूरौ, कल्प०२ अधि०८ क्षण ।
वजिय-देशी० । उपालन्धे. दे. ना० ७ वर्ग १० गाथा। रेवई-रेवती-स्त्री० । पूषादेषताके नक्षत्रभेदे, अनु । स्था।
वय-- --पुं० । गन्धर्वभेदे. प्रज्ञा० १ पद । द्वारवत्यामुजं०। सू० प्र०।
त्तरपूर्व स्वनामण्याते पर्वते . अन्त० १ श्रु०५ वर्ग १ अ०। रेवईणक्खत्ते वत्तीसइतारे पसत्ते । स० ३२ सम०।। निश्रा० म०। श्रा०चू०। प्रव०।। कृष्णभ्रातुः बलदेवस्य भार्यायां, निषधकुमारस्य मातरि,
रैवतगिरिकल्पःनि० । राजगृहे महाशतकस्य गृहपतेः प्रधानभार्यायाम् | "सिरिनेमिजिणं सिरसा, नमिउं रेवयगिरीसकप्पम्मि । उपा० अ० । (तत्कथा ' महासषय' शब्दे षष्ठे भागे २१४ सिरिचइरसीसभणियं, जहा य पालित्तपणं तु ॥१॥" पृष्ठ उक्ना) मेदिकग्रामवास्तव्यायां गृहपत्न्याम्भ०१५ श०। छत्तसिलाइसमीये सिलासणे दिक्खपड्विन्ने नेमी सहस्सतहलव्यता-रेवती भगवत औषधदात्री, कथम-किलैकदा|
तवरणे केवलनाणं लक्खारामे देसणा अवजोहणं,उ(सिद्धसिभगवतो मेदिकग्रामनगरे विहरतः पित्तज्वरो दाहबहु- हरे निव्वाणं । रेवयमेहलाए कण्हो तत्थ कल्लापतिग कालो बभूव, लोहितबर्चश्च प्रावर्तत, चातुर्वरायं च व्याकरो
ऊण सुवराणरयणपडिमालंकि अतिगं जीपंतसामिति स्म. यदुत गौशालकस्य तपस्तेजसा दग्धशरीरोऽन्तः प
णो अंवादेवि च कारेइ । इंदो वि वजेण गिरिं कारेऊण गमासस्य कालं करिष्यतीति, तत्र च सिंहनामा मुनिराता
सुवराणवलाणयं रुप्पमयं चेअं, रयणमया पडिमा पमापनाऽवसान एवममन्यत-मम धर्माचार्यस्य भगवतो महा
णवन्नोववेया सिहरे अधरंगमंडवे अवलोहणसिहरं बलावीरस्य ज्वररोगो रुजति, ततो हा वदिष्यन्त्यन्यतीथिकाः णयमंडवे संबो पयाई कारेइ. सिद्धविणायगो पडिहाग यथा छमस्थ एव महावीरो गोशालकतेजोऽपहतः कालगत
तप्पडिसव • श्रीनमिमुखात् निर्वाणस्थानं ज्ञात्वा निर्वाइतिःपवम्भूतभावनाजनितमानसमहादु.खखेदितशरीगे मा
णादनन्तरं ' कराहेण ठावियं, तहा सत्त जायवा दामोयरालुककच्छाभिधानं विजनं बनमनुप्रविश्य कुहुकुहेत्येवं महा
गुरुवा-कालमह १. मेहनाद २ गिरिविदारण ३, कपाट ४, ध्वनिना प्रारोदीत् , भगवांश्च स्थविरैस्तमाकायॉनवान्
सिंहनाद ५. खोडिक ६. रेवया ७.तिव्वतवेग कीडरोग खिहे सिंह ! यत्त्वया व्यफल्पि, न तद्भावि, यत इतोऽहं देशोना- तवाला उववना । साथ य मेहनादो सम्मट्टिी नेमिपयभनि षोडश वर्षाणि केवलिपर्याये पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं त्तिजुत्तो चिट्टइ. गिरिविदारणेणं कंचणवलाणयम्मि पंच उ नगरमध्ये, तब रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थ द्व दाग विउब्धिया, तन्थ ग अंबापुरश्रो उत्तरदिसाए सत्ताह कृष्मागडफलशरीरे उपकृते. न च ताभ्यां प्रयोजनम् , नथा
श्र सयकमेहि गुहा. नन्थ य उववासतिगेणं यलिविहाणऽन्यदास्त तद्गृह परिवासितं मार्जाभिधानम्य वायोनि
ग सिलं उप्पाडिऊण माझे गिरिविदारणा पडिमा, तन्थ य वृत्तिकारकं कुक्कुटमासकम ,बीजपूर कवटामित्ययः, तदा कम्मपगणासंगए बलदेवेणं कारिअं सासयजिणपडिमाहर, तेन नः प्रयोजनमिन्येवमुक्तोऽसी तथैव कृतवान . रेवती
रूवं नमिऊण उनरदिमाए पगणासतिगं चारितिगं, पढमाएम सबहुमानं कृतार्थमान्मानं मन्यमाना यथा याचितं नपात्रे बारिश्राप कमसतिगं गंतृण गोदोहित्रासणेणं पप्रक्षिप्तवती,तेनाप्यानीय तद्भगवतो हस्ते विमटम .भगवना- मिऊग उपवासपंचगं भमररूवं दारुणं सत्तेणं पाडि:ऽपि वीतगगतयवोदरकोप्टे निक्षिप्तम , ततस्तन्क्षणमेव क्षीणा रण कममताओ ग्रहो मुहं पविसिऊण बलाणमंडगेगो जातः, जातानन्दा यतिवर्गो मुदितो निग्विलो देवादि- ये रंदादेमेण थणयजक्खकारियं इंवादर्यि पूइग्ण सुवस्मलोक इति । स्था०६ ठा० स० । ती० । (यथा गोशालो | जालीए टायच्य। तन्थ ठिपगा सिरिमूलनपहो ननिर्माजाण
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वय अभिधानराजेन्द्रः।
रोगपरीसह दो वंदिश्रव्यो बीभ्रवारीए, एग पायं पृयत्ता सयंवर वा-रहा-रेखा-स्त्री० । अल्पे , दले , पाभोगे , विन्दुपुञ्जकृते दथीए अहो कमवाली संगामित्ता, तत्थ णं मझवारीए | गडाकारेण चिहभेदे, पङ्कौ च । कल्प०१ अधि०१ क्षण। कमसत्तसरहिं कृयोः तत्थ वरदंसवित्तण इहावि मूल-रेडिश-देशी-छिन्नपुच्छ, दे० ना० ७ वर्ग १० गाथा । नायगो वन्देयव्यो-तहअवारीए मूलदुबारपवेसो अंबाए सेण न अन्नहा । एवं कंचणबलाणयमग्ग। तत्थ य अंबापुर
| रेहिज्जमाण-राराज्यमान-त्रि०। देदीप्यमाने, अतिशयेन राश्रो हत्थवीसाए विवरं, तत्थ य अंबाएसेण उववासति
जमाने, भ०७ श०३ उ०। गेण सिलुग्घाडणेण हत्थबीसाए संपुडसत्तगं समुग्गयपं- | राहर-रखावत्-त्रका"
रेहिर-रेखावत-त्रि० "आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्ते-त्तर-मणाचगं अहो रसकूविश्रा अमावासाए अमावासाए उग्घडइ ।त. | मतोः"॥८।२।१५६॥ इति मतोः स्थाने इरादेशः। हिरो। स्थ य उववासतिगं काऊणं अंबापसेण पूयणेण बलिवि- रेखाविशिष्टे, प्रा०२ पाद । हाणेणं गहियवं । तहा य जुरणकूडे उववासतिगं काऊ-रो-रोग-पुं० । व्याधी, "आयको अायल्लो वाही तर श्राण सरलमग्गेण बलिपूअणणं सिद्धविणायगो उपलब्भ, मयो रोश्रो" पाइना०५१ गाथा । तत्थ य चितिश्र सिद्धि दिणमेग ठायब्वं, जइ तहा पच्च-रोणागिरि-गोचनागिरि-पु। मेरोः भद्रशालवने अष्टमे क्खो हवद तहा राईमईगुहाए कमसपणं गोदोहिश्राए पविसियव्वं,रसकृविभाए कसिणचित्ता कसिणचित्तवल्ली राईम
दिग्हस्तिकृटे , मन्दरस्योत्तरपूर्वे उत्तरायाः शीतायाः पूर्वे
स्वनामख्याते देवे च । जं०४ वक्षः। ईए पडिमा रयणमया अंबाए रुप्पमयाश्रो अणेगा ओसहिओ |
| रोअणिग्रा-रोदनिका-स्त्री० । "रोअणिश्रा लामाश्रो" पाइ० चिटुंति । तत्थ छत्तसिला घंटसिला कोडिसिला तिगं पसत्तं, छत्तसिला मज्झ मज्मण कणयवल्ली सहस्सं वणमझ रयय- ना० १०७ गाथा । द० ना। सुवरणमयचउव्वीसं लक्खाराम छावत्तरी चउबीसजि- | रोइआवसाण-रोचितावसान-न०। रोचितम्-सम्यग्भाविणाण गुहा पराणत्ता । कालमेहस्स पुरो सुवराणवाल- तम् अवसानं यस्य तद्रोचितावसानम् , शनैः शनैः प्रक्ष्येप्य
आए नईए सटिकमसयतिगेण उत्तरदिसाए गमिता गि-| माणस्वरं यस्य यस्यावसानं तद्रोचितावसानम् । गेयरिगुहं पविसिऊण उदए राहवण काऊण ठिए उववासप- भदे,जी. ३ प्रति०४ अधि० । जं० । रा०। श्रा० म०।
ओगेहिं दुवारमुग्घाडेइ । मज्झे पढमदुवारे सुवालखाणी सं- रोइंदग-रोचितान्तक-ना रोचिताऽवसाने, पाचू०१ अ०। घहेउ अंबाए विउविश्रा। तत्थ रयणचुराणभंडारो अराणो दामीदरसमीवे अंजणासलाए अहोभागे रययसुवराणधू
" | रोइज्जंत-रोच्यमान-न० । प्रशस्यमाने, प्राचा०२ श्रु०१ चू० ली पुरिसवीसहि पराणत्ता। तत्थ माणमंगलयदेवदालीयसंतुरससिद्धिसिरिवइरोवक्खायं संघसमुद्धरणकजम्मित
| रोडय-रोचित-त्रि० । भाविते, चिकीर्षिते च। श्रा० म०१ स्स कडाइं मभं गिरिहत्ता कोडिविंसंजोगो संघसि-| अ० स्था। लाचरणयजोयणाश्रो अंजणसिद्धिविजा। पाहुडहेसाप्रो रे-रोएमाण-रोचयत-त्रि०। रुचिविषयीकुर्वाणे, ध०३ अधिक। वयकप्पसंखेश्रो सम्मत्तो । ती०२ कल्प० । धैवतके स्वर, श्राचा। श्रा०म०। स्था०७ ठा। अनु०। प्रणाम, देना०७ वर्ग गाथा। गेंकण-देशी-रई, देना०७ वर्ग ११ गाथा । रेसणिया-रेषणिका-स्त्री० । करोटिकायाम्, “रेसाणया क
रोक्कणि-देशी-भृङ्गयाम् , नृशंसे च । दे० ना०७ वर्ग रोडिया" पार ना० २४४ गाथा ।
१६ गाथा। रेवलिया-देशी-वालुकावर्त, दे० ना० ७ वर्ग०१० गाथा। ।
रोग-रोग-पुं० । व्याधी , प्राचा०१ श्रु० ६ ०१ उ० । देवा-सेवा-स्त्री० । नर्मदायाम् , " मेअलकन्ना य नम्मया | प्रवातं०। ज्वरातिसारकासयामादिपु, श्राव०४ अ०। रेवा" पाइ० ना० १३० गाथा।
श्राचा । कालसहेषु व्याधिपु, औ० भ० शास्था । कुरेसणी-देशी-अक्षिनिकोचे, करोटिकाख्यकांस्यभाजने च।।
ठादिरूपे, उत्त०२ अ०। ज्ञा। स्था० । सद्योघातिनि गंगे, पं. दे० ना०७ वर्ग १५ गाथा।
मू०३ मत्र । श्राव० । नि० चू० । प्रश्न । प्राचा० । "म्बामे रेमिसिं)-श्रव्य । तादर्थे , प्रातादर्थे कहि-तेहि-रेसि-|
मासे जरे दाहे, जोणीमूले भगदले। अग्मिाऽर्जाग्य दिट्ठी , रेसि-तणेणाः" ॥८।४। ४२५ ॥ अपभ्रंशे तादर्य द्योन्ये केहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेण इत्येते पञ्च निपाताः प्रयो
मुद्धसले अकारग ॥१॥" पं. भा. २ कल्प। “सासे १ क्लव्याः । “ढोल्ला पह परिहासडी, अइ भन कवहि देसि ।
कासे २ जरे ३ दाह ४, कुच्छिमले ५ भगंदरे । अग्मिा ७ हउँ झिजउँ तउ केहि पिथ, नुहुँ पुणु अन्नहि रेसि"
उजीरण ८ दिट्ठी, मुडसले १० अकारण। अच्छिवेयरग ॥१॥प्रा०४ पाद।।
१२ कन्नवेयणं १३ कंठ १४ उदरे १५ कोढे १६। " इति पारेसिब-देशी-छिन्ने, दे० ना० ७ वर्ग: गाथा।
ठान्तरम् । उपा० ४ अ । रेहनाज-धा० । दीप्तो, “राजे रग्घ-छज्ज-सह-गर
रोगतिगिच्छा-रोगचिकित्सा-स्त्री। व्याधिप्रतिक्रियायाम, रहाः " ॥८।४।१०० ॥ इति राजस्थाने रेहादेशः। रेह-|
पञ्चा०विव। । राजति । प्रा०४ पाद।
रोगपरीसह-रोगपरीपह-पुं० । गंगा-क नत्परिपहाणं च नरेहंत--राजत--त्रि। शोभमाने, शा० १ श्रु०१०।
-करका अन
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रोगपरीसह
अभिधानराजेन्द्रः। त्पीडासहनं चिकित्सावर्जनम् । भ०८ श०८ उ० । रोगो-| आहतम्-अननुकूल टालपाषाणाद्यासन यस्य स तथा, कण्डज्वरादिरूपः स एव परीषहः । प्रव० ८६ द्वार । रोगे
शेषं तथैव, तया, अहिताशनतया वा, अथवा 'साऽजीर्णे सति चिकित्सायामप्रवर्त्तनेन सम्यक् सहने, पाव । रोगो भुज्यते यत्तु, तदध्यशनमुच्यते।' इति वचनात् । तदध्यशनम्ज्वरातिसारकासश्वासादिस्तस्य प्रादुर्भावे सत्यपि न गच्छ
अजीर्णे भोजनं तदेव तत्ता तयेति, भोजनप्रतिकूलता-प्रकृनिर्गताश्चिकित्सायां प्रवर्तन्ते , गच्छवासिनस्त्वल्पबहुत्वा
त्यनुचितभोजनता तया, इन्द्रियार्थानां-शब्दादिविषयाणां वि. लोचनया सम्यक् सहन्ते, प्रवचनोक्नविधिना प्रतिक्रियामा
कोपन-विपाकः इन्द्रियार्थविकोपनं कामविकार इत्यर्थः , चरन्तीति , एवमनुतिष्ठता रोगपरीषहजयः कृतो भवति
ततो हि ब्यादिष्वभिलाषादुन्मादादिरोगोत्पत्तिः , यत ॥१६॥ आव०४ अ । “नोद्विजेद्रोगसंप्राप्तौ, न चाभीप्सेश्चि- उक्तम्-" आदावभिलापः १ स्या-चिन्ता तदनन्तरं २ ततः कित्सितम् । विषहेत तथाऽदीनः, श्रामण्यमनपालयेत् ॥१॥" स्मरणम् ३। तदनु गुणानां कीर्तन ४-मुद्वेगश्च ५ प्रलापश्चा प्रा० म०१०। “उद्विजेत न रोगेभ्यो, न च काक्षेञ्चि- उन्माद ७ स्तदनु ततो, व्याधि = जेडता है ततस्ततो कित्सितम् । अदीनस्तु सहेदेहात् , जानानो भेदमात्मनः॥१॥" || मरणम् १०॥१॥" इति विषयाप्राप्ती रोगोत्पत्तिः, अत्यासला. ध०३ अधिक। उत्त(चिकित्सां न कुर्याद भिक्षुरिति 'ति- वपि राजयक्ष्मादिरोगोत्पत्तिः स्यादिति । स्था० ठा। गिच्छा' शब्दे चतुर्थभागे २२३६ पृष्ठे गतम् ) ( अत्र का- रोघ-देशी-रङ्के, दे० ना० ७ वर्ग ११ गाथा । लाश्यवैशिककथा 'कालासवेसियपुत्त ' शब्दे तृतीयभागे रोज-पिष-धा० । पेषणे, "पिषेणिवह-णिरिणास-णिरिण४६७ पृष्टे गता)
ज-रोश्च-चड्डाः " ॥८।४।१८५ ॥ इति पिषधातोः रोश्चादेरोगपरीसहविजय-रोगपरीषहविजय-पुं० । रोगे सत्यल्पबहु-|
| न्वालोचनया प्रवचनोक्नविध्यनुसारतः प्रतिक्रियासमाच- रोम-रोज्झ-पुं० । द्विखुरपशुभेदे, प्रज्ञा० १ पद । विपा० । रणे, पं० सं० ४ द्वार।
ऋश्ये, दे० ना० ७ वर्ग १२ गाथा । पुच्छार्थ रोज्झा हन्यरोगविहि-रोगविधि-पुं० । चिकित्सायाम् , वैद्यशास्त्रपुस्तके | न्ते । श्राचा० १ १०१ ०६ उ०। रोहिते, "रोहियो रोच । स्त्री० । वृ०१ उ० २ प्रका।
ज्भो" पाइ० ना० २२७ गाथा। रोगसम-रोगशम-पुं० । व्याधिशमनमात्र, पञ्चा०६ विव०रोट्ट-रोट्ट-पुं० । न० । लोट्टे. वृ० १ उ०१ प्रक० । तन्दुलपि,
दे० ना० ७ वर्ग ११ गाथा । रोगायक-गातक-न। रोगो दाहज्वरादिः पातङ्क:-शीघ्र-
| रोड-देशी-गृहप्रमाणे. दे० ना० ७ वर्ग ११ गाथा ।
रेणी-zur घाती शूलादिः, रोगश्च आतङ्कश्च अनयोः समाहारो-रोगातकम् । रोगातङ्कद्वय, उत्त०१६ अ० भ० । रोगो-व्याधिः स
रोडी-देशी-इच्छायाम् , वणिशिबिकायां च । दे० ना० .
वर्ग १५ गाथा । चासावातङ्कश्च कृच्छ्रजीवितकारीति रोगातङ्कः । रोगरूपे
रोत्तब्व-रोदितव्य-न० । " रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य " आतङ्क, पुं० । भ० श. ३३ उ० । तं० । प्रश्न ।
॥८।४। २१२ ॥ इति अन्त्यस्य तो भवति । रोदनीये. प्रा०। रोगावत्था-रोगावस्था-स्त्री० । ज्वरादिरोगप्रकारे, वृ० २] उ० । नि० चू।
रोत्तुं-रुदितुम्-श्रव्य० ।" रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य " ।
८।४।२१२ ॥ इति अन्त्यस्य तो भवति । रोदनं कर्तुमिरोगासयसमण-रोगाशयशमन-न० । रोगनिदानचिकित्सा-|
त्यर्थ. । प्रा० ४ पाद। याम् , श्राव० ४ श्र।
रोत्तण-रोदित्वा-श्रव्य० ।"रुद-भुज-मुचा तोऽन्त्यस्य ।। रोगिणिया-रोगिणिका--स्त्री० । रोग पालम्बनतया विद्यते य
४।२१२ ॥ इति अन्त्यस्य तो भवति । रोदनं कृत्वेत्यर्थे. प्रा०। स्यां सा रोगिणी सैव गेगिणिका । सनत्कुमारस्येव प्रव्रज्या
रोह-रौद्र पुं० । रोदयत्यतिदारुणतया अश्रूणि मोचयतीति भेद, स्था०१० ठा०।।
रौद्रः । रिपुजनमहादारुणान्धकारादिदर्शनायुद्भवो विरोगिय-रोगित--त्रि० । सञ्जातचिरस्थायिज्वरादिदोषयुक्ने.वि. | कृताध्यवसायरूपो रसोऽपि रौद्रः । रसभेद, अनु । पा. १५०७ श्री ज्ञा०। श्राम।
अथ रौद्रं हेतुतो. लक्षणतश्वाऽऽहरोगप्पत्ति-रोगात्पत्ति-स्त्री०। गेगोत्पादे. स्था।
भयजणणरूवसई धयारचिंताकहासमुप्पामो । णवहिं ठाणेहि रोगुप्पत्ती सिया, तं जहा–अचासणात संमोहसंभमविसाय -सरणलिंगो रसो रोद्दो ॥ ८ ॥ अहितासणाते अतिणिदाए अतिजागरितेण उच्चारनिरो
रोदो रसो जहाहेण पासवणनिरोहेणं अद्भाणगमणेणं भोयणपडि कूलताते भिउडीविडं विसमुहो, संदट्ठोद इअरुहिरमाकिम्पो। इंदियन्थविकोवणयाते । ( सू०६६७)
हणसि पमुं असुरणिभो, भीमरसि!ऽइरोद्द ! रोद्दोऽसिह अच्चामणयाए नि अत्यन्तं -मततमासनम्--उपवेशन रूपं शपिशानादीनां शब्दस्तेगमेव अन्धकार-बहुलतयम्य, माऽत्यामनस्तद्भावस्तता नया, अशाविकागदयो हि मोनिकुमम्वरूपम् . उपनक्षणवादरण्यादयश्च पदार्था गृरोगा पतया उत्पद्यन्त झत, अथवा-अनिमात्रमशनमत्यशन हान्त. तेषां भय जनकानां रूपादिपदार्थानां येयं चिन्ता-तत्स्व. नदेवान्यशनता, दीपवंच प्रारूतत्वान् तया, सानाजीण रुपालोचनरूपा, कथा-तत्स्वरूपभण नलक्षणा. तथोपलकारणवान गेगोन्पत्तये डान, ' अहियासणयाए ' त्ति | क्षणवाद दर्शनादीनि च गृह्यन्त. तभ्यः समुत्पनो-जातो दो
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अभिधानराजेन्द्रः।
रोरव रस इति योगः । किंलक्षण इत्याह-संमोहः-किंकर्तव्य- स्थलक्खणजंघाजुयला " रोमरहितं वृत्तं-वर्नुलं लएस्वमूढता संभ्रमो-व्याकुलत्वं विषादः-किमहमत्र प्रदेश संस्थित-मनोशसंस्थानं क्रमेणार्द्ध स्थूरस्थूरतरमिति समायात इत्यादि खेदस्वरूपः मरण-भयोभ्रान्तगचशुक- भावः , अजघन्यप्रशस्तलक्षण-जधन्यपदरहितशेषप्रशमालहन्तमामिलद्विजस्येव प्राणत्यागस्तानि लिङ्ग-लक्षणं स्तलक्षणाङ्कितं जवायुगलं यासां ता रोमरहितवृत्तलष्टसंयस्य स तथा । श्राह-ननु भयजनकरूपादिभ्यः समुत्पन्नः स्थिताजघन्यप्रशस्तलक्षणजवायुगलाः । जी० ३ प्रति० ४ सम्मोहादिलिङ्गश्च भयानक एव भवति,कथमस्य रौद्रत्वम् , अधि०२ उ०। (जलादिरोमकल्पनम् 'परकिरिया' शब्ने सत्यं, किन्तु-पिशाचादिरौद्रवस्तुभ्यो जातत्वाद् रौद्रत्वमस्य | पञ्चमभागे ५१६ पृष्ठे दर्शितम्। ) लवणविशेषे , सूत्र० १ विवक्षितमित्यदोषः, तथा शत्रुजनादिदशने तच्छिरःकर्तना-1 श्रु०७ १०। दिप्रवृत्तानां पशुशूकरकुरङ्गवधादिप्रवृत्तानां च यो रौद्राध्यव- रोमंच-रोमाञ्च-पुं० । रोम्णां हर्षे, नि० चू०७ उ०। सायात्मको सुकुटीभङ्गादिलिङ्गो रौद्रो रसः सोऽप्युपलक्षण-रोमंचित्रोमानित-त्रि० । पुलकिते , " रोमंचिअं आरेत्वादत्रैव द्रष्टव्यः, अन्यथा स निरास्पद एव स्याद् अत एव इ. ऊसलिनं पलइअंच कंटइअं" पाइ० ना०७६ गाथा । रौद्रपरिणामवत्पुरुषचेष्टाप्रतिपादकमेवोदाहरणं दर्शयिष्यति।
| रोमंथ-रोमन्थ-पुं० । भुक्तस्य घासादेः पशुभिरुगीर्य चर्वभीतचेष्टाप्रतिपादकं तु तत् स्वत एवाभ्यूह्यमित्यलं प्रसङ्गेन ।
णे, व्य० १० उ०। “रोमंथो उग्गालो” पाइ० ना० १५१ उदाहरणमाह-'भिउडी, गाहा-त्रिवलीतरङ्गितललाटरूपया
गाथा। भृकुट्या विडम्बित-विकृतीकृतं मुखं यस्य तत् सम्बोधनं हे भ्रकुटीविडम्बितमुख ! सन्दष्टोष्ठः 'इत' इति इतश्च इतश्च
रोमकूव-रोमकूप-पुं० । रोम्णां तनूरुहाणां कूप इव कृपाः । 'रुहिरमाक्किम'ति विक्षिप्तरुधिर इत्यर्थः, हंसि-व्यापाद
रोमरन्ध्रषु, तं० । शा० । उत्त । श्रा०म०। यसि पशुम् , असुरो-दानवस्तन्निभः-तत्सदृशः भीमं रसिसरी-दान
शीन - रोमग-रोमक-पुं०-म्लेच्छदशभेदे, प्रश्न १ माश्र० द्वार तं-शब्दितं यस्य तत्सम्बोधन हे भीमरसित! अतिरौद्र !- रोमकदशोद्भवे, जं०.३ वक्षः। तत्र जाते अनार्यजातिभेदे , अतिशयरौद्राकृते ! रौद्रोऽसि-रौद्रपरिणामयुक्तोऽसीति । सूत्र०२ श्रु०१०। प्रा० चू०।। अनु। भीषणाकारे, शा० १ श्रु० ४ अ०। श्रा० चू० । | रोमराइ-रोमराजि-स्त्री० । उदरमध्यस्थकेशावल्याम् , नि० " रोहा काया गरयाणं " नैरयिकाणां रौद्रा दारुणा अत्य
चू० ३ उ० । जघने, दे० ना ७ वर्ग १२ गाथा। म्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात् रौद्ररसो हि क्रोधरूपो, ।
रोमलयासय-देशी-उदरे, दे ना० ७ वर्ग १२ गाथा। यत आह-रौद्रः क्रोधप्रकृतिरिति । स्था० ४ ठा० ४ उ०। शा० । दारुणे, पो०१६ विव० । श्राव० । रुद्रस्येदं कर्म |रामस-रामश-न० । प
म्ये रोमस-रोमश-न० । पचमले, " पम्हलयं लोमसं " पाइ० रीद्रं वधवेधनबन्धदहनाहनमारणादिकर्माणि । प्रव०६ ना०२४६ गाथा । द्वार । ध। हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगते ध्यानभेदे, श्राव०४ श्र०। रोमसुहा-रोमसुखा-स्त्री०। रोमसुखकारियां सम्बाधना(विशेषः 'रुद्दज्माण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः) याम् , कल्प०१ अधि०३ क्षण । रोइज्माण-रौद्रध्यान-न० । रोदयत्यपरानिति रुद्रः, प्राणि- रोमसल-देशी-जघने, दे० ना०७ वर्ग १२ गाथा । वधादिपरिणत आत्मैव ; तस्येदं कर्म रौद्रं , तच्च ध्यानं रोयइत्ता-रोचयित्वा--अव्य० । विधिभावनाभ्यां प्रियं कृत्वेच रौद्रध्यानम् । प्रव० । तदपि सत्त्वेषु वधबंधवन्धनदहना
त्यर्थे, उत्त० २६ श्र० । दश । कनमारणादिप्रणिधानम् १, पैशुन्यासभ्यासद्भूतघातादिव
रोयत-रुदत-त्रि० । सशब्दमणि विमुश्चति, शा० १ श्रु०६ चनचिन्तनम् २, तीवकोपलोभाकुलं भूतोपघातपरायण
अ० । श्रा० म० । साधुपातं शब्दं विधाने, शा० १ परलोकापायनिरपेक्ष परद्रव्यहरणप्रणिधानम् ३, सर्वाभिश
थु०१०। सूत्र०। डूनपरम्परोपघातपरायणशब्दादिविषयसाधकद्रव्यसंरक्ष
रायग-रोचक-न । रोचयति, सम्यगनुष्ठानप्रवृत्ति न तु का. गप्रणिधानम् च उच्छन्नवधादिलिगम्यं नरकगतिग
रयतीति रोचकम् । अविरतसम्यग्दृशां कृष्णणकादीनामनकारणमबसेयम् , प्रव० ६ द्वार । हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् । ध्यानभेदे, स्था० ४ ठा० १ उ. । आव० । भ० ।
मिव (ध०२ अधि०) रुचिमात्रकरे सम्यक्त्यभदे, दर्श०५ दश । स्था० । दर्श०। (तच 'रुद्दज्झाण' शब्देऽस्मिन्नेव
तत्त्व । था। यत्र सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलं न पुनः भागे ५६८ पृष्ठ व्याख्यातम् ।)
कारयति । विश० । श्रा० म०।
रोयमाणी-कदन्ती-स्त्री० । अथूणि विमुञ्चन्त्याम, भ० ६ श. रोहपरिणाम-रौद्रपरिणाम-त्रि० । गिरिभेदसमानकषायरौद्र
| ३३ उ० । विपा। ध्यानारुषितचेतोवृत्ती, कर्म० १ कर्म० ।
| रोर-रोर-पुं०। रके, स्था० ६ ठा०। तं०। दे. ना० । गेट-देशी-कृणिताक्षे,मले च । देना०७ धग १५ गाथा। I जत्थय अजाकप्पो, पाणब्याए वि रोरभिक्खे । न य रोम-रोमन-न । तनूरुहे, तं० । श्री० । “केशाः-शिरःकृर्चस- परिभुजइ सहसा, गोश्रम ! गच्छं तय भणियं ॥१॥"ग. म्भवाः, रोमाणि-शेषशरीरसम्भवानि" प्रव०४० द्वारा २ अधि।" गरा अकिंचगो" पाहना० ३५ गाथा। स० । स्था० । " तरणरुहाई रोमाई " पाइ० ना० २२१ रोरव-रव-पुं० । सप्तमनरकपृथिव्यां नग्कभेदे, सूत्र गाथा । त० । " रोमरहियवस्टुसंहियअजइन्नपस- (०१ मा. 1-30।
कछ तनात्र १
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(x2) अभिधानराजेन्द्रः । प्रभायां पृ
रोमय
गेरुय - रोरुय-- पुं० । जम्बूद्वीपे मेरोः दक्षिणे
थिव्यां नरकभेदे, स्था० ६ ठा० स० । नमस्तमायां पृथिव्यां
"
नरकभेदे. प्रज्ञा० २ पद | जी० । गेल गेल - पुं० । शब्दे गेलो गयो " पाइ० ना० ३४ गाथा | कलहे, ग्वै च । दे० ना० ७ वर्ग १५ गाथा । गेलंच - देशी - भ्रमर. दे० ना० ७ वर्ग रोवरुद्ध -धा० । अश्रुविमोचने,
२ गाथा ।
..
१४ ॥ इनि
४ || २२६ ॥ इनि अन्त्यस्य वः । रुवइ । रोवइ । रुदति । प्रा० रोवग-- रोहक - पुं० । रुद्रः पः " ॥ ४ ॥ २ ॥ हकारस्य वा पकारः । म० । " पो वः पस्य वः । प्रा० । वृक्षे दश० १ ० । रोवस रोपण न० रोप्यते इति
"
1
रुद - नमोः
--
11
॥ ८॥
॥ ८ ॥ ६ ॥ २३६ ॥ इनि
भावे अन
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13
स्था पने व्य० १ ३० । गेहणे, सह- जन्मनि । गेहनि कश्चित् : नमन्यः प्रयुङ्क्ते । प्रयोक्तृव्यापारे : महः पः ॥१४॥ इति हकारस्य पकारः । हैम० । स्थापने, व्य० १ ३० । रोमाणी रुदती खी० अधिमानं कुर्ययाम विपा
,
श्रु० ६ श्र० ।
रोविंदय - रोविन्दक - न० । गेयभेदे, स्था० ४ टा० ४ उ० । रोविर - रोदिन चि०निशी
36
१४ इति विहितस्य प्रत्ययस्य इरः । गेदनशीले, प्रा० । रोम-शेष-पुं० विकल्पजनिते प्र०२ द्वार
"
स्था० ४ ठा० ४ उ० ।" बलं जगहंसनरक्षणक्षमं कृपा न सा सके कृतागस इतीय सचिन्त्य विमुच्य मानसे, रुपेव रोपस्तव नाथ ! निर्ययौ ॥ १ ॥ " कल्प० १ अधि०६ क्षण | क्रोधरूपे गौणमोहिनीयकमैणि, स०५२ सम० | देशभेदे. तद्वासिनि जने च । प्रश्न० ६ श्राश्र० द्वार | रोसा-रोपाखी० । रोषात् शिपभूतेरिथ या सा रोपा ज्याभेदे स्था० १० ठा० । पं० भा० । अशा रोसा तु पव्वज्जा सीसारख रहो, धम्मं सोऊण सावओ जावो । मा मारेही किंची, उज् असि करे दारं । तप्पडिणि रायकहिए, पेच्छामि असि त्ति सावएडगुतं । सम्मदिट्ठी देवय, सारखओ तो कड़े । दिव्यप्यभावमेयं सभयं दश कुद्धिनो राजा । गिजाति पचणीय, सट्टो सिं तु खड्डा | जंपति गरिंदमह सो, मा एतेसिं तु रूसहा बुत्ते । जं जंपियमेतेहिं, तं सव्वं गरवर ! तव ।
ताहे छोटू पुणो,
कुट्ट असी तु वरि दारूयो । शरवसमे विभेति ओपेति किं । पति सी तांह, सरवर ! देवप्पसाद इमेसो | पावजी तु गरा, हवंति देवाण वी पुजा तो तुट्टो भवति थियो, सेक्सु एमेव दास्यसि साओ कडगादीहिं पूँजितो, पादित सुमहंत मिस्मरियं ।
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૦૬
रोह
कोलगयम्मि यस पुनी सामेण चंडकराही नि । पडिवन्नो तं भोगं, सामंतेाऽऽनमंतम्मि | पेम त्ति चंडकर, गंतूगं घेतु सजमाणां ति । तुझे य भगति राया, कि देमि हा मो इमो । जं खञ्जपेज्जभोजं, गेरिहज पुरम्मि नं तु सुग्गहियं । इय होतु त्तिय मणिए, बारुणिपाणे पमादेणं | रति चिरस सहिं आगच्छति भजमातरो तस्स । दृहिया जी उम्रिा अमदार चि । चिरकतदारं पिहए, अह लवनी आगतो तु सो दारं । उपाडतो जगणी ल िजथेस्सि रे । उपाडयदाराई, सहिये यच नि मातु रुसितो तु । साहुग्याडियदारं, ति गंतु सावल्लपितुं । व्यावे लदे, सेविय मत्तो का वक्खेवं । ती गरमी, पभात पव्वावस्यामो | संयमेव कुणति लोयं, ताह लिंगं दलंति जतिणो तु । पव्वातिय विहिणा, एसा रोसा तु पव्वज्जा । ००१
वच्च
सानो सीसारसो सो सामगाने धम्मं सो ऊण साव, सो तज्जीवियों सो तं श्रसि उज्झिऊण
म अधिरे, तस्स भित्तो सो तं वारेह । एवं जाव न सिद्धं एस कडुमयं असं धरेद्र, रन्ना भणियं - पेच्छा - मो ते समहट्टी देवया श्राराहिया, नमेसिऊण कडिओ लोहमओ जाओ । पच्छा राया पलोएड सो चुप्पो विलक्खो जाओ। सावो पापसु पडिओ भगइ सच्चमेयं एवं जाव नम्स पुत्तो चंडकरणो पव्यइओ । जेण बोडिया उपाध्या । पं० ० १ कल्प० । रोमास सृजथा
पुग्छ- पुंसफुस - पुम-लुह-हुल- गेलाणाः || ८ | ४ | १०५ ॥ इति रोसारण इत्यादेशः । रोसाणइ । पक्षे मज्जइ । मार्ष्टि । प्रा० ४ पाद । रोमानियमृष्टया श्रम, रोसादियं मसिसि
9
पाइ० ना० २२४ गाथा ।
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रोह-रोह पुं० चतुरापरिहारे गोशासकीये २०१५ श० । अङ्कुरे, वाच० । भगवतो महावीरस्वामिनः स्वनामख्याते नगारे, भ० ।
ते काले तें समएणं समणस्स भगवओ महावीरमवासी रोहे नामं अणगारे पगड़भद्दए पग मउए पगचिणी पगउवसंते पाइप कोहमारा मायालो भे उमदवसंपन्ने अगे भद्दए विणीए समणस्स भगव महावीरस्म असामंत उई जाए अहोमिर झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहइइ । तए गं से रोहे नाम अणगारे जायस जात्र पज्जुवासमा एवं बदामी - पुच्चि भंते! लोग पच्छा अलोए पुच्चि -
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रोह
लोए पच्छा लोए ?, रोहा ! लोए य अलोए य पुत्रि येते पच्छा देते दो दि एए सासवा भावा, अणागुपुथ्वी एसा रोहा ! पुव्वि भंते! जीवा पच्छा अजीवा पुत्रि जीवा पच्छा जीवा ?, जहेव लोए य अलोए य तहेब जीवाय अजीवाय, एवं भवसिद्धिया य अभवसिद्धिया य सिद्धि असि द्धी सिद्धा असिद्धा, पुत्र भंते ! अंडए पच्छा कुक्कुडी, पुविं कुक्कुटी पच्छा अडए ?, रोहा से अंड को ?, भयवं ! कुक्कुडीओ, सा गं कुक्कुडी कओ ? ते अंडवा श्र, एवामेव रोहा ! से य अंडए साय कुक्कुडी, पुव्यिं पेते पच्छा देते दुवे ते सासया भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोहा ! । पुत्रि भंते ! लोयंते पच्छा अलोयंते, पुव्वं अ सोयंते पच्छा लोयंते, रोहा ! लोयंते य अलोयते य० जावाणुपुत्री एसा रोहा ! । पुधि भंते ! लोयंते पच्छा सत्तमे उवासंतरे पुच्छा, रोहा ! लौयंते य सत्तमे उवासंतरे पुबि पि दो वि एते जाव अशाणुपृथ्वी एसा रोहा ! | एवं लोयंते य सत्तमे य तणुवाए, एवं घणवाए घणोदहिसत्तमा पुढची, एवं लोयंते एकेकेणं संजोएयव्वे इमेहिं ठाणेहिं तं जहा - " प्रवासवायघण उदहि, पुढवी दीवा सागरा वासा नेरवाई अस्थिय, समया कम्माई लेस्लाओ || १॥ दिट्ठी दंसण गाया, सनसरीरा व जोग
उवोगे । दव्वपएसा पञ्जव श्रद्धा किंपुवि लोयंते ? ॥२. " पुत्र भंते! लोयते पच्छा सव्वऽद्धा १ । जहा लो येतेगं संजोइया सव्वे ठाणा एते एवं अलोयतेण वि संजोएयव्वा सच्चे पुब्विमेते सतमे वासंतरे पच्छा सत्तमेतखुवाए, एवं सत्तमं उपासंतरं सब्वेहिं समं संजोएयध्वं जाव स व्वद्वा । पुवि भंते ! सत्तमे तखुवाए पच्छा सत्तमे घणवाए, एवं पितहेच नेवन्यं जाव सम्पदा एवं उब रिनं एकं संजोते जो जो हिट्टो तं तं ते नेयम्वं जाव अशी असा गयद्वा पच्छा सच्चा ०जाय पुब्वी एसा रोहा ! सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ! ० जाव विहरइ । ( सू० ५३ )
पगइभद्दए
6
पद त स्वभावत एव परोपकारकरणशीलः पगइमउए' त्ति स्वभावत एव भावमादेविकः श्रत एव' पगइविणीए 'ति तथा पगइउवसंते' ति क्रोधोदयाभावात् पराइकीममायालोमे रुपि क वायोदये तत्कार्यामात्धादिभावः मिउमयसंपति मृदु यन्मायम् श्रत्यर्थमहं कृतिजन्यस्तसंप प्राप्त गुरुपदेशाद् यः स तथा आली गु रूसमाश्रितः संलीनां वा, 'भद्दए' त्ति अनुपतापको गुशिक्षागुणात् 'विसीए कि गुरुयागुसात् भपसि द्धिया यत्ति भविष्यतीति भवा, भवा सिद्धिः - निर्वृतियेषां ते भवसिद्धिकाः भव्या इत्यर्थः, 'सत्तमे उवासंतरे'
,
4
"
अभिधान राजेन्द्रः ।
रोहिअंसप्प०
6
"
.
6
ल
. श्रद्ध
ति सप्तमपृथिव्या अधोवर्त्याकाशमिति । सूत्रसंग्रहगाथे के तत्र वाले ति सप्ताहान्ता बा त्ति नि तनुत्राताः घनवाता उहि नि घनोदयः सप्त पुचि ति नरकचिन्यः सीद दीया य लि जम्बूद्रीपादयोऽसंख्याता असंख्येया एव ' सागराः सादयः 'बा' ति वर्षाणि भारतादीनि समेत 'राति चतुर्विंशतिदण्डकः ' श्रत्थि य' त्ति अस्तिकायाः पञ्च 'समय' ति कालविभागाः कर्माण्यष्टौ, लेश्याः पट दृष्यो म पावस्त्र, दर्शनानि चत्वारि ज्ञानानि पञ्च, सेशाश्चतस्रः, शरीराणि पञ्च, योगास्त्रयः, उपयोगौ द्वा, द्रव्याणि षद. प्रदेशा अनन्ताः पर्यवा अनन्ता एव ति अतीताडा धनागतादा सर्वादा बेति किलोयंति ' त्ति, अयं सूत्राभिलापनिर्देशः, तथैव पश्चिमस्श्राभिलापं दर्शयन्नाह पु िभंते सोयते पच्छा स बजे सि एतानि च सूत्राणि शून्यानादिवादनिरासेन विचित्र वाह्याध्यात्मिकवस्तुसत्ताऽभिधानार्थानि ईश्वरादिकृतत्वनिरासेन चानादित्वाभिधानार्थानीति । भ०१श०६ उ० ॥ रोध-पुं० प्रतिरोधे दे० ना० ७ वर्ग १६ गाथा । रोहग - रोहक - पुं० । उज्जयिन्याः प्रत्यासन्ननटग्रामे भरतनटसुते, आ० क० १ श्र० । श्रा०म० । न० । विशे० । ( तत्कथा 'उपपत्तिया ' शब्दे द्वितीयभागे ८२६ पृष्ठे दर्शिता । ) रोहगुप्त-रोहगुप्त पुं० अन्तरक्षिकायां नग श्रीगुप्ता 55चार्याणां शिष्यार्थ प्राप्ते वैराशिक नियमप्रवर्तके तद्भागि नेये, आ० म० १ ० । श्रा० चू० । विशे० । श्राव० । ( एतद्वक्लव्यता ' तेरासिय' शब्दे चतुर्थमागे २३६० पृष्ठे उक्का ) । श्रार्य सुहस्तिशिष्ये, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । पडलूके, यो हि नामान्तरेण - रोधगुप्तः । स्था० ७ ठा० । उत्त० । कल्प० । चम्पायां नगर्यो सिंहसेनस्य महामन्त्रिणि, श्राचा० १ श्रु० ४ श्र० २ उ० ।
1
रोहण रोधन न०यादिना आचरले खा०५ डा० १४० स्वनामख्याते दिवसमुते, पुं० । ३० प० । रुह्यतेऽसौ, रुहल्युट् । पतभेदे, वाच० । काश्यपगोत्रे खनामख्याते श्राव्यसुहस्तिशिष्ये कल्प० २ अधि रोहयगिरि रोहरागिरि पुं०। जम्बूद्वीप मन्दरपर्यते भइयालखने, ईशान्य कोणे अश्मे दिग्हस्तिकूटे, स्वा०८ ठा० । रोहा रोहा बी० करटकोवर उदाहृतायां स्वनामध्यातायां परिवाजिकायाम्, ग० २ अधि० । वृ० । रोहित्र देशी-ऋश्ये, दे० ना० ७ वर्ग १२ गाथा " रोडियो - | रोज्झो " पाइ० ना० २२७ गाथा । रोहिअंसप्प ( साप ) बापदह-रोहितांशाप्रपातहूद- पुं० [रोहितां शोमस्थाने या 'रोहिण्ययायदंडे वेच पध पर्वतोपरियनिग्रहरन नित्य रोहितांचा महानदी मे पत्युतरे योजनशते सातिरेकम् उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्या योजनायामया त्रयोदशयोजना
1
1
6
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"
शाहपया जिहिच्या विवृतमकरमुखले हाराका रेण च सातिरेकयोजननिकेन प्रचानेन यत्र प्रपतति यथ रोहितकुण्ड समानमान: तस्य मध्ये रोपिरो
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(५८३) शोहिअंसप्प. अभिधानराजेन्द्रः।
रोहिणी हिवीपसमानमानः रोहितांशाभवनेन प्रागुक्तमानेनाऽलंक ल्ये क्रोशम् , गङ्गाजिहिकाया अस्या द्विगुणत्वात् । अथ कुतः, यतश्च रोहितांशा नदी रोहिनदीसमानमाना उत्तरतोर- एडस्वरूपमाह-रोहिअंसा' इत्यादि, प्रायः प्रकटार्थ, परणन निर्गत्य पश्चिमसमुद्रं प्रविशति स रोहितांशाप्रपातहद मायामविकम्भयोविंशत्यधिकं, गङ्गाप्रपातकुण्डादस्य द्विइति । स्था०२ ठा०३ उ० ।
गुणत्वात् , अथात्र द्वीपमाह- तस्स सं ' इत्यादि , रोहिअंसा-रोहितांशा-स्त्री० । जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरे शिखरि- प्रकटार्थम् , से केपट्टेणं भंते ! एवं धुच्चइ रोहिअंसादीवर्षधरपर्वते, पुण्डरीकहदानिर्गतायां स्वनामख्यातायां महा
वे २' इत्याधभिलापेन शेयः, सम्प्रत्यस्या येन तोरणेन नद्याम् , स्था० ३ ठा० ४ उ० । स० । स्वनामख्याते द्वीपे,
निर्गमो यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यावांश्च नदीपरिवारो य
त्रच संक्रमस्तथाऽऽह- तस्स ' इत्यादि , तस्यपुं०।०। रोहितांशानामक-नदी-कुण्ड-द्वीपानां व्यक्तव्यतामाह
रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरलेन रोहितांशा
महानदी प्रव्यूढा-निर्गता सती हैमवतं वर्षम् इयती - तस्स णं पउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा म
गच्छन्ती२ चर्तुदशभिः सलिलासहस्रः श्रापूर्यमाणा२ शब्दाहाणई पवढा समाणी दोमि छावत्तरे जोअणसए छच्च पातिनामानं वृत्तवैताव्यपर्वतम् अर्द्धयोजनेनासम्माता सती एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं गंता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती हैमवन्तं वर्ष द्विधाविभजन्ती महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग
२अष्टाविंशत्या सलिलासहनैः समग्रा-परिपूर्णा जगतीम्
अधो दारयित्वा पश्चिमायां लवणसमुद्रं प्रविशति , अस्या जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ, रोहिअंसा णामं महा
एव मूलविस्ताराद्याह-रोहिअंसाणं' इत्यादि, रोहितागई जो पवडइ एत्थ णं महं एगा जिभित्रा पलत्ता, शा प्रवहे-मूलेऽर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेन , प्रासा णं जिन्भिया जोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोषणाई च्यक्षेत्रनदीतो द्विगुणविस्तारकत्वात् , क्रोशमुद्वेधन प्रबहविक्खंभेणं कोसं वाहल्लेणं मगरमुहविविउदसंठाणसंठिया
व्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात् , तदनन्तरं मात्रया २-क्रमे
गरप्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोर्धनुर्विशत्या वृद्धधा. सबवइरामई अच्छा, रोहिअंसा महाणई जहिं पवडइ,
प्रतिपाय धनुदेशकवृद्धयेत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ मुखमूलेएत्थ णं महं एगे रोहिअंसापवायकुंडे णाम कुंडे परमत्ते, समुद्रप्रवेशे पञ्चविंशतं योजनसतं विष्कम्भेन, प्रवहव्यासवीसं जोअणसयं आयामविक्खंभेणं तिमि असीए सादशगुणत्वात् , अर्द्धतृतीयानि योजनानि उद्वेधेन मुखजोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दस जोणा- व्यासपश्चाशत्तमभागरूपत्वात् , शेष प्राग्यत् । ०४ वक्षः। इं उबेहेणं अच्छे कुंडवमो. जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअंसा(सप्प)पावयकुंड-रोहितांशाप्रपातकुण्ड-नास्वनारोहिअंसापवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं
मख्याते कुण्डे, जं०४ वक्षः। (अस्य विष्कम्भादि रोहि
अंसा' शब्देऽनुपदभेव गतम्) एगो रोहिअंसा णामं दीवे परमत्ते , सोलस जोअणा
| रोहिणिज-रोहिणीय-पुं० । अन्तःपुरमहल्लिकेषु, वर्धिके । यैः ई आयामविक्वंभेणं साइरेगाई परमासं जोयरमाइं परि
सह राजा मन्त्रयते । बृ०१ उ०१ प्रक०। खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए| रोहिणिया-मोहिणिका-खी० । श्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ अच्छे सराहे सेसं तं चेव जाव भवणं अट्ठो अ भाणि-| अब्यो ति । तस्स मं रोहिअंसप्पवायकंडस्स उत्तरिलेणं | रोहिणी-रोहिणी--स्त्री० । प्रजापतिदेवताके पञ्चतारे स्वनातोरणेणं रोहिअंसामहाणई पवढा समाणी हेमवयं वासं| मख्याते नक्षत्रविशेषे,स्था०२ ठा०३ उ०। अनु०।०प्र०।
रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे। स०५ सम। एजेमाणी २ चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं पूरेमाणी २
रोहिणीचन्द्रस्य वल्लभा । कल्प०१ अधि० ३ क्षण । शक्रासदावइवट्टवेअदपव्वयं अद्धजोत्रणेणं असंपत्ता समाणी
दिलोकपालसोममहाराजाप्रमद्दिष्याम्, स्था०४ ठा०१उ० पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभय-|
शा०। भ० । ती०। गवि, “गिट्ठी गोला य रोमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे ज- हिणी सुरही" पाइ० ४५ गाथा । सुपुरुषस्य किंपुरुषगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ , रोहि
न्द्रस्याप्रमहिष्याम् , स्था०४ ठा०१उ०। भ० । नवमबलदेवस्य
मातरि, स०। आव०। प्रव०। जी० ।ति० । प्रश्न । अंसा णं पवहे अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं कोसं
रुधिरसुतायां वसुदेवपत्न्यां बलदेयमातरि, प्रश्न । तत्कृते उव्येहेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २| संग्रामोऽभूत् , तथाहि-अरिष्टपुरे नगरे रुधिरो मुहमले पणवीसं जोअणसयं विक्खंभेणं अद्भाइजाई नाम राजा मित्रा नाम देवी तन्यत्रो हिरण्यनाभः जोअणाई उव्येहेणं उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइ
दुहिता च रोहिणी, तस्या विवाहाथै रुधिरेण स्वयंवरो माहिं दोहि अवणसंडेहिं संपरिक्खि ता (सू०७४)
घोषितः, मिलिताश्च जरासन्धप्रभृतयः समुद्रविजयादयो न
राधिपतय उपविष्टाश्च यथायथम्, रोहिणी च धाच्या क्रमे'रोहिअं' इत्यादि, व्यक्तं , नवरम् आयामे योजनं विष्कम्भ- णोपदर्शितषु गजसु रागमकुर्वती तूर्यवादकानां मध्ये व्यवमानेऽर्द्धत्रयोदशानि योजनानि सार्द्धद्वादश योजनानि बाह-1 स्थितेन समुद्रविजयादीनामनुजेन देशान्तरसश्चारिणा तत्राss
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( ४८४ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
रोहिणी
यानन वसुदेवेन राजाका पिता-"मु मृगनयनयुगले माग नै विश्यस्य फुलवि क्रमगुणशालिनि ! त्वदर्थमहमागतो या ॥२॥ इत्यक्षरा नुकारिध्वनी प्रवादिते पणवे समुत्फुल्ललोचना सञ्जातानुरागा सरभसमुपश्रुत्य स्वहस्तेन वसुदेवस्य गले मालामबलतपती ततस्ते राजानश्वयविद्यमानमानसाव सुदेवेन सार्द्ध संग्रामायोपस्थः तेन चरखारसिकेन स
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विनिर्जित्य रोहिणी परिणीता जातध तस्या रामाभिधानो बलदेवः सुनुरिति । प्रश्न ०४ श्राश्र०द्वार। स्वनामख्यातायां महाविद्यायाम्, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । स्था० आ० चू० | श्राव० | स० | चित्रकवल्ल्याम्, ल० प्र० । रोहितकपुरेस्वनामख्यातायां गणिकायाम् आ०क० ५ अ० श्राव० ॥ श्रा० चू०] वासुपूज्यजिनपीया ती० ३४ कप (अस्या सुत्तम . चम्पा शब्दे तृतीयभागे २०२६ पृष्ठे गतम् ) कुरडनपुरे सुभद्रश्रेष्ठिपुत्रप्राम् ०१०
रोहिणीज्ञानमिदम्
इह कुंडि नि पचरा, नयरी भयरीइराइया अस्थि । तत्थ निवो जियसनू, जो सत्तू दुजराजणस्स ॥ १ ॥ पायं विगहविरतो. सक गुणस्य - रोहयमाणो । सिट्टी सुभद्दनामा, मनोरमा भारिया तस्स ॥ २ ॥ पुत्तीय बालविहवा, नामे रोहिणी अहीणगुणा । जिनसमर लडड्डा, महिषा पुट्ठा व ॥ ३ ॥
पूयइ जिसे तिसं, अवझमज्झयणमाह श्रायर | श्रवस्सयाइ किच्चं निश्च निश्चितिया कुणइ ॥ ४ ॥ धम्मं संच न हु कं, पि चंचए अंचर गुरूण पर । नियता व बियार, कमीपमुदये ॥ ५ ॥ दाणं देइ पहाणं, सुरसरिसलिलुजलं धरइ सीलं । जहसत्ति तवेइ तवं भावइ सुहभावणा सुमणा ॥ ६ ॥ निम्मलगिहिधम्मा, अचलियसम्मा ददं वलियमोहा । अतिजिम पंडिया सा गमइ दिवसे ॥ ७ ॥ ग्रह चित्ती भुकमइयपदंडो । मोहो नाम नरिंदो, पालह निक्कंदयं रजं ॥ ८ ॥ कइयापि नियमो हि सुि तु दरवाओ मोहो, विचित नियमध्यिमो ॥ ६ ॥ इसढ ! हियय ! सदागम-वासियचित्ताइ पिच्छह इमीए । कित्तियमित्तं श्रम्हा - रा दोसगहणे रसम्पसरो ॥ १० ॥ जह कह विइमा एमेव चिट्ठिही कित्तियं धुवं कालं । तामे निरसत्ता कोपिन पछि धूलि पि ॥ ११ ॥ इय चिंतंतस्स इम-स्स आगओ रायकेसरी तराओ । रातो पिन नाचो, तो सोभा ॥ १२ ॥ इत्तियमित्ता चिंता, कि कज्जइ ताय ! तायपायां । जं तिज यि न समं व दिसमं व पिच्छामि ॥१३॥ तो से कहे मौहो. जहट्ठियं रोहिणीइ बुत्तंतं । तं लोड सिरे वजा-हउ व्ब जाओ इमो विमणो ॥ १४ ॥ श्रह सयलं पि हुसिन, सुविसन्नं मुक्ककुसुमतंबोलं । जाय मथक्के थक्कवि-य नडुगीयाइ-वावारं ॥ १५ ॥ इस्थेतरम् साथिया एक्काए। अट्टहासस, हसियं सुखियं च मोहेन ॥ १६ ॥ ततो गुरुनु पसर परिमुदीहनीसासो । के मह दुदिए एवं श्रइसुडिया नए पकीशंति ॥ १७ ॥
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रोहिणी अकुपं नाऊ निययसामिसाल। दुभती गयी एवं १८ ॥ देव ! निवजुवइजरणवय- भत्तकहाकर राच उमुहा एसा । भुवराज मोहिणी जो-रिण व विग्गहत्ति मह भज्जा ॥ १६ ॥ एस सिसू इट्ठी, पमायनामा ममेव वरपुन्तो । जं पुरा हसिय मयग्गे, तं पुच्छेमो इमे चेव ॥ २० ॥ तो हक्कारिया ते पट्टा भी तुमेहि हि हसियं । वजरह तत्थ इत्थी, पुजा सम्मं निसामंतु ॥ २१ ॥ सिसुमित्तसजकजे. किं ताओ इति वहइ चिंतं । इय विम्यववसाए. मए सपुत्ताइ हसियं तु ॥ २२ ॥ जं ताप पसाया रो-हिणि इमं धम्मश्र खगद्धेरा । पांडेउ महं पि खमा, श्रहवा केयं वराई मे ॥ २३ ॥ जे उवसंता मणना - गिगो य मे सुयजुयाइचरणाश्रो । सिपि न कोऽयि जागे ॥ २४ ॥
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पुरण मए चउद्दस पुत्र्यधरा खडहडाविया धम्मा । अज वि धूलि व रुलं-ति तायपायास पुरश्र ते ॥ २५ ॥ तं सोड चिनइ निचो, धनो हं जस्स मज्झ सिनम्मि । भुवराजराजराणमंसल, बलाउ अबलाउ वि इमाओ ॥ २६ ॥ इय सामत्थियरन्ना सा तचंगी तरणूरुहसमग्गा ।
हरीडा सहरिसनिधियसरोदेसा ॥ २७ ॥ तुद संतुसिया मग्गा पिडीह थिय व पि आगमिदी। इय लहु विसज्जिया रो - हिणीइ पासम्मि सा पत्ता ॥ २८ ॥ अह गीर जोइसीप, अहिट्टिया सा गया जिराहरेऽपि । असावा समं कुछ विचिचिगहाथ ॥ २६ ॥ न य पूएइ जिरिंदे, देवे वि न बंदप पसन्नमणा । बहुहासला विधाय परेसिपि ॥ ३० ॥ नय कोऽवि किंपि पभणइ, महिडिधूय त्ति तो इपसंगा। सभायभागरहिया, भरिया एगेण सङ्के ॥ ३१ ॥ किं भण श्रइपमत्ता, धम्मट्ठाणे वि कुणसि इय वत्ता। जं भवियाण जिरोहिं, सया निसिद्धाउ विगहाश्री ॥ ३२ ॥ तथा चोक्तम्सा तन्वी सुभगा 'मनोहररुचिः कान्तेक्षणा भोगिनी, तस्या हारिनितम्बविश्वमथवा विप्रेक्षितं सुथुकः । घिकतामुष्ट्रर्गात मलीमसतनुं काकस्वरां दुभंगामित्थं स्त्रीजनवनिन्दनकथा दूरेऽस्तु धर्मार्थिनाम् ॥ ३३ ॥ ( हो ) क्षीरस्यानं मधुरमधुगावाज्यखण्डान्वितं चेत्. ( रसः ) श्रेष्ठं दध्नो मुखसुखकरं व्यञ्जनेभ्यः किमन्यत् । दम्पयति मनः स्वादु ताम्बूलमे, त्याज्या प्राज्ञैरशनविषया सर्वदैवेति वार्त्ता ॥ ३४ ॥ रम्यो मालवकः सुधान्यकनकः काञ्च्यास्तु किं वरार्यतां, दुर्गा गुर्जर भूमिरुद्भटभटा लाटाः किराटोपमाः । कश्मीरे वरमुष्यतां सुखनिधौ स्वर्गोपमाः कुन्तलाः,
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दुर्जनसङ्गभधिया देशी कचैर्यथा ॥३५॥ राजाऽयं रियारद्वारसह क्षेमङ्कर धौरहा, युद्धं भीममभूयः प्रतिकृत साचस्पते नाधुना ।
शेऽयं प्रियतां करोतु सुचिरं राज्यं ममाप्यायुग, भूयो बन्धनिबन्धनं बुधजनै राज्ञां कथा होयताम् ॥ ३६ ॥ सिंगाररस दिया, मोदमासकेला| परदोसका सा विकटा नेत्र कहियन्या ॥ ३७ ॥ ताजमहरमुखमा इसका सिलवादि
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. (५८५) रोहिणी अभिधानराजेन्द्रः।
रोहिणी विगहालि त होसु,धम्मझाणम्मि लीणमणा ॥ ३८॥ इति रोहिणी झातम् । ध०र०अधि०१३ गुण । भविष्यति सा भणइ तो हे भाय!,जिणगिहं पिउगिहं व पावित्ता।। पोडशे तीर्थकरजीवे, प्रव०४६ द्वार । ती०। राजगृहे नगरे, नियनियसुहदुहकहणे-ण हुँति सुहिया खणं महिला ॥३६॥ धनसार्थवाहपुत्रस्य धनरक्षकस्य भार्यायाम् , शा० । न य बत्ताण निमित्तं, को विह कस्स वि गिहं समल्लिया।
तद्वक्तव्यता चेवमसिय अम्ह तुमए, न किप इय जपियव्य ति ॥४०॥ जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे तो सब्वहा अजोग, ति चिंति मोणठियो उ सढो ।
होत्था, सुभूमिभागे उजाणे, तत्थ णं रायगिहे नगरे धइयरी चिराउ गेहे, समागया पभणिया पिउणा ॥४१॥ वच्छे ! विगहाविसए. सुम्मइ तुह उवरयो भिसंलोए ।
मे नामं सत्थवाहे परिवसति, अड्रे०, भद्दा भारिया अएसो सच्चो अलिओ, व हणइ पयडम्मि नणु महिमं ॥४२॥ हीणपंचेंदिय जाव सुरूवा, तस्स णं धम्मस्स सत्थवाहस्तम उलंच
पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारया विरुद्धस्तथ्यो वा भवतु विनथो वा यदि परं,
होत्था, तं जहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए, प्रसिद्धः सर्वस्मिन् हरति महिमानं जनरवः । तुलोत्तीर्णस्यापि प्रकटनिहताशेषतमसो,
तस्स णं धमस्स सत्थवाहस्स चउएहं पुत्ताणं भारिपात्री रवेस्ताहक तेजो न हि भवति कन्यां गत इति ॥ ४३ ॥
चत्त रि सुशहालो होत्था, तं जहा-उज्झिया, भोगवतिता पुत्ति मुत्तिपडिकूल, वत्तिणि वत्ताणिं च नरयस्स। या, रक्खतिया, रोहिणिश्रा । तते णं तस्स धम्मस्स मुंचसु परदोसकहं. सुहं जइच्छसि जो भणियं ॥४४॥ अन्नया कदाई पुबरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अयदीच्छसि वशीकर्तु, जगदेकेन कर्मणा ।
भत्थिए जाव समुप्पन्जित्था-एवं खलु अहं रायगिहे परापवादसस्येभ्य-श्चरन्ती गां निवारय ॥ ४५ ॥ यावत् परगुणपरदो-पकीर्तने व्यावृतं मनो भवती ।
बहणं ईसर जाव पभिईणं सयस्स कुडुंबस्स बहुसु कतावद्वरं विशुद्धे, ध्याने व्यग्रं मनो ध्रियताम् ॥ ४६॥ जसु य करणिज्जेसु कोडंबेसु य मंतणेसु य गुज्झे रहतो रोहिणी पयंपइ, पढमं ता ताय ! आगमो बजा। स्से निच्छए वव हारेसु य ापुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज जं परगुणदोसकहा, इमाउ सव्वा पयर्टेति ॥ ४७ ॥
मेढीपमाणे आहारे आलंबणे चक्खुमेढीभूते कजवट्टावए, न य कोऽवि इत्थ दीसइ. मोणधरोज इमेऽचिरिसिणो।। परचरियकहणनिरया. चिट्ठति विसिट्टचिट्ठा वि ॥ ४ ॥ तं ण णजति जंमए गयंसि वा चुयंसि वा मयंसि म इच्चाइालमाल, भणती अवहारिया य पिउणाऽवि । भग्गंसि वा लुग्गंसि वा सडियंसि वा पडियंसि वा विदेगुरुमाईहि वि एसा, उहिया भमइ सकछंदं ॥ ४६॥
सत्थंसि वा विप्पवसिय सि वा इमस्स कुटुंबस्स किं मन्ने श्रह गयअग्गमहिसीइ, सीलविसए विभासिरी कइया । दासीहि सुया देवीइ, साहिए सा कहह रनो ॥ ५० ॥
आहारे वा बालंबे वा पडिबंधे वा भविस्सति ?, तं सेय कुविएण निवेण तो. हक्कारिय से पिया उवालद्धो। खलु मम कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं तुह धूया अम्हं पि हु. विरुद्धमेवं समुल्लवइ ॥ ५१ ॥ साइमं उवक्खडावेत्ता मित्तणातिणि यगसयणबग्गं चउरा देव ! न अम्हं भणियं, करेइ एस ति सिट्टिणा बुत्ते ।
सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता तं मित्ताणइणियगसयणबहुयं विडंबिउमिमा, निविसया कारिया रना ॥ ५२॥ तत्ता निदिजंती, पए पए पागएण वि जणेण ।
वग्गं य चउएहं सुराहाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असणं पाणं पिच्छिज्जती सुयणेहि, नेहतरलाइदिट्ठीए ॥ ५३ ॥ खाइमं साइमं धूवपुष्फवत्थगंध जाव सकारेत्ता सम्माणे कह दारुणो विवागो, विगहासत्ताण इत्थ जीवाण । त्ता तस्सव मित्तणातिणियगसयणवग्गं०चउएह य सुहाइय वटुंती निब्वेय-रसभरं सक्कहजणाणं ॥ ५४॥
णं कुलघरवग्गस्स पुरतो चउण्हं मुण्हाणं परिक्षण?नूण धम्मो वि इमाण, परिसो जं इमं फलं पत्ते । इह बोहिवीयघायं. कुव्वती ठाणठाणम्मि ॥ ५५॥
याए पंच पंच सालिअक्खए दलइना जानामि ताव काबहुविहसीयायवखु-पिवासवासाइदुक्खसंतत्ता।
किह वा सारक्खेइ वा संगांवड़ वा संबवति वा ?, एवं माग गया नरय, तत्तो उव्यट्टिऊण पणो ॥ ५६ ॥ संपहेइ संपहेइत्ता कल्लंजाब मित्तणाति०चउएहं सुबहाणं तिरिएK बहुयभवे, अणतकाल निगोयजीबेसु।
कुलघरवग्गं आमंतेइ आमंतेत्ता विपुलं असणं पाणं मिउं लहिय नरभवं, कमसो किर रोहिणी सिद्धा ॥७॥ अह सो सुभद्दसिट्टी, नियपुत्तिविडंबणं निपऊण ।
खाइमं साइमं उबक्खडाबइ ततो पच्छा एहाए भोयणमंगुरुवेरग्गपग्गिश्रो. जाश्रो समणो समियपावो ॥ ५ ॥ डवंसि सुहामणवरगए मित्तणातिणियगसयणवग्गण नवचरणकरणसज्झा-यसकहासंगो गयपमाओ। चउएह य सुशहाणं कुलघरवग्गणं मद्धि नं विपुलं असणं विगहाविरत्तचित्तो, कमेण सहभायणं जाणा ॥ ५ ॥ पाणं खाइमं साइमं • जाव मक्कारेति मक्कारत्ता तम्मद गवं ज्ञात्वा दुःकथाव्यापृतानां
मित्तनातिणियगसयणवग्गस्स चउण्ह य मुण्हाणं कुल दुःखानमयं दुस्तरं देहभाजाम् । वैगग्याद्यर्वन्धुग बन्धुमुक्ता,
घरवग्गस्म य पुरतो पंच मालिअक्खए गएहति गरिहत्ता निन्य वान्या मकथा एव भव्यैः ॥ ६॥ जंदा मुण्डा उज्झितिया, तं महायति सहावित्ता एवं
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(६) अभिधावराजेन्द्रः ।
रोहिणी
वदासी - तुमं णं पुत्ता मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्खए हाहि हाहित्ता अणुपुव्वेणं सारक्वेमाणी संगोवेमा णी विहराहि, जया णं ऽहं पुत्ता ! तुमं इमे पंच सालिग्र - क्खए जारजा तथा गं तुमं मम इमे पंच सालिक्खए डिदिजाजासि त्ति कट्टु सुहाए हत्थे दलयति दलयित्ता पडिविसजेति, तते गं सा उज्झिया धम्मस्स तह त्ति एयम पडिसुणेति पडिणित्ता धम्मस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेरहति गेरहेत्ता एगंतम वक्कमति एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अभत्थिए - ० जाव समुप्पजित्था एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला साली पडिमा चिट्ठति, तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालिक्खए जस्सति तया णं अहं पल्लंतरा
पंच सालिक्खए गहाय दाहामि त्ति कट्टु एवं संपेहे संपेहित्ता तं पंच सालिअक्खए एगंते एडेति एडिचासकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था । एवं भोगवति - यावि, वरं सा छोलेति छोल्लित्ता अणुगिलति अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया । एवं रक्खियाऽवि, नवरं
एहति गेरिहत्ता इमेयारूवे अन्भतिथए - ० जाव समुप्पजित्था एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनातिखियगसयणवग्गस्स चउरह य सुराहाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो सदावेता एवं वदासी - तुम पुत्ता मम हत्थाओ • जाव पडिदिजा एजासि त्ति कट्टु मम हत्थंसि पंच सालिअक्ख दलयति तं भवियव्यमेन्थ कारणं ति कट्टु एवं संपेद्देति संपेहिता ते पंच सालिक्खए सुद्धे वत्थे बंध बंधितारणकरंडियाए पदिखवेइ पक्खिवित्ता ऊसीसामुले ठावे ठाचित्ता तिसंभं पडिजागरमाणी विहरइ । तएं से धम् मत्थवाहे तस्सेव मिल जाव चउत्थि रोहिणियं सुरहं सदायेति सद्दावित्ता जाव तं भ विrव्वं एत्थ कारणं तं सेयं खलु मम एए पंच सालिक्खए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संवडेमाणीए ति कट्टु एवं संपेहेति संहिता कुलघरपुरिसे सदावेति सदावित्ता एवं वदासी - तुब्भे गं देवापिया ! एते पंच सालिक्खए गेहह गेरिहत्ता पढमपाउसंसि महाबुद्धिकायंसि निवइयंसि समासि खुट्टागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह करेहत्ता हमे पंच सालिक्खए वावेह वावहत्ता दोघं पि तच पि उक्खयनिहए करेह करेत्ता वाडिप करेह क रहता सारक्खमाणा संगावेमाणा अणुपुत्रेणं मंह, तते
कोबिया रोहिणीए एतमङ्कं पडिसुगंति ते पंच सालिree गेति गरिहत्ता अणुपुव्येणं सारक्खति संगो वंति विहरंति, तए णं ते कोईचिया पठनपाउयंसि महा
रोहिणी वुट्ठिकार्यंसि विइयंसि समायंसि खुड्डा केदारं सुप -- रिकम्मियं करेंति करेंतित्ता ते पंच सालिअक्खए ववंति दुच्चं पि तच्च पि उक्खयनिहए करेंति करेंतित्ता वाडिपरिक्खेवं करेंति करेंतित्ता अणुपुब्वेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संबमाण विहरंति, तते गं ते साली अणुपुव्वेणुं सारक्खिमाणा संगोविजमाणा संबडिजमाया सा
जाया किएहा किहोभासा ०जाव निउरंबभूया पासादीया ४, तते गं साली पत्तिया बत्तिया गब्भिया पसूया श्रागयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरियपव्त्रकंडा जाया यावि होत्था, तते गं ते कोडंबिया ते सालीए पत्तिए ० जाव सल्लइए पत्तइए जाखित्तातिक्खेहिं रावपजणएहिं असियएहिं लुर्णेति लुतित्ता करयलमलिते करेंति करेंतित्ता पुर्णति, तत्थ गं चोक्खा - गं सूयाणं अखंडाणं अफोडियाणं छडछडापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए, तते गं ते कोडुंबिया ते साली गवएसु घडएसु पक्खिवंति२त्ता उपलिंपति उपलिपतित्ता लंछियमुद्दिते करेंति करेंतित्ता कोट्ठागारस्स एगसंसि ठावेंति ठावेंतित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाखा विहरंति । तते गं ते कोईबिया दोसि वासारसंसि पटपाउसंसि महाबुद्विकार्यसि निवयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति ते साली वर्वति दोच्चं पि तच्चं पि उक्खहिए० जाव लुणेंति ०जाव चलणतलमलिए करेंति करेंतित्ता पुर्णति, तत्थ गं सालीणं बहवे कुडवा (मुरला ) ० जाव एगदेसंसि ठायेंति ठातित्ता सारक्खमाणा संगमाणा विहरंति । तते गं ते कोडुंबिया तच्चसि वासारचंसि महाबुद्विकार्यसि बहवे केदारे सुपरिकम्मियं ० जाव लुति लुर्खेतित्ता संवर्हति संवहंतित्ता खलयं करेंति करेंतित्ता मलेंति ० जाव बहवे कुंभा जाया । तत ते कोईविया साली कोट्ठागारंसि पक्विवंति • जाव विहरति चउथे वासारते बहवे कुंभमया जाया । तंत णं तस्स धम्मम्स पंचमयंसि संच्छसि परिणममासंसि पुव्यरत्तावरतकालसमयसि इंमयारू अन्भत्थि - ए ०जाव समुप्पजित्था एवं खलु मम इओ श्रतीते पंचमे संबच्छरे चउरहाणं सुरहाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच मालीअक्खया हत्थे दिन्ना तं मेयं खलु मम कल्लं ०जाब जलत पंच सालिक्लए परिजाइत्तए ०जाब जाग्गामि ताव काए कि सारखिया वा संगांविया वा संवडिया ०जाव तिक एवं संपति पेहेतिता कल्लं ०जाब जलत विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाइणियगमयणवग्गस ह य सुरहाणं कुलवर जाव सम्माणिता त
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(200) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
रोहिणी
स्सेव मित्तनाय० चउरह य सुरहाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो जेट्टं उज्झियं सहावे सहावेत्ता एवं वयासी एवं खलु अहं पुत्ता ! इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्त० चउरह य सुरहाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो तव इत्यंसि पंच सालिक्खए दलयामि जया णं अहं पुत्ता ! एए पंच सालिमक्खए जाएज्जा तया गं तुमं मम इमे पंच सालिक्खए पडिदिजाएसि त्ति कट्टु तं इत्थंसि दलयामि, से नूणं पुत्ता ! अत्थे समट्ठे ?, हंता अत्थि, तसं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिजाएहि, तते सा उज्झितिया एयमठ्ठे धमस्स पडिसुखेति परिसुतित्ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छति उवा - गच्छत्ता पल्लातो पंच सालिक्खए गेएहति गेरिहत्ता जेणेव धमे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता धमं सत्थवाहं एवं वयासी- एए गं ते पंच सालिक्खए त्ति कटु धस्स इत्यंसि ते पंच सालिक्खए दलयति । वते गंध उज्झियं सवहसावियं करेति करेत्ता एवं बयासी - किं पुत्ता ! एए चैव पंच सालिअक्खए उदाहुने, तते गं उज्झिया धम्मं सत्थवाहं एवं वयासीएवं खलु तुम्भे तातो ! इथोऽतीए पंचमे संवच्छंरे इमस्स मित्तनातिणियगसयणवग्गेणं चउरह य सुरहाणं कुल ०जाव वियरामि, तते ऽहं तुब्भं एतमहं पडिसु णेमि परिसुणेमित्ता ते पंच सालिअक्खए गेरहामि एगंतमवक्रमामि,तते णं मम इमेयारूवे अन्भत्थिए० जाव समुप्प जिथा एवं खलु तया कोट्ठागारंसि ० ( जाव ) सकम्मसंजु - ता, तं णो खलु ताओ ! ते चैव पंच सालिक्खए एए
अने । तते गं से धमे उज्झियाए अंतिए एयमट्ठे सोचा शिसम्म सुरुते ० जाव मिसिमिसेमाणे उज्झितियं तस्स मित्तनातिणियगसयणवग्गस्स चउरह य सुशहाणं कुलवरवग्गस्स य पुरयो तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छायं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मज्जियं च पाओवदाई च हाणोवदाई च बाहिरपेस ठेवेति एवामेव समाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा २० जाव पव्वतिते पंच य से महव्यातिं उज्झियाई भवंति से गं इह भवे चैव बहूणं समगाणं ४ ० जाव अणुपरियदृइस्सर जहा सा उझिया । एवं भोगवइया वि, नवरं तस्म कंडितियं वा कोतियं च पीसंतियं च एवं रुवंतियं रंधंतियं परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभंतरियं च पसणकारिं महा
,
सिगिं ठवेंति, एवामेव समणाउसो ! जां अम्हं समणो पंच यस महगाई फोडिगाई भवंति से इह भने चैव बहूणं
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रोहिणी समणाणं ४-० जाव हीलेइ ४ जहा व सा भोगवतिया । एवं रक्खितियावि, नवरं जेणेव वासघरे तेखेव उवागच्छ
वागच्छत्ता मंजू विहाडेर विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंच सालिक्खए गएहति गरिहत्ता जेणेव धसे तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता पंच सालिमक्खए धमस्स हत्थे दलयति । तते गं से धमे रक्खितियं एवं वयासी-किलं पुत्ता ते चैव ते पंच सालिअक्खया उदाहु अने ति १, तते गं रक्खितिया धपं एवं वयासी - ते देव ताया ! एए पंच सालिक्खया हो भने, कहनं पुत्ता !, एवं खलु ताओ ! तुब्भे इओ पंचमम्मि ०जाव भवियब्वं एत्थ कारणेणं ति कट्टु ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे ० जाव तिसंभं पडिजागरमाश्री य विहरामि । ततो एतेणं करणेणं ताम्रो ! ते चैव ते पंच सालिक्खए यो अत्रे, तते गं से धो रक्खितियाए अंतिए एयमहं सोचा हट्टतुट्ट० तस्स कुलघरस्स हिरन्नस्स य कंसद्सविपुलघण ०जाव सावतेज्जस्स य भंडागारिणि ठवेति, एवामेव समणाउसो ! ० जाव पंच य से महव्त्रयाति रक्खियातिं भवंति से गं इह भवे चैव बहूणं समणाणं - ०४ अचणिज्जे जहा ०जाव सा रक्खिया । रोहिणिया वि एवं चेव, नवरं तुब्भे ताश्रो ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि जेणं श्रहं तुर्भ ते पंच सालिमक्खए पडिणिज्जाएमि । तते गं से छे रोहिणि एवं वदासी-कहां तुमं मम पुत्ता ! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइस्ससि १, तते गं सा रोहिणी धमं एवं वदासी - एवं खलु तातो ! इथो तुन्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ ! तुब्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि । तते गं से धमे सत्थवाहे रोहिणियाए सुबहुयं सगडसागडं दलयति, तते गं रोहिणी सुबहु सगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छर कोट्ठागारे विहाडेति२त्ता पल्ले उभिदति उभिदित्ता सगडीसागडं भरेति भरेतित्ता रायगिहं नगरं मज्यं मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धमे सत्थबाहे तेणेव उवागच्छति । तते गं रायगिहे नगरे सिंघाडग० जाव बहुजणो नमनं एवमातिक्खति०-धने गं देवा ! ध सत्थवाहे जस्स गं रोहिणिया सुराहा, जीए गं पंच सालिक्खए सगडसागडिएणं निजएति । तते गं से ध सत्थवाहे ते पंच सालिक्खए सगडसागडेणं निज्जाएतिते पासति पासिता हनुट्ठ ०जाव पडिच्छति पडिच्छिना तस्मेव मित्तनाति ० चउरह य सुरहाणं कुलधरपुरतो रोहिणियं सुरहं तस्स कुलारस्स बहुसु कज्जेसु य ० जाव
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(५८८) रोहिणी अभिधानराजेन्द्रः।।
रोहिणी रहस्समु य आपुच्छणिज्जं जाव वट्टावितं पमाणभूयं त्कृष्ट इति , क्षारोटिकाम्-भस्मपरिष्ठापिकाम् ' कचवरोठावेति, एवामेव समणांउसो! जाव पंच महव्वया सं-| झिकाम्-अवकरशोधिकाम् समुक्षिकाम् ' प्रातहाङ्गण जवाडिया भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं जाव |
लच्छटकदायिकाम , पाठान्तरेण-'संपुच्छिय' ति तत्र
सम्प्रोच्छिकाम्-पादादिलूषिकाम-सम्मार्जिकाम्-गृहस्यावीतिवइस्सइ जहा व सा रोहिणिया । (सू०६३४)
न्तर्वहिश्च बहुकारिकावाहिकाम् पादोदकदायकाम्-पादइदमपि सुगमम् , नवरम् ' मए' त्ति मयि ‘गयंसि'
शौचदायिकाम् स्वानोदकदायिकाम्-प्रतीताम् , बाह्यानि त्ति गते प्रामादौ एवम्-च्युते-कुतोऽप्यनाचारात् स्वप
प्रेषणानि कर्माणि करोति या सा ' बाहिरपेसणगादात् पतिते मृते-परासुतां गते भने-वात्यादिना कु
रिय' त्ति भणिया , कण्डयन्तिकाम् इति-अनुकम्पिग्जख अत्वकरणेनासमर्थी भूते 'लुग्गंसि व' त्ति रुग्ने-जीर्ण
ता कण्डयन्तीति-तन्दुलादीन् उदृखलादौ तादयन्तीति तां गते शटिते-व्याधिविशेषाच्छीर्णतां गते पतिते
करडयन्तिका ताम् , एवं कुट्टयन्तिकां-तिलादीनांप्रासादादेर्मश्चके वा ग्लानभावात् विदेशस्थे-विदेशं ग
चूर्णनकारिकाम् पेषयन्तिकाम्-गोधूमादीनाम् घरट्टादिना त्वा तत्रैव स्थिते विप्रोषिते--स्वस्थानविनिर्गते देशान्त--
पेषणकारिकाम् रुन्धयन्तिकाम्-यन्त्रके वीहिकोद्रवादीनाम् रगमनप्रवृत्ते आधार:-श्राश्रयो भूरिव पालम्बनं-वरत्रादि
निस्तुषत्वकारिकाम् रन्धयन्तिकाम्-श्रोदनस्य पाचिकाम् कमिव प्रतिबन्धः--प्रमार्जनिकाशलाकादीनां लतादवरक इव
पारवेषयन्तिकाम्-भोजनपरिवेषणकारिकाम् परिभाजयन्तिकुलगृह-पितगृहं तद्वर्गो मातापित्रादिः, संरक्षति अन
काम्-पर्वदिने स्वजनगृहेषु स्खण्डखाद्याद्यैः परिभाजनकाशनतः, सनोपयति संवरणतः, संबर्द्धयति बहुत्वकरणतः,
रिकां , महानसे नियुक्ना महानसिकी तां स्थापयति, 'स'छोल्लेइ' त्ति निस्तुषीकरोति 'अणुगिलइ' त्ति भक्षयति,
गडीसागडं' ति शकट्यश्व-गन्द्रयः शकटानां समूहः शाकटं कचित्-फोल्लइ' इत्येतदेव दृश्यते, तत्र च भक्षयतीत्यर्थः । प
च शकटीशाकटं गडीओ गडिया य ' ति उक्तं भवति, त्तिय' ति सातपत्राः ' वत्तिय ' ति ब्रीहीणां पत्राणि
'दलाह त्ति' दत्त-प्रयच्छतेत्यर्थः, 'जाणंति' येन 'ण' मध्यशलाकापरिवेएनेन नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति त.
इत्यलङ्कारे, प्रतिनिर्यातयामि-समर्पयामीति । अस्य च द्वत्ततया जातवृत्तत्वाद्वतिताः शाखादीनां वा समतया व
ज्ञातस्यैवं विशेषणोपनयनं निगदति । यथातीभूताः सन्तो वर्तिता अभिधीयन्ते, पाठान्तरेण--' तरया व ' ति सातत्वच इत्यर्थः, गर्भिता जातगां डोड
"जह सेट्ठी तह गुरुणो, जह णाइजणो तहा समणसंघो । किता इत्यर्थः , प्रसूताः-कणिशानां पत्रगर्भेभ्यो विनिर्ग
जह बहुया तह भब्वा, जह सालिकणा तह बयाई ॥१॥
जह सा उज्झियनामा, उज्झि यसाली जहत्थमभिदाणा । मात्, श्रागतगन्धा-जातसुरभिगन्धाः भायातगन्धा वा दूर यायिगन्धा इत्यर्थः, क्षीरकिताः-सातक्षीरकाः बद्धफलाः
पेसणगारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया ॥२॥
तह भब्यो जो कोइ, संघसमक्खं गुरुविदिनाई । क्षीरस्य फलतया बन्धनात् जातफला इत्यर्थः, पक्वाः
पडिजिउं समुज्झद, महव्वयाई महामोहा॥३॥ काठिन्यमुपगताः, पर्यायागताः पर्यायगता वा संघनिष्पश्रतां गता इत्यर्थः, 'साइपत्तय' ति सहलकी वृक्षविशे
सो इह चेव भवम्मी, जणाण धिकारभायणं होइ। षस्तस्या इव पत्रकाणि-दलानि कुतोऽपि साधात् स.
परलोए उ दुहत्तो, नाणाजोणीनु संचरइ ॥४॥" जातानि येषां ते तथेति, गमनिकैवेयं पाठान्तरेण---शल्य
उक्नं च-"धम्माओ भटुं" वुत्त, " इहवऽहम्मो " वुत्तं । किताः-शुष्कपत्रतया सातशलाकाः पत्रकिताः-सा
"जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा । तकुत्सितकाल्पपत्राः, ' हरियपव्वकंड' ति हरितानि--ह
पसणविससकारि-तणेण पत्ता दुहं चेव ॥ ५॥ रितालवर्णानि नीलानि पर्वकाण्डानि नालानि-न्येषां ते
तह जो महब्वयाई, उवभुंजइ जीविय त्ति पालितो। तथा, जाताधाप्यभूवन् , ' नवपज्जाणएहिं ' ति नवं--प्र
आहाराइसु सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए ॥ ६ ॥ त्यनं पायनम् लोहकारेणातापितं कुट्टितं तीक्षणधारी
सो पत्थ जहिच्छाए, पावइ अाहारमाइ लिाग ति । कृतं पुनस्तापितानां जले निबोलनं येषां तानि तथा तैः,
विउसाण नाहपुजो, परलोयम्मी दुही चव ॥ ७ ॥ 'असिए' ति दात्रैः 'अखंडाण' ति सकलानाम् अ
जह वा रविवयवहुया, रक्खियसालीकणा जहन्थक्खा । स्फुटितानाम्-असञ्जातराजीकानां छड छड इत्येवमनुकर- परिजममा जाया. भोगसुहाई च संपना ॥ ८॥ णतः सूर्यादिना स्फुटाः-स्फुटीकृताः शोधिता इत्यर्थः, स्पृणा तह जो जीवो सम्म, पडिजित्ता महब्बए पंच । ar, पाठान्तरेण--पूता वा ये ते तथा तेषां मागहए पत्थ
पालेइ निरइयारे, पमायलसं पिवजेतो ॥६॥ ए' ति"दो असईओ पसइ, दो पसईओ उ सइआ हो- सो अप्पहिएकरई, इह लोयम्मि वि विहि परणयपत्रो। ह। चउसेहो उ कुडो, चउकुडो पत्थो नेश्रो ॥१॥" एगंतसुही जायइ, पम्मि मोक्ख पि पावेद ॥१०॥ इति । अनेन प्रमाणेन मगधदेशव्यवहतः प्रस्थो मागधप्र- जह रोहिणी उ सुराहा, गावयसाली जहत्थमभिहाणा । स्थः, उपलिम्पन्ति-घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गा- घहिना सालिकणे, पन्ना सव्वम्म सामित्तं ॥११॥ मयादिना रन्ध्रे भञ्जन्ति — लिति '--घटमुख तत्स्थागतं तह जो भब्वो पाविय, वयाई पालेड अप्पग्गा सम्म । च छगणादिना पुनर्मसृणीकुर्वन्नि, लाञ्छितं रेखादिना , अन्नेसि वि भव्वागं, देइ अणेगेमि हियह ॥ १२ ॥ मुद्रितं मृन्मयमुद्रादानेन तत्कुर्वन्ति, मुरलो--मानविशेषः, सो इह संघपहाणो, जुगप्पहाणे त्ति लहइ संसदं । खलकं धान्यमलनस्थरिडलं, चतुष्प्रस्थम् श्राढक:-आढ- अप्पपरेसि कल्ला-कारो गोयमपह व्व ॥१३॥ कानां षष्टया जघन्यः कुम्भ: शीत्या मध्यमा शतेनो-। तिन्थस्म तुहिकार्ग, अगवगो कतिथियाई ।
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(५८ ) रोहिणी
श्रीभधानराजेन्द्रः। विउसनरसेविय कमो, कमेण सिद्धि पि पावेइ ॥१४॥" त्ति । [गहियप्पवायदह-रोहितप्रपातहद-पुं० । स्वानामख्यात इद, शा० १ श्रु०७ अ०। श्रा० चू० । श्राव० । प्रश्न । स०।।
स्था० । रोहिद्-उक्तरूपा यत्र प्रपतति यश्च सविंशतिक रोहिणीतब-रोहिणीतपम्-न० । सप्तमासादिकसप्तवर्षाणि योजनशतमायामविष्कम्भाभ्यां किञ्चिन्यूनाशीयधिकानि यावत् राहिणीनक्षत्रदिनांपवासे, तत्र च वास्तुपूज्यजिनम- त्रीणि शतानि परिक्षण यस्य च मध्यभागे रोहितद्वीपः तिमा प्रतिष्ठा च विधयेति । पञ्चा० १६ विव० । प्रव०। षोडशयोजनायाविष्कम्भः सातिरेकपञ्चाशद्योजनपरिक्षेरोहिणिरिक्खदिणे रो-हिणीतवे सत्तमासवरिसाई ।
पो जलान्ताद द्विफ्रोशोच्छुितो यश्च रोहिद्देवताभवनेन ग
शादेवताभवनसमानेन विभूपितोपरितनविभागः स रोसिरिवासुपुञ्जपूया-पुव्वं कीरइ अभत्तट्ठी ॥५६॥
हिमपात हद इति । स्था०२ ठा० ३ उ०। (अत्र सूत्रम् 'रो. रोहिणी-देवताविशेषः, तदाराधनार्थं तपो गहिणीतपः, | हिअंसा' शब्दऽस्मिन्नेह भागेऽनुपदमेव गतम् ।) सस्मिन् रोहिणीतपसि सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावद्रो-रियायोहिता-स्त्री० । जम्बूद्वीपे पूर्वावरण लवणसहिणीनक्षत्रोपलक्षिते दिने उपवासः क्रियते । इह च वासुपू-| ज्यजिनप्रतिमायाः प्रतिष्ठा पूजा च विधेया। प्रव०२७९द्वार।।
मुद्रं समुन्सपन्त्यां स्वनामख्यातायां महानद्याम् , स. १४
सम० । स्था। रोहिनदी महापमहदाइक्षिणतीरणेन निर्गरोहिणीरमण-रोहिणीरमण-पुं०। चन्द्रे,"ईद निसायरो स
त्य षोडश पश्चात्तराणि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिस-हरो विह गहई रणिनाहो । मयसंघणो हिमयरो , णता गिरिणा गत्या हाराकारधारिणा सातिरेकयोजनद्विरोहिणिरमणो ससी चंदो" पाइना०५ गाथा।
शतिकेन प्रपातन मकरमुखप्रणालेन महाहिमवतो रोरोहिणयचोर-रोहिणेयचौर-पुं०। स्वनामख्याते राजगृहवा- हिदभिधानकुण्ड निपतति , मकरमुख जिहा योजनस्तव्ये चौरे, व्य०२ उ० । ती । प्रशा० । (सूक्ष्मं परिनिर्या- मायामेन अर्द्धत्रयोदशयोजनानि-विष्कम्भेन क्रोश वापणं लौकिक रौहिणिकचौरस्याभयकुमारेण कृतं तच 'ओ
हल्येन, रोहित्प्रपातकुण्डाय दक्षिणतोरणेन निर्गत्य हावण' शब्दे तृतीयभागे १३३ पृष्ठे दर्शितम् )
हैमवतवर्षमध्यभागवर्तिनं शब्दापातिवृत्तवताळ्यमर्द्धयोरोहितंशकूड-रोहितांशकूट-पुं । जम्बूद्वीपे हिमबर्षधर
जनेनाप्राप्याटाविंशत्या नदीसहस्रः संयुज्याऽधो जगतीं पर्वते दशमे कूटे, स्था०२ ठा० ३ उ०।
विदार्य पूर्वतो लवणसमुद्रमतिगच्छतीति , रोहिनदी हि
प्रवाहऽईत्रयोदशयोजनविष्कम्भा क्रोशोद्वेधा ततः क्रमेरोहियंसा-रोहितांशा--स्त्री० । नदीभेदे, स्था० ३ ठा०४ उ०।
ण वर्द्धमाना मुखे पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतविष्कम्भा सार्द्ध('रोहिअंसा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्तव्यता गता)
द्वियोजनोद्वधा, उभयतो वेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च युरोहिय-रोहित-न० । रुधिरे, रक्तवर्णे च । वाच० । मत्स्य
क्ला, एवं सर्वा महानद्यः पर्वताः कुटानि च बेदिकादियुक्ताभेद, पुं० । उत्त० १४ अ० जी० । प्रज्ञा० । चतुष्पदविशेषे , | नीति । स्था०२ ठा०३ उ० । रा०('महाहिमवंतर' च । प्रश्न०१ आश्रद्वार । स्था।
शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२७ पृष्ठे सूत्रतो दर्शितैषा ।) रोहियकूड-रोहितकूट-पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिण महाहिमवति वर्षधरपर्वते स्वनामख्याते सप्तमे कटे, स्था०
रोहियाससेण-रोहिताश्वसेन--पुं० । इक्ष्वाकुवंशोत्पन्नस्य श्री२ ठा०३ उ०। जं०। जम्बूद्वीपे हैमवर्षनायकदेवावासभूते
हरिश्चन्द्रमहानरेन्द्रस्य स्वनामख्याते पुत्रे, ती० ३७ कल्प। स्वनामख्याते कूटे, स्था० ८ ठा।
रोहीडग-रोहीडग--न । भरतक्षेत्रे रोहिणीगणिकावासभते रोहियदीव-रोहितद्वीप-पुं० स्वनामख्याते द्वीपे, जं०४ वक्षन स्वनामख्याते नगरे, नि। प्रा० क० । विपा। संथा। (अत्र सूत्रम् ' रोहिअंसा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्) रोहे-रोधयित्वा-अव्य० । रोधं कृत्येत्यर्थे, वृ० ३ उ०।
4444444444444444444444444444444444444444 devarhotodaseladeiodesh.iciariedem iena.tasicialestenia.irsaatoniasisilaalnaiwarihimanusianimaa
इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय -कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००० श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते ' अनिधानराजेन्द्रे'
रकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥
HTTTTTE
Tropionaryayoreaoardas.sarokasatsukartonosatsanel:peoromansenis
. .
+++++ ++ ++++ ++ Jain Education Internatio
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अभिधानराजेन्द्रः ।
1
लकार
ल ल पुं०] अन्तस्थो मूर्डस्थानीयोऽयं वर्गः ला क इन्हे वाच । लवने श्रम्बरे, दानादाने, सुखे, वादे च । न० । आलये, आश्लेषे, पुं० । मृते, लूने च । त्रि० । एका० । लइअ-लगित-त्रि० । श्रवलम्बिते, स०७० सम० । परिहिते,
·
पिनद्धमित्यर्थे इत्यन्ये । दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा । अन्न देशी-पने दे० ० ७ वर्ग १६ गाथा । लइणी-देशी-तायाम्, दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा | लउड लकुट पुं० पटी, श्री० " को लडो " पाह० ना० २३० गाथा | शा० । स० । प्रश्न० । प्रहरणकरणे, स्था०३ठा० ४ उ० । शा० । जं० प्रश्न० ।
-
लंककालियावात -- लङ्ककालिकावात-पुं०|चक्रवद् भ्रामके वायौ, कल्प० १ अधि० ६ क्षण |
ये तृतीयेऽन्तद्वीपे उत० ३६ अ० (अन्तरदीव शब्दे प्रथम भागे तत्स्यरूपं दर्शितम् ) लंपण लंडन-न० गतांदेरतिक्रमणे, श्री० रा० नि० चू० । जी० । ज्ञा० । अतिदीर्घस्यात्युच्चस्यापि चातिक्रमणे, श्रा० म० १ ० । उत्प्लुत्य गमने, उत्त० २ ० । साधूपरि साव्यापरि वा क्रोधादिना श्रन्नपानादिमोचने, ग० २ अधि० । लंघियजिणाण - लङ्घितजिनाज्ञ - त्रि । त्यक्तसर्वज्ञशासने, जी० १ प्रति । संघियव्य-लक्ष्ययितव्य त्रि० लङ्घनीये का० १ ० १ ० लंच - देशी कुक्कुटे, दे० ना० ७ वर्ग १७ गाथा । लंचा - लञ्चा - स्त्री० । उत्कोचे, व्य० १ उ० । लंचिह्न ला०ि उत्कोचमुपजीव्य सापेक्षे व्यवहा रिणि, व्य० १ उ० ।
श्राव० ४ श्र० ।
लउडकडु-लकुटकाष्ट० कुडे, प्र०३ द्वार लंपोस- लम्पोप पुं० । सदाव्यचीरविशेषाणां पोष लउय लकुच- ० पुषरोपे औ०।
लउसिका - लकुसिका - श्री० [लकुशदेशोरपनायामनाय्र्यखि
याम्, शा० १ ० १ ० । ० ।
धि० । शा० । लंगल -- लाङ्गल - न० । हले, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । लंगूल- लाल-म० पुच्छे स्था० ४ ० २ ० शा० कल्प० । “ लंगूलं वाहली छिप्पं" पाइ० ना० १२८ गाथा । लंगूलिय- लाकूलिक - पुं० । श्रष्टाविंशत्यन्तद्वीपानां म
लछण- लाञ्छन- न० । मपतिलकादिके चिह्न, अनु० । प्रव० । नं० । “ लंड को चिंधं " पाइ० ना० ११४ गाथा । अङ्गा०६ द्वार। दश० । कर्णादिकल्पनाङ्गनादिभिर्लाने प्रश्न० २ ० द्वार | उल्मुकादिभिरहने
""
लंका लङ्का - स्त्री० । भरतवर्षस्याविदूरे दक्षिणे लवणसमुत्रिकूटषिते पुरीभेदे, लङ्कायां त्रिकूटगिरी श्रीशान्तिनाथः " । ती० ४३ कल्प। श्र० क० । लंकाडाह लङ्कादाह-५० लङ्काया भस्मीकरणे, रामायसे वि सुणिज्जति जह हअंतस्स पुच्छं महन्तमासी, तं च किल अहिं वत्थसहस्सेहिं वेदिक तेलपडसहस्सेहि सि चिऊपलीयन्ते किल लङ्कापुरी दहा नि० ० १ ४० लेख-लख- पुं० । महाशाखेल, रा० जं०] अनुलंपट लम्पट त्रि० सालसे, “लोला लालस सोलुख-उले ये वंशादेरुपरि वृतं दर्शयन्ति ते लाः। व्य० ३ ३० जी० हड लंपटा लुद्धा " पाइ० ना० ७५ गाथा । कल्प० । शा० | नर्तकभेदे, पं० लंपिक्स - देशीबीरे, दे० ना० ७ वर्ग १२ गाथा । चू० १ कल्प । लखपेहा-लङ्खप्रेक्षा- स्त्री० । ये महावंशाग्रमारुह्य नृत्यन्ति | लंब - देशी - केशे, गोवाटे च दे० ना० ७ वर्ग २६ गाथा । तेषां प्रेक्षायाम्, व्य० ३ उ० । जी० । लंखिया लखिका - स्त्री
1
लंयंत लम्बमान वि० देयं गच्छति, कल्प० १ अधि० २ - त्रि० ।
वंशोपरि नर्तक्याम्
०३.
विपा० १ ० १ ० ।
लंद्रिय लाछित त्रि० । रेखादिभिः कृताने ०२४० स्था० । ज्ञा० भ० । श्रा० म० । भस्मना पिहिते, वृ० २३० । लंजर - लञ्जर- न० । उदककुम्भे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । लंतग-लान्तक- पुं० । षष्ठे देवलोके, प्रव० १६४ द्वार । स० । स्था० श्री० [लान्तककल्पचासिदेवेषु तदिन्द्रे च विशे० । स्था० | लान्तकदेवानां स्थाने, प्रशा० २ पद । ( व्याख्या चतुर्थभागे ठाणा 'शब्दे २७०८ पृष्ठ) लंद-लन्द पुं० काले, पृ० ३४० प्र० ( स च 'अहालंद' शब्दे प्रथमभागे ८६७ पृष्ठे व्याख्यातः । ) यावता का नोदकार्यकरः शुष्यति तावान् कालो जघन्यतो लन्दः । कल्प० २ अधि० ८ क्षण ।
C
श्रहा
क्षण | शा० ।
लंबण-लम्बन - पुं० | कवले, वृ० ४ उ० । व्य० । नङ्गरे, शा० १ श्रु० ८ श्र० ।
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लंवाली देशी पुष्पमे दे० ना० ७ वर्ग १६ गाथा | लंबियय-लम्बितक- पुं० राय बाही बड़े अभि विशेषयति वानप्रस्थे श्र० ।
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(५६९) लंबुत्तर अभिधानगजेन्द्रः।
लक्वण लंबुत्तर-लम्बोत्तर-पुं० । कायोत्सर्गदोपविशषे, कृत्वा चोल- क्षणरूपस्य वर्णत्रयस्याकारविशेषः । अथवा-लक्षणानां पट्टमविधिना नाभिमण्डलस्योपरि अधस्ताच्च जातुमात्रं
स्वस्तिकशंखचक्रध्वजादीनां यो मङ्गलपट्टादावक्षतादिभितिष्ठति कायोत्सर्ग इति लम्बोत्तरदोषः । प्रव०५ द्वार।
यासो-विरचना विधीयते तत्स्थापनालक्षणमिति ॥ २१४६ ॥ लंबूसग--लम्बूसक-पुं० । गेन्दुके, शा०१२०१ ०। गोला
'दविए' ति द्रव्यलक्षणम् । तच्चागमनोआगमनशरीरभ
व्यशरीररूपं सुगमम् । तद्व्यतिरिक्तं पुनराहकृतिमण्डनविशेषे,जी०३ प्रति०४ अधि० । श्रा० म०। जी।
लक्खिजइ जं जेणं, दव्यं तं तस्स लक्खणं तं च । नं० । दाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेष, रा० । जं० । श्राभरण- | विशेष, रा।
गच्चुवगाराईयं, बहुहा धम्मत्थियाईणं ॥ २१५०॥ लंबयव्य-लम्बयितव्य-त्रि० । अवलम्बनीये,रज्ज्वादिनिबद्धे, | यद द्रव्यं धर्मास्तिकायादिकं लक्ष्यते येन तत्तस्य व्यस्य लहस्तादिना धरणीये च । भ० ६ श० ३३ उ० ।
क्षणम् । तञ्च गत्युपकारादिकं धर्मास्तिकायादीनां संबन्धि
बहुभेदं विज्ञयमिति ॥२१५० ॥ लंबोयर-लम्बोदर-पुं० । गणपतौ, झा० १७०१०।।
अथान्येषां सादृश्यसामान्यादिलक्षणानां सामान्येन भावालभ-लाभ-पुं० । मूलधनादितोऽधिके लभ्यमान धने, प्राप्ता
थमाहच । विशे० । सूत्र० । श्रा० म० ।
किंचिम्मित्तविसिटुं, एयं चिय सेसलक्खणविसेसा । लंभणमच्छ-लम्भनमत्स्य-पुंगमत्स्यभेदे,जी०१प्रतिप्रशा
जंदवलक्षणं चिय,भावो वि स दव्वधम्मो त्ति२१५१ लंभित्ता-लब्ध्वा-अव्य० । प्राप्येत्यर्थे, स्था० ३ ठा०२ उ० ।
इदमेव च द्रव्यलक्षणं किंचिन्मात्रविशिष्टं सच्छेषाः सादृश्यलंभिय-लम्भिा -त्रि० । प्रापिते, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। सामान्यादया नव लक्षणभेदा भवन्ति । कुतः? इत्याह-यद्यस्मालक्कुड-देशी-लकुटे, दे० ना० ७ वर्ग १६ गाथा ।
त् स वक्ष्यमाणो भावोऽपि भावलक्षणरूपं द्रव्यधर्मत्वाद् द्रव्यं
लक्ष्यतेऽनेनेति कृत्या द्रव्यलक्षणमेव, आसतां पुनः शेषाः लक्ख-लक्ष-न० । शतेन गुणिते सहस्राणामेकशते, कर्म०४
सादृश्यसामान्यादयो लक्षणभेदा इति ॥ २१५१ ॥ कर्म । कल्प० । काये, दे० ना० ७ वर्ग १७ गाथा।
तदेवं सामान्येन सादृश्यादिलक्षणभेदान् व्याख्याय विशेलक्ष्य-त्रि० शरव्ये, “मुष्टिना छादयेल्लयं, मुष्टी दृष्टि निवेश
षताऽपि 'सरिसे' त्ति सादृश्यलक्षणस्वरूपं विवृण्वन्नाहयेत् । हतं लक्ष्यं विजानीया-द्यदि मूर्धा न कम्पते। सूत्र. १ तुल्लागारदरिसणं, सरिसं दव्वस्स लक्खणं तं पि । थु०८१०।" लक्खं विजायं" पाइ० ना०२४६ गाथा।
जह घडतुल्लागारो,घडोत्ति तह सव्वमुत्तीसु ॥२१५२।। लक्खण-लक्षण-न० । लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । पदार्थानां
यद् द्वयादिवस्तूनां तुल्यस्याकारस्य दर्शनं तदिह 'सरिसं' स्वरूपे, विशे० । अनु०।
ति सादृश्यमुच्यते, द्रव्यस्य तदपि लक्षणम् ,तेनापि हि सहअथ लक्षणद्वारमाह--
शममुकस्येदम् इति व्यपदेशहेतुत्वाद् द्रव्यं लक्ष्यत इति,पतनाम ठवणा दविए, सरिसे सामन्त्रलक्खणाऽऽगारे ।। दपि सामान्यतो द्रव्यलक्षणमेव, विशेषतस्तु सादृश्यलक्षणगइरागड-नाणत्ती,निमित्त-उप्पाय-विगई य ॥२१४६॥ | मुच्यत इतीह भावार्थः । एवमुत्तरत्रापि सामान्यतो द्रव्यलवीरियभावे य तहा, लक्षणमेयं समासो भणियं ।
क्षणता, विशेषतस्तु वक्ष्यमाणतत्तद्विशेषलक्षणता द्रष्टव्येति ।
उदाहरणमाह-यथैकेन दृश्यमानघटेन तुल्याऽऽकारोऽन्योअहवा वि भावलक्खण, चउन्विहं सद्दहणमाई ।२१४७।।
ऽपि सर्वो घट इति, एवमनेनैव प्रकारेण सर्वासु मूर्तिषु सर्वेसदहणजाणणा खलु, विरई मीसं च लक्खणं कहए। प्वपि मूर्तवस्तुषु यस्य येन सादृश्यं घटते तत्सर्व साहते वि निसामिति तहा, चउलक्खणसंजुअं चेव ।२१४८|| श्यलक्षणमिति ॥ २१५२ ॥ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं पदार्थानां स्वरूपम् , तच्च नामादि- अथ 'साममलक्खण' ति सामान्यलक्षणव्याख्यानमाहभेदाद् द्वादशधा ॥ २१४६ ॥ २१४७ ॥ २१४८॥
सामएणमप्पियमण-प्पियं च तत्थंतिमं जहा सिद्धो । अत्र नामस्थापनालक्षणे ब्याचिख्यासुराह भाष्यकार:- सिद्धस्स होइ तुल्लो,सव्यो सामण्णधम्मेहिं ॥२१५३॥ लक्खणमिह जं नामं, जस्स व लक्खिजएं व जो जेणं । एगसमयाइसिद्ध-तणेण पुणरप्पिो स तस्सेव ।। ठवणागारविसेसो, विमासो लक्खणाणं वा ।।२१४६।। तुल्लो सेसाऽतुल्लो,सामएण विसेसधम्मो ति।।२१५४॥ इह ' लक्षण 'मिति यल्लकारादिवर्णत्रयावलीमात्रं तन्नामैव इह सामान्यं द्विधा-अर्पितमनर्पितं च । तच्चार्पितं विशेषितलक्षण नामलक्षणम् । अथवा- जस्स व' त्ति यस्य वा कस्य- मुच्यते,अनर्पितं त्वविशिष्टम् । तत्रान्तिममविशिष्टं सामान्य चिजीवादे-'लक्षण' मिति नाम क्रियते तद् वस्तु नाम्ना हेतु- यथा-सिद्धः सर्वोऽप्यन्यस्य सर्वस्यापि सिद्धस्य सत्त्वभूतेन लक्षणं नामलक्षणम् । अथवा--नाम तद्वतोरभेदान्नाम द्रव्यत्व-प्रमेयत्वा-मूर्तत्व-क्षीणकर्मत्वाऽनावाधत्व-सिद्धत्वाच तल्लक्षणं च नामलक्षणम् । ' लक्खिज्जए वा दिभिः सामान्यधर्मंस्तुल्यः-समानो भवति । एक-द्वि-याजो जणं । ति यो वा स्तम्भकुम्भाऽम्भोरुहादिः प- दिसमयसिद्धत्वेन पुनरपितो विशेषतः ससिद्धः 'तस्सेव तुल्ल' दार्थों निजेन स्तम्भकुम्भादिनाम्ना लक्ष्यते--शायते त- ति तस्यैवैकद्विब्यादिसामान्यसमयसिद्धस्यैव सिद्धस्य तुल्यः स्तम्भादि नामलक्षणमुच्यते, लक्ष्यतेऽनेनेति कृत्वा ।। समानः, शेषस्य त्वसमानसमयसिद्धस्यातुल्योऽसमानः । न.
'ठवण' ति स्थापनालक्षणमुच्यते । किं तत् ? इत्याह-ल- नुकथमेक एवायं सिद्धः सिद्धान्तरैस्तुल्योऽतुल्यश्च? इत्याह
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लक्खण
सामान्यरूपा विशेषरूपाश्च धर्मा यस्य स सामान्यविशेषधर्मा इति हेतोः । न हासौ यैरेव धर्मैस्तुल्यस्तैरेवातुल्यो येन विरोघः स्यात् किन्तु समानधर्मैस्तुल्यो विशेषधः पुनरतुल्य इति भावः । यश्चह सिद्धस्य सिद्धेन सह समानत्वं तत्सामान्यलक्षणमिति ॥ २१५३ ॥ २१५४ ॥ विशे० । ( आगारलक्षणम् 'आगारलक्खण ' शब्दे द्वितीयभागे ६४ पृष्ठे गतम् । ) (गत्यागतिलक्षणम् - गइश्रागइलक्खण ' शब्दे तृतीयभागे ७७६ पृष्ठे उक्तम् ।) (नानात्वलक्षणम् ' सागत' शब्दे चतुर्थभागे १६६१ पृष्ठे गतम्) (निमित्तलक्षणम् सिमितलक्सरा' शब्दे चतुर्थमागे २०८३ पृष्ठे उक्तम् । )
अथ उपाय - विगई य' त्ति उत्पाद -
•
विगमलक्षणस्वरूपमाह
नाप्पनं लक्खि- अए जो वत्थु लक्खणं तेणं । उप्पाभ संभव, तह चैव विगच्छ विगमो ॥। २१६४ ॥ यतो नानुत्पद्यं वस्तु लक्ष्यते तेनोत्यादोऽपि तलक्षणम् क संभूतस्य वस्तुन उत्पादो लयम् संभवत उत्पद्यमानस्य । तथा, विगच्छतो - विनश्यतो वस्तुनो विगमो-विनाशो लक्षमेवेति ॥ २१६४ ॥
ननु विगमो नाशः कथं वस्तुलक्षणम् ? इत्याहलक्खिज्जइ जं विगर्य, विगमेश विद्या व जं न संभूई। विगमो विलक्खणमयो, विगच्छ त्यो २११६५ यद्यस्मात् पयोस्पादेनोत्पन्नं लक्ष्यत एवं विगतमपि बिगमेन लक्ष्यत एव यथा चोत्पादमन्तरेण न वस्तुनः सम्भूति, एवं विगमेण इत्यस्यावृत्योत्तरत्रापि संबन्धाद्यस्माद् पिगमेनापि दिना न वस्तुनः संभूतिः संभवः न हि मृदः प्राक्तने रूपेऽविनष्टे घटस्य संभवोऽस्ति । अतः - अस्मात् कारणात् विगमोऽपि वस्तुनो लक्षणमेव, तत्संभा उत्पादयत्। कर्मभूतो विगमः ? इत्याह-विगत वस्तुमोनाऽभिः यथोः पद्मादमेवानुत्पाद इति ।। २११५ एतदेव भावयति
( ५१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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लिरिजुता नियय- प्पसूर वक्कत्तणास समयं । लक्खिजनेयरहा, तह सच्चे दव्यपाया ।। २१६६ ।।
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अनुल्या ऋजुता अमृता सा समकं युगपद् निजकप्रसूतिक्रत्वनाशत एव लक्ष्यते, नेतरथा - नान्यथेत्यर्थः । तत्र निजकप्रसूति रुत्पाद ऋजुतायाः, वक्रत्वस्य नाशो वक्रत्वनाशः, निजकप्रसूतिध वऋत्यनाशश्च निजकप्रसूति-पत्नी ताभ्यां निजकप्रसूतिवऋत्वनाशाभ्यामिति समासः । श्रस्माच्च पञ्चमीद्विवचनन्तात् " पञ्चम्यास्तसिल " ( पाणि ५।३।७ ) इति तस्प्रत्ययः । इदमुक्तं भवति श्रङ्गुलीद्रव्यस्य ऋजुता पर्यायो नियमत एव स्वस्योत्पादन वकत्वस्य च नाशेन लक्ष्यते, नान्यथा, अनुत्पन्नस्य खरविषाणस्येव लक्षवायोगात् विपक्षभूतपययाविना बोत्पादायोगात् । यथा चाटुश्या ऋजुतापर्यायस्तथाऽन्येऽपि सर्वद्रव्यपर्याया: स्वस्योत्पादे वापराभूतपर्यायविनाश एव च सति लक्ष्यन्ते, नान्यथा । ततब्ध यथोत्या वस्तु लचकत्या तथा वि नाशोऽपि पूर्वपर्याविनाशमन्तरेणाप्युत्तरपर्यायविशिष्टवस्तुनो लक्षणायोगादेति ॥ २१६६ ॥
अथ विनाशस्य ये सर्वथा वस्तुत्यंति सौगताः, तन्मतानुसारी परः प्रादउप्पायस्स हि जुत्ता, लक्खण्या नासओ विणासस्स । नासो व लक्खियं वा वधु न भावो खपुष्कं व ।।२१६७॥ ननूत्पादस्य लक्षणता युक्ता, उत्पन्नवस्त्वनन्यत्वेन तस्य सत्वात् विनाशस्य त्वसतोऽविद्यमानस्य नासी युक्ता । नात् खरविषाएं कस्यापि लक्षणं भवितुमर्हति । अथ नाशोऽपि वस्तुनो लक्षमिष्यते तर्हि तस्याभावरूपत्वात् तलक्षितं वसवप्यभाव एव स्वात् आकाशकुसुमवदिति । मतदेवाह नोवलक्खियं वत्यादि ॥ २१६७ ॥ अयोत्तरमाह
,
6
शक्रखण
"
नासो भावो संभू - इहे
वत्थुणो धुवत्तं व ।
अव समुप्पा व थुप्यभवाभावाओ || २१६८ ॥ 'नाशो भाष' इति प्रतिज्ञा पूर्वोकन्यायेन वस्तुनः संभूति त्यात्त्यवदिति । अथवा हेतु राताम्यत्येनान्यथा प्रमाणम्-नाशो भाव इति सैव प्रतिक्षा, वस्तुनः प्रकृष्टं भवनं प्रभवः, प्रीडता पर्यायस्तस्वारी प्रथमं पूर्व भाव सवंतस्माद्यस्तु प्रभवादिभावादिति हेतुः समुत्यादयदिति दृष्टान्तः । इह यो यो वस्तुनः प्रकृष्टमनस्यादी भवति स स भावः, यथोत्पादः, भवति व वस्तुप्रभवस्यादौ पूर्वोक्तयुतितो नाशः, तस्माद् भाव इति ॥ २१६८ ॥
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डुक्रम्-नासोवलकिस बेत्यादि तताऽऽह नासोवलक्खियं चिय, तदभावो थिय तदभहा भावो ॥ आह न पतमेचं भावाभावोभवस भावं ।। २१६६ ।। एवं च सति नासोवलक्खियं थिय तदिति नाशोपलचि तमेव तत्- निर्दिषुक्रितो नाशेन सस्यत एवेतदित्यर्थः तथा चैतायतशिनाभाव एव तद् वस्तु मात्र विवाद, कथञ्चिद् वस्तुनाम भावरूपतया जैनैरभ्युपगतत्वादिति ।
अन्नद्दा भावो 'ति श्रन्यथा पुनरम्येन रूपेण तद्वस्तु भावःउत्पाद - भौव्यरूपतया भाव एव तदित्यर्थः । अत्राह परःनन्वेवं सात भावाभावोभयस्वभावं वस्तु प्राप्तम्, एतच्चायुक्तम्, भाषाभावयोः परस्परपरिहारेणावस्थानाच्छायाऽऽतपवदेकत्रायोगादिति ॥ २१६६ ॥
अत्रोत्तरमाह
एवं चिप तं वत्युं सब्वाभावे व तं खपुष्कं च । भावे व सव्वा सव्वसंकरे-गत सिचाई ॥ २१७० ॥ गन्धेयमेव भावाभावोभवरूपतासामेव तद् वस्तु भवति, न पुनरेकान्तेन भावस्वरूपत्वेऽभावस्वरूपये था. एतदेवाद-सबभावे वा सर्वथैवाभावरूपतायां वा इष्यमाणायां खपुष्पमिव तद् वस्तु स्वात् भये या सर्वधा भावरूपतायां वैकान्तेनेष्यमाणायां सर्वसङ्करैकत्व-- नित्यत्वादयो दोषाः प्रसजन्ति; तथाहि - ' सर्वथा सर्वैरपि प्रकारैर्घटस्य भावः ' इत्युक्ते यथा घटरूपतया तथा पट-स्तम्भ-भू-भूधरादित्रैलोक्यरूपतयाऽपि तस्य भावः प्राप्नोति, कथञ्चिदप्यभावरूपताऽनभ्युपगमात् । एव स्तम्भ-भू-भूधरादीनामपि सर्वात्मना भाषात् सर्वसंकरो ऽम्योम्यानुप्रवेशलक्षणः स्यात् । एकस्मिन् वा कस्मिंश्चिद् घटादिवस्तुनि सर्वस्यापि त्रिभुवनस्यानुप्रवेशात्
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(५६३) लकवण अभिधानराजेन्द्रः।
लक्ष्यण सकत्वं भवेत् । ततश्चकस्मिन्नपि व्योमादिवस्तुनि सर्वदैवा- पारिणामिकः । एषामेव भावानां द्वयादिसंयोगलक्षणः सांयतिष्ठमाने शेषस्यापि घटादिवस्तुजातस्य तदेकत्वापत्या निपातिकः । 'त एव हव' त्ति अथवा-त एवौदयिकादयो सर्वदाऽवस्थानात् सर्वनित्यत्वप्रसङ्गः; श्रादिशब्दादेकस्मिन् भाषा लक्षणं भावलक्षणम् । जीवो हि नारकादिव्यपदेशघटादिवस्तुनि विनष्टे शेषस्यापि भू--भूधरादेस्तदेकत्वेन हेतुत्वात् तैर्लक्ष्यत एवेति ।' तत्थुदो पोग्गलविवागो 'ति विनाशात् सर्वशून्यतापत्तिः, सर्वस्यापि च सर्वत्र विद्यमान- तत्र प्रथमव्याख्यापक्ष प्रौदयिकभावस्य कर्मपुद्गलविपाकस्वात् सर्वार्थेषु निराकासमेव विश्वं स्यादिति । तस्मात् लक्षण उदयो लक्षणम् . एवमन्येषामपि भावानां यथायोग केवले भावरूपत्वेऽभावरूपत्वे वेष्यमाणे दोषदर्शनाद् भावा- लक्षणं वाच्यम् । तच्च दर्शितमेवेति ॥ २१७३ ॥ भावोभयरूपं वस्तु । न चैवं विरोधः, भावाभावयोर्भिननि
भाष्यकारोऽपि तस्मिन्नुदये भव औदयिकः, तेन वा नि. मित्तत्वात् । यदि हि येनैव भावस्तेनैव चाभावः स्यात् |
वृत्तः, स एव वीदयिकः' इत्यादिकां भावानां व्युत्पत्ति, शेनदा भवेद् विरोधः; नचैतदस्ति, स्वरूपेण घटादेर्भावात् ,
पाणामौपशमिकादिभावानामुपशमादिरूपं लक्षणं च दर्शपररूपण चाभावादिति ॥ २१७० ॥
यन्नाहननु यद्येवम्, तर्युत्पन्नमप्यनुत्पन्नम् , तस्याभावरूपत्वात् : अनुत्पन्नमभावीभूतं चास्ति, अभावरूपतया सत्त्वात् त.
उदए सइ जो तेण व, निव्बत्तो उदय एवं प्रोदइयो । था च सति — उत्पन्नम् विनयं वेदम् ' इत्यादि लोकव्यवहारो उदयविघाय उवसमो,उवसम एवोवसमिउ ति।।२१७४॥ न प्राप्नोति, इत्याशङ्क्याऽऽह
खय इह कम्माभावो, तब्भावे खाइओ स एवऽहवा । उप्पन्न विगयं वा-णप्पियमविसेसियं सधम्मेहिं । उभयसहावो मीसो, खोवस मिश्रो तहेवाज्य।।२१७५।। तं चिय पज्जायंतर-विसेसियमहप्पियं नाम ॥२१७१।। सव्वत्तो किर नासो, परिणामोऽभिमुहया स एवेह । इहोत्पन्नं विगतं वेति यल्लोके व्यपदिश्यते वस्तु. तत् सर्व
परिणामिउ त्ति सुद्धो, जो जीवाऽजीवपरिणामो।२१७६। र्माप द्विविधम्--अर्पितम् , अनर्पितं च । तत्र स्वधर्विशेष- तिम्रोऽपि गतार्थाः, नवरम् 'उभयसहावो' इत्यादि कबद्भिः, पर्यायैरविशेषितं सामान्यरूपं वस्त्वनर्पितमभिधी- मणो यावनन्तरोक्तौ क्षयोपशमौ तदुभयस्वभावत्वाद् मिश्रः यते । नदेव च पर्यायान्तरैः-पर्यायविशेषैर्विशेषितमर्पितमु- क्षयोपशमिको भावः । कथं कया व्युत्पत्त्या ? इत्याहच्यत इति । एवं व्यवस्थिते यदा सामान्यरूपमनपेक्ष्योत्पाद- तथैवेति , क्षयोपशमावेव क्षायोपशमिकः . तयोर्वा भवः, विगमादिपर्यायण केनापि विशेषितं वस्तु वक्तुमिष्यते | ताभ्यां वा निवृत्त इति पूर्वदर्शितव्युत्पत्त्येत्यर्थः । तदेवं नानदोत्पन्नं विगतं चत्यादिव्यपदेशतः माऽपि लोकव्यवहारः मादिभावावसानं द्वादशधा संक्षेपतो लक्षणमभिहितम् । एप्रवर्तते । तथाचाह--" अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः " ( तत्त्वा०५ तदेवाह नियुक्तिकार:- लक्खणमेयं समास । भणियं' ३१, १३३) इति तदेवमुक्तमुत्पाद-विगमलक्षणम् । धौ- इति ॥ २१७४ ॥ २१७५ ॥२१७६॥ . व्यलक्षणं तु द्रव्यलक्षणाभिधानद्वारेणवाभिहितम् । ध्रुवत्व- इह च प्रकृते भावलक्षणेनाधिकार इत्येतदेव दर्शयन्नाह द्रव्यत्वयोरेकार्थत्वात् ॥ २१७१ ॥
भाष्यकार:अथ 'वीरिय' त्ति वीर्यलक्षणमभिधित्सुगह-- सम्मत्त-चरित्ताई, मीसोचसम-क्खय-स्सहावाई । वीरिय ति पलं जीव-स्स लक्खणं जं व जस्स सामत्थं । सुय-देसोवरईओ, खोवसमभावरूवाओ ।। २१७७।। दव्वस्स चित्त रूवं, जह वीरियमोसहाईणं ।। २१७२ ।। सामाइएसु एवं, संभवनो सेसलक्खणाई पि । वीर्य जीवस्य बलमुच्यते । तेन च 'बलवानयम्' इत्या- जो एज भावो वा,वइसेसियलक्खणं चउहा।।२१७८॥ दि व्यपदेशाजीवो लक्ष्यत इति तत् तस्य लक्षणम् । अथवा- इह सामायिकं तावच्चतुर्विधम् सम्यक्त्वसामायिकम् , न जीवस्यैव बलं वीर्यमुच्यते, किन्तु यद् यस्य सचेतन- थुतसामायिकम्, देशविरतिसामायिकम् , सर्वविरतिसामा म्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य चित्ररूपं सामर्थ्य तदिह वीर्यम- यिकं चेति । तत्र सम्यक्त्वसामायिकं चारित्रसामायिक भिधीयते यथा लोकेऽपि प्रसिद्ध हरीतकीगुडूच्याद्यौषधीनां | चेत्येते द्वे अपि सामायिके मिश्रोपशम-क्षयस्वभावे मयीयम् , आदिशब्दाद्-माणमन्त्रादिपरिग्रहः, उक्तं च-'अ- | म्तव्ये । मिश्रः क्षायोपशमिको भावः , उपशमस्वीपशचिन्त्या हि मणिमन्नौषधीनां प्रभावः' इति ॥ २१७२ ॥ मिको भावः , क्षयः-क्षायिको भावः , एतेषु त्रियपि अथ भावे य'त्ति भावलक्षणमाह
भावेषु यथोक्नं सामायिकद्वयं वर्तत इत्यर्थः । ' धुतजमिहोदइयाईणं, भावाणं लक्षणं त एवऽहमा ।
मिति' श्रुतसामायिक, देशोपरतिर्देशविरतिसामायिकम् ,
एते हे अप्येकस्मिन्नेव क्षायोपशामके भाव वर्तते । अत तं भावलक्खणं खलु,तत्थुदओ पोग्गलविवागो।२१७३।
एतानि चत्वार्यपि सामायिकानि यथोक्नभावरूपत्वान् , दह भावानामौयिकादीनां कर्मपुद्गलोदयादिरूपं लक्ष- जीवस्य चैतैः सामायिकवस्वेन लक्षणाद भावलक्षणरूपाणि ण सद्भावलक्षणम् , यथा कर्मपुद्गलानामुदयलक्षण औद- भवन्ति । एवमेतेषु सामायिकेषु संभवतो यथासंभवं शेयिकः, कर्मपुद्गलानामेवोपशमलक्षण औपशमिकः, तेषामे- पाण्यपि नाम-स्थापना-द्रव्यमादृश्यरूपाणि लक्षणानि योव सर्वथाऽभावलक्षणः क्षायिकः, क्षयोपशमरूपमिश्रता- जयेत् । तथाहि-जीवद्रव्यमेनलंग्यत इति द्रव्यलक्षणमलक्षणः क्षायोपशामकः, सामान्येन पुद्गलपरिणतिरूपः- | प्येतानि भवन्ति , एवमन्यलक्षणनाऽग्यभ्यूह्य वाच्या ।
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(५६४) लक्रवण अभिधानराजेन्द्रः।
लक्रवण यदुक्कं नियुक्तिकृता- अहवा वि भावलक्खण' मित्यादि, | पृष्ठे उक्तम् । ) (विवेकव्याख्या 'विवेग' शब्दे वक्ष्यामि ।) तव्याख्यानार्थमाह-'भावो बेस्यादि'। 'वा' इति प्रथया, (कतिविधो व्युत्सर्ग इति 'विउसग्ग' शब्दे वक्ष्यामि ।) भावतो-भावविषयेऽन्यद् वैशेषिकं-विशेषरूपलक्षणं चतुर्वि
संसारलक्षणम्धं बोद्धव्यम् ॥ २१७७ ॥ २१७८ ॥
"माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे । तव' सहहण-जाणणा' इत्यादिना नियुक्तिकृता दर्शितं
बजति च सुतः पितृत्वं, भ्रातृत्वं पुनः शत्रुतां चैव ॥१॥" भाष्यकारो व्याख्यातुमाह
इत्येवं संसारस्य चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणसदहणाइसहावं, जह सामॉइयं जिणो परिकहेइ।
लक्षणस्यानुप्रेक्षा । स्था०४ ठा० १ उ०। तल्लक्खणं चिय तयं, परिणमए गोयमाईणं ॥२१७६।।
शुक्लध्यानस्य पुनः सौत्रलक्षणम्पूर्वमौदयिकादिभावानामुदयोपशमादयो लक्षणमित्येतद् भावलक्षणमुक्तम् । अथवा-त एवौदयिकादयो भाषा जी
सुक्कस्सणं माणस्स चत्तारि लक्खणा पत्मत्ता, तं जहावाऽजीवलक्षकत्वेन भावलक्षणमुक्ताः । इदं च द्विविधमपि | खंती मुत्ती अजवेमद्दवे । (सू०८०३४) भ०२५श०७ उ०। भावलक्षणं सामान्यम् , जीवाऽजीवलक्षणकत्वेन सर्वत्र चिह्न, औ० । शुभकर्मचिढे, नि० चू० १३ उ०। छत्रचाभावात् । श्रद्धानादिकं तु विशेषलक्षणम् । सम्यक्त्वादि- मरादिके, कल्प० १ अधि०१ क्षण । यवमत्स्यपद्मशंखचक्रसामायिकेष्वेव भावात् । तथाहि-जीवादिपदार्थश्रद्धानं स- स्वस्तिकश्रीवत्सादिके, सूत्र०२७०२ अ०। व्य० । विपा० । म्यक्त्वसामायिकस्य लक्षणम् । आदिशब्दात्-'जाणण 'त्ति
जं। नं० स० । नि० । अनु । औ० । जी० । नि० चू० । ज्ञानज्ञा-जीवादिवस्तुपरिच्छित्तिरित्यर्थः । सा च श्रुतसा
सामुद्रिकोक्ने करचरणरेखादिके (कल्प०१ अधि०३क्षण) मायिकस्य लक्षणम् । 'विरइ' त्ति विरमणं-विरतिरशे
स्त्रीपुरुषादीनां शुभाशुभचिह्वे,यथा-"अस्थिवर्थाः सुख मांसे, षसावद्ययोगनिवृत्तिः । सा पुनश्चारित्रसामायिकस्य लक्ष
त्वचि भोगास्त्रियोऽत्तिषु । गतौ याने स्वरे चाक्षा, सर्व सत्त्वे णम्। 'मीसंव' तिमीसा वत्ति । पाठान्तरं च-तत्र मिश्रम्
प्रतिष्ठितम् ॥१॥" इत्यादि । स्था०८ ठा० ३ उ०। उत्त० । विरताविरतम् , मिश्रा वा विरविरतिर्देशविरतिसामायिः |
"लछणपमुहं तु लक्खणं भणिअं" लाञ्छनप्रमुखं तु लकस्य लक्षणम्। ततश्चैतद्यथा श्रद्धानादिस्वभावं श्रद्धानादिच.
क्षणं भणितम् , यथा-"नाभ्यधस्ताद् भवेद् यस्या, लाञ्छनं तुर्लक्षणसंयुक्तं सम्यक्त्वादिसामायिकंजिनः-श्रीमन्महावी
मशकोऽपि वा । कुमोदकसंकाशं, सा प्रशस्ता निगद्यते ॥१॥" रः परिकथयति, तल्लक्षणयुक्नमेव तद् गौतमादिश्रोतृणां प
इत्यादि । निशीथग्रन्थे पुनरित्थमु]-"माणाइगं लक्खणं, रिणमतीति । तदेवमभिहितं लक्षणद्वारम् ॥ २१७६ ॥ विशे०।।
मसाइगं बंजणं,अहवा-जं सरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्खणं, उत्त० । प्रा० चूछ । श्रा० म० । स०। (लक्षणवता सूत्रेण
पच्छा उत्पन्नं वंजणमिति"। प्रव०२५७द्वार । आवानि० चू। भवितव्यमिति 'सुत्त' शब्दे वन्यामि) लक्ष्यते तदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति लक्षणम् । स्था०३ ठा०३ उ०। पो
दुविहाय लक्खणा खलु, अभंतर-बाहिरा उदेहीणं । धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां गत्यादिके, आव०४ अ० । अनु ।
बहिया सुर-वस्माइ, अंतो सम्भाव सत्ताई ॥ ३४ ॥ आचा। दर्शक । प्रतिविशिष्टस्वरूपे, प्रा० चू०१ अ०।
गाहालक्ष्यते गम्यतेऽनेनेति लक्षणम् । लिङ्गे, विशे० । श्राचा। बत्तीसा अट्ठ सयं, अट्ठ सहस्सं व बहुतराई च । ( आर्तध्यानस्य लक्षणम् ' अट्टरमाण' शब्दे प्रथमभाग
दहेसुं देहीणं, लक्खणॉणि सुभकम्मजणिताणि ॥३।। २३७ पृष्ठे उक्तम् । ) (रौद्रध्यानस्य लक्षणं ' रुद्दज्झाण' पागयमणुयाणं वत्तीसं अट्ठ सयं, बलदेववासुदेवाणं अट्ठ स. शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।)
हस्सं, चक्कट्टितित्थंकराणं जं पुडा हत्थपादादिसु लक्खि___ धर्मध्यानस्य सौत्रलक्षणम्
जति तेसिं पमाणं भणिय, जे पुण अन्तो स्वभावसत्तादि धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पम्मत्ता,तं जहा- तहि सह बहुतरा भवंति; तेय अण्णजम्मकयसुभणामसरीरआणाई णिसग्गरुई सुत्तरुई ओगाढरुई । ( सू० २४७ )।
अंगोवंगकम्मोदयात्रो भवति । स्था० ४ ठा०१ उ०।
लक्खप-बंजणाण इमो विसेसो(श्राझारुचिव्याख्या 'प्राणारुई' शब्दे द्वितीयभागे १२७ पृष्ठे माणुम्माणपमाणा-दि लक्षणं बंजणं तु मसगादी । गता।) (निसर्गरुचिव्याख्या 'णिसग्गरुह' शब्द चतुर्थ- सहज तु लक्वणं वं-जणं तु पच्छा समुप्पमं ॥३६॥ भागे २१३५ पृष्ठे उक्ता । ) (सूत्ररुचिव्याख्याम सुत्ता' शब्दे | जलदोण-अभार-समूहाई समुस्सितो व जो णव तु । वक्ष्यामि ।) (अवगाढरुचिविवरणम् ' श्रोगाढरुइ' शब्दे |
माणुम्माणपमाणं, तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ ३७ ॥ तृतीयभागे ७६ पृष्ठे उक्तम् ।)
माणादियं लक्खगं, मसादिकं वंजणं । अहवा-जं मर्गशुक्लध्यानस्य सौत्रलक्षणम्
रेण सह उप्पएणं तं लक्खणं, पच्छा समुष्पगणं बंजण, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पामत्ता,तं जहा-1
माणुम्माणपमाणस्स य इमं वक्खाणं, जलम्स दोग छहती अव्वहे असम्मोहे विधेगे विउस्सग्गे । (मू० २४७)।। माणजुत्तो पुरिसो, तुलारीवितं अद्धभारं तुले माणा उम्मास्था० ४ ठा०१ उ०।
गजुत्तो पुरिसो भवति । पुंवारसंगुलपमाणई समूहाई णवस(अव्यथाथैः 'अव्वह' शब्दे प्रथमभागे ८१७ पृष्ठे गतः।)। मुस्सितो पमाणवं पुरिसो; एवमादितिविधलक्खणण आदि(असम्मोहविवरणम ' सम्मोह' शब्द प्रथमभागे ८२५ | स्सति तुम रायादि भविस्मसि ।
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लक्खण
दाणि देवा भवति
भवपव्वतिया लीखा, तु लक्खणा होंति देवदेहेसु । भवधरfire भये, विडम्बिते मन्नुते वत्तो ॥ ३८ ॥ देवां भवधारणिज सरीरेसु लक्खणा लीणा - अनुपलक्खा, उत्तरबैंकियसरीरे व्यक्ता लक्षणा ।
( ५६५ १
अभिधानराजेन्द्रः ।
।
दागारक- तिरिया भरतिउस्सण्ण-मलक्खणसं-जुया उ बोंदी तु होति नरएसुं नामोदयसव्वतिया, तिरिएसु य होंति तिविहाओ ।। ३६ ।। उस्सएणमेकान्तेनैव अलक्षणयुक्त बोन्दिः सरीरमित्यर्थः तिरिपसु लक्खणमिस्सा य तिविधा सरीरा भवंति, लक्खरामलफ्खएं सच्चासच्चे सामकम्याओ ० ० १३ ७०
अधुना लक्षणमुच्यते, तथा चाऽऽह भाष्यकारःलक्खणमियाणि दारं, चिंधं हेऊ अ कारणं लिङ्गं । लक्खणमिह जीवस्स उ श्रायाणाई इमं तं च ॥ ११ ॥ लक्षणमिदानीं द्वारमवसर प्राप्तम् अस्य च प्रतिपत्यङ्गतया प्रधानत्वात्सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूपमेवाह-चिह्न हेतुख कारणं लिङ्गं वचनमिति । तत्र चिम्-उपलक्ष सम पथा-पताका देवकुलस्य हेतुः निमित्त लक्षयम. यथा कुम्भकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य कारणम् - उपादान लक्षणम्, यथा मृन्मसृणत्वं घटबलीयस्त्वस्य, लिङ्गं-कार्यलक्षणम्, यथा-धूमोऽग्नेः पर्यायशब्दा वा एत इति । लजगमित्येतल्लक्षणम् लगयतेऽनेन परोक्षं वस्त्विति कृत्वा जीवस्य पुनरादानादि लक्षणमनेकप्रकारमिदम् तदमानमिति माचार्थः ।
"
दारेआयाणे परिभोगे, जोगुवओगे कसायलेसा । आणापाय इंदिय बंधोदयनिजरा चैव ।। २२३ ॥ चित्तं चेयण सन्ना, विन्नाणं धारणा य बुद्धी अ । ईहामईचिपका जीवस्स उ लक्खा एए ||२२४|| एतत्प्रतिद्वारगाथाद्वयम् अस्य व्याख्या - आदानं परिभोगस्तथा योगोपयोगी कपालेश्याश्च तथा श्रनापानी इन्द्रियाणि वन्धोदयनिय तथा निम, चेतना, संशा, विज्ञानं धारणा च बुदिध तथा ईडामनिचितक जीवस्य तु लक्षणान्येतानि स्यावधारणार्थत्वाजीवस्यैव नाजीवस्य इति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः ।
"
व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः तच्चेदं भाष्यम्लक्खिनिनज पचवरोव जेस जो प्रत्थो । तं तम्स लक्खणं खलु, भृमुहाइ व्य अग्गिस्स ॥ १२ ॥ यहां जायते को विवाह प्रत्यक्ष-अक्षिगोचरापत्रः इतगे वा उत्पादिना योऽर्थः अन्यादिस्तम्पलदेव पतियादिवदग्नेरिति स हि श्रष्टयेन प्रत्यक्षो लक्ष्यते, परोश्री धूमेनेति गाथार्थः । दश० ४ ० । श्रन्ययूथिकानां गृ
लक्ष्यणपंजण
9
हयानां या न कथनीयमिति 'अस्थिय थमभागे ४७२ पृष्ठे उक्कम)"फ्ले (२०३) लक्षणं पुरुषधिह्रादि । आव० १ ० । ( तच्च भगवता ऋषभेण बाहुबलिने उपदिष्टमिति लोकेऽपि शास्त्रत्वेन प्रसिद्धम् तच्च 'लक्खणवंजणगुणोववेय' शब्देऽनुपदमेव दर्शयिष्यते । ) लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । दृष्टान्ते, लाक्षणिके, बृ० ३ ० । (लक्षणयुक्तं वस्त्रं धारणीयमिति ' वत्थ' शब्दे वचयते । ) लक्खणंकिय-लक्षणाङ्कित त्रि० । प्रशस्तलक्षणोपेते, जी० ३ प्रति० ।
लक्खणपंडग- लक्षणपण्डक-पुं० लक्षणेन लक्षिते पण्डके, पं० भा० १ कल्प ।
लक्खणपसत्थ-प्रशस्तलक्षण-शुिभ०११०
११ उ० ।
लक्खणवंजणगुणोववेय-लक्षणव्यञ्जनगुणो ( प ) पेत- त्रि० । लक्षणम्- पुरुषलक्षशास्त्राभिहितम् " अखियर्थाः सुखं मांसे " इत्यादि, मानोन्मानादिकं वा, व्यञ्जनं-मषतिलकादि, गुणाः- सौभाग्यादयः अथवा लय जनयोयें गुणास्तेपेतो लक्षयञ्जनगुली (प) पेतः । प्रशस्तलक्षणोपेते स्था०
ठा० ।
तत्र लक्षणानि चक्रितीर्थकृताम् अहोर सुदेवानाम् अष्टोत्तरशतम् अन्येषां तु 237
नि चेमानि - "छत्रं १ तामरसं २ धनू ३ रथवरा दम्भालि२] कृर्मा ६७ यापीय स्वस्तिक तोरखानि १० च सरः ११ पञ्चाननः १२ पादपः १३ ॥ चक्रं १४ शङ्ख १५ गजौ १६ समुद्र १७ कलशौ १८प्रासाद १६ मत्स्यौ २० यवो२१, यूप- २२ स्तूप - २३ कमण्डलू २४ न्यवनिभृत् २५ सचामरो २६ दर्पणम् २७ ॥ १ ॥ उक्षा२८ पताका २६ कमलाभिषेकः ३०, सुदाम २१ की ३२ घनपुण्यभाजाम् ।
"
तथा
"इह भवति सप्तरक्तः, पचतः पञ्चसूक्ष्मदीर्यध । त्रिविपुललघुगम्भीरो, द्वात्रिंशतः स पुमान् ॥ १ ॥ "
तत्र सप्त रक्तानि - "नख - १ चरण-२ हस्त-३ जिड्ढा ४, श्रोष्ठ५ तालु ६ नेत्रान्ताः ७ । पन्नतानि कक्षा १ हृदयं २ प्रीवा ३, नासा ४ नखा ५ मुखं च ६ । पञ्च सूक्ष्माणि - दन्ताः १ त्वक २] केशा ३ अलिपर्वाणि ४ नवा ५ तथा पञ्च दार्याणि नयने १ हृदयम् २ नासिका ३ भुजौ व ४-५ । त्रीणि विस्तीशनि भालम् १२ वदनं च ३ त्रीणि लघुनि - प्रीवा १ जङ्घा २ मेहनं च ३ । त्रीणि गम्भीराणि सत्त्वम् १ स्वरः २ नाभिश्च ३ ।
"मुखमधे शरीरस्य सर्वे या मुखमुच्यते । ततोऽपि नासिका अशा नासिकाया लोवने ॥ १ ॥ यथा नेत्रे तथा शीलं यथा नासा तथार्जवम् । यथा रूपं तथा विनं, यथा शीलं तथा गुणाः ॥ २ ॥ प्रतिहस्त्रेऽतिदीर्घे ऽति-स्थूले याति तथा । अतिऽतिगीर पर सत्वं निगद्यते ॥३॥ सद्धर्मः सुभगो नीरु, सुस्वप्नः सुनयः कविः । सूचपत्यात्मनः श्रीमान् नरः स्वर्गगमागमी ॥ ४ ॥
,
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(५६६) लक्खणवंजण. अभिधानराजेन्द्रः।
लक्खवाणिज निर्दम्भः सदयो दानी, दान्तो दक्षः सदा ऋजुः। स्यादितिथ्या सह सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, इदमुक्तं मर्त्ययोनेः समुद्भूतो भविता च पुनस्तथा ॥५॥
भवति-यानि नक्षत्राणि-यासु तिथिषूत्सर्गतो भवन्ति, मायालोभक्षुधाऽऽलस्य-बडाहारादिचेष्टितैः ।
यथा कार्तिक्यां कृत्तिका, तानि तास्वेव यत्र भवन्ति यथोतिर्यग्योनः समुत्पत्ति, ख्यापयत्यात्मनः पुमान् ॥६॥ क्तम्-"जेट्ठो वश्च मूले-ण सावणो तह धणिटाहिं। अहासु सरागः स्वजनद्वेषी, दुर्भगो मूर्खसङ्गकृत् ।
य मग्गसिरो, सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥ १ ॥” इति शास्ति स्वस्य गतायातं, नरो नरकवर्त्मनि ॥७॥
तथा यत्र समतयैव ऋतवः परिणमन्ति, न विषमतया, श्रावों दक्षिणे भागे, दक्षिणः शुभकृन्नृणाम् ।
कार्तिक्या अनन्तरं हेमन्तर्नुः,पौष्या अनन्तरं शिशिर रित्यवामो वामेति निन्द्यः स्या-द्दिगन्यत्वे तु मध्यमः॥८॥ वमवतरन्तीति भावः, यश्च न-नैव, अतीव उष्णं-धर्मों यत्र अरेखं बहुरेखं वा, येषां पाणितलं नृणाम् ।
सोऽत्युष्णः, न-नैवातिशीतः–अतिहिमः, बहूदकं यत्र स ते स्युरल्पायुषो निःस्वा, दुःखिता नात्र संशयः ॥ ६॥ बहूदकः, स च भवति लक्षणतो नक्षत्र इति, नक्षत्रचारलक्षअनामिकान्त्यरेखायाः, कनिष्ठा स्याद्यदाधिका।
णलक्षितत्वान्नक्षत्रसंवत्सर इति, (स्था०) (नक्षत्रसंवत्सरधनवृद्धिस्तदा पुंसां, मातृपक्षो बहुस्तथा ॥१०॥
व्याख्या ' णक्खत्तसंवच्छर' शब्दे चतुर्थभागे १७६२ पृष्ठे (कल्प ) (जीवितरेखाया विचारः 'जीवियरेहा' शब्दे गता।) ( चन्द्रसंवत्सरव्याख्या ' चंदसंवच्छर ' शब्दे चतुर्थभागे १५६५ पृष्ठे गतः।)
तृतीयभागे १०६५ पृष्ठे गता । ) ( ऋतुसंवत्सरव्यख्या यवैरगुष्ठमध्यस्थै-विद्याख्यातिविभूतयः ।
' उउसंवच्छर ' शब्दे द्वितीयभागे ६८६ पृष्ठे गता ।) शुक्लपक्ष तथा जन्म, दक्षिणाङ्गुष्ठगैश्च तैः ॥ १४ ॥ ( श्रादित्यसंवत्सरव्याख्या ' प्राइञ्चसंवच्छर ' शब्दे न स्त्री त्यजति रक्ताक्ष, नार्थः कनकपिङ्गलम् ।
द्वितीयभागे ४ पृष्ठे प्रतिपादिता । ) श्राइच ' गाहादीर्घबाहुं न चैश्वर्य, न मांसोपचितं सुखम् ॥ १५॥ आदित्यतेजसा तप्ताः पृथिव्यादितापेऽप्युपचारात् क्षणाचतुःस्नेहेन सौभाग्य, दन्तस्नेहेन भोजनम् ।
दयस्तता इति मन्तव्यम् । तत्र क्षणो-मुहूर्तः लवःवपुःस्नेहेन सौख्यं स्यात् , पादस्नेहेन वाहनम् ॥१६॥ एकोनपश्चाशदुच्छासप्रमाणो दिवसः-अहोरात्रः ऋतु:उरोविशालो धनधान्यभोगी,
मासद्वयप्रमाणः ' परिणमन्ति ' अतिक्रामन्ति यत्रेति शिरोविशालो नृपपुङ्गवश्च ।
गभ्यते , यश्च पूरयति वायूत्खातरेणुभिः स्थलानि-भूकटीविशालो बहुपुत्रदारो,
मिप्रदेशविशेषान् तमाहुराचार्या लक्षणतः संवत्सरमभिवविशालपादः सततं सुखी स्यात् ॥ १७॥" चितम् 'जाण'त्ति त्वमपि शिष्य ! तं तथैव जानीहीति । इमानि लक्षणानि । व्यञ्जनानि च-मषतिलकादीनि तेषां ये | स्था०५ ठा०३ उ०। गुणास्तैरु(प)पेतम् । कल्प०१ अधि०१क्षण ।
लक्खणा-लक्षणा-स्त्री०। चन्द्रप्रभस्वामिनो मातरि, प्रव०। लक्खणसंवच्छर-लक्षणसंवत्सर-पुं० । प्रमाणसंवत्सर एव ११ द्वार । आव० । ति । स० । द्वारवत्यां कृष्णस्य वासुदेलक्षणानां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः ।। वस्याग्रमहिष्याम्, स्था०८ ठा०। (सा चाऽरिष्टनेमिस्था० ५ ठा० ३ उ० । प्रमाणसंवत्सरलक्षणेन यथावस्थिते- पार्श्वे दीक्षां गृहीत्वा सिद्धेत्यन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गे चतुनोपेते संवत्सरभेदे, चं०प्र० १० पाहु ।
ध्ययने सूचितम् ।) अन्त० । लक्षणाऽप्यवोचत्-"स्नानादिलक्खणसंवच्छरे पंचविहे पएमत्ते,तं जहा--"समगं नक्ख-| सर्वाङ्गपरिष्क्रियायां, विचक्षणः प्रीतिग्साभिरामः । विश्रासाणि जोग, जोयंति समग उद् परिणमंति । णच्चुण्हं
मपात्रं विधुरे सहायः , कोऽन्यो भवन्नूनमृते प्रियायाः णातिसीतो, बहूदतो होति नक्खत्ते ॥१॥ (स्था०)
॥१॥" कल्प०१ अधि०५ क्षण । अम्याः अवसर्पिण्या:
अतीतायां चतुरशीतितमायां चतुर्विंशतितीर्थकरकाले जआदिच्चतेयतविता, खणलवदिवसा उऊ परिणमंति।
म्बूदाडिमराजपुत्र्याम्.महा०६अ०(गतद्वक्तव्यता महानिशीपूरिति रेणुथलताइँ, तमाहु अभिवड्डितं जाण ॥ ५॥" थस्य षष्ठेऽध्ययन प्रतिपादिता तत एवावमया। ) श्रीषध(मू०४६०४)
विशेष, ती०६ कल्प। तत्र 'नक्षत्र' इति नक्षत्रसंवत्सरः, सच उक्तलक्षणः, केवलं लक्खणावती-लक्षणावती-स्त्री० ! 'लम्बनऊ' इति ख्यात तत्र नक्षत्रमगडलस्य चन्द्रभोगमात्र विवक्षितमिह तु दिनदि-| नगरविशेष. यधपतिः हम्मीर-सुरवाणसमदीनः विक्रनभागादिप्रमाणमिति । तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्युक्तलक्षणा
मादित्यवर्षेषु षष्ट्यधिकत्रयोदशशतेष्वतिक्रान्तेषु चम्पायावेव; किन्तु-तत्र युगावयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशे
मेकां प्रतोली भञ्जितवान् । ती० ३४ कल्प । षः, ' उऊ ' इति ऋतुसंवत्सरः, त्रिंशदहोरात्रप्रमाणैाद
लक्खणुएणय-लक्षणोन्नत-त्रि० । महालक्षण, प्रशस्तलक्षण शभिः ऋतुमासैः श्रावणमासकर्ममासपर्यायनिष्पन्नः, षष्ट्यधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति (३६०) 'श्राइच्चे' त्ति श्रादित्य
च । तं० । औ०। संवत्सरः, स च त्रिंद्दिनान्यद्रं चेति, एवंविधमासद्वादश
लक्खपाग-लक्षपाक-पुं० । लक्ष्यरूप्यकव्यर्यानपन्न नेलघृताकनिष्पन्नः षदषयधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति । (३६६)। दौ, स्था० ६ ठा० । अयमेवानन्तरोक्को नक्षत्रादिसंवत्सरो लक्षणप्रधानतया लक्ष- लक्ख(क्खा)वाणिज-लाक्षावाणिज्य-नालाक्षा-जतुः, अत्राणसंवत्सर इति । तत्र नक्षत्रमाह-'समगं' गाहा, समकं- पिलाक्षाग्रहणमन्येषां सावद्यानां मनःशिलादीनामुपलक्षणम, समतया नक्षत्राणि-कृत्तिकादीनि, योग-कार्तिकीपौर्णमा-| तदाश्रिता वाणिज्या लाक्षावाणिज्यम । लाता धातकीनीली
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लक्ज
मनःशिला वज्रलेपतुवारकापट्टा सटा उचारादिविकये. लान्नामनःशिलानीली धातकी दगादिना । विक्रयः पायसदनं लाक्षायाणिज्यमुच्यते ॥ १०२ अधि०
प्रब० । पञ्चा० । ध० २० | श्राव० भ० लक्खा - लाचा स्त्री० । जती भ० ८ लक्खारस- - लाक्षारस - पुं० । यावके,
--
= श्र० ।
1
लक्वारुणित- लाचारुगित पि० लाचारखिने फ्यामणि पल्लवि पाइ० ना० २६८ गाथा । लक्खी लक्ष्मी श्री पदावभवनपाताने कायाभ्यन्तरभूतायां स्वनामख्यातायां देव्याम्, स्था० २ ठा० ३ ३० । श्रा० क० लगंड --लगण्ड - न० | वक्रकाष्ठ, सूत्र० २ ० २ श्र० । लगडसाई - लगएडशायिन पुं० [लग फिल लगनेव पृष्ठस्य बालगनेने
तमस्तक
।
त्यर्थः यः शेते तथाऽभिग्रहान्स लगण्डशायी। लगण्डं वक्रकाष्ठं तद्वत् शेरते लगण्डशायिनः । सूत्र० २ ० २ श्र० मस्तकाकार पृष्ठप्रदेशनेवास्पृष्टभूभाग अभिप्रति के साधौ, ध० ३ अधि० | प्रब० । पञ्चा० । स्था० । लगंड सागिया लगण्डशायिका श्री लगाई किल दुःस स्थितं काष्ठं नद्वत् कुब्जतया मस्तकपाणिकानां विलगंनेन पृष्ठस्य चालगनेन या शेते सा लगण्डशायिका । भूम्यलग्नपृष्ठायां साध्व्याम् बृ०५ उ० ।
"
लगिय लगित त्रि० संघटित आ०४०
नियोजित,
9
(260) श्रभिवानगजेन्द्रः ।
श्रा० । उपा० ।
० ६ ३० । श्रन्त० १ ० ३ वर्ग
66
ज्ञा० १ श्रु० ८ श्र० ।
लग्ग --लग धा० । सङ्गे, “शकादीनां द्वित्वम् " ॥ ८|४|२ ३० ॥ इति अन्त्यगकारस्य द्वित्वम् । लग्गइ । लगति । प्राप्नोति । प्रा० ० १ ३०२ प्रक० ।
3
लग्न - न० | " अधोम-न-याम्, " ॥ ८ । २ । ७८ ॥ इति लग्नशब्दघटकनकारस्य लोपे । लग्गो । भावे क्तः प्रत्ययः । विलगने, प्रा० । मेषादिराशीनामुदये पुं० । इ० प० । सुत्रः । चिट्टे, दे० ना० ७ वर्ग १७ गाथा | सम्बद्धे, त्रि० । ज्ञा १०८ श्र० । "घडि लग्गं संसत्ते" पाइन्ना०२०१ गाथा । लग्गण -- लग्नक--पुं० । प्रतिभुवि, "लग्गणथ्रो पडिओ "
पाइ० ना० २१२ गाथा ।
लघिमा लघिमन् पुं० तूलपिण्डपुत्वमाप्ती ०२६
"
द्वा० । सूत्र० ।
लय-देशी मे दे० ना० ७ वर्ग १७ गाथा लच्छिघर - लक्ष्मीगृह--न० । मिथिलायां नगर्य्या स्वनामख्याते चैत्ये, स्था० ७ ठा० । उत्त० आ० म० । श्रा० क० । श्र० चू० ।
लच्छिमइ - लक्ष्मीमति स्त्री० । जम्बूद्वीपे भरत क्षेत्रे षष्ठवासुदेवस्य पुरुषकस्य मातरि ०१ प्रतिस०चिरकाखायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम् आ० म० १ ० | द्वी० | या० क० ति० । श्राः चूर | जं० । स्था० ।
ランな
लज्जा
जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रे वर्तमानावसयां महाशिवस्य भाव
याम. म० ।
लच्छी लक्ष्मी श्रीपाटी ८२१७॥ ि इकारादेशः प्रा० कपनामख्यातार्या भवनप्रतिनिकावाभ्यन्तरभूतायां देव्याम्. स्था० २०४३०० हरिनापुरनगरे पद्मोत्तरस्य राज्ञाभार्यायां ज्वालायाः सपल्याम् ती० २० कल्प। श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्रपुत्र मज्जवनृपतेर्भार्यायाम् ती० ३४ कल्प । सौधर्मकसं लक्ष्मीमाया १३वर्ग ४ ० । (साच पूर्वभवे पावन्तिके प्रव्रज्य सौध में कल्पे उपपय महाविदेहे सरस्वतीनि नियालिकानां चतुर्थस्य प पय सूचितम्) चतुखप् कल्प० । श्रियाम् कमला सिरीय लच्छी " पाइ० ना० ६६ गाथा । लच्छीकूड - लक्ष्मीकूट- पुं० । शिखरिवर्षधरपवते षष्ठे कुटे,
66
जं० ४ वृक्ष० । स्था० ।
लखीपूर- लक्ष्मीपुर- पुं० खनामच्या भारतवर्षीय पुरे
"
•
"
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'पुरे लक्ष्मीपुरे नाम्ना, दत्तस्य श्रेष्ठिनः प्रिया । श्राराधयदमक्कार्थः पुत्रार्थ नागदेवतम् ॥ १ ॥ " ० ० ४ श्र० । लच्छीविजय लक्ष्मीविजय पुं० दुगडको त्तनामप्रथस्य कर्तरि खनामख्याते श्राचार्य, जै० इ० । लजरा-लखनन लायाम् ०१०१ प्रक० लज्जज्जि लज्जनीय त्रि० लखने यस्मादसी लज्जनीयः । लज्जाहेती, झा० १० ८ ० ।
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लज्जमाण -- लज्जमान त्रि० । लजां कुर्वाणे, 'लज्जमाण पुढो पास. श्रणगारा मो' त्ति । लज्जमानाः स्वकीयं प्रवज्याभानं कुर्यागाः पदि वा सावधानुष्ठानेन माना ल जां कुर्वाणाः पृथग्विभक्ताः शाक्योलूककणभुक्कपिलादिशि
"
व्याः । आचा० १ ० १ ० ३ उ० । लज्जमंजम लज्जायम पुं० ला प्रतीता धादिविमलात्मक ताभ्यां समभावमुपगता इति स एव लज्जासंयमः । संयते, उत्त० २ ० । लज्जसंजय - लज्जासंयत- पुं० । लज्जायां सम्यक् यतते यत्नं कुरुते इति लज्जा संयतः । लज्जया सम्-सम्यग् यतते - कृत्यं प्रत्यातो भवतीति लज्जासंयतः, पचादिदर्शनाद लज्जायति साधी, उत्त० २ ० ।
3
लज्जा-लज्जा स्त्री० प्रीडायाम् ०१ अधि० । अनुचिता नुष्ठान संवरणात्मिकायां हियाम् उत्त० ५ श्र० । स्था० । मनोवाक्कायसंयमे, रा० । लज्जा - संयमः । दश० ६ श्र० २ उ० । अपवादभये, दश० १ ० १ ० । लज्जा द्विविधालौकिकी लोकोत्तरा च तत्र लौकिकी- स्तुपासुभटादेः श्वशुर संग्रामविषया । लोकोत्तरा-सप्तदशप्रकारः संयमः । तदुक्तम्- " लज्जा दया संजमा बंभचेरं" इत्यादि । लज्जमानाः संयमानुष्ठानपराः । यदि या पृथिवीकासमारम्भ पादसंयमानुष्ठानाल्लज्जमानाः पृथगिति प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनश्च श्रतस्तान् लज्जमानान् पश्येत्यनेन शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः प्रदर्शितो भवतीति । श्राचा० १ श्रु० १ ० २ उ० ।
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लहि
(५६८) लज्जापास
अभिधानराजेन्द्रः। लजाणास-लज्जानाश-पुं० । गुर्वादिसमक्षमपि तहणोत्की- लट्ट(ढ)दन्त-लष्टदन्त-पुं०। मेघमुखस्यान्तीपस्य नैर्ऋत्यको र्तने, दश० ६ ०। योषितो हि सङ्गे पुरुषस्य लजानाशो | णे नव योजनशतानि व्यतिक्रम्य लवणसमुद्रे अन्तीपविशेभवति गोविन्दद्विजपुत्रवत् । तं०।।
षे.प्रज्ञा० १ पद । स्था० । पं० व० । नं० । राजगृहे श्रेणिकलज्जातवस्सीजिइंदिय-लज्जातपस्विजितेन्द्रिय-पुं० । लजा- स्य गझो धारिण्यां जाते कुमारे, अणु । “ विजये दोरिण" प्रधानास्तपस्विनः शिष्या जितेन्द्रियाश्च ये ते लजातपस्थि- (विजये विमाने उपपद्येत्यादि सर्वम् ' महासीहसण ' जितेन्द्रियाः । व्युत्पत्तिलब्धार्थकेषु साधुषु, श्री०।
शब्दे पञ्चमभागे २२२ पृष्ठे गतम्) लजातप:श्रीजितेन्द्रिय-पुंकालजया तपःश्रिया च जितानी-लद्रुबाह-लष्टबाहू-पुं० । चम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे दशमतीर्थकरन्द्रियाणि यैस्ते लज्जातप:श्रीजितेन्द्रियाः । व्युत्पत्तिलब्धा- | पूवभवजाव, सक र्थकेषु साधुषु, श्री०।
लद्वय-देशी-कुसुम्भे, दे० ना०७ वर्ग १७ गाथा।। लज्जादाण--लज्जादान-न । लज्जया-हिया दानं यत्तल्लज्जा-लसंद्विय-लष्टसंस्थित-त्रि० । मनोज्ञसंस्थाने, जी० ३ प्रति. दानमुच्यते । “ अभ्यर्थितः परेण तु, यद्दानं जनसमूहम- ४ अधिक। ध्यगतः। परचित्तरक्षणार्थ, लज्जायास्तद भवेदानम" ॥१॥लट्ठसाग-लष्टशाक-न० । कोसुम्भशालनके, वृ० १ उ० २ इत्युक्तलक्षणे दानभेदे; स्था० १० ठा० ३ उ० ।
प्रक०। लजालाघवसंपरम-लज्जालाघवसम्पन्न-त्रि० । तत्र लजा | लट्टा-लष्टा स्त्री० । कुसुम्भे, स्था० ७ ठा० ३ उ०। प्रसिद्धा संयमो वा लाघवं व्यतोऽल्पोपधित्वं, भावतो गौ-लढि-यष्टि-स्त्री० ! " यष्ट्यां लः " ॥८॥ १। २४७ ॥ इति रवत्यागस्ताभ्यां संपन्नः । लजालाघवयुते, भ० २ श०५ उ० । । यस्य लः । प्रा० । “एस्यानुष्टेष्टासंदष्टे" ॥८।२॥ ३४ ॥ इति लजालु-लजालु-त्रि० । अकार्यप्रयत्न प्रति लज्जते सश- एस्य ठः । काष्ठयष्टिकायाम् , औ० । सूत्र। को भवतीति लजालुः । दर्श०२ तत्त्व । अकार्यवर्जके, ध०
यष्टिप्रमाणम्
दुपसुसाणसावय-विजलविसमेसु उदगमाईसु । २ अधि०।
लट्ठी सरीररक्खा, तव संजमसाहित्रा भणिश्रा ॥१॥ लज्जावत-त्रि०। " आल्विल्लोल्लाल-धन्त-मन्तेत्तेर-मणा
मोक्खट्ठा नाणाई, तणू तयट्टा तयट्टिा लट्ठी। मतोः " ॥ ८।२। १५६ ॥ इति मतोः पाल्यादेशः । लजा
दिट्ठा जहावयारे, कारणतकारणेसु तहा ॥२॥" लुः । बीडके, स खल्वाकृत्या सेवनवार्तया ग्रीडति स्व
ध०३ अधि०। यमङ्गीकृतमनुष्ठितं च परित्यक्तुं न शक्नोति इति श्रालोच
गाहाकेन लजावता न भवितव्यम् । प्रव० २३६ द्वार।
मंडक-विडंडए य, लट्टि-विलट्ठी य तिविधतिविधा तु । लजालुइणी-लज्जावती--स्त्री० । “गोणादयः "॥८।२।।
वेणुमयवेत्तदारुग, बहू अप्प अहाकडा चेव ॥ २०२॥ १७४ ॥ इति निपातः । लज्जावती । लजालुइणी । लज्जा-1 एगण तिविहसहेण वेणुवयादी, वितियेण तिविहसद्देण विशिष्टायाम् , प्रा०२ पाद ।
बहुपरिकम्मादी। लज्जावण-लजापन-त्रि० । लज्जामापयन्ति प्रापयन्तीति ।।
गाहालज्जाजनकेषु, प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
तिमि तु हत्थे दंडो, दोलि उ हत्थे विदंडओ होति । लजाबिय-लज्जापित--त्रि० । प्राप्तलजे.प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार। लट्ठी आतपमाणा, विलट्ठि चउरंगुलेणूणं ॥ २०३ ॥ लज्जासंपण-लज्जासम्पन्न-त्रि० । लज्जया अपवादभीरुत- कंठा ॥ या संयमेन वा सम्पन्ने, औ०।
अद्धंगुलेण ऊणं, ण छिज्जंता होंति सपरिकम्माओ । लज्जिय (अ)-लज्जित-त्रि० । लज्जायुक्त, शा०१ श्रु० ८ | अद्धंगुलण ऊणं, छिअंता अप्पपरिकम्मं ॥ २०४॥
अ०। “हित्थं विलियं लज्जियं" पाइ० ना० १६७ गाथा। । पूर्ववत् । लजिर-लजिन-त्रि० । “शीलाद्यर्थस्थरः" ॥८।२।१४५॥
गाहाइति प्रत्ययस्य इरादेशः । लज्जिरो । लज्जाशीले , प्रा० ।
जे पुव्यवट्टिता वा, जमिता संठविव तत्थिता वाऽवि । लज्ज-रज्जु-स्त्री०। रश्मी , रज्जुरिव रज्जुः । सरलत्वात् । होति तु पमाणजुत्ता, ते णायव्या अहाकडका।।२०५॥ प्रश्न ५ संव० द्वार । अवक्रव्यवहारे, भ० २ श०१ उ.। पूर्ववत् । ल(द)-लष्ट-त्रि० । मनोज्ञे,झा० १ श्रु०१ अ०। शोभने,प्रश्न
गाहा-किं पुण लट्टीए, पोयणं इम४ आश्र० द्वार । मनोहरे, रा० । जं० । औ० भ० । जी । दुपदचउप्पदणिवा-रणद्वायरक्खणाहेउं । ज्ञा० । तं० । समीचीने, व्य० ३ उ० । सुन्दरे, पाइ० अद्धाण-भरणभय-वु-दुस्स वञ्चटुंभणा कप्पे ॥२०६॥ ना। श्रन्यासक्ने, मनोहरे, प्रियंवदे च । दे० ना० ७ वर्ग
दुपया-मणुस्सादि, चउप्पदा-गाविमादि बहुप्पाता डंडग २६ गाथा।
गिम्हिमादि श्रद्धाणे पलंबमादि खुज्झति, मतो वा बुज्झति, ल(द)तर-लष्टतर-त्रि०। शोभमतरे, पं००४ द्वार । अति
बोहिगादिभए वा पहरणं भवति । खुढस्स वा अबटुंभणहेऊ कल्याणे, तं०।
लट्ठी कपाति घेतुं । नि० ० : उ० ।
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लद्धि
लहण
अभिधानराजेन्द्रः। लडण-लडन-न० । स्त्रीपुंसयोरन्योन्यं प्रेमकलहे, वृ०१ उ० न्द्रियादिविषये, जी०१ प्रति० । लब्धिनलाभभोगो३ प्रक० । ध० । पं० भा० । नि० चू० । श्राचा० ।
पभोगवीयभेदात् पञ्चधा । सूत्र०१ श्रु०१२ अ० । योलडह-लडभ-त्रि० । सलावण्ये, औ० । जं० । मनोने, प्रश्न ग्यतायाम् , अनु० । पा० । ध०र० । " आहारे उवओगे, ४ाथ द्वार । ललिते, ज.२ वक्षः। " लडह मडह जा
लद्धीए वा हविजऽवत्थाणं" ( ७१६ ) आधारोपयोगल
ब्धिविषयमवधेरवस्थानम् । अवधिज्ञानस्यावस्थाने, विशे० । गुए।" उपा०२०। रम्य, विदग्धे, इत्यन्ये । दे० ना०७ वग १७ गाथा।
(अभ्यन्तरलन्धिलक्षणम् ‘ोहि ' शब्दे ३ भागे १४५ पृष्ठे लडहक्खमिअ-देशी-विघटिते, दे० ना०७ वर्ग २० गाथा।
गतम् । ) गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिरिति प्रसि
द्धिः। श्रा०म०१० लढ-स्मृ-धा० । प्राध्याने, “स्मरेझर-झर-भर-भल-लढ
अथ लब्धिऋद्धीवर्णयितुमाहविम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः "॥८।४।७४ ॥ इति स्मरे लढादेशः । लढइ । स्मरति । प्रा०४ पाद ।
आमोसहि' विप्पोसहि',खेलोसहि जलश्रोसही चेव । लढिय-स्मृत-त्रि० । चिन्तिते, "भरिअं लढिरं सुमरिअं" सब्बोसहि संभिन्ने', ओहि रिउ विउलमइलद्धी १५०६। पाइ० ना०१६४ गाथा।।
चारणे आसीविस के चलिये गणहारिणो ये पुन्वधरा"। लएह-श्ल क्ष्ण -त्रि० । "क-ग-ट-दु-त-द-प-श-प-स-*
अरहंत चक्कवट्टी", बलदेवा" वासुदेवा य ।१५०७। क- पामूर्ध्व लुक" ||८ । २१७७ ।। इति श्लक्ष्णशब्दस्य शकारस्य लोपः। लगई। प्रा०। घुरिटतमढवत् मसृणे, राधा
लब्धिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् श्रामीषधिलब्धिः, जी। प्रज्ञा । श्रा०म०। औ० भ० । स०।०।
विप्रडौषधिलब्धिः, खेलौषधिलब्धिः, जल्लोषधिलब्धिः, सलतिया-लत्तिका-स्त्री० । काशिकायाम् , अाचा० २ श्रु०२ वौषधिलब्धिः, संभिन्नति-सूचकत्वात्सूत्रस्य संभिन्नश्रोचू०४ अ०। पाणिप्रहारे, स्था०२ ठा०३ उ० । श्रातोद्य- तोलब्धिः, अवधिलब्धिः,ऋजुमतिलब्धिः,विपुलमतिलब्धिः, भदे, श्रा० चू० १०।
चारणलब्धिः, श्राशीविषलब्धिः, केवलिलब्धिः, गणधरललत्तियासद्द-लत्तिकाशब्द-पुं० । पाणिप्रहारशब्दे, स्था० २ ब्धिः, पूर्वधरलब्धिः, अहल्लब्धिः, चक्रवर्तिलब्धिः, बलदेव
लब्धिः, वासुदेवलब्धिः । ठा०३उ०। लद्ध-लब्ध-त्रि० । प्राप्ते, उत्त० २ अ० । प्राचा० । ज्ञा० ।।
(१)-श्राम षधिलब्धिव्याख्या' आमोसहि' शब्दे
द्वितीयभागे २९२ पृष्ठे गता।) (२)-(विप्रौषधिलब्धि' वि. सूत्र० । दश० । द्रव्या० । संथा० । प्रश्न । भवान्तरोपा
प्पासहि' शब्दे व्याख्यास्यामि ।) (३)-(खेलौषधिलब्धिः र्जिते, शा०२७०२ वर्ग १ अ० । स्था० । पातु। विपा०।
'खलोहि' शब्दे तृतीयभागे ७७२ पृष्ठे विस्तरतो ध्याख्यानि०। अवाप्त, औ०।।
ता।) (४)-( जलौषधिलब्धिः 'जल्लोसहि' शब्दे चतुर्थभागे लद्धद-लब्धार्थ-त्रि० । लब्धोऽर्थो गुर्वादिभिः सकाशादिति
१४२६ पृष्ठे प्रतिपादिता।) (५)-सर्वौषधिलब्धि 'सब्बोगम्यते येन स लब्धार्थः । दर्श०३ तत्त्व । श्रवणतो गृही- सहि' शब्दे व्याख्यास्यामि ।) (६)-(संभिन्नोतोलब्धि 'सं. तार्थे, उपा० ७ १० सूत्र० । अर्थश्रवणात् (भ०२ श०५ | भिन्नसोय'शब्दे व्याख्यास्यामि ।)(७)-(अवधिलब्धिः 'मोहि' उ० । रा०) स्वतः (भ०११श०११उ०) ज्ञाततत्त्वे,सूत्र० २ श्रु० | शब्द तृतीयभागे१३७पृष्ठे विस्तरतःप्रतिपादिता)(E)-(जु७०।“बहुपुक्खला लट्ठा" लब्धः-प्राप्तः पुण्डरिकिणी-| मतिलब्धिः 'उज्जुमह' शब्दे द्वितीयभागे ७३६ पृष्ठे गता।) शब्दान्वर्थतया अर्थों यया सा लब्धार्था । स्वबुद्धयाऽवगता- (६)-( विपुलमतित्वलधि - विउलमइ' शब्दे दर्शयिष्यायाम् , कल्प०१ अधि०४क्षण ।
मि ।) (अत्र बहुविशेषः ‘मणपज्जवणाण' शब्दे पञ्चमभागे लब्धास्थ-त्रि०। प्रास्थानमास्था-प्रतिष्टा सा लब्धा येन स ८७ पृष्ठे द्रष्टव्यः ।) (१०)-(चारणलब्धयो बहुविधा इति लब्धार्थः । आस्थायुक्त, सूत्र०२७०१०।
'चारण' शब्दे तृतीयभागे ११७३ पृष्ठे उक्तम् ।) (११) लद्धाणुमाण-लब्धानुमान-त्रि० । लब्धमनुमान-पराभिप्रा.
(श्रासीविषलब्धिः 'श्रासीविस' शब्दे द्वितीयभागे ४८७ पृष्ठे यपरिक्षानं येन स लब्धानुमानः । पराभिप्रायझे,सूत्र. १ श्र०
विस्तरतो व्याख्याता ।) (१२)-( केवलित्वलब्धिः प्रसिद्धा, १३ अ०।
सा च 'केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे ६४२ पृष्ठे विस्तरतो लद्धावलद्धवित्ति-लब्धापलब्धवृत्ति-त्रि० । सन्मानादिना ल
दर्शिता।) (१३)-(गणधरत्वलब्धिः 'गणहर' शब्दे तृतीयधैः न्यक्कारपूर्वकतया चोपलब्धैः भक्लादिभिर्निर्वाहे, स्था०
भागे ८१५ पृष्ठे उक्ना ।) (१४)-(पूर्वधरत्वलब्धिः 'पुब्वहर'
शब्दे पञ्चमभागे १०६४पृष्ठ गता।) (१५)-(अहल्लब्धिः 'अरह' ठा०
शब्दे ''अरहंत' शब्दे च प्रथमभागे ७५५ पृष्ठे उका।) (१६) लद्धि-लब्धि-स्त्री० । श्रात्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्म
(चक्रवर्तिलब्धिलक्षणं 'बल' शब्दे पञ्चमभागे १२८७ पृष्ठे क्षयादितो लाभे, भ० ८ श० २ उ० । गुणप्रत्यये सामर्थ्यवि-| गतम् । ) (१७)-(बलदेवत्वलब्धिः 'बलदेव' शब्दे पञ्चमभागे शेष, श्रा० म०१ अ०। अष्टाविंशतिसिद्धिषु, प्रव० २७० १२८८ पृष्ठ गता।) (१८)-(वासुदेवत्वलब्धिः 'बल' शब्दे द्वार । श्रात्मनः शुभभावावरणक्षयोपशमे, विशे० ।। पञ्चमभागे १२८७ पृष्ठे उक्ला ।) अन्ये वाहु.-विड-उच्चारः केवलशानादिलब्धिनिमित्तत्वाल्लब्धिः। अहिंसायाम् , प्रश्न०] प्रेति-प्रश्रवणम् । खेलः-श्लेष्मा, जल्लो मल्लः, औषधिशब्देन १ संव. द्वार । वस्त्वादीनां प्राप्ती, प्रव० ४ द्वार। श्रोत्रे- | समासकरणादिकं तथैव, सुगन्धाश्चैते विडादयस्तम्लब्धिम
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( ६०० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
लद्धि
तां द्रष्टव्याः । इह चात्मानं परं वा रोगापनयनबुद्ध्या विडादिभिः स्पृशतः साधोस्तद्रोगापगमो द्रष्टव्यः, प्रागुक्ताऽऽ मलब्धिरपि शरीरैकदेशे सर्वस्मिन् वा शरीरे समुत्पद्यते. सेन चात्मानं परं वा व्याध्यपगमबुद्ध्या परामृशतस्तदपगमो द्रष्टव्यः । विशे० । ग० । श्रा० म० । प्रव० पा० | नं० । श्रा० चू० ।
खीरमहुसप्पिचासव १६, कोट्टयबुद्धी २० पय। सारी २१य । तह बीयबुद्धि २२तेयग२३, आहारग२४ सीयलेसा२५ य ।। १५०८ ॥
विदेहली २६, अक्खीणमहाणसी २७५लाया य२८ । परिणामतववसेणं, एमाई हुंति लद्धीओ ।। १५०६ ॥ क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धिः, कोष्ठकबुद्धि लब्धिः पदानुसारि लब्धिः, तथा - बीजबुद्धिलब्धिः, तेजालेश्यालाब्धः, श्रद्दारकलब्धिः, शीतलेश्यालब्धिः, वैकुर्विकदेहलब्धिः, अक्षीणमहानसीलब्धिः, पुलाकलब्धिः, एवमेता अष्टाविंशतिसंख्याः, श्रादिशब्दादन्याश्च - जीवानां शुभशुभतर शुभतम परिणामवशादसाधारणतपःप्रभावाच्च नानाविधलब्धय ऋद्धिविशेषा भवन्ति । ( प्रव० २७० द्वार ) ( ) - ( क्षीराश्रवलब्धिः ' खीरासवलद्धि' शब्दे तृतीयभागे ७४७ पृष्ठे गता । ) ( * ) - मध्वाश्रवलब्धिः 'महुआसवलद्धि' शब्दे पञ्चमभागे २२६ पृष्ठे द्रष्टव्या । ) ( ) - सर्विराश्रवलब्धिः 'सपिश्रसव' शब्दे वक्ष्यामि | ) ( २० ) - ( कोष्ठबुद्धि लब्धिः ' कोट्टबुद्धि ' शब्दे तृतीयभागे ६७५ पृष्ठे गता ।) (२१) - (पदानुसारिलब्धिः 'पयानुसारि' शब्दे पञ्चमभागे ५०६ पृष्ठे गता ।) (२२) - (बीजबुद्धिलब्धिः ' बीजबुद्धि' शब्दे पञ्चमभागे १३२४ पृष्ठे उक्ला । ) (२३) - तेजोलेश्यालब्धिः 'तेउलेस्सा' शब्दे चतुर्थभागे २३४६ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिता ।) (२४) - ( श्राहारकलब्धिः श्राहा रग' शब्द द्वितीयभागे ५२५ पृष्ठे गता । ) (२५) (शीतलेश्यालविधः 'सीयलेस्सा' शब्दे वक्ष्यामि ।) (२६) - ( वैक्रियलब्धिम् 'वेउब्विलद्धि' शब्दे वक्ष्यामि । ) (२७) - (अक्षीणमहानसिकलब्धिः 'श्रवीण महारासिय शब्दे प्रथमभागे १४६ पृष्ठे उना ।) (२८) - (पुलाकलाब्धिः 'पुलाग' शब्दे पञ्चमभागे १०६०पृष्ठे गता ।) तथा एमाइ हुंति लद्धी' इत्यत्रादिशब्दादन्या अपि प्रणुत्व महस्वलघुत्व गुरुत्वप्राप्तिप्राकाम्येशत्ववशित्वाप्रतिघातित्वान्तर्धानकामरूपित्वादिका लब्धयो बोद्धव्याः । तत्रात्वमरणुशरीरविकुर्वणम् यस्य वशाच्छिद्रमपि प्रविशति, तत्र च चक्रवर्तिभोगानपि भुङ्क्ते । महत्त्वम् - मेरोरपि मह त्तरशरीरकरणसामर्थ्यम्, लघुत्वम् - वायोरपि लघुतरशरीर ता, गुरुत्वम् वज्रादपि गुरुतरशरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलैर्दुःसहता,प्राप्तिः-भूमिस्थस्य अङ्गुरुयग्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरादेः स्पर्शसामर्थ्यम्, प्राकाम्यम्-अप्सु भूमाविव प्र. विशतो गमनशक्तिः, तथा अविव भूमाबुन्मज्जननिमज्जने, ईशत्वम्- त्रैलोकस्य प्रभुता, तीर्थकरत्रिदशेश्वरऋद्धिविकरराम्, वशित्वम्- सर्वजीववशीकरणलब्धिः, श्रप्रतिघातित्वम्श्रद्विमध्येऽपि निःसगमनम्, अन्तर्धीनम् श्रदृश्यरूपता, का मरूपित्वम्-युगपदेव नानाकाररूपतया विकुर्वशनिरिति ।
For Private
लद्धि
अथ भव्यत्वाभव्यत्वशिष्टानां पुरुषाणां न यावत्यो लब्धयो भवन्तीति तत् प्रतिपादयतिसिद्धियपुरिसाणं, एया हुंति भणियलद्धी । भवसिद्धिय महिला वि, जत्ति य जायंति तं वोच्छं ।। १५१६ ।।
अरहंतचक्किकेसव - बलसंभिने य चारणे पुव्वा । गणहरपुलायाहा -- रगं च न हु भवियमहिलाणं । १५२०
विपुरिसापु, दसपुव्विल्ला उ केवलितं च । उज्जुमईविलमई, तेरस एया उन हुहुंति । १५२१ ॥ अभवियमहिलाणं पिहु, एयाओ हुंति भणियलद्धी य । महुखीरासवलद्धी वि, नेय सेसा उ अविरुद्धा । १५२२ । भवभाविनी सिद्धिर्मुक्तिपदं येषां ते भवसिद्धिका भव्या इत्यर्थः, ते च ते पुरुषाश्च ते तथा तेषामेताः पूर्वोक्ताः सर्वा अपि लब्धयो भवन्ति । तथा भवसिद्धिकमहिलानामपि यावत्यो लब्धया जायन्ते तद्वच्ये प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयात'अन्तेत्यादि' अर्हश्चक्रवर्तिवासुदेववलदेवभिन्नश्रोतश्चारणपूर्वधर गणधर पुलाकाहार कलाब्धलक्षणा पता दश लब्धयो भव्यमहिलानां भव्य स्त्रीणाम् न हु-नैव भवन्ति, शेपास्वष्टादश लग्यो भव्यस्त्रीणां भवन्तीति सामर्थ्याद्गम्यते । यच्च मल्लिस्वामिनः स्त्रीत्वेऽपि तीर्थकरत्वमभूत्तदाश्चभूतत्वान्न गण्यते । तथा श्रनन्तरमुक्तास्तावद्दश लब्धयः । केवलित्वं च - केवलिलब्धिः, अन्यच्च ऋजुमतिविपुलमतिलक्षणं लब्धद्वयमित्येतास्त्रयोदश लब्धयः पुरुषाणामप्यभव्यानां नैव कदाचनापि भवन्ति, शेषाः पुनः पञ्चदश भवन्तीति भावः । श्रभव्यमहिलानामप्येताः पूर्वभणितास्त्रयोदश लब्धयो न भवन्ति चतुर्दशी मधुक्षीराश्रघलब्धिरपि नैव तासां भवति, शेषास्त्वेतद्व्यतिरिक्ताश्चतुर्दश लब्धयोऽ विरुद्धा भवन्तीत्यर्थः । प्रव० २७० द्वार ।
लब्धद्वारे लब्धिभेदान् दर्शयन्नाह -
विहा गं भंते लद्धी पत्ता १, गोयमा ! दसविधा लद्धी पत्ता, तं जहा - नागलद्धी १ दंसणलद्धी २ चरितली ३ चरिताचरित्तलद्धी ४ दागलद्धी ५ लाभली ६ भोगली ७ उवभोगलद्धी ८ वीरियलद्धी ६ इंदियलद्धी १० । गाणलद्धी गं भंते ! कइविहा पष्मत्ता १, गोयमा ! पंचविहा पाना, तं जहा आभिणिवोहियणाणलद्धी० जाव केवलणाणलद्धी, अन्नाणलद्धी गं भंते ! कतिविहा प-पत्ता, गोयमा ! तिविहा पष्मत्ता, तं जहा- मइयन्ना लद्धी ! सुयअन्नाणलद्धी विभंग नाणली || दंसणलद्धी गं भंते ! कति विहा पत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पत्ता, तं जहा-सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धी, सम्मामिच्छादंसणलगी । चरित्तली गं भंते! कतिविदा पस्मत्ता १, गोयमा ! पंचविहा पात्ता, तं जहा - सामाइयचरित्तलद्धी छेदोवद्वावशियलद्धी परिहारविसुद्धली मुहुमसंपरागलद्धी -
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अभिधानराजेन्द्रः। हक्खायचरित्तलद्धी । चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंते ! कति- स्थापनीयचरित्रलब्धिः, 'परिहार्गवसुद्धियचरित्तलद्धिार विहा परमत्ता ?, गोयमा ! एगागारा पापना, एवं० जाव
परिहारः-तपाविशेषस्तेन विशुद्धियस्मिस्तत्परिहारविशुर:
कं.शेपं तथैव.एतच द्विविध-निर्विशमानकं.निर्विष्टकायिक उवभोगलद्धी एगागारा पामत्ता । वीरियलद्धी गं भंते ! क
तत्र निर्विशमानकास्तदासेवकास्तदातरेकात्तदपि निर्विर तिविहा परमत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पम्मत्ता, तं जहा
मानकम, श्रासेवितविवक्षितचारित्रकायास्तु निर्विष्टकायार बालवीरियलद्धी पंडियवीरियलद्धी चालपंडियबीरियलद्धी। एव निर्विएकायिकास्तव्यतिरेकात्तदपि निर्विष्टकायिका इंदियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पम्पत्ता ?, गोयमा ! पंच- ति, इह च नवको गणो भवति,तत्र चत्वारः परिहारिका भय विधा परमत्ता, तं जहा-सोइंदियलद्धी० जाव फासिंदि
न्ति, अपरे तु-तद्वैयावृत्त्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिका, यलद्धी। (सू० ३२०+)
एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः, एतेषां । 'कतिविहा ण' मित्यादि, तत्र लब्धिः-श्रात्मना भाना--
निर्विशमानकानामयं परिहारःदिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः, सा च दधिधा.
"परिहारियाण उ तवो. जहन्नमज्झो तहेव उक्कोसो। तत्र ज्ञानस्य-विशेषबोधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधशा
सीउराहवासकाले, भणिो धीरेहि पत्तेयं ॥१॥ नावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धि नलब्धिः , एवमन्य- तत्थ जहन्ना गिम्हे, चउत्थ छटुं तु होइ मज्झिमश्री । त्रापि, नवरं च दर्शन-रुचिरूप प्रात्मनः परिणामः, चारि
अट्टमामिह उकोसो. एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥२॥ त्रं चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः, सिसिरे उ जहन्नाई. छट्ठाई दसम-चरिमगा होति । तथा चरित्रं च तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्र-संयमासं- वासासु अट्ठमाई. वारसपजन्तश्रो गइ ॥ ३॥ यमः, तच्चाऽप्रत्याख्यानकषायक्षयोपशमजो जीवपरिणामः, पारणग अायाम. पंचसु गहदोसऽभिग्गहो भिक्खे । दानादिलब्धयस्तु पञ्चप्रकारान्तरायक्षयक्षयोपशमसंभवाः, कप्पट्टिया य पइदिण, करेंति एमेव श्रआयाम ॥ ॥" इह च सकृद् भोजनमशनादीनां भोगः,पौनःपुन्येन चोपभो- इह सप्तक्षेपणासु मध्ये श्राद्ययोरग्रह एव, पञ्चसु पुनर्ग्रहः. जनमुपभोगः, स च वस्त्रभवनादेः दानादीनि तु प्रसिद्धा. तत्राप्येकतरया भक्तमेकतरया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रको नीति, तथा इन्द्रियाणां-स्पर्शनादीनां मतिशानावरण- ऽवगन्तव्य इति। क्षयोपशमसम्भूतानामेकेन्द्रियादिजातिनामको नयनियमि- "एवं छम्मासतवं. चरिउं परिहारगा अणुचरंति । तकमाणां पर्याप्तकनामकर्मादिसामर्थ्यसिद्धानां द्रव्यभावरू- अनुचरगे परिहारिय-पट्ठिए जाव छम्मासा ॥ ५ ॥ पाणां लब्धिरात्मनीतीन्द्रियलब्धिः। अथ ज्ञानलब्धेर्विपर्यय- कप्पट्टिो वि एवं, छम्मासतवं करेइ सेसा उ । भूताऽशानलब्धिरित्यज्ञानलम्धिनिरूपणायाह- अन्नाणल- अणुपरिहारिगभावं, वयंति कम्पट्टियत्तं च ॥६॥ डी' स्यादि । 'सम्मदसणे' त्यादि, इह सम्यग्दर्शनीयं मिथ्या- एवेसो अट्ठारस-मासपमाणो उ चमिश्रो कम्पो। स्वमोहनीयकर्माणुवेदनोपशम १ क्षय २ क्षयोपशम ३ समुत्थ संखेवश्रो विसेसो, सुत्ता एयस्स णायब्वो ॥ ७ ॥ श्रात्मपरिणामः, मिथ्यादर्शनमशुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमु- कप्पसमत्तीइ तय, जिणकप्पं वा उति गच्छं वा । स्थो जीवपरिणामः,सम्यमिथ्यादर्शनं त्वर्द्धविशुद्धमिथ्यात्व- पडिवजमाणगा पुण, जिणस्सगासे पवजंति ॥८॥ दलिकोदयसमुत्थ आत्मपरिणाम एव 'सामाइयचरित्तलद्धि' तित्थयरसमीवासे-वगस्स पासे व नो य अन्नस्स । ति सामायिक-सावद्ययोगविरतिरूपम् तदेव चरित्रं- | एएसि जं चरणं, परिहारविसुद्धिय तं तु ॥६॥" सामायिकचरित्रं तस्य लब्धिः सामायिकरित्रलब्धिः अन्यैस्तु व्याख्यातं-पारहारता मासिकं चतुर्लभ्वादि तपसामायिकचरित्रं च द्विधा-इत्वरम् यावत्कथिकं च , श्चरति यस्तस्य परिहारिकचरित्रलब्धिर्भवतीति,इदं च परितत्राल्पकालमित्वरम , तच्च भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमती- हारतपो यथा स्यात्तथोच्यते-( व्यवहारभाष्योक्ता गाथाः)थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य शिक्षकस्य भर्वात. यावत्कथि- "नवमस्स तइयवत्थु, जहन्न उक्कोसऊणगा दस उ । कं तु यावज्जीविकं. तच्च मध्यमवैदेहिकतीर्थकरतीर्था- सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दबाइ तवो रयणमाती ॥ ६५४॥" न्तरगतसाधूनामवयम् , तेषामुपस्थापनाया अभावात् , | अयमर्थ:-यस्य जघन्यतो नवमपूर्व तृतीयं वस्तु यावर म नन्वितस्यापि यावजीवितया प्रतिज्ञानात् तस्यैव चोप- | वनि उत्कपतस्तु दश पूर्वाणि न्यूनानि सूत्रतोऽथतो भवान, स्थापनायां परित्यागात् कथं न प्रतिज्ञालोपः ?, अत्रीच्यत. द्रव्यादयश्चाभिग्रहा रत्नावल्यादिना च तपस्तस्य परिहानअतिचागभावात् , तस्यैव सामान्यतः सावद्ययोगनिवृत्तिरू- पो दायते, नहाने च निरुपसर्गार्थ कायोत्सर्गों विधीयते पंगास्थितस्य शुद्धयन्तराधादनेन सञ्ज्ञामात्रविशपादिति । शुभेच नक्षत्रादी नन्प्रतिपत्तिः, तथा गुरुस्तं ब्रूने-यथा अहं.
छोवट्ठावणियचरित्तलद्धि ' नि छेद-प्राक्तनसंयम- तव वाचनाचार्यः, अयं च गीतार्थः-साधुः सहायते. - स्य व्यवच्छेदे सति यदुपस्थापनीयं-साधावागेपणीयं- साधवाऽपि वाच्याः , यथा-" एस तवं पडिबजइ, न हिचि तन्छेदोपस्थानीयम् , पूर्वपर्यायच्छेदेन महावतानामागेपण। पालवइ मा य ालबह । अत्तचिन्तगस्स उ, वाधाओगे मित्यर्थः । तच्च सातिचारमनतिचारं च, तत्रानतिचार्गम- न काययो॥ ३१३॥" तथा कथमहमालापादिरहितः मंस्तवरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसंक्रान्ती वा. पः कमियामीत्यवं विभ्यतस्तस्य भयापहारः कार्यः, -- यथा पार्श्वनाथतीर्थाडई मानम्यामितीर्थ संक्रामतः पञ्चया- | स्थितश्च नभ्यतन्कगनि-" किइकम्मं च पउिच्छड. वसा मधर्मप्राप्ता, मातिचारं तु मूलगुणघातिना यद् बनारोपणं. त- पडिपुच्छयं पि मदइ । मो वि य गुम्मुवचिइ, उदय नन नचरित्रं च छेदोयम्थापनीयवाग्त्रं. तम्य लचिलेटोप-पन्छिो कहा ॥ ३७॥" इह परिक्षा-प्रन्याययान प्रता
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(६०२) लद्धि अभिधानराजेन्द्रः।
ललत कछा, त्वालापकः, ततोऽसौ यदा ग्लानीभूतः सन्नुत्थानादि
भूतः सन्नुत्थानादि | लप्पसिया-लपनश्री-स्त्री०। जलेन सिद्धा लप्पसिया, सस्वयं कर्तुं न शक्नोति तदा भणति-उत्थानादि कर्तुमिच्छामि, ततोऽनुपरिहारकस्तूष्णीक एव तदभिप्रेतं समस्तमपि क
मुत्तारिते सुकुमारिकादौ पश्चादुद्धरितघृतेन खरण्टितायां
तापिकायां जलेन सिद्धा लपनश्रीर्भवति । लहिगणुरिति प्ररोति, श्राह च-' उट्टेज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज भंडगं पेहे। कुविपियबंधवस्स व, करेइ इयरोऽपि तुसिणीश्रो
सिद्धे खादिमविशेषे, ध०२ अधिः । ल०प्र० । ॥ ३६८ ॥' तपश्च तस्य ग्रीष्मशिशिरवर्षासु जघन्यादिभेदेन
लब्भ लभ्य--त्रि० । उचिते, प्रश्न० ५ संव० द्वार। चतुर्थादिद्वादशान्तम् । पूर्वोक्कमेवेति 'सुहुमसंपरायचरित्तल
लय-लय-पुं०। शृङ्गदाद्यन्यतरमयेनाङ्गलिकोशकेनाहताद्धि'लि संपति-पर्यटति संसारमेभिरिति सम्पराया:-कषा- याः तन्त्र्याः स्वरप्रकारे, स्था० ७ ठा०३ उ० । जी०। रा०।लयाः सूचमाः-लोभांशावशेषरूपाः सम्पराया यत्र तत् सूदमसं- यास्तन्त्रीस्वनविशेषाः, “ तत्थ किल कोणपण तंती छिप्पपरायम्, शेषं तथैव, एतदपि द्विधा-विशुद्धचमानकम् , सं- ति तो नहेहिं अणुमज्जेजति , तत्थ अनारिसो सरो क्लिश्यमानकं च । तत्र विशुद्धधमानक क्षपकोपशमकश्रेणिव- उद्देति सो लयो ति" दश०२ अ० दुःखध्वंसे, द्वा० ११ द्वाण यमारोहतो भवति १, संक्लिश्यमानकं तु उपशमश्रेणीतः प्र.
| आश्लिष्टे, मिलने च । कल्प०१ अधि०३ क्षण । नवदम्पत्योः च्यवमानस्येति । अहक्खायचरित्तलद्धी' ति यथा-येन | परस्परं नामग्रहणोत्सवे, देना०७ वर्ग १६ गाथा। प्रकारेण श्राख्यातम्-अभिहितमकषायतयेत्यर्थः तथैव यत्त- लयंग-लताङ्ग-न०। पूर्वाणां चतुरशीतिलक्षगुणिते पूर्वशद्यथाख्यातम्, तदपि द्विविधम्-उपशमक-क्षपकश्रेणिभेदात् , | तसहस्रे, ज्यो०२ पाहुः । शेषं तथैवेति । एवं " चरित्ताचरित्ते" त्यादौ, 'एगागार' | लयण-लयन-न० । गिरिवर्तिपाषाणगृहे, शा०१ श्रु०२०॥ त्ति मूलगुणोत्तरगुणादीनां तद्भेदानामविवक्षणात् , द्विती- | उत्कीर्णपर्वतगृहे, अनु० । “ छायं लउभं लयणं" पाइ० यकषायक्षयोपशमलभ्यपरिणाममात्रस्यैव च विवक्षणाच्च- | ना०८७ गाथा । तनुके, मृदुनि, वल्ल्यां च । " लइयं तणुरित्राचरित्रे लब्धेरेकाकारत्वमवसेयम् । एवं दानलब्ध्यादी- मिउवल्लीसु" दे० ना०७ वर्ग २७ गाथा। नामप्येकाकारत्वम् , भेदानामविवक्षणात् , 'बालवीरियल-लयणी-लयनी-स्त्री०। लतायाम् ," कयणी लयणी" पाइ० द्धी' त्यादि,बालस्य-असंयतस्स यद्वीर्यम्-असंयमयोगेषु प्र.
ना० १३६ गाथा। वृत्तिनिबन्धनभूतं तस्य या लब्धिश्चारित्रमोहोदयाद्वीर्या
लयसम--लयसम-न० । लयमनुसरतो गातुर्गेये, स्था०७ ठा० न्तगयक्षयोपशमाच्च सा तथा, एवमितरे अपि यथायोगं
३ उ०। वाच्ये, नवरं पण्डितः-संयतो, वालपण्डितस्तु संयता:संयत इति । भ०८ श०२ उ० ।
लया-लता-स्त्री० । पद्मनागाशोकचम्पकचूतवासन्त्यति
मुक्तककुन्दलताद्यादिके वनस्पतिभेदे, प्राचा० १ श्रृ०१ लद्धिअक्खर-लब्ध्यक्षर-न० । लब्धिरूपमक्षरं लब्ध्यक्षरम् ।
अ०५ उ० । यस्य तिर्यक् तथाविधाः शाखाः प्रशाखा वा भावभुते, नं० । श्रा० चू० । बृ०। (तच 'अक्षर' शब्दे प्र- |
न प्रसृता सा लतेत्यभिधीयते । जी०३ प्रति०४ अधि। थमभागे १४० पृष्ठे दर्शितम् ।)
से किं तं लयाओ?, लयाओ अणगविहाओ, पएणलद्धिअपञ्जत्तग-लब्ध्यपर्याप्तक-पुं० । अपर्याप्तकभेदे, कर्म०१ | कर्म । ('अपज्जत्तग' शब्दे प्रथमभागे ५६३ पृष्ठे व्याख्यातः।)
ताओ , तं जहा-" पउमलया नागलया असोगचंलद्धिपुलाय-लब्धिपुलाक-पुं० । देवेन्द्रर्द्धिसमसमृद्धिके ल
पयलया य चूतलता । वणलयवासंतिलया, अइमुत्तयब्धिविशेषयुक्त, । " संघाइयाण कज्जे, चुराणेज्जा चक्कवट्टि- |
कुंदसामलया ॥२५॥" जे यावर तहप्पगारा । सेत्तं लमवि जीए । तीए लद्धीऍ जुयो, लद्धिपुलाओ मुणेयब्वो| यात्रओ, प्रज्ञा०१ पद । पाइल्ना० । ॥१॥ प्रव० ६३ द्वार।
ग्रन्थविशेष , चार्वाकादिपक्षनिराशश्वातिभूयानिति लतालद्धिवीरिय-लब्धिवीर्य-न० । वीर्यभेदे, “जो पुण संसारी | दित एव तदवगमो विधयः। नयो । जीवो अपजत्तगो ठाणातिसत्तिसजुत्तो तस्स तं लद्धिवी-लयाघर-लताग्रह-न० । अशाकादिलतागृहषु, ज्ञा० १ ध्रु० रियं भवति" । नि० चू०१ उ० ।
३०। लद्धिसंपल-लब्धिसम्पन्न- त्रि० । आहारवस्त्राद्युत्पादनशक्ति-लयाजद-लतायद्ध-न० । युद्धकलाभेद , यथा लता वृक्षयुक्ते प्रामपध्यादिलब्धियुक्ते, ग०२ अधि० । “जहा मारोहन्ती श्रामलमाशिरस्तं ववपि, तथा यत्र योधः प्रघयवत्थब्भासपूसमिता गिलाणण त्ति यं सिग्छ करेति"|| तियाधशरीरं गाढं निपीड्य भूमौ पतति तल्लतायुद्धम् । नि० चू०१० उ०।
जं. २ वक्षः । स०। औ० । शा। लद्धिसागरसूरि-सब्धिसागरमूरि-पुं० । तपागच्छीये उदय- लयापरिस-देशी-यत्र पद्मकरा वधूलिख्यते तस्मिन्नथें, "पसागरसूरिशिष्ये, तेन विक्रमसंवत् १५५७ श्रीपालकथाना- उमकरा जत्थ बहू, लिहिज्जए सा लयापुरिसा" द० ना०७ मकः संस्कृतग्रन्थो निर्मितः । जै० इ० ।
वर्ग २० गाथा। लद्ध-लब्ध्वा -अव्य० । अवाप्येत्य), सूत्र० १ थु०१५ अ०। लयामग्ग-लतामार्ग-पुं० । यत्र लतावलम्बन गम्यत ताहपश्चा० । दश।
शे मार्ग, सूत्र १ श्रु०११ अ०। लदेलिग लब्ध त्रि० । प्राप्ते, पाव०२०।
| ललंत-ललत-त्रि० । दोलायमाने, औ० । ईप्सितक्रियाविशे.
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ललंत
अभिधानराजेन्द्रः। पान् कुर्वति, भ० १३ श०६ उ० । क्रीडति , वृ० १ उ० ३ ललियघडा-ललितघटा-स्त्री०। स्वनामख्यातायां स्वच्छन्दप्रक० । मनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तमाने, रा०।
चारिगोष्ठ्याम् , संथा। ललणा-ललना-स्त्री० । रमण्याम् , तं।
कोसंबीनयरीए, ललियघड़ा नाम विस्सुता आसि । नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाडवीसु मुहाऽणमगिएहण
पाओवगमनसुत्ता, बत्तीसं ते य सुयनियसा ॥ ७ ॥ सीउण्हदुक्ख किलेसमाइएसु पुरिसे लालयंति त्ति ललणा
कौशाम्ब्यां नगर्यो ललितघटा नाम स्वच्छन्दचारिगोष्ठीश्रो ॥७॥
पुरुषपद्धतिः द्वात्रिंशन्मित्रसमवायरूपा, विश्रुता-शालिभद्रानानाविधेषु युद्धभण्डनसंग्रामाटवीषु मुधाऽणमगृह्णन् शी- दिवद् भोगिपुरुषतया विख्याता, कुतश्विद्वैराग्यात्स्वयमेव तोष्णदुःखक्लेशादिषु पुरुषान् लालयन्ति विविधं कदर्थय- गृहीतव्रता गुरुसमीपे चाधीतशेषातिशायिश्रुता गीतार्था न्तीति ललनाः, तत्र युद्धम्-मुष्टयादि परस्परताडनम् , भ- नदीपुलिनपतितपृथुकाष्ठशय्यासु पादपोपगमनेन सुप्ता द्वाराडन-वाकलहः संग्रामो-महजनसमक्षकलहः । अटवी- त्रिंशदपि श्रुतनिकषा आकर्णितरहस्यश्रुता वा ७६। संथा। अरण्यं तत्र भ्रामणादिकारापणेन, यद्वा-मुधा निष्फलम् | ललियमित्त-ललितमित्र-पुं० । सप्तमवासुदेवस्य पूर्वभवे 'अणमिति' शब्दकरणगाल्यादिप्रदानं तेन 'गिएहणे' ति| जीवे, स०।। कामातुरादिप्रकारेण पुरुषग्रहणं तेन शीतेन कोपाटोपा- ललियवित्थरा-ललितविस्तरा-स्त्री० । हरिभद्रसूरिकृतायां त् माघमासादी वस्त्रोद्दालनगृहबहिःकर्षणादिना उष्णन स्वनामख्यातायां चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ती, ल। स्वकार्यकारापणन प्रातपादौ भ्रामयन्ति दुःखन आपत्त्या "प्रणम्य भुवनालोकं, महावीर जिनोत्तमम् ।
आभरणादिपीडादर्शनेन क्लेशेन रामा द्विव्यादियोगे पर-1 चैत्यवन्दनसूत्रस्य, व्याख्येयमभिधीयते ॥१॥ स्परकलहोत्पादनेन आदिशब्दादन्यैरपि अनाचारसेवाद्यन- अनन्तागमपर्यायं, सर्वमेव जिनागमे । थोत्पादनः पुरुषान् पीडयन्तीति ललनाः । तं ।
सूत्रं यतोऽस्य कात्स्न्येन, व्याख्यां कः कर्तुमीश्वरः ॥२॥ ललाडदेस-ललाटदेश-पुं०। भाग्यलक्षणे शरीरभागे, पञ्चा०
यावत्तथापि विज्ञात-मर्थजातं मया गुरोः । ४ विव० । औ०।
सकाशादल्पमतिना, तावदेव ब्रवीम्यहम् ॥ ३ ॥ ललिअ-ललित-न० । लीलायाम्, “ हेला ललिअं लीला" ये सत्त्वाः कर्मवशतो, मत्तोऽपि जडबुद्धयः । पाइ ना०७० गाथा।
तेषां हिताय गदतः, सफलो मे परिश्रमः ॥ ४॥" लक। ललिय-ललित-न० । हस्तपादाङ्गविन्यासविशेषे , उक्नञ्च
"श्राचार्यहरिभद्रेण, दृब्धा सन्न्यायसंगता । " हस्तपादाङ्गविन्यासो, भ्रनेत्रोष्ठप्रयोजितः । सुकुमारो
चैत्यवन्दनसूत्रस्य, वृत्तिललितविस्तरा ॥१॥ विधानेन, ललितं तत्प्रकीर्तितम्" ॥१॥ ०१ उ० ३ प्रक० ।
य एनां भावयत्युच्चै-मध्यस्थनान्तरात्मना । प्रश्न० । सविलासे, उत्त० अ० । शा० । विलासबद
सद्वन्दना सुबीजं वा, नियमादधिगच्छति ॥२॥ तो, औ० । सम्पन्नतायाम् , ज्ञा०१ श्रु०१०। पासकादि
पराभिप्रायमज्ञात्वा, तत्कृतस्य न वस्तुनः । क्रीडायाम् , प्रव० १७१ द्वार। माधुयें , औ० । माईवे ,
गुणदोषौ सता वाच्यौ, प्रश्न एव तु युज्यते ॥ ३ ॥ श्राव०४०। शोभावति, त्रि०। ज्ञा०१ श्रु० १ ० ।
प्रष्टव्योऽन्यः परीक्षार्थ-मात्मनो वा परस्य च । उपा० । " ललियकयाभरण” ललितानि शोभनानि
शानस्य वाऽभिवृद्धयर्थ, त्यागार्थ संशयस्य च ॥४॥ कृतानि न्यस्तानि श्राभरणानि सारभूषणानि यस्य स
कृत्वा यदर्जितं पुण्यं, मयैनां शुभभावतः। तथा तम् । विलासवति, उत्त०२१० । मनोहरे, औ० ।
तेनास्तु सर्वसत्त्वानां, मात्सर्यविरहः परः॥५॥" स० । अनु० । रा०। मनोशलीलया सहिते , च० प्र० १
इति ललितविस्तरानामचैत्यवन्दनवृत्तिः । कृतिर्द्धर्मतो पाहु०। ईप्सिते, क्रीडायुक्ने, स्थिते च । ज्ञा०१ श्रु०६०।
याकिनीमहत्तरासूनोराचार्यहरिभद्रस्येति । ल०। लालित्योपेते, औ० । सुन्दरे, “ललियं वग्गुं मंजु" पाइ
| ललिया-ललिता-स्त्री० । जयपुरनगरे विक्रमसेनराजभाऱ्याना०८८ गाथा । इष्टे, नि० । अस्यामवसर्पिण्यां जातस्य | याम् , दर्श० ३ तत्त्व। पञ्चग्नलदेवस्य पूर्वभव जीवे, पुं० । स०।
ललियासण-ललिताशन-न० । मनोसभोजने, “भोयणमाललियंग-ललिताङ्ग-पुं० । ईशाने कल्पे उपपन्ने ऋषभदेवपू- सणमिह ललियपरिवेसिया दुगुणभागो" यस्य भोजनमासर्वभवजीव, तं० । कल्प० । श्रा० क० । प्राचा०। (तद्वक्तव्य- नं च यु-मनोऽभिरुचितं क्रियते परिवेषिका च स्त्री तस्याता श्रेयांशेन स्वपूर्वभवसम्बन्धकथनावसरे 'उसभ' शब्दे भीष्टा क्रियते इष्टभोजनस्य द्विगुणो भागो दीयते । सलीद्वितीयभागे११३४पृष्ठे प्रतिपादिता । ) ललितशरीरे, 'ललि- लमशनमासनं वा अस्यति व्युत्पत्त्या ललिताशनको ललियंगकयाभरण'-ललिताङ्गके-ललितशरीरे कृतानि-विन्यस्ता- तासनको वा । बृ०२ उ०। नि ललिताभरणानि येन स तथा । औ०। श्रा०म०। लल्ल-लल्ल-पुं० । अव्यक्रध्वनौ , “ लल्लविफलवाया "। ललियंत-लाल्यमान-त्रि० । विलास्यमाने, प्रश्न० ४ श्राश्र० लल्ला-अव्यक्ता विफला-फलासाधनी वाग्येषाम् । प्रश्न० २ द्वार।
आश्र० द्वार । अर्बुदगिरिस्थस्य तीर्थस्य, १२४३ शके उद्धाललियगदी-ललितगोष्टी-स्त्री० । रोहितकपुरे स्वनामख्या- रकर्तरि महणसिंह पुत्रे, ती०८ कल्प । सस्पृहे, न्यूने च। तायां गोठ्याम् , आव ०।
| त्रिका दे० ना० ७ वर्ग २६ गाथा ।
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श्रभिधानराजेन्द्र:।
लवणममुद्द लल्लक-देशी । भीमे, दे० ना० ७ वर्ग २८ गाथा । " भइरव
चक्कवालसंठिते ?, गोयमा ! समचक्वालसंठिते ना विलल्लक-भीसगया" पाइ० ना०६५ गाथा।
समचक्कवालसंठिए। लल्लिरी-लन्दिरी स्त्री० । मत्स्यवन्धनविशेष, विपा०१२०
'लवणे ण भंते' इत्यादि-लवणो भदन्त ! समुद्रः किं ८० लव-लव- सनकम्तोकरूपे कालविशेषे, झा, श्र० ५
समचक्रवालसंस्थितः,यद्वा-विषमचक्रवालसंस्थितः ?. च
क्रवालसंस्थानस्योभयथाऽपि दर्शनात् , भगवानाह-गौतम ! अ०। प्रव० । स्था। अनु० । तं० । भ० । कर्म । यो ।
समचक्रवालसंस्थितः, सर्वत्र द्विलक्षयोजनप्रमाणतया चक्र"सत्त पाणूगि म भाव , सत्त थोवाणि से लवे । लयागं म--
वालस्य भावात् , नो विषमचक्रवालसस्थितः।। तहत्तरिए, स मुत्ते वियाहिए"त्ति । भ०१श०१ उ० काष्टा
(२) संप्रति चक्रवालविष्कम्भादिपरिमाणमेव पृच्छतिद्वयपरिमिते काले, तं०। लेशे, "थेवं लेसो लवो कला मत्ता" पाइ० ना०१६४ गाथा । कर्मणि, न० । सूत्र०२ श्रु०६ अज
लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कचालविखंभेणं ?, लवइय-लवकित-त्रि० । लव एव लवकः स्वार्थे कः । स स- केवतियं परिक्खेवेणं परमत्ते ?, गोयमा! लवणे णं समुद्दे
आत आस्विति लवकिताः । सनातनवदलके, जं० १ व-| दो जोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पन्नरसजोयणक्ष० । रा० । अरषति, भ०१ श० १ उ० ।
सयसहस्साई एगासीइसहस्साई सयमेगूणचत्तालीसे किंचि लवंग-लवङ्ग--न । स्वनामख्याते वृक्ष, तत्पुष्पे च। प्रशा०
विसेसाहिए लवणोदधिणो चकवालपरिक्खेवेणं । से णं १ पद । रा०। जं०। प्राचा० । फलविशेषे, शा०१ श्रु०१०।
एकाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसंडेणं सव्वतो समंलवंगदल-लवङ्गदल-न० । लवङ्गपत्रे, प्रा० म०१ श्र० । रा०।
ता संपरिक्खित्ते चिट्ठइ दोएह वि वामओ। मा णं पउमलवंगविट्ठ-लवङ्गवेधित-त्रि० । दानं दत्त्वा आत्मना दानफल
वरवेइया अद्धजोयणं उड्डे उच्चत्तेणं पंचधणुसयं विक्वंप्रशंसने , अन्यतीर्थिकै प्रशंसां कारयति च । नि० चू० २ उ०। ('दाण' शब्द ४ भागे २४८६ पृष्ट लक्षणमेतस्य।)
भेणं लवणसमुद्दसमियपरिक्खेवेणं, सेसं तहव । ण लवग-लवग-पुं० । लवपरिमिते काले , स०७७ सम०।।
घणसंडे देसूणाई दो जोयणाई ० जाब विहरड़ । लवण-लवण-न० । सामुद्रादौ क्षारविशेष , जी०१ प्रतिः। 'लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम । भल०प्र० श्रातु० पश्चा०।दश। सचितलवणगडीते को गवानाह--गीतम! के योजनशतसहस्त्र चवालविकिम्मेन विधिः । यदि केनाप्यनुपयोगादिना साधुना सचित्तं लवणं
जम्बूद्वीपविष्कम्भादेः तद्विष्कम्भस्य द्विगुणत्वात , पञ्चदगृहीतं पश्चाद् बातम् तत्र को विधिरिति ? अत्र साधुस्तल्लव
शयोजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचणं धनिकस्य निवेदयति । श्रायुप्मन् ! त्वया ज्ञात्वा अज्ञात्वा वा
त्वारिंशं च किञ्चिद्विशेषोन परिक्षेपण, परिक्षपप्रमाण च. दत्तं तदनुजानता मयाऽऽदत्तं परमथ यूयं यथेच्छं भुङ्ग्ध्व
तत् परिधिगणितभावनया स्वयं भावनीयम् , क्षेत्रसमासम् इत्युक्ने तत्स्वयं भुङ्क्ते । साधम्मिकभ्या वा ददाति का
टीकातो वा परिभावनीयम् । ' सण ' मित्यादि. सः-- रणे सति, करणाभावे तु परिष्ठापयतीत्युक्तमाचागङ्गद्वितीय
लवणनामा समुद्र एकया पद्मवरवेदिकया, अयोजना... श्रतस्कन्धपिण्डेषणाध्ययनदशमोद्देशक । ही०२ प्रका० । स्त. शिछूत जगन्युपरिभाविान गम्यत , एकेंन वनमगन म्भिताहारविध्वंसादिकर्तरि सिन्धुलवणाद्याश्रित ग्स , पुं०।
सर्वतः-समन्तात् संक्षिप्तः, मा म पद्मवादका श्रअनु० । लवणेन पूरितः समुद्रो लवणसमुद्रः। एकदशन
योजनमूर्ध्वमुचैरत्वेन पञ्च धनुःशतानि विष्कम्भतः पगम्यमानत्वात् लवणसमुद्रे, अनु० ।
रिक्षपता लवणसमुद्रारक्षेपप्रमाणा, वनणगडो देशोने द्वे लवणसमुद्द-लवणसमुद्र-पुं० । लवणरसास्वादनीरपूरितः सः | योजने, अभ्यन्तरोऽपि पनवरयेदिकाया वनखण्ड एवंप्रमुद्रो लवणसमुद्रः। “लवणो य होइ दाहिणणं तु" (४६
माग एव । जी० ३ प्रति. २ उ०। (पद्मवग्वेदिकावर्गकम्ब गाथा) आचा०१ श्रु०१ १०१ उ० । ते च असंख्ययाः ।
रूपम् 'पउमबग्वइया' शब्दे पञ्चमभागे १५ पृष्ठ गतम ।) जी० ३ प्रति०। जम्बुद्वीपस्याभितः समुद्रे , अनु० ।
(३) वनम्बराडवर्णक इत्थम-- (१) संप्रति लवणसमुद्रं विवक्षुरिदमाह
मग वणसंडे किएहे किण्होभामे नील नीलाभाग हाँगा जम्बूदीवं णाम दीवं लवणे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसं- हरियाभास सीए मीनाभास सिद्ध गिद्धाभास निय ठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता णं चिति । । तिब्वाभास किण्ह किराहच्लाए नील नीलच्छाए हशिा 'जंबूदीवं दीव' मित्यादि जम्बूद्वीपं नाम द्वीपं लवणो नाम | हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्धे सिद्धच्छाण निव्व नि समुद्रो वृलो-वर्तुलः, स च चन्द्रमण्डलवन्मध्ये परिपूर्णी , ब्वच्छाए घणकडिअरिन्छाए रम्मे महामहगिकनभए । ऽपि शक्यत तत पाह-वलयाकारसंस्थानसंस्थितः- 'किगह ति कालवर्णः ! किगहाभाम' ति कृष्णावसामःवलयाकारम्-मध्यशुचिरम् यत् संस्थानं तेन संस्थिता
कृगाप्रभः कृरण एवावधामत इति कृष्णगावभामः । एवमघलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः-सर्वासु दिनु समन्ततः 'नील नीलाभाम' प्रदेशान्तर- 'हागा हरियाभाम' प्रदशासामस्त्येन परिक्षिप्य-वेयित्वा तिष्ठति ।
न्तर पव, तत्र नाला-मयूरगलवत , हरितम्तु-शुकपुन्छलवणे यं भंते ! समुद्दे कि समचकवालमठित विसम- | वन , हरितालाम इनि वृद्धाः । 'मीगत शीतः म्पर्शापेक्षया.
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( ६०५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
समुह
बाधाकान्तत्वान इति वृद्धाः । खिंड 'निधन रक्षः। तिव्वे नितीव वर्णादिगुणप्रकर्षान किच्छा नि कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेमनि न पुनरुकता, तथाहि कृष्णः सन् कृष्णच्छायः छाया चादित्याचरणजन्या वस्तुविशेषः कडिकडच्छाए नि अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद् चहलनिरन्तराय इत्यर्थः । • महामेहणिकुरंबभृति महामेघवृन्दकल्पः ।
नेपायवा मूलमंत कदमो धर्मतो नयानो मालता पवालमंतो पत्तमंतो पुष्कमंती फलमंती वयनी म गुपुच्चमुजारुल वडभावपरिणया एकसंघा अगमाला अगसाहप्पसाहविडिमा अगनस्वामसुप्पमारिग्गेज्झषणविउलबद्धखंधा अच्छपत्ता अविरलपत्ता - चाई पता अपना नियजर पंडुपत्ता वहरियभिसंतपत्तमारंधकारगंभीरदरिसणिजा उवणिग्गयणवतरुगा पत्तपल्लबको मल उज्जलचलंत किसलयमुकुमालपचालसोहियवरंकुरग्गसिहरा णिचं कुसुमिया णिचं माझ्या रिणचं लवड्या चिं थवड्या चिं गुलइया शिचं गोच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुबलिया णिच्चं विमिया चिं पण मिया चं कसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगोच्छिय जमलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपिंडमं जरिवर्डि सयधरा सुयबरहिणमयणसालकोइलको हंगकभिंगारककोडलकजीवंजीवकरांदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचकवायकल हंससारस
-
गस उणगणमिहुणविरइयस दुष्पइय भहुरसरणाइए सुरम्मे संपिंडियदरियभमरम हुकरिपह करपरिलिंत मत्तछप्पयकुसुमासबलोलमहुरगुमगुमंतगुंजंतदेसभागे अभंतरपुप्फफले बा - हिरपत्तोच्छ पत्तेहि य पुष्फेहि य उच्छपपडिवलिच्छ मे साउफले निरोय अकंटए णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए विचित्तसुहकेउभूए वावपुक्खरिणीदीहियासु सुनिवेसियरम्मजालहरए ।
' ते गं पायव' ति यत्संबन्धाद् वनखण्ड इति । 'मूलमंतो कन्दमन्तो' इत्यादीनि दश पदानि, तत्र कन्दो - मूलानामुपरि वृक्षावयवविशेषो, मतुप्प्रत्ययश्चेह-भूनि प्रशंसायां वा स्कन्धः स्थुडम् 'तय'त्तित्वकू - वल्कलम् शाला शाखा प्रवालः पल्लवाकुरः, शेषाणि प्रतीतानि ।' हरियमन्ते' त्ति कचिद् दृश्यते, तत्र हरितानि - नीलतर पत्राणि । श्रणुपुञ्चसुजायरुइलवट्टभावपरिण्य' त्ति अनुपूर्वेण - मूलादिपरिपाट्या सुष्ठु जाता रुचिराः वृत्तभावैश्व परिणताः परिगता वा ये ते तथा ।
अगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखा प्रशाखो विटप:तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो वा येषां ते तथा । ' अंगनरवामसुप्पसारियश्रग्गेज्भघण विउलवट्ट ( बद्ध ) खंधे ' त्ति अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिताभिरग्राह्यो घनोनिविडो विपुलो - विस्तीरणों बद्धो - जातः स्कन्धो येषां ते तथा वाचनान्तरेऽत्र स्थानेऽधिकपदान्येवं दृश्यन्ते—' पाईप डीगाययसाला उदाहरणविधिराणा
ランニ
श्र
लवण समुद्द योगयनयपणविष्पहाइयझोलंबप लंवलंबसाहप्पसाहविडि मा वाईपत्ता पत्ता इति । श्रयमर्थः -- प्राचीनप्रतीचीनयोः पूर्वापरदिशोरायता- दीर्घाीः शाला:- शाखा येषां ते तथा उदीचीन दक्षिणयोरुत्तरयाम्ययोविंशविस्तीfferent येषां ते तथा । अवनता- श्रधोमुखा न ना- श्राघ्राः प्रणताश्च नन्तुं प्रवृत्ताः विप्रभाजिताश्च विशेपता विभागवत्यः अवलम्बा - अधोमुखतया अवलम्बमानाः प्रलम्याश्च - श्रतिदीर्घाः लम्बाः शाखाः प्रशाबाव - यस्मिन् स तथाविधो विटपा येषां ते तथा, अवाचीनपत्राः श्रधोमुखपर्णाः श्रनुद्गीर्णपत्राः वृत्ततया अबहिर्निगतपर्णाः । श्रथाधिकृत वाचनाऽनुत्रियते- ' चिपत्ता' नीरन्ध्रपत्राः । श्रविरल पत्ता ' निरन्तरदलाः । 'वाईपत्ता' अवाचीनपत्रा अधोमुखपलाशाः, श्रघातीनपत्रा वा श्रयाता पहनवहाः । श्रईियपत्ता' ईतिविरनिच्छदारा नियजर ढपंदुपत्ता' श्रपगतपुराणपाण्डुरपत्राः । * एवहरियभिसंतपत्तभारंधकार गम्भीरदरिसणिजा ' नवन हरितन 'भिसंत' ति दीप्यमानेन पत्रभारेण दलचयेनान्धकारा अन्धकारवन्तोऽन एव गम्भीराश्च दृश्यन्ते ये ते तथा । ' उबग्गिय वतरुणपत्तपल्लव कोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसो हियवरं कुररसिहरा' उपनिर्गतैर्नवतरुणपत्र पल्लवैरत्यभिनयपत्र गुच्छः तथा कोमलज्ज्वलैश्चलद्भिः किसलयैः - पत्रविशेषः तथा सुकुमारप्रवालैः शोभितानि वराङ्कुराणि श्रमशिखराणि येषां ते तथा । इह च. अङ्कुरप्रवालपल्लव किसलयपत्राणामल्पव हुबहुतरादिकालकृ-तावस्थाविशेषाद्विशेषः सम्भाव्यत इति । 'शिश्यं कुसुमिया' इत्यादि व्यक्तम् नवरं 'माइय' त्ति मयूरिताः ' लवइयत्ति पल्लविता: ' धवइय 'सि स्तबकवन्तः । गुलश्या' गुल्मवन्तः 'गोच्छिया ' जातगुच्छाः, यद्यपि च स्तवकगुच्छयोरविशेषो नामकोशे ऽधीतस्तथापि इह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः, 'जमलिय ' त्ति यमलतया-समश्रेणितया व्यवस्थिताः 'जुवलिय' ति युगलतया स्थिताः, 'विरामिय' त्तिविशेषेण फलपुष्पभारण नताः, पण मिय' त्ति कुसुमियमाध्यलयइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुबलितथैव नन्तुमारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकमर्थित्वात् । 'लिच्चं - यचिणमिय सुविभत्तपिंडिमंजरिवर्डिसयधर ति केचित् कुसुमिता कैक गुणयुक्ताः श्रपरे तु - समस्त गुणयुक्तास्ततः कुसुमिताश्च ते इत्येवं कर्मधारयः, नवरं सुविभक्ताः सुविविशाः सुनिष्पन्नतया पिण्ड्यो लुम्ग्यो मञ्जर्यश्व प्रतीतास्ता एव श्रवतंसकाः- शेखरकास्ता धारयन्ति ये ते तथा । ' सुयबर हिरामयण्सालकोइलको गकोहंगकभिंगारकॉडलकजीवंजीवकनंदी मुद्दकविल पिंगलक्खकारंडचक्कवायकलहंससारसगस उग मिहुणविरइयस दुराणइय महुरसरणाइए शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां सकुनगणानां मिथुनैर्विरचितं शब्दोन्नतिकं व उन्नतिशब्दकं मधुरस्वरञ्च नादितं लपितं यस्मिन् स तथा वनखण्ड इति प्रकृतम् । 'सुरम्मे ' अतिशय रमणीयः । 'संपिंडियदरियभमरमहुकरिपहकर परिलितमत्तछष्पय कुसुमा सबलोल महुर गुम गुमंत गुंजत सभागे '
पिडिताः दृप्तानां भ्रमरमधुकरीणां वनसत्कानामेव पहकरत्ति निकरा यत्र स तथा परिलीयमाना - अन्यत श्रागत्य लयं यान्तो मत्तपदपदाः कुसुमासबलोलाः किञ्जल्क
"
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( ६०६ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
लवणसमुद्द
लम्पटाः, मधुरं गुमगुमायमानाः गुञ्जन्तश्च शब्दविशेष विदधानाः देशभागेषु यस्य स तथा ततः कर्म्मधारयः । * श्रब्भन्तरपुप्फफले वाहिरपनोच्छुरणे पत्तेहि य पुष्फेहि य उच्छरणपडिवलिच्छरणे' अत्यन्तमाच्छादित इत्यर्थः एतानि त्रीण्यपि कचिद वृक्षाणां विशेषणानि दृश्यन्ते- 'साउफले' त्ति मिष्टफलः निरोयणति रोगवर्जितः कण्टक इति । क्वचित्-' णाणाविहगुच्छ गम्भमंडव गरम्म सोहिए' ि तत्र गुच्छाः वृन्ताक्यादयो गुल्मा-नवमालिकादयो मण्डपका लतामण्डपादयः रस्मे त्ति' क्वचिम्न दृश्यते विचित्तसुहकेभूए विचित्रान् शुभान् केतून ध्वजान् भूतः - प्राप्तः । 'बिचित्त सुहसे उके बहुले 'ति पाठान्तरम्, तत्र विचित्रा: शुभाः सेतवः - पालिबन्धा यत्र केतुबहुलश्च यः स तथा । वावी पुक्खरणी दीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालहरए वापीषु चतुरस्रासु पुष्करिणीषु वृत्तासु पुष्करवतीपुवा दीर्घिकासु च ऋजुसारणीषु सुष्ठु निवेशितानि रम्याणि जालगृह काणि यत्र स तथा ।
,
पिंडिमणी हारिमसुगंधि सुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धणि मुयंता गाणाविहगुच्छगुम्म मंडव कघरकसुहसे उकेउबहुला अगरहजा जुग्गसिवियप विभोयणा सुरम्म। पासा - दीया दरिस णिजा अभिरुवा पडिरूवा । (सू० ३ )
च
महया
पिंडिमणी हारिमसुगंधि सुह सुरभिमणहरं गंधद्धणि मुयंता ' पिण्डिमनीहारिमाम् - पुद्गलसमूहरूपां दूरदेशगामिनीं च सुगन्धि च- सद्गन्धिकां शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च महता मोचनप्रकारेण विभक्तिव्यत्ययान्महतीं वा गन्ध एव प्राणिहेतुत्वा तृप्तिकारित्वाद्गन्धनाणिस्तां मुञ्चन्त इति वृक्षविशेषणम् । एवमितोऽन्यान्यपि ' गाणाविह - गुच्छ गुम्ममण्डवकघर कसुहसे उकेबहुला' नानाविधा गुच्छाः गुल्मानि मण्डपका गृहकाणि च येषां सन्ति ते तथा, तथा शुभाः सेतवो-मार्गा श्रालवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुला बहवो येषां ते तथा, ततः कर्म्मधारयः । श्ररोगरहजाणजुग्गसिवियपविमोयणा' अनेकेषां रथादीनामघोऽति विस्तीर्णत्वात् प्रविमोचनं येषु ते तथा । 'सुरम्मा पासाईया रिसांणज्ज्ञा श्रभिरुवा पडिरूव ' त्ति एतान्येव वृक्षविशेषणानि वनखण्डविशेषणतया वाचनान्तरेऽधीतानि ॥३॥
तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एके असोगवरपायत्रे पष्मते, कुसविकु सविसुद्धरुक्खमूले मूलमंते कंदमंते ० जाव पविमोयणे सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरू पडिरू |
' तस्स णं वणसंडस्स' इत्यादी अशोकपादपवर्णके क्वचिदिदमधिकमधीयते ' दुरोवगयकंदमूलबट्टलट्ठसंठियसिलिघणमसिणनिद्धसुजायनिरुवहउग्विद्ध पवरखंधी 'दूरोपगतानि - श्रत्यर्थ भूम्यामवगाढानि कन्दमूलानि प्रतीतानि यस्य स तथा वृत्तो-वन्तुलो लटो-मनोशः संस्थितो विशि
संस्थानः, लिष्टः- सङ्गतो, घनानिविडो, मसृणः - अपरूपः स्निग्धः - अरूक्षः, सुजातः सुजम्मा, निरुपहतो-विकारविर हित उब्रिजः प्रत्यर्थमुरुत्रः प्रवरः-प्रधानः स्कन्धः-स्थु
लवण समुद्द डं यस्य स तथा इन्प्रत्ययश्च समासान्तः । श्ररोगनरपवरrागेज्भो' अनेकनराणां प्रवरभुजेः- प्रलम्बबाहुभिर्वा माभिरित्यर्थः अग्राह्यः - श्रनाश्लेष्यो यः स तथा 'कुसुमभरसमोनमंतपत्त विसालसालो' कुसुमभरेण समवनमन्त्यः पत्रलाः- पत्रवत्यः विशालाः शाला यस्य स तथा । ' महुकरिभमरगणगुम गुमाइयनिलितउडितसस्सिरीए' मधुकरीभ्रमरगन-लोकरूढिगम्येन, 'गुमगुमाईत ' त्ति कृतगुमगुमतिशवंदन. निलीयमानेन - निविशमानेन, उड्डीयमानेन च उत्पतता सश्रीकः सशोभो यः स तथा । 'गाणासउणगणमिहुसुमहुरकससुहपलत्तसहमहुरे 'ति नानाविधानां शकुनिगणानां यानि मिथुनानि तेषां सुमधुरः कर्णसुखश्च यः प्रलप्तशब्दस्तेन मधुर व मधुरो मनोज्ञो य स तथा । अथाधिकृनवाचना'कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले' त्ति कुशा-दर्भाः विकुशा- वल्वलजादयस्तैर्विशुद्धम्-विरहितं वृक्षानुरूपं वृक्षविस्तर प्रमाणमित्यर्थो मूलम् - समीपं यस्य स तथा । 'मूलमंत' इत्यादि विशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि यावत्पडिरूवेति ॥
से णं असोगवरपायवे अहिं बहूहिं तिलएहिं लउएहिं छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवमेहिं दहिवम्मेहिं लोहिं धवेहिं चंदहिं अज्जुणेहिं पीवेहिं कुडएहिं सव्वेहिं फसेहिं दाडिमेहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पियएहिं पियंगूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं मंदिरुक्खेहिं सव्वचो समता संपरिक्खित्ते, ते गं तिलया लवइय० जाव णंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला -- मूलमंतो कंदमतो, एतेसिं वम भाणियव्त्रो० जाव सिवियपविमोयणा सुरम्मा पासादीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा ते तिलया० जाव मंदिरुक्खा अोहिं बहूहिं पउमलयाहिं गागलयाहिं सोलयाहिं चंपगलयाहिं चूयलयाहिं वणलयाहिं वासंतियलयाहिं मुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सव्व समता संपरिक्खित्ता, ताओ पउमलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ० जाव वर्डिसयधरीओ पासादियाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ। । ( सू० ४ )
सोऽशोकवरपादपः श्रन्यैर्बहुभिस्तिलकै लकुचैश्छतोपैः शिलोभः धवैः चन्दनैः - मलयजपर्यायैरर्जुनैः - ककुरापर्यायैः नीरीषैः सप्तपर्णैः प्रयुकछदपर्यायैः प्रयुपत्रनामकैर्दधिपः पैः कदम्बैः कुटजैः- गिरिमल्लिकापर्यायैः सव्यैः पनसैडिमैः शालः- सर्जपर्यायैस्तालैः- तृणराजपर्यायैः तमालैः प्रियकैः - असनपर्यायैः प्रियङ्गुभिः – श्यामपर्यायैः पुरोपगैः राजवृक्षः नन्दिवृक्षैः- रूढिगम्यैः सर्वतः समन्तात्सम्परिक्षिप्त इत्यादि सुगमम् आपद्मलताशब्दादिति । 'पडमलयाहिं' ति पद्मलताः-स्थलकमलिन्यः पद्मकाभिधानवृक्षलता वा, नागादयो वृक्षविशेषास्तेषां लतास्तनुकास्त एव तत्त्राशोक:कली चूतः - सहकारः वनः पीलुकः, वासन्तीलता श्रतिमुक्ककलताश्च यद्यप्येकार्था नामकोशेऽधीतास्तथाऽपीह भेदो रूढितोऽवसेयः । श्यामा-प्रियङ्गुः. शेबलता रूढिगम्याः, इह
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६०७) लवाममुद्द अभिधानगजेन्द्रः।
लवणसमुद्द लनावर्णकानन्तरमशोकवर्णकं पुस्तकान्तरे इदधिकमधी- धनीयः । 'विक्खभायामउस्लेहसुप्पमाणे विष्कम्भः-पृ. यने-'तस्प णं असोगवरपायवस्स उार वहवे अट्ठ अटु शुन्यम् , अायामो-देध्यम् , उत्सेध उच्चत्वमेषु सुप्रमाणःमंगलगा परणना' अशावानि वीमाकरणाप्रत्येकं ते उचितप्रमाणा यः स तथा । 'किरहे' नि कालः, अत एव प्राविति वृद्धाः, अन्ये त्वष्टाविति संख्या, अष्टमङ्गलकानानि 'अंजणघकवाणकुवलयहलधरकोसेज्जागासकेसकजलंगीच संत्रा । 'नं जहा-सोवन्थिय सिरिवच्छ २ नंदियावन३ बंजणसिंगभेरिट्टयजम्बूफलश्रमणकमणबंधणनीलुप्पलपत्तवरमाणग ४ महासण ५ कलस ६ मच्छ ७ दप्पणा' ८, निकरअसकुसुमप्यगासे' नील इन्यर्थः, तत्र अञ्जनको नत्र श्रीवत्सः-तीर्थकरहृदयावयर्वावशेषाकागे, नन्द्यावर्तः- वनस्पतिविशेषः · हलधरकोसेज' बलदेववस्त्रं कज्जलाङ्गीप्रििदग्नवकागः, स्वस्तिकविशेषो मढिगम्यो, वर्डमान-श- कजलगृहम् शृङ्गभेदः-महिपाविपाणच्छदः रिएकमगवम् , पुरुपामढः पुरुप इत्यन्य, भद्रासनम्-सिंहासनम , रत्नम् असनको--बायकाभिधानो बनस्पतिः सनवन्धनदर्पण:-श्रादशः, शेपाांगा प्रतीतानि । ' सब्बरयणामया' म्-सनपुष्पवृन्तम् । 'मरकयमसारकलित्तणयणकीयरासिबअच्छाः-स्वच्छाः , आकाशम्आटकवत् , ' सराहा ' श्ल- म्मे' मरकतम-रत्नम् मसारो-मसृणीकारकः पापाणविनणा:-श्लक्ष्णपुद्गलनिवृत्तवात् , ' मण्हा' ममृणाः, 'घट्टा' | शेषः, म चात्र कषपट्टः सम्भाव्यते 'कलितं ' ति कलित्रं घृष्टा इच घृष्टाः खग्शानया प्रतिमेव मट्टा' मृष्टाः-सुकुमा- कृत्तिविशपः नयनीका-नेत्रमध्यताग तद्राशिवणः कारशानया प्रतिमेव प्रमाजेनिकयेव वा शोधिताः, अत पव ल इत्यर्थः । ‘णिद्धघणे' स्निग्धघनः 'अट्टसिर' अष्टसिरा 'निरया' नीरजसः-रजोरहिताः 'निर्मलाः' काठनमल- अष्टकोण इत्यर्थः । ' श्रायसयतलोवमे सुरम्मे ईहामिय उरहिताः निप्पंका' आर्द्रमलहिताः । निकंकडछाया ।
समतुरगनरमगरविहगवालगकिराणररुरुसरभचमरकुंजरवणनिरावरणदीपयः 'सम्पहा' सप्रभाः 'समिरीइया' सकि
लयपउमलयनिचिने' ईहामृगाः-वृकाः व्यालकाः-स्वापदरणाः 'सउजोया' प्रत्यासनवम्तद्योतकाः 'पासादीया४।।
भुजगाः । ' श्रारणगर यवृरगणवरणीय तृलफरिसे' आजिनकम् 'तम्स ग असोगवग्पायवम्स उर्वार बहवे' किराहचामर-|
चर्ममययत्रं रूतम् प्रतीतम बूगे-वनस्पतिविशेषः, तूलमज्झया ' कृष्णवर्णचामरयुक्तध्वजाः 'नीलचामरझया लोहि
अर्कतलम् 'सीहासणसंठिए' सिंहासनाकारः, 'पासाए यचामरझयासुकिल्लचामरझियाहालिद्दचामरज्झया अच्छा
जाब पडिकवे' ति वाचनान्तरे पुनः शिलापट्टकवर्णकः किश्चि सगहा' रुप्पपट्टा' रौप्यमयपताकापटाः ‘वइगमयदंडा'
दन्यथा दृश्यंत, स च संस्कृत्यैव लिख्यते-अञ्जनकघनकुव. वज्रदण्डाः · जलयामलगंधिया ' पद्मवत् निषगन्धाः
लयहलधरकौशयकैः सदृशः, घनो--मेघ इत्यर्थः आकाशके* मुरम्मा पासादीया' ' तम्स णं असोगवरपायवस्स '
शकज्जलकर्केतनेन्द्रनीलातसीकुसुमप्रकाशः कर्केतनेन्द्रनी'उरि' उपारणात् ' वहवे' 'छत्ताइच्छुत्ता' उपर्युपगिस्थि--1
ले-रत्नविशेषी, भृङ्गाञ्जनशृङ्गभेदरिटकनीलगुलिकागवलाताऽऽतपत्राणि ' पडागाइपडाया' पताको पगिस्थितपताकाः
तिरकभ्रमरनिकुरम्बभूतः, भृङ्गः-कीटविशेषोऽङ्गारविशेषो चा • घण्टाजुयला चामरजुयला'' उप्पलहत्थगा ' नीलोत्प
अञ्जनम्-सौवीराञ्जनम् , शृङ्गभेदो-विषाणच्छेदो विषाणविलकलापाः 'पउमहत्थगा' पद्मानि-गवियोध्यानि 'कुमुयह-|
शेषा या, रिटः-काकः फलविशेषो वा, श्रथया अरिएनीले स्थगा' कुमुदानि-चन्द्राध्यानीति , ' कुसुमहत्थय ' त्ति |
रत्नविंशपी गुलिका-वर्णद्रव्यविशेषो गवलम्-महिपशृङ्गम् , पाठान्तरं-' नलिणहत्थगा सुभगवत्था सांगंधियहत्थगा'
पतेभ्योऽतिरेको नीलतयाऽतिरेकवान् यः स तथा, स चानलिनादयः पद्मविशेषा रूढिगम्याः, 'पुंडरीयहत्थया' पुराउ
सौ भ्रमरनिकुरम्बभूतश्चेति कर्मधारयः । निकुरम्बः-सकारिण-सितपमानि 'महापुंडरीयहत्था' महापुण्डरीकाणि
मूहः जम्बूफलासनकुसुमवन्धननीलोत्पलपत्रनिकरमरकतातान्येव महान्ति 'सयपनहत्था सहस्तपत्तहत्था सब्बरय- शासकनयनकीकाराशिवर्णः--श्राशासको-वृतविशेषः, स्निणामया अच्छा जाव पडिरूवा ४'॥४॥
ग्धो--घनोऽत एवाशुपिरः रूपकप्रतिरूपदर्शनीयः--रूपकैः तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा इसि खंधसमल्लीये
प्रतिरूपा--रूपवान् अत एव दर्शनीयश्च--दर्शनयोग्यो यः एत्थ णं महं एके पुढविसिलापट्टए परमत्ते, विक्खंभाया- स तथा मुक्का जालखचितान्तकमा--मुक्काजालकपरिगतप्रामउस्सेहमुप्पमाणे किण्हे अंजणघणकिवाणकुवलयहल- न्त इत्यर्थः ॥ ५॥ औ०। धरकोसेज्जागासकेसकजलंगीखंजणसिंगभेदरिट्ठयजंबूफ -
(४)-संप्रति लवणसमुद्रद्वारवक्तव्यतामभिधित्सुरिदमाहलअसणक-सणबंधणणीलुप्पलपत्तनिकरअयसिकुसुमप्पगा
लवणस्स णं भंते समुद्दस्स कति दारा परमत्ता ?, गोसे मरकतमसारकलित्तणयकीयरासिवामे णिद्धघणे अट्टसिरे
यमा! चत्तारि दारा पएणत्ता, तं जहा-विजये वेजयंते
जयंते अपराजिते । आयसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियउसमतुरगनरमगरविगह
'लवणस्स गं भंते ' ! इत्यादि लवणस्य भदन्त ! समुद्रवालगकिम्मररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते ।
स्य कति द्वाराणि प्रत्रप्तानि ?, भगवानाह-गौतम ! चत्वारि आइणगरूयबूरणवणीततूलफरिसे सीहासणसंठिए पासा- द्वाराणि प्राप्तानि, तद्यथा-विजय--वैजयन्त-जयन्तादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ! (सू० ५)
ऽपराजिताख्यानि। अथाधिकृतवाचना आधीयते- ईसिं खंधसमल्लीणे ,
विजयद्वारप्रश्न:मनाक स्कन्धासन्न इत्यर्थः । ' एथ णं महं एक' इत्यत्र'-I काह ण भते लवणसमुदस्स विजए णाम दार पराणन्य णं ' ति शब्दः अशोकवरपादपस्य यदधोऽत्रेत्येवं सम्ब- ते?, गोयमा ! लवणसमुदस्स पुरथिमपेरंते धायइखं
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह डस्स दीवस्स पुरथिमद्धस्स पचत्थिमेणं सीओदाए नररुरुसरभचमकुजविणलयपउमलयात्तचित्त मभुग्ग--
यवग्वदयापरिगयाभिगम विजाहरजमलजुगलजंतजुन व महानदीए उप्पि एत्थ णं लवणस्स समुदस्स (जी० ३
अच्चीसहस्समालणाप रूवगसहम्सकलिए भिसमाग भिप्रति० २ उ० सू० १५४ ) विजए णामं दारे पएणते,
भिसभा चक्खुमायणलेसे सुहफास सस्सिरीयरूवे' इति अद्र जोयणाई उई उच्चत्तणं चत्तारि जोयणाई विक्वं-- विशषणजातं प्राग्वत् । वमा दारस्स तस्सिमो हाइ' इति भेणं, तावतियं चेव पवेसेणं सेए वरकणगथभियागे 'वर्णः-' वर्गकनिवेशा द्वारस्य तस्य-विजयाभिधानस्य
श्रयम्-वक्ष्यमाणो भवति, तमवाह-'तं जड़े' त्यादि, तद्यथाईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिएणररुरुसरभचम
वज्रमया नेमाः भूमिभागावं निष्कामन्तःप्रदेशाः रिटमयानि रकुंजरवणलतपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गतवइरवेदियापरि
प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलियरुदलखंभे' इति पर्यागताभिरामे विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चीसहस्स- वैड्यरत्नमया रुचिराः स्तम्भा यस्य तद् बैंथरुचिरस्तम्भ मालिणीए रूवगसहस्सकलिते भिसिमाणे भिब्भिसमा- जायरूवोचियपवर पंचवरणमायणकुट्टिमतले' इति । णे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे वमो दा
जातरूपण-सुवर्णनापचितैः-युक्तः प्रवर:-प्रधानः पञ्चवर्णमे
णिभिः चन्द्रकान्तादिभी रत्नः-कर्केतनादिभिः कुट्टिमतलम्रस्स (तस्सिमो होइ ) तं जहा-चइरामया णिम्मा रिट्ठा
बद्धभूमितल यस्य तत्तथा हंसगम्भमए एलुगे इति हंसग - मया पतिवाणा वेरूलियामया खंभा जायसवोवचियप
रत्नविशेषस्तन्मय एलुको-देहली 'गामेजमयइंदक्खीले' इति वरपंचवममणिरयणकोट्टिमतले हंसगब्भमए एलुए गो- गांमेयकरत्नमय इन्द्रकीलो लोहिताक्षरत्नमय्यौ द्वारपिराडी मेजमते इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचिडायो जो
(चट्यौ ) द्वारशाखे 'जोइरसामए उत्तरंगे' इति ज्योतीर
समयमुत्तरङ्गम्-द्वारस्योपरि तिर्यगव्यवस्थितं काष्ठं वैडूर्यमतिरसामते उत्तरंगे वेरुलियामया कवडा बहरामया सं
यौ कपाटौ लोहिताक्षमय्यो-लोहिताक्षरस्नामिकाः सूचयः-- धी लोहितक्खमईओ सुइओ गाणामणिमया समुग्गगा फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः' 'वइगवइरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वइरामई आवत्त- मया संधी' वनमयाः-सन्धयः सन्धिमला. फलकानाम् , णपेढिया अंकुत्तरपासते णिरंतरितघणकवाडे भित्तीसु
किमुक्तं भवति ?-वजरत्नाप्रिताः फलकानां सन्धयः, चेव भित्तीगुलिया छप्पण्णा तिमि होंति, गोमाणसी
नानामणिमया समुग्गया' इति समुनका इव समुद्रका:
सृतिक गृहाणि तानि नानामणिमयानि 'घइगमया अम्गला तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलट्ठियसालिभंजिया
अग्गलपासाया' अर्गलाः प्रतीताः अर्गलाप्रासादाः यत्रार्गवइरामए कूडे रययामए उस्सेहे सन्चतवणिजमए उ- ला नियम्यन्ते, प्राह च मूलटीकाकार:-" अर्गलाप्रासादा न्लोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहितक्खप- यत्रार्गला नियम्यन्ते” इति, एतौ द्वापि वज्ररत्नमयी, डिवंसगरयतभोम्मे अंकामया पक्खबाहाओ जोतिरसा
'रययामयी श्रावत्तणपढिया' इति आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्र
कालिका, उक्तं च मूलटीकायाम् "प्रावर्तनपीठिका यत्रेन्द्रमया वंसा वंसकवेल्लुगा य रयतामयी पट्टिताओ जा
कीलको भवति" 'अंकुत्तरपासाए' इति अङ्का-अङ्करत्नमयायरूवमती ओहाडणी वइरामयी उपरि पुच्छणी सव्व- उत्तरपार्था यस्य तद अकोत्तरपाव 'निरतरियघणकवाड सेतरययमए छायणे अंकमतकणगकूडतवणिजभिया- इति, निर्गता अन्तरिका लध्वन्तररूपा ययोस्ती निरन्तरिको ए सेते संखतलविमलणिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणि
अत पत्र घनौ कपाटौ यस्य तन्निरन्तरघनकपाटम् 'भित्तिसु
चव भित्तिगुलिया छप्पराणा तिलि होति' इति, तस्य द्वारस्यो गरप्पगासे तिलगरयणद्धचंदचित्ते णाणामणिमयदामा
भयाः पार्श्वयोर्भित्तिषु भित्तिगताभित्तिगुलिकाः पीठकसंस्था लंकिए मंतो य बहिं च सराहे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थ- नीयास्तिनः षट्पञ्चाशतः-षट्पञ्चाशत् त्रिकप्रमाणा भवडे सुहप्फासे सस्सिरीयरूवे पासातीए ॥ ४ ॥
न्ति, गोमाणसिया तत्तिया'इति, गोमानस्यः-शय्याः तत्तिया
इति, तावन्मात्राः षट्पञ्चाशत्त्रिकसंख्याका इत्यर्थः, 'नाना'कहि ण 'मित्यादि, क भदन्त ! लवणसमुद्रस्य विजय
मणिरयणवालरूयगलीलट्टियसालभंजियाए'इति,इदं द्वारविनाम द्वारं प्राप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य
शेषण, नानामणिरत्नानि-नागामणिरत्नमयानि व्यालरूपपूर्वपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपपूर्वार्द्धस्य 'पञ्चत्थिमेणं' ति |
काणि लीलास्थितशालभञ्जिकाश्च-लीलास्थितपुत्रिकाश्च पश्चिमभागे शीतोदाया महानद्या उपर्यत्रान्तरे लवणसमु
यस्य तत्तथा 'वहरामए कूडे' वज्रमयो-वज्ररत्नमयः कृटोद्रस्य (जी०३ प्रति०२ उ० सू० १५४ ).विजयनाम द्वारं प्र
माडभागः रजतमय उत्सेधः-शिखरम् , आह च मूलटीकासप्तम्, अष्टौ योजनानि ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन चत्वारि योजना
कार:--" कूटो-माडभाग उच्छ्रयः-शिस्त्रर" मिति , केवलं नि विष्कम्भेन,' तावइयं चेव पवेसणं ' ति तावन्स्ये
शिखरमन तस्यैव माडभागस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारस्य, व चत्वारीत्यर्थः योजनानि प्रवेशन, कथम्भूतमित्यर्थः, तस्य प्रागेवोक्लत्वात् , सव्वतवणिजमए उल्लोए' सर्वात्मना • सेए ' इत्यादि, 'श्वेतम्-श्वेतवर्णोपेतं बाहल्येना- तपनीयमय उल्लोकः-उपरिभागः 'नानामणिरयणजालपंज
रत्नमयत्वात् ' वरकणगथूभियाए ' इति वरकनका- रमणिवसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे 'इति, मणयो मबरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तद् बरकनकस्तू। णिमया वंशा येषां तानि मणिमयवंशकानि लोहिताक्षा लोहिपिकाकम् , ' हामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकि- साक्षमया:प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रज
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(६०६) खवणसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द -रजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतत्वात्समा लप्रतिष्ठानाः, तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाश्चन्दनकृतचर्चा-'. सान्तो मकारस्य च द्वित्वम् , मणिवंशकानि लोहिताक्षण- काः-चन्दनकृतोपरागाः ' आवद्धकंठेगुणा ' इति श्रावतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नानि-नानामणिर- द्धः-आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्तसूत्ररूपो येषु ते प्रावस्नमयानि जालपञ्जराणि-गवाक्षापरपर्यायाणि यस्मिन् द्वारे द्धकण्ठेगुणाः, कराटेकालवत्सप्तम्या अलुक्. ' पउमुप्पलपित तथा. पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतात्वात् , ' अंकमया प- हाणा' इति, पद्ममुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते स्वा पक्ववाहाओ जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लुगा य रय- पद्मात्पलपिधानाः 'सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूपामईयो पट्टियाश्रो जायख्यमईओ ओहाडणीप्रो वइरा- | वा' इति प्राग्वत् ' महया महया' इति अतिशयन पई यो उरिपुंछणोश्रो सब्बसेयरययामए छा (य) णे' इति महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः . कुम्मानाभिन्द्र इन्द्रकुम्भो. पद्मवरवेदिकावद्भावनीयम् , 'अंकमयकणगकृडतवग्गिज- राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशदस्य पूर्वनिपातः, महांश्चासौ इधूभियागे' इति अङ्कमयं-बाहुल्येनाकरत्नमयं पक्षवा- न्द्रकुम्भश्च तस्य समानाः महेन्द्रकुम्भसमाजाः-महाकलहादीनामङ्करत्नात्मकत्वात् कनकं-कनकमयं कटम्-शिख- शप्रमाणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् । रं यस्य तत् कनककृटं तपनीया-तपनीयमयी स्तृपि- विजयस्स णं दारस्स उभो पासिं दहतो णिसीहियाका-लघुशिखररूपा यस्य तत्तपनीयस्तृपिकाकम , ततः प- ए दो दो णागदंतपरिवाडीओ, ते णं णागदंतगा मुनादत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः , एतेन यत् प्राक
जालंतरूसितहेमजालगवक्खजालखिखिणाधंटाजालपरि-- सामान्यत उत्क्षिप्तं ' सेए वरकणगभियागे' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति । सम्प्रति तदेव श्वेतन्यमुपसंहार
क्खित्ता अब्भुग्गता अभिणिसिट्ठा तिरियं सुसंपग्गहिता व्याजन भूय उपदर्शयति-'सेए' श्वेतं. श्वेतत्वमेवोपम- अहेपलगद्धरूवा पत्मगद्धसंठाणसंठिता सव्वरयणामया या इढयति- संखतलविमलनिम्मलदधियणगोखीरफेण
अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदंतसमाणा परययनिगरप्पगासे' इति, विमलम्-विगतमलं यत् शङ्क
मत्ता, समणाउसो !। तलं शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधिधनो-घ
• विजयस्स ण 'मित्यादि , विजयस्य द्वारस्य उभयोः नीभूतं दधि गोक्षीरफेनो रजतनिकरश्च तद्वत्प्रकाशः-प्रति
पार्श्वयोरेकैकनैधिकीभावेन द्विधातो नषेधिक्यां द्वौ द्वी मता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिल
नागदन्तको-नर्कुटको अशुटकाविल्यर्थः प्रज्ञप्तो. ते च नाकरत्नानि-पुराइविशषास्तैरर्द्धचन्द्रश्च चित्राणि-नानारू
गदन्तकाः 'मुत्ताजालंतरूसियहेमजालगवक्खजालखिखिणी. पाणि तिलकार्द्धचन्द्रचित्राणि, क्वचित् ' संखतलविमलनि
जालपरिक्खित्ता' इति मुक्काजालानामन्तरेषु यानि उत्सम्मलदधियणगोखीरफेणग्ययनियरपगासद्धचंदचित्ता' इति
तानि-लम्बमानानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहाः यानि पाठस्तत्र पूर्ववत् पृथक् पृथग् व्युत्पत्ति कृत्वा पश्चात्प
च गवाक्षजालानि-गवाक्षाकतिरत्नविशेषदामसमूहाः यानि दद्वयम्य पदद्वयस्य कर्मधारयः, - नाणमणिदामालकिए '
च किङ्किणी-जुद्रघण्टा किङ्किणीजालानि-सुघण्टानानामणयो-नानामणिमयानि दामानि-मालास्तैग्लंकृतं
ससातास्तैः परिक्षिप्ताः-सर्वतो व्याप्ताः ' अब्भुग्गया ' नानामणिदामालंकृतम् अन्तर्बहिश्च । ग्लदणं ' श्लक्ष्णपुद्ग
इति अभिमुखमुद्गता अभ्युद्गता अग्रिमभागे मनाग उन्नता लस्कन्धनिर्मापितम् ' तवणिजवालुयापत्थडे ' इति तपनी
इति भावः ' अभिनिसिट्टा' इति अभिमुखं-बहिर्भागायाः-तपनीयमय्यो या वालुका:-सिकतास्तासां प्रस्तटः
भिमुखं निसृष्टाः अभिनिसृष्टाः 'तिरियं सुसंपग्गहिया । प्रस्तारी यस्मिन् तत्तथा, 'सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासा
इति तिर्यग-भित्तिप्रदेश सुष्ट्र अतिशयेन सम्यग्-मनाईए जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत् ।
गण्यचलनेन परिगृहीताः सुसंपरिगृहीताः 'अहे पन्नगड(५) लवणसमुद्रविजयद्वारस्य नैपधिक्यां चन्दनकल
रूवा' इति अधः-अधस्तनं यत्पन्नगस्य-सर्पस्याई नशान् प्रतिपादयति
स्येव रूपम-आकागे येषां ते तथा, अधः पन्नगाढवदनिविजयस्म णं दारस्स उभयो पासिं दहतो णिसीहि
सरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव व्याच-पन्नगार्डसंयाते दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पामत्तानो, ते णं
स्थानस्थिताः-श्रधः पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः 'सय्यबचंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुणा चं- इरामया सर्वात्मना बज्रमयाः 'अच्छा सराहा . जाव पदणकयचचागा आबद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सब- डिरूवा ' इति प्राग्वत् . ' महया महया' इति अतिशयेन रयणामया अच्छा सराहा जाव पडिरूवा महता महता
गजदन्तसमाना:-गजदन्ताकाराः प्रज्ञताः हे भ्रमण ! हे महिंदकुंभसमाणा पापत्ता, समणाउसो ।
श्रायुप्मन् !। विजयस्म णं दागस्से त्यादि. विजयस्य मिति प्रा
तसु णं णागदंतएसु बहवे किएहसुत्तबद्धवग्याग्वत् द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकनपधिकीभावेन । दह- रितमल्लदामकलावा . जाव सुकिल्लसुत्तबद्धवग्धारियतो' इति द्विधातो हिप्रकागयां नैपेधिक्यां, नैपेधिकी- मल्लदामकलावा ॥ ते णं दामा तवणिस्खलंबसगा सुनिपादनस्थानम् , उनं च मूलटीकाकारेण-" नेपोधकी
वामपतरगमंडिता णाणामणिरयणविविधहारद्धहार ( उपनिदनस्थान "मिति, प्रत्येक द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती. ने च चन्दनकलशाः ' वरकमलपइट्ठाणा' इति वर्ग-प्र
साभितममुदया ) . जाब मिरीए अतीव अतीव धानं यत्कमलं तदातिमानम-याचागे गेषां ते परकम-| उपसोभेमाणा उयमोमेमाणा चिटुंति ॥ तेसि णं Jain Education Internal
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( ६१० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लवणममुद्द
urगदंतकाणं उaft अरणाओ दो दो गागदंतपरिवाडीओ पाओ, तेसि णं णागदंतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेब ०जाब समणाउसो ! तेसु णं णागदं तसु बहने रयतामया सिक्कया पण्णत्ता, तेसु णं रयarare fears बहवे बेरुलियामतीओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदरुकतुरुकधूत्रमघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधव jaitri गंधभूयाओ ओरालेणं मरणुमेगं घा - णमणणिव्बुड़करेणं गंधेणं तप्प से सव्वतो समंता आपूमागीओ पूरेमाणीओ अतीव अतीव सिरीए ०जाव चिति ॥
'तेसु णं नागदंतसु' इत्यादि तेषु च नागदन्तकेषु बह - वः कृष्णसुत्रे बद्धाः ' वग्धारिया ' इति अवलम्बिता: माल्यदामकलापाः - पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रबद्धा माल्यदामकलापाः, एवं लोहितहारिद्रशुक्लसूत्र वद्धा श्रपि वाच्याः 'तें दामा' इत्यादि तानि दामानि तवनिज्जलंबूसगा ' इति, तपनीयः - तपनीयमयो लम्बूसको – दाम्नामग्रिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिर्येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि ' सुवक्षपयरगमंडिया' इति पार्श्वतः सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेण—सुवर्णपत्र के मण्डितानि सुबप्रतरकमण्डितानि नानामणिरयणविविहहारहारउवसांभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा - विचित्रवण हारा - श्रष्टादशसरिका श्रर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदयो येषां तानि तथा'जाव सिरीप अतीव उवसोभमाणा चिट्ठति' अत्र यावत्करगादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः - 'ईसिमलमसम संपत्ता पुव्वावराहिणुत्तगगपहिं चाहिं मंदार्य मंदायमेइज्जमाणा पलंचमाणा पर्लवमाणा परंभ (भंझ) माणा परंभ (भंभ) माणा श्ररालणं मणुन गणहरें कम निव्वुइकरेणं सद्दे ते पसे सव्वतो समता श्रपरेमाणा श्रपरेमाणा सिरीप उवसोभेमाणा उवसोममाणा चिट्ठेति । एतच्च प्रागेव पद्मवरयेदिकावरीने व्याख्यातमिति भूयो न व्याख्यायते । तेसिं नागदंताण' मित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यौ हो नागदन्तको प्रशप्तौ ते च नागदन्तकाः मुत्ताजालतरूसिहमजालगवक्खजाल ' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्यं यावद् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ताः हे भ्रमण ! हे श्रायुष्मन् ! 'तेसु गंगागदंतरसु ' इत्यादि तेषु नागदन्तकेषु यहनि रजतमयानि सिकानि प्रशतानि तेषु च रजतमयेषु सिक्ककेषुवहयां वैहूर्यरत्नमय्या-वैर्यरत्नात्मिकाः धूपघटयांधूपघटिकाः प्रक्षप्ताः, ताश्च धूपघटिकाः कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क धूयमघमघंतगंधुद्धयाभिरामा ' कालागुरुः प्रास द्धः प्रवरः -- प्रधानः कुन्दुरुष्कः- चीडा तुरुष्कं - सिहकं कालागुरुश्च प्रवर कुन्दुरुष्कतुरुष्कं च कालागुरुप्रवर कुन्दुरुeaतुरुष्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उदधृतइतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाः कालागुरुप्रवर कुन्दुरुष्कतुरुष्क धूपमघमत्रायमानगन्धोद्धृताभिरामाः, तथा शाभनो गन्धोते सुगन्धास्ते च त वरगन्धास्तेषां गन्धः स
For Private
लवणसमुद्द श्रावस्तीति सुगन्धवरगन्धकाः 'श्रतोऽनेकस्वरादि' तीकप्रत्ययः, अत एव गन्धवर्त्ति भूताः - सौरभ्यवर्त्तिभूताः सौरशेन-मनोऽनुकूलेन, कथं मनोऽनुकूलत्वम्? अत श्राह-घ्राणभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः उदारेण-स्फारेण मनोमनोनिर्वृतिकरेण, हेतौ तृतीया. यतो घ्राणमनोनिर्वृतिकरस्ततो मनोशस्तेन गन्धेन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् प्रपूरयन्त्य श्रापूरयन्त्यः, श्रत एव श्रियाऽतीव शोभमानास्तिष्ठन्ति । (६) लवणसमुद्रस्य विजयद्वारे शालभञ्जिकाः प्रतिपादयतिविजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो - सीधियाए दो दो सालिभंजियापरिवाडीओ पपत्ताओ, ताओ गं सालभंजियाओ लीलट्ठिताओ सुपयट्ठियाओ सुत्रलंकिता श्र णाणागारवसणाओ गाणामल्ल पिट्ठि(द्धि) ओ मुट्ठीगेज्झमज्झायो आमेलगजमलजुयलवट्टिश्रभुमयपी रचियसंठियपओहराओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिदुविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लितग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपादवसमुट्ठिताओ वामहस्थगहितग्गसालाओ ईसिं श्रद्धच्छिकडक्खविद्धिएहिं लूसेमाणीतो इव चक्खुल्लोयणलेसाहिं मम खिजमाणी ओ इव पुढविपरिणामाओ सासय भावमुवगताओ चंदाराणाओ चंदविलासिणी ओ चंदद्धसंमनिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का इव उज्जोएमागीओ विज्लुघणमरीचिमूरदिप्पंततेयग्रहिययरसं निकासा - ओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओ० ४ तेयसा अ ती अतीव सोमाणीओ सोमाणी चिट्ठेति ।
'विजयम्स से दारस्से' त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोरेकैकनैषधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायां नैषेfarai द्वे द्वे शालभञ्जिके प्रज्ञप्ते, ताश्च शालभञ्जिका लीलया - ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः •सुपट्टियाओ इति सुष्ठु मनोज्ञनया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः सुप्रलंकियाओ इति सुष्ठु श्रतिशयेन रमणीयतया श्रलंकृताः स्वलंकृताः नागाविहरागयसगाश्रो उति नानाविधो-नानाप्रकारो गगो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि-वस्त्राणि संवृतनया यासां ता नानाविधगगवसनाः 'रत्तावंगाओ' इति, रोपाङ्गो - नयनोपान्तं यासां ता रक्तापाङ्गाः श्रमियकेसीआ' इति असिताः - कृष्णाः केशा यासां ता असितकेश्यः 'मिवियपत्थलकरणसंवल्लियग्गसिग्याश्री' मृदवः-कीमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानि शोभनानि श्रस्फुटितत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः संवेल्लितं-संवृतम येषां शेखरककरणात् ते संवल्लिताग्राः शिरोजाःकेशा यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षण संवेज्ञिताग्रशिगेजाः, 'नागामज्ञपणाश्रो ' इति नानारूपाणि माल्यानि पुष्पागिपिनानि श्राविजानि यामां ना नानामाल्यपिनद्धाःनिष्टान्तस्य परनिपाता भार्यादिदर्शनात् मुट्ठिगज्भसुमभाइति मुप्रिया सुष्ठु शोभनं मध्यम- मध्यभागां यासां ता सुटिग्राह्यसुमध्याः श्रमेलगजमलजुगलवट्टियश्रव्भुतपर संदिप ओह पान-पीवर रचितं संस्थित
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लवणसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह संस्थानं यकाभ्यां तौ पीनरचितसंस्थिती पामेलकः-आपी- | 'विजयस्स णं दारस्से' त्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः डशेखरक इत्यर्थः, तस्य यमलं-समश्रेणीकं युगलं तद्वत् वर्ति | पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन ' द्विधातो' द्विप्रकारायां तौ-बद्धस्वभावावुपचितकठिनभावाविति भावः श्रभ्युन्नती | नैषेधिक्यां द्वौ द्वौ जालकटको प्रक्षप्तौ , ' ते णं जापीनरचितसंस्थितौ च पयोधरौ यासा तास्तथा , इसिं लकडगा ' इत्यादि , ते च जालकटकाकीर्णा रम्यअसोगवरपायवसमुट्टियाश्रो' इति ईषत्-मनाक अशोकव- संस्थानाः प्रदेशविशेषाः सव्वरयणामया अच्छा सहारपादप समवस्थिता-आश्रिता ईषदशोकवरपादपसमव- जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'विजयस्से' त्यादि, स्थिताः, तथा वामहस्तेन गृहीतमग्रं शालायाः-शाखाया | विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्द्विधातो नैषेधिक्या दे अर्थादशोकपादपस्य यकाभिस्ता वामहस्तगृहीताप्रशाला, द्वे घण्टे प्रक्षप्ते, तासां च घण्टानामयमेतदूपः 'वर्णावासः ' 'इसि अडुच्छिकडक्वचिट्टिएहिं लूसेमाणीश्रो इवे ' ति वर्णकनिवेशः प्राप्तः, तद्यथा-जाम्बूनदमय्यो घण्टाः बजईषत्-मनाग 'अई' तिर्यग्वलितम् अक्षि येषु कटाक्षरूपेषु मय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापााः तपनीयमय्यः चेष्टितेषु तैर्मुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसि 'चक्खुल्लोयण- | झाला यासु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति रजतमय्यो रजवः ।। लेसेहि य अराणमण्णं विज्झेमाणीओ इव' 'अरणमरणं' 'ताश्रो णं घंटाओ' इत्यादि, ताश्च घण्टाः, श्रोधस्वराःपरस्परं चक्षुषां लोकनेन-अवलोकनेन लेशाः-संश्लेषास्तै
श्रोधेन-प्रवाहेण स्वरो यासां ता श्रोधस्वराः, मेघस्येवातिविध्यमाना इव, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम तास्तिर्यग्वलिता
दीर्घः स्वरो यासां ता मेघस्वराः, हंसत्येव मधुरः स्वरो क्षिकटाक्षः परस्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ते यथा नूनं पर- यासांता हंसस्वराः, एवं क्रौञ्चस्वराः, सिंहस्येव प्रभूतदेस्परसौभाग्यासहनतस्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्य- शब्यापी स्वरो यासां ताः सिंहस्वराः, एवं दुन्दुभिस्वरा न्त इवेति 'पुढविपरिणामाश्रो' इति पृथिवीपरिणामरूपाः नन्दिस्वराः, द्वादशतूर्यससातो नन्दिः, नन्दिवद घोपो-निनाशाश्वतभावमुपागता विजयद्वारवत् 'चंदाणणाश्रो' इति दो यासां ता नन्दिघोषा', मञ्जुः-प्रियः स्वरो यासां ता चन्द्रवद् श्राननं-मुखं यासा ताश्चन्द्राननाः 'चंदविलासिणी- मम्जुस्वराः, एवं मजुघोषाः, किंबहुना ?, सुस्वराः सुस्वमो' इति चन्द्रवन्मनोहरं विलसन्तीत्येवंशीलाश्चन्द्रविलासि- रघोषाः, 'अोरालेण' मित्यादि प्राग्वत् । न्यः 'चन्द्धसमनिडालाओ' इति चन्द्रार्द्धन-अष्टमीचन्द्रेण विजयस्स णं दारस्स उभो पासिं दुहतो णिसीसम-समान ललाटं यासां ताश्चन्द्रार्द्धसमललाटाः 'चंदाहि
धिताए दो दो वणमालापरिवाडीओ पएणत्ताओ, यसोमदसणाओ' इति चन्द्रादप्यधिकं सौम्यम्-सुभगं कान्तिमदर्शनम्-श्राकारो यासा तास्तथा, उल्का इव द्योतमा
ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलताकिसलयपल्लनाः 'विज्जुघणमरीचिसूरदिप्पंततेयहिययरसन्निकासाओ'।
वसमाउलाओ छप्पयपरिभुञ्जमाण कमलसोभंतसस्सिरीइति विद्युतो ये धना-बहुलतरा मरीचयस्तेभ्यो; यश्च सू- याओ पासाईयात्रो ते पएसे ओरालेणं. जाव गंधेणं यस्य दीप्यमानमनावृतं तेजस्तस्मादप्यधिकतरः सन्निकाशः आपूरेमाणीयो० जाव चिटुंति ॥ (सू० १२६) प्रकाशो यासां तास्तथा 'सिंगारागारचारुवेसाश्रो' इति विजयस्स ण ' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पाशृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधान आकार-प्राकृतिर्यासां वयोर्दिधातो नैषेधिक्यां द्वे द्वे बनमाले प्रशते, ताश्च वनाः शृङ्गागकाराः चारु वेषो-नेपथ्यं यासांताश्चारुवेषास्ततः नमाला नानाद्रुमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा श्रकर्मधारये शृङ्गाराकारचारुवेषाः 'पासाईयाओ' इत्यादि तिकोमला इत्यर्थः पल्लवास्तः समाकुलाः-सम्मिश्राः 'छविशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ।
प्पयपरिभुजमाणसोभंतसस्सिरीया' इति षट्पदैः परिभुविजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसी
ज्यमाना सती शोभमाना षट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना हियाए दो दो जालकडगा पएणत्ता, ते णं जालकडगा अत एव सश्रीका ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'पा
साईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा ॥ विजय
(७) लवणसमुद्रविजयद्वारस्य पीठादिवर्णयतिस्स णं दारस्स उभो पासिं दुहओ णिसीधियाए दो
विजयस्स णं दारस्स उभो पासिं दुहतो णिसीहिदो घंटापरिवाडीओ पएणत्ताओ, तासि णं घंटाणं
याए दो दो पगंठगा पएणत्ता, ते णं पगंठगा चत्तारि अयमयारूवे वरणावासे पएणत्ते, तं जहा-जंबृणदमती
जोयणाई आयामविक्खंभेणं दो जोयणाई बाहल्लेणं सओ घंटाओ वइरामतीओ लालाओ गाणामणिमया घंटा
व्ववइरामता अच्छा० जाव पडिरूवा ।। तेसि णं पयंपासगा तवणिजमतीओ संकलाओ ग्यतामतीयो रज्जु
ठगाणं उवरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा परमत्ता, ते णं ओ ॥ ताओ णं घंटाओ ओहस्सरायो मेहस्सरा- पासायवडिंसगा चत्तारि जोयणाई उई उच्चत्तेणं दो ओ हंसस्सराओ कोंचरसराओ णदिस्सराओ णदि- जोषणाई आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसितपहसिता विघोसाओ मीहस्सराओ सीहघोसाओ मंजुस्सगो मंजु- व विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउ (द)यविजयवेजयंघोमायो सुस्मरानो सुम्सरणिग्यासाओ ते पदेसे ओ-| तीपडागच्छत्नातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलम-भिलंघमागलेणं मणुएणणं करणमणनिव्वुइकरण सद्देण० जाव | ण ( णुलिहंत ) सिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्य मचिटुंनि ।
शिकणगभियागा वियसियसयवत्तपोंडरीयतिलकरयण
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लगणसमुद्द
चंदचित्ता गाणामणिमयदामालंकिया तो य बाहि च सहा तवणिज्जरुइलवालुयापत्थङगा सुहफासा मस्सिरीयरूवा पासातीया० ४ ॥
( ६१२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
'विजयस्स ' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयो द्विधातो पेषियां द्वौ द्वौ प्रकण्ठको प्रतीकको ना म पीडविशेषः, आह च मूलटीकाकार-प्रकरडी पीडविशेपौ,” चूर्णिकारस्त्वेवमाह - " श्रादशवृत्तौ पर्यन्तावनतप्रदेशी पीठ प्रकण्ठाविति", ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येकं चत्वारि योजनानि 'आयामविष्कम्भेन'- आयामविष्कम्भाभ्यां हे योजने बाहल्येन 'सव्ववइरामया' इति सर्वात्मना ते प्रकण्ठका वज्रमयाः 'अच्छा सराहा य' इत्यादि विशेषण कदम्बकं प्राग्वत् ॥ ' तेसि गं पकंठयाण ' मित्यादि तेषां च प्रकण्ठ
कानामुपरि प्रत्येकं प्रासादावतंसकः प्रशतः प्रासादावर्त सको नाम प्रासादविशेषः, उलं च मूलटीकायाम्" प्रा सादावतंसकः प्रासादविशेषः" इति व्युत्पत्तिश्चैवम् प्रासादानामवतंसक इव- शेखरक इव प्रासादावतंसकः, ते च प्रासादावतंसकाः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूर्ध्वमुचैवेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्याम् अभुग्गयमूसिय पहसिया विवेति श्रभ्युद्गता - श्रभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता -प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभातया सिता इव बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा क धमिव तेऽत्युच्या निरालम्वास्तिष्ठन्तीति भावः, अथवा-प्रबलश्वेतप्रभापटलतथा प्रहसिताबिक इसिताबिय तथा - 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा- श्रनेकप्रकारा ये मणयः-चन्द्रकान्ताद्या यानि च रत्नानि - कर्केतनादीनि ते षां भक्तिभिः - विच्छित्तिभिश्चित्रा नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा नानाविधमणिरत्नभक्तिचित्राः वार्यावजयवेजयंती - मानिसकलिया' यानोवृता वायुकम्पिताः विजय:अभ्युदयस्तसंचिका वैजयन्तीनामानो या पताका, अ थवा- विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयव जिंता वैजयन्त्यः पातित्राणि उपर्युपरिस्थितान्यानपत्राणि तैः कलिताः, वातोद्धूतविजयवैजयन्ती पनाकाछत्राति च्छत्रकलिताः तुङ्गाः - उच्चा उच्चैस्त्वेन चतुयजनप्रमाण - स्यात् अत एव गगगतमहिमहरा नि इति गगनतलम् सम्यरम् अनुमति अभिलन्ति शि खराणि येषां ते गगनतलासिस तथा लानि - जालकानि यानि भवनभिनिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि येषु ते जालान्तररत्नाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, तथा पञ्जगद् उन्मीलिता इव वहिष्कृता, यथा हि किल किमपि वस्तु - शादिमयादनविशेषाद् वहिष्कृनमत्यन्तमपिनष्ार्ष भवति एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भावः, नथा मलिकनकानि - मरिकनकमयः स्तृषिका:- शिखराणि येषां रयिका तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादी प्रतिकृनि स्थितानि तिलकरत्नानि मिष्यादिषु पुगविशेषा अर्द्धचन्द्रा द्वारा दिपु तेचित्रा नानारूपधभूताः विकसितश्नपत्र
"
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लवणसमुद्द राडरीफतिलकार्डचन्द्र चित्राः अन्तर्वडिश (नाना अनेक प्रकारा ये चन्द्रकान्ताद्या मणयस्तन्मयानि — तत्प्रधानानि यानि दामानि पुष्पमालास्तैरलङ्कृताः) साम गाः, तथा तपनीयम् - सुवर्णविशेषस्तन्मय्याः बालुकायाः प्रस्तटम् - प्रस्तरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः 'सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया ' इत्यादि प्राग्वत् ।
,
,
तेसि णं पासायवडेंसगाणं उल्लोया पउमलता ० जाव सामलया भत्तिचित्ता सव्वतवणिजमता अच्छा ० जाव पढिरुषा ।। तेसि सं पासाववर्टिसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे परासने से जहागामएश्रालिंगपुक्खरेति वा०जाव मणीहिं उवसोभिए, मणीण गंधो दो फासो य नेपथ्यो । तेसि सं बहुसमरमणिज्जासं भूमिभागाणं बहुमज्यसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपेडियाओ पराणत्ताओ, ताओ गं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्संभेणं अजोय बाहल्लेणं सव्वरयणामईओ जार पढिरुवाओ तासि गं मणिपेडियाखं उचरिं पत्ते पत्तेयं सीहासणे पण्णत्ते, तेसि णं सीहासणाणं अमेयारूवे वणवासे पाने, तं जहा तवणिज्जमया चकवाला रयतामया सीहा, सोवरिया पादा, खाणामणिमयाई पायवीटगाई, जंयमताई गत्ताई, पतिरामया संधी, नाणामणिमए वेच्चे ते गं सीहासणा ईटामियउसभ जाव पडमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविविहमणिरयण पायपीढा - स्थरगमिउमसूरगनवनयकुतलिय्यसीहकेसरपच्चुन्धता - भिरामा उयचियखोमदुगुल्लयपडिच्छयणा सुविरचितरयनागा रतंयमंया सुरम्मा आईगरूयवनतित्लमपफासा मया पासाईया ० ४ ॥
'सि' इत्यादि तेषां च प्रासादावतंसकानाम् उल्लोकाः उपरितनभागाः पद्मनाभक्तिचित्रा अशोकलताभचित्राश्चम्पकलताभक्किचित्राश्चूत लनाभलचित्रा बनलता भक्तिचित्रा वासन्तिकलताभक्किचित्राः सर्वात्मना तपनीयमयाः ' अच्छा सरहा०जाब पडिरूचा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ तसि ण ' मित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानामन्नर्यसमरमणीय भूमिभागः प्रथमः से जहानाम
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लिंगgrats वा' इत्यादि समस्तं भूमिवर्णनं मणीनां वपञ्चक सुरभिगन्धशुभस्पर्शवर्णनं प्रास्वत् सि मित्यादि तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्व हुसमरमणीयानां भूमिभागानां मध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं ( मीडि प्रज्ञप्ताः ताश्च मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भन श्रट यां जनानि बाहल्येन सर्वनाः नायां मांपीठिकानामुपरि ) सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, तैपांच सिंहासनानामयमेतद्रो' वर्णावासो' वर्णकनिवेशः प्रज्ञतः, तद्यथा-रजसमय: मिहाः तैरुपशोभितानि सिंहासनानि सीमा:समयाः पादाः तपनीयमयानि चक्रवालानि पादानाप प्रदेशः भवन्ति शुक्लानानामणिमयानि पादानामधः प्रदे
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लवण समुद्द
शाः प्रयुक्ताः नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि-पादानामुपरितना श्रवयवविशेषा जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईदच्छाः ' वज्रमयाः ' - वज्ररत्नापूरिता सन्धयः- गात्राणां सन्धिमेला नानामणिमयं वेच्चं 'व्यूतं वानमित्यर्थः श्राह व चूर्णिकृत्-" वेच्चे वाणफतेरा " मित्यादि तानि च सिंहास - नानि ईहामृगॠषभतुरगनरसकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरचनलतापद्मलता भक्तिचित्राणि ससारसारोवचियविविमग्यिणपादपीढा' इति सारसारैः - प्रधानप्रधानविविधैर्मणिरत्नैरुपचितैः पादपीठैः सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वाश्च उपचितशब्दस्यान्तरुपन्यासः, 'अत्थरमउयमसूरगनवयत्त कुसन्तलित्त के सरपच्चत्थुयाभिरामा' इति श्रास्तरकम् — श्राच्छादनं मृदु येषां मसूरकाणां तानि श्रस्तरकमृदूनि, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् नवा त्वग् येषां ते नवत्वचः कुशान्ता-दर्भपर्यन्ताः, नवत्वन्त्रश्च ते कुशान्ताश्च नवत्वषकुशान्ताः प्रत्यग्रत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि त्वति कोमलानि लित्तानि - नमनशीलानि च केसराणि क्कचित् ' सिंहकेसरे ' ति पाठस्तत्व सिंहकेसराणीव केसराणि मध्ये मसूरकाणां तानि नवत्वक्कुशान्तचिल्ल (लित ) केसराणि ' सिंहकेसरेति' पाठपक्षे एकस्य केसरशब्दस्यशाकपार्थिवादिदर्शनालोपः, श्रस्तरकमृदुभिर्मसूरकैर्नवत्वकुशान्सलित्त केसरैः प्रत्यवस्तृतानि श्राच्छादितानि सन्ति यानि श्रभिरामाणि तानि तथा विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात् 'आईणगरु (रू) यबूरनवणी
,
तूलफासा' इति आजिनकम् चर्ममयं वस्त्रं तच्च स्वभावादतिकोमलं भवति रूतम् - कर्पासपरम बूरो- वनस्पतिविशेषः नवनीतं म्रक्षणं तूलम् - अर्कतूलं तेषामिव स्पर्शो येषां तानि तथा तथा सुविरचितं रजस्त्राणं प्रत्येकमुपरि येषां तानि सुविरचितरजस्त्राणानि उवचिय खोम दुगुल्लपट्टपडिछाणे ' इति उपचितम् - परिकमितं यत्क्षीमं- दुकूलं कार्पासिकं वस्त्रं तत्प्रतिच्छादनं रजस्त्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं प्रत्येकं येषां तानि तथा तत उपरि ' रत्तंसुयसंबुया '' इति रक्लांशुकेन – अतिरमणीयेन रक्तेन वस्त्रेण संवृतानि श्राच्छादितानि रक्नांशुकसंवृतानि श्रत एव सुरम्याणि 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।
( ६१३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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तेसि णं सीहासणाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं विजयदुसं पम्पत्ते, ते गं विजयसा सेता संखकुंददगरयश्रमतमहिय फेण पुंजसन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा ०जाव पंडिरूवा ॥ तेसि णं विजयसाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अकुंसा पण्णत्ता, सुगं वइराम अंकुसेसु पत्तेयं पत्तेयं कुंभिका मुत्तादामा पम्पत्ता, ते गं कुंभिका मुत्तादामा अनेहिं चउहिं चउहिं तदद्धुच्चप्पमाणमेत्तेहिं श्रद्धकुंभिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्वतो संमता संपरिक्खित्ता, ते गं दामा तवणिञ्जलं - ब्रूसका सुवम्पयरगमंडिता जाव चिट्ठति, तेसि गं पासावडिंगाणं उप्पि बहवे अ मंगलगा पात्ता सोत्थिय तथेव ० जाव छत्ता || ( सू० १३० )
लवण समुद्द 'तेस ग ' मित्यादि तेषां का सिंहासनानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येक विजयदृष्यं वस्त्रविशेषः प्रज्ञप्तः, श्राह च मूलटीकाकारः-- " विजय दृष्यं वस्त्रविशेष " इति । तेण मित्यादि, तानि च विजय दृष्याणि शङ्खकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशानि - शङ्खः प्रतीतः कुन्देति- कुन्दकुसुमं दकरजः उदककरणाः श्रमृतस्य-क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुञ्ज - डिण्डीरोत्क रस्तत्सन्निकाशानि - तत्समप्रभाणि - पुनः कथम्भूतानि ? इत्यत श्राह - स. व्वरयामया सर्वात्मना रत्नमयानि अच्छा सराहा० जाव पडिरूवा इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि स ' मित्यादि तेषां सिंहासनोपरिस्थितानां विजयदृष्याणां प्रत्येकं प्रत्येकं बहुमध्यदेशभागे वज्रमयाः-वजरत्नात्मकाः श्रङकुशः श्रङ्कुशाकारा मुक्कादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रशप्ताः, तेषु च वज्रमयेष्वङ्कुशेषु प्रत्येकं प्रत्येकं कुम्भाप्रम् - मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भप्रमाणं मुक्कामयं मुक्तादाम प्रशप्तम्, तानि च कुम्भाप्राणि मुनादामानि प्रत्येकं प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिः कुम्भायैर्मुक्तादामभिस्तदधश्चप्रमाण मात्रैः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः- सामस्त्येन संपरिक्षिप्तानि, “ ते गं दामा तवणिजलंबूलगा नाणामणिरय विविहहारहारउवसोभियसमुदाया ईसिमनमनमसंपत्ता पुब्बावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एरज्जमाणा एइजमारणा वेइजमाणा बेइजमासा पकंपमाणा पकंपमाणा षमाणा पक्षमाणा ओरालेणं मरणं मणहरे कसम निव्बुकरे ते परसे सव्वतो समंता पूरेमाणा सिरी उवसोभेमाणा चिट्ठति " ॥
विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुइओ खिसीहियाए दो दो तोरणा पम्मत्ता, ते गं तोरणा गाणामणिमया तहेब० जाव अट्ठ मंगलका य छत्तातिछत्ता, तेसि गं तोरणासं पुरतो दो दो सालभंजिताओ पत्ताओ, जहेव ग हेट्ठा तहेव । तेसि गं तोराणं पुरतो दो दो खागदंतगा पत्ता, ते गं खागदंतगा मुत्ताजालतरूसिया तहेव, तेसु णं णागदंत एसु बहवे कि सुत्तट्टवग्घारितमल्लदामकलावा० जाव चिति । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो हयसंघाडगा पम्मत्ता, सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा, एवं पीओवीहीओ मिहुणगा, दो दो पउमलयाओ० जाव पडिरूवाओ, तेसि गं तोरणाणं पुरतो (अक्खा सोत्थिया सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा ) तेसिं गं तोरणाणं पुरतो दो दो चंद
कलसा पष्मत्ता, ते गं चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तहेव सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा समणाउसो ! | तेसि णं तोरणाणं पुरत्र दो दो भिंगारगा पमत्ता वरकमलपइड्डाणा • जाव सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा महता महता मत्तगयमुहागितिसमणा पणना समाउसो ॥ ॥
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह 'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पा- रूवा महता महता रहचक्कसमाणा समणाउसो ! ॥ वयोर्विधातो नैषेधिक्यां द्वे द्वे तोरणे प्रक्षप्ते, तानि च तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो पातीओ पएणत्ताओ, तोरणानि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णनं निरवशेष प्राग्वत् । तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे
ताओ णं पातीओ अच्छोदयपडिहत्थाओ णाणाविधपंचद्वे शालभञ्जिके प्राप्ते, शालभञ्जिकावर्णनं प्राग्वत् ॥ ' तेसि
वएणस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिट्ठति ण ' मित्यादि, तेषां तोरणानां द्वौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञप्ती, सव्वरयणामतीओ० जाव पडिरूवाओ महया महया गोतेषां च नागदन्तकानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा| कलिंजगचक्कसमाणाओ परमत्तानो समणाउसो!॥ वक्तव्यम् , नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावात्
'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतोद्वौ द्वावादर्शको ॥'तेसि ण 'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हय
प्रज्ञप्ती, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रुपः वर्णावासः-वर्णकनिवेसंघाटको द्वौ दो गजसवाटको द्वौ द्वौ नरसङ्घाटको द्वौ
शः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमयाः प्रकण्ठका:-पीठकविशेषाः द्वौ किन्नरसंघाटको द्वौ द्वौ किंपुरुषसंघाटको द्वौ द्वौ महो- 'बेरुलियमया थंभया' श्रादर्शकगण्डप्रतिबन्धप्रदेशाः,आदरगसंघाटको द्वौ द्वौ गन्धर्वसङ्घाटको द्वौ द्वौ वृषभसङ्घाट- शकगण्डानां मुधिग्रहणयोग्याः प्रदेशा इति भावः, वज्ररत्नको, एते च कथम्भूताः ? इत्याह- सबरयणामया अच्छा
मया वराङ्गा गण्डा इत्यर्थः, नानामणिमया बलक्षाः वलक्षो सराहा' इत्यादि प्राग्वत् , एवम्-पक्तिवीथीमिथुनकान्यपि
नाम शृङ्खलादिरूपमवलम्बनम् , अङ्कमयानि-अङ्करत्नमयाप्रत्येकं वाच्यानि ॥ 'तेसिं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणा- मि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूतिः 'अणोहसियणिम्मलानां पुरतो द्वे द्वे पद्मलते यावत्करणाद द्वे द्वे नागलते द्वे द्वे
ए छायाए' इति अवघर्षतामवर्षितम् , भावे प्रत्ययः, अशोकलते वे द्वे चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते द्वे द्वे वासन्तीलते
भूत्यादीनां निमज्जनमित्यर्थः, अबर्षितस्याभावोऽनवर्षिद्वे द्वे कुन्दलते द्वे वे अतिमुक्तकलते इति परिग्रहः । द्वेश्या
तं तेन निर्मला अनवधर्षितनिर्मला तया छायया समनुबद्धाः, मलते, एताश्च कथम्भूताः? इत्याह-'निश्चं कुसुमियाओ' इ.
'चंदमंडलपडिनिकासा' इति चन्द्रमण्डलसदृशाः 'महया त्यादि यावत्करणात् निश्च मउलियाओनिञ्च लवड्याओ निश्चं
महया' अतिशयेन महान्तः अर्द्धकायसमानाः-द्रष्टुः शरीथवइयाओ निश्चं गोच्छियाश्रोनिच्च जमलियाओ निच्च विणमि
रार्द्धप्रमाणाः प्राप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥'तेसि सा' याश्रो (निश्चं पणमियाश्रो)निच्च सुविभत्तपडिमंजरिवर्डस- मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतोद्वे वज्रनाभे स्थाले प्रश्वास, गधरीओ निश्चं कुसुमियमउलियलवइयथबइयाओ निश्च तानि च स्थालानि ( तिष्ठन्ति ) 'अच्छतिच्छडियसालितंगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीश्रो' दुलनहसंदट्ठपरिपुमा इव चिटुंति' अच्छा--निर्मवाः शुद्धइति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । पुनः कधम्भूताः? स्फटिकवत्त्रिच्छटिता अत एव नखसंदष्टाः-नखा सदष्टा, इत्याह-'सब्वरयणामया० जाव पडिरूवा' इति , अत्रा- मुसलादिभिश्चुम्बिता येषां ते तथा, भार्यादिदर्शनात्परनिपि यावत्करणात्-'अच्छा सराहा' इत्यादिविशषणक- पातो निष्ठान्तस्य, अच्छस्त्रिच्छटितैः शालितन्दुलैर्नखसंदष्टैः दम्बकपरिग्रहः, स च प्राग्वद्भावनीयः ॥ तेसि ण '। परिपूर्णानीव अच्छत्रिच्छटितशालितन्दुलनस्वसंदष्टपरिमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रन- पूर्णानीव पृथिवीपरिमाणरूपाणि तानि तथा स्थितानि सौ, वर्णकश्च चन्दनकलशानां वरकमलपइट्ठाणा' इत्या- केवलमेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-सब्वजंबूनदमया' दिरूपः सर्वः प्राक्कलनो वक्तव्यः ॥ तेसि ण' मित्यादि , तेषां सर्वात्मना जम्बूनदमयानि 'अच्छा सराहा' इत्यादि प्राग्वत् तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारको प्रज्ञप्तौ, तेषामपि चन्दन- 'महया महया' इति अतिशयेन महान्ति रथचक्रसमानाकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः , नवरं पर्यन्ते ' मत्तथया
नि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! तेसि ण' मित्यादि, महामुहागिइसमाणा पराणत्ता समणाउसो !' इति वक्त
तेषां तोरणा पुरतो द्वे द्वे ' पाईप्रो' इति पायौ व्यम् ' मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति, मत्तो यो गज- प्रक्षप्ते, ताश्च पाध्यः ' अच्छोदकडिहत्थाओ' इति स्तस्य महदू-अतिविशालं यन्मुखं तस्याकृतिः-आकार- स्वच्छपानीयपरिपूर्णाः ' नाणाविहस्स फलहरियस्स बस्तत्समानाः-तत्सदृशाः प्राप्ताः हे श्रमण ! हे श्रायुष्मन् !।। हुपडिपुणाश्रो विवे ' त्ति अत्र षष्ठी तृतीयाथै बहुवचने तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो आतंसगा प
चैकवचनं प्राकृतत्वात् , नानाविधैः फलहरितैः-हरितफलैएणत्ता, तेसि णं आतंसगाणं अयमेयारूवे वरमावासे
बहु-प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, न खलु तानि फलानि
जलं वा किन्तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपगताः पृथिवीपरिपएणत्ते, तं जहा-तवणिज्जमया पयंठगा, वेरुलियमया
णामास्तत उपमानमिति, ' सव्वरयणामईश्रो' इत्यादि छरुहा, (थंभया ) वइरामया वरंगा, णाणामणिमया प्राग्वत् , 'महया महया' इति अतिशयेन महत्यो गोकलिज वलक्खा,अंकमया मंडला,अणोघसियनिम्मला साए छाया- (र) चक्रसमानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ ए सव्वतो चेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महता तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतिट्ठगा परमत्ता, महता अद्धकायसमाणा पएणत्ता समणाउसो।।। तेसि | तेणं सुपतिद्रगाणाणाविध (पंचवम) पसाहणगभंडविरणं तोरणाणं पुरतो दो दो बहरणाभे थाले भएणते, चिया सव्वासाधिपदिपुरमा सव्वरयणामया अच्छा जाव ते णं थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदबहपडि- पडिरूवा, सेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो मणोगुपुपणा चेव चिटुंति सधजंदगदमया अच्छाजाव पडि- लियाओ पहचानो। तासु णं मयोगुलियासु बहवे सु
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(६१५) लवणसमुद्द अभिघानराजेन्द्रः।
लवणसमुह वस्मरुप्पामया फलगा परमत्ता, तेसु णं सुवमरुप्पामएसु सिक्ककेतु गवस्थिताः कृष्णसूत्रसिक्ककगवस्थिताः , एवं फलएसु बहवे वइरामया णागदंतगा मुत्ताजालंतरुसिता |
नीलसूत्रसिककगवस्थिता इत्याद्यपि भावनीयम् , ते च वा
तकरकाः सर्वात्मना वैडूर्यमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ हेम० जाव गयंदगसमाणा पामत्ता, तेसु णं वइरामएसु
'तेसि ण ' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पसत्ता, तेसु णं चित्री-चित्रवर्णोपेतावाश्चर्यभूती वा रत्नकरण्डको प्ररययामएसु सिक्कएम बहवे वायकरगा पामत्ता ॥ ते णं । ज्ञप्तौ, ' से जहानामए ' इत्यादि , स यथानाम-राजवायकरगा किएहसुत्तसिक्ककगवत्थिया०जाब सुकिल्लसुस
श्चतुरन्तचक्रवर्तिनः, चतुर्षु-पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेषु पृ
थ्वीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य तस्य , चित्रःसिकगवत्थिया सव्वे वेरुलियामया अच्छा० जाव पडि
आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णो वा 'घेरुलियरूवा, तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रय- माणिफालियपडलपश्चोयडे' इति बाहुल्येन वैडूर्यमणिमया, णकरंडगा पहलत्ता, से जहाणामए-रमो चाउरंतचकव- तथा ' स्फाटिकपटलप्रत्यवतटः' स्फाटिकपटलमयाच्छादट्टिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे
नः 'साए पभाए' इति स्वकीयया प्रभया तान्-प्रत्या
सन्नान् प्रदेशान् सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सासाए पभाए ते पदेसे सव्वतो समंता ओभासइ उजोवेति |
मस्त्येनावभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्तावेइ पभासेति, एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पम्पत्ता, द्योतयति तापयति प्रभासति, 'एवमेवे' स्यादि सुगमम् । वेरुलियपडलपच्चोयडा साए पभाए ते पदेसे सब्बतो स- 'तेसि गं तोरणाण ' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो मंता प्रोभासेति ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो
द्वौ द्वौ हयकराठौ-हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ, प्रज्ञप्ती,
एवं गजकिनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठा अपि थाहयकंठगा जाव दो दो उसमकंठगा पप्पत्ता सव्वरयणा
च्याः , उक्नं च मूलटीकायाम्-हयकराठौ-यकण्ठप्रमया अच्छा० जाव पडिरूवा । तेसु णं हयकंठएसुजाव माणी रत्नविशेषौ, एवं सर्वेऽपि कण्ठा वाच्या इति, तथा उसभकंठएसु दो दो पुप्फचंगेरीओ,एवं मल्लगंधचुम्मवत्थाभ-| चाह- सव्वरयणामया' सर्वे रत्नमयाः-रत्नविशेषरूपा रणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीश्रो सब्बर
'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ।' तेसि ण ' मित्यादि, तेषां
तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पुष्पचक्रेयों प्रशते , एवं माल्ययणामतीओ अच्छाओ० जाव पडिरूवाओ । तेसि णं
चूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकचङ्गेयोऽपि वक्ततोरणाणं पुरतो दो दो पुप्फपडलाइं॰जाव लोमहत्थपडलाइं व्याः, पताश्च सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमय्यः, 'असव्वरयणामयाई. जाव पडिरूवाई ॥ तेसि णं तोर-| च्छा' इत्यादि प्राग्वत् । एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकाणाणं पुरतो दो दो सीहासणाई परमत्ताई,तेसि णं सीहास
न्यपि द्विद्विसङ्ख्याकानि वाच्यानि । तेसि ण' मि
त्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे वे सिंहासने प्रश्नप्ते, णाणं अयमेयारूवे वरमावासे परमत्ते, तहेव० जाव पासा
तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुक्तो निरवशेषो वक्ततीया० ४॥
व्यो यावद्दामवर्णनम् । 'तेसि ग ' इत्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ सु- तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो रुप्पच्छदा छत्त्या प्रतिष्ठको-आधारविशषौ प्रक्षप्तौ , ते च सुप्रतिष्ठकाः सर्वोपधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डैश्च
पएणत्ता । ते णं छत्ता वेरुलियभिसंतविमलदंडा बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, अत्रापि तृतीयार्थे षष्ठी बहुव
जंबूणयकन्निकावइरसंधी मुत्ताजालपरिगता अट्ठसहस्सचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , उपमानभावना प्राग्वत् , वरकंचणसलागा ददरमलयसुगंधी सम्बोउअसुरभिसीय'सब्बरयणामया' इत्यादि तथैव ॥ 'तेसि ण' मित्या
लच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा वड़ा तेसि दि. तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे मनोगुलिके प्रशप्ते, मनोगुलिका नाम पीठिका , उक्तं च मूलटीकायाम्-"म
णं तोरणाणं पुरतो दो दो चामराओ पएणचाओ, नोगुलिका पीठिके " ति , ताश्च मनोगुलिकाः सर्वात्मना ताओ णं चामराओ (चंदप्पभवहरवेरुलियनानामणिरय'वैडूर्यमग्यो' वैडूर्यरत्नात्मिकाः 'अच्छा' इत्यादि प्रा- णखचियदंडा ) णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहग्बत् ॥ ' तासु णं मणोगुलियासु बहये' इत्यादि , तासु
तवणिज्जुञ्जलविचित्तदंडाओ चिल्लिाओ संखंककुंददमनोगुलिकासु बहुनि सुवर्णमयानि रुप्यमयानि च फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु सुवर्णरूष्यमयेषु फलकेषु बहवो
गरयअमयमहियफेणपुंजसप्लिकासाओ सुहुमरयतदीहवावज्रमयाः नागदन्तकाः-अङ्कुटकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु नागद
लाओ सब्बरयणामयाओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ।। न्तकेषु बहूनि । रजतमयानि ' रूप्यमयानि सिक्ककानि | तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो तिल्लसमुनगा कोढसमुप्रशतानि, तेषु च रजतमयेषु सिक्ककेषु बहवो ' वातक
ग्गा पत्तसमुग्गा चोयसमुग्गा तयरसमुम्गा एलासमुग्गा रकाः' जलशून्याः करका इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः ॥ ते ण ' मित्यादि ते वातकरकाः कृष्णसूत्रसिक्ककगवस्थिताः
हरियालसमुग्गा हिंगुलयसमुग्गा मखोसिलासमुग्गा अंइति आच्छादनं गवस्थाः (ताः) संजाता एप्विति गव- जणसमुग्गा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ।। स्थिताः कृष्णसूत्रैः-कृष्णसूत्रमयैः गवस्थैरिति गम्यते ,I (सू०-१३१)॥
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो हे द्वे रूप्यच्छदे-| जे से पंचमे भोम्मे तस्स णं भोमस्स बहमझदेसभाए रुप्याच्छादने छत्रे प्राप्ते, तानि च छत्राणि वैडूर्यरत्नमयविमल- एत्थ णं एगे महं सीहासणे पएणत्ते, सीहासणवएणतो दण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि वज्रसन्धीनि-वज्ररत्ना
विजयद्से जाव अंकुसे जाव दामा चिटुंति, तस्स णं पूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्काजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहस्रसंख्याका वरकाञ्चनशलाका-वरकाञ्च
सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ नमय्यः शलाका येषु तानि अष्टसहस्रवरकाश्चनशलाकानि णं विजयस्स देवस्स चउएहं सामाणियसहस्साणं च
सुगन्धिसम्वोउयसुरहिसीयलच्छाया' इति द-| सारि भद्दासणसाहस्सीओ पएणत्ताओ, तस्स णं सीईरः-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्त
हासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चत्रपक्वा वा ये मलय इति-मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्सम्बन्धिनः सुगन्धयो गन्धवासास्तद्वत्सर्वेषु ऋतुषु सुरभिः
उएहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पशीतला च छाया येषां तानि, तथा ' मंगलभत्तिचित्ता'ते- एणत्ता, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरत्थिमेणं एत्थ षामष्टानां मालानां भक्त्या-विच्छित्या चित्रम्-श्रालेखो णं विजयस्स देवस्स अभितरियाए परिसाए अण्हं देवयेषां तानि मालभक्तिचित्राणि, तथा 'चंदागारोवमा' इति
साहस्सीणं अदुण्हं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ,तस्स चन्द्राकार:-चन्द्राकृतिः स उपमा येषां तानि तथा, चन्द्रमएडलवद्वत्तानीति भावः । 'तेसिणं' इत्यादि, तेषां तोर
णं सीहासणस्स दाहिणेणं विजयस्स देवस्स मज्झिमिणानां पुरतो वे द्वे चामरे प्रक्षप्ते, तानि च चामराणि' चं- याए परिसाए दसएहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसादप्पभवहरवेरुलियनाणामणिरयणखचियदंडा' इति चन्द्र
हस्सीमो परमत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपप्रभः-चन्द्रकान्तो वजं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडू
चत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए परिर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दएडेषु ते तथा, एवं रूपाश्चित्रा-नानाकारा दराडा येषां चा-1 साए बारसण्हं देवसाहस्सीणं बारस भद्दासणसाहस्सीमराणां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , तथा ' सु-| ओ पमनाओ ॥ तस्स णं सीहासणस्स पञ्चत्थिमेणं हुमरययदीहवालाओ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला
एत्थ णं विजयस्स देवस्स सत्तएहं अणियाहिवतीणं येषां तानि तथा, ' संखककुंददगरयश्रमयमहियफेणपुंजसं
सत्त भद्दासणा परमत्ता , तस्स णं सीहासणस्स पुरनिकासाओ' इति शङ्खः-प्रतीतोऽको रत्नविशेषः कुन्देति कुम्दपुष्पं दकरजः-उदककणाः अमृतमथितफेनपुञ्जः-क्षीरोद
थिमेणं दाहिणेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं एत्थ णं विजलमथनसमुत्थफेनपुअस्तेषामिव सन्निकाशः-प्रभा येषां जयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस तानि तथा , अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । 'तेसि णं ' इत्या- भद्दासणसाहस्सीओ पएणत्ताओ, तंजहा-पुरस्थिमेणं चदि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ तैलसमुद्को-सुगन्धितै
तारि साहस्सीओ, एवं चउसु वि जाव उत्तरेशं चलाधारविशेषौ, उक्तं च-जीवाभिगममूलटीकायाम्-" तेलसमुन्द्रको-सुगन्धितैलाधारौ" एवं कोष्ठादिसमुद्का अ
त्तारि साहस्सीओ , अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं पिवाच्याः, अत्र संग्रहणिगाथा-"तेल्लो कोट्टसमुग्गा, प
भद्दासणा पएणत्ता ।। (सू० १३२) से चोए य तगरएला य । हरियाले हिंगुलए, मणोसिला
'विजये णं दारे' इत्यादि , तस्मिन् विजये द्वारे अष्टअंजणसमुग्गो॥१" 'सव्वरयणामया' इति एते सर्वेऽपि
शतम्-अष्टाधिकं शतं चक्रध्वजानाम्-चक्रालेखरूपसर्वात्मना रत्नमयाः 'अच्छा सराहा' इत्यादि प्राग्वत् ॥
चिहोपेतानां ध्वजानाम् , एवं मृगगरुडरुरुकच्छत्रपिच्छ(E)अथ लषणविजयद्वारे चक्रध्वजादि प्रतिपादयन्नाह
शकुनिसिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रत्येकमष्टशतविजयेणं दारे अट्ठसतचक्कझयाणं अट्ठसय मिगझया
मष्टशतं वक्तव्यम् , ' एवामेव सपुवावरणं ' एवमेणं अट्ठसयं गरुडझयाणं अदुसयं विगझयाणं ( अ
व-अनेन प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वैरपरैश्व वर्तत
इति सपूर्व परं संख्यानं तेन विजयद्वारे अशीतम्-श्रदूसयं रुरुयज्झयाणं) अट्ठसतं छत्तज्झयाणं अट्ठसयं
शीत्यधिकं केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च तीपिच्छज्झयाणं अट्ठसयं सउणिज्झयाणं अट्ठसयं सीह-| थकृतिः॥'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य ज्झयाणं अट्ठसतं उसमझयाणं अट्ठसत सेयाणं च- पुरतो नष' भौमानि' विशिष्टानि स्थानानि प्रक्षतानि, उविसाणाणं णागवरकेतूणं एवामेव सपुव्वावरेणं विज
तेषां च भीमानां भूमिभागा उल्लोकाश्च पूर्ववतुक्त
व्याः, तेषां च भीमानां बहुमध्यदेशभागे यत्पञ्चम यदारे य आसीयं केउसहस्सं भवति ति मक्खायं ।। विज
भौमं तस्य बहुमध्यदेशभागे विजयद्वाराधिपतिविजयदेये दारे णव भोमा पसत्ता, तेसि णं भोमाणं अंतो वयोग्य सिंहासनं प्रसप्तम् , तस्य च सिंहासनस्य वर्णनं बहसमरमणिजा भूमिभागा परमत्ता, जाव मणीणं फा- विजयदृष्यं कुम्भारमुक्तादामवर्णनं प्राग्वत् , तस्य च सिंसो. तेसिणं भोमाणं उप्पि उल्लोया पउमलया जाव
हासनस्य अपरोसरस्याम्-वायव्यकोणे उत्तरस्यामुत्तर
पूर्वस्यां च विजयदेवस्य सम्बन्धिनां चतुर्णा सामानिकसामलता भत्तिचित्ता जाव सव्वतबणिजमता अच्छा
सहस्राणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्राप्तानि , तस्य नाव पडिरूवा, तेसि एं भोमाणं बहुमज्मदेसमाए सिंहासनस्य पूर्वस्यामा विजयस्य देवस्य चतस्पामग्र
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(६१७) लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह महिषीणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि , तस्य-ई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरह, से तेणद्वेणं गौयमा ! सिंहासनस्य दक्षिणपूर्वस्यामाग्नेयकोण इत्यर्थः , अत्र | एवं उच्चति-विजये दारे विजये दारे, (अदुत्तरं च णं गोविजयदेवस्य अभ्यन्तरपर्षदाम् अभ्यन्तरपर्षदूपाणामष्टानां
यमा! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेजे पामते, जशा देवसहस्राणां योग्यानि अष्टौ भद्रासनसहस्राणि प्रसप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणस्यां दिशि अत्र विजय
कयाइ णासी, ण कयाइ णथि, ण कयाइ ण भविस्सद्धि, देवस्य मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश जाव अवट्ठिए णिच्चे विजए दारे ।) (सू० १३४) भद्रासनसहस्त्राणि प्रशतानि , तस्य सिंहासनस्य दक्षि- ___ 'से केणटेणं भंते ! पवं बुच्चा' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुमणापरस्यां दिशि नैर्ऋतकोण इत्यर्थः । अत्र विजयदे- मम् , भगवानाह-'गोयमे' त्यादि, गौतम ! विजये और घस्य बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि विजयो नाम, प्राकृतत्वात् अव्ययत्वाच्च नामशब्दात्परम द्वादश भद्रासनसहस्राणि प्राप्तानि ॥ 'तस्स णं सीहास- टावचनस्य लोपस्ततोऽयमर्थः-प्रवाहतोऽनादिकालसन्तमस्से त्यादि, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमायां दिशि अत्र वि- तिपतितेन विजय इति नाम्ना देवः'महर्द्धिकः'महती ऋधि:जयस्य देवस्य सम्बन्धिनां सप्तानामनीकाधिपतीनां यो- भवनपरिवारादिका यस्यासौ महर्द्धिकः · महाद्युतिकः । ग्यानि सप्त भद्रासनानि प्राप्तानि, तस्य सिंहासनस्य ' सर्व- महती युतिः-शरीरगता प्राभरणगता च यस्यासी महादु तः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन अत्र विजयस्य देव
तिकः, तथा महद् खलं-शारीरः प्राणो यस्य स महायता, स्य सम्बन्धिनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि
तथा महद् यशः-ख्यातिर्यस्यासी महायशाः, महेश इत्या षोडश भद्रासनसहस्राणि प्राप्तानि, अवशेषेषु प्रत्येक प्रत्ये- ख्या-प्रसिद्धिर्यस्य स महेशाख्यः, अथवा-ईशनमीशो भाले कं सिंहासनमपरिवारं सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनरूप- घप्रत्ययः ऐश्चर्यमित्यर्थः । ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् .श्त परिवाररहितं प्राप्तम् ॥
ईशनमैश्चर्यम् श्रात्मनः ख्यातिः अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्याश्यविजयस्सणं दारम्स उपरिमागारा सोलमविहेहिं रय-| ति-प्रशयति यः स ईशाण्यः, महांश्चासावीशाख्यश्च महेणेहिं उवसोभिता, तं जहा-रयणेहिं वयरेहिं वेरुलिएहिं०
शाख्यः, क्वचित् ' महासोक्खे' इति पाठस्तत्र महत् सौम्य
प्रभूतसद्वेद्योदयवशाद् यस्य स महासौख्यः पल्योपजाब रिटेहिं ।। विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे अट्ठ मंग
स्थितिकः परिवसति, स च तत्र चतुर्णा सामानिकमलगा पण्णचा, तं जहा-सोत्थितसिरिवच्छ० भाव दप्पणा
हस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां प्रत्येको... सब्बरयखामया अच्छाजाव पडिरूवा। विजयस्स गंदा
कैकसहस्रसंख्यपरिवारसहितानां तिसृणाम् अभ्यन्तरध्य रस्स उप्पि बहवे कएहचामरज्झया० जाव सबरयणामया मबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहरसंख्याकान्दा अच्छा० जाव पडिरूवा। विजयस्स णं दारस्स उप्पि
पर्षदां सप्तानामनीकानां-हयानीकगजानीकरथानीकथा
त्यनीकमहिषानीकगन्धर्वानीकनाट्यानीकरूपापां सप्तामामबहवे छत्तातिछत्ता तहेव ।। (मू० १३३)
नीकाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्षसहस्राणां चिजयस्याविजयस्स ण 'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य उवरिमा- रस्य विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहुना विजयराकाराः इति उपरितन श्राकारः-उत्तरङ्गादिरूपः षोडश- जधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च 'श्रादेव' ति श्राविधैः रत्नरुपशोभितः, तद्यथा-रत्नैः सामान्यतः कर्के- धिपत्यम्-अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः , खा ननादिभिः १ वजैः२ वैडूर्यैः ३ लोहिताः ४ मतारगल्लैः ५ च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकणव क्रियते तत श्राह-पुरत्य हंसगर्भः६ पुलकैः ७ सौगन्धिकैः - ज्योतिरसैः । श्रङ्कः १० पतिः पुरपतिस्तस्य कर्म पौरपत्य सर्वेषामग्रेसरत्वमिति अञ्जनैः ११ रजतैः १२ जातरूपैः १३ अञ्जनपुलकैः १४ भावः । तच्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुस्फटिकैः १५ रिष्टैः १६ ॥' विजयस्स ण' मित्यादि. विज- क्लतथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव (स्यात् ) सतो यस्य द्वारस्य उपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि नायकत्वप्रतिपत्यर्थमाह-स्वामित्वम्' स्वमस्यास्तीति साप्रशतानि तद्यथेत्यादिना तान्येवोपदर्शयति- सव्वरय- मी; तद्भावः स्वामित्वं नायकत्वमित्यर्थः , तदपि च नायरणामया' इत्यादि प्राग्वत् ॥
कत्वं कदाचित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति, यथा-हरियूपणदेणं भंते! एवं वुच्चति ?-विजए णं दारे २. थाधिपतेर्हरिणस्य तत आह-भर्तृत्व-पोषकत्वम् ,"गौयमा! विजये णं दारे विजये णाम देवे महिड्डीए
भृन धारणपोषणयोः" इति वचनात् , अत एव महसमहज्जुतीए० जाव महाणुभावे पलिअोवमद्वितीए परि
रकत्वम् , तदपि चेह महत्तरकत्वं कस्यचिदाशाविकलस्पा
पि भवति, यथा-कस्यचिद्वणिजः स्वदासदासीवर्ग प्रति, वसति, से शं तत्थ चउएहं सामाणियसाहस्सीणं, चउ
तत आह-आणाईसरसेणावच्चं ' आशया ईश्वर प्राएहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिएहं परिसाणं, सत्त- मेश्वरः, सेनायाः पतिः सेनापतिः, श्राशेश्वरचासौ सेनाएहं अणीयाणं, सत्तएहं अणीयाहिबईणं , सोलसएहं
पतिश्च श्राशेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म श्राशेश्वरसेवाएआयरक्खदेवसाहस्सीणं, विजयस्स णं दारस्स विजयाए
त्यं स्वसैन्यं प्रत्यद्भुतमाशाप्राधान्यमिति भावः , कारयन
अन्यनियुक्तः पुरुषः पालयन् स्वयमेव, महता रवेणेति योगयहाणीए अण्णसिं च बहूणं विजयाए रायहाणीए ।
गः 'अहय' त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानि , यदि वा-अहतावत्थचगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं० जाव दिव्वा- नि-अव्याहतानि नित्यानि-नित्यानुवन्धीनीति भावः , ये
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(६१८) लवपासमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द नाट्यगीते नाटय-नत्यं गीतं-गानं यानि च वादितानि | (जी०३मति०२उ०सू०१५४)मया शेपैश्च तीर्थकृद्भिः ,सा च द्वातन्वीतलताल त्रुटितानि-तन्त्री-वीणा तलौ-हस्ततली त- दशयोजनसहस्राणि अायाविष्कम्भेन श्रआयाविष्कम्भाभ्यां लः-कंसिका त्रुटितानि-बादिवाणि, तथा यश्च घनमृदङ्गः सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नवशतानि अष्टचत्वारिंशानिपदुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र घनमृदङ्गो नाम-धनसमा- अष्टचत्वारिंशदधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपण.इद नध्वनियों मृदङ्गस्तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रवेण दिव्यान्- च परिक्षेपपरिमाणम् - विक्खंभवग्गदहगुण-करणी वट्टस्स प्रधानान् भोगार्दा भोगाः-शब्दादयो भोगभोगास्तान भु- परिरो होइ' इति करणवशात्स्वयमानेतव्यम् । 'साण' आनः विहरति-श्रास्ते से एएण्टेग ' इत्यादि, तत एतेन मित्यादि. सा--विजयाभिधाना राजधानी णमिति वाक्याअर्थेन-कारणेन गौतम ! एवमुच्यते, विजयद्वार-विजयद्वा- लकारे एकेन महता प्राकारेण सर्वतः-सर्वासु दिनु समन्तरमिति, विजयाभिधानदेवस्वामिकत्वाद् विजयमिति भावः ॥ तः-सामस्त्येन परिक्षिप्ता ॥ ' से ण ' मित्यादि. स प्राकारः कहि णं भंते ! विजयस्स देवस्स विजया णाम राय
सप्तविंशतं योजनानामर्द्धयोजनमूर्ध्वमुचस्त्वेन मूलेऽर्जत्रयो
दश योजनानि विष्कम्भन मध्ये पड योजनानि सोशानिहाणी परम ता?, गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स पुर
एकेन फोशनाधिकानि विष्कम्भेन उपरि त्रीणि योजनानि त्थिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अम्मम्मि साद्धकोशानि (योजनानि)सा नि द्वादश अर्डकोशाधिका(जी. सू० १३५+) लवणसमुद्दे (जी० सू० १५४+)| नि (द्वादश ) विष्कम्भेन, मूले विस्तोणों मध्ये संक्षिप्ता. वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं विजयस्स
मूलविष्कम्भतोऽद्धस्य त्रुटितत्वात् , उपरि तनुको, मध्यवि
एकम्भावप्यर्द्धस्य त्रुटितत्वात् , बहिर्वृतोऽन्तश्चतुरस्रो गोपदेवस्स विजया णाम रायहाणी परमता , बारस
च्छसंस्थानसंस्थितः-ऊर्वीकृतगोपुन्छसंस्थानसंस्थितः ‘स. जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसह--
व्वकणगमए' सर्वात्मना कनकमयः 'अच्छे ' इत्यादि स्साई नव य अडय ले जोयणसए किंचि विसेसाहिए
विशेषणजातं प्राग्वत ॥ ' से ण ' मित्यादि, स प्राकारो परिक्खेवणं परमत्ते ॥ सा णं एगे णं पागारेणं सब्बतो नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानि समंता संपरिक्खित्ता ॥से णं पागारे सत्ततीसं जोय- तैः, नानाविधत्वं च पञ्चवर्णापेक्षया कृष्णादिवर्णतारतम्याणाई अद्धजोयणं च उर्दू उच्चतेणं मूले अद्धतेरस
पेक्षया वा द्रष्टव्यम् , पञ्चवर्णत्वमेवोपदर्शयति-'किण्हेहिं'
इत्यादि ॥ ते ण कविसीसगा' इत्यादि, तानि कपिशीर्षजोयणाई विक्खंभेणं मज्झेत्थ सकोसाई छ जोयणाई वि
काणि प्रत्येकमद्धकोश-धनुःसहस्रप्रमाणमायामेन-दैयेण खंभेणं उप्पि तिमि सद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भेन-विस्तारेण, देशोनमर्द्धक्रोशमृले वित्थिमे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए बाहिं बट्टे अंतो मूर्ध्वमुच्चस्त्वेन 'सव्वणिमया' इत्यादि सर्वात्मना मणिचउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिते सव्वकणगामए अच्छे० जाव
मया 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ विज
याए णं रायहाणीए, ' इत्यादि, विजयाया राजधान्या एकैकपडिरूवे ।। से णं पागारे णाणाविहपंचवहिं कविसीसए
स्यां वाहायां पञ्चविंश-पञ्चविंशत्यधिकं द्वारशतंर प्रशप्तम् , हिं उवसोभिए, तं जहा-किरहेहिं. जाव सुकिल्लेहिं । ते
सर्वसंख्यया पञ्च द्वारशतानि ॥'ते ण दारा इत्यादि, तानि ण कविसीसका अद्धकोसं आयामेणं पंच धणुसताई वि- डागणि प्रत्येकं द्वापणियोजनानि अर्द्धयोजनं नोर्ध्वमुच्चैखंभेणं देसोणमद्धकोसं उड्डे उच्चनेणं सबमणिमया अ
स्त्वेन, एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भतः, 'तावइयं
चेय पवेसणं " एतावदेव--एकत्रिंशद् योजनानि कोश च्छा जाव पडिरूवा ॥ विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए
चेत्यर्थः; प्रवेशन, ' सेया वरकणभियागा' इत्यादि बाहाए पणुवीसं पणुवीसं दारसतं भवतीति मक्खायं ॥ ते
द्वारवर्णनं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावद्धनमालावर्णनम् । णं दारा बाव िजोयखाई अद्धजोयणं च उर्दू उच्चत्तेणं| तेसि गंदाराणं उभयो पासिं दहतो णिसीहियाए दो एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं तावतियं चेव | दो पगंठगा पामत्ता, ते णं पगंठगा एक्कतीसं जोयणाई पवेसे ण सेता वरकणगधभियागा ईहामिय० तहेव जधा, कोसं च आयामविक्खमेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइज्जे विजए दारे० जाव तवणिजबालुगपत्थडा सुहफासा सस्सि कोसे वाहल्लेणं पामत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडि(म)रीए सरूवा पासातीया० ४ । तेमि णं दाराणं रूवा ।। तेसि णं पगंठगाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंउभयपासिं दुहतो मिसीहियाए दो बंदणकलसपरिवाडी- सगा पामता ॥ ते णं पासायवडिंसगा एकतीसं जोयणाई श्रो परमत्तानो तहेव भाणियव्वं० जाव वणमालाओ। कोसं च उडू उच्चत्तेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइजे य कोसे 'काह ण भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! विजयम्स देवस्य | आयामविकावं भेणं सेमं तं चेव. जाव समुग्गया णवरं विजया नाम राजधानी प्राप्ता ? , भगवानाह-गौतम ! वि- बहवयणं भाणितव्वं । विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे जयस्य द्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान
दारे अदुसर्य चक्कझयाणं०जाव अट्ठसतं सेयाणं चउव्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे विजयस्य देवस्य विजया नामराजधानी प्राप्त विसाणाणं णागवरके ऊर्या, एकामेव सच्चावरेणं वि
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लवणसमुद
जयाए रायहाणीए एगमेगे दारे असतं असीतं केउ सहस्सं भवतीति मक्खायं ॥ विजयाए गं रायहाणीए एगमेगे दारे ( तेसि णं दाराणं पुरओ) सत्तरस भोमा पम्पत्ता, तेमि णं भोमाणं ( भूमिभोगा ) उल्लोया (य) पउमलया० भतिचित्ता । तेसि गं भोमागं बहुमज्झ देसभाए जे ते नवमनवमा भोमा तेसि णं भोमाशं बहुमन्मसभाए पत्ते २ सीहासणा पण्णत्ता, सीहासराव
"
"
ओ० जाव दामा जहा हेट्ठा, एत्थ गं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता । तेसि णं दाराणं उत्तिमा (उबरिमा) गारा सोलसविधेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं चैव जाय इनाइडना, एवामेव पुण्यावरेण विजयाए रायहागीय पंच दारमता भवतीति मक्खाया।। (सू० १३५) 'तेसि णं दाराण' मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वदौरे के धिकीभावेन द्विघाती हिप्रकारायां नैयेयही ही कीडविशेष प्रक काः प्रत्येकमेकनिं योजनानि कोशमेकं च आयामविष्कम्भाभ्याम् प योजनानियां कोशान वाहन 'सव्ववइरामया ' इति सर्वात्मना ते प्रकण्ठका वज्ररत्नमया: ' अच्छा सराहा' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ ' तेखि पठाण मित्यादि तेषां प्रकराकर प्रत्येकं २ प्रासादावतंसकः -- प्रासादविशेषः प्रज्ञप्तः ॥ ' ते गं पासागा' इत्यादि ते प्रासादावर्तसका एकर्षिशतं योजनानि को कमूर्ध्वमुदेवेन पञ्चदश योजनानि अतृतीयांश्च कोशान् श्रायामविष्कम्भाभ्याम् तेषां च प्रासादानाम् ' अब्भुगायमूसिय पहसिया विव' इत्यादि सामान्यतः स्वरूपम उल्लोचनं मध्यभूमिभागयलनं सिंहासनव विजयदृष्यवर्णनं मुकादामोपपर्णनं च विजयाय नमपि तोरणारिक विजयद्वारवदमानये माथिभिरनुगम्यम् ता एवं गायो रणेत्यादि गाथात्रयम्. द्वारेषु प्रत्येकमेकैकस्यां नैषेधिक्यां दे दे तो वक्तव्ये, तेषां च तोरणानामुपरि प्रत्येकमप्रावौ मङ्गलकानि तेषां तोरणानामुपरि कृष्णचामरध्वजादयो ध्वजाः तदनन्तरं तोरणानां पुरतः शालभञ्जिकाः तदनन्तरं नागदन्तकास्नेषु च नागदन्तकेषु दमानितहेब ततो हयसङ्घाeादयः सङ्घाटा वक्तव्याः ततो हयपपतयस्तदनन्तरं हयवीथ्यादयो वीथयस्तो हर्यामिथुनादीनि मिथुनानि ततः पद्मलतादयो लनाः ततः ' सोत्थिया' चतुर्दिकसौवस्तिका वक्तव्यास्ततो वन्दनकलशास्तदनन्तरं भृङ्गारकास्तत श्रादर्शकास्ततः स्थालानि ततः पात्र्यस्तदनन्तरं सुप्रतिष्ठानि ततो मनोगुलिकास्तासु वातकरकाः वातभृता करका वातकरका जलशून्या इत्यर्थः तदनन्तरं चित्रा रत्नकराडकास्ततो हयकण्ठा गजकण्ठा नरकण्ठाः उपलक्षणमेतत् किंनरकिंपुरुषमटौर मगरपर्ववृषभकण्डकाः क्रमेण पव्याः तदनस्तरं पुष्यादियों वक्रव्यास्ततः पुष्पादिपटलकानि ततः सिंहासनानि तद्गन्तरं छत्राणि तनभावराणि ततस्तै
"
"
क्यान्यः
"
"
,
( ६१६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
3
"
लवणसमुद्द लादिसमुद्रका वक्तव्यास्ततो ध्वजाः, तेषां च ध्वजानामिदं चरमसूत्रम् ' एवामेव सपुव्वावरेणं विजयाए रायहाणी एगमेसि दासि असी असी केउसहरू भवतीति मया सदनन्तरं भौमानि वलव्यानि तत्सू साक्षादुपदर्शयति- ' तेसि णं दाराण' मित्यादि तेषां द्वाराणां पुरतः सप्तदश सप्तदश भौमानि प्रशप्तानि तेषां tarai भूमिभागा उल्लोकाश्च प्राग्वद्वक्लयाः ॥ ' तेि यं भीमाय मित्यादि तेषां च भौमानां बहुमध्यदेशभागे यानि नवमनयमानि भीमानि तेषां बहुमध्यदेशभागेषु प्रत्येकं विजयदेवयोग्यं ( सिंहासनं यथा ) विज-यद्वारपञ्चमभौमे किन्तु सपरिवारं सिंहासनं अवशेषेषु च भौमेषु प्रत्येकं सपरिवारं सिंहासनं प्रत ' तेसि णं दारागं उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेउनसोमिया इत्यादि प्राग्वत्। हिं
(2) समुद्रस्य वनखण्डादि वर्णयतिविजयाए गं रायहाणीए चउद्दिसिं पंचजोयणसताई अवाहा, एत्थ गं चत्तारि वणसंडा परयत्ना, तंजहा - असोगवणे सत्तराव चंपगवणे चूतवणे, पुरत्थमेोगवणे दाहिणेणं सत्तवण्णवणे पच्चत्थि - मेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूतवणे ॥ ते गं वणसंडा साइगाई दुवालसजोयणसहस्साई आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पम्मत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्लिना किएहा किएहोभासा वणवा भाणि यच्चो ० जाव बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ म आसति सति चिद्वेति शिसीदंति तुयति रमंदि ललति कीलति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिमा सुपरिकंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाखाखं फलवित्तविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति । तेसि णं वसंडा बहुमज्मदेसभा पर्व पचेयं पासाय बर्डिसमा पत्ता ने पासायवर्डिसगा बाि जोयणाई श्रद्धजोयणं च उडूं उच्चत्तेणं एकतीसं जोया कोर्सच आयामविक्संभेयं अम्भुग्गतमूसिया
"
.
जाव अंतो बहुसमरमणिजा भूमिभागा पछ ना उन्लोया पउममत्तिचित्ता भागियच्या, तेसि पासवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पम्पा गावासो सपरिवारा, तेसि णं पासावव डिसगा उप बहवे मंगलगा झया छत्तातिछत्ता ।। विजयाय से रायहाकीर इत्यादि विजयाया राजधान्याः - चउद्दिसि' मिति चतस्रो दिशः समाहृताश्चर्दिक मन चतुशिषुदिप योज नशतानि श्रबाहाए' इति बाधनं बाधा श्राक्रमणं - स्वामवायायां त्येति गम्यते अपान्तरालेषु मुक्त्वेति भाषः, चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ताः, ' तद्यथे' त्यादि, ता - नेय वनखण्डान् नामतो दिग्भेदतच दर्शपति, अशोक
"
9
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह पाप्रधान वनमशोकवनम् , एवं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं चू-1 समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महद् तवनमपि भावनीयम् , ' पुब्वेण असोगषण ' मित्यादि- एकमुपकारिकालयन प्राप्तम् ,राजधानीस्वामिसत्कप्रासादा रूपा गाथा पाठसिद्धा (अत्र मूले न)॥'ते णं वसंडा' वतंसकादीन् उपकरोति-उपष्टभ्नातीत्युपकारिका-राजधाइत्यादि, ते वनख (पोण्डाः, सातिरेकाणि द्वादश योजनस- नी खामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र त्विहस्राण्यायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येकं | यमुपकार्योपकारिकेति प्रसिद्धा, उक्तञ्च-" गृहस्थानं स्मृप्रत्येकं प्राकारपरिक्षिप्ताः प्राप्ताः, पुनः कथम्भूतास्ते वन-| तं राजा-मुपकार्योपकारिका" इति, उपकारिकालयनमिष खण्डाः १, इत्यादि पनवरवदिकाबहिर्वनखण्डवसावदधि- उपकारिकालयनं तद् द्वादश योजनशतानि आयामविष्कशेषेण वक्तव्यं यावत् ' तत्थ णं ' बहवे बाणमंतरा दे- म्भेन-आयामविष्कम्भाभ्याम् , त्रीणि योजनसहस्राणि स वा य देवीओ य प्रासयंति • जाव विहरति ॥ तेसि नयोजनशतानि पञ्चनवतीनि-पञ्चनवत्यधिकानि किश्चिद्वि ब' मित्यादि, तेषां बनखण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्र- शेषाधिकानि परिक्षेपण प्रशतानि, परिक्षेपपरिमाणं चेदं स्पेकं २ प्रासादावतंसकाः प्राप्ताः, ते च प्रासादावतंसका
प्रागुनकरणवशात्स्वयमानेतव्यम् । अर्द्धक्रोशम्-धनुःसहद्वापष्टियोजनान्यद्धयोजनं चोर्ध्वमुचस्त्वेन एकत्रिशतं यो- सपरिमाणं वाहल्येन 'सम्बजंबूण्यामए' इति सर्वात्मजनानि कोशं च विष्कम्भेन 'अभुग्गयमूसियपहसिया | ना जाम्बूनदमयम्, 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् । विव ' इत्यादि प्रासादावतंसकानां वर्णनं निरवशेष । से णं एगाए पउमवरेइयाए एगेणं वणसंडेणं
। यावतत्र प्रत्येकं २ सिंहासनं सपरिवारम् ।। सम्वतो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेदियाए वएणो तत्थ सं चत्तारि देवा महड्डिया जाव पलि- वणसंडवएणो जाव विहरंति, से णं वणसंडे देसूणाई प्रोवमद्वितीया परिवसंति, तं जहा-असोए सत्तवरले
दो जोयणाई चकवालविक्खंभेणं ओवारियालयसमचंपए चुते ॥ तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडा
परिक्खेवणं ॥ तस्स खं ओवारियालयणस्स चउद्दिसं सायं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणि
सिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णचा , वएणो, पाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं
तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्चं जाव विहरंति ॥
तोरणा पमत्ता, छत्तातिछत्ता ॥ तस्स णं उवारिविजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिजे भू
यालयणस्स उप्पि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पएणत्ते मिमागे पलत्ते जाव पंचवमेहिं मणीहि उवसोभिए
जाव मणीहिं उपसोभिते मणिवप्लओ, गंधरसफासो, तणसहविहूणे जाव देवा य देवीमो य प्रासयंति जाव
तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसविहरंति ॥ तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स
भाए एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पसत्ते, से णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं मोवरियालेणे प
पासायवडिसए बावढि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्डे उछत्ते वारस जोयणसयाई प्रायामविक्खंभेणं तिनि जोय
बत्तेणं एकसं जोयणाई कोसं च आयामविखंभेणं शसहस्साई सत्त य पंचाणउते जोयणसते किंचि विसे
भुग्गयमसिप्पहसिते तहेव तस्स शं पासायवडिसगस्स साहिए परिक्खेवेणं अद्धकोस बाहन्लण सध्वजबूणदमए
अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पमत्ते. जाव मणिफासे अच्छे जाव पडिरूवे ।।
उल्लोए ।। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स 'तन्य ण' मित्यादि, तेषु बनखण्डेषु प्रत्येकमेकैकदेवभावेन
बहुमझदेसभागे एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया परमत्ता, चत्वारो देवा महर्थिका यावत् ' महज्जुझ्या महाबला महायसा महासोक्खा महाणुभावा' इति परिग्रहः, पल्योप
सा च एगं जोयणमायामविक्खंभेणं श्रद्धजोयणं वाहनेणं मस्थितिकाः परिवसन्ति, तपथा-'असोए' इत्यादि, श्र- सवमणिमई अच्छा साहा. जाव पडिरूवा। शोकवनेऽयोकः, सप्तपर्णवमे सप्तपर्णः, चम्पकवने चम्पकः, से ण' मित्यादि, तद्-उपकारिकालयनम् एकया पबतवने चूतः॥'तेसि ग'मि (तत्थ णं ते.) त्यादि, ते प्रवरदिकया तत्पृष्ठभाविम्या एकेन च वनखण्डेन ' सअशोकादयो देवास्तस्य बनखण्डस्य स्वस्य प्रासादाव- र्वतः-सर्वासु दिन समन्ततः-सामस्त्येन संपरिक्षिप्तम् , संसकस्य, सूत्रे बहुवचनं प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि वचन- पनवरवेदिकावर्णको वनखण्डवर्णकः प्राग्वनिरवशेषो बसत्ययो भवतीति, स्वेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां स्वा- क्लव्यो यावत् 'तस्थ बहवे वाणमंतरा देवा य देवीश्रो या. सां स्वासामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां स्वासा स्वासां प- सयंति सयंति जाव विहरंति' इति । 'तस्स ण' मित्यादि, दां स्वेषां स्वेषामनीकानाम् ( अनीकाधिपतीनां ) स्वेषां तस्य उपकारिकालयनस्य'चउहिसिं'ति'चतुर्दिशि-सतसूषु मेषामात्मरक्षकाणाम् ' आहेबच्चं पोरेवच्च' मित्यादि द्विषु एकैकस्यां दिशि एफैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिप्राग्वत् ॥'विजयाए ण 'मित्यादि, विजयाया राजधान्या रूपकाणि प्रतिषिशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्राप्तानि,त्रिसोअन्तर्वासमरमणीयो भूमिभागः प्राप्तः , तस्य से ज- पानवर्णकः पूर्ववद्वक्तव्यातेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुदानामए भालिंगपुस्खये वा' इत्यादि वर्णनं प्राग्वत् नि- रतः प्रत्येकं प्रत्येक तोरण प्रसप्तम्, तेषां च तोरणानां वर्णन विशेष वावद्धय यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य च बहु-| प्रारबद्वक्तव्यम् ॥ 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य-उपकारिका
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(.६२१) लवणसमुह अभिधानराजेन्द्र।
लवणसमुह लयनस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रक्षप्तः, 'से चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं चैजहानामए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं ग्वत्तावद्वाच्य | कमलमुच्चस्त्वेन , पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोयावन्मणीनां स्पर्शः , नस्य च-बहुसमरणीयस्य भूमि- शान् श्रआयामविष्कम्भाभ्याम् , तेषामपि 'अब्भुग्गयमूसियभागस्य बहुमध्यदेशभागऽत्र महानेको मूलप्रासादावतंस. पहसिया विवे' त्यादि स्वरूपवर्णन मध्ये भूमिभागवनमुकः प्रज्ञप्तः, स च द्वापष्टियोजनानि अर्द्ध च योजनमूर्ध्व- लोकवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तेसि ण' मित्यादि, तेषां प्रासामुश्चस्त्वेन , एकत्रिशतं योजनानि कोश चायामविष्कम्भा- दावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक सिंहासन भ्याम् . ' अब्भुग्गयमूसियषहसिया विवे' त्यादि, तस्य व- प्रशप्तम् , तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत् , नवरमत्र सिंगनं मध्ये भूमिभागवर्णनं सिंहासनवर्णनं शेषाणि च भ- हासनानां शेषाणि परिवारभूतानि न वक्तव्यानि ॥ ते णं द्रासनानि तत्परिवारभृतानि विजयद्वारबहिःस्थितप्रा- पासायब.सया' इत्यादि, ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः सादवद्भावनीयानि ॥'तम्स ण' इत्यादि , तस्य मूलप्रा- प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-मूलप्रासादावतं - सादावतंसकस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणि- सकपरिवारभूतप्रासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैर्मूलप्रापीठिका प्रज्ञप्ता, सा चकं योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्ध- सादापेक्षया चतुर्भागमाप्रमाणैरित्यर्थः. सर्वतः-समन्तायोजनं बाहल्येन ' सबमणिमयी' इति सर्वात्मना मणिमयी | संपरिक्षिप्ताः, तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-' ते ण ' 'अच्छा माहा' इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ मित्यादि, ते प्रासादावतंसकाः पञ्चदश योजनानि अर्द्धत
तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एगे महं सीहासणे प- तीयांश्च क्रोशान ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन देशोनानि अष्टौ पत्ते एवं सीहासणवएणो सपरिवारो, तस्स णं पासाय
योजनानि अायामविष्कम्भाभ्यां , सूत्रे च- आयाम
विक्खभेणं' नि एकवचनं समाहारविवक्षणात् , एवमवडिंसगस्स उप्पि बहवे अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता ।।
न्यत्रापि भावनीयम् , एतेषामपि । अब्भुग्गयमूसिये ' से णं पासायवडिसए अण्णेहिं चउहिं तदद्भच्चत्तप- त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिंहामाणमेत्तेहिं पासायवर्डिसएहिं सव्यतो समंता संपरिक्खित्ते, सनवणेन च प्राग्वत् केवलमत्रापि सिंहासनमपरिवारं वते णं पासायवडिसगा एकतीसं जोयणाई कोसं च उड्डे
क्लव्यम् । ते प' मित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका श्रन्यैउच्चत्तेणं असोलसजोयणाई अद्धकोसं च आयामवि
श्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोश्चत्वप्रमाणमात्रैः-अनन्तरो
क्लप्रासादावतंसकाोंच्चत्वप्रमाणेमूलप्रासादापेक्षयाऽटभाक्खंभेणं अब्भुग्गत० तहेव, तेसि णं पासायडिंसयाणं
गमात्रप्रमाणरित्यर्थः, सर्वतः-समन्तात्सम्परिक्षिप्ताः, तदेव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उन्लोया ॥ तेसि तदोच्चत्वप्रमाणमात्रमुपदर्शयति-'ते ण' मित्यादि, ते णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए प्रासादावतसका देशोनानि अष्टौ योजनानि ऊर्ध्वमुस्त्वेन पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं परमत्तं , वमो , तेसिं प
देशोनानि चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तेषामपि
'अभुग्गयमूसियपहसिया विवे' त्यादि स्वरूपादिवर्णनमनरिवारभूता भद्दासणा पम्पत्ता, तेसि णं अट्ठट्ठ मंगलगा
न्तरप्रासादावतंसकवत् । (एतयोःसूत्रयोर्मूलपाठो नरश्यते।) झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायवडिंसगा अ
'ते ण ' मित्यादि, तेऽपि च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः मेहिं चउहिं चउहिं तददुच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडे- प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-अनन्तरोतासएहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता ।। ते णं पासा- सादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैर्मूलप्रासादावतंसकापेक्षयवडेंसगा अद्भसोलसजोयणाई अद्धकोसं च उड्ढे उच्च
या षोडशभागप्रमाणमात्रैरित्यर्थः, सर्वतः-समन्ततः सं
परिक्षिप्ताः। तेणं देसूणाई अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं अ
__ तदोच्चत्वप्रमासमेव दर्शयतिभुग्गय तहेव ॥ तेसि णं पासायवडेंसगाणं अंतो बहुस- ते णं पासायवडेंसगा देसूणाई अट्ठ जोयणाई उई मरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया । तेसि णं बहुसमरमणि
उच्चत्तणं देमूणाई चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पउ
अब्भुग्गत० भूमिभागा उल्लोया भद्दासणाई उवरिं मंगलमासणा परमत्ता ।। तेसि णं पासायाणं अट्ठ मंगलगा झया
गा झया छत्तातिछत्ता, ते णं पासायवडिंसगा अमेहि छत्तातिछत्ता 1 ते णं पासायवडेंसगा अमेहिं चउहिं
चउहिं तदबत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सब्बतो तददृच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायव.सएहिं सवतो समंता
समता संपरिक्खित्ता । ते णं पासायवडिंसगा देसूणाई संपरिक्खित्ता। 'तीसे प' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र
चत्तारि जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं देसूणाई दो जोयणाई आमहदेकं सिंहासनं प्राप्तम् , तस्य च सिंहासनस्य परिवा
यामविक्खंभेण अब्भुग्गयमूसि० भूमिभागा उल्लोया पउरभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्बटव्यानि ॥' से ण'| मासणाई उवरि मंगलगा झया छत्ताइछत्ता । (सू०१३६) मित्यादि, स च मूलप्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिर्मूलपा- 'तेण'मित्यादि, ते-प्रासादावतंसकाः देशोनानि चत्वारियोसादावतंसकैस्तदद्धाच्चत्वप्रमाणमात्रैः- मूलप्रासादावतंस- जनान्यूर्वमुच्चैहत्येन देशोने द्वे योजने आयाविष्कम्भाभ्याम्, कार्बोच्चत्वप्रमायौः सर्वतः समन्तात्सपरिक्षिप्तः , तदो-तेषामपि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागधर्णनमुखोकवर्णनं सिं
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( ६२२ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
लवण समुद्द
हासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्वत्, तदेवं चतस्रः प्रासादावतंसकपरिपाट्यो भवन्ति, क्वचित्तिस्र एव दृश्यन्ते न चतुर्थी । (१०) अथ लवथासमुद्रे विजयदेवस्य सभामाहतस्स णं मूलपासायवर्डेसगस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुधम्मा पष्मत्ता, अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ सकौसाई जोयणाई विक्खंभेणं, एव जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं, अणेगखंभसतसंनिविट्ठा अब्भुग्गयसुकयवइरवेदिया तोरणवररतियसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिठ्ठलट्ठसंठियपसत्थवे रुलियविमलखंभा खाणामणिकगगरयणखइयउज्जल बहुसमसुविभत्तचित्त ( णिचियं ) रमणिजकुट्टिमतला ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालग - किष्पररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता थंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुताविव श्चिसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिब्भिसमाणी चक्खुलायणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणधूभियागा नाणाविहपंचवष्मघंटापडागपडिमंडितग्गसिहरा धवला मिरीइकवचं विशिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिनपंचगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरपडिदुवारदेस भागा आसत्तौसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदा मकलावा पंचवष्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिता कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क धूवमघमषेंतगंधुद्ध्याभिरामा सुगंववरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिन्ना दिव्वतुडियमधुरसद्द संपणाइया सुरम्मा सव्वरयणामती - च्छा ०जाव पडिरूवा ।
'तस्स ण' मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य उत्तरपूर्वस्याम्-ईशानकोण इत्यर्थः श्रत्र - एतस्मिन् भागे विजयस्य देवस्य योग्या सभा सुधर्मा नाम विशिष्टच्छन्दकोपेता साऽर्द्धत्रयोदश योजनान्यायामेन, षद् सक्रोशानि योजनानिविष्कम्भेन, नव योजनानि ऊर्ध्वमुश्चैस्त्वेन, ' अरोगे ' त्यादि अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्टा अनेकस्तम्भशतसनिविष्टा' अब्भुग्गयसुकयवर वेश्या तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिठ्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभा ' अभ्युद्गता - अतिरमणीयतया द्रष्टृणां प्रत्यभिमुखम् उत्- प्राबल्येन स्थिता सुकृतेव सुकृता निपुणशिल्पिचितेवेति भावः श्रभ्युद्गता चासौ सुकृता च अभ्युद्गतसुकृता वज्रवेदिका - द्वारमुण्डको परिवज्ररत्नमयी वेदिका तोरणं चाभ्युद्गतसुकृतं यत्र सा तथा तथा वराभिः - प्रधानाभिः रचिताभिः - विरचिताभिः रतिदाभिर्वा सालभञ्जिकाभिः- सुश्लिष्टा - संबद्धा विशिष्टं प्रधानं लष्टं - मनोनं संस्थितम् - संस्थानं येषां ते विशिष्ठलष्टसस्थिताः प्रशस्ताः - प्रशंसास्पदीभूता वैडूर्यस्तम्भाः- वैडूर्यरनमयाः स्तम्भा यस्यां सा वररचितशालभञ्जिकासुश्लिष्टविशिटलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यस्तम्भाः, ततः पूर्वपदेन कर्म्मधारयः,
For Private
लवणसमुद्द तथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स नानामणिकनकरत्नखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्, नानामणिकनकरत्नखचितः उज्ज्वलो -निर्मलो बहुसमः - अत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितो- निविडो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकरत्नखचितोज्ज्वलबहुसमसुविभक्त (निचितरमणीय) भूमिभागा' ईहा मिगउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुअरवणलय पडमलयभत्तिचित्ता' इति तथा स्तम्भोगतया - स्तम्भोपरिवर्त्तिन्या वज्रवेदिकया-वज्ररत्नमय्या वेदिकया परिगता सती या - भिरामा स्तम्भोगतवज्रवेदिकापरिगताभिरामा' विज्जाहरजमलजुगलजंतुजुत्ता विव श्रचिसहस्समालणीया रूवगसहसकलिया भिमणा भिम्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेला सुहफासा सस्सिरीयरुवा' इति प्राग्वत् 'कंचणमणिरयणधूभियागा' इति काञ्चनमणिरत्नानां स्तूपिका शिखरं यस्याः सा काञ्चनमणिरत्नस्तूपिकाका' नाणावि पंचवक्षघंटापडापरिमंडियग्गसिहरा' नानाविधाभिः - नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाभिः पताकाभिश्च परि-सामस्त्येन मण्डितमग्रशिखरं यस्याः सा नानाविधपञ्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखरा धवला - श्वेता मरीचिकवचम् - किरणजालपरिक्षेषं विनिर्मुञ्चन्ती 'लाउक्ल्लोइयमहिया' इति लाइयं नामयद् भूमेर्गोमयादिना उपलेपनम्, 'उल्लोइयं'- कुख्यानां मालस्य च सै टिकादिभिः संमृष्टीकरणं' लाउलोइयं' ताभ्यामिव महिता- पूजिता लाउलोइयमहिता, तथा गोशीर्षेण गोशीर्षनामचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन दईरेण- बहलेन- चपेटाकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला हस्तका यत्र सा गोशीर्षकसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितला, तथा उपचिता- निवेशिता वन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यस्यां सा उपचितयन्दनकलशा, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' इति चन्दनघटैः चन्दनकलशैस्सुकृतानि सुष्ठु कृतानि शोभनानीति तात्पर्यार्थः, यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागे यस्यां सा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागा तथा - ' आसतोसत वट्टबग्घारियमलदामक'लावा' इति, श्र - श्रवाङ् अधोभूमौ सक्न - श्रसक्को भूमी लग्न इत्यर्थः ऊर्ध्व सक्न उत्सक्तः- उल्लोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः, विपुलो - विस्तीर्णः वृत्तो वर्त्तुलः ' वग्घारिय ' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो यस्यां सा आसक्लोत्सक्तविपुलवृत्त वग्धारितमाल्यदाम कलापा. पञ्चवर्णेन सरसेन सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिप्तिन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण पूजया कलिता पश्चवर्णसरससुरमिमुक्तपुष्पपुञ्जपचारकलितः 'कालागुरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुकधूवमघम घेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया' इति प्राग्वत्, ' अच्छरगणसंघसंविकिरणा इति अप्सरोगणानां सङ्घः-समुदायस्तेन सम्यग् - रमणीयतया - विकीर्णा - व्याप्ता 'दिव्वतुडियस द्दसंपणादिया ' इति दिव्यानां त्रुटितानाम् - श्रतोद्यानां वेणुवीणामृदङ्गादीनां ये शब्दास्तैः सम्यक श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण नादिता - शब्दवती दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रणादिता 'अच्छा सराहा ०जाव पडिरूवा ' इति प्राग्वत् ॥
तथा
तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिसिं तो दारा पत्ता ।
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(६२३) लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह ते णं दारा पत्तेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं | ध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं वज्रमयः अक्षपाटकः चतुरएग जोयणं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकण
नाकारः प्रशप्तः, तेषां चाक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्र-- गथूभियागा • जाव वणमालादारवनओ । तेसि णं
त्येकं प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रशप्ताः, ताश्च मणिपीठिका यो
जनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजनं बाहल्येन ' सब्वमदाराणं पुरओ मुहमंडवा परमत्ता, ते णं मुहमंडवा अद्भुतर
णिमईओ' इति सर्वात्मना मणिमय्यः ' अच्छा' इत्यादि सजोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाई विक्खंभेणं
विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तासि ण' मित्यादि, तासां साइरेगाई दो जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं मुहमंडवा अणेगखं- मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येकं सिंहासनं प्राप्तम् , भसयसंनिविट्ठा० जाव उल्लोया भूमिभागवएणो ॥ तेषां च सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्राग्वद्वक्तव्यः, तेतेसि णं मुहमंडवाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं अट्ठट्ठ मंगला
षां च प्रेक्षागृहमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि
मङ्गलकानि प्राप्तानि, कृष्णचामरध्वजादि च प्राग्वद्वक्तव्यपामत्ता, सोत्थिय० जाव मच्छ० ॥ तेसि णं मुहमंडवाणं
म् ॥'तेसि ण' मित्यादि, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः पुरो पत्तेयं पत्तेयं पेच्छाघरमंडवा परमत्ता, ते णं पेच्छा- प्रत्येकं प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः घरमंडवा अद्भुतेरसजोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई प्रत्येकं द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं
बाहल्येन सर्वात्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । उडू उच्चत्तेणं • जाव मणिफासो ॥ तेसि णं बहु
(चैत्यस्तूपवतव्यतासूत्रम् 'चड्यथूभ ' शब्दे तृतीयभागे मझदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामयअक्खाडगा पएणत्ता, १२६२ पृष्ठे गतम्) तेसि णं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं तद्याख्या च इहोपयुक्तत्वात्प्रदर्श्यतेपत्तेयं मणिपीढिया पएणत्ता, ताओ णं मणिपीढियाओ
'तेसि ण' मित्यादि , तेषां चैत्यस्तूपानां प्रत्यकं प्रत्येक जोयणमेग आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं वाहल्लेणं स
'चतुर्दिशि' चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकमणिव्यमणिमईओ अच्छाओ० जाव पडिरूवाओ ॥ ता
पीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः ताश्च माणि
पीठिका योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्ध योजनं बाहल्येन सिणं मणिपीढियाणं उप्पि. पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा
सर्वात्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासि पएणत्ता, लीहासणवण्णो० जाव दामा परिवारो ।
ण' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मतेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उप्पि अट्ठ मंगलगा झया | णिपीठिकाया उपरि एकैकप्रतिमाभावेन चतस्रो जिनप्रतिछत्तातिछत्ता (जाव पडिरूवा)।
माः, जिनोत्सेधः-उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि,जघन्यतः सप्त तीस ण सुहम्माए ' इत्यादि, तस्याः सुधर्मायाः सभायाः हस्ताः , इह तु पश्च धनुःशतानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकत्रिदिशि--तिसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन
निसन्नाश्रो' इति पर्यङ्कासननिषण्णाः स्तूपाभिमुख्यस्तिश्रीणि द्वाराणि प्रशप्तानि, तद्यथा-एक पूर्वस्यामेकं दक्षि
ष्ठन्ति, तद्यथा-ऋषभा वर्द्धमाना चन्द्रानना वारिषेणा। णस्यामेकमुत्तरस्याम् । 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वा
'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः प्रत्येकं प्रराणि प्रत्येकं प्रत्येक वे द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन योजन
त्येकं मणिपीठिकाः प्राप्ताः, ताश्च मणिपीठिका द्वे वे मेकं विष्कम्भेन ' तावइयं चेवे ' ति योजनमेकं प्रवेशन
योजने अायामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वा'सेयावरकणगथूभियागा' इत्यादि प्रागुक्तं द्वारवर्णनं त
स्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ( जी० ) देतावद्वक्रव्यं यावद्वनमाला इति ॥ तेसि ण' मित्यादि,
( चैत्यवृक्षाणां वर्णावासादिसूत्रं चेयरुक्स' शब्द तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं, मुखमण्डपः प्राप्तः,
१२६५ पृष्ठे गतम्) ( चैत्यवृक्षाणां वर्णावासादिसूत्रव्यातेच मुखमण्डपा अर्द्धत्रयोदश योजनानि आयामेन, पद।
ख्या च तत्रैव चेयरुक्ख ' शब्दे तृतीयभागे १२६५ योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, सातिरेके वे योजने ऊ
पृष्ठे गता।) र्ध्वमुच्चस्त्वेन, पतेषामपि 'अणेगखंभसयसन्निविट्ठा' .
(११)अथ मणिपीठिकानां माहेन्द्रध्वजाः प्रतिपादयतित्यादि वर्णनं सुधायाः सभाया इव निरवशेषं द्रष्टव्यं,
तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं माहिंदतेषां मुखमण्डपानामुल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभा- ज्झया अट्ठमाई जोयणाई उड़े उच्चत्तेणं अद्धकोसं गवर्णनं च यावन्मणीनां स्पर्शः प्राग्वत् ॥'तेसिण' मि- उब्बेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवट्टलट्ठसंठित्यादि, तेषां मुखमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानिस्वस्तिकादीनि प्रक्षप्तानि, तान्येवाह-' तं जहे ' त्यादि,
यसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपतिहिता विसिट्ठा अणेगवरपंपतच्च विशेषणं सुधर्मासभाया अपि द्रष्टव्यम् ॥ तेसि
चवमकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउदुयविजयवेजयंण ' मित्यादि, तेषां मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं २ प्रेक्षा- तीपडागा छत्ताछित्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघगृहमण्डपः प्राप्तः, तेऽपि च प्रेक्षागृहमण्डपा अर्द्धत्रयोद- माणसिहरा पासादीया जाव पडिरूवा। श बोजनान्यायामेन, सक्रोशानि षडू योजनानि विष्कम्भेन, ' तासि ण ' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानासुपरि सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, प्रेक्षागृहमण्डपानां च प्रत्येकं प्रत्येक महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः , ते च महेन्द्रभूमिभागवर्णनं पूर्ववत्तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः ॥'तेसि ध्वजा अष्टिमानि-सार्धानि सप्त योजनान्यध्वमुच्चैप' मित्यादि,तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमः स्त्वेन, अर्द्धक्रोशम्-धनुःसहस्रप्रमाणमुद्वेधेन, अर्द्धकोशं
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(६२४) लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द धनुःसहस्रप्रमाणं विष्कम्भेन-विस्तारेण , 'बहरामय
ग्घारितमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लवट्टवग्धारितमल्लघट्टलट्टसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमट्ठसुपइट्ठिया ' इति वज्र
दामकलावा , ते णं दामा तवदिज्जलंबूसगा जाव मया-वजरत्नमयाः तथा वृत्तं-बत्तुल लष्टं-मनोझं संस्थितं-संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थिताः , तथा सुश्लिष्टा
चिटुंति ॥ सभाए णं सुहम्माए छ गोमाणसीयथा भवन्ति एवं परिघृष्ठा व स्वरशानया पाषाणप्रति
साहस्सीओ पएणत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहमेव सुश्लिष्टपरिघृष्टाः मृष्टाः सुकुमारशानया पाषाणप्रति- स्सीओ, एवं पञ्चत्थिमेणं वि, दाहिणेणं सहस्सं एवं उमेव सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलनात् ' अणगवरपंचवामकुड- | तरेण वि, तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुवण्णरुप्पमया भीसहस्सपरिमंडियाभिरामा' अनेकवरैः-प्रधानः पञ्चवDः कुडभीसहनैः-लघुपताकासहस्रः परिमण्डिताः स
फलगा पण्णत्ता जाव तेसु णं वइरामएसु नागदंतन्तोऽभिरामा अनेकवरपञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमण्डिताभि- एसु बहवे रयतामया सिक्कता पएणत्ता, तेसु णं रयरामाः 'वाउद्धविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया | तामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवघडिताओ तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा पासाईया०जाव पडिरूवा'
पएणत्ताओ, तायो णं धृवघडियाओ कालागुरुपवरकुंइति प्राग्वत् । तेसि णं महिंदज्झयाणं उप्पि अट्ठट्ठ मंगलगा|
दुरुक्कतुरुक्क जाव घाणमणणिम्वुइकरेणं गंधेणं सव्वतो
समंता आपूरेमाणीयो चिट्ठति । सभाए णं सुधम्माए झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरतो
अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते • जाव मतिदिसिं तो गंदाश्रो पुक्खरिणीश्रो पम्मत्ताओ ताश्रो
णीणं फासो उल्लोया पउमलयभत्तिचित्ता जाव सब्वणं पुक्खरिणीमो अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं सको-|
| तवणिजमए अच्छे जाव पडिरूवे ।। (सू० १३७) साई छ जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अ
'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां षच्छामओ सहायो पुक्खरिणीवमी पत्तेयं पत्तेयं पउमव
डू (मनो ) गुलिकासहस्राणि प्रशप्तानि, तद्यथा-डे सरवेइयापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता- हने पूर्वस्यां दिशि द्वे पश्चिमायामेकं सहनं दक्षिणस्याओ वमो जाव पडिरूवाओ ।। तेसि णं पुक्खरिणी
मेकमुत्तरस्यामिति, पतासु च फलकनागदन्तकमाल्यदामणं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसिं तिसोवाणपडिरूवगा परमत्ता ,
वर्णनं प्राग्वत् ॥'सभाए णं सुहम्माए ' इत्यादि, सभा
यां सुधर्मायां षड् गोमानसिकाः-शय्यारूपाः स्थानविंशतेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं वमो, तोरणा भा- पास्तासां सहस्राणि प्रक्षप्तानि, तद्यथा-द्वे सहस्रे पूर्वस्या णियव्या , जाव छत्तातिछत्ता।
दिशि द्वे पश्चिमायामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामति, ता'तेसि ण ' मित्यादि , तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टा- स्वपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं धूपघटिकावर्णनं च विवष्टौ मालकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्वव- जयद्वारवत् । 'सभाए णं सुहम्माए ' इत्यादि उल्लाकवत् सर्वं वक्तव्यं यावदहवः सहस्रपत्रकहस्तका इति ॥'ते णनं 'सभाए णं सुहम्माए ' इत्यादि भूमिभागवर्णनं च सिण' मित्यादि , तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येकं प्र
प्राग्वत्। त्येकं नन्दा-नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्राप्ता , अर्द्धत्र
(१२) अथ लवणसमुद्रविजयद्वारे मणिपीठिकामाहयोदश-सार्वामि द्वादश योजनानि अायामेन . पड योजना-| तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझनि सक्रोशानि विष्कम्भेन , दश योजनान्युद्वेधेन-उण्डत्वे-| देसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपीढिया पएणत्ता, सा न, 'अच्छाश्रो सराहाश्री रययमयकूडाो ' इत्यादिवर्ण-| णं मणिपीढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोनं जगत्युपरिपुष्करिणीवन्निरवशेषं वक्तव्यं यावत् 'पासा-1
रवशेष वक्तव्यं यावत् 'पासा- यणं बाहल्लेणं सबमणिमता ॥ तीसे णं मणिपीढिईयाश्रो उदगरसेणं पन्नत्ताओ' ताश्च भन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं प्रत्येकं पन्नवरवेदिकया प्रत्येकं प्रत्येकं वनखण्डेन च
याए उप्पि एत्थ णं माणवए णाम चेइयखंभे पण्णत्ते परिक्षिप्ताः , तासां च नन्दापुष्करिणीनां त्रिदिशि त्रिसो- अट्ठमाई जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं अद्धकोसं उबेहेणं पानप्रतिरूपकाणि प्रक्षप्तानि तेषां च वर्णनं तोरणवर्णनं अद्धकोसं विक्खंभेणं छ कोडीए छ लंस छ विग्गहिते वच प्राग्वत् ।
इरामयवट्टलट्ठसंठिते, एवं जहा महिंदज्झयस्स वरणसभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलियासाहस्सीओ पला
प्रो. जाव पासातीए ॥ तस्स णं माणवकस्सतो, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सीओ पञ्चस्थि
चेतियखंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता . हेट्ठा वि छमेणं दो साहस्सीओ दाहिणेणं एगा साहस्सी उत्तरेणं
कोसे वजेत्ता मज्झे अपंचमेसु जोयणेसु एत्थ ण बहएगा साहस्सी, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवरण- वेसवमरुप्पमया फलगा पसता, तेसु णं सुवमरुप्पमएरुप्पामया फलगा पएणत्ता, तेसु णं सुवमरुप्पाम
सु फलएसु बहवे वइरामया णागदंता पएणत्ता, तेसु णं एस फलगेसु बहवे बरामया णागदंतगा पएणता, वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामता सिकगा पमता। तेसु णं बरामएसु नागदंतपस बहवे किराहसुत्तवदृव- तस्स णं थासमरमणिशास्स भूमिभाारसे' त्यादि, तस्य
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( ६२५ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
रावणसमुद्द
या
बसमरमणीयस्य भूमिभागस्य मध्यदेशमा अब म हनी का मणिपीठिका प्रप्ता द्वे योजने आयायिष्कयोजनेपास्येन सर्वात्मना मणिमयीला इत्यादि प्राग्वत् । 'तीसे ख' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया. उपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, मानिसानि योजनामुल्वेन को शम् - धनुः सहस्रमानमुद्वेधेन श्रर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन पत्रिक:- पदकोटीकः पद्विग्रहिका पहरामयवठ्ठलसंठिए । इत्यादि महेन्द्रयजयद् वर्णनमशेषमस्यापि ताप
<
कः
यावद् " बहवे सहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा बजाव पडिरूवा ' इति । 'तस्स ' मित्यादि, तस्य माणचकस्य चैत्यस्तम्भस्योपरि षद् क्रोशान् श्रवगाह्य उपरितभागात् पद शान वर्जयित्वेति भावः अपि कोशान वर्जयित्वा मध्ये ऽर्द्धपञ्चमेषु योजनेषु ' बहवे सुवमरुप्पमया फलगा इत्यादि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिक्कगवर्णनं च प्राग्वत् ।
3
तेसु संरवयामयसिकए बहवे बहरामया गोलवदुस-युतं भुगका पत्ता तेसुगं वइरामएस गोलवट्टस मुग्गएसु बहवे जिसका श्रो संनिक्खित्ताओ चिट्ठति, जाओ गं विजयदेवस्सअप वाणमंतराणं देवास य देवीय अणिजाओ वंदखिजाओ पूयरिगज्जाओ सकारणिज्जाओ सम्माग जाओ। कल्लाणं मंगलं देवयं चतियं पज्जुवासजिम मागावगस्त यं वेतियखंभस्त उपरिं अड्ड मंगलगा झ्या इचातिद्वत्ता तस्स णं माणवगस्स | चेतियखंभस्स पुरत्थमेणं एत्थ एगा महं मसिपेडिया पत्ता, साणं मणिपेडिया दो जोयणाई आयामविसं भगं जोयाले सम्यमणिमई० जान पडिरूपा तीसे
मणिपेढया उपि एत्थ गं एगे महं सीहासणे पमते, सीहास बप । तस्स सं माणचगस्स चेतियसंभस्स पश्चत्थिमेवं एत्थ से एगा महं मणिपेडिया पध्यता, जोय श्रयामविवखंभेणं श्रद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमती अच्छा।।[ देवशयनीयचक्रन्पता सूत्रम्- 'देवसयणि' श दे चतुर्थभागे २६२५ पृष्ठे गतम् ] तस्स गं देवसयणिस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ यं महई एगा मणिपीदिया पत्ता, जोयखमेगं आयामदिक्संभेणं अद्धजोयसं बालेयं सव्यमणिमई० जाव अच्छा
'तेसु ण' मित्यादि तेषु रजतमयेषु सिक्ककेषु बहवो वज्रमा गोलवृत्ताः समुद्रकाः तेषु च वज्रमयेषु समुबहन जिननि सनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति यानि विजयस्य देवस्यान्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चार्चनीयानि चन्दनतः वन्दनीयानि - स्तुत्यादिना, पूजनीवानि पुष्पादिना माननीयानि बहुमानकर स कारणीयानित्यादिना कयामकुल देवतं चैत्यमितिच्या पासनीयानि ॥ तस्मा मित्यादि त स्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि ऋत्र म{ts
लषणसमुद हत्येका मणिपीठिका प्रशप्ता योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं वाइल्पेन सर्वात्मना मणिमयी अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ ' तीसे ण ' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि श्रत्र महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तद्वर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि प्राग्वत् ॥ तस्स ण 'मित्यादि, तस्य माणवकनाम्नश्चैत्यस्तम्भस्य पश्चिमायां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञता, एकं योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमयी' इत्यादि प्राग्वत् ॥' तीसे ण' मित्यादि तस्या मणिपीठिकाया उपरि श्रत्र महदेकं (देव) शयनीयं प्रतम् तस्य च देवशयनीयस्थायमेतद्रूपः वर्णाप्रज्ञप्तम् " यासः वर्णक निवेशः प्रज्ञाः तद्यथा-नानामणिमयाः प्रतिपादा:- मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः प्रतिपादाः सीदर्थिकाः सुवर्णमयाः पादा:- मूलपादा, जाम्बूनदमयानि गात्राणि चादीनि वज्रमया वज्रलरिताः सन्धयः नानामणिमये चिश्चे' इति विश्वं नाम
:
यानमित्यर्थः नानामणिमयं स्युतम् विशिष्टवा
,
"
नं रजदमयी तुझी लोहिताशमयानि बिम्बोषणा इति उपधानकानि ग्राह च मूलटीकाकार:- विश्वोषणाउपधानकानि उच्यन्त इति तपनीयमथ्यो गण्डोपधा॥ ' ' नकाः से गं देवखणिजे इत्यादि तद् देवशयनीयं सालिङ्गनवर्त्तिकम् - सह श्रालिङ्गनवर्या-शरीरप्रमाणेनोपधानेन यद् तत्तथा ' उभश्रो विब्बोयणे ' इति उभयतः उभी- शिरोऽस्तपादान्तायाधित्य विध्योयणे - उपधाने यप्र तद् उभयतो विषयोयणम् ' दुदतो उच्चते इति उभयत उमरगंभीरे इति मध्ये चतं नित्यत् गम्भीरं च महत्त्वात् नतगम्भीरं मङ्गापुलिनबालुकाया श्रवदालो -- विदलनं पादादिन्यासेऽद्योगमनमिति भावः तेन सालिसए ' इति सदृशकं गङ्गापुलिनवालुकावदालसदृशकम्, तथा 'श्रयविय' इति विशिष्टं परिकर्मितं क्षीमं- कार्पासिक दुकूलं वस्त्रं तदेव पट्ट श्रोपधियक्षीमदुकूल पट्टः स प्रतिच्छादनं - श्राच्छादनं यस्य तत्तथा, 'आईएगरूयथूरनवणीयतूलफासे' इति प्राग्वत्, रत्तं - सुसंए' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्तांशुक संवृतम्, अत एव सुरम्यम् पासाइए ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ तस्स मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रशप्ता, योजनमेकमायामविष्कम्भ चाहत्येन सव्यमणिमयी अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ तीसे गं मणिपीढियाए उपि एगं महं खुड़ए महिंदम पते अद्धमाई जोगाई उ उच्चखं अद्धको उम्मेवं मद्धको बेरुलियामय वट्टलट्ठसंठिते तहेब ० जाय मंगला भाषा त्याचा ॥ तस्स गं खुड महिंदज्झयस्स पश्चस्थिमेणं एत्थ ग विजयस्स देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पत्ते ।। तत्थ गं विजयस्स देवस्म फलिहरयणपामोक्खा वहवे परसरमा मनिसभाओ चिठ्ठति उलमुनिसि
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3
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( ६२६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लवणसमुद्द यतिक्खधारा पासईया || तीसे गं सभाए सुहम्माए उप बहवे अ मंगलगा भया छत्तातिछत्ता ० जाव पडि रूवा ॥ ( सृ० १३८ )
'तीसे ण ' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि श्रत्र जुलको महेन्द्रध्वजः प्रशप्तः, तस्य प्रमाणं च वर्णकश्च म हेन्द्रध्वजवद्वक्तव्यः । ' तस्स ए ' मित्यादि, तस्य तुल्लकस्य महेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धी महान् एकधोप्पालो नाम प्रहरणकोशः - प्रहरणस्थानं प्रशप्तम्, किंविशिष्टमित्याह - सव्ववहरामण अ og० जाव पडिरूवे ' इति प्राग्वत् । ' तत्थ णमित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे बहूनि परिघरनप्रमुखाणि प्रहरणरत्नानि संक्षिप्तानि तिष्ठन्ति कथम्भूतानीत्यत श्राह - उज्ज्वलानि -- निर्मलानि सुनिशितानि - अतितेजितानि श्रत एव तीच्णधाराणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत् ॥ ' तीसे गं सभाए ' इत्यादि, तस्याः सुधर्मायाः सभाया उपरि बहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि, इत्यादि सर्व प्राग्वन्तावद्वक्तव्यं यावद्वहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।
(१३) सुधर्मसभायाः सिद्धायतनादीति प्रतिपादयतिसभाए गं सुधम्माए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं सिद्धायतणे पण अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सकोसाई विक्खंभेणं नव जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं ॰जाव गोमाणसिया वनव्यया, जा चैव सभाए सुहम्माए वत्तव्वया सा चैव निरवसेसा भाणि यव्वा तव दारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा झया धूभा चेtrरुक्खा महिंदझया गंदा पुक्खरिणीओ, तो य सुधम्माए जहा पमाणं मणगुलियाणं गोमाणसीया धूवघड तहेव भूमिभागे उल्लोए य० जाव मणिफासे ॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयगाई आयामविक्खंभेणं जोयणं वाहल्लेणं सव्वमणि - मयी अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा खीरया शिष्पकंपा पडिरूवा । (श्रुतःपरं चैत्यवक्तव्यता 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे १२४२ पृष्ठे गता । ) तस्म णं सिद्धायतणस्स गं fara मंगलगा झया छत्तातिछत्ता उत्तिमगारा सोलसवहिं रयणेहिं उवसोभिया तं जहा रयणेहिं० जाव रिट्ठेहिं । ( सू० १३६ )
' सभाए ' मित्यादि, सभायाः सुधर्माया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महकं सिद्धायतनं प्रशप्तम् श्रर्द्धत्रयोदश योज नान्यायामेन, पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भतो, नव योजना न्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधर्मावद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवक्लव्यता, तथा चाह-' जा चेव सभाए सुधम्माए तव्वा सा चैव निरवसेसा भारिण्यव्या० जाव गोमाण'सियाओ' इति किमुक्तं भवति ? यथा सुधर्मायाः सभा
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लवण समुद्द याः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्त्तीनि त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपाः, तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृहमण्डपाः, तेषां च प्रेक्षागृह मण्डपानां पुरतश्चैत्यस्तूपाः सप्रतिमाः, तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतचैत्यवृक्षाः तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं च सभायां सुधर्मायां षड् गुलिकासहस्राणि षड् गोमानसीसहस्राण्यप्युक्तानि तथाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेषं वक्तव्यम्, उल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीय भूमिभागवर्णनमपि तथैव ॥ तरस 'मित्यादि, तस्य (सिद्धायतनस्य ) बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे श्रत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञता द्वे योजने श्रयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वमणिमयी अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि श्रत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वमुश्च्चैस्त्वेन द्वे योजने श्रायामविष्कम्भाभ्यां सर्वात्मना रत्नमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ ( ' तत्र देवegree अशतम् ' जिनप्रतिमानां तिष्ठतीति 'वेश्य शब्दे तृतीयभागे १२४२ पृष्ठे गतम् ) ' तस्स ल ' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उपरि श्रष्टावष्टौ मङ्गलकानि, ध्वजच्छ त्रातिच्छत्रादीनि तु प्राग्वत् ॥
(१४) श्रथ तत्रोपपातसभां प्रतिपादयन्नाहतस्स णं सिद्धाययणस्स सं उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ गं एगा महं उववायसभा पत्ता जहा सुधम्मा तहेव० जाव गोमाणसीओ उववायसभाए कि दारा मुहमंडरा सव्वं भूमिभागे तहेव० जाव मणिफासो ( सुहम्मासभावत्तव्या भाणियव्वा०जाव भूमीए फासो ) ।
' तस्स ण 'मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्या. मत्र महत्येका उपपातसभा प्रशता, तस्याश्च सुधर्मासभाया इव प्रमाणं त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डका इत्यादि सर्व तावद्वक्लव्यं यावद् गोमानसीवर्णनम्, तदनन्तरमुल्लोकवर्णनं ततो भूमिभागवर्णनं तावद याघन्मणीनां स्पर्शः, तथा चाह-' सुहम्मासभावत्तव्वया भाणियsaroजाव भूमीए फासो' इति ।
तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पात्ता जोय आयाम विक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमती अच्छा, तीसे गं मणिपेढियाए उपि एत्थ गं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिज्जस्स वष्पओ, उवत्रायसभाएं उप्पि अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता • जाव उत्तिमागारा, तीसे गं उववायसभाए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं हरए पण्णत्ते से गं हर अद्भुतेरस जोयणाई यामे छ कोसातिं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उब्वेणं अच्छे सहे वाओ जहेव णं दारागं पुक्खरिणीणं० जाव तोरणवमत्र ।
'तस्स ण ' मित्यादि, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमि - भागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रशप्ता,
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(६२) लवणसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह जनमेकमायामविष्कम्भाभ्याम योजनं बाहल्येन सा- नां स्पर्शः । 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य स्मना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् , तस्या- भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्येका मणिपीठिका ममणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रक्षप्त,
प्रशप्ता योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं . बाहल्येन गस्य स्वरूपवर्णनं यथा सुधर्मायां सभायां देवशयनीयस्य सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सराहा' इत्यादि विशेषणकदगस्य तथा द्रष्टव्यम् ,तस्या अपि उपपातमभाया उपरि अष्टा म्बकं प्राग्वत् । 'तीसे ण' मित्यादि, तस्या मणिपीटिकाया गौ मङ्गलकानीत्यादि प्राग्वत् ॥ ' तीसे ण' मित्यादि,
उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं प्रशप्तम् , सिंहासनवर्णकःमस्या उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महानेको
प्राग्वत् , नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि न वक्तव्यादः प्रज्ञप्तः, अर्द्धत्रयोदश योजनान्यायामेन, षड् योजनानि
नि। 'तत्य ण' मित्यादि. तस्मिन् सिंहासने विजयस्य देमक्रोशानि विष्कम्भेन , दश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छे सरहे
वस्य योग्यं सुबहु अभिषेकभाण्डम्-अभिषेकोपस्करः सं. ययाकूले ' इत्यादि नन्दापुष्करिणीवत्सर्व निरवशेषं निक्षिप्तः तिष्ठति, तस्याश्चाभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिपाच्यम् , तथा चाह-आयामुब्वेहेणं विक्खंभेणं व- शि अत्र महत्येकाऽलङ्कारसभा प्रज्ञप्ता, सा च प्रमाणस्वरूनो जो चेव नंदापुक्खरिणीण' मिति ॥'तीसे ण' मि- पद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनप्रकारेणाभिषेक'म्यादि.स हद एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन
सभावत्तावद्वक्तव्या यावदपरिवारं सिंहासनम् । 'तत्थ ण' सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः, पनवरवेदिकाया वर्णनं वन
मित्यादि, तत्र-सिंहासने विजयदेवस्य योग्यं सुबहु श्राखण्डवर्णनं च तावद् यावत् 'ताथ रण बहवै वाणमंतरा देवा | लङ्कारिकम्-अलङ्कारयोग्यं भाण्डं संनिक्षिप्तं तिष्ठति । 'तीय देवीश्रो य पासयंति जाव विहरंतीति' तस्य इदस्य त्रि.
से ण' मित्यादि, तस्या अलङ्कारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि दिशि-त्रिसृषु दिनु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रशप्तानि, तेषां
अत्र महत्यका व्यवसायसभा प्रशप्ता, सा चाभिषेकसभावच त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां च (वर्णनं पूर्ववत् ।)
प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिवर्णकप्रकारेण तावद्वक्त
व्या यावदपरिवारं सिंहासनम् । तस्स णं दह (हरत)स्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं
ए (त) त्थ णं विजयस्स देवस्स एगे महं पोअभिसेयसभा परमत्ता, जहा सभा सुधम्मा तं चेव निरव
स्थयरयणे संनिक्खित्ते चिट्ठति, तत्थ णं पोत्थयरयणसेसं जाव गोमाणसीनो भूमिभाए उल्लोए तहेव ।
स्स अयमेयारूवे वण्णावासे पएणते, तं जहा-रिट्ठामतीओ तस्स ण बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस
कंबियाओ (रयतामतातिं पत्तकाई रिट्ठामयाति अक्खभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया परमत्ता जोयणं आ
राई ) तवणिजमए दोरे णाणामणिमए गंठी ( अंकमयायामविक्खंभेणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सव्वमणिमया अ
इं पत्ताई ) वेरुलियमए लिप्पासणे. तवणिज्जमती संकला च्छा । तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि एत्थ णं महं एगे सीहासणे परमत्ते, सीहासणवामनो अपरिवारो ।।
रिट्ठमए छादने रिट्ठामया मसी वइरामयी लेहणी रिट्ठामयाई तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अभिसेक्के भंडे संणि -
अक्खराई धम्मिए सत्थे वरसायसभाए णं उप्पि अट्ठट्ठ क्खित्ते चिद्वति,अभिसयसभाए उप्पि अट्ट मंगलए जाव
मंगलगा झया छत्तातिछत्ता उत्तिमागारेति ॥ तीसे
णं ववसा ( उववा ) यसभाए उत्तरपुरथिमेणं एगे उत्तिमागारा सोलसविधेहिं रयणेहिं, तीसे णं अभिसेय-1
महं बलिपेढे पालत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सभाए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं अलंकारिय
जोयणं बाहल्लेणं सव्वरयतामए अच्छे०जाव पडिरूवे ॥ सभावत्तव्यया भाणियव्वा जाव गोमाणसीयो मणि
एत्थ ण तस्स णं बलिपेढस्स उत्तरपुरथिमेणं एगा महं णंपेढियाओ जहा अभिसेयसभाए उपि सीहासणं स (अ)
दापुक्खरिणी पामत्ता जंचेव माणं हरयस्स तं चव सव्वं ।। परिवारं । तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहुअलंका
(मू०१४०) रिए भंडे संनिक्खित्ते चिट्ठति, उत्तिमागारा अलंकारिय- 'एत्थ ग' मित्यादि. ' अत्र सिंहासने महदेकं पुस्तकरसभावत्तव्यया भाणियचा. जाव गोमाणसीओ मणिपे-| नं संनिक्षिप्तं तिष्ठति, नस्य च पुस्तकरत्नस्यायमेतद्पः ढियाश्रो जहा अभिसेयसभाए उप्पिं मंगलगा झग 'वर्णावासः ' वर्णकनिवेशः प्रशप्तः- रिष्ठमय्यौ ' रिष्टर
जाव [ छत्ताइछत्ता ] | तीसे णं अलंकारियसहाए नात्मिके कम्बिके पुटके इति भावः, रजतमयो (तपनीयमउत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ ण एगा महं ववसायसभा पामत्ता,
यो ) दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानार्माणम
या ग्रन्थिर्दवरकस्यादी येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति, 'अङ्कमअभिसेयसभावत्तव्यया जाव सीहासणं अपरिवारं ।
यानि' अङ्करत्नमयानि पत्राणि नानामणि (वैडूर्य) मयं 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य हदस्य उतरपूर्वस्यां दिशि लिप्पासन-मपीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मीअत्र महत्येकाऽभिधे कसभा प्रजाता, साऽपि प्रमाणस्वरूप- भाजनसत्का रिष्ठरत्नमयमुपरितनं तस्य छादनं 'रिष्ठमया' द्वारमुखभण्डपक्षागृहमण्डपचैत्यस्तूपवर्णनादिप्रकारण सु- रिष्ठरत्नमयी मी वज्रमयी लेखनी रिष्ठमयान्यक्षराणि धमौसभावत्तावद्वक्तव्या यावद् गोमानसीवनव्यता, तदन- धार्मिकं लख्यम् तस्याश्च उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि न्तरं तथैवालाकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावद् यावन्मणी-] महदकं बलिपीठं प्राप्तम् , द्वे योजन आयामविष्कम्भाभ्यां
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( ६२८ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
लवण समुद्द
योजनमेकं बाहल्येन 'अच्छे सराहे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ ' तस्स ण' मित्यादि, तस्य बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रशप्ता, सा च इदप्रमाणा, हृदस्येव च तस्या अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तदेवं यत्र याग्भूता च राजधानी विजयस्य देवस्य तदेतद् उपवर्णितम् ।
( १५ ) सम्प्रति विजयो देवस्तत्रोपपन्नस्तदा यदकरोद् यथा च तस्याभिषेको ऽभवत्तदुपदर्शयति
ते काले तेणं समएणं विजय देवे विजयाए रायहाfe उववातसभाए देवसयणिअंसि देवदूतरिते अंगुलस्स असंखेजति भागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववसे ॥ तसे विजये देवे अहुणोववरणमेत्तए चैव समाणे पंचविहाए पत्तीए पजत्तीभावं गच्छति, तं जहा - आहारपञ्जत्तीए सरीरपञ्जत्तीए इंदियपञ्जत्तीए आणापाणुपञ्जतीए भासामणपजत्तीए । तए णं तस्स विजयस देवरस पंचविहार पञ्जत्तीए पजतीभावं गयस्स इमेरूवे अथिए चिंतिए पत्थिते मणोगए संकप्पे समुपखित्था - किं मे पुव्वं सेयं, किं मे पच्छा सेयं, किं मे पुवि करणिजं, किं मे पच्छा करणिजं, किं मे पुकिं वा पच्छा वा हिताए सुहाए खेमाए णिस्सेसयाते अणुगामियत्ताए भविस्सतीति कट्टु एवं संपेहेति ॥ तते गं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववरणगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एतारूवं अज्झत्थितं चितियं पत्भियं मयोगयं संकष्पं समुप्परणं जा
त्ता जेामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति तेखामेव उवागच्छित्ता विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिर सावतं मत्थए अंजलि कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवा - पिया विजयाए रायहाणीए सिद्धायतांसि स तं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संनिक्खित्तं चि ट्ठति, सभाए य सुधम्माए माणवए चेतियखंभे बहरामएसुगोलवट्टसमुग्गतेसु बहूओ जिसकहाओ सन्निविखताओ चिति, जो गं देवागुप्पियाणं अनेसिं च बहूगं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अणिजाओ वंदणिजाओ पूयणिजाओ सकारणिजाओ सम्माणणिज्जाश्रो कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवाणिजाओ एवं गं देवाप्पियाणं पुच्चि पि सेयं एतं गं देवाप्पियाणं पच्छा वि सेयं, एवं गं देवाणुष्पिया पुत्रि करणिअं पच्छा करणिअं एतं गं देवाप्पि - या पुत्रि वा पच्छा वा० जाव श्रणुगामियत्ताते भविसतीति कट्टु महता महता जय (जय ) सदं परंजंति ।
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लवणसमुद्द
"
तर ग
काले ते समएणं' इत्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन समये विजयो देव उपपातसभायां देवशयनीये देवदुण्यान्तरिते प्रथमतोऽङ्गुला संख्येयभागमात्रया ऽवगाहनयासमुत्पन्नः ॥ तप ण' मित्यादि, सुगमम्, नवरमिह भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्तिकाला - न्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षणमिति ' पंचविद्याए पत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ ' इत्युक्रम् ॥ मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गतस्य सतोऽयम् - एतद्रूपः संकल्पः समुद्रपद्यत, कथम्भूतः १, इत्याह- मनोगतः - मनसि गतोव्यवस्थितो नाद्यापि वचसा प्रकाशितस्वरूप इति भावः, पुनः कथम्भूतः ?, इत्याह- श्राध्यात्मिकः - श्रात्मन्यधि अध्यात्मं तत्र भव आध्यात्मिक श्रात्मविषय इति भावः, सङ्कल्पश्च द्विधा भवति — कश्चिदध्यात्मिकोsपरश्र चिन्तात्मकः, तत्रायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह-त्रिन्तितः - चिन्ता संजाताऽस्मिन्निति चिन्तितश्चिन्तात्मक इति भावः सोऽपि कश्चिदमिलापात्मको भवति कश्चिदन्यथा तत्रायमभिलाषात्मकस्तथा चाह-प्रार्थनं प्रार्थो णिजन्तादच् प्रार्थः संजातोऽस्मिन्निति प्रार्थिको ऽभिलाषात्मक इति भावः, किं स्वरूपः ?, इत्याह-' किं मे इत्यादि, किं मे - मम पूर्व करणीयं किं मे पश्चात् करणीयम्, तथा किं मे पूर्व कर्त्तुं श्रेयः किं मे पश्चात्कर्तु श्रेयः, तथा किं मे पूर्वमपि च पश्चादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय परिणाम सुन्दरतायै अयमपि सुखाय - शर्मणे क्षेमायेति, भावप्रधानो निर्देश: संगतत्वाय, निःश्रेयसाय - निश्चितकल्यारणाय श्रानुगामिकतायै परम्परया शुभानुबन्धसुखाय भविष्यतीति ॥ ' तर ण मित्यादि, ' ततः ' एतश्चिन्तासमनन्तरमेव दिव्यानुभावतो विजयस्य देवस्य 'सामाणियपरिसोववन्नगा देवा' इति सामानिकाः पर्षदुपपनकाश्च - अभ्यन्तरादिपर्षदुपगताः इमम्- अनन्तरोलम् एतद्रूपम् - अनन्त रोदित स्वरूप माध्यात्मिकं चिन्तितं यत्रैव विजयो देवस्तत्रैवोपागच्छन्ति – उपागम्य च कर प्रार्थितं मनोगतं सङ्कल्पं समभिज्ञाय ' जेणेवे 'त्ति
"
परिग्ाहिय मित्यादि द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकयोः संपुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सा श्रञ्जलि - स्तां करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता ताम्, आवर्तनमावर्त्तः, शिरस्यावर्त्तो यस्याः सा शिरस्यावर्त्ता, कण्ठेकाल उरसिलोमेत्यादिवदलुक्समासः, तामत एव मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन वर्द्धापयन्तिजय त्वं देव ! विजय त्वं देव ! इत्येवं वर्द्धापयन्तीत्यर्थः, तत्र जयः - परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु - परेषामसहमानानामभिभवोत्पादः, जयेन विजयेन च eseferer एवमादिषुः--' एवं खलु देवाशुप्पियाण मित्यादि पाठसिद्धम् ॥
"
तर गं से विजय देवे तेसिं सामाणियपरिसोववएणगाणं देवाखं अंतिए एयमहं सोच्चा खिसम्म हट्ट • जाव हियते देवसय णिजाओ अम्भुइ प्रभुत्ता दिव्वंदेवदुमजुगलं परि परिदेइत्ता देवसयरिगज्जाओ पत्रोरु
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( ६२६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः । लवण समुद्द लसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्साणं सोवलियागं कलसाणं रूप्पमयाणं ताव असहस्साणं भोमेयाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतुवरेहिं सव्वपुफेहिं ० जाव सव्वासहिसिद्धत्थएहिं सव्विड्डीए सव्वजत्तीए सव्वबलेणं सव्वसमुदपणं सव्वायरेणं सव्वविभूतिए सब्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वरोहेणं सब्बगाडएहिं सव्यपुष्पगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्यदिव्वतुडियणिणाएवं महया इड्डीए महया जुत्तीए महया बलेणं महता समुदरणं महता तुरियजमगसम गपडुप्पवादितरवेणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिमुरवमुयंगदुंदुहिहुडुकणिग्घोससं -- निनादितरवेणं महता महता इंदाभिसेगेणं अभिसिंचंति । ' तप ण' मित्यादि, ततो रामिति वाक्यालङ्कारे तं विजयं देवं चत्वारि देवसामानिकसहस्राणि चतस्रोऽग्रमहिष्यः सपरिवारास्तिस्रः पर्षदो यथाक्रमप्रदशद्वादशदेवसहस्रपरिमाणाः सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयः षोडश श्रात्मरक्षदेवसहस्राणि श्रन्ये च बहवो विजयराजधानीवास्तव्या वनमन्तरा देवा देव्यश्व तैः - तद्गतदेवजनप्रसिद्धैः स्वाभाविकुर्विश्च वरकमलप्रतिस्थानैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णेश्चन्दनकृतचर्चाकैः श्रविद्धकण्ठेगुणैः - श्रारोपितकराठेरक्कसूत्रतन्तुभिः पद्मोत्पलपिधानैः सुकुमारकरतलपरिगृहीतैरनेकसहस्रसंख्यैः कलशैरिति गम्यते, तानेव विभागतो दर्शयति- अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानाम्, अष्टसहस्त्रेण रूप्यमायानाम् अष्टसहस्रेण मणिमयानाम्
सहस्रेण सुवर्णरूप्यमयानाम् अष्टसहस्त्रेण सुवर्णममियानाम् सहस्रेण रूप्यमणिमयानाम्, अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् श्रष्टसहस्त्रेण भौमेयानां, सर्वसंयया श्रष्टभिः सहस्रैश्चतु षष्ट्यधिकैः, तथा 'सर्वोदकैः सर्वतीर्थ नद्याद्युदकैः सर्वर्तुवरैः सर्वपुष्पैः सर्वगन्धैः सर्वमात्यैः सर्वोषधिसिद्धार्थकैश्च सर्व-परिवारादिकया सर्वधु, त्या यथाशक्तिविस्फारितेन शरीरतेजसा सर्वबलेन सामस्त्येन स्वस्वहस्त्यादिसैन्येन सर्वसमुदयेन - स्वस्वाभियोग्यादिसमस्त परिवारेण सर्वादरेण समस्तयावच्छक्लितोलनेन सर्वविभूत्या स्वस्वाभ्यन्तरवैक्रियकरणादिवाहारत्नादिसम्पदा, तथा सर्वविभूषया - यावच्छक्लिस्फारोदारशृङ्गारकरणेन 'सब्वसंभ्रमेणं' ति सर्वोत्कृष्टेन संभ्रमेण, सर्वोत्कृष्टसंभ्रमो नाम - इह स्वनायक विषयवहुमानख्यापनार्थपरा स्वनायककार्यसम्पादनाय यावच्छाक्ति त्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, सर्वषुपवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण श्रत्र गन्धा-वासा माल्यानिपुष्पदामानः अलङ्काराः - श्राभरणानि ततः समाहारो द्वन्द्वः, ततः सर्वदिव्य त्रुटितानि तेषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दास्तैः सह सर्वशब्देन विशेषणसमासः, 'सव्वदिव्वतुडियसद्दनिनाएण' मिति सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च दिव्यतूर्याणि च एषामेकत्र मीलनेन यः संगतो नितरां नादोमहान् घोषः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसंनिनादस्तेन, इह तुल्येवपि सर्वशब्दो दृष्टो यथाऽनेन सर्व पीतं घृतमिति, तत श्राह - महया इडीए' इत्यादि, महत्या यावच्छक्तितुलितया 'ऋडया' परिवारादिकया 'महया जुईए' इत्याद्यपि भाव
लवण समुद्द
हर पचोरुहिता उपपातसभाओ पुरत्थिमेणं दुवारेण णिग्गछ गिग्गच्छत्ता जेणेव हरते तेणेव उवागच्छति उवागच्छत्ता हरयं पदाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरत्थि मे गं तोरणं अपवसति श्रणुष्पविसित्ता पुरथिमिल्ले तिसोवाणवडिवणं पच्चोरुहति पच्चोरुहतित्ता हरयं ओ गाहति गाहित्ता जलावगाहणं करेति जलावगाहणं करेत्ता जलमञ्जणं करेति जलमञ्जणं करेत्ता जलकिहुं करेति जलकिड्डुं करेत्ता आयंते चौक्खे परमसुतिभूते हरतातो पच्चु त्तरति पच्चुत्तरेत्ता ।
' तर ण ' मित्यादि ततः -- एतद्वचनानन्तरं विजयो देवस्तेषां सामानिकपर्वदुपपन्नकानां - सामानिकानां पर्यदुपपकानां च देवानामन्तिके एनमर्थ श्रुत्वा श्राकरार्य निशम्य हृदये परिणमय्य ' हट्टतुट्ठचित्तमादिए ' इति हटतुष्टोऽतीव तुष्ट इति भावः श्रथवा हृष्टो नाम विस्मयमापन्नो यथा - शोभनमहो ! एतैरुपदिष्टमिति तुष्टःतोपं कृतवान् यथा भव्यमभूद् यदेतैरित्थमुपदिष्टमिति तोपवशादेव चित्तमानन्दितम् - स्फीतीभूतं " दुरादि समृद्धौ " इति वचनात् यस्य स चित्तानन्दितः भार्यादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्म्मधारयः, ' पीइम ' इति प्रीतिर्मनसि यस्यासौ प्रीतिमनाः जिनप्रतिमाऽर्चनविषयबहुमानपरायणमना इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोत्कर्षवशात् ' परमसोमणस्सिए ' इति शोभनं मनो यस्यासौ सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत् सौमनस्यं च परमसौमनस्यं तत्संजातमस्मिन्निति परमसौमनस्थितः एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह - हरिसवस - विसप्पमाणहियए हर्षवशेन विसर्पद् विस्तारयायि हृदयं यस्य स हर्षवशविसर्पद्धृदयः देवशयनीयादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय च देवदूष्यं परिधत्ते परिधाय च उपपातसभातः पूर्वद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य च यत्रैव प्रदेशे हदस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य इदमनुप्रदक्षिणीकृत्य पूर्वेण तोरणेन दमनुप्रविशति, प्रविश्य च हदे प्रत्यवरोहति मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुह्य च इदमवगाहते, श्रवगाह्य जल मज्जनं करोति, कृत्वा च क्षणमात्रं जलक्रीडां करोति, ततः 'श्रयते' इति नघानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेनाऽऽचातो गृहीता च मनश्चक्षः - स्वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनयनात् श्रत एव परमशुचिभूतो हदात् प्रत्युत्तरति । (जी० ) ( श्रतः परम् 'अभिसेय' शब्दे प्रथमभागे ७२६ पृष्ठे अभिषेकवर्णको गतः )
तते णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चतारि अग्गमहिसीओ सपरिवारा तिमि परिसाओ सत्त अणिया सत् णियाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाहसीओ ने य बहवे विजयरायधाणिवत्थव्वगा वाणमं तरा देवाय देवीओ य तेहिं साभावितेहिं उत्तरवेव्वितेहि य वरकमलपतिट्ठाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुष्पेहिं चंदकयचच्चातेहिं विद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पल पिधारोहिं करत
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( ६३० ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
लक्षणसमुद्द
नीयम्, तथा महता स्फूर्तिमता वराणां - प्रधानानां त्रुटितानाम् - श्रतोद्यानां यमकसमकम् - एककालं पटुभिः पुरुषैः प्रवादितानां यो रवस्तेन एतदेव विशेषेणाचष्टे *संपणवपडभेरि झल्लरि खरमुहिहुडुक्क मुरवमुइंग दुंदुहिनिग्घोससंनिनादितरवेणं' शंखः प्रतीतः पणवो--भाण्डानां, पटहः प्रतीतः भेरी--ढक्का भल्लरी-चर्मावनद्धा विस्तीर्णा वलयरूपा खरमुही-काहला हुडका - महाप्रमाणो मर्दलो मुरजः - स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः - भेर्याकारा सङ्कटमुखी, तासां द्वन्द्वः, तासां निर्घोषो महान् ध्वानो नाfair arraria वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिस्तल्ल - क्षणो यो रवस्तेन महता महता इन्द्राभिषेकेणाभिषिञ्चन्ति || तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महता महता इंदाभिसेगंसि ट्टमास अप्पेगतिया देवा गच्चोदगं गातिमट्टियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोदगवासं वासंति, अप्पेगतिया देवा हितरयं दुरयं भट्ठरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि सभितरबाहिरियं आसित्तसम्मज्जितोवलित्तं सित्तसुइसम्मट्ठरत्थंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहा मंचातिमंच कलितं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायराणि गाणाविहरागरंजियऊ सियजय विजयवेजयन्तीपडागातिपडागमंडित करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि लाउल्लोइयमहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रा० गोसीससरसरत्तचंदगद हरदिएण पंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रा० उवचियचंद णकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदे सभागं करेंति, कप्पेगतिया देवा विजयं रा०यास त्तोवसत्तविपुल वडवग्घारित मल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि पंचवरणसरसमुरभिमुक्कपुप्फ पुंजौयारकलितं करेति, चप्पेगइया देवा विजयं रा०कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क धूवडज्यंत मघमघेंत गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेंति, अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सुव - रणवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं ववासं पुष्वासं मल्लवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थवासं आहरणवासं,अप्पेगइया देवा हिरण्यविधिं भाईति, एवं सुवणविधिं रयणविधि वतिरविधिं पुप्फविधिं मल्लविधि विधि गंधविधिं वत्थविधिं भाइंति श्राभर विधिं ॥
'तप' मित्यादि, ततो रामिति पूर्ववत् तस्य विजयस्य देवस्य ' महया' इति अतिशयेन महति इन्द्राभिबेके वत्तमानेऽत्येकका देवा विजयां राजधानी : सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात्, ततोऽयमर्थः - विजयायां राजधाम्यां नात्युदके प्रभूतजलसंग्रहभावतो वैरस्योपपत्तेः, नातिमृत्तिकै प्रतिमृत्तिकाया श्रपि कमरूपतायामुत्साह
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लवणममुद्द वृद्धिजनकत्वाभावात् पविरलफुसिय' मिति प्रविरलानि घनभावे कर्दमसम्भवात् प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि स्पर्शनानि यत्र वर्षे तत् प्रविरलस्पृष्टम् ।' रयरेणुविणासणं ' ति लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजस्त एव स्थूला रेणवः, रजांसि च रेपवश्व रजोरेणवस्तेषां विनाशनं रजोरेणुविनाशनं दिव्यम् - प्रधानं सुरभिगन्धोदकवर्ष, वर्षन्ति अप्येकका विजयां राजधानीं समस्तामपि निहतरजसम् निहतं रजो यस्यां सा निहतरजास्ताम्, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि संभवति तत श्राह - नष्टरजसम्-नष्टं सथाsश्थीभूतं रजो यत्र सा नष्टरजास्ताम् तथा भ्रएम् वातोद्भूततया राजधान्या दूरतः पलायितं रजो यस्याः सा भ्रष्टरजास्ताम् एतदेवैकार्थिकद्वयेन प्रकटयतिप्रशान्तरजसम् उपशान्तरजसं कुर्वन्ति श्रध्येकका देवा विजयां राजधानीम् श्रासियसंमज्जियोवलित्तं सित्तं सुइसम (य) रत्यंतरावणवीहियं करेंति' इति श्रासिकमुदकच्छरटेन, संमार्जितं कचवरशोधनेन, उपलिप्तमिव गोमयादिनोपलिप्तम्, तथा सिक्लानि जलेनात एव शुधनि-पवित्राणि संमृष्टानि - कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि श्रापगवीथय इव-हट्टमार्गा इव आपणवीथयो रथ्याविशेशश्च यस्यां सा तथा तां कुर्वन्ति श्रप्यकका देवा मञ्चातिमञ्चकलितां कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा नानाविधा विशिष्टा रागा येषु ते नानाविरागा नानाविरागैरुच्छ्रितै:- ऊध्वीकृतेर्ध्वजैः पताकातिपताकाभिश्च मण्डितां कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा ' लाउलोइयमहितां ' गोशीर्षसरसरलबन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलां कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा विजयां राजधानीमुपचितचन्दनकलशां कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागां कुर्यन्ति श्रप्येकका देवा विजयां राजधानी मासिक्लोत्सिक्तविपुलवृत्त वग्धारितमाल्यदामकलापां कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा विजयां राजधानीं पञ्चवणसुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जपचारकलितां कुर्वन्ति श्रन्येकका देवा विजयां राजधानी कालागुरुप्रवर कुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपमघमघायमानां गन्धो नाभिरामां सुगन्धवरगन्धगन्धिकां गन्धवर्त्तिभूतां कुर्वन्ति, एतेषां च पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् श्रप्येकका देवा हिरण्यवर्ष वर्षन्ति श्रप्येककाः सुवर्णवर्षमप्येकका श्राभरणवर्ष ( रत्नवर्षमप्येकका वज्र - मयककाः ) पुष्पवर्षमप्येकका माल्यवथमप्येककाश्चूर्णवर्ष
वर्षम् (श्राभरणवर्षे) वर्षन्ति, श्रप्येकका देवा हिरण्यविधि - हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं भाजयन्ति-विश्राणयन्ति
शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्नाभरणपुष्पमाल्यगन्धचूर्णवस्त्रविधिभाजनमपि भावनीयम् । (इह द्वात्रिंशशाव्यविधयः, ते च ब्रेन क्रमेण भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतः सूर्याभदेवेन भाविता राजप्रश्रीयोपाने दर्शितास्तेन क्रमेण इहापि भावनीयम्, ते च ' दृ ' शब्दे चतुर्थभागे १८०३ पृष्ठे व्याख्याताः )
अप्पेगतिया देवा चउव्विधं वातियं वादेति, तं जहाततं विततं घणं झुसिरं, अप्पेगतिया देवा चउव्विधं गेयं गायति, तं जहा - उक्खित्तयं पवतयं मंदायं रोइदावसारखं, अप्पेगतिया देवा चउन्विहं अभियं अभिणयंति, तंज
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( ६३१ ) लवणसमुद्द अभिधान राजेन्द्रः । लवण समुद्द हा - दितियं पाडंतियं सामन्तोवणिवातियं लोगमज्झा- व्याः, श्रविकका देवाः पीनयन्ति - पीनमात्मानं कुर्वन्ति वसाखियं, अगतिया देवा पीर्णेति अप्पेगतिया देवा स्थूला भवन्तीति भावः, श्रप्येकका देवाः ताण्डवयन्तिताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्येकका देवाः लास्ययन्तिबुक्कारेति, अप्पेगतिया देवा तंडवेंति, अप्पेगतिया देवालालास्यरूपं नृत्यं कुवन्ति श्रप्येकका दवाः हुकारेंति-कामैंति, अप्पेगतिया देवा पीर्णेति बुक्कारेंति तंडवेंति लासेंति, र कुर्वन्ति, अप्येकका देवी पतानि पीनत्वादीनि चत्वापि अप्पेगतिया देवा अफेर्डेति अप्पेगतिया देवा वग्गं कुर्वन्ति श्रप्येकका देवा उच्छलन्ति, अप्येकका देवाः प्रोति, अप्पेगतिया देवा तिवंति अप्पेगतिया देवा छिंदंति च्छन्ति श्रन्येकका बेधास्त्रिपदिकां छिन्दन्दि, श्रप्येककाअप्पेगतिया देवा फोडेंति वग्गंति तिवंति द्विदंति,अप्पेगतिया देवा हतहेसियं करेंति, अप्पेगतिया देवा हत्थिगुलगुलाइयं करेंति, पेगतिया देवा रहघणघणातियं करेंति, अप्पे हयहेसियं करेंति हत्थिगुलगुलाइयं करेंति रहघणघणायं करेंति अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति, अध्येगतिया देवा पच्छोलेंति, (अप्पेगतिया देवा उक्कि करेंति) अप्पेगतिया देवा उक्किट्ठीओ करेंति, अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति पच्छोलेंति उकिडीओ करेंति, अप्पंगतिया देवा सहिणादं करेति, अप्पेगतिया देवा पाददद्दरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा भूमिचवेडं दलयंति, अध्पेगतिया देवा सीहनादं पाददद्दरयं भूमिचवेडं दलयंति अप्पेगतिया देवा हक्कारेंति,
येतानि कुर्वन्ति श्रप्यकका देवा हयद्वेषितानि कुवन्ति, etreat देवा हस्तिगडगडायितं कुर्वन्ति श्रप्येकका देवा रथघणघणायितं कुवन्ति श्रप्येकका देवास्त्रीयध्येतानि कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा श्रस्फोटयन्ति भूम्यादिकमिति गम्यते, अप्येकका देवा वल्गन्नि, अप्येकका देवाः सिंहनादं नदान्त, श्रप्येकका देवाः पादददरेकं कुर्वन्ति, arrest देवा भूमिचपेटां ददति-भूमि चपेटयाss स्फालयन्तीति भावः, श्रप्येकका देवा महता महता शब्देन रचन्न - शब्दं कुवन्ति, श्रप्येकका देवाश्चत्वार्यपि सिंहनादादीनि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा हकारेंति-हक्कारं कुबैन्ति श्रप्येकका देवाः बुक्कारैति - मुखेन बुक्कारशब्द कुर्वfr. श्रप्येकका देवाः थक्कारैति - थक्क इत्येवं महता शब्देन कुर्वन्ति श्रप्येकका स्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा अवपतन्ति, श्रप्येकका देवा उ पतन्ति, श्रप्येकका देवाः परिपतन्ति -- तिर्यगनिपतन्तीत्यर्थः, अप्येकका देवास्त्रीयप्येतानि कुवन्ति, श्रप्येककाः ज्वलन्ति -ज्वालामालाकुला भवन्ति श्रप्येकका देवाः तपन्ति तप्ता भवन्ति, श्रप्येककाः प्रतपन्ति श्रप्येकका देवास्त्रीयपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा अर्जयन्ति श्रप्येककाः 'विज्जुयारं' ति विश्रुतं कुर्वन्ति,
गतिया देवा चुकारेंति अप्पेगतिया देवा थक्कारेंवि, अप्पेगतिया देवा पुकारेंति, श्रप्पेगतिया देवा नामाई सावेंति, श्रप्पेगतिया देवा हक्कारेंति तुकारेंति थक्कारेंति पुकारेति णामाई सार्वेति,अप्पेगतिया देवा उप्पतंति अप्पे गतिया देवा शिवयंति अप्पेगतिया देवा परिवयंति, श्र पेगतिया देवा उपयंति णिवयंति परिवयंति, अप्पेगतिया देवा जलंति, अप्पेगतिया देवा तवंति अप्पेगतिया देवा पतति अप्पेगतिया देवा जलंति तवंति पतवंति, अप्पेग इया देवा गज्जति अप्पेगइया देवा विज्जुयायंति, अप्पेगइया देवा वासंति, अप्पेइगया देवा गज्जंति विज्जुयायति वासंति, प्रगतिया देवा देवसनिवार्य करेंति, अप्पेगतिया देवा देवकलियं करेंति, अप्पेगझ्या देवा देवकहकहं करेंति अप्पेगा देवा दुदुहं करेंति, अप्पेगतिया देवा देवसनिवायं देवकलियं देवकहकहं देवदुहदुहं करेंति, अप्पेगतिया देवा देयं करेंति,अप्पेगतिया देवा विज्जुयारं करेंति, अपेगतिया देवा चलुक्खेवं करेंति, अगतिया देवा देवुओयं विज्जुतारं चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगतिया देवा उप्पलहस्थगता ० जाच सहस्सपत्ता ० घंटाहत्थगता कलसहस्थगता • जाव धूवकडुच्छहत्थगता हट्ठतुट्ठा० जाब हरि सवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणीए सव्वतो समंता अ. धावेंति परिधावेंति ।
प्येकका देवा वर्षे वर्षन्ति श्रप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, श्रप्येकका देवा देवोत्कलिकां कुवन्ति - देवानां वातस्वोत्कलिका देवात्कलिका तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवकह कहं कुर्वन्ति - प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैर्वालः कोलाहलो देवकहकहस्तं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवदुहुहुहुकं कुर्वन्ति-दुडुदुडुकमित्यनुकरणवचनमेतत् श्रप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुवन्ति, श्रप्येकका देवाचलत्क्षेपं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा वन्दन कलश हस्तगताः चन्दनकलशा हस्ते गता येषां ते चन्दनकलशहस्तगताः, अप्येकका देवाः भृङ्गारकलशहस्तगताः, एवमादर्शस्थालपाश्रीसुप्रतिष्ठकवातकरकाचत्ररत्नकरण्डक पुष्पचङ्गेरीयावल्लोमहस्तच मेरी पुष्पपटलकयावल्लो महस्तपटलकसिंहासनचामरतैलसमुद्गकयावदञ्जनसमुद्रकधूपकड च्छुकहस्तगताः प्रत्येकमभिलाप्याः 'हटुमुट्टे' त्यादि यावत्करणत् 'हट्ठतुट्टचित्तमादिया पीतिमरणा परमसोमणस्सिया हरिस्वसविसमा राहियया' इति परिग्रहः, सर्वतः - समन्ताद् श्राधावन्ति प्रधावन्ति ॥
तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अगमहिसीओ सपरिवाराश्र०जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सी अ य बहवे विजयरायहाणीवत्यव्वा वाणमंतर देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपतिद्वारोहिं • जाव असते सोपणियाणं कलसाणं तं चैव० जाव अट्ठएवं भौजाणं कलस गं सव्वोदगेहिं सव्वमट्टि -
श्रप्येककाञ्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति तद्यथा-दान्तिक प्रतिश्रुतिक सामान्यतो विनिपातिकं लोकमध्यायसानिकमिति, पतेऽभिनयविधयो नाट्यकुशलेभ्यो वैदित- ।
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लवणममुद्द
( ६३२ ) श्रभिधान राजेन्द्रः । याहिं सव्वतुवरेहिं सव्त्रपुप्फेहिं० जाव सव्वोसहिसि - द्वत्थrहिं सव्विड्डी ० जाव निग्घोसनाइयरवेणं महया महया इंदाभिसे अभिसिंति अभिसिचंतित्ता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलि कट्टु एवं वयासी- जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जय जय नंद भदं ते अजियं जिणेहि जियं पालेहि, अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं जितं पालेहि मित्तपत्रं, जियमज्भे बसाहि तं देव ! निरुवसग्मं इंदो इव देवा, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, भरहो इव मणुयाणं, बहूणि पलिश्रवमाई बहूणि सागरोवमाणि, चउरहं सामाणियसाहस्सीणं ० जाव यरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्स देवस्स विजयाए रायहाणीए अम्मेसिं च बहूणं विजयरायहाणिवस्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाणं देवीण य आहेवचं० जाव भाणाईसर - सेणावश्चं कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्टु महता महता सद्दे जय जय सद्दं पुरंजंति । ( सू० १४१ )
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तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीश्रो ' इत्याद्यभिषेकनिगमनसूत्रमाशीर्वादसूत्रं च पाठसिद्धम् । (१६) लवणसमुद्रस्थिताया विजयराजधान्या अधिपतेविजयदेवस्य निष्क्रमणादि प्रतिपादयन्नाह
तए णं से विजये देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाश्रो अव सीहासणाश्रो अन्भुट्ठेत्ता अभिसेयसभा तो पुरत्थिमेणं दारेणं पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणामेव आलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता आलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे श्रणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरत्थिमेणं दारेणं अ
पविसति पुरत्थिमेणं दारेण श्रणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सीहासावरगते पुरस्थाभिमु सम्मिसले, तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववष्मगा देवा श्रभिभोगिए देवै सदावेंति सहावेंतिना एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया ! विजयस्स देवस्स आलंकारियं भंडं उवणेह, तेणेव ते श्रालंकारियं भंड० जाव उबट्ठर्वेति ।
'तर ण' मित्यादि, ततः स विजयो देवो वानमन्तरैः 'महया महया' इति प्रतिशयेन महतौ इन्द्राभिषेकेणाभिषिक्तः सन् सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाभिषेकसभातः पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य यत्रैवालङ्कारिकसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालङ्कारिक सभामनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनघरगतः पूर्वाभिमुखः संनिषक्षः, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्या देवा सुबहु आलङ्कारिकम् - छालङ्कारयोग्यं भाण्डमुपनयन्ति ।
तर से विजय देवे तप्पटयाए पम्हलसुमालाए दिव्वाए सुरभीए गंधकासाईए गाताई लुहेति गाताई
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मुद्द
लूहेत्ता सरसेणं गोसीस चंदणेणं गाताई अणुलिंपति स रसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपेत्ता ततोऽयंतरंचणं नासाणीसासवायवज्यं चक्खुहरं वरणफरिसजुतं हतलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंत कम्मं श्रा - गासफलिहसरिसप्पभं अहतं दिव्वं देवदूतजुयलं खियंसेह गियंसेत्ता हारं पिगिद्धेइ हारं पिगिद्धेत्ता एवं एकावलिंपिरिंगंधति एकावलिं पिणिघेत्ता एवं एतेणं अभिलावेणं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलि कडगाई तुडियाई अंगयाई केयूराई दसमुद्दिताणंतकं कडिमुत्तकं तेअत्थिमुत्तगं मुरविं कंठमुरविं पालंबंसि कुंडलाई चूडामणि चित्तरयणुकडं मउडं पिधे पिसिंघेत्ता गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउब्विणं मल्लेशं कप्परुक्खयं पित्र अप्पा अलंकियविभूसितं करेति, कप्परुक्खयं पित्र - प्पा अलंकियविभूसियं करेत्ता दद्दरमलयसुगंधगंधितेहि गंधेहिं गाताई कति सुविदत्ता दिव्वं च सुमणदामं पद्धिति । तए गं से विजय देवे कोसालंकारेणं वत्थालंकारें मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउब्विहेणं अलंकारेण अलंकिते विभूसिए समाणे पडिपुमालंकारे सीहासणाओ अब्भुट्ठे अन्भुट्टित्ता आलंकारियसभाओ पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमति पडिनिक्खमहत्ता जेखेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता ववसायसभं अणुप्पयाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सीहासावरगते पुरत्थाभिमुहे सणसणे । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिश्रीगिया देवा पोत्थयरयणं उवर्णेति ।
' तर ण 'मित्यादि, ततः स विजयो देवस्तत्प्रथमतया तस्यामलङ्कारसभायां प्रथमतया पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पश्मलसुकुमारा तथा सुरभिगन्धकाषायिक्या-सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकमितया लघुशाटिकयेति गम्यते गात्राणि रुक्षयति रुक्षयित्वा सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यलिम्पति अतुलिप्य देवदृष्ययुगलं निधत इति योगः, कथम्भूतः ? इत्याह-' मासानीसासवायवज्भं ' नासिका निःश्वासवात बाह्यम् एतेन श्लक्ष्णतामाह, चचुईरम्चक्षुर्हरति - श्रात्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलितत्वाच्चक्षुर्हरं वर्णस्पर्शयुक्तम् - प्रतिशायिना वर्णेनः तिशायिना स्पर्शेन युक्तम् ' हयलालापेलवाइरेग' मिति हयलाला- अश्वलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण हयलालापेलवातिरेकं " नाम नाम्नैकार्थे समासो बहुल मिति समासः, अतिविशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, धवलं श्वेतं कनकखचितानि विच्छुरितानि श्रन्तकर्म्माअञ्चलयोर्वानलक्षणानि यस्य तत् कनकस्वचितान्तक श्राकाशस्फटिकं नाम - प्रतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तत्सम - प्रभं दिव्यं देव दृष्य युगलं देववस्त्रयुग्मं निवस्ते परिधस, परि
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लवणसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह धाय हारादीन्याभरणानि पिनाति,तत्र हार:-अष्टादशसरि विशिष्टार्थावगमरूपेण वाचयति वाचयित्वा धार्मिकम्कः अर्धहारो-नवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका मुक्ताव | धर्मानुगतं व्यवसायं व्यवस्यति-कर्नुमभिलषतीति भावः, ली-मुक्ताफलमयी कनकावली-कनकमणिमयी प्रालम्बः तप- व्यवसायसभायाः शुभाध्यवसायनिबन्धनत्वात् , क्षेत्रादेरपि नीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र श्रात्मनः प्रमाणेन स्वप्र- कर्मक्षयोपशमादिहेतुत्वात् , उक्तश्च-" उदयक्खयखोवसमाण आभरणविशेषः कटकानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटि- मो-वसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं, भवं च तानि-बाहुरक्षकाः अङ्गदानि-बाहामरणविशेषाः दश- भावं च संपप्प ॥१॥" इति, धार्मिकं च व्यवसायं व्यवः मुद्रिकाऽनन्तकम्-हस्ताङ्गुलिसम्बधि मुद्रिकादशकम् कु- सायपुस्तकरत्नं प्रतिनिक्षिपत्ति प्रतिनिक्षिप्य सिंहासनादएडले-कर्णाभरणे चूडामणिमिति--चूडामणि म सक
भ्युत्तिष्ठति,अभ्युत्थाय व्यवसायसभातः पूर्वद्वारेण विनिर्ग-- लपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्ध्वकृतनिवासो निः
च्छति विनिर्गत्य यत्रैव व्यवसायसभाया पव पूर्वा नन्दाघुशेषापमङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणो
करिणी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य नन्दां पुष्करिणीमनुप्रदपेतः परममङ्गलभूत अाभरणविशेषः 'चित्तरयणसंकर्ड म
क्षिणीकुर्वन् पूर्वतोरणेनानुप्रविशति प्रविश्य पूर्वेण त्रिसोपा-- उड' मिति चित्राणि--नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तैः
नप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यकसङ्कटः चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरत्ननिचयोपेत इति भावः ।
रुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति प्रक्षाल्यकं महान्तं श्वेतं रजत'तं दिव्वं सुमणदामं ति' दिव्याम्-प्रधानां पुष्पमालाम् ,
मयं विमलसलिलपूर्ण मत्तकरिमहामुखाकृतिसमानं भृङ्गार 'तए णं से विजए' इत्यादि, प्रन्थिम-प्रन्थनं प्रन्थस्ते
गृह्णाति गृहीत्वा यानि तत्रोत्पलानि-पमानि कुमुदानि-नालन निर्वृत्तं प्रन्थिमं 'भावादिमः प्रत्ययः' यत् सूत्रादिना
नानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृह्णाति गृहीत्या प्रध्यते तद् प्रन्थिममिति भावः, भरिम-यद् प्रन्थितं सद
नन्दातः पुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति प्रत्युत्तीर्य यत्रैव सिद्धायवेष्टयते यथा पुष्पलम्बूसको गण्डूक इत्यर्थः, परिमं येन
तनं तत्रैव प्रधावितवान् गमनाय ॥ वंशशलाकादिमयमञ्जरी पूर्यते , सातिमं यत्परस्परतो नालसखातेन संघात्यते , एवंविधेन चतुर्विधेन माल्येन
तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियकल्पवृक्षमिवात्मानमलङ्कतविभूषितं करोति कृत्वा परिपूर्णा- साहस्सीओ ० जाव अएणे य बहवे वाणमंतरा देवा य लङ्कारः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायारकारलभातः| देवीश्रो य अप्पेगइया उप्पलहत्थगया. जाव हत्थगया पूर्वेण द्वारेण निर्गत्य यत्रैव व्यवसायसमा तत्रैवोपागच्छति | विजयं देवं पितो पितो अणुगच्छंति ॥ तए णं त. उपागत्य सिंहासनबरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निपाणः । 'तए ण'
स्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिप्रोगिया देवा य देवीमित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्याः पुस्तकर
ओ य कलसहत्थगता. जाव धूवकडुच्छयहत्थगता विनमुपनयन्ति ॥
जयं देवं पिट्ठतो पिट्ठतो अणुगच्छंति, तते णं से विजए तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेहति गरिहत्ता
देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं० जाव अण्णेहि य पोत्थयरयणं मुयति पोत्थयरयणं मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेति पोत्थयरयणं विहाडेता पोत्थयरयणं वाएति
वहहिं वाणमंतरहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिवुडे पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं पगेएहति धम्मियं
सव्विड्डीए सव्वजुत्तीए • जाव बिग्घोसणाइयरवेणं जेणेववसायं पगेण्डित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खवेइ पडिणि
व सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सिद्धा-- खवेत्ता सीहासणाओ अब्भुट्ठति अब्भुटेत्ता ववसायस
यतणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्पयाहिणीकरेमाणे
पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेभाओ पुरथिमिलेणं दारेणं पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति उवाग
व देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता आलोए
जिणपडिमाणं पणामं करेति पणामं करेता लोमहत्थगं च्छित्ता णदं पुक्खरिणिं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरत्थिमिल्लेदारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता पुरथिमिल्लेणं
गेण्हति लोमहत्थर्ग गेएिहत्ता जिणपडिमाओ लोमहत्यतिसोपाणपडिरूवगएणं पञ्चोरुहति पच्चोरुहइत्ता हत्थं पादं
एणं पमञ्जति पमजित्ता सुरभिणा गंधोदएणं एहा(वे)णे
ति एहा[वे ]णेत्ता दिध्याए सुरभिगंधकासाइए गाताईलूपक्खालेति पक्खालेता एगं महं सेतं रयतामयं विमलसलिलपुस्मं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं पगेण्हति प
हेति लूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणु
लिंपइ अणुलिपेत्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेताई दिगेणिहत्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाईजाव सतसहस्सपत्ता इंताई गिएइति गिरिहत्ताणंदातो पुक्खरिणीतो पच्चुत्तरेइ
व्वाई देवदूसजुयलाई णियंसेइ नियंसेत्ता अग्गेहिं वरे
हि य गंधेहि य मल्लेहि य अञ्चेति अच्चेसा पुप्फारुहवं पच्चुत्तरेता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
गंधारुहणं मल्लारुहणं वहमारुहणं चस्मारुहणं आभरणा'नए ण' मित्यादि, ततः स विजयो देवः पुस्तकरत्नं गृह्णाति गृहीत्वा पुस्तकरत्नमुत्सङ्गादाविति गम्यते मुश्चति मुक्त्वा |
रुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविउलवट्ठवग्धारितमविधारयति विघाट्यानुवाच यति अनु-परिपाट्या प्रकर्षण- | लदाम करेति करेत्ता अच्छेहिं सएहेहिं (सेएहिं )र
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(६३४) लवणसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द ययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरतो अट्ट कयग्गाहग्गहितकरतलपब्भट्ठविप्पमुक्केणं दसद्धवमेणं कुमंगलए प्रालिहति सेत्थियसिरिवच्छ० जाव दप्पण
सुमेणं मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलितं करेति करेत्ता चंदप्पभट्ठ मंगलगे पालिहति आलिहिता ॥
भवइरवेरुलियविमलदंडं कंचरणमणिरयणभत्तिचित्तं का'तपण' मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य चत्वारि
लागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवट्टि विसामानिकदेवसहस्राणि, चतस्रः सपरिवारा अनमहिष्यः,
हिम्मुयंतं वेरुलियामर्य कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेण तिनः पर्षदः, सप्तानीकानि, सप्तानीकाधिपतयः, षोडशात्म- धूवं दाऊण जिणवराणं अदुसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावितेहिं रक्षदेवसहस्राणि अन्ये च बहवो विजयराजधानीवास्तव्या अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संयुणइ संथुणइत्ता सत्तट्ठ पयाई वानमन्तरा देवाश्च देव्यश्च प्राप्येकका उत्पलहस्तगता, अप्येककाः पमहस्तगता, अप्येककाः कुमुदहस्तगताः, एवं
प्रोसरति सत्तट्ट पयाई ओसरिता वामं जाणं अंचे नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रेसहस्र
अंचेइत्ता दाहिणं जाणु घरखितलंसि णिवाडेइ तिक्खुपत्रशतसहस्रपत्रहस्तगताः क्रमेण प्रत्येकं वाच्याः, विजय तो मुद्धाणं घरणियलंसि समेइ नमित्ता ईसिं पच्चुदेवं पृष्ठतः पृष्ठतः परिपाट्येति भावः अनुगच्छन्ति ।
एणमति पच्चुएणमतित्ता कडयतुडियथंभियाो भुया'तए ण' मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य बहवा
ओ पडिसाहरति पडिसाहरतित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसाभियोग्या देवा देव्यश्च अप्येकका वन्दनकलशहस्तगताः, श्रप्येकका भृङ्गारहस्तगताः, अप्येकका आदर्शहस्तगताः, एवं
वत्तं मत्थए अंजलि कडु एवं वयासीस्थालपानीसुप्रतिष्ठवातकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्पचक्रेरी
_ 'कयग्गाहगहिय' मित्यादि मैथुनप्रथमसरम्भे मुखचुम्बयावल्लोमहस्तचक्रेरीपुष्पपटलकयावल्लोमहस्तपटलकसिं
नाद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहण कचग्राह-- हासनच्छत्रचामरतैलसमुद्रकयावदञ्जनसमुद्रकधूपकडुच्छुक
स्तेन कचप्राहेण गृहीतं करतलाद्विमुक्तं सत् प्रभ्रष्ट हस्तगताः क्रमेण प्रत्येकमालाप्याः, विजयं देवं पृष्ठतः पृष्ठ- करतलप्रभ्रष्टविमुक्तम् , प्राकृतत्वादेवं पदव्यत्ययः, तेन दतोऽनुगच्छन्ति । ततः स विजयो देवश्चतुर्भिः सामानिकस- शार्द्धवर्णेन-पञ्चवर्णेन कुसुमेन–कुसुमसमूहेन पुष्पपुखोहस्रधसृभिः सपरिवाराभिरप्रमहिषीभिस्तिसृभिः पर्षद्भिः, पचारकलितम्-पुष्पपुर एवोपचारः-पूजा पुष्पपुखोपसप्तभिरनीकैः, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, षोडशभिरात्मरक्ष.
चारस्तेन कलित-युनं करोति, कृत्वा च ' चंदप्पभवादेवसहस्ररन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैवानमन्तरैर्दे: रवेरुलियविमलदंड' चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्यमयो विमलो दवैर्देवीभिश्च साई संपरिवृतः सर्वद्धर्या 'जाव निग्घोसनादि
एडो यस्य स तथा तं, काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कातरवेण' मिति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः
लागुरुप्रवरकुन्दुरुरुकतुरुष्कधूपेन गन्धोत्तमेनानुविद्धा का'सव्वजुए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वविभूईए सव्यसं
लागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपगन्धोत्तमानुविद्धा, प्राकृतत्वा
त्पदव्यत्ययः, तां धूपवर्ति विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकाभमेणं सव्वपुष्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडियसहनिनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं म.
कछुकं प्रगृह्य प्रयतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे षहया वरतुडियजमगसमगपदुप्पवाइयरवेणं संखपणवपडहमे
ठी प्राकृतत्वात् , सप्ताष्टौ पदानि पश्चादण्सृत्य दशा
अलिमञ्जलि मस्तके कृत्वा प्रयतः 'अट्ठसयविसुद्धगंठजुरिझल्लरिखरमुहिहुकुक्कदुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं'अस्य व्या
तेहि' इति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भास्या प्राग्वत् । यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य
वः, यो ग्रन्थः-शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि विशुद्धग्रन्थयुसिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रवि
कानि अष्टशतं च तानि विशुद्धप्रन्थयुक्तानि च तैः अश्यालोक्य जिनप्रतिमानां प्रणामं करोति,कृत्वा यत्रैव मणि
र्थयुक्तः-अर्थसारैः अपुनरुक्तः महावृत्तः, तथाविधदेवलपीठिका यत्रैव देवच्छन्दको यत्रैव जिनप्रतिमास्तत्रोपागच्छति, उपागस्य लोमहस्तकं परामृशति,परामृश्य च जिनप्रति
ब्धेः प्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वामं जानुम् अ
ञ्चति-उत्पाटयति दक्षिणं जानुं धरणितले निवाडेह, माःप्रमार्जयति,प्रमायं दिव्ययोदकधारया स्नपयति, स्नप
इति निपातयति लगयतीत्यर्थः, त्रिः कृत्वा-श्रीन वारान् यित्वा सरसेनादेण गोशीर्षचन्द्रनेन गात्राएयनुलिम्पति,
मूर्धानं धरणितले 'नमेइ सि नमयति नमयित्वा चेषअनुलिप्य अहतानि-अपरिमलितानि दिव्यानि देवदूष्ययु
स्प्रत्युन्नमयति , ईषत्प्रत्युन्नम्य कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजी गलानि 'नियंसह' ति परिधापयति परिधाप्य अप्रैः
संहरति-सङ्कोचयति, संहृत्य करतलपरिगृहीतं शिरस्याअपरिभुक्तः वरैः-प्रधानैर्गन्धैर्माल्यैश्चार्चयति । एतदेव सवि
वर्त, मस्तकेऽञ्जलि कृत्वैवमवादीत्स्तरमुपदर्शयति-पुरुषारोपणं माल्यारोपणं वर्णकारोपणं
णमोऽऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं० जाव सिद्धिगचारोपणं गन्धारोपणम् आभरणारोपणं (च) करोति, कृत्वा तासां जिनप्रतिमानां पुरतः अच्छैः-स्वच्छः इणामधेयं ठाणं संपत्ताणं । श्लचणैः-मसृणैः रजतमयैः, अच्छो रसो येषां तेऽच्छरसाः, 'नमोऽत्थुण'मित्यादि, नमोऽस्तु णमिति वाक्यालङ्कारे देप्रत्यासमवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इति वादिभ्योऽतिशयपूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, सूत्रे षष्ठी "छट्टि भावः , ते च ते तन्दुलाश्चाच्छरसतन्दुलाः, पूर्वपदस्य | विभत्तीएँ भन्नइच उत्थी" इति प्राकृतलक्षणात् , ते चाहन्तो दीर्धान्तता प्राकृतत्वात् , यथा-' बहरामया नेमा , इत्यादौ, नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावाहत्प्रतिपत्यर्थमाह-भरणवष्टौ स्वस्तिकादीनि मालकान्यालिसति, आलिख्य | गवद्भ्यः-अगः-समप्रैश्वर्यादिलक्षणः स एषामस्तीति भ
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द गवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तकरणशी-1 भ्यो जापकेभ्यः, तथा भवार्णवं स्वयं तीणी अन्यांश्च तारयला श्रादिकरास्तेभ्यः, तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ न्तीति तीर्णास्तोरकास्तेभ्यः, तथा केवलवेदेन अवगततत्त्वा तत्करणशीलास्तीर्थकरास्तेभ्यः, स्वयम्-अपरोपदेशेन स- बुद्धा अन्यांश्च बोधयन्तीति बोधकास्तेभ्यः, मुक्ताः कृतकृत्या म्यग्वरबोधिप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्व- निष्ठितार्था इति भावः,अन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः, यं संबुद्धास्तेभ्यः, तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः, भग- सर्वशेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः शिवं-सर्वोपद्रवरहितत्वात् ,अचलम्वन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपस- स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाव्यपोहात् , अरुजम्-शरीरजैनीकृतस्वार्था उचितक्रियावन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापत- मनसोरभावेनाऽऽधिव्याध्यसम्भवात् अनन्त-केवलात्मना योऽनुपहतचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमा ऽनन्तत्वात्, अक्षयम्-विनाशकारणाभावात् , अन्याबाधमस्तेभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान् प्रति पुरुष- केनापि बिबाधयितुमशक्यत्वात्, न पुनरावृत्तिर्यस्मात्तदपुरसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषा वरपुण्डरीकाणीव संसारजला- रावृत्ति, सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भकत्यस्यामिति सिद्धिःसङ्गादिना धर्मकलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वाद् गतिः सिद्धिगतिः। नथा पुरुण वरगन्धहस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृति- सिद्धिगतिरिति नामधेयं यस्य तत्सिद्धिगतिनामधेयम् , दि. खुद्रगजनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः, तथा ठत्यस्मिन्निति स्थान-व्यवहारतः सिद्धक्षेत्रं निश्चयतो यथालाको-भव्यसत्त्वलोकस्तस्य सकलकल्याणैकनिबन्धनतया ऽवस्थितं स्वं स्वरूपं, स्थानस्थानिनोरभेदोपचारानु सिद्धिभव्यत्वभावेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-भ- गतिनामधेयं तत्संप्राप्तेभ्यः।। व्यलोकस्य नाथा-योगक्षेमकृतो लोकनाथास्तेभ्यः, तत्र ति कटु वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव सिद्धःयोगो-बीजाधानोद्भेदपोषणकरण क्षमतदुपद्रवाद्यभावा- यतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छति उवाग-. पादनम् , तथा लोकस्य-प्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायात्मक
च्छित्ता दिव्याए उदगधाराए अभुक्खति अन्मुक्खित्ता स्य वा हितोपदेशेन सम्यक् प्ररूपणया वा हिता लोकहितास्तेभ्यः, तथा लोकस्य देशनायोग्यस्य विशिष्टस्य प्रदीपा
सरसणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहति देशनांशुभिर्यथाऽवस्थितवस्तुप्रकाशका लोकप्रदीपास्तेभ्यः, आलिहित्ता बच्चए दलयति वच्चए दलयित्ता कयतथा लोकस्य-उत्कृष्टमते व्यसत्त्वलोकस्य गोता प्रद्यो
ग्गाहग्गहियकरतलपब्भट्ठविमुक्केणं दसद्धवएणणं कुसुमेश्य तः प्रद्योतकत्व-विशिष्टज्ञानशक्तिस्तत्करणशीला लोकप्रद्योतकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादात् तत्क्षणमेव
मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं करेति करेत्ता धूवं दलराति भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसम्पत्समन्विता यद्वशाद् दलयतित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिले दारे मेंद्वादशाङ्गमारचयन्तीति तेभ्यः, तथा अभयं--विशिष्टमात्म णव उवागच्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेण्हइ मे. नः स्वास्थ्यं निःश्रेयसधर्मभूमिकानिवन्धनभूता परमा धृ।
रिहत्ता दारचेडीओ य सालिभंजियामो य बालरूबर तिरिति भावः, तद् अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च | कप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतलक्षणवशातू , एवमन्यत्रापि,
य लोमहत्थएणं पमजति पमजित्ता बहुमज्झदेसभाट तथा चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट प्रात्मधर्मस्तत्त्वावबोधनिब-। सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपनि न्धनं श्रद्धास्वभावः श्रद्धाविहीनस्याचक्षुष्मत इव तत्त्वदर्श
अणुलिंपित्ता चच्चए दलयति दलयित्ता पुप्फारुहवं नायोगात् , तद्ददतीति चक्षुर्दास्तभ्यः, तथा मागों विशिष्ट
जाव आहरणारुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविपुल गुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददतीति मार्गदास्तेभ्यः तथा शरण-संसारकान्तारगता
जाव मल्लदामकलावं करेति करेत्ता कयग्गाहग्गहिता नामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वसनस्थानकल्पं तत्त्व- जाव पुंजोवयारकलितं करेति करेता धूवं दलयति दलचिन्तारूपमध्यवसानं तद्ददतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बो
यित्ता जेणेव मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उधिः-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तां तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दशनरूपां ददतीति बोधिदास्तभ्यः,तथा धर्म-चारित्ररूपं दद
वागच्छति उवागच्छित्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्थेएं तीति दास्तेभ्यः, कथं धर्मदाः? इत्याह-धर्म दिशन्तीति पमजति पमअित्ता दिव्वाए उदगधाराए भन्मुक्खेति धर्मदेशकास्तेभ्यः,तथा धर्मस्य नायकाः-स्वामिनस्तद्वशी | अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंकरणातत्फलपरिभोगाच्च धर्मनायकास्तेभ्यः,धर्मस्य सारथ- डलगं आलिहति आलिहित्ता चच्चए दलयति दलयिता य इव सम्यकप्रवननयोगेन धर्मसारथयस्तेभ्यः,तथा धर्ममेव वरं प्रधानं चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्त,चतुरन्तं चक्रमिव चतुर
कयग्गाह० जाव धूवं दलयति दलयित्ता जेणेव मुहमंन्तचक्रं तेन वर्तितुं शीलं येषां ते धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ति
डवगस्स पचत्थिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्सा नस्तेभ्यः, तथा अप्रतिहते-अप्रतिस्खलिते क्षायिकत्वाद् घरे लोमहत्थगं गएहति गणिहत्ता दारचेडीअो य सालिभंजिप्रधाने शानदर्शने धरन्तीति अप्रतिहतवरमानदर्शनधरास्ते
याओ य वालरूवए य लोमहत्थगेण पमजति पमज्जिका भ्यः, तथा छादयति-आवरयतीति छद्म-घातिकर्मचतु
दिवाए उदगधाराए अब्भुक्खेति अन्भुक्खित्ता सरसहं एयं व्यावृत्तम-अपगतं छद्म येभ्यस्ते व्यावृत्तछमानस्तेभ्यः,तथा रागद्वेष कषायेन्द्रियपरिषहोपसर्गंधातिकर्मशन | गोसीसचंदणेणं. जाव चच्चए दलयति दलयित्ना प्राजितवन्तो जिना अन्यान् जापयल्तीति जापकास्तेभ्यो जिने । सत्तासत्त० कयग्गह. पूवे दलयति दलयित्ता जेणे
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( ६३६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लवण समुद्द मुहमंडवस्स उत्तरिल्ला गं खंभपंती तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परा० सालभंजियाओ दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फारुहणं० जाव असतोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयति जैव मंडवस पुरथिमिल्ले दारे तं चैव सव्वं भाणियव्वं० जाव दारस्स चणिया, जेणेव दाहि शिल्ले दारे तं चैव जेणेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुमभदेसभाए जेणेव क्रामए अक्वाडए जेणेव मणिपेदिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गिरहति लोमहत्थगं गिरिहत्ता अक्खाडगं च सीहासणं च लोमहत्थगेण पमञ्जति पमजित्ता दिब्वाए उदगधाराए अन्भु० पुप्फारुहणं० जाव ध्रुवं दलयति जेणेव पेच्छाघर मंडवपच्चत्थिमिल्ले दारे दारचणिया उत्तरिल्ला खंभयंती तहेव पुरत्थिमिल्ले दारे तहेव जेणेव दाहिणिले दारे तव जेणेव चेतियधूभे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेएहति गेरिहत्ता चेतिधूलोमहत्थ पमञ्जति पमञ्जित्ता दिव्वाए उदगधारा सरसेग० पुष्कारहणं आसतोसत० जाव धूवं दलयति दलयित्ता जेणेव पच्चत्थिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाए लौए पणामं करेइ करेला लोमहत्थगं गेरहति गेरिहत्ता तं चैव सव्वं जं जिणपडिमाणं० जाव सिद्धिगइनामधेजंठाणं संपत्ता वंदति णमंसति, एवं उत्तरिल्लाए वि, एवं पुरथिमिलाए वि एवं दाहिणिल्लाए वि ।
एवं प्रणिपातदण्डकं पठित्वा 'वंदर नमसर' इति वन्दते ताः प्रतिमाचैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति-पस्वात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, श्रन्ये त्वभिदधति-विरतिमतामेव प्रत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे कायोत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते सामान्येन, नमस्करोत्याशय वृद्धेरुत्थानममस्कारेणेति तत्त्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति ततो वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव सिद्धायतनस्य
बहुमध्यदेशभागस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य बहुमध्यदेशभागं frorriesधारया अभ्युक्षति - श्रभिमुखं सिञ्चति, अभ्युदय सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति, दस्या कचग्राहगृहीतेन करतलप्रभ्रष्टविमुक्तेन दशार्द्धवर्शन कुसुमेन - कुसुमज्ञातेन पुष्पपुञ्जपचारकलितं करोति कृत्वा धूपं ददाति दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोप्रागsafa, उपागत्य लोमहस्तकं गृह्णाति गृहीत्वा तेन द्वारशा खाशालभञ्जिकाव्याल रूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्चा पुष्पगारोपणं धूपदानं करोति, ततो दक्षिणद्वारेण निर्गत्य यत्रैव दाक्षि णात्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति परामृश्य बहुमध्यदे शभागं लोमस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमृज्य दिव्ययादकधा
For Private
लवण समुद्द रयाऽभ्युक्षणं सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं मण्डलमालिखति, कचग्राहगृहीतेन करतलप्रभ्रष्टविमुक्तेन द शार्द्धवर्णेन कुसुमेन पुष्पपुञ्जपचारकलितं करोति, कृत्या धूपं ददाति दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पश्चिमं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तपरामर्शन तेन च लोमहस्तकेन द्वारशाखा शालभञ्जिकाव्याल रूपकप्रमार्जनम्, उदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचच पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य, पूर्ववद् द्वाराचैनिकां करोति, कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वव तत्राप्यर्वनिकां करोति, कृत्वा च दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्र पूजां विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्यः प्रेक्षागृहमण्डपो यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृह मण्डपस्य बहुमध्यदेशभागो यत्रैव वज्रमोक्षपाटको यत्रैव च मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्याक्षपाटकं मणिपीठिकां सिंहासनं च प्रमार्जयति, प्रमायदकधारयाऽभ्युच्य चन्दनचर्चा पुष्पपूजां धूपदानं च करोति कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृह मण्डपस्योतरद्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववद् द्वारार्चनिकां क रोति, कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य पूर्वेद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वद्वारार्वनिकां करोति, कृत्या यत्रैव तस्य दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रार्चनिकां कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्य श्चैत्य स्तम्भस्तत्रोपागच्छति उपागत्य स्तूपं मपिटिकां च लोमहस्तकेन प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षति सरसगोशीर्षचन्दनचच पुष्पाद्यारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च यत्रैव पाश्चात्या मणिपीठिका यत्रैव च पाश्चात्या जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य जिनप्रतिमाया लोके प्रणामं करोतीत्यादि पूर्ववद् यावन्नमस्थित्वा यत्रैवोत्तरा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रापि यावनमस्त्विा यचैव पूर्वा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति उपागत्य पूर्ववद् याघनमस्यित्वा यत्रैव दाक्षिणात्या जिनतिमा पूर्ववत् सर्वे तदेव यावन्नमस्यित्वा । जेणेव इयरुक्खा दारविही य मणिपेडिया जेणेव महिंदज्झए दारविही, जेणेव दाहिणिल्ला नंदा पुक्ख-रिणी तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेगृहति चेतियाओ य तिसोपाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओ य बालरूपए य लोमहत्थरण पमजति पमजिता दिव्वाए उदगधाराए सिंचति सरसेगं गोसीसचंदणं अलिंपति अणुलिंपित्ता पुप्फारुहणं ० जाव धृवं दलयति दलयित्ता सिद्धायतणं श्र -
प्पयाहि करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला गंदापुक्खरिणीतेणेव उवागच्छति उवागच्छिता तहेत्र महिंदज्या चेतियरुक्खो चेतियधूभे पश्चत्थिमिल्ला मणिपेडिया - थपडिमा उत्तरिल्ला पुरन्धिमिल्ला परिवणिला पेच्छा
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लवणममुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह घरमंडवस्स वि तहेव जहा दक्खिणिलस्स पञ्चत्थि-| गंधेहि य मल्लेहि य अच्चिणति अञ्चिणित्ता (ममिल्ने दारे जाव दक्खिणिला गं खभपंती महमंडव- लेहि ) सीहासणे लोमहत्थएणं पमअति जाव पूर्व स्स वि तिराहं दाराणं अच्चणिया भणिऊण दक्खि
दलयति सेसं तं चेव णंदाए जहा हरयस्स तहा णिल्ला णं खंभपंती उत्तरे दारे पुरथिमे दारे सेसं
जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तेणेव कमेण जाव पुरथिमिल्ला गंदापुक्खरिणी जे
आभिनोगे देवे सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासीणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्थगमणाए ॥ त--
यत्रैव दाक्षिणात्यश्चैत्यवृक्षस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वते णं तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ
वदर्च निकां करोति, कृत्वा च यत्रैव महेन्द्रध्वजस्तत्रोपाग
च्छति, उपागत्य पूर्ववदर्चनिकां विधाय यत्रैव दाक्षिणात्या एयप्पभिति जाव सविडीए .जाव णाइयरवेणं जे
नन्दापुष्करिणी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य लोमहस्तकं णेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता परामृशति परामृश्य तोरणानि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि शातं णं समं सुधम्म अणुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्प
लभञ्जिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमाद्यं दिव्ययोयाहिणीकरेमाणे पुरस्थिमिल्लेणं अणुपविसति अणुपवि- |
दकधारया सिञ्चति, सिक्त्वा सरसगोशीर्षचन्दनपश्चात सित्ता आलोए : जिणसकहाणं पणामं करेति पणामं
लितलप्रदानपुष्पाद्यारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च
सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकृत्य यत्रैबोत्तरा नन्दापुष्करिणी करेत्ता जेणेव मणिपेढिया जेणेव माणवगचेतियक्खंभे स तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत् सर्व करोति, कृत्या जेणेव वइरामया गोलवट्टसमुग्गका तेणेव उवागच्छति चौत्तराहे माहेन्द्रध्वजे तदनन्तरमौत्तराहे चैत्यवृक्षे तत उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेएहति गरिहत्ता वइरामए
औत्तराहे चैत्यस्तूपे, ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिगोलवट्टसमुग्गए लोमहत्थएणं पमजति पमअित्ता बरामए
मासु पूर्ववत्सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या,तदनन्तरमौत्तराहे प्रेक्षा
गृहमण्डपे समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्ये प्रेक्षागृहमण्डपे गोलबट्टसमुग्गए विहाडेति विहाडित्ता जिणसकहाओ लोम
पूर्ववत्सर्वे वक्तव्यम् , तत उत्तरद्वारेण विनिर्गत्यौत्तराहे मुखहत्थएणं पमजति पमजित्ता सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्त- मण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डपबत्सर्वे खुत्तो जिणसकहाओ पक्खालेति पक्खालेत्ता सरसेणं गोसी
कृत्वोत्तरद्वारेण विनिर्गत्य सिद्धायतनस्य पूर्वद्वारे समागसचंदणेणं अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता अग्गेहिं वरेहिं गं-|
च्छति, तत्रार्च निकां पूर्ववत्कृत्या पूर्वस्य मुखमण्डपस्य द
क्षिणोत्तरपूर्वद्वारेषु क्रमेणोक्तरूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारेण धेहिं मल्लेहि य अञ्चिणति अच्चिणइत्ता धूवं दलयति
विनिर्गत्य पूर्वप्रेक्षामण्डपे समागत्य पूर्ववदर्चनिकां करोति, दलयित्ता वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु पडिणिक्खिव- ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजनप्रतिमाचैत्यवृतमाति पडिणिक्खिवित्ता माणवकं चेतियखंभं लोमहत्थएणं हेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां ततः सभायां सुधमायां पूर्वपमज्जति पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए. अब्भुक्खेइ
द्वारेण प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्रैवोपाग
च्छति, उपागत्यालोके जिनसक्थ्नां प्रणामं करोति, कृत्वा अभुक्खेइत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयति
च यत्र माणवकश्चैत्यस्तम्भो यत्र वज्रमया गोलवृत्ताः समुदलयित्ता पुप्फारुहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह| दूकास्तत्रागत्य समुद्कान् गृह्णाति, गृहीत्वा च विघाटयति, धृवं दलयति दलयित्ता जेणेव सभाए सुधम्माए बहु- विघाट्य लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमाोदकधारयाऽ मज्झदेसभाए तं चव जेणेव सीहासणे तेणेव जहा दा
भ्युक्षति, अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, ततः प्रधानरच्चणिता जेणेव देवसयणिज्जे तं चेव जेणेव खुड्डागे
गन्धमाल्यैरर्चयति, अर्चयित्वा धूपं दहति, तदनन्तरं भूयोऽ
पि बज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्गकेषु प्रक्षिपति , प्रक्षिप्य तान् महिंदज्झए तं चेव जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव वज्रमयान् गोलवृत्तसमुद्कान् स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, उवागच्छति उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं पहरणाई लो- प्रतिनिक्षिप्य तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्त्राभरणान्यारोपयति , महत्थएणं पमज्जति पमज्जिता सरसेणं गोसीसचं- ततो लोमहस्तकेन माणवकचैत्यस्तम्भं प्रमार्योदकधारया दणेणं तहेव सव्वं सेसं पि दक्खिणदारं आदि
ऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति,
कृत्वा सिंहासनप्रदेश समागत्य सिंहासनस्य लोमहस्तकेन काउं तहेव णेयव्वं जाव पुरथिमिल्ला णंदापुक्ख
प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा यत्र मणिपीरिणी सव्वाणं सभाणं जहा सुधम्माए सभाए तहा| ठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवअच्चणिया उववायसभाए णवरि देवसयणिज्जस्स अ-| शयनीयस्य च प्राग्वदर्च निकां करोति, तत उक्नप्रकारेणैव च्चणिया सेसासु सीहासणाण अचणिया हरयस्स |
चुल्लकेन्द्रध्वजपूजां करोति, कृत्वा च यत्र चोप्पालको नाम
प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहस्तेन परिघरत्नप्रमुजहा णंदाए पुक्खरिणीए अच्चणिया ववसायसभा
खाणि प्रहरणरत्नानि प्रमार्जयति, प्रमार्योदकधारयाऽभ्युए पोत्थयरयणं लोमहत्थएणं दिव्वाए उदगधाराए| क्षणं चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा स
सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपति अग्गेहिं वरेहिं भायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशमागेऽर्चनिकां पूर्ववत्करोति, १६०
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लवणममुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह कृत्वा सभायाः सुधर्माया दक्षिणद्वारे, समागत्यार्च निकां पक्खालेति पक्खालेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइभृए णंपूर्ववत्करोति , ततो दक्षिणद्वारे विनिर्गच्छति , इत ऊध्वं यथेव सिद्धायतनानिष्क्रामतो दक्षिणद्वारादिका
दापुक्खरिणीओ पच्चुत्तरत्ति पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत उत्तर
सुधम्मा तेणेव पहारेत्थगमणाए । तए णं से विजये नन्दापुष्करिणीप्रभृतिका उत्तरान्ता , ततो द्वितीयं वारं
देवे चउहि सामाणियदेवसाहस्सीहिं० जाव सोलसहि निष्कामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च- आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सब्बिड्डीए०जाव निग्धोसनाइयरनिका वक्तव्या, तथैव सुधर्मायाः सभाया अप्यन्यूनातिरिक्ता। वेणं जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव उवागच्छति उवागच्छिद्रष्टव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अर्चनिकां कृत्वोपपातस
त्ता सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारणं अणुपविसति अणुभां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देव
पविसित्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छति उवागच्छिशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेशभागे प्राग्वदर्चनिका विदधाति ततो दक्षिणद्वारेण समागत्य तस्यार्च निकां कुरुते,
ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे समिसम्मे। [ सू० १४२] अत ऊर्ध्वमंत्रापि सिद्धायतनवक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापु
'खिप्पामेवे' त्यादि सुगम यावत् 'एयमाणत्तियं पञ्चकरिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या। ततः पूर्वनन्दापुष्क
प्पिणंति' नवरं शृङ्गाटकं-त्रिकोणं स्थानं त्रिकम्-यत्र रिणीतोऽपक्रम्य इदे समागत्य पूर्ववत्तोरणाचनिकां करोति,
रथ्यात्रयं मिलति चतुष्कम्-चतुष्पथयुक्तं चत्वरम्-बहुरकृत्वा पूर्वद्वारेणाभिषेकसभायां प्रविशति, प्रविश्य मणिपी.
थ्यापातस्थानं चतुर्मुखम्-यस्माश्चतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो ठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य
निस्सरन्ति महापथो-राजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः प्राव पूर्ववदर्चनिका क्रमेण करोति, तदनन्तरमत्रापिसिद्धायत
कार:-प्रतीतः अट्टालका:-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः
चरिका-अष्टहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः द्वामवहक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽचेनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसा
राणि-प्रासादादीनां गोपुराणि प्राकारद्वाराणि तोरणानियसभां प्रविशति प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृज्यो
द्वारादिसम्बन्धीनि, आगत्य रमन्तेऽत्र माधवीलतागृहादिषु दकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यैरर्चयि
दम्पत्य इति स श्रारामः, पुष्पादिसद्धक्षसङ्कलमुत्सवादी बत्वा पुष्पाधारोपणं धूपदानं च करोति, तदनन्तरं मणिपीठि
हुजनोपभोग्यमुद्यान, सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्न काननं, न
गरविप्रकृष्टं वनम् ,एकानेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो यनषएडः, कायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेणार्च निकां करोति , तदनन्तग्मत्रापि सिद्धायतनवद्दक्षिणद्वारादिका
एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी । 'तए ण' मित्यादि, पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या, ततः
ततः स विजयो देवो बलिपीठे बलिविसर्जनं करोति, कृत्वा पूर्वनन्दापुष्करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्य
च यत्रैवोत्तरनन्दापुष्करिणी तत्रोपागच्छति, उपागत्योत्तदेशभागे पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वस्यां
रपूर्वा नन्दा पुष्करिणी प्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वतोरणेनानुप्रनन्दापुष्करिण्यां समागत्य तस्यास्तोरणेषु पूर्ववदर्च निका
विशति, अनुप्रविश्य पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरो.
हति, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य नन्दापुष्ककृत्वाऽऽभियोगिकान देवान् शब्दयति , शब्दयित्वा एवम
रिणीतः प्रत्यत्तरति, प्रत्युत्तीर्य चतुर्भिः सामानिकसहस्रयादीत्
श्चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिसृभिः पर्षद्भिः खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयाए रायहाणीए सिं
सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिमिः षोडशभिरात्मरक्षघाडगेसु य तिएसु य चउक्केसु य चञ्चरेसु य चतुम्मुहेसु | देवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैर्वानमन्तरैर्देय महापहपहेसु य पासाएसु य पागारेसु य अट्टालएसु | वैर्देवाभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः सर्वर्या यावद् दुन्दुभिनि?य चरियासु य दारेसु य गोपुरेसु य तोरणेसु य वावीसु य |
षनादितरवेण विजयाया राजधान्या मध्यं मध्येन यत्रैव
सभा सुधर्मा तत्रोपागच्छति, उपागत्य सभां सुधर्मा पूर्वपुक्खरिणीसु य जाव बिलपंतिगासु य आरामेसु य
द्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यौव उजाणेमु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वण- सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूराईसु य अचणियं करेह करेत्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पा-- र्वाभिमुखः सन्निषण्णः। मेव पञ्चप्पिणह । तए णं ते आभिनोगिया देवा विज
| (१७) श्रथ विजयदेवस्य तन्नहिषीणां च निषीदनादि
प्रतिपादयन्नाहएणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा ०जाव हट्टतुट्ठा विणएणं
तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहपडिसणेति पडिसुणेतित्ता विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु सीमो अबरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं पत्तेयं पत्तेयं य जाव अञ्चणियं करेति करेत्ता जेणेव विजए देवे तेणेव |
पुषणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । तए णं तस्स विजउवागच्छन्ति उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति ।।
यस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीनो पुरस्थिमेणं पत्तेयं तए णं से विजए देवेतसि णं आमिश्रोगिाणं देवाणं
पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । तए णं तस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ट चित्तमाणंदिय०जाव विजयस्स देवस्स दाहिणपुरत्थिमेणं अभितरियाए परिहयहियए जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति | साए अट्ठदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तयं. जाव णिसीयंति । उवागच्छित्ता पुरस्थिमिलेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं| एवं दक्षिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाह
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लवपसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह स्सीयो० जाय णिसीदंति । दाहिणपञ्चत्थिमेणं बा- यैस्ते सन्नद्धबद्धवर्मितकवचाः, 'उप्पीलियसरासणपट्टिया' हिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीयो पत्तेयं
इति उत्पीडिता गाढीकृता शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्तेऽस्मि
निति शरासनः-इषुधिः तस्य पट्टिका यैरुत्पीडितशरासनपपत्तेयं० जाब णिसीदंति । तए णं तस्स वि
ट्टिकाः 'पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा' इति पिनद्धं ग्रेवेयं जयस्स देवस्स पचत्थिमेणं सत्त अणीयाहिवती पत्तेय
ग्रीवाभरणं विमलवरचिह्नपट्टश्च यैस्ते पिनवरग्रेवेयविमपत्तेयं ० जाव णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स दे- लवचिहपट्टाः 'गहियाउहप्पहरणा' इति श्रायुध्यतेऽनेनेत्या वस्य पुरथिमेणं दाहिणणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं सोलस युधम्-खेटकादि प्रहरणम्-असिकुन्तादि, गृहीतानि श्रायु: आयरक्वदेवसाहसीओ पत्तेयं पत्तेयं पुब्बणत्थेसु भद्दा
धानि प्रहरणानि च यैस्ते गृहीतायुधप्रहरणाः, त्रिनतानि
आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् , त्रिसन्धीनि-श्रादिमसणेसु गिसीदंति, तं जहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सी
ध्यावसानेषु सन्धिभावात् , वज्रमयकोटीनि धषि अभिओ जाव उत्तरेणं ४॥ ते णं आयरक्खा सन्नद्धबद्ध- गृह्य 'परियाइयकंडकलावा' इति पर्यात्तकाण्डकलापा थियम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्भगेवेञ्जवि- चित्रकाण्डकलापयोगात् , केचित् 'नीलपाणय' इति नीमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधीणि लः काण्डकलाप इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणबहरामया कोडीणि धरणहं अहिगिझपरियाइयकंडकलावा
यः, एवं पीतपाणयः रक्तपाणयः, चापं पाणी येषां ते
चापपाणयः, चारु:-प्रहरणविशेषः पाणी येषां ते चारुणीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो
पाणयः, चर्म-अष्ठाऽङ्गाल्योराच्छादनरूपं पाणी येषां ते चारुपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो चर्मपाणयः, एवं दण्डपाणयः खगपाणयः पाशपाणयः, एतपासपाणिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवर- देव व्याचष्टे-यथायोग नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदण्डपाशधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिता जत्ता जुत्त-|
धरा पात्मरक्षाः, रक्षामुपगच्छन्ति-तदेकचित्ततया तत्पपालिता पत्तेयं पत्तेयं समयतो विणयतो किंकरभूता विव
रायणा वर्तन्त इति रक्षोपगाः गुप्ताः-न स्वामिभेदकारि
णः, तथा गुप्ता-पराप्रवेश्या पालिः-सेतुर्येषां ते गुप्तपालि चिट्ठति ।। विजयस्स णं भंते देवस्स केवतियं कालं ठिती
का, तथा युक्ताः-सेवकगुणोपेततयोचिताः, तथा युक्तापरमत्ता ?, गोयमा! एगं पलिओवमं ठिती परमत्ता, विज- परस्परं बद्धा न तु वृहदन्तराला पालियेषां ते युक्तपालिकाः, यस्स णं भंते । देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवतियं प्रत्येक प्रत्येक समयतः-श्राचारत श्राचारेणेत्यर्थः चिनयतश्च कालं ठिती परमत्ता ?, गोयमा ! एगं पलिअोवमं ठिती |
किङ्करभूता इव तिन्ति, न खलु ते किङ्कराः किन्तु तेऽपि
मान्याः तेषामपि पृथगासननिपातनात् , केवलं ते तदानी पामत्ता, एवं महिड्डीए एवं महाज्जुतीए एवं महब्बले एवं
निजाचार परिपालनतो विनीतत्वेन च तथाभूता व तिष्ठमहायसे एवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे | न्ति तदुक्तं किङ्करभूता इवेति ॥'तए णं से विजए' इत्यादि विजए देवे । (मू०१४३)
सुप्रतीतं यावद्विजयदेववक्तव्यतापरिसमाप्तिः ॥ तदेवमुक्ता ततस्तस्य विजयस्य देवस्यापरोत्तरण-अपरोत्तरस्यां दिशि | विजयद्वारवक्तव्यता ॥ जी०३ प्रति०२ उ०। एवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां दिशि च चत्वारि चत्वारि सा-1 (१८)संप्रति लबणसमुद्रगतवैजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाहमानिकदेवसहस्राणि चतुर्यु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति, कहिणं भंते ! लवणसमुद्दे वेजयन्ते नामं दारे पण्णत्ते ?, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पूर्वस्यां दिशि चतस्रोऽग्रमहि
गोयमा ! लवणसमुद्दे दाहिणपेरंते धातइसंडदीवस्स ग्यश्चतुर्यु भद्रासनेषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरिकायाः पर्षदोऽष्टौ देवसहस्राणि अ
दाहिणद्धस्स उत्तरेणं सेसं तं चेव सव्वं । एवं जयंते घि टासु भद्रासनसंहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देव
णवरि सीयाए महाणदीए उप्पि भाणियब्वे । एवं भम्य दक्षिणस्यां दिशि मध्यमिकायाः पर्षदो दश देवसहस्राणि पराजिते वि, णवरं दिसिभागो भाणियो। दशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयम्य दे- ___ 'कहि ग भंते' इत्यादि, क भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्य वस्य पश्चिमायां दिशि बाह्यायाः पर्षदो द्वादश देवसहस्राणि
वैजयन्तै नाम द्वारं प्राप्तम् , भगवानाह गौतम! लवणद्वादशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति। ततस्तस्य विजय
समुद्रस्य दक्षिणपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपदक्षिणार्द्धस्योत्तभ्य देवस्य पश्चिमायां दिशि सप्तानीकाधिपतयः सप्तसु भ
रतोऽत्र लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशप्तम् । एतददासनेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य सर्वतः सम
वक्तव्यता सर्वाऽपि विजयद्वारबदवसेया, नवरं राजधानी न्तात् सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन षोडश श्रात्मरक्षकदेवसहस्रा- बैंजयन्तद्वारस्य दक्षिणतो वेदितव्या । जयन्तद्वारप्रतिपाणि षोडशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति, तद्यथा-चत्वारि दनार्थमाह--'काहि णं भंते ' इत्यादि, क भदन्त ! लवणसमुसहस्राणि चतुर्यु भद्रासनसहस्रेषु पूर्वस्यां दिशि, एवं दक्षि- द्रस्य जयन्तं द्वारम प्रशप्तम्?,भगवानाह-गौतम ! लवणसमुणस्यां दिशि, एवं प्रत्येकं पश्चिमोत्तरयोरपि । ते चात्मरक्षाः द्रस्य पश्चिमपर्यन्त धातकीखण्डपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीतासन्नद्धबद्धर्मितकवचाः, कवचं-तनुत्राणं वर्म-लोहमय- या महानद्या उपरि लवणस्य समुद्रस्य जयम्तं नाम द्वार कुतूलिकादिरूपं संजातमस्मिन्निति यर्मितं सन्नद्धं शरीरे प्रशनम् , तद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवद् वक्तव्या. नवराज अारोपणात् , बद्धं गाढतरबन्धनेन बन्धनात् , वर्मित कवचं । धानी जयन्तद्वारस्य पश्चिमभागे वक्तव्या । अपराजितद्वा
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द रप्रतिपादनार्थमाह-'कहि णं भंते ' इत्यादि. क भदन्त !| लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसु वा पभासिंति वा पभालवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रशप्तम् ?, भगवानाह-गौतम ! लवणसमुद्रस्योत्तरपर्यन्ते धातकीखण्डद्वी
सिस्संति वा,चत्तारि सरिया तर्विसु वा तर्विति वा तविस्संति पोत्सराद्धस्य दक्षिणतोऽत्र लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम |
वा, वारमुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा द्वारं प्रशप्तम् । एतद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवभिरवशेषा जोएस्संति वा, तिमि बावामा महग्गहसया चारं चरिंसु वनव्या नवरं राजधानी अपराजितद्वारस्योत्तरतोऽव
चरंति वा चरिस्संति वादमि सयसहस्सा सत्तढेि च सहस्सा सातव्या । ( लवणसमुद्रविजयादिद्वाराणां परस्परमम्तरम् 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे ७४ पृष्ठे गतम् ।)
नव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोमं सोभिंसु वा सो(१६) संप्रति लवणसमुद्रनामान्वर्थ पृच्छति
भिंति वा सोभिस्संति वा । (सू १५५) लवणस्स णं भंते ! समुदस्स पएसा धायइसंडं दीवं पुट्ठा, 'लवणे ण भंते ! समुद्दे ' इत्यादि प्रश्नस्त्रं सुगमतहेब जहा जंबूदीचे धायइसंडे वि सो चेव गमो । लवणे णं
म् . भगवानाह-गीतम! चत्वारश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः
प्रभासन्ते प्रभासिष्यन्ते , चत्वारः सूर्यास्तापितयन्तस्ताभंते ! समुद्दे जीवा उदाइत्ता सो चेव विही, एवं धायइसंडे
पयन्ति तापयिष्यन्ति. ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह वि।से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ लवणसमुद्दे लवण- समश्रेण्या प्रतिबद्धा वेदितव्याः, तद्यथा-द्वौ सूर्यों एसमुद्दे ?, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उदगे आविले रइले | कस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिबद्धौ. द्वौ सूलोणे लिंदे खारए कडुए अपेजे बहूणं दुपयचउप्पय
यौं द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तथा द्वौ चन्द्रमियपसुपक्खिसिरीसवाणं नमत्थ, तोणियाणं सत्ताणं
मसावेकस्य जम्बूद्वीपगतस्य चन्द्रस्य समश्रेण्या प्रतिब
द्धौ, द्वौ द्वितीयचन्द्रस्य, तौ चैवम्-यदा जम्बूद्वीपगत सोत्थिए एत्थ लवणाहिवई देवे महिड्डिए पलिओवम- एकः सूर्यो मेरोदक्षिणतश्चारं चरति तदा लवणसमुठिईए, से णं तत्थ सामाणिय • जाव लवणसमुदस्स
द्रेऽपि तेन सह समश्रेण्या प्रतिबद्धः एकः शिखाया सुस्थियाए रायहाणीए अमेसि जाव विहरइ,से एएणद्वेणं
अभ्यन्तरं चारं चरति द्वितीयस्तेनैव सह श्रेण्या प्र
तिबद्धः शिखायाः परतः, तदैव च यो जम्बूद्वीपे मेरोगोयमा ! एवं वुच्चइ लवणे णं समुद्दे लवणे णं समुद्दे अदु
रुत्तरतश्चारं, चरति तेन सह समशेराया प्रतिबद्धो लत्तरं च णं गोयमा ! लवणसमुद्दे सासए जाय णिच्चे । वणसमुद्रे उत्तरत एकः शिखाया अभ्यन्तरं चारं चर(सू०१५४)
ति, द्वितीयस्तु तेनैव सह समश्रेण्या प्रतिबद्धः शिम्बा'लवणस्स णं भंते ! समुहस्स पएसा' इत्यादि सूत्र
याः परतः, एवं चन्द्रमसोऽपि जम्बूद्वीपगतचन्द्राभ्यां सह चतुष्टयं प्राग्वद् भावनीयम् ॥ सम्प्रति लवणसमुद्रनामा
समणिप्रतिवद्धा भावनीयाः, अत एव जम्बूद्वीप इव न्यर्थ पृच्छति-से केण?ण ' मित्यादि, अथ केनार्थेन
लघणसमुद्रेऽपि यदा मेरोदक्षिणतो दिवसः संभवति,
तदा मेरोरुत्तरतोऽपि लवणसमुद्रे दिवसः, यदा च मेभदन्त ! एवमुच्यते-लवणः समुद्रो लवणः समुद्रः ?,
रोरुत्तरतो लवणसमुद्र दिवसस्तदा दक्षिणतोऽपि दिइति, भगधानाह-गौतम ! लवणस्य समुद्रस्य उदकः
वसस्तदा च पूर्वस्यां पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रे राआविलम्-अविमलम् अस्वच्छं प्रकृत्या 'रइलं' रजो
त्रिः, यदा च मेरोः पूर्वस्यां विशि लघणसमुद्रे दिवसपत् , जलवृद्धिहानिभ्यां पङ्कबहुल मिति भावः , लवणं
स्तदा पश्चिमायामपि दिवसः, यदा च पश्चिमायां दिवससानिपातिकरसोपेतत्याल्लिन्द्रं गोवराख्यरसविशेषकलि
स्तदा पूर्वदिाप, सदा च मेरोदक्षिणत उत्तरतश्च नितत्वात् , क्षारम्-तीक्ष्णं लवणरसविशेषवत्त्वात् , कटुकम्
यमतो रात्रिः, एवं धातकीखण्डादिष्वपि भावनीयम् , तकटुकरसोपेतत्वात् , अत एवोपद्ववातादपेयम् , केषा
द्गतानापि चन्द्रसूर्याणां जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समपेयम् ? , चतुष्पदमृगपक्षिसरीसृपाणाम् , नाम्यत्र तद्यो
मंश्रेण्या व्यवस्थितत्वात् , उक्तं च सूर्यप्राप्ती-" जनिकेभ्यः-लवणसमुद्रयोनिकेभ्यः सत्त्वभ्यस्तेषां पेय
या णं लघणसमुहे दाहिणहे दिबसे भवा. तया ण उमिति भावः , तद्योनिकतया तेषां तदाहारकत्वात् ,
तरहे वि दिवसे हवह । जया णं उत्तरहे दिवसे हवा. तदेवं यस्मात्तस्योदकं लवणमतोऽसौ लवणः समुद्र |
तया णं लवणसमुहे पुरथिनयच्चरिथमेणं राई भवइ । इति, अन्यच्च — सुट्टिए लवणाहिबई ' इत्यादि सुगम
एवं जहा जंबुद्दीवे दीवै तहेव" तथा " जया णं धानवरमेष भावार्थः यस्मात् सुस्थितनामा तदधिपतिः
यइसंडे दीवे दाहिणहे दिवसे भवइ, तया णं उत्तलवणाधिपतिरिति स्वकल्पपुस्तके प्रसिद्धम् , अधि
रडे वि, जया णं उत्तरहे दिवसे हवा, तया णं धायापत्य च तस्याधिकृतसमुद्रस्य विषये नान्यस्य त- संडे दीये मंदराणं पब्धयाण पुरस्थिमपरचस्थिमेण राई तोऽप्यसी लकणसमुद्र इति, तथा चाह,-' से एएण- हवा । एवं जहा जम्बुद्दीवे दीवे सहेब, कालोए जहा ट्रेण ' मित्यादि ॥
लवण तहेव " तथा-" जया ण अम्भितरपुक्खरद्धे (२०) सम्प्रति लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसंख्यापरिमाणप्रति- दाहिणद्वे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरहे वि दिवसे हवा । पादनार्थमाह
जया ण उत्तरडे दिवसे हवाइः तया ग अम्भितरहे मंलवणे णं भंते ! समुद्दे कति चंदा पभासिंसु वा पभासिंति |
दराणं पब्बयाणं पुरथिमपञ्चस्थिमेणं गई हवा, सेस वा पभासिस्संति वा ?, एवं पंचएह वि पुच्छा, गोयमा !| जहा जंचुहीधे तहेव " आह-लवणसमुद्रे षोडशयोज
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लवपसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह नसहरप्रमाणा शिखा ततः कथं चन्द्रसूर्याणां तत्र तत्र देशे विक्खंभेणं उवरिं मुहमले दस जोयणसहस्साइं विक्खम्भेणं । चार चरतां न गतिव्याघातः ?, उच्यते-इह लवणसमुद्रय
तेसिणं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयणसतजेषु शेषेषु द्वीपसमुद्रेषु यानि ज्योतिष्कविमानानि तानि सर्वापि सामान्यरूपस्फटिकमयानि, यानि पुनर्लघणस
बाहल्ला परमत्ता अच्छा सव्ववइरामयाजाव पडिरूवा । तत्थ मुद्रे ज्योतिष्कविमानानि तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादुदक
णं बहवे जीवा पोग्गलाय अवक्कमति विउक्कमंति चयंति म्फाटनस्वभावस्फटिकमयानि, तथा चोक्तं सूर्यप्रक्षप्तिनियु-| उपचयंति सासया णं ते कुड्डा दव्वट्ठयाए वमपजवहिं क्ती-"जोइसियविमाणाई. सवाई हवंति फलिहमइयाई । असासया । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाय पलिदगफालिया मया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा ॥ १ ॥"
ओरमद्वितीया परिवसंति, तं जहा-काले, महाकाले, वेततो न तेषामुदकमध्ये चारं चरतामुदकेन व्याघातः , अन्यश्च शेषद्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यविमानान्यधोलेश्याकानि
लंबे, पभंजणे । तेसिणं महापायालाणं तो तिभागा यानि पुनर्लवणसमुद्रे तानि तथा जगत्स्वाभाव्यादूर्ध्वलेश्या- परमत्ता, तं जहा-हेट्ठिल्ले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे कानि तेन शिखायामपि सर्वत्र लवणसमुद्रे प्रकाशो भवति,
उवरिमे तिभागे । ते णं तिभागा तेनीस जोयणसहस्सा अयं चार्थः प्रायो बहूनामप्रतीत इति संवादार्थमेतदर्थप्रतिपादको जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितो विशेषणवतीन
तिमि य तेत्तीसं जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । न्ध उपदर्श्यते-"सोलससाहसियाए सिहाए कहं जोइसि- तत्थ णं जैसे हेट्ठिले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचियविधातो न भवति?, तत्थ भन्नई-जेण सूरपन्नत्तीए भणियं- ट्ठति, तत्थ णं जे से मझिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए "जोइसियविमाणाई, सव्वाइं हवंति फलिहमइयाई । दग
य आउकाए य संचिटुंति, तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिफालिया मया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा ॥ १ ॥"
भागे एत्थ णं आउकाए संचिटुंति, अदुत्तरं च णं गोयजं सव्वदीवसमुद्देसु फलिहामयाई लवणसमुद्दे चेव केवलं दगफलिहामयाई तत्थ इदमेव कारणं मा उदगेण विघातो मालवणसमुदे तत्थ तत्थ देसे बहवे खुड्डागलिंजरसंठाभवउ" इति, जंबूसूरपन्नत्तीए चेव भणियं-" लवणम्मि | णसंठिया खुड्डापायालकलसा पएणत्ता,ते णं खुड्डा पाताला उ जोइसिया,उ8 लेसा हवंति नायव्वा । तेण परं जोइसिया, एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मले एगमेगं जोयणसतं अह लेसागा मुणेयब्वा ॥१॥" तं पि उदगमालावभासण- | विखंभेणं मज्झे एगपदेसियाए सेढिए एगमेगं जोयणस्थमेघ लोगठिई एसा" इति । तथा द्वादशं नक्षत्रशतम् , एवं चत्वारो हि लवणसमुद्रे शशिनः एकैकस्य च शशिनः परि-|
| सहस्सं विक्खंभेणं उप्पि मुहमूले एगमेगं जोयणसतं विवारे अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, ततोऽष्टाविंशतेश्चतुर्भिर्गुणने खंभेणं । तेसि णं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा भवति द्वादशोत्तरं शतमिति । त्रीणि द्विपञ्चाशदधिकानि दस जोयणाई बाहल्लेणं पसत्ता सव्ववइरामया अच्छा महाग्रहशतानि, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाशीतेग्रहाणां जाव पडिरूवा । तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला यजाव भावात् , द्वे शतसहस्रे सप्तषष्टिः सहस्राणि नव शतानि
असासया वि,पत्तेयं२,अद्धपलिओचमद्विती ताहिं देवताहिं तारागणकोटीकोटीनाम् २६७६००००००००००००००००,
परिग्गहिया तेसि णं खुड्डागपातालाणं ततो तिभागा पउक्तश्च"चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोए।
मत्ता, तं जहा-हेढिल्ले तिभागे मझिल्ले तिभागे उवरिल्ले बारं नक्वत्तसयं, गहाण तिन्नेव बावन्ना ॥१॥
तिभागे, ते णं तिभागे तिमि तेत्तीसे जोयणसते जोयणदो चेव सयसहस्सा, सत्तट्टी खलु भवे सहस्सा य । तिभागं च बाहल्लेणं पलत्ते । तत्थ णं जे से हेडिल्ले मव य सया लवणजले, तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥" |
तिभागे एत्थ णं वाउकाओ, मज्झिल्ले तिभागे वाउपाए इह लवणसमुद्रे चतुर्दश्यादिषु तिथिषु नदीमुखानामापूरणतो जलमतिरेकेण प्रबर्द्धमानमुपलक्ष्यते तत्र कारण पि
आउयाते च, उवरिल्ले आउकाए, एवामेव सपुव्वावरेणं पृच्छिधुरिदमाह
लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ट य चुलसीता पाताकम्हाणं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दस्सट्टम्मुद्दिप्लिमा
लसता भवंतीति मक्खाया। तेसि णं महापायालाणं खुसिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वइति वा हायति वा ?, गोयमा !
ड्डागपायालाण य हेटिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउदिसि बाहिरिल्लाओ वेइयंता
ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंओ लवणसमुदं पंचाणउतिं पंचाणउतिं जोयणसहस्साई
पंति खुब्भंति घट्टंति फंदति तं तं भावं परिणमंति,तया णं
से उदए उस्मामिजति, जया णं तेर्सि महापायालाणं खओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया
डागपायालाण य हेडिल्लमज्झिमिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे महइमहालया महापायाला परमत्ता, तं जहा-वलयामहे,
अोराला जाव तं तं भावं न परिणमन्ति, तया णं से केतूए, जूवे,ईसरे। तेणं महापाताला एगमेगं जोयणसतस
उदए नो उन्नामिजइ अंतरा वि यणं ते वायं उदीरेंति भंहस्सं उबेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं| तरा वियणं से उदगे उस्मामिजइ अंतरा वि य ते वाया मज्झे एगपदेसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसतसहस्सं | नो उदीरंति अंतरा वि य णं से उदगे यो उमामिजइ
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लवण समुद
( ६४२ ) अभिधान राजेन्द्रः । एवं खलु गोयमा लवणसमुदेचा उद्दस (स्स) (म्मु ) दिपुणा मासिणीसु अइरेगं अइरेगं वङ्कृति वा हायति वा । (सू०१५६) 'कम्डा से भंते! इत्यादि कस्माद्भदन्त ! लवणसमुद्रे चतुदेश्यम्युष्टिपौर्णमासीषु तिथिषु श्रत्रोद्दिष्टा श्रमावस्या, पौर्णमासी प्रतीता, पर्णो मासो यस्यां सा पौर्णमासी प्रशादित्यान्यार्थेऽन्ये तु व्याचक्षते - पूर्णो माः - चन्द्रमा श्रस्यामिति पौर्णमासी, अण् तथैव, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे - 'पुरखमासीति पाठ: अरे अरे प्रतिशपेन ' । ' अतिशयेन वर्द्धते हीयते था ? भगवानाह गीतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे यो मन्दरपर्यतस्तस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षुसमुद्रं पञ्चनवर्ति २ योजनसहायवगाह्यान्तरे चस्वारः महर महालया अतिशयेन महान्तो महानिर महापिsहं तत्संस्थानसंस्थिताः, क्वचित्- ' महारंजरसंठाणसंठिया ' इति पाठः। तत्वारञ्जरः - श्रलिञ्जर इति, महापातालकलशाः प्रशप्ताः । उक्तं च-" पणनउइसहस्साई, श्रीगाहित्ता चहसिलपणं बरोऽलिंजराडिया होति पाया
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१॥ तानेव नामतः कथयति तद्यथा-मेरोः पूर्वस्यां दिशि वडवामुखः, दक्षिणस्यां केयूपः, अपरस्यां ग्रुपः उत्तरस्थामी श्वरः ते चत्वारोऽपि महापातालकलशा एकैकं योजनशतसहस्रं लक्ष उपेन मूले दशयोजन सहखाणि विष्कम्मेन
कम एकप्रादेशिक्या या विष्कम्भतः प्रयमाना - ईमाना मध्ये एकैकं योजनशतसहस्रं विष्कम्भेन तत ऊ भूयोऽप्येक प्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतो हीयमाना हीयमा ना उपरि मुखमूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः - 'जोयणसहस्वसर्ग, मुले उपरि होति विस्थिता । मय सयलहस्तं तेतियमे च प्रगाढा ॥१॥ खि रणमित्यादि तेषां महापातालफलानां कुष्याः सर्वत्र समा दशयोजनशतवाहल्या-योजन सहस्रबाहल्या इत्यर्थः, सर्वात्मना वज्रमयाः 'अच्छा ० जाव पडिरुवा' इति प्राग्वत् ॥ तत्थ 'मित्यादि तेषु वज्रमयेषु कुड्येषु बहवो जीवाः पृथियौकायिकाः पुहलाच अपक्रामन्ति-गन्ति युकामन्ति- उत्पद्यन्ते जीवा इति सामर्थ्याद् गम्यम्. जीवानामेवोत्पत्तिधर्मकतया प्रसिद्धत्वात् चीयन्ते - चयमुपगच्छन्ति उपचीयते-उपमयमायान्ति एतच्च पदद्वयं पुलापेक्षं, पुङ्गवानामेव चयापचयधर्मकतया व्यवहारात् तत एवं सकलकालं. तदाकारस्य सदाऽवस्थानात् शाश्वतास्ते कृपा इन्चार्थतथा प्रशताः पर्यायः र
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यैः स्पर्श पर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियकलादूर्द्ध वाऽन्यथाऽन्यथा भवनात् ॥ 'तत्थ ' मित्यादि, तत्र तेषु चतुर्षु पातालकलशेषु चत्वारो देवा महर्द्धिका यायत्करणाम्महायुतिका इत्यादिपरिग्रहः परपोयमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-‘काले’इत्यादि, वडवामुखे- कालः, केयूपे - महाकालः, यूपे - येलम्पः. ईश्यरे प्रभञ्जनः सेसि मित्यादि, तेषां महापातालकलानां प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयविभागाः प्रशप्ताः तद्यथा-अधस्तनभागो मध्यम त्रिभाग उपरितन
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भागः । ते समित्यादि से प्रयोऽपि त्रिभागात्रयस्त्रिंशद्योजन सहस्राणि त्रीणि योजनशातानि त्रयस्त्रिंशानि योजनात्रिभागं च बाहल्येन प्रज्ञप्ताः ॥ तत्र चतुर्ष्वपि पातालकलशेषु अधस्तनेषु त्रिभागेषु बातकायः संतिष्ठति, मध्यमेषु
लवण समुद्द
त्रिभागेषु वायुकायो ऽपकायस्थ, उपरितनेषु विमाकाय एव । अदुत्तरं च ग ' मित्यादि. अथान्यद् गौतम ! लवणसमुद्रे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं ' इति तेषां पाताल
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कलशानामन्तरेषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बुल्लारज्जरसंस्थानसंस्थिताः क्षुल्लाः- पातालकलशा: प्रशप्ताः, ते चुल्लाः- पातालकलशा एकमेकं योजनसहस्रमुद्वे धेन मूले एकैकं योजनशतं विष्कम्मेन मध्ये एक योजन सहस्रं विष्कम्भेन उपरि मुखमूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भे
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'तेखि 'मित्यादि तेषां कपातालकलशानां कुष्याः सर्वत्र समा दश दश योजनानि बाहल्यतः । उक्तञ्च - "जोयण सयवस्थिराणा, मूल उवरि दस सयाणि मज्झस्मि श्रगाढा य सहस्सं, दस जोयशिया य से कुड्डा ॥ १ ॥
सव्ववरामया' इत्यादि प्राग्वत् यावत् 'फासपज्जवेहिंसासया इति प्रत्येकं प्रत्येकं सेोमस्थि तिकाभिर्देवताभिः परिगृहिताः तेसि रा मित्यादि, ॥ ' तेषां क्षुल्लक पातालकलशानां प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयस्त्रिभागाः प्रशप्ताः तद्यथा-अधस्तनत्रिभागी मध्यमधिभाग उपरितनस्त्रिभागः । ' ते ण ' मित्यादि, ते त्रिभागाः प्रत्येकं त्रीणि योजनशतानि पानि त्रयत्रिंशदधिकानि योजनविभागं च बाहल्येन प्रज्ञप्ताः, तत्र सर्वेषामपशुपातालकलशानामधस्तनेषु त्रिभगिषु वायुकायः संतिष्ठति मध्येषु विभागेषु वायुकायो ऽकायच उपरितनेषु त्रिभागेच्चकायः संतिष्ठति एवमेव स पूर्वापरेण पूर्वापर समुदाय संख्यया सप्त पातालकलशसहस्राणि गुल्लकपातालकलशसहस्राणि अष्टी नपातालफलशशतानि लकपातालकलशशतानि चतुरशी तानि चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीत्याख्यातं मया तीर्थकृद्भिः, उक्लश्च -
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अधिय पापाला, खुड्डालञ्जरगसंडिया ल श्रट्ट सया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सच्चे वि ॥ १ ॥ पायालाण विभागा, सव्वाण वि तिन्नि तिनि विनेया । हेमिभागे वाऊ, मज्भे वाऊ य उद्गं च ॥ २ ॥ उपरि उदभयं पगबीर वासिं
उ यामउदगं परियहद जलनिही खुमिश्र ॥ ३२ ॥ " 'तेसि ए ' मित्यादि, तेषां चुल्लकपातालानां - तुल्लकपातालकलशानां महापातालानां चाधस्तनमध्येषु त्रिभागेषु तथा जगत्स्थतिस्वाभाव्यात् प्रतिदिवसं द्विकृत्वस्यापि चतुर्दश्यादिषु तिथिष्यतिरेकेण बहवः प्रतिप्रभूता उदाराः - ऊर्द्ध्वगमनस्वभावाः प्रवलशक्तयश्च उत्-प्राबल्येन श्रारो येषां ते उदारा इति व्युत्पत्तेः, वाताः - वायवः संस्थिद्यन्ते उत्पत्यभिमुखीभवन्ति ततः तवानन्तरं 'सं मूर्च्छन्ति-संमूर्च्छजन्मना लब्धात्मलाभा भवन्ति, तनः चलन्ति कम्पन्ते वातानां चलनस्वभावत्वात् ततः घट्टन्ते - परस्परं सङ्घट्टमाप्नुवन्ति तदनन्तरम् तुभ्यन्तेजातमहाद्भुतशक्तिकाः सन्त ऊर्द्धमितस्ततो विप्रसरति, ततः उदीरयन्ति - अन्यान् वातान् जलमपि चोत्-प्रावएथेन प्रेरयन्ति तं तं देशकालोचितं मन्दं ती मध्यमं वा भार्थ- परिणामं परिणमन्ति धातूनामनेकार्थत्वात् प्रपयते । जयां तेनि खुड़ागपायालाग मित्यादि सुगमं
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लवएसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुद्द भावतत्वात् । ' तया ण' मित्यादि, तदा णमिति वाक्या- | णं अद्धजोयणं अतिरेगं वड्वति वा हायति वा । लवणस्स
कार तद्-उदगम् उन्नामिजते' उन्नाम्यत ऊद्धमुणं भंते ! समुदस्स कति णागसाहस्सीओ अभितरियं बेक्षिप्यत इति भावः । 'जया ण' मित्यादि, यदा पुनः 'ण'
लं धरति ?, कइ नागसाहस्सीओ बाहिरियं बेलं धरंति ?, मिति पुनरर्थे निपातानामनेकार्थत्वात् तेषां क्षुल्लकपातालानां महापातालानां चाधस्तनमध्यमेषु त्रिभागेषु नो बहव उदारा कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धरंति ?, गोयमा ! लववाताः संस्विद्यन्ते इत्यादि प्राग्वत् 'तया ण' मित्यादि तदा णसमुदस्स बायालीसं णागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं तदुदकं नोनाम्यते'नोर्जुमुक्षिप्यते उत्क्षेपकाभावात् एतदेव धरंति, बावतरं णागसाहस्सीश्रो बाहिरियं बेलं धरंति, स्पष्टतरमाह-'अन्तराऽवि य ण' मित्यादि , अन्तराअहोरात्रमध्ये द्विकृत्वः प्रतिनियते कालविभागे पक्षमध्ये
सढि णागसाहस्सीनो अग्गोदयं धरंति, एवमेव सपुव्वाचतुदश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण ते वाताः तथाजगत्स्वाभा
वरेणं एगा णागसतसाहस्सी चोवत्तरं च णागसहस्सा व्यादुदीर्यन्ते धातूनामनेकार्थत्यादुत्पद्यन्ते, ततोऽन्तरा- भवंतीति मक्खाया ॥ (सू० १५८) अहोरात्रमध्ये द्विकृत्वः प्रतिनियते कालविभागे पक्षमध्ये
'लवणसिहा ण भंते ' इत्यादि, लवणशिस्खा भदन्त ! किचतुर्दश्यदिपु तिथिषु अतिरेकेण तत उदकमुन्नाम्यते । 'अं- यश्चक्रवालविष्कम्भेन ?, कियच्च अतिरेकमतिरेकम्-श्रतराऽवि य ण' मित्यादि, अन्तरा-प्रतिनियतकालवि- तिशयेन अतिशयेन वर्द्धते हीयते वा ?, भगवानाह-गौतम ! भागादन्यत्र ते वाताः नोदीयन्ते-नोत्पद्यन्ते , तदभावात् | लवणशिखा सर्वतश्चक्रवालविष्कम्भतया समा-समप्रमाअन्तरा-प्रतिनियतकालविभागादन्यत्र कालविभागे उद- णा दश योजनसहस्त्राणि विष्कम्भेन चक्रवालरूपतया विके नोनाम्यते उन्नामकाभावात् , तत एवं खलु गौतम! स्तारेण देशोनमर्द्धयोजनम्-गव्यूतद्वयप्रमाणम् अतिरेकलवणसमुदे चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपूर्णमासीषु तिथिषु अति- मतिरेकम्-अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वा , इयरेकमतिरेकम्-अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वेति ॥ मत्र भावना-लवणसमुद्रे जम्बूद्वीपाद धातकीखण्डद्वीतदेवं चतुर्दश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण जलवृद्धौ कारणमु-| पाच्च प्रत्येकं पञ्चनवति पञ्चनवतियोजनसहस्राणि क्तमिदानीमहोरात्रमध्ये द्विकृत्वोऽतिरेकेण जलवृद्धौ गोतीर्थम्-गोतीर्थ नाम तहागादिष्विव प्रवेशमार्गरूपो कारणमभिधित्सुराह
नीचो नीचतरो भूदेशो गोस्तीर्थमिव गोतीर्थमिति ब्युलवणे णं भंते ! समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं कति- त्पत्तेः , मध्यभागावगाहस्तु दशयोजनसहस्रप्रमाणविखुत्तो अतिरेग अतिरेग वड्डति वा हायति वा ? गोयमा ! स्तारः, गोतीर्थ च जम्बूद्वीपवेदिकान्तसमीपे धातकी
खण्डवेदिकान्तसमीपे चाङ्गुलासंख्येयभागः-ततः पर लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अ-|
समतलाद् भूभागादारभ्य क्रमेण प्रदेशहान्या तावन्नीचत्वं तिरेगं बढति वा हायति वा ॥ से केणऽटेणं भन्ते ! ए
नीचतरत्वं परिभावनीयम् यावत्पश्चनवतियोजनसहस्राणि, वं बुच्चा--लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्तेषु समतल भूभागमपेक्षयोण्डअइरेगं अइरेग वड्डइ वा हायइ वा ?, गोयमा ! उड्डम- त्वं योजनसहस्रमेकम् , तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो धातकीखतेसु पायालेसु वड्डइ आपूरितेसु पायालेसु हायइ, से ते
एडद्वीपवेदिकातश्च ? तत्र समतले भूभागे प्रथमतो जलणऽटेणं गोयमा! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दु
वृद्धिरगुलसंख्येयभागः, ततः समतलभूभागमेवाधि
कृत्य प्रदेशवृद्धथा जलवृद्धिः क्रमेण परिवर्द्धमाना तावत्परिक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वड्डइ वा हायइ वा ।। (मू० १५७) भावनीया यावदुभयतोऽपि पञ्चनवतियोजनसहस्राणि, पञ्च
लवणे ण भंते ! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्र- नवतियोजनसहस्रपर्यन्ते चोभयतोऽपि समतलभूभागमस्त्रिंशतो मुहूर्तानांमध्ये-अहोरात्रमध्ये इति भावः कतिकरवः | पेय जलवृद्धिः सप्त योजनशतानि, किमुक्तं भवति ?कति वारान् अतिरेकमतिरेकं बर्द्धते हीयते वा ? इति, त- तत्र प्रदेशे समतलभूभागमपेक्ष्यावगाहो योजनसहस्रम्, तदुदेवं (प्रश्न ) भगवानाह-गौतम ! द्विकृत्वोऽतिरेकमतिरेक परि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति, ततः परं मध्यभाग वडतेडीयते वा॥से केणऽटेण' भित्यादि प्रश्नसत्रं सु-| दशयोजनसहस्रविस्तारेऽवगाहो योजनसहनं जलवृद्धिः गमम् , भगवानाह-गीतम! उद्वमत्सु अधस्तनमध्यमत्रि- षोडश योजनसहस्राणि, पातालकलशगतवायुक्षोभे च तेभागगतवातसंक्षोभवशाजलमूर्द्धमुत्क्षिपत्सु पातालेषु-पा- | पामुपर्यहोरात्रमध्ये द्वौ वारौ किञ्चिन्न्यूने द्वे गव्यूते उदकतालकलशेषु महत्सु लघुषु च बर्द्धते आपूर्यमाणेषु-| मतिरेकेण वर्द्धते पातालकलशगतवायूपशान्तौ च हीयते, परिसंस्थिते पवने भूयो जलेन ध्रियमाणेषु पातालेषु- उक्तञ्चपातालकलशेष महन्सु लघुषु च हीयते । से एएणऽटेण' | "पंचाणउयसहस्से, गोतित्थं उभयतोऽवि लषणस्स । मित्यादि उपसंहारवाक्यम् ॥
जोयणसयाणि सत्त उ, दगपरिघुवीऽवि उभयोऽपि ॥१॥ (२१) अधुना लवणशिखावक्तव्यतामाह
दस जोयणसाहस्सा, लवणसिहा चकवालतो रुंदा। लवणसिहाण भंते केवतियं चकवालविक्खंभेणं केवतियं सोलससहस्स उच्चा, सहस्समेगं च श्रोगाढा ॥२॥ अगं अइरेगं वड्डति वा हायति वा?, गोयमा! लवणसि
देसूणमद्धजोयण-लवणसिहोरि दुग दुवे कालो।
श्रइरेग घहरेगं, परिवडद हायए वाऽवि ॥३॥" हाए णं दम जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं देसू- सम्प्रति वेलन्धरवक्तव्यतामाह-- लवणस्स गां भत्ते'
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कियन्तो नागसहस्रा | हासणं सपरिवारं । सेकेणऽदेणं भंते! एवं बुच्चइ गोधूमे नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्तर्वतिनां सहस्रा श्राभ्य
आवासपव्वए गोधूभे आवासपव्वए ? , गोयमा! गोथूभे तरिकी-जम्बूद्वीपाभिमुखां वेलां-शिखोपरिजलं शिखां च-अर्वाक पतन्ती धरन्ति-चारयन्ति ? कियन्तो नागसहस्रा
णं आवासपव्वते तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहुओ खुड्डाखुबाह्यां-धातकीखण्डाभिमुखां वेला धातकीखण्डद्वीपमध्ये | डियामो० जाव गोथूभवलाई बहुइं उप्पलाइं तहेव. जाव प्रविशन्तीं धरन्ति वारयन्ति ?, कियन्तो वा नागसहस्रा गोथमे तत्थ देवे महिडिए०जाव पलिमोवमद्वितीए परिवसअग्रमोदकं देशोनयोजनाद्धजलादुपरिवर्द्धमानं जलं धरन्ति
ति, से णं तत्थ चउएहं सामाणियसाहस्सीणं. जाव गो)धारयन्ति !, भगवानाह-गौतम! द्विचत्वारिंशन्नागसहस्राएयाभ्यन्तरिकी वेलां धरन्ति द्वासप्तति गसहस्राणि बाह्यां
भ(य)स्स आवासपव्वतस्स गोयूभाए रायहाणीए ०जाव वेलां धरन्ति, पष्टिांगसहस्राण्यग्रोदकं धरन्ति । उक्तश्च
विहरति, से तेणद्वेणंजाव णिच्चे । रायहाणिपुच्छा , गो"अम्भितरियं वेलं, धरति लवणोदहिस्स नागाणं । बायाली यमा! गोधूभस्स आवासपव्वतस्स पुरथिमेणं तिरियमससहस्सा, दुसत्तरिसहस्सों बाहिरियं ॥१॥ स४ि नागसह- संखेजे दीवसमुद्दे वीतिवइत्ता अमम्मि लवणसमुद्दे तं चेव स्सा, धरंति अग्गोदयं समुहस्स" इति एवमेव 'सपूर्वापरण'
पमाणं तहेव सव्वं । पूर्वापरसमुदायेन एकं नागशतसहस्रं चतुःसप्ततिश्च नागश
'कति णं भंते इत्यादि, कति भदन्त ! धेलन्धरनागराजाः तसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातानि मया शेषश्च तीर्थकृद्भिः।
प्रक्षप्ताः ?, भगवानाह-चत्वारो वेलन्धरनागराजाः प्रसप्ता(२२) वेलन्धरनागराजसंख्यादिकमाह
स्तद्यथा-गोस्तूपः शिवकः शलो मनःशिलाकः ॥ 'एएसिण' कति णं भंते ! वेलधरा णागराया परमत्ता, गोयमा!। मित्यादि, एतेषां भदन्त ! चतुर्णा वेलन्धरनागराजानां कति चत्तारि वेलंधरा णागराया पलत्ता, तं जहा-गोथूभे सि- | आवासपर्वताः प्राप्ताः ?, भगवानाह-गौतम ! एकैकस्य वए संखे मणोसिलए। एतेसि णं भंते ! चउण्हं वेलंधरणा
एकैकभावेन-चत्वार आवासपर्वताः प्राप्तास्तद्यथा-गोरतूप
उदकभासः शंखो दकसीमः ॥ कहि णं भंते' इत्यादि प्रश्नगरायाणं कति भावासपव्वता पएणत्ता, गोयमा! चत्तारि
सूत्रं सुगमम् , भगवानाह-गौतम ! अस्मिन् जम्बूद्वीपे यो आवासपव्वता पमत्ता, तं जहा-गोथूभे उदगमासे संखे मन्दरपर्वतस्तस्य पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशत दगसीमाए । कहि णं भंते ! गोधूमस्स वेलंधरणागरा- योजनसहस्राण्यवगाह्यात्र गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगरायस्स गोथूभे णामं आवासपन्वते पएणत्ते १, गोयमा !
जस्य गोस्तूपो नाम आवासपर्वतः प्राप्तः, सप्तदश योजन
शतानि एकविंशान्यूर्द्धमुचैस्वेन, चत्वारि योजनशतानि जबूदीवे दीवे मंदरस्स पुरथिमेणं लवणं समुदं बायाली
त्रिंशदधिकानि कोशं चैकमुढेधेन, उच्छ्यापेक्षयाऽवगाहस्य सं जोयणसहस्साई भोगाहित्ता एत्थ णं गोथूभस्स वेलं- चतुर्भागभावात् , मूले दश योजनशतानि द्वाविंशत्युत्तराणि धरणागरायस्स गोथूमे णामं आवासपव्यते पण्णत्ते सत्त-| विष्कम्भतः , मध्ये सप्त योजनशतानि प्रयोविंशत्युत्तराणि, रस एकवीसाई जोयणसताई उद्धं उच्चत्तणं चत्तारि तीसे
उपरि चत्वारि योजनशतानि चतुर्विशत्युत्तराणि, मूले त्रीणि
योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वात्रिंशदुत्तरे किञ्चिद्विजोयणसते कोसं च उव्वेधेणं मूले दस बावीसे जोयणसते
शेषोने परिक्षेपेण, मध्ये द्वे योजनसहने द्वे च योजनशते आयामविक्खंभेणं मज्झे सत्त तेवीसे जोयणसते उरि
चतुरशीते किञ्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण, उपर्येकं योजनसहचत्तारि चउवीसे जोयणसए प्राथामविक्खंभेणं मले नं त्रीणि योजनशतानि एकचत्वारिंशानि किञ्चिविशेषोनानि तिमि जोयणसहस्साई दोरिण य बत्तीसुत्तरे जोयणसए
परिक्षेपेण, ततो मूले विस्तीर्णो मध्ये सलिप्त उपरि तनुकः, किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं मज्झे दो जोयणसहस्साई
अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितो गोपुच्छस्याप्येवमाकार
त्वात् , सर्वात्मना जाम्बूनदमयः, 'अच्छे० जाब पडिरूवे' दोलि य छलसीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं
इति प्राग्बत् ॥' से ण' मित्यादि सः-गोस्तूपनामा आवाउवरिं एगं जोयणसहस्सं तिमि य ईयाले जोयणसते | सपर्वत एकया पनवरवेदिकया पकेन च वनखण्डेन सर्वतःकिंचिविसेसूणे परिक्खेणं मृले वित्थिो मज्झे संखित्ते सर्वासु दिशु समन्ततः-सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः , योरपि उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबकणगामए अच्छे
चानयोर्वेदिकावनखण्डयोवर्णकः प्राग्वत् । 'गोथभस्स ण'
मित्यादि, गोस्तूपस्य णमिति पूर्ववद् श्रावासपर्वतस्योपरि जाव पडिरूवे । से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रशप्तः, ' से जहानामए पालिबणसंडेणं सव्यतो समंता संपरिक्खित्ते, दोएह वि वमो गघुमखरेह वा' इत्यादि प्राग्वत् यावनत्र बहवो नागकुमागोथूभस्स णं आवासपव्वतस्स उवरि बहसमरमणिजे रा देवा श्रासते शेरते यावद्विहरन्तीति ॥ · तस्स रण भूमिभागे पएणत्ते जाव प्रासयंति । तस्स णं बहुस
मित्यादि, तस्य-बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे |
. देशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रक्षप्तः, स च विज
यदेवस्य प्रासादावतंसकसदृशो वक्तव्यः, स चैवं-सा - महं पासायवडेंसए बावट्ठ जोयणद्धं च उड्डे उच्चत्तेणं तं | निद्वापष्टियोजनानि उच्चस्त्वेन, सक्रोशान्येकत्रिंशदयोजनावेव पमाणं अर्द्ध मायामविक्खंभेणं वएणभो .जाव सी- न्यायामविकम्भाभ्यां, प्रासादवर्णनमुल्लोचनगन च प्राग्वा ।
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( ६४५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
लवणसमुद्द
तस्य च प्रासादावतंसकस्यान्तर्वहु मध्यदेशभागे महत्येकासर्वरत्नमयी मणिपीठिका, सा च योजनायामविष्कम्भप्रमाणा गव्यृतद्वयबाहल्या, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेकं सिंहासनम्, तचेन्द्र सामानिकादिदेवयोग्येर्भद्रासनैः परिवृतमिति ॥ 'से के भंते!' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एचमुच्यते गोस्तूप आवासपर्वतो गोस्तूप श्रावासपर्वतः ? इति, भगवानाह - गौतम ! गोस्तृपे श्रावासपर्वते क्षुल्लासु क्षुल्लिकासु वापीषु यावद्विलपक्लिषु बहुन्युत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि गोस्तूपप्रभाणि गोस्तूपाकाराणि गोस्तूपवर्णानि गोस्तूपवर्णस्येवामा प्रतिभासो येषां तानि गोस्तूपवर्णाभानि, ततस्तानि तदाकारत्वात् तद्वर्णत्वात्तद्वर्णसादृश्याश्च गोस्तूपा नीति प्रसिद्धानि तद्योगादावासपर्वतोऽपि गोस्तूपः, अनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति तेन नेतरेतराश्रयदोषः, एवमुतत्रापि भावनीयम्, तथा गोस्तूपश्चात्र भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यावत्करणात् - महाद्युतिक इत्यादि परिग्रहः । स च चतु सामानिकसहस्राणां चतसृणामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां पर्षदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनी काधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षदेवसहस्राणाम्, गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य गोस्तूपायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां गौस्तूपराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावद्विहरति, ततो गोस्तूपदेवस्वामिकत्वाश्च गोस्तूपः, 'से एट्ठे 'मित्याद्युपसंहारवाक्यं प्रतीतम् ॥ सम्प्रति गोस्तूपां राजधानी पृच्छति - कहि णं भंते!' इत्यादि क्व भदन्त ! गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपा नाम राजधानी प्रशप्ता ?, भगवानाह - गौतम ! गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य पूर्वया दिशा तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् च्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवण समुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यचगाह्यात्रान्तरे गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपा नाम राजधानी प्रशता, सा च विजयराजधानी सदृशी वक्तव्या ॥ तदेवमुक्तो गोस्तूपः ।
(२३) अधुना दकाभासवक्तव्यतामाहकहि णं भंते ! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासणामे आबासपव्वते पण्णत्ते ?, गोयमा ! जंबूद्दीवे गं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणं लवणसमुहं बा - यालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं सिवगस्स वैलंधरणागरायस्स दोभासे णामं आवासपव्वते पण्णत्ते, तं चैव पमाणं जं गोथूभस्स, गवरि सव्व
काम अच्छे ० जाव पडिरूवे ० जाव अट्ठो भाणियव्वो, गोमा ! दोभासे णं श्रावासपव्वते लवणसमुद्दे अट्ठ जोयिखेत्ते दगं सव्वतो समता श्रोभासेति उज्जोवेति तवति भासेति सिव इत्थ देवे महिड्डिए ०जाव रायहाणी से दक्खिणं सिविगा दोभासस्स सेसं तं चैव ॥
'कहि णं भंते! सिवगस्स' इत्यादि प्रश्नसूत्रं पाठसिद्धम्, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतो लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य श्रश्रान्तरे शिवकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य दकाभासो |
१६२
लवणसमुद्द नामावासपर्वतः प्रज्ञप्तः, स च गोस्तूपवदविशेषेण वलव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् ॥ श्रधुना नामनिमित्तं पिंपूfच्छपुराह-' से केणट्टेल ' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, भगवानाह - गौतम ! दकाभास श्रावासपर्वतो लवणसमुद्रे सर्वासु दिक्षु स्वसीमातोऽष्ट्रयोजनिक- श्रष्टयोजनप्रमाणे क्षेत्रे यदुदकं तत् समन्ततः - सामस्त्येनातिविशुद्धाङ्कनामरक्षमयत्वेन स्वप्रभयाऽवभासयति एतदेव पर्याय येण व्याचष्टे - उद्योतयति चन्द्र इंव, तापयति सूर्य इव, प्रभासयति ग्रहादिरिव. ततो दकं पानीयमाभासयति - समन्ततःसर्वासु दिक्षु श्रवभासयतीति दकाभासः, श्रन्यच शिवको नामात्र पर्वतेषु भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से गं तत्थ चउरहं सामाणिसाहस्सीण' मित्यादि प्राग्वत् नवरमत्र शिवका राजधानी वक्तव्या, तस्मिंश्च परिवसति स श्रावासपर्वतो दकमध्येऽ तीवाऽऽभासते - शोभते इति दकाभासः, 'से एएण्ट्टेल ' मित्यानुपसंहारवाक्यं गतार्थम्, शिवका राजधानी दकाभासस्यावासपर्वतस्य दक्षिणतोऽन्यस्मिन् लवणसमुद्रे षिजयराजधानीव भावनीया ॥
(२४) अधुना शंखनामकावासपर्वतवक्लव्यतामाहकहि णं भंते ! संखस्स वेलन्धरणागरायस्स संखे यामं आवासपव्वते पत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे गं दीवे मंदरस पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं बायालीसं जोयणसहस्साई एत्थ णं संखस्स ० वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपञ्चते तं चैव पमाणं वरं सव्वरयणाए अच्छे से गं एगाए पउमबरवेदियाए एगेण य वणसंडेणं० जाव भट्ठो बहूओ खुड्डाखुड्डिया ओ० जाव बहूई उप्पलाई संखाभाई संखवलाई संखवमाभाई संखे एत्थ देवे महिड्डिए० जाब रायहाणीए पच्चत्थिमे णं संखस्स यावासपव्वयस्स संख। नाम रायहाणी तं चैव पमाणं ।
'कहि गं भंते!' इत्यादिक्क भदन्त! शंखस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य शंखो नामावासपर्वतः प्रज्ञप्तः, भगवानाह - गौतम ! ज
म्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं योजन सहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे शंखस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य शंखो नामावासपर्वतः प्रज्ञप्तः, स च गोस्तूपवदविशेषेण तावद्वक्तव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् ॥ इदानीं नामनिबन्धनमभिधित्सुरोह -' से केणट्टेल ' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, भगवानाह - शंखे श्रावासपर्वते तुला क्षुल्लिकासु वापीषु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि शंखाभानि - शंखाकाराणि शंखवर्णानि श्वेतानीति भावः, शंखवर्णाभानि प्रायः शंखवर्णसदृशवर्णानि शंखश्चात्र भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से गं तत्थ are सामाणियसाहस्सीण' मित्यादि प्राग्वत्, नवरमत्र शंखा राजधानी वक्तव्या, तदेवं यतस्तद्गतान्युत्पलादीनि शंखाकाराणि शंखदेवखामिकश्चायमतः शंख इति, 'से एए ट्टे' मित्याद्युपसंहारवाक्यं गतार्थम्, शंखा राजधानी शंखस्यावासपर्वतस्य पश्चिमायां दिशि तिर्यगसंख्येयान्
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लवणसमुह
द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे विजयाराजधानी सदृशी वक्तव्या ॥
( ६४६ )
श्रभिधान राजेन्द्रः ।
सम्प्रति दकसीमापर्वतवक्तव्यतामाहकहिं ते! मणोसिलकस्स वेलंघरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपव्त्रते पण ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स उत्तरेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहसाई ओगाहित्ता एत्थ गं मरणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस उदगसीमाए णामं आवासपव्वते पस्मत्ते, तं चेव पमाणं णवरि सब्बफलिहामए अच्छे० जाव अट्ठो, गोयमा ! दगसीमंते गं आवासपव्वते सीतासीतोदगाणं महाण - hi तत्थ तो सोए पsिहम्मति से तेराऽद्वेणं ० जाव च्चेि मणोसिलाए एत्थ देवे महिड्डिए० जाव से णं तत्थ चउरहं सामाणिय० जाव विहरति ।। कहि णं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरास्स मणोसिला खाम रायहाणी १, गोयमा ! दगसीमस्स आवासपव्ययस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुद्दाई वीतिवत्ता० अमम्मि लवणे एत्थ गं मलोसिलिया ग्राम रायहाणी पत्ता, तं चैव पमाणं ० जाव मणोसिलाए देवे–“ कणगंकरययकालिया - मया य वेलंधराणमावासा | अणुवेलंधरराई - ण पव्त्रया होंति रयणमया ।। १ ।। ( सू० १५६ )
त्र
'कहिं भंते!, ' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्रतीतम्, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो ल वणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्त्राण्यवगाह्य श्रत्र - एतस्मिन्नवकाशे मनःशिलकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य दकसीमो नामावासपर्वतः प्रज्ञप्तः, सोऽपि गोस्तूपपdraदविशेषेण तावद्वक्तव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् ॥ इदानीं नामनिमित्तं विभणिषुराह - से केराट्ठेण मित्यादि प्रतीतम्, भगवानाह - गौतम ! दकसी श्रावासपर्वते शीतशीतोदयोर्महानद्योः श्रोतांसि जलप्रवाहास्तत्र गतानि तस्माच्च तेन प्रतिहतानि प्रतिनिवर्तन्ते ततो दकसीमाकारित्वाद् दकसीमः, दकस्य सीमा - शीताशीतोदापानीयस्य सीमा - यत्रासौ दकसीम इति व्युत्पत्तेः श्रन्यश्च मनःशिलको भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । ' से गं तस्थ चउरहं सामाण्यिसहस्सी ' मित्यादि प्राग्वत् : नवरं मनःशिलाऽत्र राजधानी वक्तव्या, ततो मनःशिवस्य देवस्य दकेलवणजलमध्ये सीमा- आवास चिन्तायां मर्यादा, अत्रेतिदकसीमे, मनःशिला च राजधानी दकसीमस्यावासपर्व तस्योत्तरतस्तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लचणसमुद्रे विजयाराजधानीव वक्तव्या । तदेवमुक्ताश्चत्वारोऽपि वेलन्धराणामावासपर्वताः, सर्व
च गोस्तूपेनातिदेशः कृतः अत्र व मूलदले विशेषस्ततस्तमभिधित्सुराह - " कण्गंकरययफालिय-मया य वेलंधराणमावाला । अणुवेलंधरराई - ण पव्वया होति रयणमया ॥ १ " वे लन्धराणां-- गोस्तूपादीनामावासा गो
""
लवणममुद्द स्तूपादयश्चत्वारः पर्वता यथाक्रमं कनकाङ्करजत स्फटिकमयाः, गोस्तूपः कनकमयो, दकाभासोऽङ्करत्नमयः, शंखो रजतमयो, दकसीमः स्फटिकमय इति, तथा महतां वेलन्धराणामादेशप्रतीच्छुकतयाऽनुयायिनो वेलन्धराश्चानुबेलबर्ता रत्नमया भवन्ति । जी० । (अनुवे लन्धरनागराजबक्तव्यतान्धराः तेन ते राजानश्च अनुवे लन्धरराजास्तेषामावासपसूत्रम् (१६०) 'अणुवेलंधर शब्दे प्रथमभागे ३६१ पृष्ठे गतम् )
(२५) लवणाधिपतेद्वीपं प्रतिपादयन्नाह - कहि रणं भंते ! सुट्टियस्य लवरात्रिइस्स गोयमदीवे णामं दीवे पम्पत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं बारसजोयण सहस्साई श्रगाहित्ता एत्थ गं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे दीवे पत्ते, बारसजोयणसहस्साई श्रायामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, जंबूदीवं तेणं अकोण उते जोयणाई चत्तालीस पंचणउतिभागे जोयस ऊसिए जलताओ लवणसमुदं, तेणं दो कोसे ऊसिते जलताओ । से णं एगाए य पउमवरवेश्याए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता तहेव वमओ दोह व । गोयमदीवस णं दीवस तो ० जाव बहुसमरमणिजे भूमिभागे पपत्ते से जहानामए आलिंग ०जाव आसयन्ति । तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुममदेस भागे, एत्थ णं सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं
कलावासेनाम भोजविहारे पमते बावहिं जोयगाई अद्धजोय उड्डुं उच्चतेगं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अगखंभसतसन्निविद्वे भवणवमत्रो भागियो | अकीलावासस्स गं भोमेजविहारस्स तो बहु समरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते० जाव मणीणं भासो । तस्सं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ एगा मणिपेढिया पण्णत्ता । सा गं मणिपेढिया दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं जोयण बाहल्लेणं सन्मणिमय अच्छा ० जाव पडिरूवा ॥ तीसे गं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं देवसयणिजे पण्णत्ते वरणओ | सेकेट्टे भंते! एवं बुच्चति - गोयमदीवे गं दीवे ?, तत्थ तत्थ तर्हि तर्हि बहूई उप्पलाई ० जाव गोयमप्पभाई से एएण्ऽद्वेगं गोयमा ! ० जाव खिचे । कहि णं भंते ! सुट्ठियस्स लवण । हिवइस्स सुट्टिया गामं रायहाणी पक्ष -
? गोयमदीवस पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेजे ० जाव मिलवणसमुद्दे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एवं तहेव सव्वं यव्वं ० जाव सुस्थिर देवे । (सू० १६१) 'कहिं भंते!' इत्यादि, व भदन्त ! सुस्थितस्य लवणापिधस्य गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रशप्तः ?, भगवानाह - गौद
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(६४७) लवएसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह म! जम्बूहीपस्य पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं द्वादश यो- अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधरा ति वा णागराया जनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे सुस्थितस्य लवणाधिपस्य गौ
अग्घा ति वा खन्ना ति वा सिंहा ति वा विजा ति वा हासतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, द्वादश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्याम, सप्तत्रिशद्योजनसहस्राणि नघ चाटाचत्वा
चट्टी ति?, हंता अस्थि । जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अरिंशानि किञ्चिद्विशेषोनानि पारक्षेपेण, 'जंबूदीवं तेण' मिति त्थि वेलंधरा ति वा णागराया अग्घा सीहा विजा ति वा जम्बूद्वीपदिशि 'अर्द्धकोननवानि '-अर्द्धमेकोननवतेर्येषां हासवट्टी ति वा तहा णं बाहिरतेमु वि समुद्देसु नानि अकोननवतीनि साष्टाशीतिसंख्यानीति भावः, ।
साद्धोटाशीतिसख्यानीति भावः, | अस्थि वेलंधराइ वा णागराया ति वा अग्घा ति वा योजनानि चत्वारिंशतं च पञ्चमवतिभागान् योजनस्य जलान्तात्-जलपर्यन्तादूर्ध्वमुच्छ्रितः, एतावान् जलस्योपरि प्र
सीहा ति वा विजातीति वा हासवट्टी ति वा ? , णो कट इत्यर्थः, लवणसमुद्रान्ते-लवणसमुद्रदिशि द्वौ कोशी ज-|
इणढे समढे ॥ ( सू० १६८ ) लवणे णं भंते ! लान्तादुच्छितो. द्वावेव कोशौ जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः । । समुद्दे किं ऊसितोदगे कि पत्थडोदगे किं खुभि' से 'मित्यादि, स एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वन
यजले किं अक्खुभियजले १ , गोयमा ! लवणे गं घर डेन सर्वतः-समन्तात्संपरिक्षिप्तः द्वयोरपि वर्णनं प्राग्वत् । तस्य च गौतमद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं
समुद्दे ऊसियोदगे नो पत्थडोदगे खुभियजले नो प्राग्वद् यावनृणानां मणीनां च शब्दवर्णनं वाप्यादिवर्णनं
अक्खुभियजले, जहा णं भंते ! लवणे समुद्दे ओसितादगे यावद्वयो वानमन्तरा देवा श्रासते शेरते यावद्विहरन्ती. नो पत्थडोदगे खुभियजले नो अक्खुभियजले तहा णं ति । तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेश
बाहिरगा समुद्दा किं ऊसिप्रोदगा पत्थडोदगा खुभियजभागेऽत्र सुस्थितस्य लवणाधिपस्य योग्यो महानेकः अतिक्रीडावासः-प्रत्यर्थ क्रीडावासो नाम भौमेयविहारः
ला अक्खुभियजला ?, गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो प्रज्ञप्तः, सार्द्धानि द्वापष्टियोजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन एकत्रिंशतं उस्सितोदगा पत्थडोदगा नो खुभियजला अक्खुभियजला च योजनानि क्रोशमेकं च विष्कम्भेन अणेगखभसयसन्नि- पुरमा पुस्मप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडविटे' इत्यादि, भवनवर्णनसुलोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं च
ताए चिट्ठति ।। अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवो ओप्राग्वत् । तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रसप्ता, सा योज
राला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति वा ?, नमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वात्मना 'म- हंता अस्थि । जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे अोराला णिमयी अच्ला यावत् प्रतिरूपा । 'तीसे ण ' मित्यादि, बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति वा तहा णं तस्या मणिपीठिकाया उपरि देवशयनीयम् ,तस्य वर्णक उप- बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेयंति यष्टाष्टमङ्गलकादिकं च प्राग्वत् । नामनिमित्तं पिपृच्छिषुराह
संमुच्छंति वासं वासंति ?, णो तिणढे समढे, से केणऽढेसे केणटेण ' मित्यादि, श्रथ केनार्थेन-केन कारणेन एवमुच्यते-गौतमद्वीपो नाम द्वीपः ?, भगवानाह-गौतमद्वी
णं भते! एवं बुञ्चति बाहिरगा णं समुद्दा पुरमा पुष्पप्पपस्य शाश्वतमिदं नामधेयं न कदाचिन्नासीदित्यादि प्रा
माणा वोलशाणा बोसट्टमाणा समभरघडियाए चिट्ठति? ग्वत् । पुस्तकान्तरेषु पुनरेवं पाठः- गोयमदीवे णं दीवे
गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीतत्थ तत्थ तहिं तहिं बहू उप्पलाई जाव सहस्स- वा य पोग्गला उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमंति चयंति पत्ताई गोयमप्पभाई गोयमवनाई गोयमवरणाभाई ' उवचयंति, से तेणऽटेणं एवं वुचति-बाहिरगा समुद्दा पुष्मा इति, एवं प्राग्वद् भावनीयः । सुस्थितश्चात्र (देवः ) लव
पुम्मप्पमाणा ०जाव समभरघडताए चिट्ठति ॥ (सू०१६६) णाधिपो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति . स च तत्र चतुणां सामानिकसहस्राणां यावत्- 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! लवणसमुद्रे षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्त्राणां गौतमद्वीपस्य सुस्थि- वेलन्धरा इति वा नागराजाः, अग्घा इति वा खन्ना इति तायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां वानमन्तराणां | वा सीहा इति वा विजाह इति वा?, अग्यादयो मत्स्यकच्छदेवानी देवीनां चाधिपत्यं यावद्विहरति, तत एवमेव पविशेषाः, प्राह च चूर्णिकृत्-" अग्घा खन्ना सीहा विजाई शाश्वतनामत्वात् , पाठान्तरे-तद्गतानि उत्पलादीनि गौ- इति मच्छकच्छभा" इति, हस्ववृद्धीजलस्येति गम्यते इति, तमप्रभाणीति गौतमानीति प्रसिद्धानि ततस्तद्योगात्तथा, भगवानाह-गौतम ! सन्ति । 'जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे तदधिपतिगौतमाधिपतिरिति प्रसिद्धम् इति सामर्थ्यादे.
वेलंधरा इति वा' इत्यादि पाठसिद्धम् लवणे णं भंते'! इत्यादि. ष गौतमद्वीप इति । उपसंहारमाह-से तेणद्वेण " लवणो भदन्त ! समुद्रः किमुच्छ्रितोदकः प्रस्तटोदकः-प्रस्तमित्यादि गतार्थम् । जी० । ( लवणसमुद्रे कियदरगाह्य टाकारतया स्थितमुदकं यस्य स तथा, सर्वतः समोदक जम्बूद्वीपगतचन्द्रसत्कादि तत्सूत्रं,लवणसमुद्रगतचन्द्रादेत्य- इति भावः, चुभितं जलं यस्य स चुभितजलस्तत्प्रतिषेधाद्वीपवक्तव्यतासूत्रं , लवणसमुद्रमवगाह्य धातकीखण्डग- | दक्षुभितजलः ?, भगवानाह-गौतम ! उच्छुितोदको न प्रस्ततचन्द्रादित्यद्वीपवक्तव्यतास्त्रञ्च 'चंददीव ' शब्दे तृती- टोदकः, क्षुभितजलो नाक्षुभितजलः॥ 'जहा ण भंते !' इत्यायमागे १०७४ पृष्ठे द्रष्टव्यानि)
दि, यथा भदन्त ! लवणसमुद्र उच्छितोदक इत्यादि तथा
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(६४) लक्षणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह बाह्या अपि समुद्राः किमुच्छ्रितोदकाः प्रस्तटोदकाः क्षुभि- गौतम ! लवणसमुद्रे उभयोः पार्श्वयोर्जम्बूद्वीपवेदिकान्तातजला अक्षुभितजलाः?, भगवानाह-गौतम! याह्याः समुद्रा | लवणसमुद्रवेदिकान्ताच्चारभ्येत्यर्थः पञ्चनवतिप्रदेशान् गन उछूितोदकाः किन्तु प्रस्तटोदकाः सर्वत्र समोदकत्वात् , | त्वा प्रदेश उद्वेधपरिवृद्धथा प्राप्तः, इह प्रदेशस्त्रसरेण्वादितथा नक्षुभितजलाः किंत्वभितजलाः क्षोभहेतुपातालकल-1 रूपो द्रष्टव्यः, पञ्चनवर्ति वालाग्राणि गत्वैकं वालाग्रमद्वेधपशाद्यभावात्, किन्तु ते पूर्णाः,तत्र किश्चिद्धीनमपि व्यवहारतः | रिवृद्धचा प्रशप्तम,एवं लिक्षायवमध्याङ्गलवितस्तिरत्निकुक्षिपूर्ण भवति तत आह-पूर्णप्रमाणाः स्वप्रमाणं यावज्जलेन धनुर्गव्यतयोजनयोजनशतसूत्राण्यपि भावनीयानि, पञ्चनवपूर्णा इति भावः, 'वोसट्टमाणा' परिपूर्णभृततया उल्लुठ-| ति योजनसहस्राणि गत्वा योजनसहस्रमुढेधपरिवृतथा प्रशनम्त वेति भावः, ' बोलट्टमाणा' इति विशेषेण उल्लुठन्त म त्रैराशिकभावना चैवं योजनादिषु द्रष्टव्या, इहोभयतोऽपि इवेत्यर्थः ' समभरघडत्ताए चिटुंति ' इति सम-परि- पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्ते योजनसहस्रमवगाहेन दृष्ट पूर्णो भरो-भरणं यस्य स समभरः परिपूर्णभृत इत्यर्थः, | ततस्त्रैराशिककर्मावतारः, यदि पञ्चनपतिसहस्रपर्यन्ते स चासो घटश्च समभरघटस्तद्भावस्तसा तया सम- योजनसहस्रमवगाहस्ततः पञ्चनवतियोजनपर्यन्ते कोऽवगा. भृतघट इव तिष्ठन्तीति भाषः ॥'अस्थि णं भंते ! ' इत्या- | हः?, राशित्रयस्थापना-६५००० ११००० । ६५ । अत्रादिम. दि, अस्त्येतद्भदन्त ! लवणसमुद्रे' ओगला बलाहका ' | ध्ययो राश्योः शून्यत्रयस्यापवर्तना ६५ | १६५॥ ततो मध्यउदारा मेघाः संस्विद्यन्ते-संमूर्छनाभिमुखीभवन्ति, तद-| स्य राशेरेकरूपस्य अन्त्येन पञ्चनवतिलक्षणेन राशिना गुखनन्तरं संमूर्छन्ति, ततो वर्षम्-पानीयं वर्षन्ति ?, नात् जाता पञ्चनवतिः, तत्रायेन राशिना पश्चनवतिलक्षणेन भगवानाह-हन्त ! अस्ति ॥ 'जहा णं भंते ! लवणसमुदे'। विभज्यते लब्धमेकं योजनम् , उक्तश्चइत्यादि प्रतीतम् ॥' से केण्टुण'.मित्यादि, अथ केनार्थेन __ "पंचाणउइसहस्से, गंतूणं जोयणाणि उभो वि। भदन्त ! पचमुच्यते बाह्याः समुद्राः पूर्णाः-पूर्णप्रमाणाः ' जोयणसहस्समेगं, लवणे श्रोगाहो होइ ॥१॥ इत्यादि प्राग्वत् , भगवानाह-गौतम ! बाह्येषु समुद्रेषु पंचाणउईणवगे, (लवणे ) गंतूणं जोयणाणि उभो वि। यहव उदकयोनिका जीयाः पुतलाश्चादकतया अपक्रान्ति- जोयणमेगं लवणे, ओगाहेणं मुणेयव्वा ॥२॥" गच्छन्ति व्युत्क्रामन्ति-उत्पद्यन्ते, एके गच्छन्त्यन्ये उत्प- पञ्चनवतियोजनपर्यन्ते च यद्येकं योजनमवगाहस्ततोऽर्थाघम्त इति भावः, तथा ' चीयन्ते ' चयमुपगर छन्ति उप- त्पश्चनवतिगव्यूतपर्यन्ते एकं गव्यूतं पश्चनवतिधनुःपर्यन्ते चीयन्ते-उपचयमायान्ति. पतञ्च पुद्गलान् प्रति द्रष्टव्यम् , एकं धनुरित्यादि लब्धम् । सम्प्रत्युत्सेधमधिकृत्याह-'लवपुगलानामेव चयोपचयार्थप्रसिद्धः, ' से एएण्टेण' मित्या
णे णं भंते ! समुहे' इत्यादि , लवणो भदन्त! समुद्रः किघुपसंहारवाक्यं प्रतीतम् ।
यत् कियन्ति योजनानि उत्सेधपरिवृद्धया प्राप्तः ?, (२६) सम्प्रत्युद्धेधपरिवृद्धि चिचिन्तयिषुरिदमाह- एतदुनं भवति-जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रवेदिकान्तालवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उव्वेहपरिवुड्डीए पाते ?,
चारभ्योभयतोऽपि लवणसमुद्रस्य कियत्या कियत्या
मात्रया कियन्ति योजनानि यावदुत्सेधपरिवृद्धिः ?, गोयमालवणस्स णं समुदस्स उभो पासिं पंचाणउति पं
भगवानाह-गौतम ! 'लवणस्स ण समुहस्से' त्यादि, इह चाणउति पदेसे गंता पदेसं उध्वेहपरिघुड्डीए परमत्ते,पंचाण- निश्चयतो लघणसमुद्रस्य जम्बूद्वीपवेदिकातो लवणसमुद्रउति पंचाणउति वालग्गाई गंता वालग्गं उव्वेहपरिबुड्डीए, वेदिकातश्च समतले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धिरङ्गालसंख्येयपएणत्ते, पंचाण लिक्खाओ गंता लिक्खा उव्वेहपरि०
भागः, समतलमेव भूभागमधिकृत्य प्रदेशवृद्धया जलवृद्धिः
क्रमेण परिवर्द्धमाना तावदवसेया यावदुभयतोऽति पञ्चनवपंचाणउइ जवाओ जवमज्झे अंगुलविहत्थिरयणीकुच्छी
तियोजनसहस्रपर्यन्ते सप्तशतानि, ततः परं मध्यदेशभागे धणु ( उन्वेहपरिवुड्डीए ) गाउयजोयणजोयणसतजोयण- दशयोजनसहस्रविस्तारे षोडशयोजनसहस्राणि, इह तु सहस्साइं गंता जोयणसहस्सं उव्वेहपरिवुड्डीए ॥ लवणे षोडशयोजनसहनप्रमाणायाः शिखायाः शिरसि उभणं भंते ! समुद्दे केवतियं उस्सेहपरिवुड्डीए पएणत्ते , |
योश्च वेदिकान्तयोर्मूले दवरिकायां दत्तायां यदपान्त
राले किमपि जलरहितमाकाशं तदपि करणगत्या तदागोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभो पासिं पंचाणउति
भाव्यमिति स जलं विवक्षित्वाऽधिकृतमुच्यते-लवणस्य पदेसे गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवुड्डीए परमत्ते, गोयमा! समुद्रस्योभयतो जम्बूद्वीपवेदिकान्तल्लवणसमुद्रवेदिकान्तालवणस्स णं समुदस्स एएणेष कमेणं जाव पंचाणउति व पञ्चनधर्ति प्रदेशान् गत्वा षोडश प्रदेशा उत्सेधपरिवृद्धिः पंचाणउति जोयणसहस्साई गंता सोलस जोयणसहस्साई
प्रशप्ता, पञ्चनवर्सि वालाप्राणि गत्वा षोडश वालाप्राणि, एवं
यावत् पश्चनवति योजनसहस्राणि गत्वा षोडश योजनसहउस्सेहपरिवुड्डीए परमत्ते । [सू० १७०]
स्राणि। अत्रेयं त्रैराशिकभावना-पश्चनपतियोजमसहस्रातिकलवणे भंते ! समुहे 'इस्यादि लघणो भदन्त ! समुद्रः मे घोडशयोजनसहस्राणि जलोत्सेधस्ततः पश्चनवतियोजनाकियत्' कियन्ति योजनानि यावद उवेधपरिवृया प्राप्तः, तिक्रमे क उत्सेधः?, राशित्रयस्थापना-६५०००।१६०००६ किमुक्नं भवति ?-जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रघोदिका- अत्रादिमध्ययो राश्योः शून्यत्रिकस्यापवर्समा १५।१६ । १५, न्ताचारभ्योभयसोऽपि लषणासमुद्रस्य कियन्ति योजनानि ततो मध्यमराशेः षोडशलक्षणस्यान्त्येन पश्चनपतिलक्षणेन पावत मात्रया मात्रया उद्धेघपरिबृद्धिरिति, भगवानाह- गुणने जातानि पञ्चदश शतानि विशत्यधिकामि १५२०,
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(६४६), लवणसमुद्द अभिधानराजेन्द्रः।
लवणसमुह एषामादिराशिना पश्चनवतिलक्षणेन भागेहते लब्धानि षो-| सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहेणं सत्तरस जोयणसहस्साई डश योजनानि, उक्तञ्च
सव्वग्गेणं परमत्तं । (सू० १७२) " पंचाणउइसहस्से, गंतूर्ण जोयणाणि उभो थि।
| ' लवणे णं भंते' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किंउस्सेहेणं लवणो, सोलससाहस्सिो भणिो ॥१॥
संस्थितः प्राप्तः १. भगवानाह-गौतम ! गोतीर्थसंस्थानपंचाणउई लवणे, गंतूणं जोयणाणि उभश्रो वि ।
संस्थितः क्रमेण नीचैर्नीचैस्तरामुद्वेधस्य भावात् , नावासंउस्सेहेण लवणो, सोलस किल जोयणे होइ ॥२॥"
स्थितः बुध्नादुई नाव इव उभयोरपि पार्श्वयोः समतल तत्र यादे पश्चनवतियोजनपर्यन्ते षोडशयोजनावगाहस्त
भूभागमपेक्ष्य क्रमेण जलवृद्धिसम्भवेन उन्नताकारत्वात् , तोऽर्थालभ्यते पश्चनवतिगब्यूतपर्यन्ते षोडश गव्यूतानि पञ्च- 'सिप्पसंपुडसंठिते ' इति शुक्तिकासंपुटसंस्थानसंस्थितः, नवतिधनुःपर्यन्ते षोडश धनूंषीत्यादि।
उद्वेधजलस्य जलवृद्धिजलस्य चैकत्र मीलनचिन्तायां शु(२७) सम्प्रति गोतीर्थप्रतिपादनार्थमाह
निकासंपुटाकारसादृश्यसम्भवात्, 'अश्वस्कन्धसस्थितः' लवणस्स णं भंते ! समुदस्स के महालए गोतित्थे परम-|
उभयोरपि पार्श्वयोः पश्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्तेऽश्वस्क
न्धस्येवोन्नततया षोडशयोजनसहस्रप्रमाणोच्चस्त्वयोः शिते?, गोयमा! लवणस्सणं समुदस्स उभो पासिं पं-1
खाया भावात् , वलभीसंस्थितः-बलभीगृहसंस्थाचाणउति पंचाणउति जोयणसहस्साई गोतित्थं पएणतं ।। नसंस्थितः दशयोजनसहस्रप्रमाणविस्तारायाः शिखाया लवणस्स णं भंते समुद्दस्स के महालए गोतित्थविरहिते | वलभीगृहाकाररूपतया प्रतिभासनात् , तथा वृसो लवणसखेत्ते पएणते ?, गोयमा! लवणस्स णं समुद्दस्स दस |
मुद्रो वलयाकारसंस्थितः, चक्रवालतया तस्यावस्थानात् ॥
सम्प्रति विष्कम्भादिपरिमाणमेककालं पिपृच्छिषुराहजोयणसहस्साई गोतित्थविरहिते खेते पएणत्ते । लवण- 'लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः स्स णं भंते ! समुदस्स के महालए उदगमाले पएणत्ते १, कियच्चक्रवालविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण कियदुवेधेनगोयमा ! दस जोयणसहस्साई उदगमाले पएणत्ते ।।
उण्डत्वेन कियदुत्सेधेन कियत्सर्वाग्रेण-उत्सेधोवेधपरि
माणसामस्त्येन प्रशमः ?, भगवानाह-गौतम ! लषणस(सू० १७१)
मुद्रो द्वे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेन प्राप्तः, पश्चलवणस्स ण भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्र-1 दश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतं चैकोम्य किं महत्-किं प्रमाणमहत्त्वं गोतीर्थ प्राप्तम् ? । गोती-1 नचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेपेण प्राप्तः, एकं योजथमिव गोर्तार्थ-क्रमेण नीचो नीचतरः प्रवेशमार्गः, भगवा- नसहनमुद्वेधेन, षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधेन, सप्तदश नाह-गौतम ! लवणस्य समुद्रस्योभयोः पार्श्वयोर्जम्बूद्वी
योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण उत्सेधोद्वेधमीलनचिन्तायाम् । पवेदिकान्तालवणसमुद्रवेदिकान्ताचारभ्येत्यर्थः पञ्चनवर्ति इह लवणसमुद्रस्य पूर्वाचार्यैर्घनप्रतरगणितभावनाऽपि योजनसहस्राणि यावद् गोतीर्थ प्राप्तम् , उक्तश्च-" पंचारण--
कृता सा विनेयजनानुग्रहाय दय॑ते, तत्र प्रतरभावना क्रिउइसहस्से गोतित्थं उभयतो वि लवणस्स" इति । 'लव
यते-प्रतरानयनार्थ चेदं करणम् , लवणसमुद्रसत्कषिगस्स णं भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य
स्तारपरिमाणाद् द्विलक्षयोजनरूपाद दश योजनसहस्राणि कि महत्-किं प्रमाणमहत्त्वं गोतीर्थविरहितं क्षेत्र प्राप्तम् ?,
शोध्यन्ते, तेषु च शोधितेषु यच्छेषं तस्याई क्रियते, जाभगवानाह-गौतम! लवणस्य समुद्रस्य दश योजनसह
तानि पञ्चनवतिः सहस्राणि, यानि च प्राक शोधितानि स्राणि गोतीर्थविरहितं क्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । लवणस्स णं भंते !'
दश सहस्राणि तानि च तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं लक्षइत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य किं महती-विस्तरम
म् १०५०००, एतच्च कोटीति व्यवहियते, अनया च कोधिकृत्य किं प्रमाणमहत्त्वा उदकमाला-समपानीयोपरिभूता!
ट्या लवणसमुद्रस्य मध्यभागवत- परिरयो नव लक्षा अष्टषोडशयोजनसहस्रोच्छ्या प्रशता ?. भगवानाह-गौतम!|
चत्वारिंशत्सहस्राणि षट् शतानि व्यशीत्यधिकानि दश योजनसहस्राणि उदकमाला प्रज्ञप्ता ।
६४८६८३, इत्येवं परिमाणो गुण्यते, ततः प्रतरपरिमाण
भवति , तश्चेदं-नवनवतिः कोटिशतानि एकषष्टिः कोटयः (२८) लवणसमुद्रः किंसंस्थानसंस्थितः
सप्तदश लक्षाः पञ्चदश सहस्राणि ६६६११७१५०००, उक्तश्चलवणे णं भंते ! समुद्दे किं संठिए पामते ?, गोयमा! " वित्थाराश्रो सोहिय, दस सहस्साई सेसनद्धम्मि । गोतित्थसंठिते नावासंठाणसंठिते सिप्पिसंपुडसंठिए आस- तं चेव पक्खिवित्ता, लवणसमुहस्स सा कोडी ॥१॥ खंघसंठिते बलभिसंठिते वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते पण.
लक्ख पंच सहस्सा, कोडीए तीऍ संगुणेऊणं ।
लवणस्स मज्झपरिही, ताहे पयरं इमं हो ॥२॥ ते! लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविवखंभेणं?
नवनउई कोडिसया, एगट्टी कोडिलक्खसत्तरसा । केवतियं परिक्खेवेणं? केवतिय उव्वेहेणं केवतियं उस्से
पन्नरस सहस्साणि य, पयरं लघणस्स निद्दिटुं ॥३॥" हेणं ? केवतियं सव्वग्गेणं पम्मत्ते?, गोयमा! लवणे णं समुद्दे घनगणितभावना त्वेवम्-इह लवणसमुद्रस्य शिखा दो जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं परमरस जोयण
षोडश सहस्राणि योजनसहनमुद्वेधः सर्वसंख्यया स
सदश सहस्राणि, तैः प्राक्तनं प्रतरपरिमाणं गुण्यते सतमस्साई एकासीतिं च सहस्साई सतं च इगुयालं
ततो धनगुणितं भवति , तच्चेदम्-षोडश कोटीकोटकिंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, एगं जोयणसहस्सं उबेहेणं । यस्त्रिनवतिः कोटिशतसहस्राणि एकोनचत्वारिंशत् कोटि
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( ६५० ) अभिधानराजन्द्रः । सहस्राणि नव कोटिशतानि पञ्चदशकोट्याधिकानि पश्वाशल्लक्षाणि योजनानामिति १६६३३६६१५५००००००,
लवण समुद्द
जोयणसहस्ससोलस, लवणसिहाऽहोगया सहस्सेगं । पयरं सत्तरसह- स्लसंगुणं लवणघणगण्यिं ॥ १ ॥ सोलसकोडाकोडी, ते उई कोडिसय सहस्साश्रो । उणयालीससहस्सा, नव कोडिसया य पनरसा ॥ २ ॥ पन्नास सयसहस्सा, जोयण्याणं भवे अणूणाई । लवणसमुहस्सेयं, जोयणसंखाऍ घणगणियं ॥ ३ ॥ " श्राह - कथमेतावत्प्रमाणं लवणसमुद्रस्य घनगणितं भयति १, न हि सर्वत्र तस्य सप्तदशयोजनसहस्रप्रमाण उepयः, किन्तु मध्यभाग एव दशसहस्त्रप्रमाणविस्तारस्ततः कथं यथोक्तं घनगणितमुपपद्यते ? इति, सत्यमेतत्, केवलं लवणशिखायाः शिरसि उभयोश्च वेदिकान्तयोरुपरि दवरिकायामेकान्त ऋजुरूपायां दीयमानायां दीयमानायां यदपान्तराले जलशून्यं क्षेत्रं तदपि करणगत्या तदा भाव्यमिति सजलं विवक्ष्यते श्रत्रार्थे च दृष्टान्तो मन्दरपर्वतः, तथाहि- मन्दरपर्वतस्य सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिरुपवते अथ च न सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिः, किन्तु - कापि कियती, केवलं मूलादारभ्य शिखरं यावद्दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले कापि कियदाकाशं तत्सर्वं करणगत्या मेरोराभाव्यमिति मेरुतया परिकल्य गणितज्ञाः सर्वत्रैकादशपरिभागहानिं परिवर्णयन्ति तद्वदिदमपि यथोक्तं धनपरिमाणमिति, न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितम्, यत श्राह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणो विशेषण व त्यामेतद्विचारप्रक्रमे - "एवं उभयवेदयंताओ सोलसहस्सुस्सेहस्स कन्नगईए जं लव
समुद्दाभवं जलसुनं पि खेत्तं तस्स गणियं, जहा मंदरपव्वयस्स एक्कारसभागपरिहाणी कन्नगईए श्रागासस्स वि तदा भव्वं ति काउं भणिया तहा लवणसमुहस्स वि । " इति । जाणं भंते! लवणसमुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कबालविक्खंभेणं पारस जोयणसतसहस्साई एकासीति व सहस्साई सतं इगुयालं किंचि विसेसूणा परिक्लेवेणं एगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साई उस्सेधेणं सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते । कम्हाणं भंते! लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं णो उवलेति नो उप्पीलेति नो चेव गं एक्कोदगं करेति १, गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे भरवसु वासेसु अरहंतचकवट्टिबल - देवा वासुदेवा चारणा विजाधरा समणा समणी ओ सावया साविया मणुया एगधचा पगतिभद्दया पगतिविष्ठीया पगतिउवसंता पगतिपयणुको हमाणमायालोभा मिउमद्दवसंपन्ना अलीणा महगा विणिता, तेसि
पणिहाते लवणे समुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेति नो उप्पीलेति नो चेत्र णं एगोदगं करेति, गंगासिधुरaa सलिला देवया महिड्डियाओ ० जाव पलिओ वमद्वितिया परिवसंति, तेसि णं पणिहाए लवणसमु • जाव णो चेव णं एगोदगं करेति, चुल्ल हिमवंत
**
उक्तश्च-
1
For Private
लवण समुद्द
1
सिहरेसु वासहरपव्वसु देवा महिड्डिया तेसि णं पणिहाए० हेमवतेरण्णवतेसु वासेसु मणुया पगतिभद्दगा० रोहितंस सुवरण कूल रुप्पकूलासु सलिलासु देवयाओं महिड्डियाओ तासिं पणि० सद्दावतिवियडावतिबट्टवेयड्डू - पव्वतेसु देवा महिड्डिया० जाव पलिश्रोत्रमद्वितिया पवि० महाहिमवंत रुप्पिस वासहरपव्वतेसु देवा महिड्डिया० जाव पविमद्वितिया हरिवासरम्मयवासेसु मणुया पगतिभहगा गंधावतिमालवंतपरितासु वट्टवेयड्डूपव्वतेसु देवा महिड्डिया, शिसढनीलवंतेसु वासधरपव्वतेसु देवा महिड्डिया०, सव्वाश्र दहदेवयाओ भाणियव्वा
पउमद्दहतिगिच्छिके सरिदहावसासु देवा महिड्डियाश्रोतासि पणिहाए०, पुव्वविदेहावरविदेहेसु वासेसु श्र रहंतचक्कवट्टीबलदेवा वासुदेवा चारणा विजाहरा समणा समणी ओ सावगा सावियाओ मणुया पगति० तेसिं पणिहाए लवण, सीयासीतोदगासु सलिसासु देवता महिड्डिया०, देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगतिभद्दगा०, मंदरे पव्वते देवता महिड्डिया०, जंबूए य सुदंसणाए जंबूदीवाहित श्रणाढिए गामं देवे महिड्डिए० जाव पलिश्रमवद्वितीय परिवसति, तस्स पणिहाए लवणसमुद्दे नो उवीलेति णो उप्पीलेति नो चेव णं एकोदगं करेति, अ दुत्तरं च गोयमा ! लोगट्ठिती लोगाणुभावे जएगं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेति नो उप्पीलेति नो चैव गमेगोदगं करेति ॥ ( सू० १७३ )
' जइ णं भंते ! ' इत्यादि, यदि भदन्त ! लवणसमुद्रो द्वे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेन पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतं चैकोनचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषानं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, एकं योजनसहस्रमुद्वेधेन षोडश योजन सहस्राण्युत्सेधेन सप्तदश योजन सहस्राणि सर्वाग्रेण प्रशप्तः, तर्हि कम्हा गं भंते ! ' इत्यादि, कस्माद् भदन्त ! लवणसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं न अवपीडयति - जलेन सावयति, न उत्पीडयतिप्राबल्येन बाधते नापि समिति वाक्यालंकृती एकोदकं - सर्वात्मनोदकल्पावितं करोति ?, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे भरतैरावतयोः क्षेत्रयोरर्हन्तश्चक्रवर्त्तिनो व लदेवा वासुदेवाः चारणा: - जङ्घाचारणमुनयो विद्याश्रमणाः - साधवः श्रमरायः - संयत्यः श्राविकाः, एतत् सुषम दुष्पमादिकमारक त्रयमपेक्ष्योक्तं वेदितव्यम्, तत्रैवार्हदादीनां यथायोगं सम्भवात्, सुषमसुमादिकमधिकृत्याह - मनुष्याः प्रकृतिभद्रकाः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभाः मृदुमार्दवसंपन्ना श्रालीना भद्रका विनीताः, एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत् तेषां प्रणिध. या प्रणिधानं - प्रणिधा, ' उपसर्गादात ' इत्यङ् प्रत्ययः, तान् प्रणिधाय अपेक्ष्य तेषां प्रभावत इत्यर्थः, लसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं नात्रपीडयतीत्यादि, दुष्षम
धराः
श्रावकाः
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लवणसमुह अभिधानराजेन्द्रः।
लवसत्तम दुषमादावपि नावपीडयति, भरतवैताब्याद्यधिपतिदेवता- (१४) तत्रोपपातसभाप्रतिपादनम् । प्रभावात् , तथा खुल्लहिमवच्छिखरिणोर्वर्षधरपर्वतयोर्देव- (१५)विजयदेवाभिषेकः।। ता महर्टिका यावत्करणान्महाद्युतिका इत्यादिपरिग्रहः |
(१६) लवणसमुद्रास्थिताया विजयराजधान्या अधिपतेपरिवसन्ति तेषां प्रणिधया-प्रभावेन लवणसमुद्रो ज
र्षिजयदेवस्य निष्क्रमणादिवर्णनम् । म्बूद्वीपं द्वीपं नावपीडयतीत्यादि, तथा हैमवतहेरण्यव-|
(१७)विजयदेवस्य तन्महिषीणां च निषीदनादिप्रतिपादनम् । तोर्वर्षयोर्मनुजाः प्रकृतिभद्का यावत् विनीतास्तेषां प्र
(१८) लवणसमुद्रगतवैजयन्तद्वारप्रतिपादनम् । णिधयेत्यादि पूर्ववत् , तथा तयोरेव वर्षयोयौं यथाक्रम
(१६) लवणसमुद्रनित्यतादर्शनम् । शब्दापाविकटापातिनौ वृत्तवैताब्यौ पर्वतौ तयोर्देवी
(२०) लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसंख्याप्रतिपादनम् ।
(२१) लवणसमुद्रशिखावक्तव्यता। महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतस्तेषां प्रणि
(२२) लवणसमुद्रवेलाधारकवेलन्धरादिनागराजानां संधयेत्यादि पूर्ववत् । तथा महाहिमवढुक्मिवर्षधरपर्वतयो
ख्या तेषां वक्तव्यता च । देवता महर्द्धिका इत्यादि तथैव । तथा हरिवर्षरम्यकपर्ष
(२३) दकाभासवतव्यता। योर्मनुजाः प्रकृतिभद्रका इत्यादि सर्व हैमवतवत्, तथा
(२४) संखवक्तव्यता। तयोः क्षेत्रयोर्यथाक्रमं गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायौ यो वृत्त
(२५) लवणाधिपतेपप्रतिपादनम् । वैताख्यपर्वतौ तयोर्देवौ महर्द्धिकावित्यादि पूर्ववत् । तथा| (२६) उद्वेधपरिवृद्धिचिन्तनम् । पूर्वविदेहापरविदेहवर्षयोरर्हन्तश्चक्रवर्तिनो यावन्मनुजाः प्र-1 (२७) लवणसमुद्रगोतीर्थप्रतिपादनम् । कृतिभद्रका यावद् विनीतास्तेषां प्रणिधयेत्यादि पूर्ववत्। (२८) लषणसमुद्रः किंसंस्थानसंस्थित इत्यस्य वर्णनम् । तथा देवकुरुत्तरकुरुषु मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद्विनी
लवणिया-लवणिका-स्त्री०। दिगम्बरप्रसिद्ध साधूपकरणे, तास्तेषां प्रणिधयेत्यादि पूर्ववत् । तथा उत्तरकुरुषु कुरुषु
आचा०१ श्रु०२ १०५ उ०। जम्न्यां सुदर्शनायामनारतो नाम देवो जम्बूद्वीपाधिपतिः
लवणोद-लवणोद-पुं० । लवणमिवोदकं यत्र स लवणोदः । परिवसति तस्य प्रणिधयाँ-प्रभावेनेत्यादि तथैव । -1
समुद्रे, स्था०२ ठा० १ उ० । थान्यद् गौतम ! कारणम् , तदेवाह-लोकस्थितिरेषा-लोकानुभाव एष यल्लवणसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं जलेन ना- लवमत्त-लवमात्र-नास्ताकमात्रपारामतकाले, पो०८विध०। वपीडयतीत्यादि । तृतीयप्रतिपत्तावेष मन्दोदेशकः समा-| लवली-लवली-स्त्री० । गन्धवद्वक्षविशेषे, आचा० १ थु. तः । (जी०) लवणसमुद्रा असंख्येयाः। जी०३ प्रति०२ उ०।। १०५ उ०। भरतक्षेत्रसम्बन्धिमागधादितीर्थानि जगत्या अर्वाक् सन्ति | लवसत्तम-लवसप्तम-पुं० । पश्चानुत्तरविमानस्थदेवेषु, खू.. लवणसमुद्रे वेति प्रश्ने ? अत्रोत्तरं-भरतक्षेत्रसम्बन्धिमाग- १०१ श्रु०६०। धादितीर्थानि जगत्याः परतो लवणसमुद्रेऽवसीयन्ते, यतो
___ सम्प्रति लवसप्तमदेवस्वरूपमाहजम्बूद्वीपसमासे भरतक्षेत्रवर्मनाधिकारे मागधवरदामप्र- सत्त लवा जइ आऊ, पहु प्पमाणं ततो उ सिझन्तो। भासतीर्थद्वारमित्याधुनमस्तीति ॥ २६ ॥ सेन० १ उल्ला० । तत्तियमेत्तं न ह ततो. ते लवसत्तमा जाया ॥ १३२.॥ लवणसमुद्रे वृद्धकलशानां लघुकलशानां च मुखानि सर्वथा यदि सप्त लवाः-कालविशेषा आयुः प्रभवेत्-स्यात् सप्तलवपानीयस्याधो वर्तन्ते किं वा सहस्रयोजनानामुपरीति प्रमाणं यद्यायुःप्राप्येतेत्यर्थः ततः सिध्येयुः परं सत् भायुस्ताप्रश्ने ?, अत्रोत्तरं कलशानां मुखानि पानीयस्याधो भूमिस- वन्मात्रम् , (न हु-)नैव अभवत् ततस्ते लवसप्तमा देवा जाता म्बद्धानि वर्तन्त इति प्रवचनसारोद्धारसूत्रवृत्तिक्षेत्रसमा
लवे सप्तमे सिद्धिरभविष्यत् , यदि तावदायुभवेधेषां ते लवसानुसारेण शायत इति ॥ १४०॥ सेन० ३ उम्झा० ।
सप्तमाः " नाम-नाम्नेकार्थे समासो बहुलम्" ॥३॥१॥१८॥ विषयसूची
इति समासः।
के ते लवसप्तमा इत्याह(१) लवणसमुद्रवक्तव्यता।
सव्वट्टसिद्धिनामे, उक्कोसठिई य विजयमादीसु । (२) लवणसमुद्रचक्रवालविष्कम्भादिपरिमाणम् ।
एगावसेसगम्भा, भवंति लवसत्तमा देवा ॥ १३३ ॥ (३) लवणसमुद्रवनखण्डवर्णकः। (५) लवणसमुद्रद्वारवक्तव्यता।
ये देवाः सर्वार्थसिद्धिनामके महाविमाने ये च विजयादिषु(५) लवणसमुद्रविजयद्वारनधिक्यां चन्दनकलशवर्णनम्।।
स्कृष्टस्थितय एकोऽवशेषो गर्भो येषां ते एकावशेषगर्भास्ते
भवन्ति लवसप्तमाः । व्य०५ उ०। (६) लवणसमुद्रविजयद्वारशालभाञ्जिकावर्णनम् ।
अस्थि णं भंते लवसत्तमा देवा लवस०१,हंता अस्थि से (७) लवणसमुद्रविजयद्वारपीठादिवर्णनम्। (८) लवणसमुविजयद्वारचक्रध्वजादिप्रतिपादनम् ।
केणऽद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ लवसत्तमा देवा लवसत्तमा (१) लवणसमुद्रगतविजयराजधानीवनखण्डवर्णनम्। । देवा ?, गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे. (१०) लवणसमुद्रे विजयदेवसभा।
जाव णिउणसिप्पोवगए सालीण वा वीहीण वा गोधूमाण (११) लवणसमुद्रविजयद्वारस्य चैत्यवृक्षमणिपीठिकानां
वा जवाण वा जवजवाण वा पक्काणं परियाताणं हरियाणं महेन्द्रध्वजादीनां च प्रतिपादनम् । (१२) लवण समुद्रविजयद्वारमणिपीठिकावर्णनम् ।
हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपञ्जणएणं असियएणं पडि(१३ ) सुधर्मासभायाः सिद्धायतनादिप्रतिपादनम् ।
साहरिया पडिसाहरिया पडिसंखिविया पडिसंखिविया०
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लबसतम
जावइयामेव इणामेवेति का सचलवर एज्जा, जइ गोयमा ! तेसि देवाणं एवतियं कालं श्राउए बहुप्प तथो णं ते देवा तेणं चैव भव॰गहणेण सिज्झन्ता० जाव अंतं करेंति । से तेऽट्टें० जाव लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा । (०५२५)
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'मित्यादि, सवाः शाल्यादिकयलिका लगनकिया प्रमिताः कालविभागाः सप्त सप्त संख्यामानं प्रमा यस्य कालस्यासौ लवसप्तमस्तं लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति सति ये शुभाध्यवसायप्रवृत्तयः सन्तः सिद्धिं न गता श्र पि तु देवेत्पन्नास्ते लपससमास्ते च सर्वार्थसिद्धाभिधाना नुत्तरसुरविमाननिवासिनः, ' से जहानामए ति स कश्चि यथानामको निर्दिष्टनामा पुरुषः ' तरुणे ' इत्यादेर्व्याख्यामं प्रागिव ' पक्काणं ति पकानाम् ' परियायाणं ' ति । पर्ययगतानां लवनीयावस्थां प्राप्तानाम्, हरियाएं "ति पिङ्गभूतानाम् ते च पत्रापेक्षयाऽपि भवन्तीत्याह-दरियर्कडा ' ति पिङ्गीभूतजालानाम् । नवपज्जणपणे ' ति, मयं प्रत्यन्नं पञ्जयंति प्रतापितस्यायो धनकुट्टमेन तीदणीकृतस्य पायनं जलनिवोलनं यस्य तन्नवपायनं तेन असियपति दात्रेण पडिसाहरिय चि प्रतिसंहृत्य वि । कीर्णनालान् बाहुना संगृह्य पडिसंविविय ति मुष्टिग्रहणेन संक्षिप्य जावामेव इत्यादि प्रज्ञापकस्प वचनक्रिया शीघ्रत्योपदर्शनपर चप्पुटिकादिहस्तव्यापारसूचकं वचनम् ।' सत्तलव इति लूयन्त इति लवाः शाल्यादिनालमुष्ट्रयस्तान् लवान् 'लुएज' त्ति लुनीयात्, तत्र च सप्तलवलवने यावान् कालो भवतीति वाक्यशेषो दृश्यः, ततः किमित्याह-— जइ णं ' इत्यादि, ' तेसि देवाण, ति द्रव्यदेवत्वे साध्ववस्थायामित्यर्थः ' ते स चैव प्ति यस्य भवग्रहणस्य सम्बन्धि श्रायुर्न पूर्णे तेनैव, मनुष्यभवनेत्यर्थः । भ० १४ श० ७ उ० । लवालव-लवालव-पुं० । कालानुपेक्षणेन सामाचार्यनुष्ठाने,
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स० ३२ सम० । प्रश्न० आव० ।
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वालयोदाहरणमाह
किं मे कई किश्चमि
" भरुत्थमि श्रविज्जप, नगपिडर वास वासमागहरे । ठवणा आयरिअस्ल उ, सामायारीपउंजण्या ॥ १ ॥ प्रासीद् भृगुपुरे सूरि-रेकस्तेन निजो ( नि ) स्तिषत् । विजयी पुर्या कार्येण केनचित् ॥ २ ॥ स च ग्लानादिकार्येण व्यापादन्तरे स्थितः ।
(६५२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
कालवण, भूरभूदण्डकाकुला || ३ || वर्षावास नटपिट प्रामे नापि स्थितः । कर्तु गुरुकुलावासं, न्यधत्त स्थापनागुरुम् ॥ ४ ॥ काले माह कृत्वा वावश्यकं विधिपूर्वकम् । कालं प्रवेद्य पश्चाच्च कृत्वा स्वाध्यायमुत्तमम् ॥ ५ ॥ एवमाश्यायांस सामाचारी व्यधान्मुनिः । म किञ्चन विसस्मार सोपयोगः क्षये ॥ ६ ॥
किं सक िन समापरामि
किं मे परो पासह किञ्च श्रप्पा,
किं वाह खलिश्रं च विवज्जयामि ॥ ७ ॥
लहुत्तरग भाव्यं चिन्तापरेणैव, सर्वदैव हि साधुना ॥ श्र० क०४ अ०
लवावसंकि- लवावशङ्किन् - त्रि० । लवं कर्म्म तस्मादपशङ्कि— तुमपस शीलं येषां ते लवापशङ्किनः । कायतिकेषु शाक्यादिषु च । " लवावसंकी य अणागरहिं, यो किरियमाहंसु अकिरियबादी । " सूत्र० १ ० १२ अ० ।
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लवावसप्पि लवावसर्पिन् त्रि० सयं कर्म तस्माद् असप्पियो अवसर्पिणः यदनुष्ठानं कर्मवन्धोपादानभूतं तत्परिहारिषु खीखोदगपडिदुर्गाड़ियो अडिस लवावसप्पिो' । सूत्र० १ श्रु० ७ ० ।
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लसह देशी कामे, दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा । लसक-देशी-तरुक्षीरे, दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा । लसुन - देशी-तेले, दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा ।
,
लमुख लशुन-१०] कन्दविशेषे उत्त० २९ ०० ( लशुनं सचित्तमचितं वेति सति शब्देवयते) लहरी - लहरी - स्त्री० । उत्कलिकायाम्, स्था० ४ ठा० ३ ॐ० । लहु-लघु-१० शीमे ० १ ० पा० प्रश्न० । प्रायस्तिर्यगांधी गमनहेतो धर्कादिनिःस्पर्शमे अनु 'एगे लहुए' । स्था० १ठा०। विशे० कर्म० लघुस्परीवद्रव्ये, य
"
।
.
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इयं निसर्गत एवोर्ध्वगतिस्वभावं तशघु पथा दीपफलकादि । श्र०म० अ० । (श्रथ किं गुरु किं लघु किं वा अगुरुलघु इति अगल शब्दे प्रथमभागे १५७ पृष्ठे दर्शितम् ) अणुके, स्था० ५ ठा० १ उ० । गुणगौरवरहिते, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार | लघुपञ्चकादौ प्रायश्चित्ते, व्य० १ उ० । लहुअकड - देशी - न्यग्रोधे, दे० ना० ७ वर्ग २० गाथा । लहुइय त्रि० । (देशी) तुलिते, “लहुइअं श्रहामिश्रं तुलि
पाइ० ना० १८७ गाथा ।
लहुत्तरंग-लघूनरकव्य० २ उ० ।
"
लहुकरण- लघुकरण - न० । गमनादिकायां शीघ्रक्रियायाम्, ज्ञा० १ श्रु० ३ अ०।" लहुकरणजुत्तजोइयं" लघुकरणेन दक्षस्वेन ये युक्ता पुरुषास्तेयोंजितं यन्त्ररूपादिभिः सम्पति यत्तत्तथा । उपा० ७ ० । लघुकरणं शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्ती योगिकी व प्रशस्त योगयन्ती प्रशस्तसदरूपत्वाद् यौ तौ तथा । भ० ६ ० ३३ उ० । लडुग- लघुक-पुं० षष्ठभक्तकरणतः पूरणीये शिवसपरिमाणे प्रायधितव्यवहारे, व्य० २ ० ० गौरवश्यत्यागात् लाघववति, प्रश्न० ५ संव० द्वार । एकः पार्श्वस्थादिर्मूलकर्मादिषु दुष्टकर्मकारी परं शुद्धप्ररूपको - पर उत्सूत्ररूपकः परं तपःप्रभृति भूयः क्रियावान् एतयोमध्ये को गौरवान् का लाघवचानिति प्रश्ने ? अत्रो तरम् एतयोर्मध्येऽयं गुरुरयं च लघुरिनि नियन शपते तथाविधसिद्धान्ताक्षरानुपलम्भाजीचपरिणामानां वैविध्याच सर्वधा निसंस्तु सम्बंविज्ञेयो व्यवहारच्या सूत्रप्ररूपको गौरवानिति सम्माप्यते ॥ १३ ॥ सेन १ उल्ला० ।
- न० । अष्टाविंशतिदिनमाने प्रायश्चित्ते,
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(६५३) लहुत्थाण अभिधानराजेन्द्रः।
लहसीहणि लहुत्थाण-लघूत्थान-न० । अल्पोत्थाने, " लघूत्थानान्यवि-लहस-लघुस्व-त्रि० । लघुः स्व प्रात्मा यस्य सः लघुस्वः। ध्नानि, सम्भवत्साधनानि च । कथयन्ति पुरः सिद्धि, | अल्पस्वरूपे, शा०१ श्रु०२० ईषदल्पे, स्तोके, नि चू०२ उ०। कारणान्येव कर्मणाम् ॥१॥" संघा० १ अधि०२ प्रस्ता० । | लहुसग-लघुस्वक-त्रि० । स्तोके, व्य०२ उ० । लघुस्वभावयुक्त, लहुदक्खोववेय-लघुदाक्ष्योपपेत-न० । लघु-शीघ्रं दाक्ष्यं चा- |
भ०६ श० ३३ उ० । लहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियब्वे सिया। तुर्य तेनोपपेतः । अविलम्बितचातुर्यतया कार्यकारिणि, | नि० चू०२ उ०। उत्त०१उ०। लहुदारु-लघुदारु-न० । लघुकाष्ठे, " लहदारु किलिचं "लहुसाहानकालिय-लघुसिंहनिष्क्रीडित-न। स्वनामख्यासे
तपसि, प्रव०। पाइ० ना० २२६ गाथा।
लघुसिंहनिष्क्रीडितं तपःप्रतिपादयितुमाहलहुपरकम-लघुपराक्रम-पुं० । ईशानेन्द्रदेवस्य पदात्यनीका
इग दुग इग तिगचउ तिग,दुग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं । धिपती, स्था० ५ ठा० १ उ०। लहुपवयणसार-लघुप्रवचनसार-पुं० ।श्रीहेमचन्द्रसूरिशिष्य- अट्ठग सत्तग नवगं, अद्वैग नव सत्त अद्वेव ॥१५२६॥ श्रीचन्द्रगिविरचिते साध्वाहारभेदशानार्थे प्रकरणग्रन्थे,
छग सत्तग पण छकं, चउ पण तिण चउर दुग तिगं एग। " रहयं पगरणमेगं, मुणीणमाहाग्भेयनीणटुं । सिरिसिरि- दुग एक्कग उपवासा, लहुसीहनिकीलियतवम्मि ॥१५३०॥ चन्दमुणिदे-ण हेमसूरीण सिस्सेण" ल० प्र०।
अनन्तरवक्ष्यमाणमहासिंहनिष्क्रीडितापेक्षया लघु हस्वं सिंलहुफासणाम-लघुस्पर्शनामन्-न० । स्पर्शनामभेदे, यदुद- हस्य निष्पीडितमिदमित्यर्थः, सिंहनिष्क्रीडितं तदिव यसपयात् जन्तुशरीरमर्कतूलादिवल्लघु भवति । कर्म० १ कर्म।
स्तत्सिद्दनिष्क्रीडितमिति, सिंहो हि गच्छन् गत्वाऽतिक्रान्तं लहुबुद्धि-लघुबुद्धि-स्त्री०। शीघ्रक्रियाकरणाध्यवसाये, क- देशमवलोकयति; एवं यत्र तपस्यतिक्रान्ततपोविशेष पुनराल्प०१ अधि०७ क्षण।
सेव्यातनं प्रकरोति तत् सिंहनिष्क्रीडितमिति, एतस्य चैवं
रचना-एकादयो नवान्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, पुनरपि प्रत्यागलहुभ्य-लघुभूत-पुं० । लघुभूती अनुपधित्वेन गौरवस्या
त्य नवादयः एकान्ताः, ततश्च यादीनां नवान्तानामग्रे प्रत्ये. गेन च लघुरूपसाधौ, स्था० । ठा० ३ उ० । मोक्ष, संयमे
कमेकादयोऽष्टान्ताः स्थाप्यन्ते, ततो नवाघेकान्तप्रत्यागतच । श्राचा० १ श्रु०३ १०२ उ०।।
पकतावष्टादीनां द्वयन्तानामादो सप्तादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते लहुभूयगा(का)मि(न्)-लघुभूतगामिन-पुंकालघुभूतो मोक्षो
इति । अयमर्थः-प्रथममेक उपवासकः, ततः-पारणकम् ,एवसंयमो वा तं गन्तुं शीलमस्यति लघुभूतगामी । लघुभूतं वा मन्तरा सर्वत्र पारणकं शेयम् , ततो-द्वौ, तत एकः, ततकामयितुं वा शीलमस्येति लघुभूतकामी । मुमुक्षौ, संयते च । स्त्रय उपवासाः, ततो द्वौ, ततश्चत्वारः, ततस्त्रयः, ततः पञ्च, प्राचा०१ ध्रु०३ १०२ उ०।
ततः-चत्वारः, ततः-पट् , ततः-पञ्च, ततः-सप्त, लहुभूयविहारि-लघुभूतविहारिन्-पुं० । लघुभूतो वायुः वा
ततः-पट् , ततः-अष्टौ, ततः-सप्त, ततो-नव, ततःयुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारोऽस्यास्तीति लघुभूतविहारी ।
अष्टी, ततो-नव, ततः-सप्त, ततः-अष्टौ, ततः. क्वचिदण्यप्रतिबद्धविहारिणि, दश०४ अ०।
षट् , ततः-सप्त. ततः-पञ्च, तता-पद,ततः-चत्वारः, लहुमच्छ-लघुमत्स्य-पुं० । लघुमीने, “ कडुयाला कुंबरा य | ततः-पञ्च, ततः-त्रयः, ततः-चत्वारः, ततो-द्वौ, लहुमच्छा" पाइ० ना० १२८ गाथा ।।
ततः-त्रयः, ततः-एक इति, एते लघुसिंहनिष्क्रीडिते लहुय-लघुक-त्रि० । अल्पे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० । “छुढे म. तपस्युपवासाः। डहं लहुयं " पाइ० ना० १७१ गाथा । ऊर्ध्वगमनस्वभावे धू
अथोपवासदिवसानां पारणकदिनानां च संख्यामाहमादी, स्था०१० ठा०३० सत्त्वसारवर्जित तुच्छे, प्र- चउपनखमणसयं, दिणाण तह पारणाणि तेत्तीसं ।। श्न०२ संव० द्वार।
इह परिवाडिचउक्को,वरिसदुर्ग दिवस अडवीसा १५३१॥ लहुयत्त-लघुकत्व-न० । गौरवविपरीते, भ० १ श०६ उ०। लाघव, पञ्चा० १७ विव० । ( जीवा लघुकत्वं
लघुसिंहनिष्क्रीडिते तपसि क्षमणदिनानाम्-उपवासदिवगुरुत्वं वा कथं गच्छन्तीति 'कम्म ' शब्दे तृतीयभागे
सानां शतमेकं चतुःपश्चाशदधिकं, तथाहि-वे नवसंकलने, ३३२ पृष्ठे गतम् ) ( 'अाउलीकरण' शब्दे द्वितीयभागे
ततः-एका ४५, पुनः ४५, अष्टसंकलना चैका ३६, सलघुकत्वं जीवाः कथं गच्छन्तीत्युक्तम् )
प्तसंकलनाऽप्येवैका २८, सर्वमीलने च यथोक्ता संख्या भव
ति १५४, तथा पारणकानि त्रयस्त्रिंशत् तदेवं सर्वदिनसंलहुया-लघुता-स्त्री० । लघोर्भावो लघुता । लघुत्वे, व्य. १
ख्या १८७, तथा च-षण्मासाः सप्तदिनाधिका भवन्ति, उ० । स्तोकतायाम् , श्रा० म०१ अ०। त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रशा०१ पद ।
तच्च तपःपरिपाटीचतुष्टयेन क्रियते, तत एतेषु चतुर्गुलहुवित्तिपरिक्खेव-लघुवृत्तिपरिक्षेप-पुं० । लघुवृत्तिः परिक्षे
णितेषु द्वे वर्षे अष्टाविंशतिदिनाधिके भवतः ।
अथ परिपाटीचतुष्टयेऽपि प्रत्येकं पारणस्वरूपं निरूपयतिपोऽस्येति लघुवृत्तिपरिक्षेपः। अल्पाहारे, प्राचा०१ श्रु०८ अ०१ उ० ।
विगईओ निम्बिगइय, तहा अलेवाडयं च आयाम । लहुवी-लध्वी-स्त्री० । " नन्वीतुल्येषु "॥ १२॥ ११३ । परिवाडिचउक्कम्मि, पारणएसुं वि हेयध्वं ॥१५३२ ॥ इति अन्तव्यञ्जनात् पूर्व उकारः। लाघववस्याम् , प्रा०२ पाद। प्रथमपरिपाट्यां पारणकेषु विकृतयो भवन्ति, सर्वरसोपे
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लहसीहान ०
तं पारणकमिति भावः, द्वितीयपरिपाठ्यां निर्विांत तिविरह, दतीयपरिषायादि तु परिपाठाच परिमितयमिति एवमस्य तपसः पारणकभेदेन चतस्रः परिपाटयो विधेयाः । प्रव०२७१ द्वार । लहुस्सग - लघुस्वक-पुं० । तुच्छात्मनि, प्रश्न० ३ श्राथद्वार । लडुस्सगदोस- लघुकस्वकदोष-पुं० तुच्छत्यरूपस्वकदोपे,
व्य०५ उ० ।
लहुहत्थ - लघुहस्त- पुं० । हस्तलाघवे, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । क्रिया हस्ते ०१०२०
लाभरण - लावण्य-न० ।
( ६५४ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
66
यषां प्रायो लुक ॥८ । १ । १७७॥ इति वस्य लुक् । लाश्रणं । लमिनि प्रा० १ पाद
"
क-ग-ख-ज-त-द--प
लाभाण - राजन्– पुं० । नृपे, “शेषं शौरसेनीवत् ||८|४|३०२॥
मागध्यां रस्य सः अवशलोपसप्पणीया लावायो ' प्रा० । लाइभ - देशी-भूषायाम् गृहीते, चर्मा व दे० ना० ७ वर्ग
२७ गाथा ।
लाइम - लाविम - त्रि० । लवनवति, लवनयोग्ये च । दश० ७
अ० । आचा० ।
लाइय-लायित - न० । छगणादिना भूमिकायाः संसृष्टीकरणे, भ० १२ श० ८ उ० । शा० जी० ।
लाइल्ल - देशी-वृत्रमे, दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा | लाउ- अलाबुक-न० | तुम्बके, “वाऽलाब्बरण्ये लुक्” ॥ ८ ॥१॥ ६६ । इति श्रदेरस्य लुक् । लाउं । अलाउं । प्रा० । वृ० । नि० खू० । भ० । पात्रभेदे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । विशे० | शा० ।
निर्ग्रन्थीभिः सवृन्तकमलाबु न धर्त्तव्यम् ।
नो कप्पर निम्गंथीयं सर्वेटगं लाउयं धारित वा परिहरित्तए वा ॥ ४३ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटगं लाउयं धारितए वा परिहरित्तए वा ॥ ४४ ॥
व्याख्या सुगमा | नवरं सवेण्टकम्-नालयुक्तम् अलाबुकं तत्रिन्थीनां न कल्पते ॥ ४३ ॥ निग्रन्थानां तु कल्पते ॥ ४४ ॥
अत्र भाष्यम्
ते चैव सवेंटम्मि वि, दोसा पादम्मि जे तु सविसाये । अग अप डिलेहा, वियगिलावा सदवणा ।। तएव सवृन्तेऽपि सनालेऽपि अलाबुमये पात्रे दोषा मन्तया ये सविषाणे वासने पादकम्मोदय उक्ताः द्वितीयपदे तु धारयेदपि तत्राध्वनि पूर्व या तैलं वा सुखेनैवापरि गलते ग्लानाया या योग्यं तत्रीच प्रतिमानत सन्तकं प्रवर्तिनी स्वयं सारयति । निर्धन्यानामपि निष्कारणे न कल्पते, यदि धारयन्ति ततोऽतिरिक्लोपकर
"
,
दोषः सवृन्तके च प्रत्युपेक्षणेन शुद्धयति, द्वितीयपदे ग्लानस्य योग्यमौषधं तत्र स्थापयति इति कृत्या प्रीतम्यम्। वृ० ५ उ० । ( अलाबुप्रमाणमात्रा पादकेशरिका न धारवितव्येति पाथकेसरिया राणे पथमभागे ५० पृठे उक्कम )
लाभ
१
लाउडिय लाकुटिक- ० राधाम् पृ० ३३० । लाउयनिलेवण- अलाबुकनिर्लेपनन० पात्रक्षालने, कृ०
१ उ० २ प्रक० ।
लाउयपाय- अलाबुकपात्र न० । तुम्बपात्रे, स्था०३ ठा०३ उ० । ( अत्र भेदाः 'पत्त' शब्दे पञ्चमभागे ३६३ पृष्ठे गताः । ) लाउयफल- अलाबुकफल-न० फले, अनु० लाउयवरण- अलाबुकवर्ण त्रि० आईतुम्बवर्णे, बं० २०
२० पाहु० ।
।
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लाउपवण्णाभ- अलाबुकवर्णाभ श्रि० पकावस्यतुम्बदमे, भ० १२ श० ६ उ० । लाउन्लोइयमहिलापितो म्लोचितमहित त्रि०लोइयं' छागणादिना भूमौ लेपनम् । 'उल्लोइयं सेढि टि) कादिना कुडघादिषु धवलनं ताभ्यां महितमिव-पूजितमिव ते एव या महित पूजनतो पत्र अन्येतु व्याचक्षते लितम् उम्रचितम् उल्लाचयुक्तं महितं चेति । भ० १२० ८ उ० । लाघव - लाघव - न० | लघोर्भावो लाघवम् । श्राचा० १ श्रु० ६ ० ३ ० । इयतोऽल्पोपधि भावतो गौरवमयत्यागे, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । श्राचा० । स्था० । नि० चू० । श्री० । स० । नि० । तद्रूपे भ्रमणभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ० । क्रियासुदक्षत्वे, भ० २ ० ५३० । रा० । लाघचिय- लाघचिकन० । कर्मणां लाघवापादनं क गुरोर्वात्मनः कम्पनयनतो लयवस्थासंजनने, सूत्र० २
.
श्रु० १ श्र० ।
से नू भंते ! लाघवियं अपिच्छा अच्छा अगेही अपविद्धया समणाणं णिग्गंथागं पसत्थं ?, हंता गोयमा ! लाघवियं जाव पसत्यं ( ० ७४५ )
लाघवियं ' ति लाघवमेव लाघविकम् अल्पोपधिकम्, अति अल्पोऽमिलाप श्राहारादिषु प्रमु ति उपधावसंरक्षणानुबन्धः अगेहि नि भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्ति अप्रतिबद्धता वजनादिषु स्नेहाभाव इत्येतत्पञ्चकमिति गम्यम् श्रमणानां - निर्व्रन्थानाम्, प्रशस्तम् - सुन्दरम् अथवा - लाघविकं प्रशस्तम्, कथम्भूतमित्याह-'अपिच्छा अच्छारूपमित्यर्थः एवमितरारायपि पदानि । भ० १ ० ६ उ० ।
,
लाट-लाट पुं० कोटीवर्षनगरप्रतिमद्धे धार्यदेशे प्रज्ञा०
"
,
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१ पद । श्राचा० । सूत्र० । स्थान। आ० म० प्रा० क० | लाढ- पुं० । लाढयति प्रासुकेपणीयाद्वारेण साधुगुरोः श्रास्मानं यापयतीति तादः प्रशंसाभिधेयो या देशीपदमेतद् या (उस०) लाडयति वापपति आत्मानम् - पणीयाहारेण निर्वाहयतीति लाढः । एषणीयचारिणि साधौ, उस० २ श्र० ।
लाडायरिया लाढाचार्य पुं० [देवमन्यव्याख्याविशेषकारके स्वनामख्याते आचार्ये, वृ० १ ० ३ प्रक० नि० चू० । लाम-लाभ-पुं० प्रासवस्तुप्राप्तो, उत्त०१० लम्भनम्लाभः । स्था० ३ ठा० ४ उ० । श्रभ्युदयप्राप्तिविशेषे श्र०
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लाभ अभिधानराजेन्द्रः।
लासग म.१०। पश्चा०। सूत्र०। लभ्यत इति लाभः । उत्त० २८ लालप्पहत्ता-लालप्य-श्रव्य०। प्रत्यर्थ पुनः पुनर्वा लपित्वेअ.। अन्नादौ, स्था०४ ठा० ३ उ०।
त्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१०१०।। लाभंतर-लाभान्तर-न०। लम्भनं लाभोऽपूर्वार्थप्राप्तिरन्तरं
| लालप्पणपत्थणा-लालपनप्रार्थना-स्त्री० । लालपनस्य गर्हिविशेषः, लाभश्चासावन्तरश्च । उत्त० ४ ०। लाभविशेषे,
तलापस्य प्रार्थनेव प्रार्थना लालपनप्रार्थना । चौर्य हि कुर्वम् व्य०१०उ०। एकस्मालाभादन्यो लाभो लाभान्तरम् । शानदर्श
गर्हितलपनानि तदपलापरूपाणि, दीनवचनरूपाणि वा प्रानचारित्रादीनां लाभविशेपे, उत्त०४ १०।.
र्थयत्येव, तत्र हि कृते तान्यवश्यं वक्तव्यानि भवन्तीलाभतराय-लाभान्तराय-न० । अन्तगयकर्मभेदे, यदुदय
ति भावः । पञ्चविंशतितमे गौणचौर्य , प्रश्न. ३ वशाद्दानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुहे विद्यमानमपि देयमर्थ
आश्र० द्वार। जात याश्चाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तलाभान्तरायम् । पं० सं०३ द्वार । कर्म । स० ।
लालप्पणया-लालपनता-स्त्री०। भृशं लपनताप्रार्थने, भ. लाभकंखि-लाभाकाचिन-त्रि०। शानदर्शनचारित्ररूपपर- १२ श०५ उ०। मार्थलाभार्थिनि. व्य०१ उ०।
लालप्पमाण-लालप्यमान-त्रि०। भोगार्थमत्यर्थे लपति, लाभद्वि-लाभार्थिन-त्रि० । धनादिलाभार्थिनि, भ० श०३३ ] श्राचा० १ श्रु०२ १०३ उ०। उ० । भोजनमात्रादिप्रार्थिनि, श्री०।।
लालस-देशी-मृदुनि,इच्छायां च । दे० ना०७ वर्ग २१ गाथा । लाभट्ठिय-लाभार्थिक-पुं० । भावलाभेन निर्जरादिनाऽर्थोऽ- लम्पटे, “लोला-लालस लोलुश्र" पाइ० ना० ७५ गाथा। स्येति लाभार्थिकः । संयते, दश ५१०१३० । लाला-लाला-स्त्री० । लालतीति लाला । अत्रुप्यन्मुखलाभमय-लाभमद--पुं० । अहमेव लाभेनोत्तमतया पर्यन्त-1
श्लेष्मसन्तती, प्राचा० १ श्रु०२ १०५ उ० । औ०। जं०। वर्तीति लामजन्यमदभेदे , स्था० १० ठा० ३ उ० । स० । यो
नि० चू०। जी० । मुखश्रावे, प्रज्ञा०१ पद । उदाहरणम्हाल्पान्तरायो लब्धिमानात्मकृते परस्मै चोपकरणादिकमु-
__ 'लालापगलंतकननासं' ति लालाभिः वेदतन्तुभिः प्रगपादयितुमलं स लघुप्रकृतितया लाभमदावलिप्तो भवति । लन्तौ कर्णी नासा च यस्य । विपा०२ श्रु०७०। सूत्र.१ श्रु०१३ अ०। लाभविजय-लाभविजय-पुं० । श्रीमहोपाध्यायश्रीकल्याण
लालापञ्चासि(न)-लालाप्रत्याशिन-त्रि० । ललतीति लाला विजयगणिशिष्यमुख्यपण्डिते, नं० । प्रति० । द्वा० । " चम
अत्रुष्ट्यन्मुखश्लेष्मसन्ततिस्तां प्रत्यशितुं शीलमस्येति लालाकारं दत्ते त्रिभुवनजनानामपि हृदि, स्थितिमी यस्मिन्न
प्रत्याशी । चान्ताभिलाषिणि, प्राचा०१ श्रु०२ १०५ उ० । धिकपदसिद्धिप्रणयिनी । सुशिष्यास्ते तेषां बभुरधिकधि- | लालाविस-लालाविष-पुं० । लाला-मुखश्रावः तत्र विषं द्यार्जितयशः-प्रशस्तश्रीभाजः प्रवरविबुधा लाभविजयाः"| यस्य । सर्पभेदे, प्रशा० १ पद । जी०। ॥१॥ द्वा० ३२द्वा०
लावंज-देशी-उशीरे, दे० ना०७ वर्ग २१ गाथा । लाभासंसापोग-लाभाशंसाप्रयोग-पुं० । कीर्तिः श्रुतादिलाभो मे भूयादिति लाभाशंसाप्रयोगः । तयापारे, स्था०
लावग-लावक-पुं० । पत्तिविशेषे, प्रश्न.२ आश्रद्वार। वि१० ठा. ३ उ० । ('श्रासंसापश्रोग' शब्दे द्वितीयभागे ४६६
पा० । नि० चू० । प्रक्षा। पृष्ठे अत्रत्या वक्तव्यता गता)
लावगकरण-लावककरण-न० । यत्र लावकपक्षिणमुद्दिश्य नाम-ललाम-त्रि० | रम्ये, “ललंतलामगललायवरभूसणाणं" | किंचित क्रियते। ताशे शाने शा..
किंचित् क्रियते । तादृशे स्थाने, स्था० ४ ठा० १ उ० । ललन्ति-दोलायमानानि लामन्ति प्राकृतत्वाद् रम्याणि प्राचा०। गललातानि-कण्ठेनाऽऽत्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा । लावगलक्खण-लावकलक्षण-न० । लावकपक्षिप्रतिपादके (प्राकृतत्वात्तथापदसिद्धिः।) औ०।।
शास्त्रे, सूत्र०२ ध्रु०२ अ०। लामंजय-लामञ्जय-न० । कमलतन्ती, " नलयं लामंजय
लावल-लावण्य-न० । स्पृहणीयत्वे, शा०१ श्रु० ६ ० । उसीरं च" पाइ० ना० १४६ गाथा । लामा-देशी-डाकिन्याम् , दे० ना०७ वर्ग २१ गाथा । " रो
उत्त। औ० । मनोसत्वे, शा०१ श्रु० १५० । शरीरकाअणिश्रा लामाश्रो" पाइ० ना० १०७ गाथा ।
न्तौ, रा० । सौन्दर्ये , अणु० । लावण्यं छायाविशेषलक्ष
णम् , कुमाउनुलेपनजमित्यपरे, प्रज्ञा० २३ पद । शरीलाय-लाज-पुं० । भृष्टवीही, प्राचा०२ श्रु०१चू०४ १०२उ०।
राकृतिविशेषे, भ०१४ श०५ उ० । लायम-लावरम-न० । शरीरकान्तो, “छाया कंती छवी य लायराणं " पाइ० ना० ११३ गाथा।
लावमलतिया-लावण्यलतिका-स्त्री० । वरधनुषो भार्यायाः
श्रीकान्त्याः दास्याम् , उत्त० १६ अ०। लायातरण-लाजातरण-न। तीर्यते इवास्यामतिवच्छतया इत्यधिकरणे अनट् तरणम् , लाजा-भृष्टा ब्रोहयस्तैर्निवृत्तं
लास-लास्य-न० । लासिकानां नृत्ये, “न दीर्घानुस्वारात" तरणं लाजातरणम् । पेयायाम् , जीत।।
॥5।२।१२ ॥ इति सकारस्य न द्वित्वम् । लास्यम् । लालंपिन-देशी-प्रबालस्वलीनाकन्दितेषु । दे० ना० ७ वर्ग
लासं । प्रा०1"नर्से लासं तंडनं" पाइ० ना० १६६ गाथा । २७ गाथा।
लासग-लासक-पुं० । गायके, अनु।
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लिंग
लासग
अभिधानराजेन्द्रः। रासक-पुंग गायके, अनुरा।ये रासकान् गायन्ति, ज- श्राव० । प्रव० । विशे० । भ० । श्राकारविशेषे, पो०१ विव०। यशब्दप्रयोक्लारो वा भाण्डाः । औ० । जी। रा०नि० चू०।।
वेषे,षो०१ विव० । शिश्ने,सूत्र० श्रु०४१०१ उ० । ('अंगादाण' जं०। प्रश्न । झा।
शब्दे प्रथमभागे ४० पृष्ठे तत्संचालनादिनिषेधः) रजोहरणानि
बाह्यनेपथ्ये, दर्श०५ तत्त्व । व्य० । ननु गृहिचरकादयो भवन्तु लासयविहअ-देशी-मयूरे, दे० ना०७ वर्ग २१ गाथा।
भवानुयायिनो भगवल्लिङ्गधारिणस्तु कथमित्यत्राह, “संसालासिय-लासिक-पुं० । भिल्लविशेषे, प्रश्न०१ श्राथद्वार ।
रसागरमिणे, परिम्भमंतेहि सध्वजीवहिं । गहियाणि य लाह-लाभ-पुं० । " स्व-घ-थ-ध-भाम्-"॥ ८ । १ ।
मुक्काणि य, अणंतसो दवलिंगाई॥८॥" ननु त्रयः संसार
पथात्रयश्च मोक्षपथा इति यदुक्तं तत् सुन्दरं परं यत्सुसाधु१८७॥ इति भस्य हः । प्रा० । प्राप्तौ, अष्ट० ५ अष्ट० । श्राव० ।
विहारेण बहुकाल विहृत्य पश्चात्कर्मपरतन्त्रतया शैथिल्यमअप्रतिष्ठितजिनबिम्बमचयतः, पादादिनाऽऽशातयतो वा
वलम्ब्यते तत् कुत्र पक्षे निक्षिप्यतामित्यत आह-"सागेण लाभालाभौ न वेति?, लाभश्चेत्तर्हि प्रतिष्ठायाः किं प्रयोजन
वाय जे ग-च्छ निग्गया पविहरंति पासत्था । जिणवमिति प्रश्नः?,अत्रोत्तरम्-अप्रतिष्ठित प्रतिमानां वन्दने व्यवहा
यणबाहिरा वि य, ते उ पमाणं न कायव्वा ॥६॥" ग० रोनास्तीति कथं लाभः । पाशातनाकारणे तु प्रत्यवायो भ- १ अधि० । शब्दनिष्ठे अर्थगतसत्त्वाद्युपचयापचयनिमिवत्येव,तासु तीर्थकराकारोपलम्भादिति॥१३३॥सेन०२उल्ला० ।
ते स्त्रीत्वपुंस्त्वादिके धर्मविशेषे, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयनमस्कारस्य श्रीशत्रुञ्जयनाम्नश्च गणमे अधिकलाभः कु
त्वात् । कर्म४ कर्म । लिङ्गमतन्त्रम् । कर्म०५ कर्म। त्रास्तीति प्रश्नः?, अत्रोत्तरं-यस्य यद्गणने चित्तोल्लासोऽधिको
ऋजुसूत्रम्यायमते-'एकर्माप त्रिलिङ्गम् ' श्रा० म०१ श्र० । भवति तस्य तगणनेऽधिकलाभोऽस्ति, परं द्वयोर्महिम्नः
वाक्ये लिङ्ग व्यत्ययं न कुर्यात् । दश० ७ अ०२ उ०। (यपारो नास्तीति ॥ ४६४ ॥ सेन० ३ उल्ला० । पुञ्जणि
दि लिङ्गव्यत्यये दोषः तदा कथं पृथ्व्यादीनां नपुंसकत्वेऽपि कया वायुकरणे लाभोऽलाभो वा इति प्रश्नः ?, अत्रो
स्त्रीपुंस्त्वेन निर्देशः प्रवर्तते इति ' भासा' शब्दे पश्चमभागे नर-मुख्यवृत्त्या पुञ्जणिकया वायुकरणं शातं नास्ति, परं
१५४७ पृष्ठे उक्तम् ) साध्वादिषे, जीवा। गुर्बादीनां मक्षिकोडापनार्थ वायुकरणे लाभोऽस्ति, न त्वलाभो,यतो मक्षिकोडापनं गुरुभक्तिरेवेति॥१४॥सेन०४उल्ला
वेसो वि अप्पमाणं, दव्वाई वेसिऊण वारेति । वृद्धकल्पदिने पौषधकरणे लाभः पूजाकरणे वा इति प्रश्नः ?, सव्वं पि हु करणीयं, इह लिंगुवजीविणो वइणो ॥१॥ अत्रोत्तर-मुख्यवृत्त्या पीषथकरणे महान् लाभः, कारण- घेषोऽप्यप्रमाणमित्यादिदर्शयति ये वा आदिग्रहणाद्-"विशेषे तु यथाप्रस्तावो भवति तथा करणे लाभ एवास्ति, संजमपपसु वट्टमाणस्स किं परियत्ति य वेसविसनं मारेड यतो जिनशासने एकान्तवादो ज्ञातो नास्तीति ॥ १५१ ॥ खजत ' इति दृश्यं चारयन्ति सर्वमपि-समस्तमपि सेन०४ उल्ला० ।
करणीयम्-कर्तव्यम् इह-समये लिङ्गोपजीविनो-गुगाशून्यस्य लाहण-देशी-भोज्यमदे, दे० ना० ७ वर्ग २१ गाथा।
व्रतिनः-साधोरिति गाथार्थः । लाहविय-लाघविक-न० । लघोभीयो लाघवं तद्विद्यते यस्या
उत्तरमाह
तत्थ वि बुज्झसु तं पड़, अप्पमाणमेव सो वेसो। सौ लाघविकः । लघुभूते, श्राचा०१ श्रु०८०। गौरवत्या. गे, स्था० ५ ठा०३ उ० । सेन०।।
जो निस्संकं वट्टइ, असुहट्ठाणेसु तेण जुओ ।।२।। लाहिसकंगीरयणा-लाहिसत्काङ्गीरचना-स्त्री० । जिनप्रति
तत्रापि-बेषनिराकरणे बुध्यस्व-जानीहितं प्रति-तमाश्रित्य
श्रप्रमाणमेघ निष्फलः स वेषो रजोहरणादियों निर्दिष्टनामाना रचमाविशेषे, सेन । जिनप्रतिमानां लाहिसत्काली- मा निःशङ्क निरपेक्षं वर्तते अशुभस्थानेषु-साध्वयोग्येषु रचना क्रियमाणा दृश्यते, सा युक्तिमती न वेति प्रश्नः ?, तेन-वेषेण युतः-सहित इति गाथार्थः । अत्रोत्तरं-यद्यपि लाहिसंस्कारे किश्चिदपावित्र्यं श्रूयते त
एतदेव भावयन्नाहथापि नाममा निषेधाक्षरानुपलम्भादिदानींतनकाले स्था
दुग्गइगइए गच्छं-तयस्स न हु तस्स तेण साहारो। ने स्थाने तथाप्रवृत्तिदर्शनाद्बहूनां पूजाकरणान्तरायप्रसङ्गाव सर्वथा निषेधः कर्नु न शक्यत इति ॥ १५ ।। सेन० २
ववहारा अन्नेसि, तस्स वि लिंगं पमाणं तु ॥ ३ ॥
दुर्गतिगत्यां-नरकादिकायां गच्छतो-बजतो न वाहुरवधारणे उमा।
तेन-वेषेण तस्य-लिङ्गोपजीविनः साधारः-परित्राण व्यवलाहुक्क-लाघुक्य-१० । लाघवे, वृ०५ उ०।
हारात्-व्यवहारनयमतेन तस्यापि-लिकोपजीविनोऽपि लिंक-देशी-बाले, दे० मा०७ वर्ग २२ गाथा ।
लिङ्ग-वेषः प्रमाणमेव तुरवधारणे इति गाथार्थः । लिंकिन-देशी-आक्षिप्ते, लीने च । देना१७ वर्ग २५ गाथा।।
व्यतिरेकमाहलिंग-लिङ्ग-ना.लिङ्गयते गम्यतेऽतीन्द्रियार्थी नेनेति लि- जइन पमाणं तो कह नु, कप्पगंथम्मि एरिसं वुतं । कम् । अथवा--लीनं तिरोहितमर्थ गमयतीति लिङ्गम् । धूम-|
सुविहियजईण इयरं, पडुच्च एयाए गाहाए ॥४॥ कृतकत्वानिके, विशे० । दश । परोक्ष्याकृत्यगमके, पश्चा०१५॥ यदि नेति निषेधे, प्रमाण लिङ्गमिति शेषः , ततः कथं नुविव० । व्यञ्जके, ध०२ अधि। दर्श०। प्रतिः। लिङ्गयते वि- इति वितकें, कल्पग्रन्थे प्रतीते ईडग्वक्ष्यमाणमुक्तम्-भणितम्शेषेण हाचसे ऽनेनेति लिङ्गम् । चिहे, दर्श०४ तत्व । पश्चा० । सुविहितयतीनाम्-प्रधानसाधूनाम् इतरम-लिङ्गोपजीविनं
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लिंग अभिधानराजेन्द्रः।
লিঙ্ক प्रतीत्य-आश्रित्योपलक्षणत्वाद्विशिष्टं वेत्यपि द्रष्टव्यम् । बाहिरगो सरीरस्स, अतिसेसो तेसिमो उ बोधव्यो । पतगाथयेत्यर्थः। तामेवाह
अच्छिद्दपाणिपाता, वइरोसभसंघयणधारी ॥ लिंगत्थस्स उ वजओ, तं परिहरनो व भुंजो -वावि।। अभितरमतिसेसो, इमो उ तेसिं समासो भणिभो। जुत्तस्स अजुत्तस्स व, रसावणो एत्थ दिटुंतो ॥ ५॥ ।
उदही विव अक्खोभा, सूरो इव तेयसा जुत्ता। लिमस्थस्य-रजोहरणादिवतः तुरवधारणे, स च व्यवहि
अव्वावएहसरीरा, वतिगंधो ण भवति सरीरस्स । तो वयः स चैवं वयं एव-परिहरणीय पव प्राधाकर्माचा खतमवि ण कुत्थ तेसिं, परिकम्मं ण वि य कुव्वंति ॥ हारः शय्यातरस्याधाकादिकं तस्य स्वयं परिहरतो-वर्ज
पाणिपडिग्गहधारी, एरिसया णियमसो मुणेयव्वा । यतो भुनानस्य-प्रासेवतः चापीति समुच्चये, युक्तस्य वा
अतिसेसा वोच्छामि, अएहे वि समासतो तेसि ।। अयुक्तस्य वा वक्ष्यमाणनीत्या वा-समुच्चये, रसायणः कल्प पालहट्टोऽत्र दृष्टान्तः । इहोदाहरणं यथाहि-कस्मिंश्चिद्देशेऽपि
दुविहोऽतिसेसों तेसिं, णाणातिसो तहेव सारीरो । रजोहरणादिध्वजः परिध्वजः क्रियते, ततस्तं दृष्टा सुखेनैव
णाणातिसो ओहि, मणपज्जव तदुभयं चेव ।। ब्राह्मणादयस्तं वर्जयन्त्येव तत्रापि रजोहरणादिध्वजतुल्यं यो. श्राभिणिबोहियणाणं, सुयणाणं चेत्र णाणमतिसेसो । ज्यमिति गाथार्थः।
तिवली अभिम बच्चा, एसो सारीरमतिसेसो ॥ तामेव गाथां किञ्चिद् व्याख्यातुकाम पाह
रयहरणं मुहपोत्ती, जहमा वहि पाणिपत्तियस्सेसो । वक्खाणं एयाए, तत्थ पुण जुतस्स संजमगुणेहिं ।
उक्कोस तिएह कप्पा, रयहरणमुहपोत्ति पणगं तु ॥ अजुयस्स उतेहिं विय,इय लिंगुवजीविणो भणियं ॥६॥ व्याख्यानम्-विवरणम् एतस्याः-पूर्वोक्तगाथायाः तत्र पुनः
उवट्ठों पडिवग्गहीणं, जहन्नमुक्कोसो होति बारसहा 1 कल्पग्रन्ये युक्तस्य-सहितस्य संयमगुणैः-क्षान्त्यादिभिः प्रयु- तेसिं वि इयाणिं वि य, अतिरोगायातणिजोगो ।। क्रस्य-असहितस्य तुः पूरणे, तैरेवं क्षान्त्यादिभिरिति इत्थं
उवट्ठाण घसणम-ज्जणायणहणयणदंतसोभाए । लिङ्गोपजीविनः-साधुवेषधारकस्य भणितमुक्तमिति गाथार्थः।
एते उवधाता खलु, भयंति जिणलिंगकप्पस्स ॥ व्यतिरेकमाहजइ लिंगमप्पमाणं, हविज तो तस्स अविरयस्सेव।।
उवट्टणादियाति, उवगरणं चेव थेरकप्पौणं । सिज्जायरम्मि चिन्ता, आहाकम्मेव का जइणो ॥७॥
भइयव्वो लिंगकप्पो, गेलण्हादीहि कजेहिं ।। यदि लिङ्गम्-वेषोऽप्रमाणम्-अकारणं भवेत्-जायेत. त
कज्जम्मि गिलाणादिसु, उवट्टमाइय अणुबहाता । नम्तस्य-लिङ्गजीविनोऽविरतस्येव-मिथ्यादृरिव शय्यातरे दुगुणो चउग्गुणो वा, कारणतो होति उवहीभो ।। वसतिदातरि श्राधाकर्मणि वा प्रतीते, वा-समुच्चये, रूढणहकक्खणयणो, मुंडो दुपिहोवही समासेणं । चिन्ता तद्वक्तव्यतारूपा का?, न काचित् यतेः-साधोगिति
एसो तु लिंगकप्पो, कारणवच्चासि अएहतरो॥ गाथार्थः। इति स्थिते जीवोपदेशमाह
लोए खुरकत्तरी य, मुंडं तिविहं तु होति थेराणं । नम्हा एवं देससु, रे जिय ! धम्मत्थ अप्पणो एवं। । असिवादिकारणेहिं, कजविवजो सलिंगस्स ॥ सव्वाणं सुत्ताणं, विसयविभागो दुहुन्नेश्रो ॥८॥ | णिरुवहतलिंगभेदे, गुरुगा कप्पति य कारणे जाते । तस्मादेवम्-पूर्वोतक्रमेण आदिश-कथय रेजीव ! भो प्राणि- गेलएहरोगलोए, सरीरवेजा वडियमादी ।। न ! धर्मार्थ-वृषनिमित्तमात्मनः स्वस्य एवम्-उक्तवत् सर्वे
वासत्ताणेण वि हु, भेदो लिंगस्स तं अणुएहातं । पां-समस्तानां सूत्राणां विषयविभागो-यथावस्थितरूपो दुःखोनेयः कृच्छूयोध्य इतिगाथार्थः । वेषोऽप्रमाणमिति कथन
चाउम्मामुक्कोसं, सत्तरिराइदिय जहां ।। विचारयस्त्रिंशोऽधिकारः । जीवा० ३३ अधिक।
एयं तु दव्वलिंग, भावे समणत्तणं तु णायव्वं । लिंगकप्प लिङ्गकप्प-पुं० । लिङ्गमामाचार्याम्, पं० भा० । को उवणे दवलिंगे, भएणति इणमो सुणसु बोच्छ । .......................... "एत्तो वोच्छामि लिंगकप्पं तु ।
सकारवंदणणमं--सणा य पूजा य लिंगकप्पम्मि । तहि यं तु लिंगकप्पो, इणमो जिणकप्प भवती तु ।। पत्तेयबुद्धमादी, लिंगे छउमत्थतो गहणं ।। रूढणहकक्वणिगिणी, मुंडो दुविहोवही जहम्मेसि । वत्थासणसकारो, वंदण अभुट्ठणं तु नायव्वं । एसो तु लिंगकप्पो, णिव्याघातेण णेयव्यो ।
पणिवाते तु नमसण--संतगुणकित्तणं पूया ॥ ग्यहरणं मुहपोनी, संवेवणं तु दविह उवहीरो । दट्टण दवलिंगं. कुव्वंते ताणि इंदमादी वि । वाघातो कितलिंग, अग्मिपमेहे य कडिपट्टो । लिंगम्मि अविजने, णणजती एस विरभो ति ।। दविहा अतिसेवा वि य, तेमि इम वणिता समासेगं ।। कहितो साहुलिंगेणं, धमंतो संजतो भवे । बाहिरम्भितग्गा. तेमि विममं पवक्वामि ।।
अलिग चेनि तं कीम. जाणंतोग करे तुमं ।।
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लिंगकरण
पय बुद्धो जाव, गिहिलिंगी अव अमलिंगीसु । देवावि ताण पूए, माअं होहिति कुलिंगं ॥ यणं पुच्छति कोती, केरिसयो होति तुज्झ धम्मो त्ति । मसलिंगहि उमत्था जाण चिरमो ति । एसो तु लिंगकप्पो | पं० भा० २ कल्प ।
या लिंगको सो पदमा त्याहा नहरोमया श्रवट्ठियधुयलोयया निगिणी मुंडो जहनेग विहो उही रखहरणं मुहपोलिया य एस लिंगकृष्णो महादिपाणि जिला पा संघयधारी समुद्रयङ्गम्भीरा सूर्यतेजोराशिः। व्यापन्नसरीरं नाम विरोधसरीरथा न भवर स्वयं पि वाशी कदिक द्वीपमिन्त इत्यर्थः । ईदृशाः पाणिपात्रधराः जिनशासनेशास्त्रे विनिर्दिताः । गाहा-दुविहो तेहिनाणाइसनो, सरीराइसश्रो य । नाणाइसश्रो- श्रोहिमण
( ६५८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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होति श्रइसेसा ' तेसिं जहन्ने दुविहोबही - रयहर, मुद्रपोलिया व उकोसेणं पंचविहो-यह मुद्द पोती कप्पा य तिरिण एस पंचविहो । गाहा—उच्चहवाई सरीरस्य वा घोषणा य पावानेहनपणवंत सोद्दार इंतकट्ठाइस उपकरणार जिकपियाएं उबधावो भव । एयाणि चैव थेरकप्पिया कारण चोसविहउवहि श्रइवेगाणि जाणि य उबट्टसानिकार, कारण जनाइसु भइयत्र्व वा मत्तणेण लिंगभेश्रो भवद्द तं तु श्रणुग्णाय केवश्विरं काउकोण चाउमा - राइंडिया डिइकये अकिप्पे या अखिवारकारणेहिं विवासिय नयरं भवति माहानिरुपहलि निकार गि हत्थलिंग वा अन्नतित्थियलिंगं वा करेइ मूलं, निक्कारणे क
पट्टयं बंध चउगुरु, गुरुलघु पक्खे एगो दुहश्रो वा .. सकडी चउगुरु, संजयाउर चउलहु, गंधपुच्छे मासलहुं, विश्यपर कारणजाए रायदुट्टमाईहि गिहिलिमलिया करेतो सुद्धो । डिप पिलो करेंतो या उपारतो वा उपपंतो या गिला व हंतो सर गिलाण अतरंगो कडिपट्टयं काऊ चकमेउजा,
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-A
| राम जप
कसं अर्द्ध सक वा श्रणाभोरण सेहा वा करेज्जा संजयाउर्थ वासारचे करेजा वा केवलनानेपिउपसे कइयंत मन सदर की समयणा न करेसि जं पुण पुरा पत्तेयबुद्धाएं गिहलिंगं वा अलिगं या न पूर, कोहन या कोर पुर के रिसश्रो तुम्भं धम्मो तं छउमत्थाणं गहणमेव लागor लिमको सम्मतो | पं० चू० २ कल्प ।
विकल्पद्वारमाद
अदुवा तिलिगकप्पं वोच्छामि महापुर
रूढहकखमादी, सो चैत्र इहं पि गायव्यो । इति एस लिंगकप्पो | पं० भा० ५ कल्प ।
गलाग
या लिंगको तत्थ गाहा-' रूढनह' सो य रूढनकक्खडा जाहेटिला दो लिंगप्पा वनिया तहा इदं पि । पत्र चू० ५ कल्प ।
लिंगकरण - लिङ्गकरण - न० । रजोहरणसमर्पणे, व्य० १ उ० । लिंगतिय-लिङ्गत्रिक० त्रीपुंनपुंसकलिये अनु त्रिविधलिने उदाहरणम् -
।
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तं पुम णामं तिषि, इरथी पुरिसंव एएस तिरपि अ, अतम्मि अपरूवणं वोच्छ्रं ॥ | १ || तत्पननम पुंनपुंसकलिङ्गेषु वर्तमानत्वात् त्रिविधं त्रिप्रकारम्, तत्र स्त्रीलिनदी नदीत्यादि टिपट इत्यादि, नपुंसके दधि मध्वित्यादि, एषां च स्त्रीलिङ्गवृत्यादीनां त्रयाणामपि नाम्नो प्राकल्या उच्चार्यमाणानामन्तेयान्याकारादीय क्षराणि भवन्ति तत्प्ररूपणाद्वारेण लक्षणं निर्दिनिकतराईमाह-' एपलि ' मित्यादि, गतार्थमेवेति गाथार्थः ।
तत्थ पुरिसस्त अंता, आ ई ऊ ओ हवंति चत्तारि । ते व इथिओ, हवंति ओकारपरिहीणा ॥ २ ॥
( श्रस्या गाथाया व्याख्या 'पुरिस' शब्दे पञ्चमभागे २०१४ पृष्ठे गता ) अनु० ।
"
अंतिम इंतिम डंतिम, अंताउ पुंसगस्स बोद्धव्या । एतेसि तिराहे नि पोच्छामि निदंसणे एतो ॥ ३ ॥ नपुंसकत्तिनाम्नां त्वन्ते अकार इंकार उकारयेत्येतान्येव श्री भवन्ति नापरम् पतेषां मि निदर्शनम् -- उदाहरणं प्रत्येकं वक्ष्यामीति गाथार्थः । तदेवाहआभारंतो राया, गारंतो गिरी सहरी अ अ उगारंतो पिदुम अ अंता उ पुरिसायं ॥ ४ ॥ आगारंता माला, ईगारंता गिरी अ लच्छी अ ऊगारं जं, बहू अटाउ इत्थीयं ॥ ५ ॥ अंकारतं धर्म, इंकारतं नसर्ग चरिथ । उकारंतं पीलं.
।
मेनं तिगामे (स०] १२४ ।।
३ श्र० ।
लिंगार) अधि० । जो बिक्खातो, जिथे तु दोयह वी कप्पा लिंगपुलाग लिङ्गबुलाक
दारं ।
गाथात्रयं व्यक्तम्, नवरं संस्कृते यद्यपि विष्णुरित्युका - रामेव तथापि प्राकृतस्यैवेह वकुमिष्टत्वादूकारान्तता न विरुध्यते एवोकारान्तो द्रुम इत्यादिष्वपि या जार्विनस्पतिविशेषः, पीलुं नि पीर शेर्पा निम् 1 लिङ्गरथ लिङ्गम् पुं० इमादी
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रिन्पुं० धनाधारित ०१
संयतवेत्रपारि पुलाल
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लिंगपुलाग अभिधानराजेन्द्रः।
लीलष्ट्रिय ब्धिसंपन्ने, प्रवद्वार । (अस्य व्य. या 'पुलाग 'शध्दे दिद्रव्यलेपो लगति । पिं०। (तच्च न ग्राह्यमिति एसरम पञ्चमभागे १०६० पृष्ठे गता)
| शब्दे तृतीयभागे ६५ पृष्ठे गतम्) लिंगपूरखपव्व-लिङ्गपरणए ! मासभाचिनि शैवा-लित्ती-देशी-खणादीनां दोषे, दे० ना०७ वर्ग २२ गाथा।
नामाराध्ये शिवलिङ्गघृतक की कल्प। |लित्तसीहकेसर-लिप्तसिंहकेशर-पु. । प्रास्तरणविशेष,का. लिंगभिएण-लिङ्गभिन्न-म०। सूत्रदोषभेदे, यत्र लिङ्गव्यत्य- १ श्रु०१०। यो यथा-इयं स्त्रीति वक्तव्ये अयं स्त्रीति वक्ति। प्रा०म०१०
लिथारिय-देशी-खरण्टिते, पिं०1। लिंगमेत्त-लिङ्गमात्र-न । बुद्धौ, द्वा० २० द्वा।
लिप्पकम्म-लेप्यकर्मन-न । लेप्यरूपकर्मणि, अनु । लिङ्गविहार-लिङ्गविहार-पुं० । लिलावस्थितस्य बिहारः ।
लिप्पगहत्थि-लिप्यकहस्तिन-पुं। चित्रकहस्तिनि, आय
५०। स्वलिङ्गपरित्यजनेन विहारे, २०१उ०१ प्रक० ।
लिम्भ-लिह-धा० । आस्वादे, "म्भो दुह-लिह-ब-हलिगाजाव-लशाली लिकम-साधलिङ्गं तेनाजीव
धामुचातः" ॥८।४।२४५ ॥ इति द्विरुको म्भो वा १६ ति, मानादिशून्यस्तेन जीविका कल्पयति । साधुवेषजावान।
| स्य चतुका । लिहिजा । लिह्यते । प्रा०४ पाद। स्था० ५ ठा०१ उ०।
लिम्प-लिप-धा० । उपदेहे, "ल म्पः "॥८।४।१४ लिंगावसेसमेत्त-लिङ्गावशेषमात्र-न०। मात्रशब्दो लक्षणवा
॥ इति लिपलिम्पादेशः । लिम्पर । लिम्पति । प्रा० । "स्वची; इति प्रवज्यालक्षणे द्रव्यलिङ्गमात्रे, नि० चू० १३ उ० ।
राणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ॥८।४। ३२६ ॥ लिह । लेह। लिंगि (ण) लिङ्गिन-त्रि०ालिङ्ग-तिरोहितमर्थ गमयतीति
लीह । प्रा०४ पाद। लिङ्गं धूमकृतकत्वादिकं तदस्यास्तीति लिङ्गी। साध्येऽनुमे
| लिम्ब-निम्ब-पुं०। पिचुमन्दके, “निम्बनापिते ल-एबं का" ये, विशे० । लिङ्ग विद्यतेऽस्यासौ लिङ्गी। साधुवेषवति, ग०
॥८।१ । २३०॥ इति नस्य लः । लिम्बो । निम्बो । प्रा०। २ अघिका नि० चू० । रजोहरणादिसाधुलिङ्गवति, प्रज्ञा०
कोमले रा० २० पद।
लिवि-लिपि-स्त्री०। अक्षरलेखप्रक्रियायाम, स०१८ सम लिंछ-लिच्छन । कुम्भकारस्यापाके भाण्डपचनस्थाने, स्था०८ ठा० ३ उ०।।
पुस्तकादावक्षरविन्यासे, भ० १ श० १ उ० । अष्टादश लिंद-लिद्र-न० । सशैवलपुराणजलवत्स्वादरहिते, प्रश्न. ५
लियः शास्त्रेषु श्रूयन्ते । तद्यथा--" हंसलिवी १ भूय
किती २, जक्खी ३ तह रक्खसी य , बोधब्बा । उडी ५ संव० द्वार । गोवराख्यरसविशेषकलिते, जी. ३ प्रति.
जवणि ६ तुरुक्की ७, कीरी ८ दविडी य । सिंघवी ४ अधि।
थ १० । ॥ १ ॥ मालविणी ११ नडि १२ नागरि १३, लिक-निली-धा० । निलयने, “निलीर्णिली-णिलु- ला. १४ पारसी य १५ बोधव्वा ॥ तह अनि
क-णिरिग्घ-लुक्क-लिक्क-ल्हिक्काः" ॥८। ४ । ५५ ॥| मित्ती य निवी १६, चाणकी १७ मूलदेवी य १८ ॥२॥" इति निपूर्वस्य लोधातोलिकादेशः । लिकर । निलीयते। प्रा०।। विशे० । झा । लेप्यविधौ, स०४५ सम। (एता 'मालिक्खा--लिक्षा-स्त्री० : लघुयूके, जं०२ वक्षः। वालाग्राष्टके | यरिय' शब्दे द्वितीयभागे ३३६ पृष्ठे व्याख्याताः) प्रमाणे अवमानभेदे, ०। जं० "हरिवासरम्मगहेमवगेरन विशी-ने-निपिपरिच्छेद-पुं०लिपिभेरिमाने कलावयाणं पुव्वविदेहाणं मरणूसा अट्ट लग्गा सा एगा लि-| भेदे, कल्प क्खा"भ०६ श०६ उ० । तनोतसि ,दे० ना०७
| लिव्वासण-ल...... । मसामा.... . वर्ग २१ माथा!
| लिस-स्वप-धा० । शयने, “स्वपेः कमवस-४... ' लिच्च-लिच्च-वि० । कोमले. प्रा. म... ..
... ...... स्वः स्थाने लिसादेशः । लिसइ । लिच्छ-लिप्स-
धाडायाम् . " हस्वात् थ्य-ध- स्वपित। प्रा०पार ra-सानिश्चले"॥८, . । इति प्सस्य छ। -िI:
य- देशी-तनूकते, दे० ना० ७ वर्ग २२ गाथा।
सीजam mm लिप्सत । प्रा.रा.
-लिखत-त्रि० । लेखन्या मृष्टं कुर्वाणे, अनु। लिडिश-देशां. . ना०७ वर्ग २२ गाथा।
हिअ-देशी-तना, सुरु . . २८ गाथा। लिन-लिप्त-त्रि० । संमृ, स्था०५ ठा० २ ३० । सर्वत..
लिहिय-लास. -- । नरविन्यासीकृते, कर्म० ४.. (स्था० ३ ठा० १ उ०) पिच्छिलीकृते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ उपदिग्धे, प्रशा० २ पद । छगणादिभिः ( कल्प० ३ अधि० |
शिल्पविशेषे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। क्षण) श्लेपिते,अष्ट०११अष्टमतिकया सवर्तः खरगिटते लोण-लान-त्रि० । गुप्ते, प्राचा०१०३०३उ०। पृ०२ उ०। ग०। प्रचुरकर्मखरण्टिते, उत्त० ८०। सूत्र०। लीलट्ठिय-लीलास्थित-त्रि० । ललिताङ्गनिवेशरूपया लीलप्रव० । वसादिना गर्हितद्रव्येण लिप्ते, पञ्चा। एषणादोष-| या स्थिते, जं. १ वक्षः। " लीलडियसालिभंजिया०" जी. विशेरे, स्था० ३ ठा०४ उ०। प्राचा० । लिप्तं यत्र ध्या-1 ३ प्रति०४अधिक।
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जीना
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लीला लीला श्री० सफामगमनभाषितादिके, अनु विलासे, शृङ्गारचेष्टायाम्, क्रीडायां च । वाच० । “हेला ललिश्रं लीला" पाह० ना० ७० गाथा । लीलावायकयपक्वपणं ” लीलया न तु प्रस्वेदापनोदाय प्रस्वेदस्य दिव्यशरीरे अभावात्, ततो लीलया 'वाय' त्ति बातोदीरणार्थयति स्तः-स्तालवृन्तं तेन (शोभिताम् ) कल्प० १ अधि० २। लीलाचकम्ममाण - लीलाचङ्क्रम्यमाण- त्रि०। हेलया कुटिलगमनं कुर्वाणे, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार । लीलावंत- लीलायत - त्रि० सविलासगती, ०१ अधि २ क्षण | लीलां कुर्वति, शा० १ ० १ ० । लीलालग्ग - लीलालन- न० | करूपनाकल्पितक्रीडामुग्धे, श्र
ए० १ अष्ट० ।
लीलो - देशी-यज्ञे, दे० ना० ७ वर्ग २३ गाथा ।
लीव- देशी - वाले, दे० ना० ७ वर्ग २२ गाथा । लीहोदर - लीहोदर[-न० । रोगविशेषे, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार । लुअ-लून-त्रि० । “शेनाकुपादयः ॥ ८ । ४
२४८ ॥ निषातात्। बुलू।हिजे, प्रा० बजे दे० ना० ७वर्ग २३ गाथा । हुंकडू-पुं० जनप्रतिमापूजाविरोधिनि स्वनामा
www
(to) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
फुस- पुस- लुह-हुल -
गच्छे, "किञ्चिन्निरीक्ष्याप्यसमञ्जसं तच्छास्त्रार्थशून्यैः प्रतिभोज्झितैश्च । लुङ्कायनादेयमतान्धकूपे-प्यन्धैरिवोयैः पतितं प्रभूतैः॥०३ असु दे००० वर्ग०२३ गाथा । लुंकण - देशी-लयने, दे० ना० ७ वर्ग २४ गाथा | लुंख - देशी-नियमे, दे० ना० ७ वर्ग २३ गाथा । खानदेशी निर्णये दे० ना० ७ वर्ग २३ गाथा | लुंचन - लुञ्चन - न० | सामान्यतः केशोत्पाटने, पिं० । श्र नयने, सूत्र० १ ० ४ ० २० । लुंचित लुति०] उत्पाटितकेशे, आचा० १५०६ अ०२४० लुंछ- मृज-धा० । शुद्धौ, " मृजे रुग्घुस - लुझ्छ पुग्छ- पुंस- रोसाणाः ॥८|४|१०५॥ लुझ्छ|मार्ष्टि । प्रा० । पत्ता- लुम्पपितृ वि० [प्रन्थिच्छेदनादिभिर्विलुम्पथितरि आचा०१०२०१ ३० अन्तराङ्गावयवर्तिने, सूत्र० २ ० २ अ० । केशाकर्षणाद्युत्पीडने, सूत्र०२ श्रु० २ श्र० । पणा लोपना श्री० प्राणानां देवने प्रश्न ०१ अथ द्वार लुपाग- लुम्पाक-पुं० [प्रतिमाविरोधिनि डुल्डके, उच्चनीममिलाएं अडर' इति अत्र लुम्पाका नीचशब्देन सर्वाणि नीचकुलानि पदन्ति तत्कथमिति मनः १ अयोर म्-नीच कुलानि – इरिङ्गकुलानि उच्चकुलानि शुद्धिमत्कुला नीति श्रीकालिकस्यादिषु व्याख्यानमस्तीत्यतो नीच. शब्देनानुमिकुलानि पानि न तु गीयकुलानि तथा दशवैका लिकेऽपि 'पडिकुट्टकुलं न पविसे' इत्यादि सूपपन्नमिति ॥ ११८ ॥ सेन० ३ उल्ला० । लुंबी - लुम्बी - स्त्री० । श्राम्रादिमज्ञयम्, कल्प०२ अधि०८ क्ष । स्तयके, लतायां च । दे० ना० ७ वर्ग २८ गाथा ।
लुद्ध
I
लुक-तुट धा० त्रोटने, " तुतोब हजुह खुदोषडोल्लुक - णिलुक्क - लुक्कोल्लूराः " ॥ ८ । ४ । ११६ ॥ इति तुडस्थाने लुकादेशः। सुकर तुडति प्रा० मेवे, चाच० । निली धा० तिरोधाने "निलीि-फिल-विरिग्ध-लुक-लिकाः ॥ ४२ ॥ भिपूर्वस्य लिको लुकादेशः लुका निलीयते प्रा० योगोरीमुहनिजिउ, बट्टति लुक्कु ( क ) मिश्रंक ।" प्रा० ४ पाद । रुग्ण- त्रि० । रोगिणि, -मुक्र-द-रुग्ण मृत्ये को वा ” ॥ ८ ॥ २ । २ ॥ इति संयुक्तस्य को वा । लुको । लुग्गो । हरिद्रादौ लः” ||८|१|२५४ ॥ इति रस्य लः । रुग्णो । प्रा० । लुचित उत्पादित 'कविको जह कवीडो 'लुचि विलुञ्चितो यथा कपोतः । पिं० । |लुकसिरयलुचितशिरक-बि० कर्त्तरीमिशिरके - रूप० ३ अधि० ६ क्षण ।
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1
लुक्ख- रूक्ष- पुं० । संयोगे सति संयोगिनामबन्धकारले स्पशभेदे, " एगे लुक्खे " स्था० १ ठा० । निस्नेद्दे, श्रि० । प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार। जीत० । पृ० । स्था० ।
सुक्खदेसीयरूचदेशीय पुं० [कल्पे, शाखा० १ ०
-
66
3
श्र० ३ उ० ।
लुक्ख फासपरिणय- रूक्षस्पर्शपरिणत - पुं० । भस्मादिवत् रूक्षस्पर्शपरिमतेषु तेषु ०१ पद - पुं० । अलाउद्दीनसुरत्राणस्य कनिष्ठलुक्खागण -- रूक्षाननभ्रातरि " तास कमिट्टी खानननामधिल दिल्लीपुरश्री मतिमादपेरिओ गुजरधरं पडिओ "०१६ क लुक्ख मरसुरहमनिकामभोइ - रूक्षाऽरसोष्णानि काम भोजिन् पुं० । रुक्षम् - निस्नेहम् अरसोष्णमिति न प्रत्येकमभिसंबध्यते अरखं वादिभिरसंस्कृतमनुष्णे शीतल मनिका परिमितं भभो शीलमेषां ते रुछारसानुष्णानिकामभीजिनः । मकारायलाक्षणिकी। तथाविधाभिप्रदविशेषचरके, बृ० १ उ० ३ प्रक० । "नापुराणादयः ॥ लुग्ग-रुग्ण-शि० । जीर्णतां गते, ४ । २५८ ॥ इति रुग्णस्थाने लुग्गेति निपातः । लुग्गो । रुग्णो । प्रा० । भग्ने, दे० ना० ७ वर्ग २३ गाथा । लुइन लुइनन० पा० १० लुग-लू-धा० छेदने, "चि-जि-धु-हु-स्तु-ल-पू-धू-गां गो हस्वश्व ॥ ८ । ४ । २४१ ॥ इति श्रन्ते एकारागमः, दीघस्वरस्य ह्रस्वः । लुगई । लुनाति । प्रा० ४ पाद । लुगलुम वि० अपगते, सू० १०० १० लुचधम्म लुप्तधर्म्मन् त्रि० विगतधर्म्मणि प्रश्न ०२ श्राश्र०द्वार सुनपा- लुप्तप्रज्ञ - वि० पतावधिविवेके सू० १०४
"
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1
3
अ० १ ३० ।
लुद्ध-लुब्ध- त्रि० । अनादिष्यभिकाङ्गावति, उत्त० ११ अ० आहारोपधिपात्रादिषु लोलुपे, ग०२श्रधि० । पाहοनागरागपानं ०२ ०० लोभनम्म नपुंसके क्रः लोभ,
"
न० । ० ३ उ० ।
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अभिधानराजेन्द्रः। लोध-मुं। स्वनामख्याते गन्धद्रव्यविशेषे, दश०६०।
साम्प्रतं लूषकमधिकृत्याहलुदूग-लुब्धक-पुं० । व्याधे, प्रश्न०१ श्राश्र द्वार । तउसगवंसगलूसग-हेउम्मिय मोयो य पुणो ॥८॥ लुद्धगदिद्रुतभाविय--लुब्धकदृष्टान्तभावित-त्रिपार्श्वस्थादि- अपुषव्यंसकप्रयोगे पुनर्लेषके हेतौ च मोदको निदर्शनमिति भिर्माविते, निचूापासस्थातीहिं जे भाविता ते लुद्धगदिटुंत
गाथाक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः, तश्चेदम्-"जहा भाविता। कह? ते पासत्था एवं कहेंति-जहा लुद्धगो हरिणस्स
एगो मणुस्सो तउसाणं भरिएण सगडेन नयरं पविसह, सो पिटुतो धावति हरिणस्स पलायमाणस्स सेयं लुद्धगस्स वि
पविसंतोधुत्तेण भणइ-जो एयं तउसाण सगडं खाइजा तस्स जेण तेण पगारेण तं हरिण अंसउं घावातेतस्स सेयं एवं
तुम कि देसि ?.ताहे सागडिएण सो धुत्तो भणिो -तस्साह जहा हरिणो तहा साहू, जहा लुद्धगो तहा सावगा । नि०
तं मोयगं देमि, जो नगरहारेण ण णिष्फडइ, धुत्तेण भमत्तिचू०४ उ०।
तोऽहं एयं तउससगडं खायामि.तुमं पुण तं मोयग देजासि
जो नगरहारेण ण नीसरति, पच्छा सागडिएण अम्भुवगए लुप्पमाण-लुप्यमान-त्रिकर्णनासिकादिच्छेदनेन छिद्यमाने,
धुत्तण सक्खिणो कया, सगडं अहिट्टित्ता तेसिं तउसाणं उपा०७०।
एकेकय खंडं अवणित्ता पच्छा तं सागडियं मोयचं मग्गति, लुरणी-देशी-वाद्यविशेषे, दे० ना० ७ वर्ग २४ गाथा।
ताहे सागडिअो भणति-इमे तउसा ण स्वाइया तुमे, धुत्तण लुलिय-लुलित-त्रि० । अतिक्रान्तप्राये, शा० १ श्रु०४०।। भस्मति-जह न खाइया तउसा अग्यवेह तुमं, तो अग्धमदवशेन चूर्णिते, चलत्पदे च । उत्त० ५ अ०। तीरभुवि विएसु कया गया, पासंति खंडिया तउसा, ताहे कइया लुठति, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
भणंति-को पए खइए तउसे किणइ ?, तो करणे ववलुब्बत-लुप्यमान-त्रि०।" न वा कर्म-भावे व्वः क्यस्य च हारो जाओ खइय त्ति, जियो सागडिभो । एस वंसगो चेव लुक" ॥८।४।२४२ ॥ लुब्वा । लूयते । प्रा० । छिद्यमाने,
लूसगनिमित्तमुवमत्थो, ताहे धुत्तण मोदगं मग्गिजति,
श्रश्चाइनो सागडिओ, जूतिकग अोलग्गिया. ते तुट्टा पुप्रशा०१ पद।
च्छंति, तेसिं जहावत्तं सव्यं कहेति, एवं कहिते तेहिं उत्तरं लुहिल-रुधिर-न । रक्ने, “ता कहिं नु गदे लुहिलप्पिए भ
सिक्खाविमो-जहा तुम खुड्यं मोदगं णगरदारे ठवित्ता विस्संदि" प्रा. ४ पाद।।
भण एस स मोदगो ण णीसरह णगरदारण, गिराहाहि, लया-देशी मृगतृष्णायाम् , दे० ना०७ वर्ग २५ गाथा ।
जिओ धुत्तो । एस लोइयो, लोगुत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे लूडण-देशी-न० । अपहरणे, जी०१ प्रति०।
कुस्सुतिभावितस्स तहा लूसगो पउंजइ-जहा सम्म पडिलूडिय-लूटित-त्रि० । अपहते, प्राचा०२ श्रु०१ चू०२०
वजह । दवाणुजोगे पुण पुजा भणंति-पुवं दरिसिनो १ उ० । श्रा. म०।
चेव । श्रमे पुण भणति पुवं सयमेव सवभिचारं हेउं उथा
रेऊण परविसंभणानिमिनं सहसा वा भणितो होखा, पच्छा लूण-लवण-पुं० । वनस्पतिविशेषे, येन दग्धेन सर्जिका नि
तमेव हेउं श्रमणुं निरुत्तवयणेणं ठावेह । " दश १ अ०। पद्यते । ध०२ अधि० । खारीक्षारके, ध०२ अधि०।
लसण-लूषण-न० । कदर्थने, सूत्र०१ श्रु० ३ ० १ उ०। लूणप्पसाय-लषणप्रसाद-पुं० । अलाउद्दीनाऽऽगमनसमका
दूषणे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० । उपमर्दने, सूत्र० १० १४ अ०। लिककर्णदेवपूर्वजसारङ्गदेवपूर्वजार्जुनदेवपूर्वजविशलदेवपूर्व
अतिक्रमणे, सूत्र०१ श्रु०५१०२ उ० । विध्वंसने, प्राचा०१ जबीरधवलपूर्वजे गुर्जरदेशाधिपतौ वाघेलक्षत्रिये, ती० २५
श्रु०६ १०४ उ० । विराधने, श्राचा०२ श्रु०१ चू०१०७ कल्प।
उ० । इस्वकरणे, सूत्र०१ श्रु०७०। लूणरुक्खच्छल्ली-लवणवृक्षच्छवि-स्त्री० । लवणापरपर्याय
लसिय-लूषित--त्रि० । परितापने, प्राचा०२ श्रु० ४ चू०। स्य भ्रमरनाम्नो वृक्षस्य त्वचि, ध०२ अधिक।
हिंसके, सूत्र० १श्रु०१०। प्राचा। लूणिगवसति-लूणिकवसति-स्त्री० । अर्बुदपर्वते ग्रामविशेषे,
लूसियपुव्व-लूषितपूर्व-न० । हिंसितपूर्व, प्राचा० १७०६ लूणिगवसत्यां नव शतानि चतुरशीतिश्च पौषधशाला वस्तु-| पालतेजपालाभ्यां स्थापिताः । ती०४२ कल्प।
लह-रूक्ष-त्रि० । निहे,स्था०५ ठा०१ उ० । वृ० । आचा। लूया-लता-स्त्री० । वातिकरोगविशेषे, पश्चा०१ विव० । को
शा०। प्रति। अप्रणीते, भ. ३ श०४ उ० । स्नानस्निग्धलिकपुटके, कोलिकजालके च । वृ०१ उ०२ प्रक० ।
भोजनादिपरिहारेण, (उत्त०२०)तैलाभ्यनादिरहिते,उत्त. लूर-छिद-धा० । द्वेधीकरणे, छिदेवुहाव--णिच्छल्ल-निज्झो
२० । स्वजनादिषु स्नेहविरहाद्रक्षः । दश० १० १० रूक्षः -णिब्बर-णिल्लूर-लूराः।"॥८॥४॥ १२४ ॥ इति लूरा- शरीरे मनसि च। द्रब्यभावस्नेहवर्जितत्वेन परुष, स्था० ४ देशः । लूरइ । पक्ष-छिदइ । प्रा०४ पाद ।
ठा०१ उ०। रागद्वेषरहिते, सूत्र०२ श्रु०११०। लूसग-लुषक-त्रि० । मुष्णाति लूषयति वा इति लूषकः । स्था० लप-पुं०। लूषयति वा कर्ममलमपनयतीति लूषः । स्था०४ ४ ठा० ३ उ० । चौरे, व्य०४ उ० । रे, भक्षके च । सूत्र०१
ठी०१ उ० । उत्त । स्नेहपरित्यागे, दश० २ ० । संयमे, श्रु०३ १०१ उ०। हिंसके,सूत्र० १ श्रु०२ १०३ उ० । व्या- सूत्र०१७०३ १०२ उ०। पादके, सूत्र०२ श्रु०४०। विराधके; सूत्र०१ श्रु०२० लुहचरय-रक्षचरक-पुं० । रूक्ष-निस्नेहं चरति अभिग्रह२ उ० । उपमर्दकारिणि, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। विशेषात् । रूक्षमात्रग्राहके भिक्षी.स्था०५ठा०१ उ०। सूत्र।
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गुरुजीवि
लुहजीधि (म्) - रूजदिन् पुं० [रुण-तैलादिवर्जितेन जीवितुं शीलमस्येति निस्नेहभोजन भी
स्था० ५ ठा० १ उ० ।
लहवित्ति रूचवृति पं० वल्लवादिभित्र भटके सौ दश
- -
(47) अभिधानजेन्द्र
श्र
लूहाहार - रूक्षाहार- पुं० / रूक्षं त
रूक्षो वा श्राहारो यस्य स तथाविधे श्राभिग्राहिक स्था० ५ ठा० १ उ० ।
लुहिय-रूक्षित - न० | विरूक्षिते, प्रा० । निर्जलीकृते, कल्प०
[झा० १ ० १७ अ० ।
आहारयति
१
चण ।
ले-ला-धा० | आदाने, “ खराणां स्वराः " ॥ ८|४ | २३८ ॥ इत्याकारस्थाने एकारः । लेइ । लाति । प्रा० ४ पाद लेक्खत्रिहाण-लेख्यविधान-न० । लेख्यविधौ प्रज्ञा० १ पद लेच्छा-लेच्छकिन्पुं । चत्रियविशेषे सू० १ ० १३ अ० । च्छकि जातीयेषु कोशलदेशस्य राजसु कल्प० १ ० ६ क्षण भ० । ज्ञा० श्र० ।
।
लेज्म लेात्रि
--
मधुशिखरिणीप्रभृतिषु श्रास्वाद्यरसेषु,
3
| लेडुओ
पुतलिकायाम् अनु● |
"
लेहु-लष्टु-पुं० । श्रश्र
लेहु-लेषु पुं० । प्रस्तरे, प्रश्न० ३ द्वार पापा तु लेहु-पु० लोडे, सू० २ ० १
।
।
.
श्रीराद्धि
कल्प० १ अधि० ६ क्षण । ( लेष्टुकदृष्टान्तः शब्द चतुर्थमा २४१२ पृष्ठे गतः
लेख- देशी लोटके, दे० ना० ७ वर्ग २४ गाथा
लोहे " पाइ० ना० १५३ गाथा । सेकदेशीलम्पटे, लोहे व दे० ना० वर्ग २६ गाया। लेढि - दशी - स्मरणे, दे० ना० ७ वर्ग २५ गाथा । छेटुक-लेण्डुकपुं । लोडके, दे० ना० ७ वर्ग २४ गाथा 'सेदुको लेडओ " पाइ० ना० ।
Ge
.
"
ले लगनन० स्थाने वसतिरुपे (००) शैलगृहे, प्रश्न ६ संव० द्वार लामयगृहे, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । पतनिकुट्टितगृहे, प्रगृहे स्था ठा० ३ उ० | कल्प० । उत्कीर्णपर्धतगृहे, भ०५ ० ७३० श्राश्रये, स्था० ८ ठा० ३ उ० । गुहायाम्, उत्त०२ अ० | सूत्र ० लम जंभय-लयनजृम्भक पुं० । जृम्भन्ते विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया एन्ते ये ते जृम्भकाःतिग्लोकयासिनो - तरदेवाः भ० ) लयनम् गृहम् सवनाविभागेन जृम्भको देवः लयनजृम्भकः । जृम्भकदेवभेदे, भ० १४ श०८ उ० । लेणभोग-लयनभोग-पुं० । चित्रशालाद्यावास - नवनवाभोगे,
-
व्य
और।
लेस हुम-लयनसूक्ष्म- न० लयनम् - श्राश्रयः सत्त्वानाम्, यत्र कीटिकानेक सूक्ष्म सस्था भवन्ति तनयनम् । सुमपि स्था
से किं तं सुहुने ? लेखमुदुमे पंचविहे पण, तं जहा - उनिंगले १ भिंगुलेगे २ उज्झए ३ तालमूलर ४ संवुकावट्टे नामं पंचमे ५ । जे छउमत्थे ० जाव पडिलेहियत्रे भवइ, से तं लेखमुहुमे ॥ ७ ॥
लेख ( से हमे ) श्रथ कानि तत्, लयनम् - श्राश्रकः सत्वानां पत्र कीटकथा भवन्ति तज्ञपनं सूक्ष्मविलानि, गुरुराह - ( लेणसुहुमे पंचविहे पत्ते ) पञ्चविधान प्रान ( जा ) तथा (त? भिंगुलेणे २ उज्जुर ३ तालमूलए ४ संबुकान मे उतिङ्गा-गर्दभाकारा जीवलिं ) भूमौ उत्कीर्ण गृहम् उत्तिङ्गलयनम् १, भृगुः शुष्क भूरेखा जलशोपानन्तरं जलकेदारादिषु स्फुटिता हाय २. 3. तालमूलाकारम् अधः पृथु उपरि च सूक्ष्मं बिलं तालमूलम् भ्रमरगृहं नाम पञ्चमम् ५, (जे छउमत्थे ०जाब पडिलहिय
-
न यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ( से तंग तानि सूक्ष्मबिलानि । कल्प० ३ श्रधि० ६ क्षण । कीटिकामगलेच्छारिय-देशी, खरण्टिते, वृ० १ उ० १ प्रक० । रादिके सूक्ष्मभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ० । लेप्यकम्म- लेप्यकर्मन् १० लेप्यपरिज्ञानात्मके का
कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
लेप्पकार - लेप्यकार - पुं० । लेप्यकरण शिल्पिनि अनु० । लेप्यपुतलिया लेप्यपुनलिका स्त्री० लेप्यकर्मनिर्मिता
० । कपाले, आचा०
१ श्रु० ६ श्र० ३ उ० । पृथिवीशकले, श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ श्र० ५ उ० |
लव लेप-पुं०। लेपनादिश्लेये, दश० २ अ० १ उ० । उपच
उत्त० अ० । बृ० ।
,
अधुना लेपद्वारमाह
अप्पत्ते अकहित्ता, अहिगया परिछणे य चउगुरुगा । दोहि वि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा । ४७७ सूत्रे पात्रैषणालक्ष यदि लेपस्यानयनाय प्रेषयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं च मे दुल्कात कालगुरुकाश्च । श्रथ प्राप्तेऽपि श्रुते तदर्थमकथयित्वा कथनेऽप्यधिगतस्तदर्थो न वेत्यपरिज्ञाय अधिगतमपि सम्प
दधाति न वेत्यपरीचय यदि प्रेषयति तदा प्रत्येकमध नेऽनधिगमेऽपरीक्षणे च तर प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, द्वाभ्यां लघवः । तयथा - तपोलघुकः, काललघुप्रायश्चित्तमाशादयश्च दोषास्तस्मात्सूत्रे प्राते तत्रापि कथित धिगतं स परीक्ष्य लेपस्यान्यनाय प्रेषणीयः, एष लेपस्य कॉल्पक:
अकालियलेवं, वयंति अधियाणिऊण सन्भाव ।
ते बच्चा लेवो, दिडो लोकदंसीहिं ॥ ४७८ || केचित्यवनस्य सद्भावम् - रहस्यम् अविदित्वा अविशाय अकालिकं लेपं पात्रस्य वदन्ति न एष पात्रस्य लेपः सर्वः को-अधुनातनभिः प्रवर्तितः, ते वक्तव्याः, दृष्टः खलु पात्रस्य लपः त्रैलोक्यदर्शिभिः । एनामेव माथां ध्याचिस्यासुः प्रथमतः पूर्वा व्याख्यानयन लेपस्य [जनानुपदिष्टत्वं भावयतिमाया-वय-संयम-उपपाओ दीसई जय तिविहो ।
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लव
अभिधानराजेन्द्रः। तम्हा वयंति केई, न लेवगहणं जिणा विति ॥ ४७६ ।। दुग्गंधिभायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि ॥४८॥ यस्माललेपे गृह्यमाणे त्रिविध उपधातो दृश्यते, तद्यथा- अलेपितं किल पात्रमतीव विरसंभवति. तस्मिन भुञानश्रात्मनः, प्रवचनस्य, संयमस्य च । तस्मात्केचिद्वदन्ति-न स्य विरसगन्धघ्राणत ऊवादीनि भवन्ति , ऊवं-वमनम् लेपग्रहणं जिना ब्रुवते-न खलु भगवन्तः सावधं वचनमु- श्रादिशब्दादरुचिमान्द्यादिपरिग्रहः । एते अात्मनि दोषाः, च्चरन्ति ।
तथा-लोको भिक्षां ददानो दुर्गन्धिभाजनं दृष्ट्वा गर्दयनि-रेल. कथं पुनरात्मप्रवचनसंयमोपघात इत्यत आह
शा पवामी पापोपचिता इति । एष प्रत ने उप य
दप्युतप्-'योन्निम्वित लेपग्रहाणे प्रवचनोपघात ' तदेतत्तारहपडणउत्तमंगा-दिभंजणा घट्टणे य करपातो।।
वन नि । अन्येऽपि खलु महान्तः प्रवचनोपघाता अवएसाऽऽय पिराहणया, जक्खुलिहणे माना । श्यकर्तव्यतया यतनया परिहियन्ते। गमरणागदेहण-तिट्ठाण संजमे विराहणया ।
पुनर्नैप इति प्रतिपादयन्नाहमहि-सरि-उम्मुश-हरिया, कुंथ वासं रोवसिया ॥४८॥
पवयणघायाऽन्ने वि, अत्थि जयणाए कीरए तेसिं । रथस्य शकटस्य पतने उत्तमाङ्गादेः शरीरावयवस्य भङ्गः ,
आयमणभोयणाई, लेवे तव मच्छरो को गु?॥४८४॥ तथा-भाजनस्य लेप दत्ते घट्टकेन दत्तलेप पात्रं घट्टयतः।
अन्येऽपि स्खल आचमनभोजनादयः-कायिकेनाचमनं काकरघात करस्यापीडा, एषा अात्मविराधना । यक्षाः-श्वा- यिक्या आचमन वा पात्रे भोजन मण्डल्यां भोजनमित्येनस्तैः शकटस्याक्षोऽनेकधा जियोल्लिखितः साधुरपि च त.। वमादयः प्रवचनघाता:-प्रवचनोपघाताः सन्तिः परं तेऽप्यत्र लेपं गृह्णाति. तमपि च भोजनयाग्यं पात्रे दास्यति.ततो य
वश्यकर्त्तव्यतया यतनया सागारिकरक्षणादिरूपया क्रियन्ते दोल्लिखने-यक्षोल्लिखित लेपग्रहणे प्रवचने-प्रवचनस्योपघानः एवमवश्यग्रहीतव्ये लेप यतनया तत्कालदृष्टदोषपरिहारातथा-त्रिस्थाने-त्रिषु स्थानेषु च संयमे संयमस्य विराधना. दिलक्षणया गृह्यमाणे कः नु तव मत्सरो , नेवासा तद्यथा-लेपग्रहणाय गमने लेप गृहीत्या पुनर्वसतावागमने- युक्त इति । लेपग्रहणे च । तथाहि-गच्छतामागच्छतां तत्र वा मह्याः स.
संप्रत्यन्यानपि पात्रालेपे दोषानाहचित्तपृथिवीकायस्य विराधना,सरिद-नदी तत्र गमने भाग | खंडम्मि मग्गियाम्म य,लोगो दिनम्मि अषयबविणासो। मने चाऽप्कायविराधना, तथा-कदाचिः शाकटिकैरग्निका अणुकंपादी पाण-म्मि होति उदगस्स उविणासो।४८५॥ य उद्दीपितो भवेत् , तत्र कथमष्यनुपायागत उल्मुकचालने
अलेपिते पात्रे कस्मिंश्चित्प्रयोजने समापतिते खण्डं याअग्निकायविराधना. यत्राग्निस्तत्र वायुरिति वायुविराधना,
चितम् । तथा चाविरत्या खण्डमिति भ्रान्त्या अनाभोगेन हरितकायक्रमेण वनस्पतिकायविराधना, तथा-लेपे कुन्थ्या
सैन्धवादि लवणं दत्तम् , तस्मिश्चालेपिते भाजने केचिदवयवा दयः प्राणा लग्ना भवेयुः ततस्तद्ग्रहणे त्रसकायविराधना ।
अद्याप्यम्लाः सन्ति, ततस्तैरवयवैस्तस्य लवणस्य पृथिवीतथा-गमने अागमने तत्र या वर्ष पतेत् रजो वा सचित्त
कायस्य विनाशः, तथा-पानके याचिते कयाचिदविरत्या वातोद्धृतमापतितं स्यात् ततस्तद्विराधनाऽपि तत्राऽवसेया।
पते उदकस्य स्वादं न जानन्तीस्यनुकम्पया अादिशब्दाद्तदेवमायातम्-श्रात्मप्रवचनसंयमानामुपघातेन च यथा पि
श्रनामोगेन चा उदकं दीयते तत एवम् उदकस्याम्लावयवसंएडेपणा, पात्रैषणा वा, जिनैणिता, न तथा लेपैषणाऽपि,
स्पर्शतो विनाशः। तस्मान जिनोपदिष्टः पात्रस्य लेपः। तदेतदसमीचीनम्, पात्रलेपस्य जिनरर्थत उक्तत्वात् । पात्रषणायां हि त्रिविधं पा
पूपलियलग्गअगणी-पलीवणं गाममादिणं होजा । त्रमुक्तम् , तद्यथा-यथाकृतम् अल्पपारकर्म, सपरिकर्म च ।। रोट्टपणगा तरुम्मी, भिगुकुन्थादी य छझुम्मि ॥४८६॥ तत्राल्पपरिकर्मणः सपरिकर्मणश्चावश्यं लेपन कार्यमि- कयाचिदविरमा पोगतः सागारा पूपलिका दत्ता ति सामर्थ्यांदुक्नो जिनैः पात्रस्य लेपः । अन्यच्चौघनि- भवेत् . तत्राम्लावयवसस्पर्शतस्तस्य विध्वंसः । यद्वा-पूयुक्ना (नियुक्निगाथया ३७१) प्रपञ्चेन लेपेषणाऽप्यभिहिता पलिकालग्नोऽग्निदहेत् , सच साधुने चेतयते, ततः प्रदीप्ते तस्मात् दृष्टस्त्रैलोक्यदर्शिभिः लेपः ।
पात्रेरितारलंगनतः सहसा तत्पात्रं त्यज्यत् , तश्च कराटयश्च वदसि प्रात्मोपघातादयो दोषा इति, तत्र प्रत्युत्तरमाह
कभित्तालिपतितमिति कृत्वा तदाहप्रसङ्गतोप्रामादीनां दोसाणं परिहारो, चोयग जयणाएँ कीरए तेसि ।।
ग्रामस्य नगरस्य पाटकस्य वा प्रदीपनं भवेत् । ततो महती
अग्निकायस्य विराधना । यत्राग्निस्तत्र वायुरिति वायुविपाते उ अलिप्पंते, ते दोसा होंतिउणेगगुणा।। ४८२॥ राधना । वनस्पतिविराधनामाह-रु?' त्यादि कयाचिदहे नोदक ! ये दोषास्त्वया प्रागात्मोपघातादयः उक्लास्तेषां विरत्या रोट्टो-लोट्टो दत्तः सोऽम्लावयवसंस्पर्शतः प्राणपरिहारो यतनया क्रियते, यतनया गच्छतो लेपग्रहणे च कु.। विपत्तिमाप्नोति, तथा भृगुनाम-श्लदणराजिः तासु पनकः यतो न कश्चिदात्मोपघातादिको दोष इति भावः । पात्रे तु| संमति सोऽनपानग्रहणहो विध्वंसमापद्यते, पषा तरी अलिप्यमाने ते आत्मोपघातादयो दोषा अनेकगुणाः-- वनस्पतिकाये विराधना । तथा-भृगुषु पनके संमूञ्छिते नेकप्रकारा भवन्ति ।
कुन्थ्वादयोऽपि संमूच्छन्ति तेऽवयवानामम्लभावेनानपानकथमिति चेदत श्राह-
ग्रहणतो वा विराध्यन्ते. एषा षष्ठ सकाय विराधना । उडादीणि उ बिरस-म्मि भुजमाणस्स होति आयाए। । एवं पराणामपि कायानां पात्रस्यालेपे विराधना ।
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अभिधानराजेन्द्रः।
लेव यदप्युक्तं लेपैषणा भगवद्भिनोक्नेति तत्र प्रतिविधानमाह- यदप्युक्तम्-'भारेण हस्तोपघात ' इति । तत्रापिपायग्गहणम्मि उ दे-सियम्मि लेवेसणा वि खलु वुत्ता।
प्रत्युत्तरमाहतम्हा उ आणणा लिं-पणा य लेवस्स जयणाए ।४८७
जइ वा हत्थुवघाओ, पाणिज्जंतम्मि होइ लेवम्मि । पात्रग्रहणे देशिते खलु लेपैषणाऽप्युक्ता दृएव्या। लेपमन्तरेणा
पडिलेहणादिचेट्ठा, तम्हा उन काइ कायव्वा ॥४६॥ वश्यं षट् जीवनिकायविराधनात् , यथोक्तमनन्तरम्, तस्मात् यदि लेपे श्रानीयमाने भारेण हस्तोवघात इति मानयन जिनोपदिष्टत्वाल्लेपस्य यतनया श्रानयनं तेन च पात्रस्य क्रियते: तर्हि न कदाचिदपि प्रतिलेखनादिक्रिया कर्तब्या । लेपनं कर्तव्यम् । पर श्राह-यतनया लेपस्यानयनादि कर्त-- अत्रापि यथायोग हस्तपादादेरुपघातसम्भवात् . तस्मातव्यम् , तत एवं क्रियताम् ।
यथा प्रतिलेखनादिका क्रियाऽवश्यं क्रियते तत्करसो गुण
सम्भवादेवं लेपानयनमपि । तदेवम्-' हत्थोवधाय गैतूण हत्थोवघाय गंत-ण लिंपणा-सोसणा य हत्थम्मि ।
लिंपणे त्ति' ब्याख्यातम् । सागारिए पभूजि-घणा य छकायजयणा य ॥ ४८८ ।।
अधुना "सोसणा य हम्मि" इति व्याख्यानयतियस्मालेपस्यानयने हस्तोपघातः; तस्मात्तत्र गत्वा पात्रस्य
जति ने तो पुणरवि, आणेउं लिंपिऊण हत्थम्मि । लेपनं कर्तव्यमिति नोदकवचनम् , इदमपि नोदकवचो लिप्त
अच्छति य धारमाणो,सव निक्खेव परिहारी ।।४६२।। स्य पात्रस्य हस्ते धारणतःशोषणाकर्त्तव्या । अनोभयत्रापि प्रत्युत्तरमने दास्यते । तथा-बजता प्रत्यासनं शय्यातरशकटम
यदि नाम तत्र गत्वा पात्र लेपनीयमिति नैवमिष्यते अनवलोक्य सागारिकपिण्ड एष इति कृत्वा न वर्जनीय किंतु न्तरोदितानेकदोषप्रसङ्गात्ततः पुनरपि किञ्चिद्वक्तव्यम्-लेपतत्रैव लेपग्रहण कार्यम् ,तथा तस्य शकटस्य प्रभुः, प्रभुसंदि
मानीय पात्रं लिप्त्वा स इव निक्षेपपरिहारी स इव निक्षेग्धे वा तमनुज्ञापयेत् , अनुज्ञाप्य च कटुगन्धपरिक्षाना- परिहारमिझछन् हस्ते पात्रं धारयन् तावत्तिष्ठति यायल्लेय नासामसंस्पर्शयन् तं लेप जि त्तदनन्तरं लेपस्य |
पस्य शोपो भवति । प्रहण षद्काययतनया कर्तव्यमित्येष द्वारगाथासंक्षेपार्थः ।
एवं क्रियतामत्राचार्यः प्राहसाम्प्रतमनामेव विवरीषुः प्रथमतः 'गंतूण लिंपणे ' ति]
एवं पि हु उवघातो, आयाए संजमे पबयणे । द्वारं व्याख्यानयति
मुच्छादी पवडते, तम्हा उ न सोसए हत्थे ॥ ४६३ ॥ चोयगवयणं गंतू-ण लिंपणा आणणे बहू दोसा।
एवमपि हस्ते धृत्वा पात्रलेपस्य शोषणेऽपि हु-निश्चिसंपातिमादिघातो,अहि उस्सग्गो य गहियम्मि ॥४८६।।
तम उपघातः श्रात्मनः, संयमस्य, प्रवचनस्य च । तत्रात्मोनोदकवचनम्-तत्र शटकसमीपे गत्वा पात्रस्य लेपनं पघातो मूछीया श्रादिशब्दात्पात्रभारेण च प्रसिपतति वेकर्तव्यम् , यतो लेपस्यानयने बहवो दोषाः, तथाहि-भारण दितव्यः, संयमोपघातः षद्कायानामुपरिपतनात्, प्रवचनो. हस्तोपघातः पूर्ववत् , तथा-संपातिमानाम् , अादिशब्दाद- पघातः पतन्तं दृष्टा लोको ब्रूयात्-'दुष्टधाणोऽमी' इति । असंपातिमानां च जीवानां तत्र पतितानामुषघातः, सच
उक्तश्चकदाचिदधिको लेपो गृहीतोभवेत् , ततस्तस्मिन्नधिके गृहीते
“कायाणमुवरिपडणे, पायाए संजमे पवयणे य । उत्सर्गपरिष्ठापनिकादोषः संपद्यते । उक्तं च-"भारे हत्थु
उराहेण व भारेण व, मुच्छा पबति आयाए ॥ १॥ वधाश्रो, तत्थ य संपादिको पडते य । पारिट्ठावणि दोसो,
कायोवरिपवडते, श्रह होही संयमे विराहणया। अहिर्गाम्म य होइ आणीए" ॥१॥ एवमुक्ने प्राचार्य पाह- यवयणे अदिट्टधम्मा, पडत दटुं वए लोगो ॥२॥" नोदक! तत्र पात्रे लिप्यमाने सविशेषतरा श्रात्मोपघाताद
यस्मादेते दोषास्तस्मान हस्ते पात्रं शोषयितव्यम् । अत्र यो दोषाः ।
सर्वत्र नोदकस्यैवं ब्रुवतो यथाच्छन्द इति कृत्या चतुगुरुकं तथा चाह
प्रायश्चित्तम्। एवं पि भाणभेदो, वियावणे अनणो उ उवघात्रो।
एवमाचार्यों मोदकं प्रतिहत्य साम्प्रतमात्मना यतनानिस्संकियं च पाय-गिएहणे इयरहा संका ॥ ४६०॥
सामाचारीमाहएवमपि-तत्र गत्या पात्रलेपनेऽपि ऊर्ध्वस्थितो लेपं गृहीत्या
दुविहा य होंति पाता जुष्मा य नवा य जे उ लिपति । भाजने प्रक्षिपति, तत्र व्यापृतस्य सतः कदाचित् हस्ता- जुम्मे दाएऊणं, लिंपति मुच्छा य इयरेसि ॥ ४१४ ॥ द्वाजनं पतेत् , तत एवं व्याप्ते भाजनभेदः, तद्यथा-कथमपि यानि पात्राणि लिप्यन्ते तानि द्विविधानि भवन्ति । तद्यथाशकटस्य पतनत आत्मनश्चोपघातः । किश्व-पात्रे लेपस्य जीर्णानि. मवामि च । तत्र यानि जीणोनि तानि नियमत ग्रहणे गृहीत्वा च तत्रैव पात्रस्य लेपने कियमाणे तेषां सा
श्राचार्याणां दर्शनीयानि । यथा शो लेपः क्षमाश्रमणाः ! क्षात्पश्यतामेवं निःशङ्कितं भवति । यथतेनाशुचिता लेपेन भो
पात्राणामनेतनो वसते. ततः सम्प्रति लिम्पामि म वा तजनपात्रममी लिम्पन्ति,ततो महान् प्रवचनोपघातः। इतरथा त्रैवं दर्शयित्वा यद्यमुक्षा माता ततस्तानि जीर्णानिलिम्पति तत्र पात्राउलेपने शरीराऽवयवलेपस्य ग्रहणे शङ्कोपजायते, किं नेतरथा,अदर्शयित्वा लेपने प्रायश्चित्तं मासलघु । यानि पुनर्नपात्रस्य लेपनाय, उत्त-दुःखयतः पादस्य पिण्डीबन्धनाय | वानि तान्यवश्यं लेपनीयानीति कृत्वा प्राचार्यस्यापृच्छयाखेपमादले सतो न प्रवचनोपयातः ।
ऽपि तेषामितरेषां-नवाना सेपनं कर्तव्यम् ।
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( ६६५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अथ जीर्णानामदर्शने को दोष इत्यत श्राह पाडच्छगसेहाणं, नाऊ कोऽपि आगमणमाई । दहलेवे विउ पाये, लिंपति मा तेसि दिजिज्जा ।। ४६५ ॥ हवा विविभूसाए, लिंपति जा सेसगाण परिहाणी । अपच्छिणे य दोसा, सेहे काए अनेगाए || ४६६ ॥ कश्चिन्मायी शिष्याणां प्रतीच्छुकानां चागमनं ज्ञात्वा मा तेषां दद्यादिति कृत्वा दृढलेपान्यपि पात्राणि भूयोऽपि लिम्पति, अथवा न शोभनः अग्रेतनो लेप इति विभूषानिमिसमजीलेपमपि पात्रं भूयः कोऽपि लिम्पति । एवं मायया विभूषानिमित्तं वा भाजनेषु तेषु लिप्तेषु या शेषकाणां साधूनां प्रतीच्छुकानां शिष्याणां परिहाणिस्तां समायी विभूषार्थी वा प्राप्नोति । तमेव दर्शयति- ' अपच्छिणे य' इत्याकेचित्प्रतीच्छुकाः समागतास्तद्योग्यानि च पात्राणि न सन्ति लिप्तानि तिष्ठन्तीति कृत्वा तत एवं पात्रैर्विना तेषां प्रतीच्छुकानामप्रतीच्छुने शानदर्शनचारित्रपरिहाणि: 'सेहे काए 'ति तथा शैक्षः कश्चिदुपस्थितोऽथ च भाजनं न विद्यते लिप्तमस्तीति कृत्वा ततो भाजनं विना कथं स प्रवाज्यते इति सोऽप्रवाजितः कार्याविराधनां कुर्यात् सा च तन्निमित्तेति ज्ञानदर्शनचारित्रपरिहाणिप्रत्ययं कायविराधनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । यत एवमदर्शिते दोषास्तस्मात् जीर्णानि दर्शयेत् ।
अथ केन विधिना लेपस्य ग्रहणादि कर्त्तव्यम् अत आहपुव्व हे गंतू, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं ।
लेवस्स आणणा लिं-पणा य जयणाऍ कायव्वा । ४६७ | पूर्वाह्ने लेपनिमित्तं गमनं कृत्वा तत्र यतनया लेपग्रहणं च कृत्वा ततः सुसंवरं भवत्येवं लेपस्य यतनया श्रानयनं कर्त्तव्यम्, श्रानीते च यतनया पात्रस्य लेपना । एनामेव गाथां व्याचिख्यासुराह
पुव्वहे लेवगहणं, काहंति चउत्थगं करिस्सामि । असो वासियभत्तं, श्रकारलंभे व दिंतियरे ।। ४६८ ॥ साधुना प्रतिक्रमणचरमकायोत्सर्गस्थितेन चिन्तनीयम् । किमद्य भाजनानि लेपनीयानि न वा तत्र यदि लेपनीयानि ततः पूर्वाह्णे लेपग्रहणमहं करिष्यामीति विचिन्त्य चतुर्थकमभक्तकं कुर्याद् । श्रथ असहः - श्रसमर्थः चतुर्थभक्कं कर्तुं तर्हि पर्युषितं गृह्णाति भक्कमथ पर्युषितमपकारकमपथ्यम्, यदि वा न लभ्यते ततः पौरुषीं न करोति, किं त्वितरे साधवो मध्याह्ने हिण्डित्वा तस्मै भक्तं ददति ।
कयकिकम्मो छंदे - छंदितो भगति लेव घिच्छामि । तुझ वि याऽऽणे मट्ठो, आमं तं कित्तियं किं वा ॥ ४६६|| सेसे त्रि पुच्छिकणं, कय उस्सग्गो गुरूण नमिऊण | मल्लगरूए गएहइ, जइ तेसिं कप्पितो होति ॥ ५०० ॥
कृतं कृतिकर्म-वन्दनं येन स कृतकृतिकर्मा, किमुक्लं भवतिस लेपानयनाय गन्ता प्रथममाचार्याणां वन्दनकं ददाति, दत्वा ब्रूते- 'इच्छाकारेण संदिशत ' एवमुक्ते सूरयोऽभिदधति 'छंदेन' छन्दसा विज्ञापयेति भावः । एवं छन्दसा छन्दितो निमन्त्रितः सन् भगति - गत्वा लेपं ग्रहीष्यामि एवमुक्त्वा
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नेप
श्राचार्यान् शेषसाधूंश्च वक्ति युष्माकमप्यस्ति लेपेन प्रयोजनमानीयताम् । तत्र यो वक्ति श्रमम्, तं प्रति ब्रूते कियन्तमानयामि किं वा लेपं तत्र यद्भणति तदिच्छामि इति प्रतिपद्य कृतोत्सर्ग उपयोगकायोत्सर्ग कृत्वा गुरून् नमस्कृत्याऽऽवश्यकीं कृत्वा यदि तेषां पानवस्त्राणां कल्पिकस्ततो गृहेषु गत्वा मल्लकं रूतं च गृह्णाति ।
अथाकल्पिकस्तत श्राहगीयत्थपरिग्गहिते, अयाणम्रो रूयमल्लए घेत्तुं । खारं च तत्थ वञ्चति, गहिए तसपाणरक्खट्ठा ॥ ५०१ ॥ यो शायकोऽगीतार्थः स गीतार्थेन परिगृहीतानि रूतमशकानि गृहीत्वा गृहीते सति लेपे संपातिमत्रसप्राणरक्षणार्थम् तत्र मल्लकेषु क्षारं च गृहीत्वा व्रजति ।
संप्रति यदधस्तादभणितम् । ' सागारिय ' ति तद्द्व्याख्यानार्थमाहवचंतेण य दिट्ठे, सागारिदुचक्कगं तु अन्भासे । तत्थेव होइ गहणं, न होति सागारिओ पिंडो ||५०२॥ तेन गृहीतरूतमल्लकक्षारेण व्रजता यदि सागारिकस्यशय्यातरस्य द्विचक्रकं तमभ्यासे निकटे प्रदेश दृष्टं ततस्तत्रैव तस्य लेपग्रहणं भवति, यतः स न भवति सागारिकपिण्ड इति ।
सम्प्रति प्रभुद्वारमाह
गंतुं दुचकमूलं, अणुविज पभ्रं तु साहीणं । एत्थ य प ति भणिए, कोई गच्छे निवसमीवं ।। ५०३ || किं देमित्ति नरवई, तुभं खरमक्खिया दुचक्कि ति । सोय सत्थो लेवो, पंतयभद्देयरे दोसा ॥ ५०४ ॥ गत्वा द्विचक्रमूलं शकटस्य स्वाधीनं प्रत्यासन्नं प्रभुमनुशापयेत् | अननुज्ञापने प्रायश्चित्तं मासलघु, तस्मात्प्रायश्चितभीरुणा नियमतः प्रभोरनुज्ञापना कर्त्तव्या । अत्र प्रभुरित्युले कश्विश्चिन्तयति राजानं मुक्त्वा कोऽन्यः प्रभुरिति राजाऽनुज्ञापनीय उक्तः, एवं चिन्तयित्वा नृपसमीपं गच्छेत्, गत्वा च तं राजानं धर्म लाभयेत् । तत्र स नरपतिर्ब्रूयात्किं ददामि ?, साधुर्वदति - युष्माकं द्विचक्राणि - शकटानि खरेण तैलेन प्रक्षितानि सन्ति, तत्र च यो लेपः प्रशस्त इति, तमनुजानीत । अत्र भद्रेतरदोषाः भद्रकदोषाः, प्रान्तदोषाश्च । तत्र भद्रके दोषा इमे, स राजाऽनुज्ञापितः सन् ब्रूयादहो निर्ममत्वा भगवन्त एतदप्ययाचितं न गृह्णन्ति, ततः स श्राज्ञापयेत् यानि कानिचित् मम विषये शकटानि तानि सर्वाण्यपि तैलेन नक्षणीयानि । प्रान्तः पुनरेवं चिन्तयेदहो ऽमी अशुचयो यदेतत् मां याचन्ते नूनं सर्वमिदं नगरममीभिर्धर्षयितव्यमिति प्रद्वेषं यायात्, प्रद्विष्टश्च घोषापयेत, यथा मम राज्ये न कोऽपि शकटं तैलेन प्रक्षयेकि तु घृतेनान्येन वा । तम्हा दुचक्कपतिया, तस्संदिद्वेण वा अणुष्माते । कडुगंधजाणणट्ठा, जिंघे नासं अघट्टंतो ।। ५०५ ।। यस्मादेवं भद्रकप्रान्तदोषास्तस्मात् राजा नानुज्ञापथितव्यः । कोऽनुपशापयितव्य इति वेद् ? उच्यते-यस्तस्य द्विचक्रस्य - शकटस्य पतिः - स्वामी यो वा तेन शकटपतिना संदिष्टः, तेन द्विचक्रपतिना तत्संदि
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अभिधानराजेन्द्रः।
लेप ऐन वा अनुज्ञाते तैलस्य किल कटुको गन्ध इति कटुगन्ध- तिष्ठिते प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् , द्वितीयेऽपि परम्परप्रतिशानाऽर्थ-कटुगन्धोऽस्ति न वेति परिक्षानाऽर्थनासामघट्टय-| ष्ठिते चतुर्गुरु, तृतीयेऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्गुरुके, न असंस्पृशन तं-लेपं दूरस्थो जिघ्रति, प्राते च यदि कटुको चरमे शुद्धः, गन्त्र्यामप्यनन्तहरिते अनन्तरप्रतिष्ठितायां चगन्धः समायाति ततस्तैललेप इति कृत्वा तं समादत्ते ।। तुर्गुरु परम्परप्रतिष्ठितायामपि चतुर्गुरु,उभयप्रतिष्ठितायां वे
सम्प्रति 'छकायजयणाए' इति व्याख्यानयति- चतुर्गुरुके, चरमे शुद्धः। अनन्तरहितेयु साधी गन्ध्यां वाऽनहरिए बीए बले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए ।
न्तरपतिष्ठितायां द्वचतुर्गुरुके, परम्परप्रतिष्ठितायामपि वे च. पुढवि संपातिमा सामा, महॉवाते महियामित्ते ।।५०६।।
तुर्गुरुके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि चतुर्गुरुकाणि, चरमे शु
द्धः, तथा-मिश्रेषु प्रत्येकहरितेषु साधावन- प्रतिष्ठिते मासहरिते बीजे वा साधोः शकटे वा प्रतिष्ठिते तथा बले
लघु, परम्परप्रतिष्ठितेऽपि मासलघु. उभयप्रतिष्ठिते द्वे मासबलीवाभ्यां युक्ने वा शकटे, तथा-शकटेन सह बद्धे व
लघुके, चरमे भने शुद्धः । गन्यामप्यनन्तर-परंपरप्रतिष्ठित्स, शकटस्याधः स्थिते शुनि वा, तथा जलस्योपरि स्थिते पृथिव्यां वा सचित्तपृथिवीकायस्योपरि प्रतिष्ठिते शकटे,
तायामपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठितायां हे मासलघुके, चरमे तथा-संपातिमेषु त्रसगणेषु सत्सु, तथा-श्यामा-रात्रिः
भङ्ग शुद्धः। साधौगन्ध्यां वाऽनन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे मासलघुके, तस्यां, महाबाते वा वाति, महिकायां निपतन्त्यां लेपग्रहणं
परंपरप्रतिष्ठितायामपि द्वे मासलघुके, उभयप्रतिष्ठितायां चनानुशातं, नाप्यमितस्य लेपस्य गृहणम् , एष द्वारगाथासंते
त्वारि मामलापनि, परमभङ्ग शुद्धः । तथा-मिश्रेष्वनन्तपार्शः । गाम प्रतिद्वारं वक्ष्यते । तत्र यद्यप्यनन्तरं प्रा.
हरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते मासगुरु, परंपरप्रतिष्ठिते पि यश्चित्तगाथाद्वयं तथाऽपि नाझ्याख्यातेषु द्वारेषु तयाख्या
मासगुरु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे मासगुरुके, चतुर्थे शुद्धः । गन्ध्यातुं शक्यमिति प्रथमतो द्वाराणि व्याख्यायन्ते ।
मपि तदनन्तरप्रतिष्ठितायां मासगुरु, परम्परप्रतिष्ठितायातत्र हरितद्वारबीजद्वारं चाधिकृत्याह
मपि मासगुरु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे मासगुरुके, चरमे शुद्धः ।
साधौ गन्ध्यां वाऽनन्तरतिष्ठितायां द्वे मास्गुरुके, परंपरहरिय बिय पतिहिते य, अनन्तर-परंपरे य बोधव्वे ।
प्रतिष्ठितायामपि द्वे मासगुरुके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारिपरित्तऽणंते य तहा, चउभंगो होति नायब्चो॥ ५०७॥
मासगुरुकाणि, चरमभङ्गे शुद्धः। ' पणग लहुगुरुगमिति ' हरिते बीजे च साधौ शकटे वा अनन्तरपरम्परै वा प्रति- बीजेषु प्रत्येकेषु सचित्तेषु मिश्रेषु वा प्रत्येकं साधावनन्तष्ठिते प्रत्येकं चतुर्भङ्गी भवति-शातव्या । गाथायां पुंस्त्वं रप्रतिष्ठिते लघुरात्रिंदिवपञ्चकम् , परंपरप्रतिष्ठितेऽपि लघुप्राकृतत्वात् । तथा हरिते बीज च प्रत्येक परीत्तेऽनन्ते पञ्चकम् , उभयप्रतिष्ठिते द्वे लघुपञ्चके, चरमभङ्गे शुद्धः । तथा च साधी शकटे वाऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते प्रत्येक चतुर्भङ्गी। गन्यामनन्तरप्रतिष्ठितायां लघुपञ्चकम् , परंपरप्रतिष्ठिताइयमत्र भावना-हरितेषु साधुरनन्तरप्रतिष्ठितः ना पर
यामपि लघुपञ्चकम् , उभयप्रतिष्ठितायां वे लघुपञ्चके, चरपरप्रतिष्टितः १, परंपरप्रतिष्ठितो नानन्तरप्रतिष्ठितः २. अ- |
मभङ्गे शुद्धः । साधी गन्त्र्यां वाऽनन्तरप्रतिमिनायां लघुनन्तरप्रतिष्ठितोऽपिपरंपरप्रतिष्ठितोऽपि ३,नानन्तरप्रतिष्ठितो
पने तायामाप द्व लघुपञ्चके, उभयप्रतिष्ठिनापि परंपरप्रतिष्ठितः ४.एवं दीपिनु
तायां चत्वारि लघुपञ्चकानि. चरमभङ्गे शुद्धः । एवमनन्तेपु भना, एव गन्त्रामप्यधिकृत्य हरितेषु वीजेषु च प्रत्येकं चतु
गत्रिन्दिवपञ्चकं गुरुकं द्रष्टव्यम् । एवं बीजे, चशब्दात् भङ्गी द्रष्टव्या ।हरितेष्वनन्तरं प्रतिष्ठिता गन्त्री नो परंपरप्रति हरित च प्रत्यक सचित्तेऽनन्ते सचित्ते मिश्रे वाऽनन्तर पट्ष्ठिता इत्यादि, एवं सर्वसङ्कलनया चतुर्भङ्गीचतुष्टयं जातम् ।
पदसु भङ्गेषु यथायोग प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् । चतुर्भङ्गीद्विकं तु-साधुगन्त्रीसंयोगतो द्रव्यम् , तथा
इदानी चलादिद्वारप्रतिपादनार्थमाहहरितेषु च साधुगन्त्री चानन्तरप्रतिष्ठिता इत्यादिभाचतुथ्यं प्राग्वत् । एवं बीजष्वपि सर्वसंख्यया षट् चतुर्भगन्यः। ए.
दव्वे भाव य चलं, दव्यम्मी दुट्ठियं तु जं दुपयं । तश्च चतुर्भनीषद्रं किल प्रत्येक्षु हरितबीजेषूकम् , एवमनन्ते पायाएँ संजमम्मि य, दुविहा उ विराहणा तत्थ ।५०६। स्वपि द्रष्टव्यमेवं मिश्रेष्वपि ।
चलं नाम द्विविधम् , तद्यथा-व्यतः, भावतश्च । तत्र दसाम्प्रतमत्रैव प्रायश्चित्तमुच्यते।
व्यतश्चल यत् द्विपदं शकटं दुःस्थितं तत्र लेपं गृहनश्चतुचउरो लहुगा गुरुगा,मासो लहू गुरु य पणगलहुगुरुयं। गुरुकम् , यतस्ततो द्विविधा विराधना-श्रात्मनि, संयम छसु परितणंतमीले, बीजे य अणंतरपरे य ॥ ५०८ ॥
च। तत्रात्मविराधना शकटेन पततोऽभिधातसम्भवात् , हरिते चशब्दसंसूचिते प्रत्येक अनन्तरपरंपरभेदतस्त्रि
संयमविराधना-शकट संचाल्यमाने प्राणिजात्युपमर्दनात् । वाद्येषु भङ्गेषु चत्वारो लघुका वक्तव्याः । इयमत्र भावना
भावचलँ गंतुकाम, गोणाई अन्तराइयं तत्थ । प्रत्येकेषु हरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते प्रथमभङ्गे प्राय- जुत्ते वि अंतराई, वित्तस चलणे य आयाए॥५१०॥ श्चित्तं चतुर्लघु, द्वितीय परम्परप्रतिष्ठिते चतुर्लघु, तृतीय भावचलं नाम-गन्तुकामं योज्यमानमित्यर्थः, नत्र यावत् भने अनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्लधुके,चरमे भङ्ग शुद्धः । लेपो गृह्यत तावद् वलीवानां चारिपानीयनिरोधनम्, श्रातथा प्रत्येकहरितेषु साधौ गन्त्र्यां वाऽनन्तरप्रतिष्ठायां व चतु. दिशब्दात्-मनुष्याणामप्यन्तगयम् , ततो भावचलेऽपि लघुके, द्वितीयभङ्गेऽपि परम्परप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्लघुक, लेपं गृह्णतश्वत्वारो लघुकाः, । गतं चलद्वारम् । अतृतीयभङ्गे उभयोः उभयत्र प्रतिष्ठितयोश्चत्वारि लघुकानि. | धुना युक्तद्वारमाह- जुत्त वी 'त्यादि युक्तं योक्त्रितचरमभङ्गे शुद्धः । तथा--हरितेवनन्तेषु साधावनन्तरण- | चलीवईम् । तत् स्थापयित्वा यदि लां गृह्णाति नः प्राय
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लेप
अभिधानराजेन्द्रः। श्चित्तं चत्वा गरुकाः, यतस्तत्रापि स एवान्तरायदोषः।। धृतानां त्रसस्थावराणां लेपसंपर्कतो विनाशसंभवात् । अन्यश्चायं दो त बलीव वित्रस्येयुः तत्र गन्च्या चलन्त्या
महिकायां निपतन्त्यामप्कायविराधनात्, तथा अमितचरणाक्रमणे-आत्मविराधना , संयमविराधना प्रसादि
स्यापि लेपस्य ग्रहणं नानुज्ञातं मा भूद्विवेचनिकापरिष्ठानिपातः।
पनिका इति कृत्वा तत्र महावाते वाति लेपं गृह्णतः प्रासम्प्रति वन्सद्वारं श्वद्वारं चाह
यश्चित्तं चतुर्लघु, महिकायार्माप निपतन्त्यां चतुर्लघु , अमि वच्छो भएण सासति, गतिक्वोभे य आयवावत्ती । तग्रहणे मासलघु। आया पवयण साणे, काया य भएण नासंतो ।५११॥
पतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिपादयन्नाहयत्र शकटे वत्सो बद्धः, श्वा वा यस्याधस्तात्तिष्ठति.
बलजुत्तवच्छमहिया, तसेसु सामाऍ चेव चउलहुगा । बद्धो वा वर्तते, तत्र वत्से-लेपं गृह्णतश्चत्वारो लघुकाः; दव्वबलसाणगुरुगा, मासो लहुओ उ अमियम्मि।५१४॥ शुनि चत्वारो गुरुकाः, यतो-वत्सो भयेन नश्यति, गन्ध्या भावतश्चले बलीवईयुक्त वत्से निबद्धे, तथा-महिकायां क्षोभे चलने श्रात्मव्यापत्तिः, तथा-श्वा समागच्छन्तमपूर्व निपतन्त्यां त्रसेसु सम्पातिमेषु निपतत्सु श्यामायां च लेप दृष्टा दशति तत्र आत्मोपघातः, शुना लीढं लेपममी गृह- गृह्णतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । द्रव्यबले शुन्तीति प्रवचनोपघातः, भयेन नश्यति शुनि कायाः-पृथिवी-| नि वा स्थिते चत्वारो गुरुकाः, अमिते गृहीते लघुको मासः! काया१५... - ने: ततः संयमोपघातश्च । विशेषभावना तु प्रतिद्वारं प्रागेव कृता। सम्प्रति जलस्थितद्वारं पाथवास्थित......
-- राक्रमित्ताणं । जो चेव य हरिएसं, सो चेव गमो उदगपुढवीए।
चीरेण बंधिऊणं, गुरुमले पडिक्कमा लोए ॥५१॥ संपाइमे तसगणा, सामाए होइ चउभङ्गो ॥५१२ ॥
ये एते हारतादयोऽनन्तरं दोषा उक्लास्तैर्मुक्तं लपं गृहीत्वा य एव गमः प्राक् हरितेषूक्तः स एवोदके पृथिव्यां च बेदि
मा सम्पातिमानां वधो भूयात् तं क्षारेण-भस्मना श्राक्रतव्यः, इयमन भावना-सचित्ते उदके साधुरनन्तरप्रति
म्य चीवरेण बध्वा गुरुपादमूलमागच्छति । श्रागम्य चेर्याष्ठितो, न परंपरप्रतिष्ठित, इत्यादि चतुर्भङ्गी । गन्ध्यामध्यवंच.
पथिकी प्रतिक्रम्यालाचयति । तुर्भङ्गी । उभयोरपि चतुर्भङ्गी, तदेवं चतुर्भङ्गीत्रयम् , सचित्ताऽकाये, अचित्ताऽकाये, एवं मिश्राप्कायेऽपि चतुङ्गीत्रयम
दंसिय छंदिय गुरु से-सए य ओमत्थियस्स भाणस्स । वसातव्यम् , उभयमीलनेन चतुर्भङ्गीषटुम् , एवं चतुर्भङ्गीषटुं काउं चीरं उवरि, रूयं व छुसेज्ज तो लेवं ॥ ५१६ ॥ पृथिवीकायऽपि भावनीयम् । तत्र सचित्तेऽप्काये साधाव- श्रालाच्य लेपं गुरादर्शयतिः दर्शयित्वा गुरुं लेपन छन्दनन्तरप्रतिष्ठिते प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, परंपरप्रतिष्ठितेऽपि च- यति-निमन्त्रयति, निमन्त्रणानन्तरं शेषकानपि साधून नि तुर्लघु, उभयप्रतिष्ठित द्वे चतुर्लघुक, चरमे भङ्ग शुद्धः । ग
मन्त्रयति, ततो यावता यस्यार्थस्तस्य तावन्तं दत्त्वा एन्यामप्यनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्लघु , परंपरप्रतिष्ठिताया- कस्य भाजनस्यावमस्थितस्यावाङ्मुखीकृतस्योपरि चीवरं मपि चतुर्लघु , उभय-तिमि ले लघके. चरमे भने कृत्वा तत्र लेप रूतं च प्रक्षिपेत् । शुद्धः । चरमभङ्गषु मिश्रेऽप्काय साधावनन्तरपात
सम्प्रति दातादिभिपाह-- ष्ठिते मासलघु, परंपरप्रतिष्ठितेऽपि मासलघु , उभयप्र
अंगुट्टपएसिणिम-झिमाहिं घेत्तं घणं ततो चीरं । तिष्ठिते द्वे मासलघुके, चरमे शुद्धः । एवं गन्त्र्यामपि भङ्गचतुष्प्रय वक्तव्यम् , साधुगन्न्योरनन्तरप्रतिष्ठितयादें मा
आलिपिऊण भाणं, एक्कं दो तिनि वा घट्टे ॥ ५१७।। सलघुके, परंपरप्रतिष्ठितयोरपि द्वे मासलघुके , उभयोरुभ
अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या मध्यमया चाङ्गल्या लेपं गृहीत्वा धनं यत्र प्रतिष्ठितयोः चत्वारि मासलघुकानि, चरमभङ्गे शु
च चीवरमादाय तत्र लेप प्रक्षिप्य 'निष्पीडयेत् । निष्पीद्धः । एवं पृथिवीकायेऽपि चतुर्भङ्गीषटे प्रायश्चिरामवग
ड्य च एकैकभाजनमेकं द्वौ बीन् वा वारान् लेपयेत् , श्रन्तव्यम् । सम्प्रति सम्पातिमद्वारं श्यामाद्वारं चाह
धिकं तु लपमट्टकनिमित्तं सरूतकं पेषयत् । अथ न दातव्यः " संपानिमा" इत्यादि । अथ के नाम सम्पातिमाः- अट्टकः, यदि वा-तत्राशुद्धिरतः सरूतकं तं क्षार पयषु पतत्सु लेपो न गृह्यते । किं त्रसाः स्थावरा चा ?। रिष्ठापयेत् . अन्यच्चान्यच्च भाजनं लिप्त्वा अन्यदन्यद्वारं नत्राट. सम्पातिमाः त्रसप्रारणा न स्थावरास्तषु संपातिमेषु वारण घट्टणपाषाणेन घट्टयति । पतत्सु यदि लेपं गृह्णाति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो ल
तथा चाहघुकाः । श्यामा-रात्रिः, तत्र-चतुर्भङ्गी. तद्यथा-रात्रौ
अमोमे अंकम्मी, अम घटेति वारवारेणं । लप गृह्णाति. रात्रावव भाजनस्य लेपं ददाति । अत्र प्रायश्चित्तं आणेइ तमेव दिणे, दवं च घेत्तुं अभत्तट्ठी ॥ ५१८ ॥ चाग लघकाः, एवं मध्यमभङ्गद्वय ऽपि तपोलघवः काल- श्रन्यास्मन् भाजन घाट्टते अन्यतरभाजनमङ्के स्थापयित्वा गुरुकाः ।।५१.. ...दिवस एव ददाति शुद्धः । वारंवारण घट्टयति. तत्र यदि उद्वानो लेपो यदि च तस्य द्रमहावातादिद्वारत्रयमाह
वण कार्य समुत्पन्नं स चाऽऽत्मनाऽभक्तार्थी ततः सोऽभक्तावायम्मि वायमाणे, महियाए चेव पवडमाणीए।
र्थी तस्मिन्नेव दिन पात्र लेपनोपरज्य उद्वान लप तेन द्रवं सनाणुणायं गहणं, अभियस्स य मा विगिचणया ।५१३। | पानीयमानयति । अथ नाद्वानस्तताऽन्यपामभक्तार्थिनामाहवात-महावात वाति, तथा-महिकायां प्रपतन्त्यां लपस्य
राडमानानां वा तत्पात्र समान्येन पानीयमानयेत् । ग्रहणं नानुज्ञातं तीर्थकरगणधरैः , महाबात वाति तदुद- भत्तट्ठीणं दाउं. अन्नसि वा अहिंडमाणाणं ।
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अभिधानराजेन्द्रः। हिंडेज असंथरणे, असती घेत्तुं अरइयं तु ॥ ५१६ ।। ।
न्तरं तेषां घटमुखादीनां कृतकार्याणां विवेकः-परिष्ठापनिका। यदि स भनार्थी, न च पात्रस्य लेपोऽद्यापि शुष्कस्ततोऽसं. अट्टगहेउं लेवा-ऽहिगं तु सेसं सरूतगं पीसे । स्तरणे भोजनमन्तरेण संस्तरीतुमशक्कावभक्कार्थिनामन्येषां अहवा वि न दायव्वो, सरूयगं छारतो उण्हे ॥५२६।। वा साधूनामहिण्डमानानां तत्पात्रं समर्प्य हिराडेत, असति उष्णे शेषमधिकं लेपम् अट्टकहेतोः-अट्टकनिमित्तम् अन्येषामभक्कार्थिनामहिण्डमानानां वा अभावे तत् अरञ्जित- सरूतकम् पेषयत् , । अथवाऽपि न दातव्योऽकस्ततमद्याप्यपरिणतलेपं गृहीत्वा हिण्डेत् ।
स्तमधिकं सरूतकं लेप सारे भस्मनि उणे तत्परिष्ठान तरिज जह तिनि उ, हिंडावेउं ततो णु खारेण । पयेत् , अयं चार्थो यत्र भणितस्तत्र प्रागवोपदर्शितः । ओयत्तेउं हिंडइ, अबे व दवंसे गिण्हंति ॥ ५२० ।।
सम्प्रति तु गाथाक्रमानुलोमत उक्त:यदि त्रीणि पात्राणि हिण्डापयितुं न शक्नोति ततो नु-नि- पढम चरमा उ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वजित्ता। श्चितम् , तत् पात्रमुपाश्रये क्षारेणावनम्य स्थगयित्वा हिण्ड- पायं ठवेसि हा-दिरखणडा पवेसे वा ।। ५२७ ॥ ते । यदि वा-(से) तस्य योग्यं द्रवमन्ये गृह्णन्ति, ततोऽतिरि- शिशिरे--शीतकाले प्रथमचरमे पौरुष्यौ वर्जयित्वा प्रीकपात्रबहने न कश्चिद्वार इत्यदोषः।।
मे-उष्णकाले तयोः प्रथमचरमपौरुष्योरर्द्धमर्द्ध वर्जयिलित्थारियाणि जाणि उ, घट्टगमादीणि तत्थ लेवेणं । स्वा पात्रमुष्णे स्थापयेत् , प्रथमचरमपौरुष्यादिकाले संजमभूतिनिमित्तं, ताई भईए लिंपिज्जा ।। ५२१॥ ।
तु मध्ये प्रवेशयेत् । किमर्थमित्याह-स्नेहादिरक्षार्थ स्नहो तत्र पात्रलेपने यानि लेपेन घट्टकादीनि लिस्थारियाणि
ऽवश्मायः आदिशब्दात्-महिकाहिमवर्षादिपरिग्रहः तद्रक्षदेशीपदमेतत् स्वरण्टितानि संयमभूतिनिमित्तम्-संयवि
णार्थम्, इयमत्र भावना-शिशिरकाले प्रथमायां पौरुष्यामतिभूतिहेतोः विभूत्या क्षारेण तानि लिम्पेत् , येन तत्संस्पर्शतः |
कान्तायामुष्णे ददाति, चरमायां तु पारुष्यामनवगाढायां प्रसानां स्थावराणां वा विनाशो न भवति ।
मध्ये प्रवेशयति, अन्यथा शिशिरकालस्य स्निग्धतया प्रथमा.
यांच पौरुष्यामवश्यायादिपतनभावतो लेपविनाशप्रसङ्गात्, एवं लेवग्गहणं, प्राणयणं लिंपणा य जयणा य।
उष्णकाले तु प्रथमायाः पौरुष्या अर्धे अपक्रान्ते पात्रमुष्णे द. भणियाणि अतो वोच्छं,परिकम्मविहिं तु लित्तस्सा५२२। |
चात् , चरमायास्तु पौरुष्याः पश्चिमेऽद्धेऽनवगाढे मध्ये प्रवे. एवमुक्तेन प्रकारेण लेपस्य ग्रहणमानयनं पात्रस्य लेपना
शयेत् , कालस्य रूक्षतया तत ऊर्दू पश्चाच्चावश्यायादिसय सर्वत्र यतना, एतानि भणितानि । अत ऊवं पुनर्लिप्तस्य परिकर्मविधिं वक्ष्यामि ।
म्भवात् ।
उवयोगं च अभिक्खं, करेति वासादिसाण रक्खट्ठा । तमेवाभिधातुकाम आहलित्ते छाणियछारो, घणेण चीरेण बंधिउं उरहे ।
वावारेति च भो, गिलाणमादीसु कज्जेसु ।। ५२८ ॥
उष्णे च पात्र दत्ते सति स वर्षादिभ्यो रक्षणार्थ वर्षम्उव्वत्तण परियत्तण,अंच्छिय घोए पुणो लेवो ॥५२३॥
वृष्टिः श्रादिशब्दात्-हिमप्रपातादिपरिग्रहः श्वा-कुक्कुरः पात्रे लिप्ते सति यः क्षाणितो-गलितः क्षारो-भस्म स तत्र
तद्रक्षणार्थमभीक्षणमनवरतमुपयोगं करोति । यदि वा-ग्ला. प्रक्षिप्यते, ततो घनेन चीरेण बध्वा उष्णे ध्रियते, तत्र च पा
नादिप्रयोजनेषु समापतितेष्वन्यान् साधून व्यापारयति, स अस्योद्वर्तन परिवर्तनं च तावत्कर्तव्यं यावत् लेपः शुष्को भ- तु तत्रैव रक्षयन् तिष्ठति । वति । ततः पात्रमञ्चते-आकृष्यते, आकृष्य पानीयेन प्र
अथ कियन्तः पात्रस्य लेपा दीयन्ते ?, इत्याहक्षाल्यते, ततः प्रक्षालिते सति पुनरपि स लेपो दीयते । काउं सरयत्ताणं, पत्ताबंध अबंधगं कुज्जा।
एको य जहन्नेणं, विय तिय चत्तारि पंच उक्कोसा।
संजमहेउ लेवो, वज्जित्ता गारवविभूसं ॥ ५२६ ॥ साणाइरक्खणट्ठा, पमज्जणाउएहसंकमणा ॥ ५२४ ॥ पात्रे भूयो लिप्ते सति तस्योपरि सरजस्त्राणसहितं पात्रब
पात्रस्य संयमहतोर्जघन्येनैको लेपो दातव्यः । मध्यमतो द्वौ,
त्रयो वा । उत्कर्षतः--चत्वारः, पञ्च वा वर्जयित्वा गौरवम् , न्धमबन्धकमग्रन्थिकं कुर्यात् कस्मादबन्धकं कुर्यादत आहश्वादिरक्षणार्थम् , शुनः आदिशब्दात्-मर्कटमार्जारादि
विभूषां च । गौरवेणात्मनो महर्द्धिकत्वमनेन लक्षणेन विभूभ्योऽपि रक्षणार्थम् , अन्यथा हि ग्रन्थौ दत्ते सपात्रबन्धं पा
षया वा न लेपो दातव्यः; किन्तु संयमस्यातिनिमित्तमिति । नं श्वादिभिनयेत । तथा छायायामुष्णे च पात्रस्य संक्रमणे अणवढे ते तह वि उ, सव्वं भवणेतु तो पुणो लिंपे। प्रमृज्यते तत्पात्रं स्थापयितव्यम् ।
तज्जाय सचोप्पडयं, घट्टरएउं ततो धोवे ॥ ५३० ॥ तद्दिवसं पडिलेहा, कुंभमुहादीण होइ कायव्वा ।
उत्कर्षतः पञ्चस्वपि लेपेषु यदि स लेपो नावतिष्ठत-न छमेय निसिं कुज्जा, कयकज्जाणं विवेगो उ॥ ५२५।। पात्रेण सह लोलीभवति, ततः तस्मिन्ननवतिष्ठमाने सर्व यस्मिन् दिने पात्रलेपनं तस्मिन्नेव दिवसे कुम्भमुखादीनां लेपमपनीय ततः पुनर्मूलतः पात्रं लिम्पयेत् , यथा स लेपोऽ. घटकण्ठादीनाम् आदिशब्दात्-स्थालीकण्ठादिपरिग्रहः- वतिष्ठते । 'सज्जाये' त्यादि इह यत् अलाब्वादिपात्रं तैलाप्रत्युपेक्षा भवति-कर्तव्या, कुटकण्ठादीनि तस्मिन् दिने दिना सचोप्पडम-सस्नेहं तत्र च धूलिः प्रभूता लग्ना, तं भानेतन्यानीत्यर्थः । किमर्थमित्यत आह-निशि-रात्री ते- लेपं घट्टकपाषाणेन घट्टयित्वा तद्गतेनैव लेपेन भूयस्तत्पात्रं पामुपरि छन्ने प्रदेशे लिप्तानि पात्राणि कुर्यादित्येवमर्थ तदन-| रञ्जित्वा ततः प्रक्षालयेत् , एष तद्यातो नाम लेपः ।
पमा
उत्कर्पतः पालीभवति, तलिम्पयेत् ।
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(६६६)
- अभिधानराजेन्द्रः। सम्प्रति लेपस्यैव भेदानाह
तत्र मुद्रिकाबन्धस्येयं स्थापनातज्जाय-जुत्ति लेवो, दुचकलेवो य होइ नायव्यो । -- नौबन्धः पुनर्दिविधो भवति तस्य स्थापना चेयं ६x मुद्दियनावाबंधो, तेणगबंधो य पडिकुट्टो ।। ५३१ ।।
-- स्तेनकबन्धः पुनर्गुप्तो भवति मध्येनैव पात्र-२७
ककाष्ठस्य दवरको याति तावत् यावत् सा त्रिविधो लेपो भवति-ज्ञातव्यस्तद्यथा-तजातलेपः, युक्तिले- -- राजीः सीविता भवति तेन स्तनकबन्धेन दुर्बलं पः, द्विचक्रलेपश्च । द्विचक्रलपो नाम-शकटलेपः, तत्र
पात्रकं भवति, अतोऽसौ वर्जनीयः । ओघ०। लिप्यमानं लिप्त वा यदि पात्रं कथमपि भङ्गमाप्नुयात् ततो ऽन्यस्याभावे मुद्रितनौबन्धेन बध्नीयात् न स्तेनकबन्धेन ।
सम्प्रति लेपस्य जघन्यादिभेदानाहयतो मुद्रितनौबन्ध एव तीर्थकरैरनुज्ञातः स्तेनकबन्धस्तु |
खर अयसि कुसंभ सरिसव,कमेण उक्कोसमझिम जहनो। प्रतिक्रुष्टः।
नवणीए-सप्पि वसा, गले अलोणे अलेवो उ॥५३॥ साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुस्तद्यातलेपस्य
खरसंशिकेन तिलतैलेन यो लेपः स उत्कृष्टः । अतसीतैलेन
कुसुम्भलेन च मध्यमः, सर्षपतैलेन जघन्यः । उक्तश्च-"सो प्राग्व्याख्यातत्वात् शेषपदव्याख्यानार्थ
पुण लेवो खरस-राहपण उक्कोसो मुणयन्वो । श्रयसि माह
कुसुभिय मझो, सरिसवतिल्लेण य जहन्नो ॥१॥" जत्ती उ पत्थरादी, पडिकुट्ठा सा तु सन्निही काउं।
नवनीतेन म्रक्षणेन सर्पिषा घृतेने बसा च निवृत्तोऽलेपो
ज्ञातव्यः। तस्य पात्र सम्यग् लगनाभावात् , जुगुप्सितत्वाच । दयसुकुमालअसन्निहि, दुचक्कलेवो अतो इट्ठो ॥५३२॥
तथा-गुडभृतेषु वा शकटेषु तिलतैलम्रक्षितेष्वपि यो लेपः युक्तिः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् धूलिलेपः, प्रस्तरा- सोडलेपः तस्यापि लवणाद्यवयवो गतः अप्रशस्तत्वात्, दिः-प्रस्तरादिकृतः श्रादिशब्दात्-शर्करालोहकिट्टकेदारमृ
तदेवमुक्नो लेपस्य विधिः। वृ०१ उ०१ प्रक०। त्तिकादिपरिग्रहः, सा च युक्तिः सन्निधिरिति कृत्या तीर्थ
अथ कल्पकरणद्वारमभिधित्सुराहकरगणधरैः प्रतिक्रुष्टा-निराकृता। तद्यातलेपश्च कदाचिद
भाणस्स कप्पकरणे, अलेवडे नत्थि किंचि कायव्वं । बाप्यते, तत पतेषु मध्ये शकटलेपः सुन्दरः। यतः तस्मिन् तम्हा लेवकडस्स उ, कायव्वा मग्गणा होइ॥८६८॥ सुकुमारतया पानजातयो जन्तवः स्पष्टाः दृश्यन्ते, दृश्यमा- भाजनस्य कल्पकरणे चिन्त्यमाने यदलेपकृतं द्रव्यं तद्यत्र नेषु च तेषु दया कर्तुं शक्यते न च सन्निधिदोषः । अतः सुन्द- प्रक्षिप्तं तस्य भाजनस्य न किंचित्कर्तव्यम्-कल्पो न विधेय रत्वात् स एव द्विचक्रलेप इष्टः ।
इत्यर्थः । लेपकृतभाजनस्य त्ववश्यं कल्पो दातव्यः, इत्यतो
लेपकृतस्य मार्गणा कर्तव्या, कीदृशं लेपकृतम् , अलेपकृतं संजमहेउं लेवो-न विभूसाए वयंति तित्थयरा ।। चेति चिन्तनीयमित्यर्थः । वृ० १ उ०२ प्रक० । (तत्रालेपकसतीऽसती दिट्ठतो, विभूसॉए होंति चउगुरुगा ॥५३३॥
तानि 'अलेवकड' शब्दे प्रथमभागे ७८५ पृष्ठे गतानि)
अथ लेपकृतानि निरूपयतिलेपः पात्रस्य दातव्यः संयमहेतोर्न विभूषया,उपलक्षणमेतत् ,
विगई विगइ अवयवा,अविगई पिण्डरसऍहिजं मीसं । नापि गौरवेण, इति भगवन्तस्तीर्थकरा वदन्ति । संयमहेतोः
गुलरहितेल्लावयवे, बिगडम्मि य सेसएसुं च ॥ ८७१ ।। पुनर्दीयमाने लेपे यदि विभूषा भवति तथापि सा संयमहेतो
दधिदुग्धघृतादिका या विकृतयो ये च विकृतीनामवरेव । अत्र सत्यसत्योदृष्टान्तः । तथाहि-सती श्रात्मानं
यवाः मधुप्रभृतयस्तैर्यन्मिश्रम् , यद्वा-विकृतिरूपैः पिण्डरसैः विभूषयति, असत्यपि। केवल सती कुलाचारनिमित्तमा
खजूरादिभिर्मिश्रम्, एतत्सर्वमपि लेपकृतमिति प्रक्रमः । त्मानं विभूषयतीति तुल्यमपि तद्विभूषणमदुष्टम् । इतरा अत्र च गुडदधितैलानां ये अवयवाः यश्च विकटे-मध्ये जारतोषणनिमित्तमिति दोषवत् । एवं यथा सत्यसो तथा
अवयवः शेषेषु च घृतादिषु येऽवयवास्ते केचिद् विकृतयः, साधुः, यथा विभूषणं तथा लेपः, यथा कुलाचारः तथा
किञ्चिञ्चाविकृतयः प्रतिपत्तव्याः। संयमः, यथा जारतोषणं तथा असंयमः । विभूषया लेप ददतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । उपलक्षणमेतत्
अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोतिगौरवेणापि ददत पतत् प्रायश्चित्तमवसातव्यम् । उक्नञ्च
दहि अवयवो उ मंथू, विगई तकं न होइ विगई उ। "संयमहेऊ लवो, न विभूसा, गारवेण वा दयो। चउगुरुग
खीरं तु निरावयवं, नवणीअोगाहिमा चेव ।। ८७२ ।। विभूसाए, लिंपिते गारवेणं वा॥"
घयघट्टो पुण विगई, वीसंदणसोय केइ इच्छन्ति । भिजिज्ज लिप्पमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे ।
तिल्लगुलाण अविगई, सुकुमालियखंडमाईणि ॥८७३ ।।
महुणो मयणमविगई, खोलो मजस्स पोग्गले पिउडं । मुद्दियनावाबंधे, न तेण बंधेण बंधिजा ॥ ५३४ ।।
रसो पुण तदवयवो,सो पुण नियमा झ्वे विगई।८७४। तत्पात्रं लिप्यमानं लिप्तं वा कथमपि हस्तपतनादिनाऽभि- दध्नः सम्बन्धी यो मधु इति नाम्ना प्रसिद्धोऽवयवः स द्यत न चान्यत्पात्रं तत्पात्रं भूयो मुद्रितनौबन्धेन बध्नीयात्, विकृतिः, यत्तु तकं तद्दध्यवयवरूपमपि विकृतिनं भवति । न स्तनकबन्धेन । बृ० १ उ०१ प्रक० ।
क्षीरंतु दुग्धं पुनर्निरवयवम्-अवयवरहितं नवनीतं-म्रक्षणम्
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लेब
श्रवगाहिमं पक्कान्नम् एते अपि निरवयवे एवं उपयाणामवयवानां पृथगव्यवाहियमाणत्वादिति । घृतघट्टः - पुनर्घृतस्य सम्बधी यः किट्टो महियाडुकमित्यर्थः । स विकृतिवह्नियते । विस्पन्दनं नाम – अर्धनिर्दग्धघृतमध्यक्षिततन्दुलि नम् उक्तञ्च पञ्चवस्तुकटीकायाम् -' वीसंद
-
नह
"
मदन ति सो इति पादपूरणे, शब्दार्थअपिशब्दार्थे, विस्पन्दनमपि केचिद्विहतिमिच्छन्ति न पुन चायं यदाह पूर्णकृत् भ्रम्हारी पुरा बीसंद अगि लगोर्गभाक्रमं यानि सकमारिकाखण्डादीनि तानि श्रविकृतिः विकृतिनें भवतीत्यथः । सुकुमारिकातैलविशेष बडाः श्रादिशब्दात् शर्करातिरिग्रहः । मधुनो मासिकादिभेदभिन्नस्यावयवो यम्मदनं तदविकृतिः । मद्यस्य खोलम-किविशेषः सोऽपि न विकृतिः पुलस्य परिपकटमुमस्थि वा तदप्यविकृतिरखकः, पुनर्यस्तस्य पुनलस्यावयवः स पुनर्नियमात् भवेद् विकृतिः । अथ पिण्डरसपई व्याख्यानयतिवाकवि मुदिया माउलुंगकवले य । खज्जूरनालिएरं, कोले चिंचा य बोधव्वा ||८७५|| आम्रम् म्रातकम्, कपित्थम् प्रसिद्धम् मुद्रिका द्राक्षा मातुलिङ्गम्-बीजपूरम्, ' कयल ' - कन्दलीफलम्, खर्जूरम् नालिकेरमुभयमपि सुप्रसिद्धम्, कोलो-बदरचूर्णम्, चिचा अम्लिका, चशब्दाद्-अन्यान्यप्येवंविधानि पिण्डरसद्रव्याखि बोद्धव्यानि । पतानि च न विकृतयो भवन्ति ।
(६०) अभिधानराजेन्द्रः ।
यत आह
खज्जूर- मुद्दिय - दाडि-माणं पीलत्थु - चिंचमाईणं । पिण्डरस न विगई, नियमा पुरा होंति लेवाडा | ८७६ । खर्जूरमुद्विकादाडिमानां पीपिचादीनां च संबन्धिनी यो परी ती अविकृती विकृती न भवतः । नियमात् पुनर्लेपकृतौ भवत इति । उक्तानि लेपकृतानि । लेपकृतिः संसृष्टस्य भाजनस्य कल्पकरणो यदि पुनस्तस्य भाजनस्य लेपः स्फुटितो भवति ततः कल्पत्रये कृतेऽपि लेपकृतमेव तन्मन्तव्यम्नस्तद्दोषपरिहारार्थमाह
75
"
लेब
साहुगा सो श्रश्ररंतो दिट्ठो, अह सो भगवं दवदव स श्राउसोतहा संलिहर जहा नजर धायं पिव पत्तं । पच्छा सो भगव मुहयाए मुद्दे पिछेऊण पढतो अत्थर, ते आगया पिच्छति सा पसंत कर यह तो मि गहियं, तो भरणा न ताव हिंडामि, किं वेला जाया ते अमन्नस्त मुहं पलोयंति । ताहे धिज्जाश्रो भणइ-मए दिट्ठो, पलो से भाति पिच्छामो भायं ते दरिखियं तादभति-तुमपि पायो मरुगो " चि । अनुमेयार्थ भाष्यकृदाद
कुट्टिमतलसंकासो, भिसिणीपुक्खलपलाससरिसो या । समासधुवणसुका, सायसुमेरिसो होइ ।। ८८७ ॥ यथा कुट्टिमतलं नितप्रदेशरहितं सर्वतः सममेव भवकस्लेपोऽपि कुट्टिमतलसंकाशः सर्वतः स म एव कर्तव्यः । तथा विसिना-पाना तस्व स्तीर्ण पलाशपत्रं तत्र पतितं जलं यथा नावतिष्ठते, एवं यत्र सूक्ष्मसिकथावयवा लग्ना अपि न स्थितिं कुर्वन्ति स विसिनी पुष्कलपलाशसदृशः, ईदृशो लेपः पात्रकस्य समासधावनशोषणाः सुखमेव कर्तुं शक्यन्ते, समिति - सम्यक् प्रवचनोक्रेन विधिना आह्नित मर्यादया पात्रकलेपमवधीकृत्य यदसनं सिक्थाद्यवयवानामपनयनं स समासः स लेपेम कल्प इत्यर्थः भावनं कल्पत्रयप्रदानम् अपरजायं गुरु ईडशे पात्रे भवति “ एगो साहू रुक्खमूले समुद्दिसह, तेरा साहुणा दिसालोगो कत्रो, न पुरा उवरिमारूढो धिजाहश्रो दिट्ठो, तेण सो साहू दूरश्रो जिमिश्रो दिट्ठो, ताहे सो उवरिमारूदौ गाममग, तत्थऽणेण सिद्धं गामिल्लयाणं, तेरा पुसन्धिभाजनं रघु
66
उ
नीलनि पम्म व दायणा भणिया ||८७८ || भामि समरुयो, पत्तो साहू जसं च किति च । पच्छाइय दोसा-वरणो य पभावियो तहियं ८७६ ॥ स भगवान् तं धिग्जातियं वृक्षावतरन्तं दृष्ट्रा आयुः प्रवचनमालिन्यरक्षणाय प्रवचनपरोऽभवत् ततस्तेन नाकल्पकरणेन 'खोप सुविकृतं तत्पात्रम् ततश्वनिःशीलनिर्वृतानां च तेषां प्रामेयकाणां पात्रकस्य दर्शना-निरीक्षयमिदं यदि भवतामेतदर्शने कौतुकमस्तीत्येवं लक्षणाभणिता पात्रे च दर्शिते तैर्मरुको धिग्जातीयः श्रपवाजितो, यथा-धि भवन्तमसदोपोद्घोषकारकम् गुणषु मत्सरिणमिति । साधु प्रायो यत्राप्यमिध्यादृष्टिमानमनपराकमसत्य कीर्ति च शुचिसमाचाररूपं सुकृतं प्राप मा दिताथ दोषाः पानकेन विना तुम्यकेषु वा भोजनकरणसमुत्थाः, वर्णश्च प्रभावितः प्रवचनस्य, तत्रावसरे तेन भगबता एष गुणः शोभनलेपोपलिप्तस्य पात्रस्येति । अथ पेषु द्रव्ये कापकरणमवश्यं कर्तव्यं तानि दर्शयतिलेवाडविगह गोरस कढिते पिंडरस जहउम्भज्जी । एएसं काय, करणे गुरुगा य आगाह ||८८०|| एतानि इल्याणि लेपकृतानि तद्यथा-विकृतयां-धिदुग्धादिकाः, गोरस-तकादि कथितं तीमनादि, पिण्डरसा:खर्जूरादयो यावत् जयन्यतः उम्म
6
"
तेषां लेपछतानां कल्पकरणं कर्त्तव्यम् । यदि न करो ति तदा चत्वारो गुरुकाः, श्राशादयश्च दोषाः, विराधना च संयमादिविषया ।
तामेव भावयति -
,
मंत्रयपमंगदोसा. निसिभत्तं लवकुत्थणमगंधं । दवविाादी, भरजाहार लेपतपात्रकस्य कल्पे अक्रियमाणे यः संचयः सूक्ष्मसि कथाद्यवयवपरिवासनरूपस्तस्य प्रसङ्गेन दोषा पते भवेयुः, निशिभ प्रतिसेवितं भवति । लेपस्य च कोथनं -- प्रतिभवनं तत गन्धम्ननः कुत्सार्थत्वादतीय दुर्गन्धि भाजने म यति ताहच भाजने गृहीतस्य द्रव्यस्यादनादेविनाशो भवति । तस्मिन् भुञ्जानस्य च विरसगन्धाघ्राणत ऊर्ध्वादीनि भवन्ति । ऊर्ध्वम्-वमनम् श्रादिशब्दाद् – अरोचकमान्द्यादिपरिग्रहः 1 अवर्णश्च प्रवस्पोडाहो भवति हि भिक्षां ददानो दुएते श्रशुचयः पापो
$
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लेव
अभिधानराजेन्द्रः। पहता इति 'समंजणाहारे' त्ति । दुर्गन्धिनाऽऽहारण प- गृहीत्वा समायायात् । प्राचार्यः प्राह-एवं कुर्वति आत्मा च नककुन्थुप्रभृतयः प्राणिनः संसजेयुः।
परश्च प्रवचनं च परित्यक्तानि भवन्ति । यत एवमतः
__तत्रात्मा कथं त्यको भवतीत्युच्यतेलेवकडे कायव्वं, परवयणे तिन्नि वार गंतव्वं । संदंसणेण बहुसो, संलावणरागकेलिया उभया । एवं अप्पा य परो, पवयणं होंति चत्ताइ ॥८८२ । । दंती णु कंजियं णु, जइस्स दट्ठो त्ति य भणंति ॥८८६॥ लपकृत भाजने कर्तव्यं कल्पकरणम् । अत्र परः-प्रेर- तस्यैकाकिनो भूयो भूयः तदगृहं प्रविशतो या काजिकदाकस्तस्य वचन श्रीन् वारान् कल्प प्रायोग्यपानकग्रहणा-| त्री अविरतिका तस्याः संबन्धिना बहुशः संदर्शनेन संलापाथै गृहपतिगृह गन्तव्यमिति । सूरिराह-एवं क्रियमाण नुरागकेलिप्रभृतयः आत्मोभयसमुत्था दोषा भवेयुः,सलापःश्रात्मा अपरश्च प्रवचनं च भवन्ति परियाली ....... ..... परस्पर सात्यान्तामतिः काल-पारगाथासमासार्थः
हासः। तथा-यद्यष प्रव्रजति कः पुनः पनरेति याति च तत्किअथैनामेव विवर्गषुगह
मस्य ददती पानकदायिका दृष्टा उत काक्षिकमित्येवमगागाउलभिरूव संखडि-अलभे साधारणं च सव्वेर्सि।
रिणम्तमुद्दिश्य भणन्ति । नुशब्दः उभयत्रापि वितर्के। गहियं संतीइ तहिं, तक्केच्छुरसादिलग्गट्ठा ।।८८३ ॥ प्रवचनं यथा परित्यक्तं भवति तथा दर्शयतिगच्छे साधवः शुचयो भवेयुः तैश्च भिक्षां हिण्डमान- आयपरोभयदोसा, चउत्थि तेणढसंकणा णीए। गोकुले दुग्धदध्यादीनि प्राचुर्येण लब्धानि, विरूपायां वा
दोच्चं णु चारिऊणं, करोति आयट्ठगहणाई ॥८८७॥ अनेकभक्ष्यभोज्यप्रकारायां संखड्यामुत्कृष्टमशनादिद्रव्यं
श्रात्मपरोभयदोषाः, श्रात्मानस्तस्मात्परस्याः कालिदालभ्यते । तैश्च साधुभिरलाभे अन्यत्र तथाविधस्य दुर्लभ
यिकायाः तदुभयस्माञ्च पते दोषा भवेयुः, तद्यथा-चतुद्रव्यस्यासंप्राप्तौ सर्वेषां साधारणमुपष्टम्भकारकमिद
र्थी-चतुर्थाश्रवद्वारविषया स्तैन्यार्थविषया वा शङ्का तमिति मत्वा सारयपि भक्नभाजनानि भृत्वा पानकं प्रति
स्याः सत्कैः-निजकैः क्रियते, यथा-नुरिति वितर्के, किमेष गृहीष्यति, गृहीतं ततः प्रतिश्रयमागताः, यावत्पानकन वि
प्रव्रजति कः कस्याप्युभ्रामकस्य मैथुनदोषं करोति, याना न शक्यते समुद्देष्टुमाहारस्य गलके विलगनात् , रातः किं
वत् समायाति याति च । यद्वा-चारिको भूत्वा चौराणां कर्तव्यमित्याह-सन्ति च तत्र तोक्षुरसादीनि श्रादिशब्दा
तैरिनां कर्तुमित्थमायाति , यद्वा-आत्मार्थमेवायमित्थं कत्-दुग्धादीनि च तान्यपान्तराले श्रापिवेत् । किमर्थमित्या
रोति । स्वयमेव मैथुनार्थ नेतुकामो वेत्यर्थः । इत्थं शङ्कइ- लग्ग? ' ति लग्ने-भाव क्तप्रत्ययः, श्राहारस्य
मानास्ते तस्य साधोग्रहणाकर्षणादीनि कुर्युः, ततः प्रवचगलके विलगनम्, अनुत्तरणं वा तदर्थं तम्माभूदित्यर्थः ।
नं परित्यक्तं भवति। श्राह-ययेवं तर्हि पानकाभावे समुद्देशनानन्तरं कथं| तानि कल्पयितव्यानीत्युच्यते
परः कथं परित्यक्तो भवति इति । उच्यतेमंडलितक्काखमए, गुरुभाणेणं च आणयंति दवं ।
गिरोहंति सिझियायो, छिदं जाउगसवित्तिणीयो य । अपरीभोगतिरित्ते, लहुप्रो अणुजीविभाणे य ।।८८४॥ सुत्तत्थे परिहाणी, निग्गमणे सोहि वुड्डी य ॥८॥ यःक्षपकः मंडलितका' मण्डल्युपजीवकः तस्य भाजमेन
| गृहन्ति छिद्रम्-दूषणम् काञ्जिकदायिकायाः, का इत्याहगुरूणां भाजनेन वा द्रव-पानकमानयन्ति । अथापरिभो- 'साज्झकाः' सहवासिन्यः, प्रातिवाश्मकाः खिय इन ग्येषु भाजनेषु अतिरिक्ने वा नन्दीभाजने मण्डल्यनुपजी
'जाउग' त्ति यातरो ज्येष्ठदेवरजायाः, सपत्न्यः प्रतीताः, विक्षपकभाजने वा द्रवमानयन्ति तदा लघुको मासः।
यथा-यदेष संयतो भूयो भूयः समायाति च नूनमस्या - अथ परवचने त्रीन् वारान् गन्तव्यमिति
यमुभ्रामक इति, ततो यदा तया सह संखडमुपजायते तपदं व्याख्यानयति
दा तत् प्राग्विकल्पितं दूषणं साक्ष्यनुत्पत्तेः पुरत उद्विर१२ जर एस दासी, ता आइमकप्पमाणसालाहउँ । न्ति तथा-सूत्रार्थविषया परिहाणिः
. अनेति नंदाउं, तो गच्छइ बिइय-तइयाण ||८८५॥
नि 'निग्गमणो साहिवुडी य' नि त्रीन चतरा वारान नि
गमने शोधिवृद्धिश्च तथैव द्रष्टव्या यथा भिक्षाद्वारे प्राभणति परः प्रेरयति-यथेष दोषः प्रायश्चित्तापत्तिलक्षण-| स्ततोऽहं विधि भणामि । प्रतिगृहं संलिख्यते एकाकी गृह
गुक्ला । यत एते दोषा अतो नैकाकिना भूयो भूयो गन्तव्यम्। पतिः गृहे प्रविश्यादिमकल्पमानं यावता सर्वसाधुभिरा
कथं पुनस्तर्हि गन्तव्यमित्याहदिमः कल्पः क्रियते तावन्मात्रं द्रवं गृहीत्वा अन्येषां सा
संघाडएण एगो, खमए बिइए य बुड्डमाइने । धूनां तत्पानकं दत्त्वा ततः स्वयं प्रथमकल्पं करोतु, कृ- पुवुद्धिएण करणं, तस्स च असई अउस्सित्ते|८| त्वा च ततो गच्छति द्वितीयतृतीयकल्पयोः । इदगक्तं संघाटकेन भावितकुलेषु प्रविश्य पानकं ग्रहीतव्यम् , द्विभवति-द्वितीयकल्पकरणार्थ द्वितीयं वारं तत्र गृहे प्रविश्य तीयपदे एकोऽपि यः क्षपको वृद्धो वा अशङ्कनीयः स श्रातावन्मात्रं द्रवं गृहीत्वा प्राग्वदन्यसाधूनां दत्त्वा द्विती- कीर्णेषु भावितकुलेषु पानकं गृह्णाति, तश्च पानकं यत्पूर्वयकल्पं करोतु, ततस्तृतीयं वारं भूयः प्रविश्य तावन्मात्रं | मेव सौवीरिणा उद्धृतं पृथग् स्थापितं तेन कल्पकरणं गृहीत्वा तथैव तृतीयं कल्पं कृत्वा यावन्मात्रेण शेषमा- कर्त्तव्यम् । तस्य वा पूर्वोद्धृतस्य असत्यभावे उत्सवे तमुजनानि धाब्यन्ते, संशाभूमिः पानकं च भवति, तावन्मात्रं | त्सितं तदपि कारापणीयम् । एषा पुरातनगाथा।
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लेव
अभिधानराजेन्द्रः। अथैनामेव भाष्यकृद्विवृणोति
द्वितीयपदेऽपवादाख्ये साधवो बजिकां गता भवेयुः, तत्र भावितकुलेसु पवे सितु, भायणे प्राणयंति सेसाणं । । च पानकं न लब्धमिति कृत्वा यदि मोकेन-प्रस्रवणनाचमन्ति तव्विहकुलाण असई, अपरिभोगादिसु जयंति ।।८६०॥
ततश्चत्वारो गुरवः, शिष्यः प्राह-यदि मोकेनाचमने दोषाभावितकुलानि नाम-येषु पूर्वोक्ताः शङ्कादयो दोषा न स्यु
स्ततो रात्रौ स्थानं निषीदनं त्वरवर्तनं चाकुर्वन् संसृष्टपात्रकस्तेषु गत्वा गृहस्थभाजने मण्डल्युपजीविक्षपकभाजने गुरु
स्य धारण करोतु । सूरिराह-एवं कुर्वतः संयमात्मविराभाजने वा द्रवं गृहीत्वा स्वकीयभाजनानि धौत्वा शेषाणां
धना भवति । ततो गोवरेण-गोमयेन प्राक् तस्य प्रोञ्छनम्भाजनानां धावनार्थ संज्ञाभूमि गतानामाचमनार्थ चापर
घर्षणं कृत्वा स्थापनं कर्तव्यम् , ततो द्वितीयदिवसे यदि
द्रवं ग्रहीनव्यं तदा धावनं कल्पत्रयप्रदानकं कर्तव्यम् । मपि पानकमानयन्ति । तद्विधानां-भावितकुलानाम् अस
यदि न कल्पत्रयं दातव्यम्, ततः, छठे अव्वाई' ति शिष्यः ति-अभावे अपरिभोग्यादिषु यतन्ते । अपरिभोग्यानि नामअत्र वार्यमाणभाजनानि तेषु, आदिग्रहणात्-मण्डल्यनुप
प्राह-यद्यधौते पात्रे भक्तं गृह्यते ततो नु तत्र यान्यवयवजीविक्षपकभाजनेषु नन्दीभाजने वा द्रवं गृहीत्वा संसृष्ट
द्रव्याणि पर्युषितानि सन्ति तैः षष्ठव्रतमतिचरितं स्यादिति भाजनानां कल्पं कुर्वन्ति,तच्च पानकं पूर्वोत्सिकमेव गृहन्ति ।
नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः। ननु यदि सौवीरिणीमुद्धृत्य दीयमानं गृह्णन्ति ततः को
विस्तरार्थ तु विभणिषुराहदोषः स्याद् ? उच्यते । यतः
वइगा अद्धाणे वा, दवअसईए विलंबि सूरे वा ।
जइ मोएणं धोवइ, सेहत्तह भिक्खगंधाई ।। ८६५ ॥ उव्वत्तं तम्मि वहो, पाणाणं तेण पुष्व उस्सित्तं ।।
वजिका-गोकुलं तस्यां कारणगतानामध्वनि वा वहमाअसती वुस्सविणीए, जं पेक्खइ वा असंसत्तं ॥८६१॥
नानां द्रवस्य-पानकस्य असति-अप्राप्तौ विलम्बिनि वा भ'उध्वत्तम्मि' ति प्राकृतस्वात् पुस्त्वनिर्देशः, सौवीरिण्यामु- स्तंगतप्राये सूर्ये यदि पानकं नास्ति ततः कथं कल्पः करद्वर्तमानायां ये तत्र सौवीरगन्धेन कंसारिकादयः प्राणजातीया
णीयः, अत्र नोदकः स्वच्छन्दमस्या प्रतिवचनमाह-मोकेमआयाताः सन्ति तेषां वा वाधा भवति,तेन कारणेन पूर्वोत्सि- तदानीं पात्रमाचमनीयम् । आचार्य श्राह-एवं ते स्वच्छन्द तं ग्रहीतव्यम् , अथ नास्ति पूर्वोत्सितं ततस्तस्यासति उ. प्ररूपणां कुर्वाणो यथाछन्दत्वाच्चत्वारो गुरवः प्रायश्चित्तम् । सिश्चनिकया उत्सिम्च्य यतनया गृह्णन्ति, अथ नास्त्युत्सि- मोकेन पात्रकमाचामति तस्यापि चतुर्गुरवः । कुतः? इत्याश्वनिका ततो यत्पार्श्व प्राणिभिरसंसक्तं प्रेक्षन्ते तेनोद्वर्त्य ह-यदि मोकेन धावति तदा शैक्षाणामन्यथाभावोऽपि विगृहभाजनं प्रातिहारिकं याचित्वा तत्र द्रवं गृहीत्वा भाज- परिणमनं भवेत् , विपरिणताच प्रतिगमनादीनि कुर्युः, नानि कल्ययन्ति ।
द्वितीये च दिवसे भिक्षार्थ पात्रके प्रसारिते सति कायिश्राह च
क्याः कथितो गन्धः समायाति , ततो लोकः प्रवचनावर्णगिहिसंति भाणपहिय, कयकप्पा सेसगं दवं घेत्तुं ।
वादं कुर्यात् , अहो अमीभिरस्थिकापालिका अपि निर्जिता धोमणपियणुस्सट्ठा, अह थोवं गिएहए अन्नं ॥८६२॥
यदेवं पात्रकं प्रस्रवणेनाचामन्तीति। आदिग्रहणन-श्रावकाणां
विपरिणामो भवतीत्यादिपरिग्रहः । गृहिसक्तं भाजनं प्रत्युपेक्ष्य यदि निर्जीव भवति तदा सत्र द्रवं गृहीत्वा कृतकल्पाः स्वकीयभाजनानि कल्पयित्वा शेषं
अथ भूयः परः प्राहद्रवमन्येषां भाजमानां धावनार्थ भुक्नोत्तरकाल च पानार्थ
भणइ जइएस दोसो,तोठिय निसीयण तुअट्ट धरणं वा। मुपलक्षणत्वात् संशाभूमिगमनाथै गृहीत्वा समायान्ति । भाइ तं तु न जुञ्जइ, दु दोस पादे अहाणी य ॥१६॥
अथ तत्र स्तोकमेव द्रवं लब्धं ततो पावता पर्याप्तं भवति भणति परा योष शैक्षः विपरिणामादिक उपजायते ततो तावदन्यदपरेषु गृहेषु गृह्णन्ति
मा मोकेनाचामतु परं ग्रहीतेनैव पात्रकेण सकलामपि रात्रि जा मुंजा ता वेला, फिट्ट तो खमगथेरो प्राणे। । 'ठाणि' त्ति ऊर्ध्वस्थितः तिष्ठतु , तथा यदि न शक्नोति तरुणी व नायसीलो, नीयल्लगभावियादीसुं ॥ ८६३ ॥
स्थातुं ततः 'निसीय' ति निपमः पात्रकं धारयतु, तथापि
यदि न शक्नोति ततस्त्वग्वर्तनं कुर्वाणस्तिर्यग्निषण्णः सन् धा'जा भुई' ति प्राकृतत्वादेकवचनेन निर्देशः, यावद्वा सा
रयतु । सरिराह-भण्यते अत्रोत्तरम्-हे नोदक! तत्तु न युधवो भुञ्जते तावत्पानकस्य वेला फिट्टति-व्यतिक्रामति,
ज्यते यद्भवता प्रोक्तम् , कुतः, त्याह-'दु दोसो' त्ति ततः क्षपकः-उपवासिकः स्थविरो वा-वृद्धः अशङ्कनीय
द्वौ दोषावत्र भवतः, तद्यथा-आत्मविराधना, संयमविराधइति कल्पकरणार्थमेकाक्यपि ' आणि 'त्ति पानकमानयेत् ।
ना च । तत्रोर्ध्वस्थितस्योपविष्टस्य वा निद्रया प्रेरितस्य भूमौ तरुणो वा यो सातशीलो हढधर्मा निर्विकारश्च स एका-1
निपततः शिरोहस्तपादाधुपघाते आत्मविराधना , परिणतः क्यपि निजकानां मातृपितृपक्षीयस्वजनानां कुलेषु भावित- सन् षलां कायानामन्यत्र संविराधयेदिति संयमविराधना । कुलेषु वा आदिशब्दाद्-अन्येष्वपि तथाविधकुलेषु प्रविश्य | 'पादे अहाणि'त्ति तदा पात्रं पतितं सद्भज्येत ततो या पात्र. पानकं गृहीयात् ।
केण विना परिहासिस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अत्रैव कल्पकरणद्वारे विध्यन्तरं बिभणिषुर्धारमाह
यत एते दोषा अतोऽयं विधिःबिइयपद मोय गुरुग, ठाणनिसीयणतुयधरणं वा । निद्धमनिद्धं णिद्धं, गोव्वरपुढे ठविति पेहित्ता। गोवरपुंछणठवणा, धोवश छडे य दवाई॥८६४॥ । जह य दवं घेत्तव्वं. बिइयदिणे धोइउं गिराहे ॥ ८६७॥
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सेव
लेपकृतं स्निग्धं वा भवेत्, अस्निग्धं वा भवेत् । यदि स्निधं ततो गोवरेण-गोमयेन'' मोहितं सुष्ट पात्रकं कृत्वा निरवयवीभूतं सत्प्रत्युपेक्ष्य रात्रौ स्थापयन्ति न धारयन्तीति भावः । अधास्निग्धं ततः संलेखनकल्पेन सुसेलीढं कृत्वा स्थाप्यते न पुनः करीषेण सम्यते, यहिवसे द्रयं प्र हीतव्यं ततो धावित्या त्रिः कल्पयितव्याः अथ भक्रं ततो ऽभीतेऽपि तेन कथिदोषः ।
( ६७३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अत्र परः प्राह
जर ओदसो अधोए, चिप्पड़ तो अवयवेहि निसिभतं । तिनिय न होंति कप्पा, ता धोवसु जाव निग्गंधं ॥ ८८ ॥ सम्हा गुब्वरपु, संली व धोबिर्ड हिंडे । इहरा मे निसिभनं प्रभविष्यं चैव गुरुमादी ॥८६॥ यद्यपी पात्रे द्वितीये अनि श्रोदनो ते ततो दु रात्र सूचना अवयवाः सन्ति येषां गन्धस्तृतीयेपनि ल रूपते तेश्रावययेः तथास्थितः सद्भिर्यदपरं भक्रं तत्र ते सद्भुञ्जानानां निशिभ भवति, तच्च युष्माभिर्लेपकृतस्य त्रयः कल्पः शुद्धिकरणतया निर्दिष्टास्तदप्यस्माकं मनसि न रुचिपथमियति, कल्पत्रये दत्तेऽपि तदीयगन्धस्याघ्रायमाणत्यात् ततोऽहमित्थे प्ररूपयामीति धोवसु जाय निबंध ति तावत् तत्प्रक्षालय यावन्निर्गन्धभव न च बहुभिराप कपर्निगन्धी भवति तस्मायशेषं कृतं स्निग्धं तद् गोवरेण— गणेश प्रतिं वास्तु कृत्वा द्वितीय दिवसे घायाकल्पाभिहित इतरथा कल्पकरमन्तरेण (मे) भवतां निशिभलमापद्यते, अकृतकल्पे व भाजने गृहीतमपरमपि भक्तम् उपवियं उ एं भवति तच गुर्यादीनामाचार्योपाध्यायमभृतीनां दीय मानं महतीमाशातनामुपजनयति ।
"
,
-
इत्थं परेखोक्ने सति सूरिराहभइ न अन्नगंधा, हांति छ जहेब उग्गारा। तिनिय कप्पा नियमा, जइ वि य गंधो जहा लोए । ६०० | भण्यते श्रत्र प्रतिवचनम् श्रमुष्य भक्तस्य गन्धाः षष्ठं- रात्रिविरमणव्रतं न प्रान्ति, यथैवोद्वारा रात्रौ समागच्छन्तोऽपि न पठतमुपन्ति तथा पात्र के यद्यपि गन्धः समागच्छति तथापि नियमात् त्रय एव कल्पा दातव्या नाधिका न वा ही नाम तथा भगवद्भियात् यथा लोकेऽपि प्रतिनियता भाजनशोधनाथ मृत्तिकालेपाः भवन्ति ।
"
तथाहिवारिखलाणं बारस, मट्टीया छच्च वाणपत्थाणं । मा एचिए भयाही, पडिमा भखिया पवयणम्मि || ६०१ | वारिखलाः - प्रव्राजकास्तेषां द्वादश मृत्तिकालेया भाजनशो· धका भवन्ति, पट् च मृत्तिकालेया वानप्रस्थानां तापसानां शीयसाधकाः संजायन्ते एवं सोऽपि समयप्रतिपादिता नि प्रतिनियतान्येव शौचानि दृष्टानि । श्रतो हे नोदक ! एतावतः कल्पान् मा भण-मा वृद्धि, तावद् दातव्यं यावन्निर्गन्धीभवतीत्यप्रतिनियता नित्यर्थः । तथा प्रतिमेति- मौकप्रतिमा साऽपि प्रवचने भणिताः तस्यां हि मोकमपि पीत्वा चिरेव भवति । १६६
लेव
एतदेव भावयति -
पिह सोयाई लोए, अहं पि अलेवगं अगं च । मोए वि श्रयम, दिडुं तह मोयपडिमाए ||६०२॥ यथा लोके पृथक - विभिन्नानि शोचानि दृष्टानि तथास्माकमपि त्रिभिः कल्पैः प्रवरलेषकम् अगच पाचभवतीत्येवं शोधविधिर्भगवद्भिर्दृष्ट इति । तथा मोकेनाप्यामनं मोकप्रतिमायां दृष्टमेव ।
परः प्राऽऽह ।
जर निम्लेवमगंधं, पतिं कई नु जिसकप्पे । तेसिं चेव अवयवा, रुक्खासि जिणा न कुव्वंति ॥ १०३ ॥ यदि निर्लेपमगन्धं च शौचं दएं ततः कथं तुरिति वितकै, पिन जनकल्ये प्रतिपत्रे सति प्रतिकुष्टम्-प्रतिषिद्धम् । 'तेसिं चेव अवयव ति अनिर्लेपिते तेषांजिनकल्पिकानां सम्स्येव सुरमाः पुरीषादेवाचैरमीषां शुचित्वं न भवति । सूरिराह - रूक्षाशिनो जिना:-जिनकपिका भगवन्तस्ततः अभिनवचैस्तया न सन्ति सूक्ष्मश्रावयचाः अमीषाम् तदभावाच्च दूरापास्तप्रसरस्तेषां पुरी
"
गन्ध इति हेतोर्न सेचनम् आह यद्यभिवर्चस्कतया जिनकरिकाः शौचं न कुर्वन्ति सर्दि ये स्थविरकल्पिकाअप्यभिनोश्वारास्तेषामपि संज्ञामुत्सृज्य किं कारणमवश्यं शौचकरणमुक्रम, उपयते
थंडिलाण अनियमा, प्रभाविए इडिजुयलमुयरे । सज्झाए पडखीए, न ते जिणे जं अणुप्पेहे ॥ ६०४|| स्थविरकल्पिका प्रथमस्थण्डिला भाविद्वितीयतृतीयचतुर्थाम्यपि स्थण्डिलानि गच्छन्ति, तत्र च यदि न निर्लेपयन्ति तत आपाततः संलोकसमुत्था अपादादयो दोषा भयेयुः इति स्थरिथलानामनियमादवश्यतया शीखं कुर्वन्ति, अभावितो नाम - अपरिणतजिवधनः तस्य निर्लेपनाभावे मा भूद्धिपरिणाम इति 'इहि सिद्धिमान् राजादीनामम्यतमः प्रब्रजितः, स प्रायेण शौचकरणभावित इति तदर्थम्, तथा - युगलं बालवृद्धद्वयं तत्प्रायेण भिन्नवर्चस्कं भवति, उपरो नाम यः समुदिशन् संज्ञां वा ब्युत्सृजन् चपलतया हस्तादीन्यपि लेपयति, सम्भारसि अनिलेपिते स्थविर कल्पिकानां स्वाध्यायो न वर्तते याचा कर्तुम् पडिसीप प्रथमस्थलाभावे द्वितीयस्थरिड लगतस्य शोधकरणमडष्ठा प्रत्यनीकः उङ्गादं कुर्यात् न से जिस चि जिनका पके नैतेषां स्थण्डिलानियमादयो दोषा भवन्ति 'जं श्रणुप्पेहे' सि
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मायासी स्वाध्यायं मनसैवानुमेदितेन या परिवर्तयति ततो न निपयति, स्थविरकल्पिकानां तु मनसा स्वाध्यायकरणे प्रभूतेनापि कल्पेन न सूत्रार्थी परिजिती भवत इति । एमेव अप्पलेवं सामासे जिया न धोवंति । जचि न निरावयवं अहावि ईए उ सुकंति ||६०५|| एवमेवात्पलेपमल्पशब्दस्य न वाचकत्वादले पकृतं भाजनं यद्यपि न निरवयवं संजायते तथापि यथा स्वकल्पानुपालनादेव यति स्थितिरियं तेषां यदेवमेव शुचयो भवन्ति इति ।
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लेव अभिधानराजेन्द्रः।
लेवि यदप्युक्तं भवता प्राक् अकृतकल्पभाजने गृहीतं रूपरिजले,कल्प०३ अधिक क्षण। नाभिरेव तावद्यत् प्रविशति भक्तमुच्छिदं भवति, तदपि 'परिफलिग' त्ति
सलेपः। बृ०४ उ०। निचू०नालन्दावास्तब्ये स्वनामख्याते दर्शयति
गृहपती, 'तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गामनंतो संसहूं, जं इच्छसि धोवणं दिणे बिइए । हाई होत्था” तस्यां च लेपो नाम गृहपतिः-कुटुम्बिइत्थ विसुणसु अपंडिया, जहा तयं निच्छए तुच्छं।०६।
क आसीत् । (सूत्र०) “से णं लेवे नाम गाहावई ससंसृष्टं मन्यमानो यत् द्वितीये दिने धावनम्-कल्पकरणम्
मणोवासए यावि होत्था" स लेपाख्यो गृहपतिः श्रमइच्छसि,अत्राप्यर्थे शृणु-निशमय हे अपरिउत! यथा-तकत्
णान्-साधूनुपास्ते-प्रत्यहं सेवत इति श्रमणोपासकः । त्वदीयं वचनं निश्चये परमार्थत; तुच्छम्-असारम् ।
सूत्र०२ श्रु०७०। ( पेढालपुत्त' शब्दे पञ्चमभागे १०८१ तदेवाह
पृष्ठे वक्तव्यता गता) सर्वत्र प्रत्याख्याने 'अन्नत्थणाभोगेणं' सव्वं पि य संसढुं, नऽथि य संसद्वितेल्लयं किंचि ।
इत्याद्याकारोचारणं प्रोक्नमस्ति, परं 'पाणस्स लेवेण वा' सव्वं पि य लेवकडं, पाणगजाए कहं सोही॥६०७॥
इत्यादिषु कथं तन्न? इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-'पाणस्स लेधेयदि गन्धमात्रेणव त्वदुनया नीत्या भक्तमुच्छिष्ट भवति ततः
ण वा' इत्यत्र ' अन्नत्थणाभोगेणं' इत्याद्याकारानुश्चारणे सर्वमप्यन्नं जगति संसृष्टम्-उच्छिष्टमेव विद्यते, 'नत्थि' ना
हेतुः शास्त्रे रष्टो न स्मरति, षडावश्यकसूत्रमध्येऽपि तद्रस्ति किश्चिदप्यसंसृष्टम् , एवं सर्वमपि भक्तं पानकं च लेपक
हित एव पाठो दृश्यत-इति ॥५७॥ सेन० २ उल्ला०। विहततम्-उच्छिष्टं भवति; अतः पानकजातेन कथं शुद्धिर्भविष्यति ।
पात्रकाणि पुनर्लेपितानि चतुर्मासके विहतानि कल्पन्त न एतदेव भावयति
वा? इति प्रश्नः,अनोत्तरम्-पूर्वविहृतपात्रकाणि पुनर्लेपितानि खीरं वच्छुच्छि8, उदगं पि यः, छकच्छमुच्छिटुं।
चतुर्मासके विहृतानि कल्पन्त इति ॥७॥ सेन० २ उल्ला० ।
लेवकप्पिय-लेपकल्पिक-पुं० । लेपसामाचार्यभिक्षे, वृ०। चंदो राहुच्छिट्ठो, पुप्फाणि य महुयरिगणेहिं ।
साम्प्रतं लेपकल्पिकमाहरंधंतीओ वोट्टि ति, वंजणे खलगुले य तक्कारी ।
पढियसुयगुणियमगुणिय-धारमधारउवउत्तो परिहरति । संसदमुहा य दव्यं, पियंति जइणो कहं सुज्झे।।१०८॥
आलोयायरियादी, आयरिओं विसोहिकरगो से 1५३७ क्षीरं वत्सोच्छिष्टं वत्सेन स्वमातुः स्तन्यमापिबता संसृष्टम्। तथा-उदकमपि मत्स्यकच्छपोच्छिष्टम् , चन्द्रो गहच्छिष्टः,
यस्माद्-झानतः प्रायश्चित्तं तस्माद्येनौधनियुक्तिसूत्रमियं पुष्पाणि मधुकरगणैच्छिष्टानि, तथा-अविरतिका रन्धय
वा कल्पपीठिका पठिता स्यात् , श्रुता वा गुणिता-अत्यन्स्यो व्यञ्जनानि-शालनकानि' वोट्टयं' ति किं निष्पन्नानि
न्तखभ्यस्तीकृता स्याद् , अगुणिता वा स्याद् , धारिता न वेति परिक्षानार्थम् , खलगुलावपि तच्छाककारिणः-तस्य
वा स्याद अधारिता वा; तथापि चेदुपयुक्तः सन् सूत्रोखलादेः, कारिणश्वाक्रिकादयो 'वोट्टयन्ति' संसृष्टमुखाश्चो
प्रकारेण लेपं परिहरति-परिभोगयति; स लेपकल्पिकः, च्छिऐन मुखेन यतयो यद् द्रवमापिवन्ति तदपि संसृष्टं तेन
तेन च लेपसूत्रेण पठितेनापठितेन वा गुणितेनागुणितेन संसृऐन यस्य भाजनस्य कल्पः क्रियते तत्कथं शुद्धधतीति ।
वा, धारितेनाधारितेन वा उपयुक्त वा यां विराधनामापद्यते यत एवमतो न गन्धमात्रेणव भक्कमुच्छिष्टं भवतीति स्थितम् । तामाचार्यादेः पुरतः पालोचयन् प्रथमत प्राचार्यस्य, तदअथ कल्पकरणे वितथसामाचारी
भावे उपाध्यायादेरपि. आलोचिते च (से) तस्य प्रायश्चिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमाह
त्तप्रदानेन विशोधिकारक प्राचार्यः । उक्नो लेपकल्पिकः । एक्किकम्मि उ ठाणे, वितह करितस्स मासियं लहअं। वृ०१ उ०१प्रक० । तिगमासिय तिगपणगा, य होंति कप्पं कुणइ जत्थ । लेवण-लेपन-न० । कुड्यानां कर्दमेन गोयमेन च लेपप्रएकस्मिन् स्थाने वितथा सामाचारी कुर्वाणस्य मासिक | दाने, बृ० १ उ०२ प्रक० । आचा० । नि० चूछ । प्रलेपे, लघुकम् । तद्यथा-असलीढे पात्रके प्रथमं कल्पं करोति, | सूत्र०२ श्रु०१०। संलिख्य वा प्रथमं कल्पं कृत्वा तं नापिबतीति द्वितीयं लेवमेरा-लेपमर्यादा-स्त्री०। नियमितलेपविधाने," लेव (मेकल्पं, पात्रके अप्रक्षिप्य बहिर्निगच्छति, एतेषु त्रिवपि स्था- रा) मायाए संजए" (१ गाथा) दश०५ अ०२ उ० । नेषु मासलघु । तथा-त्रीणि मासिकानि पञ्चकानि च भ-लेववं-लेपवत-त्रि० । सलेप, सूत्र०१ श्रु.२ अ० १ उ०। वन्ति यत्र कल्पं करोति, तद्यथा-न प्रत्युपेक्षिते न प्रमा-लेवाट लेपकत-न० स्निग्धावयवमिश्र, पञ्चा०५विव०। जयति १ , नाप्रत्युपक्षितं प्रमार्जयति २, प्रत्युपेक्षिते न
('लेव' शब्दे लेपकतान्युक्तानि) प्रमार्जयति ३, एतेषु त्रिषु भङ्गेषु प्रत्येकं तपःकालविशे
लेवालेव-लेपालेप न० । भोजनभाजनस्य विकृत्या तीपितं मासलघु । चतुर्थभने प्रत्युपेक्षितं प्रमार्जयति च नवरं दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं करोति, १ दुप्पत्युपेक्षितं सुप्रमा
मनादिना वा आचामाम्लप्रत्याख्यातुरकल्पनीयेन लिप्तताजिंतं करोति २ दुष्प्रमार्जितं सुप्रत्युपेक्षितं करोति ३ एतेषु
याम् , ध०२ अधिक। "लेवालेवेण गिहत्थसंसट्टेणं" पश्चा० त्रिषु तपःकालविशषितानि पञ्चरात्रिन्दिवानि । सुप्रन्युपेक्षि
५ विव०। तं सुप्रमार्जितमिति चतुर्थो भङ्गः शुद्धः । इति गतं कल्पक-लेवि-लातुम-श्रव्य० । श्रादाने , “तुम एवमणाणहमर्हि रणद्वारम् । वृ०१९०२ प्रक० । श्रोध। ध०। प्रव. नाभे- च " ॥८।४। ४४१. ॥ अनेन तुमः स्थाने वैकल्पिक:
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लेवि
'पविणु' इत्यादेशः । ग्रहीतुमित्यर्थे, “लेवि महव्वय सिबु लहहि " प्रा० ४ पाद । लेविणु-लातुम् - श्रव्य० । श्रदाने, “लेघिय्णुतषु पालेवि” प्रा०
४ पाद । लेस - श्लेष्म - पुं० । श्लेष्मणि, विशे० ।
( ६७५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
भ० ८ श० ६ उ० । सूत्र० ।
लेशना - स्त्री० । श्रङ्गुल्याद्यवयवसंश्लेषरूपायाः
लेश-पुंनपे, पञ्चा० १८००० कलाकाले ० स्तोके, “थेव लेसो लवो कला मत्ता" पाइ०ना० १६४गाथा । लिसिते आश्वस्ते, निद्रायाम्, निःशब्दे वा दे०ना०७२८गाथा । श्लेष - पुं । संश्लेषे, रा० । श्राचा०। मात्रायाम्, पञ्चा० ७ विव० । त्रि । श्लेषद्रव्ये, प्रश्न० ५ संव० द्वार । लेसणता - स्त्री० । श्लेष्मण - न० । ऊर्ध्वादीनां जानुप्रभृतिभिः संबन्धे, प्रशा० १६ पद ।
लेसणा - श्लेषणा - स्त्री० । श्लेषद्रव्येण द्रव्ययोः सम्बन्धने,
स्तम्भने,
सूत्र० १ श्रु० ३ श्र० १ उ० । लेसणी - श्लेषणी - स्त्री० । श्लिष्टताहेतौ विद्यामैदे, शा० १
लेसा गद्रव्याणि न भवन्ति ?, तेन यः स्थितिपाकविशेषो लेश्यावशादुपगीयते शास्त्रान्तरे स सम्यगुपपन्नः, यतः स्थितिपाको नामानुभाग उच्यते तस्य निमित्तं कषायोदयान्तकृष्णादिश्यापरिजामा ते च परमार्थतः कषायस्वरूपा एव तदन्तर्गतत्वात् केवलं योगान्तर्गतइव्यसहफारिकारणमेदवैचित्रयाभ्यां भिन्नाः तारतम्यमेदेन विचित्राोपजायन्ते तेन यद् भगवता कर्मप्रकृतिकृता शिवशमांचा शतकाव्ये प्रन्थेऽभिहितम" डि. इ कुराइ अणुभार्ग कसायचो " इति तदपि समीचीनमेव कृष्णादिलेश्यापरिणामानामपि कषायोदयान्तर्गतानां कषायरूपत्वात् तेन यदुच्यते कैश्चिद्-योगपरिणामत्वे लेश्यानाम् " जोगा पर्यापर्स मार्ग काय श्रो कुरा " इति वचनात् प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव स्थाकर्मस्थितिहेतुत्वमिति तदपि न समीचीनम् यथोक्तभावार्थापरिज्ञानात् । अपि च-न लेश्याः स्थितिहेतवःः किन्तु - कषायाः, लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गता अनुभागहेतच, अत एव च स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण " इत्यत्रानुभागप्रतिपत्यर्थ पाकग्रहणम्। ए तच सुनिश्चित्तं कर्मप्रकृतिटीकादिषु ततः सिद्धान्तपरिज्ञानमपि न सम्यक् तेषामस्ति यदप्युक्तम्-कनि च्यन्दो लेश्या, निष्यन्दरूपत्वे हि यावत् पयोदयः तायिन्दस्यापि सद्भावात् कम्मंस्थितिहेतुत्वमपि युज्यते एवेत्यादि तदप्यश्लीलम् लेश्यानामनुभागबन्धहेतुतया स्थितिषन्धहेतुत्वायोगात् । अन्यच्च-कम्मनिष्यदः किं कम्कएक, उत कम्मैसारा है, न तावत्कर्मकएकः तस्यासारतयोत्कृष्टानुभागबन्धहेतुत्वानुपपत्तिप्रसः, कोहि सा भवति असारथ कथमुत्कानुभागवन्धहेतुः १ अथ चोरनुभागबन्धदेतवोऽपि लेश्या भवन्ति अथ कर्म्मसार इति पक्षस्तर्हि कस्य ककर्मणः सार इति वाच्यम् ? यथायोगमष्टानामपीति चेत् अष्टानामपि कर्म्मणां शास्त्रे विपाका वयन्ते न च कस्यापि कर्म्मणो लेश्यारूपणे विपाक उपदर्शितः ततः कथं कर्म्मसारपक्षी, तस्मात पूर्वोक्न एए क्षः श्रेयानित्ययः । तस्य हरिमइरिप्रभृतिभिरपि तत्र तत्र प्रदेशे अङ्गीकृतत्वादिति प्रा० १७ पद (१) अथ लेश्यानिक्षेपमाह
आगम नोआगमतो, नोआगमतौ य सो तिविहो । लेसाणं निक्खेवो, चउकओ दुविह होइ नायव्वौ ।। ५३४ ॥ जागगभवियसरीरा तथ्यइरिता य सा पुणो दुविहा । कम्मा नोकम्मे या, नोकम्मे हुंति दुविहा उ ।। ५३५ ।। जीवाणमजीवाण य, दुविहा जीवाण होइ नायव्वा । भवमभवसिद्धिप्राणं, दुविहाण वि होइ सत्तविहा ।। ५३६ ॥ अजीवकम्मनोदय - लेसा सा दसविहा उ नायव्वा । चंदारणय सूराणय, गहगणनक्खत्तताराणं ।। ५३७ ||| आभरणच्छायणा-दंसगाण मणिकागिणीण जा लेसा । अजीवदन्यलेसा, नायच्या दसविहा एसा ।। ५२८ ॥ जा दव्वकम्मलेमा मा नियमा अम्हिा उ नायन्या ।
श्रु० १६ श्र० ।
aसमेत - लेश्य मात्र त्रि० । अल्पमात्रे, द्रव्या० १ श्रध्या० । लेसा (स्सा) - लेखा - श्री० लिश्यते प्राणी कर्मणा पया साले. श्या बाद- इलैष इस ययन्धस्य कर्मवन्धस्थितिविधात्रया । स्था० १ डा० शा० लिश्यते श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनपेति लेश्या । कर्म० ४ कर्म० कृष्णादिद्रव्यसाचिप्या दात्मनः परिणामविशेषे" कृष्णाविद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य श्रात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते" ॥१॥ प्रशा० १७ पद । स्था० । श्रा० म० पा० स० । श्रध्यवसाये, श्राचा०१श्रु०६अ०५७० । अन्तःकरणवृत्तौ, श्राचा० १श्रु०८० ५० सूत्र० अथ कानि कृष्णादीनि द्रव्याणि उच्यते-रह योगे सति लेश्या भवति, योगाभावे च न भवति ततो योगे न सद्दान्वयव्यतिरेक दर्शनात् योगनिमित्ता लेश्येति निश्चीयते, सर्वत्रापि तनिमित्तत्वनिश्चयस्यान्वयव्यतिरेकदर्शनयोगनिमित्तायामपि विकल्पयमवतरति किं मूलत्वात् " योगान्तरगतद्रव्यरूपा योगनिमित्तकर्म्मद्रव्यरूपा वा ? तत्र न तावद्योगनिमित्तकर्म्मद्रव्यरूपा, विकल्पद्वयानतिक्रमात्, तथाहि - योगनिमित्तकर्म्मद्रव्यरूपा सती घातिक
,
द्रव्यरूपा श्रघातिकर्म्मद्रव्यरूपा वा ?, न तायद् घातिकम्मैद्रव्यरूपा, तेषामभावेऽपि योगिकेवलिनि लेश्यायाः सद्भावात् नापि अधातिकर्म्मरूपा, तत्सद्भावेऽपि अयोगिकेवलनि लेश्याया अभावात् ततः पारिशेष्यात योगान्तर्गतद्रव्यरूपा प्रत्येया । तानि च योगान्तर्गतानि द्रव्याणि यावत्कपावास्तावतेषामप्युदयोपगृहाणि भवन्ति, दृष्टं च योगान्तरगतानां द्रव्याणां कषायोदयोपहरसामध्यम्, यथा पित्तद्रव्यस्य । तथाहि पित्तप्रकोपविशेषाउपलक्ष्यते महान् प्रवर्द्धमानः कोपा, अन्यच्च बाह्यान्यपि द्रव्याणि कर्मणामुदयक्षयोपशमादिहेतव उपलभ्यन्ते यधा- ब्राह्मयोपधिज्ञानावरणक्षयोपसमस्य सुरापानं शानावरणोदयस्य, कथमन्यथा युक्तायुक्तविवेकविकलतोपजायते, दधिभोजनं निद्रारूपदर्शनावरणोदयस्य तत्कियो
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खेसा अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा किएहा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्का य॥५३६ ।। मभिधाय कर्मद्रव्यलेश्यामाह-या कर्मद्रव्यलेश्या अग्रेतमदुविहा उ भावलेसा, विसुद्धलेसा तहेव अविशुद्धा।
तुशब्दसम्बन्धात्सा पुनर्नियमात्-अवश्यम्भावात् षडिधा
ज्ञातव्या-अवबोखण्या, कथमित्याह-कृष्णा नीला 'काउ' दुविहा विशुद्धलेसा, उवसमखइया कसायाणं ॥५४०॥
त्ति कापोता 'तेउत्ति, तैजसी पमा च शुक्ना चेति,इह च कअविसुद्धभावलेसा, सा दुविहा नियमसो उ नायब्बा।
मद्रव्यलेश्येति सामान्याविधानेऽपि शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव पिजम्मि दोसम्मिश्र, अहिगारो कम्मलेसाए।५४१।। कर्मद्रव्यलेश्या , यदुवं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-"योगपरिणामो नो कम्मदव्यलेसा, पोगसा वीससा उ नायव्वा । लेश्या, कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या ?, यस्मात्सयोगिकेवली भावे उदो भणियो, छण्हं लेसाण जीवेसु ॥५४२॥ शुकलेश्यापरिणामेन विहत्यान्तहत्ते शेषे योगनिरोधं कमज्झयणे निक्खेवो,चउको दुविह होइ दव्वम्मि ।
रोति, ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्रामोति । अतोऽवगम्यते
योगपरिणामो लेश्यति । स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणमागम नोआगमतो, नोआगमतो य यं तिविहं 1५६३।
तिविशेषः, यस्मादुक्तम्-“कर्म हि कार्मणस्य कार्यमन्येषां जाणगभवियसरीरं, तब्वइरित्तं च पोत्थगाईसुं ।
च शरीराणा" मिति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मणझप्पस्साणयणं, नायव्वं भावमझयणं ।।५४४॥ । नो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहार'लेसाणमित्यादिगाथा एकादश, तत्र 'लेसाणं' ति सूत्रत्वा.। कशरीरव्यापाराहतवाग्द्रव्यसमूहसाचिब्याजीवव्यापारो यः मेश्यायाम्,कोऽर्थः? लेश्याशब्दस्य निक्षेपश्चतुर्विधः-नामादि, स वाग्योगः, तथैवौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्य'दुविहो' इत्यादि प्राग्वत् , यावत् ' सा पुणो दुविह' त्ति, | समूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति । ततो सा-व्यतिरिकलेश्या पुनर्दिविधा , द्वैविध्यमेवाह-कर्मणि यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतियोग उच्यनोकर्मणि च , तत्र कर्मण्यल्पवक्तव्यैवेति, तामुपेक्ष्य नो- ते, तथैव "लेश्याऽपि" इति । गुरवस्तु व्याचक्षते-कर्मनिस्यकर्मविषयामाह-'नोकमणि-कर्माभावरूपे भवति द्विविधा, । दो-लेश्या, यतः कर्मस्थितिहतवो लेश्याः । यथोक्तम्-"ताः तुः-अवधारणार्थ इति द्विधव । कथमित्याह-जीवानाम्- कृष्णनीलकापो-ततेजसीपमशुक्लनामानः । श्लेष इव वर्णउपयोगलक्षणानाम्, अजीवानां च-तद्विपरीतानाम्, उभयत्र बन्ध-स्य कर्मबन्धस्थितिविधायः ॥१॥" इति, योगपरि लेश्येति प्रक्रमः, अत्र च नोकर्मत्वमुभयोरपि कर्माभावरूप- णामत्वे तु लेश्यानाम् , “जोगा पयडिपएस , ठिइअणुभाग त्वात् सम्बन्धिभेदाच द्विभेदत्वम् । तत्रापि द्विविधा जीवानी | कसायी कुति" ति वचनात्प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव भवति-सातव्या । भवभवसिद्धियाणं' ति मकारस्यालाक्ष-| स्यात् न तु कर्मस्थितिहेतुत्वम् , कर्मनिस्यन्दरूपत्व तु यावणिकत्वात् , सिद्धिशब्दस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धाद, भविष्य- | स्कषायोदयस्तावन्निस्यन्दस्यापि सद्भावात्कर्मस्थितिहेतुतीति भवा-भाविनीत्यर्थः, तादशी सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धि- त्वमपि युज्यत एव, अत एवोपशान्तक्षीणमोहयोः कर्मबका-भव्यास्तेषाम् ,अभवसिद्धिकानां-तद्विपरीतानां द्विवि- न्धसद्भावेऽपि न स्थितिसम्भवः, यदुक्तम्-" तं पढमसमये धानामप्युक्तभेदेन प्रक्रमाजीवानां भवति सप्तविधा-सप्त- बद्धं, बीयसमये वेश्य, ततियसमए निजिम्मं " ति, पाहप्रकाराइहापि लेश्यति प्रक्रमः । अत्र च जयसिंहसूरिः कृष्णा- यदि कर्मनिस्यन्दो लेश्या तदा समुच्छिन्नक्रिय शुक्लध्यानं दयः षद सप्तमी संयोगजा,इयं च शरीरच्छायात्मिका परिगृह्य- ध्यायतः कर्मचतुष्टयसद्भावे तन्निस्यन्दसम्भवेन कथं न ते, अन्ये त्वौदारिकौदारिकमिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविध- लेश्यासद्भावः ?, उच्यते, नायं नियमो यदुत निस्यन्दवतो त्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नो कर्मणि निस्यन्देन सदा भाव्यं, कदाचिन्निस्यन्दवत्स्वपि वस्तुषु तथासप्तविधां जीवद्रव्यलेश्यां मन्यन्ते, तथा-' अजीवकम्मणो विधावस्थायां तदभावदर्शनात् । यच्चोक्तम्- योगिनो दबलेस' त्ति अजीवानां 'कम्मणो' त्ति आर्यत्वानोकर्मणि | योगपरिणामाभावे लेश्यापरिणामाभाव' इति निश्चिनुमःद्रव्यलेश्या अजीवनोकर्मद्रव्यलेश्या , तुशब्दस्येह सम्ब-| योगपरिणाम एव लेश्येति, तदप्यसाधकम् , यतो रश्म्यादयः ग्धात्सा पुनर्देशविधा ज्ञातव्या । चन्द्राणां सूर्याणां च ग्रहा- सूर्याद्यभावे न भवन्ति, न च ते तदुपा एव, यत उक्तम्-"यञ्च मङ्गलादयस्तगणश्च नक्षत्राणि च-कृत्तिकादीनि ताराश्व-प्रकी-|.
चन्द्रप्रभाधत्र, शातं तज्ज्ञातमात्रकम् । प्रभा पुद्रलरूपा यणज्योतींषि ग्रहगणनक्षत्रतारास्तेषाम्, आभरणानि च-एका- तद्धर्मो नोपद्यते ॥१॥" अन्ये त्याहुः-कार्मणशरीरवत्पृबलिप्रभृतीनि आच्छादनानि च-सुवर्णचरितादीनि आदर्शा। थगेव कर्माष्टकारकर्मवर्गणानिष्पन्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणीति, पवावर्शका दर्पणास्ते चाभरणाच्छादनादर्शकास्तेषाम् , तथा तत्वं पुनः केवलिनो विदन्ति । इत्युक्ला द्रव्यलेश्या । भावलेमणिश्च-मरकतादिः काकिणिः-चक्रवर्तिरत्नं मणिकाकिण्यो श्यामाह-द्विविधा च भावलेश्या-विशुद्धलेश्या-अकलुषद्रव्य तयोर्यों लेशयति-श्लषयति वात्मनि अननयनानीति लेश्या- संपर्कजात्मपरिणामरूपा, तथैव-अविशुद्धा-इत्यविशुद्धलेअतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया अजीवद्रव्यलेश्या | श्या । तत्र द्विविधा विशुद्धलेश्या-' उपसमखस्य ' ति सूत्रप्रक्रमानोकर्मणि सातव्या, दशविधेषा । अत्र च चन्द्रादिश- स्वादुपशमक्षयजा, केषां पुनरुपशमक्षयौ ? यतो जायत इयदैस्तद्विमानानि " तात्स्च्यात्तव्यपदेश " इति न्यायेनो- मित्याह-कषायाणाम् . अयमर्थः कषायोपशमजा कषायक्षयच्यन्ते, तेषां च पृथ्वीकायरूपत्वेऽपि स्वकायपरकायश- जात्र, एकान्तविशुद्धिं चाऽऽश्रित्यैवमभिधानम्, अन्यथा हि स्रोपनिपातसम्भवात् , तत्प्रदेशानां केषाश्चिदचेतनत्येना- क्षायौपशमिक्यपि शुक्ला तेजःपभे च विशुद्धलेश्ये सजीवद्रव्यलेश्यात्वं द्रव्यम् , उपलक्षण चात्र दशविधत्व- म्भवत एवेति । अविशुद्धभावलेश्या सेति या प्रागुपमेवंविधद्रव्याणां रजतरूप्यताम्रादीनां बहुतरत्वेन तच्छा- क्षिप्ता द्विविधा-विभेदा ' णियमसा उ' त्ति , पार्षत्वात् याया अपि बहुतरभेदसम्मयात् ! इत्य नोकर्मदव्यलेश्वा-| नियमेन-अवश्यम्भावेन झातव्या, पेम्मि य' ति
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(६७७) लेसा अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा 'दोसम्मि य'त्ति प्रेमणि च-राग द्वेषे च द्वये , किमुक्तं
(३) नैरयिकादीनां लेश्यापृच्छाभवति ?-रागविषया, द्वेषविषया च । इयं चार्थाकृष्णनीलकापोतरूपा, तदेवमस्या नामादिभेदतोऽनेकविधत्वम् , इह |
णेरइयाणं भंते ! कइ लेसाओ पन्नत्ताओ ? , गोयमा ! कयाऽधिकृतमित्याह-अधिकारः कर्मलेश्यया , कोऽर्थः ?- तिनि, तं जहा-किएहलेसा, नीललेसा, काउलेसा ॥ कर्मद्रव्यलेश्यया, प्रायस्तस्या एवात्र वर्णादिरूपेण विचा- तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कइ लेसाओ पन्नत्ताओ ?, रणात् । इत्थं नामादिभेदेन लेश्योक्ला, तत्र च वैचित्र्यात्सूत्रकतेनीकर्मद्रव्यलेश्यायां भावलेश्यायां च यत्प्राग् नोक्तं सम्प्रति
गोयमा ! छल्लेसाओ पएणत्ताओ, तं जहा-कएहलेसा० तदाह-नोकर्मद्रव्यलेश्या-शरीराभरणादिच्छाया ' पोग
जाव सुक्कलेसा ॥ एगिदियाणं भंते ! कइ लेसाओ पस्स' त्ति प्रयोगः-जीवव्यापारः स च शरीरादिषु तैला- एणत्ताओ ?, गोयमा ! चत्तारि लेसानो पएणत्ताओ, भ्यञ्जनमनःशिलाघर्षणादिस्तेन 'वीससा य' त्ति विनसा-| तं जहा-कएह जाव तेउलेसा ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! जीवव्यापारनिरपेक्षा अभ्रेन्द्रधनुरादीनां तथा वृत्तिस्तया | कड लेसानो परमत्तायो ?, गोयमा! एवं चेत्र, च ज्ञातव्या । 'भाव' इति-भावलेश्या उदयः-विपाकः,। इह तूपचारादुदयर्जानतपरिणामो भणितः पराणां लेश्यानां
वणस्सइकाइयाण वि एवं चेव, तेउवाउवेइंदियतेइंदियजीवेषु । 'अज्झयणे' त्यादिगाथाद्वयम्-अध्ययननिक्षेपा- चउरिंदियाणं जहा नेरइयाणं । पंचेंदियतिरिक्खजोणिभिधायिविनयश्रुत एव व्याख्यातप्रायमिति गाथैकादश- याणं पुच्छा, गोयमा ! छल्लेस्सा-कएहलेस्सा जाव सुकार्थः।
कलेस्सा ॥ संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, सम्प्रत्युपसंहारव्याजेनोपदेशमाह
गोयमा ! जहा नेरइयाणं , गब्भवतियपंचेंदियतिएयासि लेसाणं, नाऊण सुहासुहं तु परिणामं ।
रिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! छल्लेसा करहलेचइऊण अप्पसत्थं, पसत्थलेसासु जइअव्वं ॥ ५४५॥
स्सा जाब सुक्कलेसा ॥ तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, एतासाम्-अनन्तरमुक्तस्वरूपाणां लेश्यानां शात्वा-ए- गोयमा ! छल्लेसा एयाओ चेव ।। मणूसाणं पुच्छा, तदध्ययनानुसारतोऽवबुध्य शुभाशुम् , तुः-पुनरर्थे, ततः | गोयमा ! छल्लेसा एयाओ चेव । समुच्छिमशुभाशुभं पुनः परिणामम् , किमित्याह-त्यक्त्वा-अपहा
मणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहा नेरइयाणं, गम्भवकंय 'अपसत्थं' ति अप्रशस्ता-अशुभपरिणामा कृष्णादिलेश्या इति योऽर्थः प्रशस्तलेश्यासु-शुभपरिणामरूपासु पी
तियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! छल्लेसाओ, तं जहाताद्यासु यतितव्यम् , यथा ता भवन्ति तथा यत्नो विधेय | कएहलेसा जाव सुकलेसा । मणुस्सीणं पुच्छा, गोय-- इति गाथार्थः ॥ इत्यवसितो नाम निष्पन्नो निक्षेपः । उत्त०] मा! एवं चेव । देवाणं पुच्छा, गोयमा ! छ एयाओ चैव, ३४ अंक।
देवीणं पुच्छा, गोयमा ! चत्तारि कण्हलेसा जाव तेउअस्मिश्च लेश्यापदे षड् उद्देशकाः, तत्रेयं प्रथमोहे
लेस्सा । भवणवासीणं भंते ! देवाणं पुच्छा, गोयमा ! शकार्थसंग्रहगाथाआहारसमसरीरा, उस्सासे कम्मवनलेसासु ।
एवं चेव । एवं भवणवासिणीण वि । वाणमंतरदेवाणं पुच्छा,
गोयमा ! एवं चेव, वाणमंतरीण वि । जोइसियाणं पुच्छा, समवेदणसमकिरिया, समाउया चेव बोधव्वा ॥१॥
गोयमा! एगा तेउलेसा एवं जोइसिणीण वि, वेमाणियाणं ( 'सम' शब्दे इमं प्रथममुद्देशकं वक्ष्यामि) प्रशा०१७ पद ।
पुच्छा,गोयमा ! तिन्नि,तं जहा तेउलेसा, पम्हलेसा सुक्कले(२) अथ लेश्यासंख्यामाहकइ णं भंते ! लेस्साओ पमत्ताओ?, गोयमा ! छल्ले
सा, वेमाणिणीणं पुच्छा, गोयमा ! एगा तेउलेस्सा ।
(मू० २१५) स्सायो पलत्ताओ, तं जहा-कएहलेसा ?, नीललेसा २, काउलेसा ३, तेउलेसा ४, पम्हलेसा ५, सुकलेसा ६।
'नरयाणं भंते !' इत्यादि, सूत्रमल्पबहुत्ववक्तव्यतायाःप्राक
सकलमपि सुगमम् , नवरं वैमानिकसूत्र यद्वैमानिकानामेका (सू० २१४)
तेजोलेश्योक्ता तत्रेदं कारणं वैमानिक्यो हि देव्यः सौधर्मे'कइ णं भंते ! लेसाओ' इत्यादि, कः पुनरस्य सूत्रस्य सम्ब. शानयोरेव, तत्र च केवला तेजोलेश्येति । न्ध इति चेद् ?, उच्यते-उक्नं प्रथमोद्देशके ' स लेसाणं
सामान्यतः सङ्ग्रहणिगाथा अत्रेमाःभंते ! नेरइया' इत्यादि, इह तु ता एव लेश्याश्चिन्त्यन्ते । 'कर लेसा' इति, तत्र लेश्याः, प्रागनिरूपितशब्दार्थाः "किण्हा नीला काऊ, तेऊ लेसा य भवणवंतरिया । 'क' त्ति, किंपरिमाणाः प्राप्ताः, भगवानाह-गौतम ! षड ।। जोइससोहम्मीसा-ण तेउलेसा मुणेयव्वा ॥१॥ ता एव नामतः कथयति- कराहलेसा' इत्यादि , कृष्ण- कप्पे सणकुमारे, माहिदे चेव बंभलोए य । द्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या, एवं एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कोसा उ॥२॥ नीललेश्यत्यादिपदेष्वपि भावनीयम् ।
पुढवी आउ वणस्सइ, बायर-पत्तेय लेस चत्तारि ।
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(६७) अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा गम्भयतिरियनरेसु, छल्लेसा तिनि सेसाणं ॥ ३॥"
णियाणं तिरिक्खजोणिणाणं समुच्छिमाणं गम्भवक्कंतिप्रशा०१७ पद २ उ०। (एतेषां जीवानामरूपबहुत्वम् 'अप्पाब- |
याण य सव्वेसिं भाणियव्वं • जाव अप्पड्डिया वेमाहुय' शब्द प्रथमभागे ६५८ पृष्ठे गतम्) सौधर्मेशानकल्पे देवाः तेजोलेश्या
णिया देवा तेउलेस्साणं सव्वमहड्डिया वेमाणिया सुकदोसु कप्पेसु देवा तेउलेस्सा पप्मता, तं जहा-सोहम्मे लेसा । केई भणंति-चउवीस दंडएणं इड्डी भाणियव्या । चेव, ईसाणे चेव । स्था० २ ठा०४ उ० । जी। (मू० २२१)। (४) असुरकुमारादीनां देवानां कति लेश्या भवन्तीत्याह- 'एएसि ण भंते ! जीवाणं कराहलेसाण' मित्यादि, सुगअसुरकुमाराणं चत्तारिलेस्सातो परमत्ता,तं जहा-कएह- | मम् , नवरं लेश्याक्रमेण यथोत्तरं महचिकत्वं यथाऽर्वाक
अल्पर्द्धिकत्वं भावनीयम् , एवं नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुलेसा णीललेसा काउलेस्सा तेउलेस्सा,एवंजाब थणि
प्यवैमानिकविषयारायपि सूत्राणि येषां यावत्यो लेश्यास्तेषां यकुमाराणं,एवं पुढवीकाइयाणं आउवणस्सइकाइयाणं वा- |
तावतीः परिभाव्य भावनीयानि । प्रज्ञा० १७ पद ३ उ० । णमंतराणं सव्वेसिं जहा असुरकुमाराणं । (सू० ३१६ ) (किलेश्यो जीवः किलेश्येषूपपद्यते इति 'उबवाय' शब्दे असुरादीनां चतस्रो लेश्या द्रव्याश्रयेण, भावतस्तु षडपि द्वितीयभागे १७६ पृष्ठे गतम् ) कृष्णलेश्यादिनैरयिकः किंसबदेवानां मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चां तु द्रव्यतो भावतश्च ष-| लेश्येषूपपद्यते इति तस्मिा व भागे तस्मिन्नेव शब्दे १७५ उपीति, पृथिव्यब्वनस्पतीनां हि तेजोलेश्या भवति देवोत्पत्ते | पृष्ठे उक्नम् । कृष्णलेश्यादिः नीललेश्यादिषूपपद्यते इत्यपि रिति तेषां चतस्र इति उक्तलेश्याविशेषेण च विचित्रपरि- | तस्मिन्नेव भागे तस्मिन्नेव शब्दे १२० पृष्ठे गतम् ।) णामा मानवाः स्युरिति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । (किं- (६) कृष्णलेश्यः कृष्णलेश्यं प्रसिधाय अवधिना कियत्क्षेत्र लेश्याको नैरयिकादिकः किलेश्याकेषु नैरयिकादिकेषु उपप-| | पश्यति । कृष्णलेश्यादिनैरयिकसत्कावधिज्ञानदर्शनविषयोयते इति ' उवयाय' शब्दे द्वितीयभागे १७५ पृष्ठे दर्शितम् ।) त्रपरिमाणतारतम्यश्चाह(५) अल्पर्द्धिकत्वमहर्दिकत्वे
कण्हलेसे णं भंते ! नेरइए कण्हलेसं नरइयं पणिहाए एएसि णं भंते! कएहलेसाणं जाव सुक्कलेसाण य| ओहिणा सब्बो समंता समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं कयरे कयरे अप्पड्डिया वा महड्डिया वा ? , गोयमा !| जाणइ केवइयं णत्तं पासइ ?, गोयमा ! णो बहुकण्हलेसेहिंतो नीललेसा महड्डिया, नीललेसहिंतो का- | यं खत्तं जाणइ, णो बहुयं खत्तं पासइ, णो दूरं खत्तं उलेसा महड्डिया, एवं काउलेस्सहिंतो तेउलेसा महड्रिया, जाणइ, णो दरं खेत्तं पासइ, इत्तरियमेव खित्तं जाणइ, तेउलेसेहिंतो पम्हलेसा महड्डिया, पम्हलेसेहिंतो सुक्कलेसा इत्तरियमेव खत्तं पासइ । से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ महड्डिया, सव्वप्पड्डिया जीवा कण्हलेसा सब्बमहड्डिया | कण्हलेसे णं नेरइए तं चेव. जाव इत्तरियमेव खत्तं सुक्कलेसा । एएसि णं भंते ! नेरइयाणं कण्हलेसाणं पासइ ?, गोयमा !, से जहानामए केइ पुरिसे बहुसमनीललेसाणं काउलेसाण य कयरे कयरे अप्पडिया वा| रमणिज्जसि भूमिभागंसि ठिच्चा सव्वो समंता सममहड्डिया वा ?, गोयमा ! कण्हलेसेहितो नीललेसे | भिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं महडिया, नीललेसेहिंतो काउलेसा महाडिया , सबप्प-| पणिहाए सव्वओ समंता समभिलोएमाणे णो बहुयं ड्डिया नेरइया कराहलेसा, सब्बमहड्डिया नेरइया काउले- खत्तं . जाव पासइ . जाव इत्तरियमेव खत्तं पासइ, से सा । एएशि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कराहलेसाणं | तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-कएहलेसे णं नेरइए. जाव
जाव सुक्कलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा | इत्तरियमेव खत्तं पासइ । नीललेसे णं भंते ! नेरइए महड्डिया वा ? , गोयमा ! जहा जीवाणं । एएसि णं | कण्हलेसं नेरइयं पणिहाय भोहिणा सव्वो समंता भंते ! एगेदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं जाव | समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ तेउलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा महड्डिया | केवतियं खेत्तं पासइ ?, गोयमा ! बहुतरागं खत्तं जाणइ वा?, गोयमा ! , कण्हलेस्सहिंतो एगेंदियतिरिक्खजो- बहुतरागं खेत्तं पासइ, दरतरखत्तं जाणइ दतरखत्तं णियाणं नीललेसाणं महड्डिया, नीललेसहिंतो तिरिक्ख-| पासइ, वितिमिरतरागं खत्तं जाणइ वितिमिरतरागं खत्तं जोणियाणं काउलेसा महड्रिया, काउलेसहितो तेउ-| पासइ, विसुद्धतरागं खत्तं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्तं लेसा महड्डिया , सव्वप्पड्डिया एगेंदियतिरिक्खजोणिया | पासइ । से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ--नीललेसे णं कएहलेसा, सव्वमहड्डिया तेउलेसा । एवं पुढविकाइयाण | नेरइए कण्हलेसं नेरइयं पणिहाय० जाव विसुद्धतरागं वि, एवं एएणं अभिलावेणं जहेव लेस्साो भावियाओ | खत्तं जाणइ, विसुद्धतरागं खत्तं पासइ ? से जहानामए तहेव नेयच्वं जाव चउरिंदिया । पंचेदियतिरिक्खजो- | केइ पुरिसे बहसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पव्वयं
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( ६७६ ) अभिधान राजेन्द्रः |
लेखा
दुरूहित्ता सव्व समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय सव्वत्र समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जागर, • जाव विसुद्ध रागं खेत्तं पासह, से तेणद्वेगं गोयमा ! एवं बुच्चइ - नीललेस्से नेरइए कण्हलेस ० जाव विमुद्धतरागं खेत्तं पासइ । काउलेस्से णं भंते ! नैरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाय ओहिणा सव्चओ समंता समभिलोएमाणे सत्रभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ पासह १, गोमा ! बहुतरागं खेत्तं जागइ पासइ० जाव विसुद्ध - तरागं खेत्तं पासति । से केणणं भंते एवं वुच्चइ-काउलेस्से गं नेरइए० जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ १, गो
मा ! से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जाश्रो भूमिभागाओ पव्वयं दुरूहइ दुरूहित्ता दोऽवि पाए उच्चाविया ( वइत्ता) सन्वत्र समंता समभिलोएज्जा तए गं से पुरिसे पव्त्रयगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सव्व समंता समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ० जाव वितिमिरतरागं पासइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - काउलेस्से गं नेरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाय तं चैव० जाव वितिमिरतरागं खेत्तं पासइ || ( सू० २२३ )
'कण्हलेसे णं भंते !' इत्यादि, कृष्णलेप्यो भदन्त ! कfearfantsपरं कृष्णलेश्याकं प्रणिधाय - श्रपेदयावधिना - अवधिज्ञानेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सर्वासु विदिक्षु समभिलोकमानो— निरीक्षमाणः कियत्किपरिमाणं क्षेत्रं जानाति कियद्वा क्षेत्रमवधिदर्शनेन पश्यति ?, भगवानाह - गौतम । न बहुक्षेत्रं जानाति नापि बहुक्षेत्रं पश्यति, किमुक्कं भवति ? - श्रपरं कृष्ण लेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य न विवक्षितः कृष्णलेश्याको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धोऽपि नैरयिकोऽतिप्रभूतं क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति । एतदेवाह-न दूरम् — अतिविप्रकृष्टं क्षेत्रं जानाति नाप्यतिविप्रकृष्टं क्षेत्रं पश्यति, किं तु इत्वरमेव - स्वरूपमेवाधिकं क्षेत्रं जानाति इत्वरमेवाधिकं क्षेत्रं पश्यति, एतच्च सूत्रं समानपृथिवीककृष्ण लेश्य नैरयिकविषयमवसेयमन्यथा व्यभिचारसम्भवात् तथाहि सप्तमपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको नैरथिको जघन्यतो गब्यूतार्द्ध जानाति, उत्कर्षतो गव्यूतम्, षष्ठपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको जघन्यतो गव्यूतमुत्कर्षतः सार्द्धम्, पञ्चमपृथिवीगतः कृष्णालेश्याको जघन्यतः सार्द्धं गव्यूतमुत्कर्षतः किञ्चिदूने द्वे गव्यूते । ततो द्विगुणत्रिगुणाधिकक्षेत्र सम्भवाद् भवत्यधिकृतसूत्रस्य व्यभिचारः, यथा समानपृथिवीकमपरं कृष्णले - श्याकं नैरयिकमपेदयातिविशुद्धोऽपि कृष्णलेश्याको नैरनिको मनागधिकं पश्यति नातिप्रभूतं तथा दृष्टान्तेनोपपिपादयिषुराह - 'से केराट्ठे भंते !' इत्यादि, इयमंत्र भावनायथा समभूभागव्यवस्थित एव कश्चित् विवक्षितः पुरुषः चक्षुर्नैर्मल्यवशात् मनागधिकं पश्यति न प्रभूततरं तथा।
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लेसा
विवक्षितोऽपि कश्चित् कृष्णलेश्याको नैरयिकः स्वभूमिकानुसारेणातिविशुद्धोप समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य यदि परमावधिना मनागधिकं पश्यति न तु प्रभूततरम्, श्रम समभूभागस्थानीया समाना पृथिवी, स्वभूमिकासमाना च कृष्णरूपा लेश्या, चक्षुः स्थानीयमवधिज्ञानम् । एतावता चैतदपि ध्वनितम्-यथा समभूभागव्यवस्थितः पुरुषः सर्वतः समन्तादभिलोकमानो गतीगते पुरुषमपेक्ष्यातिप्रभूततरं पश्यति तथा पञ्चमपृथिवीगतः स्वभूमिकानुसारेणातिविशुद्धः कृष्णलेश्याको विवक्षितोऽपि नैरयिकः सप्तमपृथिवीगतं कृष्णलेश्याकमतिमन्दानुभागावधिनैरविकमपेक्ष्यातिप्रभूतं पश्यति, मनागधिकत्रिगुणक्षेत्रसम्भवात् ॥ सम्प्रति नीललेश्याकविषयं सूत्रमाह-' नीललेसे गं भंते! नेरइए कराहलेलं नेरइयं पणिहाए ' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरं 'वितिमिरतरागं खेत्तं जागर ' इति विगतं तिमिरम- तिमिरसम्पाद्यो भ्रमो यत्र तद्वितिमिरम् इदं वितिमिरमिदम् वितिमिरमनयोरतिशयेन वितिमिरं वितिमिरतरम् ' द्वयोर्विभज्ये तरवि' ति तरप्प्रत्ययः । ततः प्राकृतलक्षणात् स्वार्थै कप्रत्ययः पूर्वस्य च दीर्घत्वम्, अत एव विशुद्धतरं - निर्मलतरम् श्रतीव स्फुटप्रतिभासमितियावत् । भावना त्वियम् - यथा धरणितलगत पुरुषमपेक्ष्य पर्वतारूढः पुरुषोऽतिदूरं क्षेत्रं पश्यति तदपि प्रायः स्फुटमतिभासं तथा विवक्षितोऽपि नीललेश्याको नैरयिको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धावधिः कृष्णलेश्याकं नैरकमपेक्ष्यातिदुरं वितिमिरतरं स्फुटप्रतिभासं च क्षेत्रं जानातीति । श्रत्र पर्वत स्थानीया उपरितनी तृतीया पृथिवी अतिविशुद्धा च स्वभूमिकानुसारेण नीललेश्या, धरणितलस्थानीया श्रधस्तनी कृष्णलेश्या, चक्षुः स्थानीयमवधिज्ञानमिति ॥ सम्प्रति नीलेश्याकमपेच्य कापोतलेश्याविषयं सूत्रमाह- काउलेस्से णं भंते! नेरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाये ' त्यादि,
क्षरगमनिका सुगमा, नवरम् ' दोत्रि पाए उच्चावइत्ता ' इति, द्वावपि पादौ उच्चैः कृत्वा द्वावपि पार्थी उत्पाटयेत्यर्थः, भावना त्वियम् - यथा पर्वतस्योपरि वृक्षमारूढः सर्वतः समन्तादवलोकमानो बहुतरं पश्यति स्पष्टतरं च तथा कापोतश्यो नैरयिकोऽपरं नीललेश्याकमपेक्ष्य प्रभूतं क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति च तदपि च स्पष्टतरमिति । इह वृक्षस्थानीया कापोतलेश्या उपरितनी च पृथिवी पर्वतस्थानीया नीललेश्या तृतीया च पृथिवी, चतुःस्थानीयमवधिज्ञानमिति ||
( ७ ) सम्प्रति का लेश्या कतिषु ज्ञानेषु लभ्यते इतिनिरूपयितुकाम आह
कहलेसे गं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा १, गोमा ! दो वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा, दोसु होमाणे ग्रामिणबोहियसुयनाशे होजा, तिसु होमाणे आभिणिबोहियसुयनाणओहिनासु होजा
,
वनासु होज्जा, चउसु होमाणे आमणिबोहिययहवा तिसु होमाणे श्रभिणित्रोहियसुयनागमणपञ्जहिमपज्जवनासु होज्जा, एवं ० जाव पम्हलेसे । सुकलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नासु होजा ?; गो
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(६८०) लेसा अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा यमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होजा, दोसु कह णं भंते ! लेसाओ पन्नत्तानो ?, गोयमा ! छल्लेहोमाणे आभिणिबोहियनाणे एवं जहेव करहलेसाणं- | साओ पनत्ताओ, तं जहा-कराहलेसा . जाव सुकलेसा, तहेव भाणियव्वं जाव चउहिं, एगम्मि. नाणे होजा, | से नूणं भंते! कराहलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए तावएगम्मि केवलनाणे होजा । (मू० २२४)
मत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुओ 'कराहलेसे ण भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा' इत्या- परिणमति, हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तादिप्रश्नसूत्रं सुगमम् , भगवानाह-गौतम ! द्वयोस्त्रिषु चतुर्यु
रूवत्ताए • जाव भुजो भुञ्जो परिणमति, से केणद्वेणं च झानेषु भवति । तत्र द्वयोराभिनिबोधिकश्रुतज्ञानयोः
भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए त्रिषु अाभिनिबोधिकश्रुतावधिशानेषु, यदिवा-श्राभिनिबोधिकश्रुतमनःपर्यायानेषु,इहावधिरहितस्यापि मनःपर्यव.
जाव भुजो भुजो परिणमति ?, गोयमा ! से जहानाम: शानमुपजायते , सिद्धप्राभृतादावनेकशस्तथा प्रतिपादना- | ए खीरे दूसिं पप्प सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प तारूवत्ताए। त् , अन्यच्च विचित्रा प्रतिक्षानं तदावरणक्षयोपशमसा- जाव ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ, से तेणद्वेमं मग्री , तत्र कस्यापि चारित्रिणोऽप्रमत्तस्याम(षध्याद्य
गोयमा ! एवं वुच्चइ-कएहलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताम्यतमकतिपयलब्धिसमन्वितस्य मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ता सामग्री तथारूपाध्यवसायादिलक्षणा स- ए. जाव भुज्जो भुञ्जो परिणमइ, एवं एतेणं अभिलावेणं म्पद्यते न त्वषधिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ता ततस्तस्य नीललेसा काउलेसं पप्प काउलेसा तेउलेसं पप्प तेमनःपर्यवज्ञानमेव भवति । ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्ध- उलेसा पम्हसेसं पप्प पम्हलेसा सुक्कलेसं पप्प० जाव स्योपजायते कृष्णलेश्या च संक्लिष्टाध्यवसायरूपा ततः
भुजो भुजो परिणमइ ,से नूणं भंते ! करहलेसा नीलकथं कृष्णलेश्याकस्य मनःपर्यायज्ञानसम्भवः ?, उच्यते
लेसं काउलेस तेउलेसं पम्हलेसं सुकलेसं पप्प तारूवत्ताए इह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि , तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसा
तावमत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो यस्थानानि प्रमत्तसंहतस्यापि लभ्यन्ते , अत एव कृ-- भुजो परिणमइ ?, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेसं रणनीलकाणेतलेश्या अन्यत्र प्रमत्तसंयतान्ता गीयन्ते , । पप्प • जाव सुक्कलेसं पप्प तारूवत्ताए तागंधत्ताए तार-- मनापर्यवज्ञानं च प्रथमतोऽप्रमत्तसंयतस्योत्पद्यते, ततः प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यते इति सम्भवति कृष्णलेश्याक
सत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमइ, से केणटेणं स्यापि मनःपर्यवज्ञानम् , चतुर्वाभिनिबोधिकश्रुतावधिमनः
भंते ! एवं वुच्चइ-कएहलेसा नीललेसं० जाव सुक्कलेसं पर्यवशानेषु , ' एवं० जाव पम्हलेसे ' इति एवं-कृष्णले- पप्प तारूवत्ताए०जाव भुजो भुञ्जो परिणमइ १, गोयमा! श्योक्तेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावद् पद्मलेश्या । कि
से जहा नामए वेरुलियमणी सिया कएहसुत्तए वा नीमुक्तं भवति ?-नीललेश्यः कापोतलेश्यः तेजोलेश्यः प
लसुत्तए वा लोहियामणी सिया हालिद्दमणी सिया सुमलेश्यश्च उक्नप्रकारेण द्वयोस्त्रिषु चतुर्पु वा ज्ञानेषु भरणनीयः । स च एवम्-'नीललेस्से णं भंते ! जीवे कइसु
किल्लमणी सिया आइए समाणे तारूवत्ताए जाव भुञ्जो नाणेसु होज्जा?, गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा ना
भुजो परिणमइ,से तेणद्वेणं एवं बुच्चइ-कएहलेसा नीललेसं णेसु होजा' इत्यादि , शुक्ललेश्येषु विशेष इति तं पृथक जाव सुक्कलेसं पप्प तारूवत्ताए भुजो भुजो परिणमति । से वक्ति-' सुकलेसे ण भंते !' इत्यादि, इह शुक्ललेश्यायामेव
नूणं भंते ! नीललेसा किएहलेसं०जाव सुक्कलेसं पप्प तारूकेवलज्ञान न लेश्यान्तरे ततः शेषलेश्याकेभ्योऽस्य शुक्ललेश्यस्य विशेषः ।
वत्ताए जाव भुजो भुओ परिणमइ,हंता गोयमा! एवं चेव, प्रथमं परिणामाधिकारः १, द्वितीयो वर्णाधिकारः
काउलेसा किएहलेसं, नीललेसा तेउलेसं, पम्हलेसा सुक्कले२, तृतीयो रसाधिकारः ३, चतुर्थो गन्धाधिकारः सं, एवं तेउलेसा किएहलेसं नीललेसं काउलेसं पम्हलेसं ४, पञ्चमः शुद्धाशुद्धाधिकारः ५, षष्ठः प्रशस्ताप्रशस्ता- सुक्कलेस, एवं पम्हलेसा किण्हलेसं, नीललेसा काउलेसं, धिकारः ६, सप्तमः संक्लिष्टासंक्लिष्टाधिकारः ७, अष्टम उष्णशीताधिकारः ८, नवमो गत्यधिकारः , दशमः प
तेउलेसा सुक्कलेसं पप्प ० जाव भुञ्जो भुजो परिणमइ ?, रिणामाधिकार। १० , एकादशोऽप्रदेशप्रदेशप्ररूपणाधिका
हन्ता गोयमा ! तं चेव, से नूणं भंते ! सुकलेसा किएहरः ११, द्वादशोऽवगाहाधिकारः १२, प्रयोदशो वर्गणा-| लेसं, नीललेसा काउलेसं, तेउलेसा पम्हलेसं पप्प० जाव धिकारः १३ , चतुर्दशः स्थानप्नरूपणाधिकारः १४ , पञ्च,
भुञ्जो भुञ्जो परिणमइ ?, हंता गोयमा! तं चेव । (मू०२२५) दशोऽल्पबहुत्वाधिकारः १५ ।
'कह णं भंते ! लेसाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, इदं सूत्र प्राग(८) तत्र प्रथमं परिणामलक्षणमभिधित्सुर्यासां परिणामो
प्युक्तं परं परिणामाद्यर्थप्रतिपादनार्थ भूय उपन्यस्तम्-'सेवक्तव्यः ता एव लेश्याः प्रतिपादयति
नूणं भंते!' इत्यादि, अथ भदन्त कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्यापरिणामवनरसगं-धसुद्धअपसत्थसंकिलिट्टण्हा।
योग्यानि द्रव्याणि नीललेश्यां-नीललेश्यायोग्यानि द्रव्यागतिपरिणामपदेसो, गाढवग्गणठाणाणमप्पपहुं ॥१॥ णि प्राप्य-अन्योऽन्यापमयसम्पर्शमामा तपतया तील
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(let ) अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा
श्यारूपतया रूपशब्दोऽत्र स्वभावषाची, नीललेश्यास्वमावतयेत्यर्थः भूयो भूयः परिणमतीति योगः । तत्स्वभावश्च त द्वर्गणा (तद्वर्णा ) दिरूपतया भवति, तत आह-तद्वर्णतया
सतया तन्यतया तत्स्पर्शतया सर्वत्रापि तच्छब्देन मी. ललेश्यायोग्यानि इष्याणि परामृशन्ति भूयो भूयः - अनेक वारं तिग्मनुष्याणां ततद्भवसंक्रान्ती शेषका वा परि गमते. इदं हि तिर्यग्मनुष्यानधिकृत्य वेदितव्यम् एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'हंता गोयमा !" इत्यादि, हन्तेत्यनुमतौ अनुमतमेतत् गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्येत्यादि, प्राग्वत् । इयमंत्र भावना - यदा कृष्णलेश्यापरिणतो जन्तुस्तिर्यग्मनुष्यो वा भवान्तरसंक्रान्ति चिकीर्षु नीलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति तदा नीललेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तानि कृष्णलेश्या योग्यानि द्रव्याणि तथारूपजीयपरिणामलतयं सहकारिकारसमासाद्य भीसलेश्याव्यरूपतया परिणमन्ते पुलानां तथा तथा परिणमनस्वभावत्वात्, ततः स केवलनीललेश्यायोग्यद्रव्यसाचिव्याधीलेश्यापरिगतः सन् काले कृत्या भयासरे समुत्पद्यते। उलं दवाई परिवारता कालं करेइ तल्लेसे उबवज्जइ' इति, तथा स एव तिर्यग्मनुच्यो वा तस्मिय भये वर्तमानो यदा कृष्णस्यापरितो भूत्वा नीललेश्याभावेन परिणमते तदापि कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तत्काल गृहीतनीललेश्यायोग्यद्रव्यसम्प
तो नीललेश्यायोग्यद्रव्यरूपतया परिणमन्ते, अमुमेवार्थ, दृष्टान्तेन विभावयिषुः प्रथमं प्रश्नसूत्रमाह-' से केलट्टेभंते!' इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह - गौतम ! ' से जहानाम खीरे इत्यादि ततः लोकप्रसिद्धं यथानामकं गोक्षीरम् अजाक्षीरं महिषीशीरमित्यादिनामक क्षीरम् 'सि' मिति दे शीवचनाद् दृष्यमेतत्, मथितं तक्रं प्राप्यान्योऽन्यावयवसंस्प
"
"
नाविभाग गत्वा यथा च शुद्ध-मलरहितं समले हि रागः सम्पद्यमानोऽपि न तथारूपो लगति तत उक्तम्-शुद्धं वस्त्रंलम् रज्यते अनेनेति रागः करणे प तं मञ्जिष्ठादिक प्राप्य तद्रूपतया मञ्जिष्ठादिरागइव्यस्वभावतया, एतदेव व्याच-' तद्वतये' त्यादि, सुगमम् । तथा कृष्णलेश्यायोग्यानि इव्याणि नीललेश्यायोग्यानि इव्याणि प्राप्य तपतया परिणमन्ते । इयमत्र भावना यथा क्षीरलक्षणकारणगता रूपादयस्तकरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते यथा वा शुद्धचत्रकारणगता रूपादयो मादिरागद्रव्यरूपादिभाव प्रतिपद्यन्ते तथा कृष्ण लेश्या योग्य द्रव्य रूपकारतारूपा दयो नीललेश्यायोग्यपदार्थ प्रतिपद्यते से ते ट्टेल 'मत्याद्युपसंहारवाक्यं सुगमम्, एवं नीललेश्या कापोलेश्यां प्राप्येत्यादीन्यपि चत्वारि सत्राणि भावनीयानि तदेवंपूर्वस्याः पूर्वस्था लेश्याचा उत्तरामुत्तरां लेश्यां प्रतीत्य पतया परिणमनमुक्तम् इदानीमेकैकस्याः लेश्याया यथायोगं क्रमेण शेष समस्त लेश्या परिणमनमाहसे नू भंते! कहलेखा नीललेस्सं काउलेस्स' मित्यादि याश दोऽत्र सर्वत्राप्यनुशो द्रव्यः, नीलेश्यां वा कापोतलेश्यां वा यावत् शुक्ललेश्यां वा, एकस्या लेश्यायाः परस्परविरुनया युगपदने कलेश्यापरिणामासम्भवात् । शेषाक्षरगafter प्राग्वत् । अत्रैवार्थे रान्तमभिधित्सुरिदमाह *से के ते!" इत्यादि सुगमम् नवरं यथा म
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लेसा
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णिक एव तत्तदुपाधिद्रव्यसम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणमते तथैव ताम्यपि कृष्णलेश्वायोग्यानि इम्याणि ततीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कस्तत्तद्रूपतया परिणमन्ते इति, तायतनान्तो न तु पुनथा बेद्वर्षमणि स्वस्यरूपमजदानस्तदुपाधिद्रव्यसम्बन्धतस्ततदाकारमात्रभा जितया ततद्रूपतया परिणमते तथैतान्यपि कृष्णलेयायोग्यानि स्वस्वरूपमजहानान्येव द्रव्याणि तत्तत्रीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्ततदाकारमात्रधारितया तत्तपत या परिणमन्ते इत्यनेनांशेन, तिरश्चां मनुष्याणां च लेश्याइय्याणां सामयेन तद्रूपतया परिणामाभ्युपगमात् अयथा-नैरयिकदेव सत्कलेश्याद्रव्याणामिव तिर्यग्मनुष्याणामपि श्वाद्रव्याणां सर्वधा स्वरूपापरित्यागेन बिरकालमवस्थानसम्भावात्, यत उत्कर्षतोऽप्येषामन्तर्मुहूर्त्तलक्षसंस्थितिपरिमाणमन्यत्र तद्विरुध्येत पल्योपमत्रयमणि यावत् उत्कर्षतः स्थितिसंभवात् तदेवं तदन्यलेश्यापचकपरिणाममधिकृत्य कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमुक्रम् एवं नीलाविश्याविषयाण्यपि प्रत्येकं तदन्यलेश्याप अपरिसाममधिकृत्य पञ्च सुत्राणि वक्रव्यानि तदेवं तिर्यक्रमष्याणां भवसंक्रान्ती शेषकाले च लेश्याद्रव्यपरिणाम - क्लः । देवनैरयिकसत्कानि तु लेश्याद्रव्याणि श्राभवक्षयमपस्थितानि यत्तदन्यलेश्याव्यसम्पर्कत आकारमात्र तदजैव पश्यते। तत उक्त परिणामलक्षणाधिकारः । (१) अधुना वर्णाधिकारमाहजीमूतनिद्धसंकासा, गवलरिट्ठगसंनिभा । खंजंजणनयणनिभा, किएहलेसा उ वा ॥ ४॥ नीलाsसोगसंकासा, चासपिच्छस मप्पभा | वेरुलियनद्धसंकासा, नीललेसा उवमओ ॥ ५ ॥ अयसीपुप्फसंकासा, कोइलच्छदसंनिभा । पारवयगीवनिभा, काउलेसा उं वो ॥ ६ ॥ हिंगुलुयधाउसंकासा, तरुणाइचसंनिभा । सुपनिभा, तेउलेसा उ वो ॥ ७ ॥ हरियालभेयसंकासा, हलिद्दाभेदसंनिभा । सासकुसुमनिभा, पम्हलेसा उ बओ ॥ ८ ॥ संखंककुंदसंकासा, खीरधारसमप्पभा । रहारसंकासा, मुकलेसा उवाच ॥ ६ ॥
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जीमूनि संकास भिं प्राकृतत्वात् स्निग्धवासी सजलत्वेन जीमूतश्व - मेघः स्निग्धजीमूतस्तद्वत्सम्यक् काशते वर्णतः प्रकशत इति स्निग्धजीमूतसङ्काशा तत्सरशीति यावत् तथा गवलं महिष रिष्ठो द्रोणकाकः स एव रिष्ठकः, यद्वा-रिष्ठको नाम फलविशेषस्तत्संनिभा-तच्छायानि सस्नेहाभ्यशकटाक्ष घर्षणोद्धतम्, अञ्जनं च- कज्जलं नयनं- लोचनम्, इह चोपचारातदेकदेशस्तन्मध्यवर्ती कृष्णसारस्तनिभा - तत्समा कृष्णलेश्या, तुः - विशेषणे स च शेषलेश्याभ्यो वर्णकृतं विशेषे द्योतयति । पातुः -- अवधारणे, भिचक्रमध, ततः यद्वा--तुः वर्ण एव-वर्णमेवाश्रित्य न तु रसादीन् एवमुत्तर
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(६८२) लेसा अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा पापि । नीलश्वासावशोकश्च-वृक्षविशेषो नीलाशोकस्त- | अंजणकसियाकुसुमे इ वा नीलुप्पले इ वा नीत्साशा, रक्ताशोकव्यवच्छेदार्थ च नीलविशेषणम् , चासः- लासोए इ वा नीलकणवीरए इ वा नीलबंधुजीवे इ पक्षिविशेषस्तस्य पिच्छ-पतत्त्रं तत्समप्रभा-तत्तुल्यद्युतिः,
वा, भवेयारूवे ?, गोयमा ! णो इणद्वे समटे, एत्तो. स्निग्धो-दीप्तो पैडूर्यो-मणिविशेषस्तत्सङ्काशा तत्सदृशी
जाव अमणामयरिया चेव बन्नेणं पनत्ता | काउलेपदविपर्ययः प्राग्वत् , नीललेश्या तु वर्णतो नीलेति तात्प- | र्यम् । अतसी-धान्यविशेषस्तत्पुष्पसङ्काशा, कोकिलच्छदः
| स्सा णं भंते ! केरिसिया वनेणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! तैलकण्टकः, तथा च वृद्धसम्प्रदाय:-" वगणाहिगारे जो से जहानामए खदिरसारए इ वा कइरसारए इवा एत्थ कोइलच्छदो सो तेलकटतो भएणइ" त्ति, क्वचितु धमाससारए इ वा तंबे इ वा तंबकरोडे इ वा तेवच्छिवापठ्यते च-' कोइलच्छवि 'त्ति, तत्र कोकिलः-अन्यपुष्टस्त- डियाए इ वा वाइंगणिकुसुमे इ वा कोइलच्छदकुसुमे इ वा स्य छविस्तत्संनिभा, पागवतः-पक्षिविशेषस्तस्य ग्रीवा
जवासाकुसुमे इ वा, भवेयारूवे ?, गोयमा ! णो इकन्धरा तन्निभा कपोतलेश्या तु वर्णतः , किश्चित्कृष्णा किश्चिच लोहितेति भावः , तथा च प्रज्ञापना-" काउ
| णटे समढे, काउलेस्सा णं एत्तो अणिट्ठयरिया चेलेसा काललोहितेण बरणेणं साहिजइ" त्ति । हिङ्गलकः- व जाव अमणामयरिया चेव । तेउलेस्सा णं भंते ! प्रतीतो धातुः-पापाणधात्वादिस्तत्सङ्काशा, तरुण इहाभि- केरिसिया बनेणं पन्नत्ता, गोयमा! से जहानामए ससरुनवोदितः श्रादित्यः-सूर्यस्तत्सन्निभा, शुकः-प्रसिद्धस्तस्य हिरए इवा उरब्भरुहिरे इ वा वराहरुहिरे इ वा संवररुहिरे तुण्डं-मुखं शुफतुण्डं तञ्च प्रदीपश्च तन्निभा वा , पठन्ति
इ वा मणुस्सरुहिरे इ वा इंदगोपेइ वा वालेंदगोपे इ वा च-'सुयतुंडालत्तदीवाभा' अन्ये तु ' सुयतुंडग्गसंकासा' द्वयमपि स्पष्टम् , तेजोलेश्या तु वरातो रक्तेति भा
वालदिवायरे इ वा संझारागे इ वा गुंजद्धरागे इवा वार्थः । हरितालो-धातुविशेषस्तस्य भेदो द्विधाभावस्त- जातिहिंगुले इ वा पवालंकुरे इ वा लक्खारसे इ वा सङ्काशा . भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षों भवतीति भेदग्रहणम् , लोहितक्खमणी इ वा किमिरागकंबले इ वा गयतालुहरिद्रेह पिण्डहरिद्रा तस्या भेदस्तत्संनिभा , सणो-धाम्यविशेषः असनो-बीयकस्तयोः कुसुमं तन्निभा, पनवेश्या
ए इ वा चीणपिट्ठरासी इ वा परिजायकुसुमे इ वा तु वर्णतः पीतेति गर्भार्थः । शङ्ख:-प्रतीतः, अको-मणिविशे
जामुमणकुसुमे इ वा किंसुयपुप्फरासी इ वा रत्तुप्पले पः कुन्दः कुन्दकुसुम-तन्सङ्काशा, क्षीरं-दुग्धं तूसकं-तूलं
इवा रत्तासोगे इ वा रत्तकणवीरए इ वा रत्तबंधुयपाठान्तरतः पूरी वा-क्षीरप्रवाहः , अन्ये तु 'धारि' त्ति
जीविए इ वा, भवेयारूवे ?, गोयमा ! णो इणद्वे पठन्ति तद्ग्रहणं तु भाजनस्थस्य हि तशादन्यथात्वमपि समद्वे। तेउलेसा णं एत्तो इदुतरिया चेव जाव मसंभवतीति तत्समप्रभा , रजतं- रूप्यं हारो-मुक्ताकलाप. णामतरिया चेव बन्नेणं पन्नत्ता । पम्हलेसा णं भंते ! स्तन्सङ्काशा शुक्ललेश्या तु वर्णतः शुक्नेति हृदयमिति सूत्र
केरिसिया बनेणं पन्नत्ता, ?, गोयमा ! से जहानामपदार्थः । उत्त० ३४०। (१०) विशेषतो वर्णाधिकारः
ए चंपे इ वा चंपयछल्ली इ वा चंपयभेदे इ वा हाकण्हलेसा णं भंते ! बन्नेणं केरिसिया पन्नत्ता ?, गो-लिद्दा इ वा हालिद्दगुलिया इ वा हालिद्दभेदे इ वा हयमा! से जहानामए जीमूते इ वा अंजणे इ वा रियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालभेदे इ वा खंजणे इ वा कजले इ वा गवले इ वा गवलए इ| चिउर इ वा चिउररागे इ वा सुवन्नसिप्पि इवा वरकणगवा जंवफले इ वा अदारिद्रुपुष्फे इ वा परपुढेइ वा भ- णिहसे इ वा वरपुरिसवसणे इ वा अल्लइकुसुमे इ वा चंपयकुमरे इ वा भमरावली इ वा गयकलभे इ वा किरह- सुमे इ वा करिणयारकुसुमे इ वा कुहंडयकुसमे इ वा सुवकेसरे इ वा आगासथिग्गले इ वा किण्हासोए इ वा मजुहिया इ वा मुहिरनियाकुसुमे इ वा कोरिंटमल्लदामे इकण्हकणवीरए इ वा काहबंधुजीवए इ वा , भवे ए- वा पीतामोगे इ वा पीतकणवीरे इ वा पीतबंधुजीवए तारूवे ? , गोयमा! णो इणडे समडे, कण्हलेम्या | इवा, भवेयास्वे?, गोयमा ! णो इणद्वे समढे, पणं इत्तो अणिट्ठयरिया चेव अकतयरिया चेव अप्पि- म्हलेम्मा णं एनो इट्टतरिया० जाव मणामयरिया यतरिया चेव अमणुनतरिया चेव अमणामतरिया च- चेव वन्नेणं पन्नना । सुकलेस्सा णं भंते ! केरिमिया व वनेणं पन्नत्ता । नीललेस्सा णं भंते ! केरिसिया वन्ने- बन्नेणं पन्नत्ता ?, गायमा ! से जहानामए अंके इ णं पनत्ता ? , गोयमा ! से जहानामए भिगए इ वा | वा संखे इ वा चंदे इ वा कुंदै इ वा दगे इ वा दभिंगपत्ते इ वा चासे इ वा चासपिच्छए इ वा मुए गरए इ वा दधी इ वा दहिवणे इ वा खीरे इ वा इ वा सुयपिच्छे इ वा सामा इ वा वणराइ इ वा उचं- खीरपूरए इ वा मुक्कच्छिवाडिया इ वा पेहुणमिजिया इवा तए इ वा पारेवयगीवा इ वा मोरगीवा इ वा हल- धंतधोयरुप्पपट्टे इ वा सारदबलाहए इ वा कुमुददले इ वा हरवसणे इ वा अपसिकुसुमे इ वा वणकुसुमे इ वा | पोउरीयदले इ वा मालिपिहरामीति वा कुडगपुप्फरासी ति
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(६८३) लेसा श्रभिधानराजेन्द्रः।
लेसा वा सिंदुवारमल्लदामे इ वा सेयाऽसोए इवा सेयकणवीरे इ | तद्धि नीलं भवतीत्युपात्तम् , अतसीकुसुमं वणवृक्षकुसुम वा सेतबंधुजीवए इ वा , भवेयारूवे ?, गोयमा !
च प्रतीतम् , अञ्जनकेसिका-वनस्पतिविशेषः तस्याः कु
सुमम् अञ्जनकेसिकाकुसुमं नीलोत्पलम्-कुवलयं नीलाशोनो इणद्वे समढे, सुक्कलेसा णं एत्तो इछतरिया चेव
कनीलकणवीरनीलबन्धुजीवा-अशोकादिवृक्षविशेषाः 'कामणुमयरिया चेव वनेणं पत्ता । (सू० २२६४) उलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, अप्राप्यक्षरगमनिका प्राग्व-- 'कण्हलेस्सा णं भंते ! वरणणं केरिसिया पन्नता' इत्या- त् , खदिरसारो धमासासारश्च लोकप्रतीतः 'तंबे हवा' दि, कृष्णद्रव्यात्मिका लेश्या कृष्णलेश्या,कृष्णलेश्यायोग्यानि तंबकरोडए इ वा तंबछेवाडिया इ वा ' इति सम्प्रदा-- द्रव्याणि इत्यर्थः, तेषामेव वर्णादिसम्भवात् न तु कृष्णद्रव्य- यादवसेयम् , वृन्ताकीकुसुमं प्रतीतं 'कोइलच्छदकुसुमए । जनिता भावरूपा कृष्णलेश्या, तस्या वर्णाद्ययोगात् , भदन्त ! वा' इति-कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः, तथा च मूलीका-- कीहशी वर्णेन प्रज्ञप्ता ?,भगवानाह-गौतम! स लोकरसिद्धो कृत्-'वन्नाहिगारे जो पत्थ कोइलच्छदो सो तिलकंटो यथानामको-जीमूत इति वा-जीमूतो-बलाहकः, स। भन्नह' इति, तस्य कुसुमं प्रतीतम् ' तेउलेस्सा णं भंते !' चेह प्रावृदप्रारम्भसमयभावी जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव इत्यादि , शशकोरभ्रवराहमनुष्यरुधिराणि शेषरुधिरेभ्यो प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् , इति शब्द उपमानभूतवस्तुना- लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत पतेषामुपादानम् , बालेन्द्र मपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, गोपकः-सद्यो जात इन्द्रगोपकः , स हि प्रवृद्धः सन् ईषएवं सर्वत्र इतिवाशब्दो द्रष्टव्यौ, अञ्जनम्-सौवीराञ्जनम्- त् पारादुरको भवति ततो बालग्रहणम् , इन्द्रगोपकः प्रा-- रत्नविशेषो वा खञ्जनम्-दीपमल्लिकामलः स्नेहाभ्यनशकटा- वृटप्रथमसमयभावी कीटविशेषः, बालदिवाकरः-प्रथम-- क्षघर्षणोद्भवमित्यपरे कज्जलम्-प्रतीतम् गवलम्-माहिषं मुद्रच्छन् सूर्यः , गुञ्जा-लोकप्रतीता तस्या अर्धरागो गुशृङ्गं तदपि च उपरितनत्वम्भागापसारणे द्रव्यम् , तत्रैव आर्धरागः , गुआया हि अर्धमतिरक्कं भवति अधं चाति-- विशिष्टस्य कालिम्नः सम्भवात् , जम्बूफलं प्रतीतम् , अरि- कृष्णमिति अर्धग्रहणम् , जात्यः-प्रधानो हिङ्गलको जात्यएकं फलविशेषः परपुष्टः-कोकिलः भ्रमर:-चञ्चरिकः भ्रम- हिङ्गुलकः प्रवालः-शिलादलं तस्याङ्करः प्रवालाङ्करः, स हि रावलिः-भ्रमरपक्तिः गजकलभः करिपोतः कृष्णकेशरः- प्रथममुद्गच्छन् अत्यन्तरक्को भवति ततस्तदुपादानम् , लाकृष्णवकुलः आकाशथिग्गलं-शरदि मेघापागलपा- क्षारसः-प्रतीतः , लोहिताक्षमणिः-लोहिताक्षनामा रत्नकाशखण्डम् , तदपि हि अतीव कृष्णं प्रतिभाति इत्युक्तम् , विशेषः कृमिरागेण रक्तः कम्बलः कृमिरागकम्बलः, शा-- कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीवाः-अशोककरणवीर- कपार्थिवादिदर्शनान्मध्यमपदलोपी.समासः, गजतालुचीनबन्धुजीवाः वृक्षविशेषाः, अशोकादयो हि जातिभेदेन पञ्च- पिष्टराशिपारिजातकुसुमजपाकुसुमकिंशुकपुष्पराशिरलोत्पवो भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासार्थ कृष्णग्रहणम् , एताव- लरक्ताशोकरलकणवीररनबन्धुजीवा लोकप्रतीताः ‘भवे एत्युक्ने गीतम आह-' भवे एयारूवा ? ' भगवन् ! भवेत् यारूवा' इति पदयोजना प्राग्वत् , भगवानाह-गौतम ! कृष्णलेश्या वर्णेन एतद्पा ?, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः 'णो इण्टे समहे' यतस्तेजोलेश्या इतः-शशकरुधिरादिभ्यो समर्थ:-नायमर्थ उपपन्नः, एतदृपा कृष्णलेश्येति, किन्तु ?, लोहितेन वर्णेनेष्टतरिकैव, तत्र किश्चिदकान्तमपि केषांचिसा कृष्णलेश्या इतो जीमूनादेः कृष्णेन वर्णन अनिष्टतरिका दिष्टतरं भवति ततः कान्ततरताप्रतिपादनार्थमाह-कान्तचैव इयमनिष्टा २ इयमनयोर्मध्येऽतिशयेनानिष्टा अनिष्टतरा तरिकैव, केषाश्चिदिएतरमपि स्वरूपतः कान्ततरमप्यपरेअनिएतरैवानिएतरिका अनीप्सिततरिका एवेति भावः । इह पामप्रियं भवति ततः प्रियतरताप्रतिपत्त्यर्थमाह-प्रियतरिकिश्चिदनिएमपि स्वरूपतः कान्तं भवति ततः कान्तताव्यु- कैव , अत एव मनोज्ञतरिका , मनोक्षतरमपि किञ्चिन्मदासार्थमाह-अकान्ततरिकैव; किञ्चित्केषाश्चिदनिष्टमपि स्वः । ध्यमं संभवेदतः प्रकृष्टतरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-म रूपतोऽकान्तमपि अपरेषां प्रियं भवति ततः सर्वथा प्रिय- | नापतरिकैव वर्णेन प्राप्ता । ' पम्हलेस्सा णं भंते !' इत्याताब्युदासार्थमाह-अप्रियतारकैव, अत एवामनोज्ञतरिकैव, दि. अक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरं चम्पकः-सामान्यतः वस्तुतः सम्यक परिशाने सति मनागप्युपादेयतया तत्र सुवर्णचम्पको-वृक्षविशेषः 'चम्पकछल्ली हवा' इति सुवमनसः प्रवृत्त्यसंभवात् , अमनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भव- चम्पकत्वक् 'चम्पकभेप ह वा ' इति सुवर्णचम्पकस्य ति ततः प्रकृएतरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-अमनपा- | भेदो द्विधाभावः , भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षों भवति ततो भेपरिकैव, मनांसि आप्नोति-श्रात्मवशतां नयतीति मन- दग्रहणम् , हरिद्रा इह पिण्डहरिद्रा हरिद्रागुटिका-हरिद्राश्रापा न मनापा अमनापा, ततो द्वयोः प्रकर्षे तरप् | निर्वतिता गुटिका हरिद्राभेदो-हरिद्राया द्वैधीभावः हरिएवंभूना वर्णन प्रशप्ता । · नीललेसा ण भंते ! ' इत्यादि, तालो-धातुविशेषः हरितालगुटिका-हरितालमयी गुटिअक्षरगमनिका प्राग्वत् . नवरं भृङ्गः पक्षिविशेषः पक्षमलः | का हरितालभेदो-हरितालच्छेदः चिकुर:-पीतद्रव्यविशषः भृङ्गपत्र-तस्यैव पक्षिविशेषस्य पक्ष्म, चासः-पक्षिविशेषः । चिकुररागः-तन्निप्पादितो वस्त्रादौ रागः सुवनसिप्पी र 'चासपिच्छं' चासस्य पतत्वं शुकः-कीरः 'शुकपिच्छं' वा ' इति सुवर्णमयी शुक्तिका, वरम्-प्रधानं यत्कनकं तस्य शुकस्य पतत्त्रं श्यामा-प्रियङ्गुः वनगजी-प्रतीता उच्चन्तको। निकपः-कषपट्टके रेखारूपः बरकनकनिकपः वरपुरुषः-वादन्नगगः , प्राह च मूलटीकाकार:- उच्चतगो दन्त-| सुदेवस्तस्य वसनं वस्त्रं वरपुरुषवसनं तद्धि पीतं भवतीगगो भन्नइ ' पागवतग्रीवा मयूरग्रीवा च सुप्रतीता ,त्युपात्तम् , अलकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं चम्पककुसुम-सुबहलधरो-बलदेवः तस्य वसनं-वस्त्रं हलधरबसनम् , । चम्पकवृक्षपुष्पम् 'कन्नियारकुसुमे इवा' इति काञ्चनार
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( ६८४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
लेसा
ककुसुमं कृष्माण्डिकाकुसुमं पुष्पा (पुंस्फ) लिकापुष्पं सुवर्णयूथिकाकुसुमं प्रतीतं सुहिररियका - वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं कोररटक माल्यदामपीताशोकपीत करवीरपीतबन्धुजीवाः प्रतीताः । 'सुक्कलेसा गं भंते ' इत्यादि, श्र त्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत्, नवरमङ्को- रत्नविशेषः शङ्खचन्द्रौ प्रतीतौ कुन्दं- कुसुमं दकम् उदकं उदकरजः- उदककणाः, ते हि अतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः, दधि- प्रतीतं दधिघनो दधिपिण्डः क्षीरं प्रतीतं क्षीरपूरं कथ्यमानम् अतितापादूर्ध्वं गच्छत् क्षीरम्,' सुक्कच्छिवाडिया इ वा ' इति द्विवाडि:- वल्लादिफलिका सा च शुष्का सती किलातीव शुक्ला भवतीत्युपाता 'पेडुणमिंजिया इवा' इति पेहु-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्त्तिनी मिजा पिहुणमिआ सा चातीव शुनेत्यभिहिता' धंतधोयरुप्पपट्टे ६ वा ' इति ध्मातः श्रनिसम्पर्कतो निर्मलीकृतः धौतो भूतिखरण्टितहस्तसम्मार्जनेनातिनिशितीकृतो यो रूप्यमयः पट्टः स ध्मातधौतरूप्यपट्टः, ' सारइयबलाहगे इ वा ' इति शारदिकः-शरत्कालभावी बलाहकः पुण्डरीकम्-सिताम्बुजं तस्य दलं पत्रं पुण्डरीकदल शालिपिष्टराशिकुटजपुष्पराशिसिन्दुवा
रमाल्यदामश्वेताशोकश्वेतकग्वीरश्वेतबन्धुजीवाः प्रतीताः ।
प्रशा० १७ पद ।
(११) कृष्णा दिलेश्याकनारकाणां स्थित्याऽल्प महत्त्वम्सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीलसे र महाकम्मतराए ?, ईता सिया से केणद्वेग एवं बुच्चइ - कहलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए !, गोमा ! ठितिं पडुच, से तेणट्टेणं गौयमा ! ०जाव महाकम्मतराए । सिय भंते ! नीललेसे नेर अप्पकम्मतराए काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए १, इंता सिया, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चति-नीललेसे नेरइए arrपकम्मतराए काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए ?, गोयमा ! ठिर्ति पडुच्च । से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए | एवं असुरकुमारे वि, नवरं तेउलेसा अन्भहिया एवं ० जाव वेमाणिया, जस्स जत्तिया लेसाओ तस्स तत्तिया भाणिवाओ जोइसियस्स न भन्नइ, ० जाव सिय भंते ! पम्हलेंसे वेमाणिए अप्पकम्मतराए सुक्कलेसे aaree महाकम्मतराए ?, हंता सिया से केणट्टेणं० सेर्स जहा नेरइयस्स ० जाव महाकम्मतराए। (सू० २७८) 'सिय भंते! कराहले नेरइए ' इत्यादि, 'ठिति पश्च ' ति, अत्रेयं भावना - सप्तमपृथिवीनारकः कृष्णलेश्यस्तस्य व स्वस्थितौ बहुक्षपितायां तच्छेने वर्तमाने पञ्चमपृथिव्यां सप्तदशसागरोपमस्थितिर्नारको नीललेश्यः समुत्पन्नः, तमपेच्य स कृष्णलेश्योऽल्पकर्मा व्यपदिश्यते, एवमुत्तरसूत्रायपि भावनीयानि ।' जोइसियस्स न भन्नइ' त्ति एकस्या एव तेजोलेश्यायास्तस्य सद्भावात् संयोगो नास्तीति । भ०
७ शु० ३ उ० ।
(१२) इह वर्णाः पञ्च भवन्ति, तद्यथा - कृष्णो नीलो लोद्वितो दारिद्रः शुक्लश्व, लेश्याश्च पद्, तत उपमानतो वर्णनि
For Private
लेसा
देशे कृतेऽपि संशयः का लेश्या कस्मिन्बर्णे भवति ?, ततः पृच्छति -
एयाओ गं भंते ! छल्लेसाओ कहसु वभेसु साहिअंति ?, गोयमा ! पंचसु बनेसु साहिअंति, तं जहा -कहलेसा कालए णं वनेणं साहिजति, नीललेस्सा नीलवनेणं साहिति, काउलेस्सा काललोहिएणं वनेणं साहिजति, तेउलेस्सा लोहिएणं वनेणं साहिजति, म्हलेस्सा हालिहरणं वनेणं साहिअर सुक्कलेस्सा सुकिल्लएवं वनेणं साहिजति । (सू० २२६ ) ।
'पयाओं भंते!' इत्यादि, एता श्रनन्तरोदिता भदन्त ! षड् लेश्या: ' करसु वनेसु ' सि प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सतमी यथा-'तिसु तेसु अलंकिया पुढवी ' (त्रिभिस्तैरलंकृता पृथ्वी) इत्यत्र, ततोऽयमर्थः कतिभिर्वणैः ' साहिज्जति ' कथ्यन्ते प्ररूप्यन्ते इति यावत् भगवानाह - गौतम !' पंचसु वन्नेसु ' इति पञ्चभिर्वर्णैः शिष्यन्ते यथा शिच्यन्ते तथा तद्यथा इत्यादिना दर्शयति । उक्को वर्णपरिणामः ।
(१३) सम्प्रति रसपरिणाममभिधित्सुराहकण्हलेस्सा गं भंते ! केरिसिया आसाएणं पद्मत्तां ?, गोयमा ! से जहानामए निंवे इ वा निंबसारे इ वा निंबछल्ली इ वा निंचफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफलए इ वा कुडगछल्ली इ वा कुडगफाणिए इ वा कडुगतुंबी इ वा कडुगलुंबिफले इ वा खारतउसी इ वा खारतउसीफले इ वा देवदालीति वा देवदालीपुप्फे इ वा मिगवालुंकी इ वा मियबालुंकीफले इ वा घोसाडिए इ वा घोसाडिफले इ वा कहकंदए इ वा वजकंदए इ वा भवेयारूवे ?, गोयमा ! यो इणट्ठे समट्ठे, कण्हलेसा णं एतो अतिरिया चैव जात्र श्रमणामयरिया चेव आसाएणं पन्नत्ता, नीललेसाए पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए भंगीति वा भंगीरए इ वा पढाइ वा [ चविया हवा ] चित्तामूलए इ वा पिप्पली इवा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पलीचुसे इ वा मिरिए इ वा मिरियचुपए इ वा सिंगवेरे इ वा सिंगबेर चुसे इवा, भवेयारूवे, गोयमा ! गो इणट्ठे समट्ठे, नीललेस्सा णं एत्तो ० जाव अमणामतरिया चैव आसाएं पन्नत्ता, काउलेस्साए - पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए अंवारण वा अंबाडगाण वा मा उलिंगाणा वा विल्ला वा कविट्ठाण वा [ भज्जारण वा ] फणसा गवा दाडिमाण वा पारेवताण वा श्रक्खोड्याण वा वोराण वा तिंदुयाण वा अपक्काणं अपरिवागाणं वन्नेणं अणुववेयाणं गंधेणं अणुववेयाणं फासेणं अणुववेयाणं भवेयारूवे ?, गोयमा ! गो इणट्ठे समट्ठे, ०जाब एत्तो श्रमणामरिया चैव काउलेस्सा अस्साए पन्नत्ता । तेउलेस्सा णं पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए बाण वा पक्काणं परियावनेणं उववेयाणं पसत्थेणं जाव फासेणं
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(६५) लेसा
अभिधानराजेन्द्रः। जाव एत्तो मणामयरिया चव तेउलेस्सा आसाएणं अक्षोडवृक्षफलानि अक्षोडानि बोरवृक्षफलानि बोराणिपन्नत्ता । पम्हलस्साए पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए
बदराणि तिन्दुकानि च प्रतीतानि, एतेषां फलानामपका
नाम् , तत्र सर्वथाऽपि अपक्कं फलमुच्यते तत पाहचंदप्पभा इ वा मणसिला इ वा वरसीधू इ वा वरवारु-|
अपरिपाकानां न विद्यते परिपाकः-परिपूर्णः पाको रणी इ वा पत्तासवे इ वा पुप्फासवे इ वा फलासवे इ वा | येषां तान्यपरिपाकानि तेषामीषत्पक्कानामित्यर्थः , एतचोयासवे इ वा आसवे इ वा महू इ वा मेरए इ वा क- देव वर्मादिभिः कथयति-वर्णेनातिविशिष्टेन गम्धेन घ्राणेविसाणए इ वा खज्जूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ वा | न्द्रियनितिकरण स्पर्शन विशिष्टपरिपाकाविनाभाविना सुपक्कखोतरसे इ वा अट्टपिट्ठणिट्ठिया इ वा जंबुफलकालि
अनुपपेतानाम्-असम्प्राप्तानां यादृशो रसः, अत्र गौतमः या इ वा वरप्पसन्ना इ.वा [आसला] मंसला पेसला
पृच्छति-एतद्रपा-एवंरूपरसोपेता भवेत् कापोतलेश्या ?,
भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, विं. तु इतः-अपईसिं ओट्ठवलंबिणी ईसिं बोच्छेदकडुई ईसिं तंबच्छिकर
रिपक्काम्रफलादेरनिष्टतरिकैवेत्यादि प्राग्वत् ॥' तेउलेस्सा णी उक्कोसमदपत्ता वन्नेणं उववेया० जाव फासणं आ
ण भंते ! ' इत्यादि, तेषामेव आम्रफलादीनां पकानां सायणिज्जा वीसायणिज्जा पीणणिज्जा विहणिज्जा दी- तत्पद्यत् किमपि पक्कं लोके पक्कं व्यवड़ियते तत आहवणिज्जा दप्पणिज्जा मदणिज्जा सन्वेंदियगायपल्हाय
पर्यायापनाना-परिपूर्णपाकपर्यायप्राप्तानाम्, एतदेव षर्णादि
भिर्निरूपयति-वर्णेन प्रशस्तेन--एकान्ततः प्रशस्येन तथा णिज्जा, भवेयारूवा!, गोयमा! णो इणडे समढे पम्ह
प्रशस्तेन गन्धेन प्रशस्तेन स्पर्शनोपेतानां यादृग् रसः , लेसा एत्तो इद्रुतरिया चेव जाव मणामयरिया चेव
एतावत्युक्ने गौतम श्राह-रसमधिकृत्य एतद्रपा-पक्काम्राआसाएणं पन्नत्ता। सुक्कलेसा णं भंते ! केरिसिया आ- दिफलरूपा तेजोलेश्या भवेत् ? , भगवानोह-मायमर्थः साएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए गुले इवा समर्थः, किंतु-परिपक्काम्रफलादरिष्टतरिकैवेस्यादि प्राखंडे इ वा सक्करा इ वा मच्छंडिया इ वा पप्पडमोदए इ
ग्वत् — पम्हलेसाए पुच्छा' सूत्रपाठोऽक्षरगमनिका च
प्राग्वत् , नवरं से जहानामए' इति सा लोकप्रसिद्धा वा भिसकंदए इ वा पुप्फुत्तरा इ वा पउमुत्तरा इ वा श्रा
यथा-येन प्रकारेण नाम यस्याः सा यथानामिका पुदंसिया इ वा सिद्धत्थिया इ वा आगासफालितोवमा इ स्त्वं सूत्रे प्राकृतलक्षणवशात् , प्राकृते हि लिङ्गमनियतं, वा उवमा इ वा अणोवमा इ वा, भवेतारूवे ?, गोयमा ! यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे- लिङ्ग व्यभिचार्यपी' णो इणद्वे समटे, सुक्कलस्सा एत्तो इट्टतरिया चव पियत- ति 'चन्द्रप्रभा इति वे' ति चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो रिया चेव मणामयरिया चव आसाएणं पन्नत्ता (सू०२२७)
यस्याः सा चन्द्रप्रभा, मणिशिलाकेव मणिशिलाका वरं
च तत् सीधु च वरसीधु वरा चासौ वारुणी च वर'कराहलेसा णं भंते !' इत्यादि, प्रश्नसूत्र सुगमम् , भग
वारुणी पत्रैः--धातकीपत्रर्निष्पाद्य श्रासवः पत्राऽऽसवः एवं वानाह-गौतम ! स लोकप्रतीतो यथानामको निम्बो-वृक्ष
पुष्पासवः, फलासवश्च परिभावनीयः, चोयो-गन्धद्रव्यं त. विशेषः निम्बसारो-निम्बमध्यवर्त्यवयवविशेषः, निम्बछ- निष्पाद्य पासवः चोयासवः, पत्रादिविशेषेण व्यतिल्ली-निम्बत्वक निम्बफाणितम्-निम्बक्काथः कुटजो-वृ
रिक्त पासव आसव इति गीयते, मधुमेरककापिशायक्षविशेषः तस्यैव फलं कुटजफलं तस्यैव त्वक् कुटजछल्ली
नानि मद्यविशेषाः , मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न प्रासवः तस्यैव क्वार्थ-कुटजफाणितं कटुकतुम्बी प्रसिद्धा तस्या खर्जूरसारः, मृद्वीका-द्राक्षा तत्सारनिष्पन्नो मृद्वीकासारः एव फलं कटुकतुम्बीफलम् , 'खारतउसी' ति खारशब्दः क- सुपक्केचुरसमूलदलनिष्पन्नः-सुपक्केचुरस अष्टभिः शास्त्रप्रटुकवाची तथाऽऽगमे अनेकधा प्रसिद्धेः, ततः कटुका त्रपु- सिद्धैः पिष्टैः निष्ठिता अष्टपिष्टनिष्ठिता जम्बूफलवत् का. पीक्षारत्रपुषी तस्या एव फलं क्षारत्रपुषीफलं देवदाली- लेव कालिका जम्बूफलकालिका वरा चासौ प्रसन्ना च रोहिणी तस्या एव पुष्पं देवदालीपुष्पं मृगवालुङ्की-लोक- वरप्रसन्ना , पते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः पूर्वकाले लोकप्रतोऽवसेया तस्या एव फलं मृगवालुङ्कीफलं घोषातकी प्रसि- सिद्धा इदानीमपि शास्त्रान्तरतो लोकतो वा यथास्वद्वा तस्या एव फलं घोषातकीफलं कृष्णकन्दो-वज्रकन्द- रूपं वेदितव्याः; वरप्रसन्नाविशेषणान्याह-मांसला-उपचि. श्वानन्तकायवनस्पतिविशेषौ लोकतः प्रत्येतब्यौ, एतावति तरसा पेशला--मनोशा मनोशत्वादेव ईषत्-मनाक ततः उक्त गौतमः पृच्छति-भगवन् ! भवेत् रसतः कृष्णलेश्या परम्परमास्वादतया भटित्येवाग्रतो गच्छति ओष्ठेऽवलम्बएतद्पा-निम्बादिरूपा?, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः स- ते-लगतीत्येवं शीला ईषदोष्ठावलम्बिनी तथा ईषत्--ममर्थः, यतः कृष्णलेश्या इतो-निम्बादिरसमधिकृत्यानिष्ट- नाक पानव्यवच्छेदे सति तत ऊर्व कटुका एलादिद्रव्यतरिकैवेत्यादि प्राग्वत् । ' नीललेसाए' इत्यादि, भङ्गी--- सम्पर्कतः उपलक्ष्यमाणतिक्तवीर्येति यावत् तथा ईषत्-मनस्पतिविशेषः तस्या एव रजो भङ्गीरजः पाठा-चित्रमुलके नाक ताने अक्षिणी क्रियेते अनयेति ईषत्ताम्राक्षिकरणी लोकप्रतीते पिप्पलीपिप्पलीमूलपिप्पलीचूर्णमरिचमरिच- मद्यस्य प्रायः सर्वस्यापि तथास्वभावत्वात् 'उक्कोसमयपत्ता' चूर्मशृङ्गबेरशृङ्गबरचूरर्णान्यपि प्रसिद्धानि । 'काउलेस्साए' इ इति उत्कर्षतीति उत्कर्षः स चासौ मदश्च , उत्कर्षमदः त्यादि, अाम्राणां फलानामेवं सर्वघापि भावनीयम् 'अंबा- तं प्राप्ता उत्कर्षमदप्राप्ता, एतदेव वर्णादिभिः समर्थयतेडयाण वा' इति अाम्राटकाः-फलविशेषाः मातुलिङ्गबिल्व-| वर्णेनोत्कृष्टमदाविनाभाविना प्रशस्येन गम्धेन घ्राणेन्द्रिय.पित्यपनसदाडिमानि प्रतीतानि पारावताः-फलविशेषाः | निवृतिकरण रसेन परमसुखासिकाजनकेन स्पर्शन मद
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( ६८६ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
लेसा
परिपाकाव्यभिचारिणा श्रत एवास्वादनीया विशेषतः स्वादनीया विस्वादनीया प्रीणयतीति प्रीणनीया " कृद् बहुल " मिति वचनात् कर्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं दर्णयतीति दर्पणीया मदयतीति मदनीया सर्वाणीन्द्रियाणि सर्वच गात्रं प्रह्लादयति इति सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीया एतावत्युक्ते भगवान् गौतम श्राह-' भवेयारूवा ' भगवन् ! एतद्रूपा - एवंरूपरसोपेता पद्मलेश्या भवेत् । भगवानाह - 'नो इट्ठे समट्टे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ ' सुक्कलेस्सा गं भंते !' इत्यादि, गुडखण्डे प्रसिद्धे शर्करा - काशादिप्रभवा मत्स्यण्डी - खण्डशर्करा पर्पटमोदकादयः सम्प्रदायादवसेयाः शेषं सुगमम् ॥ तदेवमुक्तो लेश्याद्वव्याणां रसः । प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० ।
,
सम्प्रति प्रकारान्तरेण रसमाह
।
जह कडुय (य) तुंबरसो, निंबरसो कडुयराहिणिरसो वा । इत्तो वि अतगुणो, रसो उ करहाइ नायव्वो ॥ १० ॥ जह तिकडुयस्स य रसो, तिक्खो जह हत्थिपिप्पलीए वा । इत्तो वि अतगुणो, रसो उनीलाइ नायव्वो ॥। ११ ॥ जह तरुणअंबयरसो, तुवरकवित्थस्स वावि जारिस । इत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ काऊइ गायव्वो ॥१३॥ जह परिणयंत्रगरसो, पक्ककवित्थस्स वावि जारिस इत्तो वि तगुणो, रसो उ तेऊ नायव्वो ।। १३ ॥ वरवारुणी व रसो, विविहाणं व सवाण जारिसयो । महुमेरगस्स व रसो, इत्तो पम्हाइ परएणं ॥ १४ ॥ खज्जूरमुद्दियरसो, खीररसो खंडसकररसो वा । इत्तो उतगुणो, रसो उ सुक्काइ नायव्वो । १५ ॥ ' यथे ' ति सादृश्ये ततश्च याडकू कटुकतुम्बकस्य रसःआस्वादः कटुकतुम्बकरसः निम्बरसः - प्रतीतः कटुका harit रोहिणी च त्वग्विशेषः कटुकरोहिणी कटुकत्वाव्यभिचारित्वेऽपि तद्विशेषणमतिशयख्यापकं तद्रसो वा श्रोपधविशेषो वा कटुकेह गृह्यते, ' यथे ' ति सर्वत्रापेक्षते, इतोऽपि कटुकतुम्बकर सादेरनन्तेन - श्रनन्तराशिना गुणनं गुणो यस्यासावनन्तगुणो रसस्तु - आस्वादः कृष्णाया:कृष्णलेश्यायाः - ज्ञातव्यः - श्रवबोद्धव्यः, अतिकटुक इति तात्पर्यम् । यथा -- यादृशः त्रिकटुकस्य-प्रसिद्धस्य रसस्ती - दणः कटुर्यथा हस्तिपिप्पल्या वा- गजपिप्पल्या वा, श्रतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु नीलायाः शातव्योऽतिशयतीक्ष्ण इति ह. दयम् । यथा तरुणम् अपरिपक्कं तच्च तदास्रकं च श्राम्रफलं तद्रसः, तुवरम् - सकषायम्, पाठान्तरतः - श्रार्द्रत्वाद् उभयत्र चाथदिपकं तच तत्कपित्थं च -- कपित्थफलं तस्य, वाविकल्पे, अपिः- पूरणे, यादृशको रस इति प्रक्रमः । अतोstयनन्तगुणो रसस्तु 'काऊए' त्ति कापोताया ज्ञातव्यः, श्र तिशयकषाया इत्याशयः । यथा परिणतं परिपक्कं यदाम्रकं तसः पक्ककपित्थस्य वाऽपि यादृशको रसोऽतोऽप्यनन्त गुणो रसस्तु' तेऊ ' त्ति तेजोलेश्याया ज्ञातव्यः, आम्लः किञ्चिन्मधुरश्चेत्यैदम्पर्यम् । बरवारुणी - प्रधानसुरा तस्या वा रसो यादक इति योगः, विविधानां वा-नानाप्रकाराणाम् श्रसवानाम् - पुष्पप्रसवमद्यानां वा यादृशको रस
For Private
लेसा
इति सम्बन्धः, 'महुमेरयस्स व रसो ' त्ति मधु-मद्यविशेषो मैरेयं-सरकस्तयोः समाहारे मधुमैरेयं तस्य वा रसो arrantsतो वरवारुण्यादिरसात्पद्मायाः प्रक्रमाद्रसः' पर
'ति अनन्तानन्तगुणत्वात्तदतिक्रमेण वर्त्तत इति गस्यते, अयं च किञ्चिदम्लकषायो माधुर्यवांश्चेति भावनीयम्, पाठान्तरतो ऽप्यनन्तगुणो रसस्तु पद्मायाः ज्ञातव्यः । खर्जूरं च - पिण्डखर्जूरादि मृद्वीका च- द्राक्षा एतद्रसः तथा क्षीररसः - प्रतीतः खण्डं च - इक्षुविकारः शर्करा च - काशादिप्रभवा तद्रसो वा यादृश इति शेषः, श्रतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु शुक्लाया ज्ञातव्योऽत्यन्तमधुर इति गर्भ इति सूत्रषट्कार्थः । उत्त० ३४ अ० ।
(१४) सम्प्रति लेश्यानां गन्धमाह
कइ णं भंते! लेस्साओ दुब्भिगंधाओ पन्नत्ताओ ?, गोमा ! तो लेस्साओ दुब्भिगंधाओ पमत्ताओ, तं जहा कएहलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा । कइ णं भंते ! लेस्साओ सुभिगंधा पत्ता १, गोयमा ! तो लेस्साओ सुब्भिगंधाश्रो पत्ताश्रो, तं जहा - तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा । ( सू० २२८ + )
'करणं भंते!' इत्यादि, सुगमम् । नवरम् - कृष्णनीलकापोतलेश्या दुरभिगन्धाः मृतगवादिकलेवरेभ्योऽप्यनन्तगुणदुरभिमन्धोपेतत्वात्, तेजःपद्मशुक्ललेश्याः सुरभिगन्धाः पिष्यमाणगन्धवाससुरभिकुसुमादिभ्यो ऽनन्तगुणपरमसुरभि - गन्धोपेतत्वात् । प्रज्ञा० १७ पद ।
कीडग्मन्धः लेश्यानामत्र दृष्टान्तः
जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । इत्तो वि तगुणो, लेसायं अप्पसत्थां ॥ १६ ॥ जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं । इत्तो वि श्रणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिरहं पि ॥ १७॥ यथा गवां मृतकं - मृतकशरीरं तस्य गन्धः श्वमृतकस्य वा तथा यथा अहि: -- सर्पस्तन्मृतकस्य गन्ध इति सम्ब न्धः, सूत्रत्वान्मृतशब्दे कलोपः श्रतोऽपि एतत्प्रकारादपिगन्धादनन्तगुणोऽतिदुर्गन्धतया लेश्यानाम्, श्रप्रशस्तानाम् श्रशुभानाम्, कोऽर्थः ?- कृष्णनीलका पोतानाम्, गन्ध इति प्रक्रमः इह च लेश्यानामप्रशस्तत्वं गन्धस्याशुभत्वे हेतुरिति तद्विशेषादनुक्को ऽप्यस्य विशेषोऽवगम्यत - ति नोक्तः । यथा सुरभिकुसुमानां जातिकेतक्यादिसम्बन्धिनां सुगन्धपुष्पाणां गन्धः -- परिमलः सुरभिकुसुमगन्धः, तथा गन्धाव - कोष्ठपुटपाकनिष्पन्ना वासाश्च - इतरे गन्धवासाः, इह चैतदङ्गान्येवोपचारादेवमुक्तानि तेषाम्, पाठान्तरतश्च गन्धानां च पिष्यमाणानां - संचूयमानानां यथा गन्ध इति प्रक्रमः, तथा चातिप्रबलतरोऽसौ प्रादुर्भवतीत्येवमभिधानम्, अतोऽपि - एतत्प्रकारादपि गन्धाद् अनन्तगुणः श्रतिशयसुगन्धितया प्रशस्तलेश्यानाम् तिसृणामपि - तैजसी पद्मशुक्लानां गन्ध इति प्रक्रमः, इहापि प्रशस्तत्वविशेषाद्गन्धविशेषोऽनुमीयत इति नोक्त इति सूत्रद्वयार्थः ॥ उत्त० ३४ श्र० ।
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(६८७) खेसा अभिधानराजेन्द्रः।
खेसा (१५) अधुना शुद्धाशुद्धत्वप्रतिपादनार्थमाह
पंचमओ जुज्झते , छट्टो पुण तत्थिमं भणइ ॥८॥ एवं तो अविसुद्धाओ, तो विसुद्धाओ, तो अप्प-| एकं ता हरह धणं, बीयं मारेह मा कुणह एवं । सत्थाओ, तो पसत्थाओ,तो संकिलिट्ठाओ, तो असं
केवल हरह धणंती, उवसंहारो इमो तेसि ॥६॥
सव्वे मारेह ती, वट्टइ सो किराहलेसपरिणामो। किलिट्ठाओ । (सू० २२८+)
एवं कमेण सेसा, जा चरमो सुक्कलेसाए ॥१०॥ 'एवं तो अविसुद्धाश्रो ततो विसुद्धाश्रो' इति , एवम्- आदिल्ल तिरिण पत्थं, अपसत्था उवरिमा पसत्था उ। उक्नेन प्रकारेण श्राद्यास्तिस्रो लेश्या अविशुद्धा वक्तव्याः, अपसत्थासुं बट्टिय, न वट्टियं जं पसत्थासुं ॥११॥ अप्रशस्तवर्णगन्धरसोपेतत्वात् , उत्तरास्तिस्रो लेश्या वि- एसइयारोएया-सु होइ तस्स य पडिक्कमामि त्ति। शुद्धाः, प्रशस्तवर्णगन्धरसोपेतत्वात् , ततश्चैवं वक्तव्याः
पडिकूल वट्टामी, जं भणिय पुणो न सेवेमि ॥१२॥" "करण भंते ! लेस्साश्रो अविसुद्धाश्रो परणताश्रो?, श्राव०४०। गोयमा ! तो लेस्साओ ( अप्पसत्थाओ) अविसुद्धा- (१६) अधुना शीतोष्णस्पर्शप्रतिपादनार्थमाहश्रो पराणत्ताश्रो, तं जहा-कराहलेस्सा नीललेस्सा काउ- जह करगयस्स फासो, गोजिन्भाए व सागपत्ताणं । लेस्सा ॥ कर णं भंते ! लेस्साश्रो विसुद्धाश्रो पराणत्ताओ ?
एत्तो वि अणतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥ १८॥ गोयमा ! तो लेस्साओ विसुद्धाओ पराणत्तानो , तं जहा-तेउलेस्सा पउमलेस्सा सुक्कलेस्सा" इति , उक्ने
जह बूरस्स वि फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । शुद्धत्वाशुद्धत्वे । सम्प्रति प्राशस्त्याप्राशस्त्ये प्रतिपादयति
एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिएहं पि ॥१६॥ ' तो अप्पसत्थाओ तो पसत्थाश्रो ' आद्यास्तिस्रो व्याख्या-यथा ' करगयस्स ' ति क्रकचस्य-करपलेश्या अप्रशस्ता वक्तव्याः, अप्रशस्तद्रव्यत्वेनाप्रशस्ताध्य- प्रस्य स्पर्शो गोर्जिता गोजिहा तस्या वा, यथा वा वसायहेतुत्वात् , उत्तरास्तिस्रो लेश्याः प्रशस्ताः , प्रशस्त- शाको-वृक्षविशेषस्तत्पत्राणां स्पर्श इति प्रक्रमः , अतोऽद्रव्यतया प्रशस्ताभ्यवसायकारणत्वात् , सूत्रपाठः प्राग्वद- पि-पतत्प्रकारादपि स्पर्शादनन्तगुणः अत्यतिशायितया बसेयः, 'करणं भंते ! लेस्साओ अप्पसत्थानो पन्नत्ता- यथाक्रम लेश्यानामप्रशस्तानामाद्यानां तिसृणां प्रक्रमात्स्पश्रो' इत्यादि, उक्ने प्राशस्त्याप्राशस्त्ये । अधुना संक्लिष्टाऽस- शोऽतिकर्कश इति हृदयम् । यथा बूरस्य वा प्रतीतस्य क्लिष्टत्वे प्रतिपादयति-'तश्रो संकिलिट्रानो तो असंकि- स्पर्शः नवनीतस्य-म्रक्षणस्य यथा वा शिरीषो-वृक्षविलिट्ठामो' इति आद्यास्तिस्रो लेश्याः संक्लिष्टाः , संक्लिष्टात- | शेषस्तत्कुसुमानामुभयत्र यथा स्पर्श इति प्रक्रमः, अतोऽपिरौद्रध्यानानुगताध्यवसायस्थानहेतुत्वात् उनरास्तिस्रो एतत्प्रकारादपि स्पर्शाद् अनन्तगुणः-अतिसुकुमारतया लेश्या असंक्लिष्टाः असंक्लिष्टधर्मशुक्लध्यानानुगताध्यवसाय- यथाक्रमं प्रशस्तलेश्यानां तिरुणामपि-उतरूपाणां स्पर्श कारणत्वात् , अत्रापि पाठः प्राग्वत्'-कह णं भंते ! लेस्साश्रो इति प्रक्रमः, इह च यदनेकदृष्टान्तोपादानं तन्नानादेशजक्नेिसंकिलिट्ठाश्रो पन्नत्ताश्रो' इत्यादि । प्रज्ञा०१७ पद ४ उ० ।
यानुग्रहार्थम् , कचिद्धि किश्चित्प्रतीतमिति, यद्वा-निगदितो. जम्बूदृष्टान्तं भावयति-प्रतिक्रमामि षड्भिर्लेश्याभिः करण-| दाहरणषु वणोदितारतम्यसम्भवाल्लश्याना स्वस्थानऽपि वभूताभिर्यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, तद्यथा-कृष्णले.
दिवैचित्र्यशापनार्थमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ उत्त० ३४ १० । श्ययेत्यादि-" कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् , परिणामो य | तो सीतलुक्खाओ, तो निडुबहाओ । (सू०२२८४) श्रात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" 'तो सीयलुक्खाओ तो नि रहाओ' इति , प्राधाकृष्णादिद्रव्याणि न सकलप्रकृतिविष्यन्दभूतानि, श्रासां स्तिस्रो लेश्याः शीतरूक्षाः-शीतरूक्षस्पर्शोपेताः, उत्तराच स्वरूपं जम्बूखादकदृष्टान्तेन , ग्रामघातकदृष्टान्तेन च | स्तिस्रो लेश्याः निग्धोष्णस्पर्शाः, इहान्येऽपि लेश्याद्रप्रतिपाद्यते
व्याणां कर्कशादयः स्पर्शाः सन्ति (प्रज्ञा०) तथापि “जह जंबुतरुवरेगो,सुपक्कफलभरियनमियसालग्गो। शीतरुक्षौ स्पर्शी श्राद्यानां तिसृणां लेश्यानां चित्तादिवो हि पुरिसेहि, ते बिंती जंबुभक्खेमो ॥१॥ स्वस्थ्यजनने स्निग्धोष्णस्पर्शी , उत्तरासां तिसणां लेश्यानां किह पुण ? ते बेंतेको, पारुहमाणाण जीवसंदेहो। परमसंतोषोत्पादने साधकतमाविति तावेव पृथक् पृथक तो छिदिऊण मूले, पाडेमुं ताहे भक्खेमो ॥२॥
साक्षादुनावित्यदोषः, सूत्रपाठः प्राग्वत् , 'कह णं भंते ! चितिमाह पहहेणं,किं छिरणेणं तरूण अम्हं ति ।
लेस्साओ सीयलुक्खाश्रो पश्नत्तानो' इत्यादि । साहामहल्लछिदह, तइयो घेती पसाहाओ ॥ ३॥
(१७) सम्प्रति गतिद्वारमभिधित्सुराहगोच्छे उत्थो उण, पंचमश्रो बेति गेण्हह फलाई । तो दुग्गतिगामिणी (णि ) ओ, तो सुगतिगामिछट्टो बेती पडिया, एए श्चिय खाह घेत्तुं जे ॥४॥
णीो । (सू० २२८४) दिटुंतस्सोवणो,जो बेति तरू विछिन्नमूलाओ ।
'तो दुग्गइगामिणीओ तो सुगइगामिणीयो' इति , सो वट्टा किराहाए, सालमहल्ला उ नीलाए ॥ ५॥
आद्यास्तिस्रो लेश्या दुर्गतिगामिन्यः-दुर्गतिं गमयन्तीत्येवं इवह पसाहर काऊ, गोच्छा तेऊ फला य पम्हाए । शीला दुर्गतिगामिन्यः, संक्लिष्टाध्यवसायहेतुत्वात् , उत्तपडियाए सुक्कलेसा, अहवा अण्णं उदाहरणं ॥ ६ ॥ रास्तिस्रो लेश्याः सुगतिं गमयन्तीत्येवंशीलाः सुगतिगामिचोरा गामवहत्थं, विणिग्गया ऍगो बेति घाएह ।
न्यः, प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् , उभयत्रापि गमेरार्यन्ताजं पेच्छह सव्वं वा,दुपयं च च उप्पयं वावि ॥ ७॥ दिन्प्रत्ययः, सूत्रपाठः प्राग्वत् 'कर णं भंते ! लेस्साओ विश्रो माणुसपुरिने य, तइओ साउहे चउत्थे य। दुग्गइगामिणीओ पन्नत्ताओ' इत्यादि । प्रशा०१७ पद ४ उ०
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(६८ ) लेसा अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा पुनरपि प्रन्थान्तरतो गतिद्वारमाह
विध एकाशीतिविधो या 'दुसश्रो तेयालो व 'त्ति अत्रापि किएहा नीला काऊ, तिन्नि वि लेस्साउऽहम्मलेसाउ। विधशब्दस्य सम्बन्धात् त्रिचत्वारिंशद्विशतविधो वा लेएयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववजई ॥ ५६ ॥
श्यानां भवति, परिणामः-तत्तद्रपगमनात्मकः, इह च त्रि
विधः ' जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदन नवविधः-यदेषामपि जतेऊ पम्हा सुक्का, तिनि वि एया उ धम्मलेसाउ ।
घन्यादीनां स्वस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येकं जघन्यादिएयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गई उववज्जई ॥५७।। प्रयेण गुणना एवं पुनखिकगुणनया सप्तविंशतिविधत्वकृष्णानीलाकापोतास्तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः, पापोपा-|
मेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशदद्विशतविधत्वं च भावनीदानहेतुत्वात् , पाठान्तरतोऽधर्मलेश्या बा, तिसृणामप्य
यम् । श्राह-एवं तारतम्यचिन्तायां कः संख्यानियमः ? , विशुद्धत्वेनाप्रशस्तत्वात् , यद्येवं ततः किमित्याह-एताभिः
उच्यते, एवमेतत् , उपलक्षणं चैतत् , तथा च प्रज्ञाअनन्तरोक्ताभिः 'तिसृभिरपि-कृष्णादिलेश्याभिः जीवः-|
पनायाम्-“कराहलेसा णं भंते ! कतिविधपरिणामं परिणमजन्तुः दुर्गतिम्-नरकतिर्यग्गतिरूपाम् उपपद्यते-प्रानो
ति?, गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसइविहं ति, सुव्यत्ययाद्वा दुर्गती उपपद्यते-जायते, संक्लिष्टत्वेन
वा एक्कासीइविहं वा वि तेयालदुसयविहं वा बहुयं वा बहुतत्प्रायोग्यायुष एव तद्वतां बन्धसम्भवादिति भावः । तथा
विहं वा परिणामं परिणमति, एवं जाव सुक्कलेसा" इति तैजसीपमाशुक्लास्तिस्रोऽप्येताः धर्मलेश्याः-प्रधानलेश्याः,
सूत्रार्थः ॥ उक्तः परिणामः । उत्त० ३४ अ०। विशुद्धत्वेनासां धर्महेतुत्वात् , तथा चागमः-"तो लेसा
(१६) च्यादिपरिणतिश्च जीवानां लेश्यावशतो भवतीति श्रो अविसुजानो तो विसुद्धाश्रो तश्रो पसत्थाओ तो
तन्निबन्धनकर्मकारणत्वात् तासामिति नारकादिपदेषु लेअपसस्थाओ तो संकिलिट्ठाभो तो असंकिलिट्ठाश्रोतो
श्यात्रिस्थानकावतारेण निरूपयन्नाहदुग्गतिगामियानो तो सुगतिगामियाश्रो " । अत एव
गरइयाणं तो लेस्साओ पामत्ताओ, तं .जहा-कण्हएताभिस्तिसृभिः-तैजस्यादिलेश्याभिर्जीवः ' सुगति 'लेस्सा नीललेस्सा काउलेसा १, असुरकुमाराणं तो ति सुगतिम्-देवमनुष्यगतिलक्षणां मुक्ति वोपपद्यते, यद्वा-| लेस्साओ संकिलिट्ठाश्रो परमत्ताओ, तं जहा-कएहलेस्सा प्राग्वत्सुगती उत्पद्यते-जायते, तथाविधायुर्वन्धतः सकलकर्मापगमतश्चेति सूत्रद्वयभावार्थः । उत्त० ३४ अ०।
नीललेस्सा काउलेस्सा २ एवं जाव थणियकुमाराणं (१८) अधुना परिणामद्वारमभिधित्सुराह
११, एवं पुढवीकाइयाणं १२, आउवणस्सइकाइयाण वि कएहलेस्सा णं भंते ! कतिविहं परिणामं परिणमति ?,
१३-१४, तेउकाइयाणं १५, वाउकाइयाणं १६, ईगोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसविहं वा एक्का
दियाणं १७,तेइंदियाणं १८, चरिंदियाण वि १६, तो सीतिविहं वा वि तेयालदुसतविहं वा बहुयं वा बहुविहं वा
लेस्सा जहा णरइयाणं । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तो
लेस्साओ संकिलिट्ठाओ परमत्ताओ, तं जहा-कएहलेस्सा परिणामं परिणमइ, एवं जाव सुक्कलेसा । (सू०२२8+)
नीललेसा काउलेसा२०। पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तो 'कराहलेसा ण' मित्यादि, अत्र ' कइविहं परिणाम' इत्यत्र प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे द्वितीया द्रष्टव्या, यथा श्रा-|
लेसाओ असंकिलिट्ठाओ पामत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा चाराने-"अगणि ( च खलु ) पुट्ठा" इत्यत्र, ततोऽयमर्थः- पम्हलेस्सा सुक्कलेसा, २१, एवं मणुस्साण वि २२, वाकृष्णलेश्या णमिति वाफ्यालङ्कारे भदन्त ! कतिविधेन प-| णमंतराणं जहा-असुरकुमाराणं २३, वेमाणियाणं तो रिणामेन परिणमति ?, भगवानाह- गोयमा ! तिविहं
लेस्साओ पम्मत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुवा' इत्यादि, इह त्रिविधो-जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन नव
कलेस्सा २४ । [सू० १३२] विधो यदेषामपि जघन्यादीनां स्वस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येकं जघन्यादित्रयेण गुणना, एवं पुनः पुनस्त्रिकगुणनया
'नेररयाणं' इत्यादि, दण्डकसूत्रं कण्ठ्यम् , नवरम् । 'नेरइसप्तविंशतिविधत्वम् एकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशद
याणं तो लेस्साओ'त्ति एतासामेव तिसृणां सद्भावादविशेधिकशतद्वयविधत्वं बहुत्वं-बहुविधत्वं भावनीयम् , स
षणो निर्देशः, असुरकुमाराणान्तु चतसृणां सद्भावात् संक्लिष्टा र्वत्र च तृतीयार्थे द्वितीया , ततत्रिविधेन वा परिणामेन
इति विशेषितं चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, किन्तु-सा न परिणमति नवविधेन वा रत्येवं पदानां योजना कतव्या ।
सक्लिष्टेति पृथिव्यादिष्वसुरकुमारसूत्रार्थमतिदिशन्नाह'एवं जाव सुक्कलेसा' इति एवं-कृष्णलेश्यागतेन प्र
'एवं पुढवी' इत्यादि पृथिव्यब्बनस्पतिषु देवोत्पादसम्भकारेण नीलादयोऽपि लेश्यास्तावद्वक्तव्याः यावत् शुक्लले
वाच्चतुर्थी तेजोलश्याऽस्तीति सविशेषणो लेश्यानिर्देशोऽतिश्याः । सूत्रपाठस्तु सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयः । प्रशा०
दिष्टः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु तु देवानुत्पत्त्या तद१७ पद ४ उ०।
भावाभिर्विशेषण इति, अत पवाह-'तो' इत्यादि, पञ्चेतिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहिक्कसीओ वा ।
न्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च षडपीति संक्लिष्टाऽक्लिष्टवि
शेषणतश्चतुःसूत्री नवरं मनुष्यसूत्रेऽतिदेशनोक्त इति व्यदुसओ तेयालो वा, लेसाणं होइ परिणामो ॥२०॥
न्तरसूचे संक्लिष्टा वाच्या अत एवोक्तम् । 'वाणमंतरे' स्यात्रिविधो नवविधो वा ' सत्तावीसइविहिक्कसीओ व ' ति दि। वैमानिकसूत्रं निर्विशेषणमेव, असंक्लिष्टस्यैव त्रयस्य विधशब्दो वाशब्दश्चोभयत्र संबध्यते, ततश्च सप्तविंशति-| सद्भावात् , व्यवच्छेद्याभावेन विशेषणायोगादिति ज्योति
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(६-६) अभिधान राजेन्द्रः ।
लेसा
लेसा
कसूत्रं नोम् तेषां तेजोलेश्याया एव भावेन त्रिस्थानकानवतारादिति । स्था० ३ ठा० १ उ० । (२०) लक्षणद्वारम् -
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रा एतद्योगाः पञ्चाश्रयममत्तत्वादयस्तैः समिति-शमाङित्यभिष्याया युक्त:- अन्वितः एतद्योगसमायुक्त, कृष्णश्यां तु अवधारणे कृष्णलेश्यामेव परिणमेत्तद्रव्यपंचासवप्पमतो तीहि अगुतो वस्तु अविरओ व । साचियेन तथाविधद्रव्यसम्पर्कात्स्फटिकवलपरास तिव्वारंभपरिणय, खुद्द साहस्सियो नरो ॥ २१ ॥ पतां भजेत् उक्तं हि " कृष्णादिद्रव्यसाचिन्या परिसामो यो आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते निर्द्धधसपरिणामा निस्संसो अजिइंदियो । ॥ १ ॥ " एतेन पञ्चाश्रवप्रमत्तत्वादीनां भावकृष्णलेश्यायाः एयजोगसमाउत्तो, करहलेसं तु परिणमे ।। २२ ।। सद्भायोपदर्शनादमीषां लक्षत्यमुक्तम्, यो हिसाव एव इस्साअमरिसतो, अजिमाया महीरिया | भवति स तस्य लक्षणं पयः एवमुत्तरचापि लक्षणगेही पोसे व सटे, रसलोलुए सायगवेसए य ।। २३ ॥ स्वभावना कायौ । नीललेश्यालक्षणमाह-ईर्ष्या च परगुणासहनम् अमर्षध- अत्यन्ताभिनिवेशः, अपक्ष-तपोविपर्ययः आरंभा अविरओ, खुदो साहस्सिओ नरो । अमीषां समाहारनिर्देश, 'अचिज' ति अविद्या-कुशाखरूपा एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ।। २४ ।। माया वञ्चनात्मिका सटीकताच समाचारविषया निलबँके कसमायारे, नियडिले अज्नु । जता वृद्धि:-अभिका विषयेष्विति गम्यते, प्रद्वेषय-प्रवे पलिउंचग ओहिए, मिच्छदिडी असारिए ।। २५ ।। षः मतुब्लोपादभेदोपचाराद्वा सर्वत्र तद्वान् जन्तुरुच्यते श्रत एव शठः अलीकभावात् प्रमत्तः प्रकर्षेण जात्यादिमाय उप्फालगवाई य, तेणे अविष मच्छरी । नात् पाठान्तरतः शठश्च मत्तः, तथा रसेषु लोलुपो-लम्प एक्जोगसमाउतो, काउलेसं तु परिणमे ।। २६ ।। टो रसलोलुपः, सातं सुखं तद्ववेषकश्च कथं मम सुखं नीमवित्ती अचवले, अमाई अकुहले । स्वादिति बुद्धिमान् रम्भात्प्रापमर्दात् अविरतःविवि दंते, जोगवं उपहासवं ।। २७ ।। अनिवृत्तः साहसिको नरः, एतद्योगसमायुको नीलश्यपरिसमे तु प्राम्यत् पुनरर्थो वा ४ यः पचसा पियधम्मे दधम्मे, वज्जभीरूहिए सए । 'बक्रसमाचारः क्रियया, निकृतिमान् मनसा, अनुजुक एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ॥ २८ ॥ चिजूकर्तुमशक्यतया 'पलिउंचग' त्ति प्रतिकुञ्चकः-स्वपशुको हमाणो य, मायालोभे य पयणए । दोषमच्छादकतया उपधिः स तेन चरत्यधिकः, सर्वअ व्याजतः प्रवृत्तेः एकार्थिकानि तानि नानादेशजपसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ २६ ॥ विशेषानुप्रायोपात्तानि मिथ्यादृष्टिरनाश्ध प्राग्वत्, 'उ तहा य पयगुवाई य, उवसंते जिइंदिए । फालगति उत्प्रासकं यथा पर उत्प्रास्यते दुष्टं च रागाएक्जोगसमाउतो, पम्हलेनं तु परिणमे ॥ ३० ॥ दिदोषषद्यथा भवत्येवं वदनशील उत्प्रासकदुष्टवादी, बा अट्टहाणि वञ्जित्ता, धम्मसुकाणि साहए । समुच्चये स्तेनः-- वीराः चः प्राग्वत् अपि च-इति पूरणे पसंतचित्ते, दंतप्पा समिए गुणे व गुतिसु ॥ २१ ॥ मत्सरः परसम्पद सहनं सति वा वित्ते त्यागाभावः, तथा सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइंदिए । चाहुः शाब्दिकाः - " परसम्पदामसहनं, वित्ताऽत्यागश्च मत्सरो वः" इति तद्वान् मत्सरी, एतद्योगसमायुक्तः एयजोगसमाउलो, सुकलेसं तु परिणमे || ३२ ॥ कापोतलेश्यां ' तुः' इति पुनः परिणमेत् ॥ णीयावित्ति' ति पञ्चाश्रवाः - हिंसादयस्तैः प्रमत्तः - प्रमादवान् पञ्चाश्रवमनीचैर्वृत्तिः - कायमनोवाग्भिरनुत्सिक्तः श्रचपलः - चापलानुमत्तः पाठान्तरतः पञ्चाश्रवप्रवृत्तो वा श्रतस्त्रिभिः प्रस्तावापेतः अमापी - शायानम्बितः अकुतूहल:- कुहकादिष्यमनोचाकाः प्रगुप्तः अनियन्त्रितो मनोगुप्त्यादिरहित - कौतुकarta एव विनीतविनयः - स्वभ्यस्तगुर्वाचितप्रत्वर्थ तथा षट्सु पृथ्वीका यादिषु अविरत अनिवृत्तस्ततिपत्तिः, तथा दान्तः इन्द्रियदमेन योगः - स्वाध्यादुपमर्दकत्वादेरिति गम्यते, अयं चातीयारम्भोऽपि स्वायादिव्यापारस्तद्वान् उपधानपान – विहितशास्त्रोपचारः दत श्राह तीव्रा- उत्कटाः स्वरूपतोऽध्यवसायतो वा श्रारप्रियधर्मा अभिरुचितधर्मानुष्ठानः प्रदधर्मा म्भाः - सावद्यव्यापारास्तत्परिणतः - तत्प्रवृत्त्या तदात्मतां- तादिनिहरू किमित्येयम् है यतः 'वज्र' विम्प्रागतः, तथा शुद्रः सर्वस्यवाहितैषी कार्यवासकृतत्वादकारलोपे अर्थ बोभयत्र पापं तद्भीरुः हितेहसा - पर्यालोच्य गुणदोषान् प्रवर्त्तत इति साहसिकः, पक:-मुकिगवेषकः, पाठान्तरतो- हिताशयो वा परोपकाचौर्यादिकृदिति योऽर्थः, नरः - पुरुषः उपलक्षणत्वात्स्त्र्या- रचेताः पठ्यते च श्रणासवे' ति तत्र च न विद्यन्ते दिवांधि ति अत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायश्राश्रवा-हिंसादयो यस्यासायनावः एतद्योगसमायुक्तशङ्काविकलोऽत्यन्तं जन्तुबाधानपेतो वा परिणामोऽध्य- स्तेजोलेश्यां तु परिणमेत् । प्रतन्- अतीवाल्पी कोषमावसायो वा यस्य स तथा णिस्संसो ' त्ति नृशंसः- नौ यस्य स तथा चः -पूरणे, माया लोभश्च उक्तरूपः । निस्तृशो जीवान् विहिंसन् मनागपि न शङ्कते, निःशंशो प्रतनुको यस्येति शेषः श्रत एव प्रशान्तं - प्रकर्षेणोपया परप्रशंसारहितः अजितेन्द्रियः अनिगृहीतेन्द्रियः प्र शमवचित्तमस्येति प्रशान्तचित्तः, दान्तः अहितप्रवृत्तिनिन्ये तु पूर्वोत्तरार्द्धस्थान इदमधीयते तच्चेहेति, उपसं वारणतो वशीकृत आत्मा येन स तथा योगवानुपधानहारमाह-पते व ते अनन्तरोका योगाध मनोवाक्कायव्यापावानिति च प्राग्वत् तथा प्रतनुवादी स्वरूपभाषा
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ऐसा
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दो मिश्रक्रमो यो उपशान्तः अनुद्भस्तयोपशान्ता कृतिः जितेन्द्रियश्च वशीकृताक्षः एतद्योगसमायुक्तः पद्मलेश्यां तु परिणमेत् ॥ आर्सरीदे उक्तरूपे ध्याने वर्जयित्वा परिहत्य धर्म-प्रागुक्रे पव शुभभ्याने साधयेत् सतताभ्यासतो निधारयेत् यः कीदृशः सन् ? इत्याह-प्रशान्तचित्तो दान्तात्मेति च प्राग्वत् पाठाम्वरता ध्यायति यो विनीतविनयो दान्तः समितः- समितिमान् गुप्तश्च निरुद्धसमस्तव्यापारः गुप्तिभिः- मनोगुप्त्यादिभिः, तृतीयार्थे सप्तमी, स च सरागः अशीखानुपशान्तकषायतया वीतरागो वा ततोऽन्य उपशान्तः, पाठान्तरतः शुद्धयोगो वा- निर्दोषव्यापारो जितेन्द्रियः प्राग्वत् स एतद्योगसमायुक्तः शुक्रलेश्यां तु परिणमति रह च शुभलेश्या केपाचिद्विशेषणानां पुनरुपादानेऽपि लेश्यान्तरविषयत्वादपौनरुक्त्यम्, पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरेषां विशुद्धितः प्रकृष्टत्वं च भावनीयम विशिलेश्या वा पेय लक्षणाभिधानमिति न देवा दिभिर्व्यभिचार प्राशङ्कनीय इति द्वादशसूत्रार्थः । उ० ३४ अ० ।
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( ६१० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
1
(२०) सम्प्रति प्रदेशद्वाराभिधित्सया प्राहकहलेसा गं भंते ! कतिपदेसिया पन्नत्ता १, गोयमा ! अणतपदेसिया पन्नत्ता, एवं ० जाव सुकलेस्सा | (०२२६+) 'कराइलेसा से भेते कपसिया इत्यादि सुगमम् नबरम जन्तप्रदेशिकेति- अनन्तानन्तसंयोपेताः प्रदेशाः तद्योग्याः परमाणवो यस्याः कृष्णलेश्यायाः कृष्णलेश्याद्रव्यसंघातस्य सा अनन्तप्रदेशिका, अन्यथा - अनन्तप्रदेशव्यतिरेकेण स्कन्धस्य जीवग्रहणयोग्यताया एवाभावात् एवं नीलादयोऽपि लेश्या वक्तव्याः, तथा चाह-' एवं० जाव सुक्कलेसा' इति ॥ प्रज्ञा० १७ पत्र ४ उ० ।
"
अवगाहनाद्वारमाह
कहलेस्सा णं भंते ! कतिपएसोगाढा पष्मत्ता १, गोयमा ! असंखेज्जा पएसोगाढा पत्ता, एवं० जाव सुकलेसा । ( ० २२६ X)
: करइलेस्सा गं भंते !' इत्यादि इह प्रदेशा:- क्षेत्र प्रदेशाः प्रतिपचम्यास्तेष्वेवावगाहप्रसिद्धेः ते चानन्तानामपि वर्गणानामाधारभूता असंख्येया एव द्रष्टव्याः सकलस्यापि लोकस्य प्रदेशानामसंख्यातत्वात् ।
वर्गणाद्वारमाहकरहलेस्साए णं भंते ! केवतिया
वग्गणात्र पम१, गोमा ! ताओ वग्गणाओ एवं० जाव सुकलेसाए (सू० २२६ X )
'कलेसा से भंते! केवहयाचो बम्मणाओ इत्यादि इह वर्गणा श्रदारिकशरीरप्रायोग्य परमाणुवर्गणावत कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यपरमाणुषणा गृह्यन्ते ताथ वर्णादिभेदेन सामानजातीयानामेकसङ्गावादनन्ताः प्रायेता एवं मीललेश्यादीनामपि वर्गणाः प्रत्येकं वक्तव्यास्तथा चाह'एवं० जाव सुक्कलेस्साए ' इत्यादि । प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० । (२१) अधुना स्थानद्वारमनिधित्सुराह केवतिया णं भंते! कण्हलेस्साणं ठाणा पद्मता ?
,
लेसा
गोयमा ! असंखेजा कण्डलेस्सायं ठाया पद्मचा, एवं० जाव सुकलेस्सा ।
2
'केवइया गं भंते ! करहलेसां ठाणा पत्रता' कियम्ति भदन्त ! कृष्णलेश्यास्थानानि - प्रकर्षापकर्षकृताः स्वरूपभेदाः प्रज्ञतानि ? सूत्रे च पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् इह यदा भावरूपाः कृष्णादयो लेश्याश्विन्त्यन्ते तदा एकैकस्या लेश्यायाः प्रकर्षापकर्षकृतस्वरूपभेदरूपाणि स्थानानि कालतो सत्यवसर्पिणीसमय प्रमाणानि तो स स्पेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, उलं " असंलेखास्व-पिणीण अवसविशीत जे समया । संखाईया होगा, लेस्साएं होंति ठाणारं ॥ १ ॥ " नवरमशुभानां संक्लेशरूपाणि शुभानां च विशुद्धरूपाणि, एतेषां च भावलेश्यागतानां स्थानानां यानि कारवभूतानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि ताम्यपि स्थानाम्युच्यन्ते तान्येव वह प्रायाणि कृष्णादि इव्याणामेवेदोदेश के चिम्यमानत्वात् तानि च प्रत्येकमसंख्येपानि तथाविधक परिणामनिबन्धनानामनन्तानामपि द्रव्याणामेकाध्यवसायहेतुत्वेनैकत्वात्, तानि च प्रत्येकं द्विविधानि तद्यथा - जघन्यान्युत्कृष्टानि च, जपन्थलेश्यास्थानपरिणामकारणानि जधम्यानि, उत्कृलेश्यास्थानपरि णामकारणान्युत्कृष्टानि यानि तु मध्यमानि तानि जघन्यप्रत्यासनानि जघन्येष्यन्तभूतानि उत्कृष्टमवासनानि तुफ ऐषु एकैकानि च स्वस्थाने परिणाम गुणभेदतो ऽसंस्थेयानि, अत्र दृष्टान्तो यथा स्फटिकमणेरलक्लकवशेन रक्तता भवति, सा च जघन्यरक्ततागुणालक्लकवशेन जघन्यरक्लता, एकगुणा( धिका ) लक्लकवशेनैकगुणाधिकजघन्या, एवमेकैकगुणवृद्धया जघन्यायामेव रक्तायामसंख्येयानि स्थानानि भवन्ति तानि च व्यवहारतः स्तोकगुरात्यात् सर्वाख्यपि जघ न्यान्येयोच्यन्ते एवमात्मनोऽपि जघन्यैकगुणाधिकद्विगुणाधिकलेश्याद्रव्योपधानवशतो लेश्यापरिणामविशेषा असंस्पेया भवन्ति, ते च सर्वेऽपि व्यवहारतोऽल्पगुणत्वात् जयम्यभ्यपदेशं लभन्ते तत्कारणभूतानि च द्रव्याणामपि स्थानानिजघन्वानि चमुत्कृष्टाम्यपि स्थानान्यसंस्थेयानि भावनीयानि । प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० ।
ग्रन्थान्तरतः पुनः स्थानद्वारमाह
अस्संखिञ्जाणोसप्पिणी उस्सप्पिणी जे समया । संखाईया लोगा, लेसाण हवंति ठाणाई || ३३ ॥ असंख्येयानां संख्यातीतानाम् श्रवसर्पन्ति - प्रतिसमयं कालप्रमाण जन्तूनां या शरीरायुप्रासादिकमपेक्ष्य हा समनुभवन्यपश्यमित्यवसर्पियो दशसागरोपमकोटीकोपरिमाणास्तासां तथा तत्परिमाणानामेव उत्सर्पतिन्यायता वृद्धिमनुभवन्ति अवश्यमित्युत्सर्पिण्यस्तामां ये समयाः परमनिरुद्ध काललक्षणाः कियन्त इत्याह-सं ख्यातीताः पाठान्तरतोऽसंख्येया वा लोका असंख्येयलोप्रमितत्वेन यथा दशमस्थप्रमितत्वेन ग्रीडयो दशप्रस्थाः, ततोऽयमर्थः असंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणानि लेश्यानां भवन्ति स्थानानि प्रकर्षापकर्षकृतानि, अशुभानां संक्लेशरूपाणि, शुभानां च विशुद्धिरूपाणि तत्परिमाणानीति शेषः, यद्वा - असंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीनां ये समया ग
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खेसा अभिधानराजेन्द्रः।
खेसा म्यमानत्वात्तावन्ति लेश्यानां भवन्ति स्थानानीति कालतो:- स्पष्टमेव, नवरम् अोधेन इति-सामान्येन गतिभेदाकि संख्याता लोका इति च क्षेत्रतः स्थानमानमेवोक्तमिति - वक्षयेति यावत् , चतसृष्वपि गतिषु-नरकगत्यादिनु त्रार्थः । उक्तं स्थानम् ।
प्रत्येकमिति शेषः, 'अतः' इत्योपस्थितिवर्णनानन्तरमि(२२) इदानी स्थितिमाह
ति सूत्रार्थः॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तित्तीसा सागरा मुहुत्तऽहिया ।
प्रतिक्षातमेवाहउकोसा होइ ठिई , नायव्वा किएहलेसाए ॥ ३४ ॥ दसवाससहस्साई, काऊड ठिई जहनिया होइ। मुहुत्तद्धं तु जहन्ना,दस उदहिपलियमसंखभागमभहिया।। तिनोदहि पलियमसं-खेजमागं च उक्कोसा ॥४१॥ उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा नीललेसाए ॥ ३५॥ तिएणुदहीपलिभोवम-मसंखभागो जहन्ननीलठिई। मुहुत्तद्धं तुजहमा,तिएणुदही पलियमसंखभागमब्भहिया।। दसउदहीपलिभोवम-मसंखभागं च उक्कोसा ॥४२॥ उक्कोसा होइ ठिई, नायब्वा काउलेसाए ॥ ३६ ॥ दसउदहीपलिओवम-मसंखभागं जहनिया होइ । मुहुत्तद्धं तु जहन्ना,दोण्हुदहीपलियमसंखभागमभहिया। तित्तीससागराई, उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ ४३ ॥ उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा तेउलेसाए ॥ ३७॥ | एसा नेरइयाणं, लेसाणं ठिई उ वलिया होइ । मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दसउदही होइ मुहुत्तमम्भहिआ। । तेण परं वुच्छामि, तिरियमणुस्साण देवाणं ॥४४॥ उकोसा होइ ठिर्ड , नायव्वा पम्हलेसाए ॥ ३८॥ अंतोमुहुत्तमद्धं, लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ। मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तिचीसं सागरा मुहुत्तहिया। तिरियाणं नराणं वा, वजित्ता केवलं लेसं ॥ ४५ ॥ उक्कोसा होइ लिई , नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ ३६॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुवकोडी उ । मुहर्तस्या? मुहूर्ताद्धः , तत्कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, नवहि वरिसेहि ऊणा, नायव्वा सुक्कलेसाए ॥४६॥ यह च समप्रविभागस्याविवक्षितत्वादन्तर्मुहूर्त्तमित्युक्तं एसा तिरियनराणं, लेसाण ठिई उ वलिया होइ । मवति, तुः-अवधारणे, ततो मुहर्तार्द्धमेव जघन्या 'ते
तेण परं बुच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणं ॥ ४७ ।। तीस' त्ति-त्रयस्त्रिंशत् 'सागराई' ति पदैकदेशेऽपि पद प्रयोगदर्शनात्सागरोपमाणि 'मुहुत्तऽहिय' ति इहोत्तरत्र दसवाससहस्साई, किण्हाए ठिई जहन्निया होइ । च मुहूर्त्तशम्देन मुहूत्तैकदेश एवोक्तः, समुदायेषु हि प्रवृ- पलियमसंखिजइमो, उक्कोसो होइ किएहाए ॥४८॥ साः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते , यथा-ग्रामो दग्धः पटो
जा किएहाइ ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमन्भहिया। दग्धः इति, ततश्चान्तर्मुहूर्ताधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितिर्जातव्या कृष्णलेश्यायाः । इह चान्तर्मुहूर्तस्यासंख्येयभे
जहन्ने] नीलाए, पलियमसंखं च उकोसा ।। ४६ ॥ दत्वादन्तर्मुहूर्तशब्देन पूर्वोक्षरभवसम्बन्ध्यन्तर्मुहर्तद्वयमुक्तं जा नीलाइठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । द्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि । मुहूर्तार्द्धस्तु जघन्या 'दशे' ति जहन्ने] काऊए, पलियमसंखं च उक्कोसा ॥ ५० ॥ दशसंख्यानि उदधय इत्युक्तन्यायनोदध्युपमानि, कोऽर्थः ?सागरोपमाणि 'पलिय' ति तथैव पल्योपमं तस्यासंख्य
तेण परं वुच्छामि, तेऊलेसा जहा सुरगणाणं । भागस्तेनाधिकानि पल्योपमासंख्येयभागाधिकान्युत्कृष्टा भ.
भवणवइवाणमंतर-जोइसवेभाणियाणं च ।। ५१॥ वति स्थितिर्शातव्या नीललेश्यायाः नन्वस्या धूम्रप्रभो
पलिभोवमं जहन्ना, उक्कोसा सागरा उ दुपहहिया । परितनप्रस्तट एव सम्भवः तत्र च 'अंतो मुत्तम्मि गए' पलियमसंखिजेणं, होई भागेण तेऊए ॥५२॥ त्यादिवक्ष्यमाणन्यायतः पूर्वोत्तरभवान्तर्मुहूर्तद्वयपल्योपमा
दसवाससहस्साई, तेऊए ठिई जहनिया होइ । संख्ययभागाभ्यधिकदशसागरोपमपरिमाणैवासी किं नोका ?, उच्यते, उक्तव, पल्योपमासंख्येयभाग । एव तस्या
दुन्नुदही पलिओवम-असंखभागं च उक्कोसा ॥ ५३॥ प्यन्तर्मुहर्तद्वयस्यान्तर्भावात् , तदसंख्येयभागानां चास- जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमन्भहिया । ख्येयभेदत्वादिहैतावत्परिमाणस्यैवास्य विवक्षितत्वान्न वि- जहन्ने] पम्हाए, दसमुमुत्ताऽहियाई उक्कोसा ॥ ५४ ।। रोधः, एवमुत्तरत्रााप भावनीयम् । अक्षरसंस्कारस्तूत्तरेषु
जा पम्हाइ ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमन्भहिया । कृत एव, नवरं त्रय उदधयः सागरोपमाणि द्वादधी-द्वे सागरोपमे , दशोदधयो-दशसागरोपमाणि, तेत्तीसं'
जहन्ने] सुक्काए, तित्तीसमुहुत्तमम्भहिया ॥ ५५॥ ति , त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, पठन्ति च सर्वत्र ' मुहुत्त
दशवर्षसहस्राणि कापोतायाः स्थितिजघन्यका भवति, द्धाउ'त्ति तत्र मुहूर्त (धि) शब्देन प्राग्वदन्तर्मुहर्तस्यो
त्रय उदधयः ' पलियमसंखेजभागं च ' त्ति सूत्रत्वात्
पल्योपमासङ्ख्ययभागं चोत्कृष्टा , पठन्ति च-' उक्कोसा नत्वादन्तर्मतकालमिति सूत्रषट्रार्थः ।
तिन्नुदही, पलियमसंखेजभागाऽहिय' ति स्पष्टम् , इयं सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह
च जघन्या रत्नप्रभायाम् , तस्यां हि जघन्यतोऽपि दशवएसा खलु लेसाणं, आहेण ठिई उ वलिया होई।
र्षसहस्राण्यायुरिति , उत्कृष्टा च वालुकाप्रभायाम् , तत्राचउसु वि गईसु इत्तो, लेसाण ठिई उ वृच्छामि ॥४०॥ । प्युपरितनप्रस्तटनारकाणामेव, तेषामेतावस्थितिकानामसा
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(६६२) लेसा अभिधानराजेन्द्रः।
लेसा विति भावनीयम् । त्रय उदधयः पल्योपमासंख्येयभागश्च, क्येयतमः प्रस्तावाद् भाग उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः मकारस्यालक्षणिकत्वात् चस्य गम्यमानत्वाजघन्या नीला-1 स्थितिरिति प्रक्रमः, एवंविधषिमध्यमायुषामेव भवनपतियाः स्थितिर्दशोदधयः पल्योपमासंख्येयभागधोत्कृष्टा, ह ज्यन्तराणामियं द्रष्टव्या । सम्प्रति नीलायाः स्थितिमाहहापि जघन्या वालुकाप्रभायामेतावत्स्थितिकानामेव, उ- या कृष्णायाः स्थितिः 'खलु:-वाक्यालङ्कारे ' उत्कृष्टात्कृष्टा च धूमप्रभायामुपरितनप्रस्तटनारकाणाम् , तत्रापि अनन्तरमुक्तरूपा 'साउ' ति सैव ' समयमभाहिय' येषामेतावती स्थितिरिति मन्तव्या, इहोत्तरत्र च पाठा- ति समयाभ्यधिका जघन्येन नीलायाः, 'पलियमसंखिज' न्तरं दृश्यते, तत्र च जघन्यस्थितिः समयाधिकत्वमुक्तं त. ति प्राग्वत्पल्योपमासंख्येयश्च भाग उत्कृष्टा स्थितिनवरच्चन बुध्यत इति, न तद्व्याख्या, दशोदधयः पल्योप- मनहेतोरेव बृहत्तरोऽयमसंख्येयभागो गृह्यते । या नीमासंख्येयभागो जन्यिका भवति प्रक्रमात्स्थितिः कृ- लायाः स्थितिः खलूत्कृष्टा ' साउ' त्ति सैव समयाष्णाया इति सम्बन्धः, अस्याश्च धूमप्रभायामेतावत्स्थि- भ्यधिका जघन्येन कापोतायाः पल्योपमासंख्येयश्च भाग तिकेष्वेव नारकेषु सम्भवः, प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उ- उत्कृष्टा स्थितिः, एतावदायुषामेव भवनपतिव्यन्तराणामिमे स्कृष्टा भवति कृष्णायाः स्थितिरितीहापि प्रक्रमः, इय मन्तव्ये, इहाप्युक्तहेतोरेव पूर्वस्माद बृहत्तरोऽसंख्यातभागः च महातमःप्रभायाम् , तत्रैवैतावत्प्रमाणस्यायुषः संभवात् , | परिगृह्यते । इत्थं निकायद्वयभाविनीमाद्यलेश्यात्रयस्थिइह च नारकाणामुत्तरत्र च देवानां द्रव्यलेश्यास्थितिरे- निमुपदर्य समस्तनिकायभाविनी तेजोलेश्यास्थितिमवैवं चिन्त्यते तद्भावलेश्यानां परिवर्त्तमानतया अन्यथाऽपि | भिधातुं प्रतिज्ञासूत्रमाह- तेण ' ति ततः परं प्रवस्थितेः सम्भवात् , उक्तं हि-" देवाण नारयाण य, क्ष्यामि तेजोलेश्याम् , ' यथे 'ति-येनावस्थानप्रकारेण सुरदव्यलेसा भवंति एयाओ । भावपरावत्तीए, सुरणेरइया-- गणानां भवति तथेत्युपस्कारः, किमन्यतरनिकायानामेवाण छल्लेसा ॥१॥" पूर्वोक्तं निगमयन्नुत्तरं च ग्रन्थं प्रस्ता- मीषामुतान्यथेत्याह-भवनपतिवाणमन्तरज्योतिर्वैमानिकाचयनिदमाह-एषा-अनन्तरोना निरये भवा नैरयिका-1 नां चतुर्निकायानामिति योऽर्थः, चः-परणे, प्रतिक्षातमेस्तेषां संबन्धिनीनां लेश्यानां स्थितिः-अवस्थितिः तुः- वाह-पल्योपमं जघन्या उत्कृष्टा 'सागर' ति सागरोपमै पूरणे, वर्णिता-आख्याता भवति 'तेण' त्ति सूत्रत्वात् तुः-प्राग्वत् द्वे-द्विसंख्ये राधिके-अर्गले , कियतेततः परमिति-अग्रतो वक्ष्यामि प्रक्रमालेश्यानां स्थि- त्याह-पल्योपमासंख्येयेनेति योगः, भवति तैजस्याः स्थितिम् , तिर्यग्मनुष्याणां तथा-देवानाम् ॥ यथाप्रतिक्षातमे- तिरिति प्रक्रमः, इयं च सामान्योपक्रमेऽपि वैमानिकनिकावाह-'अंतोमुहुत्तमद्धं' ति अन्तर्मुहार्दाम्-अन्तर्मुहर्स- यविषयतयैव नेया, तत्र च सौधर्मेशानदेवानां जघन्यत कालं लेश्यानां स्थितिर्जघन्योत्कृष्ट चेति शेषः, कतरा उत्कृष्टतश्चैतावदायुषः सम्भवात् , उपलक्षणं चैतच्छेषनिसौ? इत्याह-यस्मिन् इति-पृथिवीकायादौ संमूर्छिममनु- कायतेजोलेश्यास्थितेः, ततश्च भवनपतिव्यन्तराणां जघध्यादौ च याः कृष्णाद्याः तुः-पूरणे तिरश्चां मनुष्याणां न्यतो दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टतस्तु भवनपतीनां सागमध्ये संभवन्ति तासाम्, एता हि कचित्काश्चित्संभव- रोपममधिकं, व्यन्तराणां च पल्योपम, ज्योतिषकाणां तु स्ति , यत श्रागमः-"पुढवीकाइया ण भंते ! कह । जरान्यतः पल्योपमाष्टभागः, उत्कृष्टतस्तु वर्षलक्षाधिकं पलेसातो पन्नत्ताश्रो ?, गोयमा ! चत्तारि लेसाओ, ल्योपमम् , एतावन्मात्राया एवैषां जघन्यत उत्कृष्टतश्चायु:नं जहा-कराहलेसा० जाव तेउलेसा, प्राउवणप्फइकाइयाण स्थितेः सम्भवात् । ' दसवाससहस्साई,' इत्यादि स्पष्टवि एवं चेव , तेउवाउबेइदियतेइंदियचउरिदियाण जहा
मेव, नवरमनेन निकायभेदमनङ्गीकृत्यैव लेश्यास्थितिरुका । नेरइयाण, पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा !
इह च दशवर्षसहस्राणि जघन्या तेजस्याः स्थितिरभिहिता, छ लेसानो कराहा. जाव सुक्कलेसा । मगुस्साणं पुच्छा, प्रक्रमातुरूपेण तु योत्कृष्टा कापोतायाः स्थितिरसावेवास्याः गोयमा! छ एयानो चेव समुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, समयाधिका प्रामोति, अधीयते च केचनानन्तरसूत्रत्रयस्थाने गोयमा ! जहा नेरइयाणं" ।। नन्वेवं शुक्ललेश्याया अपय- 'जा काऊ टिई खलु उक्कोसे' त्यादि तदा तत्त्वं न विनः । न्तर्मुहर्समेव स्थितिः प्राप्तत्याशङ्कथाह-वर्जयित्वा केव- पनायाः स्थितिमाह-या तेजस्याऽस्थितिः खलूत्कृष्टा 'सालां शुद्धा लेश्यां शुक्ललेश्यामिति यावत् अस्याश्च यावती- उ' ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन पद्मायाः स्थितिरिति स्थितिस्तामाह-'मुहुत्तऽद्धं तु' ति प्राग्वदन्तर्मुहूर्तमेव ज- | प्रक्रमः, 'दश तु' इति दशैव प्रस्तावात्सागरोपमाणि मुहधन्या उत्कृष्टा भवति पूर्वकोदी तुः-विशेषणे, स च | ाधिकान्युत्कृष्टा, इयं च जघन्या सनत्कुमारे उत्कृष्टा च जघन्यस्थित्यपेक्षयाऽस्या उनमेव विशेष द्योतयति, नवभि- ब्रह्मलोके, तयोरेवैतदायुष्कसंभवात् , श्राह-यदीहान्तर्मुवर्षयूंना सातव्या शुक्ललश्यायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, इह हूर्तमधिकमुच्यते ततः पूर्वत्रापि किं न तदधिकमुच्यते ? च यद्यपि कश्चित्पूर्वकोट्यायुरष्टवार्षिक एव व्रतपरिणाम- देवभवलेश्याया एव तत्र विवक्षितत्वात् , प्रतिक्षातं हि माप्नोति तथाऽपि नैतावद्वयःस्थस्य वर्षपर्यायादक शु- 'तेण परं वोच्छामि, लेसाण दिई तु देवाण' ति, एवं सतीक्लेश्यायाः सम्भव इति नवभिन्यूना पूर्वकोटिरुच्यते । हान्तर्मुहर्ताधिकत्वं विरुध्यते, न अभिप्रायापरिशानात् , 'एसा' सूत्र स्पष्टमेव । प्रतिज्ञातानुरूपमाह-दशवर्षसहस्रा- अत्र हि प्रागुत्तरभवलेश्याऽपि “ अन्तोमुत्तम्मि गए " णि कृष्णायाः स्थितिर्जघन्यका भवति, भवनपतिव्यन्तरेषु त्ति वचनाद्देवभवसम्बधिन्येवेति प्रदर्शनार्थमित्थमुक्तमिति चास्याः सम्भवस्तेषामेव । जघन्यतोऽप्येतावस्थितिक- | न विरोध इति भावनीयम् । शुक्ललेश्यास्थितिमाह-या त्वात् , उक्तं च-" दसभवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई | पद्मायाः स्थितिः खलूकृष्टा सा उत्ति सैव समयाभ्यजहन्नेण" ति, 'पलियमसंखेज्जइमो' सि पल्योपमास- | धिका जघन्येन शुक्लायाः स्थितिगिति प्रक्रमः, त्रयस्त्रि
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लेसा
अभिधानराजेन्द्रः।
सा शस् 'मुहुत्तमभहिये 'त्ति प्राग्वन्मुहर्ताभ्यधिकानि सागरो- सट्ठाणा दबट्टयाए असंखजगुणा जहमएहिंतो मुफलेपमाण्युत्कृष्टेति गम्यते अस्याश्च लान्तकाभिधानषष्ठदेव- सहाणेहिंतो दव्वट्ठयाए उकोसा काउलेसडाणा दवडलोकात्प्रभृति यावत्सर्वार्थसिद्धस्तावत्संभवः , अत्रैवैताव
याए असंखेज्जगुणा उक्कोसा नीललेसटाणा दब्बडयाए दायुषः सद्भाव इति कृत्येति पञ्चदशसूत्रार्थः । उत्त० ३४ अ०। (२३) संप्रति अल्पबहुत्वमाह
असंखेजगुणा एवं कण्हतेउपम्ह ०उक्कोसा सुक्कलेसाठाणा एएसि णं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुक्कलेसा- दबट्ठयाए असंखेज्जगुणा । पएसट्टयाए सम्वत्योवा ठाणाण य जहबगाणं दव्वट्ठयाए, पएसट्टयाए, दव्वट्ठ
जहन्नगा काउलेसटाणा पएसट्टयाए जहनगा नीललेसपएसट्टयाए, कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला
ट्ठाणा पएसट्ठयाए असंखेजगुणा एवं जहेव दवड्डयाए वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा जहन्नगा
तहेव पएसट्टयाए वि भाणियव्वं, नवरं पएसट्टयाए ति काउलेस्साठाणा दबट्ठयाए जहन्नगा नीललेसाठाणा द
अभिलावविसेसो, दवट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवा जहनगा बट्ठयाए असंखेजगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा दन्च
काउलेसट्ठाणा दवट्ठयाए जहनगा नीललेसवाणा दब्बट्ठयाए असंखेजगुणा जहन्नतेउलेसाठाणा दवट्ठयाए
द्वयाए असंखेजगुणा एवं कण्हतेउपम्ह जहषया सुअसंखेजगुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाणा दबट्ठयाए असं
कलेसटाणा दबट्ठयाए असंखजगुणा , जहाएहितो
सुक्कलेसाठाणेहिंतो दवट्ठयाए उक्कोसा काउलेसाखेजगुणा जहन्नगा सुक्कलेसाठाणा दवट्ठयाए असंखेअगुणा पएसट्टयाए सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेसाठाणा
ठाणा दबट्ठयाए असंखेज्जगुणा उक्कोसा नीललेस्सटाणा पएसट्टयाए असंखे जहन्नगा नीललेसाठाणा पएसट्टयाए
दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा एवं कण्हतेउपम्ह ०उक्कोअसंखेजगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा पएसहयाए अ
| सगा सुक्कलेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा उक्कोसंखेजगुणा जहन्नतेउलेस्साठाणा पएसट्ठयाए असं-|
सएहिंतो सुक्कलेसट्ठाणे ०दव्वट्ठयाए जहनगा काउलेसखेजगुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाणा पएसट्टयाए अरं
ट्ठाणा पएसट्टयाए अणंतगुणा, जहन्नगा नीललेसटाणा खेज्जगुणा जहन्नगा सुकलेसाठाणा पएसट्टयाए असं- पएसट्टयाए असंखेजगुणा एवं कण्हतेउपम्ह ०जहखेज्जगुणा ॥ दव्वद्रुपएसट्टयाए सव्वत्थोवा जहन्नगा अगा सुक्कलेसट्ठाणा असंखेजगुणा, जहमएहिंतो सुक्ककाउलेसाठाणा दबट्टयाए जहन्नगा नीललेसाठाणा द
लेसाठाणेहिंतो पएसट्ठयाए उक्कोसगा काउलेसाठाणा व्बट्ठयाए असंखेज्जगुणा ।। एवं कएहलेसाठाणा तेउले-|
पएसट्टयाए असंखेजगुणा उक्कोसया नीललेसाठाणा पएस साठाणा पम्हलेसाठाणा जहन्नगा सुक्कलेसाठाणा दव्व
ट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हतेउपम्ह ०उक्कोसया ट्ठयाए असंखेजगुणा जहन्नएहिंतो सुक्कलेसाठाणेहितो
सुक्कलेसाठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा । (सू० २३०)
'एएसि णं भंते ? ' इत्यादि, इह त्रीणि अल्पबहुत्वानि, दब्वट्ठयाए जहन्नकाउलेसाठाणा पएसट्टयाए असंखेज्ज
तद्यथा-जघन्यस्थानविषयम् , उत्कृष्टस्थानविषयम् , उमगुणा जहन्नया नीललेसाठाणा पएसट्ठयाए असंखेज्ज
यस्थानविषयं च । एकैकमपि त्रिविधम् ,तद्यथा-द्रव्यार्थतया गुणा एवं जाव सुक्कलेस्साठाणा । एतेसि णं कएहले- प्रदेशार्थतया उभयार्थतया च । तत्र जघन्यस्थानविषये द्रस्साठाणाणं जाव सुक्कलेस्साठाणाण य उक्कोसगाणं व्यार्थतायां प्रदेशार्थतायां च प्रत्येकं कापोतनीलकृष्णतेजःदब्वट्ठयाए पएसट्टयाए दध्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे- पद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंख्येयगुणानि
वक्तव्यानि, उभयार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया कापोतनीहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ,
लकृष्णतेजःपनशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंस्थेगोयमा ! सव्वत्थोवा उक्कोसगा काउलेस्साठाणा दव्व- यगुणानि वक्तव्यानि, ततः शुक्ललेश्यास्थानानन्तरं प्रदेशाट्ठयाए उक्कोसगा नीललेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्ज- थतया कापोतलेश्यास्थानानि अनन्तगुणानि वक्तव्यानि , गुणा, एवं जहेव जहन्नगा तहेव उक्कोसगा वि नवरं तदनन्तरं नीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण उक्कोस ति अभिलावो । एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्सा
प्रदेशार्थतया यथोत्तरमसंख्येयगुणानि , एवमुत्कृष्टान्यपि
स्थानानि द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया उभयार्थतया च चिठाणाणं जाव सुक्कलेस्साठाणाण य जहन्नउक्कोस
न्तयितव्यानि, तथा चाऽऽह-' एवं जहेव जहन्नगा तहेव गाणं दवद्वयाए पएसट्ठयाए दवट्ठपएसट्ठयाए कयरे क- उक्कोसगा वि नवरमुक्कोस त्ति अभिलावो' इति । जघन्योत्कृयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया स्थानसमुदायविषये त्वल्पबहुत्वे प्रथमतो जघन्यानि द्रव्यावा, गोयमा! सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेस्साठाणा
र्थतया कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमण दवट्ठयाए जहन्नया नीललेसाठाणा दवट्ठयाए असंखे
यथोसरमसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि, तदनन्तरं जघन्यशुक्ल
लेश्यास्थानेभ्य उत्कृष्टानि कापोतनीलकृष्णतेजःपनशुक्लले. ज्जगुणा । एवं कराहतेउपम्हलेसटाणा जहन्नगा सुक्कले- श्यास्थानानि क्रमेण द्रव्यार्थतष यथोत्तरमसंख्येयगुणानि
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( ६६४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लेसा
वाच्यानि, एवं प्रदेशार्थतयाऽपि जघन्योत्कृष्टस्थानविषयमल्पबहुत्वं भावनीयम् तथा चाह -' एवं जहेब दव्वट्टयाए तब परसट्टयाए वि भाणियव्वं, नवरं 'परसट्टयाए' सि ' श्रभिलावे विसेसो ' इति, द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया जघन्यानि कापोतनीलकृष्णतेजः पद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि ततो जघन्येभ्यः शुक्ललेश्यास्थानेभ्यः उक्तक्रमेणैव चोत्कृष्टानि स्थानानि द्रव्यार्थतया यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वाच्यानि तत उत्कृष्टेभ्यः शुक्ललेश्यास्थानेभ्यो जघन्यानि कापोतलेश्यास्थानानि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि वक्तव्यानि ततः प्रदेशार्थतयैव जघन्यानि नीलकृष्ण तेजः पद्मशुक्ललेश्यास्थानानि यथोत्तरमसंख्येयगुणानि एवमुत्कृष्टस्थानान्यपि उक्तक्रमेणैव यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वक्तव्यानीति । प्रशा० १७ पद ४ उ० ।
(२४) साम्प्रतमा युद्धीरावसरः, तत्र च यस्या लेश्याया यदायुषो मानं तत्स्थतिद्वार एवार्थतोऽभिहितम्, इह त्विदमुच्यते श्रवश्यं हि जन्तुर्यल्लेश्येषूत्पद्यते तल्लेश्य एव म्रियते, यत श्रागमः - " जल्लेसाइं दव्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तसो उववज्जर "ति, तथैव प्रक्ष्यति " तो मुद्दत्तम्मि गए " इत्यादि तत्र जन्मान्तरभाविलेश्यायाः किं प्रथमसमये परभवायुष उदय श्राहोस्विश्वरमसमयेऽन्यथा वैति संशयापनोदनायाह
साहिं सव्वाहिं, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ ५८ ॥ साहिं सव्वाहिं, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न हु कस्सर उववत्ति, परे भवे अत्थि जीवस्स || ५६ || अंतमुत्तम्म गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए चैव ।
साहि परिणयाहिं, जीवा गच्छति परलोयं ॥ ६० ॥ लेश्याभिः -- उक्तरूपाभिः सर्वाभिः इति षडिरपि प्रथमे स. मये तत्प्रतिपत्तिकालापेक्षया परिणताभिः -- प्रस्तावादात्मरूपतामापन्नाभिः, लक्षणे तृतीया, तुः - पूरणे, न हु-नैव कस्यापि 'उववत्ति' त्ति उत्पत्तिः- उत्पादः, पठ्यते- 'नवि कस्स षि उबववाओ' ति सुगमम् परे - श्रन्यस्मिन् भवे- जन्मनि भ
- वियते जीवस्य जन्तोः, तथा लेश्याभिः सर्वाभिः चरमे समये इति -- श्रन्तसमये परिणताभिस्तु म हु--नैव क स्याप्युत्पत्तिः परे भवे भवति जीवस्य । कदा तर्हि ? इत्याहअन्तर्मुहगत एव - श्रतिक्रान्त एव तथाऽन्तर्मुहूर्त्ते क्षेत्रके चैव श्रवतिष्ठमान एव लेश्याभिः परिणताभिरुपलक्षिता जीवा गच्छन्ति परलोकम् भवान्तरम् इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभवलेश्याया उत्पत्तिकाले वाऽतीतभवलेश्याया अन्तर्मुह्वर्त्तमवश्यं भावात्, न त्विह विपरीतमवधार्यतेअन्तर्मुहूर्त्त एवं गत इत्यन्तर्मुहूर्त्त एव शेषक इति च देवनारकाणां स्वस्वलेश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तर्मुहूर्त्तद्वयसहितनिजायुःकालं यावदवस्थितत्वात् उक्तं हि प्रज्ञापनायाम्“ जलेसाइं दब्वाई श्रायतित्ता कालं करेति तल्लेसेसु उववाह' सि, तथा 'करहलेसे रतिए करहलेसेसु रइएसु उववज्जति करहलेसेसु उब्धट्टर " जलसे उबवज्जइ राज्ञेसे उब्वद्वृति" एवं नीललेसे वि, काउलेसे षि,एवं -असुर
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लेसा
कुमारा० जाव वैमागिय ति श्रनेनान्तर्मुहर्त्ताविशेष श्रायुषि परभवलेश्या परिणाम इत्युक्तं भवतीति सूत्रत्रयार्थः । इत्थं लेश्यानां नामाद्यभिधाय साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुरुपदेशमाह
तम्हा यासि साणं, अणुभावं वियाणिया ।
अप्पसत्था उवजित्ता, पसत्थाऽट्ठिए मुखी ॥ ६१ ॥
4
' तम्ह 'ति यस्मादेता श्रप्रशस्ता दुर्गतिहेतवः प्रशस्ताश्च सुगतिहेतवस्तस्मात् पतासाम् - अनन्तरमुक्तानां लेश्यानाम् अनुभागम् उक्तरूपं विज्ञाय विशेषेणावबुध्य प्रशस्ताः - कृष्णाद्यास्तिस्रो वर्जयित्वा प्रशस्ताः - तैजस्याद्यास्तिस्रः श्रधितिष्ठेत् — भावप्रतिपत्त्याऽऽश्रयेन्मुनिरिति शेष इति सूत्रार्थः । उत्त० ३४ अ० ।
(२५) कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य न तद्रूपतया - परिणमतीत्याह
कइ णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! छ लेस्सा पत्ता, तं जड़ा - करहलेसा० जाव सुकलेसा । से नूणं भंते ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए तावभाए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमति, इत्तो आढतं जहा चउत्थम्रो उद्देस तहा भाणियव्वं ० जाव वेरुलियमणिदितो त्ति ।। से नूगं भंते ! कहलेसा नीललेसं पप्प णो तारूचत्ताए० जाव णो ता फासत्ताए भुज्जो भुजो परिणमइ १, हंता गोयमा ! कहलेसा नीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावन्नताणो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए यो ताफासत्तए भुजो भुजो परिणमति, से केणद्वेगं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! आगारभावमायाए वा से सिया पलिभागभावमायाए वा से सिया कण्हलेस्सा गं सा णो खलु नीललेसा तत्थ गया ओसकइ उस्सकइ वा, से तेगट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ करहलेसा नीललेसं पप्प णो तारूवताए० जाव भुजो भुजो परिणमति से नूणं भंते । नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूवत्ताए० जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति १, हंता गोयमा नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूवत्ताए० जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, से केराट्ठेयं भंते ! एवं बुच्चइ-नीललेसा काउले पप यो तारूवत्ताए० जाब मुज्जो भुज्जो परिणमति १, गोयमा ! आगारभावमायाए वा सिया पलिभागभावमायाए वा सिया नीललेस्सा सा णो खलु सा काउलेसा तत्थ गया श्रोसकर उस्सक्कति वा, से एएणणं गोयमा ! एवं वुच्चर नीललेसा काउलेसं पप्प णौ तारूवत्ताए० जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवं काउलेसा तेउलेसं पप्प तेउलेसा पम्हलेसं पप्ण पम्हलेसा सुखलेसं पप्प, से
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लेमा अभिधानराजेन्द्रः।
लेमा नूणं भंते ! सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प णो तारूवत्ताए। सप्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा ततस्तजाव परिणमति ?, हंता गोयमा ! मुक्कलेसा तं चैव, दाकारभावं तत्प्रतिबिम्बिमात्रं वा दधाना सती मना विसे केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चति-सुक्कलेसा . जाव
शुद्धा भवतीत्युत्सर्पतीति व्यपदिश्यते' उपसंहारवाक्यमा
ह-से पपण?ण' मित्यादि, सुगमम् । एवं नीललेश्याया णो परिणमति ?, गोयमा! आगारभावमायाए वा०
कापोतलेश्यामधिकृत्य कापोतलेश्यायास्तेजोलेश्यामधिकृत्य जाव सुक्कलेसा णं सा णो खलु सा पम्हलेसा तत्थ तेजोलेश्यायाः पनलेश्यामधिकृत्य पालेश्यायाः शुक्लेगया ओसकइ , से तेणडेणं गोयमा! एवं वुचइ०
श्यामधिकृत्य सूत्राणि भावनीयानि, सम्प्रति पालेश्याजाव णो परिणमइ । (मू० २३१)
मधिकृत्य शुक्ललेश्याविषयं सूत्रमाह-'से नूणं भंते ! सु
कलेसा पम्हलेसं पप्प' इत्यादि, एतश्च प्राग्वद् भावनीयम् , 'कइ गं भैते ! लेस्साश्रो पन्नत्ताश्रो' इत्यादि , चतु
नवरं शुक्ललेश्यापेक्षया पद्मलेश्या हीनपरिणामा ततः शुक्ल देशकवत् तावद्वक्रव्यं यावद्वैडूर्यमणिदृष्टान्तः , व्याख्या
लेश्या पनलेश्याया आकारभावं तत्प्रतिबिम्बमा वा भजन्ती च प्राग्यदेव निरवशेषा कर्तव्या, प्रागुपन्यस्तस्याप्यस्य
मनागविशुद्धा भवति, ततोऽवष्वष्कते इति व्यपदिश्यते, एवं सूत्रस्य पुनरुपन्यासोऽग्रेतनसूत्रसम्बन्धार्थः, तदेव सूत्र
तेजःकापातनीलकृष्णलेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयामाह-' से नूणं भंते !' इत्यादि, इह तिर्यमनुष्यविषयं
नि,ततः पद्मलेश्यामधिकृत्य तेजःकापोतनीलकृष्णलेश्याविसूत्रमनन्तरमुक्तम् , इदं तु देवनैरयिकविषयमवसेयम् , देवनै
षयाणि तेजोमेश्यामधिकृत्य कापोतनीलकृष्णविषयाणि कागयिका हि पूर्वभवगतचरमान्तर्मुहूर्त्तादारभ्य यावत् परभवगतमाद्यमन्तर्मुहूर्त तावदवस्थितलेश्याकाः, ततोऽमीषां
पोतलेश्यामधिकृत्य नीलकृष्णलेश्याविषये नीललेश्यामधिहकृष्णादिलेश्याद्रव्याणां परस्परसम्पर्केऽपि न परिणम्यप
त्य कृष्णलेश्याविषयमिति , अमूनि च सूत्राणि साक्षात् रिणामकभावो घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्नयति
पुस्तकेषु न दृश्यन्ते केवलमर्थतः प्रतिपत्तव्यानि , तथा • से नूर्ण भंते !' इत्यादि , सेशब्दोऽथशब्दार्थः , स च | मूलटीकाकारेण व्याख्यानात् , तदेवं यद्यपि देवनैरयिप्रश्ने, अथ नूनम्-निश्चितं भदन्त ! कृष्णलेश्याः कृष्णले- |
काणामवस्थितानि लेश्याद्रव्याणि तथापि तत्तदुपादीयश्याद्रव्याणि नीललेश्या नीललेश्याद्रव्याणि प्राप्य , प्रा- मानलेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतः तान्यपि तदाकारभावमात्रां प्तिरिह प्रत्यासन्नत्वमात्रं गृह्यते न तु परिणम्यपरिणा
भजन्ते इति भावपरावृत्तियोगः षडपि लेश्या घटन्ते , मकभावेनान्योऽन्यसंश्लेषः , तदूपतया-तदेव-नीललेश्या- |
ततः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभ इति न कद्रव्यगतं रूपम्-स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरूपस्य तत्त
श्चिद्दोषः । प्रज्ञा०१७ पद ५ उ०।। दूपं तद्भावस्तपता तया , एतदेव व्याचष्टे-न तद्वर्ण
(२६) मनुष्यादिगतलेश्यासंख्यामाहतया न तद् गन्धतया न तद्रसतया न तत्स्पर्शतया भू- कति णं भंते ! लेसा पन्नत्ता, गोयमा ! छलेयो भूयः परिणमते, भगवानाह-हन्तेत्यादि , हन्त गौतम ! | सा पन्नत्ता ,तं जहा-कएहलेसा ०जाव सुक्कलेसा, कृष्णलेश्येत्यादि , तदेव , ननु यदि न परिणमते त
मणुस्साणं भंते ! कइ लेसा पण्णता ?, गोयमा ! हिं कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभः, स हि तेजोलेश्यादिपरिणामे भवति सप्तमनरकपृथिव्यां
छ लेस्साओ पएणत्ताओ , तं जहा-कराहलेसा जाव च कृष्णलेश्यति , कथं चैतद् वाक्यं घटते ?| सुक्कलेसा, मणुस्सीणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! छ'भावपरावत्तीए पुण सुरनेरइयाणं पि छल्लेसा ' इति | ल्लेसाओ परमत्ताओ , तं जहा-कहा • जाव सुक्का, कलेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतस्तद्रुपतया परिणामाऽसम्भवेन भा- म्मभूमयमणुस्साणं भंते ! कइ लेसानो पएणत्ताश्रो १, वपरावृत्तेरेवायोगात् , अत एव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रे |
गोयमा ! छ लेसाओ पण्णताओ, तं जहा-कएहा जाव आह-'से केण?ण भंते!' इत्यादि तत्र प्रश्नसूत्रं सुगम निचनसूत्रम्-श्राकार:-तच्छायामात्रमाकारस्य भावः
सुक्का, एवं कम्मभूमयमणुस्सीण वि । भरहेरवयमणुससा आकारभावः स एव मात्रा आकारभावमात्रा तया श्रा- स्साणं भंते ! कति लेसानो पसत्ताओ?, गोयमा! छ कारभावमात्रया, मात्राशब्द श्राकारभावातिरिक्तपरिणामा- लेसाओ पमत्ताओ, तं जहा-कएहा जाव सुक्का, एवं न्तरप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, से' इति-सा कृष्णलेश्या नील- मणुस्सीण वि, अकम्मभूमयमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! लेश्यारूपतया, स्यात् , यदि वा-प्रतिभागः-प्रतिबिम्बमा
चत्तारि लेसाओ पलत्ताओ , तं जहा-कएहा • जाव दर्शादाविव विशिष्टः प्रतिबिम्ब्यवस्तुगत श्राकारः प्रतिभाग एवं प्रतिभागमात्रा तया, अत्रापि मात्राशब्दः प्र
तेउलेसाओ एवं अकम्मभूमिगमणुस्सीण वि, एवं अंतरदीतिविम्बातिरिक्तपरिणामान्तरव्युदासार्थः स्यात् , कृष्णले
वमणुस्साणं , मणुस्सीण वि, एवं हेमवयएरन्नवयत्रश्या नीललेश्यारूपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्यैव नो मम्मभूमयमणुस्साणं , मणुस्सीण य कइ लेसाओ पखलु नीललेश्या सा, स्वस्वरूपापरित्यागात् न खल्वाद- सत्ताओ, गोयमा ! चत्तारि , लेसाओ पमत्ताओ, तं दियो जपाकुसुमादिसन्निधानतस्तत्प्रतिबिम्बमात्रामादधाना नादर्शादय इति परिभावनीयमेतत् , केवलं सा कृ
जहा-कएहा • जाव तेउलेसा, हरिवासरम्मयअकम्मखलेश्या तत्र-स्वस्वरूपे गता-अवस्थिता सती उत्स्वकते
| भूमयमणुस्साणं मणुस्सीण य पुच्छा , गोयमा ! चसातदाकारभावमाधारणतस्तत्प्रतिषिम्बमात्रधारणतो बो-I रि, तं जहा-कराहा • जाव तेउलेसा, देवकुरुज्चर
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लेसा
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कुरुप्रकम्मभूमयमणुस्सा एवं चेव, एतेसिं चैव मणुस्सी एवं चैव धायइसंडपुरिमऽद्धे वि एवं चेव, पच्छिमद्धे वि एवं पुक्खरदीवे वि भाणियव्वं । कण्हलेसे गं भंते! मस्से करहलेसं गब्भं जा (ज) गज्जा ?, हंता गोयमा ! जाणेज्जा कण्हलेसा मणुस्से नीललेसं गर्भ जाणेज्जा १, हंता गोयमा ! जाणेजा, ०जाव सुकलेसं गन्धं जाणेज्जा, नीललेसा मणुस्से कएहलेसं गब्र्भ जाणेज्जा ? हंता गोयमा ! जाजा, एवं नीललेसा मस्से • जाव सुक्कलेसं गन्धं जाणेजा वं काउलेसेणं छप्पि आलावगा भाणियव्वा, तेउलेसाण वि, पम्हलेसाण वि, सुकलेसाण वि, एवं बतसं आलावा भाणियव्वा, कण्हलेसा इत्थिया कहलेसं गन्धं जाजा १, हंता गोयमा ! जाणेज्जा, एवं एते वि छत्तीसं श्रालावगा भाणियध्वा कण्हलेसा गं भंते ! मगुस्से कण्हलेसाए इत्थियातो कण्हलेसं गब्र्भ जाणेज्जा ?, हंता गोयमा ! जाणेज्जा, एवं एते छत्तीसं चालावगा, कम्मभूमगकण्हलेसे गं भंते! मणुस्से कएहलेसाए इत्थियाए कण्हलेसं गन्धं जाणेज्जा ?, हंता गोमा ! जाज्जा, एवं एते छत्तीसं लावगा भाणि - यव्वा, अकम्मभूमयकएहलेसा मगुस्सा अकम्मभूमयकरहलेसाए इत्थियाए कम्मभूमयकरहलेसं गर्भ जाणेजा १, हंता गोयमा ! जाणेज्जा, नवरं चउसु लेसासु सोलस आलावगा, एवं अंतरदीवगाण वि । (सू०२३२) ' कर णं भंते! लेस्साओ पन्नताओ ' इत्यादि, सुगमम् उद्देशक परिसमाप्ति यावत्, नवरमुत्पद्यमानो जीवो जन्मान्तरे लेश्याद्रव्याण्यादायोत्पद्यते तानि च कस्यचिकानिचिदिति । कृष्णलेश्या परिणतेऽपि जनके जन्यस्य विचित्र लेश्यासंभवः, एवं शेषलेश्यापरिणतेऽपि भावनीययम् ॥ प्रज्ञा० १७ पद ६ उ० । ( ध्यानिनां लेश्याः ' रुइज्माण ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५६८ पृष्ठे उक्ताः । ) किरणे, शा० १ ० ६ श्र० । तेजसि, भ० १४ श० ६ उ० देहवर्णसुन्दरतायाम्, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । ' अंतमुडतठित्रो, तिरियनराणं हवंति लेसाश्रो' एवं युगलिनामपि तथैव लेश्यास्थितिकालोऽन्यथा त्रेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - युगलिनामप्यन्यतिर्यङ्मनुष्यवदान्तमइर्त्तिको लेश्यास्थितिकालो शेयः, प्रज्ञापनावृत्त्यादिष्वविशेषेण तथाऽभिधानादिति ॥ ६० ॥ सेन० २ उल्ला० ।
विषयसूची
( १ ) लेश्यानिक्षेपः ।
(२) लेश्यासंख्या ।
(३) नैरयिकादीनां लेश्याः ।
( ६६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
(४) असुरकुमारादीनां देवानां च लेश्याः । (५) कृष्णादिलेश्यावन्तः केऽल्पर्द्धिकाः के महर्द्धिकाः । (६) कृष्णलेश्यां प्रणिधाय अवधिना कियत्क्षेत्रं पश्यति ।
लेहसाला
( ७ ) का लेश्या कतिषु स्थानेषु लभ्यते । (८) का लेश्या कैन परिणामेन परिणमति । ( ६ ) लेश्यानां वर्णाधिकारः । (१०) विशेषतो वर्णाधिकारः ।
( ११ ) कृष्णादिलेश्याकनारकाणां स्थित्या ऽल्पमहत्त्वम् । ( १२ ) लेश्यानां वर्णैस्थानम् । (१३) लेश्यानां रसाधिकारः । ( १४ ) लेश्यानां गन्धाधिकारः । (१५) लेश्यानां शुद्धाशुद्धत्वाधिकारः । (१६) लेश्यानां शीतोष्णस्पर्शाधिकारः । ( १७ ) लेश्यानां गतिद्वारम् । (१८) लेश्यानां परिणामसंख्यानिरूपणम् । ( ११ ) लेश्यानां त्रिस्थानकावतारः । ( २० ) लेश्यानां प्रदेशाः । (२१) लेश्यानां स्थानानि ।
(२२) का लेश्या कियत्कालं तिष्ठति । ( २३ ) लेश्या स्थानानामल्पबहुत्वम् । (२४) लेश्यानामायुर्द्वारम् । (२५) लेश्यानां परस्परपरिणामनिरूपणम् । (२६) मनुष्यादिगतलेश्या संख्यानिरूपणम् । लेस्सापरिणाम- लेश्यापरिणाम- पुं० | जीवानां लैश्यापरिणतौ, प्रशा० १३ पद । स्था० । लेस्साभिताव - लेश्याभिताप - पुं० । तेजसोऽभितापे, भ० ८
श० ८ ३० ।
लेस्सि (ग्) -लेश्यिन् - त्रि० । लेश्या विद्यते येषां ते लेश्यिनः । शिखादेराकृतिगणत्वादिन्प्रत्ययः । लेश्यावति, बृ० १
उ० १ प्रक० ।
लेह - लेख पुं० . लेखनं लेखः ।“ ख-घ-ध-ध-भाम्” ॥८॥
१ । १८७ ॥ इति खस्य हः । प्रा० । अक्षरविन्यासे, स० ७२ सम० । श्र० चू० । प्रव० । आ० म० । वृ० । शा० । लिपिपरिज्ञाने, नं० । तद्विषये कलाभेदे, जं० २वक्ष० । लिख्यते इति लेखः । ग्रन्थे, श्राव० ६ ० ।
लेह ( लिक्ख)ग-लेख्यक-न० । व्यवहारादिसम्बन्धनि पत्रचये, प्रव० ३८ द्वार । लेहड-देशी- लम्पटे, दे० ना० ७ वर्ग २५ गाथा ।
लेहणा-लेखना- स्त्री० । सत्पुस्तकेषु अक्षरविन्यसने, “तथा सिद्धान्तमाश्रित्य विधिना लेखनादि च । " द्वा० २१ द्वा० । लेस्सागइ लेश्यागति - स्त्री० । तिर्यङ्मनुष्याणां कृष्णादिले
याद्रव्याणि संप्राप्य तद्रूपादितया परिणमतीति लेश्यागतिः । गतिभेदे, प्रज्ञा० १६ पद । लेस्साणुवायगइ - लेश्यानुपातगति - श्री० लेश्याया अनुपातोअनुसरणं तेन गतिर्लेश्यानुपातगतिः । गतिभैदे, प्रशा०२६पद । लेहना - स्त्री० । श्राखादने, कल्प० १ अधि० १ क्षण । लेहणी - लेखनी - स्त्री० । लेखनसाधने, ( कलमे ) रा० । लहसाला - लेखशाला - स्त्री० । अक्षरविन्यसनशिक्षणशालायाम् आ० ० १ ० ।
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लेहसाना अभिधानराजेन्द्रः।
सोउजोय वीरस्य लेखशालाप्रबेशः
एतावती विद्या कुत्राधीता, पण्डितोऽपि चिन्तयामास“अथ तं मातापितरौ, विज्ञौ ज्ञात्वाऽष्टवर्षमतिमोहात्। "पाबालकालादपि मामकीनान्, वरममितालङ्कार-रुपनयतो लेखशालायाम् ॥१॥
_ यान संशयान कोऽपि निरासयन्त्र । लग्नदिवसव्यवस्थिति-पुरस्सरं परमहर्षसम्पन्नौ ।
बिभेद तांस्तान्निखिलान् स एष, प्रौढोत्सवान्महार्धान , वितेनतुर्घनधनव्ययतः॥२॥
वालोऽपि भोः पश्यत चित्रमेतत् ॥१॥" तथाहि
किंच--अहो ईदृशस्य विद्याविशारदस्यापि ईरशं गाम्मीगजतुरगसमूहैः स्फारकेयूरहारैः,
यम् । अथवा-युक्तमेवेदम् ईरशस्य महात्मनः । कनकघटितमुद्राकुण्डलैः कणाद्यैः।
यतःरुचिरतरदुकूलैः पञ्चवर्णैस्तदानी,
"गर्जति शरदिन वर्षति, वर्षति वर्षास निःस्खनो मेघः। स्वजनमुखनरेन्द्राः सक्रियन्ते स्म भक्त्या ॥३॥
नीचो वदति न कुरुते, न वदति साधुः करोत्येव ॥१॥ तथापण्डितयोग्यं नाना, वस्त्रालङ्कारनालिकेरादि।
तथाअथ लेखशालिकानां, दानार्थमनेकवस्तूनि ॥४॥
असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाडम्बरो महान् ।
म हि स्वर्णे ध्वनिस्ताहा, याक् कांस्ये प्रजायते ॥२॥ तथाहिपूगीफलशङ्गाटक-खजूरसितोपलास्तथा खण्डा ।
इत्यादि चिन्तयन्तं पण्डितं शक्रः प्रोवाचचारुकुलीचारुबीजा-द्राक्षादिसुखाशिकावृन्दम् ॥५॥ "मनुष्यमात्रं शिशुरेष षिप्र!, न शङ्कनीयो भवता स्वचिते' सौवर्णरत्नराजत-मिश्राणि च पुस्तकोपकरणानि । विश्वश्रयीनायक एष वीरो,जिनेश्वरोवाङ्मयपारहश्वा॥३॥" कमनीयमीभाजन-लेखनिकापट्टिकादीनि ॥६॥
इत्यादि, श्रीवर्द्धमानस्तुति निर्माय शक्रः स्वस्थानं जगाम। वाग्देवीप्रतिमा -कृतये सौवर्णभूषणं भव्यम् ।
भगवानपि सकलशातक्षत्रियपरिकलितःस्वगृहमागात्, इति नव्यबहुरत्नखचितं, छात्राणां विविधवस्त्राणि ॥ ७॥" श्रीलेखशालाकरणम् । कल्प०१ अधि०५ तण । इत्यादि समग्रपठनसामग्रीसहितः , कुलवृद्धादिभि-लेहायरिय-लेखाचार्य-पुं० । उपाध्याये, मा० म.१०। स्तीर्थोदकैः स्नपितः , परिहितप्रचुरालङ्कारभासुरः लेहड-देशी-लोष्ठवाचके, दे० ना०७ वर्ग २४ गाथा। शिरोधृतमेघाडम्बरच्छत्रश्चतुरङ्गसैन्यपरिवृतो वाद्यमाना- |
लोअ-लोच-पुं०।" क-ग-च-जन्त-द-प-य-बां प्रायोउनेकवादित्रः पण्डितगेहमुपाजगाम । पण्डितोऽपि | भूपालपुत्रपाठनोचितां पर्वपरिधेयक्षीरोदक-धौतिकहे- लुक् ।।८।१ । १७७ ॥ इति चकारस्य लुक । प्रा० मयज्ञोपवीतकेसतिलकादिसामनी यावत् करो
त्पाटने, सूत्र० १७०५ १०१ उ० । ति तावत् पिप्पलपर्णवत् , गजकर्णवत् , कपटिध्यानवत् , | लोक-पुं० । जगति, “भुअणं जयं च लोप्रो" पाहना नृपतिमानवत् चलाचलसिंहासनः शक्रोऽवधिना शातत-| १०० गाथा। स्वरूपो देवान् इत्थमयादीत्-अहो ! महचित्रम् , यद्भ-लोण-स्त्री०। नालोचन-ना नेत्रे,"घाऽस्यर्थवचनाचा" गवतोऽपि लेखशालायां मोचनम् ।
॥८।१॥ ३३ ॥ इति प्राकृते स्त्रीत्वं.या। लोमणा । लोमयतः
णाई । प्रा०१ पाद । “साने वन्दनमालिका स मधुरीकारः सुधायाः सच,
लोइय-लौकिक-पुं०। लोके भवा, लोके या षिदिता इति ब्राम्याः पाठविधिः स शुभ्रिमगुणारोपः सुधादीधितो।
लौकिका अध्यात्मादित्वादिकण् । सूत्र०१७०३१०२० कल्याणे कनकच्छटाप्रकटनं पावित्र्यसंपनये, शास्त्राध्यापनमहतोऽपि यदिदं सम्लेखशालाकृते ॥१॥
इतिहासादिकर्तृषु, दश०४०। लोकाचीणे,उत्तामनुका मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत् , लङ्कानगया लहरीयकं तत् । सामान्य लोकाश्रये, स्था० ३ ठा० ३ उ०। सू०प्र०।०। तत्प्राभृत लावणमम्बुराशेः,प्रभोः पुरोयद्वचसाविलासा" | लोइयकहा-लौकिककथा-स्त्री०। मसंविग्नलोकसम्बन्धिम्या यतः
कथायाम् , प्रश्न०४ संव० द्वार। "अनध्ययनविद्वांसो, निद्रव्यपरमेश्वराः॥ अनलङ्कारसुभगाः, पान्तु युष्मान् जिनेश्वराः॥१॥"
॥१, लोइयमग्ग-लौकिकमार्ग-पुं० । यथाषस्थितशम्दानभित्रइत्यादि वदन् कृतब्राह्मणरुपस्त्वरितं यत्र भगवांस्ति-| मुग्धजनव्यवहारे, अने०१ अधि०।। छति तत्र पण्डितगेहे समाजगाम, श्रागत्य पण्डितयो-लोउजोय-लोकोद्योत-पुं० । लोकप्रकाशे, स्था। ग्ये आसने भगवन्तमुपवेश्य पण्डितमनोगतान संदेहान् | चउहि ठाणेहिं लोउज्जोते सिता,तं जहा-अहंतेहिं जायपपृच्छ, श्रीवीरोऽपि बालोऽयं किं वक्ष्यतीत्युत्कर्णेषु सकल
माणेहिं अरहंतेहिं पध्वतमाणेहिं अरहताणं गाणुप्पायमहिलोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददौ, ततो जैनेन्द्रं व्याकरणं जज्ञे ।
मासु अरहंताणं परिनिष्वाणमहिमासु ४। (म०३२४) यतः-- "सको अ तस्समक्खं, भगवन्तं पासणे निवेसित्ता॥ | 'चउही ' स्यादि, सुगमश्चायं, नवरं लोकोचोतचतुर्णपि सहस्स) लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा इदं ॥१॥" | स्थानेषु देवागमात् , जन्मादित्रये तु स्वरूपेणापि । स्था।
मर्ने जना विस्मयं प्रापुः अहो बालेनापि वर्षमानकुमारेण | डा०३ ३० Jain Education Internati
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(६६७) लोउत्तर अभिधानराजेन्द्रः।
लोक लोउत्तर-लोकोत्तर-न० । लोकस्योत्तरम्-प्रधानं लोकोत्तर- सहस्रभागाभ्यामधिकरज्जुत्रयविष्कम्भम् , इह चतुणां खम्। जिनशासने, अनु । नि० चू०।
एडानां पर्यन्तेषु चत्वारोऽङ्गलसहस्रभागा भवन्ति, केवलमे
कस्यां दिशि योजिताभ्यां द्वाभ्यामप्येक पवाङ्गलसहभाग लोउत्तरिय-लोकोत्तरिक-न । लोकोतरे-जिनप्रवचने भवं
एकदिग्वर्तित्वादेवमपरमपि द्वाभ्यामित्यमेवत्यतस्तद्वया-- लोकोत्तरिकम् । जिनप्रवचनभवे, लोकोत्तराणि यानि न
धिकत्वमक्तं देशोनसप्तरज्जूच्छुितम्। बाहल्यतस्तु ब्रह्मलो-- लोके प्रसिद्धानि, किंतु-प्रवचन एव कृतानि तानि लोको
कमध्ये पश्चरज्जुबाहल्यमन्यत्र त्वनियनवाहल्यम् । इदं च सराणि । शास्त्रमात्रप्रसिद्धे, सू०प्र०१० पाहु व्य० । निचून सर्व गृहीत्वा आधस्त्यसंवर्तितलोकार्धस्योत्तरपार्वे संघात्यलोक-(गाय)-लोक-पुं० । लोक्यत इति लोकः । लोक ते। एवं च योजिते प्राधस्त्यखण्डस्योच्छ्रये यदितरोच्छ्रयादर्शन इत्यस्माद्धातोः । " अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् "
धिकं तत् स्वराडयित्वापरितनसंधातितखण्डस्य थाहल्य रति घम् । आचा०१ श्रु०२ १०१३० । लोक्यते दृश्यते के.
ऊवायतं संयोज्यते, पर्वच मातिरेकाः पञ्चरज्जयः कनि-- वलशानभास्पतति लोकः। श्राव०५अकाचतुर्दशरज्ज्वात्मके
द्वाहल्यं सिध्यति । तथा-श्राधस्त्यखण्डमधस्ताद्यथासंभव (आचा० १ १०२ अ०१ उ01) धर्माधम्मास्तिकायब्य
देशोनसप्तरज्जुबाहल्यं प्रागुक्तम. श्रत उपरितनखराडवाहवच्छिन्ने अशेषद्रव्याधारे वैशाखस्थानकटिन्यस्तकरयुग्म
ल्याद्देशोनरज्जुद्वयमत्राधस्त्यग्यरडेऽतिरिच्यते त्यस्मादतिपुरुषोपलक्षिते अाकाशखएडे, प्राचा०१७०२१०१३०
रिच्यमानवाहल्या देशोनरज्जुरूपं गृहीत्वोपारतनखगडपञ्चास्तिकायात्मके, सूत्र. १ श्रु० १२ अ० । लोक्यते
वाहल्ये संघात्यते, एवं च कृते बाहल्यतस्तावत् सर्वमप्रमाणेन दृश्यत इति भावः । श्राव० ६ श्र० ।।
प्येतच्चतुरस्रीकृतनभावगडं कियत्यपि प्रदेशे रज्ज्वसंख्येआचा० । ल । विशे० । आय० । सू० प्र० । प्रा०
यभागाधिकाः पड़ रजवो भवन्ति । व्यवहारतस्तु सर्व म०। “धर्मादीनां वृत्ति-द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् ।
सप्तरज्जुवाहल्यमिदमुच्यते । व्यवहारनयो हि किंचिदूनसतैव्यैः सह लोक-स्तद्विपरीतं ह्यलोकाण्यम् "॥१॥ श्राव०
महस्तादिप्रमाणमपि पटादिनस्तुपरिपूर्णसप्तहस्तादिमानं ५ अ०। अनु० । विशेष । ल ।
व्यपदिशति, देशतोऽपि च दृ वाहल्यादिधर्म परिपूर्णे चतुर्दशरज्जुप्रमाणं चेत्थम्
पि वस्तुन्यध्यवस्यति स्थूलष्टि वादिति भावः । अत एव (१) तत्र कियत्प्रामाणो लोक इत्याह
तन्मतेनैवात्र सप्तरज्जुवाहल्यता सर्वगता द्रष्टव्या। श्राया
मविष्कम्भाभ्यां तु प्रत्येक देशोनसप्तरज्जुप्रमाणमिदं जातचउदसरज्जू लोओ, बुद्धिको होइ सत्तरज्जुषणो (६७)
म् । व्यवहारतस्तु तत्रापि सप्तरज्जुप्रमाणता द्रव्या, तदेवं चतुर्दश रजवो यस्य स चतुर्दशरज्जुः, रज्जुप्रमाण तु स्व
लोको व्यवहारनयमतेन । अत्रायाविष्कम्भवाहल्यैः प्रत्येक यंभूरमणसमुद्रस्य पौरस्त्यपाश्चात्यवेदिकान्तं यावद्दक्षिणो- सप्तरज्जप्रमाणो धनो भवतीति समुदायार्थः । एतच्च वै. सरवेदिकान्तं वा याचदवसेयम् . उच्छूयमानमिदमस्व-अध- शाखस्थानस्थितपुरुषाकारं सर्वत्र वृत्तस्वरूपं लोकं संस्थाप्य स्नाद्देशोनसप्तरज्जुविस्तरः, तिर्यगलोकमध्ये एकरज्जुविस्त- सर्व भावनीयमिति ॥ कर्म०५ कर्म । दशः। रः ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जुविस्तीर्णः , उपरि त लोकान्ते
(२) कोऽयं लोकःएकरज्जुविस्तृतः , शेषस्थानेषु पुनः कोऽपि कियानस्य
किमिय भंते ! लोए ति पच्चइ ?, गोयमा! पंचत्थिकाविस्तर इति । तदेवंरूपो लोको वुद्धिकृतो-मतिपरिकल्पनया विहितो भवति-संपद्यते, किंरूपो भवतीत्याह
या, एस णं परत्तिए लोए त्ति पवुच्चइ, तं जहा-धम्मसप्त रजवः प्रमाणतया यस्य स सप्तरज्जुः स चासौ घन- थिकाए अधम्मत्थिकाए . जाव पोग्गलथिकाए (मू० व समचतुरस्त्र आयामविष्कम्भवाहल्यैस्तुल्यत्वात् सप्तर- ४८१) भ०१३ श०४ उ० । (धर्मास्तिकायादीनां व्याख्या ज्जुधनः । स चेत्थं वुद्धया विधीयते-इह रज्जुविस्तीर्णा- स्वस्वस्थाने।) यास्त्रसनाड्या दक्षिणदिग्वबंधोलोकखण्डमधोदेशोनरज्जु- (३) लोकस्यैकत्वं नामादितश्चाविधत्वं निरूपतित्रयविस्तृतम् , क्रमेण हीयमाविस्तारं तावद्यावदुपरिष्टा- | एगे लोए। (मू०५) द्रज्जुसंख्येयभागविस्तारं सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्रयं गृहीत्या एको लोकः, त्रिविधोऽप्यसंख्येयप्रदेशोऽपि वा द्रव्यार्थअसनाडिकाया एवोत्तरदिग्भागे विपरीत योज्यते, उपरितन
तया । स०१ सम० । एकः विवक्षितासंख्यप्रदेशाधस्ति-- भागमधःकृत्वाऽधस्तनं चोपरि विधाय संघात्यते इत्यर्थः ।
यंगादिदिग्भेदतया लोक्यते-दृश्यते केवलालोकनेति लोएवं च कृतेऽधस्तनं लोकस्यार्ध सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्रितं कः-धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः, तद्किंचिदूनरज्जुचतुष्टयविस्तार्ण बाहल्यतोऽप्यधः कचिद्देशो
क्रम-"धर्मादीनां वृत्ति-ईव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । नसप्तरज्जुमानमन्यत्र पुनरनियतबाहल्यं जायते। इदानीम
तैव्यैः सह लोक-द्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥१॥" परितनलोकार्ध संवय॑ते-तत्रापि रज्जुविस्तगयास्त्रसनाडि
इति, अथवा-लोको नामादिरणधा । स्था० १ ठा। काया दक्षिणदिग्वर्तिनी ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितन च
आह चअपि खण्डे ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येक द्विरज्जुविस्तरे उपर्य
नामं ठवणा दविए, खित्ते काले भवे य भावे य । लोकसमीपेऽधस्तु रत्नप्रभाक्षुल्लकप्रतरसमीपेऽङ्गलसहस्रभागविस्तरवती देशोनसार्धत्रयरज्जूच्छिते बुद्धया गृहीत्वा
पञ्जवलोए य तहा, अट्ठविहो लोयनिक्खेयो ॥१०५७। असनाडिकाया एवोत्तरपार्वे पूर्वोदितस्वरूपेणैव वैपरीत्येन श्राव० २ १० । नामस्थापने सुनाने, द्रव्यलोको-जी. संघात्येते. एवं च कृते उपरितनं लोकस्या द्वाभ्यामकुल- वाजीबद्यरूपः । क्षेत्रलोकः-आकाशमात्रमनन्त प्रदेशात्म
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लोक
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4
कम्, काललोकः - समयावलिकादिः, भवलोकः नारकादिः, स्वस्मिन् स्वस्मिन् भवे वर्तमाना यथा मनुष्यलोको देवलोक इति । भावलोकः षडीयिकादयो भाषाः। परीवलोकस्तु द्रव्याणां पयमात्ररूप इति केवलज्ञानालोकनीयत्यसामान्यादिति । ( स्था० १ डा० ) नामलोकः १, स्थापनालोकः २ इम्यलोकः ३, शेषलोका काललोकः ५, भवलोको ६. भावलोकः ७ पर्याय लोकश्च ८. तथा, एवमष्टविधो लोकनिक्षेप इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यलोकमभिधित्सुराद्दजीवमजीवे रूम - रूवी सपएसमप्पएसे अ । जाणाहि दम्पलोगं, शिवमसि च जं दयं ।। १६५|| जीवाजीवावित्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः तत्र सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः, विपरीतस्त्वजीव तीच द्विभेदरूप्यरूपभेदाद् आह रूपरूपाविति तवानादिकर्मसन्तानपरिमता रूपिणः संसारिण: अरूपिणस्तु-फर्मरहिताः सिद्धा इति, अजीवास्वरूपिणो-धर्माधर्माकाशास्तिकायाः, कपिलस्तु परमारवादय इति एती च जीवाजीचाबोधतः सप्रदेशाप्रदेशायय गन्तव्य तथा चाह - ' सप्रदेशाप्रदेशाविति, तत्र सामान्यविशेषरूपत्वापरमाव्यतिरेकेण प्रदेशाप्रदेशत्वं सकलास्तिकायानामेघ भावनीयम् परमाणवस्त्वप्रदेशा एव श्रन्ये तु व्याचढते-जीयः किल कालादेशेन नियमात् सप्रदेशः ल ध्यादेशेन तु सप्रदेशो वाऽप्रदेशो वेति एवं धर्मास्तिकायादिवft freeस्तिकायेषु परापरनिमित्तं पक्षद्वयं वायम् पुङ्गलास्तिकायस्तु द्रव्याद्यपेक्षया चिन्त्यः, यथा - द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशो द्वयणुकादयः सप्रदेशाः क्षेत्रतः एकप्रदेशायगादोऽप्रदेशो इत्यादिदेशावगाढाः सप्रदेशाः प यं कालतोऽप्येकानेक समयस्थितिभवतोऽप्येकानेकगुणकष्णादिरिति कृतं विस्तरेण । प्रकृतमुच्यते- इदमेवम्भूतं जीयाजीवनातं जानीहि द्रव्यलोकम्, द्रव्यमेव लोको द्रव्यलोक इति कृत्वा श्रस्यैव शेषधर्मोपदर्शनायाऽऽह - नित्यानित्यं च यद् द्रव्यम्, चशब्दादभिलाप्यानभिलाप्यादिसमुवय इति गाथार्थः ॥ २६५ ॥
,
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,
सांप्रतं जीवाजीवयोनित्यानित्यतामेवोपदर्शयन्नाह
( ६६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
,
भाष्यकारः
ग १ सिद्धा २ विद्या व २,
भवि ४-१ पुग्गल १ अणागयद्धा य २ । ती ३ तिनि काया ४ -२,
जीवा १ जीव २ डिई उहा ।। १६६ ।। श्रस्याः सामायिकचद् व्याख्या कार्येति, भङ्गकास्तु सापर्यवसानाः भाद्यपद्यमाना अनादिपर्यवसाना - साना जीयेषु जीवाजपयोगी भङ्गाः । द्वारम् अधुना क्षेत्रलोकः प्रतिपाद्यते तत्र भाष्यम्आमासस्य परसा, उडुं च अहे अतिरियलोए व । जाणाहि खित्तलोगं, अनंत जिरणदेसि सम्मं ॥ १६७॥
लोक
आकाशस्य प्रदेशाः प्रकृश देशाः प्रदेशास्तान ऊ व इति ऊर्ध्वलोके च अधश्च इति श्रधोलोके च तिर्यग्लोके च किं ?- जानीहि क्षेत्रलोकम, क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रलोक इति कृत्या लोकपत इति च लोक इति, ऊर्ध्वादिलोकविभागस्तु सुज्ञेयः, अनन्तमिति श्रलोकाकाशप्रदेशापेक्षया चानन्तम् अनुस्वारलोपो ऽत्र द्रष्टव्यः, जिनदेशितमिति जि नकथितम् सम्यक - शोभनेन विधिनेति गाथार्थः ॥ १६७ ॥ साम्प्रतं काललोकप्रतिपादनायाह भाष्यकारःसमयावलिअमुत्ता, दिवस महोरत्तपक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया, सागरओसप्पिपरिश्रट्टा ॥ १६८ ॥ इद परमनिकृषः कालः समयोऽभिधीयते असंख्येयस मयमाना स्वावलिका, द्विपटिको मुहूर्तः, षोडश दि यसः द्वात्रिंशद् अहोरात्रम् पश्चाहोरात्राणि पक्षी प क्षौ मासः, द्वादश मासाः संवत्सरमिति, पञ्चसंवत्सरं युगम्, पल्योपममुद्धारादिभेदं यथा अनुयोगद्वारेषु तथावसेयम् सागरोपमं तद्वदेव दशसागरोपमकोटाकोटिपरिमाणोत्सपिंणी पचमयगियपि द्रष्टव्या परावर्तः पुत्रसपराय एवमवसर्पिण्यपि र्तः स चानन्तोत्सर्पिएयवसर्पिणीप्रमाणे इत्यादिः ते ऽनन्ता अतीतकालः अनन्त एवैष्यनिति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ उक्तः काललोकः । लोकयोजना पूर्ववद्
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अधुना भवलोकमभिधित्सुराह भाग्यकार:देवमा, तिरिक्खजोगीगया य जे सत्ता । तमि भवे बहुंता, भलोगं तं विमाणाहि ॥ १६६ ॥ नारकदेवमनुष्यास्तथा तिर्यग्योनिगताथ ये सवाः प्राणि न तम्सि तस्मिन् भये वर्तमाना वदनुभावमनुभवन्न भवलोकं तं विजानीहि लोकयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ १६६ ॥
साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयतिश्रदइए १ अ वसमिए २
खइए अरे नहा खओवसमिए अ ४ । परिणामि ५ सन्निवाए
3
६, छबि भावलोगो उ ।। २०० ।। उदयेन नि
कि कर्मण इति गम्यते तथोपमेन निर्वृत श्रीपशमिकः क्षयेश निर्वृतः ताकि प शेषेष्वपि वाच्यम्, ततश्च क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च पारिणामिकश्च सान्निपातिकश्च एवं षड्विधो भावलोकः, तत्र साक्षिपातिक प्रोथतोऽनेकमेदोऽवसेयः अविरुद्धस्तु दशभेद इति उक्
,
"ओोदरच बोचसमे परिणामेकेको (क) गह चलेऽपि । स्वयजोगेण वि चउरो तदभावे उसमे पि ॥ १॥ उपसमसेडी एको, केवलियोऽयि य तहेच सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइय-- भेया एमेव परागरस ॥ २२ ॥ " ति इति गाथार्थः ॥ २०० ॥
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भाष्यम्
तिब्वो रागो अ दोसो अ, उमा जस्स जन्तुयो । जाणाहि भावलोयं, अगंत जिणदेसि
सम्मं ॥ २०१ ॥
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( ७०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लोक
ती:- उत्कटः रागश्च द्वेषश्च तत्राभिष्वङ्गलक्षणो-रागः अप्रीतिलक्षणो द्वेष इति, पताषुदीर्णौ यस्य जन्ती:-यस्य प्राणिन इत्यर्थः तं प्राणिनं तेन-भावेन लोक्यत्वाज्जानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितम् - एकवाक्यतया अनन्त जिनकथितम् ' सम्यग् ' इति क्रियाविशेषणमित्ययं गाथार्थः
॥ २०१ ॥
द्वारम् - साम्प्रतं पर्यायलोक उच्यते, तत्रौघतः पर्याया धर्मा उच्यन्ते, इह तु किल नैगमनयदर्शनं मूढनयदर्शनं वाऽधिकृत्य चतुर्विध पर्यायलोकमाह भाग्यकार:
दव्वगुण १ खित्तपञ्जव २ - भवाणुभावे च ३भावपरिणामे ४ । जाण चउन्विहमेअं, पजवलोगं समासेणं ॥ २०२ ॥ द्रव्यस्य गुणाः- रूपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्याया:-अगुरुलघवः भरतादिभेदा एव चान्ये, भवस्य च नारकादेरनुभावः - तीव्रतमदुःखादि:, यथोक्तम्"छणिमिलीयमेतं, रात्थि सुहं दुक्खमेव अणुबंधं । गरम रहाणं, अहोलिसि पश्चमाणां ॥ १ ॥ असुभा उब्वियणिजा, सदरसा रूवगंधफासा य । सरप णेरइश्राणं, दुक्कयकम्मोवलित्ताणं ॥ २ ॥ " इत्यादि एवं शेषानुभावोऽपि वाच्यः' तथा भावस्य जी वाजीवसम्बन्धिनः परिणामस्तेन प्रशानाद् शानं नीलालोहितमित्यादिप्रकारेण भवनमित्यर्थः, जानीहि श्रवबुध्यस्व चतुर्विधमेनमोघतः पर्यायलोकं समासेन-संक्षेपेणेति गाथार्थः ॥ २०२ ॥
तत्र यदुक्तं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि तदुपदर्शनेन - निगमयन्नाह भाष्यकारःवनरसगंधसंठा - गफासट्टा गइवन्नभेए अ । परिणामे बहुविहे, पजवलोगं विश्राणाहि ॥२०३॥ वर्णरसगन्धसंस्थानस्पर्शस्थानगतिवर्णभेदाश्च चशब्दाद्रसादिभेदपरिग्रहः श्रयमत्र भावार्थ:- वर्णादयः सभेदा गृह्यन्ते, तत्र वर्णः– कृष्णादिभेदात् पञ्चधा रसोSपि तिलादिभेदात्पञ्चधा. गन्धः - सुरभिरित्यादिभेदाद् द्विधा, संस्थानं - परिमण्डलादिभेदात्पञ्चधैव, स्पर्शः - क. केशादिमेदादष्टधा स्थानम् - श्रवगाहनालक्षणं तदाश्रयभेदादनेकधा गतिः - स्पर्शवङ्गतिरित्यादिभेदाद् द्विधा,
शब्द उक्तार्थ एव अथवा – कृष्णादिवर्णादीनां स्वभेदापेक्षया एकगुणकृष्णाद्यमेकभेदोपसङ्ग्रहार्थ इति, अमेन किल द्रव्यगुणा इत्येतड्याख्यातम् । परिणामांश्च बहुविधानित्यनेन तु चरमद्वारम् शेषं द्वारद्वयं स्वयमेव भावनीयम्, तच्च भावितमेवेत्यक्षरगमनिका । भावार्थस्त्वयम् -- परिणामांश्च बहुविधान् जीवाजीवभावगोचरान् किं ?-पर्यायलोकं विजानीहि इति गाथार्थः ॥ २०३ ॥ अक्षरयोजना पूर्ववदिति द्वारम् । साम्प्रतं लोकपर्यायशब्दान्निरूपयन्नाह नियुक्रिकार:आलुका म पलुकर, लुकइ संलुकई अ एगडा | लोगो अट्ठविहो खलु, तेणेसी बुच्चाई लोगो ॥ १०५८ । श्रालोक्यत इत्यालोकः, प्रलोक्यत इति प्रलोकः, लोक्यत इति लोकः, संलोक्यत इति च संलोकः, पते कार्थिकाः शब्दाः, लोकः अष्टविधः खल्वित्यत्र श्रालोक्यत इत्यादि योजनीयम् श्रत एषाऽऽह तेनैव उच्यते लोको
लोक येनाऽऽलोक्यत इत्यादि, भावनीयमिति गाथार्थः ॥ १०५८ ॥ आव० २० ।
( ४ ) त्रिविधो लोकः
तिविहै लोगे पत्ते, तं जहा- खामलोगे, ठवणालोगे, दव्वलोगे । ( सू० १५३x )
लोक्यतेऽवलोक्यते केवलावलोकेनेति लोकः, नामस्थापने इन्द्रसुत्रवद्, द्रव्यलोकोऽपि तथैव नवरं शशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि-जीवाजीवरूपाणि रूप्यरूपाणि-- सप्रदेशाप्रदेशानि द्रव्याण्येव द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति विग्रहः । उक्तञ्च" जीवमजीवे रूवम- कवी सपएस अप्प से य । जाणाहि दव्वोयं, णिश्चमणिचं व जं दव्वं ॥ १ ॥
भावलोकं त्रिधाऽऽह
तिविहे लोगे पत्ते, तं जहा - पाणलोगे, दंसबलोगे, चरिचलोगे | ( सू० १५३X)
'तिविहे ' त्यादि, भावलोको द्विविधः - श्रागमतो नोआगमतश्च । तत्रागमतो लोकपर्यालोचनोपयोगस्तदुपयोगानन्यत्वाद् पुरुषो वा, नोश्रागमतस्तु सूत्रोको ज्ञानादिः, नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वात् इदं हि त्रयं प्रत्येक मितरेतरसव्यपेक्ष नागम एव केवलो नाप्यनागम इति । तत्र ज्ञानं चासौ लोकश्चेति ज्ञानलोकः, भावलोकता वास्य क्षायिकक्षायोपश मिकभावरूपत्वात् क्षायिकादिभावानां च भावलोकत्वेनाभिहितत्वाद्, उक्तञ्च - " श्रदइए उवसमिए खाए य तहा खोवसमिए य । परिणामसन्निवाऍ य छविहो भावलोश्रो उ ॥ १ ॥ " ति । एवं दर्शनचारित्रलोकावपीति ।
स्था० ३ ठा० २ उ० ।
( ५ ) प्रकारान्तरेण चतुर्विधत्वं तद्भेदांश्वाहरायगिहे० जाव एवं वयासी - कतिविहे गं भंते ! लोए पद्मत्ते १, गोयमा ! चउव्विहे लोए पभत्ते । तं जहा-दब्ब लोए खेत्तलोए काललोए भावलोए ।। खेत्तलोए गं भंते ! कतिविहे पत्ते ?, गोयमा ! तिविहे पनते, तं जहा
होलोयखेत्तलोए ?, तिरियलोयखेत्तलोए २, उड्डलोयखेत्तलोए ३|| अहोलोयखेत्तलोए गं भंते ! कतिविहे पन्मत्ते, गोयमा ! सत्तविहे पन्नते, तं जहा रयणप्पभा पुविहोलोयखेत्तलोए० जाव आहेसत्तमा पुढवी महोलोखेल || तिरियलोयखेत्तलोए गं भंते ! कतिविहे पनत्ते ?, गोयमा ! असंखेज विहे पत्ते, तं जहा- जंबुद्दी वे तिरियखेत्तलोए० जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेतलोए । उडलोगखेत्तलोए गं भंते ! कतिविहे पनते १, गौयमा ! परसविहे पत्ते, तं जहा- सोहम्मकप्पउड़लोगखेत्तलोए० जाव अच्चुयउडूलोए गेवेजविमाणउड्डलोए अणुत्तरविमाणउडलोए ई संपन्भारपुढ विउडलोगखेतलोए । ( सू० ४२० X )
'रायांगहे ' इत्यादि 'दव्वलो ति द्रव्यलोक आगमतो, नोचागमतश्च । तत्रागसतो द्रव्यलोको लोकशब्दार्थ
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लोक
अभिधानराजेन्द्रः। मस्तत्रानुपयुक्तः “ अनुपयोगो द्रव्य " मिति वचनात् , मध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति,तस्योपरितनप्रतरस्योपरिशमाह च मङ्गलं प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम्-" आगमोऽणुव- अययोजनशतानि यावज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यउत्तो, मंगलसदाणुवासिनो पत्ता । तत्राणलद्धिजुत्तो, उ ग्लोकस्ततः परत ऊर्श्वभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तनोवउत्तोत्ति दव्वं ति ॥१॥"नोबागमतस्तु सशरीरभव्यशरी- रज्जुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनप्रतरस्याधो नवयोजनशतानि रतद्व्यतिरिक्तभेदात्त्रिविधः, तत्र लोकशब्दार्थस्य शरीरं यावत्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वावधोलोमृतावस्थं शानापेक्षया भूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लो- कः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोको लोकयोर्मध्ये कः, स च शरीररूपो द्रव्यभूतो लोको शरीरद्रव्यलोकः, | अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्सोक जोशब्दश्चेह सर्वनिषधे, तथा लोकशब्दार्थ हास्यति य
इति, प्रकारान्तरेण चायं गाथाभिर्व्याख्यायतेस्तस्य शरीरं सचेतनं भाविलोकभावत्वेन मधुघटबद् भ
"अहवा अह परिणामो, खेत्तणुभावेण जेण ओसनं । ज्यशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्द इहापि सर्वनिषेध एव, शश
अहो अहो त्ति भणिो , दवाण तेणऽहोलोगो ॥१॥ रीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तश्च द्रव्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्ति- उर्दू उरि जं ठिय, सुहखेत्तं खेत्तो य दब्वगुणा । कायादीनि, प्राह च-" जीवमजीवे रूविम-रूवि सप- उप्पज्जंलि सुभावा, तेण तो उद्दलोगो त्ति ॥२॥ एस अप्पएसे य। जाणाहि दवलोयं, निश्चर्माणथं च जं मज्झणुभावं खेत्तं, जंतं तिरियं ति वयणपज्जवो। दव्वं ॥१॥" इहापि नोशब्दः सर्वनिषेधे, आगमशब्दवा
भरणइ तिरियविसालं, अश्रो य तं तिरियलोगो ति ॥३॥" च्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात्, 'खेत्तलोए' ति क्षेत्ररूपो
स्था० ३ ठा०३ उ०। लोकः स क्षेत्रलोकः, आह च-"पागासस्स परसा, उहूं च
(७) लोकमध्यद्वाराणिअहे य तिरियलोए य । जाणाहि खेत्तलोयं, अणंतजिण- | कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे पएणते ?, गोदेसियं सम्मं ॥१॥” 'काललोए 'त्ति कालः-समयादिः | यमा! इमीसे णं रयणपभाए उवा (ओगा)संतरस्स भतपो लोकः कावलोकः; आह च-" समयाबली मुहुसा, दिवसहोरत्तपक्षमासा य । संवच्छरजुगपलिया, सा
संखेजतिभाग ओगाहेत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाममरउस्सप्पिपरियट्टा ॥१॥"' भावलोए ' ति भावलोको
मज्झे पएणत्ते ॥ कहि सं भंते ! अहेलोगस्स आयाद्वेधा-आगमतो, नोश्रागमतश्च । तत्रागमतो लोकशब्दार्थ- ममझे पएणते ?, गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढशस्तत्र चोपयुक्तः, भावरूपो लोको भावलोक इति । नोभाग- वीए उवासंतरस्स सातिरेगं अद्धं ओगाहित्ता एत्थ णं मतस्तु भावा-औदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः, आह च-“ओदइए उवसमिए , खइए य तहा खोव
अहेलोगस्स आयाममज्मे पएणत्ते, ॥ कहि णं भंते ! समिए य । परिणामसन्निवाएँ य, छविहो भावलोगो उ
| उडलोगस्स आयाममज्झे पामते ?, गोयमा ! उप्पि ॥१॥” इति, इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा, सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हेढेि बंभलोए कप्पे रिह
आगमस्य ज्ञानत्वात् क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञानस्वरूपभाव- विमाणे पत्थडे एत्थ णं उडलोगस्स आयाममज्मे पविशेषेण च मिश्रत्वादौदयिकादिभावलोकस्येति , 'अहे
सत्ते । कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाममज्झे पलोयखेत्तलोए'त्ति, अधोलोकरूपः क्षेत्रलोकोऽधोलोकक्षेत्रलोकः , इह किलाष्टप्रदेशो रुचकस्तस्य चाधस्तनप्रतर
मते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स - स्याधो नवयोजनशतानि यावत्तिर्यग्लोकस्ततः परेणाधः हुमझदेसभाए , इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवस्थितत्वादधोलोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः , 'तिरियलो. रिमहेढिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्स मयखेत्तलोए' त्ति रुचकापेक्षयाऽध उपरि च नव नव योजन
ज्झे अट्ठपएसिए रुयए परमत्ते, जो णं इमामो दशतमानस्तिर्यगरूपत्वात्तिर्यग्लोकस्तपः क्षेत्रलोकस्तिर्यगलोकक्षेत्रलोकः 'उडलोयखेसलोए' सि तिर्यगलोकस्यो
सदिसाओ पवहति, तं जहा-पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहिपरि देशोनसप्तरज्जुप्रमाण ऊवभागवर्तित्वादृचलोकस्त- | णा एवं जहा दसमसए नामधेजं ति । (सू० ४७६) द्रपः क्षेत्रलोकः ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकः , अथवा-अधः-अशुभः 'चउत्थीए पंकप्पभाए' इत्यादि, रुचकस्याधो नवयोजपरिणामो बाहुल्येन क्षेत्रानुभावाद् यत्र लोके द्रव्याणाम- नशतान्यतिक्रम्याधोलोको भवति लोकान्तं यावत् , सच सावधोलोकः, तथा-तियङ्मध्यमानुभावं क्षेत्र नातिशुभं सातिरेकाः सप्त रजवः, तन्मध्यभागः चतुर्थ्याः पश्चम्यानाप्यत्यशुभं तद्पो लोकस्तिर्यग्लोकः, तथा-ऊर्व-शुभः
श्व पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेकमीमतिबास परिणामो बाहुल्येन द्रव्याणां यत्रासापूर्वलोकः, श्राह च
भवतीति, तथा रुचकस्योपरि नवयोजनशतान्यतिक्रम्यो"अहव अहो परिणामो, खेत्तणुभावेण जेण प्रोसत्र ।
ईलोको व्यपदिश्यते लोकान्तमेव यावत् , स च सप्तअसुहो अहो त्ति भणिओ, दव्वाणं तेणऽहोलोगे ॥१॥" रज्जवः किनिम्न्यूनास्तस्य च मध्यभागप्रतिपादनायाह-' उ. इत्यादि । भ०११ २०१० उ०।
पि सणकुमारमाहिंदाणं कप्पाण' मित्यादि । तथा-' उव(६) ऊर्धादितो लोकस्त्रिधा तद्यथा
रिमहिटिल्लेसु खुडागण्यरेसु' त्ति लोकस्य बज्रमध्यत्वादविविहे लोगे पत्ते, तं जहा-उडलोगे, महोलो
लप्रभाया रत्नकाण्हे सर्वखुल्लकं प्रतरद्वयमस्ति, तयोमोगे, तिरियलोगे। (सू०१५३४)
परिमो यत प्रारभ्य लोकस्योपरिमुखा वृद्धिः 'हेडिसे' सिं तिविहे इत्यादि.इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरु- अधस्तनो वत प्रारभ्य लोकस्याधोमुसा वृद्धिः तयोरुप
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(७०२) लोक अभिधानराजेन्द्रः।
लोक रिमाधस्तनयोः 'खुडागपयरेसु'त्ति खुलकप्रतरयोः-सर्व व्याख्या चास्य प्राग्वदिति । अनन्तरं लोकस्वरूपमुक्तम् , तत्र लघुपदेशप्रतरयोः एत्थ ण 'ति प्रज्ञापकेनोपायतः प्रदय- | च यत्केवली करोति तद्दर्शयन्नाह-- तंसी' त्यादि, · अंमाने तिर्यग्लोकमध्येऽष्टप्रदेशको रुचकः प्राप्तः , (रुच- तं करेइ 'त्ति अत्र क्रियोक्ता । भ०७ श. ३ उ० । चन्द्रादीनाकपर्वतस्य विष्कम्भादिः 'रुयग'शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५७१ | मेवार्थानामाधारभूतस्य लोकस्य स्वरूपमभिधीयत । पृथे उक्तः ) यश्च तिर्यग्लोकमध्ये प्रश्नप्तः स सामर्थ्यात्तिर्य
स्था० ३ ठा० ३ उ०। ग्लोकायाममध्यं भवत्येवेति, किम्भूतोऽसावष्टप्रदेशिको रुच कः इत्याह-'जो णं इमाओ' इत्यादि । भ० १३ श०४ उ०।।
किंसंठिए णं भंते ! लोए पलते १ , गोयमा ! सुपतस्य चयं स्थापना
इट्ठियसंठिए लोए पलते, हेट्ठा वित्थिन्ने मज्झे जहा सत्तमसये पढमुद्देसे जाव अंतं करेति । (सू०४८७+) भ० १३ श०४ उ०।
(१०)अधोलोकक्षेत्रादिसंस्थानम्-- अहोलोगखेत्तलोए णं भंते किंसंठिए पएणते ?, गोयमा! तप्पागारसंठिए पमत्ते । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा ? झलरिसंठिए पत्ते उडलोयखेत्तलोयपुच्छा उड्डमुइंगागारसंठिए पन्नते । लोएणं भंते ! किंसंठिए पत्ते ?, गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पनत्ते, तं जहा-हेट्ठा वित्थिन्ने मज्झे संखित्ते जहा सत्तमसए पढमुद्देसए जाव अंत करेति । अलोए णं भं
ते ! किंसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा! असिरगोलसंठिए प(1) लोकस्य महत्त्वम्
अत्ते । [सू० ४२०) तेणं कालेणं तेणं समएणं . जाव एवं वयासी-के म-|
'तप्पागारसंठिए 'त्ति तप्तः-उडुपकः, अधोलोकक्षेत्रलो
कः अधोमुखशरावाकारसंस्थान इत्यर्थः,स्थापना चेयम्-/ सलए गंभंते ! लोए पनते ?, गोयमा ! महतिमहालए मजरिसंठिए ' ति अल्पोच्छायत्वान्महाविस्तारत्वाश्च तिलोए पमत्ते, पुरच्छिमेणं असंखेजाओ जोयणकोडाको- र्यग्लोकक्षेत्रलोको झल्लरीसंस्थितः , स्थापना चात्रडीमो, दाहिणेणं असंखिजाओ, एवं चेव, एवं पञ्चच्छि- • उहमुहंगागारसंठिए ' ति ऊर्वः--ऊर्ध्वमुखो यो मेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्डे पि अहे असंखेजाओ
मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितो यः स तथा शरावसंपुटाकार
इत्यर्थः, स्थापना चेयम्->'सुपइट्टगसंठिए 'त्ति सुप्रजोयखकोडाकोडीओ आयामभिक्खंभेणं । (मू०४५७४)
तिष्ठकम्-स्थापनकं तश्चेहारोपितवारकादि ग्रह्यते, तथाविभ०१२ श०७ उ०। (नास्ति कोऽपि लोकस्य एतादृशः प्रदे
धेनेव लोकसादृश्योपपत्तेरिति. स्थापना चेयम-- शः यत्राय जीवो न जातो न मृतो वा इति 'जीव' शब्दे 'जहा सत्समसए' इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यम्, बतुर्थभागे १५४५ पृष्ठे गतम्।)
'उप्पिविसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए मज्झे वर- / (L) लोकस्य संस्थानम्
वहरविग्गहिए उपि उद्धमुइंगागारसंठिए तेसिं च णं सासयंकिंसंठिए णं भंते ! लोए पत्ते, गोयमा! सुपइट्ठ
सि लोगसि हेवा वित्थिनंसि जाव उप्पि उडमुइंगागारसंठि
यंसि उप्पन्ननाणदसणधरे रहा जिणे केवली जीवे वि जाणा गसंठिए लोए पन्नत्ते, हेट्ठा वित्थिने • जाव उप्पि उड़
अजीचे वि जाणइ तो पच्छा सिज्मइ बुज्मइ' इत्यादीति , मुइंगागारसंठिए , तेसिं च णं सासयंसि लोगंसि हेडा 'असिरगोलसंठिए 'ति अन्तः शुधिरगोलकाकारो यतोऽ वित्थिग्रंसि जाव उपि उई मुइंगागारसंठियसि उप्पन्न- लोकस्य लोकः शुषिरमिवाभाति, स्थापना चेयम्-- नाणदंसणधरे अरहा जिणे केली जीवे वि जाणइ पा-|
भ० ११ श०१० उ०।
(११) मरणादिस्वरूपं भगवता लोके प्ररूपितमिति सइ अजीवे वि जाणइ पासइ तो पच्छा सिझति |
लोकस्वरूप्ररूपणाय प्रश्न कारयन्नाहजाव अंतं करेइ । (सू० २६१)
के अयं लोगे ?, जीव चव अजीव च्चेव, के भयंता 'सुपइटुगसंठिए' ति, सुप्रतिष्ठकम्--शरयन्त्रकं तवेह उप-1
लोए ? जीव च्चे अजीव च्चेव, के सासया लोगे ?, रिस्थापितकलशादिकं प्राह्यम् , तथाविधेनैव लोकसाह-| श्योपपत्तेरिति । एतस्यैव भावनार्थमाह--'हेट्ठा वित्थिन्ने'।
जीव च्चेव अजीव च्चेव (सू० १०३) इत्यादि, यावत्करणात् ' मज्झ सखिसे उपि विसाले अहे 'क' इति प्रभार्थ., 'अय' मिति देशतः प्रत्यक्ष आलपलियंकसंठाणसंठिए मज्झे वरवयरविग्गहिए' ति दृश्यम्, । प्रश्च यत्र भगवता मरणाविप्रशस्तासमस्तवस्तुस्तोमतस्व
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(022) अभिधान राजेन्द्रः ।
लोक
मभ्यधायि लोक्यत इति लोक इति प्रश्नः अस्य निर्वचनम् जीवाश्चाजीवाश्वेति पञ्चास्तिकायमयत्वाल्लोकस्य तेषां च जीवाजीवरूपत्वादिति, उक्तञ्च - " पंचन्धिकायमध्यं, लोगमाहिणं जिक्वायं " ति । लोकस्वरूपभूतानां च जीवाजीवानां स्वरूपं प्रश्नपृवकेण सूत्रद्वयेनाह' के श्रोते 'त्यादि के अनन्ताः लोके इति प्रश्नः श्रत्रोत्तरम्-जीवा जीवाश्चेति श्रत एव च शाश्वता द्रव्यार्थतयेति ॥ स्था २ ठा० ४ उ० ।
(१२) अधोलोकाविक्षेत्रलोकः किं जीवोऽजीवो वा
अहे(हो)लोयखेत्तलोए णं भंते! किं जीवा जीवदेसा tauren ? एवं जहा इंदा दिसा तत्र निरवसे भाणि - य० जाव श्रद्धासमए । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा १, एवं चेव, एवं उड्डलोयखेत्तलोए त्रि, नवरं रुवि विहा श्रद्धासमो नत्थि || लोए णं भंते ! किं जीवा जहा बितियसए प्रत्थि उद्देसए लोयागासे नवरं अरूवी सत्त वि० जाव अहम्मत्थिकायस्स पएसा नोयागासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देखे आगासत्थिकायपरसा श्रद्धासमए सेसं तं चैव । ( सू० ४२० + )
• श्रहेोयखेत्तलोए गं भंते !' इत्यादि, ' एवं जहा इंदा दिसा तदेव निरवसेसं भागियब्वं' ति दशमशते प्रथमोद्देशके यथा मन्त्री दिगुक्ला तथैव निरवशेषमधोलोकस्वरूपं भतिव्यम्, तच्चैवम् - " अहेलोयखेत्तलोप गं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपपसा श्रजीवा श्रजीवदेसा श्रजीव परसा ?, गोयमा ! जीवा वि जीवदेसा वि जीवपणा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि जीव एसा वि" इत्यादि, नवरमित्यादि अधोलोकतिर्यग्लोकयोररूपिणः सप्तविधाः प्रागुक्ताः धर्माधर्म्माकाशास्तिकायानां देशाः ३ प्रदेशाः ३ कालश्चेत्येवम्, ऊर्द्धलोके तु रविप्रकाशाभिव्यङ्गयः कालो नास्ति, तिर्यगधोलोकयोरेव रविप्रकाशस्य भावाद्, अतः बडेव त इति ॥ ' लोए ग ' मित्यादि, 'जहा बीयसए - स्थिउद्देसर 'ति यथा द्वितीयशते दशमोद्देशक इत्यर्थः । ' लोयागासे ' ति लोकाकाशे विषयभूते जीवादय उक्ताः एवमिहापीत्यर्थः, 'नवर 'मिति केवलमयं विशेषः तत्रारूपिणः पश्चविधा उक्लाः, इह तु सप्तविधा वाच्याः, तत्र हिलोकाकाशमाधारतया विवक्षितमत श्राकाशभेदास्तत्र नोकयन्ते, इह तु लोकोऽस्तिकाय समुदायरूप श्राधारतया विवक्षितोऽत श्राकाशभेदा श्रप्याधेया भवन्तीति सप्त ते चैवम्-धर्मास्तिकायः, लोके परिपूर्णस्य तस्य विद्यमानत्वात्धर्मास्तिकायदेशस्तु न भवति, धर्मास्तिकायस्यैव तत्र भा वात् । धर्मास्तिकायप्रदेशाश्च सन्ति तद्रूपत्वाद्धर्मास्तिकायस्येति द्वयम् |२| एवमधर्मास्तिकायेऽपि द्वयम् |४| तथा नो श्राकाशास्तिकायो, लोकस्य तस्यैतद्देशत्वात् श्राकाशदेशस्तु भवति तदंशत्वात् लोकस्य तत्प्रदेशाश्च सन्ति ६, कालचे ७ ति सप्त ।
(१३) अलोकः किं जीवोऽजीवो वा ? - अलोए सं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा !
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लोक
एवं जड़ा अस्थिकायउद्देसए अलोयागासे तहेव निरवसेसं० जावतभा ॥ अहेलोगखेतलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा, अजीवा अजीवसा अजीव एसा ९ गोयमा ! नोजीवा जीवदेसा वि जीवyear वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि, जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा १, हवा - एर्गिदियदेसा य बेई दियस्स देसे २, हवा - एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३, एवं मज्झिल्ल विरहिओ० जाव अखिदिएसु०जात्र, अहवा एगिंदियदेसाय प्रणिदियदेसा य, जे जीवपएसा ते नियया एगिंदियपसा १, अहवा - एगिंदियपएसा य बेइंदियस्स पएसा २, अहवा - एगिंदियपएसा य बेदिया य परसा ३, एवं आइल्लविरहिओ० जाव पंचिदिएस सिंदिएस तियभंगो। जे अजीवा ते दुविहा पश्नत्ता, तं जहा - रूत्री अजीवा य, अरूवी अजीवा य, रूवी तहेवजे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पपत्ता, तंजहा-नो धम्मत्थिका धम्मत्थिकायस्स देसे १ धम्मत्थिकायस्स पएसे२, एवं अहम्मत्थिकायस्स वि ३, ४, श्रद्धासमए ५। तिरियलोगखेत्तलोगस्स खं भंते ! एगम्मि आगासपएसे किं जीवा० १, एवं जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स तहेव, एवं उडलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं श्रद्धासमा नत्थि,
वी चव्हा, लोगस्स जहा अहेलोगखेन लोगस्स एम्म आगासपसे ।। अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि
गास से पुच्छा, गोयमा ! नोजीवा नोजीवदेसा तं चैव० जाव अणंतेहिं अगुरुयल हुयगुणेहिं संजुते सव्वागासस अतभागू || दव्व णं अहेलोगखेत लोए
ताई जीवदव्वाई अताई अजीवदव्वाई असंता जीवाजीवदव्त्रा एवं तिरियलोयखे लोए वि, एवं उड्डलोयखेत्तलोए वि, दव्वओ गं अलोए वत्थि जीवदव्वा नेवत्थि अजीवदव्त्रा नेवत्थि जीवाजीवदव्वा, एगे अजीवदव्वदेसे० जाव सन्वागास असंतभागूणे । कालो सं अहेलोयखेचलोए न कयाइ नासि० जाव निच्चे, एवं० जाव अहेलोगे । भावओ णं अहेलोग खेतलोए अता वनपज्जा जहा खंदए० जाव अता अगुरुयल हुयपजवा एवं० जाव लोए, भावो यं अलोए नेत्थि वनपज्जवा० जाव नेवत्थि अगुरुयल हुयपज्जवा एगे
जीवदव्वदेसे० जाव अनंतभागूणे । ( सू० ४२०+ )। 'अलोएं भंते !' इत्यादि, इदं च ' एवं जहे ' त्याद्यतिदेशादेवं दृश्यम् -'अलोए से भंते! किं जीवा जीवदेसा जीवपरसा, अजीवा अजीवदेसा अजीव परसा ? गोयमा ! नो जीवदेसा नो जीवपपसा, नो अजीषदेसा नो अजीवप
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( ४) लोक अभिधानराजेन्द्रः।
लोक रसा, एगे अजीवदव्वदेसे अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणहिं संजु-| जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवा जाव परिक्खेवणं, तेणं कालेणं से सम्यागासे अणंतभागूणे'ति-तत्र सर्याकाशमनन्तभा
तेणं समएणं छ देवा महिड्डीया जाव महेसक्खा, जंबुद्दीवे गोनमित्यस्यायमर्थः-लोकलक्षणेन समस्ताकाशस्यानन्तभागेम न्यूनं सर्वाकाशमलोक इति ॥ अहोलोगखेत्तलोयस्स दीवे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सव्वत्रो समंता संपरिक्खिशंभंते ! एगम्मि भागासपएसे,' इत्यादि, नो जीवा एकप्र- ताणं चिद्वेजा, अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तदेशे तेषामनवगाहनात् , बहूनां पुनर्जीवानां देशस्य प्रदेशस्य
रियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चावगाहनात् उच्यते-'जीवदेसा वि जीवपएसा वि ' ति,
चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि वयद्यपि धर्मास्तिकायाद्यजीबद्रव्यं नैकत्राकाशप्रदेशेऽवगाहते तथापि परमाणुकादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य चावगाह
लिपिंडे जमगसमगं बहियाभिमुहे पक्खिवेज्जा, पभू णं नादुच्यते-'अजीवा वि ' ति, स्थणुकादिस्कन्धदेशानां गोयमा ! ताओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिंडे धर-- स्ववगाहनादुक्तम्-'अजीवदेसा वि' ति, धर्माधर्मास्ति
णितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा ! कायप्रदेशयोः पुनलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते-'अजी
देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगइए एगे देवे पुरच्छावपएसा वि'त्ति, एवं 'मज्झिल्लविरहिशो 'त्ति दशमशतप्रदर्शितत्रिकभने 'अहवा एगिदियदेसा य बेइदियदेसा य' भिमुहे पयाते एवं दाहिणाभिमुहे एवं पञ्चत्थाभिमुहे एवं इत्येघरूपो यो मध्यमभङ्गस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्गः, ' एव ' उत्तराभिमुहे एवं उड्डाभिमुहे०एगे देवे अहोभिमुहे पयाए । मिति सूत्रप्रदर्शितभावयरूपोऽध्येतभ्यो मध्यम्भस्यहास- तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए, म्भवात् ,तथाहि-द्वीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशपदेशे बहवो देशा |
तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, णो न सन्ति,देशस्यैव भावात् , एवं श्राइजविरहियो' त्ति, 'अहवा पगिदियस्स पएसा य बेदियस्स पएसा य' इत्येवं रूपाद्यभङ्ग
चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स कविरहितरित्रभनः, 'एव' मिति सूत्रप्रदर्शितभावयरूपो- आउए पहीणे भवति णो चेव णंजाव संपाउणंति,तए णं ऽध्येतव्य श्राधभङ्गकस्येहासम्भवात् , तथाहि-नास्त्येवैक- तस्स दारगस्स अद्विमिंजापहीणा भवंति णो चेवणं ते देवा नाकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विनैकस्य जीवस्यैकप्रदे
लोगतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि शसम्भवोऽसंख्यातानामेव भावादिति, ' अणिदिएसु ति
कुलवंसे पहीणे भवति णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपायभंगो' त्ति अनिन्द्रिये घूक्तभङ्गकत्रयमपि सम्भवतीति कृत्या तेषु तद्वाच्यमिति । 'रूवी तहेव ' ति स्कन्धाः देशाः
उणंति,तए णं तस्स दारगस्स नामगोए वि पहीणे भवति प्रदेशा अणवश्वेत्यर्थः, ‘नो धम्मत्थिकाये 'त्तिनो धर्मा- णो चेव णं ते देवा लोगतं संपाउणंति,तेसि णं भंते देवास्तिकाय एकत्राकाशप्रदेशे संभवत्यसंख्यातप्रदेशावगाहि- णं किं गए बहुए अगए बहुए ?, गोयमा ! गए बहुए नो स्वात्तस्येति, 'धम्मत्थिकायस्स देसे ' ति यद्यपि धर्मा
अगए बहुए,गयाउ से अगए असंखेज्जहभागे अगयाउ से स्तिकायस्यैकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथाऽपि देशो
गए असंखेज्जगुणे लोए णं गोयमा ! एमहालए पनत्ते । ऽवयव इत्यनान्तरत्वेनावयवमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् निरंशतायाश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाद्धर्मास्तिकायस्य
(१५) अलोकः कतिमहालयःदेश इत्युक्तम् , प्रदेशस्तु निरुपचरित एवास्तीत्यत उच्यते अलोए णं भंते ! के महालए पन्नत्ते?, गोयमा! अयनं 'धम्मत्थिकायस्स पएसे ' त्ति ' एवमहम्मत्थिकायस्स समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविवि' ति · नो महम्मत्थिकाए महम्मस्थिकायस्स देसे
क्खंभेणं जहा खंदए जाव परिक्वेवेणं । तेणं कालणं महम्मत्थिकायस्स पएसे' इत्येवमधर्मास्तिकायसूत्र वाच्य
तेणं सयएणं दस देवा महिड्डिया तद्देव जाव संपरिमित्यर्थः, 'श्रद्धासमश्रो नत्थि त्ति अरूपी चउम्विह' त्ति ऊ
लोकेऽद्धासमयो नास्तीति अरूपिणश्चतुर्विधाः-धर्मा- क्खित्ता णं संचिद्वेज्जा, अहे णं अट्ठ दिसाकुमारीओ महस्तिकायदेशादयः ऊर्ध्वलोक एकत्राकाशप्रदेशे सम्भव- सरियानो अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स न्तीति । ' लोगस्स जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि चउसु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीमो मागासपएसे ' त्ति अधोलोकक्षेत्रलोकस्यैकत्राकाशप्रदेशे | ठिच्चा अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जमयवतव्यमुक्तं तशोकस्याप्येकपाकाशप्रदेशे वाच्यमित्यर्थः,
गसमगंबहियाभिमुहीनो पक्खिवेज्जा,पभूणं गोयमा तो तवेदम्-'लोगस्स पं भंते ! एगम्मि भागासपएसे किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा? पुच्छा गोयमा! नो जीवे ' त्यादि
एगमेगे देवे ते अट्ट बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव भाग्वत् । 'हेलोयसेत्तलोए अणता वनपजव ' ति - पडिसाहरितए,तेणं गोयमा ! देवा ताए उकिट्ठाए जाव धोलोकक्षेत्रलोके अनन्ता वर्णपर्यवाः, एकगुणकालकादीनां- वगईए लोगसि ठिच्चा असम्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरच्छा मनन्तगुणकालाधवसानानां पुद्रलानां तत्र भावात् । अलो
भिमुहे पयाए, एगे देवे दाहिणपुरच्छाभिमुहे पयाए, एवं० कसूत्रे 'नेवत्थि गुरुलायपजव' ति अगुलांपर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्रलादीनां तत्राभावात् ।।
जाव उत्तरपुच्छाभिमुहे एगे देवे उड्डाभिमुहे एगे देवे अ(१४) लोकः कति महालयादि
होभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं घाससयसलोए भंते ! के महालए पबचे १, गोषमा भय हस्साउए दारए पयाए, तए णं तस्स दारगस्स अम्मा
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लोक अभिधानराजेन्द्रः।
लोक पियरो पहीणा भवंति नो चेव णं ते देवा अलोयंत सं- स्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नट्टस्स अन्नयरं नट्टविहिं उवपाउणंति, तं रेव०, तेसि णं देवाणं किं गए बहुए अ-| दंसेजा, से नूणं गोयमा! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिगए बहुए ?, गोयमा नो गए बहुए अगए बहुए ग- साए दिदीए सव्वत्रो समंता समभिलोएंति ?, हंता समयाउ से अगए अणंतगुणे, अगयाउ से गए अणंतभागे भिलोएंति, ताओ णं गोयमा ! दिट्ठीओ तंसि नट्टियसि अलोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते । (सू० ४२१) | सन्चो समंता सन्त्रिपडियाओ?, हंता सन्निपडियाओ, 'सव्वदीव ' त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-' समु- अस्थि णं गोयमा! ताओ दिवीमो तीसे नट्टियाए किंहाणं अभंतरए सव्वखुड़ाए वट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए व.
चि वि आबाहं वा वाबाहं वा उम्पाएंति छविच्छेदं वा दे रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकन्नियासंठाणसठिए बट्टे पडिपुत्रचंदसंठाणसंठिए एकं जोयणसयसह
करेंति ?, णो तिणद्वे समढे, हवा-सा नट्टिया तासि
दिट्ठीणं किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति छविच्छेदं सहस्साई दोनि य सत्तावीसे जोयणसए तिनि य को- वा करेइ ?, णो तिणद्वे समढे,ताओ वा दिदीओ अनमसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई श्रद्धगुलं च
नाए दिट्ठीए किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति किंचि विसेसाहिय' ति 'ताए उक्किट्टाए ' त्ति इह यावरकरणादिदं दृश्यम्-' तुरियाए चवलाए चंडाए सिहा
छविच्छेदं वा करेंति ?, णो तिणद्वे समढे, से तेणटेणं ए उड्याए जयणाए छेयाए दिवाए ' त्ति तत्र त्वरि- गोयमा! एवं वुच्चइ तं चेव० जाव छविच्छेदं वा करेंति।। तया-श्राकुलया चपलया-कायचापल्येन चण्डया-रौद्रया | (सू० ४२२) गत्युत्कर्षयोगात् सिंहया-दायस्थिरतया उद्भुतया-दर्पा
लोगस्स ण ' मित्यादि, 'अत्थि ण भंते ! ' त्ति अस्त्ययं तिशयेन जयिन्या-विपक्षजेतृत्वेन छेकया-निपुणया दि. भदन्त ! पक्षः इह च त इति शेषो दृश्यः , ' जाव कव्यया-दिवि भवयेति, 'पुरच्छाभिमुहे ' त्ति मेवपेक्षया,
लिय' त्ति इद्द यावत्करणादेवं दृश्यम्-' संगयगयहसि'पासत्तमे कुलवंसे पहीणे' त्ति कुलरूपो वंशः प्रहीणो
यभणियचिट्ठियविलासललियसलावनिउणजुत्तोबयारकभवति श्रारूप्तमादपि बंश्यात् , सप्तममपि वश्यं यादि
लिय'त्ति, · बत्तीसइविहस्स नट्टम्स' त्ति द्वात्रिंशद त्यर्थः, ' गयाउ से अगए असंखेजइभागे अगयाउ से ग
विधा-भेदा यस्य तत्तथा तम्य नाट्यस्य , तत्र ईहा५ असंखेजगुणे ' ति, ननु पूर्वादिषु प्रत्येकमर्द्धरज्जु- मृगऋषभतुरगनरमकरविहगन्यालककिन्नरादिभक्तिचित्रोप्रमाणन्चाल्लोकस्यो धश्च किश्चिन्यूनाधिकसप्तरज्जुप्रमा- | नामैको नाट्यविधिः , एतच्चरिताभिनयनमिति संभाव्यगत्वानुल्यया गत्या गच्छतां देवानां कथ षट्स्वपि दिनु ते, एवमन्येऽप्येकत्रिशद्विधयो राजप्रश्नकृतानुसारतो वागतादगतं क्षेत्रमसंख्यातभागमात्रम् , अगताच्च गतमसं
च्याः । ण्यातगुणमिति ?, क्षेत्रवैषम्यादिति भावः, अत्रोच्यते
लोकैकप्रदेशाधिकारादेवेदमाहघनचतुरस्रीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः, ननु
लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जहन्नपए जीवपयानस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो देवा लोकान्तं बहुनपि कालन न लभन्ते तदा कथमच्युताजिनजन्मादि
एसाणं उकोसपए जीवपएसाणं सव्वजीवाण य कयरे षु दागवतरन्ति ?, बहुत्वारक्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्ये- कयरेहिं तो० जाव विससाहिया वा ! , गोयमा ! सव्वति, सत्यम् , किन्तु-मन्देयं गतिः, जिनजन्माद्यवतरण- | त्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपएसे जहमपए जीव गतिस्तु शीघ्रतमेति । 'असम्भावपट्टवणाए' ति असता
पएसा, सब्बजीवा असंखेजगुणा , उक्कोसपए जीवपथकल्पनयेत्यर्थः । पूर्व लोकालोकवक्तव्यतोता ।
एसा विसेसाहिया सेवं भंते ! भंते ! ति । (स०४२३) (१६) अथ लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेष दर्शयन्नाह
"लोगस्स ण' मित्यादि, अस्य व्याण्या-यथा किलेतेषुत्रलोगम्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जे एगिदियप-| योदशसु प्रदेशेषु त्रयोदश प्रदेशकानि दिग्दशकस्पर्शानि - एसा. जाव पंचिंदियपएसा अणिदियपदेसा अन्नमन्त्रब- योदश द्रव्याणि स्थितानि तेषां च प्रत्याकाशप्रदेशं प्रदा, अत्रमन्नपुट्ठाजाव अन्नमन्त्रसमभरघडत्ताए चिट्ठति,
योदश त्रयोदश प्रदेशा भवन्ति , एवं लोकाकाशप्रदशेऽ
नन्तजीवावगाहेनैकैकस्मिन्नाकाश देशेऽनन्ता जीवप्रदेश भत्थि णं भंते ! अन्नमत्रस्स किञ्चि आवाहं वा वाबाई
भवन्ति लोके च मूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका निगोदाः - वा उप्पायति छविच्छेदं वा करेंति ?, यो तिमद्वे समढे,
थिव्यादिसर्वजीवासंख्येयकतुल्याः सन्ति , तेषां चैकैकसे केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ लोगस्स णं एगम्मि आगा- स्मिन्नाकाशप्रदेशे जीवप्रदेशा अनन्ता भवन्ति तेषां च जसपएसे जे एगिदियपएसा जाब चिटुंति णऽस्थि णं भं- घन्यपदे एकत्राकाशप्रदेशे सर्वस्तीका जीवप्रदेशाः, तेभ्यते ! अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा जाव करेंति ? गोय
श्व सर्यजीवा असंख्येयगुणाः , उत्कृष्टपदे पुनस्तेभ्यो
विशेषाधिका जीवप्रदेशा इति ॥ अयं च सूत्रार्थोऽमूभिर्वमा ! मे जहानामए नट्टिया सिया सिंगागगारचारुवेसा
दोक्तगाथाभिर्भावनीयःजाव कलिया रंगहाणमि जणमयाउलाम जणमयमह- "लोगम्मेगपपसे . जहन्नयपर्याम्म जियपपमाणं ।
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लोक
लोक
अभिधानराजेन्द्रः। उक्कोसपए य तहा, सम्बजियाणच के बहुया?।१।इति प्रश्नः,
अथ गोलकत्ररूपणायाहउत्तरं पुनरत्र
उक्कोसपयममोत्तुं, निगोयोगाहणाए सव्वत्तो। थोवा जहएणयपए, जियप्पएसा जिया असंत्रगुणा । निप्फाइजर गोलो, पएसपरिडिहाणीहि ॥ ६॥ उलोसपयपएसा, तो विससाहिया भणिया ॥२॥ उत्कृष्टपद-विवक्षितप्रदेशम् अमुञ्चद्भिः निगोदावगाहनाया अथ जघन्यपदमुत्कृष्टपदं चोच्यते
एकस्याः सर्वतः-सर्वासु दिक्षु निगादान्तराणि स्थापयनितत्थ पुण जहन्नपयं, लोगतो जत्थ फासणा तिदिसि ।
निष्पाद्यते गोलः, कथम् ?, प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां-कांश्चित्छदिसिमुक्कोसपयं, समत्तगोलम्मि णरणत्थ ॥३॥
प्रदेशान् विवक्षितावगाहनाया आक्रामद्भिः कांश्चिद्विमुश्चतंत्र-तयोर्जघन्येतरपदयोजघन्यपदं लोकान्ते भवति 'ज-|
द्भिरित्यर्थः, एवमेकगोलकनिष्पत्तिः । स्थापना चेयम्-० स्थ'त्ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु
गोलकान्तरकल्पनायाहभवति शेषदिशामलोकेनावृतत्वात् , सा च खण्डगोल
तत्तो चिय गोलायो, उक्कोसपयं मुइत्तु जो अन्नो । एव भवतीति भावः 'छहिसिं ' ति यत्र पुनर्गोलके पद
होर निगोश्रो तम्मि वि, अन्नो निप्फज्जती गोलो ॥७॥ स्वपिदिषु निगोददेशैः स्पशना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति
तमेवोनलक्षणं गोलकमाश्रित्यान्यो गोलको निष्पद्यते, तच समस्तगोलैः परिपूणगोलके भवति, नान्यत्र, सण्ड
कथम् ?, उत्कृस्यपदं प्राक्तनगोलकसम्बन्धि विमुच्य योऽन्यो गोलके न भवतीत्यर्थः, सम्पूर्णगोलकच लोकमध्य एव |
भवति निगोदस्तस्मिन्नुत्कृष्टपदकल्पनेनेति । स्यादिति।
तथा च यत्स्यात्तदाहअथ परवचनमाशङ्कमान पाह
एवं निगोयमेत्ते, खेत्ते गोलस्स होइ निष्फत्ती । उकोसमसंखगुणं, जहन्नयात्रो पयं हवा किंतु।
एवं निप्पज्जंते, लोगे गोला असंखिज्जा ॥८॥ नण तिदिसि फुसणाओ, छदिसि फुसणा भवे दुगुणा || एवम्-उक्लकमेण निगोदमात्रे क्षेत्रे गोलकस्य भवति उत्कर्षम्-उत्कृष्टपदमसंख्यातगुणं जीवप्रदेशापेक्षया जघन्य- निष्पत्तिः, विवक्षितनिगोदावगाहातिरिक्लनिगोददेशानां गोकात्पदादिति गम्यं भवति, किन्तु-कथं तु, न भवतीत्यर्थः,
लकान्तरानुप्रवेशात्, एवं च निष्पद्यन्ते लोके गोलका कस्मादेवम् ? इत्याह-ननु-निश्चितम् , अक्षमायां वा असंख्येयाः, असंख्येयत्वात् निगोदावगाहनानाम् , प्रतिनिगो ननुशब्दः, त्रिदिकस्पर्शनायाः सकाशात् पददिकस्पर्शना दावगाहनं च गोलकनिष्पत्तेरिति । भवेद् द्विगुणेति, इह च काकुपाठाडेतुत्वं प्रतीयत इति, अ- अथ किमिदमेव प्रतिगोलकं यदुक्तमुत्कृष्टपदं तदेवेह तो द्विगुणमेवोत्कृष्टं पदं स्यादसंख्यातगुणं च तदिष्यते, ग्राह्यमुताम्यत् ? इत्यस्यामाशायामाहजघन्यपदाश्रितजीवप्रदेशापेक्षयाऽसंख्यातगुणसर्वजीवेभ्यो यवहारनपण इमं, उक्कोसपया वि एत्तिया चेव । विशेषाधिकजीवप्रदेशोपेतत्वात्तस्येति । इहोत्तरम्
जं पुण उक्लोसपयं, नेच्छह य होइ तं वोच्छं ॥ ६॥ थोवा जहन्नयपए, निगोयमित्तावगाहणाफुसणा।
व्यवहारनयेन-सामान्येन इदम्-अनन्तरोक्नमुत्कृष्टपदफुसणासंखगुणता, उक्कोसपए असंखगुणा ॥५॥
मुक्तम्, काका चेदमध्येयम्, तेनं नेहेदं प्राह्यमित्यर्थः स्तोका-जीवप्रदेशा जघन्यपदे कस्मात् ?, इत्याह-नि- स्यात् , श्रथ कस्मादेवम् ?, इत्याह-'उक्कोसपया वि एतिगोदमा क्षेत्रेऽवगाहना येषां ते तथा, एकावगाहना इत्य- या चेव ' ति न केवलं गोलका असंख्येयाः उत्कर्षपथः, तरेव यत्स्पर्शनम्-अवगाहनं जघन्यपदस्य तन्निगो
दान्यपि परिपूर्णगोलकप्ररूपितानि एतावत्येव-असंख्येदमात्रावगाहनस्पर्शनं तस्मात् , खण्डगोलकनिष्पादकनि
यान्येव भवन्ति यस्मात्ततो न नियतमुत्कृष्टपदं किश्चनगोदैस्तस्यासंस्पर्शनादित्यर्थः, भूम्यासन्नापवरककोणान्ति
स्यादिति भावः, यत्पुनरुत्कृष्एपदं नैश्चयिकं भवति सोंमप्रदेशसडशो हि जघन्यपदाण्यः प्रदेशः, तं चालोकसम्य
त्कर्षयोगाद् यदिह ग्राह्यमित्यर्थः तद्वये। न्धादेकाधगाहना एव निगोदाः स्पृशन्ति; न तु खण्डगो
तदेवाहलनिष्पादकाः, तत्र किल जवन्यपदं कल्पनया जीवशतं
बायरनिगोयविग्गह-गइयाई जत्थ समहिया अन्ने । स्पृशति, तस्य च प्रत्येक कल्पनयेव प्रदेशलक्षं तत्रावगा
गोला हुज सुबहुला, नेच्छर पय तदुक्कोस ॥१०॥ दमित्येवं जघन्यपदे कोटी जीवप्रदेशानामवगाढेत्येवं स्तो
वादरनिगोदानां-कन्दादीनां विग्रहगतिकादयो बादरनिगोकास्तत्र जीवप्रदेशा इति । श्रथोत्कृष्टपदजीवप्रदेशपरिमाण- दविग्रहगतिकादयः, आदिशब्दश्चेहाविग्रहगतिकावरोधामुच्यते-'फुसणासंखगुणत्त' ति स्पर्शनायाः-उत्कृष्टपदस्य
थः, यत्रोत्कृष्टपदे समधिका अन्ये-सूक्ष्मनिगोदगोलकेपूर्णगोलकनिष्पादकनिगोदैः संस्पर्शनाया यदसंख्यातगुण- भ्योऽपरे गोलका भवेयुः सुबहयो नैश्चयिकपदं तदुत्कर्षम् . त्वं जघन्यपदापेक्षया तत्तथा तस्माद्धेतोरुत्कृष्टपदेऽसंख्या- वादरनिगोदा हि पृथिव्यादिषु पृथिव्यादयश्च स्वस्थानेषु तगुणा जीवप्रदेशा जघन्यपदापेक्षया भवन्ति, उत्कृष्टपदं स्वरूपतो भवन्ति न समनिगोदयत्सर्वत्रत्यतो यत्र कहि सम्पूर्णगोलकनिप्पादकनिगोदेरेकावगाहनैरसंख्येयैः त- चित्ते भवन्ति तदुत्कृष्टपदं ताचिकमिति भावः । थोत्कृष्टपदाविमोचनेनैकैकप्रदेशपरिहानिभिः प्रत्येकमसंख्ये
एतदेव दर्शयन्नाहयैरेव स्पृष्टम् , तच्च किल कल्पनया कोटीसहस्रेण जी- इहरा पहुच्च मुहुमा , बहुतुला पायसो सगलगोला। यानां स्पृश्यते, तत्र च प्रत्येकं जीवप्रदेशलक्षस्यावगाह-| तो वायगइगहणं, कीरइ उक्कोमयपयम्मि॥१२॥ नाजीवप्रदेशानां दशकोटीकोट्यो ऽवगाढाः स्युरित्येवमुक-। । इहर 'त्ति वादरनिगोदाश्रयणं विना सूदननिगोदान पदे तेऽसंख्येयगुगा भावनीया इति ।
। प्रतीत्य बहुतुल्याः-निगोदसंख्यया समानाः प्रायशः, प्रा
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(७०७) लोक अभिधानराजेन्द्रः।
लोक योग्रहणमेकादिना न्यूनाधिकत्वे व्यभिचारपरिहारार्थम् , क न्तीति । इयमत्र भावना-बादरविग्रहगतिकादीनामनन्तानां एते? इत्याह-सकलगोलाः , न तु खण्डगोलाः , अतो जीवानां सूक्ष्मजीवासंख्येयभागवर्तिनां कल्पनया कोटीप्रायन नियतं किश्चिदुत्कृष्टपदं लभ्यते , यत एवं ततो बा- संख्यानां पूर्वोक्तजीवराशिप्रमाणे प्रक्षेपणेन समताप्राप्तावपि दरनिगोदादिग्रहण क्रियते उत्कृष्टपदे।
तस्य पादरादिजीवराशेः कोटीप्रायसंख्यस्य मध्यादुत्कर्षतो. अथ गोलकादीनां प्रमाणमाह
ऽसंख्येयभागस्य कल्पनया शतसंख्यस्य विवक्षितसूक्ष्मगोगोला य असंखेजा, होति निगोया असंखया गोले। लकावगाहनायामवगाहनात् एकैकस्मिश्च प्रदेशे प्रत्येक एकेको उ निगोश्रो, अणतजीवो मुणेयव्यो ॥ १२ ॥ (भ०)। जीवप्रदेशलक्षस्यावगाढत्वात् लक्षस्य च शतगुणत्वन को(जीवप्रदेशपरिमाणप्ररूपणापूर्वकं निगोदादीनामवगाहना। टीप्रमाणत्वात् तस्याश्चोत्कृष्टपदे प्रक्षेपात्पूर्वोक्कमुत्कृष्ठपदजीमानादिप्ररूपणा 'श्रीगाहणा' शब्दे तृतीयभागे ८३ प्रष्ट वप्रदेशमानं कोटयधिकं भवतीति । गता)
___यस्मादेवम्श्रथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति तम्हा सव्वेहितो, जीयेहिंतो फुडं गहेयव्वं । विभणिपुस्तेषां सर्वजीवानां च तावत्समतामाह
उलोसपयपएसा, होति विसेसाहिया नियमा ॥२६॥ गोलो जीवो य समा, पएसओ जं च सम्बजीवा वि । होति समोगाहणया, मज्झिमोगाहणं पप्प ॥ २३ ॥
इदमेष प्रकारान्तरेण भाव्यतेगोलको जीवश्च समौ प्रदेशतः-अवगाहनाप्रदेशानाधि
श्रहवा जेण बहुसमा, सुहुमा लोएऽवगाहणाए य । त्य, कल्पनया द्वयोरपि प्रदेशदशसहस्न्यामवगाढत्वात् , 'जं
तेणेके जीवं, बुद्धी विरल्लए लोए ॥ २७ ॥ च 'त्ति यस्माश्च सर्वजीवा श्राप सूक्ष्मा भवन्ति समावगा
यतो बहुसमाः-प्रायेण समाना जीवसंख्यया कल्पनया इनका मध्यमावगाहनामाश्रित्य, कल्पनया हि जघन्याव
एकैकावगाहनायां जीवकोटीसहस्रस्यावस्थानात् , खगाहना पञ्चप्रदेशसहस्राणि उत्कृटा तु पञ्चदशेति द्वयोश्च | एडगोलकेव्यभिचारपंरिहारार्थ चेह बहुप्रहरवं सूक्ष्माःमीलनेनार्डीकरणेन च दश सहस्राणि मध्यमा भवतीति ।
सूक्ष्मनिगोदगालकाः कल्पनया लक्षकल्पाः लोके-चतुर्दतेण फुड विय सिद्धं, एगपएसम्मि जे जियपएसा ।
शरज्ज्वान्मके, तथाऽधगाहनया च समाः, कल्पनया दशसु ते सव्वजीवतुल्ला, सुणसु पुणो जह विसेसहिया ॥२४॥ |
दशसु प्रदेशसहस्रप्ववगाढत्वात् , तस्मादेकप्रदेशावगाढजी
वप्रदेशानां सर्वजीवानां च समतापरिक्षानार्थमकैकं जीवंइह किलासद्भावस्थापनया कोटीशतसंख्याप्रदेशस्य जी
बुद्भया 'विरल्लए' त्ति केवलिसमुद्घातगत्या विस्तारयेयस्याकाशप्रदेशदशसहस्यामवगाढस्य जीवस्य प्रतिप्रदेश
लाके । अयमत्र भावार्थः-यावन्तो गोलकस्यैकत्र प्रदेप्रदेशलक्ष भवति, तच्च पूर्वोक्तप्रकारतो निगोदवर्तिना
शे जीवप्रदशा भवन्ति, कल्पनया कोर्टाकोटीदशकामाजीवलक्षण गुणितं कोटिसहस्रं भवति, पुनरपि च तदे- णास्तावन्त एव विस्तारितेषु जीवेषु लोकस्यैकत्र प्रदेशे कगोलवर्तिना निगोदलक्षण गुणितं कोटीकोटीदशकप्रमाणं |
ते भवन्ति, सर्वजीवा अप्येतत्समाना एवेति । भवति. जीवप्रमाणमप्येतदेव । तथाहि-कोटीशतसंख्यप्रदेश लोके दशसहस्रावगाहिनां गोलानां लक्षं भवति, प्रति
अत एवाहगोलकं च निगोदलक्षकल्पनात् निगोदानां कोटीसहस्रं
एवं पिसमा जीवा, एगपएसगयजियपएसेहि। भति, प्रतिनिगोदं च जीवलक्षकल्पनात् सर्वजीवानां
बायरवाहुल्ला पुण, होति पएसा विसेसहिया ॥२८॥ कोटीकोटीदशकं भवतीति ।
एवमपि न केवलं 'गोलो जीवो य समा' इत्यादिना - अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदगतजीवप्रदेशा विशेषाधिका
वोकन्यायेन समा जीवा एकप्रदेशगतैर्जीवप्रदेशैरिति, उइति दर्श्यते
तरार्द्धस्य तु भावना, प्राग्वदवसेयेति । जं संति केइ खंडा, गोला लोगंतवत्तिणो अने।
श्रथ पूर्वोतराशीनां निदर्शनान्यभिधित्सुः प्रस्तावयन्नाहबायरविग्गहिहि य, उक्कोसपयं जमभहियं ॥ २५ ॥
तेसि पुण रासीण, निदरिसणमिणं भणामि पश्चक्खं । यस्माद्विद्यन्ते केचित्खण्डा गोला लोकान्तवर्तिनः । अने'
सुहगहणगाहणत्थं. ठवणा रासिप्पमाणेहिं ॥ २६ ॥ नि पूर्णगोलकेभ्योऽपरेऽतो जीवराशिः कल्पनया कोटी
गोलाण लक्खमेकं, गोले गोले निगोयलक्खं तु। कोटीदशकरूप ऊनो भवति.पूर्णगोलकतायामेव तस्य-यथो
एकेके य निगोए. जीवाणं लक्खमेकं ॥ ३०॥ कम्य भावात् , ततश्च येन जीवाशना खण्डगोलका
कोडिसयमेगजीव-प्पएममाणं तमेव लोगस्स । पूर्णीभूताः स सर्वजीवगशेरपनीयते असद्भुतत्वात्तस्य, स
गोल-निगोय जियाण, दस उ सहस्सा समोगाहो ॥ ३१॥ न किल कल्पनया कोटीमानः, तत्र चापनीते सर्वजीवगशिः स्तोकनरो भवति, उ.कृएपदं तु यथोक्कप्रमाणमवेनि
जीवस्केकस्स य. दसमाहस्सावगाहिणो लोगे। नत्यतो विशषाधिकं भवति, समता पुनः खण्डगोलाना
एक्के कम्मि परसे, पएसलक्खं समोगाढं ॥ ३२ ॥ पूर्णताविवक्षणादुलेति, तथा बादरविग्रहिकैश्च बादनिगा- जीक्सयस जहन्ने, पयाम्म कोडी जियप्पपसाणं । दादिजीवप्रदशश्चोकृष्टपदं यद्-यस्मात्सर्वजीवराशेरभ्यधिकं श्रोगाढा उक्कोसे, पयम्मि योच्छं पएसग्गं ॥ ३३ ॥ ततः सर्वजीयेभ्य उत्कृष्पदे जीवप्रदेशा विशेषाधिका भव-। कोडिसहस्सजियाणं, कोडाकोडीदसप्पएसाणं।
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(७०5) लोक अभिधानराजेन्द्रः।
लोक उकोसे प्रोगाढा, सव्वजियाऽवेत्तिया चेव ॥ ३४ ॥ वीरं बंदंति नमसंति पंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासीकोडी उक्कोसपय-म्मि बायरजियप्पएसपक्खेवो।
इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामाश्रो धम्माओ सोहणयमेत्तियं चिय, कायव्वं खंडगोलाणं ॥ ३५ ॥ उत्कृष्टपदे सूक्ष्मजीवप्रदेशराशेरुपरिकोटीप्रमाणो बादर
पंच महव्वइयं सप्पडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ता ण विहजीवप्रदेशानां प्रक्षेपः कार्यः, शतकल्पत्वाद्विवक्षितसूक्ष्मगो- रित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह, तए णं लकावगाढबादरजीवानाम् , तेषां च प्रत्येक प्रदेशलक्षस्यो- ते पासावच्चिजा थेरा भगवंतो जाव चरिमेहिं उस्सास्कृष्टपदेऽवस्थितत्वात् , तन्मीलने च कोटीसद्भावादिति,
| सनिस्सासेहिं सिद्धा जाव सव्वदुक्खप्पहीणा अत्थेगतितथा सर्वजीवराशेर्मध्याच्छोधनकम्-अपनयनम् ' एत्तियं चिय ' त्ति एतावतामेव-कोटीसंख्यानामेव कर्त्तव्यम् ,
या देवा देवलोएम उववना । (मू० २२६) खण्डगोलानाम् स्खण्डगोलकपूर्णताकरणे नियुक्तजीवानां ते.
'तेणं कालेण' इत्यादि, तत्र' असंखेजे लोए' त्ति असं
ख्यातेऽसंख्यातप्रदेशात्मकत्वात् लोके-चतुर्दशरज्ज्वात्मके घामसद्भाविकत्वादिति । पएसि जहासंभव-मत्थोव गयं करेज्ज रासीणं ।
क्षेत्रलोके आधारभूते 'अणंताराइंदिय' तिअनन्तपरिमासभावो य जाणि-ज्ज ते अणता असंखा वा ॥३६॥" | णान सांत्रांन्दवानि-अहोरात्राणि 'उप्पजिंसु वा' इत्यारहार्थोपनयो यथास्थान प्रायः प्राग् दर्शित एव 'अणंत'।
दि, उत्पन्नानि वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते वा, पृच्छति निगोदे जीवा यद्यपि लक्षमाना उक्लास्तथाऽप्यनन्ताः,
तामयमभिप्रायः-यदि नामासंख्यातो लोकस्तदा तत्राएवं सर्वजीवा अपि, तथा निगोदादयो ये लक्षमाना उकास्ते- नन्तानि तान कथ भावतुमहान्त ! , अल्पत्वादाधारस्य ऽप्यसंख्येया अवसेया इति । भ० ११ श० ११ उ० ।
महत्वाचाधेयस्येति, तथा 'परित्ता राइदिय ' ति परीत्ता
नि-नियतपरिमाणानि नानन्तानि, इहायमभिप्रायः-यद्यन(१७) असंख्येयेषु लोकेषु अनन्तानि रात्रिन्दिवानीत्याह
न्तानि तानि तदा कथं परीत्तानि ? इति विरोधः, अत्र तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा (ते) थेरा
हन्तेत्याधुत्तरम् , अत्र चायमभिप्रायः-असंख्यातप्रदेशेऽपि भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति | लोकेऽनन्ता जीवा वर्तन्ते, तथाविधस्वरूपत्वाद् , एकत्राउवागच्छित्ता समणस्स भगवो महावीरस्स अदरसामंते
श्रये सहनादिसंख्यप्रदीपप्रभा इव, ते चैकत्रैव समयादिके
कालेऽनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, स च समयादिकालठिच्चा एवं वदासी-से नूणं भंते ! असंखेज्जे लोए
स्तेषु साधारणशरीरावस्थायामनन्तेषु प्रत्येकशरीरावस्थायां अणंता राइंदिया उप्पज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उप्पजि- च परीत्तेषु प्रत्येक वर्तते, तस्थितिलक्षणपर्यायरूपत्वास्संति वा विगच्छिसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा तस्य, तथा च कालोऽनन्तः परीत्तश्च भवतीति, एवं चापरीत्ता राइंदिया उप्पजिंसु वा उप्पजतिसु बा उप्पजिस्संति
संख्येयेऽपि लोके रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीत्तानि च का
लत्रयेऽपि युज्यन्त इति । एतदेव प्रश्नपूर्वकं तत्समतजिवा विगच्छिसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा ?,हंता
नमतेन दर्शयन्नाह-से नूण' मित्यादि, 'मे' त्ति भवतां अजो असंखज्जे लोए अणंता राइंदिया तं चेव.से केणदेणं
सम्बन्धिना 'अज्जो'त्ति हे श्रार्याः ! 'पुरिसादाणीएणं' जाव विगच्छिस्सति वा ?, भे नूणं भंते ! अञ्जो ! पासेणं ति पुरुषाणां मध्ये श्रादानीयः-आदेयः-पुरुषादानी यस्तेन अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए वुइए, अणादी
'सासए' ति प्रतिक्षणस्थायि, स्थिर इत्यर्थः । खुइए' ति
उक्तः, स्थिरश्चोत्पत्तिक्षणादारभ्य स्यादित्यत श्राह- श्रए अणवदग्गे परिते परिवुडे हेट्ठा वित्थिरणे गज्झे
गाइए' ति अनादिकः, स च सान्तोऽपि स्याद्भव्यत्ववसंखित्ते उप्पि विसाले अहे पलियंकसंठिए मज्झे वरघहर- दिल्याह-'अनवयग्गे' त्ति अनवदनः-अनन्तः 'परिने' विग्गहिते उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठिए तेसिं च णं सास
त्ति परिमितःप्रदेशतः, अनेन लोकस्यासंख्येयत्वं पाजियंसि लोगसि प्रणादियंसि अणवदग्गंसि परिसि
नस्यापि संमतमिति दर्शितम् । तथा-'परिवुडे' त्ति -
लोकेन परिवृतः । हेट्टा वित्थिन्ने ' ति सप्तरज्जूविस्तृतपरिवुडंसि हेट्ठा वित्थिन्नसि मज्झे संखित्तंसि उप्पि |
त्वात् 'मझे संखित्ते' त्ति एकरज्जुविस्तारत्वात् ' उम्पि विसालंसि अहे पलियंकसंठियंसि मज्झे वरवइरविग्ग-1 विसाले' ति ब्रह्मलोकदेशस्य पश्चरज्जुविस्तारत्वात् , एतहियंसि उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियसि अणंता जीवघणा देवोपमानतःप्राह-'अहे पलियंकठिए ' त्ति उपरि स
कीर्णत्वाधोविस्तृतत्वाभ्यां ' माझे वरवडरविग्गहिए ' त्ति उप्पञ्जित्ता उप्पअित्ता निलीयंति परित्ता जीवघणा उप्प
वरवज्रवद्विग्रह:-शरीरमाकारोमध्यक्षामत्वेन यस्य स तथा, जित्ता उप्पअित्ता निलीयंति । से नूणं भूए उत्पन्ने विगए
स्वार्थिकश्चह कप्रत्ययः, 'उपि उद्धमुहगागारसंठिप ' त्ति परिणए अजीवेहि लोकति पलोकइ, जे लोकह से लोए ?, ऊध्वों न तु तिरश्चीनो यो मृदङ्गस्तस्याकारेण संस्थितो हंता भगवं [ते] 1, से सेणद्वेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ यः स तथा, मल्लकसंपुटाकार इत्यर्थः, 'अगता जीवघण' असंखेजे तं चेव । तप्पभिति च णं ते पासायच्चेजा थेरा
त्ति अनन्ताः-परिमाणतः सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां वि
बक्षितत्वात् , सन्तत्यपेक्षया वाऽनन्ताः, जीवसन्ततीनामभगवंतो समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति सव्वन्नू
पर्यवसानत्वात् , जीवाश्च ते घनाश्वानन्तपर्यायसमूहरूपसम्बदरिसी, तए शंते थेरा भगवंतो समां भगवं महा- सादसंयेयप्रदेशगिएकरूपत्वाच्च जीवनाः, किमिन्यार
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(७० ) लोक अभिधानराजेन्द्रः।
लोक ' उप्पजिते 'त्ति उत्पद्योत्पद्य विलीयन्ते-विनश्यन्ति, तथा
(१६) कुत्र लोको बहुसमःपरीत्ताः-प्रत्येकशरीरा अनपेक्षितातीतानागतसन्तानतया कहिणं भंते ! लोए बहुसमे ? कहि णं भंते ! लोए सब्बवा संक्षिप्ताः, जीवधना इत्यादि तथैव,अनेन च प्रश्ने यदुक्तम् विग्गहिए परमत्ते ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ'अणता राईदिया' इत्यादि तस्योत्तरं सूचितम् , यतोऽ- वीए उवरिमहेढिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ लोए बहुसम नन्तपरीसजीवसम्बन्धात्कालविशेषा अप्यनन्ताः परीसाश्च
एत्थ णं लोए सबविग्गहिए परमत्ते । कहि णं भंते ! व्यपदिश्यन्तेऽतो विरोधः परिहतो भवतीति । अथ लो
विग्गहविग्गहिए लोए पम्मत्ते?, गोयमा ! विग्गहकंडए कमेव स्वरूपत श्राह-'से ( नणं) भूए' त्ति यत्र जीवघना उत्पद्य उत्पद्य विलीयन्ते स लोको भूतः-सद्भूतो
एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए परमत्ते । (सू०४८६). भवनधर्मयोगात् , स चानुत्पत्तिकोऽपि स्याद् यथा नय
'कहि ण' मित्यादि. ' बहुसमे ' ति अत्यन्तं समः, मतेनाकाशमत आह-उत्पन्नः, एवंविधश्चानश्वरोऽपि स्यात्
लोको हि क्वचिद्वर्द्धमानः क्वचिद्धीयमानोऽतस्तनिषधाद्वयथा विवक्षितघटाभाव इत्यत आह-विगतः, स चान- हुसमो वृद्धिहानिवर्जित इत्यर्थः , ' सम्वविग्गहिए ' त्ति न्वयोऽपि किल भवतीत्यत आह-परिणतः-पर्यायान्त
विग्रहो वपत्र लघुरित्यर्थः , तदस्यास्तीति विग्रहिराणि आपनो न तु निरन्वयनाशन नष्टः । अथ कथमय
कः सर्वथा विग्रहिकः सर्वविग्रहिकः-सर्वसंक्षिप्त इत्यर्थः, मेवंविधो निश्चीयते ? इत्याह-अजीवहिं ' ति अजी- 'उरिमहेटिल्लेसु खुडागपयरेसु' ति उवरिमो यमवधीवैः-पुद्गलादिभिः सत्तां विभ्रद्भिरुत्पद्यमानैर्विगच्छद्भिः कृत्योर्ध्व प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता, अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः परिणमद्भिश्च लोकानन्यभूतैः लोक्यते-निश्चीयते प्र. प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता , ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः पुललोक्यते-प्रकर्षेण निश्चीयते, भूतादिधर्मकोऽयमिति, कप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कअत एव यथार्थनामा ऽसाविति दर्शयन्नाह-जे लोक्कर से म्भकयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्तिनोः 'एत्थ णे' ति एतयोःलोए' ति यो लोक्यते-विलोक्यते प्रमाणेन स लोको- प्रज्ञापनोपदय॑मानतया प्रत्यक्षयोः विग्गहविग्गहिए । लोकशब्दवाच्यो भवतीति, एवं लोकस्वरूपाभिधायक- त्ति विग्रहो-वक्त्रं तद्युक्नो विग्रहः-शरीरं यस्यास्ति स पार्श्वजिनवचनसंस्मरणेन स्ववचनं भगवान् समर्थितवा- विग्रहविग्रहिकः 'विग्गहकंडर' ति विग्रहो-वक्त्रं कण्डनिति । ' सपडिकमणं' ति आदिमान्तिाजिनयोरेवाव
कम्-अवयवो विग्रहरूपं कण्डकं विग्रहकण्डकं तत्र व्रश्यंकरणीयः सप्रतिक्रमणो धर्मोऽन्येषां तु कदाचित्पति- लोककृपर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृया हान्या वा वक्त्रं क्रमणम्, आह च-" सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स
भवति तद्विग्रहकण्डकम् तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति । य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं, का. भ० १३ श० ४ उ० ।' अनन्तो नित्यश्च लोक ' इति यदरणजाए पडिकमणं ॥१॥" ति ॥ अनन्तरं ' देवलोएसु
भिहितं, तत्रेदमभिधीयते-यदि स्वजात्यनुच्छेदेनास्थ निउववना' इत्युक्तम् । भ०५० उ०। (स्वकीयैः स्वकीयैः त्यताऽभिधीयते ततः परिणामानित्यत्वमस्मदभीष्टमेषाभ्युपर्यायैः कृतोऽयं लोक इति 'कडवाइ' शम्दे ३ भागे २०४ पगतं न काचित्क्षतिः, प्रथाप्रच्युतानुत्पन्नस्विरैकस्वभावपृष्ठे गतम् ) (लोकवाद 'लोगवाय' शब्दे वक्ष्यामि)
त्वेन नित्यत्वमभ्युपगम्यते तत्र घटते , तस्याध्यक्षवाधि(१८) लोकसम्मतो लोकः
तत्वात् , न हि क्षणभाविपर्यायानालिङ्गितं किशिवस्तु प्र
त्यक्षणावसीयते, मिष्पर्यायस्य च खपुष्पस्येबासापतअस्ति लोकः स्थावरजङ्गमात्मकः, तत्र नवखएडा पृथ्वी,
व स्यादिति । तथा शश्वद्भवनं कार्यद्रव्यस्याऽऽकाशात्मासप्तद्वीपा वसुंधरेति वा । अपरेषां तु-ब्रह्माण्डान्तर्वती,
देवाविनाशित्वम् यदुच्यते-द्रव्यविशेषापेक्षया तदप्यसदेव, अपरेषां तु-प्रभूतान्येवंभूतानि ब्रह्माण्डान्युदकमध्ये प्लव
यतः सर्वमेव वस्तूत्पादन्ययधौम्पचुक्तत्वेन निर्षिमागमानानि सतिष्ठन्ते । प्राचा० १ श्व०८ १०१ उ० (पृथिव्याः
मेव प्रवर्तते, अन्यथा वियदरविन्दस्येव वस्तुत्यमेव हीचलाचलत्वविचारः। सर्वा अपि पृथ्व्यःप्रलोकं न स्पृशन्तीति
येतेति । तथा यदुतम्-' अन्तवाँल्लोकः सप्तद्वीपावच्छिव 'पुढवी' शब्ने पञ्चमभाग १७२ पृष्ठे 'भूगोल' शम्ने १५६४पृष्ठे
प्रत्वा' दित्येतनिरन्तराः सुहृदः प्रत्येभ्यन्ति, न प्रेक्षापूर्वच दर्शितम्)अनेकेषामत्र मतम्-'लोकक्रियात्मतत्त्वे,विवदन्ते
कारिणः, तग्राहकप्रमाणाभावादिति । तथा वदप्युशम् , वादिनो विभिन्नार्थम् । अविदितपूर्व येषां,स्याद्वादविनिधितं
: अपुत्रस्य न सन्ति लोका ' इत्यादित्येतदपि बातत्त्वम् ॥१॥' येषां तु पुनः स्यावादमतं निश्चितं तेषाम
लभाषितम् , तथाहि-किं पुत्रसत्तामात्रेणैव विशिष्टलोकायास्तित्वनास्तित्वादेरर्थस्य नयाभिप्रायेण कथंचिद् वा श्रयणा
तिरुत तत्कृतविशिष्टानुष्ठानात् , तद्यदि सत्तामात्रेल तत द्विवादाभाव इत्यादि । (प्राचा०१थु० अ०१ उ०1) 'भूगोल'
इन्द्रमहकामुकग वराहादिभिाता लोका भवेयुः, तेषां शब्दे पञ्चमभागे१५६४पृष्ठे सर्वेषां मतं प्रतिपादितम्-अस्ति लोको नास्ति वेत्यादि,ध्रुवो लोकः अध्रुवो लोक इस्यादि च ।
पुत्रबहुत्वसंभवात्, अथानुष्ठानमाीयते तत्र पुत्रद्वये सत्ये
केन शोभनमनुष्ठितम् , अपरेण अशोभनमिति तब का था(अस्ति लोकः इति 'अस्थिबाय' शब्दे प्रथमभागे ५१६ पृष्ठे
र्ता ?, स्वकृतानुष्ठानं च निष्फलमापयेतेत्येवं यत्किचिदेतउक्तम् ) (नास्ति लोक इत्यस्य खण्डनम् 'भूगोल ' शम्ने
दिति । सूत्र०१ श्रु०१०४३० । पञ्चमभागे १५६४ पृष्ठे विस्तरतो दर्शितम् । प्रवो लोकः अस्य खण्डनम् 'पुढवी' शम्दे १७२ पृष्ठे उक्तम् । प्रभुवो लोकः इति
(२०) धर्मास्तिकायादिभिर्लोकः स्पृष्टःमरणनिरूपणे 'मरण' शम्देऽस्मिन्नेव भागे१०८पृष्ठे उक्तम् । सा
चउहिं अत्थिकाएहिं लोगे फुडे पलत्ते, तं जहा-यम्मत्थिदिको लोक इति 'कम्म' शम्ने तृतीयभागे२४३पृष्ठ दर्शितम्)। कारणं अधम्मस्थिकारणं जीवस्थिकाए पुग्गलस्थिकाए
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लोक
(१०). अभिधानराजेन्द्रः।
लोक शं चउहिं बादरकाएहिं उववजमाणेहिं लोगे फुडे पसते, मज्झिनाविरहिओ० जाव पंचिंदियाणं । जे जीवप्पएसा ते तं जहा-पुढविकाइएहिं आउकाइएहिं वाउकाइएहिं वण- णियमं एगिदियपएसा य मणिदियपदेसा य , अहवास्सडकाइएहिं । (सू० ३३३)
एगिदियपदेसा य अणिदियपदेसा य बेइंदियस्स पदेसा य, 'बहिं ' इत्यादि गतार्थम् , केवलम् 'फुडे' ति स्पृष्टः- अहवा एगिदियपदेसा य मणिंदियपदेसा य बेइंदियारा प्रतिप्रदेश व्याप्तः, सूक्ष्माणां पञ्चानामपि सर्वलोकात् सर्वलो
य पदेसा, एवं आदिवविरहिओ-जाव पंचिंदियाणं । के उत्पादात् पादरतैजसानां तु सर्वलोकात्य मनुष्यक्षेत्रे
अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव गिरवसेसं । जुगत्या वक्रगत्या चोत्पद्यमानानां योरूर्वकपाटयोरेव बादरतेजस्त्वव्यपदेशस्येष्ठत्वाच्च 'चाहिं बादरकारहिं'
लोगस्स खं भंते ! हेडिने चरिमंते किं जीवापुच्छा, इत्युक्तम् , बादरा हि पृथिव्यम्बुवायुवनस्पतयः सवता लो- गोयमाणो जीवा जीवदेसा वि.जाव अजीवपदेसा वि, काबुहत्य पृथिव्याविघनोदध्यादिधनवातवलयादि घनोदध्या जे जीवदेसा ते शियम एगिदियदेसा, अहवा-एगिदियदेविषु यथास्वमुत्पादस्थानेम्वन्यतरगत्योत्पद्यमाना भपयाप्तका
सा य बेइंदियस्स देसे, अहवा एगिदियदेसा बेइंदियालय वस्थायामतिबहुत्वात् सर्वलोकं प्रत्येकं स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्वे. ते वावरतेजस्कायिकानसाच लोकासंख्येयभागमेव स्पृश
देसा, एवं मझिल्लविरहियो० जाव अणिदियाणं पदेसा म्तीति, उलश प्रज्ञापनायाम्-"पत्थ णं बादरपुदंविकाइयाणं पाइनबिरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिले चरिमंते तदेव पजत्तगाणं ठाणा पन्नता, उववाएणं लोयस्स असंखेजर- | अजीवा जहेव उवरिने चरिमंते तहेव । (सू० ५८३+) भागे" तथा-" बादरपुढविकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पक्षता,उववाएणं सव्वलोए"एवमब्यायुवनस्पतीनाम् , तथा
'चरिमंते' ति चरमरूपोऽन्तश्चरमान्तः तत्र चासंख्या"बादरतेउवाइयाणं अपजसाणं ठाणा पन्नता, उववाएणं
सप्रदेशावगाहित्वाजीवस्यासम्भव इत्यत आह-नोजीवे' लोयस्स असंखेजाभागे" "बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्ताण
त्ति जीवदेशादीनां त्वेकप्रदेशेऽप्यवगाहः संभवतीत्यत उठाणा पत्ता, लोयस्स दोसु उडकवाडेसुं तिरियलोयतट्टेय" |
कम्-'जीवदेसा वी' त्यादि । 'अजीया वि' ति पुलस्कन्धाः सियोरूगेकपाटयोरूर्वकपाटस्थतिर्यग्लोके चेत्यर्थः,तिर्य
'अजीवदेसा वि'सि। धर्मास्तिकायादिदेशाः स्कन्धदेशाग्लोकस्थालके चेस्यन्ये, तथा-"कहिणं भंते ! सुहुमपुढवि
श्च तत्र सम्भवन्ति , एवमजीवप्रदेशा अपि । अथ जीवाकाइयाणं पजत्तगाणं अपजत्तगाण य ठाणा पत्ता !
दिदेशादिषु विशेषमाह-'जे जीवे' स्यादि ये जीवदेशास्ते पृगोयमा ! सुहुमपुढविकाइया.जे पजत्तगाजेय अपजत्तगा
थिव्याघेकेन्द्रियजीवाना देशास्तेषां लोकान्तेऽवश्यंभाते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणता सबलोगपरियाव
धादित्यको विकल्पः। अहव'ति । प्रकाराम्तरदर्शना
थः एकेन्द्रियाणां बहुत्वादहवस्तत्र तदेशा भवन्ति ,द्वीबागा पत्ता समणीउसो!" ति, एवमन्येऽपि, "एव बेईदि याणं पज्जताऽपजाताणं ठाणा पत्ता, उवारणं लोयस्स
न्द्रियस्य च कादाचित्कत्वात्कदाचिदेशः स्यादित्येको द्विअसंखेजाभागो" ति, एवं शेषाणामपीति । चतुर्मिलोकः
कयोगविकल्पः । यद्यपि हि लोकान्ते द्वीन्द्रियो नास्ति स्पृष्ट इत्युक्तमिति । स्था०४ ठा० ३ उ०।
तथापि यो हीन्द्रिय एकेन्द्रिये परिपत्सुारणान्तिकसमुवातं
गतस्तमाश्रित्यायं विकल्प इति ‘एवं जहे' त्यादि यथा (२१) लोकस्य बरमान्तो जीयोऽजीवो वेस्याह
दशमशते भाग्नेयीं दिशमाश्रिस्योक्तम् , तथेह पूर्ववरमान्तलोयस्सयं भंते ! पुरच्छिमिल्ने चरिमंते किं जीवाजीवदे
माश्रित्यषाच्यम्,तवेदम् "महवा एगिदियदेसा य दियस्स साजीवपएसा,अजीवा मजीवदेसामजीवपएसा', गोयमा! य देसा, अहवा-एगिदियदेसा य दियाण देसा, अहवाखो जीवाजीवदेसा विजीवपएसावि मजीवा वि अजीवदे-1 एगिदियदेसा य तेइंदियस्स य देसे " इत्यादि, यः पुनसा विभजीवपएसा वि॥जे जीवदेसातेणियम एगिदिय-|
रिह विशेषस्तदर्शनायाह-'नवरं प्रणिदिवाण' मिस्यादेसा य,महवा-एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसे एवं
दि अनिम्द्रियसम्बन्धिनि देशविषये भगकत्रये “बह
वा पगिदियदेसा य प्राणिदियस्स य देसे ' इत्येवंरूपः प्रजहा दसमसए अग्गेयी दिसा तहेव रावरं देसेसु अणि
थमभाको दशमशते आग्नेयीप्रकरणेभिहितोऽपीह न वादियाशं माइलविरहिनो, जे अरूची अजीवा ते छबिहा | व्यः, यतः केवलिसमुद्घाते कपाटाद्यवस्थायां लोकस्य पूर्वप्रद्धा समयोगस्थि सेसंतंचव हिरवसेसं। लोगस्स संभ
परमान्ते प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकसद्भावेनानिन्द्रियते!दाहिणिले चरिमंते किं जीवा०एवं चेव।।एवं पञ्चच्छिमिल्ले
स्य बहूनां देशानां सम्भवो नत्वेकस्येति, तथा भाग्नेच्या
दशविधेम्वरूपिद्रव्येषु धर्माधर्माकाशास्तिकायद्रव्याणां वि॥ एवं उत्तरिने वि ।। लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले | तस्यामभावात्सप्तविघा अरूपिण उका लोकस्य पूर्वचपरिमंते किं जीवा० पुच्छा, गोयमा ! णो जीवा जीवदे- रमान्तेष्वडासमयस्याप्यभावात् षडविधास्त वाव्याः , सा वि. जाव अजीवपएसा वि। जे जीवदेसा ते थि
प्रवासमयस्य तु तत्राभावः समयक्षेत्र एवं सहाबादत यम एगिदियदेसायभणिदियदेसा य, अहवा-एगिदिय
एषाह-"जे अरूवी अजीवा ते विहा प्रवासमयो
नास्थि " ति । 'उपरिले परिमंते । ति मनेन देसा य अणिदियदेसा य, बेइंदियस्स य देसे , अहवा
सिखोपलक्षितः उपरितनचरमान्तो विवक्षितः, तत्र व एकेएमिंदियदेसाय अनिदियदेसायबेइंदियाण य देसा एवं न्द्रियदेशा अनिन्द्रियदेशच सन्तीति करवाज- जीये'
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( ७११ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लोक
लोक
(२३) त्रीणि लोके समानि
स्यादि, इहायमेको द्विक संयोगः त्रिक संयोगेषु च द्वौ द्वौ कार्यों तेषु हि मध्यमभङ्गः, 'श्रहवा एर्गिदियदेसा य अरिदियदेसाय वैदियरस य देला ' इत्येवंरूपो नास्ति द्वीन्द्रियस्य च देशा इत्यस्यासम्भवाद्यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतस्यापि देश एव तत्र सम्भवतिः
ततो लोगे समा सपर्विख सपडिदिसिं पलत्ता, तं जहाअप्परट्ठाणे सरए जंबुद्दीचे दीवे सव्वऽसिद्धे महाविमाणे तो लोगे समा सपर्किख सपडिदिसिं पाते, तं जहा-सी
म पुनः प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकवशादनेकप्रतरात्म- मंतए णं खरए समयक्खेत्ते ईसीपन्भारा पुढवी (सू० १४८) कपूर्वचरमान्तवद्देशाः उपरितनचरमान्तस्यैकप्रतररूपतया लोकदन्तकाभावेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति अत पवाह - ' एवं मज्भिल्लविरहिओ ' ति । त्रिकभङ्गक इति प्रक्रमः उपरितनचरमान्तापेक्षया जीवप्रदेशप्ररूचणायामेवम्, ' आइल्लविरहिओ ' ति यदुक्तं तस्यायमर्थः- इह पूर्वोशं भङ्गकत्रये प्रदेशापेक्षया, " अहवा-एगिदियपदेसाय अरिदियपपसा य बेइंदियस्स पदेसे " इत्ययं प्रथमभङ्गको न वाच्यः, द्वीन्द्रियस्य च प्रदेश इत्यस्याऽसम्भवात्तदसम्भवध लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्ण्यजीवानां यत्रैकप्रदेशस्तत्रासंख्यातानामेव तेषां भावादिति, 'अजीवा जहा दसमलए तमाए ' ति श्रजीवनाश्रित्य यथा दशमशते, ' समाए ति तमाभिधानां दिशमाश्रित्य सूत्रमधीतं तथेहोपरितनचरमान्तमाश्रित्य वाच्यम्, तचैवम् -'जे अजीवा ते दुविधा पण्णत्ता, तं जहारूषि अजीवा य, अरूवि अजीवा, य जे रूवि श्रजीवा ते बउव्विा परबत्ता, तं जहा बंधा० ४ जे अरूवि अजीवा ते छव्विा पचन्ता, तं जहा-नो धम्मस्थिकार धम्मत्थिकार्यस्स देसे धम्मस्थिकायस्स परसा ' एवमधर्माकाशास्तिकाययोरपीति । 'लोगस्स णं भंते! हिट्टिले ' इत्यादि, इह पूर्वचरमान्तवद्भङ्गाः कार्याः, नवरं तदीयस्य भङ्गकत्रयस्य मध्यात् “अहवा एगिंदियदेसा य बेइंद्रियस्स य देसा" इत्येवं रूपो मध्यमभङ्गकोऽत्र वर्जनीयः, उपरितन चरमान्तप्रकरलोक्कयुक्तेस्तस्याऽसम्भवादत एवाह-'एवं मज्झिमविरहियो' ति देशभक्तका दर्शिताः । अथ प्रदेशभङ्गकदर्शनायाह-' प एसा भाइलविरहिश्रा सब्बेसि जहा पुरच्छिमिले चरिमंते ' सि, प्रदेशचिन्तायामाद्यभङ्गकरहिताः प्रदेशा वाच्या इत्यर्थः, आद्यश्च भङ्गक एकवचनान्तप्रदेशशब्दोपेतः, स च प्रदेशामामधश्वरमान्तेऽपि बहुत्वान सम्भवति, सम्भवति च• श्रहवा एर्गिदियपरसा य बेइदियस्स पपसा, • अहवायगिदियपयसा य बेहं दियाण य परसा' इत्येतद् द्वयम् । 'सब्वेसि 'ति । द्वीन्द्रियादी नामनिन्द्रियान्तानाम् । ' अजीवे ' स्यादि व्यक्तमेव । भ० १६ श० ८ उ० ।
श्रीणि लोके समानि - तुल्यानि योजनलक्षप्रमाणत्वात्, न च प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु श्रौत्तराधर्यव्यवस्थिततया समश्रेणितयाऽपीत्यत आह-' सपति' मित्यादि, पक्षाणां - दक्षिणवामादिपावनां सदृशता - समता सपक्षमित्यव्ययीभावस्तेन समपार्श्वतया समानीत्यर्थः, इकारस्तु प्राकृतत्वात्, तथा प्रतिदिशां विदिशां सदृशता सप्रतिदिक तेन समप्रतिदिनयेत्यर्थः, अप्रतिष्ठानः सप्तम्यां पञ्चानां नरकावासानां मध्यमः, तथा - जम्बूद्वीपः सकलद्वीपमध्यमः, सर्वार्थसिद्धं विमानं पञ्चानामनुत्तराणां मध्यममिति । सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे नरकेन्द्रकः पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षाणि, समयः -- कालः तत्सत्तोपलक्षितं क्षेत्रं समयक्षेत्रं मनुष्यलोक इत्यर्थः, ईषद् - अल्पो योजनाष्टकबाहल्यपञ्चचत्वारिंशलक्षविष्कम्भात् प्राग्भारः - पुत्रलनिय यो यस्याः - सेषत्प्राग्भारा - अष्टम पृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रत्नप्रभाद्या महाप्राग्भाराः, अशीत्यादिसहस्राधिकयोजनलक्षयाइल्यत्वात् तथाहि - " पढमाऽसीइसहस्सा, बत्तीसा अट्ठवीसवीसा य । अट्ठारस सोलस य, अट्ठसहस्सलक्खोवरि कुजा ॥ १ ॥ " इति । स्था० ३ ठा० १ ३० ।
(२२) ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकानामल्पबहुत्वम्एयस्स यं भंते ! अहेलोस्स तिरियलोस्स उडुलोयस्स य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा १, गोमा ! सम्वत्थोवे तिरियलोए उडलोए असंखेखगुणे, अलोए विसेसाहिए । ( सू० ४८७ X )
' सम्वत्थोचे तिरियलोप 'ति श्रष्टादशयोजनशतायामस्वात्, 'उहलोए श्रसंखेजगुणे ' चि किंचिम्म्यून सप्तरज्जूच्छ्रितत्वात् । अहेलोर विसेसाहिए' सि किंचित्समधिकसप्त रज्जूच्छ्रितत्वादिति । भ० १३ श० ४ उ० ।
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(२४) लोकानां निःशीलत्वादिकमाहतो लोगे मिस्सीला विव्वता विग्गुणा निम्मेरा सिप्यश्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा आहे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्ठाणे गरए मेरइयत्ताए उबवजंति तं जहा - रायाखो मंडलिया जे य महारंभा कोडंबी । तत्रो लोए सुसीला सुब्वया सग्गुखा समेरा सपच्चक्खाखपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा सम्वसिद्धे महाविमाये देवत्ताए उववतारो भवंति, तं जहा - रायाखो परिचत्तकामभोगा सेयावत्ती पसत्थारो । ( सू० १५० ) 'त' इत्यादि, निःशीला - निर्गतशुभस्वभाषाः दुः शीला इत्यर्थः, एतदेव प्रपञ्च्यते- निर्वताः -- प्रविरताः प्राणातिपातादिभ्यो निर्गुणा--उत्तर गुणाभावात् 'निम्मेर ' ति निर्भर्यादा :- प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्यास्थानं च - नमस्कारसहितादि पौषधः -- पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासः -- श्रभक्तार्थकरणं स च तौ निर्गतौ येषां ते निष्ण
त्याख्यानपौषधोपवासाः कालमासे-मरणमासे कालम् — मरणमिति, 'रइयत्ताए ' ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदार्थम्, तत्र केन्द्रियतया तदन्येऽप्युत्पद्यन्त इति, तत्र राजानःचक्रवर्त्तिवासुदेवाः, माण्डलिका:-- शेषा राजानः, ये च महारम्भाः - पञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्म्मकारिणः कुटुम्बिन इति, शेषं कराव्यम् ॥ अप्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभिः समाने सर्वार्थे ये उत्पद्यन्ते तानाह' तो ' इत्यादि सुसम
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लोक
(७१२) अभिधानराजेन्द्रः।
लोगतिय म्, केवलं राजानः-प्रतीताः परित्यक्तकामभोगाः-सर्ववि- (१४) लोकः कति महालयादिः । रताः, एतमोत्तरपदयोरपि सम्बन्धनीयम् , सेनापतयः-| (१५) अलोकः कतिमहालयः। सैन्यनायकाः प्रशास्तारो-लेखाचार्यादयः, धर्मशास्त्रपाठ- (१६) लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेषनिरूपणम् । का इति कचित् । स्था० ३ ठा० १ उ० । लोक्यत इति लोकः। (१७) असंख्येयेषु लोकेषु अनन्तानि रात्रिन्दिवानि । लोकालोकस्वरूपे समस्तवस्तुस्तोमे, भ० १श०१ उ०। क्षेत्र, (१८) लोकसम्मतो लोकः । सूत्र०२ श्रु०२०। स्थाने, यथा-देवलोकः । सूत्र०१ श्रु० (१६) कुत्र लोको बहुसमः । २१०३ उ० । लोकयतीति लोकः । एकद्वित्रिचतुःपञ्चे- (२०) लोको धर्मास्तिकायादिभिः स्पृष्टः । न्द्रियजीवराशी, प्राचा०१ श्रु०२० ३ उ० । चतुर्दशभूत- (२१) लोकस्य चरमान्तो जीवोऽजीवो वा । ग्रामे, प्राचा०१ श्रु०३ १०२ उ० । तिर्यग्नरनारकिलक्षण- (२२) ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकानामल्पबहुत्वम् । जीवलोके, स०१ सम । चतुर्गतिकसंसारे, भवाद् भवा- (२३) त्रीणि लोके समानि । न्तरगती च । सूत्र०१७ १०१ उ०। प्रजायाम् , उत्त० (२४) लोकानां निःशीलत्वादिकम् । ३१०। लोक्यते परिच्छिद्यते इति लोकः। रूपरसगन्धस्प
लोगंत-लोकान्त-पुं०। लोकाग्रलक्षणे सिद्धस्थाने, स्था० । द्यात्मके विषये, लोको बायोऽभ्यन्तरश्च, तत्र बाह्यो धन
ठा० ३ उ० । लोको लोकशास्त्रं तत्कृतत्वात्तदध्येयत्वाच्चार्थहिरण्यमातापित्रादिः, प्रान्तरस्तु रागद्वषादिस्तकार्य वा
शास्त्रादि तस्मादन्तो निर्णयस्तस्य वा परमरहस्य पर्यन्तो अष्टप्रकारं कर्मेति । आचा० १ २०१०५ उ० । दक्षज
वेति लोकान्तः। लौकिकसिद्धान्ते, स्था० ३ ठा० ४ उ० । नसमूहे , अष्ट० ३२ अष्ट० । जन्मनि , स्था० ८ ठा०
ईषत्प्राग्भाराख्यायां पृथिव्याम् , प्रा० म०१ १०। ३ ३० । पाखण्डिके , पौराणिके , सूत्र० १ थु० १ ०
चउहिं ठाणेहिं जीवा य पुग्गलायणो संचातेति बहिया ४ उ० । लोकाचारे, पृ०३ उ० । लोकशास्त्रे, स्था० ३ ठा० ४ उ०। परदर्शने, जीवा० ७ अधि०। षष्ठदेवलोकविमानभेदे,
लोगता गमणताते,तं जहा-गइअभावेणं १ णिरुवग्गहयाए तत्र हि-लोक-सुलोक-लोकावत-लोकप्रभ-लोकान्त- २, लुक्खताए ३, लोगाणुभावेणं ४ । (सु.३३७) लोकवर्ण-लोकलेश्य-लोकरूपादीनि विमानानि सन्ति। 'चउहीं' त्यादि, व्यक्तम् , परमन्येषां गतिरेव नास्तीति 'जीवा स०१३ सम० । भुवने, सेन० । यथा-प्रस्थादिना कश्चित्स- य पोग्गला य'इत्युक्तम् , 'नो संचाए'त्ति न शक्नुवन्ति नालवधान्यानि मिनुयादेवमसद्भावप्रझापनाङ्गीकरणालोकं कु- म्'बहि य' त्ति बहिस्ताल्लोकान्तादलोके इत्यर्थः गमनतायै डवीकृत्याजघन्योत्कृष्टावगाहनान् पृथिवीकायिकान् जीवान् गमनाय गन्तुमित्यर्थः गत्यभावेन लोकान्तात्परतस्तेषां गतियदि मिनोति ततः पृथिवीकायिका असंख्येयान् लोकान् लक्षणस्वभावाभावादधोदीपशिखावत्तथा निरुपमहतया धर्मापूरयन्तीत्याचारागप्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनद्वितीयोऽश- स्तिकायाभावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भाभावात् , गन्यादिरकवृत्ती, स्थावरचतुर्णा तु अङ्गलासंख्येयभागप्रमितिरब- हितपकुवतू , तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवझोकान्तेषु हिगाहनोक्ला,अत एते पृथिवीकायिकाः कथं पूरयन्ति इति प्रश्ना, पुद्गला रूक्षतया तथा परिणमन्ति यथा परतो गमनाय नालं अत्रोत्तरम्-प्रस्थदृष्टान्ते सामान्योक्तावपि प्रत्याकाशमेके- कर्म पुगलानां तथा भावे जीवा अपि सिद्धास्तु निरुपमहतकपृथिवीकायिकजीवकल्पनया लोकरूपपल्यभरणं सम्भा- | यैवेति लोकानुभावन-लोकमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्र माव्यते, अन्यथा प्रज्ञापनासूत्रवृत्त्यादिप्रन्थान्तरविरोध इति
तण्डमण्डलवदिति । स्था०४ ठा० ३ उ० । ॥८२॥ सन० २ उल्ला० । जने, सन० । लोका जिनकाल्पन लोगंतिय-लोकान्तिक-पुं० । लोकान्तिकविमानवास्तव्येषु नग्नं पश्यन्ति न वा? इति प्रश्नः, अनोत्तरम्-लोकास्तं नग्नं
सारस्वतादिकेषु, स्था। पश्यन्ति, यतः शास्त्रे लज्जाजेता जिनकरूपमङ्गीकरोतीति
तेहिं ठाणेहिं लोगंतिया देवा माणुसं लोगं हव्व॥६॥सेन०३उला। विषयसूची
मागच्छिजा, तं जहा-अरईतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पव्व(१) कियत्प्रमाणो लोक इति रज्जुप्रमाणेन दर्शयति । यमाणेहिं भरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु । (सू० १३४) (२)कोऽयं लोकः।
'तेही' त्यादि कराव्यम् , नवरं लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्तः(३) लोकस्यैकत्वं नामादिभेदप्तश्चाष्टविधत्वं च ।
समीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं-निवासो येषां ते, लोकान्ते (४) लोकत्रिविधः।
वा-औदायिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे मुक्ति(५) लोकश्चतुर्विधः।
गमनादिति लोकान्तिकाः, सारखतादयोऽष्टधा वक्ष्यमाण(६) ऊर्धादिभेदात्त्रिविधो लोकः ।
सपा इति । स्था० ३ ठा०१ उ०। (तेच देवाः 'कबहराइ' (७) लोकमध्यद्वाराणि ।
शब्दे तृतीयभागे २१७ पृष्ठे दर्शिताः) (अष्टानामपि लो(८) लोकस्य महत्वम्
कान्तिकदेवानां स्थितिः 'ठिा' शब्ने चतुर्थभागे १७२६ (६) लोकस्य संस्थानम् ।
पृष्ठे गता) लोकान्तिकदेवानां यथा-'पदमजुअलम्मि सत्तस(१०) अधोलोकक्षेत्रादिसंस्थानम् ।
याणी' ति सधैयां लोकास्तिकानां षष्ठालोक्तः 'पत्तेनं पले(११) मरणादिस्वरूपं लोक एवानो लोकस्वरूपनिरूरणम् ।। अं चउहि सामाणिसाहस्सीहिं' इत्यादिपरिवारः ? कि (१२) अधोलोकादिक्षेत्रलोकः किं जीवोऽजीवो वा। वा विमानाधिपतेः ?, परं सामान्यतो लोकाम्लिका देवा (१३) अयं लोकः किं जीवोऽजीयो चा।
भगवन्तं पिबोधयन्तीति दृश्यते न तु कापि तास्वामिन
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१ अर्चिः
उत्तरा
८ सुप्रतिष्ठाभ
५चन्द्राभं
४प्रभङ्कर
दक्षिणा
(७१३) लोगंतिय अभिधानराजेन्द्र:।
लोगंधयार इति , तथा तत्परिवारभूतानां तेषामिव भवस्थितिः किं देवत्ताए उववन्नपुवा ?, 'हंते ' त्यादि लिखितमेव, 'केघा विशेषो वा ? इति प्रश्नः अत्रोत्तरम्-सप्ताधिकसप्तशता- वतियं' ति छाम्दसत्वात् कियत्या ' अबाधया ' अन्तरेण दीनां लोकान्तिकानां देवानां शाताधर्मकथाङ्गोक्तः , सा- लोकान्तः प्रक्षप्त इति । भ० ६ श०५ उ०। (अष्टानां कृष्णमानिकादिकः परिवारः प्रत्येक सम्भाव्यते नत्वेकस्य
राजीनामष्टस्ववकाशान्तरषु राजीद्वयमध्यलक्षणेच्यष्टी लोविमानाधिपतेः, तत्प्रतिपादकव्यकशास्त्राक्षरानुप लम्भा- कान्तिकविमानानि तानि च 'कएहराइ' शब्दे तृतीयभागे दिति , तथा परिवारभूतानां देवानां भवस्थितिः पृथगु
२१७ पृष्ठे दर्शितानि ।) तत्स्थापना चेयम्कता नास्तीति लोकान्तिकानामिव सम्भाव्यते , तत्त्वं तु
पूर्वा सर्वविदो विदन्ति इति ॥ ५५ ॥ सेन० १ उल्ला० । लोकान्तिकाः किमेकावतारिण उत नेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्लोकान्तिका देवा एकावतारिण एवेत्येकान्तो ज्ञातो नास्तीति ॥ ५२ ॥ सेन०२ उल्ला० । संग्रहण्यन्तर्वाच्यादि
२ अर्चिालिः यु लोकान्तिकदेवानां नव निकाया उत्तमचरित्रे दश निकायाः कथिताः, तत्र किं प्रमाणम् ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-ब
३ वैरोचनं हुग्रन्थेषु तेषां नव निकाया उक्नाः , उत्तमचरित्रे यदि दश तदा मतान्तरमिति नेयम् ॥ १८८ ॥ सेन०२ उल्ला० । लोगंतियविमाण-लोकान्तिकविमान-पुं० । लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्ते-समीपे भवानि लोकान्तिकानि तानि च तानि विमानानि चेति समासः । लोकान्तिका वा देवा
६ सूराभ स्तेषां विमानानीति समासः। सारस्वतादिलोकान्तिकदेवावासविमानेषु, भ०७ श०८ उ०।। लोगंतिगविमाणा णं भंते ! किं पतिट्ठिया पण्णता?,
IHRID गोयमा! वाउपइट्ठिया तदुभयपतिट्ठिया पएणत्ता , एवं |
लोगंधयार-लोकान्धकार-पुं० । लोके अयमेवान्धकारों नेयवं, "विमाणाणं पतिद्वाणं, बाहल्लुञ्चत्तमेव संठाणं"।
नान्योऽस्तीदृश इति लोकान्धकारः । तमस्काये, स्था० ४ बंभलोयवत्तव्वया नेयव्वा । ( जहा जीवाभिगमे देवुद्देस- ठा०२ उ०। ए), जाव हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो। तिहिं ठाणेहिं लोगंधयारे सिया, तं जहा-अरिहंतेहिं नो चेव णं देवित्ताए । लोगंतियविमाणेसु णं भंते ! के-| वोच्छिज्जमाणेहिं अरिहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिजमाणे पुवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?,गोयमा! अट्ठ सागरोवमा- व्वगते वोच्छिन्जमाणे १ । (सू० १३४४) ई ठिती पएणता । लोगंतियविमाणेहिंतो णं भंते ! केव
कण्ठ्या चेयम् , नवरं लोके-क्षेत्रलोके अन्धकारम्-तमो तियं अबाहाए लोगंते पएणत्ते ? , गोयमा ! असंखेजाई लोकान्धकारं स्याद्-भवेत् , द्रव्यतो लोकानुभावाद्भावतो जोयणसहस्साई अबाहाए लोगते पएणत्ते । (सू०२४३+)
वा प्रकाशकस्वभावशानाभावादिति, तद्यथा-अर्हन्ति:
शोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां ज' एवं नेयव्वं ' ति पूर्वोक्तप्रश्नोत्तराभिलापेन लोका
न्मान्तरमहालवालविरूढानवद्यवासनाजलाभिषिक्तपुण्यमन्तिकविमानवक्तव्यताजातं नेतव्यम् , तदेव पूर्वोक्तन
हातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्यरूपां पूजां निखिलसह दर्शयति- विमाणाण ' मित्यादि गाथार्द्धम् ,
प्रतिपन्थिप्रक्षयात् सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यईन्तः , तत्र विमानप्रतिष्ठानं दर्शितमेव , बाहल्यं तु विमाननां
उक्तं च-"अरिहंति वंदण-नमं-सणाणि अरिहंति पूयसकाप्रथिवीबाहल्यं तच पश्चविंशतियोजनशतानि, उच्चत्वं तु] रं। सिद्धिगम च अरिहा, अरिहंता तेण खुञ्चति ॥१॥" सप्त योजनशतानि, संस्थानं पुनरेषां नानाविधमनावलिकाप्र- त्ति, तेषु व्यवच्छिद्यमानेषु निर्वाणं गच्छत्सु, तथाऽहत्प्रविष्टत्वात् , पावलिकाप्रविष्टानि हि वृत्तव्यस्रचतुरस्रभेदा- शप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने तीर्थव्यवच्छेदकाले , तथा पूत् त्रिसंस्थानान्येव भवन्तीति । 'बंभलोए' इत्यादि, ब्र
र्वाणि दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गतं- प्रविष्टं तदभ्यह्यलोके या विमानानां देवानां च जीवाभिगमोक्ता वक्तव्य
न्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छुतं तत्पूर्वगतं तत्र व्यवच्छिद्यमाता सा तेषु नेतव्या-अनुसर्तध्या, कियत् दूरम् ? , इत्यत
ने, इद्द च राजमरणदेशनगरभङ्गादावपि दृश्यते दिशामपाह-जावे' त्यादि, सा चेयं लेशतः- 'लोयंतियवि
न्धकारमात्रं रजस्वलतयेति, यत्पुनर्भगवत्स्वईदादिषु निमाणा ग भंते ! कति वराणा पराणता ?, गोयमा !, तिवराणा
खिलभुवनजनानवद्यनयनसमानेषु विगच्छत्सु लोकान्धपराणत्ता लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला , एवं पभाए निच्चा
कारं भवति तत्किमद्भुतमिति ? । स्था० ३ ठा०१ उ० । लोया गंधेणं इट्टगंधा एवं इटुफासा एवं सम्वरयणमया
चउहि ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, तं जहा-अरहंतेहिं तेसु देवा समचउरंसा अल्लमहुगवन्ना पम्हलेसा । लोयंतियविमाणेसु णं भंते ! सब्वे पाणा.४ पुढविकाइयत्ताए ५% वोच्छिज्जमाणहि अरहंतपस्यले धम्मे वोच्छिजमाणे पु
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(७१४) अभिधानराजेन्द्रः।
लोगट्टि । (सू०३२४x)| सा थावरा पाणा,अजीवा जीवपइडिया,जीवा कम्मपइट्ठिया।
धकारम्-त-| (सू०४६८) व्यते बर्हदा- | 'छविहे ' त्यादि इदं पूर्वमेव व्याख्यातम् , नवरमजीवा
पत्वात् तस्य, औदारिकादिपुद्गलास्ते जीवषु प्रतिष्ठिता-प्राश्रिताः, इदं चा'; वच्छेदेऽन्धकारं नवधारणं बोद्धव्यम्, जीवविरहणापि बहुतराणामजीवानाम।' द्वा, भावतो वस्थानात् , पृथिवीविरहितोऽपि त्रसस्थावग्यदिति, तथा ., त । स्था० ४ जीवाः कर्मसुज्ञानवरणादिषु प्रतिष्ठिताः प्रायस्तद्विरहितानां
तेषामभावादिति । स्था०६ ठा०३ उ०। १ उदेवलोकविमा- लोकान्तादिलोकपदार्थप्रस्तावाद् गौतममुखेन लोकस्थि
तिप्रज्ञापनायाह17, पं०व०३द्वार। भगवं गोयमे समणं जाव एवं बवासी-कतिवि
भाव. ५०) हा णं भंते! लोयद्विती पएणता ?, गोयमा ! अट्ठविहा । स्थाने, औ०।। लोयद्विती परमत्ता,तं जहा-आगासपइट्ठिए वाए १, बायपइ
कस्य चतुर्दशर| द्विए उदही २, उदहिपइट्ठिया पुढवी ३, पुढविपइडिया तसा - लका । ईषत्प्रा- थावरा पाणा ४, अजीवा जीवपइट्ठिया ५, जीवा कम्मपइट्टि
या ६, अजीवा जीवसंगहिया ७, जीवा कम्मसंगहिया । ग्भाराख्यपृथि
से केणडेणं भंते! एवं वुच्चइ ? अट्ठविहा०जाब जीवा कम्म
संगहिया ?, गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे बद्वा०११द्वा०।
त्थिमाडोवेइ बत्थिमाडोवित्ता उप्पि सितं बंधइ बंधइत्ता
मज्झेणं गठिं बंधा बंधइत्ता उवरिल्लं गंठिं मुयइ मुयइयाम्, स्था।
त्ता उवरिल्लं देसं वामेइ उवरिल्लं देसं वामेत्ता उवरिल्लं
देसं पाउयायस्स पूरेइ पूरेइत्ता उप्पि सितं बधइ बंधइसपइट्ठिए वाए,
त्ता मज्झिलं गठिं मुयइ । से नूणं गोयमा ! से श्राउयाए 11 (०१६३४)
तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरितले चिट्ठइ ?, हंता चिइ.. -लोकव्यवस्था काशप्रतिष्ठितः,
से तेणऽद्वेणं जाव जीवा कम्मसंगहिया, से जहा वा केइ माकाशप्रतिष्ठि-| पुरिसे वस्थिमाडोवेह बस्थिमाडोवेइत्ता कडीए बंधड बंधई. प्रभाद्रिकेति ।। त्ता अत्थाहमतारमपोरसियंसि उदगंसि ओगाहेजा, से
नणं गोयमा! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले भवतीति
चिट्ठइ ?, हंता चिट्ठइ, एवं वा अट्ठविहा लोयट्ठिई पएणप्रागासपतिदिए।
त्ता० जाव जीवा कम्मसंगहिया । (मू०५४)
अयं सूत्राभिलापः आकाशप्रतिष्ठितो वायुः-तनुवातपूवी, पुढविप
घनवातरूपः, तस्यावकाशान्तरोपरिस्थितत्वात् ,१। आका,
शं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतति । तथा सितिः-व्यव
वातप्रतिष्ठित उदधिः-घनोदधिस्तनुवातघनवातोपरिस्थिघमवाततनुबा- तत्वात् २। तथा उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी, घनोदधीनामुविका, असाः- परि स्थितत्वात् , रत्नप्रभादीनां बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम् , तिष्ठितास्तेऽपि
अन्यथा-ईषत्प्राग्भारा पृथिवी श्राकाशप्रतिष्ठितव ३ । तप्रतिष्ठिता एव,
था पृथिवीप्रतिष्ठितानसा स्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रासम्भवमवसे
यिकमेव, अन्यथा आकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते नामिति, स्था
सन्तीति ४ । तथा अजीवाः-शरीरादिपुद्गलरूपा जीववां सकललो०२ उ०।
प्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात् ५। तथा जीवाः
कर्मप्रतिष्ठिताः कर्मसु अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसमुदायरूपेइट्ठिए वाए, षु संसारिजीवानामाश्रितत्वात् , अन्ये त्वाहुः-जीवाः कभविषइडिया त-| मभिः प्रतिष्ठिताः-मारकादिभावेनावस्थिताः ६ । तथा
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युदेश
1या
गन
(७१५) लोगविह
अभिधानराजेन्द्रः। अजीवा जीवसंगृहीताः, मनोभाषादिपुद्गलानां जीवैः सं- | ताव ताव जीया जावर गृहीतत्वात् , श्रथ अजीवा जीवप्रतिष्ठितास्तथा अजीवा। प्पेगा लोगद्वितीजा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः ?, उच्यते, पूर्वस्मिन् वाक्ये श्राधाराधेयभाव उक्तः , उत्तरे तु संग्राह्य संग्राह
ता गतिपरिताते नाव ताप, कभाव इति भेदः, यश्च यस्य संग्राह्य तत्तस्याधेयमप्यर्था- ताव जीवाण य पांगला पलितः स्याद् , यथा-अपूपस्य तैलमिस्याधाराधेयभा- लोगडिती ६, सम्वेसु बि वोऽप्युत्तरवाक्य दृश्य इति । तथा जीवाः-कर्मसंगृही
पोग्गला लुक्खत्ताते कार ताः, संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्तित्वात् ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः, यथा-घटे रूपादय इत्येव
नो संचायति बहिता लोगन .. मिहाप्याधाराधेयता दृश्यति । · से जहानामए कह'| पयत्ता १०। (१० ७.४ ति, स यथानामकः-यत्प्रकारनामा, देवदत्तादिनामे- 'दसविहा हांगे 'स्या । । त्यर्थः, अथवा-' से ' इति स' यथा ' इति :- मभिसम्बन्धः--पूर्व नवा ण : टान्तार्थः 'नाम' इति संभावनायाम् 'ए' इति वाक्या
नं ते चासंख्येयप्रदेश के लकारे, ‘वत्थि ' ति बस्तिम् दृतिम् ‘ाडोवेर ' त्ति, सैवेहोच्यते इत्येवं सम्बन्ध
आटोपयत्-वायुना पूरयेत् , ' उप्पि सियं बंधा ' ति उप-| हितादिचर्चः प्रथमाध्यमस्या रिसितम्-'षिञ् बन्धने' इति वचनात् क्तप्रत्ययस्य च भा. कायात्मकस्य स्धिांत --- वार्थत्वात् कर्मार्थत्वाद्वा बन्धम्-ग्रन्थिमित्यर्थः बध्नाति- णमिति वाक्यालार : करातीत्यर्थः, अथवा-' उपिसि' त्ति उपरि 'त' मिति त्वेत्यर्थः, 'तत्थंच fi : बस्तिम्-' से आउयाए 'ति, सोऽकायस्तस्य-वायुकायस्य सान्तरं निरन्तरं #ri : 3:10 'उम्पि' ति उपरि, उपरिभावश्च व्यवहारतोऽपि स्यादित्यत त्याजायन्ते-प्रत्युन । आह-उपरितले सर्वोपरीत्यर्थः, यथा-वायुराधागे जलस्य अपिशब्द उत्तरचा
: दृष्ट पवमाधाराधेयभावो भवति आकाशधनबातादीनामिति द्वितीया-'जन' नि : 4. भावः । आधाराधेयभावश्च प्रागेव सर्वपदषु व्यजित इति । कालं ‘सरियं नि मन 'अत्थाहमतारमपोरुसियास' ति, अस्ताघम्-अविद्यमान- सर्वमपि : Rasoi स्ताघम्-अगाधमित्यर्थः, अस्ताधो वा निरस्ताधस्तलमिवे- क्रियते-बध्य रे. का. त्यर्थः अत एवातारम्-तरीतुमशक्यम् , पाठान्तरेणापारम्-| नमिति द्वितं ॥, गि पारवर्जितं पुरुषः प्रमाणमस्यति पौरुषेयं तत्प्रतिषेधादपौरुषेय. भेदेन निHिai.. म ततः कर्मधारयोऽतस्तत्र, मकारचहालाक्षणिकः, एवं षा' जीवाजीवान जीकामा?, इत्यत्र वाशब्दो दृष्टान्तान्तरतासूचनार्थः । भ०१श०६ उ०। णां चाव्यवर न.प. लाका श्राव० । स्था।
घनं षष्ठी ६,.
..या दसविधा लोगद्विती पसत्ता, तं जहा-जमं जीवा उद्दा-1
लोए तावत ' ना क्षेत्रे लोक.
जी . इत्ता उद्दाइत्ता तत्थव तत्थेव भुजो भुजओ पञ्चायति एवं|
जीवा ताव ।।। नाप
। एगा लोगडिती परमत्ता १, जम्मं जीवाणं सता समियं ।
लोकः , याकामावति । पावे कम्मे कजति एवप्पेगा लोगद्विती पएणत्ता २ ,
भावार्थः,'
र जम्मं जीवा सया समितं मोहणिजे पावे कम्मे कजति त्रमित्यहमी - आपकीनन । एवप्पेगा लोगद्विती पएणत्ता ३, ण एवंभूतं वा भ- नवमी , स५. लाकार बम ब्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति भ
श्लेषाः पाश्चाता-मम: जीवा वा जीवा भविस्संति एवष्पेगा लोगद्विती पएण
रुक्षम्यान्तरणेति गम्यत .....
स्त इति भारः.लौकाम्न........ ता ४, ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सं वा जं तसा पा
रूक्षतया परिणमन्ति,
वाम खा बोच्छिजिस्संति थावरा पाणा वोच्छिजिस्संति तसा भवति तया ते पुमला ...। पाणा भविस्संति वा एवप्पेगा लोगद्विती पएणत्ता क्रियम्ते,किं सर्वथा ? ५, ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सं वा जं लोगे
तेन रूपण क्रियम्लेर अलोगे भविस्सति, अलोगे वा लोगे भविस्सति एव-|
परमारवादयः, 'मोसा
ल्लोकान्ताद् गमनस प्पेगा लोगद्वित्ती पएणत्ता ६, ण एवं भृतं वा भब्वं वा प्रत्ययविधानादिति ....... मविस्सं वाजं लोए अलोए पविस्सति अलोए वा लो-| कराव्यमिति । स्था १ ए पविस्सति एवप्पेगा लोगद्विती ७, जाव ताव लोगे। अस्थि णं भंते । मार :
दिति
।। तियः
धनाय । ताब
मामि
पाः
मन्ते मता
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लोगद्विह अभिधानराजेन्द्रः।
लोगएजोयगर रइ १, हंता अस्थि । से भंते ! कि उड्डे पवडइ अहे | लोगदिदि-लोकदृष्टि-स्त्री० । सामान्यजनदर्शने, हा० २६ पवडइ तिरिए पवडइ ?, गोयमा उड्डे वि पवडइ अहे वि
अष्ट। पवंडइ तिरिए वि पवडइ, जहा-से बादरे आउयाए अ-लोकपईव-लोकप्रदीप-पुं० । लोकस्य-विशिष्टतिर्यग्जन्मबमनसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिट्ठइ तहा णं से वि?,
..जरामरणरूपस्यान्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थनो इणढे समद्वे, से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ ।।।
प्रकाशकारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपः। स०१ सम०।
लोकस्य सम्यग् दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य परिपालनेसेवं भंते १ सेवं भंते ! ति । (मू०५६)
नेति भ० १ श०१ उ० । मिथ्यात्वध्वान्तनाशकत्वात् । कसदा-सर्वदा 'समियं ' ति सपरिमाणं न बादराप्का- ल्प०१ श्रधि०१क्षण । लोकस्य-देशनायोग्यस्य विशिष्ठस्य यवदपरिमितमपि, अथवा- सदा' इति सर्वर्तुषु 'स- प्रदीपदेशनांशुना यथावस्थितवस्तुप्रकाशको लोकप्रदीपः । मित ' मिति राघौ दिवसस्य च पूर्वापरयोः प्रहरयोः , जिने, जी०३ प्रति०४ अधि०।"लोकप्रदीपेभ्यः" अत्र लोतत्रापि कालस्य स्निग्धेतरभावमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चा- कशब्देन विशिष्ट एव तद्देशनाद्यंशुभिर्मिथ्यात्वतमोपनयनेबसेयमिति, यदाह-“पढमचरिमा उ सिसिरे, गिम्हे अ- न यथार्ह प्रकाशितशेयभावः संझिलोकः परिगृह्यते, यस्तु खं तु तासि वजेत्ता । पायं ठवेसि हाइ , रक्खणडा नेवंभूतस्तत्र तत्त्वतः प्रदीपत्वायोगाद् , अन्धप्रदीपदृष्टापवेसे वा ॥१॥" लेपितपात्रं बहिर्न स्थापयेत् स्नेहादि
न्तेन, यथा-ह्यन्यस्य प्रदीपस्तत्त्वतोऽप्रदीप एव तं प्रति रक्षणार्थायेति , ' सूक्ष्मः स्नेहकाय' इति अप्कायविशेष स्वकार्याकरणात्तत्कार्यकृत एव च प्रदीपत्वोपपत्तेः, अन्यइत्यर्थः 'उद्दे' ति ऊर्ध्वलोके व लवैताब्यादिषु 'अहे ॥ थाऽतिप्रसङ्गात् । अन्धकल्पश्च यथोदितलोकव्यतिरिक्तस्तत्ति अधोलोकप्रामेषु 'तिरियं' ति तिर्यग्लोके दीदकालं दन्यलोकः , तद्देशनाद्येशुभ्योऽपि तत्त्वोपलम्भाभावात् , समचिट्टर' ति तडागादिपूरणात् , ' विद्धंसमागच्छद ' त्ति वसरणेऽपि सर्वेषां प्रबोधाश्रवणात्, इदानीमपि तद्वचनतः खल्पत्वात्तस्येति । भ० १श०६ उ०।।
प्रबोधादर्शनात् , तदभ्युपगमवतामपि तथाविधलोकदृष्टयलोगणाभि-लोकनाभि-पुं० । लोकस्य तिर्यग्लोकस्य स्था
नुसारप्राधान्यादनपेक्षितगुरुलाघवं तत्त्वोपलम्भशून्यप्रवृ
त्तिसिद्धेरिति । तदेवंभूतं लोकं प्रति भगवन्तोऽपि अप्रदीलप्रख्यस्य नाभिरिव स्थालमध्यगतसमुन्नतं वृत्तचन्द्रक इवे.
पा एव तत्कार्याकरणादित्युक्तमेतत् । नचैवमपि भगवतां ति लोकनाभिः । मेरुपर्वते, चं० प्र०५ पाहु । सू० प्र० ।
भगवत्त्वायोगः , वस्तुस्वभावविषयत्वादस्य, तदन्यथाकरणे लोगणाह-लोकनाथ-पुं० । लोकस्य संशिभव्यलोकस्य नाथः
तत्तत्त्वायोगात् , स्वो भावः स्वभावः-आत्मीया सत्ता, स प्रभुलोकनाथः। स० १समारालाचतुर्दशरज्जुप्रमाणलोकप्रभौ, चान्यथा चेति व्याहृतमेतत् , किं च-एवमचेतनानामपि चे. उत्त० २२ अभव्यानां नाथे, कल्प०१ अधि० १ क्षण । तनाकरणे समानमेतदित्येवमेव भगवत्त्वायोगः, इतरेतरक" लोकनाथेभ्य" इति । इह तु लोकशब्देन तथेतरभेदा- रणेऽपि स्वात्मन्यपि तदन्यविधानाद् यत्किंचिदेतदिति यविशिष्ट एव । तथा तथा रागाद्युपद्रवरक्षणीयतया बीजाधा- थोदितलोकापेक्षयैव लोकप्रदीपाः । ल । रखा। ध। नादिसंविभक्तो भव्यलोकः परिगृह्यते अनीशि नाथत्वा- लोगपएस-लोकप्रदेश-पुं०। चतुर्दशरज्ज्वात्मकक्षेत्रखण्डस्य नुपपत्तेः योगक्षेमकृदयमिति विद्वत्प्रवादः न तदुभयत्या
निर्विभागभागेषु, कर्म०५ कर्म० । गादाश्रयणीयोऽपि परमाथैन तल्लक्षणायोगात् , इत्थ-1.
लोगपंति-लोकपक्ति-स्त्री० । लोकसदृशभावे, । यो वि०। मपि तदभ्युपगमेति प्रसङ्गात् , महत्त्वमात्रस्येहाप्रयोजकत्वात् विशिष्टोपकारकृत एव तत्वतो नाथत्वात् ।। लोकाराधनहेतोयों , मलिनेनान्तरात्मना ।
औपचारिकवाग्वृत्तेश्च पारमार्थिकस्तवत्वात् सिद्धिः , क्रियते सत्क्रिया सा च , लोकप्रतिरुदाहृता ॥६॥ तदिह येषामेव बीजाधानोद्भेदपोषणैर्योगः क्षेमं च | द्वा० १० द्वा० (ब्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६१८ सनदुपद्वाद्यभावेन त एवेह भव्याः परिगृह्यन्ते न चैते | पृष्ठे गता।) कस्यचित्सकलभव्यविषये ततस्तत्माप्त्या सर्वेषामेव मुक्ति
लोगपगत-लोकप्रकृत-पुं० । बहुलोकसम्मते , वृ०३ उ० । प्रसङ्गात् , तुल्यगुणा ह्येते प्रायेण ततश्च चिरतरकालातीतादन्यतरस्माद्भगवतो बीजाधानादिसिद्धेरल्पेनैव कालेन लोगपजोयगर-लोकप्रद्योतकर-पुं० । लोक्यते इति लोकः, सकलभव्यमुक्तिः स्यात् बीजाधानमणि ह्यपुनर्बन्धकस्य, इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्य न चास्यापि पुद्गलपरावर्तः संसार इति कृत्वा तदेवं
भावस्याखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावालोकनाथाः ॥ ११ ॥ ल० । जी० । भ० । ध० । स० । स्था० ।
वभासनसमर्थः केवलालोकपूर्वप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन
प्रद्योतं-प्रकाश करोतीत्येवं शीलो लोकप्रद्योतकरः । लोगणीह-लोकनीति-स्त्री०। लौकिकन्याये, पञ्चा०८विव०।
स०१ सम० । लोकस्योत्कृष्टमते व्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतनंलोकतम-लोकतमस-न। लोके इदमेव तम इति लोकतमः ।
प्रद्योतकत्वं विशिष्टा-शानशक्तिस्तत्करणशीलो लोकप्रद्योतमस्काये, स्था०४ ठा०२ उ०।
तकरः । रा०। जी० । सूर्यवत्सर्ववस्तुप्रकाशकत्वाद् जिने, लोगदव्व-लोकद्रव्य-न । लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्य- कल्प०१ श्रधि०१क्षण | " लोकप्रद्योतकरेभ्यः " | इह म् । पञ्चास्तिकायादौ , यत उक्तम्-" पंचत्थिकायमइयं ,I यद्यपि लोकशब्देन प्रक्रमाद्भव्यलोक उच्यते-" भव्यानालोगमणाइनिहणं ति"। स्था०५ ठा०३ उ०।
मालोको , वचनांशुभ्योऽपि दर्शनं यस्मात् । एतेषां भवति
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लोगपजोयगर अभिधानराजेन्द्र:।
लोगपाल तथा, तदभाषे व्यर्थ पालोकः ॥१॥ इति वचनात्, तथाप्यत्र | सपडिदिसिं असंखेजाई जोयणसयसहस्साई भोगाहित्ता लोकम्वनिनोत्कृष्टमतिः भव्यसत्त्वलोक एव गृह्यते तत्रैव | एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरलो सोमस्स महारबो सोमा तत्वतः प्रद्योतकरणशीलत्वोपपत्तेः, अस्ति च चतुर्दशपूर्व
नाम रायहाणी पमत्ता,एगं जोयणसयसहस्सं आयामविविदामपि स्वस्थाने महान् दर्शनभेदः, तेषामपि परस्परं पदस्थानपतितत्वश्रवणात् । न चायं सर्वथा प्रकाशाभेदे -
क्खंभेणं जंबुद्दीवपमाणेण वेमाणियाणं पमाणस्स भद्धं भिन्नो ोकान्तेनैकस्वभावः तनास्य दर्शनभेदहेतुतेति, नेयव्यं०जाव उवरियलेणं सोलस जोयणसहस्साई आयाम: स हि येन स्वभावेनैकस्य सहकारी ततुल्यमेव दर्शनम- विक्खंभेणं पन्नासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोय. कुर्वन् तेनैवापरस्य तत्तत्त्वविरोधादिति भावनीयम् , इतरे. णसते किंचि विसेसूणे परिक्खेवणं पसत्ते, पासायाणं चत्तारि तरापेक्षो हि वस्तुस्वभावः , तदायत्ता च फलसिद्धिरिति
परिवाडीमो नेयवाओ, सेसा नत्थि । सक्कस्स णं देविंदस्स उत्कृष्टचतुर्दशपूर्वविल्लोकमेवाधिकृत्य प्रद्योतकरा इति लोकप्रद्योतकराः ॥ १४ ॥ प्रद्योत्यं तु सप्तप्रकारं जीवादितत्त्वम् ,
देवरनो सोमस्स महारनो इमे देवा प्राणाउववायवयणनिसामर्थ्यगम्यमेतत् , तथा शाब्दन्यायात् , अन्यथा अचेतनेषु | इसे चिदंति-तं जहा-सोमकाइयाति वा सोमदेवकाइयाति प्रद्योतनाऽयोगः, प्रद्योतनं प्रद्योत इति भावसाधनस्यासंभवा.
वा विज्जुकुमारा विज्जुकुमारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुत, अतो बानयोग्यतैबेह । प्रद्योतनमन्यापेक्षयेति तदेवं | मारीयो बाउकुमारा वाउकुमारीश्रो चंदा सूरा गहाणस्तवेवपि एवमेव वाचकप्रवृत्तिरितिस्थितम् । एतेनस्तवे 'अपुष्कलशब्दः प्रत्यवायाय' इति प्रत्युक्तम् , तत्त्वेनेदशस्या -
क्खत्ता तारारूवा जे यावने तहप्पगारा सव्वे ते तब्भपुष्कलत्यायोगादिति । लोकप्रद्योतकराः ॥ १४ ॥ ल। त्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरलो लोगपरिपूरणा-लोकपरिपूरणा-स्त्री० । ईषत्प्राम्भाराख्यायां सोमस्स महारबो प्राणाउववायवयणनिद्देसे चिट्ठति ॥ पृथिव्याम् , स० १२ सम ।
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई लोगपाल-लोकपाल-पुं० । शक्रादीनां पूर्वादिदिक्पालेषु सो- इमाई समुप्पअंति, तं जहा-गहदंडाति वा गहसुमादिषु, स्था० ३ ठा० १ उ०।
| सलाति वा गहगजियाति वा , एवं गहयुद्धाति वा रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं बयासी-स
| गहसिंघाडगाति वा गहावसब्बाइ वा अम्भाति वा अन्मकस्स णं भंते देविंदस्स देवरन्नो कति लोगपाला प- रुक्खाति वा संज्झाइ वा गंधव्वनगराइ वा उकापायाति स्मसा?, गोयमा ! चत्तारि लोगपाला परमत्ता, तं जहा-| वा दिसीदाहाति वा गजियाति वा विज्जुयाति वा पंसुवुसोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे । एएसि णं भंते ! चउएहं | डीति वा जूवे त्ति वा जक्खालित्त त्ति वा धूमयाइ वा मलोगपालाणं कति विमाणा पामत्ता ?, गोयमा! चत्तारि हियाइ वा रयुग्घायाइवा चंदोवरागाति वा सूरोवरागाति वा विमाणा पमत्ता, तं जहा-संझप्पभे, वरसिद्दे, सयंजले,
चंदपरिवेसाति वा सूरपरिवेसाति वा पडिचंदाइ वा पडिवग्गू । कहिणं भंते ? सक्कस्स देविंदस्स देवरमो सोम-1
सूराति वा इंदधरणूति वा उदगमच्छकपिहसियममोहास्स महारन्नो संझप्पभे णामं महाविमाणे पसत्ते?, गोयमा!
पाईणवायाति वा पडीणवाताति वा जाव संवयवाताति जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयण
पा गामदाहाइ पा० जाव सभिवेसदाहाति वा पाणक्खया प्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड्डे चं
जणक्खया घणक्खया कुलक्खया वसणम्भृया भणारिया जे दिमसरियगहगणणक्खत्ततारारूवाणं बहुई जोयणाई०जाव बावने तहप्पगाराण ते सकस्स देविदस्स देवरलो सोमस्स पंच वडिंसया पामत्ता, तं जहा-असोयवडेंसए सत्तवन्नवडिं
महारो भएणाया अदिद्वाभसुया प्रमुया भविएणया तेसिं सए चंपयवडिसए चूयवडिंसए मज्झे सोहम्मवडिंसए, तस्स
वा सोमकाइयाणं देवाणं, सकस्स णं देविंदस्स देवरमो सोणं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं सोहम्मे
मस्स महारबो इमे पाहावच्चा अभिमाया होत्था,तं जहाकप्पे असंखेजाई जोयणाई वीतिवइत्ता एत्थ णं सक
इंगालए वियालए लोहियक्खे सणिच्चरे चंदे सरे सुके बुहे स्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महरन्नो संझप्पभे नाम
| बहस्सती राहू ।। सक्कस्स णं देविंदस्स देवरमा सोमस्स महाविमाणे पत्ते, अद्धतरस जोयणसयसहस्साई भा
महारनो सत्तिभागं पलिभोवमं ठिती पपणचा, महावचायामविक्खंभेणं उयालीसं जोयणसयसहस्साईबावन्न
भिन्नायाणं देवाणं एगं पलिमोवमं ठिई पएणता, एवं मच सहस्साई अदु य अडयाले जोयणसए किंचि विसे
हिड्डीए० जाव महाणुभागे सोमे महाराया । (२०१६५)। साहिए परिक्खेवणं पएणत्ते, जा सूरियाभविमाणस्सवतव्वया सा अपरिसेसा भाणियब्वा जाव अभिसेयो नवरं ।
'रायगिहे' इत्यादि, 'घर जोयणाई'इह यावत्करणा
दिदं दृश्यम्-'बहूई जोयणसयाई बहू जोयणसहस्साई हर सोमे देवे ।। संझप्पस्सणं महाविमाणस्स अहे सपक्खि | जोयणसयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीनो बहुप्रो जोयन
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कोमपाल
कोडाकोडीओ उहं दूरं वीरवत्ता एत्थ से सोहने गामै कप्पे मयले पासपायर उपदादिसात्थिद संडास समितिमाखरासिव
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जोडाको आयाम जो यत्कोडाकोडीओ परिकखेवेग, एत्थ से सोहम्माण देवाण बसी मिलतसय सदस्साई भवन्तीति खाया ते गं विभाणा सव्वन्यणामया श्रच्छा ० जाव पडिरूमा तस्स सोहम्मरूप्यस्स बहुमज्मसभा इति ' वीरवास कि व्यतिव्रज्य व्यतिक्रम्य 'जा सूरियाaftareen fn रिकामधिमानं राजश्वीयोपाङ्गो स्वरूपं तद्वक्तव्यते वाच्या, तत्समानलक्षणत्वादस्येति । कियती सा वाया इत्याह--यावभिषेक-अभिनव ? त्पचस्य सोमस्य राज्याभिषेकं यापदिति सा नेहातिबहुत्वान्न बयान लिखित इति तिर्यगलोके पेमालिवास मागस्यसि वैमानिकानां सीधारक प्रसादप्रकारद्वारादीनां प्रमाणस्येह नगर्यामई शातव्यम् 'सेसा नत्थि ' कि सुधर्मादि ( काः ) सभा इह न सन्ति, उत्पत्तिस्थानेष्वेव तासां भावात्, 'सोमकाइय ' ति सोमस्य कावोमिकायो येषामस्ति ते सोमकायिका:सोमपरिवारभूताः सोमदेवयकाइय लि सोमदेवता:तत्सामानिकादयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमदेवताकायिकाः- सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूता इत्यर्थः, राव ' सितारकारूपाः 'तम्मत्तिय 'ति तत्र--सोमे भक्लि:- सेवा बहुमानो वा येषां ते तद्भक्तिकाः तप्पविजयसि सोमपाक्षिकाः सोमस्य प्रयोजनेषु सहायाः, तम्भारि ति तद्भार्याः तस्य सोमस्य भाया इस भायां अत्यन्तं वश्यत्यात्पोचलीयत्वाचेति तद्भार्या, तासेवायेषां पतयाऽस्ति ते तङ्गारिकाः महदंड fe दण्डा च दण्डा:-तियेगायताः श्रेणयः प्रहाणांमङ्गलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा प्रहृदण्डाः एवं प्रहमुशलादीनि नवरमूर्ध्वायताः श्रेयः, गहरिजयसि महसञ्चालादरी गर्जितानि स्तनितानि ग्रहगर्जितानि प्र युद्धानि ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समतिया स्थानानि प्रसिद्धाटकानि ग्रहाणां सिङ्गाटककलाकारेणावस्थानमिन ग्रहापसस्यानि ग्रहाणामपसन्य गमनानि प्रतीपगमनानीत्यर्थः, अभ्रात्मका वृक्षा अभ्र
ता
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गन्धर्वनगराणि ब्राकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारमतिविम्बानि उल्कापाताः सरेखाः सोदयोता वा तारकस्य पाता दिग्दाहा:- अन्यतमस्यां दिशि अथो
कारा उपरि च प्रकाशात्मका दामानमहानगरप्रकाशकल्पाः पति शुकपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावसायि से वृपका जलालबोरान आकाशव्यन्तरकृतज्वलनानि भूमिकामद्दिकयोर्वकृती विशेषः, तत्र धूमिका-धूम्रव का घूसरा इत्यर्थः, महिका त्वापारडरेति, रउग्वाय ' दिशांगोरागा सरोबगा - चिंसि द्वितीयचन्द्र उद्ग"शि अनि कहिंसि सि अन सहसा ते कपिहसितम् श्रन्ये त्वादुःनामदारस्य विकृतमुख
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म्हणा
(ate) अभिधानराजेन्द्रः।
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स्प इसनम् प्रमोद वि मोवा रादित्यकिरसविकारजनिता तामकृष्णा श्यामा वा, शकटोर्ध्वसंस्थिता दसडा इति पाईणवाय' सि पूर्वदिग्वाताः ' पडीवाय ' ति प्रतीचीनवाता यावत्करणादिवं दृश्यम् - 'दाहिणवायाइ वा उदलवायाइ वा उडबायाह वा मोवाया वा तिरियवायाtarबिदिसीबायार या वाउ भामाइ वा घाउक्कलिया वा वायमंडलियाह या उकलियाबाया या मंडलियावा या गुंडावाबाद वा वावा व अनवस्थितवताः वातोत्कलिकाः समुत्कलिकावडा-बातो स्यः उत्कलिकावाना:- उत्कलिकाभिये यान्ति मण्डलिकावाता:- मण्डलिकाभिर्ये वान्ति, गुजत्राताः - गुञ्जन्तः सशये वान्ति भन्कापाता संचाता:तृणादिसंवर्तनस्वभावा इति । गनन्तरोक्लानां ग्रहएडादीनां प्रायिकफलानि दर्शयभाग - पाणक्य' सि बलक्षयाः ' जगक्वय सि लोकमरणानि निगमयनाह-' वसम्भूया श्रणारिया जे यावने तहप्पगार' सि इमरघटना न केवलं प्राज्ञपाय एव ये चान्ये एतद्व्यतिरिक्तास्तत्प्रकाराः - प्राण नयादितुल्याः व्यसनभूताः - श्रपद्रूपाः अनार्याः पापात्मकाः न तेऽज्ञाता इति योगः अरणाय ' ति अनुमानतः श्रदि ' प्रित्यक्षापेक्षया' असुय' कि परयचनद्वारेण ' श्रमुय, ति श्रस्मृता मनोऽपेक्षया अनि अयभ्यपेक्षयेति । अहावच 'ति यथा अपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्याःदेवाः पुत्रस्थानीया इत्यर्थः श्रभिरणाया' इति अभिमता अभिमतयस्तुकारित्वादिति 'होय' नि अभवन् उपलक्षणत्वाचास्य भवन्ति भविष्यन्तीति द्रव्यम्, 'अहाथचाभिन्नायाणं ' ति यथाऽपत्यमेवमभिज्ञाता श्रवगता यथाउपत्याभिज्ञाताः; श्रथवा यथाऽपत्याश्च तेऽभिज्ञाताश्चेति कम्मैधारयः ते चाहारकायाः पतेषु च यद्यपि चन्द्रसूर्ययोपलक्षाद्यधिकं पाप तथाप्याधिक्यस्या विवचितत्वादद्वारा प्रस
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लोगपाड
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द्भावात् पल्योपममित्युक्तमिति ।
कहि णं भंते ! कस्स देविंदस्य देवरनो जमस्स महारमो वरसिट्ठे णामं महाविमाणे रम्पत्ते ?, गोगमा ! सोहम्मवर्डिसयस्स महाविमागम्य दाहिणं सोहम्मे कप्पे असंखेआई जोयणसहस्साई वीडयतित्ता एत्थ सं सकस देविंदस्स देवरनो जम्मम्म महारभो वरसिडे णामं महाविमाणे पसते. अद्धतेरसजोयखसयस इस्साई जहा सोमस्स विमाणे तहा० जाव अभिसेो रायहाणी तहेव० जाव पासायपतीओं ॥ सकस्स गं देविदस्स देवrat जमस्स महारन्नो इमे देवा श्रणाए० जाव चिट्ठति तं जहा- जमकाइयाति वा जमदेवकाइमाइ वा पेयकाइवाइ वा पेयदेवकाइयाति वा असुरकुमारा असुरकुमारीओ कंदप्पा निरयवाला भागियोगा जे या नहप्पगारा सच्चे ते तम्भत्तिगा तप्यक्खि
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लोगपाल अभिधानगजेन्द्रः।
लागेपाल या तब्भारिया, सकस्म देविंदस्स देवरओ जमस्स महार- महारगा: प डासंगाम' ति सव्यवस्थाचादिव्यूहरचनौषेतओ प्राणाए जाव चिट्ठति ।। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स प- महामगा: महाशस्त्रनिपातनादयस्तु प्रयो महायुद्धादिकार्यबयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पअंति , तं जहा
नूता, भूर' ति दुष्य-जनधान्यादीनामुपद्रवहेतुत्याद
भूताः-स्वायूका-मत्कुणोन्दुरतिप्रभृतयो दुर्भूता-तिडिवाति वा डमराति वा कलहाति वा बोलाति वा य इत्यर्थः, इन्द्र ग्रहादयः उन्मत्तताहेतवः, एकाहिकादयोखाराति वा महायुद्धाति वा महासंगामाति वा महास- ज्वःविशेष रब्बेयग'त्ति उद्वेगका-इष्टवियोगादिजन्या
उद्धेगाः उद्वेजका वा लोकोद्वेगकारिणश्चोरादयः 'कच्छस्थनिवडणाति वा एवं पुरिसनिवडणाति वा महारु
कोह ति कक्षागां---शरीरावयव विशेषाणां वनगढ़वानां वा धिरनिवडणाइ वा दुन्भूयाति वा कुलरोगाति वा गाम
कोधाः---कथित बानि शटितानि वा कक्षाः कोथा कक्षकोरोगाति वा मंडलरोगाति वा नगररोगाति वा सीसवेयणाइ था था। 'व' इत्यादयः पञ्चदशासुरनिकायान्तवर्तिनः पवा अच्छिवेयणाइ वा कन्ननहदंतवेयणाइ वा इंदग्ग- रमाधार्मिकनिकायाः, तत्र यो देवो नारकानम्बरतले नीत्या हाइवा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा जक्खग्गहाइ वा
विमुश्चन्यसौ म इत्यभिधीयते , यस्तु नारकान् कल्प
निकाभिः राः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोतीत्यसाभूयग्गहाइवाएगाहियाति वा बेआहियानि वा तेत्राहियाति
चम्बरीषस्याटस्य सम्बन्धादम्बरीष पवोच्यते २, यस्तु वा चाउथिहियाति वा उब्वेगाति वा कासाति वा सासाति तेषां शातन न करोति वर्णतस्तु श्यामः स श्याम इति वा सोसेति वा जराइ वा दाहाति वा कच्छकोहाति वा
३, 'सबले नियाभर सिं शबल इति चापरो देव इति प्रक्रमः, अजीरया पंडुरगा हरिसाइ वा भगंदराइ वा हियय
स च तेषामन्त्ररदयादीन्युत्पाटयति वर्णत शबला-क
बुर इत्यर्थः ४, या शक्तिकुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स मूलाति वा मत्थयमूलाति वा जोणिमूलाति वा पास- रौद्रत्याद्रौद इति ५, यस्तु तेषामेवाकोपाकानि भनक्ति सोड मलाति वा कुच्छिमूलाति वा गाममारीति वा नगरमारी- त्यन्तगद्रत्वादुपगेद्र इति ६, यः पुनः करावादिषु पचति ति वा खेडमारीति वा कब्बडमारीति वा दोणमुहमारीति
वर्णनश्च कालः स काल इति ७ ' महाकाले ति यावरे'
त्ति महाकाल हात चापरो देव इति प्रक्रमः, तत्र यः लक्षणम उंचमुहमारीति वा पट्टणमुहमारीति वा आसमसंवाहमुह
मांसानि खण्डायावा स्वादयति बर्णतश्च महाकालः स महा. मारीति वा संनिवेसमारीति वा पाणक्खया धणखया काल इति ८, असी य'ति यो देवोऽसिना तान् छिनति जगक्खया कुलवसणभूयमणारियाजे यावन्ने तहप्पगारान| सोऽसिरेव, सिपत्ते' ति अस्याकारपत्रवद् बनविकुते सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारमो भएणा- वणादसिपत्रः १०, 'कुंभे' ति कुम्भादिषु तेषां पचनात्कुया० ५ तेसिं वा जमकाइयाणं देवाणं । सकस्स |
म्भः १, कचित्पलाते-'असिपने धणु कुंभे' सि तत्रासिप
अकुम्भी पूर्ववत् , 'धणु'ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिभिदेविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा
णैिः कर्णादीनां छेदनभेदनादि करोति स धनुरिति ११, अहावच्चा अभिमाया होत्था, तं जहा-" अंबे १ अंब-| 'चालु'त्ति कदम्बपुष्पाद्याकारवालुकासु यः पचति स धालुरिसे चेव २, सामे ३ सबले ति यावरे ४। क इति १२, 'धेयर गीति य' वैतरणीति च देव इति प्रक्रमः, रुद्दो ५-वरुद्दे ६ काले य ७, महाकाले त्ति यावरे ८ ॥१॥
तत्र पूयरुधिरादिभृतवैतरण्यभिधाननदीविकुर्वणाबैतरणी
ति १३, खरस्सर' ति यो बजकण्टकाकुलशाल्मलीवृक्षमाअसिपत्ते हधणू १०कुंभे११, वालू१२वेयरणीति य १३ ।
रोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् चा कर्षस्यसी स्वरस्वरः खरस्सरे १४ महाघोसे १५, एए पन्नरसाहिया ॥२॥"
१४, ' महाघोसि 'ति, यस्तु भीतान् पसायमानाचारकान् सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो सत्तिभागं पशनिव वाटकेषु महाघोषं कुर्वनिरुणद्धि महाघोष इति पलिओवमं ठिती पएणत्ता, अहावञ्चाभिएणायाणं देवाणं
१५, 'एए. पन्नरसाहिय 'त्ति 'एवम् ' उक्लन्यायेन-एते यम
यथाऽपत्यदेवाः पञ्चदश प्राख्याता इति । भ०३ श०७३० । एग पलिअोवमं ठिती पन्नत्ता, एवं महिडिए जाव जमे
(शतञ्जलमहाविमानस्य वक्तव्यता । 'सयंजल शब्दे वक्ष्यामि) महाराया ॥२॥ (सू० १६६)
सकस्स णं वरुणस्स महारो इमे देवा प्राणाए. जाव 'पेयकाइय' सि प्रेतकायिकाः व्यन्तरविशेषाः 'पेयदेवतकारय'ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनः 'कंदप्प' तिये कन्दर्प
चिट्ठति, तं जहा-वरुणकाइयाति का वरुणदेवयकाझ्या भावनाभावितत्वेन कान्दर्पिकदेवेषूत्पन्नाः कन्दर्पशीलाच, क- वा नागकुमारा नागकुमारीत्री उशिरा उदहिकुमान्दर्पश्च-अतिकेलिः, 'पाहियोग'ति येऽभियोगभावनाभावि. रीमो थणियकुमारा थपियनारीभौ यावले तहप्पसत्वेनाभियोगिकदेवेषत्पन्ना अभियोगवर्तिनश्च,अभियोगब- | गारा सम्वे ते तम्भचिया चि जंबुद्दीवे दीवे आदेश इति ॥ 'डिबाइ व 'त्ति डिम्बा-विनाः 'डमर' कि
| मंदरस्स पन्वयस्स दाहिये जाईलाई समप्पांति, एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः 'कलह 'सि वचन
तं जहा-अतिवासात वा माता राटयः 'बोल 'ति अव्यक्ताक्षरध्वनिसमूहाः 'खार 'ति पर
सुबईमति स्परमत्राः 'महायुद्ध ' ति महायुद्धानि-व्यवस्थ्यविहीन- | दुन्बुट्ठीति वा उदभवाति व उदवाहाति का
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(७२०) होगपाल अभिधानराजेन्द्रः।
सोगपाल पवाहाति वा गामवाहाति वा जाव सभिवेसवाहाति | ति वा सन्निहियाति वा संनिचयाति वा निहीति वा णिहावा पाणखया जाव तेसि वा वरुणकाइयाणं देवाणं, णाति वा चिरपोरणाई पहीणसामियाति वा पहीणसेउसकस्सणं देविंदस्स देवरो वरुणस्स महारमो .जाव | याति वा (पहीणमग्गाणि वा ) पहीणगोनागाराइ वा अहावचाभिमाया होत्था, तं जहा-ककोडए कद्दमए अं- उच्छिन्नसामियाति वा उच्छिन्नसेउयाति वा उच्छिन्नगोजणे संखवालए पुंडे पलासे मोएजए दहिमुहे भयंपुले | तागाराति वा सिंघाडगतिगचउकचञ्चरचउम्मुहमहापहपकायरिए । सक्कस्स देविंदस्स देवरो वरुणस्स महार- हेसु नगरनिद्धमणेसु वा सुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोववामो देसूणाई दो पलिश्रोवमाई ठिती पण्णत्ता, महाव- णभवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिटुंति, एताई सक्स्स चाभिमायाणं देवाणं एगं पलिभोवमं ठिती पएणत्ता, देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो (ख) अण्णाएवं महिडीए .जाव वरुणे महाराया।३(सू०१६७)| यार्ड अदिवाई प्रसयाई प्रविन्नायाई तेसि वा बेसमणका'अतिवास 'त्ति अतिशयवर्षा-वेगवद्वर्षणानीत्यर्थः, 'म
इयाणं देवाणं, सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स म्दवास' सिशनैर्षणानि 'सुषुट्टि ' ति धान्यादिनिष्पतिहेतुः 'दुबुट्टि 'त्ति धान्याचनिष्पत्तिहेतुः । उदग्भेय '
महारन्नो इमे देवा अहावच्चाभिन्नाया होत्था, तं जहा-पुति उदकोदाः गिरितटादिभ्यो जलोद्भवाः ' उदप्पील '| न्नभद्दे माणिभद्दे सालिमहे सुमणभद्दे चक्के रक्खे पुन्नरत्ति उदकोत्पीलाः-तडागादिषु जलसमूहाः 'उदवाह' सिं| क्खे सव्वाणे (पव्वाणे ) सव्वजसे सव्वकामे समिद्धे अपकृष्टान्यल्पान्युदकवहनानि, ताम्येव प्रकर्षवन्ति प्रवाहाः, इह प्राणक्षयादयो जलकृता द्रष्टव्याः, 'ककोडए , त्ति क
अमोहे असंगे, सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स कॉटकाभिधानोऽनुवेलन्धरनागराजावासभूतः पर्वतो ल
महारन्नो दो पलिओवमाणि ठिती पएणत्ता, अहावच्चावणसमुद्रे ऐशान्यां दिश्यस्ति तनिवासी नागराजः कर्को- भिमायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिती पमत्ता,एवं महिटकः, 'कदमए 'त्ति आग्नेय्यां तथैव विद्युत्प्रभपर्वतस्तत्र ड्डीए०जाव वेसमणे महाराया सेवं भंते !२त्ति । (सू०१६८) कर्दमको नाम नागराजः 'अंजणे' ति वेलम्बाभिधानवायुकुमारराजस्य लोकपालोऽञ्जनाभिधानः ' संस्खवालए ' ति
'वसुहाराइव' ति तीर्थकरजन्मा दिव्याऽऽकाशाद् द्रव्यवृ.
ष्टिः, 'हिरराणवास'त्ति हिरण्यं रूप्यं घटितसुवर्णमित्यन्ये धरणाभिधाननागराजस्य लोकपालः शंखपालको नाम,
वर्षोऽल्पतरो वृष्टिस्तु महतीति वर्षवृष्टयोर्भेदः, माल्यं तु शेषास्तु पुण्ड्रादयोऽप्रतीता इति।।
प्रथितपुष्पाणि वर्णः-चन्दनं चूर्णो-गन्धद्रव्यसम्बन्धी गकहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो बेसमणस्स
न्धाः-कोष्ठपुटपाकाः 'सुभिक्खाइव' ति सुकाले दुष्कामहारन्नो वग्गू णामं महाविमाणे पएणते ? , गोयमा ! ले वा भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धयः दुर्भिक्षास्तूतविपरीताः तस्स णं सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरेणं जहा
'संनिहियाइ' त्ति घृतगुडादिस्थापनानि 'संनिचयार' सोमस्स विमाणरायहाणिवत्तव्वया तहा नेयव्वा जाव
त्ति धान्यसञ्चयाः - निहीड व ' ति लक्षादिन
माणद्रव्यस्थापनानि 'निहाणाइव' त्ति भूमिगतसहस्रापासायवडिंसया । सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेस
दिसंख्यद्रव्यस्य सञ्चयाः, किंविधानि ?, इत्याह-'चिरमणस्स महारन्नो इमे देवा आणाउबवायवयणनिद्देसे चि- पोराणाई' ति चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि इंति,तं जहा-बेसमणकाइयाति वा बेसमणदेवकाइयाति वा अत एव ' पहीणसामियाई' ति स्वल्पीभूतस्वामिकानि सुवन्नकुमारा सुवन्नकुमारीओ दीवकुमारा दीवकुमारीयो
'पहीणसेउयाई' ति प्रहीणा:-अल्पीभूताः सेक्कारः-सेच
काः-धनप्रक्षेप्तारो येषां तानि तथा, प्रहीणमार्गाणि वा, दिसाकुमारा दिसाकुमारीओ वाणमंतरा वाणमंतरीओ
'पहीणगोसागाराई ' ति प्रहीण-विरलीभूतमानुषं गोजे याबन्ने तहप्पगारा सम्वे ते तब्भत्तिया जाव चिट्ठति ।। त्रागार-तत्स्वामिगोप्रगः येषां नाति
| त्रागारं-तत्स्वामिगोत्रगृहं येषां तानि तथा, 'उच्छिन्नसाजंबुद्दीवे दीवे संदरस्स पव्ययस्स दाहिणेणं जाई इमाई। मियाई' ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि ' मगरनिद्धमणेसु ' समुप्पअंति, तं जहा-प्रयागराई वा तउयागराइ वा तंब- त्ति नगरनिर्द्धमनेषु-नगरजलनिर्गमनेषु · सुसाणगियागराइ वा एवं सीसागराइ वा हिरनसुवन्नरयणवइरागराइ
रिकन्दरसंतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु' त्ति गृहशब्दस्य प्र
त्येकं सम्बन्धात् श्मशानगृहम्-पितृवनगृहम् , गिरिगृहवावसुहाराति वा हिरनवासाति वा सुवनवासाति वा रयण
म्-पर्वतोपरिगृहम् कन्दरगृहम्-गुहा शान्तिगृहम्-शा०-वहर०-भाभरण-पत्त०-पुष्फ०-फल०-चीय-मल्लक
न्तिकर्मस्थानम् शैलगृहम्-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम् उपस्थावम०-चुन्न०-गंध०-वत्थवासाइवा,हिरन्नवुट्ठीति वा सुवम्म नगृहम्-श्रास्थानमण्डपो भवनगृहम्-कुटुम्बिवसनगृह०-रयण-वहर०-आभरण-पत्त-पुप्फ०-फल-बीय
मिति । भ० ३ श०७ उ० । मल्ल०-वाम०-चुन्न-गंध०-वत्थवुट्ठीति वा भायणवुद्धीति वा रायगिहे नगरे०जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी-असुरकुखीरवुट्ठीति वा सुयालाति वा दुक्कालाति वा अप्पग्धाति वा माराणं भंते ! देवाणं कति देवा आहेवञ्च जाव विहरति ?, महग्धाति वा सुभिक्खाति वा दुभिक्खाति वा कयविक्कया-1 गोयमा ! दस देवा आहेवबंजाब विहरंति, तं जहा-चमरे
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(७२१) लोगपाल अभिधानराजेन्द्रः।
लोगपाल असुरिंदे असुरराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे बली वइरोय-| दृश्यते-दाक्षिणात्येषु लोकपालेषु प्रतिसूत्र यौ तृतीयचशिंदे वइरोयणराया सोमे जमे वरुणे वेसमण । नागकु
तुर्थी तावादीच्येषु चतुर्थतृतीयाविति, ' एसा वत्तव्वया
सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियब्ब' त्ति , एषामाराणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! दस देवा आहेवचं जाव
सौधर्मेशानोक्ता वक्तव्यता सर्वेष्वपि कल्पेषु इन्द्रनिवासविहरंति, तं जहा–धरणे नागकुमारिंदे नागकुमारराया भूतेषु भणितव्या-सनत्कुमारादीन्द्रयुग्मेषु पूर्वेन्द्रापेक्षयोकालवाले कोलवाले सेलवाले संखवाले भूयाणंदे ना- त्तरेन्द्रसम्बन्धिनां लोकपालानां तृतीयचतुर्थयोर्व्यत्ययो गकुमारिंदे णागकुमारराया कालवाले कोलवाले संखवाले
वाच्य इत्यर्थः । तथैत एव सोमादयः प्रतिदेवलोकं वा
च्या न तु भवनपतीन्द्राणामिवापरापरे, 'जे य इंदा ते सेलवाले, जहा नागकुमारिंदाणं एयाए वत्तव्वयाए णेय
य भाणियब्वा 'शकादयो दशेन्द्रा वाच्याः, अन्तिमे देव्वं एवं इमाणं नेयव्वं, सुवनकुमाराणं वेणुदाली चित्ते
बलोकचतुष्टये इन्द्रद्वयभावादिति ॥॥ तृतीयशतेऽष्टमोद्देशविचित्ते चित्तपक्खे विचित्तपक्खे , विज्जुकुमाराणं कः ॥ ३-८॥ हरिकंत हरिस्सह पभ १ सुप्पभ २ पभकंत ३ सुप्पभ
देवानां चावधिज्ञानसद्भावेऽपीन्द्रियोपयोगोऽप्यस्तीकंत ४ , अग्गिकुमाराणं अग्गिसीहे अग्गिमाणवतेउ
त्यत इन्द्रियविषयं निरूपयतितेउसीहे तेउकंते तेउप्पभे, दीवकुमाराणं पुस्मविसिट्ठ रूय
रायगिहे. जाव एवं वयासी- कतिविहे णं भंते ! सुरूय-रूयकंत-रूयप्पभा,उदहिकुमाराणं जलकंते जलप्पभ
इंदियविसए पलत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए जल-जलरूय-जलकंत-जलप्पभा, दिसाकुमाराणं अमिय
परमत्ते, तं जहा-सोतिंदियविसए जीवाभिगमे जोति
सिय उद्देसो नेयम्बो अपरिसेसो ।। (सू० १७०) गति अमियवाहण तुरियगति खिप्पगति सीहगति
'रायगिहे' इत्यादि, ' जीवाभिगमे' जोइसिय उद्देसनो सीहविकमगति,वाउकुमाराणं बलंबपभंजण काल महाकाल
णेयब्बो त्ति । भ० ३ श०६ उ०।। अंजणरिट्ठा,थणियकुमाराणं घोस महाघोस आवत्त विया-|
सोर्तिदियविसए० जाव फासिंदियविसए । सोदियवत्त नंदियावत्त-महानंदियावत्ता, एवं भाणियव्वं जहा अ-I
विसए णं भंते ! पोग्गलपरिणामे कतिविहे परमत्ते ?, सुरकुमाराणं सो०१का०२चि०३प्प०४ते०५२०६ज०७तु०
गोयमा ! दुविहे पमत्ते , तं जहा-सुभिसद्दपरिणामे य - का०६ आ० १०, पिसायकुमाराणं पुच्छा, गोयमा !
दुब्भिसद्दपरिणामे य, एवं चक्खिदियविसयादिएहि वि दो देवा आहेवच्चं० जाब विहरंति, तं जहा-" काले य
सुरुवपरिणामे य दुरूवपरिणामे य । एवं सुरभिगंधमहाकाले, सुरूवपडिरूवपुग्नभद्दे य । अमरवइ माणिभद्दे,
परिणामे य दुरभिगंधपरिणामे य, एवं सुरसपरिणामे य भीमे य तहा महाभीमे ॥१॥ किंनर किंपुरिसे खलु,| दूरसपरिणामे य, एवं सुफासपरिणामे य दफासपरिणासप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अतिकाय महाकाए, मे य ॥ से नूणं भंते ! उच्चावएसु सद्दपरिणामेसु उचागीयरती चव गीयजसे ॥२॥" एते वाणमंतराणं वएसु रूवपरिणामेसु एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु देवाणं । जोतिसियाणं देवाण दो देवा आहेवञ्च० जाव
फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वविहरंति.तं जहा-चंदे य सूरे य । सोहम्मीसाणेसु णं| त्तव्वंसिया १, हंता गोयमा! उच्चावएस सहपरिणामेसु भंते ! कप्पेसु कइ देवा आहेवच्चं० जाव विहरति । परिणममाणा पोग्गला परिणमंति त्ति वत्तवं सिया , गोयमा! दस देवा. जाव विहरति, तं जहा-सक्के देविंदे | सेना नेमभिमहा पोग
से नूणं भंते ! सुब्भिसद्दा पोग्गला दुन्भिसद्दत्ताए परिदेवराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे, ईसाणे देविंदे दे- णमंति, दम्भिसहा पोग्गला सुब्भिसहत्ताए परिणमंति, वराया सोमे जमे वरुणे, बेसमणे एसा वत्तव्वया सवे- हता गोयमा ! सुब्भिसद्दा दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुसु वि कप्पेसु, एए चेव भाणियध्वा, जे य इंदा ते य
भिसदा सुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, से नूणं भंते ! सुरूवा भाणियव्वा सेवं भंते ! ति । (सू० १६६)
पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा पोग्गला सुरूवदेववक्तव्यताप्रतिबद्ध एवाष्टमोद्देशकः, स च सुगम एव, त्ताए परिणमंति ?, हंता गोयमा ! एवं सुब्भिगंधा पोनवरं 'सो १ का २चि ३ प ४ ते ५ रु ६ ज ७ तु८ ग्गला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति दुन्मिगंधा पोग्गला सुका प्रा १०' इत्यनेनाक्षरदशकेन दक्षिणभवनपतीन्द्रा
भिगंधत्ताए परिणमंति, हंता गोयमा! एवं सुफासा णां प्रथमलोकपालनामानि सूचितानि, वाचनास्तरे त्वेतान्येव गाथायाम् , सा चेयम्-" सोमे य १ महाकाले
दुफासत्ताए परिणमंति ?, सुरसा दूरसत्ताए परिणमंति', २, चित्त ३प्पभ ४ तेउ ५ तह रुए चव ६ । जल ७ तह| हंता गोयमा । ०। (मू०१६१ ) . तुरियगई य८, काले आउत्त १० पढमाउ ॥१॥"] 'कइविहे गं भंते !' इत्यादि, कतिविधो भदन्त !हन्द्रिमवं द्वितीयादयोऽप्यभ्यूह्याः, इह च पुस्तकान्तरेऽयमों | यविषयः पुद्गलपरिणामः प्रक्षप्तः ? , भगवानाह-गौतम !
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लोगपाल
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पञ्चविध] इन्द्रियविषयः पुलपरिणामः सः तद्यथायोमेन्द्रियविषय इत्यादि सुगमम् सुम्मिसदपरिणामे इति शुभः शब्दपरिणामः दुम्मिसदपरिणामे' इति अशुभः 'शब्दपरिणामः ॥ से खूलं भंते! इत्यादि, अथ' नूनम् ' मिथितमेतद् भदन्त उच्चावचे उत्तमाः शब्दरिलायवल्पपरिणामैः परिणमन्तः पुलाः । परिण मन्तीति वक्रव्यं स्याद, परिमन्तीति ते व्ा भवेयुरित्यर्थः भगवानाह 'हंता मोयमा' ! इत्यादि इन्तेति प्रस्ववधारये स्यादेव पव्यमिति भावः परिणामस्य यथावस्थितस्य भावात् तथा तथा द्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीवशतस्तद्रूपास्कन्दनं हि परिणामः, स च तत्रास्तीति म कवितथाऽभिधाने दोषः ॥ से नू भंते इत्यादि !' अथ नूनम् - निश्चितमेतद् भदन्त ! शुभशब्दाः शुभशब्द'रूपाः पुद्गला अशुभशब्दतया परिणमन्ति अशुभशब्दा वा पुङ्गलाः शुभशब्दतया १, भगवानाह - हन्त गौतम ! इस्यादि सुमतत्वम् । एतेन सान्वयं परिणाममाह, अन्यथा तद्योगावसतः सत्तानुपपत्तेरतिप्रसङ्गात् । एवं रूपरसगस्वस्पर्शेष्वप्यात्मीयात्मीयाभिलापेन द्वी द्वावालापको यह ब्यौ । जी० ३ प्रति० २३० ।
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( ७२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
रायगिहे नगरे ० जाव एवं वयासी - ईसाणस्स गं भंते ! देविंदस्स देवरो कति लोगपाला पत्ता १, गोयमा ! चचारि लोगपाला पत्ता, तं जहा- सोमे जमे वेसम वरुणे । एएसि गं भंते ! लोगपालायं कति विमाणा पत्ता ? गोयमा ! चचारि विमाणा पत्ता, तं जहासुमणे सव्वमभद्दे वग्गू सुवग्गू । कहि णं भंते ! ईसा - यस्स देविंदस्स देवरओ सोमस्य महारओ सुमखे नामं महाविमाणे पाते ?, गोयमा 1 जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्म उत्तरे इमसे रयणप्पभाए पुडवीए जाय ईसा यामं कप्पे पाने तत्थ से जान पंचवडेंसया पणता से जहा कवडेंसर फलिदवडेंसर रसदें. सर नायबवडेंसर मज्झे य तत्थ ईसागवडेंसए, तस्स ईसासवडेंस यस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमे तिरियमसंखेज्जाई जोयणसहस्साई वीतिवतित्ता एत्थ यं ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारणो सुमणे नाम महाविमाणे परगने अद्वतेरसजोयणं जहा सकस्स बतब्वया ततियस तदा ईसागस्स वि ०जाव अमणिया समत्ता । चउएह वि लोगपालाणं विमाणे वितियउद्देसश्रों, चउसु विमाणेसु चत्तारि उद्देता अपरिसेसा, नवरं ठितिए नाग" आदिदुय विभागूणा, पलिया धयस्स होंति दो चैत्र । दो सतिभागा वरुणे पलिय महावचदेवाणं ।। १ ।। " ( मू० १७२ )
"
'चतारीत्यादि' व्यक्तार्थाः 'श्रचणिय' त्ति सिद्धायतने जिनप्रतिमाचचैनमभिनवोत्पन्नस्य सोमास्यलोकपालस्येति । म० " श४ ० ४ ० । ( राजधानीवक्तव्यता ' रायहाणी
"
लोगमज्झ
रह
विभागे ५५६ पृष्ठे गता) सूर्ययत्सर्ववस्तुप्रकाशकत्वात् । स्था० ४ ठा० १ उ० । पञ्चा० । प्रज्ञा० भ० । लोगप्रिय लोकप्रिय पुं० | लोकस्य सर्वजनस्य परलोकविरुद्धविवर्जनेन दानशीलादिगुणश्च प्रियो वल्लभो लोकप्रियः । प्रव० २३६ द्वार | सदाचारचारिणि, ध० २० १ अधि० १ गुण । श्रयमभिप्रायः - एतानि कर्माणि लोकवैमुख्यकारणानि परिहरमेव जिनप्रियो भवतिधर्मस्यापि स एवाधिकारीति । तथा दानम् - त्यागो विनयः-- उचितप्रतिपत्तिः शीलम् सदाचारपरता एभि राज्य: परिपूर्णः स लोकप्रियो भवति । उक्तं च
दानेन सस्यानि वशीभवति, दानेन वेगस्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दाना तस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम् ॥ १॥ विपणन गंधे चंद सोमवार रययिये । महुररसेणं श्रमयं जप्पियतं लहर भुवणे ॥ २ ॥ सुविसुद्ध सीलतो, पावर किसि जसं च इद्द लोए । सव्वजो विय. सुहगहभागी व परलोय ॥३॥ " इति । पतस्य धर्म्मप्रतिपसी फलमाह विधी लोकप्रियो जनानां सम्यग्टशामपि जनयत्युत्पादयति धर्गे यथावस्थितमुक्तिमार्गे बहुमानम् आन्तरणीति धर्मप्रतिपत्तिहेतुं बोधिबीजं वा । विनयंधरवत्, तथा चोक्तम्- "युक्तं जनप्रियत्वं शुद्धं सद्धर्मसिद्धिफलदमलम् । धर्मप्रशंसनादे-बजाधानादिभावेन ॥ १ ॥ " इति । ध० १० १ अधि० ४ गुण । ( लोकप्रियत्वे विनयन्धरकथा 'विण्यंधर' शब्दे षक्ष्यते ) सदा सदाचारत्वेन सम्मते, दर्श० २ तत्त्व | लोगप्पच लोकप्राकृत-पुं० यता अर्चिते, उत्त०२२० लोगफुड-लोकस्पष्ट पु० लोकेन- लोकाकाशेन सकलस्वप्र- । देशैः स्पृष्टो लोकस्पृष्टः । तथा लोकमेव च सकलस्वप्र - देशैः स्पृष्ट्रा तिष्ठति सफललोकपरिमिते आत्मनि, २०२ । श० १० उ० ।
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लोगबाइ-लोकबाध-पुं० । लोकः प्रामाणिक लोकः सामाम्यलोकच तेन बाधो विरोधो लोकबाधस्तदप्रतीतव्यवहा रसाधनात् बाधशब्दस्य । लोकविरोधे, स्या० । लोगविन्दुसार - लोकविन्दुसार ५० । अस्मिन् लोके भु के बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन लोकबिन्दुसारम् । चतुर्दशे पूर्वे, तत्प्रमाणमर्द्धत्रयोदशपदकोप इति । स० नं०
लोगविन्दुसारस्य णं पुम्यस्स परावसं वत्थू पाते । स० २६ सम० ।
लोगमज्झ - लोकमध्य- पुं० । लोकस्य तिर्यग्लोकस्य समस्वस्यापि मध्ये वर्त्तते इति लोकमध्यः मेरुपर्व्वते, ०
०पा०सू० प्र० संपूर्णगोलकश्य लोकमध्य पथ स्यादिति । भ० ११ श० ११ उ० । दर्श० । “जे मंदरस्स पुब्वे - मनुस्सा दाहिणेण श्रवरेणं । जे वावि उत्तरेणं, सव्वेसि उत्तरो मेरू " ॥ ४६ ॥ श्राचा० १ ० १ ० १० । ( व्याख्यास्या गाथायाः ' दिला ' शब्दे चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे गता । )
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(७२३) लोगमज्झवासिय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगवाय लोगमझवासिय-लोकमध्यवासिक-न। अभिनयभेदे, स्था० यक्षाः, गोभिईतस्य गोश्नस्य वा न सन्ति लोका" इत्येव४ ठा०४ उ०।
मादिकं नियुक्तिकं लोकवादं निशामयेदिति । लोगमझावसाणिय-लोकमध्यावसानिक-न०। अभिनयभेदे, रा० । एतच्च नाट्यकुशलेभ्यो वेदितव्यम् । श्रा० म०
अपरिमाणं वियाणाइ, इहमेगसिमाहियं । १०। पते नाट्यविधयोऽभिनयविधयश्च भरतादिसङ्गी- सव्वत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासइ ॥७॥ तशास्त्रक्षेभ्योऽवसेयाः । जं०५ वक्षः।
अपरिमाणमिति-न विद्यते परिमाणमियत्ता क्षेत्रतःकालतो लोगमत्थयत्थ-लोकमस्तकस्थ-पुं० । त्रैलोक्योपरिवर्तिनि वा यस्य तदपरिमाणं तदेवंभूतं विजानाति कश्चित्तीर्थिकःसिद्धे, दश०४ अ०।
तीर्थकृत् , एतदुक्तं भवति-अपरिमितशोऽसावतीन्द्रियद्रा लोगरिसि-लोकऋषि-पुं० । तापसे, व्य०१० उ०। न पुनः सर्वश इति । यदि वा-अपरिमिता इत्यभिमेतार्था
तीन्द्रियदर्शीति, तथा चोक्तम्-"सर्व पश्यतु वा मा वा, इलोगरूढिनिराकय-लोकरूदिनिराकृत-पुं० । मिथ्यामेदे, यथा |
मर्थं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिमानं, तस्य नः कोपयुज्यते ! शुचि नरशिरःकपालमिति । स्था० १० ठा०३ उ०।
॥१॥” इति । इह अस्मिन् लोके एकेषां-सर्वशाऽपहवयालोगववहारविरय-लोकव्यवहारविरत-पुं० । लोकयात्रानिवृ
दिनाम् , इदमाख्यातम्-अयमभ्युपगमः , तथा सर्वक्षेत्ते, पञ्चा० १०विव०।
प्रमाश्रित्य कालं वा परिच्छेद्यं कर्मतापनमाश्रित्य सह लोगवाइ-लोकवादिन-त्रि० । लोकयतीति लोकः प्राणिगण
परिमाणेन सपरिमाणम्-सपरिच्छेदं धी:-बुद्धिस्तया राजत स्तं वदितुं शीलमस्येति । बहात्मवादिनि , आचा० १ ६०| इति धीर इत्येवमसी अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति । तथा१ अ० १ उ०।
हि-ते ध्रुवते-दिव्यं वर्षसहस्रमसौ ब्रह्मा स्वपिति, तस्यामवलोगवाय-लोकवाद-पुं० । पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादे, स्थायां न पश्यत्यसौ, तावन्मात्रं च कालं जागर्ति, तत्र च
पश्यत्यसाविति तदेवम्भूतो बहुधा लोकवादः प्रवृत्तः॥७॥ सूत्र। लोगवायं णिसामिजा, इहमेगेसि माहियं ।
अस्य चोत्तरदानायाहविपरीयपन्नसंभृयं, अन्नउत्तं तयाणुयं ॥ ५ ॥
जे केइ तसा पाणा, चिट्ठति अदु थावरा । 'लोगवायमि' त्यादि, लोकानां पाखण्डिनां पौराणिकानां
परियाए अत्थि से अंजु, जेण ते तसथावरा ॥८॥ या वादो लोकवादः । यथा-स्वाभिप्रायेणाऽन्यथा बाऽभ्युप- (जे के इति) ये केचित्त्रसाः-प्राणिनस्तिष्ठन्ति अथवा-स्थागमस्तं निशामयेत्-शृणुयात् जानीयादित्यर्थः । तदेव | वराः तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽयं पर्यायोऽस्ति (अंजु इति) दर्शयति-इह-अस्मिन्संसारे एकेषां केषांचिदिदमाख्यातम्- प्रगुणोऽव्यभिचारी तेन पर्यायेण ते प्रसाः स्थावराः स्युः । अभ्युपगमः । तदेव विशिनष्टि । विपरीता-परमार्थादन्यथा- त्रसत्वमनुभूय कर्मपरिणत्या स्थावराः स्थावरत्वमनुभूय त्रभूता या प्रज्ञा तया संभूतं-समुत्पन्नं तत्त्वविपर्यस्तबुद्धिग्र- साश्च भवन्तीति । ततो यो यादृगिह भवेस परभवेऽपि ताहथितमिति यावत् , पुनरपि विशेषयति-अन्यैरविवेकिभि- गिति नियमो न युक्तः॥८॥ सूत्र० दी०१७०१ १०४ उ०। यदुक्तं तदनुगं यथावस्थितार्थविपरीतानुसारिभिर्यदुक्तं वि- ये केचन त्रस्यन्तीति त्रसा-द्वीन्द्रियादयः प्राणाः-प्राणिनः परीतार्थाभिधायितया तदनुगच्छतीत्यर्थः ।
सत्त्वाः तिष्ठन्ति-प्रसत्वमनुभवन्ति, अथवा-स्थावराःतमेव विपर्यस्तबुद्धिरहितं लोकवादं दर्शयितुमाह- स्थावरनामकर्मोदयात् (याः) पृथिव्यादयस्ते, यचयं लोकअणंते निइए लोए, सासए ण विणस्सति ।
वादः सत्यो भवेत् यथा-यो यारगस्मिन् जन्मनि मनु अंतवं णिइए लोए, इति धीरो ऽतिपासइ ॥६॥
ध्यादिः सोऽन्यस्मिन्नपि जन्मनि ताडगेव भवतीति, ततः
स्थावराणां प्रसानां च तादृशत्वे सति दानाध्ययनजप'अणते निइए लोए' इत्यादि, नाऽस्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः। नियमतपोऽनुष्ठानादिकाः क्रियाः सर्वा अप्यनार्थका प्रान निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति । तथाहि-यो पद्येरन् । लोकेनापि चान्यथात्वमुक्तम् , तद्यथा-" स वै ए. यादृगिह भवे स तादृगेव परभवेऽप्युत्पद्यते पुरुषः-पुरुष ष शृगालो जायते यः सपुरीषो दह्यते" तस्मात् स्थाएव, अङ्गना-अङ्गनैवेत्यादि । यदि वा-अनन्तः-अपरिमितो वरजङ्गमाना स्वकृतकर्मवशात् परस्परसंक्रमणाद्यनिवारिनिरवधिक इति यावत् । तथा नित्य इति-अप्रच्युतानुत्प- तप्रिति । (सूत्र०) लोकव्यवस्था 'लोक' शब्देऽस्मिन्नेअस्थिरैकस्वभावो लोक इति । तथा-शश्वद्भवतीति शाश्वतो व भागेऽनुपदमेव दर्शिता ।) तथा 'श्वानो यक्षा' इत्याघणुकादिकार्यद्रब्यापेक्षया शश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं प- दि युक्तिविरोधित्वादनाकर्णनीयमिति । यदपि चोक्तम्रमाणुत्वं परित्यजतीति । तथा न विनश्यतीति दिगात्मा- 'अपरिमाणं विजानाती' ति , तदपि न घटामियति, यतःकाशाद्यपेक्षया, तथा-अन्तोऽस्यास्तीत्यन्तवान् लोकः ' स- सत्यप्यपरिमितमत्वे यद्यसौ सर्वशो न भवेत् सतो हेमद्वीपा वसुंधरेति ' परिमाणोक्तेः; स च ताहकपरिमाणो योपादेयोपदेशदानविकलत्वान्नैवासौ प्रेक्षापूर्वकारिभिराद्रिनित्य इत्येवं धीरः कश्चित्साहसिकोऽन्यथाभूतार्थप्रतिपा- येत , तथाहि-तस्य कीटसंख्यापरिक्षानमप्युपयोग्येव , दनात् व्यासादिरिवातिपश्यतीत्यतिपश्यति । तदेवंभूत- यतो यथैतद्विषयेऽस्यापरिक्षानमेवमन्यत्रापीत्याशङ्कया हेमनेकभेदभित्रं लोकवाद निशामयेदिति प्रकृतेन संबन्धः ।। योपादेये प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रवृत्तिर्न स्यात, तथा-"अपुत्रस्य न सन्ति लोकाः, ब्राह्मणा देवाः, श्वानो। सर्वक्षत्वमेष्टव्यम् । तथा यदुक्रम्- स्वापबोधविभागेन
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(७२४) लोगवाय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय परिमितं जानाती' स्येतदपि सर्वजनसमानत्वे यत्किश्चि- ध्यस्थो-लोभः, चशब्दः समुच्चये, एतान् मानादींश्चदिति । यदपि च कैश्चिदुच्यते-यथा " ब्रह्मणः स्वमा- तुरोऽपि कषायांस्तद्विपाकाभिझो मुनिः सदा 'विगिचए' वबोधयोर्लोकस्य प्रलयोदयौ भवत " इति, तदप्ययुक्ति- त्ति विवेचयेद्-आत्मनः पृथक्कुर्यादित्यर्थः । ननु चान्यसंगतमेव, प्रतिपादितं चैतत् प्रागेवेति न प्रतन्यते । न- प्रागमे क्रोध श्रादावुपन्यस्यते, तथा क्षपकश्रेण्यामारूदो चात्यन्तं सर्वजगत उत्पादविनाशौ विद्यते 'न कदाचि- भगवान् क्रोधादीनेव संस्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थदनीरशं जगदि' ति वचनात् । तदेवमनन्तादिकं लोक- मागमप्रसिद्धं क्रममुबड्यादौ मानस्योपन्यास इति ?, अत्रोबादं परिहत्य यथावस्थितवस्तुस्वभावाविर्भावनं पश्चा- च्यते-माने सत्यवश्यंभावी क्रोधः, क्रोधे तु मानः स्याद्वा छैन दर्शयति-ये केचन प्रसाः स्थावरा वा तिष्ठन्त्य-| न वेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति ॥ १२ ॥ स्मिन् संसारे तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽस्त्यसौ पर्यायः 'श्र- तदेवं मूलगुणानुत्तरगुणांश्चोपदाधुना सर्वोजु' इति प्रगुणोऽव्यभिचारी तेन पर्यायेण स्वकर्मपरि
पसंहारार्थमाहणतिजनितेन ते प्रसाः सन्तः स्थावराः संपद्यन्ते, स्था- समिए उ सया साहू, पंचसंवरसंवुडे । बरा अपि च त्रसत्वमश्नुवते । तथा प्रसास्त्रसत्वमेव स्था- सिएहिअसिएभिक्खू,आमोक्खायपरिव्वए ।१३।त्तिबेमि बराः स्थावरत्वमेवाप्नुवन्ति, न पुनर्यो यारगिद्द स तुरबधारणे , पञ्चभिः समितिभिः समित एव साधुः, ताहगेवामुत्रापि भवतीत्ययं नियम इति ।।
तथा प्राणातिपातादिपञ्चमहावतोपेतत्वात्पश्चप्रकारसंबरएवं मूलगुणानभिधायेदानीमुत्तरगुणानभिधातुकाम पाह- संवृतः, तथा मनोवाकायगुप्तिगुप्तः, तथा गृहपाशादिषु बुसिए य विगयगेही, पायाणं सम्म रक्खए।
सिता-बद्धाः अवसला गृहस्थास्तेष्वसितः-अनवबद्धचरिभासणसेजासु, भत्तपाणे अभंतसो ।। ११ ॥
स्तेषु मूर्छामकुर्वाणः पङ्काधारपङ्कजवत्तत्कर्मणाऽदिह्य
मानो भिचुः-भिक्षणशीलो भावभिक्षुः आमोक्षाय - विविधम्-अनेकप्रकारमुषितः-स्थितो दशविधचक्रवाल
शेषकर्मापगमलक्षणमोक्षार्थ परि-समन्तात् बजेः-संयमानुसमाचार्यो व्युषितः , तथा विगता-अपगता आहारादौ ष्ठानरतो भवेस्त्वमिति विनयस्योपदेशः । इति अध्ययनगृद्धिर्यस्यासौ विगतगृद्धिः साधुः एवंभूतश्चादीयते स्वी- समाप्तौ ब्रीमीति गणधर एवमाह , यथा तीर्थकृतोतं तक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो येन तदादानीयम् शानदर्शन- थैवाई प्रवीमि, न स्वमनीषिकयेति गतोऽनुगमः । साम्प्रचारित्रत्रयं तत्सम्यग् रक्षयेद्-अनुपालयेत् , यथा यथा त- तं नयास्तेषामयमुपसंहारः " सव्वेसि पि नयाणं , बहुस्य वृद्धिभवति तथा तथा कुर्यादित्यर्थः । कथ पुनश्चा- विधवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सव्वणयविसुद्धं , जं चररित्रादिपालितं भवतीति दर्शयति-चर्यासनशय्यासु- गटियो साइ॥२॥" ॥१३॥ सूत्र०१०१०४ उ०। चरणं चर्या-गमनं साधुना हि सति प्रयोजने युगमात्रह
लोगविजय-लोकविजय-पुं०। भाविलोकस्य रागद्वेषलक्षष्टिना गन्तव्यम् , तथा सुप्रत्युपेक्षिते सुप्रमार्जिते चासने
णस्य विजयो निराकरणं यत्राभिधीयते स लोकविजयः। उपवेष्टव्यम् , तथा शय्यायाम्-वसतौ संस्तारके वा सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जिते स्थानादि विधेयम् , तथा भक्ते पाने चान्त
आचारागस्य द्वितीयाध्ययने, स्था०६ ठा० ३ ३० । प्रश्न । शः सम्यगुपयोगवता भाव्यम् , इदमुक्तं भवति-र्याभा
लोकविजयेऽधिकाराः। षणाऽऽदाननिक्षेपप्रतिष्ठापनासमितिष्पयुक्नेनान्तशो भक्त
तथाहि-अधिगतशत्रपरिक्षासूत्रार्थस्य तत्प्रतिपादितैकेपानं यावदुरमादिदोषरहितमन्वेषणीयमिति ॥ ११ ॥
न्द्रियपृथिवीकायादिश्रद्दधानस्य सम्यक् तद्रक्षापरिणामवतः
सर्वोपाधिशुद्धस्य तद्योग्यतयाऽऽरोपितपञ्चमहावतभारस्य पुनरपि चारित्रशुद्ध्यर्थ गुणानधिकृस्याह
साधोयथा रागादिकषायलोकस्य शब्दादिविषयलोकस्य एतेहिं तिहि ठाणेहि, संजए सततं मुणी ।
वा विजयो भवति तथाऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते । तथा उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए ॥ १२॥
च नियुक्तिकारेणाध्ययनार्थाधिकारः शस्त्रपरिक्षायां प्राग नि
रदेशि-"लोश्रो जद्द वज्झह जह य तं विजहियव्वं " एतानि-अनन्तरोक्तानि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-र्यासमि
ति, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्याऽध्ययनस्य चत्वार्यतिरित्येकं स्थानम्, प्रासनं शय्येत्यनेनादानभाण्डमात्रनिक्षे
नुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्र सूत्रार्थकथनमनुयोगः, तपणासमितिरित्येतच द्वितीय स्थानम् , भक्तपानमित्यनेनैपणासमितिरुपात्ता भक्तपानार्थ च प्रविष्टस्य भाषणसंभषाङ्गा
स्य द्वाराणि उपाया व्याख्याकामीत्यर्थः, तानि चोपक्रषासमितिराक्षिप्ता, सति चाहारे उच्चारप्रस्रवणादीनां स-1
मादीनि , तत्रोपक्रमी द्वेधा-शास्त्रानुगतः शास्त्रीयः झावात्प्रतिष्ठापनासमितिरप्यायातेत्येतच्च तृतीय स्थानमि
लोकानुगतो लौकिक इति , निक्षपस्त्रिधा–ोधनामति, अत पतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग् यतः संयत आमीक्षाय |
सूत्रालापकनिष्पन्नभेदात् , अनुगमो द्वेधा-सूत्रानुगमो मि. परिव्रजेदित्युत्तरश्लोकान्ते क्रियेति । तथा-सततम्-अनवर
युक्त्यनुगमश्च, नया-नैगमादयः तत्र शास्त्रीयोपक्रमान्त-- तम् मुनिः-सम्यक् यथावस्थितजगत्त्रयवेत्ता उत्कृष्यते श्रा
गतोऽर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाऽधिकार उद्देशार्थात्मा दध्मातो विधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षो-मानः,तथा-श्रात्मानं
धिकारश्च , तत्राध्ययनार्थाधिकारोऽध्ययनसम्बन्धे शस्त्रचारित्रं वा ज्वलयति-दहतीति ज्वलनः-क्रोधः, तथा राम
परिक्षायां प्रागेव निरदेशि, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वयमेव मिति गहनं मायेत्यर्थः, तल्या अलब्धमध्यत्वादेवमभिधी-|
नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराहयते, तथा आसंसारमसुमतां मध्ये-अन्तर्भवतीति म- सयणे य अदढतं, वीयगम्मि माणो अप्रत्थसारो प्र।
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( ७२५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लोग विजय
तथा
श्र
भोगे लोगनिस्साई लोगे अममिजिया चैव ॥ १६३ ॥ तत्र प्रथमोद्देशकाधिकारः - स्वजने - मातापित्रादिके अ भिष्वङ्गोऽधिगतसूत्रार्थेन न कार्य इत्यध्याहारः, च सूत्रम् -' माया मे पिया मे इत्यादि, १, अददसं बीयगस्मि ' ति । द्वितीय उद्देशके अदृढत्वं संयमे न कार्यमिति शेषः, विषयकषायादौ चादृढत्वं कार्यमिति, वक्ष्यति च - श्ररखं आउट्टे मेहावी २. तृतीय उद्देशके 'माणो अ अत्थसारो अ ति जात्यासुपेतेन साधुना कम्मैवाद्विचित्रतामवगम्य सर्वमदस्थानानां मानो न कार्यः, श्राह च -' के गोश्रावादी ? के माणावादीत्यादि अर्थसारस्य च निस्सारता बरार्थते, तथा च ' तिविद्देण जा अवि से तत्थ मत्ता अप्पा वा बहुगा वे' त्यादि ३, चतुर्थे तु 'भोगेसु' ति भोगेष्वभिव्यङ्गो न कार्य इति शेषः, यतो भोगिनामपायान् वक्ष्यति, सूत्रं च ' थीहिं लोए पव्वहिए' ४, पञ्चमे तु 'लोगाणि - स्साए विस्वजनधनमानभोगेनापि साधुना संयमदे हमतिपालनाय स्वाधीरम्भप्रवृत्तलोकनिश्रया विहर्त्तव्यमि ति शेषः तथा च सूत्रम् समुट्टिए अणगारे इत्या दि० जाव परिव्वर '५, षष्ठोद्देशके तु' लोए श्रममिजया चैव लोकनिश्रयाऽपि विहरता साधुना तस्मिन लोके पूर्वापर संस्तुतेऽसंस्तुते च न ममत्वं कार्यम्, पङ्कजवत्तदाधारस्वभावानभिष्यहिया भाव्यमिति तथा सूत्रम्"जे माई जहाति से जहाति ममातियं" इति बाधातात्पर्यार्थः ॥ श्रचा० १ श्रु० २ श्र० १ उ० ।
किम्भूतः सन् ? प्रमत्तः । प्रमादश्च रागद्वेषात्मको, द्वेषश्च प्रायो न रागमृते, रागोऽप्युत्पत्तेरारभ्यानादिभवाभ्यासान्मावापादिविषयो भवतीति दर्शयति
जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे, इति से मुट्ठी महया परियागं पुलो पुगो रसे पमते माया मे पिया मे भज्जा मे पुत्ता मे धूम्र मे एहुसा मै सहिसयणसंगथसंधुच्या मे विवितुदगरण परिवणभोयणच्छायणं मे । इच्चत्थं गड्डिए लोए अहो य राम्रो य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्टाई संजोगट्टी अट्ठालोभी आलूंपे सहसाकारे विशिविचित्ते, एत्थ सत्ये पुगो पुग्यो । (सू० ६२ + )
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( गुणव्याख्या 'गुण' शब्दे तृतीयभागे ६०८ पृष्ठे गता । ) माया मै' इत्यादि, तत्र मातृविषयो रागः संसारस्वभावादुपकारकर्तृत्वाद्वोपजायते, रागे च सति मदीया माता क्षुत्पिपासादिकां वेदनां मा प्रापदित्यतः कृषिवाणिज्यसेवादिकां प्राण्युपधातरूपां क्रियामारभते, तदुपधातकारिति या तस्यां या उपजात यथा - अनन्तवीर्यप्रसक्कायां रेणुकायां रामस्वेति, एवं पिता मे पितृनिमितं रागद्वेषी भवतः यथा-रामे पितरि रागादुपहन्तरि च द्वेषात् सप्तकृत्यः चत्रिया व्यापादिताः, सुभूमेनापि विः सप्तकृत्वो ब्राह्मणख इति भगिनीनिमित्तेन व क्लेशमनुभवति प्राणी, तथा भार्यानिमित्तं रागद्वेषोद्भवः, तद्यथा चाणक्येन भगिनीभगिनीपत्यायवशातया भार्यया चोदितेन नम्दान्तिकं द्रव्यार्थमुपगतेन कोपानन्दकु
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लोगविजय
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निन्ये तथा पुत्रा मे न जीवन्तीति धारम्भे प्रवर्तते एवं दुहिता मे दुःखिनीति रागद्वेषोपहतचेताः परमार्थमजानानस्तत्तद्विधत्ते येन ऐहिकामुष्मिकान् श्रपायान् अवाप्नोति, तद्यथा - जरासन्धो जामातरि कंसे व्यापादिते स्वबलाव - लेपादपसृतवासुदेवपदानुसारी सबलवाहनः क्षयमगात् स्नुषा मे न जीवन्तीत्यारम्भादौ प्रवर्त्तते, 'सखिस्वजनसंप्रन्थसंस्तुता मै ' सखा मित्रं स्वजनः पितृव्यादिः संग्रन्थः स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रश्यालादिः संस्तुतो भूयो भूयो दर्शनेन परिचितः अथवा पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिरभिहितः पश्चात्संस्तुतः श्यावकादिः स इह प्रायः सच मे दुःखित इति परिप्यते विविनं शोभनं मधुरं था उपकरण—- हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादिपरिवर्त्तनं द्विगुणत्रिगुशादिभेदभिदेव, भोजनं मोदकादिच्छादनं पयुमादि तच्च मे भविष्यति नष्टं वा । ' इच्चत्थ मिति - त्येवमर्थं जो लोकः तेष्वेव मातापित्रादिरागादिनिमि सस्थानेष्यामरणं प्रमतो ममेममस्य स्वामी पोषको बेत्येवं मोहितमना वसेत्- तिष्ठेदिति, उक्लं च पुत्रा मे भ्राता मे, स्वजना मे गृहकलत्रवर्गों मे । इतिकृतमेमेशब्द, पशुमित्र मृत्युर्जनं हरति ॥ १॥ पुत्रकलत्रपरिग्रह-ममत्वदोषैर्न जति नाशम्। क्रमिक हच कोशकारः परिग्रहाद्दुःखमाप्नोति ॥२॥ अमुमेवार्थे नियुक्तिकारो गाथाद्वयेनाहसंसारं बेनुमयो, कम्मं उम्मूलए तदड्डाए । उम्मूलिअ कसाया, तम्हा उ चरन सयणाई ॥१८॥ माया मे चि पिया मे, भगिणी भाषा य पुचदारा मे अत्यम्मित्र गिद्धा, जम्ममरणाथि पार्वति ॥ १८६॥ संसारम् - नारकतिर्यग्नरामरलक्षणं मातापितृभार्यादिस्नेलक्षणं वा बेनुमना - उन्मुमूलविषुरष्टमकारं कम्मोन्मूलयेत् तदुन्मूलनाचे च तत्कारणभूतान् कापायातुन्मूलयेत् काषायापगमनाय च मातापित्रादिगतं स्नेहं जह्यात्, यस्मान्मातापित्रादिसंयोगाभिलाषिणो ऽर्थे - रत्नकुप्यादिके गृद्धाःअभ्युपपन्ना जन्मजरामरणादिकानि दुःखान्यसुभृतः प्राप्नुवन्तीति गाथाद्वयार्थः। तदेवं कषायेन्द्रियप्रमत्तो मातापि श्राद्यर्थमथपानरतत्रो दुःखमेव केवलमनुभवतीयाइ -' अहो ' इत्यादि, श्रहश्व सम्पूर्ण रात्रिं च चशब्दात्पचं मासं च, निवृत्तशुभाध्यवसायः परि-समन्तातप्यमानः परितप्यमानः सन् तिष्ठति, तद्यथा - " कश्या वर सत्थो, किं भराडं कत्थ कितिया भूमी । को कयविक्रयकालो, निव्विसह किं कर्हि के ? ॥१॥ " इत्यादि, स च परितप्यमानः किम्भूतो भवतीत्याह-'काले' त्यादि कालः - कर्त्तव्यावसरस्तद्विपरीतो कालः सम्यगुन्धातुम् अभ्युधन्तुं शीलमस्येति समुत्थायीति पदार्थः । वाक्यार्थस्तु काले- कर्तव्यावसरे कालेन तद्विपर्यासेन समुष्ठितेप्रभ्युद्यतमनुष्ठानं क रोति तच्छीलधेति कर्त्तव्यावसरे न करोत्यन्यदा च विदधातीति यथा वा काले करोत्येवमकाले ऽपीति यथा वा अवसरे न करोत्येवमवसरेऽपीति, अन्यमनस्कत्वादपगतकालाकालविवेक इति । भावना-यथा प्रद्योतेन मृगापतिरपगतभर्तृका सती ग्रहणकालमतिवाह्य कृतप्राकारादिरक्षा जिघृक्षितेति, यस्तु पुनः सम्यक्कालोत्थायी भवति
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स यथाकालं परस्परानाबाधया सर्वाः क्रियाः करोतीति, तदुक्तम् – “ मासैरष्टभिरह्ना च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत् कर्तव्यं मनुष्येण येनान्ते सुखमेधते ॥ १ ॥ " धर्मानु ठानस्य च न कश्चिदकालो मृत्योरिवेति । किमर्थ पुनः कालाकालसमुत्थायी भवतीत्याह-' संजोगट्ठी ' संयुज्यते संयोजन या संयोगोऽर्थः प्रयोजनं संयोगार्थः सोऽपा स्तीति संयोगार्थी तत्र धनधान्यांदरस्यद्विपदचतुष्पदा भार्यादिः संयोग लेनार्थी तत्प्रयोजनी अथवा शब्दा दिविषयः संयोगो मातापित्रादिभिर्वा तेनार्थी कालाका लसमुत्थायी भवतीति किं च अङ्गालोभी अर्थो रत्नकुप्यादिस्तत्र श्रा - समन्ताल्लोभोऽर्थालोभः स विद्यते यस्येत्यसावपि कालाकालसमुत्थायी भवति, मम्मरावणिग्वत् तथाहि असावतिकान्तार्थोपार्जनसमर्थयोपनवया जलस्थलपथप्रेषितनानादेश भाण्डभृतोत्थिन्त्री कोष्ट्रमण्डलिकासम्भृतसम्भारोऽपि प्रावृषि सप्तरात्रायषिचमुशलप्रमाणजलधारायपनिरुद्ध सकलप्राणिगणसचारमनोरथायां महानदीजलपूरानी तकाष्ठानि जिघृचुरुपभोगधर्म्मावसरे निवृत्तापराशेषशुभ परिणामः केवलमर्थोपाजनप्रवृत्त इति उक्तं च-" उक्खण खण्इ निहार, रति ण सुप्रति दिया विय ससंको। लिंपर उपर सययं, लंड़ियपडिड़ियं कुराइ ॥ १ ॥ भुंजसु न ताव रिक्को, जेमेउं न विय अजमज्जीदं । नऽवि य वसीहामि घरे, कायमिहुं अजं ॥२॥ पुनरपि लोभिनोव्यापारानाह-' आलुपे' श्रा-समन्ताल्लुम्पतीत्यालुम्पः, स हि लोभामिभूतान्तःकरणो ऽपगत सफल कर्तव्याध्यविवेको
( ७२६) अभिधान राजेन्द्रः ।
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लोकसद्धिकामुष्मिकविपाककारिणािंदनगलकर्तनचौर्यादिकाः क्रियाः करोति, अन्यच्च सद सकारे' करणं कार, असमीक्षितपूर्वापरदोष सहसा करं सहसाकार:, स विद्यते यस्येति " अर्थ आदिभ्यो ऽच् " ( पा० ५-२-१२७ ) अथवा छान्दसत्वात्कर्त्तर्येव घर करोतीति कार, तथाहि लोभतिमिराच्छादितदृष्टिरबैकमनाः शकुन्तवच्छ्राघातमनालोच्य पिशिताभिलापितया सन्धिच्छेदनादितो विनश्यति लोभाभिभूतो झकस्तिमनास्तदर्थोपयुक्तोऽर्थमेव पश्यति नापावान्, आइ च विशिविट्टचिते विविधम्-अनेकधा निविस्थितमवगाडमयोंपार्जनोपाये मातापित्राद्यभिप्पामहादिविषयोपभोगे या वित्तम्-तःकरणं यस्य स तथा पाठान्तरं वा विविसि विशेषेण निविष्ठा का यथाग्मनस परिस्पन्दात्मिकाऽर्थोपार्जनपदीय स्य स विनिविष्टवेष्टः । तदेवं मातापित्रादिसंयोगार्थी - लोभी मालुम्पः सहसाकारो विनिविनिहो या किम्भूतो भवतीत्यादि-अस्मिन्मातापित्रादौ शब्दादिविषयसंयोगे वा विनिमितिः सन् पृथिवीकायादिजन्तूनां उपधा तकारि तत्र पुनः पुनः प्रवर्त्तते एवं पौनःपुन्येन शसे प्रवृतो भवति यदि पृथिवीकाचादिजन्नामुपघाते वर्त्तते तथाहि शसु हिंसायाम् इत्यस्मादस्थतेहिं स्वत इति करसे विहितः तच स्वकायपरकायादिभेदभिधमिति । पाठान्तरं वा सने पुणे पु अत्र-मातापितरादादिसंयोगे लोभार्थी सन् सो-गृजः
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लोगविजय अभ्युपपन्नः पीन. पुम्बेन विनिविष्टवेष्ट आलुम्पकः सहसाकारः कालाकालसमुत्थायी वा भवतीति । ( श्राचा० ) ( एतच साम्प्रतेक्षिणामपि युज्येत यद्यजरामरत्वं दीर्घायुकं वा स्यात् । इत्यादि ' आउ' शब्दे द्वितीयभागे ६ पृष्ठे गतम्) (येऽपि दीर्घायुत्थिस्तिकाः उपक्रमतकारणाभावे प्रायुःस्थितिमनुभवन्ति तेऽपि मरणादध्याधिकां जराऽभिभूतविग्रहां जघन्यतमामवस्थामनुभवन्तीति श्रा तट्ठ' शब्दे द्वितीयभागे १५६ पृष्ठे दर्शितम् । )
अत्र हि चारित्रमोहनीयक्ष पोपरामादद्वाप्तवारित्रस्थ पुनरपि तदुदयादवदिधाविषोरनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते तच्चावधावनं संयमाद्यैर्हेतुभिर्भवति तान्निर्युक्लिकारो गाथयाऽऽचष्टेबिउदेसे अदडो, उ संजमे कोइ हुआ अरईए। अनासकम्मलोभाइएहिं अझत्थदोसेहिं ॥ १६७ ॥ इह हि प्रथमोद्देश के बह्नयो निर्युक्तिगाथाः अस्मिस्त्वियमेवैकेत्यतो मन्दबुद्धेः स्यादारेका, यथा- इयमपि तत्रत्यैवे - यतो दिनेयसुखप्रतिपस्पर्थे द्वितीयोदेशग्रहणमिति - श्चित्कण्डरीकदेशीयः संयमे - सप्तदशभेदभिन्ने अदृढःशिथिलो मोहनीयोदयादत्वाद्भवेत् मोहनीयोदयउपाध्यात्मिकेोभवेत् ते वाध्यात्मदोषा अज्ञानलोभादयः श्रादिशब्दादिच्छादनकामानां परिग्रहः, मोहस्याठानलोभकामाद्यात्मकत्वा तेषां वाध्यात्मिकत्वादिति गाथार्थः । मनु चारतिमतो मेधाविनोऽनेन सूत्रेोपदेशो दीयते, यथासंयमारतिमपवर्त्तेत, मेधावी चात्र विदितसंसारस्वभावो विवक्षितः भूतो नासापरतिमान्धेन विदितपेय इत्यनयोः सहानवस्थानलक्षणेन विरोधेन विरोधा
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यातयोरियनेकत्रावस्थानम् उक्रं ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतो - ऽस्ति शक्ति- दिनकरकिरणाव्रतः स्थातुम् ? ॥ १ ॥ " इत्यादि. योनी मोदोपहतचेताः स विषयमात्यमे सर्वइन्द्रप्रत्यनीकेत्यभावं विध्याद् आह नाम्याश्रयनितापाङ्गविलेपितास्ते, कामे सक्रिं दधति विभवाभोगाने या विचितं भवति हि महम्मोमार्गेकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यसभित्ति गजेन्द्रः ॥ १ ॥ " नैतन्मृष्यामहे, यतो ह्यवाप्तचारित्रस्यायमुपदेशा दित्सितः, चारित्रावाप्तिश्च न ज्ञानमृते, तत्कार्यत्वाच्चारित्रस्य । न च शानारत्ययोर्विरोधः, अपि तु - रत्यरत्योः, ततश्च संयममता रतिरेवारत्या वाध्यते न ज्ञानम् तो हानिनो चारित्रमोहनीयोदयात्संयमे स्वादेवारतिः यतो ज्ञानमयज्ञानस्यैव बाधकम् न संयमारतेः । तथा चोक्तम् - " ज्ञानं मूरियथार्थवस्तुविषयं स्वस्य द्विषो बाधकं रागाराविशमाय हेतुनपरे युक्रेन कर्तृस्वयम्। दीपोत्तमव्यन क्ति किमु नो रूपं स एवेक्षतां सर्वः स्वं विषयं प्रसाधयति दिविधिः ॥१॥ तथेदमपि भवतो न कविरमगात् यथा बलवानिन्द्रियग्रामः परितो:प्यत्र मुखती स्यतो परिधिदेवत् अथवा नात्यापन एचैवमुच्यते, अपि त्वयमुपदेशो मेधावी संमविषये मा विधादतिमिति । संयमारतिनि सन् के गुलमबानोतीत्याह-' खसि मुक्के' परमनिरुद्धः कालः-क्षणः जरत्पशाटिकापाटनटान्त समयप्रसाधितः तत्र को विभक्तिमुक्तो
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लोगवियज
विपरिणामाद्वा क्षणेन श्रष्टप्रकारेण कर्मणा संसारबन्धनैर्वा विषयाभिष्वङ्गस्नेहादिभिर्मुक्तो भरतवदिति । ये पुनरनुपदेशवर्त्तिनः करडरीकायाले चतुतिकसंसारान्तर्वर्त्तिनो दुःखसागरमधिवसन्तीत्याद-अथाखाए पुट्ठा वि एगे निवति, मंदा मोहेण पाउडा, परिग्गहा भविसामो समुट्ठाय लद्धे कामे अभिगाइड, अथावा मुखियो पडिलेहंति इत्थ मोहे पुणो पुखो सन्ना नो हब्वाए नो पाराए । (सू०७३ )
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श्राज्ञाप्यत इत्याज्ञा- -हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वशोपदेशस्तद्विपर्ययोऽनाशा तया अनाशया सत्या स्पृष्टाः परीषहोपसग्गैः श्रपिशब्दः सम्भावनायां स च किम निवर्तन्त इत्यस्मादनन्तरं यः के–' मोहनीयोदयात्कण्डरीकाइयो न सर्वे संयमासमस्तद्वन्द्वोपशमरूपात् निवन्ते अपीति सम्भाव्यत एतन्मोहोदयस्येत्यपिशब्दार्थः । किंभूताः सन्तो निवर्त्तन्त इत्याह- मन्दा--जडा अपगत कर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकाः, कुत एवंभूताः ?, यतो 'मोहेन प्रावृताः ' मोह:- अशानं मिथ्यात्वमोहनीयं वा तेन प्रावृता-गुण्ठिताः, उक्तं च" अशानं खलु कम फोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनाssवृतो लोकः ॥ १ ॥ " इत्यादि, तदेवाचारोऽपि कम्मोदयात्परपोदयेऽङ्गीकृतलिङ्गः पचाद्धाचतामालम्बत इत्युक्रम्। अपरे तु स्परुचिविरचितवृतयो नानाविधैरुपायैर्लोकाद जिवृत्तयः किल वयं संसारोद्विग्ना मुमुक्षवलेषु तेषु शारम्भविषयाभिष्यङ्गेषु प्रवर्तन्त इति दर्शयति-' अपरिग्गहा ' इत्यादि, परि:समन्तात् मनोवाक्कायकर्मभिद्यत इति परिग्रहः स येषां नास्तीत्यपरिग्रहाः एवंभूता वयं भविष्याम इति शाक्यादिमतानुसारिणः स्वध्या वा समुन्धाय बीवरादिग्रप्रतिपद्य ततो लग्धान् कामान् अभिगाहन्ते— सेबते नियत्ययेन वैययनमिति अत्र वाग्यतोपादानात् शेषाण्यपि ग्राह्याणि । श्रहिंसका वयं भविष्याम एवममृपावादिन इत्याद्यण्यायोग्यम्। तदेवं शैलूषा इवान्यथावादिनोऽन्यथाकारिणः कामार्थमेव तांस्तान् प्रव्रज्याविशेषाविभ्रति, उक्तं च- "स्वेच्छाविरचितशास्त्रैः, प्रव्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्रैः । नानाविधैरुपायै-रनाथवन्मुष्यते लोकः ॥१॥" इत्यादि । तदेवं प्रव्रज्यावेषधारिणो लब्धान्कामान वगाहन्ते तल्लाभार्थं च तदुपायेषु प्रवर्त्तन्ते इत्याह- अणणार इत्यादि, अनाशया- - स्वैरिण्या बुद्धया मुनय इतिमुनिवेषविडम्बिनः कामोपायान प्रत्युपेक्षन्ते-कामोपायारम्भेषु पौनःपुन्येन लगतीति, श्राह च
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च - हब्वाए
एत्थ इत्यादि, अत्र - अस्मिन् विषयाभिष्वङ्गाज्ञानमये भावमोहे पौनःपुन्येन सन्नाः - विषण्णाः निमग्नाः पङ्कावमग्ना नागा इवात्मानमात्रष्टुं नालभिति, आ नो हामी पाराए यो हि मध्ये महानदी पूरे निमग्नो भवत्यसो नारातीयतीराय नापि पारे महानदीपूरमिति एवमत्रापि कुतनिमिनारयददिवी धनधान्यहिरण्यरण कुप्यदासीदासादिविभवः आकिञ्चयं प्रतिज्ञायारातीयतीरदेश्यात् गृहवाससीक्याचितः सन्
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( ७२७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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ए
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लोग विजय 'नो हव्वाप ' त्ति भवति, पुनरपि वान्तभोगाभिलाषितया यधोकसंयमाभावेन तरिकवाया विकत्वात् 'नो पाराए ति भवति, उभयतो मुक्तबन्धनामुक्तप्रतो लीवोभयभ्रष्टो न गृहयो नापि प्रयजित इत्युक्तं भवति । उक्तं च इन्द्रियाणि न गुप्तानि लालितानि न चेच्या मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य न भुक्तं नापि शोषितम् ॥ १ ॥ " इति ।
ये पुनरप्रशस्तरतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्तेकिंभूता भवन्तीत्याद
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विमुता हु ते जगा जे जथा पारगामियो, लोभमलोभेण दुर्गुछमाणे लद्धे कामे नाभिगाइ । ( सू० ७४ ) विविधम्- अनेकप्रकारं द्रव्यतो-धनस्वजनानुषङ्गाङ्गावतो --विषयकषायादिभ्योऽनुसमयं मुच्यमाना एव भाविनि भूतवदुपचारान्मुक्ता- विमुक्ताः ते जना ये जनाः सर्वस्वजनभूता निर्ममत्याः पारगामिनो मयंम्ति, पारो - मोक्षः संसारार्णवतटवृत्तित्वासत्कारंखानि - ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पार इति, भवति हि सायणम्यम् पथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः'' अतस्तत्पारम् - ज्ञानदर्शनचारिवाक्यं गन्तुं शीलं येषां ते पारगामिनः ते मुना भवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । कथं पुनः सम्पूर्णपारगामित्वं भवतीत्याह सोमं इत्यादि इददि लोभः सर्वसङ्गानां दुस्त्यजो भवति, तथाहि. पकश्रेण्यन्तर्गतस्यापगताशेषकषायस्यापि खण्डशः क्षिप्यमाणोऽप्यनुवध्यत इति, अतस्तं - लोभम् तद्विपदेख अलोभेन जुगुप्समानो- निन्दन्परिहरन् किं करोतीत्याहलद्धे ' इत्यादि, लब्धान् -- प्राप्तानिच्छामदनरूपान् कामान नाभिगाहते- न सेवते, यो हि शरीरादावपि निवृत्तलोभः स कामाभिष्वङ्गवाच भवति ब्रह्मदत्तामन्त्रितचिजयदिति, प्रधानाम्यलोभपरित्यागेन चोपसज्जैनाथस्तनपरित्यागो द्रष्टव्यः, तद्यथा-- क्रोधं क्षान्त्या जुगुप्समानो, मानं माईबेन, मायामा जवेनेत्याद्यप्यायोज्यम्, लोभोपा दानं तु सर्वकषायप्राधान्यख्यापनार्थमुपादवे, तथाहि-प्रवृत्तः साध्यासाध्यविवेकविकलः कार्याकार्यविचाररहितः कष्टि पापोपादानमास्थाय सर्वाः क्रिया अधितिष्ठतीति, तदुक्तम्- “ धावेद रोहणं तरह सायरं, भमइ गिरिणिगुंजेसुं । मारे बंधवं पि हु, पुरिसो जो होइधणलुडो ॥ १ ॥ श्रडर बहुं बहर भरं, सहर हुई पावमायरद्द धिट्टो । कुलसीलजाइपश्चय-धिरं च लोभदुश्रो चयइ ॥ २ ॥ " इत्यादि, तदेवं कुतश्चिनिमिनात्सहापि लोभादिना निष्कम्प, पुनर्लोभादिपरित्यागः कार्यः । अन्यस्तु लोभं विनापि मयां प्रतिपद्यत इति दर्शयति
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विणा विलोभं निक्खम्म एस अकम्मे जागर पासर, पडिलेदार नावकखइ, एस अणगारि ति पब्बुच्चा, अहो य राम्रो परितप्यमाणे कालाकालसमुट्टाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आपे सहसकारे विधिविचित् सत्थे पुणो पुणो से आयवले से नाइबले से मिलबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोर
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(७२७) लोगविजय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय बले से प्रतिहिबले से किविणवले से समणबले इ-| एडसमादानकारणमुपन्यस्तम् , आमुष्मिकार्थमपि परमाच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कजेहिं दंडसमायाणं संपेहाए |
र्थमजानानैर्दण्डसमादानं क्रियत इति दर्शयति-पावमो
खो' सि इत्यावि, पातयति पासयतीति वा पापं तस्माभया कज्जइ, पावमुक्खु त्ति मन्नमाणे, अदुवा मा
न्मोक्षः पापमोक्षः, इतिः-हेतौ, यस्मात्स मम भविष्यसंसाए । (सू०७५)
तीति मन्यमानः दण्डसमादानाय प्रवर्सत इति । तथाहिकश्चिदरतादिनिःशेषतो लोभापगमाद्विनाऽपि लोभं 'नि- हुतभुजि पहजीवोपघातकारिणि शस्रो नानाविधोपायप्राक्रम्य ' प्रवज्यां प्रतिपद्य , पाठान्तरं वा 'विणासुलो
एयुपघातात्तपापविध्वंसनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिकं भं' संज्वलनसंशकमपि लोभं विनीय-निर्मूलतोऽपनीय ए
शठव्युग्राहितमतयो जुहृति, तथा-पितृपिण्डदानादौ यष एवंभूतः सन् अकर्मा-अपगतघातिकर्मचतुष्टयाविर्भू
स्तादिमांसोपस्कृतभोजनादिकं द्विजातिभ्य उपकल्पतानावरणशानो विशेषतो जानाति सामान्यतः पश्यति,
यन्ति , तनुशेषानुज्ञातं स्वतोऽपि, भुञ्जते , तदेवं नाएतदुक्तं भवति-एवंभूतो लोभो येन तत्क्षये-मोहनीयतये
नाविधरुपायैरज्ञानोपहतबुद्धयः पापमोक्षार्थ दरडोपादानेन बावश्यं घातिकर्मक्षयस्तस्मिश्च निरावरणशानसद्भावस्त
तास्ताः क्रियाः प्राण्युपघातकारिणीः समारभमाणाः अतोऽपि भवोपग्राहिकापगम इत्यतो लोभापगमे अकर्मे
नेकमवशतकोटीदुर्मोचमघमेवोपाददत इति । किश्चत्युक्तम् । यतश्चैवम्भूतो लोभो दुरन्तस्तद्धानौ चावश्यं
'अदुवा' इत्यादि , पापमोक्ष इति मन्यमानो दण्डमादकर्मक्षयस्ततः किं कर्तव्यमित्याह- पडिलेहाए ।
त इत्युक्तम् , अथवा-प्राशंसनम् प्राशंसा-अप्राप्तप्रापणाइत्यादि, प्रत्युपेक्षणया-गुणदोषपर्यालोचनयोपपत्रः सन्
भिलाषस्तदर्थ दण्डसमादानमादत्ते । तथाहि-ममैतत् पअथवा-लोभविपाकं प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य तदभावे गुणं
रुत्परारि वा प्रेत्य वोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु च लोभं नावकाति-नाभिलषतीति , यश्चाक्षानोपह
प्रवर्तते, राजानं वाऽर्थाशाविमोहितमना अवलगति , उतान्तःकरणोऽप्रशस्तमूलगुणस्थानवर्ती विषयकषाया
नं च-"आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि , भोक्ष्याधुपपन्नस्तस्य पूर्वोक्तं विपरीततया सर्वे सतिष्ठते । महे किल वयं सततं सुखानि । इत्याशया धनविमोहितथाहि-अलोभं लोभेन जुगुत्समानो लम्धान् कामान
तमानसानां , कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् ॥१॥ बगाहते , लोभमनपनीय निष्क्रम्य पुनरपि लोभैकमनाः
एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ , वद मौनं समाचार । इत्याद्याशासकर्मा न जानाति नापि पश्यति , अपश्यंश्चाप्रत्युपेक्ष
प्रहप्रस्तः, क्रीडन्ति धनिनोऽर्थिभिः ॥२॥” इत्यादि । शयाऽभिकाहति । यच्च प्रथमोद्देशके प्रशस्तमूलगुणस्था
तदेवं ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमित्याहनमवाचि तच्च वाच्यमिति, आह च-'अहो य रात्रो'
। तं परिमाय मेहावी नेव सयं एएहिं कजेहिं दंडं समारंभिजा, इत्यादि , अहोरात्रं परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी नेव अन्नं एएहिं कजेहिं दंडं समारंभाविजा,एएहिं कजेहिं संयोगार्थी अर्थालोभी पालुम्पः सहसाकारो विनिविष्ट- दंडं समारंभंतं पि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे चित्तः अत्र शस्त्रे पृथिवीकायाद्युपधातकारिणि पौन-पु
धुपधातकााराण पोनपु- पारिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिजासि त्ति बेमि । म्येन वर्तते । किं च-से आयबले ' मात्मनो बल-शक्युपचय प्रात्मबल तन्मे भावीति कृत्वा नानाविधैरुपायै
(सू० ७६) रात्मपुष्टये तास्ताः क्रियाः ऐहिकामुष्मिकोपघातकारिणी
तदि' ति सर्वनामप्रकान्तपरामर्शि, ' तत्' शस्त्रपविधत्ते , तथाहि-' मांसेन पुष्यते मांस ' मिति कृत्वा पञ्चे- रिशोक्तं स्वकायपरकायादिभेदभिन्नं शस्त्रम् , इह वा यदुतन्द्रियघातादावपि प्रवर्तते, अपराश्च लुम्पनादिकाः-सूत्रेणे- म्-अप्रशस्तगुणमूलस्थानं-विषयकषायमातापित्रादिकम् , वाभिहिताः, एवं च-गातिबलम् वजनबलं मे भावीति, तथा
तथा-कालाकालसमुत्थानक्षणपरिशानश्रोत्रादिविज्ञानप्रहातन्मित्रवलं मे भविष्यति येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिष्यामि,
णादिकं तथाऽत्मबलाधानाद्यर्थं च दण्डसमादानं अपरिशया तत्प्रेस्य बलं भविष्यतीति बस्तादिकमुपहन्ति, तद्वा-देवब
ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरेत् मेधावी-मर्यादावर्ती। संभाषीति पचनपाचनारिकाः किया विधते, राजबलं वा ज्ञातहेयोपादेयः सन् किं कुर्यादित्याह-'नेव सयं' इत्यादि, मे भविष्यतीति राजानमुषचरति ,चौरमामे या वसति चो- नैव स्वयम्-आत्मना एतैः- आत्मबलाधानादिकैः रभाग वा प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति , अतिथिबलं वा कार्यैः- कर्तव्यैः समुपस्थितैः सद्भिः दण्डम्-सत्त्वोमे भविष्यतीत्यतिथीनुपचरति, अतिथिर्हि निःस्पृहोऽभि- पघातं समारभेत् , नाप्यन्यमपरमेभिः काहिसानृतादिकं धीयते इति , (आचा० ) ( अतिथिलक्षणम् ' अइहि ' दण्ड समारम्भयेत् , तथा-सामारभमाणमप्यपरं योगत्रिशम्दे प्रथमभागे ३३ पृष्ठे गतम् ।) एतदुक्तं भवति-तबला- | केण न समनुशापयेद् । एष चोपदेशस्तीर्थकृगिरभिहित
मपि प्राणिषु दण्डो न निक्षेतव्य इति , एवं कृपणश्रम- इत्येतत् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाहेति दर्शयतिसार्थमपि वाच्यमिति एवं पूर्वोक्तः विरूपरूपैः-जाना- 'एस' इत्यादि, 'एष' इति झानादियुक्तो भावमार्गों प्रकारैः पिण्डदानादिभिः कार्यैः 'दण्डसमादान' मिति योगत्रिककरणत्रिकेण दण्डसमादानपरिहारलक्षणो वा राज्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डस्तस्य सम्य- प्राय:-श्राराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः-संसागादान-प्रवर्ण समादानम् , तदात्मबलादिकं मम नाभविष्य- राणवतटवर्तिनः क्षीणघातिकौशाः संसारोदरविवरस् यद्यइमेतनाकरिष्यमित्येवं समेक्षया-पर्यालोचनया एवं वर्तिभावविदः-तीर्थकृतस्तैः प्रकर्षण-- सदेवमनुजायां संप्रेषय वा भयात् क्रियते , एवं साबविड भयमाश्रित्य द- पर्षदि सर्वस्वभाषानुगामिन्या बाचा योगपद्याशेषसंथी
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लोगविजय
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तिच्या प्रपेदितः कथितः प्रतिपादित इति यावत् एवम्भूतं च मार्ग शात्वा किं कर्त्तव्यमित्याह- 'जहेल्थ' इत्यादि तेषु तेष्वात्मबलोपधानादिकेषु कार्येषु समुपस्थितेषु सम्मु समुपादानादिकं परिहरन् कु शलो नियुकः अगनतस्योपयेतस्मिन् दण्डसमुपादाने स्वमात्मानं नोपलम्येन नत्र संश्लेषं कुष इति विभक्तिविपरिणामाद्वा एतेन दण्डसमुपादानजनितकर्मणा यथा गोपति तथा सवैः प्रकारः कुर्याम् इति शब्दः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तो द्वितीयोदेशकः । साम्प्रतं तृतीय श्रारभ्यते । अस्य वायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके संयमे दृढत्वं कार्यमसंयमे चाहृदन्यमुक्तम् तयोभयमपि कषायम्युदासेन सम्प त्रापि मान उत्पत्तेरारभ्य उच्चैर्गोत्रौत्थापितः स्यात् श्रततद्युदासार्थमिदमभिधीयते अस्य चानन्तरसूत्रेसस्वस्थः जहेन्थ फुसले नोयलिपेज्जासि कुशलो निपुरुः सनस्मिन्नुयैगोत्राभिमाने यथाऽऽत्मानं नोपलिपयेस्तथा विदध्यास्त्वम् ।
"
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किं मत्था इत्यतस्तदभिधीयते
,
( ७२ ) अभिधानराजेन्द्र
,
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से असई उच्चागो असई नीभागोए नो हीणे नो अइरिसे, नो अहए, इस संखाय को गोयावाई १ को माणाबाई १, कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे ?, नो कृप्पे, भूएहिं जाग पहिलेह सायं (सू० ७७) 'स' इति संसार्यसुमान् श्रसकृद् - श्रनेकशः उच्चैर्गोत्रे मानस का उत्पन्न इति शेषः, तथा कृषीमंत्रे सर्वलोकावगीते, पीनःपुन्येनोत्पन्न इति । तथाहि नीचेगोदादनन्तमपि कास्ि तत्र च पर्यटन् द्विनवतिनामोत्तरप्रकृतिसत्कर्मा सन् तथाविधाध्यवसायोपपन्नः आहार कशरीरतत्संघातयन्धनको त्यानुपूर्वीइयनरकगत्यानुपूर्वीद्वय वैक्रियचतुष्ट्यरूपा द्वादश] कर्मप्रकृतीण्याशीतिखत्कम्म तेजोवायुपुत्पन्नः मन मनुजगत्यानुपूर्वीपमपि निर्लेप्य तत उ इसयति पत्योपमासंपेपभागेन अतस्तेजोवायुष्याच एव भङ्गकः, तद्यथा-नीगोत्रस्थ बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्म्मताऽपीति, ततोऽप्युद्वृत्तस्यापरै केन्द्रियगतस्यायमेव भङ्गः प्रसेच्यप्यपर्यातकावस्थायामयमेय, अनिलेपिते थेगोत्रे द्वितीयचतुर्थी भट्टी तथा त्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सामंतातूभयरूपस्यैवेति द्वितीयः तथा उच्चैस्य बन्धो नीचस्पोदयः सत्कर्म्मता तूभयरूपस्पेति चतुर्थः शेषास्तु चत्वारो न सम्येष तिर्थरुगोंस्पोदयाभावादिति भावः । तदेवमुषलन कलंकलीभावमापन्नोऽनन्तं कालमेकेन्द्रियेष्वास्ते, अनुद्वलिते वा तिर्यच्या स्तेऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः, श्रावलिकाकाला संख्येयभाग समयसंस्थान पुलपरावर्त्तानिति की पुनः पुलपरावर्त्त इति ? उच्यते यदौदारिकवैक्रियतैजसभाषाना पानमनः कर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्त्तिनः पुइस्थः श्रात्मसात्परिणामिता भयन्ति तदा पुलपरावर्त इत्येके तुइयक्षेत्र फालभाषमेदाच्चतुर्द्धा वर्णपति, प्रत्येकमपि वादर सूक्ष्मभेदात् नि १८३
,
,
3
एता
लोग विजय द्रव्यतो बादरो यदौदारिकवैक्रियतैजसकार्म्मणचतुष्टयेन सर्वपुला गृहीत्वोज्झितास्तदा भवति, सूक्ष्मः पुनर्यदेकशरीरेण सर्वपुद्गलाः स्पर्शिता भवन्ति तदा द्रष्टव्यः १. - तो बाद यदा फमोन्कमाभ्यां विमान सर्वे लोकाकाशप्रदेशाः स्पृष्टा भवन्ति तदा विज्ञेयः सूक्ष्मस्तु तदा farar aafna fववक्षिताकाशखण्ड के मृतः पुनर्यदा तस्यानन्तरप्रदेशवृद्ध्या सर्व लोकाकाशं व्याप्नोति तदा ग्राह्यः २, कालतो बादरो यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयाः मोमाभ्यां प्रियमाणेनालिकिता भयन्ति तदा विज्ञेयः सूक्ष्मस्तु सर्पिणीप्रथमसमपादारभ्य क्रमेण सर्वसमा प्रियमाणेन यदा छुप्ता भवन्ति तदाऽवगन्तव्यः ३, भावतो बादरो यदाऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि क्रमक्रमाभ्यां म्रियमाणेन व्याप्तानि भवन्ति तदाऽभिधीयते, अनुभागकन्धाध्यवसायप्रमाणं तु संगमस्थानावासरे प्रागेवाभ्यथायीति, सूक्ष्मस्तु जघन्यानुभागबन्धाध्यवसायस्थानादारभ्य यदा सर्वेष्वपि क्रमेण मृतो भवति तदाऽवसेय इति । तदेवं कलंकली भावमापन्नो ऽन्यो वा नीचे गोंजोदयादनन्तमपि कालं तिर्यदेवास्ते, मनुष्येष्वपि तदुदयादेव चावगीतेषु स्थानेवृत्पद्यते तथा–कलंकी स्योऽपि द्वीन्द्रियादिप्रत्यचः सन् प्रथमसमये एव पर्याप्युत्तरकालं योगोत्रं बच्चा मनुष्येष्वसहगोत्रमास्कन्दति तत्र कवितीयमकस्थः पञ्चमभङ्गोपपत्रो वा भवति तमि नात्युत्रस्यादयः सत्कर्म्मता शुभयस्येति तृतीयः, पञ्चमस्तूच्च बध्नानि तस्यैवोदयः सत्कर्म्मता शुभयस्य,
3
सप्तमभङ्गौ तूपरतबन्धस्य भवतः, श्रविषयत्वान्न ताभ्यामिहाधिकारी बेमी बन्धोपरमे उच्योदयः सत्क स्मता तूभयस्येति षष्ठ, सप्तमस्तु शैलेश्यवस्थायां चिरमसमयेनीचे गोंचे पिते उपगोत्रोदयस्तस्यैव सत्कमेतेति । तदेवमुचावचेषु गोत्रेषु श्रसकृदुत्पद्यमानेनानुमता पश्चमकान्तथेर्सिना न मानो विधेयो नापि दानवेति । तयो धोधावयोः गोत्रयोर्वन्धाभ्यवसाय स्थान कराडकानि तु यानीत्याह सोही तो अहरिसें पावयुच्चैगोत्रे ऽनुभावबन्धाध्यवसायस्थानकराडकानि जीवेगोंषपि तावन्येच तानि व सर्वाप्यसुमताऽनादिसंसारे भूयो भूयः स्पर्थितानि, तत उच्चैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽसुभृन्न हीनो नाप्यतिरिक्तः, एवं नीचैर्गोत्रकाण्डकार्थतयाऽपीति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - " एगमेगे खलु जीवे श्रश्रद्धा अउच्चागो अस मी आगो, कडपा नो हो नो अरिने" एकैको जीवः खलुशब्दो बाहीरो क्यालङ्कारे अतीते कालेऽसकृदुच्चावचेषु गोत्रेदूत्पन्नः, स चोच्चावचानुभागकण्डकापेक्षया न हीनो नाप्यतिरिक्र इति । तथाहि उग कराडकेभ्य एकभविकेभ्यो ऽनेकमपिकेभ्यो वा नीमकराडकानि न होनामि नाप्यतिरानीत्यतोऽवगम्योत्कर्षापकर्षीन विधेयी, अस्य बोपलक्षणार्थत्वात् सर्वेष्वपि महस्थानेष्येतदायोज्यम् । यतयोश्चावचेषु स्थानेषु कर्म्मवशादुत्पद्यन्ते, बलरूपलाभादिमदस्थानानां चासमञ्जसतामवगम्य किं कर्तव्यमित्याह नो पीहर अपि सम्भावनेस मिश्र क्रमः जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि नो ईहेतापिनाभि अथवा नोहयेत् नायकादि
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(७३०) लोगविजय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय ति । तत्र यधुच्चावचेषु स्थानेष्वसकदुत्पनोऽसुमास्ततः थमुपदिश्यते-'समिए एयाणुपस्सी' पञ्चभिः समितिभिः किमित्याह-य संस्खाय' इत्यादि, इतिरुपप्रदर्शने, -1 समितः सन् एतत्-शुभाऽशुभं कर्म वक्ष्यमाणं चाऽन्धन्याति-एतत्पूर्वोक्लनीत्योच्चावचस्थानोत्पादादिकम् परिसं- दिकं द्रष्टुं शीलं यस्येत्येतदनुदर्शी भूतेषु सातं जानीहीति स्याय-बाया को गोत्रवादी भवेद् ? यथा-ममोच्चैर्गो- सण्टङ्कः। तत्र 'समिति' रिति 'इण् गता' वित्यस्मात्स* सर्वलोकमाननीयं नापरस्येत्येवंवादी को बुद्धिमान् म्पूर्वात् निन्नन्ताद्भवति, सा च पञ्चधा, तद्यथा-इर्याभाभवेत् !, तथाहि-मयाऽन्यैश्च जन्तुभिः सर्वाण्यपि स्था- षैषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः , तर्यासमितिः-प्राणमाम्यनेकशः प्रासपूर्वाणीति, तथोच्चैर्गोत्रनिमित्तमानवादी व्यपरोपणवतपरिपालनाय , भाषासमितिरसदभिधाननियवा को भवेत् ?, न कश्चित्संसारस्वरूपपरिच्छेदीत्यर्थः, मसंसिद्धये, एषणासमितिरस्तेयव्रतपरिपालनाय , शेषकिंच-कसि वा एगे गिज्झे ' अनेकशोऽनेकस्मिन् | इयं तु समस्तव्रतप्रकृष्टस्याहिंसावतस्य संसिद्धये व्याप्रियते स्थानेऽनुभूते सति तन्मध्ये कस्मिन्या एकस्मिन्नुच्चैर्गो-1 इति, तदेवं पञ्चमहावतोपपेतस्तद्वृत्तिकल्पसमितिमिः सवादिकेनवस्थितस्थानके रागादिविरहादेकः कथं गृध्ये- मितः सन् भावत एतद्भूतसातादिकमनुपश्यति, अथवात् ?, तात्पर्यम्-आसवां विदितकर्मपरिणामो विदभ्यात् यदनुदश्यसो भवति तचयेत्यादिना सूत्रेणैव दर्शयतियुज्यत गाव यदि तत्स्थान प्राप्तपूर्व नाभविष्यत् , त- 'अन्धत्यमित्यादिना यावत् - विरूपरूपे फासे परिसंवेबचानेकशः प्राप्तपूर्वम् , अतस्तल्लाभालाभयोः मोत्कर्षा- पा' संसारोदरे पर्यटन प्राणी अन्धत्वादिका अवस्था पकौं विधेयाविति, प्राह च-'तम्हा' इत्यादि, (मा- बहुशः परिसंवेदयते । ( प्राचा. ) ( अन्धः कतिविध चा०) (मदस्थानसंबन्धः 'मयट्ठाण ' शब्ने पञ्चमभागे इति 'अन्ध' शब्ने प्रथमभागे १०५ पृष्ठे गतम् ।) १०७ पृष्ठे गतः।) तदेवमुच्चनीचगोत्रनिर्विकल्पमनाः प्र. ('बहिर 'शब्दे पञ्चमभागे १२६७ पृष्ठे बधिरवक्तवता म्यदपि अविकल्पेन किं कुर्यादित्याह- भूपहि' इत्यादि. गता। मूकभेदाः 'जई' शब्दे चतुर्थभागे १३८७ पृष्ठे गताः।) भवन्ति भविष्यन्त्यभूवनिति च भूतानि-असुभृतस्तेषु (काणत्वं महासमिति ' काण' शब्दे तृतीयभागे ४३० प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जा- पृष्ठे गतम् ।) कुण्टत्वं-पाणिषकत्वादिकं कुम्जत्वं वानीहि-अवगच्छ, किं जानीहि ?-सातम्-सुखं तद्विपरीत- मनलक्षणं बडभत्वं-विनिर्गत पृष्ठी पडभलक्षणं श्यामसातमपि जानीहि, किं च कारणं साताऽसातयोः ? मत्व-कृष्णलक्षणं शबलत्वम्-श्वित्रलक्षणं सहजं पपतज्जानीहि, किं चाभिलषन्त्यविगानेन प्राणेन इति, अत्र चाद्भावि वा कर्मवशगो भूरिशो दुःखराशिदेशीयं जीवजन्तुप्राण्यादिशब्दानुपयोगलक्षणद्रव्यस्य मुख्यान वा- परिसंवेदयते । किं च-सह प्रमादेन-विषयक्रीडाभिष्वचकान्बिहाय सत्तावाचिनो भूतशम्बस्योपादानेमेदमाविभी- रूपेण श्रेयस्यनुद्यमात्मकेन अनेकरूपाः-सङ्कटविकवयति यथा-अयमुपयोगलक्षणपदार्थोऽवश्यं सत्तां बिभर्ति, टशीतोष्णादिभेदाभिन्ना योनीः संदधाति-संधत्ते च साताभिलाग्यसातं च जुगुप्सते, साताभिलाषश्च शुभप्र
तुरशीतियोनिलक्षसम्बन्धाविच्छेदं विदधातीति भावः सकृतित्वाद् अतोऽपरासामपि शुभप्रकृतीनामुपलक्षणमेत
म्यग् धावतीति वा , तासु तास्वायुष्कबन्धोत्तरकालं दवसेयम्, अतः शुभनामगोत्रायुराधाः कर्मप्रकृतीरनु
गच्छतीत्यर्थः, तासु च नानाप्रकारासु योनिषु विरूप
रूपान् नानाप्रकारान् स्पर्शान्-दुःखानुभवान् परिसंधावत्यशुभाश्च जुगुप्सते सवोंऽपि प्राणी।
वेदयते, अनुभवतीत्यर्थः। एवं च व्यवस्थिते सति किं विधेयमित्याह
तदेवमुच्चैोत्रोत्थापितमानोपहतचेता नीचैर्गोत्रविहितसमिए एयाणुपस्सी, तं जहा-अन्धत्तं बहिरतं मय
दीनभावो वाऽन्धबधिरभूयं वा गतः सन्नावबुध्यते, ककाण कुंटतं खुजतं बडभत्तं सामत्तं सबलतं सह | व्यं न जानाति-कर्मविपाकं नावगच्छति, संसारापमाएणं अणेगरूवाओ जोणीभो संधायइ विरूवस्त्रे पसदतां नावधारयति, हिताहिते न गणयति , औचित्यकासे परिसंवेयइ। (सू० ७८)
मित्यनबगततत्त्वो मूढस्तत्रैवोचैर्गोत्रादिके विपर्यासमु
पैति । आह चअथवा-भूतेषु शुभाशुभरूपं कर्म प्रत्युपेक्ष्य यतेषामप्रियं तन्त्र विदध्यात्, इत्ययमुपदेशः, नागाजुनीयास्तु पठन्ति
से अबुज्झमाणे होवहए जाईमरणं अणुपरियट्टमाणे " पुरिसेणं खलु दुक्खुब्वेअसुहेसए " पुरुषा-जीवः
जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायरणमिति-वाक्यालङ्कारे, खलुः--अवधारणे, दुःखात् माणाणं आरत्तं घिरतं मणिकुंडलं सह हिरणेण इउद्वेगो यस्य स दुःखोद्वेगः, सुखस्यैषकः सुखैषकः, याज
त्थियाओ परिगिज्झति तत्थेव रत्ता न इत्थ तवो वा कादित्वात्समासश्छान्दसत्वाद्वा, दुःखोद्वेगश्चासौ सुखैषकच दुःखोद्वेगसुवैषकः, सर्वोऽपि प्राणी दुःखोद्वेग
दमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपुण्णं वाले जीविउकामे सुखैषक एव भवत्यतो जीवप्ररूपणं कार्यम् , तच्चावनि- लालप्पमाणे महे विष्परियासमुवेइ । सू० ७६ ) वनपवनानलवनस्पतिसूक्ष्मबादरविकलपञ्चेन्द्रियसंगीतरपर्या 'से' इत्युच्चैर्गोत्राभिमानी अन्धधिरादिभावसंवेदको सकापर्याप्तकरूप शस्त्रपरिक्षायामकार्येव, तेषां च दुःख- वा कर्मविपाकमनवबुध्यमानो हतोपहतो भवति, नानाव्यापरिजिहीर्पूणां सुखलिप्सूनामात्मौपम्यमाचरता तदुपमर्द- | | धिसद्भावक्षतशरीरत्वाद्धतः, समस्तलोकपरिभूतत्वादुपहकानि हिंसाविस्थानानि परिहरताऽऽत्मा पञ्चमहावतेप्ता तः, अथवा-उच्चैर्गोत्रगर्याध्मातत्यक्लोचितविधेयविद्वजनवस्थयः, तत्परिपालनार्थ चोत्तरगुणा अप्यनुशीलनीयाः, नद- दनसमुद्भूतशब्दापयश पटहहतत्वाद्धतः, अभिमानोत्पादि
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लोगविजय
लोगविजय
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तानेकभवकोटिनीचैर्गोत्रोदयादुपहतः, मूढो विपर्यासमुपैती श्रायाणिअं च श्रायाय तम्मि ठाणे न चिट्ठा, वित त्युत्तरेण सम्बन्धः, तथा जातिय मरणं च समाहारद्वन्द्रस्तद् पप्पखेयन्न तम्मि ठाणम्मि चिट्ठह । (०८० ) अनुपरिवर्त्तमानः पुनर्जन्म पुनर्भरणमित्येवमरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारोदरे विवर्तमान आयीचीमरणाद्वा प्रतिक्ष जन्मविनाशावनुभवन् दुःखसागरावगाढो विशरारुण्यपि नित्यताकृतमतिः हिते चहिताध्यवसायो विषयसमुपैति (जीवितस्वरूपम् 'आउ' ने द्वितीयभागे पृष्ठे गतम् तथाक्षेत्रम् शालिक्षेत्रादि वास्तु-धवलगृहादि मम इदमित्येवमाचरतां सतां तत्क्षेत्रादिकं प्रेयो भवति किं व आरक्रम-ई
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यदि विरक्रम-दिगरागं विविधराया मणिइति रत्नद्वर्येन्द्रनीलादि कुण्डलम् कणभरणं हिरण्येन सह स्त्रीः परिगृह्य तय-क्षेत्रवासयारविरत्तवस्त्रमणिकुण्डलयादी कावा अभ्युपपना मूढा विपर्यासमुपयान्ति सदन्ति च नात्र तपो वा अनशनादिदमो वाइन्द्रियनोद्रियोपशमलायो नियमो बादामलक्षणः फलवान् दृश्यते तथाहि तपोनियमोपेतस्थापि कायज्ञेशभोगादिवञ्चनां विहाय नान्यत्फलमुपलभ्यते न्मान्तरे भविष्यतीतिवेद् युमाहितस्योशापः । किं चहानिरकल्पना व पापीयसीति संदेयं साम्यवेक्षी भोगसह विहितैकपुरुषार्थबुद्धिः संपूर्ण यथावसर संपादितविषयोपभोगं बालः- श्रशः जीवितुकामः - आयुष्कानुभवनमभिलषन् लालप्यमानः- भोगार्थ तपन वागदराई करोति, तद्यथा श्रत्र तपो दमो नियमो वा फलवान् न दृश्यते इत्येवमर्थमुच मृदः अयुध्यमानो दोपहतो जातिमरणमनु परिवर्तमानो जीवितक्षेत्रत्र्यादिलोभपरिमोहितमनाः विपर्यासमुपैति तस्खे ऽतस्त्वाभिनिवेशम् श्रतस्वे चतस्वाभिनिवेशं हितेऽहितबुद्धिमित्येवं सर्वत्र विपर्यय विदधाति । उक्तं च - " दाराः परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥ १ ॥ " इत्यादि ।
इयमेव इत्यादि इदमेव पूर्वो सम्पूर्ण जीवितं त्राङ्गना परिभोगादिकं वा नावकाङ्क्षन्ति-नाभिलषन्ति ये जना ध्रुवचारिणो ध्रुवो - मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि भुवं तदाचरितुं शीलं येषां ते तथा धुतचारिणो वा धुनातीति धुतं चारिषं तचारिण इति किं जाई इत्यादि, जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्रः, तत् परिज्ञाय -- परिच्छिद्य ज्ञात्वा चरेत्-उद्युक्लो भवेत्, क ? -संक्रम संम्बते नेनेति संक्रमणं चारित्रं तत्र ढोविश्रोतसिकारहितः परीषदोपसः निष्कम्पो वा यदि वा अशङ्कमनाः सन् संयमं चर, न विद्यते शङ्का यस्य मनसस्तदशङ्कम् ; श्रशङ्कं मनो यस्यासावशङ्कमनाःतपोदमनियम निष्फलत्वाशङ्कारहित भास्तिक्यमत्युपपेतस्तपोदमादी प्रचर्चेत यतस्तद्वान् राजराजादीनां पूजाप्रशंसा भवति न चीपशमिकसुखावासफलस्य तपस्विनः समस्तद्वन्द्वदवीयसो ऽसत्यपि परलोके किश्चित् क्षुते। उक्तं च संदिग्धेऽपि परे लोके स्याज्यमेषा भं बुधैः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति बेवास्ति को हतः ॥ १ ॥ " इत्यादि । तस्मात् स्वायत्ते संयमसुखे हटेन भाग्यम्, न चैतद्भावनीयम्, यथा-पराय स्थायां वा धर्म करिष्यामीति यतः -' नत्थि ' इत्यादि नास्ति न विद्यते कालस्वमृत्योरनागमः - अनागमनमनवसर इति यावत्, तथाहि सोपक्रमायुषोऽसुमतो न काचित्साऽवस्था यस्यां कर्म्मपावकान्तर्वर्सी जन्तुजंतुगोलक इव न विलीयेत इति । उक्तं च--" शिशुमशिशुं कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितम् धीरमधी रं मानिननमानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रकाशनचली नमचेतनमध सचेतनं निशि दिवसेपि साध्यसमयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥ १॥ " त देवं सर्व त्वं मृत्योरवधार्यादिसादिषु दशायधामेन भाग्यम्, ( श्राचा० ) ( ' सव्वे पाणा पियाजया' इत्या। दीनां व्याख्या पिपजीविशब्दे पञ्चमभागे २३६ पृष्ठे । 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे ८ पृष्ठे च गता परिग तद्-असंयमजीवितं परिगृह्य श्राश्रित्य किं कुर्वन्तीत्याह- दुप ये इत्यादि द्विपदम् -- दासीकर्मकरादि चतुष्पदम्--गयायदि अभियुज्य योजयित्वा अभियोग मावित्या या पारयित्वेत्युकं भवति ततः किमित्यत आह-सिं चियाणं इत्यादि प्रियजीवितार्थमर्थभिवृद्धये द्विपदचतुष्पदादिव्यापारेण संसिध्य-- श्रर्थनिचयं संबद्धर्थ त्रिविधेन योगकिकरण याऽपि काचिदल्या परमाचिन्तायां यहां फल्गुद्देश्या (से) तस्यार्थारम्भिण सा चार्थमात्रा तत्र इति द्विपदाद्यारम्भे मात्रा इति सोपस्कारत्वात्सूत्राणाम्, अर्थमात्रा - श्रर्थारुपता भवतिसत्तां विभर्ति, किं भूता ? सा, सूत्रेणैव कथयति - अल्पा वा बही या अपबहुत्वं पापेक्षिकमतः सर्वा उपयस्पा सर्वाऽपि यही सइत्यर्थवान् तत्र तस्मिन युद्ध:अभ्युपपन्नस्तिष्ठति, नालोचयत्ययेश्योपार्जनम् न - यति रक्षणपरिश्रमम्, न विवेचयति तरलताम्, नावधारय
"
"
ये पुनरुन्मज्जच्छुभकर्मापादिताध्यवसायपुरस्कृतमोक्षास्ते किंभूता भवन्तीत्याह -
"
“इसमेव नावति, जे जसा पुरचारिणो । जाईमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे ||१|| " नऽत्थि का, लस्स गागमो (आचा० ) तं परिगिज्क दुपयं चठ-प्पयं अभिजुंजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाs विसे तत्थ मत्ता भव अप्पा वा बहुया या सेत त्थ गड्डिए चिट्ठ भोगाए, तओ से एगया विविहं परिसि संभूयं महोवगरणं भवइ, तं पि से एगया दायाया वा विभयंति, बदनहारो वा से अवहरति रायाणो वा से विलुंपति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से उज्झर, इस मे परस्सऽडाए कूराई कमाई वाले पकुन्नमागे तेरा दुक्खेण संमूढे वि परियासमुबेर, मुणिणा हु एयं पवेइयं प्रणोहंतएए नो व ओहं तरितए अतीरंगमा एए नो व तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारं
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"
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गमित्तए
(७३१) अभिधानराजेन्द्रः ।
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"
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बोगविजय
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( ७३२ ) अभिधानराजेन्द्रः । लोग विजय ति फल्गुताम् उ "कृमिकुलचितं सालानं विगन्धि भागे ४६८ पृष्ठे । अपारंगम इत्यादिकस्य व्याख्या न जुगुप्सितं निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थिनिराभियम् । सु अपारंगम' शब्दे तस्मिन्नेव भागे ६०६ पृष्ठे गता । ) रपतिमपि या पार्श्वस्वं सशङ्कतमीक्षते न हि गणपति अथ तीरपारयोः को विशेष इति उच्यते-तीरम् -मोहमुझे लोकः परिग्रहफल्गुताम् ॥ १ ॥ इत्यादि स नीयक्षयः, पारं - शेषघातिक्षयः, अथवा तीरं घातिचतुष्टकिमर्थमर्थमर्थयत इत्यत आह- भोयणाए ' भोजनम् यापगमः पारं भवोपप्राह्यभाव इत्यर्थः स्यात्-कथमोउपभोगस्तस्मै श्रर्थमर्थयते, तदर्थी च क्रियासु प्रवर्त्तते, घतारी कुतीर्थादिको न भवति तीरपारगामी याद किया कि भवतीत्याह तो से इत्यादि ततः 'आवाणि इत्यादि, आदीयन्ते गृह्यन्ते सर्वभाषा - (से) तस्यायलगनादिकाः क्रियाः कुर्वतः एकदा ला नेनेत्यादानीयं श्रुतं तदादाय तदुक्ते तस्मिन् संयमस्थाने भान्तरायकर्मक्षयोपशमे विविधम्- नानाप्रकारम् परिशि- न तिष्ठति, यदि वा आदानीयम् - श्रदातव्यं भोगा द्विहम्प्रभूतत्वाद्धरितम् सम्भूतम् सम्यकपरिपालनाय पदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि तदादाय त्या भूतं संवृत्तं, किं तत् ?, महच्च तत्परिभोगाङ्गत्वादुपकरणं वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययो गैरा दानीयं - कर्म्मादाय व महोपकरणं - द्रव्यनिचय इत्यर्थः, स कदाचिल्लाभोदये किंभूतो भवतीत्याह- तस्मिन् - ज्ञानादिमये मोक्षमार्गे सभवति, असावप्यन्तरायोदयाच्च तस्योपभोगायेत्याह-' तं म्यगुपदेशे या प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति-पि से' इत्यादि, तदपि समुद्रोत्तरणरोइणखननविलप्रवेघसे न केवलं सर्वोपदेशस्थाने न तिष्ठति विपर्ययाशरसेन्द्रमनराजायलगतकृषीवलादिकाभिः क्रियाभिः स्वनुष्ठायी च भवतीति दर्शयति पित' इत्यादि चितपरोपतापकारिणीभिः स्योपभोगायोपार्जितं सत्से थम असतं दुर्गतिहेतुं तत्तथाभूतमुपदेशं प्राप्य वेदतस्यार्थोपार्जनोपायज्ञेशकारिणः एकदा- भाग्य दायादाःशः - अकुशलः खेदशो वाऽसंयमस्थाने तस्मिश्च साम्प्र fugeesोदकदानयोग्याः विभजन्ते विलुम्पति अदत्ततेक्ष्याचरित उपदिष्ठे या तिष्ठति तत्रैवासंपमस्थानेऽभ्युहारो वा दस्युर्वा अपहरति राजानो वा विलुम्पन्ति - श्रवपपन्नो भवतीति यावत् अथवा - वितथमिति श्रादानीछिन्दन्ति नश्यति वा स्वत पवारवीतः से तस्य वियभोगाव्यतिरिक्तं संयमस्थानं तत्प्राप्य वेदको निपुणन्तनश्यति वा जीर्वभाषापणेः अगारदादेन या गृहदाहेन स्मिन्स्थाने आदानीयस्य इन् ितिइति सर्वशाज्ञायामाया दाते कियन्ति वा कारणान्यर्धनाशे वश्यन्ते इत्युपसं स्मानं व्ययस्थापयतीत्यर्थः । हरति- इति एवं बहुभिः प्रकारैरुपाजितोऽप्यथ नाथमुपैति, नैवोपार्जयितुरुपतिष्ठत इत्युपदिश्यते । सः श्रर्थस्योत्यायिता परस्मै अन्यस्मै अर्थाय प्रयोजनाय अन्यप्रयोजनकृते कृराणिगलकर्त्तनादीनि कम्मणि-अनुष्ठानानि बालः- अहः प्रकुर्वाणः विदधानः तेन कर्म्मविपाकापादि तेन दुःखेन सातोदयेन संमूढः- अपगतविवेकः विपर्यासमुपैति अपगत सद्सद्विवेकत्वात्कार्यमकार्य मन्यते य स्वयं वेति । उ प रागद्वेषामिभूत या कार्याकार्यपराङ्मुखः । एष मूढ इति यो, विपरीतविधायकः ॥ १॥" तदेवं मोज्यान्धतमसाच्छादितालोकपथाः सुखार्थिनो - समृति जन्त इति ज्ञात्वा सर्ववचनदीपम
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स्वरूपाणिर्माषकमाललम्बिरे मुनयः सदा मया न स्वमनीषियोच्यते सुधर्मस्वामी जम्बूपमिनमा यदि स्वमनीषिकया नोच्यते कौतस्त्यं तद्ददमित्यत श्राह - ' मुखिला' इत्यादि, मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनि:तीर्थसेन तद्- सच्चेत्रभवनादिकं प्रकर्षादी या सर्वस्वभाषानुगामिन्या चाचा वेदितं कथितं वदयमा व प्रवेदितम्, किं तदित्याह - 'अणोहं' इत्यादि, श्रोघो द्विधा, द्रव्यभावमेदात् पौधो नदीपूरादिको भावीघोऽष्टप्रकारं कर्म संसारी या तेन हि प्रात्यनन्तमपि कालमुह्यते तम्प्रदर्शनचारिषवोदित्यस्थाः तरन्तीत्योचतरान प्रोयन्तरा अनोपन्तराः, तरतेश्वान्दसत्वात् वखित्यामु मागमः, एते कुतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ज्ञानादियानविकलाः पचपि तेऽप्योपतरावोचतास्तथापि सम्यगुपायाभावात् न शोधतरणसमर्था भवन्तीति । श्राह च ' नो य चोरिएन चने झोपं भावीयं तरितुं समर्थाः संसारयतरणप्रायला न भवन्तीत्यर्थः, (आमा) ('अतीरंगमा 'इम्यादिकस्य व्याख्या अतीरंगम 'शब्दे प्रथम
"
अयं चोपदेशो ऽनयगततस्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवर्तमानस्य दीयते, यस्त्ववगतहेयोपादेयविशेषः स यथाऽसरं यथाविधेयं स्वत एव विधत्त इत्याहउद्देसोपासगस्स नऽत्थि, बाले पुरा निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खायमेव भव अणुपरिषद । ति बेमि । ( ० ८१ )
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उद्दिश्यते इत्युद्देशः- उपवेशः सदसत्कर्तव्यादेशः स पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य न विद्यते, स्वत एव विदितवेद्यत्वात्तस्य अथवा पश्यतीति पश्यक:सर्वज्ञस्तदुपदेशवर्त्ती वा तस्य उद्दिश्यत इत्युद्देशो - नारकादिव्यपदेशः उपभाषगोत्रादिव्यपदेशो वा स तस्य न विद्यते, तस्य प्रागेव मोक्षगमनादिति भावः । कः पुनयेथोपदेशकारी न भवति इत्याह-वाले इत्यादि बालो नाम रागादिमोहितः सः पुनः कषायैः कर्मभिः परीपोपसर्गयां निहन्यत इति निः निपूर्वाद्धन्तेः कम् ड अथवा स्निहात इति स्निहः स्नेहवान् रागीत्यर्थः, अत एवाह' कामसमर कामाः - इच्छामदनरूपा सम्यग्मनोज्ञा यस्य स तथा अथवा सह मनाशैर्वर्त्तत इति समगोत्रो गमकत्वात्सापेक्षस्यापि समासः कामैः सह मनोशः कामसमनोशः, यदि वा कामान् सम्यगनु-खरस्नेहानुबन्धानामति सेवत इति काममनोहः एवंभूतश्च किंभूतो भवतीत्याह असमियदुक्ले अशमितम्अनुपशमितं विषयाभिष्वङ्गकषायोत्थं दुःखं येन स तथा, यत एवाशमितदुःख अत एव दुःखी शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्याम्, तत्र शारीरं कटगडनादिसमुत्थम् मानसं प्रियविप्रयोगाप्रिय संप्रयोगेप्सितालाभद्रारिद्र्यदोभीदौर्मनस्यकृतं तद्विरूपमपि दुःखं विद्यते यस्यासौ
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लोगविजय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय दुःखी, एवंभूतश्च सन् किमयामोतीत्याह-'दुषवाण' इत्या- नादीनि विषयविषावष्टब्धान्तःकरणानां दुःखावस्थासंस
वानां शारीरमानसानामावन पौनःपुग्यभवलमनुप-| चकानि, अथवा-शोचत इति यौवनधनमदमोहामिभूतरिवर्तते दुःखावर्तावमग्नो बंभ्रम्यत इत्यर्थः । इतिः परिस
माया रत्यर्थः इति परिस- मानसो विरुद्धानि निषेव्य पुनवेयःपरिणामेन मृत्युकालोमाप्तौ वीमीति पूर्ववत् । प्राचा०१ श्रु० २ १०३ उ० ।
पस्थानेन वा मोहापगमे सति किं मया मन्दमाग्येग पूर्व(भोगसुखवक्रव्यता' भोगसुह' शब्द पञ्चमभागे १६०६
मशेषशिष्टाचीर्णः सुगतिगमनकहेतुगैतिहारपरिधो धम्मों पृष्ठे गता।) ( "जमिणं " इत्यादीनि सूत्राणि 'आरंभ'
नाचीर्णः ? इत्येवं शोचत इति । उक्तं च-" भवित्री भूतानां शब्दे द्वितीयभागे ३६५ पृष्ठे गतानि ।)
परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत् किशिविहितमयम
यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेपरिग्रहादात्मानमपसर्पयेदित्युक्तं, तच्च न निदानोच्छेदम
वैकं पुंसां व्यथयति जराजीवपुषाम् ॥ १ ॥" तथा स्तरेण, निदानं च शब्दादिपञ्चगुणानुगामिनः कामाः, तेषां
जूरतीत्यादीन्यपि स्वबुद्धया योजनीयानि । उलंचचोच्छेदोऽसुकरः. यत आह
" सगुणमपगुण वा कुर्वता कार्यजातं , परिणतिरवधार्या कामा दुरतिकमा, जीवियं दुप्पडिग्रहगं, कामकामी ख
यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकतानां , कर्मणामाविपत्तेलु अयं पुरिसे,से सोयइ जूरह तिप्पइ परितप्पद । (सू०६२)
भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः॥१॥” इत्यादि । कामा द्विविधाः-इच्छाकामा, मदनकामाश्च । तनेच्छाका
कः पुनरेवं न शोचत इत्याहमा मोहनीयभेदहास्यरत्युवाः , मदनकामा अपि मोह
| आययचक्खू लोगविपस्सी, लोगस्स अहो मागं जासह नीयभेदवेदोदयात् प्रादुःष्यन्ति, ततश्च द्विरूपाणामपि कामानां मोहनीय कारणम्, तत्सद्भावे च न कामोच्छेद
उड् भागं जाणइ तिरियं भागं जाणइ, गतिए लोए - इत्यतो दुःखेनातिक्रमः-अतिलङ्घनं विनाशो येषां ते णुपरियडमाणे संधि विइत्ता इह मचिएहि, एसबीरे तथा, ततश्चेदमुक्तं मवति-न तत्र प्रमादवता भाव्यम् । न पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए, जहा अंतो तहा बाहिं, जहा केवलमत्र जीवितेऽपि न प्रमादवता भाव्यमिति, माहब- बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूह देहंतराणि पासइ पुडो* जीवियं 'स्थादि, जीवितम्-आयुष्कं तत् क्षीणं सत् वि सवंताई पंडिए पडिलेहाए । (सू० ६३) 'दुष्पतिबृहणीयं' दुरभाषार्थे, नैव वृद्धि नीयते इति यावस, अथवा--जीवितं-संयमजीवितं तहमतिहणीयम् ,
प्रायतं-दीर्घमैहिकामुष्मिकापायदर्शि चक्षुः-बानं यस्थ
समायतचयुः , कः पुनरित्येवंभूतो भवति ? यः कामाकामानुषक्तजनान्तर्वर्तिमा दुःखेन वृद्धि नीयते दुःखेन नि
नेकान्तेनानर्थभूयिष्ठान् परित्यज्य शमसुखमनुभवति , कि प्रत्यूहः संयमः प्रतिपास्यते इति, उकंच-" भागासे गंग
च-लोगविपस्सी' लोकं-विषयानुषकावेशातदुःखातिसोउ ब्व, पडिसोउ व्व दुसरो। बाहाहिं चेव गंभीरो,तरित्र
शयं तथा त्यकामावाप्तप्रशमसुखं विविधं द्रई शीलमम्वो महोत्रही ॥१॥ बालुगाकपलो चेव, निरासाए हु संजमो।
स्येति लोकविदर्शी, अथवा-लोकस्य ऊधिस्तिर्यग्माजषा लोहमया चव, वायव्वा सुदुकरं ॥२॥" स्थादि,
गगतिकारणायुकसुखदुःखविशेषान् पश्यतीति , एतदर्शयेन चाभिप्रायेण कामा दुरतिकमा इति प्रागभ्यधायि तम
यति-लोगस्स' इत्यादि , लोकस्य-धर्माधर्मास्तिकाभिप्रायमाविष्कुर्ववाह-' कामकामी ' इत्यादि कामान्
यावच्छिन्नाकाशखण्डस्याधोभागं जानातीति, स्वरूपतोऽवकामयितुम्--अभिलषितुम् शीलमस्येति कामकामी 'ख
गच्छति, इदमुक्तं भवति-येन कर्मणा तत्रोत्पचन्तेऽसुमखः' वाक्यालङ्कारे 'अयम्' इत्यध्यक्षः पुरुषः-जन्तुः, य
न्तः यारक तत्र सुखदुःखविपाको भवति तं जानाति , एस्त्वेवंविधोऽविरतचेताः कामकामी स नानाविधान् शारी
बम तिर्यग्भागयोरपि वाच्यम् , यदि वा-लोकविवीरमानसान दुःसविशेषाननुभवतीति दर्शयति- से सो.
ति-कामार्थमर्थोपार्जनप्रसक्तं गृडमध्युपपत्र लोकं पश्यथई' त्यादि, स इति-कामकामी ईप्सितस्यार्थस्याप्राप्ती
तीति । एतदेव दर्शयितुमाह-'गहिए' इत्यादि, अयं हि तद्वियोगे च स्मृत्यनुषाः शोकस्तमनुभवति, अथवा
लोको गृद्धा-अध्युपपत्रः कामानुषते तदुपाये था तबशोचत इति काममहाज्वरगृहीतः सन् प्रलपतीति, उक्तं च- बानुपरिवर्तमानो भूयो भूयस्तदेवाचरंस्तजनितेन वाक" गते प्रेमाबन्धे प्रणयबहमाने व गलिते, निवृत्ते सद्भावे
मणा संसारचक्रेऽनुपरिवर्तमानः--पर्यटनायतचचुषो गोजन इव जने गच्छति पुरः । तमुत्प्रेच्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि!
चरीभवन् कामाभिलाषनिवर्सनाय न प्रभवति ?, यदि गतांस्तांश्च दिवसान्, म जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्त्र वा-कामगृद्धान् संसारेऽनुपरिवर्तमानानसुमतः पश्येत्येहृदयम् ? ॥१॥" इत्यादि शोचते, तथा 'जूरए' तिहद- वमुपदेशः, अपि च-'संधिम्' इत्यादि , इह मत्येषु-मनुयेन खिद्यते, तद्यथा-"प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासी-| जेषु यो सानादिको भावसन्धिः, स च मर्येष्वेव सम्पूद्वहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हतहदय ! मिराश! गणों भवतीति मर्त्यग्रहणम् । अतस्तं विदित्वा यो विषयकीब ! संतप्यसे कि?, न हि जडगततोये सेतुबन्धाः क्रिय- कषायादीन् परित्यजति स एव धीर इति दर्शयति-'ए न्ते ॥१॥” इत्येवमादि, तथा 'तिप्पई' ति तिपृ ते प्रक्षर- स' इत्यादि, एषः--अनन्तरोक्तः प्रायतचक्षुर्यथावस्थितणार्थो, तेपते--क्षरति सचलति मर्यादातो भ्रश्यति निर्म- लोकविभागस्वभावदर्शी भावसन्धेर्वेसा परित्यक्तविषयतर्षों र्यादो भवतीति यावत् , तथा शारीरमानसैर्दुःखैः पीज्यते- वीरः कर्मविदारणात् प्रशंसितः--स्तुतः विदिततत्त्वैतथा परिः समन्ताहिरन्तश्च तप्यते--परितप्यते, पश्चा- रिति । स एवंभूतः किमपरं करोतीति चेदित्याह-'जे ताप वा करोति, यथेष्टे पुत्रकलत्रादौ कोपात् क्वचिद्गते स| बद्धे' इत्यादि यो बद्धान् द्रव्यभावबन्धनेन स्वतो विमुमया नानुवर्तित इति परितप्यते, सर्वाणि चैतानि शोच-| क्लोऽपरानपि मोचयतीत्येतदेव द्रव्यभाषबन्धनविमोक्षं वा
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(७३४) लोगविजय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय चोयुक्त्याऽऽचष्टे-'जहा अंतो नहा बाहिं' इत्यादि, य- इदमहमकार्षमिदं च करिष्ये इत्येवं भोगाभिलापक्रियाब्याथाऽन्तर्भावबन्धनमष्टप्रकारकर्मनिगडनं मोचयति एवं पु- पृतान्तःकरणो न स्वास्थ्यमनुभवति, खलुशब्दोऽवधारणे, अकलबादि वाद्यमपि, यथा वा बाछ बन्धुबन्धनं मोच- वर्तमानकालस्यातिसूक्ष्मत्वादसंव्यवहारित्वमतीतानागतयोयति एवं मोक्षगमनविघ्नकारणमान्तरमपीति , यदि वा- श्वेदमहमकार्षमिदं च करिष्य इत्येवमातुरस्य नास्त्येव कयमसी मोचयतीति चेत्तत्वाविर्भावनेन , स्यादेतत्-त- स्वास्थ्यमिति । उक्तं च-" इदं तावत् करोम्यद्य, श्वः कर्तादेव किंभूतमित्याह-'जहा अंतो' इत्यादि। यथा-स्व- ऽस्मीति चापरम् । चिन्तयनिह कार्याणि, प्रेत्यार्थ नावबुकायस्यान्तः-मध्ये अमेध्यकललपिशितासृकपूत्यादिपूर्ण- ध्यते ॥१॥" अत्र दधिघटिकाद्रमकदृष्टान्तो वाच्यः, स स्वेनासारत्वमित्येवं बहिरत्यसारता द्रष्टव्या, अमेध्यपूर्ण- चायम्-द्रमकः कश्चित् कचिन्महिषीरक्षणावाप्तदुग्धः तदधीघटवदिति । उक्तं च-"यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्त- कृत्य चिन्तयामास, ममातो घृतवेतनादि यावद्भार्या इहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयम् , शुनः काकांश्च वार- अपत्योत्पत्तिस्ततश्चिन्ता, कलहे पाणिप्रहारेणेव दधिधयेत् ॥१॥” इति, यथा वा बहिरसारता तथाऽन्तरे- टिकाब्यापत्तिरित्येवं चिन्तामनोरथव्याकुलीकृतान्त करण ऽपीति । किंच-'अंतो अंतो' इत्यादि, देहस्य मध्ये मध्ये इति, तद्दद्ध्यानयने शिरोविएटलिकाचीवरे अदीयमाने इव प्रत्यन्तराणि-पूतिविशेषान देहान्तराणि-देहस्यावस्था- शिरो विधूयास्फोटिता दघिघटिकेत्येवं यथा तेन न तद्दधि विशेषान् इह मांसमिह रुधिरमिह मेदो मज्जा चेत्येवमा- भक्षितं नापि कस्मैचित्पुण्याय दत्तम् , एवमन्योऽपि कासदिपातदेहान्तराणि पश्यति-यथावस्थितानि परिच्छिनत्ति कसः-किंकर्तव्यतामूढो निष्फलारम्भो भवतीति । अथवा-कइत्युक्तं भवति । यदि वा-देहान्तराण्येवंभूतानि पश्यति-पु. स्यतेऽस्मिन्निति कासः-संसारस्तं कषतीति-तदभिमुखोयादो' इत्यादि, पृथगपि-प्रत्येकमपि अपिशब्दाद-कुष्ठाच
तीति कासंकषः, यो मानादिप्रमादवान् , वदयमाणो वेल्याहवस्थायां योगपद्येनापि सन्ति नवभिः श्रोतोभिः-कर्णा
'बहुमायी' कासंकषो हि कषायैर्भवति, तन्मध्यभूताया माशिमलश्लेष्मलालाप्रश्रवणोच्चारादीन् तथा-अपरव्याधि
याया ग्रहणे तेषामपि ग्रहणं द्रष्टव्यमिति, ततः क्रोधी मानी विशेषापादितवणमुखपृतिशोणितरसिकादीनि चेति । यद्ये
मायी लोभीति द्रष्टव्यमिति । अपि च- कडेण मूर्ट' कतानि ततः किम् ?-पंडिए पडिलेहाए ' एतान्येवंभूता
रणं कृते तेन मूढः- किं कर्तव्यताकुलः सुखार्थी दुःखनिगलच्छोतोवणरोमकृपानि पण्डितः-अवगततत्त्वः प्रत्यु
मश्नुते इति । उक्नं हि-"सोउं सोवणकाले, मज्जएकाले य पेक्षत-यथावस्थितमस्य स्वरूपमवगच्छेदिति । उक्तं च
मजि लोलो । जेमेडं च पराभो, जेमणकाले ण चाए"मंसट्ठिरुहिरणहारुव-णचकलमलयमेयमज्जासु । पुष्पम्मि
॥१॥" अत्र मम्मणवणिग्दृष्टान्तो वाच्यः, स चैवम्खम्मकोसे, दुग्गंधे असुइबीभच्छे ॥१॥ संचारिमजंतगलं
कासंकषः बहुमायी कृतेन मृदस्तत्तत्करोति येनात्मतवञ्चमुतंतसेअपुस्खम्मि । देहे हुज्जा किंरा-गकारणं अ
नो वैरानुगतो जायत इति । आह च- पुणे तं करेसुइहेउम्मि ? ॥२॥" इत्यादि।
इत्यादि, मायावी परवचनबुद्धया पुनरपि तल्लोभानुष्ठानं तदेवं पूतिदेहान्तराणि पश्यन् पृथगपिन
तथा करोति येनात्मनो वैरं वर्द्धते । अथवा-तं लोमे बन्तीत्येवं प्रत्युपेक्ष्य किं कुर्यादित्याह
करोतीति-अर्जयति येन जन्मशतेष्वपि वैरं वर्द्धत इति ।
उक्नं च-“दुःखातः सेवते कामान् , सेवितास्ते च दु:से मइमं परिन्नाय मा य हुलालं पच्चासी, मा तेसु तिरि
खदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसस्तेषु न क्षमः॥१॥" च्छमप्पाणमावायए, कासं कासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई किं पुनः कारणमसुमाँस्तत्करोति येनात्मनो वैर कडेण मूढे,पुणोतं करेइ लोहं वेरं वड्डे अप्पणो। (सू०६४)
बर्द्धते? , इत्याहस-पूर्वोक्तो यतिर्मतिमान्-श्रुतसंस्कृतबुद्धिर्यथावस्थित
जमिणं परिकहिजइ इमस्स चेव पडिवृहणयाए, प्रहेहस्वरूपं कामस्वरूपं च द्विविधयाऽपि परिक्षया परिक्षाय | मराय महासडी अट्टमयं तु पहाए अपरिपाए कंदह । किं कुर्यादित्याह-' मा य हु' इत्यादि, मा-प्रतिषेधे चःस- (सू०६४x) मुच्चये, हुर्वाक्यालङ्कारे , ललतीति लाला-अष्ट्यन्मुख- 'जमिण ' मित्यादि , यदिति यस्मादस्यैव घिशरारोः श्लेष्मसन्ततिः तां प्रत्याशितुं शीलभस्यति प्रत्याशी, वाक्या- शरीरकस्य परिबृंहणार्थ प्राणघातादिकाः क्रियाः करो र्थस्तु यथा हि बालो निर्गतामपि लालां सदसद्विवेका- तीति:ते व तेनोपहताः प्राणिनः पुनः शतशो नन्ति , तभावात् पुनरप्यमातीत्येवं त्वमपि मालावत्यक्त्वा मा भो- तो मयेद कथ्यते कासंकषः खल्वयं पुरुषो बहुमायी गान् प्रत्यशान , वान्तस्य पुनरप्यभिलाषं मा कुर्वित्यर्थः।।
कृतेन मूढः पुनस्तत्करोति येनात्मनो वैरं वर्धयतीति. किं च-'मा तेसु तिरिच्छं' इत्यादि संसारश्रोतांसि अक्षा- यदि घा-यदिवं मयोपदेशप्रायं पौनःपुन्येन कथ्यते माविरतिमिध्यादर्शनादीनि प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वा तदस्यैव संयमस्य परिबृंहणार्थम् , इदं चापरं कथ्यतेअतिक्रमणीयानि, निर्वाणश्रोतांसि तुझानादीनि तत्रानु
'अमराय' इत्यादि, अमरायते-अनमरः सन् द्रव्ययोकल्य विधेयम् , मा तेष्वात्मानं तिरश्चीनमापादयेः, शानादि
वनप्रभुत्वरूपावसक्तोऽमर इवाचरति श्रमरायते , कोकायै प्रतिकूलतां मा विदध्याः, तत्राप्रमादवता भाव्यम् , सी-महाश्रद्धी-महती चासौ श्रद्धा च महाश्रद्धा सा प्रमादवांश्चेहेव शान्ति न लभते, यत आह-'कासंकासे'। विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स तथा अत्रोदाइत्यादि, यो हि शानादिश्रोतसि तिरश्चीनवर्ती भोगाभि-| हरणम् । (मगधसेना गणिका तत्सम् ' मगहसेणा लापवान् स एवंभूतोऽयं पुरुषः सर्वदा किं कर्तव्यताकुल शम्देऽस्मिन्नेव भामे ३७ पृष्ठे गतम् ।) यश्चामरायमाणः
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(७३५) लोगविजय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय कामभोगाभिलाषुकः स किंभूतो भवतीत्याह- 'अट्ट' इ- मत्वं न कर्तव्यमित्युद्देशार्थाधिकारोऽभिहितः ,'सोऽधुना त्यादि, आत्तिः-शारीरमानसीपीडा तत्र भव आर्तस्त- प्रतिपाद्यते, अस्य चामन्तरसूत्रसंबन्धो वाच्यो मैवमनगामार्तममरायमाणं कामार्थ महाश्रद्धावन्तं प्रेक्ष्य-रष्ट्वा रस्य जायते इत्यमिहितम् , पतदेवानापि प्रतिपिपादयिपर्यालोच्य वा कामार्थयोर्न मनो विधेयमिति , पुनर
पुराहमरायमाणभोगश्रद्धावतः स्वरूपमुच्यते- अपरिभाए' से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकइत्यादि , कामस्वरूपं तद्विपाकं वा अपरिहाय तत्र
म्म नेव कुजा न कारवेला । (सू० ६६) दत्तावधानः कामस्वरूपापरिक्षया वा क्रन्दते भोगेष्वप्राप्तनऐषु कालाशोकावनुभवतीति । उक्तं च-"चिन्ता
यस्यानगारस्यैतत्पूर्वोक्तं न जायते सोऽनगारस्तत् प्रागते भवति साध्वसमन्तिकस्थे , मुक्त तु तृप्तिरधि
एयुपपातकारि चिकित्सोपदेशदानमनुष्ठानं वा संबुद्धधमानःका रमितेऽप्यतृप्तिः । द्वेषोऽन्यभाजि वशवर्तिनि दग्ध- अवगच्छन्-परिणया प्रत्याख्यानपरिक्षया च परिहरनादातमानः, प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथंचिदस्ति ॥१॥" व्यम्-आदानीयम्। तच परमार्थतो भावादानीय बानदर्शइत्यादि।
नचारित्ररूपं तद् 'उत्थाये' त्यनेकार्थत्वादादाय-गृहीत्वा ,
अथवा-सोऽनगार इत्येतदादानीयम्-मानाचपवनचकारतदेषमनेकधा कामविपाकमुपदर्य उपसंहरति
गमित्येवं सम्यगवबुद्धयमानः सम्यक संयमानुष्ठानेनोत्थासे तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे
य सर्व सावचं कर्म न मया कर्तव्यमित्येवं प्रतिक्षामसे हंता छित्ता भित्ता लुंपित्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता न्दिरमाका, क्त्वाप्रत्ययस्य पूर्वकालाभिधायित्वात् किं कुअकडं करिस्सामि त्ति मएणमाने, जस्स वि य णं करेइ र्यादित्याह-'तम्हा' इत्यादि यस्मात् संयमः-सर्वसावधामलं बालस्स संगणं, जे वा से कारइ पाले, ण एवं
रम्भनिवृत्तिकपः तस्मातमादाय पापं पापहेतुत्वात् , कर्म
क्रियां न कुर्यात् स्वतो मनसाऽपि न समनुजानीयादित्यवअणगारस्स जायति त्ति बेमि । (सू०६५)
धारणफलम्, अपरेणाऽपिन कारयेदिति । प्राह च-'नकार. 'से' ति तदर्थे तदपि हेत्वर्थे , यस्मात्कामा दुःखै
वे' इत्यादि, अपरेणापि कर्मकरादिना पापसमारम्भं न कारकहेतवः तस्मात्तज्जानीत यदहं ब्रवीमि , मदुपदेशं कामप
येदियुक्तं भवति, प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरित्यागविषयं कर्णे कुरुतेति भावार्थः, । ननु च काम
रिग्रहकोधमानमायालोभरागद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशूम्यपरनिग्रहोऽत्र चिकीर्षितः स चान्योपदेशादपि सिद्धयत्येवैतदा
परिवादारतिरतिमायामृषावादमिथ्यादर्शनशल्यरूपमादशङ्कयाह-तेइच्छं' इत्यादि, कामचिकित्सां पण्डितः प
शप्रकारं पापं कर्म खतो न कुर्यात्राप्यपरेण कारयेद ण्डिताभिमानी प्रवदन्नपरव्याधिचिकित्सामिवोपदिशन्
एवकाराच अपरं कुर्वन्तं न समनुजानीयाद्योगत्रिकेशापीति
भावार्थः । अपरस्तीथिको जीवोपमई वर्तत इत्याह-से हंता' इत्यादि, 'स' इत्यविदिततत्त्वः कामचिकित्सोपदेशकः प्राणिनां हन्ताद।
स्यादेतत्-किमेकं प्राणातिपातादिकं पापं कुर्वतोऽपरमएडादिभिश्छेत्ता कर्यादीनां, भेत्ता सूलादिभिर्लुम्पयिता प्र
पि दौकते आहोस्विनेत्याहथिच्छेदनादिना, विलुम्पयिता अवस्कन्दादिना, अपद्रावयि सिया तत्थ एगयरं विपरामुसइ छसु अभयरम्मि, कप्पा ता प्राणव्यपरोपणादिना, नान्यथा कामचिकित्सा व्याधि- सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मृढे विपरियासारचिकित्सा वा अपरमार्थदशां संपद्यते । किं च-अकृतं
वेद, सरण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसि मे पाखा यदपरेण न कृतं कामचिकित्सनं व्याधिचिकित्सनं वा तदहं करिष्य इत्येवं मन्यमानः हननादिकाः क्रियाः करो
पव्वहिया, पडिलेहाए नो तिकरणयाए, एस परिक्षा ति, ताभिश्च कर्मबन्धः, अतो य एवंभूतमुपदिशति य
पवुच्चइ, कम्मोवसंति । (२०६७) स्याप्युपदिश्यते उभयोरप्येतयोरपथ्यत्वादकार्यमिति । आह स्यात्तत्र-कदाचित्तत्र पापारम्भे एकतरं पृथिवीकायाच-'जस्स वि यण' इत्यादि, यस्याप्यसावेवंभूतां चि- दिसमारम्भ विपरामृशति-पृथिवीकायादिसमारम्भं करोति, कित्सां करोति न केवलं स्वस्येत्यपिशब्दार्थस्तयोर्द्वयोरपि एकतरं वाऽऽश्रवद्वारं परामृशति-श्रारभते स पदनकर्तुः कारयितुश्च हननादिकाः क्रियाः, अतोऽलम्-पर्याप्तं | न्यतरस्मिन् कल्प्यते, यस्मिन्नेवालोच्यते तस्मिन्नेव प्रवृत्तो पालस्य-अस्य सङ्गेन कर्मबन्धहेतुना कर्तुरिति, योऽप्ये- द्रष्टव्यः, इदमुक्तं भवति-पृथिवीकायादिषु षट्सु जीवतत्कारयति बालः-प्रशस्तस्याप्यलमिति संटङ्कः । एतच्चैवं- निकायवाश्रवद्वारेषु वा मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि प्रवर्तमानो भूतमुपदेशदानं विधानं वा अवगततत्त्वस्य न भवती-| यस्मिन्नेव पर्यालोच्यते तस्मिन्नेव कल्प्यते, सर्वस्मिनेव त्याह-'ण एवं' इत्यादि, एवंभूतं प्राण्युपमहेन चिकि- वर्तत इति भावार्थः । कथमन्यतरस्मिन् पृथिवीकायादिससोपदेशदानं करणं वा अनगारस्य-साधोः शातसंसा मारम्भे वर्तमानोऽपरकायसमारम्भे सर्वपापसमारम्भे या रस्वभावस्य न जायते-न कल्पते, ये तु कामचिकित्सां । वर्तते इत्येवं मन्यते !, कुम्भकारशालोदकप्लावनदृष्यन्तेनैकव्याधिचिकित्सां वा जीवोपमर्दैन प्रतिपादन्ति ते बालाः- कायसमारम्भकोऽपरकायसमारम्भको भवति । अथवाअविज्ञाततत्वाः तेषां वचनमवधीरणीयमेवेति भावार्थः। इतिः | प्राणातिपातानवद्वारविघटनादेकजीयातिपातादेककायातिपरिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमि पूर्ववदिति । उक्तः पञ्चमोद्देशकः। | पाताद्वा अपरजीवातिपाती द्रष्टव्यः, प्रतिक्षालोपाचानृतः । संयमदेहयात्रार्थ लोकमनुसरता साधुना लोके म- | न च तेन व्यापाद्यमानेनासुमताऽऽत्मा व्यापादकाय दत्त
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( ७३६ ) लोगविजय अभिधानराजेन्द्रः।
लोगविजय स्तीर्थकरेण चानुझातोऽतः प्राणिनः प्राणान् गृहन्न दत्तग्राही, नानाप्रकारैर्व्यसनोपनिपातैः पीडिताः, सुखार्थिभिरारम्भसावयोपादानाच्च पारिवाहिकः, परिग्रहाच्च मैथुनरात्रि- प्रवृत्तमोहाद्विपर्यस्तैः प्रमादवद्भिथ ग्रहस्थैः पापण्डिकैभोजने अपि गृहीते, यतो नापरिगृहीतमुपभुज्यते परिभुज्य- यत्याभासैवेति वा । यदि नाम अत्र प्रव्यथिताः प्राणिते चेत्यतोऽन्यतरारम्भे षण्णामप्यारम्भः । अथवा--ना-1 नस्ततः किमित्याह--' पडि ' इत्यादि एतत संसारचपृतचतुराश्रवद्वारस्य कथं चतुर्थषष्ठव्रतावस्थानं स्याद् , वाले स्वकृतकर्मफलेश्वराणामसुमतां गृहस्थादिभिः अतः षट्स्वन्यतरस्मिन् प्रवृत्तः सर्वेष्वपि प्रवृत्त इति, अथ परस्परतो वा कर्मविपाकतो वा प्रव्यथनं प्रत्युपेक्ष्य वैकतरमपि पापसमारम्भं य प्रारभते स पदस्वन्यतर- विदितवेद्यः साधुनिश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियस्मिन् कल्पते-योग्यो भवति , अकर्तव्यप्रवृत्तत्वाद् ,
न्ते नानादुःखावस्था जन्तवो येन तनिकरणं निकारः-शाअथ वा-एकतरमपि यः पापारम्भं करोत्यसावष्टप्रकारं क
रीरमानसदुःखोत्पादनं तस्मै नो कर्म कुर्याद , येन प्रादिय पद्स्वन्यतरस्मिन् कल्पते-प्रभवति , पौनःपु
णिनां पीडोत्पद्यते तमारम्भं न विदध्यादिति भावार्थः । न्येनोत्पचत इत्यर्थः , स्यात्-किमर्थमेवंविधं पापकं क
एवं च सति किं भवतीत्याह-' एस ' इत्यादि, येयं र्म समारभते ! , तदुच्यते-- सुहट्टी लालप्पमाणे' सु.
सावधयोगनिवृत्तिरेषा परिक्षा-पतत्तत्वतः परिवानं प्र. खेनार्थः सुखार्थः स विद्यते यस्यासाविति मत्वर्थी
कर्षणोच्यते प्रोच्यते, न पुनः शैलूपस्येवसानं निवृत्तियः , स एवम्भूतः सचत्यर्थ लपति पुनः पुनर्वा लपति
फलरहितमिति । एवं द्विविधयाऽपि परिशया प्रत्यालालप्यते वाचा कायेन धावनवल्गनादिकाः क्रियाः करोति
स्यानपरिक्षया च प्राणिनिकारपरिहारे सति किं भवमनसा च तत्साधनोपायांचिन्तयति । तथाहि-सुखार्थी
तीत्याह- कम्मोवसंति ' ति कर्मणाम्-अशेषद्वन्द्वसन् कृण्यादिकर्मभिः पृथिवीं समारभते, स्नानार्थमुदकं,
वातात्मकसंसारतरुवीजभूतानामुपशान्तिः-उपशमः कर्मवितापनार्थमग्नि,धर्मापनोदाथै वायुम्,माहारार्थी बनस्पति,
क्षयः प्राणिनिकारक्रियानिवृत्तेर्भवतीत्युक्तं भवति । प्रसकायं वा इति असंयतः संयतो वा रससुखार्थी सचित्तं
अस्य च कर्मक्षयप्रत्यूहस्य प्राणिनिकरणस्य लवणवनस्पतिफलादि ग्रहात्येवमन्यदपि यथासंभवमायो
मूलमारमात्मीयग्रहः, तदपनोदार्थमाहज्यम् । स चैवं लालप्यमानः किंभूतो भवतीत्याह- सपण' इत्यादि, यत्तदुप्तमन्यजन्मनि दुःखतरुकर्मबीजं तदात्मीयं
जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दुःखतहकार्यमाविर्भावयति , तच्च तेनैव कृतमित्यात्मीय
दिदुपहे मुणी जस्स नऽथि ममाइयं, तं परिमाय मुच्यते, अतस्तेन खकीयेन दुःखेन-स्वकतकम्मोदयज- मेहावी वाइत्ता लोगं वंता लोगस से महमं मितेन मूढा-परमार्थमजानानो विपर्यासमुपैति--सुखा
परिकमिज्जासि ति बेमि ॥ " नारदं सहई वीरे, यी प्राण्युपधातकारलमारम्भमारभते, सुखस्य च विपर्यासो दुःखं तदुपैति । उहं च--" दुःखविद सुखलिप्सु
वीरे न सहई रतिं । जम्हा भविमणे वीरे, तम्हा वीरे न मोहान्धवादरष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां , तया तया रज्जइ॥१॥” (सू०६८) दुःखमावते॥६॥" यदि वा-मूढो-हिताहितप्राप्तिप- ममायितं-माम तत्र मतिर्ममायितमतिस्तां यः परिग्रहरिहाररहितो विपर्यासमुपैति-हितमप्यहितबुद्धयाऽधितिष्ठ- विपाको जहाति--परित्यजति स ममायित-स्वीकृतं त्यहितं च हितबुद्धयेति , एवं कार्याकार्यपथ्यापथ्यवा- परिग्रहं जहाति--परित्यजति । इह द्विविधः परिग्रहोच्यावाच्यादिष्वपि विपर्यासो योज्यः । इदमुक्नं भवति- द्रव्यतो.भावतश्च । तत्र परिग्रहमतिनिषेधादान्तरो भावपरिमोहोऽशानं मोहनीयभेदो वा, तेनोभयप्रकारेणापि मोहेन प्रहो निषिद्धः, परिप्रहबुद्धिविषयप्रतिषेधारच यायो द्रव्यपमूढोऽल्पसुखकते तत्तदारभते येन शारीरमानसदुःखव्य- रिग्रह इति । अथवा-काका नीयते,यो हि परिग्रहाभ्यषसाय. सनोपनिपातानामनन्तमपि कालं पात्रता व्रजतीति। पुनर- कलुषितं शानं परित्यजति स एव परमार्थतः सबाह्याभ्यन्तरं पि मूढस्यानर्थपरम्परा दर्शयितुमाह-सएण' इत्यादि- परिग्रहं परित्यजति,ततश्चेदमुक्तं भवति-सत्यपि सम्बन्धमाने स्वकथनात्मना कृतेन प्रमादेन मद्यादिना विविधमिति मद्य- चित्तस्य परिग्रहकालुण्याभावानगरादिसम्बन्धः पृथ्वीसविषयकषायधिकथानिद्राणां खमेदग्रहणम् ,तेन पृथग्-विभि- म्बम्धेऽपि जिनकल्पिकस्येव निष्परिग्रहव। यदि मामेवं ततः
व्रतं करोति । यदि वा-पृथु विस्तीर्णम् 'वय' मिति-च- किमित्याह-' से हु ' इत्यादि, यो हि मोक्षकविघ्नहेतोः यन्ति-पर्यटन्ति प्राणिनः स्वकीयेन कर्मणा यस्मिन् स संसारभ्रमणकारणात् परिग्रहानिवृत्ताध्यवसायः, हु:-अबधयः-संसारस्तं प्रकरोति, एकैकस्मिन् काये दीर्घका- धारणे, स एव मुनिःः रष्टो सानादिको मोक्षपया येन स लावस्थामाद् । यदि वा-कारणे कार्योपचारात् स्वकीये- रपथः, यदिवा-दएभयः भवगतसप्तप्रकारभयः शरीरादेः नभानाविधप्रमादकृतेन कर्मणा बयः--अवस्थाविशेषस्त-| परिग्रहात्साक्षात्पारम्पर्येण का पर्यालोच्यमानं सप्तप्रकारमपि मेकेन्द्रियादिकललावुदादितदहर्जातबालादिव्याधिगृहीत- | भयमापनीपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यागे हातभयत्वमवसीदारिदयदौर्भाग्यव्यसनोपनिपातादिरूपं प्रकर्षेण करोति-विर यत इति । एतदेव पूर्वोक्तं स्पष्टयितुमाह- जस्स' इत्यादि धत्त इति । तस्मिश्च संसारेऽवस्थाविशेष वा प्राणिना यस्य ममायितं--स्वीकृतं परिग्रहो न विद्यते स दृष्टभयो पीज्यन्ते इति दर्शयितुमाह- सि मे' इत्यादि, ब- मुनिरिति संबन्धः । किंच-'तं' इत्यादि, तम्--पूर्वव्यावस्मिन् स्वकृतप्रमावापादिवकर्मविपाकजनिते चतुर्गति
हितस्वरूपं परिग्रहं द्विविधयाऽपि परिझया परिझाय मेधाकसंसारे एकेन्द्रियाद्यवस्थाविशेषे वा हमे--प्रत्यक्षगोच-1 वी-सातशेयो विदित्वा लोकम्-परिप्राग्रहयोगविपाकि भूताः ' प्राणा' इत्यभेदोपचारात्प्राणिनः प्रव्यथिताः-- नमेकेन्द्रियादिप्राणिगणं वान्त्वा-वीर्य लोकस्य-पाणिग
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लोगविजय
6
"
णस्य संज्ञा दशप्रकारा श्रतस्ताम् 'स इति- मुनिः, किंभूतो मतिमान् सहसद्विवेकशः पराक्रमेथाः संपमानुछाने समुद्यन् संघनानुष्ठानोयोगं सम्यग्विदन्या इति यावद् अथवा अप्रकारं कर्माविया विषपायान या पराक्रमस्वेति । इतिरधिकारसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । स एवं संयमनुने पराक्रममावस्त्यपरिग्रहाग्रहयोगो मुनिः किंभूतो भवतीत्याह तस्य हि त्यक्तगृहगृहिणीधनहिरण्यादिपरिगृहस्य निष्किञ्चनस्य संयमानुष्ठानं कुर्वतः साधोः कदाचिन्मोहनीयोदयादतिराचिः स्यात् तामुत्पन्नां संयमविषयां न सहते न जमते को उसी विशेषलेरयतिप्रेरयति अष्टप्रकारं कम्मर देति वीरः- शक्तिमान स
,
3
पौरोऽयमे विषयेषु परिप्रढे या या रतिरुत्पद्यते ताम् म सहते न मर्षति या चारतिः संयमे, विषयेषु च रतिस्ता भ्यां विमनीभूतः शब्दादिषु न रज्यति, अतो रत्यरतिपरित्यागान्न विमनस्को भवति नापि रागमुपयातीति दर्शयतियस्माश्यरत्यरतिरधिमा पीरस्तस्मात् कारणाद्वये न रज्यतिशयादिविषयग्रामे न गाद विदधाति । यत एवं ततः किमित्याहसद्दे फासे अहियासमाणे, निव्विद नंदिं इह जीवियस्स । मुणी मोणं समायाय, पुणे कम्मसरीरगं || २ || पतं लूहं सेवंतिवीरा, संमत्तदंसियो एस।
हंतरे मुणी तिने मुते विरए वियाहिए ति बेमि ॥ ( सू० ६६ )
4
"
यस्माद्वरो त्यती निराकृत्य शब्दादिषु विषयेषु मनोशेषु न गगमुपयाति नापि द्विष्टेषु द्वेषम्, तस्माच्छब्दान् स्पर्शांश्च मनोरमेरभिधान् 'अहियासमा 'सि सम्यक सहमानो निन्दि नन्दीत्युत्तरसूत्रे सम्बन्ध त भवति-मनोशान् शब्दान् श्रुत्वा न रागमुपयाति नापीतरान् द्वेष्टि श्राद्यन्तग्रहणाच्चेतरेषामप्युपादानं द्रष्टव्यम्, तत्रायतिसहनं विधेयमिति । उक्तञ्च - " संदेषु श्रभद्द
पा-वसु सायविसयमुवगएसु । तुद्वेण व रुट्ठे व समणेण सया न होव्वं ॥ १ ॥ एवं रूवेसु भइयपा-व
सु० । तहा गंधेसु अ० ॥ " इत्यादि वाच्यम्, ततश्च शब्दादीन्विषयानतिसहमानः किं कुर्यादित्याह - निव्विद इत्यादि, इहोपदेशगोचरापन्नो विनेयोऽभिधीयते सामाम्येन वा मुमुक्षोरयमुपदेशः, निर्विन्दस्व - जुगुप्सस्व पेश्व
3
मात्मिका मनस्तुष्टिर्नन्दिस्ताम् इदमनुष्यलोके यज्जीवितमसंयमजीवित या तस्य या नन्दि:तुष्टि प्र मोदो यथा ममेतत्समुदयादिकमभूद्धपति भविष्यति - त्येवंविकल्पजनितां नदीं जुगुप्सस्व-यथा किमनया पापोपादानहेतुभूतयाऽस्थिरयेति ?, उक्तं च- "विभव इति किं ?, । मदस्ते ब्युतविभवः किं विवादमुपयासि ? करनहि तकन्दुकसमाः, पातोत्पाता मनुष्याणाम् ॥ १ ॥ " एवं रूपलादिष्यपि वाच्यम् सनत्कुमारदृष्टान्तेनेति, अथवा पञ्चानामप्यतीचाराणामतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृतीस्नागतं प्रत्याचष्ट स्थादेतत् किमाम्य करोतीत्याह'मणी' त्यादि, सुनिस्त्रिकालवेदी यतिरित्यर्थः, मुनेरयं मीन:- संयमः यदि वा मुनेमा मुनित्यं तदत्यसावेष,
९८५
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( ७३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
,
लोगविजय
"
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मौनं वा वाचः संयमनम् अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् कायमनसोरपि अतः सर्वथा संयममादाय किं कुर्यात् - धुनीयात् कम्मैशरीरकम् श्रदारिकादिशरीरं वा अ वा - ' धुनीहि ' विवेचय पृथक्कुरु-तदुपरि ममत्वं मा वि. धत्स्वेति भावार्थः । कथं तच्छरीरकं धूयते ममत्वं वा तदुपरि न कृतं भवतीत्याइ प्रान्तं स्वाभाविकरसरहितं स्वल्पं वा रुक्षम् आगन्तुकस्नेहादिरहितं इष्यतो भावतो ऽपि प्रान्तम्-द्वेषरहितं विगतधूमं रुक्षम् - रागरहितमपगताङ्गारं सेवन्ते भुञ्जते, के ? वीराः साधवः । किंभूताः ? समत्यदर्शिनः रागद्वेषरहिताः सम्यक्त्वदर्शिनो वा सम्पक तस्वं सम्यक्त्वं तदर्शिनः परमार्थरशः तथाहि-शेरकं कृतघ्ने निरुपकारि एतत्कृते प्राणिनः पेडिकामु मिक्लेशभाजो भवन्ति, अनेकादेशे चैकादेश इति कृत्वा प्रान्तकथेची समत्यदर्शी च के गुलमयामोतीत्याएसइत्यादि एष इति प्रान्तकाहारसेवनेन मांदिशरीरं पुनानो भाषतो भवी तरतीति । कोऽसी ? मुनि-यतिः अथवा क्रियमाणं कृतमिति कृत्या ती एव भवधम् । कथ भवोध तरति ? -यो मुक्त-बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः कश्च परिग्रहान्मुक्तो भवति ? - यो भावतः शब्दाऽऽदिविषयाभिष्वङ्गाद्विरतः, ततच यो मुत्येन विरतत्वेन या विख्यातो मुनिः स एव भयोधं तराते ती पवेति या स्थितम् इतिः अधिकापरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । यश्च मुक्तत्वविरतत्वाभ्यां न विख्यातः स किंभूतो भवतीत्याह( " दुब्वसुमुणी " इत्यादि सूत्राणि 'धम्मकहा ' शब्दे चतुर्थभागे २७१२ पृष्ठे प्रसङ्गाद् गतानि तद्याक्या बेयम्वसु - द्रव्यमेतच्च भव्येऽर्थे व्युत्पादितं द्रव्यं च भव्य इत्यनेन भव्यथ-मुगिमनयोग्यः ततब्ध मुक्किगमनयोग्यं वद् इयम् तद्वसु दुर्वसु, दुर्वसु बासी मुनि दुईसुमुनिः मोक्षगमनाऽयोग्यः । स च कृतो भवति !-नाया तीर्थकरोपदेशशून्यः स्वैरत्यर्थः, किमत्र तीर्थकरोपदेशे दुष्करं येन स्वैरित्यमभ्युपगम्यते १ तदुच्यते-उद्देशकादेरारभ्य सर्व यथा सम्भवमायोज्यम् तथाहि मिथ्यात्वमोहिते सोफे संबोद्धुं दुष्करं तेष्वात्मानमध्यारोपयितुं रत्परती नदीतुं शब्दादिविषयेष्यिष्ट। निषेषु मध्यस्थतां भावयितुं प्रान्तरूक्षाणि भोक्तुम् एवं यथोद्दिष्टया मौनीन्द्राशया असिधारकल्पया दुष्करं सञ्चरितुं तथा ऽनुकूलप्रतिकूलांश्च नानाप्रकारानुपसर्गान् सोदुम्, असद्दने च कम्मदियोनाथतीत कालसुखभावना च कारणम जीवो हि स्वमातो दुःखमीरुरनिरोधसुखप्रियः, अतो निरोधकल्पायामाशायां दुःखं सति असंध किंभूतो भवतीत्याह-तुइत्यादि, तुच्छो-रिक्रः स च इन्यतो निर्धनो घरा दिर्वा जलादिरहितो, भावतो ज्ञानादिरहितः, ज्ञानादिरहितो हि कचित्संशीतिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिज्ञानात् ग्ल यति वक्रम ज्ञानसमन्वितो वा चारिरिक पूजासत्कारभयात् शुद्धमार्गप्ररूपणावसरे ग्लायति यथावस्थितं प्रज्ञापवितुम, तथाहि प्रवृत्त सविधिः सनिधेर्निदोषतामा, एचमन्यत्रापीति । यस्तु कषायमहा विद्यागकल्पभगवदोषजीवकास सुनिर्भवत्यरिन ग्लायति च कुम् यथावस्थित वस्तुपरिज्ञानाद् अनुष्ठानाच्च ग्रह -
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(७३८) लोगविजय अभिधानराजेन्द्र।।
लोगविजय 'एस' इत्यादि, 'एष' इति सुषसुमुनिर्धानाधरितो य- इति, उक्तं च-" ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वयबलान्विथावस्थितमार्गप्ररूपको वीरः कर्मविदारणात् प्रशंसितः | तः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः, पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् तद्विद्भिः श्लाधित इति । किञ्च-'अच्चेइ ' त्यादि , ॥ १ ॥" एतदुक्तं भवति, यथा-द्रमकादेस्तदनुग्रहबुस एवं भगवदासानुवर्तको वीरोऽत्येति-अतिक्रामति , कं द्धया प्रत्युपकारनिरपेक्षः कथयत्येवं चक्रवत्यादेरपि. लोकसंयोगम्-लोकेनासंयतलोकेन संयोगः-सम्बन्धः यथा वा चक्रवयादेः कथयत्यादरेण संसारोत्तरणहेतुमेममत्वकृतस्तमत्येति, अथवा-लोको बाह्योऽभ्यन्तरश्च. तत्र वमितरस्यापि । अत्र च निरीहता विवक्षिता । न
पुनरय नियमः-एकरूपतयैव कथनीयम् . तथाहि-यो बाह्यो-धनहिरण्मातापित्रादिः , आन्तरस्तु-रागद्वेषादिस्तत्काय वा अष्टप्रकारं कर्म तेन साई संयोगमत्ये
यथा बुध्यते तस्य तथा कथ्यते, बुद्धिमतो निपुण ति-अतिलल्यतीत्युक्तं भवति । यदि नामैवं ततः किमि
स्थूलबुद्धस्त्वन्यथेति, राज्ञश्च कथयता तदभिप्रायमनुव
समानेन कथनीयम् ; किमसाभिगृहीतमिथ्यापिरनभिगृ. त्याह-एस ' इत्यादि, योऽयं लोकसंयोगातिक्रमः एष
होतो या संशीत्यापनो वा ?, अभिगृहीतोऽपि कुतीर्थन्यायः-एष सन्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारः प्रोच्यते--
कैयुमाहितः स्वत एव वा ?, तस्य चैवम्भूतस्य यद्येमिधीयते , अथवा-परम्-श्रात्मानं च मोक्षं नयतीति
यं कथयेपथा-" दशसूनासमश्चक्री, दशक्रिसमो ध्वजः । छाम्दसत्वाकर्तरि घञ्-नायः । यो हि त्यक्तलोकसंयोग
दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥ १ ॥" तद्भएष एव परात्मनो मोक्षस्य नायः प्रोच्यते-मोक्षप्रापकोऽ
निविषयरुद्रादिदेवताभवनचरितकथने च मोहोदयात्तथाभिधीयते सदुपदेशात् । स्यादेतत् किंभूतोऽसावुपदेश इत्यत
विधकम्मोदये कदाचिदसौ प्रद्वेषमुपगच्छेद , द्विष्टश्चतआह-यदुःख दुःखकारण वा कर्मलोकसयोगात्मकं वा प्रवे
द्विदध्यादित्याह च-अपिः सम्भावने, श्रास्तां तावद्वादितम्-तीर्थकृद्भिरावेदितम् इह-अस्मिन् संसारे मान
चा तर्जनम्, अनाद्रियमाणो हन्यादपि. चशब्दादन्यदवानाम्-जन्तूनाम्, ततः किम् ?-तस्य दु.खस्य-असात
प्येवं जातीयफ्रोधाभिभूतो दण्डकशादिना ताडयेदिति । लक्षणस्य कर्मणो वा कुशला-निपुणा धर्मकथालब्धिसम्प
उक्तं च-" तत्थेव य निट्टवणं, बंधणनिच्छुभणकडगमश्राः स्वसमयपरसमयविद उद्युक्तविहारिणो यथावादि
हो वा । निव्विसय व नरिंदो, करेज्ज संघ पि सो कुनस्तथाकारिणो जितनिद्रा जितेन्द्रिया देशकालादि- हो ॥१॥" तथा तच्चनिकोपासको नन्दबलात् बुद्धोक्रमशास्ते एवंभूताः परिक्षाम्- उपादानकारणपरिक्षानं त्पत्तिकथानकाद्भागवतो वा भल्लिगृहोपाख्यानाद्रौद्रो वा निरोधकारणपरिच्छेदं चोदाहरन्ति-सपरिज्ञया प्रत्याख्या- । पेढालपुत्रसत्यक्युमाव्यतिकराकर्णनात् प्रद्वेषमुपगच्छेत् , नपरिक्षया च परिहरन्ति परिहारयन्ति च। कि च- - द्रमककाणकुण्टादिवा कश्चित्तमेवोद्दिश्योद्दिश्य धर्मफलोतिकम्त्यादितिः-पर्वकालपरामर्शको यमदटाख- पदर्शनेनेति । एवमविधिकथननेहेव तावद्वाधा, आमुष्मिप्रवेदितं मनुजानाम् , यस्य च दुःखस्य परिक्षां कुशला उदा
कोऽपि न कश्चिद्गुणोऽस्तीत्याह च-'एत्थं पि' इत्यादि, हरन्ति तद्दुःखं कर्मकृतं तत्काष्टप्रकारं परिक्षाय तदा- मुमुक्षोः परहितार्थ धर्मकथां कथयतस्तावत्पुण्यमस्ति, श्रवद्वाराणि च । तद्यथा-झानप्रत्यनीकतया भानावरणीय
परिपदं त्वविदित्वाऽनन्तरोपवर्णितस्वरूपकथने अत्रापिमित्यादि, प्रत्याख्यानपरिक्षया प्रत्याख्याय तदाश्रवद्वारेषु
धर्मकथायामपि श्रेयः--पुण्यमित्येतनास्तीत्येवं जानी सर्वश:-सर्वैः प्रकारैयोंगत्रिककरणत्रिकरूपैन वर्तेत , अथ
हि, यदिवा असौ-राजादिरनाद्रियमाणस्त-साधु धर्मवा-सर्वशः परिक्षाय कथयति, सर्वशः परिज्ञानं च केवलि
कथिकमपि हन्यात् । कथमित्याह-' एत्थं पी ' त्यादि, मो गणधरस्य चतुर्दशपूर्वविदो, वा यदिवा-सर्वशः कथ- यद्यदसौ पशुवधतर्पणादिकं धर्मकारणमुपन्यस्यति तत्तदयति, आक्षपण्याद्या चतुर्विधया धर्मकथयेति । सा च
सौ धर्मकथिकोऽत्रापि श्रेयो न विद्यते इत्येवं प्रतिहन्ति, कीरकथेत्याह-'जे' इत्यादि , अन्यद् द्रष्ट्र शीलमस्येत्यन्यद
यदिवा-यद्यदविधिकथनं तत्र तत्रेदमुपतिष्ठते-अत्रापि श्रेयो शी यस्तथा नासावनन्यदर्शी-यथावस्थितपदार्थद्रष्टा , क
माताति, तथाहि-अक्षरकाविदपरिषदि पक्षहेतुधान्तानश्वंभूतो ?-यः सम्यग्रष्टिमौनीन्द्रप्रवचनाविर्भूततत्त्वार्थः,
नाहत्य प्राकृतभाषया कथनमविधिरितग्स्यां चान्यथयश्वानन्यदृष्टिः सोऽनन्यारामो-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते ।
ति । एवं च प्रवचनस्य हीलनव केवलं कर्मबन्धश्च. न हेतुहेतुमद्भावेन सूत्रं लगयितुमाह-'जे ' इत्यादि, यश्च |
| पुनः श्रेयो, विधिमजानानस्य मौनमेव श्रेय इति । उक्नं
च-“सावज्जणवजाणं, वयणाणं जो न याणइ विससं । भगवदुपदेशादन्यत्र न रमते सोऽनन्यदर्शी, यश्चैवम्भूतः सोऽन्यत्र न रमत इति । उक्नं च-"शिवमस्तु कुशास्त्राणां ,
वुनु पि तस्स न खमं, किमंग? पुण देसण काउं ? ॥१॥" बैशेषिकषष्टितन्त्रवौद्धानाम् । येषां दुर्विहितत्वा-द्भगवत्य
स्यांदतत्-कथं तर्हि धर्मकथा कार्येन्युच्यते-कोऽयम
इत्यादि. यो हि घश्यन्द्रियो विषयविषपगङ्मुखः संसानुरज्यते चेतः॥१॥" इत्यादि । तदेवं सम्यक्त्वस्वरू- रोद्विग्नमना वैराग्याकृष्यमाणहृदयो धर्म पृच्छति, तेनापमाख्यातम् , कथञ्चारक्तद्विष्टः कथयतीति दर्शयति-' जहा चायादिना धर्मकथिकेनासौ पर्यालाचनीयः-कोऽयं पुरुपुराणस्स' इत्यादि. तीर्थंकरगणधराचार्यादिना येन प्रकारे- पः ?, मिथ्यादृष्टिरुत भद्रकः, केन वाऽऽशयेनाऽयं पृच्छण पुण्यवतः-सुरेश्वरचक्रवर्तिमाण्डलिकादेः कथ्यते-उप- ति, कं च देवताविंशर्ष नतः, किमनेन दर्शनमाश्रितमिदेशो दीयते तथा-तेनैव प्रकारेण तुच्छस्य-द्रमकस्य का- त्येवमालोच्य यथायोगमुत्तरकालं कथनीयम्, एतदुक्तं भप्रहारकादेः कथ्यते, अथवा-पूणे-जातिकुलरूपाद्यपे- वति-धर्मकथाविधिशो ह्यात्मना परिपूर्णः श्रोतारमालोसस्तविपरीतस्तुच्छः, विज्ञानवान् या पूर्णस्ततोऽन्यम्तुच्छ चर्यात द्रव्यतः, क्षेत्रतः-किमिदं क्षेत्र तश्चनिकैर्भागवतरे
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लोग विजय
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पैर्वा ततः पार्श्वखादिभियोत्सर्ग रचिभिवभावितम् कालतो- दुष्पमादिकं कालं दुर्लभद्रव्यकालं वा, भावतो - श्रर द्विप्रमध्यस्थभावापन्नमेवं पर्यालोच्य यथा यथा श्रसौ बुध्यते तथा तथा धर्मकथा कार्यों, एवमसौ धर्मकथायोग्यः परस्य त्वधिकार एव नास्तीति । उक्तं च“जो लम्हेउ मम्मि चागमिश्री मो सिद्धंतविराह ॥ य एवं धर्मकथाविधिज्ञः स एव प्रशस्त इत्याह च- एस इत्यादि यदि पुरुषारवतो धर्मकथासमष्टिर्विधिः श्रोतृविवेचकः एषः - अनन्तरोक्को वीरः - कर्म्मविदारकः प्रशंसितः श्लाघितः । किंभूतश्च यो भवतीत्याहजे जे इत्यादि यो प्रकारेण कर्मणा स्नेहनगादिना वा बढानां जन्तूनां प्रतिमोचकः धम्मंकथोप देशदानादिना स व तीर्थकघर आवादियों यथो
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धर्मकथाविधि इति । क्व पुनर्व्यवस्थितान् जन्तून् मोचयतीत्याह -' उड्डुं ' इत्यादि, ऊर्द्ध-ज्योतिष्कादीन् श्रधोभवनपत्यादीन् तिर्यक्षु - मनुष्यादीनिति । किं न से सब इत्यादि, 6 स इति पीरो प्रतिमोचकः सर्वतः सर्वकालं सर्वपरिक्षा विविधयाऽपि चरितं शीसमस्येति सर्वपरिक्षाचारी - विशिष्टज्ञानान्वितः सर्वसेव चारित्रोतो वास एवंभूतः के गुणमयामोतीत्याहन लिप्यत्यादि न लिप्यते नायगुरख्यते केन ? चणपदेन - हिंसास्पदेन प्राण्युपमर्दजनितेन ' क्षणु हिंसायामित्यस्यैतद्रूपम्। कोऽसी ? वीर इति । किमेतायदेव वीरलक्षणमुतान्यदप्यस्तीत्याह -' से मेहावी त्यादि स मेधावी बुद्धिमान् यः अगोद्घातनस्य वेदसः अत्यनेन जन्तुगणवतुर्गतिकं संसारमित्यर्थकर्म तस्य उत्- प्रावल्येन घातनम् अपनयनं तस्य तत्र वा खेदो - निपुणः इह हि कर्म्मक्षपणोद्यतानां मुमुक्षूणां यः कर्म्मविधिः स मेधावी कुशलो पीर इत्युक्रं भवति किं चान्यत्' जे यइत्यादि यश्च प्रकृतिस्थि न्यनुभागप्रदेशरूपस्य चतुर्विधस्यापि बन्धस्य यः प्रमोदः तदुपायो वा तमन्वेष्टुं मृगयितुं शीलमस्येत्यन्वेषी, यश्चेवम्भूतः स वीरो मेधावी खेदश इति पूर्वेण सम्बन्धः, 'असोद्घातनस्य वेद' इत्यनेन मूलोत्तमकृति मेनिनस्य योगनिमितायातस्य रूपावस्थितिकस्य कर्मणो यध्यमानावस्थां स्पृनिधननाति तदपनयनोपार्य च येतीत्येततिम् अनेन चापनयनानुष्ठानमिति न पुनकदोषानुषङ्गः प्रजति । स्थादेतत्-योऽयमहोद्यातनस्य दोबन्धमाषको वाऽभिहितः स किं द्मस्थ ग्राहोस्थित केवली ? केयलिनो यथोक्रविशेषणास भयाच्झस्थग्रहणम्, केर्यासनस्तर्हि का वाति, उ कुले इत्यादि चाचा० ) ( श्रारम्मविषयः प्रारंभ" शब्दे २ भागे ३७२ पृष्ठे गतः । ) यद्यद्भगवदनाची - परिहार्य तन्नामग्राहमाह छंछं इत्यादि च हिंसायाम् गो-हिंस कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते परिया परिशाय प्रत्याख्यानपरशया परिहरेद यदिवाणः-- अवसर ज्ञात्वा सेवनापरिज्ञया च त्वरेदिति । किं च-- लो
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( ७३६) अभिधानराजेन्द्रः ।
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लोगविरुद्रवाय यस इत्यादि लोकस्य गृहस्वलोकस्य संज्ञासंज्ञाविषयाभिष्वङ्ग जनित सुखेच्छा परिग्रहसंज्ञा वा, तां च शपरिशया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिशया च परिहरेत् कथं ? - सर्वशः सर्वैः प्रकारैयगत्रिककररात्रि के ऐत्यर्थः तस्यैवंविधस्य यथोक्तगुणावस्थितस्य धर्मकथाविधिशस्य बद्धप्रतिमोचकस्य कम्र्मोद्घातनखेदशस्य बन्धमोक्षान्वेषिणः सत्पव्यवस्थितस्य कुमार्गनिराचिकीपोई सायादपापस्थानविरतस्यावगतलोक संशस्य यद्भवति तदर्शयति-उदश्यते नारका दिव्यपदेशेनेत्युद्देशः, स पश्यकस्य — परमार्थदृशो न विद्यते इत्यादीनि च सूत्राण्युद्देशकपरिसमायावतीपदेशके व्याक्यातानि तत पचार्थोंगन्तव्यः आक्षेपपरिहारी चेति । तानि चामूनिबालः पुनर्निहः कामसमनुशः अशमितदुःखः दुःखीदुःखानामेवावतंमनुपरिवर्तते । इतिः परिसमाप्ती प्रीमीति पूर्ववत् । उक्तः षष्ठोद्देशकः ॥ तत्परिसमाप्तौ चोकः सूत्रानुगमः सूत्रालापक निष्पन्नः, निक्षेप ससूत्रस्पर्शनियुक्लिकः । साम्प्रतं नैगमादयो नयाः, ते चान्यत्र म्यचेण प्रतिपादिता इति ने प्रतन्यन्ते, संक्षेपतस्तु ज्ञानकियानपद्वपान्तर्गतत्वात्तेषां तावेव प्रतिपाद्येते तयोरव्यात्मीयपक्षसावधारया मोशात्वाभावात् प्रत्येकं मिध्यात्वम् अतः पबन्धयत् परस्परसापेक्षतवेष्टकार्यावाप्तिरवगन्तव्येति उपगम्यते । श्राचा० १ ० २ श्र० ६० । लोककंपायविजये संधा।
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लोगवियस्ति (न्) -लोकविदर्शिन् त्रि० लोकं विषयानुषङ्गायामदुःखातिशवं तथा त्यक्तकामावाप्तप्रशमसुखं विविधं द्रष्टुं शीलमस्येति लोकविदर्शी, श्रथवा लोकस्यो वस्तिर्वग्भागगतिकारणायुष्कसुखदुः-खविशेषान् पश्यतीति लोकविदर्शी | लोकस्य विशेषतो इरि० १० २०५० लोगविन लोकवृत्त १० । आहारभयमैथुनपरिग्रहोत्कट- - संशात्मके लोकस्य वृत्ते, श्राचा० १ ० ५ श्र० २ उ० । लोगविरुद्व-लोकविरुद्ध न० । बहुजनबिरोधहेतुभूतानुष्ठानविशेषे पञ्चा० २ विव० जननिन्द्ये जीवा० १३ अधि० । लोकविरुद्ध लोकस्य निन्दाविशिष्टस्य च गुणसमृद्धस्येयम्, श्रात्मोत्कर्षश्च. यतः:-" परपरिभवपरिवादा-दात्मोत्कर्षाच बध्यते कर्मनीचैर्गोत्रं प्रतिभव-मनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥ १ ॥” तथा - ऋजूनामुपहासः, गुणवत्सु मत्सरः, कृतघ्नत्वं च बहुजनविरुः सह सङ्गतिः, जनमाम्यानामवशा, धर्मियां स्नानां या व्यसने तोषः शतदप्रतीकारः, देशापुचितावारलङ्घनम् विचाद्यननुसारे सायुद्धातिमलिनयेपादिक रम्मादविरुद्धमिहाप्यपकीयादिकृत् । यदाह वा चकमुख्यः-“लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्म्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥ १॥" तस्यागे च जनानुरागस्वधर्मनिर्वाहरूपा गुणः प्राह च "एआई परिहरं. तो, सव्वस्व जणस्स वल्लहो होइ। जगवल्लद्दत्तणं पुरा, नरस्स सम्मत्ततरुवीयं ॥ १ ॥ ध० २ अधि० ।
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लोगविरुद्ध चाय-लोकविरुद्धत्याग पुं० सर्वजममिन्दादिलोकविरुद्धानुष्ठानवर्जने, ध० २ अधि० । ० ।
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बोगसला
लोगवा - लोकसंज्ञा-खा० मतिज्ञानावरण कर्मक्षयोपशमनात् शब्दाद्यर्थगोचरायां सामान्यावबोधक्रियायाम्, प्रशा० १० पद लोकलच्छन्दयतिविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा- न सम्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो-पक्षाः विमा देवाः, काकाः - पितामहाः । श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । अथ निर्वेदी जीवः मोक्षसाधनोद्यमवर्ती लोकसंज्ञायां न तिलोवा हि धर्मसाधनम्याधातकरा प्रास्याज्या इति, तदुपदेशक लोकसंज्ञात्यावाहक विस्तार्यते । लोका, सप्तविधः – नाम लोकः - शब्दालापरूपः, स्थापनालोकःअक्षरः, लोकनालियन्त्रन्यासरूपः रुच्यजीवाजीवात्मक:द्रव्यलोकः, ऊर्ध्वाधस्तियैग्लक्षणः- क्षेत्रलोकः, समयावल्यादिकालपरिमाणलक्षणः - काललोकः, नरनारकादिचतुर्गतिरूपः-भवलोकः, श्रीदधिकादिभावपरिणामः भावलोकः द्रव्यगुणपर्यायपरिणमनरूपः पर्यय लोकः । इदं च सर्वमपि आवश्यक निर्युक्रितो हेयम्। अथवा द्रव्यलोकः संसाररूपः भ्रमशस्तभावलोकः- परभावैकत्वजीवसमूहः अत्रभवतोकाप्रशस्तभावलोकस्य संज्ञा त्याज्या, लोकसंज्ञा च नयससकेन धर्माधिभिः परिहरणीया
प्राप्तः षष्ठं गुखस्थानं
भवदुर्गाद्रिलङ्घनम् ॥
लोकसंज्ञारतो न स्यान्, मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ॥ १ ॥ प्राप्त इति- मुनिः संयमी आनवविरतः षष्ठम् -सविर तिलक्षणं प्रमत्ताख्यं प्राप्तः, लोकसंज्ञा-लोकैः कृतं तत्कर्त्तव्यम् गतानुगतिकतानीतिरित्यत्र रतः - रागी गृहीतमहः न स्यात्, लोके हतं तदेव करणीयम् इति मति निवार्य आत्मसाधनोपायरतः स्यात् । किभूतं गुणस्थानम् ? भवः संसारः स एव दुर्गाद्रिः विषमपर्वतः तस्य लङ्घनम् किं विशिष्टः मुनिः १ लोकोत्तरस्थितिः-लोकाती तमर्यादया स्थितः, लोको हि विषयाभिलाषी मुनिः- निष्कामः, लोकः पुद्गल संपज्ज्येष्ठत्वमानी मुनिशनादिसंपदा श्रेष्ठः, अतः किल लोकसंज्ञया किं तेषाम् ? ॥ १ ॥
यथा चिन्तामणि दत्ते, बठरो बदरीफलैः । हा जहाति सद्धर्म, तथैव जनरञ्जनैः ॥ २ ॥ यथा विन्तमणिमिति - यथा येन प्रकारेण कचित् पठःमूर्खः बदरीफलैः चिन्तामणि दत्ते; तथैव मूढः जनरञ्जनैःलोकलाघाभिलाषैः सद्धर्म द्रव्याचरणतत्त्वानुभवलक्षणं 'हा' इति जाति-त्यजति इत्यनेन जनभक्तिअववाहात्यागादिकं परा पूजादिना हारयति । उक्रं च"त्वतः सुदुष्पमिदं मयातं रमयं भूरिभवभ्रमेण प्रमादनिद्रावशतो गर्त तत् कस्याप्रतो नायक पूत्करोमि ॥ १॥ बैराम्पर परवचनाय धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय बादाय विद्याध्ययनं च मेऽभूत्कियद् मुळे हास्यकरं स्वमीश ! ॥ २ ॥ लोकसंज्ञामयानद्या - मनुस्रोतोऽनुगा न के । प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः ॥ ३ ॥ लोकसंति-लोकसंज्ञा-लोकरीतिरूपा महानदी - स्याः स्रोत प्रवाह तस्य अनुगाः अनुयायिनः के म भवन्ति अनेके इत्यर्थः तत्र प्रतिस्रोतोऽनुगः ससुखप्रवाहचारी तु एक एव महामुनिः मःअनामा इति तेन सोफा पडवो जांवा, नि
( ७४० ). अभिधानराजेन्द्रः ।
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लोग समा ग्रन्थः स्फुरद्रत्नत्रयसाधनोद्यतः स एव स्वरूपानुगामी । उक्रं च दशवेकालिके अशुसोयपिडिए बहुजम्मि पडिलोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव श्रप्पा, दायध्वो होड कामेण ॥ १ ॥ श्रणुसोयसुहो लोगो, पडिसोश्रो श्रासमो सुविइयां । अणुसोश्रो संसारो, पडिसोश्रो तस्स उत्तारा ॥ २ ॥ " तेन मुनिर्लोकसंज्ञानुयायी न स्यात् ॥ ३ ॥
लोकमालम्व्य कर्त्तव्यं कृतं बहुभिरेव चेत् ।
तदा मिध्याशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात्कदाचन ॥४॥ लोकमिति चेत् यदि यद्बहुभिः कृतं तत् कर्त्तव्ये लोकमालम्ब्य एवं क्रियते तदा मिथ्यादृशां धर्मः कदाचन कदापि न त्याज्यः स्यात्, तच्च बहुभिः क्रियमाणत्वात् स्वेच्छाचरण लोको बहुतः यतः - अनार्येभ्यः आर्याः स्लोकाः, आर्येभ्यः जनावारा स्तोका, जैनाचारवर्तिषु जैनपरिगतिपरिणताः स्तोकाः, अतः बहुलोकानुयायी न भवनीयमिति ॥ ४ ॥
श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च । स्तोका हि रत्नणिजः स्तीकाथ स्वात्मसाधकाः ॥४॥ श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांस इति लोके - बाह्यप्रवाहे थेयोऽर्थिनः धनस्वजनमुपनयनतनुकल्या शार्थिनः भूत-प्रचुराः सन्ति च पुन: लोकोत्तरे अमृत-मस्पभाषाविभवलये प्रवर्तमानाः न च नैवेति दीनिनिश्चितम् रत्नवणिजः स्तोकाः, तथा च-- पुनः स्वात्मसाधकाःस्व श्रात्मा तस्य साधकाः निरावरणाय निष्पादकाः स्तोका इति ॥ ५ ॥
लोकसंज्ञाहता हन्त !, नीचैर्गमनदर्शनैः । शंसयन्ति स्वसत्याग- मर्मपातमहाव्यथाम् ।। ६ ।। लोकसंतित इति वेदे लोकशाढता-सोफसंज्ञाव्याकुलाः श्रीवेर्गमनदर्शनै: वकीभूतशरीर भूम्यस्तरा गमनस्य दर्शने, स्वसत्यागमघात महाव्यस्य यः सत्यागः जैनवृत्तित्यागः स च लोकरञ्जनाध्यवसायलेन मर्मणि घातं लभते तस्य घातस्य महाव्यथाम्महापीडां यन्तिापयन्ति • वयं पीडितेन वक्रशरीरा भवामः इति शंसयन्ति -- कथयन्ति वेति उत्प्रेक्षा, लोकोक्तिमिति त्यागवन्तो जीवा आत्मस्वरूपघातका इति ॥ ६ ॥
आत्मसाधिकसद्धर्म-सिद्धी किं लोकयात्रा है।
तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च भरतश्च निदर्शनम् ॥ ७ ॥ श्रात्मेति-- हे उत्तम ! श्रात्मसाक्षिकाः - आत्मा एव साक्षिकः आत्मसाक्षिकः, स वासी सत्-शोभनः धर्मः, तस्य सिद्धी- निष्पती सोकयात्रया कि न किमपि लोकानां ज्ञानेन किमित्यर्थः तत्र प्रसचन्द्रः पुनः भरत इति निदर्शनं दृशन्तः सति द्रव्यलि कार्यस र्गे प्रसन्नचन्द्रस्य नरकगतिबन्धः, असति लिङ्ग मोहकलाफ़ेतिभूतवनिताच्यूड परिवृतोऽपि भरतः साफसंप्राप्तात्मसाक्षिकत्येकत्वरूपधर्मपरितः केवलं प्राप इति आत्मसाक्षिको धर्म-धर्म इति रान्तः, अतः आत्मसाक्षिक एव धर्मः करणीय इति ॥ ७ ॥
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(७४१) लोगसला अभिधानराजेन्द्रः।
लोगहार लोकसंज्ञोज्झितः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान् ।
अर्थार्थम् अर्थाद्वा अर्थः-प्रयोजनं धम्मार्थकामरूपम् ,कसुखमास्ते गतद्रोह- ममतामत्सरज्वरः ॥ ८॥
मणि ल्यब्लोपे पञ्चमी, अर्थमुद्दिश्य-प्रयोजनमुत्प्रेक्ष्य लोकेति-साधुः-परमात्मसाधनोद्यतः, सुखम् श्रास्ते-ति
प्राणिनो घातयन्ति, तथाहि-धर्मनिमित्तं शौचार्थ पृ
थिवीकार्य समारभन्ते, अर्थार्थ कृष्यादि कुर्वन्ति, काष्टति, कथंभूतः साधुः ? लोकसंशोज्झितः-लोकसंशारहितः,
मार्थमाभरणादि, एवं शेषेष्वपि कायेषु यथायोग वापुनःकिंभूतः ? परब्रह्मणः-शुद्धात्मस्वरूपस्य समाधिः-स्वा
च्यम् , अनर्थाद्वा-प्रयोजनमनुद्दिश्यैव तच्छीलतयैव सस्थ्यं तद्वान्-तन्मयः, आत्मज्ञानानन्दमग्नः, पुनः कथंभूतः ?
गयाद्याः प्राण्युपघातकारिणीः क्रियाः कुर्वन्ति, तदेवमगतः-नष्टः द्रोहः-मोषणशीलो ममता परभावेषु ममका
र्थादनाद्वा प्राणिनो हत्वा एतेष्वेव षड्जीवनिकायरता, मत्सरः-अहंकारः एव ज्वरः-तापो यस्य स, इत्यनेन
स्थानेषु विविधम्-अनेकप्रकारं सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकषायकालुष्यरहितः स्वात्मारामः स्वात्मशानी तत्त्वानुभवयुक्तो मुनिः सुखं तिष्ठति । लोकसंशात्यागेन स्वरूपयो
कादिभेदेन तानेकेन्द्रियादीन् प्राणिनस्तदुपघातकारिणः
परामृशन्ति, तान् प्रपीड्य तेष्वेवानेकश उत्पद्यन्त इति गभोगसुखमग्ना निर्ग्रन्था औदयिकमिन्द्रियसुखं दह्यमानस्वगृहप्रकाशवद् मन्यन्ते न सुखमस्ति ॥८॥ इति व्याख्यातं
यावत् , यदिवा-तत्षदजीवनिकायबाधाऽवाप्तं कर्मे तेलोकसंशात्यागाष्टकम् ॥अष्ट०२३अष्ट०॥ लोकस्य-गृहस्थलो
ध्वेव कायेत्पद्य ते तैस्तैः प्रकारैरुदीर्ण विपरामृशन्तिकस्य , संशानं-संज्ञा । विषयाभिष्वङ्गजनितसुखच्छायाम् ,
अनुभवन्तीति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"जावंति के आचा०१ श्रु०२ १०६ उ० । विषयपिपासायाम् , आचा०
लोए छक्कायवहं समारभंति अटाए अणटाए वा"इत्यादि १ श्रु०३ १०१ उ०।
गतार्थम् , स्याद्-असौ किमर्थमेवंविधानि कर्माणि कुरुते लोगसपाहय-लोकसंज्ञाहत-पुं०। लोकसंशाव्याकुले, अष्ट. पान्यस्य कायगतस्य विपच्यन्ते , तदुच्यते • गुरू से
कामा''से' तस्य-अपरमार्थविदः काम्यन्त इति कामाः लोगसहावभावणा-लोकस्वभावभावना-स्त्री० । लोकस्वभा. शब्दादयस्ते गुरवो दुस्त्यजत्वात् , कामा पल्पसत्त्वैरनवपरिचिन्तने, ध० ३ अधिक । प्रव०। (लोकस्वभावभावना
वाप्तपुण्योपचयैरुलचयितुं दुष्करमित्यतस्तदर्थ कायेषु प्र'भावणा' शब्दे पञ्चमभागे १५०६ पृष्ठे गता।)
वर्त्तते , तत्प्रवृत्तौ च पापोपचयस्तदुपचयाच यत्स्यात्तदा
ह-ततः-पहजीवनिकायविपरामशात परमकामगुरुलोगसार-लोकसार-पुं० । चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य
त्वाच्चासी मरण मार:-श्रायुषः क्षयस्तस्यान्तवर्तते, परमार्थे, प्राचा०१ श्रु०५१०१ उ.।
मृतस्य च पुनर्जन्म जन्मनि चावश्यभावी मृत्युरेव जन्मअपरापसारप्रकर्षगतिरस्तीति दर्शयन्नुपक्षेपमाह- मरणात् संसारोदन्वति मज्जनोन्मज्जनरूपाण मुच्यते । लोगस्स उ को सारो, तस्स य सारस्स को हवइ सारो। ततः किमपरमित्याह-'जो से. इत्यादि, यतोऽसौ तस्स य सारोसारं, जइ जाणसि पुच्छिो साह ।।२४४॥
मृत्योरम्तस्ततोऽसौ दूरे परमपदोपायात् बानादित्रयात् लोगस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य कः सारः ? , तस्यापि
तत्कार्याद्वा मोक्षाद् , यदि वा-सुखार्थी कामात्र परित्यसारस्य कोऽपरः सारः ?, तस्यापि सारसारस्य सारं यदि
जति, तदपरित्यागे च मारान्तर्वर्ती, यत्तश्च मारान्तर्वर्ती जानासि ततः पृष्टो मया कथयेति गाथार्थः।
ततो जातिजरामरणरोगशोकाभिभूतत्वादसौ सुखाद रे। प्रश्नप्रतिवचनार्थमाह
यस्मादसौ कामगुरुस्तद्गुरुत्वान्मारान्तर्वी तदन्तलोगस्स सारधम्मो, धम्म पि य नाणसारियं विति।
वर्तित्वात्किम्भूतो भवतीत्यत आह-नेव से' इत्यादि,
नैवासौ विषयसुखस्यान्तर्वर्तते, तदभिलाषापरित्यागाच्च नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं ॥२५॥
नैवासौ दूरे, यदि वा-यस्य गुरवः कामाः स किं समस्तस्याऽपि लोकस्य तावद्धर्मः सारः, धर्ममपि सा
कर्मणोऽन्तर्बहिर्वेति प्रश्नावसरे सत्याइ-सेव से'स्यादि, नसारं बुबते, मानमपि संयमसारं संयमस्यापि सारभूतं
नेवासौ कर्मणोऽन्तः-मध्ये भिषग्रन्थित्वात्संभाषितावश्यमानिर्वाणमिति गाथार्थः।
विकर्मक्षयोपपत्तेः, माप्यसौ दूरे देशोनकोटीकोटिकर्मउक्नो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे स्थितिकत्वात् , चारित्रावाप्तावपि नैवान्त व चतुरे इत्येसूत्रमुच्चारयितव्यम् , तदम्
तच्छक्यते बनुम् , पूर्वोक्लादेव कारणादिति । अथवा-येने पार्वती केयावंती लोयंसि विपरामसंति अढाए - दं प्राणायि किमसावन्तर्भूतः संसारस्याहोस्विबहिर्वर्तते पट्टाए, एएसु चेव विपरामुसंति, गुरु से कामा,
इत्याशङ्कयाह--णेव से' इत्यादि, नैवासौ संसारान्तः तो से मारते, जो से मारते तो से दरे, नेव
घातिकर्मक्षयात्, नापि दरे अद्यापि, भवोपप्राहिकर्मससे अंतो नेव दरे। (सू०-१४१)
दावादिति। 'पावन्ती' ति यावन्तो जीवा मनुष्या असंयता वा | यो हि मिन्नग्रन्थिको दुरापावाप्तसम्यक्त्वः संसारारास्युः, 'के आवंति ' ति केचन लोके चतुर्दशरज्ज्वा -1 तीयतीरवी स किमध्यवसायी स्यादित्याहरमके गृहस्थान्यतीर्थिकलोके वा षड्जीवनिकायान् श्रा
से पासइ फुसियमिव कुसग्गे पणुन निवइयं वाएरम्भप्रवृत्ता विविधम्-अनेकप्रकारम् विषयाभिलाषित-| या परामृशन्ति-उपतापयन्ति , दण्डकशाताडनादिभिर्घात
रियं एवं बालस्स जीवियं मंदस्स अवियाणभो, यन्तीत्यर्थः, किमर्थ विपरामृशन्तीति दर्शयति-अर्थाय- | राई कम्माई पाले पकुवमाणे तेण दुक्खेण हे
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(४२) लोगसार भभिधानराजेन्द्रः।
लोगसार विपरिभासमुबेइ, मोहेण गम्भ मरलाइ एइ, एत्य विझ्या मंदस्स बालया, लद्धा हुरत्था पडिलेहाए भाग
मित्ता आणविजा प्रणासेवणय त्ति वेमि । (सू०-१४४) मोहे पुणो पुरखो। (सू०-१४२)
'जे छए ' इत्यादि यश्छेको-निपुण उपलब्ध पुण्यपापः ‘से पासई' त्यादि, सः-अपगतमिथ्यात्वपटलः स
सः 'सागारिय' ति मैथुनं न सेवते मनोवाकायकर्मभिः, म्यक्त्वप्रभावावगतसंसारासारः पश्यति- रशिरुपलब्धि
स एव यथावस्थितसंसारवेदी, यस्तु पुनर्मोहनीयोदयात्पावकिय इस्थत उपलभते-अवगच्छति .किं तत्-'फुसि
स्थादिः तत्सेवते, सेवित्वा च सातगौरवभयात् किं कुर्यायमिय, ति-(इत्यादिपदानां व्याख्या 'जीविय शब्दे चसुर्थभागे १५६४ पृष्ठे गता।) नाप्यसौ तदभिकाशति अ
दित्याह-'कटु' इत्यादि, रहसि मैथुनप्रसङ्गं कृत्वा पुन
गुर्वादिना पृष्टः सन्नपलपति तस्य चैधमकायमपलपतोऽवि. तो बालग्रहणम् , बालो-पक्षः, स चाहानत्वादेव जीवितं
सापयतो बा किं स्यादिन्याह- बिया' इत्यादि, मन्दबहु मन्यते यत एव बालोऽत एव मन्दः सदसद्विवेकापटुः, यत पव बुद्धिमन्दोऽत एव परमार्थ न जानाति , अतः पर
स्य-अबुद्धिमत एकमकार्यासेवनमियं बालता-अज्ञानता,
द्वितीया तदपढ़वनं मृषावादः तदकरणतया या पुनरनुत्थामार्थविजानत एवम्भूतं जीवितमित्येवं पश्यति । परमार्थमजामंश्च यत्कुर्यात्तदाह- राणि ' इत्यादि , फराणि
नमिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति--"जे खलु विसए सेवळ निईयानि निरनुक्रोशानि कर्माणि-अनुष्ठानानि हिं
सेवित्ता वा णालोएइ, परेण वा पुट्ठो नियहवा, अहवा
तं परं सपण या दोसेण पविट्टयरेण वा दोसेण उवलिसानुतस्तेयादीनि सकललोकचमत्कृतिकारीणि अष्ठादश वा पापस्थानानि बालः-अशः प्रकर्षेण कुर्वाणः , " कर्व
पिज्ज' ति" सुगमम् । यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याहभिप्राये कियाफले " आत्मनेपदविधानात्तस्यैव तक्रिया
'लद्धा हु' इत्यादिः लग्धानपि कामान् ‘हुरत्ये' सि फलविपाकं दर्शयति-तेन-क्रूरकर्मविपाकापादितेन दु:
बहिचित्रचुल्लकादिवत्तद्विपाकं प्रत्युपेत्य चित्ताद्वहिः कु. सेन मढ:- किंकर्तव्यताकुलः केन कृतेन ममैत
र्यात; यदि घा-दुशब्दः-प्रपिशब्दाथे, रेफागमः सुदुःखमुपशमं यायादिति मोहमोहितो विपर्यासमुपैति- व्यत्ययेन द्वितीयाथै प्रथमा, ततोऽयमों-लम्धानप्यर्थयदेव प्राण्युपघातादि दुःखोत्पादने कारणं तदुपशमाय त
न्ते-अभिलपन्त इत्यर्थाः-शब्दादयस्तानुपनतानपि सदेव विदधातीति । किंच-मोहेण' (इत्यादि पदानां व्या.
द्विपाकद्वारेण प्रत्युपेक्ष्य--पर्यालोच्य ततः आगम्य साच्या 'मोह' शब्दे पञ्चमभागे ४५६ पृष्ठे गता।) ततश्च न
त्या दुरन्तं शब्दादिविषयानुषङ्गम् , क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरकियावद्विशिष्टज्ञानोत्पत्तिः संवृत्तान तावत्कर्मशमनाय प्रवृ
यासव्यपेक्षत्वात्तां दर्शयति-तदनासेवनतया परानाशापयेलिः स्यात् , नैष दोषः, अर्थसंशयेनापि प्रवृत्तिदर्शनादिति ।।
ह, स्वतोऽपि परिहरेविति, पतदहं प्रवामि येन मया पूर्वार्थ माह च
व्यावर्णनमकारि स एषाहमव्यवच्छिन्नसम्यग्ज्ञानप्रवाह. संसयं परिमाणमो संसारे परिवाए भवद , संसयं |
शब्दादिविषयस्वरूपोपलम्भात् समुपजनितजिनवचनसंमद
इति। एतच वक्ष्यमाणं प्रवीमीति। अपरियाणमो संसारे अपरिभाए भवइ। (सू०-१४३)।
तदाह'संसय' मित्यादि, संशीतिः संशयः-उभयांशावलम्बा प्रतीतिः संशयः, स चार्थसंशयोऽनर्थसंशयश्च । इह
पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे,इत्य फासे पुणो बा-मोक्षो मोक्षोपायश्च , तत्र मोक्षे न संशयोऽस्ति , पुणा, श्रावता कयावता लायास भार
पुणो, पावंती केयावंती लोयसि आरंभजीवि, एएसु चैव परमपदमिति प्रतिपादनात्, तदुपाये तु संशयेऽपि प्रारंभजीवी, इत्थ वि वाले परिपच्चमाणे रमई पावेहिं प्रवृत्तिर्भवस्येव, अर्थसंशयस्य प्रवृत्त्यत्वात् । अनर्थस्तु कम्मेहिं असरणे सरणं ति मनमाणे । (सू०-१४५४) संसारः संसारकारणं च, तत्सन्देहेऽपि निवृत्तिः स्यादेव, 'पासह' इत्यादि, हे जनाः! पश्यत यूयमेकाम्तपुष्टधअनर्थसंशयस्य निवृत्त्यत्वात्। अतः संशयमानर्थगतं परि- ाणो, बहुवचननिर्देशादायों गम्यते, रूपेषु-रूपादिजानतो रेयोपादेयप्रवृत्तिः स्यादित्येतदेव परमार्थतः संसा-1
विन्द्रियविषयेषु निःसारकटुफलेषु गृद्धान्-अध्युपपन्नान रपरिवानमिति दर्शयति-तेन संशयं परिजानता संसार- |
सतः इन्द्रियैर्विषयाभिमुखं संसाराभिमुखं वा नरकादियातअतुर्गतिक तदुपादानं वा मिथ्यात्वाविरत्यादि अनर्थरूप
नास्थानकेषु वा परिणीयमानान् प्राणिन इति । ते च विषय सया परिवातं भवति परिक्षया , प्रत्याक्यानपरिक्षया तु
गृध्नव इन्द्रियवशगाः संसाराणवे किमाप्नुयुरित्याहपरितमिति । यस्तु पुनः संशयं न जानीते स संसारमपि
'एत्थ फासे' इत्यादि, अत्र-अस्मिन् संसारे पीकवशगः न जानातीति दर्शयितुमाह-संसयं' इत्यादि, संशयं
सन् कर्मपरिणतिरूपान् स्पर्शान् पीनापुम्येन-प्रावृस्या सम्देहं दिविधमप्यपरिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिर्न स्यात्,
तानेव तेषु तेष्वेव स्थानेषु प्राप्नुयादिति । पाठान्तरं वासवप्रवृत्तौ च संसारोऽनित्याशुचिरूपो व्यसनोपनिपातबा-1 एत्थ मोहे पुणो पुखो' अत्र-अस्मिन् संसारे मोहेलो निःसारो नातो भवति ।
अशाने चारित्रमोहे वा पुनः पुनर्भवतीति । कोऽसावेवम्भूतः कुतः पुनरेतनिश्चीयते ? यथा तेन संशयवेदिना संसारः
स्यादित्यत आह-आवंती' त्यादि, यावन्तः केचन लोकेपरिक्षात इति !, किमत्र निश्चेतव्यं १, संसारपरिज्ञानका
| गृहस्थलोके भारम्भजीविनः-साक्द्यानुष्ठानस्थितिकाः, ते यविरत्युपलब्धेः, तत्र सर्वविरतिप्रष्ठां विराति निर्मि
पौनःपुन्येन दुःसाम्यनुभवेयुरिति । येअप गृहस्थाश्रिताः दिशुराह
सारम्भास्तीर्थिकादयस्तेऽपि तहःखभाजिन इति दर्शयतिजे छेए से सागारियं न सेवह कह एवमवियाणमो 'पएसु' इत्यादि, एतेषु सावद्यारम्भप्रवृतेषु गृहस्थेषु शरी
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लोगसार
रयापनार्थे वर्तमानस्तीर्थिकः पार्श्वस्थादिर्वा आरम्भजीवीसावधानुष्ठानवृत्तिः पूर्वोदुःखभाग्भवति । प्रास्तां ता गृहस्थ तीर्थको था. योऽपि संसारापतदेयमवाप्य सम्यक्त्वरणं लब्ध्वाऽपि मोक्षैककारणं विरतिपरिणाम सफलतामनीत्वा कम्मोदयात् सोऽपि सावद्यानुष्ठायी स्यादित्याह -- एत्थ वि वाले इत्यादि श्रत्र अस्मिन्नप्यईप्रीतसंयमाभ्युपगमे वालो-रागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः परिपश्यमानो या विषयपिपासया रमते के !-पापै कर्म्मभिः, विषयार्थं सावधानुष्ठाने धृतिं विधने, किं कुर्वाण इत्याह-'असर' मित्यादि कामाग्निना पायां कम्भः परिपच्यमानः वायद्यानुष्ठानमशरणमेव शरणमिति मन्यमानो भोगेच्छा ज्ञानमत्राच्छादितदृष्टिविपर्ययः सन् भूयो भूयो नानारूपा वेदना अनुभवेदिति । आतां तावन्ये ज्यामध्यभ्युपेत्य केचिद्विषयपिपासातांस्तांस्तार करकायारानाचरन्तीति दर्शयितुमाह- इदमेमेसि मित्यादि, (आचा०) (सूत्रम् ' एगचरिया शब्दे तृतीयभाष्ठे गतम् । ) ( अवस्था चारवक्लव्यतानिर्युक्तिः 'चार' शब्दे दतीयभागे १९७२ पृष्ठे गता । )
"
योगसार
म
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( ७४३) अभिधानराजेन्द्रः । रित्येवं स्वात्मनि व्यय स्थापित मद्रासीद्धवानित्यतः प्येकं न प्रमादयेत् न विषादमाद भूयात् । क न प्रमत्तः स्यादित्याह-' जे इमस्स ' इत्यादि. य-इति उपलब्धतस्वः अस्य – अध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाटप्रकारं कर्म ततरशरीरविशि बाह्येन्द्रियेति विग्रह: - औदारिकं शरीरं तस्य अयम्-वार्तमानिकक्षणः एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च गतः एवम्भूतध भावीत्येयं यः शीलः सौउन्हेंपी सदाऽप्रमतः स्थादिति । स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह- 'एस मग्गे ' इत्यादि, एषः अनन्तरोको मार्गो-मोक्षपथः सर्वैः सर्वयथम्मांरातीयतीरवर्तिभिस्तीकरगणधरैः प्रकर्षेणादी या बेदितः कथितः प्रवेदित इति । न केवलमनन्तरोक्तो वक्ष्यमाणश्च तीर्थकरैः प्रवेदित इति, तदाह-' उट्ठिए' इत्यादि, सन्धिमधिगम्योत्थितो धर्मचरणाय क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् किं चापरमधिगम्येत्याह-' जाणिन्तु ' इत्यादि, ज्ञात्वा प्राखिनां प्रत्येकं दुःखं तदुपादानं वा कर्म्म तथा प्रत्येकं सातं चमन आहादिया समुत्थितो न प्रमादयेत् न केवल दुःखं कर्म्म वा प्रत्येकम्, तदुपादानभूतोऽध्यवसायोऽपि प्रावेति दर्शवितुमाह- पुढो इत्यादि पृभिन्नः छन्दः - अभिप्रायो येषां ते पृथकछन्दाः, नानाभूतबन्धाध्यवसायस्थाना इत्यर्थः, 'इहे ' ति संसारे संशिलोके वा के ते ? - मानवाः - मनुष्याः उपलक्षणार्थत्वादन्येऽपि संज्ञिनां पृथक संकल्पत्वाश्च तत्कार्यमपि कर्म्म पृथगेव तत्कारणमपि दुःखे नानारूपमिति । कारणमेदे कार्यमेदस्व अवश्यंभाषित्वादितिः अतः पूर्वोक्तं स्मारयन्नाह - पुढो इत्यादि, दुःखोपादानभेदाद् दुःखमपि प्राणिनां पृथक् प्रवोदतम्. सर्वस्य स्वकृतकर्मफलेश्वरस्यात् नान्यकृतमम्य उपयुक्त इति एतन्मत्या कि कुर्यादित्याद से' इत्यादि सनारमजीवी प्रत्येक सुखदुःखाभ्यवसायी प्राणिनो विविधेकपायैरहिंसन् तथा अनपवदन्-अन्यथैव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा चदपचदन् नापवदन] अनवदन् मृषावादमत्यर्थः पश्य च त्वं तस्यापि प्राकृतत्वादत्वाद्वा सोपः एवं रखमगृह्णन्नित्याद्यप्यायोज्यम् । एतद्विधायी च किमपरं कुर्यादित्याह-पुडो' इत्यादि सपचमहामतस्यवस्थितः सद्यथाप्रतिज्ञानिर्वहोचतः परीचोपसगैस्तान तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान् दुःखस्पर्शान् वातसहिष्णुता अनाकुलो विविधेपायैः प्रकारः संसारासा भावनादिभिः प्रेरयेत्, तत्प्रेरणं च सम्यक सहनम्, म तकृतया दुःखासिकात्मानं भावयेदिति यावत् । यो हि सम्परया परान्सहेत सकिंगुणः स्यादित्याहएस समिया परिवार विवाहिए, जे असचा पावेहिं कम्मेहिं उदाहू से आर्यका फुसति इति । (०-१४७+)
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एषः अनन्तरोको परीषाणां प्रणोदकः, समिया सम्पक शमिता वा शमो ऽस्यास्तीति शमी तद्भावः शमिता, पर्यायः - प्रव्रज्या सम्यक शमितया वा पर्यायः - प्रव्रज्याऽस्येति विगृह्य बहुब्रीहिः स सम्यकूपर्यायः शमितापर्यायो वा व्यायातो नाप इति । तदेवं परीषदोष सर्गाभ्यां प्रतिपाच व्याधिसहिष्णुतां प्रतिपादयन्नाह्- 'जे असता' इत्यादि, ये
अपाकृतमनतश समणमणिलेकाचनाः
समतापचाः
,
एकचर्याप्रतिपोऽपि सावधानुष्ठानाद्विरतेरभा मुनिरित्युक्तम् इह तु तद्विपर्ययेण यथा मुनिभाव स्यात्तथोच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
श्रावन्ती केयावन्ती लोए भणारंभजीवियो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स भयं खणे ति अन्नेसी एस मग्गे आरिए हिं पवेइए, उट्टिए नो पमायए, जाखितु दुक्खं पत्तेयं सायं पुढो बंदा इह मायवा पुढो दुक्खं पवेश्य से अभिहिंसमाखे अवयमाणे पुट्टो फासे विपन्नए (सू० १४६ )
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यावन्तः - केचन लोके - मनुष्यलोके अनारम्भजीविनःआरम्भ:- सावद्यानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा, उक्तं च-" भावाये निक्लेवे, भासुस्सग्गे ठाणगमलाई । सब्बो पमन्तजोगो, समणस्स वि होइ आरम्भो ॥ १ ॥ " तद्विपर्ययेण त्वनारम्मस्तेन जीवितुं शीलं येषामित्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रखशरीराच धमारम्भप्रवृत्तेच्यनारम्भजीविनो भवन्ति मत भवतिसाबधानुष्ठानम्युनेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थमनवद्यारम्भजीविनः साधवः पङ्काधारपङ्कजवनिर्लेपा एव भवन्ति । यद्येवं ततः किमित्याह-अत्र अस्मिन् सावद्यारम्भे कर्त्तये उपरत चितगात्रो वाऽऽईते धर्मे व्यवस्थितपापारम्भात् किं कुर्यात् सः तत्-सायचानुष्ठानावा कम् कोपयन् पपन सुनिभावं भजत इति । किमभिसन्धाया जोपरतः स्यादित्याह अयं संधी इत्यादि, अविवक्षितकर्मका अव्यकर्मका धातवः, यथा पश्य मृगो धावति, पचमत्राष्यङ्गाक्षीदित्येतक्रियायोगे ऽप्ययं सन्धिरिति प्रथमा कृति, 'अय' मिति प्रत्यक्षगोचरापन प्रार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तीन्द्रियनिर्वृत्तिश्श्रद्धासंवेगलक्षणः सन्धिः - अवसरो मिध्यात्वक्षयानुदयलक्षणो वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतकर्म्मविवरलक्षणः सन्धिः, शुभाभ्यवसायसन्धानभूतो वा सन्धि
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(७४४) तोगसार अभिधानराजेन्द्रः।
लोगसार पापेषु कर्मस्वसक्ताः-पापापादानानुष्ठानारता 'उदाहु'- ह-शरीरे जन्मनि वा विविध परमार्थभावनया शरीराकदाचित्तान् तथाभूतान् साधून आता-श्राशुजीविताप- नुबन्धात् प्रमुक्को-विप्रमुक्तस्तस्य नास्ति-न विद्यते , हारिणः शुलादयो व्याधिविशेषणः स्पृशन्ति-अभिभवन्ति कोऽसौ?-मार्गो-नरकतियङ्मनुष्यगमनपद्धतिः, वर्तमानपश्यन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-' इति उदाहु' सामीप्ये वर्तमानदर्शनान भविष्यतीति नास्तीत्युक्तम् , इत्यादि (मूलसूत्रम् 'तित्थयर' शब्द चतुर्थभागे २२६२ | यदि वा-तस्मिन्नेव जन्मनि समस्तकर्मक्षयोपपत्तेर्नास्ति पृष्ठे गतम्।) इति एतद्वक्ष्यमाणमुदाहृतवान् व्याकृतवान् | नरकादिमार्गः, कस्येति दर्शयति-विरतस्य-हिंसाद्याश्रकोऽसौ ?-धीरो-धी:-बुद्धिः तथा राजते, स च तीर्थकद्व द्वारेभ्यो निवृत्तस्य , इतिरधिकारपरिसमाप्ती , ब्रवीमीगणधरो वा, किं तदुदाहतवान् ?, तैरातः स्पृष्टः सन् तान् ति पूर्ववत् , सुधर्मस्वाम्यात्मानमाह , यद्भगवता वीरवस्पर्शान्-दुःखानुभवान् व्याधिविशेषापादितानध्यासयेत्- र्द्धमानस्वामिना दिव्यज्ञानेनार्थानुपलभ्य वाग्योगेनोक्तं तदसहेत । किमाकलय्येत्याह-से पुव्व' मित्यादि, स स्पृष्टः हं भवतां ब्रवीमि ,न स्वमतिविरचनेनेति । ( आचा० ) पीडितः पाशुकारिभिरातरेतद्भावयेत्, यथा-पूर्वमप्येतद् ( अविरतवादी परिग्रहवानिति 'परिग्गहावंत ' शब्दे असातावेदनीयविपाकजनितं दुःखं मयैव सोढव्यम् , पश्चाद | पञ्चमभागे ५६७ पृष्ठे गतम् ।) येतन्मयैव सहनीयम् । यतः-संसारोदविवरवर्ती न विद्यते
भावंती केयावंती लोयसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव एवासौ यस्यासातावेदनीयविपाकापादिता रोगातङ्का न भवेयुः, तथाहि-केवलिनोऽपि मोहनीयादिधातिचतुष्टयक्ष
अपरिग्गहावंती, सोच्चावई मेहावी पंडियाण निसामियादुत्पत्रज्ञानस्य वेदनीयसद्भावेन तदुदयात्तत्सम्भव इति,य.
या समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्थ मए सश्च-तीर्थकरैरप्येतद्वद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थायातं क- संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी दुजोसए भवइ, त
आवश्यं वेद्यं नान्यथा तन्मोक्षः, अतोऽन्येनाप्यसातावेद- म्हा बेमि नो निहणिज वीरियं । (सू०-१५१) मीयोदये सनत्कुमारदृष्टान्तेन मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य मोद्विजितव्यमिति । उक्तं च-" स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां ___ यावन्तः केचन लोकेऽपरिग्रहवन्तो विरता यतय इत्यर्थः, विपाकः, पुनरपिसहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य । स्वयमनुभव- ते सर्वे एतेष्वेव अल्पादिषु द्रव्येषु त्यक्तेषु सत्स्वपरिग्रहवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छ- म्तो भवन्ति, यदि वैतेष्वेष षट्सु जीवनिकायेषु ममत्वातस्ते ॥१॥" अपि च-एतदौदारिकं शरीरं सुचिरमप्यौष- | भावादपरिग्रहा भवन्ति । स्यात् , कथमपरिग्रहभावः स्याधरसायनामुपबृंहितं मृन्मयाऽऽमघटादपि निःसारतरं सर्व-| दित्याह-'सोचा' इत्यादि, 'वह'त्ति सुव्यत्ययेन द्विथा सदा विशराविति दर्शयन्नाह-'भिदुरधम्म' मित्या तीयार्थे प्रथमा, अतो वाचं-तीर्थकराशामागमरूपां श्रुदि, यदि वा-पूर्व पश्चादप्येतदौदारिकं शरीरं वक्ष्यमाणधर्म- त्वा-आकर्ण्य मेधावी-मर्यादाव्यवस्थितः सश्रुतिको स्वभावमित्याह-'मिदुरधम्म' मित्यादि.स्वयमेव भियत. हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिशः , तथा पण्डितानां गणधइति भितुरः स धर्मोऽस्य शरीरस्येति भिदुरधर्मम् , इद- राचार्यादीनां विधिनियमात्मकं वचनं निशम्य सचिमौदारिक शरीरं सुपोषितमाप-वेदनोदयाच्छिरोदरचक्षुरुर:- ताचित्तपरिग्रहपरित्यागादपरिग्रहो भवति । स्यादेतत् ' प्रभूत्यत्रयवेषु स्वत एव भिद्यत इति भिदुरम्, तथा विध्वंस- कदा पुनरुत्पननिरावरणशानानां तीर्थकृतां वाग्योगो भनधर्मे पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात् , तथा अवश्यंभावसं. | वति येनासावाकयेते.? , उच्यते-धर्मकथाऽवसरे, किभाषितं त्रियामान्ते सूर्योदयवत् ध्रुवं न तथा यत्तदध्रुवम् त- म्भूतस्तैः पुनर्धर्मः प्रवेदित इत्यारेकापनोदार्थमाह 'सथा अपच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया कूटस्थनित्यत्वेन मिय'त्ति समता-समशत्रुमित्रता तयाऽऽर्धर्मः प्रवेम्यवस्थितं सबित्यम् । नैवं यत्तदनित्यमिति, तथा तेन तेन दित इति । उक्तं च-" जो चंदणेण बाहुं, आलिंपह कपेणोदकधारावच्छश्चद्भवाति शाश्वतम्,ततोऽन्यदशाश्व- । वा सिणावतच्छत्ति । संथुणह जो अणिदति, महसितम्, तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकशरीरवर्ग- णो तत्थ समभावा ॥१॥" यदिवा-आर्यसु-देशभाषाचणापरमाणूपत्नयाचयः,तदभावेन तद्विचटनादपचयः,चया5-1 रित्राऽऽर्येषु समतया भगवता धर्मः प्रवेदितः, तथा पचयो वियेते यस्य तचयापचयिकम्, अत एव विविधः परि | चोक्तम्- जहा पुरणस्स कत्था तहा तुच्छस्स कणामः-अन्यथाभावात्मको धर्मः खभावो यस्य तद्विपरिणा- स्र्था" स्थादि, अथवा-शमिनो भावः शमिता तया समधर्मम् । यतधैवम्भूतमिदं शरीरक.मतोऽस्योपरि कोऽनुब- हेयधारातीयवर्तिभिः आर्यैः प्रकर्षणादौ वा धर्मों न्धः का मूछा ?,नास्य कुशलानुष्ठानमृतेऽन्यथा साफल्यमि- वेदितः-प्रवेदितः, इन्द्रियनोहन्द्रियोपशमेन तीर्थनिर्धर्मः त्येतदेवाह-पासह ' इत्यादि, पश्यतैनं-पूर्वोक्तं रूपसन्धि प्रशापित इति यावत् । स्याद्-अन्यैरपि स्वाभिप्रायेण भिदुरधाद्याघ्रातौदारिकं पञ्चेन्द्रियनिवृतिलाभावसरात्म- धर्माः प्रवेदिता पवेत्यतस्तद्व्युदासार्थ भगवानेवाहकम् , हष्टा च विविधातङ्कजनिताम् स्पर्शानध्यासयेदिति ॥ 'जत्थे' त्वादि, सदेवमनुजायां पर्पदि भगवानेवमाहएतत्पश्यतश्च यत्स्यात्तदाह-सम्यगुरेक्षमाणस्य-पश्यतो- यथाऽत्र मया ज्ञानादिको मोक्षसन्धिः 'झोसिनो' ति सेऽनित्यताघ्रातमिदं शरीरमित्येवमवधारयतो नास्ति मार्ग | वित इति, यदिवा-अत्र-अस्मिन् मानदर्शनचारित्रात्मइति सम्बन्धः , किं च-पाइ अभिविधौ समस्तपापार- | के मोक्षमार्गे समभावात्मके इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपे म्भेभ्य आत्मा आयत्यते-श्रानियम्यते यस्मिन् कुशलानु- मया--मुमुक्षुणा स्वत एव सन्धानं सन्धिः कर्मसन्तठाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनं-शानादित्रयम् एकम् | तिः, सन्धीयत इति वा भवाद्भवान्तरमनेनेति सन्धिःअद्वितीयमायतनमेकायतनं तत्र रतस्तस्य , किं च-द- | अप्रकारकर्मसन्ततिरूपः । स झोषितः-क्षपितः अतो
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(७४५) लोगसार अभिधानराजेन्द्रः।
लोगसार य एव तीर्थंकृद्भिद्धम्मोऽभिहितः स एव मोक्षमार्गो नाऽ- प्रतिपालयन सारक्षन् तिष्ठतीस्यषा क्रिया प्रकलेव । पर इत्येतदेवाह-यथाऽत्र मया सन्धिोषितः एवमन्यत्र चासौ हदस्तथाऽऽचार्योऽपीति दशयति-सः-प्राचा अन्यतीर्थिकप्रणीते मोक्षमार्गे सन्धिः कर्मसन्ततिरूपः प्रथमभङ्गपतितः पञ्चविधाचारसमन्वितोऽधविधाचार्यसदुर्योध्यो भवति-दुःक्षयो भवति , असमीचीनतया त- म्पदुपेतः, तद्यथा-"पायार सुत्र सरि, बयणे वायशर्मा दुपायाभावात् . यदि नाम भगवताऽत्र कम्मंसन्धिझोषि- पोगमई । एए सुसंपया खलु, अट्टमित्रा सहपरिमा तस्ततः किमित्याह---यस्मादस्मिन्नेव मार्गे व्यवस्थितेन ॥१॥" पत्रिंशद्गुणगणाधारो हदकल्पो निम्मलहानप्रति. मयाऽपि विएतरेण तपसा कर्म क्षपितं ततो:- पूर्णः समे भूभाग इति संसकादिदोषरहिते सुखविहारे म्योऽपि मुमुक्षुः सयमानुष्ठाने तपसि च वीय नो निह- क्षेत्रे समो वा शानदर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः उपशमन्यात् नो निगृहयेद् अनिगाहतबलवीर्यो भूयाद् एतदहं बतां तत्र तिष्ठति-समध्यास्ते, किंभूतः , उपशान्तरजाः ग्रवीमि परमकारुण्याकृष्टहृदयपरहितैकोपदेशदायीत्येतद्वी- उपशान्तमोहनीय इति, किं कुर्वन् ? , जीवनिकायान् ररवर्द्धमानस्वाम्याहः सुधर्मस्वामी स्वशिष्याणां कथयति स्म । क्षन् स्वतः परतश्च सदुपदेशदानतो नरकादिपातादेति, (आचा० ) (अग्रेतनसूत्राणि 'धम्म' शब्दे चतुर्थ-भागे 'स्रोतोमध्यगत' इत्यनेन प्रथमभापतितं स्थविराचार्य२६७३ पृष्ठे गतानि ।)
माह-तस्य हि श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् स्रोतोमध्यगसदाऽऽचार्यसेविना भवितव्यम् , प्राचार्येण च इदोपमे
तत्वम् , स च किम्भूतः स्यादित्याह-सः-प्राचार्योsन भाव्यम् , तदन्तयासिना च तपःसमयगुप्तेन निःसङ्गेन
क्षोभ्यदकल्पः , सर्वतः-सर्वप्रकारतयेन्द्रियनोइन्द्रियरूपच विहसव्यमिति, एतत्प्रतिपादनसम्बन्धेनायातस्यास्यो- या गुपया गुप्त इत्येतत्पश्य प्राचार्यव्यतिरेकेशान्येऽयेद्देशकस्यादिसूत्रम्
वम्भूता बहवः साधवः सम्भवन्तीत्येतन्निर्दिदिशुराह-ह
मनुष्यलोके पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः महर्षयो-महामुनयः ससे येमि, तं जहा-अविहरए पडिपुरमे समंसि भोमे
न्ति इत्येतत्पश्य, किंभूतास्ते महर्षय इत्यत आह-केचिट्ठइ उबसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमझ
वलमाचार्या इदकल्पा ये चान्ये साधवस्तेऽपि इदकल्पाः, गए से पास सब्बो गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य | किम्भूताः ?, प्रकर्षण शायतेऽनेनेति प्रशानम्-स्वपरावपनाणमंता पबुद्धा प्रारम्भोवरया सम्ममेयंति पासह, भासकवादागमस्तवन्तः-प्रशानवन्तः श्रागमस्य घेत्तार कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्ति बेमि । (मु०-१६० )
इत्यर्थः , तज्मा अपि मोहोदयात् कचिद्धेतूदोहरणा
सम्भवे शेयगहनतया संशयानाः न सम्बक श्रद्धान वि. 'से' शब्दस्तच्छब्दार्थे, यद्गुण प्राचार्यों भवति तदहं
दध्युरित्यतो विशिनष्टि , प्रवुद्धाः-प्रकर्षेण यथैव तीर्थतीर्थकरोपदेशानुसारेण ब्रवीमीति , तद्यथेति पाक्योप
कृदाह तथवावगततरवाः प्रबुद्धाः, तथाभूता अपि कर्मन्यासाथै, अपिशब्दो भङ्गसमुच्चयार्थः . ते चामी भहाः
गुरुत्वान्न सावद्यानुष्ठानविरतिं कुर्युरित्यतो विशेषयतिएको हदो- जलाशयः परिगलस्रोताः पगिलस्रो
प्रारम्भोपरताः प्रारम्भः-सावद्यो योगस्तस्मादुपरता श्राताश्च , सीतासीतोदाप्रवाहहदवत् , अपरस्तु परिगलस्रो
रम्भोपरताः, पतञ्च न मदुपरोधेन ग्राह्यम् अपि तु स्वत ताः नो पांगलस्रोताः, पद्मइदवत् , तथा अपरो नो
एव कुशाग्रीयया बुद्धया क्विायमित्याह-एतद्यन्मया परिगलस्रोताः पर्यागलस्रोताच, लवणोदधिवत् , अ
प्रोक्तं तत्सम्यग् मध्यस्था भूत्वा समर्यादं यूयमपि पश्यत । परस्तु नो परिगलस्रोता नो पर्यागलस्रोताच, मनुष्य
अपि चैतत्पश्यत-कालः-समाधिमरणकालस्तदभिकालोकादहिः समुद्रवत् । तत्राऽऽचार्यः श्रुतमङ्गीकृत्य प्रथम
क्षया साधवो मोक्षाध्वनि-संयमे परिः-समन्ताद् व्रजन्ति भङ्गपतितः, श्रुतस्य दानग्रहणसद्भावात् , साम्परायिक
परिव्रजन्ति-उपगच्छन्ति, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, प्रवीमीकर्मापेक्षया तु द्वितीयभङ्गपतितः , कषायोदयाभावेन
त्येतत्प्रकरणोद्देशकाध्ययनश्रुतस्कन्धानपरिसमाप्तौ प्रयुज्यते, ग्रहणाभावात्तपःकायोत्सर्गादिना क्षपणोपपत्तेश्चेति , श्रा
तदिहाधिकारपरिसमाप्तौ द्रष्टव्यमिति । लोचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः श्रालोचनाया अप्रतिश्रावित्वात् , कुमार्ग प्रति चतुर्थभङ्गपतितः, कुमार्गस्य प्राचार्याधिकारं परिसमापय्य विनेयवक्तव्यतामाहहि प्रवेशनिर्गमाभावात् , यदिवा- धम्मभेदेन भङ्गा यो- वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं, ज्यन्ते-तत्र स्थविरकल्पिकाचार्याः प्रथमभङ्गपतिताः , पियानो ति अगिता मेm द्वितीयभापतितस्तीर्थकृत् , तृतीयभङ्गस्थस्त्वहालन्दिकः , म च कचिदर्था परिसमाप्तावाचायादेनिर्णयसद्भा
अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निविले ।। वात् , प्रत्येकबुद्धास्तूभयाभावाच्चतुर्थभङ्गस्था इति , इह (सू०-१६१) पुनः प्रथमभङ्गपतितेनोभयसद्भाविनाऽधिकारः , तथा- विचिकित्सा या चित्तविप्लुतिः यथा-इदमयस्तीत्येवभूतस्यैवायं इदष्टान्तः , स च हृदो निर्मलजलस्य
माकारा, युक्त्या समुपपन्नेऽप्यर्थे मनिविभ्रमो मोहोदयानप्रतिपूर्णो जलजैः सर्व जैरुपशोभितः समे भूमागे विद्य
वति , तथाहि-अस्य महतस्तप-क्लेशस्य सिकताकणकमानोदकनिर्गमप्रवेशो नित्यमेव तिष्ठति , न कदाचिच्छो
वलनिःस्वादस्य स्यात् सफलता न घेति ?, रुचीवलाषमुपयाति , सुखोत्तारावतारसमन्वितः , उपशान्तम्-अ- | दिक्रियाया उभयथाऽपयुपलब्धेरिति , इयं च मतिर्मिपगतं रजः कालुण्यापादकं यस्य स तथा , नानाविधांश्च | च्यात्वांशानुवेधाद्भवति मेयगहनन्याश्च । तथाहि-अर्थयादसा गमान संरक्षन् सह बा यादोगणैरात्मानमारक्षन् | त्रिविधः सुखाधिगमो, दुरधिगमो-इनधिगमश्च, धोतारं प्र
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( ७०६. अभिधान राजेन्द्रः ।
योगसार
ति मिथते, तत्र सुवाधिगमो यथा चक्षुष्यतचित्रकनिपुकस्य रूपसिद्धि, दुरधिगमस्त्वनिपुणस्य, अमधिग मवन्धस्य तत्रानधिगमरूपोऽवस्त्येव सुखाधिगमस्तु विचिकित्साया विषय एव न भवति देशकालस्वभावविमस्तु विचिकित्सागोचरीभवति । तस्मिन् धर्म्माध
काशी या विचिकित्सेति यदि वा विमिच्छ सिसि विशंसः साधयो विदितसंसारस्यभा
परित्यक्त समस्तसङ्गास्तेषां जुगुप्सा - निन्दा अस्मानात् अस्वेदजलमित्यादुर्गन्धिवपुचस्ताचिदति को दोष स्पायरि मासुकेन वारिणा कालनं कुर्वीरखित्यादिगु सातां विचिकित्सां विद्वज्जुगुप्सां वा सम्यगापन्नः -प्राशः आत्मा यस्य स तथा तेन विचिकित्सा समापन्नेनारमना नोपलभते समाधिम् - वित्तस्वास्थ्यं ज्ञानदर्शनचारिजात्मको वा समाधिस्तं न लभते विचिकित्साकलुषिसान्तःकरणो हि कथयतोऽप्याचार्यस्य सम्यक्त्वाल्यां बोधि नाथाप्रोति। यथावाप्नोति स गृहस्थो या स्वाद्यतिर्वेति दर्शयितुमाह- सिता:- पुत्रकलत्रादिभिरवबद्धाः, वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरमाह- एके लकम्मणः सम्यक्त्वं प्रतिपादयन्तमाचार्थमनुगच्छन्तिआचार्यो प्रतिपद्यन्ते, तथा असिता वा गृहवासविमुक्ता वा एके - विचिकित्सादिरहिता आचार्यमार्गमनुगच्छन्ति । ते यांमध्ये यदि कधित् कटुकदेश्यः स्यात् स तान् प्रभूताननपाचीनमार्गप्रतिपन्नानवलोक्यासावपि कर्म्मविरखः प्रतिपद्येनापीति दर्शयितुमाह-प्राचार्योकं सम्यकत्वमनुगच्छद्भिरिताविरतेः सह संघसंस्तैर्वा पोद्यमानोमनुगच्छन्- अमतिपद्यमानः कथं न निर्वेदं गच्छेद् अनुष्ठा मस्य मिथ्यात्वादिरूपां विचिकित्सां परित्यज्याऽऽचार्यो सम्यक्त्वमेव प्रतिपद्येतेत्यर्थः, यदि वा सितासितैराचायक्रमनुगच्छद्भिरयगण्यमानः सथिरानोद मान्मतिजायतया उपकादिधिरप्रमजितोऽप्यननुगच्छन्अमवधारयन् कथं न निर्विद्येत ?, न निर्वेदं तपः संयमयोर्गनिर्विषमपि भावयेत् यथा-नाई भव्यः स्यांन मे संयतभावो ऽप्यस्तीति, यतः-स्फुटविकटमपि कथितं ना. बगच्छामि एवं च निर्वित्तस्याचार्याः समाधिमाहु:-- थथा मोः साधो मा विषादमयलम्बिष्ठा, भन्यो भवान् यतो भवता सम्यक्त्वमभ्युपगतम्, तच्च न प्रन्थिभेदमृते तदध न भव्यत्वमृत, अभव्यस्य हि भव्याभव्यशङ्काया अभावादिति भावः ।
,
किं चार्य विरतिपरिणामी द्वादशकपाययोपशमाद्यम्यतमसद्भावे सति भवति, स च भवताऽपातः तदेवं द नचारित्रमोहनीये भवतः क्षयोपशमं समागते, दर्शनवा - रित्रान्यथानुपपत्तेः, यत्पुनः कथ्यमानेऽपि समस्तपदार्थावगतिर्न भवति तज्ज्ञानावरणीयषितम्, तत्र च अदानरूपं सम्यक्त्वमालम्बनमित्याह
तमेव सच्च नीसकं, जं जिणेहिं पवेइयं । (सू०-१६२ ) यत्र क्वचित्स्वसमयपरसमयज्ञाऽऽचार्याभावात् सूक्ष्मव्यवद्वितातीन्द्रियपदार्थेधूमयसिद्ध र हान्तसम्यगृहेत्वभावाच्च ज्ञानावरणीयोदयेन सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि शङ्काविचिकिसादिति इदं भावयेत्, यथा-तदेवैकं सत्यम् - अवि
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लोगसार
तथम् निःशङ्गमिति भई दुलेग्यत्यन्त सूक्ष्मेध्यतीन्द्रियेषु पसागमप्राप्यप्येवं स्थात्, पत्र वा इत्येवमाकारा - शीतिः-शङ्का निर्गता शङ्का यस्मिन् प्रवेदने तन्निःशङ्कम्, यकिमपि धर्माधर्म्माकाशपुङ्गलादिप्रवेदितम् कैः ? - जिनैःतीर्थकरे रागद्वेषजयनशीले तरास्यमेवेत्येवम्भूतं श्रद्धानं विधेष सम्यपदार्थावगमेऽपि पुनर्विचिकित्सा कार्येति किं यतेरपि विचिकित्सा स्पाद्येनेदमभिधीयते ? संसारानो मोडोदयातकिय स्थादिति तथा चागमः"मेते! समया यि निम्था कंसामोदणि कम्मं येरैति, हंता अस्थि कह समय विधि केखामोदणिज्जं कम्मं वेयंति !, गोयमा ! तेसु तेसु नारान्तरेसुचरितंतरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावचा भेयसमावना कलुससमावन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणा वि निम्गंधा कंसामोहसिक येति तस्थातंच 'तमेव सर्व सीस जिद्दि पवेइयं से खूपं भंते वर्ष मयं धारेमाये आसार आराहर भवति, ईता गोवमा! एवं मयं धारेमा आणाय श्राराहप भवति " किं चान्यत् -" बीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ते कचित्। यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १ ॥" इत्यादि ।
सा पुनर्विचिकित्सा प्रविवजिबोर्भवत्यागमापरिकमितमतेः, तत्राप्येतत्पूर्वी भाषयितव्यमित्याह
सहिस्स से समस्स संपव्वयमाणस्स समियं ति ममाणस्स एगया समिया होइ १, समियं ति मममाबस्स एगया असमिया होड़ २ (०१६३+)
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"
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श्रद्धा - धम्मैच्छा सा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावस्तस्य समनुज्ञस्य - संविग्नविहारिभिर्भाषितस्य संविप्रादिभिर्वा गुरोः प्रवज्याईस्य संप्रजतः सम्यकृयामभ्युपगतो विचिकित्सा शङ्का भवेत् तत्रेतस्य सम्पन्जीयादिपदार्थावधारणाशक्तस्येदमुपदेष्टव्यम्, यथा-तदेव सत्यं निःशङ्कं यजिने प्रवेदितमिति तदेवं प्रवज्यावसरे तदेव सत्यं नि जिनः प्रवेदितमित्येवं वचोपदेशं प्रवर्तमानस्य प्रवर्द्धमानकण्डकस्य सत उत्तरकालमपि तदधिकता तत्समता तन्यूनता तदभावो वा स्यादित्येवंरूपां विचित्र परिणामतां दर्शयितुमाह-तस्य श्रद्धावतः समनुज्ञस्य संप्रव्रजतस्तदेव सत्यं निःशङ्कं पनेिः प्रवेदितमित्येतत्सम्यगित्येव मन्यमानस्य एकदा इति उत्तरकालमपि शाकाविचिकित्सादिरहिततया सम्यगेव भवति न तीर्थकरभाषिते शङ्काद्युत्पद्यत इति १ कस्यचित्तु प्रवज्यानसरे श्रद्धानुसारितया सम्यगिति मन्यमानस्य तदुत्तरकालमधीतान्वीक्षिकीकस्य दुर्गहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य शेयगहनताव्याकुलितमतेः 'एकदे' ति मियात्योदये सम्यगिति भवति तथाहि असो सर्वनयसमूद्राभिप्रायतया अनन्तधर्माध्यासितुसाधनेसति मोहादेकनयाभिप्रायेणैकांशसाधनाय प्रक्रमते, यदि नियं कथमनित्यमनित्यं चेत्कथं नित्यमिति, परस्परपरिहारलक्षयतयाऽनयोरवस्थानात् तथाहि--अतानु पद्मस्थिरैकस्वभावं हि नित्यम् श्रतोऽन्यत्प्रतिक्षणविशरारुरूपमनित्यमित्येवमादिकमसम्यग्भावमुपयाति न पुनर्विवेचयति,
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अभिधानराजेन्द्रः। यथा-अनन्तधम्माध्यासितं बस्तु सवैनयसमूहात्मकं च | वं पर्यावाचयपरस्याप्युपदेशदानायालमिति, मारदर्शनमतिगहनं मन्दधियां श्रद्धागम्पमेव न हेतुक्षोभ्यमिति । | भागमपरिकम्मितमतित्वायथावस्थितप्यायसमावदर्शितउक्तं च-" सनयैर्नियतनैगमसंग्रहाचै-रेकैकशो विहितती-| या सम्यगसम्यगिति चोत्प्रेक्षमाणः-पर्यालोक्यचरमर्थिकशासनैर्यत् । निष्ठां गतं बहुविधैर्गमपर्ययैस्तैः, श्रद्धेय- त्प्रेक्षमाणं गडरिकायूथप्रवाहप्रवृत्तं गतानुगतिकन्यायानुमेव वचनं न तु हेतुगम्यम् ॥१॥” इत्यादि, यतो हेतुःप्र- सारिणं शक्या वाऽपधावन्तं ब्रूयात् , यथा-उत्पेशल-पवर्तमानः एकनयाभिप्रायेण प्रवर्तते, एकं च धम्म साधयेत्। र्यालोचय सम्यग्भावेन माध्यस्थ्यमवलम्ब्य किमेतवर्षक सर्वधर्मप्रसाधकस्य हेतोरसम्भवादिति २।('असमिय' जीवादितत्त्वं घटामियाहोश्विनेत्यक्षिणी निमीत्य चिशब्दे प्रथमभागे ८४४ पृष्ठे सूत्रं गतम् । ) व्याख्याचेयम्-यदि न्तयेति भावः , यदिवा-उत्प्रेक्षमाणः संयमम् उत्-प्राकहि पौरालिकः शब्दो न स्यात् ततस्तत्कृतावनुग्रहोपघातौ श्र- ल्येनेक्षमाणः-संयमे उद्यच्छन्ननुत्प्रेक्षमासं घूयात् , यथावणेन्द्रियस्स न स्याताम् , अमूतत्वादाकाशवदित्यादिकं सम्यम्भावापन्नः सन् संयममुत्प्रेक्षस्व-संयमे उद्योगसम्यग् भवति ३। कस्यचिस्वागमापरािमलितमतेः कथ- रु। किमवलम्ब्येत्याह-त्येवं-पूर्वोक्न प्रकारेण वत्रमेकेनैव समयेन परमाणोर्लोकान्तगमनमित्यादिकमसम्य- तस्मिन् संयमे सन्धिः-कर्मसन्ततिरूपो झोषित:गिति मन्यमानस्यैकदेति-कुहेतुवितर्काविभावावसरे नित. ज्ञपितो भवति , यदि संयमे सम्यग्भावे बोप्रेक्षणं स्यारामसम्यगेव भवति, तथाहि-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोक- त् , नान्यथेति । सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य च यत्स्याचदारस्याचन्ताकाशप्रदेशयोः समयाभेदतया यौगपद्यसंस्पर्शात् (से) तस्य-सम्यगुत्थानेनोस्थितस्य निःशास्य भयावतः सावन्मात्रता परमाणोः स्यात् , प्रदेशयोलॊकान्तद्वयगतयो-| | स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां चा या गतिर्भवति-याबैंक्यमित्यादिकमसम्यगिति भवति, न त्वसौ स्वाग्रहाविष्ट पदवी भवति तां सम्यगनुपश्यत यूयम् , तद्यथा-सकएतद् भावयति, यथा-विनसा परिणामेन शीघ्रगतित्वात् ललोकरलाध्यता शानदर्शनस्थैर्य चारित्रे निषकम्पवा परमाणोरेकसमयेनासंख्येयप्रदेशातिकमणम् , यथाहि-त्रा श्रुतबानाधारता च स्यादिति , पविषा-स्वर्गापवर्गादिश लिद्रव्यमेकसमयेनासंख्येयानप्याकाशप्रदेशानतिलायति , गतिः स्यात् , तां पश्यतेति सम्बन्धः, अथवा-उत्थितएतदेव कुत इति चेत्, न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम,न च सकल- स्य-संयमोयोगवतः तदभावेन च स्थितस्य पार्श्वस्था प्रमाणप्रत्यक्षसिद्ध अर्थेऽनुमानमन्वेष्टव्यम् , तथाहि-यधने- गतिम् सकलजनोपहास्यरूपामधमस्थानगति वा पश्यतेकप्रदेशातिक्रमणं सामयिकं न भवेत् ततोलमात्रमपि ति। तदेवमुधुक्ततरयोगतिमुपलभ्य पचविधाचारसारे प्रक्षेत्रमसंस्येयसमयातिक्रमणीयं स्यात् , तथा च सति रहे
क्रमितव्यम् , यदि नामानुपस्थितस्य विरूपा गतिवति एबाधाऽऽपयेतेति, बत्किञ्चिदेतत् ४।।
ततः किमित्याह-अत्रापि-प्रसंयमे-बालमावरूपे इतरसाम्प्रतं भङ्गकोपसंहारद्वारेण परमार्थमाविर्भावयत्राह
जनाचरिते मात्मानं सकलकल्याणास्पदं नोपदर्शयेत् । समियं ति मनमाणस्स समिया वा असमिया वा समि- वालानुष्ठानविधायी मा भूदिति यावत् , तथाहि-पामा होइ उवेहाए ५, असमियं ति मन्त्रमाणस्स समिया लाः शाक्यकापिलादयस्तद्भावितो बालमावमाचरति, 4वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए ६, उवेहमाणो क्लि च-नित्यत्वादमूर्तत्वाच्चात्मनः प्राणातिपात ख अणुवेहमाणं व्या-उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी
नास्त्याकाशस्येव , न हि वृक्षादिच्छेदे दाहे वाऽऽकाश
स्य भिदा लोपो वा स्यात् पवमात्मनोऽपि शरीरविकारेऽझोसियो भवइ, से उट्ठियस्स ठियस्स गई समणुपासह,
विकारित्वम् । उक्नं च-"न जायते म्रियते वा कदाचिइत्थ वि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिञ्जा। (सू० १६३+) सायं भूत्वा भवितेति ॥ " "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि,
सम्यगित्येवं मन्यमानस्य शङ्काविचिकित्सादिरहितस्य स- नैनं दहति पावकः । न चैनं केदयन्त्यापो , न शोषयतस्तद्वस्तु यत्नेन तथारूपतयैव भावितं तत्सम्यग्वा स्या- ति मारुतः॥१॥अच्छेद्योऽयमदायोऽय-मक्रेद्योऽशोष्य एव इसम्यग्वा , तथापि तस्य तत्र सम्यगुत्प्रेक्षया-पर्यालो- च । नित्यः सर्वगतः स्थाणु-रचलोऽयं सनातनः॥२॥" चनया सम्यगेव भवति , ईर्यापथोपयुक्तस्य कचित्प्राण्यु- इत्यादि। पमर्दयत् ५ । साम्प्रतमेतद्विपर्ययमाह-असम्यगिति कि- अध्यवसायात्तद्धननादौ प्रवृत्तस्य तत्प्रतिषेधार्थमाहश्चिद्वस्तु मन्यमानस्य शङ्का स्यादर्वाग्दर्शितया छमस्थस्य तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सतस्तद्वस्तु सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तस्य तदसम्यगेवो
सच्चेव जं अजावेयध्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सचेव प्रेक्षया असम्यकपर्यालोचनतयाऽशुद्धाध्यवसायतयेति-- यावत् । यद्यथा शङ्कयत्तत्तव समापद्यते ' ति व-|
जं परियावेयव्वं ति मनसि, एवं जं परिचित्तव्वं ति मनA RATHIया सि, जं उद्दवेयं ति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी , धन्यथा व्याख्यायते--शमिनो भाषः शमिता इतिः-उ-1 (सू०-१६४४) पप्रदर्शने , तामेतां शमितां मन्यमानस्य शुभाध्यवसायि- | योऽयं हन्तव्यत्वेन भवताऽध्यवसितः स त्वमेष, नामनः 'एकदे' युसरकालमपि शमितेव भवति--उपशम-| राब्दः सम्भावनायाम् , यथा-भवान् शिरःपाणिपादपार्श्ववत्तवोपजायते , अभ्यस्य तु शमिनामपि मन्यमानस्य- पृष्ठोसदरवान् एवमसावपि यं हन्तव्यमिति मन्यसे, यथा कषायोदयादशमितोपजायत इति अनया दिशोत्तरभने । च भवतो हननोद्यतं दृष्ट्वा दु:खमुत्पद्यते एवमन्येषामपि, वपि सम्यगुपयुज्याऽऽयोज्यमिति । तदेवं सम्यगसम्यगित्ये- तद्दुःखापादनाच्च किल्विषानुषतः । इदमुक्तं भवनि
भवितेतिनेजा
सम्यगुत्सम्यायाम नैनं
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(105) अभिधानराजेन्द्रः ।
लोगसार
लोगसार
मात्रान्तरात्मनः आकाशदेशस्य व्यापादनेन हिंसा, अपि तु शरीरात्मनः, तस्य हि यत्र कचित्स्वाधारं शरीरं नितदतिं तद्वयजीकरणमेव हिंसेति । उक्तं च"पधेन्द्रियासि त्रिविधं बलं च उच्हासनिःश्वासमधान्यवायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ला - स्तेषां वियोजीकरणं
द्विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्ते तत ऊर्ध्वं श्रोतांसि - वैमानिकाङ्गनाऽभिलापेच्छा वैमानिकसुखनिदानं वा. अधोभवनपति सुखाभिलाषिता तिर्यग्व्यन्तरमनुष्यतिर्यग्यषयेच्छा, यदि वा प्रज्ञापकापेक्षभारनितम्बप्रपातोदकादीनि अधोऽपि श्वभ्रनदीकूलगुहालय
तु हिंसा ॥१॥ न च संसारस्यस्य सर्वथा अमुनादीनि तिर्यगध्यारामसभाऽऽवसादीनि प्राणिनां विष
योपभोगस्थानानि विविधमाहितानि प्रयोगचित्र साभ्यां स्वकर्म्मपरिणत्या वा जनितानि व्याहितानि एतानि व कर्मास्रवद्वाराणीति कृत्वा श्रोतांसीव श्रोतांसि भि श्व त्रिभिः प्रकारैरप्यन्येच पापोपादानहेतुभूतैः समप्राणिनामा सकिनु वा पश्यत इति त
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त्वावाप्तिः, येनाकाशस्यैव विकारो न स्यात्, सर्वत्रैव च प्राण्युपमदचिकीर्षितायामात्मतुल्यता भावयितव्येत्येतदुत्तरसूत्रर्वर्शयितुमाह-त्वमपि नाम स एव यं प्रेपणा - दिना आशापयितव्यमिति मन्यसे तथा त्वमपि नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे एवं यं परिग्रडीतयमिति मन्यसे यमपद्रावयितव्यमिति मन्यसे अकस्मात्कर्मानुषङ्गात् कारणादेतानि श्रोतांसीयतोऽपरिपत्वमेव यथा भवतो ऽनिष्टापादनेन दुःखमुत्पद्यते एवम- ते, आगमेन सदा पराक्रमेया इति । स्थापीत्यर्थः, यदिवा-यं कार्यं हन्तव्यादितया ऽध्यवस्यसि तत्रानेकशो भवतोऽपि भावास्वमेवासी, एवं मृषावादादावण्यायोज्यम् । यदि नाम हन्तव्यघातकयोरुरुक्रमे रौयं ततः किमित्याह-' अम्बु रिति ऋजु मगुराः साधुरिति यावत् यशब्दोऽवधारणे, एतस्य हन्तव्यघातकेकत्वस्य प्रतियोधः प्रतिमेतत्प्रतिद्धं तेन जीवितुं शीतमस्येत्येतदिजयी साधुरेव तत्परिज्ञानेन जीवति मापर इत्युकं भवति (आचा०) ('सम्हा' इत्यादिसूत्राणि सव्याख्यानि 'आता' शब्दे द्वितीयभागे २०० पृष्ठे गतानि । ) अवधा च किं कुर्यादित्याह
तु हा इत्थ विरमित्र वेयवी, विणइत्तु सोय निक्खम्म एसमहं कम्मा जागड़ पासइ पडिलेहाए नावर्कखइ इह आगई गई परिन्नाय । ( सू० १६६ )
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रागद्वेषकषायविषयावर्त्त कर्मबन्धावर्त्त वा तुशब्दः पुनः शब्दार्थे, भावाच पुनरुत्प्रेक्ष्य अम-अस्मिन् भाबाव विषयरूपे वेदविद्-श्रागमविद् रिमेद्-ग्रामचद्वारनिरोधं विदध्यात् पाठान्तरं या “ विवेगं किट्टर बेदी " आवद्वारनिरोधेन तज्जनितकम्मविवेकम्-प्र आप कीर्तयति प्रतिपादयति वेदविदिति । खवारनिरोधेन च यत्स्यात्तदाह-स्रोतः-- श्रान्नवद्वार तांद्रेनेतुम अपने निष्कस्यज्य इति प्रस्तुतार्थस्य वायश्यमावित्यादेव इति प्रत्यक्षवाचिना - र्वनाम्नोक्लो यः कश्विदित्यर्थः महान् महापुरुषः अतिशपिककर्म्मविधायी, एवम्भूतकिपिशिए स्वादिति द संपति अम्मास्य कर्म विद्यत इत्यम्मी
निदेसं नाइवट्टेज मेहाची सुपाडिले दिया सवओो सब्दपणा सम्मं समभियाय, इह धारामो परिव्वए सिट्ठि यी वीरे आगमेण सया परक्कमे । ( सू० १६८ )
निर्दिश्यत इति निर्देश तीर्थकरापदशस्तं नातिय मेधायी मर्यादावानिति । किं कृत्वा निर्देशनतेत्यत आह-मुण्डु प्रत्युपेक्ष्य हेयोपादेयतया तीर्थकवादान् सवश्वा च सर्वतः सर्वैः प्रकारव्यक्षेत्रकालभावरूपे सर्वात्मना सामान्यविशेषात्मकतया पदाधन पर्यालोच्य सह सन्मत्यादित्रिकेण परिच्छिद्य सदाऽऽ चार्यनिर्देशवर्ती तीर्थिकप्रवादनिराकरणं कुर्यात् किं चकृत्येत्यत आह-सम्यगेव स्वपरतीर्थिकवादान् समभिशाय-- बुड्ढा ततो निराकरणं कुर्यात् । किं च-ह-अस्मिन् मनुष्यलोके आरमारामो रतिरित्यर्थः स चारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकैकान्तिकरतिरूपः संयमः तमासेयमपरिश्या परिक्षाच आलीनो गुप्ता परिवजेत्संयमानुष्ठाने विहरेत् किभूत इत्याह-निष्ठितो-मोक्षस्तेनार्थी, यदि वा निष्ठितः परिसमाप्तः श्रर्थः- प्रयोजनं यस्य स निष्ठितार्थः पौराः कर्म्मविदारण सहिष्णुः सन् श्रगसेन - सर्वशप्रणीताचारादिना सदा सर्वकालम् परा*मेथाः कर्मरिपून् प्रति मोक्षाध्वनि वा गच्छेः । इतिःअधिकारपरिसमाप्ती ब्रवीमीति पूर्ववत् ।
किम पुनः पौनःपुन्येनोपदेशाममित्याह-उड्डुं सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया । एए सोया व अक्खाया, जेहि संगति पासह ॥ १ ॥ श्रोतांसि द्वाराणि तानि च प्रतिययाभ्यासा
तन्निराकरणे च यत्स्यात्तदाहअचर जाईमरणस्स व विक्खावर सच्चे स रा नियति, तक्का जत्थ न विज्जह, मई तत्थ न गाहिया, ओए, श्रद्वाणस्स खेयने, से न दीहे न इस्से न बट्टे न तसे न चउरंसे न परिमंडले न किराहे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुने
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देवचाच धातिकविपक्षितम् भाषा जानाति विशेषतः पश्यति च सामान्यतः सर्वाश्च लब्धयो विशेषोपयुक्तस्य भवन्तीत्यतः पूर्व जानाति पश्चात पश्यति । अनेन च ऋमोपयोग श्राविष्कृतः स चोत्पन्नदिव्यज्ञान स्त्रैलोक्यलला मचूडामणिः सुरासुरनरेन्द्रक पूज्यः संसारार्णवपारवतीं चितिषेधः सन् किं कुर्यादित्याहस हि ज्ञातशेयः सुरासुरनरोपहितां पूजामुपलभ्य कृत्रिमामनित्यामसा सोपाधिकां च प्रत्युपेत्य पर्या सोग्य पीकविजय जगतसुखनिःस्पृहतया तां नाकाकृति भितीति किं अस्मिन् मनुष्यलोके व्यवस्थितः सन् उत्पन्नज्ञानः प्राणिनामागतिं गति व संसारभ्रमणं तत्कारणं च परिक्ष्या ज्ञात्वा प्रत्यास्थानपरिक्षा निराकरोति ।
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खोगसार अभिधानराजेन्द्रः।
लोगहिय न सुरभिमंधेन दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न | कहा, न कहोऽरुहः, कर्मबीजाभावादपुनर्भावीत्यर्थः, अंबिले न महरे न करखडे न मउए न गरुए न ल
न पुनर्यथा शाक्यानां दर्शननिकारतो मुक्तात्मनोऽपि पु
नर्भवोपादानमिति । उक्नं च-"दग्धेन्धनः पुनरुपैति भहुए न उण्हे न निद्वे न लुक्खे न काऊ न रुहे न
वं प्रमथ्य , निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वमंगे न इत्थी न पुरिसे न अनहा परिने सने उव
यंकृतभवश्व परार्थशूर-स्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यमा न विजए , अरूवी सत्ता , अपयस्स पयं नs- म् ॥१॥" तथा च-न विद्यते सङ्गोऽमूर्तत्वाचस्य स तथि। (सू०-१७०)
था , तथा न स्त्री न पुरुषो नान्यथेति-न नपुंसकः, के
वलं सर्वैरात्मप्रदेशैः परिः-समन्ताद्विशेषतो जानातीति अन्येति-प्रतिक्रामति जातिश्च मरणं च जातिमरणं
परिक्षः, तथा सामान्यातः सम्यग्जानाति-पश्यतीति संबः, नम्य ' वट्टममा ति पन्थानम्-मार्गम् उपादानं कम्मेंति यावत , तदत्यति-अशेषकर्मक्षयं विधते , तत्क्षया
शानदर्शनयुक्त इत्यर्थः, यदि नाम-स्वरूपतो न ज्ञायते कि गुम्मः स्यादिस्याह-विविधम्-अनेकप्रकारं प्रधान
मुक्तात्मा तथाऽव्युपमाद्वारेगादित्यगतिरिव शायत एव इति पुरुषाधतयाऽऽरब्धशास्त्रार्थतया तप संयमानुष्ठानार्थत्वेन
चेत्, तन्न, यत पाह-उपमीयते सादृश्यात् परिच्छिद्यते यया । व्याख्यातो मोन:---अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशन
सोपमा-तुल्यता सा मुक्तात्मनस्तपक्षानसुखयोर्वा न विद्यते , देशाच्या चा तत्र रतो-व्याख्यातरतः, श्रात्यन्ति कैका
लोकातिगत्वात्तेषाम् , कुत एतदिति चेदाह-तेषां मुक्तारमनां न्तिकाना बाधसुखक्षारिकशानदर्शनसंपतोऽनन्तमापे का
या सत्ता सा अरूपिणी, अरूपित्वं च दीर्घादिप्रतिषेधेन लतिरले । किम्मत दांत ने तत्र शब्दानां प्रवृ
प्रतिपादितमेव । किंच-न विद्यते पदम्-अवस्थाविशेषो तः नन्द या कावस्थास्त शस्रभिधीयेत -
यस्य सोऽपदः, तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम्-अभिहोनापारमिता-सई-निरन शेषाः स्वरा-ध्वनय
धानं तश्च नास्ति-न विद्यते, वाच्यविशेषाभावात्। स्तम्माएकरवाते नधान्यवाचकसम्बनो न प्रवन्ते , त- तथाहि-योऽभिधीयते स शब्दरूपगन्धरसस्पर्शान्यतरविशेशाह न पर्नमाना रूपरमगन्धस्पर्शानामन्यतमे षेणाभिधीयते, तस्य च तदभाव इत्येतदर्शयितुमाह-यदि विशेष सङ्केतकालगृहीते तनन्ये या प्रवर्तेरन् , न चैत- वा-दीर्घ इत्यादिना रूपादिविशेषनिराकरणं कृतम्। हतु तत्र शादादीनां वृत्तिनिमित्तमस्ति, भातः शब्दानभिधे- सत्सामान्यनिराकरणं कर्तुकाम पाह
नावति । न केवलं शब्दानामधेया, उत्प्रेक्षणी-1 सेन सद्दे न रूवे न गंधे न रसे न फासे, इव सि यापिन सम्भवतीत्याह-सम्भवत्पदार्थविशेषास्तित्वाध्य वमायः, ऊहस्तर्क:--एवमेवं चैतत्स्यात् , स च यत्र न
बेमि । (सू०१७१) विद्यते ततः शब्दानां कुतः प्रवृत्तिः स्यात् ?। किमिति स-मुक्तात्मा न शब्दरूपःन रूपात्मा न गन्धःम रसान स्पर्श नत्र तकाभाव इति चेदाह-मननं मतिः--मनसो व्या- इत्येतावन्त एव वस्तुनो भेदाः स्युः, तत्प्रतिषेधाच्च भापर: पारः पदार्थचिन्ता सौत्पत्तिक्यादिका चतुर्विधाऽपि म- कश्चिद्विशेषः सम्भाव्यते येनासौ व्यपदिश्यतेति भावार्थः । तिस्तत्र न ग्राहिका, मोक्षावस्थायाः सकलविकल्पाती- इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमिति पूर्ववत् । प्राचा०१४० तत्वात् , तत्र च मोक्षे काशसमन्वितस्य गमनमाहो- ५० ६ उ० । श्विनिष्कर्मणः ? , न तत्र कर्मसमन्वितस्य गमनमस्ती-| लोगसारत्थ-लोकसारार्थ-पुं० । त्रैलोक्यप्रधानविजये, ०२ स्येतदर्शयितुमाह-ओजः-एकोऽशेषमलकलकाङ्करहितः, किं चन विद्यते प्रतिष्ठानमौदारिकशरीरादेः कर्मणो वा य-लोगसिद्धिवासि-लोकसिद्धिवासिन-पुंज चतुर्दशरज्ज्वात्मके प्र सोऽप्रतिष्ठानो-मोक्षस्तस्य खेदो-निपुणो, यदि वाअप्रतिष्ठानो नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिक्षानतया खेदशः ,
लोकान्ते या सिद्धिः प्रशस्तक्षेत्ररूपा तद्वासिनाईषत्माग्भारालोकनाडिपर्यन्तपरिक्षानावेदनेन च समस्तलोकखेदाता
वासिषु सिद्धेषु, पं० सू०५ सूत्र । श्रावेदिता भवति । सर्वस्वरनिवर्तनं च येनाभिप्रायेणो- लोगासरा-लोक
लोगसिरी-लोकश्री-स्त्री० । स्वनामख्याते ज्योतिष्कन्थे. क्लवांस्तमभिप्रायमाविष्कुर्वनाह-सा-परमपदाध्यासी लोका- स्था०६ ठा० ३ उ०। न्तकोशषड्भागक्षेत्रावस्थानोऽनन्तज्ञानदर्शनोपयुक्तः संस्था-लोगहिय-लोकहित-पुं० । लोकस्यैकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य नमाश्रित्य-न दी? न इस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतु- हित आत्यन्तिकतनताप्रकर्षप्ररूपणेनानकलवृत्तिलोकहिरस्रो न परिमण्डलो, वर्णमाश्रित्य-न कृष्णो न नीलोन
तः। स०१ सम । लोकहितेभ्यः 'ह लोकशब्देन सकल लोहितो न हारिद्रो न शुक्लो, गन्धमाश्रित्य--न सुरभि
एव सांव्यवहारिकादिभेदभिन्नः प्राणिवनों प्रद्यते सही गम्धो न दुरभिगन्धो, रसमश्रित्य-न तिलो न कटुको सम्यग्दर्शनप्ररूपणरक्षमा योगेन हितो लोकहितः । १२ न करायो नाम्लो न मधुरः, स्पर्शमाश्रित्य-न कर्कशो न | স্নাঘ। । লীগ থাকলাঙ্গ সাক্ষাখস্কमृदुन लघुर्न गुरुन शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रूक्षो, 'न का स्य वा हितोपदेशेन पर पलया हितो लोकहितः। ॐ इत्यनेन लेश्या गृहीता, यदि या--न कायवान् यथा वे- जीवानां हितकार. प
क्षिा ! rExarस्तिम-1 एव मामा कायमपरे सीसा- कल्प लोकानमाल.ary agram केशा अनुप्रविशन्ति आदित्यरममय इवांशुमन्तमिति , को गाते पञ्चायतको
40 तथा न कहः 'रुह बीजजन्मनि प्रारीवेच' रोहतीति। श्रावण
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लोगागमणीह अभिधानराजेन्द्रः।
खोगुत्तरतत्त. लोगागमणीइ-लोकागमनीति-स्त्री०। लोकन्याये, पञ्चा०९७/ सनमस्कारश्वत्वारिंशलोकोद्योतकरकायोत्सर्गः प्रतिकविव०।
मणहेतुगर्भावानेऽस्ति, पारम्पर्येणापि तथैव क्रियत लोगाणुवित्ति-लोकानपत्ति-स्त्री०। लोकचिसाराधनायाम् ,
इति ॥ २८६ ॥ सेन० ३ उल्ला । दी।
लोगुत्तम-लोकोत्तम-पुं० । लोको-भव्यसत्त्वलोकस्तस्य स. लोगायत-लोकायत-न० । प्रत्यक्षेकप्रमाणवादिना जडमात्र- कलकल्याणैकनिबन्धनतया भव्यसत्त्वभावेनोत्तमः लोपदार्थवादिनां बार्हस्पत्यानां शास्त्र, तस्य लोके विस्तीर्णत्वा
कोत्तमः । जी०३ प्रति०४ अधि० । रा० । लोकस्य सकलखोकायतं नाम । अनु । सम्म० । दश ।
कल्याणनिबन्धनतया भव्यत्वभावेनोत्तमः लोकोत्तमः । ध० जोगायतिग-लौकायतिक-पुं०।चार्षाके वृहस्पतिशिष्ये, सू।
२ अधि० । लोकस्योत्तमश्चतुस्त्रिंशदबुद्धातिशयाद्यसाधा
रणगुणोपपेततया सकलसुरासुरखेचरनिकरनमस्यतया व स०१६०१ १०१ उ०1"पिव खाद च चारुलोचने !, यदतीतं
प्रधानो लोकोत्तमः । स०१ सम० । लोकस्य भव्यसमूहस्य घरगात्रि! तन्नते। न हि भीरु गतं निवर्तते, समुदयमात्र
चतुर्विशदतिशययुक्तत्वाद्वा उत्तमो लोकोत्तमः, सकलसुरामिदं कलेवरम् ॥१॥" आचा०१७०४ अ०२ उ०। ('पु.]
सुरादिवन्द्यमानेषु जिनादिषु, कल्प०१ अधि०१क्षण । भ० । उरीय' शब्दे पञ्चमभागे १५६ पृष्ठे एतन्मतं खण्डितम्)
लोकश्रेष्ठे, भाव०४०। प्रा० चूछ । सोगालोगप्पमाण-लोकालोकप्रमाण-न० । लोकालोकयो
चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा स्तद्वयक्त्योर्यत्प्रमाणमनन्ताः प्रदेशास्तदेव परिमाणमस्येति लोकालोकप्रमाणः । लोकालोकप्रदेशपरिमिते आत्मनि, स्था० |
साहू लोगुत्तमा केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। ५ ठा० ३ उ०।
('पडिकमण' शम्दे पश्चमभागे २७० पृष्ठे चैतद् व्याख्यात
म।) तनिक्षेपस्यापि तन्निबन्धनत्वानिश्चयमतभेदादलोगालोगपवंच-लोकालोकमपञ्च-पुंगालोकेचतुर्दशरज्ज्या
तिसूक्ष्मबुद्धिगम्यमिति लोकोत्तमः । ल । स्मकेमालोको लोकालोकस्तस्य प्रपञ्चः। पर्याप्तापर्याप्तकसुभगाविद्वन्दविकल्पे, तद्यथा-नारको नारकत्वेनावलोक्यते
लोगुत्तमदेव-लोकोत्तमदेव-पुं० । लोकस्य त्रिभुवनान्तर्वतिएकेन्द्रियादिरेकेन्द्रियत्वेनैवं पर्याप्तापर्याप्तकाद्यपि वाच्यम् ।
जनस्योत्तमा लोकोत्तमाः साधवस्तेषां देव आराध्यः । प्रथ
वा-लोकानामुत्तमो लोकोत्तमः, सचासौ देवश्च लोकोत्तमप्राचा०१ श्रु० ३ ० ३ उ०।
देवः । जिने, यीतरगे, दर्श०५ तत्व। लोगालोगावलोयणाभोग-लोकालोकावलोकनाभोग-त्रिका
लोगुत्तममइ-लोकोत्तममति-स्त्री० । सत्यजनप्रधानबुद्धधाम, लोकालोकयोः समयाप्रसिद्धयोरवलोकनम् आभोग उपयो
जिनप्रवचनानुसारिधियाम , पञ्चा० ३ विव०। गोऽस्येति लोकालोकावलोकनाभोगः । लोकालोकमातरि, पो०१५ विव।
लोगुत्तरहिह-लोकोत्तरस्थिति-स्त्री०। लोकातीतमर्यादायाम,
अष्ट०२३ अष्ट। लोगावाई-लोकापातिन्-त्रि० । लोकचतुर्दशरज्ज्यात्मकः प्रा
लोगुत्तरतत्तसंपत्ति-लोकोत्तरतत्त्वसम्प्राप्ति-स्त्री। परमार्थस्य णिगणो वा तत्रापतितुं शीलमस्येति । कोकाकाशमध्यवर्ति
लाभे, पो०। नि, प्राचा०१७०१०१०।
अधुना लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिमाहलोगुजोय-लोकोद्योत-पुं० । लोकप्रकाशे, स्था।
एवं सिद्धे धर्मे, सामान्येनेह लिङ्गसंयुक्त । तिहिं ठाणेहिं लौगुज्जोए सिया, तं जहा–अरहंतेहिं
नियमेन भवति पुंसां, लोकोत्तरतत्वसंप्राप्तिः ॥१॥ जारमायेहिं अरहंतेसु पव्वयमाणेसु अरहंताणं णाणुप्पाय- एवं सिद्धे धर्मे पूर्वोक्तनीत्या सामान्येन लोकलोकोत्तरामहिमासु।
प्रविभागेनेह प्रक्रमे लिङ्गसंयुक्ने-प्रतिपादितनीत्या नियमेनलोकोद्योतो लोकानुभावात् , मनुष्यलोके देवागमाद्वा । नियोगेन भवति-जायते पुंसां-पुरुषाणां लोकोत्तरस्य-लो'णाणुप्पा.' इति । केवलज्ञानोत्पादे देवकृतमहोत्सवेषु । | कोत्तमस्य तत्त्वस्य-परमार्थस्य संप्राप्तिः-लाभ इति । स्था०३ ठा०१ उ०।
इयं च यद्पा यस्मिँश्च काले संभवति तदेतदभिधातुमाहलोगोयगर-लोकोद्योतकर-पुं० । लोकप्रकाशकरे, पाक्षिक
माद्यं भावारोग्यं, बीजं वैषा परस्य तस्यैव । दिने द्वादशानां चतुर्मासक विंशतः सांवत्सरिकदिने चत्वा
अधिकारिणो नियोगा-चरम इयं पुद्गलावते ॥३॥ रिंशतो लोकोद्योतकराणां कायोत्सर्गः क्रियते, तत्किमिति?
श्रादौ भवमाद्यं भावारोग्यम्-भावरूपमारोग्यं तच्चेह अनोत्तरम्-पाक्षिकादिदिवसेषु यत्कायोत्सर्गः क्रियते तत्तु
सम्यक्त्वं तद्रूपत्वाल्लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्ते/जं चैषा-लोप्रतिक्रमणं कुर्वतां यदतीचारशुद्धिर्नाभूतदतीचारशुद्धिनि
कोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिः , परस्य-प्रधानस्य तस्यैव-भावारोगमित्तम् , दिनप्रतिबद्धसंख्यानियमे त्वाशाप्रमाणमिति ॥१५३॥ |
स्य मोक्षलक्षणस्य रागद्वेषमोहानां तनिमित्तानां च जासेन. ४ उल्ला० । सांवत्सरिकप्रतिक्रमणकायोत्सर्गे च.
तिजरामरणादीनां भावरोगरूपत्वात्तदभावरूपत्वाश्च निशेस्वारिंशलोकोद्योतकरान् कथयित्वा तत्प्रान्ते एको नम- यसस्य , अधिकारिणः-क्षीणप्रायसंसारस्य नियोगाजियमेन स्कारो वक्तव्यः पश्चात् कायोत्सर्गः पारणीयः कश्चिदिति चरमे पर्यन्तभववर्तिनि इयम्-प्रस्तुता पुद्गलावर्ते-पुद्गलपबक्ति, कधिच्च-प्रान्ते नमस्कारं वक्तव्यं न ब्रूते, तेन | रावतें समयप्रसिद्धे औदारिकवैक्रियतैजसकार्मणप्राणापाकि प्रमाणमिति प्रश्नः ?, अत्रोत्तरम्-सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे | मभाषामनोभिरेतत्परिणामपरिणतसर्बपुद्गलग्रहणरूपे ॥२॥
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लोमुत्तरतत्त. अभिधानराजेन्द्रः।
लोगुत्तरतत. कुतः पुनहेंतोश्चरमपुदलावों भवतीत्याशङ्कायामिदमाह--] पश्यन्तीति तत्तत्वशस्तेषामेषा अविधिसेवा पापा सरूपेण स भवति कालादेव, प्राधान्येन सुकृतादिभावेऽपि । कथमन्यथा भवति, न भवतीत्यर्थः ॥ ६॥ ज्वरशमनौषधसमय-वदिति समयविदो विदुनिपुणम् ।।
अविधिसेवागतमेवाहसा-चरमपुदलावों भवति स्वरूपतः कालादेव प्राधा- वेषामेषा तेषा-मागमवचनं न परिणतं सम्यक् । न्येन हेतुविवक्षायां कालप्राधान्यमाश्रित्य शेषकादिहेत्व- अमृतरसास्वादशः, को नाम विषे प्रवर्तेत ॥ ७॥ न्तरोपसर्जनीभावप्रतिपादनेन सुकृतादिभावेऽपि-सुकृत
येषां-जीवानामेषा-अविधिसेवा तेषामागमवचन-सर्वशदुष्कृतकर्मपुरुषकारनियत्यादिभावेऽपि । “कादिभावेऽ
वचनं न परिपतं सम्यग्-शेयविषयविभागेन चेतसिन व्यवपी " ति पाठान्तरम् , नाश्रितं छन्दोमाभयात् । नि
स्थितम्। आगमवचनापरिणतौ कारसमाह-अमृतरसास्वाददर्शनमाह-ज्वरशमनौषधसमयवत् , ज्वरं शमयति इति
सः पुमान् को नाम-न कश्चिद्विषे-मारणात्मके प्रवर्सेतज्वरशमनं तच्च तदोषधं च तस्य समयः-प्रस्तावो भक्षयितुं प्रवृत्तिं विदधीत, विषप्रवृत्तिकल्पा प्रविधिसेवा देशकालस्तबद्भवति चरमः । ज्वरशमनीयमप्यौषधं प्रथ
सतो विज्ञायते नागमवचनं सम्यक्परिणतमिति ॥७॥ मापाते दीयमानं न कश्चनगुणं पुष्णाति प्रत्युत दो
प्रतिषेधमुखेनोक्लमर्थ विधिमुखेन नानागमवचनपरिषानुदीरयति , तदेव चावलरे जीर्णज्वरादौ वितीर्यमाणं स्वकार्य निर्वर्त्तयति । एवमयमप्यवसरको वर्तते चरम
णामाश्रयमाहइति भावः । इत्येवं समयविदः-सिद्धान्तमाः विदुः-जानन्ति
तस्माच्चरमे नियमा-दागमवचनमिह पुद्गलावरे । क्रियाविशेषणं निपुणमिति ॥३॥
परिणमति तत्वतः खलु, सचाधिकारी भवत्यस्याः।। कस्मात् पुनश्चरमपुलावर्तःप्राधान्येन लोकोत्तरतत्त्वसंप्रा- तस्माच्चरमे-अवसानवृत्तौ नियमात्-नियमेनागमवचन पू. हेतुराश्रीयत इत्याह
पोनमिह पुलावतं प्रागुक्त परिखमति-उत्तरोत्तरपरिणामनागमवचनं तदधः, सम्यक् परियमति नियम एषोत्र । विशेषमासादयति , स्वरूपेण परिस्फुरतीत्यर्थः। तस्वतः शमनीयमिवाभिनवे, ज्वरोदये काल इति कृत्वा ॥४॥
स्खलु तत्वत एव यस्यैतदागमवचनं परिणमति सवाधिनेति-प्रतिषेधे, आगमवचनमार्षवचनं तदधस्तस्याधस्ताद्
कारी-अधिकारवान् भवत्यस्या-लोकोत्सरतत्वसंप्राप्त, पुद्गलपरावदिभ्यधिकसंसारस्य सम्यग् विषयविभागेन
शेषस्त्वनधिकारीति ॥ (पो०) ('भागम' (६) सोकर परिणमति न परिणमत्येवेत्यर्थः । नियम एष प्रस्तुतोऽत्र
'मागमवयणपरिणा' शब्दे द्वितीयभागे ८२ पृहे गतः।) प्रक्रमे शमनीयमिवौषधम् , अभिनवे ज्वरोदये प्रत्यप्रे-ज्वरप्रा.
कथं पुनः सदोघादनुष्ठानं परिपूर्ण भवतीत्याहदुर्भावे किमित्यकाल इति कृत्वा अप्रस्ताव इति कृत्वा ॥४॥
दशसंज्ञाविष्कम्भण-योगे सत्यविकलं खदो भवति । नागमवचनं तस्याधस्तात् परिणमतीत्युक्तं तदेव परहितनिरतस्य सदा, गम्भीरोदारभावस्य ॥१०॥ दर्शयति
दश च ताः संज्ञाश्च तासां विष्कम्भणं-यथाशक्तिनिरोधआगमदीपेऽध्यारो-पमण्डलं तत्वतोऽसदेव तथा । स्तयोगे-तत्संबन्धे सति तन्निरोधोत्साहे वा, अविकलंपश्यन्त्यपवादात्मक-मविषय इह मन्दधीनयनाः॥५॥ बखण्डम् , अदः-पतत्सदनुष्ठानं भवति परहितनिरतस्य परो श्रागमप्रदीपे अध्यारोपमण्डलम्-भ्रान्तिमण्डलम् -1 पकाराभिरतस्य,सदा-सर्वकालम् , गम्भीरोदारमावस्य गा. ध्यारोपो-भ्रान्तिस्तया मण्डलं मण्डलाकार दीपे, अपरे| म्भीर्योदार्ययुक्तमनसः॥१०॥ (षो०)।("सर्वशवचन" तु-भ्रान्तिसमूहम् , तस्वतः-परमार्थन, वस्तुवृत्त्या असदेवा- (११) इत्यादिश्लोकः 'आगमवयण' शब्बे द्वितीयमागे विद्यमानमेव, तथा तेन रूपेण तैमिरिकं दृश्येन प्रदीप- १२ पृष्ठे गतः।) स्योपवर्तितया पश्यन्ति दृष्टिदोषात् अपवादात्मकम् अपवाद
अध्यारोपादविधिसेवा दानादावित्युक्तं तद्विपर्ययेस्वरूपम् अविषये योऽपवादस्य कथंचिन्न विषयस्तस्मिन्नवि
पाहद्यमानमेव पश्यन्ति इह लोके मन्दधीनयनाः-मन्दबुद्धिच- विधिसेवादानादौ,सूत्रानुगता तु सा नियोगेन । खुषः । यथोक्तम्-" मयूरचन्द्रकाकारं, नीललोहितभासुरम् । गुरुपारतन्त्र्ययोगा-दौचित्याच्चैव सर्वत्र ॥१२॥ प्रपश्यन्ति प्रदीपादे-मण्डलं मन्दचक्षुषः ॥१॥"॥५॥ विधिसवा-आगमाभिमतन्यायसेवा, दानादी विषये, या यत पवागमदीपेऽध्यारोपमण्डलं तत्त्वतोऽसदेव
सूत्रानुगता तु आगमानुगता तु विधिसेवा, नियोगेन-नियमेन पश्यन्ति
गुरुपारतन्त्र्ययोगाद्-गुरुपरतन्त्रसंबन्धात् , औचित्याच्चैव तत एवाविधिसेवा, दानादौ तत्प्रसिद्धफल एव । अनौचित्यपरिहारेण सर्वत्र-दीनादावविशेषेण ॥१२॥ (पो०) तत्तत्त्वदृशामेषा, पापा कथमन्यथा भवति ॥६॥
("न्याया० (१३)" इत्यादिश्लोकः 'दाण' शब्दे चतुतत एव-अध्यारोपादेव श्रान्तेरेवेत्यर्थः । अध्यारोप-|
र्थभागे २४६० पृष्ठे गतः।) मण्डलदर्शनादेव वा प्रविधिसेवा-श्रविधेर्विधिविपर्यय
एवं महादानं दानं चाभिधाय देवार्चनमाहस्य सेवा-सेवन दानादौ विषये । श्रादिशब्दाच्छीलत
देवगुणपरिज्ञाना-त्तद्भावानुगतमुत्तमं विधिना । पोभावनापरिग्रहः । तत्प्रसिद्धफल एव-तस्मिनागमे प्रसिद्ध स्यादादरादियुक्तं , यत्तद्देवार्चनं चेष्टम् ॥१४॥ फलं वस्य दामादेस्तस्मिन् । तस्यागमस्य तत्त्वं-परमार्थस्तं | देवगुणपरिज्ञानात्-देवगुणानां घीतरागत्वादीनां परिवान
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(४२) लोगुत्तरतत्त० भाभिधानराजेन्द्रः।
लोभ म्-अवबोधस्तस्मात्, तावानुगतमुत्तम विधिना तेषु लोण-लवन-न। “न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थगुणेषु भावो बहुमानस्तेनानुगत युक्तम्, उत्तमम्-प्रधानम्, सतरंश-सतर्वार-सकमार करहलोदखलोलखले" || विधिना-शाखोक्लेन,स्यादादरादियुक्तं यत भादरकरसप्रीत्या-1
१७१ ॥ इत्यादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्य अनेन सह श्रोद्रदिसमम्बितं यत् स्यात् तदेवार्चनं वेई तच्च देवार्चन-1
वति । प्रा० । सामुद्रादिके क्षारे, प्रशा० १ पद । सैन्धवसौवर्चमिएम् ॥ १४॥
लादिकेषु, आचा०२ श्रु०१चू०१ १०१ उ. । स्वनिके प्रस्तुत एव संबन्धार्थमिदमाह
विशेषोत्पने, आचा०२ श्रु०१०१ १०१3० । लवणएवं गुरुसेवादि च, काले सद्योगविघ्नवर्जनया । पञ्चकं चेदम् , तद्यथा-सन्धर्व सौवर्चल विड रोमं सामु
चेति। सूत्र० १ श्रु० ७ ० इत्यादिकत्यकरणं, लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिः ॥१५॥
( सवित्तलवणप्रहरू
'मूलगुणपडिसेवना' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४६ पृष्ठे पृथिएवं गुरुसेवादि च-पवं विधिनैव गुरुणां-धर्माचार्यप्रभृ- बीकायप्रतिसेवनायां प्रतिषिद्धम् । ) तीनाम,सेवा मादिशब्दात्-पूजनादिग्रहः काले--अवसरे, लोगाग-लवमाळ-पं० । वनस्पतिविशेष, प्रव०४ द्वार । सद्योगविनवर्जनया, सन्तश्च--ते योगाश्च सद्योगा-धर्म
लोणदेवी-लवणदेवी-स्त्री०। नन्दस्तूपानां चतुर्मुख खनने सव्यापाराः स्वाध्यायभ्यानादयस्तेषु विघ्नः-उपरोधो विधातस्तस्य व नया गुरुसेवादि विधेयम् , इत्यादिकृत्यकर
ति शिलीमयगोरूपत्वेनोत्पन्नायां देश्याम् , “ नामेण लोण
देवी स्वेणं नाम अहितुच्छा । धरणियलाउम्भूया, दीसि सिपम् , एवमादीनां कृत्यानाम्-कार्याणामागमोक्तानां करणम्
लामयी गावी।" ति। विधानम् , लोकोत्तरतस्वसंप्राप्तिरुच्यत इति ॥ १५ ॥ इयं च कथं संपद्यत इत्याह
लोणभाव-लवणभाव-पुं०। क्षारभावे, आव०३०।
| लोणासायण-लवणास्वादन-न० । लवणस्य प्रासने प्रक्षेपे, इतरेतरसापेचा, त्वेषा पुनराप्तवचनपरिणत्या ।
"एगा दत्ती लोणासायणमित्तमवि पडिगाहिया।" कल्प. भवति यथोदितनीत्या, पुंसां पुण्यानुभावेन ॥ १६ ॥ ३ अधि०८ क्षण । इतरेतरसापेक्षा तु-तरेतरसापेक्षष परस्पराविरोधिनी ।लोतुरली-लोतुरली-स्त्री०। वादनाथें अपर्ववंशवण्डे, मालिएषा पुनराप्तवचनपरिणत्या-एषा-पुनर्लोकोत्तरतत्त्वसंप्रा- यत्ति अपव्वा भवति सा पुण लोतुरली भमति । निचू०१उ० । प्तिराप्तस्य यद्वचनं तत्परिणत्या-आगमपरिणत्या भवति- लोद्ध-लोध-पुं । वृक्षविशेषे, जी० । स० । शा० । तद्वक्षत्वम् यथोदितनीत्या जायते यथोकन्यायेन पुंसां पुण्यानुभावन-1
रूपे हद्रव्ये, न० । नि० चू० १ उ० । पुरुषाणां पुण्यविपाकेन ॥ १६॥षो०५ विव०।
लोद्धय-लुब्धक-पुं० । व्याधे, “लोद्धयं वाई" पाइना०२४८ लोगेसणा-लोकैषणा-स्त्री० । प्राणिगणस्यैषणा-अन्वेषणा।
गाथा। टेषु शब्दादिषु प्रवृत्तौ अनिष्टेषु च हेयबुद्धी, आचा० १
लोभ-लोभ-पुं० । लोभनमभिकाङ्गणं लुभ्यते अनेनेति वा श्रु०४ १०१ उ०।
लोभः । कषायभेदे, स्था०४ ठा० १ उ० । ( अनन्तानुलोगोवयारविणय-लोकोपचारविनय-पुं० । लोकानामुपचा
बन्धिप्रभृतयोऽप्यत्र भेदाः 'कषाय' शब्दे तृतीयभागे ३६६ रो व्यवहारस्तेन स एव वा विनयो लोकोपचारविनयः । पृष्ठे दर्शिताः ।) विनयभेदे, स च सप्तविधः । स्था० ७ ठा० ३ उ० । (सच लोभश्चतुर्विधः-कर्मद्रव्यलोभो योग्यादिभेदाः पुनला इति, "विणय 'शम्दै दर्शयिष्यते।)
नोकर्मद्रव्यलोभस्त्वाकरमुक्तिश्चिक्कणिकेत्यर्थः , भावलोभलोड-स्वप्-धा० । शयने, “स्वपेः कमघस-लिस-लोट्टाः"
स्तु तत्कर्मविपाकः, तद्भेदाश्चैते-" लोहो हलिहखंजणकद्द॥८।४ । १४६ ॥ इति स्वपेः लोहादेशः, । लोट्टइ, । स्वपिति, मकिमिरायसामाणो" सर्वेषां क्रोधादीनां यथायोग स्थिप्रा० । असत्थोवहतो आमे अचेयणं.तंदुले लोट्टो भरणति । तिफलानि-"पक्खचउमासवच्छर-जावज्जीवाणुगामिणो कअशस्त्रोपहते आमे अचेतने तगडले, नि० चू०४ उ०। मसो । देवनरतिरियनारग-गइसाहणहेयवो नेया ॥१॥" लोडण-लोहन-२० । अवधावने, व्य०१ उ०।
लोभे लुद्धनन्दोदाहरणम्-पाडलिपुत्ते लुद्धणंदो वाणियो , लोट्टय-लोट्टक-पुं० । कुमारावस्थे हस्तिनि, मा०१ श्रु०१०)
जिणदत्तो सावो , जियसत्तू राया, सो तलागं खणावा,
फाला य दिट्ठा कम्मकरेहिं सरा मोल्लंति दो गहाय वीलोट्टयत्-त्रि० । सुप्ते, " लोट्टयं सुवंतंच" पाइ० ना० २२६
हीए सावगस्स उवणीया, तेण ते णेच्छिया, गंदस्स उगाथा।
पनीया, गहिया, भणिया य-अण्णे वि भाणेजह, श्रहं चेव लोद्विधे-देशी--उपविष्टे, के ना० ७ वर्ग २५ गाथा। गेगिहस्सामि दिवसे दिवसे गिगहर फाले । अराणया अलोढ-लोष्ट-पुं० । शिलापुत्रके, दश० ५ ०। स्मृते, शयिते
म्भहिए सयणिजामंतणए बलामोडीए पीरो, पुत्ता भव । दे० ना. ७ वर्ग २८ गाथा।
णिया-फाले गेएहह, सो य गो, ते य श्रागया , तेहिं लोढग-लोढक-पुं० । पभिनीकन्दे, ध०२ अधि।
फाला ण गहिया , अक्कुट्टा य गया पूवियसालं, तेहिं ऊ
णगं मोल्लं ति एगं ते एडिया, किट्ट पडियं , रायपुरिसेहि नोदयंती-लोढयन्ती-स्त्री०। स्फुटितवनीफलात् कापासनि- गहिया. जहा बत्तं रनो कहियं । सो नंदो भागो भएर कासनं कुर्वत्याम् प०३अधिक।
| गहिया रणव ति, तेहिं भाइ-किं भम्हे चि गद्देण गहिया,
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लोभ अभिधानराजेन्द्रः।
लोम तेण अालोलयाए एत्तियस्स लाभस्स फिट्टोऽहंति पा- फालद्वय गृहीत्वा तै-जिनदत्तस्य दौकितम् । दाण दोसेण एक्काए कुसीए दो वि पाया भग्गा, सयणो विलोक्य तेन मुक्त त-इन नन्दस्य तैस्ततः ॥३॥ विलवह । तो रायपुरिसेहिं सावो गंदो य घेतृण रा- साततत्त्व. स जग्राह, स्माह चाऽऽनयताऽपराम् । उलं नीया , पुच्छिया , सावत्रो भणइ-मझ इच्छापरिमा- अयःकुशानां मूल्येन, तेनात्ता शतशोऽपि ते॥४॥ णातिरित्तं , अवि य कुडमाणं ति, तेण न गहिया , साव- नात्ताः फालाः सुतैस्तेऽथ. वलित्वाऽगुनिंजाश्रये। श्रो पूएऊण विसजिओ, नंदो सूलाए भिन्नो, सकुलो य सान घातेनाऽमचदमौ. लेपः स्तोकोऽपतत्सतः॥५॥ उच्छाइयो, सावगो सिरिघरिश्रो ठवियो । एरिसो दुरंतो राजपुंभिहीतास्ते, राज्ञः सर्व निवेदितम् । लोभो ॥ एवंविधं लोभं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् । भाव०१ इतश्चायातवानन्दः, पुत्रानाह स्म किं कृतम् ॥६॥ अ०। (दण्डकः 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे ३६७ पृष्ठे गतः।) ऊबुस्ते पहिलाः स्मा न. कार्य किन्तु क्रयालकः। मूर्छास्वभावे, सूत्र. १ श्रु० १६ अ० । विशे० ( वस्त्र- नन्दोऽथ कुपितः स्वाङ्गी, कुशामादाय भन्नवान् ॥ ७॥ रशन्तेन लोभचातुर्विध्यम् ' कसाय' शब्दे तृतीयभागे इयलोभो ममाद्यागा-देतयोरेव दोषतः । ३६६ पृष्ठे दर्शितम् ।)
व्यलपन स्वजनावं, किमिदं नन्द ! निर्ममे ॥८॥ अतिलोभे उदाहरणम्
राजपुंभिस्ततो नन्द-जिनदत्तौ नृपान्तिके।
धृत्वा नीतो नृपोऽप्राक्षीत् , श्राद्धानात्ताः कथं कुशाः ॥६॥ "जो जहा वट्टए कालो” इत्यादि श्लोकः । अस्य चार्थः
सोऽवदनियमो मेऽहं, कुर्वे कुटक्रयं न तत् । कथानकादवसेयस्तच्चेदम् कस्मिंश्चिदटवीप्रदेशे सरोवर- सोऽथ संमान्य संभूष्य, मुक्तो राक्षाऽगमद् गृहम् ॥१०॥ मेकमासीत् । तच्च लौकिकेषु कामिकतीर्थमुच्यते । तस्य हि
लोभनन्दः पुनः शूला-रोपदण्डेन दण्डितः। सीरे वजुलनामा वृक्षोऽभूत्तच्छाखामारुह्य यदि तिर्यक् सरो.
लोभो दुरन्त इत्येवं, नमोर्हाणामतो मतः॥११॥" वरजले निपतति तदा तीर्थमाहात्म्यात्किल मनुष्यो भवति ।
प्रा० क०१०। विशे०। यस्तु मनुष्य एव संनिपतति असौ देवो जायते, । यस्तु
अथ लोभद्वारमाहलोभाधिक्याद् द्वितीयामपि वारां निपतति स यारशःप्रागा
लब्भंतं पि न गिबहह, अनं प्रमुगं ति अज घेच्छामि । सीत्पुनरपि तादृश एव संपद्यते , एवं चान्यदा वानरमिथुनस्य पश्यतो नरमिथुनं वजुलवृक्षशाखातो निपतितं तत्स
भद्दरसं ति व काउं, गिबहइ खद्धं सिणिद्धाई ॥४८१॥ रोवरजले । संजातं च भास्वरशरीरं देवमिथुनम्। ततो वानर
अचाहममुकं सिंहकेसरादिकं प्रहीयामीति बुद्धयाऽन्यामिथुनमपि तथैव तत्र पतितं जातं च प्रवररूपधरं नर
लचणकादिकं लभ्यमानमपि यन्न गृह्णाति, किंतु-तदेवेप्सिमिथुनम् । ततो वानरेण प्रोक्तम्-पुनरपि तथैवेह निपतावः,
तम् स लोमपिण्डः । अथवा-पूर्वे तथाविधबुद्धयमावेऽपि येन देवरूपी भवावः, ततोऽसौ निषिद्धो योषिता-" यद
यथाभावं लभ्यमानम् खद्ध-प्रचुरम् । स्निग्धावि-लन ज्ञायते, पुनरपीत्थं कृते किं संपद्यते ? , पर्याप्तं चानेनैव
पनश्रीप्रभृतिकं भद्रकरसमिति कृत्वा यद् गृहाति स लोम
पिण्डः। प्रवरमानुषत्वेन, निषिद्धो यतिलोभः सर्वशास्त्रेष्वपि" इति । इत्थं निवार्यमाणोऽपि तयाऽसौ पुरुषो द्वितीयामपि वारां
तत्र प्रथमभेदमाश्रित्योदाहरणं गाथाइयेनाहतथैव तत्र निपपात, जातश्च पुनरपि वानरः । ततो गृहीता
चंपा छणम्मि घिच्छामि, मोयए ते वि सीहकेसरए। सा प्रवररूपा योषित्तत्रायातेन केनापि राहा , संजाता व पडिसेहधम्मलाभ, काऊणं सीहकेसरए ॥ ४८२॥ तस्य वल्लभा पत्नी। वानरस्तु गृहीतो मायेन्द्रजालिकः, शिक्षि
सडरत्तकेसर-भायण भरणं च पुच्छ पुरिमड्ढे । तश्च नर्सयितुम् । नीतश्चासौ सकलत्रोपविष्टस्य राक्षः पुरतः। प्रत्यभिज्ञाता च तेन सा राशी , तयाऽप्युपलक्षितोऽसौ वा
उपभोग संत चोयण,साहु त्ति विगिंच नाणं।।४८॥ नरो धावति च पुनर्निगृह्यमाणोऽपि राक्षः सन्मुखप्रह
चम्पा नाम पुरी, तत्र सुव्रतो नाम साधुः । अन्यदा। णार्थम् , अतो राज्ञा पठितम्
तत्र मोदकोत्सवः समजनि, तस्मिश्च दिने सुव्रतोऽचिन्त
यत्-अद्य मया मोदका एव ब्रहीतध्याः तेऽपि सिंहकेसजो जहा वट्टए कालो, तं तहा सेव वानर !।
रकाः । तत इत्थं संप्रधार्य मिशां प्रविष्टो लोलुपतया - मा वंजुलपरिभट्ठो, वानरा ! पडणं सर ॥ ८६३ ॥
न्यत्प्रतिषेधेन सिंहकेसरमोदकाँचालभमानस्तावत्परिश्रम
ति स्म। यावत् सार्द्ध प्रहरद्वयम् , ततो न लब्धा मोदका उत्तानार्थश्चायं श्लोकः । तदेवं यथा अधिको लोभाभि
इति प्रनष्टचित्तो बभूव, ततो, गृहद्वारे प्रविशन् वसाव्यस्य प्रायः कृतो वानरस्याऽनर्थाय जातस्तथा मात्राद्यधिक धर्मलाभस्य स्थाने सिंहकेसरा इति वदति । एवं सकसूत्रमपीति भावनीयमिति । विशे० । प्रा० म०।
लमपि दिनं भ्रान्त्वा रात्री तथैव परिभ्रमन् प्रहायसमये अथ लोभे उदाहरणम् ।
श्रावकस्य गृहे प्रविवेश । धर्मलाभभणनस्थाने सिंहकेसरा “नगरं पाटलीपुत्रं, जितशत्रुनराधिपः ।
इत्युवाच , सोऽपि च श्रावकोऽतीव गीतार्थों बच । श्रावको जिनदत्तोऽभू-द्वणिग्नन्दश्च लोभनः ॥१॥
ततस्तेन परिभावयामासे-नूनमेतेन कापि न लब्धाः सिं
हकेसरा मोदका इति चित्तमस्य प्रनष्टम् । ततस्तस्य चिभूभुजा खन्यमानेन, तडागे स्थानके कचित् ।
तसंस्थापनाय सिंहकेसराणां भृतं भाजनमुपडीकितम् , हशः कर्मकरैः फाला, मृल्लेपकलुषात्मकाः ॥२॥ भगवन् ! प्रतिगृहाण सर्वानप्येतान् सिंहकेसरमोदकानि
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सोम
ति, सुव्रतेन च परिगृहीताः ततः स्वस्थीभूतं तस्य बि सम, भावण पोम्भ्रमपर अप मया पूर्वार्ड - ! त्याख्यातः स किं पूर्णो न वा ? इति, ततः सुव्रत उपयोगमूर्ध्व दत्तवान् पश्यति गगनमण्डलमनेक तारानिकरपरिकरिमर्द्धराचोपचितम् ततो ज्ञातवानात्मनो भ्रमम् हा ! मूढेन मया विरूपमाचरितम्, धिग मे लोभाभिभूतस्य जीवितम् भोः श्रावक ! सम्यक् कृतं त्वया यदहं सिंहकेसरमदानपूर्वे पूर्वार्द्धप्रत्याख्यान परिपूर्णताप्रश्नेन संसारे निमज्जन् रक्षितः, सती मे तव चोदना, तत श्रात्मानं निमदन विधिना च मोदकान् परिष्ठापयन् तथा कथमपि ध्यानानखं प्रज्वालयितुं प्रवृत्तः यथा क्षणमात्रेण सकलाम्यपि प्रातिकर्मापुपोष, ततः प्रादुर्भूतं तस्य केवलज्ञानम् । सूत्रं सुगमम् । उक्कं लोभद्वारम् । पिं० । कषायभेदे, स० ४ सम० । गौस मोहनीयकर्मणि, स० ५१ सम० भ० । लोमंझाख -- लोभध्यान- न० । लोभशब्दोक्तसिंहकेसरमुग्धसुसाधोरियाने धातु ।
लोभविस्सिय- लोभनिचितनः । परिप्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादिरूपे मिथ्यावचने, स्था०१० ठा०३३० लोभदंड-लोभदण्ड- पुं० | लोभनिबन्धनप्राणिहसायाम्, प्रन० ५ संव० द्वार ।
(७५४) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
,
1
लोभ पडिलीय - लोभप्रतिसंलीन- पुं० लोभं प्रति उभयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन प्रतिसंलीनः लोभप्रतिसंलीनः । प्रति संलीनभेदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० ।
लोभ पिंड - लोभपिएड न० । लोभेन पिण्डग्रहणे, पिं० । (अपोदाहरणं सुव्रतसाधोः 'लोभशब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदभेव गतम् । )
लोभभव - लोभमय- न० लोभ भयं च समादार इन्द्रः, सोमाद्वा भयम् । लोभपये, लोमरूपे भये च "सम्तोचिणो लोभभयावतीताः " लोभभयादतीताः लोभश्च भयं च समाहारद्वन्द्वः, लोभाद्वा भयं तस्मादतीताः । स्था० ७ ठा० ३ ३० ।
लोभवत्तिय - लोभप्रत्ययिक - न० । लोभदराडे खोभप्रत्ययिकाभिघाने द्वादशे क्रियायाने सुत्र ।
इदं द्वादशं क्रियास्थानं पाखण्डिकानुद्दिश्याह
अहावरे वारसमे किरियट्ठाणे लोभवत्तिए ति श्रहिजइ, जे इमे भवंति तं जहा – आरंनिया श्रावसहिया गामंतिया कण्हुई रहस्सिया खो बहुसंजया णो बहुपडिविया सव्वपायभूतजीवसचेहि ते अप्पयो सच्चामोसाई एवं निर्जति भई गतच्चो ने हंसया अहं व अज्जावेषन्धो अने अज्जावेण्या, अहं
परिपेतो असे परिषेतच्या अहं ण परितावेय वो अभे परितावेयव्वा, अहं ण उद्दवेयव्वो अने उद्द देवदा, (छ०) एवं खलु तस्स तस्स तप्यनियं
लो भवत्तिमदंड सावर्जति आहिर दुवालसमे किरियट्ठाये लोभवतिए ति श्रहिए । ( सू० २८ + )
द्वादशे कियास्थानं लोभप्रत्यधिकमान्यायते, तद्यथा-हमे यक्ष्यमाणा अरण्ये वसन्तीत्यारस्यकाः ते च कन्दमूलफलाहाराः सन्तः केचन वृक्षमूले वसन्ति केचनावसचेषु उटजाकारेषु गृहेषु तथा अपरे प्रामादिकमुपजीवन्तोप्रामस्यान्ते समीपे बसन्तीति प्रामान्तिका तथा कचित् कार्ये मण्डलप्रवेशादिके रहस्यं येषां ते कचिद्राहसिका ते न बहुसंयतान सर्वसावधानेभ्यो निवृत्ताः । एतयुकं भवति बाल्न प्रसेषु दण्डसमा रम्भं विदधति, एकेन्द्रियोपजीविनस्त्वविगानेन तापसादयो भवन्तीति, तथा न बहुविरता न सर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमणादिषु व्रतेषु वर्तन्ते, किन्तु ? - द्रव्यतः कतिपयतवतिनो न भावतः, मनागपि तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनस्याभावादित्यभिप्रायः । इत्येतदाविर्भाववितुमाह-सम्पा त्यादि ते धारयकादयः सर्वप्राणिभूतजीवसम्वेभ्य श्रारमना स्वतः अविरताः तदुपमकारम्भादविरता इत्यर्थः । तथा ते पाचरिङका श्रात्मना स्वतो बहूनि सत्यामृपाभूतानि वाक्यानि एवम् पश्यमानीत्या विशेषेण युञ्जन्ति प्रयुञ्जन्ति भुवत इत्यर्थः । यदि वा सत्यान्यपि तानि प्रायुपायेन मृषाभूतानि सत्यामृषाणि, एवं ते प्रयुञ्जन्तीति दर्शयति - तद्यथा - अहं ब्राह्मणत्वाद्दण्डादिभिर्न हन्तव्योऽन्ये तु शूद्रत्वादन्तव्याः, तथाहि ब्रद्वाक्यम् - शूद्रं व्यापाद्य प्राणायामं जपेत् किंचिद्वा दद्यात् तथा घुसवानामनस्थिकानां शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राह्मणं भोजये ' दित्यादि, अपरं च अहं वर्णोत्तमत्वात् नाशापयितव्योऽन्ये तु मतोऽधमाः समाज्ञापयितव्याः तथा नाई परितापदियोउन्थे तु परितापयितव्याः तथाऽहं वेतनादिना कर्मकरायन ग्राह्योऽन्ये तु शूद्रा माया इति किंबहुन न मामुपाययितव्यो- जीवितादपरोपयितव्योऽन्ये तु अपरोपयितव्या इति तदेवं तेषां परपीडोपदेशनतो ऽतिमूढतया ऽसंबद्धप्रलापिनामज्ञानावृतानामात्मम्भरीणां विमष्टीनां न प्राणातिपातविरतिरूपं मतमस्ति अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृषावादादत्तादानविरमरणाभावो ऽप्यायोज्यः । श्रधुना त्वनादिभवाभ्यासाद्दुस्त्यजत्वेन प्राधान्यात् सूत्रेणैवाब्रह्माधिकृत्याह - ' एवमेव' इत्यादि, एवमेष- पूर्वोलेनैव कारणेनातिमूढत्वादिना परमार्थमजानानास्ते, सीर्थिकाः स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः । ( सूत्र० ) ( तेषां व्याख्या 'इरिथकाम' शब्दे द्वितीयभागे २८६ पृष्ठे मता । ) तदेवंभूतं खलु तेषां तीर्थिकानां परमार्थतः सावधानष्ठानादनिवृतानामाथाकर्मादिस्तत्प्रायोग्यभोगभा'तत्प्रत्यधिकं -- लोभप्रत्यधिकं सावधं कर्माधीयते । तदेत लोभप्रत्यधिकं शादशं कियास्थानमाख्यातमिति । सूत्र० २ श्रु० २ ० | स० । श्रा० चू० ।
"
लोभवनिषदंड-लोमप्रत्यभिकदण्ड- पुं० । लोभप्रत्यधिको दण्ड इति लोभनिमित्ते द्वादशे क्रियास्थाने, सूत्र० २ ५०२ अ०
।
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लोभविजय
अभिधानराजेन्द्रः। लोभविजय-लोभविजय-पुं० । लोभोदयनिरोधे, उत्त० | लोमावहार-लोमावहार-पुं० । लोमान्यवहरन्ति येते सोमा२६ अ०।
वहाराः । लोमकर्त्तकेषु, प्रश्न० २ प्राथ० द्वार। लोभविजयफलम्
लोमाहार-लोमाहार-पुं० । शरीरपर्याप्त्युत्तरकालं बाहया लोभविजएणं भंते ! जीवे कि जणयइ १, लोहविज- त्वचा लोमभिराहारो लोमाहारः। माहारमेदे, सूत्र० २० एणं संतोसिमावं जणयइ लोभवेयणिजं कम्मं न बन्धइ | ३०। प्रव०। पुवबद्धं च कम्मं निञ्जरेइ ॥ ७० ॥
लोय-लोच-पुं० । हस्तेन केशलुञ्चने,पश्चा० १०वि०मा० ह भगवन् ! लोभविजयेन जीवः किं जनयति ?, गुरु-| म. (लोचकर्ममुहूर्तः ‘णक्खत्त' शब्दे चतुर्थभागे १७६२ राह-हे शिष्य ! लोभविजयेन जीवः सन्तोषिभावं स- पृष्ठे गतः।) (पर्युषणायां लोचकरणं 'पत्रुसवणाकप्प' न्तोषिणो भावः सन्तोषिभावस्तम् उत्पादयति लोभवेदनीयं| शब्दे पञ्चममागे २४७ पृष्ठे उक्तम् ।) कर्म न बध्नाति पूर्वनिबद्धं च कर्म निर्जरयति ॥ ७० ॥ लोयग-लोचक-न । विगुणे अने, यत्पुनरबादि खभावादेव उत्स० २६ अ०।
लुप्तमाहारगुणैरनुपेतं तल्लोचकं नाम । ० २ उ०। लोभसरणा-लोभसंज्ञा-स्त्री० । लोभोदयात्प्रधानभवकार- लोयग्ग-लोकान-न० । मोते, “लोयग्गं परमपयं मुत्ती सि. णाभिष्वङ्गपूर्विकासचित्तेतरद्रव्योत्पादनक्रियैव संज्ञायतेऽन-| द्धी सिवं च निव्वाणं" पाइ ना० २० गाथा । येति । भ०७श०८ उ० । स्था० लोभवेदनीयोदयतो ला-लोयण-लोचन-न। अवलोकने, दर्शने,शा०१०१० लसत्वेन लोभोदयालोभसवान्विता सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनेव
| उत्त० । नेत्रे, "अच्छी नयनं च लोणं नित्तं ।" पार ना. संज्ञायतेऽनयेति लोभसंझा । स्था० १० ठा० ३ उ० । सचित्तेतरव्यप्रार्थनायाम् , प्रशा०८ पद।
१११ गाथा । लोभा-लोभा-स्त्री० । लोभानुगतायां क्रियायाम् , आव०
लोयणविहाण-लोचनविधान-नालोचकरणे,पो०१विवा ३०। वाराणस्यामुदितोदयराजभार्यायाम् ,प्रा०चू०५०
लोयणा-लोचना-स्त्री० । उज्जयिन्यां देवलासुतराजभार्या
याम् , प्रा० चू०४०। लोभाणु-लोभानु-पुं० । लोभलक्षणकषायसूक्ष्मकिहिकाया
लोयबज्म-लोकबाह्य-त्रि० । बहिर्भूते, जनवर्जितेचा प्रश्न. म् , भ०५ श०७ उ०।
३आश्रद्वार। लोमि-लोभिन-त्रि० । लुब्धे, अनु।
लोयसार-लोकसार-१० । लोकप्रधाने,प्रश्न. ३ प्रामवार । लोम-लोम-न० । लुनाति, निलीयन्ते वा अस्मिन् यूका लोयाशी-लोकानी-सी०। बनस्पतिभेदे, प्रशा०१पद। इति लोमम् । कक्षादिजाते केशाकारे रोमास्ये द्रव्ये, प्र- लोयायार-लोकाचार-पुं०। प्राण्युपमर्दादिकपायहेतुके कोश्न०१ संवा द्वार ।
पादाने, येन पुनः पुनः संसारे जन्म भवति तथाभूतानुष्ठाने, लोमडिया-लोमडिका-स्त्री० । शिवायाम् , हा० १ श्रु०
प्राचा० १ श्रु० ३ ०१ उ०। १५०।
लोल-लोल-पुं० । चपले, मा० १श्रु० १ ० । स्था० । लोमपक्खि-लोमपचिन-पुं० । सारसराजहंसकाकवकादिके|
लोभे च । “लोला लालस-लोलुभ-उहर-संपडा बुद्धा।" पक्षिमेदे, सूत्र०२ भु० ३ ०। स्था० । प्रज्ञा ।
पाइ ना० ७५ गाथा । लम्पटे, शा०१७०८ मा रत्नसे किं तं लोमपक्खी', लोमपक्खी प्रखेगविहा परमत्ता, प्रभायां पृथिव्यां मध्यनरकेन्द्रकात्सीमन्तकात्पूर्वावलिकायां तं जहा-दंका कंकाजे यावचे तहप्पगारा। सेतं लोमपक्खी। नरकेन्द्रके, स्था०६ ठा० ३ उ०। “से किं तं लोमपक्खी ? लोमपक्खी भरोगविहा पराण-लोलंठिम-देशी-चाटुनि, दे० ना०७ वर्ग २२ गाथा । ता, तं जहा-टंका कंका कुरला बायसा चकवागा हं-लोलख-लोलन-न०। परतो लोलने, सूत्र. १९०५५०१ सा कलहंसा पोयहंसा रायहंसा प्रडा सेडीवडा बेलागया| उ०। भूमौ हस्ते वाऽवजया लोलयति, घ०३ अधिक। कोंचा सारसा मेसरा मयूरा सेवयगा गहरा पोडरिया कामासोला-बोलमध्य-पं०। रत्नप्रभायामतरस्यामावलिकाकामेयगा बंजुलागा तित्तिरा बट्टगा लावगा कपोया क-1 पिंजला पारेवया चिडगा वीसा कुक्कुडा सुगा बरहिगा
| यां नरकेन्द्रके, स्था०६०३० मयासलागा कोकिला सण्हावरणगमादी । सेतं लोमप-लोलावट्ट-लोलावत-पुरत्नप्रभायां पश्चिमायामावलिकाक्खी।" जी०१ प्रति०।
यां नरकेन्द्रके, स्था० ६ ठा० ३ उ०। लोमसिया-लोमसिका-स्त्री० । वल्लीभेदे, व्य०१ उ०। लोलावसिट्ट-लोलावशिष्ट-पुंगरत्नप्रभागाः पृथिव्याः पतिलोमहत्थ-लोमहस्त-पुं० । लोममयप्रमार्जनके, औ०। | णायामावलिकायां नरकेन्द्रके, स्था. ६ ठा०३७०। लोमहरिस-लोमहर्ष-पुं० । लुनाति निलीयन्ते वा तेषु यूका | लोलिक-लौल्य-नावाचल्ये, प्रश्न०३ माघ द्वार। इति लोमानि तेषां हों लोमहर्षः। रोमाश, उत्त०५०।लोलुभ-लोलुप-नि। खोमे, लुब्धे च । “लोला लालस शा० । रोमोमे, सूत्र. १ श्रु० २ ०२ उ०।
लोलुभ-उल्लेहड-लंपडा लुखा" बा०७५ गाथा।
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सोलुय अभिधानराजेन्द्रः।
खोहियपाणि लोलुय-लोलप-पुं० । लम्पदे, उत्स० २ ० । पिशिते, उत्त० लोहिग्राम-लोहिताय-नामधातुः । लोहितस्येवाचरणे, ७० । गृखौ, सूत्र. २ श्रु०६अ। रत्नप्रभायां पूर्वावलि- “क्योर्यलुक" ॥८।३।१३८ । इति यस्य लुक । लोहियाइ । कायां नरकेन्द्रके, स्था०७ठा०३ उ० प्रा० म०।
लोहिआभइ । लोहितायते, प्रा० ३ पाद । लोलुवाविभ-देशी-रचिततृष्णे, दे० ना०७ वर्ग २५ गाथा । लोहिच्च-लौहित्य-पुं० । लोहितग्रंपत्ये, जं. ७ वक्षः । लोव-लोप-पुं० । मदर्शने, अनु० ।
स्था० । भूतदत्ताचार्यशिध्ये, “ सम्भावुम्भाषणया तत्थं
लोहिच्चसामाण ॥ ४० ॥” नं0। शत्रुञ्जयपर्वते, ती० १४ लोह-लोभ-पुं०। द्रव्याधभिकालायाम् , उत्त०६०। अभिचले, पा०। “दुक्वंय जस्स न हो मोहो, मोहो हो | लोहिच्चायस-लोहित्यायन-न० । लोहितर्षिगोत्रापत्ये, सू० अस्सन होताहा । तल्हा हा जस्स न होर लोहो,| प्रा
प्र० १० पाहु।
। लोहोरो जस्स न किंचणाऽवि ॥१॥" उत्त० ३२ १०। "जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवई। दोमासकयं
लोहिणी-लोहिनी-स्त्री० । कन्दविशेषे, उत्त० ३६० भ०। कज्जं, कोडीए दिन निट्टियं ॥१॥" उत्त०७०। गृद्धौ,
| बादरबनस्पतिकायभेदे, प्रशा० १ पद। प्रव०४१ द्वार । असंतोषात्मके भावपरिणामे, प्रव० २१६ | लोहिय-लोहित-न० । रुधिरे, सूत्र० १ श्रु०५० १ उ० । द्वार । “एगे लोभे" स्था० १ ठा० । मूर्छायाम् ,१०३अधिक। | 'लोहियपूयपाइणी' लोहितं-रुधिरम् , पूयम्-रुधिरमेव लोलतापरिकामे, अष्ट०३ अष्ट । लुब्धतायाम् , निग्रहशील | पकं ते द्वे अपि पक्वं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपात्वे ममत्वबुद्धौ, दर्श०१ तत्व । (मायालोभी 'कसाय' चिनी । सूत्र०१ श्रु० ५० १ उ० । सूत्र० । हिजशम् तृतीयभागे ३१८ पृष्ठे व्याख्याती।) (अतिलोभतो लादिवत् लोहितवर्णपरिणते रक्त, प्रशा० १ पद । स्वनामयक्षवावाप्तिरार्यमोः सा च 'अज्जमंगु' शब्दे प्रथ- स्याते महाग्रहे, " एगे लोहिए।" स्था० १ ठा। . ममागे २११ पृष्ठे उक्ला । (अत्र कथा रष्टान्ताभ' लोभ'
लोहियकुंथु-लोहितकुन्थु-पुं० । पारस्वरूप कुन्धौ, जी०३ शम्मेऽस्मिन्नेव भागे गताः।)
प्रति०१ अधि० २ उ०।। लोह-न । यसि, प्रश्न०१ आश्रद्वार । "लोहागरधम्म
लोहियक्ख-लोहिताच-पुं०। स्वनामख्याते महाग्रहे, कल्प०१ मालपमधमेतिघोसं" लोहस्येवाकरे मायमानस्यामिना
अधि०६म। " दो लोहियक्खा।" स्था.२ ठा०३ उ०। ताप्यमानस्य धमधमायमानो धमधमेति वर्णव्यक्तिमिवोत्पा
स्वनामन्याते रमविशेषे , रा०। जी०। जंकप्रसाशा दयन् घोषः शम्बो यस्य सः। भ०१५ श०। "लोहं कालायस"
।
सूत्रः। श्रा०म०।" लोहियक्खपवंसग" लोहिताक्षमयाः पा० ना० २३० गाथा।
प्रतिवंश येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि । जी० ३ लोहकडाह-लोहकटाह-न०। बृहत्कुण्डिले (अनु०) भाजन
प्रति० ४ अधि० । चमरस्य असुरेन्द्रस्य महिषानीकाविशेष भ०८ श०६ उ०।
धिपती, स्था० ५ ठा०१ उ०। शकस्य देवेन्द्रस्य अपलोहकडाही-लोहकटाही-स्त्री०।कवेल्याम् , भ०५ श०७ उ०। त्यस्थानीये , भ०३ श० ७ उ० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः लोहग्गल-लोहार्गल-न०। पुष्कलावतीविजये स्वनामख्याते स्वनामख्याते काण्डे, स्था० १० ठा० ३ उ०। नगरे, कल्प० १ अधि०७ क्षण । वज्रजास्य रामः स्वनाम- |लोहियक्खकूड-लोहिताचकूट--पुं०। जम्बूद्वीपे द्वीपे गस्याते पुरे च । प्रा० क०१०।
न्धमादने वक्षस्कारपर्वते स्वनामख्याते षष्ठे कटे, स्था० लोहजंघ-लोहजड्य-पुंआउज्जयिनीनगरे चण्डप्रद्योतराजदूते, 5 ठा० ३ उ०। उत्त० ० " लोहजडो लेखहारी, अग्निभीहस्तथा |लोहियक्वविउड-लोहिताचबिम्बोष्ठ-त्रिकालोहिताक्षरथः। स्त्रीरत्नं च शिवा देवी, गजो नलगिरिस्तथा ॥१॥"| रत्नवत् विम्बवच-बिम्बाफलवत् ओष्ठौ येषां ते लोहिश्रा० ० ४ ०। द्वितीयवासुदेवप्रतिशत्रौ, स०। ती०। | तातबिम्बोष्ठाः। प्रारकोष्ठेषु, जी० ३ प्रति० ४ अधि०। लोहजघवल-लोहजालन-न० । मथुरायां स्वनामख्याते | लोहियगंगा-लोहितगङ्गा-स्त्री० । गोशालकपरिभाषिते बने, ती०८ कल्प।
परिमाणभेदे, भ०१५ श०। लोहज्ज-लोहार्य-पुं०। उत्पत्रकेवलबानवीरस्य मिक्षादायके
लोहियणाम-लोहितनामन्-न० । यदुदयाज्जन्तुशरीरं लो. साधी, प्रा०म०१०।
हितं रकं हिलकादिवद्भवति तमोहितनाम । वर्णनामभेदे, लोहविलीणतत्त-लोहविलीनतल-त्रि०। लोहमयस्तात्तप्तम्-|
| अतितापविलीनलोहसरशे, स्त्र० १ श्रु०५७०२ उ०।।
| लोहियपत्त-लोहितपत्र-पुं० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे , प्र. नोटारिय-लोहाकग्नि-पुं०।लोहाकरोऽस्थास्तीति लोहा- झा ०१ पद। करिकः । लोहखनिस्वामिनि, मोघः।
लोहियपाखि-लोहितपाणि-त्रि०। प्राणिवत्कर्तनेन लोलोहारंबरीस-लोहकाराम्बरीष-पुं० । लोहकारभादेषु, स्था०
हितौ रकारकतया पाणी हस्तौ यस्य । प्राणिहिंसया लोहिमा० ३ उ०।
। तहस्ते, विपा०१ श्रु०२ अशा । सूत्र० ।
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(७५७) अभिधानराजेन्द्रः।
हिक लोहिल्ल-लोभवत-त्रि०। मत्वर्थे जप्रत्ययः। लोभिनि, वृ न्हादिजण-द्वादिजनन-न० । हादेर्जननमुत्पत्ति - १ उ० । लम्पटे, दे० ना०७ वर्ग २५ नाथा।
विजननम् । प्रमोदोत्पादने, व्य०१० । मनःप्रहतिजलोही-लौही--स्त्री० । मण्डकादिपचनिकायाम् , भ. ५ | नके, व्य० ३ उ० । श०७ उ० । अनु० । श्रायसभाजनविशेषे, सूत्र० १ श्रु०५ल्हिक्क-निली०-धा० । तिरोधाने, निलीमेनिलीम-णिअ०१ उ० । कन्दविशेषे , जी०१ प्रति। वनस्पतिविशेषे ,
लुक-णिरिग्ध-लुक-लिक-हिकाः" ॥ ८।४। ५५ ॥ श्राचा०१ ०१ १०५ उ० ।
इति निपूर्वस्य लीधातोल्हिकादेशः। लिका। निलीरहस-संस-धा० । अधःपतने, “संसहस-डिम्भौ" ॥ ४॥
यते । प्रा०४ पाद । १६७॥ इति संसधातोर्व्हसादेशः । लहसइ । संसति । प्रा०। रहसुण-लशुन-न०। कन्दविशषे, प्रव०४ द्वार ।
नष्ट-त्रि०। “लेनाप्फुरणादयः"।४। २५८ ॥ इति रहादि-हादि-खी । द्वादनं हादिः, औणादिक इप्रत्ययः ।। निपूर्वस्य लीधातोः हिमादेशः। हिको-नष्टः। निलीने, प्रहत्तो, व्य०१ उ०।
तिरोहिते, प्रा०४ पाद ।
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इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय -कलिकालसर्वज्ञकल्यश्रीमद्भहारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००० भीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अजिधानराजेन्द्रे' . लकाराऽऽदिशब्दसकलनं समाप्तम् ॥
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9
व-व- पुं० । दन्त्यौष्ठयो ऽयमन्तस्थसम्मको वर्णः । वाच० । धाड साम्यने याते, बरसे, संयमे, दरे, प्रबोधे, वन्दने, एका० । वायौ, राहौ, मन्त्र कल्याणे बलवति वसती समुद्रे ज्याने वसने शालूके
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वाच०
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सादृश्ये अव्य० । "मणी वोट्रस्य लम्बेते श्रावके वपति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपतीति वा इति म्युत्पत्तेः । धनानि पात्रेषु बप स्वनारतम् " इति भावक - शब्दघटक ' व ' शब्दार्थनिर्वचनात् । स्था० ४ ० ४ ७० । उः शम्भुः प्रविष्णुथा नयोः समाहारः । हरिहरद्वन्द्वे, गा० । एका० । ब- इव- अव्य० । इवशब्दार्थे श्राचा० । fha fra fea व वित्र इवाऽर्थे वा " ॥ ८ । २ । १८२ ॥ इति इवार्थे वशब्दप्र योगः । " सेसस्स व निम्मोओ " प्रा० २ पाद । बच-व्रज-पुं० गोठे, "गुडे तह गोडलं बच्चो पासो " पाइ० ना० १४२ गाथा गृद्धे, " गहरो बनो अ गिद्धो " पाइ० ना० १२६ गाथा । दे० ना० ।
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,
अभिधानराजेन्द्रः ।
वकार
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- पुं० न० । वचन
"कयां प्रायो
" ॥ ८६ । १ । १७७ ॥ इति चलुक् । “नो खः” ॥ ८|११२२८ ॥ इति नस्य वः । प्रा० । “ वाक्ष्यर्थवचनाद्याः " ॥ ८ । १ । ३३ ॥ इति वा पुस्त्वम् । उक्ौ, बनणा । वनणाई । प्रा० १ पाद । बस्स - वयस्य पुं० । मित्रे, सवयस्के, " ही ही संपना मे, मनोलधा पिययस्वस्व " प्रा० ४ पाद
अथ वागनिक्षेपमाह
दव्ववती दब्वाई, जाई गहियाई मुंचइ न ताव || धाराहवि दब्वस्त वि, दोहि वि मावस्स पडिवक्त्रो ।। यानि भाषायोग्यानि द्रव्याणि मा गत्वेन तानि न ताद्यापि मुति सा मोक्षागमतो व्यतिरिक्ता इव्यवाइ । अथ द्रव्यस्याराधनी यथार्थरूपप्रतिपादिका सा द्रव्यवान् ज्ञाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भावस्य प्रतिपक्षो वक्तव्यः । किमुक्तं भवति — यानि भाषायोग्यानि इव्यावि भाषात्वेन परिमस्य मुखति सा नागमतो भाया अथवा या जीवस्य भावं ज्ञानादिकमाराधयस्यजीवस्य घटादेर्वणादिकं सा नोआगमतो भाववाक बु० १ ३० । आ० म० । आाचा० । प्रा० चू० । सूत्र०
" एरिसा जावई एसा श्रग्गवेणु व्व करिसिता " सूज० १ ० ३ ० ३ उ० ।
व्रतिन् - पुं० । व्रतं-नियमविशेषो विद्यते यस्य स व्रती । श्रा सके, प्र० २५५ द्वार हिंसादिवितत्वात्साधो दश० १०
अ० । द्वा० ।
--
बच देशी- पिहिते, पच्चारण भूमिमार बआई
पाइ० ना० १७६ गाथा । पीते, दे० ना०७ वर्ग ३४ गाथा वइश्रायार-वागाचार - पुं०। वाच्याचारो वागाचारः । वाग्गोचरे, वाग्व्यापारे, श्राचा०२ श्रु०१ चू० ४ अ० १ उ० । श्रयाराहं सोचा गिसम्म । श्राचा० २ ० १ चू० ४ अ० १ ३० ।
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वइ
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पाइ० ना० २३६ गाथा ।
-
कंठ बैकुण्ठपुं० उपेन्द्रे, " सउरी इसारनाहो पाएंठो महुमहो उविंदो य " पाइ० ना० २१ गाथा । वइक्कंत-व्यतिक्रान्त-त्रि० । गते, “ बहुसुहेण भे दिवसो वरकंतो " श्राव० ३ ० । कल्प० ।
वइक्कम -- व्यतिक्रम - पुं० । विशेषेणापदभेदकरणतोऽतिक्रमं व्यतिक्रमः । श्रातु० । प्रमादोद्भवे विपरीतकार्ये, श्राव०३ श्र० । अवश्यं करणीयानां योगानां विराधने, प्रा० चू० ४ अ० । घ० । प्रव० । व्य० । प्रति० । भाव० । ( श्रधाकर्माश्रित्य व्यतिक्रमस्वरूपम् 'अरकम शब्दे प्रथमभागे २ पृष्ठे गतम् । ) ( ज्ञानादित्रिविधो व्यतिक्रमः 'संकिलेस' शब्दे वक्ष्यते । ) वक्खलिय- वाग्विस्खलित-न० । वाचि विविधमनेकैः प्रकारैर्लिङ्गमेदादिभिस्स्वलिते द
-वा-श्री० [पच-- परिभाषये वचनमुच्यत इति वहगा व्रजिका स्त्री० गोकुलिकायास पृ० ३४० । बाय० । वचने श्रुते, ५० ।
,
"
66
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वालिय- वैतालिक- पुं० । “ वैराऽऽदौ वा " ॥ ८|१| १५२ ॥ इति ऐकारस्य अइ आदेशः । बैतालोपासके, प्रा० १ पाद । बइस्स- वैश्य-पुं० 'अइत्यादी च ८१०१४१॥ इतः स्थाने अह इत्यादेशः । वणिजि, प्रा० १ पाद ! पइकलिन वैकल्य-१० वैकल्ये, " बलियं कलि "
००।
बगुल वैगुण्य-न विधर्मतायाम्, विपरीतभावे, ० चू० ४ ० ।
बहगुत-वाग्गुप्त त्रि० वाचि वाया या गुप्त बातमीनवतिनि, सपर्यालोचितधर्मसम्बन्धभाषिणि ० १ ० १० प्र० । आचा० ।
को भवति वाग्गुप्तः । वयणविभतीकुसलो, बचोगयं बहुविहं विभागंतो । दिवसं पि भासमाणो, तहा वि वइगुत्तयं पत्तो ॥ २६९ ॥ वचनविभक्तिकुशलो - वाच्येतरप्रकाराभिशः वाग्गतं बहुविधमुत्सर्गादिभेदभिनं विजानन् दिवसमपि भाषमाणः सिद्धान्तविधिना तथापि वाग्गुप्ततां प्राप्तः, वाग्गुप्त एवासाविति गाथार्थः । दश० ७ ० सू० प्र० ।
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वडगुत्तया अभिधानराजेन्द्रः।
बइदिस वइगुत्तया-वाग्गुप्तता-स्त्री० । वचसोऽशुभपदार्थत्वात् गोपने, | निसर्गविषये व्याप्रियमाणे योगे, विशे० । वाकपरिस्पन्दे, उत्त० २६ अ०। वाग्गुप्तिमत्तायाम् , उत्त।
वाग्वीयें, विशे० । औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापारा
हतवाग्द्रव्यसमूहसाचिब्याजीवव्यापारे, स्था० १ ठा० । अथ वचोगुप्तिफलमाह
दर्श । ।दश। कर्म । जीत। 'वह'ति । वाग्योगोवइगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ वइगुत्तयाए णं ऽपि चतुर्दा-द्रष्टव्यः। तथा हि-सत्यवाग्योगः १. असत्यनिविकारत्तं जणयइ निम्विकारेणं जीवे वइगुत्ते अज्म
वाग्योगः२, सत्यासत्यवागयोगः३, असत्याऽमृषवाग्योगः४,
तत्र सतां हिता सत्या, सत्या चासौ वाक् च सत्यवाक तया प्पजोगसाहणजुत्ते आवि भवइ ॥ ५४॥
सहकारिकारणभूतया योगो-सत्यवाग्योगः । अथवा-चच
नगतं सत्यत्वं तत्कार्यत्वा-धोगेऽप्युपचयते, ततश्च सहे भदन्त ! वचोगुप्ततया जीवः किं फलं जनयति ?, गुरु
त्यश्चासो वाग्योगश्च सत्यवाग्योगः । भावार्थः सत्यमनोयोराह-हे शिष्य ! वचोगुप्ततया निर्विकारित्वं-विरागभावम्
गवद्वाच्यः । असत्या-सत्याद्विपरीता सा चासौ चाकूच उत्पादयति,निर्विकारो जीवः वाग्गुप्तः-गुप्तवचनश्च सर्वविक
असत्यवाक्: तया योगोऽसत्यवाग्योगः । तथा-सत्या चाथात्यागात्, वाङ्निरोधे वाग्गुप्तिमान् सन् अध्यात्मयोग
सावसत्या चेत्यादि पूर्ववत्कर्मधारयो बहुब्रीहिर्वा, सा साधनयुक्तश्चापि भवति । श्रात्मनि अधितिष्ठतीति अध्यात्म
चासी वाक् च सत्यासत्यवाक् , तत्प्रत्ययो योगः सत्यामनस्तस्य योगा:-शुभव्यापारा धर्मध्यानादयः तेषां साधनम्।
सत्यवाग्योगः । न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः , न विद्यते ऐकाम्यम् अध्यात्मयोगसाधनं तेन युक्तः अध्यात्मयोगयुक्त
मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्वासावमृषश्च असत्यामृषः, स स्तादृशश्चापि स्यादित्यर्थः ॥ ५४ ॥ उत्त० २६ अ०।
चासौ वाग्योगच असत्याऽमृषवाग्योगः,शेष मनोयोगवत्सर्वे
वाच्यम् । अत्र तृतीयचतुर्थो मनोयोगी वाग्योगौच-परिस्थूवइगुत्ति-वाग्गुप्ति-स्त्री० । गुप्तिभेदे, वाग्गुप्तिर्विधा-मुस्खन
लव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यौ । निश्चयनयमतेन तु मनोमानं यनभ्रूविकारागुल्याच्छोटनलेष्टुक्षेपहुंकृतादिसंझावर्जनेन मौ- वचनं वा सर्वमदुएविवक्षापूर्वकं सत्यम् , आशानादिदूषिनावलम्बनम् ,संझादिना हि प्रयोजनानि सूचयतो मौनं निष्फ- ताशयपूर्वकं । त्वसत्यम् , उभयानुभयरूयं तु नास्त्येव लमेवेत्येका १, वाचनप्रच्छनपरपृष्टव्याकरणादिषु लोकाऽऽग- सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिनि भावनीयम् । कर्म० ४ माऽविरोधेन मुखवत्रिकाच्छादितमुखस्य भाषमाणस्यापि कर्म। वानियन्त्रण द्वितीया २, तदुतम्-" संज्ञादिपरिहारेण,
वइणभीरु-वृजिनभीरु-पुं० । वृजिनम्-पापं तस्माद् भीरुयन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृतिर्वा या, सा वा
वृजिनभीरुः । पापभीरौ, यो निरनुबन्धदोषाच्छादो नामोग्गुप्तिरिहोच्यते ॥१॥" आभ्यां भेदाभ्यां वाग्गुप्तेः सर्व
गवान् वृजिनभीरुः । पो० १२ विव० । था वागनिरोधः सम्यग्भाषणं च स्वरूपं प्रतिपादितं भवति, भाषासमिती तु सम्यग् वाक्प्रवृत्तिरेवेति वाग्गुप्तिभापास
वइणी-व्रतिनि-स्त्री० । साध्व्याम् , पं० ब०४द्वार । मित्योर्मेदः, यदाह-" समिओ नियमागुणे, गुणे समित्त | वक्त-त्रिकथयितरि,"मुसं बहता भवा"स्था०३ ठा०१उ०। णम्मि भयणिज्जो । कुसलवयमुईरतो, जं वइगुत्तो वि समि-वइतलिय-वैतलिक-पुं०। विगतास्तुल्यभावे वैतुलिकाः। ना. ओ वि ॥ १॥” इति । ध० ३ अधि०।
स्तित्वादिषु, नि० चू० ११ उ० । उदाहरणं वाग्गुप्तौ
वइतेण-वाकस्तेन-पुं० । धर्मकथिकादितुल्यरूपे वाकचौरे, "साधुः संज्ञातिकान् द्रष्टुं, गच्छन् पल्ली मलिम्लुचैः। दश०५०। गृहीतोऽमोचि चेत्युक्त्वा,मा ख्यः कस्यापि नोऽत्रगान् ॥१॥ वत्ता-उदित्वा-उक्त्वा-श्रव्य० । कथयित्वेत्यर्थे, स्था० ३ तस्याग्रे मिलिता माता-पितृभ्रात्रादयोऽखिलाः ।
ठा० १ उ०। भ०। आयान्तो जन्ययात्रायां, ववले सोऽपि तैः सह ॥२॥ तस्करैर्मुषितः सार्थों, दृष्टा ते मुनिमूचिरे।
वइदंड-वाग्दएड-पुं० । सावधभाषायाम् , आ०चू । तत्रो. साधुः सैष गृहीत्वेहा-स्माभिर्मुक्तोऽधुनैव यः॥३॥
दाहरणम्-साधू संक्षाभूमिश्रो आगतो ॥ अविधीए प्रातच्छ्रुत्वाऽम्बाऽवदच्चौरान , समर्पयत मे चुरीम् ।
लोपति । जधा सूयरवंदं दिटुं ति, पुरिसेहिं सुतं, गंतुं मा
रितं । अहवा-कोट्टिो सामि दई भणति । जदि दिवस्तनौ छिनभि येनाऽसौ, किमित्यूचेऽथ चौरपः॥४॥
सो होतो। सम्वे समणगा हलं वाहावेन्तो ॥ प्रा००४० दुष्पुत्रोऽपात् ययोः क्षीरं, नाण्यद्युष्मान् सतोऽपि यः। वटभ-वैदर्भ-त्रि० । “अइदैत्यादौ च "॥८।१। १५१ ॥ चौरोऽवक् तं कथं नाऽख्यः, पित्रोराण्यादथो मुनिः ॥५॥ खधर्म चौरपो बुद्धः, सर्व तन्मुष्टमार्पयत् ॥"प्रा० क०४०।।
| इति ऐतोऽः । विदर्भदेशादिभवे, प्रा०१ पाद ।
वइदिस-वैदिश-न० । विदिशाया अदूरभवे नगरे, “वादिसवइच्छल-वाक्छल-न० । असाधारण शब्दे प्रयुक्त वक्तरभि
गोचरगामे, खल्लाडगधुत्तकोलियो थेरो"। वैदिशनगरासचे प्रेतादर्थान्तरकल्पनया तनिषेधे, स्या० ('छल' शब्दे तृती.
गोचरप्रामे धूर्तः कोलिकः । वृ०६ उ० प्रा० म०। ('खि. यभागे १३५३ पृष्ठे वाक्छल व्याख्यातम् ।)
सियवयण' शब्दे तृतीयभागे ७४० पृष्ठे विस्तरतो व्याख्या बइजोग-वाग्योग--पुं० । वागविषये योगो वाग्योगः । वा- | गता।)
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(७६०) अभिधानराजेन्द्रः ।
षड्दुकडा
बहरणाम
वइदुक्कडा-वाग्दुष्कृता
बदुकटा वाग्दुष्कृता श्री० असभ्यपरुषादिवचनानिमि वइरउसभनारायसंघयय- वर्षभनाराचसंहनन न० बजे लायां भाषायाम्, ध० २ अधि० । बदुष्पविहाय-वाग्दुष्प्रविधान २० बर्ससंस्काराभावे अ नवगमे, चापले च । ध० २ अधि० । वदुद्दियावान्दुःखिता श्री० [बचसो पचसा या दुःखकारित्वे, द्रोहकत्वे च । स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
I
धम्म - वैधर्म्य - न० । विधर्मतायाम्, विपरीतभावे च ।
आ० चू० ४ अ० । बइपाटव- वाक्पाटव-म० वाग्विषयक पटुतायाम्, कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
। ।
भ०८ ।
प्पयोग- वाकप्रयोग-पुं० प्रयुज्यन्त इति प्रयोगाः व्यापा रा धर्मकथाः प्रबन्धा या धाग्यापारेषु, सूत्र० १४० १३० प्योगपरिय-वाक्प्रयोगपरित भ० भाषाङ्गव्यं काययोगेन गृहीत्वा वाम्योगेन नियमाने ० ० १४० बाभट वाग्भट - पुं० । आत्रेयादिसंहिताटक संपदात्मका:शायुर्वेदप्रभृतिग्रन्धकारके स्वनामख्याते विदुषि, स्वनामत्रसिद्धे मन्त्रिप्रवरे, गुर्जर देशाधिपतिः तिस्रः - कोटी त्रिलो ना म्ययित्वा मन्त्री श्वरो युगादीशप्रासादमुददीधरत् । ती० १ कल्प ।
66
वइमत - वाङ्मात्र न० । वागेव वचनमेव वाङ्मात्रम् । वचनमात्रे, “बइमे विम्विसयं दोसा य " पञ्चा०] १२ विव० । वइमेत्तं ममय वाङ्मय १० व्यञ्जनाक्षरमये, “पश्यन्ति ब्रह्म निई
निन्द्रानुभव बिना । कथं लिपिमयी दृष्टि-मी वा मनोमयी ॥ ६ ॥ " अष्ट० २६ अष्ट० | स्वरादिवागात्मके, " सहिज कंटए वइमए कनसरे संपुज्जो " दश० ६ श्र० । वइमादिय-वागादिक-पुं० । वचनकायविकारविशेषेषु, "व
66
93
इमादिहिं सम्मं गुरुणो आलोयणे य" पञ्चा० १५ विव० । वायव्व - व्रजितव्य - न०, श्रागन्तव्ये, बृ० १३० २ प्रक० । बहर-बज-न०। " --तस बजे बा ८२ १०५ ॥ र्श-र्षयोस्ततवज्जयोः संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो धा भवति । इति मध्य इकारः । वज्रं । वरं । प्रा० । हीरके, अनु० | सूत्र० । स्वा० । प्रज्ञा० जी० । प्रा० म० । रा० । संथा० । सर्वेषां रुचकादीनां रत्नमयानि कूटानि रत्नानीत्युच्यन्ते । द्वी० । आर्यजनाना प्रसिद्धे दशपूर्विणि खबिरेन्द्र "दामि धम्मं ततो देय महगुतं च । ततो य जवारं तवनियम यहरसमं " ॥ १ ॥ नं० । ( ' अजवहर' शब्दे प्रथमभागे २१६ पृष्ठे कथोक्ला । ) (श्रीस्वामिना पटविद्यासः सुमिचदेशे नीत इति 'संघ' शब्दे वच्यते । ) शरीरावयवकीलिकायाम्, जी० १ प्रति० । खा० । प्रय० ।
गैर-१० "बैरानी वा ॥ ३१॥ १२२ ॥ इति
"
इरादेशः । प्रा० । शत्रुतायाम्, “ इत्थिसीसयं नगरं तत्थ दमतो नाम राया, इतो व पंचपेडवा परोप्परं परं आ० म० १ अ० | महा० । श्रतीतायां त्रयोविंशतितमायां चतु. विशतिकायां जाते पञ्चगच्छाधिपती महा० ४०
कीलिका ऋषभः परिवेषणपट्टः नाराचम् उभयतो मर्कटबन्धः ततश्च द्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पदाकृतिकच्छता तृतीयेनास्था परिवेष्ठितयोरुपरितदस्त्रियभेदकीलि काव्यं वज्रनामकमस्थि गप भवति तद् वज्रर्षभनाराचसंदननम् । प्रथम संहनने, जी० १ प्रति० । कल्प० । पं० सं० । स्था०| कर्म० ० वज्रमनाराच संहनने व भनाराचसंहननिनः । प्रथमसंहननिनि. जी०३. प्रति०४ अघि० । बरकंड-वज्रकाण्ड १० रत्नप्रभायाः पृथिव्याः परमये काण्डे, स्था० १ ठा० ३ उ० ।
।
बहरकंत वज्रकान्त १० पष्ठदेवलोकीचे विमानभेदे, स० १२
सम० ।
वरकंद चकन्द-पुं० [कदमे दश० ३ ० जी० । । कन्दभेदे,
|
|
वरकूटचैरकूट १० मन्दरपर्वतस्य नन्दनस्य बलाहकाया देवासभूते कुठे, स्था० ६ ठा० ३३० ।
।
वरजंप वज्रज-पुं० श्रीमत्वामिनः पूर्वविदेदे पुष्कलावती विजये लोहार्गलनगरे जाते पूर्वभवजीबे, आ० म० १ अ० | कल्प० । श्रा० क० । ( ' उसभ शब्दे द्वितीयभागे १११६ पृष्ठे कथा । )
"
3
"ते काले तेयं समयेण अवरविदेद्दे वासे घो नाम सत्थवादो होत्था (श्राव० ) तेण साइरा घयं फालुयं विलं दाणं दिराणं, सो य श्राउयं पालेत्ता कालमासे कालं किया तेरा दाराफले उत्तरकुरा मोजो उक्खपणं सोहम्मे कप्पे देवो उप्पराणो, ततो चइऊण इहेव जंबूदीने अरविदेदेवगंधारजवर गंधसमिद्धे विज्जाहरणगरे ( श्राव० ) महाबलो नाम या जाओ (आय) मरिऊन हंसाएक सिरिष्यभ विमाणे ललियंग नाम देवो जाओ, ततां चऊण इहेव जंबुदीचे दीवे पुलाव विजय लोहगरामी पर जंघो नाम राजा जाओ। श्राव० १ श्र० । बहरणाम - चचनाथ त्रि० । वज्रमयी नाभिर्यस्य सः । मध्ये वज्ररत्नमये, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा० ।
"
वैरनाम - स्वनामण्याते राजनि (१७० गाथा) श्राव० [अ०] श्रीॠषभस्वामिनः पूर्वभवीये जम्बूद्वीपस्य पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकियां नगर्यो वज्रसेनस्य केवलिगः पुत्रे चक्रवर्त्तितां प्राप्ते जी ० ० १ ० ति०
कल्प० । श्र० म० । श्रा० चू० ।
"कुरुप पुरणमरे बालिपुता सोमप्यभी, तस्व पुतो सो बराया, सो सुमिरो मंद पब्वयं सामवरण पासति तत ते अमयकलसंग अभिि सोभितुमादी नगरसेट्टी सुबुद्धिनामा सो सुरस्त रस्सीसदस्य ठाणाओं चलिये पासति नवरं सिद्धंसेस हे सोय अपरं तेयो जाओ। राणा समिएको पुरिसो महप्पमाणो महया रिउबलेण सह जुज्झतो दिट्ठो, सिांसेग साहजं दिराणं, ततो गेण तं बलं भग्गं ति । ततो अत्यासी पगओ मिलिया, सुमिये साइति न पुख
"
- अभिचिप्तम् ।
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(७६१). वहरणाम अभिधानराजेन्द्रः।।
यहरेय जाति-कि भविस्सद ति, नवरं राया भणा-कुमारस्स वइररयण-वज्ररत्न-न० । वज्राभिधानरत्ने,भ० १५०। महंतो कोऽवि लाभो भविस्सर ति भणिऊण उट्टिओ अत्था
| वइररिसि-वैरपि-पुं० । वैराभिधाने मुनिपतौ,पञ्चा०६ विव०। णीयो, सिज्जंसो वि गो नियगभवणं, तत्थ य ओलोयणट्टिी पेच्छति सामि पविसमाणं, सो चिंते-कहिं मया
वइरसामि-वैरस्वामिन-पुं० । आर्यवघेति प्रसिद्ध, सिंहगिरिपरिसं नेवत्थं दिट्ठपुव्वं ? जारिसंपपितामहस्स त्ति, जाती- शिष्ये, स्था० ४ ठा० १ उ० । ('अजवहर' शम्ने प्रथमसंभरिता-सो पुत्वभवे भगवो सारही पासि, तत्थ तेण
भागे २५६६ पृष्ठे कथोना ।) आर्यसमितसूरिमातुले, कल्प बहरसेणतित्थगरो तित्थयरलिंगेण दिलो त्ति, वारणाभे य
२ अधि०८क्षण। पव्वयंते सो अवि अणुपव्वइश्रो, तेण तत्थ सुयं, जहा-एस वइरसार-बज्रसार-न० । कुण्डलद्वीपस्थकुण्डलास्यपर्वतस्य बहरणाभो भरहे पढमतित्थयरो भविस्सइति । श्राव०१०। पूर्वस्यां दिशि स्वनामख्याते कूटे, द्वी। "वहरजंघो नाम राजा (श्राव.] मरिऊण उत्तरकुराए स-वरमरि-वजसरि-०। दशपूर्विणि स्वनामख्याते प्राचार्य, भारिश्रो मिहुणगो जाओ, तो सोहम्मे कप्पे देवो जाश्रो,
कल्प०२ अधि०८ क्षण । ततो चहऊण महाविदेहे वासे खिइपइट्टिए णगरे वेजपुत्तो पायाभो (आव०) से इमे चसारि वयंसगा, तं जहा-राय- |
" | वइरसेण-वैरसेन-पुं०।ऋषभदेवपूर्वभवजीवे वज्रनाभपितरि, पुत्ते, सेट्टिपुत्ते, अमच्चपुते, सत्थवाहपुत्ते ति, (आव०)
सच पूर्वविदेहे-पुण्डरीकिरायां नगर्यो राजा भूत्वा प्रवते पच्छा साहू जाता , अहाउयं पालइत्ता तम्मू
जितस्तीर्थकरः सम्जातः । पञ्चा० १६ विव० । प्रा० क० । लागं पंच वि जणा अच्चुए उववरणा , ततो चइऊण प्रा०म० । आ० चू० । ('भी' शब्दे पश्चमभागे इहेव जंबूदीवे पुव्वविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरीगिणीए
१२८४ पृष्ठे किश्चिद् वृत्तमस्य ।) ('उसह' शब्दे द्वितीयनयरीए वेरसेणस्स रराणो धारिणीए देवीए उयरे पढमो भागे १९१७ पृष्ट वृत्तम्।) आर्यवज्रसूरिशिष्ये, ग०३ अधि। वारणाभो णाम पुत्तो जाश्रो, जो से वेजपुत्तो चक्कवट्टी (तद्दीक्षोक्ता 'अज्जवइर' शब्द प्रथमभागे २१६ पृष्ठे ।) आगतो, अवसेसा कमेण बाहुसुबाहुपीढमहापीढ त्ति, वइर- अयं पूर्वधर प्राचार्यः वैक्रमीये १६५ संवत्सरे विद्यमान आसेणो पब्वहो, सो य तित्थंकरो जाओ।" श्राव०१०। । सीत् । जे०१०। वइरतुंड-वज्रतुण्ड-त्रि० । वज्रवत्तीक्ष्णतुण्डे, कल्प०१ अधि० वइरसेणमूरि-वज्रसेनमूरि-पुं० । नागपुरीयतपागच्छोद्भवे
६ क्षण । ('बंभी' शब्दे पञ्चमभागे १२८४ पृष्ठे कथा ।) | हेमतिलकसूरिशिष्ये, सीहडमन्त्रिप्रशंसया अलाउद्दीननावहरदंड-वज्रदएड-पुं० । वज्ररत्नमये रूप्यपट्टमध्यवर्तिनि | म्ना दिल्लीपतिनाऽस्मै हारादिक उपहारो दत्तः । जै००। दराडे, जी. ३ प्रति०४ अधि०।
वइरागर-वज्राकर-पुं० । वज्रानि रत्नानि तेषामाकरो वजा
करः । वज्राख्यरत्नोत्पत्तिस्थाने, औ० । नि० चू०। वइरपडिरूव-वजप्रतिरूप-त्रि० । वज्रसदृशे , भ० ७ श०
वइराड-वैराट--न० । मत्स्यदेशराजधान्याम् , प्रशा० १ पद ।
सूत्रः। “वराडमच्छा" वैराटो देशो मत्स्यराजधानी । बहरपाणि--वज्रपाणि-पुं० । वज्रं पाणौ अस्य वज्रपाणिः ।।
अन्ये तु-मत्सदेशो वैराटपुरं नगरमित्याहुः । प्रव० २७५ जी०४ प्रति०२ उ० । करधृतवजे,कल्प०१ अधि०१क्षण। | वहरभूह-वज्रभूति-स्त्री० । भरुकच्छनगरे नरवाहननृपस
वइरामय-वज्रमय-त्रि० । वज्रशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतमये एकदा समवसृते स्वनामख्याते प्राचार्य, व्य० ३ उ०।।
त्वात् । वज्ररत्नमये, जी० ३ प्रति०४ अधिक। भ० । श्री० । वइरभृमि-बज्रभूमि-स्त्री० । अङ्गदेशीये नगरीभेदे, यत्र श्रीवी
“वहरामया संधी" जं०१ वक्ष० । प्रश्न । रा० । “वइरो नवमं वर्षारात्रं कृतवान् । कल्प०१ अधि०६क्षण । रामया रोमा।" रा०।। वइरमझचंदपडिमा-बज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा-स्त्री०। वजेणोपमा | वइरामयपासाणा-वज्रमयपाषाणा--स्त्री० । बज्रमयाः पाषाचन्द्रेण च । वज्रस्येव मध्यं यस्याः सा वज्रमध्या । चन्द्रा- | णाः यासान्ता वज्रमयपाषाणाः । वज्रमयपाषाणे रचितकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा । प्रतिमाभेदे, यस्या हि | तटिकायां नद्याम् , जी०३ प्रति०४ अधि० । रा०। कृष्णप्रतिपदि पश्चदश कवलान् भुक्त्वा ततः प्रतिदिन
|वहरासण-वज्रासन-न०। प्रधानयोगिप्रतीते आसनविशेष, मेकहाण्या अमावास्यायामेकं शुक्लप्रतिपदि अप्येकमेव ततः
मति नियमात दिव्यमानं ममनपटाते। पुनरेकैकवृद्धधा पौर्णमास्यां पञ्चदश भुते, सा तनुमध्यत्वाद्
अने० ३ अधि। वज्रमध्या । स्था० २ ठा०२ उ०। (चन्द्रप्रतिमाप्राकृतमधिकृत्य वज्रशब्दस्य पर्यायेण व्याख्यानम् ' पडिमा' शब्दे
| वइरित्त-व्यतिरिक्त-त्रि० । तदन्यस्मिन् , प्रा० म० ११०। पञ्चमभागे ३३४ पृष्ठे गतम्।)(“किरहे" (२०) इत्यादि
| "वरित्तो णाम जहाभिहियकालाश्रो प्रमो अकालो भवपश्चाशकैकोनविंशतिविवर्णगाथया वज्रमध्याप्रतिपादनम् | ति" । नि० चू० १ उ० । 'चंदायण' शब्दे तृतीयभागे १०६६ पृष्ठे गतम्।)
वइरेय-व्यतिरेक-पुं० । अभावे, षो० ३ विव० । साध्याभावे वइरमुद्दा-वज्रमुद्रा-स्त्री० । मान्त्रिकप्रसिद्ध मुद्राविशेषे,
साधनाभावरूपे, विशे। उपमानादन्यस्मिन् , प्रतिः। प्रकसजा०१ अधि०१ प्रस्ता।
मविपर्यये, पञ्चा० १२ विव०।
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...
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बहरोयण अभिधानराजेन्द्रः।
वइवाय बहरोयण-वैरोचन-पुं० । विविधै रोचन्ते दीप्यन्ते इति चतुर्विशत्यधिकं शतं १२४, तस्य द्वासप्तत्या भागो हियते, विरोखनास्त एव वैरोचनाः । स्था० ४ ठा० १ उ० । दा- लब्धमेकं पर्व, पश्चादवतिष्ठते द्विपञ्चाशत् , सा पञ्चदशर्मिक्षिणास्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्ट रोचनं दीपनं गुण्यते, जातानि सप्त शतान्यशीत्यधिकानि, तेषां द्वासप्तत्या. येषामस्ति ते वैरोचनाः । औदीच्यासुरकुमारेषु, भ०३ श० भागहारे लब्धा वश तिथयः, शेषा षष्टिः , सामुहर्तकरणा१ उ०। प्रशा० । अनौ, सूत्र० १ श्रु०६ १०। कृष्णराज्य- थे त्रिंशता गुण्यते, जातान्यतावश शतानि १९००, सेषां द्वावकाशान्तरगे बहिनामकदेवावासभूते, स्था० ८ ठा० ३
सप्तत्या भागहरणे लब्धाः परिपूर्णाः पञ्चविंशतिर्मुहूर्ताः,पउ०। भ० । पुछे, दे० ना० ७ वर्ग ५१ गाथा ।
श्चान्न किमपि तिष्ठति, आगतमेकस्मिन् पर्वणि यशसु च ति बहरोयणिंद-वैरोचनेन्द्र-पुं० । वैरोचना-औदीच्यासुरास्तेषु थिषु गतास्वेकादश्यां पश्चविंशती मातेषुप्रथमो व्यतीपातः मध्ये इन्द्रः-परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः । बलौ, प्रा० । भ० । वै- समाप्त इति, तथा यदि द्वासप्ततिसक्यैर्व्यतिपातैश्चतुर्विंशरोचनोऽग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रः । विभावसौ, त्यधिकं पर्वशतं लभ्यते ततः पञ्चभिर्व्यतिपातैः किं लभ्यम् ? सूत्र०१ श्रु० ६ अ०।
इति, राशित्रयस्थापना ७२-१२४-५, अत्रान्त्येन राशिना पञ्चवडल-बलीवर्द-पुं०।" गोणादयः" ॥८।२।१७४॥ इति
कलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातानि षद् शतानि विंशत्यधि
कानि ६२०, तेषां द्वासप्तत्या भागो हियते, लब्धान्यष्टौ पर्वानिपातः । पुनवे, प्रा०२ पाद । प्रा० म०।
णि 5, शेषास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् ४४, सा तिथ्यानयनावइ(ई)वाय-व्यतीपात-पुं० । रविशशिगतिप्रयुक्तयोगभेदे ,
य पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि षट् शतानि षष्ट्यधिकानिज्यो।
६६०, तेषां द्वासप्तत्या भागहारे लब्धा नव , शेषास्तिष्ठन्ति सम्प्रति व्यतिपातं विवराह
द्वादश१२, ते मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते,जातानि त्रीणि अयणाणं संबंधे, रविसोमाणं तु बेहि य जुगम्मि । शतानि षष्ट्यधिकानि ३६०, तेषांद्वासप्तत्या भागे हते लब्धाः जं हवह भागलद्धं वइवाया तत्तिया होति ।। २६१ ॥ परिपूर्णाः पञ्च मुहर्ताः, पश्चान्न किमपि तिष्ठति, आगतमष्टबावत्तरीपमाणो, फलरासी .....
सु पर्वसु गतेषु नवमस्य च पर्वणो नवसु तिथिषु गतासु द
शम्यां तिथौ पञ्चसु मुहूर्तेषु पञ्चमो व्यतिपातः समाप्तः, एवं इह सूर्याचन्द्रमसौ स्वकीयेऽयने वर्तमानौ यत्र परस्परं |
सर्वेऽपि व्यतीपाताः। (संप्रति चन्द्रनक्षत्रव्यतिपात ) परिव्यतिपततः स कालो व्यतिपातः, तत्र 'रविसोमयोः' सू
शानार्थमुपक्रम्यन्ते- यदि द्वासप्ततिसङ्ख्यैर्व्यतीपातैः सप्तषचन्द्रमसोः 'युगे' युगमध्येऽयनानि तेषां परस्परं 'स
ष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकलिन् व्यतिपाते किं म्बन्धे' एकत्र मीलने कृते सति द्वाभ्यां भागो हियते, ते
लभेयमिति, राशित्रयस्थापना-७२-६७१, अत्रान्त्येन राशिना च भागे यद् भवति भागलग्धं 'तावन्तः' तावत्प्रमाणा एकस्मिन् युगे व्यतिपाता भवन्ति, स च भागलब्धकराशिर्वा
एककलक्षणेन मध्यमराशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणनात् जातः स. सप्ततिप्रमाणः, तथाहि-सूर्यस्यायनानि दश चन्द्रस्यायनानां
सपष्टिरेच, तस्या द्वासप्तत्या भागो हियते, सा च स्तोकत्वाचतुर्विंशदधिकं शतं, तयोरेकत्र मीलने जातं चतुश्चत्वारि
द्भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैखिशदधिकं शतं १४४, तस्य द्वाभ्यां भागो हियते, लब्धा द्वास- शदधिकैर्गुणयिष्याम इत्यस्य गुणकारराशेश्छेदराशेश्च द्वासप्तततिरेव, तावत्प्रमाणा युगमध्ये व्यतिपाताः ॥ २६१ ॥ तिरूपस्य षट्केनायवर्तना, तत्र जातो गुणकारराशिस्त्रीणि साम्प्रतमीप्सितव्यतिपाताऽऽनयनाय करणमाह
शतानि पश्चोत्तराणि ३०५, छेदराशिर्वादश, गुणकारराशि
ना च सप्तषष्टिगुण्यते, जातानि विंशतिसहस्राणि चत्वारि ......................... इच्छिते उ जुगभेए ।
शतानि पश्चत्रिंशदधिकानि २०४३५, छेदराशिरपि द्वादशलक्ष. इच्छियवइवायं पि य. इच्छं काऊण आणेहि ॥२६२॥
णः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणिजं भवइ भागलद्धं, तं इच्छं निद्दिसाहि सव्वत्था । ८०४, ये चाभिजितःसप्तषष्टिभागा एकविंशतिस्तेऽपि द्वादशसेसेऽवि तस्स भेए फलरासिस्साणए सिग्धं ॥ २६३ ॥ भिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके २५२, ते उपरितन• ईप्सिते' विवक्षिते 'युगमेदे' युगविशेषे इच्छाम्-ईप्सि
राशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाविंशतिः सहस्राणि शतमेक तव्यतिपातविषयां कृत्वा ईप्सितं व्यतिपातमप्यानय । कथ
ज्यशीत्यधिकं २०१८३, तेषामष्टभिः शनैश्चतुरुत्तरैर्भागो हिय
ते, लब्धा पञ्चविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति ज्यशीतिः संप्रति मुहमित्याह तत्र यद्,भवति भागेन-द्वासप्तत्यादिमागहारेण लब्धं त-तत्संख्यम् 'इच्छं' ति ईप्सितं व्यतिपातं निर्दिशेत् । शेषा
र्ता आनेतव्याः, मुहूर्ताश्च महोरात्रे त्रिंशत् , तस्याः षट्केनपि युगभेदान् मुहूर्तादिरूपान् ‘फलरासिस्स 'त्ति तृती- नापवर्तनायां जाताः पञ्च, छेदराशिरपि षट्केनापतितो वार्थे षष्ठी फलराशिना द्वालप्ततिलक्षणेन शीघ्रमानय। एष | जातश्चतुस्त्रिंशदधिकं शतं १३४, तत्र यशीतिः पञ्चभिर्गुणिता करणगाथाक्षरार्थः,
जातानि चत्वारि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ४१५, तेषां चतुसम्प्रति भावना क्रियते
खिशदधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धास्त्रयो मुहाः , शेषायदि द्वासप्ततिसङ्ख्यैव्यतिपातैश्चतुर्विंशत्यधिक पर्वशतं | स्तिष्ठन्ति त्रयोदश, तत्र द्वाविंशत्या श्रवणादीनि विशाखापलभ्यते तत एकस्मिन् व्यतिपाते किं लभामहे ? , राशि-| र्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, श्वानुराधाप्रयस्थापना-७२-१२४-१ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणे- ज्येष्ठामूलरूपाणि नक्षत्राणि शुद्धानि, पर ज्येष्ठानक्षत्रमीक्षेनमबराशिचतुर्षिशत्यधिकशतप्रमाणो गुण्यते, जातं तदेव । मिति तत् पञ्चदशभिर्मुहतैः शुद्ध्यति, शेषाः पञ्चदश ति
ज्येष्ठालनाणि सुद्धानि, पात्या श्रवणादीनि वा
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बड़वाय
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ष्ठन्ति ते मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते तत श्रागतं पूर्वाषाढानक्षत्रस्याष्टादश मुहूर्तानेकस्य मुहूर्तस्य च त्रयोदश चतुस्त्रिं शदधिकशतभागानवगाह्य प्रथमो व्यतिपातो गत इति, तथा यदि द्वातिसंतप्तन्नितपर्या या लभ्यन्ते ततः पञ्चभिताः किं लभामदे ? राशित्रय स्थापना-७२-६७–५, अत्रान्त्येन राशिमा मध्यराशेर्गुणनं, जातानि त्रीणि शतानि कानि ३३५ तेषां द्वासप्तत्या भागे हते लब्धाश्चत्वारः पर्यायाः, न तैः प्रयोजनं, शेषास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत् सा नक्षत्रानयनार्थमादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैर्गुणयितव्येति गुणकारच्छेदराश्योः पद्केनापवत्तनाज्जातो गुणकारराशिरस्त्रीणि शतानि पञ्चोसराणि - ३०५, छेदराशिर्वादश तत्र गुणकारराशिना पञ्चोत्तरत्रिशतप्रमाणेन सप्तचत्वारिंशद् गुण्यते, जातानि चतुर्दश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चभिशद धिकानि १४२३४ राशिना च द्वादशप्रमाणेन सप्तषष्टिगु रूपते जातान्यष्टौ शतानि चतुहत्तराणि अभिजितोऽप्येकविंशतिः सप्तषष्टिभागा द्वादशभिर्गुणिता जाता द्वे शते पञ्चाशदधिके २५२ तेन शोच्यन्ते स्थितानि पश्चाश्चतुदश सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि १४०८३, तेषामष्टभिः शतेश्वतुरुसरे भांगहरणं, लग्धाः सप्तदश १७, शेष तिष्ठति चत्वारि शतानि पञ्चदशाधिकानि ४९५ एतानि व मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुणयितव्यानि, त्रिंशतश्च षट्केनापवर्त्तनायां जाताः पञ्च देशेरपि पदकेनापवर्त्तने जातं चतुखिशदधिकं शतं, तत्र चतुर्णां शतानां पञ्चदशोत्तराणां पञ्चभिर्गुसवे जातानि विंशतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि २०७४, तेषां चतुरंशदधिकशतेन भागो हियते लब्धाः पञ्चदश मुहतोः शेषाः तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशदधिकशतभागाः पञ्चषष्टिः, तत्र ये पूर्व लब्धाः सप्तदश तेभ्यस्त्रयोदशभिः श्रवणादीनि पुनर्वसुपर्यम्तानि शुद्धानि शेपास्तिष्ठन्ति चत्वारि ते पुष्यादीनि पूर्वफाल्गुनी पर्वतानि चत्वारि नाग शुद्धानि परमसेपानक्षत्रमक्षेत्रमिति तत् पञ्चदशभिर्मुः शुद्ध्यतीति शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश, ते मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातात्रिशन्मुहूर्त्ताः आगतमुत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चषष्टिं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानाम
पञ्च व्यतिपातोऽभूदिति, एवं सर्वेष्वपि व्यतिपातेषु भावनीयम् ॥ सम्प्रति सूर्यनक्षत्रानयनायोपक्रम्यते यदि द्वासप्ततिसंयेतिपातैः पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्यापा भवन्ति तत एकस्मिन् व्यतिपाते किं भवति ?, राशित्रयस्थापना ७२-५-१, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जाताः पञ्चैव तेषामाद्येन राशिना द्वासप्ततिलक्षरोग भागो हार्य, ते च स्तोत्या न प्रयच्छन्ति ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदचिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुयितव्या इति देवराशिगुरुराश्योः षट्केनापवर्त्तनाः, जातश्छेदराशिर्द्वादश, गुणकार शित्त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि ३०५ तथोपरितनो राशिः पचकलो गुरुवते जातानि पञ्चशतानि पञ्चशत्यधिकानि १५२५, छेदराशिना च द्वादशक लक्षणेन सप्तषष्टिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणि ८०४, पुष्यस्य च सप्तषष्टिभागाश्चतुःश्च त्वारिंशद् द्वादशभिर्गुण्यम्ले जातानि पञ्च शतानि अष्टादि शत्यधिकानि ५२८, तानि पूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि प
"
( ७६३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
बहवाच
श्वान्नव शतानि सप्तनवत्यधिकानि ६६७, तेषामष्टभिः शतैश्वतुरुत्तरैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रमश्लेषारूपं स्थितं पश्चात्त्रिनवत्यधिकं शतम्, एतश्च नक्षत्रभागं न प्रयच्छतीति सप्तषष्टिभागानयनाय छेदराशिर्मोल एव द्वादशलक्षणः परं पञ्चभिः सप्तषष्टिभागैरहोरात्रो लभ्यत इति स पञ्चभिर्गुण्यते, जाता पछि, तया भागो हिवते, सम्भावो ऽहोराचाः, शेषास्तिष्ठन्ति प्रयोदश ते मुनयनाय त्रिशता एयन्ते, जातामि त्रीणि शतानि नवत्यधिकानि ३६०, तेषां षष्ट्या भागे ते लब्धाः साः पर हां अपानक्षत्रमिति तद्वता अहोरात्रा एकविंशति ही उदरन्ति ते प्रक्षिप्यन्ते, श्रागतम श्लेषा नक्षत्रमतिक्रम्य मघानक्षत्रस्य त्रिष्वहोरात्रेषु गतेषु चतुर्थस्य चाहोरात्रस्य साद्धेषु च सप्तविंशतिषु मुहूभैषु गतेषु प्रथमो व्यतिपात गत इति तथा यदि द्वातिसंस्थेतिपातेः पञ्च सूर्यनक्षत्रप लभ्यन्ते ततः पञ्चभि अतिपातः किं लभ्यम् इति राशित्रयस्थापना- ७२-५-५, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जाता पञ्चविंशतिः २५ तस्या आद्येन राशिना भागहरणं, सा च स्तोकत्वाद् भागं न प्रयच्छति ततो नक्षत्रानयनार्थमेनामादशभिः - शदधिके सप्तषष्टिमागैर्गुवयिष्याम इति वेदराशिगुणकारराश्योः चट्केनापवर्त्तना, जातो गुणकारण शिस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि - ३०५, बेदराशिदराप्रमाण:- १२, गुणकारराशिना व पचने जातानि षट्सप्ततिः शतानि पंचविशत्यधिकानि ७६२५, राशि नाऽपि च द्वादशलक्षयेन सप्तषष्टिर्गुण्यते जातान्यही शतानि चतुरुतराणि ८०४ पुष्यस्य च सप्तषष्टिभागाधतुत्वारिंशत्, सा द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि श्रष्टाविशत्यधिकानि तानि पूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् सप्ततिशतानि सप्तनवत्यधिकानि ७०७ तेषामः शतेरुत्तरैर्भागहरणं, लग्धान्यष्टौ नक्षत्राणि, शेषाणि तिष्ठन्ति षद् शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि ६६५, पतानि नक्षत्रभागं न प्रयछन्ति ततः सप्तषष्टिभागानयनार्थे छेदराशिर्मूल एव द्वादप्रमाणः परं पञ्चभिः सप्तषष्टिभागैरहोरात्रा लभ्यन्त इति पञ्चभिर्गुपते, जाता पहिल्या भागो हियते लब्धा एकादशाहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च, ते मूहूर्त्तानयनार्थ त्रिंशता गुरुयन्ते जातं सार्वशतं तस्य षष्टपा भागे हते लब्धी हो
3
"
,
साहस, यानि च पूर्वलन्धान्यष्टौ नक्षत्राणि तान्यलेपादीनि विशाखापर्यन्तानि द्रष्टव्यानि तत श्रागतमनुराधानक्षत्रप्रविष्टस्य सूर्यस्य एकादशसु दिवसेषु गतेषु द्वादशस्य च दिवसस्य द्वयोः सार्द्धयोर्मुहूर्त्तयोर्गतयोः पञ्चमो व्यतिपातो गत इति एवं सर्वेष्वपि व्यतिपातेषु सूर्यनक्षत्राणि परि भावनीयानि ॥ सम्प्रति लग्नपरिज्ञानार्थमुपक्रम्यते यदि द्वासप्तति संख्यैर्व्यतिपातैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां लभ्यन्ते ततः प्रथमे व्यतिपाते कि लभ्यते ? राशित्रयस्थापना - ७२- १८३५-१, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते, स च तावानेव भवति, तत आद्येन राशिना द्वासप्ततिलक्षणेन भागहरणं, लब्धाः पञ्चविंशतिः लग्नपर्यायाः शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चत्रिंशत् एनां नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागेगुणयिष्याम इति वेदराशिगु
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(७६४) अभिधानराजेन्द्रः।
वइसेसिय कारराश्योः षट्केनापवर्तना, ततो जातश्छेदराशिर्वादश- अण् । वैश्वदेवोद्देशेन दीयमाने बलौ , । ती० ५५ कल्प । करूपो गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि ३०५, तेन | वइसमाहारणा-वचःसमाधारणा-स्त्री० । वचनस्य शुपश्चत्रिशदगुण्यते, जातानि दश सहस्राणि षट् शतानि पञ्च-| भकार्य स्थापने. उत्ता सप्तत्यधिकानि १०६७५, छेदराशिदिशकलक्षणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणि ८०४, अस्य राशे
वचःसमाधारणया अपि फलमाहव प्राक्तनैः पञ्चभिः शतैरष्टाविंशत्यधिकैः पुष्यः शुद्धः, स्थि- वइसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? वइसमातानि पश्चाइश सहस्राणि शतमेकं सप्तचत्वारिंशदधिकं हारणयाए णं वइसमाहारणदंसणपजवे विसोहेइ वइस१०१४७, तेषामभिः शतैश्चतुरुत्तरैर्भागहरणं, लब्धा द्वादश
माहारणदंसणपअवे विसोहित्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्ते१२, शेषाणि तिष्ठन्ति चत्वारि शतानि नवनवत्यधिकानि ४६६, द्वादशभिश्चाश्लेषादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि
इ, दुलहबोहियत्तं निजरेइ ।। ५७ ॥ शुद्धानि, पर ज्येष्ठानक्षत्रमर्द्धक्षेत्रमिति तच्चतुर्भिः शतैर्यु- हे भगवन् ! सिद्धान्तोक्नमार्गे वचनसमाधारणया स्वासरैः शुद्धपति, शेषाणि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि तिष्ठ- | ध्याये एव वानिवेसनेन जीवः किं फलं जनयति , तदा न्ति, तान्युद्धरितराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नव शतान्येको- गुरुराह-हे शिष्य ! वचःसमाधारणया-चाकसाधारणया तराणि १०१, आगतमुत्तराषाढानक्षत्रस्य लगप्रवर्तकस्य
दर्शनपर्यवान् विशोधयति वाचः साधारणया-वाक्साधारचतुरुत्तराष्टशतभागानां नवसु शतेष्वेकोत्तरेषु गतेषु मकर- णया वाचा कथयितुं योग्याः ये पर्यवाः-शब्दविशेषाः , लमे प्रथमो व्यतिपातोऽभवदिति । तथा यदि द्वासप्ततिसं- तथा-दर्शनस्य-सम्यक्त्वस्य ये पर्यवा-भेदास्तान् विस्यैर्व्यतिपातैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्या- शोधयति-निर्मलीकरोति, यतो हि बाकसमाधारणां याणां भवन्ति ततः पञ्चभिर्व्यतिपातैः किं भवति ?, राशित्र- कुर्वन् स्वाध्यायं करोति, स्वाध्यायं कुर्वन् द्रव्यानुयोगाद्ययस्थापना-७२-१८३५-५ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशे- भ्यासं विदधत् अनेकयज्ञो भूत्वा शङ्कादिदोषान् निवारयगुणनं, जातान्येकनवतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ६१७५, ति। अतः सम्यक्त्वं निर्मल करोति यतो वाकूसाधारणदर्शतेषामायेन राशिना द्वासप्ततिलक्षणेन भागो हियते, लब्धं
नपर्यवान् विशोध्य सुलभबोधित्वं निर्वर्त्तयति । सुलभा बोसप्तविंशत्यधिकं लग्नपर्यायाणां शतं, शेषास्तिष्ठन्त्येकत्रिंशत् |
धिः परभवे जैनधर्मप्राप्तिर्यस्य स सुलभबोधिस्तस्य भावः तान् नक्षत्रानयनार्थयष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तषष्टि- सुलभबोधित्वं तत् उत्पादयति, दुर्लभबोधित्वं निर्जरयति । भागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योः षट्केनापवर्त्तना, ॥५७ ॥ उत्स०२६ अ०। तत्र जातो गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि ३०५,
वहसवण-वैश्रवण-पुं०1"वैराऽऽदौवा"॥८।१।१५२ ॥ पतोछेदराशिर्वादश, गुणकारराशिना चैकत्रिंशद् गुण्यते, जाती
ः । प्रा० १ पाद । नि चतुर्नवतिशतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि ६४५५, पते
या शरणाशिय तिनिवासाह-वैशाख-पुं० । “वराऽऽदोवा" ॥ ८1१1१५२॥ इति पश्चानवाशीतिशतानि सप्तविंशत्यधिकानि ८६२७, छेदराशि- | अइः । विशाखानक्षत्रयुतपौर्णमासीपर्यन्ते मासभेदे, स० २६ ना च द्वादशकलक्षणेन सप्तषष्टिगुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि सम०। योधस्थानभेदे , प्राचा० १ ० २ ० १ उ०। चतुरुत्तराणि, तैर्भागो हियते, लब्धा एकादश, पश्चात्तिष्ठन्ति श्रा०म०। ज्यशीतिः, एकादशभिश्चाश्लेषादिषु मूलपर्यन्तानि शुद्धानि, वसाही-वैशाखी--स्त्री० । वैशास्त्रमासभाषिन्याममायाम् , पू. नवरं ज्येष्ठानक्षत्रमर्धक्षेत्रमिति चतुर्भिः शतेदव्युत्तरैः शुद्धमिति चत्वारि शतानि व्युत्तराणि शेषाणि तिष्ठन्ति, तान्य
र्णिमायां च । जं०७ वक्षः। शराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि पञ्चा- वइसिय-वैशिक-पुं० । " अाइदैत्यादौ च" ॥।१। १५१ ॥ शीत्यधिकानि ४८५, तत आगतमश्लेषादिषु मूलपर्यन्तेष्वेका-| ऐतोडावेशोपजीविमि, प्रा०१पाद। पशसु नक्षत्रेषु गतेषु पूर्वाषाढानक्षत्रस्य चतुरुत्तराष्टशतभागानां चतुर्यु शतेषु पञ्चाशीत्यधिकेषु गतेषु धनलग्ने पश्चमो | वइसुहया-वचःशुभता-स्त्री० । वचसः शुभभाषे, तस्याः साव्यतिपातो गत इति, एवं सर्वेष्वपि व्यतिपातेषु लग्नानि प- तानुभावकारणत्वात् । सातानुभवभेदे, स्था०७ ठा०३ उ०। रिभावनीयानि ॥ २६२-३ ॥ ज्यो०१६ पाहु । वइवीरिय-वाग्वीर्य-न० । 'वीरिय'शब्दे वक्ष्यमाणस्वरूपे वा
वइसेसिय-वैशेषिक-पुं० । विशेषाख्यातिरिक्तपदार्थाभ्युपगविषयके प्रकर्षे, सूत्र. १ श्रु०८ अ०।
न्तरि कणादशिष्ये, वैशेषिकाणां शास्त्रं कणादमुनिना-द्रबइवेभव-वाग्वैभव-न० । विभव एव वैभषम् , प्रज्ञादि
व्यगुणकर्मसामान्यावशेषसमवायाः षट् पदार्था इति, षट्प
दार्थानङ्गीकृत्य प्रपञ्चितम् । सूत्र०१ श्रु० १ ० १ उ० । त्यात स्वार्थे ऽण विभोर्भावः कर्म चा वैभवम् । वाचा वैभवं
अत्र पदार्थविभागध्यवस्थानुपपनेत्याह-नापि वैशेषिकोवाग्वैभवम् । वचनसंपत्प्रकर्षे, वाचा विभोर्भावे च । स्या।
नं तस्वमिति, तथाहि-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवापइसंपायण-वैशम्पायन-पुं०। “वैराऽऽदौ वा” ॥८॥१५२ ॥
याभावास्तत्वमिति। सूत्र०१ श्रु० १२ १०। द्रव्यादीनां वैरादित्वादेतोऽईत्यादेशः । व्यासशिष्ये विशम्पर्ण्यपत्ये, प्रा०।।
विवरणं स्वस्थाने। ) ( ' इस्सर ' शब्दे द्वितीयभागे बहसदेव-वैश्वदेव-पुं० । विश्वेभ्यो देवेभ्यो देयो बलिः । ६३६ प्रष्ठे वैशेषिकाभ्युपगतेश्वरखण्डनमकारि।)
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अभिधानराजेन्द्रः। बइस्साखर-वैश्वानर-पुं० । “ अहदैत्यादी "॥११ वऊ-देशी-सावण्ये, दे० ना० ७ वर्ग ३० गाथा। ५१ ॥ ऐतोऽः। अग्नी , प्रा०१ पाद ।
वमोगय-वाग्गत-न० । वचनगते, “ बयपविभचीक बउ-चपुर-२० । शरीरे, विशेष अनु।
सलो, वमोगय बहुविहं विभाखतो" दश.७०। बउल-वकल-पुं० । मुकुलश्रीनामके वनस्पतिभेदे , वि-वंक-चक्र-त्रि० ।“ वादावन्तः " ॥८।१।२६ ॥ इति शे० । स०। केसरे, प्रज्ञा० १ पद । कल्प० । धवलपुरवास्त- प्रथमखरात्परोऽनुस्वारागमः । प्रा०।कुटिले, स्था०४ डा. म्ये स्वनामख्याते गडपती, (पशा.)"चतुरधिकविंशतियु- १ उ० । अन्तर्मायिकत्वे,मा..८५०महा। मो०। ते, वर्षसाने शते व सिद्धेयम् । धवलकपुरे वसस्यै, धनपत्यो- रा। स्था० असंयमे, प्राचा०१९०४०२७०। कुखवान्दिकयो आणहिलपाटकनगरे, सावरैर्वर्तमान-वंकगह-चक्रगति-स्त्री० । वका चासौ गतिः । गतिमेदे, बुधमुख्यैः । श्रीद्रोणाचार्यादै-विद्भिःशोधिता चेति । " वंकवलीविगयमेसणमुहा-चकं पाठान्तरेख व्यस्यम् पश्चा०१६ विव०।
सलाञ्छनं बलिभिर्विकृतं बीभत्सं भेषणं-भयजनकं मुकं बउस-पक्श-विकाशवले, कर्बुरे, भ०२५श०६ उ०ायकुशसं
येषां ते तथा । वृ०१उ०३प्रक०। यमयोगाद् वकुशः।भ०२५ श०६ उ०। शरीरोपकरणविभूषा
अथ पक्रगतिभेदानाहदिना शवलचारित्रपटे,स्था० ३ ठा०२ उ०। निर्ग्रन्थमेदे,भ० से किंतं वंकगती, वंकगती चउन्विहा पक्षता, पउसे णं भंते ! कइविहे पलते १, गोयमा! पंचविहे |
| जहा-घडणता थंभणता लेसणता पवडणया । से - परमत्ते, तं जहा-माभोगवउसे अखाभोगवउसे संवुडवउसे
कगती । (सू० २०५+) असंवुडवउसे अहासुहुमवउसे णामं पत्रमे । (सू०-७५१४)।
वा-वकासाचासौ गतिश्च वगतिः। सा चतुर्षा, तचथावकुशो द्विविधो भवति-उपकरणशरीरभेदात् ,तत्र वनपा- घट्टनता स्तम्भमता श्लेष्मणता(प्र)पतनता। तत्र घनशब्दधाधुपकरणविभूषानुवर्तनशील उपकरणवकुशः, करचरण
स्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं घट्टनमेवेति । एवं शेषपदशम्दार्थोंsजनमुखादिदेहावयवविभूषानुवर्ती शरीरवकुशः । स चा
पि भावनीयः । तत्र घट्टनम-खजागतिः, स्तम्भनम्-ग्रीवायां यं द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तथा चाह-वउसे णं ' इस्यादि ।
धमन्यादीनां तिष्ठतो वा प्रात्मनोमप्रदेशानाम्, श्लेष्मणम्'भाभोगवउसे' ति आभोगः-साधूनामकत्यमेतच्छरीरो
ऊर्वादीनां जानुप्रभृतिभिः सम्बन्धः, (प्र) पतनम्-तिष्ठत एव पकरणविभूषणमित्येवं ज्ञानं तत्प्रधानो वकुश आभोगव.
गच्छतो वा यल्लुठनम् , एतानि च घडनादीनि जीवस्यानीकुशः, एवमन्येऽपि, इहाप्युक्तम्-“भाभोगे जातो, करे
प्सितत्वादप्रशस्यत्वाच वङ्कगतिशब्दवाच्यानि प्रक्षा०२पद। इदोसं अजाणमसभोगे। मूलुत्तरेहि संवुड-विवरीश्रोऽसंखुडो हो॥१॥अच्छिमुहम जमाणो,होर महासहमयो बकचूल-चक्रचूड-पुं० । भारतवर्षे विमलयशसो भूपतेः सहा वउसो हवा जाणिज्जतो, असंखुडो संबडो इय- सुमङ्गलादेव्याःपुष्पचूलापरनामके पुत्र, ती०४२ कल्प। (वकरो॥२॥" भ०२५ श०६ उ० स्थाबाधा बक- चूडकथा 'टिपुरी' शब्दे चतुर्थभागे १६७६ पृष्ठे गता।) शः शवलः कर्युर इति पर्यायाः, सातिचारत्वादेवंभूतः वकजड-वक्रजड-पु० । वक्रश्चासा जश्व वक्रजरः।कारसंयमोऽत्र वकुशस्तत्संयमयोगात्साधुरपि बकुशः , सा- लाप्राश, वीरतीर्थे हि साधवो वक्रजडाः । कल्प० । मतिचारत्वात् शुद्धथशुद्धिव्यतिकीर्णचरण इत्यर्थः । स च था-कश्चिद् व्यवहारिसुतः पित्रा बहुशः शिक्षमाणो जनकाद्विविधः-उपकरणशरीरविषयभेदात् , तत्र-अकाल एव दीनां सन्मुखं जल्पनं न कर्तव्यम्, इति पितृवचनं चक्रप्रक्षालितचोलपट्टकाम्तरकल्पादिश्चोक्षवासः प्रियः पात्रद- तया मनसि दधार । अथैकदा सर्वेषु स्वजनेषु बहिर्गतेषु एडकाद्यपि भूषार्थ तैलमात्रया उज्ज्वलीकृत्य धारयन्नुप- पुनः पुनः शिक्षयन्तं पितरम्, अद्य शिक्षयामीति विचिकरणवकुशः, तथा-अनागुप्तव्यतिरेकेण हस्तपादधावन- त्य कपाटं दत्त्वा स्थितः, भागतेषु च पित्रादिषु द्वारोद्मलापनयनादि देहविभूषार्थमाचरन् शरीरवकुशः, अयं च. घाटनार्थ बहुशब्दरणेऽपि न वक्ति, न चोद्वारयति । मियुद्विविधोऽपि प्राभोगाऽनाभोगसंवृताऽसंवृतसूक्ष्मवकुशभेदा- लहुनेन मध्ये प्रविष्टेन च पित्रा हसन रष्ट उपालम्धश्च पञ्चविधः,यतः उवगरणशरीरसु, बहुसो दुविहो दुहा वि कथयामास, भवद्भिरेवोक्तं वृद्धानामुत्तरं न देयम् । इति पञ्चविहो । प्राभोग अणाभोगे, संवुड असंखुडे सुहुमे ॥१॥"] द्वितीयः । कल्प०१ अधि०१क्षण । वृ० । नि००। इति, तत्राभोगः पूर्वोक्नद्विविधभूषणमकृतमित्येवंभूतं शानं | वंकणयाबनता-स्त्री० । वक्रीकरणे, स्था० २ ठा० १ उ०। तत्प्रधानो वकुश आभोगवकुशः १, द्विविधविभूषणस्य च
वंकसमायार-वक्रसमाचार-त्रि० । वक्रः समाचारो यस्य म सहसा कारी अनाभोगवकुशः २, संवृतो लोकेऽविशातदोषः
तथा । असंयमानुष्ठायिनि, प्राचा० १० १०५०। संवृतवकुशः ३, प्रकटकारी स्वसंवृतवकुशः ४, मूलोत्तरगुयाश्रितं वा संवृताऽसंवृतत्वम् , नेत्रमलापनयनादि किश्चि
मायाविनि, प्राचा०१ श्रु०५५०३ उ०। प्रमादवान् सूक्ष्मवकुशः५। ध०३ अधि०। प्रव० । पं०भा० ।
| वंकाणिकेय-वक्रानिकेत-पुं०असंयमाश्रये, "इच्छा पणीया ('णिग्गंध' शब्दे चतुर्थभागे२०३४पृष्ठे वक्तव्यतोक्ला।) म्लेच्छ
वंकाणिकेया"(सू० १३१) । आचा०१७०४ अ०२ उ० (व्याविशेषे, तहेशे च । प्रश्न. १ आश्रद्वार। प्रशा० । तद्देश- |
ख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६१७-२६१८-पृष्ठे गता।) जाताः खियो यशिकाः शा०११०अ०भ०। वंगवा-पुं०। ऋषभदेवस्थ प्रयोविशे पुत्र, कल्प०१ अपि. उसत्तण-वशत्व-०। शरीरोपकरणविभूषाकरणे, व्य० ७क्षण । तच्छासिते देशविशेषे, यत्र साम्रलिप्ती राजधान्या
सीत् । प्रथा १ पद । कल्प० । प्रव० । १६२
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पंग
अभिधानराजेन्द्रः।
वंजणणियय व्या-त्रि० । विगताङ्गे, क्षतिग्रस्ते, ध०२ अधिः । प्रश्नः। श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमभीप्सता व्यञ्जनभेदोऽर्थभेदः उभयभेदबंगल-ध्यान-न० । क्षते, कल्प०१ अघि०७ क्षण । व्य०।
श्व न कार्य इति, तत्र व्यजनभेदो यथा-'धम्मो मङ्गलमुक्टुिं'
इति वक्तव्ये 'पुलं कल्लाणमुक्कोस' मित्यादि अर्थभेदस्तु यथाबंगाल-देशी-वादेश, कल्प०१ अधि०७ क्षण ।
" श्रावती केयावंती लोगसि विप्परामुसंती" इत्यत्राचारवंगिय-व्यक्ति-त्रि० । जुड़िताके, स्था०५ ठा० ३ उ० । सूत्रे यावन्तः केचन लोके-अस्मिन्पाण्डिलोके विपरामृशवंचहत्ता-वयित्वा-स्त्री०। प्रभूतं त्याजयित्वाऽल्पं प्राहयि- म्तीत्येवंविधार्थाभिधाने अवन्तिजनपदे केया-रज्जुर्वान्तात्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०५०१ उ०।
पतिता लोकः परामृशति कूप इत्याह, उभयभेदस्तु द्वयोरपि पंचग-वञ्चक-त्रि० । प्रतारके, पो० १५ विवाद्वा । याथात्मयोपमर्देन यथा-'धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसा पर्वतवंचण-वचन-न । प्रतारणे, सूत्र० २ श्रु० २ अ०भा०।
मस्तक' इत्यादि, दोषश्चात्र व्यञ्जनभेदे अर्थभेदस्तद्भेदे क्रियादशा। भंशने, सूत्र०१ श्रु० १३ अ०।रा।
या भेदस्तद्भेदे मोक्षाभावस्तभावेच निरर्थिका दीक्षेति । उ
दाहरणं चात्राधीयतां कुमार इति सर्वत्र योजनीयम् । सुमचंचणया-वचनता-स्त्री०। प्रतारणतायाम् , औ०। प्रश्न।
त्वादनुयोगद्वारेषु चोक्लत्वान्नेह दर्शितमिति । दश० ३१०। स०। उपघाते, विशे।
व्य० । ग०। ध०। चित्र-वञ्चित-वि०। प्रतारिते, “पयारि वंचिच वेत्र
इदाणि तदुभए त्ति दारंलिअं" पाइना०१८७ गाथा ।
दुमुपुष्फि पढमसुत्तं, अहागडरीयति रमो भत्तं व। चिय-वञ्चित-त्रि० । व्यामोहं प्रापिते, प्रतिः।
उभयसवकरणेणं, मीसगपच्छित्तुभयदोसा ॥ २०॥ बंछा वाञ्छा-स्त्री० । इच्छायाम् , "ईहा इच्छा बंछा स-1 दोसुबमाओ दुमो पुष्फविकसणे-दुमस्स पुष्पं दुमपुष्फं, सा कामो य प्रासंसा" पाइ० ना० ७० गाथा ।
तेण दुमपुष्फेण जत्थ उवमा कीरा तमज्झयणं दुमपुफिया बंज-वन्य-त्रि० । वन्दना, ध०२ अधिभाव। आदाणपदेणं च से णाम, धम्मो मंगलं, तत्थ पढमसुतं बंजग-व्यञ्जक-त्रि०। प्रकाशके, विशे।
पढमसिलोगो, तत्थ उभयभेदो दरिसिज्जति-"धम्मो मंग
लमुकिहुँ,” एवं सिलोगो पढियव्योः सो पुण एवं पढतिबंजण-व्यञ्जन-न० । व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेन घट वेति ।
"धम्मो मंगलमुक्कट्ठो, अहिंसा डोगरमस्तके । देवा वित. व्यञ्जनम् । विशे० । ककाराधक्षरे, अनु०। प्रव० । नं०। व्यञ्ज- स्स नासंति जस्स धम्मे सया मती ॥१॥" 'अहागडरीयंति' यति व्यनक्ति वा-अर्थमिति व्यञ्जनम् । सम्म० १ काण्ड । ति'हाकडेसुरीयंति' त्ति, एत्थ सिलोगो परियव्वो-अत्थ घटादौ वाचकशब्दे, विशे० । अनु० । श्राव० । आचा० ।
उभयभेदो दरिसिजति-"अहाकडेहि रंधेति, कट्टेहिं रहकानि००। प्रशा० । कर्म० | प्रा० म०। पदे, तस्यार्थाभिधा
रिया । लोहारसमावुवा, जे भवंति प्रणीसरा ॥१॥" यकत्वात् । ०४ उ०। श्रा० म०। सूत्रे, सुत्तं कम्हा बंजणं
रमो भत्तंति-पत्थ वि उभयभेदो दरिसिज्जति-" रायभतेभएति?, उच्यते-बंजति ति-व्यक्तं करोति जहोदणरसो वंज
सिणाणे य" सिलोगो कण्ठो-"रलोभत्ते सिणाणे य, गहहो णसंयोगाद् व्यक्तो भवति एवं सुत्ता अत्थो बत्तो भवति
जत्थ खपजति । समझत्ती गिही जत्थ, राया पिंड किमत्थती ति बंजणं सुत्तं । नि०चू.१ उ० । पुनले, तेषां क्षेत्राभि- ॥१॥" उभयं सुत्तत्थं तमराणहा कुणति , सुत्तममहा व्यजकत्वात् । प्रा० म०१०। उपकरणेन्द्रियस्य शब्दा- पढति, अत्थमम्महा वक्खाणेति, एवममहा सुत्ते अत्थे दिपरिणतद्ब्याणां च परस्परं संपर्के, आ. म १० ।। कप्पयंतस्स मीसगपच्छित्तं । मीसं णाम वंजणभेदे अत्थभेदे नं० । स्था० । घटिकाभर्जिकापत्रशाकतीमनतक्रसूपादिके ||
भाकिापनशाकतीमनतक्रसपादिके य जे पच्छित्ता भणिया ते दो वीह दव्या,-। उभयशालनके, स्था० ३ ठा०१ उ०। रसाभिव्यञ्जकत्वात्तेषाम् ।। दोसा य, व्यञ्जनभेदादर्थभेदः, अर्थभेदाच चरणभेदः, इह तु बं० प्र० २० पाहु० । भ० । पिं० । बृ० । मषतिलकादिके, चरणभेद-एव द्रष्टव्यः । यतः-श्रुतार्थप्रधानं चरणं तम्हा शारीरे गुभाशुभसूचके चित, अनु । विशे० । स्था० । सा०। उभयभेदो-चरणभेदो दटुब्बो ॥ नि० चू० १ उ०। सहजे, जन्मना सहैव जाते शारीरे चिह्न , भ० २ श० १ वंजणक्खर-व्यञ्जनाक्षर-नाशब्दरूपे अक्षरश्रुतविशेषे,विशे। उ० । कल्प० । स० । नि०। वंजणभेयं-मपतिलगादी , सह
अथ व्यञ्जनाक्षरमाहजायं लक्खणं, परंछा जायं-बंजणं । नि० चू०१७ उ०। भ०। बंजिजइ जेणऽत्थो, घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं । प्राव रा० । विपा० । नि० श्रा० चूल। इह 'वंजणं' मषादि। भन्मइ भासिजं तं, सव्वमकाराइ तत्कालं ॥ ४६५ ॥ प्रव० २२४ द्वार। इहास्मिन् शास्त्रे व्यञ्जनम्-मयादि । प्रव०
व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति , अतस्तद् व्यञ्जन २५७ द्वार । मसाईगं बंजणं । अहवा जं शरीरेण सह समु
भण्यते, व्यञ्जनं च तदक्षरं च व्यञ्जनाक्षरम् , तह सर्वमेव प्पणं तं लकवणं, पच्छा उप्पन्नं वंजणमिति । प्रव. २५७
भाष्यमाणमकारादिहकारान्तम्,तस्याः भाषायाः कालो यत्र द्वार । मषादिव्यअनफलोपदेशके शास्त्रे,स०२६ सम०। प्रश्न । तत्तत्कालं वेदितव्यम् , भाष्यमाणः शब्दो व्यञ्जनाक्षरमिति दशा। वस्तिकूर्चकक्षादिरोमणि, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण ।। हृदयम् : अर्थाभिव्यञ्जकत्वाच्छब्दस्यति ॥४६॥ विशे। वृ०॥ उपस्थरोमणि, व्य०१ उ०।
| (तत्र सूत्रम् 'अक्खर' शब्दे प्रथमभागे १४० पृष्ठे उक्तम् ।) वंजणपत्थतभयभेद-व्यञ्जनार्थतदुभयमेद-पुंगव्यञ्जनार्थ- | वंजणणियय-व्यञ्जननियत-त्रि० । शब्दनयनिवन्धने, “सोऊतदुभयान्याश्रित्य भेदरूपे दर्शनातिचारे,दश० । व्यञ्जनार्थत-ण समासो चिय, वंजणणियो य अत्थणियो य" । सउभयान्याश्रित्य मेदोन कार्य इति वाक्यशेषः। एतदुक्तं भवति ) म्म काण्ड ।
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बंजवपरियाय अभिधानराजेन्द्र।
बंजणाऽबग्गह बंजण(पज्जव)परियाय-व्यञ्जनपर्याय-पुं० । कालान्तरस्था-1 म्बद्धस्यार्थस्य-शब्दादेरवग्रहणम्-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो यिशब्दानां संकेतविषयेषु, द्रव्या०८ अध्या० ।
व्यञ्जनावग्रहः ।नं। ततश्च-व्यञ्जनेनोपकरणेनेन्द्रिये (मा. वंजणभेय-व्यजनभेद-पुं० व्यञ्जनमाश्रित्य भेदरूपेझानाचा- म० । ध०) प्रतिज्ञानरूपे अवग्रहविशेषे, भ० ८ श० २ रे, ग०१ अधि० । दश० । व्य० । ध० । व्यञ्जयतीति व्यञ्जनं
उ० । नं० । उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतन्यसम्बन्धे प्रथतं च अक्खरं अक्खरेहिं सुतं णिज्जुत्ति त्ति काउं सुतं वं
मसमयादारभ्यार्थावप्रहात्प्राक या सुप्तमत्तमूछितादिजनं तमराणहा कति । कहं ?,
पुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसंबन्धमात्रविषया काचिदसकयमत्ता विंद, एणभिधाणेण वा वितं अत्थं ।
व्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्जनावग्रहः, स चान्तर्मुहूर्त
प्रमाणः । अत्राह-ननु व्यञ्जनावग्रहवेलायां न किमपि वंजिअइ त्ति सुत्तं, बंजणमिति भएणते लहुगो ॥१७॥
संवेदनं संवेद्यते तत्कथमसौ शानरूपो गीयते !, उच्यतेपाइतं सुत्तं सक्कयं करेति,जहा-'धम्मों मङ्गलमुत्कृष्टम् अभूतं
अव्यक्तत्वान्न संवेद्यते, ततो न कश्चिदोषः, तथाहि-यदि या मत्तं देति फेडेति वा,जहा-सव्वं सावजं जोग पचक्खामि
प्रथमसमयेऽपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैरुपकरणेन्द्रियस्य संएव बत्तब्वे:सब्वे सावजे जोगे पश्चक्खामि ति भणति । एवं पृक्को काचिदपि न बानमात्रा भवेत् ततो द्वितीयेऽपि विदुभूतं वा फेडेति अभूतं वा देति,जहा-णमो अरहताणं ति समये न भवेत् । विशेषाभावात् । एवं यावच्चरमसमयेवत्तवे पंचविसाणुस्सराणगारा बत्तब्वा सो पुण-नमो अरह- ऽपि, अथ चरमसमये मानमर्थावप्रहरूपं जायमानमुताण भणति अभिधीयते जेण तमभिहाणं, जहा-घडो पडो वा, पलभ्यते ततः प्रागपि कापि कियती मानमात्रा द्रष्टव्या । अण्णं अभिहाणं अण्णभिहाणं ततो तेण भएणण अभिहाणे- अथ मन्येथाः मा भूत् प्रथमसमयादिषु शब्दादिपरिणतण तम्मि तं चेव अत्थं अमिलवति, जहा-"पुष्फ कल्लाण- द्रव्यसंबन्धेऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा, शन्दादिपरिणतमकोसं दयासंबरणिज्जरा" अभिसद्दो विकप्पत्थे पयत्थ- द्रव्याणां तेषु समयेषु स्तोकत्वाचरमसमये तु भविष्यसंभावणे वा, किं पुण पदत्थं संभावयति-अक्खरपपहिं ति, शब्दादरूपपरिणतद्रव्यसमूहस्य तदानीं भूयसो वा हीणातिरित्तं करेति अण्णहा था सुत्तं करेति; एवं पर्य भावात् , तदयुक्तम् , यतो-यदि प्रथमसमयादिषु शम्मापयत्थं संभावेति । सुतं कम्हा बंजणं भम्पत्ति ? उच्यते-वं- दिद्रव्याणां स्तोकत्वात्संपृक्ता वक्तव्याऽपि काचिदपि ज्ञानजति ति-व्यक्तं करोति जहोदणरसो बंजणसंजोगा व्य- मात्रा न समुल्लसेत् तर्हि प्रभूतसमुदायसम्पर्केऽपि न भवेको भवति एवं सुत्ता अत्थो बत्तो भवति जेणं ति तम्हा त्, न खलु सिकताकणेषु प्रत्येकमसति तैललेश समुदायेऽपि कारणा वंजति ति अत्थो, एवं वजणसामस्थातो बंजणमि- तैलं समुद्भवदुपलभ्यते । अस्ति च चरमसमये प्रभूतशति चुपते सुतं । णिगमणवयणं, तं वंजणं सकयवयणादिभिः ब्दादिद्रव्यसंपृक्ती शानम् , ततः प्राक्तनेष्वपि समयेषु स्तोककप्पियं तस्स पच्छित्तं भवति
स्तोकतरैरपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैः सम्बन्धे काचिदव्यतदेव प्रायश्चित्तमाह
फ्ना मानमात्राऽभ्युपगन्तव्या, अन्यथा चरमसमयेऽपिशालहुगो वंजणभेदे, आणादी अत्थभेप्रचरणे य ।
नानुपपत्तेः । तथा चोक्तम्-"जं सब्वहा न वीसुं, सम्वेसु चरणस्स य भेदणं,अमोक्खदिक्खा य अफला तु ॥१५॥
वि तं न रेणुतेल्लं व । पत्तयमणिच्छंतो, कहमिच्छसि स
मुदये नाणं ? ॥३॥ " ततः स्थितमेतत्-व्यञ्जनावग्रहो सक्कयमत्ताबिन्दअक्खरपयभेएसु वट्टमाणस्स मासलह, ज्ञानरूपः , केवलं तेषु शानमव्यक्त्रमेव बोद्धव्यम् । चशम्दी अराण मुत्तं करेति चउलहुं प्राणापवत्थं मिच्छत्तविरा
स्वगतानेकभेदसंसूचकौ,ते च स्वगतानेकभेदाः अग्रे स्वयमेहणा य भवति । एवं सुत्तत्थमेश्रो, सुत्तत्थभेया अत्थभेश्रो, व सूत्रकृता वर्णयिष्यन्ते । पाह-प्रथमं व्यञ्जनावग्रहो भवति अत्थभेया चरणभेयो, चरणभेया अमोक्खो, मोक्खभावा
ततोऽर्थावग्रहः,ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः?, दिक्खादयो किरिया भेदा अफला भवंति । तम्हा वंजणभेदो उच्यते-स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात् , तथाहि-अर्थावग्रहः स्प. ग कायब्वो। नि० चू०१ उ०।
रूपतया सर्वैरपि जन्तुभिः संवेद्यते, शीघ्रतरगमनादौ सबंजणाऽवग्गह-व्यजनावग्रह-पुं० । व्यज्यतेऽनेनार्थः । प्रदी
कृत्सत्वरमुपलम्भे मया किंचित् दृष्टं परं न परिभावितं सपेनेव घट इति व्यञ्जनम् । तच्चोपकरणेन्द्रियस्य श्रो- म्यगिति व्यवहारदर्शनात् , अपि च-अर्थावग्रहः सर्वेन्द्रिप्रादः शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्धः, स- यमनोभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रह उक्तः । म्बन्धे हि सति सोऽर्थः शब्दादिरूपः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्य
संप्रति तु व्यअनावग्रहादूर्द्धमर्थावग्रह इति क्रममाधिअयितुं शक्यते, नान्यथा । ततः सम्बन्धो व्यजनं च । त- त्य प्रथमं व्यञ्जनावग्रहस्वरूपं प्रतिपिपादयिषुः शिष्यः प्रथा चाह भाष्यकृत्-" वंजिज्जइ जेणत्थो, घडो व्व दी- नं कारयति-" से कि तं वंजणुग्गहे" (सू०-२८) (इत्यावेण बंजणं तं च । उवगरणिदियसद्दा-इ परिणए दव्वसं- दिसूत्रम् ' उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे ६६८ पृष्ठे गतम् ।) यंधो ॥१॥" व्यञ्जनेन-संबन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमा- व्याख्या चेयम्-अथ कोऽयं व्यञ्जनावग्रहः ?, प्राचार्य आहनस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनाव- व्यञ्जनावग्रहः-चतुर्विधः प्रशप्तः, तद्यथा-' श्रोत्रेन्द्रियव्याग्रहः, अथवा-व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि 'कृद्वहुल' मिति व- नावग्रह' इत्यादि, अत्राह-सत्सु पञ्चस्विन्द्रियेषु षष्ठे च चनात् कर्मण्यनद् , व्यञ्जनानां-शब्दादिरूपतया परिणता- मनसि कस्मादयं चतुर्विधो व्यावयेते ? उच्यते-दह व्यजनमां द्रव्याणाम्-उपकरणेन्द्रियसंप्राप्तानामवग्रहः-अव्यक्तरूपः मुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्ध उपरिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा-व्यज्यतेऽनेनार्थः प्र- च्यते संबन्धश्चतुर्णा मेव श्रोत्रेन्द्रियादीनाम्, न नयनममसोः दीपेनेव घट इति ध्यानम्-उपकरोन्द्रियं तेन स्वस- तयोरप्रायफारित्वात् । न० । व्यञ्जनावग्रहस्य महार
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बंजणाऽवरगढ़
बंदण
टान्तेन प्ररूपणा 'आभिणिबोहियाण' शब्दे द्वितीयभागे इति । भाव० ३ अ० । प्रव० । ('किइकम्म' शब्दे तृतीयभागे २७१ पृष्ठे द्रष्टव्या । ) ५०७ पृष्ठे व्याक्यातम् । ) वंजिय-व्यञ्जित - त्रि० । व्यशीकृते, ग० ३ अधि० । “ यथाव्यञ्जिता व्यीकृता यथा गङ्गेत्यादि " ० ३ अधि० । बंजुल बल-पुं० [देतसे, इ० २ ० विशे० । स्था० । वंजुलो वेडसो य बालीरो " पाइ० ना० १४४ गाथा । सोमपक्षिविशेषे श्री० जी० १ प्रति प्र बंटग वयटक- ० विभागे नि० ० १२० ।
बंड देशी बम्बे ३० ना० ७ वर्ग २१ गाया ।
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(s) अभिधानराजेन्द्रः ।
वंत - वान्त- न० । नपुंसके भावे क्तः । वमने, शा० १ ० १ ० कर्मणि-तः परित्यक्ते, द्वा० २७ द्वा । दश० । बंता वान्वा य० । उड्डीयैत्यर्थे, “यंता लोपस से मह परिक्रमेज्जासि " प्राचा० १ ० २ अ० ६ उ० । सूत्र० । वमितृ-त्रि०। उङ्गारके, “से वंता कोहं च माणं च (सू०१२१+) दमिता, बमुद्विरणे इत्यस्मात्साच्छीलिकस्वर, तयोगेस पहथाः प्रतिषेधे कोधशब्दाद द्वितीया, लुङन्तं चैतत् यो दि यथोक्तसंयमानुष्ठाग्री सोऽचिरात्क्रोधं वमिष्यत्येवमुत्तरत्रापि । श्राचा० १ ० ३ ० ४ उ० । पंतपडियाया(म)- वान्तप्रत्यादान-१० भुक्त्योज्झितपरिभोगे ० । “वंतस्स पडिशायाणं ६" इश० १ ० (इवं सूत्रम् 'अट्ठारखट्टाल' शब्दे प्रथमभाग २४६ पृष्ठे व्याख्यातम् । ) वंतासव - वान्ताभ्रव - पुं० । वान्तं वमनं तदाश्रवन्तीति, वास्वाश्रवाः । शा० १ ० १ ० । वान्ताशिषु, अष्ट० १८ अष्ट० (कारले वान्ताशनमपि 'राहोषण' शब्देऽस्मि भागे ५३८ पृष्ठे प्रतिपादितम् । ) ( वान्ता शित्वोन्मुखो रथनेमी राजीमया पथा प्रतिबोधितस्तथोक्तंरहरामि शब्देऽस्मि भागे ४६८ पृष्ठे । )
"
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बंद वन्द्य-० बन्दनीये स्तुत्ये, पो० १४ विष० । विशे बंदण-वन्दन-न० । वाचा स्तुतौ शा० १ ० १ अ०] स्था०| शाखा० । उत० । संथा० । ति० । विधिना कायवाङ्मनःप्रशिधाने, प्रव० १ द्वार। दश० जी० । संथा० । प्रति० । सूत्र | शिरसाऽभिवादने, घ० २ अधि० । श्राष० । प्रा० म० प्रा० ० यदि अभिवादनस्तुत्योः इति कायेनाभिवान वाचा स्तवने आ० ० १ प्र० । द्वादशावर्तादिना (स्था० ४ ठा० १ उ० | ल०) प्रशस्तकायवाङ्मनःप्रवृत्ती, श्राघ० ५ अ० । “वंदणं जिएमुद्दाए" स० । पं० ० । वन्दनं निरूप्यते परि अभिवादनस्तुत्योः इत्यस्य "कराकर रायो " ( पा० ३।३।११७) इति ल्युट् “ युवोरनाकी " पा० ७११) इति धनादेशः । दितो नुम्धातोः " ( पा० । ७ । १।५८ ) इति नुमागमः । ततश्च वद्यते स्तूयते ऽमेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारजालेनेति वन्द्र
66
नम् । श्राव० ३ ०
"
कतिदोसविष्पमुर्क, कितिक्रम्मं फीस कौरई वा वि । ११०३॥ अयमतिः-अवनतं कर्तव्यम्. फति शिरः, कति शिरांसि तत भवन्तीत्यर्थः, कतिभिरावश्यकैराब सहिभिः परिशुद्धम्, कतिदोषविप्रमुक्तं टोलगत्याइयो दोषाः कृतिकर्म-कर्म 'फीस की सि' किमिति वा कित
पर्यायशब्दान् प्रतिपादयत्रिदं गाथाशकलमाहनिर्युक्रिकार:
दयचि किम्मं पूयाकम्मं च विश्यकम्मं च। चन्दनकर्म विधा-पतो, भावतब्ध यतो- मिथ्या रहेनुपयुक्तसम्यग्रथ, भाषकः सम्यग्रहेपयुक्तस्य। श्रा६० ३ अ० ।
तत्र कृतिकर्मणि शीतलकदृष्टान्तमाह"एगस्स रराणो पुतो सीयलो ग्राम, सो य सिविरलकाममोगो पव्वति, तस्स य भगिणी अण्णस्स रगलो दिरणा, ती बारि पुसा सा तेसि कतरे कई कहे, महा-मुझ मातुलच पुम्यपण्याचो एवं कालो बच्चा ते वि तारा अंतिर पचाया बत्तार, बहुस्पा जा या आयरियं पुच्छिउं माउलगं वंदगा जंति, एगम्मि एयरे सुनो, तत्थ गया वियालो जाउ ति कार्ड बाहिरियाए ठिया । सायगो व वरं पवेसि कामो सो मणिश्रो- सीपलायरिया कहिजे तुम्यं भाइणि ते आगया विवालो सिन पविट्ठा, तेणं कहिय, तुट्ठो, इमेसि पि रतिं सुहेल
साउद पि केवलनाएं समुप्यर्थ पभाए श्रायरिया दिलाउ पलोपति, एत्ताहे मुझे एहिति, पोरिमिसुतं मयेकरेंति अति उपाहार अरथपोरिस लि अतिचिरामि य ते देवकुलियं गया ते वीरागा - दाति इंडो थियो, पडितो आलोय भगर-कश्रो वंदामि ?, भांति जत्रो मे पडिहाय । सो चिंते-अहो
सेहा मिशन सि, तद वि रोसेण बंदर, सुवि दिप, केवली फिर पुष उसे उपचारं न भेज जान डिभिज, एस जीवकप्पो तेसु नस्थि पुण्यपवतो बयारो ति, भांति -- दव्ववंदणपणं वंदियम, भाववंदपणं वंदाहितं फिर बंद कसायकंड द्वारापडिवं पेच्छति, सोभति एवं निज्जति है, भति-वार्ड, कि अतिसो अत्थि ? धामं । किं छाउमत्थिश्रो, केवलियो ?। केवली भणति केलियो । सो फिर तहेब उद्धसियरोमकृवो अहो म मंदभण केवली झासातिय संवेगमागयो। ते हिं चैव कंडगठाणेहिं नियतो ति ०जाव अपुव्वकरणं अपविद्धो, केवलनाएं समुप्यर्थ उत्थं तस्य समति । सा चैव काइया चिट्ठा एगम्मि बंधाय एगम्मि मोक्खाय । पुस, पच्छा भावचंद जाये" ०३ अ० । ० चू० । वन्दनं चैत्यवन्दनम् गुरुषन्दनं च । तत्र गुरुवन्दने, ( ध० ३ अधि० ) वन्दनं कस्य केन केन कुत्र क तिकृत्यः कृत्ययमतं ५ कनि शिरः ६ तिमिराश्या परिशुद्धं कर्त्तव्यमिति (फिकम्म' शब्दे तृतीयभागे २०७ पृष्ठे व्याख्यानम् । ) ( कृतिकर्म च द्विप्रकार, वन्दनकम् श्रभ्युस्थानं येति 'अभुद्वारा राणे प्रथमभागे ६६३ पृष्ठे उम् ।) अथ बन्दनकमभिधित्सुराहदेसिय-राय-पक्खिय, चाउम्मामा तहेच परिमेय । लघुगुरु लहुगा गुरुगा, बंदगए जाणिव पदाथि ७७८ | देवसिके राधिके वा आवश्यकेन ददति मासलघु, पाक्षिके चन्दनकं न प्रयच्छन्ति मासगुरु चातु
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बंदण
अभिधानराजेन्द्रः। .र्मासिके धन्दनकमददतां चतुर्लघु, सांवत्सरिके बन्दनकाs- अवनौ अवगतम् उत्तमानप्रधानं प्रणमता-2 अवनते ५ दाने चतुर्गुरु । चशम्दाद्विपरीतं न्यूनाधिकं च कुर्वतां लघु-| स्मिन् तद्द्वयवनतम् , एकम्-यदा प्रथममेष "इच्छामि मासः । योऽभिवन्दनके इषवनतः यथा जातादीनि पदानि मासमणो वंदिउं० जाव णिज्जाए निसीहियाए " इत्यभितेषामप्यकरणे असमाचारी निष्पनं मासलघु ।
धाय छन्दोऽनुशापनायाबनतमिति । द्वितीयं पुनरेवमेव हिअथैतदेव प्रायश्चित्तं विशेषयत्राह
तीयप्रवेशे इति । यथाजातं नाम यथा प्रथमतो जननीपायरियाइचउण्हं, तवकालविसेसियं भवे एयं । जठरात्रिर्गतो यथा च श्रमणो जातस्तथैव बन्दनकं दामहवा पडिलोमे यं, तबकालविसेसिमो होइ ॥७७६।।
तव्यम् , तत्र रजोहरणमुखवत्रिकाचोलपट्टकमात्रया अवप्राचार्यादीनां चतुर्णामप्येतदनन्तरोनं प्रायश्चित्तं तपः
णः संजातो रचितकरसंपुटस्तु योन्या विनिर्गतः एवंभूत कालविशेषितं भवति, तत्राचार्यस्य द्वाभ्यामपि तपःकाला
एव बन्दनकं दत्ते ३, कृतिकर्मवन्दनकं ' वारसावयं ' भ्यां गुरुकम्, वृषभस्य तपोगुरुकम्,भिक्षोःकालगुरुकम्, पुल
ति द्वावशावर्त भवति । इह प्रथमतः प्रविष्टस्य " माहो कस्य तपसा कालेन चतुर्लघुकम् । अथवा-तपःकालविशेषत कार्य कार्य जुत्ता मे जवणिजं च भे" इति सूत्राभिधानगर्माएतदेव प्रतिलोमं पश्चादनुपूर्व्या वक्तव्यम् । प्राचार्यस्य द्वा- गुरुचरणन्यस्तहस्तशिरःस्थापनरूपाः षडावर्ता भवन्ति । भ्यामपि लघुकम् , वृषभस्य कालगुरुकम् , भिक्षोस्तपोगुरु- अवग्रहानिर्गत्यापुनःप्रविष्टस्याप्येवमेव परिति द्वादशावकम्, पुल्लकस्य द्वाभ्यामपि गुरुकम् ।
संबन्दनकमुच्यते १५, चत्वारि शिरांसि उपचाराच्छिरोअथ 'देसियराइय' ति पदद्वयं विशेषनो भावयति- नमनानि यस्मिन् तच्चतुर्मशिरः तत्र “ संफासनमगं दुगसत्तगकिइकम्म-स्स अकरणे होइ मासियं लहुगं ।
खामणा नमणे सीसस्स बीयं एवं बीए पवेसे विदोधि" मावासगविवरीए, ऊणहिए चेव लहुओ उ ॥७८० ॥
ति । १६ । यथा प्रयो वा-मनोवाकाययोगा गुप्ताः-सुप्रणिहि
ता यस्मिन् तत्रिगुप्तम् । इयमत्र भावना-मनसा सम्यक 'दुगसत्तग' ति द्वे सप्तके चतुर्दश भवन्तीति कृत्वा पूर्वाहप
प्रणिहितो, वाचा अस्खलितानि तत्र पदानि विकथादिराहयोश्चतुर्दश वन्दनकानि भवन्ति। कथमिति चेद् ! उच्य
निरोधेनोच्चारयन् , कायेनावर्तान् सम्यक् प्रयुखानो वन्दनते-गहरात्रिकप्रतिक्रमणे चत्वारि बन्दनकानि । तत्रैकमालोचनायाम् , द्वितीय क्षामणके, तृतीयं पाएमासिकम्-त-|
कं ददाति २२, दो प्रवेशौ गुरोरवाहेऽनुशाप्य प्रविशतो पश्चिन्तनकायोत्सर्गार्थ च, चतुर्थ प्रत्यास्थानग्रहणार्थमिति ।
यस्मिन् तद् द्विप्रवेशम् २३, एकं निष्कमणं गुरोरवप्रहा
दावश्यकाभिर्गच्छतो यत्र तत्रैकनिष्क्रमणम् २५, पतेषां पयथाखाध्यायं त्रीणि वन्दनकानि, तत्र च वृद्धसंप्रदायः"सज्झाए वंदित्ता पढवेह एयं पढमं पाषय तस्स विडयं पच्छा
श्वविंशतेरावश्यकानामकरणे प्रत्येकं मासलघु प्रायश्चित्तम् , उदिटुं, समुट्ठि पढा उद्देससमुहेसवंदणाणमिहेवं सम्मा
अथवा-वन्दनके यानि पदानीत्यत्र नोद्भूतादीनि द्वात्रिंशत् वो। तो जाहेचउभागावसेसा पोरिसी ताहे पाए पडि
संख्याकानि दोषपदानि मन्तव्यानि । पृ० ३ उ०। लेहो जान पडिलेहिउकामोतो वंदा, अह पडिलेहिउकामो
तानि चामूनिताहे पडिलेहेरे, अवंदित्ता पाए पडिलेहो पाए पडिलेहित्ता
अगाढियं च थद्धं च, पन्विदं परिपिंडियं । तत्थ पढह कालवेलाए व ठिो पडिक्कम पयं तइयं"एवं पू: टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं ॥ १२०७॥
हे सप्त वन्दनानि, अपराहेऽप्येवमेव सप्त भवन्ति । तत्र-च- अनाहतम्-अनादरं सम्भ्रमरहितं वन्दते १ , स्तब्ध स्वारि देवसिकप्रतिक्रमणे, त्रीणि स्वाध्याये , अनुशावन्द- जात्यादिमदस्तब्धो बन्दते २, प्रविधं-चन्दनकं दददेव - नानां स्वाध्यायवन्दनायामेवान्तर्भावादिति सर्वसंख्यया श्यति ३, परिपिण्डितं-प्रभूतानकवन्दनेन बन्दते आवर्तान् चतुर्दश वन्दनकानि भवन्ति । एतचाभार्थिकमङ्गी- ध्यानाभिलापान वा व्यवच्छिन्नान् कुर्वन्, 'टोलगति' नि कृत्योकम् । यस्तु भक्कार्थिकस्तस्य भोजनानन्तरभावप्रत्या- तिवदुत्प्लुत्योत्प्लुत्य विसंस्थुलं वन्दते ५, मश-रजोहरबस्यानवन्दनकसहितानि पञ्चदश भवन्ति, तेषां मध्यादेकत- महाशवत्करद्वयेन गृहीत्वा वन्दते ६, कच्छभारिंगियं-कच्छपरस्थापि कृतकर्मणोऽकरणे मासिकं लघुकं प्रायश्चित्तं भव- बत् रिमितं कच्छपवत् रिजन बन्दत इति गाथार्थः ॥१२०७४ ति, तथा आवश्यकं कुर्वन् विपरीतमालापकोच्चारणं क- मच्छुव्वत्तं मणसा, पउटुं तह य वेइयाबद्ध । रोति । तद्यथा-देवसिके भावश्यिके क्षमयामि क्षमाश्रमण !
भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारखा ।। १२०० ।। रात्रिकं व्यतिक्रममित्युच्चरति, रात्रिके वा देवसिकमालापं करोति । एवं पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकेष्वपि
मत्स्योत्तम्-एकं वन्दित्वा मत्स्यवद् द्रुतं द्वितीयं साधु
द्वितीयपान रेचकावर्तेन परावर्तते,मनसा प्रदुएम् ,बन्यो प्रतिक्रमणेषु वक्तव्यम् , अत्र सर्वत्राप्यसमाचारीनिष्पनं मासलप. 'ऊणहिए थेव' ति अनानि वा एकस्यादिभिर्व
हीनः केनचिद्गुलेन, तमेव च मनसि कृत्वा सास्यो बन्दते
६, तथा च वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्याघो वा मदनकहीनानि अधिकानि च यथोकप्रमाणादतिरिकानि | देवसिकादिप्रतिक्रमणेषु बन्दनकानि प्रयच्छतो मासलघु।
पार्श्वयोर्वा उत्सरु वा एकं वा जानुं करायान्तः कृत्वा
वन्दते १०, 'भयसा चेव' सि भयेन वन्दते,मा भूगच्छादिअथ 'वंदणए जाखिय पयाणि' ति पदेन यानि
भ्यो निर्धाटनमिति ११, 'भयंत ' ति भजमानं वन्दते 'भजयवनतादीनि पचविंशतिवन्दनकस्यावश्य
त्ययं मामतो भक्त भजस्वेति तदार्यवृत्तम्' इति १२, 'मेसि' कपदानि सञ्चितानि तानि दर्शयति
ति मैत्रीनिमित्तं प्रीतिमिच्छन् वन्दते १३, 'गार' चि गौरदुमोणय अहाजायं, किकम्मं वारसावयं होइ ।
बनिमित्तं वन्दते, विदन्तु माम्, यथा-सामाचारीकुशलोध्यम् पऊसिरंति गुत्तं च, दुपवेसं एगणिक्खमणं ॥७५१॥ । १५, 'कार' तिघानादिब्यतिरिकं कारणमाश्रित्य वन्दते,
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( ७७० ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
बंदण
॥
बाद मे दास्यतीति १२. अर्थ गायार्थः ॥ १२० तेखियं पडिणियं चैत्र, रु तजियमेव य ।
सढं च हीलियं चैव, तहा विपलिउंचियं ॥ १२०६ ॥ सैम्यमिति परेभ्यः स्वात्मानं गुदयन् स्तेन वन्दसे, मा (ममेयं लाघवं भविष्यति १६, प्रत्यनीकम् आहारा दिकाले बन्दने १७, रुष्टं - कोधाध्मासं वन्दते कोषाध्मातो वा १८, तर्जितं न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठशिव इत्यादि निर्भयन्दते अपादिभिर्वा
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तर्जवन १५ - वन्दते महानादिव्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग् वन्दते २०, हीलितं हे गणिन् ! वाचक ! किं भवतो वन्दितेनेत्यादि हीलयित्वा वन्दते २१, तथा विपरिचितम् अवन्दित एव देशादिकथाः करोति २२, इति गाथार्थः ॥ १२०६ ॥
दिमदि च तदा सिंगं च करमोजणं ।
थालिङ्कमणालि ऊं उत्तरचूलियं ।। १२१० । दृष्टाऽष्टं तमसि व्यवहितो वा न वन्दते २३, शृङ्गम्-उत्तमाकदेशेन वन्दते २४, करमोचनं करं मन्यमानो वन्दते म निर्जराम्, तदा मोपलं नाम न अन्नदा मुस्यो, पपस पुरा दिने मुश्चेमित्ति बंदरागं देइ २५-२६-' श्राश्लिष्टाऽनासिर मित्यत्र चतुर्भकम्-रजोहर कराभ्यामासि ब्यात शिरा, रजोहर न शिशिरोन रजोदरणम् ३, न रजोहर नाऽपि शिराः ४ अत्र प्रथमः-शोभनः शेषेषु प्रकृतवन्दनावतारः २७, ऊनं व्यञ्जनाभिलापावश्यकेरसम्पूर्णे वन्दते २८, उत्तरचूडं-वन्दनं कृत्वा पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन वन्दे इति भणति २६, इति गाथार्थः ॥ १२१० ॥
सूर्यचरं चैव चुलि च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिमुद्धं, किकम्मं पजई ।। १२११ ॥ भूकम्-आलापकाननुच्चारयम् पन्दते ३०मदता शब्देनोच्चारयन् बन्द ३१ीति उल्कामिव पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन बन्दते २२ - पश्चिमम् इदं परममित्यर्थः पते द्वात्रिंशदोषाः श्रभिः परिशुद्धं कृतिकर्म कार्यम् तथा चाह-द्वात्रिंशदोषपरिशुद्धं कृतिकमै यन्दनं प्रयुञ्जीत कुर्यादिति गायार्यः ॥ १२१ ॥ यदि पुनरम्यतदोषमपि करोति ततो न तत्फलमासादयतीति आह -
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किकम्मं पि करितो, न होइ किइकम्मनिजराभागी । बचीसामग्रयरं, साहू ठाणं विराहिंतो ।। १२१२ ।। कृतिकर्माणि कुर्व भवति कृतिकर्मनिर्जरामागी, द्वात्रिंश दोषाणामम्यतरत्साधुः स्थानं विराधयनिति गाथार्थः। १२१२ ॥ दोषविप्रमुक्रकृतिकर्मकरणे गुरुपदपादबत्तीसदोसपस्तुिद्धं, किइकम्मं जो पउंजइ गुरूणं । सो पावर निव्दार्थ, अचिरेण विमाणवास वा ॥ १२१३ ॥ द्वात्रिंशदोषपरिशुद्धं कृतिकर्म यः प्रयुङ्क्ते-करोति गुरवे स प्राप्नोति निर्वाणम अविश विमानवासदेति गाया ।१२१३॥ आद-दोषपरिशुद्वाइन्दनारको गुणः । येन तत
एव निर्वाणप्राप्तिः प्रतिपाद्यत इति उच्यतेआवस्सए जद जद, कुइ पयतं अहीसमहरितं । तिवित्रस्थोवउचो, पिकस्योचो, वह वह से निजरा हो १२२२
वंद
श्रावश्यकेषु श्रवनतादिषु दोषत्यागलक्षणेषु च यथा यथा करोति प्रयत्नम् अहीनातिरिकं व दोनं नाधिकम् किम्भूतः सन् ? -त्रिविधकरणोपयुक्तः, मनोयाका पैरुपयुक्त ह त्यर्थः तथा तथा ' से ' तस्य वन्दनकर्तुर्निर्जरा भवति-कर्मयो भवति तस्मान्य निर्वाणप्राप्तिरिति अतो दोषपरिशु देव फलाचातिरिति गाथा १२२४ ॥ प्रा० ३ ० साम्प्रतमेतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह
"
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थड़े गारयतेशिय, हीलियरुड लहूगा सटे गुरुगो । दु पडिखीय दलित गुरुगा सेसेसु लहुगो उ ॥ स्तन्यगौरवलेनितहीलितरुऐषु प्रत्येकं चतुर्भधयः शठेमायादोषप्रत्यये मासगुरुकम्, दुष्टप्रत्यनीकतर्जितेषु चत्वारो गुरुकाः, शेत्रेषु अनादृतप्रविद्धपरिपिरिडतादिषु त्रयोविंशती दोषेषु प्रत्येकं सामाचारीनिष्पन्नं माखलषु ०३ उ० प्र० । चन्दनफलम् -
बन्द गर भन्ते जीवे किं जगह बन्दराएवं नीयागौयं कम्मं खवेइ, उच्चागोयं निबन्धर, सोहग्गं च अप्पडिइयं आयाफलं निन्दतेइ दाहिणभावं च गं जगह ॥ १०॥
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हे भदन्त ! पूज्य ! चन्दनकेन गुरुणां द्वादशाय विधिवन्दनेन जीवः किं जनयति, हे शिष्य ! श्रीगुरूणां वन्दनकेन नीचे कर्म उपयति गुरूणां चन्दनकारी नीचे गाँधे न अवतरतीत्यर्थः पूर्ववद्धं च रुपयति उद्देगोत्रकमे बध्नाति उगने अवतरतीत्यर्थः । पुनरुमैत्रेयीश्री सन् सौभाग्यं सर्वलोकेषु यज्ञमत्वं पुनरप्रतिहतं केनापि निवारयितुमशक्यम् आशाफलम् आशासार निर्वर्तयति-उत्पादयति च पुनर्दाक्षिण्यभार्थ सर्वलोकानामनुकूलत्वं जनयति ॥१०॥ उत्त० २८ ० स्तुत्वाऽपि तीर्थक राम गुरुवन्दनपूर्वच तत्प्रतिपनिरिति तदादयन्द नकेनाचार्या पुचितप्रतिपत्तिरूपेण नीचे गोत्रम् अधमकुलोत्प सिनिबन्धनम् कर्म क्षपयति उन तद्विपरीतरूपं निव नाति सौभाग्यं च सर्वजनपदीयारूपमप्रतिहतं र्वत्राप्रतिस्खलितमत एवाशा जनेन यथोदितवचनप्रतिपत्तिरूपा फलम् - निर्वर्त्तयति-जनयति तद्वतो हि प्राय श्रादेयकर्म्मणोऽप्युदयसम्भवादादेयवाक्यताऽपि संभवतीति, दक्षिणभावं च अनुकूलभावं जनयति लोकस्येति गम्यते सम्मादात्म्यतोऽपि सर्वः सर्वास्यानुकूल एव भवति ॥ १० ॥ उत्त० पाई० २६- श्र० । या च सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिवलदेव वासुदेवादिचन्दना तो न याचेत । सूत्र० १ ० ६ श्र० । ( वन्दमानं न यावेत - इत्थियं पुरिसं वा " ( २६ ) इत्यादि । दश० ५ ० २ उ० । गाथा 'मोरचरिया' शब्दे दतीयभागे २२० पृष्ठे गता ।) (कारचे घिग्जांतीयानामपि बन्दनं क्रियते इति 'पडिसेवला' शन्दे पश्चमभागे ३६७ पृष्ठे उक्तम् । ) पार्श्वस्थादिविषयवन्दनादि
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पादौ प्रदश्यते, तत्र पार्श्वस्यादीनां चन्दननिषेधः प्रागुरुवन्दनाधिकारे-" पास थाइवं दमाचस्स" इत्यादिना प्रदचित एवं तेषामयुत्याना व प्रायश्चित्तमम् तथा
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अहदन्भुट्टाएं, अंजलिकरणं य हुंति चउगुरुचा । अगले चलहुआ, पर्व दासासु वि येथे ॥ १॥" व्याच्या एतेषामभ्युत्थानादी प्राथवित्तमाह वा स्वाभ्युत्थाना सिकरणयोर्भवन्ति प्रत्यक बत्बा गु
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(७७) बंदण
अभिधानराजेन्द्रः। रुकाः प्रायश्चित्तम् । तत्राभ्युत्थानं पोहा-अभिमुखो- _प्रकरणवचनमर्वाचीनसाधुविरचितं शास्त्रं यस्मात्संविदितस्थान १ श्रासनोपढौकनम् २ ,किं करोमीति भणनम् | मेव अवितथम् । खलुः-अवधारणः स च योजित एव भवेत्३.धर्मच्युतस्य पुनर्धर्मस्थापनारूपमभ्यासकरणम् ४, अभेदरू जायेत प्रमाण व्यवस्थापकमिह-मौनीन्द्रप्रवचने । अनुस्वारः पाऽविभक्तिरेतत्पञ्चपदरूपः संयोगः ५-६चेति । तत्राभिमु- पूर्ववत् । सिद्धान्तवचनैरागमभणिते!-नैव, इतरथा स खोत्थानादिपञ्चके कृते अभ्यासकरण पुनः सामर्थे सत्यकृते वेथाभावे कुतोऽतिप्रसङ्गात् , स्वाभिप्रायवशतोऽन्योऽन्यथा प्रायश्चित्तम् । अञ्जलिकरणमपि षोढा, पञ्चविंशत्यावश्यकयु- अन्यश्चान्यथाकरणतोऽनवस्थापात इति गाथार्थः ।
वन्दनम् १, शिरसा प्रणामकरणम् २, एकस्य द्वयोर्वा अथ यतिवत् श्रावकाणामपि दृश्यं तदित्याहहम्तयोयोजनम् ३, बहुमानरसभरेण सरभसम्-"नमो खमा. जइ जइकिच्चं सव्वं, पि सावयाणं पि हुज्ज करणीयं । समणाण" इति भणनम् ४. निषद्याकरणम् ५, एतेषां पदानां तो इको पि य धम्मो,हवेज दुविहो विरुद्धेज ॥ ६ ॥ योगश्च ६.पतेषु सर्वेष्वपि कृतेषु प्रायश्चित्तम् , अन्येषु पार्श्व यदीत्यभ्युपगमे यतिकृत्य-साध्वनुष्ठानं सवमपि निःशेष स्थादिषु नवसु गृहस्थसहितेषु कृतिकर्मान्जलिकरणयोः प्र | धापकाणामपि-श्राद्धानां न केवलं यतीनामित्यपिशब्दार्थः, त्येकं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् । ध०३ अधि०।।
भवेत्-जायेत करणीयं-कृत्यं तत एक एव धर्मों भवेत् द्विमुद्धजणहिययसंथिय, दंसणवररयणलूडणं सजढा । । विधो-द्विप्रकारो विरुध्येत-विघटेतेति गाथार्थः । अनायसाहुसावय-जोगा अन्ने भणन्ते । १॥
अत्रैवार्थे कारणान्तरमाहमुग्धः-स्वल्पमतिर्यो जनो-लोकस्तस्य हृदयम्-मानसं तह संपुरसगुणे वि हु, न वंदिओ वजपाणिणा भरहो । तत्र संस्थितमाश्रितं दर्शन-सम्यक्त्वं तदेव बररत्नं तो नजइ साणं, वेसो च्चिय होइ नमणीयो॥७॥ प्रधानमाणिक्यं तस्य लूडणं देशीभाषया प्रहरणम् , तत्र
तधा-अभ्युच्चयार्थः । सम्पूर्णगुणोऽपि-सुविशुद्धज्ञानादि. सहढा-बद्धाग्रहाः अज्ञातसाधुश्रावकयोगाः-अविहित
रपि हुः-पूरणे, न वन्दितो-न नमस्कृतो वज्रपाणिना-इन्द्रेण श्राद्धव्यापारा भणन्ति-जल्पन्ति एवं-वक्ष्यमाणनीत्या अयमा. भरतः-प्रथमचक्री,वेषरहित इति शेषः, तस्माजमायते-बुध्यते शयः-बषयमाणकथने हि मुग्धश्रावकाणां दर्शनपक्षपाता- श्रावकाणां वेष एव रजोहरणादिको भवति-जायते भावेन राम्यक्त्वध्वंशो भवतीति गाथार्थः ।
नमनीयो-वन्द्य इति गाथार्थः। तदेवाह
सूत्रकृत् सम्बद्धगाथाद्वयमाहपासत्थाई सावय-जणरस नो होंति वंदणिज्जा उ। किं च जइ सावयाणं, नमणं नो सम्मयं भवे एयं । तं नो जम्हा कुत्थ इ, नो दीसइ भणियमेवेत्ति ॥२॥ पासत्थाईणं तो, कह उबएसमालाए ॥ ८॥ पावस्थादयस्समयप्रसिद्धाः श्रावकजनस्य--श्राद्धलोकस्य
सिरिधम्मदासगणिणा, न वारियं वारियं च अन्नेसि । मो-नैव भवन्ति-जायन्ते धन्दनीया-नमस्कर्त्तव्याः, तुः
परतित्थियाण पणमण, इच्चाइवयणो पयर्ड ।। ६॥ पूरणे । तद्वन्दनाकरणं, नो-नैव यस्मात् कुत्रापि कस्मिश्चिदपि शास्त्रे नो दृश्यते,-नायलोक्यते भणितमुक्तमेवं
किं च-अभ्युञ्चये, यदि-विकल्पार्थः,श्रावकाणाम्-श्राद्धानां
नमनं-नतिः नो-नैव सम्मतं भवेत्-जायते, एतत्पूर्वोक्तं केपूर्वोकप्रकारेण इतिः-वाक्यसमाप्तौ इति गाथार्थः ।
पामित्याह-पार्श्वस्थादीनां-प्रतीतानां ततः कथं-केन प्रकायद्भणितं तत्पूर्वपक्षगाथाद्वयेनाह
रेणोपदेशमालायां श्रीधर्मदासगणिना एतन्नाम्ना तत्क; वहावद्दविभागो, संविग्गेयरजईण सव्वत्थ ।
न वारितं,वारितं पुनर्निषिद्धम् अन्येषां शाक्यादीनां परतीर्थि जं पुण दंसणसत्तति-गे ण भणियं नमस्संति ॥ ३ ॥
कानां प्रणमनमित्यादिवचनतः,प्रकटम्-प्रसिद्धम्-आदिग्रहअङ्गेसु अणंगेसु, छयग्गंथेसु पयरणेसुं च ।
णात्-“उम्भावणथुणणभत्तिरागं च सकारसम्माणं दाणंसंवामो ता कहं तं, भवे पमाणं पमाणीणं ॥४॥ । विणयं च बजेह" इति दशावबोधं चेति गाथार्थः । बद्यावविभागो-नमस्करणीयानमस्करणीयविशेषो भ
पराभिप्रायमाशझ्याहणितः संविग्नेतरयतीना-सुविहितेतरसाधूनां सर्वत्र सर्व- आलावो संवासो, इच्चाईयं तु मुणिजणस्सेव । स्मिन् सूत्रे इति शेषः, यत्पुनर्दशनसप्ततिकावचनम् पतन्नाम कारणगदितम् , "समणाण सावयाण य अवंदणिज्जा जि
एवं नो जइ तो वं, पुवमणिया उ पासत्थो ॥१०॥ णमयम्मी" त्यादिलक्षणं न-नैव तस्य-सप्ततिकाभाणित
आलापः-स्तोकभणनं संवासस्तु-एकत्र निवसनमित्यादिकं स्यास्ति-विद्यते अङ्गेषु-श्राचाराङ्गादिषु अनङ्गेषु-औपपाति
पुनर्मुनिजनस्यैव साधुलोकस्यैव तेन हि तेषां निष्कारणं कादिषुःछेदग्रन्थेषु निशीथशास्त्रादिषु प्रकरणेषु-उपदेशमाला
न कर्त्तव्यम्-वन्दनादिकम् , कारणे तु कर्तव्यमिति प्रागेध
चर्चितम् , आदिग्रहणेन-" वीसंसोसंघवोपसको पहीणायारे विषु चः-समुच्चये; संवादस्तत्ताशभणनं तस्मात्कथं केन |
हिं समं सव्वा जिर्णिदेहि पडिकुट्ठो” इति दृश्यम् , तथा च प्रकारेण तत्सप्ततिकाभणनं भवेत्-जायेत प्रमाण-व्यवस्थापकम् प्रमाणिनां यथाऽवस्थितवस्तुवेदिनामिति गाथार्थः ।
तत्रोक्तं बलाद्यतिाकुलीमवतीति,किं च-इतः श्रावकधर्म
वक्ष्ये इति भणता वृत्तिकृता भिन्नाधिकारिता दर्शिता, किमित्यत आह
स च-" वंदह पडिपुच्छह " इत्यादि गाथाभिरुक्तः पयरण जम्हा संविइ-यं खलु भवे पमाणमिह ।
सूत्रे एवमिच्छन्तो नैव यदि ततस्तेऽपि एवं प्रतिपा सिद्धतियवयणेहि, नो इहरा अइपसङ्गाउ॥५॥ दयन्ति पूर्वमणितान्-" सुत्तत्थं पोरिसिं नो करेइ ."
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(1002). अभिधानराजेन्द्रः ।
बंदण
इत्यादिकारे पार्श्वस्थाः शिथिला उपलक्षणत्वादवसन्नादयश्रेति गाथार्थः ।
ततः किमित्याह
तं वदंतु वराया, धम्मत्थी सावया तो तुम्भे । सयभमडिया हु मूढा, अत्रे वी मा भमाडेह ॥ ११ ॥ तं साधुं वन्दन्तु - नमस्कुर्वन्तु वराका-अनुकम्पनीया धर्म्मार्थिनो - वृषलम्पटाः, श्रावकाः - श्रद्धाः, तस्मात् 'तुम्भे' यूयमात्मना भ्रान्ता - नष्टसद्बोधाः मूढा ज्ञानविकलाः अन्यान्-श्राव कादीन् मा-निषेधे, भ्रामयत-नष्टसद्बोधान् कुरुतेति गाथार्थः।
ननु यद्येवं ततः कोऽप्यवन्धो नास्तीत्याहसंघेण पुढो बाही, जो बिहिओ होज सो उ नो वंदो । पासत्थाइ सढाणं, सव्वहा एस परमत्थो । १२ ॥ संघेन – प्रतीतेन पुनर्बहिस्ताद्यो निर्दिष्टतया विहितः - कृतो भवेत्-जायेत स पुनर्नैव धन्यो नमस्करणीयः पास्वादिः - प्रतीतः श्राद्धानां श्रावकाणां सर्व्वथा - सर्वैः प्रकारैरेष निर्दिष्टरूपः परमार्थतत्त्वमिति गाथार्थः । सूत्रकृत्संबन्धगाथामाह
किं च सिरिपंचकप्पे, दव्वलिंगस्स धारणे मणिभो । एस गुणो वरीहिं, इमाहि ँ गाहाहि पयडत्थो । १३ ॥ किश्चेत्यभ्युच्चये श्रीपञ्चकल्पे-छेदमन्थे द्रव्यलिङ्गस्य-रजोहरणादेः धारणे- स्वीकारे भणितः-उक्तः, एष-वक्ष्यमाणो गुणोलष्टत्वं सूरिभिस्तत्कारकैरिमाभिर्वच्यमाणाभिर्गाथाभिः-छम्दोविशेषरूपाभिः प्रकटार्थो - निश्चिताभिधेय इति गाथार्थः ।
ता एवाऽऽह
एयं तु दव्वलिङ्गं भावे समणत्तणं तु नायव्वं । को उ गुणो दव्वलिङ्गे, भभइ इमो सुहं वोच्छं ॥ १४ ॥ सकारवन्दननमं-सणा, पूयखकहला य लिङ्गकप्पम्मि । पत्तेयषुद्धमाई, लिङ्गं छउमत्थमो गहणं ।। १५ ।। दस दव्वलिङ्गं कुर्वते पाणिइंदमाई वि । लिंगम्मि भविअंते, न नई एस विरयोति ॥१६॥ पत्तेयबुद्धों जाव उ, गिहिलिंगी मह व अनलिंगी वा । देवा वि नानापूर, मा पु होहिह कुलिङ्गं ॥ १७ ॥ लिङ्गकल्पः पञ्चकल्पभणितः प्रकटार्थश्च विशेषावश्यके ऽपि लिङ्गस्य पूज्यता सपूर्वपक्षोत्तरा भणिता, अमूभिर्गाथाभिः, " न मुणिवेसवचे, निस्सीले वि मुणिच्चुपट्टितो पावर । मुखिदाणफलं तह, किन कुलिंगदाया वि ॥ १ ॥ श्रयरियाजंघाणं, मुनंते, तेरा पडिम व्व । पुज प्याल मई य वि, न कुलिंगे सव्वा सुतं ॥२॥ परः प्राह- " ननु केवलकुलिंगे बि, उतं दव्यभाषत्रो। " आचार्यः न वयम् - " मुणिलिङ्ग भग्गभावं, जाइ तो तेरा तं पुचं " ॥ ३ ॥
एवं स्थिते जीवस्योपदेशमाह - तित्थयरदंसणोवरि, जइ जीव ! तुह त्थि निश्चला मती । बुद्धाय सावयार्थ, ता मा लाएसु कुग्गाहं ॥ १८ ॥ तीर्थकरदर्शनोपरि-सर्वप्रवचनोपरिष्टात् यदि जीव ! त वास्ते निपला-ढा भक्तिरास्तिक्यम् मुग्धानाम्-मुग्धमतीनां भावकाणां तस्मात् मा इति निषेधे, 'लापसु' |
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वंद विगलय- संबन्धय कुप्राहं कुत्सितबोधं श्रावकैः - पावस्थादयो न बन्धाः एवरूप पूर्वे साधूपेक्षया मुख्यतो वन्दनं भणितम् उक्तमत्र तु श्रावकापेक्षयोक्तमिति न पौनरुक्त्यमिति गाथार्थः । जीवा० २५ अधि० ।
जै भिक्खू पासत्थं बंदर वन्दतं वा साइजइ । नि० चू० । मैथुनप्रतिसेवी वन्द्यः
से भयवं ! जे णं केइ साहू वा साहुखी वा मेहुणमासेविजा से खं वंदेज, गोयमा ! जे गं साहू वा साहुखी वा मेहुणं सयमेव अप्पणा यं सेवेअ वा, परेहिं उवदिसेतुं सेबाविजा, सेविजमाणं समणुजाणिवा, दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा०जाव णं करकम्माई सचिताचित्तवत्थुविसयं वा वि अज्झवसाएणं कारिमाकारिमोवगरणेणं मणसा वा वयसा वा काएयं से गं समयो वा समणी वा दुरंतपंतलक्खणे अ दट्ठव्वे अमग्गसमायारी महापावकम्मे णो णं वंद्दिजा, यो णं वंदावेज, योगं वंदिजमाणं वा समणुजाणेजा, तिविहं तिविहेणं० जाव सं विसोहिकालं ति, से भयवं ! जे वंदेज्जा से किं लज्जा, गोयमा ! जे तं वंदेज्जा से अट्ठारसएवं सीलिंगसहस्सधारीयं महाणुभावाणं महती वा आसायणं कुज्जेज्जा, जे सं तित्थयरादीण श्रसायणं कृज्जा से गं भज्झवसायं प डुच्च ०जाव णं श्रणंतसंसारियत्तणं लभेजा विपहिवित्थियं सम्मं सव्वहा मेहुणं पि य । महा० २ अ० ।
( न वेषमात्रेण वन्द्यो भवतीति सर्वत्रानाश्वासयतामान्यशिकनिवानाम् इति ' अव्वत्तिय ' शब्दे ८१४ पृष्ठे प्रतिक्षेप उक्तः । ) ( चैत्यवन्दनविधिः ' वेश्यवंदण ' शब्दे तृतीयभागे १३१२ पृष्ठे उक्तः । )
वन्दनप्रकीर्णोचैत्यगुरुवन्दनविधिः
तित्थयरे मुखिना, मुक्खपहपएसए व सोंडीरे । खायगभावे वंदे, कम्मरयरहिय - जिलवीरे ॥ १ ॥ नमिऊण गणहराई, सुयनाथसमत्थपारगाईणं । पूया विहि जह मणिया, तह वंदणविहिं भणिस्सामि॥२॥ दव्वाभावे सड्को, करेइ णिचं जिदिपरिमाणं । पुरनो ठिया भावा, पूजा साहु व्व संसुद्धा ॥ ३ ॥ अवि कम्मरयं, बहु हि भवेहि संचियं जम्हा । तवसंजमेण धोवर, तम्हा भावं पहाणं वि ॥ ४ ॥ श्रावस्सगँ काऊ, गोसै सुहजोगझाणसंजुत्तो । पेहतो भूभागं, गच्छिजा जिणवरे गेहे ॥ ५ ॥ कयभावस्तऍ साहू, जइ वि इपाणि अच्छती गोसे । शियमा उ वंदिअव्वा, पच्छित्तं होइ अदिए ॥ ६ ॥ पयॉहीण उ पलामा, तिदिसि निरिक्खण निवारइ अवस्था प्रालंबण तिक्खुत्तो, तह किर मुद्दा य पणिहाणं ॥ ७ ॥
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विसं
(७७३) बंदण
अभिधानराजेन्द्रः। एए अट्ठा तिविहा, सविरइ वि करेइ प्रावस्सं। दो पणिहाणा थवणं , सुसरेण सुहोवमाइसंजुत्तं । पूमा निसीहि एगा, भणिमा किर साहुअहिगारे ॥८॥ जयवीयरायपाढो, मुद्दापुव्वं च सव्यं वि ॥३१॥ अच्चा उ अचित्ताणं, मणुएमत्तं पुणो वि जिणदिवे । मुणिवसहा य निरीहा, इच्छा जेसिं वि नत्थि मुक्खस्स । अंजलिमत्थे तिथि, उ, साहुणो अहिगमा नेपा ।।६।। कम्मा जायण तेरि , पुणत्तदोसो कहं नत्थि ॥३२॥ पूयणनिमित्तँ वजं, सावजं सावो वि जयणाए । नत्थि पुणरुत्तदोसो, भत्तियरागेण भासमाबस्स । उत्तरसंग बी, तिनि य सेसाणि साहु व्व ॥१०॥
जिजायणविवहारो, करेइ तहा विण सो दुट्ठो ॥३३॥ अकसिणपवत्तगाणं, दबत्थं सविहि पुन्बमक्खायं । उक्कोसा विहि एसा , नवयारेण च जहमसंकहिया । तेणेह सचित्ताणं, अचाओ अत्थि लाहस्स ।। ११॥ मज्झिमअणेगभेया, णेया सुत्ताणुसारेणं ॥ ३४ ॥ तंबोलभत्तपाण-सयणउवाणहजुयं च निट्ठिवणं । उभो कालजिणहरे , उक्कोसा वंदणा य सायब्बा । मेहुणमुत्तुचारं, वजह जिणगेहसीमासु ॥१२॥
जहॉ कारणवसभो, पणवारं मज्झिमा दिवसे ॥३॥ काऊण पयाहीणं, भूमि पमज्जइ सुहेण जोएण। । चेइयवंदणविहिणा, करति जेसिं च खिजराविउला । भणई इरियाविहिअं, उस्सग्गो जाव लोगस्स ॥ १३ ॥ अविहिकए पच्छित्तं, उवहाणविणा विनिदिहं ॥ ३६॥ दो जाणू दोलि करा, पंचमगं होइ उत्तमंगं तु ।
चेइयहरे न गच्छंति , पमायजोएण साहु सड्डो वा । पणिवामो पंचंगो, भणियो सुत्तट्ठदिट्ठीहिं ॥ १४ ॥
तस्सम्मत्तं मलिणं , उवएसो तित्थणाहस्स ।। ३७ ॥ पणामत्तियं किच्चा, भणई सुत्तत्थ संथवणं ।
चेइयवंदणभणियं, अह गुरुवंदरण समासमो वुच्छं। दाहिणजाणणि तमो, ठवेइ भूभागदेसम्मि ॥१५॥ तिविहा फिटा थोभ, दुबालसावत्तभो यं ॥ ३८ ॥ सजलनयणो य पडिमा, पिक्खइ इग(गा)दाहिणे पासे ।। सिरनमणाइसु पदमं , खमासमणदुनि दाणभो बीच। भाव विसुद्धीइ भणइ, सकथयं जोगमुद्दासु ॥ १६ ॥ वंदणदुगेण तइयं, पडिवत्ती गुणवमो एसा ॥ ३९ ॥ अमोमंतरि अंगुलि, कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं । मूलं विणय धम्मस्स , पढमा सो कारणे हवह। पिहोवरि कोप्पर सं-ठिएहिं जह जोगमुद्द त्ति ॥१७॥ तह वि ह विसिडकजे, बीया रपणाधिके तझ्या ॥४०॥ महरणिमक्खलिश्र, संपत्तं मुक्ख जाव जे भ जिणा। पञ्चण्हं कायव्वा , पासत्थाणं च नस्थि पंचएई । ठवणावंदणहेऊ, भावविसुद्धीसुइह(राओ)याभो ॥१८॥ वंदणववहारो वि य, णिजरहेऊ जिलो दिसति ॥४१॥ काऊण उड्ढकायं, अरिहंतचेइअदंडयं पढई ।
गुणनिहिगुरू भभावे, ठवणा ठावंति सुद्धभक्खार। वंदण्याइफलढे, उस्सग्गो (पुण) होइ जिणमुद्दा ॥१६॥ सम्भावमसम्भावं, दुविहाऽऽवकहा य इसरिया ॥४२॥ चत्तारि अंगुलाई, याउ पुरो हीणपच्छियो जत्थ । रत्ते अक्खे नीला-रहे सा सीलकंठणामा। वित्थारे जिणमुद्दा, उवयोगटुं अणुद्वाणं ॥ २०॥
बहु सुह विजा पाउ , वडइ ठवणा न संदेहो ॥४३॥ उगणीसदोसवजं, माणदृरुद्दविमुक्कसज्झाणं ।
मोहणयादिसु रत्ता, प्रद्धरत्ताद्धयी य सा उवखा। विग्गोसग्गे ठिच्चा, अदुस्सासा जहनेणं ॥ २१ ॥ कुटुं फेडइ अस्थि , दुहनासणी व भइरम्मा ॥४४॥ पूरइ णमुयारेणं, एगो सुद्धक्खरेण संथुत्ति ।
सुक्का य सव्ववाहि , सॅलरोगहरा मुणेयब्बा । एगसिलोगिय अहवा, बटुंति य मूलणाहस्स ॥ २२ ॥ नीली हलिद्द तिलया,विसहरणी सुहा सुघयवनी ॥४॥ निउखावमाइ कित्ति, सम्भूप्रगुणासु जे अलंयारा।। इगदुतियण यावत्ता, गुमाइरोगा विसं भयं इति । ललियखरेण पएणं, सरेण वड्डेण सा थुत्ति ॥२३॥ घउआवत्ता गिट्ठा, संता वसा सुहा खेया ॥ ४६ ॥ भन्ने सुणति सन्दे, एगग्गमणा उसग्गमज्झम्मि। मंतक्खरेण वासो, किच्चा ठवणा य याच कहिया वा । झायति धम्ममुकं, तस्सट्ट धरंति वा एगे ॥ २४ ॥
पुवुत्तरासु दिसासु, ठाइत्ता उग्गहो जाब ॥ ४७॥ नामत्थयं च पच्छा, कट्टइ समग्गसुवनप्रक्खलियो। आसायणपरिहारो, विणयविउत्तं सुहेण जोएख। सव्वं लोए अरिहं-तचेइयाणं समग्गं वि ॥२५(वंद०) इरियाविहियं पुन्वं, करेइ संविग्गचित्तेण ॥४८॥ मुत्तामुनियमुद्दा, धरेइ सुहजोगसंपन्ना ॥ २६ ॥ पडिलेहइ मुहपोति, वंदण भणुजाणहाइ सव्वं पि। दो वि हत्था उ सुसमा, उन्नयसुत्तीव संठिया मज्झे । गोसे पञ्चक्खाणं, वंदणचउ थोभसिज्झाय ॥४६॥ मुत्तासुत्तियमुद्दा , ललाडदेसेमु सा किच्चा ॥ ३० ॥ सेसे दिवसे वि पुग्यो, वंदित्ता चरिमवंदणा सम्वं । १-तुतिन यता रा बतुर्थ मागे ३४१४ पूरे गता।
समावदना जीव-रासि ममभावनासहिभो ॥५०॥
॥
।
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वंदण
या वंदनिहिणा, वंदतो तस्स गिजरागंता । किए पछि, अवंदिए तह विसेसेणं ।। ५१ ।। किकम्म करतो वि य, ण होइ तह वि ह सजिराभागं । पणवीसा मन्त्रयरं, विराहइ द्वारा जो साहू ।। ५२ ॥ अगाइ निहवे लोए, अविभिागवसे जीवोवि । भमियो अतकालं तम्हा भाति चिहिमगं ॥ ५३ ॥ बालोइऊण एवं सम् पुष्वावरेण किरिया वि । विहिणा उकिरमार्ग, लडेर मुक्खं न संदेहो ॥ चंदणपयर एसो, समयाओ विहियवायपुव्वा संवेदरियो र मुणिभदवासा एसो ।। ५५ ।। बंद० ।
"
५४ ॥
।
,
बन्दनकावसरे गुरुपादचिन्तनं क विधेयम् वन्दना बसरे मुखत्रिकायां रजोदरये वा पत्र वन्दन ददाति तत्र गुरुपादौ चिन्तयति ॥ ३ ॥ ही० २ प्रका० । वन्दनकासरे मुखवत्रिका कुत्र मुच्यते -१, वन्दनकावसरे मुखवस्त्रिका साधुभिर्वामजानुनि मुच्यते, श्रावकैस्तु गुरुपादयोर्वन्दनावसरे जानुनि श्रन्यथा तु भूमौ रजोहरणे वेति ॥५॥ ही० २ प्रका० । अष्टापदगिरौ स्वकलब्ध्या ये जिनप्रतिमा यन्दन्ते ते तद्भवसिद्धिगामिन इत्यक्षराणि सन्ति, तथा च सति ये विद्याधरयमिनस्तथा राक्षसवानरवारणभेदभिन्ना अनेके ये तपस्विनस्तत्र गन्तुं शक्तास्तेषां सर्वेषामपि सिद्धिगामित्वमापद्यते, ततः सा का सन्धिर्वया तत्र गमने गौतमादिवत्सङ्गसिद्धिगामिनो भवन्तीति । ११ । ६०२ प्रका० आपको बन्दनानि ददत् मुखकिया गुरुपादं प्रमा जयति तदाऽऽशातना लगति न वा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - मुखवपिकया गुरुपादप्रमार्जने श्राशातना ज्ञाता नास्ति, प्रत्युत तत्प्रमार्जनं युज्यते, यथा- शिष्या गुरुपादौ रजोहरणे न प्रमार्ज्जयन्ति तद्वदिदमपि ज्ञेयमिति ॥ १०८॥ सेन०३ उल्ला० । भायाः प्रतिक्रमणं कुर्वाणा चन्दनकदानावसरे कि
त्रिकां शुद्धभूमौ मुञ्चन्ति ? किमुत पादप्रोज्छनोपरि मुखमुक्त्वा वन्दनानि ददति इति प्रक्षः, अत्रोतर म प्रतिक्रमणं कुर्वाणाः श्रादा बन्दनकदानावसरे मुखafari शुद्धभूमौ रजोहरणोपरि वा मुञ्चन्ति नान्यत्रेति विधिरिति ॥ ६६ ॥ सेन० १ उल्ला० । साध्वीनां कालिकयोगक्रियायां श्रावकदत्तानि चन्दनकानि शुद्धयन्ति न वा ?, इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् -साध्वीनां कालिकयोगक्रियायां
दत्तानि धन्दकानि शुद्धपति बुद्धाः ॥ २१ ॥ सेन० ३ उल्ला० । कृष्णेनाऽष्टादशसहखसाधूनां वन्दनानि दत्तानि तानि किं लब्ध्या, अन्यथा वा ?, यदि लब्ध्या तदा बीरासासविकस्यापि तथैवान्यथा याइिति प्रश्नः अत्रोत्तरम् कष्येन सहस्रादिपरिवारसहितघायच्यापुषादीनामप्रेसराणां वन्दनानि दत्तानि तदनुयायिसमस्त परिवारस्यापि तानि समागतान्येव ततो मनसा त्वष्टादशसहस्रसाधूनांदनाब्येव यदीत्थं न कथ्यते तदा सा न प्रमोति यतो दिनमानं तदा महन्नाभूत्तथा कृष्णस्यापि वन्दनकदानग्धता नास्ति तस्माद्वीरासालधिकस्य छन्दनकदानेन काप्याशङ्केति ध्येयम् ॥ १११०३०
(You) अभिधानर राजेन्द्र
9
बंदण
"
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सामायिकादिषु उपवस्त्रमध्ये सन्ध्याप्रतिलेखनायां मुस्वयत्रिकां प्रतिलिप प्रत्यानयानं क्रियते, एकाशनादिप्रत्याख्याने च चन्दनकानि दत्त्वा तत् क्रियते, तत्कथम् इति प्रश्नः अयोत्तरम् - समाचारीप्रभृतिग्रन्थेषु भोजनदिवसे बन्दनकानि दस्वा प्रत्याख्यानं क्रियते इत्य राणि सन्ति, उपयखदिवसे बन्दनकाधिकारो नास्ति, मुखवत्रिका तु प्रतिलिरूयते यतस्तां बिना प्राधान्यानं न शुद्धयतीति सामाचार्यस्ति, तथोपधानमध्येऽपि तथैव प्रत्याख्यानं कार्यत इति ॥ १३६ ॥ सेन० ४ उल्ला० । ( देवान् वन्दित्वा क्षमाश्रमणानि संबद्धानि नवेत्यादि प्रश्नः 9 उत्तरञ्च-' स्वमासमण ' शब्दे तृतीयभागे ७१५ पृष्ठे गतम् । ) 'आपरिवउपरभाष इत्यादिगाथात्रयं केचन न पठन्ति वदन्ति च योगशास्त्रवृत्ती " काऊन वंद तो "यत्र श्रद्धानामेव प्रोक्रमस्ति न यतीनामिति प्रक्षः अत्रोत्तरमयोगशास्त्रवृत्तिजी पुस्तकषटकं विलोकितम् तत्र सर्वत्रापि' काउण वंदं तो ' इति गाथायाः पाठः सढो इति पदेनैव संयुक्तो दृश्यते, तत्र - अशठा इति व्यास्यानेन साधुधाद्धयोः समानमेवावश्यक कर्तव्यं दृश्यते तथापि भावदेवसूरिकृतसमाचार्या अवचूतङ्गाथात्रयं केषांचिन्मते साधवो न पठन्तीति प्रोक्तमस्ति तन्मतान्तरम् ॥ १४५ ॥ सेन० ३ उल्ला० । उद्घाटितमुखजपने पथिकी समायाति बन्दनकदानावसरेतु कथं नायाति ? इति प्रश्नः, अशोत्तरम्-वन्दनदानावसरे विधिसत्यापनार्थमुखादितमुखस्याऽपि जल्पतः प्रमादाभायार्यापथिकी समायातीति ध्येयम् ॥ ४३० ॥ सेन० ३ उला० । दिगम्बरादिप्रासादे श्रात्मीयाचार्यप्रतिठितप्रतिमाऽस्ति सा वन्द्यते न वा ? इति प्रश्नः अत्रोउत्तरम् -सा एकान्ते वन्द्यते परं तत्समुदायमध्ये वन्दनं कुर्वतस्तम्मतस्थिरीकरणं यथा न भवति तथा करोबि द्रव्यक्षेत्रकालादिकं विचार्य इति ॥ ४३६ ॥ सेन० २ उल्ला० । पूर्वनिष्पन्नं जिनगृदं तावन्माद्रव्यलिद्रव्येण कृतं तत्रस्थप्रतिमा बन्यते न वा इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् —–तत्रस्थजिनप्रतिमा वन्द्यते इति शायते ॥ ६२ ॥ सेन० ४ उल्ला० । साध्वी केवलज्ञानोत्पस्यनन्तरं छप्रस्थसाधून ? साधून वन्दतेन वा इति प्रक्षः अत्रोत्तरम् - केवलज्ञानवति साध्वी ग्रस्थसाधून न वन्दते, यतः केवली ज्ञातस्सन् छद्मस्थसाधून वन्दते इत्येवं शास्त्रे न दृश्यते तथा केवलज्ञानवतीनां द्मस्थसाधुर्वन्दते इत्यपि सम्भवनास्ति, यतः पुरुषः स्त्रियं वन्दते तदा लौकिकमार्गे अनुचितं दृश्यते परमार्थतस्तु केवली सर्वेषां वन्दनीय - वेति ॥ ४० ॥ सेन० ४ उला । बत्सम्बधिष्ठितं जि नविस्वं वन्द्यं, तर्हि, ते कथं न वन्द्या ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - " पासत्थो श्रोसरणो, कुसीलसंसत्तश्रो अहाछंदो दुग दुग ति दुगवा जिमयमि || १ || " इत्यादिवचनात्तेषामवन्द्यत्वम्, प्रतिमानां त्वस्पतीर्थिकपरिगृही प्रतिमाज्यतिरेकेणान्या सां स्तीति ॥ १३० ॥ श्रभिनिवेशमिध्याद्दप्रतिष्ठितं जिनबिम्बं बन्यता प्राप्तं तत्र किं बीजम् इति प्रक्षः, अत्रोत्तरम् - रमपूर्वसूरिभिस्तद्वन्दनादौ निवारणमेव बीजम्, किञ्च शा
,
वन्द्यत्वम
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वंदण
अभिधानराजेन्द्रः।
वंफ खेऽभिनिवेशमिथ्याष्ठित्वं विद्वानां प्रोक्तम्, साम्प्रतीना- समा०१अधि०१प्रस्ता। स्तुत्येषु, जी०३ प्रति०४ अधिक। स्तु मतिनो दिगम्बरं विहाय निह्नवा इति न व्यवड़ियन्ते, औ० । उपा० । स्तोतव्ये, तं० । त्रिविधयोगेन सम्यकस्तुते, तथैव गुर्वादीनामाक्षासद्भावादिति ॥१३१॥ सेन०२ उल्ला०। ध०२ अधि० । कर्म० । ल । कल्प० । आव०मा० भ० । पौषधदिने श्राद्धः प्रतिक्रमणं कृत्वा देवान् बन्दित्वा प- वंदणीप्रोदय-वन्दनीयोदक-न । आचमनोदकप्रवाहभूमौ, श्वात् पौषधं करोति तथा कृतः पौषधः शुद्धयति न वा ?
"णो गाहावतिस्स बंदणीप्रोदयं पविढेजा" आचा०१ श्रु०१ इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-पौषधं कालवेलायां कृत्वा प्रति
चू०१०६ उ०।
वाधः कालातिकमा- | वंदारय-वृन्दारक-पुं० । देवे, “अमरा तियसा बंदा-रया य दिकारणवशात्त पूर्व देवान् वन्दित्वा पश्चात्पोषधं गृहा- विबा सावा"IO नागाशा। तीति ॥ १२४ ॥ सेन० ३ उल्ला० । साधूनां सप्त चैत्यवन्द
|वंदि-बन्दिन-त्रि०। स्तुतिपाठोपजीविनि.सूत्र०१ श्रु०१७५० नानि प्रोक्तानि तेषां मध्ये प्रतिक्रमणयोढे चैत्यवन्दने कुत्र
वंदिऊण-बन्दित्वा-अव्य० । नमस्कृत्येत्यर्थे,चं०प्र०१पाहुन स्थाने क्रियेते? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-ग्राभातिकप्रतिक्रमणे 'इच्छामो अणुसट्टि' इति कथनानन्तरं यद्देववन्दनं क्रिय
| वंदित्तए-वन्दितुम-अन्य० । अभिवादनं कर्तुमित्यर्थे, प्रति। ते तत्रैकं चैत्यवन्दनम् , सन्याप्रतिक्रमणे तु देवसिकप्रति
उपा० । स्था०। रा०। क्रमणस्थापनादर्वाग् यदेववन्दनं क्रियते तचैत्यवन्दनं | वंदित्तु-बन्दित्वा-श्रव्य० । 'वदि' अभिवादनस्तुत्योरित्यद्वितीयमित्यक्षराणि सकाचारवृत्तौ सन्तीति ॥१२६॥ सेन० | र्थयाभिधायी धातुः । प्राचा० १ श्रु० ११०१ उ०। ३ उल्ला० । पौषधिकेन जिनालये गत्वा प्रहरे सार्द्धप्रहरे | “क्त्वस्तुमत्तण-तुप्राणाः " ८।२।१४६॥ इति क्त्वास्थावा देवा वन्दितास्तस्य कालवेलायां पुनर्देववन्दनं युज्य- ने तुम् श्रादेशः । वन्दित्तु इत्यनुस्वारलोपात् । प्रा० । अभिते न वा ? इति प्रश्नः,अत्रोत्तरम्-येनाऽकाले देवा वन्दितास्त- वाद्य स्तुत्वा चेत्यर्थे, अोघाध०“काऊण सामईयं, इरिस्य कालचेलायां पुनर्देववन्दनं युज्यते यतः कालवेलाका- अं पडिकमिय गमणमालोए । वंदिनु रिमाई, सज्झायावये कालवेलायामेव कर्तव्यम् , परम्पराऽप्येवमेव दृश्यत स्सय कुणई" ॥१॥ इति श्राद्धदिनकृत्य-१३१ गाथायाः कोऽ इति ॥ १२०॥ सेन० ३ उल्ला०।
ऽर्थः? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-गाथाया प्रों वृत्तौ सुप्रसिबंदणकम्म-वन्दनकर्मन्-न० । 'पदि 'अभिवादनस्तुत्योः, द्ध एव, यन्तु सूत्रपाठमात्रेण सामायिकानन्तरमैर्यापथिकीप्र. इत्यस्य चन्द्यते स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाकायव्यापारनि- तिक्रमणं प्रतिभाति तत्र सविस्तराण्यावश्यकचार्यक्षराकरेण गुरुरिति वन्दनं तदेव कर्म वन्दनकर्म । कृतिकर्मक- एयनुसरणीयानि येन संशयापनोदो भवति, सर्वेषामेवंविधरणे, प्रव०२द्वार।
पाठानां तन्मूलकत्वादिति ज्ञायते ॥ २२५ ॥ सेन० ३ उहा। बंदणकलस-वन्दनकलश-पुं० । माङ्गल्यघटे, शा० १६०१ वंदित्तुसुत्त-वन्दित्तुखत्र-न० । वन्दित्तुशब्दादिके श्रावकप्रति१०। प्रा० म० ।
क्रमणसूत्रे, ही०१ प्रका० । प्रति०। ( सदालपुत्रकुम्भकारवंदग-वन्दनक-न० । वन्द्यन्ते पूज्या गुरवोऽनेनेति बन्दनं कृतप्रतिक्रमणसूत्रमिति प्रघोषः। सत्यो नवा ! कस्य कतिर्वा तदेव बन्दनकम् , स्वाथै कन् । प्रव०१द्वार। प्राचार्यादिप्र- सा? इति प्रश्नस्योत्तरम् ,'पडिकमण' राम्दे पञ्चमभागे ३१७ तिपत्ती, वन्दनकमपि पश्चामावश्यकानामन्यतमं सा- पृष्ठे द्रष्टव्यम्।). धोरवश्यकार्यम् श्रावकस्यापि कर्तव्यम् । गुणवत्प्रतिप-वंदितुवित्ति-वन्दित्तुवृत्ति-स्त्री० श्रावकप्रतिक्रमखसूत्रवृत्ती, त्तिरूपत्वात् । तस्य गुणवत्प्रतिपत्तेश्च श्रावकस्याप्यविरु- सेना वन्दिनुवृत्तौ 'संखा कस्खा' इति गाथावृत्तौ एकोनाद्धत्वात् । ध०२ अधि०। आ० म०। गुणवत्प्रतिपत्तिप्रधाने शीतिमिथ्यात्वस्थानकेषु षष्टितमस्थाने सर्वमासेषु वा अध्ययनविशेषे, पा०।३०। प्रा० चू० । आव०। तासूपवासादीनि सर्वास्थकादशीषु उपवासकरखे कथं मिचंदणघड-वन्दनघट-पुं० । बन्दनकलशे, श्रा० म०११०। ध्यात्वम् इति प्रश्नः , अत्रोत्तरम्-चतुर्दश्यष्टमीज्ञानपश्चवंदपपइस्मय-वन्दनप्रकीर्णक-न० । गुरुदेववन्दनवनव्यताके
मीषु नियततपोदिनेषु उपवासमकत्वा यदि सर्वास्वेकाद
शीषु उपवासं करोति तदा मिथ्यात्वस्थानं भवतीति वायभद्रबाहुस्वामिकृते स्वनामख्याते प्रकीर्णकग्रन्थे, वन्द।।
| ते इति ॥ ३५३ ॥ सेन० ३ उल्ला। वंदखवत्तिया-खी। वन्दनप्रत्यय-न०। वन्दनं प्रशस्तमनोवा
| वंदिम-वन्ध-त्रि० । वन्दनीये, “जया य बंदिमो होइ, पच्छा कायप्रवृत्तिस्तत्प्रत्ययं-निमित्तम् । बन्दनाथे, “वन्दणवत्ति
होर अवंदिमो" यदा वन्द्यो भवति भ्रमणपर्यायस्थो नरेयाए करेमि काउस्सग्गं" यार वादनात् पुण्यं स्यात्तारकायोत्सर्गः कार्यः । प्रति। औ० । रा०। दश ।
न्द्रादीनाम् । दश०१चू।
वंदिय-वन्दित-त्रि० । गुणस्तुतिकरणेन नमनीये, कल्प बंदणविहि-वन्दनविधि-पुं० । चैत्यवन्दनाविधौ, सङ्घा० १]
| १अधि० ३ क्षण। अधि० १ प्रस्ता।
बंफ-काइन्व-धा० । गायें, "काहेराहाहिलाहिलामा बंदशासद्धि-वन्दनशद्धि-स्त्री०। अस्खलितप्रणिपातादिदण्ड वर-वंफ-मह-सिह-बिलपाः"॥ ४|११२॥कसमुच्चारणासम्भ्रान्तकायोत्सर्गादिकरणे, घ०२ अधिः। ति काइतेर्वम्फादेशः । प्रा०।" ण वंफेज" नाभिसरेबंदणिज-वंदनीय-त्रिकावन्द्यन्ते स्तूयन्तेऽभिवाद्यन्ते च भक्तिः त् । स्व०१ श्रु०१०। भरनिर्भरान्तःकरणैः सुरासुरनरनायकगणैर्ये ते बन्दनीयाः ।। १-अनुकरणत्वेन पन्दितु' सपनुवाद ।
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(७७६). बंफित्र अभिथानराजेन्द्रः।
पंसित्र वंफिभ-काडचित-त्रि० । कवलिते, “ घत्थं कवलिअं अ- पक्खिविऊण नयरं पविट्ठो, सो एगेण नयरधुत्तेण पुच्छिनो. सिनं विलंपिनं वफिनं खानं" पा० ना.७७ गाथा। कई सगडतित्तिरी खम्भा, तेण गामिनपण भमा तप्पणा भुक्त, दे० ना०७ वर्ग ३५ गाथा ।
दुयालियाए लम्भति, तो तेण सक्खिण उाहणित्ता वंस-वंश-पुं० । परम्परयोत्पत्तिप्रवाहे, विशे० ! प्रा०म०।- सगडं तित्तिरीए सह गहियं, एसिलगो चेव किल मा० । क्रमभाविपूर्वपुरुषप्रवाहे, नं० । पुत्रपौत्रादिपरम्परा- एस वंसगु ति, गुस्खो भणति-ततो सो गामेल्लो दीयाम् , स्था० १० ठा० ३ उ० । अन्वये, संथा । सन्ताने,
लमणसो अच्छा, तत्थ व एगो मूलदेवसरिसो मस्सो स्था० ठा०३ उ०। हरिवंशादिके, हा०१ श्रु० १६ १०।
आगच्छह , तेस सो दिवो, तेण पुच्छिो किं मियायसि वेणी, बा.१७०१७ १०। प्रशा०ा औ०। आचा। छित्त्व
अरे देवाणुप्पिया !!, तेरण भणियं-अहमेगेण मोहेण इमेस राधारभूते, भ०८०६ उ० । महति षष्ठवंशे, रा०।" जो
पगारेण छलियो, तेण भणियं-मा बीहिह, तप्पणा दुयाई रसमया वंसकवे का य" जी०३ प्रति०४ अधिकारा लियं तुमं सोवयारं मग्ग, माइट्ठाणं सिक्खाविश्रो, एवं भवउ वायदे, नं०। भाचा प्रश्न । “अट्रसय बंसाणं अट्ट
त्ति भणिऊण तस्स सगासं गो, भणियं चऽणण-मम सयं बसवायगावं" रा०। वेणी, "वंसो वेणू वेलू य" पाइ० जइ सगडं हियं तो मे यासिं तप्पणा दुयालियं सोषयारं ना०१४४ गाथा।
दवावेदि, एवं होउ लि, घरं खीमो महिला संदिट्ठा, अलंजंबुद्दीवे दीवे भरवएसु वासेसु एगमेगाते भोसप्पिणी
कितविभूसिया परमेण विणपण एअस्स तप्पणा दुयालिय
देहि सा वयससमं उबट्ठिया, तो सो सागडिओ भणतिउस्सप्पिणीए तमो वंसामो उप्पजिंसु वा उप्पअंति वा
मम अंगुली छिया इमा चीरेणावेढिया ण सकेमि उहडयाउप्पज्जिस्संति वा, तं जहा-अरिहंतवंसे, चक्कवाट्टिवंसे, द- लेडं, तुम अदुयालिउं देहि, अदुवालिया तेण हत्थेण गसारवंसे २१, एवं० जाव पुक्खरवरदीवद्धपच्चत्थिमद्धे हिया गाम तेणं संपट्टियो, लोयस्स य कहेति-जहा मए २५ (सू०-१४३४) स्था० ३ ठा०१०। ।
सतित्तिरिगेण सगडेण गहिया तप्पणादुयालिया, ताहे तेण वंसकरिखय-वंशकरीलक-न० । कोमलाभिनववंशावयववि
धुत्तेण सगडं विसज्जियं, तं च पसाएऊण भजा णियत्तिया, शेष, रा०।
एस पुण लूसो चेव कहाणयवसेण भणियो । एस लो
इयो, लोगुत्तरे वि-चरणकरणानुयोगे कुस्सुतिभावियस्स बंसकवेन्लुय-वंशकवेन्लुक-न० । उभयतस्तिर्यकस्थाप्यमाने
तस्स तहा बंसगो पउज्जति जहा सम्म पडियजति । व. घरो, रा०। जी।
ब्वाणुभोगे पुण कुप्यावयणिो चोइज्जा, जधा-जति जि. बंसग-व्यंसक-पुं० । व्यंसयति परं व्यामोहयति शकटति
णपणीए मग्गे अस्थि जीवो अस्थि घडो, अस्थिसं जीवे शिरीप्राहकधूर्तवद् पः स व्यंसकः । दुहेतुमेदे, स्था० । वि, घड वि, दोसु वि अविसेसेण वा ति, तेण अस्थित्ततथाहि-कश्चिदन्तराललब्धमृततित्तिरीयुक्तेन शकटेन न. सहतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं भवति । अह अस्थि भागरं प्रविष्टः, उनो धूर्तेन, पथा-शकटतित्तिरी कथं लभ्य- वाओ तिरित्तो जीवो, तेण जीवस्स प्रभावो भषा ति एस ते!, सच किलाय शकटसका तित्तिरी याचत इत्यभिप्रा- किल एदहमेतो चेव वंसगो, लूसगेण पुण पत्थ इम उत्तरं यादवोचत् तर्पणालोडिकयेति, सक्त्वालोडनेन जलाद्यालो- भाणियब्व-जदि जीवघडा अस्थित्ते बट्टति तम्हा तेसिडितसमिरित्यर्थः, नतो धूर्तः साक्षिण पाहत्य सतित्तिरी- मेगतं संभावेहि , एवं ते सव्यभावाणं एगतं भवति , के शकटं जमाइ,उक्लवांश्च मदीयमेतद, अनेनैव शकतित्ति- कहं ?, अन्थि घडो अत्थि पडो अत्थि परमाणू , अन्थि रीति पत्तत्वात्, मया तु शकटसहिता तित्तिरी शकटति- दुपएसिए खंधे, एवं सब्वभावेसु अत्थि भावो धट्टा लि काउं तिरीति गृहीतत्वादिति, ततो विषण्णः शाकटिक इति,पत्रो- किं सम्वभावा एगी भवन्तु, एत्थ सीसो भणति-कहं पुण कम्-" सासगरतित्तिरी वंसगम्मि हेउम्मि होइ नायव्वा" पतं जाणियब्ध ?, सब्वभावेसु अस्थिभावो बट्टति, ण य ते इति, स वैषम्-अस्ति जीवोऽस्ति घट इत्यभ्युपगमे जीव
एगीभति। भापरिश्रो पाह-प्रणेगंतानो एतं सिज्झर घटयोरस्तित्वमविशेषेण वर्तते ततस्तयोरेकत्वं प्राप्तमभिन्न
इत्थ दिटुंतो-बारोवणस्सती,वणस्सा पुण खदिगे,पालासो शणविषयत्वादिति व्यंसको हेतुः, मटशनविषयघटस्वरूप
| वा, एवं जीयो वि णियमा अस्थि, अस्थिभावो पुष जीवो बत्, प्रथाऽस्तित्वं जीवादौ न वर्तते; ततो जीवाचभावः व होज्ज अन्नो या धम्माधम्मागासादीणं"ति । उक्नो व्यंसकः। स्यादस्तित्वाभावादिति व्यंसकः प्रतिवादिनो म्यामोहक
दश०१०। स्वादिति । स्था०४ ठा०३ उ० । मि० चू० । दश
वंशक-पुं० । दण्डके, दण्डकाकुट्टणे, पं० २०४ार । जं। साम्प्रतं व्यंसकमाह
वंसप्फाल-देशी-प्रकटे ऋजौ,चुलीमूले,देना०७वर्गधगाथा। सा सगरतित्तिरीवं-सगम्मि हेउम्मि होई नायवा। वंसा-वंशा-खी० । शर्कराप्रभायां नरकपृथिव्याम , तृतीयप्रस्य म्याक्या-सा शकटतित्तिरी व्यंसकहती नरकपृथिवी हि गोत्रेण शर्करप्रभा नाम्ना बंशा । जी. ३ भवति, सातव्यत्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकाद
प्रति०१ अधि०१० । स्था। बसेयः, तस्येवम्-" जहा एगो गामिलगो सगडं | वंसालय-वंशालय-पु० । वैताव्यनगे उत्तरघेण्यां स्वनामकट्ठाण भरेऊण नगर गच्छर, तेण गच्छंतेण अंतरा एगा ख्याते नगरे, कल्प०१अधि०७क्षण । श्रा०चू० । तित्तिरी मझ्या विद्या. सो तं गिरहेऊरा सगडस्स उवरि: । वंसिन-ध्यंसित-त्रि० । छुलिते, अनर्थप्राप्ते,मा.१४०१३अण
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सिय
वांशिक - पुं० " मांसादिष्वनुस्वारे " ॥ ८ । १ । ७० ॥ इति
श्रतोऽत् । वंशवादनशीले, प्रा० १ पाद । वंसी वंशी स्वी० मुरलिकाव्ये वाद्यमे ०२४० वांशी स्त्री वंशकरीलनिष्पत्रे सुराभेदे ०२४०० म० । श्रौ० ।
मीलंका - वंशीकलङ्का स्त्री० । वंशजालमय्यां वृत्त्याम्, शा० १ ० १८ श्र० । नि० । श्र० चू० । सीहिया-वंशीनखिका श्री० कुणाभ्यवनस्पतिमेरे
--
उ० । उत० ।
वक वाक्य - न० 1 वचने, दश० ।
(100) अभिधान राजेन्द्रः ।
प्रज्ञा० १ पद ।
१ श्रु० ८ अ० ।
सीपचिया वंशीपत्रिका श्री० श्या पंजायापत्रकमिव या सा वंशपत्रिका । योनिभेदे, स्था० ३ ठा० १ उ० । ( व्याख्या ' जोणि ' शब्दे चतुर्थभागे १६५२ पृष्ठे दर्शिता । ) वंशीपासाय- वंशीप्रासाद- पुं० वंशगहनं तदुपलक्षितं प्रासादकभेय वाक्यभेद- पुं० । मुख्यविशेषताइयप्रयोजके वाक्य। दं वंशीप्रासादम् स्वनामख्याते सनिवे यतः प्रचलि तस्य ग्रह्मदत्तचक्रिणः समककान्तरवर्तिन्यमय ड तिशयः संजातः । उत्त० १३ श्र० । वंशीमुहा-वंशीमुखा - स्त्री० । द्वीन्द्रियजीवविशेषे, जी० १ प्रति० । प्रज्ञा० ।
स्य तन्त्रेणावृत्या वा कल्पिते खण्डद्वये, श्राचा० १ ० १
अ०५ उ० ।
- त्रि० । उत्पद्यमाने, शा० १ ० ।
सीमूलवंशीलन० गुदाद्वहिः स्थिते अलन्दकादिके
०२० स्था० (अत्र व्याख्या 'वसहि शब्दे अस्मिंश्रेय भागे हटव्या )
वक्कमाण- व्युत्क्रामत्वक्कय- वल्कज- न० । शणप्रभृतिके, वल्कजाते, आ० म०१ अ०। वकल-बकल १० सर्वत्र - रामचन्द्रे " ॥ | २ | ७६ ॥ इति लकारस्य लुक् । प्रा० । तरुत्वचि प्रति० । ऋषीणामुपकरणभेदे, भ० ११ ० ६ उ० । सूत्र० । ताव सरूवं विउब्वित्ता वक्कलं स्यित्था" श्र०म० १ ० । वर्षे, सूत्र० १० ५ ० १ ० । स्थापितत्वाद् बल्क ३वकलचीरियफलचीरिण-पुं० वल्कले स्थापित चीरीति । स्वनामख्याते तापसे, तं० । प्रा० भ० । श्रा० ० । तत्कथानकं वेदम्
66
वकुल- वकुल- पुं० । केसरे, यः स्त्रीमुखसीधुसिको विकसति० ॥ जं० ३ यक्ष० ।
बहुम-कुशु-पुं० [शवचारित्रे निर्धन्ये स्था० ५ डा०
।
अभूते जहा बकलचीरिस्स को पकली काले ते समये चंपारायण सुहम्मो गराइरो समोसढो, कोलियो राया वंदितुं निज्जाते कतप्पामो य जबू (नाम) रुवदंसणविहितो गणहरं पुच्छति - भगवं ! इमीसे महद परिसाए एस सदे पतसिनो व परिवितो मोहरसरीचे व किं मये पतेश सीसेवितं तवो या श्राचिं दाणं वा दिष्णुं, जतो परिसी तेयसंपत्ती । ततो भगवता भरियो सुखाहि एवं जहां तव पितुला सेपिय रक्षा व सामिग्रा कहितं कालें तेलं समय गुसित बेनिए सामी समोसरितो, सेसिचो राया तित्धमरससमुस्सुनो बंद हिजार, तरस य श्रग्गाली दुबे पुरिमा कुटुंबसंबद्धं कई करेमाणा पस्संति एगे साधु एगचलणपरिट्टितं समूसवियबाहुजुयल श्रतावेतं, तत्थेक्केण भणितं श्रहो एस महप्पा रिसी सूराभिमुो पनि एतस्स सग्गो मोसो वा हत्यातोति । चितिपल पचमिणा । ततो भगतिक यासि एस राया पसण्णवंदो । कतो एयस्स धम्मो, पुतोष पालो रजे ढवितो सो प मंतीहि जाओ मोइज्जति । सोऽले सो विवासियो तेरो वि राज्जति किं पाविहिति । तं च से चrj भाणवाघातं
19
वाक्यनिपाभिधानायाह
निक्खेवो ( उ ) चउको, वक्के दव्वं तु भासदव्वाई । भावे भासासह, तस्स व एमडिआ णमो || २६६॥ निक्षेपस्तु चतुष्को नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणो वाक्येवाक्यविषयः, तत्र नामस्थापने क्षुराणे, 'द्रव्यं' तु-द्रव्यवाक्यं पुनर्झशरीभव्यशरीरव्यतिरिक्तं भाषाद्रव्याणि भाषकेण गृहीतान्यनुच्चार्यमाणानि भाव इति भाववाक्यम् भाषाशब्द:- भाषाद्रव्याणि शब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणानीत्यर्थः । तस्य तु वाक्यस्य एकर्थिकानि श्रमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानीति गाथार्थः ॥ दश० ७ अ० २ ० । ( तानि एकार्थिकानि भासा शब्दे पञ्चमभागे १५२२ पृष्ठे मतानि ।)
3
4
वल्क- पुं० । त्वचि स्था० १० ठा० ३ उ० । श्राचा० । क- त्रि० । कुटिले, आ० क० १ ० । षो० । वक्रवर्षात - व्युत्क्रान्त- त्रि० । उत्पन्ने, कल्प० १ अधि०१ क्षण । शा०| वति व्युत्क्रान्ति श्री० । उत्पत्ती स्थानात्प्राप्तस्योत्पादे स्था० ६ ठा० ३ उ० | निष्क्रमणे, प्रज्ञा० १ पद । स्था० । १६५
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बकलचीरि
प्रज्ञापनायाः पठे पदे, व्युत्क्रान्तिलक्षणाधिकारयुक्तत्वात्तस्य । प्रज्ञा० १ पद । स्था० । भ० ।
वक्ककर - वाक्यकर - पुं० । गुरुनिर्देशकरणशीले, " बाइओ वायवं वक्ककरे सपुज्जो" दश० ६ श्र० ३ उ० । वल्ककर - पुं० । चर्मकारे, श्राव० ४ श्र० ।
वक्कगय- वाक्यगत - न० । वाक्ये वचनरचनात्मनि गतं वाक्यगतम् । उत्त० पाई० १ अ० । वाक्यविषये, उत्त० १ ० । वकत्थमेतविसय- वाक्यार्थमात्रविषय- पुं० [सकलशाखगतवचनाविरोधिनिर्णीतार्थे वचनं वाक्यं तस्यार्थमात्रं प्रमाणं नयाधिगमरहितं तद्विषयस्तद्गोचरो वाकार्यमात्रविषयः । केवलवाक्यार्थगोचरे, पो० ११ वि० । नबंध-वन्कबन्ध-पुं०
[प्रभृतिक कलबन्धने, विचा
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चकलचीरि
करेमा सुतिपदमुवगतं, ततो सो चिंतितुं पयतो अछोटसं ते घमच्या मया संमारिया निच्वं पुरा अणज्जा स्ल मे बि पडिवराणा जदि हं होतो एवं च वट्टतं तो ऐसु नासिते करेंतोमि । एवं च से संकप्पयंतस्स तस्स तं कारणं यहमामय जातं तेहि यस मणसा चैव काउमारद्धो । पतो य सेणिश्रो राया तं पदेसं, वंदितोऽणे विणण पेच्छति । ण भाणनिच्च
"
तं अहो अच्छरीरं तं परिसं तवस्तिसामत्थं रायरिसिसो पदस्स त्ति चिन्तयेतो पत्तो तित्थगरसमीवं, वंदिना विवरण पुच्छति भगवं । पसरणचंदो अलगरो जम्मि समय ता बंदिश्रो जदि तम्मि समय कालं करेख का से गती भवेजा, भगवता भणितं सत्तमपुढविममजम्यो । ततो वितेति साधुसो कहं नरकगमति । पुलो पुच्छति भगवं पचंद जह इदालि काल करेगति प्रति भगवता भणितं सम्पमगमजोग्गो इवाणि ति । ततो भगति -कहं इमं दुविहं वागरणं ति ? नरगाऽमरेसु तवस्थितो ति । भगवता मणितं - भाणविसेसेण । तम्मि य इमम्मि समए परिसितस्स - सातसातकम्मादाणता । सो भणति - कहं ? भगवता भणितं । तब अम्गादीतपुरिसमुहनिग्गतं पुरुपरिभयबयतं सोत्रा उम्भितपसत्थभागो तुमे दिजमा मसा जुज्झति तिष्यं परासीपण समं । तचो सो तमि समय शहरगतिजोन्गो सिम य उपगतजातकर
( ७७८) अभिधानराजेन्द्रः ।
सति सीसायरस पहरामि परं तिलोड़ते सीसे ह निमिषन्तो पो दो क क पर्यादित प रत्ये अदिविरुद्धं मामवतिष्णो तिनंदसगरद्द करैतो ममं पणमित्य तस्य गतो व लोहय पडितो सत्यकाणी संपतंतं बलेन फम् खचितं असु भं, पुराणमज्जितं, तेरा कालविभागेण दुविहगतिनिद्देसो । ततो कोणि पुच्छति-कदं या भगवं वाले कुमारं वेतेल पसचन्द राया पण्यस्तो सोतुमिच्छ्रं ततो भए ति-पोतपुरे गरे सोमचन्दो राया तस्स धारिणी देवी, सा कदाइ तस्स रयो ओलोयगतस्स केसे रपति पतितं दणं भणति - सामि ! दूतो आगतो त्ति, रणोदिट्ठी बितारिया ग प पस्सति अपुम्बज ततो मतिदिवि दिव्यं ते च य पलिये सितं धम्मदूतो एसो ति तं च ददठूण दुम्मणसितो राया । तं नाऊण देवी भवति लज बुभावेण निवारिजही जिलो, ततो मखति देवीन एवं कुमारो पालो असमत्यो पयाल होखति मे मणं जातं पुब्वपुरिसाणुचिरणेण मग्गेण गसोऽहं ति न निवारितु मे परानचं सामा
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सुति । स रिखिता गमये। ततो पुत्तस्स रखें दाऊल धातिदेविसहितो दिसा पेक्खिय भावसत्ताए दिवितो, चिरसुरागे आखमपदे ठितो देवी पुण्याहतो गमो परिवहति । पसरणचंदस् य चारपुरिसेर्दि निवेदितो । पुरुषसमय सूता कुमारं यलेसु उषितो सिबलचीरि सि । देवी विया रोगे मता बम हिसी व कुमारो बहाविजति घाती निदालेख कालगता किढिलेख वहति रिसी वक्सवीरिं प
"
ण
वक्कलचीरि विहितो व लिहिणं सितो नकारे िसदस् तेरा सिरोहेण गणिका दारियाच रूपस्थिती खंडमयविविहफलेहिं णं लंभेहि त्ति । पच्छा वि ताश्र णं फलेहि मधुरेविवयदि य सुकुमालपीगणपि य लोभेनि सो कतमसमवातो गमले जाय अतिगतो समंडगं तु ताव मारुदेहि चारपुरिसेदितासि स या दिवा रिसी आागतो ति ताओ उत्तम सोनासिंबोधिमसनमाणो ताम्र अपसमादो तो तो सोडवी परिभमतो रगतं पुरिसं तात ! अभियादयामि ति भणतो रहिया कुमार ! काय गं त? सोभति पोललं नाम समपदं तरस व पुरिस सतत्वच गतयं तेरा समयं पचमालो रथिणा भणिसंतात आलयति तीए मसिनो को इमो उपधारो, रु धिणा भणितं सुंदरि ! इत्थिविरहिते गं एस आसमपदेषद्वितो याति बिसेन से कुप्यतिष्यं कुमारो व भगतिकिंवादिजेति ततो रथिका मतिं कुमार ! पते परि कतिपय दोसो तेल वि से मोगा दिशा । सो भणति - पोयणसमवासीहिं मे कुमारेहिं पतारिसा बेष फलागि दत्तपुण्याणि ति वयंता से एकचोरेण सह जुद्धं जातं । रधिणा गाढप्पहारो कतो सिक्खा गुणपरितोसिश्रो भणति - अस्थि विउलं धणं तं गेरह सू. रति तती वि जहि रहो भरितो कमेण पत्ता पो तमो गाय विसज्जितो उदयं मम । सो भमंतो गणियाघरे गतो, अभिवादये देह इमेण मुझेण उदयं ति । मनियार भनि दिजति निविस भिती कासव सहाविद्योततो अति कर्त सहपरिक यवत्थामरणविभूसितो गणिया दारिया व पाणि चाहियो रहवितोय, मा मे रिसिवेसं श्रवणेहि त्ति जपमाणो ताहि भणतो- उद्गरथी इमागच्छति तेलि परिसो उबारो कीरति । ताम्रो उपगणिया उचगावाणी वधूच चिति । जो व कुमाविलोभणनिमित्तं रिसियेसो जो पे सितो सो आगतो कद्देति रो कुमारो अडवि अतिगतो अम्देहिं रिसिस्स भरण ततो तो सदाचियो, ततो या वि
मानस मणति अहो अकर्षन व पितुसमीचे जातो, न य इहं नाराज्जति, किं पत्तो होद्दिति ति चिंतापरो श्रच्छति सुखतिय मूर्तिगसरणो सदाविचो । ततो राया विसरलमानसो भति– अहो अकयं दतं च सेसुतिपय माणं भणति मते दुखते को मरणे सुहितो गंधब्वेण रमति ति । गणियाए अहितेणे जाणए कहितं । सा श्रागता पादपडिता रायं पद्मचंद्र विश्ववेति देव! सिंदेसो देखो ताव सरूवो तरुणो गिहमागच्छेजा । तस्स मे व दारियं देज्जासि सो-- उत्तमपुरिसो । तं संसिता विउलसोक्सभागिणी होहिति कि । सो य जहा भणिश्रो लेमित्तिणा अज ! मे गिहमागतो । त च संदेसं पमाणं कारंती पदत्ता से मया दारिया तत्रिमितस्वो नया कुमारं पराई पर मे वराहं मरिसिहि चिरण्या संदिट्ठा मस्सा | सियो कुमारो तेहिं परमतेहि पच्चभियातिजं निवेदितं च पिये रणो परमपीतिमुबगतेश् य यसहितो समीमुवी । सरिसकुलरूवा जोव्व गुलाल य रायकरण्यात य पार्णि गाहितो, कतरज्ज संविभागो य
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(७७६) वकलचीरि
अभिधानराजेन्द्रः। जहासुहमभिग्गइरहिनो य चोरदत्तं दव्वं विकिणतो राय- वसुद्धि-वाक्यशुद्धि-स्त्री० । संयमद्धिनिमित्ते वाक्योकी, पुरिसेहिं चोरो ति गहितो चारिणा मोइतो पसरणचंदविदितं । सोमचंदो वि श्रासने कुमारं अपस्समाणो सोग
जं वकं वयमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा । सागरविगाढो पसन्नवंदसंपेसितेहिं पुरिसेहिं नगरगतवकलचीरिं निवेदितेहिं कहिं वि संठवितो पुत्तमणुसंभरंतो
न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि सि ॥२८॥ अंधो जातो, रिसीहिं साणुकम्पेहिं कतफलसंविभागो त- यद्-यस्माद्वाक्यं शुद्धं वदतः सतः संयमः शुद्धयति, शुद्धषत्थेव आसमे निवसति । गतेसु य वारससु वासेसु कुमारो| तीति निर्मल उपजायते,न पुनहिंसा भवति कौशिकादेरिवनअद्धरत्ते पडिविबुद्धो पितरं चिंतितुमारद्धो, किह मरणे ना
चारमनः कलुषभावः कालुष्यं दुष्टाभिसंधिरूपं संजायते, तेन तो मया विग्घिणेण मताणि विरहितो अच्छति ति पितु- कारणेन इह-प्रवचने वाक्यशुद्धिः भावशुद्धेनिमित्तमित्यतो
सणसमुस्सुगो पसन्नचंदसमीवं गंतूण विएणवेति । देष ! प्रयतितव्यमिति गाथार्थः । दश०७०२ उ०। विसजेह में उक्कठितो है तातस्स । तेण भणितो समयं वक्ख-व्याघ्र-पुं० । प्राकृते व्याघ्रशब्दस्य बग्घः । “चूलिका वचामो गता य प्रासमपदं निवेदितं च रिसिणो पसरण- पैशाचिके तृतीयतुर्ययोरायद्वितीयौ"॥८।४ । ३२५ ॥ इति चंदो पणमति त्ति चलयोवगतो य गेण पाणिणा परामुट्ठो
घस्य खः। आटव्यजन्तुविशेष, प्रा०४ पाद। पुत्त ! निरामयोऽसि त्ति वकलचीरी पुणो अवदासिनो
वरखंग-व्याख्याज-म० । गौणव्याख्यारूपे अध्याहारादीचिरकालघरियं च सेवाहं तस्स उमिल्लाणि णयणाणि पस्स
अध्याहारो विपरिणामो व्यवहितकल्पना गुणकल्पना लक्ष. ते दो वि जणा परमतुडो पुच्छति य सब्वगतं कालं ।
णा वाक्यभेदश्चेति । प्राचा०१ श्रु०१ १०५ उ० । बकलचीरी वि कुमारो अतिगतो उदयं पस्सामि ताव तातस्स तावसभंडयं अणुवेक्खिज्जमाणं करिसं जातं ति। वस्खा-व्याख्या-खी० । व्याख्याने, उत्त०१०। स्था। तं च उत्तरिय तेण पडिलेहिउमारद्धे जति विच पतं पायं | वक्खाण-व्याख्यान-नावि-आङ्-ख्या-ल्युत् । यकारलोपः। केसपरियाए । कत्थ मले मया परिसं करणं कतपुव्वं ति | "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" ॥८॥२॥१०॥ इति खकारोपरि विधिमणुसरंतस्स तदावरणक्खएण पुब्वजातिस्सरणं जातं। ककारः। प्रा० । अनुयोगे, विधिप्रतिषेधाभ्यामर्थनरूपणे. गुमरती य देवमाणुस्सभवे य सामर्श पुरा कतं संभरि- विशे० प्रा० चू०। (अस्य निक्षेपैकार्थनिरुक्नविधिप्रवृत्तितूण वेरग्गमग्ग समुत्तिरखो धम्ममाणेण विसयातीतो विवि- प्रभृतिद्वारैः प्ररूपणा 'अणुप्रोग' शब्द प्रथमभागे ३४१ पृष्ठेसुज्झमाणपरिणामो य वितियसुबमाणभूमिमतिकतो नट्ट- उकारि) मोहावरणविग्यो केवली जातो य परिकहितो धम्मो जिण- गवाघुदाहरणान्याश्रित्य व्याख्यानविधिमाहप्पणीतो पितुषो पसनचंदस्स य रराणो, ते दो वि लद्धस- गोणी चंदण कंथा, चेडीओ सावए बहिरगोदोहे । म्मत्ता पणता सिरेहिं केवलियो सुद्धं भे दंसितो मग्गो त्ति
टंकणो ववहारो, पडिवक्खे मायरिय-सीसे॥१४२४॥ बकलचारी पसेयबुद्धो गतो , पितरं गहेतूण महावीरबद्ध
आचार्यशिष्ययोर्योग्यायोग्यविचारे-गोणी-गौस्तदुदाहरमाणसामिणो पासं पसन्नचंदो नियकपुरं गतो,जिणो य भगवं
णं वक्तव्यम् । तथा ,-वन्दनकन्थानिदर्शनम् । तथालमणो विहरमाणो पोतणपुरे मनोरमे उज्जाणे समोसरितो
चेट्यौ-जीर्णाभिनवश्रेष्ठिपुत्रिके, तदृष्टान्तो वाच्यः । पसन्नचंदो वकलचीरिवयणजणितवेरग्गो परममणहरति
तथा-श्रावकोदाहरणम् । तथा-बधिरगोदोहनिदर्शनम् । स्थगरमासितमतिवह्नितुच्छाहो वाल पुतं रज्जे ठविऊ
तथा-टकणकव्यवहारः षष्ठमुदाहरणम् । एतेषु षट्स्वप्युदाहण पब्वइतो, अधिगतसुत्तत्थो तवसंजमभावितमती मगह
रणेषु-शिष्याचार्ययोःसाक्षादयोग्यत्वमभिधाय ततः प्रतिपक्षे पुरमागतो। तत्थ य सेणिएण सादरं वंदितो आतावेतो
योग्यत्वं योजनीयम् । अथवा-एषां परणामप्युदाहरवानां एवं तिक्खातो जाव भगवं नरगाऽमरगतीसु उक्कोसटि
मध्ये योग्याऽयोग्ययोर्विकल्पेनकमुदाहरणमाचार्यस्य , एकं तिजोग्गं तं झाणफवयं पसरणचंदस्स वरणेति । ताव
तु शिष्यस्य , इत्येवं योजनीयम् ॥ इति नियुक्तिय देवा तम्मि पदेसे उवट्टिता, पुच्छितो य अरहा सेणि
गाथासंक्षेपार्थः॥ १४३४ ॥ विशे० । “ संहिता च पदं एण रगणा । किरिणमित्तो एस देवसंपादो ति । सामिणा
चैव , पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थान, व्याभणितं-पसण्णचंदस्स अणगारस्स णाणुप्पत्ती हरिसिता देवा उवागत-त्ति । ततो पुच्छति । एवं महाणुभावं केवल
ख्याया लक्षणानि षद् ॥१॥" अनु० । नाणं कत्थ मरणे बोच्छिजिहिति । तं समय बर्भिवसमायो
व्याख्यालक्षलमाह बिज्जुमाली देवो चाहिं देवेहि सहितो बंदितुमुवगतो उज्जो
संहिया य पयं चेव, पयत्यो पयविग्गहो। घेतो दस दिसाो । सो दंसिमो भगवता । एवमादि जहा
चालणा य पसिद्धी य, बन्विहं विद्धि लक्ख॥३०४॥ "वसुदेवहिंडीप" पत्थ पुण बकलचीरिणो महिगारो। मा०
संहिता १, पदम् २ , पदार्थः ३, पदविग्रहः ४, वाचू०१०। प्रा० क०। प्रा० म०।
लना ५, प्रसिथि६, एवं पविधम्-पप्रकारं व्याख्यावकलवास-वल्कलवासस्-पुं०। वल्कववाससि वानप्रस्थे, लक्षणं विधि-जानीहि। नि०१४०३ वर्ग ४ अाभ।
तत्र संहितेति कोऽर्थ इस्याहवकस-वकस-न० । मुन्नमाषादिनखिकानिष्पन्ने प्रतिनि- सन्निकरिसो परो होइ, संहिया संहिया व जं मत्वा । पीडितरसे तुबे, उत्त०००।
लोगुसरे लोगम्मि य, हवइ जहा धूमकेउ ति॥३०॥
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(७०) अभिधानराजेन्द्रः।
वकरखाण यो प्रयोगहना वा पदानां परः-अस्खलितादिगुणोपेतो पत्रपुष्पफलादिसमन्वितः। उक्नं च-" पत्रपुष्पफलोपतो, विविकाक्षरो झटिति मेधाविनामर्थप्रदायी सनिकर्षः-सम्प- मूलस्कन्धसमन्धितः । एष वृक्ष इति शेयो , विपरीतस्तपर संहिता, एषा संहिता सा विधा-लौकिकी, लोको- तोऽन्यथा ॥१॥" सरा च । तत्र लौकिकी-यथा धूमकेतुरिति, यथा इति प.
- तदभावेनदम्, धूम इति पदम् , केतुरिति पदम् ।
तदभावे न दुमत्तिय, तदभावे वि स दुमत्तिय परमा। तिपय जह मोवम्मे, धूमाभिभवे केउउस्सए अत्थो।।
तग्गुणलद्धी हेऊ, दिलुतो होइ रहकारो ॥३१॥ कोऽसु ति अग्गि उत्ते,किलक्खणो दहणपयणाई।३०६। यदि पत्राद्युपेतो तुमस्ताहि तदा परिशटितपाण्डपत्रायथा धूमकेतुरिति संहिता । तत्र त्रिपदम् , सम्प्रति पदा- दिर्बुमो भवति, तदा तस्याशुमत्वं प्रामोति, एषा चार्थ उच्यते-यथेत्यौपम्ये, धूम इति अभिभवे 'धू' विधूनने लना । अत्र प्रत्यवस्थानम्-तदभावेऽपि स हुम इति इति वचनात् , केतुरित्युच्छ्रये एष पदार्थः । धूमः केतुरस्ये-| 'प्रतिक्षा, तद्गुणलम्धित्वादिति हेतुः, दृष्टान्तो रथकारः, यति धूमकेतुरिति पदविग्रहः । कोऽसाविति चेत्-अग्निः, ए- थाहि-रथकारस्य रथकरणे प्रयत्नमकुर्वाणस्यापि रथबमुक्के पुनराह-स किंलक्षणः? त्रिराह-दहनपचनादिः-| कर्तुत्वं तद्गुणलब्धित्वात् । एवं परिशटितपाण्डपत्रस्यापि दाइनपाचनप्रकाशनसमर्थोऽर्चिष्मान् ।।
द्रुमस्य तद्गुणलब्धेरनिवृत्तत्वादव्याहतं द्रुमत्वमिति । अत्र चालनां प्रत्यवस्थानं चाऽऽह
_ सम्प्रति मतान्तरेणान्यथा व्याख्यालेक्षणमाहजइ एव सुत्तसावी-गाइ वी होंति अग्गिमक्खेवो। सुत्तं पयं पयत्थो, पयनिक्लेवो य निमयपसिद्धी । न वि ते भग्गि पहना,कसिणग्गिगुणनियो हेऊ ।३०७।। पंच विगप्पा एए, दो सुत्ते तिमि भत्थम्मि ॥३११।। दितो घडगारो, न वि जे उक्खेवणाइतकारी। प्रथमतोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् , ततः जम्हा जहुत्तहेउ-समनिओ निगमणं अग्गी ॥३०॥।
पदम्-पदच्छेदो विधेयः , तदनन्तरं पदार्थः कथनीयः,
ततः पदनिक्षेपः-पदार्थनोदना , तदनन्तरं निर्णयप्रसियदि नाम-दहनपचनादिस्तहि शुक्तिसौवीरकादयोऽपि दह
शि:-निर्णयविधानम् , पदनिग्रहः पदार्थे ऽन्तर्भूतः । एवमेते न्ति, करीपादयोऽपि पचन्ति, ज्योतमणिप्रभृतयोऽपि प्र
पञ्च विकल्पाः व्यास्थायां भवन्ति । अत्र-सूत्रम् पदमिति काशयन्ति ततस्तेऽप्यनिर्भवितुमर्हन्ति एष आक्षेपः-चालना।
द्वौ विकल्पी सूत्रे प्रविष्टौ , प्रयः-पदार्थाः तदापनिल अत्र प्रत्यवस्थानमाह-नैव शुक्त्यादयोऽग्निर्भवम्तीति प्रति
यः प्रसिद्धधात्मकः अर्थ इति । वृ०१ उ०१ प्रक० । शा, कृत्स्नगुणसमन्वितत्वादिति हेतुः, रष्टान्तो घटकारः ।
अथ पदस्य किं परिमाणमत आहयथाहि-घटकर्ता मृत्पिण्डदण्डचक्रसूत्रादेकप्रयत्नहेतुकस्य घटस्य कात्स्र्नेनाभिनिर्वर्तकाभिनिवृत्तस्य चोत्क्षेपणोद्ध
अत्थवसा हवइ पयं, अत्थो इच्छियवसेण विनो। हनसमर्थो यथाऽन्ये पुरुषाः, न च ये घटस्योत्क्षेपणादय
इच्छा य पकरणवसा, पगरणभों निच्छमो समत्थे । स्तत्कारी घटस्याभिनिर्वर्तक एवमत्राऽपि । यो दहति प- यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदमतोऽर्थवशाद्भवति पदम् , अर्थस्य चति प्रकाशयति च, यथा-स्वगतेन लक्षणेन साधारणः
किं प्रमाणमत आह-अर्थ ईप्सितवशेन विशेयः, इच्छास एव यथोक्तहेतुसमन्धितः परिपूर्णोऽग्निर्न शुक्त्यादय इति याः किं प्रमाणमत पाह-दच्छा च प्रकरणयशात्-प्रकारनिगमनम् ।
गानुरोधत इच्छायाः प्रमाणाम् , प्रकरणस्य च निश्चयः शा___ सम्प्रति लोकोत्तरे संहितादीनि दर्शयति
खे-शास्त्रानुसारतः। गतं लक्षणद्वारम् । वृ०१ उ०१ प्रक० । उत्तरिऍ जह दुमाई, तहत्थ हेऊ अविग्गहो चेव ।
नामस्थापनाद्रव्यभावैरपि व्याख्या भवति। तथा चाह
" संहितादिर्यतो व्याख्या-विधिः सर्वत्र रश्यते । को पुण दुम त्ति वुत्तो, भस्मइ पत्ताइउववेभो ॥३०॥
नामादिविधिनाऽऽरम्धु, न व्याख्या युज्यते ततः ॥१॥ लोकोत्तरे- 'जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो प्रावियह रस'इति।
इत्याहुरपि भाव्यैव , स्याद्वादं वादिनोऽपरे । संहिता । अस पदानि-यथा इति, हुम इत्ति, पुष्पेविति,
यत्तदत्र निराकार्यन्माचक्षाणेन तद्विधिम् ॥२॥ भ्रमर इति, आपिवतीति,रसमिति । अधुना पदार्थ उच्यते
स्थादस्तीत्यादिको वादः , स्याद्वाद इति गीयते। यथेति-ौपम्ये, द गती, द्रवति गच्छति अध उपरि चे
नयो न च विमुच्यायं , द्रव्यपर्यायवादिनी ॥३॥ ति द्रुमः, औणादिको मक्प्रत्ययः, तस्य द्रुमस्य, पुष्प विक
अतश्चैतद् द्वयोमेतं , स्वं मतं समुदाहृतम् । सने, पुष्पन्ति-विकसन्तीति पुष्पाणि अन् तेषु, भ्रम सञ्जाततत्त्वसंविद्भिः, स्याद्वादः परमेश्वरैः ॥४॥ अनवस्थाने भ्राम्यति निरन्तरमिति भ्रमरः औणादिकोऽरः ते हि तीर्थविधौ सर्वे , मातृकास्य पदत्रयम् । प्रत्ययः, पा पाने मार मर्यादायामभिषिधौ चा, तस्य
उत्पत्तिविगमनौव्य-ख्यापकं संप्रचक्षते ॥५॥ तिपि प्रापिवतीति रूपम् , रस आस्वादने, रस्यते पाखाच- उत्पत्तिविगमावन्न , मतं पर्यायवादिनः। ते इति रसः कर्मण्योणादिकोऽकारप्रत्ययस्तम्, अत्र व्यार्थिकस्य तु धौव्यं , मातृकास्यपदत्रये ॥६॥ व्यस्तपदत्वाद्विग्रहाभावः । तथा चाह-' तत्थहेऊ अ- द्रव्यत्वमन्वयित्वेन, मृदो यबबटाविषु । विग्गोव' तेषां पदानामर्थस्य हेतुरविग्रह एव, न वि- तबद्देशान्वयित्वेन , नामस्थापनयोरपि ॥७॥ महारेशात्र पदार्थ इत्यर्थः, अत्र चालना । नोदक पाह-कः अन्वयित्वं तु सर्वत्र , सङ्केताबास उच्यते । कोनाचो म उक्तः, सूरिराह भएयते-पायुपेतः-| स्थापनायाश्च तद्रुप-क्रियातो बुद्धितोऽपि वा ॥८॥
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(७८९) यक्रवाण अभिधानराजेन्द्रः।
वक्रवाण तनामस्थापनाद्रव्य-निक्षेपैरनुवर्तितः ।
आगमिअमागमेणं, जुत्तीगम्मं तु जुत्तीए । ६६१ ॥ द्रव्यार्थिकनयो भाव-निक्षेपादितरः पुनः ॥६॥
अथ व्याख्यानयितव्यं किमपि श्रुतं कथमित्याहतथा च महामतिः--
यथा यथा श्रोतुरवगमो भवति परिक्षेत्यर्थः, तत्रापि स्थितितित्थयरवयणसंगह-विवेगपत्थारमूलघागरणी ।
माह-आगमिकं वस्त्वागमेन, यथा-स्वर्णोऽप्सरसः, उसराः दयट्टिो वि पज्जव-नो य सेसा वियप्पासिं ॥१०॥ कुरव इत्यादि, युक्तिगभ्यं पुनर्युक्त्येव, यथा-देहमात्रपरिणातथा
म्यात्मत्यादीति गाथार्थः। नामं ठवणा दविय-त्ति एस दवट्टियस्स निफ्खयो ।
किमित्येतदेवमित्याहभाव त्ति पजवट्टिय-परूवणा एस परमत्थो ॥११॥
जम्हा उ दोण्ह वि इह, भणि पनवगकहणभावाणं । यद्वा किन्नः किलैताभ्यां, कित्वेष विधिराश्रितः।
लक्खणमणघमएहिं, पुवायरिएहि आगमतोहह२॥ यद्व्याख्या वस्तुतत्त्वस्य, बोधायैव विधीयते ॥ १२ ॥
यस्माद् द्वयोरप्यत्र-प्रवचने भणितं प्रज्ञापककथनभावतच्च नामादिरूपेण, चतूरूपं व्यवस्थितम् । नामाघेकान्तवादाना-मयुक्तन्वेन संस्थितः॥१३॥ उत्त०
योः पदार्थयोरित्यर्थः, लक्षण-स्वरूपम् , कैरिस्याह-अनघमपाई०११० । नयाः व्याख्यानाङ्गानि-“ऐन्दवीव विमला
तैः-अवदातबुद्धिभिः पूर्वाचायः, कुत इत्याह-आगमान तु कलाऽनिशं, भव्यकैग्वविकाशनोद्यता। तन्वती नयविवेक
स्वमनीषिकयैवेति गाथार्थः। भारती भारती जयति विश्ववेदिनः" ॥१॥ नयो०। (अत्र
किं भूतं तदित्याहविशेषः ‘णय' शब्दे चतुर्थभागे १८५३ पृष्ठ गतः ।)
जो हेउँवाश्रो पक्ख-म्मि हेउप्रो आगमे अप्रागमिभो। सूचे विगृहीतेऽर्थों व्याख्येयः
सो समयपरमवओ, सिद्धंत विराहो अलो ।। ६६३ ॥ संबंधो दरिसिजइ, उस्सुत्तो खलु न विजते भत्थो। । यो हेतुवादः पते युक्तिगम्ये वस्तुनि हेतुको हेतुना चरति, उच्चारितछिम्मपदे, विग्गहिए चेव अत्थो उ ॥ १४॥ श्रागमे चागमिका न तत्रापि मतिमोहनी युक्तिमाह । 'स' सूत्रे उच्चारिते सति सम्बन्धोऽनन्तरसूत्रादिभिः सह एवंभूतः स्वसमयप्रज्ञापका भगवदनुमतः, सिद्धान्तविरोदय॑ते , यतः-संवन्धोऽर्थतो भवति वर्णानां स्वतः संबन्धा-1
धकोऽन्यः तल्लाघवापादनादिति गाथार्थः।। भावात् । स चार्थः स्खलु उत्सूत्रः-सूत्ररहितो न विद्यते, सं- प्राणागिझो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयन्वो। बन्धे चौपदर्शिते, उच्चारितसूत्रस्य छिन्नानि पदानि कर्त-1 दिलृतिअदिद्रुता, कहणविहिविराहणा इहरा ॥६६४ ॥ व्यानि, पदच्छेदा विधातव्य इत्यर्थः । ततो यानि पदानि श्राक्षाग्रायोऽर्थः--आगमग्राह्यः प्राशयवासौ कथयितव्यः विग्रहभाञ्जि तेषु विग्रह उपदर्श यः । विगृहीते च सूत्रतोऽ श्रागमेनैवेत्यर्थः । दाान्तिको 'दृष्टान्तात् 'राम्तेन कथनर्थो व्याख्येयः । व्य०५ उ० ।
विधिरेष सूत्राथें । विराधनेतरथा कथनेनास्येति गाथार्थः । गुरुणा यथा व्याख्यातव्यं तदाह
तो आगमहे उगयं, सुअम्मि तह गोरवं जणंतणं । सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणियो।
उत्तमनिदंसणजुश्र, विचिसणयगम्भमारं च ॥६५॥ तइयो य निरवसेसो,एस विही होइ अणुओगे॥५६६॥ तत्तस्मादागमहेतुगतं--यथाविषयमुभयोपयोगेन व्याख्यासूत्रस्याऽर्थो यत्रासौ सूत्रार्थः । खलुरवधारण । ततश्च नं कर्तव्यमिति योगः श्रुते, तथा गौरवं जनयता--न यथा सूत्रार्थ एव-सूत्रार्थमात्रप्रतिपादनपर एव प्रथमः-प्रथमवा- तथाभिधानं न हेयबुद्धिं कुर्वता, तथा उत्तमनिदर्शनयुतम् रायामनुयोगो गुरुणा कर्तव्यः , द्वितीयस्तु-द्वितीयवा- अहीनोदाहरणवत् , तथा विचित्रनयगर्भसारं च निश्चयाचन रायां सूत्रस्पर्शकनियुक्तिमिश्रक कर्तव्यतया भणित- कनयार्थप्रधानमिति गाथार्थः । स्तीर्थकरगणधरैः । तृतीयस्तु-तृतीयवागयां प्रसक्लानुप्र- भगवंते सव्वले, तप्पञ्चय-कारिगंभीरसारभणिईहिं । सलमप्युच्यते यस्मिन् स एवंलक्षणो निरवशेषो भणितः ।।
संवेगकर निअमा, वक्खाणं होइ कायव्वं ॥ ६ ॥ एष उक्कलक्षणो विधान-विधिर्भवति । क्व ? इत्याह, सूत्रस्य
भगवति--सर्वशे तत्प्रत्ययकारिता--सर्वक्ष एवमाहेत्येवनिजनाभिधेयेन सार्द्धमनुकुलो योगोऽनुयोगः सूत्रस्यार्थायाख्यानमित्यर्थः तस्मिन्ननुयोग-अनुयोगविषये इति
गम्भीरसारभरितिभिः न तुच्छग्राम्योक्तिभिरिति संवेगकरं नियुक्तिगाथार्थः । विशे० । उक्तलक्षणो विधिर्भवत्यनुयो
नियमाच्योतृणामौचित्येन व्याख्यानं भवति कर्तव्यं नान्य
थेति गाथार्थः । गव्याख्यायाम् , अाह परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्तम् , त्रयश्चा
एतदेवाह-- नुयोगप्रकारास्तदेव कथम् ? उच्यते-त्रयाणामनुयोगप्रकारा
होति उ विपयजम्मि, दोसा एत्थं विपञ्जयादेव । णामन्यतमेन केनचित् प्रकारेण भूयो भूयो भाव्यमानेन ससवार श्रवण कार्यत ततो न कश्चिद्दोषः, अथवा-कंचिन्मन्द
ता उवसंपन्नाणं, एवं चित्र बुद्धिमं कुज्जा |६६७॥ मतिविनेयमधिकृत्य तदुक्तं द्रष्टव्यम् , न पुनरष एव सर्व
भवन्ति तु विपर्यये-अन्यथाकरणे दोषाः अत्र, कुत इत्याश्रवणविधिनियमः, उद्घटिततज्ज्ञविनेयानां सकृचश्रवणत
ह.-पद्विपर्ययादेव कारणात् तत्तस्मादुपसंपनानां सतां एवाशेषग्रहणदर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन । श्रा० म०१०।। शिष्याणामेव यथोकवुद्धिमान् कुर्या व्याख्यानमिति गाथार्थः। यथा व्याख्यानयितव्यं नथाह
कालादन्यथाकरण अदोषाशको परिहरनाहअह वक्खाणेअव्वं, जहा जहा तस्स अवगमो होड़। । कालो वि वितह करणे, णगंतणह होइ सरणं त ।
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पापा
बक्खाण अभिधानराजेन्द्रः।
वक्रवाण सहि एमम्मि वि काले,विसाइ सुहयं प्रमंतजुराह|| नासभे नाइदूरे, गुरुवयणपडिच्छगा होंति ॥१००५॥ कालोऽपि वितथकरणे-विपरीतकरखे नैकान्तन इह-प्रक्रमे
___ सर्वेऽपि च भूयः कायोत्सर्ग कुर्वन्ति अनुयोगप्रारम्भार्थ भवति शरणमेव , कुत इत्याह-न तस्मिन्नपि काल
तत्समाप्तौ च सर्वे पुनरपि वन्दन्ते गुरुमेव ज्येष्ठार्यमिति । दुःषमालक्षणे विषादि प्रकृतिदुष्टं तत्सुखदममन्त्रयुतं तु भ
अन्य तदनु नासन्ने नातिदूरे गुर्ववग्रहं विहाय गुरुवचनवतीति गाथार्थः।
प्रतीच्छका भवन्त्युपयुक्ता इति गाथार्थः । पं० २०४द्वार ।
(श्रवणविधिम् 'सवण' शब्द वक्ष्यामि) एत्थं च वितहकरणं, नेनं पाउद्दिा उ सव्वं पि। पायं विसायतुल्लं, प्राणाजोगो अ मंतसमो || ६६६ |
वक्खाणसमत्तीए, जोग काऊण काइआईणं । अत्र च प्रक्रमे वितथकरणं यमाकुहिकयोपेत्यकरणेन
वंदंति तो जिद्वं, अम्म पुवचित्र भणंति ॥ १००६ ।। सर्वमपि पापं निघ्नं विषादितुल्यं विपाकदारुणत्या
व्याख्यानसमाप्तौ सत्यां किमित्याह-योग कृत्वा कायिकादाहायोगश्च-सूत्रव्यापारश्च अत्र मन्त्रसमः तदोषाप
दीनामादिशब्दाद्-गुरुविश्रमणादिपरिग्रहः, वन्दन्ते ततो नयनादिति सूत्रार्थः।
ज्येष्ठ-प्रत्युचारकं श्रवणाय अन्ये पूर्वमेव भणन्ति; यदुतादाउपसंहरबाह
वेव ज्येष्ठ वन्दन्त इति गाथार्थः। ता एमम्मि वि काले, प्राणाकरणे अमूढलक्खेहिं । । चोएइ जइ उ, जिद्दो, कहि, वि मुत्तत्थधारणाविकलो। सत्तीए जइभवं, एत्थ विही हंदि एसो अ॥१०००॥ वक्खाणलद्धिहीणो, निरत्थयं वंदणं तम्मि ॥१०१०॥ यस्मादेवं तस्मादेतस्मिन्नपि काले-दुःषमारूपे अाशाकरणे | चोदयति कश्चिद्-यदि तु ज्येष्ठः पर्यायवृद्धः कथंचित्सूत्रार्थसौतविधिसंपादन अमूढलः सद्भिःशक्त्या यतितव्यमुपसं- | धारणाविकलो जडतया कर्मदोषात्ततश्च व्याख्यानलब्धिपदादौ, अत्र विधिरेष व्याख्यानकरणे, हंदीत्युपप्रदर्शने एष हीनोऽसौ वर्तते, एवं च निरर्थकं वन्दनं तस्मिन्निति गाथार्थः । च-वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः। .
अह वयपरिआएहिं, लहुगो वि हु भासगो इहं जिट्ठो। मजणनिसिज्जअक्खा, किइकम्मुस्सग्गवंदणं जितु।। रायणियवंदणे पुण,तस्स वि आसायणा भंते॥१०११॥ भासंतो होइ जिट्ठो,न उ परिमाएण तो वंदे ॥१००१॥ अथ वयापर्यायाभ्यां लघुः यदि कश्चिद्भाषक इह ज्यष्टा मार्जनं व्याख्यास्थानस्य, निषद्या-गुर्वादेः, अक्षाः-वन्दनका | गृह्यते, रत्नाधिकं वन्दते पुनस्तस्यापि लघोः पाशातना भउपनीयन्ते । कृतिकर्म-वन्दनमाचार्याय कायोत्सर्गोऽनुयोगार्थ । दन्त ! भवतीति गाथार्थः। वन्दनं-ज्येष्ठविषयमिह भाषमाणो भवति, ज्येष्ठः न तु पर्या
अत्राहवेण ततो वन्देत तमेवेति गाथार्थः ।
जइ वि वयमाइएहिं, लहुओ सुत्तत्थधारणापडयो। व्यासार्थ त्वाह
वक्खाणलद्धिमं जो,सो च्चि इह धिप्पई जिहो ।१०१२॥ ठाणं पमजिऊणं, दोन्नि निसिज्जाउ होंति कायव्वा ।।
यद्यपि वयादिभिः-बयसा पर्यायेण च लघुकः सन् सूत्रा
र्थ-धारणापटुर्दक्षः व्याख्यानलब्धिमान् यः कश्चित्स पवह एका गुरुणो भगिमा, बीमा पुण होइ अक्खाण।१००२।
प्रक्रमे गृह्यते ज्येष्ठः, न तु वयसा पर्यायेण वेति गाथार्थः । स्थानं प्रमृज्य व्याख्यास्थानं वे निषधे भवतः कर्तव्य स
पासायणावि नेवं, पडुच्च जिणवयणभासगं जम्हा। म्यगुचितकल्पैस्तत्रैका गुरोमणिता निषीदननिमित्तम् , द्वि. तीया पुनर्भवति मनागुच्चतरा अक्षाणां समवसरणोपल
वंदणगं रायणिो ,तेण गुणेणं पि सो चेव ।। १०१३॥ क्षणमेतदिति गाथार्थः।
आशातनाऽपि नैवं भवति प्रतीत्य जिनवचनभाषकं यविधिशेषमाह
स्माद्वन्दनकं तद्रत्नाधिकस्तेन गुणेनापि भाषणलक्षणेन स
एवेति गाथार्थः । दो चेव मत्तगाई, खले काइअसदोसगस्सुचिए ।
पतदेव भावयतिएवंविहो वि पिच्चं,वक्खारिज त्ति भावत्थो॥१००३।।
ण वो एत्थ पमाणं,ण य परिश्रामो उनिच्छयणएणं। द्वे एव मात्रके भवतः, श्लेष्ममात्रकं, कायिकमात्रकं च। सदोषकस्य गुरोर्न सर्वस्य, उचिते भूभागे भवतः। ऐदंपर्यमा
ववहारओ उ जुज्जइ, उभयशयमयं पुण पमाण।१०१४ ह-एवंविधोऽपि सदोषः सन्नित्यं स व्याख्यानयेदिति प्र
न वयोऽत्र प्रक्रमे सामान्यगुणचिन्तायां वा प्रमाणम् , न च स्तुतभावार्थ इति गाथार्थः।।
पर्यायोऽपि प्रव्रज्यालक्षणः निश्चयनयमतेन व्यवहारतस्तु
युज्यते । वयः पर्यायश्च । उभयनयमतं पुनः प्रमाणं सर्वत्रमावावो उ सुणंती, सब्वे वि हु ते तो अउवउत्ता। वेति गाथार्थः। पडिलेहिऊण पोति, जुगवं वंदंति भावणया ॥१००४॥
यतःभावतः शृण्वन्ति व्याख्यानं सर्वेऽपि साधवः सर्वेऽपि ते| निच्छयो दुख्ने, को भावे कम्मि वट्टई समणो । ततश्च तदनन्तरमुपयुक्ताः सन्तः प्रत्युपेक्य पोति तथा कार्य ववहारमो उकीरइ,जो पुवठिो चरित्तम्मि॥१.१५॥ व युगपद्वन्दन्त गुरु नावषम भावनताः सन्त इति गाथार्थः। निश्चयतो दुर्विोयमेतत्को भाव कस्मिन् शुभाशुभतरादी सब्वे विउ उस्सग्गं, करिति सम्बे पुखो वि वंदंति। वर्तते श्रमणस्ततश्चाकर्तव्यमेतत्प्रामाति, व्यवहारतस्तु
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( ७८३) अभिधानराजेन्द्रः ।
वक्खाण
वक्स्वारपब्वय
·
क्रियत एवैतद्यः पूर्वमादौ स्थितश्चारित्रे आदी प्रवजित श्रात्यन्तिकै कान्ति काना बाध सुखक्षायिकज्ञानदर्शन संपदुपेते इति गाथार्थः । वट्टमग्गं वक्वायरते सब्वे सरा खियति तक्का जत्थ स विज्जति " आचा० १ ० ५ ० ६ उ । वक्खार-वचार- पुं० । अपवरके, व्य० ६ उ० । वक्खारपव्वय - व (चार) चस्कारपर्वत - पुं०। वक्षसि मध्ये गोप्यं क्षेत्र द्वौ संभूय कुर्वन्तीति वक्षस्काराः । तज्जातीयो ऽयमिति वक्षस्कारपर्वतः । गजदन्तापरपर्याये पर्वते, जं० ४ ब
युक्तं चैतदित्याह
ववहारो विहु बलवं, जं उमत्थं पि वंदई अरहा । जा होई अणाभिन्नो, जाणंतो धम्मयं एयं ॥ १०१६ ।। व्यवहारोऽपि निश्चयेन बलवान् वर्त्तते यत् छद्मस्थमपि सन्तं चिरप्रवजितं वन्दते अन् केवली, यावद्भवत्यनभिज्ञः स चिरप्रव्रजितः, जानानो धर्मतामेनाम् व्यवहारगोचरामिति गाथार्थः ।
यद्येवं कः प्रकृतोपयोग इत्याहएत्थ उ जिणवयणाओ, सुत्तासायणबहुत्तदोसाओ । भासंति जिट्ठगस्स उ, कायन्त्रं होइ किइकम्मं ॥ १०:७॥ अत्र तु ' जिनवचनाद् ' ' भासम्तो' होती ' त्यादेः सूत्रात् सुत्राशातनायां दोषबहुलत्वात्कारणाद्भाषमाणज्येष्ठस्यैव कव्यं भवति- 'कृतिकर्म्म' वन्दनं नेतरस्येति गाथार्थः । व्याख्येयमाह
वक्खाणेव्वं पुण, जिणवयणं गंदि माइसुपसत्थं ।
जं जम्मि जम्मि काले, जावइयं भावसंजुतं ॥ १०८ ॥ व्याख्यानयितव्यं पुनस्तेन जिनवचनं, नान्यत् । नन्द्यादि, सुप्रशस्तं संवेगकारि, यत् यस्मिन् यस्मिन् काले यावत्प्रचरति ' भावसंयुक्तं भावार्थसारमिति गाथार्थः ।
सिस्से वा णाऊणं, जोग्गयरे केइ दिट्टिवायाई ।
तत्तो वा निज्जूढं, सेसं ते चैव विभरंति ॥ १०१६ ॥ शिष्यान् वा शात्वा योग्येतरान् कांचन दृष्टिवादादिव्याख्यानयितव्यम्, ततो वा दृष्टिवादादेः निर्यूढमाकृषं शेषं नन्द्यादि, त एव योग्याः वितरन्ति तदन्येभ्यो ददतीति गाथार्थः ।
निर्यदलक्षणमाह
सम्मं धम्मविसेसो, जहि य कसच्छे तावपरिसुद्धो । निज्जूढं, एवंविहमुत्तमसुनाइ ॥। १०२० ॥
सम्यग् धर्मविशेषः - पारमार्थिकः यत्र - प्रन्थरूपे कपच्छेदतापपरिशुद्धः त्रिकोटीदोषवर्जितः वर्ण्यते सम्यक निर्यूहमेवंविधं भवति, ग्रन्थरूपं तचोत्तमश्रुतादि, उत्तमश्रुतं स्तवपरिक्षा इत्येवमादीति गाथार्थः ॥ पं० व० ४ द्वार । (श्रोतृणामभावेऽपि व्याख्यानं दातव्यमिति ' अणुश्रोग' शब्दे प्रथमभागे ३५१ पृष्ठे गतम् । ) व्याख्यानानं च व्याख्यानविधिः - अनुयोगेऽन्तर्भवति । विशे० । वक्खाणविहि-व्याख्यानविधि - पुं० | व्याख्यानस्य विधिः व्याख्यानविधिः । शिष्याचार्यपरीक्षाभिधाने, श्रा० म०१ अ० बक्खाणेयव्व-व्याख्यानयितव्य- न० । कर्त्तव्ये व्याख्याने,
पं० व० ४ द्वार । बक्खायरय - व्याख्यातरत- पुं० । विविधम् - श्रनेकप्रकारं प्र धानपुरुषार्थतयाऽऽरण्धशास्त्रार्थतया तपः संयमानुष्ठानार्थस्वेन श्राख्यातो व्याख्यातो मोक्षः श्रशेषकर्मक्षयलक्षला विशिष्टाकाशप्रदेशास्यो वा तत्र रतौ व्याख्यातरतः ।
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क्ष० । च० प्र० ।
मेरोईक्षिले द्वौ वक्षस्कारी
जंबूदरस्स पव्वयस्स दाहिणेयं देवकुराए पुब्वावरे पासे एत्थ णं श्रसक्खंघगसरिसा अद्धचंदसंठाखसंठिया दो वक्खारपव्वया पद्मत्ता, तं जहा - बहुसमा • जाव सोमणसे चैव विज्जुप्पभे चैव । जंबूमंदरस्स उत्तरे उत्तरकुराए पुव्वावरे पासे एत्थ से प्रसक्खंधगसरिसा श्रद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वया पात्ता, तं जहा - बहुसमतुल्ला० जाव गंधमायो चेव मालवंते चैव । ( सू०-८७ X )
'जंबू' इत्यादि 'पुव्वावरे पासे' ति पार्श्वशब्दस्य प्रत्येकं सस्बन्धात् पूर्वपार्श्वे च किंभूते ?--' एत्थ ' सि प्रज्ञापकेनोपदर्श्यमानेन क्रमेण सौमनसविद्युत्प्रभौ प्रज्ञप्तौ किं भूतौ ?, अश्वस्कन्धसदृशावादी निम्नौ पर्यवसाने उन्नतौ, यतो निषधसमीपे चतुःशतोच्छ्रितौ मेरुसमीपे तु पञ्चशतोच्छ्रिताविति । श्राह च
घासहर गिरिं तेणं, रुंदा पश्चेव जोयखसयाई । चसारि सउग्विद्धा, श्रोगाढा जोयणाण सयं ॥ १ ॥ पञ्चसप उग्विद्धा, प्रगाढा पंच गाउयसयाई ।
गुल संखभागा, वित्थिन्ना मंदरतेणं ॥ २ ॥ वक्वारपव्वयाणं, श्रायामो तीसजोयणसहस्सा । दोनि सया य नवहिया, छच कलाभो चउरहं पि ॥ ३ ॥ इति, 'अवद्धचंद' त्ति अपकृष्टमर्द्ध चन्द्रस्यापार्यचन्द्रस्तस्य यत्संस्थानम् श्राकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः, तेन संस्थितायपार्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितौ, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति कचित्पाठः, तत्रार्द्धशब्देन विभागमात्रं विवक्ष्यते, न तु समप्रविभागतेति ताभ्यां चार्द्धचन्द्राकारा देवकुरवः कृताः, अत एव वक्षाराकारक्षेत्रकारिणौ पर्वतौ वक्षारपर्वताविति 'जम्बू' इत्यादि तथैव नवरमपरपार्श्वे गन्धमादनः पूर्वपार्श्वे माल्यवानिति । स्था० २ ठा० ३ उ० । ( एकशैलवक्षस्कारकूटषक्तव्यता ' एगसेलकूड ' शब्दे तृतीयभागे ३१ पृष्ठे गता । )
जम्बूद्वीपे सीताया उभयकूलेजम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेवं सीमाए महाखईए उत्तरकूले चचारि वक्खारपन्त्रया पत्ता, जहा - चित्तकूडे पम्हकूडे खलिखकूडे एगसेले । जम्बूदीवे दीवे मंदरपुरत्थिमेवं सीमाए महाबईए दाहिलकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पता । तं जहा-तिकडे वेसमणकूडे जसे मायंजखे । ( सू० ३०२ X )
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बक्वारपब्वय अभिधानराजेन्द्रः।
वक्रवारपवय सीतोदाया उभयकूले
पुरच्छिमे णं सीयाए महाणदीए उत्तरे णं पञ्च वक्वारजंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पञ्चत्थिमे णं सीमाए | पव्वया परमता, तं जहा-मालवंते एवं जहा जम्बुद्दीचे महाणईए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्यया पसत्ता, तं तहाजाव पोक्खरवरदीवड्रपच्चत्थिमद्धे वक्खारा । ( मू० जहा-अंकावई पम्हावई आसीविसे सुहावहे । जंबूदीवे ४३४४) स्था० ५ ठा० २ उ० । दीवे मंदरस्स पञ्चत्थिमे णं सीओआए महाणईए उत्तरे
सीताया उभयकूलकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पामत्ता, तं जहा-चंदपव्वए
जम्बुद्दीवे दीवेमंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए सूरपब्बए देवपव्वए णागपव्यए । (सू०-३०२४)
महानईए उभया कूले दस वक्रवारपव्वया पगणना,
तं जहा---मालवंते चित्तकूडे विचिनकडे भकूडे जाय मन्दरस्य चतुर्दिक्षुजंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स चउसु वि दिसासु चत्तारि
सोमणसे । जंबूमदरस्स पच्चधिमे णं सीआयाए महानईवक्खारपब्बया पलत्ता, तं जहा-सोमणसे विज्जुप्पभे गंध
ए उभी कूले दस पक्खारपब्बया पण्णता, तं जहा-- मापणे मालवंते । (सू०-३०२+) स्था०४ ठा०२ उ०॥
विज्जुप्पभ० जाव गंधमायण | एवं धायइखंडपुरच्छिमद्ध जम्बूद्वीपे सीताया महानद्याः
वि वक्खारा भाणियन्वाजाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चत्थिमजम्बूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए |
द्धे । (सू०-७६८) स्था० १० ठा० ३ उ०। महानदीए उत्तरे णं पश्च वक्खारपव्वया पसत्ता,तं जहा
सर्वेषां वक्षस्काराणामुच्चत्वादि
सव्वे वि णं वक्खारपव्यया सीआसीआओ महानईओ मालवए चित्तकूडे पम्ह कूडे णलिणकूडे एगसेले(मू-४३४+) सीताया दक्षिणे
मंदरपव्वयंते णं पंच पंच जोयणसयाई उट्टे उच्चत्तेणं पंच जंबूमन्दरस्स पुरओ सीयाए महाणदीए दाहिणे णं पंच |
पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं परमता । (मू० १०Ex) .. वक्खारपब्बया परमत्ता, तं जहा-तिकूडे वेसमणकूडे अंज
'सव्व वि णं वक्वारे' त्यादि शीतादिनदीप्रत्यासत्ती मरु
प्रत्यासत्तौ च पञ्चशतोच्चा इति, तथा-( स० ) तत्र वर्षथे मायंजणे सोमणसे । (खू०-४३४ +)
धरकूटानि शतद्वयमशीत्यधिकम् कथम् ? "लहुहिम हिमय सीतोदाया उभयकुले
निसढे, एक्कारस अट्ठ नव य कृडाई । नीलाइसु तिसु नवजंबृमंदरस्स पञ्चत्थिमेणं सीओयाए महाणईए दाहिणे णं गं, अट्टकारस जहासंख ॥ १ ॥ " एनयां च पञ्च गुगणपंच वक्खारपब्बया पसना, तं जहा-विज्जुप्पभे अंका
त्यात् वक्षस्कार कृटानि स्वीत्यधिकचतुःशतीसंख्यानि ।
कथम् ? " विज्नुपहमालयंत. नव नव संसमु मन संनय । वई पम्हाई आसीविसे सुहावए । जंबूमंदरस्स पञ्चत्थिमे णं
सालसवक्षारसु,चउरो चउरी य कृडाई" ॥१॥ चत्वारिसीभोयाए महाणईए उत्तरे णं पञ्च वक्खारपव्वया पणत्ता, एतेषां पश्चगुणत्वात् , पश्चगुणत्वं च जम्बूद्वीपादिमरूपलतं जहा-चंदपव्यए सूरपन्चए णागपव्वए देवपचए गन्ध
तितक्षत्राणां पञ्चत्वात् ,सारायतानि पञ्चशताच्छितानि । एवं
मानुषोत्तरादिष्वपि, वैनाट्यकृटानि तु सक्रोशषड़योजनोमायणे । (सू०४३४+)
च्छ्याणि,वर्षकृटानि तु ऋषभ कूटादीन्यष्ट योजनोच्छितानीकराव्यश्चायं नवरं मालवन्तो गजदन्तकात् प्रदक्षिणया
ति,हरिकृटहरिसहकूटवर्जन विह तयोः सहस्रोच्छायत्वाद् । सूत्रचनुभयोला विंशतिर्वक्षस्कारगिरयोऽयगन्तव्या इति । |
आह च-"विज्जुष्पभहरिकृडो, हरिस्सहो मालवंतवक्खार । स्था०५ ठा०२ उ०।
नंदणवणवलकडो, उब्बिद्धा जायणसहस्सं ॥१॥" जम्बूद्वीपे सीताया नद्या उभयतटे
अथोच्चत्वादिकमाहजम्बूमंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए महानईए सोमणसगंधमादणविज्जुप्पभमालवंताणं वक्खारपबउभयतो कले भद्र वक्खारपव्वया परमत्ता, तंजहा-चित्तक- या
याणं मंदरपव्ययंतेणं पंच पंच जोयणसयाई उई उच्चत्ते
ने जो हे पम्हकूडे नलिणकूडे एगसेले तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे | णं पंच पंच गाउयसयाई उव्हेणं पण्णत्ता, सव्वे वि शं मायंजखे । (सू०-६२७+)
वक्खारपचयकूडा हरिहरिसहकूडवजा पंच पंच जोयणसीतोदाया उभयकूले
सयाई उड्डे उच्चत्तेणं मूले पंच पंच जोयणसयाई प्रायामअंडूमंदरस्स पञ्चत्थिमे णं सीओयाए महाणईए उभयतो |
विक्खंभेणं परमता । (मू०-१०८) स० ५०० सम। कूले भट्ठ वक्खारपव्वया परमत्ता, तं जहा-अंकावई पम्हा
शीतासीतोदे प्रति वक्षस्कारमाहबई पासीविसे सुहावहे चंदपव्वए सूरपब्बए नागपव्वए | सव्वे वि णं वक्खारपत्रया सीयासीओयाप्रो महाणईओ देवपधए । (५०-६३७ + ) स्था० ४ ठा० ३ उ०। । मंदरं वा पव्ययंतेणं पंच जोयणसयाई उड् उच्चत्तेणं पंच सीताया महानद्या उत्तर
गाउयसयाई उम्रहेण । (सू०-४३४४) पायालयडे दीवे पुरच्छिमदे णं मंदरस्स पव्ययस्स | 'सये विण' इत्यादि, सर्वेऽपि जम्बद्धीपादिसम्बन्धिनः
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(SK) अभिधानराजेन्द्र
वक्त्रारपत्र्यय
'तेरा ति ' शीताशीतोदे महानद्यौ प्रतीते लक्षणीकृत्य नदीदिशीत्यर्थः, मन्दरं वा मेरुं वा पर्व्वतं प्रति तदिशीत्यर्थः, तत्र मालवत्समनसविद्युत्प्रभगन्धमादनाः गजदन्ताकारप यता मेरुं प्रति यथोक्तखरूपाः, शेषास्तु वक्षस्कारपर्वता महानद्यौ प्रतीति । स्था० ५ ठा० २३० । बखत पाचित्रिकर्मणि
व्याकुले ०६
66
दृष्टान्ताश्च
० | धर्मकथादिना ( प्राय० ३ ० ) प्रयोजनान्तरोपयुक्ले, शा० १ ० २ श्र० । वखितचितेरा न डु नायं, सकुंडलं वा वयं न वत्ति " आचा० । वक्खेव व्यापेक्ष- पुं० | चित्तैकतानताविच्छेदे, व्य० । ( व्याक्षेपेण कार्यहानिप्रदर्शन तत्र रान्ताथ ग्रहसेस शब्दे ' प्रथमभागे २८ पृष्ठे उक्ताः । ) बग-वक पुं० । वकि - श्रच् । पृ० नलोपः । स्वनामख्याते विहग, स्वनामख्याते पुष्पवृक्षे, कुबेरे, राक्षसभेदे, यो भीमेन हतः । श्रौषधादिपाचनयन्त्रभेदे, श्रीकृष्णेन हते दैत्यभेदे, वाच० । अनन्तकायवनस्पतिभेदै, श्राचा० १ ० १ ०५३० । बृग-पुं० | शृगालाकृतौ हिंस्रजन्तौ श्र० म० १ श्र० । वगडा-वगडा - स्त्री० । परिक्षेपे, व्य० ६ उ० ।
अथ वगडाया निक्षेपः कर्त्तव्यः, तमेवातिदेशेनादएमेव होइ वगडा, चउब्विा सा उ बनिपरिखेचो | दब्वम्मि तिप्पगारा, भावे समयेहि भुज्जती ॥ ७ ॥ एवमेवोपापगडाऽपि नामादिभेदाच्चतुर्विधा भवति, तत्र व्ययगडा संवन्धी वृत्तिपरिशेषो मन्तव्यः सा च त्रिप्रकारा, तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता, मिश्रा च । इये त्रिमकाराऽपि यथा मासकल्पकृते इम्पपरिक्षेष उरतये
,
6
वग्गणा
वग्गंत वल्गत- त्रि० । वल्गनं कुर्बाणे, “ वग्गंततुरंगरहृपाfureमरमडा " वल्गनुरङ्गै रथैश्च प्रधाविताः वेगेन प्रधुसत्ता ये ते समरभटाश्चेति । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । वग्गचूलिया वर्गचूलिका स्त्री० वर्गोऽध्ययनानां समूहो थाऽसकृदशास्वष्टौ वर्गा इत्यादि तेषां चूलिका सांक्षेपिकदशानां प्रथमे अध्ययने तत्कालिक स्था० १० ठा० ३ उ० । न० पा० ।
|
वग्गण - वल्गन - न० । उत्कूर्दने, शा० १ ० १७ अ० । स्था० ।
श्रा० म० औ०। उल्लङ्घने, कल्प० १ अधि० ३ दा । मलवद् १ । (नि०० उ०) उलने, २०११ २०११ ० ० म० । वग्गणा - वर्गणा - स्त्री० । सजातीयवस्तुसमुदाये वर्गराशौ, विशे० । ० म० । क० प्र० । कर्म० । अष्ट० । विशे० । उदारयैकियादिवर्गणाः
राल विवाहा र तेय भासा पाण- मग कम्मे । यह दव्यवग्गणार्थ, कमो विषजासच्यो खेते ।। ६३१ ॥ एतां नियुक्तिगाथां भाष्यकारः कुविकरणगोपइत्युदाहरपूषकं विस्तरतः स्वयमेव व्याख्यास्यतीति ।
6
"
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वक्रयः भावे भावगड श्रमसाधुभियों वृतिपरिक्षेपः परिभुज्यते सा मन्तव्या । बृ० २ उ० । ( अत्रत्या 'तद्दोस' शब्दे गाथा गता द्याख्यां वसदि शब्दे वस्यामि । ) (परिक्लेव शब्दे पञ्चमागे २५२ पृष्ठे निक्षेप उक्तः । ) बगलग-अलगक-पुं० । अलोपः । कुटुम्बिनि, रा० । वगोड्डायक-वकोड्डायक- पुं० । स्त्र्यादेशप्रयुक्तस्वसंशाप्रसिद्धे, पुरुषविशेषे पिं० (एष पकोडायकः 'मासपिंड' रामनेव भागे २४१ पृष्ठे उक्तः । )
वग्ग वर्ग- पुं० । बृजी वर्जने, वृज्यन्ते दूरतः परिहियन्ते रागादयो दोषा श्रनेनेति वर्गः । विशे० । " सर्वत्र लवरामचन्द्रे " ॥ ८ । २ । २७६ ॥ इति रलोपः । प्रा० । श्रावश्यके समूहे, स० नं० । समुदाये, नि० १ ० १ वर्ग १ [अ०] [अन्त० वा०] कर्म० समानजातीयवृन्दे, औ० । स॰ । जातीयप्रकृतीनां समुदाये, कर्म० ५ कर्म० । राशौ विशेष | श्र० म० । श्रध्ययनानां समूहे, यथाऽन्तकृद्दशास्वौ वर्गा इत्यादि । नं० । स्था० । गोवर्गवत् वर्गः । अनु० | तेनैव राशिना गुणने, आव० ४ श्र० । शा० । ----त-प-य-श-वर्गा इति परिभाषितेषु स्वरादिषु दकारान्तेषु समूहेषु नि० चू० १ ० पुरुषापेक्षया स्त्रीपक्षे, नि० चू० २० उ० । बन्क- पुं० | वंशादिवन्धनभूतायां घटादित्यभि० श० ६ उ० । विशे० ।
१९६७
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तथा च भाष्यम् -
गोविसेसो-वलक्खो बम्म विशेषाणं । दब्वादवग्गणाहिं, पोग्गलकार्य पयंसेति ।। ६३२ ॥ श्राह किमर्थं पुनरेता वर्गणाः प्ररूप्यन्ते ?, उच्यते- कुविकर्णस्प गोपिगवस्तासां परस्परं विशेषस्य यनुपलक्ष सं परिज्ञानं तदौपम्या तद्द्दष्टान्ताद्विनेयानामसंमोद्दार्थे द्रव्यात्रिवर्गणाभिः, आदिशब्दात्- क्षेत्रवर्गणाभिः, कालवर्गणाभिः, भाववर्गणामिव समस्तमपि पुत्रलास्तिकार्य विभज्य तीर्थकर गणधराः प्रदर्शयन्तीति गाथाऽक्षरार्थः । अथ भावार्थ उच्यतेइद भरत मगचजनपदे प्रभूतगोमण्डलस्वामी कृषिकरण नाम गृहपतिरासीत्। स च तासां गवामतित्वात् सहखादिसंख्यापरिमितानां पृथक पृथग अनुपालनार्थ प्रभूसानू गोपालांधके। ते च तासु परस्परं भीता गोया त्मीया श्रात्मीयाः सम्यगजानन्तः सन्तो नित्यं कलहमकाः। तख तथाऽन्योन्यं विवदमानाभ्यासी तेषामव्यामोहार्थ फलदव्यवत्तये शुक्रकरादिभेदभिधानां गयां प्रतिगोपाले सजातीयगोसमुदायरूपा भिन्ना वर्गला व्यवस्थापितवानिति एष दृष्टान्तः । अथोपनय उच्यते-इद्द गोमण्डलप्रभुकवस्तीर्थकरो गोपतुल्येभ्यः स्वशिष्येभ्यो मोसमूहमानं पुलस्तिकार्य तदसंमोहार्थे परमात्वादिवर्गणादिविभागेन निरूपितवानिति ।
एता एव वर्गणाः “ श्ररालविउब्व " इत्यादिगाथां व्याचिख्यासुर्निरूपयितुमाहएगा परमाणू, एगुत्तरवड़िया तथ्यो कमसो । संखेअपसायं संखेजा वग्गणा होति ।। ६३३ ।। त तो संखाई, संखाईयप्पएसमाणाणं । तत्तो यो अता-तपसागा गंतूलं ।। ६३४ । ओरालियम्स गहण - पाओग्गादरगणा बताओ।
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वग्गणा अभिधानराजेन्द्रः।
वग्गणा अग्गहमपात्रोग्गा, तस्सेव तो अर्थताभो ॥६३था। आह कथं पुनरेकैकस्यौदारिकादेः पृथक् त्रयं त्रयमिदं
लभ्यते ? इत्याहइह सजातीयवस्तुसमुदायो-वर्गणा,समूहो,वर्गः,राशिः,इति पर्यायाः। ततश्च समस्तलोकाकाशप्रदेशवर्तिनामेकैकपरमाणू
एकिकस्साईए, पजंतम्मि य हवंति जोग्गाई। मां समुदाय एका वर्गणा, ततः समस्तलोकवर्तिनां द्विप्रदे- उभया जोग्गाइँ जओ, तेया भासंतरे पढई ।। ६३७ ।। शिकस्कन्धानां द्वितीया वर्गणा,ततः समस्तानामपि त्रिपदे- __ एकैकस्यौदारिकवैक्रियादेरादौ पर्यन्ते चायोग्यानि द्रव्याणि शिकस्कन्धानां तृतीया,चतुषदेशिकस्कन्धानां चतुर्थी, पञ्च- भवन्तीति लभ्यत एव । कुतः ? उच्यते- तेयाभासा दम्वाण प्रदेशिकस्कन्धानां पञ्चमी,षप्रदेशिकस्कन्धानां षष्ठी,एवमेकै- अंतरा' इत्यादिवचनाद् , यतस्तैजसभाषयोरन्तरे उभयायोकोत्तरवृद्धया तावनेयं यावत्संख्यातप्रदेशिकस्कन्धानां सर्वा ग्यानि द्रव्याणि पठति । इदमुक्तं भवति-यतस्तैजसस्याअपि संख्येया वर्गणा भवन्ति,इत ऊर्द्धमसंख्यातप्रदेशस्कन्धा- न्तेऽयोग्यद्रव्याणि पठति, अतः सर्वस्याप्यौदारिकादेरन्ते नामेकोत्तरवृद्धया सर्वा अप्यसंख्येया वर्गणा भवन्ति, ततश्चा- तानि लभ्यन्ते, यतश्च भाषाया आदौ तदयोग्यान्यधीनन्तप्रदेशिकस्कन्धानामप्येकोत्तरवृद्ध्यौदारिकशरीरग्रहणप्रा- |
ते, अतः सर्वस्याप्यौदारिकादेरादौ तानि गम्यन्ते; उभयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति औदारिकशरीरनिर्वर्तनयोग्या | यान्तरालवर्तिनां च सर्वेषामुपयायोग्यत्वे तुल्येऽपि यथाइत्यर्थः, ततः प्रदेशवृया वर्द्धमाना औदारिकस्यैवाग्रहण
सनं तत्तदाभासत्वेन तत्तदयोग्यव्यपदेश इत्युक्तमेवेति योग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति । एताश्च प्रभूतद्रव्यनिष्एन- गाथाषट्रार्थः । त्वात्सूक्ष्मपरिणामोपेतत्याश्च औदारिकस्याग्रहणयोग्या म-1 अथ कांग्रहणवर्गणानामुपर्यन्या वर्गणाः सन्ति, न वा ? न्तव्याः । इह च स्वल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिमाणयुक्त
इत्याहत्वाच वैक्रियस्याप्यग्रहणयोग्या एवैताः केवलमौदारिकवर्ग
कम्मोवरिं धुवेयर, सुमेयरवग्गणा अणंताओ। .. णानामासनत्वेन तदाभासत्वात्तदग्रहणयोग्या उच्यन्त इति।
चउधुवणंतरतणुव-ग्गणा य मीसो तहा चित्तो ॥६३८।। अथ कार्मणपर्यन्तानां शेषवर्गणानामतिदेशमाह
इयं नियुक्तिगाथा, एतां च भाष्यकारः स्वयमेव विस्तारतो एवमजोग्गाजोग्गा, पुणो अजोग्गा य वग्गणाऽणता।। व्याख्यास्यतीति। वेउब्बियाइयाणं, नेयं तिविगप्पमिकेकं ॥ ६३६ ॥
तथा च माध्यम्-- एवमुक्तानुसारेणाऽयोग्यास्ततो योग्याः, पुनरयोग्याः प्रत्ये- | निच्च होंति धुवाओ, इयरा लोए न होंति वि कयाइ। कमनन्ता वर्गणा इति । एवं वैक्रियाहारकतैजसभाषानापान
एकोत्तरवुड्डीए, कयाइ सुमंतराओ वि ॥६३६॥ मनःकर्मणामेकैकं त्रिविकल्पं-त्रिप्रभेदं झेयमिति गाथाक्ष
जाओ हवंति ताओ, सुमंतरवग्गण ति भमन्ति । रार्थः। भावार्थस्तु उच्यते पुनरौदारिकाग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुप
निययं निरन्तराओ, होंति असुमंतराउ ति ।। ६४०॥ यकोत्तरवृझ्या वर्द्धमानाः स्वल्पद्रव्यनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणा- कर्मणोऽग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुपर्यधिकैकपरमाणूपचितामयुक्तत्वाच वैक्रियशरीरस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भ- तिसूक्ष्मपरिणामानन्तस्कन्धात्मिकाः प्रथमा भूववर्गणा भवन्ति । एताश्च प्रचुरद्रव्यनिर्वृत्तत्वात्सूदमपरिणामत्वाची- वन्ति । ततश्चैकोत्सरवृतथा वर्द्धमानैः प्रत्येकमनन्तैः स्कदारिकस्याप्यग्रहणप्रायोग्या एव, केवलं वैक्रियवर्गणाऽऽस- ग्धैर्निगणना एता अपि ध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, धुवा न्नत्वेन तदाभासत्वात्तदग्रहणयोग्यवर्गणाः प्रोच्यन्त इति । नित्या लोकव्यापितया सर्वकालावस्थायिन्य इति भावः । एवमुत्तरत्रापि सर्वत्र भावनीयम् । ततश्चैकोत्सरवृद्धद्या घर्द्ध- अन्तदीपकं चेदम् । ततश्चैतासां ध्रुवत्यभणनेन प्रागुता - मानाःप्रचुरद्रव्यनिर्वृत्तत्वात्तथाविधसूदमपरिणामत्वाच्च वै. पि कर्मवर्गणान्ताः सर्वा एव वर्गणा धवा इत्यवगन्तव्यम् , क्रियशरीरस्य ग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति । त- तासामपि सर्वत्र लोके सदैवाव्यवच्छेदान् । अन्यच-एताश्च तश्चैकोसरवृद्धया वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यत्वात् सूक्ष्मतरपरि- धुववर्गणा वक्ष्यमाणाश्चाध्रुवाचा सर्वाः अप्यप्रहणवर्गणाः, णामत्वाच्च वैक्रियस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भव- अतिबहुद्रव्योपचितत्वेनातिसूक्ष्मपरिणामत्वेन च सर्वजीवैन्ति, ततो चैक्रियाग्रहणयोग्यवर्गणानामनन्तरमेकोत्तरवृ- रौदारिकादिभावेन कदाचिदष्यग्रहणादिति । इतश्चोर्ध्वमि
या वर्द्धमानाः स्वल्पद्रव्यनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामत्या- | स्थमेवैकोत्तरवृद्धिक्रमेण बर्द्धमाना भ्रषवर्गणाभ्य इतरा - छच आहारकशरीरस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भव- धुववर्गणा अनन्ता भवन्ति । एताश्च तथाविधपुद्गलपरिणान्ति । ततश्चैकोत्तरवृद्धया वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिष्पन्नत्वा- मवैचित्र्यात्कदाचिल्लोके न भवन्त्यपि । अत एवाधवा एता तथाविधसूक्ष्मतरपरिणामत्वाच्चाहारकशरीरस्य ग्रहणयो- उच्यन्ते । ततश्च शून्या इतराश्चाशून्या नर्गणा भवन्ति । इह म्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति । ततोऽप्येकोत्तरवृद्धया वर्ध- च सूचकत्वात्सूत्रस्याह 'एकोत्तरे' स्यादि पकोत्तरवृद्धधा कमाना बहुतमद्रव्यनिवृत्तत्वादतिसूक्ष्मपरिणामत्वाच्चाहार- दाचिच्छ्न्यानि व्यवहितान्यन्तराणि यास ताः शून्यान्तरा कशरीरस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति । एवं तै- अपि भवन्ति यास्ताः शून्यान्तरवर्गणा भगयन्ते । पता ह्येजसस्य, भाषायाः, पानापानयोः , मनसः , कर्मणश्च कोत्तरवृधा निरन्तरमनन्ताः सदैव प्राप्यन्ते, परं कदाचिदेयथोनरमेकोत्तरप्रदेशवृद्ध्युपेताना प्रत्येकमनन्तानामयो- कोतरवृद्धिरेतास्वन्तराऽन्तरा त्रुट्यति, न तु नैरन्तर्येण प्राग्याना योग्यानां पुनरयोग्यानां वर्गणानां पृथक पृथक् त्रय- प्यन्त इति भावः। एकोत्तरवृद्ध्या सर्वदेवारल्यान्यव्यवहिमायोजनीयमिति ।
तान्यन्तराणि यासा साः अशून्यान्तराः । एता यशपान्तर
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(350) अभिधानराजेन्द्रः |
बग्गणा
वर्गणा एकोत्तरवृथा निरन्तरमेव लोके सदैव प्राप्यन्ते, न पुनरेको तरवृद्धिरेतास्वन्तराले कदापि यतीति भावः । " चधुवरांतरे " इत्यादि व्याचिख्यासुराहधुवणंतराइ चत्ता - रिजं धुवाई अतराई च । भेrपरिणाम जा, सरीरजोग्गत्तणाभिपुहा ||६४७॥ धदुगदेहजोग्ग-तणेण वा देहवग्गणाउ ति । सुहुमोदरगयबायर - परिमाणो मीसयक्खंधो ||६४२॥ ततोऽन्यान्तरवर्गणानामुपरि ध्रुवानन्तराणि चत्वारि वगणद्रव्याणि भवन्ति, यद्यस्मात्तानि ध्रुवाणि सर्वकालभाatfन, अनन्तराणि च निरन्तरैकोत्तरवृद्धिभाञ्जीति । इदमु क्रं मवति -- श्राद्या वानन्तरवर्गणा अनन्ता भवन्ति, एवमेतावत्यो द्वितीयाः, तृतीयाः, चतुर्थ्यश्च वाच्याः । ध्रुववर्गणाः प्रागयुक्ताः परं ताभ्य एता भिन्ना एव न पुनस्तास्वन्तर्भवन्ति, अतिसूक्ष्मपरिणामत्वाद्वद्दुद्रव्योपचितत्वाचेति पृथगुक्लाः । प्राह--ननु भवत्वेवम्, केवलं यद्येता निरन्तरमेकोचरवृद्धिभाजस्तर्हि चातुर्विध्ये किं कारणम् ?, सत्यम्, किंतु चतसृणामपि वर्गणानां मध्येष्वेव नैरन्तर्येणैकोत्तरवृद्धिः प्राप्यते, अन्तरालेषु पुनस्तस्यास्त्रुटिसंभवे सत्येव भिन्नवर्गणारम्भः, अन्यद्वा - किंचिद्वर्णादिपरिणामवैचित्र्यं तद्भेदारम्भे कारणम् इति बहुश्रुता चिदन्तीति । एवं वत्र्यमाणतनुवर्गणास्वपि वाच्यमिति । एतासां चतसृणां भुबानन्तरवर्गणानामुपरि प्रत्येकमेकोत्तरवृद्धियुक्तानन्तवर्गखात्मिकाश्चतस्त्र एव तनुवर्गणा भवन्ति, एताश्च तनूनामीदारिकादिशरीराणां भेदाभेदपरिणामाभ्यां योग्यत्वाभिमुखा इति तनुवर्गणा - देहवर्गणा उच्यन्ते । श्रथवा वक्ष्यमाशमिश्रस्कन्धावित्तस्कन्धद्वयस्य तनुर्देहः शरीरं मूर्तिरिति यावत् तद्योग्यत्वाभिमुखा वर्गणाः । अथ मिश्रस्कन्धस्वरूपं विवरीषुराह - सुमो ' इत्यादि । 'दरगय 'ति वगंत ईषत्प्राप्तस्तद्योग्यत्वाभिमुख्येन बादरः परिणामो येनाउसी दरगतबादरपरिणामः, अनन्ता ऽनन्तपरमाणु प्रचितः स्चमपरिणाम पवेषद्वादरपरिणामाभिमुखः स्कन्धो मिश्र इत्यर्थः । (विशे० | ) ( 'खंध' शब्दे तृतीयभागे ६६६ पृष्ठे चित्तमहत्स्कन्धवक्तव्यता गता । )
श्रथ विवज्रासनो खेत्ते ' एतड्याचिख्यासुः क्षेत्रादिवर्गणास्वरूपमाह - एमपएसोगाढा - ण वग्गणेगा परसबुड्डीए । संखेजोगाढा, संखेजा वग्गणा तत्तो ||६४७॥ तो संखाईया, ऽसंखाईयप्पएसमा णाणं । गंतुमसंखेजाओ, जोग्गाओ कम्मुखो भणिया ||६४८|| तो संखाईया, तस्सेव पुणो हवंति जोग्गाथो । मासदवाई वि, एवं तिविगप्पमे क्वेक्कं ॥ ६४६॥ विपर्यासतो -विपर्यासेन पश्चान्मुखः क्षेत्रविषयो वर्गणाक्रमो वेदितव्यः, न तु द्रव्यवर्गणावदिति भावः । इदमुक्तं भवतिपरमाणूनां धणुकाद्यनन्तायुकं पर्यन्तस्कन्धानां चैकाका
देशावगाहिनां सर्वेषामप्येका वर्गणा, द्वयणुकाद्यनन्ताणुपर्यन्तस्कन्धानामेव द्विप्रदेशावगाहिनां द्वितीया वर्गणा, यणुकाद्यनन्ताणुकपर्यन्तरकन्धानामेव विप्रदेशावगाहिन ।
वग्गणा तृतीया वर्गणा, एवमेकैकप्रदेशवृद्धया संख्येयप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानां संख्येया वर्गणाः, ततोऽसंख्येयप्रदेशावगाहिनःमपि स्कन्धानां प्रदेशवृद्धयाऽसंख्या वर्गणा गत्वाऽतिलयासंरूयप्रदेशावगाहिस्कन्धानामेव एकैकाकाशप्रदेशवृद्धधा वर्द्धमानाः कर्मणो ग्रहणयोग्या असंख्येया वर्गलास्तीर्थकरैभलिताः । ततोऽनन्तरमल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामत्वेन बहूाकाशप्रदेशावगाहित्वाश्च तस्यैव कर्मणोऽग्रहयोग्या एकैकाकाशप्रदेशवृद्धया वर्द्धमाना असंख्येया वर्गला भवन्ति । ततश्चैवमेकैका काशप्रदेशाव गाइवृद्धया वर्द्धमाना मनसोऽप्यसंख्येया श्रग्रहण वर्गणाः पुनरेतावत्य एव तस्यैव ग्रहणवर्गणाः पुनरेतावत्प्रमाणा एव तस्यैवाग्रहणवर्गणा वाच्याः । एवमानापानयोः, भाषायाः, तैजसस्य, श्राहारकस्य, वैक्रियस्य, श्रदारिकस्य चायोग्ययोग्यायोग्यवर्गणानां क्षेत्रतोऽपि प्रतिलोमं श्रयं त्रयं प्रत्येकमायोजनीयमिति । ध्रुवादिवर्गणास्कन्धा श्रपि प्रत्येकमङ्गुलासंख्येयभागप्रदेशावगाहिनोऽवगन्तव्याः, परं तच्चिन्तेह न कृता, जीवैः शरीरादौ कचिदप्यनुपयुज्यमानत्वेन भुवादिवर्गणानामग्रहणाद् । अथवा - कर्मणोऽग्रहणवर्गणानां मध्ये तासामप्यन्तभाषो द्रष्टव्यः । द्रव्यवर्गणाधिकारे तु पृथगेतत्स्वरूपमात्रज्ञापनार्थ विस्तरेण कृता तच्चिन्तेति मन्तव्यमिति । कालभावषवास्तु समयासमयादिस्थितिमात्रं वर्णादिमात्रं चाङ्गीकृत्य सामान्येन वक्ष्यन्ते । श्रतस्ताभिः सर्वोऽपि पुनलास्तिकायः संगृह्यते इति भावनीयमिति । तदेवमभिहिताः क्षेत्रवर्गणाः ।
अथ कालवर्गणाः प्राह-एगा समयठिणं, संखेजा संखसमयठियाणं । होंति असंखेजाओ, तो असंखेजसमयाणं || ६५० ॥ विवक्षित परिणामेन य एकैकसमयमात्रस्थितयस्तेषां सवैषामध्येका वर्गणा, ते पुनरविशेषेण परमाणवः स्कन्धाश्च मन्तव्याः, एवमेकैक समय वृद्धया संख्येयसमयस्थितीनां परमारवादीनां संख्येया वर्गणाः, असंख्येय समयस्थितीनां त्वiver वर्गणा भवन्ति । एवमेताभिः सर्वोऽपि पुत्रलास्तिकायः संगृह्यते, एकसमयाद्यसंख्येयसमयान्तायाः स्थितेपुङ्गलानां स्थितेरेवाभावादिति ।
अथ भाववर्गणाः प्राहएगाएगगुणा, एगुत्तरवड्डिया तो कमसो । संखेअगुणाण तत्रो, संखेजा वग्गणा होंति ॥ ६५१ ॥ संखाईयगुणा, संखाईया य वग्गणा तत्तो । होंति असंतगुणाणं, दव्वाणं वग्गणाऽयंता || ६५२|| परसगन्धफासा, ग होति वीसं समासभेएणं । गुरुलहुअगुरुलहूणं, बायरसुहुमाण दो वग्गा | एकगुणानामेकगुणकृष्णानामित्यर्थः, परमाणूनां स्कन्धानां च सर्वेषामप्येका वर्गणा, कृष्णवर्णगुणद्रययुक्तानां तुपरमाण्वादीनां द्वितीया वर्गणा; कृष्णवर्णगुणत्रययुक्तानां तु तेषां तृतीया वर्गणा । एवमेकैकमुखवृद्धया संख्येयकृष्णवर्णगुलानां संख्येया वर्गणाः, असंख्येयकृष्णवर्सगुलानामसंक्येया वर्गणाः, अनन्तकृष्णवर्सगुणानामनन्ता व
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बरगला
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गेला भवन्ति । एवमेकगुणनीलानाम्, संच्देवगुरानीलानाम्, असंख्येयगुणनीलानाम् अनन्तगुणनीलानामपि वाच्यम् । एवं कृष्ण- नीललोहित-हारिद्र-शुक्ललक्षणाः पञ्च वर्णाः, सुरभीतरी द्वौ गन्धी तिल-कटु-रुपाया- अल-मथुराः पञ्च रसा, फर्कश-मृदु-गुरु लघु-शीतोष्ण-स्नि ग्ध- रूक्षास्त्वष्टौ स्पर्शाः एवमेतेषु वर्णगन्धादिगतविंशतिभेदेषु प्रत्येकं सर्वत्रैकगुणानामेका, संवदेयगुणानां संख्येयाः असंख्येयगुणानामसंख्येयाः अनन्तगुणानामनन्ता वर्गणा वाच्याः । नवरं यो यत्र वगन्धादि - भेदस्तत्र तदभिलापः कार्य इति । तथा गुरुलघुपर्यायाणां । बादरपरिणामान्वितवस्तूनामेका वर्गणा अगुरुलघुपर्यायाणां तु सूक्ष्मपरिणाम परिणतवस्तूनामेका वर्गणा एवमेतौ द्वावेव वर्गी भवतः । तदेवमेताभिर्भाववर्गसामिः सर्वोऽपि पुइलास्तिकायः संगृह्यते यथोक्तबदिमायेभ्यो ऽन्यत्र पुलानामभावादिति । विशे० । सम्प्रति प्रदेशवन्धस्पायसर ते न प्रदेशाः कर्मबर्गणास्कन्धानां सम्बन्धिनो जीवेनात्मसात्क्रयन्ते श्रतः क haturtवरूपं वक्तव्यम् । तच्च प्राचीनवर्गणास्वरूपे निगदिते ज्ञातुं शक्यमतः प्रसङ्गतः शेषवर्गणास्वरूपमपि निगदनीयम् शेषाः पुनरौदारिकायाः, ताम्र ग्रहप्रायोग्यायोग्यभेदाद द्विधा, अत एकापुरुष शुकादिस्कन्धनिष्पन्ना श्रग्रहणवर्गणाद्याः कर्मवर्गणावसाना वर्गणाः सजातीय समुदायरूपा निरुपपन्नाह-
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(SEC) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सेसम्म दुहा इग दुग-युगाई जा अभवणंतगुणियाणु । खंधाउरलो चिय वग्गणाउ तह अगहणंतरिया ||७५ || 'सैसम्म दुइति पदम् अनुबन्धबन्धाधिकारे बहुभिः प्रकारैन्यांच्यातमित्यनुभागबन्धः समर्थितः । शुकशः प्रत्ये कं सम्बध्यते । ततः केवलोऽणुरेवायुकः - परमाणुरित्य थेः । एकोऽणुको यत्र स एकाणुः द्वौ अणुक यत्र स द्वधरणुकः, एकाणुकद्वयणुकस्कन्धा श्रदिर्येषां त्र्यशुकादीनां ते कायकादयः । " मयूरव्यंसकेत्यादयः " ( ३-१-११६) इति मध्यमपदलोपी समासः । विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् । किमवसाना इत्याह-" जाश्रभवते " त्यादि । यावदित्यव्ययं पर्यवसानार्थे अभय्येभ्यो ऽनन्तगुड़िता उपलक्षयत्वात् सिद्धानामनन्तभागेऽ
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वो येषां ते श्रभव्यानन्तगुणिताणवः । गमकत्वात्समासः । स्कन्धाः द्विपरमात्यादिरूपाः। अयमर्थः पापकादयः स्कन्धाः एकैकपरमाणुवृज्या तावत्रेया पापभयेम्योऽनन्तगुणैः सिद्धानन्तभागवर्तिभिः परमाणुभिर्निष्पनास्ते स्कन्धा एवंभूताः । किमित्याह - औदारिकोचितवर्गणाः भवन्ति । तत्रोदाराः स्फारतामात्रसारा वैक्रियादिशरीरपुइलापेक्षया स्थूला इत्यर्थः भूमदारकशरीरं तस्यौदारिकस्य निष्पत्ती कर्त्तव्यायामुचिता योग्या चौदारिकोचिताः ताथ ता पदाथ समानजातीयपुङ्गलस
दात्मिका औदारिकोचितपणा भवन्तीत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-इद्द समस्तलोका काशप्रदेशेषु ये केचन एकाकिनः परमाणको विद्यन्ते तत्समुदायः सजातीयत्वादेका वर्गणा, एवं द्विप्रदेशिकानामनन्तानामपि स्कन्धानां सजातीयन्ध
"
वग्गणा व द्वितीया वर्मा, विप्रवेशिकानामनन्तानामपि कन्यानां सजातीयत्वात् तृतीया वर्गा एवमेकैकपरमाणुवृद्धया संख्येयप्रदेशिकानामनन्तानामपि स्कन्धानां सजातीय समुदायरूपाः संख्याता वर्गणाः, श्रसंख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामेकैकपरमाणुवृद्धानामसंकोचा वर्गणाः, अनन्तपरमाणुनियनस्कन्धानामनन्ता वर्गणाः, अनन्तानन्तादेशिकानां स्कन्धानामनन्तानन्तयर्गणाः सर्वा अप्येना अल्पपरमाणुमयत्वेन स्थूलपरिमाणतया च स्वभावाजीवानां ग्रहे न समागच्छन्तीत्यग्रहणा वर्गणा एताः सर्वा श्रप्युच्यन्ते । एताश्च सर्वाः समतिक्रम्य अभव्यानन्तगुणैः सिद्धानन्तभागवर्तिभिः परमाणुभिर्निष्पत्रैः स्कन्धैरारब्धा ग्रहणप्रायोग्या जघन्यौदारिकवा भवन्ति । तत चारभ्यैकैकपरमाणुयुद्ध स्कन्धारन्धा धौदारिकशरीरयोग्योएवगणां यावदेता अपि जघन्योत्कृष्टमध्यवर्तिन्योऽन स्ता वर्गणा भवन्ति । यतो जघन्यायाः सकाशादुत्कृष्टाया अनन्तभागाधिकत्वं वक्ष्यते, अनन्तभागश्चानन्तपरमाणुमयः तत एकोत्तर प्रदेशोपचये सति मध्यवर्तिनीनामानन्त्यं न विरुध्यते । "तह श्रग्गहसंतरिय " त्ति तथा तेनैक
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परमायुपचयरूपेण प्रकारेणाग्रहणान्तरिता अग्रहणवर्गसान्तरिता वा भवन्ति । एतदुकं भवति श्रदारिकशरीरोत्कण्वगैणाभ्यः परत एकपरमाणुसमधिकस्कन्धया वर्गा श्रीदारिकशरीरस्य जघन्यायोग्य ततो द्विपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा द्वितीया अग्रहणप्रायोम्या, एवमेकैकपरमात्यधिकरकन्धरूपा वर्गास्तावद्वाच्या यावदुत्कृष्टा श्रग्रहणप्रायोग्या वर्गणा भवन्ति । जघन्यायाअपणायाः सकाशादुन्हा वर्गणा अनन्तगुणा गुशकारश्चाभय्यानन्तगुपासिद्धानन्तभागफल्पराशिमा एव्यः । एतासां चाग्रहप्रायोग्यतौदारिकं प्रति प्रभूतपर माणु निष्पन्नत्वात् सूक्ष्मपरिणामत्वाच्च वेदितव्येति । एमेव विवाहास्तेयभासाषाणमगकम्मे । सुहुमा कम्मॉवगाहो, ऊसंगुल संखंसो ॥ ७६ ॥ एवमेव वकारलोपः " यावन्नावज्जीवितवर्तमानावटप्राचारकदेवकुलैवमेवे यः १२७१ ॥ इति प्राकृतप्राकृतसूत्रे - स. पूर्वोक्कीदारिकशरीर महायोग्याग्रहप्रायोग्य वर्गवा म्यावेन वैकियाहारक- तेजस भाषा55-ना-पान- मनः-कर्मविषया वर्गा भवन्ति । तत्र विधिना-नानाप्रकारा किया चिक्रिया, तथा च तद्धेतुभूतायाः क्रियायाः वैक्रियसमुद्धात्करणदण्डनिसर्गादिविविधत्वं प्रज्ञप्त्यादिषु निर्दिष्टमेव, श्र दारिकापेक्षा या विशिष्ट विलक्षणा या क्रिया चिकिया, तस्यां भवं वैक्रियं शरीरम् तथा अपूर्वाग्रहणादिनिमित्त मुत्कृष्टतो हस्तप्रमाणं चतुर्दशपूर्वविदाऽऽहियते गृह्यते यत्तदाहारकम्, "कृद्बहुलम् (५ । १ । २) इति कर्मणि एकः यथा पादहारक इत्यादौ । यद्वा-श्राहियन्ते-गृहान्ते सूक्ष्मा जीवादयः पदार्थाः केषलिसमीपेऽनेनेति निपातनादाहारकम् । तथा आदारपाककारणभूतास्तेजोनिसर्गतपोष्णाः पुत्रलास्तेज इत्युच्यन्ते तेजसा निर्वृतं तैजसं शरीरं सूक्ष्मादिलिङ्गगम्यम्, तथा - भाषणं भाषा । तथा श्रामापानोच्छासनिःश्वास तथा मन्यते-चिन्त्यते बस्त्यनेनेति मनः । तथा कार्मणा नाम कमतरमकृत्या नि कार्मण ज्ञानावरकर्मोत्तरप्रकृत्या
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(७६) वग्गणा
अभिधानराजेन्द्रः। णीयाद्यष्टविधकर्मस्वप्रायोग्यपुद्गलानां गृहीतानां तत्तपेण | वर्गणा भवति, यां गृहीत्वा जीवः सत्यासत्यादिचतुर्विधमनो. परिणामजनकमित्यर्थः । ततो वैक्रियादिनिष्पत्तियोग्याः योगभावेन परिणमय्य चिन्तयति, जघन्याचा उत्कृष्टापुगलवर्गणा अपि वैक्रियादिशब्दैः प्रोन्यन्ते, यावज्शानाव- न्ताः, एता अप्येकैकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनरणाद्यष्टविधकर्मपरिणामहेतुकं दलिकमपि कार्मणवर्गणेति म्ता अवसेयाः । ततस्तदुपरि एकैकपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धातता वैक्रियं चाहारकंच तैजसंच भाषा चाऽऽनापानश्च मनश्च रब्धा जघन्याद्या उत्कृष्टवर्गणान्ता अनन्ता अग्रहणवर्गणाः । कामण चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् वाकयाहारकतैजसभा- तत उत्कृष्टा ग्रहणवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या ज्ञानाषाऽऽनापानमनः कामणे । एता वैक्रियाद्या वर्गणा अग्रहणवर्ग:
वरणादिहेतुभूता कार्मणवर्गणा भवति जघन्याया उत्कृष्टां णान्तरिता भवन्ति इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-तत्र या पू- यावदेता अप्येकैकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता मौदारिकं प्रति प्रभूतपरमाणुनिष्पन्नत्वात्सूक्ष्मपरिणामत्वो
मन्तव्याः । अत्रौदारिकादिवर्गणा श्रादौ कृत्वा जघन्यमध्यवाग्रहणप्रायोग्या वर्गणा उक्नास्ता एव वैक्रिय प्रति स्वल्प
मोत्कृष्टा अग्रहणग्रहणप्रायोग्या वर्गणाः। औदारिकाग्रहणवपरमाणुनिष्पन्नत्वात् स्थूलपरिणामत्वाचाग्रहणप्रायोग्या
गणाः१ औदारिकग्रहणवर्गणाः२ अग्रहणवर्गणाः ३ वैक्रियवर्गणा वेदितव्याः। ततोऽग्रहणप्रायोग्योत्कृष्टवर्गणापेक्षया च ग्रहणवर्गणाः ४ अग्रहणवर्गणाः५आहारकवर्गणाः ६अग्रहणएकपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा वर्गणा चैक्रियशरीरप्रायोग्या
वर्गणाःतैजसग्रहणवर्गणाः अग्रहणवर्गणाःभाषावर्गणाः१० जघन्या वर्गणा , ततो द्विपरमाण्वधिकस्वरूपा द्वितीया
अग्रहणवर्गणाः ११ श्रानापानवर्गणाः १२ श्रग्रहणवर्गणाः १३ बैंक्रियशरीरस्य ग्रहणप्रायोग्या वर्गणा , एवमेकैकपरमाराव
मनोग्रहणवर्गणाः १४ श्रग्रहणवर्गणाः १५ कार्मणग्रहणवर्गणाः धिफस्कन्धरूपा वैक्रियशरीरप्रायोग्या वर्गणास्तावद्वाच्या
१६ एवमेता औदारिकाद्याः कार्मणवर्गणावसाना वर्गणाः यावदुत्कृष्ठा ग्रहणप्रायोग्या वर्गणा भवति,जघन्यायाश्चोत्कृष्टा
प्ररूपिताः । इत ऊर्द्धमन्यत्र कर्मप्रकृत्यादिष्वन्या अपि ध्रुवाअनन्तगुणेति । एवं सर्वत्र वैक्रियशरीरोत्कृष्टवर्गणापेक्षया
चित्ताद्या वर्गणा निरूपिताः, ताश्चहानुपयोगित्वेन नोक्तास्तत चैकपरमारावधिकस्कन्धरूपा जघन्या अग्रहणप्रायोग्या व
एवावसेयाः, संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्प्रस्तुतप्रारम्भस्येर्गणा । ततो द्विपरमारावधिकस्कन्धरूपा द्वितीया अग्रहणमा
ति । उक्ला वर्गणाः, एताश्च बहुतरपरमाणुनिचयरूपा अभियोग्या। एवमेकैकपरमाएवधिकस्कन्धरूपा अग्रहणप्रायोग्या
हिताः, अतः कियन्मात्र क्षेत्र ता व्याप्नुवन्तीत्याह-"सुहुमावर्गणास्तावद्वाच्या यावदुष्टा श्रग्रहणप्रायोग्या वर्गणाः ।
कम्मे" त्यादि एता औदारिकाद्या वर्गणाःक्रमात् क्रमेणोत्तरो. एताश्च प्रभूतद्रव्यनिष्पन्नत्वात् सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच्च
त्तरपरिपाट्या सूक्ष्मा ज्ञातव्याः। श्रयमर्थः-प्रथममग्रहणवैक्रियशरीरस्याग्रहणयोग्याः। श्राहारकस्थाप्यल्पपरमाणु
वर्गणा औदारिकस्य सूक्ष्माः, ततस्तस्यैव ग्रहणवर्गलाः निष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामोपेतत्वाचाग्रहणयोग्या, एवमुत्तर
सूक्ष्माः, ततस्तस्यैव अग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः । ततो वैक्रियत्रापि भावना कार्या । अग्रहणप्रायोग्योत्कृष्टवर्गणापेक्षया चैकपरमारवधिकस्कन्धरूपा वर्गणा श्राहारकशरीरप्रायोग्या
स्य ग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तस्यैवाग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः। जघन्या वर्गणा, जघन्याद्या उत्कृष्टान्ताः। एता अपि यथोत्तर
तत आहारकग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तस्यैवाग्रहणवमेकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता भवन्ति, तत
गणाः सूक्ष्माः। ततस्तेजसस्य ग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदुपरि रूपाधिकस्कन्धेरारब्धा श्राहारकतैजसयोरुक्तादेव
स्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः। ततो भाषाग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, हेतोरयोग्या जघन्या अग्रहणवर्गणा, जघन्याद्या उत्कृष्टान्ताः।
ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्मा:, । तत आनापानग्रहणवगणाः एता श्रष्येकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता एव
सूदमाः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः । तत पानापाननमन्तव्याः। तदुपरि च रूपाधिकस्कन्धारब्धा तैजसशरीर- हणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, तनिष्पादनहेतुर्जघन्या तैजसशरीरवर्गणा, जघन्याया उत्कृष्ट
तो मनोग्रहणवर्गणाः सूदमाः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूयावदेता अप्यकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता एव म
क्ष्माः, ततः कामगाग्रहणवर्गणाः सूक्ष्मा इति । "अवगाहो न्तव्याः। तदुपरि चैकोत्तरपरमारवारब्धाः स्कन्धाः प्रागुक्त
ऊणूणंगुलअसंखसु " त्ति अवगाहन्ते अवस्थानं कुर्वन्ति हेतोरव तैजसभाषयोरयोग्यत्वादनन्ता श्रग्रहणवर्गणा वा
वर्गणा यस्मिन्नसाववगाहोऽवस्थानक्षेत्रम् , स च कियन्मात्र च्याः । तदुपरि रूपाधिकस्कन्धेरारब्धा जघन्या भाषाव-1
इत्याह-ऊनोनाकुलासंख्येयांशो न्यूनो न्यूनतरोगलस्यागरणा यां भाषार्थ जीवोऽवलम्बते, यां च गृहीत्वा चतुर्विध
संख्येयांशोऽङ्गलासंख्येषमागो यत्र स तथा । एतदुक्तं भवति भाषात्वेन परिणमय्य विसृजतीति भावः । जघन्याया उत्कृष्टां पुद्गलद्रव्याखां हि यथा यथा प्रभूतपरमाणुनिचयः संपयावदेता अप्य कैकपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता धते तथा तथा सूदमसूक्ष्मतरः परिणामः संजायते, तत झेयास्तदुपरि च रूपाधिकस्कन्धेराब्धा जघन्या श्रग्रह- औदारिकवर्गणाः स्कन्धानामधाहनालासंख्यभागः, स णवर्गणा जघन्यामादौ कृत्वोत्कृष्ट यावदेता अप्यकैकपर- एव तदग्रहणवर्गणानां न्यूनः । स एव वैक्रियग्रहणवर्गणामाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता अवसेयाः। तदुपरि नां न्यूनः, सदग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः। श्राहारकप्रहरूपाधिकस्कन्धेरारब्धा जघन्या आनापानवर्गणा भवति , णवर्गणानां स एव न्यूनः, तदग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः यां गृहीत्वा आनापानभावं नयति, जघन्याया प्रारभ्योत्कृष्टां तेजसग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः, तदग्रहणवर्गणानां स गावदेता अप्येकैकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता मन्त- एव न्यूनः । भाषाग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः, तवग्रहणवव्याः। ततस्तदुपरि पुनरेकैकोत्तरस्कन्धारब्धा जघन्याचा गणानां स एव न्यूनः । आनापानग्रहणवर्गणानां स एव उत्कृष्टान्ता अनन्ता एवाग्रहणवर्गणा वाच्याः । तदुकृष्टा ग्र- न्यूनः, तदग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः । मनोग्रहणवर्गणानां हणवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या मनोनिष्पत्तिहेतुर्मनो- | सपब न्यूनः, सदग्रहणवर्गणानां स पव न्यूनः । कार्मणप्र
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(७०) बग्गणा अभिधानराजेन्द्रः।
बग्गणा इणवर्गणानां स एवाङ्गलासंख्येयभागो न्यूनतर इति । उक्तं । बग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा, एगा सम्मावर्गणानां स्वरूपमवगाहक्षेत्रमानं च।
मिच्छहिट्ठियाणं वग्गणा, एगा सम्महिट्ठियाणं णेरअधुनकादिवृदया वर्द्धमानानामग्रहणवर्गणानां परिमाणनिरूपणायाह
इयाणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, इकिकहिया सिद्धा-णंतं सा अंतरेसु अग्गहणा ।
एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं० सम्वत्थ जहन्नुचिया, नियणंतसाहिया जिट्ठा ॥७७।।
जाव थणियकुमाराणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाएकैकपरमाणुः प्रतिस्कन्धमधिक उत्तरप्रवृद्धो यासु
णं पुढविकाइयाणं वग्गणा, एवं जाव वणस्सइकाइता एकैकाधिका एकैफपरमाणुवृद्धा इत्यर्थः । अग्रहण- याणं, एगा सम्मद्दिट्ठियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एगा वर्गला भवन्तीति योगः। कियत्य इत्याह-सिद्धानन्तांशाः | मिच्छद्दिट्ठियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एवं तेइंदियाणं सिद्धानामनन्तोऽशो भागो यास ताः सिद्धानन्तांशाः सिजानम्तभागवर्तिन्यः । उपलक्षणत्वादभव्यानन्तगुणाः। श्रा
वि , चउरिंदियाणं वि, सेसा जहा नेरइया जाव सामाधारनिरूपणायाह-अन्तरेषु-अन्तरालेष्वौदारिकवै- एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, | एगा क्रियादिवर्गणामध्यवित्यर्थः अग्रहणा-अग्रहणवर्गणाः । एत- कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा सुक्कपक्खियाणं वग्गदुक्तं भवति-निजनिजजघन्याग्रहणवर्गणैकस्कन्धेये परमाण- णा, एगा कण्हपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा वस्तेऽभव्यराशिप्रमाणेनानन्तकेन गुणिता यावन्तो भव
सुक्कपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं चउवीसदंन्ति तावत्योऽग्रहणवर्गणा एफैकपरमाणुवृद्ध अन्तरेषु मन्तव्याः । अधुना प्रहणयोग्यवर्गणासु निजनिजजघन्यवर्ग
डओ भाणियन्यो । एगा कएहलेस्साणं वग्गणा, एगा सायाः सकाशात् स्वस्वोत्कृएवर्गणायां यावन्मात्राधिकत्वं पीललेस्साणं वग्गणा, एवं ०जाव सुक्कलेस्साणं बतदाह-सव्वत्थ जहन्नुचिया निवणतंसाहिया जिट्ठा' स- ग्गणा , एगा कएहलेसाणं नेरइयाणं वग्गणा जाव पत्र-सर्वास्वप्यौदारिकवैक्रियाहारकतैजसभापानापानमन:
काउलेस्साणं नेरइयाणं वग्गणा , एवं जस्स जति कार्मणवर्गणासु, जघन्या चासावुचिता च योग्या च जघन्योचिता योग्यजघन्येत्यर्थः। तस्याः सकाशात्प्राकृतत्वात्पश्च
लैस्साओ , भवणवइवाणमंतरपुढविभाउवणस्सइकाम्येकवचनस्य लुप । निजेन स्वकीयेनानन्तांशेनामन्तभा- | इयाणं च चत्तारि लेस्साओ, तेउवाउबेइंदियतींदिगेनाधिका समर्गला भवति । काऽसावित्याह-ज्येष्ठा उत्कृष्टा । यचउरिंदियाणं तिमि लेस्साओ , पंचिंदियतिरिक्खकिमुक्तं भवति-औदारिकजवन्यग्रहणवर्गणारम्भकस्कन्ध
जोणियाणं मणुस्साणं छल्लेस्साओ , जोइसियाणं एगा स्यानन्तभागे यावन्तोऽणवस्तत्प्रमाणेन विशेषणोत्कृष्टवर्गपारम्भक एकैकस्कन्धोऽधिको मन्तव्यः । अत एवान
तेउलेस्सा वेमाणियाणं तिनि उवरिमलेस्साओ, एगा तभागलब्धपरमारनामनन्तत्वनैकैकपरमाणुवृया जाय- कराहलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा , एवं छसु वि माना जघन्योत्कृष्टान्तरालपर्तिन्य औदारिकवर्गणा अय
लेस्सासु दो दो पयाणि भाणियब्वाणि । एगा कएहनन्ताः सिजा भवन्ति, एवं वैक्रियाहारकतैजसभाणाऽऽना
लेस्सायं भवसिद्धिया नेरइयाणं वग्गणा, एगा कपानमनःकामणवर्गणास्वपि ग्रहणप्रायोग्यासु निजनिजजघन्यवर्गणारम्भकस्कन्धस्यानन्तभागे ये अनन्तपरमाणव- एहलेसाणं अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं स्तावन्मात्रेणानन्तभागेन स्वस्वोत्कृष्टवर्गणारम्भक पकैकः | जस्स जति लेस्साश्रो तस्स तति भाणियव्वास्कन्धोऽधिको वाच्यः, तस्य चानन्तभागस्यानन्तपरमा- ओ जाव वेमाणियाणं । एगा कण्हलेसाणं सम्मदिगुमयत्वेनैकैकपरमाणुवृद्धाः सर्वग्रहणवर्गणा अप्यनन्ता अव
द्वियाणं वग्गणा , एगा कण्हलेस्साणं मिच्छद्दिवियाणं सेयाः, केवलमुत्तरोत्तरवर्गणा स्कन्धानामनन्तगुणपरमा-1 खूपचितत्वेमानन्तभागोऽप्युत्तरानुभवृद्धवृद्धतरप्रवृद्धतमा
वग्गणा, एगा कण्हलेस्साणं सम्मामिच्छद्दिद्रियाणं दिभेदेन नानाविधो दृश्य इति । कर्म. ५ कर्म । क० प्र०।। वग्गणा , एवं छसु वि लेसासु जाव वेमाणियाणं पं० सं०। आ० चूछ । प्राचा।
जेसि जति दिट्ठीओ । एगा कण्हलेस्साणं काहपक्खिदण्डकक्रमेण वर्गणा उच्यन्ते
याणं वग्गणा , एगा कण्हलेस्साणं सुरुपस्खियाणं एगा परइयाणं वग्गणा , एगा असुरकुमाराणं वग्ग
वग्गणा . जाव वेमाणियाणं , जस्स जति लेस्सानी णा , चउवीसं दंडो० जाव एगा वेमाणियाणं वग्ग
एए अट्ठ चवीसदंडया । (मू० ५१४) था, एगा भवसिद्धियाणं वग्गणा , एगा अभवसिद्धि
तत्र 'नरइयाणं' ति निर्गतम्-अविद्यमानमयम्-एफलं याणं वग्गणा , एगा भवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा- कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिकाः-क्लिष्टसत्वविएगा अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा , एवं जाव शेषाः, ते च पृथ्वीप्रस्तटनरकावासस्थितिभव्यत्वादिभे
दादनेकविधास्तेषां च सर्वेषां वर्गणा वर्गः-समुदायः , एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाखं वग्गणा, एगा अभ
तस्याश्चैकत्वं सर्वत्र नारकत्वादिपर्यायसाम्यादिति । तथा बसिदिचायं वेमाबियाणं वग्गवा, एमा सम्मद्दिडियावं असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमाराश्चेत्यसुर
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घग्गणा अभिधानराजेन्द्रः।
बागप्पा कुमारास्तेषामफा वर्गणेति , ' चउवीसदंडउ ' ति भूमिखनने स्वाभाविकसम्भवाद् , दर्दुरवत् । अथवाचतुर्विशतिपदप्रतिबद्धो दण्डको वाक्यपद्धतिश्चतुर्वि- सात्मकमन्तरिक्षोदकम् ,स्वभावतोव्योमसम्भूतस्य पातात्, शतिदण्डकः, स इह वाच्य इति शेषः, ( स्था० ) मत्स्यवत् । श्राह च-" भूमिक्खयसाभाविय-संभवश्रो पतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि, यावच्चतुर्विंश- दद्दरो ब्व जलमुत्तं ।" [सात्मकत्वेनेति ] अहवा मच्छो व तितमम् । 'एगा वेमाणियाणं वाण' ति , एष सहा-ववोमसंभूयपायाश्रो ॥१॥” इति तथा सात्मको सामान्यदण्डकः १, ननु नारकसनव दुरुपपादा श्रा- वायुरपरप्रेरिततिर्यगनियतदिग्गतित्वाद् गोवत् । इह चापस्तां तद्धर्मभूताया वर्गणाया एकत्वमनेकत्वं वेति, तथाहि- रप्रेरितग्रहणेन लेष्टादिना व्यभिचारः परिहतः, एवं तिर्यन सन्ति नारकाः तत्साधकप्रमाणाभावात् , व्योमकुसु- ग्ग्रहणेनोर्ध्वगतिना धूमेनानियमितग्रहणेन च नियमितमवत् । अत्रोच्यते-प्रमाणाभावादित्यसिद्धो हेतुः, तत्सा- गतिना परमाणुनेति । तथा तेजः सात्मकमाहारोपादानाधकानुमानसद्भावात् , तथाहि-विद्यमानभोक्तकं प्रकृष्टपा- त् तद्वद्धिशेषोपलब्धेस्तद्विकारदर्शनाच पुरुषवद् । श्राह पकर्मफलम् कर्मफलत्वात् , पुण्यकर्मफलवत् । न च च-"अपरप्पेरियतिरिया, नियमियदिग्गमणोऽनिलो गो तिर्यजरा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता व्व । अनलो आहाराश्रो, विद्धिविगारोवलंभाओ ॥१॥" वेदयितुमशक्यत्वात् , विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृएपुण्य- इति, अथवा-पृथिव्यप्तेजोवायवो जीवशरीराणि, अभ्राफलवत् । आह च-" पावफलस्स पगिट्ठ-स्स भोइणो क- दिविकारवर्जितमूर्तजातीयत्वात् , गवादिशरीरवदिति । - म्मोऽबसेस व्व । संति धुवं तेऽभिमया, नेरड्या श्रह मई भ्रादिविकारा हि मूर्तजातीयत्वे सत्यपि न जीवतनवहोजा ॥१॥ अच्चत्थदुक्खिया जे , तिरियनरा नारग सि स्तेन तत्परिहारो हेतुविशेषणम् । श्राह च-" तणो ते ऽभिमया । तं न जो सुरसोक्ख-प्पगरिससरिसं न तं दु. ऽणम्भाइविगा-रमुत्सजाइत्तोऽनिलंताई । ( भूतानिकन्वं ॥२॥" इति । “अबससव्व" ति यथा नारकेभ्योs- ति प्रक्रमः ) सत्यासत्थहयाओ , निजीवसजीयरूवाओ न्ये तिर्यङ्नग इत्यर्थः, अथ सुराणामपि विवादास्पदीभूत- ॥१॥” इति। त्वान् विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत् इत्यसि- वनस्पतीनां विशेषेण सचेतनत्वं भाष्यगाथाभिरभिधीयतेजो रटान्तः । अत्रोच्यते-देव इति सार्थकं पदम् . च्युतव्यु
" जम्मजराजीवणमर-मरोहणाहारदाहलामयो। त्पत्तिमत् .शुद्धपदत्वात् , घटाभिधानवदिति । ततः सन्ति दे- रोगतिगिच्छाईहि य, णारि व्व सचेयणातरयो ॥१॥ वा इति प्रत्येतव्यम् । अथ मनुष्येण गुणद्धिसंपन्नेनार्थवद् छिक्कप्परोल्याछि -क्कमित्तसंकोयश्रो कुलिंगि ब्व । भविष्यति देवपदमिति न विवतितदेवसिद्धिरिति । अत्रो- श्रासयसंचाराओ, वियत्त ! वल्लीघियाणाहि ॥२॥ च्यते-दिदं नरविशेषे देवत्वं तदौपचारिकम् , उपचारश्च | सम्मादयो व साव-पवोहसंकोयमादिश्रोऽभिमया । तथ्यार्थसिद्धौ सत्यां भवति । यथा-निरुपरितसिंहसद्भावे बउलादयो य सद्दा-इविसयकालोवलंभावो ॥३॥" इति । माणवके सिंहोपचार इति, आह च
सम्मादो' त्ति शम्यादयः , ' विसयकालोवलंभाश्रो' "देव सि सत्थयमिदं, सुद्धत्तणो घडाभिहाणं व ।
नि विषयाणां-गीतसुरागण्डूषकामिनीचरणताडनादीनां अह व मती मणुप्रो चिय, देवो गुणरिद्धिसंपन्नो ॥१॥
कालो वसन्तादिरिति, 'रागाभवसिद्धिये ' त्यादि, भवितं न जो तच्चत्थे, सिद्धे उवयारो मया सिद्धी ।
ष्यतीति भवा-भाषिनी सा सिद्धिः-निवृत्तिर्येषां ते मतश्चत्य साहसिद्धे, माणवसीहोवयारो ब्व ॥२॥” इति
वसिद्धिका--भव्याः, तद्विरीतास्त्वभवसिद्धिका अभव्या
इत्यर्थः । ननु जीवत्वे समाने सति को भव्याभव्ययोर्वि" देवेसुन संदेहो, जुत्तो जं जोइसा सपश्चक्खं ।
शेषः ?, उच्यते-स्वभावकृतो, द्रव्यत्वेन समानयोर्जीवनदीसति तक्या विय, उपघायाणुग्गहा जगभो ॥१॥
भसोरिव । श्राह च-" दवाइत्ते तुल्ले, जीवनभाणं सभावश्रालयमत्तं च मई, पुरं च तब्वासिणो तह वि सिद्धा।
ओ भेदो। जीवाजीवाइगो, जह तह भब्वेयरविसेसो।।" जे ते देव त्ति मया, न य निलया निच्चपडिसुगणा ॥२॥
इति, आभ्यां विशेषितोऽन्यो दण्डकः २। 'एगा सम्मको जाणइ व किमय, ति होज णिस्संसय विमाणाई ।
हिट्ठियाण' मित्यादि, सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-दर्शनं रयणमयनभोगमणा-दिह जह विजाहरादीणं ॥ ३॥"
रुचिस्तत्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिकाः, ते च मिइति. तेषामसुरादिविशेषः पुनराप्तवचनादवसेय -
थ्यात्वमोहनीयक्षयक्षयोपशमेभ्यो भवन्ति , तथा मिथ्या
विपर्यासवती जिनाभिहितार्थसार्था श्रद्धानवती दृष्टिः-- ति । अथ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः कथमिह
र्शनं श्रद्धानं येषां ते मिथ्याष्टिकाः-मिथ्यात्वमोहजीवत्वेन प्रतिपत्तव्याः ?, उच्छासादिप्राणिधर्माणां तेवप्रतीयमानत्वाद् । अत्रोच्यते-आप्तवचनादनुमानतश्च ।
नीयकर्मोदयादरुचितजिनवचना इति भावः , । उक्त-- तत्राप्तवचनमिदमेव । अनुमानं विदम्--वनस्पतयो
ञ्च- सूत्रोक्तस्यैकस्या-प्यरोचनादक्षरस्य भवति न-- विद्रमलघणोपलादयः स्वस्वाश्रये वर्तमानाः सात्मकाः,
रः । मिथ्याष्टिः सूत्र , हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥ समानजातीयाङ्करसद्भावाद् , अर्थोविकागडुरवत् । श्राह
॥ १॥" इति तथा सम्यक् मिथ्या च दृष्टियेषां ते च-" मंसंकुरो व्व समाण , जाइरूवंऽकुरोवलभाश्रो ।
सम्यग्मिध्याष्टिका'-जिनोक्तभावान् प्रत्युदासीनाः । इह तरुगणविहम लवणो-पलादयो सासयावत्था ॥ १ ॥"
च गम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवर्ती जन्तुरनाभोगनिवर्तिइति, इह समान जातिग्रहण शृङ्गारव्यवच्छेदार्थम् , स हि |
तेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेन यथाप्रवृत्तिकरोन संपान समानजानीयो भवतीति । तथा--सात्मकमम्भो भौम, । १- वियत्त' त्ति गणधरामन्त्रणमिति ।
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वग्गणा
मिथ्यात्ववेद
दितान्तः सागरोपमकोटाकोटीस्थितिकस्य नीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तर्मुहूर्त मुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंहिताभ्यां विशुद्धिविशेषाभ्यामन्तर्मुहर्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति, तस्मिन् कृते तस्य कर्म
।
स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तर्मुहुर्त्तमात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा तत्र प्रथमस्थिती मिथ्यात्वदलिक वेदनादसौ मिथ्यादृष्टिः, अन्तर्मुहूर्तेन तु तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमयं पयोपशमिकसम्य कत्वमाप्नोति मिध्यात्वदलिक वेदनाऽभावात् । यथा हिदवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूषरं या देशमचाच्च विध्मापयति तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य विध्मापयतीति तदेवं सम्यक्त्वमीषधविशेषकल्पमासाद्य मदनकोद्रस्थानीयं द नमोहनीयम् अशुद्धं कर्म विधा भवति-मविशुद्धं विशुद्धं वेति तेषां पुखानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुत्र उदेति तदा तदद्यवशादर्द्धविशुद्ध मईदृष्टतत्व अद्धानं भवति जीवस्य तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिर्भवति अन्तर्मुहूर्त्त यावत् तत ऊर्ध्वं सम्यकत्यपु मिथ्यात्यपुत्रं वा गच्छतीति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमिश्रविशेषितोऽन्यो दण्डकः, तत्र च नारकादिष्वेकादशसु पदेषु दर्शनत्त्रयमस्ति । अत उक्तम्* एवं जाय थरि त्यादि पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव तेन तेषां तेनैव व्यपदेशः । उक्तञ्च - ' चोइस तस सेसया मिच्छति चतुर्दशगुणस्थान कवन्तखसाः खावरास्तु मिथ्यादृष्टय एवेत्यर्थः । वीन्द्रियादीनां मिथं नास्ति, संहिनामेव तद्भावात् ततलेषु सम्यग्रमिध्यादृष्टितथैव व्यपदेशः । एवं दिया विपरिदियास वि तिद्वन्द्रियवद् व्यपदेश द्वयेन वर्गणैकत्वं वाच्यम्, पञ्चेन्द्रियतिर्यगादीनां दर्शनत्रयमप्यस्ति ततस्त्रिधाऽपि सत्यपदेशः अत एवोक्रम्' ऐसा जहा नेरइयति तथा याच्या इति शेषः । कपर्यन्तसूत्रं पुनरिदम एगा सम्मद्दिट्टियाएं वैमाणियाणं वग्गणा, एवं मिच्छदिट्टियाएं एवं सम्मामिच्छादिद्रियाएं "एतत्पर्यन्तमाह" जाय एगा सम्मामित्यादि ३एगा करदात्या दि कृष्ण पक्षिकेतर योर्लक्षणम्-" जेसिमबडो पोग्गल-परि
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,
66
"
( ७२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
हो सेसन उ संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिपुण किरादपतीचा ॥ १ ॥ इति एतविशेषितन्यो दण्डकः || ४ || "एगा करहलेसाण ' मित्यादि, लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह - " श्लेष इव
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बन्धस्य कर्म्मबन्धस्थितिविधाः " तथा "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य श्रात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ १ ॥ " इति । इयं च श रीरनामकर्म्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात् योगस्य न शरीरनामकम्मैपरिणतिविशेषत्वात् यत उनं प्रशाप
,
"
नावृतिकृता–“ योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योगपरि - लामो लेश्या ?, यस्मात् सयोगिकेवली
मेन त्यात शेपे योगनिरोधं करोति ततोऽयोगि त्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोतिः श्रतोऽवगम्यते 'योगपरिणामो लेश्ये' ति स पुनर्योगः शरीरनामकर्म्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम् - " कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणामिति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्म
वग्गणा
जम्बूफलखादकपुरुषषदृष्टान्ताद्
,
नो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः १, तथौदारिकवैकियाहारकशरीरव्यापाराहतवाद्रव्यसमूहखाचिव्यात्जीवव्यापारो यः स बाम्योगः २ तवीदारिकाविशरीरव्यापाराहतमनोइच्य समूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति ३ ततो यथैव कायादिकरणयुक्रस्यात्मनो वीर्यपरिणतियोगी उच्यते तथैव लेश्यापीति । अन्ये तु व्याचचते कर्मनिस्यन्दो लेश्वे 'ति सा चश्माबभेदात् द्विधा, तत्र द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याश्येव भावलेश्या तु तज्जन्यो जीवपरिणाम इति । इयं च षट्प्रकारा ग्रामघातकचोरपुरुषपट्टान्ताद्वा श्रागमप्रसिद्धादयसेयेति । तत्राणि सुगमानि नवरं कृष्णवद्रव्यसाचिन्यात् जाताऽपरिणा मरूपा कृष्णा, सा लेश्या येषां ते तथा, एवं शेषाण्यपि पदानि नवरं नीला सुन्दररूपा एवमिति-अनेनैव कमे यावत्करणात् 'एगा कायोवलेल्या 'मित्यादि सूत्र दृश्यम् तत्र कपोतस्य पक्षिविशेषस्य न स्यानि यानि इव्याणि धूम्रासीत्यर्थः तत्साहाय्याजाता कापोतले श्या मनाक् शुभवरा, सा लेश्या येषां ते तथा, तेज:श्रग्निज्वाला तद्वर्णानि यानि द्रव्याणि लोहितानीत्यर्थः, ताजाता तेजोलेश्या शुभस्वभाचा, पद्मगर्भनि तत्साचिव्याज्जाता यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्थः तत्साचिव्याज्जाता पलेश्या शुभतरा, शुक्लवर्णद्रव्यजनिता शुक्ला अत्यन्तशुमेति तासांचविशेषतः स्वरूपं लेश्याध्ययनादव सेयमिति । 'एवं जस्स जाति नारकासामिच यस्यासुरादेवी थाबत्यो लेश्यास्तदुद्देशेन तद्वर्गकत्वं वाच्यम् 'भय' त्यादिना श्वापरिमाणमाह । अत्र संग्रहणीगाथाः"काऊ नीला चिराहा, लेखाओ तिथि होति नरपसुं। तयार फाडनीला नीला किरा परिद्वार ॥ १ ॥ किरहा नीला काऊ, तेऊ लेसा य भवणवंतरिया | जोइससोहंमी खास तेलेला मुषया ॥ २ ॥ कप्पे सकुमारे, माहिदे चैव भोर प एपलेसा, ते परं सुलेसा उ३॥ पुढवी आउ वणस्सर, वायर पत्तेय लेस चत्तारि । गब्भयतिरियन रेसुं, छल्लेला तिनि सेसा ॥ ४ ॥" अयं सामान्य श्वादका ५ अयमेव भन्याभव्यविशेपणादन्यः एगा करइलेसाएं भवसिडिया बग्ग त्यादि ' एवमिति कृष्णलेश्यायामिव 'छसु वि' त्ति कृयासह अन्यथा धन्या पश्चैवातिदेश्वा भवन्तीति द्वे द्वे पदे प्रतिलेश्यं भव्याभव्यलक्षणे वाच्ये, यथा- एगा नीललेसा भयसिद्धियामत्यादि ६. लेश्यादण्ड एवं दर्शनत्रयविशेषितोऽन्या करहले साणं सम्महिट्ठियाण' मित्यादि, जेसिं जर दिडिओ 'त्ति येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्यः सम्य
1
"
,
"
,
परवाचास्तेषां तापाच्या इति । तत्र एकेन्द्रियाणां मिध्यात्वमेव विकलेन्द्रियाणां सम्यक्त्वमिध्यात्वे, शेषाणां तिस्रोऽपि दृष्टय इति ७, लेश्यादण्डक एव कृष्णशुक्लपक्षविशिष्टोऽन्यः एगा करहलेसाणं करहपक्खियारण मित्यादि एते अट्ठचउवीसदंडय 'ति, एते चैवम्"ओहो १ भव्वाईहि, विसेसियो २ दंसणेहिं ३ पक्खे
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J
एगा
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वग्गणा
वग्गणा
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हिं ४ | साहि ५ भव्व ६ दंसण ७, पक्खेहि ८ विसिटुले- ज्ञानादयोऽर्था:-- वस्तूनि यस्य तत्त्यर्थम् आह व " श्रहसाहिं ॥ १ ॥ " इति ॥
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वा सम्मदंसण - नाराचरित्ताएँ तिनि जस्सत्था । तं तित्थं पुव्वोदिय-- मिहमन्थो वत्थुपजाश्रो ॥ १ ॥ " ति ॥ तत्र तीचे सति सिद्धाः निर्वृतास्तीर्थसिद्धाः ऋषभसेनगराधरादिवत् तेषां यदेति १ तथा ती तीर्थान्तरे साधुप्यवच्छेदे जानिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्ग मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धास्तेषाम् २ प करणात् - एमा तित्थगरसिद्धां वग्गणे' त्यादि दृश्यम् तीर्थमुक्तलक्षणं तत्कुर्वन्त्यानुलोम्येन हेतुत्वेन तच्छीलतया चेति तीर्थकराः, आद अलोम उतस्सी सपा य से भावतित्यमे तु । कुब्वंति पगासंति उ ते तित्थगरा हियत्थकरा ॥ १ ॥ " इति तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धा ग्रुपभादिवत् तेषाम् ३, अतीर्थकरसिद्धाः सामान्यकेवलिनः सन्तो पेसा गीतमादिवत् तेषाम् ४ तथा स्वयम्-रमना बुद्धात पातयन्तः स्वयंयुद्धास्ते सन्तो ये सि वास्ते तथा तेषाम् ५ तथा प्रतीत्यैकं किञ्चित् वृषभादिकम् अनित्यतादिभावनाकारणं वस्तु बुद्धा: - बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेपाम ६ स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुदानां च योभ्युपधिधुतल तो विशेषः तथाहि स्वयम्बुदानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव योधिः प्रत्येकबुदानां तु तदपेक्षया करकराडादीनामिवेति, उपधिः स्वयम्बुद्धानां पात्रादिर्द्वादशविधः ; तद्यथा"पत्तं १ पत्ताबंधो २, पायट्टुवण ३ च पायकेसरिया || पडलाइ ५ यत्ताणं च ६ गोच्छश्रो ७ पायनिजोगो ॥ १ ॥ विशेष व पागा १० र ११ वे दो पोषि ॥ १२ ॥ "न्ति प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरण इति स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधा धुने अनियमः प्रत्येदांतु नियमतो भवत्येव, लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धानामाचार्य नि धावपि भवति प्रत्येकबुदानां तु देवता प्रयच्छतीति बुद्धचो धिताः - श्राचार्यादिबोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धयोतिसिद्धास्तेषाम् ७ पतेषामेव स्त्रीलिङ्गसिद्धानां पुंलिङ्गसिद्धानां नपुंसकलिङ्गसिद्धानां १० स्वलिङ्गसिद्धानां रजोहरणाद्यपेक्षया ११ अन्यलिङ्गसिद्धानां परिवाजकादितिसिद्धानां १२ हिलिसानां मरुदेवीप्रभृतीनाम् १३ एक सिद्धानामेकैकस्मिन् समये एकैकमिदानाम् १४ अनेकसिद्धानामेकसमये यादीनाम् अष्टशतान्तानां सिद्धानामेका दले १५ तत्रानेक समयसिद्धानां प्रगाथा
"
"
"
(012) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयते तत्र सिखा दियाअनन्तरसिद्ध परम्परसिद्धभेदात् तत्रानन्तरसिद्धाः
3
पञ्चदशविधाः, तद्वत्वमाह
एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं ० जाव एगा एकसिद्धाणं वग्गणा, एगा अणिकसिद्धाणं वग्गणा, एगा पदमसमयसिद्धाणं वग्गणा, एवं ० जाव अणंतसमयसि द्वाणं वग्गणा। एगा परमाणुपोग्गलाखं वग्गणा, एवं जाव एगा अत एसियाणं खंधाणं वग्गणा। एगा एगपरसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा, ० जाव एगा असं जप सोगादाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एगा एगसमयतियागं पोग्गलाणं वग्गणा •जाव असंखेजसमयडितिआणं पोग्गलाणं वग्गणा, एगा एगगुसकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा ० जाव एगा असंखेज •एगा अतगुणकासयाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एवं वष्णा गंधा रसा फासा भाणियन्त्रा जान एगा असंतगुणलुक्खाणं पोग्लायं araणा । एगा जहन्नपए सियाणं खंधाणं वग्गणा, एगा उकस्सपएसियाणं खंधाणं वग्गणा, एगा अजहन्नुकस्सप - एसिया खंधाणं वग्गणा, एवं जहनोगाहण्याणं उक्कोसोगाहणगाणं अजहन्नुकोसोगाहणगाणं जहस्रडितिया णं उक्कस्सद्वितियाणं अजहन्नुकोसद्वितियाणं जहन्नगुणकालगाणं उक्कोसगुणकालयाणं अजहन्नुक्कोसगुण काल - गाणं एवं वगंधर सफासाणं वग्गणा भाणियव्वा, ०जाव एगा अदजन्नुकोसगुणलुक्खा पोग्गलाणं वग्गणा । (०५५)
"
'एमा तित्येत्यादिना स तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम् - यतो नद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो भौतादि प्रवचनं वा, द्रव्यतीर्थता त्वस्याप्रधानत्वाद्, अप्रधानत्वं च भावतस्तरणीयस्य संसारसागरस्य तेन तरीतुमशक्यत्वात्, सावद्यत्वादस्येति भावतीर्थे तु सङ्घः यतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षादानादितो भवाच्च भावभूतान् तारतीति, आह च" जं णाणदंसणचरि-सभावश्रो तब्विवक्खभावा । भवभावश्रो य तारे-इ तेरा तं भावो तिस्वं ॥ १ ॥ " इति त्रिषु पाकोधाग्निदाहोपशमलोमतृष्णानिरासकर्म्ममलापनयनलक्षयेषु ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्येषु तिष्ठतीति त्रिस्थम्, प्राकृतत्वात् तित्यं ग्रह बदाहोवसमादिसु वा, जं तिसु थियमह व दंसणाईसुं । तो ति
सोय उभयं च विसेसविसेसं ॥ १ ॥ " इति 'विशेषणविशेष्यमिति तीचे सति सहा मिति । त्रयो या क्रोधाग्निदाहोपशमादयो ऽधः फलानि यस्य तत् व्यर्थम् ' तित्थंति' पूर्ववत् श्राह च - " कोहfग्गदाहसमणा-दो व ते चैव तिग्नि जस्सऽत्था । होइ तियत्यं ॥ - तिस्तमस्सो फलस्वोऽयं ॥ १ ॥ " अथवा त्रयो १६६
"
9
" बत्तीसा अडयाला, सट्ठी बावतरी य बोधव्वा ।
"
सीईई दुरद्दियअडोत्तरसयं च ॥१॥" एतद्विवरणम् - यदा एकसमयेन एकादय उत्कर्षेण द्वाविंशत् सिध्यन्ति तदा द्वितीयेऽपि समये शत्रिंशद् एवं नैरन्तर्वेश अटी समयान् यावत् द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति तत ऊर्ध्वमवश्यमैवान्तरं भवतीति । यदा पुनस्त्रयस्त्रिंशत आरभ्य अष्टचत्वारिंशदन्ताः एकसमयेन सिध्यन्ति तदा निरन्तरं सप्त समयान् यावत् सिध्यन्ति, ततोऽवश्यमेवान्तरं भवतीति । एवं यदा एकोनपञ्चाशतमादि कृत्या यावत् पष्टिरेकसमयेन सिध्यन्ति तदा निरन्तरं पद समयान् सिध्यन्ति, तदुपरि अन्तरं सभयादिर्भवति, एवमन्यत्रापि योज्यम् । यावत् अदृशतमेकसमयेन यहा सिध्यति तदाऽवश्यमेव समयाय
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(७४) वग्गणा अभिधानराजेन्द्रः।
बग्गु तरं भवतीति । अन्ये तु व्याचक्षते-अष्टौ समयान् यदा घन्योत्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम् , एतेषां चानन्तवर्गणन्ये ऽप्यनैरन्तर्येण सिद्धिस्तदा प्रथमसमये जघन्येनैकः सिध्यत्यु- जघन्योत्कर्षशब्दव्यपदेश्यत्वादेकवर्गणात्वमिति ' जहमोगास्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति, द्वितीयसमये जघन्येनेकः उत्कृष्टतो।
हणगाणं ' ति अवगाहन्ते आसते यस्यां सा अवगाहनाउष्टचत्वारिंशत् ,सर्वत्र जघन्येनैकः समयः,उत्कृष्टतः-"गाथा
क्षेत्रप्रदेशरूपा सा जघन्या येषां ते स्वार्थिककप्रत्ययाज्जथोऽयं भावनीयः" 'बत्तीसे' त्यादि । एवमनन्तरसिद्धानां घन्यावगाहनकास्तेषाम् ' एकप्रदेशावगाढानामित्यर्थः , उतीर्थादिना भूतभावेन प्रत्यासतिव्यपदेश्यत्वेन पञ्चदशवि- त्कर्षावगाहनकानामसंख्यातप्रदेशावगाढानामित्यर्थः , अजधानां वर्गणकत्वमुक्तम् , इदानी परम्परसिद्धानामुच्यते, घन्योत्कर्षावगाहनकानां संख्येयासंख्येयप्रदेशावगाढानामितत्र-'अपढमसमयसिद्धाण' मित्यादि, प्रयोदशसूत्री, न त्यर्थः । जघन्या-जघन्यसंख्या समयापेक्षया स्थितियेषां प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्वद्वितीयस- ते जघन्यस्थितिकाः , एकसमयस्थितिका इत्यर्थः , तेमयवर्तिनः तेषाम् , ' एवं जाय'त्ति करणाद्' दुसमयसि
पाम् , उत्कर्षा उत्कर्षवत्संख्या समयापेक्षया स्थितियेद्वाण तिचउपचछसत्तटुनवदससंखेजासंखेजसमयसिद्धाण'
चलनवजानामिनासा | षां ते तथा तेषामसंख्यातसमयस्थितिकानामित्यर्थः । मिति दृश्यम् ,तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयेषु द्विसमय- तृतीयं कण्ठ्यम् , जघन्येन जघन्यसंख्याविशेषणकेनेत्यसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा-सामान्येनाप्रथमसमाभिधानं
थः गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स तथा, तथाविधः कालोविशेषतो द्विसमयाद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वर्गणा, कचित्
वराणों येषां ते जघन्यगुणकालकास्तेषाम् , एवमुत्कर्षगुण'पढमसमयसिद्धाण' ति पाठः, तत्र अनन्तरपरम्परसमयसि- कालकानामनन्तगुणकालकानामित्यर्थः, तृतीय कराट्यम् , अलक्षणं भेदनकृत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसिद्धा एव एवं भावसूत्राणि षष्टिर्भावनीयानीति । स्था०१ ठा। प्रशा। व्याख्यातव्याः, सादिसमबसिद्धास्तु यथा श्रुता एवेति । वग्गतव-वर्गतपस्-न । यदा घनः चतुःषष्टिषदात्मको बनेनैइतो द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य पुगलवर्गणकत्वं चिन्त्यते
ब-चतुःषष्टिपदात्मकेनैव गुण्यते तदा वर्गा भवति, तदुपलप्रलगलनधर्माणः पुद्गलाः, ते च स्कन्धा अपि स्युरिति
क्षितं तपो वर्गतप उच्यते । तपोभेदे. उत्त० ३००।तविशेषयति-परमाणवो निणदेशास्ते च ते पुद्गलाश्चेति
था भवति वर्गभेतीहापि प्रक्रमाद्वर्ग इति वर्गतपः, तत्र च विग्रहस्तेषाम् , एवं करणात् ' दुपएसियाणं खंधाणं ति
घन एव घनेन गुणितो वो भवति, ततश्चतुःषष्टिश्चचउ-पंच-छ-सत्त-टु-नव-दस-संखेजपएसियाणं असंखे
तुःषषैव गुणिता जातानि परणवत्यधिकानि चत्वारि जपएसियाण' मिति दृश्यमिति । कृता द्रब्यतः पुद्गलचि
सहस्त्राणि एतदुपलक्षितं तपो बर्गतपः । उत्त० ३० अ०। म्ता। अतः क्षेत्रतः क्रियते-'एगा एगपएसे' त्यादि, एक
वग्गय-देशी-वार्तावाम् , दे. ना.७ वर्ग ३८ गाथा। स्मिन् प्रदेश क्षेत्रस्यावगाढाः-अवस्थिता एकप्रदेशावगाढास्तेषाम् ,तेच परमारवादयोऽनन्तप्रादेशिकस्कन्धान्ताः स्युः,
वग्गवग्ग-वर्गवर्ग-पुं० । वर्गगुणितो वग्गों वर्गवर्गो भवति । अचिन्त्यत्वात् द्रव्यपरिणामस्य , यथा पारदस्वैकेन कर्षे
मर्गगुणितवर्गे, उत्त० ३० अ०। पृथक्सजातीयसमूहे, पृ० १ ण चारिताः सुवर्मस्य ते सप्ताप्येकीभवन्ति , पुनार्वामि
उ०३ प्रका स्था० । “अणताहि बग्गवग्गहि " अनन्ताताः प्रयोगतः सप्तव त इति । 'जाव एगा असंख्येज्जपए
भिरपि वर्गवर्गाभिः-वर्गवगैर्वर्गितमपि, तत्र तद्गुणो वर्गों सोगादा गं' ति अनन्तप्रदेशावगाहित्वं तु नास्ति बुद्ग
यथा-द्वबोर्वर्गश्चत्वारः । तस्यापि वर्गों वर्गवर्गः, बथा-वोडश लानाम् ,लोकलक्षणस्यावगाहक्षेत्रस्याप्यसंख्येयप्रदेशत्वादि
एवमनन्तशो वर्गितमपि । चूर्णिकारस्त्वाह-अनन्तैरपि वर्गति । कालन श्राह-'एगा एगसमए' त्यादि । एकं समयं या
वगैः-खण्डखण्डैः। औ०।। वत् स्थितिः-परमानुत्बादिना एकप्रदेशावगाढादित्वेन | वग्गवग्गतव-वर्गवर्गतपस्-न । वर्गवर्गोपलक्षिते तपोभेदे. एकगुणकालादित्वेन वाऽवस्थानं देवां ते एकसमयस्थिति- उत्त० । वर्गवर्गतपः, तुः समुच्चये पञ्चमं पञ्चसंख्यापूरथमत्र कास्तेषामिति । इह च अनन्तलमयस्थितेः बुद्गलानाम- वर्ग एव यदा बर्गेष गुण्यते तदा वर्गवों भवति, तथा च भावाद्-असंखेजसमयद्वितीयाण' मित्युक्तामति । भावतः पु. चत्वारि सहस्राणि परणवत्यधिकानि तावतैव गुणितानि दलानाह-एकेन गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स एकगुणः, जातैका कोटिः सप्तषष्टिलक्षाः सप्तसप्ततिसहस्राणि देशते एकगुणः कालो-वों येषां ते एकगुणकालकाः, तारतम्य- घोडशाधिके अङ्कतोऽषि १६७७७२१६, एतदुपलक्षितं तपो न कृष्णतरकृष्णतमादीनां येभ्यः श्रारभ्यप्रथममुत्कर्षप्रवृत्ति- वर्गवर्गतप इत्युच्यते । उत्त० ३०अ०। र्भवतीति भावस्तेषाम् । एवं सईण्यपि भावसूत्राणि षष्ट्य
पल बग्गसंख्या-वर्गसंख्या-स्त्री० । वर्गः संख्यानं यथा द्वयोवर्गधिकद्विशतप्रमाणानि (२६० ) बाच्यानि विंशतेः कृष्णादि
श्चत्वारः “ सद्विराशिघात" इति वचनात् । संख्याभेदे, भावानां त्रयोदशभिर्गुणनादिति । साम्प्रतं भग-यन्तरण द्र
स्था० १० ठा० ३ उ०। व्यादिविशेषितानां जघन्यादिमेदभिन्नानां स्कन्धानां वर्गणक
वग्गसीह-वर्गसिंह-पुं० । सप्तदशस्य जिनस्य प्रथमभिक्षादावमाह-'एगा जहन्नपएसियाण' इत्यादि जघन्याः सर्वाल्पाः
बक, स०। प्रदेशाः परमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः-द्वय
वग्गु-वल्गु-त्रि० । शोभने, सूत्र०१ श्रु०४ १०२ उ०ात्रामा णुकादय इत्यर्थः, स्कन्धाः अणुसमुदयास्तेषाम् , उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः-उत्कर्षवन्तः उत्कृष्टसंख्याः परमानन्ताः प्रदेशाः
शक्रदेवेन्द्रलोकपालवैश्रवणस्य स्वनामख्याते विमाने, नपुं०। अणवस्ते सन्ति येषां ते उत्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम् , जघन्या
भ०३श०७उ०(वक्तव्यता लोगपाल'शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७१६ म उत्कर्षांश्च जघन्योत्कर्षाः, न तथा ये ते अजघन्योत्क-] पृष्ठे गता।) "दो वग्गू"। स्था०२ ठा०३ उ० । चक्रपुराण्यपुरीः, मध्यमा इत्यर्थः , ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अज-! विभूषितविजयक्षेत्रयुगले, स्था०२ ठा०३ उ०। तच्च ज
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( ७१५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बग्गु
।
म्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमायां शीगोदाया उसरेऽस्तीति स्था० ८ डा• ३ उ० । मधुरे, “ललियं बग्गुं मंजुं मंजुलयं पंसलं कलं मधुरं " पाइ० ना० ८८ गाधा ।
वाच् स्त्री० । वचने, “वग्गु त्ति वा वयति वा बयां ति वा एगट्ठा " श्रा० चू० १ ० । बग्गुफल-वगुफल-म० शोमने, नारिकेरादिके फले, सू० १ ० ४ श्र० २ उ० ।
वाकफल न० धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपा या वाचो वस्त्रादिलाभरू पे फले, सूत्र० १ श्रु० ४ श्र० २३० । वग्गुर - वागुर - पुं० । पुरिमताले नगरे जातिबन्ध्याया भद्रायाः पत्यौ श्रेष्ठिनि, आ० म० १ ० । बम्पुरा- वागुराखी० सुगबन्धने, विषा० १ ० २० भ० । “ पुरिसवग्गुरा परिक्खिता ” बागुरा मृगबन्धनम् । वागुरेव वागुरा समुदायः । ज्ञा० १ ० ५ अ० । ० चू०| शा० ॥ श्र० ।
"
१
वग्गुरिय- वागुरिक- पुं० । बाशश्रयोगेण मृगधातके, बृ० उ० नर्तकमेरे पं० पू० मृगजालजीविनि ०३४० । वग्गुली - वल्गुली - स्त्री० । धर्मपक्षिविशेषे भ० १३०६ उ० । स० । प्रन० । जी० । बर्मजलूकायाम्, आचा० १० १ ० ६ उ० ।
1
,
मुखीचगव वन्गुलीकृत्यगत- पुं० । पत्लीलस्यं कार्य गतं प्रातं येन स तथा । वल्गुलीरूपतां गते, भ० १३ श० ६ उ० ।
66
बग्गुवाह-वगुवादिन् वि० [तु शोभनं बसीलो बल्गुवादी । शोभनवादिनि, व्य० ८ उ० । बग्मू- वाच्- -स्त्री० । बाण्याम्, प्रौ० । स्था० । विशे० । ० । बग्गेज - देशी - प्रचुरे, दे० ना० ७ वर्ग ३८ गाथा । बग्नो- देशी - नकुले, दे० ना० ७ वर्ग ४० गाथा । बग्गोरसमय-देशी-चे वर्ग ५२ गाथा । बग्गोल - रोमन्थ - नामधातुः । उद्गीर्य चर्वणे, “ रोमन्थे रोगाल बग्गोली " ८४४३ रोमन्थयोलादेशः । बग्गोल रोमंथर रोमन्थयते । प्र० ४ पाद वग्घ- व्याघ्र - पुं० । “सर्वत्र लवरामचन्द्रे" ॥ ८२७६ इति रलोपः । द्वितीययोरुपरि पूर्व २२० इति धकारोपरि गकारः । प्रा० शार्दूले, जी० १ प्रति०/ जं० प्रा० प्रा० प्र. डा० । नि० चू० । स्था० । नाबा० । ( वाघ) इति स्थाते सनखपदे जन्ती पर " रम्रो पुत्री बग्यो सदूलो पुंडरीओ य पाइ० वा० ४४ गाथा । बग्घमुह - व्याघ्रमुख – पुं० । गोमुखद्वीपस्य परतो ऽन्तरीपे स्था० ४ ठा० २३० । उत्त० प्रा० । प्रज्ञा० | नं० प्रब० । ( 'अन्तरदीय' शब्दे प्रथमभागे ६७ पृष्ठे व्याक्यो । ) मसीह - व्याघ्रसिंह - पुं० । सप्तदशतीर्थकरस्य कुम्बुनाथस्य प्रथमभिशानायके ० ० १ ०
33
बग्घी
बरपान देशी-साहाय्ये विकसिते व दे० ना० ७ वर्ग
।
८६ गाधा ।
"
बम्बाडिया व्याजाटिका श्री० उपहासार्थतविशेषे, डा० १० उदयककारिण्याम् १०६० परपारिष देशी - प्रलम्बिते सू० २ ० २ ० ० प्रज्ञा० । जी० । “ गलति सीओदगवग्धारियहत्थमेत्तेणं गलंतेरा ति भणिवं होइ" जाव० ४ ० शा० । वग्वारियपाणि-वग्वारियबादि - त्रि० । प्रलम्बितभुजे, म० ३ श० २३० ॥ दशा० । शा० । अन्त० । पञ्चा० । झा० । प्रलम्बितभुजइये, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । वग्वारियमन्नदानकलाब वग्वारियमान्यदामकलाप - वि० अबलम्बित पुष्पमाला समूहे, रा० ।
वग्घारियवुट्टिकाय- बग्घारियवृष्टिकाय- पुं० । अधारावृष्टी, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण ।
वग्घावच्च व्याघ्रापत्य-पुं० । स्वनामख्याते व्याघ्रर्षेरपत्ये, जं० ७ वक्ष० । बद्गोत्रे उत्तराषाढनक्षत्रम् । चं० प्र० १० पाहु० ।
बग्घी - व्याघ्री - स्त्री० । स्त्रीत्वविशिष्टे व्याजम्राती, प्रा० क० १० | तं० । प्रज्ञा० । अनेकेषां व्याघ्राणां विकुर्वणात्रिकायाम् परिव्राजकविद्याविशेषपरिपन्धिन्यां जनविद्यायाम्, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । विशे० प्रा० म० । ल० प्र० ।
व्यानीकल्पमाह
66
"
" यः स्पादाराधको जन्तुः, श्रेयस्तत्कीर्तनाद् ध्रुवम् । इत्यालोच्य हरा किंचिद्, व्याग्रीकल्पं वदाम्यहम्॥ श्रीश जवनाभेव चैत्रस्य कर्हिचित् । प्रतोद्वारमात्य, काचिद यामी समस् निरीश्य खिलाड़ी ता-गावातुरमानसा जैनाः श्राडा जिनं नतुं, बहिस्तो न इडोकिरे ॥३॥ राजन्यसाहसी कोऽपि तस्याः पार्श्वमुपाखुपत् । सा तु तं प्रति नाकात हिंसाचे मनागपि ॥ ४ ॥ विश्वस्य बाडुजस्तस्य कुतो ज्यानीय तत्पुरः । आमिषं मुमुचे साच, दशाऽपि न तदस्पृशत् ॥ ५ ॥ अथ भजनोऽप्येत्य त्यक्रभीस्तत्पुरः क्रमात् । तरसा सरस भक्ष्यं, पानीयं चोपनीतवान् ॥ ६ ॥ तदप्यनिच्छत तां दध्यौ जनता हृदि । नूनं जातिस्मरचाप, तीनमा लाभ्यस्तिर्यग्भवोऽप्यस्था-धनुर्द्धाहारमुक्तितः । एकाचचुषा चैवा, देवमेव निरीक्षते ॥ ८ ॥ अभ्यर्च्य बन्धयुपायैः सार्धाः साधर्मिका घिया । संभावयवभृतां स्फीतसङ्गतिकोत्सवेः ॥ निराकारं प्रत्याक्यानं तथा तस्या अथी। मनसैव अधाना, साच्ची बड़े च तम्मुरा। १० ॥ इत्यं सा तीर्थमादारम्या समृद्धाच्दवासना । दिनान्युपोष्य सप्ताष्ट, नष्टपापा ययौ दिवम् ॥ ११ ॥
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( ७६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बग्घी
चन्दनागुरुभिस्तस्या, वपुः संस्कार्य संशितः । प्रत्याश्या दक्षिणेपणे शैली मूर्ति यवीविशत् ॥ १२ ॥ तीर्थचूडामणिर्जीयात्, सैप श्रीविमलाचलः । भवेयुर्यत्र तिर्थो उप्येवमाराधकाग्रिमाः ॥ १३ ॥ व्याप्रीकल्पमिमं कृत्वा, श्रीजिनप्रभसूरयः । पुरायं यदार्जयस्तेन, श्रीसंघोऽस्तु सुखास्पदम् ॥ १४ ॥ " ती० ४६ कल्प । 66 व्याघ्रा तन्नखाकारः कण्टको 5स्त्यस्या अच् गौ० ङीष् । कण्टकारिकायाम्, जातौ की। ध्याम्रपोषित, पाच० ।
-1
बहू व चि० कुटिले, "कुडिल ई मेगुरे।" पाह०ना० १७३ गाथा कल, देशी-७ वर्ग ३० गाथा । वङ्गच्छा देखी-प्रमयेषु दे० ना० ७ वर्ग ३६ गाथा । वच्च-वज्र-धा० गतौ, "व्रज-नृत-मदां वः ॥ ८ । ४ । २२५ ॥ इत्यन्त्यस्य द्विरुक्तश्वः । वच्चइ । व्रजति । प्रा० ४ पाद । काइच-धागा, "काराहाहिलङ्गादिलो-बच-फमह - सिह पिलुम्पाः " ॥ ८ ४। १६२ ॥ इति कातेच्या शः । वच्चइ । काङ्गते । प्रा० ४ पाद । वर्चस् - ० तेजसि, प्रभावे ० १ ० १ ० पुरीचे, घ० ३ अधि० । वृ० । उत्त० । सूत्र० । गूथे, तं० । श्राचा० । " बच्चं चिट्ठा पुरीसं उच्चारो। " पाइ० ना० ११४ गाथा । गृदस्य समन्ततः स्थाने, यत्र वा वर्थः करोति हिस्स समंततो बच्चे भरगति पुरोहर्ड वा वचेति भवति वा करेति तं वच्चाभूमि भगवति । नि००३ उ० । 'वच्च समुच्छिअङ्गा' वर्चः - वर्चः प्रधानानि समुच्छ्रिताम्यन्त्राण्यङ्गानि वा येषां ते तथा। सूत्र० १ श्रु० ५ ० १ ० । वाच्य वि० अभिधेये, स्पा० ।
बच्च॑सि - वर्चस्विन्- त्रि० । शरीरकलोपेतत्वात् (स० ) विशिष्टप्रभावोपेते, भ० २ ० ५ उ० । रूपवति, श्राचा०२ श्रु० १ ० २ ० १ ० बचो वचनं सौभाग्याद्युपेतं यस्यास्ति स वर्चस्वी । शा० १ ० १ ० । विशिष्टवचन युक्ते
भ० २ ० ५ उ० । रा० ।
बच्चकिमि वर्चस्कृमि - ५० विष्ठालग्रहमौ उदरमध्यस्थविष्ठायामुत्पन्ने न्द्रियजन्तुविशेषे सं० ॥ बच्चकुंडी - वर्चस्कुण्डी-स्त्री० । विष्ठाकुण्ड्याम्, तं० । पचकूप - वर्चस्कूप पुं० । विष्ठाभूतकृपे तै० । वच्चग - वर्चक् न० । दर्भाकारे तृणविशेषे, पृ० २ उ० । श्राचा० । तृणरूपवाद्यविशेष, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पचपर-वचगृह न० । पुरीपोत्सर्गस्याने सूत्र० १ ० ४
अ० २ उ० ।
बच्च संघाय - वर्चः संघात - पुं० । परमपवित्रविष्ठासमूहे, तं० । बच्चामेलिय- व्यत्याग्रेडित न० । अस्थाननिपटने, स्वमतिपतिसूत्रे प्रक्षिप्य पठने । अस्थामयिरतिसहिते, श्रा० भ० १ ० । श्राष० । श्रा० चू० । एकस्मिन्नेव शास्त्रे याम्यस्थाननिबद्धान्येकार्थानि सूत्रा[येक] स्थाने समानीय पडतो व्यत्यास्वेडितम् अथवा
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आचारादिसूत्रमध्ये स्वमतित्रर्चितानि तत्सदृशानि सूत्राणि कृत्या प्रक्षिपतो व्यत्याघ्रेडितम् । अस्थानविरतिकं वा व्य त्याप्रेडितम् । अनु० विशे० । वचाविषय वन्ककविप्पक न० । यत्ककस्तुराविशेषस्तस्य विष्पकः कुट्टितत्वग्रूपस्तेन निष्पन्नं वल्ककविप्पकम् । तृसविशेषविप्यकजे, पंचरवहरणारं परसाई से जहा। तं उरिणयरे उट्टिए सारणाए वचाविप्पर मुंजविप्पए ।" बृ०२३०| वच्चीसग - वर्चीसक- पुं० । तन्त्रीवाद्यविशेषे, श्रणु० । श्राचा० बच्छ वचम् -२० यादी " ॥ ८२ ॥ १७ ॥ इति सं युक्तस्य छः । प्रा० । उरसि शा० १ श्रु० ८ श्र० । उपा० । जं० ॥ श्र० स० । “ वच्छं उरं "। पाइ० ना० २५१ गाथा । गोपुत्रे, “तरण वच्छो" । पाइ० ना० २३५ गाथा । वत्स पुं०। पुत्रे, डिम्ने, स्था० १० डा०३ ३० श्रीदेवस्य पुत्रशतकान्तर्गते सप्तदशे पुत्रे, कल्पः १ अधि० ७ क्षय । स्था० तच्छासिते कौशाम्बीनाम नगरीप्रतिबजे जनपदे, ती० १० कल्प । प्रव० । प्रश्न० । सूत्र० ।
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अथ पूर्वसूत्रापि वत्सविजयदिनियमे विधिप्रत्यात् सूत्रप्रवृतेरित्यन्तरमाह
वच्छस्स विजयस्त थिसहे दाहियेगं सीच्या उत्तरेणं दाहिणिग्रसीदामुहवणे पुरत्थिमेवं तिउडे पच्चत्थिमेवं सुसीमारामदासीपमार्थ तं चैवेति । (०६६)
"
'स' इत्यादि, वत्सस्य विजयस्य निषधो दक्षिणेन तथा तस्यैष शीता उत्तरेणेत्यादि स्पष्टम् न चैवं निषधा दयो लक्ष्याः लक्षणं वत्सविजय इति वाच्यम्, लक्ष्यलक्षणभावस्य कामचारात् । प्रस्तुते व प्रकरणबलात् वत्स एव लक्ष्यत इति, सुसीमा राजधानीमाम्, तदेव-अयोध्यासम्ब पपेष प्रमाणाभिधानाय राजधान्याः पुनरुपम्यासेन न पुनरुक्तिदोषः । जं० ४ वक्ष० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे सीताया महानद्या दक्षिणे चक्रवर्तिविजये, स्था० ८ ठा० ३ उ० । दो बच्छा (०६२ + )।
मेरोर्द्वित्वात् वत्सानां द्वित्वम् । स्था० २ ठा० ३ उ० । स्वनामख्याते ऋषिविशेषे, यो हि प्रसिद्धगोत्रविशेषप्रवर्तको भूत् । कल्प० २ अधि० ८ क्षण । स्था० ।
जे बच्छा ते सत्तविहा पत्ता, तं जहा ते बच्छा ते अग्गिया ते मित्तिया ते सामलिखो ते सेलयया ते असेखाते वीकम्हा |
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वत्सस्यापत्यानि वत्साः- शय्यंभवादयः, स्था०७ ठा० ३३० ॥ वात्स्य पुं० । वत्सस्यापत्यं वात्स्यः । गर्गादेर्यमिति यञ्प्रत्ययः । वत्सापत्ये वत्सगोत्रीयै पुरुषे, “पभवं कच्चायणं वंदे वच्छं सिज्जंभवं तद्दा | नं० । वृक्ष - पुं० । “वृक्षक्षिप्तयोः रुक्खछूढौ ” | ८ | २ | १२७ ॥ इति रुक्यादेशाभावे, वच्छ चूतादी प्रा० पायें दे ०७ वर्ग ३० गाथा । " साही विडवी वच्छो महीरुहो पायवो दुमो
"
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य तरू । पाइ० ना० ५४ गाथा ।
वच्छग-वत्सक-पुं० । क्षुद्रवृक्षभेदे, “ एलगदारगसाणं वच्छुगं वावि कोट्ठए" दश० ५ अ० आ० म० । श्राव० ।
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.वच्छगावई
(७६७) अभिधानराजेन्द्रः।
वच्छाणुपंधिया वच्छगावई-वत्सकावती-स्त्री० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे सी- सेसेण सविसेसं सादरं साहिगयर सातिसययरमिति । ताया महानद्या दक्षिणे स्वनामख्याते विजयक्षेत्रयुगले, जं.। जो एवं वच्छल्लं पययणे ण करेति तस्स पच्छित्ते भरणति ४ वक्षा "वच्छावई विजए पभंकरा रायहाणी" जं०४ वक्षः।। सामरणेण साहम्मियवच्छल्लं ण करेति तो मासलहू । दो वच्छगावई (सू०-६२४)।
विसेसयं भएणतिमेरोत्विाद् वत्सावतीद्वित्वम् । स्था० २ ठा० ३ उ०।
आयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमगपाहुणए। वच्छणयरी-वत्सनगरी-स्त्री० । कौशाम्ब्याम् , श्रा० म० १ गुरुगो य बालवुड़े, सेहे य महोदले लहुओ ॥ ३० ॥ अ०। प्रा० चू०।
पायरियगिलाणाणं वच्छल्लं ण करेति चउगुरुगा पत्तेयं,खवच्छभूमि-वत्सभमि-स्त्री०।कोशलायाः पूर्वधिषये, पा०म० मगस्स पाहुणगस्स य वच्छल्लं ण करेति चउलहुगा पत्तेय
बालवुढाणं पत्तेय मासगुरुगो, सहमहोयराणं पत्तेयं १०। प्रा० चू०।
मासलहुगो । वच्छल्ले त्ति दारं गतं । नि००१ उ० दृष्टान्तः । वच्छवाली-वत्सपाली-स्त्री० । गोप्याम् , “ तत्थेव वच्छ
वच्छल्ले वइरो दिटुंतो-भगवं वइरो-वहरसामी उत्तरावह वाली परमन्नं" श्रा० म०१०। श्राव० ।
गो,तत्थ य दुभिक्खं जायं, पंथा वोच्छिण्णा । ताहे सलो उ बच्छमित्ता-वत्समित्रा-स्त्री० । अधोलोकवासिदिक्कुमारीम
वागो 'णित्यारेहि' त्ति ताहे पडविज्जा आवाहिता संघो हत्तरिकायाम् , स्था० ७ ठा० ३ उ०। प्रा० क०। पा०म०। चडिश्रो उप्पतितो, सेज्जायरो य चारीए गतो पासति श्राव । जम्बूद्वीपे मन्दरे पर्वते नन्दनस्य वनस्य रुचककृट- चिन्तेह य कोइ विणासो भविस्सति जेण संघो जायति देव्याम् , स्था०६ ठा० ३ उ०। पाचू । ऊर्ध्वलोकवासिन्यां इलएण विहलिछिदित्ता भरणति भगवं साहम्मिो ति। ताहे दिकुमारीमहत्तरिकायाम् , जं०५ वक्षः।
भगवया विलइतो इमं सुत्तं सरंतेण साहम्मियवच्छल्लम्मि वच्छराय-वत्सराज-पुं० । वत्सदेशमहाराजे, श्रा. क. १
उज्जुत्ता उब्वत्ता य सज्झाते चरणकरणम्मि य तहा तित्थअ० । वसन्तपुरनगरे रुक्मिणीपतेर्जिनदासश्रावकस्य गो- स्स पभावणाए य जहा वइरेण कयं एवं साहम्मियवच्छपाले, पिं०।
लं कायब्वं । अहवा-दिसणो वच्छल्ले उदाहरणं । निक वच्छल-वत्सल-त्रि० । रक्षके, आव० ४० वत्सलस्तु चू०१ उ०। पुत्रादिस्नेहात्मा । रतिमेदे, हैमः।
अथाधिकारात्परवात्सल्यकारिणामतिस्तोकतामाहबच्छलया-वत्सलता-स्त्री० । वत्सलभावे, अनुरागे , प्रव० भूए अत्थि भविस्स-ति केइ तेलुक्कनमिकमजुमला। १० द्वार । वात्सल्ये, अनुरागयथावस्थितगुणोत्कीर्तनरूपा
जेसिं परहियकरणि-कबद्धलक्खाण वोलिही कालो३६। चारे , शा०१७०७ अ०। प्रशा० श्रा० म० । हितकारि- भूते-अतीतकाले 'अत्यि'त्ति सन्ति-विद्यन्ते वतायाम् , स्था०१० ठा०३ उ०।
तमानकाले भविष्यन्ति-भविष्यत्काले केचिदतिस्ताकावच्छलिज-वत्सलीय-न० । श्रीगुप्तानिर्गतस्य चारणगणस्य एव ते पुरुषाः किंभूनाः ? त्रैलोक्येन स्वर्गमर्त्यपातालप्रथमकुले , कल्प० २ अधि०८ क्षण ।
लक्षणेन तन्निवासिपाणिगणेनेत्यर्थः । नतं क्रमयुगलंवच्छल-वात्सल्य-न० । प्राचार्यग्लानप्राघूर्णकासहबालवृ
येषां ते त्रैलोक्यनतकमयुगलाः। ते के ? येषां पर
हितकरणैकबद्धलक्षाणाम् , परेषाम्-अन्येषां हितं वात्सद्धादीनामाहारोपध्यादिना समाधिसम्पादने, जी०१ प्रति०। व्य० । प्रव० । साधर्मिकाणां भक्तपानीयैर्भक्तिकरणे, उत्त०
ल्यं परहितं-परहितस्य करणं परहितकरणं तस्मिन् पकम
द्वितीयं बद्धं लक्ष वेध्यं तस्य लयहेतुत्वेन कारणे कार्यों२८ अ०।दश। ग०। ध०।
पचाराल्लयो यैस्ते परहितकरणैकबद्धलक्षास्तेषां परहित__इदाणि वच्छल्ले त्ति दारं
करणकबद्धलक्षाणाम् एवंविधानां सताम् , 'बोलिहि' ति साधम्मियवच्छल्लं, आहाराऽऽतीहि होइ सव्वत्थ ।। प्राकृतत्वात् व्यतिचक्राम यतिकामति व्यतिक्रमिष्यति वा
आएसु गुरुगिलाणे, तवस्सिवालादिसेहे य ॥२६॥ कालः समयादिलक्षण इति । गीतिच्छन्दः । ग०२ अधि०। समाणधम्मो साहम्मिश्रो तुल्लधम्मो, सो य साहू साहु-वच्छवाल-वत्सपाल-पुं० । गोवत्सरक्षके , " स्वाम्यस्थात्कृसी चा। चसद्दा-खेत्तकालमासज सावगो वि घेप्पति, ब- पया तस्य , दृष्ट्रा प्रभुमुपागमत् । गोपालवत्सपालाद्या, वृ. च्छल्लभावो वच्छल्लं पुत्रादेरिवेत्यर्थः । कहं केण वा कस्स वा क्षाद्यन्तरिताः स्थिताः ॥२॥" श्रा० क०२०।"वच्छी कायब्वं ? साहूण साहुणा सब्वथामेण एयं कायव्वं पाहा- वा वच्छवाला अ" पाइ० ना०१०३ गाथा । रादिणा दव्वेण, आहारो आदी जेसिं ताणि इमाणि आहा.
वच्छसुत्त-वक्षःमूत्र-न० । हृदयाभरणभूतसुवर्णसङ्कलके , रादीणि । आदिसद्दातो वन्थ-पत्त-भेसजोसह-पादसोयाभङ्गणविस्सामणादिसु य एवं ताव सध्यसि साहम्मियाणं
भ०६ श० ३३ उ०। वच्छल कायब्व, इमेसिं तु विसेसिओ पाएसो-पाहुणो | वच्छण-उक्षन
|वच्छण-उक्षन--पुं। वृपभे, “उक्खा वसहा य बच्छगुरू सूरी गिलाणो जरादिगहितो विमुक्को या तवस्सी-वि णा" पाइ० ना० १५. गाथा। किटूतवकारी वालो, आदिसहातो हो सेहो महोदरो वच्छाणुवंघिया-वत्मानुवन्धिका-स्त्री० । वत्सः पुत्रस्तदनुवय। सेहो-अभिणवपब्वइतो । महोदरो-जो बहु भुंजति । स | धो यस्यां सा वसानुवन्धिका । वैरस्वामिमातुः प्रवज्याविसेमंति एपसिं पाएमादिप्राग जहाऽभिहिनाग सह वि- याम् , स्था०१० अ० ३ पं० भा० । पं० चू।
२००
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(७ ) वच्छायण
अभिधानराजेन्द्रः। वच्छायण-वात्सायन-पुं०। वत्सगोत्रापत्ये साहित्यशास्त्रा-| यिकानि, अनन्तजन्तुसन्ताननिधातननिमित्तत्वात् , तथा चार्य, स्था० ३ ठा०३ उ०।
संधानमस्त्यानकं बिल्वकादीनां जीवसंसक्तिहेतुत्वात् , वच्छावई-वत्सावती-स्त्री०। प्रभङ्कराख्यराजधानीविभूषित- तथा घोलवटकानि उपलक्षणत्वादामगोरससंपृक्तद्विदलाविजयक्षेत्रयुगले, ज०४ वक्षः । स्था।
निच केवलिगम्यसूक्ष्मजीवसंसक्तिसंभवात् , तथा वृन्तावच्छासुत्त-वक्षःसूत्र-न । उत्तरासापरिधानीये, भ० ।
कानि निद्राबाहुल्यमदनोद्दीपनादिदोषदुएत्वात् , तथा स्व
यं परेण वा येषां नाम न ज्ञायते तान्यज्ञातनामानि पुश०३३ उ०। वच्छी-वाची-स्त्री० । चारुदत्तकन्यायां ब्रह्मदत्तचक्रि
पाणि फलानि, अज्ञानतो निषिद्धफलप्रवृत्ती व्रतभासं
भवात् , विषफलेषु प्रवृत्तौ जीवितविनाशात्, तथा तुभार्यायाम् , उत्स०१३ अ०।
च्छमसारं फलं मधूकविल्वादेः, उपलक्षणत्वाच्च पुष्पबच्छीउत्त-वात्सीपुत्र-पुं० । वात्मीपुते , “बच्छोउत्तं जाण
मरणिशिघुमधूकादेः, पत्रं प्रावृषि तण्डलिकादेः, बहुजीहव डिल गहाविधं व रत्तीनं।" पाइ० ना०६१ माथा।। वसंमिश्रत्वात् , यद्वा-तुच्छफलमर्धनिष्पत्रकोमलचबलबच्छीवा-चत्साजीव-त्रि० । वत्सपालके, “पच्छीवा बच्छ- कशिम्बादिकम् , तद्भक्षणे हि तथाविधा वृप्तिरपि नोपाला यो"पाना-१०३ गाथा।
पजायते , दोषाश्च बहवः संभवन्ति, तथा चलितरसबजत्रम्-धा० । उद्वेगे, "असेडर-वोज-बजाः।"॥1
कुथितान्त्रम् , उपलक्षणत्वात् पुषितौदनादि, दिनद्वया१९८ ॥ इति प्रसेर्वजादेशः प्रा०४ पाद ।
तीतं च दधि वर्जनीयम् , जीवसंसक्त्या प्राणातिवातादिवन-०। कुलिशे, "असणी बजं लिसं।" पाइ. ना.
लक्षणदोषसंभवात् , एतानि द्वाविंशतिसंख्यानि वर्जनी
यानि वस्तूनि कृपापरीतचेतसः सम्तो हेभव्यजनाः ! बर्ज१६ गाथा। ब्रज-धा० । गतो, मागध्याम् । “ब्रजेजेः" ॥८॥२४॥
यत परिहरतेति । प्रव०४ द्वार। तिजकारः भादेशभूतत्वात् द्वित्वम् । बजाइ।बजति ! प्रा०।
वर्य-त्रि० । “ध-ग्य-यो जः" ॥८।२।२४॥ इति र्यभागस्य वन-जाहीरके, जं. ३ पक्ष । कुलिशे, पक्षा० १७ बि
जः । प्रा०।०। प्रधाने, स्था०७ ठा०३ उ०। बाकीलिकायाम् , स०। उत्त । गुरुत्वावधः पातकत्वे
वाद्य-न० । वादनकर्मीभूते ततादौ, स्था। म वा बजावद् पजम् । पापे, सूत्र.१७.४.२०।। चउन्विहे बजे पएणत्ते । तं जहा-तते वितते घणे सुबाचा स्था०। पाटदेवलोकविमानमेवे, स.।
ह म 300) बर्ज-त्रि०वर्जनी बलते इति वर्जम् । पापे, विशेबार
'बजे' ति पाथं तत्र-"ततं बीसादिकं झेयं, विततं म। कत्ये, भाव... .। ।बजे तत्
परहादिकम् । धनं तु कांस्वतालादि, बंशादि शुधिरं मभा लौकिक, लोकोत्तरिकंब (तब परिहार'शमे पश्च
तम् ॥१॥" इति । स्था•४ ठा०४ उ.मा .कल्प। मभागे ६६० पदर्शिनम् ।)
मा. .। बर्म-विकामयते विवेकिभिरिति बर्वम् । व्य० १ उक
प्रवच-..। प्रारुतत्वात् अकारलोपः। संथा। पापे, पु.१ मेलि, प्रस०१ माघ द्वार।
उ०२ प्रक०। पर्जनीयवस्तुन्वाहसुमरि चउविगई ४,
वजकंद-बजकन्द-पु.। कन्दविशेषे, प्रब.४ द्वार।प.भा हिम १० विस ११ करगे व १२ सन्चमट्टी व ५ ॥
बजकर-अवधकर-त्रि० । अवचं पापं वजं वा गुरुत्वावधः
पातकत्वेन पापमेव तत्करणशीलोऽषधको बजकरो वा । रयसीभोयणगं चिर १५,
पापकृति, सूत्र. १७०४०२२० । बहुचीय १५ अणंतसंघावं १६ ॥५०॥
वजकिरिया-बर्जक्रिया-स्त्री० । मारमार्थ गृहं निवर्त्य सापञ्चानानुदुम्बराणां समाहारः पञ्चदम्बरी, पटपिप्पस्योदु
धुम्यो दत्वाऽन्यद् गृहं निर्वर्त्य तोपित्वा निवसति । शय्याम्बरक्षकाकोदुम्बरीफलरूपा समयप्रसिद्धा, सा मशका
तरे तद्दत्तगृहवसती, आचा०२७०१०२ १०२ उ०। कारसूक्ष्मबहुजीवभृतत्वावर्जनीया, तथा चतनो विकृत
('कालाइकंतकिरिया' शम्दे तृतीयभागे ४६५ पृष्ठ सूयो-मद्यमांसमधुनवनीतरूपा बाः, सद्य एव तत्र तानेकजीवसंमूर्छनात् , तथा हिमं शुद्धासंख्याकायरूपत्वात् , त्राणि।) तथा विर्ष मन्त्रोपहतवीर्यमपि उदरान्तर्वतिगण्डोलकादि- वजकुमार-वज्रकुमार-पुं० । यादववंशस्यान्तिमपुरुषे, सच जीवविधातहेतुत्वात् मरणसमये महामोहोत्पादकत्वाच्च, द्वैपायनेन दग्धायां द्वारवत्यामुच्छिन्नप्राये यदुवंशे स्वभार्यातथा करका अप्यसंख्याकायिकत्वात् , तथा सर्वापि मृ- यां दृढप्रहारिखं नाम पुत्रमजीजनत् । ती०२७ कल्प। तिका दर्दुरादिपञ्चेद्रियप्राण्युत्पत्तिनिमित्तन्वात् , सर्वग्रहणं
| वजण-वर्जन-न । त्यजने, आव०५०। विशे० । प्रवः । बटिकादि तद्भेदपरिग्रहार्थ तहक्षणस्यापि आमाशयादिदोषजनकत्वात् , तथा रजनीभोजनं बहुविधजीवसंपातसंभ वजण-वदित-त्रि० । वद-कर्तरि तन् । “ भक्त्यादीनां बेन हलौकिकपारलौकिकदोषदुष्टत्वात् तथा बहुबीजं पम्पो- वोलाऽऽदयः" ॥ इति वदस्थाने बजाऽऽदेशः । " तृनः अउकादि प्रतिबीजं जीवोपमर्दसंभवात् , अनन्तान्यनन्तका- णः" ॥८।४ । ४४३ ॥ इति तुनः स्थाने अ
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(७६६) वजत्रण
अभिधानराजेन्द्रः। ण आदेशः । वक्करि , “ पडहु बज्जणउ सुणउ भ- |वजलाढ-वज्रलाट-पुं० । लाटदेशवास्तव्येषु म्लेच्छविशेषेषु, सणउ" प्रा०४ पाद।
प्रा० म०१ अ०। वज्जणाभ-वज्रनाभ-पुं० । अभिनन्दनस्य चतुर्थकुलकरस्य
वज्जवित्ति-वर्यवृत्ति-स्त्री० । प्रधानजीविकायाम् , अनु० । प्रथमभिक्षादायके , स० । ति०।
स्था। वज्जणिज्ज-वजेनीय-त्रि० । बज्यत इति वजनीयम् । परि- वजसामि(ण)-वज्रस्वामिन्-पुं० । आर्यवजे, नि० चू० १उ०। हरणीये , प्रश्न०४ आश्र० द्वार । पापे, विशे०।
वजवेढ-वज्रवेष्ट-पुं० । वज्रकीलिकायाम् , प्रा० चू० ११०। वञ्जतुंड-बज्रतुण्ड-त्रि० । वज्रवद्दमुखे, " कीलियाओ वज्जतुंडियाश्रो विउब्वइ" प्रा० म०२ अ०।
वज्जा-वजा-स्त्री० ।' परिणामिया' शब्दे पञ्चमभागे ६१७
पृष्ठे उदाहतस्य काष्ठश्रेष्ठिभार्यायाम् , आ० म०१० । वअधूली-वज्रधूली-स्त्री० । वज्रवत्तीक्ष्णकणकरेणी, “सा
"अत्तट्टकडं दाउं, जईण असं कर वज्जाओ । जम्हा तं मिस्स उवरिं वज्जली वरिसं वरिसइ" प्रा० म० १ अ०।
पुवकयं, वज्ज ति अश्रो भबे वजा ॥१॥" इत्युक्तलक्षणे वअपरिवजि-वर्ण्यपरिवर्जिन्-त्रि० । वर्जनीयं वयंमकृत्यं दोषयुगुणाधबे, प्राचा०२७० १ ० २ ० २ उ० । परिगृह्यते तत्परिवर्जी । अप्पमत्ते, आव० ४ अ०। ग०। पं०व० । दे०मा०। ('घसहि' शम्ने विशेष वक्ष्यामि ।) वजपाणि-वज्रपाणि-पुं० । वजं वज्राभिधानायुधं पाणाव- वज्जायरिय-बज्राचार्य-पुं० । आर्यवजस्वामिनि, प्रतिः। स्येति बज्रपाणिः । प्रज्ञा०२ पद । उत्त० । कुलिशकरे, उ- वज्जि (ण)-वजिन्-पुं० । शकेन्द्र, भ०७० उ० । त्त०२०। श्रा० म०।
वज्जित्ता-वर्जयित्वा-अव्य० । अपहत्येत्यर्थे, 4.4.३द्वार। बज्जबंध-वज्रबन्ध-पुं० । वज्रवेष्टे, वकीलके, श्रा• चू०
वज्जिय--वर्जित-त्रि. । रहिते, परित्राणविकले, सूत्र १ बञ्जबहुल-वज्रबहुल-त्रि० । वज्रवद्वजं गुरुत्वाकर्म तरह- | श्रु०१ .२ उ०। त्यक्ते, सूत्र. १ श्रु०२ १०२ उ०। उत्तः । लस्तत्करणप्रचुरस्तथा । वध्यमानकर्मगुणे, सूत्र० २ श्रु०
श्राव.।
| वज्जिबावग-पुं० । देशी रक्षा, "वजिवाबगो नाम उच्छ" बञ्जभीय-बजभीत-त्रि०। वज्रं-पापं कल्मषमित्यर्थः । त- । इति वचनात् । ब०१ उ०। लाद् भीतो बजभीतः । असंयमभीते, पं० चू०१ कल्प। वज्जेत्ता-वर्जयितम-त्रब० । मोनुमित्यर्थे, नि.यू.२० उ०। प्रा. चू० । न्य० । श्रा० म०। प्रश्न।
वज्जेयन्च-वर्जवितन्य-त्रि.। त्वाज्ये, सूत्र०१७०१३ म। वजभौरु-अवबभीरु-त्रि। अकारलोपादव-पाषं तभी-| स्था। परिहायें, सूत्र०१७०५ १०। रुः । पापभीते, वृ० १ उ०२ प्रक०।
वज्झ-वध्य-त्रिका वध्ये, "वजो वद्धा।"पार ना०२३६गाथा । वजभूमि-बनभूमि-स्त्री० । लाटदेशस्थे स्वनामख्याते गर्त
वन-वन-धा० । प्रलम्बने, “ वर्वेहव-वेलव-जूरवोमच्छाः कण्टकादिप्रधाने नगरे, श्रा० म०१ अ०। आचा० । ॥८॥४॥३॥” इति बजतेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति । इति वज्जमाण-वाचमान-त्रि० । वादन कार्यमाणे, " छिप्पतरेण वञ्चतेरादेशत्रयादेशः। वेहवइ । वेलवह । जूरवद । उमच्छह ।
वजमाणण" दुततुर्येण वाबमाने, विप०१ श्रु० ३ ०। वञ्चइ । वश्चति । प्रा० ४ पाद। वजयंत-वर्जयत--त्रि० । परित्यजति, सूत्र० १ श्रु० ११ १०।
| वट्ट-वृत्त-त्रि० । “वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पतन-कदर्थिते टः" कचिद्यलोपः । "वज्जतो वीयहरियाई ” वर्जयन्-परिह
॥८॥२॥ २६ ॥ इति संयुक्तस्य टः । प्रा० । प्रयोगोलकवत् रन् । दश०५ अ०।
(अनु०) वर्तुले, शा० १७०१०। स्था० । सूत्र । विशे०। बजर-कथ--धा० । वाक्प्रबन्धे, “कथेजर-पज्जरोवाल- स्था०। श्रा० मा । प्रशा० । भ० । अन्तःशुधिररहिते परिमपिलुण-संघ-चोल-चव-जम्प-सीस-साहाः" ॥
एडलरूपे, भ० १४ श० ७ उ० ।
४॥२॥ इति कथेवजगदेशः । अयं चाप्नैर्देशीषु पठितोऽप्यस्माभि
एगे वट्टे । (मु०-४७) र्धान्चादेशीकृतो विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्टित इति । तथा
वृत्तसंस्थानं मोदकवत् , तच घनप्रतरभेदाद द्विधा । पुनः च-बजरिओ-कथितः, वरिऊण-कथयित्वा, बजरणं
प्रत्येकं समविषमप्रदेशावगाढमिति चतुर्धा; स्था० १ ठा० । कथनम् , बजरंतो-कथयन् , बजरिअब्ब-कथयितव्यमिति
जी०। औ० । रा०। जं० । ध०। प्राचा०। प्रा०म० । . रूपसहस्राणि सिध्यन्ति संस्कृतधातुवञ्च प्रत्ययलोपागमा
बट्टे-तेलापूयसंठाणसंठिए, वडे-रहचकवालसंठाणसंठिए, दिविधिः । प्रा०४वाद।
वट्टे-पुक्खरकस्मियासंठाणसंठिए, बवे-पडिपुरमचंदसंठाणवज्जरिसभनारायसंघयण-वज्रर्षभनाराचसंहनन-न० । ना. | संठिए। गचम्-उभयता मर्कटबन्धः, ऋषभः-तदुपरिवेष्टनपट्टः, की ('जंबूदीव' शन्दे चतुर्थभागे १३७३ पृष्ठे इदं सूत्र व्याल्यालिका अस्थि उभयस्यापि भेदकमस्थि एवं रूपं संहननं य-] तम् । ) विधिप्रतिषेधरूप वर्तने, पो०१ विव० । समाचारे, स्य सः तथा । प्रथमसहनिनि, सू०प्र०.पाहु०। प्रा० चूना प्रा० म०१ अ०।
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वह
"
वर्त्मन्न० मार्गे यहं गाहे ' इति वत्र्म माहपति या
( 200 ). अभिधानराजेन्द्रः ।
नानि मार्गे स्थापयतीत्यर्थः । श्रौ० । वट्ट - वर्तक- पुं० । तित्तिरजातीये, सूत्र० १ श्रु० २ श्र० १ ॐ० । बृहसरे पादे (नि० ० ६ ० ) ( बटेर ) इति, क्याते पक्षिणि, आ० म० १ अ० । प्रश्न० । उत्त० । नि० चू० । जत्वादिमयगोलके, शा० १ ० १८ श्र० । सू० प्र० । वालरमणकविशेषे, अणु० ।
व ंत - वर्तमान - त्रि० । विद्यमाने, सूत्र० १ ० ३ अ० ४ उ०। वर्तयद् - वि० परिवेषयति, स्था० ३ डा० ३७० ।
बढखुर- वृत्तखुर- पुं० । तुरङ्गमे, वृ० ३ उ० । श्रश्वप्रधाने, ओष० नि० ० ।
1
चट्टखेड - वृत्तवेड - पुं० । न० । कन्दुकक्रीडायाम्, स० ७२ सम० ॥ श्र० ।
वढचराग- वृत्तचयक-पुं० मसूरधान्ये, स्था० २ ० ३ ० वट्टणा - वर्तना - स्त्री० । वर्तते ऽनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवतीति वर्तना कालकार्ये आत्मधारणे " बालक्खणो । कालो, जीवो उदयोगलक्खयो " उत्त० २८०
,
बट्टभावपरिणय- वृत्तभावपरिणत त्रि० वर्तुलाकृती, जं०
।
१ वक्ष० ।
।
वद्रुमाण - वर्त्तमान - त्रि० । व्यवस्थिते, स्था० ६ ठा० ३ उ० । व्याप्रियमाणे पञ्चा० १२ चिय० पं० सू० तपोऽर्द्धं प्रायश्चित्तं वहति, व्य० १ उ० । मासुदेसि ( ) वर्त्तमानमुखैषिन् त्रि० । वर्तमान सुखमेव सुखमिड लोकसुखमाधाकर्मिका गुपभोगजमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमानमुखैषिण। समुद्रयावसयत् तत्कालावाप्तसुखलवा सक्तचेतस्सु, अनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकः श्रीमानुभवनेषु सूत्र० १ ० १ ० ३ ० वट्टमाणी- वर्तमानी श्री० बार्तायाम्, वर्तम्यां च "कुस लस्स वा वट्टमाणीति " श्र० म० १ ० । वट्टलोह - वृत्त लोह - न० । त्रिकुटीत्यभिधाने गोलायसि, श्री०/ बट्टवेयपव्यय- वृत्तवैताढ्यपर्वत पुं० वृत्तः पल्पाकारत्यात् वैताढ्यो नामतो वृत्तवैताढ्यः । स च पर्वतश्चेति वृत्तवैताख्यपर्वतः । स्वनामख्याते पर्वते, स्था० ।
,
>
जंबूमंदरस्स पत्रयस्स उत्तरदारिणेण हेमबएरभवएस बासे दो वट्टवेयपचया पचता तं जहा बहुस मउल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव सद्दावाई चेव, वियडाबाई चैवास्थ से दो देवा महड्डिया ० जाय पलियोवमद्वितिया परिवति, तं जहा - साई चेव, पभासे चैव जंबूमंदरस्स उत्तरदाहिणं हरिवासरम्मसु वासेसु दो वट्टवेयङ्कपच्या पत्रला, जहा बहुसमतुला जाव गंधाबाई चेव, मालरंतपरियाए चैव । तत्थ खं दो देवा महड्डिया चेव पलिवयोमट्ठिया परिवसंति, तं जहा - अरुणे चैव, पउमे चैव । (०८७+)
।
वडभ
'जंबू' इत्यादि “ दो वट्टवेयपव्वय " ति द्वौ वृत्तौ पल्याकारत्वात् वैताढ्यौ नामतः तौ च तौ पर्वतौ चेति विग्रहः सर्वतः सहस्रपरिमाणो रजतमयी तत्र द्वैमयते शब्दापाती उत्तरतस्तु पेरण्यवते विकापातीति
1
तत्थ ' ति तयोर्वृत्तवैताढ्ययोः क्रमेण स्वातिप्रभासौ देवी प्रसतः, तद्भवनभावादिति । एवं हरिगन्धापाती रम्यकवर्षे माध्यवत्र्यायो देवी कमेति । चतुर्थस्थाने चत्वारि
सव्वे विणं वट्टवेयपव्वया दस जोयणसयाई उड्डुं उश्चत्तेणं दस गाउयसयाई उव्वेहेणं सव्वत्थ समा पल्लगसंठासंठिया दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पष्मत्ता । (सू०७२२) सर्वेऽपि वृत्तवैतापर्यताः विंशतिः प्रत्येकं पञ्च हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरस्यकेष्वेषां शब्दावती विकटावती गन्धावती माल्यवत्पर्यायान्यानां भावादिति दीर्घतान्यव्यवच्छेदार्थमिति । स्था० १० ठा० ३ उ० । वट्टावरय- वर्तावरक- पुं० । लोष्ठकप्रधाने, भ० १६ श० ३ उ० ॥ दट्टि वर्ति स्त्री० गुटिकायाम्, श्री०
। ।
-
वह्निमाण चरण- वर्त्यमानचरक पुं० । परिवेष्यमाचर, श्री० वमिदेशी अतिरिक्त दे० ना० ७ वर्ग ३४ गाथा | वड्डिय--वर्तित - त्रि० । वृत्ते, प्रश्न० ४ श्रश्र० द्वार । श्राचा० । औ० । शा० । बद्धस्वभावानुपचित करित्यभावे, रा०1 बहु-बहु १० एकमये भाजने ०१ उ० कमटके, ०१७० बहुकर बकर-० । पक्षमे विद्यासिद्धिमे बी० ।
। ।
9
आ० क० १ श्र० ।
बहुल-पल त्रि० । वर्तुले, "पेटालमिकल बहुला परि
4
मंडलsत्थम्मि " । पाइ० ना० ८४ गाथा ।
बट्टे लिखेडग - वट्टेल (ली) खेटक पुं० अर्बुद गिरिसविधे खनामख्याते ग्रामे, यत्र वटगच्छः प्रथममजनि । व्य०२ उ० । " अथ युगनवनन्दमिते, वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते । पूर्वावनितो विहरन् सोऽर्बुदसुगिरः सविधमागात् ॥ १६॥ तत्र वट्टेलिखेटक सीमा पनि संस्थयरपटाः सुमुहूर्ते स्वपदेऽष्टी, सूरीन् संस्थापयामास ॥ २० ॥ " ग० ३ अधि० ।
3
वड- वट- पुं० । वृक्षभेदे, प्रशा० १ पद । प्रा० । श्रौ० । श्रा० म० वण्टके, विभागे, आ० चू० ५ अ० । अनु० । मत्स्यभेदे, प्रशा० १ पद । वटवृक्षाधो दीक्षा भवति । वृ० १ उ० २ प्रक० वडग - वटक-न० | त्रिसरीमये निकृष्टकौशेय सूत्रे, झा० १ श्रु०
१ श्र० ।
बड़गच्छ - चटगच्छ-पुं० । वट्टेलीखेटकसीमावनिसंस्थवरवटाध संस्थापिते वृच्छे ग०३ अधि० ('पहेली खेडग' शब्दो वीच्यः । )
वडगर- वटकर- पुं० | मत्स्यभेदे, जी० १ प्रति० । प्रशा० । वडपायच चटपादप पुं०/पटनामके वृतविशेषे, उत्त० १३७०। वडप्पय- वडप्पक- पुं०। काष्ठयन्त्रविशेषे, प्रश्न०३ श्रश्र द्वार ।
पद्म-वदभत्रि० महको दशा० १० अ० । एकपार्श्व
। ।
-
हीने, प्रव० १२० द्वार । नि० चू० । श्रघ० । वृ० । वामनै, विनिर्गत पृथिवीवडभे, श्राचा० १० २ अ० ३ ३० ।
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बडभिया
चडभिया-वटभिका - स्त्री० । वकाधः कायायाम, श्र० । म उहकोठाधिपत्यां दास्याम्, ग० ।
वडर- वटर - पुं० । मूर्खे, अ० २३० ।
(cot) अभिधानराजेन्द्रः
世
बड़-वर्धक - पुं० | सूत्रधारे, स्था० ७ डा० ३ उ० । सूत्र० । रथादिनिमयितरि, स० १४ सम० । नं० । F रहयारों वहुइयो" पाइ० ना० १०३ गाथा ।
पुं० पा० बङ्गरण परिनन० अम्युटे सुत्रधारे, स्था० ७
डा० ३ उ० ।
1
बनय हृदयन्तक-पु० क्रमशो वृद्धि प्राप्ते विहारे, ०० बहुन ति जहा भट्टारओ पगागी पम्पजओ पच्छा केव बनाया पता यहा समसाह स्सी संपरिबुडा " । पं० चू० २ कल्प । चट्टी वार्धनी बीकायाम् ०२०
पाइ० ना० २२६ गाथा ।
महापाताले स्था० ४ ठा० २३० ।
वलया [य] मुख- पुं० । चतुर्षु महापातालेषु मध्ये प्रथमे म
वडवामुह बडवामुख १० चतुर्षु महापानानेषु मध्ये प्रथमे बडप्पय-वृन्द-१०वस्थाने प्यणादेशः । महत्ये, " त्वतलोः व्ययणः " ॥ ८ ॥ ४ । ४३७ ॥ अपभ्रंशे त्वतलः प्रत्ययस्यादेशो भवति ।" परिपावि ग्रह " प्रायो ऽधिकाराद्- "बहुत्तण्हो तरोग” प्रा० ४ पाद । बडूमाग वर्धमान पुं० उत्पतेरारभ्य ज्ञानादिभिर्धति वर्द्धमानः । ध० २ अधि० कल्प० । 'वड्डर नायकुलं ति य, तेग जिलो वज्रमागो नि " । ध० २ अधि० । स्वकुलं समृतिया पितृभ्यां कृतवर्धमानाभिधाने, पा० । वीरजिनेन्द्रे, स्यामयमय जाने चर्थिक, स० नं०
6
ना० २५७ गाथा ।
विलपने "ल"
वडवड विलप धा० ॥ ८ । ४ । १८ ॥ इति विपूर्वकस्य लपेर्वडवडादेशः । वडचडइ । विलपति । प्रा० ४ पाद । वडवा पडवा स्त्री०
घोटक्याम्, "तुगिया बडवा "
हापाताल, स्था० ४ ठा० २ उ० ।
1
बडह - देशी - पक्षिभेदे, दे० ना० ७ वर्ग ३३ गाथा । वडार वटाचार-पुं० । बडो वण्टगो वा एगहूं । श्ररितो श्रायरितो बडा इति विभागव्यवहारे, निच्०:३० । प्रा०वृ० । वडाली - देशी - पङ्क्ङ्कौ, दे० ना० ७ वर्ग ३६ गाथा । बसिय अवतंसक-पुं० शेखरके, कपूरे च अवतंसफ इवावतंसकः । प्रधाने, स० २०० सम० । रा० ॥ श्र० । ज्ञा० । स्था० । श्रेष्ठे जं० १ वक्ष० ।
वर्डिसा - अवतंस [ सि] का स्त्री० । किन्नरनाम्नः किन्नरेन्द्रस्या
-
-
,
ग्रमहिष्याम्, स्था० ४ ठा० १ उ० भ० ।
बडिया - वटिका -- स्त्रा० । वरी इति ख्यांत पदार्थ, प्रज्ञा० १ पद । बड्डि- देशी - कृपतुलायाम्, दे० ना० ७
प्र० वर्षपट्टिकाचा श्री०
इंडिस पडिशन० प्रान्तम्यतामिये लोहकीलके, उत०३० वडिसामिस- वडिशामिष- न० । मत्स्यगलमांसे, द्वा० २३ द्वा०| बहु-टु-पुं० ब्राह्मणे ब्रह्मचारिणि विशे०। ब-बटुक-न० मडके, पृ० ३३० स्वनामख्याते वासा रसीराजे, आ० म० १ ० । बडुकर-बटुकर-पुं० | गुडाकरपुरजाते स्वनामख्याते वादपराजित परिव्राजकजीवे, श्रा० क० १ श्र० । श्रा० म० । बर्डेस अवतंसक-पुं० [अवतंसक इयायतंसकाः शिखरे,
बा० १ श्रु० १ ० ।
"
/
बहु-वृद्ध त्रि० "शीघ्रादीनां वदिज्ञादयः ॥ ८४ ॥ ४२२ ॥ इति वृद्धस्थाने वडादेशः । प्रा० । महात, आव० ४ श्र० । वटुबर- बृहत्तर- त्रिदित्यासिद्धिः अतिशयेन
महत्तरे, प्रा० । दे० ना० ।
बहुकुमारी वृद्धकुमारी-खी० दिन (ण) यशब्दे उदाहरिव्यमा मालिने आत्मसमर्पयति श्रीभेदे नि००१० दश० कौमार्ययस्थायामेव वाक्यमनुभवन्यां स्त्रियाम् नि० चू० १ उ० । वड्ड-वृद्धदु-पुं० । वृडौ, “क्कथ वर्धा ढः ॥ ८ । ४ । २२० ॥ इति धस्य ढः । वद । वर्धते । प्रा० ४ पाद ।
२०१
"
० चू० ( 'वीर' शब्दे सर्वो वक्तव्यतां वच्यामि । ) खनामख्याते चान्द्रकुलीये, श्राचार्ये " चान्द्रे कुले सद्वनकक्षकल्पे, महादुम धर्मफलप्रदानान् दायाग्यिताशादिशाशाखा, श्रीमानो मुनिनायकोऽभून् ॥ १ ॥ भ०७१ श० । द्वापष्टितमे महाग्रहे, स्था०२ ठा०३ उ० चं०प्र० कल्प० ।
99
वर्ग ३६ गाथा |
वडिय - वर्धित - त्रि० । वृद्धिमुपनीते, भ० श० ३३ उ० । पय-पतिक- ० मिनपुंसके यस्य हि आय राजान्तः पुरमहलकपदाच्यादिनिमित्तं यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्त्वा वृपणौ गालितौ भवतः । ग० १ अधि० । ध० | पं० भा० । पं० चू० ।
99
वण-वन- न० | एकजातीयवृक्षसमुदाये, भ० १०८ उ० । कल्प० । जी० : अनु० । ज्ञा० । स्था० । उद्याने, न० खंड वं । पाइ० ना० २६६ गाथा । नगरविप्रकृठे गहने, सूत्र० १ ० १४ अ० भ० शा० । अटव्याम् सूत्र० १ श्रु० ३ ० २ ३० । तरुविशेषे, जी० ३ प्रति ४ अधि० । वनस्पतौ कर्म० ४ कर्म० । सलिले, न० श्रं सलिलं वर्ण वा रि नीरं उदयं दयं पयं तोयं " पाइ० ना० २८ गाथा । व्रण - पुं०। प्रति गच्छतीति व्रणः । अनु० । विस्फोटकादि
6i
66
<
ते ० २ ० ० ( भावयोविस्तर शब्दे पञ्चमभागे १२६ पृष्ठे गतः ) ('काउस्सम्य' शब्दे तृतीयभागे चिकित्सायां व्याख्यातोऽयं वणः । ) ( व्रणमा लिम्पति अत्र सूत्राणि कायवण ' शब्दे तृतीयमागे ४१३ गतानि लाख अनुयऐन गावाच भोव्यमित्यर्थः सूचकत्यादमपुष्पिका ध्ययने दश० १ ० १ ३० । प्रहारे, " वं पहारो
ना० २२४ गाथा ।
पाइ०
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(८०२) वणंत अभिधानराजेन्द्रः।
वएप्फह वणंत-बनान्त-पुं० । वनविभागे, शा०१ श्रु०१०।
काइया य, अपज्जतसुहुमवणस्सइकाइया य । सेत्तं सुहुवणकम्म-बनकर्मन-न० । वनविषयं कर्म वनकर्म । वनच्छेद
मवणस्सइ काइया। (सू०२०)से किं तं बादरवणस्सनविक्रयरूपे कर्मत उपभोगपरिभोगवतातिचारे, भ० ८
इकाइया ? बादरवणस्सइकाइया दुविहा परमत्ता, तं जहाश०५ उ० । यच्छिन्नानामच्छिन्नानां च तरुखण्डानां पत्राणां पुष्पाणां फलानां च विक्रयणं वृत्तिकृतेन । प्रव० ६ द्वार ।
पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइया य, साहारणसरीरबादरयत्र वा समुदितं वनं क्रीत्वा ततश्वित्त्वा विक्रीय च तल्लामेन वणस्सइकाइया य । (सू०-२१) प्रज्ञा० १ पद । जीवति, ध०र०२ अधिक। आव०। प्राचा० । छिन्नाछिन्न- वनस्पतिकायस्तु समस्तलोकप्रत्यक्षपरिस्फुटजीवलिङ्गकचनपत्रपुष्पफलकन्दमूलतृणकाष्ठकं वा वंशादिविक्रयः कण- लापोपेतः , अतः स एव तावत्प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धेदलपेषणं वानकच्छादिकरणं च । तस्मिन् , ध० २ अघि० । नायातस्यास्य चत्वायनुयागद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामआ० चू० । उपा०।
निष्पने निक्षेपे वनस्पत्युद्देशकः, तत्र च वनस्पतेः स्ववणकम्मंत-चनकर्मान्त-न । यत्र वनकर्म क्रियते तादृशे गृहे।
भेदकलापप्रतिपादनाय पूर्वप्रसिद्धार्थातिदेशद्वारेण नियुक्ति
कृदाहश्राचा०२ श्रु०१चू०२ अ०२ उ० । वणकर-वणकर-पुं० । व्रणं देहे क्षतं स्वयं करोति रुधि- पुढवाए जे दारा , वणसइकाए वि हुंति ते चेव । रादिनिर्गलनार्थमिति व्रणकरः । व्रणजनके , स्था० ४ |
नाणती उ विहाणे , परिमाणुवभोगसत्थे य ॥१२६॥ ठा०४ उ०।
यानि पृथवीकायसमधिगतये द्वाराण्युक्तानि तान्येव वणखएड-वनखएड-पुकाएकजातीयवृक्षसमूहे,भ०५ श०७ वनस्पती द्रष्टव्यानि नानात्वं तु प्ररूपणापरिमाणोपभोगशउ०। अनेकजातीयोत्तमवृक्षेषु, स्था०२ ठा०४ उ० । ज०। नेषु चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यमिति। (वनखण्डवर्णकः लवणसमुद्रवनखण्डबर्णनावसरेऽस्मिन्नेव
तत्रादौ प्ररूपणास्वरूपविज्ञापनायाहभागे ६०४ पृष्ठे गतः।)
दुविह वणस्सइजीवा , सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि । बणग्गि-चनाग्नि-पुं०। वनाग्नौ, "दावो दवो वणग्गी।"
सुहुमा य सबलोए, दो चेव य बायरविहाणा॥१२७॥ पाइ० ना० १५१ गाथा। वखचर-वनचर-पुं० । पुलिन्द्रशवरादिके प्रारण्यके मनु- वनस्पतयो द्विविधाः-सूक्ष्मा , बादराश्च । सूक्ष्माः सर्व
लोकापत्राश्चतुह्याश्च न भवन्त्यकाकारा एव, बादव्ये, प्रश्न.२ श्राश्र० द्वार।
राणां पुनढे विधाने। वसचिंता-व्रणचिन्ता-स्त्री० । क्षतनिरूपणे, पञ्चा०१६ विवन
के पुनस्ते बादरविधाने इत्यत पाहवणण-बनन-न० । वत्सस्यान्यमातरि योजने, प्रश्न०२ श्राश्रद्वार।
पत्तेया साहारण , बायरजीवा समासो दुविहा । वणतिगिच्छा-व्रणचिकित्सा-स्त्री० । व्रणति गच्छतीति व्र बारसविहऽणेगविहा, समासो छब्बिहा हुंति ॥१२८॥
णः, वणस्य चिकित्सा । चारित्रपुरुषस्य योऽतिचाररूपो बादराः समासतः द्विविधाः-प्रत्येकाः, साधारणाश्च । तत्र भावव्रणः । दशविधप्रायश्चित्तभेषजेन कायोत्सर्गाध्ययने प्र- पत्रपुष्पमूलफलस्कन्धादीन् प्रति प्रत्येको जीवो येषां ते प्रत्येतिपादितऽधिकारविशेष, अनु०।
कजीवाः, साधारणास्तु परस्परानुविद्धानन्तजीवसंघातरू
पशरीरावस्थानाः, तत्र प्रत्येकशरीरा द्वादशविधानाः सावयतेल-व्रणतैल-न० । व्रणरोहके तैले, व्य०५ उ०।
धारणास्वनेकभेदाः, सर्वेऽप्येते समासतः षोढा प्रत्येवरणदव-वनदव-पुं० । वनाझौं, झा०१७०१ अशाचू०।
तव्याः। प्राचा० १ श्रु०१०५ उ०। वणपव्यय-वनपर्वत-पुं० । वनमध्यपर्वते, प्राचा०२ श्रु०१
प्रत्येकतरुद्वादशभेदप्रत्यायनायाहचू० ३ ० ३ उ०।
से किं तं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया?, पत्तेयसरीवणपिसाय-वनपिशाच-पुं० । पिशाचभेदे, प्रशा० १ पद।।
रबादरवणस्सइकाइया दुवालसविहा परमत्ता , तं जहावणप्फ(स्स)इ-वनस्पति-पुं० । “बृहस्पति-वनस्पत्योः सो।
(सू० २२)प्रज्ञा० १ पद। वा" ॥८॥२॥६६॥ इति संयुक्तस्य सो वा । वणस्सई। वलफई । प्रा० । लताादरूपे एकेन्द्रियजीवशरीरे, प्रशा०
रुक्खा गुच्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पचगा चेव । १ पद।
तणवलयहरियोसहि-जलरुहकुहणायबोधव्या।१२६। अथ वनस्पतिकायप्रतिपादनार्थमाह
वृश्च्यन्त इति वृक्षास्ते द्विविधाः-एकास्थिका , बहुबीजसे किं तं वणस्सइकाइया, वणस्सइकाइया दुविहा परमत्ता, |
काश्च । तत्रैकास्थिकाः-पिचुमन्दाम्रकोशम्बशालाकोलपीतं जहा-सुहुमवणस्सइकाइया य, बादरवणस्सइकाइया य ।
लुशल्लक्यादयः , बहुबीजकास्तु उदुम्बरकपित्थास्तिकति
न्दुकबिल्वामलकपनसदाडिममातुलिङ्गादयः, गुच्छास्तु(सू०-१६) से किं तं सुहुमवणस्सइकाइया ?, सुहुमवण- वृन्ताकीकर्षासीजपाऽऽडकीतुलसीकुस्तुम्भरीपिप्पलीनीस्सइकाइया दुविहा परमत्ता, तं जहा-पजतसुकुमवबस्सइ. त्यादयः, गुल्मानि तु--नवमालिकासेरियकको--
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वण'फड़ अभिधानगजेन्द्रः।
वणुप्फा रिण्टकबन्धुजीवकवाण करवीरसिन्दुवारविचकिलजाति-- साम्प्रतं प्रत्येकशरीरजीवानामेकानेकाधियूथिकादयः , लतास्तु-पद्मनागाऽशोकचम्पकचूतवास
ष्ठितत्वप्रतिपिपादयिषयाऽऽहन्त्यतिमुक्तककुन्द लताद्याः, चल्लयस्तु-कुमाराडीकालि- नाणाविहमंठाणा, दीसंती एगजीविया पत्ता । ङ्गोत्रपुषीतुम्धीवालुयेलुकीपटोल्यादयः, पर्वगाः पुनः-रखुबीरणशुण्ठशरवेत्रशतपर्ववंशनलवेणुकादयः, तृणानि
खंधा वि एगजीवा, तालसरलनालिएरीणं ॥ १३३ ॥ तु-श्वेतिकाकुशदर्भपर्वकार्जुनसुरभिकुरुविन्दादीनि , बल
नानाविधम्-भिन्न संस्थानं येषां तानि नानाविधसंस्थायानि च-तालतमालतकलीशालसरलाकेतकीकदलीकन्द
नानि, पत्राणि यानि चैवभूतानि दृश्यन्ते तान्येकजीवाधिल्यादीनि,हरितानि-तन्दुलीयकाधूयारुहवस्तुलबदरकमार्जार
प्ठितान्यवगन्तव्यानि, तथा स्कन्धा अप्येकजीवाधिष्ठितापादिकाचिल्लीपालक्यादीनि,औषध्यस्तु-शालीवीहिगोधूमय
स्तालसरलनालिकेर्यादीनाम् , नात्रानेकजीवाधिष्ठितत्वं संचकलममसूरतिलमुद्गमापनिष्पावककुलत्थाऽतसीकुसुम्भको
भवतीति अवशिष्टानां त्वनेकजीवाधिष्ठितत्वं सामर्थ्यात्प्रति
पादितं भवति । द्रवकङ्ग्वादयः, जलरुहा-उदकावकपनकशैवलकलम्बुकापावककशेरुकोत्पलपद्मकुमुदनलिनपुरादुरीकादयः , कुहुणास्तु
साम्प्रतं प्रत्येकतरुजीवराशिपरिमाणाभिधित्सयाऽऽहभूमिस्फोटकाभिधानाः आयकायकुहुणकुण्डुक्कोहलि- पत्तेयापज्जत्ता, सेढीएँ असंखभागमित्ता ते । काशलाकासर्पच्छत्रादयः, एषां हि प्रत्येकजीवानां वृ- लोगासंखप्पज-त्तगाण साहारणाऽणंता ॥ १३४ ॥ क्षाणां मूलस्कन्धकन्दत्वकशालप्रवालादिष्यसंख्येयाः प्रत्ये- प्रत्येकतरुजीवाः पर्याप्तकाः संवर्तितचतुरस्नीकृतलोकनेके जीवाः, पत्राणि पुष्पाणि चैकजीवानि मन्तब्यानि,
ण्यसंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशितुल्यप्रमाणाः, एते च पु. साधारणास्त्वनेकविधाः , तद्यथा-लोहानिहुस्तुभायिका
नर्वादरतेजस्कायपर्याप्तकराशेरसंख्येयगुणाः, ये पुनरपर्याऽश्वकर्णीसिंहकर्णीशृङ्गवेरमालुकामूलककृष्णकन्दसूरणक
प्तकाः प्रत्येकतरुजन्तवः ते ह्यसंख्येयानां लोकानां यावन्तः न्दकाकोलीक्षीरकाकोलीप्रभृतयः । सर्वेऽप्येते संक्षेपात् घोढा |
प्रदेशास्तावन्त इति, एतेऽप्यपर्याप्तका बादरतैजस्कायजीभवन्तीत्युक्तम्।
वराशेरसंख्येयगुणाः, सूक्ष्मास्तु बनस्पतयः प्रत्येकशरीरिणः के पुनस्ते भेदा इत्याह
पर्याप्तका अपर्याप्तका वा न सन्त्येव, साधारणास्वनन्ता अग्गबिया मूलबिया, खंधषिया चेव पोरवीया य । इति विशेषानुपादानात् साधारणाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकाचीयरुहा समुच्छिम-समासओं वणफई जीवा।।१३०॥
पर्याप्तकभेदेन चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगनन्तानां लोकानां
यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति, अयं तु विशेषः-साधारणतत्र कोरिण्टकादयोऽग्रवीजाः, कदल्यादयो मूलबीजाः,
बादरपर्याप्तकेभ्यो बादरा अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः बादनिहुशलक्यरणिकादयः स्कन्धवीजाः , इक्षुवंशवेत्रादयः,
रापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माः,अपर्याप्तका असंख्येयगुणास्तेभ्योऽपि पर्ववीजाः, बीजरूहाः शालिवाह्यादयः, सम्मर्छनजाः पनि
सूक्ष्माः पर्याप्तका असंख्येयगुणा इति।। नीश्टङ्गाटकपाठशैवालादयः, एवमेते समासात्तरुजीवाः
सम्प्रत्येषां तरूणां यो जीवत्वं नेच्छति तं प्रति जीवत्वप्र षोढा कथिताः, नान्ये सन्तीति प्रतिपत्तव्यम् ।
तिपादनेच्छया नियुक्तिकृदाहकिंलक्षणः पुनः प्रत्येकतरवो भवन्तीत्यत आह
एएहि सरीरेहि, पञ्चक्खं ते परूविया जीवा । जह सगलसरिसवाणं, सिलेससिरसाणवत्तिया वट्टी।
सेसा आणागिझा, चक्खुणा जे न दीसति ॥१३५ ॥ पत्तेयसरीराणं, तह होंति सरीरसंघाया ॥ १३१ ॥
एतैः पूर्वप्रतिपादितैस्तरुशरीरैः प्रत्यक्षप्रमाणविषयैः प्रत्ययथेति-द्रष्टान्तोपन्यासार्थः, यथा-सकलसर्षपाणां श्लेषय
तम्-साक्षात् ते वनस्पतिजीवाः, प्ररूपिताः-प्रसाधिताः, तीति श्लेषः- सर्जरसादिस्तेन मिश्रितानां वर्तिता
तथा हि-न घेतानि शरीराणि जीवव्यापारमन्तरेणैवंविवलिता वर्तिः तस्याश्च वर्ती प्रत्येकप्रदेशाः क्रमेण सि
धाकारभाजि भवन्ति, तथा च प्रयोगः-जीवशरीराणि वृद्धार्थका स्थिताः, नान्योन्यानुवेधेन, चूर्गिणतास्तु कदा
क्षाः, अक्षायुपलब्धिभावात्, पाण्यादिसंघातवत्, तथा कचिदन्योऽन्यानुवेधभाजोऽपि स्युरित्यतः सकलग्रहणम् , य
दाचित् सचित्ता अपि वृक्षाः, जीवशरीरत्वात् पाण्यादिसं थाऽसौ पर्तिस्तथा प्रत्येकतरुशरीरसंघातः , यथा च
घातवदेव, तथा मन्दविज्ञानसुखादिमन्तस्तरबः, अव्यक्तचेसर्पपास्तथा तदधिष्ठायिनो जीवाः, यथा श्लेषविमि
तनानुगतत्वात् सुप्तादिपुरुषवत् , तथा चोक्तम्-" वृक्षादधितास्तथा रागद्वेषप्रचितकर्मपुद्गलोदयमिश्रिता जीवाः ,
योऽक्षाघुपलब्धिभावात् , पाण्यादिसंघातवदेव देहाः । पश्चिमार्द्धन गाथाया उपन्यस्तदृष्टान्तेन सह साम्यं प्रति
तद्वन्सजीवा अपि देहतायाः, सुप्तादिवत् ज्ञानसुखादिमन्तः पादितं तथेति शब्दोपादानादिति ।
॥१॥' शेषा इति-सूक्ष्मास्ते च चक्षुषा नोपलभ्यन्त इ. । अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाह
त्याशया ग्राह्या इति, आज्ञा च भगवद्वचनमवितथमफद्धिजह वा तिलसकुलिया, बहुएहिं तिलहिं मेलिया संती। टप्रणीतमिति श्रद्धातव्यमिति । प्राचा०१ श्रु०११०५ उ०। पत्तेयसरीराणं, तह हुँति सरीरसंघाया ॥ १३२॥ (साधारणवनस्पतिकायलक्षणम् 'साहारण' शब्दे पदयामि ।) यथा वा तिलशाकुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयपोलिका ब
अथ ये बीजात्प्ररोहन्ति वनस्पतयस्तेषां कथहुभिम्तिलनिष्पादिता सती भवति, तथा प्रत्येकशरीराणां
माविर्भाव इत्यत श्राहतरूणां शरीरसंघाता भवन्तीति द्रष्टव्यमिति । | जोणिन्यूए बीए, जीयो बक्कमइ सो व अप्लो वा ।
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( ८०४ ) श्रभिधान राजेन्द्रः |
वण फड़
जो वि य मूले जीयो सो चिय पते पडमबाए ॥१३८॥ अत्र भूतशब्दोऽवस्थापचन योग्ययस्थे यांजे योग्नपरिणाममजहतीत्यर्थः, बीजस्य हि द्विविधा ऽवस्था योग्यवस्था अयोग्यवस्था च यदा योन्यवस्थां न जहाति बीजमुर्ति च जन्तुना तदा योनिभूतमुच्यते, योनिस्तु जन्तोरुत्पत्तिस्थानमचिनमिति तस्मिन् वीजे योनिभूते जीवो व्युःकामतिउत्पद्यते स एव पूर्वको बीज जीवोऽन्यो वाऽऽगत्य तत्रोत्पद्यते । एतदुक्तं भवति - यदा जीवेनायुषः क्षयाद्वीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च पदा बीजस्य चित्युदकादिसंयोगल दा कदाचित्स एव प्राक्रनो जीवन्तत्रागत्य परिणमते कदाचिदन्य इति । यश्च मूलतया जीवः परिणमते स एव प्रथमपत्र पति, एकजीवक मूलपत्रे इति यावत् प्रथमपत्रके व पासी बीजस्य समुच्यूगावस्था भूजलकालापेक्षा सैवोच्यत इति नियमप्रदर्शनमेतत्, शेषं तु किसलयादि सकलेन मूलजीवपरिणामाविचितमेवेत्यवगन्तव्यमिति । यत उक्तम्" सध्यो वि किसलय खलु उम्मममासो अ तश्रो भणिश्रो । ” इत्यादि । श्राचा० १ श्रु० २ श्र० ५ उ० । ( अनन्त जीवलक्षणम् श्रतजीवशब्दे प्रथमभागे २६३ पृष्ठे उक्रम।)
जे यावी तहप्पगारा, ते समासो दुबिहा पत्ता, तं जहा - पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ खं जे ते अपअतगा ते णं असंपत्ता, तत्थ यं जे ते पचगा तेसि णं वनादेसेणं गंधा एसेणं रसाएसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिजाई जोणिप्पमुहसय सहस्सा ई, पत्तगणीसाए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा सिय अता, एएसि णं इमा गाहाओ अणुगंतव्या । तं जहा
"कंदा व कंदमूला य, रुक्खमुलाइयावरे । गुच्छा य गुम्मवलीय, वेणुयाणि तखाणि च ॥ १०३ ॥ पउप्पलसंघाडे, हरे व सेवालकिएहए पराए । अव व कच्छमाथि, कंदुकेगूणवीसइमे ॥ १०४ ॥ तयछषिवाले प, पत्तपुप्फफलेसु य । मूलग्गमज्भवएसु, जोणी कस्स वि कित्तिया ॥ १०५॥" ( सू० २६+ )
'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये अनुक्तरूपास्तथाप्रकाराः - प्रत्येकत रुरूपाः साधारणरूपाश्च तेऽपि वनस्पतिकायन्येन प्रतिपनव्या 'ते समास' इत्यादि प्राग्वत्। नवरं पत्रेको बादरपर्याप्तस्तत्र तत्रिया अपर्याप्ताः कदाचिसंख्येयाः कदाचिदसंख्येयाः कदाचिदमन्ताः प्रत्येकतरयः संख्या असंख्येया वा साधारणास्तु नियमाना इति भावः एतेषां साधारण प्रत्येकतरुरूपाणां वनस्पतिविशेषाणां वक्ष्यमाणानामिमाः - विशेषप्रतिपादिका वक्ष्यमाणा गाथा अनुगन्तव्याः प्रतिपत्तव्याः, ता एवाह 'तं जहा' तद्यथा 'कंदाये' त्यादि गाथात्रयम्, कन्दाः -- सूरणकन्दादयः, कन्दमूलानि वृक्षमूलानि च साधारपवनस्पतिविशेषाः मुच्छा-गुआ ।
वणफई
वल्ल्यश्च प्रतीताः, वेणुका- वंशास्तृणानि श्रर्जुनादीनि ॥ १०३॥ पद्मोत्पलश्टङ्गाटकानि प्रतीतानि हो-जलजवनस्पतिविशेषः सेवाला प्रसिद्धः कृष्णकपनकायकमाति कन्दुकाः साधारसवनस्पतिविशेषाः ॥ १०४ ॥ पलेपामेकोनविंशतिसंख्यानां त्वगादिषु मध्ये कस्यापि काऽपि योनिः । किमुक्तम्भवति - कस्यापि त्वग्योनिः कस्यापि छश्री यावत्कस्यापि मूलं कस्याप्ययं कस्यापि मध्ये कस्यापि बीजमिति ॥ १०५ ॥
परिमाणमभिधीयते तत्र प्रथमं सूक्ष्मानन्तजीवानां द र्शयितुमाह
पत्थेण व कुडवेण व, जह कोइ मिणिज सव्वधरणाई । एवं मविजमाणा, हवन्ति लोया अताओ ।। १४४ ।। प्रस्थकुडयादिना यथा कचित्सर्वधान्यानि प्रमिसुवामिया चान्य प्रक्षिपेद एवं यदि नाम साधार वराशि लोककुडवेन मित्वाऽन्यत्र प्रक्षिपेत् तत एवं मीयमाना अनन्ता लोका भवन्तीति ।
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इदानीं बादरनिगोद परिमाणाभिधित्सयाऽऽह - जे बायरपअत्ता, पवरस्स असंखभागमेत्ता ते । सेसा असलोया, तिथि वि साहाराऽयंता ॥ १४५॥ ये पर्याप्तकवादनिगोदाले संवर्तितचतुरस्रीकृतसफललोकप्रतरासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, एते पुनः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पति पर्याप्त कजीवेभ्यो ऽसंख्येयगुणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयलोयतिकवादरनिगोदा अपर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकसू। ?, काकाशप्रदेशपरिमायाः के पुनप्रय इति उच्यते-अप दमनिगोदाः । एते च क्रमशो बहुतरका द्रष्टव्या इति । साधारणीपास्तेभ्यो ऽनन्तगुणाः पतच जीवपरिमाणम्, प्राक्रमं तु राशिचतुष्टयं निगोदपरिमाणमिति ।
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परिमाणद्वारानन्तरमुपभोगद्वारमभिधित्सुराहआहारे उवकरणे, सयणास जाण जुग्गकरणे य । आवरणपहरखे व सत्थविहाणे व बहुसु ॥ १४६ ॥ आहारफलपत्रकिशलयमूलकन्दत्वमादिनिवे उपकर णं व्यजनकटककच लकार्गलादि शयनम् - खट्टा फलकादि आसनम् - श्रसन्दकादि, यानम् शिविकादि, युग्यम्-गन्त्रिका दि, श्रावरणम् - फलकादि, प्रहरणम्-लकुटिभुशुण्ड्यादि, शस्त्रविधानानि च बहूनि तन्निर्वत्यांनि शरदारिकादि गराडोपयोगित्यादिति ।
तथा परोऽपि परिभोगविधिस्तदर्शनायाहवनस्पतिपरिभोगःआउकडुकम्मे, गंगे बन्धमन्जोए य
काविया व तेलविहाये य उज्जोए ।।१४७।। श्रतोद्यानि पदमेरीवंशषीया भञ्जर्यादीनि काष्टकम्-प्रतिमास्तम्भद्वारशाखादीनि गन्धाङ्गानि बालकप्रियपत्रक दमनकरयवन्दनोशीरदेवदार्यादीनि वाणि यत्कलकासमयादीनि माल्या योगा-नवमालिफायकुलचम्पकपुप्रायाशोकमालतीविचकलाइयापनं दाहो भस्मसात्कर मिन्धने, विनापन शीताम्यईितस्य खेतापनयनाय फाइ
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वएफइ
प्रज्यासनात् तैलविधानं सर्प करजादिनि, उद्योनो पतृिडाकाष्ठादिभिरिति । एवमेतान्युपभोगस्थानानि प्रतिपाद्य तदुपसंजि
वणफइ
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( ८०५) अभिधानराजेन्द्रः । ज्योतिष्वती जीतधान्यानानुसंस्थे किं कृत्वेति दर्शयति-सर्वोप दिमागल्या, सम्यक मोत्थानेनो न्याय समुल्याय, प्र अस्य प्रतिपद्येत्यर्थः तदेकलनावद्यारम्भकलापः संनस्पति तदारम्भ या मो करिष्यामीति अ नेन च संयमक्रिया दर्शिता, न च क्रियात एव मोक्षायाप्तिः, किं तहिं ? मानक्रियाभ्याम् तदुक्रम्" नाग किरियारहिये, किरियामेत्तं च दोऽवि एगन्ता । न समत्था दाउ जे, जम्ममरणदुक्खदाहाई ॥ १ ॥ यत एयमतो विशिष्एमोक्षकारण भूतज्ञान प्रतिपिपादविषयाऽऽह - मत्ता मइमं मत्वा - ज्ञात्वा - श्रवबुध्य यथावत् जीवान्, मतिरस्यास्तीति मतिमान् मतिमानेवोपदेशार्हो भ यतीत्यतस्तद्द्वारेणैव शिष्यामन्त्रम् हे मतिमन्यां प्रतिपद्य जीवादिपदार्थों ज्ञात्वा मोक्षमाप्नोतीति सम्प ज्ञानपूर्विका हि कियाफलपतीति दर्शितं भवति पुनरवाह 'अभयं विदित्ता' अविद्यमाने भयमस्मिन् सस्थानामित्यभवःसंयमः, स च सप्तदशविधानस्तं चाभयं सर्वभूतपरिपालनात्मकं संसारसागरान्निर्वाहकं विदित्वा वनस्पत्यारम्भानिवृत्तिर्विधेयेति । एतदेव दर्शयितुमाह - तं जे नो करण' इत्यादि. तं- वनस्पत्यारम्भं यो विदिततदार -
कटुविपाकः न कुर्यात् तस्य प्रतिविशिष्टेष्टफलावातिर्नान्यस्यान्धमुख्या प्रवर्तमानस्य प्रतिविप्रकृष्टस्थानप्रातिप्रवृत्तान्धक्रियाव्याघातपदिति मन्तव्यम् ज्ञानमपि क्रियाहीनं न मोक्षाय, गुदान्तखानमनपवनयदिति एवं शान्या अभ्युपेत्यं परिहारः फलैव्य इति दर्शितं भवति । एवं यः सम्यग्ज्ञानपूर्विवक निवृत्तिं करोति स एव समस्तारम्भनिवृत्त इति दर्शयति- एसोवरए ति एष एव सर्वसादारम्भाद्वनस्पतिविषयादुपरतो यो यथावज्ज्ञात्वाssरम्भं न करोतीति स पुनरेवंविधनिवृत्तिभाकि शाक्यादिष्वपि संभवत्युते व प्रवचन इति दर्शयति- 'एन्थोवरपति एतस्मिन्नेव जैनेन्द्रे प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र । यथाप्रतिज्ञातनिरवद्यानुष्ठायित्वादुपरतव्यपदेशभाग्भवति, न शेषाः शाक्यादयः तद्विपरीतत्वाद्। एष एव च सम्पूर्णानगार व्यपदेशमनुते इति दर्शयति- एस प्रमारे ति पहुच योऽनिकान्तसूत्रादेव्यवस्थितः अविद्यमानागारो नगर प्रकर्षेण उच्यते प्रोच्यते इति किं कृतः प्रकर्षः, अनगाख्यपदेशकाका प्रकर्षः इतिशब्दो नगर प्रदेश कारायनी मनावदनगारलक्षणं नान्यदिति । ये पुनः प्रतिपारमार्थिकान गारगुणाः शब्दा दीन्वियानङ्गीकृत्य प्रवर्तते ते तु नावेच वनस्पती जीयान यतो भूयांसः शब्दादयो गुणाः वनस्पतिभ्य एव निष्पद्य स्ते. शब्दादिगुणेष्वेव वर्त्तमाना रागद्वेपविषमविप्रविघूर्षमानलोललोचना नरकादिचतुर्विधगत्यन्तःपातिनो वोडयास्तदन्तःपातिन एव च शब्दादिविषयानिष्योि भवन्तीति । आचा० १ ० १ ० ५ उ० ।
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सन हिंसेति मणसा वयस कायमा । विविदेश करण जोएणं, संजया सुसमाहिया ॥ ४० ॥ सपिर्हितो हिंसई अ तपरिसए
हीरार
एहि कारखेहिं हिंसेति स बहु जीये | सायं गवेसमाणा, परस्य दुखं उदीरेंति ।। १४८ ॥ एतैर्मायाइयोपातैः कारणै:- प्रयोजनैहिंसन्ति व्यापादयन्ति प्रत्येक साधारण वनस्पतिजीवान् बहून् वनस्पतिसमारम्भिणः पुरुषाः किं भूतास्त इति दर्शयति-सातं सुखं तदस्वषिणः परस्य च वनस्पत्याद्ये केन्द्रियादेर्दुःखं बाधामुत्पादयन्ति ।
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साम्प्रतं शस्त्रमुच्यते तच्च द्विधा द्रव्यभावभेदात्द्रव्यमपि समासविभागमेदात् द्विधेव तत्र समाद्रव्यखाभिधित्सया35Tकप्पणि-कुहाखि यसियग- दत्ति कुद्दालिचासि फरसू व । सरथं वणसईए, हत्था पाया मुहं अग्गी ।। १४६ ॥ कल्यते - छिद्यते यया सा कलानी शस्त्रविशेषः, कुठारी प्रसिदैव अशिष दात्रं दात्रिका प्रसिदा कुदालकचासिपरशवश्च. एते वनस्पतेः शस्त्रम् । तथा हस्तपादमुखाग्नयश्च इत्येतत्सामान्यशस्त्रमिति ।
विभागशाभिधित्सयाऽऽह
किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंची । एयं तु दव्यत्वं भावे व अजमो सत्यं । १५० ।। किंचित् स्वकायशस्त्रं लकुटादि किंचिश्च परकायशवं पपगायदि तनवरात्र-दि द्रव्य भाव पुनरसंयमः पतिमनोयाकाय लक्षण इति ।
सकलनियुक्त्यपरिसमाप्ति प्रचिकट विषया 556सेसाई दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं वस्सए, निज्जुती किनिया एसा ।। १५१ ।। उक्तव्यतिरिक्तशेषाणि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यामभिहितानि ततस्तद् द्वाराभिधानाद्वनस्पती निर्मुक्तिः कीर्तिताव्यावसिंतेति । श्राचा० १ ० १ श्र० ५ उ० ( श्राहार' शब्दे द्वितीयभागे ४६२ पृष्ठे तदाहारप्रकारः । ) सां सूत्रानुमेस्थानादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयम् तभेदम्
तंगो करिस्सामि समुट्ठाए, मत्ता मइमं, अभयं विदित्ता. नं जे गो करए, एसोवरए, एन्थोवरए, एस अणगारे ति पवनई (यू० ३६ )
अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रैः सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्यः उक्तंप्राकमा दिवस्पतिजन्नां दुःखमुदीरयन्ति ततश्च तन्मूलमेव दुःखगहने संसारसागरे भ्राम्यन्ति सच्याः इत्येवं विदित कटुविपाकः समस्त वनस्पतिसत्ववि
"
मिनिवृतिमायमात्मनिदर्शनात्नस्थ नीनां न करिष्ये विद् सोलिवनस्पतवारम्भं भेदनादिरूपेो करिष्ये मनोवाक तथापरै कारविष्ये, तथा कु
२०२
,
.
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(८०६) वणकर अभिधानराजेन्द्रः।
वाप्फ तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ ४१ ॥ दिविषयदेशमभिसर्पति , एवं यो ह्यगुप्तो भवति सोऽ
नाक्षायां वर्तते, न भगवत्प्रणीतवचनानुसारीति यावदिति । तम्हा एनं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं ।।
एवंगुणश्च यत् कुर्यात्तदाहघणस्सइसमारंभ, जाव जीवाइ वजए ॥ ४२ ॥
पुणो पुणो गुणासाए वंकसमायारे । (सू० ४३) 'वणस्सर' इत्यादि सूत्रत्रय वनस्पतेरभिलापेन शेयम् , तत- ततश्चासावसकृच्छब्दादिगुणलुब्धो न शक्नोत्यात्मान श्कादशस्थानविधिरप्युक्त एव ॥ ४०॥४१॥ ४२ ॥ दश०६ शब्दादिगृद्धेर्नियर्तयितुम् , अनिवर्तमानस्य पुनः पुनर्गुणाअ०२ उ० । (अस्यार्थस्य प्रसिद्धये गतप्रत्यागतलक्षणमितरे- स्वादो भवति , क्रियासातत्येन शब्दादिगुणानास्वादयतीतरावधारणफलं सूत्रम्-तच्च सव्याख्यं 'गुण' शब्दे चतुर्थ- त्यर्थः , तथा च यादृशो भवति तदर्शयति-चक्रः-असंयमः भागे १०८ पृष्ठे गतम् । अत्र कश्चिचोद्यचञ्चुराह-यो गुणेषु कुटिलो नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्समाचरणं-समाचावर्तते सावर्ते वर्तन इति साधु, यः पुनरावर्ते वर्तते नासौ र: अनुष्ठानम् ,वक्रः समाचारो यस्यासौ वक्रसमाचार:-असं. नियमत एव गुणेषु वर्तते यस्मात्साधवो वर्तन्त श्राव- यमानुष्ठायीत्यर्थः, अवश्यमेव शब्दादिविषयाभिलाषी भूतोते न गुणेषु , तदेतत्कथमिति ?, अत्रोच्यते-सत्यम् आव- पमईकारीत्यतो वक्रसमाचारः । प्राक् शब्दादिविषयलवसते यतयो वर्तन्ते न गुणेषु, किं तु-रागद्वेषपूर्वकं गुणेषु व- मास्वादनाद् गृद्धः पुनरात्मानमाचारयितुमसमर्थत्वादपथ्यातनमिहाधिक्रियते, तश साधूनां न संभवति तदभावात् , । म्रफलभोजिराजवद्विनाशमाशु संश्रयत इति । श्रावतोऽपि संसरणरूपो दुःखात्मको न संभवति, सामा
एवं चालौ नितरां जितः शब्दादिविषयसमास्वादनात् भ्यतस्तु संसारान्तःपातित्वं सामान्यशब्दादिगुणोपलब्धिश्च
'खंतपुत्तो व्व ' इदमाचरतिसंभवत्येवातो नोपलब्धिः प्रतिषिध्यते, रागपरिणामो द्वे- पमत्ते अगारमावसे । ( मू०४४) षपरिणामो वा यस्तत्र स प्रतिषिध्यते, तथा चोक्तम्- प्रमत्तो विषयविषमूर्छितः अगार-गृहमावसति , यो" कनसोक्खेहि सहेहिं, पेम्म नाभिनिवेसए" इत्यादि ऽपि द्रव्यलिङ्गसमन्वितः शब्दादिविषप्रमादवान् असावपि तथा "न शक्य रूपमद्रष्ट्र, चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ विरतिरूपभावलिङ्गरहितत्वात् गृहस्थ एवेति । तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥१॥" कथं पुनर्गुणभूष- अन्यतीर्थिकाः पुनः सर्वदा सर्वथाऽन्यथावादिनोऽन्यथास्त्वं वनस्पतिभ्य इति प्रदर्श्यते-वेणुवीणापटहमुकुन्दादी
कारिण इति दर्शयितुमाहनामातोविशेषाणां वतस्पतेरुत्पत्तिः, ततश्च मनोहराः लज्जमाणा पुढो पास , अणगारामो ति एगे पवदशब्दा निष्पद्यन्ते, प्राधान्यमत्र वनस्पतेर्विवक्षितम् , अ
माणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मभ्यथा तु तन्त्रीचर्मपाण्यादिसंयोगाच्छब्दनिष्पत्तिरिति, रूपं पुनः काष्ठकर्मस्त्रीप्रतिमादिषु गृहतोरणवेदिकास्त- समारम्भेणं वणस्सइसत्थं समारभमाणा अमे अणेगरूवे म्भादिषु च चतूरमणीयम् , गन्धा.अपि हि कर्पूरपाटला- पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवया परिमा पवेदिलवलीलवङ्गकेतकीसरसचन्दनागुरुकक्कोलकेलाजातीफलप
ता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए त्रिकाकेसरमांसीन्वकपत्रादीनां सुरभयो गन्धेन्द्रियाबाद
जातीमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वकारिणः प्रादुर्भवन्ति, रसास्तु विसमृणालमूलकन्दपुरुपफलपत्रकण्टकमअरीत्वगगकिसलयारविन्दकेसगदीनां- णस्सइसत्थं समारंभइ अमेहिं वा वणस्सइसत्थं समाजिडेन्द्रियप्रहादिनो निष्पद्यन्ते अतियहव इति , तथा रंभावेइ अम्मे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुस्पर्शाः पचिनीपत्रकमलदलमृणालवल्कलदुकूलशाटकोप
जाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहिए से तं संबुझधानलिकान्छादनपटादीनां स्पशनेन्द्रियसुखाः प्रादुःष्यन्ति, एवमेतेषु बनस्पतिनिष्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु यो वर्तते स
माणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ अणगाराणं आवर्ते वर्तते, यश्च पावर्तवर्ती स रागद्वेषात्मकत्वात् गुणे
वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति । एस खलु गंथे एस पुवर्तत इति । स चावतॊ नामादिभेदाश्चतुर्की । नाम- | खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए इच्चत्थं स्थापने बुझे, द्रव्यांवतः । (अत्रस्थपाठ श्रावह' शब्दे द्वितीय
गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्म भागे ४३६ पृष्ठे गतः।) इह च भावावर्तेनाधिकारोन शेरि
समारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अम्मे अणेगरूवे ति। (अथ य एते गुणाः संसारावर्तकारणभूताः शब्दादयो वनस्पतेरभिनिवृत्तास्ते कि नियतदिग्देशभाजः उत सर्वदिनु
पाणे विहिंसति । ( सू० ४५) इति, सूत्रम्-(४१) 'गुण' शब्दे चतुर्थभागे ६०८ पृष्ठे गतम् । ) प्राग्वत् शेयम , नवरं वनस्पत्यालापो विधेय इति । एवं विषयलोकमाख्याय विवक्षितमाह
साम्प्रनं बनस्पतिजीवास्तित्वे लिङ्गमाह--..
से बेमि इमं पि जाइधम्मयं एयं पिजाइधम्मयं,इमं पि बुड्डिएस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए ।(सू०४२)
धम्मयं एयं पि बुद्दिधम्मयं, इमं पि चित्तमंतयं एवं पि 'एष इति' रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्यो लोको व्या
चित्तमंतयं, इमं पि छिमं मिलाइ एयं पि छिम्म मिलाइ, ख्यातः, लोक्यते-परिच्छिद्यते इनि कृत्वा, एतस्मिश्च प्रस्तुते शब्दादिगुण लोके गुप्तो यो मनोवाकायैर्मनसा द्वेधि
| इमं पि आहारगं एयं पि आहारगं, इमं पि अणिञ्चयं एयं रज्यते चा, याचा प्रार्थनं शब्दादीनां करोति, कायेन शब्दा- पि अणियं, इमं पि असामयं एयं पि असामयं, इमं पि
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(८०७) बाप्फइ अभिधोमराजन्द्रः।
वणप्फई चोवचइयं एयं पि चोवचइयं,इमं पि विपरिणामधम्मयं यथेदं मनुष्यशरीरमनित्यकं न सर्वदाऽवस्थायि तथैतदपि वएवं पि विपरिणामधम्मयं । (सू०४६)
नस्पतिशरीरमनित्यं नियतायुष्कत्वात् , तथा हि-अस्य द
शवर्षसहस्राणि उत्कृष्टमायुः । तथा यथेदं मनुष्यशरीर'सेवेमी' त्यादि सोऽहम्-उपलब्धतत्त्वो ब्रवीमि, अथवा
मशाश्वतं-प्रतिक्षणमावीचीमरणेन मरणात्तथैतदपि चनबनस्पतिचैतन्यं प्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्यमानस्वरूपं यत्तद
स्पतिशरीरमिति । तथा यथेदमिष्टानिष्टाहारादिप्राप्त्या चहैं ब्रवीमि , यथाप्रतिज्ञातमर्थ दर्शयति- इमं पि
यापचयिकं वृद्धिहान्यात्मकं तथैतदपि इति । तथा यथेदं जाधम्मयं ति ' इहोपदेशदानाय सूत्रारम्भस्तद्यो
मनुष्यशरीरं विविधपरिणामः, तत्तद्रोगसंपर्कात् पाण्डुत्वोग्यश्च पुरुषो भवत्यतस्तस्य सामर्थेन संनिहितत्वात्त.
दरवृटिशोफक्शत्वाकुलिनाशिकाप्रवेशादिरूपो बालादिरूपो च्छरीरं प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमा परामृशति । इदमपि-मनुष्य
वा, तथा-रसायनस्नेहाधुपयोगाद्विशिष्टकान्तिबलोपचयाशरीरं, जननं-जातिरुत्पत्तिस्तद्धर्मकम् । एतदपि वनस्पति
दिरूपो विपरिणामः तद्धर्मकम्-तत्स्वभावकं तथैतदपि शरीरं तद्धर्मकं-तत्स्वभावमेव, इतिपूर्वकोऽपिशब्दः
वनस्पतिशरीरं तथाविधरोगोद्भवात्पुष्पपत्रफलत्वगाद्यन्यथा सर्वत्र यथाशब्दार्थे, द्वितीयस्तु समुखये व्याख्येयः, ततश्चा
भवनात्, तथाविशिष्टदौहदप्रदानेन पुष्पफलाधुपचयाद्विपरियमर्थः-यथा मनुष्यशरीरं बालकुमारयुववृद्धतापरिणामविशेषवत् चेतनावत् सदाधिष्ठितं प्रस्पष्टचेतनाकमुपलभ्यते,
णामधर्मकम् । एवमनन्तरोक्तधर्मकलापसद्भावादसंशयं गृहा.
तत्-सचेतनास्तरव इति । तथेदमपि वनस्पतिशरीरम् , यतो जातः केतकतरुर्खालको युवा वृद्धश्च संवृत्त इति,अतस्तुल्यत्वादेतदपि जातिधर्मकम् , वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता प्रमन च कश्चिद्विशेषोऽस्ति,येन सत्यपि जातिधर्मत्वे मनुष्यादि- स्थ सत्थपरिणएणं ॥ शरीरमेव सचेतनं न वनस्पतिशरीरमिति । ननु च जातिध-| ___ बनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः, इत्यापि द्रष्टव्यम् । विशेषमत्वं केशनवदन्तादिष्वप्यस्ति अव्यभिचारी च लक्षणं स्त्यभिधीयते-सात्मकं जलम् , भूमिखातस्वाभाविकसंभवात् भवत्यस्ति च व्यभिचारः तस्मादयुक्त कल्पयितुं दर्दुरवत् । सात्मकोऽग्निः आहारेण वृद्धिदर्शनात् , बालकवजातिधर्मवं जीवलिङ्गमिति , उच्यते-सत्यमस्ति त् । सात्मकः पवनः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गमजननमात्रम् , किं तु-मनुष्यशरीरप्रसिद्ध-बालकुमारका- नाद् , गोवत् । चेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणाद् गर्दद्यवस्थानामसंभवः केशादिष्वस्ति स्फुटः, तस्मादस- भवत् । मञ्जसमेतद् , अपि च-केशनखं चेतनावत्पदार्थाधिष्ठि- वनस्पतिजीवविशेषप्रतिपादनायाहतशरीरस्थं जातमित्युच्यते, बढते इति वा, न पुनस्त्वयैवं तं जहा-अग्गबीया १ मूलबीया २ पोरवीया ३ खंतरवोऽपि चेतनावत्पदार्थाधारस्था इष्यन्ते, त्वन्मते भुवोधनीया ४बीयमहा ५ सम्मच्छिमा ६ तण-लया-वसचेतनत्वात्तस्मादयुक्नमिति। अथवा-जातिधर्मत्वादीनि समु
स्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोदितानि सूत्रोक्नान्येक एव हेतुः, न पृथक् हेतुता, न च | समुदायहेतुः कशादिष्वस्ति तस्माददोष इति । तथा यथेदं
सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ॥ ६॥ मनुष्यशरीरकमनवरतं बालकुमाराद्यवस्थाविशेषवर्द्धते ,
'तं जहा-अग्गवीया ' इत्यादि तद्यथेत्युपन्यासार्थः, अग्रतथैतदपि वनस्पतिशरीरमकुकिशलयशाखाप्रशाखादिभि
बोजा इति-अग्रं बीजं येषां ते अग्रवीजाः कोरिएटकादविशेषवर्द्धत इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं चित्तवदेवं वन
यः, एवं मूलं बीजं येषां ते मूलबीजाः उत्पलकन्दादयः, स्पतिशरीरमपि चित्तवत् । कथम्?.चेतयति येन तच्चित्तम्-|
पर्व बीज येषां ते पर्वबीजाः इत्यादयः, स्कन्धो बीजं येषां मानम् , ततश्च यथा मनुष्यशरीरं ज्ञानेनानुगतमेवं वनस्पति.
ते स्कन्धबीजाः सल्लक्यादयः, तथा घीजादोहन्तीति बीजशरीरमपि, यतो धात्रीपुन्नागादीनां स्वापविबोधसद्भावः,
रुहाः शाल्यादयः, संमूर्च्छन्तीति संमूर्छिमाः प्रसिद्धबीजातथाऽधोनिखानद्रविणराशेः स्वप्ररोहेणावेष्टनं प्रावृड्जल
भावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः । न चैते धरनिनादशिशिरवायुसंस्पर्शादङ्कगेद्भवः तथा-मदमदन- न संभवन्ति दग्धभूमावपि संभवात् . तथा तृणलतावनस्पसङ्गमस्खलद्गतिविघूर्णमानलोललोचनविलासिनीसन्नूपुर --
तिकायिका इति. अत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेकभेदसंदसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः पल्लवकुसुमोद्गमः, तथा
शनार्थम् , वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मबादराद्यशेषवनस्पसुरभिसुगगराडूपसेकाद्वकुलस्थ स्पएप्रगहिकादीनां च निभेदसंग्रह.र्थम् . पतेन पृथिव्यादीनामपि स्वगताः भेदाः हस्तादिसंस्पर्शात्संकोचिकादिका परिस्फुटा क्रियोपल- पृथिवीशर्करादयस्तथाऽवस्था ये महिकादयः, नथा-अहारब्धिः । न चैतदभिहिनतरुसंबन्धिकियाजालं ज्ञानम- ज्वालादयः तथा-झङ्कामण्डलिकादयो भेदाः सूचिता इति । न्तरेण घटते. तस्मात्सिद्धं चि तवत्त्वं वनस्पतेरिति ।
सबीजाश्चित्तवन्त श्राख्याता इति. पते नन्तरोदिता वतथा यथेदं छिन्नं म्लायति तथैतदपि छिन्नं म्लायति, म
नस्पतिविशेषाः सबीजाः-स्वस्वनिबन्धनाश्चित्तवन्तः-श्रानुग्यशरीरं हि हस्तादिच्छिन्नं म्लायति-शुष्यति. तथा-त
स्मवन्त श्राख्याता:-कथिताः । एते च अनेकजीवा इत्यादि कशरीरमपि पल्लवफलकुसुमादिच्छिन्नं शोषमुपगच्छत् दृएम् . ध्रुवगण्डिका पूर्ववत् । सबीजाश्चित्तवन्त श्राख्याता इत्युन चाचेतनानामयं धर्म इति । तथा-यथेदं मनुष्यशरीरं कम् । अत्र च भवत्याशङ्का कि बीजजीव एव मूलादिजीवो स्तनक्षीग्व्यञ्जनोदनायाहागभ्यवहागदाहारकं तथैतदपि व | भवत्युतान्यस्तस्मिन्नुत्क्रान्ते उत्पद्यत इति ?, नम्पनिशरीर भूजलाद्याहाराभ्यवहारकम् . न चैतदाहारक
अस्य व्यपाहायाऽऽहसमवेतनानां दृएप , पतस्तद्भावासचेतनत्वमिति । तथा बीए जोणिभूए , जीवो वुकमइ सोय अन्नो वा ।
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यमारममात , एता परिहाता निः परिक्षात धन
(८०८) वाप्फ अभिधानराजेन्द्रः।
वणप्फई जो घिय मूले जीवो, सोविय पत्ते पढमयाए ॥२३२।। श्रस्पर्शमेव, किंतु-अध्ययनार्थान् पञ्च च प्रागुपन्यस्ताबीजे योनिभूते इति-बीज हि द्विविधं भवति योनिभू
न् जीवाजीयाभिगमादीन् प्रकरणपदव्यञ्जनविशुद्धान् - तम् , अयोनिभूतं च। अविध्वस्तयोनि , विध्वस्तयोनि
यात् , सूत्र पब जीवाभिगमः काये काये इत्यनेनैव लच । प्ररोहसमर्थ तदसमर्थ चेत्यर्थः । तत्र यो
ब्ध इति पञ्चग्रहणम् , अन्यथा षडिहार्थाधिकारा इति । निभूतं सचेतनमचेतनं च , अयोनिभूतं तु निय
प्रक्रियतेऽर्थोऽस्मिन्निति प्रकरणम् , अनेकार्थाधिकारवत्का. मादचेतनमिति । तत्र बीजे योनिभूते इत्यनेनायोनिभृत
यप्रकरणादि, पदम्-सुवन्तादि, कादीनि-व्यञ्जनानि, एस्य व्यवच्छेदमाह-तत्रोत्पत्त्यसंभवाद् , अबीजवादित्यर्थः ।
भिर्विशुद्धान् ब्यादिति गाथार्थः । दश० ४ अ० । विशे० । योनिभूते तु योन्यवस्थे बीजे , योनिपरिणाममत्यजतीत्यु
स्था० । दर्श० श्राचा० । सूत्र । व्य० । ध०। तं भवति । किमित्याह-जीवो व्युत्क्रामति उत्पद्यते स ए
एवं वनस्पतेश्चैतन्यं प्रदर्श्य तदारम्भे वन्धं तत्परिहाररूव पूर्वको बीजजीवः बीजनाम गोत्रे कर्मणि वेदयित्वा
पविरत्या सेवनेन च मुनित्वं प्रतिपादयन्नुपसंजिहीमूलादिनामगोत्रे चोपनिबध्य, अन्यो वा पृथिवीकायिकादि
पुराहजीव एवमेव, 'योऽपि च मूले जीव' इति य एव मूलतया प- एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा अपरिमाता रिणमते जीवः सोऽपि च पत्रे प्रथमतयेति-स एव प्रथमपत्र-| भवंति, एत्थ सन्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंमा तयाऽपि परिणमत इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति ।।
परिमाया भवंति , तं परिणाय मेहावी व आह-यद्येवम्-" सव्यो वि किसलो खलु , उग्गममाणो | अणतो भणियो" इत्यादि कथं न विरुध्यते? इति,
सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा वएणेहिं वणस्सइउच्यते-इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूनत्येनोत्पद्य त
सत्थं समारंभावेजा णेवणे वणस्सइसत्थं समादुच्छूनावस्थां करोति , ततस्तदनन्तरभाविनी किशलया-| रंभंते समणुजाणेजा जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंवस्था नियमेनानन्ता जीवाः कुर्वन्ति , पुनश्च तेषु स्थि-|
भा परिमाया भवंति से हु मुणी परिमाय कम्मे त्ति बेमि । तिक्षणात्परिणतेष्वसावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं परिणमय्य स्वशरीरतया तावदते यावत् प्रथमपत्रमिति न वि
(मू० ४७) रोधः । अन्ये तु व्याचक्षते-प्रथमपत्रकमिह याऽसौ बीज
'पत्थसत्थ' मित्यादि एतस्मिन् वनस्पती शस्त्रं द्रव्यस्य समुच्छूनावस्था , नियमप्रदर्शनमेतत् , शेषं किसल
भावाख्यमारभमाणस्येत्येते प्रारम्भा अपरिशाता अप्रयादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितमिति
त्याख्याता भवन्ति , एतस्मिश्च वनस्पती शस्त्रमसमामन्तव्यम् । ततश्च-" सब्बो वि किसलयो खलु , उ
रममाणस्येत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः प्रत्याख्याता भवग्गममाणो अणतो भणिश्रो" इत्याद्यप्यविरुद्धं मूलप
न्तीति पूर्ववचर्चः यावत् स एव मुनिः परिज्ञानकर्मेति
ब्रवीमि पूर्ववदिति । आचा०११०१ १०५ उ०। (वनअनिर्वर्तनारम्भकाले किसलयत्वाभावादिति गाथार्थः ।
स्पतिकायप्रतिसेवना 'मूलगुणपडिसवणा' शब्दे अस्मिएतदेवाह भाष्यकार:
नेव भागे ३५८ पृष्ठे उक्ना । ) (वनस्पतयः कं कालं सर्वाविद्धत्थाऽविद्धत्था, जोणी जीवाण होइ नायव्वा ।
ल्पाद्दारकाः इति श्राहार'शब्दे द्वितीयभागे५१७पृष्ठे उक्तम् ।) तत्थ अविद्धुत्थाए, वुकमई सो य अन्नो वा ॥ ५८ ॥
उत्पलादिजीयानाम्विध्वस्ताऽविध्वस्ता-अप्ररोहप्रदोहसमर्था योनिर्जीवानां उप्पल सालु पलासे, कुंभी नाली य पउमकामी य। भवति झातव्या, तत्राविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स. नलिण सिब लोग काला, लंभि य दस दो य एक्कारे ।। चान्यो वा, जीव इति गम्यत इति गाथार्थः ।।
'उप्पल' त्यादि, उत्पलार्थः प्रथम उद्देशकः १, 'सालु' जो पुण मुले जीवो, सो निव्वत्तेइ जा पहमपत्तं । त्ति-सालूकम्-उत्पलकन्दस्तदर्थों द्वितीयः २, 'पलासे 'सिकंदाइ जाव बीयं, सेसं भन्ने पकुवंति ॥ ५६ ।। पलाशः-किंशुकस्तदर्थस्तृतीयः ३ ' कुंभि ' त्तियः पुनर्मूले जीवो बीजगतोऽन्यो वा स निर्यनय- वनस्पतिविशेषस्तदर्थश्चतुर्थः ४ ' नाडी य'त्ति नाडीवति यावत् प्रथमपत्रं नावदेक एथनि , अत्रापि भावार्थः
द्यस्य फलानि सनाडीको-वनस्पतिविशेष एव तदर्थः पञ्चपूर्ववदेव । कन्दादि यावदीजं शेत्रमन्ये प्रकुर्वन्ति, वनस्प
मः ५ 'पउम' ति पद्मार्थः पाठः १, 'करणी य'त्ति कर्णितिजीवा एव, व्याख्याद्वयपक्षे ऽप्येतदविरोधि, एकतः स
कार्थः सप्तमः ७ 'नलिए ति नालनार्थोऽटमः, यद्यपि चोमुन्नावस्थाया पय प्रथमपत्रतया विवक्षितन्वात्तदन क
त्पलपद्मनलिनानां नाम कोशएकार्थतयोच्यते तथाऽपीह मदे स्वादिभावतः अन्यत्र कन्दादेवनस्पतिभेदत्वात्तस्य च प्र
विशेषोऽवमेयः , ' सिव ' ति शिवराजर्षिवनाव्यतार्थों थमपत्रोत्तरकालमेव भाचादिति गाथार्थः ।
नवमः है, 'लोग' ति लोकार्थी दशमः १०, 'कालालाभए'
ति कालाध एकादशः ११ पालभिकायां नगयाँ यग्रापअतिदेशमाह
तं तत्प्रतिपादक उद्देशकोऽप्यालभिक इत्युच्यते, नतोऽसौ द्वा. सेसं सुत्तफासं, काए काए अहक्कम बूया ।
दशः१२ दस दो य पकारि' ति द्वादशोद्देशका एकादशे अज्झयणत्था पच य, पगरणपयवजगणावमुद्धा ॥५०॥ | शते भवन्तीति । तत्र प्रथमोद्देशकद्वारसंग्रहगाथा वाचनाशेयं सूत्रस्पर्शम् उफ्नलक्षणं काये काय-पृथिव्यादो य- न्तरे दृष्टास्ताश्चमाःचाक्रमम्-यधापरिपाटि यूयात् अनुयोगध एवन केवलं , 'उववाश्रो परिमाणं २,यवहारु ३च्चनबंध वेदे याद।
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( 0 ) वाफा
अभिधानराजेन्द्रः। उदये ७ उदीरणाए, लेसाहदिट्टी य १० नाणी य ११॥२॥ | णवरं आउयस्स पुच्छा, गोयमा!बंधए वा प्रबंधए वा जोगु १२ वओगे १३ वरण १४ र-समाइ १५ ऊसासगे य| बंधगा वा प्रबंधगावा, अहवा-बंधए य प्रबंधए य, १६ श्राहारे १७ । विरई १८ किरिया १६ बंध २०, सम्म २१ | अहवा-बंधए य प्रबंधगा य, अहवा-पंधगा य भकसायि २२थि २३ बंधे य २४ ॥२॥ सम्मि २५ दिय २६
inismT-
गा । अणुबंधे २७, संवहा २८ हार २६ ठिइ ३० समुग्घाए ३१ ।।
'ते ण भंते ! जीव' ति ये उत्पले प्रथमपत्राद्यवस्थायाचयण ३२ मूलादीसु य, उववाश्रो सब्वजीवाणं ॥ ३॥" एतासां चार्थ उद्देशकार्थाधिगमगम्य इति । आचा०१ श्रु०
मुत्पद्यन्ते जहा वकंतीए 'ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे स चैव१०५ उ०।
मुपपातः-' जइ तिरिक्खजोणिहितो उववजंति ' किं उत्पलजीवानाम्
एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति जाव पंचिंदियतितेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. जाव एवं वयासी
रिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति ?, गोयमा ! एगिदियति
रिक्खजोगिएहितो वि उववजंति' इत्यादि एवं मनुष्यभेदाः उप्पलेणं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?,
वाच्याः- जइ देवहितो उववजंति किं भवणवासी' गोयमा ! एगजीवे णो; अणेगजीवे, तेण परं जे अपणे त्यादि प्रश्नो निर्वचनं च ईशानान्तदेवेभ्य उत्पद्यन्त इत्यु. जीवा उववज्जति ते णं णो एगजीवा अणेगजीवा । तेणं पयुज्य वाच्यमिति,तदेतेनोपपात उक्तः । 'जहण एको वे' भंते ! जीवा कोहिंतो उववज्जंति, किं णरइएहिंतो उव- त्यादिना तु परिमाणम् २१ ते णं असंखेजा समए' इत्या
दिना त्वपहार उक्तः, एवं द्वारयोजना कार्या ३। उच्चत्वद्वारे वअंति,तिरियमणुस्सदेवेहिंतो उववअंति?,गोयमा! णो णे
'साइरेगं जोयणसहस्सं' ति तथाविधसमुद्रगोतीर्थकादारइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववअंति।
विदमुञ्चत्वमुत्पलस्यावसेयम् ४, बन्धद्वारे- बन्धए - मणुस्सेहितो वि उववजंति देवेहितो वि उववअंति, एवं धया व 'त्ति । एकपत्रावस्थायां बन्धक एकत्वात् , धादिपउववाओ भाणियव्यो जहा बकंतीए वणस्सइकाइयाणं
त्रावस्थायाश्च बन्धका बहुत्वादिति,एवं सर्वकर्मसु, आयुके
तु तदबन्धावस्थाऽपि स्यात्,तदपेक्षया च प्रबन्धकोऽपि अबजाव ईसाणेति १ । तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केव
न्धका अपि च भवन्तीति । एतदेवाह-नवरमि' त्यादि इया उववअंति ?, गोयमा! जहम्मेणं एक्को वा दो वा तिमि
इह बन्धकाबन्धकपदयोरेकत्वयोगे एकवचनेन द्वौ विकल्पो, वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववज्जंति । तेणं बहुवचनेन च द्वौ, द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्वबहुत्वाभ्यां भंते ! जीवा समए समए अबहीरमाणार केवइकालेणं अव
चत्वार इत्येवमष्टौ विकल्पाः । स्थापना
१बन्धकः १ ५ बन्धकोऽबन्धकः १ हीरंति ?, गोयमा! तेणं असंखेजा समए समए अबहीरमा
२ प्रबन्धक १ ६ बन्धकोऽवन्धकाः ३ णा अवहीरमाणा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीभोसप्पिणीहिं ३ बन्धकाः ३ ७बन्धकाः प्रबन्धकः १ अवहीरंति णो चेव णं अवाहिया सिया ३।
४श्रबन्धकाः ३८बन्धकाः प्रबन्धकाः ३ 'उप्पलेणं भंते एगपत्तए' इत्यादि, उत्पलं-नीलोत्पलादि एक
एकसंयोगिभङ्गाः ४ द्विकसंयोगिभङ्गाः पत्रं यत्र तदेकपत्रकम् , अथ च एकं च तत्पत्रं चैकपत्रं तदेव
वेदनद्वारेकपत्रकं, तत्र सति, एकपत्रकं चेह किसलयावस्थाया उपरि
तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं वेदद्रष्टव्यम् , 'एगजीवे' ति । यदा ोकपत्रावस्थं तदेकजीवं गा अवेदगा?, गोयमा! णो अवेदगा वेदए वा वेदगा तद्यदा तु द्वितीयादिपत्रं तेन समारब्धं भवति तदा नैकप | वा एवं जाव अंतराइयस्स, ते णं भंते ! जीवा किं सात्रावस्था तस्येति बहवो जीवास्तत्रोत्पद्यन्त इति , पतदे- यावेदगा असायावेदगा ?, गोयमा ! सायावेदए वा - पाह- तेण परमि' त्यादि । तेण परं' ति ततः प्रथम
सातावेदए वा अट्ट भङ्गा ६॥ पत्रात्परतः । 'जे असे जीवा उववजंति' ति । येऽन्ये प्रथ
ते भदन्त ! जीवा ज्ञानवरणीयस्य कर्मणः किं वेदका मपत्रव्यतिरिक्ता जीवा जीवाश्रयत्वात् पत्रादयोऽवयवाः
अवेदकाः ?, अत्रापि एकपत्रतायामेकवचनान्तता प्रउत्पद्यन्ते ते नैकजीवाः-नैकजीवाश्रयाः किं त्वनकजीवा
न्यत्र तु बहुवचनान्तता , एवं यावदन्तरायस्य , वेदनीये श्रया इति । अंथवा-'तेणे' त्यादि । तत एकपत्रात्परतः
सातासाताभ्यां पूर्ववदष्टौ भनाः, इह च सर्वत्र प्रथमपत्रापेशेषपत्रादिष्वित्यर्थः, ये अन्ये जीवा उत्पद्यन्ते ते नैकर्जावा
क्षयैकवचनान्तता, ततः परन्तु बहुवचनान्तता, वेदनं चानैककाः किं त्वनेकजीवा:-अनेके इत्यर्थः।
नुक्रमोदितस्योदीरणोदीरितस्य वा कर्मणोऽनुभवः । उदयअपहारबन्धद्वारे
धानुक्रमोदितस्यैवेति वेदकत्वप्ररूपणेऽपि भेदेनोदयित्वप्रकतेसि णं भंते ! जीवा णं के महालया सरीरोगाहणा पम- |
पणमिति । स्थापनाता,गोयमा! जहमेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं १ सातावेदकः १ ५ सातावेदकोऽसातावेदकः १ साइरेगं जोअणसहस्सं ४ ते णं भंते! जीवा णाणावर
२ असातावेदकः १ ६ सातावेदकोऽसातावदकाः ३
३ सातावेदकाः ३ ७ सातावेदका असाताषेदकः १ णिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा ?, गोयमा ! णो
४ असातावेदकाः ३ सातावेदकाः असातावेदकाः ३ प्रबंधगा बंधए वा बंधगा वा एवं . जाष अंतराइयस्सा एकसंयोगिभङ्गाः ४
द्विकसंयोगिभनाः २०३
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(१०) वाप्फई अभिधानराजेन्द्रः।
वाप्का तेसि णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स | हवा-उस्सासए य णिस्सासए य, अहवा-उस्सासए किं उदई अणुदई ?, गोयमा ! णो अणुदई, उदई वा य, णो उस्मासणिस्सासए य । अहवा-णिस्सासए उदइणो वा एवं जाव अंतराइयस्स ७ । ते णं भंते ! य, णो उस्सासणिस्सामए य ४, अहवा-उस्सासए य, जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं उदीरगा अणुदी-| नीसासए य, णो उस्सासणिस्सासए य । अट्ठ भंगा एए रगा?, गोयमा ! णो अणुदीरगा उदीरए वा उदीरगा | छव्वीसं भंगा भवन्ति २६ ॥ वा एवं जाव अंतराइयस्स णवरं वेदणिज्जाउवएसु अट्ठ 'नो उस्सासनिस्सासए 'त्ति अपर्याप्तावस्थायाम् इह च भङ्गा८।
पदिशतिर्भङ्गाः, कथम् ?, एककयोगे एकवचनान्तात्रयः , 'नो अणुवीरग' ति तस्यामवस्थायां तेषामनुदीरकत्वस्यासः |
बहुवचनान्ता अपि त्रयः, द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्वबहुम्भवात् , 'यणिज्जाउपसु अट्ठ भङ्ग' ति वेदनीये साताऽसा
त्वाभ्यां तिस्रश्चतुर्भङ्गिका इति द्वादश, त्रिकयोगे स्वष्टावितापेक्षयाऽऽयुषि पुनरुदीरकत्वानुदीरकत्यापेक्षयाऽयौ भङ्गाः,
ति । अत एवाह-"पते छचसिं भङ्गा भवन्तीति"। अनुदीरकत्वं चायुष उदीरणायाः कादाचित्कत्वादिति ।
आहारकद्वारेलेश्याद्वारे अशीतिमङ्गाः कथम्
ते णं भंते ! जीवा किं अहारगा प्रणाहारगा?, गोयमा ! ते णं भंते जीवा किं कराहलेस्सा नीललेस्सा काउले
णो अणाहारगा, आहारए वा अणाहारए वा, एवं अट्ठ
भङ्गा १७। ते णं भंते! जीवा किं विरया अविरया विरस्सा तेउलेस्सा ?, गोयमा ! कण्हलेसे वा जाव तेउलेसे वा कएइलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा
याविरया ?, गोयमा! णो विरंया णो विरयाविरया अवि
रए वा अविरया वा १८ ते णं भंते ! जीवा किं सकिरिया वा तेडलेस्सा वा, अहवा-कण्हलेस्से य नीललस्से
अकिरिया ?, गोयमा! णो अकिरिया सकिरिए वा सकिरिया य एवं एए यासंयोगतियासंजोगचउक्कसंजोगणं असी
वा१६ । तेणं भंते जीवा किं सत्तविहबंधगा अविहबंधगा? तिभङ्गा भवन्ति । है । ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदि
गोयमा सत्तविहबंधए वा अट्टविहवंधए वा अदुभंगा२०॥ ट्ठी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठी ?, गोयमा !, णो सम्म
'श्राहारए य प्रणाहारए वत्ति विग्रहगतावनाहारकोऽन्यद्दिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा मिच्छादिट्टि
दात्वाहारकस्तत्र चाष्टौ भङ्गाः पूर्ववत् । णो वा १०, ते णं भते ? जीवा किं नाणी अपाणी ?, गो- ते णं भंते ! जीवा किं आहारसनोवउत्ता भयसयमा! णो णाणी अामाणी वा अम्माणिणो वा ११ ।। नोवउत्ता मेहुणसन्नोवउत्ता परिग्गहसनोवउत्ता ?, गो
एककयोगे एकवचनेन चत्वारो बहुवचनेनापि चत्वार यमा ! आहारसन्नोवउत्ता वा असीती भंगा २१। ते एव, द्विकयोगे तु यथायोगमेकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गी,
णं भंते ! जीवा किं कोहकसाई माणकसाई मायाकचतुर्णा च पदानां पइद्विकयोगास्ते च चतुर्गुणाश्चतुर्विंशतिः, त्रिकयोगे तु त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः, चतुर्णा च पदानां
साई लोभकसाई ?, असीती भंगा २२ । ते णं भंते ! चत्वारखिकसंयोगास्ते चाऽष्टाभिर्गुणिता द्वात्रिंशत् , चतु- जीवा किं इत्थीवदगा पुरिसवेदगा नपुंसगवेदगा ?, कसंयोगे तु षोडश भङ्गाः, सर्वमीलने चाशीतिरिति । श्रत
गोयमा! नो इत्थीवेदगा नो पुरिसवेदगा नपुंसगवेदए एवोक्तम्-'गोयमा कराहलेसे वे' त्यादि । भ० ११ श०।।
वा नपुंसगवेदगा वा २३ । ते णं भंते ! जीबा किं इवर्णाऽऽदिद्वारेतेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा कइवरणा कइगंधा
त्थीयेदबंधगा पुरिसवेदबंधगा नपुंसगवेदबंधगा ?, गोकइरसा कइफासा परमत्ता ?, गोयमा ! पञ्चवमा दुगंधा
यमा ! इत्थीवेदबंधए वा पुरिसवेदवंधए वा नपुंसगपश्चरसा अट्टफासा पामता, ते पुण अप्पणा अवण्णा
वेयबंधए वा, छन्वीसं भंगा २६ ।
संझाद्वारेअगंधा अरसा अफासा परमत्ता १४१ । १५ ।। 'ते पुण अप्पणा अवम ' त्ति शरीराण्येव तेषां पञ्चव
ते णं भंते ! जीवा किं सम्मी असामी ?, गोयमा ! र्णादीनि ते पुनरुत्पलजीवाः 'अप्पण' त्ति स्वरूपण, अ
णो सम्मी असमी वा असमियो वा २५ । ते णं भंते ! वर्णा-वर्णादिवर्जिता अमर्तत्वात्तेषामिति ।
जीवा कि सइंदिया अणिंदिया ?, गोयमा ! णो अउच्छामाऽऽदिद्वारे
णिदिया सइंदिए वा सइंदिया वा ॥ २६ ॥ से णं ते णं भन्ते ! जीवा कि उस्सासा निस्सासा णो उ-| भंते ! उप्पलजीवे ति कालो केत्र चिरं होइ ?, गोस्सासणिस्सासा?, गोयमा! उस्सासए वा १, णिस्सासए यमा! जहम्मेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेनं कालं वा २, णो उस्सासणिस्सासए वा ३, उस्सासगा वा ४, ॥२७॥ से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढवीजीवे पुणरसिस्सासमा वा ५, यो उस्सासणिस्सासगा वा ६, 4-1 वि उपलजीवे ति केवतियं काल सेवेजा ?, केवइयं
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(८१ ) वाप्फड अभिधानगजेन्द्र:।
वणप्फा कालं गतिरागतिं करेज्जा ?, गोयमा! भवादेसेणं ज- पृथिवीकायिकत्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनुहस्मेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवग्गह
प्यादिगतिं गच्छेदिति 'कालादेसेणं जहग दो अंतो
मुहुत्त' त्ति , पृथिवीत्वेनान्तर्मुहुर्त पुनरुत्पलत्वेनान्तमुहर्तणाई, कालादेसेणं जहामणं दो अंतोमुत्ता उक्कोसेणं अ
मित्येवं कालादेशेन जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहूर्ते इति । एवं द्वीसंखेजं कालं, एवतियं कालं सेवजा एवतियं कालं गइ-/ न्द्रियादिषु नेयम् । 'उकासेग अट्ट भवग्गहणाई 'ति चत्वारागति करेजा । (मू०-२८४)
रि पञ्चेन्द्रियतिरश्चश्चत्वारि चोत्पलस्येत्येयमो भवग्रहणासे भंते ! उम्पलर्जावे' त्ति इत्यादिनोत्पलवस्थितिर
न्युत्कर्षत इति । ' उक्कोसेणं पुवकोडीमुहुत्तं ' ति चतुषु प.
श्वेन्द्रियतिर्यग्भवग्रहणेषु चतस्रः पूर्वकोट्यः, उत्कृष्टकालस्य नुबन्धपर्यायत्तयोक्ता।
विक्षितत्वेनोत्पलकायोद्धृत्तजीवयोग्योत्कृष्टपश्चेन्द्रियतियकसे णं भंते ! उप्पलजीवे आउजीवे एवं चेव एवं ज
स्थिते ग्रहणात् , उत्पलजीवितं त्वेतास्वधिकमित्येवमुत्कृष्टतः हा पुढवीजीवे भणिते तहा जाव वाउजीवे भाणिय- पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति । ' एवं जहा आहारुहेसए वब्वे । से सं भंते ! उप्पलजीवे मे वणस्सइजीवे से पुण- णस्सइकाइयाणं' इत्यादि अनेन च यदतिदिष्टं तदिदम्रवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं कालं मेवेजा केवइयं कालं
खेत्तो असंखेजपएसोगाढाई कालो अमतरका
लट्टियाई, भावभो वसमंताई' इत्यादि, 'सव्वप्पणयाए' त्ति गइरागतिं क(जइ)रेजा, गोयमा ! भवादेसेणं जहमेणं दो|
सर्वात्मना 'नवरं नियमा छद्दिसिं' ति पृथिवीकायिकादयः भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई, कालादेसे- सूचमतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति स्यात् तिसृषु चतसषु णं जहोणं दो अंतोमुत्ता उक्कोसेणं अणतं कालं त-| दितु वेत्यादिनाऽपि प्रकारेणाहारमाहारयन्ति,उत्पलजीवास्तु रुकालं एवतियं कालं सेवेजा, एवइयं कालं गतिराग
बादरत्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावात्रियमात्षट्सु विवाहार
यन्तीति। तिं करेज्जा से णं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियजीवे पुण
ते णं भंते ! जीवा मारणंतियममुग्घाएणं किं समोहया रवि उप्पलजीवे ति केवइयं कालं सेवेज्जा केवइयं का-1
मरंति असमोहया मरंति ?, गोयमा ! समोहया वि मरंति लं गइरागतिं कज्जइ ?, गोयमा ! भवादेसेणं जहणणेणं दो भवग्गहरणाई उक्कोसेणं संखेज्जाई भवग्गहणाई,
असमोहया वि मरंति ३२ । ( सू०-४०८+ )
ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उबट्टित्ता कहिं गच्छन्ति कालादेसेणं जहमेणं दो अन्तोमुहुत्ता उक्कोसेणं संखेज्ज कालं, एवइयं कालं सेवेजा एवइयं कालं गइराग-|
कहिं उववजंति,किं णेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसु तिं काइ, एवं तेइंदियजीव, एवं चउरिंदियजीवे
उववजंति एवं जहा वकंतीए उव्वट्टणाए वणस्सइकाइयावि. से णं भंते ! उप्पलजीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणि
णं तहा भाणियव्वं । अह भंते! सव्वे पाणा सव्वे भृया सव्ये
जीवा सव्वे सत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंदत्ताए उप्पलयजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति पुच्छा, गोयमा ! भवादेस जहमेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भ
णालत्ताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरत्ताए उप्पलकवग्गहणाई, कालादेसेणं जहएणणं दो अंतोमुहुत्ताई उ
मियत्ताए उप्पलथिभुगत्ताए उप्पमपुव्वा ? हंता गोयमा!
असतिं अदुवा अणंतखुत्तो सेवं भंते! भंते! त्ति (सू०४०६) क्कोसेणं पुव्वकोडिमुहुत्ताई, एवइयं कालं सेवेजा ए-1
'वक्कंतीक्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे 'उबट्टणाए 'ति उकइयं कालं गइरागतिं करेजा, एवं मणुस्सेण वि
द्वर्तनाधिकारे तत्र चेदमेवं सूत्रम्-"मणुपसु उववज्जति समं . जाव एवइयं कालं गइरागतिं करेजा २८ ।
देवेसु उववजंति ?, गोयमा ! नो नेरइएसु उवववति ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ?, गोयमा! दव्व- तिरिएसु उववजंति मणुएसु उववजंति नो देवेसु उओ अणंतपएसियाई दव्वाई, एवं जहा श्राहारुद्देसए व
ववज्जंति" ' उप्पलकेसरत्ताए 'त्ति इह केसराणि कयस्सइकाइयाणं आहारो तहेव . जाव सव्वप्पणयाए
र्णिकायाः परितोऽवयवाः 'उप्पलकरिणयत्ताए' ति इह
तु कर्गिणका-बीजकोशः ' उप्पलथिभुगत्ताए ' ति ॥ आहारमाहारेति णवरं णियमा छद्दिसि सेसं तं चेव २६ ।
थिभुगा च यतः पत्राणि प्रभवन्ति । भ० ११ श०१ उ०। तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पएणत्ता ?,
सालुए णं भंते ! एगपत्ताए कि एगजीवे अणेगजीवे , गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दसवाससहस्साई
गोयमा! एगजीवे एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा ३० । तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ समुग्धाया परमत्ता ?,
भाणियब्वा० जाव अणंतखुत्तो, णवरं सरीरोगाहणा जगोयमा! तो समुघाया पसत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए
हनेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं धणुपुरतं । कसायसमुग्घाए-मारणंतियसमुग्घाए ३१ । (सू० ४०+)
सेसं तं चेव सेवं भंते! भंते!ति । (सू०४१०)(भ०११श०) 'सेणं भंते, उप्पलजीवे पुढविजीवे ' त्ति इत्यादिना तु सं. वेधस्थितिरुक्ता, तत्र च ' भवादेसेण ' ति भवप्रकारेण
पलासेणं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे. एवं भवमाश्रित्येत्यर्थः, 'जहएणणं दो भवग्गहणाई' ति एक उप्पलुदेसगवत्तव्यया अपरिसेसा भाणियव्या. गवरं
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( ८१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
वणप्फइ
सरीरोगाहणा जहसेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं गाउयमुडुत्तं, देवा एएसु चैव न उबवअंति । लेसासु तेयं भंते! जीवा किं कण्हलेसे वा नीललेसे काउलेसे?, गोयमा! कहलेस्से वा नीललेस्से काउलेस्से वा
aarti भङ्गा सेसं तं चैव सेवं भंते ! भंते! त्ति । (सू०-४११) ( भ०११ श० ३ उ० ।) कुंभि य णं भंते ! जीवे एगंपत्तए किं एगजीवे अगजीवे एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणिये, वरं ठिती जहसेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं वासपुहुतं सेसं तं चैव । सेवं भंते ! भंते ! ति । (सू०४१२ (भ० ११ श०४३० । ) नालिए गं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अगजीवे १, एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया गिरवसेसं भाणियव्वा सेवं भंते । भंते । ति । (सू०-११३) (भ० ११ श० ५ उ० । ) पउमे णं मंते ! एगपत्तए किं एगजीवे
गजीवे, एवं उप्पलुद्दे सगवत्तब्वया खिरवसेसा भाणियब्वा सेवं भंते ! भंते ! ति । (सू०४१४ ( भ० ११श०६३० । ) कलिए णं भंते ! एगपत्चए कि एगजीवे, अणेगजीवे १, एवं चैव खिरवसेसं भाणियव्वं । सेवं भंते ! मंते ! त्ति । ( सू० ४१५ ) ( भ० ११ श० ७ उ० । ) नलिये सं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अगजीवे १ एवं चैव खिरवसेसं० जाव श्रतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! चि । ( सू० ४१६ ) भ० ११ श० ८ उ० ।
"
सालूकोद्देशकादयः सप्तोद्देशकाः प्राय उत्पलोद्देशकसमानगमाः, विशेषः पुनर्यो यत्र स तत्र सूत्रसिद्ध एवं, नवरं पलाशोदेश के यदुक्तम्, 'देवेसु न उबवजंति 'ति तस्यायमर्थः-उत्पलोदेशके हि देवेभ्य उद्वृत्ता उत्पले उत्पद्यन्त इत्युकम्, इह तु पलाशेनोत्पद्यन्ते इति वाच्यम्, अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतिषूत्पद्यन्त इति । तथा 'लेसासु' त्ति लेश्याद्वारे इदमध्येयमिति वाक्यशेषः, तदेव दर्श्यते-' ते मि त्यादि । इयमत्र भावना-यदा किल तेजोलेश्यायुतो देवो देवभवादुद्धृत्य वनस्पतिषूत्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते न च पलाशे देवत्वोत्त उत्पद्यते, पूर्वोक्तयुक्तेः, एवं चेह तेजोलेश्या न सम्भवति तदभावादाद्या एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति, एतासु च पविंशतिर्भङ्गकाः, त्रयालां पदानामेतावतामेव भावादिति । एतेषु चोद्देशकेषु नानात्यसंग्रहार्थास्तिनो गाथाः
'सालम्मि धणुपुडुतं, होइ पलासे य गाउयपुहुतं । जोअणसहस्समहियं, अवसेसाणं तु खण्डं पि ॥ १ ॥ कुम्मीए नालियाए, वासपुडुतं ठिई उ बोधव्वा । दसवाससहस्साइं, अवसेसागं तु छण्हं पि कुम्भीए नालियाए, होति पलासे य तिरिए लेसाओ । चत्तारि उ सानो, अवसेसाणं तु पञ्च ॥ ३ ॥ एकादशशते द्वितीयादयोऽष्टमान्ताः शाल्याबुद्देशकाः । भ० ११ १८ उ० ।
सालि कल अयसि वंसे, इक्खू दम्भे य दम्भतुलसी य ।
For Private
बणप्फइ
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दस वग्गा, असीति पुरा होंति उद्देसा ॥ १ ॥ 'साली ' त्यादि सूत्रम् ' सालि ' त्ति शाख्यादिधान्यविशेषविषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः शालिरेवोच्यते, एवमन्यत्रापीति । उद्देशकदशकं चैवम् - "मूले १ कंदे २ खंधे ३, तया य ४ साले ५ पवाल ६ पत्ते य ७ । पुप्फे ८ फल ६ बीए वि य १०, एक्कोको होइ उद्देसो " ॥ १ ॥ इति । 'कल सि कलायादिधान्यविषयो द्वितीयः २, ' श्रयसि ति अतसीप्रभृतिधान्यविषयस्तृतीयः ३, 'वंसे 'त्ति वंशादिपर्वगविशेषविषयश्चतुर्थः । इक्खु ' ति इक्ष्वादिपर्वगविशेषविषयः पञ्चमः, 'दब्भे त्ति' दर्भशब्दस्योपलक्षणार्थत्वात्'सेढिय-भंडिय- कोंतियदन्भे' इत्यादिवणभेदविषयः षष्ठः ६, ' अम्भे' ति वृक्षे समुत्पन्नो विजातीयो वृक्षविशेषोऽध्यचरोहकस्तत्प्रभृतिशाकप्रायवनस्पतिविषयः सप्तमः, 'तुलसीय ' ति तुलसीप्रभृतिवनस्पतिविषयोऽष्टमो वर्गः ८ ।' अद्वेते दस वग्ग' सि अष्टावेते अनन्तरोक्का दशानाम् - दशानामुद्देशकानां सम्बन्धिनो वर्गाः समुदाया दशवर्गाः, अशीतिः पुनरुद्देशका भवन्ति, वर्गे बर्गे उद्देशकदशकभावादिति ।
रायगिहे ० जाव एवं बयासी अह भंते । साली वीहीगोधूमजवजवाणं एएसि णं भंते! जीवा मूलचाए वकर्मति, ते गं भंते । जीवा कमोहिंतो उववअंतिः, किं - इएहिंतो उबवअंति १, तिरिक्खजोगिएहिंतो उववजंति ?, मणुस्सेहितो उववअंति१, देवेहिंतो उववअंति, जहा वर्षातिए तद्देव उववा वरं देववअं, ते गं भंते ! जीवा एगसमरणं केवइया उववज्जंति १, गोयमा ! जहमेगं एको वा दो वा सिरिस वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा श्रसंखेज्जा बा उववज्जंति, अवहारो जहा उप्पलुद्देसए । एएसि सं भंते ! जीवा के महालया सरीरोगाहणा पण्यचा १, गोयमा ! जहण्यं अंगुलस्स श्रसंखेज्जइभागं उकोसे धणुहपुडुतं । (सू० - ६८८x)
'रायगिहे' त्यादि 'जहा वक्कँतिए त्ति' यथा प्रज्ञापनायाः षपदे तत्र चैवमुत्पादो नो नारकेभ्य उत्पद्यन्ते, किन्तुतिर्यग्मनुष्येभ्यः तथा व्युत्क्रान्तिपदे देवानां वनस्पतिषूत्पत्तिरुला इह तु सा न वाच्या मूले देवानामनुत्पत्तेः पुष्पादिष्वेव शुभेषु तेषामुत्पत्तेरत एवोक्रम् -' नवरं देववज्जं ति 'पको वे' त्यादि यद्यपि सामान्येन वनस्पतिषु प्रतिसमयमनन्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यते तथाऽपीह शाल्यादीनां प्रत्येकशरीरत्वादेकाद्युत्पत्सिर्म विरुद्धेति । श्रवहारो जहा उप्पलुद्देस ' चि उत्पलोदेशकः एकादशशतस्य प्रथमस्तत्र चापहार एवम् -' ते णं भते ! जीवा समये समये श्रवहीरमाणा २ केवतिकाले अवहीरंति ?, गोयमा ! ते णं असं
जा समय समय अवहीरमाणा २ असंज्जाहिं उस्सप्पिलीहि श्रवसप्पिणीहिं अवहीरंति नो चैव खं अवहिया सिय चि ।
बन्धकाः
ते गं भंते ! जीवा यायावरखिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा ?, जहा उप्पलुद्देसे, एवं वेदे वि उदए
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(८१३] वणप्फर अभिधानराजेन्द्रः।
वणप्फ वि उदीरणाए वि । तेणं भंते ! जीवा किंकण्हलेस्सा- यवो। (भ० २१ श० १ वर्ग ४ उ०।) साले वि णीललेस्सा काउलेसा छन्वीसं भंगा दिही. जाव वेइंदि- | उद्देसोणेयव्यो । (भ० २१ श०१ वर्ग ५ उ०) पवाले वि या जहा उप्पलुद्देसए, ते णं भंते ! साली वीही गोधूमा
उद्देसो भारिणयव्यो । (भ० २१ श.१ वर्ग ६ उ०।) • जाव जवजवगमूलगजीवे कालो केवचिरं होइ?, गोय- पत्ते वि उद्देसो भाणियव्यो । (भ० २१ श.१ वर्ग ७ मा! जहलेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । उ०।) एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मृले तहा से णं भंते ! साली बीही गोधूमा०जाव जवजवगमूलगजीवे
णयब्वा एवं पुप्फे वि उद्देसओ गवरं देवा उववज्जंति, पुढवीजीवे पुणरवि साली वीही० जाव जवजवगमूलगजीवे
जहा उप्पलुद्देसे चत्तारि लेस्साओ असीतिभंगा ओगाकेवइयं कालं सेवेजा, केवइयं कालं गतिरागतिं करे
हणा जहएणणं अङ्गुलस्स असंखेज्जइभाग उक्कोसेणं आ ?, एवं जहा उप्पलुईसए, एएणं अभिलावेणं जाव |
अङ्गुलपुहुत्तं सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! ति। मणुस्सजीवे आहारो जहा उप्पलुद्देसे ठिती जहमेणं अं- (भ० २१ श० १ वर्ग ८ उ०।) जहा पुप्फे एवं फतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं समुग्घाया समोहया य उन्च
ले वि उद्देसओ अपरिमेसो भाणियव्यो । (भ० २१ श० दृणा य जहा उप्पलुदेसे । अह भंते ! सबपाणा. जाव
१ वर्ग : उ०1) एवं बीए उद्देसमो एए दस उद्देससव्वसत्ता साली वीही० जाव जवजवगमूलगजीवत्ताए उ
गा पढमो वग्गो समत्तो (मू०-६८६ ) ( भ. २१ ववस्मपुवा हंता, गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो श० १ वर्ग १० उ०) मह भंते ! कलायममूरतिलमुग्गसेवं भंते ! भंते ! ति । (मू०६८८)
मासनिष्फावकुलथालिसंदगसडिणपलिपंथगाणं एए'ते ण भैते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मरस कि बंधगा | | सि णं जे जीवा मुलत्ताए वक्कमंति ते शं भंते ! जीरा अबंधगा? इतः परं यदुक्तम्-'जहा उप्पलुद्देसर' त्ति अनेनेदं | कोहितो उववज्जति? । एवं मूलादीयां दस उद्देसगा सूचितम्-'गोयमा! नो अबंधगा बंधए वा बंधगा वा' इत्यादि।
भाणियव्या जहेच सालीणं गिरवसेसं तं चैव वितिभो एवं वेदोदयोदीरणा अपि वाच्याः । लेश्यासु तु तिसृषु पईिशतिर्भकाः, एकवचनान्तत्वे बहुवचनान्तत्वे तथा त्रयाणां
वग्गो समत्तो । अह भंते ! अयसिकुसुंभकोद्दवकंगुपदानां त्रिषु.द्विकसंयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भङ्गिकाभावाद् द्वादश रालगतुवरिगकोदूसासणसरिसवमूलगवीयावं एएसि संजे एकत्र च त्रिकसंयोगेऽप्राविति पर्दिशतिरिति । दिट्ठी' जीवा मलत्ताए वक्कमति तेणं भत! जीवा कमोहितो त्यादि दृष्टिपदादारभ्य इन्द्रियपदं यावदुत्पलोद्देशकबन्नेयम् .
उववजंति ? एवं एत्थ वि मृलादीया दस उद्देसा जहेव तत्र दृष्टौ मिथ्यादृष्टयस्ते शाने अशानिनः , योगे काययोगिनः, उपयोगे द्विविधोपयोगाः, एवमन्यदपि । तत एवं
सालीणं शिरवसेसं तहेव भाणियव्वं । तइमो वग्गो समत्तो। वाच्यम् . 'से णं भंते !' इत्यादिना असंखेज्जं कालमित्येतदन्ते- अह भंते! वंसवेणुकणगककावंसवारुवंसदंडाकुंडाविमानचंनानुबन्ध उक्तः । अथ कायसंवेधमाह · से गमि ' त्यादि।
डावेणुयाकल्लाणीणं एएसि णं जीवा मूलनाए वक्कमंति'एवं जहा उप्पलउद्देसए'त्ति, अनेन चेदं सूचितम् , गोयमा!
एवं एत्थ वि मृलादीया दस उद्देसगा जहेव साली खवरं देभवादेसेणं जहरणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेन्जाई भवग्गहणाई कालादेसेणं जहम्मेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं
वो सब्बत्थ वि ण उववज्जइ, तिमि लेस्माभो सब्वत्थ वि असंखेजं कालमि' स्यादि 'आहारो जहा उप्पलहेए' इति छब्बीस भङ्गा । सेसं तं चेव । चउत्थो वग्गो समत्तो। एवं चासो ने भंते ! जीवा किमाहारमाहगिति गोयमा !| अह भंते ! उक्खुइक्खुवाडियावीरणाइक्कडभमासमुंठिसत्तधे दब्यो अणतपएमियाई' त्यादि समुग्याये ' त्यादि
सतिमिरसयपोरगनलाणं एएसि शं जे जीवा मूलत्ताए अनेन च यत्सूचिन तदर्थलेशोऽयम्-तेषां-जीवनामाद्यास्त्रयः ममुदानास्तथा मारणान्तिकममुद्धातेन समवहना म्रियन्ने
वक्कमंति एवं जहेव वंसवग्गो तहेव एत्थ वि मूलादीया दम असमवहता वा, नथोवृत्तास्ते निर्यसु मनुष्येषु चोपद्यन्त
उद्देसगा णवरं संधुद्देसे देवो उववजति चत्तारि लेस्सामो इति । भ० २१ श. १ वर्ग १ उ. ।
पएणनामो, सेसं तं चैवं । पंचमो वग्गो समनो । प्रह अह भंते ! साली वीही जाव जवजवाणं एएसि णं जे भंते ! सेमियभंडियदग्भकोतियदन्भकुमदम्भगयोइद (इत) जीवा कंदनाए वक्कमंति ते गं भंते ! जीवा कमोहितो| लमज्जुणासादगरोहियंसमुभवक्खीरभूमएरंडकुरुमकुंदउत्रवजंति एवं कंदाहिगारेण सो चेव मूलुद्देसो अपरिसे- करवरसुंठविभंगमुहवयणथुरगसिप्पियमुंकलितणावं । एमो भाणियन्यो० जाव असतं अदुवा अणंतखुनो सेवं| एसि शं जे जीवा मूलनाए वकमंति एवं एत्थ भंते ! भंते ! ति । ( भ. २१ श० १ वर्ग १ उ० )| वि दस उद्देसगा मिरवसेसं जहेव वंसस्स । छट्ठा एवं खंधे वि उद्देसो तव्यो। ( म० २१ वग्गो समत्तो । मह भंने ! अम्भरुहवोयासहरिश. २ वर्ग ३ उ० ।) एवं तयाए वि उद्देसो। मनःनि
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वणप्फइ
( ८१४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तंदुजगतवत्थुल चोरगमजारयाइ चिल्लियालक्कदगपिप्पलि यदव्विसोत्थिक सायमंडुक्कि मूलग सरिसवयंचिलसागजीवंतगाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, एवं एत्थ वि दस उद्देगा जहेव वंसस्स । सत्तमो वग्गो सभत्तो । अह भंते ! तुलसीकहदलफजा अजाचू - यणाचोराजी दमणामरुयाइंदीवर सयपुप्फाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एत्थ वि दस उद्देसगा गिरवसेसं जहा वंसाणं । एवं एएसु सु वग्गेस असीति ८० उद्देसगा भवन्ति । ( सू० ६६० ) एवं समस्तोऽपि वर्गः सूत्रसिद्ध एवमन्येऽपि, नवरमशीतिर्भङ्गाः, एवं चतसृषु लेश्यास्वेकत्वे ४ बहुत्वे ४ तथा पदच तुष्टये षट्सु द्विकसंयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भङ्गिकासद्भावात् २४, तथा चतुर्षु त्रिसंयोगेषु प्रत्येकमष्टानां सद्भावात् ३२, चतुष्कसंयोगे व १६, एवमशतिरिति । इह चेयमवगाहनाविशेषाभिधायिका वृद्धोक्ता गाथा-"मूले कंदे खंधे, तया य राजे पवाल-पत्ते य । सत्तसुं वि धणुपुहुत्तं, अंगुलिमो पुफ्फफलबीए ॥ १ ॥ " इति । भ० २१ ० ६ वर्ग । तालादिकानाह
"
" तालेगट्ठियबहुवी - यगा य गुच्छा य गुम्मवल्ली य । छस वग्गा एए, सट्ठि पुण होंति उद्देसा ॥ १ ॥ रायगिहे ० जाव एवं वयासी- अह. भंते ! तालतमालतक्कलितेतलि सालिसरलासारगल्लाणं •जाव केयतियकदलच.म्हरुक्ख गुंद रुक्खहिं गुरुक्ख लवंग रुक्खपूयफल खज्जूरिनालिएरी, एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते! जीवा कहिंतो उववज्जंति एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायब्बा जहेव सालीणं, णवरं इमं गाणत्तं मूले कंदे खंदे तयाए साले य एएसु पञ्चसु उद्देसएस देवो ग उववज्जइ तिरिष्य लेस्साओ ठिती जराहणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई उवरिल्लेसु पञ्चसु उद्देसएस देवो उववज्जइ, चत्तारि लेस्साओ ठिई जहणं अतो. मुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं श्रोगाहणा, मूले कंदे धगुहपुहुत्तं । खंधे तया य साले य गाउयपुहुतं, पत्राले पत्ते धणुपुहुत्तं, पुष्फे हत्थपुहुत्तं, फले बीए य अंगुलपुहुत्तं, सव्वेसिं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं से जहा सालीगं । एवं एए दस उद्देसगा बावीस मस्स पढमो वग्गो । अह भंते ! णिम्बऽम्चजंबुकोसंब तालऋङ्कोल्लपीलुसेलुसल्लइमोयइमालुयच उलपलामकरंजपुत्तं जीवगरिट्ठवहेडगहरियगभल्ला यउंवरियभरियखीरणिधायइ पिय। लुपूइयणिवायगसे रहयपासिय सीसवाय सिपुण्णागणागरुक्खसीव
सोगाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए नक्कमंति एवं मूलाऽऽदीया दस उद्देसगा कायव्वा गिरवसेसं जहा तालग्गो | बितिय वग्गो समत्तो । अह भंते ! अ
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वणप्फड
त्थियातिंदुयबोरक विट्ठअंबाड ग माउलिङ्ग बिल्लामलगफण सदालिम आसत्थउंबर वडणग्गोहणंदिरुक्खपिप्पलिसतरपिलक्खुरुक्खकाउंवरिय कुच्छ्रं भरियदेवदालितिलगलउयछतोहसिनसत्तवदधिवएणलोद्धधवचंद राज्जुणणीवकुडुगकलंबाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा यव्वा ० जाव बीयं, तो वग्गो समत्तो । अह भंते ! वार्तिगणे अल्लड पोडइ एवं जहा पावणाए गाहाणुसारेण यच्वं ०जाव गंजपाडणा वासिङ्कोल्लागं, एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं एत्थ वि मूलादिया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा नेयव्वा जाव बीयं ति णिरवसेसं जहा वसवग्गो चंउत्थो वग्गो समत्तो । ग्रह भंते ! सिरियकैाणवनालियकोरंट गबंधुजीवगम गोजा जहा पाए पढमपदे गाहाणुसारेण ०जाब खलणीयकुंदमहाजातीणं, एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा खिरवसेसं जहा सालीणं । पञ्चमो वग्गो समत्तो । अह भंते ! पूसफलीकालिंगी तुंबीत उसी एलावालुंकी एवं पदाणि छिंदि - यव्वाणि पमवणागाहाणुसारेण जहा तालवग्गो ० जान afratafat कलिसकलिअकबोंदी, एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहा तालवग्गो खवरं फलउद्देसे ओगाहणाए जह
अङ्गुलस्त असंखेजइभागं उक्कोसेणं धणुहपुहुतं ठितं चैव । छट्टो वग्गो समत्तो । एवं छसु वि वग्गेसु सङ्कि ई सन्वत्थ जहम्मे अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं सेसं उद्देगा भवंति | ( सू० ६६१ )
'ताले ' न्यादि तत्र 'ताले 'ति तालनमालप्रभृतिवृक्षविशेषविषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः, उद्देशकदशके च मूलकन्दादिविषयभेदात्पूर्ववत् । ' एगट्टिय 'त्ति एकमस्थिकं फलमध्ये येषां ते तथा, ते च-निम्याऽऽम्रजम्बूकौशाम्बादयः, ते द्वितीये वाच्याः । बहुवीयगा य' त्ति बहन थीजानि फलेषु येषां ते तथा, ते च श्रत्थिकतेन्दुकबदरकपित्थादयो वृक्षविशेषास्ते तृतीये वाच्याः । ' गुच्छा य' ति गुच्छा - वृन्ताकीप्रभृतयस्ते चतुर्थे वाच्याः । ' गुम्म 'ति गुल्मा:- सिरियक नवमालिकाको रराटकादयस्ते पञ्चमे वाच्याः । 'वल्ली च'त्ति वल्ल्य: पुष्पफलीकालिङ्गीतुम्बीप्रभृतयः ताः पृष्ठे वर्गे वाच्या । इत्येवं षष्ठवर्गो वल्लीत्यभिधीयते' वग्गा एए' त्ति पददशोद्देशकप्रमाणा वर्गा एते श्रनन्तरोक्ताः श्रत एव प्रत्येकं दशो देशकप्रमाणत्वाद्वर्गाणाम
पटिदेशका भवन्तीति । इदं च शतमनन्तर शतवत्सर्व व्या. ख्येयम्, यस्तु विशेषः स सूत्रसिद्धः, एवम् इयं चेह वृद्धोक्ता गाथा - " पतपवाले पुरके, फले य बीए य होइ उवचाश्रो । रुक्नेसु सुग्गरणाएं, पत्थर सबस गंधे सु ॥ ६॥ ति । भ०२२० ।
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(०१५) वाप्फई अभिधानराजेन्द्रः।
वणमाला अालुकाऽऽदि
ति पञ्चैते अनन्तरोता दशोदेशकप्रमाणा वर्गा दशवर्गाः यत "आलुयलोहोअवया, पाढी तह मासवलिवल्ली य । एवमतः पश्चाशदुदेशका भवन्तीह शत इति । भ० २३ श० ।
शालवृक्षवक्तव्यतापश्चैते दस वग्गा, परमासा होंति उद्देसा ॥१॥" ।
एस णं भंते ! सालरुक्खए उपहाभिहते तएहाभिहए रायगिहे .जाव एवं वयासी-अह भंते ! आलुयमू- वग्गिजालाभिहते कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिलगसिंगवरहालिहरुक्म्वकंडरियजारुच्छीरविरालीकिट्ठिकुं--
हिति कहिं उववजिहिइ ?, गोयमा ! इहेव रायगिहे णयरे दुकण्हकडडसुमधुपयलइमहुसिंगिणिरुहासप्पसुगंधाछिन्न
सालरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ अच्चियवंदियपूइरुहावीयरुहाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति
यसकारियसंमाणिये दिव्वे सच्चे सच्चोवाए समिहियपाडिहे एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायया वंसवग्गसरिसा
लाउल्लोइयमहिए याऽवि भविस्सइ । से णं भंते ! तोहिंतो णवरं परिमाणं जहमणं एक्को वा दो वा तिरिण अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति कहिं उववजिहिवा उक्कोसेणं संखेजा असंखेजा वा अणंता वा ति, गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिह जाव अंतंउववजंति अवहारो, गोयमा ! ते णं अणंता समए | काहिति, एसणं भंते ! साललट्ठिया.उपहाभिहया तरणाअवहीरमाणा २ अणंताहिं उस्सप्पिणीहिं श्रोसप्पिणी- भिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा जाव हिं एवतिकालण अवहीरंति णो चेव णं अवहरिया सिया कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारदिई जहामेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं , सेसं तं चेव हे वासे विज्झगिरिपायमूले महेसरिए णयरीए सामलिपढमो वग्गो समत्तो।। अह भंते ! लोहिणीहथीहथिवगा अ- रुक्खत्ताए पञ्चायाहिति, सा शं तत्थ अच्चियवंदियपूइय स्मकस्मीसीउंढीमुसंढीणं एएसिणं जीवा मूल एवं एत्थवि | जाव लाउल्लोइयमहिए याऽवि भविस्सइ, से णं भंते ! दस उद्देसगा जहेब आलुयवग्गे णवरं ओगाहणा नालव
ततोहिंतो अणंतरं उव्यट्टित्ता सेसं जहा सालरुक्खस्स० ग्गसरिमा,सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! ति। वितिओ वग्गो जाव अंतं काहिति । एस णं भंते ! उंबरलट्ठिया उपहाभिसमत्तो ।। अह भंते ! आयकायकुहुणकुंदुरुक्कउव्वेहलिया- हया तण्हाभिहया दव्वग्गिजालाभिहया कालमासे कालं सफासजाछत्तावसाणियकुमारार्ण एएसि णं जे जीवा | किच्चा ०जाव कहिं उववन्जिहिति?, गोयमा! इहेव जम्बुमूलत्ताए एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसया द्दीवे दीवे भारहे वासे पाडलिपुत्ते णामंणगरे पाडलिरुक्तणिरवसेस तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति | तइओ वग्गो समत्तो।। त्ताए पच्चायाहिति से णं तत्थ अच्चियवंदिय जाव अह मंते ! पाढामियवालुंकिमहुररसारायबल्लिपउमामोंढ-| भविस्सइ । से णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता सेसं तं चेव. रिदंतिचंडीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति,
जाव अंतं काहिति । (सू०-५२८) एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा आलुयवग्गसरिसा
'एस णमि' त्यादि दिव्वे' त्ति प्रधानः 'सच्चोवाए ' ति णवरं ओगाहणा जहा वल्लीणं, ससं तं चेव सेव भंते !
सत्यावपातः-सफलसेवः कस्मादेवमित्यत आह-'संनिहिय
पाडिहरे त्ति । सन्निहितम्-विहितं प्रातिहार्यम्-प्रतिहारभंते! ति। चउत्थो वग्गो समत्तो। अह भंते मासपालीमु- कर्म सान्निध्य देवेन यस्य स तथा, 'साललट्ठिय'ति । सालयग्गपम्मीजीवगसरिसवकएणुयकाओलिखीरकाकोलिभंगि-| टिका इह च यद्यपि शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथापि णेहिं किमिरासिभद्दमुच्छणंगलइपोयकिम्मापउलपा-| प्रथमजीवापेक्ष सूत्रत्रयमभिनेतव्यम् , एवंविधप्रश्नाच धनढेहरेणुयालोहीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए व० एवं
स्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन
कृता इत्यवसेयमिति । भ० १४ श०८ उ० । एत्थ वि दस उद्देसगा णिरवसेसं आलुयवग्गसरिसा ।
वणप्फ(स्स)इकाइय-वनस्पतिकायिक-पुं० । बनस्पतिर्लतापश्चमो वग्गो समत्तो ।। एएसु पञ्चसु बग्गेसु पस्मासं
दिरूपः स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, त एव उद्देसगा भाणियव्वा सव्वत्थ देवा ण उववजंति त्ति तिमि | वनस्पतिकायिकाः। वनस्पतिशरीरकेषु एकेन्द्रियजीवभेदेषु, लेस्सायो सेवं भंते ! भंते! ति । (सू०-६६२)
प्रझा०१ पद । जी० । दश । स्था० । ग० । स० । 'पालुये त्यादि तत्र 'अालुय' ति अालुकमूलकादिसा- | वणप्फ(स्स)इकाल-वनस्पातकाल-पु०
| वणप्फ(स्स)इकाल-बनस्पतिकाल-पुं० । अनन्तोत्सर्पिण्यवधारणशरीग्यनस्पतिभेदधिपयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो त्सर्पिणीलक्षणे कालभदे, श्रा० म०१०। वर्गः ॥'लोही ति ॥ लोहीप्रभृत्यनन्तकायिकविषयो द्विती- वणप्फ(स्स)इगण-वनस्पतिगण-पुं० । वनस्पतीनां समुदाये, यः। 'अवइति श्रवककवकप्रभृत्यनन्तकायिकभेदविषयस्तृ- प्रश्न. ४ आश्र द्वार। तीयः।' पाढ' नि पाठा-मृगवालुकीमधुररसादिवनस्पति-वणमाला-वनमाला-स्त्री० । रत्नादिमये आपदीने आभरणभेदविषयश्चतुध । मासवरणीमुग्गवराणी य' त्ति मापपराली विशेष. स्था०८ ठा० ३ उ०। ( वनमालावर्णकः ' लवणमुद्गपशपतिवानी रिशरविषय. पञ्चमः तन्नामक पवे- समुह शन्देऽस्मिन्नेव भागे ६८ पृष्ठे गतः।)
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अभिधानराजेन्द्रः ।
पणी मग
वणमालापीडमउलकुंडलसच्छंदविउब्वियामरणचारुभू - वणाहिवइ - वनाधिपति -पुं० । यक्षभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
वणि (ग् ) - व्रणिन् - त्रि० । व्रणो ऽस्यास्तीति व्रणी । रौद्रतरे शल्ये, आव० ५ अ० ।
बलिया बनिता स्त्री० स्त्रियाम् उत०
थणमाला
सगधरा ।
वनमाला - वनमालामयानि श्रामेलमुकुटकुण्डलानि, आ. मेल इति प्रापीडदस्य प्राकृतलक्षण्यशात् पीडशे रकः तथा स्वच्छन्द विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैयंत् चारु भूषणं-मण्डनं तद्धरन्तीति वनमालापीडमुकुटकुण्डलस्वच्छन्दविकुर्विताऽऽभरणचारुभूषणधराः । लिहादित्वादच् । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । तं० ॥ जं० रा० । औ० । वनस्पतिस्त्रजि च। स० । श्री० द्वादशदेवलोकीयचिमानभेत्रे, नपुं० । स० । वणमुह-व्रणमुख-न० । व्रणाग्रे, “ वणमुहकिमिउत्तयंतपगलंतपूयरुहिरं " वणमुखानि कृमिभिरुतुद्यमानानि ऊर्ध्वं व्यथ्यमानानि प्रगतत्पूयरुधिराणि यस्य सः । विपा० १
66
भु० ७ ४० ।
ववरण- वनचरक - पुं० शबरी ० १ ० १ ० वखराइ - वनराजि - स्त्री० । एकजातीयानामितरेषां वा तरूणां पङ्की, अनु० । शा० । एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । प्रशा० ॥ भ० रा० । बगराय- वनराज - पुं० [मत्सराणि २००नस्य निवेशके पोल्लुवंशीये राजनि ती० २५ कल्प। बखलया बनलता - श्री० अशोकादिलतासु प्रा० १ पद जं० । रा० । जी० ॥ भ० | कल्प० । शा० । एकशास्त्रेषु तरुविशेषेषु, बणा- द्रुमविशेषाः द्रुमाणां च लतात्वमेकशाखाका - द्रष्टव्यम्, ये हि हुमा ऊर्ध्वागतैकशाखा न तु दिग्विदिप्रवृत्तबहुशाखास्ते लता इति प्रसिद्धाः । रा० । बलवास बनवास ५० अरण्यवासे, दृ० लीकिका हि वानप्रस्थाश्रमे वर्तमाना वनवासमेव श्रेयसे मन्यन्ते । तत्राप्राशुकादिपरिभोगदोषः ० १ ० ३ प्रक० ( सच सं डि शब्दे दर्शयिष्यते । )
नां
वज्रवासी - वनवासी श्री० [दक्षिणाभरत क्षेत्रीये नगरी
" हेच अजभरहे बगवासीनगरीय वासुदेवस्स जेडुभारं जरकुमारपुसो जियस राया " ग० २ अधि० । बखविदुग्ग बनवदुर्ग-० नानाविधखसमूहे म०१० ८] उ० | व्य० । एकं वनं वनम् नानारूपं वनम् बनविदुर्गः ।
,
व्य० है उ० । सूत्र० ।
विरोह-बनविरोध- पुं० । लोको सररीत्या द्वादशे मासे, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । जं० । ज्यो० । सू० प्र० । चं० प्र० । वनसंड- वनपण्ड - पुं० । अनेकजानीयोत्तमवृक्षसमुदाये, क०१ अधि०४ अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहा,
णां समूहे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा० । जी० । अनु० । एकजातीयवृक्षसमूहे, शा० १ ० १ श्र० । ज्ञा० | स्था० ।
सवाई - स्त्री० । कोकिलायाम्, “पियमाहवी परहुआ कलयंठी कोइला व सवाई " पाइ० ना० ४२ गाथा । हरि ( ) नहस्तिन्- ५० घारण्यनजे, उल० १३० बणाहार बनाहार - पुं० वन्यस्तूपभोकरि पक्ष
प्रज्ञा० १
पद ।
"
पुरिसे नाणाविहेहि, भावेहिं वरांति त्ति वणियाओ ।
4
'पुरिसे सि-पुरुषान् नानाविधः भावैरभिप्रायाधिवासादिभिर्वर्णयन्ति - कामोद्दीपनगुणान् विस्तारयन्तीति वनिताः । [सं०] तथा च हारिल बातो तो दहति हुतभु देदमेकं नराणां मत्तो नागः कुपितभुजकश्चैकदेहं तथैव । ज्ञानं शीलं विनयमिवीदार्थविज्ञानदेहान् सर्वानर्थान् दहति पनिताssमुष्मिकानैहिकांश्च ॥ १ ॥ " उत० ८ श्र० । बखी बनी स्त्री० । कर्पासनिष्यादके फलभेदे, सूत्र० १
० १ ० १० स्था० | दायकाभिमतजनप्रशंसा पायतो लब्धार्थे, पञ्चा० १३ विष० ।
वणीमक - वनीपक- पुं० । परेषामात्मदुस्थत्वदर्शनेना कूलमातोभ्यते इयं सा बनी-प्रतीता तां पिवति प्रा. स्वादयति पातीति वेति वनीपः । स एव वनीपकः । याचके, स्था०५ ठा० ३ उ० । पञ्चा० । कृपणे, दश० ५ ० । वनु या चने, धनुते प्रायो दायकाभिमतेषु भ्रमणादिध्यात्मानं भ दर्शयित्वा पिण्डं याचते । प्रव०६७ द्वार । पिं० । अभीष्टजनप्रशं सने, ग० १ अधि० ।
प्रथमतो वनीपकस्य भेदान्निरुक्तिं च शब्दस्याह
समणे माहणि किवणे, अतिही साणे य होइ पंचमए । वणिजायण तिवणिमओ, पायप्पाणं वणेउ ति ॥ ४३ ॥ वनीपकः पञ्चधा, तद्यथा - श्रमणे - श्रमण विषयः ब्राह्मणे रुपये अतिथी शनि पो भवति तत्र वनीयक इति । यनिरित्ययं धातुर्याचने, धतु याचने इति वचनात् । ततो बनुप्रायदायकसम्म भ्रमणादिष्यात्मानं दर्शयित्वा पिएदं याचते इति पचति बनीपकः श्रीणादिक ईपकप्रत्यथः ।
संप्रति प्रकारान्तरेण वनीपकशब्दनिरुक्तिं प्रतिपादयतिमयमा बच्छ पिव पणे आहारमाइलोमेणं । समणेसु माहणेसु य, किविणातिहिसा भत्ते ||४४॥ मृना - पञ्चत्वमुपगता माता यस्य यत्सकस्य कस्य तमिव गोपालको ऽन्यस्यां गवि इति शेषः, श्राहारादिलोमेनभक्तपात्रवस्तुलुब्धतया ब्राह्मणेषु श्रमणेषु कृपणातिथिष्वचभक्षु वर्नात भक्रमात्मानं दर्शयतीति वनीयकः पूर्ववदौणादिक ईपकप्रत्ययः ।
सम्प्रति पावन्तः भ्रमणशब्दवाच्यास्तावतो दर्शयत्या नेषु वनीयकत्वं यथा भवति तथा दर्शयतिनिग्गंथसकतावस - गेरुवचाजीवपंचहा ममणा ।
तेसि परिवेसगाए, लोभेण वणिजको अप्पं ॥ ४४५ ॥ निर्बन्धाः साधवः शाक्या मायानवीयाः - तापसाः वनवासिनः पाखण्डिनः गेरुका: गेरुवा रिवाजका अजदका: गोशालक शिष्या इनि पञ्चपा
,
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(=10) अभिधानराजेन्द्रः ।
वणीमग
पञ्चप्रकाराः भ्रमणा भवन्ति, एतेषां च यथायोगं गृहिगृहेषु समागतानां परिवेषणे - भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽन्याहारलम्पटः साधुर्लोभेनाहारादिलुब्धतया वनति-शा क्यादिभक्तमात्मानं दर्शयति तद्भक्तगृहिणः पुरन इति सामगम्यम् । इह प्रायः शाक्या गैरुका वा गृहिगृहेषु भुञ्जते ततस्तान् भुञ्जानानधिकृत्य यथा साधुर्वनीपकत्वं कुरुते तथादर्शयति
भुंजंति चित्तकम्मं, ठिया व कारुणियदाणरुहणोत्रा । अभिकामगद्दहेसु वि, न नस्सई किं पुण जईसु ||४४६|| एवं नाम निश्चला भगवन्तोऽमी शाक्यादयो भुञ्जते यथा चित्रकर्मलिखिता इव भुञ्जाना लक्ष्यन्ते, तथापरमकारुणिका पते दानरुचयश्च तत एतेभ्योऽवश्यं भोजनं दातव्यम् । श्रपि च - कामगईभेष्वपि मैथुने गर्दभेष्विवातिप्रसक्तेषु ब्राह्मणेष्विति गम्यते । दत्तं न नश्यति किं पुनरमीषु शाक्यादिषु एतेभ्यो दत्तमतिशयेन बहुफलमिति भावः । तस्माद्दातव्यमेतेभ्यो विशेषतः । अत्र दोषान् दर्शयति
मिच्छत्तथिरीकरणं, उग्गमदोसा य तेसु वा गच्छे । चडुकार दिन्नदाणा, पच्चत्थिग मा पुगो इंतु ॥ ४४७॥ एवं हि शाक्यादिप्रशंसने लोके मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं भवति, तथाहि - साधवोऽप्यमून् प्रशंसन्ति तस्मादेतेषां धर्मः सत्य इति । तथा यदि भक्का भद्रका भवेयुः तत इत्यं साधुप्रशंसामुपलभ्य तद्योग्यमाधाकर्मिकादिसमा - चरेयुः । ततस्तमुग्धतया कदाचित् साधुवेषमपहाय तेषुशाक्यादिषु गच्छेयुः । तथा लोके चाटुकरणयुते जन्मान्तरेऽप्यरत्तदाना श्राहाराद्यर्थ श्वान इवात्मानं दर्शयन्तिइत्यवर्णवादः, यदि पुनः शाक्यादयः शाक्यादिभक्का वा प्रत्यर्थिकाः --- प्रत्यनीका भवेयुस्ततः प्रद्वेषतः प्रशंसावचनमयज्ञायेत्थं ब्रूयुः मा पुनरत्र भवन्त श्रायान्विति । ब्राह्मणभक्तानां पुरतो ब्राह्मणप्रशंसारूपं वनीपकत्वं यथा करोति तथा दर्शयति-लोयाग्गहकारिसु, भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि नाम बंभबंधु, किं पुरा छकम्मनिरएसु ||४४८ || fuesप्रदानादिना लोकोपकारिषु भूमिदेवेषु ब्राह्मणेषु श्रपि नाम ब्रह्मबन्धुष्वपि जातिमात्रब्राह्मणेष्वपि दानं दीयमानं बहुफलं भवति किं पुनर्यजनयाजनादिरूपपटुर्मनिरतेषु तेषु विशेषतो बहुफलं भविष्यतीति भावः । संप्रति कृपणभक्तानां पुरतः कृपणप्रशंसारूपं वनीपक
त्वं यथा समाचरति तथा प्रतिपादयतिकिविणेसु दुम्मणेय, अबंधवा यंकजुंगियंगेसुं । पाहिजे लोए, दागपडागं हरइ देतो ॥ ४४६ ॥ इह लोकः पूजाहार्य:- पूजया हियते - श्रावर्त्यते इति पूजाहार्यः, पूजितपूजको न कोऽपि कृपणादिभ्यो ददाति ततः कृपणेषु तथा इष्टवियोगादिना दुर्मनस्तु तथा श्रवान्धवेषु तथा श्रातङ्को-ज्वरांदिस्तद्योगादातङ्किनोऽप्यावास्तेषु तथा जुङ्गिताङ्गेषु च कर्त्तितहस्तपादाद्यत्रयत्रेषु
२०५
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वलीमग निराकाङ्क्षता ददस्मिन् लोके दानपताकां हरति गृहाति ॥ साम्प्रतमतिथिभक्तानां पुरतोऽतिथिप्रशंसारूपं बनीपकत्वं यथा साधुर्विदधाति तथा दर्शयतिपाएण देह लोगो, उबगारिसु परिचिएस झुसिए वा । जो पुण श्रद्धाखिनं, अतिहिं पूएइ तं दाणं ।। ४५० ॥ इह प्रायेण लोक उपकारिषु यद्वा-परिचितेषु यदिवा श्रध्युषिते - श्राश्रिते ददाति भक्तादि, यः पुनरध्वखिन्नमतिथि पूजयति तदेव दानं जगति प्रधानमिति शेषः । अधुना शुनां भक्तानां पुरतः शुनकप्रशंसारूपं वनीपकत्वं कुवन् यति तदुपदर्शयति
अवि नाम होज सुलभो, गोणाईणं तणाइ आहारो । faraकारयाणं, ण हु सुलहो होइ सुणगाणं ॥। ४५१ ।। केलासभवणा एए, आगया गुज्झगा महिं । चरंति जक्खरूवेण, पूयाऽपूया हियाऽहिया ।। ४५२ ।। श्रपि नाम गवादीनां तृणादिक आहारो भवेत् सुलभः, foresareeतानां त्वमीषां शुनां न तु कदाचनाऽपि भवति सुलभः, तत एतेभ्यो यहीयते तदेव बहुफलमिति भावः, अपि च- नैते श्वानः श्वान एव किं तु गुह्यका देवविशेषाः कैलासभवनात् - कैलास पर्वतरूपादाश्रयादागत्य महीं - पृथि वीं यक्षरूपेण श्वाकृत्या चरन्ति तत एतेषां पूजाऽपूजा व यथासंख्यं हिता श्रहिता चेति ।
संप्रति ब्राह्मणादिविषयवनीपकत्वे दोषानाहएएण मज्झभावो, दिट्ठो लोए पणामहेजम्मि | एकेके पुत्ता, भद्दगपंताइणो दोसा ।। ४५३ ।। एतेन - अनेन साधुना 'मज्झ' मदीयो भावो - भक्तत्वलक्षणो दृष्टोऽवगतो लोके - ब्राह्मणादौ किं विशिष्टे ? इत्याह- प्रणामहायें प्रणामः -- प्रणमनं तेन, उपलक्षणमेतत् दानादिना च हायें-- श्रावर्जनीये, तत एकैकस्मिन् ब्राह्मणादिविषये वनीयकत्वे पूर्वोक्ता भद्रकप्रान्तादयो दोया भावनीयाः । किमुक्तं भवति-यदि भद्रकस्तर्हि प्रशंसावचनतो वशीकृत श्राधाकर्मादि कृत्वा प्रयच्छति, अथ प्रान्तस्तर्हि गृहनिष्काशनादि करोति । इह प्राक' साखे पुण होर पंचमए' इत्युक्तम्, तत्र साणग्रहणं काकादीनामुपलक्षणम् तेन काकादिष्वपि बनीपकत्वं द्रष्टव्यम् ।
तथा चाऽऽह -
मेव कागमाई, साणग्गहणेण सूइया होंति ।
जो वा जम्म पत्तो, वणइ तहिं पुट्ठऽपुट्ठो वा ।। ४५४ ।। एवमेव वनीपकत्वप्ररूपणाविषयत्वेन भ्वग्रहणेन काकादयोऽपि सूचिता भवन्ति, ततस्तत्रापि वनीपकत्वं भावनीयम् । एतदेव व्याप्तिपुरस्सरमाह--यो वा यत्र काकादी पूजकत्वेन प्रसक्तस्तत्र काकादिस्वरूपं पृष्टोऽपृष्टो वा वनतिप्रशंसाद्वारेणात्मानं भक्तं दर्शयति ।
सम्प्रति वनीपकत्वं कुर्वतः साधोर्युक्त्या दोषगरीयस्त्वं प्रकटयति
दाणं न होइ अफलं, पत्तमपत्तेसु सन्निजुजंतं । इय विभणिए वि दोसा, पसंसओ किं पुण अपत्ते । ४५५ ।
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(१८) अभिधान राजेन्द्रः ।
वणीमग
इह पात्रेष्वपात्रेषु वा सन्नियुज्यमानं दानं न भवत्यफलमित्यपि भणिते दोषः । अपात्रदानस्य पात्रदानसमतया प्रशंसनेन सम्यक्त्वातीचारसंभवात् । किं पुनरपात्राण्येव साक्षात्प्रशंसतः ?, तत्र सुतरां मद्दान् दोषो मिथ्यात्वस्थिरीकरखादिदोषभावादिति । पिं० । व्य० । जीत० । श्राचा० । स्था० ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा ० जाव समाणे से जं पुण जाणिजा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समणा माहा प्रतिहिकिवगवणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस पागाई वा० ४ समारम्भ ० जाव नो पडिग्गाहिजा || ( सू०-७ )
स भावभिक्षुर्यावत् गृहपतिकुलं प्रविष्टस्तद्यत् पुनरेवंभूतमशनादि जानीयात्तद्यथा-बहून् श्रमणानुद्दिश्य, ते च प श्वविधाः-निर्ग्रन्थ- शाक्य-तापस-गैरिका - ऽऽजीविका इति । ब्राह्मणान् भोजनकालोपस्थाय्यपूर्वो वाऽतिथिस्तानिति कृपणा दरिद्रास्तान् वणी मका - घन्दिप्रायास्तानपि श्रमणादीन बहनुदिश्य प्रगणय्य प्रगणय्योद्दिशति, तद्यथा-द्वित्राः श्रमणाः पञ्चषाः ब्राह्मणा इत्यादिना प्रकारेण भ्रमणादीन् । परिसंख्यातानुद्दिश्य तथा प्राण्यादीन् समारभ्य यदशनादि संस्कृतं तदासेवितमनासेवितं वाऽप्रासुकमनेषणीयमाधाकर्म एवं मन्यमानो लामे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ।
"
विशोधिको टिमधिकृत्याऽऽह
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा ० जाव पविट्ठे समाणे से पुण जाणिजा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समणा माहणा अतिथिकिवणवणीमए समुद्दिस्स ० जाव चेएइ तं तहप्पगार असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अपुरिसंतरकडं वा अवहियाणीहडं प्रणतट्ठियं अपरिभुतं अणासेवितं श्रफासुयं अणेसणिजं ०जाव णो पडिगा हैजा, अह पुण एवं जाजा पुरिसंतरकर्ड बहियानीहडं अत्तट्ठियं परिभुत्तं श्रासेवियं फास एसणिअं जाव० पडिगाहिज्जा । (सू०-८ )
स भिक्षुर्यत्पुनरशनादि जानीयात् किंभूतमिति दर्शयति- बहून् श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमकान् समुद्दिश्य श्रमणाद्यथामति यावत् प्राणादश्च समारभ्य यावदाहृत्य कश्चिद् गृहस्थो ददाति तत्तथाप्रकारमशनाद्यपुरुषान्तरकृतमबहिर्निर्गतमनात्मीकृतमपरिभुक्तमना सोवतमप्रासुक मनेषणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् । इयं - " जावंतिया भिक्खु " ति एतद्वात्ययेन ग्राह्यमाहअथशब्दः पूर्वापेक्षी, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, अथ भिक्षुः पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-पुरुषान्तरकृतम्-अम्यार्थ कृतं बहिर्निर्गतमात्मीकृतं परिभुक्तमासेवितं प्रासुकमैत्रणीयं च ज्ञात्वा लाभे सति प्रतिगृह्णायात् इदमुक्तं भवति - श्रविशोधिकोटिर्यथा तथा न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु पुरुषान्तरकृतात्मीयकृतादिविशिष्टा कल्पत ज्ञाचा० २ ० १ ० १ ० १ ३० ।
स
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वरण
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा वणीमगपिंडं भुजइ भुजंतं वा साइज्जइ ।। ६३ ।
जे भिक्खूँ वणियपिंडं, भुंजे अहवा वि जो तु सातिजा । सो श्रणाणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।। १५६ ।।
नि०चू०१३३० | तर्कुके, प्रश्न०५ संव० द्वार। (वनीपकपिण्डग्रहणनिषेधः 'रायपिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५५३ पृष्ठे गतः । ) असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज्ज सुखिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ॥ ५१ ॥ दश० ५ ० १ उ० । ( व्याख्यातैषा ' उद्देसिय ' शब्दे द्वितीयभागे ८२० पृष्ठे । )
वणे - वणे - श्रव्य०। निश्चयादिषु प्रा० । “वणे- निश्चयविकल्पानुकम्प्यसंभावनेषु " ||२/२०६ । वणे इति निश्चयादौ संभावने च प्रयोक्तव्यम् । 'वणे देमि ' निश्चयं ददामि । विकल्पेहोइ वणे न होइ । भवति वा न भवति । अनुकम्प्येदासो बणै न मुच्चइ । दासोऽनुकम्प्यो वने न त्यज्यते । संभावनेनऽत्थि बणे जं न देइ विहिपरिणामो । संभाव्यते पतदित्यर्थः । प्रा० २ पाद ।
वरण-वर्ण-पुं० । वर्ण्यते - प्रकाश्यतेऽथ श्रनेनेति वर्णः । अकारककारादौ विशे० । श्राचा० ।
वर्णस्वरूपं तत्र वर्ण वर्णयन्तिअकारादिः पौद्गलिको वर्ष इति ॥ ६ ॥
रत्ना०४ परि० । श्रा० म० । प्रश्न० । ( ' श्रागम ' शब्दे द्वितीयभागे ७१ पृष्ठे व्याख्या गता । ) निषादपञ्चमादिषु, दश० २ श्र० । सङ्घा० । वर्यते अलंक्रियते वस्त्वनेनेति वर्णः । अनु० । श्यामादौ पुलपरिणामे, उत्त० ३३ श्र० । श्र० । दशा० । प्रज्ञा० । स च पञ्चधा श्वेतपीतरक्तनी लकालभेदात् । प्रव० २७६ द्वार । प्रज्ञा० । श्रौ० ।
पंच वण्णा पण्णत्ता, तं जहा - किएहा नीला लोहिया हालिदा सुकिला ( सू० ३६०X ) स्था० ५ ठा० । एगे वरखे ( सूत्र ) ।
स्था० १ ठा० । उत्त० भ० श्रा० म० । स० । श्राचा० । प्राणातिपातादिः कतिवर्णः कतिगन्ध इत्यादिरायगिहे ० जाव एवं वयासी - अह भंते ! पाणाइवाए मुसावा दिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे एस गं कइवले कडुगंधे कइरसे कइफासे पणत्ते १, गोयमा ! पंचवले पंचरसे दुगधे चउफासे पमत्ते । श्रह भंते ! कोहे कौवे रोसे दोसे अक्खमे संजलणे कलहे चंडिक्के मंडणे विवादे १० एस णं कइवले जाव कइफासे पत्ते ? । गोयमा ! पंचवणणे पंचरसे दुगन्धे चउफासे पण्णत्ते । ग्रह मैते ! माणे मदे दप्पे थंभे गव्वे अणुक्कोसे परपरिवाए उक्कासे अवक्कासे उष्मामे दुलामे १२ एस गं तहेव । अह भंते ! माया उवही नियडी वलए गहणे - कवइवले० ४ पत्ते १, गोयमा ! पंचवले जहा कोहे मे कक्के कुरुए जिम्हे किव्विसे १० प्रायरणया गुहाया वंचण्या पलिउंचया सातिजोगे य१५एस खं कइवएणे ०४
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(१६) वरण अभिधानराजेन्द्रः।
वणुश पएणते ?. गोयमा ! पंचवले जहेव कोहे । अह भंते !| पापं तन्निभित्तो यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्कमेवोच्यते कुरूर' लोमे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा
ति' कुत्सितं यथाभवत्येवं रूपयति-विमोहयति यस
स्कुरूपं भाण्डादिकर्म मायाविशेष एव' जिम्हे 'त्ति येन परपासासणया पत्थणया१०,लालप्पणया कामासा भोगा
वञ्चनाभिप्रायेण जेह्मयं क्रियासु मान्द्यमालम्बते, स भावो सा जीवियासा मरणासा नंदीरागे १६, एस णं कइवरले
जैह्मयमेवेति किब्बिसे' ति यतो मायाविशेषाज्जन्मान्तरे ४ परमत्ते ?, गोयमा ! जहेब कोहे । अह भंते ! पेज्जे अत्रैव वा भवे किल्विषः-किल्विषिको भवति स किल्विप दोसे कलहे जाव मिच्छादसणसल्ले एस णं कइवरले ! एवेति । 'आयरणय'त्ति यतो मायाविशेषादादरणम्-अजहेब कोहे तहेव चउफासे । (सू०-४४६)
भ्युपमम कस्यापि वस्तुनः करोति असावादरणम् , ताप्रत्य
यस्य च स्वार्थिकत्वादायरणया पाचरणं वा परप्रतारणाय 'रायगिह ' इत्यादि पाणाइवाए' ति प्राखातिपातजनितं विविधक्रियाणामाचरणम् , 'गूढनया' गृहन-गोपायन स्वरूतज्जनकं वा चारित्रमोहनीयं कर्मोपचारात् प्राणातिपात पस्य 'वञ्चणया' वचन-परस्य प्रतारणम्। 'पलिउंचणया' एब, एवमुत्तरत्रापि तस्य च पुद्गलरूपत्वावर्णादयो भवन्ती- प्रतिकुश्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य स्खण्डनम्,'साइजोगे' स्थत उक्तम्-"पंचवरणे" इत्यादि प्राह च-"पंचरसपंचवझे
ति अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निरतिशयहि परिणयं दुविहगंधचउफासं । दवियमणतपएसं, सि
स्य योगस्तत्प्रतिरूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्था वैते ध्वनय द्धेहि अणतगुणहीणं ॥१॥" इति 'चउफासे' ति स्निग्धरू
इति 'लोभे' ति सामान्यम् इच्छादयस्तद्विशेषाः, तत्रेच्छाक्षशीतोष्णाख्याश्चत्वारः स्पर्शाः सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्रला
अभिलाषमात्रम् 'मुच्छा देखा गेहे'त्ति मूर्छा-संरक्षणानुवनां भवन्ति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति । 'कोहे ' ति क्रोधप
न्धः, काला-अप्राप्ताशिंसा 'गेहि'ति । गृद्धिः-प्राप्तार्थेरिणामजनकं कर्म, तत्र क्रोध इति सामान्य नाम कोपाद
ध्यासक्तिः । 'तराह' ति तृष्णा-प्राप्तार्थानामव्ययेच्छा 'भिज' यस्तु तद्विशेषाः, तत्र कोपः क्रोधोदयात् स्वभावाच्च
लिअभिव्याप्त्या विषयाणां ध्यानम् ,तदेकाप्रत्वमभिध्या पि. लनमात्रम् , रोषः क्रोधस्यैवानुबन्धो , दोषः पात्मनः पर
धानादिवद्-अकारलोपानिध्या 'अमिज्म 'सि न मिच्या स्य वा दूषणमेतच्च क्रोधकार्यम्, द्वेषो वाऽप्रीतिमात्रम् , अ
अभिध्या, भिभ्यासरशं भावान्तरम् , तत्र रढाभिक्षमा-परकृतापराधस्यासहनम्, संज्वलनो-मुहुर्मुहुः क्रोधा- निवेशो भिध्याध्यानलक्षणत्वात्तस्याः , अहढाभिनिनिना ज्वलनम,कलहो-महता शब्देनान्योन्यमसमञ्जसभाष- वेशस्तु अभिघ्याचित्तलक्षणत्वात् तस्याः, ध्यानचिणम्,पतञ्च क्रोधकार्यम्,चाण्डिक्यं-रौद्राकारकरणम् एतदपि सयोस्त्वयं विशेषः-" जे थिरमज्भवसाणं, तं झाणं क्रोधकार्यमेव, भण्डन-दण्डादिभिर्युद्धम् एतदपि क्रोधकार्य- जं चलं तय चिसं " ति ' आसासणय ' ति श्रामेव, विवादो-विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि, इदमपि तत्कार्यमे शासनं मम पुत्रस्य शिष्यस्य वेदमिदं च भूयादित्यादिरूपा वेति क्रोधकार्याश्चैते शब्दाः । 'माणेति' मानपरिणामजनक आशीः, 'पत्थरणय' ति प्रार्थनं-परं प्रति इष्टार्थयाश्चा कर्म, तत्र मान इति सामान्य नाम, मदादयस्तु तद्विशेषा- | 'लालप्पणय'त्ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः 'कामास 'त्ति स्तत्र मदो-हर्षमात्रं, दप्पो-दृप्तता, स्तस्भो-उनम्रता, गर्वः- शब्दरूपप्राप्तिसंभावना, 'भोगास' ति गन्धादिप्राप्तिसम्भाशौण्डीयम्-'अत्तुक्कोसे' तिं श्रात्मनः परेभ्यः सकाशाद् गु. वना, 'जीवितास' ति जीवितव्यप्राप्तिसम्भावना, 'मरणागरुत्कर्षणमुत्कृष्टताभिधानम् ,परपरिवादः-परेषामपवदनं प. स'ति कस्यांचिदवस्थायां मरणप्राप्तिसम्भावना, इदं च रिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति । 'उकासे' ति। कचिन्न रश्यते 'नन्दिरागेसि समृद्धौ सत्यां रागो-हर्षों नन्दिउत्कर्षणमात्मनः परस्य वामनाक क्रिययोकष्टताकरणम् , उ. रागः पजेति प्रेम-पुत्रादिविषयः नेहः 'दोसेसि अप्रीतिः, स्कासन वाप्रकाशनमभिमानात्स्वकीयसमृद्धयादेः 'भवकासे, | कलह प्रेमहासादिप्रभवं युद्ध यावत्करणात 'अभक्खात्ति अपकर्षणमवकर्षण वा अभिमानादात्मनः परस्य वा कि- से पेसुधे भरारीपरपरिवाए मायामोसे'सिरश्यम् । यारम्भात् कुतोऽपि व्यावर्तनमिति, अप्रकाश वा अभिमानादेवेति । 'उन्नए'ति । उच्छिन्नं नतं पूर्वप्रवृत्तं नमनमभि
अथोक्तानामेवाहादशानां प्राणातिपातादिकानां पाप
स्थानानां ये विपर्ययास्तेषां स्वरूपाभिधानायाहमानादुन्नतम् , उच्छिन्नो वा नयो नीतिरभिमानादेवोत्रयो नयाभाव इत्यर्थः, 'उन्नामे' ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादु- अह भंते ! पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे अमनमुखामः । 'दुन्नामे' ति महादकुष्टं नमनं दुर्नाम इति ।
कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे एस णं कावइहच स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचकाचैते ध्वनय
स्मे जाव कइफासे परमत्ते ?, गोयमा ! अवरणे अगंधे इति, 'माय' ति सामान्यमुपध्यादयस्तदास्तत्र 'उबहिति उपधीयते येनासाघुपधिः वञ्चनीयसमीपगमनहेतुरिति भावः
अरसे अफासे पएणत्ते । अह मंते ! उप्पत्तिया वेणइया •नियडि सि नितरां करणं निकृतिरादरकरणेन परवञ्चन कम्मिया परिणामिया, एस णं कइवरणा०४ पएणत्ता, पूर्वकृतमायाप्रच्छादनार्थ वा मायान्तरकरणम् "वलय" ति
तं चैव जाव अफ सा पमत्ता । अह भंते ! उग्गहे येन भावेन वलयमिव वकं वचनं चेष्टा वा प्रवर्तते स भावो ।
ईहा प्रवाए धारणा एस णं कइवल्मा परमत्ता ? एवं बलयम् 'गहणे 'त्ति परव्यामोहनाय यद्वचनजालं तद्गहनमिव गहनम् 'यूमें' ति परवञ्चनाय निम्नताया निम्न- चव०जाव अफासा परमत्ता। अह भते! उदाणे कम्मे बले स्थानस्य वा आश्रयणं तन्नमन्ति'कात्ति करक हिंसादिरूपं | वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमेएस णं कइवमे०४ परमते. ते
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(८२.) वरण अभिधानराजेन्द्रः।
वरण चेव. जाव अफासे परमते । सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे यपच्छा. गोयमा! ओरालियतेयगाइं पडुच्च पंचवरणा कइवरले ४ पण्णते, एवं चेव जाव अफासे पएणत्ते ।। जाव अट्ठफासा पसत्ता, कम्मगं पडुच्च जहा परइया णं सत्तमे णं मंते ! तणुवाए कइवरले ? जहा पाणाइवाए,। जीवं पडुच्च तहेव एवं जाव चरिंदिया, गवरं वाउक्काइया णवरं अदुफासे पएणत्ते, एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा ओरालियवेउब्बियतेयगाई पडुच्च पंचवमा जाव अट्ठफासा सत्तमे घणवाए घणोदही पुढवी छडे उवासंतरे अवएणे पमत्ता, सेसं जहा णेरड्या, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया तणुवाए. जाव छट्ठी पुढवी एयाइं अट्ठफासाई एवं जहा | जहा वाउक्काइया । मणुस्साणं पुच्छा, ! ओरासत्तमाए पुढवीए वत्तब्धया भणिया तहा० जाव पढमाए | लियवेउब्बियाहारगतेयगाई पडुच्च पंचवला जाव पुढवीए भाणियव्यं । जंबुद्दीवे दीवे . जा सयंभुरमणे अट्ठफासा पएणत्ता, कम्मगं जीवं च पडुच्च समुद्दे सोहम्मे कप्पे० जाव ईसिप्पमारा पुढवी रइयाऽऽ- | जहा गेरइयाणं, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा वासा. जाव वेमाणियावासा, एयासि सव्वाणि अट्ठफा- णेरइया । धम्मस्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए । साणि । गरइया णं भंते ! कइवल्मा० जाव कइफासा एए सब्वे अवमा वरं पोग्गलत्थिकाए पंचवी पंचरसे परमत्ता, गोयमा! वेउब्बियतेयाई पडुच्च पंचवमा दुग- दुगन्धे भट्ठफासे पसत्ते, णाणावरणिजे जाव अंतराइए न्धा पंचरसा अट्ठफासा पएणत्ता, कम्मगं पडुच्च पंच- एयाणि • जाव चउफासाणि । वमा दुगन्धा पंचरसा चउफासा पमत्ता। [सू०-४५०x] जम्बूद्वीपे इत्यत्र यावत्करणालवणसमुद्रादीनि पदानि 'अहे' त्यादि 'अवरणे ति वधादिविरमणानि जीवो
वाच्यानि 'जाव वेमाणियावासा ' इह यावत्करणादसुरपयोगस्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तोऽमूर्तत्वाच्च तस्य
कुमारावासादिपरिग्रहः. ते च भवनानि नगराणिं विमाबधादिविरमणानाममूर्तत्वं तस्माच्चावर्णादित्वमिति ।
नानि तिर्यग्लोके तन्नगर्यश्चेति । · वेउब्बियतेययाई पजीवस्वरूपविशेषमेवाधिकृत्याह-" उप्पत्तिय " ति उ.
इध' सि वैक्रियतैजसशरीरे हि बादरपरिणामपुदमरूपे त्पत्तिरेष प्रयोजनं यस्याः सा श्रौत्पतिकी, ननु क्षयो
ततो बादरत्वात्तयो रकाणामष्टस्पर्शत्वम् , कम्मगं पदुध' पशमः प्रयोजनमस्याः? सत्यम् , स खल्वन्तरकत्वात्सर्व
ति । कार्मण हि सूचमपरिणामपुनलरूपमतश्चतुःस्पर्शम् बुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्या
तेच शीतोष्णस्निग्धरूताः 'धम्मस्थिकाए' इह यावत्कसादिकमपेक्षत इति, 'वेणय ' ति चिनयो-गुरुशुश्रूषा
रणादेवं दृश्यम्-'अधम्मत्थिकाए अागासस्थिकाए पोग्गल
त्थिकाए अद्धासमए प्रावलिया मुहुत्ते' इत्यादि । स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी. 'कम्मय' ति
वर्णलेश्यापृच्छाअनाचार्यकं कर्म,साचार्यकं शिल्पम् , कादाचित्कं वा कर्म, शिल्पं तु नित्यव्यापारः, ततश्च कर्मणो जाता कर्मजा, 'पा
कण्हलेस्सा णं भंते ! कइवला ? पुच्छा, गोयमा! दवरिणामिय'ति परि-समन्तानमनं परिणामः-सुदीर्घका-1 लेस्सं पडुच्च पंचवमा जाव अदुफासा पणत्ता, भावलपूर्वापरावलोकनादिजन्य प्रात्मधर्मः, सः कारणं यस्याः लेस्सं पडुच्च अवएणा ३ एवं • जाव सुक्कलेस्सा, सम्मसा पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशेषः, इयमपि वरादि- हिदी ३ चम्खदसणे ४ भाभिणिबोहियणाणे . जाव हिता जीयधर्मत्वेनामूर्तस्वात् । जीवधर्माधिकारादवग्रहा
विभंगणाणे, पाहारसमा • जाव परिग्गहसण्णा एयाणि दिसूत्र कर्मादिसूत्रं च, अमूताधिकारादवकाशान्तरसूत्रम् , अमूर्तस्वविपर्ययात्तनुवातादिसूत्राणि चाह तत्र च 'सत्तमे
अवएणाणि ४, मोरालियसरीरे • जाव तेयगसरीरे एपं भंते ! उवासंतरे' ति प्रथमद्वितीयपृथिव्योर्यदन्त- याणि अडफासाणि, कम्मगसरीरे चउफासे, मणजोगे वराले आकाशचरडं तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तम सप्तम्या अध- यजोगे य चउफासे, कायजोगे अडफासे सागारोवोगे स्तात्तस्योपरिधात्सप्तमस्तनुवातस्तस्योपरि सप्तमो घन
य प्रणागारोवोगे य अवण्णा। सम्बदव्वा णं भंते ! वातस्तस्याप्युपरि सप्तमो घनोदधिस्तस्याप्युपरि सप्तमी - शिवी, तनुवातादीनां च पश्चवर्णादित्वं पौगलिकत्वेन मूर्त
कतिवना ? पुच्छा, गोयमा ! प्रत्थेगतिया सव्वदव्या त्वाद् , अष्टपर्शत्वं च बादरपरिणामत्वाद , अष्टौ च स्पर्शाः पंचवमा . जाव अट्ठफासा पएणत्ता, अत्यंगतिया सव्वशीतोष्णस्निग्धसममृदुकठिनलघुगुरुमेदादिति ।
दव्या पंचवमा चउफासा परमत्ता, प्रत्येगतिया सम्बदरयिकादयः कतिष:
व्वा एगगंधा एगवला एगरसा दुफासा पलत्ता, अत्थेपरइया णं भंते ! कइवमा० जाव कइफासा परमत्ता,
गतिया सव्वदव्वा अवमा • जाव अफासा पनत्ता, एवं गोयमा ! वेवियतेयाई पडुच्च पंचवमा दुर्गधा पंच
सव्वपएसा वि सम्बपञ्जवा वि, तीयद्धा प्रवन्ना • जाव रसा अडफासा पएणत्ता, कम्मगं पडुच्च पंचवामा पंच
अकासा परमत्ता, एवं अणागयद्धा वि, एवं सवद्धा वि । रसा दुगंधा चउफासा पामत्ता, जीवं पडुच्च अवबाजार।।
(सू०-४५०) अफासा पत्ता, एवं जाव थणियकुमारा | पुरवीकाइ- 'दबलेसं पदय'ति । इह द्रव्यलेश्यावर्णः ।' भाषलेसं
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( ८२१ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
वरण
' फाणिए ' त्यादि ' फाणियगुले 'ति द्रवगुडः 'गोड़े ' ति गौल्यं - गौल्यरसोपेतं मधुररसोपेतमिति यावत्, व्यव हारो हि लोकसंव्यवहारपरत्वात् तदेव तत्राभ्युपगच्छति
पहुच 'ति । भावलेश्या अनन्तरः परिणामः, इह च कृलेश्यादीनि परिग्रहसंज्ञावसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणामत्वात् औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि पञ्चवर्णादिविशेषणानि श्रस्पर्शानि च बादरपरिणामपुद्गलरूपत्वात् सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणम्, अष्टस्पर्शत्वे च वादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति । ' सव्वदव्वे 'ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'अस्थेगइया सव्वदव्वा पंचवत्यादि बादरपुङ्गलद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं सर्व्वद्रव्याणां मध्ये कानिचित्पञ्चवर्णादीनीति भावार्थः । ' चउफासा' इत्येतच्च पुद्गलद्रव्याण्येव सूदमाणि प्रतीत्योक्तम् ' एगगंधे' त्यादि च परमाण्वादिद्रव्याणि प्रतीत्योक्तम्, यदाह परमाणुद्रव्यमाश्रित्य -कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकर सवर्णगन्धा, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥ इति, स्पर्शद्वशेषर सवर्णादींस्तु सतोऽप्युपेक्षत इति, 'निच्छश्यनयस्स यञ्च सूक्ष्मसम्वन्धिनां चतुर्णा स्पर्शानायन्यतरदविरुद्धं सि नैश्चकिनयस्य मतेन पञ्चवर्णादिपरमाणूनां तत्र विद्यभवति, तथाहि - स्निग्धोष्णलक्षणं स्निग्धशीतलक्षणं वा मानत्वात् पञ्चवर्णादिरिति । रूक्षशीतलक्षणं रूक्षोष्णलक्षणं वेति श्रवसे ' त्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्याश्रित्योक्तम्, द्रव्याश्रितत्वात्प्रदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्रं तत्र च प्रदेशाः द्रव्यस्य निर्विभागा अंशाः पर्यवास्तु धर्मास्ते चैवं कर णादेवं वाच्याः—–— सव्वपरसां भंते! कह वण्णा पुच्छा, गोयमा ! अत्थमइया सव्वपरसा पंचवमा जाव अट्ठ फासा' इत्यादि एवं च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्त्तद्रव्याणां प्रदेशाः पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्यवत्पञ्च वर्णादयः, अमूर्तद्रव्याणां चामूर्तद्रव्यवदवर्णादय इति । श्रतीताद्धादित्रयं चामूर्तत्वादवर्णादिकम् ।
चरर्णाद्यधिकारादेवेदमाह -
जीवे णं भंते ! गब्भं वक्कममाणे कइवपं कहगंधं कइरसं कइफासं परिणामं परिणमइ ?, गोयमा ! पंचवां दुगंधं पंचरसं फासं परिणामं परिणमइ । (सू० ४५१ )
'जीवे रामि' त्यादि' परिणामं परिणमइति इति स्वरूपं गच्छति कतिवर्षादिना रूपेण परिणामतीत्यर्थः । पंचवरण' नि गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य पञ्चवर्णादित्वात्-गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पञ्चवर्णादित्वमव सेयमिवि । भ० १२ १० ५ उ० ।
फाणियगुले गं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पष्यते ?, गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवंति जहा - निच्छश्यनये य, वावहारियनए य, वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले, नेच्छ्इयनयस्स पंचवने दुगंधे पंचरसे फासे पण्णत्ते । भमरे णं भंते ! कतिवन्ने ? पुच्छा, गोयमा ! एत्थ गं दो नया भवंति, तं जहा - निच्छइयनए य. वावहारियनए य, वावहारियनयस्स कालए भमरे नेच्छयनयस्स पंचवने ० जाव अट्ठफासे पम्पते । सुयपिच्छे भंते ! कतिवन्ने एवं चेव, नवरं वावहारियनयस्स नीलए मुयपिच्छे नेच्छाइयनयस्य पंच सेसं तं चैव एवं एएवं अभिलावेगं लोहिया मंजिडिया पीतिया ।
|
२०६
वरण
हाला किल्ल संखे सुब्भिगंधे कोट्ठे दुब्भिगंधे मयगसरीरे तित्ते निंचे कडुया सुंठी कसाए कविट्ठे यंत्रा - बिलिया महुरे खंडे कक्खडे वइरे मउए नवणीए गरुए er लहुए उलुयपत्ते सीए हिमे उसिणे अगणिकाए गिद्धे तेल्ले, छारिया गं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति तं जहा - निच्छाइयनए यं वावहारियनए य वहारियनयस्स लुक्खा छारिया नेच्छइयनयस्स पंच वना०जाव फासा पन्नत्ता । ( सूत्र ० - ६३० )
परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवन्ने ० जाव कतिफासे पन्नत्ते ?, गोयमा ! एगवने एगगंधे एगरसे दुफासे पन्नत्ते । दुपसिए भंते! खंधे कतिवने पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने सिय दुवन्ने सिय एगगंधे सिय दुगंधे सिय एगरसे सिय दुरसे सिय दुफासे सिय तिफासे सियचउफासे पन्नत्ते, एवं तिपएसिए वि, नवरं सिय एगवने सिय दुवन्ने सिय तिवन्ने, एवं रसेसुं वि, सेसं जहा दुप -- एसियस्स, एवं चउपएसिए वि नवरं सिय एगवन्ने ०जाव सिय चवन्ने, एवं रसेसु वि सेसं तं चैव एवं पंचपए-सिए वि, नवरं सिय एगवन्ने ०जाब सिय पंचवन्ने, एवं रसेमु वि गंधफासा तहेव, जहा पंचपएसिओ एवं असंखेज्जपसि । हुमपरिणए गं भंते ! अतएसिए खंधे कतिवने जहा पंचपएसिए तहेव निरवसेसं । बादरपरिणए गं भंते ! अणतपएसिए खंधे कतिवन्ने पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने ०जाव सिय पंचवन्ने सिय
० जाव
गंधे सिय दुधे सिय एगरसे०जाब सिय पंचरसे सिय चउफासे० जाव सिय अट्ठफासे पते । सेवं भंते ! भंते! तंत्ति । [सू० - ६३१]
परमाणुोग्गाले ण' मित्यादि, इह च वर्णगन्धरसेषु पञ्च हो पञ्च च विकल्पाः 'दुफासे' ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णस्पर्शानामन्यतराविरुद्ध स्पर्शद्वययुक्त इत्यर्थः इह च चत्वारो विक ल्पाः शीतस्निग्धयोः शीतरूक्षयोः उष्णस्निग्धयोः उष्णरूक्षयोश्च सम्बन्धादीति । दुपपसिए ण मि त्यादि, 'सिय गन्ने सिद्वयोरपि प्रदेशयोरेकवर्णत्वात् इह च पञ्च विकल्पाः, 'सिय दुवने त्ति प्रतिप्रदेश वर्णान्तरभावात्, इह च दश विकल्पाः एवं गन्धादिष्वपि 'लिय दुफासे ' नि प्रदेशद्रयस्यापि शीतस्निग्धत्वादिभावात् इहापि त एव चन्वागे विकल्पाः सिय तिफासे 'ति इह चत्वारो विकल्पास्तत्र प्रदेशद्रयस्यापि शीतभावात् एकस्य च तत्र
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(२२) धरण अभिधामराजेन्द्रः।
घण्णा स्निधभावाग्त्, द्वितीयस्य च सतभावादेकः, 'एवम् '-अने | देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सव्वे उसिणे देसे निद्धे लुक्खे नैव म्यायेन प्रदेशद्रयस्थोषणभावाद् द्वितीयः. तथा प्रदेशद्वय |
| २ सब्बे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ३ सव्वे लुक्खे देसे स्यापि स्निग्धभावात् . तत्र चैकस्य शीतभावादकस्य चोष्णभावातृतीयः, एवम्-अनेनैव न्यायेन प्रदेशवयस्य रूतभावा
| सीए देसे उसिणे ४ जइ चउफासे देसे सीए देस उसिखे चतुर्थ इति, सिय चउफासे' त्ति इह 'देसे सीए देसे । देसे निद्धे देसे लुक्खे १ एए नव भंगा फासेसु । उसिण देसे निद्धे देसे लक्खे' ति वक्ष्यमाणवचनादेकः , | तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने जहा अट्ठारसमसए एवे त्रिप्रदेशादिध्वपि स्वयमभ्यूह्यम्। 'सुहुमपरिणए ण मित्यादि अनन्तप्रदेशिको बादरपरिणामोऽपि स्कन्धो भवति छठ्ठद्देसे जाव चउफासे पमत्ते, जइ एगवन्ने सिय कालए. द्वयणुकादिस्तु सूदमपरिणाम एवेत्यनन्तप्रदेशिकस्कन्धः | जाव सुक्किल्लए ५ जइ दुवने सिय कालए य सिय सूक्ष्मपरिणामत्वेन विशेषितस्तत्राद्याश्चत्वारः स्पीः सूक्ष्मेषु नीलगे य १ सिय कालगे नीलगा य २ सिय कालगा बादरेषुचानन्तप्रदेशिकस्कन्धेषु भवन्ति, मृदुकठिनगुरुलघु
य नीलए य ३ सिय कालए य लोहियए य १ सिय स्पर्शास्तु बादरेष्वेवेति । भ० १८ श. ६ उ०। पभाबला बरणो भरणति तं करेति तित्थस्स , तित्थं चउवराणो | कालए य लोहियगा य २ सिय कालगा य लोहिए य ३ समससंघो दुवालसंग वा गणिपिडगं । नि० चू० १ उ०। एवं हालिद्द ण वि समं भंगा ३ एवं सुक्किल्लएण वि समं (वर्णोचारणे लघुत्वगुरुत्वादिविचारः तत्प्रतिपादिका प्राणि | ३ सिय नीलए य लोहियए य एत्थं पि भंगा ३ एवं हाधाने त्रिकपर्णसंख्याख्यापनाय गीतिमाथा 'चेइयवंदण'
लिद्दएण वि समं भंगा ३ एवं सुकिल्लेण वि समं भंगा ३ शम्दे तृतीयभागे १३२१ पृष्ठे गता।) तव्याख्या चेयम्-क्रमा
सिय लोहियए य हालिद्दए य भङ्गा ३ एवं सुक्किन्लेण यथाक्रमम् एषु नमस्कार क्षमाश्रमणेर र्यापथिकी३ शक्रस्तष | ४ चैत्यस्तव ५ नामस्तव ६ श्रुतस्तव ७, सिद्धस्तव ८ प्रणिधा- वि ममं ३ सिय हालिद्दए य सुक्किल्लए य भंगा ३ एवं मेषु नवसु स्थानेषु गुरुवर्णा शातव्या इति शेषः। 'कियन्त' सचे ते दस यासंजोगा भंगा तीसं भवंति, जातिवन्ने इत्याह-सप्त १ त्रयः२ चतुर्विंशतिः३ त्रयस्त्रिंशत् एकोनत्रि
सिय कालए य नीलए य लोहियए य १ सिय कालए शत् ५ अष्टाविंशतिः ६चतुर्विंशत् ७ एकोनत्रिंशत्, द्वात्रिशत् , गुरवो द्विगुणितरूपा न तु संयोगे पूर्वो गुरुरित्या
य नीलए य हालिद्दए य २ सिय कालए य नीलए य दिलक्षणलक्षिता वर्णा अक्षराणि । सङ्घा० अधि०३ प्रस्ता०।। सुाक्कल्लए य ३ सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य परमाणुपुद्गलः कतिवर्णः--
४ सिय कालए य लोहियए य सुकिल्लए य ५ सिय परमाणुपोग्गलेणं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कति | कालए य हालिद्दए य सुकिल्लए य ६ सिय नीलए य लोफासे पनत्ते ?, गोयमा! एगवने एगगंधे एगरसे दुफासेप- | हियए य हालिद्दए य ७ सिय नीलए य लोहिए य सुकिमते,तं जहा-जइ एगवन्ने सिय कालए सिय नीलए सिय लए य ८ सिय नीलए य हालिद्द। य सुक्किलए यह लोहिए सिय हालिद्दे सिय सुकिले,जइ एगगंधे सिय सुब्भि- सिय लोहिए य हालिद्दए य सुक्किल्लए य १० एवं गंधे सिय दुब्भिगंधे, जइ एगरसे सिय तिते सिय कडुए एए दस तियासंजोगा । जइ एगगंधे सिय सुम्भिसिय कसाए सिय अंबिले सिय महुरे , जइ दुफासे सिय गंधे १ सिय दुम्भिगंधेर जइ दुगंधे सिय सुन्भिगंधे य दुभि सीए य निद्धे य १ सिय सीये य लुक्खे य२ सिय उसिणे गंधे यभंगा३। रसा जहा बना । जइ दुफासे सिय सीए य य निद्धे य ३सिय उसिणे य लुक्खे य ४। दुपएसिए ण भंते! निद्धेय एवं जहेव दुपएसियस्स तहेव चत्तारि भंगा ४, जइ खंघे कतिवन्ने? एवं जहा अट्ठारसमसए छट्टद्देसए० जाव तिफासे सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सब्वे सीए सिय चउफासे पन्नते, जइ एगवन्ने सिय कालए. जाव | देसे निद्धे देसा लुक्खा २ सव्वे सीए देसा निद्धा देसे सिय सुकिल्लए जइ दुवन्ने सिय कालए नीलए य १ | लुक्खे ३ सब्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ३ पत्थ वि भंगा सिय कालए य लोहिए य २ मिय कालए य हालि- तिनि,सब्वे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिभिहसब्वे दए य ३ सिय कालए य मुक्किल्लए य ४ सिय नीलए य लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे भंगा निन्त्रि एवं१२,जइ चउलोहिए य ५ सिय नीलए य हालिद्दए य ६ सिय नीलए य | फासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १ देसे सकिल्लए य ७ सिय लोहिए य हालिद्दए सिय लोहि- सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २ देसे सीए ए य सुकिल्लए यह सिय हालिद्दए य सुकिल्लए य | देमे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे ३ देसे सीए देसाः १० एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा। जइ एगगंधे सिय| उसिणा देसे निढे देसे लुक्खे ४ देसे सीए देसा उसिणा सुम्भिगंधे सिय १भिगंधे य २जइ दुगंधे सुब्भिगंधे य देसे निद्धे देसा लुक्खा ५ देसे सीए देसा उसिणा देसा दुब्भिगंधे य,रमेसु जहा वसु जइ दुफासे सिय सीए य निद्धे | निद्धा देसे लुक्खे ६ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे य एवं जहेब परमाणुगोग्गले ४, जइ तिफामे सव्वे सीए | देसे लुक्खे ७ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसा
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( ८२३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
वस
लुक्खा ८ देसा सीया देसे उसिये देसा निद्धा देसे लुक्वे ६ एवं एए पिएसिए फासेसु पणवीसं भंगा। चउ एसिए णं भंते ! खंधे कतिवने जहा अट्ठारसमसए० जाव सिय चउफासे पन्नत्ते, जइ एगव ने सिय कालए य० जाव सुकिल्लए य ५ जइ दुवने सिय कालए य नीलगे य १ सिय कालगे य नीलगा य २ सिय कालगा य नीलगे य ३ सिय कालगा य नीलगा य ४ सिय कालए य लोहियए य एत्थ वि चत्तारि भंगा४ सिय कालए य हालिइए य ४ सिय कालए य सुकिल्लए य४सिय नीलए य लोहियए य ४ सिय नीलए य हालिए य ४ सिय नीलए य सुकिलए य ४ सय लोहियए य ४ हालिए य ४ सिय लोहियए य सुकिलए य ४ सिय लोहियए य हालिदए य ४ सय लोहियए य सुकिलए य ४ सिय हालिए य सुकिलए य ४ एवं एए दस दुयासंजोगा भंगा पुण चत्तालीस ४०, जर तिवने सिय कालए य नीलए य लोहियए य १ सिय कालए नीलए लोहियगा य २ सिय कालगा य नीलगाय लोहियए य ३ सिय कालगा
नीलए य लोहियए य, एए भंगा ४ एवं कालनीलहालहिं गंगा ४ कालनीलसुकिल्ल४काललोहियहालि६४ काललौहियसुक्किल्ल ४ कालहालिहसुक्किल्ल ४ नीललोहियहालिद्दगाणं भंगा ४ नीललोहियसुक्किल ४ नीलहालिद्दमुक्किल्ल४लौहियहालिद सुक्किल्लगाणं भंगा४ एवं एए दस तियासंजोगा एक्क्क्के संजोए चत्तारि भंगा सच्चे ते चत्तालीस गंगा ४०, जड़ चउवने सिय कालए नील० लोहियहालिद्दए य १ सिय काल० नील लोहि० मुक्किल्लए २ सिय का० नील० हालि० सुक्किल्ल ३ सिय का० लो० हा० सुक्कि० ४ सिय नी० लोहि० हा० सु० ५ एवमेते चक्कगसंजोए पंच भंगा, एए सव्वे नउइभंगा। जइ एगगंधे सिय सुभगंधे सिय दुब्भिगंधे य, जइ दुगंधे सिय सुभिगंधे य सिय दुब्भिगंधे य । रसा जहा वन्ना । जइ दुफासे जहेब परमाणुपोग्गले ४, जइ तिफासे सच्चे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सव्वे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा २ सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे ३ सव्वे मीए देसा निद्रा मा लुक्खा ४ सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लक्खे एवं भंगा ४ सव्वे निद्धे देसे सीए देसे उसिये ४ सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसि ४ एए तिफासे सोलस भंगा। जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १ देने मीए देने उसिणे देमे निद्धे देना जुवखा २ देसे सीए देसे उसणे देसा निद्धा देमे लुक्खे ३ देते सीए देसे उमिणे देसा निद्धा देसा
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For Private
वस
लुक्खा ४ देसे सीए देसा उसिया देसे निद्धे देसे लुक्खे ५ देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा ६ देसे सीए देसा उनिया देसा निद्धा देसे लक्खे ७ देसे सीए देसा उसा देसा निद्धा देसा लुक्खा ८ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लक्खे ६ एवं एए चउफासे सोलस भंगा भाणियन्त्रा ० जाव देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लक्खा सब्बे एते फासेसु छत्तीसं भंगा ॥ पंचपएसिए गं भंते ! खंधे कतिवने जहा अट्ठारसमसए० जाव सिय चउफासे पमते, जइ एगवने एगवन्नदुवनाजहेव चउप्पएसिए, जइ तिवने सिय का ० नीलर लोहियए य १ सिय काल • नीलए लोहिया य २ सिय काल ०नीलगाय ३ लौहिए य ३ सिय कालए नीलगाय लोहियगाय ४ सिय काल० नीलए य लोहियए य ५ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य ६ सिय कालगा य नीलगा य लोहियए ७ सिय कालए नीलए हालिए य एत्थ वि सत्त भंगा ७, एवं कालगनीलगसुक्किलएसु सच भंगा, कालगलोहियहालिद्देसु ७ कालगलोहियसुक्किल्लेसु ७ का लगहालिद्दसुक्किल्लेमु ७ नीलगलोहियहालिद्देसु ७ नीलगलोहियसुक्किल्लेसु सत्त भंगा ७ नीलगहा लिहसुनिकले ७ लोहियहालिद्दसुक्किल्लेसु वि सत्त भंगा ७ एवमेते तियासंजोए एए सत्तरि ७० भंगा, जह चउवने सिय कालए य. नीलए लोहियए हालिए य १ सिय कालए य नीलए य लोहियए य हाल्लिहगा य २ सिय कालए य नीलए य लोहिया य हालिइगे य ३ सिय कालएं य नीलगा य लोहियए य हालिदए य ५ एए पंच भंगा, सिय कालए लोहियगे य हालिहगे य ४ सिय कालगा य नीलए य य नीलए य लोहियए य सुक्किल्लए य एत्थ वि पंच भंगा, एवं कालगनीलगालिदसुक्किल्लेसु वि पंच भंगा, कालगलोहियहा लिहसुक्किल्लएसु वि पंच भंगा ५, बीलपलोहियहालिदसुक्किल्लेसु वि पंच भंगा, एवमेते चउक्कगसंजोएणं पणवीसं भंगा, जइ पंचवन्ने कालए य बीलए लोहियए हालिदए मुक्किल्लए सव्वमेते एक्कगदुयगतियगचउक्कपंच यसंजोए ईयालं भंगसयं भवति । गंधा जहा चउप्पएस - यस्स । रसा जहा बना । फासा जहा चउप्पए सियस्स ॥ छप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिवच्चे ? एवं जहा पंचपएसिए ०जाव सिय चउफाने पन्नत्ते, जइ एगवने एगवन्दुबन्ना जहा पंचपए सियस्स, जइ तिबन्ने सिय कालए नीलए य लोहियए य एवं जहेब पंचपएसियस्स सत्त मंगा ० जाव सिय कालगा य नीलगाय लोहियए य ७ मिय कालगा य नीलगाय लोहियगा य ८ एए अट्ठभङ्गा एवमेते दस नियामंजोगा एकेक संजोगे अट्ठ मंगा
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(८२४). वरण अभिधानराजेन्द्रः।
वरण एवं सब्वे वि तियगसंजोगे असीति भंगा, जइ चउवरले य हालिद्दए य सुक्किल्लए य ५ सिय कालए य नीलए सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य १ य लोहियगा य हालिद्दगे य सुक्किल्लए य ६ सिय कासिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दया य २ सि लए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगा य सुक्किल्लए य कालए य नीलए य लोहिया य हालिद्दए य ३ सिय य ७ सिय कालए य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दए कालगेय नीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य ४ सिय कालगे | य सुक्किल्लए य ८ सिय कालगे य नीलगा य लोहियए य नीलगा य लोहियए य हालिद्दए य ५ सिय कालए य य हालिद्दए य सुक्किल्लगा यह सिय कालगे य नीलगा नीलगा य लोहियए य हालिद्दगा य ६ सिय कालगे य नी- य लोहियगे य हालिद्दगा य सुकिल्लए य १० सिय कालए लगा य लोहियगा य हालिद्दए य ७ सिय कालगा य | य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुक्किल्लए य ११ नीलए य लोहियए य हालिद्दए य ८ सिय कालगा य नी-| सिय कालगा य नीलगे य लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य लोहियए य हालिद्दगा यह सिय कालगा य नी-.लए य १२ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य लगे य लोहियगा य हालिद्दगे य १० सिय कालगा| हालिद्दए य सुक्किलगा य १३ सिय कालगा य नीलए य नीलगा य लोहियए य हालिहए य ११ एए | य लोहियए य हालिद्दगा य सुक्किल्लए य १४ सिय एक्कारस भंगा । एवमेते पंचचउक्का संजोगा कायब्वा । कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिलए एक्कसंजोए एकारस भंगा। सब्वे ते चउक्कगसंजोएणं प- य १५ सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य हालिगपमं भंगा । जइ पंचवन्ने सिय कालए य नीलए य | Kए य सुक्किल्लए य १६ एए सोलस भंगा । एवं सन्चलोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १ सिय कालए य नी-| मेते एक्कदुयगतियगचउक्कगपंचगसंजोगेणं दो सोलस लए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लगा य२ सिय कालए | भगसया भवति । गंधा जहा चउप्पएसियस्स, रसा जहा य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लए य ३ सिय
एयस्स चेव वन्ना, फासा जहा चउप्पएसियस्स ॥ अट्ठकालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य४ | पएसियस्स णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा ! सिय सिय कालए य नीलगाय लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए |
एगवन्ने जहा सत्तपएसियस्स जाव सिय चउफासे पम्मत्ते, य ५ सिय कालगा य नीलगेय लोहियगेय हालिद्दए य सु-| जइ एगवन्ने एवं एगवन्नदुवन्नतिवन्ना जहेव सत्तपएसिए, किल्लए य ६ एवं एए छब्भंगा भाणियव्वा । एवमेते स- | जइ चउबन्ने-सिय कालए य नीलए य लोहियए य व्वे विरकगदुयगतियगचउक्कगपंचगसंजोगेसु छासीयं भंग- हालिद्दए य १ सिय कालए य नौलए य लोहियए य सयं भवति । गंधा जहा पंचपएसियस्स । रसा जहा | हालिद्दगा य २ एवं जहेव सत्तपएसिए जाव सिय कालएयस्सेव वना | फासा जहा चउप्पएसियस्स । सत्तपए- | गा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगे य १५ सिय सिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने० १, जहा पंचपएसिए कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य १६
जाव सिय चउफासे प०, जइ एगवन्ने-पवं एगवन्नदव- एए सोलस भंगा, एवमेते पंचचउक्कसंजोगा , एवमेते एणतिवन्ना जहा छप्पएसियस्स, जइ चउवन्ने सिय | असीति ८०, भंगा जइ पंचवन्ने-सिय कालए य नीलए कालए य नौलए य लोहियए य हालिद्दए य १ सिय | य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १ सिय कालए कालए य नीलए. य लोहियर य हालिदगा य २ सिय | य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगे य मुक्किल्लगा य २ कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए य ३ एवमेते च- एवं एएणं कमेणं भंगा उच्चारेयव्वा जाव सिय कालए य उक्कगसंजोगेणं पन्नरस भंगा भाभियव्वा जाव सिय नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य सुक्किल्लगे य १५ कालगा य नीलगाय लोहियगा य हालिद्दए य १५ एसो पारसमो भंगो सिय कालगा य नीलगे य लोहिपवमेते पंचचउक्कसंजोगा नेयव्या, एक्कक्के संजोए पन्नरस यगे य हालिद्दए य सुक्किल्लए य १६ सिय कालगा य भंगा । सव्वमेते पंचसत्तरि भंगा भवन्ति । जइ पंचवन्ने-सि- नीलगे य लोहियगे य हालिदगे य सुक्किल्लगा य १७ यकालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य१ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगा य सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिदगे य सुकिल्लगा सुक्किल्लए य १८ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य य २ सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य हालिद्दगा य सुक्किल्लगा य १६ सिय कालगा य नीलगे सुकिल्लए य ३ सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालि- य लोहियगा य हालिद्दए य सुक्किल्लए य २० सिय दगा य सुकिल्लगाय ४ सिय कालए य नीलए य लोहियगा। कालगा य नीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुक्कि
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२२ सिय कालगा य नीलगा पपसिए' इत्यादि
प विकल्पाः, विवणताया
(८२५) वरण
अभिधानराजेन्द्रः। लगा य २१ मिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य| न्येऽपि त्रयः सूत्रसिद्धा एव, चतुःस्पर्श त्वेक, एव, एवं
चैते स्पर्शभका सर्वेऽपि मीलिता नवह भवन्तीति 'तिहालिद्दगा य सुकिल्लए य २२ सिय कालगा य नीलगा
पएसिए' इत्यादि, 'सिय कालए 'त्ति प्रयाणामपि प्रदेशाय लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लए य २३ मिय कालगा य नीलगाय लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लगा | चैकः प्रदेशः कालः, प्रदेशद्वयं तु तथाविधैकप्रदेशावगाय २४ सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालि- | हादिकारणमपेक्ष्यैकन्वेन विवक्षितमिति स्यान्नील इत्येको दगा य सुकिल्लए य २५ सिय कालगा य नीलगा य लो- भङ्गः, अथवा-स्यात्कालस्तथैव प्रदेशद्वयं तु भिन्न प्रदेशा
वगाहादिना कारणेन भेदेन विवक्षितमतो नीलकाविति हियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २६ एए पंचसंजोएणं
व्यपदिष्टमिति द्वितीयः, अथवा-द्वौ तथैव कालकावि छब्बीसं २६ भंगा भवंति, एवामेव सपुवावरेणं एक- त्युक्तौ एकस्तु नीलक इत्येवं तृतीयः, तदेवमेकत्र द्विकसंगयगतियगचउक्तगपंचगसंजोएहिं दो एक्कतीसं भंगसयं योगे त्रयाणां भावाद्दशसु द्विकयोगेषु त्रिंशद्भका भवन्ति । भवंति, गंधा जहा सत्तपएसियस्म, रसा जहा एयस्स एते च सूत्रसिद्धा एवेति, त्रिवर्णतायां त्वेकवचनस्यैव चेव वन्ना, फासा जहा चउप्पएसियस्म । नवपएसिय
सम्भवाद्दश त्रिकसंयोगा भवन्तीप्ति , गन्धे स्वेकगन्धत्वे
द्वौ द्विगन्धतायां त्वेकत्वानेकत्वाभ्यां पूर्ववत्त्रयः, जा स्स पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने जहा अट्ठपएसिए०
दुफासे' इत्यादि समुदितस्य प्रदेशत्रयस्य द्विस्पर्शतायां जाव सिय चउफासा पस्मता,जइ एगवन्ने-एगवन्नदुन्नति- द्विकप्रदेशिकवच्चत्वारः, त्रिस्पर्शतायां तु सर्वः शीतः प्रदेवन्नचउवन्ना जहेब अट्ठपएसियस्स, जइ पंचवन्ने सिय | शत्रयस्यापि शीतत्वात् देशश्च स्निग्धः एकप्रदेशात्मको कालए य नीलए यलोहियए य हालिद्दए य सुक्किल्लए य १
देशश्च रूक्षो द्विप्रदेशात्मको द्वयोरपि तयोरेकप्रदेशावगा
हनादिना एकत्वेन विवक्षितत्वात् । एवं सर्वत्रेत्येको भसिय कालगे य नीलगे य लोहियए य हालिद्दए य
जः १, तृतीयपदस्यानेकवचनान्तत्वे द्वितीयपदस्यानेकवसुक्किल्लगा य २ एवं परिवाडीए एक्कतीसं भंगा भाणि- चनान्तत्वे तृतीयः,तदेवं सर्वशीतेन त्रयो भङ्गाः ३ एवं सर्वोयव्वा, एवं एक्कगद्यगतियगचउक्कगपंचगंसजोएहि दो। ष्णेनापि३एवं सर्वस्निग्धेनापि ३ एवं सर्वरूक्षेणापि३ तदेवमेते छत्तीसं भंगसया भवंति, गंधा जहा अट्ठपएसियस्स, द्वादश१२,चतुःस्पर्शतायां तुदेसे सीए' इत्यादि,एकवचनान्तरसा जहा एयस्स चेव वन्ना, फासा जहा चउपएसियस्स ।
पदचतुष्टये श्राद्यः । स्थापना चेयम्-:: अन्त्यपदस्यानेक-- दसपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा ! सिय एग
वचनान्तत्वे तु द्वितीयः, स चैवम्-द्वयरूपो देशः शीत. बन्ने-जहा नवपएसिए जाब सिय चउफासे पत्ते, जइ
करूपस्तूष्णः पुनः शीतयोरकः स्निग्धः द्वितीयश्चोणः,
पतौ कक्षाविति रूक्षपदेऽनेकवचनम् , तृतीयस्त्वनेकवचनाएगवने एगवनदुवबतिवनचउवन्ना जहेव नवपएसियस्स, न्ततृतीयपदः, स चैवम्-एकरूपो देशः शीतो द्विरूपस्तूपंचवन्ने वि तहेव नवरं बत्तीसतिमो भंगो भन्नति, एवमेते ए- ष्णः, तथा यः शीतो यश्चोष्णयोरेकस्तो स्निग्धौ इत्येवं कगदुयमतियगचउक्कगपंचगसंजोगेसुदोन्नि सत्ततीसा भंग
स्निग्धपदेऽनेकवचनं यश्चैक उष्णः स सक्ष इति, चतु
र्थस्त्वनेकवचनान्तद्वितीयपदः, स चैवम्-स्निग्धरूपस्य द्वसया भवंति, गंधा जहा नवपएसियस्स, रसा जहा एयस्स
यस्यैकः शीतो यश्च तस्यैव द्वितीयोऽन्यश्चैको लक्षः एताचेर वन्ना,फासा जाव चउप्पएसियस्स । जहा दसपएसिओ
दुष्णावित्युष्णपदेऽनेकवचनम् , स्निग्धे तु.द्वयोरेकप्रदेशाएवं संखेजपएसिओ वि, एवं असंखेजपएसिओ सुहमप- श्रितत्वादेकवचनं ते त्वेकत्वादेवेति, पञ्चमस्तु द्वितीरिणो वि अणंतपएसिश्रो वि एवं चेव ।। (सू०-६६८) |
यचतुर्थपदयोरनेकवचनान्ततया , स चैवम्-एकः शीतः 'परमाणु' इत्यादि, एगवन्ने' ति कालादिवर्णानामन्यतरयो।
स्निग्धश्च अन्यौ च पृथग् व्यवस्थितावुष्णौ चेत्युग्णाकत्तयोगात्, एवं गन्धादिष्वपि वाच्यम् , 'दुफासे' ति शीतोष्णास्त्रि
रनेकवचनम् , षष्ठस्तु द्वितीयतृतीयपदयोरनेकवचनान्तत्वे,
स चैवम् एकः शीतो रूक्षश्च अन्यौ च पृथग्व्यवस्थितावुग्धरूक्षाणामन्यतरस्याविरुद्धस्य द्वितयस्य योगाद द्विस्पर्शः,
प्णौ स्निग्धौ चेत्युष्णस्निग्धयोरनकवचनम्, सप्तमस्त्वनेकव तत्र च विकल्पाश्चत्वारः, शीतस्य निग्धेन रूक्षेण च क्रमेण योगाद्वौ, एवमुष्णस्यापि द्वाविति चत्वारः, शेषास्तु स्पर्शा |
चनान्ताद्यपदः, स चैवम्-स्निग्धरूपस्य द्वयस्यैकोऽन्य
चैक एतौ द्वौ शीतावित्यनेकवचनान्तत्वमाद्यस्य, अष्टमः बादराणामेव भवन्ति ।। 'दुपएसिए ण' मित्यादि, द्विप्रदे
पुनग्नेकवचनान्तादिमान्तिमपदः, स चैवम्-पृथकस्थितयोः शिकस्यैकवर्णता प्रदेशद्वयस्याप्येकवर्णपरिणामात् , तत्र च | शीतत्वरुक्षत्वे चैकस्य वोष्णत्वे स्निग्धत्वेच, नवमस्त्वनेककालादिभेदेन पञ्च विकल्पाः, द्विवर्णता तु प्रतिप्रदेशं वर्णभे- वचनान्तत्वे श्राद्यतृतीययोः, स चैवं योनिदेशस्थयोः दात् , तत्र च द्विकसंयोगजाता दश विकल्पाः सूत्रसिद्धा| शीतत्वे स्निग्धत्वे च एकस्य चोष्णरुक्षत्वे चेति, 'पणपव, पवं गन्धरसेष्वपि, नवरं गन्धे एकत्वे द्वौ द्विकसंयोगे वीसं भंग' ति, द्वित्रिचतुःस्पर्शसम्बन्धिनां चतुदशनवात्वेकः, रसम्वेकत्वे पञ्च द्वित्वे तु दश, स्पर्शेषु द्विस्पर्श- नां मीलनात् पञ्चविंशतिर्भङ्गा भवन्ति । 'चउपएसिए ण' तायां चत्वारः प्रागुक्ताः, 'जर तिफासे' इत्यादि 'सवे- मित्यादि' सिय कालए य नीलए य' ति द्वौ द्वावेकपसीए'त्ति प्रदेशद्वयमपि शीतम् १. तस्यैव यस्य देश एक रिणामपरिणताविति कृत्वा स्यात्कालको नीलकश्चेति प्रथमः, इत्यर्थः स्निग्धः२ देशश्च रूक्षः ३ इत्येको भङ्गका, एवम- अन्त्ययोग्नेकत्वपरिणामे सति द्वितीयः श्रावस्तृतीयः
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(०२६) बरण अभिधानराजेन्द्रः।।
वरण उभयोश्चतुर्थः, स्थापना चेयम्- एवं दशसु द्वि-| पञ्चप्रदेशिके- जद तिवन्ने ' त्यादि , त्रिषु पदेवठी कयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भलीभावाश्चत्वारिंशद्भङ्गाः। 'जाति
भनाः केवलमिह सप्तैव ग्राह्याः , पञ्चप्रदेशिकेऽष्टमबन्ने' इत्यादि तत्र प्रथमः कालको द्वितीयो नीलकः अ- स्यासम्भवात् , एवं च दशसु त्रिकसंयोगेषु सप्ततिरिति । मस्ययोश्चैकपरिणामत्यालोहितकः १११ इत्येकः तृतीयस्या
'जह चउवन्ने' इत्यादि, चतुर्णा पदानां षोडश भङ्गास्तेषु नेकपरिणामतयाऽनेकवचनान्तत्वे द्वितीयः ११२, एवं द्वि
चेह पश्च सम्भविनस्ते च सूत्रसिद्धा एव, पञ्चसु वणेषु तीयस्यानेकतायां तृतीयः १२१ श्राद्यस्यानेकत्वे चतुर्थः
पञ्च चतुष्कसंयोगा भवन्ति, तेषु चैषां प्रत्येकं भावात्पश्च२११ एवमेते चत्वारः एकत्र त्रिकसंयोगे, दशसु चैतेषु
विशतिरिति, 'ईयालं भंगसयं ' ति पञ्चप्रदेशिके एकद्विचत्वारिंशदिति । 'जह चउवने' इत्यादि. इह पञ्चानां वर्णा
त्रिचतुःपञ्चवर्णसंयोगजानां पञ्चचत्वारिंशत्सप्ततिपञ्चविंशनां पञ्च चतुस्कसंयोगा भवन्ति , ते च सूत्रसिद्धा एव ,
त्येकसंख्यानां भङ्गानां मीलनादेकोत्तरचत्वारिंशदधिकं भड़'सखे न भंग' ति एकद्वित्रिचतुर्वर्णेषु पञ्चचत्वारिं
कशतं भवतीति । 'छप्पएसिए ण ' मित्यादि, इह सर्वे शत् २ पञ्चानां भड़कानां भावानवतिस्ते स्युरिति । ' जइ
पञ्चप्रदेशिकस्येव, नवरं वर्णत्रयेऽष्टौ भङ्गा वाच्याः, अष्ट
मस्याप्यत्र सम्भवात् , एवं च दशसु त्रिकसंयोगेष्वशीतिएगगंधे' इत्यादि प्राग्वत् । जइ तिफासे' इत्यादि, 'सब्वे सीए' ति चतुर्णामपि प्रदेशानां शीतपरिणामत्वात् १ देसे
भङ्गका भवन्तीति, चतुर्वणे तु पूर्वोक्तानां षोडशानां भानिद्धे' तिचतुर्णा मध्ये द्वयोरेकपरिणामयोः स्निग्धत्वात् २
कानामदशान्तिमत्रयवर्जितानां शेषा एकादश भवन्ति, 'देसे लुस्खे'त्ति तथैव द्वयो सक्षत्वात् ३त्येकः द्वितीय
तेषां च पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु प्रत्येकं भावात्पश्चपञ्चास्तु तथैव नवरं भिन्नपरिणामतयाऽनेकवचनान्ततृतीयप
शदिति । 'जइ पंचवन्ने' इत्यादी पद भङ्गाः, ' छासीयं दः तृतीयस्त्वनेकवचनान्तद्वितीयपदः, चतुर्थः पुनस्तथैवा
भंगसयं' ति एकादिसंयोगसम्भवानां पश्चचत्वारिंशदशीनेकवचनान्तद्वितीयतृतीयपद इत्येते सर्वशीतेन चत्वारः,
तिपश्चाधिकपश्चाशत्पदसंख्याभकानां मीलनात् षडत्तराएवं सर्वोष्णेन सर्वस्निग्धेन सर्वरुक्षणेत्येवं षोडश । ' जह
शीत्यधिकं भकशतं भवति ।' सत्तपएसिय ' इत्यादि, चउफासे' इत्यादि तत्र 'देसे सीए ' ति एकाकारप्रदेश
इह चतुर्वर्णत्वे पूर्वोक्तानां षोडशानामन्तिमवर्जाः शेषाः पञ्चद्वयलक्षणो देशः शीतः तथाभूत एवान्यो देश उष्णः, तथा
दश भवन्ति, एषां च पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु प्रत्येकं भावाय एव शीतः स एव स्निग्धः यश्चोष्णः स सक्ष इत्येकः,
त्पश्चसप्ततिरिति । 'जइ पंचवन्ने' इत्यादि, इह पश्चानां चतुर्थपदस्य प्रागिवानेकवचनान्तत्वे द्वितीयः तृतीयस्य च
पदानां द्वात्रिंशद्भमा भवन्ति, तेषु वेहायानां षोडशानामतृतीयः, तृतीयचतुर्थयोरनेकवचनान्तत्वे चतुर्थः, एवमेते
एमद्वादशान्त्यत्रयवर्जिताः शेषा उत्तरेषां च षोडशानाषोडश, पानयनोपायगाथा चेयमेषाम्-" अंतलहुयस्स
माद्यास्त्रायः पञ्चमनवमी चेत्येवं सर्वेऽपि षोडश संभहेट्ठा, गुरुयं ठावेह सेसमुवरिसमं । अंतं लहुएहि पुणो, वन्तीति , 'दो सोला भंगसयं ' ति एकद्वित्रिचतुःपश्च पूजा भंगपत्यारे॥१॥"
कसंयोगजानां पञ्चचत्वारिंशदशीतिपञ्चाधिकसप्ततिषोडशस्थापना चेयम्
संख्यानां भड़कानां मीलनाद् द्वे शते षोडशोसरे स्थाता
मिति । 'अटपएसिए' इत्यादि, इह चतुर्वर्णत्वे पूर्वोक्ताः २१ ११ १२ ११ २१ २२
षोडशापि भङ्गा भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं पञ्चसु चतुष्कस११ १२ १२ १२/२१ १२/२२ १२ योगेषु भावादशीतिका भवम्ति, पश्चवर्णत्वे तु द्वात्रिंशतो ११ २१ | १२ २१/२१ २१ २२ २१ भङ्गानां षोडशचतुर्षिशाधाविंशावाविंशाम्त्यत्रयवर्जाः शेषाः |११ २२ १२ २२/२१ २२ २२ २२ परविंशतिभाका भवम्तीत्यर्थः, 'दो इकतीसाई' ति पू
वोक्तानां पञ्चचत्वारिंशदशीत्यशीतिषहत्तरविंशतिसंख्यानां • छत्तीसं भंग ' ति द्वित्रिचतुःस्पशेषु चतुषोडश पोड- भनकानां मीलनाद् द्वे शते एकत्रिंशदुत्तरे भवत इति । 'नवशानां भावादिति । इह वृद्धगाथे
पएसियस्से' त्यादि, इह पञ्चवर्णत्वे द्वात्रिंशतो भड़काना"बीसदमसउद्देसे, चउप्पएसाइए चउप्फासे।
मन्त्य एव न भवति, शेषं तु पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयमिति । एगबहुप्रयणमीसा, बीयाईया कहं भंगा?॥१॥" बायरपरिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने, एकवचनबहुवचनमिश्रा द्वितीयतृतीयादयः कथं भड़का | एवं जहा अट्ठारसमसए० जाब सिय अट्ठफासे पन्नत्ते,वन्नभवन्ति ! , यत्रैव पदे एकवचनं प्रागुक्तं तत्रैव बहुवचनं गंधरसा जहा दसपएसियस्म, जइ चउफासे सब्वे कक्खडे बहुवचने त्वेकवचनम् , एतच्च न भवतीति कृत्वा विरोध सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे १ सव्वे कक्खडे सब्वे उद्भावितः । अत्रोत्तरम्
गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे २ सव्वे कक्खडे सव्वे ग"देसो देसा व मया, दम्यक्सेसवसो विवक्खाए।
रुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे ३ सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए संघायभेयतदुभय-भावाओ या वयणकाले ॥१॥"
सव्वे सीए सव्वे लुक्खे ४ सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे अयमर्थः-देशो देशा वेत्ययं निर्देशो न दुष्टः एकानेकवर्णाविधर्मयुक्तद्रव्यवशेनेकानेकावगाहक्षेत्रदशेन .
सीए सव्वे लुक्खे ५ सब्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे स्यैकत्वानेकत्वविवक्षणात्। अथवा-भणनप्रस्तावे सहातविशे सीए सव्वे लुक्खे ६ सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सब्वे उपभावेन भेदावशेषभावेन वातस्यैकत्वानेकत्वविवक्षणदिवेति | सिणे सव्वे निद्धे ७ सव्वे कक्खडे सवे लहए सब्वे
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( ८२७ ) अभिधानराजेन्द्रः |
वण्ण
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उसिणे सव्वे लुक्खे ८ सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे सच्चे मउए सव्वे गरुए सच्चे सीए सव्वे लुक्खे १० सव्वे मउए सब्वे गरुए सब्वे उसिये सव्वे निद्धे ११ सच्चे मउ सव्वे गए सब्वे उसिणे सब्वे लुक्खे १२ सच्चे मउए सच्चे लहुए सव्वे सीए सब्वे निद्धे १३ सव्वे मउ सच्चे लहुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे १४ सव्वे मउए सब्वे लहुए सच्चे उसि सव्वे निद्धे १५ सव्वे मउए सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सब्बे लुक्खे ' ६ एए सोलस भंगा ॥ जइ पंचफासे सव्वे कक्खडे सच्चे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सब्वे कक्खडे सब्बे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा २ सब्वे कक्खडे सब्वे गरुए सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे ३ सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसा निद्धा देसा लुक्खा ४ सव्वे कक्खडे सब्वे गरुए सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ सव्वे कक्खडे सब्बे लहुए सब्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ सव्वे कक्खड़े सब्वे लहुए सव्वे उसिये देसे निद्धे देसे लुक्खे। ४ । एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा। सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ एवं मउरण वि सोलस भंगा, एवं बीस भंगा। सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे निद्धे देसे सीए देसे उसिये ४ सन्वे कक्खडे सव्वे गरुए सब्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४ एए बत्तीसं भंगा, सव्वे कक्खडे सव्वे सीए सब्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए एत्थ वि बत्तीस भंगा ४, सब्वे गरुए सब्वे सीए सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए एत्थऽवि बत्तीस भंगा, एवं सव्वे ते पंचफासे अट्ठावीस भंगसयं भवंति । जइ छफासे सव्वे कक्खडे सन्वे गरुए दंसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सन्त्रे कक्खडे सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसि देसे निद्धे देसा लक्खा २ एवं ० जाव सच्वे कक्खडे सच्चे गरुए देसा सीया देसा उसिया देसा निद्धा देसा लक्खा १६ एए सोलस भंगा । सव्वे कक्खडे सच्चे लहुए देसे सीए देसे उसिखे देसे निद्धे देसे लक्खे एत्थवि सोलस भंगा, सब्बे मउए सब्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थ वि सोलस मंगा, एए चउसट्ठि भंगा, सव्वे कक्खडे सब्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थ विचउसट्ठि भंगा, सव्वे कक्खडे सव्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिये १, ० जाव सव्वे उए सब्वे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिया १६ एए चउसट्ठि भंगा, सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं
वरण
• जाव सव्वे लहुए सव्वे उसिणे देसा कक्खडादेसा निद्धा देसा मउया देसा लुक्खा एए चउसट्ठि भंगा, सव्वे गरुए सब्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे ० जाव सव्वे लहुए सब्बे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा सीया देसा उसिया एए चउसट्ठि भंगा, सच्चे सीए सब्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए ०जाव सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया एए चउसट्ठि भंगा, सव्वे ते छफासे तिनि चउरासीयं भंगसया भवंति ३८४ । जइ सत्तफासे सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिखे देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसा लुक्खा ४ सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा ४ सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ सन्वे ते सोलस भंगा भाणियव्वा, सव्वे कक्खडे देसे गए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिये देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं गरुएणं एगत्तेगं लहुएणं पुहुत्तेगं एते विसोलस भंगा, सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उस्रिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा, सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिये देसे निद्धे देसे लक्खे एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा, एवमेते चउसट्ठि भंगा कक्खडेणं समं, सव्वे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उस देसे निद्धे देसे लुक्खे । एवं मउरण वि समं चउस िभंगा भाणियव्वा, सव्वे गरुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं गरुरण वि समं चउसट्ठि मंगा कायन्वा, सव्वे लहुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसि देसे निद्धे देसे लक्खे एवं लहुएण वि समं चउस िभंगा कायव्वा, सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देने गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं सीतेण वि समं चउसट्ठि भंगा कायव्वा, सव्वे उसिणे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं उसिणेण वि समं चउसट्ठि गंगा कायव्वा, सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसि एवं निद्वेण वि चउसट्ठि गंगा कायव्वा सब्वे लुक्खे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिये एवं लुक्खेण वि समं चउस
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( ८२८ ). श्रभिधानराजेन्द्रः |
वण्ण
भिंगा कायव्वा जाव सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा या देसा गुरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिया, एवं सत्तफासे पंचवारमुत्तरा भंगसया भवंति । जइ अट्ठफासे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उस देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिया देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लक्खे ४ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिया देसे निद्धे देने लुक्खे ४ एए चत्तारि चउक्का सोलस भंगा, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरु देसा लहुया देसे सीए दे से उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे | एवं एते गुरुएणं एगतेणं ( लहुएणं) पुहत्तएणं सोलस भंगा कायव्वा । देसे कक्खडे देसे मउए देसा गुरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिये देसे सिद्धे देसे लक्खे ४ एए वि सोलस भंगा कायव्वा । देसे कक्खडे देसे मउए देसा गुरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे दे निद्धे देसे लक्खे एते वि सोलस भंगा कायव्वा । सव्वेऽवि ते चउसट्ठि मंगा कक्खडमउएहिं एगत्तएहिं, ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं मउएणं पुहत्तेणं एते चैव चउसट्ठि भंगा कायव्वा । ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं मउएवं एगत्तएणं चउसट्ठि भंगा कायव्वा, ताहे एतेहिं चैव दोहिं वि पुहत्तेहिं चउसट्ठि भंगा कायव्वा० जाव देसा कक्खडा देसा मउया देसा गुरुया देखा लहुया देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लक्खा एसो अपच्छिमो भंगो, सव्वेते अट्ठफासे दो छपचा भंगसया भवंति । एवं एते बादरपरिणए अतएसिए खंधे सव्वेसु संजोएसु बारस छन्नउया भंगसया भवंति । ( सू० - ६६६ )
' बायरपरि णमित्यादि, सर्व एव कर्कशो गुरुः शीतः स्निग्धश्च एकदैवाविरुद्धानां स्पर्शानां सम्भवादित्येको भङ्गः, चतुर्थपदव्यत्यये द्वितीयः, एवमेते एकादिपदव्यभिचारेण षोडश भङ्गाः । ' पंचफासे ' इत्यादि, कर्कशगुरुशीतैः स्निग्धरुक्षयोरेकत्वानेकत्वकृता चतुर्भङ्गी लब्धा, एषैव च कर्कशमुरुर्लभ्यत इत्येवमष्टौ, एते चाष्टौ कर्कशगुरुभ्याम् एवमन्ये च कर्कशलघुभ्याम् एवमेते षोडश कर्कशपदेन लब्धा पतानेव च मृदुपदं लभते इत्येवं द्वात्रिंशत्, इयं च द्वात्रिंशत् स्निग्धरूक्षयोरेकत्वादिना लब्धा, अन्या च द्वात्रिंशत् शीतोष्णयोरन्या च गुरुलघ्वोरन्या च ककेशमृद्वोरित्येवं सर्व एवैते मीलिता अष्टाविंशत्युत्तरं भङ्गकशतं भवतीति । ' छफासे' इत्यादि, तत्र सर्वकर्कशो १ गुरुश्च २ देशश्च शीतः ३ उष्णः ४ स्निग्धो ५ रूक्षचे ६ ति । इह च देशशीतादीनां चतुर्णो पदानामेकत्वादिना षोडश भ१- परमाणुवर्णादिवन्वता 'परमाणु' शब्दे फममाने २४१ हो ।
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वरण
ङ्गाः, एते च सर्वकर्कशगुरुभ्यां लब्धाः, एत एव कर्कशलघुभ्यां लभ्यन्ते तदेवं द्वात्रिंशत् । इयं च सर्व्वकर्कशपदेन लब्धा इयमेव च सर्वमृदुना लभ्यत इति चतुःषष्टिर्भङ्गाः । इयं च चतुःषष्टिः सर्वकर्कशगुरुलक्षणेन द्विकसंयोगेन सविपर्ययेण लब्धा, तदेवमन्योऽप्येवंविधो द्विकसंयोगस्तां लभते, कर्कशगुरुशीतस्निग्धलक्षणानां च चतुर्णां पदानां षड् द्विकसंयोगास्तदेवं चतुःषष्टः षड्भिर्द्धिकसंयोगैर्गुणितास्त्रीणि शतानि
फासे ' इत्यादि । ' जइ सत्तफासे ' इत्यादि, इहाद्यं कर्क - चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीति । अत एवोक्तम्- 'सव्वे वेते शाख्यं पदं स्कन्धव्यापकत्वाद्विपक्षरहितं शेषाणि तु गुर्बादीनि षद स्कन्धदेशाधितत्वात् सविपक्षाणीत्येवं सप्त स्पर्शाः । एषां च गुर्वादीनां षषां पदानामेकत्वानेकत्वाभ्यां चतुःषष्टिकर्कशपदेन लब्धाः । एवं मृदुपदेनापत्येवमष्टाविंशत्यभङ्गका भवन्ति, ते च सर्वशब्दविशेषितेनादिन्यस्तेन धिकं शतम्, एवं गुरुलघुभ्यां शेषैः षड्भिः सह १२८, शीतोष्णाभ्यामप्येवमेव १२८, एवं स्निग्धरूक्षाभ्यामपि १२८, तदेवमष्टाविंशत्युत्तरशतस्य चतुर्भिर्गुणने पञ्च शतानि द्वाद शोत्तराणि भवन्तीति । श्रत एवाह एवं सत्तफासे पंच बारसुत्तरा भंगसया भवंती 'ति । ' श्रट्ठफासे' इत्यादि, चतुर्णा कर्कशादिपदानां सविपर्ययाणामाश्रयणादष्टौ स्पर्शाः । एते च बादरस्कन्धस्य द्विधा विकल्पितस्यैकत देशे चत्वारो विरुद्धास्तु द्वितीये इति एषु चैकत्वानेकत्वाभ्यां भङ्गका भवन्ति । तत्र च रूक्षपदेनैकवचनान्तेन बहुवचनान्तेन द्वौ, एतौ च स्निग्धैकवचनेन लब्धावेतावेव स्निग्धबहुवचनं लभेते, एते चत्वारः, एते च सूत्र पुस्तके वतुष्ककेन सूचिताः । तथैतेदेवाष्टासु पदेषूष्णपदेन बहुवचनान्तेनोक्लचतुर्भङ्गीयुक्तेनान्ये चत्वारः ४, एवं शीतपदेन बहुवचनान्तेनैव ४, तथा शीतोष्णपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव४एवं चैते १६, तथा लघुपदेन बहुवचनान्तेनैत एव ४, तथा लघुशीत पदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत पत्र ४, एवं लघूष्णपदाभ्याम् ४, एवं लघुशीतोष्णुपदैरिति ४, एवमेतेऽपि षोडश १६, एतदेव दर्शयति-' एवं गुरुपणं एगत्तएण मित्यादि, तथा-कर्कशादिनैकवचनान्तेन गुरुपदेन च बहुवचनान्तेनैत एव, तथा गुरूष्णाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव ४, एवं गुरुशीताभ्याम् ४, एवं गुरुशीतोष्णैः ४ एवं चैते षोडश, तथा गुरुलघुभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव ४, एवं गुरुलघुष्णैः ४, एवं गुरुलघुशीतैः ४ एवं गुरुलघुशीतोष्णैः ४ एतेऽपि षोडश, सर्वेऽप्यादित एते चतुःषष्टिः कक्खडमउएहिं एगतेहिं ति कर्कश मृदुपदाभ्यामेकवचनवद्भ्यां चतुःषष्टिरेते भङ्गा लब्धा इत्यर्थः, ' ताहे 'ति तदनन्तरम् ' कक्खडें एगतए' ति कर्कशपदेनैकत्वगेन एकवचनान्तेनेत्यर्थः 'मउपखं पुहत्तपणं ' ति मृदुकपदेन पृथक्त्वगेनानेकवचनान्तेनेत्यर्थः एते चैव ति एत एव पूर्वोक्तक्रमाच्चतुःषष्टिर्भङ्गकाः कर्त्तव्या इति, 'ताहे कक्खडेण 'मित्यादि, ' ताहे' त्ति ततः कर्कशपदेन बहुवचनान्तेन मृदुपदेन चैकवचनान्तेन चतुःटिका: पूर्वोक्तमेव कर्त्तव्याः, ततश्चैतानेव कर्कशदुपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यां पूर्ववच्चतुष्षष्टिर्मङ्गाः कर्त्तव्याः एताश्वादितश्चतस्त्रश्चतुःषष्टयो मीलिता द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके स्थातामिति, एतदेवाह -' सब्वे ते अट्ठफासे, दो छपना भंगसया भवंति ' त्ति ।
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वरण अमिधानराजेन्द्रः।
बएणपरिणाम पतेषां च सुखतरप्रतिपत्तये यन्त्रकमिदम्
अथ भाभ्यम्देसे सम.देसे ग. देसे लदेसेसी देसे उ.देसे नि. देसे रु.
पज्जायकालभेश्रो, वएणो कालो त्ति वामकालोऽयं ।
साना दसर. काख
नणु एस नामउ चिय,कालो नानियमतो तस्सा२०७४। योऽयं कालः कृष्णो वर्णः स वर्णवासी कालच वर्शकाल इति भएयते । स च कथंभूतः । पर्यायकालभेदः । इदमुक्तं
भवति-यथा द्रव्यस्य कलनं कालो द्रव्यकालः प्रागुतः, तथा २५६, १२८ | ६४ | ३२ | १६ | ८ | ४ | २ |
पर्यायाणां कलनं कालः पर्यायकाल इत्यपि द्रष्टव्यम् । ततश्च 'बारसछनउया भंगसया भवंति 'त्ति बादरस्कन्धे चतु- कृष्णवर्णस्य द्रव्यपर्यायत्वादयं वर्णकालः पर्यायकालमेद रादिकाः स्पर्शा भवन्ति । तत्र च चतुः स्पर्शादिषु क्रमेण एव मन्तव्यः । ननु यदि पर्यायकालोऽपि कश्रिदस्ति, तर्हि षोडशानामष्टाविंशत्युत्तरशतस्य चतुरशीत्यधिकशतत्रयस्य
'दब्वे अद्ध अहाउय' इत्यादौ किमयं नोपन्यस्तः । स. द्वादशोत्तरशतपञ्चकस्य षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयस्य च भा
त्यम् , किन्तु-द्रव्यात् पर्यायाणां कश्चिदभिन्नत्वाद् द्रव्यबाद्यथोक्तं मानं भवतीति । भ० २० श. ५ उ० । कालभणनद्वारेणैवोक्कत्वाद् न पृथगत्रायमुक्तः । अथवा-तचरयेते प्रलंक्रियते शरीरमनेनेति वर्णः । पं० से०३ द्वार । ड्रेदभूतस्याऽस्य वर्णकालस्याभिधानात् सोऽप्यभिहित एवं शरीरच्छबौ, जं.३ वक्षः। प्रशा०। गौरत्वादी, उत्त० २०
द्रष्टव्यः । अत्राह-नन्वेष कृष्णो वर्णो नामत एव कालो अवर्णनं वर्षः । श्लाघने, प्रश्न.२ सम्ब० द्वार। प्रव० । भएयते, ततश्च नामकाल एवायं किमितीहोपन्यस्तः इति अर्द्धदिग्न्यापिनि साधुवादे, । भ०१५ श०। यशसि, स्था०३ भावः । अत्रोत्तरमाह-नानियमतस्तस्येति, तस्य कालनाठा०३ उ०। नि० चू०। सर्वदिग्व्यापिनि साधुवादे, स्था०१० म्नःसंकेतवशाद् गोरेऽपिविधीयमानत्वादनियतत्वम् , अतो ठा० ३ उ० । नि० चू० । युक्ततालक्षणे, शा०१ श्रु० अ० । ऽन्यस्माद् व्यवच्छिद्य वर्ण एव यः कालः सह वर्षकाखोब्राह्मणत्वादी, सूत्र०१ शु०११०३ उ०। (ब्राह्मणत्वादिजा- ऽभिधीयते, नान्यत् ,इत्येतावता नामकालादस्य भेदनविशेष तिप्रकाराः 'बंभ' शब्दे पञ्चमभागे १२५८ पृष्ठे उक्ताः ।) |वमगपेसिया-वर्णकपेषिका-स्त्री० । चन्दनपेषिकायाम् ,म. धमणादिष, श्रमणः श्रमणी श्रावकः श्राविका चेति, | १६ श०३ उ०। वन्दने, ध०३ अधि०। संयमे, मोक्षे च । श्राचा०१ श्रु०८ श्र०८ उ01 ('विमाण' शब्द विमानवर्णानि वक्ष्यन्ते।)
| वस्मगुणप्पमाण-वर्णगुणप्रमाण-न० । स्वनामख्याते प्रमाणवस(ग)-वर्णक-न० । वर्णरूपे, बृ० १ उ० २ प्रक० ।
| भेदे,अनु०। (अत्र सूत्रम्-'पमाण' शब्द, पञ्चमभागे ४७२
पृष्ठे गतम् ।) विलेपने, औ०। मा०म०। चन्दने वर्णनके, विपा०१ श्रु० १
वसचउक्क-वचतुष्क-न । वर्णेनोपलक्षितं चतुष्कं वर्णच. श्रमाकम्पिलकादौ, प्राचा०२ श्रु०१ चू०२ अ० १ उ० । वषो जो सुगंधो चंदणादि । नि० चू०१ उ० । हिङ्गल
तुष्कम् । वर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टये, कर्म०५ कर्मः। कतैलादौ, वसो पुण हिंगुलादी तेल्लमादी । नि० चू०१४ उ० ।
वस्मण-वर्णन-न० । सद्भूतगुणोत्कीत्तने, द्वा०२६ द्वा०। वमंतर-वर्णान्तर-न० । अपान्तरालेषु नवसु वर्णेषु, आचा० | वनणा-वर्णना-स्त्री० । प्ररूपणायाम् . विशे। १ श्रु०१०१ उ०। ('बंभ' शब्दे पञ्चमभागे १२५७ पृष्ठे | वामणाम-वर्णनामन्-न० । वय॑ते अलंक्रियते शरीरमनेनेति दर्शितम् ।)
वर्णः। स च पञ्चप्रकार:-श्वेतपीतरक्रनीलकृष्णमेदात् । तवामकर-वर्णकर-न० । एकदिग्व्यापिनि साधुवादकरे. तं०।- निबन्धनं नाम । नामकर्मभेदे. तच्च पञ्चधा-तत्र यदुन्यवशापुषि गौरत्वादिवर्णकरे, तं० ।
जन्तशरीरे श्वेतवर्णप्रादुर्भावो यथा बलाकादीनाम् तत् श्वेतवपकरण-वर्णकरण-न० । विशिष्टेषु भोजनादिषु विशिष्टव- |
वर्णनाम, एवं शेषाण्यपि वर्मनामानि भावनीयानि। पं० सं०
३द्वार । स० । कर्म० ।श्रा० । वर्णरूपेऽर्थे , अनु०। पादने, सूत्र०६ श्रु०१ अ० १ उ० ।
(अत्र सूत्रम्-'गुणणाम' शब्दे तृतीयभागे २८ पृष्ठे गतम्।) वस्मकाल-वर्णकाल-पुं० । वर्णश्चासौ कालश्च वर्णकालः ।
वामणिबत्ति-वर्णनिधृत्ति-स्त्री०। वर्णसंसिद्धौ, म०१६ श. कालमेदे, विशे।
८ उ०। ( वर्णनिवृत्तिसूत्रम् णिब्बत्ति 'शब्ने चतुर्थभागे अथ नियुक्तिकृद् वर्णकालमाह
२१२० पृष्ठे गतम् ।) पचएहं वप्माणं, जो खलु वन्नेण कालो वामो ।
वामपञ्जव-वर्णपर्यव-पुं० । तत्तदन्यसमुत्पद्यमानवर्षविशेष, सो होइ वामकालो, वणिजइ जो व जं कालं।।२०७३॥
जी० ३ प्रति०४ अधि। शुक्लादीनां पश्चानां वर्णनां मध्ये यो वर्णेन-छायया कृष्ण
वामपणग-वर्णपञ्चक-न । वर्णोपलक्षिते पञ्चावयवे समुदाएव वर्णः स भवति वर्णकालः । अथवा-यः कोऽपि
| ये, क० प्र०५ प्रक० । जीवादिपदाथों गत्कालं-यस्मिन् काले धर्यते-प्ररूयते स वर्णन-वर्गस्तत्प्रधानकालो वर्णकालः । यदिवा-शुक्लादि
वर्णपरिणय-वर्णपरिणत-त्रि० । वर्णतः परिणतोवर्सपरिक वर्णं एवं वर्यते यत्र काले स शुक्लादिवर्णप्ररूपणस्य कालो। तः । वर्णमाजि, प्रशा०१ पद । यणेकाल इत्यादि स्वधियाऽभ्यूह्य वाच्यमिति ॥ २०७३ ॥ । वामपरिणाम-वर्णपरिणाम-पुं०। पञ्चानां श्वेतादीनां पानां २०८
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वएणपरिणाम अभिधानराजेन्द्रः।
बरिह पुंगव परिणतिः । द्रव्यादिसंयोगपरिणतो, सूत्र० १ श्रु० १ ० १ | यो भवति तं प्रतिहन्ता भवति युक्त्यादिभिस्तं निषेधयिता उ।स्था।
इत्यर्थः२, वर्मवादिन प्रति प्राचार्यादीनां गुणग्राहकं प्रति बूं. वामफरिसजुत्त-वर्मस्पर्शयुक्त-त्रि० । प्रधानवर्णस्पर्श, भ०६ हयिता प्रशंसाकर्तुहर्षवृद्धिकरो भवति यथा-"जो आणइ अ. श० ३३ उ०
•स्स गुणं, सो लोए तस्स प्रायरं कुणड ।” तथा-गुणिनि वाममंत-वर्णवत-त्रि० । प्रशंसायामतिशायने वा मतुप् । प्रश- .गुणज्ञो रमते, नागुणशीलस्य गुणिनि परितोपः । अतिरति स्तवसे, अतिशयितवर्णे च । स्था० ४ ठा०४ उ० । सूत्र।
सपा बनात् कमल, न दर्दुरस्त्वेकवासेऽपि ॥ १॥ तथा-"गुणिप्राचा
नि गुणनो रमते, इतरः... कस्तुं वराकः । सरसिजपरिवएणय-देशी-श्रीखण्डे, दे० ना.७ वर्ग ३७ गाथा । | 'मलरसिको, मधुपयुवा नतु वः काकः ॥३॥'' इत्यादिमिः,
| आत्मनः स्वयं वृद्धा प्राचार्यादयस्तेषां सेवी इङ्गिताकारैः त. वरमवाइ (म्)-वर्णवादिन-वि० । श्लाघावादिनि, व्य०
थाविधं शात्वा कारकः। सेत्तमित्यादि व्यक्तम् । दशा०४० १०।
वरणादेसि(ण)-वर्णादेशिन-पुं० । वण्यते प्रशस्यते येन स वणवाय-वर्णवाद-पुं० । श्लाघायाम् , पश्चा०विव० । गुण
| वर्णः । साधुकारादेशिनि वणाभिलाषिणि, प्राचा०१ थु०५ ग्रहणे, ध०३अधि। प्रव० । (अधर्मस्य वर्णवादोन कर्त्तव्य
१०३ उ०। इति 'अहम्म' शब्दे प्रथमभागे ८६२ पृष्ठे उक्तम् ।)
वस्मावास-बर्मावास-पुं० । वर्णः-श्लाघा यथावस्थितस्वरूपंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्मं पगरेंति,
पकीर्तनं तस्यावासो-निवासो ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावासः। तं जहा-अरहंताणं वन्नं बदमाणे. जाव विवक्कतवबंभ- |
वर्णकनिवेश, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । प्रा० म०। रा०। चेराणं देवाणं वन्न वदमाणे । (सू०-४२६)
प्रति० । भ०। अईतां वर्णवादो यथा-" जियरागदोसमोहा, सव्वग्नू । वर्णकव्यास-पुं० । वर्णकविस्तरे, भ०१४ २०६ उ०। तियसनाहकयपूया। अञ्चतसञ्चवयणा,सिवगइगमणा जयात वलिय-वर्णित-त्रि० । प्ररूपिते, उत्त०५ अ० । उपदिष्टे, प्रा. जिला ॥१॥” इति अर्हत्प्रणीतधर्मवर्णो यथा-" वत्युपयासणसूरी, अइसयरयणाण सायरो जयह । सव्वजयजीय
| व०१०। कथिते, दश०१० अ०। व्याख्याते,विशे० । निक बंधुर-बंधू दुविहोऽवि जिणधम्मो ॥१॥" प्राचार्यवर्ण- | चू० । सूत्र० । अनु० । स्था० । प्राचा। वादो यथा-" तेसिं नमो तेसिं नमो, भावेण पु- वोऊण-वर्णयित्वा-स्त्री० । व्याख्यायेत्यर्थे, व्य०३ उ० । यो वि तेसि चेव नमो। अणुवकयपरहियरया, जे नाणं देति भव्वाणं ॥ १ ॥" चतुर्वर्णश्रमणसंघवर्णो यथा
वस्तुं-वर्णयितुम्-अव्य० । प्रतिपादयितुमित्यर्थे, प्रा० म० "एयम्मि पूश्यम्मि य, नत्थि तयं जं न पश्य होइ । भुवणे वि । १०।। पअणिजो.न गुणी संघाउ जं अन्नो ॥१॥"देववर्ग-वधिह-वृष्णि-पुं० । “सूक्ष्म-न-रण-स्न-ह-हु-क्षणां रहः " यादो यथा-"देवाण अहो सील, विसविसमाहिया वि | ॥२१७५॥ इति संयुक्तस्य पणभागस्य गकाराकान्तो जिणभवणे । अग्छरसाहिं पि समं, हासाई जेण न क- | हकारः । प्रा० । अन्धकवृष्णिनराधिपे, पा० । रिति ॥१॥" स्था० ५ ठा०२ उ० ।
बरि-पुं० । अभ्यन्तरदक्षिणायाः कृष्णराजेर्वैरोचनविमानवावसवीसह-वर्णविंशति-स्त्री० । वर्णेनोपलक्षिता विंशतिरिति । सिनि लोकान्तिकदेवे, स्था० ८ ठा० ३ उ० । अग्नी, शा० । वर्णाः५ गन्धी २ रसाः ५ स्पर्शाः इत्येवं विंशती, कर्म०५ | आ० म०। प्रव० । "धूमद्धश्रो हुअषहो बिहाबसू पायो कर्म०। (वर्णादीनां भेदाः स्वस्वस्थाने)
सिही वही" पाइ० ना० ६ गाथा । वस्मसंजलणा-वर्णसंचलना-स्त्री० । तीर्थकरादीनां सद्भूतः पणिहदसा-वृष्णिदशा-स्त्री०।" नाम्न्युत्तरपदस्य वे" ति गुणोत्कीर्तनायाम , दश० ६ ०१ उ० ।
लक्षणवशादादिपदस्यान्धकशब्दरूपस्य लोपः । ततोऽयं साम्प्रतं वर्णसंज्वलनतां पिपृच्छिषुरिदमाह
परिपूर्णः शब्दः अन्धकवृष्णिदशा इति, अयं चान्वर्थः-- से किं तं वस्मसंजलणता?,वएणसंजलणता चउचिहा प
अन्धकवृष्णिनराधिपकुले ये जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयः,
तेषां दशाः अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा यासु मत्ता, तं जहा-पाह-भव्वाणं वरमवायी भवति, अवलवा
ग्रन्थपद्धतिषु वर्यन्त ता अन्धकवृष्णिदशाः,अथवा-अन्धक तिं पडिहणित्ता भवति, वरणवातिं असुबंहिता भवति, आ
वृष्णिवक्तव्यताप्रतिपादिका दशा:-अध्ययनामि अन्धकवृयवनसेवी यावि भवति । सेत्तं वामसंजलणता। प्णिदशाः, प्राह च चूर्गिणकृत्-" अंधकवरिहणो 'से कितमि त्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् प्राचार्य श्राह-वर्णसं.
जे कुले अन्धसद्दलोवाश्रो वरिहणो भणिया, तेसि
चरियं गती सिज्मणा य जत्थ भणिया ता परिहदासाज्वलनता चतुर्विधा प्रसप्ता, तद्यथा-यथा भव्याना वर्णवादा
श्रो, दस सि अवस्था अज्झयणा वा' इति । नं० । अन्धभवति १ अवर्णवादिनं प्रतिहन्ता भवति २ वर्णवादिनम् अनुहयिता भवति३आत्मवृद्धसेवी चापि भवति ४. तत्रय कवृष्णिनराधिपवक्तव्यताप्रतिपादक ग्रन्थविशेषे.पा-निरथा भव्यानामग्रे प्राचार्यस्य गुणजात्यादयस्तेषां वर्णवादी प्र- यावलिकाश्रुतस्कन्धान्तर्गते स्वनामख्याते पञ्चमवर्ग, नि।
शंसाकथको भवति १, अवर्मवादी प्राचार्यादीनामयशोषादी वहिपुंगव-वृष्णिपुङ्गव-पुं० । यदुप्रधाने, शा० १ श्रु० १६
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(८३१) बबिहपुंगव अभिधानराजेन्द्रः।
वत्तब्वया अ०। “भवणाश्रो गिग्गश्रो वरिहपुंगवो" वृष्णिपुंगवो ने- तस्माद्-भूमि-जाल-वहिषु प्रत्यक्षेषु तव सौम्य ! संशयो न मिकुमारः। उत्त०२२ अ०।
युक्तः, यथा स्वस्वरूपे । तथा, अनिलोऽपि प्रत्यक्ष एव, गुणबतन-बदम-न । “तदोस्तः "॥ ८ । ४ । ३०७ ॥ इति | प्रत्यक्षत्वात्, घटवत् , ततस्तत्रापि न संशयो युक्तः । भवपैशाच्यां दस्य तः । मुखे, प्रा० ४ पाद ।
तु बा, अनिला-काशयोरप्रत्यक्षत्वन संशयः, तथाऽप्यसौ बति-वाच-स्त्री० । द्रव्यश्रुते, भ०१६ श०३ उ०। नयुक्तः, अनुमानसिद्धत्वातयोरिति ॥ १७४८ ॥ बतिमिस्स-व्यतिमिश्र--वि०। सम्मिलिते , " तिमिस्सं
तत्रानिलविषयं तावदनुमानमाहहु रत्था" प्राचा०२ श्रु०१चू० ११०३ उ०।
पत्थि अदिस्सापाइय, फरिसणॉईणं गुणी गुणत्तपत्रो । वतु-देशी-निवहे, दे० ना०७ वर्ग ३२ गाथा ।
रूवस्स घडो न्च गुणी, जो तेसिं सोऽनिलो नाम :१७४६। वत्त-व्यक्त-त्रि० । प्रकटे, द्वा० ११ द्वा० । प्रति०। स्फुटे,विशे। य पतेऽदृश्येन केनाप्यापादिता-जनिताः स्पर्शादयस्ते विप्रा० म० । स्पष्टे, जी० १ प्रति० । सूत्र० । अभि- धमानगुणिनः, गुणत्वात् , आदिशब्दाच्छन्दस्वास्थ्य-कम्पा व्यक्तार्थे, प्रतिपादितार्थे, पो०१ विव० । अक्षरस्यरस्फुटक- गृह्यन्ते, एतेऽपि हि वायुप्रभवाद् वायुगुणा पव । इह ये रणत्वात् । ( स्था० ७ ठा०३ उ०1) स्फुटार्थे सूत्रादौ, अनु०। गुणास्ते विद्यमानगुणिनो दृष्टाः, यथा घटरूपादयः, यश्चैषां पञ्चमहाभूतं प्रति सन्दिहाने श्रीवीरजिनेन्द्रसमीपे प्रव- स्पर्शशब्दस्वास्थ्यकम्पानां गुणी स वायुः, तस्मादस्त्यसाजिते स्वनामख्याते चतुर्थे गणधरे विशे०।
विति ॥ १७४६॥ अथ चतुर्थस्य व्यक्तगणधरस्य वक्तव्यतामभिधित्सुराह
आकाशसाधकमनुमानमाहते पब्वइए सोउं, वियत्तु आगच्छई जिणसगासं । अस्थि वसुहाइभाणं, तोयस्स घडो ब्व मुचिमत्ताओ। बञ्चामिण वंदामि, वंदित्ता पज्जुवासामि ॥१६८७॥ ज भूयाणं माणं, तं वोमं वत्त! मुव्वत्तं ॥ १७५०॥ एवं विचिन्त्य व्यक्तनामा द्विजोपाध्यायः समागतो भगवतः अस्ति वसुधा-जला-ऽनल-वायूनां भाजनमाधारः, मू. समीपम् , ततो भगवता किं कृतम् ? इत्याह
र्तिमस्वात् , तोयस्य घटवत् , यच्च तां भाजनं तदायुष्मन्!
व्यक्त! सुव्यक्तं व्योमेति । यदि च-साध्यैकदेशता रष्टान्तस्य आभट्ठो य जिणेणं, जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं । .
कश्चित् प्रेरयति, तदेत्थ प्रयोगः-विद्यमानभाजना पृथिवीनामेण य गोत्तेण य, सवण्णू सव्वदरिसीणं।।१६८८।।
मूर्तत्वात् , तोयबत् । तथा-आपः, तेजोवत् । तेजश्च , व्याख्या पूर्ववदिति ॥ १६८८ ॥
वायुवत् , वायुश्च, पृथिवीवदिति ॥ १७५० ॥ विशे०। अथ भाष्यम्
वृत्त-त्रि० । अतिक्रान्ते, दश० १ ०। प्रव०। भृएसु तुझ संका, सुविणय-माभोवमाई होज ति।
व्याप्त-त्रि० । पूर्णे, श्रा०म०१०। न वियारिजंताई, भयंति ज सव्वहा जुत्तिं ॥१६६०॥
वत्तक्खा व्यक्त्यख्या-स्त्री० । एकस्याहंतः प्रतिष्ठायाम, भूयाइसंसयामो, जीवाइसु का कह त्ति ते बुद्धी। ध०२ अधिक। तं सबसुम्मसंकी, मन्त्रसि मायोवमं लोयं ।। १६६१॥ वत्तण-वर्तन-न० । पालने,सूत्र०१ श्रु०७० अस्यत्र पात. श्रायुष्मन् ! व्यक्त ! भूतेषु भवतः संदेहः, यतः स्वप्नोपमानि ने. आचा०२ श्रु०३ चू० । मायोपमागि वैतानि भवेयुरिति त्वं मन्यसे । यथा हि स्वप्ने वत्तणय-वर्तनक-न० । बालानामधीयानानां वार्ताकरणे, किल काश्चद् निः स्वोऽपि निजगृहाङ्गणे गजघटा-तुरणनि- | विशे। वह-मणिकनकराश्यादिकमभूतमपि पश्यति,मायायां चन्द्र- वत्तणा-वर्तना-स्त्री० । नवपुराणादिना रूपेणाभधने, विशेः । जालविलसितरूपायामविद्यमानमपि कनक-मणि-मौक्तिक
पं० चू० । प्राग्गृहीतस्यैव सूत्रादेस्थिरस्य गुणने, प्रा० म०१ रजन-भाजनाऽऽराम-पुष्प-फलादिकं दृश्यते, तथैतान्यपि
| अ०। प्रा०चू०। भूतान्येवं विधान्येवेति मन्यसे, यद्-यस्माद् विचार्यमाणा
चायमाणा- वत्तणी-वर्तनी-स्त्री०। मार्गे, विशे०। न्येतानि सवथैव न काश्चिद युक्ति भजन्ते-सहन्ते । भूतेषु
वत्तणुवत्त-वृत्तानुवृत्त-न० । वृत्तिमतिकान्तमनुवर्तमानेन च संशये जीव-पुण्य-पापादिषु किल का बार्ता, भूतविका
शायत इति वृत्तानुवृत्तम् । धर्तमानहेतुके भूतानुमाने , राधिष्ठानत्वान् तेषाम् ? इति तव बुद्धिः । तस्मात् सर्वस्यापि
दश०१०। भूत-जीवादिवस्तुनस्वदभिप्रायेणाभावात् सर्वशून्यताशङ्की
वत्तद्ध-दशी-सुन्दरे बहुशिक्षिते च, देना०७ वर्ग गाथा त्यं निरवशेषमणि लोकं मायोपमं स्वमेन्द्रजालतुल्यं मन्यस गत ॥
विश० । (यकिशान व्यकचेतोग-वत्तब-वक्रव्य-त्रि०। कथयितव्य, सूत्रधार ना 'भाव 'शब्दे पञ्चमभागे ४६१ पृष्ठ व्यक्क्रीकृता।) विशे० । प्रशा० । प्रश्न ।। तदेवं युक्रिभिः शून्यतामपाकृत्य भगवान् वत्तव्यया-वक्तव्यता-स्त्री० । अध्ययनादिषु प्रत्यवयव यथा यक्रं शिक्षयन्नाह
सम्भवं प्रतिनियतार्थकथने । पनखेसन जुत्तो, तुह भूमि-जला-ऽनलेसु संदेहो।
अनुवक्तव्यताद्वारं निरूपयितुमाहअनिलाऽऽगामेसु भवे.सोऽविन जुनोऽणुमाणाओ।१७४८।। से किंतं वत्तव्यया?, वत्तव्यया तिविहा पहलत्ता,तं जहा
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(८३२) वत्तव्वया अभिधानराजेन्द्रः।
दत्तव्यया ससमयवत्तव्बया, परसमयवत्तव्वया, ससमयपरसमयवत्त
मयवक्तव्यता, ततश्चासौ स्वसमयपरसमयवक्तव्यतोच्यते।
अथ चक्रव्यतामेव नयैर्विचारयमाहबया । से किं तं ससमयवत्तचया ?, २ जत्थ सं ससमए
इयाणिं को णो कं वत्तव्वयं इच्छइ , तत्थ गमभाषविजइ परमविज्जइ परविजइ दंसिज्जइ निदंसिज्जइ
संगहववहारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति, तं जहा-ससमयवउवदंसिज्जइ सेतं ससमयवत्तव्वया । से किं तं परसमयव
तब्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमयपरसमयवत्तव्वयं, उज्जूत्तव्यया, परसमयवत्तव्यया जत्थ णं परसमए आपविजइ
सुमो दुविहं वत्तव्वयं इच्छइ, तं जहा-ससमयवत्तव्वयं जाव उवदंसिज्जइ, सेतं परसमयवत्तव्वया । से किं तं
परसमयवत्तव्वयं, तत्थ णं जा सा ससमयवत्तव्बया सा ससमयपरसमयवत्तव्बया , ससमयपरसमयवत्तव्वया ज-|
ससमयं पविट्ठा, जा सा परसमयवत्तव्बया सा परसमयं स्थ शं ससमए परसमए पापविज्जइ जाव उवदंसिआइ,
पविट्ठा, तम्हा दुविहा वत्तव्बया, नत्थि तिविहा वत्तव्वया, सेतं ससमयपरसमयवत्तव्बया । (सू०-१५१४)
तिमि सद्दणया एगं ससमयवत्तब्वयं इच्छंति,नत्थि परसमय 'से किं तं वत्तब्वया' इत्यादि, तत्राध्ययनादिषु प्रत्यवयवं यथासम्भवं प्रतिनियतार्थकथनं वक्तव्यता इयं च त्रिविधा
वत्तब्वया,कम्हा?, जम्हा परसमए अणद्वे अहेऊ असम्भावे स्वसमयादिभेदात् , तत्र यस्यां णमिति वाक्यालङ्कारे स्वस-1
प्रकिरिए उम्मग्गे अणुवएसे मिच्छादसणमिति कट्ट, तम्हा मयः-स्वसिद्धान्तः प्रास्यायते यथा पञ्च अस्तिकायाः,तद्य- सव्या ससमयवत्तव्बया, पत्थि परसमयवत्तब्वया णस्थि था-धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्ष- ससमयपरसमयवत्तव्वया । सेतं वत्तव्वया। (पू०-१५१) सो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा-प्ररूप्यते यथा स एवास
'याणिं को नो' इत्यादि, अत्र नैगमव्यवहारौ त्रिविख्यातप्रदेशात्मकादिस्वरूपः, तथा दय॑ते दृष्टान्तद्वारेण यथा
धामपि वक्तव्यतामिच्छतः, नैगमस्यानेकगमत्वाद् व्यवहामत्स्यानां गत्युपष्टम्भकं जलमित्यादि, तथा निर्दिश्यते उपन
र (पर) स्य तु लोकव्यवहारपरत्वाल्लोके च सर्वप्रकाराणां यद्वारेख यथा तथैवैषोऽपि जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भक इत्या. रूढत्वादिति भावः । जुसूत्रस्तु विशुद्धतरत्वादनाद्यामेव दि, नदेवं दिग्मात्रप्रदर्शनेन व्याख्यातमिदम् , सूत्राविरोधतो. द्विविधां वक्तव्यतामिच्छति, स्वपरसमयवक्तव्यतानभ्युपगमे ऽन्यथाऽपि व्याख्येयमिति । सेयं स्वसमयवक्तव्यता । परसम, युक्तिमाह तत्थ णं जा सा' इत्यादि, तृतीयव्यक्तव्यताभेदे यवव्यता तु यस्यां परसमय आख्यायत इत्यादि, यथा सू याऽसौ स्वसमयवक्तव्यता गीयते सा स्वसमयं प्रविष्टा, को वकतावप्रथमाध्ययने
ऽर्थः ?, प्रथमे वक्रव्यताभेदे अन्तर्भूता इत्यर्थः । या तु परस" सन्ति पञ्च महम्भूया, इहमेगेसि आहिया।
मयवक्तव्यता सा परसमयं प्रविष्टा । इदमत्र हृदयम्-द्वितीय पुटवी भाऊ तेऊ (य), वाऊ आगासपञ्चमा ॥५॥ वक्तव्यताभेदे अन्तर्भाविता इत्यर्थः, ततश्चोभयरूपषएए पञ्च महन्भूया, तेम्भो एगो त्ति आहिया।
कव्यतायाः प्रस्तुतनयमतेऽसत्त्वात् द्विविधैव बनव्यता न मह तेसि विलासेख, विणासो होह देहिणो ॥२॥" इत्यादि, त्रिविधेति भावः । संग्रहस्तु सामान्यवादिनेगमान्तर्गअस्यच लोकद्वयस्य सूत्रवृत्तिकारलिखित एवायं भावा- तत्वेन विवक्षितत्वात् सूत्रगतिवैचित्र्यावा न पृथथापकेषां नास्तिकानां स्वकीयाप्तेन आहितान्याख्यातानि इह- गुप्त इति । त्रयः शब्दनयाः-शब्दसमभिरुवंभूताः लोके सन्ति-विद्यन्ते पञ्च समस्तलोके व्यापकत्वान्महाभूता- शुद्धतमत्वादेकां स्वसमयवक्तव्यतामिच्छन्ति, नास्ति परसनि तान्येवाह-पृथिवीत्यादि पञ्चभूतव्यतिरिक्तजीवनिषेधार्थ- मयवक्तव्यता इति मन्यन्ते,कस्मादित्याह-यस्मात्परसमयो माह-एए पंचे' त्यादि पतानि-अनन्तरोनानि पृथिव्यादानि नर्थः, इत्यादि । इत्थं चेह योजना कार्या-नास्ति परसमयवयानि पश महाभूतानि 'तेभ्य' इति तेभ्यः-कायाकारपरिण- क्रव्यता, परसमयस्यानर्थत्वादित्यादि, अनर्थत्वं परसमयस्य तेभ्यः एकः-भित्किञ्चिपो भूताव्यतिरिक्तः प्रात्मा भवति, नास्त्येवात्मेत्यनर्थप्रतिपादकत्वाद , आत्मनो नास्तित्वस्य नतु भूतव्यतिरिकः परलोकयायीत्येवं ते : प्राहिय ' ति चानर्थत्वमात्माभावे तत्प्रतिषेधानुपपत्तेः । उक्तं च-"जो चिश्रास्यातवन्तः। अथ तेषां भूतानां विनाशेन देहिनो-जी
तेइ सरीरे, नत्थि अहं स एव होइ जीवो त्ति । न हु जीवम्मि वस्य विनाशा भवति तदव्यतिरिकत्वादेवेत्येवं लोकायत- असंते, संसयउप्पायो अलो ॥१॥" इत्याद्यन्यदप्यभ्यूज़ भतप्रतिपादनपरत्वात् परसमयवक्तव्यतेयमुच्यते-- म् । अहेतुत्वं च परसमयस्य हेत्वाभासबलेन प्रवृत्तेः, यथा च्यायते इत्यादि । पदानां तु विभागः पूर्वोक्तानुसारेण स्वबु- नास्त्येवात्मा अत्यन्तानुपलब्धेः । हेत्वाभासश्चायं शानादेस्त
या कार्यः । सेयं परसमयवक्तव्यता । स्वसमयपरसमयवक्त- दुगुणस्योपलब्धेः, उक्तं च-"नाणाईण गुणाणं, अणुभवो व्यता पुनयत्र स्वसमयः परसमयश्च प्राख्यायते, यथा- होइ जंतुणो सत्ता । जह रूवाइगुणाण, उवलंभाश्रो घडाईणं " श्रागारमावसन्ता वा, धारणा वावि पब्वया । ॥१॥" इत्यादि प्रागेवोक्नमिति । असद्भावत्वं चैकान्तक्षणइमं दरिसणमावन्ना, सब्वदुक्खा विमुच्चई ॥१॥” इत्यादि , भासद्भूतार्थाभिधायकत्वाद् , एकान्तक्षणभङ्गादेश्वासद्भूतव्याख्या-आगारं-गृहं तत्राऽऽवसन्ता गृहस्था - त्वं युक्निविरोधात्तथाहि-" धम्माधम्मुवएसो , कयाकयं त्यर्थः, प्रारण्या वा-तापसादयः पब्वइय' त्ति प्रबजिताश्च- परभवाइगमणं च । सव्वा वि हु लोयठिन घडर एगंतरित्रशाक्यादयः इदम्-अस्मदीय मतमापन्ना-प्राश्रिताः सर्वदुः- णयम्मि ॥१॥" इत्यादि, अक्रियात्वं चैकान्तशून्यताप्रतिपाखेभ्यो विमुच्यन्त इत्येवं यदा साख्यादयः प्रतिपादयन्ति दनात् , सर्वशून्यतायां च क्रियावतोऽभावेन क्रियाया असंतदेयं परसमयवनाव्यता , यदा तु जैनास्तदा स्वस-| भवाद् , उक्त च-" सव्यं मुनि जयं, पडियनं जेहि तेऽवि
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वक्तव्यया
तव्वा । सुम्नाभिहाकिरिया, कतुरभावेण कह घडई ॥१॥" इत्यादि, उन्मार्गत्वं परस्परविरोधस्थारवाद्याकुलत्वात्, तथाहि - "न हिंस्यात्सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स धामिकः ॥१॥ स्वाद्यभिधाय पुनरपि पद सहस्राणि त्यन्ने पनांम यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिखिभिः ॥१॥" इत्यादि प्रतिपादयन्तीति अनुपदेशिकाभङ्गादिवादिनामद्दितेऽपि प्रवर्तकत्वात्तदुक्रम्- सर्वे - किमित्येतद् ज्ञात्वा को न प्रवर्तते । विषयादी विपाको मे, न भावीति विनिश्चयाद् ॥ १ ॥ इत्यादि, यतश्चैवं ततो " मिथ्यादर्शनम् इति तता मिथ्यादर्शनमिति कृत्वा नास्ति परसमययम्यतेति वर्तते, एवं सांख्यादिसमयानामप्यनर्थवादियोजना स्वबुद्धथा कार्येति । तस्मात्सव स्वसमयवक्रम्यतैय, लोके प्रसिद्धानपि परसमयान् स्यात्पदाननिर पेक्षतया दुर्नयत्वादसत्वेनैते नयाः प्रतिपद्यन्त इति भावः । स्यात्पदलाच्छ्नसापेक्षतायां तु स्वसमयचक्रव्यान्तर्भाव एव प्रोकं च महामतिना- “ नयास्तव स्यात्पदलाच्छताइमे, रसोपदिग्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ १॥" इत्यादि से वक्तव्यतेति निगमनम् । अनु० । व्य० प्रा० म० । नि० चू०| बच्चा - वार्ता - स्त्री० ।" र्तस्याऽधूर्त्तादौ " ॥ ८ । २ । ३० ॥ इति र्तस्य तो धूर्तादित्वात् पर्युदस्तः । प्रा० । न० । वृति - श्रए । आरोग्ये, निरामये, वृतिशीले च वि० दुर्गायाम्, कृषिक मणि, वृत्तौ, जनश्रुती, कालकर्तृके, भूतनाशने च । स्त्री० । अस्मिन् महामोहमये कटाहे सुनिता रात्रिदिनेन्धनेन । मार्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्ता ॥ १ ॥” इति भारतम् याच दिव्यगन्धानुभवे वार्ता गन्धवतिः वृतिशब्देन तान्त्रिक्या परिभाषया घ्राणेन्द्रियमुच्यते, वर्त्तमाने गन्धचिषये प्रयत इति कृत्या वृत्ती-प्राणेन्द्रिये भषा वार्तापत्प्रकर्णादिव्यो गन्धोऽनुभूयते । द्वा० २६ ३० । सूत्रवलन, तं० । वृत्तान्ते, दुरंतो य उच्चतो, बताय प उचि नामाई'। पाइ० ना० ६६ गाथा ।
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( ८३३) अभिधानराजेन्द्रः
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वकृत्रि० व्यायातरि विपा० २ ० १ ० वचार- देशी - गर्विते, दे० ना० वर्ग ४१ गाथा । बचि व्यक्ति श्री० मावे विशे० मेरे, मेरो विशेष इत्यनर्थान्तरम् । खा० १० ० ३ ० सामान्याश्रये वस्तुनि आ० म० १ अ० । सम्म० ।
वृत्ति - स्त्री० । वर्त्तने, स्था० ४ ठा० १ उ० | सूत्र० | उक्का-बी० अमिहितायाम्, "असमिया पीकता " सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ० ।
afi - स्त्री० । दशायाम्, भ० ८ श० ६ उ० ।
वत्तिम वर्तित - त्रि० । “र्त्तस्याधूर्त्तादौ” ॥ ८ । २ । ३० ॥ इति धूर्तादिपर्युदासान्न टः । प्रा० । पुञ्जीकृते, आव० ४ ० । धूस्पा स्थगित च । विशे० ।
वार्तिक २० । वृत्तेः सूत्रविवरणस्य व्याक्यानं भाष्यम् पा र्तिकम् । सूत्रविवरले, विशे० ।
२०६
बतित्र
अथ वार्तिकस्वरूपमाहवित्तीय वक्खाणं, वत्तियमिह सव्वपजवेहिं वा । विजीओ वा जाये, जम्मि वजह बताए सुते || १४२२|| वृतेः सूत्रविवरणस्य व्याख्यानं माप्यं वार्तिकमुच्यते । यथेदमेव विशेषावश्यकम् अथवा उ धरादेर्भगवतः सर्व पर्यायैर्यद् व्याख्यानं तद्वार्तिकम्। बुषी सूत्रविचरणाद्यदायातं सूत्रार्थानुकथनरूपं तद्वार्तिकम् - दिवा - यस्मिन्सूत्रे यथा वर्तते सूत्रस्यैवोपरि गुरुपारम्प येणायातं व्याख्यानं तद्वार्तिकमिति ।
एवं च सति यस्य संबन्धि व्याख्यानं वार्तिकमुच्यते,
तदाह
उकोसमसुयनागी, निच्छयम्रो वत्तियं वियाबाद। जोबा जुगप्पाखो, तभो व जो गियहए सम्बं ।। १४२३ ।। sragrance निश्चयनयमतेन सावद्वार्तिकं कर्तु विजानाति नान्यः । यो वा यस्मिन् युगे प्रधानो भद्रबाहुस्वाम्याविर्भवति, ततो वा युगप्रधानाद्यः स्थूलभद्रस्वाम्यादिः सर्वभूतं वृद्धाति स वार्तिकदिति । विशे भ्राष० । आ० म० । आ० चू० । पृ० । तं० ।
संप्रति मचान्तोपेतं वार्तिकद्वारमाह सामाइयस्स अत्यं पुण्यधर समचमो विमासेह | चउरो खलु मखसुया, बत्तीकरणम्मि आहरणे ॥ २०२ ॥ यः सामायिकस्यायं पूर्वधरधतुदेशपूर्वधारी सन् समस्तम इति पादपूरणे विभाषते यतः परं किमपि न पम्यमस्ति स व्यतिकरो वार्त्तिककर इत्येकार्थ:, तस्मिथ व्यक्तिकरणे चत्वा रः खलु मखपुत्रा श्राहरणानि । तान्येवादफलमिकेगे होहिं विइओ तइओ य वाइयत्थेखं । तिनि विभबभरा, तिगजोगचउत्थ मरईय ॥ २०३ ॥ चत्वारो मयास्तेषामेका फलकं त्या हिरुडते न गाथा उच्चरति नापि वाचकमप्यर्थ भाषते स न किंचिज्ञमते, द्वितीयो न फलकं गृह्णाति केवलं गाथाः पठन् हिण्डते सोऽ पि न किचिह्नभते, तृतीयो न फलकं गृह्णाति न गाथा उच्चरति परं वाकमप्यर्थं भाषते सोऽपि न किंचिज्ञमते चतुर्थ फलकं गृहीत्वा गाथा: परंथ तासामधे व भाषमाको हि रडते व सर्वत्र लभते । प्राधात्रय कुटुम्बाभरातु योगे त्रियोगसंप्रयुक्तः कुम्भः परान्तः
यः व्यक्तावपि चत्वारो भङ्गा एकस्य सूत्रमायाति मार्च, द्विती यस्यार्थो न सूत्रम् तृतीयस्य सूत्रमध्यायाति प स्य न सू नाप्यर्थः अत्र द्रावाची चतुर्थधाम पुरुषयत् न मोक्षलक्षणस्य कार्यप्रसाधकाः, - धेमकृवत् आत्मनो मोशनसाधकः ।
मह संप्रति कीदृशो व्यक्तिकारक इत्यत आहजे जम्मि युगे पवरा, तेसि सगासम्मि जेब उग्गहिनं । परिवाडीण पमाणं, वुच्छं विचीकरो स खलु ॥२०४॥ ये यस्मिन् युगे प्रवरा:- प्रधानायां सका-समीपे येन महा-धारणासमर्थेनागृहीतं कतिभिः परिपाटीभिरित्यत
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(८३४) बत्तिम अभिधानराजेन्द्रः।
वत्थ प्राह परिपाटीनां परिमाणमग्रे वक्ष्ये स खलु तदा व्यक्तिकरः। धो निक्षेपः, तत्र द्रव्यपात्रमेफेन्द्रियादिनिष्पन्नम् , भावपात्र पृ०१ उ०१ प्रक।
साधुरेव गुणधारीति । श्राचा०२ श्रु०१चू०५१०१ उ०। वत्तिभयर-वार्तिककर-पुं । प्रज्ञातिशयवत्तया व्याख्यानाद
अथ भूयोऽपि परः प्रेरयतिधिकं भाषमाणे, विशे।
किं लक्खणेण अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाणं । व्यतिकर-पुं०। निरवशेषैरपि व्याख्याप्रकारैर्व्याख्येयप्रति
लक्मणमिच्छंति गिही, धणधन्ने कोसपरिवुड्डी ।।२७६।। पाएनकृति, विशे।
अस्माकं सर्वस्माद्धनधान्याद्यभावात्तत्परिग्रहानिवृत्तानां वचिणी-वर्तिनी-स्त्री० । मागें, “ मग्गो पंथो सरणी श्रद्धाणं
पापात्प्राणातिपातादिनिवृत्तानां किं वस्त्रादिलक्षणेनाम्वेषिपत्तिषी पहो पयवी" पाइ० ना. ५२ गाथा ।
तेन किञ्चिदित्यर्थः, ये तु गृहिणः सारम्भाः संपरिप्रहास्ते म बत्तिपइट्टा-व्यक्तिप्रतिष्ठा-स्त्री० । यस्तीर्थकृयदा किल तस्थ धनधान्याद्यभावान किमपि वृद्धि प्रापणीयमश्नुवन्ति । तदाघेति समयविद इत्युक्तलक्षणे वर्तमानतीर्थकरप्रतिष्ठाप
परस्याभिप्रायं सूरिराहने, जी० प्रतिषो ।
लक्खणहीणो उवही, उवहणती णाणदंसणचरित्ते । बत्तिय-पतित-त्रि० । वृतीभूते, " तए णं साली पत्तिया तम्हा लक्खणजुत्तो, गच्छे दमए दिद्रुतो ॥ २७७ ॥ वत्तिया गाम्भया पणू प्रा" 'वत्तिय'त्ति ब्रीहीणां पत्राणि लक्षणैः-प्रशस्तवर्मसंस्थानादिभिहीन उपधिः साधूनां शा. मध्यशलाकापरिवेष्टनेन नालरूपतया वृतानि भवन्ति, नदर्शनचाारत्राण्युपहन्ति, तस्माल्लक्षणयुक्तोऽसौ धारयिनवृत्ततया जातवृत्तत्वाद् वर्तिताः, शाखादीनां वा समतया | नव्यः, तेन हि धार्यमाणेन गच्छे महती ज्ञानादिस्फीतिरुपवृत्तीभूताः सन्तो वर्तिता अभिधीयन्ते । शा०१७०७ १०। जायते । तथा चात्र द्रमकेण रष्टान्तः । वृ० ३ उ० । (पुंसां वत्तियामय-वार्तिकामृत-न० । स्वनामख्याते अध्यात्मग्रन्थे- वनस्यं स्त्रीणां च वस्त्रत्रयं विना देवपूजादि न कल्पते इति वित्तात्पुत्रः प्रियापुत्रा-त्पिण्डाः पिण्डात्तथेन्द्रियम्।इन्द्रियेभ्यः
'चेश्य' शब्दे तृतीयभागे १२७६ पृष्ठे गतम् ।) परःप्रालः,प्राणादात्मा परः स्मृतः,"इति तत्रत्यं वचनम्।ती।
(२) वस्त्राणि जङ्गिकादीनिवत्ती-पेशी-सीनि, दे० ना० ७ वर्ग ३१ गाथा ।
कप्पति निग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा तो वत्थाधाबत्तुल-वर्तुल-त्रि० । वृते, स्था० ४ ठा०२ उ० ।
रित्तए वा परिहरित्तते वा, तं जहा-जंगिते भमिते खोबनेंत-वर्तयत-त्रि० । लक्षणतां नयति, भ०८ श०७ उ०।। मिते । (सू०- १७०४) स्था० ३ ठा० ३ उ०। वत्थ-बस-न० । दये ,। " हारविराइयरायवत्था" | कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा पत्र वत्थाई धारिहारेण विराजमानेन, रचितं-शोभितं वक्षो यस्य स हारवि- | त्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-जंगिए भङ्गिए साणए राजमानरचितवक्षाः । रा०
पोत्तिए तिरीडपट्टए णामं पंचमए । (सू०४४६) स्था० वख-न० । वस्तेऽनेनेति वस्त्रम् । वाससि, स्था० ६ ठा३ उ०। साटकादौ, उत्त० २ ०। चीनांशुकादौ, सूत्र. १ श्रु०३
५ ठा० ३ उ०। अ०२ उ० प्रा०म० अम्बरे, सूत्र. १ श्रु०४०२ उ०।
अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह" बत्थगन्धमलंकारो इत्थीओ सयणाणि य" अनु० । दशा |
उवगरणं वि य पगयं,तस्स विभागो उबितियचरिमम्मि। (१) एषणासमितिर्वस्नगता प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेना. पाहारो वा वुत्तो, इदाणि उपहिस्स अधिकारो।। ६१॥ यातस्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि पूर्वस्त्रे तावदुपकरणमेव कृतम् , अतस्तस्योपकरणस्य भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽध्ययनार्थाधिकारो ववैषणाप्र- विभागो विशेषप्ररूपलं द्वितीयोद्देशकस्य चरमे-अन्तिमे तिपाद्येति, उद्देशार्थाधिकारदर्शनार्थे तु नियुक्तिकार आह- सूत्रद्वये क्रियने । अथवा-पूर्वस्तु सप्रपश्चमाहार-उलाः पढमे गहणं बीए, धरणं पगयं तु दबवत्थेणं । इदानी स्वस्मिन् सूत्रे उपधेरधिकारो यारश उपधिग्रहीतुं एमेव होइ पायं, भावे पायं तु गुणधारी ॥ ३१५ ॥
कल्पते तादृक् प्रतिपाद्यते इति भावः । प्रथमे उद्देशके वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिपादितः, द्वितीये तु
ताई विरूवरूवाइ, देति वत्थाणि ताणि वा घेत्तुं । धरणविधिरिति । नामनिष्पन्न तु निक्षेपे बस्लेषणेति , तत्र सेसे जतीण देशा, तत्थ इमे पंच कप्पंति ॥ २॥ वस्त्रस्य नामादिश्चतुर्विधो निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने पु- अथवा-तानि परिधानप्रावरणकम्बलादीनि-रूपाणि राणे । द्रव्यवत्र त्रिधा, तद्यथा-एकेन्द्रियनिष्पन्नं कासि- त्राणि यदा सागारिकप्राप्तिहारिकतया ददाति तदा गृहीकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्न चीनांशुकादि , पश्चेन्द्रियनिष्प त्वा पूज्यकलाचार्याविशेषाणि भक्कोहरितानि यतीनां दद्यात्, कम्बलरत्नााद । भाववस्त्र त्वष्टादशशीलासहस्राणीति । तत्र तेषु दीयमानेषु अमूनि पञ्च वस्त्राणि कल्पन्ते अनेन हतुव्यवस्रणाधिकारः , तदाह नियुक्तिकारः-'पगयं सम्बन्धेनायातस्यास्य (सू०४४६) व्याख्या कल्पते निम्रतु बब्बवत्थेणं' ति । वस्त्रस्येव पात्रस्यापि निक्षेप इति म- न्यानां वा निग्रंथीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि धारयितु वा भ्यमानोऽत्रैव पात्रस्यापि निक्षेपातिनिर्देशं नियुक्तिकारो गा. परिग्रहे धर्नु परिभोक्तुं तद्यथा- माः-प्रसास्तदवयवथापश्चा.नाह-'एवमेव' इति वस्त्रवत्पात्रस्यापि चतुर्वि
निष्पन्नत्वाजामिकम् ,सूत्रे प्राकृतत्वात् मकारलोपः । भङ्गा१-यमनुवादी ग्रन्थकारानुरोधात् ।
अतसी तन्मयं भातिकम् ,सनकसूत्रमय-सानकम् , पोतकम्
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यत्य
अभिधानराजेन्द्रः। कार्यासिकम् निगडो-वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कलक्षण | हिः परिभाग्यं चौर्णिकमभ्यन्तरं कुर्वन् परिभोगव्यत्यासं क. तनिष्पन्नं तिगडपट्टकं नाम पञ्चकम् । पप सूत्रसंक्षेपार्थः। । रोतिः तत्र चापद्यते मासिकं लघुकम् । अतः सौत्रिकमतः अथ विस्तरार्थ भाष्यकारो बिणिषुगह
प्रावृणुयात् औरिणकं तु बहिः, एष विधिपरिभोग उच्यते जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिदियं व पंचिंदी।
अथ विधीयमाने गुणानुपदर्शयतिएकेक पि य एत्तो, होति विभागेण गविहं ।। ६३ ॥ छप्पइयपणगरक्खा, भूसा उज्झायणा य परिहरिया। जङ्गमेभ्यो जातं जाङ्गिकम्, तत्पुनःविकलेन्द्रियनिष्पन्न पञ्चे- सीतत्ताणं च कतं, खोम्मिय अमितरेणं व ।। ६६ ।। न्द्रियं वा अनयोर्मध्ये एकैकमपि विभागेन विद्यमानमनेक
औणिके यन्तःपरिभुज्यमाने षट्पदिकाः संगच्छेरन् ततः विधं भवति ।
सौत्रिकमन्तः प्रावृण्वता षट्पदिका रक्षिता भवन्ति,ौर्णिक तद्यथा
चान्तः परिभुज्यमानं मलीमसं भवति, तत्र चपनकः पट्टे सुवन्नमलए, अंसुगचीणंसुके य विगलिंदी। संसज्यते, अतो विधिपरिभोगे पनकस्यापि रक्षा कता उप्लोट्टियमियलोमे, कुतवे किट्टेअ पंचिदी ॥ ६४ ॥ भवति, सौत्रिकेण च बहिः प्रावृतेन विभूषा न भवेत् , तथा 'पट्ट' ति पट्टस्त्रजम् ' सुवन' त्ति सुवर्मवीं सूत्रं केषां- |
वस्त्रमहर्निशमपि परिभुज्यमानं न मलीमसम्भवति, कचित् कमीणां भवति, तनिष्पन्नं सुवर्मसूत्रजम् , मलयो नाम
न्दली तु परिभुज्यमाना मलीमसा जायते, मलीमसतया देशस्तरसभव मलयजम् , अंशुकः-लक्षणपट्टः तनिष्पन्न
च दुर्गन्धा । अतो विधिपरिभोगे 'उज्झायणा' दुर्गन्धतः मंशुकम् , चीनांशुको नाम कोशिकरोमाणि तस्माद्यातं चीनां
साऽपि परिहता, सौत्रिककल्पगर्भया च कम्बलिकया प्राशुकम् , यद्वा-चीनो नाम अनपदस्ता लक्षणतरः पट्टस्त
वियमाणया शीतत्राणं कृतं स्यात्, एतेन कारणकलापेन स्माद्यातं चीनांशुकम् । एतानि विकलेन्द्रियनिष्पन्नानि । तथा
क्षौमिकं कासिकं वस्त्रमभ्यम्तरे प्रावरणीयम् । और्णिकम् , औष्टिकम् उष्ट्ररोमजं चेति प्रतीतानि । कुतपो
अथ कासिकं न प्राप्यते ततः किं कर्तव्यमित्याहजिरा किट्ट तेषामेवार्णा रोमादीनामवयवास्तनिष्पन्नं वस्त्र- कप्पासियस्स असती, वागयपट्टे य कोसिवारे य । मपि किहम् एतानि पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नानि द्रष्टव्यानि ।
असती य उमियस्स, वागतकोसेयपढे य ॥ ७० ॥ अथ भालिकादीनि चत्वार्यप्येकगाथया व्याचष्टे
कार्यासिकस्याभावे-वल्कजम् , तस्याभावे पट्टवलम्, अतसीवंसीमादिउ, भङ्गियं साणकं तु सणवक्के ।
तदप्राप्तौ कौशिकवनमपि प्रहीतव्यम् , अथौर्णिकं न पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरीडपट्टो॥६५॥ प्राप्यते तत औरिणकस्य स्थाने प्रथमं वल्कजम् , अतसीमयं वा 'सि' ति वंशकरीलस्य मध्यावन्नि- ततः-कौशेयम्, ततः पट्टमपि ग्राह्यम् , यद्वा-पट्टशनेपद्यते पट्टा एवमादिकं, भातिकम् यत्पुनः सनवृक्षवल्कात् नात्र तिरीटपत्रकमुच्यते । चशब्दादतसौवंशमयमपि ग्रहीजातं तसं सानकम् , 'पोतकं काफसमयम् , तिरीडवृक्षव- तव्यम्। स्काजातं तिरीडपट्टकम् ।
अथ प्रावरणे गणनाविधिमाहपञ्च परवेऊणं, पत्तेयं गेएहमाणसंतम्मि ।
ण उम्मियं पाउरते तु एकं, कप्पासिगा य दोलि उ, उमिय एको य परिभोगे ॥६६।। दोषी जतो खोम्मिय उलियं च । एवं पञ्च वस्त्राणि प्ररूप्य सम्प्रति ग्रहणविधिरभिधीयते दो सुत्ति अंतो बहि उप्लिती तो, प्रत्येकमेकैकस्य साधोः प्रयोग्याणि वस्त्राणि गृह्णतः सवि
दुगाहि अोली व बहिं परेशं ॥ ७१॥ यमाने लामे द्वौ कल्पौ कासिकौ , एकस्त्वौर्मिक
ौर्णिकं कल्पमेकं न प्रावृणुते अर्थादापत्रं सौत्रिकमपि इत्येवं यत्रः कल्पाः प्रहीतव्याः, परिभोगश्चामीषां
प्रावृणुयात् , यदा तु द्वौ कल्पौ प्रावृणोति तदा तौमिकमन्तः, वक्ष्यमाणविधिना विधातव्यः । यथा पुरातनगाथा।
द्वितीयं पुनरौर्णिकं बहिः प्रावृणुयात् । त्रिषु कल्पेषु प्रावरी. अथैनामेव विवृणोति
तुमिहेषु द्वौ सौत्रिकावन्तः एकं चौर्मिकं बहिः प्रावृणुयात्, एकोबि सोत्ति दुनी,तिमि विगेएिहज प्रोम्मिए लहो। अथोर्षिकान् यादीनपि प्रावरीतुमिच्छति, ततो त्रिप्रभृतपाउरमाणा चेवं, अंतो मज्झे व जति प्रोमि ॥ ६७॥ | योऽप्यौर्णिका बहिः सौत्रिकात्परतः प्रावरणीयाः । एक पोर्णिकः कल्पो, द्वौ वा सौत्रिको प्रत्येक ग्रहीतव्यो।
अथ वस्त्रग्रहणे विधिमाहअथ श्रीनपि कल्पते, सौत्रिकानौर्णिकान् वा गृह्णाति ततो पञ्चएहं वत्थाणं, परिवामिगए य होइ गहणं तु । मासलघु. प्रावृण्वन्नपि योकमौर्णिकं प्रावृणोति तत एवमेव उप्परिवाडीगहणे, पच्छित्ते मग्गणा होइ ।। ७२ ॥ मासलघु. अन्तश्च शरीरानन्तरितं मध्ये तावद् द्वयोः सौ- पश्चाना जङ्गिकादीनां वस्त्राणां परिपाट्या ग्रहणं कर्तव्यम् , त्रिकयोमध्ये भागे यद्यौर्णिकं प्रावृणोति सदापि मासलघु । परिपाटी नाम कार्पासकमौर्णिकं च, तदभावे वल्कजपट्टकाइदमेव भावयति
दिकमित्यादिरनन्तरोक्तःक्रमः, तमुल्लच्योत्परिपाटया प्रहणे अम्भितरं च बाहिं, बाहिं अभितरं करेमाणे।
प्रायश्चित्तस्य मार्गणा भवति, तद्यथा-जघन्यमुपधिमुत्परिपरिभोगविवञ्चासे, भावजई मासियं लहुयं ।। ६८॥ । पाटया गृह्णाति पञ्च रात्रिन्दिवानि, मध्यमे मासलघु उत्कृष्ट अभ्यन्तरपरिभोग्य सांत्रिकं कल्पं बहि कुर्वन् प्रावृण्वन् ब-। चतुर्गुरुकम् ।
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(८३६) भाभिधानराजेन्द्रः।
वस्थ एतदेव भावयते
प्राणार्थे धारयेत्रो द्वितीयमिति । यदपरमाचार्यादिकते असमकम्मस्त तुमप्पकम्म,भावेय तस्सावितुजं सकम्म विभर्ति तस्य स्वयं परिभोग न कुरुते । यः पुनर्बाह्यो दुर्बलो एवं अकाउं चउरोउ मासो,भवंति वत्थे परिवाडिहीणे७३ वृद्धो वा यावदल्पसंहननः स यथासमाधि धादिकपि तवनसीवनसन्धानादेरेकमपि परिकर्म यत्र न भवति,
धारयेविति, जिनकल्पिकस्तु यथाप्रतिक्षमेव धारयेत न तपथारुतम् । यस्य तु पशिका वा केवलं छेत्तव्या, सन्धानं
तत्रापवादोऽस्ति । या पुनर्निर्ग्रन्थी सा चतस्रः सहाटिका वा प्रयोःखएडयोर्षिधेयम् , बुननं वा कर्तव्यम् , तदल्पपरिक
धारयेत् , तद्यथा-एकां द्विहस्तपरिमाणां यां प्रतिभये तिमें । यत् बहुधा छिचमानं संघीयमानतयाप्रमाणप्राप्तं भवति,
छन्ती प्रावृणोति, वेत्रिहस्त-परिमाणे , तत्रैकामुज्ज्वलां यहा-बहुधा सीवितव्यम् , तहखं बहुकम्मोच्यते,तत्र प्रथम
भिक्षाकाले प्रावृणोति, अपरां बहिर्भूमिगमनावसर इति, यथारुतं मार्गयितव्यम्, तस्याभावे यत्सत्कर्म तस्याप्यभावे
तथा अपरांचतुर्हस्तविस्तरांसमवसरणादौ सर्वशरीरमच्छाबहुपरिकर्मकम् । अथैवंविधयोगमकृत्वा प्रथममेवाल्पपरिक
दिकां प्रावृणोति, तस्याश्च यथाकृताया अलाभे अथ पश्चा
देकमेकेन सा सीव्येदिति। प्राचा०२७०१ चू०५०१उ०। म यदुपरिकर्म वा गृण्हाति ततश्चत्वारो मासा लघवः। तुश
(३) सम्प्रति वनकल्पिकमभिधित्सुराहदो विशेषणे । तम्बम्धश्चायमर्थः-उत्कृष्टवस्त्रं यथाकृतादिविपर्यासग्रहखे चतुर्लघवः, मध्यमस्य विपर्यासे मासिकम् ,
नाम ठवणा वत्थं, दवे भावे य होइ नायव्वं ।। जघन्यस्य व्यत्यासे पञ्चकम् , एवं परिपाटीहीने यथोक्तग्रह- एसो खलु वत्थस्स उ, निक्खेवो चउविहो होइ ।६०६। लक्रमरहिते बसे गृहमाणे प्रायश्चित्तम् ।
वसं खलु चतुर्विधम् , तद्यथा-नामवस्त्रम् , स्थापनावअथ द्वितीयपदमाह
स्त्रम् , द्रव्यवतम् , भाववयं च । एष खलु बनस्य निक्षेभद्धाणमाईसु उ कारणेसुं,
पश्चतुर्विधो भवति । तत्र नामस्थापने प्रतीते। कुजा प्रलंभम्मि उ उक्कम पि ।
द्रव्यवतमाहगेलनमादीसु विवजियं वा,
दव्वे तिविहं एगि-दियविगलपचिदिएहि निष्फलं । ऽसती य कुजा खलु खुम्मियस्स ॥
सीलंगाई भावे, दब्बे पगयं तदवाए ॥६१०॥ अभ्या-विप्रकृष्टो मार्गस्तं प्रपन्नानां ततो वा निर्गतानां दुर्ल- द्रव्यवसं त्रिविधम् , तद्यथा-एकेन्द्रियनिष्पकं विकलेमें बलं भवेत् एवमादिषु कारणेषु वस्त्रस्यालाभे उत्क्रममपि न्द्रियनिष्प पश्चेन्द्रियनिष्पचे च । तत्रैकेन्द्रियनिष्पर्ण कार्पाकुर्यात् , यथाकृताविक्रमव्यत्यासेनापि गृहीयादिति भावः।। सिकादि विकलेन्द्रियनिष्पन्न कौशेयकादि, पशेन्द्रियनिष्पन्नतथा ग्लानत्वानात्मवशतादिषु कारणेषु विपर्ययमपि कुर्यात् । मौर्मिकौष्ट्रिकादि भावे-भाववनमष्टादशशीलासहस्राणि । अन्तः परिभोग्य बहिः परिभोग्यं वा अन्तः प्रावृणुयादिति अथ कान्यायशशीलासहस्राणीति ? उच्यतेभावः । शौमिकस्य वा कल्पस्याभाव खल्वेकमप्यौरिणकं प्रा. करणे जोगे सहा-दियभोमादिसमणधम्मे य । वृणुयात् । ०२ उ० । पं०भा०। पं० चू०।।
सीलंगसहस्साणं, एता उ भवे समुप्पत्ती। से भिक्ख वा भिक्खुणीवा अभिकंखेजा वत्थं एसित्त- अस्या अक्षरगमनिका-करणं त्रिविधम् ,तद्यथा-करणम्,का. ए, से जं पुल वत्थं जाणजा, तं जहा-जंगियं वा भंगियं
रापणम्,अनुमोदनं च।त्रिविधो योगो-मनोयोगो, वाग्योगः,
काययोगच । संज्ञाश्चतस्रः, तद्यथा-आहारसंशा भयसंझा, वा साणियं वा पोसयं वा खोमियं वा तूलकडं वा, तह- मैथुनसंक्षा, परिग्रहसंज्ञा च । इन्द्रियाणि पश्च, तपथा-श्रोप्पगारं वत्थं वा जे लिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पाय- प्रेन्द्रियम् , चचुरिन्द्रियम्, प्राणेन्द्रियम्, जिडेन्द्रियम् , स्पके थिरसंघयले से एगं वत्यं धारेजा,खो पितियं । जा गि
शंनेन्द्रियम् । भोमादी ति भौमः-पृथिवीकायविषयसमारम्भः ग्गंधी सा चत्तारि संघाडीमो धारेजा। एगं दुहत्थवित्थारं,
मादिशब्दाद्-अकायसमारम्भः तेजस्कायसमारम्भः वायु
कायसमारम्भः द्वीन्द्रियसमारम्भस्त्रीन्द्रियसमारम्भश्चतुरिदो तिहत्यवित्वारामो, एगं चउहत्थवित्थारं, तहप्पगारेहि
न्द्रियसमारम्भः पश्शेन्द्रियसमारम्भो जीवकायसमारम्भय । वत्वेहिं असंघिजमायेहिं । मह पच्छा एगमेगं संसीविजा।। श्रमणधर्मोऽपि दशधा शान्तिमार्दवमार्जवमलोभतातपःसत्य(सू०-१४१)
संयमस्त्यागोऽकिश्चनता ब्रह्मचर्यचाएतैःस्थानरावशानां शी स भिचुरभिकानमन्बेष्टुं तत्र यत् पुनरेवंभूतं वलं जा- लागसहस्राणामुत्पत्तिस्तद्यथा-"न करो सयं साह, मणसा नीयातयथा-'जंगिय' ति जनमोष्ट्राचूर्णानिष्पन्नम् , तथा| आहारसन्नउवउत्तो। सोदियसंषरणो, पुढविजिए खति स. 'भडिय'ति मानाभरिकविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नम् , त- म्पनो॥१॥न करो सय साहू,मणसा आहारसबउवउत्तो। सो था- सायं' तिशणवल्कलनिष्पन्नम्,'पोत्तगं' ति ताज्या-1 इंदियसंघरणो,पुढविजिए महवपवताश" एवं तावद्वक्तव्यं यादिपत्रसरातनिष्पत्रम्, 'खोमियं' ति कार्यासिकम् 'तूलक- बदशम्यां गाथायां बंभचेरगए' इति,एते दशमलापृथिवीका
'ति अर्कावितूलनिष्पत्रम् , एवं तथाप्रकारमन्यदपि वां यसमारम्भपरिहारेण लब्धाः। एवमकायादिपरिहारेणापि प्रधारयेदित्युत्तरेल संबन्धः। येन साधुना यावन्ति धारणीया- त्येकं दश दश लभ्यन्ते इति सकलनया जातं शतम् । एतब नि तदर्शयति-तत्र यस्तहलो निन्थः -साधुयाँवने वर्तते। श्रोत्रेन्द्रियेण लब्धमेवं शेषेरपि इन्द्रियैः प्रत्येकं शतं लबलवान-समर्थः अल्पातक-अरोगी स्थिरसंहनना-ढकायः भ्यते, इति जातानि पक्ष शतानि । एतानि चाहारसंक्षोपयुहतिय, स एवंभूतः साधुरेकं बस्त्रम्-प्राचर म लब्धानि, एवं शेषाभिरपि संहाभिः प्रत्येकं पञ्चशता
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( ८३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पत्थ
नीति सर्वसंयया जाते है सह एते च न करोतीत्यनेन पदेन एवम् न कारवेद' इत्यनेन 'नो मच' इत्य मेन च प्रत्येकं लभ्येते इति सर्वमीलने जातानि पर स हस्राणि तानि सम्धानि मनोयोगेन एवं वान्यागेन काययोगेनापीति सर्वसंख्यया जातान्यष्टादशसहस्राणि । एते रष्टादशभिः शीलासहर्नित्यमावृताः साधवोऽवतिष्ठन्ते । तत पतानि भाववस्त्रम् । 'दब्वे पगर' मित्यादि अत्र द्रव्यवणाधिकारी यतस्तत् व्यय तय-भावयखाय भव ति भाववस्त्रस्योपग्रहं करोतीत्यर्थः ।
( ४ ) ततः प्रकृतमत्र द्रव्यवप्रेणपुणरवि दव्त्रे तिविहं, जहागं मज्झिमं च उक्कोसं । एक्केकं तत्थ तिहा, महाकडऽप्पं सपरिकम्मं ॥ ६११ ॥ यत् द्रव्यवत्वमेकेन्द्रियादिनिष्पन्नतया त्रिविधमुक्तं तत्पुनरपि प्रत्येकं त्रिधा, तद्यथा- जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । तत्र कार्पासिकम् - जघन्यम् - मुखपोत्तिकादि, मध्यमम्- पढलकादि, उत्कृष्टम् - कल्पादि एवं शेषे अपि कौशेयकादिके यथायोगं भावनीये । एतेषामेकैकं विधा- विप्रकारम्, तद्यथा यथाकृतमल्पपरिकर्म, सपरिकर्म च ।
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मुत्पादने यथोचिष्यकरणे प्रायवित्तमाहचाउम्मासुकोसे, मासियमज्ये व पश्च य जहन्ने । बोचत्थगहणकरणे, तत्थ वि सद्वारा पछि ।।६१२॥ उत्कटे-उत्पत्यविषये विपर्यस्तमये च विपर्यासेन ग्रहले प्रायश्चित्तं चतुर्मासाः, मध्यमे मासिकम् जघन्ये पञ्चरात्रिदिवानि । इयमत्र भावना - उत्कृष्टस्य यथाकृतस्य वखस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य विषये योगमकृत्वा यद्य रूपपरिक गृह्णाति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्ल या किल यथा योगे तेऽपि न लभ्यते तदाऽपपरिकर्म्म ग्रहीतव्यं नान्यदा न तु विपर्यय इत्युक्तरूपं प्रायश्चित्तम् । यधोत्कृष्मय सपरिकर्म्म गृह्णाति तदाऽपि चतुर्लघु अथ यथाकृतमुत्कृष्टं व कृतेऽपि योगेन तत उत्था पपरिकर्म्मणो मार्ग कर्त्तव्यमेव तत्करणाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वा सपरिकर्मोत्कृष्टं वस्त्रमाददानस्य चतुर्लघु एव मुत्कृष्टविषये त्रीणि चतुर्लघुकानि । तथा-मध्यमस्य वस्त्रस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति तदा मासलघु अथ सपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति त दाऽपि मासलघु यदा यथाकृतं न लभ्यते तदाल्पपरिकर्म मध्यमं याचनीयमिति वचनो यथाकृतेऽस्य योगे स्थालाभे अल्पपरिकर्मण उत्पादनाय निर्गतस्तस्य विषये योगमकृत्वा यदि सपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति तदाऽपि मासलघु एवं मध्यमविषये त्रीणि मासिकानि । तथा जघन्यस्य यः थाक्रेतस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमाया उपपरिकर्म अप गृह्णाति तदा रात्रिम अथ सपरिकर्म जघन्यमाददाति तदापि पञ्चकम्पनाऽनुयोगे कृतेऽपि यथाकृतं न सम्यते तदाऽल्पपरिक मार्गयितव्यमिति तस्योत्पादनाय निर्गतस्तद्विषये योगमकृत्वा सपरिकर्म गृह्णानस्थ पञ्चकमेव अन्यविषये प्रीति पञ्चकानि । एनन् प्रायधिसमधिल विषये योगाकर पोगे तु ते साभाभापन
२१०
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पत्थ तथा ग्रहणेऽपि दोषाभावः । तथाहि - यथाकृताय निर्गतस्तच योगे कृते ऽपि न लब्धं ततो ऽल्पपरिकर्मापि गृहन शुद्धः, अल्पपरिकर्मणो या नियंतस्थ योगे कृते उपयलम्यमानः समरिकमे गृह शुज, न केवलमेतत् विपर्यस्तप्रदले प्रायधिसं किं कृत्योत्कृष्टादिविपर्यस्तग्रहले खखानमपि तथा उन्हस्वस्थानमपि एस्योत्पादनाय निर्गतो मध्यम गृहाति मासिकम् अधम्य हाति रात्रिदिपञ्चकम् मध्यमस्य निर्गत उत्त चतुले अन्य गृहाति पञ्चकम् जघन्यस्य निर्गत उ हाति मासलघु सर्वत्र चाचादयो दोषाः । तदेवं ग्रहले प्रायविस्वस्थानमुक्रम्। एवं करलेऽपि उत्कृष्टादिकरणेऽपि स्वस्थानप्रायश्चित्तमवसातव्यम् । तद्यथा उत्कृष्टं त्या सीयित्वा च मध्यमकं करोति मासलघु जघन्यं करोति रात्रिदिवपञ्चकम् । मध्यमं दिया सीचित्रो करोति रात्रिदिवपञ्चकम् जघन्यं सीमित्या दिया था उत्क करोति च मध्यमं करोति मासिकम् । यत एवं स्वस्थानं प्रायश्चित्तं ततो विपर्यस्तप्रहणकरणे न विधेये । पृ० १ ० १ प्रक० । साम्प्रतं वमकल्पिको भाग्यते, तथापि गाथाचतुश्यं श्रीमलयगिरिदेव व्याख्यातमितः प्रभृति विवियते । तत्र यदुक्रमनन्तरगाथायाम्“बोच्चत्थमहसकरणे तत्यपि सायप"िति । तदेव भावयतिजोगमकाउमहागडे, जो गिरहइ दोनि तेसु वा चरिमं । लहुगा उ तिमि मज्झम्मि मासिका अंतिमे पंच ॥ ६१३ ॥ योगम् - व्यापारमुद्यममकृत्वा यथाकृते यथाकृतषस्त्रविषयं साधुः हे अल्पपरिकर्मसपरिकर्मणी गृहाति तद्यथा - यथा कृतस्यार्थाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वा प्रथममेवाल्पपरिकमेसपरिकर्मणोयगमकृत्या प्रथममत एव तयोरल्पपरिकसपरिकर्मणोर्मध्ये चरमम्-अन्त्यं सपरिकर्माति तस्यैतेषु त्रिषु स्थानेषु उत्कृष्टमध्यम जघन्यान्यधिकृत्य यथाक्रमं प्रायश्चित्तम्, तद्यथा - उत्कृष्टे त्रिषु स्थानेषु त्रयश्चतुर्लघयः मध्यमे चीणि मासिकानि अन्तिमे जयन् त्रीणि पक्षरात्रिन्दियानि अत्र च भावना पूर्वगाथायां कृतेति न भूयो भाव्यते । उक्तं यथाकृतादिविपर्यासग्रहले प्रायश्चित्तम् ।
संप्रत्युत्कृष्टषये विपर्यासेन ग्रहणे व तदाहएगयरनिग्गओ वा, अनं गिरिहज तत्थ सङ्काणं । विनू सीविऊ जं कुराह तगं स जं चिंदे || ६ १४॥ जघन्यादीनामेकतरस्यार्थाय निर्गतो वाशन्दो वैपरीत्येस च प्रकारान्तरयोतने अन्यत् येन न प्रयोजनं तत् दीयासतः स्वस्थाने प्रायश्चित्तम् तद्यथा अकृस्य निर्गतो मध्यमं गृह्णाति मासिकम्, जयम्यं गृह्णाति पञ्चकम् मध्यमस्य निर्गतः उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् । जघन्यस्य निर्गतानि चतुर्लघु, मध्यमं एाति मासलघु । तथा श्रशाभङ्गादयश्च दोषाः । यसेन विवक्षितवस्त्रेण कार्य तस्यान्येनाप्रतिपूरणम् जघन्येन प्रयोजने समापति मध्यमो त्कृष्टयोर्गृह्यमाणयोरतिरिक्लोपकरणदोषस्तथोत्कृष्टादिकं छिवासा वा यम्मध्यमादिकं करोमि गर्न तम्रियवं प्रायश्चित्तम् । पुनछिनत्ति तनिप्पन्नम् । तथाहि उत्कृष्टं दिल्या मध्यमं करोति मामन करोति पक्षकम् । जघन्यं
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(३८) अभिधान राजेन्द्रः ।
वस्य
अभ्यमान वि सीवित्वा च उत्कृष्टं करोति-चतुर्लघु. जघन्यं करोति पञ्चकम् । जधन्यानि सीवित्वा उत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, मध्यमं करोति मासलघु इति । एवं यत्करोति तन्निष्यन्नमेव प्रायधिसमापद्यते न पुनः विद्यमानसीयमा नवत्यनिष्पक्षम् अन्येऽप्याकाङ्गाय दोषाः इष्टव्याः न घर विराधना विधा-संयमविराधना, आत्मविराधना च । संयमविराधना - वस्त्रे छिद्यमाने सीव्यमाने वा तद्गता षट्पदिकादविनाशमापयन्। श्रात्मविराधना-हतोपयातादिका तथा वायने सीम्यते वा तावत्सूत्रार्थपरि मन्थ इत्यादयो दोषा अभ्यूह्य वक्तयाः । यत एवं दोषजासमुपकते ततः करणाभावे ऐदनसीयनादि न कर्तव्य म् । कारले तु यतनया कुर्वाणः शुद्धः । बृ० १ ० १ प्रक० ।
(2) कियद्दूरंगवेलायां यस्य गन्तव्यम्सेभिक्स वा भिक्खुली वा परं भद्धजोवणमेराए बत्थपडियाr यो अभिसंधारिज्ज गमगाए । ( सू० - १४२ ) से भिक्खु वा भिक्खुसी वा से जं पुण असि पडि यार एवं साहम्मियं समुहिस्स पाखाई जहा पिंडेसखाए भाविपव्वं ॥ एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणि । बहवे साहम्मिणीओ बहवे समणमाहण० तहेव पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसखाए (०-१४३)
'से' इत्यादि समायोजनात् परतो गमनाय म मो न विदध्यादिति सूत्रद्वयमाधाकर्मिकोद्देशेन पिपायप्रेयमिति । श्राचा० २ ० १ ० ५ ० १ उ० । (६) अथ वस्त्रस्य गवेषणे कति प्रतिमा गच्छ्वासिनां कति निर्गतानामित्यत आहउदि पेहि अन्तर, उज्झिषधम्मे चउत्थए होइ । चउपडिमा गच्छजिण, दोएहम्गहभिग्गहायरं ।। ६१५ ।। इह यद्वत्रं गुरुसमक्षमुद्दिष्टं प्रतिज्ञातं यथा श्रमुकं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा श्रानेष्य तदेव गृहिभ्यो याचमानस्योद्दिष्टवस्त्रमिति प्रथमा तथा पेहि ति प्रेक्षाग्रालोकनम् तत्पुर सरं पाप तथाऽभिनये युगलं परिधाय प्रावृश्य च पुरातन स्थापयितुकामो न तावद्यापि स्थापयति इत्यत्रान्तरा - श्रपान्तराले यद्याच्यते तदन्तरावस्त्रम्, तथा उभि रितं परित्याग इत्यर्थः धर्मशापद्यपि “धर्मोपमेयोपमापुखखभावाचार धनत्यहिंसादौ-यायोपनिषदोरपीति वचनादनेप्यर्थेषु रुद्रः तथापीड प्रकृतत्वात् खभावार्थो इय्यः । तत उतमेव धर्मः स्वभायो यस्य तदुज्झितधर्म परित्यागार्हमित्यर्थः, एतश्च वखेपासून प्रमाध्यमेव चतुर्थकं यति पान स्रः प्रतिमाप्रतिपत्तयोः वस्त्रस्य ग्रहणप्रकारा इत्यर्थः । 'गच्छ' वि सूचकत्वात्सूत्रस्य वासनामेतायतत्रोऽपि भवन्ति, जिसे जिनकपिकानां यायी द्वयोरुपरितन:
मर्यादा ग्रह स्वीकार हो परिवेयनाथस्तनयोर्द्वयोरित्यर्थः । तत्राप्यतरस्वामभिग्रहः किमु भय ति यदा तृतीयस्यां न तदा चतुर्थ्याम्यान तदा तृतीयस्यामिति निशिगाथासमासार्थः ।
अथैनामेव विवृगोतिउद्दितिगगवरं, पेहा पुरा द एरिसं भगह। अनियत्यच्छुरिए, इतरऽवर्णितो उ तयार ।। ६१६ ।। उदिएं - गुरुसमक्षं प्रतिज्ञातं यत् जघन्यमभ्यमोत्तरस्य त्रिकस्यैकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियनिष्पन्नवस्त्रत्रिकस्य या एकतरं तदेव वाद सन्धान्यमानमुदितमिति भाविता प्रथमा प्रतिमा अथ द्वितीया भाव्यते 'पेदा पुल निशावनं यदि पुनरिदम् यथां कोऽपि साधुः कस्याप्यागारिक सत्कंदा भगतियारसमेत दृश्यते तादृशमिदं मे प्रयच्छेति भान् तदेव यखं हस्तान्तेन यत्
मिति द्वितीया प्रतिमा तृतीया भाव्यते तस्याथान्तरीयोत्तरीयारेल प्ररूपणा कर्तव्या, तथा-श्रीमदाचाराने द्वितीये तस्कन्धे प्रथमे अध्ययने प्रमोदेशके सूत्रमित्रम् - "महावरा तथा पडिमा से भाभ श्री वा से जं पुरा वत्थं जाणेजा, तं जहा- अंतरिज्जगं वा उत्तर "अथ किमिदमन्तरीयं किं वा उत्तरीय तेरी नाम निसर्ग परिधानमित्यर्थः, उत्तरीयं नाम प्रावरणं प्रच्छ्दपीत्यर्थः अथवा अन्तरीयं यायामस्तन वस्त्रमास्तीयते, उत्तरीयं पुनः यत्तदुपरि प्रस्तीते तस्मिन्नन्तरीयोत्तरीयधस्त्रयुगले - अन्यस्मिन्नभिनवे नियन्छति निवसिते परिहिते वृत्ते वा इत्यर्थे द्वितीयव्याख्याना पेक्षया शय्याया उपरि अरिय नि अस्ती इतरत् पुराणमन्तरायोत्तरीषयुगलम् अपनयतापवितुमना इत्यजान्तरा यम्माम्यते तदन्तराखमिति वृतीया प्रतिमा।
ダ
वत्थ
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संप्रति चतुर्थी व्याख्यानपति
दब्वाई उज्झिय दओ उ मूलं मए न घेतल्वं । दोहि पि भावनिसिद्धं, तमुधि मसो म।। ६१७॥ इह चतुर्थी प्रतिमा उज्झितधर्मवत्त्रं गवेषणीयं तच्चतुर्द्धा द्रव्योज्झितम्, आदिशब्दात्क्षेत्र कालभावोज्झित परिग्रहः। तत्र ज्योति यथा केनचिद्गारिका प्रतिज्ञातं मया स्थूलप खं न प्रहीतव्यम् अन्यदा तस्य तदेष केनापि वयस्थादिनोपढौकितम् स च ब्रूते-पर्याप्तमेतेन नाहं गृह्णामि, इतरोऽपि ब्रूते - ममाप्यलमेतेन नाहमात्मना दस पुनः स्वीकरोमि इत्येवंद्वाभ्यामपि दायकग्राहकाभ्यां भागतः परमातोऽपि स्पृएं परित्यक्रममुमिन देशकाले यदि जिनकल्पि कादिसाधुरसभाषितमन्वभाषितं वा समेत तदा इम्पोज्झितं ज्ञातव्यम् । इह चावभाषितं याचितम् अनवभाषितं वस्त्रं विना याचनेन स्वयमेव ताभ्यां प्रदत्तम् ।
"
अथ षोभितमाह
मुचिगं न भुंजे, उवणीयं तं च केणई तस्स । उन्हें कप्पडिया, सदेवहुवरथदेसे वा ।। ६१८ ॥ अमुवि अमुदेशो न भुजेन परिधा नप्रावरणौपभोगमानयामि, तथाऽज्ञानविषयमया न परिभोज्यमिति केचित्प्रतिज्ञा कृता भवेत् - थ कदाचित्तस्य 'तंत्र' त्ति चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्तदेवापनीतमुपढौकितं केनचित्ततः पूर्वोक्कनीत्या ताभ्यामुभाभ्यामपि परित्यक क्षेत्राधारविया -
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(८३९)
अभिधानराजेन्द्रः। व्यम्, 'जंतुझे कप्परिय'त्ति वाशब्दः प्रकारान्तरोपद-तेऽप्यनुग्रहोऽण्यस्माकमित्यभिधाय स्वामिप्रहपरिपालनाय र्शने । प्रकारान्तरेण क्षेत्रोज्झितं प्राप्यते इत्यर्थः । यद्वस्त्र- स्वयमेवोत्पादयन्ति । अथ न संप्रत्याभिग्रहिकाः ततः स यदि जातमुज्झेयुः-परित्यजेयुः कार्पटिकाः स्वदेशं प्रति व्यावृत्त्या यस्त्रार्थ साधुः स्वयमसमर्थः उत्पादयितुं ततोऽन्यं वसोगच्छन्तः स्वदेशाद्वा देशान्तरं प्रस्थिता अपान्तराले बहु- त्पादनसमर्थ गुरवो व्यापारयेयुः,यथा-वस्त्राणि गवेषयावापापामरण्यानी मत्वा किं तस्कराणां हेतोर्निरर्थकं वस्त्र- शब्दः पक्षान्तरद्योतने, अपिः संभावनायाम् । भारं वहाम इति कृत्वा यदुज्झन्ति, यद्वा-यहुबले-वन- तत्राभिप्रहिकेल व्यापारितेन वा केन विधिना वनामुत्पादपचुरे देशेऽन्यत् सुन्दरतरं वस्त्रं लब्ध्वा पुरातनं परिहरेयुः
यितव्यम् ! उच्यतेएतत्सर्वमपि क्षेत्रोज्झितम् ।
भिक्ख चिय हिंडंता, उप्पायंतऽसइ बिम-पढमासु । कालोज्झितमाह
एवं पि अलम्भंते, संघाडेकेकवावारे ।। ६२२ ॥ कासाइमाइ जं पु-व्वकालजोग्गं तदअहिं उऐह ।
सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी व कृत्वा भिक्षामेव हिण्डमाना होहि वि एस्सइ काले,मजोग्गयमणागयं उज्झे ॥६१३।।
यसमुत्पादयन्ति । अथ भिक्षामटन्तो न लभेरन् ततः-असकरायेण रक्का काषायी गन्धकषायिकेत्यर्थः, सा हि स्वभा
ति-अलाभे, द्वितीयस्यां पौरुष्यामर्थप्रहसं हापयित्वा तस्याबत एवातिशीतला प्रीष्म भरेऽपि सकलसंतापनिर्वापणी
मध्यभावे प्रथमायां सूत्रपौरुष्यामुत्पादयन्ति । अथैकः पशालेषु पठ्यते, यत उनम्-“सरसो चंदणपंको, अग्घह
र्यटन्न लभेत बहूनां वा साधूनामुत्पादनीयानि ततः कोसरसाइ गंधकासाई । पाइलिसिरीससमधिय-पियाई का.
विधिरित्याह-एवमेव सुत्रपौरुषीहापमेऽप्येकसंघाटकेनाले निदाहम्मि" प्राविग्रहणेत शीतकालोचितवस्त्रपरिग्रहः।
लभ्यमाने बहूनां चोत्पादयितव्ये संघाटकमेकैकं व्यापारयत्, ततश्च काषाय्यादिकं द्वयं बलं पूर्वस्मिन् ग्रीष्मादौ काले
तेऽपि तथैव याचन्ते भिक्खं चित्र हिंडता' इत्यादि । श्रयोग्यमुपयोगि तदन्यस्मिन् वर्षाकालादावुज्झत्-परित्यजेत् ।
थ तथापि न प्राप्नुयुस्ततो वृन्दसाध्यानि कार्याणीति वचइयमत्र भावना-गन्धकाषाय्यादिकं शीतवीर्यादिष्वपि भाव
नात् वृन्दन पर्यटन्ति। ना कार्या । अथ प्रकारान्तरेणैतदेवाह- होहि व' इत्यादि
प्राह च'भव' इत्यादि भविष्यति वा गन्धकाधायिकामेव एण्यति
आगामिनि काले वर्षादावयोग्यमित्यभिसंधायानागतं बर्षा-1 एवं पि अलब्भंते, मुत्तण गर्णित सेसगा हिंडे । कालादर्वागव उज्झेसदपि कालोज्झितम् ।
गुरुगमणे गुरुओह-मभियोगे सेहहीला य ॥६२३।। भावोज्झितमाह
एवमपि बहुभिः संघाटकैरप्पलभ्यमाने गनिमाचार्यमेकं लण अमवत्थे, पोराणि य ते उदेह अबस्स । मुक्त्या शेषाः सर्वेऽपि वृन्देन हिण्डन्ते,यदि गुरवः स्वयमेव सो विमनिच्छद ताई, भावुझियमेवमाईयं ॥६२०॥
पर्यटन्ति तदा तेषां गुरूणां गमने चत्वारो गुरुकाः 'ओहमि' कोऽपि कस्यापि पावें लम्ध्वा-प्राप्य अन्यान्यपि अभि
सि यदमी प्राचार्या अपि सन्त एवमितरभिचुवत्पर्यटन्ति --
नमेतेषामाचार्यकमपीदृशमेवेति महतां गुरूणामपभाजनामनवानि वस्खाणि ततः स पुराणानि अन्यस्य कस्यचिद्ददाति सोऽपि च तानि दीयमानानि जीरणनीति कृत्वा नेच्छति
वेत् । तथा काचिदविरतिका सर्वाङ्गीखलावण्यश्रियाऽलंकृत
माचार्यमवलोक्य मदनपरवशा सती 'अभियोग' ति कार्मणं तदेतत् भावं जीमतापर्यायमाश्रित्योज्झितं भावोज्झितमेव
कुर्यात्,अन्यतीथिका वा प्राचार्याणां प्रतापमसहमाना विषमादिकं ज्ञातव्यम् । तदेवं समर्थिता तुरीयाऽपि प्रतिमा । ग
प्रयोग प्रयुञ्जीरन् अवभाषितेषु शिष्याणामाचार्यविषया हीला च्छवासिनश्चतसृभिः प्रतिमाभिवलं गवेषयन्तीत्युक्तम् ।
स्यात्रा प्राचार्याणां लब्धीः स्वयमपि याचमानाः श्रीव(७) तत्र परः प्रश्नयति-कया समाचार्या ते गवेषयन्ति ? राण्यपि न लभन्ते यस्मादेते दोषास्तस्मादाचायन पर्यटनीयइति उच्यते
म् , शेषाः सर्वेऽपि पर्यटन्तिजं जस्स नत्थि वत्थं, सो उ निवेदेइ तं पवत्तिस्स। ।
. सब्वे वा गीयत्था, मीसा व जहन्न एकगीयत्यो। सो वि गुरूणं साहइ, निवेइ वावारए वाऽवि ॥६२१ ।। इकस्स वि असईए, करिति तो कप्पियं एवं ॥ २४॥ । तद्वर्षाकल्पान्ते कल्पादिकषायस्य साधो स्ति-न वि-|
| तेच वृन्देन पर्यटन्तः सर्वेऽपि गीतार्थाः केचनागीतार्थाः न चते वयं स तद्विवक्षितवस्त्राभावस्वरूपं निवेदयति प्र
प्राप्यन्ते तदा जघन्यत एको गीतार्थः सर्वेषामगीतार्थानावर्तिनः--प्रवर्तकाभिधानस्य तृतीयपदस्थगीतार्थस्य, स हि
मग्रणीभूय पर्यटति, अथ नास्त्याचार्य मुक्त्वा परः कोऽपि सकलस्यापि गच्छस्य चिन्तानियुक्तः, सर्वेऽपि साधवः स्वं
गीतार्थस्तत एकस्याऽपि गीतार्थस्याऽसत्यभावे यः प्रगल्भः स्वं प्रयोजनं तस्याग्रे निवेदयन्ति । ततः सोऽपि प्रवर्तको
सलब्धिकश्च तमेकं वस्लेषणामुत्सर्गापवादसहितां कथयिगुरूणामाचार्याणां 'साहइ' ति कथयति-विक्षपयतीत्यर्थः,
त्वा कल्पिकं कुर्वन्ति गुरव इति । यथा--भट्टारकाः ? नास्त्यमुकस्य साधोरमुकं वस्त्रमिति
अथ तैः केन विधिना गन्तव्यम् ? उच्यतेगच्छे चेयं सामाचारी यदुताभिग्रहिकाणामस्माभिः सकलस्यापि गच्छस्य वस्त्राणि वा पात्राणि वा पूरणीयानि,
आवस्स सोहिअखलं-त समगउस्सग्ग दंडग न भूमी । अपरेण वा येन प्रयोजनमिति प्रतिपन्नाभिग्रहाः । तेषामा- पुच्छा देवपलंभे,न किं पमाणं धुवं दाहि ॥ ६२५॥ चार्यो निवेदयति, यथा प्रायः ! नास्त्यमुकस्यामुकं वस्त्र। इह समयपरिभाषया कायिकी संक्षा व्युत्सर्जनमवश्यं कि
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यत इति व्युत्पत्तेरावश्यकमभिधीयते; तस्य शीधिः- शोधर्म कार्य बनाeामुत्पादमाय गतानां भविष्यति नवेति प्रथममेवाश्च शोधनीयमित्यर्थः
"
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(ede) अभिधानराजेन्द्रः ।
तपादयोः शिरसि पाल बचा न भवति तथोत्यातम्यम् । यज्ञा गुरुबचनमस्थलद्भिरषिकुषद्भिद
यम् सममिति सर्वैरपि समकमुत्यानं कर्तव्य व पुनरेके उत्थिताः प्रतीचन्ते अम्बेऽचाप्युपविष्टाः । अथवा समकं सर्वैरुपयोगसम्बन्धी कायोत्सर्गः कर्तव्यः, दण्डकाः कायोत्सर्गादारभ्य यावत्राद्यापि प्रथमलाभस्तावन भूमौ स्वापयितव्याः । अपरे पुनर्यावदावृस्य न प्रतिभयमागताः तावदिति । पृष्कृति शिष्यः किं निमित्तं कायोत्सर्ग कि यते किं देवताराधनार्थे यदसावाराधिता सती वस्त्राण्युत्यादयति, आहोभ्वित् तत्कायोत्सर्गप्रभावादेव यां भूयान् लाभो भूषादिति सामनिमित्तम् अत्र प्रत्युत्तर यति - 'न' लिन भवति तद्देवताराधननिमित्तं किंतूपयोगनिमित्तम्, उपयोजनमुपयोगश्चिन्ता विमर्श इत्यनर्थान्तरम् । स च गल्नाप्रमाणेन प्रमाप्रमाणेन यात्राखं महति को या याचितः सन् भूयमपश्यं दास्यति यो ज्ञायते निधितमेच दास्यति स एव प्रथमं वाच्यते ।
(८) अथ प्रथमं कायोत्सर्गः केमोत्सारणीयः १ इति उच्यते
रायो उस्सारे, तस्सऽसतोमो वि गीतो लद्वीभो । भगीतो वि सलद्धिश्रो, मग्गइ इअरे परिच्छंति ।। ६२६ ॥ यो राशिको रक्षाधिकः सोऽपि यदि सग्धिका स एव प्रथमं कार्योत्सर्गमुत्सारयति तस्य रक्षाधिकस्य सलग्धिकस्य असति — अभावे भवमोऽपि पर्यायलघुरपि गीताय यः सलब्धिकः स प्रथमं पारयति । अथ नारित गीतार्थः सलब्धिकस्तत आह-अगीतार्थोऽपि यः ससग्धिकः स प्रथमं पारयति स एव चात्वं कुर्वन्
मार्गयति इतरे गीतार्थः परीक्षन्ते किं कल्पतं न बेस्येचं पृष्ठतोलना पसाविधि विचारयन्तीत्यर्थः । (१) अन्तरीदित सामाचारीवैपरीत्यकरणे प्रायश्चित्तमाहउस्सग्गाई व्रित, खलंत सोमओ य लहुओ उ । उग्गमविष्परिणामो ओभावयसावगं न तभो ॥६२७|| उत्सर्गः - कायोत्सर्गस्वमादिं कृत्वा सर्वेषु पदेषु समाचारी चिनां कुर्यास्य लघुमासः प्रायश्चित्तम् तद्यथाकायोत्सव कुर्वन्ति आवश्यकं नोधयन्ति यमकसमकं कायोत्सर्गे न कुर्वन्ति, दण्डर्क भूमौ लगयन्ति, पृथक पृथक गुरूणामादेशं मार्गयन्ति, इच्छाकारेण संदिसहेति न सन्ति भावार्थाः 'लाभो 'चिन भगत, सा धवः ' किं गिरहामो सि न भणन्ति आचार्या ' जहगहिये पुण्यसादिति न भसंति, साधकः जस्स प जोगं भणन्ति एतेषु सर्वेषु असमाचारीनिष्पत्रं मा लघु आवश्यक न कुर्वन्ति, लघुरात्रिदिपञ्चकम्। च
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संत सि स्खलन्तः उत्तिष्ठन्ति गुरुवचनं वा स्थलयडि मासलपु। 'अलोस उनि अन्योन्यता प्रजन्ति न परस्परामा या तत्रापि लघुको मासः ஜுன்
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पत्थ
सामाचारी सम्पूर्ण कृत्वा यदि निर्गताः भावकमवभापन्ते मासल ये तस्मियभाष्यमाणे बहवो दोषास्तामेवाह' उन्गम' इत्यादि कोऽपि आपका साधुभिर्व याचितः । स चिन्तयति -अहो अमी महात्मानस्तावद्यत - स्वतः कारणं विना न पखाणि पाचन्ते न यान्ति मद्भाम्पसंमारप्रेरिता एव सन्तोषपोषितवपुषोऽपि मामिरर्थ पाचन्ते तत्प्रयच्छामि ययेष्यममीषाणि म म पुनरम्याम्यपि भविष्यन्तीति विभान्य सर्वापि हर्षप्रकर्षारूढः प्रदद्यात् । ततोऽभिनववस्त्रनिर्मापणक्रयलादिमोहमदोषा भवेयुः विपरिणामो या नयधर्मदुपासकस्य स्यात्, यथा हुं-ज्ञातमीषां श्रमणानां रहस्पम् य पतेषामुपासको भवति तमेवमेव वाचा जय न्तीति ततथा प्रतिपद्यते। पहा
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भ्राजना भवेत् । इयमत्र भावना-तस्य-भावकस्य कदाचिद्वखाणि न भवेयुः, तदा मिथ्यादृष्टयो अबीर- अहो अमीषां प्रतिबोधप्रसारः यदेतद्योग्यान्यप्येतदीयोपासका खाणि न संपाचन्ते । लोको वा यात्यतेषां स्वकी या अपि भावका न प्रयच्छन्ति तदाऽन्यः को नाम दास्यतीति ततः आपके नाचभाषेत ।
दाउं च उड्डरुस्से, फासुन्चरियं तु सेसयं देइ । भाविकुलमोभासण, नीखिर कस्ले व किं आसी। ६२८| स भावकी लोकलजपा तदानीं दत्वा च उस्से 'सि प्रद्वेषं यायात्, किमेतैरेतदपि न ज्ञातं भावकस्य यत् वादि स्वाधीनं तदयाचितमेव ददाति किं तेन याचितेन, अतः परं न गच्छामीषां सकाशमिति । यत एते दोषास्ततः श्रावकं नावभाषेतेति पूर्वगाथाया- अन्स्यपदेन संबन्धः । यस्मादुपासकस्यैषा सामाचारी यत्प्राशुकमेषणीयमुद्वरितमधिकं तत् स्वयमेषायाचितोऽपि निमन्य ददाति तेन तं मुक्या याम्यम्यानि भाषितानि साधुसंसर्गवासिता नि सम्यक्त्वाद्यम्युत्पन्नमतीनि यथा भइकाणि कुलानि तेष्वेव भापर्ण कर्त्तव्यम् । कथमिति चेदुष्यते तपः प्रमाणभूतः पुरुषस्तं स्वधर्म लाभवित्या मुते, धावक ! साधवस्तव सकाशमागताः सन्ति प्रयोजनमस्माकमीडशैर्वौरिति यदि पुनर्धम्ययं साच्यं ते जन्मजीवितमनम् - पात्राय वस्त्रपात्रादिदानमिति तद्गुणविकत्थनवस्त्रदानफलो कीर्तनादि करोति, तदा मासलघु । ततः स याच्यमान एवं ब्रूयात् श्रहो मे धन्यता यस्य गृहाङ्गणं जङ्गमा इव कल्पपादपा अमी भगवन्तः स्वपापचैः पवित्रितवन्तः इत्यभिधाय स्वयमन्येन वा गृहमध्याइखमानयेत् धानाययेद्वा तत्तस्मिन्नीहिति चानीते ते कस्तत्र किया श्रासीत् । उपलक्षणत्वात् किं भविष्यति । क च स्थापितमासीत् । यदि कस्यैतदिति न पृच्छन्ति तदा मासिकम् । बृ० १ ० १ प्रक। प्रति० ।
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(१०) सांप्रतं वस्त्रमसाभिग्रह विशेषमधिकृत्याहइपाई आपतसाई उचाइकम्म अहा भिक्खु जालेआ चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तर, तत्थ खलु इमा पडमा पडिमा से भिक्खु वा भिक्खुणी वा उहिसिय वत्थं जाएज्जा, तं जहा- जङ्गियं वा भङ्गियं वा सायं
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अभिधानराजेन्द्रः। चा पोच वा खोमियं वा तुलकर्म वा तहप्पगारं वत्थं | मुकेन वा युष्मदर्थमस्मद्गृहे स्थापितं यतः (से) तसयं वा संजाखेजा परो वा सं देना फासुयं एसणीय लाभे |
स्यामुकस्य गेहेन गृहीथ यूयमिति । अथ यदुकम्-'तुमसंते पडिग्गहेजा पढमा पडिमा । १ । प्रहावरा दोचा प
टुकयं' ति तत्र मूलगुणकृतं वा स्यादुत्तरगुणकृतं वा ।
अथ के मूलगुणाः ? के चोत्तरगुणाः १, इस्याहडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए वत्थं जाणेजा,
तणविणणसंजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पजलया। तं जहा-गाहावती वा जाव कम्मकरी वा से पुब्बामेव
गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरमए सुद्धो।।६३१॥ मालोएजा माउसो ति वा भगिणीति वा दाहिसि मे इह संयतार्थे वस्त्रनिष्पत्तिहेतोयत्तननं तानपरिकर्म षितएत्तो भयतरं वत्थं ?, तहप्पगारं वत्थं सयं वा शं जा
ननं च वितानपरिकर्म क्रियते एतैर्मूलगुणा मन्तव्याः,उत्तराशेजा परो वा से देजा • जाव फासुयं एसणीयं लाभे
उत्तरगुणरूपा आयतनता यस्त्रं निष्पनं सत्सालिका प्रा
प्यते उपलक्षणमिदं तेन यन्मोटयित्वा सलेपा प्रक्षिप्यते संते पडिग्गहेजा दोच्चा पडिमा ।२। महावरा तच्चा पडि- तदादयो धावनधूपनादयश्च वस्त्रस्योत्तरगुणा द्रष्टम्याः। पत्र मा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पण वत्थं जाणेजा, चतुर्भशी तननवितनने संयतार्थे, पायतनमपि संयतार्थम, तं जहा-अंतरिजगंवा उत्तरिञ्जगंवा तहप्पगारंवत्थं सयं वा रतननवितनने संयतार्थम् , अायतनं स्वार्थम्र, तननवितनने णं जाखेजा जाव पडिग्गहेजा तच्चा पडिमा ।३। महावरा
स्वार्थे आयतनं संयतार्थम् ३, तमनवितनने स्वार्थे आयतन
मपि स्वार्थम् ४ , अत्रायेषु गुरुका लघुकाश्च तपःकालाचउत्था पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उज्झियध
भ्यां विशेषिताः प्रायश्चित्तम् , तद्यथा-प्रथमे भने चत्वारो म्मियं बत्थं जाएजा जं च बहवे समणमाहणा - गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः, द्वितीयेऽपि चतुर्गुरुकाः, तिहिकिवणवणीमगा णावखंति तहप्पगारं उझियध-| तपसा गुरवः, कालेन लघवः, तृतीये चत्वारो लघुकाः, काम्मियं वत्थं स वा णं जाणेज्जा परो वा से देजा
लेन गुरवस्तपसा लघवः, चरमे-चतुर्थे भने योरपि मूफासुयं • जाव प्रडिग्गहेजा चउत्था पडिमा ।४। इयाणं
लोत्तरगुणयोः स्वार्थत्वात् शुद्धः। चउराहं प्रडिमा जहा पिंडेसणाए । (सू०-१४६४)
अथ प्रक्षेपकादयो दोषाः कथं भवेयुः १, इत्यत माह
समणे समणी सावग, साविगॉ संबंधि इडिमामाए। 'इचहयाई' इत्यादि इत्येतानि-पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वा
राया तेणे व वक्खेव, एम निक्खेवगं जाणे ।। ६३२ ॥ यतनान्यतिक्रम्याध भिक्षुश्चतसृभिः प्रतिमाभिर्वक्ष्यमाणैरभिप्रदविशेषेर्वस्त्रमन्बेष्टुं जानीयात् , तद्यथा-उद्दिष्ट-प्राक स.
षष्ठीसप्तम्योरथै प्रत्यभेदात् श्रमणस्य श्रमण्याः भावक
स्य श्राविकायाः संबन्धिन ऋद्धिमतो मामकसत्काया भालितं वस्त्रं यात्रिये, प्रथमा प्रतिमा १, तथा प्रेक्षितं-रएं
र्याया राक्षः स्तेनस्य च संबन्धी प्रक्षेपको भवति । प्रक्षेपणं प्र. सद वस्त्रं वाचिध्ये नापरमिति द्वितीया २, तथान्तरपरिभो.
क्षेपकः “ नाम्नि पुंसि धे" ति भावे एकप्रत्ययः, यथा - गेन उत्तराबपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तमायं वस्त्रं
रोचनम् अरोचक इत्यादि । निक्षेपकमप्येतेष्वेव च स्थानेषु प्रहोण्यामीति तृतीया ३ , तथा तदेवोत्सृष्टधार्मिमकं वस्त्रं
जानीयादिति संग्रहगाथासमासार्थः। माहीच्यामीति चतुर्थी प्रतिमेति ४। सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थः।
सांप्रतमेनामेव व्याख्यानयतिपास चनसणां प्रतिमानां शेषां विधिःपिण्डेषणावय इति । बाबा.२ श्रु०१० ५० १ उ०।।
लिंगत्थेसु प्रकप्पं, सावगनीएसु उग्गमासंका । (११) अय को दोणे योग परिपृच्छयते ?, उच्यते- इडि अपवेससाविग, इडिस्स च उग्गमासंका ॥६३३॥ कस्स तिपुग्छियम्मि, उग्पमपक्खेवयाइणो दोसा ।
एमेव मामगस्स वि, सड्डी मजा उ अमर्हि उवए ।
निवतप्पिडविवजी, मा होज तदाहडं तेले ॥६३४॥ किं मासिमुच्छियम्मि,पच्छाकम्म पवहणं च ।।६२६॥
ये भ्रमणभ्रमणीजना लिकमात्रधारिणस्ते उगमादिभिर्दोषैरकस्य सम्बन्धीत्येवमपृष्टे उद्गमदोषाः प्रक्षेपकादयश्च दोषा
शुखानि वस्त्राणि गृहन्ति । स्वयमेष वा तन्तुभवेयुः । मादिग्रहणानिक्षेपकपरिग्रहः। किमासीदित्यपृटेप
वायैर्वाययन्ति लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि सामिःशाकर्मदोषाः प्रबहनदोषो वा संभवेत् । एतयोत्तरत्र भाव
काश्च ते इति, तेषु लिघु अकल्पनीयमिति हेतोः यिम्यते।
साधवो न गृहन्ति, ततस्ते लिहस्थाः संविग्नामानिनः अथ कस्योति पृच्छायामविधीयमानायां कथमुद्गमदोषा
सन्तो वस्त्राण्यन्यन यथा भद्रककुलादौ प्रतिपयुः, यदि भवेयुः!, उच्यते
साधवो वस्त्राणि गवेषयेषुः तदा प्रवद्ध्वमिति कृत्वा, यकीस न नाहिह तुम्भे, तुम्भट्टकयं व कीयधोयाई ।
था भाषकेषु उपलक्षणत्वात् भाविकासु निजकेषु संबप्रमुएल व तुम्भहूं, ठवियं गेहे न गिरोहह से ॥६३०॥ धिषु भ्रातभगिनीत्यादिषु उगमदोषाशझ्या साधवो न गृकस्येदमिति पृष्टः कोऽपि यात्, कस्मानशास्यथ यूयम्!, हीयुरिति, तेऽपि तथैवान्यत्र स्थापयेयुः, प्रद्धिमतः मेष्ठिहास्यथैव, तथाप्यस्मान् पृच्छथ पृच्छतां च कथयामः, युण- सार्थवाहादेहे यतस्ततः प्रवेश लभ्यते तस्य पत्नी दर्थमेव कीसमेतइखम् । वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः यु. भाषिका सा भक्तिवणादन्यत्र प्रक्षिपेत् , यहा-स - पदार्थमेव क्रीतं धौतमादिग्रहणापितवासितादिग्रहः । अ- द्धिमान पापण्डिनां श्रमणानां वा पुण्यार्थ वस्त्राणि दद्यात् ,
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( ८४२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
वत्थ
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तेषु साधूनामुद्रमाशङ्का ततो निमन्त्रिता अपि न स्वी कुर्युः तेन सोऽपि दानश्रद्धालुस्तथैवान्यत्र प्रक्षिपेत् एवमेव ऋद्धिमत्प्रकारेचैव मामकस्यापि प्रान्तत्वेनेथीलुत्वेन वा कस्यापि स्वगृहे प्रवेश न ददातीत्येव स्व भार्या आभिरप्रेरिता सती तथैवान्यस्मिन् गृहे स्थापयेत् नृपो राजा सोऽप्यन्यत्र स्वपुरुषैः प्रसेपयेत् यतस्तस्य राज्ञः पिएइमाहारयखादिलक्ष वर्जितुं शीलं येषां ते पिण्डविचर्जिनः साधवः । किमुक्रं भवति-कोऽपि राजा स्वभावत एव एकः श्रावको वा ततः साधवो ऽत्यर्थमभ्यर्थिता अपि न कल्पते राजपिण्ड इति हेतोर्यदानन्ति तदा स यथा तथा पुण्यमुपार्जयामीति वि चिन्त्यान्यत्र वस्त्राणि स्थापयेत् । स्तेनस्यापि वस्त्रं न गुइन्ति मा भूत् तदाहतं तदीयं वस्त्रमिति ततः सोऽपि भद्रको ' मदीयं न स्वीकुर्वन्ती ' त्यन्यत्र प्रक्षिपेत् । उपसंहारमाह
एए उ अधिप्पते, अनहि संनिक्खिति समखडा । निक्खेव वि एवं छिन्नमछिनो उ काले || ६३५ || एते श्रमणादयोऽनन्तरोक्नकारणैरगृह्यमाणे वस्त्रेऽन्यस्मि - न भावितकुलादौ भ्रमयार्थ साधूनामर्थाच सान्नक्षिपन्ति इत्युक्तः प्रवेषकः । सम्मात निशेषकः प्ररूप्यते । अथ प्रक्षेपकनिक्षपकयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते - साधूनामेवार्थाय या वस्त्रस्य स्थापना स प्रक्षेपकः, यत्पुनः प्रथमं स्वार्थे निचिप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञाप्यते स निक्षेपकः । सो प्येवं प्रक्षेपकवद्दव्यः । इयमत्र भावना यथा प्रक्षेपकःश्र मणादिस्थानेषु भावितः तथा निक्षेपकोऽपि भावनीयः । यस्तु विशेषस्तं दर्शयति-दिन इत्यादि स निक्षेपकः कालेन छिनो वा स्यावा, हिश्रो नाम निद्वारितः यदि वर्ष देशान्तरं गताः सन्त एतावतः कालादर्वाग् न प्रत्यागच्छामः ततो युग्नाभिरमूनि यस्त्राणि भ्रमणेभ्यः प्रदातव्यानीति अनि पुनः प्रतिनिधतका लावणारहितः। । अत्र विधिमाह
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अगं कालमनागए, दिजह समास कप्पर छ । पुस समकालं कप्पर, वियगदोसा अई अम्मि ॥ ६३६ ॥ देशान्तरं जिगमिषुः कोऽपि कस्यापि गृहे किञ्चिद्रस्त्र जातनिक्षेप्तुकामो ब्रूते श्रमुकं विवक्षितं कालं मय्यनागते यूयं मदीयं वस्त्रं श्रयणेभ्यो दद्यात इत्य भिधाय निक्षेपकं निक्षिप्य गतोऽसी देशान्तरं मायातस्तावतः कालावधेः श्रर्वाक् ततः कल्पते तद्वस्त्रम् एवं विधिच्छिन्ने निक्षेप किं सर्वदैव नेत्याह- पूर्णस्यावधः समकाले कल्पते न परतः कुत इति ? आह-स्थापनेव । स्थापितकं तस्य दोषा अमीने विवक्षितकालावधी ि
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तु या प्रति तदा कल्पते । अथ साधुनिक्षिप्तयस्त्रविधिमाहसिवाकारणेहिं, पुणेऽईए मणुष्पनिक्खेवे । परिजेति ठपिंति व छति व से गए नाउं ॥ ६३७||
शिवम् व्यन्तरकृतोपद्रयविशेषः आदिग्रहणाद् अमौदर्यादिपरि रशियादिभिः कारणः पूती वा
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वत्थ काले मनोशाः - सांभोगिकास्तेषां निक्षेपके यद्वस्त्रजातं तत्परिभुञ्जते। इषमत्र भावना साम्भोमिकसाधुभिरशिवादिभिः कारणैर्देशान्तरं बजद्भिम्लांना दिप्रतिबन्धस्थितानां साधूनां समीपे जाते निक्षिप्तं तत् तीने काले धामनो वाणाम सर्वतो वास्तव्य साधवः परिभुञ्जते न तत्र कश्चित् स्थापनादिदोषः । श्रथ नास्ति वस्त्राणामसत्ता गृहीतानि वा ये प्रयोजनतस्तथैव स्थापयन्ति अथ ज्ञायते यथा ते ततोपि वयं सामान्यं देशं गता ततस्तान् गतान् ज्ञात्वा वडन्ति परिष्ठापयन्तीत्यर्थः । तदेवं कस्येति पृठे प्रक्षेपकादयोः सुनिर्णीता भवन्तीत्यावेदितम् ।
(१२) अथ कस्येति पृष्टे यो पारमाशङ्कावचनं ब्रूयात् तदेतदभधित्सुराहदमए दुर्भागे भट्टे, समय अ तेथए ।
न य नाम न वत्तव्वं, पुट्ठे रुट्ठे जहा वयसं ॥ ६३८ ॥ दमके- दरिद्रे दुर्भगेऽनिष्ठे भ्रष्टे राज्यच्युते 'समच्छ ति भावप्रधानत्वात् श्रमणशब्दस्य श्रामण्येन श्रमणवेषेण
आच्छादिते माईस्थ्यैस्तेनकेचौरे प्रथमं कस्येति पुऐ ततः स्वहृदयसमुत्थया शङ्कया रुष्ठे कषायिते तस्य समाधानविधानार्थं न च नाम न वक्तव्यं किं तु वक्रव्यमेव वचनस्थानतिक्रमेण यथापचनं यथायोगमाशङ्कापनोदकं वाक्यमित्यर्थः तच्च यथावसरं पुरस्ताद्वदयते ।
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तत्र प्रथमं द्रमकद्वारं विवृणोति - किं दमओ हं तं ते, दमगस्स वि किं मे चीवरा नत्थि । दमरण विकायच्यो, धम्मो मा परिसं पाये ॥ ६३६ ॥ कस्येति पृष्ठे कोऽपि ब्रूयात्-भदन्त ! भवद्भिः किमहं द्रमकः संभावितो येनैयं पृच्छत यज्ञा-पद्यप्यहं इमरुस्तथापि किं मे चीवराश्यपि न सन्ति किंतु सम्येव किच--इमके वापि धर्मः कर्त्तव्यः कुतः इत्याह--मा दारिद्रोपद्रवलक्षणं दुःखं भूयः प्राप्नुयामिति कृत्वा तस्य पुरतः साधुभिरभिधातव्यम् भद्र ! न वयं भवन्तं द्रमकं भणित्वा कस्येति पृच्छामः किन्तु सार्वशोऽस्माकमयमुपदेशः, यतः कदाचित्तव स्वजनमित्रादीनां सत्कमिदं भवेत्, यथा यस्य तथाविधस्याभावेऽपीतिकं कुर्युः, अमिन या वर संमूढः कीलीची अस्माकं तु तृतीयवताविचार:, यथा-भ्रमणादिभिः स्तेनपयेन्तैरिदमस्मदर्थे स्थापितं भवेदित्यादयो दोषाः कस्येति पृच्छया परिहर्तुं शक्यन्ते । इत्युक्ते यदि स भूयात् ममैवैतान्यस्येति तदा निर्दोष म त्या गृह्यते एवं दुर्भगादिष्वपि पदेषु यथायोगमुपयुज्य भावना कार्या ।
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दुर्भगद्वारमाहजइ रनो भञ्जा, व दुभगा दूभगो व जइ पइणो । किं दूभगा मि तुझ वि, वत्था वित्र दूभगा किं मे ॥ ६४०॥ दुभैगो यान्द्यहं राशो भार्याया या दुगो यस्त कि युष्माकमपि दुर्भगः, याद वा - काचिदविरतिका दात्रीतदा ब्रूयात् - यद्यहं पत्युदुर्भगा तत्कि युष्माकमपि दुभगा, वस्त्रापि वा किममुनि में दुर्भगाणि देव दीयमानान्यपि कस्य सत्कानीति पृच्छते ।
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वत्थ अभिधानराजेन्द्रः।
पत्थ अथ भ्रष्टभ्रमणच्छन्नद्वारद्वयमाह
स्तृतीयवेदोदयो भुक्तस्य हस्तात् गृहतां चत्वारो लघुकाः जइ रजानो भट्ठो, किं चीरेहिं पि पिच्छ एयाणि ।
श्राज्ञाभङ्गादय प्रान्मपरोभयसमुत्थाश्च दोषाःया धाबी सा
ऽभिधीयते,मा ते स्वामिकुलस्य स्वामिनो गृहस्य सत्कं भवेअच्छिमहं साभरगा, मा हिरेज त्ति पब्बइओ ॥६४१।।
त् । स्नुषां-वधू भणन्ति, यथा मध्यमा स्त्री भाणिता मा ते राजपदच्युतः प्राह-यद्यहं राज्याद्मएः तत् किं चीरे
पत्युर्देवरस्य वा सम्बन्धि भवेत् । भ्योऽपि, नैवेत्यर्थः । पश्यन-अवलोकयत एतानि मद्गृहे भूयांसि वासांसीति त्रुवन् हस्तसंज्ञया दर्शयति । श्रमणः पृ
दोण्हं पि अ जुयलाणं, जहारिहं पुच्छिऊण जइ बहुणो। कछनोऽथाह-सन्ति मम पार्श्व बहवः ' साभरग 'ति गिएहंति तो तेसिं, मुच्छा सुद्धे अणुभायं ॥ ६४६ ॥ देशीवचनम् , रूपकास्तेऽवमा राजकुलादिना हियेरन्नित्यह इह द्वे युगले नाम बालयुगलं वृद्धयुगलं च । बालप्रवजितः-शाक्यतापसपरिव्राजकाजीवकाख्यानां श्रमणा- युगलं बालो बालिकाः, वृद्धयुगलं वृद्धो वृद्धा वा तयोईयोनामन्यतमः संवृत्त इत्यर्थः ।
रपि युगलयोर्यथाहे-यथायोग्य स्वरूप पृष्ट्वा प्रत्ययिकपुरुषअथ स्तेनको यद् ब्रूयात् , तदाह
मुखेन च निश्चित्य यदि प्रभवस्ते बालादयस्ततो गृहन्ति अच्छि में घरे वि वत्था, नाहं वत्थाई साहु चोरेमि ।
तेषां हस्तात् । अथ न प्रभवस्तदा यत्पितृपुत्रादिप्रभुस्तस्य
समीपे यथाऽऽपृच्छय किं गृह्यतां न वेति तथा शुद्धं गृह्यतां सुदु मुणिअं व तुब्भे, किं पुच्छह किं च हं तेणो ।६४२।।
निर्विकल्पमित्यनुमत्या निःसन्दिग्धे कृते ग्रहणमनुज्ञातम् । सन्ति मे मम गृहे वस्त्राणि अत एव हे साधो नाहं वस्त्राणि
तूपति देते मा ते, कुसीलते तेसु तूरिए मा ते । चोरयामि, यद्वा सुष्ठु-शोभनं मुणितम्-परिक्षातं युष्माभिः,
एमेव भोगिसेवग, तेखा उ चउबिहो इणमो॥६४७॥ यथाऽहं स्तेनः! को नाम साधून मुक्त्वाऽपरो ज्ञास्यति,तदहं सत्यं स्तेनः, न पुनः साधूनामर्थाय चोरयामि । अथवा
तूर्यपतिनंटमहत्तरस्तास्मन् ददति भएयते, मा ते कुशीलयूयं किं पृच्छथ, यस्य वा तस्य वा भवतु यूयं गृहीत । यद्वा
वानां सत्कं भवेत् , तेषु कुशीलेषु ददत्सु मा युकिमहं स्तेनो येन यूयं कस्येति पृच्छथ । अत्रापि समाधानं
ष्माकं तूर्यिकस्य तूर्यपतेर्भवेत् , एवमेव-तूर्यपतिकुशोलेहप्राग्वत्।
प्रकारेणैव भोगिकसैवकयोरपि वाच्यम् , यदि सेवकोअथ कस्येति पृच्छति-प्रवृद्धामेव द्वारान्तरप्रतिपादि
ददाति तदा वक्तव्यम् , मा ते भोगिकस्य स्वामिनः स्वाधीनं
भवेत् । भोगिके दातरि वाच्यम् ,मा युष्माकं सेवकस्य सम्बकामिमां गाथामाह
न्धि भवतु । स्तेनखरूपमाह-स्तेनः पुनश्चतुर्विधोऽय वक्ष्यमाइत्थी-पुरिस-नपुंसग, धाई-मुण्हा य होइ बोधव्या ।
गलक्षणः। बाले अ वुड्डजुगले, तालायर-सावए तेणे ॥ ६४३ ॥
चातुर्विध्यमेवाहस्त्रीपुरुषनपुंसकधात्रीस्नुषा च भवति बोद्धव्या ततो बा- सग्गामपरग्गामे, सदेस परदेस होइ उड्डाप्रो । लयुगलं वृद्धयुगलं तालाभिश्चरन्तीति तालाचरा-नटाः मूलं छेत्रो छम्मा-समेव गुरुगा य चत्तारि ।। ६४८ ॥ सेवकः स्तेनश्च प्रतीतः, इति द्वारगाथासमासार्थः ।
यस्मिन् ग्रामे साधवः स्थिताः सन्ति स स्वग्रामस्तस्मिन् व्यासार्थ प्रतिद्वारं बिभणिषुराह
यः स्तैन्यं करोति स स्वप्रामस्तेनः, तदपेक्षया अपरस्मिन् तिविहित्थी थेरेहि, भणंति मा होज तुझ जायाणं । । प्रामे स्तैन्यं कुर्वन् परप्रामस्तेनः । स्वदेशे-विवक्षितसाधुमज्झिमया पइदेवर-कलं मा थेरभाईणं ॥ ६४४ ॥ | विहारविषयभूते विषये चौर्य कुर्वाणः स्वदेशस्तेनः, तदपेत्रिविधा स्त्री, तद्यथा-स्थविरा, मध्यमा , कन्या च। तत्र
क्षया अपरक देशे चौरिकां विदधानः परदेशस्तेनः । एतेषु स्थविरादिस्त्री भणन्ति-मा भूयाजातानां-पुत्राणां सत्कमिदं
गृह्णतामुडाहः प्रवचनलाघवं भवति, अहो मी लुग्धशिरोघस्त्रं तेन वयं कस्येति पृच्छामः इति योजना सर्वत्र कर्तव्या।
ममयस्तपस्विनो यदेवं स्तेनाहृतानि वस्त्राणि गृहानाः रामध्यमा भण्यन्ते-मा भूत्तष पतिदेवरयोः सत्कम् , कन्यां-कु
जविरुद्धमपि तथाऽपेक्षन्ते इति । तेषु प्रायश्चित्तभाह-मूलमि' मारी भणन्ति, मा भूत्तव स्थविरः-पिता भ्राता प्रतीतः
त्यादि स्वग्रामस्तेने गृह्णतां मूलम् , परप्रामस्तेने छेदः, स्वदेशतयोरिति ।
स्तेने षण्मासा गुरुकाः, परदशस्तेने चत्वारो गुरुकाः, यथाएमेव य पुरिसाण वि, पंडगपडिसेविसानि प्राणं ते ।
क्रमदूरतरमस्तैन्यदोषत्वादिति भावः। तदेवं व्याख्याता इत्थी
पुरिस' इत्यादिद्वारगाथा । तद्वयाख्याने च समर्थितं कस्येति सामियकुलस्स धाई,सुण्हं जह मज्झिमा इत्थी ॥६४५॥
पृच्छाद्वारम् । एवमेव च यथा स्त्रीणा तथा पुरुषाणामपि स्थविरमध्यमत
अथ किमासीदिति पृच्छाद्वारमाहरुणभेदस्त्रैविध्यं द्रष्टव्यम् । स्थविरपुरुषो भएयते, मा तव पुत्राणां कलत्रस्य वा सत्कं वस्त्रं भवेत् । मध्यमोऽभिधीयते,
एवं पुच्छा सुद्धे, किं आसि इमं तु जंतु परिभुत्तं । मा भूतव भ्रातृणां पत्न्या वा संबन्धि । तरुण उच्यते
किं होहिइ त्ति अह तं,कत्थासि अ पुच्छणे लहुगा।६४६। मा तब पितुर्मातु तृणांचास्वाधीनं भवेत् ,पराइको नपुंसकः एवं-अमुना प्रकारेण कस्येति पृच्छया शुद्ध निर्दोषे नि'पडिसेवि 'त्ति अकारप्रश्लेषादप्रतिसेवी तृतीयवेदोदय-1 गीत सति यत्परिभुक्तम् भुक्कपूर्व तत् पृच्छयते, किमिरहितोऽसंक्लिष्ट इत्यर्थः, तस्य ग्रहीतुं कल्पते । स चाभिधी-| दं वस्त्रमासीत् युष्माकं कीरशमुपयोगमागतवदित्यर्थः यते मा ते निजानां सम्बन्धिनामिदं वस्त्रं भवेत् यः पुन- यत्पुनरिह अपरिभुत तत्पृच्छयते, किमेतद्भविष्यतीति 'क
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वरच
स्थासि सि क पेटायां-मञ्जूषायामपरस्मिन् वा स्थाने इदमासीत्, तत्र यदि पेठायां किं पृथिव्यादिषु लकायेषु पेटा प्रतिष्ठिता अप्रतिष्ठिता वा, इत्याद्युपयुज्य वाच्यम्-कस्येदं किमासीत्, कुत्रासीत् किं भविष्यतीत्यप्रच्छने बतस्लामपि पृच्छानामकरणे प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः ।
( ८४४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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तत्र किमासीदिति पृष्ठे ते गृहस्था अभिदध्युःनिचनियंसण - मजल - धणुस्तवे रायदारिए चेव । सुतत्थजाणिएवं, चउपरियडे तो गहणं ।। ६५० ॥ नित्यनिवसनं - नित्योपभोग्यमेतदासीत् मज्जनकं नाम स्नानान्तरं यत्परिधीयते धौतवस्त्रमित्यर्थः तदासीत् । तथा क्षणः - प्रतिनियतः कौमुदीशक्रमहार्दिकः, उत्सव:पुनरनियतो नामकरणचूडाकरणपाणिग्रहणादिकः । अथवा-यत्र पकान्नविशेषः क्रियते स क्षणः, यत्र तु पक्काजं विनाऽपरो भक्तविशेषः स उत्सवः । क्षणे उत्सवे च परिभुज्यते यत्तत्क्षणोत्सविकं तद्वाऽऽसीत् । तथा राजामास्यमहतमादिभवनेषु गच्छद्भिर्यत् परिभुज्यते तद् राजारिकं तद्वाऽऽसीत् । तत्रैवमुक्ते सूत्रार्थशेन गीतार्थेन चतुर्की - नित्यनिवसनीयादीनां परिवर्तनानां वस्त्रयुगलानां समाहारचतुः परिवर्तनं यथा दृश्यं परिवर्तनमेकतरं वा वस्त्रं ददाति तारशे अन्यस्मिन् व्याप्रियमाणे सति ततो प्रडणं कर्तव्यम् । एतदेव भावयतिविश्वनियंसखियं ति य, अपस्सर पच्छकम्म बहखाई । अस्थि व हंते विप्पर, इयरफुसद्धो य गए ययी ॥ ६५१ ॥ यदि गृहस्थो ब्रूयात् नित्यनिवसनीयमिदमासीत् ततो यदि तस्यापरं नित्यनिवसनीयमस्ति ततः कल्पते, यतोऽ पश्चात्कर्मवहनादम्यस्य नित्यनिवसनीयस्यासत्यभावे यो दोषा भवन्ति, पश्चात् विवक्षितवस्त्रग्रहणानन्तरं कर्मानिववस्त्रस्य कारापण-पश्चात्कर्म, वहनं नाम-अव्याप्रियमासं वस्त्रं तङ्ग्रहमानकं क्रियते, आदिग्रहणात्- क्रीतकृतप्रामित्यादयो दोषाः, अतो यद्यपरं नित्यनिवसनीयमिति तदपि यदि वहमानं व्याप्रियमाणं तदा गृह्यात् । कुत इत्याह-इतरस्मिन् अवमाने स्पर्शनाधौतप्रक्षालनादयो दोषाः । इयमंत्र भावना--यद् वहमानं तस्योपभोगार्थमप्कायेनोपस्पर्शनं कुर्यात्, धावनं वा विदध्यात्, तस्य परिभोगप्रारम्भमुद्दिश्य प्रक्षालनं वा कुर्यात्, आदिग्रहणात्- धूपनवासना. दीनि वा विदधीत । यत एवं ततोऽन्यस्मिन् वहमाने प्रहीतव्यम् ।
अपरिभुक्तमधिकृत्य किमेतद् भविष्यतीति पृष्टः स ब्रूयात्-
होहि व नियंसखियं, असासइगहलपच्छकम्माई | त्थिन वेविउ गिरह, तहि तुलपवाहखा दोसा ।। ६५२ ॥ वाशब्दः परिभुक्ादपरिभुक्तस्य पक्षान्तरद्योतकः, भविव्यति नित्यनिवसनीयमेतदित्यभिहिते यद्यपरं तादृशं नास्ति ततोऽम्यस्य ताडशस्यासति प्रहले एव पश्चात्कर्मादयो दोषाः । अथास्त्यन्यत् तादृचं खतः कल्पते, तच यद्यपिवमानकं तथापि गृहाति, कुत इत्याह--तु
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वत्थ
स्तत्र प्रवहनादोषाः । किमुक्तं भवति-यदि साधवो गृहम्ति न गृह्णन्ति वा तथापि स गृहीतयोरपरिभुक्तवस्त्रयोरेकतरमात्मप्रयोगेणैव प्रवहयिष्यति ततः साधूनां गृहतामपि न कश्चिद्दोष इति ।
एमेव मणाई, पुच्छा सुद्धे तु सब्बो पेहा । मणिमाई दाइंति व असिद्ध सेहस्सुवादाणं ||६५३ ॥ एवमेव यथा नित्यनिवसनीयमभिहितं तथा मज्जनिकक्षणोत्सविकराजद्वारिकाण्यभिधातव्यानि यदा पृच्छया शुद्धमिति निर्धारितं तदा सर्वतः समन्तात् प्रेक्षेत-निभालयेत्, प्रेक्ष्यमाणे च यदि मत्यादिकं --मलिहिरण्यसुवर्णादिकं किञ्चिदर्थज्ञातमुपनिबद्धमुपलभ्यते तदा भरायन्ते गृहस्थाः । यथा-निरीक्षध्वं समन्तादपि वखमिदम्, यदि मिरीक्षमाणैस्तैः स्वयमेव दृष्टं तदा लष्टम्, नो चेत् ततः साधवो ' दाइंति' ति दर्शयन्ति इदं यौष्माकीणं किमप्युपनिवमस्ति । श्रहैवमभिधीयमाने कथमधिकरणे दोषो न भवतीत्युच्यते, अल्पीयानेवार्य दोषः, अशिष्टे-अकथिते पुनः शैक्षस्थावधावितुकामस्य तत् द्रव्यमुपादानं भवेत् गृहीतत्वात् प्रव्रजेदित्यर्थः श्रगारिलो वा महान्तमुद्दाहं कुर्युः, ver वत्रेण सार्द्ध स्तमितमस्मद्द्रव्यमेभिः भ्रमणैः, तत एवं प्रभूततरो दोषो मा भूदिति कथ्यते । उपसंहरन्नाह
एवं तु गविद्वे, भायरिया दिति जस्स जं नत्थि । समभागे कसु व, जह राइथिया भवे बीओ ||६ ५४ ॥ एवमुक्तप्रकारेणैव वस्त्रेषु गवेषितेषु यथासंभवं लब्धेषु च गुरूणां समीपमागम्य यथावदालोच्य वस्त्राणि विधिवद्दर्शयति, ततः आचार्या यस्य साधोर्यज्जघन्यं मध्यमम् उत्कृष्टं या वस्त्रं नास्ति तस्मै तद्ददतीति प्रथमः प्रकारः । पञ्चा द्वितीयसः समेषु - तुल्येषु भागेषु कृतेषु साधूनां संख्यामनुमाय प्रेमाशङ्कतया वस्त्रेषु विभष्विति भावः । वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतेन यथा रत्नाधिकः तस्मै प्रथमं दीयते इत्ययं भवेत् द्वितीयो दानप्रकारः, इत्युक्तौ वस्त्रकल्पिकः । पृ० १ ० १ प्रक० । नि०यू० । दर्श० । पं० भा० । पं० चू० ।
(१३) साम्प्रतमुत्तरगुणानधिकृत्याह
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से अ पु वत्थं जाणेजा असंजय भिक्खुपडियाए कीयं वा घोयं वा रतं वा घट्टं वा म वा संम सम्पधूमितं वा तहृप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं० जाव यो पडिग्गाहेआ ग्रह पुग एवं जायेजा पुरिसंतरकर्ड • जान पडिग्गाहेजा । (सू०-१४४ )
'से' इत्यादि, साधुप्रतिइया - साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन फीसधौतादिकं वस्त्रमपुरुषान्तरकृतं न प्रतिगृह्णीयात् पुरुषान्तरस्वीकृत तु गृह्णीयादिति पिण्डार्थः । श्राचा० २६० १ चू० ५ ० १ ३० । याज्ञावस्त्रं निमन्त्रणावस्त्रं वा याचेत इति । (" निग्गंथा णं च गाहाबरकुलं " ३९ इत्यादि सूत्रम्' उबहि ' शब्दे द्वितीयभागे १०७८ पृष्ठे सामान्यतो व्याख्यातम् । )
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- अभिधानराजेन्द्रः। अथ विस्तरार्थ विमणिपुराह
तदेव वस्त्रं मागयेत् , तदा राजकुलं गत्वा व्यवहारः कर्तव्य दुविहं च होइ बत्थं, जायगवत्थं निमंतणाए य । । इति द्वारगाथासमासार्थः। णिमँतणवत्वं उप्पं, जायसवस्थं तु वोच्छामि ॥६५॥
अथैनामेव विवरीषुराहद्विविधं भवति वसं याशावलम् , निमन्त्रणावस्त्रं च। तत्र वत्थम्मिनीणियम्मि, किंदलास अपुच्छिऊण जागेरहे। निमन्त्रखावां स्थाप्यम्, पयादभिधास्यतेइत्यर्थः, याश्चावलं अबस्स भोयगस्स व, संका घडिया णु किं पुन्चिा६५६। पुनः साम्प्रतमेव वक्ष्यामि।।
वस्त्रे भोगिन्या निष्काशिते सति यदि किमर्थ ददासीत्ययथाप्रतिक्षातमेव निर्वाहयति
पृष्ठे च गृह्णाति तदा भोक्रुस्तदीयस्यैव भर्तुः अन्यस्य था - नाम ठवणावत्थं, दबवत्थं च भाववत्थं च ।
शुरदेवरादेराशङ्का भवति, किं-मन्ये एतौ परस्परं पूर्वमेव घ. एसो खलु वत्थस्स, निक्खेवो चउविहो होइ ।।६५२॥ | टितौ यदेवं तूष्णीको दानग्रहणे कुरुतः । अथवा-किमेषा मैइत्यादिका-" एवं तु गविसु, आयरिया देति जस्स जं थुनार्थिनी भूत्वा वस्त्रमस्मै प्रयच्छति,ततो वैण्टलार्थिनीति । नत्थि। समभागेसु करसु व, जह राइणिया' भवे बीमो
मिच्छत्तं गच्छेजा, दिजंतं दद्द भाइयो तीसे । ॥३॥" इति पर्यन्ताः पदचत्वारिंशदाथाः पीठिकायां वस्त्र
वोच्छेयपदोसं वा, एगमणेगाण सो कुजा ॥ ६५७ ॥ कल्पिकद्वारे तथैवात्र द्रष्टव्याः।
तद्वस्त्रं दीयमानं रष्ट्वा तस्याः सम्बन्धी भोजको-भर्ता मिउपसंहरमाह
ध्यात्वं गच्छेद् वा यनिस्सारं प्रवचनममीषामित्यादिप्रतिएयं जायणवत्थं, भणियं एत्तो निमंतणं वोच्छं।
पन्नमिथ्यात्वश्च तस्य वा एकस्य साधोरनेकेषां वा साधूनां पच्छा दुगपरिसुद्धं, पुणरवि पुच्छेञ्जिमा मेरा ॥६५३॥
तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदं कुर्यात् . प्रद्वेचं वा गच्छेत् । पतद्याश्चावस्खं भणितम् ,इत ऊर्व निमन्त्रणावस्त्रं वक्ष्यामि,
एमेव पउच्छं-तो, इयम्मि तुसिणीयदाणगहणे तु । तच तथा-कस्यैतद्वस्त्रं किं वा नित्यनिवसनीयादिकमिदमा
महतरगादीकहिए, एगतरपदोसवोच्छेदो ॥ ६५८ ॥ सीदिति पूच्छाद्वयन परिशुद्धं भवति, तदा पुनरपि तृतीयया पृच्छया पृच्छत् । तत्र चेयं वक्ष्यमाणा मर्यादा-सामाचारी। मेहुणसंकमसंके, गुरुगा मूलं च वेटले लहुगा । तामेवाह
संकमसंके गुरुगा, सविसेसतरापउछम्मि ॥ ६५६ ॥ विउसग्गजोगसंघा-डए र नाइअकुले तिविहपुच्छा ।।
एवमेव योषिति देशान्तरगतेपि भोगिके दोषा वक्तव्याः, कस्स इमं किश्व इम, कस्स व कजे लहुगाणा।।६५४।।
तथा तेन-भोगिकेन देशान्तरं गच्छता ये महसरकाः स्था
पितास्तैरादिशब्दान्महत्तरिकया यक्षरिकया कर्मकरेण वा व्युत्सों नाम-उपयोगसंबन्धिकायोत्सर्गः, तं कृत्वा यस्य
तयोरविरतिकासंयतयोस्तूष्णीकदानग्रहणे दृष्टा भोगिकस्य च योग इति भणित्वा संघाटकेन भिक्षार्थ निर्गतस्ततो भो
पूर्वसमागतस्य कथितम् , ततश्च स एकतरस्य अविरतिकागिककुले उपलक्षणत्वादन्यत्रापि यथा प्रधाने कुले प्रविष्टः
याः संयतस्य वा उपरि प्रद्वेषं गच्छेत् , प्रद्विष्टश्चाविरतिका कयाचिदीश्वरया महता संभ्रमेण भक्तपानेन प्रतिलाभ्य व
संयतं वा हन्यानिष्काशयेद्वा.वनीयाद्वा, विमानयेद्वा, व्यवरण निमन्वितः, तत्र त्रिविधा पृच्छा प्रयोक्तव्या, तद्यथा-1
च्छेदमेकस्यानेकेषां वा कुर्यात् । अत्र मैथुनशङ्कायां चत्वारो कस्य सत्कमिदं वस्त्रम् , किं चेदमासीत्, अनेन पृच्छाद्वयन
गुरुकाः, निःशङ्किते मूलम् , वेण्टलशङ्कायां चत्वारो लघुशः, परिशुद्धं यथा भवति तथा प्रष्टव्यम् । कस्य वा कार्यस्य देतोः।
निःशङ्किते चत्वारो गुरवः, सविशेषतराश्च दोषाः प्रोषिते प्रयच्छसीति यद्येवं न पृच्छति ततश्चत्वारो लघवः, आशाव.
भोगिके भवन्ति । ते च यथास्थानं प्रागेवोशाः। यश्च दोषाः। तानभिधित्सुराह
एवं ता गेण्हते, गहिए दोसा पुणो इमे होति । मिच्छत्त सोच्च संका, विराहणा भोइए तहि गए वा । घरगयमुवस्सए वा, ओभासइ पुच्छए वाचि ॥ ६६० ।। चउत्थं च वेटलं व, वत्थगदाहणं च ववहारो ॥६५॥ एवं तावद् गृहतो दोषा उन्नाः, गृहीते पुनर्वस्त्रे पते वभोगिन्या दीयमानं वस्त्रं यदि केन कार्येण प्रयच्छसीति न क्ष्यमाणा दोषा भवन्ति, तस्मिन् गृहे यदा स एव साधुपृच्छयते तदा भोगिको मिथ्यात्वं गच्छेत् । अथासौ देशा- रन्यस्मिन् दिवसे गतो भवति, सा च अविरतिका तस्य न्तरं गतस्तत श्रागतश्च महत्तगदिमुखात् श्रुत्वा शङ्का भव- साधोरुपाश्रये भागता भवति. तदा मैथुनमवभाषते । छ मति. भोगिके तत्र स्थिते गते वा देशान्तरप्राप्ते पश्चादपेते मोदभ्रामको भवेः, वेण्टलं वा सा पृच्छति, कथय किमसति विराधना वक्ष्यमाणा भवति। सा वाऽविरतिका चतुर्थ पि तादृशं वशीकरणं येन भोगिको मे वशी भवति । या-मैथुनमवभाषेत, वैण्टलं-वशीकरणादिप्रायोग्यं पृच्छेत् .
इदमेव स्पष्टयतिततश्च वक्तव्यम वैण्ट लमहं न जानामि उपलक्षणवाच्चतुर्थ
पुच्छाहीणं गहियं, आगमणं पुच्छणा निमित्तस्स । च सवितु न कल्पते । ततो यदि सा वखं याचेत तदा दानं कर्तव्यं-भूयोऽपि तस्या एव तद्वखं समर्पणीयमिति भावः ।। छिम्म पि हुदायब्ध, ववहारा लब्भए तत्थ ॥६६१॥ अथ तद्वस्त्रं छिन्नं वा प्राघूर्णकादीनां दत्तं वा भवेत् , साव | ग्रहणकाले केन कार्येण मे प्रयच्छसीत्येवं पृच्छया हीनं वा
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(२४६) अभिधानराजेन्द्रः ।
बस्थ
वस्त्रं गृहीतम्, गृहीते च तस्याः संयतप्रतिश्रये श्रागमनम्, आगता च सा पुत्रो मे भविष्यति नवेत्यादिकं निमित्तं पृष्ठति, येन वा भोगिकस्थातिरुचिता भवामि तत्किमप्युपदिश। ततः साधुना वक्लव्यं न कल्पते मैथुनं प्रतिसेवितुं साधुना विर लं निमित्तं वा नाहं जानामि, एवमुक्ते यदि सा वस्त्रं भूयोऽपि मार्गयेत् ततः प्रतिदातव्यम् । अथ तेन वस्त्रेण द्वित्वा पात्रबन्धादिकं किमपि परं कृतं तमपि तदा दातव्यम् । अथ न छिनं गृह्णाति ब्रवीति च मम सकलमेव प्रयच्छ ततो राजकुलं मत्वा व्यवहारे प्रारब्धे कारणिका श्रभिधातव्याः । यथा केनचिद् वृक्षस्वामिना वृद्धो विक्रीतः रूपकेण च मूल्य दस्त्वा च स गृहं गतः, ततो विक्रयकः पश्चात्तापितो भणति प्रतिग्रहास मूल्यं प्रत्यय मी वृक्षम् ऋषिकः प्राह मया स वृशिक्षा पृथक काष्ठानि कृतः अथ कथं तमेव मम
म से समपयामि वयं विवदमानी ती राजकुलमुपस्थिती ततः कथयत कारणिकाः किस कविको युष्माभि पूर्ण दाप्यते अथवा काष्ठानि राप्यन्ते । ततः काष्ठाम्येय न पूर्वावस्थं वृक्षमिति व्यवहारो लभ्यते ।
पास एस की बहि होइ हयं व ड वा । तर्हि व अणुसङ्काई, अर्थ वा दमोत् ।। ६६२ ॥ अथ व प्राघूरणकेनान्येन वा साधुनाऽन्यत्र नीतं भवेत् स्तेनेन वा इतं प्रदीपनकेन वा दग्धम्, तत्र चानुशिष्ट्यादिकं कर्तव्यम्, अनुशिष्टिनम सद्भावकथनपुरस्सरप्रज्ञापना तथा ध्वनुपरतायां धर्मकथा कर्तव्या, विद्यया मन्त्रेण या निराक रणीया। तद्भावेऽन्यस्त्रं तस्या दातव्यम्। परिवर्ध वस् मुक्ता दग्धे हते वा न किंचिद्दीयते इति भावः । यदि साराजकुलमुपतिष्ठते ततस्तत्रापि व्यवहारो लभ्यते, दत्तादानम् नीश्वर इति । अथ दानकाले साधुना पृष्टं किं निमित्तं ददासि, तत्र सा तूष्णीका स्थिता न बहिश्चेष्टया तथाविधः कोड पि भाव उपदर्शितः परं ग्रहणानन्तरं काचिदुपाश्रयमागत्य बेल्टले पृच्छति चतुर्थमभाषते ।
तथा तत्राभिधातव्यम्
न विजाणामों निमित्तं न य में कप्पर पउंजिडं गिरियो । परदारदोसकहणं, तं मम माया य भगिणी य ॥ ६६३ ॥ वयं निमित्तं न जानीमः, न वाऽस्माकं जानतामपि गृहिखां पुरतो निमित्तं प्रयोक्तुं कल्पते, ततः संयमाविकृतिप्रसङ्गात् । या चतुर्थमवभाषते तस्याः परदारदोषकथनं क्रियते । यथा-परपुरुषपरदारप्रसक्योः स्त्रीपुंसयेोरिव भवेद्दण्डन भण्डन जनता इनादयः परभये नरकगती गतानां तथाऽयः पुत्तलिकालिङ्गमादाय तत उद्वृतानां तिर्यग्मनुय भवग्रहण भूयोऽाप नपुंसकत्वर्द्धाभाग्यप्रभृतयो वा ।
एकस्स व एकस्स व कन्जे दिज्जेत एडर्ड जो उ । ते चैव तत्थ दोसा, वालम्मि य भावसंबंधो ॥ ६६४ ॥ एकस्य वा पूर्वसम्बन्धस्य एकस्य वा - पश्चात्सम्बन्धस्य कार्ये दीयमानं वस्त्रं यः साधुद्धानि तस्य ते एव शङ्कादयः प्रागुक्ता दोषा वाले-वालविषये - भावसम्बन्धो वक्ष्यमाणो भवतीति समासार्थः ।
श्रथैनामेव गाथां विवृणोति - अह सा पुट्ठा पुथ्येव तत्थ बन्धेण वा सरिसमाह ।
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संकाइया उ तत्थ वि, कडगा य बहुमहिलियाणं ।। ६६५शा अथ-सादात्री पृष्टा सती पूर्वसंबन्धेन यारो मम भ्राता तादृश एव त्वं वर्तसे पश्चात्सम्बन्धेन तु श्वशुर इव भर्तृवसिद्धस्त्वं विलोक्यसे अतोऽई भवतो व त्या इयमभ्यन्तरेण सम्बन्धकार्येव दीयमानं यदि गृहाति तदा एवं शङ्कादयो दोषाः यदि तस्या अविरतिकाया था लमपत्यं किमपि विद्यते तदा स साधुस्तया सह सम्बन्धभावेन प्रतिपन्नः सन् चिन्तयति इदं मे भागिनेयम् । अथ भतया प्रतिपक्षस्ततचिन्तयति पदं मे पुत्रभाण्डम् एमादिको भावे बन्धो भवति, ततश्च प्रतिगमनादयो दोपाः। किच-महिलिकानां बहुभिक्षणकानि केतचानि भवन्ति तेन देवरादिग्रहयोपायेन सम्बन्धमानीय चारित्रात् परिभ्रंशयन्तीति भावः ।
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यत एवमतः
एयोसविमुकं, वत्थग्गहणं तु होइ कायन्त्रं ।
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खम उति दुब्बलो चिय, धम्मो ति य होति निहोस ६६६ एतैरनन्तरोदॉर्विमुपायं साधुना कम वति, कथमित्याह - ' खमउ ' त्ति इत्यादि, यदि सादाश्री पृष्टा सती ब्रूयात् क्षपकस्तपस्वी त्वम्, अथवा दुलोऽसि क्षपकतया स्वभावेन वा ततस्ते प्रयच्छामि, यतस्तपस्विने दीयमाने धर्मो भवतीति कृत्वा ददामि एवं ब्रुवति दायकेन तद्वखं लभ्यमानं निर्दोषं भवति । किश्च - आरम्भनियत्ताणं, अकिरांताणं अकारविंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं, गिहिदि धम्मे व कथमणाणं ।। ६६७॥ श्रारम्भः- चटकायमईस्तस्मान्निववृत्तानां तथा अक्रीणतांवस्त्रादिक्रयमकुर्वाणानाम् अकारयताम् - श्रारम्भक्रयकारणे परमव्यापारयताम् एवंविधानां धम्मै-धुतचारित्रमेदद्भिये कृतमनसां साधूनां गृहिभिः सर्वारम्भप्रवृतेर्धर्माय कुशलानुबन्धिपुरुषोपार्जनार्थ बखपाचादिकं यथायोग्यं वातव्यमिति बुद्ध्या यत्रोपासकादिर्वत्रेणोपनिमन्त्रयति तस्य ग्रहीतव्यमिति प्रक्रमः ।
तदेवं वस्त्रमुत्पन्नं यावद्गुरूणां समीपे न गम्यते तावकस्याव भवतीति । उच्यतेसंघrse पत्रि, रायणिए तह य ओमराइणिए । जं लब्भति पायोग्गं, राइणिए उग्गहो होइ ।। ६६८ ॥ उपयोगे कायोत्सर्ग कृत्वा भिक्षा संघाटकः प्रविष्टः तत्रैको गरिनको द्वितीयोऽयमगन्निकः । तत्र च यत् प्रायोग्यं संपादकेन लभ्यं तद्यावदाचार्यपादमूलेन सम्यते नासरानिकस्य ज्येष्ठार्यस्यावग्रहो भवति ज्येष्ठास्तस्य स्वामी इति भावः ।
अथ यदुक्तम् " कप्पर से सागारकडे गहा य दोपि उग्गहं अणुचना परिहारं परिहरिलयति तदेतत् । यथा केचिदाचार्यदेशीयाः स्वच्छन्दबुद्धया व्याचक्षते तथा प्रतिपादयति-
दोचं पि उग्गहो नि य के गिल्वेसु दोचमिच्छति । सावय गुरुणो नयॉमो, अशिन्छे पन्छा हरिस्सामो। ६६६ ॥
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वत्थ
द्वितीयमपि वारमवग्रहो ऽनुशापितव्य इति सूत्रे यदुक्तं केचिदाचार्या गृहस्थादिष्विमं द्वितीयमवग्रहमिच्छन्ति कथमित्याह ' सावय' इत्यादि यः श्रावको वनं ददाति स वक्तव्यो हे श्रावक ! कथम् ? एतद्वत्रं गृहीत्वा गुरूणां समीपे तावन्नयामः यथाचार्या एते प्रहीष्यन्ति ततो भूयोऽप्यागम्य भवतः समीपे द्वितीयं वारमवग्रहमनुज्ञापयिष्याम इति, आचार्या वस्त्रं न प्रहीष्यन्ति ततस्तेषां वस्त्रस्यानिच्छायां भवेत् एवेदं प्रत्याहरिष्यामः ।
(580 अभिधान राजेन्द्रः ।
इहरा परिवणिया, तस्य व पच्चप्पियंति अहिगरणं । गिहिगहणे अहियरणं, सो वा दट्ठूण वोच्छेदं ||६७०|| इतरथा यद्येवं न विधीयते ततो दर्शितमपि वस्त्रं यदा - चार्या न गृह्णीयुस्तदा परिष्ठापनिकादोषः, अथ न परिष्ठा पयन्ति ततोऽप्रातिहारिकं गृहीत्वा भूयस्तस्यैव गृहस्थस्य प्रत्यर्पयतां परिभोगधावनादिकमधिकरणमुपजायते । श्रथ तत्परिष्ठापितं वस्त्रं कोऽपि गृही गृह्णाति ततोऽप्यधिकरण - मेव, स वा दाता तद्वखं परिष्ठापितमन्यगृहस्थगृहीतं वा दृष्ट्वा तद्द्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदम्, एकस्यानेकेषां वा साधूनां कुर्यात् ।
अथ सूरिः परोक्तं दूषयन्नाहचोयग ! गुरुपडिसिद्धे, तहिं पउच्छे धरिज दिनंसु । धारणपये अहिगरणं, गेएहज सयं व पडिणीतं ।। ६७१ ॥ हे नोदक ! एवं क्रियमाणे ते एव प्रागुक्तदोषा भवन्ति । तथाहि तद्वस्त्रमानीय गुरूणामर्पितं तेन चाचार्याणां न प्रयोजनं ततस्तैः प्रतिषिद्धम्, तच वस्त्रं यावत्तस्य दायकस्य प्रत्यर्प्यते तावदसौ ग्रामान्तरं प्रोषितः । प्रोषिते च तस्मिन् यदि तद्वत्रं धारयति - परिभुङ्क्ते इत्यर्थः, तदा श्रदत्तादानम्, अथ तस्य सत्कं भणित्वा धारयति तदाऽधिकरणम् आत्मार्थिनं कृत्वा धारयति श्रथाप्यधिकरणम् । 'अतिरिक्लोपकरणस्यापरिभोग्यतया अधिकरणत्वात् । अथ तद्वत्रम् उज्झति-परिष्ठापयतीत्यर्थः तथाऽपि गृहिगृहीतोअधिकरं परिष्ठापनादोषाः, श्रथवा प्रतिनीतं तद्वत्रं स्वयमेवात्मना गृह्णीयात् न प्रतिदद्यादिति भावः । तस्मादेष नयुक्तो द्वितीयावग्रहः । वृ० १ उ० ३ प्रक० ।
(१४) धौतस्य प्रतापनविधिमधिकृत्याह
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्ज वत्थं आयवित्तए वा पयावित्तए वा वहप्पगारं वत्थं नो अतरहिया जाव पुढवीए संताणए श्रायावित्तए वा पयावित्तए वा ।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्ज वत्थं प्रायवित्तए वा पयावित्तए वा तह पगार वत्थं धूणंसि वा गिलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुब्ब
दुनिख किं चलाचले नो आयावित्तए वा नोवा से भिक्खू वा भिक्खुशी वा अभिकखिज्ज वत्थं आया वित्तए वा पयावित्तए वा तहप्पगार वत्थं कुकियंसि वा भित्तंसि वा सिलंसि वा लेलुंसि वा अन्न वा पारं तलिक्खजाए • जाव नो आया
७
वत्थ
विज वा पयाविज वा ।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा तहप्पगारं वत्थं खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अभयरे वा तहप्पगारं अंतलिक्खजाए नो मायाविज्ज वा नो पयाविज्ज वा ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तमायाए एगंतमवकमिज्जा २ हे झामथंडिलंसि वा० जाव अभयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय २ पमजिय २ तत्र संजयामेव वत्थं श्रायाविज वा पयाविज वा एवं खलु० तस्स भिक्खुस्स वा २ सामग्गियं वत्थेसणाए ( सू० - १४८ ) ति बेमि ॥ स भिक्षुरव्यवहितायां भूमौ वस्त्रं नातापयेदिति ॥ किञ्चभिक्षुर्यद्यभित्रमातापयितुं ततः स्थूणादौ चलाचले स्थूणादिवत्रपतनभयान्नातापयेत् तत्र गिहेलुकःउम्बरः उसुयालं -- उदूखलम् कामजलं - स्नानपीठमिति । स भिक्षुभित्तिशिलादौ पतनादिभयाद्वखं नातापयेदिति । स भिक्षुः स्कन्धमञ्चकप्रासादादावन्तरिक्षजाते व पतनादिभयादेव नातापयेदिति । यथा वातापयेत्तथा चाह-स भिक्षुस्तद्वस्रमादाय स्थण्डिलादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणादिना तत आतापनादिकं कुर्यादिति एतत्तस्य भिक्षोः सामथ्र्यमिति । श्राचा० २ ० १ ० ५ ० १ उ० | (१५) धरणविधिरभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्यो देशकस्यादिसूत्रम् -
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से भिक्खु वा भिक्खुणी वा आहेसणिजाई वत्थाई जाइजा अहापरिग्गहियाई वत्थाई वारिजा नो धोइजा नो रएजा नो धोयरत्ताइं वत्थाई धारिजा अपलिउंचमाणो गामंतरेसु० ओमचे लिए, एवं खलु वत्थधारिस्स सामग्मियं से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पविसिकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज वापविसिज वा एवं बहियविहारभूमिं वा वियारभूमिं वा गामाणुगामं वा दुइजिज्जा, अह पुरा एवं जागजा नवरं सव्वं चीवरमायाए । ( सू० १४६ ) तिब्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए
स भिक्षुः यथैवणीयानि - अपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेत यथा परिगृहीतानि व धारयेत् न तत्र किञ्चित्कुर्यादिति दर्शयति तद्यथा- न तद्वस्त्रं गृहीतं सत् प्रक्षालयेत् नापि रञ्जयेत् तथा नापि वाकुशिकतया धौतरक्तानि धारयेत् तथाभूतानि न गृहीयादित्यर्थः तथाभूताधौतारक्तवस्त्रधारी व ग्रामान्तरे गच्छन् 'अपलिउंचमाणो 'ति श्रगोपयन् सुखेनैव गच्छेद्, यतोऽसौ - श्रवमचेलिकःअसारवस्त्रधारी, इत्येतत्तस्य भिक्षार्वस्त्रधारिणः सामइयं सम्पूर्ण भिक्षुभावः यदेवंभूतवस्त्रधारणमिति । पनथ सूत्रं जिनकल्पिकोद्देशे न द्रष्टव्यं वस्त्रधारित्वविशेषणाद् गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्धमिति । किञ्च - से' इत्यादि पि एडैपायनेयम्. नवरं तत्र सर्वमुपाधम् अत्र तु सर्व वीवरमादायेति विशेषः ।
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अभिधानराजेन्द्रः। (१६) रवानी प्रातिहारिकोपहतवनविधिमधिकृत्याह- | विवएगाई करिजा, विवएणाई न वएणमंताई करिजा,
से एगइमो मुनगं मूहुत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइ- अनंवा वत्थं लभिस्सामि त्ति का नो अनमन्नस्स दिमा जाप एगाहेब वा दुयाहेण वा तियाहेण वा च- आ. नो पामिर्च कुजा. नो वत्येण वत्थपरिणाम कुजा, उपाहेब वा पंचाहेब वा विप्पवसिय विष्पवसिय उ- नो परं ऊवसंकमित्त एवं वदेज्जा.पाऊसो! समभिकंखवांगच्छिजा, नो वह वत्थं अप्पलो गिहिजा, नो म- सि मे वत्यं धारित्तए वा ?, परिहरित्तए वा ?, थिरं का संतं समन्नस्स दिजा, नो पामिच्चं कुजा, नो वत्येण वत्थ- नो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिदुविजा, जहा मेयं वत्थं परिणाम करिजा , नो परं उवसंकमिचा एवं बइजा
पावगं परो मनइ, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए भाउ० समसाममिकंखसि वत्थं पारितए वा परिह-| तस्स वत्थस्स नियाणाय नो तेसिं भीभो उम्मग्गेल रित्तए वा ? , थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय पलिच्छि
गच्छिजा, जाव अप्पुस्सुए, तो संजयामेव गामाणुदिव परिविजा, तहप्पगारं वत्थं ससंधियं वत्थं तस्स | गाम हाखिला से भिख वागामाणगाम दाज्जमाणे चेव निसिरिजा नो शं साइजिज्जा ॥ से एगइभी ए-1 अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिजा इमंसि यप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्पग़ा
खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपिडिया राणि वत्याणि ससंधियाणि मुहुत्तगं मुहुत्तगं जाव ए
गच्छेजा, यो तेसिं भीो उम्मग्गेणं गच्छेजा. जाव गाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पं
गामाणुगामं दूइजेजा ।। से मि० दूइजमाणे अंतरा से श्राचाहेब वा विप्पवसिय २ उवागच्छंति , तह. वत्थाणि
मोसगा पडियागच्छेजा, ते णं आमोसगा एवं वदेजानो अप्पणा गिएहंति नो अन्नमन्नस्स दलयंति तं चेव०
पाउसं०! आहरेयं वत्थं देहि णिक्खिवाहि जहा रियाए जाव नो साइअंति, बहुवरणेण माणियव्वं , से हंता
णाणत्तं वत्थपडियाए, एयं खलु० सया जइजासि । अहमपि महत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइजा जाव |
(सू०-१५१) एगाहेब वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा
स भिक्षुर्वर्णवन्ति वस्त्राणि चौरादिभयानो विगतवर्णानि पंचाहेब वा विप्पवसिय विप्पवसिय उवागच्छिस्सामि,
कुर्यात् , उत्सर्गतस्तारशानि न प्राह्याण्येव, गृहीतानां वा अवियाई एयं ममेव सिया, माइहाणं संफासे नो एवं परिकर्म न विधेयमिति तात्पर्यार्थः । तथा विवर्णानि न शोकरिजा ॥ (सू०-१५०)
भनवर्णानि कुर्यादित्यादि सुगममिति । नवरं 'विहं' ति अटस-कश्चित्साधुरपरं साधु मुहूर्तादिकालोदेशेन प्रतिहारि-| वीप्रायःपन्थाः। तथा तस्य भिक्षोः पथि यदि आमोषकाःकं वा याचेत, याचित्वा चैकाक्येव प्रामान्तरादौ गतः- चौरा वस्त्रग्रहणप्रतिज्ञया समागच्छेयुरित्यादि पूर्वोक्त याषतत्र चासावेकाहं यावत्पश्चाहं वोषित्वाऽऽगतः, तस्य चैका, | देतत्तस्य भिक्षोः सामयति । आचा०२ श्रु० १ चू० ५ कित्वात्स्वपतो वस्त्रमुपहतम् , तच्च तथाविधं वस्त्रं तस्य अ०२ उ०। समर्पयतोऽपि वस्त्रास्वामी न गृहीयात् , नापि गृहीत्वाऽन्य- याचावलं निमन्त्रणावस्त्रं वा शान्वा पृथग्वा धरेत्-- स्मै दद्यात् , नाप्युच्छिन्नं दद्याद् , यथा गृहाणेदम् , त्वं पुनः- जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा जायणावत्थं वा णिमंतणाकतिभिरहोभिर्ममान्ययाः, नापि तदैव वनेष परि
वत्थं वा अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पडिग्गाहेइ पवर्तयेत्, न चापरं साधुमुपसंक्रम्यैतद्वदेत् , तद्यथा मायुपन् ! भ्रमण ! अभिकास इच्छस्येवंभूतं वस्त्र धार
डिग्गाहंतं वा साइजइ ! ६8 ।। यितुं परिभोपं चेति', यदि पुनरेकाकी कश्चिन्द्रच्छेत्तस्य
जायणावत्थं जं मग्गिजति,कस्सेयं ति अपुच्छिय,, कस्सट्ठा तदुपहतं वस्र समर्पयेत् न स्थिरं-दृढं सत् परिच्छिद्य
कडं ति अगवेसिय, णिचणियंसणं जं दिया रातो य परिहपरिच्छिद्य- खण्डशः खण्डशः करवा परिष्ठापयेत
रिजति मज्झिउ तिराहातो जं परिहेति, देवघरपवेसं वा कत्यजेत् , तथाप्रकारं वखं 'ससंधियं ' ति उपहतं स्वतो रतो तं मजणजयं । जत्थ एक्कण विससो कज्जतिसो छणो,जबलास्वामी नास्वादयेत् परिभुजीत , अपि तु तस्यै
स्थ सामसभत्तविसेसो कजति सो ऊसवो । अहवा छणोचे. वोपहन्तुः समर्पयेत् , अन्यस्मै वैकाकिनो गन्तुः समर्पये
व ऊसवो छणोसवो तम्मि जं परिहिजति तत्थ णं सथियदिति । एवं बहुवचनेनापि नेयमिति । किा-सः-मि
रायकुलं पविसंतो जं परिहेति तं रायदारियं । एवं वत्थं जो पुः एका-कश्चिदेवं साभ्याचारमवगम्य ततोऽहमपि प्रा
अपुच्छिय अगवेसिय गेण्हति तस्स चउलहु , प्राणादिया तिहारिकं वलं मुहर्तादिकालमुद्दिश्य याचित्वाऽन्यत्रैकाहा
य दोसा । एस सुत्तत्यो । नि०० १५ उ०। दिना वासेनोपहनिष्यामि, ततस्तद्वखं ममैवं भविष्यतीत्येवं
(१७) निर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणम्-- मातृस्थानं संस्पृशेत् , न चैतत्कुर्यादिति ।
निग्गथिं चणं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा नितथा
खंतं समाणं, केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण से भिक्खू वा भिक्खुणी वा नो वएणमंताई वत्थाई। वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा कप्पई से मागारकडं ग
कित्वागतोऽपि वा दद्यादपि तदेव तद्यथा मायुः
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( ८४६ ) अभिधानराजेन्द्रः |
वत्थ
हाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोचं पि उग्गहमणुभवेत्ता परिहारं परिहरितए ॥ ४० ॥
अस्य व्याख्या प्राग्वत् ।
अथ भाग्यम् -
बहिया व निग्गया, जायणवत्थं तत्र जयणाए । निमंतणे वत्थं तव, सुद्धमसुद्धं च खमगादी || ६७२ || बहिर्विचारभूमौ वा संज्ञासु बिहारभूमौ च स्वाध्यायभूमिकायां निर्गतानां याञ्चावस्त्रं न चैव यतनया ग्रहीतुं कल्पते यथा भिक्षाचर्यायामुक्तं निमन्त्रणे वस्त्रमपि तथव शुद्धमशुद्धं च वक्तव्यम् । शुद्धं नाम यत् क्षपक इति वा धर्म इति वा कृत्वा दीयते, अशुद्धं यच्चतुर्थेन वा वेण्टलादिकार्येण वा दीयते ।
निरथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए श्रणुप्पबिट्टं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछ णेण वा उवनिमंतेजा, कप्पर से सागारकडं गहाय पवितिणी पायमूले ठवेत्ता दोचं पि उग्गहं अणुभवित्ता परिहारं परिहरितए || ४१ ॥ निग्गन्थि च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खति समाणिं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा कप्पर से सागारकडं हाय परिचिणीपायमूले ठवेत्ता दोचं पि उग्गहमणुन्नवित्ता परिहारं परिहरिए ।। ४२ ।।
अस्य सूत्रद्वयस्यापि व्याख्या प्राग्वत् । अथ भाष्यविस्तरः
निग्गन्थिवत्थगहणे, चउरो मासा हवन्तिऽणुग्धाया । मिच्छचे संकाई, पसजणा जाव चरिमपदं ।। ६७३ ॥ निर्ग्रन्थीनां गृहस्थेभ्यो वस्त्रग्रहणं कुर्वतीनां चत्वारो मासा अनुद्धाताः प्रायश्वित्तम्, ताश्ध वस्त्रं गृह्णतीर्दृष्ट्वा कश्चिदभिन arrsो मिध्यात्वं गच्छेत्, प्रसञ्जना नाम-भोजिका घटिकादिप्रसङ्गपरम्परा, तत्र चरमपदं पाराश्चिकं यावत्प्रायश्चित्तम् । इदमेव भावयति
पुरिसेर्हितो वत्थं, गिएहतिं दिस्स संकमादीया | प्रभासणं चउत्थे, पडिसिद्धे करेज उड्डाहं ॥ ६७४ || पुरुषेभ्यः सकाशाद्वस्त्रं गृह्णन्तीं निर्ग्रन्थीं दृष्ट्रा सङ्कादयो दोषाः, किमेषा भाटिं गृह्णाति एवं शङ्कायां चतुर्गुरु, भोजिकायाः कथिते षड्लघु, घटिकस्य कथने षड्गुरु, ज्ञातीनां कथने छेदः, आरक्षिकेण श्रुते मूलम्, श्रेष्ठि सार्थवाहपुरोहितश्रुते अनवस्थाप्यम् अमात्यनृपतिभ्यां श्रुते पाराश्चिकम्, स वा गृहस्थो वस्त्राणि दत्त्वा चतुर्थविषयमेव भाषणं चरेत् तया प्रतिषिद्धे उड्डाहं कुर्यात् एषा मदीयां भार्टि गृहीत्वा संप्रति मदुक्तं न करोति ।
,
कि चान्यत्लोभे श्रभिभोगे, विराहणापट्टण दितो । दाव्वो गणहरेणं, तं पि परिच्छितु जयणाए || ६७५ ||
२१३
वस्थ
'लोभे य' ति येन वा तेन वा वस्त्रादिना स्त्रीमुखेनैव प्रलो भ्यते ' अभियोगे 'ति कोऽप्युदारशरीरां संपत तस्याः वशीकरणमभियोगं कुर्यात् ततश्चारित्रविराधना, अत्र व पडकेन दृष्टान्तः । यत एषमत संपतीनां गणधरेल वस्त्राणि दातव्यानि तदापि वस्त्रदानं सप्त दिवसानि परीहय परीक्षां कृत्वा यतनया वक्ष्यमाणया कर्त्तव्यमिति संग्रहगाथासमासार्थः ।
अथ विस्तसर्थमाह
पईपेल सभा, लोभिजइ जेण तेरा वा इत्थी । अयि हु मोहो दिप्पड़, सुइरं तासिं सरीरेसु ॥ ६७६ || प्रकृत्या स्वभावेनैव स्त्री प्रायः ' पेलवसन्ना' तुच्छधृतिबला ततो येन वा वस्त्रादिना लोभ्यते, अपि च ताः स्वभावेनैव बहुमोहा भवन्ति श्रतस्तासां पुरुषैः सह संलापं कुर्बतीनां दारं गृह्णतीनां स्वैरं स्वेच्छया शरीरेषु मोहो दीप्यते । अभियोगं वा तस्या विद्याभिमन्त्रित वस्त्रप्रदानग्याजेन कुयांत्, अभियोगिता च सती चारित्रं विराधयेत् ।
तथा चात्र दृष्टान्तमाह
वियरिग सोबारा, ससरक्खे पुप्फदाणपट्टकया । निसि वेल दारपिट्टण, पुच्छा गामेण निच्छुभगं || ६७७ एत्थ गामे वियरियो सो य आरामसमीवे ठितो, ततो य इन्थिजणो पाणियं वहह । तस्मि श्रारामे पगो ससरक्खो सो वियरियो ओरालं श्रविरइयं दद् तीए विज्जाभिमंत्रियाणि पुष्फाणि देइ । ती घरं गंतुं नीसापट्टए ताणि वियाणि ततो ते पुप्फा पट्टगं प्रविसिउं अहरतवेलाए घरदारं पिट्टेति । ततो गारो निगओ, पेच्छा पट्टगं सपुष्पं तेण श्रागारी पुच्छिता । तीए सम्भावो कहिश्रो, तेण वि गामस्स कहियं, गामेण सो ससरक्खो मिच्छुढो । अथाक्षरगमनिका - विदरिकः कापि कामश्चवारारामसमीपे ततः सरजस्को वाटिकातटे काञ्चिदविरतिकां दृष्ट्वा विद्याभिमन्त्रितपुष्पदानं करोति, तया च गृहे गत्वा तानि पट्टके कृतानि ततो निशि-रात्रौ वेलायामर्द्धरात्रौ गृहद्वारस्य पिहृनं तैः कृतम्, ततस्तेन तस्याः पृच्छा कृता सद्भावे च कथिते ग्रामस्य कथयित्वा तेन निष्काशन सरजस्कस्य कृतम्, यत एते दोषा तो निर्धन्थीभिरात्मना गृहस्थेभ्यो वस्त्राणि न प्रहीतव्यानि किं तु गणधरेस तासां दातव्यानि ।
(१८) कः पुनरत्र विधिरित्यत आहसत दिवसे ठवेता, थेरपरिच्छाऽपरिच्छसे गुरुगा । देइ गणी गणिणीए, गुरुगा सय दारा श्रद्धाखे ॥ ६७८ ॥ संप्रायोग्यमुपधिमुत्पाद्य सप्त दिवसान् स्थापयति-परिवासयति, ततः कल्पं कृत्वा स्थविरो धर्मश्रद्धावान् प्रवार्यते, यदि नास्ति कोऽपि विकारः सुन्दरम् । एवं परीक्षा कर्त्तव्या, revieय प्रथच्छति ततश्वत्वारो गुरवः, एवं परीक्षितो गणी- गलधरो गणिन्याः - प्रवर्तिम्याः प्रयच्छति, साऽपि गणिनी संयतीनां यथाक्रमं ददाति । अथाचार्य मात्मना प्रयच्छति ततञ्चतुर्लघुकम् । काचिन्मन्दधर्म्मा ब्रूयात् एतस्याः सुन्दरतरं दतं न मम, यस्मादियमस्याभीष्टा, एवं स्वयं दाने विधीयमाने आचार्यस्यास्थाने स्थापनं भ
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( ५०)
अभिधानराजेन्द्रः। वति यत एवमतः प्रवर्तिन्या तासां दातव्यम् । नोदकः प्रा- देसिय वाणियलोभा, सइ दिनेण उवरिं पि होहिंति । ह-ययेषं तर्हि सूत्रं निरर्थकं तत्र निर्ग्रन्ध्या वस्त्रग्रहणस्या
तरणुब्भामग भोयग, संकादी आतयसमुत्था ॥६८४॥ नुज्ञातत्वात्। प्राचार्यः प्राह
देशिको देशान्तरायातोवाणिजश्चिन्तयनि साक्षादेकवारंद
सेन दानेन मतेयं चिरमपि भविष्यति इति विचिन्त्य लोभाअसइ समणाण चोयग, जायनिमंतणे वत्थ तह चेव ।
यांसि वस्त्राणि दत्वा प्रलोभयेत् , यस्तु सुरूपः स विजायंति घरे असई, विमिस्सिया मोत्ति सेठाणे ॥६७६॥ कारबाहुल उत्कटमोहश्च भवति. संसृषपर्व उदभ्रामकः भोहे मोदक ! निरर्थकं न भवति किं तु श्रमणानामस- का-प्राक्कनो भर्ता एव तेषां हस्तादादीयमाने पर शङ्कादय ति यदा स्थविरा निर्ग्रन्थ्यो वस्त्राणि गृह्णन्ति तद्विषय- श्रात्मसमुत्थाश्च दोषा भवन्ति। मेतसूत्रम् , यथा याश्चावस्त्रे निमन्त्रणावस्त्रे च तथैव स
दाहामो णि य कस्सइ, निययो मो होहिई सहाभोऽम्मे । बॉऽपि विधिदष्टव्यः, ताश्च प्रथमतः स्थविराः एव केवला याचन्ते, तासामसति तरुणीविमिश्रिताः । स्थविराः परमि
सनी वि संनियाणं, दाहिइ इति विप्परीणामो॥६८शा तानि स्थानानि मुक्त्वा ।
पितामातृप्रभृतयो निजकाच जनाश्चिन्तयन्ति कस्याप्येनां तान्येव दर्शयति
वयं दास्यामः, सोऽस्माकं सहायो भविष्यति, यस्तु संझी श्रा
वकः सोऽप्येषा मे धर्मसहायो भविष्यति अन्यच संयतानाम् कावालिए य भिक्खू , सुइवादी कुच्चिए अ वेसित्थी ।
एषा विपुल भक्तपानं मदीये गृहे वर्तमाना दास्यति , एवं वाणियगतरुण संस-टु मेहुणे भोयए चेव ॥ ६८० ॥ चिन्तयित्वा विपरिणम्य चोनिष्क्रमणं कारयेत् , यत एवमत माता पिया य भगिणी,भाउगसम्बन्धिणोश्रतह सभी। एतानि स्थानानि वज्जयित्वा यानि भावितकुलानि तेषु प्रभावितकुलेसु गहणं, असई पडिलोमजयणाए ॥६८१॥
हीतव्यम्,भावितकुलानामभावे प्रतिषिवस्थानेष्वेव पश्चानुपू कापालिकोऽस्थिरजस्कः भिक्षुकः-सौगतः शुचिवादी-दक
ा गृहीयात् । प्रथमं यः सभोगिकः श्रावकस्तस्य सकाशासौकरिकः कृर्चिका-कृचंधराः वेश्यास्त्रीणिजकाश्च प्रती
द् प्रहीतव्यम् , तस्याभावे अभोगिकश्रावकहस्तादपि, एवं ताः तरुणो-युवा संसृष्टः-पूर्वपरिचित उभ्रामकः ।
प्रतिप्रक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावद्भिक्षुकाणामभावे कापालिकामैथुनो-मातुलपुत्रः भोला-भोः माता, पिता, भगिनी.भ्राता,
नां सकाशादपि यतनया वखग्रहणं कर्तव्यम् । पते चत्वारोऽपि प्रसिद्धाः। संबन्धी-सामान्यतः समातिकः
यतनामेवाहसंझी-श्रावकः एतान् कापालिकादीन् मुकन्या यानि भा- मग्गंति थिविरियानो, लद्धं पि य थेरिया उ गेण्हति । वितानि यथा प्रधानानि मध्यस्थानानि कुलानि तेषु संयती- आगारदद्वतरुणी-ण व दंते तं न गिरोहंति ॥ ६८६॥ भिर्वस्त्रग्रहणं कर्तव्यम् । अथ भावितकुलानि न प्राप्यन्ते या स्थविरा धर्मश्रद्धा वयो वृद्धा गीतार्थाश्च ता वस्त्राणि ततस्तेषामभावे प्रतिलोमं-प्रतिक्रमेण प्रतिषितस्थानेष्वेव मार्गयन्ति.लब्धमपि च वस्त्रदायकसकाशात् स्थविरागृहाति। यतनया यथा वक्ष्यमाणा दोषा न भवन्ति तथा गृह्णीयादिति अथासौ दाता काणाक्षिप्रभृतीनां प्राकारान् करोति, स्थवि. सङ्ग्रहगाथाद्वयसमासार्थः।।
रया वा हस्ते प्रसारिते ख्यातिन तव ददामि पतस्यास्तरुण्याः अथैतदेव प्रतिपदं भावयति
प्रयच्छामीति एवमाकारान् दृष्टा तरुणीनां वा ददतं दायकं अट्ठी विजा कुच्छित-भिक्खु निरुद्धप्रो.लज्जए ऽसत्थ ।
विज्ञाय तद्वस्त्रं न गृह्णन्ति ।
एवमादिदोषविप्रमुक्तं वस्त्रमुत्पाद्य वसतिमाप्तानामयं विधिः। दगसोगरि य कुच्चिय-सुयरा ति य बंभचारित्ता॥६८२।। 'अट्रि' ति सरजस्काः ते विभूत्या मन्त्रेण वा संयतीनां व.
सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पे कते थेरिया परिच्छति । सदानव्याजेनाभियोगं कुयुः, अपि च ते कुत्सिता भवन्ति
सुद्धस्स होइ धरणा, असुहे छत्तं परिवणा ।। ६८७॥ ये तु भिक्षुकाः सौगतास्ते प्रायो निरुद्धवस्त्राः । ये अन्यत्र सप्त दिवसान् वस्त्रं स्थापयन्ति यद्यस्थापयित्वा परिभुच यक्षरिकादिषु गच्छन्तो लजन्ते, गाथायां प्राकृतत्वात् अते तदा चत्वारो गुरुव प्रासादयश्च दोषाः । यत एवं ततः एकवचननिर्देशः । एवं दकसौकरिका परिवाजकाः कृर्चि- स्थापयित्या कल्पं-प्रक्षालनं कुर्वन्ति, कृते च कालस्थविराः काश्च कूर्चधरा वक्तव्याः ते चोभयेऽप्येवं मन्यन्ते, एताः श्र- तद्वस्त्रं प्रावृत्य परीक्षन्ते, यदि शुद्धं ततस्तस्य धारणम् . अमण्यो ब्रह्मचारित्वादप्रसवाः अप्रसवत्वात् शुचयः-पवित्रा थाशुद्धमशुद्धभावोत्पादकं तद्वस्त्रं ततस्तच्छित्वा परिष्ठापनं एता इति ।
कर्त्तव्यम्। अन्नद्रवणज्जुना, अनिरोगो जाव रूविणी गणिया।
(१६) वस्त्रोत्पादननिर्गतानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च
सामान्यतो लाभालाभादिनिमित्तपरिक्षानोपायमाहभाइगचोरियदिन्नं, दहें समणीसु उड्डाहो ॥ ६८३॥ या जीर्मा गणिका सा स्वयं स्थापयितुमसमर्था रूपवर्ती सं
जं पुण पढमं वत्थं, चउकोणा तस्स होति लाभाय । यती रष्ठा अन्यस्थापनार्थमपरगणिकास्थापनार्थम्-अभियो
वितिरिच्छंताममे य, गरहिया चउगुरुवाणा ॥६८८॥ गयेत् , या वा रूपवती गणिका साऽप्येवमेवाभियोगं कुर्यात् , यत्पुनः प्रथमं वस्त्रं लभ्यते तस्य ये चत्वारः कोणकास्ते तेषां यो मातुलपुत्रस्तेन संभोगिकाया वस्खं चौरिकया सं- वक्ष्यमाणाअनखञ्जनलेपादिचिह्नोपलक्षिता यदि भवन्ति उपयत्या वसं तच्च तया प्रावृतं रा सा भोगिनी बहुजनमध्ये लक्षणमिदं तेन यो चञ्चलमध्यभागी तावपि लाभाय यो उहाहं कुर्यात् , एषा मे गृहमकं करोति ।
। तु वितिरिश्चीनौ करणपट्टिकायां अन्त्यौ विभागौ यश्चैतयो
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वत्थ अभिधानराजेन्द्रः।
वत्थ मध्यवर्ती विभागः पते प्रयोऽयञ्चनलेपादिचिह्नोपलक्षिता | वर्जितम् , यद्वा-परो दायकस्तस्य दोषा क्रीतकृतत्वादयस्तै. गर्हिताः-अप्रशस्ताः, पतेपु चामविराधनासद्भावाच्चतुर्गु, विवर्जितं तारशं वस्त्रं वरवधारणे, धन्यं नानाविधनप्रापर्क रुकम , आज्ञा च भगवतां विराधिता भवति ।
लक्षणोपेतमित्यर्थः । वृ० १ उ०३ प्रक० । नि०० । ग०। अमुमेवार्थमन्याचार्यपरिपाट्याऽभिधायोच्यते
अनलमधुवमलक्षणम्नवभागकए वत्थे, चउसु वि कोणेमु होइ वत्थम्स । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेजा लाभो विणासमन्त्रे. अन्ते मज्झे य जाणाहि ॥ ६८६।। अप्पंडं जाव संताणगं अणलं अथिरं अधुवं अधारइह यतो वस्त्रं मार्यते ततः प्रथमतस्त्रयो भागाः कल्पन्ने णिजं रोइजंतं ण रुच्चइ तहप्पगारं वत्थं अफासुयं० जाव भूयाऽप्येकैको भागस्त्रिधा विभज्यते, एवं नवभागीकृते
पडिगाहेजा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं बने ये चत्वारः कोणकाः अपिशब्दान्-कोणकमध्यवर्ति
जाणेजा अप्पंडं जाव संताणगं अलं थिरं धुवं धारणिजं नौ द्वौ भागौ तेषु वस्त्रस्याञ्जनलेपादिसम्भये लाभो भवति, ये पुनरन्ये वस्त्रमध्यवर्तिनखयो भागास्तद्यथा-द्वावन्त्य
रोइज्जतं रुच्चइ तहप्पगारं वत्थं फासुयं० जाव पडिगाहेजा। विभागौ, एकः सर्वमध्यवर्तिविभागस्तेषु विनाशं ग्लानत्वा- (सू०-१४७१) दिकं जानीहि ।
से भिक्खू' इत्यादि, स भितुर्यत् पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीअथ यैश्विहस्तेषु लाभो विनाशो वा अनुमीयते यात् , तद्यथा-अल्पाण्डं यावदल्पसंतानकं किं तु - तानेवाह
नलम्-अभीष्टकार्यासमर्थ हीनादित्वात् , तथा अस्थिरंअंजणखंजणकद्दमलित्ते, मूसगभक्खिअग्गिविदद्धे । जीर्मम अध्रुवम्-स्वल्पकालानुज्ञापनात् , तथा अधारणीयतुत्रियकुट्टियपज्जवलीदे,होइ विवागो सुहो अमुहो।६६०।
म्-अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलङ्काङ्कितत्वात् , तथा चो
कम्"चत्तारि देविया भागा,दो य भागा य माणुसा । असुग अञ्जनं-सौवीराअनादि खञ्जन-दीपमलः कईमः-पस्तैर्लिप्ते
य दुंव भागा, मज्झं वत्थस्स रक्खसो ॥१॥ देविएसुत्तमो खरण्टिते तथा मूषिकैरुपलक्षणत्वात् कंसारिकादिभिश्च
लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो । आसुरेसु अगलराणा, मरण भक्षिते अग्निना वा विशेषेण दग्धे तथा तुम्नकारेण तुन्निते
जाण रक्खसे ॥२॥" किश्च-"लक्खणहीणो उवही, उवहणई स्वकलाकौशलतः पूरिते छिद्रे कुट्टिते-रजः कुट्टनेन पतित- णाणदंसणचरितं" इत्यादि, तदेवभूतमप्रायोग्यं रोच्यमानं छिद्र पर्यवैः पुराणादिभिः पर्यायै-ढे जीर्णे अतिजीर्मतया
प्रशम्यमानं दीयमानमपि वा दात्रा न रोचते-साधये न ककुत्सितवर्णान्तरादिसंयुक्त स्फुटित इत्यर्थः । एवंविधे वस्त्रे
ल्पत इत्यर्थः । एतेषां चानलादीनां चतुम्मों पदानां षोडगृहीते सति शुभोऽशुभो वा विपाकपरिणामो भवति ।।
श भङ्गा भवन्ति, तत्राद्याः पञ्चदश अशुद्धाः शुद्धस्त्वेकः तत्र ये शुभविभागास्तेषु शुभो विपाकः , ये ब- षोडशस्तमधिकृत्य सूत्रमाह-स भिर्यत् पुनरेवंभूतं शुभास्तेष्वशुभ इति ।
वस्त्रं चतुष्पदविशुद्धं जानीयात् तच लाभे सति गृह्णीया(२०) अथ नवानामपि भागानां स्वामिनः प्रतिपादयति- दिति पिण्डार्थः । श्राचा०२७०१ चू०५ १०१ उ०। चउरो य दिबिया भा-गा माणुमा देवे भाया य । (२१) पर्युषणायाः चातुर्मास्ये वस्त्रग्रहणम्असुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो॥६६॥ नो कप्पइ निग्गन्थाणं वा निग्गंथीणं वा पढमसमोस• चत्वारः कोणका दिव्या-देवसंबन्धिनो भागाः, द्वावश्चलम- | रणुद्देमपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए ॥ १७॥ कप्पइ ध्यभागौ मानुषी-मनुष्यस्वामिकौ, द्वो भागौ च कर्मपट्टि ।
निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई कामध्यलक्षणाबासुरावसुरसम्बन्धिनौ,सर्वमध्यगतः पुनरेको भागो राक्षसस्वामिक इति ।
चेलाई पडिग्गाहित्तए ॥१८॥ अर्थतेषु विभागेषु शुमाशुभफलमाह
अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याह-- दिन्वेसु उत्तमो लाभो, माणुस्सेसु य मज्झिमो ।
दिटुं वत्थग्गहणं, न य वुत्तो तस्स गहणकालो उ। आसुरेसु य गेलन, मज्झे मरणमाइसे ॥ ६६२॥ । भोसरणम्मि अगझ, तेण समोसरणमुत्तं तु ॥५४६।। दिव्येषु विभागेषु यद्यञ्जनादिभिर्दूषितं बलं तदा तस्मि- पूर्वसूत्रे वस्त्रग्रहणं दृष्टं न च तस्य ग्रहणकाल उक्तः, कदा न गृहीते साधूनामुत्तमो वस्त्रपात्रादीनां लाभो भवति, मा.
कल्पते कदा च नेति, अतो वर्षाकालाख्ये प्रथमे 'श्रोसरणे' नुषभागयोरञ्जनादिदूषिते बस्ने मध्यमो लाभः, श्रासुर- | समवसरणे अग्राह्य तद्वस्त्रम् , द्वितीये तु ऋतुबद्धाख्ये ग्राह्यभागयोरञ्जनादिदृषितयोलानत्वम् राक्षसभागे पुनरअना-1
मिति निरूपणाय इदं समवसरणसूत्रमारभ्यते। दियुक्ने यतीनां मरणमादिशेदिति ।
अहवा वि सोवधिो , सेहो दव्वं तु एसमक्खायं । जं किंचि होइ वत्थं,पमाणवं रुइकरं थिरं निद्धं । तं काले खित्तम्मि य,गझं कहियं अगझ च ॥५४७॥ परदोसे निरुवहतं, तारिसगं खु भवे धनं ।। ६६३॥ अथवा पूर्वसूत्रे सोपधिकं शैक्षलक्षणं द्रव्यमेतदाख्यातम् ,तद् -यत्किचिद्वस्त्रं प्रमाणयत्-सूत्रोक्लप्रमाणोपेतं स एवा | द्रव्यं कुत्र काले क्षेत्रे वा ग्राह्यम् ,कुत्र वा अग्राह्यमित्यधुना प्रन्यत्र स्थूलमन्यत्र लक्षणं रुचिकारकं स्थिर-दृढं स्निग्ध तिपाद्यते । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्र-१७-१८) सरजाभिः पञ्चभिः पदैस्त्रिशद्भका भवन्ति एष नवमो भङ्गो गृ | व्याख्या-"नो कप्प"त्ति आर्षत्वादेकवचनम् नो कल्पते नि
हीतः । परदोषा आसुरराक्षसभागेष्वञ्जनप्रभृतयस्तैर्निरुपहत | ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमसमवसरणे वर्षाकाले उद्देशःJain Education Interational
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( ८५२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
वत्थ
क्षेत्र कालविभागस्तं प्राप्तानि प्रथमसमवसरणोदेशप्राप्तानि, लानि - बलाणि प्रतिग्रहीतुम्, किमुक्तं भवति-इह साध वो पत्र वर्षावासं चिकीर्षवस्तत्क्षेत्रं यावताऽपि प्राप्नुवन्ति प्राप्ता वा परं नाद्याप्याषाढपूर्णिमा लगति तावत् कल्पन्ते वस्त्राणि परिग्रहीतुम् । अथ वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्र प्राप्ताः आषाढपूर्णिमा व संजाता तत इयन्तं क्षेत्रकालविभागं प्राप्तानि वस्त्राणि न कल्पन्ते । द्वितीयसमव सरणोद्देशप्राप्तानि तु कल्पन्ते इति सूत्रसंक्षेपार्थः ।
साम्प्रतं विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रेर्यमुत्थापयन्नाहपढमंसि समोसरणे, उद्देसकडं ण कप्पती जस्स । तस्स व किं कप्पंती, उग्गमदोसा उ अवसेसा ॥ ५४८ ॥ इह परः प्रस्तुतसूत्रस्योपरि परम्पराघातमनन्तरोक्तमर्थमनवबुद्धयमानः प्रेरयति । नतु च सूत्रे ' उद्देपत्ता ति यत्पवं तस्यायमर्थः । उद्देशानमुद्देशः प्रौद्देशिकास्यो द्वितीय उद्गमदोषस्तं प्राप्तानि वस्त्राणि न कल्पन्ते, पतच न युज्यते, यतो-यस्य साधोः प्रथमसमवसरणे उद्देशकृतं वस्त्रादिन कल्पते तस्य च शेषाः कर्मादयः पञ्चदशोङ्गमदोषाः किं कल्पन्ते ? यदेवमुदेशकृतमेव प्रतिषिध्यते ।
पर एव सूरीणामभिप्रायमाशङ्क्य परिहरतिउद्देसग्गहखेण व, उग्गमदोसा उ सव्वे जति गहिता । उप्पादखादिसैसा, तम्हा कप्पंति किं दोसा ।। ५४६ ॥ अथैकग्रहणे तज्जातीयग्रहणामति न्यायादुद्देशग्रहणेन सdsप्युनमदोषा गृहीताः । एवं तर्हि उत्पादनादयः शेषा दोषाः किं कल्पन्ते येनोद्गमदोषा एव गृह्यन्ते ।
पर एवाचार्य शिक्षयमाण इदमाहहवा उहिस्सकता, एसणदोसा वि होंति गहिता तु । श्रादीयं तग्गहये, गहिया उप्पादणा वि तहिं ॥ ५५० ॥ अथवा - यस्मादेषणादोषा अपि साधूनुद्दिश्य - प्रणिधाय कृताः, श्रत उद्देशग्रहणेन तेऽपि गृहीताः । एवं वाद्यस्योनमदोषकलापस्यान्यस्य चैषणादोषजालस्य ग्रहणे उत्पादना दोषा अपि गृहीता अत्र मन्तव्याः । आद्यन्तप्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायात् । अतो द्वाचत्वारिंशदपि दोषा न कल्पन्ते इति सिद्धम् ।
एवमाचार्यस्याकृत्यमाशङ्कय दूषणान्तरमाह
एए अ तस्स दोसा, उडुबद्धे जं च कप्पते घेत्तुं । कोई भणिज दो वि, ण कप्पत्ति सुत्तं तु सूएति । ५५१ | यथैवं सामर्थ्याक्षिप्ता द्वाचत्वारिंशदपि दोषाः प्रथमसमवसरणे प्रतिषिद्धास्तर्हि ऋऋतुबद्धास्ये द्वितीय समवसरणे एते सर्वेऽपि दोषास्तस्य साधोः कल्पन्ते?, यथाऽत्रैव सूत्रे अभि हितम् - कल्पन्ते द्वितीयसमवसरणे उद्देशप्राप्तानि चेलानि प्र तिग्रहीतुमतोऽपि शाप्यते द्वितीयसमवसरणे द्वाचत्वारिंशद्दोषदुष्टमपि कल्पते, एवं कश्चित्परो भणेत् । तत्र सूरिराह-द्वयोरपि समवसरण्योर्न कल्पते । योऽपि परः प्राह यद्ययं द्वितीयेऽपि समवसरणे प्रतिषेधयथ तन्न युज्यते । यतः श्रुतं सूत्रमेव कल्पते इति ब्रुवाणमनुज्ञां सूत्रयति । अपि वाएवं सुत्तविरोधो, दोचम्मि य कप्पतीति जं भणितं ।
For Private
वत्थ
सुवितो जम्म तु तं पुण वोच्छं समासेणं ॥ ५५२ ।। एवं भवतां सूत्रेण समं विरोधः प्राप्नोति, यतः सूत्रे द्वितीये समवसरणे कल्पत इति भणितम् । श्रथ गुरुराह - सर्वमध्येतदाकाशकुसुममिव लक्ष्यते । सूत्राभिप्रायमनवबुध्यैव यथा प्रलपनात् । कः पुनः सूत्राभिप्राय इति चेदत श्राह यस्मिन्नर्थे सूत्रस्य निपातो ऽवतारस्तं शृणु समासेन- संक्षेपेण वक्ष्येऽहम्
सम सरणे उद्देसे, छव्विधिपत्ताण दोएह पडिसेधो । अप्पत्ताण उ गहणं, उवधिस्स उ सातिरेगस्स || ५५३ || प्रथमसमवसरणं ज्येष्ठावग्रहो वर्षावास इति चैकार्थम्, द्वितीय समवसरणम् । ऋतुबद्ध इति चैकार्थम्, तत्र य उद्देशस्तद्विषयः षविधो निक्षेपः कर्त्तव्यः ।' पत्ताण दुराह पडिसेहो ' ति श्रार्षत्वाद्विभक्तियत्ययः, द्वाभ्यां - क्षेत्रकालाभ्यां प्राप्तानां वस्त्रादिग्रहणे प्रतिषेधो भवति, श्रप्राप्तानां तु सातिरेकस्योपधेर्ग्रहणं भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः । ( अथ विस्तरार्थ ' उद्देल' शब्दे द्वितीयभागे ७६५ पृष्ठे गतः । ) तत्र क्षेत्रोद्देशेन · कालोद्देशेन वाऽधिकारः । शेषास्तु विनेयव्युत्पादनार्थमुश्चारितार्थसदृशा इति कृत्वा प्ररूपिताः, तदव परेण यदुमौदेशिकं प्रतिपादितं तत्राधिकृतमिति स्थितम्
अथ प्राप्तानामिति पदं व्याख्यातिखित्तेण य कालेख य, पत्तापत्ताण हुंति चउभङ्गो । दोहि विपत्तो ततिओ, पढमो बितिओ य एक्केणं ॥ ५५७॥ क्षेत्रेण काले च प्राप्तानां चतुर्भङ्गी भवति । क्षेत्रेण प्राप्ता न कालेन १, कालेन प्राप्ता न क्षेत्रेण २, क्षेत्रेण कालेन च ३, प्राप्ताः, नापि क्षेत्रेण नापि कालेन ४, अत्र तृतीयो भङ्गो द्वाभ्यामपि क्षेत्रकालाभ्यां प्राप्तः । चतुर्थः
पुनरुभाभ्यामप्यप्राप्तः ।
अथामूनेव भङ्गान् भावयतिवासाखित्तपुरोक्खड-उडुबद्धठियाण खेत्तो पत्तो । श्रद्धाणमादिहिं, दुल्लभखित्ते च वीओ उ ।। ५५८ ॥ वर्षाक्षेत्रे पुरस्कृतं प्रथमत ऋतुबद्धकाले स्थितानां क्षेश्रतः प्राप्ता इति प्रथमो भङ्गो भवति । इयमत्र भावना- ऋतुबद्धे चरमो मासकल्पो यत्र कृतः । श्रन्यच्च वर्षावासप्रायोग्यं क्षेत्रं नास्ति ततस्तत्रैव वर्षावासं कर्तुका - माढपूर्णिमामद्याप्यप्राप्नुवन्तः प्राप्ता न काल इत्याद्यो भङ्गो भवति श्रध्वप्रतिपन्नतादिभिः कारणैर्दुर्लभे वा वर्षावासप्रायोग्ये क्षेत्रे श्रपान्तराल एव श्राषाढपूर्णिमा संजाता एवं द्वितीयो भङ्गो भवति ।
साढपुलिमाए, ठिया उ दोहिं पि होंति पसाउ | तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं ग उ सेसभङ्गेसु ॥५५६ ॥ वर्षाक्षेत्रे आषाढपूर्णिमायां ये स्थिता ते द्वाभ्यामपि दोकालाभ्यां प्राप्ता भवन्ति, आषाढपूर्णिमामासप्राप्तानामन्तरा श्रध्वनि वर्त्तमानानाम् ऋऋतुबद्धे मासकल्पे भवा श्र न्यत्र क्षेत्रे स्थितानां चतुर्थो भङ्गो भवति । श्रथ च तत्रैव तृतीयभङ्ग एव वस्त्रादीनां ग्रहणं प्रतिषिध्यते, न शेषेषु - प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गेषु एकतरेण द्वाभ्यां वा श्रप्रासत्वात् । एतेन 'दोरह पडिसेहो ' त्ति व्याख्यातम् । श्र
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(८५३) वत्थ
अभिधानराजेन्द्रः। थ'अप्पत्ताणउ गहणं उबहिस्स साइरेगस्से ' ति प- परमते, अशिवदुर्भिक्षादीनि था यहिरुपस्थितानि एवमाश्वा व्याचिख्यासुराह
दिभिः कारणैः पदं न निर्गच्छति, तत्र यदि केचिद्वस्त्रादिना दुण्हं जा उवगरणा, णिप्फजति जं व होति वासासु । निमन्त्रयन्ति तदा तान् ददतः प्रतिषिध्य द्वयोस्तु मासयोः अग्गहणम्मि वि लहुगा,तत्थ विप्राणादिणो दोसा५६०
पूर्मयोवस्त्रादिकं गृहन्ति ।
कुन इत्याहइह वर्षाकालक्षेत्रकालाभ्यामप्राप्तौ सातिरेक उपधिग्रहीतव्यः । कियत्प्रमाण इति चेदुच्यते-द्वयोर्जनयोः
भावो उ णिग्गतेहिं, वोच्छिज्जइ देंति ताइ अस्मस्स । संबन्धिना यावतोपकरणेन एकस्य साधोर्योग्यः प- अत्तद्वेति व ताई, एमेव य कारणमिणतो ॥ ६०२ ।। रिपूर्णः प्रत्यवतारोऽतिरिक्तो निष्पद्यते , येन वर्षांसु ये साधव इह क्षेत्रे वर्षावास स्थितास्तेषां वस्त्राणि दास्यावर्षाकल्पादिकमुपयुज्यते तदात्मनो योग्यं द्विगुणं भवति ,
मः, इत्येवं यः श्राद्धानां भावः स निर्गतेषु साधुषु व्यवइयत्प्रपाणं ग्रहीतव्यम् । इदमुक्तं भवति–एकैकसाधुर- च्छिद्यते । यानि वस्त्राणि दातुं संकल्पितानि अन्यस्य-पा. द्धतृतीयान् प्रत्यवतारान् गृह्णाति, किं कारणं कदाचि- वस्थादेः प्रयच्छन्ति, स्वयमेव वाऽऽत्मार्थयन्ति-परिभुञ्जत दभ्यनिर्गताः साधवो विविक्ता आगच्छेयुः, ततो द्वौ साधू इत्यर्थः । अथ चतुर्मासानन्तरं कारणमपेक्ष्य न निर्गच्छन्ति, एकस्य साधोः संपूर्ण प्रत्यवतारं प्रयच्छतः , तयोश्चात्मनः ततो मासद्वयमध्ये श्राद्धानामभ्यर्थनायामप्यगृहानेष्वेवमेव प्रत्येक द्विगुणाः प्रत्यवतारास्तिष्ठन्ति । यद्येवं न गृह्णन्ति
भावो व्यवच्छिद्यते, ततो द्वौ मासौ परिहन्य ग्रहीतव्यम् , ततश्चतुर्लघुकाः तत्राप्याशादयो दोषा भवन्ति । वृ०३ उ०।
कारणे मासद्वयमध्येऽपि गृह्णीयात् । ( वर्षासु अतिरिकोपकरणग्रहणकारणोपदर्शनदृष्टान्तः 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे १०६५ पृष्ठे गतः।)
तदेव दर्शयति
गच्छे सबालवुड्ढे, असती परिहरदिवड्डमासं तु । (२२) अथ निर्गतानां सामाचारीमुपदर्शयति --
पणतीसा पणवीसा, पारस दसेव एकं च ।। ६०३ ॥ पुस्मम्मि णिग्गयाणं, साहम्मियखेत्तव जिते गहणं ।
सबालवृद्धे गच्छ वस्त्राभावे शीतं सोढुमसमर्थे साझमासं संविग्गाण सकासं, इयरे गहियम्मि गेण्हंति ॥५६॥ परिहर-वर्जय, परिहत्य च ततः सार्ड गृह्णीयात् । अथ सापूराणे-वर्षावासायग्रहे निर्गतानां यत्र साधर्मिकैवर्षायासः मासमपि परिहर्तुं न शक्तिस्ततः पञ्चत्रिंशति दिनानि परिहकृतम्तत् क्षेत्रं वर्तयित्वा अन्येषु प्रामनगरादिषूपकरणस्य र। अथैवमपि गच्छो न संस्तरति ततः पञ्चविंशति दिनानि, ग्रहणं भवति । ये संविनाः सांभोगिका असांभोगिका वा तथाऽप्यसंस्तर पञ्चदश दिनानि, तथाप्यशकौ दश दिवतेषां यद्वर्षाक्षेत्रं तत् सक्रोशयोजनं परित्यज्य गृह्णन्ति, इतरे। सान् , तथाऽप्यसामध्ये एकमपि दिनं परिहरेदिति संग्रहगापार्श्वस्थाश्यस्तेषां वर्षावासक्षेत्रं तत्र तैगृहीते उपकरणे
थासमासार्थः। पश्चात् संविग्न गृह्णन्ति । वेषां च क्षेत्र मासद्वयं न परिहि
अथैनामेव विवृणोतियते ।
बालासहवुड्डअतरं-तखमगसेहाउलम्मि गच्छम्मि । कुत इति चेदुच्यते
सीतं अविसहमाणे, गेण्हंति इमाएँ जयणाए ।।६०४॥ वासासु वि गिरोहंति, खेव य णियमेण इतरे विहरंती । | तथाविधवस्त्राभावाद्वालासहिष्णुवृद्धग्लानक्षपकरीक्षाकुले तेहि इ सुद्धमसुद्धे, गहिए गिएहंति जं सेसं ॥५६॥ | गच्छे सीतमविषहमाणे--सोढुमशक्ने साधषः अनया इतरे-पावस्थादयो वर्षास्वपि वस्त्राणि गृहन्ति, न च निय
यतनया स्वक्षेत्रे वा वस्त्राणि गृह्णन्ति ।। मेनैव चतुर्मासानन्तरं ते विहरन्ति, अतस्तैः शुद्धेऽपि अशु- पञ्चूणे दो मासे, दसदिवसूणे देिवमासं वा । द्धेऽपि वा उपकरणे गृहीते यच्छुद्धं वस्त्रादिकं श्राद्धाः प्रय
दसपश्चाहिय मासं, पणवीसदिणे व वीसं वा॥६०॥ च्छन्ति तन्मासद्वयमध्येऽपि गृह्णन्ति ।।
पन्नरस दस य पश्चव,दिणाणि परिहारिय गेएह एगं वा । सक्खेत्ते परक्खेते वा, दो मासा परिहरेउ गेएहति ।
अहवा एक्केक्कदिणं, अउणहिदिणाइ प्रारम्भ ॥६०६॥ जं कारणं ण णिग्गय,तं पि बहिज्झोसियं जाणे ॥६००॥
अगावे कारण पञ्चभिर्दिवसरूनौ द्वौ मासौ परिहत्य वा प्र. स्वक्षेत्र-यत्रात्मना वर्षाकल्पः कृतः परक्षेत्र-यत्रापरसंविना वर्षाकल्पं स्थिताः, तत्र स्वक्षेत्रे वा द्वौ मासौ परिहत्य तृतीय
हातव्यम् ,तथा तावन्तं कालं यावद्वालवृद्धादयः शीतेन परिमासि गृहन्ति । अथ चतुर्मासानन्तरं कर्दमादिभिः कारण
ताप्यमाना न संस्तरन्ति, ततो दशदिवसोनौ द्वौ मासौ परिनं निर्गतास्ततो यावन्तं कालं कारणमपेक्ष्य न निर्गतास्तम
हृत्य वस्त्रं ग्राह्यम् । एवं सार्द्धमासं दशदिवसाधिकं वा मासपिकालं बहिमोषितम्-बहिः क्षिप्त जानीयात्-गणयेत् ताव
पञ्चविंशति दिनानि दश दिनानि पञ्च वा दिनानीति यथान्तमपि कालं बहिर्निर्गता इव मन्तव्या इति भावः ।
म परिहृत्य वस्त्रं गृह्णीयात् , अथ पञ्च दिवसानपि वस्त्राभावे ___ कैः पुनः कारणनै निर्गता इत्याह--
बालवृद्धादयो नात्मानं निर्वाहयितुमीशास्ततश्चत्वारि त्रीणि चिखल्लवासअसिवा-दिएसु जहि कारणेसु उवणेति। नहानिर्दछुट्या, तद्यथा-यत्र वर्षावासं स्थितास्तत्र पष्टि
हैं यावदेकमपि दिनं परिहत्य ग्रहीतव्यम् । अथ एकैव दिदिन्ते पडिसोधित्ता, गण्हति उ दोसु पुस्मेसु ॥६०१।।। दिनानि परिहत्य उत्सर्गतो वस्त्रग्रहणं कर्तव्यम् । कारणे पुचिखल्लः-कदमस्तदाकुलाः प्रतिषिध्य द्वयोस्तु मासयोनों । नरेकोनषष्टिदिनान्यारभ्यैकैकदिनं हापयता तायद्वक्तव्यं या२९४
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( ८५४ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
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वदेकमपि दिनं परिहृत्य वस्त्रग्रहणं कार्यम् । व्याख्यातं प्रथमसमवसरणसूत्रम् । बृ० ३ उ० ।
जे भिक्खू पदमसमोसरदेसाई श्रीवराहं पढिग्गाहेद पडिग्गा वा साइज । ५३ । नि० चू० १० उ० । (२३) प्रणमिति द्वितीयसमयसरणसू व्याख्याति
वियम्मिसमोसरणे, मासा उकोसमा दुवे होति । ओमंथगपरिहाणी, पञ्च व पञ्चैव य जहसे ।। ६०७ ।। द्वितीयं समवरणं नाम ऋतुबद्धकालस्तत्र मासकल्पेन स्थितावादिकमुपकरणमुत्यादयन्ति मासकल्पानन्तरं व तत्र ही मासायुत्कर्षतः परिहर्तव्यी भवतः । कारणे तु तथै वासुखपरिहाराय पञ्च दिनानि दापयता तावन्नेयं यावत् जघन्यत एकं दिनं परिहर्तव्यम् ।
अमुमेवार्थे स्फुटतरमाहअपरिहरंतस्सेते, दोसा ते चैव कारणे गहणं । बालबुड्ढाउले गच्छे, असती दस पञ्च एको य६०८। यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तत्र द्वौ मास (वपरिहारतस्त एव दोषा मन्तव्याः, ये वर्षावासे मासद्वयमपि परिहरत उक्ताः, कारणे तु प्रहणं कर्तव्यम् । कथमित्याह- बालवृद्धाकुले गच्छे यत्राभावे पञ्चकपरिहारमा एकैकपरिहारा वा
व्यं यावद्दश वा पञ्च वा एको वा दिवसः परिहर्तव्यः । यत्र संधिनैर्मासकल्पो वर्षाकल्पः कृतस्तत्र मासद्वयादुपरि पञ्चसु दिवसेष्वपूर्णेषु श्रन्येषां न कल्पते किंचिदपि ग्रहीतुम् ।
यो गृह्णाति तस्य दोषानुपदर्शयतिकरणाणुपालयाणं, भगवतो, आगं परिच्छमाणासं । जो अंतरा उ एहति, तट्ठाणा रोवणमदत्तं ॥ ६०६ ॥ कारणस्य पिण्डविशुद्धयादेः अनुपश्चात् पूर्वऋषिपरंपराक्रमेण पालकाः कारणानुपालकास्तेषां करणस्य च चरणाविनाभावित्वाच्चरणानुपालकानामित्यपि द्रष्टव्यम्, एतेन शीतलविहारतादोषस्तेषां परिहृतो भवति । भगवतो वर्द्धमानस्वामिनो या श्राशा तां तथेति प्रतिपत्या प्रतीच्छताम् अनेन यथाच्छन्दतादोषास्तेषां नास्तीत्युकं भयति पर्वविधानां साधन क्षेत्रमन्तरा गृहीते उपकरणे यो वस्त्रादि गृह्णाति तस्य तत्स्थानारोपणप्रायश्चित्तम् । तद्यथा- उत्कृष्टे चतुर्लघाः, मध्यमे मासिकम्, जघन्ये पञ्चकम् । सूत्रादेशेन वा साधर्मिकस्तैन्यमिति कृत्वा अनवस्थाप्यम् ' प्रदत्तं ' ति भगवता नानुज्ञातमिति कृत्वा तीर्थंकरदयमपि न भवति ।
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उवरिं पञ्चमपुमे, गहणमदत्तं गत त्ति गेहंति । अणपुच्छा दुष्पुच्छा, तं पुष्पगत ति गेहंति ॥ ६१० ॥ परक्षेत्रे द्वयोर्मासयोरुपरिपञ्चसु दिनेषु अपदि ग्रहणं करोति तदा प्रदत्तादानदोषः प्रसज्यते । अथ जानन्ति गता अन्यदेश क्षेत्रस्वामिनः ततोऽप सेषु गृह्णन्ति । अथ शङ्कितं ततो न गृह्णन्ति। अथ ते परदेशं न गतास्ततो यद्यनापृच्छया वा वस्त्रं गृह्णन्ति ततस्तथैवादनादानदोषं प्राप्नुवन्ति यत एवमतस्तद्वत्रा
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दिकमुपकरणं गता निःशङ्कितमन्यदेशं क्षेत्रिका इति विज्ञाय पूर्ण मासद्वये गृह्णन्ति । अत्रानापृच्छा नाम क्षेत्रम कृतं नवेति न पृच्छति पुष्पृच्छा पुनरविधिना प्रय्यनम् ।
साखेयम्गोवालवच्छवाला, कासगआदेस बालबुड्डा य । अविधी विधी तु सावग, महत्तरधुवम्मि लिंगत्था । ६११। ये गोपालवत्सपालकर्षकाः प्रभाते निर्गताः सन्तो भूयः ग्राम प्रविशन्ति तत्रादेशाः प्राधर्षका अन्यन्नामादायाता ये बालवृद्धादयो ऽत्यन्तमुग्धा विस्मरणशीलाध तान् पृच्छति, किं भ्रमणैः कृतं वस्त्रग्रहणं भवति ?, एषा अविधिपृच्छा । विधिपृच्छा पुनरियम् - श्रावका वा महत्तरा वा पृच्छनीयाः । येषु साधूनां वस्त्रग्रहणसंभवो भवति, ये वा धुवकर्मिका लोहकाररथकारादयो ये वा लिङ्गधारिणस्तान् पृच्छति, बादिग्रहणं साधुभिः कृतं न वेति ।
परक्षेत्रे यत्रग्रहणविधिमभिधित्सुराह गंग पुच्छिणय, तेर्सि बघणे गवेसथा होति ।
सागते सुद्धे सुजत्तियं सेस अग्गहणं ।। ६१२ ॥ क्षेत्रस्वामिनां समीपे गत्वा विधिवदापृच्छय तेषां साधूनां वचने अनुक्षायां तदीये क्षेत्रे गवेषणा कर्त्तव्या भवति । श्रथ न ज्ञायते ते कुत्रापि गता श्रमीभिः साधुभिस्तत्र वह कियदपि कृतम् ते च क्षेत्रस्वामिन आगताः । ततस्तेषु शुद्धेषु विधिना श्रागतेषु यावद्वस्त्रादि गृहीतं तावतेषां प्रत्यर्पयितव्यम् ।
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इदमेव सविशेषमाहउप्पलकारला गं तु पुच्छ तेहि देव गेति ।
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सागतेसु सुद्धे सुजतियं सेस अग्गहणं ।। ६१३ ॥ बालवृद्धे शैक्षादीनां शीतपरितापनालक्षणे वस्त्रग्रहणकारणे उत्पन्ने स्वरोत्रे दुर्लभ सम्प निश्चित्य पर कर्तुकामाः क्षेत्रस्वामिनामन्तिके गत्वा पृष्ठा च तैर्दत्तमभ्यनुज्ञातं यावत्प्रमाणं वस्त्रादि तावदेव गृह्णन्ति, नातिरिकम् । अथ न ज्ञायन्ते कुत्रापि गतास्ततो विधिपृष्ठया उपकर ने यदि क्षेत्रका शुदा समागच्छेयुः, ततः शुद्धेषु च्यागतेषु ततो यावद् गृहीतं तावतेषां प्रत्यपेयन्ति शेषस्य च ग्रहणम् ।
कथं पुनस्ते क्षेत्रिका श्रागताः शुद्धा अशुद्धा वा भवन्तीत्युच्यतेपरिजग्गंति गिलाणं, प्रोसहहेऊहि अहव कजेहिं । एतेहि होंति सुद्धा, अह संखडिमादि तह चेव ||६१४॥ क्षेत्रिकामास अमीभिः कारने समागन्तु शक्नुयुः । ग्लानं प्रति जाग्रतः स्थिताः, ग्लानस्य वा श्रौषधमदं तन्मीलनहेतोः स्थिताः कुलगणकार्येषु वा न्यापूताः एवमादिभिः कालेनागच्छन्तः शुद्धाः अथ सेखडिनिमित्तं स्थिता वजिकादिषु वा प्रतिवध्यमाना आगताः ततः तथैव मासद्वयं यावत्तदीयं क्षेत्रम् उपरि तु पञ्चरात्रं न ते प्रभवस्ततो यत्तैस्तत्र क्षेत्र गृहीतं तद्गृहीतमेव न क्षेत्रिकाणाम् ।
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पक्षा
(८५५)
अभिधानराजेन्द्रः। प्रायश्चित्तम् , अमूनि तु विशुखकारणानि
र्षणरहिताम्यपरिकमाणि प्रार्थयेदिति । तत्र " उद्दिट्ट १ तेखभपसावमभया , वासेण णदीऍ वा विरुद्धाणं ।
पहे २ अंतर ३ उन्मियधम्मा ४ य" चतस्रो बसेषणा
भवन्ति, तत्र चाधस्तन्योईयोरग्रहः , इतरयोस्तु प्रहः । दापबमदेताणं, चउगुरु तिविहं च णवमं च ॥६१।।
तत्राप्यन्यतरस्यामभिग्रह इति , याञ्चावाप्तानि च वस्त्रास्तेमभयावाश्वापदभयावावर्षेण वा नद्या या निरुद्धानां चि
णि यथापरिगृहीतानि धारयेत् , न तत्रोत्कर्षणधावरावागमनमभूत्ततोयद् गृहीतं तत्तेषां गतानां दातव्यम् ,अथन
नादिकं परिकर्म कुर्याद् । एतदेव दर्शयितुमाह-नो वदति ततचतुर्गुरुकम्,उपकरणनिष्पनं वा त्रिविधं पञ्चकमा
धावत्-प्रासुकोदकेनापि न प्रक्षालयेत् , गच्छवासिनो सिकं चतुर्लघुकलक्षणम् , नवमं वा सूत्रादेशेनानवस्थाप्यम् ।
ह्मप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकोदकेन यतनया परदेसगते गाउं, सयं व सेजातरं व पुच्छित्ता।
धावनमनुज्ञातम् , न तु जिनकल्पिकस्येति , तथा-न गेएहंति भसढभावा , पुणेसु तु दोसु मासेसु ॥६१६॥ धीतरनानि वखाणि धारयेत् , पूर्व धौतानि पश्चाद्रलास्वयमपि शेषिकान् परदेशगतान निश्चित्य योर्मासयोः नीति , तथा प्रामान्तरेषु गच्छन् वस्त्राण्यगोपयन बजेद् । पूर्णयोरशभावाः शुद्धपरिणामा गृहन्ति ।।
एतदुक्तं भवति-तथाभूतान्यसावन्तप्रान्तानि विभर्ति काविदयपदमणाभोगे, सुद्धा देंता भदेंत ते चेव ।
नि गोपनीयानि न भवन्ति , तदेवमसाववमचेलिकः , अवमं
च तचेलं चावमचेलं प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च , तद्यमाउडिया गिलाणा, दिजति यंसेस अग्गहणं ॥६१७॥
स्यास्त्यसाववमचेलिक इत्येतत् पूर्वोकम् , खुः-अवधारणे । द्वितीयपदमत्रोच्यते । अनाभोगो नाम किमत्र साधवो व
एतदेव वस्त्रधारिणः सामग्र्यं भवति-एव त्रिकल्पात्मिका पीकल्पं कृतवन्तो नवेति न सम्यक परिक्षातम् । ततः परक्षे- द्वादशप्रकारोधिकोपध्यात्मिका वा सामग्री भवति नापरेति । ऽपि गृहीयुः, पश्चात्माते क्षोत्रिकाणां प्रयच्छन्तःशुखाः। श्र
(२४) शीतापगमे तान्यपि वस्त्राणि थअप्रयच्छतांत एव दोषाः। अथाकुट्टिकया अभोगेन गृहीतं
त्याज्यानीत्येतदर्शयितुमाहपरं ग्लानादीनामर्थ ततो यावत्तेषामुपयुज्यते तावद् गृहन्ति,
अह पुण एवं जाणिजा-उवाइकते खलु हेमंते गिम्हे शेषमतिरिक्तं न गृहन्ति । वृ० ३ उ०।
पडिवो अहापरिजुलाई वत्थाई परिदृविजा , अदुवा जे मिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायचउत्थेहिं तस्स
संतरुत्तरे अदुवा प्रोमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा प्रणं नो एवं भवइ-चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेस
चेले । (सू० २१२) णिजाई वत्थाई जाइजा महापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा,
यदि तानि वस्त्राण्यपरहेमन्तस्थितिसहिष्णूनि तत उभयनो धोइजा नो रएजा, नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा,
कालं प्रत्युपेक्षयन विभर्ति , यदि पुनर्जीर्णदेश्यानि जीर्णाअपलिभोवमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खु वत्थधा- नीति जानीयात् ततः परित्यजति, इत्यनेन सूत्रेण दर्शयति । रिस्स सामग्गियं । (सू०-२११)
अथ पुनरेवं जानीयाद्यथाऽपक्रान्तः खल्वयं हेमन्तो प्रीष्मः इह प्रतिमाप्रतिपत्रो जिनकल्पिको वा अच्छिद्रपाणिः, त
प्रतिपन्नः, अपगता शीतपीडा, यथा परिजीणीन्येतानि स्य हि पात्रनिर्योगसमन्वितं पात्रं कल्पत्रयं चायमेवौधो
वस्त्राणि , एवमवगम्य ततः परिष्ठापयत्-परित्यजेपधिर्भवति नौपग्रहिकः, तत्र शिशिरादौ क्षौमिक कल्पद्वयं
दिति । यदि पुनः सर्वाण्यपि न जीर्णानि ततो यद्य
ज्जीणं तत्तत्परिष्ठापयेत् , परिष्ठाप्य च निस्सङ्गो विहरेत् । सार्द्धहस्तद्वयायामविष्कम्भं तृतीयस्त्वौर्णिकः , स च सत्यपि शीते नापरमाकाातीत्येतदर्शयति-यो भिक्षुः त्रिभिर्वस्त्रः
यदि पुनरतिक्रान्तेऽपि शिाशरे क्षेत्रकापुरुषगुणाद्भवेपर्युषिते-व्यवस्थितः , तत्र शीते पतत्येकं क्षौमिकं प्रावृणो
कछीतं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-अपगते शीते वस्त्राणि ति , ततोऽपि शीतासहिष्णुतया द्वितीय क्षौमिकम् ,पुनरपि
त्याज्यानि । अथवा-क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि पाते वाति
सत्यात्मपरितुलनार्थ शीतपरीक्षार्थ च सान्तरोत्तरो भवेत्अतिशीततया दौमिककल्पद्वयोपौर्णिकमिति, सर्वथोणिकस्य बाह्याच्छादनता विधया । किम्भूतैत्रिभिर्वस्वैरिति
सान्तरमुत्तरम्-प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित्प्रावृणोति दर्शयति-पात्रचतुर्थैः-पतन्तमाहारं पातीति पात्रम् , तह
कचित्पार्श्ववर्ती विभर्ति शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति ।
अथवा-अवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थः । णेन च पात्रनिर्योगः सप्तप्रकारोऽपि गृहीतः , तेन विना
अथवा-शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कतहणाभावात् । स चायम्-“पत्तं पत्ताबंधो. पाय?वणं च पायकेसरिश्रा । पडलाइ रयत्ताणं, च गोच्छो
ल्पं परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृतः, अथवा-श्रात्यन्तिके
पाणिजोगो॥१॥" तदेवं सप्तप्रकारं पात्र कल्पत्रयं रजोहरणम् १
शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति, असौ मुखवमुखवस्त्रिका २ चेत्येवं द्वादशधोपधिः , तस्यैवम्भूतस्य भि
स्त्रिकारजाहरणमात्रोपधिः। क्षोः 'रणं' इति वाक्यालङ्कारे नैवं भवति , नायमध्यव
किमर्थमसावकैकं वस्त्रं परित्यजेदित्याहसायो भवति , तद्यथा-न ममास्मिन् काले कल्पत्रयेण स
लापवियं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ । म्यक शीतापनोदो भवत्यतश्चतुर्थ वस्त्रमहं याचिध्ये, अ-I (सू०-२१३) ध्यवसायनिषेधे च तद्याचनं दूगेत्सादितमेव । यदि पुनः लघाभायो लाघवं लाघवं विद्यत यस्यासी लायविक (स्त ) कल्पत्रयं न विद्यते शीतकालश्चापतितस्ततोऽसौं जिनक- मात्मानमागमयन्-श्रापादयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यात् , शल्पिकादिर्य थैपणीयानि वखाणि याचेत-उत्कर्षणापक-) रीरोपकरणक.मणि वा लाघवमागमयन् वस्त्रपरित्यागं कु-
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अभिधानराजेन्द्रः। र्यादिति । तस्य चैवम्भूतस्य किं स्यादिस्याह-'से' तस्य संभोइयसामने, तह चेव जहेकगच्छम्मि ॥ ६२१॥ वनपरित्याग कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्यागतं भवति ,
द्विकादीनां-द्वित्रिप्रभृतीनामाचार्याणां सामान्य क्षेत्र तेषाकायलेशस्य तपोभेदत्वात् , उक्तं च-"पंचहि ठाणेहिं सम
मनापृच्छया गृहन्तत्रिविधा शोधिः-प्रायश्चित्तम् ,जघन्ये पणाणं निग्गंथाणं अचेलगत्ते पसत्ये भवति, तं जहा-अप्पा पडिलेहा सासिए रूवे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्थे
श्वकम् , मध्यमे मासिकम् , उत्कृष्ट चतुर्लघवः नवम था सू
प्रादेशेनानवस्थाप्यम् । ते चाऽऽचार्याः परस्परं सांभोगिका ४ विउले इंदियनिग्गहे ५"। एतच भगवता प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह
स्ततः,सामान्य क्षेत्रेवन्नग्रहणे तथैव विधिरवसातव्यः । एक
स्मिन् गच्छे संघाटकादिक्रमेण अनन्तरगाथायामुक्तः । जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिचा सब्बो स
असांभोगिकेषु विधिमाहबत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिजा । (मु०-२१४)।
अमणुस्म कुलविरेगो, साही पडिवसह मूलगामे वा। यदेतद्भगवता-धीरवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितं तदेवाभि-1 समेत्य-मात्या सर्वतः-सवैः प्रकारैः सर्वात्मतया सम्यक्त्व
अहवा जो जं लाभी, ठायंति जहा समाधीए ॥६२२॥ मेव समत्वं वा-सचेलाचेलावस्थयोस्तुल्यतां समभिजानी- |
अमनोशा-असांभोगिकास्तैः सह यत् क्षेत्रं साधारणं तत्र यात् भासेवनापरिक्षया श्रासेवतेति । आचा० १ श्रु०८
कुलादीनां विरेको-विभजनं कर्तव्यम् , यथा-एतेषु कुलेषु युअ०४ उ०।
ष्माभिर्वस्त्राणि प्रहीतव्यानि, एतेषु पुनरस्माभिः । यद्वा(२५) अचार्यानुशया निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणम्- अस्यां साहिकायां गृहपङ्क्तिरूपायां भवद्भिः, अस्यां पुनर
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए स्माभिः । अथवा-प्रतिवृषभग्रामेषु यूयं ग्रहीष्यथ, वयं मूचेलाई पडिग्गाहित्तए ॥१६॥
लग्रामे प्रहीष्यामः । मूलनामे वा यूयम् , वयं प्रतिवृषभअस्य सम्बन्धमाह
प्रामेषु, अथवा-यो यद्वस्त्रं कुलादौ पर्यटन लाभी-लप्स्यदिद्वं वत्थग्गहणं, तेसिं परिभायणे इमं सुत्तं ।
ते, तेन तस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । एतेषामन्यतमेन प्रकारेण
व्यवस्था स्थापयित्वा यथा समाधिना तत्र तिष्ठन्ति । अविणय असंविभागा,अधिकरणादीसु णेवं तु ॥६१८।।
एवं साधारणाऽसाधारण क्षेत्रे वस्त्राणि गृहीत्वा किं द्वितीयसमवसरणे दृष्टं तावद्वस्त्रग्रहणं संप्रति तेषां-वस्त्राणां
कर्तव्यमित्याहपरिभाजने-विभज्य प्रदाने यो विधिस्तदभिधायकमिदं सूत्रमारभ्यते । इत्थं विभज्य प्रदाने किं प्रयोजनमिति चेदत श्राह
वत्थेहिं प्राणिते-हि देंति जह रातिथि तिहिं वसभा। एवं यथा रत्नाधिकं वस्त्राणां विभज्य दाने अविनयोऽसंवि. अदाणे गुरुणो लहु-गा सेसे लहु इमे होंति ॥६२३॥ भागोऽधिकरणादयश्च दोषा न भवन्तीत्यनेन सम्बन्धेनायात- वस्त्रेषु समानीतेषु ये वृषभास्ते यथारत्नाधिकं तत्र वस्थास्य (१६ सूत्रस्य) व्याख्या-कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थी
स्त्राणि प्रयच्छन्ति । यदि तत्र गुरूणां प्रथमतो वस्खदानं नां वा यथारानिकं यो यो रानिको भवेत् ररधिकस्तदन- न कुर्वन्ति तदा चतुर्लघुकः , शेषाणां यथा रत्नाधिकं घितिक्रमेण चेलानि प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः।
मज्य न प्रयच्छन्ति लघुमासः । ते च रत्नाधिका इमे वअथ नियुक्तिविस्तरः
क्यमाणा भवन्ति । संघाडपण एक-तो हिंडंति वंदपण जयणाए ।
तत्र गुरूणां यारशानि वस्त्राणि दीयन्ते । तदेतत्प्रसाधारणऽणापुच्छा,अदत्तं ता इक्कयो भागा ॥६१४॥
तिपादयतिसंघाटकेनैकतः एकस्यां दिशि साधवो वस्त्रग्रहणाथै हि- विदु क्खमा जे य मणोऽणुकूला, एडन्ते, अथ संघाटकेन न प्राप्यते ततो वृन्देनापि यतनया
जे यो व जुजंति असंथरंतो। पर्यटन्ति । अथ साधारण बहुनामाचार्याणां सामान्य तत् यदि तत्रापरेषामाचार्याणामनापृच्छया गृहन्ति तदा 'अद
गुरुस्स साणुग्गहमप्पिणित्ता, 'ति साधम्मिकस्सैन्यं भवति । अतस्तानापृच्छय गृहीत्या भायंति सेसाणि उ झंझहीणा ॥ ६२४ ॥ च तेषां वस्त्राणामेकत-एकसरशा भागाः कर्तव्याः न वि- साधुभियथाविधि गृहीत्वा भूयांसि वासांसि वृषभाणां समसहशा इति ग्रहणगाथासमासार्थः।।
र्पितानि,ततोवृषभा 'विदु' ति विदित्वा सुन्दरा सुन्दरताविसाम्प्रतमेनामेव विवणोति
भार्ग विज्ञाय यानि क्षमाणि-दृढानि यानि च मनोऽनुकूलानि निस्साधारणखेले, हिंडतो चेव गीतसंघाडो । गुरूणां मनसोऽभिरुचितानि यानि वा संस्तरन्ति गच्छे गुरुपउप्पादयते वत्थे, असती तिगमादिवंदेणं ।। ६२०॥
रिभुक्तान्यपि शेषसाधूनामुपयुज्यन्ते,तानि गुरुः सानुग्रहम्निस्साधारणे एकाचार्यप्रतिबद्ध क्षेत्रे गीतार्थसााटको ।
सविशेषं यथा भवति एवमर्पयित्वा शेषाणि वस्त्राणि भिक्षां हिण्डमान एव वस्त्राण्युत्पादयति , अथ संघाटके
झम्झा-कलहस्तेन हीना-विरहिताः सन्तो यथारत्नाधिक पन हिण्डमाना न प्राप्नुवन्ति तत्तत्त्रिकादिवृन्देन त्रिचतुः
रिभाजयन्ति। पञ्चादिसाघुसमूहेन पर्यटन्त उत्पादयन्ति ।
अथ तानेव रत्नाधिकानाहसाधारणक्षेत्रे पुनरयं विधिः
उवसंपज्ज गिलाणे, परिनसुतसोयअथवयजाती। दुगमादी सामछे, अणपुच्छा तिविह सोधि णवमं वा।। तवभासालद्धीए, ओमे दुविहस्स अरिहाओ ।। ६२५ ।।
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तरमेव
प्रयादिविषयो
अभिधानराजेन्द्रः। 'उवसंपज्ज' ति यस्तत्र प्रथमतया उपसंपदं प्रतिपद्यते । अथ पुम्देनानीतानां यो विधिस्तदभिधित्सुराहरखानो-मन्दः । स च द्विधा भागाढोऽनागाश्च । यस्तु परि- खेगेहिं प्राणियाणं, पारेत परियाग खुभिय पिंडेत्ता । मितोपधिः 'सुत' ति बहुथुतः सोयनत्य'ति यो व्याख्या
प्रावलिया मण्डलिया, लुद्धस्स य संमता अक्खा ।६२६। नमण्डल्या उत्थितानां सूत्रार्थयोतब्ये ज्येष्ठतया व्यवड़िय
अनेकैः साधुभिरानीतानां वस्त्राणां पारभाजनविधिरुज्यते, ते 'जाइ'ति जातिस्थषिरःषष्टिवर्षपर्यायः 'तव'तितप
प्राचार्यादिक्रमेण परीत्तोपधीनां यावत् दत्त्वा ततो ये पर्यास्वी 'भास' ति य भाभाषिकः स्वदेशभाषायामभिः 'लडीए'त्ति यस्य लगया बन्नाणि लभ्यन्ते, एतेषामुपसंप
यरात्निकास्तपाहिण्डमानानामपि प्रथमतो दातव्यम् । धमांनादीनां यथाक्रमं दत्त्वा ततो यो यः पर्यायरत्नाधिकः
तत्र च यस्तानि वस्त्राणि समानीतानि ते पिण्डित्या-संभूय स स प्रथमं गृहाति 'प्रोमि' सि अवमरात्निकः पश्चाद् गृ.
खुभितं क्षाभं कुर्वीरन् कलहमिति यावत् ,बुवीरन्।"श्रावलिकजाति । पते यथाक्रम द्विविधस्य उपधेरोपग्राहकोपपेश्व
या मण्डलिकया वा" विभजनं विधीयतां, "लुद्धस्स य समता ग्रहणे अर्हाः-योग्या मन्तव्याः।
भक्ख"त्ति कस्यापि पुन ब्यस्य अक्षान् पातयित्वा वनवि
भजनमभिमतमेष संग्रहगाथासंक्षेपार्थः । एएसि परूवणया, जा य विखा तेहि होति परिहाणी ।
साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराहमहवा एकेकस्स उ, अद्धोकंतिकमो होति ।। ६२६ ।।
गएहंतु पुजा गुरवो जदिटुं, एतेषामुपसंपद्यमानादीनां प्ररूपणा-व्याख्या कर्तव्या, सा
सव्वं भणामऽम्ह वि एयदिहें, चानन्तरमेव कृता । यद्येतेषां यथाक्रमं वृषभा न प्रयच्छ- अणुम्मसंवट्टियऽकक्कसङ्गा, न्ति ततो या तेषां तैर्षौर्विना परिहाणिः संयमविरा
गिणहन्ति जं अत्ति न तं सहामो ॥ ६३० ।। धनादिका भवति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथवा-एकैकस्यौपसंपद्यमानादेः प्रत्येक ग्लानादिविषयोऽयमर्धापका
अहिण्डमानानां वस्त्रेषु दीयमानेषु ये वस्त्राणामानेतारस्ते न्तिकमो भवति ।
ब्रुवीरन् । 'जदिटुं' मनोऽनुकूलं वा गुरवो गृहन्ति तत्ते
सकलगन्छस्वामितया पूज्या इति कृत्वा गृहन्तु । यद् गुतद्यथा
रूणामुत्कृष्ट वस्तु दीयते तत् सत्यमवितथमिति वयमपि उवसंपजगिलाणो,अगिलाणो वाऽवि दोसि वि गिलाणे।
भणामः । न केवल वचसैव भणामः, किंतु-मनसाऽप्यस्माकतत्थ वि य जो परित्तो, एस गमो सेसगेसुं पि ॥६२७।। मेतदिष्टमेव । परमनुष्णन-भिक्षापरिभ्रमणाभावादुष्णलमना. उपसंपद्यमानो द्विविधः-ग्लानोऽग्लानश्च । तत्र यो ग्ला
भावेन सवर्तितानि-बर्तुलीभूतानि अत पवाकर्कशानि अमस्तस्य दातव्यम् । अथ द्वावपि ग्लानावग्लानी वा, ततो
मानि पाणिपादपृष्ठोदरप्रभृतीनि येषां ते अनुष्णसंवर्तिता:यस्तत्र परीत्तोपधिस्तस्मै दातव्यमेवमेष गमः-प्रकारः
कर्कशाला, एवंविधाः सन्तो यदन्ये अहिण्डमानाः प्रथम गृ. शेषेष्वपि बहुश्रुतादिपदेषु मन्तव्यः । तद्यथा-दावपि परी
हन्ति न तद्वयं सहामहे ।। तोपधी अपरीत्तोपधी वा ततो यो बहुश्रुतस्तस्मै देयम् ।
आगंतुगमादीणं, जइ दायव्वाइँ तो किणं अम्हे । अथ द्वावपि बहुश्रुतौ ततो यश्चिन्तनिकाकारकस्तस्मै दात- कम्हारभिक्खुयाणं, गाहिजामेण गइमसिग्या ॥६३१॥ व्यम् । अथ द्वावपि चिन्तनिकाकारको ततो यस्तत्र जा
आगन्तुका-उपसंपत्तारस्तेषामादिशब्दाद्-ग्लानादीनां च तिस्थविरस्तस्य दातव्यम् । अथ द्वावपि जातिस्थविरौ
यदि दातव्यानि वस्त्राणि ततः 'किण' ति केन ततो यस्तपस्वी तस्य दातव्यम् । अथोभावपि तपस्विनी
कारणेन वयं कर्मकारभिक्षुकाणां देवद्रोणीवाततो यो भाषिकस्तस्मै दातव्यम् । अथ द्वावप्यभाषिको
हकभिक्षुविशेषाणां गतिमश्लाघ्या-निन्दनीयां प्राहाभाषिको वा ततो यो लब्धिमान् तस्मै प्रदातव्यम् ।
महे । किमुक्तं भवति-यदि नामास्मदानीतानां बनाप्रकारान्तरेण यथारत्नाधिकपरिपाटिमाह
णामेते आगन्तुकादयः स्वामिभावं भजन्ते, ततः किमेवं व
यं देववाणीवाहकभिक्षुकवन्मुधैव वस्त्राद्यानयनकर्म कार्यापायरिए य गिलाणे, परित्त-पूया-पवत्ति-थेर-गणी।
महे इति वस्त्राण्यानेतारश्चिन्तयेयुः। सुत-भासा-लद्धिवप्रो, मोमे परियागरातिणिए ॥६२८॥
ततः-- प्राचार्यस्य पूर्व विशिधानि वस्त्राणि दत्त्वा ततो ग्लानस्य विविश्वमाणे प्रहवा विरक्के, दातव्यानि, ततः परीसोपस्ततः 'पूर्य' ति चय॑भिप्राये खोभं विदित्ता बहुगाण तत्थ । ण पूजनाईस्य उपाध्यायस्य, बृहकाच्याभिप्रायेण तु पूजनाईस्य गुरुसंबन्धिपितृव्यादेः, ततः प्रवर्तिनस्तदनन्तरं स्थवि
ओमेण कारिति गुरुन्विरेग रस्य,ततो 'गलि' सि गणाषच्छेदकस्य, ततः श्रुतसम्पन्नस्य,
विमज्झिमो जो व तहिं पटू य ॥ ६३२ ॥ ततो भाषिकस्य, ततो लब्धिमतः, यथाक्रम दातव्यम् । एवं विविच्यमाने, अथवा-विरक्त उपकरणे बहूनामनम्तरो. अापक्रान्तिचारणिका प्राग्वत् कर्तव्या । तदनन्तरं यो यः कंक्षोभ विदित्वा यस्तत्रावमः सर्वेषामपि पर्यायलघुयों या पर्यायरालिका तस्य प्रथमम् ,अवमरानिकस्य तु पश्चाद् यथा | विमध्यमोऽपि तत्र वनविभजने पटुः कुशलस्तेन गुरखो कम दातव्यम् । एवं तावत्संघाटकेनानीतानां विधिरुक्तः। । विभजन कारयन्ति ।
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(15) अभिधानराजेन्द्रः।
वत्थ अथ कोऽपि लुब्ध एव कमप्यपरितुष्यन् ब्रूयात-श्राव- तथाऽप्यस्थितस्य तस्य तदभीष्टं वस्त्रं दत्त्वा विवेचनं कर्तलिकया मण्डलिकया वा वस्त्राणि विभज्यतां ततः व्यम् । निर्गच्छ मदीयाद् गच्छादिति भणनीयमिति भाको विधिरित्याह
वः । ततो यदि भूयोऽप्युपतिष्ठते , मिथ्या मे दुष्कृतं न प्रावलियाएँ जतिद्वं, तं दाऊणं गुरूण तो सेसं । पुनरेवं विधास्यामीति , ततः स्वरण्टनी वक्ष्यमाणा कर्त
व्या,प्रायश्चित्तं च दातव्यम् । किमित्याह-अक्षेषु गुरुका भगएहंति कमेण जो, उप्परिवाडि न पूति ॥ ६३३ ॥ |
वन्ति । यो ब्रवीति अक्षान् पातयित्वा विभजत तस्य मंडलियाण विसेसो, गुरुगहिते सेसगा जहावुई।
चतुर्गुरुकम् । शेषेषु स्थानेषु क्षोभकरणावलिकामण्डलिकाभागे समे करेत्ता, गेएहति अणंतरं उभो ॥ ६३४ ॥| विभाजनलक्षणेषु चतुर्लघुकम्। प्रावलिका नाम ऋज्वायतश्रेण्या वस्त्राणां व्यवस्थापनं त
अथ खरण्टनामुपदर्शयतिया समभागीकृत्य वस्त्रेषु स्थापितेषु यदिष्ट वस्त्रं तत् गुरू- हिरनदारं पसुपेसवग्गं, णां दत्त्वा शेषाणि यथारत्नाधिकं गृह्णन्ति याबदावालिका
जदा च उज्झित्तु दमे ठितोऽसि । निष्ठामुपगच्छति । उत्परिपाट्या ग्रहणं न पूजयन्ति-न प्रशंसन्ति तीर्थकरादय इति गम्यते । मण्डलिकायामप्येव
किलेसलद्धेसुइमेसु गिद्धी, मेव नवरं तेषां विशेषोऽयमुपदर्श्यते-पूर्व गुरुभिहीते-ततः जुत्ता न कत्तुं तव खिंसणेवं ।। ६३८ ।। शेषाः यथावृद्ध यो यः पर्यायवृद्धस्तदनतिक्रमेण समान्
हिरण्यं-सुवर्ण दाराश्च-कलत्रं हिरण्यदारं,पशवश्च गोमहिषीभागान् कृत्वा उभयोरप्यायातलक्षणयोरनन्तरमव्यवहितं प्रभृतयः प्रेक्षाश्च कर्मकरास्तेषां वर्गः-समूहस्तमेवमादिकं परि वस्त्राणि गृह्णन्ति । इयमत्र भावना-मण्डलिकया वस्त्रेषु स्था- ग्रहमुज्झित्वा-तृणवत् परित्यज्य यदा किल त्वमेवंविधे दमे पितेषु प्रथममाचार्येण गृहीते ततो यः शेषाणां मध्ये रत्ना- संयमे स्थितोऽसि, तदा साम्प्रतमेतेषु वस्त्रेषु क्रेशलब्धेषुधिकः स मण्डलिकाया धुरि स्थापितं वस्त्रं गृहाति। - प्रभूतगृहपरिभ्रमणादिप्रयासप्राप्तेषु तव गृद्धिः कर्तुं न युक्ता, बमरात्निकस्तु पर्यन्तस्थापितं सर्वान्तिमम् । ततोऽपि योs.
एवं खिंसना तस्य कर्तव्या । बमपर्यायस्साधुभिस्स्थापितः स तदनन्तरं गृह्णाति,तदपेक्षया
सम्मं विदित्ता समुवट्टियं तु, लघुतरपर्यन्तपादुिपान्त्यं गृह्णाति एवं तावद् गृहन्ति याव- थेरासि तं चेव कदाइ देजा । मण्डलिका निष्ठिता भवति । एवमपि विभज्यमाने कोऽपि
अन्नेसि गाहे बहुदोसले वा, लोभाभिभूतमानसो ब्रूयात् अक्षान् पातयित्वा यद्यस्य भागे समायाति तत्तस्य दीयताम् ,एवं ब्रुवाणोऽसौ प्रज्ञापयितव्यः।
__ छोहण तत्थेव करिति भाए ॥ ६३६ ॥ कथमिति चेदुच्यते
वत्थेव गए कोई, वत्थं लद्धं निवेयध गुरुणो । जइ ताव दलंति गालियो,.
देहि तुमंचिय हणियो,भाएइ णिगइ णिमो सोय।६४० धम्माऽधम्मविसेसवाहिला।
सम्यग् पुनः करणेन समुपस्थितं तं विदित्वा स्थविराःबहुसंजयविंदमझके,
सूरयः कदाचित्तस्यैव तद्वखं दधुः । अथान्येषामपि बहुना
तद्वस्त्रग्रहणे ग्राहो मोहनिबन्धः 'बहुदोसले वा' प्रभूतदोषउवकलणेऽसि किमेव मुच्छितो ॥ ६३५ ॥
वानसौ यतः बहुभिः सह द्वेषवान् विरोधविधायी स बहुयदि तावदगारिणो धर्माधर्मविशेषबाह्या अपि मृच्छी प-1 द्वेषवानिति, ततस्तस्य दीयमाने अन्येषां महदप्रीतिकरित्यज्य साधूनामिव चात्मीयानि वस्त्राणि दलन्ति-प्रयच्छ- मुपजायते, एवंविधं कारणं विचिन्त्य तत्रैव तेषु वस्त्रेषु स्ति ततो बहुसंयतवृन्दमध्यके-प्रभूतसाधुजनमध्यविभागे | मध्ये प्रक्षिप्य एकसदृशान् भागान् कुर्वन्ति । ततो यथा त्वमेवैकोपकरणे किमेवं सम्यक्परिबातजिनवचनोऽपि मू-| रत्नाधिकं गृहन्ति । एवं तावदनेकेषामानीतानां वस्त्राणां प. छितोऽसि । नैतद्भवतो युज्यत इति भावः।
रिभाजने विधिरुक्तः । एवमप्युक्तो यद्यसौ नोपशाम्यति ततो वक्तव्यम्
अथ क्षपणानीतानां तेषामेव विधिमभिधित्सुराहअञ्जो ! तुमं चेव करेहि भागे,
खमए लथण अंबले, ततोऽणुधिच्छामो जहक्कमेणं ।
दाउं गुरुए य सांवलितए। गिएहाहि वा जं तुह एत्थ इ8,
वेइ गुलुं एमेव सेसए , विणासधम्मीसु हि किं ममत्तं ॥ ६३६ ॥
देह जईणं गुलूहि बुच्चई ॥ ६४१॥ आर्य ! त्वमेव समान भागान् कुरु ततो यथाक्रमेण वयं प्रहीष्यामः, यद्वा-गृहाणं यत्तवामीषां बत्राणां मध्ये ए
सयमेव य देहि अंबले, मभिरुचितम् ,विनाशधर्माणि हि विनश्वरस्वभाषानि वस्त्रा- ___ तव जे लोयइ इत्थ संजए। दीनि वस्तूनि अतः किं नाम तेषु ममत्वं विधीयते ।
इय छंदिय पेसिउं तहिं, एवमप्युक्तो यदि नोपरतः ततः को विधिरित्याह
___ खमश्रो देइ निसीलअंबले ॥ ६४२ ॥ तह वि अवियस्स दाउं, विगिंचयोवदिए खरंटखया।। किवि भावितकलाटोसमराणिक अक्खेसु होति गुरुगा , लहुगा सेसेसु ठाखेसुं॥६३७॥] नि वरिष्ठानि-सर्वप्रधानानि वासांसि तानि दत्त्वा ततो गुरुं ब्र.
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( ८५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
वत्थ
पीति- पवमेव शामिदानीतानि वस्त्राणि यतीनां प्र यच्छत, ततो गुरुभिरसावुच्यते स्वयमेवामूनि अम्बराणि देहि यस्तवात्र संपतो रोचते वस्त्रदानयोग्यतया रुचि गोचरीभवति इत्यमुना प्रकारेण बन्दितः प्रार्थितः पूर्व इदितो यस्य रोचते तस्मै दातव्यानीत्येवमनुज्ञातच्छन्दः । ततः प्रेषितो मुकलितः सन् स पकस्तत्रावसरे ऋषीणामम्बराणि प्रयच्छति । इह सर्वत्रापि रकारस्य लकारादेशो 'रसोर्लशौ ' ॥ ८ ॥ ४ । २८८ । इति मागधभाषालक्षणवशात् ।
ततश्व
खमए भणियाणं, दिअंतेगस्स बारसे वयसं । गहणं तुमं न याणसि,तिविदिय पुच्छा ततो कहणं ६४३ । पकेणानीतानां तेनैव दीयमानानां वस्त्राणां कस्यचिल्लुग्धस्य धारणे वचनम् एवममीषां राधिकानां दीयमा नानि मा यावन्न समागमिष्यन्तीति बुद्धया वस्त्रग्राहकसाधून मा श्रार्या गृह्णीध्वमित्येवं कोऽपि निवारितवानि ति भावः । ततः क्षपकः प्राह किं मदीयानि वस्त्राणि न ग्राह्यन्ते । इतरः प्राह- ग्रहणमेव यावत् त्वं न जानीयाः । क्षपको प्रीति जानामि इत्थम् इतरो भवति ततः कीदृशम्, क्षपक आह-' वंदित्ता वि न पुच्छा' येनाहं कथयामि ततस्तेन क्षपको दिया पृष्टः सन् कथयितुमारब्धवान् । बृ० ३ उ० | ( इतोऽग्रे एतद्वक्तव्यता 'गहण' शब्द तृतीयभागे ८५६ पृष्ठे गता । )
निन्ध्या प्रर्तिनीनि
वैतानि ग्रहीतव्यानिनिग्गंथीए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविडाए लट्ठे समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पर पो नीसाए चलाई पडिग्गा हिचए, कप्पर से परिचिणी नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए ।। १३ ।। णो जत्थ पवित्तिणी समायी सिया जे तत्थ समायो आयरिए वा उवउकार वा पवतिणी वा धेरे वा गणी वा गणघरे वा गणावच्छेइए वा कप्पर से तन्नीसाए चेलाई पडिग्गाहिचए ।। १४ ।।
अथास्य (१४) सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याहनियमा सचेल इत्थी, वातिजति संयमा विणा तेणं । उग्गहणमाइ बेला, ण गेएहणा तेरा जोगा य।। ४६१ ।। नियमाद् अवश्यतया स्त्री निर्वन्धी सचेला भवति, ततस्टेन वेलेन विना सा संयमाचात्यते इत्यनन्तरसूत्रे उक्तम्, तेन कारनामानन्तकादीना बेलानां प्रहसे विधिरमि धीयते । श्रयं योगः प्रकृतसूत्रस्य सम्बन्धः ।
अथवा
चैलेहि विणा दोर्स, खाउं मा ताणि अप्पा गरहे । तत्थ वि ते च्चिय दोसा तव्वारणकारणामुत्तं ||४६२||
लैर्विना भिक्षामन्त्याः संयत्याः महान् दोषो भवतीति ज्ञात्वा मा तानि चेलानि श्रात्मना गृह्णीयात् । कुत इत्याह-त श्राप्यात्मना वेलग्रहणेऽपि त एय दोषा भवन्ति ये पूर्व वेलस्याग्रहणे प्रागुक्ताः । श्रतस्तद्वारणकारणात् स्वयं ग्रहणप्रातपधार्थमिदं सूत्रमारभ्यते ।
वत्थ
इदमेव सोफ्युक्लिकमाह
सयगहणं पडिसेहति, चेलग्गहणं तु सव्वसो तार्ति । संडासतिरो वयही य उहति कुरुए व किचाई ।।४६३॥ स्वयं ग्रहणमत्र सूत्रे सूत्रकृत् प्रतिषेधयति न पुनः सर्वथा तासां संयतीनां चेलग्रहणम् । यतः संदशकेन तिरोहितो बहूगृह्यमाणो न दहति । कृत्यानि च धान्यपाकादीनि कार्याणि कुरुते, एवं संयतीनामपि साधुभिस्तिरोहितं बेलग्रहणं न दुष्यति, कार्ये च संयमपालनात्मकं करोति । अत इदमार भ्यते । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य ( सूत्रस्य -- १३--१४ ) व्याख्या - निर्ग्रन्थया गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया अनुप्र विष्टायाः वेलेनार्थः प्रयोजनं चेलार्थः । स समुत्पद्येत । न 'से' तस्याः करपंत आत्मनो निश्रया बेलं प्रतिग्रहीतुं किं तु कल्पते 'से' तस्याः प्रवर्तिनीनिश्रया बेलं प्रतिमहीम् । अथ न तत्र प्रवर्त्तिनी 'समाणी' सन्निहिता ततो यस्तत्राचायो वा उपाध्यायो वा प्रवर्तको वा स्थविरो वा गती या गसधरो या गावच्छेदको वा सन्निहितो या भवेत्, गणीगणाधिपतिराचार्यो- गणधरः संयतः- परिवर्तकः । शेषाः स. वैऽपि प्रतीताः। तेषां निखया वा अन्यीकृतार्थ साधुः पुराः कृत्वा विहरति । तनिधया कल्पते 'से' तस्याश्वेले - तिमीतुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः ।
अथ विस्तरार्थ भाष्यकारो बिभणिपुराहचेलट्ठ पुव्वभणिते, पडिसेहो कारणे जहा गहणं । गवरं पुण णाणत्तं, णीसागहणं राणीसाए ।। ४६४ ॥ बलार्थ पूर्व-प्रथमादेशके "निम्न्धी के बया पारण वा निमंतिज्जा " इत्यादिसूत्रे यथा भणितो यथा च तत्र संयतानां स्वयं वस्त्रग्रहणप्रतिषेधो यथा च कारणे ग्रह
मुलं तथैवात्रापि वक्रव्यम् नवरं केवलं पुनरत्र नानात्वं विशेषः प्रदतामिनिंधया कर्त्तव्यं न पुनरनिखया । नि अयोपसंज्ञानकादिना व दीयमानं प्रवर्तिन्या निवेदयति । प्रवर्त्तिनी गणधरस्य निवेदयति, ततो गणधरः स्वयमागत्य परीक्ष्य शुद्धं कृत्वा गृह्णाति । अथ नास्ति तत्र प्रवर्त्तिनी ततस्तद्वत्रं वर्णेन रूपेण विन्देन चोपलक्ष्य गणधरस्य कथयति, स चागत्य स्वयं गृह्णाति । पतन्निश्राग्रहणमुच्यते ।
श्रारिओ गणिणीए, पवत्तिणी भिक्खुणी ग कत्थेति । गुरुगा लगा लडुगो, तासि अप्पडिसुती || ४६५॥ आचार्य पतत्सूत्रे गणिया न कथयति चत्वारो गुरवः । प्रवर्तिनी मीनां न कथयति चत्वारो लघवः तासां भि क्षुणीनामप्रतिश्रवन्तीनां मासलघु ।
अथ स्वयं यत् दोषानाहमिच्छने संकादी, विराहया लोभ आभियोगे य । तुच्छा सहति गारव - भंडण अट्ठाण ठवणं च । ४६६ । पुरुषेण संवत्या च दीयमानं रा अभिनवधर्माणो मि यान्यं गच्छेयुः । दुर्दष्टधमांखोऽमी इति शङ्कादवा दोषा भवन्ति । विराधना व संयमात्मविषया। लोभे हि स्लोफेनापि वखादिप्रदानेन स्त्री लोभ्यते' अभियोगे नि अभियो
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(६०) अभिधानराजेन्द्रः।
वत्थ गिकवाप्रदानेन कमित्कार्मखं कुर्यात् , स्त्री च प्रायेण तु- यदि संयतीनामनिश्रया वस्नग्रहणं न कल्पते । ततः सूत्र च्छा भवति, तुच्छत्वेन च गौरवं लब्धिमाहात्म्यं न सहते । निरर्थकं प्राप्नोति । सूरिराह-कारणिकं सूत्रम् , तब कारणततश्च भण्डनं-कलहोऽस्थानस्थापनं च भवतीति संग्रह- मिदम्-न सन्ति संयतीनां वस्त्राणि, सन्ति वा परं न प्रागाथासमासार्थः।
योग्याणि । ' मन्नक्खो वा'-महादौर्मनस्य संचातकादीनां अथैनामेव विवरीषुराह
संयतीभिर्वस्त्रे अगृह्यमाणे भवति । तत्रेयं यतना। इत्थी वि ताव देंती, संकिजइ किंण केणऽवि पउत्ता।
तामेवाभिधित्सुराहकिं पुण पुरिसो देंतो, परिजुलाई पि जुम्माए ॥४६७॥ तरुणी य पवमाणी, नियएहि णिमंतणा य वत्थेहिं । स्त्री-अविरतिका सापि वस्त्रं संयत्याः प्रयच्छन्ती शकयते, पडिसेहणणिबंधे, लक्खण गुरुणो णिवेदेजा ॥४७३।। किंकेनापि प्रयुक्ता सती प्रयच्छति उत स्वयमेव धर्मार्थमिति,
कस्याप्याचार्यस्य पार्श्वे महर्धिकानां बहुजनपाक्षिकाणां किं पुनः पुरुषः परिजीर्यान्यपि वस्त्राणि जीर्णाया अपि आर्यि
प्रवज्या समजनि । ताश्च कियन्तमपि कालमन्यस्मिन् देशे कायाः प्रयच्छन् स सुतरांशपत इति भावः। तत्र शङ्कायांच
विहत्य सूरिभिः सार्द्ध तत्रैव समायाताः । ततो नितुर्गुरु,चतुर्थार्थमेवेति निःशविते मूलम् ,एवं मिथ्यात्वं शकाव
जकैः-संज्ञातिकस्तासां यौनिमन्त्रणा कृता, ततो न कल्पयश्च दोषा भवेयुः। विराधना च संयमात्मविषया अभ्यूज़ वकल्या।
ते अस्माकं वस्त्रग्रहवं कतुंमिति प्रतिषेधः कर्तव्यः । अथ
गाढतरं निर्बन्धं कुर्वन्ति, तदैतद् वक्तव्यम्-अस्माकं गुरव (२६) लोभद्वारमभियोगद्वारं चाह
एव वस्खलक्षणं जानन्ति, ततो गुरूणां निवेदयाम इत्यनुसाते खामिजइ थोवेणं, जच्चसुवयं च सारणी वादि।
तेषां निवेदयेयुः। अभियोगियवत्थेणं, कटिअइ पट्टए जातं ।। ४६८॥
इदमेव व्याख्यातियथा जात्यं सुवर्ण सारणी वा कुल्या स्तोकेनापि प्रयत्नेन
थेरा पडिच्चंति कथेमु तेसि, माम्यते तथा संयत्यपि स्तोकेनापि वस्त्रादिप्रदानेन मान्यते । यद्वा-तद्वखं केनापि विद्यामन्त्रादिवलेनाभियोगि
जाणेति ते दिस्स अजुग्गजोग्गं । कं वशीकरणकर्म कृतमस्ति , ततस्तेन स ाकृष्यते येन
पिच्छामु ता तस्स पमाणवले, कार्मसं कृतं तदभिमुखं नीयते । पट्टकेन वाऽत्र जातं-दृष्टान्तो तो णं कस्सामु तहा गुरूणं ।। ४७४ ॥ भवति, स च यथा प्रथमोद्देशके ।
सागाऽकडे लहुगो, गुरुगो पुण होति चिंधकरणम्मि । अथ गौरवादिद्वारद्वयं युगपदाह
गणिणी असिढे लहुगा,गुरुगा पुण भायनीसाए ।४७५॥ वत्येहि वचमाणी, दाएंती बावि उयह वत्थे मे ।
स्थविरा-प्राचार्या अस्मत्प्रायोग्यं वर्ष परीक्षन्ते अतः मच्छरियाभो ३ती, धिरत्यु वत्थाण तो तुझं ॥४६॥ |
कथयामस्तेषाम् , हास्यन्ति तद रष्ट्रय वस्त्रमयोग्यं योग्य वा हिंडयमाणसधंदा, खेव सयं गेण्हिमोग पभवामो।। वर्य परं तावदिदानीं तस्य वनस्य प्रमाणं वझे च पश्यामः । सय जंजणो वियाणति, कम्मं जाणामों तं काउं४ि७०।। ततो 'ण' मिति तद्वस्त्रं तथा तेन प्रमाणवर्णादिना प्रकारेण काचिदार्यिका तुच्छतया गौरवमसहिष्णुर्वनेभ्यो -
गुरूणां कथयिष्यामः । एवं यस्त्रं साकारत्वेन यथाऽवस्थाजन्ती भारमानं ख्यापयति-अहमीरशानि इरशानि वस्त्राणि
पितं तत् साकारकतम्, तब यदि न कुर्वन्ति ततो मासलघु, गृहीत्वा समागमिष्यामि । यद्वा-स्वयमानीतानि वखाणि
साकारकृतं कृत्वा प्रमाणवराभ्यां चिन कुर्वन्ति ततो दर्शयन्ती ब्रूयात् ,'उयह' पश्यत मदीयानि वस्त्राणि इति ।
मासगुरू, यदि गणिन्या तहस्त्रप्रमाणादि न कथयन्ति तततत इतराः संयत्यो मत्सरिता शुवते । धिगस्तु भवदी
चतुर्लघवः। प्रथमात्मनिधया स्वयमेव गृहन्ति ततश्चतुपानि वस्त्राणि भवन्ती च यदेवमात्मानं कथयसि । अपि
गुरवः। च-यथा पूर्व स्वच्छन्दाः पर्यटथ, न तथा वयं हिण्डामः।
अथ गृहस्था एवं प्रयु:नैव च स्वचं गृहीमः। नवात्मानं प्रभवामः-प्रकर्षण | जह भे रोयति गेपहप,वयं गणिणि गुरुं च जाणामो। क्लाघामहे। न च यत् ण्डलादिकं कर्म कर्तुं युष्माहशो
इय विभणिया वि गणिणे,कथेति य य तं पडिच्छति।४७६। जनो जानाति तइयं कर्तुं जानीमः।
यदि में भवतीनां रोचते ततो गृहीध्वमेतद्वस्त्रं न वयं गजम्हा य एवमादी, दोसा तेसिं तु गिएहमारी।।
मिनी-प्रवर्तिनी गुरुवाचार्यजानीमः, इत्यपि भणिताःसतम्हा तासि खिसिद्ध, वत्थग्गहरा प्रणीसाए ॥ ४७१।। न्स्वः गणिन्यः सूरिणः कथयन्ति म पुनस्तद्वस्त्रं प्रतीच्छन्तिा यस्मादेवमादयो दोषास्तासां गृहतीनां भवन्ति, तस्मात्ता- सरिभित्र संयतीमुखालवृत्तान्तं श्रुत्वा इत्थं वक्तव्यम्साममिक्षया वसा निषिद्धम् ।
कतरो मे खत्युषधी, जा दिज्ज भणाहमो विसरितो । परः प्राऽऽह
पुन्वुप्पप्लो दिजति, तस्सऽसतीए इमा जयणा ।। ४७७॥ मुचं निरत्वर्ग खलु कारखियं तं च कारसमिखं तु। |
भलत-प्रतिपादयत वर्षाकल्पान्तरकल्पादीनां मध्यात्कतअसती पाउग्गे वा, ममक्खोवाइ जहाए ॥४७२।। रो'मे' भवतीनां नास्त्युपधिर्यः साम्प्रतं दीयताम् । मा व्य
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अभिधानराजेन्द्रः। मुपधिना विसूरयथ-खेदमुहथ, इत्युक्त्वा यस्या उपधेरभा.
स्य-मानवतीलोकस्य मानं भञ्जन्ति । किं पुनर्ववस्तां निवेदयन्ति । स यदि पूर्वोत्पन्नो वर्तते ततो दीयते ।
लाकासुरवाः विद्युत्प्रद्योतिताः सन्तः, एवंविधाः सुतरां अथ पूर्वोत्पन्नो नास्ति ततस्तस्याभावे इयं यतना
मानमुन्मूलयन्ति । एवमप्यतिप्रौढा-समथो वाऽहमिति नाऊण यं परितं, वावारे तत्थ लद्धिसम्पन्ने । कृत्वा अस्माकं मानभकं पुराऽपि करोति । साम्प्रगन्धड्डे परिभुत्ते, कप्पकते दाणगहणं वा ॥ ४७८ ॥
तं तु गुरुभिः स्वयं पूजितः सन् करोत्यविशेषतः क
रिष्यतीति शेषसाव्यश्चिन्तयेयुः।। परीतं-स्तोकमभावोपलक्षणं चेदम् , ततोऽयमर्थः-परीत्तं नाम न संयतीनां वस्त्राणि इति ज्ञात्वा ये तत्र लब्धिसम्प
| दुल्लभवत्थे वसिया, आसमणियाण वा वि णिबंधं । माः साधवस्तान व्यापारयेत् । यथा-श्रार्याः! संयतीनां प्रा- पुच्छंतजं थेरा, वत्थपमाणं च वमं च ॥४८२॥ योग्याणि वस्त्राणि गवेषयत, ततस्ते वस्त्राणि गृहीत्वा गुरूणां | अथ स देशो दुलेभवस्त्रो भवेत् ततो ये व्यापारितास्तैसमर्पयन्ति । तानि च गन्धाढ्यानि-परिभुक्तानि भवेयुः, ततः रपि न लब्धानि वस्त्राणि , अथवा-यैर्निजैः समातिकस्ता कल्पे कृते सति दानं ग्रहणं वा कर्त्तव्यम् । किमुक्तं भवति- निमन्त्रितास्ते समासन्नाः अतीव प्रत्यासन्नाः-अतीव प्रत्यातानि वस्त्राणि प्रक्षाल्य सप्त दिवसानि स्थापयित्वा यदि सन्नसंबन्धास्ततो न तनिर्बन्धोऽप्रमाणीकर्तुं शक्यते , नास्ति कोऽपि विकार उद्भूतस्ततो गणधरेण प्रवर्तिन्या | एवमादौ कारणे समुत्पन्ने स्थविरा-प्राचार्या आर्या-प्रवर्तिनी दातव्यानि । प्रवर्तिनीहस्ताच संयतीभिग्रहीतव्यानि इति | वस्त्रस्य प्रमाण वणे च पृच्छन्ति, कीरशैर्वौयं निमन्त्रिसंग्रहगाथासमासार्थः।
ताः, किंवा तेषां प्रमाणम् । साम्प्रतमेनामेव विवृणोति
ततः संयत्यो ब्रुवतेगुरुस्स आणाएँ गवेसिऊणं,
सेयं च सिंधवामं, अहवा मइलं च ततियगं वत्थं । वावारिता ते अह छंदिया वा ।
तस्सेव होति गहणं, विवजए भाव जाणित्ता॥४८३॥ दुघा पमाणेण जहोइयाई,
एकं वस्त्रं श्वेतं-शरदिन्दुसुधावदातम् , द्वितीयं सैन्धववर्सगुरूणमासंसु णिवेदयंति ॥ ४७६ ॥
पाण्डुरम् । अथवाशब्दो वर्मप्रकारान्तरताद्योतकः। तृतीयं प
रिमलितत्वान्मलिनम् , प्रमाणमपि च तस्य वस्त्रस्य ईदृशमये व्यापरिता गुरुभिर्वस्त्रग्रहणाय प्रवर्तिताः, ये वा यथाच्छन्दिका अव्यापारिता एव गुरूणां पुरतो भणन्ति वयं
स्तीति ताभिरुक्ने गुरुभिस्तत्र गत्वा तस्यै वस्त्रस्य प्रहरणं वस्त्राणि गवेषयिष्यामः, आभिग्रहिका इति भावः । ते द्वयेऽ
कर्तव्यम् । अथ ते गृहस्थास्तत्र गतानामाचार्याणामन्यापि गुरोराक्षया वस्त्राणि द्विधाप्रमाणेन-वर्णेन प्रमाणेन च
नि वस्त्राणि दर्शयन्ति तत एवं विपर्यये भावं भद्रकायथा भगवद्भिस्तीर्थकरैरुदितानि-भणितानि तथा गवेषयि
न्तगतमभिप्राय ज्ञात्वा ग्रहणं कर्त्तव्यं न वा। त्वा गुरूणां पादयोः पुरतस्तानिवेदयन्ति-निक्षिपन्तीत्यर्थः ।
- इदमेव स्पष्टयन्नाहततश्च
पुन्वगता ते पडिच्छह, अम्हे वि य पस्सुता तहिं गंतुं । गंधड्ड अपरिभुत्ते, विसोधिउं देंति किमु अपडिपक्खे । । गुरुआगमणकता, णीणावेता गते तम्मि ॥४८४॥ गणिणी य णिवेदेजा, चतुगुरु सयदाणअट्ठाण ।४८०
सूरयः प्रवर्तिनी भणन्ति-यूयं तत्र पूर्वगताः प्रतीक्षत बयानि गन्धाव्यानि तानि यद्यप्यपरिभुक्तानि तथापिधावित्वा
यमपि युष्माकमनुमार्गत एवागच्छामः । ततस्तास्तत्र प्रक्ष्याल्य संयतीनां ददाति, 'किमुत्ति किं पुनः अप्रतिपक्षाणि
गृहस्थकुले गत्वा गुरूणामागमनं कथयन्ति । ततस्तस्मिन् परिभुक्तानीत्यर्थः,तानि सुतरां प्रक्षालनीयानीति भावः। उपल
गुरावागते संयत्यो भणन्ति-निष्काशयत तानि वस्त्राणि यैर्वक्षणमिदम् , तेन यद्यपि तानि गन्धाढ्यानि तथापि धावनीया
यं निमन्त्रिताः, एवमुक्ने यदि तान्येव दर्शयन्ति ततो गृहन्ति । न्येव, धावयित्वा च सप्त दिवसानि स्थापयित्वा स्थविरःप्राव
अथान्यानि ततः सूरिभिरिदं वक्तव्यम्रणं कार्यते,यदि नास्ति कोऽप्यभियोगविकारस्ततो गणधरा अन्नं इदं ति पुट्ठा, भणंति किह तुज्झ तारिसं देमो । गणिन्याः प्रवर्तिन्यास्तानि निवेदयेत्-अर्पयेदित्यर्थः । सा च इति भद्दे पंतेसु तु, भणंति सीसं ण तं एतं ॥ ४८५॥ संयतीनां ददाति । अथ गणधरः स्वयं तासां ददाति ततश्च- येन भवद्भिः संयत्यो निमन्त्रिता नेदं तहस्त्रम् , किंतु प्रमातुर्गुरु, अस्थाने च शेषसंयतीभिः स्थाप्यते । शुद्धभावनाऽपि णेन वर्णेन वा अन्यादृशत्वेन अन्यदिदमिति पृष्टाः सन्तो ते हि र्याद काचिदार्थिकाविशेषो लभ्यते तथापि काचिद- गृहस्था यदि भद्रकास्तत इदं भणन्ति-कथं वयं युप्माकं परा संयती तत्र निरूपणाभिः प्रपातनया शङ्कां करोति, किं स्वयमेवागतानां तादृशं सामान्यं वादियुक्तं प्रयच्छामः, इदं पुनः स्वयं वस्त्रप्रदाने।
तु ततो विशिष्टतरवरार्णादिगुणोपेतम् , अत इदं गृहीत इति अपि च
भद्रका चूयुः । ये तु प्रान्तास्तेषु सूरयः शीर्ष धूनयन्ति । इदं इहरह वि ताव मेहा, माणं भजंति पणइणिजस्स। वचनं त्रुवते-येन संयत्या निमन्त्रितास्तदिदं वस्त्रं न भवति । किं पुण वलागसुरवा, विज्जुपजोदिया संता । ४८१।।
एवमुक्ने ते चिन्तयेयुःइतरथाऽपि च बलाकासुरवापादिविशेषमन्तरेणापि ता- बहु जाणिया ण सक्का, तं वेडं तेसि जाणिो भावं । वन्मेघा गगनमण्डलमापूर्य गर्जयन्तः प्रणयिनीजन- णिन्छति भदएसु तु, पहढभावेसु गेण्हति ॥ ४८६ ॥
२१६
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( ८६२ ) अभिधानराजेन्द्रः |
बस्थ
अथ प्रीभिराचार्यैर्बहु-प्रभूतं ज्ञाता-उपलक्षिता वयम् यदेते आभियोगिकादि वस्त्राणि प्रयच्छन्तीति अतो न शक्या अमी वञ्चयितुम्, इत्यादिकं तेषां भावम् - अभिप्रायं मुखविकारादिभिराकारैर्ज्ञात्वा नेच्छन्ति । भद्रकेषु तु मइष्टभावेषु ग्रहन्ति ।
भद्रकेष्वेव विशेषमुपदर्शयति
न षि एवं तं वत्थं, जं तं अजाण सीशियं भे सि । तुझे इमं परिच्छह, तं चिय एताथ दाहामो ||४८७|| ज्ञाप्येतद्वत्रं यत्तदार्थिकारणामर्थाय निष्काशितं भवद्भिरित्युक्ते यदि गृहस्थाशुवन्ति - तावदिदं वस्त्रं प्रतीच्छते । एतासां तु वयं तदेव दास्यामः ।
ततो वक्तव्यम्
अस म्हे कज्जं, एतद्वा चैव गेरिहमो अम्हे ।
जति ताथि विदेति दुवे, गीर्णेति दुवै वि गेरहंति । ४८८ | अन्येन वस्त्रेण अस्माकं न कार्यम्, एतासामेवार्थाय वयं सम्प्रति गृह्णीमः इत्युक्ते यदि तान्यपि प्राक्तनानि वस्त्राणि श्रानयन्ति ततो द्वयान्यपि प्राक्तनपश्चात्तनानि गृह्णन्ति ।
ता वि उवस्सयम्मि, सत दिये ठविय कप्प काऊ । थेरा परिच्छिऊ, विहिणा अप्पेति तेणेव ॥ ४८६ ॥ तान्यपि - वस्त्राणि गृहीत्वा उपाश्रये श्रानीय सप्त दिनानि स्थापयित्वा कल्पं कृत्वा स्थविरप्रावरणद्वारेण परीक्ष्य यदि नास्ति कोऽप्यभियोगविकारस्ततः स्थविरा श्राचार्यास्तेनैव विधिना संयतीनामर्पयन्ति । एवमाचार्यनिश्रया महलमुक्तम् ।
अथोपाध्यायनिश्रया तदेवाऽऽहप्रायरिय उवज्झाए, पवत्ति थेरे गयी गणहरे य । गच्छेयसीसा, पवत्तिणी तत्थ आणे ॥ ४६० ॥ प्राचार्यस्याभावे उपाध्यायस्य प्रवर्तिनः स्थविरस्य गणिनो गणधरस्य गणावच्छेदिनो या निश्रया वस्त्रग्रहणं कर्त्तव्यम् । एतेषामभावे प्रवर्तिनी तत्र गृहस्थकुले गत्वा स्वयमानयति । इदमेव व्याख्यानयतिrefresसाधी, साहीणे वाऽवि वाउलगिलाणे । एकिकगपरिहाणी, एमादीकारोहिं तु ।। ४६१ ॥ यदि तत्राचार्योऽस्वाधीनः स्वाधीनो वा परं व्याकुलः, कुलादिकार्येषु व्यापृतः, ग्लानो वा तत उपाध्यायनिधया ग्रहणं विधेयम् । तत्रापि स एव विधिः । अथोपाध्यायः अस्वाधीनो व्याकुलो वा तत एकैकपरिहाण्या तावज्ञेयं यावत् प्रवर्तिनीनिश्रयाऽपि ग्रहीतव्यम् । एवमादिभिः कारणैः संयतीनां वस्त्रग्रहणं भवतीति ।
सुत्तणिवाते थेरा, गहणं तु पवत्तिणीऍ नीसाए । तरुणीय अग्गहणं, पवत्तिणी तत्थ आणेति ॥ ४६२|| अत्र पुनः सूत्रनिपात इत्थं मन्तव्यः । श्राचार्यादीनां गगावच्छेदकान्तानामभावे प्रवर्त्तिन्या निश्रया स्थविरा श्रार्थिकाः स्वयं वस्त्रग्रहणं कुर्वन्ति, तरुणीनां तु सर्वथैव वस्त्रस्याग्रहणम् । उत्सर्गतः प्रवर्तिनी स्वयं तत्र गत्वा श्रनयति ।
इदमेव भावयति सा बजयाऽऽरिया तत्थ न होज कोई,
छंदेज गीया तरुणी जया य । पवत्तिणी गंतु सयं तु गेल्हे
संकभीया तरुणिं न नेंति ।। ४६३ ।।
यदा तत्राचार्यादीनां मध्यात्कोऽपि गीतार्थः साधुर्न भवति, यदा च निजकाः सज्ञातकास्तरुणीं छन्दयेयुर्निमन्त्रयेरन् तदा प्रवर्तिनी तत्र स्वयं गत्वा गृह्णाति, आशङ्काभीता च प्रत्यपायशङ्कया चकिता तरुणी नात्मना तं नयति । असती पवत्तिखीए, आयरियादी व जं व खीसाए ।
वत्थ
गाढकारणम्मि उ, गिहिणीसाए वसंतीणं ॥ ४६४॥ अथ नास्ति प्रवर्तिनी तत श्राचार्योपाध्यायादीन् यं वा सामान्य साधुमपि निश्रयं निभ्रां कृत्वा विहरति, तनिश्चया ग्रहणं कर्त्तव्यम् | आगाढे तु कारणे गृहिनिश्रया वसन्तीनां स्वयमपि ग्रहणं भवतीति वाक्यशेषः । इदमेव सविशेषमाह
असति य पवत्तिणीए, अमिसेगादी विवज्जणीसाए ।
हंति थेरिया पुर्ण, दुगमादी दोएह वी असती । ४६५ प्रवर्त्तिन्या अभावे अभिषेका—गणावच्छेदिकाप्रभृतयो या गीतार्थाः संयत्यस्ताः स्वयं गत्वा गृह्णन्ति । 'विवज्जनीसाए' ति विपर्ययो नाम अभिषेकादयोऽपि न सन्ति ततः परस्परनिश्रया स्थविरा आर्यिका गृह्णन्ति । ताश्च द्विकाइयो द्वित्रिप्रभृतिसंख्याकाः पर्यटन्ति । अथ द्वे अपि न भवतस्ततो वक्ष्यमाणविधिना प्रहीतव्यम् ।
कथं पुनर्द्वयोरप्यभाव इत्याशङ्कयाहदुभूइमाईसु उ कारणेसुं,
freत्थनीसा वणी वसंती । जे नालबद्धा तह भाविया वा,
निद्दोससभी व तर्हि वसैा ॥ ४६६ ॥ दुर्भूतिरशिषम् आदिशब्दादवमौदर्यादिपरिग्रहः, तेषु कारगेषु गृहस्थनिया एकाकिनी व्रतिनी वसन्ती ये नालबवास्तस्याः ये सज्ञातका ये वा अनालबद्धा अपि भाविताः साधुसामाचारीपरिकर्मितमतयो यथा भद्रका ये वा निर्दोषा हास्यकन्दर्पादिदूषणरहिताः संज्ञिनस्तेषां गृहे वसेत्, तत्र च स्थित भिक्षां पर्यटन्तीं यदा कोऽपि वस्त्रेण निमन्त्रयेत् तदा वक्तव्यम् ।
,
सजायरो व सपी, व जाणती वत्थलक्खणं म्हं । तेण परिच्छियमेत्तं तदणुमातं परिग्धेतुं । ४६७ ॥ शय्यातरो वा संशी वा अस्माकं प्रायोग्यस्य वस्त्रस्य लक्षणं जानाति, अतस्तेन परीक्षितं तदनुज्ञातं च सदहमिदं परिग्रहीष्यामि ।
पंतोदट्टण गतं, संका अवयं करेजाहि ।
मावा दिलं, वहतं णीयं व हसिता वा ॥ ४६८ ॥ ततः संयत्या समानीतं शय्यातरं संशिनं वा दृष्ट्रा प्रान्तः शङ्कया अपनयं वस्त्रस्यैकान्ते स्थापनं कुर्यात्, यद्वाब्रूयात् श्रन्यासां संयतीनां दत्तं व्रजिकां चानीतम्, हमेद्वा ।
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अभिधानराजेन्द्रः। अथवा
धूनां कर्तुं न कल्पते। 'विभूसाइत्यिसंसग्ग' इत्यादि वचनात्। तुझेऽवि कहं विमुहे, काहामो तेण दाम से अनं ।
सूरिराहइति पंते वजणता, भद्देसु तथेव गेएहंति ॥ ४६६ ॥ कामं विभूसा खलु लोभदोसो, युष्मानपि कथं विमुखान् करिष्यामः, अतस्तस्याः-अपर
तहा वि तं पाउसो न दोसो। स्याः संयत्या अभ्यद्वखं दास्यामः । इदं तु यूयं गृहीत इति मा हीलणिजो इमिणा भविस्सं, ब्रुवाणे प्रान्ते वर्जनं कर्त्तव्यम् , न तदीयं वस्त्रं ग्रहीतव्यमिति
पुस्विड्डिमाई इय संजई वि, ॥ ३१॥ भावः । भद्रेषु तथैव पूर्वोक्नप्रकारेण गृहन्ति ।
कामम्-अनुमतमेतत् । खलुरवधारणे। यैषा विभूषा सा लोअंषा वि होंति सित्ता, पियरो वि य तप्पिया वदे भद्दो।
भदोष एष तथापि तथाभूतं कारणे कृत्वा प्रावृण्वतो न दोषः। धम्मो यम्हे भविस्सति, तुझं व पियंप्रतो अम्मं ।५००। कस्यत्याह-यः पूर्व राजादिक ऋद्धिमानासीत् स तादृशीम् भद्रकः इत्थं वदेत्-आम्रा अपि सिक्का भवन्ति, पितरोऽपि ऋद्धिं विहाय प्रवजितः सन् चिन्तयति, अमुना मलकिनच तर्पिता भवन्ति । एवमस्माकं धर्मो भविष्यति, युष्माकं वाससा अमुष्य जनस्य इह लोकप्रतिबद्धस्य हीलनीयो भच प्रियः, अतोऽन्यद्वस्त्रं दास्याम इत्युक्ते गृह्यते ।
विष्यामि । यथा-नूनं केनापि देवादिना शापतप्तोऽयं यदेवं अथ ये चतुर्थावभाषणनिमित्तं प्रयच्छन्ति
ताही विभूति विहाय साम्प्रतमीहशीमवस्थां प्राप्तः । श्राते कथं ज्ञातव्या इत्याह
दिशब्दाद्-प्राचार्यादिरप्येवमेतदशुचिभूतं वस्त्रं प्रावृणोति वेबहु चला य दिट्ठी, अप्लोमणिरक्खियं खलति वाया।। संयत्यपि ऋद्धिमत् प्रवजिता नित्यं पांसुरपटप्रावृता तिष्ठति
पर्यटति वा। दिमं मुहवेवम, पयाणुरागोऽनु कारीणं ।। ५०१॥
शुचिभूतं वस्त्रं प्रावृण्वतस्तस्य कथं रागो भवतीत्याहये कारिणश्चतुर्थनिमितं वस्त्रदायिनस्तेषां शरीरे वेपथुःकम्पश्चला च दृष्टिर्भवति । अन्योन्यनिरीक्षितं कम्पो नाम मां
न तस्स वत्थाइसु कोइ भंगो, जानातीति बुद्धचा अन्योन्यस्य च संमुखं निरीक्षन्ते इति भावः रजं तणं चेव जदं तु तेणं । वाक् च तेषां स्खलति माते वदन्ति प्रायः तेषां दैन्यं मुखवै- जो सोउ उज्झाइय वत्थजोगो, वर्य चोपजायते न च तेषां वस्त्रं ददानानामनुरागोष्टप्रह.
तं गारवा सो नवए ति मोत्तुं ॥ ३११ ॥ टतालक्षणो भवति । वृ०३ उ०।
योऽसौ ऋद्धिमान् प्रवजितस्तस्य वस्त्रादिषु कोपि स्वल्पो(२७) विभूषाद्वारमाह
ऽपि भङ्गो-रागो नास्ति, यतस्तेन महात्मना राज्यं तणमिव उडाहडा जे हरिया हडीए,
परित्यक्तम् । यः पुनरसौ 'उज्झाई' विरूपोहममुना मलेन वि. परेहि धोयाइय याउ वत्थे ।
लीने वाससि इत्येवमभिप्रायेण धौतादिगुणोपेतस्य वस्त्रस्य भूसानिमित्तं खलु ते करते,
योगत्वमसौ विभूषादि यः संयतो' गारव ' ति वृद्धो उग्घातिमा वत्थ सवित्थराओ॥३०८॥
गौरवान्न मोक्तुं शक्नोति अतस्तत्प्रायश्चित्तमुक्तमिति भावः । प्रथमौद्देशके हताहतिकासूत्रम् , परैः स्तेनैः हृतानि धौ-|
गतं विभूषाद्वारम् । तानि पटानि यानि वस्त्रे उदाहतानि तानि यद्यात्मनो विभू
मूच्र्छाद्वारमाहपितास्ततश्चत्वार उद्घातिमा मासा भवन्ति । इयमत्र भावना.
महद्धणे अप्पधणे व वत्थे, विभूषानिमित्तं यद्यात्मीयं वस्त्रं प्रक्षालयति रजति धृति
मुच्छिाती जो अविवित्नभावो । पृष्टं वा करोति पटवासनादिना वा वासयति, तदा चतु
संतं पि नो ,जति मा हु झिजे, . लघुकं सविस्तरग्रहणादधौतानि पटानि कुर्वतो या आत्म
__ वारेति व कसिणा दुगामो ॥ ३१२॥ विराधना तनिष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम् । किमर्थं पुनर्विभूषामासवते इत्याह
महाधने-महामूल्ये अल्पधने वा अल्पमूल्ये वस्त्रे पा
विविक्तभावे विवेकविकलाशयः मूर्छति-मूछों करोति । मलेण घत्थं बहुणा उ वत्थं ,
कथमेतज्ज्ञायते इत्याह-स्वयमपि तत्प्रधानं वस्त्रं न परिउज्झाइनोऽहं विमिणा भवामि |
भुक्ने मा क्षीयतां न परिभुज्यमामं सत् परिजीर्यतामिति कहं तस्स धोवम्मि करेमि तत्ति,
त्वा अन्यं परिभुजानं च वारयति । तस्य प्रायश्चित्तं करमाः ___ वरं ने जोगो मलिणा ण जोगो ॥ ३०६ ॥ सम्पूर्ण दुगादो 'त्ति चत्वारो मासाः । चतुर्गुरुकमित्यर्थः। इदं मदीयं वस्त्रं बहुना मलेन प्रस्तमापूरितमतोऽहम् 'उ
अथ किमर्थ वस्त्रेषु मूछों करोतीत्याह-- ज्झाइओ' विरूपो भवामि-तैश्वाहं विरूप उपलभ्ये । देसिल्लगं वनजुर्य मणुनं, ततस्तस्य धौतव्ये नप्तिमहं करोमि , ये भागा सूत्रादिना
चिरंतणं दोइ सिणेहो वा । शुष्यन्ति , तदानयानीत्यर्थः । कुत इत्याह-वरं मे वस्त्रेण सह न योगः,परिमालतवस्त्राणां योगोन वरम् । मलिनवस्त्रप्रावर
लन्धं च अन्नं पि इमप्पभावा, णादप्रावरणमेवाश्रय इति भावः। कारणे तु वस्त्रं धावपि
मुच्छिाई एय भिसं कुसत्तो॥३१॥ शुद्धः। परः प्राह-नन वस्तधावने विभूषा भवनि । सा च सा- देशलग-देशविशेषोद्भवं वर्मयुतं वोपेत खदेशीय परदेशी
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वत्थ
यं वा स्थूल वा यन्मनसो रुच्यते तन्मनोशं चिरन्तनं नाम यदाचार्यपरंपरागतम् 'दोइ ति निपातो विकल्पार्थो येन वा तत्प्रदत्तं तस्योपरि महान् स्नेहो, यद्वा-श्रमुना वस्त्रेण तिष्ठता श्रहमन्यदपि वस्त्रमेतत्प्रभावादेव लप्स्ये एवमेतैः कारणैः भृशमत्यर्थे कुसत्त्वस्तुच्छवृत्तिबलो मूर्छति मूर्च्छा तस्य न विवक्षितं वस्त्रं परिभुङ्क्ते । उक्तो वस्त्रविषयो विधिः । बृ० ३ उ० ।
(८६४) अभिधानराजेन्द्रः ।
जे भिक्खु वत्थस्स परं तिरहं पडियाणियाणं देयह देयाणं देयतं वा साइज ॥ ४६ ॥
जे भिक्खू वत् परं तिराहं देति दैतस्स मासगुरुं पच्छितं, दिट्ठा एगा पडियाणिया या कारणे पसंगा बहुई उदाहिति तेणिमं सुत्तं भक्षति ।
पडियाणियाणि तिरहं, परेण वत्थम्मि देंति जे भिक्खू । पंच अमतरे, सो पावति श्रणमादीखि ॥ २७२ ॥ कारणे— जाव तिरिण ताव देया, तिरहं परतो चउत्था देया । जंगियादि पञ्च किण्हवसाति वा पंच देतस्स आणादयो दोसा, कारणतो पुरा तिरहं परतो वि दिज्जा ।
किं कारणं उच्यते - " संतासंतसतीए, दुब्बलहीणे श्रलग्भमाण वा ॥ २७३ ॥” “असि० ॥ २७४ ॥ " ' सच्छसे० ॥ २७५॥ एताउ गाहाउ "संतासं १८० पह० ॥२७६॥ " गाहा
जे भिक्खू विहीए वत्थं सिव्बई सिव्वंतं वा साइजइ । ५०/ दिट्ठा पडियाणिया सा असिग्विया स भवति एवं सिब्वणं दिट्ठ, तं पुण का बिहीए, एतेणाभिसंबंधेणिमं सुतं जे भि क्खू श्रविहीर, वत्थं सिव्वति तस्स मासगुरुं पच्छित्तं । पंचविधम्मि विवत्थे, दुविधा खलु सिव्त्रणा तु खातव्वा । विधोए सव्वणया, विधी पुरा तत्थिमा होति ॥ २७७॥ दुविहा सिग्वणा - प्रविधिसिव्वणा विधिसिव्वणा य । तत्थ श्रविहिसिव्वणा इमागग्गरगदंडिवजित, जालेगसराकसादुखील एका य । गोमुत्तिगाय विधी, विहिझसकंटायिसरडो य ॥ २७८ ॥ गग्गरगसिव्वणी जहा -संजतीगं, डंडिसिव्वणी जहा गारत्थाएं, जालगसिग्वणी जहा - वरक्खाइसु, एगसरा जहा संजतीणं, पयालणी कसासिव्वणी गुब्भंगे वा दिज्जति, दुक्खीला संधिजंते उ तो खीला देत, एगखीला एगत्तो देति, गोमुत्ता संधिजंतेश्रो एक्कसिं वत्थे विंधर एसा - विधी, विधी सकंटा सा संघणे भवति एक्कतो वा उक्कुरते संभवति विसरिया ।
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सरडो भवतिएगो एगतरीए, अविधिविधीएस जो उ सीवेजा । पंचर एगतरं, सो पावति आणमाईणि ।। २७६ ।। चउरो ता गाहाओ, अत्थ वि कमेण भविचाउ । दुब्बल दुल्लह वत्थे, अविधिविधीसिव्वणं कुञ्ज ॥ २८०॥ सुत्तत्थपालमंथो जं च पडिलेहाण मज्झति संजमविराहया कारणे पुणे विधीए पुच्छा अविधीए वि सीवेज्जा ।
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वत्थ
जे भिक्खू वत्थस्स परं तिरहं फालियगंठियास करेह करतं वा साइज ।। ५१ ।।
जे भिक्खू वत्थे एगमपि फालिगर्थि देति दतेस्स मासगुरु पच्छितं ।
पचहं श्रमतरे, वत्थे जो फालियं द्वियं देजा । सीवणगंधे मगधी, सो पावति आगमाईणि ।। २८१ ॥ गहणं तु अधाकड, तस्सऽसतीए उ अप्पपरिकम्मे । तस्स सइ सपरिकम्मे, गहणं तु अफालिए होति ॥ २८२॥ तस्स सति फालितम्मि, गहणं जं एगगंठिणा वज्झी । तस्स सति दुगतिगं पी, तस्स सती तिराह वि परे ॥ २८३ ॥ कंठा ।
जे भिक्खु वत्थस्स परं तिरहं फालियगंठियाण करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ ५२ ॥
जे भिक्खू वत्थे तिराह परं दे ( ति ) तस्स मासगुरुं श्राणादिणो दोसा ।
जे भिक्खू वत्थं विहीए गंठइ गंठतं वा साइज ।। ५३ ।। तिह परं फालियाणं, वत्थं जो फालियं तु संसिव्वे । पचहं एगयरे, सो पावति आगमादीणि ।। २८४ ॥ संतासंत० " ताओ चैव गाहाओ सव्वाश्रो कंठाओ वस्त्रमतज्जातं न गृह्णन्ति ।
जे भिक्खू वत्थं प्रतिज्जायाएण गाहति गार्हतं वा साइज्जइ ॥ ५४ ॥
तं
पुण गहणं दुविधं, तज्जातं चैव तह अतज्जातं । तं एकेक तज्जा-तंति चतुरो तञ्जातं ॥ २८५ ॥ जंगमादि एक्केके सामण्णजातीय एक्केकं तज्जायं, असामरणं चउरो तज्जाता वण्णतो वा तज्जातमतज्जातं तं । जं जारिस बत्थं वत्थं वरमेण जारिसं होति । तारिसतज्जातेणं, गहखेणं तं गहेतव्यं ।। २८६ ॥
कंठा ।
बितियपदमणप्पज्झे, गहेज अवि कोऽवि चैव अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, असती सरिसस्स दोरस्स ॥ २८७॥ वित्तादिचित्तो श्रणप्पवसौ सेहो वा अवि कोविओो जाश्रो वा गीयत्थो, असति सरिसदोरस्स अतजाएं गहेजा । नि० ० १ उ० । ( रात्रौ वस्त्रगहणम् ' उवहि ' शब्दे द्वितीयभागे २०७२ पृष्ठे निषिद्धम् । )
अथातिरिक्तहीनद्वारमाहपेहाsपेहा दोसा, भारो हिकरणमेव अतिरिते । एए भवंति दोसा, कज्जविवत्तीय हीणम्मि ।। ३०५ ॥ अतिरिक्तमुधिं यदि प्रत्युपेक्षते तदा सूत्रार्थयोर्महान् परिमन्थः । अथ न प्रत्युपेक्षते तत उपधिनिष्पन्नम् एवं प्रेक्षाक्षयोरपि दोषाः, भारश्च महान् मार्गे गच्छतां भवति । अपरिभोग्यस्य चोपधिधारणे मन्यातिरिक्तदोषा भवन्ति । श्रथ हीनं
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चू० २ उ०।
वत्थ
अभिधानराजेन्द्रः। यथोक्रममाणान न्यूनमुपकरणं भवति ततः कार्यस्य विपत्ति- जे भिक्ख अभिट्ठाई वत्थाई धरेइ धरंतं वा साइजइ।२३। यत्तेन कल्पादिना कार्य तन सिध्यतीति भावः।
सदसं प्रमाणातिरिक्तं कृत्स्नं भवति एष सूत्रार्थः । नि० अथ परिकर्मणि द्वारमाहपरिकम्मणि चउभंगो,कारणविहि बितिओं कारणे अविही
(२८) कृत्स्नवस्त्रनिषेधमाहनिकारणम्मि य विधी,चउत्थो निकारणे अविही ।३०६।।
नो कप्पह निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई वपरिकर्मणायां चतुर्भङ्गी, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सा चे. स्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥७॥ यम् कारणे विधिना परिकर्मणमित्येको भनः, कारणे विधिने- कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गंधीण वा अकसिणाई वत्थाई ति द्वितीयः, निष्कारणे विधिनेति तृतीयः, निष्कारणेऽवि
धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ ॥ धिनेति चतुर्थः।
अस्य (सूत्रद्वयस्य) सम्बन्धमाहकारणेऽणुनविहिणा, सुद्धो सेसेसु मासिका तिनि।।
पडिसिद्धं खलु कसिणं,सम्मं वत्थकसिणं पि नेच्छामो। तवकालेसु विसिट्ठा, अने गुरुगा य दोहिं पि ॥३०७॥
अववादियं तु चम्म, ण वत्थमिति जोगणाणत्त।२०३॥ कारण विधिना परिकर्मणमनुझातम् , अत एवायं प्रथमो |
प्रतिषिद्धं खल्वनन्तरसूत्रे चर्म कृत्स्नं यथा चैतन्त्र कभः शुद्धः। शेषषु त्रिषु भनेषु त्रीणि मासिकानि भवन्ति न
ल्पते तथा वस्त्रकृत्स्नमपि नेच्छामः प्रतिग्रहीतुम् , यद्वावरं तपःकालयोर्विशिष्टानि । तत्र द्वितीयभने काले गुरुकम् , सृतीये तपोगुरुकम् अन्ते-चतुर्थभने द्वाभ्यामपि तपःका
पूर्वसूत्रे चर्म अपवादिकमुक्तम् इदं तु वस्त्र नापवादिकं किं लाभ्यां गुरुकम् । अथ च गर्गरसीवनादिकमविधिपरिक
तु सदैव साधुभिः परिभुज्यमानत्वेनौत्सर्गिकम् , अत इदं प्रमेवं मन्तब्यम् , एकसराद्विसराझषकण्टकवेसवेनिका
तिपक्षतया सूत्रमारभ्यते इति योगसंबन्धस्य नानात्वं प्रविधिपरिकर्मणमनुशातम् । बृ०३ उ० ।
कारान्तरतेत्यर्थः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रदयस्य अतिरेकगृहीतं वस्त्रं धरति
७-८) व्याख्या-'नो कप्पा' ति। आर्षत्वादेकचनम् । नो
कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां कृत्स्नानि-सकलपाणि वजे भिक्खु अइरेगगहियं वत्थं परं दिवङ्कमासाउ धा
स्त्राणि धारयितुं वा-परिग्रहे धर्नु परिभोक्तम्, अनरस्नानि रेइ धारंत वा साइजइ ॥ ५५ ॥
तु कल्पन्त धर्नु परिभोमित्येतत्सूत्रसंक्षेपार्थः । जे भिक्खू अतिरेगगहितं वत्थं परं दिवहमासातो धरेजा
अथ नियुक्तिगाथाभाष्यविस्तरःतस्स प्राणाइ, (दोसा) मासगुरुं च से पच्छि ।
कसिणस्स उ वत्थस्स,णिस्खेवो छबिहो उ कायब्बो। अवलक्खणेगगहितं, दुगतिगअतिरेगगंठिगहियं वा।
नाम ठवणा दविए, खत्ते काले य भावे य ।। २०४॥ जो वत्थं परियङ्कृति, परं दिवढाउ मासाउ ॥ २२८ ।। कृत्स्नवस्त्रस्य निक्षेपः षविधः कर्तव्यः । तद्यथा-नामकंड। जो धरेति ।
कृत्स्नं स्थापनाकृत्स्नं द्रव्यकृत्स्नं क्षेत्रकृत्स्नं कालकत्स्नं भावसो आणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविधं । कृत्स्नं चेति । तेच नामस्थापने गतार्थे । पावति जम्हा तेणं, असं वत्थं विमग्गेजा ॥ २८६ ॥
द्रव्यकृत्स्नमाहकंठा । अवलक्खणस्स इमे दोसा।
विहं तु दव्वकसिणं, सकलं कसिणं पमाणकसिणं च। दुबलक्खणे उ उवधी, उवहणती गाणदसणचरित्ते । एतेसिं दोएहं पी, पत्तेयपरूवणं वोच्छं। २०५॥ तम्हा व धरैतन्यो, कारणं विमग्गणे य इमा ॥२६॥
द्विविध-द्विप्रकारं द्रव्यकृत्स्नम्,तद्यथा-सकलकत्स्नं प्रमाणकारणे पुण धरेयव्वो, इमाए विहीए । सलक्खणो उवधी
कृत्स्नं चेति । एतयोईयोरपि प्रत्येकं पृथक २ प्ररूपणां वक्ष्ये। मग्गियव्यो।
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिअवलक्खणेगगहिते, सुत्तत्थकरेंति मग्गणं कुजा ।
घणमसिणं णिरुवहयं, जं वत्थं लम्भते सदसियागं । दुगतिगचंधे मुचं, तिएहुवरि दो वि वजेजा ॥ २६१॥
एवं तु सकलकसिणं, जहमगं मज्झिमुक्कोसं ॥२०६॥ दुगतिगगहिते सुत्तं करेति प्रत्यं बजेति, चउरो दिसु गहि
घमं तन्तुभिः सान्द्र मसणं-सुकुमारस्पर्श निरुपहतमम्जतेसु सुत्तत्थे दो वि वजित्ता मम्गति ।
नादिदोषरहितम् , एवंविधं यह सदशाकं लभ्यते, इदाणी अहाकडप्पबहुपरिकम्माणं कालो भवति
पतत् सकलकृस्नमुच्यते। तब जघन्य मध्यममुकई बा
सातव्यम् । जघन्य-मुखपोत्तिकादि, मध्यमं पटलकादि, उचत्वारि प्रधाकडए, दो मासा होति अप्पपरिकम्मे। | करकल्पादि। तेल परऽवि मग्गेजा, दिवड्डमासं सपरिकम्मं ॥२६२॥ वित्थारायामेणं, जंवत्यं लम्भए समतिरेगं । एवं वि मग्गमायो, जदि वत्थं तारिसं पनि लभेजा। एयं पमाणकसिणं, जहमयं मज्झिमुक्कोसं ॥ २०७॥ तंब सबला, जाव पास लमति कथं २६३॥ विस्तारम-विस्तीत्वम् मायामम-दैर्घ्यम् , विस्तारानामगापूर्ववत् । निघू०१०।
म् । द्वनकषापा, तेन यद्वस्त्र यथोक्तप्रमालतासमतिरिक कावलं धरति
लभ्यते पतत्प्रमाणकृत्स्नं भण्यते । तच अधन्यमध्यमोकष्टजे भिक्ख कसिखाई क्थाई घरेहधांतं वा साइजइ।२२।। भेदात् त्रिविधं प्राग्वद् द्रष्टव्यम् ।
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वत्थ
क्षेत्रकृत्स्नमाह -
जं वत्थं जम्मि देसम्म दुल्लहं अश्चियं व जं जत्थ । तं खित्तजुयं कसिणं, जहम्मयं मज्झिमुकोसं ॥ २०८ ॥ यद्वत्रं यस्मिन् देशे दुर्लभं यत्र यदर्चितम् सुमहार्घे पूर्वदेशजं वस्त्रं लाटविषयं प्राप्य महार्घ्यं तत्क्षेत्रयुतं कृत्स्नमुच्यते क्षेत्रकृत्स्नमित्यर्थः । तदपि जधन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्त्रिविधम् ।
यथा
( ८६६ अभिधान राजेन्द्रः ।
कालकृत्स्नमाह -
जं वत्थं जम्मि काल - म्मि अग्गितं दुल्लभं व जं जत्थ । तं कालजुतं कसिणं, जहम्मयं मज्झिमुकोसं ॥। २०६ ।। यद्वत्रं यस्मिन् काले अर्चितं बहुमूल्यं यच्च यत्र दुर्लभम्, यथा- ग्रीष्मे काषायिकादि शिशिरे प्रावारादिवर्षासु कुङ्कुमखचितादि तदेतत्कालकृत्स्नम् एतदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्त्रिविधम् ।
भावकृत्स्नमाह
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दुविहं च भावकसिणं, वम्मजुतं चैव होति मोल्लजुयं । वस्मयं पञ्चविहं, तिविहं पुण होइ मुल्लजुतं ।। २१० ॥ द्विविधं च भावकृत्स्नं तद्यथा-वर्षायुतं, मूल्ययुतं च । वर्णतो मूल्यतश्चेत्यर्थः । तत्र वर्षायुतं पञ्चविधम् कृत्स्नादिवर्णभेदात् । पञ्चधा-पञ्चप्रकारम्, मूल्ययुतं पुनस्त्रिविधं जघन्यादिभेदात्त्रिप्रकारम् ।
इदमेव स्पष्टयति
पञ्चरहं वरमाणं, अमतराएण जं तु वस्मड्डुं ।
तं वमयं कसिणं, जहन्नयं मज्झिमुकोसं ।। २११ ।। पञ्चानां कृत्स्नादीनां वर्णानामन्यतरेण वर्णेन यदाढ्यं समृद्धं तद्वयुतं कृत्स्नमुच्यते । इदमपि जघन्यं मध्यममुकृष्टं चेति । मूल्ययुतं सभेदमप्युपरि वक्ष्यते ।
अथानन्तरोक्तकृत्स्नेषु प्रायश्चित्तमाहचाउम्मासुकोसे, मासो मज्झे य पञ्च य जहले । तिविहम्मि विवत्थम्मि, तिविधा आरोवणा भणिया२१२ उत्कृष्ठे कल्पादौ कृत्स्ने चतुर्लघवः मध्यमे पटलकादौ लघुमासः । जघन्ये मुखवस्त्रिका दौ पञ्चरात्रिन्दिवानि । एवं त्रिविधेऽपि कृत्स्ने वस्त्रे यथाक्रमं त्रिविधा श्रारोपणा भगिता । दव्वाइतिविहकसिणे, एसा आरोवणा भवे तिविहा । एसेव वम्मकसिणे, चउरो लहुगा च तिविधे वि ॥ २१३॥ एवा च त्रिविधाsप्यारोपणा द्रव्यादौ त्रिविधकृत्स्ने कालकृत्स्ने चेत्यर्थः । एषैव च वर्णकृत्स्नेऽपि मन्तव्या । अथवा वर्णकृत्स्ने जघन्यादिभेदात्त्रिविधेऽपि चतुर्लघुकमेव, नवरं तपःकालविशेषोऽत्र क्रियते, उत्कृष्टे यश्चतुर्लघु तत्तपसा कालेन च गुरुकम्, मध्यमे तदेव तपोगुरुकम् जघन्ये कालगुरुकम् । यद्वा- उत्कृष्टे द्वाभ्यां गुरुकम्, मध्यमे श्र न्यतरगुरुकम् ।
अथ मूल्ययुतं व्याख्यानयति
मुल्ले जुयं पि तिविहं, जहस्सगं मज्झिमं च उक्कोसं । जहमेऽद्वारसगं, सत्तसहस्सं च उक्कोसं ।। २१४ ॥
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वत्थ
मूल्ययुतमपि कृत्स्नं त्रिविधं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । यस्य रूपकाणामष्टादशकमूल्यं तत् जघन्यम्, शतसहस्ररूपकमूल्यमुत्कृष्टम् शेषमष्टादशकादृर्ध्वं शतसहस्रादर्वाकू मूल्यलभ्यं सर्वमपि मध्यमम् ।
अथ किं नाम तद्रूपकभेदप्रमाणं निरूप्यत इत्याहदो साभरगादादि-व्वगा तु सो उत्तरापथे एको । दो उत्तरापहा उण, पाडलिपुत्ते हवति एक्को ।। २१५ ।। द्वीपं नाम सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्तते तदीयौ द्वौ साभरको स उत्तरापथे एको रूपको भवति, द्वावुत्तरापथरूपको पाटलिपुत्रक एको रूपको भवति
अथवा
दो दक्खिणावा, कंची गेलओ सद्गुणो य । एगो कुसुमगरगो, तेण प्रमाणं इमं होति ।। २१६ ॥ दक्षिणापथे द्वौ रूपकौ काञ्चीपुर्यान्धविषयप्रतिबद्धयोः एको नेलको रूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगर सत्करूपको भवति । कुसुमनगरं पाटलिपुत्रमभिधीयते तेन च रूपकेण इदमनन्तरोक्तमष्टादशकादिप्रमाणं प्रतिपत्तव्यं भवति ।
अथ मूलवृद्धया प्रायश्चित्तवृद्धिमुपदर्शयतिअट्ठारसवीसामा, अगुणा पलासं पंच य सयाई च । एगू गं सहस्सं, दस पमासं सतसहस्सं ॥ २१७ ॥ चत्तारि छच्चलगुरु, छेदो मूलं च होइ बोधव्वं । अवटुप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ।। २१८ ।। अष्टादशरूपकमूल्यं वस्त्रं गृह्णाति चत्वारो लघवः । विंशतिरूपमूल्ये चत्वारो गुरवः, एकोनपञ्चाशनमूल्ये षड्लघवः, पञ्च शतमूल्ये षड्गुखः, एकोनसहस्रमूल्ये अनवस्थाप्यम्, शतसहस्रमूल्ये पाराचिकं स्थानं प्राप्नोति ।
प्रकारान्तरेणात्रैव प्रायश्चित्तमाहअट्ठारस वीसाया, सइसडाइजपंच यसयाई ।
सहस्सं दससहस्सा, पमासतधा सतसहस्सं ॥ २१६ ॥ लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, प्रणवटुप्पो य पारंची ।। २२० ॥ श्रष्टादशरूपकमूल्ये वस्त्रे गृह्यमाणे लघुमासः, विंशतिम् - ल्ये चतुर्लघवः शतमूल्ये चतुर्लघवः श्रर्द्धतृतीयशतमूल्ये बद्दलघवः, पञ्चशतमूल्ये षड्गुरवः सहस्रमूल्ये छेदः, दस सहस्रमूल्ये मूलम्, पञ्चशतसहस्रमूल्ये व अनवस्थाप्य - म्, शतसहस्रमूल्ये पाराश्चिकम् ।
,
अथवा
अट्ठारस वीसाया, पम्पासतधा य सयसहस्सं च । परणा पञ्चसहस्सा, तत्तो य भवे सयसहस्सा || २२१॥ चउगुरुगा बल्लहुगुरु, छेदो मूलं च होति बोधव्वं । अणवट्ठप्पा य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ २२२॥ श्रष्टादशरूपकमूल्ये चतुर्गुरवः, विंशतिमूल्ये षड्गुरुकः, शतमूल्ये छेदः, सहस्रमूल्ये मूलम्, पञ्चाशत्सहस्रमूल्ये अन वस्थाप्यम्, शतसहस्त्रमूल्ये पाराञ्चिकम् ।
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(८६७)
अभिधानराजेन्द्रः। प्रकारान्तरेण भावकृत्स्नमुपदर्शयति
इत्येवमत्र द्रव्यकृत्स्न द्वितीयपदं मन्तव्यमिति संग्रहगाथाअहवा रागसहगतो, वत्थं धारेति दोससहितो वा ।
समासार्थः।
अथैनामेव विवरीषुः स्तेनदृष्टान्तमाहएवं तु भावकसिणं, तिविहं परिणामणिप्फम्मं ॥२२३॥
उवमामित्रो नरिंदो, कंबलरयणेहिं छंदए गच्छं । अथवा-अहो रमणीय वस्त्रमित्येवं रागसहगतो, यद्वाअहो मे मलिनं-कुथितं वस्त्रमित्येवं द्वेषसहितो यहस्त्रं
णिबंधे एगगहणं, णिववयणे पाउतो णेति ॥२२७॥ धारयति । तदेतद्भावकृत्स्नं मन्तव्यम् । इदं च परिणाम- णीलोगो य णिसिजा, रतिं तेणागमो गुरुग्गहणं । निष्पन्नं त्रिविधम् , तद्यथा-जघन्येन रागद्वेषपरिणामेन दंसणमपत्ति पत्ति, सिव्वावणवायरो से णं ।। २२८॥ जघन्यम् , मध्यमेन मध्यममुत्कृष्टनोत्कृष्टम् ।
“एगेण आयरिएणं धम्मकहालद्धिसंपत्तेणं राया उअथ द्रव्यादिकृत्स्नेषु दोषानाह
वसामिश्रो । सो सव्वं गच्छं कंबलरयणेहिं पडिभारो भय परियावण,मारण अहिगरण दव्वकसिणम्मि।
लाभिउं , उवट्टियो । आयरिएहिं निसिद्धो , न वट्टर
एयारिस मुल्लकसिणं गिरिहउं ति । तहा वि अतिनिपडिलेहणाएँ लोवो, मणसंतानो उबायाणं ॥ २२४॥
ब्बंधेण एग गहियं । राया भणइ-पाउया हट्टमग्गेणं प्रमाणातिरिक्तं वस्त्रं वहत प्रात्मन एव भारो भवति, अ- गच्छ तहा कयं । तेणगेण दिट्ठा । तेहिं वसहि श्रागंतुं सेध्वप्रपन्नानां सकलकृत्स्नादौ स्तेनेभ्यो भयं भवेत् , ते च जाओ कयायो । सो तेणो रतिं श्रागंतुं पायरियाणं उरि साधूनां बन्धनादिरूपं परितापनं मारणं वा कृत्वा तादृशं छुरिय कहिऊण भणइ-देहि मे तं वत्थं श्रनहा मारिस्सामि । वस्त्रमपहरेयुः । अविरतकैश्च गृहीते अधिकरणं भवेत् । ते भणन्ति-इमाणि खण्डाणि अस्थि, सो भणर-सीवित्ता में एते द्रव्यकृत्स्ने गृह्यमाणे दोषास्तथा क्षेत्रकालकृत्स्नो- देह अनहा प्रोवदविस्सामि । तेहिं सीवित्ता दिन।" अथ पधि मा सागारिकोऽद्राक्षीदिति कृत्वा यदि न प्रत्युपेक्षन्ते | गाथाद्वयस्याक्षरार्थः-केनचिदाचार्येणोपशामितो नरेन्द्रः । तत उपधिनिष्पन्नं तीर्थकृतां चाज्ञाया लोपः कृतो भवति । कम्बलरत्नैर्गच्छं छन्दयति-निमन्त्रयते । तत प्राचार्यों महअथ प्रत्युपेक्षन्ते ततस्ते तादृशं वस्त्रं दृष्टा हरेयुः । पन्था- | ति निर्बन्धे एकस्य कम्बलवस्त्रस्य ग्रहणं कृत्वा नृपवचनं वा बद्धा तिष्ठेयुः । हृते च महान्मनःसंतापो भवति । नात्तेन प्रावृत्तो निर्गच्छति । ततस्तेन 'नीलोको'-अवलोकनं यद्वा-तत् कृत्स्नवस्त्रं शैक्षस्योत्प्रवजितुकामस्योपादानं भव- कृत्वा प्राचार्यश्च वसतिमागम्य कम्बलरलेन निषद्या कृता। ति तदपहृत्योत्प्रव्रजेदित्यर्थः।
रात्रौ स्तेमस्यागमः । गुरोश्च तेन बुरिकामाकृष्य ग्रहणं गहणं च गोमिएहिं,परितावणधोवकम्मबंधोय। कृत्वा भरिपतम्-प्रयच्छत मम तत्कम्बलरत्नम्, सूरिभिरुक्तम्अन्ने वि तत्थ रंभइ, तेण कते वा अहब अन्ने ॥२२॥
खण्डितं तदस्माभिः । स प्राह-दर्शय । ततस्तत्राप्रत्ययविप्रकृत्स्नवस्त्रनिमिरी गौल्मिकैः शुल्कपालैग्रहणं प्राप्नुवन्ति
त्ययमकुर्वाणे खण्डानां दर्शनम् । रोषाच्च तेन भूयः सीवनं
कारयित्वा कम्बलरत्नं गृहीतम् , यत एवमादयः कृत्स्ने दोषाः कुतोऽमीषामीदृशानि वस्त्राणि, नूनं कस्यापि गृहादपह
अतो द्रव्यतः स्थूलमदशाकं यथोक्तप्रमाणोपेतम्,क्षेत्रतः कालतानीति कृत्वा ते च गृहीत्वा बन्धनादिभिः परितापनां कुवन्ति । ततस्तानि वस्त्राण्यपहृत्य प्रावृण्वन्ति । मलिनीभू
तश्च सर्वजनभोग्यं भावतो वर्महीनमल्पमूल्यं च वस्त्र प्रही
तव्यम्। तानि च तानि धावन्ति । तत्र कर्मबन्धसद्भावो यावत्त
अथ द्वितीयपदं विभावयिषुः संग्रहगाथोक्तं स्मात् स्थानान् न प्रतिक्रामति । यद्वा- परितावणधो
देशीपदं व्याख्यानयतिवकम्मबंधो य' ति प्रमाणातिरिकवस्त्राणि धावनकाले म-परेन दोचा गरिहा बलोय, धणाइएK विहरिज एवं। हता प्रयासेन धाव्यन्ते तत्र परितापनादयो दोषाः प्राभृतेन | च पानकेन च वस्त्रधावनेऽनुपदेशः कोपि तया कर्मबन्धो
| भोगातिरित्तारभडा विभूसा,कप्पिअमिजेब दसा उ तत्थ २२६ भवति । तथा गौल्मिका अन्यान् वा साधुन् निरुन्धन्ति, स
परेदोष' ति चौरभयं तद्यत्र नास्ति यत्र च तथाविधे वेषामपि ईदृशानि वस्त्राणि सन्तीति कृत्वा त एव गौलिमका वस्ने प्रावियमाणे लोके गहरे नोपजायते। तत्र स्थूणादिविअपरमार्गेण गत्वा स्तेनका भवन्ति । अथवा तैः प्रेरिताः षयेष्वेवं कृत्स्नमपि वस्त्र प्रावृत्य विहरेत् । परं तस्य दशाः छे. सन्तोऽन्ये अपहरन्ति ।
त्तव्याः-न इत्याह-भोग' ति तासां दशानां सुषिरतया
परिभोगः कर्तुं न कल्पते । अतिरिक्तश्वोपधिर्भवति प्रत्युपेक्षभावकसिणम्मि दोसा, ते चेव नवरि तेणदिदंतो। माणे च दशिकाभिरारभटा दोषा विभूषा च सदशाके वस्त्रे देसीगिलाण जावो-ग्गहो उ दवम्मि बितियपयं ।२२६। प्रावियमाणे भवति इत्येवमेभिः कारणैस्तत्र वस्त्रे दशाः भावकृत्स्नेऽपि वराणयुतमूल्यलक्षणे त एव भारभयपरि
कल्पयेत्-छिन्द्यात् । तापनादयो दोषाः, नवरं केवलमत्र स्तेनदृष्टान्तो भति, स
कारणतो न छिन्द्यादपीति दर्शयतिचानन्तरमेव वक्ष्यते । कारणे तु प्राप्ते कृत्स्नमपि ग्रहीयात् ।।
पासंगतेसु बद्धेसुं, ददं होहि ति तेण तु । कथमित्याह 'देसी'-इत्यादि । देशविशेष ग्लान वा प्रतीत्य णातिदिग्धदसं वा चि, ण तं छिदिज देसओ ॥२३०॥ सकलकृत्स्नं प्रमाणकृत्स्नं वा गृह्णीयात् । प्राचार्या या कुला. किंचिद्वस्त्रं प्रथमत एव दुर्बलं ततः पाान्तेषु दशिकादिकार्येषु निर्गतास्ततो 'जावोग्गहो' ति यावत्तेषां समीपे | मिर्बद्धेषु दृढं चिरकालवहनकृतं भविष्यतीति कृत्वा तेन वस्त्रस्यावग्रहो नानुनार्पितः तावत्तस्य दशिका न छिद्यन्ते ।।। कारणेन दशिकास्तस्य न कल्पयेत । यद्वा-देशतः सिम्बा
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वस्थ
(८६८) अभिधानरजेिन्द्रः।
वस्थ विदेशमाश्रित्य यत्र तहीदिशाकं वयं तन्त्र छिन्चात् । तस्य यपदं भवति । ततस्तदनन्तरं तैर्भावकृत्यैहवासे भावितदशिका न कर्तयितव्या इति भावः ।
स्तद्भावितस्तद्विषयं द्वितीयपदम् । सोऽपि भावकृत्वानि परिअथ ग्लानद्वारं व्याचष्टे
भुङ्गे इत्यर्थः । अवमौदर्यादिषु वा गच्छस्योपग्रहणाथै तानि असंफरगिलाणऽडा, तेण माणाधियं सिया ।
धारयेदिति संग्रहगाथासमासार्थः। सदसं वेजकजे वा, विसकुंभट्ठयानि वा ॥२३०॥
अथैनामेव विवृणोतिअसंस्फुरो नाम-ग्लानो यःक्षीणबलतया संकुचितपादः
देसीगिलाण जाबो-ग्गहो उ दव्यकसिणम्मि जं वुतं । स्वप्तुं न शक्नोति,तस्य प्रमाणयुतं वा प्राब्रियमाण कसति, तह चेव होति भावे, तं पुण सदसं व अदसं व ॥२३॥ पतदर्थ मानाधिकमपि-प्रमाणातिरिक्रमपि वस्त्रं स्यात् । देशीग्लानं यावदवग्रहद्वारेषु यदेव द्रव्यकृत्वं द्वितीयपयद्वा-ग्लानचिकित्सको यो वैद्यस्तत्कायें-तस्य दानार्थम् । दमुक्तं तदेव भावकृत्रेऽपि वादी बहुमूल्ये वा बस्ने मन्तअथवा-दीर्घजातीयेन कश्चिद्दष्टो भवति , ततस्तस्य विद्या- व्यम् । नवरं न पुनः सदशमदशं वा भवेत्, उभयमप्यकार्ये विद्यायां प्रयुज्यमानायाम् अपमार्जनाय सदशवस्त्र- पवादपदेन प्राथमिति भावः। मुपजायते । विषकुम्भः-स्फाटिकाविशेषस्तस्यापमार्जनाय
अथ क्षेत्रकृत्वमपवदनि सदशवखं प्रहातव्यम्।
नेपालतामलित्ती य, सिन्धुसोवीरमादिसु । अथ यावदवप्रहद्वारमाह
सब्बलोकोवभोजाई, धरिज कसिणाइ वि ॥ २३५॥ अविभत्ता ख छिअंति, लाभो छिजिल मा खलु ।
नेपालविषये तामलिप्त्यां सिन्धुसौवीरादिषु च विषयेषु स. पारदोच्चाववादस्स, पडिपरखो व होज उ ॥२३॥
बलोकोपभोज्यानि कृत्मान्यपि च वस्त्राणि धारयेत् । प्राचार्याः कुलादिकायेंषु निर्गतास्ततो यावदद्यापि तैः
कुत इत्याहप्रतिनिवृत्य वस्त्राणि न विभक्लानि तावत्तानि प्रमाणाति
पाइन्नता ण चोरादी, भयं णेव य गारवो । रिकान्यपि न छिचन्ते,मा खलु लाभः छियेत-मा भूयो वस्त्रलाभन्यवच्छेदो भवेदिति भावः । तथा न 'पारदुच्चा'
उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधुमादिसु गरहितो ।। २३६॥ इत्यादिना स्थूणादौ विषये यत्कृत्स्नवस्त्राणां प्रावरणमनु
मेपालादौ देशे सर्वलोकेनापि ताहण्वस्त्राणामाचीझता , सातमेष 'पारदोच्चापवादो' मण्यते । यत्तु तेषां कृत्सव
नच तत्र चौरादिभयम् , नैव च गौरवमहो अहमीरशानि त्राणां दशाः परिभोगातिरिकादिदोषपरिहारार्थ छेत्सव्या
वस्त्राणि प्रावृणोमीत्येवं लक्षणमपि 'उज्झाइवत्थवं' विरूपं इत्युक्तम् एष तस्य-पारदोच्चापवादस्य प्रतिपक्ष उच्यते । यद्वसं तद्वान् सिन्धुसौवीरकादिषु गर्हितो भवति । प्रस चात्र यावदवग्रहद्वारे भवेत् । अविभकानामपि तेषां तस्तत्र कृत्वान्यपि परिभोक्तव्यानि । वस्त्राणां दशिका छेत्तव्या इति भावः।
- अथ कालकत्समपवदतिअथवा यत्र
नीलकम्बलमादितु, उम्लियं होति अच्चियं । अववादाववादो वा, एत्थ जुजइ कारणे ।
सिसिरे तं पिधारेज्झा,सीतं जमेण रुज्झति ॥ २३७॥ सच्छाणं वा समन्मेति, अच्छिजं जं उदाहरं ॥२३२।। नीलकम्बलादिकमौरिणकं महाराष्ट्रविषये अर्चितं महाः अपवादापवादो वा अत्र कारणे युज्यते । किमुक्तं भवति- भवति, तदपि तत्र प्राप्तः शिशिरे-शीतले धारयेत् । प्रास्थूणाविषयादिप्रतीत्य यत्कृत्वं वनं न कल्पते , एवं वृणुयादित्यर्थः । शीतं यतो नान्येन वस्त्रेण निरुभ्यते। तावदपवादः । यतु तत्र दशिका छेत्तम्या इत्युक्तम्, एष ___ अथ तद्भावितपदं व्याख्यातिभूयोऽपि तत्रापवादे उत्सर्गो मन्तव्यः । अयमप्यापाद्यते न लभइ खरेहि नि,अरतिंच करेंति से दिवसतो वि । यदा तत्पार्धान्तेषु दशिकाभिर्बद्धेषु दृढं भविष्यतीति उज्झाइयं वमन्नति, मलेहि प्रभावितो जाव ।। २३८।। मत्वा, सिन्धुविषये वा नातिदीर्घदशाकस्य वस्त्रस्य यद्दशा खरैः-स्थूलतया कठिनस्पशैश्चीवरै राजादिः प्रवजितः कअपि न छिद्यन्ते, एतेनापवादेन य उत्सर्गः सोऽपि अपवा- चिनिद्रा न लभते , तानि च तस्य दिवसतोऽप्यरति कुदापवाद उच्यते, सोऽप्यत्र घटते । एवं च स्वस्थानं वा कृ
यन्ति 'उज्झाइयं वा 'जुगुप्सां मन्यते तैस्ततः स्थूिलैर्यात्वत्वमेव तहसमभ्येति-प्रामोति यदच्छेद्यमच्छेदनीयमुदा
बदद्याप्यभावितस्तावत्तस्य भावकत्ववस्त्रमनुज्ञातम् । इतमुक्तम् । इयमत्र भावना-प्रमाणातिरिकंदशिकाश्च यस्य
अवमादिषु गच्छस्योपप्रहार्थमिति भावयतिन छिचन्ते तकृत्यमेव ज्ञातव्यं नाकृत्ममिति । गतं द्रव्यकृत्ये द्वितीयपदम्।
ओमासिवदुढेसुं, सीमढेऊख तं असंथरणे । अथ भावकृत्ये द्वितीयपदमाह
गच्छो नित्यारिजति,जाव पुणो होति संघरवं ॥२३६॥ देसीगिलाबजावो-ग्गहो उ भावम्मि होति बितियपदं।।
अवमौदर्याशिवराजद्विशेषु भक्तपानाहार गच्छस्यासंस्ततम्भाविते व तत्तो, भोमादि उपग्गहट्ठा वा ।। २३३॥
रणं भवेत्ततः शतसहस्रमूल्यं वस्त्रं 'सीमटेऊणं' ति चू
निणकारवचनात् , विक्रीय गच्छो निस्तार्यते, यावत्पुनदेशीग्लान पावदवाहविषयं भावविषय भावकृत्स्ने द्विती
रपि संस्तरणं भवति । विशेषचूराणी तु-'सीमट्ठेऊस' इत्यस्य । पाप सदीपबोधक: कृष्णशब्द एव तथापि पुस्तकानुरोधात्संगावाचक- | स्थाने 'ओवक्कमट्ठाव' ति पाठसूत्रोपक्रमः । कालगगनं
! तदर्थम्, किमुक्तं भवति-कस्थापि साधोरतर्कितं कालगमनं
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(१८) अभिधानराजेन्द्रः ।
वस्थ
भवेत् । तस्याच्छादनार्थे भावकृत्स्नं वर्णाद्यं वस्त्रं प्रागेव प्रहीतव्यम् ।
अथवा द्रव्यकृत्स्नं भावहत्स्नं चेति द्विविधमेवेद करने क धमिति वेदुच्यते
माणाहियं दसाहिय, दुवे वि निपति दव्वकसिणम्मि । तस्सेव य जो वो मुझे व गुणो यतं भावे ॥ २४०॥ क्षेत्रकृत्स्ने कालकृत्स्ने च यन्मानाधिकं - यथोक्तप्रमाणातिरिक्तं यच्च दशाधिकं - सदशाकं वस्त्रम्, एते द्वे अपि द्रव्यकृत्स्ने निपततः यस्तु तस्यैव वस्त्रस्य वर्णः कृष्यत्वादिको, यच मूल्यमष्टादशरूपकादि, यश्च गुणो मृदुत्वादि, तदेतत्सर्वमपि भावाने अवतरति ।
(२६) न कल्पन्ते अभिन्नानि वस्त्रादिनो कप्पर निग्गन्थाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाई वत्थाई धारितए वा परिहरित्तए वा ॥ ६ ॥ नो कल्पन्ते निर्मन्थानां वा निधीनां या अभिमान - च्छिन्नानि वस्त्राणि धारयितुं वा परिहर्तुं वेति । भाष्यम्
अकसिणभिन्नमभिणांव होज भिनं तु अकसिये महतं । कलियाकसिये व तहा, मिश्रमभित्रे व पठभङ्गो । २४१ | यत्पूर्वसूत्रे अकृत्स्नमुकं तद्भिन्नमभिन्नं वा स्यात् । श्रभिन्नमपि कृत्स्ने भक्तं विकल्पितम् अकृत्स्नं वा भवतीत्यर्थः । अत एव कृत्स्नाकृत्स्नपदाभ्यां भिन्नाभिन्नपदाभ्यां चतुर्भी गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् सा चेयम् - कृत्स्नमभिन्नम् २ नं मिम् २, अत्नमभिधम् २, भ अम् ४, रात्राचमने कृत्स्नपदेन इव्यक्षेत्रायविशिष्टं सामान्यतः कृत्स्नं गृहीतमभिन्नपदेन तु सकलम् ।
आह च वृहद्भाष्यकृत्
दवाई अविसिद्धं, कसिणग्गहणेण होइ गहियं तु । गहले अभिन्नस्स उ, सगलग्गहणं कथं होइ ॥ २४२॥ एवं द्वितीयभङ्गे द्रव्यक्षेत्रात्मक गृहीतम् तृतीयभङ्गे तु क्षेत्रकालभावैरकृत्स्नं परं सकलं, चतुर्थभने क्षेत्रादिभिरकृत्स्नमसकलम् ।
अत्र विधिगतं दिशनादतम्मि विसो चैव गमो, उस्सग्गववादतो जहा कसिणो । भिसग्ग्रहणं तम्हा, असती य सयं पि भिंदिजा ||२४३ || तमप्यभिश्योत्सर्गतः अपवादथ गमः प्रकारः यथा कृत्स्ने भणिनः। तथादि कृत्खवद् द्रव्याभिन्नमपि चतुर्खा । तत्र द्रव्याभिनं गणनया प्रमाणतश्चातिरिक्तम्, क्षेत्राभिन्नं यद्यस्मिन् क्षेत्रे महार्ण्यम्, कालाभिन्नं ययस्मिन् काले अर्चितम् मा यातिथैव वर्णयुतं मूल्ययुतं च याने आरोप से वाभिने ऽपि द्रष्टव्या, परमिदं चतुर्ष्वपि द्रव्यादिषु सकलमेव प्रतिपत्तव्यम्। यत एवं तस्माद्भिन्नस्य वस्त्रस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् । अथ भिन्नं न प्राप्यते ततः स्वयमपि भिन्द्यात् यावताप्रमाणेनातिरिक्रं तावदन्या प्रमाणयुकं कुर्यादिति भावः । परः प्राह पनि पूर्वसव एव गम इहापि सूत्रे वक्तव्यः
ततः
पुणरुतदोस एवं पिसे व पीसणं सिरत्यं तु ।
२१८
बस्थ
कारणमवेक्खति सुतं, दुविहपमा इमं सुत्ते ॥ २४४ ॥ पुनरुक्तदोष एवं प्राप्नोति एतच पुनर्भवनं पिष्टस्यैव पेषसे निरर्थकं परिफल्गुप्राचमेव पश्याम्यहम् अतोमारम्भणीयमिति भावः । सूरिराह--सूत्रमिदं कारणमपेक्षते । किं पुनस्तत्कारणमपेक्षते इद सूत्रे वस्त्राणां द्विविधं प्रमाणम् - गणनालक्षणं प्रमाणप्रमाणम्, नियम्यते - कियन्ति कि प्रमाणानि वा तानि प्रहीतव्यानि इत्येवं निरूप्यत इत्यर्थः ।
"
तुम्हाउ भिदियम्, केई पहेहि भहन तह चैव । लोगंते पाणादी, विराधखा तेसि पडिषाता ।। २४५ ।। यस्मादभिस्य धारये पूर्वसूत्रोक्ता दोषाः तस्मात्प्रमादातिरिकं व छेदनीयम् न तदवस्थं धारयितव्यम् । अथवा केचिचोदकाः प्रेरयन्ति वस्त्रे दिद्यमाने यानि प दमाण्डीयन्ते तैर्लोकान्तं यावच्छद्भिनां प्रासादीनां - समाप्रितीनां सूक्ष्मजन्तूनां विराधना भवति, अतो तह से सि यथालब्धं तथैवाधितिछेत्। एवं वदर्ता तेषां मोदकानां प्रतिघातो निराकरणं विधेयमिति पुरातनगाथासमासार्थः ।
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अथैनामेव विवरीषुः परः प्रेर्यमेव प्रपञ्चयन्नाह - सो तर्हि मुच्छति वेदला वा,
धावंति ते दो वि सुजाव लोगो । वत्थस्स देहस्स व जो विकंपो,
ततो विहातादि भरिति लोगं ॥ २४६ ॥
भो आर्य ! तत्र वस्त्रे विद्यमाने शब्दः संमूर्च्छति । छेदनका वा सुपदमावयवा उड्डीयन्ते। पते च द्वयेऽपि निर्गता लोकान् यावरप्राप्नुवन्ति तथा वस्त्रस्य देवस्य च यो विकम्पचलनं ततोऽपि विनिर्गता वातादयः प्रसरन्तः सकलमपि लोकमापूरयन्ति ।
अहिच्छसी जंति न ते उ दूरं, संखोभिता ते अवरे वयंति । उ अधो याऽवि चउद्दिसिं पि,
पूरिंति लोगं तु खरोया सव्वं ॥ २४७ ॥ अाचार्य त्वमित्यं मन्यसे ते च वस्त्रवेदनसमुत्थाः शब्दपदमवातादिपुङ्गला न दूरं सोकान्तं यान्ति तर्हि ते संशोभि ताघालिताः सन्तो उपर ब्रजन्ति एवमपरापरपुलप्रेरिताः पुलाः प्रसरन्तः क्षणेनोभवमधस्तिक वनेष्वपि दि सर्वमपि लोकमापूर्यन्ते ।
यत एवमतः -
विनाय आरंभमिणं सदोसं,
तम्हा जहा लमधिडिहिजा । वृत्तं स ए खलु जाव देही,
होति अंतंतकरी तु ताव ॥ २४८ ॥ ममनन्तरोकं सर्वलोकात्मकमारम्भं सदोष जीवविराधनया सावयं विज्ञाय तस्मात्कारणाद्यथालब्धं वस्त्रम
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(450) अभिधान राजेन्द्रः ।
वत्थ
धितिष्ठेत् । न छेत्रनादिकं कुर्यात्, यत उक्तम्- भणितं व्याक्या यावदयं देही- जीयः स्वयं संक्रम्य चेष्टाचानित्यर्थः तावदसौ कर्मणो भवस्य वा अन्तकारी न भवति । तथा च तदालापक:- " जाव से एस जीवो सयं संकमिय एयह वेयह चल फंवर घडt वज्झर दीरह तं तं भावं परिणम ताव णं तस्स जीवस्स श्रंतेकिरिया न भवति ” अथेत्थं भणिष्यथ एवं ताई भिक्षादिनिमित्तमपि चेष्टा न विधेया इति ।
नैयम्-यतःजाओ वि चिट्ठा इरिवाइयाओ, संपस्सताहि विमा न देहो । संचिए नेवमलिमासे,
"
वत्थम्मि संजाय देहनासो ॥ २४६ ॥ याश्चापि चेष्टा ईर्यादिकाः संपश्यत ततः तत्करणमीर्या भि क्षा भूम्यादी गमनम् आदिशब्दाद्-भोजनशयनादयोधन्ते एताभिर्विना देहः पौडलिकत्वान सन्तिष्ठतेन निर्व इति । देदमन्तरेण च संयमस्वापि व्यवच्छेदः प्राप्नोति । यस्प्रे पुनरविद्यमाने नैवं देहनाशः संजायते श्रतो न तच्छेदनीयम् ।
किंवजहा जहा अप्पतरा से जोगा, तदा तहा अप्पतरो से बंधो।
निरुद्धजोगिस्स व जो ग होति,
अदिपोतस् य अम्बुयोधे ।। २५० ।। यथा यथा' से' तस्स जीवस्य श्रल्पतरा योगास्तथा तथा' से ' तस्याल्पतरो बन्धो भवति, यो वा निरुद्धयोगी- शैलेश्यवस्थायां सर्वथा मनोवाक्कायव्यापारविरहितः तस्य कर्मबन्धो न भ पति दान्तमाह-पोतस्येष, अम्बुधिना यथा किल निश्छिद्रप्रवहणं सलिलसंचयसंपूर्णेऽपि जलधौ वर्त्तमानं स्वएपमपि जलं नाखपति एवं निरुद्धयोग्यान्तुकर्मवसापु सैरञ्जनचूर्ण समुद्र कयनिरन्तरमिवैतेऽपि लोके वर्त्तमानाः स्वरुपीयोऽपि कर्म नोपाददते। अतः कर्मबन्धस्य योगान्यपव्यतिरेकानुविधायितया तत्परिजिहीर्षुणा वस्त्रच्छेदनादिव्यापारोन विधेयः ।
इत्थं परेण स्वपते स्थापिते सति सरिराहआरंभमिट्ठो जति आसवा
गुत्तीय सेआय तथा तु साधु ! | मा फंद वारेहि व छिजमाणं
"
पतिमहारणी वणोवघातौ ।। २५१ ॥ 'श्रारम्भमिट्टो ' मकारोऽलाक्षणिकः हे नोदक ! यथाऽऽरम्भस्तथाऽश्रवाय- कर्मोपादानाय इष्टः - अभिप्रेतः गुप्तिश्च-तपरिहाररूपा श्रेयसे- कर्मानुपादानायाभिप्रेता, तथा च सति हे साधो ! मा स्पन्दं मा वा वस्त्रं छिद्यमानं वारय । किमुक्कं भवति यदि वदनमारम्भतया भवता कम्यनिधन प्युपगम्यते, ततो येयं वस्त्रच्छेदनप्रतिषेधाय हस्तस्पन्दनादिका बेटा क्रिया तया वा तत्प्रतिषेधको ध्यनिरधार्यते ता प्यारम्भतया भवता न कर्तव्य, अतो मनोपदेशादन्यथा
-
वत्थ
सेत्करोषि ततस्ते प्रतिज्ञाहानिः स्ववचनविरोधलक्षणं वृ मापद्यते इत्यर्थः । अथ वीधाः योऽयं मया च्छेदनप्रति धको ध्वनिचार्यते स आरम्भप्रतिषेधकत्वात् निर्दोष इति । अत्रोच्यते
श्रदोसवंते जति एस सद्दो,
अवि कहा भवे अदोसो | अथिच्छया तुज्झ सदोस एको
"
।
एवं सती कस्स भवे न सिद्धी ।। २५२ ।। यद्येष त्वदीयः शब्दो ऽदोषवान् ततोऽन्योऽपि बलच्छेदनादिसमुत्थः शब्दः कस्माददोषो न भवेत् । तस्याऽपि प्रमाणातिरिक्तपरिभोगविभूषादिदोषपरिहारहेतुत्वात् अथेच्या स्वाभिप्रायेण बैंको वच्छेदनशब्दः सदोषः श्रपरस्तु निर्दोषः । एवं सति कस्य तत्स्वपक्षसिद्धिर्भवेत् सर्वस्यापि या गाढं वचनमात्रेण भवत इव स्वाऽभिप्रेतासिद्धिर्भवेदिति भावः । ततथास्माभिरप्येवं वक्तुं वा शक्यम् । योऽयं वस्त्रच्छेदनसमुत्थः शब्दः स निर्दोषः शब्दत्वात् भवत्परिकल्पितनिर्दोषशब्दवदिति ।
किंच
तं चिंद होज्ज सर्व तु दोसो, खोहादि तं चैव जतो करेति ।
जे पीह तो होंति दिखे दिखे तु,
संपावते व शिबुझ ते वि ।। २५३ ।। यतस्तदेव वस्त्रं छिद्यमानं पुलानां क्षोभादि करोति, श्रुतस्तद्वस्त्रं छिन्दतः सकृदेकवारं दोषो भवति । श्रच्छिद्यमाने तु वस्त्रे प्रमाणातिरिक्तं तत्प्रत्युपेक्षमाणस्य ये भूमिलोलनादयः प्रत्युपेक्षणादोषास्ते दिने दिने भवन्ति । ये च तद्वस्त्रसंप्रावृते विभूषादयो बहवो दोषास्तानपि विबुध्यस्व अक्षिणी निमीत्व सम्यक निरूपयेति भावः । ग्रह-यदि यच्छेदने युष्ममतेनापि सकदोषः संभवति ततः परिहितामसी स्वयोगद्भिम् तदेव गृह्यताम् । उच्यतेघेतव्वगं भिन्नमहिच्छितं ते,
"
जा मग्गतो हाणिसुतादि ताव । अप्पेस दोसो गुणभूतिजुत्तो,
पमाणमेवं तु जतो करेंति ।। २५४ ॥
अथ ते तवेष्टुं मतम् । यथा - चिरमपि गवेष्य भिन्नं ग्रहीतव्यम्, तत उच्यते- यावद् भिन्नं वस्त्रं मार्गयति तावत्तस्य सूत्रादौ सूत्रार्थ पौरुष्यादौ हानिर्भवति । अपि च य एष यस्त्रच्छेदनलक्षणो दोषः स प्रत्युपेक्षणाशुद्धिविभूषापरिहा रप्रभृतीनां गुणानां भूत्या संपदा युक्तो बहुगुणकलित इति भावः । कुत इत्याह-यतः प्रमाणमेव वस्त्रस्य तदानीं साधयः कुर्यन्ति न पुनस्तत्राधिकं किमपि सुषार्थव्यापाता दिकं दूषणमस्तीति ।
अथ जाया विविधा 'इरियाइया उ' इत्यादि परोक्तं परिहरन्नाहआहारणीहारविहीगु जोगो,
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वत्थ
सब्वी अदोसाय जहा व तस्स । विया य सस्सम्मि व सस्सियस्स, भंडस्स एवं परिकम्मणं तु ।। २५५ ।। यथा यत्तस्य प्रयत्नपरस्य साधोराद्दारनीहारादिविधिविपयः सर्वोऽपि योगो भवन्मतेनाप्यदोषाय भवति तथा भाण्डस्योपकरचस्प परिकर्म्मणमपि देदनादिकमेव यतनया क्रियमां निर्दोषं दृष्टव्यम् । दृष्टान्तमाह-'विया य सस्सम्मि व सस्सियस्स' ति सस्येन चरतीति साख्यिकः – कृषीवलस्तद्विषयं परिकर्म निम्नादिकं हिताय भवति, तयेदमपि भाण्डपरिकर्मणः तथाचोक्रम-यद्वत् सस्यहिवार्थ सस्थाकीर्णेऽपि विचरतः क्षेत्र या भवति सस्यपीडा यत्नवतः साऽल्पदोषाय तथा जीवहितार्थ जीवाकीपि वि चरतो लोके या भवति जीवपीडा बनवतः साऽल्पदोषाय । किंचअप्पेव सिद्धतमजाणमाणो,
तं हिंसयं भाससि जोगवंतं ।
दत्रेण भावेश य संविभत्ता,
( ८७१) अभिधानराजेन्द्रः ।
सा दब्बतो होति स भावतो उ
चनारि भन्ना खलु हिंसगने ।। २५६ ।। अपीत्यभ्युच्चये । अस्त्यन्यदपि वक्तव्यमिति भावः । यदेव योगवन्तं - वस्त्रच्छेदनादिव्यापारवन्तं जीवहिंसकं त्वं भाषसि स्थापयसि सम्यक सिद्धान्तमजानान एवं प्रलपसि सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव हिंसोपवते मत्तयतादीनां योगिकेवलिपर्यन्तानां योगमतामपि तङ्गावात् । कथं तर्हि सा प्रवनैः प्ररूप्यत इत्याह, द्रव्येण भावेन च सुविभक्ताश्चत्वारो भङ्गाः खलु हिंसकत्वे भवन्ति । तथाहि-द्रव्यतो नामैका हिंसा न भावतः भावतो नामका हिसा न द्रव्यतः, एका द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, एका न द्रव्यतो नापि भावतः ।
अयेनामेव यथाक्रमं भावनां कुर्वग्राहश्रच हिंसा समितस्स जा उ,
"
भावे न हिंसा तु असंजतस्स,
जं वाऽवि सचेण स दाव चेति ।। २५७ । संपत्ति तस्सेव जदा भविजा,
सा दव्वहिंसा खलु भावतो य । अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होजा,
वधे स जोगी दुहतोऽप्यहिंसा ॥ २५८ ॥ समितस्यैर्यासभितावुपयुक्तस्य या तु 'श्रहच्च' कदाचिदपि हिंसा भवेत् सा इज्यतो हिंसा इयं च प्रमादयोगाभावासस्तो मन्तव्या प्रमत्तयोगात्याव्यपरोपणं हिंसे ति वचनाद्भावेन - भावतो वा हिंसा न तु द्रव्यतः, सा श्रसंयतस्य-प्राणातिपाता बेरनिष्टत्तस्योपलक्षणत्वात् संयतस्य वा अनुपयुकगमनादि कुर्वतो यानपि सत्यानसी सदैव न हन्ति तानप्याश्रित्य मन्तव्या । 'जे विजंति नियमा तेसिपि हिंसश्रो सो उ' इति वचनात् तु तस्यैव प्राणिव्यपरोपणप्राप्तिर्भवति तदा सा यतो हिंसा प्रतिपत
या । यस्य पुनरात्मनः चेतः प्रणिधानेन शुद्ध-उपयुक्तगमनागमनादिक्रियाकारीत्यर्थः, तस्य यदा वधेन - प्राणव्यपरोपणेनेह योगः -- सम्बन्धो न भवति तदा द्विधाऽपि द्रव्यतो भावतोऽपि हिंसा न भवतीति भावः । तदेवं भगचमणी प्रवचने हिंसाविषयाथत्वारो भङ्गाः उपवएर्यन्ते । अत्र चाद्यभङ्गे हिंसायां व्याप्रियमात्काययोगेऽपि भावत उपयुक्तं तथा भगवद्भिरहिंसक एवोक्तः, ततो यदुक्तं भव-ता च अछेदनव्यापारं कुर्वतो हिंसा भवतीति तत्प्रवचनरहस्यानमितासूचकमिति ।
किंच
रागो व दोसो व तहेच मोहो,
ते बंधुहेतु तु तथो विजासं । णात्तगं तेसि जधा य होति,
,
जाखाहि बन्धस्स तथा विसे ।। २५ । रागध्धाभिष्वङ्गलक्षणः, द्वेषश्चाप्रीतिकरूपकः तथैव मोहो ज्ञानलक्षणः । एतान् श्रीनपि बन्धहेतून जानीहि नानात्वंविशेषो यथा तेषां रागादीनां भवति तथा कर्मबन्धस्यापि विशेषं जानीहि ।
वत्थ
इदमेव विभावयिषुरिदमाहतिब्बे मंदे खायमनाते, भावाधिकरणविरिए य । जह दीसति णाणतं, तह जारा सुकम्मबंधेऽवि ॥ २६० ॥ हिंसादिपापं कुर्वतो रागादिपरिणामस्तीयो वा भवेत् मदो या 'नायमनाय सि एको हिंसादिफलविपाकस्यपाये या जीवे जीवतया ज्ञाते हिंसादि करोति, अपरस्तु न जानाति परमेवमेव जानन् हिनस्ति । तथा भाव श्रदयिकादिः अधिकरणं निवर्त्तनादिरूपं प्रागुक्रम् वीर्ये - देहवलं बालपण्डितादिसामर्थ्य वा, एवं तीव्रमन्दादिकं नानात्वम्, यथा - रागादिषु दृश्यते तथा कर्मबन्धेऽपि नानात्वं जानीहि इति ज्ञारगाथासमासार्थः
अथैनामेव विपरीपुराइ
निम्बेहि होति तिब्बो, रागादीएहि उपचओ कम्मे । मंदेह होति मंदो, मज्झिमपरिणामतो मज्को | २६१ | विधानस्य यदि तीवाः संक्रिष्टपरिणामा रागादयो भवन्ति ततस्तीकरयुपययो भवति यदाभूत एव मन्दःप्रतनुपरिणामस्तदा कर्मोपचयोऽपि मन्दो भवति, यदा तेषां मध्यमपरिणामो नातितीव्रो न वातिमन्द इत्यर्थः तदा मध्यमः कर्मोंपचयो भवति ।
"
अथ ज्ञानाऽज्ञानद्वारमाह
जाणं करेति एको, हिंसमजायं पुणो अविरतो य । तत्थ विबंधविसेस, महंतरं देसितो समए ॥। २६२ ।। इद द्वावविरतौ तत्रैकस्तं जानन् हिंसां करोति, विचिन्त्येत्यर्थः । अपरः पुनरजानन् । तत्रापि तयोरपि बन्धविशेषो 'महंतर' सि महता श्रन्तरेण देशितः समये - सिद्धान्ते । तथाहि यो जानन् जीवहिंसां करोति स तीवानुभावं बहुतरं पापकर्मोपचिनोति इतरस्तु मन्दतरविपाकमल्पतरं तदेयोपादते।
"
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Auth
(८७२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं च अप्पमत्तो य । तत्थ वि अज्झत्तसमा, संजायति गिजरा ण चत्र । २६२ । यः पुनर्विरतः - प्राणातिपातादेर्निवृत्तः स जानानोऽपि सदोषमिदमित्यवबुध्यमानोऽपि गीतार्थतया द्रव्यक्षेत्राद्यागा--- डेषु प्रलम्बादिग्रहणेन हिंसां करोति । यद्वा-न जानाति परम्, अप्रमत्तो- विकथादिप्रमादरहितः, उपयुक्तः सन् यत्कदाचित्प्राण्युपधातं करोति, तत्राप्यध्यात्मसमा चित्तप्रणिधानतुल्या निर्जरा संजायते । यस्य यादृशः तीव्रो मन्दो म ध्यमो वा शुभाध्यवसायस्तस्य तादृश्येव कर्मनिर्जरा भवतीति भावः । 'न बनो'ति न पुनश्चयः कर्मबन्धः सूक्ष्मो भaft प्रथमस्य भगवदाश्रया यतनया प्रवर्त्तमानत्वात्, द्वितीयस्य तु प्रमादरहितस्याजानतः कथं प्राण्युपघातनं, तद्भावाऽदुष्टत्वात् ।
अथ भावद्वारमाह
एगो खओवसमिए, वट्टति भावेऽपरो उ श्रदइए । तत्थ वि बंधविसेसो, संजायति भावणाणत्तं ॥ २६३ ॥ एकः कोऽपि क्षायोपशमिके भावे वर्त्तते अपरखौदायिके त त्रापि बन्धविशेषः संजायते भावनानात्वात् । तथाहिय श्रदयिके भावे वर्तते स तीव्रतरं कर्मोपचिनोति, यस्तु क्षायोपशमिके स मन्दतरमिति ।
एमेव श्रवसमिए, खओवसमिए तहेव खइए य । बंधा बंधविसेसो, ण तुलबंधा य जे बन्धा ॥ २६४ ॥ एवमेवोपशमिके- क्षायोपशमिके तथैव क्षायिके च भावे बन्धा-बन्धविशेषाः सम्यगुपयुज्य वक्तव्याः । येऽपि बन्धिनःकर्मबन्धका जीवास्तेऽपि नातुल्यबन्धकाः, किं तु प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशैः परस्परविसदृशकर्म्मबन्धकाः ।
अथाधिकरणद्वारमाह
श्रहिकरणं पुव्वृत्तं चउन्विहं तं समासो दुविधं । व्वित्तणया एया, संयोगे चेत्र रोगविधं ।। २६५ ॥ अधिकरणं पूर्व - प्रथमोद्देशके यथा निर्वर्त्तनानिक्षेपणासंयोजनानिसर्जनाभेदाच्चतुर्विधमुक्तं तथैव ज्ञातव्यम्, नवरं तदधिकरणं समासतो द्विविधं भवति । तद्यथा निर्वर्तनायां संयोगे चैव, संयोजनायां च पुनरेकैकमनेकविधं भवति ।
तत्र मिर्वर्तनाधिकरणमनेकविधमुपदर्शयतिएगो करेति परसुं; णिव्वत्तेति गखछेदनं अवरो । कुंतकखग्गे या बजे, आरियसूई अ अवरो तु ॥ २६६ ॥ एको लोहकारः पशु-कुठारं करोति । अपरस्तु लोहकार आरिकां सूचीं वा करोति । तत्र यः कुठारकुन्तकरणकादीनि करोति स तीव्रकर्मबन्धभाक् यस्तु नखछेदनारिकासूचीर्निर्वर्त्तयति स स्वल्पकर्मबन्धक इति ।
वसुं पि विसेसे, कारणसईसु सिव्वणीसुं च । संगामियपरियाणिय, एमेव य जाणमादीसुं ॥ २६७॥ सूयपि विशेषो विद्यते, एकाः कारणसूच्यः अपराः सी वनसूच्यः । तत्र याः परव्यपरोपणादिकारणमुद्दिश्य कारयित्या परस्य नखमूलादौ कुट्यन्ते ताः कारणसूज्य उच्यन्ते, तासु विधीयमानासु महान् कर्मबन्धो भवति । यास्तु वस्त्रसीव
वत्थ नार्थ क्रियन्ते तासु स्वल्पतरः कर्म्मबन्धः । एवमेव च यानादिष्वपि वक्तव्यम् । तथाहि - किमपि यानं सांग्रामिकं भवति, यत्रारूढैः संग्रामः क्रियते, अपरं तु पारियानिकम् । परियानं - गमनं तत्प्रयोजनमस्येति पारियानिकम्, उद्यानदौ यस्मिन्नारूढैर्गम्यते । तत्र सांग्रामिकयानादीनि कुर्वतो महान् कर्मबन्धः । पारियानिकानि तु कुर्वाणस्याल्पतरः ।
आह-यदि नामाधिकरणं नैकविधं तत्तस्मिनिमित्तः कर्मबन्धविशेषः कथमुपपद्यते ?, यावता परिणामवैचित्र्यप्रत्यय एवासाविष्यत इत्याह
कारगकरेंतगाणं, अधिकरणं चैव तं तहा कुणति । जह परिणामविसेसो, संजायति तेसु वत्थूसु ॥ २६८ ॥ उपकाराय कुर्वन्नसौ तदधिकरणमेव तथा तेन रूपेण करोति - बुद्धिमुपजनयति, यथा तेषु पर्शुनखच्छेदनादिषु वस्तुषु कार्यमाणेषु च परिणामविशेषः संक्लिष्टासंक्लिष्टरूपमध्यवसायवैचित्र्यं संजायते, यथा कारयाम्यहमिदं पर्शुकुन्तवाणकादिकं ततोऽनेन तत्राध्यासितं बधमेव, यत् वस्त्रादेर्ग्रहणं पुराणस्य - प्राग्गृहीतस्य चोलपट्टकादेः कूर्परादिना ग्रह
पुराणग्रहणम्, तश्च द्विधा -- उपस्थापनाग्रहणमुपस्थितिप्रहं च । तत्रोपस्थापनायां विधीयमानायां हस्तिदन्ताऽऽकारहस्तादिभिर्यद् रजोहरणादि गृह्यते तदुपस्थापनाग्रहणम्, द्वितीयम् - उपधिस्थापितस्याच्छेदोपस्थापनीयचारित्रं प्रापितस्य यदुपधिधारणं परिभोगो वा तदुपस्थितिग्रहणम् ।
एनामेव गाथां व्याख्यानयतिओहियोवगहियं श्रभिनत्रगहणं तु होइ अचित्तं । इयरस्स वि होइ दुहा, गहणं तु पुराणउवहिस्स ॥ २६६ ॥
चित्तस्य वस्त्रपात्रादेरभिनवग्रहणं द्विधा-श्रोघोपधिविधेयम्, श्रपग्रहिकोपधिविधेयं च । इतरस्यापि पुराणोपधिग्रहणं द्विधा - उपस्थापनाग्रहणमुपस्थितग्रहणं चेत्यर्थः ।
अथवा अभिनव ग्रहणमिदमनेकविधम्जायण निमँतणुवस्सय, परियावनं परिद्ववियनङ्कं । पट्ठपडियगहियं, अभिनवगहणं अणेगविहं ॥२७०॥ याच्प्रा - श्रवभाषणं निमन्त्रणा - गृहस्थानामभ्यर्थनापुरस्स रं यद्वत्रावग्रहणं यश्चोपाध्ये पर्यापन्नस्योपध्यादिभिर्विस्मृत्य परित्यक्तस्य वस्त्रादेर्ग्रहणं यच्च परिष्ठापितस्य भूयः कारणे ग्रहणं तथा नष्टं- हारियं 'पम्हठ्ठे' - विस्मृतं पतितं हस्तात्परिभ्रष्टुं गृहीतं प्रत्यनीकेन बलादाच्छिद्य स्वीकृतम्, एतेषां पुनर्लब्धानां यद्ग्रहणमेवमादिकमनेकविधमभिनवग्रहणं मन्तव्यम् ।
अथवा याच्यानिमन्त्रणाग्रहणयोर्विधिमतिदिशन्नाहजो चैव गमो हेट्ठा, उस्सग्गाई उ वलिओ गहणे । दुविहोवहिम्मि सो श्चिय, कास त्तिय किं न कीस ति२७१ य एव गमः - प्रकारो ऽधस्तात्पीठिकायाम्, उत्सर्गादिः-कायोत्सर्गादिको वस्त्रग्रहणविषयो वर्णितः स एवात्र द्विविधोपधेरै पधिक पग्रहिकलक्षणस्य ग्रहणे कस्य सत्कमेतद्वस्त्रपात्रादिकं वा पूर्वमासीद्भविष्यति वा कस्माद्वा प्रयच्छसीति पृच्छात्रयपरिशुद्धो द्रष्टव्यः । उपाश्रयपर्यापन्नवस्त्रादिग्रहविषयस्तु विधिरिहैवोदेशके पुरस्तादभिधास्यते
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वत्थ
अभिधानराजेन्द्रः। परिठापनादेस्तु यथा कारणतो भूयोऽपि ग्रहणं क्रियते
अथ निर्वर्तनासंयोजने द्वे अपि यत्र सम्भवतः तान्युतथा व्यवहाराध्ययने भणिज्यते । गतमभिनवग्रहणम् ।
पदर्शयतिअथ पुराणग्रहणमुपस्थापितग्रहणं च वस्त्राद्यं तावदाह
निव्वत्तणा य संजो-जणा य सगडाइएसु भ भवति । कोप्परपट्टगगहणं, वामकरनामियाए मुहपोती। ।
आसज्जुत्तरकरणं, णिवत्ती मूलकरणं तु ॥ २७७ ।। रयहरणहत्थिवंतु भएहि हत्थेहुवट्ठाणं ॥ २७२ ॥
निर्वर्तना च संयोजना च शकटादिषु द्वे अपि भवतः। त. कृपराभ्यां चोलपट्टकस्य ग्रहण कृत्वा वामकरसत्कया
थाहि-शकटाङ्गानां द्विचक्रप्रभृतीनां या प्रथमतो घ
टना सा निर्वर्तना, पुनस्तेषामेव निर्वतितानामेकत्र संघाअनामिकया मुखपोत्तिकं गृहीत्वा रजोहरणं हस्तिदन्तो
तना सा संयोजना । अत्र चोत्तरकरणं संयोजनारूपामुत्तरभताभ्यां हस्ताभ्यामादाय उपस्थापनं कर्त्तव्यं-शैक्षस्य
क्रियामासाद्य-प्रतीत्य निर्वृत्तिः-प्रथमतो निर्वर्तना मूलकरलं व्रतस्थापना विधेयेत्यर्थः ।
प्रतिपत्तव्यम् । गतमधिकरणद्वारम् । अथोपस्थापितग्रहणमाह
अथ वीर्यद्वारमाहउवठावियस्स गहणं, अहभावे चेव तह य परिभोगे ।
देहबलं खलु विरियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो। एकेकं पायादी, नेयव्वं आणुपुब्बीए ॥ २७३। आसज देहविरियं, छट्ठाणगया तु सव्वत्तो ॥ २७८ ।। उपस्थापितस्य यदुपकरणग्रहणं तत् द्विधा-यथाभावः
यहेहबलं संहननजनितं शरीरसामर्थ्य तत् खलु वीर्य परिभोगश्च, अनेन च द्विविधेनापि ग्रहणेन एकैकं पात्रादि
मन्तव्यम्, तस्य च बलस्य सदृश एव प्राणिनां परिणामो भ. कमानुपूर्व्या-परिपाट्या नेतव्यम् ।
वति, तथाहि-यः सेवार्तसंहननो जघन्यवलो जीवस्तस्य इदमेव भावयति
परिणामः शुभोऽशुभो वा मन्द एव भवति न तीवः, ततः पडिसामियं तु इच्छइ, पायाई एस होंति जहभावो। शुभाशुभकर्मबन्धोऽपि तस्य स्वल्पतर एव । अत एवास्योसद्दव्वपाणभिक्खा, निल्लेवण पायपरिभोगे ॥ २७४ ॥ चंगतौ कल्पचतुष्टयादृर्ध्वमधोगतौ नरकपृथ्वीद्वयादध उपयत्पात्रादिकं प्रतिस्वामिकं विवक्षितसाधुलक्षणेन स्वामि
पाते भवतीति प्रवचने प्रतिपाद्यते, एवं कीलिकासंहननेष्वपि प्रतिगृहीतं सत् प्रास्ताम् तदानीं परिभुज्यते एष यथा
भावना कार्या । इदं च देहवर्षमासाद्य-प्राप्य षट्स्थानगताः भावो भवति, स्वपरिग्रहे धारणीयमित्यर्थः । परिभोगो
सर्वतः सर्वेष्वपि संहननेषु प्राणिनः परस्परं भवन्ति । तथानाम यत्पात्रादि यस्यां वेलायां परिभुज्यते तत्र सत् शोभन
हि-सेवार्तसंहननेषु ये सर्वजघन्यबलास्तदपेक्षया अपरेऽनमाचार्यादिप्रायोग्यं यद् द्रव्यं यच्च पानकं भैक्षं चात्मनो न्तभागवृद्ध्या असंख्यातभागवृद्धया संख्यातमागवृतथा योग्यं तत्र गृह्यते, निर्लेपनं च श्राचमनं तेन विधीयते
अनन्तगुणवृद्धथा असंख्यातगुणवृद्धथा संख्यातगुणपत्या एष पात्रस्य परिभोगः । इह च पात्रशब्देन प्रतिग्रहो मात्र- वा भवन्ति , एवं कीलिकादिष्वपि । यतः पट्क वा गृहीतम्।
स्थानपतिताः प्राणिनः अतो देहबलवैचित्र्येण परिणामधितथा
यात् कर्मबन्धोऽपि विचित्रो भवतीति स्थितम् । पाणिदयासीयमत्थुय,मपअचिलिमिलिनिसिज कालगते ।। बलद्वारमेव प्रकारान्तरेण व्याचष्टेगेलन्नमज्जअमहु, च्छेअणसागारिए भोगो ॥ २७५ ॥ । अथवा बालाऽऽदीयं, तिविहं विरियं समासतो होति। वर्षाकल्पादिकं प्राणिदयार्थमकायादिजीवरक्षानिमित्तं प- बंधविसेसो तिरह वि, पंडियबंधी प्रबंधी वा ।। २७६।। रिभोगे वैरिणं व्यापाद्यात्मनः सुखमुत्पादयिष्यामीत्यादि, अथवा-वीर्य बालादिभेदात् त्रिविधम् , तत्र बालस्यासयतअतस्तत्त्वतः परिणामवैचित्र्यप्रत्यय एवात्रापि कर्मबन्ध
स्य प्राणातिपाताचसंयमकरणे यद्वीर्य तद्वालवीर्यम् ,बालपविशेष इति न किंचिदनुपपन्नम् । उक्तं निर्वर्तनाधिकरणम् ।
रिडतस्य देशविरतस्य संयमासंयमविषयं वीर्य बालपण्डितअथ संयोजनाधिकरणमाह
वीर्यम्,पण्डितस्य सर्वविरतस्य सर्वसंयमविषयं वीर्य पण्डितसंयोजना य कूडं, हलं पडं ओसहे य अमोणे । । वीर्यम्, पतत्त्रिविधं वीर्य समासतो भवति, एषां त्रयाणामपि भोयणविहिं च अमे, तत्थ वि णाणत्तगं बहुहा ॥२७६।।
बन्धविशेषस्तद्यथा-बालवीर्यवान् प्रभूततरं कर्म बध्नाति,बाकश्चिल्लुब्धको मृगादीनां बन्धनाय कूटं रज्ज्वादिकमासंयो
लपण्डितवीर्यवान् अल्पतरम्, पण्डितवीर्यवान् अल्पतमम् । जयति । अपरो हालिकादिक्षेत्रकर्षणाय हल युगादिना योज
सच पण्डितो द्विधा-बन्धः, अबन्धो वा । प्रमादादीनां कर्मयति । अन्यस्तु पटं पटान्तरेण सह सीवनप्रयोगेण संयुन
बन्धहेतूनां कापि कियतां सद्भावादवश्यं बध्नातीति बम्धी,
"णि चावश्यकाधमण्ये " इति णिन् प्रत्ययः । नबन्धी क्ति । कश्चित्तु वैद्यादिरोषधानि हरीतकीपिप्पलीप्रभृतीनि अन्योऽन्यानि परस्परेणैकमेकत्र मीलयति । अन्यस्तु भोजन
श्रबन्धी, तत्र प्रमत्तसंयतमादो कृत्वा सयोगिकेवलिनं याविधि शालिदालिघृतशालनकादिकं संयुनक्ति । तथापि कर्म
षत् बन्धकः, अयोगिकेवली तु नियमादबन्धकः । गतं वीर्यबन्धविशेषस्थ बहुधा नानात्वं प्रतिपत्तव्यम् , तथाहिन्यः कूट
द्वारम् । संयोजयति तस्य संक्लिष्टपरिणामतया तीव्रतरः कर्मबन्ध
अथोपसंहरनाहस्तदपेक्षया हलं संयोजयतः स्वल्पतरः, पटं संयोजयतः स्व
तम्हा ण सबजीवा, उ बंधणइ णेव बंधमा तना। ल्पतमः, इत्यादि स्वबुद्धया सम्यगुपयुज्य वक्तव्यम् ।
अधिकिच्च संपरायं, इरियावहिबंधगा तुला ॥ २८०॥ २२६
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(८७४) बत्य
अभिधानराजेन्द्रः। पत एवं तस्मान सर्वेऽपि जीवा बन्धकाः, येऽपि बन्धका- भएयते अत्रोत्तरम्-त्वदुक्रनीत्या द्विधा छिन्ने वस्त्रे किमुस्तेषामपि सम्परायं कवायप्रत्ययं कर्माऽधिकृत्य बन्धनं नैव | कीर्यमाणा उभयतो दशिका न जायन्ते एव । अथवा-तेनोतुल्यं रागादिवैचित्र्यतः कर्मबन्धविशेषस्यान्तरमेव प्रसाधि- भयतःछिन्नेन वाससा तैः स्तेनाः कार्पासकान् कुर्वन्ति । अथतत्वात येतूपशाम्तमोहक्षीणमोहाः सयोगिकेवलिन पर्याप- वा-ते किमदशिकानि वस्त्राणि न भुजते, येनैवमुच्यते उभथस्व पोगमात्रप्रत्ययस्य कर्मणो बन्धकास्ते परस्परं तुल्याः यतश्छेत्तव्यमिति । पकस्वेष सातवेदनाकस्य द्विसमयस्थितिकस्य सर्वेषामपि अथ द्वितीयं प्रकारमङ्गीकृत्य परिहरनाहबन्धनादेवन योगप्रत्ययकर्मवन्धस्याल्पबहुत्वविशेषः-किन्तु, रागादितीममन्यताप्रत्ययः, ततो वस्त्रच्छेदनं विधिना कुर्वतां
उड्डे फालानि करेंति, अणिहुताउ दुब्बलं च तं होति । नविदोषः।
कजं तं च ण पुस्सति, असिव्वसिव्वंत दोसा य ।२८॥ अपि च
इह अनिभृता नाम त्रिदण्डिनस्त एव प्राय ऊर्ध्वं फालानि संजमऊ जोगो, पउंजमाणो अदोसवं होइ ।।
वस्त्राणि वसितुं प्रावरितुं वा कुर्वन्ति नान्ये , तथा तव
फालितं वस्त्रं दुर्बलत्वादेव च तद्विवक्षित कार्य प्रावरणादिकं जह मारोग्गनिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स ।। २८१॥
न पुष्यति-न पूरयति परिभुज्यमानमचिरादेव स्फटतीति संघमा-प्रत्युपेक्षणादिशुद्धिरूपस्तद्धेतोर्योगो-वस्त्रच्छेदना
भावः । स्फटितं च यदि न सीव्यते ततो बहुतरं स्फटति । विम्वापारा प्रयुज्यमानोऽदोषवान् भवति, यथा आरोग्यनि
ततश्च वस्त्राभावे यन्त्रणग्रहणादयो दोषास्तान प्राप्नुवन्ति, मिर रोगिलो रोगव्यपनयनार्थ वैद्यस्य गण्डच्छेदोऽदुष्ट
अथ सीव्यते ततः सूत्रार्थपरिमन्थाऽऽदयो दोषाः । इति । परः माह-ययेवं ततो यथाऽहं भणामि तथा वस्त्रं
अपि चछिपताम्।
छिन्नम्मि माउगते, अलक्खणं मज्झफालियं चेत्र । कथमिति चेदुच्यते
गुणबुड्डा जं गहियं, न करेइ गुणं अलंभेणं ॥ २८६॥ मिमम्मि माउगंत-म्मि केइ अहिकरणगहियपडिसेहो ।।
शानादीनामुपघातो भवति, न पुनः कोऽपि गुणः । अतो गु. एवं तु भिजमाणं, अलक्खणं होइ उहुं च ॥ २८२ ॥ रणबुद्धया यद्वस्त्रं गृहीतं सत्तमेव गुणं न करोति, अलं तेन रहबलंक्तो व्ययते तदादिभूतत्वान् मात्रिकेव मात्रिका | वस्त्रेण, न तद् प्रहीतुमुचितमिति भावः । वृ० ३७०। अन्तबेह शान्त उच्यते मात्रिका चान्तश्च मात्रिकान्तं
तथा चात्र द्रमकेण रष्टान्तः क्रियते, तमेवाहइनकपडावा, तस्मिन् भिन्ने छिन्ने सति वस्त्रं यद्यपि स्तेनै
थाइणि वलवा वरिसं, दमश्रो पालेति तस्स मारणं । रपदियेत तथापि तैगृहीते सति नाधिकरण भवति, उभयपार्श्वयोः विनत्वेन परिमोगाभावादित्यभिप्रायः, एवं के
चेडीघडण निकायण,उवविट्ठदुमग्गभेसणया।। २८६ ॥ चिदाचार्यदेशीया भणन्ति तेषामेवं वदतां प्रतिषेधः कर्त- दुण्ह वि तेसिं गहणं, अलम्मि अस्सेहि अस्सिगं भणइ । व्या, कथम्ल्याह-एवम्-अमुना प्रकारेण खुरवधृतार्थे
वड्डइभावुयधूया-पयाखकुलएण प्रोवम्मं ॥ २६॥ अवधारितोऽयमर्थः-परमेवं भिद्यमानं वस्त्रमलक्षणं भवति ।
इह पारसविषये कस्यचिद गृहे प्रभूताः प्रतिवर्षप्रसविन्यो भूयोऽपि परः प्राह-तद्येवं तत ऊर्ध्वं कृत्वा तद्वस्त्रं द्विधा
बडवाः सन्ति, तत एव च तुरङ्गमा अपि तस्य बहवः समवियताम् । सरिराह-एवमप्यलक्षणदोषाश्चापरे बहवो भव
जायन्त । तेन चाश्वस्वामिना एतावदश्वसमूहमध्ये त्वया वति, मतो मैवं छेवनीयमिति संग्रहगाथासमासार्थः ।
न्तेि अश्वद्वयमस्मत्तो प्राह्यमित्युक्त्वा कश्चिद्रमकोऽश्ववडअथैनामेव विवृणोति
वारक्षणार्थ भृतः, तस्य बडवास्वामिदुहिङ्ग्या सार्द्ध संगतिरभू उममो पासिं छिजउ, मा दसिया उक्किरिज एगत्तो । त्,भृतिकालेच समायाते तेनाश्वरक्षकेण सा तद्दुहिता पृष्टा, अहिगरलं खेवं खलु, उड्डे फालो व मज्झम्मि ॥२८॥
कथय अमीषांमध्ये किमपि लक्षणयुक्तमश्वद्वयं येन तद् गृहापरः प्राऽऽ:-उभयपार्श्वयोर्वखं छिचता किं कारणमिति
मि,ततस्तयाऽभिहितोऽसौ सर्वेष्वश्वेयु अरण्ये वृक्षच्छायायां दत पाह-ययेकपावतः छिचते तदा कदाचित् स्तेनैरप
विसृष्पविष्टेषु चर्ममयः कुतुपः पाषाणखण्डानां भृत्वा वृक्ष
शिखरमारुह्य ततः स चर्मकुतुपः खण्डं खण्डं कुर्वनधहियेत ततस्तत्रैकतः वि दशिका उत्किरेयुः, उत्की
स्तने मोक्तव्यः, पटहश्च तदप्रतो वादनीयः, एवं कृते यो यं च तद्वलं विक्रीसन्तः सदशाकतया प्रभूतं मूल्य प्राप्नुयुः, स्वयं वा तत्परिभुजीरन् , ततो द्वयोरपि पार्श्वयोः
म त्रस्यते तस्य खुरकेण चर्ममयेण पाषाणखण्डमृतेन पृष्ठछेवनीयम् । पर्व विधीयमाने अधिकरणं न भवति । अथ नैवं
तो वाह्यमानेन सर्वानपि वाहय,यो शेषाश्ववाहनिकातोऽधिभवतां विचारचर्याय संगच्छते ततो मध्ये गृहीत्वा ऊर्ध्वफा
के निर्वहतः तौबावपि गृहाणेति,तेन सर्वे तथैव कृतम् मूल्यलो विधीयताम्-ऊर्व द्विधा फाल्यतामिति भावः।
कालेच तेनाश्वखामी याचितो ममामुकापश्वी देहि । तुअथ सूरिः प्रथमं परोक्तमाचप्रकारमङ्गीकृत्य
रामस्वामी तु समस्तलक्षणयुक्ताविमावश्वाविति कृत्या प्र
बीति शेषान् द्वौत्रीन् सर्वान् वा गृहाणेति किमेताभ्यां कपरिहरबाह
रिष्यसिसोपि तवश्ववयवर्जमपरं कथमपि नेच्छति ततश्चाभाइ दुहमो मिले, उभो दसियाई किएह जायति ।।
श्वखामिना सभार्याऽभिहिता प्रदीयतामसै वपुत्रिका, येन कप्पासए करेंति व, अदसाणिव किंण मुंजते ॥२८४॥ गृहजामातृत्वं प्रतिपनो न सलक्षणावश्वौ गृहीत्वाऽन्यत्र व्रज
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पत्थ
अभिधानराजेन्द्रः। तिसाच हीनो साविति नेच्छत्यमुमर्थम्। ततोऽश्वस्वामी भा- अन्नयराणि वा तहप्पगाराइं वत्थाई महम्घमुखाई लामे र्यावबोधाय वर्द्धकिसुतं दृष्टान्तीकरोति । यथा केनापि वर्द्ध
सन्ते नो पडिगाहिजा । (सू०-१४५४) किना भागिनेयः स्वसुतां दत्वा गृहजामाता कृतः । स च किमपि व्यवसायं न करोति, ततो वर्द्धकिदुहिन्या प्रेरितः कि
स भिक्षुर्यानि पुनर्महाधनमूल्यानि जानीयात् , तद्यथामिति पुरुषवतरहितः परदत्तमुपजीवस्तिष्ठसि ? विधेहि किं
आजिनानि-मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि श्लपणानि-सुबमाणि चित्कर्मान्तरमिति । ततः कुठारं गृहीत्वा काष्ठकतमार्थमट
च तानि वर्णच्छब्यादिभिश्च कल्याणानि-शोमनामि वा सू. ची गतः, स्वाभिलषितकाष्ठप्राप्त्यभावाच्च प्रतिदिवसं रिक्त
चमकल्याणानि, 'आयाणि' ति कचिद्देशविशेष प्रजाः सुएव निवर्तते, षष्ठे च मासे लब्धं कृष्णचित्रककाष्ठम् , घटित
चमरोमवत्यो भवन्ति तत्पश्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति, स्ततः कुलकः कलसिकाचतुर्थाशरूपो धान्यमानविशेषः। ततः
तथा कचिद्देशे इन्द्रतीलवर्णः कर्पासो भवति तेन निष्पमानि प्रेषिता स्वभार्या द्रव्यलक्षण यो गृह्णाति तस्मै प्रदातव्य इत्यु
कायकानि, क्षौमिकम् सामान्यकासिकम् , दुकूलम्कत्वा,हट्टमार्गे विक्रयाथै सा च तन्मूल्यलक्ष याचमाना लोकै
गौडविषयविशिष्ट कार्पासिकम् , पट्टसूत्रनिष्पन्नानि पट्टानि रुपहस्यते । समायातश्च तत्र कश्चिद् बुद्धिमान वणिक, परि
मलयानि-मलयजसूत्रोत्पन्नानि 'पन्नुन्नं' ति वल्कलतन्तुभावितं च तेन वचेतसि नूनमत्र कारणेन भवितव्यम् , य
निष्पत्रम् अंशुकचीनांशुकादीनि नानादेशेषु प्रसिद्धाभिधादेवमियमस्य काष्ठस्य मूल्यं लक्षं याचते, ततो यावत्तेन
नानि, तानि च महाघमूल्यानीति कृत्वा ऐहिकामुष्मिकापाधान्य मिमीते तावन्न कथंचित्क्षीयते अतो धान्याद्यक्षय
यभयालाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति । आचा०२श्रु०१चू० निमित्तं लक्षमपि दत्त्वा गृहीतस्तेन कुलकः । ततः प्रभृ
५ अ०१ उ०। ति तेन सलक्षणजामातृकेण गृहे धृतेन सर्वमपि वर्द्धकिकुटु कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां भिन्नानि वस्त्राणिम्वं धनधान्यादिना वृद्धिमुपययौ । तथा त्वमपि निजदुहितरं
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गीण वा भित्राइंवत्थाइंधायद्यस्मै प्रयच्छसि ततोऽनेन अस्मद्गृहे तिष्ठता समस्तलक्षणो. पेतमश्वद्वयमपि तिष्ठति, ततोऽश्वद्वयमाहात्म्येन च सर्वाः
रित्तए वा परिहरित्तए वा ॥१०॥ संपदः करस्था एवास्माकं भवन्तीत्यादि बहुविधमुक्त्वा दापि अस्य व्याख्या प्राग्वत् ।। ता तस्मै दुहिता । श्रथ गाथाद्वयस्याक्षरार्थः-स्थापिन्यो ना
आह किमेतेन सूत्रेण प्रयोजनं पूर्वसूत्रम वडवाः ता उच्यन्ते या वर्षे वर्षे विजनयन्ते ताश्च वर्षमेकं
णैव गतार्थत्वात् ? , उच्यतेकश्चिद्रमकः पालयति, उपलक्षणमिदं तेनाश्वानपि पालयती
अन्नो गडो य भणितो, उवधिविभणगा उपादिसुत्तेसु । त्यादि द्रष्टव्यम् ,कथम् पालयति?,इत्याह-तस्याधिपतेर्भामेन चेतनभूताश्च द्वयलक्षणेन ततश्च वडवं पालयति चेटिका
सो पुण विभञ्जमाणे, उवरिस एगो गडोहोति ॥३६२।। समं घटना, तया च स निकारितः एवंविधलक्षणोपेतमेवाऽ.
अन्यकृतोऽयं जिनकल्पिकानामयं स्थविरजिनकस्पिकानाश्वद्वयं ग्रहीतव्यं नान्यदिति. किं पुनस्तल्लक्षणमित्याह-उप
मयमार्यिकाणामित्येवमविशेषित एवोपधिविभाग आदिसूत्रेषु विष्टेष्वश्वेषु दुममारुह्य चर्मकुतपस्य घोषणा कर्तव्या यौन
अनन्तरोक्नेषु भणितः, स पुनरुपधिविभागो जिनकल्पिकाअस्यतस्तौ लक्षणयुक्तौ, ततो भृतिकाले द्वयोरपि तयोः स- दिविभागो भज्यमानोऽस्मिन् प्रस्तुते उपरिसूत्रे व्याकृतः लक्षणयोरसौ ग्रहणं करोति, अलं मे परैरश्वैः इदमेव च द्वयं | स्फुटो भवति । अत इदं सूत्रमारभ्यते । समर्पयेत्येवमाश्विकमश्वस्वामिनं भणति, स च स्वकार्याव
तमेवोपधिविभाग प्रचिकटयिषुराहबोधाय वर्द्धकेः-रथकारस्य भावुको भागिनेयस्तस्य यद्वर्द्ध- चोद्दससपसवीसो, ओहो वधुवग्गहो अणेगवियो। किना दुहितुः प्रदानं ततः स्वभार्यया प्रेरितेन कृष्णचित्र
संथारपट्टमादी, उभयोपक्खम्मि णेयब्बो ॥३६३॥ काष्ठमानीय यत् कुलकोद्घाटितस्तेनोपलक्षितमौपम्यं दृष्टान्तवान् । एवं गच्छति लक्षणयुक्नेनोपधिना शानादीनां वृद्धि
इह जिनकल्पिकानामौधिक एवोपधिर्भवति नौपग्रहिका, रुपजायते । ततश्च स्थितमेतत्-विधिनेव तथा वसं छेदनीयं
स्थविरकल्पिकानां तु द्विविधोऽपि भवति, तत्रौधोपधिधिा यथा प्रमाणयुक्तं भवति । वृ०३ उ० । ( अथ प्रमाणादि
चतुर्दशविधः पञ्चविंशतिविधः,चतुर्दशविधः साधूनां,पञ्चविं. स्वरूपनिरूपणद्वारगाथा 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे १०६०
शतिविधस्तु साध्वीनाम् , उपग्रहोपधिः पुनरनेकविधः सच पृष्ठे गता।)
संस्तारपट्टादिके उभयपक्षे-साधुसाध्वीजनलक्षणे हातव्यः । महाधनवस्त्राणि
तत्र स्थविरकल्पिकानां चतुर्दशविध ओघोपधिः प्रागनन्तसे भिक्खू वा भिक्खुणी वां से जाई पुण वत्थाई जाणि
रसूत्र एवोक्तः । वृ०३ उ०। ('उवहि' शब्दे द्वितीयभागे जा विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाइं, तं जहा-आइणगाणि वा
१०६८ पृष्ठे प्रथम प्रव्रजतो वस्त्रग्रहणं प्रतिपादितम् ।)
जुगुप्सापरीषहं प्रत्यधिकं वस्त्रं धरेत्सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि वा आयाणि वा का
तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेजा, तं जहा-हिरिवत्तियं दुगंछायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मल
वत्तियं परीसहवत्तियं । (सू०-१७१) याणि वा पन्नुमाणि वा अंसुयाणि वा चीणंऽसुयाणि वा|
'तिही त्यादि, हीः-लजा संयमो वा प्रत्ययो-निमित्तं देसरागाणि वा अमिलाणि वा गज्जफलाणि वा फालि
" | यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा-प्रवचनखिंसा विकृयाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पायराणि वा, साङ्गदर्शनेन मा भूदित्येवं प्रत्ययो यत्र तत्तथा , एवं परी
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पत्थ
बहाः - शीतोष्णदंशमशकाऽऽदयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा । स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
(३०) गृहपतिकुले वस्त्रग्रहणसामाचारी
वा
सिया णं एताए एसखाए एसमाणं परो वइज्जा-श्राउसंतो समया ! इजाहि तुमं मासेण वा दसराए पंचराएण वा सुते वा सुततरे वा तो ते वयं श्राउसो अमयरं वत्थं दाहामो, एयप्पगारं खिग्घोसं सुच्चा णिसम्म से पुव्वामेव अलोइजा, आउसो त्ति वा भइणि तिवा यो खलु मे कप्पति एयप्पगारं संगारं पडिसुणेत्तए, अभिकंखसि मे दातुं इयाणिमेव दलयाहि से खेवं वदंतं परो वइजा आउसंतो समणा ! अणुगच्छाहि तो ते वयं श्रमयरं वत्थं दाहामो से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसो त्ति वा भइणि त्ति वा, णो खलु मे कप्पइ एयप्पबारे संगारवयणे परिसुणेत्तए अभिकंखसि मे दातुं इयाणिमेव दलयाहि से सेवं वदतं परो येता वइजा आउसो ति वा भइणित्ति वा आहारे तं वत्थं समणस्स दाहामो अवियाई वयं पच्छा वि अप्पयो सयट्ठाए पागाई० ४ समारंभं समुद्दिस्स० जाव वेएस्सामो, एयप्पगारं शिग्घोसं सोच्चा खिसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासुयं ०जाव णो पडिगाहेजा । ( सू० - १४६+ )
( ८७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
7
'सिया ण' मित्यादि स्यात् कदाचित् णमिति वाक्यालङ्कारे, एतयाऽनन्तरोक्तया वस्त्रैषणया वस्त्रमन्वेषन्तं साधुं परो वदेद्यथा - श्रायुष्मन् श्रमण ! त्वं मासादौ गते समागच्छ ततोऽहं वस्त्रादिकं दास्यामि इत्येवं तस्य न शृणुयाच्छेषं सुगमम् यावदिदानीमेव ददस्वेति एवं वदन्तं साधुं परों ब्रूयाद्यथा अनुगच्छ तावत् पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामीत्येतदपि न प्रतिशृणुयाद्वदेवेदानीमेव ददस्वेति तदेवं पुनरपि वदन्तं साधुं परो गृहस्थो नेता - परं भगिन्यादिकमाहूय वदेत्, यथा श्रनयैतद् वस्त्रं येन श्र मणाय दीयते वयं पुनरात्मार्थ भूतोपमर्देनापरं करिष्याम इत्येतत्प्रकारं वस्त्रं पश्चात्कर्मभयाल्लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति । सिया यं परो येत्ता वएजा आउसो त्ति वा भइणी ति वा आहर एवं वत्थं सियायेण वा० ४जाव आघंसित्ता वा पघंसित्ता वा समणस्स दास्सामो, एयप्पगारं खिग्घोसं सोचा सिम्म से पुव्वामेव श्रालोएजा आउसो त्ति वा भइणीति वा मा एयं तुमं वत्थं सिखायेण वा० जाव पघंसाहि वा, अभिकंखसि मे दातुं एमेव दलयाहि, से सेवं वदंतस्स परो सिखायेण वा०जाव पघंसित्ता दलएजा तहप्पगारं वत्थं अफासुर्य ० जाव खो पडिगाहेजा । से णं परो खेत्ता वदेज श्राउसो त्ति वा भइखीति वा आहर एतं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिखोदगवियडेण वा उच्छोलेसा वा पधोवेचा वा समणस्स यं दाहामो, एयप्पगारं खिग्घोसं
For Private
वत्थ
तहेव, णवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेग वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा पच्छोलेहि वा, अभिकखसि सेसं तहेव ०जाव सो पडिगाहेजा । ( सू०१४६ X )
'सिया ण' मित्यादि, तथा स्यात्पर एवं वदेत्, यथा-स्नानादिना सुगन्धद्रव्येणा घर्षणादिकां क्रियां कृत्वा दास्यामि, तदेतनिशम्य प्रतिषेधं विदध्याद्, अथ प्रतिषिद्धोऽप्येवं कुर्या - ततो न परिगृह्णीयादिति । एवमुदकादिना धावनादिसूत्रमपि ।
,
रेति तं वत्थं कंदाणि वा ०जाव हरियाणि वा विसोसे गं परो येता आउसो ति वा भइणीति श्रहसोच्चा खिसम्म ०जाव भइणीति वा एयाणि तुमं कंहित्ता समणस्स णं दाहामो एयप्पगारं खिग्घोसं दाणि वा ० जाव विसोहेहि, खो खलु मे कप्पति, एयप्पगारे वत्थे पडिग्गाहित्तए, से सेवं वदंतस्य परो जाव० विसोहिग्गाहेजा । ( सू० - १४६ + ) ता दलखा, तहप्पगारं वत्थं अफासुयं० जाव णो पडि
'से ण' मित्यादि, स परो वदेद्याचितः सन् यथा कन्दादीनि वस्त्रादपनीय दास्यामीति श्रत्रापि पूर्ववनिषेधादिकचर्च इति ।
किच
सिया से परो खेत्ता वत्थं णिसिरेजा, से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसो त्ति वा भइणीति वा तुमं देव गं संतियं वत्थं अंतो अंतेणं पडिलेहिस्सामि, केवली बूयाआयाणमेयं वत्थं तेण बद्धे सिया कुंडले वा गुणे वा हिरो वासुव वा मणी वा ०जाव रयणावली वा पाणे वा बीए वा हरिए वा अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा० ४ जं पुव्वामेव वत्थं तो अंतख पडिलेहिजा । (सू०-१४६ )
स्यात्परो याचितः सन् कदाचिद्वत्रं निसृजेद्दद्यात् तं च ददमानमेवं ब्रूयाद्यथा त्वदीयमेवाहं वस्त्रमम्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षिष्ये, नैवाप्रत्युपेक्षितं गृह्णीयाद्यतः केवली ब्रूयात् कर्मोपादानमेतत्किमिति यतस्तत्र किंचित् कुण्डलादिकमाभरणजातं बद्धं भवेत्, सचित्तं वा किंचिद् भवेत् श्रतः साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यद्वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य गृह्णीयादिति ।
किञ्च - साण्डं सपरिकर्म वस्त्रम्
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेजा पडिग्गाहेजा । ( सू०-१४७+ ) सचंडं०जाव ससंताणगं तहप्पगारं वत्थं अफासुयं ० जाव णो
' से ' इत्यादि, स भिक्षुर्यत् पुनः साण्डादिकं यनं जानीयासन्न प्रतिगृह्णीयादिति । श्राचा० २ ० १ चू० ५ ० १३० ॥ गृहपतिकुलं सर्वचीवरमादाय गोचरचर्यायै मच्छेत् एकेन वस्त्रेण परिव्युषितः स्यात्
जे भिक्खू एगेणं वत्थेणं परिवुसिए पायवितिएयं, तस्त्र
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(७७) अभिधानराजेन्द्रः |
बत्थ
यो एवं भवति बितियं वत्थं जाइस्सामि से हेसणिजं वत्थं जाएजा अहापरिग्ग हियं वत्थं धारेज्जा ० जाव गिम्हे पडिवसे अहापरिजुषं वत्थं परिट्ठवेज परिट्ठविजित्ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे • जाव समचमेव समभिजाणीया । (सू०-२१८ ) श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० ६ उ० ।
(३१) इदानीं परिभोग उच्यतेअन्तरं च बाहिं, बाहिं भितरं करेमाणो । परिभोग विवच्चासे, आवजति मासियं लहुयं ॥ २६९ ॥ बाहिं दो पाउयमाणस्स कप्पासियमभंतरे परिभुंजति, उप्रियं बाहिं परिभुंजति, एस विहिपरिभोगो । अविहिपरिभोगो पुण कप्पासियं बाहिं उलियं अंतो एस परिभोगविवश्वासो । असमायारिणिपंच से मासलहुयं ।
एकं पाउरमाणो, तु खोमियं उलिए लहू मासो । दोपि य पाउरमाणे, अंते खोमी बहिं उम्मी ॥ २६२ ॥ एकं खोमियं पाउणति, उमियमेगं ण पाउज्जिति । श्रह पाउणति मासलहुंच से पायच्छित्तं । पच्छद्धं कंठं । खोमियस्स श्रंतो उपियस्स य बहिं परिभोगे इमो गुणो ।
छप्पय पणगरक्खा, भूसा उज्झातिया य पडिगज्झा | सीवत्ताणं च कतं, तेण तु खोमं या बाहिरतो ॥ २६३ ॥ कप्पासिएण छष्पतिया ण भवन्ति, इतरहा बहू भवन्ति । पणश्री उल्ली तो उभिए वा उमिज्जमाणे मलीमसं तत्थ मलीमसे उल्ली भवति सा विहिपरिभोगेण रक्खिता भवति । बाहि alfare पाउण विभूसा भवति, विधिपरिभोगेणं सावि परिहिया । वत्थं मलखमं । कंबली मलीमसा य । कंबली दुग्गंधा विहिपरिभोगेण सावि उज्झातिया-परिहरिया पडिगज्झा, कंबलीति सीयत्ताणं कथं भवति । एतेहिं कारणेहिं खोमं ण बाहिं पाउण्जिति ति विकष्पतं पुणे वि
एक्कत्ति एयस्स इमं वक्खाएं ।
जं बहुधा जंतं, पमाणवं होति संधिजं तं वा । सिव्वंतं जं बहुहा, तं वत्थं सपरिकम्मं तु ।। २६४ ॥ जं बहुद्दा छिनं तं वा पमाणपत्तं भवति, बहुहा वा जं सिविव्वं तं वत्थं बहुपरिकम्मं ।
जं छेदेणेगेणं, पमाणवं होति विजमाणं तु । संघणसिव्वणरहितं तं वत्थं अप्पपरिकम्मं ॥ २६५ ॥ जं एगच्छेदे पमाण्वं भवति, दसा उ वा परिच्छिदियब्वा तं अप्पपरिकम्मं । संधणं दोराह खंधाणं सिव्वणं, उकयइयं तुणणाति ।
जं व छिंदियव्वं, संधेयव्वं ण सीवियव्वं च । तं होति अधाकड, जहायं मज्झिमुकोसं ॥ २६६ ॥ जं पुण छिंदणसिव्वणसंधणरहितं तं श्रहाकडं बहुपरिकम्मादि एक्केकं जहषमज्झिममुकोसयं भवति ।
पढमे पंचविधम्म वि, दुविहा पडिताणिता मुणेयव्वा । तज्जातमतञ्जाता, चतुरो तज्जति इतरेगा ।। २६७ ॥
૨૦
पत्थ इह पनवणं प्रति बहुपरिक्रम्मं तं च जंगभंगादी पंचविधं । तत्थ कारणमासज्ज गहिते दुविधं पडियाणि य देज्जा, तमतज्जायजंगियस्स भंगियादि चउरो अतज्जाता, जंगिय श्रसमाणजातितण एगा तज्जाया, एवं सेसाणामविचउरो तज्जाया । इतरा एगा तज्जाता । श्रहवा– एक्केकं वस्थं व पंचविधं, तत्थ समाणवज्जा तज्जाया, चउरो अतज्जाता ।
एतेसाममतरे, वत्थे पडियाणियं तु जो देखा । तजातमतजातं, सो पावति खमादीणि ॥ २६८ ॥
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एतेसि जंगियादिवत्थां किरहादिवत्थां वा अतरे तज्जातमतज्जातं जो पडियाणियं देति सो श्राणादि पावति । तम्हा श्राणादिदोसपरिहरणत्थं अहाकडं घेत्तव्वं । श्रहाकडस्स सता "संतासंतसती" गाहा ॥ २६६ ॥ “ श्रासि च्छिणा पतेण " ॥ २७० ॥
संतासंतसतीए, कप्पति पडियाणिता तु तज्जाता । असती तजाताए, पडियाणियमेत्तरं देजा || २७१ ॥ संता संतसतिमादिकारणेहिं कप्पति तज्जाया पडियाणिया दाऊं, असति तज्जाते इतरा श्रतज्जाता साऽवि दायवा । नि० चू०१ ३० । ( अन्ययूथिकपार्श्वस्थादिभ्यो वस्त्राणि ददातीति 'दाण' शब्दे चतुर्थभागे २४६ पृष्ठे गतम् । ) ( मृतसाध्वर्थ वस्त्रपरिष्ठापना 'साहु' शब्दे वक्ष्यते । ) (वस्त्रे यतना यथा विकलेन्द्रिया न हन्येरन् इति 'मूलगुणपडिलेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३६३ पृष्ठे उक्तम् । ) न वस्त्राणि धांवेत्
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा णो णवए मे वत्थे ति कह यो बहुदेसिएण सिखायेण वा० जाव पघंसेज वा । से भिक्खूवा भिक्खुणी वा णो णवए मे वत्थे ति कट्टु यो बहुदेसिएण सीतोदगवियडेण वा ०जाब पधोएज्जा । से भिक्खु वा भिक्खुणी वा दुब्भिगंधे मे वत्थे त्ति कट्टु खो बहुदेसिएण सिणाणेण वा तहेव बहुसीतोदगवियडेग वा उसिणोदगवियडेण वा अलावओ । ( सू० - १४७ )
' से ' इत्यादि स भिक्षुर्नवम् - अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीति कृत्वा ततो बहुदेश्येन ईषद् बहुना स्नानादिकेन सुगन्धिद्रव्येणा घृष्य - प्रघृष्य वा नो शोभनत्वमापादयेदिति । तथा-' से ' इत्यादि स भिक्षुर्नवम् - अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीति कृत्वा ततस्तस्यैव (नो) नैव शीतोदकेन बहुशो न धावनादि कुर्यादिति । अपि च-' से ' इत्यादि स भिक्षुर्यद्यपि मलोपचितत्वात् दुर्गन्धिवस्त्रं स्यात् तथापि तदपनयनार्थ सुगन्धिद्रव्योदकादिना नो धावनादि कुर्यात्, गच्छनिर्गतः तदन्तर्गतस्तु यतनया प्रासुकोदकादिना लोकोपघातसंसक्लिभयान्मलापनयनं कुर्यादपीति । श्राचा०२४० १ चू० ५ ० १ उ । ( मलिनानां वस्त्राणां धावनमाचार्यस्य कल्पत इति श्रइसय' शब्दे प्रथमभागे २८ पृष्ठे उक्तम् । ) ( वर्षादौ वस्त्रधावनप्रकारः ' धावण ' शब्दे चतुर्थभागे २७५१ पृष्ठे उक्तः । )
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पत्थ
वस्त्रग्रहणे कारणमाह
तिर्हि ठाणेहिं वत्थं घरे, तं जहा-हिरित्रत्तियं दुगंधाबचियं परीसहवतियं ।
'तिही स्वादि, होलेजा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा प्रबचनविसा नि मा भूदित्येवं प्रत्ययो यत्र तत्तथा एवं परीषदाः शीतोष्णशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा । आह व
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"वेव्विपाउडे वा - इए य ही खद्ध पजगणे चैव । एसि श्रनुग्गहट्टा, लिंगुदयट्ठा य पट्टो उ ॥ १ ॥” '' तथा अावृत्ते बाभावे सति वातिके उच्छूनत्वभाजने हियां सत्यां खद्धे बृहत्प्रमाणे प्रजनने-मेहने 'लिपसि श्रीदर्शने लिनोदयरक्षार्थमित्यर्थः । तथा "सगइयानलसेवा, निवारणधम्मसुकाणा दिहं कप्पपहाणं, गिलाणमरणट्टया चैव " ॥ १ ॥ इति । स्था० ३ ठा० । ( वस्त्रप्रत्युपेक्षणा' पडिलेहणा ' शब्दे पञ्चमभागे ३४४ पृष्ठे उ) (अवग्रहानन्तकम् 'उयहि' शब्दे द्वितीयभागे २०६३ पृष्ठे उम्) ( वस्त्रस्य पुजलोपचये साधनादिचतुर्भी उवचय ' शब्दे द्वितीयभागे ८८१ पृष्ठे गता । ) जिनकल्पिकानामेकावतारित्वप्रघोषस्सत्यो सत्यो पा ?, तथा तेषामेव वस्त्राभावे नाग्न्यदर्शनाभावसूचकाक्षराणि मयन्ति तानि प्रसाद्यानीति प्रक्षः, अषोत्तरम् - जिनकल्पि कानामेकावतारित्वप्रघोषमाश्रित्य तथा च तेषां वस्त्राभावे साम्यदर्शनाभावमाश्रित्याक्षराणि तु शास्त्रे दृष्टानि न स्मरलीति ॥ ४२ ॥ सन० १ उल्ला० । यथाऽऽहारे इस्तशतादृध्वं मानीतमभ्याहतं भवति, बस्मादिषु तथैवान्यथा देति ? प्रक्षः, अत्रोत्तरम् - आहषं तुको हत्थसवातो घरे व तिथि तहिं ।' इत्यादि पिण्डविशुद्धद्यादिगाथानुसारेण वस्त्रैषणायामपि ज्ञेयम्, य एवाहारदोषास्त एव वस्त्रदोषा इति ॥ १५२ ॥ सेन० ३ उल्ला शरीरोद्वर्तनमले तथा स्नानपानीये तथा परिस्वेदपिण्डीकृतवस्त्रादिषु च सम्मूर्चिकमपञ्चेन्द्रिया उत्प यन्ते न वा इतिःप्रश्नः अत्रोत्तरम् - प्रज्ञापनासूत्रमध्ये 'सम्मे देव असुट्टासु वा समुच्छिममस्या संमुच्छति इत्येतचतुर्दशालापकवृत्तिमध्येऽन्यानि यानि मनुष्यसंसर्गा
"
शुचिस्यानानि सन्ति तेषु सम्मूमिमनुष्या उत्पद्यमानाः कथितास्सन्ति, एतदनुसारेण भवल्लिखितस्थानेष्वपि उत्पद्यमानास्सम्भाव्यन्त इति ॥ १७ ॥ नेन० ४ उल्ला० । तथाश्रम्बडश्रावकेणादत्तवारि प्रत्यागतमस्ति दत्तवारि तु
पूतमपायि किं वाऽन्यथेति प्रसः अत्रोसरम् - औपपातिकोपाङ्गानुसारेणाम्बडो वस्त्रपूतं वारि गीतवानिति ॥ ४७५ ॥ सेन० ३ उल्ला० ।
विषयसूची
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(१पसमितिखगता तत्रानुयोगद्वारयकम्पता । (२) यखाणि जङ्गिकादीनि ।
(३) प्राकस्पिकाऽविधानम् ।
(४) द्रव्यवस्त्र वक्तव्यता । (५)
कियदुरं गन्तव्यम् । (६) गये प्रतिमाः ।
(5) अभिधानराजेन्द्रः |
(७) काय व गवेषणीयम् । (८) प्रथमः केनोत्सारणीयः ।
पत्थपत्रमा
(६) सामाचारीवैपरीत्यकरणे प्रायश्विचम् । (१०) वस्त्रग्रहणाभिग्रहविशेषाः ।
(११) कस्य संबन्धीत्येवमपृष्ठे उङ्गमादिदोषाः । (१२) कस्येति पृढे आशनादिप्ररूपणा । (१३) वस्त्रविषये उत्तरगुणानधिकृत्य प्ररूपणा । (१४) धौतवस्त्रस्य प्रतापनविधिः । (१५) वस्त्रधरविधिः ।
(१६) प्रातिद्वारिकोपहतवस्त्रविधिः । (१७) निर्भयीनां वस्त्रग्रहणम् । (१८) संपतीमायोग्यमुपधिमुत्पाद्य परीक्षयम् । (१८) परचोत्पादन निर्गतानां साभालाभपरिज्ञानम् । ( २० ) मवानामपि वस्त्रभागानां स्वामिनः । (२१) पर्युषणायाः चातुर्मास्ये वरप्रदम् । (२२) निर्गतानां सामाचारी । (२३) बजे वस्त्राऽग्रहणम् ।
(२४) शीतापगमे तान्यपि वस्त्राणि त्याज्यानि । (२४) आचार्यानुया निर्धन्यानां निर्वन्धीनां वस्त्रहणम् । (२६) लोभद्वारमभियोगद्वारं च । (२७) विभूषाद्वारम् । (२०) करस्नवस्त्रनिषेधः ।
(२१) अभिन्नवस्त्रग्रहणप्रतिषेधः । (३०) पतिले वस्त्र (३१) वस्त्रपरिभोगविधिः । वत्थकप्पिय-वखकल्पिक- ०
सामाचारी |
सामाचारीज्ञातरि
"
० १ ० १ प्रक० (तविधिः 'वत्य' शब्दे ऽनुपदमेव ।) - न० । खेलशब्दस्य खेडादेशः । वस्त्रकीवत्थक्खेड-वख्रखेलडायाम्, तत्परिज्ञानरूपे कलाभेदे, ज्ञा०१ श्रु० १ ० । जं० । बत्यगंध-वखमन्ध-पुं० व-चीनांशुकारिगन्धाः काष्ठपुटपाकादयो वस्त्राणि च गन्धाश्च वस्त्रगन्धम् समाहारइन्द्रः। वस्त्रगन्धोभये, " वत्थगंधमलंकार- मित्थी स गाणि य । " सूत्र० १ ० ३ ० २ उ० । |वत्थग्गहय-ग्रह-न० वस्त्रेपणायाम् प्र० १२५ द्वार ( तच वरथ शब्देऽनुपदमेव प्रत्यपादि । ) वत्थायानुसार ( [) - वस्त्वन्वयानुसारिन् पुं० । वस्तुनो धूमादेरन्वयः कार्येऽनुगमो वस्त्वन्वयस्तमनुसरति अनुयातीत्येवं शीलो वस्त्वन्वयानुसारी वस्तूनामन्वयं साक्षात्कुबांगे, अने० ३ अधि० ।
"
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धारि ( ) - धारिन् - पुं० । सचेले, “ इच्चेयं खु वत्थधारिस्स सामग्गिय " आचा० १ ० ८०५ उ० । वत्थधोग-वस्त्रधावक - पुं० । वस्त्रप्रक्षालके रजके, सूत्र० १ श्रु० ४ श्र० २ उ० ।
वत्थधोवण-वस्त्रधावन न० । वासः क्षालने, प्रश्न० १ ० द्वार । ( 'धावन' शब्दे चतुर्थभागे २७५१ पृष्ठे दर्शितं वस्त्राणां धावनम् । )
बत्थपडिमा
चत्तारि वत्थ पडिमाओ पन्नताओ ।
प्रतिमा-श्री० अभिग्रहविशेषे, स्था० ।
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(८७) वत्वपडिमा
अभिधानराजेन्द्रः। वस्त्रग्रहणविषये प्रतिज्ञाः-काप्पासिकादीत्येवमुद्दिष्टं वस्त्रं वत्थव-वास्तव्य-त्रि० । वसतीति वास्तव्यः । वसेस्तव्यत्कयाचिये इति प्रथमा, प्रेक्षितं वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति
रिणिच्चेति तव्यः, णित्वाद-वृद्धिः । वासिनि," तत्थ य द्वितीया, तथोत्तरपरिभोगेन उत्तरीयपरिभोगेन वा शय्या
वारवतीए वत्थव्वस्स चेव अन्नस्स रराणो," श्रा०म०१ १०। तरेण परिभुक्तप्राय वस्त्रं ग्रहीष्यामीति तृतीया, तथा तदेवोत्सृष्टधर्मिक ग्रहीष्यामीति चतुर्थी । स्था० ४ ठा। गमीति तृतीया, तथा तदेवी वत्थाणी-स्त्री
| वत्थाणी-स्त्री० । वल्लीभेदे, प्रशा० १ पद । वत्थपडिया-वस्त्रप्रतिज्ञा-स्त्री० । वस्त्रग्रहणप्रतिक्षाने, “बहवे
वत्थामिल-अम्लातवस्त्र-न० । यानि शीघ्रं न म्लान्ति तेषु आमोसगा वत्थपडियाए संपिडिया " आचा०१ श्रु० ३|
। वस्त्रेषु, नि० चू०२ उ०। १०२ उ०।
वत्थि-वस्ति-स्त्री० । हतौ, भ०। वत्थपणग-वनपश्चक-न०। अप्रत्युपेक्ष्य-दुष्प्रत्युपेच्य-लक्षणे, वत्थी णं भंते ! वाउकाएणं फुडे, वाउकाए वस्थिणा द्विधा वस्त्रपञ्चके , पा०।
फुडे ?, गोयमा! वत्थी वाउकाएणं फुडे खो वाउकाए व"अप्पडिलेहिय दूसे, तूली उवहाणगं च नायब्वं । त्थिणा फुडे । (सू० ६४४४) गंबुवहाणासिङ्गिणि , मसूरए चेव पोत्तमए ॥६॥ ‘वत्थी' त्यादि , वस्तिदृतिः वायुकायेन स्पृष्टो-व्याप्तः पल्हविकोयविपाया, रनवयए तह दाढिगाली य । सामस्त्येन तद्विवरपरिपूरणानो वायुकायो वस्तिना स्पृष्टो दुप्पडिलहिय दूसे, एयं बीयं भवे पणगं ॥७॥
वस्तेर्वायुकायस्य परित एव भावात् । भ०१८ श १० उ० । पल्हविहस्थुल्थरणं, कोयवो रूवपूरिश्रो पडओ।
चर्ममयां खल्याम् , ओघ । उपस्थे, गुदे च । प्राचा०१ श्रु० दढगालि धोयपोत्ती, सेसपसिद्धा भये भेया ॥८॥" १०१ उ० । “वत्थी अवाणां" पाइ० ना०२२५ गाथा । अत्र वृद्धसम्प्रदायः-"हत्थुत्थरणं खरडं, १, कोयविश्रो चू-स्थिकम्म-बस्तिकर्म-न०। चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीरडिया (बूरट्टिया)२, पावा रोसलोमपडो ३ नवश्रो जीणं
नां स्नेहपूरये , विपा०१ श्रु०१०। गुदे वस्त्यादिक्षेपणे, दढगाली धोयपोती सदसवत्थं ति भणियं होइ।।"पागस्था
शा०१ श्रु०१३ अ० । पुटकेनाधिष्ठाने, स्नेहदाने, दश०३ पत्थपरिवट्ट-वनपरिवर्त-पुं० । वनपरिवर्त्तने, विपा०१ श्रु०
अ० । अनुवासने,सूत्र० १ श्रु० ६ ०। शलाकानिवेशनस्था. १०।
ने, औ०। वत्थपाउरण-वस्त्रप्रावरण-न०। और्णादौ महामूल्ये वने, वस्थिणिरोह-वस्तिनिरोध-पुं० । उपस्थसंयमे,आचा०१७० नि० चू०८ उ०।
१०१ उ०। वत्थपूसमित्त-वखपुष्यमित्र-पुं० । दशपुरनगरे आर्यरक्षित-1,
वत्थिपुडग-वस्तिपुटक-न० । उदरान्तर्वतिमि प्रदेशे, नि०१ सूरेः स्वनामख्याते शिष्ये, विशे० । “वत्थपुस्तमित्तस्स पु.] U० वर्ग ११०। ण एसेव लजी, वत्येसु उप्पाइयव्वएसु,दव्वतो वत्थं, खत्ततो
चत्थिप्पएस-बस्तिप्रदेश-पुं० । गुह्यप्रदेश, जं० २ वक्षः। वइदिसे महुराए वा, कालतो वासासु सीतकाले वा, भाव
वत्थिभाय-वस्तिभाग-पुंग नाभेरधो मूत्राधारस्थाने, वाच। श्रो जहा एका कावि रंडा, तीए दुक्खदुक्खेण, छुहाए भरंतीए कत्तिऊण एका पोसी खुणाविया, कल्लं नियं सहातित्ति,
| “मणिरयणं, छत्तरयणं वत्थिभाए ठवेइ," आ० म०१० एत्यंतरे सा पुरसमित्तेण जाइया, हट्टतुट्ठा दिज्जा, परिमाण-वत्थिय-वास्त्रिक-पुं० । वस्त्रं शिल्पमस्येति वास्त्रिकः । वस्त्र
ओ सव्वस्स गच्छस्स उप्पाएति ।" आव०१०। । निर्माणोपयोगिनि, अनु । जीवाजीवरूपे, प्रा० म०१०। वत्थभोग-वखभोग-पुं०। देवदूष्यक्षीरोदकादिवत्राणां परि-वय-वस्त-न । वसतीति बम्त । तव्ये
वत्थु-वस्तु-न० । वसतीति वस्तु । द्रव्ये, शा०१ श्रु०१०। भोगे, औ०।
विशे० । श्राव। औ० । स्था। पदार्थे, अष्ट० १ अष्ट । वत्थव-वास्तव-न० । वस्त्वेव वास्तवम् । सत्यभूते पदार्थे, ( उत्पादव्ययधौव्यरहिते वस्तु न संभवतीति 'श्रोहि' वाचा वस्तोरिदम् वास्तवम् । वस्त्वनन्यतस्ये,"अवास्तव- शब्द ततायभाग १४६ पृष्ठे चिन्तितम् ।) अथवा-त्रिविविकल्पैः सा, पूरिताधिरिवोर्मिभिः ।" अष्ट० १ अष्ट।।
धं वस्तु-ग्राह्य, हेयम् , उपेक्षणीयं चेति । तत्र क्षान्त्यादयो वत्थविजा-वस्त्रविद्या-स्त्री० । वनविषयायां विद्यायाम् ,यया
प्रायाः, क्रोधादयो हेयाः । अतो निग्रहीतव्यास्त इत्येवपरिजपितेन वस्त्रेण वा प्रमृज्यमानः पातुरः प्रगुणो भवति ।
मर्थमित्थमुपन्यस्ता इति स्यात्साधु सर्वमेवैतद्गाथासूत्रमि
ति। श्रोघ । वसन्त्यस्मिन् गुणा इति । विशे०। प्राचार्याव्य०५ उ।
दिपुरुषरूपेषु नमस्कारापु, विशे० । स्था०६ ठा०३ उ०नि० वत्थविलेवणमल्लाइ-वस्त्रविलेपनमाझ्यादि-पुं०।वासोऽनुले.
चून पा० चू० । श्रा०म०। पूर्वान्तर्गतेषु अध्ययनस्थानीयेषु पनपुष्पप्रमृतौ, पञ्चा०६ विव०।।
प्रावशेषेषु. नं० । स्था। अनु० । कर्म । स० । वसतः सावत्थविहि-वस्त्रविधि-पुं०। वस्त्रस्य परिधानीयादिरूपस्य न
ध्यधर्मसाधनधर्मी अत्रेति वस्तु । प्रकरणात् पक्ष, स्था० १० वकोणदैविकादिमागयथास्थानविशेषादिविज्ञाने , जं. २ ठा० ३ उ० । वस्तुनि, “ भावो वत्थु पयत्यो" । पाइ० ना. वक्ष । मा० । पौ० । वस्त्रपकारे, स०२ सम। "तयाणंतरं | १५५ गाथा । “वत्थुसहावो एसो अचितचिंतामणीमहाभागे। चणं वत्थविहिपरिमाणं करेइ णरणत्थ एगेण खोमयजुय | थोऊण तित्थयरे, सेवणेजह तहेहं पि ॥१॥" (६ श्लोकसी.)
लेणं अवसेसं चन्थविहिं पश्चक्खामि " उपा० ११०। हा०१४०। Jain Education Interational
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(2 ) अभिधानराजेन्द्रः।
वद्धमाण वास्तु-न०.। बसन्त्यस्मिन्निति वास्तु, उत्त० ३ ० । गृहे, वत्थुसंत-वस्तुसत्-त्रि० । परमार्थतो विद्यमाने,ध० १ अधिक। उपा.१०व्या प्रज्ञानि चू०। उत्त० धावा
| वत्थुसच्च-वस्तुसत्य-न० । परमार्थसत्ये, पो०१६ विव। सूत्रावास्त्वपि सेतुकेतुभेदात् द्विधा-भूमिगृहं सेतु, प्रासायगृहादिकं केतु। तत्र नरेन्द्राध्यासितः सप्तभूमादिरा
बत्थुसमास वस्तुसमास-पुं० । वस्तुसंहकानां पूर्वान्तर्वर्त्यवासविशेष:-प्रासादः , गृह-शेषजनाधिष्ठितमेकभूमादिकम् ,
धिकारविशेषाणां धादिसंयोगे, कर्म० १ कर्म । आविग्रहणात्-कुटीमण्डकापवरादिकं परिगृह्यते ।
वत्थूल-वस्तूल-पुं० । गुच्छवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा० १ पद । तिविहं च भवे वत्थु, खायं तह उच्चियं च उभयं च ।
हरितवनस्पतिभेदे, प्रशा० १ पद । नि० चूछ । भूमिघरं पासाओ, संबद्धघरं भवे उभयं ॥
वत्थेसणा-वखैषणा-स्त्री० । वस्त्रगतैषणासमिती, सा च मा. अथवा-वास्तु त्रिविधं भवेत् , तद्यथा-खातंच,उच्छुितं च,
वाराणस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे पश्चमाध्ययने प्रतिपादिता,
तत्र द्वा उद्देशकौ, प्रथमोद्देशके तावत् वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिउभयं च खातोच्छ्रितमित्यर्थः। त्रिविधमपि क्रमेणोदाहरति-|
पादितो द्वितीये तु धरणविधिरिति; तदध्ययनमपि घस्त्रै 'भूमिधर'मित्यादि,खातं-भूमिगृहमुच्छ्रितं-प्रासादः, उपलक्ष षणेति । भाचा०२ थु०१चू०५०१ उ० । णादन्यदप्येकभूमिद्विभूमादिकं गृहमुच्छ्रुितम् , यत्पुनःप्रासा
| बदमाण-वदत-त्रि० । वाक्यं बुवाणे, प्रज्ञा० ११ पद । दगृहादिकं भूमिगृहेण संबद्धं तद्भवेदुभयं-खातोच्छुितम् । १०१ उ०२ प्रक०। प्राचा।"गृहमध्ये हस्तमितं, खातं प
| वदित्ता-वदित्वा-अव्य०। उक्त्त्वेत्यर्थे, सूत्र०१५०४ अ०१ उन रिपूरितं पुनः श्वभ्रम् । यधूनमनिष्ट त-त्समे समं धान्यम
बद्दलय-वार्दलक-नायाः-पानीयं तस्य दलानि वार्दलानि धिकं तत् ॥१॥" जं० ३ वक्षः ।
वार्दलान्येष वादलकानि । मेघेषु, राका स्थाना०म० आव० वत्थुकुरुड-वस्तुकुरुट-न० । शटिनपटितगृहे, तद्धि उत्कट- | वद्दलियाभत्त-वार्दलिकामक्त-न० । वाईलिका-मेघाडम्बरं मिवति कृत्वा वास्तुकुरुटमुच्यते । वृ० १ उ०२ प्रक०। तत्र दीयमानं भक्तम् । दुर्दिने दीयमाने भक्ते, वादलिकायां हि बत्थुगयबोह-वस्तुगतबोध-पुं०। जीवाजीवादिपदार्थस्वरूप- वृश्या भिक्षाभ्रमणाऽक्षमो भिक्षुको भवतीति गृहीतम वि. गतवोधे, दर्श०३ तत्त्व ।।
शेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति । स्था० ठा०३ उ०। औ०। वत्थुजीवग-वस्तुजीवक-पुं० गुल्मवनस्पतिभेदे, प्रशा०१ पद। वद्धमाण-वर्द्धमान-पुं० । राधमाने, वर्धमानः सुभूपोऽथ यौ. पत्थुणाण-वस्तुज्ञान-म० किमिदं राजाऽमात्यादि सभास- वनाभिमुखोऽभवत् , प्रा०क०१०। उत्पत्तेरारभ्य सानादादि षा वस्तु दारुणमदारुणं भद्रकमभद्रकं चेति निरूपले,
ऽऽदिभिर्वर्धत इति वर्द्धमानः, उत्पन्ने वा यस्मिन् शात
कुलं विशेषेण धनेन धान्येन च वर्द्धत इति वर्द्धमानः । उत्त०१०।
आव० २ १० । श्रीवीरजिनेन्द्रे, “द्वादशे चाहि नामाबत्युत्त-वस्तुत्व-न० । जातिव्यक्तिरूपे गुणभेदे, द्रव्या० ११
स्य,वर्धमान इति व्यधात् । जन्मतोऽपि यतः सौख्य, राज्याय अध्या०। (वस्तुतत्त्वं च तथा जातिव्यक्तिरूपत्वमिति 'गुण' ।
सर्वमैधत ॥१॥" मा०क० १ ०। पं० २० । कल्प० । शब्दे तृतीयभागे ६११ पृष्ठे गतम्।)
आ० म० । आ० चू० । स० ।(सर्वा वक्तव्यताऽस्य 'वीर' पत्थुदोस-वस्तुदोष-पुं०। वस्तु-प्रकरणात् पक्षस्तस्य दोषः। प्र- शब्दे वक्ष्यते) “यद्भाषितार्थलबमाप्य दुरापमाशु, श्रीगौत्यक्षनिराकृतत्वादिके पक्षदोषे, यथा-श्रावणः शब्दः शब्ने तमप्रभृतयः शमिनामधीशाः। सूदमार्थसार्थपरमार्थविदो बभूहि श्रावणत्वं प्रत्यक्षनिराकृतमिति । स्था० १० ठा०३ उ०। दुः, श्रीवर्धमानविभुरस्तु स वः शिवाय ॥१॥" कर्म०४ कर्म। बत्थुधम्म-वस्तुधर्म-पुं० । वस्तुस्वरूपे, अने० १ अधि०। । “यो विश्वविश्वभविनां भवबीजभूतं, कर्माप्रपञ्चमवलोक्य वत्थुल-वस्तुल-पुं० । स्वनामख्याते शाकभेदे, स्था० ३ ठा० कृपापरीतः। तस्य क्षयाय निजगाद सुदर्शनादि-रत्नत्रयं स
जयतु प्रभुवर्द्धमानः ॥१॥" कर्म०५ कर्म।" जयति सक१उ० । आचा० । स च गुच्छवनस्पतिषु परिगण्यते ।
लकमलेशसम्पर्कमुक्त-स्फुरितविनतविप्रशानसम्भारलस्मीः। प्रज्ञा०१पद।
प्रतिविहतकुतीर्थाशेषमार्गप्रवादः, शिवपदमधिरूढो वर्द्धबत्युविजा-वास्तुविद्या-स्त्री० । प्रास दादिलक्षणाभिधायि
मानो जिनेन्द्रः ॥१॥" पं० सं०५ द्वार । " अशेषकर्माशाने, उत्त।
शतमःसमूह-क्षयाय भास्वानिव दीप्ततेजाः । प्रकाशिता“कुटिला भूमिजाथैव, वैनीका द्वन्द्वजास्तथा ।
शेषजगत्स्वरूपः, प्रभुः स जीयाजिनवर्द्धमानः ॥१॥" कर्म०५ लतिनो नागराश्चैव, प्रासादाः क्षितिमण्डनाः॥१॥ कर्म० । “दिनेशवद्धधानकरप्रतापै-रनन्तकालप्रचितं समसूक्ताः पदविभागेन, कर्ममार्गेण सुन्दराः।
न्तात् । योऽशोषयत्कर्मविपाकपङ्क, देवः सुदेवोऽस्तु सवर्द्धफलावाप्तिकरा लोके, भङ्गभेदयुता विभोः ॥२॥
मानः।" कर्म०१ कर्म०। अशेषकर्मठुमदाहदावं,समस्तविज्ञानअण्डकैस्तु विविक्तास्ते, निर्गमैश्चाररूपकैः ।
जगत्स्वभावम् । विधूतनिःशेषकुतीर्थमान,प्रणोमि देवं जिनव. वित्रपर्थिचित्रैश्च, विविधाकाररूपकैः ॥३॥"
र्द्धमानम्।पं०सं०१द्वाराअस्थामवसर्पिण्यांजाते चतुर्विशे तीर्थे। इत्यादि । उत्त० १५ १० । स्था। श्राव० । वास्तुनो गृहभू- करे,सासिद्धये वर्द्धमानः स्तात् , ताम्रा यन्नखमण्डली । प्रमेर्विद्या वास्तुविद्या । वास्तुशास्त्रप्रसिद्ध गुणदोषविज्ञानरूपे त्यूहशलभप्लोष, दीप्रदीपारायते। रत्ना०१ परि०। स्फुरद्वागकलाभेदे, जं०२ वक्षः।
शुविध्वस्त मोहोन्धतमसोदयम् । वर्द्धमानार्कमभ्यर्पा,यते स
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वद्धमाण अभिधानराजेन्द्रः।
वद्धमाणय म्मतिवृत्तये । सम्मकाण्ड ।" जो देवाण वि देवो, देवा पं- ततो बहुवचनमुक्तम् ' प्रशस्तेष्वि ' ति, अनेन चाप्रशस्तजली नमसंनि । तं देवदेवमहियं, सिरसा वंदेमहावीरं ॥१॥" | कृष्णादिद्रव्यलेश्योपरञ्जितव्यवच्छेदमाह-प्रशस्तेष्वध्यवसाखा"ममःश्रीवर्द्वमानाय,वर्द्धमानाय पर्ययैः । उक्राचारप्रपञ्चा. येषु वर्तमानस्येति । किमुक्तं भवति ?-प्रशस्ताध्यवसायस्थाय,निष्प्रपञ्चाय तायिने ॥१॥" प्राचा०२७०१ चू०२ १०१ उ० नकलितस्य सर्वतः-समन्तादवधिः परिवर्द्धते , इति "इको विनमुक्कारो, जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स । संसार- सम्बन्धः। अनेनाविरतसम्यग्दृष्टेरपि परिवर्द्धमानकोऽवधिसागराश्रो,तारेह नरं व नारि वा ॥२॥"श्राव०५० स्कन्धा- र्भवतील्याख्यायते , तथा-'वद्ध माणचरित्तस्स '-प्रशस्तेष्वरोपितपुरुषे, म०६ श० ३३ उ० कल्प। त्रि०। कृताभिमाने, ध्यवसायस्थानेषु वर्द्धमानचरित्रस्य , एतेन देशविरतसर्वश्रो० । नपुं० । अनन्तजिनतीर्थकरस्य प्रथमभिक्षालाभस्थान, विरतयोर्वर्धमानकमवधिमाभिधत्ते । वर्धमानकश्वावधिरुत्तेआ० म०१०।
रोत्तरां विशुद्धिमासादयतो भवति नान्यथा , तत आहचद्धमाणगणि-वर्द्धमानगणिन्-पुं०। कुमारविहारप्रशस्ति- विशुध्यमानस्य-तदावरणकमलकलङ्कविगमत उत्तरोग्रन्थकर्तरि हेमचन्द्राचार्यशिष्ये, जै० इ०।
त्तरविशुद्धिमासादयतः, अनेनाविरतसम्यग्दृऐबर्द्धमानकाव
धेः शुद्धिजन्यत्वमाह, तथा-'विशुद्धयमानचरित्रस्य च, 'इदं बद्धमाणय-वर्द्धमानक-न० । वर्द्धत इति बर्द्धमानं तदेव बर्द्ध
च विशेषण देशविरतसर्वविरतयोर्वेदितव्यम् सर्वतः-समानकम् , संज्ञायां कन्प्रत्ययः । बहुबहुतरे बन्धनप्रक्षेपाद- र्वासु दिक्षु समन्तादवधिः परिवर्द्धते । स च कस्यापि सर्वभिवर्धमानज्वलनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथा
जघन्यादारभ्य प्रवर्द्धते । ततः प्रथमतः सर्वजघन्यमवधि योग प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायिनो वर्धमाने अधिशाने,
प्रतिपादयति- त्रिसमयाहारकस्य श्राहारयति । आहारं पतत्किलाङ्गलासंख्येयभागादिविषयमुत्पद्य पुनर्वृद्धिविषय
गृह्णातीत्याहारकः, त्रयः समयाः समाहृतारिखसमयम् , त्रिसविस्तरेणात्मिकां याति, यावदलोके लोकप्रमाणान्यसंख्ये.
मयमाहारकरिखसमयाहारकः । 'नामनाम्नेकार्थे समासो बयानि खण्डानीति । कम्म १ कर्म०।
हुल' मिति समासः, तस्य त्रिसमयाहारकस्य सूदमस्यसे किं तं वद्धमाणयं ओहिनाणं ?, वड्डमाणयं ओहिना- सूचमनामकर्मोदयवर्तिनः, पनकजीवस्य-पनकश्चासौ जीवश्च णं पसत्थेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु वट्टमाणस्स बढमाण
पनकजीवश्च, पनकजीवो घनस्पतिविशेषः, तस्य ' यावती'
यावत्परिमाणा अवगाहन्ते क्षेत्रं यस्यां स्थिता जन्तवः साचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विमुज्झमाणचरित्तस्स सव्व
घगाहना-तनुरित्यर्थः , जघन्या-त्रिसमयाहारकशेषस्ओ समंता ओही वड्इ।
क्ष्मपनकजीवापेक्षया सर्वस्तोका , एतावत्परिमाणमवधेर्जघ"जावइअतिसमयाहा-रगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स ।। न्य क्षेत्रम् , तुशब्द एवकारार्थः; स चावधारणे, तस्य चैवं प्रश्रोगाहणा जहन्ना, प्रोहीखित्तं जहन्नं तु ॥४८॥
योगः जघन्यमवधिक्षेत्रमेतावदेवेति । अत्र चायं सम्प्रदाय:
यः किल योजनसहस्रपरिमाणायामो मत्स्यः स्वशरीरबाबैसव्वबहुअगणिजीवा, निरंतरं जत्तियं भरिजंसु ।
कदेश एवोत्पद्यमानः प्रथमसमये सकलनिजशरीरसम्बद्धखित्तं सव्वादिसागं, परमोही खेत्तनिद्दिट्ठो ॥ ४६॥
मात्मप्रदेशानामायाम संहृत्याङ्गुलासंख्ययभागबाहल्यं खदेअंगुलमावलिआणं, भागमंसणिज दोसु संखिजा। हविष्कम्भायामविस्तारं प्रतरं करोति , तमपि द्वितीयसमये अंगुलमावलिअंतो, श्रावलिश्रा अंगुलपुहुत्तं ॥५०॥
संहृत्याङ्गलासंख्येयभागबाहल्यविष्कम्भां मत्स्यदेहविष्कहत्थम्मि मुहुत्तंतो, दिवसंतो गाउअम्मि बोद्धव्यो ।
म्भायाममात्मप्रदेशानां सूचि विरचयति, ततस्तृतीयसमये
तामपि संहत्याकुलासंख्येयभागमात्र एव स्वशरीरबहिःप्रदेशे जोयणदिवसपुहुत्तं, पक्खंतो पन्नवीसाओ ॥५१॥
सूक्ष्मपरिणामपनकरूपतयोत्पद्यते, तस्योपपातसमयादारभ्य भरहम्मि अ दूमासो, जंबुद्दीवम्मि साहिमो मासो। तृतीये समये वर्तमानस्य यावत्प्रमाणं शरीरं भवति ताववासं च मणुअलोए, वासपुहुत्तं च रुप्रगम्मि ॥५२॥
परिमाण जघन्यमवधेः क्षेत्रमालम्बनवस्तुभाजनमवसेयम् , संखिजम्मि उ काले, दीवसमुद्दा वि हुंति संखिञ्जा।
उक्नं च
“योजनसहस्रमानो, मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः। कालम्मि असंखिजे, दीवसमुद्दा उ भइअव्वा ॥५३॥
उत्पद्यते हि पनकः, सूक्ष्मत्वेनेह स प्रायः॥१॥ काले चउएह वुड्डी, कालो भइअबुखित्तवुड्डीए ।
संहत्य चाचसमये, स ह्यायाम करोति च प्रतरम्। वुड्डीऍ दवपज्जव-भइअव्वा खित्तकाला उ॥५४॥ संख्यातीताल्याङ्कल-विभागबाहल्यमानं तु ॥२॥ सुहुमो अ होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खितं ।
स्वकतनुपृथुत्वमात्र, दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् ।
तमपि द्वितीयलमये, संहृत्य करोत्वसौ सूचिम् ॥३॥ अंगुलसेढीमित्ते, ओसप्पिणिो असंखिजा ॥५शा"
संख्यातीताख्याङ्गुल-विमागविष्कम्भमाननिर्दिष्टम् । सेत्तं वड्डमाणयं ओहिनाणं ॥ (सू०-१२)
निजतनुपृथुत्वदीर्घा, तृतीयसमये तु संहत्य ॥४॥ अथ किं वर्द्धमानकमवधिज्ञानम् ?, सूरिराह-वर्द्धमानक- उत्पद्यते च पनकः, स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । मवधिज्ञान प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य, इह सा- समयत्रयेण तस्या-वगाहना यावती भवति ॥५॥ मान्यतो द्रव्यलेश्योपरञ्जितं चित्तमध्यवसायस्थानमुच्यते, तावजघन्यमवधे-रालम्बनवस्तुभाजन क्षेत्रम् । तश्चानवस्थितम् , तत्तलेश्याइव्यसानिध्ये विशेष सम्मवात्, इदमिन्थमेव मुनिगण-सुसम्प्रदायात् समयसेयम् ॥६॥"
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(८८२) पद्धमाणय अभिधानराजेन्द्रः।
बद्ध माणय माह-किमिति योजनसहस्रायामो मत्स्यः ?, किं वा बहयोऽनलजीवा अस्यामवसर्पियो सम्भवन्ति स्मेति तस्य तृतीयसमये स्वदेहदेश सूक्ष्मपनकत्वनोत्पादः?, किं ख्यापनार्थम् । इदं चानन्तरोदितं क्षेत्रमेकदिक्कमपि भवति तत वा त्रिसमयाहारकत्वं परिगृह्यते ? , उच्यते-ह योजन- आह सर्वदिकम् अनेन सूचिभ्रमणप्रमितत्वं क्षेत्रस्य सूचयति, सहस्रायामो मत्स्यः, स किल त्रिभिः समयैरात्मानं संक्षि- परमश्वासाववधिश्च परमावधिः, एतावदनन्तरोदितं सर्वबहपति महतः प्रयत्नविशेषात् . महाप्रयत्नविशेषारूढधोत्प- नलजीवसूचीपरिक्षेपप्रमित क्षेत्रमकीकृत्य निर्दिष्टः-प्रतिपादितिदेशेऽवगाहनामारभमाणोऽतीव सूक्ष्ममारभते, ततो महा
तोगणधरादिभिः क्षेत्रनिर्दिष्टः,एतावत्क्षेत्रं परमावधेर्भवतीत्यमत्स्यस्य प्रहणम् । सूक्ष्मपनकश्चान्यजीवापेक्षया सूचमतमा:
थः। किमुक्तं भवति?-सर्वबहग्निजीवा निरन्तर यावत् क्षेत्र वगाहनो भवति, ततः सूक्ष्मपनकग्रहणम् । तथा उत्पत्तिस
सूचीभ्रमणेन सर्वदिकं भृतवन्तः एतापति क्षेत्रे यान्यवमये द्वितीयसमये चातिसूक्ष्मो भवति, चतुर्थादिषु च स
स्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिः मयेष्वतिस्थूरः त्रिसमयाहारकस्तु योग्यः ततः त्रिसमया
क्षेत्रमधिकृत्य निर्दिष्टशे गणधरादिभिः । अयमिह सम्प्रदाय:हारकग्रहणम् । उक्तं च
सर्वबहुग्निजीवाः प्रायोऽजितस्वामितीर्थकृत्काले प्राप्यन्ते, " मच्छो महल्लकाओ, संखेत्तो जो उतीहि समपहि। तदारम्भकमनुष्यबाहुल्यसम्भवात् , सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदवर्तिनः स किर पयत्तविसेसे-ण सराहमोगाहणं कुणा ॥१॥
तत्रैव विवक्ष्यन्ते , ततश्च सर्वबहवोऽनलजीवा भयन्ति, तेषां
स्वबुद्धया पोदाऽवस्थानं परिकल्प्यते । एकैकक्षेत्रप्रदेशे साहयराऽसराहयरो, सुहुमो पणो जहनदेहो य ।
एकैकजीवावगाहनया सर्वतश्चतुरस्रो घन इति प्रथमम् , स स बहुविसेसविसिट्टो, सराहयरो सम्बदेहेसु॥२॥
एव घनो जीवैः स्वावगाहनादिभिरिति द्वितीयम् , एवं पढमबीएऽतिसराहो, जाया थूलो चउत्थयासु।
प्रतरोऽपि विभेदः, श्रेणिरपि द्विधा, तत्राचा पञ्चप्रकाग तायसमयम्मि जोगो, गहिरो तो तिसमयहारो॥३॥"
अनादेशाः, तेषु क्षेत्रस्याल्पीयस्तया प्राप्यमाणत्वात् , षष्ठस्तु अन्ये तु व्याचक्षते-'त्रिसमयाहारकस्ये' ति पायामप्र
प्रकारः सूत्रादेशः, उक्तं च-" एकेकागासपए-सजीवरयसरसंहरणे समयद्वयं तृतीयश्च समयः सूचीसहरणो
णाएँ सावगाहे य । चउरंसं घणपयरं, सेढी छटो सुयावेसो त्पत्तिदेशागमनविषयः, एवं त्रयः समया विग्रहगस्यभावाश्चै
॥१॥" ततश्चासौ श्रेणिः स्वावगाहनासंस्थापितसकलातेषु त्रिवपि समयेप्याहारकः, तत उत्पादसमय एव त्रि
नलजीवावलीरूपा अवधिशानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यसमयाहारकः सूक्ष्मपनकजीवो जघन्यावगाहनश्च । ततः त
न्तेन भ्राम्यते, सा च भ्राम्यमाणा असंख्येयान् लोकमात्रान् च्छरीरमानं जघन्यमवधेः क्षेत्रम् , तचायुक्तम् ,यतखिसमया
क्षेत्रविभागानलोके व्यामोति, एतावत्क्षेत्रमवधेरुत्कृष्टमिति । ऽऽहारकस्येति विशेषणं पनकस्य, न च मत्स्यायामप्रतरसं- उक्तं च-" निययावगाहणागणि-जीवसरीरावलीसमंतेणं। हरखसमयौ पनकभषस्य सम्बन्धिनौ, किन्तु-मत्स्यभवस्य, भामिज्जा ओहिनाणि, देहपजंतो सा य ॥१॥ तत उत्पादसमयादारभ्य त्रिसमयाहारकस्येति द्रष्टव्यम् , प्रागंतूणमलोगे, लोगागासप्पमाणमेत्ताई । ठाइ - नान्यथा । एतावत्प्रमाणं जघन्य क्षेत्रमवधेः तैजसभाषा
संखेज्जाई, इदमोहिक्खेत्तमुकोसं ॥ २॥" इदं च प्रायोग्यवर्गणापान्तरालवर्तिद्रव्यमालम्बते 'तेयाभासादब्बा
सामर्थ्यमात्रमुपवर्यते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति समंतरा एत्थ लहा पटुवप्रो' इति वचनात् , तदपि चाल- तर्हि पश्यति, यावता तन्न विद्यते, अलोके रूपिद्रव्याणाममयमानं द्रव्यं द्विधा-गुरुलघु, अगुरुलघु च । तत्र तैजस- सम्भवात् , रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, केवलमयं विशेषो प्रत्यासम्न गुरुलघु, भाषाप्रत्यासन्नं चागुरुलघु, तद्गतांश्च प- यावदद्यापि परिपूर्णमपि लोकं पश्यति तावदिह स्कन्धानेव र्यायान् चतुःसंख्यानेव वर्मगन्धरसस्पर्शलक्षणान् पश्यति न पश्यति, यदा-पुनरलोके प्रसरमवधिरधिरोहति तदा यथा शेषान् । यत आह-" दम्वाइँ अंगुलावलि-संखेजातीतभा- यथाऽभिवृद्धिमासादयति तथा तथा लोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतगविसयाई । पेच्छा चउग्गुणाई, जहन्नो मुत्तिमंताई ॥१॥" रान् स्कन्धान पश्यति, यावदन्ते परमाणुमपि । उक्तं चअत्र 'जघन्यत' इति जघन्यावधिज्ञानी । तदेवं जघन्यमव- "सामत्थमेत्तमुत्तं, बट्टब्वं जा हवेज पेच्छेजा । न उ तं धेः क्षेत्रमभिधाय साम्प्रतमुत्कृष्टमभिधातुकाम आह-यतः तत्थऽथि जो, सो रूविनिबंधणो भणियो॥१॥ वहतो पुण ऊर्वमन्य एकोऽपि जीवो न कदाचनापि प्राप्यते सर्वबह- बाहिं,लोगत्थं चेव पासई दब्वं । सुहुमयरं सुहुमयरं,परमोही वः, सर्वबहवच ते अग्निजीवाश्च सूक्ष्मबादररूपाः सर्वब- जाव परमाणू ॥२॥" परमावधिकलितश्च नियमादन्तर्मुहइमिजीवाः, कदा सर्वबहमिजीवा इति चेद् , उच्यते, यदा तमात्रेण केवलालोकलदमीमालिङ्गति । उक्तं च-परमोहिसर्वासु कर्मभूमिषु निर्व्याघातमग्निकायसमारम्भकाः स- प्राणठिो, केवलमंतो मुहुत्तमेत्तेणं एवं ताबजघन्यमु
बहवो मनुष्याः, ते च प्रायोऽजितस्वामितीर्थकरकाले स्कृष्टं चावधिक्षेत्रमुक्तम् । सम्पति मध्यमं प्रतिपिपादयिषुरेप्राप्यन्ते , यदा चोत्कृष्टपदवर्तिनः सूक्ष्मानलजीवाः तदा तावत्क्षेत्रोपलम्भे एतावत्कालोपलम्भः , एतावत्कालोपलसर्ववहग्मिजीवाः । उनं च-"अब्वाघाए सम्वासु, कम्म- म्भे चैतावत्क्षेत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्रकटनार्थ गाथाचभूमिसु जया तयारम्भा । सव्वबहवो मगुस्सा, होतिऽजि- तुष्टयमाह-अङ्गुलमिह क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाकुलमभिगृह्यते, यजिणिदकालम्मि ॥१॥ उक्कोसिया य सुहुमा, जया तया अन्ये त्वाः-अवध्यधिकारादुत्सेधाङ्गुलमिति । श्रावलिका सम्वबहुअगणिजीवा।" इति, 'निरन्तरमिति' क्रियाविशेष-| असंख्येयसमयात्मिका, अङ्गुलं चावलिका चाङ्गुलावलिके शं यावत्परिमाणं क्षेत्र भृतवन्तः । एतदुक्तं भवति-नैर- तयोरकुलावलिकयोर्भागमसंख्येयमसंख्येयं पश्यत्यवधिमान्तर्येण विशिष्ठसूचिरचनया यावद् भृतवन्तः, भृतवन्त - नी,इदमुकं भवति-क्षेत्रतोऽजलासंख्येयभागमात्रं पश्यन् का. तिच भूतकालनिर्देशः अजितस्वामिकाल एष प्रायः स खत प्रावलिकाया असंख्येयमेव भागमतीतमनागतं च
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बद्ध मापाय
पश्यति । उक्रं चतम मार्ग पातमेवकालें । आवलियार भागं, तीयमणायं च जाणा ॥ १ ॥ श्रावलिकायाश्वासंख्येयं भागं पश्यन् क्षेत्र तोकुलासंकपेयभा गं पश्यति, एवं सर्वत्रापि क्षेत्रकालयोः परस्परं योजना कर्तव्या क्षेत्रकालदर्शोपचारेयम्नसात्न खलु क्षेत्रं कालं वा साक्षादवधिज्ञानी पश्यति, तयोरमूर्त त्वात्, रूपिद्रव्यविषयश्वावधिः, तत एतदुक्तं भवति-क्षेत्रे काले च यानि इव्याणि तेषां च द्रव्याणां ये पर्यायास्तान पश्यतीति । उक्तं च-" तत्थेव य जे दव्वा, तेर्सि चिय जै हवंति पजाया । इय खेत्ते कालम्मि य, जोपज्जा दव्वपज्जाए ॥ १ ॥ " एवं सर्वत्रापि भावनीयम् । क्रिया च गाथाचतुष्टये स्वयमेव योजनीया । तथा द्वयोरकुलावलिक योः सब्वी भागी पश्यति, अनुलस्य संस्थेयभागं पश्यम् श्रावलिकाया अपि संख्येयमेव भागं पश्यतीत्यर्थः । तथा अङ्गुलम् अलमात्रं क्षेत्रं पश्यन् आचलिकान्तः-किचिदूनामावलिकां पश्यति, बावलियां चेत् कालतः पश्यति तर्हि क्षेत्रतोऽतत्परिमार्ग क्षेत्र पश्यति । उक्तं च संखेगुलभागे, आचलियाए वि मुद्द सहभागं अंगुलमिह पेरतो, आवलियंतो मुद्द काल ॥ १ ॥ श्रवलियं मुख्माणणे, संपुत्रं खेत्तमंगुलपुहुत्त " मिति, पृथक्त्वं द्विप्रभृतिः श्रनवभ्य इति, तथा हस्ते - हस्तमात्रे क्षेत्रेापमाने कालतो मुहूर्तान्तः पश्यति, अन्तर्मुहुर्तममारां कालं पश्यतीत्यर्थः तथा कालतो दिवसान्तः-किञ्चिदूनं दिवसं पश्यन् देवतो गव्यूते-गव्यूतविषयो द्र
व्यः तथा योजनंयोजनमा क्षेत्र पश्यन् कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, दिवसपृथक्त्वमानं कालं पश्यतीत्यर्थः । तथा पक्षान्तः किञ्चिदूनं पक्षं पश्यन् क्षेत्रतः पञ्चविंशतियोजनानि पश्यति भरते-सकलभरतप्रमाणक्षेत्रा
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धौ कालतोऽर्द्धमास उक्तः, भरतप्रमाणं क्षेत्रं पश्यन् कालतोऽतीतमनागतं चार्द्धमासं पश्यतीत्यर्थः एवं जम्बूद्वीपविषयेऽवधी साधिको मासः कालतो विषयत्वेन योजयः । तथा - मनुष्यलोके मनुष्यलोकप्रमाणक्षेत्रविषये ऽवधी - र्ष संवत्सरमतीतमनागतं च पश्यति तथा रुचकाव्ये रुचकारूपवाह्यद्वीपप्रमाणक्षेत्रविषये ऽवधी वर्षपृथकत्वं पश्यति । तथा संख्यायत इति संख्येयः, स च वर्षमात्रोऽपि भयति, ततः तुराब्दो विशेषणार्थः किं विशिनष्टि संस्थेषकालो वर्षसहस्रात् परो वेदितव्यः, तस्मिन् संख्येये कालेsaधिगोचरे सति क्षेत्रतः तस्यैवावधेर्गोचरतया द्वीपाच समुद्राश्च द्वीपसमुद्राः तेऽपि संख्येया भवन्ति, अपिशब्दाद- महानेकोऽपि महत एकदेशोऽपि किमु भवति १-संकयेये कालेऽवधिना परिच्यिमाने क्षेत्रमध्यत्रत्ययज्ञापका पेक्षया संख्येयद्वीपसमुद्रपरिमाणं परिच्छेद्यं भवति, ततो यदि नामात्रत्यस्यावपिद्यते तर्हि जम्बूद्वीपादारभ्य सं स्यैया द्वीपसमुद्रास्तस्य परिच्छेद्याः । अथवा बाह्य द्वीपे समुद्रे वा संख्येययोजनविस्तृते कस्यापि तिरश्चः संख्येयकालविषयोऽयधिरुत्पद्यते तदा स यथोक्तक्षेत्रपरिमाणं तमेवैकं द्वीपं समुद्रं वा पश्यति, यदि पुनरसंक्येययोजनविस्तृते स्वयम्भूरमणापि द्वीपे समुड़े या संयेवालविषयोऽवधिः कस्याप्युत्पद्यते तदानीं स प्रागुक्रपरिमा तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदशं पश्यति इहत्यमनु
(क) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वद्मालय यवाद्याधिरिव कश्चित् तथा कालेऽसंख्येये परपोषमादिलचषये सति तस्य संकपेयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतया परिच्छेद्या द्वीपसमुद्राः भाज्या - विकल्प नीया भवन्ति, कस्यचिदन्येयाः कस्यचित्संयेाः कस्यचि देकदेश इत्यर्थः यदा इद मनुष्यस्यासन्येयकालविषयोऽवधि रुत्पद्यते तदानीम संख्येया द्वीपसमुद्रास्तस्य विषयः, यदा पुन
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समुद्रे या वर्तमानस्य कस्यचित् तिरथोऽसख्येयकालवित्रयोऽवधिरुत्पद्यते तर्हि तस्य संख्येया द्वीपसमुद्राः, अथवा — यस्य मनुष्यस्य संख्येयकालविषयो बाह्य द्वीपसमुद्रालम्बनो बाह्यावधिरुत्पद्यते तस्य संख्येया द्वीपा यदा पुनः स्वयम्भूमये द्वीपे समुद्रे या कस्यचित्तिरोऽधिरसंश्येयकालविषया जायते तदरानी तस्य स्वयम्भूरमणस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशो विषयः, स्वयम्भूरमणविषय मनुष्यवायावधेर्वा तदेकदेशो विषयः । क्षेपरिमाणं पुनर्योजनापेक्षया सर्वत्रापि जम्बूद्वीपादारभ्यासंख्येबद्वीपसमुद्रपारमाणमवसेयम् । तदेवं यथा क्षेत्रवृद्धी कालवृद्धिः काली च यथा क्षेत्रवृद्धि तथा प्रतिपादितम् । सम्प्रति द्रव्यक्षेत्र कालभावानां मध्ये यदी यस्य वृद्धिरुप जायते यस्य च न तदभिन्सुिराह काले अधिगोचरे बर्डमाने चतुर्णी- द्रव्यक्षेत्रकालभावानां वृद्धिर्भवति तथा क्षेत्रस्य वृद्धिः वृद्धिस्तस्यां सत्यां कालो भजनीयो-विकल्पनीयः, कदाचिद्वर्द्धते कदाचित्र क्षेत्रं हात्यन्तसूक्ष्मं कालस्तु तदपेक्षया परिस्थूरः । ततो यदि प्रभूता क्षेत्रवृद्धिस्ततो बजते शेषका नेनि इव्यपर्यायी तु नियमतो बढ़ते च भाष्यकृत - "काले पट्टमाये, सम्ये व्यापवति । खेते कालो भइओ, वहुंति उ दव्यपज्जाया ॥ १ ॥ तथा इयं च पर्याया द्रव्यपर्यायी तयोवृद्धी सत्याम् सूत्रे विभ किलोपः प्राकृत भजनीयावेव क्षेत्रकाली, तु रार्थः, स च मित्रमस्तचैव व योजितः । -- दाचियोवृद्धिर्भयति कदाचि यतो इयं क्षेत्रापि सूक्ष्मम् एकस्मिन्नपि नमः प्रदेशे ऽनन्तस्कन्धावगाहनात् द्रव्यादपि सूक्ष्मः पर्यायः, एकस्मिन्नपि द्रव्ये ऽनन्त पर्यायसम्भवात् ततो द्रव्यपययवृद्धी क्षेत्रकाली भजनीयामेव भवतः इन्ये च वर्धमाने पर्याया नियमतो वर्धन्ते प्रतिद्रव्यं संस्थेयानामसं क्यानां चावधिमा परिच्छेदसम्भवात् पर्यायतो वर्तमाने इयं भाज्यम्, एकस्मिन्नपि इव्ये पर्यायविषयावधिवृद्धिस म्भवात् । ग्रह च भाष्यकृत् -" भयणाए खेत्तकाला, परिवडुंतेसु दव्वभावसुं । दव्वे वह भावो, भावे दव्वं तु भयणि जं ॥ १ ॥ अत्राह मनु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिप्रयोः अवधिज्ञानसम्बन्धिनो क्षेत्रकालयोरकुलावलिकाभागादिरुपयोः परस्परं समप्रदेशसंययोः कि तुल्यायमुत हीनाधिकत्वम् ? उच्यते-हीनाधिकत्वम् तथाहि-काया असंख्येयभागे जघन्यावधिविषये यावन्तः समयाः तदपेक्षया अङ्गलस्यासंख्येयमाने जपन्यावधिविषय एव ये नमः प्रदेशास्ते असंध्येयगुणाः एवं सर्वत्रापि अवधिविषया त् कालावसंख्येयगुणत्वमवधिविषयस्य क्षेत्रस्यावयन्तम्यम् । उक्तं च - " सव्वमसंखेज्जगुणं, कालाश्रो खेलमोहिविसयं तु अवरोप्परसंवद्धं समयसम्ममा ॥ १ ॥ " अथ क्षेत्रस्येत्वं कालादयेयता कथमवसीयते ?, उच्यतेसूत्रप्रामाण्यात्, तदेव सूत्रमुपदर्शयति- सूक्ष्मः- श्लक्षणो भ
,
,
?
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वद्धमाण्य
"
यति कालः चशब्दो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थः यथा सूदनस्तावत्कालो भवति यस्मात्पलपत प्रतिसंख्ये याः समयाः प्रतिपाद्यन्ते ततः सूक्ष्मः कालः, तस्मादपि कालात् सूक्ष्मतरं क्षेत्र भवति, यस्मादङ्गुलमात्रे क्षेत्रे - प्रमाणाडूलैकमात्रे श्रेणिरूपे नभः खण्डे प्रतिप्रदेशं समयगणनया असंख्या यसरियस्ली कृद्भिराज्याताः । इदमुकं भवतिप्रमाणामाचे एकैकप्रदेशकिये नमः खरडे यावन्तो ऽसंख्येयास्ववसर्पिणीषु समयाः तावत्प्रमाणाः प्रदेशा वर्नन्ते ततः सर्वत्रापि कालादसंख्येयगुणं क्षेत्रं, क्षेत्रादपि मानन्तगुणे इयं द्रव्यादपि चावधिविषयाः पर्यायाः संवे यगुणा असंख्येयगुणा था। उनं च" खेत्तपसेदितो, दव्यमतगुणितं परसेहिं । दव्वेहिंतो भावो, संखगुणोऽसंखगुविधवा ॥ १॥" तदेतद्वर्द्धमानकमवधिज्ञानम् । नं० । शरावसंपुटे, रा० । जं० प्रा० म० । श्रघ० । पुरुषारूढे पुरुषे, इत्यन्ये । स्वस्तिकपञ्चके, इत्यन्ये ० १ ० १ श्र० । प्रासादविशेषे, इत्यन्ये । भ० ६ श० ३३ उ० । अस्थिकग्रामे, " तस्स पुरा अपिगामस्थ पदमं पद्धमा ति नामहोत्था, " ० म० १ ० । ० चू० । स्वनामख्याते नगरे, तत्र हि अम्जूरित्यभिधाना कन्या विजयराजपरिणीता योनिशूलेन कृच्छ्रं जीवित्वा नरकं गता । स्था० १० डा० ३ उ० । द्विषष्टितमे महाग्रहे, स्था० ।
( ८८४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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दो माणगा (०) स्था० २ ठा० २ उ० । वद्धमा सरि-वर्द्धमानरि-पुं० बान्द्रकुलीये स्वनामपाते विदुषि यस्मिन्नतीते श्रुतसंयमश्रिया - वप्राप्नुवत्यावपरं तथाविधम् । स्वस्याश्रयं संवसतोऽतिदुः स्थिते श्रीचर्ड मानः स यतीश्वरोऽभवत् ॥ १ ॥” पञ्चा० १६ विव० । अयमा चार्यः विक्रमसंवत् १० अबुगिरी विमलशाह कृतजिना यतने प्रतिष्ठामकारयत् प्रथममर्थ वेत्यवासी निवन्द्र शिष्य आसीत् । इ
"
कुमाया बर्द्धमाना श्री चरणाजिनमतिमानामन्यतमस्यां शाश्वतजिनप्रतिमायाम्, रा० । ती० । बवता वर्द्धयित्वा धन्य० जयादिशब्दे-वर्यस्येत्यायुक्त्वेस्वर्थे "जर बढावैति " जयनर्थापयते जयवं देव! विजयस्व त्वं देवेत्येवं पर्यापयन्तीत्यर्थः रा० विपा०| वधु-वपुष्-१० शरीरे, स० ।
।
वप्प-वप्र- पुं० । समुन्नते भूभागे, श्राचा० २ ० १ ० १ अ०५
उ० । जलभृते केदारे, नि० चू० २० उ० । जी० । जं० । प्रश्न० । “केचारो वप्पिएं बप्पो ” । पाइ० ना० १३१ गाथा । पितरि दश० ७ श्र० । तटे, शा० १ श्रु० ४ श्र० । "रोहो वप्पो य तडो"। पाइ० ना० १३१ गाथा। स्था०। तादृक्प्रेक्षावच्चमत्कारजनके, द्वा० ३ द्वा० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमायां शीतोदाया महानद्या उत्तरस्यां चक्रवर्तिविजये, स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
दो बप्पा स्था० २ ठा० २४० । वप्पो विजये विजया रामदासी चंदे वस्खारपव्वर ।
यो विजय विजया राजधानी चन्द्रो वक्षस्कारपर्वतः।
ॐ० ४ ० ।
वभियारि वप्पगा - वप्रका - स्त्री० । धर्मजिननिष्क्रमणोद्याने, आ० म० १ अ० भरतक्षेत्रे ऽस्यामवसपियामेकादशफियो जयस्य मातरि, स० । श्राव० ।
वप्पगावई - वप्रकावती- स्त्री० । जम्बूद्रीपे शीतोदाया महाना उत्तरे समुद्रप्रत्यासन्ने विजये वर्तमानायां नद्याम्, स्था० ६
ठा० ३ उ० ।
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दो वप्पमावई। स्था० २ ठा० ३ उ० । वप्पद्दार-वप्रद्वार- न० । द्वारविशेषे, सेन० । तथा समयसरसे तृतीयवधद्वारेषु द्वारपालमाधित्य" प्रति प्रतिद्वारं, तुम्बरुप्रमुखाः सुराः । दरिडनो हि प्रतीहाराः, स्फारशृङ्गारिणोऽभवन् ॥ १॥ इति वृद्धीषु जयमाहात्म्ये । ॥ वृद्धश्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्ये तथा - " द्वारेषु रौप्यवप्रस्य, प्रत्येकं तुम्बरुः स्थितः । नृमुमालीवाडी, जटामुकुटभूषितः” इति श्रीशा न्तिनाथचारित्रे तथा अपने प्रतिद्वारं, तस्थी, द्वास्थस्तु तुम्बरुः । खट्वाङ्गी नृशिरः स्रग्वी, जटामुकुटमण्डितः ॥ १ ॥ " इति हैमवीरचरित्रे । तथा — “ तज्ञ्यबहिरा तुम्बर, खड़गि कवालि जडॉमउडधारी । पुय्वाइदारवाला तुम्बरुदेव पडिहारो ॥ १ ॥ इति 'सुगिमो केवलिवत्ये ' इति स्तोत्रे इति मतान्तराणि दृश्यन्ते, तेन नवीनप्रारब्धसमवसरणे किंनामानः किमायुधाश्च प्रतीहारा विधीयन्ते ? तथा प्रतिद्वारमेको द्वौ वैति व्यक्त्या प्रसाद्यमिति ? प्रश्नः, त्रोत्तरं - नवीन प्रारब्धसमबसरगे समय सरसोत्रानुसारेण प्रतीहाररूपाणि विधे यानि, प्रतिद्वारं च "मी देवी जुता " इति परस्योपलक्षपत्वेन प्रतीहाररूप समानाऽऽयुधं भवतीति समयसीयत इति ॥ ३० ॥ सेन १ उल्ला० । वप्पहट्ट-वप्रहृष्ट-पुं० । स्वनामख्याते सूरौ, अनेन मथुराया अन्तिम राजा प्रतिबोधितः । कलाकलितः शिलास्तम्भश्व कारितः । ती कल्प ।
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".
वच्या वप्रास्त्री० भरते वर्गेऽस्थामवसपियामेकविंशजिननमेर्मातरि, स० । ति० । श्राव० । प्रव० ।
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श्र
वपि ( ) - वप्रिन्- पुं० | केदारे, रा० । झा० । प्रश्न | " के आरो वपि वप्पो | पाइ० ना० १३१ गाथा । क्षेत्रे, मुषिते च । दे० ना० ७ वर्ग ८५ गाथा । पिय-वात्रिक०पैतृके, “पुसे जाए कम गु वगुणु कवणु मुपण । जा वप्पी की भूँहडी, चंपिचर अवरेण ॥१॥" जातेन पुत्रेण को गुणः, मृतेन पुत्रेण कोऽवगुणः । येन पुत्रेस स नेति गम्यते या पैकी भूमिः परेणाकम्पते । प्रा० दु० ४ पाद ।
,
वप्पीडिन - देशी-क्षेत्रे, दे० ना० ७ वर्ग ४८ गाथा । वष्फ- वाष्प पुं० "याप्ये होऽसि ॥ २७० ॥ इत्यनधुवाचके न हकारादेशः । ऊष्मणि, प्रा० २ पाद । वफड - वराक-पुं० । होने, श्रेष्ठे, वप्फट- वराक-पुं० [ होने, श्रेष्ठे, "प्रिय एवाई करे सेल्लुकरि छर्दि तुहुँकरवालु। जं कावलिन वप्फडा, लेहि भग्गु
"
बभियार-व्यभिचार-पुं० विकल्पे व्याहती, भजनायाम्, कवालु ॥ १ ॥ प्रा० ४ पाद । श्रनियमे, विशे० ।
नियमभखके, जारे, प०
वभियारि (ग) व्यभिचारिन् वि० ६ उ० । स्वैरिथि व्य०७३० ।
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बमण अभियानराजेन्द्रः।
वय बमण-वमन-नामदनफलादिना (दश०३०)छर्दने,
अब्बोच्छित्तिनिमित्तं, जीवद्वाए समाहिहेउं वा। ओघ०। आचा। विपा० । उद्विरगणे, उत्त०पाई १५ १०। ऊर्ध्वविरेके, सूत्र० १९०६ ० त्यजने , उत्त० ११ १०।।
वमणविरेयणमादी, जयणाए आदिते भिक्ख ।। ७५॥ स्था० । वमनविरेचने करोति । नि० चू०।
दोहि गाहातो ततिए उद्देसकगमेण पूर्ववत् । निचू०१३उ०। जे भिक्खू वमणं करेइ करतं वा साइजइ ॥३७॥वमाल-पुञ्जि-धा०। रायन्तः । चयने, “पुजेरारोल-धमालो" जे भिक्खू विरेयणं करेइ करतं वा साजा ॥३८॥ ॥८।४ । १०२॥ इति पुर्यन्तस्य वमालादेशः । वमाला। जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करतं वा साइजइ ।। ३६॥
पुश्त्रयति । प्रा० । कलकले, “रोलो रावो बयलो हलबोलो
कलयलो वमालो य" पाइ० ना० ३४ गाथा । उहहरेण वमणं, अहोदरेण विरेयो।
बमालइ-देशी-पुञ्जयति, दे० ना० ७ वर्ग ४६ गाथा । गाहाबमणं विरेयणं वा, जे भिक्खू पाइए अणट्ठाए ।
वम्फ-काइ-धा०। पृच्छायाम् , खादने च । “धातवोऽर्थासो प्राणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।। ७०॥ |
न्तरेऽपि" ॥८।४।२५६ ॥ इत्यन्तर्गणसूत्रेण काहतेर्वम्फाणिप्पयोयणं अणट्ठा चउलहुंच पच्छित्तं पावेति । समतिरित्ते
देशः। प्राकृते-बम्फर । अस्यार्थः--पृच्छति, खादति वा । तत्थ पदग्गहण इमीए गाहाए ।
प्रा०।"दलिवल्योर्विसट्ट-वम्फौ " ॥८।४।१७६ ॥ इति व. गाहा
लेवम्फादेशः । बम्फर । वलइ । वलते। प्रा०।"वर्गेऽन्त्यो वा" वमणं विरेयणं वा, अभंगो बोलणं सिणाणं वा।
॥८।१।३०॥ इति चालुस्वारः । वम्फा । वफह। प्रा०१ पाद । नेहादि तप्पणरसा-वायणं नत्थि च वत्थी वा ॥७॥
वम्म-वर्मन-न०। वृणोति-आच्छादयति शरीरकमिति वर्मा। अभंगो तेल्लादिणा फासुगण देसे, उच्छोलां । सव्वगात
अश्वतनुत्राणे, उत्त०४०। म्स सिणाण, वरणबलादिणिमित्तं घयादिणहपाणं तप्पणं, वम्मधारि-(सा)-वर्मधारिन-त्रि० । वर्म सघाई धरतीति। श्रादिग्गहणातो-अभंगो तप्पणं च । वयत्थंभणं एग- | सत्राहधारके, उत्त० ४ अ०। मणेगदम्बेहिं रसायणं, णासाऽरसादिरोगणासणात्थं णास
वम्मह-मन्मथ-पुं०।" मन्मथे वः " ॥८।१।२४२॥ इति करणं, नत्थं कडिवायारसविणासणत्थं च अपाणबारेण
मन्मथे मस्य वः । प्रा० । “न्मो मः" ॥ |२॥६॥इति यथिणा तेल्लादिपदस्थाणं वत्थिकम्म। किं चान्यत्-विविधा
मस्य म्मः । कामदेवे, “ मयरद्धो अणंगो, राणाहो णं दवाणं एगाणेगयुत्ताणं वीरियविवागफलं रोगविहं
यम्महो कुसुमबाणो । कंदप्पो पंचसरो, मयणो संकप्पजाणेऊण दवाणं अम्भवहारं करेति । जतो वन्नति ।
जोणी य ।" पाइ० ना० ७ गाथा । वरणरसगाहावस्मरसरूवमेहा-वगपलितपणासणट्ठा वा।
वम्मी-वल्मीक-न । वल्मीके, “ रफा-चम्मीन-चामलूरा दीहाउ तदट्ठा वा, धुलकिमवा व तं कुजा ।। ७२॥ | य" पाइ० ना० १७१ गाथा। सरीरेसु बन्नया भवति महुरसरो पडिपुराणेंदिशो रूबवं मा- वम्मिय-वर्मित-त्रि० । वर्मीकृते, औ० । सन्नद्धे, रामजहात्म्यधारणाजुत्तो भवति । चंगा गंडे भवन्ति सुकुचियगत्ता | रक्षीकृते. ज्ञा० १७०२०। वलीपलितयाणयणासणट्ठा उवउज्जंति, दब्वे, अहवा-दीहाउ | वन्मीक-न० । पृथ्वीविकाररूपे स्तूभे,सूत्र०२७०१०। भवामि ति तदट्ठा वोवयुजंति. थूलो वा किसोवा भवामि
वम्मीसर-देशी-कामे, दे० ना०७ वर्ग ४२ गाथा । किसो वा थूलो वा भवामीति एतदट्ठा तविधदबोवयोगं | करेति । एवमादि करेंतस्स प्राणादिया दोसा ।
वय-वचम-न। वचने, विशे० । आचा। उत्त० स्थान इमे य दोसा
झा। प्रव०। उभयधरणम्मि दोसा, अह करणे कयो य जंच उड्डाहो। ब्रज-पुं० । गोकुले, भ०११ श० ११ उ० । शा० । उपा। पत्थलमग्गणं पि य,अगिलाणगिलाणकरणे य ।।७३।।
वृ० । श्रोघ। उभए त्ति चमणं घिरेयणं । अतीव वमणे मरेज, अह उभयं
व्रत-न । नियमे, हा० १३ अष्ट० । नि० । व्रते, उपा० २ धरेति तो उडणिरोहे कोढो, वश्चनिरोहे य सुखेनैव अ०। प्राचा० । स्थूलप्राणातिपातविरमणे, स्था० ४ ठा। मरणं। अध अतिवेगेण अत्थंडिलादिसु छड़णा णिसिरिण वा ग० । “सव्वाश्रो पाणाइवायाश्रो वेरमण १, सव्वाश्रो पत्थ कार्यावराहणा। जंच अप्पाणं अगिलाण गिलाणं करोति | मुसावायाओ बेरमणं २, सब्बानो अदिक्षादाणाश्रो बेरमवं तरिणफणं, चससरीग वि सरीरकम्मं करेति, त्ति उडाहो । ३, सव्यानो मेहुणाओ वेरमणं ४, सव्वाश्रो परिग्गहाभो तम्मि कते पत्थं एवं मग्गियवं पथ्यभोजनमित्यर्थः, प्रह- वेग्मण ५" इति व्रतानि । ग०१ अधि० । महावतेषु, कल्प. या-पन्धणं करेंतेहिं अप्पसागारितोपडिस्सतोमग्गिययो। । १ अधि.१क्षण । तं० । मूलगुणेषु, स०। प्रव०। इमं वितियपदं । गाहा
पचयामचतुर्यामवक्तव्यता। तत्र व्रतद्वारमाह-- ठाण वुप्पतियं दुवखं, अभिभूतो वेदणाए तिव्वाए। | पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिलस्स । प्रदीणो य अव्वहितो, तं दुक्खहियासए सम्मं ॥७४॥ मज्झिमगाण जिणाणं,चाउजामो भवे धम्मो ॥३२३॥
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अभिधानराजेन्द्रः। पशयामो प्रतानि यत्र स पशयामः, “दीर्घइस्वी मिथो. | विषयाऽबलत्वं-बलाभावस्ततः कारणात् दुस्तितिक्षं तेषां सावि" ति प्राकृतलक्षणवशाच्चकारस्य दीर्घत्वम् । एवंविधो परीपहादिकं भवति । एवमेव मानस्याहंकारस्योपलक्षणत्वात् धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य, मध्यमकानां जिना- क्रोधादेश्वोत्कटतया दुरनुशासं चरमाणां भवति । उत्कटनां पुनभतुर्यामो धर्मो भवति, मैथुनव्रतस्य परिग्रहवत ए- कषायतया दुःखेनानुशासनां ते प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः । प्रत बान्तर्भावविवक्षणात्।
एषां पूर्वेषां च पञ्चयामो धर्म इति प्रक्रमःकुत श्वामिति चेद् ? उच्यते
एए चेव य दुट्ठा-सुप्पन्नुज्जुत्तणेण मज्झाणं। पुरिमाण दुब्बिसोज्झे, चरिमाणं दुरणुपालभो कप्पो ।
सुहदुहउभयबलाण य, विमिस्सभावा भवे सुगमा।३२८॥ मज्झिमगाण जियाणं,सविसुज्झे सुअणुपालो य।३२४।
एतन्मन्ये व्याख्यानादीनि स्थानानि मध्यमानां सुगमानिपूर्वेषां साधूनां दुर्विशोध्यः कल्पचरमाणां पश्चिमानां दुरनु.
सुकराणि भवेयुरिति सम्बन्धः। कुतः १, इत्याह-सुप्रासपाल्यः, मध्यमकानां तु जिनानां तु तीर्थे साधूनां सुविशोध्यः
ऋजुत्वेन प्राशतया ऋजुतया चेत्यर्थः, स्वल्पप्रयलेनैव सुखानुपाल्यश्च भवति । इयमन भावना-पूर्वे साधव ऋजुज
प्रज्ञापनीयास्ते, तत आख्यातविभअमोपनयनानि सुकराडास्ततः परिग्रहवत एवान्तर्भाव विवक्षित्वा यदि मैथुनवतं
णि 'सुहिदुहि' त्ति कालस्य स्निग्धरूक्षतया सुखदुःखे उभे साक्षानोपदिश्यते ततस्ते जडतया नेदमवबुध्यन्ते, यथा-मै
अपि तेषां भवतः । तथा । उभयबलाणय ' ति शारीरं थुनमपि परिहर्तव्यम्,यथा तु पृथक परिस्फुटं मैथुनं प्रतिषि
मानसिकं वा उभयमपि बलं तेषां भवति । 'विमिस्सभाव' ध्यते ततः पर्यवस्यति परिहरति च, पश्चिमस्था वा ज
त्ति नैकान्तेनोपशान्ता, न वा उत्कटकषायास्ते ततो विमिश्रडास्ततो मैथुने साक्षादप्रतिषिद्धे परिग्रहान्तस्तदन्तर्भाव जा.
भावात् अनुशासनमपि सुकरमेव तेषां भवति । ततश्चतुमन्तोऽपि वक्रतया परपरिगृहीतायाः स्त्रियाः प्रतिसेवनां
र्यामस्तेषां धर्म इति । गतं व्रतद्वारम् । १०६ उ। प्राणातिकुर्षीरन् ,पृष्टाश्च वीरन् , नैवास्माकं परिग्रह इति,तत एतेषां
पातादिनिवृत्तिलक्षणेषु, आव०१०। पं०भा० । पं००। पूर्वपबिमानां पञ्चयामो धर्मो भगवता ऋषभस्वामिना बी-|
प्रव०। पञ्चा०व्रता-नियमा इति भागवताः । द्वा०८द्वा०। मानस्वामिना च स्थापितः।ये तु मध्यमाः साधवस्ते ऋजु
"अहिंसा-सत्यमस्तेय, ब्रह्माऽकिञ्चन्यमेव च । महावतानि प्रशास्ततः परिग्रहे प्रतिषिद्ध प्राशत्वेनोपदेशमात्रादप्यशेष
षष्ठं च, व्रतं रात्रौ च भोजनम्" ॥१॥ध०३ अधि० । महा० । हेयोपादेयविशेषात्पुनः पटीयस्तया चिन्तयेयुः,नापरिगृहीता स्त्री परिभुज्यते, अतो मैथुनमपि न वर्तते सेवितुम् , एवं मै
तिविहं तिविहेण समणेहिं, सब्बसावजमुज्झियं । थुनपरिग्रहे अन्तर्माब्य तथैव परिहरन्ति । ततस्तेषां चतुर्या
जावजीवं वयं घोरं, पडिवज्जिय मोक्खसाहणं ॥ मो धर्मो मध्यमजिनरुक्त इति ।
दुविहेगविहं वा थूलसावज्जमुझियं । अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह
उद्दिढकालियं तु, वयं देसे ण संवसे ।। महा०२५०। जइत्तखेल हंदि, माइक्खविभागउवणता दुक्खं ।
"वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसश्चितसुहसमुइयदंताण य, तितिक्खअणुसासणा दुक्खं ।३२।। मतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणां, न शीलवृत्तस्खलितसर्वेषां साधूनां जडतया 'हंदी' त्युपदर्शने, वस्तुतत्त्वस्या-| स्य जीवितम् ॥१॥" प्रा० चू०४ अ०। ६० । ख्यानं दुःखं कृच्छेण महता वचनादौ प्रयासेन क शक्य- तवसंजमं वएसु य, नियमो दंडनायगो । मित्यर्थः । एवमाल्यातेऽपि वस्तुतत्वे विभागः-पार्थक्येन |
- तमेव खंडमाणस्स, ण वए णोवसंजमे॥शामहा०६अ। म्यवस्थापनं महता कष्टेन कर्तुं शक्यते , विभक्तऽपि वस्तुतस्वे उपनयो हेतुरष्टान्तः प्रतीतावारोपणं कर्तुं दुःशक्यम् ,ते
वयस्-न०।०। “स्नम-दाम-शिरोनभः"॥८॥१॥३२॥ म, प्रथमतीर्थकरसाधवः सुखसमुदिताः कालस्य स्निग्ध
इति वा पुंस्त्वम् । देहावस्थाविशेषे, प्रा०म०१०। तया शीतोष्णादीनां तथाविधदुःखहेतुनामभावात् । सुखेन तो बया पात्ता, तं जहा-पढमे वए मज्झिमे वए, सम्पूर्खास्ततस्ते भिक्षापरीषहादेरधिसहनं तेषां दुःखं दुष्क- पच्छिमे वए । (सू०-१५५४) रम् । तथा दाता एकान्तेनोपशान्ता ते ततः कचित्प्रमाद- 'तो बए' इत्यादि स्फुटम्, किन्तु प्राणिनां कालकृतावस्था स्थालितादी शिष्यमाणानामनुशासनाऽपि कर्तुं दुःशका।
बय उच्यते,तत् त्रिधा बालमध्यमवृद्धत्वमेदादिति। वय उपलमिच्छत्तभावियाणं, दुवियदृगतीण वामसीलाणं ।। तणं चेदम्-"श्राषोडशाद्भवेद्वालो, यावत् क्षीरानवर्तकः। मप्राइक्खिउ विमइउं, उवणाउं वा वि दुक्खं तु ॥३२६।।
ध्यमः सप्तति यावत्, परतो वृद्ध उच्यते ॥१॥" इति, शेष दुक्खेहि भजिताणं,तणुधितिअवभत्तो य दुतिलिक्खं ।
प्राग्वत् । स्था० ३ ठा०३ उ०। नं०। प्रश्न।
तिहिं वरहिं आया केवलिपरमत्तं धम्म लमेज्जा,सवणएमेव दुरणुसासं, ताणुकडओ य चरिमाणं ॥३२७॥ ये तु चरमतीर्थकरसाधवस्ते प्रायेण मिथ्यात्वभाविता दु
| याए, तं जहा--पढमे वए मज्झिमे वए, पच्छिमे वए, विदग्धमतयो वा अशीलाच, ततस्तेषामपि च श्रुतत्वमा
एसो चेव गमो यचो, जाव केवलणाणं ति । (सू० स्यातुं विभक्तमुपनेतुं दुःखं दुःखतरम् । तथा कालस्य रूक्षतया १५५४) स्था० ३ ठा० ३ उ० । व दुःखैर्विविधाधिव्याधिप्रभृतिभिः शारीरमानसैसिता- कुमारयौवनमध्यमवृद्धत्वे, प्राचा० १ श्रु०२ १०१ उ०। नामत्यन्तमुपतापितानां तनुः शरीरं तिः मानसोपष्टम्भस्त-| पश्चा। आव० । सूब० । बारा ।
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वय
अभिधानरजिन्द्रः। व्यय-पुंग लब्धस्य प्रणाशे,नि० चू०१ उ०ा व्ययं चायोचित व्रतापकारित्वात्-प्रतिज्ञातापालनात् । अविश्वासश्व-अविकुर्यात् , यतः-"पादमायानिधिं कुर्यात् , पादं वित्ताय श्वसनीयश्च भूतानां मृपावादी भवति, यस्मादेवं तस्मान्मृकल्पयेत् । धर्मोपभोगयोः पाद, पादं भर्तव्यपोषणे ॥१॥" पावादं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १२॥ उक्नो द्वितीयस्थानकेचित्त्वाहुः-"आयाद नियुञ्जीत, धर्मे समधिकं ततः।
विधिः। शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम् ॥१॥"
साम्प्रतं तृतीयस्थानविधिमाहनिद्रव्यसद्व्ययोरयं विभाग इत्येके । ध०२ अधि०। । चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । वाक्य-नावचने,“पच्छा वयमुयाहरे" दश.७०२ उ०।। दंतसोहणमित्तं पि-उग्गहंसि अजाइया ।। १३ ॥ वयंत-वदत-त्रि० । बुवाणे, "वादांश्च प्रतियादांश्च , वदन्तो तं अप्पणा न गिएहंति, नोऽवि गिदहावए परं । निश्चितांस्तथा । तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीडकवद्गती" | अनं वा गिएहमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ॥१४॥ ॥१॥ द्वा०२३ द्वा०।
'चित्तमंत 'त्ति सूत्रम् , 'चित्तवद्-द्विपदादि वा अचिवयंस-वयस्य-पुं० । स्त्री० । “वक्रादावन्तः" ॥८॥१॥२६॥ तबद्वा-हिरण्यादि, अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च , यदिइति मध्येऽनुस्वारः। प्रा०। मित्रे, आ० म०१ ० । वा-बहु मूल्यप्रमाणाभ्यामेव, किंबहुना ?-दन्तशोधनमात्र"पियवयंसो हिरमाणणिजो," प्रा०२ पाद । "मित्तो सही| मपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न वयंसो"। पाइ० ना० १०० गाथा।
गृहन्ति साधवः कदाचनेति सूत्रार्थः॥१३॥ एतदेवाह-'त' ति बयंसि (यू)-वचस्विन-पुं०। वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्या- सूत्रं, तत्-चित्तवदादि प्रात्मना न गृहन्ति विरतत्वात् , स्ति स वचस्खी । शा० १श्रु०१०। नि०। वक्रादित्वादनु- नापि प्राहयन्ति पर विरतत्वादेव, तथा अन्य वा गृहन्तमपि स्वारः । वचनसौभाग्योपेते, नि०१०१ वर्ग १०। । स्वयमेव नानुजानन्ति-नानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः जयगुत्त-वचोगुप्त-त्रि० । वचनगुप्त्या गुप्ते , उत्त० १२ १०।। ॥१४॥ दश०६ १०२ उ०। ( व्रतषटुमध्यगतो मैथुनविनिरूदवानसरे, उत्त० पाई० १२ १०।
षयः 'मेहुण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४२६ पृष्ठे गतः।) प्रतिवयगुत्ति-वाग्गुप्ति-स्त्री०। “सचा तहेव मोसा य, सचा मोसा
पादितस्तृतीयस्थानविधिः।
इदानीं पञ्चमस्थानविधिमाहतहेव य। चउत्थी असचमोसा उ, वयगुत्ती चउन्विहा ॥१॥" (उत्त० छ०२४ अ०।) इति चतुर्विधे वचोगोपने, नि. चू०
बिडमुन्भे इमं लोणं, तिल्लं सप्पि च फाणिभं । १ उ०।
न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवोरया ॥ १७ ॥ वयग्गाम-व्रजग्राम-पुं० । गोकुले, "ततो सामी वयग्गाम लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । गोउलं पत्तो,तत्थ य दिवस छणो सम्वत्थ परमनं उवक्खडि- जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पन्चइए न से ॥ १८ ॥ यं" प्रा० चू० १ अ०। श्रा०म० ।
जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । बयछक-व्रतषट-न० । प्राणातिपातादीनां रात्रिभोजनविर
तं पि संजमलअट्ठा, धारंति परिहरंतिम ॥१६॥ तिषष्ठानां व्रतानां षट्के, दश०६ अ०। श्राव । दर्श। अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह
न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । अप्पगट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया ।
मुच्छापरिग्गहो वुत्तो, इत्र वुत्तं महेसिणा ॥२०॥ हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अचं वयावए ॥११॥
सब्बत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे । मुसावाओ उ लोगम्मि, सब्यसाहहि गरहियो।।
अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, नायरंति ममाइयं ॥ २१॥ अविस्सासो अभूत्राणं, तम्हा मोसं विवजए ॥ १२॥
'बिड ' ति सूत्रम् , बिडं-गोमूत्रादिपकम् , उनेद्य-सा.
मुद्रादि, गद्वा-बिडं-प्रासुकम् , उद्भेद्यम्-अप्रासुकमपि 'अप्पगट्ट' त्ति सूत्रम् , आत्मार्थम्-आत्मनिमित्तमग्लान एवं द्विप्रकारं लवणम् । तथा तैलं सर्पिश्च फाणितम् , तत्र तैएव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि, परार्थ वा-परनि- लं-प्रतीतम् , सर्पि-घृतम् , फाणितं-द्रवगुडः, पताक्षणाद्येव मित्तं वा एवमेव, तथा क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादि , एकग्र- प्रकारमन्यच न ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति-पर्युषितं हणे तज्जातीयग्रहणमिति, मानाद्वा अबहुश्रुत एवाई ब- स्थापयन्ति, सातपुत्रवचोरताः-भगवद्वर्धमानवचसि निःहुतश्रुत इत्यादि. मायातो भिक्षाटनपरिजिहीर्षया पादपीडा
सङ्गताप्रतिपादनपरैः सक्ला इति सूत्रार्थ :॥ १७ ॥ संनिधिदोममेत्यादि.लोभाच्छोभनतरामलामे सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽ पमाह-'लोभस्स' ति सूत्रम् , लोभस्य-चारित्रविनकाप्यनेषणीयमिदमित्यादि, यदि वा-भयात्-किश्चिद्वितथं रिणश्चतुर्थकषायस्थ 'एस अणुप्फास' ति एषोऽनुस्पर्शःकृत्वा प्रायश्चित्तभयान कृतमित्यादि , एवं हास्यादिष्वपि एपोऽनुभावो यदेतत्संनिधिकरणमिति, यतश्चैवमतो मन्येवाच्यम् , अत एवाह-हिंसकं-परपीडाकारि सर्वमेव न मन्यन्ते,प्राकृतशैल्या एकवचनम् , एवमाहुस्तीर्थकरगलधराः मृषा ब्रूयात् स्वयम् . नाप्यन्यं वादयेत् एकप्रहले तजाती- अन्यतरामपि-स्तोकामपि यः स्यात्-यः कदाचित्संनिधि यग्रहणात्-अवतोऽप्यन्यान समनुजानीयादिति सूत्रार्थः॥११॥ | कामयते-सेवते, गृही-गृहस्थोऽसौ भावतः प्रवजितो किमित्येतदेवमित्याह-'मुसाबाउति सूत्रम् , मृषावादोहि नेति , दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः, संनिधीयते नरकादिलोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः गर्दितो-निन्दितः, सर्व- प्वात्माऽनयेति संनिधिः, इतिशम्दार्थात् प्रवजितस्य च
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वयक
अभिधानराजेन्द्र:। दुर्गतिगमनाभावादिति सूत्रार्थः ॥ १८॥ आह-यद्येवं वस्त्रा. सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते । अस्य दि धारयतां साधूनां कथमसंनिधिरित्यत आह-जंपि' नि | चायमभिसम्बन्धः, गुणा अष्टादशसु स्थानेषु अबण्डास्फुटिसूत्रम् ,यदप्यागमोक्तं वस्त्रं वा-चोलपट्टकादि, पात्रं वा-अला. ताः कर्तव्याः, तत्र विधिमाह-तस्थिम' ति सूत्रम् । तत्रबुकादि, कम्बल-वर्षाकल्पादि, पादपुञ्छनं-रजोहरणम् , अष्टादशविधे स्थानगणे बतष वा अनासेवनाद्वारेण इदतदपि 'संयमलज्जार्थ' मिति पात्रादि, तद्व्यतिरेकेण पु- वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथम स्थान महावीरेण-भगवता अपश्चिरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालनाभावात् लज्जा- मतीर्थकरेण देशितं-कथितं यदुनाहिसेति । इयं च सामा
वस्त्रम् , तद्व्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिर- न्यतः प्रभूतैर्देशितेत्यत आह-निपुणा-प्राधाकर्माचपरिभोहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः, अथवा-संयम एव लज्जा तदर्थ गतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा, न आगमद्वारेण देशिसर्वमेतद्वस्त्रादि धारयन्ति, पुष्टालम्बनविधानेन परिहरन्ति | ता अपि तु दृष्टा-साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा, किमितीच परिभुजते च मूर्खारहिता इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ यमेव निपुणत्यत आह-यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां पतश्चैवमतः-'न सो' ति सूत्रम् , नासी निरभिष्वङ्गस्य सर्वभूतेषु सर्वभूतविषयः संयमो, नान्यत्र, उद्दिश्यकृतादिभोबनधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्लो बन्धहेतुत्वाभावात् , गविधानादिति सूत्रार्थः।। एतदेव स्पष्टयनाह-'जावंतिसकेन ?, 'शातपुत्रेण 'शात-उदारक्षत्रियः सिद्धार्थः, तत्पुत्रे-| त्रम् ,यतो हिभागवत्याशा यावन्तः केचन लोके, प्राणिनखसारण-वर्धमानेन त्रात्रा-स्वपरपरित्राणसमर्थेन, अपि तु-मू- द्वीन्द्रियादयः, अथवा-स्थावराः-पृथिव्यादयः तान् जानन्
छा असत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वतः परिग्रह उक्नो बन्धहेतु- रागाभिभूतो व्यापादनबुद्ध्या प्रजानन्या प्रमादपारतम्ध्येश स्वात् , अर्थतस्तीर्थकरण. ततोऽवधार्य इति-एवमुक्तो मह- नहन्यात् स्वयम, नापिघातयेदन्यैः एकग्रहणे तज्जातीयग्रहपिणा-गणधरेण, सूत्रे 'सेजंभव आहे' ति सूत्रार्थः ॥२०॥
णात् ' प्रतोऽप्यन्यात्र समनुजानीयाद् , अतो निपुणा स्ऐति बाह-वखाद्यभावभाविन्यपि मूर्छा कथं यखादिभावे सा
सूत्रार्थः ।।।।अहिंसैव कथं साध्वीत्येतदाह-'सब्बे' ति धूनां न भविष्यति ?, उच्यते-सम्यग्बोधेन तद्वीजभूताबो
सूत्रम्, सर्वे जीवा अपि दुःखितादिभेदभिन्ना इच्छन्ति जीवितुं धोपघाताद् , आह च-'सब्वत्थ 'त्ति सूत्रम् , सर्वत्र-उचि.
न मतु प्राणवल्लभत्वात् , यस्मादेवं तस्मात्प्राणवधं घोर ते क्षेत्रे काले च उपधिना-आगमोक्न वस्त्रादिना सहा
रौद्रं दुःखहेतुत्वाद् निर्ग्रन्थाः-साधवो वर्जयन्ति भावतः । पि बुद्धा-यथावद्विदितवस्तुतत्त्वाः साधवः-संरक्षणपरि
णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः॥१०॥ दश०६ १०२ उ०। ग्रहाः इति, संरक्षणाय षसां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे
वयजुय-व्रतजुत-त्रिका महायताणुव्रतादिसमन्विते, कर्म०१ सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः। किं चानेन ?. ते
कर्म। हि भगवन्तः अप्यात्मनोऽपि देहे इत्यात्मनो धर्मकायेऽपि विशिष्टप्रतिवन्धनसंगतिं न कुवन्ति । ममत्वम्
| वयजोग-वाग्योग-पुं० । मिसृज्यमानभाषापुद्रलसमूहरूप प्रात्मीयाभिधानं, वस्तुतत्वावबोधात् , तिष्ठतु तावदन्यत् ,
(विशे०।) वाग्व्यापारे, सूत्र०२१०४०।०। ('जोग' ततश्च देहवदपरिग्रह एव तदिति सूत्रार्थः ॥ २१॥ उक्तः शब्दे चतुर्थभागे १६५५ पृष्ठे अस्य वक्तव्यता उता ।) पञ्चमस्थानविधिः । (षष्ठस्थानविधिस्तु 'राइभोयण' श- वयदृवणा-व्रतस्थापना-स्त्री०। हिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहेमेऽस्मिन्नेव भागे ५१० पृष्ठे दर्शितः।) उक्नं बतषटूम् ।। भ्यो विरतयो व्रतानि तेषु स्थापना । सामायिकसंयतस्योदश०६०२०।
पस्थापनायाम् , पं०व०॥ ननु व्रतानां स्थापनेति न युक्तं तत्र बयछकं कायछकं, अकप्पो गिहिभायणं ।
तेषामारोष्यमाणत्वाद् ,उच्यते-सामान्येन बतानामनादित्वा. पलियंकनिसेजा य, सिणाणं सोहवजणं ॥ २६८॥ तेषु तस्योपस्थाप्यमानत्वादित्यमप्यदोष एव । पं०व०१द्वार। बतषटुं-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि रात्रिभोजनविरति-1 (सा च 'उबटुवणा' शब्दे द्वितीयभागे ८८३ पृष्ठे प्रत्यपादि।) षष्ठानि षड्वतानि,कायषटू-पृथिव्यादयः परजीविनिकायाः | वयण-वचन-न० । भणने, स्था० ३ ठा०३ उ० । अनु० । प्रकल्पा-शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाणः गृहिभाजनं- | वाक्यक्रियायाम् , प्रव०२द्वार । रा०। प्रश्न । “वग्गु ति गृहसम्बन्धि कांस्यभाजनादि प्रती पर्यङ्कः-शयनविशेषः वा वय ति वा वयण सिवा एगट्ठा" प्रा० चू० १ ० । प्रतीतः । निषचा च-गृहे एकानेकरूपा स्नान-देशसर्व
बचनभेदानाहभेदभिवं शामावर्जन-विभूषापरित्यागः, वर्जनमिति च प्रस्येकमभिसंबध्यते, शोभावर्जनं स्नानवर्जनमित्यादीति
तिविहे वयणे पापत्ते, तं जहा-तन्वयणे, तदनवयणे , गाथार्थः॥
णोअवयणे । (सू०-१७५) तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसिभ ।
'तिविहे' त्यादि, अयमस्य गमनिका-तस्य विवक्षितार्थ
स्य घटादेर्वचनं-भणनं तद्वचनं घटार्थापेक्षया घटवचनाअहिंसा निउणा दिवा, सब्वभूएसु संजयो॥॥ त् । तस्माद्विवक्षितघटादेरन्यः पटादिस्तस्य वचनं तदन्यजावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा।
वचनं घटापेक्षया पटवचनवतानोश्रवचनम्-अभणननिवृत्तिते जाणयमजाणं वा, न हणे यो विधायए । ६ ॥
र्यचनमा जित्थादिवदिति । अथवा-स-शब्दव्युत्पत्तिनिमि
तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽनेनोच्यते इति तद्वचनं यथार्थनामेत्यसव्वे जीवाऽवि इच्छंति, जीविउं न मरिजिउं ।
र्थः.ज्वलनतपनादिवत् । तथा तस्माच्छन्दव्युत्पत्तिनिमित्तधतम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वजयंति णं ।। १०॥ मविशिष्टादन्यः शब्दप्रवृत्तिनिमिनधर्मविशिरोऽर्थ उच्यते स.
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धरण अभिधानराजेन्द्रः ।
बयणपजाय नेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः, मण्डपादिवत् । उभय-1 अंधत्तेयं को वी, ण बुज्झए मंदधम्मत्ता। व्यतिरिक्त नोप्रवचनम् , निरर्थकमित्यर्थो डिस्थाविषत् । अथ वा-तस्याचार्यादेवचनं तवचनम् , तद्व्यतिरिकवचनं तदम्य
दब्वे भावे अंधो, दवे चक्स्वहि भावे ओसएहो । वचनम् , अविवक्षितप्रणेतृविशेषम् , नोश्रवचनम्-वचन
संविग्गतणं रोयति, ग तियाइ पहाणमिच्छतो। मात्रमित्यर्थः। त्रिविधवचनप्रतिषेधस्त्ववचनम् । स्था० ३ जत्तो चउव्विहारा, तं चेव पसंसते मुलभवोही । डा०३ उ०मा०म०।
ओसराहविहारं पुण, पसंसए दीहसंसारी । एकद्धिबहुवचनानितिविहे वयणे परमत्ते, तं जहा-एगवयणे दुवयणे बहु
माहागवहिसेजा, णीयावासो वि तिकरणविसोही ।
तह भावम्मि वि केई, इमं पहाणं ति घोसंति । बयणे । (सू०-१९३४)
णीया विवहारम्मि वि, जदि कुणती णिग्गहं कसायाणं । 'तिविहे ' त्यादि, एकोऽर्थ उच्यते ऽनेनोक्निति वचनमे-। कस्यार्थस्य वचममेकवचनमेवमितरेऽपि । अत्र क्रमेणो
तस्स हु भवते सिद्धी, अवितहसुत्ते भणियमेवं । दाहरणानि--देवः, देवी, देवाः , वचनाधिकारे । स्था० ३ बहुमोहे वि हु पुब्धि, विहरित्ता संवुडे कुणति कालं । ठा०४ उ० प्रा० म०।
सो मिज्झति अवि य इमे, परिसञ्जाता भवे चउरो । स्त्रीपुंनपुंसकवचनानि
गाणेणं संपन्यो, णाणचरित्तेण एत्थ चउभंगो । अहवा तिविहे वगणे परमत्ते, तं जहा इत्थिवयणे पुं
णाणं चेव पहाणो. एवं भासंति णिद्धम्मा । चयणे णपुंसगवयणे । (सू० १६३४)
तम्हा तु न एताई, कुजा आलंबणाइमतिमंतो । 'अहो' त्यादि सुबोधम्।उदाहरणानि तु स्त्रीवचनादीनां नदी, मदः, कुण्डमित्यादि । स्था० ३ ठा०५ उ०। ('सामाइय'
कुजाहि य सत्थाई, इमाइँ आलंबणाई तु । शरद तद्गतवचनविचारं वक्ष्यामि ।)
तिन्थगराण चरित्तं, कसिणंगं पारगाणं च । अतीतानागतप्रत्युत्पन्नवचनानि
जो जागति सद्दहती, प्रोसण्हं सो खरो एति । अहवा तिविहे वयणे पम्मत्ते, तं जहा-तीतवयणे पडु- धुवसिज्झितबगम्मि वि,तित्थगरोजदि तवम्मि उजमति। प्पनवयणे अणागयवयणे । (२०१:३४)
किं पुण तबउजोगो, अवसेसेहिं न कायब्बो ?। अतीतादीनां कृतवान् करोति करिष्यति, वचनं हि जीव-। चोद्दसपुचि कसिणं-गपारगा तेसि जो उ उजोगो । पर्यायस्तदधिकारात्तत्पर्यायान्तराणि त्रिस्थानकेऽवतारय
तं जो जापति सो खलु, संविग्गविहारसदहतो । नाह-'तिविहे' त्यादि (स्पष्टम् ।) स्था० ३ठा०४ उ०। (बहनि पचनामि 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे १५५० पृष्ठे वि
एमादी आलंबण, काउं संविग्गगं तु रोएति । शेषतः प्रतिपादितानि।)(कथं भाषा भाषणायेति 'अस्थिवा- को पुण सएहतरोए-ति भएणति इमो तु सुत्तत्यं । य' शब्द प्रथमभागे ५२३ पृष्टे गतम् । ) (पचत्रिंशत्सत्यवच- तदुभए अकरजोगि-अोसम्म रोयमो अश्रो होला । नातिशयाः 'मासेस'शब्दे प्रथमभागे ३२ पृष्ठे दर्शिताः।)
अहवा दुग्गहियत्थो, अहवा वी मंदधम्मत्ता । अभियोगपर्वके आदेशे, भ०३००१ उ०। राजादेशे, औ०। प्राभाषितस्य इच्छाकारभलने, गृहीतमौनवतस्य वचनवि
अपाणी कडजोगी, दुग्गहियत्थो तु जेख भववादो। पये केमाप्याभाषणे कते सस्पोत्सरमणने, व्य. ३ उ० ।। गहिओ ण वि उस्सग्गो,गहिते वा मंदधम्मो तु। (उच्यते इति वचनम् । वचनंविधा-मधुरकटुरूक्षभेदादि- सो रोए उस्मामे, इति एसो वएिणमो वयाकप्पो । स्वादि । (१०१ अधि०) 'भप'शब्दे पश्चमभागे १४२० पृष्ठे
पं० भा० ५ कल्प । गतम् । ) आगमे, ध०१अधिका । वक्तव्ये, ०३ पक्षा भाषापरिणामापचे प्रतिपादने, सूच०१७०११० पुल
वयणखंति-वचनतान्ति-स्त्री०।वचनक्षान्ती, पो० । “धुनद्रम्बसमूद, कर्म०४ कर्म।
मयमात्रापोहा-चिन्तामयभावनामये भवतः । पाने परे बदनाकरले ल्युर । मुले, बा १ भु. १
यथाई, गुरुभक्तिविधानसल्लिो" षो०१०वि०। ('काल'
शब्द चतुर्थभागे १६८१ पृष्ठे व्याख्यातम् ।) अास्था । “सारयससंकसोमषषणा" प्रक्षा-१ पद ।
वयणजोग-वचनयोग-पुं० । उच्यते इति वचनं भाषापरिबिपा०प्रश्न। जयमकप-वचनकम्प-पुं० वचनवकम्यताप्रतिबद्ध करपे,
णामापनः पुद्गलद्रव्यसमूह इत्यर्थः । तेन वचनेन सह प. भा०॥
करणभूतेन योगो वचनविषयो वा योगः । वाग्यापारे,
कर्म ४ कर्म। ..................एतो वोच्छ वयणकप्पं ।
बयणत्तिय-वचनत्रिक-न० । एको द्वौ बहव इत्येकत्याचभिपाहारउवाहिसेजा, तिकरणसोही' जाहे परितंतो।
धायकशम्दत्रये, विशे० । प्रश्न । पग्गहितविहाराबो, तो चेव तिषिसयपरिबद्धो ।
वयणपजाय-बचनपर्याय-पुं० । वचनरूपा वस्तुनः पर्याया को तिषिसेसं पुज्झति, पसरपठादा अहं परिभट्ठो।.| बचनपर्यायाः । ये शब्दाः सर्व वस्तु सम्पूर्ण प्रतिपादयन्ति ।
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(८९०) वयागपज्जाय अभिधानराजेन्द्रः।
वयणविभत्ति तेषु, सर्वेषामपि वस्तूनामभिलापवाचकेषु शब्देषु , विशः । हवइ पुण सत्तीयं, इयम्मि अाधारकालभावे य । वयणप्पभूय-वचनप्रभृत-त्रि० । वचनैर्नयभेदाः प्रभूता वच
आमंतणे भवे अ-दुमी उ जह हे३ जुवाण त्ति ॥६॥ नप्रभूताः । अल्पाक्षरपु, उत्त० १३ अ०।
(सू०-६०६) वयणभिएण-वचनभिन्न-न। यत्र वचनव्यत्ययो भवति तादृशे सूत्रदोष, यथा-वृक्षा ऋतौ पुष्पिता इत्यादि । अनु० ।
उच्यन्त इति वचनानि-वस्तुवाचीनि विभज्यते-प्रकटीकिविशे० । प्रा० म०।
यते अर्थोऽनयेति विभक्तिः, वचनानां विभक्तिर्वचनविभक्तिः, वयणमाला-वदनमाला-स्त्री० । मुखपुळे , जं० २ वक्षः। नाख्याविभक्तिरपि तु नाम विभक्तिः,प्रथमादिकति भावः।सा वचनमाला-स्त्री० । उक्तिसमूहे,“ चयणसहस्सेहि अभिथु
चाष्टविधा तीर्थकरगणधरैः प्रशप्ता, का पुनरियमित्याशय
यस्मिन्नर्थे या विधीयत तत्सहितामप्रविधामपि विभक्ति णिजमाणे," जं०२ वक्षः।
दर्शयितुमाह- तद्यथे' त्यादि निद्देसे' इत्यादि श्लोकद्वयं वयणमित्त-वचनमात्र-न। निर्हेतुके केवलवचने, यथा क-|
निगदसिद्धम्, नवरं-लिङ्गार्थमात्रप्रतिपादनं निर्देशः तत्र सिश्चिद्यथेच्छया कश्चित् प्रदेश लोकमध्यतया जनेभ्यः प्ररूपयति।। श्री-जसिति प्रथमा विभक्तिर्भवति । अन्यतरक्रियायाः प्रअनु । विशे० प्रा०म० । वृ०।
वर्तनेच्छोत्पादनमुपदेशस्तस्मिन् अम्-औ-शस्-इति द्विवयणरुद्द-वदनरौद्र-त्रि० । वदनेन भीषणे, प्रश्न०३ आश्र० तीया विभक्तिभवति, उपलक्षणमात्रं चेदम् , कटं करोतीद्वार।
त्यादिषूपदेशमन्तरेणापि द्वितीयाविधानाद् , एवमन्यत्रापि वयणविगप्प-वचनविकल्प-पुं० । भाषणभेदे, स्था० ७ ठा० यथासम्भवं वाच्यम् ।विवक्षितक्रियासाधकतमं करणं तस्मि३ उ०।
स्तृतीया कृता-विहिता । सम्प्रदीयते यस्मै तद्वादिदासत्तविहे वयणविकप्पे पएणत्ते, तं जहा-अणालावे उ
नविषयभूतं सम्प्रदानं तस्मिँश्चतुर्थी विहिता । अपादीयते
वियुज्यने यस्मात् तद्वियुज्यमानावधिभूतमपादानं तत्र लावे अणुल्लाव संलावे पलावे विप्पलावे। (सू०-५८४)
पञ्चमी विहिता, स्वम्-आत्मीयं सचित्तादि स्वामी-राजा'सत्तविहे ' त्यादि, सप्तविधो वचनस्य-भाषणस्य विक- दिः तयोर्वचने तत्सम्बन्धप्रतिपादने षष्ठी विहिनत्यर्थः । संल्पो-भेदो वचनांवकल्पः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-श्राङ् ईषदर्थत्वादी- निधीयते-श्राधीयत यस्मिस्तत्सन्निधानम्-श्राधारस्तदेवापल्लपनमालापो नत्रः कुत्सार्थत्वादशीलत्यादिवत् कुत्सित | थस्तस्मिन् सप्तमी विहिता । अष्टमी सम्बुद्धिः-श्रामन्त्रणी आलापोऽनालाप इति, उल्लापः-काका वर्णनम् । “काका- भवेद् , आमन्त्रणाथै विधीयत इत्यर्थः । एवमेवार्थ सोवर्णनमुल्लाप" इति वचनात् स एव कुत्सितोऽनुल्लापः क्वचि- दाहरणमाह-'तत्थ पढमे' त्यादिगाथाश्चतस्रो गतार्था त्पुनरनुलाप इति पाठस्तत्रानुलापः, पीनःपुन्यभाषणम् , एव, नवरं प्रथमा विभक्निर्निर्देश. क्व ? यथत्याह- सो' "अनुलापो मुहुर्भाषे" ति वचनात् , संलापः-परस्परभा- त्ति स तथा 'इमा 'त्ति अयं ' अहं ' ति अहं वाशब्द षणम् ,“संलापो भाषण मिथ" इति वचनात् ,"मलापो-नि | उदाहरणान्तरसूचकः । उपदेशे द्वितीया, क ? यथेत्याहरर्थकवचनम्, “प्रलापोऽनर्थकं वच" इति वचनात्, स एव वि. भण कुरु बा, किं तदित्याह-इद-प्रत्यक्षं तद्वा- परोविधो विप्रलाप इति । एतेषां च वचनविकल्पानां मध्ये केचि क्षमिति । तृतीया करणे , क ? यथेत्याह-भणितं वा कृतं द्विकल्या विनेयार्था अपि स्युरिति ॥ स्था० ७ ठा० ३ उ० । वा , केनेत्याह-तेन वा मया घेति , अत्र यद्यापवयणविभत्ति-वचनविभक्ति-स्त्री० । उच्यते एकत्वद्वित्वब- करि तृतीया प्रतीयते , तथापि विवक्षाधीनत्वात् कारहुत्वलक्षणोऽर्थों यैस्तानि वचनानि, विभज्यते कर्तृत्वादिल- कप्रवृत्तेस्तेन मया वा कृत्वा भणितं कृतं वा. देवदत्तेनेति क्षणोऽथों यया सा विभक्तिर्वचनानां विभक्तिर्वचनविभक्तिः ।
गम्यत इति , एवं करणविवक्षाऽपि न दुष्यतीति लक्षयाप्रथमादिषु व्याकरणपरिभाषितेषु प्रत्ययेपु, स्था।
मः, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । 'हंदि नमो साहाए 'इअदुविधा वयणविभत्ती पएणता, तं जहा
त्यादि, हन्दीत्युपदशने, नमो देवेभ्यः स्वाहा अग्नये इत्या
दिषु सम्प्रदाने चतुर्थी भवतीत्येके । अन्ये तूपाध्यायाय गांद "णिद्देसे पढमा होइ, बिइया उबदेसणे ।
दातीत्यादिष्वेव सम्प्रदाने चतुर्थीमिच्छन्ति । अपनय गृहातइया करणम्मि कया, चउत्थी संपदावणे ॥१॥ | ण एतस्मादितो वत्येवमपादाने पञ्चमी । तस्यास्य गतपंचमी तु अवायाणे, छट्ठी सस्सामिवायण ।
स्य, कस्य?-भृत्यादेरिति गम्यते, इत्येवं स्वस्वामिसम्ब
न्धे षष्ठी । तद्वस्तु बदरादिकमस्मिन् कुण्डादौ तिष्ठतीति गसत्तमी सन्निहाणत्थे, अट्ठमी आमंतणे भवे ॥२॥
म्यते, इत्येवमाधारे सप्तमी भवति । तथा 'कालभाव अ'तत्थ पढमा विभत्ती, निद्देसे सो इमो अहं वत्ती। । त्ति कालभावयोश्चयं द्रष्टव्या, तत्र काले यथा-मधौ रमते, वितिया उण उवएसे, भण कुण व इमं व तं बत्ती ॥३॥
भाव तु चारित्रऽवतिष्ठते । आमन्त्रणे भवेदष्टमी, यथा-हे३यु
वन्निति, वृद्धवैयाकरणदर्शनेन चेयमष्टमी गम्यते । ऐदंयुतइया करणम्मि कया,णीयं च कयं च तेण व मए वा।।
गीनानां त्वसौ प्रथमैवेति मन्तव्यमिति । अनु० । हंदि णमो साहाए, हवइ चउत्थी पयाणम्मि ॥४॥
विशषं दर्शयतिश्रवणे गिएहसु तत्तो, इयो त्ति वा पंचमी अबादाणे ।।
वचनविभक्तिखरूपमाह-'अट्टविहा वयणविभत्ती' त्याछवी तस्स इमस्स व, गयस्स वा सामिसंबंधे ॥ ५॥ दि,उच्यते एकत्वद्वित्वबहुत्व लक्षणोऽथों यैस्तानि वचनानि,
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वरणविभत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
वयदुग्गह विभज्यते कर्तृत्वकर्मवादिलक्षणोऽथों यया सा विभक्तिः,व- श्चित मौनेनेवास्ते. न चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः, तथाऽप्यसौ श्रचनामिका विर्भातर्वचनविभक्तिः, 'मु-औ-जसि' त्या- | वाग्गुप्त एवेति गाथार्थ । दश०७ १०२ उ.. दि, “निहेसे सिलोगो" निर्देशनं निर्देशः-कर्मादिकारकश- वयणविभत्तिकुसल-वचनविभक्तिकुशल-पुं० । वाच्येतरवच निभिरनधिकस्य लिङ्गार्थमात्रस्य प्रतिपादनं तत्र प्रथमा भ
नप्रकाराभिशे. दश। वति, यथा-स वा अयं वाऽऽस्ते अहं वा मासेर, नथा-उप
वयणविभनीकुमल-स्स मंजमम्मी समुज्जुयमइस्स । दिश्यत इत्यपदेशनम्-उपदेशक्रियाया व्यायमुपलक्षणत्वादस्य:क्रियाया ययाप्यं तत् कम्मत्यर्थस्तत्र द्वितीया,यथा-भ
दुब्भासिएण हुन्ज हु, विराहणा तत्थ जइअव्वं ॥२८॥ ण इमं श्लोकम् , कुरु वा तम् , ददाति तम् , याति ग्रामम्र, वचनविभक्तिकुशलस्य वाच्येतरवचनप्रकाराभिशस्य न तथा-क्रियते यन तत्करण-क्रिया प्रति साधकतमं कग- केवलमित्थंभूतस्यापि तु संयमे समुद्यतमतेः-अहिंसायां मीति वा करणः-कर्ता " कृत्यल्युटा बहुलम्” (पा० ३- प्रवृत्तचिनस्येत्यर्थः , तस्याप्येवंभूतस्य कथंचिद् दुर्भाषितेन ३-११३) इति वचनादिति, नत्र करणे तृतीया कृता--वि- कृतेन भवेत् विराधना-परलोकपीडा, अतः तत्र-दुर्भाषित हिता, यथा--नीतं सस्यमनेन शकटन, कृतं कुण्डं मयेति नवाक्यपरिक्षाने यतितव्यं-प्रयत्नः कार्य इति गाथार्थः । ३, तथा- संपदावणे ' ति सत्कृत्य प्रदाप्यते यस्मै दश० ७ १०२ उ०। ('वइगुत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७५८ पृष्ठ उपलक्षणत्वात् संप्रदीयते वा यस्मै स सम्प्रदापनं सम्प्र- विशेषां गतः।) दानं वा तत्र चतुर्थी, यथा-भिक्षवे भिक्षां दापयति ददा- | वयणसंथव-वचनसंस्तव-पुं०। वचनमात्रहेतुके परिचये , ति वति, सम्प्रदापनस्योपलक्षणत्वादेव नमःस्वस्तिस्वा- नि० चू०२ उ०। हास्वधाऽवषडयुक्ताच्च चतुर्थी भवति, नमः शाखायै
वयणसंपया-वचनसंपद--स्त्री० । गणिसंपर्दोदे, प्रव० । वैरादिकायै, नमःप्रभृतियोगोऽपि कैश्चित्सम्प्रदानमभ्युप
वचनसंपच्चतु , तद्यथागम्यते इति चतुर्थी ४, 'पञ्चमी' ति श्लोकः, अपादीयते अपायतो-विश्लेषत-पा--मर्यादया दीयंत 'दो अवख
वाइमहुरत्तऽमीसिय-फुडवयणो संपया य वयणे ति।५४८ ण्डन' इति वचनात् खराड्यते--भिद्यते आदीयते वा
'वाइमहुरत्तऽमिस्सिय, फुडवयणो संपया य वयण' सि, गृह्यते यस्मात्तदपादानमवधिमात्रमित्यर्थः, तत्र पश्चमी भ
वादी मधुरबचनः, अमिश्रितवचनः , स्फुटवचनश्चेत्येषा पति, यथा-अपनय ततो गृहाधान्यमितो वा कुशूलाद् गृहा
वचने-वचनविषया संपद् , तत्र-वदनं वादः, सोऽतिगति ५, 'छट्ठी सस्सामिवायणे' त्ति स्वं च स्वामी च
शायी वा विद्यते यस्य स वादी प्रादेयवचन इत्यर्थः । स्वस्वामिनी तयोर्वचनं-प्रतिपादनं तत्र स्वस्वामिवचन
तथा-प्रकृष्टार्थप्रतिपादकमपरुषं सुस्वरतागम्भीरतादिगुणोस्वस्वामिसम्बन्धे इत्यर्थः, षष्ठी भवति, यथा--तस्यास्य
पतमत पर श्रोतृजनमनःप्रीणकं वचनं यस्य स मधुरबचनः, वा गतस्य वाऽयं भृत्यः । 'वायणे' त्ति इह प्राकृतत्वाद्
तथा-रागद्वेषादिभिरमिश्रितमकलुषं वचनं यस्य सोऽमिदीर्घत्वम्, ६, सन्निधीयते क्रिया अस्मिन्निति सन्निधानम
श्रितवचनः, स्फुटम्-सर्वजनसुवोधं वचनं यस्य स स्फुटआधारस्तदेवार्थः सन्निधानार्थस्तत्र सप्तमी, विषयांपलक्ष
वचनः । अन्यत्र तु प्रादयवचनता मधुरवचनता अमिश्रिणत्वाच्चास्य काले भावे क्रियाविशेषणे च । तत्र सन्निधान
तवचनता असंदिग्धवचनता चति पठ्यते , अर्थः प्राग्वद । तद्भक्तमिह पात्रे, तत्सप्तच्छदवनामह शरदि पुष्पति, पुष्प
प्रव०६४ द्वार । दश० । उत्त० । स्था० । व्य० । नक्रिया शरदा विशेषिता, तत्कुटुम्बकमिह गवि दुह्यमानायां
वयणाणुप्रोग-वचनानुयोग-पुं० । धर्मकथानुयोगादिरूपे गतम् ,इह गमनक्रिया गोदोहनभावेन विशेषितेति,अष्टम्या-| अनुयागभद, श्राचा० मन्त्रणी भवेदिति, सु-औ-जसि'ति.प्रथमाऽपीय विभकिरा-वयणाराहाण-वचनानुष्ठान-न। वचनस्मरणनियतसरप्रवृ. मन्त्रणलक्षणस्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् लिनार्थमात्रातिरि- त्तिकत्वे, ध० १ अधि०। ( अस्य स्वरूपम्-'अणुवाण' कस्य प्रतिपादकत्वेनाष्टम्युक्ता । यथा-हे ३ युवचिति श्लोक | शब्दे प्रथमभागे ३७७ पृष्ठे गतम् ।) यार्थः । उदाहरणगाथास्तु व्याख्यातानुसारेण मावनीयाः, | वयणाभिघाय-वचनाभिघात-पुं० । खरादिवचनप्रहारे, वसा 'तत्थ' गाहा 'तइया' गाहा; इह 'हंदी' त्युपदर्शने | अ०। 'पयाणम्मि' ति सम्प्रदाने, 'अवणे' गाहा'श्रवण' तिवयमिज-वचनीय-त्रि०! बालवचनैर्गो, आचा०१ ध्रु०६ अपनयेत्यर्थः इदं चानुयोगद्वारानुसारेण व्याख्यातम् । श्रादशंषु तु 'अमणे, इति दृश्यते, तत्र च ख्यामन्त्रणतया गम
अ०४ उ०। नीयम् , हे ३ अमनस्के! इत्यर्थः । स्था०८ ठा०३ उ०।।
वयणिरोह-वाइनिरोध-पुं० । अकुशलवाचोऽकरणे, मावा वयणविभत्तिअकुसल-वचनविभक्त्यकुशल-पुं०। वाच्येतर |
४१०। प्रकारानभिक्षे, दश ।
वयणिजविगप्प-वचनीयविकल्प-पुं० । अभिलप्यस्य प्रतिवयणविभत्तिअकुसलो, वयोगयं बहुविहं अयाणंतो।
| पावके अभिधानभेद, सम्म० १ काण्ड ।
वयदंड-वाग्दण्ड-पुं०। दुष्प्रयुक्तवाचि, स०३ सम० । जइ वि न भासइ किंची,न चेव वयगुत्तयं पत्तो ॥२६०॥
तय पत्ता ।।२६०॥ वयदुग्गह-व्रतदुर्ग्रह-पुं० । बतानामसम्यगङ्गीकारे, "विधानवचनविभक्त्यकुशलो-वाच्यतरप्रकारानभिशः वाग्गतं बहु-| तृप्तिसदृशम् , तद्यतो व्रतदुर्ग्रहः । उक्तः शास्त्रेषु शस्त्राऽग्निविधम्-उत्सर्गादिभेदभिन्नमजानानः यद्यपि न भाषते कि- व्यालदुर्ग्रहसन्निभः " ॥ द्वा० १२ द्वा० ।
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(८९२) वयसमिय अभिधानराजेन्द्रः।
वयसमिह वयसमिय-वयःसमित-त्रि० । वाचा समिते, अकुशलबाङ- वयदुप्पणिहाण-वाग्दुष्प्रणिधान-न०। कृतसामायिकस्य निनिवृत्ते, सूत्र०२ (०२०।
ठुरसावधवाक्प्रयोग, आव०६०। वयसुहया-बचःसुखता-स्त्री० । वाचि सुखं यस्याऽसौ वाक-वयधा
वयधर-व्रतधर-पुं० । भरतक्षेत्रजपचप्रभतीर्थकरसमकालिक सुखस्तस्य भावो वाकसुखता। सर्वेषां भोत्रमनःप्रसादकारि- पेरवतषष्ठजिने,प्रव०७द्वार। व्रतधारिशब्दोऽप्यत्र यथा-"पउगयां वाचि, प्रज्ञा०२३ पद।
मप्पभो भरहे वयधारिजिणो य एरवयवासे, " ति । स । वयस्स-वयस्य-पुं० । समानवयसि गाढतरस्नेहविषये, जी. वयपडिमा-व्रतप्रतिमा-स्त्री० । “दसणपडिमाजुत्तो, यतनो ३ प्रति०४अधि०।"वयस्याश्चिन्तयामासुः, स्नेहः सत्यो- गुब्वऍ निरइयारे । अणुकंपाइगुणजुतो, जीवो इह होई वउनयोर्न वा," प्रा० क०१०।
यपडिमा ॥१॥" इत्युक्तलक्षणे उपासकप्रतिमाभेदे, उपा० वया-वचा-स्त्री०। उग्रायाम् , ल०प्र०।
१०।
वयपडिवत्ति-व्रतप्रतिपत्ति-स्त्री० । अणुव्रतादीनामङ्गीकरणे, वयाइ-वयमादिक-पुं० । कालकृतावस्थाप्रभृतिषु वयोवैलक्षण्यरूपसौभाग्यैश्वर्यादिषु, पञ्चा० विव० ।
पञ्चा०१ विव०। वयी-वाचा-स्त्री० । वचनं वाक, वाग्योगे । स्था० १ ठा। वयपत्त-वयःप्राप्र-वि० । यौवनं प्राप्ते, पिं०। एगा वई । (सू० २०)
वयपरिणाम-वयःपरिणाम-पुं० । वृद्धत्वे , “ वयपरि'एगावा' ति वचनम्-वाक योगः-औदारिकवैक्रियाहा- |
णामो य जरा।" पाइ ना० १०७ गाथा । रकशरीरब्यापाराहतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो, वयपुस्म-वाक्पुण्य-न०। वाचा तीर्थकरादिप्रशंसनलभ्ये पुवाग्योग इति भावः । इयं च सत्यादिभेदादनकाऽप्येकैव, | एये, स्था० ६ ठा०३ उ०। सर्ववाचां वचनसामान्येऽन्तर्भावादिति । स्था० १ ठा०। वयप्पहाण-व्रतप्रधान-पुं० । वतं-यतित्वं प्रधानमुत्तम वर-वर-त्रि० । प्रधाने, उत्त०१०मा० । स्था० । कल्प०1| शाक्यादियतित्वापेक्षया निर्ग्रन्थयतित्वात् , येषां व्रतेन वा सूत्र० भनुप्रा०म० जी०। प्रहा । उत्तमे, प्र-| प्रधाना येते तथा । निर्ग्रन्थश्रमणेषु, श्री। मा०१ पद । श्रेष्ठे,सूत्र०२ श्रु०२०। सू०प्र०ारा०ा आव०। वयभंग-व्रतमा-पुं०। नियमभने , पश्चा०५ विव० । श्राशा० । नं०। "बरकुंडलज्जोइयागण"-वराभ्यां कुराडला
व०। “वरमग्गिम्मि पवेसो, बरं विसुद्धेण कम्मणा मरणं । भ्यामुद्योतितं भाखरीकृतमाननं येषां ते वरकुण्डलोद्योति
मा गहियव्ययभंगो, मा जी खलु असीलस्स ॥१॥" कताननाः । जी०४ प्रति० २ उ० । वरिष्ठे, श्रा० चू०२०।।
। वरिष्ठ, श्रा०चू०२ अ०।ल्प०१अधि०१क्षण। भव्ये, "वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।" उत्त०१
वयमंत-व्रतवत-त्रि०। रात्रिभोजनविरमणषष्ठपश्चममहाव्रतप्र०ा परिणतरि, शा०२ श्रु०१ वर्ग १ अ० जारे,जामातरि व। पुं० । कुछमे, मनागभीष्टे, न० । भाव अप्--अच् वा ।
धारिणि, आचा०२ श्रु०१०१०१०। इच्छायाम् , याचने, आवरणे, वेष्टने च । वाच ।
वयमाण-वदत्-त्रि०ावाचं युवति, सत्र०१ श्रु०२ १०२ उ०॥ बर-बराक-पुं०। दीने, "दीणो बरो।" पाइ० ना०२६२ ब्रजत-त्रि० । गच्छति, “आपरिमाणमवंतं वयमाणे" - गाथा।
वर्णमश्लाघामवहां वा बदन-मजन् कुर्वन्नित्यर्थः। स्था. ६ बराम-देशी-धाम्यविशेष, दे० ना०७ वर्ग ४६ गाथा । ठा०३ उ०। पराच-देशी-अभिनववरे, दे० ना०७ वर्ग ४४ गाथा। | वयर-बदर-पुं०।"बोर" रति प्रसिद्ध वृक्षभेदे, प्राचा० १ परउफ-पेशी-मते, देना० ७ वर्ग ४७ गाथा ।
श्रु.१०५ उ.मा.म। बरंक-परा-पुं० । प्रधानलक्षणे, मौ०।
वयरी-वैरी-स्त्री० । कोटिककाकन्दिकाभ्यां निर्गतस्य कोबरकर-परापर-पुं०। कर्मधारयसमासः। प्रथममुभिधमा
टिकगणस्थ हतीपशखायाम् , कल्प०२ अधि०८ क्षण । मेरे जी०३ प्रति०४ अधिः। बहुव्रीहिः समासः । त्रिका
वयल-देशी-पुंजकलकले,"रोलो रावो षयलो हलबोलो कबरारोपेते, रा०।
लयलो चमालो य" पाहमा० ३४ गाथा । विकसमे, दे० बरंग-पराज-१०। गएडे, जी० ३ प्रति०४ अधि०। । ना०७ वर्ग ८४ गाथा। ' बरंड-देशी-प्राकारे,दे०मा०७वर्ग गाथा थ ली-देशी-खीनिद्रायाम, करनारस्तायां या "पोत्रवरंतिया-वरान्तिका-स्त्री०। भेष्ठदिशि,यस्यां दिशि तीर्थकर-1
इमा व वयली य।" पाइ ना० १४८ गाथा। केवलिमनःपर्यायानावधिशानिचतुर्दशपूर्वधरादयो यावत
विषय-बाग्विनय-पुं० । वाचो विक्वार्वेषु कुशलप्रवृयुगप्रधाना विहरन्ति । भा०म०१०।
सौ. स्था०७ठा०३ उ०। वरकडग-वरकटक-पुं०ावरकरणे, करप०१ अधि०११ला वयसंकिलेस-वचःसंक्लेश-पुं० । संक्लेशभेदे, स्था०५ ठा० "वरकडगरियर्थभियभुय" वरैः-प्रधानैः कटकैः-वलयः तु.
२उ०। रकै बाहाभरणः स्तम्भित इव भुजो यस्य स तथा ।क-षयसमिइ-वचःसमिति-स्त्री. चोऽकुशलत्यनिरोधे, स्था० रूप०१ अधि० ३ क्षण।
१० ठा०३ उ०।
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(६३) बरकणग अभिधानराजेन्द्रः।
वरदत्त वरकरणग-बरकनक-न० । जात्यसुवणे, जी०३ प्रति० ४ श्र-वरगवेसिय-वरगवेषित-त्रि० । ग्रामनगरादिषु प्रमाणीकृतेन पि० । बरं-प्रधानं सुवर्णम् वरसुवर्णम् । पीतसुवर्णे, जं०१ | ग्राममहत्तरादिना गवेषिते , नि० चू०। पक्षकारा।
जे भिक्ख वरगवेसियपडिग्गहयं धरेइ धरंतं वा साइजइ । वरकणगणिघस-वरकनकनिघर्ष-पुं० । वरकनकस्य जात्य- .
त्य नि० चू० २ उ०। सुवर्णस्य यः कषपट्टको निधर्षः स वरकनकनिघर्षः । पीतसु. वर्णस्य कषपट्टके रेखायाम् , जी० ३ प्रति०४ अधिक।
| ('पत्त' शब्दे पञ्चमभागे ४०३ पृष्ठे ब्याख्यातम् । ) वरकणगथूभियाग-वरकनकस्तूपिकाक-न० । वरकनका वर- | वरचंदणवंदिय-वरचन्दवन्दित-त्रि० । वरचन्दनं वन्दिकनकमयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तत् वरकनकस्तृपिकाक-तललाटानवाशत यनात । चन्दनालप्तमस्तक, भ०६ म् । स्वर्णमयशिखरे, जी० ३ प्रति०४ अधि० । रा०।
श०३३ उ०। वरकमल-वरकमल-पुं० । प्रधानहरिणे, श्रेष्ठकमले च । जं० वरचंपय-वरचम्पक-पुं० । राजचम्पके, जं.३ वक्षः। २चक्ष।
वरचम्म वरचर्मन्-न० । प्रधानचर्मविशेषे, प्रश्न० ३ श्रावरकमलगभ-वरकमलगर्भ-पुं० । श्रेष्ठकमलमध्यभागे,वरक
श्रद्वार। मलस्य प्रधानहरिणस्य गर्भ इव गर्भो जठरसंभूतत्वसाध
वरचार-वरचार-पुं० । पाण्डवसमकालिके मथुराराजे, “छ ात् , वरकमलगर्भः । कस्तूरिकायाम् , शा० १ श्रु०८ अ०॥
दूयं महुरानयरे तरथ णं तुमं यरचारं करमल जाव समोरवरकमलगभगोरी-वरकमलगर्भगौरी-स्त्री वरकमलगर्भ:
यह।" झा० १ श्रु०७ १०। कस्तूरिका तद्वत् गौरी-अवदाता वरकमलगर्भगौरी श्यामवकत्वात्कस्तूरिकायाः। श्यामच्छायायाम् , ज्ञा०१ श्रृ०८ अ०
वरचीणपट्ट-चरचीनपट्ट-न। दुकूलवृक्षवल्कवृक्षस्यैव यावरकमलगम्भवएणा-वरकमलगर्भवर्णा-स्त्री० । श्यामवर्णा
न्यभ्यन्तरहीरतया निष्पाद्यन्ते सूक्ष्मतराणि भवन्ति तानि ची.
नदेशोत्पन्नानि वा चीनान्युच्यन्ते पट्टसूत्रमयानि पट्टानि । याम् , शा०१ श्रु०८१०।।
वस्त्रभेदेषु, प्रश्न०४ आश्रद्वार। वरकमलपइट्ठाण-वरकमलप्रतिष्ठान-त्रिका वरं-प्रधानं यत्कमलं तत्प्रतिष्ठानमाधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः, उत्त
वरजोह-वरयोध-पु०। प्रधानयोधे, “निच्छियवरजोहजुमकमलाहितेषु, रा०।
द्धसद्धा य" प्रश्न०४ श्राश्रद्वार। वरकम्म-वरकर्मन-न । विवाहसमये वरपक्षीये कर्मणि, भ- | वरट्ट-वरट्ट-पुं० । धान्यविशेष, प्रव० १५४ द्वार। प्रज्ञा । गवत ऋषभस्य वरकर्म देवेन्द्रोऽकार्षीत्, द्वयोर्वरमहिलकयो- | वरडी-देशी-तैलाट्याम् , देशभ्रमरे, दे० ना० ७ वर्ग ८४ नन्दासुमङ्गलयोर्वधूकर्मदेव्योऽकार्युः । श्रा०म०१०।
गाथा। वरकलस-वरकलश-पुं० । माङ्गल्ये प्रवरघटे, श्रा० चू०१०।
वरण-चरण-न० । ग्रहणे, शा०१ श्रु० ८ अ०। घरकहा-वरकथा-स्त्री० । परिणेतृकथायाम् , प्रश्न०४ सव० द्वार।
| वरणा-वरणा-स्त्री० । वाणारस्या नगाः समीपे नद्याम् , वरकुसुमदाम-वरकुसुमदामन्-न० । प्रधानपुष्पमालावलौ , ती० ३७ कल्प । वैराटनगरप्रतिबद्ध जनपदे , वत्सपश्चा०४ विव० । “वरकुसुमदामुज्जलं" घराश्च ताः कुसु.
देशराजधान्यां च । स्त्री०। सूत्र०१ श्रु०५०१ उ०। मदाममालाच वरकुसुममालास्ताभिरुज्ज्वलं देदीप्यमान- बरतरुणीसंपउत्त-वरतरुणीसंप्रयुक्त-त्रि० । सुरमणीसंप्रयुक्त, त्वाद् वरकुसुमदाममालोज्ज्वलम् । जी०३ प्रति०४ अधि०।। विपा०२ श्रु०१०। वरकोउय--वरकौतुक-न० । श्रेष्ठकुतूहले , “वरकोउयमंग
वरतालियंट-वरतालवृन्त-न० । व्यजनविशेष, प्रश्न०४ालोवयारकयसंतिकम्म" बराणि यानि कौतुकानि भूति
श्र० द्वार। रक्षादीनि मालानि च सिद्धार्थकादीनि तद्प उपचार:
वरतुरग-वरतुरग-पुं० । जात्याश्वे,जं० २ वक्षः। रा०। औ०। पूजा तेन कृतं शान्तिकर्म-दुरितोपशमक्रिया यस्य सः । भ० ११ श०११७०।
वरत्ता-वरत्रा-स्त्री० । रज्ज्वाम् , “रज्जू वरत्ता य" पाह. ना. वरग-वरक-पुं०। बरहे, पाम्यविशेष, जं.२ वक्षः। भ०।। २१० गाथा ।
मण्यादिमहामूल्ये, भाचा.१७०७ अ०७ उ०। | वरदरिसि(ए)-वरदर्शिन्-पुं० । चरमव्यभिचारित्वेन वस्तुबरगंध-परगन्ध-पुं०। प्रधानवासे, स०। औ०। प्रशा० । स्वरूपं द्राएं शीलं येषां ते घरदर्शिनः । सम्यग्ज्ञानदर्शनववरगंधपुप्फदाख-वरगन्धपुष्पदान-नासुगन्धिकुसुमानांप्र. त्सु, उत्त०२८ अ० । क्षायिकदर्शिनि, स० ३० सम० । धानवासानो पुष्पाणां वितरणे, पश्चा०२विव०।
वरदत्त(दिन)-वरदत्त-पुं० । अरिष्टनेमेः प्रथमगणधरे,प्रव०८ वरगंधिय-परगन्धिक-नि। बरो गन्धो वरगन्धः सोऽस्या
द्वार । प्रा० म० । कल्प० । स० । मि० । आ० चू० । स्तीति परगन्धिकम् । ततोऽनेकस्वरादितीकप्रत्ययः। सुग- [अरिटणेमि' शब्दे प्रथमभागे७६५पृष्ठे कथोक्ता] साकेतमिम्धयुक्त, सू०प्र०२० पाहुाचं० प्र०।
अनन्दिनः पुत्रे, विपा।
२२४
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वररुह
(८४)
अभिधानराजेन्द्रः। तद्वक्तव्यता चेयम्
बरपोय-परपोत-पुं० । वोहित्थे, प्रश्न० ४ आश्र० द्वार। जइ णं दसमस्स उक्खेवी एवं खलु जंबू ! तेणं |
वरप्पसबा-वरप्रसना-स्त्री० । सुराविशेष, जी. ३ प्रतिक कालेणं तेणं समएणं साएयं णामे पयरे होत्था, उत्तर-| ४ अधिक। कुरुउजाणे पासमियो जक्खो मित्तणंदी राया, सिरिकं-वफलग-वरफलक-न०
| वरफलग-वरफलक-न० । प्रधानफलके,प्रश्न०३आश्र० द्वार। ता देवी वरदने कुमारे वीरसेणपामोक्खा णं पंच देवी
वरफलिह-वरस्फटिक-न०। प्रवलार्गलायाम् , प्रश्न०३आश्र० सया तित्थगरागमणं सावगधम्मं पुन्वभवो पुच्छा, मणु
द्वार। स्साउए निबद्धे सयदुबारे णयरे बिमलवाहणे राया धम्म
| वरवोहि-वरबोधि-स्त्रीशविशिष्टसम्यग्दर्शनलाभे,हा०३अष्ट। रुई णाम अणगारं एजमाणं पासति पासित्ता पडिलाभिए
वरबोहिलाभ-वरबोधिलाभ-पुं० । वरः-प्रधानोऽप्रतिपातिसमाणे मणुस्साउए निबद्धे इहं उप्पो सेसं जहा
त्वाद् बोधिलाभः-सम्यग्दर्शनावाप्तिर्यस्य स वरबोधिलाभसुबाहुस्स कुमारस्स चिंता. जाव पव्वजा, कप्तरीयो० कः । अप्रतिपातिसम्यग्दर्शिनि , “ वरबोहिलाभो सो,
जाव सव्वट्ठसिद्धे, तो महाविदेहे. जाव सिज्झिहि-| सव्वुत्तमपुप्फसंजुओ भगवं" पञ्चा० ७ विव० । ति बुझिहिति० सव्वदुक्खाण अंतं करेति एवं खलु वरबोहिलाभपरूवणा-वरबोधिलाभप्ररूपणा-स्त्री०। वरस्य जंबू ! समणेणं. जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दसमस्स तीर्थकरलक्षणफलकारणतया शेषबोधिलाभेभ्योऽतिशायिनो अज्झयणस्स अयमद्वे पप्मत्ते, सेवं भंते ! सेवं भंते। त्ति |
बोधिलाभस्य प्ररूपणा-प्रज्ञापना, अथवा-वरस्य-द्रव्यलाभ
व्यतिरेकिणः पारमार्थिकस्य बोधिलाभस्य प्ररूपणाातीर्थकर(सू० ३४)। विपा० २ श्रु० १ अ०।
त्वस्य फलतो हेतुतश्च प्ररूपणायाम् , ध। हेतुतः स्वरूपतः वरदाम-वरदामन्-न० । स्वनामख्याते जलतीर्थे, तच्च भारते
फलतश्चेति तत्र हेतुतस्तावदाह-तथा भव्यत्वादितोऽसाविवर्षे दक्षिणस्यामैरवते तत्रत्यापेक्षया दक्षिणस्यां विजयक्षेत्रषु । ति । भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वमनादिपरिणामिभाव मध्यमभागेषु इत्येवं चतुर्विंशविजयक्षेत्रयुगलानि । जं०६ श्रात्मस्वतत्त्वमेव । तथा भव्यत्वं तु भव्यत्वस्य फलदानाभिमु. वक्षः । श्रा० म०।
ख्यकारि वसन्तादिवद्वनस्पतिविशेषस्य कालः कालसद्भावेवरवणु-वरधनुष-पुं० । ब्रह्मदत्तराजमन्त्रिणो धनुर्नाम्नः सुते, ऽपि न्यूनाधिकव्यपोहेन नियतकार्यकारिणी नियतिः,अपची. येन ब्रह्मदत्तमातृव्यभिचारो ब्रह्मदत्तं प्रति कथितः । उत्त यमानसंक्लेशनानाशुभाशयसंवेदनहेतुः कुशलानुबन्धिक१३ अ० प्रा० क०। श्रा० म० । प्रा०चू० । व्य०('परिणा
र्मसमुचितपुण्यसंभारो महाकल्याणाशयः प्रधानपरिक्षामिया' शब्दे पश्चमभागे ६१८ पृष्ठे अस्य वृत्तमुक्तम् ।)
नवान् प्ररूप्यमाणार्थपरिज्ञानकुशलः पुरुषः ततस्तथा भव्यवरधम्मतित्थमग्ग-वरधर्मतीर्थमार्ग-पुंगधर्मस्य जिनोतरूप
त्वमादौ येषां ते तथा, तेभ्यः असौ घरबोधिलाभः प्रादुरस्य तीर्थ-पवित्रकरणस्थानकं नस्य मार्गो-शानदर्शनचा
स्ति, स्वरूपं च जीवादिपदार्थश्रद्धानमस्य । ध०१ अधिः । रित्ररूपः, वरश्वासौ धर्मतीर्थमार्गश्चति तथा । मोक्षमार्गे,ता | वरभवण-वरभवन–न० । सामान्यतो विशिष्ट गृहे, जी० वरधम्मसिरी-वरधर्मश्री-पुं० । अतीतायां चतुर्विशतिकाया- | ३ प्रति०४ अधिश औ०। “वरभवणविसिटसंठाए मन्तिमतीर्थकरे, महा।
वरभवनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः । वरभवनं सामान्यतो तेणं कालेणं जा अतीता अमा चउब्बीसिगा तीए जा
विशिष्टं गृहं तस्येव यत् विशिष्टं संस्थानं तेन संस्थिताः ।
जी०३ प्रति०४ अधिक रिसो अह य (श्रीवीरः) तारिसो चेव सत्तरयणीपमाणेणं जगच्छेरयभूम्रो देविंदवंदियए वरधम्मसिरी नाम चरिमति
वरमउड-वरमुकुट-न० । प्रवरशेखरे, प्रश्न०४ाश्रद्वार । त्थंकरो अहेसि । महा।
वरमनधर-वरमान्यधर-त्रि० । वराभरणधारिणि , सू० प्र.
२० पाहु०॥ वरधूव-वरधूप-पुं० । प्रधानधूणे, पश्चा० ४ विव० ।
वरमहिस-वरमहिष-पुं०। प्रधाने सौरभेये, जी०३ प्रति०४ वरपट्टण-वरपत्तन-न० । प्रधानपत्तने, औ० ! वरवसोत्पत्ति
अधिः । औ० । जं०। स्थाने, शा०१ ध्रु०१०। बरपायव-वरपादप-पुं० । प्रधानदुमे, प्रश्न०५ संवा द्वार। | वरमुनम-चरमोत्तम-त्रि० । घरा श्रेष्ठा मा-लक्ष्मीस्तया उत्तबरपुंडक-बरपोएट्रक-पुं०। विशिष्टे पुण्डदेशोद्भधे , जी०३
मम् । सुश्रीके, कल्प०२ अधि०८ क्षण । प्रति०४ अधिक।
वरमुरय-वरमुरज-पुं० । महामर्दले, प्रश्न०५ संघ द्वार । बरपुरिस-वरपुरुष-पुं० । वासुदेवे, जी० ३ प्रति०४ अधिः ।
वररुइ-वररुचि-पुं० । नवमनन्दसमकालिके काव्यकरीरि, जं०। रा०प० म०। प्रशा० ।
प्रा. क.४०। ('थूलभद्द' शब्दे चतुर्थभागे २४१६ पृष्ठे वरपुरिसवसण-वरपुरुषवसन-न० । परपुरुषो वासुदेवस्तस्य कथोक्ला।) वररुचिकृतं प्राकृतव्याकरणमपि अस्ति, तथा वसनम् । वासुदेववस्त्रे , तञ्च किल पीतमेव भवतीति, पी- चाह स्वप्राकृतलक्षणे-'इजेराः पादपूरणे ॥८।२।२१७ ॥ इति तोपमायां वर्यते । प्रा. म. १ अः।जी। रा
लेखात् । मा० म०१ अ० ।
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वरला
अभिधानराजेन्द्रः। वरला-वरला-स्त्री० । हंस्याम् , “वरलाओ हंसीओ।" पा- धि० ८ क्षण । ग० । (वर्णवादे गुरुप्रत्यनीकवाराहमिहिरइ० ना० १२५ गाथा।
सम्बन्धो भद्दबाहु' शब्दे पश्चमभागे १३६६ पृष्ठे गतः।) वरवइरविग्गहिय-वरवज्रविग्रहिक-पुं० । वरवज्रस्येव ग्रह | वराहरुहिर-वराहरुधिर-न । वराहः शूकरस्तस्य रुधिरम्प्राकृतियस्य स स्वार्थिकप्रत्यये वरवजविग्रहिकः । मध्य- । शूकरशोणितम् , तद्धि अतिशोणितं भवति । अतिलोहिते तामे, भ०२ श०८ उ०।
वराहरक्ने, रा०। वरवम-वरवर्ण-पुं०। प्रधानचन्दने, औ० ।
वराही-वराही-स्त्री परिव्राजकसम्बन्धिन्यां वराहविकुर्वणावरवराह-वरवराह-पुं० । श्रेष्ठशूकरे, तं।
त्मिकायां विद्यायाम् , आ. क. १ ० । प्रा० म० । वरवरिया-वरवरिका-स्त्री० । समयपरिभाषया, वरं याचध्वं
विशे० । कल्प। वरं याचध्वमित्येवं घोषणायाम् , श्रा०म०१०। प्राय।
| वरिदृ-वरिष्ठ-न० । प्रधाने, औ०। प्राचा। ('महादाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १६१ पृष्ठे स्वरूपमस्याः
| वरिम्ह-वर्मन-न० । काये, द्वा० २६ द्वा० । प्रतिपादितम् ।)
| वरिय-वर्य-त्रि० । " स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात्" वरवारण-वरवारण- पुं०। प्रधानगजेन्द्रे तंगोलाप्रश्नाजी। ॥८।२।१०७ ॥ इति संयुक्तस्य यात्पूर्व कारः । प्रा० । " वरवारणमत्ततुल्लविकमविलासियगई" अस्य व्याख्या- | प्रधाने, सूत्र०२ श्रु०२ १०३ उ०। अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वात्। वरिस-वृष-धा० वर्षणे, "वृषादीनामरिः "॥८॥४।२३५॥ मत्तो-मदोन्मत्तो यो वरः-प्रधानो भद्रजातिको वारणो हस्ती
| 'वृष' इत्येवं प्रकाराणां धातूनामृवर्णस्यारि इत्यादेशो भवतस्य तुल्यः सदृशो विक्रमः-पराक्रमो विलासिता-विलासः
ति । वरिसह । वर्षति । प्रा० ४ पाद । संजातोऽस्या विलासिता तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः । वि.
वर्ष-न० । “श-प-तप्त-वजे वा ॥" ८ ।२।१०५॥ इति लासवती गतिर्गमनं येषां ते वरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः । जी०३ प्रति०२ उ०।।
संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । वरिसं । प्रा० । "वत्स सं. वरवारुणी-वरवारुणी-स्त्री० । वरा चासो वारुणी वरवा- वत्सर संवदित्यादि पर्यायाः" है। वत्सरे, उत्त०७०। रुणी । जी० ३ प्रति० ४ अधिः । उत्तमवारुणीनामके मदि-|
परिसकएह-वर्षकृष्ण-पुं० । काश्यपगोत्रावान्तरगोत्रप्रवर्तके राभेदे, जी०३ प्रति०४ अधि०। प्रश्न ।
ऋषिभेदे, तद्गोत्रपुरुषेषु च । स्था० ८ ठा० ३ उ०। वरसमाहि-वरसमाधि-पुं० । परमस्वास्थ्यरूपे भावसमाधौ, बरिसगंथि-वर्षग्रन्थि-स्त्री० । जन्मदिनोत्सवे, यत्र वर्षे वर्ष ध०२ अधिक। ल०।
प्रतिसंख्याशापनार्थ ग्रन्थिबन्धः क्रियते । शा० १ १०८० वरसासण-वरशासन-न०। अनुत्तरे शासने,क० प्र०१० प्रक०। वरिसधर-वर्षधर-पुं० । वर्द्धितकीकरणेन नपुंसकीकृते अन्तःवरसिटू-वरसिष्ट-न० । शकलोकपालस्य वरशिष्टस्य विमाने, पुरमहलके, भ०६ श० ३३ उ० । क० प्र० । औः । भ०३ श. ७ उ०। ( वक्तव्यता'लोगपाल' शब्देऽस्मिन्नेव | वरिसा-वर्षा-स्त्री० । "श-र्ष-तप्त-वजे वा"॥८। २।१०५ ॥ भागे गता।)
इतीकारः। प्रा० । श्रावणभाद्रपदमासयोः,स्था०६ ठा०३ उ० । वरसीध-वरसीध-न० । वर च तत्सीधु वरसाधु, जी० ३ वरिसारत्त--वर्षारात्र-पुं० भाद्रपदाश्वयुग्मासद्धयरूपे तमेदे,
प्रति०४अधिक मदिराविशषे, जी०३ प्रति०४ अधिक। झा०१०१०। स्था०। सू. प्रचं० प्र० । श्रा० म० वरहाड-निरस-धा० । बहिदंशसंयोगानुकूले व्यापार, " नि- रि-वर्ट-पं०।"ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यादिष्वित्" स्सरे-हर-नील-धाड-वरहाडाः "॥ ८ । ४ । ७६ ॥ इति
२।१०४॥ इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । मयूरकनिस्सरतेवरहाडादेशः। वरहाडइ । निस्सरति। प्रा. ४पाद।।
| लागे, प्रा०२पाद। वरहिण-वर्हिा -पुं० । मयूरे, जी० १ प्रति० । नि० चू० । ।
वरुंट-वरुएट-पुं० । विच्छिके, शिल्पविशेषोपजीवके, प्रज्ञा रा० । प्रश्न। श्राचा०। प्रज्ञा०।
१६ पद । अनु० । स्था। वराग-वराक-पुं। तपस्विनि, प्रश्न०१ श्राथ. द्वार । तं० ।।
वरुण-वरुण-पुं०। स्वनामख्याते नागनप्तके, भ०० उ० दुःखमोक्षार्थमभ्युद्यते,मत्र.१ २०११०१ उ० । अपुष्टधर्मिणि,
( ' रहमुसल' शब्द ५०० पृष्ठे वक्तव्यता।) शकस्य पशिदशा०६ अ०। अशक्ने, यः सर्वथाऽशक्तः प१प्रायः स वराक
मदिग्लोकपाले. (वक्तव्यता ' लोगपाल 'शब्देऽस्मिन्चेव भा. उच्यते, वृ० १ उ०२ प्रक। श्रा० म०।
गे७२७ पृष्ठे गता। )(वरुणस्य शताञ्जलं विमानं वरुखकाविका वराडय-वराटक-न । दक्षिणापथीये जनपदविशेष, दर्श०२॥
वरुणदेवकायिका नागकुमाग नागकुमार्य उदधिकुमारा उद तत्व । कपर्दके, । उत्त० ३६ अ० जी०। प्रज्ञा० । आव०।
धिकुमार्यः स्तनितकुमाराः स्तनितकुमार्यश्च वशे निन्नीति अनु । श्रा०म०। पिंक
'लोगपाल' शब्दे ७९७ पृष्ठे उक्तम् ।) शभिषजो नवमगह-वगह-पुं० । शूकर, श्री. जं०। रा०। प्रव० जी०। प्रस्य देवयोः, स्था।
प्रज्ञा । "कोलो किडी वराहो" । पाइ० ना० १२७ गाथा। दो वरुणा । स्था० २ ठा०३ उ० । वराहमिहिर-वराहमिहिर-पुं० । भद्रबाहुस्वामिभ्रातरि, वा- . अनुचिमरस्य पश्चिमदिक्पालो वरुणः । स्वा०४ा. राह्याः सहिताया: कार के स्वनापल्याते द्विजे, कल्प२-१उ । बलेरुत्तरदिक्पालो वरुपः, ईशानस्य पश्चिमदिकपा
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वरुण
सच
एवं यावदच्युतस्य। स्था० ४ ठा० १३० । दक्षिणयोः कृष्णराज्योमध्ये शुभंकरे विमाने, लोकान्तिकदेवे व स्था० ८ डा० ३ ० । ० । श्रাमा श्रीमुनिसुवनस्य शासनयज्ञे स स चतुर्मुखस्त्रिनेत्रः असितवर्णो वृषभवाहनो जटामुकुटभूषितोअष्टभुजो बीजपूरकगदावाणशक्तियुक्तदक्षिण करकमलचतुष्को नकुलपद्मधनुः परयुयुजबामपाणिचतुष्टय ० २६ द्वार | भोगपुरवास्तव्ये स्वनामख्याते भावके, ध० २० । तद्वर्णनं चैवम्
( ८६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । वरुणप्पभ आगमविधिविपरीते, तत्वाभ्यासेऽपि रज्येत १ ॥ २१ ॥ किं वत्स! सरसपिसिनी विसविरोत्पन्नसहित्यः कादम्बो हि कदम्बे, लिम्त्रं वाऽऽलम्बते कापि ? ॥ २२ ॥ जलमुविमुक्रमुक्ताफलनिर्मल सलिलविन्दुपानयः । कस्मलनडुलनीरं, वप्पीहो पीटते किं नु ॥ २३ ॥ बहुनिष्कृत्रिमपत्रिम-फलमरसारं विलोक्य सहकारम् । चेतोऽपि दधीत कदापि किं शुक्रः किंशुकसतृष्णम् ॥२४॥
तपसः कर्तुः समतां सापि जैनमुनेः । कोsन्यत्र मुनौ सुमनाः, स्वमनः कुर्वीत वीततमाः १ ॥ २५ ॥ अथ विहितसन्निधानो, पगजेन्द्रे सुलस इत्युचे । किं तात ! पातकादपि न विभेषि महात्मनो निन्दन् ? ॥२६॥ मासविधाता, निर्दोषसमतस्यविज्ञाता ।
"वरमलयजतरव इव, प्रासादा यत्र भोगिजनकलिताः । सनतं संतापहरा, भोगपुरं नाम त्रिदशपुरम् ॥ १ ॥ वरुणस्तत्र महेभ्यः, सर्वेभ्यः पुरजनेभ्य आढ्यतरः । गमसंगमसुभगागम-निगदितविधिविशदपदपथिकः ॥ २ ॥ तस्य च नितान्तकान्ता, श्रीकान्ता संहिता भवत्कान्ता ॥ तनवः सुसुखस-द्विनवादिगुणाम्भसः कलशः ||३|| अथ नगरे भवचक्रे, चक्रेश्वरशक्रचक्रघलदलनः । निवसति वसतिदुस्तर तरतमयां मोहभूभर्ता ॥ ५ ॥ सहसा सोऽन्येद्युरभू-चिन्ताचयचुम्बितः समासीनः । अथरागकेशरी स्मा-ह विस्मितस्तात ! ननु किमिदम् ॥५॥ यत्त्वयि कुपिते शते व विद्याचरी त्रिलोकीयम् । चिन्तासन्तानाव-गतपरिवर्तिनी भवति ॥ ६ ॥ कृतनिखिलश बलभर-शातस्तातस्तु वदति यथिन्ताम् । तत् किमपि महश्चित्रं, मोहोऽथ जगाद हे ३ वत्स ! ॥ ७ ॥ चारित्रधर्मनामा, वामात्मा ननु सदागमो ऽप्यस्ति । उद्दाम सदानमदुष्ट-दुष्टसाहाय्यदुर्लखितः ॥८॥ रागः प्राह चिरूपक-मसाधुना किमधुनाऽमुना च । मोहः स्माइन सम्प्रति, यत्स! कृतं किन्तु कर्त्ताऽसौ ॥६॥ भोगपुरेऽस्ति सदागम-वचने करुचिः शुचिर्वरुभ्यः । तस्य तनूजः सुलसः, प्रज्ञाविज्ञानकुलभवनम् ॥ २० ॥ सं यदि सागमोऽयं व्युद्धादयिता निजे मते दुष्टः । निश्चितमस्माकम्प सिरकन्दयिता स एव तदा ॥ ११ ॥ रागोऽभ्धादहं लघु, कुटष्टिरागेण निजकरुपेण । तमधिष्ठाय विधास्ये, वशंवदं तातपादानाम् ॥ १२ ॥ मोदो जगाद तु, साधू साधुवच्च तत्र भवतु । कुशलं पथ्यनुजोऽयं, द्वेषगजेन्द्रः सहायस्ते ॥ १३ ॥ पित्रा तावित्युक्का-पसुलर्स जग्मतुस्तदा त नगरे कश्चिच्चरकः, सुदुस्तपं तप्यते हि तपः ॥ १४ ॥ तं नतु भूरि-मन्तं यीय पुरजनं सर्वम् । सुलसः कौतुकितमना त्या प्रतिपपातोचैः ॥ १५ ॥ लब्धावखरेणाधो कुरा सुधिन । तममन्यत तस्यधिया गुरुमिव देवमिव जनकमिव ॥ १६ ॥ प्रतिदिवसमसमभक्ति-स्तं प्रणमति नीति पर्युपास्ते व कृतकृत्यं मन्वानः परिहतसकलान्यक संच्यः ॥ १७ ॥ श्रथ विज्ञाय सदागम-निषिद्धविधिलालसं सुतं सुलसम् । रुस्तम्यति दिनमिति निगदनि ॥१०॥ रागादिवीरविजयी, कृतसुरसेवः सदा जिनो देवः । शक्त्या जिनगदितागम-विधिकरणपरः स साधुगुरुः ॥ १६ ॥ गतसकलदृपणगणं, विलसन्निःशेषभूषणं परमम् । श्रागमतत्त्वं नित्यं यस्य गृहे ज्ञायते वत्स ! ॥ २० ॥ महि कथा-दर्शि दर्शिने पा
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,
"
श्रमुना मुनिना सदृशः कोऽन्यः सकलेऽपि भूमितले ||२७|| अदद गुणिष्यषि रागं निवारयन् धारयन् मनो मसिनम् । का जगति गतिस्तव पापभाविनी भाव्यकल्याण ! ॥२८॥ धरुणोदये प्रदीप इव । दयो थिए धिग विलसित-मसममि दृष्टिरागस्य ॥ २६ ॥ अपि कामस्नेहाल्यो, रायौ भन्याङ्गिना सुखनिवाय । विदुषाऽपि दुरुच्छेदः, पापीयान् दृष्टिरागस्तु ॥ ३० ॥ कलिकालविलसितं त न वाकूनुलं पचेलिमं कर्म । जनोऽयं सदायमार्थेऽपि मूढमनाः ॥ ३९ ॥ कि बाकी जनोऽयं पिशाचकी वाऽथवा किमुन्मत्तः । आगमविधि विना यत् कुरुतेऽन्यत्रापि तस्यधियम् ॥३२॥ भविनो भवे भवेयुः कथमेते दुःखमागलितमतयः १ तीर्थाधिनाथगदितो, यदि न स्यादागमो भगवान् ॥ ३३ ॥ चितानयेन तनयेन, किमधुना किममुनाऽपि विभवेन । श्रीमन्तमागममहं सेविष्ये सङ्गनिर्मुक्तः ॥ ३४ ॥ एवं ध्यात्वा वरुणः, स्वधनं पात्रे ददौ प्रविवजिषुः । तत्र तदानीमागा-सुनी मुनिराज ॥ ३४ ॥ इभ्यस्तन्नमनार्थ, प्रययौ नत्वा गुरून् समयविधिना । निषसाद यथास्थानक-मथ सूरिर्देशनां चक्रे ॥ ३६ ॥ २०२० ६ ० चतुःकरप्रमादेवायासैककरदेवानिर्मायके मधुपुरवाव्ये आयके, उत्त० अ० अहोरा त्रस्य पञ्चदशे मुहूर्त्ते, सू० प्र० १० पाहु० । द० प० । ज्यो० । पुष्कलावतीजिये पुष्कलावतिनगरेऽतिकृपणे सार्थवा दर्श० १ तत्त्व ।
ध०
वरुणकाइय वरुणकायिक- पुं० शक्रलोकपालस्य वरुणस्याभियोग्येषु देवेषु भ० ३ ० ७ उ० ।
वरुणाई वरुणनदी स्त्री कालिञ्जराटव्यां वनामख्यातायां नद्याम, कालिञ्जराटव्यां वरुणनदीतीरे ऋषभजिनभवनम् । सङ्घा० १ प्रस्ता० १ अधि० ।
वरुणदेवकाइय- वरुणदेवकायिक- पुं० स्वनामध्यातेषु श
लोकपालस्य परस्वाभियोगिकदेवेषु भ० ७ ० ३ ० वरुणदेवा- वरुणदेवा- स्त्री० । मेतार्यस्य वीरदशम गणधरस्य मातर, आ० म० १ ० । ० चू० । वरुणष्पभ - वरुणप्रभ-पुं० । वरुणद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ पाहु० । द्वी । शक्रादिलोकपालस्य वरुणस्य उत्पातपर्वते, स्था० १०
ठा० ३ उ० ।
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(८१७) वरुणप्पभा अभिधानराजेन्द्रः।
बसणवर चरुणप्पभा-वरुणप्रभा-स्त्री० । वरुणप्रभवीपस्य दक्षिणरा
मवग्वेयापरिक्खित्तानो पासाइयानो दरिसणिज्जाओ अजधान्याम् , दी। (अत्रत्या गाथाः 'रायहाशी' शब्देऽस्मि भिरूवाश्रो पडिरूवाओं' इति पाठसिद्धम् 'तिसोवाणतोरला' नेव भागे ५५६ पृष्ठे गताः।)
इति तासां त्रिसोपानानि तोरणानि च प्रत्येक वक्तव्यानि वरुणवर-वरुणवर--पुं०। पुष्करोदसमुद्रस्य सर्वतोद्वीपे, जी। तानि चैवम्-" तासि णं खुड्डाखुड़ियाणं वावीणं पुक्खरिणी पुक्खरोदे ण समुद्दे वरुणवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारे |
रण दोहियाणं गुजालियाणं सरसियाणं सरपंतियाणं सरस
रतियाण विलपंतियाणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिशि चत्तारि जाव चिट्ठति, तहेव समचक्कवालसंठिते केवइयं चकवाल
तिसोवाणपडिरूवगा परमत्ता,तेसि णं तिसोवाणपडिरूवविखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं १, परमत्ता, गोयमा! संखे
गाणं इमे एयारुवे वसावासे पलते, तं जहा-बारामया जाई जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं संखेजाई जो- नेमा रिटामया पाटाणा वेरुलियामया खंभा सुवमरुप्पमया यणसयसहस्साई परिक्खेवेणं परमत्ते, पउमवरवेइया वणसं- फलगा बहरामया संधी लोहियक्षमाओ त्रिो नाणा
मर्माणमया अवलम्बणा अवलंबणवाहापो पासाईया दरिडवमओ दारंतरं पदेसा जीवा तहेव सव्वं । (सू०-१८०)
सणिजा अभिरुवा पडिरूवा, तेसि ण तिसोवाणपडिरू'पुक्खरोदे ण' मिति पूर्ववत् , समुद्रं वरुणवरो नाम द्वी
वगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पत्ता, ते ण तोरणा पो वृत्तो बलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संप
नाणामणिमया नाणामणिमयेसु खमेसु उवनिविट्ठा विधिरिक्षेप्य तिष्ठति । अत्रापि पुष्करोदसमुद्रवत् , चक्रवालविष्क
हमुसंतरोवचिया विविहतारारूवोववेया ईहामिगउसम्भपरिक्षेपवेदिकावनखण्डद्वारतदन्तरप्रदेशजीवोपपातवक्क
भतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नरहरुसरभचमरकुंजरवणलव्यता वक्तव्या।
यपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरवड्यापरिगयाभिरामा वि. संप्रति नामान्वर्थमभिधित्सुराह
जाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव अच्चीसहस्समालिणीया रूसे केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ वरुणवरे दीवे वरुणवरे वगसहस्सकलिया भिसमाणा भिम्भिसमाणा चक्खुल्लोयणदीवे ?, गोयमा ! वारुणवरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे
लेसा सुहफासा सस्सिरीया पासाईया दरिसणिज्जा अभि
रूवा पडिरूवा , तेसि गं तोरणाणं उरि अट्टमंगलगा तहिं तहिं बहवे खुडा खुडियाओ • जाव बिलपंतियाश्रो
पन्नत्ता, तं जहा-सोत्थियसिरिवच्छनंदियावत्तवद्धमाणगमअच्छाओ पत्तेयं पत्तेय पउमवरवेइयापरिक्खवेणं वणसंडप
हासणकलसमच्छदप्पणा सब्बरयणामया अच्छा जाव - रिक्खेवणं वारुणिवरोदगपडिहत्थाओ पासाइयाश्रो, तासु डिरूवा । तेसि ग तोरणाणं उवरि बहवे किएहचामरज्मणं खुड्डाखुडियासु० जाव विलपंतियासु बहवे उप्पायप-| या नीलचामरज्झया लोहियचामरज्भया हालिदचामर
ज्झया सुकिल्लचामरज्या अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा बाराब्बया • जाव खडहडगा सव्वफलिहामया अच्छा, तहेव |
मयदंडा जलयामलगन्धिया सुरम्मा पासाईया दरिसणिवरुणवरुणप्पभा एत्थ दो देवा महिड्डिया • जाव परिव
जा अभिरूवा पडिरूवा तेसि णं तोरणाणं उपर बह छसंति, से तेणऽद्वेणं • जाव णिच्चे । जोइसं सव्वं संखेज- त्ताइछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुयला उप्पलहत्थगा कुमुगुणं • जाव तारागणकोडिकोडीओ। (सू०-१८० )
यहत्थगा नलिणहत्थगा सुभगहत्थगा सोगंघियहत्थगा पों'सेकेण्डेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्य
डरीयहत्थगा महापोडरीयहत्थगा सतपत्तहत्थगा सहस्स
पत्तहत्थगा सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा ते वरुणवरो द्वीपो वरुणवरो द्वीपः ? , भग़वानाहगौतम ! वरुणवरस्य द्वीपस्य तत्र तत्र देशे तस्य तस्य
सरहा लराहा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निर्कदेशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो ‘खुट्टाखुडियाओ. जाव
कडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया -
रिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा" अस्य व्याख्या पूर्ववत् । विलपंतिओ' यावत्करणात् -'पुष्करिणीनो गुंजालियानो
"तासि ण खुडाखुडियाणं वावीणं पुक्खरिणीण जाव विदीहियाश्रो सराश्रो सरपंतियाो सरसरपंतियाओ०
लपंतियाणं तत्थ तरथ देसे तहि तहिं बहवे उप्पायपधजाव महुररसणिचयाओ' 'विलपंतीनो अच्छाओ' इति,
गा निययपव्वगा जगतीपव्वयगा दारुपब्वयगा मंडवगा दगयावत्करणात्-“साहाओ रयणमयकुलाओ समतीराओ
मंडवगा दकमालगा दगपासाया उसडगा खरवडगा बारामयपासाणाश्रो तवणिज्जतलाओ सुवरणसुज्झर- अंदोलगा पक्खंदोलगा सम्वरयणामया अच्छा० जाव परिययवालुयाश्रो वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडाभो सु- रूवा" इत्यपि प्राग्वत्। तेसुणं पब्वयगेसु जाव पक्वंदोलगेमु होयारामओ सुहत्ताराओ नाणामणितित्थसुबद्धाओ वाउको- बहवे हंसासणाई उन्नयासणाई पणयासणाई दीहासणाई णाओ आणुपुब्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछनपत्त- भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई पउमासणाई सीभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियाओ हासणाई दिसासोवत्थियासणाईसव्वफालियामयाअच्छा पुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाओ छप्पयपरिभु ई०जाव पडिरूवाई धरुणवरस्स एं दीवस्स तत्थ तत्थ देसे जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपडिपुन्नाओ पडिहत्थ-| तहिं तर्हि बहवे बालीघरगा मालीघरगा कोयघरगा अच्छगभमतमच्छकच्छभत्रणेगसउणगणमिणविचरियसदुम- राघरगा पेच्छणघरगा मज्जणघरगा मंडराघरगा पसाहलइयमहरसरनायाभो" अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । 'वाणि- घरगा गत्तघरगा मोहणघरगा वित्तघरगा मालघरगा जावरोदगपडिहत्थाश्रो' इत्यादि, वारुणिवरे च बरवारुणीव | लघरगा कुसुमघरगा सव्वफालियामया अच्छा० जाव पयत् उदकं तेन 'पडिहत्थाश्रो' प्रतिपूर्णाः ‘पत्तेयं पत्तेयं पउ--डिसवा । तेसु णं आलीघरएसु० जाष कुसुमघरपसुबह
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( etc) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
वरुणवर
ये हंसासणाई० जाव दिसासोबन्थिया सणारं सवफालियामयारं अच्छाई० जाव पडिरूवाई, वरुणवरे गं दीवे तत्थ तत्थ देसे तर्हि तर्हि बहवे जातिमंडवगा जूहिया मंडवगा म लियामंडवगा नवमालियामंडवगा वासंतियमंडवगा दearer मंडवा सूरुलियामंडवगा तंबोल्लमंडवगा अफायामंडवगा श्रइमुत्तमंडवगा मुद्दियामंडवगा मालुयामंडवगा सा [स] मलयामंडवगा सव्वफालिहामया श्रच्छा० जाव प डिवा, तेसुं जाइमंडवे सु० जाव सा [सो] मलयामंडवेसु बहवे पुढविसिलापट्टगा पनता अप्पेगइया हंसा सणसंठिया अप्पेगइया कोचा सणसंठिया० जाव अप्पेगइया दिसासो बत्थिया सणसंठिया अप्पेगइया वरसयणविसिटुसंठा
संठिया सवफालिहामया अच्छा० जाव पडिरुवा । तत्थ एं बहने वाणमंतरा देवा देवीओ य श्रासयंति संयंति चिति निसीयंति तुयङ्कंति रमंति ललति की लंति पुरा पोराणां सुचिक्षाणं सुप्परकंताणं सुभाणं कडां कम्माणं कल्लाणां फलवित्तिविसेसे पच्चणुभवमाणा विहरंति” एतत्सर्वे प्राग्वत् व्याख्येयम्, नवरं पुस्तकेष्वन्यथा अन्यथा पाठ इति यथावस्थितपाठप्रतिपत्त्यर्थे सूत्रमपि लिखितमस्ति तावदेवं यस्माद्वरवारुणी ass वाप्यादिषु उदकं तस्मादेष द्वीपो वरुणवरः । अम्यच्च वरुण - वरुणप्रभौ चात्र वरुणवरे द्वीपे द्वौ देवौ मfast यावत्पल्योपस्थितिको परिवसतस्तस्माद्वरुणवरो वरुणदेवप्रधानः, तथाचाह 'से एएण्ट्टेस' मित्यादि चन्द्रादिसंख्याप्रतिपादनार्थमाह ' वरुणवरे णं दीवे कर चंदा पभासिसु' इत्यादिपाठसिद्धम् सर्वत्र संख्येयतयाऽभिधानात् । जी० ३ प्रति० २ उ० । अनु० सू० प्र० । ० प्र० । वरुणा - वरुणा - स्त्री० । अच्छजनपदप्रधाननगर्थ्याम्, वरुणा अच्छा य' वरुणा नगरी, अच्छो- देशः । अन्ये तु - वरुणा अच्छा पुरीस्याहुः । प्रव० २७५ द्वार । वरुणोद-वरुणोद- पुं० । वरुणवरद्वीपस्याभितः समुद्रे, जी० ।
वरुणवरं यं दोवं वारुणोदे गामं समुद्दे वट्टे वलया० जाव चिट्ठति, समचकबाल० विसम० तहेव सव्वं भाणियब्वं विक्खंभपरिक्खेवो संखेआई जोयणसहस्साइं दारंतरं च पउमवरवयसंडे पएसा जीवा अत्थो गोयमा ! वारुणोदस्स
समुहस्स उदये से जहानामए चंदप्पभाए वा मणिसिलागाइ वा वरसीधुवरवारुणीइ वा पत्तासवेइ वा पुफासवेइ वा चोयासवेइ वा फलासवेइ वा महुमेरएइ वा जातिप्पसनाइ वा खज्जूरसारेइ वा सुद्दियासारे वा कापिसायखाइ वा सुपकक्खोयरसेइ वा पभूतसंभारसं - चिता पोसमाससतभिसयजोगोवचिता निरुवहतविसिहदिसकालोवयारा सुधोता उकोसग पिट्ठपुट्ठा मुखईतवरकिमदिकद्दमा कोपसन्ना अच्छा वरवारुणी अतिरसा जंबूफलपुष्पा सुजाता इसी उडावलंबिणी महियमहुरपेजा ईसासिरत्तणेता को मलकवोलकरणी० जावासादिता विसदिता णिहुयसंलावकरणहरिसपीतिजण
वरुणोद
णी संतो सततविन्चोकहावविन्भमविलासवेल्लहलगमणकरणी विरणग्रहियसत्तजगणी य होति संगामदेसकाले कयरणसमरपसरकरणी कढियाणविज्जुपयतिहिययाणमउकरणीय होति उववेसिता समाया गर्ति खलावेतिय सयलम्मि वि सुभासवुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिञ्जा विस्सायणिजा पगिजा दप्पणिजा मयणिजा सम्बिदियगातपल्हातणिजा असला मांसला पेसला (ईसी अट्ठावलंबिणी ईसी तंबच्छिकरणी ईसी वोच्छेया कडुआ ) वमेणं उववेता गंधेणं उबवेया रसेणं उववेया फासेणं उववेया भवे एयारूवे सिया ?, गोयमा ! नो तिणट्टे समट्ठे वरुणोदस्स णं समुद्दस्त उदये एतो इट्ठतरे • जाव उदए । से एएणद्वेगं एवं वुच्चति० त रथ णं वारुणिवारुणकंता देवा महिड्डिया • जाव परिवसंति, से एए ० जाव खिच्चे, सव्वं जोतिससंखेजकेण णायव्वं वारुणवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा ( सू० - १८० )
' वरुणवरं णं दीव' मित्यादि वरुणवरमिति पूर्ववत्, वरुगोदः - समुद्रो वृत्तो- वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतःसमन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, यथैव पुष्करोदसमुद्रस्य वक्तव्यता तथैवास्यापि यावज्जीवोपपातसूत्रद्वयम् । संप्रति नामनिबन्धनमभिधित्सुराह -' से केलट्टेरा' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - वरुणोदः - समुद्रो वरुणोदः समुद्र इति, भगवानाह - गौतम! वरुणोदस्य-समुद्रस्योदकम्, सा लोकप्रसिद्धा यथा नाम चन्द्रप्रभेति वा चन्द्रस्येव प्रभा- श्राकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा - सुराविशेषः, इतिश ब्द उपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दः समुच्चये, एवमन्यत्रापि, मणिशलाकेव मणिशलाका, वरं च तत् सीधू च वरसीधू वरा वासौ वारुणीव बरवारुणी, धातकीपत्ररससार श्रासवः पत्रासवः, एवं पुष्पासवः फलासवश्च परिभावनीयः, चोयो - गन्धद्रव्यं तत्सार श्रासवः चोयासवः, मधुमेरकौ लोकादवसातव्यौ मद्यविशेषौ जातिपुष्पवासिता प्रसन्ना जातिप्रसन्ना, मूलदलखर्जूरसार ब्रासवः सर्जूरसारः, मृद्वीका - द्राक्षा तत्सारनिष्पन्न श्रासवो मृद्वीकासारः, कापिशयनं मद्यविशेषः सुपकः -सुपरिपाकागतो यः क्षोदरस इक्षुरसस्त निष्पन्न त्रासवः सुपकेतुरसः, श्रष्टवारपिष्टप्रदाननिष्पन्ना अष्टपिष्टनिष्ठिता जम्बूफलकालिवरप्रसना सुराविशेषः, उत्कर्षेण मदं प्राप्ता उत्कर्षमदप्राप्ता आसला - श्रास्वादनीया मांसला - बहला पेसला-मनोज्ञा ईषत् श्रष्ठमवलम्बते ततः परमतिप्रकृष्टास्वादगुणरसोपेतत्वात्, झटिति परतः प्रयाति ईषदोष्ठावलम्बिनी, तथा-ईषत्तानाक्षिकरणी, तथा-ईपत्-मनाक व्यवच्छेदे पानोत्तरकालं कटुका तीक्ष्णेति भावः, एलाद्युपबृंहकद्रव्यसमायोगात्, तथा वर्णेनातिशायिना एवं गन्धेन स्पशेन उपपेता श्रास्वादनीया - महतामप्यास्वादयितुं योग्या, विस्वादनीया विशेषत आस्वादयितुं योग्या प्रतिपरमास्वा
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वरुणोद
"
दीपरत्वादगपनि जाग्निमिनि दीपनीया, "कृ. द बहुल " मिति वचनात् कर्तयनीयप्रत्ययः एवं मदयतीति मदनीया मन्मचजननीवतीति इंडीया धातूपचयकारितत्वात् सर्वेन्द्रियाणि गात्रं च प्रह्लादयतीति सर्वेन्द्रियगात्र प्रह्लादनीया । एवमुक्ते गौतम श्रह - भगवन् ! भवेदेतदूपं वरुणोदकसमुद्रस्योदकम् ? भगवानाह नायमर्थः समर्थः वरुणोदस्य समिति यस्मादर्थे निपातानामनेकार्थत्वात् स मुद्रस्योदकम् । इतः पूर्वस्मात् सुरादिविशेषसमूहादितरमेव कान्ततरमेव प्रियतरमेव मनोशतरमेव मनश्रापतरमेव प्रास्वादेन प्रशप्तम्, ततो वारुणीवोदकं यस्यासौ वारुणोदः तथा वारुणिवाणान् वा बारुलो समुद्रे यथाक्रमं पूर्वापरार्थाधिपती महर्दिको देवी पायत्यस्योपमस्थितिको परिवसतः, ततो वारुणेवरुणकान्तस्य च संबन्धि उदकं यवासी बालोदः पृषोदरादित्यादिरूपनिष्यत्तिः । तथा चाह' से एएएए मित्याद्युपसंहारवाक्यम्, चन्द्रादिसूत्रं प्राग्वत् । जी० ३ प्रति० २ उ० । सू० प्र० । द्वी० जं० । स्था० ।
।
वरुणोववाय वरुणोपपात पुं० धरुयो नाम देवस्तत्समयनिबद्धो प्रन्थस्तदुपपातहेतुर्वरुणोपपातः । संक्षेपिकदशानां सप्तमेऽध्ययने, स्था० ।
( ८६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
9
वरुणोववाए (सू० ७५५X )
च
यदा तदध्ययनमुपयुक्तः सन् श्रमणः परिवर्तयति तदाऽसौ वरुणो देवः स्वसमपनिषत्वाच्चलितासनः सम्भ्रमोक्षाम्तलोचनः प्रयुक्रायधिस्तद् विज्ञाय कृष्टोऽवपतति, अवपत्य तदा तस्य भ्रमणस्य पुरतः स्थित्वाऽन्तर्हितः नृत्यस्ति ष्ठति, समाप्ते व भगति सुस्वाध्यायितमिति वरं वृणीष्वेति । ततोऽसाविइलोकनिष्पिपासः प्रतिवदति न मे वरेणार्थ इति ततोऽसौ वरुणो देवः प्रदक्षिणां कृत्वा प्रतिगच्छति । स्था० १० ठा० ३ उ० । पा० । व्य० ।
बरूहिणी - वरूथिनी श्री०। सेनायाम्, “सेावरुहिणी या
-
-
।
हिली अणीनं चमू सिनं " पाइ० ना० ३४ गाथा । - - । । बरेण वरेय त्रि०। प्रधानतरे, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गः जै०गा० मरोडिया-बरोडिका - श्री ब्राह्मणा लिपेरन्यतमे लेख्यविधाने, प्रज्ञा० १ पद । आ० म० । स० । बरोरु बरोरु वि० परः प्रधान ऊरुविशाल यस्य सः । प्रधानोरुयुजि, कल्प० १ अधि० २ क्षण । वल- देशी - आरोप, प्रहले च दे० ना० ७ वर्गगाथा । बलमंगी - देशी वृतिमत्याम् दे० ना० ७ वर्ग ४३ गाथा । बलंगणा - देशी-वृतिमत्याम्, दे० ना० ७ वर्ग ४३ गाथा । वलक्ख-वलक्ष- त्रि० । श्वते, " सेनं सिनं वलक्खं, अवदार्य पंडु धवलं च " । पाइ० ना० ६२ गाथा । बलगय- अलगक-शि० पथात्यिा वातायडे, प्रा. न्तप्रामे कचित्कश्चिदेकोऽबलगकः पुमान् " श्र०क०१ श्र० बलग्ग - भारुह-धा० । उच्चैर्गमने, “ आरुहेश्वड - वलग्गौ ” 'आरुदेबडवलग्गी " ॥ ८ ॥ ४ ॥ २०६ ॥ इति पूर्वकस्य धातोर्वलग्गादेशः । वलग्गह । श्ररुहः । श्ररोहति । प्रा० ४ पाद ।
66
वषगय
वलग्गड़ - देशी - आरोहणे, दे०ना० ७ वर्ग ४६ गाथा । पाइ०ना० ।
वलगंगसी देशी-वृतिवाचके दे० ना० ७ वर्ग ४३ गाथा | -त्रि० । श्रारूढे, “वलग्गं आरूढं" । पाइ० ना० २४७
अवलग्र गाथा ।
वलमय--देशी- शीघ्रे, दे० ना० ७ वर्ग ४६ गाथा । वलय-- वलक- न० । वलयानि पृथिवीनां बेष्टनानि । धनोदधिधनवानतनुवातलक्षणे स्था० २०४० देथे गृहे ब दे० ना० ७ वर्ग० ८५ गाथा ।
बलवणी-देशी-वृतिवाचके, दे० ना० ७ वर्ग ४२ गाथा । वलयवाहु-वलयत्राहु-पुं० । चूडकाव्ये भुजाभरणे, दे० ना० ७ वर्ग ५२ गाथा । पाइ० ना० ।
बलयवाडी - देशी-वृतिवाचके, ३० ना० ७ वर्ग ४३ गाथा । वलयमरण - वलन्मरण - न० । मरणभेदे, उत्त० पाई० ५ ० ( व्याख्या 'मरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०६ पृष्ठे गता । ) वली वली श्री० द्वितीये प्रयुकुमारे, स्था० २०३ ४० वलविश्र - देशी- शीघ्रार्थे, दे० ना० ७ वर्ग ४८ गाथा । लुरु-पुं० हरिद्रादित्वाद्रस्य सः पश्चिमदिकपाले, प्रा० १ पाद ।
बल्लई वल्लकी-स्त्री० । वीणायाम्, “विवंचिया वाई वीणा ।" पाइ० ना० १२२ गाथा । गवि, दे० ना० ७ वर्ग ३६ गाथा |
बल्लर-बल्लर-म० गहने, “गुषिले कालिले का पहरं महनं" । पाह ० ना० १४१ गाथा | अरण्यक्षेत्रे, “ वल्लरं अरश्नचितं "। पाइ० ना० १४३ गाथा । अरण्यादौ, दे० ना० ७ वर्ग ८६ गाथा । बचरी चरी स्त्री० मर्याम् " बीउ पारीओ"। पाइ० ना० १३६ गाथा ।
बलव-लव ९० । गोपाले, "गोवाला बया गोषा"। पाइ०
-
ना० १०४ गाथा ।
- ।
"
- ।
बल्लाओ देशी- श्येने मकुले च दे० ना० ७ वर्ष ८४ गाथा । वल्लीबल्ली- श्री मजर्याम्, “वशी परीच" पाइना १३८ गाथा | कृतानन्तवनस्पतिप्रत्याख्यानिनां भूमिकूष्माण्डं तापादिव्यतिरेकेण युकं वाऽऽई वा कल्पते, किंवा थाद्धवियुक्त संस्कृताईकवदकल्प्यम् ? यतस्तद्वल्लीपत्राण्येवो
9
दृश्यन्ते फलानि भूमिगतान्येवेति प्रश्नः अत्रोत्तरम् -म्मिकूष्माण्डं सम्यकृतया शुष्कं सदनन्तवनस्पतिप्रत्याख्यानिनामौषधादिकारणे प्रहीतुं कल्पत इति व्यवहारो दृश्यते, परं तदातपं पिना सम्पूयेतया शुष्कं न भवतीति तरस्वरूपविदो विदुरिति ॥ ५२ ॥ सेन० १ उल्ला० । वय वव-म० ज्योतिषप्रसिद्धे भुकरण ०७०। विशे० । जं० प्रा० चू० । श्रा० म० । प्रब० । ववगम-व्यपगम- ५० व्यवच्छेदने, प्रा० ० २ ० । ववगय - व्यपगत - त्रि० । श्रविद्यमाने, सूत्र० १ ० ३ ०४ ४० "वयगवहिस्कारा" पपगता विवि सत्कारश्च व्यतालक्षणो येभ्यस्ते तथा । जं०२ वक्ष० । श्रौ
।
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(100) अवगय अभिधानराजेन्द्रः।
ववसाय " पवगयखीरदहिणवणीयसप्पितेलगुललोणमहुमज्जमंसप-| निश्चये , प्रश्न १ संव. द्वार । सूत्र० । इच्छायाम् , पृ०१ रिचत्तकयाहाराओ" ति । औ० । [ 'श्राराहगा' शब्दे उ०२ प्रक० । श्रा० म०। विशेषनिश्चये, विशे। रा०प० द्वितीयभागे ३७६ पृष्ठे व्याख्यातमेतत् ।)
चू० । अनुष्ठानोत्साहे, स०। सद्व्यापारे, औ० । ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा ।
व्यवसायभेदानाहव्यपगतः-परिभ्रष्टो ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणामुपलक्षणमेत- तिविहे ववसाये परमते , तं जहा-धम्मिए ववसाये , तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्थाः-मार्गों येभ्यस्ते व्यप- |
अहम्मिए ववसाये , धम्मियाधम्मिए ववसाये ४ । अगतप्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथाः । प्रक्षा० २ पद । “धव
हवा-तिविहे ववसाये परमत्ते , तं जहा-पञ्चक्खे पच्चइए गयचुपचावियचत्तदेहं जीवविप्पजदं" अनु। [• आवस्सय' शम्दे द्वितीयभागे ४४८ पृष्ठे व्याख्यातमेतत् ।]
माणुगामिए । (सू०१८५४) "ववगयचुयचायचत्तदेहं" भ०७ श० १ उ० ।
व्यवसायो-वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थसिद्धयर्थमनुष्ठानं था, स ['माहार' शब्दे द्वितीयभागे ५२३ पृष्ठे व्याख्यातमेतत् ।।
च व्यवसायिनां धार्मिमका धार्मिक २ धार्मिकाऽधा"ववगयजरामरणभया" जरा-वयोहानिलक्षणा मरणं प्रा
म्मिकाणां ३-संयतासंयतदेशसंयतलक्षणानां सम्बणत्यागरूपं भयम्-इहलोकादिभेदात्सप्तप्रकारम् , उनं च
धित्वादभेदेनोच्यमाननिधा भवतीति, संयमाऽसंयम"इहपरलोगादाण, अकम्हाजीवमरणमसिलोए " इति, |
देशसंयमलक्षणविषयभेदाद्वा ४, व्यवसायो-निश्चयः विशेषतोऽपुनर्भावस्यागरूपतया, अपगतानि-भ्रशनि ज
स च प्रत्यक्षोऽवधिमनःपर्यायकेवलाख्यः प्रत्ययात्-इन्द्रियारामरणभयानि येभ्यस्ते तथा तान् । प्रशा०१ पद । "ववगय
निन्द्रियलक्षणानिमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यम्-अदुम्भिक्सदोसमारि" व्यपगतं दुर्भिक्ष दोषमारिश्च यत्र तत् न्यादिकमनुगच्छति साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः व्यपगतदुर्भिक्षदोषमारि । रा० ।“ बवगयपेमरागदोसमो- सोऽनुगामी, ततो जातमानुगामिकम्-अनुमानं तपो व्यवहे"। व्यपगतम्-नष्टम् प्रेम च-अभिष्वङ्गलक्षणं रा
साय भानुगामिक एवेति । अथवा-प्रवक्षः-स्वयंवर्शनलक्षगश्व-विषयानुरागलक्षणो द्वेषश्च अनिष्टेऽप्रीतिरूपो मोह- णः प्रात्ययिकः-आप्तवचनप्रभवः तृतीयस्तथैवेति ५। श्च अज्ञानरूपो वा यस्य स तथा । औ० । " ववगयमा- अहवा-तिविहे ववसाये पलत्ते, तं जहा-इहलोइए परलावगविलवणं" भ० ७श १ उ० । ['आहार' शब्देश
लोइए इहलोइयपरलोइए ६ । इहलोइए ववसाये तिविद्वितीयभागे ५२३ पृष्ठे व्याख्यातमेतत् ]
हे पलत्ते,तं जहा-लोइए वेइए सामइए७,लोइए ववसाबवच्छित्ति(वोच्छित्ति) णय-व्यवच्छित्तिनय-पुं० । अनित्य
ये तिविहे पनत्ते,तं जहा-अत्थे धम्मे कामे वेइए वकवादिनि पर्यायास्तिकनये, विशे।
साए तिविहे पत्ते, तं जहा-रिउब्वेए जउव्वेए सामवे. बवट्ठावण-व्यवस्थापन-न । निक्षेपे, अनु०। ववरण-चपन-न। तूले, “पलही वपणं तूलो रुवो"। पार
ए है। सामइए ववसाए तिविहे पसत्ते, तं जहा-हाणे ना०२५५ गाथा।
दंसणे चरित्ते ॥१०॥ (सू० १८५४) बवणीयदोहला-व्यपनीतदोहदा-स्त्री० । सर्वथाऽसदोहदा- इह लोके भव पेहलौकिकः, य इह भवे वर्तमानस्य निश्चयाम् , यस्याः सर्वे दोहदाः पूरिताः । कल्प०१ अधि०४ क्षण ।
योऽनुष्ठानं वा स पेहलौकिको व्यवसाय इति भावः।यस्तु प.
रलोके भविष्यति स पारलौकिकः, यस्त्विह परत्र च स ऐहबवत्था-व्यवस्था-स्त्री० । मर्यादायाम् , बृ० ६ उ० । स्था० । स्थितिः समयो व्यवस्था मर्यादेत्यनान्तरम् । प्रा०चू०२
लौकिकपारलौकिक इति ६ । लौकिक:-सामान्यलोकाश्रयो
निश्चयो-अनुष्ठानं वा, वेदाश्रितो वैदिकः,समयः-सांख्यादीनां प्रस्था।
सिद्धान्तस्तदाश्रितस्तु सामयिकः। लौकिकादयो व्यवसाववदेस-व्यपदेश-पुं० । प्रतिपादने , सूत्र० १७० १५ १०।।
याः प्रत्येकं त्रिविधास्ते च प्रतीता एव, नवरम्-अर्थधर्मकाभाचा । तात्स्च्यात्तव्यपदेशो, यथा-मञ्चाः कोशन्ति । मविषयो निर्णयो यथा-"अर्थस्य मूलं निरुतिः क्षमा च, मा०म०१०।
धर्मस्य दानं च दया दमश्च । कामस्य वितंच षपुर्वयश्च,मो, बवरोवण-व्यपरोपण-न० । विनाशने, ध० ३ अधि०। प्र
क्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥१॥" इत्यादिरूपस्तदर्थमनुष्ठानं ध्यावने, प्राचा०२७०१चू० २१०१ उ०।
षा अर्थादिरेष व्यवसाय उच्यत इति ऋग्वेदाचाहितो निववरोविता-व्यपरोपयिता-स्त्री० । भ्रंशयितरि , स्था० ४ यो व्यापारो ऋग्वेदादिरेवेतिहासानादीनि सामायिको व्यठा०४ उ०।
षसायः,तत्र सानं व्यवसाय एव पर्यायशम्नत्वात् ,दर्शनमपि, पवरोविय-व्यपरोपित-त्रिकामारिते, ध०२ अधिः । “जी- श्रद्धानलक्षणं, व्यवसायः, व्यवसायांशत्वात् तस्येति प्रतिवियानो घबरोविया" प्रा०म० ११०।
पादितमेव । चारित्रमपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बो
घस्वभाषस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात् । यचोच्यते-"सबववसायि(ण)-व्यवसायिन्-त्रि० । अमलसे उद्योगवति,
रणमणुदाणं, विहिपडिसेहाणुगं तत्थ" ति तत्र तद्वााचाव्य०३ उ०।
रित्रापेक्षमवगम्तव्यमिति । अथवा-मानादौ विषये यो व्यबवसाय-व्यवसाय-पुं०। दुष्करणाध्यवसाये, पा० । ध० । बसायो बोधोऽनुष्ठानं वा स विषयभेदात्त्रिविध इतिम्यापारे , उत्त० ३ ०। विशिहोऽवसायो-निर्णयः ।नं०11 सामायिकता चास्य सम्यग्मिध्याशब्दलाग्छितस्य शानादि
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ववसाय
वयस्य सर्वसमयेध्यपि भावादिति । ॥१०॥ स्वा० ३ डा०३७० | बवसायसभा व्यवसायसभा श्री० व्यवसायनिबन्धनभूता सभा व्यवसायसभा । रा० । व्यवसायार्थसभायाम्, यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं तस्यनिधयं करोति देवेन्द्रादिः ।
स्था० ५ ठा० ३ उ० ।
तसे अलंकारियसभाए उत्तरपुरत्थिमे गं महेगा ववसायसभा पत्ता, जहा बवसायसभा जान सीहास
सपरिवारमणिपेढिया । रा० ।
चवसिय उपवमित न० भाषेव्यवसाये ०१०१० सीध कल्प०१ अधि० कर्तरि षिभ्युपगतच ति, व्य० ३ ३० । चवहरण -- व्यवहरण -- न० । व्यवहारे, व्यवहियत इति व्यवहरणम् । बहुलवचनात् कर्मण्यनट् । व्यवहरणीये, द्रव्यादी,
व्य० १ उ० ।
(६०१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
वहरियव्व व्यवहर्त्तव्य- त्रि० । व्यवहर्त्रा निष्पाद्ये कार्ये, व्य०। ( भाग्यम् ) -
वहरियव्वं कर्ज, कुम्भादितियस्स जह सिद्धी ॥ २ ॥ व्यवहारेग हेतु (करण) भूतेन व्यवहरन् कर्त्ता निष्पाद यति कार्ये तद् व्यवहर्तव्यमित्युच्यते, तथा चाह - " ववहरियब्वं कलं " यत्कार्य कर्त्तव्यं व्यवहारेण तद् व्यवहर्तव्यं, व्यवहर्त्तव्यकार्ययोगात् पुरुषा अपि व्यवदन्याः ततः प्रागुरुम् -" वहरियव्या य जे जहा पुरिसा " इति । अथ कथं व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी व्यवहर्त्तव्यश्च सूच्यते, न खलु देवदत्तग्रहणे यशदत्तस्य सूचा भवतीति । तत श्राह -'कुम्भादितियस्स जह सिद्धी ' कुम्भ आदिरेषामिति कुम्भादयस्तेषां त्रिकं कुम्भादित्रिकम् तस्य यथा सिद्धिः कुम्भग्रहणेन तथा कुम्भ इत्युक्ते सकृतकः इति तस्य कर्ता कुलालः, करणं मृञ्चकादि सामर्थ्यात् सूच्यते (तन्यते), कृतकस्यासतः कर्तृकरव्यतिरेकेणासंभवात् एवमत्रापि व्यवहार इत्युक् व्यवहारी व्यवहर्त्तव्या सूयते । करणस्यापि सक क्रिया साधकतमरूपस्य कर्मकर्तुव्यतिरेकेणासंभवादिति तिसिद्धिः । तदेवमेकले सामर्थ्यादितरस्य द्वयस्य ग्रहणं भवतीत्येतत्सामान्येन सनिदर्शनमुक्रम्।
"
सम्पति करग्रहणेऽवश्यं कर्तृकर्मग्रहणं भवतीत्यर्थे निदर्शनमाहनां नागी नेयं, असा वि य मग्गणा भने तितए । विवि वा विहिणा वा वपहरणं चैव ववहारो ॥ २ ॥ मार्गणा भवति । नामेवाह'नाएं वासी नेयं' इति तत्रज्ञा यते वस्तु परिष्यते अनेनेति ज्ञानम्, तत्र यथा ज्ञानमित्युक्रे जानो ज्ञानकिया कर्तुर्ज्ञेयस्य च ज्ञानक्रियाविषयस्य परिच्छे यस्य सिद्धिर्भवति तद्वितयसिद्धिमन्तरेण ज्ञानस्य ज्ञानस्वस्यैवासंभवादेवमपि व्यवहारग्रहसेन व्यवहारी व्यव हर्तव्यश्च मूल्यते इतिः भवति त्रितयस्याप्युपक्षेपः । एका तायन्मार्गणातियविषया कुम्मादसिद्धिन्तेन प्रागभिहिता । वाशब्दः प्रकारान्तरे । अथवा - इयमन्या त्रिततदेवं संक्षेपतोपहारादिपदमयस्य प्ररूपणा कृता। व्य० १ उ०१ प्रक० ] ("श्रभयंते य पच्छित्ते,वबहरियव्वं समासतो दु०ि१० ० इति 'बहार' शब्दे व्याकारप्य
।
9
२२६
बहरियsa
,
ते) निक्षेप संप्रति व्यवहर्त्तव्याः ते व नामादिभेदाचनतद्यथानामव्यवहर्त्तव्याः स्थापनाव्याव्य व्यवहर्त्तव्या, भावव्यवहर्तव्याश्च । तत्र नामस्थापने प्रतीते । द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः अपि द्विधा - आगमतो, नोश्रागमतश्च । तत्राऽऽगमतो व्यवहर्तव्यशब्दार्थज्ञास्ते चानुपयुक्त नोचागमतोऽपि त्रिधा शरीरभव्यशरीररूपाः प्रतीताः । तद्व्यति- रिफ्रास्तु द्विधा लौकिकाः, लोकोत्तरिकाथ। भाषम्यवदर्भव्याद्विधा - श्रागम-नोश्रागमभेदात् । तत्र आगमतो व्यवहव्यपदार्थज्ञाः सूत्रे चोपयुक्ताः, नोश्रागमतो, लौकिका लोकोतरिका ।
तत्र लौकिकद्रव्यभावव्यवह सैन्यप्रतिपादनार्थमाहलोए चोराईया, दब्बे भावे विसोहिकामाओ । जायमयतकादिसु, निज्जूढा पायकहयाओ ।। १७ ॥ लोफे-लोकविषया व्यवहरीच्या द्विधा तथा द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः, भावव्यवहर्तव्याय तत्र द्वन्दे-व्ययभैग्याः चीरादयः, नौरा:- तस्कराः, श्रादिशब्दात् पार दारिकपातकडेरिकादिपरिग्रहः । ते हि वीर्यादिकं कृत्वाऽपि न सम्यक प्रतिपद्यन्ते । बलात् प्रतिपाद्यमानाः, श्रपि न भावतो विशोधिमिच्छन्ति, ततस्ते द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः । भावे भावविषया व्यवच्या विशोधिकामा एच। तुशब्दस्य पकारार्थत्वात् विशोध कामोऽभिलाषा येषां ते विशोधि कामाः कथमस्माकमेतत्कुकर्म्मविषया विशुद्धिर्भविष्यतीति विशुद्ध प्रत्यभ्युतभाचा व्यवहर्त्तव्या इति भावः । न केवलं द्रव्यभ्यपदव्याधीराः किं तु जायमपपासु नि ज्जूढा' इत्यादि सूतकशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । जातसूनके नाम जम्मरनन्तरं दशाहानि यावत् मृतकतर्फ नाम - मृतानन्तरं दश दिवसान् यावत्। तत्र जातकसूतके
"
सूत वा आदिशब्दात् तदन्येषु तथाविधेषु गृहादिषु ये कृतभोजनाः सन्तो विजातीयनिदा असंभाच्या कृतास्तथा ये पातकहताश्च - पातकेन ब्रह्महत्यालक्षणेन मातापित्रादिघातलक्षणेन वा हताः पातकदताः । एते दि इ येऽपि यदा न स्वदोष प्रतिपद्यन्ते प्रतिपद्यमानायान स म्यगालोचयन्तिः किन्तु - व्याजान्तरेण कथयन्ति तदा द्रव्यव्यवहर्त्तव्या द्रष्टव्याः तथाहि " एगो धितो उराला राहुसाए चंडालीए वा श्रज्भोववो, ततो तं कारण फासेता पायच्छित्तनिमित्तं चतुग्वेयमुवट्ठितो भगा-सुमि हुस चंडालिं वा गतोमि" ति । एवमादयोऽपि द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः । तथा चाह
फासेऊण अगम्मं, भगाइ सुमिरो गयो अगम्मं ति । एमादिलोयदब्बे, उज्जू पुम होइ भावम्मि ॥ १८ ॥ स्पृष्टा कायेनेति गम्यते । अगम्यां स्तुषां चारहात्यादिकां वा स्त्रियमिति शेषः। भवति प्रायश्चित्तनिमितं मनुर्वेदमुपस्थितः सन् यथा मे गतोऽगभ्यामिति श्वमादयः। - दिशब्दात्-अपेयम्-सुरादिकं पीत्वा प्रायश्चित्तनिमित्तं चतुर्वेदमुपस्थितो ब्रूते स्वप्ने अपेयपानं कृतवानमित्यादिपरिमलोयदस्य नि लौकिका द्रव्यव्यवदन्याः 'उज्जू पुरा हो भावम्म' अत्र सामान्यविवक्षायामेकवचनम् । ततोऽयमर्थ एवं जानसूनसुतकारिनिदादयः सन्तो यदा सम्यगालोचयन्ति तदा भावे--भावविषया श्री
"
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(०१) .वहरियम अभिधानराजेन्द्रः।
ववहरियब किका व्यवहरव्याः भवन्ति । उक्ला लौकिकद्रव्यभावव्यव- थाऽस्यामवस्थायां दीर्घसंयमस्फातिनिमित्तमकृस्यप्रतिसेवादर्तव्याः ।
यामपि प्रवर्तितव्यमिति ततोस कमिदोषः । अपि च-भगसम्प्रति लोकोत्तरिकद्रव्यभावव्यवहर्तव्यप्रतिपादनार्थमाह-| बन्तो वीतरागा न मिथ्या कदाचनापि अखते वीतरागपरपञ्चएण सोही, दव्युत्तरिमो उ होइ एमादी । तया तेषां मिथ्यावचनकारणाभावात् । उनं च-" रागागीतो व अगीतो वा, सम्भाव उवडिओ भावे ।। १६ ॥
द्वा द्वेषाद्वा , मोहाद्वा वाक्यमुच्यते नृतम् । यस्य तु यस्य शोधिः परप्रत्ययेन, पर प्राचार्यादिकः स एव प्रत्ययः
नेते दोषा-स्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात् ॥१॥" भगवता कारणं परप्रत्ययस्तेन, किमुक्तं भवति-नूनमहं प्रतिसेवमान
वा यतनयाऽपि कारणे प्रतिसेविनो भावव्यवहर्सव्या उप्राचार्येण उपाध्यायेन अन्येन वा साधुना ज्ञातोऽस्मि, ततः
काः, तद्यदि भगवद्वचनात् द्वितीयभावर्तिनोऽपि भावसम्यगालोचयामीत्येवं परप्रत्ययेन यस्य शोधिः प्रतिपत्तिरे
व्यवहर्त्तव्यास्ततः प्रथमभङ्गवर्तिनः सुतरां भावव्यवहत्तवमादिः, प्रादिशब्दात्-यो गुरुं दोषं सेवित्था अल्पं क
व्या भवेयुः। थयति, स्वकृतं वाऽन्यकृतं ब्रवीति तदादिपरिग्रहः । लोको
तथा चाहतरिको द्रव्यव्यवहर्त्तव्यो भवति । भावे-भावविषयः, पुन- आहच्च कारणम्मि, सेवंतो अजयणं सिया कुजा। लोकोत्सरिको व्यवहर्तव्यो गीतो वा गीतार्थो बा, श्र
एसो वि होइ भावे, किं पुण जयणाऐं सेवंते ॥२१ ।। गीतो वेति अगीतार्थों वा प्रायश्चित्तप्रतिपस्यर्थ सद्भावे
पाहच्च-कदाचिदनन्यगत्या कारणे-अशिवादिलक्षणे अ. नोपस्थितः, स च वक्ष्यमाणगुणैरुपेतः सन् भवतीति ।
कृत्य सेवमानः स्यात्कदाचिदयतनां कुर्यात्-अयतनया प्रतानेव गुणानुपदर्शयति
तिसेवितेति भावः । एषोऽपि भगवद्वचनाद्वा भवति भावे अवं प्रकुडिले यावि, कारणपडिसेवि तह य माहच । व्यवहर्तव्यः, किं पुनर्यतनया प्रतिसेवमानः प्रथमभगवर्ती, पियधम्मे य बहुमुए, विइयं उवदेसपच्छित्तं ॥ २०॥ । स सुतरां भवेद्भावे व्यवहर्तव्य इत्यर्थः। न केवलं प्रथमपक्रः-असंयतः न वक्रोऽवक्रः, संयतो-विरत इत्यर्थः । श्र
भगवर्ती वा भगवद्वचनाद् भावे व्यवदर्तव्यः, किंतु-१
तीयभगवर्त्यपि। कुटिलः-श्रमायी, चशब्दावक्रोधी अमानी अलोभी चेति परिग्रहः । अपिः पदार्थसंभावने, स चामून् पदार्थान् संभा
तथा चाहवयति । कारणे समापतिते सति नामैको यतनया प्रति
पडिसेवियम्मि सोहिं, काहं पालवणं कुणइ जो उ। सेवते इत्येको भनः १, कारणे अयतनयेति द्वितीयः २, सेवंतो वि अकिच्चं, ववहरियम्वो स खलु भावे ॥२२॥ अकारणे यतनयेति तृतीयः ३, अकारणे अयतनयेति चतुर्थः ।
कारणमन्तरेणापि यतनया प्रतिसेविते अकृत्ये पश्चात् ४ाभत्र प्रथमो भगःशुद्ध इति तत्प्रतिपादनार्थमाह-कारण-1 शोधि प्रायश्चित्तमहं करिष्यामीत्येवंरूपमालम्बनं यः कप्रतिसेवीति , कारणे-अशिवादिलक्षणे विशुद्धेनालम्बनेन
रोति । किमुक्तं भवति-एवंरूपेणालम्बनेनाकृत्ये यः प्रषबहुशो विचार्य शुल्कादिपरिशुद्धिलाभाकाक्षिवणिग्रया- ति चिकीर्षति स तथारूपमालम्बनं कृत्वा प्रतिसेवमाम्सनाकत्यं यतनया प्रतिसेवते इत्येवंशीलः कारणप्रति
नोऽप्यकृत्यं खलु निश्चितं भावे व्यवहर्तव्यः । अन्तःकरणसेवी 'तह य पाहचे' ति । तथाचेति समुच्चये, का- विशुद्धिपुरस्सरं यतनया प्रवर्समानत्वेन भावतो व्यवहारणेऽप्यकत्यप्रतिसेवी, न यदा तदा वा किंतु ' पाहच्च '
रयोग्यत्वात् । किमुक्तं भवति-अकारणे यतनयेति तृतीयभ. कदाचिदन्यथा दीर्घसंयमस्फातिमनुपलक्षमाणः । अथवा
अवयपि भगवद्वचनाद्भावव्यवहर्त्तव्यो वेदितव्य इति । तपाहच्वेति कदाचिदकारणेऽपि प्रतिसेवी पियधम्मे य ब-|
देवं चतुर्भलिकायामाघभत्रयवर्सिनो भावव्यवहर्तव्या उहुसुए' इति आद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमिति म्या
काः। यात् । प्रियधर्मा-धर्मा संविनोऽवद्यभीरुः सूत्रार्थतदु.
संप्रति चतुर्भलिकामनपेक्ष्यान्यथैव भावव्यवहर्तव्यलक्षभयविद इत्यपि द्रष्टव्यम् । पते सर्वेऽपि व्यवहर्सव्याः । 'बिइय'ति, अत्र द्वितीयं मतान्तरं केचिदाहुरयकादीनामपि प्र
एमाहतिपक्षा व्यवहर्तव्या इति । ' उपदेसपच्छित्तं' इह द्विविधः
अहवा कजाऽकजे, जताऽजतो वा वि सेविउं साहू । साधुर्गीतार्थः, अगीतार्थश्च । तत्र यो गीतार्थः स गीतार्थ- सम्भावसमाउट्टो, ववहरियव्बो हवइ भावे ॥ २३ ॥ त्वादेवानाभाव्यं न गृहातीति न तस्यापदेशः । यः पुनरगी- अथवेति-प्रकारान्तरे, तच्च प्रकारान्तरमिदम् । प्राक् चतुतार्थस्तस्यानाभाव्यं गृह्णातीति उपदेशो दीयते,यथा न युक्त- भङ्गिका प्ररूप्य भावब्यवहनव्या उक्ताः, संप्रति तु तामनवानाभवत् प्रहीतुम् , यदि पुनरनाभवत् ग्रहीष्यसि ततस्त- पेक्ष्यैव भावव्यवहर्तव्योऽभिधीयते । कथमिति चेदत आहनिमित्तं प्रायश्चित्तं भविष्यति इत्युपदेशदानम् । तत एव- 'कज्जाकज्जे'-कार्य-अशिवादिनिस्तरणलक्षणे-प्रयोजने, अमुपदेशे दत्ते सति दानप्रायश्चित्तं दीयते , इति गाथास- कार्ये-तथाविधपुष्टप्रयोजनाभावे 'जयाजयो व ' ति । मासार्थः। अत्र शिष्यः प्राह-कारणसेवी भावव्यवहर्त- यतमानो वा अयतमानो वा साधुरकृत्यं सेवित्वा सद्भाव्य उक्तः, स कथमुपपद्यते ? प्रतिषिद्धं हि यतनयाऽपि सेव- वेन पुनरकरणलक्षणया तात्विक्या वृत्त्या समावृत्तोऽकृत्यमानो जिनाऽऽक्षाप्रद्वेषकारी ननु स दुष्टभाव इति, कथं भा- करणात् प्रत्यावृत्तः सन् गुरोः समीपे य आलोचयतीबव्यवहर्तव्यः। नैष दोषो जिनाऽऽक्षाप्रद्वेषकारित्वाभावात्स-| ति शेषः, स भावे भवति व्यवहर्तव्यः, भावतोऽकृत्यकरति कारणे प्रतिसेवायामपि वर्तते। जिनाऽझामवलम्ब्यैव य-| णतः प्रत्यावृत्तत्वात् ।
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(१०३) यवहारियव्व अभिधानराजेन्द्रः।
वहरियब्ध संप्रति प्राक प्ररूपितायां चतुर्भनिकायां यश्चतुर्थो भा- हाधन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायात् प्रियधम्मंबस्तत्प्ररूपणार्थमाह
हुश्रुतग्रहणे तदन्तरालवर्तिनामपि धर्मादीनां प्रहणम् । निकारणपडिसेवी, कजे निधसो ब्व अणवेक्खो। । ततः प्रियधर्मण प्रारभ्य यावत् श्रुतं सूत्रार्थतदुभयविद देसं वा सव्वं वा, गृहिस्सं दबतो एस ॥२४॥
इति पदम् , तावत् ये व्यवहारज्ञा व्यवहारपरिच्छेदकर्ता
राप्राक समाख्यातास्ते सर्वेऽपि यथोद्दिष्टा-यथोक्तस्वरूयो निकारणे-कारणमन्तरेण प्रतिसेवी अकृत्यप्रतिसेवनशीलः। कजे निद्धंधसो' त्तिात्र अपिशब्दोऽनुक्तोऽपि गम्यते
पा व्यवहर्त्तव्या-भावव्यवहर्त्तव्या भवन्ति, प्रत्येतव्या इति
शेषः । प्रियधर्मादितया सूत्रार्थतदुभयविदः, यावत्तेषां प्रज्ञापसामर्थ्यात् । ततोऽयमर्थः-कार्येऽपि तथाविधे समुत्पने 'निबंधसो' देशीवचनमेतत् । अकृत्य प्रतिसेवमानो नाधि
नीयत्वादिति । व्यवहारप्रायश्चित्तव्यवहार प्रामवत्सचि
तादिव्यवहारश्च, तत्र द्विविधेऽपि व्यवहारे व्यवहर्त्तव्यः, कृतारम्भविराध्यमानप्राण्यनुकम्पापर इत्यर्थः । चः-समुच्च
प्रायो गीतार्थेन सह नागीतार्थेन । ये, स भिन्नमोऽनपेक्ष्यश्चेत्येवं योजनीयः । न विद्यते अपे
तथा चाऽऽहक्षा-वैरानुबन्धो मे विराध्यमानजन्तुभिः सह भविष्यति
अंग्गीएणं सद्धिं , क्वहरियव्वं न चेव पुरिसेणं । संसारो वा दीर्घतर इत्येवंरूपा यस्यासाधनपेक्षः, हा दुधं कृतं मयेति पश्चादनुतापरहित इति भावः । तथा यः प्र
जम्हा सो ववहारे , कयम्मि सम्मं न सद्दहई ॥ २७ ॥ तिसेवित्वा देशं गृहिष्यामि न सर्वमिति भावः । 'सव्वं व
यः स्वयं व्यवहारमवबुध्यते प्रतिपाद्यमानो वा प्रतिपद्यते व्य ति सर्व वा गहिष्यामि न किंचिदालोचयिष्यामीत्यर्थः।
बहारं सगीतार्थः इतरस्त्वगीतार्थः । तत्रागीतेन अगीतार्थेन इति चिन्तयति, चिन्तयित्वा च तथैव करोति । एष द्रव्यतो
साई नैव पुरुषेण व्यवहर्त्तव्यम् , कस्माद?, इत्याइ-यस्मात्सोव्यवहर्तव्यो वेदितव्यः।
उगीतार्थो व्यवहारे यथोचिते कृतेऽपि न सम्यक श्रद्धते-न किंवा नेत्यत आह
परिपूर्ण व्यवहारं कृतं तथेति कृतं प्रतिपयते इति । तस्मा
द् गीतार्थेन सह व्यवहर्त्तव्यम् । सो वि हु ववहरियन्बो, अणवत्था वारणं तदने य ।
यत प्राहघडगारतुलसीलो, अणुवरमोसनमज्झत्थी ।। २५ ॥ दुविहम्मि वि ववहारे, गीयत्थो पट्टविजई जंतु । सोऽप्यनन्तरोक्लस्वरूपो द्रव्यव्यवहर्त्तव्य एव, किं कारणमत
त सम्म पडिवाइ, गीयत्थम्मी गुणा चेव ।। २८ ।। माह-प्रणवत्थावारणं तदन्ने य' इति । तस्मिन्-व्यवइियमा
द्विविधेऽपि प्रायश्चित्तलक्षणे आभवत्सचित्तादिव्यवहारसे अनवस्थावारणं भवति, तदन्ये च निषिद्धा जायन्ते । कि
लक्षणे च व्यवहारे गीतार्थो यत्प्रत्यापद्यते पाठान्तरम्-'पमुक्तं भवति-सोऽप्यनवस्थया मा पुनः पुनरकृत्यं कार्षीत् ।
रणविजह' प्रज्ञाप्यते तत्सम्यक प्रतिपद्यते गीतार्थत्वात् तदन्ये च तं तथा प्रवर्त्तमानं दृष्ट्वा मा तथा प्रवृत्ति का
तथा चाह-'गीयत्थम्मी गुणा चेव' गीतार्थे गुणा एवं पुरिति । स च व्यवहर्तुमिष्यमाणः पूर्वमेव बक्तव्यो, यथा
नागुणाः, अगुणवतो गीतार्थत्वायोगात्। आलोचय महाभाग ! स्वकृतमपराधमनालोचिताप्रतिक्रा
यथा च गीतार्थः सम्प्रतिपद्यमानः सम्यक प्रतिपद्यते न्तो दीर्घसंसारभाग भवतीति । एवं च भणिते यो शायते
तथा प्रतिपादयन्नाहप्रतिपत्स्यते शिक्षावचनं प्रतिपद्य वा अकृत्यकरणात् विरतो, विरम्य च न भूयः प्रतिसेवीति । यस्तु तथा भण्यमा
सञ्चित्ताऽऽदुप्पने, गीयत्था सइ दुवेगह गीयाणं । नोऽपि न सम्यगकृत्यकरणादुपरमते सोऽनुपरतो घटकार
एगयरे उ नियत्ते , सम्मं ववहारसद्दहणा ॥ २६ ॥ तुल्यशीलः-कुम्भकारसदृशस्वभावोऽवसन्नमध्ये द्रष्टव्यो गीमो अणाइयंतो, छिंद तुमं चेत्र छंदितो संतो। न तु व्यवहर्तव्यः। अथ कोऽसौ कुम्भकारो यत्सरशख- कहमंतरम्मि ठविश्रो, तित्थयराणंतरं संघ ॥ ३०॥ भावः सन्नव्यवहर्तव्यः,उच्यते-"कुंभगारसालाए साहू ठिया, "दोषि जणा गीयत्था विपनोवसंपयाए विहरंति, तेसिं तत्थ आयरिएण साहू वुत्ता। अज्जो! एपसु कुंम्भगारभायणे- सश्चित्ताई किंचि उप्पन, तनिमित्तं ववहारोजाओ। एगोभसु अप्पमादी भवेजाह, मा भंजिहह । तत्थ पमादी चेल्लगो णर-ममाऽभवइ, बीओ भणइ-ममाऽऽभवइ. तस्य य समीकुंभगारभायण भंजिऊण मिच्छादुक्कडं करोइाएवमभिक्षण दि पे अन्नो गीयत्थो नत्थि, जस्स सगासे गच्छति । ततो एगेण णे दिणे । तो सो कुंभगारो रुट्ठोतं चेलं कियाडियाए घेतुं । यीश्रो भणितो-अज्जा! तुमं चेव मम पमाणं भणाहि, कस्सासीसे खड्बुक्कं दाउं खहुको नाम-टोलोमिच्छामि दुकडंभणइ
ऽभवद, तो सो एवं मिउत्तो चिंते-तित्थयराणतरे सीसो भणइ-किं ममं निरवराई पिट्टेसि ? कुम्भगारो भण- संघे अहं ठवितो ता कहमहं तित्थयराणतरं संघमहकमाभाणगाणि तए भग्गाणि । चेल्लो भण-मिच्छा दुक्कडं कयं ।
मित्ति । भणइ-तुमं चेवाऽऽभवति न ममं ति।" एष भा. कुंभगारो भण-मप वि मिच्छादुक्कडं कयं । नऽस्थि कम्म
वार्थः, अक्षरयोजना त्वेवम्-सचित्तात्पन्ने आदिशदाबंधो मम तव पहारं देतस्स । एसो कुंभगारमिच्छादुकडस- दचित्तमिश्रपरिग्रहः। समासश्च कर्मधारयस्ततोऽयमर्थः, सरिसमिच्छादुकडो अब्यवहरियव्यो" तदेवं तह य आहथेति चित्ते शिश्ये अचित्ते वस्त्रादौ मिश्रे सोपकरणे शिष्ये उत्पने व्याख्यातम् ।
सति द्वयोगीतार्थयोः परस्परं विवदमानयोः अन्यस्मिन्समीपे संप्रति पियधम्मो य बहुस्सुए ' इत्यस्य व्याख्यानमाह
व्यवहारपरिछेदकर्तरि गीतार्थे असति, कथमप्येकतरस्मिन् पियधम्मो जाव सुयं, ववहारं नाउ जे समक्खाया। । गीतार्थतया निवृत्ते-विवादात्प्रत्यावृत्ते प्रागुक्लनीत्या व्यसब्वे वि जहा दिवा. ववहरियच्चा य ते इंति ॥ २६॥ गीण ' इति युक्तन् , छन्दोऽनुरोधात् पुम्न कानुरोबाच्च तथेति ।
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पहरियव्य
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चहारभानं भवति, सम्यग्व्यवहारप्रतिपचिरुपजायते । कथम् ?, इत्याह-' गीओ अणाइयंतो' इत्यादि, गीतो- गीताथनतिकामन् यद्विवादादतिकाम द्वितीयेन गीतार्थेन सविताद्युत्पादनसहवर्त्तना व्यवहारममुं त्वमेव हिन त्वमगीतार्थो, नापि युक्तमयुक्तं वा त्वं न जानासि इत्येवं छन्दितो - निमन्त्रितः सन् चिन्तयति-- अहमनेनास्मिन् व्यबारे प्रमाणीकुर्वता तीर्थकरानन्तरसंघमध्यवर्ती स्थापितः संघध भगवदाचानिर्वर्तितया यथावस्थितार्थवा अन्यथा तीर्थकरानन्तरत्वायोगात् । तद्यदि लोभादितया कथमपि व्यवहारं विलोप्स्यामि ततो मयैव तीर्थकरानन्तरः सत्संयोसारितः कृतो भवेत् तत एवं तद्व्यवहारविलोपनेन कथमहं तीर्थकरानन्तरं संघमन्तरे स्थापयामि अन्तरयामीति चिन्तयित्वा सोऽवादीत्तदाभवति न ममेति । तस्माद् द्विविधोऽपि व्यवहारो गीतार्थेन सह कर्तव्यो नागीतार्थेन । मीतार्थच विधर्मत्यादि गोपेत इति प्रियधर्मादयो भाषा व्यवहर्त्तव्याः । ननु ये प्रियधर्मादयस्ते प्रियधर्मत्वादिगुणैरेवा न किमपि प्रतिसेविष्यन्ते इति कथं व्यवहर्त्तव्या निर्दिश्यन्ते १, व्यवहा रहेत्वकल्प्यप्रतिसेवनासम्भवात् । नैष दोषः प्रमादवशतस्तेषामपि कदाचिदकल्प्यप्रतिसेवनापत्तेः । अन्यस्त्र प्रमादाभावेऽपि कदाचिदशियाद्युत्पत्ती गुरुलाघवं पर्यालोच्य दीर्घमस्फातिनिमित्तमकल्पमपि प्रतिसेवन्ते ततो मपति तेषामपि व्यवहारयोग्यतेति व्यवहर्तव्या निर्दिष्टाः । श्रथ ये प्रियधर्मादिगुणोपेता अपि प्रमादिनस्ते कथं व्यवहियन्ते प्रमादितया तेषां व्यवहारयोग्यताया अभावात् ।
(104) अभिधानराजेन्द्रः ।
तत आह
पियधम्मे दधम्मे, संविग्गे चैव जे उ पडिवक्खा । ते विहु वचहरिया, किं पुण जे तेसि पडिवक्खा | | ३१ ॥ प्रियधर्मादधर्मसंविग्नी च ये प्रतिपा हृदधर्मः प्रसंविग्नश्च तेऽप्यनवस्थावारणाय तदन्यनिषेधाय डु-निधितं व्यवदर्भय्या भगवद्भियाः किं पुन तेषामप्रिय धर्मादीनां प्रतिपक्षाः प्रियधर्मदृढधर्मसंविग्नाः ते सुतरां व्यवर्तम्याः प्रियधर्मादितथा तेषां भावतो व्यवहारप्रवृत्तेः । तदेवं 'पियधम्मे य बहुस्सुएं' इत्येतद् व्याख्यातम् ।
सम्पति 'वितिय' मित्यवययं व्याविल्यासुराद्दविय मुनसका श्वास जे होंति ते उ पडिवक्सा | ते विहु बहरियय्या, पार्या छताऽऽभवते य ।। ३२ ।। द्वितीय उपदेश आदेशो मकारोऽक्षणिकः, द्वितीयम्-मतास्तरमित्यर्थः, अचकादीनां ये भवन्ति प्रतिपक्षाः कः कुटिलो निष्कारप्रतिसेवी तथा सतप्रतिसेवनशी सोयधर्मा या वदपि केचित् व्यवहारयोग्यतथा अपरे अनवस्था वारणाय तदन्यनिषेधाय श्रभवति प्रायश्चिव्यष्याः । सम्पति' उपदेसपति' मिल्येतद्व्याविश्यासुराहउबरसो उ अगीए, दिजर बिइओ उ सोधिववहारो । गहिए वि अणभव्वे, दिज्जइ विययं तु पच्छित्तं ॥ ३३ ॥ साधुर्द्विविधो - गीतार्थः, श्रगीतार्थश्च । तत्र यो गीतार्थः स स्वयमेव जानीते, जानानस्य च नोपदेशः । यस्त्वगीतार्थः
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बबहार
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स युद्धायुक्तपरिज्ञानविकलतया अनाभाव्यमपि शुद्धानि तत स्वस्मै अगीतार्थाय उपदेशो दीयते यथा-धानाभाव्यं प्रहीतुम्, यो धनाभाव्यं गृह्णाति तस्य तन्निमितं प्रायश्चित्तमाभवति । एवमुद्दिश्य तस्यानाभाव्यग्रहणप्रवृत्तिनिमित्तं दानप्रायश्चितं दयिते, प्रथमत उपदेश इति आभाग्य ग्रहमनिनिमित्तं दानप्रायश्धिनं दीयते। तथा चाह-'बिह ओउ साहियवहारो 'शोधिः प्रायश्चित्तम् अनामायं गृह्णाति प्रथमत उपदेश आदीयते द्वितीयः शोधिदानव्यवहारः तदेतदनाभाग्यं तं प्रत्युक्रम् सम्प्रति गृहीतानाभाग्यं प्रत्याह-'गहिए थी' त्यादि, अपिशब्दः समु न केवलमनाभायेद्यमाने किंतु गृहीतेनाभाष्ये दीयते प्रथमतः उपदेश इति गम्यम्, तदनन्तरं सूत्रमुच्चार्य प्रायश्चित्तं यथावस्थितं कथयित्वा एतत्तवाऽऽभवति प्रायश्चित्तमिति प्रथमं ततो दानप्रायथितं दीयते इति द्वितीयम्। व्य० १ ० बनहार-व्यवहार-पुं० व्यवहियते यद्यस्य प्रायश्चित्तमाभयवि स तदानविपक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः "ऋतो भावात् समश्च हलः " इति करणे घञ् प्रत्ययः । व्य० १ उ० । कथंचिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणे, दश० ३ ० । स्था० । प्रायश्चित्तसमाचारे, पञ्चा० १६ विव० । व्यवहियन्ते जीवादयोऽनेनेति व्यवहारः । श्रथवा - व्यवहरणं व्यवहारः मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपेऽर्थे तत्कारणे, ज्ञानविशेषे च । प्रव० १२५ द्वार । व्यवहारप्ररूपणा कर्त्तव्या, तत्र व्यवहारग्रहखेन व्यवहारी व्यवहर्त्तव्यं वेति द्वितयं सूचितमेव तद्व्यतिरेकेण व्यवहारस्यासंभवात् न खलु करणं सकर्मक क्रियासाधकतम रूपं कर्म करे बिना कचित्सम्भवदुपलब्धम्। व्य०१ ४० [१] व्यवहारे व्यवहर्त्तव्यम्, ततो यथा व्यवहारस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या, तथा व्यवहारिव्यवहर्त्तव्ययोरपीति त्रयाणामपि प्ररूपणां चिकीर्षुः, भाष्यकृदेतदाह
ववहारो ववहारी, वबहरियव्वा य जे जहा पुरिसा । एएसिं तु पयागं, पत्तेयपरूवणं बुच्छं ।। १ । व्यवहार - उक्तशब्दार्थः व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारीव्यवहारक्रियाप्रवर्त्तकः । प्रायश्चित्तदायीति यावत् । तथा ये पुरुषाः पुरुषग्रहणं पुरुषोत्तमो धर्म्म इति ख्यापनार्थम्, अयथा स्त्रियोऽपि द्रष्टव्यास्तासामपि प्रायश्चित दानविपयतया प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । यथा ये वक्ष्यमाणेन प्रकारेण व्यमव्याः व्यवहारकियाविषयी कर्तव्याः पाठान्तरम् जे जहा काले' अस्थायमर्थः वे यथा यस्मिन्काले व्यवह व्यास्तद्यथा-यदा आगमव्यवहारिणः सन्ति तदा तदुपदेशेनैव व्यवह संव्यास्तेषु व्यवच्छिन्नेषु श्रुतज्ञानव्यवहार्युपदेशेन तदेव चाज्ञयाऽपि तदेव धारणा तदेव तु जीव्यवहारे
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इति एतेषां व्यवहारव्यवहारिव्यवहर्तव्यरूपाणां या पदानामपि संक्षेपवि स्तरता प्रत्येकमिति प्रत्येकशः पचेत्यादिनामाचः। एकैकस्येत्यर्थः प्ररूपणां व्याख्यां पये। रात्र संक्षेपप्ररूपणार्थमिदमाह -
ववहारी खलकत्ता, ववहारो होइ करणभूतो उ । ववहरियव्वं कर्ज, कुंभादितियस्स जह सिद्धी ॥ २ ॥ ववहारी खलु कत्त ' ति व्यवहारस्य कर्त्ताः व्यवहारस्य
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( ६०५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
बबहार
देता अभिधीयते इति शेषः व्यवहार पुनर्भवति करणभूतः । व्यवहारयां प्रति करवत्यं प्राप्तः सुरान्दः पुनरर्थे व्यवहितसम्बन्धश्च स च यथास्थानं योजित एव । स च व्यवहारः करणभूतः पञ्चधा श्रागमः श्रुतम्, श्राज्ञा, धा रणा, जीतश्च । श्राह च चूर्णिकृत् - 'पञ्चविधो व्यवहारः करण'मिति तेन च पञ्चविधेन व्यवहारेण करणभूतेन व्यवहरन् क
निष्पादयति कार्यमित्युच्यते व्य० १ उ० । प्रथमतो व्यवहारपदस्य निरुक्तं वक्तुकाम इदमाहविवि वा इत्यादि विविधं तत्तयोग्यतानुसारेण विचित्रं या सर्वोक्रेन प्रकारे वपनं तपःप्रभृत्यनुष्ठानशेपस्य दानम्- 'य' जताने इति वचनात् हरणमतीचादोषजातस्य अथवा संभूय द्विस्यादिसाधूनां कचि
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C
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योजने प्रवृत्ती यत् पस्मिनाभवति, तस्य तस्मिम्यपनमितरस्माच हरणमिति व्यवहारः किमु भवति-विविध विधिना वा हारो व्यवहारः पृषोदरादय इति विवा " शब्दयोध्येच आदेशः । सम्प्रति वपनहरणशब्दयोरर्थं वक्कामस्तदेकाधिकान्याहचवणं ति रोवणं ति य, पकिरण पडिसाडणा य एगडुं । हारो त्तिय हरणं विय, एग हीरएव वत्ति ॥ ४ ॥ टुप् - बीजतन्तुसन्ताने, उप्यते वपनं इतिशब्दः शब्दस्वरूपपरिसमाप्तिद्योतकः, एवमुत्तरेऽपि । रोपण मिति रुह जन्मनि, रोहति कश्चितमन्यः प्रयुपपरे रुहेः ' पो वा' इति हकारस्य प्रकारः । रोप्यते इति रोपणं भावे नया समुच्चये परिचि विशेषे पूर्व शब्दो दाने प्रदान की विक्षिप्यते इति प्ररम्परिसाणा व इति शद बजायाम् परिपूर्वः परिशति प रिश्वत, तमन्यः प्रयुङ्क्ते पूर्ववत् सिए परिशायते - ति परिशाटनानि वेत्यादि अनद्प्रत्ययः, आप् । चः समुचये । 'पगड' मिति एतत् शब्दचतुष्टय मेकार्थम्, एकार्थप्रवृत्ताः परस्परमेते पर्याया इति भावः । तेन यदुक्तं भवति - रोपणमिति प्रकरणमिति परिशाटनेति वा तदुक्तं भवति वपनमिति । एतावता वपनशब्दस्य प्रदानलक्षणो ऽर्थः समर्थितः । हारोति वेत्यादि । हरणं हारः, इतिरसम् हियते इति वा एकार्थाः योऽप्येते शब्दा एकार्थिका इत्यर्थः । तदेव वापशब्दस्य हारशब्दस्य व प्रत्येकमर्थोऽभिहितः । सम्प्रति तयोरेव समुदितयोरर्थ जिज्ञापयिषुरिदमाह - अत्थी पचरथीणं, हार्ड एकस्स वद बिइयस्स । एए उ वनहारो, अहिगारो एत्थ उ विहीए ॥ ५ ॥ अर्थी - याचको यः परस्मान्मयेदं लभ्यमिति याचते । प्रत्यर्थी अर्थिनः प्रतिकूलः । किमुक्तं भवति यः परस्य गृहीत्वा
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न
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किमपि तस्मै प्रयच्छति तयोरर्थिप्रत्यर्थिगोविंदमानयोगद्वारा स्थेयपुरुषमुपस्थितयोः स व्यवहारपरिच्छेदकुशलो व्यवहारविधापन समर्थ थेयो यस्मात् हार्ड ए कस्स ' त्ति | सूत्रे षष्ठी पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वात् । प्राकृते हिविभक्तिम्पत्योऽपि भयति यदाद पाणिनिः स्वातलक्षणे- पत्योऽप्पासामिति । यस्य यथाऽऽभवति तस्मात् तत् हत्वा श्रादाय यस्याऽऽभवति तस्मै द्वितीयाय वपतिप्रति एए उ यवहारो' इति एतेन - अनन्तरोहितेन कारणेन स स्थेपव्यापारो व्यवहारः किमुकं भवति-प
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ववहार स्मादेष स्थेयपुरुषो विवादनियाय एकस्माद्धरति अ यस्मै प्रयच्छति तस्मादव्यापारो वपनरात्मकत्वात् व्यवहार इति । एतावता समुदायार्थकथनं कृतम् स च व्यबहारो विधिव्यवहारोऽविधिव्यवहारश्च । तत्रापि विधिव्यबहारपरित्यागेन विधिव्यवहार एच कर्तव्य इति प्रतिपादना र्थमाह-' अहिगारो पत्थ उ विहीए' । श्रत्र - एतस्मिन् शास्त्रे अधिकारः - प्रयोजनं व्यवहारेण विधिनैय-विधिपूर्वकेच शब्द एवकाराधों कि नाविधि पानदेयमुक्रं व्यवहारशब्दस्य निर्वचनम्। तय कि यामाचक्रमभिमन्थयोजनायां तु करणव्युत्पत्तिरा श्रयणीया । विधिना उप्यते हियते च येन स व्यवहार इति ।
(२)संप्रति व्यवहारस्य नामादिमेव दर्शनार्थमाहववहारम्मि चउक्कं, दव्त्रे पत्तादि लोइयादी वा । नागमतो पणगं, भावे एगऽट्ठिया तस्स ॥ ६ ॥ व्यवहारे व्यवहारविषये चतुष्कम् किमु भवति चतु र्द्धा व्यवहारः । तद्यथा - नामव्यवहारः स्थापनाव्यवहारो, द्रव्यव्यवहारो, भावव्यवहारश्च । तत्र नामस्थापने सुप्रतीते,
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व्यवहारो विभाग नोचागमनथ श्रागमतो व्यवहारपदार्थ, नत्र चानुपयुको नामधिनोश्रागमतस्त्रिधा - शशरीरभव्यशरीरभेदात्र शरीरभरी व्यवहारी गती शरीर भव्यशरीरयोरन्योऽभिहित स्यात् तद्व्यतिरिक्तमाह- 'दव्ये पत्तादि लोया या ये द्रव्यविषये व्यवहारो नोआगमंतो शरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्रः पत्रादिः, आधाराधेययोरभेदविवक्षायं निर्देशः । ततोऽयमर्थः शरीरभरी व्यतिरिक्को द्रव्यव्यवहारः स
पपय ग्रन्थः पुस्तकपत्रलिखितः, आदिशब्दात् काष्ठसंपुटफलकपट्टिकादिपरिग्रहः । तत्राप्येतद्ग्रन्थस्य लेखनसम्भवा
लौकिकादिति । यदि याशशरीरस्यशरीरव्यतिरिक्को द्रव्यव्यवहारस्त्रिविधः तथा लौकिकः कुमावचनिको लोकोतरिकध। तत्र लौकिको यथा-आनन्दपुरे महादा रूपकाणा मशीतिसहस्रं दण्डो, मारितेऽपि तायामेव प्रहारे तु पति यदि कथमपि न मृतस्तर्हि रूपको उ त्कृष्टे तु कलहे प्रवृत्ते अर्द्ध त्रयोदशरूपको दण्डः । कुप्रावचनको यथा - यत्कर्म्म यो न करोति न ततः कर्मणस्तस्य किं - चिदिति । लोकोत्तरिको यथा- एते पाण्डुरपटप्रावरणा जि. नानामनाशया स्वच्छन्द व्यवहरन्तः परस्परमशनपानादिप्र दानरूपं व्यवहारं कुर्वन्ति भावपारो विधा-आगमतो नोआगमतश्च । श्रगमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः • उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात् । नोचागमतः पञ्चवि धो व्यहारः । तथा चाह-'नोश्रागमतो परागं'' भावे 'इति भावे विचार्यमाणे नोचागमतो व्यवहारो व्यवहारपश्चकम् श्रागमः श्रुतम् आशा धारणा जीतमिति । नोशब्दो देशवचनः, तस्य पञ्चविधस्यापि नोश्रागमतो भावव्यवहारस्यसामान्येन एकाधिकाम्यमूनि ।
तान्येवाद
सुत्ते अत्थे जीए, कप्पे मग्गे तहेव नाए य । तत्तो य इच्छियव्वे, आयरिए चैव ववहारो ॥ ७ ॥ तदर्थसूचनात् सूत्रम् श्रादिकी शब्दव्युत्पत्ति त पूर्वाणि छेदसूत्राणि वा । तथा अर्ध्यते- प्रार्थ्यते मोक्षमभिल
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ववहार श्राभिधानराजेन्द्रः।
यवहार पद्भिरित्यर्थः, सूत्रस्याभिधेयम् । तथा जीतं नाम प्रभूतानेक
समणा णिग्गंथा इच्चेयं पंचविहं ववहारं जहा जहा जहिं जाह गीतार्थकता मर्यादा तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्युपचारात् जीतम्। तथा कल्पन्त समर्था भवन्ति संयमाध्वनि प्रवर्त
तहा तहा तहिं तहिं अणिस्सिोवसितं सम्मं ववहारमाणे माना अनेनेति कल्पः । मृजूष-शुद्धौ, मृजन्ति शुद्धीभवन्त्यने
समणे शिग्गंथे भाणाए आराहए भवइ । (सू०-३४०) नातिचारकल्मषप्रक्षालनादिति मार्गः " उभयत्र व्यञ्जनात् 'कविहे ण 'मि त्यादि, व्यवहरणं व्यवहारो-मुमुचुप्रवृ. घम्" इति घञ्प्रत्ययः । तथा इण्-गतो. निपूर्वानितरा- तिनिवृत्तिरूपः इह तु तन्निबन्धनत्वात् मानविशेषोऽपि व्यमीयते गम्यते मोक्षोऽनेनेति न्यायः, तथा सवैरपि मुमुक्षुभि वहारः, तत्र आगम्यन्ते परिच्छिचन्ते अर्था अनेनेत्यागमःरीष्यते प्राप्तुमिष्यते इतीप्सितव्यः, आचर्यते स्म बृहत्पुरुषै. केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः , तथा रण्याचरितम् । व्यवहार इति पूर्ववत् , उकान्यकार्थिकानि ॥ श्रुतं-शेषमाचारप्रकल्पादिनवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीसम्प्रत्यत्रैवाक्षेपपरिहारावभिधिनुराह
न्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमध्यपदेशः एगद्रिया अभिहिया, न य ववहारपणयं इहं दिहूँ। केबलवदिति, तथा आशा-यद्रीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्दे भस्मइ एत्येव तयं, ददुव्वं अंतगयमेव ।। ८॥ शान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातीचारालोचनमितरस्यापि तनन्वभिहितान्येकाथिकानि परमेतेष्वेकाथिकेषु व्यवहा
थैव शुखिदानम् । तथा धारणा-गीतार्थसंविग्नेन द्रव्यारपञ्चकमागमश्रुतामाधारणाजीतलक्षणं न र.एम्-नोपात्तं जी
द्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदतस्येव केवलस्योपात्तत्वात् , अत्र सूरिराह-भण्यते-अत्रो.
गुप्तमेषालोचनदानस्तत्रैव तथैव सामेष प्रयुक्त इति वैयावृतरं दीयते । अत्रैव-रतेवेव एकाथिकेषु तत्-व्यवहारपञ्च
स्यकरादेर्वा गच्छोपप्रहकारिणोऽशेषानुचितस्य प्रायश्चिकमन्तर्गतमेव द्रष्टव्यम्।
तपदानां प्रदर्शितानां धरणमिति, तथा जीतं-द्रव्यक्षेत्रकथमित्याह
कालभावपुरुषप्रतिसेषानुवृत्त्या संहननधृत्यादिपरिहालिमआगमगा उ सुत्तेण, सूइया प्रत्थतो उ तिचउत्था।
वेश्य यत्यायश्चित्तदानं, यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिकः का
रणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुमिरन्यैश्वानुवर्तित बहुजबमाइ पुण,जीवं उचिगं ति एगहूँ ।।६॥
इति । श्रागमादीनां व्यापारणे उत्सर्गापवादावाह-'जहे' सूत्रेण-सूत्रशयन सूचिते भागमश्रुते-श्रागमश्रुतव्यवहा
स्यादि, यथेति-यथाप्रकारः केवलादीनामन्यतमः ‘से' रौ, तथाहि-त्रागमव्यवहारिणः षट् । तद्यथा-केवलज्ञानी म
तस्य व्यवहाँः स चोक्तलक्षणो व्यवहारस्तत्र तेषु पासु नःपर्यायज्ञानी अवधिज्ञानी चतुर्दशपूर्वी दशपूर्वी नवपूर्वी च ।
व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानाविम्यवहारकाश्रुतव्यवहारिलोऽप्यशेषपूर्वधरा एकादशाङ्गधारिणः कल्प
ले व्यवहर्तव्ये वा वस्तुनि विषये भागमः-केवलादिः-स्यात् व्यवहारादिसूत्रार्थतदुभयविदश्च । ततो भवति सत्रग्रहणेना
भवेत् तारशेनेति शेषः। प्रागमेन व्यवहार प्रायश्चित्तदानागमथुतव्यवहारयोग्रहणं चतुर्दशपूर्वादीनां कल्पव्यवहारा- दिकं प्रस्थापयेत्-प्रवर्तयेत् न शेषैः भागमेऽपि पडिकेदिच्छेदग्रन्थानामपि च सूत्रात्मकत्वात् । तथा अर्थतः-अर्थ- घलेनाबन्ध्यबोधयात्तस्य तदभावे मनःपर्यायेख एवं प्रधाशब्देन सूचितौ त्रिचतुर्थी-तृतीयचतुर्थावानाधारणाल- नतराभावे इतरेणेति । अथ बो-जैव चशम्यो-यदिशनार्थः, क्षली व्यवहारौ । ग्य०१ उ०। (प्रासाव्यवहारः 'माणा' 'से' तस्य स वा तत्र व्यवहर्तव्यादावागमः स्यात् यथाशब्दे द्वितीयभागे १२२ पृष्ठे गतः।)(धारणाव्यवहारः 'धा. यत्प्रकारम् ' से ' तस्य तत्र व्यवहर्तव्यावी श्रुतं स्यात् , ता. रखाववहार ' शब्णे चतुर्थभागे २७४६ पृष्ठे गतः । जीतष्य- रशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति, 'इबेपहि' इत्यादि वहारश्च 'जीयववहार' शब्दे चतुर्थभागे १५१३ पृष्ठे गतः।)
निगमनम् , सामान्येन-जहा जहा से' इत्यादि तु विशेष(३) व्यवहारा धारणादयः
निगमनमिति, पतैर्व्यवहर्तुः फलं प्रश्नद्वारेणाह- से किमिकइविहे गं भंते ! ववहारे पामते ?, गोयमा! पंचविहे
त्यादि, अथ किं हे भदन्त ! भट्टारका भादुः-प्रतिपादयववहारे पसत्ते, तं जहा-आगमे , सुए , आणा, धार- न्ति,ये भागमबलिकाः-उकशानविशेषबलवन्तः भ्रमणा-निथा, जाए। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमणं बव- ग्रन्थाः केवलिप्रभृतयः 'वेय' ति इत्येतद् बच्यमाणम् , अहारं पद्ववेजा णो य से तत्थ श्रागमे सिया। जहा से थवा-इत्येवमिति एवं प्रत्यक्ष पञ्चविध व्यवहारं प्रायश्चित्त
दानाविरूपम् ' सम्मं धवहरमाणे 'सि सम्बध्यते, व्यवहरतत्व सुए सिया सुएणं ववहारं पट्टवेजा, णो वा से
न प्रवर्सयमित्यर्थः,कथम् ?,'सम्म' ति-सम्यकतदेव कथम् , तत्थ सुए सिया। जहा से तत्थ आणा सिया प्राणाए
इत्या-यदा यदा यस्सिम्यस्मिन्नवसरे यत्र यत्र प्रयोजने वा ववहारं पढवेजा, यो य से तत्थ प्राणा सिया । जहा से
क्षेत्र वा योय उचितस्तं तमिति शेषःतशतदा काले तमिस्ततत्व धारणा सिया धारणाए णं ववहारं पट्ठवेज्जा, यो
स्मिन् प्रयोजनादौ, कथम्भूतम् ?, इत्याह-('अणिस्सिमोय से तत्व धारखा सिया । जहा से तत्थ जीए सिया वसितं' इत्यादिसूत्रावयवम् 'अणिस्सिमोषस्सिय' शब्बे जीएवं बवहारं पट्ठवेज्जा , इच्चेएहिं पंचहिं बवहारं पट्ट- प्रथमभागे ३३८ पृष्ठे व्याख्यातम्) मामाया जिनोपदेशस्या. वेज्जा ,तं जहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए
राधको भवतीति, हन्त ! माहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति ।
अन्ये तु-से किमाहु भंते' इत्यायेवं व्याल्यान्ति-अथ किजीएवं । जहा जहा से भागमे सुए आणा धारणा जीए
माहुर्भदन्त !आगमबलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः पञ्चविधव्यतहातहा ववहारं पट्ठवेजा। से किमाहु भंते ! आगमवलिया। हारस्य फलामति शेषः । भ०८ श०८ उ०।
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यवहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार पंचविहे ववहारे परमत्ते,तं जहा-आगमे १, सुए २,प्राणा] सूर्यस्य प्रकाश दीपप्रकाशो विशेषयति-न सूर्यप्रकाशात ३, धारणा ४, जीए (सू०-४२१४)स्था०५ ठा०२ उ०।।
दीपप्रकाशोऽधिकतरः, किंतु-हीन इत्यर्थः । एकामिहापि यार
शो विषय ग्रागमस्य न तादृशः शेषाणां व्यवहाराणामिति । अस्य सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाह
आह-यस्मिन काले गौतमादिभिरिदं सूत्रं कृतम् । ' ववहारे बहुभागमितो पडिमं, पडिवाइ आगमो इमो वि खलु । पंचविहे पत्र से ' इत्यादि तदा श्रागमो विद्यते, ततः किं सव्वं व पवयणं पव-णीया ववहारविसयत्थं ॥४६॥ कारणमाक्षादयोऽपि सूत्रे निबद्धाः । खलियस्स वि पडिमाए, ववहारो को ति सो इमं सुतं ।
अत्राह
सुत्तमम्मायविसयं, खेतं कालं च पप्प ववहारो। ववहारविहिएणू वा, पडिवाइ सुत्तसंबंधो ॥ ५० ॥ अनन्तरसूत्रे प्रतिमाभिहितानां च प्रतिमा प्रतिपद्यते ब
होहिंति न आइल्ला, जो तित्थं जाव जीतो उ ।। ५३ ।। डागमिकः, भयमपि पञ्चविधोऽपि व्यवहारः खल्वागमस्तत
सूत्रमझातातपय भविष्यति स तादृशः कालो यस्मिन्नाभागमप्रस्तावात्प्रतिमासूत्रादनन्तरं व्यवहारसूत्रमवादि ।
गमो व्युतळे स्यान, ततः शेषैर्व्यवहारैर्व्यवहर्त्तव्यम् ,तत्रापि 'सव्वं वे' स्यादि वाशग्नः संबन्धस्य प्रकारान्तरोपदशेने सर्व
व्यवहारः । क्षेत्र कालं च प्राप्य यो यथासंभवति तेन तथा प्रवचनं प्रावनिकश्च व्यवहारविषयस्थं व्यवहारविषयान्त
व्यवहरणीयम् । किमुक्तं भवति-यस्मिन्काले यो यो व्यवहा
रो व्यवलिः अव्यवच्छिन्नो वा तदा तदा प्रागुक्लेन क्रमेण गंमतोऽवश्य व्यवहारो वक्तव्य इति व्यवहारसूत्रम् । अथ
व्यवहतरा । तथा यत्र यत्र क्षेत्रे युगप्रधानैराचार्यर्या या वा-प्रतिमायां स्थितस्य प्रतिमायाः स्खलितस्य को व्यवहारः
व्यवस्था कता तथा अनिश्रोपश्रितं व्यवहर्त्तव्यम् । अन्यच्चकिंकर्तव्यमिति प्रश्नमाशङ्कय स व्यवहारः पञ्चविध इत्या
आद्याश्चत्याग व्यवहारा न यावत्तीर्थ च भविष्यन्ति जीतदिकमिदं सूत्रमुपन्यस्तम् । यदि वा-अनन्तरसूत्रे प्रतिमाः प्र
स्तु व्यवहारा यावत्तीर्थ तावद्भवितेति जीतोपादानम् । व्य० तिपद्यते इत्युक्तं ताश्च प्रतिपद्यते व्यवहारो विधिशो नेतर
१० उ०।" आपाए प्रणाणाए आराहेड" इत्यस्य व्याइति प्रतिमासूवादनन्तरं व्यवहारसूत्रस्य संबन्धः । सूत्रा
स्यानम्---'पागा' शब्दे द्वितीयभागे १२३ पृष्ठे गतम् ।) क्षरसस्कार सुप्रतीतो विशेषव्याख्यां तु भाष्यकृत्करिष्यति ।
सांप्रतमाराधनामाहव्य०१० उ०1
पाराहमा उतिविहा, उक्कोसा मज्झिमा जहमा उ।
एग दुगनिम जहन्न, दु तिगड भवा उ उक्कोसा।।५॥ जहा से तत्थ भागमे सिया आगमेण ववहारं पट्ठवेआ।
आराधना बिायधा-उत्कृष्टा, मध्यमा, जघम्या च । त(मू०-४२१) स्था० ५ठा।
प्रोत्कृष्टाऽराधनायाः फलमेको भवः, मध्यमाया द्वौ भवी, अस्य व्याख्यामाह
जघन्यायासार भवाः । श्रथवा-यदि तद्भवे मोक्षाभावः सो पुण पंचविगप्पो, आगम सुय प्राण धारणा जीते । तदा उत्कृाऽराधनायाः फलं जघन्यं संसरणं द्वौ भयो, सेतम्मि ववहरते, उप्परिवाडी भवे गुरुगा ॥ ५१ ।।
मध्यमायागा भवाः, जघन्याया उत्कृष्ट अष्टौ भवाः । तदेवं सः-पुनर्व्यवहारः पञ्चविधः प्राप्तः, तद्यथा-भागमः श्रुतम्
भाष्यकृता मत्रव्याख्या कृता ।
संप्रति नियुक्तिविस्तरःआशा धारणा जीतमिति । तत्र सति भागमादौ व्यवहारे यदि उत्परिपाट्या-उत्क्रमेण व्यवहरति तदा प्रायश्चितं चत्वारो जेण य गाडाड मुणी, जंपिय ववहरइ सो वि ववहारो। गुरुकाः । इयमत्र भावना-आगमे विद्यमाने यद्यन्येन सू- ववहारो तति व ठप्पो, ववहरियव्वं तु वुच्छामि ॥५६॥ त्रादिना व्यवहरति तदा चतुर्गुरुकम् । यदा पुनरागमो न वि- येन मुनिगवहरतसागमादिव्यवहारः,व्यवहियतेऽनेनेति चते तदा श्रुतेन व्यवहर्तव्यम् । श्रुते वर्तमाने यद्याज्ञादिभि- व्यवहारःत ज्यपत्तेर्यदपि च व्यवहर्त्तव्य मुनिर्व्यवहरति । र्व्यवहरति तदा चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् । यदा तु श्रुतमपि सोऽपि सरावदा कर्मणि घञ् । समापनान् तत्र यो व्यवन विद्यते तदाऽऽक्षया व्यवहर्त्तव्यम् । श्राशायां विद्यमानायां हारः कराएदार स स्थाप्यः पश्चाद्वषयत इति भावः ।व्ययदि धारणया प्रस्थापयति तदा चतुगुरुकम् । आशाया। घहर्तव्यं न उसाम। अभाव धारणया व्यवहर्त्तव्यम् । यदि पुनर्धारणायां सत्या
जातातमेव निर्वाहयतिजीतेन व्यवहरति तदा चतुर्गुरुकम् । धारणाया अभावे आभयंते पाच्छत्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं । जीतेन व्यवहर्तव्यमिति । तत्र 'से तत्थ आगमे सिया' इत्या- दोसु र प य पणगं, आभवणाए अहीगारो ॥५७|| दिकस्य (स्थानाक ४२१४) सूत्रावयवस्यायमर्थः-तत्र त
व्यवहर्त मनासतो द्विविधम् , तद्यथा-आभवत्, प्रायस्मिन्व्यवहारपश्चकमध्ये 'से' तस्य साधोरागमः स्यात्ताह शिक्ष
द्व योरपि आभवति प्रायश्चित्ते च प्रत्येक आगमेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् व्यवहारो न शेषैः सूत्रादिभिः।
पञ्चकम् , नारः प्रयोजनमिदानीमाभवनया एष द्वार. एतदेवाह--
गाथासंक्षेप । प्रागमववहारी श्रा-गमेण ववहरेइ सोन अने।। साव्याचिख्यासुराह । तत्र प्रथमतः न हि मूरस्म पगास. दीवपगासो विसेसेइ ।। ५२ ॥
'
दोन पणग' मित्यस्य व्याख्यानमाह-- स आगमन्यवहारी आगमेन व्यवहरति । नान्येन-श्रुतादिना
खेत्तेस मा पखे, मग्गे विणए य पंचहा होइ । जस्य ततो हीनत्वादेतदेव प्रतिवस्तपमया दर्शात-नदि सलिने
खेते काले य भावे य॥ ५८ ।।
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(१७) बबहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार पाभवत्पश्चधा-पञ्चप्रकारं भवति । तद्यथा-क्षेत्रे श्रुते व्यवहारेण दाप्यते । मायानिष्पन्नश्च तस्य गुरुको मासः सुखदुःखे मार्गे विनये च । प्रायश्चित्तमपि पश्चधा , त-| प्रायश्चित्तम् । सचित्ते चत्वारो गुरुकाः, अचित्ते उपधिनियथा-सचित्ते अचित्ते क्षेत्रे काले भावे च । एष प्रति- पन्नम् , स पुनरभिधारयन् यः सचित्तैः सोऽभिधायते तेषां द्वारगाथासमासार्थः । व्य०१० उ०। [तत्र क्षेत्रे तावदा
मध्ये किं लभते इत्याह-"छम्मासं चेव वल्लिदुग" मिति पट भवद्व्यवहारः 'खेत्त' शब्दे तृतीयभागे ७५८ पृष्ठे गतः।] नालवद्धानि निर्मिश्राणि लभते १ मिश्रं च २ एवं रूपं निअधुना श्रुतद्वारमाह
मिश्रलक्षण वल्लिद्विकं लभते । दुविहा सुतोवसंपय-अभिधारेंते तहा पदंते य ।।
__ साम्प्रतमेनामेव गाथां विवृण्वन्नाहएकेकाऽवि य दुविहा, अणंतरपरंपरा चेव ॥ १२६ ॥ । ___ अभिधारते पढ़ते वा, छिन्नाए ठाति अंतए । द्विविधा श्रुतसंपत् , तद्यथा-अभिधारयति, पठति च ।। मंडलीए उ सट्ठाणं, वयतो न उ मज्भिामे ॥ १३० ।। एकैका द्विविधा-अनन्तरा, परम्परा च । तत्राभिधारय
अभिधारयति पठति वा यो लाभः स छिन्नायामुपसंपत्यनन्तरा नाम-एकः साधुः कंचिदाचार्यमभिधारयति ।
दि अन्तके--पर्यन्ते तिष्ठति सर्वेषां लाभस्तत्र विश्राम्यतीयोऽसावभिधार्यमाणः सन् कश्चिदन्यमभिसंधारयति परं-1
त्यर्थः । मण्डल्यां तु यो लाभः स स्वस्थानं लभते व्यापरा नाम एकः साधुः कश्चिदाचार्यमभिसंधारयति सोऽ
ख्यातुरुपतिष्ठत इत्यर्थः, न तु मध्यमे मण्डलीमध्यवर्तिनि । प्यभिधार्यमाणोऽन्यमभिधारयति, सोऽप्यन्यम् , सोऽप्यन्य
कस्मादित्याहमेवमनियतं परिमाणम् ।
जो उ मज्झिल्लए जाति, नियमा सो उ अंतिमं । तदेवाहएत्थं सुतं अहीहम्मि, सुत्तवं सो य अनहिं ।
पावते निन्नामि तु, पाणीयं च पलोठियं ।। १३१॥ वच्चंतो सो भिधारतो, सो वि अन्नत्तमेव वा ॥ १२७॥
यो मण्डलीमध्यवर्तिनि लाभो याति सोऽपि नियमाद
न्तिमं व्याख्यातृलक्षण प्राप्नोति, निम्नभूपानीयं प्रलोठितम् । दोपहं अनतरा होति, तिगमादी परम्परा ।
पूर्व षद् निर्मिश्राण्ययुक्तानि तानि सम्पति दर्शयतिसट्ठाणं पुणरेतस्स, केवलं तु निवेयणा ॥ १२८॥
माया पिया य भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धूया य । अत्र अस्य पार्श्व श्रुतमध्येष्ये इति कश्चिदभिधारयन् -
एसा अणंतरा खलु, निम्मिस्सा होति वल्ली उ ॥१३२॥ जति, सोऽपि श्रुतवान् अन्यत्राभिधारयन् व्रजति , सो
माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता च, एषा खलु ऽप्यन्यम् । यदि वा-तमेवाभिधारयति । तत्र द्वयोरनन्तरा
अनन्तरा निर्मिश्रा भवति वल्ली। थुतोपसंपद्भवति त्रिकादीनां तु परम्परा स्वस्थानं पुरागच्छतः केवलं तस्याभिधारितस्य निवेदना कर्तव्या । यथाऽहं
सेसाण उ वल्लीणं, परलाभो होइ दोन्नि चउरो वा । स्वस्थानं गमिष्यामीति।
एवं परंपराए, विभासतत्तो य जा परतो॥१३३ ।। [४] साम्प्रतमनन्तरायां परम्परायां वाऽभिधारणायामाभ- शेषाणां तु वल्लीनां यो लाभो भवति द्वे-पुष-दुहितरी, वन्तमाह
यदि वा-चत्वारि-मातापितृभ्रातृभगिनीरूपाणि स समअछिमोवसंपयाए, गमणं सट्ठाण जत्थ वा छिन्नं । । स्तोऽपि परलाभोऽभिधारितस्य लाभ इत्यर्थः । एवं परमग्गण कहण परंपर, छम्मासं चेव वल्लिदुर्ग ॥२६॥
म्परायामपि विभाषा कर्तव्या। ततोऽपि याः परतो वल्ली अच्छिन्नोपसम्पदमभिधार्यमाणो यदन्यं वाऽभिधारयति
तस्य या परतः ताः सर्वा अपि परलाभः । व्य० १० उ० । तस्य हि लाभो न छिद्यते । तस्मादभिन्नोपसंपदि योऽ
(मिश्रवल्ली 'मिस्सवल्ली' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) भिधारयतां लाभः स स्वस्थानं गच्छति , योऽभिधारि- दुविहो अभिधारेतो, दिट्ठमदिट्ठो य होति नायव्यो। तस्तस्यान्यनाच्छिन्नः सन् गच्छतीत्यर्थः । अथ छिन्ना अभिधारेजंतगसं-तएहिं दिट्ठो य अन्नेहिं ।। १३६॥ उपसंपत् तत श्रादित श्रारभ्य यत्र सर्वेषां लाभो ग- अभिधारयन् द्विविधो द्रष्टव्यस्तद्यथा-दृष्टोऽष्टश्च । तत्र च्छति इहाभिधारयन् योऽभिधारितस्तं प्रति संप्रस्थितः दृष्टोऽभिधार्यमाणसत्कैः साधुभिरन्यैर्वा, अष्टो-न केनास चापान्तराले यदन्यमभिधारयति आत्मीये वा गच्छे पि दृष्टः । प्रतिनिवर्तते, तदा यदभिधारयता पथि लब्धं सचि- सचित्ते अंतरालद्धे, जो उ गच्छति अन्नहिं । सं तदभिधारितस्य स्वयं वा गत्वा समर्पयति , अन्य
जो तं पेसे सयं वावि, नेइ तत्थ अदोसवं ॥ १३७॥ स्य वा हस्ते प्रेषयति । अथ नार्पयति स्वयमन्यप्रेरणेन वा |
सचित्ते अन्तरा पथि लब्धे यः अभिधारयन् अन्यत्र गच्छतत्राह-' मग्गणे' त्यादि , तत्र 'कहणपरम्पर' सि यैः
ति, स्थगच्छ वा प्रतिनिवर्तते, तत्र यस्तत् सचित्तं लब्धसरट आगच्छन् तैयः पूर्वमभिधारितस्तस्य परम्परकेणा
मभिधारितस्य प्रेषयति, स्वयं वा नयति, सोऽदोषवान् । ख्यातम् । यथा-युष्मानभिधारयत । तेन संप्रस्थितेन सचितं लब्धम् , ततः युष्माकं तेन न प्रेषितम् 'मग्गण'
जो उ लर्बु वए असं, सगण पेसवेइ वा। त्ति स चैतत् श्रुत्वा तं मार्गयति , क गतो भवेन्मम स- दिट्ठो व अदिट्ठो वा, मायती होंति दोगिह वि॥१३८॥ चित्तहारीति मृगयमाणैश्व स्नानादिसमवसरणे दृष्टः पृष्ट- यस्तु सचित्तं लब्ध्वा अन्यमाचार्य व्रजति, स्वगण वा तश्व । यथा-अमुककाले अस्मानभिधारयता समागच्छता स.] सचित्तं प्रेषयति । दृष्टोऽटो वा सन् तौ दृष्टादृष्टरूपी द्वावविसं लब्धं तन्मह्यं देहि, यदि न ददाति तदा बलात् | पि मायिनौ भवतः।
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(१०) ववहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार रहाणाइएसु तं दिस्सा, पुच्छा सिढे हरंति से गुरुगो।। ष्यः सचित्तादिकम् । आह-किं कारणं तृतीयेऽपि प्रकारे गुरुगा चेव अचित्ते,तिविहं पुण सम्म तग्गहणा॥१३॥
कालगताचायशिष्याणामेवाऽऽभवतीत्यत श्राह-'बलिय' त्ति
वलवती श्रुताज्ञा, तत् श्रुतं तदवस्थमेव यन्निमित्तं तेनाभिपरम्परया कथमपि श्रुतं यथा अमुकोऽस्मानभिधार्य समा.
धारितम् ' सुद्धमसुद्धे अदेतदेंते य' इति यत् कालगतागच्छन् अन्तरा पथि सचित्तं लब्धवान् परं सोऽन्यत्र गतः, चार्यस्य शिष्याणामाभवति तद्यद्यभिधारको ददाति , तस्वगण वा गतवान् , ततस्तं मृगयमाणैस्तैः स्नानादिभिः दा शुद्धः-श्रप्रायश्चित्तीत्यर्थः । अथ न ददाति तदा अशुद्धःसमवसरणषु तं दृष्ट्वा पृच्छा कृता, यथा-त्वममुककाले:- प्रायश्चित्तभाग् भवतीत्यर्थः । तत्र सचित्तस्यादाने प्रायस्माकमभिधार्य समागच्छन्नन्तरा सचितमूत्पादितवान्?, तेन | श्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, आदेशान्तरेणानवस्थाप्यम् । अचित्तं च यथावस्थितं शिएं, ततः स तस्य सकाशात् तत्सचित्तं उपधिनिमित्तं योऽपि चानाभाव्य न दसे तस्याप्येवमेव प्रायहरति । अथ स न ददाति तर्हि बलात् व्यवहारेण दाप्यते,
श्चित्तम् । मायाप्रत्ययश्च तस्य गुरुको मासः प्रायश्चित्तम् । श्रचित्ताप
संप्रति 'पुब्धि पच्छा निग्गत संतमसंते' इत्यस्य किंचिइरसे चत्वारो गुरुकाः, अचित्ते पुर्नास्त्रविधे जघन्योपधि
द्याख्यानमाहनिष्पन्न मध्यमोपधिनिष्पन्नमुत्कृष्टोपधिनिष्पन्नं च ।
लद्धे उवरया थेरा, तस्स सिस्साण सो भवे । अत्रैवान्यकर्तृकं किंचिद्विशेषसूचकं गाथाद्वयम्
मए वि लभते सीसो, जइ से अस्थि देइ वा ॥ १४४॥ दविहो अभिधारेंतो, दिद्वमदिट्रोव होइ नायव्यो। । तत्र प्रथसे प्रकारेऽभिहितं प्राक,तथैव द्वितीये प्रकारे लब्धेअभिधारिजंतगसं-तिएहि दिट्टोव अन्नहिं ॥१४॥ उपलक्षणमेतत् अलब्धे वा सचित्ते स्थविरा उपरतास्ततः दिवो माइ अमाई, एवमदिवो वि होइ दुविहो उ।।
स सचित्तादिको लाभस्तस्य शिष्याणामाभवति । तृतीये पु
नः प्रकारे मृतेऽप्यभिधारिते लभते शिष्यो यदि 'से' तस्य अमाई उ अप्पिणती,मायी उन अप्पिणे जो उ॥१४१॥
श्रुतमस्ति, ददाति वा । अथवा-नास्ति, न ददाति वा, तदा न श्राद्यगाथाव्याख्यानं प्राग्वत् । दृष्टो द्विविधः-मायी, अमा
लभते । एतावता 'संतमस्ते' इत्यपि व्याण्यातम् । यी च । एवमदृष्टोऽपि द्विविधो भवति-मायी, अमायी च ।
उपसंहारमाहतत्र श्रमायी लब्धं सचित्तादिकमर्पयति.यस्तु मायी स नार्प
एवं नाणे तह दं-सणे य सुत्तत्थ तदुभए चेव । यति, ततः स बलात् व्यवहारेण दाप्यते । शेषं तथैव । एवं ता जीवंते, अभिधारेंतो उ एइ जो साहू ।
वनणसंधणगहणे, नव नव भेया य एकेके ।। १४५ ॥ कालगते एयम्मि उ, इणमन्नो होइ ववहारो ।। १४२॥
एवमुक्तयकारेण ज्ञाननिमित्तमभिधार्यमाणे यद् श्राभवति
तत् भणितम् , तथा तेनैव प्रकारेण दर्शनेऽपि दर्शनप्रभावकएवं तावत् जीवत्यभिधायमाणे योऽभिधारयन् साधुराग
शास्त्राणामप्यर्थायाभिधार्यमाणे अाभवत्प्रतिपत्तव्यम् । तत्र च्छति तस्य व्यवहारः, कालगते पुनरेतस्मिन्नभिधार्यमाणे
शानार्थ दर्शनार्थ वा योऽभिधार्यते स सुत्तत्थ तदुभए चेव' श्रयमन्यो भवति व्यवहारः।
त्ति सूत्रार्थतया अर्थार्थतया तदुभयार्थतया च । नत्र च तमेवाह
सूत्रार्थतया अभिधारणं तद्वर्तनार्थतया संधानार्थतया ग्रहअप्पत्ते कालगते, सुद्धमसुद्धे अदेत देंते य ।
णार्थतया च । तत्र पूर्वगृहीतस्य पुनरुज्ज्वालनं वर्तना, पुचि पच्छा निग्गय, संतमसंतेसु ते बलिया ॥१४३।। विस्मृतस्याऽपान्तराले त्रुटितस्य पुनः संधानकरणं संकश्चिदाचार्यमभिधारयन् संप्रस्थितस्तत्र यं गच्छमभि- धना । अपूर्वस्य ग्रहणं ग्रहणमिति । एवं त्रयो भेदाः-सूत्राधार्य संप्रस्थितस्तमप्राप्ते एव स श्राचार्यः कालगतः, अत्र च र्थतया अर्थार्थतया तदुभयार्थतया च प्रत्येकं द्रष्टव्याः। सत्रयः प्रकारा:-"पुव्वं पच्छा निग्गय"त्ति । यदैवाभिधारयन् । वसंण्यया ज्ञाने दर्शने च प्रत्येकं नव नव भेदाः । तथा चाहनिर्गतस्तदैव कालगत आचार्यः १, अथवा-पूर्वमभि- 'नव नव भेया य एकेके । धारयन् निर्गतः पश्चादाचार्यः कालगतः २, यदि वा-पूर्व
(५) संप्रति चरणार्थमभिधारयन्तमधिकृत्याहमाचार्यः कालगतः स पश्चादभिधारयन् निर्गतः ३ । पत्र पासत्थमगीयत्था, उपसंपजंति जे उ चरणऽट्ठा। प्रथमे प्रकारे यत्तेनाभिधारयता पथि सचिनादि लब्धं त- सुत्तोवसंपयाए, जो लाभो सो उ तेसिं तु ॥ १४६ ॥ कालगताचार्यशिष्याणामाभवति । द्वितीय प्रकारे लब्धे श्र
ये पार्श्वस्थादयोऽगीतार्थाश्चरणार्थमुपसंपद्यन्ते तेषां चरणोलब्धे वा सचित्तादिके यापरताः स्थविरास्तदाऽपि तत्स
पसंपन्निमित्तं कमप्यभिधारयन्समागच्छतां धृतोपसंपदि चित्तादि तच्छिष्याणामाभवति । तृतीये प्रकारे अभिधारय
चान्तरायो लाभो भवति स स तेषामभिधार्यमाणानां भवता दूगदागच्छता तावन्न शानं यावत्तं गच्छं प्राप्तस्ततो य
ति । नालबद्धवल्लीद्विकं तु तेषामभिधारयतामिति । निमित्तं स तत्रागतस्तत् श्रुतं यदि तस्य शिष्यस्यास्ति तदा स तत् श्रुतं तस्मै दातुमिच्छति ततः कालगताचार्यस्य
गीयत्था ससहाया, असमत्ता जंतु लहति सुहदुक्खी । लभते शिष्याः सचित्तादिकम् । यद्यपि सोऽभिधारको विपरि- सुत्तत्थ अतकेंता-समत्तकप्पी उन दलंति ॥ १४७ ॥ गतो न गृह्णाति शिष्यस्य सकाशात् श्रुतं ग्रहीतुं तत्राणि ये पुनः पावस्थादयो गीतार्थाः ससहायाः संभोगनिमित्तकालगताचार्याणामेव तत्सचित्तादि आभयति । अथ तत् मालोचनां दास्याम इत्यभिधारयन्तः सूत्रार्थान् अतर्कयन्तोऽ श्रतं नास्ति, न वा ददाति, तदा न लभते कालगताचार्यशिः । नपेक्षमाणा आगच्छन्तोऽन्तरा यं लभन्ते सचित्तमचित्तं
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(६१०)
अभिधानराजेन्द्रः। वा येऽपि च गीतार्था असमाप्ता-असमाप्तकल्पा आगच्छन्तो
पुरपच्छसंथुयाई, हेठिनाणं च जो लाभो ॥१५३ ॥ सभन्ते यच एकाकी एकाकिदोषपरिवर्जनार्थमुपसंपत्तकामो |
सुखी-सुखदुःखोपसंपवमुपसंपन्नः क्षेत्रे-परक्षत्रेऽपि एसमते येच समाप्तकल्पिकारतेषामेवाऽऽभवति । न तु येषां |
तदर्थमेव क्षेत्रग्रहणमन्यथैतनिरर्थकं स्यात् । द्वयाम्यपि समीपं प्रस्थिताः तेषामेघ-निर्ग्रन्थीनामपि द्रष्टव्यम् ।
पूर्वसंस्तुतानि पश्चात्संस्तुतानि वाऽभिधार्यन्ते लभते ये व अमिॉरिजंत अप्पचे, एस वुत्तो गमो खलु । तेन दीक्षिताः तेषामधस्तनानां यो लाभः सोऽपि तस्याssपढ़ते उ विहिं बुच्छं, सो य पाठो इमो भवे ॥१४८॥ । भवति । एषा-अनन्तरोदितः खलु गमः-प्रकारोऽमिधार्यमाणे अप्राप्ते
संप्रति क्षेत्रे इत्यस्य विवरणमाहउहा, मत ऊवं तु प्राते सति पठति विधि वक्ष्यामि । स च परखेत्तम्मि वि लन्भति, सो देंतेण गहणखेत्तस्स । पाठोऽयं वक्ष्यमाणो भवति ।
जस्स वि उपसंपबा,सो विय से न गिएहए ताई।१५४। तमेवाह
मासापितृप्रभृतीनि श्वश्रूश्वशुरमभृतीनि च यदि तं सुधम्मकहा सुत्ते य, कालिएँ तह दिद्विवाएँ अत्थे य । खदुःखोपसंपन्नमभिधारयन्स्युपतिष्ठन्ते व्रतग्रहणाय परखेउपसंपयसंजोगे, दुगमाइ जहुत्तरं बलिया ॥१४६॥
त्रेऽपि लभते इति प्रतिपत्तिा स्थादित्येवं लक्षणेन कारणेन धर्मकथायां सूखे कालिके तथा रष्टिवादे अर्थे च पाठार्थ- |
क्षेत्रस्य प्रहणं कृतमन्यथा न कमप्यर्थ पुष्णाति, यस्यापि समुपसंपद् भवति । तत्र सूत्रतोऽर्थतश्च सूत्रार्थयोश्च स्वस्थाने
मीपे स उपसंपन्नः सोऽपि तानि न ग्रहाति सूत्रादेशतोहिकादिसंयोगे यथोत्तरं बलिका-बलवन्तः,सूत्रचिन्तायां प
ऽनाभाब्यत्वात् । रम्परसूत्रं पाठयन् ,अर्थचिन्तायां परम्परमर्थ व्याख्यानयन् , परखेत्ते वसमाणो, अतिकमंतोवन लमति असणी । सूत्रार्थयोरेव परस्परचिन्तायामर्थप्रदाता बलीयानिति भावः।
छदेण पुव्वसप्पी, गाहियसम्मादि सो लभई ॥१५॥ प्रावलियमंडलिकमो, पुन्बुत्तो छिपछिस्मभेदेणं ।
परक्षेत्रे तिष्ठन् व्यतिक्रामन् वा यस्तस्य सुखदुःखोपसंपन्नएसा मुत्रोवसंपय, एत्तो सुहदुक्खसंपयं वोच्छं ॥१५॥ स्य उपतिष्ठते स यदि असंझी-अविदितपूर्वस्तदा समसंझिन या सा श्रुतोपसंपत्परम्पराप्ता श्रावलिका सातव्या, या- न लभते केवलं स क्षेत्रिकस्याऽऽभवति । यः पुनः पूर्वसभीस्वनन्तरा सा मण्डली, सा च अच्छिन्ना कथमिति चेदु- पूर्वविदितस्वरूपस्तं पूर्वसंझिनं छन्देन लभते, यदि स बल्लीच्यते-यस्मादभिधारकस्य लाभोऽन्येन छिन्नः सन्नभिधा- संबन्धो भवति, तं च सुखदुःखितमभिधारयति तदा लभते । र्यमाणं मार्गयति,ततोऽच्छिन्नलाभयोगात् सा उपसंपदच्छि- अथ तं नाभिधारयति, अभिधारयन्नपि च बल्लीसंबन्धो अत्युच्यते । या चावलिका सा छिन्ना यतस्तस्यां यो लाभ न भवति ततो यस्य समीपे सुखदुःखोपसंपदं जिघृक्षुः संपादित आरभ्य परम्परया छिद्यमानोऽन्तिमेऽभिधार्येऽन्य- प्रस्थितस्तस्याऽऽभवति । 'गाहियसम्मादि सो लभते' इति । मनमिधारयति-विश्राम्यति ततः सा छिन्नोपसपत् । एवं | यदि स सुखदुःखेन सम्यक्त्वं प्राहित आदिशब्देन मद्यमांछिनाच्छिन्नभेदेनावलिकामण्डलिकाक्रमः पठत्यपि पूर्वोक्ने सविरतिं वा ततः पश्चात् प्रवज्यापरिणामपरिणतः स यद्यरष्टव्यः, तदेषमुक्तषा श्रुतोपसंपत् अत ऊर्ध्व सुखदुःखोपसं- पि वल्लीद्विकसम्बन्धो न भवति , तथापि यदि तस्य सुखपदं वक्ष्ये।
दुखितस्य समीपे उपतिष्ठते तदा स तं लभते । तामेवाह
__एतदेव सविशेषमभिधित्सुराहअभिधारो उववमो, दुविहो सुहदुक्खितो मुणेयव्यो।
सुहदुक्खिएण जइ, परखेत्तुवसामितो तहिं कोइ । तस्स उ किं आभवती, सच्चित्ताऽचित्तलाभस्स ॥१५१।।
वेति अभिनिक्खमामि,सो ऊ खेत्तिस्स प्राभवह।।१५६।। सुखदुःखितो द्विविधो हातव्यस्तद्यथा-अभिधारयतीत्य
तेन सुखदुःखितेन यदि तत्र परक्षेत्रे कोऽप्युपशामितः भिधारोऽभिधारयन् , उपपन्नः-सुखदुःखोपसंपदं प्राप्तः ।
सम्यक्त्यं ग्राहितो भवति, तत्कालमेव च ब्रूते अभिनिष्क्रमातस्य द्विविधस्यापि सचित्ताचित्तलाभस्य वा मध्ये किमा
मि-प्रव्रज्यां प्रतिपद्ये तदा स क्षेत्रिणः क्षेत्रिकस्याऽऽभवति भवतीति च वक्तव्यम्।
न तु सुखदुःखितस्य । अथ कः सुखदुःखोपसंपदमुपपद्यते । इत्यत आह
अह पुण गहितो दंसण, ताहे सो होति उवसमेंतस्स ! सहायगो तस्स उ नऽत्थि कोती,
कम्हा जम्हा सावऍ, तिमि वरिसाणि पुवदिसा।१५७१ सुत्तं च तक्केइ न सो परत्तो।
अथ पुनदर्शनं सम्यक्त्वं तेन सुखदुःखितेन पूर्व प्राहितस्त. एगाणिए दोसगणं विदित्ता,
तः स तस्य उपशमयतः सद्देशनया प्रतिबोधितः, स भाभसो गच्छमब्भेइ समत्तकप्पं ॥ १५२ ।। वति । कस्मादिति चेदत आह-यस्मात् श्रावके त्रीणि वर्षातस्य सहायकः कोऽपि न विद्यते, न च परस्मात् सूत्रमपेक्षते | णि पूर्वदिक भवति-पूर्वासन्नता भवति । स्वयं सूत्रार्थपरिपूर्णत्वात् । केवलमेकाकी स दोषगणं विदि- एएण कारणेणं, सम्मद्दिट्ठी तु न लभइ खत्ती। स्वा स गच्छं समाप्तकल्पमभ्येति-अभ्युपगच्छति ।
एसो उवसम्पनो, अभिधारेंतो इमो होइ॥१५८।। तत्रोपसंपन्नमधिकृत्याऽऽभवद्व्यवहारमाह
एतेन कारणेन सम्यग्दृष्टिं पूर्वग्राहितसम्यग्दर्शनं क्षेत्रिसोमटक्खीयोअभिधारेंताई दोमि वी लभति । । को न लभते एष सुखदुःखोपसंपदमुपसम्पन्न उक्तः ।
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ववहार
अभिधानराजेन्द्रः। साम्प्रतमभिधारयन्वक्तव्यः सोऽयं वदयमायो मार्गोपसंपदि प्रतिपनायागीतार्थस्यापि सतो गीतार्थेन भवति । तमेवाह
परिगृहीतस्य लाभो भवति, अन्यथा अगीतार्थस्य न किञ्चिमग्गणकहणपरम्पर-अभिधारेतेण मंडली छिना। दाभवतीति वचनान कोऽपि लाभ: स्यात् । एवं खलु सुहदुक्खे, सचित्तादी उ मग्गण कया ॥१५॥ का पुनरुपसंपत् मार्गे ? इति चेदत माहसुखदुःखनिमित्तमन्यं गच्छमुपसंपद्यमानस्य मार्गमा भव- जह कोई मग्गन्नू , अनं देसं तु वच्चती साहू । ति । कुत्र स गच्छो विद्यते गवेषयन् गच्छति , ततः केना- उवसंपज्जइ उ तगं, तत्थश्लो गंतुकामो उ ॥ १६५॥ पि तस्य कथनं भवति, यथा-अमुकस्थाने स गच्छोऽस्तीति । यथेति मार्गोपसंपत्प्रदर्शने, यथा-कश्चित् साधुर्मागको ततस्तेनाभिधारयता परम्परा श्रावली छिन्ना, अनन्तरा ऽन्यं देशं व्रजति, तत्र देशे भन्यो गन्तुकामस्तं साधुमुमण्डली अग्छिना प्रागिव परिभाव्या । परिभाव्य च यद्य- पसंपद्यते , अहमपि युष्माभिः सह समागमिष्यामि । स्याऽऽभवति तत्तस्मै दातव्यम् । इयमत्र भावना-प्रावलिका
अव कीरशो मार्गोपदर्शननिमित्तयां मण्डल्यां वा बल्लीत्रिकमभिधारयत श्राभवति ,शेषं तु
मुपसंपद्यते , तत आहयत्स लभते तसेनाभिधारितस्य न भवति । तदपि च पर
अव्बत्तो अविहाडो, अदिडदेसो अभासिगो वाऽवि । परया वजदन्तिमस्याभिधार्यमाणस्य विश्राम्यति मण्डल्यामन्येनाच्छिद्यमानो लाभोऽनन्तरस्याभिधार्यमाणस्योपतिष्ठ
एगमलेगे उवसं-पयाए चउमंगों जा पंथो ॥१६६॥ ते, एवमुक्तेन प्रकारेण सुखदुःख-सुखदुःखोपसंपदमभिजि
अग्यशो-वयसा अविहाडः-अप्रगल्मः अडरदेशोरपूर्वघृक्षोरभिधारयतः सचित्तादौ मार्गणा कृता ।
देशान्तरः भाषिको-देशभाषापरिखानविकलः सा चोपसंपत् सम्प्रति प्रकारान्तरेण सुखदुःखोपसंदमुपसंपने अभिधा-1
एकस्यानेकस्य च । अत्र चतुर्मकी, तद्यथा-एकमेकः संपद्यते रयति सचित्तादौ मार्गणां करोति ।
१, एकमनेकः २, अनेकमेकः ३, अनेकमनेकः ४, सा चोजह से अस्थि सहाया,जइ वा वि करेंति तस्स तं किच्चं ।
संपत् तावत् यावत् पन्थाः । किमुहं भवति-यावत्पन्थानं सो लभते तं इहरा,पुण तेसिमानाणसाहारं ॥१६॥
व्रजति ततो वा प्रत्यागच्छतीति ।
एतदेव सविशेषमभिषित्सुराहयदि 'से' तस्य-सुखदुःखोपसम्पन्नस्य सहायाः सन्ति, यदि वात पव येषां समीपे उपसंपन्नास्तस्य तत्कृत्यं वैयावृ
गयागते गयनियते, फिडिय गघिढे तहेव अविगिढे । स्यादि कुर्वन्ति तदा यत्तस्योपतिष्ठते तं लभते इतरथा पु- उन्भामगसजायग-नियदृनदिहमासी य ॥१६७॥ नस्तेषां समनोकानां साम्भोगिकानां साधारणं तद् भवति ।
अव्यक्तोऽविधाडोऽदेखिोऽभाषिको वा अन्य साधु. अप्पुष्णकप्पिया जे उ, अमोनमभिधारए।
मुपसंपचते, अस्मार अमुकप्रदेश मयत । अथवा-यत्र अबोमस्स य लाभो उ, तेसिं साहारणो भवे ॥ १६१।।
तेषां गन्तव्यं तत्र ये विधक्षितसाधोरन्ये व्यक्तविहाडादयो अपूर्णकरिपका नाम गीतार्था असहाया ये अपूरार्णकल्पि
गन्तुकामास्तान पुचते, वयं युष्माभिः सह समागमिष्यामका अन्योन्यमभिधारयन्ति अन्योन्यस्य सुखदुःखोपसंपदं
स्तत्र यत्र गन्तुकामाः। ततो यदि प्रत्यागच्छन्ति ततः गतागप्रतिपद्यन्ते , तेषां यो लाभः सोऽन्योन्यस्य-परस्परस्य
तमित्युच्यते । तस्मिन्मागोंपसंपत् ‘गयनियते' इति । अनुपसाधारणो भवति ।
संपना एवात्मीयेन व्याविहाडादिना समं गतास्तस्य चकाजाव एकेकगो पुमो, ताव तं सारवेइ उ ।
लगततया प्रतिभग्नत्वादिना बा कारसेन प्रत्यागन्तव्यं नाss
भवसतः प्रत्यागच्छन्तं सुसाधुमुपसंपद्यन्ते। एषा गतनिवृत्ते कुलादिथेरगाणं व, देति जो बावि सम्मतो ॥१६२।।
मार्गोपसंपत् । तथा 'फिडियगवि तहेव प्रविगिटे'ति यावलेषामेकैकस्य पूलों गच्छो भवति । किमुक्तं भवति- स्फिटितो नाम नष्टः, कथं नष्टस्तत माह-'उम्भामगे' त्यादि यावदेकैकस्य प्रत्येकं गच्छो नोपजायते तावत्तमभ्युपपन्नग- उद्भामकः भिक्षाचर्यया अदृष्टपूर्वविषये गतस्ततो न जानाति सछमेकतरे सारयन्ति येषामवग्रहे वर्तते । अथ ते सारयन्तः
कुतो गन्तव्यमिति स्फिटितः । अथास्य ज्ञातयो गवेषमालाः परिताम्यन्ति तदा कुलस्थविराणाम् मादिशब्दात्-गणस्थवि.
समागतास्ततस्तस्मात् स्थानादरम्पर्षे विषये नष्टः, ततः स्फि. राणां संघस्थविराणां वा तान् वदति-मर्पयन्ति । यो वा को
टितः । तथा प्रभाषकोऽरएपूर्वे विषये पृष्ठतो लग्नो याति ऽपि तेषां सम्मतस्तस्य समर्पयन्ति । गता सुखदुःखोपसंपत्।
परं मिलितुं न शक्नोति, स च दृष्ट्राऽपि प्रतिप्रच्छनीय देश(६) संप्रति मार्गोपसंपनव्या । तथा चाह
भाषामजानन् म.प्रतिपृच्छति ततो यथावत् परिमो नश्यसुहदुक्खे उवसंपय, एसा खलु वलिया समासेशं ।
ति, सच मष्टो गवेषणीयः । तत्र स्किटिते गवेषिते तयुष अह एत्तो उवसंपय, मग्गोग्गहवजिए वुन्छ ॥१६३॥ चागवेषिते प्रभावेन मार्गणा कर्तब्या। एषा-अनन्तरोदिता खलु उपसंपवर्णिता समासेन सुखदु:- तत्र तदेव गवेषयतां का अगवेषयतां वा भवनमनामवनमाहसे.अथानन्तरमत उद्ध. मार्गे अवग्रहयर्जिते वक्ष्ये-मार्गोपसं. उवणड अन्नपंथेसा गयं भगवसंते न लभंति । पदं वक्ष्ये इत्यर्थः । अत्र चेयं व्युत्पत्तिः-मार्गे देशनायोपसंपत्
अगवेट्ठोतिपरिणते, गधेसमाला खलु लमंति ॥१६८।। मागोपसंपत्।
उपत्य-स्वनातिकान बना नमः उपनष्टः, अन्येन वा यथा मग्गोवसंपयाए, गीयत्थेणं परिग्गहीयस्स ।
स विवक्षिते स्थाने गतो भविष्यतीत्येवंसंकल्पा ये मार्गोंअगीयस्सावि लाभो, का पुण उवसंपया मग्गे ॥१६४॥ पदर्शनामेपसंपन्नास्ते थदि तन गवेषयन्ति तदा ते जन
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(१२) ववहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार वेषयन्तस्तस्य सत्कं न किंचिल्लभन्ते । यदि पुनरद्यापि न ववहारेण उ हाउं. पुणरवि दाणं नवरमासो ॥१७२।। गवेषित इति परिणते चेतसि प्रयत्नं विधाय गवेषयन्ति तदा
यत्ते आगन्तुका वास्तव्या वा सचित्तं लभन्ते उपलक्षतस्याऽदर्शनेऽपि खलु तत्सत्कं लभन्ते ।
णमेतदचित्तं वा तस्मिन् लब्धे अन्योन्यस्य निवेदना कअथोपसंपद्यमानानां किमाभवति किं वा नेत्यत श्राह- ।
र्सव्या । यथैतत् मया सचित्तमचित्तं वा लब्धं यूयं प्रतिअम्मापितिसंबद्धा, मित्ता य वयंसगा य जे तस्स ।
गृहीत, एवं निवेदने कृते द्वितीया न गृहन्ति परं सामादिट्ठा भट्ठा य तहा, मग्गुवसंपन्नतो लभति ॥१६॥ चारी एषेत्यवश्यं निवेदनं कर्तव्यम् , अनिवेदने प्रायश्चित्तं वजन्तः-प्रत्यागच्छन्तो वा यत्ते उपसंपद्यमानाः सचित्ता- लघुको मासः । एतदेव सविशेषमाह ‘ववहारेण उ' दिकमुत्पादयन्ति तत्सर्व मार्गोपदेशकस्य-नेतुराभवति , ये इत्यादि न निवेदयति तदा असमाचारीप्रतिषेधनार्थ पुनर्मातापितृसंबद्धाः-नालबद्धवल्लीद्विकमिति भावः । मित्रा- व्यवहारेणागमप्रसिद्धेन तत् हृत्वा मासलघु प्रायश्चित्तं णि-वयस्या दृष्टा भाषिताश्च ये तमभिधारयन्ति तान् दत्त्वा तस्यैव पुनः प्रतियच्छन्ति । मार्गोपसंपदं प्रतिपन्नो लभते । तदेवं गता मार्गोपसंपत्। सम्प्रति 'जायमनाए' इत्यस्य. व्याख्यानमाद्द(७)संप्रति विनयोपसंपदमाह
नाए व अनाए वा, होइ परिच्छाविही जहा हेट्ठा । विणओवसंपयातो, पुच्छण साहण अपुच्छगहणे य । अपरिच्छणम्मि गुरुगा,जो उ परिच्छाएँ अविसुद्धो१७३।। नायमनाए दोनि वि, नमति पकिल्लसाली वा ॥१७०॥ ___ शाते अशाते वा भवति द्रव्यादिभिः परीक्षाविधिर्यथाअत ऊर्व विनयोपसंपद् , वक्तव्या इति शेषः। सा चै- ऽधस्ताद्भणितस्तथा कर्तव्यः । यदि पुनरपरीक्ष्योपसंपद्यते योघम्-कारणतो वा केचिद्विहरन्तोऽकारणतो वा केचिद्विह- ऽपि च गच्छः परीक्षायामविशुद्धः प्रमादीति कृत्वा तरन्तोऽदृष्टपूर्व देश गताः। तैर्वास्तव्यानां सांभोगिकानां स- | मपि ये उपसंपद्यन्ते तेषां प्रत्येक प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । मीपे प्रच्छनं कर्तव्यम् । यथा-कानि मासप्रायोग्याणि क्षेत्रा- संप्रति 'दोन्नि वि नमंती' त्यत्र मतान्तरमाहणि , कानि वर्षावासप्रायोग्याणि, एवं पृष्टैरपि साधनं-कथनं केई भणंति ओमा, नियमेण निवेइ इन्छ इयरस्स । कर्त्तव्यम् । अन्यथा वक्ष्यमाणप्रायश्चित्तम्। अशक्लेरथ तथैवा
तं तु न जुजइ जम्हा, पक्किल्लगसालिदिद्रुतो ॥१७४ ॥ गन्तुका न पृच्छन्ति तदा तेषामपि प्रायश्चित्तम् । 'गहणे य'
केचित् घुवते नियमेनावमोऽवमरत्नाधिको न निवेदयति इ. त्ति सचित्तादिकस्य ग्रहणे सति परस्परं निवेदनं कर्तव्यम् , यथैतत्सचित्तमचित्तं वा लब्धम् , यूयं गृहीतेति अनिवेदने
तरस्य रत्नाधिकस्य इच्छा यदि प्रतिभासते ततो निवेदयतिअसमाचारी । तथा 'नायमनाए ' त्ति ते आगन्तुका वास्त
नो चेति , तच्च न युज्यते यत् पक्कशालिदृष्टान्तः उ
पन्यस्तः, स चोभयनमनसूचक इति । व्याश्च परस्पर जानन्ति, तथा यतन्ते न प्रमादिनः 'अनाए' त्ति
सम्प्रति द्वयोनमनमाहन जानन्ति, कियन्तस्ते, किं वा-प्रमादिनस्तत्र शाता न शाता वा द्रव्यादिभिः परीक्ष्योपसंपद्येरन् नान्यथा 'दुन्नि विनमंति'
वंदणा लोयणा चेव, तहेव य निवेयणा । ति। ते च परीक्षापूर्वकमुपसंपद्यमाना द्वयोरपि परस्परं न
सेहेण भोयरत्तम्मि, इयरो एत्थ पुव्वतो ॥ १७५ ॥ मन्ति । किमुक्तं भवति-रत्नाधिकस्य प्रथमतोऽवमरत्नाधिके- शैक्षण अवमरत्नाधिकेन वन्दने-आलोचनायां तथैव च नालोचना दातव्या , पश्चात् रत्नाधिकस्य । अत्र पक्कशालयो निवेदने सचित्तादेः कृते पश्चात् इतरो रत्नाधिकस्तस्य पुररष्टान्ताः । यथा-पकाः शालयः परस्परं नमन्ति तथाऽत्रापी । तो वन्दनमालोचनां निवेदनं च करोति । ति भावः।
संप्रति क्षेत्रश्रुतसुखदुःखमार्गविनयोपसंपत्सु यदाभाव्यं सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः 'पुच्छण साह
तदुपदर्शयतिण अपुच्छ' ति व्याख्यानार्थमाह
सुयसुहदुक्खे खेत्ते, मग्गे विणभोवसंपयाए य । कारणमकारणे वा, अदिदृदेसं गया विहरमाणा। वावीसपुव्वसंधुएँ, वयंस दिट्ठा य भडे य ॥ १७६ ॥ पुच्छा विहारखेत्ते, अपुच्छलहुगो य जंवा वि ॥१७१॥ श्रुतोपसंपदि उपसंपद्यमानो द्वाविंशतिं लभते । तद्यथा-षट् कारणे-अशिवादिलक्षणे अकारणे-विहारप्रत्यये सुख- अमिश्रवल्ल्यां माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता इत्येवं विहारो भविष्यतीति बुद्ध्या विहिरन्तो यथा-सुखमक्लेशे
रूपा, षोडश मिश्रवल्ल्यां तद्यथा-मातुर्माता पिता भ्राता न सूत्रार्थान् कुर्वन्तोऽदृष्टपूर्व देशं गताः, तत्र च तेषां सां
भगिनी, एवं पितुरपि भ्रात्रादीनां चतुर्मा प्रत्येकं द्वौ द्वौ।त. भोगिकाः सन्ति ततस्तैरागन्तुकैस्ते वास्तव्याः सांभोगि
द्यथा-पुत्रो दुहिता च । सुखदुःखोपसंपदि पूर्व संस्तुतान् काः 'पुच्छा विहारखेत्त' ति मासकल्पप्रायोग्याणि वर्षाक- मातापितृसंबद्धान् , उपलक्षणमेतत् मित्रवयस्यप्रभृतीनि रूपप्रायोग्याणि वा विहारक्षेत्राणि प्रष्टव्यास्तानि च तैः कथ
च क्षत्रोपसंपदि । वयस्यान् इदमप्युपलक्षणं पूर्वसंस्तुतान् प. यितव्यानि । यदि न पृच्छन्ति, पृष्टा वा यदि ते न कथयन्ति, श्वात्संस्तुतान् नालबद्धवल्लीद्विकं च लभते, मार्गोपसंपदि ह. तदा यानामपि प्रत्येक प्रायश्चित्तं लघुको मासः। यश्च पृ- टान् भाषितान् चशब्दात्-चल्लाद्विकं मित्राणि च विनयोछामन्तरेण वा स्तेनश्वापदादिभ्योऽनर्थ साधवः प्राप्नुवन्ति पसंपदि सर्वान् लभते नवरं निवेदयति । तनिष्पन्नमपि तेषां द्वयानामपि प्रायश्चित्तम्।
एतदेवाहअधुना 'गहणे य' इत्यस्य व्याख्यानमाह- । खेत्ते मित्तादीया, सुतोवसंपन्नो उ छल्लभते । सञ्चित्सम्मि उ लद्धे, अमोम स्स वि अणिवेयणे लहयो।। अम्मापिउसंबद्भो, सुहदक्वि इयरो वि दिद्रुतो ।१७७।
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ववहार
- अभिधानराजेन्द्रः। क्षेत्रे उपसंपघमानो मित्रादीन् लमते, प्रादिशब्दात्-पूर्वप
संपन्ने कुलसंपन्ने' इत्यादि तथा षट्सु स्थानेष्विति षट्स्था. वात्संस्तुतान् नालवल्लीद्विकमाहारं मात्रकविकं संस्तारं व
नपतितेषु स्थानेषु ये अपरोक्षाः साक्षाद्वेदितारः। सतिं चेति परिग्रहः, श्रुतोपपत्रो लभते, षद् मात्रादिकान्
कियन्ति पदस्थाने पतितानि-स्थानानीत्यत आहमिश्रांब वल्लिं मातपितसंबद्धां, सुखदुःखी-सुखदुःखोपसं
संखादीया ठाणा, कहि ठाणेहि पडियाणा ठाणाणं । पनो मातापितृसंबद्धान् लभते । वयस्यादींश्च, इतरो-मा- जे संजया सरागा, सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि ।। ३१६ ।। गर्गोपसंपन्नो हटान् दृष्टाऽऽभाषितान , उपलक्षणमेतत्-व- पदसु स्थानेष्वनन्तभागवृद्धानन्तगुणवृद्धासंख्यातभागलिद्विक मित्राणि च लभते । विनयोपसंपन्नस्याभाव्यं सुप्र
वृद्धासंख्यातगुणवृद्धसंख्यातभागवृद्धसंख्यातगुणवृद्धेषु या. तीतमिति न व्याख्यासम् ।
नि पतितानि स्थानानि तेषां सम्बन्धिनो ये सराइच्चेयं पंचविहं, जिणाण आणाऍ कुलइ सट्ठाणे।। गाः संयतास्ते वेदितव्याः, षस्थानपतितेषु स्थानेषु
सरागमसंयता वर्तन्ते इति भावः । तेषां च तानि षद पावइ धुवमाराह, तन्विवरीए विवच्चासं ॥ १७८ ।।
स्थानानि पतितानि स्थानानि संयमस्थानामि संख्यातीतानि इत्येवं पञ्चविधं क्षेत्रथुतादिमेदतः पञ्चप्रकारमाभव
असंख्येयालोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । अत एव सरागसंद्वयवहारं स्वस्थाने-आत्मीये स्थाने यथा क्षेत्रोपसंपदि
यतानां केषांचित् वर्द्धते, केषांचित् हीयते, केषांचित् वर्द्धते यत् उपसंपद्यमानस्य वाऽऽभवति तत्तथैव व्यवहरति । एवं
हीयते च । ये तु शेषा वीतरागसंयतास्ते एकस्मिन् स्थाने । शेषेष्वपि स्थानेषु वक्तव्यं जिनानामाझया करोति-परिपाल
तथाहि-न तेषां चारित्रं वर्द्धते , नापि हानिमुपगच्छति यति स ध्रुवमन्ते श्राराधनां प्रामोति जिनाशया परिपालित
कषायाणामभावात्कि त्वस्थितमेकमेव परमप्रकर्षप्राप्तं सं. त्वात् । तद्विपरीते श्राभवद्व्यवहारविपर्यासकारी विपर्यासं
यमस्थानमिति एतेषां वस्तूनां ये साक्षादिनस्ते भागमप्राप्नोति नाराधनामन्तकाले प्राप्नोति भावः ।
व्यवहारिणः । इच्चेसो पञ्चविहो, ववहारो आभवंतितो नाम ।
तथा चाहपच्छित्ते ववहारं, सुण वच्छ ! समासतो वोच्छं ॥१७६॥ ए आगमववहारी, परमत्ता रागदोसनीहया । इत्येष आभवतिको नाम व्यवहारः पञ्चविध उक्तः । व्य० आणाएँ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति ।। ३२०॥ १० उ०। पं० मा० । नि० चू० । व्य० । (प्रायश्चित्तव्यवहारः रागद्वेषनिभृता-रागद्वेषव्यापाररहिता आगमव्यवहारिणः 'पच्छित्तं' शब्दे पश्चमभाग १८६ पृष्ठे उक्तः ।)
प्राप्ताः । जिनेन्द्राणामाशया व्यवहारं व्यवहरन्ति । प्रतिक्षातमेव करोति
एवं भणिते भणती, ते वोच्छिन्ना उ संपयं इहई। पंचविहो ववहारो, दुग्गतिभयतारगेहि पन्नत्तो।
तेसु अवोच्छिन्नेसुं, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स ॥३२१॥ आगम सुय आयरणा,कप्प य जीए य पश्चमए।।१६४॥ देंता वि न दीसंति, न वि य करेंतो उ संपयं केह। येन व्यवाहियते स व्यवहारो-दुर्गतिभयतारकैर्दुर्गतिभय- तित्थं च नाणदंसण, निजवगा चेव वोच्छिमा ।३२२॥ विध्वंसकैः पञ्चविधः प्रशप्तः। तद्यथा-श्रागमः श्रुतमाचरणा एवं-प्रागुनेन प्रकारेण भणिते चोदको भणति-व्यवच्छिमा कल्पो जीतं च पश्चमः । व्य०१० उ० । (आगमव्यवहारः खल्विह भरतक्षेत्रे साम्प्रतमागमव्यहारिणस्तेषु च व्यव'आगमववहार' शब्दे द्वितीयभागे ८२ पृष्ठे दर्शितः।) । च्छिन्नेषु चारित्रस्य विशुद्धिर्नास्ति, सम्यकपरिज्ञानाभावतो नवरं परिशिष्टोऽत्र-पतदेव गाथाद्वयं व्याचिख्यासुराह- यथावस्थितशुद्धिदायकाभावात् । अन्यच्च मासिकं पाक्षिक
मित्यादि प्रायश्चित्तं ददतोऽपि न केचित् दृश्यन्ते, नापि केअट्ठायारवमादी, वय छक्कादी हवंति अदुरस ।
चित्तथारूपं प्रायश्चित्तं कुर्वन्तस्ततो वदतां कुर्वतां चाभावे दसविहपायच्छित्ते, पालोयण दोसदसहिं वा॥३१७|| सम्पति तीर्थ-शानदर्शनं ज्ञानदर्शनात्मकमनुवर्तते, न तुचा. अष्टौ-स्थानानि प्राचारवत्त्वादीनि,तानि च प्रागभिहितानि रित्रात्मकम् , यतश्चारित्रस्य पर्यन्तसमये निर्यापका एव यथा चाऽऽलोचनाईत्वनिबन्धनानि । तथा चोक्तं स्थानाओं-अ- वस्थितशोधिप्रदानत उत्तरोत्तरचारित्रनिर्वाहका एव व्यवटुहिं जति सम्पन्ने भवति, तो आलोयणारिहो, तं जहा- च्छिन्नाः। पायारव' मित्यादि अष्टादश स्थानानि व्रतषदादीनि भव- संप्रत्येतदेव विभावयिषुः प्रथमतश्चारित्रस्व न्ति, पुनरष्टादशग्रहणमेतेषु ये अपराधास्तेषु प्रायश्चित्त
शुद्धिर्नास्तीति भावयतिविधिपरिवानप्रतिपस्यर्थ दश स्थानानि 'दसविधमालोयण- चोदसपुन्वधराणं, वोच्छेदो केवलीण वुच्छेए । पडिकमणे" त्यादिरूपं प्रायश्चित्तम् । भालोचनादोषेषु दशसु केसिंचिय प्रादेसो, पायच्छित्तं पि वोच्छिमं ॥३२३।। मा (अ) कम्पयिता इत्यादिरूपेषु । तथा
केवलिनां व्यवच्छेदे सति तदनन्तरं स्तोकेन कालेन चतुर्दशछहि कारहिवतेहिं, गुणेहि बालोयणाए दसहिं वा।। पूर्वधराणामपि व्यवच्छेदो भवति, ततः शोधिदायकाभावाछट्ठाणाचडिएहि, छहि चेव जे उपरोक्खा ॥३१८॥ सास्ति शुद्धिश्चरित्रस्य । अन्यश्च केषांविदयमावेशो, यथाषभिरिति कायेषु व्रतेषु वा तथा आलोचनायाः संबन्धेषु
प्रायश्चित्तमपि व्यवच्छिन्नम् । गुणेषु दशसु जातिसंपन्नप्रभृतिषु, उक्तं च स्थाना- दसहि।
एतदेव भावयतिठाणेहि सम्पन्ने अरिहा अत्तदोसमालोहत्तप, तं जहा-जाति जं जत्तिएण मुज्झइ, पावं तस्स तह देंति पच्छितं ।
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अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार जिणचोदसपुव्वधरा, तबिवरीया जहिच्छाए॥३२४॥ उनकारेण शोधेरभावे शोधि ददतां-कुर्वतामभावः। संजिना:-केलिप्रभृतयश्चतुर्दशपूर्वधरा यत्पापं यस्य यावता
प्रति काले तीर्थ वर्तते सम्यक्त्वज्ञानाभ्याम् । प्रायश्चित्तेन शुद्धयति, तस्य तावन्मात्रं प्रायश्चित्तं ददति । ये एवं तु चोइयम्मी, आयरितो भणइ न ह तुमे णायं । तु तद्विपरीताः-कल्पव्यवहारनिशीथधरास्ते आगमव्यवहा- पच्छित्तं कहियं तु, किं धरती किं च वोच्छिन्नं ॥३३०॥ राभावात् यदृच्छया प्रार्याश्चत्तं दधुः कदाचिन्न्यूनं, कदाचिद- एवम्-उक्नेन प्रकारेण चोदिते-प्रश्ने कृते सति प्राचार्यों - धिकं वा । ततः परमार्थतः सम्प्रति प्रायश्चित्तं व्यवच्छिन्नं |
ते, न हु-नैव त्वया ज्ञातम् , यथा-प्रायश्चित्तं प्रथमतः उतद्व्यवच्छेदे निर्यापका अपि चारित्रस्य व्यवच्छिन्नाः ।
क्लम् , किंवा संप्रति प्रायश्चित्तस्य धरते विद्यते किं वा व्यएतदेव स्पष्टयति
वच्छिन्नम् । व्य०१० उ०। पारगमपारगं वा, जाणते जस्स जं च करणिजं ।
तत्र प्रथमतः सापेक्षेण दातव्यम्देह तहा पञ्चक्खी, घुणक्खरसमो उ पारोक्खी ॥३२था। संघयणधितीहीणा, असंतविभवेहिं होंति तुल्लाओ। एष-संषरीतुकामः पारगामी भविष्यति, एष नेति, पार-| निरवेक्खो जइ तेसिं, देति ततो ते विणस्संति ॥३६२।। गमपारगं वा प्रत्यक्षागमव्यवहारिणः सम्यग् जानते । यच्च
ये पुन,तिसंहननाभ्यां हीनास्ते असद्विभवैस्तुल्यास्तेषां ययस्य करणीयं-कर्तुं शक्यं तस्य तज्ज्ञात्वा तदेव तथा ददति,
दि निरपेक्षः सन् यन्निरवशेष प्रायश्चित्तं ददाति, ततस्ते विनतथा ते पाराऽपारगादिज्ञानं समस्थितास्तादृशमुपायमुप- श्यन्ति । तथाहि-ते तत्प्रायश्चित्तं निरवशेष वोढुमशक्नुवदिशन्ति, येन स पारगामी भवति, यतश्चाराधक उपजायते ।।
न्तस्तपसा कृशीकृता जीविंतादपगच्छेयुः। यस्तु परोक्षी-परोक्षशानी स घुणाक्षरसमः । किमुक्तं भवति
ते तेण परिञ्चत्ता, लिङ्गविवेगं तु काउँ वच्चंति । । घुणाक्षरवत् यहच्छया ततः कदाचित्पापशुद्धिर्नावश्यमिति । अन्यच्च तस्य परोक्षशानिनः प्रायश्चित्तं ददतो महत्प्रायश्चि- तित्थुच्छेदो अप्पा, एगाणि य तेण गच्छो य ॥३६३।। [सं-पापम् ।
यदि ते प्रायश्चित्तभग्ना लिङ्गविवेकं कृत्वा बजन्ति , तथा चाह
ततस्तेऽनेन-निरविरोषप्रायश्चित्तदात्रा परित्यक्ताः। यथैवमेकः जा य ऊणाहिते दाणे, वुत्ता मग्गविराहणा।
एवमन्येऽप्येवमपरेऽपि । ततः सर्वसाधुव्यपगमतस्तीर्थस्योण सुज्झे इति दितो उ, असुद्धोकं च सोहए ॥३२६॥
च्छेदस्तथा तेनाचार्येण निरविशेष प्रायश्चित्तं साधूनां ददता स हि-परोक्षशानी यहच्छया व्यवहरन् कदाचिदनमधिकं
प्रायश्चित्तभग्नभयात्साधूनामपगमत प्रात्मा एकाकीकृतः । वा प्रायश्चित्तं दद्यात् । ततो य ऊनाधिकं प्रायश्चित्तदा- एकाकिना यावत्यकश्चशब्दात्-गच्छोऽपि त्यक्तः । तथाहिने मार्गविराधना-मोक्षपथसम्यग्दर्शनझानचारित्रविराधना
साधूनामपगमे बालवृद्धग्लानादीनामुपग्रहे न कोऽपि वर्तते। जिनरुक्ता, तया स दाता न शुद्धयति । स्वयमशुद्धश्च कथ
ततस्तेऽपि तेन तत्वतः परित्यक्ताः । तथा अवधाविताः मन्यं शोधयेदिति भावः । अथ सोऽपि सूत्रबलेन प्राय
सन्तो ये दीर्घकाल संसारमाहिण्डिष्यन्ते सोऽपि तन्निश्चित्तं ददाति तत्कथं न शोधयति, तदप्यसम्यक् सूत्रस्या
मित्त इति तस्य महत्पापम् । तदेवं निरपेक्षस्य दोष उक्तः । प्यपरिक्षानात् ।
सम्प्रति सापेक्षस्य गुणमाहतथा चाह
सावेक्खों पवयणम्मि, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। प्रत्थं पडुच्च मुत्तं, अणागयं तं तु किंचि आमुसति । चारित्तरक्खणट्ठा, अव्वोच्छित्ती य उ विसुज्झो ३६४। अत्थो वि कोइ सुतं, अणागयं चेव आमुसति ॥३२७॥ यः पुनराचार्यः प्रवचने सापेक्षः अनवस्थाप्रसनवारणाकुशअर्थ प्रतीत्य किंचित्सूत्रमनागतमेव प्रामृशति, किंचित्पुनः
लः स चारित्रस्य रक्षार्थ भवति । तीर्थस्य चाव्यवच्छेदस्तथो. सूत्र स्वस्थानं गतं वा अर्थमामृशति । विचित्रा सूत्रस्य प्र. पायन शोधयति इत्यर्थः । वृरिरिति वचनादर्थोऽपि कश्चित्सूत्रमनागतमेवामृशति ।
उपायमेवाहएतच्च सम्यग् जानाति चतुर्दशपूर्वधरो नान्ये । ततः संप्र
कल्लाणगमावन्ने, अतरंते जहकमेण काउंजे । ति सूत्रार्थस्यापरिज्ञानान तत्प्रायश्चित्तदानशुद्धिस्तदभावाच निर्यापकाणामप्यशुद्धिः।
दस कारेंति चउत्थे, तहुगुणाऽऽयंत्रिलतवे वा ॥३६॥ संप्रति देताविन दीसंति' इत्यादिव्याख्यानार्थमाह
एकासणपुरिमड्ढा, निविगती चेव विगुणविगुणाश्रो । देंता वि नदीसंति, मास चउमासिया उ सोहिं तु ।
पत्तेया बहुदाणं, करेह वा सन्निकालं तु ॥ ३६६ ॥ कुणमाणे य वि सोहिं,न पासिमो जो वि तं देजा।३२८
पञ्च अभक्तार्थाः, पञ्च श्रावाम्लानि, पञ्च एकाशनकानि
पश्च पूर्वार्द्धानि पश्च निर्विकृतिकानि एतत्पश्चकल्याणकम्, तत् मासिकी चातुर्मासिकीम् , उपलक्षणमेतत् पश्चमासिकीमपि वा शोधि सम्प्रति केचित् ददतोऽपि न दृश्यन्ते,
शिष्टापन्ना यथाक्रमेण च कर्तुमशक्नुवन्तस्तान् दश चतु
थान् कारयन्ति, तथाऽप्यशक्नुवन्तस्तद्विगुणा आचाम्लनापि काश्चित् तां मासिकी वा कुर्वाणान् संप्रति पश्यामः ।
तपः कारयन्ति, विंशतिमायामाम्लानि कारयन्तीत्यर्थः। एव सोहीए य अभाव, देंताण करेंतगाण य अभावे ।।
मेकाशने पूर्वार्द्धनिर्विकृतिर्द्विगुणाः कारयन्ति । किमुक्तं भववह संपइ कालं, तित्थं सम्मत्तनाणेहिं ।। ३२६ ॥ ति-विंशत्यायामाम्ले करणाशक्ती अशीतिपूर्वाहनि कार
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ववहार
I
यन्ति तत्राशी पनि निर्विकृतिकानां कारयन्ति। एत त्पञ्चसु कल्याणेष्वेकैकं कल्याणं प्रत्येकमव्यवस्थित्य कर्तुमसहस्यासमर्थस्य दातुमुक्तम्। अथवायमम्यो कि 'करेति वा सन्निकासं सनिकाशं सन्निभं वा कारयन्ति । इयमंत्र भावना-यत्तत्पञ्चकल्याण्मापन्नः, तन्मध्यादाद्यं द्वितीयं तृतीया करात मादिभिः प्रदर्शयति ।
धाकमेव
(२१५) अभिधानराजेन्द्रः ।
पुनरन्यथाऽनुग्रहप्रकारमाह
उ तिय दुर्गा कल्ला, एगं कल्लाणगं च कारेंती । जं जो उ तरति तस्स देती असहस्स भार्सेति ॥ ३६७ । यदिवा पञ्चकल्याणक मुक्तस्वरूपं यथाक्रमेण व्यवच्छित्त्या कर्तुमशक्नुवन्तं चतुः कल्याणकं कारयन्ति । तदप्यशक्नुवन्तं विकासकं तत्राप्यसमर्थनया विकल्पकं तत्राप्यशक् वन्तमेकं कल्याणकं कारयन्ति । किं बहुना, यत्तपः कर्तु शक्नोति तस्य तद्वदन्ति नाधिकमावाधासंभवात् । अथैकमपि कल्याणं कर्तुं न शक्नोति तदा तस्य सर्व भाषयित्वा एकभक्तार्थे दीयते । श्रथवा एक मायामाम्लम्, यदि वा एकमेकाशनकम् अथवा एकं पूर्वायम् अथवा निर्विकृतिकम् अथ न किंचिद्ददति तदा अनवस्थाप्रसङ्गः । एतदेव स्पष्टपति
"
"
एवं सदयं दिजति, जेणं सो संजमे थिरो होति । न व सम्पदा न दिजति, भगवत्थपसंगदोसातो।। ३६८ ।। एवममुना प्रकारेण सदयं सानुकम्पं दीयते प्रायश्चित्तमयेन स संयमे स्थिरो भवति न च सर्वथा न दीयते अनवस्थाप्रदोषात् दृष्टान्तो बालकतिलस्तेनकद्वयेन "गोप इतो अङ्गोचति काऊ रमतो तिलरासिम्म निमजितो, बाल त्ति काऊण न केण वारितो, तिला सरीरम्मिलग्गा । ततो सो सलीलो घरमागतो । जणणीए तिला दिजए । कोडिया गहिया य । ततो तिललोभेण पुणो अंगोअलि-काऊण दारगं पेसह काले तिलोवतिष्ठो वेद, ततो सो पसंगोसेस तेलो जातो। रायपुरिसेडिं गदितो मारतो माउदो सेण | बालो वि पसंतो हो जातो ति माऊए थछेयामवराहं पाविय वेति । तो कप्पटुगो तहेव अङ्गोलि काऊण रमंतो तिलरासिम्मि निमज्जितो । माऊए वारितो मा पुसो एवं कुज्जा, तिला य पक्खोडेऊण तिलरासिम्मि य पक्खिा। सो कालंतरेस जीषियभोगाय अभोगी जातो नेव जी धडेपादियमवराहं पत्ता । "
एतदेवाह - दितो तेवऍ, पसंगदोसेण जह वह पत्तो
पार्वति अताई, मरणाइ मारियपसका ।। ३६६ ॥ अनवस्थाप्रसङ्गदोषे रान्तः स्तेनकेन-बालकेन तिलापहारिणा यथा स प्रसङ्गदोषात् बधं प्राप्तस्तथा साधवोऽव्य निवारितमा अनन्तानि मरणानि प्राप्नुवन्ति ।
निन्भच्छणाऍ बितिया, वारेंतो जीवियाण य अभागी । नेव यथळेयादी, पत्ता जगणी य अवराहं ।। ३७० ॥ इय अणिवारियदोसा, संसारे दुक्खसागरमुर्चेति ।
यवहार
विथियत्तपसङ्गा खलु करेंति संसारवोच्छेयं ॥ ३७१ ॥ द्वितीयया पालकस्तिलान् शरीरे लग्नानादाय समागतो निवारितः, ततः स जीवितानां जीवितामा भागी जातो, नैव च जननी स्तनच्छेदादिकमपराधं प्राप्ता । इत्येवमाद्वपगतेन प्रकारेण अनिवारिता दोषाः संसारे दुःखसागरमुपचन्ति विनिवृतप्रसङ्गाः पुनः खलु न्ति संसारव्यवच्छेदम् ।
एवं धरती सोही, देंत करेंता वि एवं दीसंति । जं पिप दंसनायें हि, जातिं विरति तं सुगमु२७२ एवम् अमुना प्रकारेण धरते विद्यते शोधिः। तदा ददतः कु· तश्च शोधिमेवमुक्रप्रकारेण दृश्यते । यदपि चोलं दर्शनशानाभ्यां तीर्थ जानाति तदप्ययुक्तं यथा भवति तथा शृणुत। व्य०१० उ० (यथा लघु स्वरूपवहारः 'अहालस्य प्रथमभागे ८०० पृष्ठे गतः) (तम्यदारः 'सुयववहार' शब्दे वच्यते ) ( आज्ञाव्यवहारः 6 श्राणा शब्दे द्वितीयभागे १२३ पृष्ठे उक्तः ) सम्पति हिकादिपदजातस्य व्याख्यानं किचित्तदेव दर्शयतिदुविहं ति दप्पकप्पे तिविहं नाखाइयं तु अड्डाए । दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउन्त्रिहं एयं ।। ६०४ ॥ तिविदो अतीतकाले पच्चुप्पो वि सेवियं जं तु । सेविस्सं वा एस्से, पागडभावो विगडभावो ||६०५ || द्विविधां शोध करोति ददर्पविषय कल्पेकल्पविषयां त्रिविधां ज्ञान दर्शन- चारित्राणामर्थायातिचारविशुद्धिलाभाय करोति । प्रशस्ते - द्रव्ये प्रशस्ते क्षेत्र प्रशस्ते काले प्रशस्ते भावे तचतुर्विधं विशोधनं द्रव्यम्। तथा त्रिविधेप्रतीते प्रत्युत्पन् काले पासेवितं यत् पश्यति काले सेविष्येऽहमित्यध्यवसितं यश्च चटितभावः प्रकटभाव आलोचयति ।
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किं पुण आलोएई, अतियारं सो इमो य अतियारो । वयकादीयो खलु, नायग्यो अाखुपुब्वीर ।। ६०६ ॥ कि पुनस्तदालोचयति सुराद-अतीवारम् पुनरतीचारोऽयं वक्ष्यमाणो व्रतपादिको व्रतपादिविषयः खल्वानुपूर्व्या ज्ञातव्यः ।
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तमेव दर्शयतिवयक्ककाय, अकप्पो मिहिभायखं । पलियंकणिसेजा य, सिणाणं सोभवजणं ॥ ६०७ ॥
व्रतषङ्कं प्राणातिपातनिवृत्त्यादि रात्रिभोजनविरमणपर्यन्तं काय पृथिव्यायकल्पपिडादिको विभाजनं कश्यायादिपः प्रतीतो निपया-गोचरस्य निषदनम्। अस्नानं देशतः सर्वतो या स्नानस्य यजने शोभाजन-भू षापरित्यागः, एतत् विधेयं प्रायः प्रतिषेध्यतया यत् यथोक्तं नाचरितं तत् आलोचयति ।
तं पुण होजा सेविय दप्पेणं श्रहव होज कप्पेणं । दप्पेण दसविहं तु इयमो वोच्छं समासेणं ।। ६०८ ॥ तत्पुनर्विरुद्धं सेवितं दर्पेण, अथवा कल्पेन । तत्र यद्दण सेवितं तदिदं वक्ष्यमाणं दशविधं तावत् समासेन वक्ष्ये ।
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घवहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार प्रतिक्षातमेव करोति
एतेषामन्तरोदितानामन्यतस्मिन् आगाढे समुत्थिते दर्शदप्प अकप्पनिरालं-ब चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। । नशानचरणसालम्बे प्रतिसव्याकल्प्यप्रतिसेवनां कृत्वा कअपरिच्छि अकडजोगी, अणाणुतावी य णिस्संको।६०६।
दाचित्प्रशस्तेषु शुभेषु प्रयोजनेषु कर्तव्येषु समर्थों भवति ।
ततः एषा कल्पिका प्रतिसेवना। दानिष्कारणधावनबलने वीरयुद्धादिकरणम् १, अकल्पःअपरिणतपृथ्वीकायादिग्रहणमगीतार्थानीतोपधिशय्याहारा
ठावेउ दप्पकप्पे, हेट्ठा दप्पस्स दसपए ठावे । धुपभोगश्च । निरालम्बो-शानाधालम्बनरहितप्रतिसेव
कप्पाधो चउवीसति, तेसिमह ऽट्ठारस पयाई ॥६१४॥ नाकः३। चियत्ते' त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्यक्तकृत्यः प्रथमतो दर्पकल्पो स्थापयित्वा तदनन्तरं दर्पस्याधस्तात् संस्तरन्नपि सनकृत्यप्रतिसेवी त्यक्तचारित्र इत्यर्थः ४, दर्पादीनि पदानि स्थाप्य-कल्पस्याधो दर्शनादीनि चतुर्विशअप्रशस्तो-बलवादिनिमित्तं प्रतिसेवी ५, विश्वस्तः-स्वप- तिपदानि तेषां दशचतुर्विशतिपदानामधो व्रतषट्रादीन्यष्टादक्षतः परपक्षतो वा निर्भय प्राणातिपातादिसेवी ६, अपरीक्षी शपदानि स्थापयेत् ।। युक्ताऽयुक्त:-परीक्षाविकलः ७ अकृतयोगी-अगीतार्थः त्रीन्
(८) संप्रत्यालोचनाक्रममाहदारान् कल्पमेषणीय वा परिभाब्य प्रथमवेलायामपि यतस्त- पढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु | तोऽकल्पान्वेषणीयमपि ग्राही ८, अननुतापी-अपवादप्रदेन
पढमे छक्के अभं-तरं तु पढम भवे ठाणं ॥ ६१५॥ कायानामुपद्रवेऽपि कृते पश्चात् अनुतापरहितः, निःशङ्कोनिर्दयः इहपरलोकशङ्कारहित इत्यर्थः ।
इह प्रथमं कार्य दर्पलक्षसं तस्य प्रथमतः स्थापितत्या
तस्य प्रथमकार्यस्य सम्बन्धिना प्रथमेन पदेन--दर्पलक्षणेन एयं दप्पेण भवे, इणमन्नं कप्पियं मुणेयव्वं ।। यत्सेवितम् , कथंभूतमित्याह-प्रथमे षट्रे-ग्रतषटूरूपे अचउवीसइअभिहाणं, तमहं वुच्छ समासेणं ॥ ६१०॥ भ्यन्तरमन्तर्गतम् । तत्कतरदित्याह-प्रथम-प्राणातिपातलक्षएतदनन्तरोक्तेन प्रकारेण सेवितं दर्पण भवति । इदमन्यत्
खं भवेत् स्थानम् । एवं मृषावादे श्रदत्तादाने मैथुने परिग्रहे कल्पिकं चतुर्विशतिविधान ज्ञातव्यं तदहं समासेन वक्ष्ये । ।
रात्रिभोजने च वक्तव्यम् । पाठोऽप्येवमुश्चारणीयः। तदेवाह
पढमस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जं तु ।
पढमे छक्के अभि-तरं तु बीयं भवे ठाणं ॥ ६१६ ।। दंसणणाणचरिते, तवपवयणसमितिगुत्तिहेउं वा।।
एवं तइयं भवे ठाण, जाव छटुं भवे ठाण । साहम्मिय वच्छल्ले,ण वा वि कुलतो गणस्सेव ।६११॥
पतदेव कथयन्नाहसंघस्सायरियस्स य, असहस्स गिलाण बालवुड्डस्स ।
पढमस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सवियं जंतु। उदयग्गिचोरसावय, भयकत्तारो वतीसवणो ॥ ६१२।।
पढमे छक्के अभि-तरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ६१७ ॥ दर्शने-वर्शनप्रभावकं शास्त्रग्रहणं कुर्वन्नसंस्तरणे १, झाने
अक्षरगमनिका प्राग्वत् । नवरं 'सेसेसु वि पएसु' इति सूत्रमर्थ वा अधीयमानोऽसंस्तरणे २, चारित्रे-अनेषणादोषतः स्त्रीदोषतो वा चारित्ररक्षणाय ततः स्थानादन्यत्र
श्राचं पादत्रयममुश्चता शेषेष्वपि मृपावादादिषु पदेषु 'वि
इयं भवे ठाण, तइयं भवे ठाण' मित्यादि पदसंचारतो गमने ३, तपसि-विकृष्टतपोनिमित्तं धृतपानादि, विष्णुकु
वक्तव्यम् । मारादिवद् वैक्रियविकुर्वणादि ४, प्रवचने-द्वादशाने गणिपि. टकादौ ग्रहणादि ५, समितौ वीर्यसमित्यादिरक्षणनिमित्तं
पढमस्स य कन्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जं तु । चतुःसावद्यचिकित्साकरणादि ६, गुप्तौ-भावितकारणतो
बिइए छक्के अम्भि-तरं तु पढमं भवे ठाणं ॥६१८ ॥ विकटपाने कृते मनोगुप्यादिरक्षणनिमित्तमकल्प्यादि ७,सा- प्रथमस्य कार्यस्य दर्पलक्षणस्य प्रथमेन पदेन दर्परूपेधम्मिकचात्सल्यनिमित्तम् ८, कुलतः कार्यनिमित्तम् ६, एवं ण यत् 'सेवियं ज तु' सेवितं द्वितीये षट्रे कायपट्टे अभ्यगणकार्यनिमित्तम् १०, सङ्घकार्यनिमित्तम् , ११, प्राचार्यनि- न्तरमन्तर्गतं तत्कतरदित्याह-प्रथमं पृथिवीकायलक्षणं भवेमित्तम् १२, असहनिमित्तम् १३, ग्लाननिमित्तम् १४, प्रति- त् स्थानम् । एवमप्काये तेजस्काये वायुकाये बनस्पपिद्धबालदीक्षितसमाधिनिमित्तम्१५,प्रतिषिद्धवृद्धदीक्षितस
तिकाय त्रसकाये च यथाक्रम — बियं भवे ठाणं, तइयं माधिनिमित्तम् १६, उदके-जलसव १७, अग्नी-दवाग्न्यादौ
भवे ठाणमि' त्यादि पदसंचारतः पूर्वक्रमेण पञ्च गाथा १८, चौरे-शरीरोपकरणापहारिणि १६, श्वापदे-सिंहव्याघ्रा
वक्तव्याः । दावापतति यद्धृक्षारोहणादि२०, तथा भये-म्लेच्छादिसमुत्थे
एतदेवाह२१, कान्तारे-अय॑मानभक्तपाने अध्वनि२२, प्रापदि-द्रव्या- पढमस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। चापत्सु २३, व्यसनं-मद्यपानगीतगानादिविषये पूर्वाभ्यास- बिइए छक्के अभि-तरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ६१६ ।। तः प्रवृत्तिः २४, तत्र यद्यतनया प्रतिसेचते स कल्पः ।
इयमपि प्राग्वत् । नवरं 'सेसेसु वि परसु' इति शेषष्यप्यपतदेवाह
प्कायादिपदेषु। एयसतरागाढे,दंसणनाणे चरण सालंबे ।
पढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण परण सेवियं जंतु । परिसेविउं कयाई, होइ समत्थो पसत्थेसु ।। ६१३ ॥ । तइए छके अभि-तरं तु पढमे भवे ठाणं ॥ ६२० ॥
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(६१७) यवहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार प्रथमस्य कार्यस्य दर्पलक्षणस्य प्रथमेन पदेन दर्परूपेण य. लक्षणस्य प्रथम दर्शनरूपं पदममुञ्चता अष्टादशपदानि संचासेवितम् , कथंभूतमित्याह-तृतीये षट्-श्रकल्पगृहिभाजना- रितान्येवं ज्ञानादिलक्षणैर्द्धितीयादिभिरपि पदैत्रयोविंशतिसंदिलक्षणे अभ्यन्तरमन्तर्गतम् , कतरदित्याह-प्रथमकल्पल- ख्याकैः प्रत्येकमष्टादश पदानि संचारयितव्यानि, सर्वसंक्षणं भवेत् स्थानम् एवं गृहिभाजने पल्यङ्के निषद्यायां स्नाने ख्यया भङ्गानां द्वात्रिंशदधिकानि चत्वारि शतानि ४३२, शोभायां च यथाक्रमं च 'बियं भवे ठाणमि' त्यादिपद- अष्टादशानां चतुर्विशत्या गुणने एतावत्याः संख्याया संचारतः पञ्च गाथा वक्तव्याः ।
भावात् । तथा चाह
संप्रति 'पढमस्स थ कजस्स य' इत्यादिपदव्याख्यापढमस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु।
नार्थमाहतइयं छक्के अभि -तरं तु सेसेसु वि परसु ।। ६२१ ।।
पढमं कजं नामं, निकारण दप्पओ पढमपयं । अक्षरगमनिका प्राग्वत् । तदेवं प्रथमस्य कार्यस्य प्रथम पदं पढमे छके पढम, पाणॉइवाए मुणेयन्वो ।। ६२८ ॥ दर्पलक्षणममुञ्चता अष्टादश पदानि एवमकल्पादिभिरपि द्वि- अत्र निष्कारणं नाम दर्पः, प्रथमं पदं दर्पिको दर्पः । शेष तीयादिभिः पदैः संचारणीयानि । पाठोऽप्येवम्-"पढमस्सय
सुगमम्कजस्स य, बीएण परण सेवियं जं तु । पढमे छक्के अभं-तरंतु
एवं तु मुसाबादो, अदिब्रमेहुणपरिग्गहो चेव । पढमं भवे ठाणमि"त्यादि सर्वसंख्याभङ्गानामशीतिशतम्१८०। बिइछक्के पुढवादी, तइये छक्के अकप्पादी॥ ६२६ ।। तदेवं प्रथम दर्परूपं विशुद्धमिदानी द्वितीयं कल्पपदमधिकृत्याह
एवमुक्तप्रकारेण मृगवादोऽदत्तमदत्तादानं मैथुनं परिग्र
हश्चशब्दात्-रात्रिभोजनं च । संचारणं-द्वितीये पट्टे कमेबिइयस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जं तु ।
ण पृथिव्यादयः संचारणीयास्तृतीये पट्टे अकल्पादयः। पढमे छके अभि-तरं तु पढमे भवे ठाणं ।। ६२२॥ निक्कारणदप्पेणं, अट्ठारस चारिया एयाई । द्वितीयस्य कार्यस्य कल्पलक्षणस्य सम्बन्धिना प्रथमेन पदेन
एवमकप्पादीसु वि, एक्केका होंति अदूरस ॥ ६३० ॥ दर्शनलक्षणेन यत्सेवितम् ,कथंभूतमित्याह-प्रथमे षट्रे उभयपटूरूपे अभ्यन्तरमन्तर्गतं कतरत्तदित्याह-प्रथम-प्राणातिपात
एवं निष्कारणस्य दर्पलक्षणस्य कार्यस्य संबन्धिना प्रलक्षणं भवेत् स्थानम् ,एवं मृषावादे अदत्तादाने मैथुने परिग्रहे
थमेन पदेन दर्पण पतानि व्रतषटूप्रभृतीन्यष्टादश पदा
नि संचारितानि । एवमकल्पादिष्वपि नवसु पदेषु एकैरात्रिभोजने च पूर्वप्रकारेण यथाक्रम पश्च गाथा वक्तव्याः ।
कस्मिन् प्रत्येकमष्टादश पदानि संचारितव्यानि भवन्ति । तथा चाहबीयस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जं तु ।
बिइयं कजं कारण-पढमपयं तत्थ ईसणनिमित्तं । पढमे छके अभि -तरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ६२३ ॥
पढम छक्क वयाई, तत्थ वि पढमं तु पाणवहो ॥६३१॥
द्वितीयं कार्य नाम कारणं कल्प इत्यर्थः । तत्र प्रथमं पदं अक्षरगमनिका प्राग्वत्।। द्वितीयं षटू कामरूपमधिकृत्याह
दर्शननिमित्तं प्रथमं षट्-व्रतानि, तत्र प्रथमं पदं-प्राणवधः । बिइयस्स य कन्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु।।
दंसणममुयंतेणं, पुवकमेणं तु चारणीयाई । बिइये छक्के अभि-तरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ ६२४ ॥
अट्ठारस ठाणाई, एवं णाणाइ एकेको ॥ ६३२ ॥ अत्र प्रथम स्थानं पृथिवीकायलक्षणमेवमकाये अग्निकार्य
दर्शन-तद्दर्शनपदं प्रथमममुञ्चता पूर्वक्रमेणाष्टादश स्थानानि वायुकाये वनस्पतिकाये त्रसकाये प्रागुक्तप्रकारेण पञ्च गाथा
चारणीयानि, एवं ज्ञानादिरेकैको भेदः संचारयितव्यः । वक्तव्याः ।
चउवीसऽट्ठारसगा, एवं एए हवंति कप्पम्मि । तथा चाह
दस होंति अकप्पम्मि, सब्बसमासेण मुण संखं ॥६३३॥ बिइयस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जं तु ।
एवमुक्तेन प्रकारेण कल्पे चतुर्विशतिरष्टादशका भवन्ति । बिइए छक्के अभि-तरं तु सेसेसु वि पएसु ॥६२५ ।। चत्वारि शतानि द्वात्रिंशानि ४३२ । भङ्गानां भवन्तीति भावः । प्राग्वत् ॥
अकल्प दर्प दश अष्टादशका भयन्ति । अशीतिः शतम्-१८०। तृतीयमकल्पादिषट्रमधिकृत्याह
भङ्गानां भवन्तीति भावः । एतां कल्प दर्षे च समासेन च बिइयस्स य कजस्स य पढमेण पएण सेवियं जंतु | संख्यां जानीहि । तइए छके अभि-तरं तु पढमं भवे ठाणं ।। ६२६ ॥ सोऊण तस्स पडिसे-वणं तु आलोयणाकमविहिं च । अत्र प्रथम स्थानं कल्पलक्षणमेवं गृहिभाजने पल्याङ्के निष- आगमपुरिसजायं, परियागवलं च खेत्तं च ।। ६३४ ॥ द्यायां स्नाने शोभायां च प्रागुनप्रकारेण पश्चगाथा वक्तव्याः ।
श्रुत्वा तस्यालोचनकस्य प्रतिसेवनाम् , अलोचनाक्रमविएतदेव सूचयति
धिं च-अालोचनाक्रमपरिपाटी चावधार्य तथा तस्य यावाबिइयस्स य कास्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु ।
नागमोऽस्ति तावन्तमागमम , नथा पुरुषजातमएमादिभिर्भातइए छके अभि-तरं नु सेसेसु वि पएसु ॥ ६२७ ॥ वितमभावित वा, पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावानासीत् ,यावांव्याख्या प्राग्वत् । तदेवं द्वितीयस्य कार्यस्य कल्प- श्च तस्य व्रतपर्यायः तावन्तमुभयं पोयम् , बलं-शारीरकं
२३०
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अभिधानराजेन्द्रः।
ववहार तस्य तथा यादृशं तत्क्षेत्रमेतत् सर्वमालोचकाचार्यकथनतः तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुदाता गुरुका मिथ्यावा. खतो दर्शनतश्वावधार्य स्वदेशं गच्छति ।
दित्वात् । । तथा चाह
मिथ्यावादित्वमेव प्रचिकटयिषुरिदमाहआहारेउं सव्वं, सो गंतूणं गुरूसगासम्मि ।
जे भावा जहि यं पुण, चोद्दसपुवम्मि जंबुनामे य । तेसि निवेदेह तहा, जहाणुपुचि गतं सव्वं ।। ६३५॥ वोच्छिन्ना ते इणमो,सुणसु समासेण सीसंतो ॥६६६ ।। स पालोचनाचार्यप्रेषितः सर्वमनन्तरोदितम् ,श्रा-समन्तात् ये भावा यस्मिन् चतुर्दशपूविर्णि ये जम्बूनाम्नि व्यवच्छिधारयित्वा पुनरपि खदेशागमनेन गुरुसकाशं गत्वा तेषां भास्तान् समासेन शिष्यमाणान् इमान् शृणुत । गुरूणां सर्व तथा निवेदयति , यथा-श्रानुपूर्त्या परिपाट्या
तानवाहगतम्-अवधारितम् । व्य० १० उ० । (अत्र-प्रायश्चित्तं मणपरमोहिपुलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे । 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३५ पृष्ठे गतम् । )
संजमतियकेवलिसि-ज्झणा यजंबुम्मि वोच्छिन्ना ।६६७। ( धारणाव्यवहारो 'धारणाववहार ' शब्दे चतुर्थभागे
मनःपर्यायशानिनः-परमावधयः पुलाको-लब्धिपुलाकः २७४८ पृष्ठे गतः।)
आहारकशरीरलब्धिमान् क्षपक:-क्षपकणिरुपशमे-उपशउपसंहारमाहजीएणं ववहारं,सुण वोच्छे जहक्कम वच्छ!॥६६०॥
मश्रेणिः कल्पो-जिनकल्पः संयमत्रिकं शुद्धपरिहारविशुद्धि
सूक्ष्मसंपराययथाख्यातलक्षणं केवलिनः सिद्धिगमनमेते भासाम्प्रतं जीतव्यवहारं यथाक्रमं वक्ष्ये तं च वत्स ! वक्ष्य
वा जम्बूस्वामिनि व्यवच्छिन्नाः, इह 'केवलि' प्रहणेन 'सिमाशं शृणु। तथा चाह
ज्झणा' ग्रहणेन वा गते यत् उभयोपादानं ततः यः केवली स बत्तऽणुवत्तपवत्तो, बहुसो अणुवत्तिो महजणेणं।।
नियमात् सिध्यति, यश्च सिध्यति स नियमात्केवली सन्निति
व्याख्यापनार्थम् । एसो उ जीयकप्पो, पंचमश्रो होइ ववहारो ॥६६१॥
संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्व उवोगो। यो व्यवहारो वृत्तः-एकवारं प्रवृत्तः, अनुवृत्तो-भूयो भूयः प्रवृत्तो, वारद्वयं प्रवृत्त इति भावः । तथा बहुशोऽनेकवारं
एते तिन्नि वि अत्था,चोद्दसपुब्बिम्मि वोच्छिन्ना।६६८। प्रवृत्तः महाजनेन चानुवर्तितः, एष पश्चमको जीतकल्पो
प्रथमं संहननं, प्रथमं संस्थान, यश्चान्तमौहर्तिकः समस्तव्यवहारो भवति ।
पूर्वविषय उपयोगः, एते प्रयोऽप्यर्था न जम्बूस्वामिनि त. वृत्तादिपदानां व्याख्यानमाह
तीये पूर्वयुगे व्यवच्छिन्नाः, किंतु-चतुर्दशपूर्विणि भद्रबाही। वत्तो नाम एकसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारं ।
व्यवहारचतुष्कं पुनः पश्चादप्यनुवृत्तम्।
यताहतइयं वार पवत्तो, परिग्गहीतो महजणेणं ॥ ६६२ ॥ (एकसि) एकमेकवारं यः प्रवृत्तः स वृत्तो नाम, यः पुनर्द्वि
केवलमणपञ्जवना-णिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। तीयवारं, प्रवृत्तः सोऽनुवृत्तः , तृतीयवारं वृत्तः प्रवृत्तोऽनु
चोदस दस नवपुब्बी, आगमववहारिणो धीरा ॥६६६।। वृत्तः प्रवृत्तोऽनुवर्तितः स परिगृहीतो महाजनेन ।
सुत्तेण ववहरते, कप्पयवहारधारिणो धीरा । अत्र परस्य प्रश्नमाहचोदेती वोच्छिन्ने, सिद्धपहे तइयम्मि पुरिसजुगे। .
अत्थधर ववहरते, आणाए धारणे य पथा ॥६७० ॥ वोच्छिन्ने तिविहे सं-जमम्मि जीएण ववहारो ॥६६३॥
ववहारचउक्कस्स, चोइसन्विम्मि छेदों जंभणियं । परचोदयति-किं तृतीये पुरुषयुगे जम्बूस्वामिनाम्नि सि
तं ते मिच्छा जम्हा, सुत्तं अत्थो य धरए उ॥ ६७१ ।। द्विपथे व्यवच्छिन्ने च त्रिविधे संयमे परिहारविशुद्धिप्रभृति- केवलिनो मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिमानिनश्चतुर्दशपूर्विणो के जीतेन व्यवहारः।
दशपूर्विणः नवपूर्विणश्च, एते षट् धीरा श्रागमव्यवहारिणः । अत्र केचिदुत्तरगहुः
ये पुनः कल्पव्यवहारधारिणो धीरास्ते सूत्रेण-कल्पव्यवहारसंघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवमोगो । गतेन व्यवहरन्ति । ये पुनः छेदश्रुतस्यार्थधरास्ते अनया धाववहारचउक्कं पि य, चोदसपुन्वम्मि वोच्छिन्नं ॥६६४॥ रणया च व्यवहरन्ति, छेदश्रुतस्य च सूत्रमर्थञ्चाद्यापि धरप्रथमसंहननम्-वज्रर्षभनाराचं,प्रथमसंस्थानम्-समचतुरनं तो विद्यन्ते दशपूर्वधराः । अपि च-आगमव्यवहारिणस्ततो यश्चान्तमुहूर्तेन चतुर्दशानामपि पूर्वाणामुपयोगोऽनुप्रेक्षणं व्यवहारचतुष्कस्य चतुर्दशपूर्विणि व्यवच्छेद इति यद् भणियच्चादिमम् आगमश्रुताशाधारणालक्षणं व्यवहारे चतुषकमे-] तं तत् मिथ्या। तत्सर्वे चतुदशपूर्विणि-चतुर्दशपूर्वधरे व्यवच्छिन्नम् ।
अन्यच्चएतन्निराकुर्वन् भाष्यकृदाह
तित्थुग्गाली एत्थं, वत्तव्वा होइ आणुपुवीए । माहाऽऽयरियो एवं, ववहारचउर्फ जे उ वोच्छिन्न ।
जे जस्स भागमस्स, वुच्छेदो जहि विणिदिट्ठो॥६७२॥ चउदसपुबधरम्मि, घोसंती तेसिमणुपाया ॥ ६६५ ॥ तेषां मिथ्यावादित्वप्रकटनायाह-यो यस्यां यस्यागमस्य वा एवं परेणोत्तरे कृते प्राचार्य श्राह-ये एवं-प्रागुतप्रकारे- | यत्र व्यवच्छेदो विनिर्दिष्टः सा तीर्थोद्गालिरत्रानुपूर्व्या-क्रमे स व्यवहारचतुष्कं चतुर्दशपूर्वधरे व्यवच्छिन्नं घोषयन्ति, । ण वक्तव्या,येन विशेषनम्तेयां प्रत्यय उपजायेत । व्य०१० उ०॥
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( ६१६) अभिधानराजेन्द्रः ।
ववहार
( को जीतव्यवहारं प्रयुञ्जीत इति 'जीयववदार' शब्देचतुर्थभाग १५१४ पृष्ठे उक्तम् । )
निगमनम् -
एवं जहोवदिट्ठ-स्स धीरविचो देसिओ पसत्थस्स । नदी ववहार-स्स को इ कहिओ समासेणं ॥ ६६०॥ एवम् उक्तेन प्रकारेण पञ्चविधस्य धीरैः तीर्थकर गणधरैर्यथाक्रमतः सूत्रतश्च देशितो विदः - चतुर्दशपूर्वधरास्तैः प्रशस्तः --- प्रशंसितस्तस्य निष्पन्दः कोऽपि कथितः समासेन विस्तरेणाऽभिधातुमशक्यत्वात् ।
तथा चाह
को वित्रेण तू - समत्तो गिरवसेसिए एत्थ । ववहारे जस्समुह, हवेज जीहायसहस्सं । ६६१ ॥ किं पुण गुणवएसो, ववहारस्स उ विओो पसत्थस्स । एसो मे परिकहिओ, दुवालसंगस्स रावणीयं ॥ ६६२ || यस्य मुखं जिह्वाशतसहस्रं जिद्दालक्षं भवेत्, सोऽपि को नाम व्यवहारे-व्यवहारसूत्रस्य निरवशेषितान् गुणान् वक्तुं समर्थो नैव कश्चित् किंत्वेष व्यवहारस्य-व्यवहारसूत्रस्य किञ्चित् प्रशस्तस्य चतुर्दशपूर्वधरभद्रबाहुस्वामिना दत्तस्य गुणोपदेशो- गुणोत्पादननिमित्तमुपदेशो ( भे) भवतां कथितः । किं विशिष्ट इत्याह-दशाङ्गस्य नवतीतमिव सारमित्यर्थः । व्य० १० उ० ।
व्यवहारो यथाऽऽचार्येण कर्तव्यस्तदाहकिह पुरा कज्जमक, करेज आहारमादिसंगहितो । जह कम्म वि नगरम्मि, उप्पलं संघकजं तु ३०३ ॥ कथं पुनराहारादिसंगृहीतः सन् कार्यमुपलक्षणमेतत् अकार्यमपि करोति । अत्र सूरिर्निदर्शनमाह-यथा - कस्मिं चिन्नगरे किमपि सङ्ग्रकार्यमुत्पन्नं सचित्तादिनिमित्तं वास्त व्यसङ्घस्य व्यवहारो जात इत्यर्थः । स च वास्तव्य संङ्घन छेत्तुं न शक्यते ।
बहुसुयपरिवारो य, आगतो तत्थ कोइ आयरितो । तेहि य नागरगेहि, सो उ नियुतो उ ववहारे ||३०४ || श्रन्यदा कोडप्याचार्यो बहुश्रुतो बहुपरिवारस्तत्र नगरे समागतः, स च तैर्नागरकैः- नगरवास्तव्येन सङ्केनेत्यर्थः । नियुक्तो व्यवहारे बहुश्रुतस्त्वम् श्रत एव व्यवहारं छिन्धि । नाये छ वहारे, कुलगणसंघेण कीरइ पमाणं । तो सेवितं पवत्ता, आहारादीहि कजी य ।। ३०५ ॥ एवमुक्ते तेन न्यायेन श्रुतोपदेशेन व्यवहारश्छिन्नः । ततः कुलगण संघेन स प्रमाणं क्रियते । एष बहुश्रुतो न चश्रुतोत्तर किमपि वदति, तस्माद्यदेष भाषते तत्प्रमाणमिति, एवं च प्रमाणीकृते तस्मिन् श्रावकसिद्धपुत्रादयः कायिकादयस्तत्कार्यार्थिन' सन्तस्तमाहारादिभिः सेवितुं प्रवृत्ताः स च तान्याहारादीनि दीयमानानि गृह्णाति । तो छिंदि पउत्तो, निस्साए तत्थ सो उ ववहारं । पच्चत्थीहिं नायं, जह छिंदइ एस निस्साए ।। ३०६ ॥ ततः श्राहारादिग्रहणानन्तरं स तत्र नगरे व्यवहारं निश्रया पक्षपातेन छेतुं प्रवृत्तः ततो ये आहारादिकं न दत्तवन्तस्ते तस्य प्रत्यर्थिनस्तैः प्रत्यर्थिभिर्शतम्, यथा एष व्यवहारं निगा छिन ।
ववहार
को हु हवे अन्न, जो नाएगं नएज ववहारं । अह अन्नय समवाओ, घुट्ठो आयो य तत्थ विऊ ||३०७॥ ततस्ते प्रत्यर्थिनश्चिन्तयन्ति । को 'नु' 'हु' निश्चितं भवेदन्यो गीतार्थो यो न्यायेम व्यवहारं नयेत् । अथान्यदा सचित्तादिव्यवहारच्छेदनार्थ संघसमवायो घुष्टो घोषितः, संघसमवायघोषणां श्रुत्वा तथा संघसमवायविदः विद्वान् सूत्रार्थतदुभयकुशलो ऽन्यः प्राघूर्षकः कोऽपि समागतः ।
(E) इह समवाय घोषणामाकर्ण्य धूलीधूसरैरपि वादे श्रवश्यमागन्तव्यमन्यथा प्रायश्चित्तमित्येतदधुना प्रतिपादयतिघुट्टम्म संघकजे, धूलीजंघो वि जो न एजाहि । कुलगणसँघसमवाए, लग्गति गुरुगे चउम्मासे || ३०८ || जं काहिंति अकजं, तं पावइ बले अगच्छंतो । अमाइ ताव तो हा-ण मादि जं कुञ्ज तं पावे ॥ ३०६ ॥ घुष्टे - घोषिते संघकार्ये संघसमवाये धूलीजहोऽपि श्रस्तामन्य इत्यपिशब्दार्थः । धूल्या धूसरे जङ्घे यस्य स धूलीजङ्गः, शाकपार्थिवादिदर्शनान्मध्यम पदलोपी समासः । सङ्घसमवाय घोषणामाकर्ण्य प्राघूसकेनापि पादलनायामपि धूलावप्रमत्ततया त्वरितमवश्यमा गन्तव्यमिति ज्ञापनार्थम् । धूलीजवोऽपीत्युपादाने सति बले यो न श्रागच्छेत्, कुलसमवाये गणसमवाये सङ्घसमवाये वा गुरुके चतुर्मासे लगतिः तस्य गुरुकाश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तमिति भावः । न केवलमेतत् किं त्वदन्यदपि । तथा चाह - ' जं काहि ' इत्यादि, सति बले आगच्छन् व्यवहारोच्छेदाकार्यकरणतो वान्यैरन्यथा छिन्ने व्यवहारे यत् कार्य ते व्यवहारार्थिनः करिष्यन्ति तत्प्राप्नोति तनिमित्तमपि प्रायश्चित्तं तस्यापद्यते इत्यर्थः । अन्यदपि चापमानवशतो यदवधावनादि कुर्यात्तदपि प्राप्नोति ।
धू
तम्हा उ संघस, घुट्ठे गंतव्त्र धूलिजंघेणं । धूलीजंघनिमित्तं ववहारो उट्ठितो सम्मं ।। ३१० ॥ यत एवमनागमने दोषास्तस्मात्सङ्घशब्दे घुटे घोषिते लीजङ्केनाप्यवश्यं सति बले गन्तव्यम् । यतः कदाचित् धूलीजनिमित्तं व्यवहारः सम्यगुत्थितो भवेत्, यथा-प्राघूर्लको गीतार्थो धूलीजङ्घः समागतः सन् यद् भणिष्यति तत्प्रमाणमिति ।
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ते य सुर्य जसो, तेल्लघयादीहि संगहीतो उ । कजाई नेति तर्हि, माई पावोवजीवी उ ॥ ३११ ॥ तेन च धूलीजङ्खेनाऽऽगच्छतैव कस्यापि पार्श्वे श्रुतम्, यथैष वास्तव्यो व्यवहारच्छेत्ता तैलघृतादिभिः संगृहीतः सन् मायी अभीक्ष्णं मायाप्रतिसेवी पापोपजीवी कोराटलायुपजीवी वितथमुत्सूत्रं कार्याणि नयति ।
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सो तो उसंतो, त्रितहं दट्टण तत्थ ववहारं । समएण निवारेई, कीस इमं कीरइ अकजं ।। ३१२ ॥ एवं श्रुत्वा समागतः सन् तूष्णीकस्तावदास्ते यावन्स्त्रै निर्दिश्यमानं व्यवहारं पश्यति तं च तथाभूतं बितथं व्यवहारं दृष्ट्रा समयेन सिद्धान्तेन निवारयति, यकस्मादिदमकार्य कियते ।
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वित्तिा वितथमेते साधयो नजामत्तम् ।
सूत्र-सप्तसूत्राम
एवं समयः प्राह-कथं पुन
(२०) अभिधानराजेन्द्रः।
यवहार न केवलमेवं निवारयति , किंत्वेतदपि वक्ति
यदि घुवते लभते अम्योऽपि नावनुमतः त्वमपि यज्जानानिद्धमहुरं निवार्य , विणीयमविजाणएसु जंपतो। सि वक्तुं तत् ब्रूहि । ततः एवमुक्ने तां पर्षदमनुमान्य सम्यक सचित्तखेतमीसे, अत्थधर निहोडणा विहिणा॥३१३॥ क्षमयित्वा तत्र न्यायतः स तं । सचित्तनिमित्तव्यवहारे 'खेत्त' त्ति क्षेत्रनिमित्ते व्यवहारे
- कथमनुमात्येतदनुमानप्रकारमाहये दुर्व्यवहारिणस्तेषां प्रतिदिवसनिमित्तम् ' अविजाण
संघो महाणुभावो, अहं तु वेदेसियो इहं भयवं । एसु' नि येऽपि च साधवो न जानन्ति , यथा-घृता- संघसमिति न जाणे, तो भे सव्वं खमावेमि ॥३२०॥ धनुवृत्ता वितथमेते व्यवहरन्ति , तेष्वपि विजानत्सु संघो महाननुभावः-अचिन्त्यशक्तिरस्येति महानुभावः । विज्ञाननिमित्तमेवं जल्पति-अहो स्निग्धो व्यवहारः। कि- अहं च वैदेशिको-विदेशवर्ती, इह-अस्मिन् स्थाने 'संघसमुक्नं भवति-तैलघृतादिसंगृहीता एवमेते अन्यथा व्यवह- | मिति' भागवतीं सहमर्यादा न जाने, ततो युक्तमयुक्तं वा वर्षा रन्तीति । अथ गुडशर्करादिभिहीता वितथव्यवहारि
सर्व 'भे' भवतः क्षमयामि । णः, ततो-जल्पति-अहो मधुरो व्यवहारः । यदि पु
यतःनरुपाश्रयो निर्वातो लब्धः, शीतप्रावरणानि वेति वित- देसे देसे ठवणा, अम्लो अम्लत्थ होइ समितीणं । थं व्यवहरन्ति , तत पाह-निर्वातो व्यवहारः । अथ कृ
गीयत्थेहोइला, अदेसियो तं न जाणामि ॥ ३२१॥ तिकर्मविनयादिभिः संगृहीतास्ततो ब्रूते-अहो विनी
समितीना-संघमर्यादानां स्थापना गीतार्थैराचीर्मा, अत्रजतो व्यवहारः । एवं स्निग्धमधुरनिवातविनीतव्यवहारं जल्पन् सोऽर्थधरस्तेषां दुर्व्यवहारिणां विधिना सूत्रोपदेशे
गति देशे अन्या भवति । ततोऽहमदेशिक इह तां-संघममनिहोडणां-निवारणं करोति ।
र्यादां-स्थापनां न जानामि, ततः क्षमयत । एवं चेव य सुत्तं, उच्चारेउं दिसं अवहरंति ।
___श्रुतोपदेशनाहमपि किंचिद्वक्ष्येअप्पावराह पाउ-दृदाण इयरे उ जा जीयं ॥ ३१४॥
अणुमाणेउं संघ, परिसग्गहणं करेइ तो पच्छा। एवं निहोडणं कृत्वा पतदेवाधिकृतं सूत्र-सप्तसूत्रात्म
किह पुण गेएहइ परिसं, इमेणुवाएरण सो कुसलो।३२२॥ कमुच्चार्य दिशमाचार्यत्वादिकमपहरन्ति-उद्दालयन्ति । श्र- एवं सङ्घमनुमान्य सम्यक् क्षमयित्वा ततः पश्चात्पर्षदनथ सोऽल्पापराधः प्रत्यावृत्तश्च तदा 'दाण ' ति तस्य हणं करोति । शिष्यः प्राह-कथं पुनः पर्षदं गृह्णाति । सूरिदिक पुनीयते' इयरे उ' इति सप्तमी षष्ठयथै , इतरस्य राह-कुशलो-दक्षोऽनेनोपायेन गृह्णाति समीचीनामसमीचीत्वनावृत्तस्य श्रावृत्तस्य वा बहुदोषस्य यावजीवमाचार्य- नां वा जानाति। स्वादिकं न दीयते।
तमेवोपायमाहएवं ताव बहसुं, मज्झत्थेसु तु सो उ ववहरति । परिसा ववहारीया, मज्झत्था राग-दोस-नीहूया । मह होज बली इयरे, ठावेइ उ तत्थिमं वयणं । ३१५॥ जइ होंति दो वि पक्खा, ववहरिउं तो सुहं होइ।।३२३॥ एवमनन्तरोदितेन प्रकारेण तावद्वहुषु मध्यस्थेषु सत्सु पर्षनाम व्यवहारायौं द्वावपि पक्षौ तौ ब्रूते, यदि द्वावपि सोऽर्थधरो व्यहरति । अथ भवेयुरितरे दुर्व्यवहारिणो पक्षौ मध्यस्थौ भवतः, मध्यस्थता-रागद्वषाऽकरणतो भवति बहुत्वेन बलीयांसः , ततस्तत्रान्यथा व्यवहारच्छेदे क्रिय- | तत आह-निभृतौ-निर्व्यापारौ रागद्वेषौ ययोस्तौ रागद्वेमाणे इदं वक्ष्यमाणं ब्रूते ।
पनिभृतौ, क्लान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः सुखादिदर्शनात् । तदेवाह
ततः सुखं व्यवहाँ व्यवहरणं भवति । रागेण व दोसेण व, परबग्गहणेण एक्कमेक्कस्स । एवं पर्षहणं कृत्वा ये दुर्व्यवहारिणस्ताग्निक्षिपनिदमाहकअम्मि कीरमाणे, किं अच्छति संघमझत्थो ॥३१६॥ ओसन्नचरणकरणे, सच्चव्यवहारयादुसद्दहिया । रागेण वा एकस्य पक्षस्य ग्रहणेन वषेण वा-पकस्य पक्ष
चरणकरणं जहंतो, सच्चव्यवहारयं जहइ ॥ ३२४ ॥ स्याग्रहणेन, द्वेषेण वा कार्य क्रियमाणे वितथे व्यवहारे छिद्य
अवसने शिथिलतां गते सरणकरणे वतश्रमणधर्मादिपिमाने किं संघो मध्यस्थस्तिष्ठति ।
एडविशोधिसमित्यादिरूपे यस्य सोऽवसन्नचरणकरणः तरागेण व दोसेण व, पक्खग्गहरोण एक्कमेक्कस्स। स्मिन्सत्यव्यवहारता यथास्थितव्यवहारकारिता दुःश्रद्धेया कजम्मि कीरमाणे, अमो विभणाउता किंचि ॥३१७॥ यतश्चरणकरण जहत्-त्यजन् सत्यव्यवहारतामपि जहाति । रागेण वा एकस्य पक्षस्य ग्रहणेन द्वेषेण वा पक्षाऽग्रहणेन जइ याऽणेणं चत्तं, अप्पणतो नाणदंसणचरित्तं । कार्ये क्रियमाणे ततस्तस्मात् किंचिदन्योऽपि भणतु:
ताहे तत्थ परेसुं, अणुकंपा नऽस्थि जीवेसुं ॥ ३२५ ॥ बलवंतेसेवं वा, भणाति अम्लो वि लभति को एत्थ । यदाऽनेनात्मनः संबन्धि ज्ञानदर्शनचारित्रं त्यक्त्रम् , तदा त. वत्तुं जुत्तमजुत्तं, उयाहु न वि लम्भतेऽस्मस्स ॥३१८। । स्य परेषु जीवेष्वनुकम्पा नास्ति, यस्य ह्यात्मनो दुर्गती प्रपतबलवत्सु दुर्व्यवहारिष्वेवं वक्ष्यमाणरीत्या भणति,तामेवाह- | तो नानुकम्पा तस्य कथं परेष्वनुकम्पा भवेदिति भावः । अत्र अस्मिन् संघसमवाये युक्तमयुक्तं वा वक़्मन्योप कश्चित् भवसयसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावतो जहंतस्स । लभते उताहो अन्यस्य वक्तुंन लभ्यते,अन्यो न लभते इत्यर्थः।
जस्स न जायं दुक्खं, न तस्स दुक्खं परे दुहिते ॥३२६।। जति वेंति लभते तु, बूहि तुम जं तु जाणसी जुत्तं ।
यस्य भवशतसहस्रः कथमपि लब्धं जिनवचनं भावतः तो अणुमाणेऊणं, ति तहिं नायतो सो उ ॥ ३१६ ।। परमार्थतो जद्दतः यजतो दुख न जातम् , न तस्य परे दुः
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ववहार
( ६२३ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
खिते
दुःखम् । यस्य धात्मन्यपि दुःखिते न पीडा, तस्य परे दुःखिते कथं स्यादिति भावः ।
आयारे वट्टंतो, आयारपरूवणो असंकी |
यारपरिभट्ठो, सुद्धचरणदेस भइतो ।। ३२७ ॥ श्राचारे वर्त्तमानः खल्वाचारप्ररूपणा अशङ्कयोऽ--शङ्कनीयो भवति । यः पुनरोचारपरिभ्रष्टः स शुद्धचरणदेशने-यथावस्थितचरणप्ररूपणासु भक्को - विकल्पितः, शुद्धचरणप्ररूपणां करोति वा न वेत्यर्थः । एवं दुर्व्यवहारिणामाक्षेपे कृते ते ब्रूयुर्वयमप्रमाणीकृता युष्माभिः ।
ततः स गीतार्थः प्राह
तित्थयरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू । जो ण करेइ पमाणं, न सो पमाणं मुयहराणं ॥ ३२८ ॥ तीर्थकरान् भगवतो जगजीवविशायकान्सर्वज्ञानित्यर्थः, त्रिलोकगुरून् यो न करोति प्रमाणं न स प्रमाणं श्रुतधराणाम् । तित्थयरे भगवन्ते, जगजीववियाखए तिलोयगुरू । जो उ करेइ पमाणं, सो उ पमाणं सुयहराणं ॥ ३२६ ॥ तीर्थकरान् भगवतो जगज्जीवविज्ञायकान् त्रिलोकगुरून्सनित्यर्थः, यस्तु करोति प्रमाणं स प्रमाणं श्रुतधराणाम् । एवं धूलीजङ्घेन दुर्व्यवहारिषूपालब्धेषु ते ब्रूयुः, एवं संघमप्रमाणीकुरुथ यूयमिति ।
ततः प्राह
संघ गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं । रागद्दोसविमुको, होइ समो सव्वजीवाणं ॥ ३३० ॥ संघो नाम - गुणानां मूलगुणानामुत्तरगुणानां च संघातःसंघातात्मकः, गुणसंघातात्मकत्वादेव च कर्मणां - ज्ञानाssवरणीयादीनां संघाताद्विमोचयति प्राणिन इति संघातविमोधकः । रागद्वेषविमुक्तः - श्राहारादिकं ददत्सु रागाऽकारी, तद्विपरीतेषु द्वेषाकारीत्यर्थः । श्रत एव भवति समः सजीवानाम् स इत्थंभूतो नाप्रमाणीकर्तुं शक्यते श्रुतोपदेशेन व्यवहरणात् ।
किं चान्यत्परिणामियबुद्धीए, उववेतो होइ समणसंघो उ । जे निच्छियकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो ॥ ३३१ ॥ पारिणामिकी चासौ बुद्धिश्च पारिणामिकबुद्धिस्तया उपेतो- युक्तो भवति श्रमणसंघः । तथा कार्ये दुर्गेऽपि समापतिते यत् श्रुतोपदेशबलेन सम्यनिश्वितं तत्करणशीलः कार्ये निश्चितकारी, तथा सुष्ठु देशकालपुरुषौचित्येन श्रुतवलेन च सुपरीक्षितं तस्य कारकः संघो, न यथाकथंचनकारी । हि सुपरिच्छिकारी, एक्कसि दो तिमि वावि पेसविए । न वि उक्खिय सहसा, को जागइ नागतो केणं ॥ ३३२ ॥ कथं - केन प्रकारेण सुपरीक्षितकारी । उच्यते - इहायिना संघप्रधानस्य समीपे संघसमवायो निमन्त्रितस्तेन चाशप्तः संघमेलापककारी, संघस्त्वया मेलनीयः । तत्र 'च प्रत्यर्थी कुतश्चित्कारणान्नागच्छति । ततो मानुषः प्रेषणीयः, संघस्त्वां शब्दयति । स नागतस्ततो द्वितीयमपि वारं मानुषं प्रेषयति । तथापि नागच्छति, तत्रापरिणामका युवते उद्घाटयतामेषः । गीतार्थास्त्वाहुः पुनः प्रेष्यतां गीतार्थ मानुष्यम्, केन कारणेन नागच्छति । किं परिभवेन, उत
२३१
ववहार
भयेन । तत्र यदि भयेन नाऽऽगच्छति ततो वक्तव्यम् - मा भैषी स्त्वम्, परित्राणकारी खलु भगवान् श्रमणसंध इति । अथ प रिभवेन तत उद्घाज्यते । एवं सुपरीक्षितकारी । तथा चाह एवं द्वी श्रीन् वारान् मानुषे प्रेषितेऽपि तमनागच्छन्तं सहसा संघो न क्षिपति-न संघवाह्यं करोति । येन एवं पर्यालोचयति । को जानाति न ज्ञायते इत्यर्थः । केन कारणेन नागत इति । नाऊण परिभवेणं, नागच्छन्ते ततो य निज्जुहणा ।
उट्टे ववहारो, एवं सुविनिच्छकारी अ ॥ ३३३॥ परिभवेण नागच्छतीति ज्ञात्वा तस्मिन्ननागच्छति ततः संघाभिहरणा निष्कासनं कर्त्तव्यम् । श्रथ शठतामपि कृत्वा स प्रत्यावर्तते । प्रत्यावृत्तश्च संघ प्रसादयति । ततस्तस्मिनावृत्ते व्यवहारो दातव्यः । एवं सुविनिश्चितकारी संघः ।
यस्तु भीतो नागच्छति तं प्रति इदं वक्तव्यम् - आसासो विस्सासो, सीयघरसमो य होइ मा भाहि । अम्मापत्तिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वैसिं ॥ ३३४॥ आश्वासयतीति श्राश्वासो भीतानामाश्वासनकारी- भगवान् श्रमण संघः । विश्वास्यतीति विश्वासो व्यवहारे वञ्चनायाः अकर्ता, सर्वत्र समतया शीतगृहेण समः शीतगृहसमः । तथा मातापितृभ्यां समानो मातापितृसमानः पुत्रेषु मातापितराविव व्यवहारादिष्वविषमदर्शी, तथा सर्वेषां प्राणिनां शरणं भगवान्संघः तस्मात् मा भैषीस्त्वमिति । इदं च परिभावयन् संघो व्यवहारं न करोति ।
सीसो पडिच्छतो वा, आयरितो वा न सुग्गई नेई । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोति ।। ३३५ ॥ शिष्यः-स्वदीक्षितः प्रतीच्छुकः - परगणवर्ती सूत्रार्थतदुभ यग्राहकः, अचार्यो वाचनाचार्यादिको न सुगतिं नयति-किं तु ये सत्यकरणयोगाः - संयमानुगतमनोवाक्कायव्यापारास्ते संसाराद्विमोचयन्ति ।
सीसो पडिच्छत्र वा, श्रयरिओ वा वि ऍते इह लोए । जे सच्चकरण जोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ ३३६ ॥ शिष्यः प्रतीच्छको वा श्राचार्यों वा एते सर्वेऽपि इह लोके परलोके पुनः ये सत्यकरणयोगास्ते संसाराद्विमोचयन्ति । सीसो पडिच्छओवा, कुलगणसंघो न मुग्गतिं नेति । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ।। ३३७ ॥ शिष्यः प्रतीच्छुको वा कुलं वा गणो वा संघो वा न सुगति नयति, किं तु ये सत्यकरणयोगास्ते संसाराद्विमोचयन्ति । सीसो पडिच्छओ वा, कुलगणसंघो व ऍते इह लोए । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोति ॥ ३३८ ॥
सुगमा ।
शीतगृहसमः संघ इत्युक्तम्, तत्र शीतगृहसमतां व्याख्यानयति
सीसे कुलव्व वा, गणव्वऍ संघवए य समदरिसी । ववहारसंथवेसु य, सो सीयवरोवमो संघो ॥ ३३६ ॥ शिष्ये- स्वदीक्षते 'कुलव्वए' त्ति स्वकुलसम्बन्धिनि गणसंब. धिनि संघसंबन्धिनि च जाते व्यवहारे समदर्शी । किमुक्तं भवति शिष्याणां कुलगण संघसंबन्धिनां च परस्परं व्यवहारे जाते
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( १२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ववहार
समदर्शी । तथा संस्तवेषु पूर्वसंस्तुतेषु - पश्चात्संस्तुतेषु चाम्यैः समं व्यवहारे जाते समदर्शी, अतः स संघः शीतगृहोपमः, यथा शीतगृहमाश्रितानां स्वपरविशेषाकरणतः परितापहारी, तथा व्यवहारार्थमागतानां संघोऽपि स्वपरविशेषाकरणतः परितापहारीति भावः ।
(१०) संप्रति संघशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहगिहिसंघायं जहिउं, संयमसंघाययं उबगरणं । याचरणसंघायं, संघायंते हवइ संघो ।। ३४० ॥ गृहिणां -- संसारिणां मातापित्रादीनां संघातं हित्वा -- परि त्यज्य संयम संघातमुपगतः सन् समिति वाक्यालङ्कारे यो ज्ञानचरणसंघातं संघातयति-- श्रात्मनि स्थितं करोति, स ज्ञानचरणे संघातयन् भवति संघः । संघातयतीति संघ इति व्युत्पत्तविपरीतस्तु संघो न भवति । नामचरणसंघायं, रागद्दोसेहि ँ जो विसंघाए ।
अहो गिहिसंघायम्मि, अप्पाणं मेलितो न सो संघो । ३४१ । यो ज्ञानचरणसंघातं रागद्वेषैरनेकैर्व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं विसंघातयति, विघटयति सोऽबुधो -- मूर्खो गृहिसंघाते श्रा स्मानं संघातयति - मेलयति स परमार्थतो न संघः । ज्ञानचरणसंघातन लक्ष प्रवृत्तिनिमित्ताभावात् ।
तस्यापापरूपं फलमाह -
माण चरणसंघायं, रागद्दोसेहि जो विसंघाए ।
सो भमिही संसारे, चउरंगतं अणवदग्गं ॥ ३४२ ॥ यो ज्ञानचरणसंघातं रागद्वेषैः विसंघातयति-विघटयति च तुषु गेषु - नारकतिर्यन्नरामर गतिरूपेष्वन्तः पर्यन्तो यस्य स चतुरङ्गान्तः, तम् 'अणवदग्गं कालतोऽपरिमाणं भविष्यति त स्य च संसारं परिभ्रमतो वितथव्यवहारकारितयोन्मार्गदेशनया व तीर्थकराऽऽशातनया बोधिरपि भवान्तरे दुर्लभा । तथा चाह
दुक्खेण लहइ बोहिं, बुद्धो वि य न लब्भति चरितं तु । उम्मग्गदेसखाए, तित्थकरासायणाए य || ३४३ ॥ वितथं हि व्यवहारं कुर्वता तेनोन्मार्गांदेशिना तीर्थकरश्वाशातितः, तत उन्मार्गदेशनया तीर्थकराशातनया च संसारं परिभ्रमन् दुःखेन लभते बोधिम्, वुद्धोऽपि च न लभते चारित्रम् ।
कस्मान्न लभते इत्याह-उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणार मग्गस्स । बंघति कम्मरयमलं, जरमरणाणंतकं घोरं ॥ ३४४ ॥ उन्मार्गदेशनया सन्तो मार्गस्याच्छादनवा - स्थगनेन बहनाति कर्म्म । किं विशिष्टमित्याह-रज इव रजः संक्रमणोद्वर्त्तनापवर्तनादियोग्यम्, मल इव मलो निघत्तनिकाचितावस्थाम्, तथा जरामरणान्यनन्तानि यस्मानत् जरामरणानन्तकम् । प्राकृतत्वाद्विशेषणस्य परानपातो मकारोऽलाक्षणिकः । अत एव घोरं रौद्रमतो न लभते बोधिम्, नापि चारित्रमिति । कीदृशेन पुनर्व्यवहारश्छेत्तव्यस्तत श्राहपंचविहं उवसंपय, नाऊणं खत्तकालपव्त्रजं । तो संघमज्झगारे, ववहरियव्वं अणिस्साए || ३४५ ॥
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बवहार यत एवं वितथत्र्यवहारकरणे दोषास्ततस्तस्मात् पञ्चविधां ज्ञानदर्शनचारित्रत पोवैयावृत्यभेदतः पञ्चप्रकारामुपसंपदं क्षे. * कालं प्रवज्यां च ज्ञात्वा संघमध्ये व्यवहर्त्तव्यम्, किमुक्तं भवति यः पञ्चविधायामुपसंपदि श्रभवन्तमनाभवन्तं जानाति, यश्च क्षेत्रमक्षेत्रं वा वुध्यते क्षेत्रेऽपि च क्षेत्रिकस्य यदाभवति तज्जानाति तथा क्षेत्रे यावन्तं कालमवग्रहो ऽनुव्रजति तावन्तं कालमवबुध्यते, तथा प्रवाजयितुं यो जानाति प्रथाजितोऽपि केनापि तस्य यत् श्रभवति यच्च नाभवति तत् जानाति, तेन संघमध्ये अनिश्रया श्राहारप्रदायिषु स्वकुलसबन्ध्यादिषु रागाकरणत इतरेषामद्वेषाकरणतो व्यवहर्तव्यम् ।
अत्र परस्याशङ्कामाह
उस्सु ववहरंतो, उ वारितो नेत्र होइ ववहारो । वेति जइ बहुसुहिं, वृत्तो तत्तो भइ इणमो ||३४६ ॥ उत्सूत्रं - स्त्रोत्तीर्ण व्यवहरतो बहुश्रुतस्य बहुश्रुतैः कृतव्यवहारो नैवान्यैर्धारितस्ततः स प्रमाणमिति यदि ब्रूते. तत इदं भएयते - द्विविधाः खलु व्यवहारच्छेदकाः । तद्यथाप्रशंसनीया अप्रशंसनीयाश्च ।
तथा चोभयानेव सनिदर्शनमभिधित्सुराहतगराए नगरीए, एयायरियस्स पासें निष्फला । सोलस सीसा तेसिं, सव्ववहारीउ अट्ठ इमे ॥ ३४७ ॥ तगरायां नगर्यामेकस्याचार्यस्य पार्श्वे षोडश शिष्या निष्पनास्तेषां च मध्येऽष्टौ व्यवहारिणः, अष्टौ चाव्यहारिणः । तत्र व्यवहारिणोऽष्टाविमे ।
तानेवाह
मा कित्ते कंकडुयं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वायं । बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं ॥ ३४८ ॥ मा कीर्त्तय- प्रशंसय व्यवहारिणम्, कं कमित्याह- कङ्कटुकम् १, कुण--कुनपनखम् २, पक्कम् ३, उत्तरम् ४, चार्वाकम् ५, बधिरम् ६, गुण्ठसमानं--लाटमायाविसमानम् ७, अम्लसमानं च निर्द्धर्माणम् ८ ।
तत्र कङ्कटुकं कुणपं च प्रतिपादयतिकंकडुओ विव मासो, सिद्धिं न उबेइ जस्स ववहारो । कुणिमहो व न सुज्झति, दुच्छेओ जस्स ववहारो । ३४६ | यस्य व्यवहारः काकटुकः मात्र इव न सिद्धिमुपयाति, स काकटुकव्यवहारयोगात् काकटुकः । यस्य पुनर्व्यवहारो दु
यो न च छिन्नोऽपि सर्वथा निरवशेषः शुद्धयति । तथा कुण-मांस सूक्ष्मो नखो-नखावयवः यस्य स कुखपनखावयवतुल्यव्यवहार करण्योगात् कुणपः । व्य० ३ उ० । (पक्कव्याया 'पक्क' शब्दे पञ्चमभागे ६६ पृष्ठे गता ।) (उत्तरवार्षाकबधिरव्याख्या 'उत्तर' शब्दे द्वितीयभागे ७५७ पृष्ठे गता । ) ( गुण्ठसमान- व्याख्या 'गुंठसमाण ' शब्दे तृतीयभागे ६०५ पृष्ठे गता । ) येषु वचनेषूक्तेषु परस्य शरीरं विडविडायते तानि अम्लानि, अम्लैः पुरुषैश्च वचनैर्व्यवहारं न सिद्धिं नयति । सोऽम्लवचनयोगादम्ल इति ।
उपसंहारमाह
एए अककारी, तगराए आसितम्मि उ जुगम्मि । जेहि कया ववहारा, खोडिअंतऽमरजेसुं ।। ३५५ ॥
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यवहार
पते श्रनन्तरोक्तस्वरूपा अष्टौ कार्यकारिणो दुर्व्यवहारिणस्तस्मिन् गुणे तस्मिन्विवक्षिते काले तगरायामासीरन् यैः कृता व्यवहारा श्रन्येषु राज्येषु क्षोभ्यन्ते ।
( २३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दुर्व्यवहारिणामिह परलोके च फलमाहइहलाए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेर्सि । गॉखाए जिणंदा, जे ववहारं ववहरंति ॥ ३५६ ॥ ये जिनेन्द्राणामनाशया व्यवहारं व्यवहरन्ति तेषामिह - लोके अकीर्तिः, परलोके भुवा दुर्गतिः । तेण न बहुस्सुतो वी, होड़ पमाणं अणायकारी उ । नाएण ववहरंतो, होइ पमाणं जहा उ इमे ।। ३५७ ॥ यत एवं दुर्व्यहारिण इहलोके अपकीर्तिः परलोके दुर्गतिस्तेन - कारणेन बहुश्रुतोऽप्यन्यायकारी न भवति प्रमागम् । न्यायेन पुनर्व्यवहरन् भवति प्रमाणम्, यथा-इमे-वदयमाणाः तगरायां तस्यैवाऽऽचार्यस्याष्टौ शिष्याः । तानेवाह
·
कित्तेहि समित्तं वीरं सिवकोगे च श्रजासं । अरहनग-धम्मत्तग-खंदिल - गोविंद दत्तं च ॥ ३५८ ॥ कीर्त्तय- प्रशंसय सुध्यवहारकारितया पुष्पमित्रम् १, वीरम् २, शिवकोष्ठकम् ३, श्रार्याशम् ४, अर्हन्तकम् ५, धर्मान्वगम ६, स्कन्दिलम् ७, गोपेन्द्रदत्तं च
एते उ कज्जकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि । जेहि कया बवहारा, अक्खोन्या अमरजेसु ॥ ३५६ ॥ अनन्तरोदिताः तस्मिन् युगे तस्मिन्काले कार्यकारिणः सुव्यवहारिणः तगरायामासीरन्, यैः कृता व्यवहारा अक्षोभ्या वाकया श्रन्यराज्येषु ।
(११) सुव्यवहारिणामिह परलोके च फलमाहइह लोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोगती धुवा तेसिं । आणाऍ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति । ३६० । ये जिनेन्द्राणामाशया व्यवहारं व्यवहरन्ति तेषामिह लोके कीर्त्तिः परलोके सुगतिः ध्रुवा ।
कैरिसगो ववहारी, आयरियस्स य जुगप्पहाणस्स । जेण सकासोग्गहियं, परिवाडीहिं तिहि असेसं ॥ ३६१ | कीदृशो ननु व्यवहारी भवति ? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिराह-येन युगप्रधानस्याचार्यस्य सकाशे- समीपे तिसृभिः परिपाटीभिरशेषं श्रुतं व्यवहारिकमवगृहीतम् - ता एव परिपाटीराद्दसूर्य (ग) परायणं पढमं, बिइयं पडुब्भेदितं ।
तइयं च निरवसेसं, जति सुज्झति गाहगे || ३६२ ॥ प्रथमं सूचक पारायणम् । अर्थपरिसमाप्त्या पदच्छेदेन सूत्रोच्चारणसंहितेति भावार्थः । द्वितीयं पदोद्भेदकम् - पारा
पदविभागपदार्थमात्र कथनपरम्, विग्रहफला द्वितीया परिपाटीति भावः । तृतीयं पारायणम्-निरवशेषं चालना - प्रत्यवस्थानात्मिका तृतीया परिपाटीत्यर्थः । एवं श्रुते यदि शङ्का भवति तर्हि ग्राहकः - श्राचार्यः शोधयति परीक्षते इत्यर्थः । कथमिति चेदुच्यते- तिसृभिः परिपाटीभिः श्रुतेऽपि
बबहार
व्यवहारादिके प्रन्धे सूरिणा स विचारणीयः । किं सम्यक गृहीतं न वा । गृहीतेऽपि पुनः परीक्षणीयः । किं व्यवहारी अव्यवहारी वा । तत्र यदि व्यवहारी तर्हि योग्यः । अथाऽव्यवहारी अयोग्यः । अथवा ग्राहको नाम शिष्यः स यदि ति सृभिः परिपाटीभिः शुद्ध्यति भावतो निःशेषसूत्रार्थपारगोभवति, ततः स व्यवहारीक्रियते ।
एतदेव व्याख्यानद्वयं विवरीबुराह - गाहगो आयरिओ उ, पुच्छइ सो जाणि विसमठाखाणि। as निम्ती तहियं, तस्स हिययं तु तो सुज्मे ॥ ३६३ ग्राहकः श्राचार्यः प्राहयतीति ग्राहक इति व्युत्पतेः, स यानि विषमाणि स्थानानि पृच्छति, तत्र यदि निर्वहति । किमुक्तं भवति तस्य हृदयं सम्यगभिप्रायं जानाति ततः शुद्ध्यति व्यवहर्तुं व्यवहारकरणयोग्यः । द्वितीयं व्याख्यानमाह
हव गाहगो सीसो, तिहि परिवाडीहि जेण निस्सेसे । गहियं गुणियं अवधा-रियं च सो होड़ ववहारी ॥ ३६४|| अथवा ग्राहको नाम शिष्यः, गृह्णातीति ग्राहकः इति व्युत्पत्तेर्येन तिसृभिः परिपाटीभिर्निर्विशेषं व्यवहारादिकं गृहीतं प्रथमतः, पश्चाद् गुणितमनेकवारमभ्यस्तीकृतम्, श्रवधारितं तात्पर्यग्रहणतो हृदये विश्रामितं स व्यवहारी । पारायणे सम्मत्ते, थिरपरिवाडी पुणेो उ संविग्गे । जो निग्ग वितिष्पो, गुरूहि सो होइ बवहारी ॥ ३६५॥ पारायणे सूचकादिलक्षणे त्रिविधे समाप्तेऽपि पुनर्यः संविने संविग्नसमीपे स्थिरपरिपाटिरभूद्, यश्च गुरुभिर्वितीर्षोऽनुज्ञातः सन् निर्गतो विहारक्रमेण स भवति व्यवहारी न शेषः । तथा चाह
परिणीय - मंदधम्मो, जो निग्गतो अप्पणो सकम्मेहिं । न हुसो होइ पमाणं, असमत्तो देसनिग्गमणे ॥ ३६६॥ श्रात्मनः परेषां च प्रतिकूलः - प्रत्यनीकः, धम्र्मे मन्दो मन्दधर्म्मः, राजदन्तादिदर्शनात् धर्म्मशब्दस्य परनिपातः, संयमे शिथिल इत्यर्थः । तथा यः श्रात्मनः स्वकर्म्मभिः स्वम्यापारैर्निर्गतो विहारक्रमेण न तु गुरुभिरनुज्ञातः, स ( नडु ) नैव भवति प्रमाणमसमाप्तश्च भवति देशनिर्गमनेन देशेषु विहारक्रमकरणे |
आयरियादेसाधा - रिएण अत्थे गुखियखरिएन । सो संघमज्झयारे, व हरियव्वं अलिस्साणं ॥ ३६७ ॥ यत एव विक्षेपदोषास्तस्मात् संघमध्यकारे कारशब्दोऽत्र रूपमात्रे संघमध्ये व्यवहर्तव्यम्, अर्थेन किं विशिष्टेनेत्याहश्राचार्यादेशात् श्राचार्यकथनादवधारितेन संप्रदायागतत्वमावेदितम्, तथा गुणितेन - अनेकशः परावर्तितेन अक्षरितेन कस्य लक्षणतः स्थिरतमा अवस्थितसारेण । एवंभूतेनाप्यर्थेन व्यवहर्त्तव्यमनिश्रया रागद्वेषाकरणेन नान्यथा, अर्थस्य तत्वतः अक्षरितत्वानुपपत्तेः ।
आयरियणासो, धारिऍण सच्छंदबुद्धिरइएसं । सच्चितखेतमीसे, जो ववहरते ण सो धो ॥ ३६८॥
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ववहार
यः सचिव्यवहारे क्षेत्रव्यवहारे मिश्रम्यवहारे च प्रागुरूपेऽर्थेन व्यवहरति आचार्यागादेशात् धारितेन आययोपदेश भारितेन कथमित्याह-स्वच्छन्दविरचितेनस्वेच्छया निजबुद्धिकलितेन न स धन्यः - श्रेयानिति ।
( ६२४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
यतः
सो अभिमुद्दे दो, संसारे कडिगम्मि अप्पार्थ । उम्मग्गदेसणाए, तित्थयराऽऽसायणाए य || ३६६ ॥ उन्मार्गदेशनया तीर्थकरावामाशातनया चात्मानं संसारगहने ऽभिमुखयति-अभिमुखं करोति पातयतीत्यर्थः ।
तस्मान्न स धन्यः ।
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अधुना अस्यैव प्रायश्चित्तमाहउम्मग्गदेसणार, संतस्स व छायणाए मम्गस्स । ववहरिउमसक्कंते, मासा चत्तारि भारीया ॥ ३७० ॥ उन्मार्गदेशनया - सतो मार्गस्याच्छादनया च व्यवहरन् गी साथै प्रतिषेधितोऽप्रतिषेधित व्यवहरितुमशक्नुवति प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासाः । गारवरहिएग तर्हि, ववहरियव्वं तु संघमज्झम्मि |
को पुण गावो इमो, परिवारादी मुणयन्त्रो ॥ ३७१ ॥ तत्रापि गौरवरहितेनसंघमध्ये व्यवहर्त्तव्यम् । किं पुनगरधमिति वेत्, विराटच्या परिवारादिकं परियारादिविषयं ज्ञातव्यम् व्य० ३३० (गौरवच्या 'मोर' शब्दे तृतीयभागे ८७१ पृष्ठे गा
बहुपरिवार - महड्डि निक्खतो वाचि धम्मक वादी । ज गारवे पिज अगीतो मगर इसमो ॥ ३७३ ॥ बहुपरिवारो महर्दिको वा निष्कान्तो २ धावा बादी ४ उपलक्षणमेतत् क्षपको नैमित्तिको विद्यावान रात्निको वा यदि गौरवेणागीतार्थः सन् जल्पेत्-यूयमस्मानेव प्रमाणीकुरुतेति, तर्हि स इदं वक्ष्यमाणं भण्यते । तदेवाह - जत्थ उ परिवारेणं, पत्रयणं तत्थ भणिहह तुज्झे । इड्डीमंतेसु तहा, धम्मका वायकजे वा ।। २७४ ॥ पचपणको खममो नेमिती व विसिद्धे प
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रायणिए वंदणयं, जहि दायव्वं तहिं भणेञ्जा | ३७५ | परिवार गौरवयानिदं भव्यते यत्र संघस्याका वें समुत्यन्ने परिवारे प्रयोजनं भविष्यति तत्र यूयं भणिध्यथ, तत्र प्रमाणीकरिष्यध्वे यूयम्, नात्र प्रस्तुते व्यवहार इति भावः । तथा ऋद्धिमत्सु वक्तव्यम् । धर्मकथावान् धर्मकथाप्रयोजने यादी वादकायें यमत्र भावना डिगरो तो महर्द्धिक एवमुच्यते यदि लोफेन कृत्यं भविष्यति तदात्यांप्रमाणीकृत्य त्वत्या लोकोऽनुवर्तयिष्यते। धर्मकथावान् भएयते यदि राजादीनां धर्म्मः कथयितव्यो भवि ध्यति, तदा युष्मान्वयमभ्यर्थयिष्यामो यथा-कथय कथानक संप्रति राजादीनामिति । वादी भण्यते यदा परवादी कश्चनाप्युत्थास्यति, तदा त्वद्व्यपरोधः करिष्यते । यथानिगृहीत कथमप्येनं वादिनमिति । तथा क्षपको नैमित्तिको विद्यासिद्धो वा प्रवचनकार्ये उपालम्भनीयः । य
ववहार
था क्षपकः, यदा संघस्य कृत्ये देवतया प्रयोजनं भविष्यति, तदा त्वया कायोत्सर्ग कारयित्वा सा श्रकम्पयिष्यते । नैमित्तिको भए यदि संघस्य निमितेन प्रयोजनं भविष्य ति तदा त्वामभ्यर्थयिष्यसे । विद्यासियो भरते यदा संघस्य कार्य विद्यया साधनीयं भविष्यति, तदा त्वत्पार्श्वात्साधयिष्यते । रात्निको - रत्नाधिकः पुनरेवं भण्यते यत्र पाक्षिकादिवन्दनकं दातव्यं भविष्यति, तत्र यूयं भणिष्यथ किमिदानीमाया कुरुचेति ।
एतच्च स तान् प्रति प्राह
न हु गारवेल सका, ववहरि संघमज्झयारम्मि | नासे गीयत्थो, अप्पाणं चैव कजं तु ॥ ३७६ ॥ (न इ) नैवसंघमध्ये गौरवेण शक्यं व्यवहर्त्तव्यमन्यैर्जिनाराधकैर्गीताथैर्निवारणात्, केवलं सोऽगीतार्थतया दुर्व्यवहारं कुर्वन् आत्मीयमेव कार्य नाशयति । उत्सूत्ररूपातोऽयोपिफलनिविडम्बन्धनात् ।
तथा चाह
नासेह अगीवत्थो, चउरंगं सव्वलोयसारंग |
नट्ठम्मि उ चउरंगे, न हु सुलभं होइ चउरंगं ॥ ३७७ || श्रगीतार्थी गौरवेण यो व्यवहरन् अबोधिफलकम्र्म्मबन्धनात्, चतुर्णामङ्गानां समाहारश्चतुरङ्गं मानुषत्वम्, श्रुतिः श्रद्धा संयमे च वीर्यमित्येवंरूपम् कथंभूतमित्याह सर्वस्मि लोके सारमयं स्वरूपं यस्य तत्सर्वलोकसारा यति न ऐ व तस्मिन् चतुरङ्गेन हु-नैव भूयो भवति चतुर म् निषिकर्मकपरे संसारे सित्वात् । थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरेहिं । कजे जंपियवं अणुओोगिगगंधहस्थीहिं ॥ २७८ ॥ स्थिरा सूत्रार्थपरिपाख्यो येषां ते स्थिरपरिपाटीकास्तः, संविग्नैः मोक्षाभिलाषिभिः अनिश्रितकरैः - रागद्वेषपरिहारतो यथावस्थितव्यवहारकारिभिरानुयोगिकगन्धदस्तिभिः-नुयोगधरप्रकारः कार्येषु जल्पितव्यं न पेरिति । एतदेव भावयति
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एगुणसंपतो, वचहरई संघमज्झयारम्मि । एयगुणविष्यमुके, आसायण सुमहती होति ॥ २७६ ॥ एतैरन्तरगाथयोक्तैः स्थिरपरिपाटीकत्वादिभिर्गुणैः संप्रयुक्तः एतद्गुणसंप्रयुक्तः संघमध्ये व्यवहरति । एतद्गुणविप्रमुक्ते पुनर्व्यवहरति सुमहती आशावना भवति न केवलमाशातना, व्रतलोपश्च । व्य० ३ उ० (अत्रावशिष्टम् ' उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे ११ पृष्ठे गतम्) विधिवद् व्यवहरणाद् व्यवहारः । यदि वा - विधिवद्वपनात् हरणाश्च व्यवहारः । यस्य नाऽऽभवति तस्य द्वापयति, यस्याऽऽभवति तस्मै ददाति । व्यवहाराध्ययनयत्तेति व्यवहार इत्यर्थः । उक्तं च- "श्रत्थि य पच्चत्थी, हाउं एक्कस्स उवति बीयस्स । एपण उ घवहारी, अहिगारो एत्थ उवहीए " बृ० १३० १ प्रक० । एतदर्थप्रतिपादकच्छेदश्रुतविशेषे, श्रा० चू० ४ श्र० । तत्र
दर्शदेशका:
प्रणमत नेमिजिनेश्वर महितिमिररविविग्यम् । दर्शनपथमवतीर्णे, शशिबद् दृष्टेः प्रसत्तिकरम् ॥ १ ॥
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बवहार
मत्वा गुरुपदकमलं व्यवहारमदं विचित्रनिपुणार्थम् । विणोमि यथाशक्ति, प्रबोधहेतोर्जडमतीनाम् ॥ २ ॥
( १२५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मदर व्यवहर्त्तव्यो व्यधायि साधूनाम् । येनायं व्यवहारः, श्रीचूर्णिकृते नमस्तस्मै ॥३॥ भाष्यं क वेदं विषमार्थगर्भ क चाहमेयो ऽल्पमतिप्रकर्षः । तथापि सम्यगुरुपर्युपास्ति प्रसादतो जातमतिशः ॥४। उक्लं कल्पाध्ययनम् इदानीं व्यवहाराध्ययनमुच्यते तस्य चायमभिसम्बन्धः करपाध्ययने भवत्प्रायश्चित्तमु, न सुदानप्रायश्चित्तम्। दानव्यवहारे तु दानप्रायश्चित्तमालोचनाविधिश्वाभिधास्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्यवहाराध्ययनस्य व्याख्या प्रस्तूयते । व्य० १ उ० ।
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“देशक इव निर्दिष्टो, विषमस्थानेषु तत्त्वमार्गस्य । विदुषामतिप्रशस्यो, जयति श्री चूर्णिकारोऽसौ ॥ १ ॥ विषमो ऽपि व्यवहारो व्यधायि सुगमो गुरूपदेशेन । यदचापि चात्र पुण्यं तेन जनः स्यात्सुगतिभागी ॥ २ ॥ दुर्बोधातपक - व्यपगमलब्धैकविमलकीर्तिभरः । टीकामिमामका गिरिपेशलचोभिः ॥ ३ ॥ व्यवहारस्य भगवतो, यथास्थितार्थप्रदर्शने दक्षम् । विवरणमिदं समाप्तं, श्रमणगणानाममृतभूतम् ॥ ४ ॥ " इति श्रीमलयगिरिविरचिता व्यवहारटीका समाप्ता । व्य० १० उ० । श्राव० पा० ।
कल्पव्यवहारयोर्भेदमाह
कप्पम्म विपच्छित्तं ववहारम्मि वि तहेव पच्छिनं । कप्पव्यवहारार्थ को छु विसेसो नि चोए ।। १५२ ।।
ननु कल्पेऽपि प्रायश्चित्तमुक्तम्, व्यवहारेऽपि च तदेव प्रायश्चित्तमभिधीयते, ततः कल्पव्यवहारयोः को नु विशेषो: नैव कश्चनापीति भावः । ' नु' शब्दस्याक्षेपद्योतकत्वादिति, चोदयति प्रश्नपति शिष्यः अपि वाऽभिधानतो ऽपि कल्पव्यवहारयोविंशेषानुपपत्तिः ।
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तथा चाह
जो अवितवबहारी, सो नियमा बढए उ कप्पम्मि इयवि हुनत्थि विसेसो, अज्झयणासं दुवेरहं पि । १५३ । यो नाम साधुरवितथव्यवहारी - अवितथव्यवहारकारी स नियमादवश्यंभावेन वर्तते एव तुरेवकारार्थः कल्पे-पाचारे, चारवर्तित एव यथोचितव्यवहारकारित्वात् । यश्च वर्तते कल्पे - आचार स नियमादवितथव्यवहारकारी, श्रवितथव्यवहारकारिण एवाचारे वृत्तिसंभवात् । इत्थं च परस्परमविनाभावित्यम कल्पव्यवहारशब्दयोरेकार्थवा त् । तथाहि - कल्पो व्यवहार आचार इत्यनर्थान्तरमिति । इषि इति इत्यवमपि अर्थगत्याभिधानाभेदसोऽपि आस्तां प्रागुक्रप्रकारेणाभिषेयामेद इत्यपिशब्दार्थः थे निश्चित्तम्योहारयोरध्ययनयोर्नास्ति विशेषः ।
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एवं परेणाभियातोऽभिधानाभेदये प्रतिपादिते सूरिरभिध्येयभेदं दर्शयन् " कप्पारोवणे सिव्याख्यानयतिकप्पम्मि कणिया खलु मूलगुला देव उत्तरमुखा य । ववहारे व हरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य ।। १५४ ॥ कल्पेश्वाध्ययने कल्पितान्येव प्ररूपितान्येव खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । ननु दामव्यवहारे प्रवर्तितानि का नीत्याद" मूलगुणा चैव उत्तरगुणा य" इति विषये - विषयिणो लक्षणात् मूलगुणापराधप्रायश्चित्तानि उत्तरगुणापराधप्रायश्चित्तानि व्यवहारे व्यवहाराध्ययने पुमन्येष हृतानि दानव्यवहारविषयीकृतानि किमुक्कं भवति-कल्या व्ययमे मूलगुणापराधे या उत्तरगुणापराधे वा भवति प्रायश्वितान्युक्तानि परिस्तु व्यवहाराध्ययने तेषामाभवतां प्रायश्वितानां दानमुक्रमिति । यानि च कयाध्ययने आमयन्ति प्रायश्विचानि नोक्तानि तानि व्यवहारेऽभिधीयन्ते तेषां दानं च ।
ववहार
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कंचअविसेसि च कप्पे, इह तु विसेसियं इमं चउहा पडिसेवण - संजोयण - आरोवण- कुंचियं चेव ।। १५५ ।। चः समुच्चये, अन्यथेत्यर्थः कल्पे-कल्पाध्ययने प्रावधिसम विशेषितं विशेषरहितमुक्रम् तुति इः पादपूरणे, सानुखारता पूर्ववत् तुः पुनरर्थे इह व्यवहाराध्ययने पुनरिदं प्रायश्चित्तं चतुर्द्धा चतुर्भिः प्रकारैर्विशेषितम् । तानेव प्रकारानाह - प्रतिसेवनं संयोजनमारोपणं कुञ्चनमिति प्रतिकुञ्चनम् । एतानि अनन्तरमेव समपचे व्याख्यातानीति न भूयो व्याख्यायन्ते । तदेवमभिधेयाभेदतो नास्ति विशेष इति बहु तदसिद्धमिति प्रतिपादितमभिधेयमे[दस्य दर्शितत्वात् ।
यत्पुनरुच्यते श्रभिधानाभेदतो नास्ति विशेष इति तदनेकान्तिकमिति दर्शयति
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नारानं दिस्सए अत्थे, अभिने जसम्मि वि । वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न भिजए ॥ १५६ ॥ भिद्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽमेन: प्रदीपेनेव घट इवेति व्यञ्जनम्राम्यस्तस्मिन् अपिशब्द भिक्रमः स चैवं योज नीयोऽभन्नेऽपि एकरूपेऽपि अर्थे श्रर्थविषये नानात्वं दृश्यते यथा-सैन्धव इत्युक्ते तत् तत्यस्तायादिना अश्ववय वस्त्राद्यर्थे नानात्वम्, तथा व्यञ्जनस्य शब्दस्य भेदेऽपि चशब्दोऽपिशब्दार्थी किमत्यत्र संबध्यते कश्विदर्थो न भियते यथा श्योम-आकाशमिति कस्मादेव - भेदेऽपि अर्थनानात्यमिति वेन् उच्यते शब्दार्थयोभेषये चतुङ्गी कायां भवति तथादि-अर्थस्वाप्य भेदः शब्दस्याच्यभेद इति प्रथमो भङ्गः । अर्थस्यामेवः शब्दस्य भेद इति द्वितीयः अर्थस्य भेदः शब्दस्यामेव इति तृतीयः अर्थस्य भेदः शब्दस्य भेद इति चतुर्थः । एतेष्वेव चतुर्षु भङ्गकेषु क्रमेणोदाहरणान्युपदर्शयतिपठमो इंदो इंदो-त्ति बियो होइ इंदमको ति । नो गोपसुरस्सियो नि चरिमो घडपडो नि । १५७॥
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ववहार अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारकप्प प्रथमो भलोऽर्थाभेदशब्दाभेद इत्येवंम्पः, यथा-न्द्र इन्द्र प० । विविधमवहरणम्-( उत्त० ७ ० । सूत्र० ।) इति । तथा धेकेनापि इन्द्र इत्युक्तं द्वितीयेनापि इन्द्र - व्यवहारः। निक्षेपे, आव०६अ। उपा० । विविधं विधिवद्वा ति । अत्र च द्वयोरपि शब्दयोः स्वरूपाभेदोऽर्थाभेदश्च । द्वि-| व्यवहरणमनेकार्थत्वादाचरणं व्यवहारः । यतिकर्तव्यतीयोऽर्थाभेदः शब्दस्य भेद इत्येवंरूपः, यथा-इन्द्रः शक तायाय , उत्त०१०। व्यवहियतेऽसीक्रियते धर्मार्थिभिरिइति । अत्र हि शब्दस्य नानात्वमर्थस्त्वभिन्न एव, द्वयोरपि ए- ति व्यवहारः। विशेषेखापहरति पापमिति व्यवहारः । प्राणाकार्थिकत्वात् । तृतीयोऽर्थस्य भेदःशब्दस्याभेद इत्येवंलक्षणः,
तिपाताद्याश्रवनिवारके साध्वाचारे, उत्त०५०। गीतार्थयथा-भूपशुरश्मिषु पुरुषभेदेन कालभेदेन वा प्रयुज्यमाना
चरिते, ध०२ अधि० । व्यवहरणं व्यवहियते वा विशेषण गोशम्दाः । अत्र हि गोरिति सर्वत्राप्यभिन्न रूपमर्थस्तु भि
वा सामान्यमवहियते-निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो इति । चरमो यथा-घटः पटः इति । अत्र हि द्वयोर
व्यवहारः। विशेषमात्राभ्युपगमपरे (स्था० ३ ठा० ३ उ०। पि शब्दयो रूपभेदोऽप्यस्ति अर्थभेदोऽपि ततः उपपद्यते।
विशे० । अनु०।) नयविशेषे , द्वा० १७ द्वा० । प्रश्न० । शब्दाभेदेपि अर्थनानात्वम् ,अर्थाभेदेऽपि शब्दनानात्वम् ,तेन
व्यवहारवत् । मतुब्लोपाद् व्यवहारवान् । ध० २ अधिः । यदुच्यते-अभिधानाभेदतो नास्ति विशेष इति , तदनैका
स्था० । आगमश्रुताशाधारणाजीतलक्षणानां पश्चानामुक्तरूपान्तिकमुपदर्शितम् भूपशुरश्मिवाचिनां गोशब्दानामभिधाना
णां व्यवहाराणां शातरि, स्था०८ ठा०३ उ०। मेवेऽप्यर्थविशेषदर्शनात् , सचार्थविशेषोऽत्राप्यस्ति । यथोक्तं प्राक अभिधानाभेदे इति यदुक्तं तत्प्रत्यक्षविरुद्धम् , व्यञ्जन
विषयाःमेवस्य साक्षादुपलभ्यमानत्वात् , तथा ह्येकत्र कल्प इति
(१) व्यवहारे व्यवहर्तव्यम् । अपरत्र व्यवहार इति । अथाऽर्थगत्याऽभिधानाभेद उच्यते (२) व्यवहारस्य नामादिभेदनिदर्शनम् । नखरपतः, तदप्यसत्, अर्थविशेषस्याप्युभयत्र भावात् ।
(३) व्यवहारा धारणाऽऽदयः।
(४) आभवव्यवहारनिरूपणम् । तथा चाह
(५) चरणार्थमभिधारयन्तमधिकृत्य वर्णनम् । वंजणेण य नाणतं, अत्थतो य विकप्पियं ।
(६) व्यवहारे मार्गोपसंपवर्णनम् । दिस्सए कप्पनामस्स, ववहारस्स तहेव य॥१५८॥
(७) व्यवहारे विनयोपसंपवर्णनम् । कल्पनाम्नोऽध्ययनस्य, तथैव च व्यवहारस्य-व्यवहाराध्य
(८) व्यवहारे आलोचनाक्रमः । यनस्य दृश्यते,व्यञ्जनेन-व्यञ्जनभेदेन नानात्वं प्रत्यक्षत एव पृ.
(६) समवायघोषणामाकर्य धूलीधूसरैरपि वादेऽवश्य
मागन्तव्यम् । थग्विभिमानां व्यञ्जनानामुपलभ्यमानत्वात् । तथा-अर्थतोऽ र्थमाश्रित्य अस्ति नानात्वम् , अविकल्पितं-निश्चितं प्राय
(१०) व्यवहारे संघशब्दव्युत्पत्तिनिदर्शनम् ।
(११) सुव्यवहारिणामिह परलोके च फलम् । चित्तभेदानां प्रतिसेवनासंयोजनादीनां प्रायश्चित्ताईपुरुषे जानानां व कल्पाध्ययनानामुक्तानामिह व्यवहारेऽभिधानात् ।
ववहारउत्त-व्यवहारोक-त्रि० । छेदप्रन्थभणिते, “भणिमो तदेवम्-'भज्झयणेण विसेसो' इति द्वारं व्याख्यातम् । व्य०
| नो तकरण, तहा य ववहारउसं च" । जी०१ प्रति०। १३० । वृ० । स्वकार्यनिर्णयार्थराजकुलादौन्यायकारणे,आ. | ववहारज्माण-व्यवहारध्यान-न० । व्यवहारः स्वकार्यनिर्णदुक विविधाभिधायकत्वेन (स०) व्यवहरणं व्यवहारः। स्ना- | यार्थ राजकुलादीन्यायकारणं तस्य ध्यानम्। पुत्रधनार्थ देशानपानदहनपचनादिकायां क्रियायाम् , द्वा०८द्वा०। 'यब- न्तराऽऽयातसार्थवाहपन्योः-सपत्न्योरिव दुर्ध्याने, श्रातु । हारस्स परमनिपुलस्स' अत्र परमग्रहणं मोक्षाङ्गत्वानिपुण
ववहारकप्प-व्यवहारकल्प-पुं०प्रायश्चित्तदानसामाचार्याम् , ग्रहणं त्वव्यंसकत्वात् , न खल्वयं व्यवहारो मन्वादिप्रणीत
पं० भा०। व्यवहार इव व्यंसकः 'सव्व पइन्ना खु ववहारा' इति वचनात् । मा०म०१०। मिश्रकव्यवहारश्रेणी व्यवहारादौ, पा
ववहारकप्पमहुणा, गुरुवएसेण वोच्छामि । टीगणितप्रसिद्ध संख्यानभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ० । सूत्र०।
ववहारे कोऽवि भिक्खू, सच्चित्तणिवायणिद्धमहुरेहिं । व्यवहरणं ब्यवहारः।लोकस्यैहिकामष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृ ववहरती ववहारं, वितहं सो संघमज्झम्मि ।। त्तिनिवृत्तिलक्षणेऽथै, "एपहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो न वि
कोऽपि बहुस्सुयभिक्खू , अपुवणगरम्मि किंचि ववहारं । जह" इति । सूत्र०२७०५ अ०। ('अणायार' शब्दे १ भागे
णाएणं छिदिसा, वत्थव्वेहिं पमाणकतो ॥ ३१६ पृष्ठे व्याख्यातम्।) "अभब्वस्स ववहारोण विजा" श्राचा।'अकम्मस्स' इत्यादि, न विद्यते कर्म अष्टप्रकारमस्ये
अह पच्छा सञ्चित्तं, खुड्डादी तस्स केणवी दिएहं । त्यकर्मा तस्य 'व्यवहारोन विद्यते' नासौ नारकतिर्यग्नराम- बसही पाउरणं वा, वरणहपक्खं ववहरे तु॥ रपर्याप्तकापर्याप्तकबालकुमारादिसंसारिव्यपदेशभाग भवति। घततेल्लादी णिद्धं, खंडगुलादीहि वावि संगहितो। यश्च सकर्मा स नारकादिव्यपदेशन व्यपदिश्यते। आचा०१
अच्चालिएहि ताहे, ववहरए पक्खवाएणं ।। धु०३०१ उ० अन्योन्यदानग्रहणादौ विवाद, स्था०४ ठा० १उ० । व्यवहारो नाम-विसंवादे सति राजकुलकरणे गत्वा
दुट्ठववहारिए सं, को तु थिसिहिजतो वदे संघो । निजनिजभाषालेखापनलक्षणः कार्यपरिच्छेदनार्थं वा पणमु
एतवा संघमेलो, कीरति इणमो य संपत्तो । क्तिलक्षणः । प्रा० म०१ अ० । पएयविनिमये, सूत्र.१ ध्रु०१२ | अहो तहिं तु गीओ, संघसमित्ती य तिरिह वाराको ।
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( १२७ ) अभिधानरराजेन्द्रः । ववहारकप्प आयारपरिन्भट्ठो, सुखचरणदेसखे भइयो || तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू । जो ण करेइ पमाणं, ण सो पमाणं सुतधराखं ॥ तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू । जो तू करे पमाणं, सो उ पमाणं सुतधराणं || संघो गुणसंघातो, संघातविणयओ य कम्माणं । रागोसविमुको, होति समोसव्वसाहूणं ।। परिणामियबुद्धीए, उववेो होति समणसंघो तु | कसे शिच्छितकारी, सुपरिच्छितकार संघो । एकसि दु तेव तिहि व, पेसविएवं ति परिभवेणं तु । आणानिकमणिज्जू - हणा तु आउट्टववहारो ॥ आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भायी । अम्मापत्तिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं ॥ सीसो पडिच्छओवा, आयरिओ वा य सोग्गतिं खेति । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोति ॥ सीसो पच्छिम वा, कुलगणसंघो ण सोग्गतिं येति । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ सीसो पच्छिओवा, कुलगणसंघो व एते इह लोए । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ सीसे कुल वा गणव्वऍ व संघवए व समदरिसी । ववहारसंथवेसु थ, सो सीतघरोवमो संघो । गिदिसंघातं जहिउं, संजमसंघाययं उनगएणं । याचरणसंघातं, संघाएंतो भवति संघो || गाणचरणसंघातं रागद्दोसेहि जो विसंघाते । सो संघार अहो, गिहिसंघातम्मि अप्पाणं ॥ खाणचरणसंघातं रागद्दोसेहि जो विसंघाते । सो भमिही संसारं, चतुरंतं तं अणवदग्गं ॥ दुक्खेण लभति बोहिं, बुद्धो वि य न लभति चरितं तु । उम्मग्गदेसखाए, तित्थगराऽऽसायणाए य ॥ उम्मग्गदेसखाए, संतस्स य छायणाए मग्गस्स । बंधति कम्मरयमलं, जरमरणमयंत गं घोरं || पंचविहं उवसंपद, खाऊणं खेत्तकालपन्त्रजं । तो संघमज्झकारे, ववहरियव्वं श्रणिस्साए । खिदरिसणं तत्थ इमं, तगराणगरीऍ सोलसायरिया । अहो य नायकारी, वत्थव्यवहार अट्ठ इमे ॥ मा कित्ते कंकडुयं, कुणिमं पकुत्तरं च चव्वायं । बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च गिद्धम्मं ॥ कंकडु विव मासो, सिद्धिं स उवेति जस्स ववहारो । कुणिमहो व ण सुज्झति, दुच्छिओ एव त्रितियस्स ।। पकुल्ला व भयातो, कजं पि न सेसगं उदीरेति ।
ववहारकप्प
उच्चारें सिद्धपुत्तो, सत्थ य मेरा इमा होति ॥ धुम्म संघसदे, धूलीजंघो वि जो ख एजाहि । कुल गणसंघसमाए, गग्गति गुरुओ चउम्मासो ॥ जं काहिंति अक, तं पावति सति बिले अगच्छन्तो ।
हाई याव हा वणादि तेर्सि व जं कुआ ॥ वोऊण संघसद्दं, धूलीजंघे वि होति आगमणं । धूलीजंध निमित्तं ववहारो उवट्ठितो होति ॥ सोऊण संघसद्दं, धूलीजंघो उ मागतो संतो । विहं ववहरमाणे, साहू समएण वारेह || सिद्धं महुरनिवादं, कितिकम्म विजाणएसु जंपतो । सच्चित्तवेत्तमसे, अत्थधरणिहोडदिसहरणं ॥ भिक्खू य मुसावादी, ववहारे तइयगम्मि उद्देसे । सुतं उच्चारेति, य अह बहुपक्खो इमं होति ॥ रागेण व दोसे व, पक्खग्गहणम्मि एकमेकस्स । कज्जम्मि कीरमाणे, किं अच्छति संघमज्झत्थो । रागेण व दोसे व पक्खग्गहणेण एकमेकस्स । अम्मि कीरमाणे, अहेव भणेतु ता कोइ || कुलगणसंघष्टुवण, इहं ण याणामि देसि मि श्रहं ।
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विता के वि, कप्पति इह जंपितुं किंचि ॥ संघेण अणुहाए, यह जंपति सो तर्हि गुणसमिद्धो । ववहारनीतिकुसलो, अजाणतो तयं संघं || संघ महाणुभावो, महं च वेदे सिओ इहं भंते ! | संघसमिति ण जाणे, तुब्भे सव्वं खमावेमि ॥ देते देसे वरणा, अहं अस्मत्थ होति समिती य । गीतत्थेाचिष्मा, तं देसीओ व जाणामि || अणुमाता एवं, ताहे श्रणुरहाऍ जंपर इणमो । परिसा ववहारीण य, इमे गुणे तू समासेणं ॥ परिसा ववहारीया, मज्झत्था रागदोसनिहुया य । जदि होंति दो हि पक्खा, ववहरितुं तो सुहं होति ॥ वृत्ते वत्थधरेणं, जदि तु ववहारिणो तु जंपेजा । नूगं तुम्हे महह, मज्भं सच्चिकवयणं ति || सेसा तु मुसावादी, सव्वपरिब्भट्ठगा तु किं सच्वे । भण्हति सुह एत्थं भूतत्थमिमं समासेणं ॥ ओसण्हचरणकरणे, सव्वव्यवहारता दुसदहिया | चरणकरणं जहंतो, सन्धवहारितं पि जहे ॥ जइया अण चतं अप्पणओ गाणदंसणचरितं । तइया तस्स परेसुं, अणुकंपा खत्थि जीवेसुं || भवसतसहस्सदुलहं, जिणत्रयणं भावतो जहंतस्स । जस्स ण जातं दुक्खं, ण तस्स दुक्खं परे वुहिते ।। आयारे वतो, आधार परूवणे असंकीओ।
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(१२८). ववहारकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारकप्प पादेय आह गुत्तिय,उत्तरसो वाहणेणं ति ॥
लोगेण जत्थ समयं, ववहारगयं तु तत्थ होजाहि । रोमंथयते कजं, चव्वादी नीरसं ववसणेति ।
तत्थ तुम जंपेज्जसु, धम्मकही भएहति इमं तु ॥ कहिते कजे संते, बहिरो व भणति ण सुतं मे ॥ जहियं धम्मकहाए, कजं तहियं तुम भणेजासि । मरहट्ठलाडपुच्छा, केसरिया लाडगुंठसाहिस्सं । वादी जत्थ तु वादी, पोयणं तत्थ भासेज्जा ॥ पावारभंडिछुभणं, दसियागणणं पुणो दाणं ॥
खमगो भएहति इणमो, देवयकजं जहिं भवेजाहिं । गुंठाहि एवमादी-हिं हरति मोहे तु तं तु ववहारं । असिवादिकारणेहिं, तत्थ तुमं तं करेजासि ॥ अंबफरसेहिं अप्पो,ण णेति सिद्धिं च ववहारो॥
विजासिद्धो भएहति, विजाए जत्थ संघकजम्मि । एते अकजकारी, तगराए भासि तम्मि तु जुगम्मि ।
कजं होज करेजसु, वाइणिश्रो भएहति इमंत ॥ जेहिं कता ववहारा, खोडिजंतऽमरजेसुं ॥
वेले कितिकम्मस्स तु, अणुवटुंताण वंदणं अम्हं। इहलोगम्मि अकित्ती, परलोगे दुग्गती धुवा तेसि ।
कुजाहि तुममिमं तु, इह पुण गीयस्स विसओ तु ।। आणाएँ जिणिंदाण, जे ववहारं ववहरंति ॥
ण हुमारवेण सका, ववहरितुं संघमज्झयारम्मि । कित्तेह पूसमित्तं, धीरं सिवकोटुतिं च अज्जासं ।
मासेति अगीयत्थो, अप्पाणं चेव कजं च ।। अरहमधम्मराहग-खंदिल-गोविंददत्तं च ।। एते सुकलकारी, तगराए आसि तम्मि तु जुगम्मि ।
णासेइ अगीयत्थो, चउरंग सव्वलोगसारंगं । जेहि कता ववहारा, अक्खोभा अण्हरज्जेसुं ॥
णट्ठम्मि य चउरंगे, ण हु सुलभं होति चउरंग ।। इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सुग्गती धुवा तेसिं ।
थिरपरिवाडीहि बहु-स्सुएहि संवेगणिस्सियकरहिं । आणाएँ जिणिंदाण, जे ववहारं ववहारंति ।।
कञ्जम्मि भासियव्वं, अणुओयधरेहिं गंधहत्थीहिं ॥ तहियं पुण केरिसए, ण जंपियव्वं तु होति समणेणं ।
मायी य मुसावादी, बितियं बितियं वयं चलावेति । भएहति सुणसुं इणमो, जारिसएणं तु वोत्तन्वं ।।
मायी य पावजीवी, असुतीलित्ते कणगदंडे ॥
आभवते पच्छित्ते, ववहारो समासतो भवे दुविहो । पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो य संवेग्गे । जो णिग्गतो विदिन्ने, गुरूहि सो होति ववहारी ॥
दोसु य पणगं पणगं, आभवंते अहीकारो॥ मृगपारायणं पढम, बीयं पदुब्भेतिमं ।
सञ्चित्तो अञ्चित्तो, य मीसओ खेत्तकालनिप्फएहो । ततियं च णिरवसेसं, जदि सुज्झति गाहगो ॥
पञ्चविहो ववहारो, आभवंतो तु णायव्यो॥ सुत्तत्थो खलु पढमो,बीओ निज्जुत्तिमीसो भणियो ।। सेहम्मि तु सच्चित्तो, अच्चित्तो हवति वत्थमादीओ। ततिओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुअोगो॥
मीसो सभंडगाणं, सत्तम्मि तु गाममादीहिं ॥ पडिणीय-मंदधम्मो,जो पिग्गओ अप्पणो सकम्मेहिं ।।
णगरादि अखित्ते पुण, वसहीए तत्थ मग्गणा होति । ण हु होति सो पमाणं, असमत्तो देसणिग्गमणे । काले उडुवासासु य, आभवणा होति णायव्वा ॥ प्रायारियादेसा धा-रिएण सत्थेण गुणितसरिएण ।
अहवा भवंतमण्हो, उवसंपयखेत्तकालपव्वजा । तो संघमझयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए ॥
णाऊण संघमज्झे, ववहरियव्वं अणिस्साणं ॥ पायरियणादेसा, धारिऍण सच्छंदवुद्धिरचिएणं । । सुतसुहदुक्खे खेत्ते, मग्गे विणएण पंचहा होति । सच्चित्तखितमीसे, जो ववहत्ती ण सो धन्नो । सव्वे वि य एयाओ, सुयणाणमणुप्पवत्तीओ ।। सो अभिमुहेति लुद्धो, संसारे कडिल्लगम्मि अपाणं । जत्थ तु सुतोवसंपद, तत्थ तु सव्वा हवंति एयायो । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगराऽऽसायणाए य ।।
अहवा सुतोवदिट्ठा, ण तु सेच्छाए ऽऽहवंते य ॥ उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाएँ मग्गस्स । गुरुसीसपडिच्छाणं, तिएहं वि को कस्स किं उवकरेति । उम्मग्गदेसगस्स, माया चत्तारि भारीया ॥
वेयावच्चगमागम-काले चित्तादिदव्वे य॥ परिवार वुडधम्मक-ह वादिखमगे तहेव णेमित्ती । सीसो आयरियस्स तु, वेयावच्चं तु कुणति जजीयं । विजाराइणियाइ-त्ति गारवा भट्ठहा होति ॥
जहि गच्छति तहि वच्चति, पेसेइ व जत्थ तहि जाति । एमादिगारबेहि, अकोविया जे तु तत्थ भासेजा। कजं समाणइत्ता, एती लद्धिं च सव्वमप्पेति । ते वत्तव्वा इणमो, ण तुझ भागे इहं वोत्तुं ॥
कायव्वुवग्गहो तू, णाशादीएहिं गुरुणाऽवि ॥ बहपरिवारो भएहति, जय परिवारेण होज कजं तु । दव्वे सच्चित्तादी, लाभा सीसस्स जो तहिं होति । तह परिवार देअसु, वुडो पुण भएणई गणमो ।। सोऽवि य जावजीवं, सब्बो गुरुणो तु आभवति ।।
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(१२) पवहारकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारकप्प दारं-कुणती पाडिच्चो वितु,वेयावचं तु असणमादीहिं। समगं पुणो ऽणुपहविए, सामएहं होति दोण्हं पि॥ बच्चइ वइमाणेणं कालेणं रोयती जाव।
बितीयभंगे दप्पेण, पुब्धि पत्ता उ जदि णऽणुएइवते । गेएहइ वा जाव सुतं, ता कुणती सव्वमेव पाडिच्छो । इयरेसिं असहाण य, अणुबहवंताण खेत्त तु ।। एत्तो दवे पुन्छ, जाभवती तु पाडिच्छे ।
पुरणिग्गता कहं पुण, पच्छा पत्ता उ ते हवेजाहि । जं होति णाणबद्धं, अभिसंधारे तगं तगं एति । गेलण्हखमग पारण, वाघातो अंतर हव्वेजा ॥ संदेसदिण्हगं वा, णामे विवे य काले य ॥
गेलण्हें वाउलाणं तु, खेत्तमन्नस्स खोदए । वल्ली मणंतरसंतर-अणंतरा छजणा इमे होते।
णिसिद्धो खमश्रो चेव, तेण तस्स ण लम्भती ।। माया पिया य भाता, भगिणी पुत्तो य धूया य ।।
अंतर वाघाएणं, पच्छा पत्ताण पुचि जे पत्ता ।
असढेहि अणुएहवित, पुब्धि पत्ता ण तं खेतं ।। मातुम्माया य पिता, भाता भगिणी य एव पितुखो वि।।
अह समगमणुएहविए, कातु पमादं पि तो उ साहारं । माओ भगिणीणवचा, धूता पुत्ताण वि तहेव ॥
एवं तु बितियभंगो, अहुणा तइयम्मि वोच्छामि ।। परंपरवद्धि एसा, जदि वारेंति पडिच्छगस्सेव ।
पच्छा वि पत्थियाणं, सभावसिग्धगतिणो भवे खेत । अह लो अभिवारेंति, सुतगुरुखो तो उ प्रामव्वा ॥ एमेव य आसले, दूरद्धाणं व एयाणं ॥ संगारो पुम्बकमो, पच्छा पाडिच्छमो तु सो जाओ। भंगे चउत्थभंगी, पुव्वाणुहागू असहमावाणं । तेण निवेदेयव्यं, उवद्विता पुव्व सेहा मे ॥
पढमगभंगसरिच्छा, आभवणा तत्थ वायव्वा ।। एवतिएहि दिणेहि, तुज्झसगासं अवस्स एहामो। पुष्वगहिओ वि उग्गहो,होति गिलाणडताए जहियन्यो। संगारो एव कतो, बिबाणि य चेसि चिंचेइ ।। अह होजा संथरणं, कालक्खेवो दुपक्खे वि ॥ कालेण य बिंबेहि य, भविसंवादीहि तस्स गुरुनिहरा । पुष्वहितकेत्तीणं, जदि आगच्छे गिलाणइत्तऽएहे । कालम्मि विसंवदिए, सुच्छिाति किएह प्रायोसि ॥ जदि दोएह असंथरणं, ते णिग्गमो खेत्तियाणं तु॥ सिंगारयदिवसेहिं, जदि गेलएहादी वयि तु तो तु।। अह दोएहँ वि संथरणं,दोएह वि अच्छंति जा गिलाणोउ। तस्सेव अह तु भावो, विपरिणतो पच्छ पुणों जातो।। एते य दोएिह पक्खा, अहवा समणा य समणीयो । तो होति गुरुस्सेव तु, एवं सुतसंपदाए भणितं तु ।
गेलण्ण उवहि किच्चा, भत्तोवहि लद्धिता विहिग्गहितं । दारं-सुहदुक्खुवसंपण्हे, एत्तो लाभ पवामि ॥
पेल्लंती परखेतं, साहम्मियतेणिया तिविहा ।। बट्टसु मम सुहदुक्खे, अहमवि तुम्भ तु एवमुपसंपे ।
उवही नियडी माया, गिलाणणिस्साए विजमाणे वि । पुरपच्छसंथुगाउ, सो लभती जे य बावीसं ॥
छड़ेतु एंति खेत्ते, भत्तोवहिलुद्धताए उ ॥ दारं-सुहदुक्खसंपदेसा, एत्तो खत्तोवसंपदं वोच्छं ।
लभंति सुंदराई, गिलाणणियडिऍ एंति तो तत्थ । खेसोग्गहो सकोस, वाघाए वा अकोसं तु ॥
इतरे वि गिलाणो त्ति य,काउ तो यति खेत्तामो॥
तेसिं तु णिग्गएसुं, सञ्चित्तादी उ तिविह जं गेएहे। पत्ते उग्गहसारण, वासावासे तहेव उडुबद्धे । सम्वदिसासु सकोसं, णिव्याघातेण पत्ते उ॥
तं तेसि होंति तेएहं, पच्छित्तं चेव तिविहं तु ॥
जे पुण असंथरंता, एंति तर्हि तेसिमा भवे मेरा । अडविजलतेणसावद-वाघाते एगदुगतिचउसु वा ।
आयरिऍ वसभअजा-ण चेव वोच्छ समासेणं ।। होजा अकोसों उग्गहों , अहुणा साहारणं वोच्छं । अच्छति संथरे सव्वे, वसभाणीति ऽसंथरे ।। साहारण होजाही, पडिलेहणपुचपच्छणिगमेणं ।
जस्थ तुना भवे दो वि, तत्थिमा होति मग्गया । पुब्वा पच्छा य परे, पायरिए वसह प्रजासु ॥
णिप्पण्हा तरुणे सेहे, जुंगितपादच्छिखासकरकराहा । दुगमादी गच्छाणं, पडिलेहगणिग्गताण सममं तु ।
एते व संजतीणं, णवरं वुड्डीसु णाण ॥ पत्ता खत्तं एसो, पढमगमंगो मुणेयव्वो॥
परिवारप्रणिप्फएहो, अच्छति णिफएहतो तु णिग्गच्छे । समग णिग्गयएके, पच्छा पत्ता य वितियभो भंगो। अच्छंति बुडतरुणा, य णिति सेहे असेहिएहोणीति ।। पच्छा बिग्गयपुव्वं, पविट्ठ पच्छा य दुरणे वि॥ । अच्छंति जुंगिया तु, णिति अरे तुह व जुंगिता दोऽवि । पढमगभंगे जो खलु, पुखि तु अणुएहति ते खत्ती।। तत्थाऽऽहला अच्छे, अच्छे समयीन तरुणीभो॥
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(६३०) यवहारकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारकप्प समणाण य समणीण य,अच्छंति य संजतीनों णियमेणं। लभती दिवा भट्ठा-दि जो य लाभो पुरिल्लाणं ॥ जेण बहुपच्चवाता, अणुकंपा तेण समणीणं ।
दारं-बिणोवसंपदा पुण,कुव्वति वीयं तु जो उ राइणिए। संथारभत्तसंतुट्ठा, तस्स लोभम्मि अप्पड ।
सव्वं तस्साऽऽभवती, जो उ उवट्ठायती तस्स ॥ जुगियमादीएम य, वयं तक्खेत्तीण ते जेसि ॥
उवसंपद इच्चेसा, पंचविहा वष्मिता समासेणं ।
खत्तम्मि परक्खेत्ते, णिक्खमिश्रो जो तु होजाहि ।। दुयमादी गच्छाणं, खेत्ते साहारणम्मि वसियव्वे । अप्पत्तियपडिसेह-दुताए मेरा इमा तत्थ ।।
काल उदुवास वा,वसिऊणं णिग्गताण जो अएहो ।
पढमबितियदिवसेसुं, णिक्खामे कालो एसो । अत्थी बहुवसभगामा, कुदेसनगरो व मासु ववहारा । इच्चेसो पंचविहो, ववहारो श्राभवंतिम्रो णामं । बहुमच्चुग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं ॥
पच्छित्तव्यवहारो, जह दसमहेस ववहारे ॥ पं०भा० पायरियउवज्झाया,दुहि तिहि सेही तु पंचो गच्छे। ५ कल्प। एवं तिगिच्छतिण्ही, उदुयद्धे संथरे जत्थ ॥
इयाणि यवहारकप्पो-गाहा भिक्खू य मुसाबाई एयाबासाहुँ ति चउ जुत्ता, आयरिय उवज्झ सत्तो गच्छो।
ओ गाहारो-ववहारे सिद्धानो, किंचि उल्लोय से तं भराहा।
कोइ बहुस्सुत्रो आयरिश्रो एग नगरं गो,तेण समं ववहारो. एव तिगिच्छा तिहि तु, वासासु संथरे जत्थ ॥
छिनो। सो तत्थ प्रमाणीकृतो। ताहे सो सव्वाणि णियायाणि कालयम्मि वि एयं, जहएहयं होति वासखत्ते तु । काउमारखो। सचित्तेत्ति खुदो वा से केणा दिने निवाया बत्तीसं तु सहस्सा, गच्छो उक्कोस उसमम्मि ।
वसही दिरहा, महुराणि या खंडाई केणई दिनाणि । तेस
सो वितहं ववहरिउमारद्धो। गाहा-सोऊणं कुलसई गणसई बहुगच्छुबग्गहकरा, एत्तियमेत्ताण जत्थ संथरणं ।
वा सोऊणं कहं पुण प्राणा विजाइ, संघसमबानो वा प्राणऊणाअणुवग्गहिता, सीमच्छेदं अतो वोच्छं ।।। तो, इहरा वा मिलिएसु समिति तिनि वेला उच्चारिजाह ।
गाहा-'सोऊण संघसई धूली' तत्र कश्चिचूलीजंघो तत्थेवनतुज्झत्तो महयाहिं, तुझ सचित्तं ममेतरं वाऽवि ।
गरियाओ बहियाए पडिकमह । तहेव तेण आगंतव्वं.कजे निप्रागंतुयवत्थव्वा, थीपुरिसकुलेसु व विवेगो॥
च्छियकारी सुपरिच्छियकारो ति । एक्कासि पायहीए नएसेसे सकोसजोयण-मूलणिबंधं अणुस्सुयंतेण । जसो पश्चरथी विहए विजं किंचि कारणं नऽत्थि, ताए वा सञ्चित्ते अञ्चित्ते, मीसे विय दिनकालम्मि ।
ताहे सक्खिणो घेलूण प्रत्याचक्षीत एस पागच्छर ति ।
कोइ भणिज्जा-एस संघमेरं भंजद, किं किज्जंते न पडू । उसंसेति निसाहरणं , मूलखेत्ते अणुस्सुयं नाणं ।
ग्घाडिज्जाउ । तत्थ निच्छियकारी संघो भणइ, न जुजा किं होति सकोसं जोयण-दिसि विदिसासुं तु सम्वत्तो। कारणं न पर पुच्छिजउ । अज्जो!जा कारणं दीवेद, जं नि
मित्तं न एताहे न उग्घाडिज्जा । अह परिभवेण न पा ता. एवं खेत्तउ एसो, काले उदुवढे होति मासो तु ।
हे तिएिह वारा उच्चारिज्जा । एस अज्जो! नागच्छर उववासासु चउम्मासो, एवति कालो विदिण्हो तु ॥
ग्गहवषहारी जाओ।भणउ-वच्छ ! कोइ किंचि ताहे उग्घाडिएवति कालविदिण्हं, पुस्मे णिक्कारणम्मि तेण परं ।
खा एस निच्छियकारी संघो । एवं जावनगारबेण सका
तत्थ भणिज्जा कोर-तुम उस्सुचं मंतेसि । सो भण-अम्हे स तु उग्गहो विदिण्हो, मोत्तूर्ण कारणमिमेहिं ॥
ओमराणिया, अएणो भण-अम्हे लोगामो सकारसम्माणं असिवादिकारणेहिं, दुविहतिरेगे वि उग्गहो होति । लभामो तुम्भं न लभामो उल्लाबेउं । अन्नो भण-अहं प्रावजा कारणं तु घिण्हं, तेण परं उग्गहो स भवे । चनी धर्मकही वादी वा एवमादी । तत्थ राइणिो भएणहजदि होति खत्तकप्पो, असती खेत्तंण होज बहुगा वि ।
जया बंदणए पोयणं तया उबढाएज्जसि, परिवारातो खेत्तेण य कालेण य, सव्वस्स वि उग्गहो णगरे ।
भएहर-जया किंचि परिवारेण कज्जं तया तुमं परिवार
देज्जासि, तबस्सी भराहा-तुमं जया किंचि पभाषेयव्वं देवया सलिलं मे खेत्ताणं , जोग्गाणं जो तु जत्थ संथरति । वा आकंपेयव्वा तया उवट्ठाएजासि । जो भण-लोगानो हं सो तहिं तं संवेक्खे, खेवाण सती पुणो बहूबीए ।
सकारं लभामि, तो तुम्भं सगासे न लभामि । ववहारं तु
मावेउ सो वि भण्डा-जया लोए किंचि पोजणं तया उवगच्छतु गामादीसु, जहियं तू संथरंति तहि अत्थे ।
टाएज्जासिाजो वादी सो भण्हा-तुम वादकाले सो भवेजासब्बेसि तहि उग्गहों, साहारणे हेीत जह णगरे । | सि । इह-गीयत्थमउज्झत्थाणं विसनो, अरहतेहिं भणियं जं एसा खेत्तुवसंपद, पुरपच्छा संयुए लभति एत्थ ।
तं कायव्वं । जेसिं पारायणं समत्तं, जे य थिरपडिवाडी पुणो
संविग्गा गुरुहिय विमा सो ववहारी। जेण भूयं हुंकारं वा तह मेत्तवयं साया, जं जं लंभे सुतोवेसपम्मो ॥
जाव परिनिट सेत्तमे एतेहिं भाणियव्वं । संघसमाए जेहि य दारं-सग्गोवसंपदाए, मग्गं देसेति जाव सो तस्स। | “सुत्तस्थो खलु पढमो, विश्री निज्जुत्तिमीसो भणियो।
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ववहारकप्प
अभिधानराजेन्द्रः। तइओय निरवसेसो, एस विही होह अणुओगे ॥१॥" ते पमा- अन्तरे पत्ता नाम गाहा। गेलण्हमग्गखेसोग्गहो पुणवासा. णा ववहारे जे पठणीयादओ ते अप्पमाणा। सेसंगाहासिद्धं । घासेसु आसाढसुद्धदसमीए खेत्तपडिलेहिया पयट्टेयम्या । तगराए एगस्स आयरियस्स सोलस सीसा । तत्थऽढ ववहा. तेहि य पयट्ठिएहि खत्तं पहिलेहिय, विहिणा भएणुहवेत्ता। री अट्ठ श्रव्यवहारी । गाहा-मा किं ते कंकडयं कंकडयभूत्रो सारूवियसिद्धपुत्तसनिभद्दमहत्तरगंडाहावियधुवकम्मियनाम वल्लाइणं अग्गिणा वि न सिझर, एवं तस्स ववहारो अकराणोवम्मिय वाह जा अराह पयं खेसं रुचियं अम्हे कंकबुयभूमो न सिझड । कुणिमो नाम जहा कुलिमनहो पहामो । जे अन्ने पव्वहगा पज्जा तेसिं कहिज्जाइ, जहा एयं घडिज्जतो वि निम्मलत्तं न जाइ । एवं तस्स वि ववहारो पव्वाएहिं पडिलेहियं तेसिं खत्तं, जे अम्हे तेसिं ठियाण या कुलिमनहभूश्रो निम्मलत्तं न जाइ । पक्को नाम जहा महिसो अट्टियाण वा एंति ते खेत्तोवसंपनया । ते खेरो पडिलेहेतुं पाणीए अोइनो, एवं सोऽवि महिसो विव पाडयालं करेह । आगया आयरियसगासे , तेसिं पायरियाणं पालोश्यं जहा उत्तरो नाम ववद्दारो छिराहे उत्तरं भसह । चब्वाइ नाम वव- सुंदरं, खत्तं गच्छपाउग्गं, तं च अन्नण पाहुणएण सुयं सोहारं वञ्चतो अच्छह । वधिरो नाम-छिन्ने ववहारे भणइ मया गंतूण अप्पणो पायरियाणं कहे-अमुयाण पब्यापहिं पतिन चेव सुयं । लाडगुंठसमणो नाम लाडगुंठाहिं ववहारं घबह- लेहियं , तत्थ गच्छामो ॥ श्रायरिया सामत्थेति गंतम्वे रह । अंबिलसमाणो नाम अंधं ववहारं करे । एसेव निद्धम्मो। भिन्नए सो निम्मायहं वच्चामो मासलहुं, पच्छिया मासगुरूं, एए सम्वे ववहारी तगराए ! गाहासिद्धं इह लोए य अकित्ती' पंथे चउलहुं, पत्ताण चउगुरूं । तत्थ गया सचित्ताह दवं गाहा सिद्धं । इमे ववहारी पूसमित्ताइ गाहासिद्धं । सो पुण गेण्हंति, सचिते-सहाइ, चउगुरुं । अचित्ते उवहिनिप्फराई। दुविहो ववहारो-आभवणे य, पायच्छित्ते य । आभवणे ताव अहवा-सचित्ते अणवटुप्पो, पच्छा आगपहिं निच्छुम्भंति । पंचविहो, पायच्छिते वि पञ्चविहो । सञ्चित्ते ताव सेहाइ, वलो मोठीए कुलाइथेरेहिं निच्छुम्भति चउगुरुयं दाऊल । अचित्तं से वत्थाइ । मीसे सभंडोवकरणे सेहे । खेत्तं वसहि- अहवा-खेत्तपडिलेहया पत्थिया अमुयस्खे बच्चामो,अग्रेसि मार काले उउवासासु । अहवा-श्राभवणार पंचविहा गा- प्रायरियाणं पव्वइयगा।तंचेव ने परिलहेउं पत्थियाण पुष हा पंचविहं उपसंपयं नाउं खेत्ताइकालं पवज्जेंतो संघ- जाणंति, जहा अरणे तत्थ पधाविया, दो वि समं पत्ता । दोहिं मझयारे बवहरियव्वं । अणिस्साणं गाहा सुयसुहदुक्खाई वि विहिणा सारूवियाइ अणुएहविया दोरह वि.सामरा सत्ता ण सा पंचविहा,सा पुण उवसंपया सुयाई पंचविहा,सब्बावे. अह एगं खत्तं पत्तत्ति काऊणं नाणुराहवेति। अहिंसमं पत्तेहि याओ उपसंपयाओ सुयनाणे पविजंति । अहवा-सुयना- पच्छावा आगहि विहिया सारूवियाइअणुबहविया, तेसि णे वा अणुपविसति । अहवा-सुओवसम्पत्तस्स सव्वाऽवि खेतं, जेहिं पुवमणुबहवियं खेत्तं । अह तेहिं समं पत्तेहिंतेसि उवसंपयाश्रो भवन्ति । सो पुण सुयं गेएहतिको सीसो वा, एगो गिलाणो जाओ तेण नाणुराहवियं सामयहं वेतं । महहोज्जा पडिच्छो वा । गाहा दोन्नि य सीसायरिया तेसु वा-खमगपारणए बाउलपपहिं नाणुराहषियं अएईक्षेसं। पुण सीसपडिच्छएसु किं केण कायब्वमायरियस्स सीसेण अहवा-कुलाइकजेहि वावडेहिं नाणुएहविय सामरावं,पुग्वं ताव बेयावच्चं अहाराह गुरुणो कायव्याणि । पायरिएण पच्छा वा पत्ता हुंतुं । अहवा-दोहिं वग्गेहिं समीहिय क्षेत्र वि तस्स मुत्तत्थाणि दायब्वाणि । जहिं वा गुरुणो गच्छन्ति बग्गेति दोराहायरियाणं । तत्थेगो असढमावो सिग्धगई तेपेसन्ति वा तहिं गंतव्वंऽणेण । केचिरं कालं ? जावज्जीवाए | हिं पत्तेहिं अणुबहविया सारूवियाइतेसिं खेतं । अहवा-एगे आगए उद्देइ, जइ किश्चि सचित्ताइ इमं पि गुरुणो चेव ।। आसने, एगेसिं दूरमद्धाणं । जे पढम पत्ता विहिणा य अनुइयाणि पडिच्छएण किं कायव्वं ? बेयावच्चं तहेव गुरुणो एहवियं, अहवा-पुब्वं पच्छा वा आगयाणं मायरिया सुवा तस्स गमणे तहेव दो वि काले जाव रोया जाय पढा|
तत्थविसारदा जप्पसरीराते, अण्हे पायरिया दडसरीरा जाव इयाणि पडिच्छगलाभो सचित्ताइदब्वे । तत्थ गाहा जं
जप्पसरीराण खेत्तमणुजाणन्ति । अहवा-समं पिपत्ता जेसि होइ नालबद्धं, पडिच्छगस्स जातं चेव अभिधारयति
गिलाणोतेसि अणुराहवह खतं माइग्गहणणं असा सा पिसामायापियभायभगिणीधीयपुत्तो वा ताहेतस्सव । पहाय
| रया वा विदेसिया वा जुंगा वा समं पि उम्गहिए तेसि मनुह रियं अभिधारेंति तो पायरियस्स । अहवा-संगारविश्वयंज
वह ले। गाहा:पुम्बुग्गहिरो विग्गहोति पुवट्टियामेतिया, इपताणि निवेपा गुरुणो जहा मम सेहाणि बक्षिणायाणि
अग्ने य तत्थ भागया गिलाणाइपत्ता, तत्थागयाणं वाजामो जाव न चेव तुम्भं पाया अभिधारेमि ताणि पहिति । प्रमुयं गिलाणो ताहे ते पुवट्ठिया वचंति । अह दोण्ड वि संघरवं अमुयं विधि प्रमुयकाले प्रागया तस्सव । मह कालविसंवा
होज्जा ताहे दोहिम्मि अच्छियव्वं । महवा-साह साहुलीनो मो वा ताहे भणति । कीस नागोऽसि । सिङ्गारकाले जा
वा तत्थ वि साह अच्छति साहुणिनो अच्छति । गाहा गिकिशिकारणं निवेश गेलाहार तस्सेव ते। मह विपरिण
लाणोवहिजे पुण गिलाण त्ति नियडि काऊण प्रहार वि यभायो पासिज्जा, सकारकालस्सऽम्भंतरे पुणो वि पवजा
गिलाणपाओग्गाणि खेत्ताणि कहिऊण एंति भत्तालोमेव परिणामो उप्पो पडिग्छियस्सेव । मह सङ्गारकाले माकं
परखेस पेशंति, ते य पुवट्ठिया गिलाणो शिकाऊसतं ते पच्छाभावे उप्पो ताहे मायरियाण। एवं पडिग्छयस्स
ति । ताहे इयरेसिं जं सचित्तार उप्पज्जातं व जीवंति । सेसं सुयगुरुपोवसंपया सकोसं जोयणं पायरियस्सोग्गहं साहम्मियतेणिया दुषिहासचित्तमचिसंवा। किञ्चन बियपु. वाघायरहिए वाघामो, अडविजलसावयतेणपाहि पएणं वट्टिये वि भण्डमच्छरियत्तणं कायव्वं । गाहा अस्थिर वाघाएणं अकोसं पि होज्जा । भएहयरीसु दिसासु एवं सभग्गामा जम्हा अस्थि बसभग्गामहायणपाउग्गमा तत्थ बासउउबद्ध । एवं ताव एगस्स खेत्तियस्स जड पुण| महानिज्जरापेहीहि होयव्वं । न होर अह झाइयच । नगरे बहुगा होज्जा, एगम्मि खेते संनिवड्या पत्थ मग्गहा ।। वा बहवे साहू बसंति । सम्वत्थ सकोसं मण्डलं, अत्य
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अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारणय वेत्तो मूलनिबंध अणुमुयंतेणं सच्चित्ताबित्तमीसएण य
| ववहारक्खेवणी-व्यवहारक्षेपणी-सी० । कथामेदे, स्था० ४ अम्भरगुपहाबा, कालम्मि उउवासासु वा अक्खेत्ते वसडीए मग्गणा, गाहा-जइ होइ, जर पुण संपहाणाणि खेत्ताणि
ठा०। ('अक्लेवणी' शब्दे प्रथमभागे १५२ पृष्ठे व्याख्या गता।) मासकम्पपाडम्गाणि न होति, ताहे पगम्मि चेव खेत्ते बहु
ववहारपलिका-व्यवहारचूलिका-स्त्री० । खनामख्याते प्रया विमग्छंति, तत्थ सन्वेसि पि समं ठियाणं उग्गहो भ
न्यावयवविशेष , सेन । व्यवहारचूलिका किंकर्तृकेति ?, पह। जहा-नगरे सगरिनगरे वसहीए उग्गहो खेतं न होइ, प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-सा अमुककढकेति शातं नास्तीति मगरं जत्थ वा बहाणं, जत्थ वा राया एस खेतोषसंपया।
॥१०१। सेन०१ उल्ला। मानोवसंपयाए गाहा-माया पिया जा छ एहालबद्धा- ववहारणय-व्यवहारनय-पुं०।संग्रहेण गोवरीकृतानामर्थानां शितं चेव अभिधारताणि पंति लभा । गाहा-सुह- विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । बुकिायस्स सुहक्खिो मायापिइपक्ने अभिधारेता य व्यवहरणं व्यवहरतीति वा व्यवहियते वा अपलप्यते सासुससुरपालेय पुश्वुहिटो सम्वे वि लभ । खेसोवसंपया सामान्यमनेन विशेषान् वाऽश्रित्य व्यवहारपरो व्यवहारः। ए मायापियाइ ० जाव मित्तवयंसे वि लभा । मग्गोव- स एव नयः । विशेषप्रतिपादनपरे भयभेदे, स्था० संपयार गाहा मग्गोवसंपयाए पुण जे म- ७ ठा० ३ उ० श्रा०मा०चूछ। विशे। ग्गे निजंति देसिएण ते माया पिया जाय सहदे- अथ व्यवहारनयमाह-व्यवहरणं व्यवहारः । यदिवासिए वि लभा । जा तेसिं उपट्टेति ते सेसं जो दिसि- विशेषतोऽचहियते-निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः
यो सोलहा जाव देसेड। जद य न? मूढे च गवेसह विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारमय इत्यर्थः । प्रा० म०१०। विणभोषसंपवाए, सावरि विणयं उपचारार्थ दर्शयति-विसमोषसंपया नाम देसिया पव्वया, अन्नविसयं जंति, ला
ववहरणं ववहरए, सतेण ववहीरए व सामन्नं । इविसयार, तत्थ पुष्बढियाणं पायरियाणं गीयत्थसंविग्गा- वबहारपरोव जभो, विसेसभो तेण ववहारो ॥२२१२॥ णं अप्पं निवेति । जहा-अम्ह खेत्ताणि दरिसेह । ते दरि- व्यवहरण व्यवहारः, व्यवहरति स इति वा व्यवहारः, सयंति,तेसि प्रणापुच्छाए अपुव्वेसु खेत्तेसु नटुंति । तत्थ विशेषतोऽवहियते-निराफियते सामान्य येनेति व्यवहारः, यठिया जंपव्याति तं तेसिं । पुष्वट्टियाणं निवेदयंति एस लोके व्यवहारपरो वा विशेषतो यस्मात्तेन व्यवहार इति। षिणयोषसंपया । गीयत्थसंविग्गा परोप्परं संवच्छरियचा. अयं च न यदुक्कसूक्तिका प्रतिपद्यते "वह विणिच्छियउम्मासिएसु पालोयणाघिणयं पउंजंति, न पुण किंचि | स्थं, ववहारो सव्वदव्वेसु" ति ( गाथा०२१८३) अस्य सकयंति परस्परतः । केइ पुण भणन्ति जाव आलोचयति व्याख्यामाहताष जं लभा सच्चित्ताइ सुत्तनालबद्धं सेसं जस्सालो- सदिति भणियम्मि गच्छइ,विणिच्छयं सदिति किं तदमंति। पर तस्साऽभवद । पायच्छित्तेववहारो दसमे उद्देसे व्यव- | होज विसेसहितो, संववहारादवेतं जं ॥ २२१३ ।। हारस्य वक्ष्यामः । सब्वासु वि उवसंपयासु मायापियाइना
सदिति भणिते सति विनिश्चयमसौ गच्छति , विचार्य लबखाणि सो लभा । जस्स वा ओबद्धति सो लभद । -
विशेषानेव वस्तुत्वेन व्यवस्थापयतीत्यर्थः । तथा खेवमयं खो वि एस बवहारकप्पो । पं००५ कल्प।
विचारयति-ननु सदिति यदुच्यते तबटपटादिविशेषेववझारकुदिदि-व्यवहारकुदृष्टि-स्त्री० । अनादिमत्यां वितथा
भ्यः किमन्यत्राम यत्संव्यवहारादप्यपेतं व्यवहारे न कबोचरायां विद्यापराभिधानायां कुब्यवहारवासनायाम् , चिदुपयुज्यते, वार्तामात्रप्रसिद्धं सामान्य नास्त्येव कापि “व्यवहारकुदृष्टयो-रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु। कल्पितेषु वि- तदित्यर्थः। बेकेन, तस्वधीः समतोच्यते"॥द्वा० १८ द्वा०।
अपि चबबहारकुसल-व्यवहारकुशल-पुं० । देशादिव्यवहारानुरूप,
उवलंभब्यवहारा, भावाभो निविसेसमावायो। प०र०॥ सम्पति व्यवहारकुशल इति षष्ठं भेदं विवरीषुर्गाथोत्त
तं नास्थि खपुष्पं पिव,संति विसेसा सपञ्चक्ख॥२२१४॥ राईमाह
नास्ति सामान्यम्, उपलम्भव्यवहाराभावात्-उपलब्धिलदेसद्धादणुरूचं, जाणइ गीयत्वववहारं ॥ ५४॥
क्षणमाप्तस्यानुलब्धेरित्यर्थः । तथा निर्विशेषभावात्-विशेष
व्यतिरिकत्वात् , खपुष्पषत् । विशेषास्तु सन्ति खप्रत्यक्षदेशः-सुस्थितदुस्थितादिः, अद्धा-कालः-सुभिक्षदुर्भि
स्वाबटादिवदिति। पादिः, मादिशब्दात्-सुलभदुर्लभादि द्रव्यम्, प्राग्लाना
उपचयहेतुमाहविभावध परिगृह्यते , तेषामनुरूपं जानाति गीतार्थग्य
जैव विसेसेहिं चिय, संववहारो वि कीरए सक्खं । पारं यो यत्र देशे काले भावे या, वर्तमानैर्गीतार्थैरुत्सपवादवेदिभिर्गुरुलाघवपरिज्ञाननिपुणेराचरितो व्यवहार
जम्हा सम्मत्तं चिय, फुडं तदत्यंतरममावो ॥२२१५॥ स्तत्र दूषयतीति भावः । एवंविधव्यवहारकौशल षष्ठं यस्माच्च जलाऽऽहरणवणपिण्डिनदानादिको लोकम्यवकौशलं भवति , एतबोपलक्षणं ज्ञानावित्रयप्रमृति स- हारो घनिम्बपत्रादिविशेषैरेव साक्षाक्रियमाणो पश्यते, न भावग्यपि यः कुशलः स प्रवचनकुशलः, अभयकुमार
सामाम्येन । तन्मात्रमेव च-विशेषमात्र यस्मारस्फुटमुपलबद । प००२ अधि०६ लक्षा(अभयकुमारकथा च 'भ- भ्यत इति शेषः, तस्माचदर्थान्तरभूतं सामान्यमभाव भयकुमार' शम्दे प्रथमभागे ७०४ पृष्ठे गता।)
1 पानतु भावति।
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बवहारणप
किंव
अममण व मयं साम जइ विसेोऽभं । तम्मत्तमन्नमहवा, नऽत्थि तयं निव्विसेसं ति ।।२२१६ ॥ विशेषेभ्यः सामान्यमन्यद् अनन्यद्वा मतं भवतः ? । यदि विशेषेभ्यस्तदनन्यद्-अभिन्नम्, तर्हि तन्मात्रं - विशेषमाश्रमेय तदिति । अथान्पडिशेपेभ्यो भिनं सामान्य तर्हि नास्त्येव तर्विशेषत्वादिति । यदुक्तम्-“चूत्रो वणस्सरश्चिये "त्यादि १० तद्विपक्षमाहतह चूयाविरहियो, अनो को सो वसई नाम । अणस्स चिप तयो, घटो व्य वादभावाओ । २२१७| तथा चूनाऽऽदिधिरहितः चूतनिम्बकदम्यम्प्रभृतिविशेषे भ्योऽन्यः को नाम वनस्पतिर्यः सामान्यत्वेन गीयते ? । अथास्ति चूताऽऽदिभ्योऽपरः कोऽपि वनस्पतिः । ननु पयेवम् तर्हि ततोऽम्यः कोऽसावचनस्पतिरेव चूनाद्यभावरुपत्वाद पटादिवदिति ।
२१८३ ) इत्येता
तदेवं वच्च विवि ख्यायोपसंहरन्नाह -
तो ववहा गच्छ विच्वियं को वणस्सई पृथो । होज बउलाइरूवो, तह सम्बदम्बमेसु ।। २२१५ ॥ ततस्तस्मादुक्तन्यानेन विचार्य विगतसामान्यानां विशेपायां नियो विनियस्तं गति स्वीकरोति व्यव हारनयः । कथं विचार्य ? इत्याह-को नाम वनस्पतिर्भवेत् ? इति चिन्तायां चूतो बकुलादिवसो भयेन तु तदतिरिवृत्यसामान्यम् । तथा तेनैव प्रकारेण सर्वोच्चपि द्रव्यभेदेषु वक्तव्यम् - गोतुरगरथादयो विशेषा एव गोत्वादिसामान्यं न पुनरम्यदित्येवं सर्वत्रवाच्यमित्यर्थइति ।
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अथवा अन्यथा विनिश्चयशन्दार्थ व्याविष्यासुराह अहिगो ओत वा निओ नि सामन्नमस्स ववहारो। वश्च विणिच्छियत्थं, जाइ वि सामन्नभावं ति ॥ २२१६ ॥ वा अथवा श्रधिकश्चयो निश्चयः यथा अधिको दाघो निदाघः, स च निश्चयोऽत्र सामान्यम् । श्रस्य सामान्यस्य व्यवहारनयो व्रजति याति । किमर्थम् विनिश्चयार्थम् । कोऽर्थः ? विसामान्यभावं विसामान्यभावार्थ तदभावाय यतत इत्यर्थः ।
"
अथवा लोकव्यवहारो विनिश्चयस्तदर्थं व्रजति व्यवहार इति दर्शयति
भमराह पंचवा निच्छए जत्थ वा जरावयस्स | त्थे विणिच्छ सो, विणिच्छयत्थो त्ति सो गज्भो ॥ बहुतरउनिपतंचिय, गमे संते विसेस सुपए। सववहारपरतया ववहारो लोग मिच्छंतो ।। २२२१ ।। वा अथवा निश्चये निश्चयनयमते विचिन्त्यमाने भ्रमरादेः पञ्चवर्थ द्विगन्ध-परसा-एस्परांवे सत्यपि यत्रदाय जनगस्य नियो भवति स विनियार्थस्तं व्रजति व्यवहारनय इति प्रकृतम् । कोऽर्थ ? सत्स्वपि वी- गन्ध-रस- स्पर्शेषु यो यत्र जनपदस्य ग्राह्यस्तमेव व्यवहारनयो हामयति मन्यते प्ररूपगति च । सतोऽपि ।
२३४
( ३३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
3
1
वचहारणय
शेषान् वदन्मुञ्चति । कुतः १ स एव बहुतरः स्पष्ट इति कृत्वा । किं कुर्वन् ? लोकव्यहारमिच्छन्. कया ?, व्यवहारपरतया व्यवहारप्रधाननयेति । तदेवमभिहितो व्यव रनयः । विशेः । स्या० | द्रव्याः । श्र० म० । ( व्यवहारनय. व्याख्या 'राय' शब्दे चतुर्थभागे १८५६ पृष्ठे गता । ) व्यवहारं लक्षयति
,
उपचारेण बहुलो, विस्तृतार्थच लौकिकः । यो बोधो व्यवहाराख्यो, नयोऽयं लचितो बुधैः ॥ २५ ॥ 'उपचार' ति उपचारेण-गौरया कृत्या बटुलो बाल्न व्यवहारकारी विस्तृताय नानाम्यक्रिकशब्दसंकेतयणः लौकिकःपजीविममा पातिरिकप्रमाणपक्षपाती यो बोधः सोऽयं व्यवहारायोनयः बुधैर्लक्षितः, उपचारबहुलाद्यध्यवसायवृत्तिनयत्वव्याप्यजातिमत्त्वं लक्षणं तेन नामनुगम इत्यर्थः " लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तरतोर्थो व्यवहार " इति तत्त्वार्थभाध्यमनुरुध्येत्थं लक्षितम् । ' वच्चर विदित्थं ववहारो सम्बम्बे' ति निर्देशि तीकपर्यालोचनायां तु विनिश्चितार्थप्रापकत्वमस्य लक्षणं लभ्यते । विनिश्चितार्थप्रातिवास्प सामान्या न तूपगमे सति विशेषाभ्युपगमात् अत एव विशेषेणावहियते— निराक्रियते सामान्यमनेनेति (निरुक्) युक्त्युपपत्तिः । जलाहरणाद्युपयोगिनो घटादिविशेषानेवायमङ्गीकरोति, न तु सामान्यं तस्यार्थक्रिया हेतुत्वात्, न हि गां बधानेत्युक्ते कश्चि त्वं वद्धमध्यवस्यत्यनुगत व्यवहारश्चानपोहादिनाऽप्युपपत्स्यते, अखण्डाभावनिवेशाच नाऽन्योन्याश्रयोऽस्तु वा सर्वत्र शब्दानुगमादेवानुगतत्वव्यवहारा कारसत्वव्याप्यादावित्थ मेवाम्युपगमादित्यादिकं प्रपञ्चितमन्यत्र ।
"
उपचारबाहुल्यं विवृणोति -
"
दह्यते गिरिरध्वाऽसौ, याति श्रवति कुण्डिका । इत्यादिरुपचारोऽस्मिन् बाहुन्येनोपलभ्यते ॥ २६ ॥ "दात" इति असी गिरिधते गिरिपदस्य गिरिस्थ दादी लक्षा, भूयो दग्धत्वप्रतीतिः प्रयोजनम् असावया याति, अत्राध्यपदस्याध्वनि गच्छति पुरुषसमुदाये लक्षणा, नैरन्तर्य प्रतीतिः प्रयोजनम् । कुरिङका स्त्रवतीत्यत्र कुण्डिकापदस्य कुरिकाले निचित्प्रतीतिः प्रयोजनम् । सर्वोदेश्यप्रतीतिदपार्थे मुख्यार्थामेदाध्यवसायात्मकव्यञ्जनामहिम्ना व्युत्पत्तिममिग्ना वेति विवेचितमन्यथादिरुपवा गोलोऽस्मिन् प्यपहारनये बाहुल्येनेतरनपापेक्षया भूम्नोपलभ्यते ।
विस्तृतार्थं विवृणोति -
विस्तृतार्थो विशेषस्य, प्राधान्यादेव लौकिकः । पञ्चवर्णादिभृङ्गादौ श्यामत्वादिविनिश्वयात् ।। २७ ॥ "विस्तृतार्थ " इति विशेषस्य प्राधान्यादेष विस्तृतार्थः, तत्प्राधान्यं च व्यक्तिष्वेवोपयुक्ततया संकेताश्रयणादिना बोध्यम् । तथा वस्तुतः पञ्चवर्णावयवारब्धशरीरत्वेन पञ्चवर्णादिमति भृङ्गानी श्यामन्यादेरेय विनिधादेव लौकिकः । यथा दि लोको निश्चयतः पञ्चवर्षेऽपि भ्रमरे कृष्णवर्णत्वमेवाड़ीकरीति, तथाऽयमपीत्यस्य लोकिकसमत्वमिति नयविदः । न
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(६३४) बवहारणय अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारभावकुसल च कृष्णो भ्रमर इत्यत्र विद्यमानेतरवर्मप्रतिषेधाद् भ्रान्तत्वम- ज्यद्वारसम्बन्धेनैव च हेतुत्वाद् । अभव्यानां च बाह्याव्यवमुद्भूतत्वेनेतराविवक्षणात् , तदव्युहासेऽतात्पर्यादुद्भूतवर्ण- हारसत्त्वेऽपि विरतिपरिणामानुत्पादो न दोषाय, अन्तरकविवक्षायाएवाभिलापादिव्यवहारहेतुत्वात् ,कृष्णादिपदस्यो- रणा ऽसत्त्वात्, सामच्या एव कार्यजनकत्वाद् । अविवेकमूलछूतकपणादिपरत्वाद्वा अतात्पर्यझं प्रत्येतस्याबोधत्वेनाप्रा- | व्यभिचारदर्शनस्य विवेकिनामविश्वासाऽजनकत्वात्, ताहमाएयेऽपि तात्पर्य प्रति प्रामाण्यालोकव्यवहाराऽनुकूलवि
शाविश्वासस्य महानर्थनिमित्तत्वादिति भावः । यत उक्तवक्षाप्रयुक्तत्वेन च भावसत्यत्वाविरोधात् , अत एव पीतो- मावश्यके-"पत्तेअबुद्धकरणे, चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । भ्रमर इति न व्यवहारतो भावसत्यं लोकव्यवहाराननुकूल
आहश्च भावकहणे, पंचहि ठाणेहि पासत्था ॥ १॥" 'पंचत्वात् , नापि निश्चयतः पञ्चवर्मपर्याप्तिमति पञ्चवर्मप्रकारत्वा. हिं' ति प्राणातिपातादिभिरिति , तस्माद्वयबहारनयाभावेनावधारणाक्षमत्वादित्यसत्यमेवेति दिग् ॥ २७ ।। देशाच्चैत्यवन्दनादिरुपवर्यमानो युक्त एव , व्यवहारनिननु कृष्णो भ्रमर इति वाक्यवत्पञ्चवर्मा भ्रमर इति
श्वययोद्धयोरेव तुल्यताया एव सूत्रे भरणनात् । तदुक्तम्-"वाक्यमपि कथं न ? व्यवहारनयानुरोधितस्यापि लोकव्य
इजिणमयं पवज्जह , ता मा ववहारनिच्छप मुश्रह । वहारानुकूलत्वादागमबोधितार्थेऽपि व्युत्पन्नलोकस्य व्य
ववहारणउच्छेए , तित्थुच्छेश्रो जनोऽक्स्सं ॥१॥ " व्यबहारदर्शनात् , लोकबाधितार्थबोधकवाक्यस्याव्यवहारकत्वे
वहारप्रवृत्त्या हि चैत्यवन्दनादिविधिना प्रवजितोऽहमिचारमा न रूपवानित्यादिवाक्यस्याप्यव्यवहारकत्वापाता
त्यादिलक्षणया शुभपरिणामो भवति, ततः कर्मक्षयोपशमातस्याप्यात्मगौरवत्त्वादिबोधकलोकप्रमाणबाधितार्थबोधक
दिः, ततश्च निश्चयनयसम्मतो विरतिपरिणाम प्रति द्वयोरत्वाद, भ्रान्तलोकाबाधितार्थबोधकत्वं चोभयत्र तुल्यं प्रत्य
पि तुल्यत्वम् । न च निश्चयव्यवहारकार्ययोर्मुक्तिलक्षणं कार्य शनियतैव व्यवहारिविषयता , न वागमादिनियतेति तु
प्रति साक्षात्परंपराकारणतयाऽभ्यर्हितत्वाऽनभ्यर्हितत्वाव्यबहारदुर्नयस्य चार्वाकमतप्रवर्तकस्य मतम्, न तु व्यवहार
भ्यां विशेषः, निश्चयकार्यस्य व्यापारतया व्यवहारकार्यस्य नयस्य जैनदर्शनस्पर्शिन इत्याशङ्कायामाह
साक्षाद्धेतुताया अविरोधाद् , अभ्यर्हितत्वाक्षतेः, वदन्ति हि पञ्चवर्णाभिलापेऽपि, श्रुतव्युत्पत्तिशालिनाम् । तान्त्रिकाः-'न हि व्यापारेण व्यापारिणोऽन्यथासिद्धि' रिति, न तद्वोधे विषयता, परांशे व्यावहारिकी ॥ २८॥ न चासति विरतिपरिणामे चैत्यवन्दनादिविधिसंपादने "पञ्चे' ति पञ्चवणों भ्रमरः इति शब्दाभिलापेऽपि | मृषावादोऽपि गुरोर्भगवदानासंपादनेन त्वं प्रवजितोऽसीश्रुतव्युत्पत्तिशालिनां तत्तत्रयाभिप्रायप्रयुक्तः शब्दस्तत्र त्यादिव्यवहारसत्यवचनस्याऽक्षतत्वात् , एतदकरणे तीर्थोनयीयविषयतयैव शाब्दबोधक इति सिद्धान्तसिद्धका- च्छेदादयो दोषाः, परिणामस्य सिद्धसिद्धिभ्यां व्याघार्यकारणभावग्रहवतां तद्बोधे उक्ताभिलापजन्यशाब्दयोधे तात् । आइत्य भरतादिभावकथने चाऽशास्त्रार्थम् । ध० पराशे कृष्णेतरवाशे व्यावहारिकी विषयता नाऽस्ति । ३ अधि० । पं० सू० । श्रा० । वृ०। तथा च-पञ्चवरणों भ्रमर इति शाब्दबोधे कृष्णांशे व्यावहारिक्या संबलिता, इतरांशे च शुद्धा नैश्चयिकी विषयता।
ववहारो विहु बलवं, जं छउमत्थं पि बंदई अरहा। अदृष्टार्थे सर्वत्र संबलनसंभवेऽपि लोकप्रसिद्ध (द्धार्थानु) जा होइ अणाभिमो, जाणंतो धम्मयं एयं ।। ८२६ ॥ नयवादस्थले कचिदेव संबलनाऽभ्युपगमादिति न कश्चिद्दोष व्यवहारोऽपि प्रास्ता निश्चय इत्यपिशब्दार्थः । हु:-निश्चिइति भावनीयम् । नयो । सूत्र। स्या० । ( व्यवहारभेदाः तं बलवान् । यद्-यस्माच्छद्मस्थमपि-स्वगुरुप्रभृतिकं वन्दते 'णय' शब्दे चतुर्थभागे १८६४ पृष्ठे गताः ।
अरहा-केवली । कियन्तं कालमित्यादि , यावदसौ ' अदव्वद्वियनयपगडी, सुद्धा संगहपरूवणा विसओ।
णाभिन्नो' त्ति केवलितया अनभिज्ञानो भवति , तावदेपडिरूवे पुण वयण-त्थनिच्छो तस्त ववहारो॥४॥
नं व्यवहारनयं बलवत्-बलवत्त्वलक्षणं धर्मतो जान
न् छन्मस्थमपि वन्दते इति । वृ०३ उ०। (असद्भूतव्यवहासम्म०१काण्डा('दबट्टिय'शब्दे चतुर्थभागे २४६७ पृष्ठे व्या
रः, सद्भूतव्यवहारश्च ‘उवण्य' शब्दे द्वितीयभागे ८६५ ख्यातैषा।) व्यवहारोऽपि प्रमाणम् । ननु विरतिपरिणामो
पृष्ठे वर्णितः । 'णय' शब्दे चतुर्थभागे १८६२ पृष्ठे विशेषतः भावतःप्रव्रज्येति जिनोपदेशः, तत्रैव निर्भरः कर्त्तव्यः किमनेन चैत्यवन्दनादिक्रियाकलापेन ?, श्रूयते-तमन्तरेणापि भर.
प्रतिपादित एषः।) तादीनां विरतिपरिणामः, अन्यथा-केवलानुत्पत्तिप्रसङ्गात्। ववहारपरमाणु-व्यवहारपरमाणु-पुंगव्यवहारगते परमाणो, न च संपादितेऽपि तस्मिन् तत्परिणामो भवति, अभव्या
सेन । अनन्तसूक्ष्मपरमाणुभिरेको व्यवहारपरमाणुर्जायते, नामप्यनेन विधिना प्रव्रज्याग्रहणश्रवणात् , इत्यन्वयव्य
श्रष्टव्यवहारपरमाणुभिरेका उत्श्लदणश्लदिणका जायते । तिरेकव्यभिचाराभ्यां न युक्तं चैत्यवन्दनादि, इति चेन्मैवम् , ४८२ सेन. ३ उल्ला। ('प्रसरेणु' शब्दे चतुर्थभागे २२१८ प्रायो विरतिपरिणामहेतुत्वेन तदुपादानात् , न ह्येतावद्विधि
पृष्ठेऽत्रत्यविस्तरो गतः।) संपत्तिमानकार्य प्रायः सेवमानो दृश्यते, तेन कार्येण कार
ववहारभणिय-व्यवहारभणित-त्रिगछेदप्रन्थोक्ने,जी०१प्रतिका णमनुमीयते इति । न चोक्तव्यभिचारो दोषः तस्य कादाचित्कत्वात् , तथा च-कदाचिद्दण्डं विनाऽपि हस्तादिनैव ववहारभावकुसल-व्यवहारभावकुशल-पुं० । व्यवहारश्च भाचक्रभ्रमणाद्धटोत्पादेपि घटं प्रति दण्डस्येव व्यवहारं वि- वश्व व्यवहारभावी तत्र कुशलः । व्यवहारे भावे च कुशले, नाऽपि पूर्वाभ्यस्तकरणानां तथा भव्यत्वपरिपाकवतां भर- दर्श० । व्यवहारश्च भावश्च व्यवहारभावी तस्मिन् कुशला तादीनां कदाचिद्विरतिपरिणामोत्पादेऽपि तं प्रति व्यवहा- | व्यवहारभावकुशलाः । तत्र व्यवहारो-धर्मार्थकामलोकरस्य न हेतुताक्षतिः , द्वारस्यान्यत एवं सिद्धेः , स्वप्रयो- रूपश्चतुर्विधः,धर्मकुशलो हि कुतीर्थसंसर्ग न करोति कुती
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(६३५). पवहारभावकुसल अभिधानराजेन्द्रः।
ववहारि र्थिविम्बविक्रयं न करोति । अर्थकुशलः-पुनरर्थोपार्जनं हस्त
रवान् । यः सम्यगामादिव्यवहारं जानाति, सात्वा च सलाघवादिपरित्यागेन करोति ।) दर्श। (कामकुशलव्याख्या |
म्यक् प्रायश्चित्तदानतो व्यवहरति स व्यवहारवानिति भा'कामकुशल' शब्दे तृतीयभागे ४३३ पृष्ठे गता।) लोककुश
वः । व्य०१3०। स च यथावच्छुद्धिसमर्थो भवति । ध०२ लता पुनर्यदुत्तमलोकसंपर्कः क्रियते,राजाऽमात्यादेर्वा यत्सदा
अधि० भ०। सद्भावावसरमुपचरति । दर्श० ३ तत्व ।
ववहारसच्च-व्यवहारसत्य-न० । व्यवहारेण सत्यं व्यवहारववहाररासि-व्यवहारराशि-पुं० । व्यवहाररूपे राशी, सेन०1] सत्यम् । सत्यभेदे, यथा दह्यते गिरिगलति भाजनम् , अयश्च "जात्रा होही पुच्छा , जिणाण मग्गम्मि उत्तरं तइश्रा।। गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते, उदके च गलिते सती. इकस्स निगोअस्स य . अणतभागो असिद्धिगो॥१॥"| ति । स्था० १० ठा०३ उ०। इत्येतद्वचः किं बादरनिगोदापेक्षिकमुत सूक्ष्मनिगोदापेक्षि- ववहारसच्चा-व्यवहारसत्या-खी०व्यवहारतो लोकविवक्षातः कम् ?, सूक्ष्मनिगोदापेक्षायामपि सांव्यवहारिकसूक्ष्मनिगो
सत्या व्यवहारसत्या । लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तथा दापेक्षिकत्वे व्यवहारराशिमनुप्राप्ता अपि केचन जीवा न अवतो भाषायाम् , प्रज्ञा०११ पद । ध०। मुक्ति कदाचिद्यास्यन्तीति महत्यनुपपत्तिः कथं निरस्यति ?, |
ववहारसत्थ-व्यवहारशास्त्र-न० लोकव्यवहारप्रतिपादकेशाप्रश्नः, अत्रोत्तरम्-एकस्य निगोदस्यानन्ततमो भागो मोक्ष
खे,"ननात प्रोषितायातः, सचेलो भुक्तभूषितः। नैव स्नायागत इति सामान्येनोक्तमस्ति, न तु सूक्ष्मनिगोदस्य वादरनिगोदस्य वेति विवेकेन, परमुभयथाऽपि न कश्चिद्विरोधः,
दनुवज्य, बन्धून् कृत्वा च मङ्गलम्" ॥१॥ इत्यादि । ध०२
अधि०। यतो व्यवहारराशि प्राप्ताः सर्वे जीवा मोक्षे यान्तीति नियमो नास्ति , तथा च सति श्रीमदुद्भाविताऽनुप
| ववहारसम्मत्त-व्यवहारसम्यक्त्व-न० शानश्रद्धाचरणः सप्तपत्तिरप्यनवकाशेति ॥ ७४ ॥ सेन० १ उल्ला० । " सि
| पष्टिमेदशीलनेच व्यवहारमात्रतः सम्यक्त्वे, ध०२ अधिक। ज्झंति जत्तिा किर , इह संववहारजीवरासीश्रो । ववहारसुद्धि-व्यवहारशुद्धि-स्त्री०। व्यवहारस्य शुद्धिः व्यवजंति प्रणाइवणस्सइ-रासीनो तत्तिा तम्मि " त्ति ॥१॥ हारशुद्धिः व्यवहारशुद्धथैव च सर्वोऽपिधर्मः सफलः, यदाहइति वचनानुसारेण यावन्तः सिध्यन्ति तावन्त एव जीवा
"ववहारसुद्धि धम्मस्स , मूल सबन्नुभासए । अनादिनिगोदा व्यवहारराशी यान्त्येवं सत्यनादिसंसारमा
ववहारेण तु सुद्धेणं, अत्थसुद्धी तो भवे ॥१॥ श्रित्य विचारे यावन्तः सिद्धाः तावन्त एव सदैव व्यवहारि
सुद्धणं चेव अत्थेणं, आहारो होड सुद्धश्रो। णोऽपि मृग्यन्ते नाधिकाः, परम्-"जइबा होही पुच्छा, जि
श्राहारेण तु सुद्धेणं, देहसुद्धी जो,भवे ॥२॥ णाणमग्गम्मि दंसणं तइया । इक्कस्स निगोअस्स य, अणंत.
सुद्धेणं चेव देहेणं, धम्मजुग्गो अजायह। भागो असिद्धिगो ॥१॥" एतदनुसारेणैकस्य सूदमबादरा
जं जं कुणइ किञ्च तु, तं तं से सफलं भवे ॥३॥ भ्यतरनिगोदस्यानन्ततमो भागः सिद्धिगतस्तथैव व्यवहा- अमहा अफलं होइ, जं जं किच्चं तु सो करे। रिणोऽप्येकस्य निगोदस्यानन्ततम एव भागे युज्यन्ते दृश्यन्ते
यवहारसुद्धिरहिओ, धम्म खिसावए जो ॥४॥ च-"जीवाः सर्वे व्यवहार्य-व्यवहारितया द्विधा । सूक्ष्मनि
धम्मखिंसं कुणताणं, अप्पणो अपरस्स य । गोदा एवान्त्या-स्तेऽन्येऽपि व्यवहारिणः ।।" इत्येतद् व्यवहा.
अबोही परमा होइ , इन सुत्ते वि भासि ॥५॥ रिलक्षणानुसारेण बादरनिगोदादी सिद्धेभ्योऽनन्तानन्तगु
तम्हा सव्वपयत्तेणं, तं तं कुजा वियक्खयो। णास्तस्मान शायन्ते सिद्धेभ्यो व्यवहारिजीवा अधिका वा
जेण धम्मस्स खिसं तु, न करे अबुहो जणो ॥६॥" तुल्या वेति सम्यक् प्रसाद्यमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-सिद्धा निगोदस्यानन्ततमे भागे उक्लाः,निगोदाश्च द्विधा-सूक्ष्मा बाद
अतो व्यवहारशुद्धथै सम्यगुपक्रम्य इत्युक्तलक्षणे शुद्धिस्वराश्च, यावन्तः सिध्यन्ति तावन्तः सूक्ष्मनिगोदेभ्यो व्यवहार
रूपे, ध०२ अधिक। राशौ समायान्ति, तथा च कथं सिद्ध जीवानां व्यवहारराशि
ववहाराऽऽभास-व्यवहाराभास-पुं०। अयथार्थे व्यवहरे, योजीवानां च तुल्यता, 'सिझंति जत्तिये' त्यादिगाथार्थोऽपि पारमार्थिकद्रव्यपर्यायप्रविभागभिप्रैति । स्था०२ ठा०३ व्यवहारराशेस्तत्तद्ग्रन्थानुसारेणानादितया प्रतिभासात्त- उ०। (अस्य स्वरूपम् ‘णयाभास' शब्दे चतुर्थभागे दनुरोधेनैव भावनीय इति ॥२१॥ सेन०२ उला। (केचन | १९०३ पृष्ठे दर्शितम् ।) निगोदजीवा लघुकर्मीभूय व्यवहारराशौ समायान्तीति णि- ववहारि(ण)-व्यवहारिन्-त्रि० । व्यवहारः पण्यक्रयविक्रयगोयजीव ' शब्दे चतुर्थभागे २०३२ पृष्ठे प्रतिपादितम् । )। लक्षणो विद्यते यस्य सः । सांयात्रिके, सूत्र०१ श्रु०११ अ० व्यवहारराशि प्राप्तो जीवः पुनः सूदमनिगोदमध्ये याति न | व्यवहारस्य कर्तरि, व्यवहारच्छेत्तरि, व्य०१ उ०।। वा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-स जीवः सूक्ष्मनिगोदे याति.परं
संप्रति व्यवहारिण(ण)इति द्वितीयं द्वारमभिधित्सुराहव्यावहारिक एवोच्यते इति ॥११८॥ सेन०४ उल्ला० ।
दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्या। ववहारवं-व्यवहारवत-
त्रिआगमथुताशाधारणजीतलक्षणा- उत्तरदव्वअगीया, गीया वा लंचपक्खेहि ॥ १३ ॥ नां पञ्चानामुक्तरूपराणां व्यवहाराणां शातरि, स्था० ८ ठा० ३ व्यवहारिणश्चतुर्की, तद्यथा-नामव्यवहारिणः, स्थापनाउ० व्यवहियते-पराधजातं प्रायश्चित्तप्रदानतो येन स व्यव- व्यवहारिणः, द्रव्यव्यवहारिणो, भावव्यवहारिणश्च । तत्र हारः। आगमादिकः पञ्चपकारः, सोऽस्यास्तीति व्यवहा- नामस्थापने सुझाने। द्रव्यव्यवहारिणो द्विधा-आगमतो, नो.
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वहारि अभिधानराजेन्द्रः।
वहारि बागमतश्च । तत्र-आगमतो व्यवहारिशब्दार्थशाः ते चानु-1 तिः। एतांश्च यथोक्तविशेषणेन विशिष्टि । अपि गीतार्थत्वपयुक्ताः, नोमागमतस्त्रिबिंधाः-शरीरभव्यशरीरतव्यति- मृते भाषव्यवहारकारिलो भवन्तीति गीतार्थ (त्व) प्रतिपस्यरितभेदात् । तत्र शरीरभव्यशरीरदब्यव्यवहारिणः प्रती- र्थमाह-'सुत्तत्थतदुभयविऊ'-सूत्र व अर्थश्च तदुभयं चेति । ताः। तद्व्यतिरिक्ता द्विविधाः-लौकिकाः, लोकोत्तरिका- तच तत्-सूत्रार्थलक्षणम् , उभयं च, तदुभयम् । सूत्रार्थतदु. च । भावव्यवहारिणोऽपि द्विविधाः-आगमतो, नोभाग- भयानि विदन्तीति सूत्रार्थतदुभयविदः । किमुक्तं भवति-सू. मतश्च । श्रागमतो व्यवहारिशब्दार्थज्ञाः, तत्रैवोपयुक्ताः, नो- प्रचिन्तायां सूत्रम्, अर्थचिन्तायाम) तदुभयचिन्तायां तदुबागमतो विधा-लौकिका, लोकोत्तरिकाश्च । तत्र पूर्वार्द्धन भयं ये विदन्ति ते सूत्रार्थतदुभयविदः । इह सूत्रार्थवेदने चनोबागमतो द्रव्यभावलौकिकव्यवहारिणः प्रतिपादयति- तुर्भङ्गी, सूत्रविदो नामैके नार्थविदः ११ नो सूत्रविदोऽर्थविदः द्रव्ये विचार्यमाणे नोागमतो-शरीरभव्यशरीरव्यतिरि- २। अपरे-सूत्रविदोऽपि अर्थविदोऽपि ३ । अन्ये नो सूत्रविदो का लौकिका व्यवहारिणः । " खलु लंचिल्ला ' इति लश्चा नाप्यर्थविदः ४। अत्र तृतीयभनाधिकारः, तत्रापि सूत्रवेउत्कोच इत्यनान्तरम् , तद्वन्तः। किमुक्तं भवति-परलचामु
लायां सूत्रविद्भिरर्थवेलायामर्थविद्भिस्तदुभयवेलायां तदुभयपजीव्य ये सापेक्षाः सन्तो व्यवहारपरिच्छेदकारिणस्ते द्र- विद्भिरिति सूत्रार्थतदुभयग्रहणम् । 'अणिस्सियववहारकारी ग्यतो लौकिकाः व्यवहारिणः । 'भावतो उ मज्झत्था' इति। य' इति निश्रा-रागः निश्रा संजाता अस्येति निश्रितः,न निभावतः पुनः-नोआगमतो लौकिकाः व्यवहारिणो-म
श्रितोऽनिश्रितः, स चासो व्यवहारश्च अनिश्रितव्यवहारस्तध्यस्था-मध्ये-रागद्वेषयोरपान्तराले तिष्ठन्तीति मध्यस्थाः।
करणशीला अनिश्रितव्यवहारकारिणः, न रागेण व्यवहारये परलञ्चोपचारमन्तरेणारतद्विष्टाः सन्तो न्यायैकनिष्ठत- |
कारिण इति भावः । एकग्रहणे तज्जातीयस्याऽपि ग्रहणमिति या व्यवहारपरिच्छेत्तारस्ते नोवागमतो लौकिका भावव्य
न्यायादनुपश्रितव्यवहारकारिण इत्यपि द्रष्टव्यम् । तत्र उपबझरिण इति भावः । अधुना लोकोत्तरिकान् नोागमतो
श्रा नाम-द्वेषः, उपश्रा संजाता अस्येति उपश्रितः, न द्रव्यव्यवहारिणः प्रतिपादयति-उत्तरदब्वगीया' इत्या.
उपश्रितोऽनुपश्रितः स चासो व्यवहारश्च तत्करणशीला दि। उत्तरे-लोकोत्तरे द्रव्ये विचार्यमाणा नोश्रागमतो
अनुपश्रितव्यवहारकारिणः, न द्वेषेण व्यवहारकारिण द्रव्यव्यवहारिणः, अगीता-अगीतार्थाः, ते हि यथावस्थित इत्यर्थः । अथवा-एषोऽनुपर्तितः स न मह्यमाहारादिकव्यवहारं न कर्तुमवबुध्यन्ते । ततस्तद्व्यवहारोऽद्रव्य- मानीय दास्यतीत्यपेक्षया, निश्रा-एष मदीयः शिष्यः, यदि व्यवहार एव,भावस्य यथावस्थितपरिक्षानलक्षणस्याभावात्। वा-प्रतीच्छकः, अथवा-मदीयं मात्रादिकुलमेतत् मदीया वा द्रव्यशब्दोऽत्राप्रधानवाची , अप्रधानव्यवहारिणस्ते इत्यर्थः। एते श्रावका इत्यपेक्षया उपश्रा । शेष तथैव । अनिश्रितव्यव'गीया वा लंचपक्खेहिं ' इति । यदि वा-गीतार्था अपि
हारकारिण इति । किमुक्तं भवति--लञ्चोपचानिरपेक्षव्यवसम्तो ये परलञ्चामुपजीव्य व्यवहारं परिच्छिन्दन्ति, तेऽपि |
हारकारिणः न रागेण व्यवहारकारिणः । किमुक्तं भवतिद्रव्यव्यवहारिणः । अथवा-वित्तादिलश्चया गीतार्था अपि
पक्षपातनिरपेक्षव्यवहारपरिच्छेसार इति । ये ममायं भ्राता ममायं निजक इति पक्षण-पक्षपातेन
श्रथ प्रियधर्मदृढधर्मसंविग्नसूत्रार्थतदुभयविद्ग्रहणे किं फव्यवहारकारिणस्तेऽपि द्रव्यव्यवहारिणः,माध्यस्थ्यस्वरूपस्य
लमित्यत श्राह। भावस्यासंभवात्।
पियधम्मेदढधम्मे य, पच्चो होइ गीयसंविग्गो। सम्प्रति नोआगमतो लोकोतरिकान् भावव्यव
रागो उ होइ निस्सा, उपस्सितो दोससंजुत्तो॥ १५ ॥ हारिणः प्राह
प्रियधर्मणि दृढधर्मे, चः समुच्चये, भिन्नक्रमश्च । गीते-गीपियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेव ऽबञ्जभीरू य। । तार्थे सूत्रार्थतदुभयविदि संविग्ने च प्रायश्चित्तं ददति प्रत्ययोसुत्तत्थतदुभयविऊ, ऽणिस्सियववहारकारी य॥ १४॥ विश्वासो भवति । यथाऽयं प्रियधर्मा दृढधर्मः गीतार्थः सं प्रियोधर्मो येषां ते प्रियधर्माणः,धर्मे दृढा दृढधर्माः,राजदन्ता
विग्नश्चेति नान्यथा प्रायश्चित्तव्यवहारकारीति प्रियधर्मादि ऽऽदित्वात् दृढशब्दस्य पूर्वनिपातः। अत्र चतुर्भङ्गिका-प्रियध.
पदानामुपन्यासः । तथा अनिश्रितव्यवहारकारिण इत्यत्र यो र्माणो नामैके नो दृतधर्मा इति प्रथमो भङ्गः । नो प्रियध
निश्राशब्दस्तदर्थमाच-रागस्तु भवति निश्रा,अनुपश्रितव्यर्माणो रढधा इति द्वितीयः । अपरे प्रियधर्माणो
वहारकारिण इत्यत्रोपश्रितशब्दस्य व्याख्यानमाह-उप
श्रितो द्वेषसंयुक्तः, उपश्रा-द्वेष इत्यनीन्तरमिति भावः । बढधर्माश्चेति तृतीयः । अन्ये नो प्रियधर्माणो नो दृढधर्मा
द्वितीयं व्याख्यानं निधो-पश्राशब्दयोर्दर्शयतिइति चतुर्थः । अत्र तृतीयो भङ्गोऽधिकृतो न शेषा इति प्रतिपस्यथै विशेषणान्तरमाह-संविग्नाः-संविग्ना नाम-उत्त्र
अहवा आहारादी, दाहिइ मज्झं तु एस निस्सायो । स्तास्ते च द्विधा-द्रव्यतो. भावतश्च । द्रव्यतः संविग्ना मृगा.
सीसो पडिच्छोवा, होइ उवस्सा कुलादी वा ॥१६॥ स्तेषां यतस्ततो वा विभ्यतां प्रायः सदैवोत्त्रस्तमानसत्वात् ।
अथवेति-व्याख्यानान्तरोपदर्शने, एषोऽनुवर्तितः सन् मभावसंविग्ना ये संसारादुत्त्रस्तमानसतया सदैव पूर्वरात्रा- हामाहारादिकं दास्यतीत्येषा अपेक्षा लञ्चोपजीवनस्वभावा, दिप्येतच्चिन्तयन्ति-"कि में कडं किं च ममऽथि सेस, किं निथा, तथा-एष मे शिष्य एष मे प्रतीच्छक इदं मे मातृकुलसक्कणिजं न समायरामि" इत्यादि, अत्र भावसंविग्नेरधिका- म् , इदं मे पितृकुलम् श्रादिशब्दाद्-इमे मम सहदेशनियारः । भावसंविग्नप्रतिपस्यर्थमेव विशेषणान्तरमाह- ऽवज- सिनः भक्ता वा इमे सदैव ममेत्यपेक्षाभ्युपगमस्वरूपा भवत्यु भीरू' अवयं-पापं तस्य भीरवः। ये च अवद्यभीरवस्ते भाव- पथा, अस्यां हि व्यवहारिणो भवन्ति । 'गीया या लंचपसंविना एवेति भवन्ति । अवयभीरुग्रहणेन भाषसंविग्नप्रतिप-। खेहि " इति वचनात्तत एवायं प्रतिषेधः । उफ्ना व्यवहा
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यहारि
रिणः । व्य० १ उ० | जीत | ( श्रष्टौ व्यवहारिणः श्रष्टावव्यवहारिणश्ध 'ववहार' शब्दे पृष्ठेऽनुपदमेव दर्शिताः ) वदेशी मते दे० ना० ७ वर्ग ४१ गाथा । वहियवहित न० शून्ये विशे० यत्र प्रकृतं मुक्या
प्रकृतं व्यासतो ऽभिधाय पुनः प्रकृतमुच्यते तादृशे सूत्रदोषे. विशे० । अनु० । व्यवहितं नाम श्रन्तर्हितम्, यत्र प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं विस्तरतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमधिक्रियते । यथाहेतुकथामधिकृत्य सुप्तिङन्तपदलक्षणप्रपञ्चमर्थशास्त्र वाऽभिधाय पुनर्हेतुवचनम् । श्र० म० १ ० । वहियकपणा व्यवहितकल्पना खौ साकाङ्गायां वयहितानां पदानां साध्यकल्पना व्याख्यानाचा
१ श्रु० १ ० ५ उ० । ववीलय- अपीडक पुं० । श्रपवीडयति-लजां मोचयतीति अपीडकः । आलोचकं लज्जया उतीमारान गोपायन्तं यो वि चित्रमधुरादिवचनप्रयोगैस्तथा कथञ्चनापि वलि, पचास ल जामपहाय सम्यगालोचयति तादृशे श्रालोचना, व्य०१७०। वस - वश - त्रि० । पारतन्त्र्ये, शा०१ श्रु०८० । अस्वायत्ततायाम्, सूत्र० १ ० ४ श्र० १ उ० ज्ञा० औ० स०| प्रश्न। बले, शा० । १ श्रु० १७ अ० । सामर्थ्ये, पो० १५ विव० । भ० ॥ श्र० । वस - पुं० वसतीति वसः अच् प्रत्यये रूपम् । वासिनि, जै०गा० । वृष - पुं० | वृषभ, कर्म० १ कर्म० ।
1
वसंत - वसन्त-पुं० | लोकोत्तररीत्या नवमे मासे, सू० प्र० १० पाहु० | कल्प० । स्था० ऋतुभेदे, स च चैत्रफाल्गुनी । ० ० ० इति जनमतम् ) चैत्र वैशाखाविति लोके, चं० प्र० १२ पाहु० सू० प्र० । प्रश्न० । भ० । अनु० । वसन्तऋतौ, "सुरही महू वसंतो। " पाइ० ना० १२६ गाथा । वसंतउर - वसन्तपुर - न० । मगधजनपदे स्वनामख्याते नगरे, यत्र समाधिको नाम कुटुम्बी प्रतिवसति । सूत्र० २ श्रु० ६ ० । आव० । विशे० । श्रा० म० । दर्श० । श्रा० क० | ज्यो०। श्रा० चू० । वसंतवि वसन्तनृप पुं० । विडम्बग्रापचैत्रमासपरिहासराजे पो० १२ विव० ।
-
( १३७ ) अभिधानराजेन्द्रः । वसण पीडितो वा वशे या विषयपारतयतः प्राप्त शान्तेः । वशासनया ने श्री० । बसट्टमरण - बशार्थमरण - न० विषयपात्तख्यतया दुःखरणे, भ० २ ० १ उ० । स्था० । शा० । स० । उत्त० | प्रब० । नि० चू०|(पापा'मरण' शब्देऽस्मिन्नेव मागे १०६ पृठे गता ।) वसण - वसन - न० | वर्तने श्रा० म० १ ० । श्रावासे, जं० २ वृक्ष० । चीनकादी वस्त्रे, पं० भा० ५ कल्प । वस्त्रे, "चैलं वासं वसणं च, सुश्रं अम्बरं वत्थं" । पाइ० ना० ६६ गाथा । परिधाने, शा० १ ० १६ श्र० । प्रज्ञा० । नि० चू० । वृषण - पुं० । अण्डे, औ० । विपा० । पोत्रके, उपा० २ श्र० । व्यसन - न० । श्रायति, [ श्राव० ४ श्र० । ] दुःखे, द्यूतादिषु, दर्श० ४ तत्त्व |
1
,
वसंतमास - वसन्तमास पुं० फाल्गुनमासे, चं० प्र० १० पा०| वसंतय- वसन्तक पुं० उधिन्यां प्रयोतनुपतेतिवाहके, श्र० क० ४ श्र० । श्रम्बष्ठे, " एष प्रयाति सार्थः काञ्चनमाला बसन्तकीय भद्रवती घोषयति वासवदत्ता उदयनश्च । १।” श्रा०चू०४श्र० । श्राव०। ('सेणिय' शब्दे कथा वक्ष्यते) वसंतसिरी- वसन्तश्री स्त्री० विराटदेशे धराधरनगरे व सन्तसेनगृहपतेर्भार्य्यायाम्, दर्श०२ तत्व । ( रागे तदुदाहरणं दर्शनशुद्धिग्रन्थादावुक्तम् । )
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बस वशात्र० शेन्द्रियपारतयेश ऋताः पीडि ताः वशार्त्ताः । वशं वा- विषय पारतन्त्र्यमृताः - प्राप्ताः वशार्त्ताः । शा० १ ० १७ अ० । कर्मायत्तेषु सूत्र० १ श्रु० ३
अ० १ उ० ।
समय-वर्णमृतक पुं० शेन्द्रपारयेः
२३५
,
"
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अथ व्यसनसप्तकमाह
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इत्थी जब मजे मिगाव तहा पणफरुया । दंडफरुसत्तमत्थस्स, दूसरां सत्त वसणाई ।। १३४ ।। यद्राजा अन्तःपुरस्त्रीषु नित्यमासनस्तिष्ठति तत् श्रीव्यसनम् यद् तं विनोदेनानवरतं दीव्यति तत् पूतसमम् यत्पुनर्मद्यपानकेन नित्यं मूर्द्धित इवास्ते तन्म व्यसनम् प मृगया आखेटकस्तत्रानेकेषां मृगादिजन्तु नां वधं करोति तन्मृगयाव्यसनम् एतेषु व्यासक्तो राज्यकार्याणि न शीलयति । तथा यत् खरपरुषयचनैः सर्वान जनान्निर्विशेषमाक्रोशति तद्वचनपरुपताम्पसनम् अत्र पचदोषेण दुरधिगमनीयो भवति । यत्पुनरनपराधे स्वल्पे वाऽपराधे प्रत्युदण्डं निर्वर्त्तयति तदण्डपारुष्यम्पसनम् प्रथ व पौरजानपदानामत्युग्रदण्डभयेन नश्यतां क्रमेण च प्रजायाः अभावे की राज्यमिति । अर्थोत्पत्तिहेतवो येषामाद्युपायचतुष्टयप्रतयः प्रकारास्तेषां यद्दूपतं तदधपस्यसनम् अत्र चार्थोत्पत्तिहेतून दूषयते न तथाविधोऽर्थ उत्पद्यते, अर्थात्स्वभावे चाचिरादेव कोशः परिहीयते परिधीनकोशस्य विनष्टमेव राज्यम् । एतानि सप्त व्यसनानि । बृ० १ उ० । शा० । ध० र० । दुःखे, पाइ० ना० १७० गाथा । राजाद्युपप्रवे शा० १ ० २ श्र० । ' वसणं पुरा वाइतगीतादि वसणं णाम तम्म वसतीति वसणं । तस्स वा वसे वट्टतीति वसं । नि० चू० १ उ० । व्यसनेन सामायिकलाभो भवति ।
आ० म० ॥ श्र० क० ।
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व्यसने द्वौ भ्रातराबुदाहरणम्—
" कुतोऽपि शकटेन द्वौ भ्रातरौ गच्छतः पथि । चक्रे मण्डलिनीं रथ्या स्थितां दृष्ट्वाऽवदन्महान् ॥ १ ॥ एकटं टालवेतस्वं पापो नाटालयलघुः ।
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ऊचे चास्यां विपन्नायां भ्रातः ? किं भावि सूतकम् ॥ २ ॥ श्रुत्वा सा संबिनी तत्र चक्राि मृता तदा । कुरुदेशे श्रीनिवेशे हस्तिनागपुरे परे ॥ ३ ॥ कुले कापि बभूव स्त्री तो धन पायत। बृहच्छाकटिकस्यात्मा, पूर्व तस्याः सुतोऽभवत् ॥ ४ ॥ जीवितादण्यभीष्टं तं परां पुष्टि निनाय सा । द्वितीयोऽप्युटरे तस्याः समुत्पन्नः स्वकर्मणा ॥ ५ ॥ निषिष्ट इव पाषाणो, नाभीष्टो गर्भगोऽपि सः ।
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(६३८) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि प्राज्यैः पातनभैषज्यैः , स कृतैरपि नाऽपतत् ॥६॥
गच्छत्रयावासभूते क्षेत्रे, नि० चू०१७ उ० । (तत्र वृषभक्षेत्र जातश्च वैरिवद् दृष्टा, दास्याश्चर्दितुमर्पितः ।
द्विविधमिति, 'खेत्त' शब्दे तृतीयभागे ७६२ पृष्ठे गतम् । ) स रष्ट्राऽऽनीय पित्रा तु , दास्याः कस्याश्चिदर्पितः ॥७॥
वसभग्गाम-वृषभग्राम-पुं० । तादृशे वृषभावासे,समयपरिभाअविज्ञातं जनन्या तं, जनकोऽवर्द्धयत्सुतम् । महीयान् राजललितो, गङ्गादत्तस्तु कन्यसः ॥८॥
षिते ग्रामे, वर्षासु एकविंशतिजेना उपलक्षणत्वाहतुबद्धे पसुखादिकादिकं ज्यायान् , यत्किचिल्लभते ततः।
श्चदश जना यत्र जघन्येन संस्तरन्ति स वृषभग्राम उच्यते ।
उत्कर्षतस्तु द्वयोरपि कालयोात्रिंशत्सहस्रसंख्याको गच्छो विश्राणयति तस्यापि , भाग भ्रातुः कनीयसः ॥ ६॥ तं विज्ञाय कुतोऽप्यम्बा , दृष्टा हन्ति यथा तथा।
यत्र संस्तरति । बृ०३ उ० । (गाथा 'उग्गह' शब्दे द्वितीय
भागे ७१३ पृष्ठे गता।) अन्यदेन्द्रमहे जाते, भुखाने स्वजने जने ॥१०॥ पित्रानीय निवेश्याऽध-स्तुल्यं यावत्स भोज्यते ।
वसभ(ह)वाहण-वृषभवाहन-पुं०। गोवाहने ईशानेन्द्रे, जं. सा तावत्प्रेक्ष्य वृत्ताऽथ, केशेष्वाकर्षति स्म तम् ॥ ११ ॥
२ वक्षः। चपेटाचैस्ताडयित्वा-क्षिपग्छन्दनिकान्तरे ।
वसभ(ह)वीहि-वृषभवीथि-स्त्री० । ज्योतिषप्रसिद्ध शुक्रादिनीत्वाऽन्यत्रारुदत्सोऽथ , स्नानं तातेन कारितः ॥१२॥ महाग्रहाणां सञ्चरणयोग्ये आकाशमार्ग, स्था०६ ठा०३ उ० । तदा च तत्र भिक्षार्थ-मेकः साधुः समाययौ ।
वसभा(हा)णुगत्त-वृषभानुगत्व-न० । वृषभस्य स्वस्थानानुभेष्ठी पप्रच्छ तं मातुः, पुत्रोऽनिष्टः प्रभो ? भवेत् ॥ १३ ॥ गतकल्पे, सत्त्वे, नि० चू०२ उ०। मुनिरुवाच
वसभाणुजाय-वृषभानुजात-पुं० । अनुजातशब्दः सदृशषयंदा वर्द्धते कोपः , स्नेहश्च परिहीयते ।
चनो वृषभस्यानुजातः-सदृशो वृषभानुजातः । वृषभाकारेण स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्ववैरिकः ॥ १४॥
चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् योगे एव तिष्ठन्ति, तारशे योगे, यंरष्वा वर्द्धते स्नेहः , क्रोधश्च परिहीयते ।
सू० प्र०१२ पाहु०। स विशेयो मनुष्येण , एष मे पूर्यबान्धवः ॥ १५ ॥ ततः श्रेष्ठी तमाहवं, दीक्षस्वा, सुतं मम ।
वसभी-वृषभी-स्त्री० । अभिषेकायाम् , नि० चू०१५ उ० । मीतस्तेन गुरुपान्तं , गुरुभिः सोऽथ दीक्षितः ॥१६॥
वसभुद्ध-देशी। काके, दे० ना० ७ वर्ग ४६ गाथा। समागत्य ततः सद्यः , पाखें तस्यैव सद्गुरोः।
वसमाण-वसत-त्रि० । मासकल्पविहारिणि , आचा० २ ज्यायानपि प्रववाज , भ्रातृस्नेहानुरागतः॥१७॥
श्रु०१चू०१ १०४ उ० । नि००। बसमाणो उडुबद्धिप जातौ साधू ततस्तौ द्वौ , तपोनिष्ठौ क्रियापरौ।
अट्टमासे वासावासं व णवमए य णवविहविहारेतो वसमाकशयन्तौ भवं स्वं च , व्यदुषातामनिश्रया ॥१८॥ णो भष्पति । नि० चू०२३० । वास्तव्ये, प्राचा०२ श्रु० १ इतस्तपःप्रभावेन , भूयांसं भाविजन्मनि ।
चू०१०११ उ०। जगदानन्दन इति , निदानं विदधे लघुः ॥ १६ ॥ वसल-देशी । दीघे, दे० ना०७ वर्ग ३३ गाथा। गत्वाऽथ त्रिदिवं पश्चा-निदानी वसुदेवसूः ।
वसवत्ति-वशवर्तिन-त्रि०। प्रात्मवशं वर्तितुं शीलमस्येति नवमो वासुदेवोऽभू-द्वलदेवोऽपरः पुनः ॥ २०॥"
वशवर्ती । वशेन्द्रिये, सूत्र०१ श्रु०११०३ उ०। प्रा० क०१०। प्राव० श्रा०म०।
वसह-वृषभ-पुं० । वृषभे, “उक्खा बसहा य बच्छाणा" वसणपच-व्यसनप्राप्त-त्रि० । इन्द्रियपरायत्तताक्रोडीकृत
पाइ० ना० १५१ गाथा। खेनोन्मादं वा प्राप्ते, दर्श० ३ तत्त्व । शनु०।
वसहि-वसति-स्त्री०1"वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुबसणभूय-व्यसनभूत-त्रि० । आपद्भूते, भ० ३ श०७ उ०।।
लिने हः" ॥८।१।२१४॥ इति तस्य हः। प्रा० । प्रश्न । वसणविणास-वृषणविनाश-पुं० । वद्धितकरणे, स०।।
निवासे, अनु० । स्थाने, स्था०१ ठा० आषासस्थाने, शा०१ वसबसेल-व्यसनशैल-पुं० । कष्टपर्वते, अष्ट० २२ अष्ट। थु०१५१०। निलये,प्रामे, जीता उपाश्रये, वृ०२उ० (तत्रोवसथि (य)-व्यसनिन्-त्रि० । सप्तानां व्यसनानाम- पाश्रयनिक्षेपः 'उवस्सय' शब्दे द्वितीयभागे १०४७पृष्ठे उक्तः।) न्यतरेण व्यसनेन युक्ते, ०१ उ०२ प्रक०।
(१) इह यथा याहगुपाश्रय आश्रयणीयस्तथोच्यतेबसधि-वसति-सी० । घसन्ति साधवोऽस्यामिति वसतिः।।
सर्वोऽपि शय्याविषयः , इत्युद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनाय अपाश्रये, पृ०२ उ०। आचा।।
नियुक्तिकृदाहक्सम (ह)-वृषम-पुं० । वृषम्-पुण्यं तेन भातीति, वृषभः ।
सव्वे विय सिजविसो-हिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो। संथागीतार्थे, पृ०३ उ० । आव० । कल्पनागृहीतवसति
उद्देसे उद्देसे, वुच्छामि समासो किंचि ॥ ३०२॥ निवासिनि यतिजने, ध०३ अधि० । उपाध्यायो वृषभानुग
सर्वेऽपि-त्रयोऽप्युदेशका यद्यपि शय्याविशुद्धिकारकास्तथात्यच्यते।.०१.२प्रका महायथाऽपि प्रत्येकमस्ति विशेषस्तमहं लेशतो वक्ष्य इति। चिपे, व्य० ३३० । गवि, जं०२ वक्षः।
एतदेवाहबसमकरण-वृषभकरण-न। वृषभमुद्दिश्य यत्र किश्चित् क्रि- उग्गमदोसा पढमि-ल्लुयम्मि संसत्तपचवाया १य। बते वारशे स्थाने, प्राचा०२५०२ चू० ३१०।
बीयम्मि सोप्रवाई, बहुविहसिजाविवेगो २ य॥३०३॥ बसमस्खेत्त-वृषभवेत्र-न० वर्षासु साऽचार्यगणावच्छेवक
तत्र प्रथमोदेशके वसतेरुद्दमदोषा प्राधाकर्मादयस्तथा
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( २३६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सह
गृहस्थादिसंसक्तप्रत्यपायाश्च चिन्त्यन्ते, तथा द्वितीयोदेशके शौचवादिदोषा बहुप्रकाराः शय्याविवेकश्च - त्यागश्च प्रतिपाद्यत इत्ययमर्थाधिकारः ।
तइए जयंतबला, सज्झायस्तऽणुवरोहि जइयच्वं । समविसमाईए य, समणेयं निजरट्ठाए ३ ।। ३०४ ॥ तृतीयोदेशके यतमानस्योद्गमादिदोषपरिहारिणः साधोर्या छलना स्यात् तत्परिहारे यतितव्यम् । तथा स्वाध्यायानुपरोधिनी समविषमादौ प्रतिश्रये साधुना निर्जरार्थिना स्था तव्यमित्ययमर्थाधिकारः । श्राचा० २ ० १ चू०२०१ उ० ।
(२) सारडं सपरिकर्माणमुपाश्रयं न मार्गयेत् । से भिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकंखिजा उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गामं वा • जाव रायहाणि वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज, सअंडं ० जाव ससंताणयं तहप्पगारे उस्सए नो ठाणं वा सिजं वा निसीहियं बाजा ।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिजा अप्पंडं० जाव अप्पसंताणयं तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमजिता तो संजयामेव ठाणं बा० ३ चेहजा । ( सू० ६४ X )
स भिक्षुः उपाश्रयम् - वसतिमेषितुं यद्यभिकाङ्क्षततो प्रा. मादिकमनुप्रविशेत्, तत्र च प्रविश्य साधुयोग्यं प्रतिश्रयमन्वेषयेत्, तत्र च यदि साण्डादिकमुपाश्रयं जानीयात्ततस्तत्र स्थानादिकं न विदध्यादिति दर्शयति-सुगमम्, न. वरम्, स्थानं - कायोत्सर्गः शय्या-संस्तारकः निषेधिकास्वध्यायभूमिः ' णो चेइज्ज' ति नो चेतयेत्-नो कुर्यादित्यर्थः । एतद्विपरीते तु प्रत्युपेक्ष्य स्थानादीनि कुर्यादिति । (३) सम्प्रति प्रतिश्रयगतानुगमादिदोषान् विभणिपुराह
.से जं पुण उवस्सयं जाजा असि पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई ० ४ समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं अछि अणिसङ्कं अभिहडं आहद्दु चेएइ, तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा अपुरिसंतरकडे वा० जाव अयासेविते वा णो ठाणं वा चेइजा एवं बहवे साहम्मिया एगं साहिम्मि बहवे साहम्मिणी ।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जागेजा बहवे समणमा
अतिहिकिविणवणीमए पगणिय २ समुद्दिस्स तं चैव भाणियन्त्रं ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुरा उवस्सयं जाणेज्जा बहवे समणमाह अतिहिकिरणवणीमए पगणिय २ अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइ ४ ०जाव चेते, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे ३ ० जाव णासेविए यो ठाणं वा०३ चेइज्जा०, ३
पुणे जाणेजा पुरिसंतरकडे ० जाव सेविए पडिलेहित्ता पमजित्ता तो संजयामेव चैतेजा । ( सू० ६४ X )
सः- भावभिक्षुर्यत् पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् तयथा-' श्रसि पडियार' प्ति एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधून प्रतिज्ञायोद्दिश्य प्राण्युपमर्देन साधुप्रतिश्रयं कचिच्छ्राद्धः
सहि कुर्यादिति । एतदेव दर्शयति- एकं साधमिकं साधुमईत्प्रगीतधर्मानुष्ठायिनं सम्यगुद्दिश्य - प्रतिज्ञाय प्राणिनः समारभ्य प्रतिश्रयार्थमुपमद्यं प्रतिश्रयं कुर्यात्, तथा - तमेव सा· धुं सम्यगुद्दिश्य क्रीतं मूल्येनावाप्तम्, तथा - 'पामि ति अन्यस्मादुच्छिनं गृहीतम् 'आच्छेज' ति श्रच्छेद्यमिति भृत्यादेर्यादा गृहीतम् । श्रनिसृष्टं स्वामिनाऽनुत्सङ्कलितम् । श्रभ्याहृतम् - निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम् । एवं भूतं प्रतिश्रयम् । श्राहृत्य - उपेत्य 'चेरह' सि साधवे ददाति तथा प्रकारे चोपाश्रये पुरुषान्तरकृतादौ स्थानादि न विदध्यादिति । एवं बहुवचनसुत्रमपि नेयम् । तथा साध्वीसूत्रमप्येकवचनबहुवचनाभ्यां नेयमिति । श्राचा० २ ० १ चू० २ अ० १ उ० ।
(४) श्रदेशिक शय्यां न गृह्णीयात्जे भिक्खु उद्दिसियं सेज्जं श्रणुपविसति अणुपविसंत वा साइअइ ।। ६३ ॥
उद्दिश्य कृता श्रद्देसिका उबागच्छति प्रविसति तस्स मासलहुँ ।
गाहा—
हे विभागेण य, दुविहा उद्देसिया भवे सिज्जा । हेव तियाणं, वारसभेदे विभागम्मि ॥ ११८ ॥ श्रोही- संखेवो श्रविसेसियं समणाणं वा माहणारां वा व रिद्दिसति एवं वा अविसेंसेति, पञ्चरहं वा जणारा अत्ताएकता, पविट्ठा जा भवन्ति ताहे जो श्ररोगेण णातितो पविसति तस्स कप्पति । एसा हु उद्देसिया । वारसभेया विभागे भवन्ति
जामातियमंडव, रसवति रसाल श्रावणगिहादी । परिभोगमपरिभोगे, चउरहऽट्ठा कोई संकप्पे ।। ११६ ॥ जामातियणिमितं कायमाणं मंडवो कतो श्रासी, भत्ते वारसवती कता आसी, रहट्ठाय वा साला कता आसी, वहरणट्ठा वा श्रवणो कतो आसी, अप्पणो वा गिद्धं कर्त सी, अप्पा परिभूतं अपरिभूतं वा अप्पो विश्वमोजि भूयं ण भुजति ।
इमेसि चउरई । गाहाउद्देसमा समुद्दे - सगा य आदेस तह समादेसा । एमेव कामचउरो, कम्मम्मि वि हाँति चत्तारि ॥१२०॥ एयस्स इमं वक्खाणं । गाद्दाजावंतियमुद्देसा, पासंडाणं भवे समुदेसा । समणाय नु आदेसा, निग्गंथाणं समादेसा ॥ १२१ ॥ श्रीचंडाला जावंतियं उद्देसं भष्ठति, सामरणं पासंडीय समुद्देसं भक्षिति, समणा णिग्गंथसकतावसगेरुय आजीवा एतेसिं उद्दिट्ठे श्रादेसं भवति । खिग्गंथा- साहू, तेलि उदि समा देवं भवति । कडेति एते चेव चतुरो भंगा ।
इमं विसेसलक्खणं । गाइासडितपडिताय करणं, कुडकडादीण संजतऽढाए । एमादि कर्ड कम्मं, तुब्भं जं पुणो कुखति ॥ १२२ ॥ कुडकडातीं सडियं संजयट्ठा करोति, कुडकडातीं प डियं संजयट्ठा करेति, कुडकडाती खंड पडियं संजयट्ठा करेति आदिग्गद्दयेणं
ण
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( ६४० )
(भधान राजेन्द्रः ।
बसाइ
शादियाण पवमादी कर्ड भक्षति । कस्स पुञ्वकयं भंजिता तेणेव दारुणा चोक्खतरं श्ररणं करेति तं कम्मं भरणति ।
गाहा
उद्देसियम लहुगो, पत्तेयं होति चउसु ठाणेसुं । एमेव कमे गुरुश्र, कम्मादि गलहुगतिसु गुरुगा।। १२३ ।। उसे मासल । विभागुद्देसे चउसु वि भंगेसु मासलहुँ । तवकालविसिटुकडे चउसु वि भेदेसु मासगुरुं तवकालविसेसियं । कम्मे जायंतियभेदे चउलहुयं । सेसेसु तिसु चउगुरुं ।
गाहा
सुत्तणिवातो आहे, श्रदिविभागे य चउसु वि पदेसुं । एते सामपतरा, पविसंताणादिणो दोसा ।। १२४ ॥ असिवे श्रोमोरिए, रायपदुट्ठे भए व गेलो । अद्धारोहण वा, जयणाए कप्पती वसितुं ॥ १२५ ॥ जयणा जाहे पगहाणीए मासलहुं पत्ता । नि० चू० ५ ३० । (५) संयतार्थमसंयतः प्रतिश्रयं कुर्यात्
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से जं पुण असंजए भिक्खुपडिपाए कंडइए वा उक्कंषिए वा छष्मे वा लित्ते वा घट्टे वा मट्ठे वा सम्मट्ठे वा संपधूमिते वा तहप्पगारे उवस्सए
पुरिसंतरकडे ० जाव णासेविए यो ठाणं वा सेजं वा खिसीहिं वा चेतेजा, अह पुरा एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडे० जाव आसेविए पडिलेहित्ता पमजित्ता तो संजयामेव० जाव चेतेजा । ( सू० ६४ + )
' से भिक्खू वे' त्यादि (सूत्रद्वयं) पिण्डैषणानुसारेण नेयं सुगमं च । तथा-'से' इत्यादि स- भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा - भिक्षुप्रतिज्ञया श्रसंयतो- गृहस्थः प्रतिश्रयं कुर्यात् स चैवंभूतः स्यात्तद्यथा - कण्टकितःकाष्ठादिभिः कुडयादौ संस्कृतः, 'उक्कंविए ' सि वंशादिकम्याभिरवबद्धः, 'छने व' त्ति दर्भादिभिश्छादितः, लिप्तो-गोमयादिना, घृष्टः- सुधादिखरपिण्डेन, मृष्टः स एव लेपर कादिना समीकृतः, संसृष्टः- भूमिकम्र्म्मादिना संस्कृतः, संप्रधूपितः-दुर्गन्धापनयनार्थ धूपादिना धूपितः । तदेवंभूते प्रतिश्रये अपुरुपान्तरस्वीकृते यावदनासेविते स्थानादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरकृता सेवितादौ प्रत्युपेक्ष्य स्थानादि कुर्यादिति । (६) प्रतिकर्म -
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सपरिकम्म से जं अणुपविसति अणुपविसंतं वा साइजइ ॥ ६५ ॥
सह परिकम्मेण सपरिकम्मा मूलगुलउत्तरगुणपरिकर्म्म यस्यास्तीत्यर्थः, तस्स मासलहुं आणाइया य दोसा । नि० धू० ५ उ० । अथ कतिविधं मूलकरणमुत्तरकरण वा शोधनीयमत आहसत्तेव य मूलगुणे, सोही सत्तेव उत्तरगुणेसुं । संसतम्मिय छ, लहु गुरु लहुगा चरिम जाव॥१८८॥ सप्तैव-सप्तप्रकारैव शोधिर्मूलगुणेषु । गाथायामेकवचनमार्षत्वात्, सप्तैच - सप्तप्रकारैवोत्तरगुणेषु शोधिः । किमुक्तं भवति - मूलकरणं सप्तभेदं शोधनीयं वसतेः साधुभिः
For Private
वसाह
उत्तरकरणमपि सप्तविधमिति । तथा संसक्ने - उपाश्रये पहूंपृथिव्यप्तेजोवनस्पतित्रसकाय सागारिकलक्षणं शोधनीयम् । किमुक्तं भवति - यथोक्तरूपेण ट्रेन संसक्तायामपि न स्थातव्यम्, यदि तिष्ठति ततो लघु गुरु लघुका यावच्चरम पाराञ्चितं तावत्प्रायश्चित्तम् । तद्यथा - पृथिव्यादिभिः कायैः संसक्तायां तिष्ठति चत्वारो लघुकाः, हरितैरनन्तैश्चत्वारो गुरुकाः, प्रत्येकवीजैः पञ्च रात्रिन्दिवानि लघुकानि, अनन्तबीजैस्तान्येव गुरुकाणि, मिश्रैरनन्तैर्मासगुरु, बीजैः प्रत्येकैरनन्तैश्च मित्रैः सचितैरिव त्रसैः संसक्लायां चतुर्गुरु। एवं तिष्ठतः प्रायश्चित्तम्, अथ तिष्ठन् पृथिवीकायादिसंघट्टनादि करोति तदा लघुकगुरुकादि प्रायश्चितम् ।' छक्कायचउसु लहुगा' इत्यादिगाथया प्रागुक्तप्रकारेसाभिहितं तावदवसेयं यावच्चरमं पाराञ्चितमिति । सप्तविधं मूलकरणं शोधनीयमित्युक्तमतः सप्त मूलभेदानाहपट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो ।
मूलगुणेहि उवहया, जा सा ग्राहाकडा वसही ॥५६॥ उपरितनस्तिर्यक्तया पृष्ठवंशः मूलधारणौ ययोरुपरिपृष्ठवंशस्तिर्यग्निपात्यते चतस्रश्च मूलवेलयः । उभयोः धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसंभवात् । पते वसतेः सप्त मूलभेदाः । एतैर्मूलगुणैः सप्तभिरुपहता या वसतिः सा आधाकृता भवति, साधूनाधाय - संप्रधार्य कृता श्रधाकृता, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः । उत्तरकरणं पुनरिदं सप्तविधम् ।
बंसगकडणोक्कडणं, छावणलेवणदुवारभूमी य । सप्परिकम्मा वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसुं ॥ ५६० ॥ वंशका ये वेलीनामुपरि स्थाप्यन्ते, पृष्ठवंशस्योपरितिर्यक्, कटनम् - कटादिभिः समन्ततः पाश्र्वनामाच्छादनम्, उत्कएटनम् उपरि कण्टिकानां बन्धनम्, छादनं - दर्भादिभिराच्छादनम्, लेपनं- कुड्यानां कर्दमेन गोमयेन च लेपप्रदानम् । 'दुवारि'त्ति संयतनिमित्तमन्यतो वसतेदूरीकरणम्, 'भूमि' त्ति समभूमिकरणम् । एतत्सप्तविधमुत्तरकरणम् । एषा सपरिकर्मा वसतिर्मूलगुरुत्तरगुणैश्च । एषा नियमेनाविशौधिकोटिः, श्रन्येऽपिचोत्तर गुणा वसतेर्विद्यन्ते । कृता विशोधिकोटिः ।
के तेऽन्ये उत्तरगुणा इत्यत श्राह - दुमिय- धूमिय-वासिय, उज्जोविय चलिकडा - श्रवमा-य । सित्ता मट्ठा विय, विसोहिकोडीकया वसही || ५६१ || दूमिया - नाम सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुड्या सेटिकया धवलीकृतकुड्या वा, धूपित - श्रगु (ग) रुप्रभृतिभिः, वासिता पटवासकुसुमादिभिः, उद्योतिता अन्धकारेऽनिकायेन कृतोद्योता, बलिकृता-यत्र संयतनिमित्तं बलिविधानं कृतम् । श्रवन्ना नाम-यत्र भूमिरुपलिप्ता सिक्का - आवर्षणकरणतः, स म्मृष्टा - सम्मार्जन्या संयतनिमित्तम् । एवमुत्तरगुणैः कृता वसतिर्विशोधिकोटिर्भवति ।
अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाह -
फासुण देसे, सव्वे वा दूमियादि चउलहुगा । फासुयधूमजोती, देसम्म वि उलहू होंति || ५६२ ॥
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बसहि
(६४१) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि सेसेसु फासुएणं, देसे लहुसव्वहिं भवे लहुगा। संथारा तज्जाया उवट्टगा करेंति, अतजाया कविया करें। संमजणसाहॉकुसा-दि छिन्नमत्तं तु सच्चित्तं ॥५६३।।
ति, 'थिग्गल' त्ति गिम्हे वातागमट्ठा गवक्खादिछिड़े करेंति, यत्र देशतः सर्वतो वा अप्रासुकेन दूमितादि आदिश
वासासु वा सिसिरेसु वा णिवातट्टा तेसिं चेव पडिपुच्छणा ।
गाहाब्दात्समस्तान्यपि पदानि गृहीतानि, तत्र तिष्ठतः प्रत्येक प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । यत्र पुनरगुरुप्रभृतिभिर्धू
दगणिग्गमो पुन्वुत्तो, पुव्वुत्तो संकमो य दगवातो। पनमन्धकारेऽग्निकायेन उद्योतनं तत्र नियमादप्राशुकस-| तिएह परेणं लहगा, वसिमे मूलं चउगुरू देसे ॥१५७॥ चित्तोऽनिकाय इति देशेऽपि चत्वारो लघुकाः, किमुत स-1 मूसगविलाण पिहणं, करेइ उच्छेत्रों संधिकम्मं पि । र्वतः । शेषेष्वपि तमुयोतितं च मुक्त्वा अन्येषु दूमितवासि
ऍग दुगतिग चउलहुगा,वाराओ जाव वा होंति॥१५८।। तबलीकृतवातासिक्नमृष्टरूपेषु भेदेषु प्राशुकेन देशतः
दगणिग्गमो दगवीणिया सा य वितियउद्देसगे पुव्वुत्ता,संकरणे मासलघु, सर्वतश्चत्वारो लघवः । तथा संमार्जने तत्र सचित्तशाखाकुशादिछिन्नमात्र तत् यदि देशतः सर्व
कमो पयमग्गो सो वि तत्थेव पुषुत्तो,दगवातो सीतघरा सा. तो वा सम्माय॑ते तदा चतुर्लघु।
य उज्झखणी भमति, मूसगातिकयविलाणं पिहणं करेंति ।
परिपेलवत्थाति तेणोधगलण उत्थेवो, कडगस्स य संधी अ. मृलुत्तर चउमङ्गो, पढमे बिइए य गुरुगसविसेसा ।
संखुडा तीए संवुडकरण संधिकम्मं एवं कुड्स्स वि इमं पच्छि तइयम्मि होइ भयणा, अत्तढकडो चरिमसुद्धो ॥६६४॥ तं । एकं थिग्गलं करेंति मासलहुं, दोसु दो मासा, तिसु मूलगुणाः-पृष्ठवंशादयस्तेषु मूलोत्तरगुणेषु चतुर्भनी । गा- तिएिणमासा । तिरह परेण चउलहुगा । पडिपुच्छणे वि एवं थायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , मूलगुणा अपि पृष्ठवंशादयः । सं- चेव । उच्छेवं जति वारा लिंपति साहरति भंडगं वा उड्डयतनिमित्तं मूलोत्तरगुणा अप्यविशोधिकोटिगता वंशका- ति, तति चउलहुगा । अण्णे भणति-मासलहुं दवगाते
यः संयतनिमित्तमिति प्रथमो भङ्गः,अत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो संधिकम्मे य एतेसु चउरो लहुगा । वसिमे मूलं, अवगुरुकाः, द्वाभ्यां गुरवस्तद्यथा-तपसा कालेन च । मूल- सिमे चउगुरुं, देसे ति संठवणलिंपणभूमिकम्मे य अफासुगुणाः संयतार्थम् , उत्तरगुणाः-अविशोधिकोटिगताः स्वार्थ एण देसे सब्वे वा चउलहुं । एतेसु चेव फासुगण देसे मिति द्वितीयः । अत्र चत्वारो गुरुकास्तपोगुरवः काललघु- सब्वे वा चउलहुं, एतेसु चेव फासुएण देसे मासलहूं, काः । तइयम्मि होति भयण' त्ति मूलगुणाः स्वार्थमुत्तर- सब्वे चउलहुं । संथारदुवारे चउलहुं । उदगवाहसंकमेसु मागुणाः संबतार्थमिति तृतीयो भङ्गः । तस्मिन् भजना सा | सलहुं । पच्छा पते मूलुत्तरदोसा केवतिकालं परिहरियव्वा । चेयम्-ये अत्रोत्तरगुणास्ते यद्यविशोधिकोटिगतास्तदा उत्तरमाह। चतुर्गुरवस्तपोलघवः कालगुरवः। अथ विशोधिकोटिगता
गाहास्तत अप्राशुकने देशे सर्वस्मिन् चापरिकर्मणि चत्वारो ल- कामं तदुविपरीतो, केइ पदा होंति आवरणजोग्गा । घवः। प्राशुकेन देशतो मासलघू, सर्वत्र चत्वारो लघुकाः।पा
सव्वाणुवाइ केई, केई तकालुवट्ठाई ॥ १५६ ॥ स्मार्थ मूलगुणा आत्मार्थमेव चोत्तरगुणा इत्येवमात्मार्थकृत
काममवधृतार्थे द्रष्टव्यः, किमवघृतं यथा वक्ष्यति 'उदुषिश्वरमभङ्गः शुद्धः । तदेवं द्विविधकरणोपघातेति द्वारं व्या
वरीय'त्ति । पूर्वार्द्धस्य व्याख्या । ख्यातम् । वृ० १ उ०१ प्रक० । नि० चू० ।
गाहाउपधायकारणा अ य इमेसंठावणलिंपणता, भूमीकम्मे दुवारसंथारे ।।
हेमंतकडा वासा, सिसिरे कप्पंति अत्तपरिमुत्ता। थिग्गलकरणे पडिपु-छणे य दगणिग्गमे चेव ॥१५३॥
तद्दिवसे केइ ण तु, केई तत्कालठाणाइ ॥ १६॥ संकमकरणे य तहा, दगवातविलाणहोतपिहणे य ।।
उत्तगुरणोवघाता हेमंतजोग्गा जे कया ते गिम्हे अजोग्गेति
काउं कप्पंति, गिम्हे जे कता पवातऽट्टा ते सिसिरवासासु श्रउच्छेव संधिकामा, ओवग्धा चउ उवस्स तस्सेते॥१५४॥
जोग्गति काउं कप्पेति । केति दूमितादि गिहिहिं अत्तट्टिया प दारगाहाद्वयं चत्तारि दारगाहाए वक्खाणेति ।
रिभुत्ता तकाल चेव कप्पंति । सव्वाणुवातिके इति सव्वकालं गाहा
अणुजतंति । तद्देसभावेन कदाचित्कल्पंति ते समूलगुणा सडितपडिताण करणं, संठवणालिंपभूमिक्लुलियाणं । इत्यर्थः । 'केई तत्कालट्ठाण' ति अस्य व्याख्या-अत्तट्टिया परिसंकोचणवित्थरणं, पडुच्च कालं तु दारस्स ।। १५५ ॥
भुत्ता तहिवसं केइ गिहीहिं अत्तट्टियपरिभुत्ता तदिवसं चेव अवयवाणं संडणं, एगदेसखंडस्स पडणं । एतेसिं संठवणा
साधूण कप्पति । अहवा-तं कालं तउड बजेउ भन्नकाले उ
वट्ठायंति ण उक्केति ति मूलगुणा गतार्थम् । लिंपभूमिकुलियाणं कुछ भूमिए विसमाए समीकरणं, भूमिपरकम्मे सीतकालं पहुच्च विस्थिराणदुवारा संकुडा क
गाहाजति णिवायऽट्ठा, गिम्हं पहुच्च संकुडा दुवारादिसाला
सुत्तणिवाओ एत्थं,विसोहि कोडीय णिवयई शियमा। वत्थिराशा कज्जति पवायट्ठा ।
एए सामसयरं, परिवसँताणाइणो दोसा ॥ १६१ ॥ गाहा
दुवमितादि पसु सुत्तणिवातो भवे कारणे । तजातमतज्जाता, संथारा थिग्गला तु वातऽट्ठा। .
गाहापडिपुच्छणा तु तेसिं, वासा सिसिरेणिवानद्वा॥१५६ । असिवे प्रोमोयरिए, रायपढे भए व आगाढे।
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( ६४२ ) अभिधानराजेन्द्रः।
बसहि
गेलाउतमट्टे, चरितऽमज्झाइए असती ।। १६२ ।। उत्तमपडिवो साहू अथा व बसदी व लग्भति, जाप सम्मति सा उत्तमदुपडिवरणास पाउन्गा न भवति चरिनदोसो वा अण्णास बसी समस्थ अरया बसी वाहि असिवा तेय गच्छति अ वा मासकप्पपाउ तं णत्थि ।
,
गाहा—
आलंबणे विसुद्धे, सत्तदुगं परिहरिज्ज जतणाए । श्रसज्जतु परिभोगं, जतणा पडिसेवणं कमेणं ॥ १६३॥ आलं कारणं विशुद्धे स्पष्टे कारयेत्यर्थः । सत्त दुगं' मूलगुणा पट्टिवंशादि सत्त, उत्तरगुणा चि सगादि ततो व सत्तगा। परिहरणा नाम परिभुजे ज खाए एगगपरिहासीर जहा मासलगायत कार पुस आसाज पडिसेदिय बसहीसु परिभोगं काउकामो श्रप्पबहुयजयणाए पणगपरिहाणीए जाहे चउगुरुं पत्तो ताहे इमं श्रप्पबहुए य ।
गाहा—
एगा मूलगुणेहि तु, अविसुद्धा इरिथसारियो पितिया। तुल्ला दो पुण वसही, कारणे कहि तत्थ वसितव्वं ॥ १६४ ॥ एगा मूलगुणेहिं श्रसुद्धा, अवरा सुद्धा । इत्थिपडिबद्धा । दोसु य चउगुरुं कहिं ठाओ एत्थ भरणति ।
"
गाहा
कम्मपसंगणवस्था, अदोसा व ते व समतीता । कितिकरणभुतभुत्ते, संकातिपरीयगविधा ।। १६५ ।। आहाकम्मिया सज्जपरिभोगे श्राहाकम्मपसङ्गो कतो भवति । परिभुंजति त्ति पुणो करेति एवं पसङ्गः । एगे श्रयरिपण पगा आहाकम्मा सेज्जा परिभुत्ता चि परिशुतिति वा कता भवति । परिय पाणिवहे अणुरुणा कया भवति । एते उक्ता दोषाः । एते साम्प्रतं श्रतिक्रान्ता भवन्ति । इत्तरी गाम- इत्थीपडिबद्धार भुत्तभोगीण कितिकरणं, श्रभुत्तमादीण कोउ पडिगमगादी दोसा गिरा व संकापते पत्थठिया
,
पडिसेवंति । संकिते वा णिस्संकिए मूलं । इत्थि सागारिए एवं अगे दोसा भवन्ति । तम्हा आहाकम्मर ठायंति ।
गाहा—
अथवा गुरुस्स दोसा, कम्मे इनरिऍ होंति सव्वेसिं । जतिणो तो संति लोए य परिवातो ।। १६६ ।। आहाकम्मद सहीए पछि साजतो भणितं कस्सेयं पच्छित्तं गणिणो इत्तरीए इत्थीसोनारियार सब्यसाहूण संति मरणादिया दोसा। लोगे य परिवतो । साहू तवोवणे वसंति । अतिशयवचनम् ।
ण
गाहा
अथवा पुरिसाइया गाताबारे व पुरिस बालासु । पवुड्डासु य नातिसु, गंगं वज्जिज्जए हाकम्मं ॥ १६७ ॥ जा इत्थी सागारीय सा पुरिसाइरणा-पुरिसाय थे ते विपुरिया दाताचारासीतवंतः इथिया वाषि
यसहि
सीलवती उभए पुरिसा ते । अथवा ताओ इत्थियात्र बालाअपसजोन्वणा श्रतीव बुड्डा । श्रथवा तरुणीश्रो वि तेसिं साइर्ण थालवडा | अ माओ परिसो आहाकम्मं जिजवि स इति सागारियं ।
तमेवं गाड़ा
तम्हा सव्वाऽणुमा, सव्वणिसेहो य णत्थि समयम्मि । आयव्ययं तुलेज, लाभाकखि वाणियम ॥१६८॥ तस्मात्कारणादेकस्य वस्तुनः सर्वथा सर्वत्र सर्वकालमनुज्ञेति न भवति, नापि प्रतिषेधः । किं तु आयव्ययं तुलयेत् । यत्र बहुतरगुणप्राप्तिस्तद्भजन्ते वाणिजवत् ।
गाहा
दव्यपदिबद्ध एवं जातियमाइगासु भयच्या । अप्पा अप्पकालं, हेट्ठा मा अणुच्चमि ॥ १६६ ॥ एवं दव्यपडिबद्धसिज्जा जावंतियमातिसु सेज्जासु अप्पबहुत्तेण भइयब्वा । जत्थ अप्पतरा दोसा तत्थ ठायब्वा । श्रहवा अप्पा ते साहू अप्पं च कालं श्रच्छिश्रो काम ताहो दव्वपडिबद्धाए ठायंति न जावतियासु । नि० चू० ५ उ० ।
मूलोत्तरगुणशुद्धिमाह -
०
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जागेजा, असंजए भिक्खुपडियाए खुट्टियाओ दुवारियाओ, महल्लियाओ इज्जा, जहा पिंडेसगाए जान संधारगं संथारेज्जा, बहिया वा शिराक्खु तहयगारे उपस्सए अपुरिसंतरकडे नो ठाणं० ३ ऋह पुणेवं पुरिसंतरकडे०जाव आसेविए पडिलेहिता पमजित्ता तो संजयामेव० जाव चेइज्जा । ( सू० - ६५ X )
सर्व पुनरेवंभूतं प्रतिवर्ष जानीयात्तयथा-प्रसं यतो - गृहस्थः साधुप्रतिज्ञया लघुद्वारं प्रतिश्रयं महाद्वारंविदध्यात्, तत्रैवंभूते पुरुषान्तरस्वीकृतादौ स्थानादि न विद ध्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृतासेवितादौ तु विदध्यादिति । अत्र सूत्रद्वयेऽप्युत्तरगुणा अभिहिताः पनदोषदुष्टाऽपि ( वसतिः) पुरुषान्तरस्वीकृतादिका कल्पते, मूलगुणदृष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृताऽपि न कल्पते । ते चामी मूलगुणदोषाः'पट्टी बंसी दो धारणा बत्तारि मूलवेलीओप
पृ
शादिभिः साधुप्रतिक्षया या वसतिः कियते सा मूलगुणदृष्टा । आचा० २ श्र० १ चू० २ ० १ उ० । ( अविधिप्रमाजने दोषाः 'पहिलेला शब्दे पञ्चभागे ३५४ पृष्ठे दर्शिताः । )
,
'श्रइरित्ताए चउपत्ता सद्देति दारं' प्राप्तम्, अस्य व्याख्याजुत्तप्पमाण अतिरे-गहीण माणादि तिविधसंधातु । अफुलमायष्या, संबाधा चैव वायव्वा ।। ५३ ।। वसही तिविहा जुतप्पमाणा, अतिरिक्त प्पमाणा, जा सासिंधारा दमाद अप्फुसा वाचिनि भवति सा जुत्तप्पमाणा, जा श्रमाणपुराणा सा अतिरेगा, जत्थ संचाहार ठायंति सा हीरापमाणा गायव्वा । तीसुं वि वज्रवीसुं, जुत्तपमाणा य कप्पती ठाउं ।
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( ६४३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पसहि
तस्स असतिहीणाए, अतिरेगाए व तस्स सती || ५४ || पतासु तिसु वियजंती पढमं गुरूप्यमाणार डायव्यं । तस्साऽसति यमाहार, तस्स असति प्रतिरेगप्पमागाए ठायव्वं । तत्थ जुत्तप्पमाणार हीणप्पमाणाए य सहस्स असंभवो, अइरित्तप्पमाणाए सहसंभवो । जतो भवतिअतिरित्ताएँ ठितार्थ, इत्थी पुरिसा य विसयधम्मट्ठी । उज्जुगमज्जुगा वा, एजाही तत्थिमे उज्जू ॥ ५५ ॥ पुरिसित्थमागमणे, आवरणे आणमादियो दोसा । उप्पअंती जम्हा, तम्हा तु शिवारए ते उ ।। ५६ । श्रइरित्तप्पमाणापठिताणं इत्थीपुरिसो य विसयधम्मट्ठी तत्थागच्छेजा, स्त्रीपरिभोगार्थीत्यर्थः । सो पुरा पुरिसो दु
विहो– उज्जू, अणुज्जू वा आगच्छेजा मायावी
अमायाविति युतं भवति । अतिरित्तचट्टिताएं जर इत्थी पुरिसो य आगच्छेवर तो हमा सामाचारी पुरिसित्थी । गाहा । श्रइरित्तवसद्दीप, जइ इत्थी पुरिसो य श्रागच्छति तो वारेयव्वा । श्रह ण वारेति तो चउगुरुं आणादिलो व दोसा भवन्ति उम्दा दोसपरिहरणत्थं ता शिवायास ।
तत्थिमो 'उज्जु ' ति श्रस्य व्याख्याअम्हे मो आदेसा, रचि पत्था पभाएँ गच्छामो । एसा व मज्झ भजा, पुट्ठोऽपुट्ठो व सो उज्जू ॥ ५७ ॥ जो सो इत्थसहितो पुरिसो आगो एवं भा म्हे मोआरेसा पास नि बुतं भवति । इह बसहीए सि यसि पाए हिस्सामो एसा य इरिथया ममं भजा भवति, एवं पुच्छितो वा अपुच्छिश्रो वा कहेजा उज्जू । श्रहवा इमो उज्जू -
सो वि होति उज्जू, सब्भावेणेव तस्स सा भगिणी । पिह भयंति चिने इत्थी बजा किमु सचेट्ठा ||१८|| अण्णो ति अणेण पगारेण उज्जू भवति सो वि पुच्छित्रो वा पुच्छिश्रो वा भणति । एस मे इत्थिगा भगिणी भवति । साय तत्थ परमत्येव भगिणी सम्भापति तं भ पिडुभितति तं भगवादिति-अम् चिनकम्मे विलिहिया थी वा कि पूरा जा सचेतो तुमवि उपागच्छद्दिश्च पिः पदार्थसंभावने कि संभावयति यदि मगिनौवादिन एवं प्रीति किमिति भार्याचादिनं हुर्यस्मादित्यर्थः। भजावादी भएत सह गित्वेद्दि बसि
किंचवंभवती पुरतो, किह मोहिह पुचमादिसरिसाखं ।
विमी जुञ्जति रतिं विहरम्मि संवासो ॥५॥ संभवति जे ते भवती तारा पुरी गड ि बुतं भवति । कह के व्यगारेण मोहिहायारं पडसेविस्सह । प्रायसो पिता पुत्रस्यातो न अनाचारं सेवने मा वा । श्रहवा आदि ति श्रादिसदाओ भाउं माउं पिडं वापिवं तुमं पि पुत्तमादिसरिसाएं पुरतो कहं श्रणायारं पडिसेबसीत्यर्थः जोगवादी सो एवं विजति पिछ सदगत्री विरहिते अप्पा बसिन पु
1
जनेत्यर्थ ।
सहि
इय अणुलोमेण तेसिं, चकभवथा अविच्यमाणेहिं । सिग्गमणपुण्वदिट्ठे ठायं रुक्खस्स वा हेट्ठा ॥ ६० ॥ इय- एवं श्रणुलोमेण श्रणुसवणारण वयति तेसिं कीरह
तावि जति तिग्गिंतुं तदा चकमवणाचभंगो कज्जति । पुरिसो भहगो इत्थी वि भद्दिया । एवं चउभंगो जं तत्थ भद्दतरं तं लोमति जा निम्गच्छति तो रमसि वितियतवियभंगे एगतरस्यादतो - गंताएं चरथं उभयतो अभङ्गत्वात् ता सिग्गमयं वा साइन पुसि मे पुण्वदिट्ठलघराति तत्थ डायति सुधराभाषचो गामवदिया रुक्खहेट्ठा वि ठायंति, ण य तत्थ इत्थिसंसत्ताए चिट्ठति । अह बहिया इमे दोसा
"
पुढवी-भोस सजोती, हरिततसा - तेण उवधि - वासं वा । सावयसरीरतेयम, फरसादी जान बबहारे ।। ६१ ।। यदिया गामस्वरूपसहेडाम्रो आगासे या सचिचपुढवीघोसा वा पति या वा सजोतिया बसी अस्थि हरियकाओ वा तस्स वाधणा, तहा वि तेसु ठायंति, ण तेहिं सह वसंते । श्रहवा बहिता उवहितेणा, वासं वा पइति, सीदादिसावयभयं वा सरीरतेया था अस्थि, अरणायत्थि वसही, ताहे ण बहिया वसंति तत्थेव वसंतिं । फरुसमयहिं विदुरा बैति जा वयदारो वि तेरा स ज्जति । एवं वा विहावेंति ।
अम्हे दाणि विसहिमो, इड्डिमपुत्तबलेवं ण सहेजा । णीहि अंते बंधणे, उवट्ठिते सिरिघराहरणं ॥ ६२॥ साहभांति अहे समासीला इदानीं विविधं विशिषे पा समो विसहिमो । जो तत्थ श्रागारवं साहू सो दाइज्जति । इमो साहू कुमारयतितो साहस्सजोही वा मा ते पंतो बहर दहिपुतो वा राजादीत्यर्थः बलवं सहस्रयोधी प्रस माणो रोसा बला गीणेहि ति । ततो वरं सयं चैव णिग्गतो । जति खिग्गतो तो लटुं । अह ण गीति तो सब्बे वा साहू एगो वा बलवं तं बंधति । इत्थी वि जर तडफडेति तो सा वि वज्जति । उचट्ठियति गोसे मुक्काणि राउले करते उद्वितापि । तस्थ कारशियास पवहारो दिज्जति । सिरिघराहरतेय-ज रो सिरिधररावरंतो बोरो गहितो तो से तुम्झे के दंड पत्ते - सिरसे घेप्पति, सूलाप वा भिज्जइ । साहू भगति श्रम्ह वि एसरपणाबहार प्रधावातियो मुद्दो को बंध के म शांति के तुग्रता? साइ मरुति हाणादी कहंतेसि बहाये ?, चणायारपडि सेवातो अवध्यानगमनेनेत्यर्थः । यतो उज्जू ।
हदासी अगुज्जू भगतति
अम्हे मो आरसा, ममेस, भगिणी तु वदति तु भन्नू । बसिया गच्छीहामो, रतिं चार निष्कुभगं ।। ६३ ।। तार घेघसालार विताएं स इत्थी पुरिसो आागतो भशनि - हे मो आदेसा पाहुणा । एत्रा म स्त्री भगिनी न भार्या एवं प्रवीति अणुज्ज् । इह वसिता रनि पभाष गमिस्सामो एवं सो अनुकूलन्ध से
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(६४४) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि रति भारद्धति रवि सो इत्थियं पडिसेविउमारतो, तो वा-| सकुली वा सिहि (ह) रिणी वा उक्खिाणि वा विक्खिरिजति । तह वि भट्ठायमाणे णिच्छुभणं पूर्ववत् । णिग्छु- माणि विइकिमाणि वा विप्पडमाणिवा,नो कप्पड निग्गभंतो वा रुट्ठो।
न्थाण वा निग्गंथीण वा महालंदमवि वत्थए ॥८॥ श्रावरितो कम्मेहिं, सत्तू इव उद्विमो थरथरंतो।।
प्रथाऽस्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याहमुंचति म भेडियामो,एकेकं भेति णिग्गमणं ॥ ६४ ॥
देहोवहीण डाहो, तदन्नसंघट्टणा य जोतिम्मि । श्रावरिओ-प्रच्छादितः, क्रियत इति कर्म-कानावरणादि,
संगालचरणडाहो, एसो पिंडस्सुवग्घाश्रो॥ १८२॥ महितं करोति, कर्मा प्रच्छादितत्वात् । कथं जेन सो
तेन शैक्षण अन्येन वा श्वगवादिना ज्योतिषः संघट्टने साहूणं उरिं सतू इव उट्टितो रोसेण थरथरेतो-कंपयन्ते त्यर्थः । वाषितजोगेणं मुंचति भेडिया-उक्कोडिनो पोकाउ
कृते देहस्य वा उपधेर्षा दाहो भवतीति पूर्वस्त्रे उ
कम् , अत्रापि पिण्डादियुक्नोपाश्रये स्थितस्य. सातारं सरात्ति बुतं भवति 'भे'-युष्माकं एकैकं व्यापादयामीत्यर्थः ।
गं 'रागण सांगाले' ति वचनात् । पिण्डादिकं समुहिशतश्चएवं तम्मि विरुद्ध
रणस्य दाहो भवतीत्येष पिण्डसूत्रस्य पूर्वसूत्रेण वा सणिग्गमणं तह चेव उ, जिद्दोससदोसणिग्गमे जतणा । होपोदातः-संम्बन्धः, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (5) सूसज्झाए झाणे वा, प्रावरणे सद्दकरणे य ॥६५॥ अस्य व्याख्या-उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां पिण्डको वा लोचणिग्गमश्रो णंतानो बसहीनो तह चेव जहा पुव्वं भणियं ।
को वा दीरं वा दधि वा नवनीतं वा सपिर्वा तैलं वा अति ते बहिया णिहोस अह सदोसं अतो अणिग्गमा तत्थे | फाणितं वा पूपो वा शष्कुलिका वा शिखरिणी वा पतानि बऽच्छता जयणाए अच्छंति । का जयणा? सज्झाए पच्छ
उत्क्षिप्तानि वा व्यतिकीर्थानि वा विकीर्यानि वा भवेयुः नो द्धं पूर्ववत् कंठं । एवं पि जयंताणं कस्सवि कामोदो भवे
कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपिवस्तुमिति जा । ओइराणे य इमं कुजा।
सूत्रार्थः । (पिण्डविषयः पिंड'शब्दे पञ्चमभागे ६१० पृष्ठे गतः।) कोऊहलं व गमणं, सिंगारे कुडछिट्टकरणे य।।
अथ भाष्यम्दिडे परिणयकरणे, भिक्खुणें मूलं दुवे इतरे ॥ ६६ ॥
पूवो म उनखज्जं, वुट्टगुलो फाणियं तु दविभो वा । लहुश्री लहुया गुरुगा, छलहु छग्गुरुयमेव छेदो य ।
सकुलियाई सुकं, तु खञ्जगं सूयिभं सव्वं ॥ १८३॥
पूपः-खाद्यकविशेषः,तग्रहणेन लपनश्रीप्रभृतिकं सर्वमप्याकरकम्मस्स तु करणे, भिक्खुणों मलं दुवे तत्थ ॥६७।।
ईखाधकं गृहीतम् । 'खुट्टगुलो ति 'आर्द्रगुडः द्रविकपिण्डदो विगाहामो जुगवं गच्छति । कोऊबलं से उप्पराणं कह
गुड एव पानीये तद्भावितः, एतदुभयमपि फाणितमुच्यते, मणायारं सेवंति ति । एत्थ मासलहू । अह से भभि
शष्कुलिग्रहणेन मोदकादिकं सर्वमपि शुष्कखाधकं सूचितम् । प्पाम्रो उप्पज्जति, प्रासरणे गंतुं सुणेति अचलमाणस्स मासगुरुं गमणं ति पदभेदे कर चउलहुअं । सिंगारसद्दे
जा दहिसरम्मि गालिय,गुलेण चउजायसुगयसंभारा । कुडकडतरे सुणेमाणस्स चउगुरुं । करणादि कुछि
कूरम्मि छब्भमाणी,बंधति सिहरं सिहिरिणी उ॥१८४॥ इकरणे छल्लहुं । तेण छिडेण अणायारं सेवमाणा दिट्ठा दध्ना शरे गालितेन गुडेन या निष्पना अपरं च चछग्गरं । करकम्मं करेमि त्ति परिणते छेदो। प्रारूढत्तो कर- तुर्जातकसुकृतसंभारा पलात्वक्तमालपत्रनागकेशरास्यैश्चकम्म करेउं मूलं भिक्खुणो भवति । दुवे ति अत्तिसेगाय- तुभिर्गन्धद्रव्यैराधिक्येनोपजनितवासा कूरमध्ये प्रक्षिप्यमारिया तेसि इयरे त्ति प्रणवट्टपारंचिया अंतपायच्छुित्ताभ- णा शिस्त्ररं बध्नाति सा शिखरिणीत्युच्यते, उत्क्षिप्तादिपपंति । हेट्ठा पक्के हुस्सति । अहवा-कोउप्रादिसु सत्तसु प
| व्याख्या प्राग्वत्। देसु मासगुरुं विवज्जित्ता, मासलहुगादि जहासंखं देया। . अर्थतेषु तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाहसेसं तहेव कंठं।
पिंडाई आइन्ने, निग्गन्थाणं न कप्पई वासो । सीसो पुच्छति कहंसाहू जयमाणो वं अज्जेति। भरणति- |
चउरो य अणुग्घाया,तत्थ वि प्राणाइणो दोसा।१८५ वडपादवउम्मूलण-तिक्खमिव विजले वि वश्चंतो।।
पिण्डादिभिः शिखरिणीपर्यन्तैराकीपणे प्रतिश्रये निर्ग्रन्थानासद्देहि हीरमाणो, कम्मस्स समजणं कुणति ॥ ६८॥ । मुपलक्षणत्वानिर्घन्धीनां च न कल्पते वासः । अथ तिष्ठन्ति जहा वडपादपो अणेगमूलपडिबद्धो वि णदीसलिलगेणं ततश्चत्वारोऽनुदाता मासाः,तत्राप्याक्षादयो दोषा मन्तव्याः। उम्मूलिज्जति, एवं साहू वि । णदीप्रेण वा तिक्षेण कयप- चउरो विसेसिया वा, दोएह वि वग्गाण ठायमाणाणं । यत्तो वि जहा हरिजति। विगतं जलं विज्जलं सिदिलकर्दमे
अहवा चउगुरुगाई, नायव्वा छेयपजंता ॥१८६ । त्यर्थः, तत्थ कयपयत्तो वि वचतो पडति,एवं साहू वि सहोहिं
अथवा न्योरपि निर्ग्रन्थनिग्रन्थीवर्गयोस्तत्र तिष्ठतोश्वपच्छद्धं विसयसद्देहि भावे हीरमाणे कम्मोवजणं करोति । तत एवं अतिरित्तवसहीए त्ति गतं । नि.चू०१ उ० ।
तुर्गुरुकास्तपःकालविशेषिताः । तद्यथा-भिक्षोश्चतुर्गुरुकं
तपसा कालेन च, लघुवृषभस्य कालगुरु, उपाध्यायस्य (७) पिण्डादिषु वसतिदोषानाह
तपोगुरु, आचार्यस्य तपसा कालेन गुरुकम् । एवं भिक्षुणीउवस्सयस्स अंतोवगडाए पिंडए वा लोयए वा खीरं वा|
प्रभृतीनामपि मन्तव्यम् । अथवा-चतुर्गरुकमादौ कृत्वा छेददहिं वा सप्पि वा नवणीए वा तेल्ले वा फाणियं वा पूर्व वा | पर्यन्ता चतुगामपि यथाक्रम शोधिर्शातव्या ।
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बसहि
अह पुण एवं जाणेजा णो उक्खि नाई ० ४ सिकडाणि वा पुंजकडाणि वा कुलियकडाणि वा भितिकडाणि वा लंबि याणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निगन्धाण वा निगन्धी वा हेमंतगिम्हासु वत्थ ||६||
( ६४५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
अस्य व्याख्या प्राग्वत्, नवरं यत्र पिण्डादीनि राशीकृतादिरूपाणि तत्र गीतार्थानां कल्पते ऋतुबद्धे वस्तुमिति सूत्रउदयम् । अत्र " पुंजो उ होइ बद्धो, सो चेव वईसि श्रायओ रासी " इत्यादि भाष्यगाथापिण्डाद्यभिलापेन प्राग्वन्मन्तव्यम्, यावत् -' का सा य इच्छा समुप्यन्ने 'ति । कीदृशी पुनरिच्छा समुत्यन्नेत्युच्यतेअणुभूया पिंडरसा, नवरं मुनूणमेसि पिंडाणं । काहामो कोउहलं, तहेव सेसा वि भणियव्वा ॥ १८७॥ अनुभूतास्तावदन्येषां पिण्डानां रसाः नवरमेतेषां पिण्डानां रसान् मुक्त्वा अतः करिष्यामः – पूरयि - च्यामः कौतूहलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेष्वशेषसाधुषु तानि भोज्यानि भुङ्क्ते, शेषाण्यपि क्षीरादीनि 'अनुभू या खाररसा' इत्याद्यभिलापेन तथैव भणितव्यानि यावत् द्वितीयपदे तत्रापि प्रतिश्रयेऽपि स्थिताः श्रगीतार्थाः साधुषु भिक्षाचर्यादिनिर्गतेषु सूरयः सागारिकमित्थं ब्रुवते । तेल्लगुलखंडमच्छं-डियाण महुपाणसकराईणं । fas ar संनिचया, अने देसे कुटुंबीणं ॥ १८८ ॥ तैलगुडखण्डमत्स्यण्डिकानां मधुपानशर्करादीनां संनित्रया श्रन्यस्मिन् देशे कुटुम्बिनां गेहेषु दृष्टाः । शेषं सर्वमपि पिण्डाभिलापेन प्राग्वदवसातव्यम् ।
पुण एवं जाणिआ नो रासिकडाई ० जाव नो भिसिकडाई कोडाउत्ताणि वा पलाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा माला उत्ताणि वा कुंभिउत्ताणि वा करभिउत्ताणि वा श्रीलित्ताणि वा विलिचाणि वा लंद्वियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पर निग्गंथाण वा निग्गन्धीय वा वासावासं वत्थए ॥१०॥
अस्य व्याख्या प्राग्वन्नवरं कुम्भी-मुखाकारा कोष्ठिका, करभी घट संस्थानसंस्थिता तयोरागुप्तानि प्रक्षिप्य रक्षितानि कुम्भ्यागुतानि वा ।
अस्य भाष्यम्
कुंभीकरही तहा, पल्ले माले तहेव मंचे य । उत्तरयिमुद्दिय, एरिसए ण कप्पती वासो ॥ १८६॥ यत्रोपये कुम्भ्यां वा करभ्यां वा पल्ये वा माले वा चशब्दोक्तकोष्ठे वा प्रक्षिप्तानि पिण्डप्रभृतीनि भवन्ति, तानि चावलिप्तानि पिहितानि मुद्रितानि वा भवेयुः ईदृशे न कल्पते वस्तुम् ।
तथा चाह
उडुबद्धम्म अतीते, वासावासे उवडिए संते ।
ठायंतगाण गुरुया, कस्स अगीलत्थसुमं तु ।। १६० ।। ऋतुबद्धे काले व्यतीते वर्षावासे चोपस्थिते यद्यपि सूत्रेण तत्रोपाश्रये स्थातुमनुज्ञातं तथापि न कल्पते, यदि तिष्ठन्ति
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त्रसहि ततश्चतुर्गुरुकाः । शिष्यः पृच्छात-कस्य पुनरेतत्प्रायश्चितम् । frगह गीतार्थस्य । सूत्रं पुनः गीतार्थमधिकृत्य प्रवृत्तम् । शेर्पा पिण्डाभिलापन तथैव वक्तव्यम् ।
नो कप्पs निग्गन्थीणं आहे आगमणगिहंसि वा विहिंसि वा वसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा श्रब्भावगासियंसि वा वत्थए ।। ११ ।।
इह निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सामान्यतः सदोषा उपाश्रया उक्ताः । अथ केवलानामेव निर्ग्रन्थीनामभिधीयत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या- श्रथशब्दः इहेति शब्दार्थे । पथिकादीनामागमेनोपेतं तदर्थं वा गृहमागमनगृहम् विवृतमनावृतं गृहं विवृतगृहम् वंशीमूलं नाम गृहाद्बहिः स्थितमदकम्, वृक्षमूलं तु वृक्षे ऽप्य सह कारादेर्मूलमधोभागः । श्राव काशमुच्यते एतेषु प्रतिश्रयेषु निर्ग्रन्यीनां वस्तु न कल्पते इति सूत्रसंक्षेपार्थः ॥ ११ ॥
अथ भाष्यविस्तारः
आगमणे वियडगिरे, वंसीमूले य रुक्खमन्भासे । ariaगाण गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोस्त १६१ ।। श्रागमनगृहे विवृतगृहे वंशीमूले वृक्षमूले अभ्राचचा व तिष्ठन्तीनां निर्ग्रन्थीनां चत्वारो गुरुकाः, तत्राप्याशादयो दोना
मन्तव्याः ।
श्रथवा---
आगमगिहादिसुं भिक्खुणिमादीण ठायमाशीलं । गुरुगादी जा छेदो, विसेसितं चउगुरू तासि ॥ १६२॥ आगमनगृहादीनां भिक्षुण्यादीनां तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा छेदं यावत्प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुगुरुकम्, अभिषेकायाः षद लघुकम्, गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम्, प्रवर्तिम्याः छेदः । यद्वा श्रासां चतसृणामपि तपःकालविशेषितं चतुर्गुरुकं भवति । तत्र भिक्षुण्यास्तपसा कालेन लघुकम्, अभिषेकायाः कालेन गुरुकम्, गलावच्छेदिन्यास्तपसा गुरुकम् प्रवर्तिभ्यास्तपसा कालेन च गुरुकम् । अथागमनगृहं व्याचष्टेआगंतु गारत्थजलो जहिं तु,
संठाति जं वा गमम्मि तेर्सि ।
तं श्रागमो गंतु विदू वदति,
सभाय वा देउलमादियं वा ॥ ६३ ॥ श्रागन्तुकः पथिकादिरगारस्थजनो यत्रागत्य संतिष्ठते, यच्च तेषां पथिकादीनामागमने वर्त्तते तदागमौकः आगमनगृहं विद्वांसः -- श्रुतधरा वदन्ति । तच्च सभा वा देवकुलादिकं वा मन्तव्यम् ।
तत्र तिष्ठन्तीनां दोषानाह । आगमण िञ्जा, जणेण परिवारिया अणजेसं । दडुं कुलप्पस्ता, संजमकामा विरजति ।। १६४ ॥
मनगृहे स्थिता श्रार्या श्रनार्येश जनेन च परिचारिम दृष्ट्वा कुलप्रसूताः स्त्रियः संयमकामाः प्रवज्यमंत्री विरज्यन्ते ।
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बसहि
अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि कथमित्याह
तथैवोद्धट्टयेयुः । अथ स्वाध्यायो न क्रियते ततः सूत्रार्थउवस्सए एरिसए ठियासं,
नाशादयो दोषाः । तथा सागारिकैनिंक्रमणप्रवेशस्थानोण सीलभारा सगला भवंति ।
पविष्टर्निरुद्धमार्गाः सत्यो न भैक्षाय निर्गच्छन्ति-निर्गन्तुं
शक्नुवन्तीति भावः। को दाणि हंसेण किणेज काकं ,
दुक्खं च भुंजंति सचिंतितेसु, एवं नियत्तंति कुलप्पसूया ॥ १६५॥ ईरशे उपाश्रये स्थितानामाथिकाणं शीलं-ब्रह्मचये तत्प्र
तत्कि न देंते य अदेंति दोसा। धानभाराः संयमयोगधराः लक्षणाः सकलाः सम्पूर्ण नभव.
भुंजंति गुत्ता अविकारियाओ, न्ति, किंतु-खण्डितविराधिताः। अस्माकं च सुसंवृतगृहम- __ कुलुग्गया किं पुण जा अतोया ॥ १६ ॥ ध्यमध्यासयन्तीनां प्रत्यपायाभावानिष्कलङ्क शीलमनुपा- सागारिकेषु तत्र सदा-नित्यमेव स्थितेषु संयत्यो दुःखं लयन्तीनां सकल्पो गृहवासः । एवं विधे तु तरुणादिप्रत्यु- भुजते । अथ तेषां मध्यात् कश्चिद्रमकप्रायस्तर्कयति प्रापायबहुले प्रतिश्रये तिष्ठन्तीनां या प्रवज्या सा बहुदोषमली- हारयाञ्चां करोति, ततो यदि दीयते तदा असंयतपोमसतया काककल्पा। अत इदानी हंसेन काकं कः क्रीणीयात्, षणादधिकरणम् , अथ न दीयते ततोऽसौ प्रद्वेष गच्छेत् । एवं विचिन्त्य कुलप्रसूताः स्त्रियः प्रवज्यामहणानिवर्तन्ते । प्रद्विपश्च प्रतापनमुडाहमभ्याख्यानप्रदानं वा कुर्यात् , एवअथात्रैव विशेषदोषानभिधित्सुराह
मुभयथाऽपि दोषाः । किं च-कुलोद्गताः स्त्रियो गुप्ताः-एकाइयपडिलेहसज्झा-य मुंजणे वियारमेव गेलएणे । कान्ते स्थिता अविकारिण्यश्च भुखते. किं पुनर्या अतोसाणादी उवगरणे, तरुणादी जे भणियदोसा ।।१६६॥
याः शीतोदकविरहिताः संयत्यः कालिकेनाचमनकारिण्य कायिक्यां-प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्याये भोजने विचारे ग्लानत्वे इत्यर्थः, ताभिस्तु सततमेकान्ते भूत्वा भोक्तव्यमिति । च दोषा भवन्ति । श्वानादिना चोपकरणान्यपहियन्ते, तरु
वियारभोम्मे बहि दोसजालं, शादयश्च ये पूर्वमुद्देशके भणितास्ते अत्र मन्तव्या इति णिसट्टबीमच्छकता य अंतो। नियुक्तिगाथासमासार्थः।
कीरति किच्चे य गिलाणदोसा, अथ व्यासार्थ प्रतिद्वारं बिभणिषुराहमोयस्स वायस्स य सचिरोहे,
कालादिपत्ती य तधोसहस्स ॥ २०॥
यदि सागारिकमिति मत्वा विचारभूमौ बहिर्गच्छन्ति, गेलमणीसद्धमसमिरोहे।
ततो दोषजालं मासकल्पकृताभिहितं दृषणनिकुरम्बं दौकपलोडणे घाणससद्दमत्ते ,
ते। अथैतदोषभयादन्तः संशां व्युत्सृजेयुः ततः सागारिपातोभयत्था य भवंति कीवे ।
कैलॊके व्युत्सृजम्त्यो निसृष्टा निर्लज्जा बीभत्साश्च गयद्यागमनगृहे स्थिताः सागारिकमिति कृत्वा मोकस्य ण्यन्ते , तत्कृताश्च उडाहादयो दोषाः । ग्लानायाश्च संयवातस्य वा संनिरोधं कुर्वन्ति, ततो ग्लानं-लानत्वं भवति, त्याः कृत्ये , अकल्प्यपथ्यौषधप्रदानादौ क्रियमाणे सागाअथ न तयोः संनिरोधं कुर्वते ततो निसृष्टा-निर्लज्जा भवे- रिका वदेयुः, एतदमूधामकल्पनीयं परमेतदपि प्रतिसेवन्ते युः । अथ मात्रके कायिकी व्युत्सृजन्ति, ततो मात्रकस्य
नूनं सर्वमप्यलोकमासामित्यादयो दोषाः । अथ सागारिकप्रलोचनायां दुरभिगन्धप्राणिः समुच्छलितमात्रके चशब्दः
मिति मत्वा न क्रियते ततः औषधस्य कालातिपत्तिः स्यात् , श्रवणमागच्छति, तं च श्रुत्वा सागारिका उडाहं कुर्वन्ति,
कालातिक्रमेण चौषधे दीयमाने ग्लानः परितापमश्नुयात् । आत्मपरोभयसमुत्थाश्च तत्र दोषाः । श्रात्मसमुत्था दोषा
हरंति माणाइ सुणादिया य, नाम-संयती स्वयं सुभ्येत, परसमुत्थास्तु-'कीव 'त्ति
सुयंति भीया व वसंति णिच्चं । शम्यक्तीवः संयत्याः कायिकीशब्दं श्रुत्वा धुभ्येत । उभ
णिच्चाउले तत्थ णिरुद्धचारे , यसमुत्था-दावपि चुभ्यते।
गग्गया होति कमो समायो॥ २०१॥ पेहेंति उडाह पवंच तेणॉ,
तत्रागमनगृहे शुनकादयः प्रविश्य भाजनादिकं हरन्ति । अपहले सोहनिहोवहिस्स ।
ततो नित्यमहोरात्रमपि तत्र श्वानादिभयभीताः शेरते वा कीरंत कीरंतमुवेयदोसा,
वसन्ति वा, नित्याकुले च सदैव सागारिकैराकीरणे अत व ऐति भिक्खस्स निरुद्धमग्गा ।
एव निरुद्धचारे-गमागमरहिते तत्र एकाग्रता न भवति
कुतः स्वाध्यायोऽमूग भविष्यति । यदि संयत्यः सागारिकेऽपि पश्यति स्वकीयमुपकरणं
तरुणावेसिस्थिविवा-ह रायमाईसु होइ सइकरणं । प्रत्युपेक्षन्ते तत उडाहो भवति , प्रपञ्चे वा ते सागारिकाः कुर्वन्ति । तथैव स्वकीयं वस्तु प्रत्युपेक्षेत इत्यर्थः । स्ते
इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताश्रो य उवहिं वा।।२०२।। ना वा तं सारोपधिप्रत्युपक्षमाणं दृष्टा हरेयुः । अथैत- महताविछर्दै विधीयमाने राजानो वा निर्गच्छन्तः प्रविशहोषमयात्र प्रत्युपेक्षन्ते ततस्विविधोपधेः प्रायश्चित्तम् ।। म्तो विलोक्यन्ते, ततः स्मृतिकरणकौतुके भुक्ताऽभुक्तानां जा. तद्यथा-जघन्ये , पशकम् , मध्यमे मासलषु, उत्करे चतु
येते। तथा यदि तरुणेन च भाषणानि इच्छति ततो व्रतविसंधु, श्रुते खाध्यायमाने सागारिका पालापका नाम-यत्- राधना । अथ नेच्छति ततस्ते उडाई कुयुः । स्तेना वा ता:
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( ६४७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सहि
संयतीरपहरेयुः उपधि वा वस्त्रादिकं हरेयुः । तदेवं व्याख्याता' काइयपडिलेह ' इत्यादिका निर्युक्तिगाथा ।
अथागमनगृह एव दोषान्तराण्याहभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थिखंडरक्खाणं । उदास पवयणे, चरितभासुंडा सजो ॥ २०३ ॥ धूतैः परिवारितासु तासु कुलगृहस्थापभ्राजना स्यात् । अन्यच तदागमनगृहं वैश्यास्त्रीणां खराडरक्षाणां च हिण्डिकानां स्थानं वर्त्तेत, तत्र स्थितानां उद्धर्षणा प्रवचनविषया हीला, चारित्रस्य च भ्रंशना, सद्यः - शीघ्रं भवति । तथा तरुणादीन् दृष्ट्रा कस्याश्चिद्दश कामावस्था भवेयुः ।
ते च सप्रायश्चित्ता अमी
चिंता दट्टुमिच्छर, दीहं णीससति तह जरे डाहे । भत्तारोयग मुच्छा, जडता उम्मत्त मरणे य || २०४॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ २०५ ॥ द्वे अपि प्राख्याख्याते । उक्ता श्रागमनगृहे दोषाः ।
अथ विवृतगृहवंशी मूलयोदपानाहएए चैव य दोसा, सविसेसतरा हवंति विगडगिहे ।
सीमूलट्ठाणे, पडिबद्धा जे भणियदोसा || २०६॥ एते एवागमनगृहोक्ता दोषाः सविशेषतरा विवृतगृहे ति ष्ठन्तीनां भवन्ति । वंशोमूलस्थाने तु ते दोषा द्रष्टव्याः ये द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबद्धे प्रतिश्रये श्रकाये यन्त्रप्रयोजनादय आत्मपरोभयसमुत्थाश्च दोषाः प्रथमोदेश के भणिताः । थैनामेव गाथां व्याख्यानयति-अवाउडं जे तु चउद्दिसिं पि,
तसुं दुगुच्छा वि तकतो वा, हे भवे तं वियडं गिहं तु,
उडूं अमालं व अछन्नगं वा ।। २०७ ।। विद्युतगृहं द्विधा-अधोविवृतम्, ऊर्ध्वविवृतं च । यत्पार्श्वतचतसृषु वा दिक्षु द्वयोर्वा दिशोरेकस्यां वा दिशि अपावृतं कु ज्यरहितं परमुपरिच्छन्नं तदधोविवृतगृहं भवेत् यत्पुनरमालम् - मालरहितम् अच्छन्नं वा श्राच्छाद्यरहितम् परं पार्श्वतः कुडययुक्तं तदूर्ध्वविवृतं भवति ।
अवाउडे ते सुखा उवेंति, गोणादि स्किमभिद्दवंति ।
खादिया ( तो चिलिए ) तत्थ वि ते य दोसा, कडादिकम्मं तु सजीवघातं ॥ २०६ ॥ तत्र - विवृतगृहे अपावृते-- कुड्याद्यभावादनिरुद्ध प्रचारे ननका उपयान्ति ततश्चोपकरणादयो दोषाः, गवादयश्च शृङ्गाद्यभिघातं निःशङ्कमभिद्रवन्ति । अथ तत्र पार्श्वतश्चिलिमिलिका दीयते ततः ' चिलिए ' त्ति सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा चिलिमिलिकायाः स्तेनादयो दोषाः । तमपहृत्यगच्छेयुरिति भावः । ' कडाइ ' त्ति अथ कटं कीलितं वा कारायत्वा तत्र स्थापयन्ति तत श्राधाकर्मदोषनिष्यन्नं प्रायश्चित्तम्। सजीवघातमिति, कटादौ निष्पाद्यमाने येषां जीवानामुपघातो भवति तनिष्पन्नं पृथक् प्रायश्चित्तम् ।
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अथ वंशीमूलं व्याचष्टे-जो ओवणे वी य बहिं घरस्स, अलिंद वा अवसारिगा वा । गेहस्स पासे पुरपिट्ठो वा,
तं वंसिमूलं कुसला वदंति ॥ २०६ ॥ यो गृहाद् बहिर्द्वाराप्रवर्तिस्थण्डिकारूपः अलिन्दको वा अपसारिका - पटोलिका कुत्रेत्याह —— गेहस्य पार्श्वे वा पुरतो वा पृष्ठतो वा तद्वंशी (मूलं) नाम गृहं कुशलास्तीर्थकरादयो वदन्ति, अत्र तिष्ठन्तीनां पूर्वोक्ता दोषाः । अथ वृक्षमूला भ्राचकाशयोदचानाहअट्ठि व दारुकादी, सउबगनिहारपुप्फफलमादी | एवं तु रुक्खमूले, अन्भावासम्मि गिवहा य ।। २१०॥ अस्थि वा दारुकं वा आदिशब्दात् – पत्राणि पतेयुः, पु यथायोगमात्मसंयमविराधना मन्तब्या, एवं वृक्षमूले वृक्षस्याधोवर्तिनि वा गृहे तिष्ठन्तीनां दोषाः । अभ्रावकाशे तु 'गिरहा' अवश्यायो भवेत्, आदिशब्दात्-सचिन्तरजः प्रपाता. दिपरिग्रहः । श्रवश्यायेनाभिभूतानां विवृचिकादिरात्मविनाशनादि । यत एते दोषाः अतो नागमनादिषु स्थातव्यम् ।
भवेत्कारणं येन तत्रापि स्थीयते । किमित्याहश्रद्धा निग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊय असती य । वाडगागमणiिहे, इयरम्मि य सिग्गहसमत्ये ॥ २११ ॥ अध्वनिर्गतादयस्त्रकृत्वो निर्दोषां वसतिं मार्गयित्वा यदि न प्राप्नुवन्ति ततो वाटकस्य मध्यवर्ति बागमन देवकुलादिकं तत्र वसन्ति । कथमित्याह- इतरः- राज्यातरः स यदि निग्रहसमर्थो जितेन्द्रियः प्रत्यनीकनिवारणमा भवति तदा तत्र तिष्ठन्ति नान्यथा ।
अथेदमेव स्फुटतरमाहजं देउलादी तु खिसखस्स, मज्झम्मि गुत्तं सुपुरोहडं च । अट्ठगम्मं ण य दुडमज्झे,
दूरगेहं तहि यं वसंत ।। २१२ ।। निवेशनवाटकमध्ये यद्देवकुलादिगुप्तवृत्या धृतं सुपुरोहडं - रमणीय संबसीमायोग्यविचारभूमि ष्टानां - शिष्टजनानां गम्यमाश्रयो न च
बसहि
जुवाणगा जे सविगारगा य,
पुता तुज्झ इहं वसंति । माते व अहं इह संपयंतु,
संते, श्रदूरगेहम् - प्रत्यासनप्रातिवेश्मिकमतो वसन्ति ।
चा-
इच्छंति सत्ते य वसंति तत्थ ।। २१३ ।। एवमुक्ते यद्यसाविच्छति प्रतिश्टणोति, यदि च स्वयं शशः - तन्निवारणक्षमः ततस्तत्र बसन्ति ।
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भोइयकुले व गुत्ते, दुअणवजे वसंति उपउत्थे । महतरगादिसुगुत्ते, वंसीमूलम्मि ठायन्ति ।। २१४ ॥ दुर्जनप्रवेशरहिते, यदि लिङ्गकादि तत्र वसन्ति स व भोजिकस्य- ग्रामस्वामिनः कुले च गुप्ते - वृत्यादि फसह
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(६४) पसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि केन च सुसंवृते दुर्जनवर्जे-दुःशीलजनप्रवेशरहिते यदि- णानामुपरिस्थापितवंशकटकादिमयो लोकप्रसिद्धः मालकोलिङ्गकादि तत्र वसन्ति, सच भोजिको यदि प्रोषितस्तदा गृहस्योपरितनो भागः अवलिप्तानि-द्वारदेशे पिधानेन सह महत्तरकादिभिः-प्रधानपुरषैस्तद्गृहं यदि सुगुप्त-सुरक्षितं | गोयमादिना कृतलेपानि लिप्तानि-मृत्तिकया सर्वतः भवति तत एवंविधे वंशीमूलगृहे तिष्ठन्ति।
खरण्टितानि पिहितानि--स्थगितानि लाञ्छितानितस्सऽसति उडवियडे, वसंति कडगादिछायणं उवरि । रेखाक्षरादिभिः कृतलान्छनानि मुद्रितानि-मृत्तिकादिमुद्रातस्सऽसति पासवियडे, कडगादी पंतवत्थेहिं ॥२१५॥ | युक्तानि एवंविधेषु धान्येषु न कल्पते निप्रेन्थानां वा वर्षावातस्य-यथोकगुणोपेतस्य वंशीमूलगृहस्थाभावे ऊर्च वि- सं वस्तुमिति सूत्रार्थः। अथ भाध्यम्वृतगृहे उपरि कटादिकं प्रक्षिप्य तिष्ठन्ति, आदिशब्दाद्- कोडाउत्ता य जहिं, पल्ने माले तहेव मंचे य।। बस्त्रचिलिमिलिकया वाऽऽच्छादनं कुर्वन्ति । तस्याभावे पा
उल्लित्तपिहियमुद्दिय, एरिसए ण कप्पती वासो ॥१०२।। वविवृते इत्यर्थः, तत्र च किलिश्चादिभिश्चिलिमिलिकां कृत्वा
यत्रोपाश्रये कोष्ठागुप्तानि पल्ल्यागुप्तानि मालागुप्तानि मचापार्श्वतः प्रच्छादयेत् । अथ कटादयो न प्राप्यन्ते ततः प्रान्त
गुप्तानि अवलिप्तानि पिहितानि मुद्रितानि उपलक्षणत्वालिबखैः-परिजीगणचीवरैः पार्थाणि छादयितव्यानि ।
सानि लाञ्छितानि वा धान्यानि संभवन्ति ईदृशे न कल्पते विहं पवना घणरुक्खहेडा,
वासः। अथ सूत्रस्यैव विषमपदानि ब्याचष्टेवसंति उस्सावनिरक्खणट्ठा ।
छगणादी भोलित्ता, लित्ता मट्टियकता तु ते चेव । तस्सासती अन्भगवासिए वि,
कोट्ठियमादी पिहिता, लित्ता वा पल्लकडपल्ला ॥१०३।। सुति चिट्ठति व प्रोमिछमा ॥२१६॥
प्रोलिपिऊण जहि अ-क्खए कया लंछियं तयं विति । अथ विहम्-अध्वानं प्रपन्नास्ताःसंयत्यस्तत्र चाऽघोषिवृ.
जहियं मुद्दा पडिया, होति तगं मुद्दियं धमं ॥१०४॥ तमपि गृहंन प्राप्यते ततो धनो-बहुलो निश्चिद्रो यो वृ
द्वारदेशे छगणादिना लिप्तानि-अवालप्तानि यानि तु मृत्तिकतो बटादिस्तस्याधस्तादवश्यायस्य-अन्तरिक्षस्थस्याप्काय
या सरण्टितानि तानि लितानि कोष्ठकादीनि, यानि द्वारदेश स्यावनेश्च सवित्तपृथिवीकायस्य रक्षणार्थ वसन्ति, तस्या
स्थगितानि तानि पिहितानि, पल्यकटपल्यानि तु लिप्ताप्यभावे प्रभावकाशकेऽप्याकाशे औणिककस्वच्छवाः स्वपम्ति वा तिष्ठन्ति वा।
नि भवन्ति । इह पल्यकटपल्यमुच्चतरं भवतीति विशेषः ।
अवलिप्य यत्र धान्ये अक्षराणि कृतानि ताञ्छितमिति (८) वर्षावासयोग्यां यसतिमाह
युवते, यत्र तु धान्ये मुद्रा पतिता तन्मुद्रितं भवति । से मिक्खू वा भिक्खुली वा से जं पुण उवस्सयं जा- |
उहुबम्मि प्रतीए, वासावासे उवद्विते संते । सज्जा असंजए भिक्खुपडियाए उदगप्पसूयाणि कंदागि
ठायंतगाण लहुगा, कासगीभत्थसुत्तं तु ॥१०५ ।। वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्पाणि वा फलाणि वा
ऋतुबद्धे काले अतीते वर्षावासे उपस्थिते सति यदि को. बीयाणि वा हरियाणि वा ठाणाम्रो ठाणं साहद बहिया ठागुप्तादिधान्ययुक्ने प्रतिश्रये तिष्ठन्ति तदा चतुर्लघवः, कस्य बा लिमक्खू तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे. जाव पुनरेतत्प्रायश्चित्तम् !, त्रिराह-अगीतार्थस्य सूत्रं तु कल्पते यो ठाणं वा०३ चेइजा, अह पुल एवं जाणेजा पुरिसंत- कोष्ठागुणादिधान्येषु वर्षावासे वस्तुमिति लक्षणं गीतार्थविरकर चेहज्जा ।। (सू०-६५४)
षयं मन्तव्यमिति वाक्यशेषः । इत ऊर्ध्वम् "त्थिः" इत्यास भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयातद्यथा-गृहस्थः
दिकाः गाथा पूर्वोक्ताः एतावदध्येतव्याः यावत् "तत्तस्थष्णासाधुप्रतिवया उदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्थानान्तरं संक्रा
णा देसी." इति । कीरशी पुनरिच्छा तस्य समुद्भूतेत्युच्यतेमयति बहिर्वा 'णिएणक्खु' ति-निस्सारयति, तथाभूते अणुभूता धमरसा, नवरं मोत्तूण गंधसालीणं । प्रतिश्रये पुरुषान्तरास्वीकृते स्थानादि न कुर्यात्, पुरषान्त- काहामि कोउहलं, थेरी पउरं धणं भणियं ॥ ११॥ रस्वीकृते तु पुर्यादिति । आचा०२७०१०४०१ उ०॥ अनुभूतास्तावत् सर्वेषामपि धान्यानां रसाः, नवरं गन्ध
मह पुख एवं जाणिजा नो रासिकडाई नो पुंजकडाइं नो शालीनां रसे मुक्त्वा ते अद्यापि नास्वादिता इति भावः । मित्तिकडाइं नो कुलियकडाई कोट्ठाउत्तानि वा पन्लाउ
अतः करिष्यामि-पूरयिष्यामि कौतूहलमिति विचिन्त्य तेचाथि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्तागि वा प्रोलित्ता
नकोष्ठपल्ल्यादिशालीनाकृष्य स्थविराया अने प्रचुरं धान्य, थिवा विलित्तासि वा पिहियामि वा लंबिवाणि वा मु
पाकं कुरुष्वेति वचो भणितम् । इदमेव स्पश्यति
इहरा कहासु सुणिमो, इमेहु ते कलमसालियो सुरभी। दियाणि वा कप्पा निग्गन्थाण वा निग्गंथीण वा वासा
। गरिव भगीतत्यो बा, गौ यो का कोऽपि वसिमो मुत्ते। वासं वत्थए ॥३॥
जा पुण एगाणुला, सा सेच्छा कारण किया ॥१॥ अथ पुनरेवं जानीयात् नो राशीकृतानि नो भितिकतानि
एयारिसम्मि वासो, व कप्पति जति वि सत्तडारणाभो । चोलियाकतानि कोष्ठागुप्तानि वा मशागुप्तानि वा माला- प्रयोग तु मणितो मायरिज प्रवेहती भत्थं ॥ १०॥ गुप्तानि वा अवलितानि वा लिप्तानि वा पिहितानि वा ला- जं जह सत्ते भखित, सवं जं अति विभालणा शत्यि। मिछतानि वा मुद्रितानि वा तत्र कोष्ठे-कुसूले आगुप्तानि प्र. दि कालियागुपोगो, दिछो दिठिप्पहाणेति॥१०॥ क्षितानि रक्षितानि कोष्ठागुप्तानि एवमुत्तरत्रापि भावनीयम् , (तामा चेव गाहामो)गाव ते तस्य सचि-गहिता संथारगा अहिच्छाए। नवरं प्रलम्ब शकटकादिकृतो धान्यराशिविशेषः, मञ्चः-स्थू- मायादेसी साधू , कासरच्या समुप्पण्णा ॥ १०॥
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(१४) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि थोवे वि थाथि तत्चो, को य रसो असमस्याणं ॥१११॥ इहोपाश्रये प्रकृतमधिकारो वर्तते, तेषां चोपाश्रयाणां इतरथा यदि तावत्पूर्व वयं गन्धशालीन् कथासु वार्ता
व्याघातदोषाः। अन्योन्ये अपरापरे वा ये विकटोदकप्रतिबद्ध न्तरेषु शृणुम इमे तु प्रत्यक्षमुपलभ्यमानाः ते कथान्तरश्रुताः
तादयो भवन्ति तेषु च यत्राल्पतरा दोषा भवन्ति तत्र कलमशालयः सुरभयः, तथा स्तोकोऽप्यत्र कलमशालौ म
स्थातव्यमिति सापनार्थ साधारणसूत्रप्रत्येकसूत्राणां समामास्तु सप्तिकच रसाऽऽस्वादोऽन्योन्यमिश्रितानाममीषाम् ,
रम्भः क्रियते । 'जा पिंडो त्ति उबस्स य, अंतोषगडाए पिंडए. इत्थं विचिन्स्य पल्यात्तान् शालीनाकृष्य स्थधिरायाः समर्प
वा वि' इत्यादिकं वक्ष्यमा पिण्डसूत्रं यावदेष सम्बयति, साऽप्युपस्कृत्य तस्य संयतस्य दत्स्वा शेषमात्मना भुझे।
न्धो मन्तव्यः, साधारणसूत्राणि नाम यत्रैकसूत्र दयादिततोऽसौ लब्धाऽऽस्वादो दिवसे दिवसे पवमेव विदधाति ।
प्रभृतीनि बहूनि पदानि भवन्ति , प्रत्येकसूत्राणि तु यत्रैकततः किमभूदित्याह
सूत्रे एकमेव पदं ततश्चात विकटसूत्रमुदकसूत्रं पिण्डसूनिग्धोलिय तप्पलं, कज्जे सागारियस्स प्रतिगमणं। ।
अमित्येतामि त्रीणि साधारणसूत्राणि प्रदीपसूत्र ज्योतिः
सूत्रं च प्रत्येकसूत्रे एष पश्चानामपि सूत्राणां सम्बन्धः सागारिभो विसनो, भीतो पुण पासए कूरं ॥ ११२ ।।
सामान्यत उक्तः। तेन संयतेनैवं शालीनपहरता तत्पल्यं निर्धालितम् ,रिकीक.
अथ विशेषतः संबन्धमाहतम् , ततः कचिदात्मीयकार्ये सागारिकस्य तत्रातिगमन प्रवे. शो भवेत् , ततः सागारिकः पल्यं रिलीकृतं रष्ट्रा विषण्णो
सालिच्छहि वि कीरइ, विगडं भत्तति सितोदयं पिवति । विषादमुपगतवान् भीतश्च । किमु स्तेनादयोऽत्र प्रविष्टा पाहारिमम्मि दोसा, जह तह पेजेवि जोगो यं ॥११६॥ भवेयुरिति शङ्कया तत्र परिभ्रमन् शालकूरमानीतं पश्यति । शालिभिरिक्षुभिर्वा विकटं क्रियते, अतो धान्यसूत्रानन्तसो भणइ कतो लद्धो, एसो अम्हं खु लद्धिसम्पन्नो। रमिदं विकटसूत्रमारभ्यते शालिकूरादिकमाहारं भुक्त्या अोभावणं च कुजा, धिरत्थु ते एरिसो लाभो ॥११३ ॥
दृषितो भवेत् , तृषितश्चोदकं पिवतीत्युदकसूत्रं निरूपणीस सागारिको भणति-कुत एष शालिकूरो लब्धः, ततः
यम् । यद्वा-प्राहारिमे तिलादौ भुक्ने सति यथा दोषा भव
न्ति तथा पेयेऽपि मद्यादौ पीयमाने दोषा भवन्त्येवेति साधवस्तदीयं वृत्तान्तमजानाना ब्रुवते-एष साधुरस्माकं लघिसम्पत्रः, अतः प्रतिदिनमीदृशं शालिकूरमानयति । ततः
तत्प्रतिश्रयेऽपि न स्थातव्यमित्यनेन संबन्धेनायातस्यासागारिकस्तं साधु ब्रूते-धिगस्तु मुण्ड ! तवेदृशं लाभ
स्य सूत्रस्य(४)ब्याख्या । सुरा-काष्ठपिष्टनिष्पन्नम् ,सौवीरक
किटं तु पिष्टवअँगुंडाविद्रव्यैर्निष्पन्नम्।ततस्सुराविकटकुम्भो येन प्रतिदिवसं शालीनपहत्यास्माकं पल्यं रिक्कीकृतमिति,
सौवीरविकटकुम्भो वा यत्रोपाश्रयस्यान्तर्वगडायाम्-उपनि अपभ्राजनं चा असौ लोकमध्ये कुर्यात् । यथा स्तेनका
क्षिप्तः स्यात्तत्र नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा यथालन्दकमपिकालं अमी अत्र च भद्रकमान्तकृता दोषा भवन्ति ।
वस्तुम् । 'हुरत्थाय'त्ति देशीपदं बहिराभिधायकम् ।चशब्दो भद्रकस्तावदिदमभिदध्यात्
वाक्यभेदद्योतकः । ततोऽयमर्थः-अथ बहिरन्योपाश्रय प्रत्युइहरह वि ताव अम्हं,भिक्खं व पलिं व गिएहइ न किंचि।। पेक्षमाणो नो लभेत तत एवं (से)-तस्य साधोः कल्पते एइम्हि सु तारिओ मि, ठवेमि अन्ने विजा धनो ॥११४।। करात्रं वा द्विरात्रं वा तत्र वस्तुम् । यस्तत्रैकरात्राहा द्विउतार्था । यस्तु प्रान्तो भवति स ब्रूयात् , अहो धर्मकम्बु- रात्राद्वा परम्-ऊर्ध्व वसति (से) तस्य संयतस्य स्वान्तक! प्रविष्टा अमी लोकं मुष्णन्तीत्यादि । अत्र “लहुगा - रा स्वस्वकृतं यदन्तरं त्रिरात्रादिकालावस्थारूपं तस्मात् गुग्गहम्मी, अप्पत्तिय धम्मकंबुए गुरुगा" । इत्यारभ्य “से-| छेदो वा पञ्चरात्रिन्दिवादिः, परिहारो वा मासलघुकादिजायरो य भएणइ, अन्नं धनं पुणो वि होइ इणमो । एसो अणु | स्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः। ग्गहो मे, जा साहुन दुक्खिनो कोह॥१॥” इति पर्यन्ता
अथ विस्तरार्थ भाष्यकृद्विभणिषुराहगाथास्तदवस्था एवात्र द्रष्टव्याः।
देसीभासाइकयं , जा बहिया सा भवे हुरत्यायो । उवस्सयस्स अंतोवगडाए सुरावियडकुंभे वा सोवीरय
बंधणुलोमण कयं , परिहारो होइ पुव्वं तु ॥ ११७॥ वियरडंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण
'हुरत्थे' त्ति यत्पदं तद्देशीभाषया कृतं निबद्धं बहिरामिवा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए हुरत्था य उवस्सयं धायकम् । ततो यो विवक्षितोपाश्रयादहिवर्तिनी बगडा सापडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा
'हुरत्थेति' शब्देनोच्यते । अथ परः प्राह-परिहारस्तावदुरायं वा वत्थए हुरत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ |
तपोविशेष उच्यते , छेदस्तु पर्यायच्छेदरूपः तत्सूत्रम्-से
संतरा परिहारे वा छेए वा' इति पठितुमुचितं किमर्थवा वत्थए दुरायाओ वा वत्थए। जे तत्थ एगरायाश्रो वा
व्यत्यासेन पाठ इत्याशयाह-बन्धानुलोम्येन सूत्रे परिदुरायानो वा परं वसेजा सेसंतरा छेए वा परिहारे वा ॥४॥ हारपदात् पूर्व छेदपदं कृतम् । किमुक्तं भवति-एवंविधो हिएवमुदकादिसूत्राएयुचारणीयानि।
पाठः सुललितपदविन्यासतया सुसिष्टो भवतीति हत्या अथामीमां कः संबन्ध इत्याह
सूत्रकृता प्रथमं छेदपदमुपन्यस्तम् । एगंत उवस्सऍहि, वाघाया तेसि होति अबोबा। । अहवा वारिजंतो, निकारणो वि तिण्ह वि परे। साहारगपत्तेगा, जा पिंडो एस संबन्धो ॥ ११५ ॥ | छेयं चिय भावज्जे , छेयमो पुबमाइंसु ॥ ११८॥
२३८
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(६५०) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि अथ यदि तत्र विकटयुक्तोपाश्रये गुर्वादिना वार्यमाणो राचार्यों भिक्षाविचारभूम्यादिनिर्गतेषु अगीतार्थसागारिक निष्कारणं तावदपतस्तिष्ठति त्रयाणां चाहोरात्राणां परत- भणति कुत्र मद्यमस्तीत्येवं परिझानार्थम् । स्तिष्ठति, तदा छेदास्यमेव प्रायश्चित्तमसावापद्यते । तच्छेद
किं भवतीत्याहपदं पूर्व प्रथममुक्तवन्तो भगवन्तो भद्रबाहुस्वामिनः ।
गोडीणं पिट्ठीणं, वसीखं चेव फलसुराणं च । अथ सुरासौवीरकपदं ब्याचष्टे
दि8 मऍ संनिचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं ॥१२॥ पिढेण सुरा होति, सोवीरं पिट्ठवजियं जाण ।
गौडीना-गुडनिष्पन्नानां पिष्टीनां-ब्रीह्यादिधान्यक्षोदठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थसुत्तं तु ॥ ११६ ॥
निष्पनानां वंशीनां-वंशकरीलकनिष्पन्नानां फलसुराणां ग्रीह्यादिना सम्बन्धिना पिष्टेन यद्विकटं भवति सा सुरा,
च तालफलद्राक्षाख‘रादिनिष्पन्नानाम् एवंविधानां सुयतु पिटवर्जितं द्राक्षाखर्जूरादिभिर्द्रव्यैर्निस्पाद्यते तन्मय
राणां संनिचया अन्यस्मिन् देशे मया कुटुम्बिना सौवीरकविकटं जानीयात् । एतद् द्विविधमपि यत्रोपनिक्षिप्त
गेहेषु दृष्टाः, “एवं च भणियमित्त-म्मि निकारणे सो भवति तत्रोपाश्रये तिष्ठतां चतुर्लघुकाः,कस्य पुनरेतत्प्रायश्चि
भणइ बेहिच्छं। अत्थिमहं संनिचया, पिच्छह नाणासमित्याह-अगीतार्थस्य सूत्रं तु-"कप्पर पगरायं वा दुपयं
विहे मज्" इत्यादिका, दारं ' न हो इत्ती' इति या वत्थर" इत्यादिलक्षणं गीतार्थविषयं मन्तव्यम् । इत ऊर्व "नऽस्थि अगीयत्थोव"इत्यादिकाः "कास इच्छा समुप्पा"
पर्यन्ता गाथाः प्राग्वदत्र सव्याख्याना द्रष्टव्याः। इति पर्यन्ता गाथास्तवस्था एवात्र द्रष्टव्याः ।
अथात्रैव विशेषतो यतना कर्त्तव्या अथ कीशी तस्येच्छा समुत्पन्नेत्याह
तामभिधित्सुराहअणुभूमा मज्जरसा, गवरि मुत्तणमेसि मज्जाणं। गहियम्मि व जा जयणा, गेलने अधव तेण गंधेणं । काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसु समारद्धो ॥ १२०॥ सागारियादिगहणं, णायब्वं लिङ्गभेयाइ ॥ १२६ ॥ अनुभूता मया बहबो मद्यरसाः परममीषां मद्यानां रसान् | शैक्षपि विकटे गृहीते पीते सति या यतना सा वक्तमुक्त्वा अतः करिष्यामि कौतूहलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेषु सा
व्या । ग्लानत्वे वा वैद्योपदेशन विकटं ग्रहीतव्यम् । अथधुषु समारब्धोऽसौ तद्भाजनमुद्धाट्य विकटपानं कर्तु,'ततश्च- वा-तेन विकटसंबन्धिना गन्धेन कस्यापि गृहवासे विकटइहरा कथासु सुणिमो, इमं खु संकाविसायणं मजं। भावितस्याध्युपपातो भवेत् , ततः सागारिकः शय्यातरपीते वि जायति सती,तज्जुसिताएं किमु अपीते।।१२१॥
आदिशब्दात्-श्रावको वा यो मातापितृसमानस्ततो विक
टस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् ,यदि स्वलिङ्गेन न प्राप्यते उडाहो वा भइतरथा अद्यदिनात्पूर्व कथास्वेवं शृणुमः परमिदं तत्कथा
वति ततो लिङ्गभेदादिकमपि नेतन्य-कर्त्तव्यमिति यावदेष स्तरभूतकातिशायिनं मद्यम् , एवं तम्मा-जुषितं-सेवितं निर्यनिगाथासमासार्थः । यैस्ते तज्जुषिताः, गृहवासे विकटपायिन इत्यर्थः। तेषां पीतेऽपि विकटे स्मृतिरुपजाते । किं पुनरपीते।
अथैनामेव विवरीपुराहविगयम्मि कोउहल्ले, बहुवयविराहण त्ति पडिगमणं ।
पीयं जहा होज वि गोविएणं,तत्थाणइंताण रसं छुभंति । वेहाणस ओहाणे, गिलाणसोहाग वा दिवो ॥१२२॥
भिन्ने उगोणादिपए करेंति,तेसिं पवेसस्स तु संभवम्मि १२७ गतार्था ।
यदि कदाचित् कोविदेन शैक्षकेण शेषसाधुषु प्रसुप्तेषु तउहाहं च करिजा, विप्परिणामो पहुज सेहस्स ।
द्विकटं पीतं भवेत्तदा गीतार्थास्तत्र विकटभाजने रसमिधुरगिएहतेणं तेणं, खंडियविद्वे व भिने वा ॥ १३३ ॥
सादिकमानीय प्रक्षिपन्ति । अथ कथमपि तद्भाजनं गृह्यमाणं
मुच्यमानं वा भिन्नम्, ततो भिन्ने सति तस्मिन् गवादीनां पशैक्षस्तं संयतं विकटपानं कुर्वाण दृष्टा लोकस्य पुरत उहाहं कुर्यात्, विपरिमाणो वा शै तस्य भवेत् । विपरिणतश्च
दानि प्रतिश्रयप्राङ्गणे प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति च कुर्वन्ति
श्रालिखन्तीत्यर्थः । येन सागारिको जानीते, यथा-गवादिना सम्यग्दर्शन चारित्रं लिङ्गं वा परियजेत् , तथा तेन संयतेन विकटभाजनं गृह्णता वाशब्दात्-मुश्चता वा तद्भाजनं ख
प्रविश्य भग्नमिदं भाजनमिति । परं यदि तेषां गवादीनां तत्र रिडतम्-एकदेशभग्नम्,विद्धं वा-पतितछिद्रम्, भिन्नं वा-द्विधा
प्रवेशः संभवति,अन्यथा हि सागारिकः प्रद्वेषं जायात् । एवं
तावदमी इत्थं कर्मकारिणः, अपरं च तदपढ़वनायेत्थं कृतं भवेत् । इत ऊर्व 'फेडियमुद्दा तेणे' इत्यारभ्य"अम्हे ठि
प्रपञ्चमुपरचयन्ति । धिगमीषां पासण्डिनां धर्ममिति । एलगंथिय, अहापवत्तं वहह तुम्भे” इति पर्यन्तं गाथाकदम्बं तथैवाध्येतव्यम् , नवरं मद्याभिलापः कर्त्तव्यः ।
बिंधिं तु पीए जउणा ठवेति, ततश्च
मुद्दा जहा चिट्ठइ अक्खुणासे । आम ति अन्भुवगए, भिक्खवियाराइनिग्गयामएसु । जाणम्मि दिट्ठम्मि भणंति पुट्ठा, भणइ गुरू सागॉरियं,कहि मजं जाणणढाए ॥१२४॥ नूणं परिस्संदति भाणमेयं ॥ १२८ ॥ यदि शय्यातरेणापि अभ्युपेतम् , यूयं निश्चिन्तास्तिष्ठत विकटे पीते तद्भाजनं द्वारदेशे वस्त्रादिना तद्वत् जतुनावयं यथा प्रवृत्तं व्यापारं चिन्तयाम इति । ततो गुरु- लाक्षया स्थगयन्ति,तथा-'सेतस्य भाजनस्य मुद्रा क्षता ति
गताथा।
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(५१) बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि ठति । अथ सागारिकस्तद्वाजनस्यन्दनं रवा पृच्छति किम- इत्यादिका मचाभिलापविशेषिता गाथाः सर्वा अपि तथैथमिदं स्यन्दनमवलोक्यते , एवं पृष्ठाः सन्तो भणन्ति-नूनं | वाऽत्र वक्तव्याः। भाजनमिदं परिस्यन्दति ।।
उवस्सयस्स अंतोषगडाए सीयोदगवियडकुंभे वा उसिसबम्मि पीए अहवा बहुम्मि,
णोदगवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गसंजोगयादी उवयंति अन ।
न्थाण वा निग्गन्थीण वा अहालंदमवि वत्थए हुरत्था य अभबमग्गी उ छुहंति तत्थ,
उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगगीयं कयं वा गिहिलिङ्गमाई ॥ १२६ ॥ रायं वा दुरायं वा वत्थए नो से कप्पइ परं एगरायाभो सर्वस्मिन्नथवा-बहुके विकटे पीते सति ये संयोगपा
वा दुरायाओ वा वत्थए,जे तत्थ एगरायाभो वा दुरायामो तिनो तनिष्पत्तियोग्यद्रव्यसंयोगवेदिनस्ते तथाविधानि
वा परं वसेजा सेसंतरा छेए वा परिहारे वा ॥ ५॥ द्रव्याणि संयोज्य विकट स्थापयन्ति । अथ न सन्ति संयोगपातिनस्ततोऽन्यत् विकटं मार्गयित्वा
अस्य संबन्धमाहतत्र प्रक्षिपन्ति, तच्च प्रथमतः शुद्धम् । तदभावे छोदण दगं पिजइ, गालिंति दगं व छोदुणं वंतुं । पश्चकपरिहाण्या चतुर्लघुकं प्राप्तेन क्रीतकृतमपि प्रहीत- पातुं मुहं व धोवइ, तेणऽहिकारो सजीवं वा ।। १३३ ॥ व्यम् । यदि स्खलिनेन गृहतामुडाहो भवति, न वा तेन प्रा
यतो दकं-पानीयं प्रक्षिप्य विकटं पीयते, ततो विकटप्यते ततो गृहिलिङ्गम् । प्रादिशब्दाद्-अन्यतीर्थिकलिकं वा
सूत्रानन्तरमुदकसूत्रम् , यद्वा-वकं प्रक्षिप्य तद्विकट गाकर्तव्यम्।
लयन्ति । अथवा-विकटं पीत्वा तजनितदौर्गन्ध्यव्यपगअथ 'गेलने अ अहव तेण गंधेणं' इत्यादि मार्थ उदकेन मुखं धावन्ति, तेन कारणेन विकटानन्तरम् पदानि व्याख्याति
उदकाधिकारः प्रारभ्यते । यद्वा-तद्विकटं निर्जीवं वा भवेत् तम्भावियट्ठा व गिलाणए वा,
इत्यनेकैस्संबन्धेरायातस्यास्य (५) व्याख्या प्राग्वत् , नवरं पुराणसागारियसावए वा।
विकृत-शीतोष्णादिशस्त्रेण विकारप्रापितं प्राशुकीकृतमित्यवीसं भणीबाण कुलाण भावा,
र्थः शीतोदकं च तद्विकृतं च शीतोदकविकृतम्। तस्य कुतो
घटः, एवमुष्णोदक विकृतकुम्भोऽपि । • गिएइंति स्वस्स विवजिएणं ॥१३०॥
अथ भाष्यम्तेन विकटेन पूर्व भावितस्तद्भावितः, स तत्र विकटे ना
सीतोदे उसिणोदे, फासुगमप्फासुगे चउन्भनी। ध्यापयितुं भवति, ग्लानो वा कश्चित्तेनैवोपयुक्नेन प्रगुणीभवति, नान्यथा । ततस्तदर्थ पुराणस्य-पश्चात्कृतस्य सका
ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थसुत्तं तु ॥१३४ ॥ शात्तद्भयेन वा पितृसमानो यः सागारिकस्तस्य हस्ता- शीतोदकोष्णोदकमप्राशुकप्राशुकयोश्चतुर्भङ्गी भवति । गात्तदप्राप्तौ प्रतिपन्नाणुव्रतस्य मातापितृसमानस्य श्राव- थायां प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः, तद्यथा-शीतोदकं प्राशुकम्१, . कस्य वा पााद् ग्रहीतव्यम् । अमीषामभावे, यद्वा-भद्रका- शीतोदकमप्राशुकम्२, उष्णोदकं प्राशुकम्३, उष्णोदकमप्राशुन्यपि यानि विश्रम्भणीयानि कुलानि नोडाहकारीणीत्यर्थः ।। कम्, तत्र प्रथमभने उष्णोदकमेव शीतीभूतं तन्दुलधावनातेषु प्रहीतव्यम् , तेषामप्यभावे यदि स्खलिनेन गृह्णाति ततः | दिकं वा, द्वितीय शीतोदकमेव स्वभावस्थम् । तृतीयभन्ने प्रवचनोपघातो भवेत् । अतो रूपस्य विपर्ययेण गृहन्ति लिङ्ग- उष्णोदकमुद्वृत्तत्रिदण्डम् । चतुर्थभने तप्तोदकादिकं मन्तव्यविवेकं कृत्वा विकटमुत्पादयन्तीति भावः ।
म् । एवंविधोदकप्रतिबद्ध प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्नघुकाः, एवमच्चाउरं वा वि समिक्खिऊणं,
मविशेषणोक्तावप्ययं विशेषः-प्रथमतृतीययोलघु. द्वितीयचतु.
र्थभनयोश्चतुर्लघु । आह च निशीथचूर्णिकृत्-' पदमतइयभंगे खिप्पं तो घेतु दलिनु तस्स ।
ठायतस्स मासलहुं, बितियचउत्थेसु चउलहुं,' आह-कस्य अनं रसं वा वि तहिं छुभंति,
पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् , गुरुराह-अगीतार्थस्य सूत्रं पुनरनुसा. ___ संगं व सेतं हवयंति तत्तो ॥१३१ ॥ विषयं गीतार्थमधिकृत्य प्रवृत्तमित्युपस्कारः इत ऊर्ध्वम् - अत्यातुरं वा तं ग्लानं समीक्ष्य क्षिप्रं-शीघ्र ततः प्र
थि अगीयत्थो वा' इत्यारभ्य 'का स इच्छा समुप्पना' इति तिश्रयवर्तिनो विकटभाजनाद् गृहीत्वा तस्य ग्लानत्य दत्त्या पर्यन्तं भाष्यमुदकाभिलाषविशषितं वक्तव्यम् । गीताथोस्तत्राम्यं वारयन्ति प्रतिपन्ति, ततश्च से' तस्य- कीरशी पुनरिच्छा तस्य समुत्पन्ना ? उच्यतेग्लानस्य तं विकटविषयं संहापयन्ति कार्य तिष्ठति
अणुभृया उदगरसा, नवरं मुत्तुं इमेसि उदगा। सति विकटप्रसङ्ग निवारयन्तीति भावः । गता स्वप
काहामि कोउहल्लं, या सुत्तेसुं समारो॥१३५॥ क्षयतना। अथ परपक्षयतनामाह
अनुभूता मया उदकानां रसाः, नवरं मुक्त्वा अमीषामपरपक्खितम्मि दारं, पिति जयणाएँ दो वि वारेति ।
दकानां रसान् , अतः करिष्याम्यहमेतद्विषयं कलासं स.
फमिति विचिम्त्य प्रसुभेषु शेषेषु साधुष समारब्धमुकतह विय अडॉपमाणे, उवेह पुट्ठा व साहति ॥१३२॥
कपान कर्तुम्।
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बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि कानि पुनस्तान्युवकानीत्याह
गहियं च तेहि उदकं, वित्तूण गया जहिंसि गंतव्वं । धारोदए महासलि-लाजले संभारिते व दब्बेहिं । सागारिभो व भणई, सउनीविय रक्सई तिएई ।१४१॥ तराहा य तस्स व सती, दिवाव रामो व उप्पजे ॥१३६॥ उतार्था । धारोदकं नाम-गिरिनिकरजलम्, यथा-उज्जायन्तादी, प्रान्त दगमायणाणि दहूं, सजनं बहियं दगं च परिसडियं । रिक्षवा,महासलिला-नाप्रभृतयो महानद्यस्तासां जलं महा- केण इमं तेणेहिं, भसिट्टे भद्देयर इमे उ ॥ १४२॥ सलिलाजलम्, द्रव्यैः-कर्पूरपाटलादिभिः संभारित-बासितं द्रव्यसंभारितम् । एष पानीयेषु वृष्णयाऽपि तस्याभिलाषो भ.
सागारिको दकभाजनानि स्वजनं चाहाजनमपहतं दर्क पति, पूर्वानुभूतेषु तु दिवा वा रात्रौ वा स्मृतिः संस्मरणसु
वा परिशटितं राष्ट्रा पृच्छति-केनेदं जलमपहतम् , साधयो त्पद्यते।
झुवते-स्तेनैः । ततोऽसौ भूयः प्रश्नयति के पुनः स्तेनाः? ततमोदकमपि पिवनात्मनो हृदयस्य प्रत्यक्षमिदमाह
ततो यदि नाम्ना घराणेन वा तान् कथयन्ति ततस्तेषां इतरा कहासु सुणिमो, इमं तु तं विमलसीतलं तोयं ।
बन्धनादयो दोषाः । अथन कथयन्ति ततोऽशिष्ट-भकथिते
भद्रकमान्तकृता इमे दोषाः। विगयस्त वित्थि रसो,इति सेवे धारतोयादी॥१३७|| इतरथा कथान्तरेषु शृणुमः, परमद्य विमलशीतलं तत्कथा
लहुगा अगुग्गहम्मी, गुरुगा अपत्तियं च कायव्वा । उम्तरभुतं ततोयमास्वादितम् , यचोष्णोदकादिकं विकृतं- लहुगुरू संकुणते, छम्मासा करमरे छेमो ॥ १४३॥ ज्यपमतजीवमुदकं पिवामः तस्यापि शस्रोपहतत्वेनान्यथा- इत ऊर्ध्वम् “बामन्ति अम्भुवगए, भिक्खवियारा निग. भूतस्य रसो नास्तीति मत्वा धारतोयादिकं जलं सेवते। । यमपसुं । भणइ गुरू सागारिय, कत्थ दगं जाणखट्टाए।" विगतम्मि कोउतम्मि, छट्ठवयविराहण ति पडिगमणं ।। इति पर्यन्तं गाथाकदम्बकं प्राग्वत् । वेहाणसमोहाणा, गिलाणसेहेण वा दिहो ॥१३८॥ कथं पुनः सूरयः सागारिकं प्रश्नयन्तीस्याहविगते उदकपानकौतुके स संयतः षष्ठव्रतविराधना म-| चउमूल पंचमूलं, तलोदगं तावतिलयतोयाणं । या कृतेति मत्वा प्रतिगमनं वा वैहायसं वा मरणम् “ओ-|
दिद्वं.मऍ सम्मिचया, अनयदेसे कुटुंबीयं ॥ १४४ ॥ हावण सि"अवधावनं कुरुते । ग्लानेन वा शैक्षेण वा स
चतुर्मूलं नाम-चतुर्भिः सुरभिमूलैर्भावितमेवं यत्पश्चदृष्टो भवेत् ।
भिर्मूलैर्भावितं तत्पश्चमूलम् , तलोदकानि यत्र तोसलिषिषततश्च
ये तलतोयानि राजगृहादौ एवंविधानामुदकानां संतहाइओ गिलाणो, तं ददु पिवेज जा विराहणया । | निचया मयाऽन्यस्मिन् देशे कुटुम्बिनां गेहेषु रष्टाः, “एवं एमेव सेहमादी, पियंति अप्पच्चो वासिं ॥ १३६ ॥ च भणियमन्त्र-म्मि कारणे सो भणार मायरिपत्रग्लानस्तृष्णायितस्तं संयतमुदकमापिबन्तं दृष्टा पानी
स्थिमहं संनिचया, पच्छह नाणाविहे उदए " इत भारभ्य यं पिबेत् । तेन या पथ्यतया तस्यानागाढपरितापादिका | "जाणता वि य यतण, मवन्नमवेण सा होति" इति पर्यविराधना , तनिष्पन्नम् । एवमेव च शैक्षादयोऽप्यपरि
| तं भायं तथैवात्र वक्तव्यं नवरमवकाभितापः कर्तव्यः। णतास्तदुदकमापियन्ति, अप्रत्ययो वा अमीषां भवेत् ।
ज्योतिःसूत्रम्यथैतन्मृषा तथाऽन्यदपि, सर्वममीषामुन्मत्तप्रलपितमिति | उवस्सयस्स अन्तोवगडाए सब्बराईए जोई झियाए" उहाहं च करिजा, बिप्परिलामो व हुज सहस्स। | जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा गिग्गन्धीण वा प्रगिराईतेल व तेणं, खंडियबद्धे च भिन्ने वा" इत्यारभ्य " उदकासम्रो य छसू-सबो कजं पि य तारिसे
हालंदमवि वत्थए हुरत्थाय उवस्सयं पडिलेहमाणे नो ण उद्गेण । तेणाण य आगमणं, अच्छह तुरिहकया ते | लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं नाववा" इति पर्यन्ता गाथा गतार्थाः ।
स्थए नो से कप्पइ परं एगरायानो वा दुरायाभो मथ यैः कारणैः स्तेना उदकमपहरन्ति तानि दर्शयति-- | वा बत्थए । जे तत्थ एगरायाभो वा दुरायाओ बा ऊसपछणेसु संभा-रियं दगं तिसिय रोगियट्ठाए। । परं वसेजा सेसंतरा छए वा परिहारे वा ॥ ६ ॥ दोहलकुतूहलेण व, हरंति पडिवेसियाई य ॥१४॥
एवं प्रदीपसूत्रमप्युच्चारणीयम्।
प्रथास्य सूत्रद्वयस्य का सम्बन्ध इत्याहउत्सवाः क्षणाश्च पूर्वोक्काः तेषु प्रत्यासनेषु स्तेना उदकं हरेयुः । यद्वा--तृषिताः सन्तः सूर्यपानार्थ संभारितं |
उदकाणंतरमग्गी, सो उ पईवो व होज जोई वा। कर्पूरपाठादिवासितं चतुर्थमूलं पञ्चमूलरुतं वा तदु
पडिवक्खेणं व गयं, समागमो एस सुत्ता ॥ १४५ ।। दकमपहरन्ति । यद्वा-रोगी कश्चित्तेषामस्ति, तस्य ता प्रवचने ह्यष्कायप्ररूपणानन्तरं अग्निकायः प्ररूप्यते, अतोऽपानीयं पथ्यं तदर्थम्, अथवा--गर्भिण्यास्ताश- त्राप्युदकसूत्रानन्तरमग्निसूत्रमारभ्यते । स चाग्निःप्रमुदकपाने तु दोहदं समुत्पन्नम् , यदि वा--कुतूहलं ते- दीपो वा स्यात्,ज्योतिर्वा । 'पडिवक्खेणं वगय'ति भावप्रधापामुदपादि कीदृशोऽस्य पानीयस्य रसः, एवमेभिः कार-| नत्वानिर्देशस्य, पक्षतया वा इदं सूत्रमागतम् । किमुक्तं भवतिबैः प्रतिवेश्मिकादयः स्तेना अपहरेयुः ।
अप्कायस्याग्निकायः शस्त्रम् , अग्निकायस्याकायः, अत एतौ
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वसहि
.
अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि परस्परं प्रतिपक्षौ, प्रतिपक्षत्वेन वा अपकायानन्तरं साम्प्रत- चतुर्गुरवश्चतुर्लघवश्च । शेषेष्वायावश्यिकीनषेधिकीकरणामग्निः प्ररूपणीयः, एष समागमसम्बन्धो द्वयोरपि सूत्रयो- दिषु स्थानेषु प्रत्येकमग्निविगधनानिष्पन्नं चतुर्लघु । मन्तव्यः, इत्यनेन संबन्धेनायातस्य प्रथमसूत्रस्य (६) तावत् |
अमुमवार्थ स्फुटतरमाह-- व्याख्या । सा च प्राग्वत् , नवरं सावरात्रिकं ज्योतिरग्निर्य
पेहपमजणवासग , रोपाश्रये ध्मापयेत् धातूनामनेकार्थत्वात् प्रज्वलेत्तत्र साधु
अग्गी ताणिं अकुव्वत्रो जा (परि) हाणी । साध्वीनां वस्तुं न कल्पते ।
पोरिसिभंगे सजोई, अथ भाष्यविस्तरः--
होति मणो रतिमरति वा ॥१५० ॥ देसीभासाएँ कयं, जा बहिया सा भवे हुरत्थाओ। उपकरणप्रत्युपेक्षांवसतिघ्रमार्जनांचासयत्ति आकारलोपावंधणुलोमेण कयं, छए परिहारपुव्वं तु ॥ १४५ ॥ दावश्यकं च, यदिति तदग्निविराधनानिष्पन्नं चतुर्लघु,आकारअहव ण वारिजंतो, निकारणो व तिण्हं व परेणं ।
लोपात्तदोषभयादेतानि न करोति ततः संयमपरिहाणिस्तछेयं चिय आवजे, छेयमओ पुचमाहंसु ॥ १४६ ।।
निष्पन्नं सूत्रपौरुषीभङ्गे मासलघु.अर्थपौरुषीभङ्गे मासगुरु,'श्र गाथाद्वयमपि गतार्थम् ।
भंगित्ति तथाकरणे अग्निविराधना । अथ सज्योतिरुपाश्रय
इति मनसि रतिर्भवति तदा चतुर्गुरु, अरतिर्भवति तदा ज्योतिःस्वरूपं निरूपयति
चतुर्लघु । दुविहो य होइ जोई, असव्वराई य सव्वराई य ।
जइ उस्सग्गे न कुणइ,तइ मासा सव्य अकरणे चउलहुगा। वायतगाणं लहुगा, कास अगीयस्थ सुतं तु ॥१४७॥
वंदणथुई अकरणे, मासो संडासकाईसुं ॥ १५१ ।। ज्योतिरनिकाय उद्दीप्तम् ,तत् द्विषिधम्-असावरात्रिकं कि.
आवश्यके यावतः कायोत्सर्गान् न करोति तावन्तो यतीमपि रात्रिं यत्प्रज्वलति, तद्विपरितं सार्वरात्रिकमुभयो
लघुमासाः । अथ सर्वमप्यावश्यकं न करोति, ततश्चतुर्लघु । रपि तिष्ठतां चतुर्लघुकाः । अथ कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम् ?,
अथ वन्दनकं न ददाति स्तुतिमङ्गलं वा न करोति, ततो उच्यते-अगीतार्थस्थ, सूत्रं तु गीतार्थप्रवृत्तमिति ऊर्द्धम्-'न
यावन्ति वन्दनकानि यावतीः स्तुतीर्वा न प्रयच्छति तावन्ति स्थि अगीयत्थो वा' इत्यारभ्य ' रमणिज भिक्खगामो, छायं.
मासलघूनि । अथ यदि ददाति ततश्चतुर्लधु,उपवेशनसंडाशतह जोइसालाए' इति पर्यन्तं भाष्यं तथैवात्र वक्तव्यम् ।।
कं न प्रमार्जयति मासलघु, अथ प्रमार्जयति ततश्चतुर्लघु । अथ तत्र स्थितानां दोषानुपदर्शयति
अथ निष्क्रमणादिपदेषु प्रायश्चित्तमाह । उवगरणे पडिलेहा, पमजणा वा सपोरिसि मणे य । आवस्सिगानिसीहग-पमन्ज-आसज्ज-अकरण इमं तु । निक्खमणे य पवेसे, आपडणे चेव पडणे य ॥१४८॥ पणगं पणगं लहु लहु, आवडणे लघुगजं वमं ॥१५२॥ वसती स्थितानामुपकरणप्रत्युपेक्षणे वसतेः प्रमार्जने श्राव- निष्कामन्तो यद्यावश्विकीं न कुर्वन्ति पञ्चकम् , प्रविशन्तो श्यकस्य सूत्रार्थपौरुष्योर्वा करतो, 'मणे य 'त्ति मनसा रा- नैषेधिकीं न कुर्वन्ति पञ्चकम् , निर्गमप्रवेशौ कुर्वाणा न प्रमागद्वेषगमने, निष्क्रमणे च प्रवेशे चकमणे नैषेधिक्यावश्यि- जयन्ति मासलघु । श्रावश्यकशब्दस्याकरणे.मासलघु । पापक्योः करणे अपनयेनैष गच्छता अणुष्वप्कायादिषु स्खलने प. तनम् यद्भूमिसंप्राप्तस्य वा जानुकूपराभ्यां प्रस्खलनम् , सर्वतने च प्रतीते, पतेषु या तेजस्कायस्यात्मनो वा विराधना त- गात्रेण भूमौ प्रणतः द्वयोरपि चत्वारो लघुमासाः, यश्चापतिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथैतद्दोषभयात्प्रतिलेखनाप्रमार्जनादि | तः यदि चात्मविराधनादिकमापद्यते तनिष्पन्नम् । अथवान करोति ततोऽपि प्रायश्चित्तम् ।
यच्चान्यदग्नी प्रतापनादि करोति तदत्र द्रष्टव्यम् । किं पुनस्तदित्यत श्राह
तदेव दर्शयतिपणगं लहुओ गुरुया, चउरो मासा य चउसु ठाणेम ।
सेहस्स विसीयणया, ओसक्कविसकअन्नहिं नयणं । लहुगा गुरुगा य मणे,सेसेसु वि होंति चडलहुगा।१४।।
विज्झविऊण तुअट्टण,अहवाऽवि भवे पलीवणया।१५३। यदि ज्योतिःशालायां स्थिताः अग्निसंघट्टो मा भूदिति
शैक्षस्य शीतार्तस्य चाशातना स्याम् , अग्नौ प्रताप्य स कृत्वा वस्त्राद्युपकरणं न प्रत्युपेक्षन्ते ततो जघन्ये पञ्चकम् ,
विगतशीतमात्मानं कुर्यादिति भावः । अत्र च यावतो व्यमध्यमे मासलघु, उत्कृष्ट चतुरो लघवः । वसतिं न प्रमार्ज
रान् हस्तौ पादौ वा प्रतापयन् परावर्तयति तावन्ति चतुयन्ति , यद्वा-निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो वाऽग्निविराधनाभया
लघुनि । तथा विष्वष्कण-शीघ्रविधमापनार्थ ज्वलदुल्मुकाना. न प्रमार्जयन्ति उभयत्रापि मासलघु । आवश्यकं न कुर्वन्ति
मपकर्षणम् । अवष्वकर्ण तु-तेषामेव प्रज्वलनार्थमुदीरणम् , चतुर्लघु, सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु । अर्थपौरुषी न
अन्यत्र नयन नाम शयनस्थानाभावादग्नेः स्थानान्तरसंक्र
मणम् , तथा प्रदीपनकभयादग्नि क्षारेण धूल्या वा विध्माप्य कुर्वन्ति मासगुरु । अथैतद्दोषभयादुपकरणप्रत्युपेक्षणां वसतिप्रमार्जनामावश्यकसूत्रार्थपौरुष्यो न कुर्वन्ति तत एतेषु चतु
त्वग्वर्तनम् , एतेषु प्रत्येकं चतुर्लघुकम् । वपि स्थानेषु प्रत्येकं चत्वारो मासलघवः । यस्तु शोभनं
अथवा-प्रतापयतः प्रमादतः प्रदीपनकं भवेत् ,
तत्रेदं प्रायश्चित्तम्समजनि यदेवं प्रकाशे स्थाने स्थिता इत्येवं रागं करोति, यस्य वा सुप्रदेशे निद्रा न गच्छति स यदि तत्र द्वे
गाउअदुगुणा दुगुणं, वत्तीसं जोयणाइ चरिमपदं । षं करोति तत एवं मनसा रागद्वेषकरणे यथाक्रम | चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेत्रो मूलं तह दुगं च ॥१५४।।
२३६
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(६५४) बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वमाहि गम्यूतादारभ्य द्विगुणाद् द्विगुणवृद्धया द्वात्रिंशद्योजनलक्षणं| घटादि भाजनादि करोतीत्यर्थः । पचनशाला नाम-यत्र पाकबरमपदं यावदिदं प्रायश्चित्तम् । यद्येकं गव्यूतं दह्यते ततश्च स्थाने वासु भाजनानि पच्यन्ते, इन्धनशाला तु-यत्र तृणस्वारो लघुमासाः,अर्द्धयोजनं दह्यते चत्वारो गुरुमासाः, यो. करीषकचबरास्तिष्ठन्ति, व्यावरणशाला नाम-बहुमते विजनं दह्यते पद मासलघवः, योजनद्वये षण्मासा गुरवः, चतु
पये प्राममध्ये शाला क्रियते, तत्र अग्निकुण्डं स्वयं घे योजनेषु छेदः,अष्टसु मूलम् ,षोडशसु अनवस्थाप्यम् ,शा
बरहेतोर्नित्यमेव ज्वलति, तत्र च बहवञ्चेटकाः । एका त्रिंशद्योजनेषु दग्धेषु पाराश्चिकम् ।
च स्वयंवरा चेटिका प्रक्षिप्यन्ते-प्रवेश्यन्ते इत्यर्थः ।
यस्तेणं मध्ये तस्यैव प्रतिभाति तमसौ वृणोते, एषा व्यावतथा
रणशाला । एतासु तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः । गोणे य साणमाई, वरणे लहुगा य जं व अहिगरणं ।।
नवरम्लहुगा आवरणम्मि, खंभतणाई पलीवेजा ॥१५॥
इन्धनसाला गुरुगा, आदित्ते तत्थ नासिनो दक्खं । तन प्रविशतो गोश्वा (ना) दीन् यदिवारयन्ति तदा चतुर्ल घुकाः, एते वारिताः सम्तो हरितकायादिविराधनारूपमधि
दुविहविराहणझुसिरे,सेसा अगणी य सागरिए ॥१६॥ करणं कुर्वन्ति तनिष्पन्नम् । अथ न वारयन्ति ततोऽपि चतु
इन्धनशालायां तिष्ठतां चत्वारो गुरुकाः, कुत इत्याह-तत्र लघवः, प्रविष्टाश्च प्रज्वलदिन्धनचालनेन स्तम्भवृणादीनि प्र
तृणकरीपादावादीप्ते-प्रदीप्ते सति नष्टं दुःखं दुष्करं सुचिरं दीपयेयुः,तत्रापि गव्यूतादारभ्य द्विगुणाद् द्विगुणवृझ्या द्वात्रिं
च तत् तृणादि भवति । ततस्तत्र द्विधा विराधना, संयमाशद योजनेषु पाराश्चिकम् । यत पते दोषाः अतो न ज्योतिः
त्मविषया, शेषासु-पणितशालादिषु भाजनविक्रयऋयिकादिशालायां स्थातव्यम् । भवेत्कारणं येन तत्रापि तिष्ठेयुः ।
भाजनेन सागारिकः पचनशालायां पुनरग्निदोषो भवति । किं पुनस्तदिति चेदुच्यते
पतासु द्वितीयपदे तिष्ठतां विधिमाहप्रद्धाण निग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए ।
पढमं तु भंडसाला, तहि सागरि नऽत्थि उभयकालं पि । गीयत्था जयणाए, वसंति तो अगणिसालाए ॥१५६॥
कम्मापणि निसि नत्थी, सेसकमणिधणिं जाव।।१६२॥
शुद्धोपाधयालामे प्रथम भाण्डशालायां तिष्ठन्ति, यतस्तअध्वा-महदरण्यम् ततो निर्गताः, श्रादिशब्दाद्-अशिवाव
त्रोभयकालेऽपि दिवारात्री सागारिको नास्ति, तदभावे कमौदर्यादिषु वर्तमाना विकालवेलायां ग्राम प्राप्तास्त्रिकृत्वः
र्मशालायाम्, तदप्राप्तौ आपणिशालायामपि यतस्तत्र निशि. श्रीन वारान् शुद्धां वसतिं मार्गयन्ति, यदि न प्राप्यते ततो
रात्री सागारिको नास्ति । तदभावे शेषासु पचनशालादिपु गीतार्था यतनया अग्निशालायां वसन्ति ।
क्रमेण स्थातव्यं यावदिन्धनशाला । तद्यथा-प्रथमं पचनएतदेव स्पष्टयति
शालायाम्,ततो व्यावरणशालायाम्,तत इन्धनशालायामपि। प्रद्धाण निग्गयाई, तिएहं असई य फरुससालाए।
तत्र स्थितानां यतनामाहगीयत्था जयणाए, वसंति तो पचणसालाए ॥१५७|| ते तत्थ संनिविट्ठा, गहिया संथारगा बिहीपुवं । अध्वनिर्गतादयस्तिसृणां-पणितशालामाराडशालाकर्मशा
जागरमाणा वसंति, सपक्खजयणाएँ गीयत्था ॥१६॥ लानामन्यतरस्याः परुषशालाया अभाव ततो गीतार्था य
ते साधवस्तत्रोपाश्रये संनिधिष्टाः सन्तः स्वाध्यायं कुर्वन्ति, तनया पचनशालायां-भाजनपाकशालायां वसन्ति।
विधिपूर्वम्,यथा रत्नाधिकम्, संस्तारकास्तस्तत्र गृहीताः, तत इह शालात्रयग्रहणादन्याऽपि कुम्भकारशालाः
श्व, गीतार्थाः स्वपक्षयतनां कुर्वाणाः जाप्रतः सन्तो वसन्ति सूचितास्तासां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह
तिष्ठन्तीत्यर्थः। पणिए य भंडसाला, कम्मपयणे य वावरणसालाए।
कथमित्याहइंधणसाला गुरुगा, सेसासु विहोंति चउलहुगा ॥१५८॥ पासे तणाण सोहण, अहिसकोसक अनाहिं नयणं । पणितशाला भाण्डशाला कर्मशाला पचनशाला व्यावरण
संवरणालिंपणया, छुकारणवारणा कडी ॥ १६४॥ शाला इन्धनशाला चेति । अत्र निष्कारणे इन्धनशालायां ति
अग्रे पार्श्वे यदि तृणामि भवन्ति ततस्तेषां शोधना कर्तछतां चतुर्गुरुकाः, शेषासु पणितशालाप्रभृतिषु चतुर्लघुकाः ।
व्या , श्वापदभये अनाक्रान्तिकस्तनसंभवे अनेरभिष्वष्का अर्थतासामेव व्याख्यानमाह
कुर्वन्ति, यदि तत्रोत्क्रान्तिकस्तेनानां संभवस्तदा तमग्निमवकोलालियावणो खलु, पणिसाला भंडसालॉजहि भंडं।
प्वष्कयन्ति,स्वप्तुकामा वा तमन्यन्नयन्ति बहिः संक्रामयन्तीकुंभारघडीकम्मे, पयणे वासासु आवासो ॥१५॥ त्यर्थः । कृते कार्य क्षारेण मल्लकेन वा तस्याग्रे संवरणमाच्छातोसलिए वग्घरणा, अग्गीकुंडं तहिं जलति निश्चं। दनं कर्तव्यम् । ततो यथायुष्कमनुपाल्य स्वयमेव विमापतत्थ सयंवरहेतुं, चेडाचेडी य बुझंति ॥१६॥
यति, प्रदीपनकभयान च स्तम्भस्य छगणादिना लेपनं क
र्सव्यम् । श्वा वा गौर्वा यदि तत्र प्रविशति ततो या दौकते, (पणितशालाव्याख्यानम्पणियसाला'शब्दे पञ्चमभागे३८० |
तदा छुक्कारयति छिच्छिक्कारः कर्तव्यः। अथ तथापि न तिष्ठ पृष्ठे गतम्।) भाण्डशाला यत्र घटकरकादि भाण्डजातं संगो
न्ति ततो निवारणा तेषां कर्त्तव्या । सहसा च दीपनके पितमास्ते , कर्मशाला-कुम्भकारघटी, यत्र कुम्भकारो
लग्ने कटाहैराकर्षणं कर्त्तव्यम् । यद्वा-तत्प्रदीपनकं धूल्यादिना १-कुम्मकारशाला।
| विध्मापयितव्यम् ।
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वसहि
(६५५)
अभिधानराजेन्द्र:। अथोपकरणप्रत्युपेक्षणादिषु द्वारेषु यतनामाह- शैक्षा प्रगीतार्थाश्च निर्माणस्ते ज्योतियो दूरे स्थापयिकडओषचिलिमिणि वा,असता सभए व बाहि जं अंतं।
तव्याः । गीतार्थवृषभाश्च तावत् जाप्रति यावत् ज्योतिरग्निः
ध्रियते, न विमायतीति भावः । मा शैक्षादयः प्रतापयेयुठाणासती भयम्मिच,विज्झाएँगणिम्मि पेहंति ॥१६॥
रिति कृत्वा मनसैव । अनेरन्तरं वंशमयः कटो वस्त्रमयी वा चिलिमिलिका न दा
अद्धाणाई अइनि-इपिल्लो गीयो उ समिमो सुबह । तव्या, ततः प्रत्युपेक्षणाप्रमार्जनादोनि सर्वाएयपि पदानि कुर्वन्ति, कटकचिलिमिलिकयोरभावे प्रतिश्रयाहिरुपकरणं सावयभय उस्सके, तेणभये होइ भयणाभो ॥ १७० ॥ प्रत्युपेक्षणीयम् । अथ बहिः सभयं-स्तेनभययुक्तं ततो यदन्त्यं अध्वादिपरिश्रान्तोऽतिनिद्राप्रेरितो वा गीतार्थस्तमग्निमपरिजीर्णमुपकरणं तद्वहिः प्रत्युपेक्षन्ते , सारोपकरणं तु पसप्यै स्वपिनि, सिंहव्याघ्रादिश्वापदभये यतनया तान्युविध्माते ज्योतिषि प्रत्युपेक्षितव्यम् । अथ बहिः स्थानं ना-| ल्मकान्युत्सर्पयति । स्तेनभये तु भजना भवति । यचाकास्ति; यदा-अन्त्योपकरणस्यापि तत्रापहरणभयं ततः सर्वमा न्तिकस्तेनास्तेतो मा ज्योतिः प्रज्वलदवलोक्य गमनं प्युपधि विध्मातेऽनौ प्रत्युपेक्षन्ते ।
कार्युरिति कृत्वा तमग्निमपसर्पयति। अथ नाक्रान्ति
कास्ततो ज्वलन्तमग्नि हा जाग्रत्यमी इति दुमया ते चिंताण पमजंती, मृगावासं तु वंदणगहीणं ।
नाभिद्रवन्ति, अतस्तेषु तमग्निमुत्सर्पयतीति ।। पोरिसि बाहि मणण व,सेहाण य दिति भणुसढि॥१६६॥
प्रद्धाणविवित्ता वा, परकड असती सयं तु जालेंति । निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो वा तत्र प्रमार्जयन्ति आवश्यकमपि मूकं वाग्योगविरहितं बन्दनहीनं च कुर्वते। सूत्रार्थ
मूलाई व तवेडं, कपका कार अक्कमणं ॥ १७१ ॥ पौरुष्यो बहिर्विदधति, बहिःस्थानाभावे मनसैव सूत्रमर्थ वा
अध्वनि विविक्ताः-मुषिताः पाकृतमन्यप्रज्वालिलमग्नि सेव उपेक्षन्ते, ते च शैक्षा ज्योतिःप्रकाशे रागमुपगच्छन्ति । ते
न्ते , अथ परकृतोन प्राप्यते ततः स्वयमात्मनेव ज्वालयपां गीतार्था मानुशिष्टिं प्रयच्छन्ति ।
न्ति शीतार्तास्तत्रेधनं प्रक्षिपन्तीत्युक्तं भवति । शलमादि
शब्दाद्विसूचिकां वा तापयितुम्, परकृताभावे खयं ज्वालयकथमित्याह
न्ति कृतकार्या निष्ठिते क्षारणाक्रमणं कुर्वन्ति मा प्रदीपन नाणुजोया साहू, दव्बुजोबम्मि मा हु गज्झित्था ।
भविष्यतीति कृत्वा। जस्स विन एइ निद्दा,निमीलिभोवा सुवइ गिम्हे॥१६७॥
सावयभयप्राणिति व, सोउमणा वावि बाहि नीथिति । बानोदयोताः सकलजीवादिपदार्थसार्थप्रकाशकसानलक्षण
बाहिं पलीवणभया, छारे तस्स ति निव्बावे ॥ १७२ ॥ भावोद्योतकलिताः साधवो भवन्ति , अतो द्रव्योद्योतके
श्वापदभयेऽभ्यस्मात् स्थानादम्निमानयन्ति। स्वप्नुभनसो ऽपि पदपदार्थप्रकाशे ज्योतिःप्रभृतिके मा गृभ्यत-रागमु
वा तस्मात् स्थानात् बहिर्नयन्ति । अथ बहिः प्रदीपनपगच्छत । यस्य वा साधोः सप्रकाशे निद्रा न गच्छति सा
कभयान नयन्ति ततस्तत्र स्थितमेव क्षारेण छादयन्ति , तकल्यन प्रावृतः स्वपिति, प्रीष्मकाले प्रावृतस्य धर्मों भ-1
था क्षारस्याऽभावे निर्वापयन्ति-विध्मापयन्तीत्यर्थः । वति, ततो निमीलितलोचनः स्वपिति ।
सूत्रम्अथ स्खकावश्यकं वन्दनकहीनमिति पदं व्याचष्टे- ।
उवस्सयस्स अंतो वगडाए सवराईए पईवे दीपेजा,नोकभावास बाहि असई, बंदणविगडणजयणथुतिहीएं। प्पइ निग्गन्थाय वा निग्गन्थीण वा महालंदमवि वत्थए पोरिसि बाहिं भंतो, चिलिमिलि कातूण व झांति ।१६।। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से भावश्यकं बहिः कुर्वन्ति, अथ बहिः स्थानं नास्ति ततो
कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वस्थए, नो से कप्पह परं एयो यत्र स्थितः स तत्रैव स्थितः मनसैव च करोनि-द्वादशावत बन्दनकं प्रयच्छति। विकटनामालोचनां यतनया
गरायाभो वा दुरायानो वा वत्थए जे वत्थ एगरायाभो वा वर्षाकल्पप्रावृतानि श्रेष्ठा एवं कुर्वन्ति , स्तुतिहीन नाम
दुरायाभो वा परं वसेजा सेसंतरा छए वा परिहारे वा । स्तुतिमङ्गल मनसैव कुर्वन्ति । अथ 'पोरिसिवाहि' ति अस्य व्याख्यानं ज्योतिःसूत्रवन्मन्तव्यम् । पदं व्याख्यायते-सूत्रार्थपौरुष्यौ बहिः कुर्वन्ति । अथ बहिः
अथ भाष्यम्स्थानं नास्ति, ततः प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरेऽपि चिलिमिलि- देसीमासाएँ कर्य, जा बहिया भवे हुरत्याभो। का रुत्वा क्षरन्ति-खाध्यायं कुर्वन्ति । 'वा' विकल्पोपदशेने , चिलिमिलिकाया प्रभावे मनसैष सूत्रमर्थ वाऽनुप्रे
बंधणुलोमेण कयं, छेया परिहारपुब्वं तु ॥ १७३ ॥ क्षन्ते इत्यर्थः।
अहव व वारिजंतो, निस्कारणो व तिएह व परेणं । मूगा विसंति निती, चउसगमाई कुओ वि अछिता ।।
छेयं चिय पावजे, छेयमो पुव्वमाइंसु ॥ १७४॥ सेहा य जोइदूरे, जयंति य जा घरइ जोई ॥ १६६॥
गाथाद्वयमपि गतार्थम् । मूकाः-येतूष्णीकाः प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति,वा नषेधिकीमा
दुविहो य होइ दीवो, असवराई य सबराई य । पश्यिकी च मनसैव कुर्वन्तीत्यर्थः । उत्फुल्लकमलातपादि- ठायंते लहु लहुगा, कास अगीयत्थसुत्तं तु ॥१७॥ शम्दादग्निशकटिकां वा कचिदप्यस्पृशन्तः । तथा निर्गच्छ द्विविधश्च भवति दीपः, तद्यथा-सार्वगत्रिका, असार्वराम्ति वा प्रविशन्ति , यथा आपतन-पतने न भवतः। ये च त्रिकः । तत्र सार्वरात्रिकप्रदीपयुक्तायां तु चत्वारो लघवः ।
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बसहि
"
करूप पुनरेतत्प्रायश्चितम् सरिराह अमीतार्थस्य इत ऊ म् "नरिथ श्रगीयत्थो वा" इत्यारभ्य " गच्छन्ति पईवसालाए " इति पर्यन्तं भाष्यं प्राग्वदत्र वक्कलयम् ।
(ext) अभिधानराजेन्द्रः ।
अथ तत्रावस्थितानां दोषानाहउनगरसे पडिलेह, प्पमजया वा सपोरिभि म य । निक्खमय पवेसे, आवमणे चैव पडणे य ॥ १७६ ॥ परागं लहुआ लडुगा, चउरो लहूगा व चउसु ठायेगु । लहुगा गुरुगा व मगे, सेसेसु वि होंति चउलडुगा । १७७| द्वे अपि गाथे व्याख्याते ।
मानद्वारे विशेषमाद
गुरुगाय पगासम्म, लडुगा ते चैव अप्पगासम्मि । सातम होंति गुरुगा, अस्साए होति चउलगा ॥१७८॥ प्रदीपस्य प्रकाशे अभिरोच्यमाने त्या गुरुका, अत्रकाशेवारो लघुः । एतदेवोत्तरान व्यावडे - सातं सुखं रतिरित्येtऽर्थः । यदि प्रकाशे रति मन्यते तदा चत्वारो गु रथः। अथाऽसी तमतमा लघुकाः ।
पटिमाए झुसियार,
उड्डाहो तणाणि वा भवे हेट्ठा । साणाइ चलणलोले,
खंभ-तणाई पलीवेजा ।। १७६ ।।
देवकुलादौ प्रदीपे शालायां या रन्दमुकन्दादिमानस्यां प्रदीपेन भूषितायां दग्धायामुड्डाहो भवेत्, श्रमीभिः श्र मसकैः प्रत्यनीकतया स्कन्दादिप्रतिमा दग्वेति । प्रास्ता द्वा संस्तारको सानि भवेयुः तानि दद्येरन् शुनादिना वर पातितस्ततः प्रदीपस्य च ततः खानादच विधेषम्। श्र शृङ्खलापोसीन ततः स्वानादवतारयितुं शक्यते त तो लोलाया शवसमुत्वा कुर्यात् श्वगवादीनां "कार"च्छुदिति प्रतिषेधकरणेन वारणं वा दएडोदिदर्शनेन अपकर्षण वा वर्त्तर्वा कर्त्तव्यम् ।
अथायसमुत्सर्पव्याख्यानपतिसंकलदीवे वत्ति उ, उव्वत्ते पीडए व मा डज्झे ।
रूपण व तं नेहं धेनू दिवा विगिचिति ॥ १८० ॥ शृङ्खलादीचे स्थानान्तरं संक्रामयितुमशके प निपीडयेद्वा मा दातांमा प्रदीप्यतामिति कृत्वा रुतेन या तं निहीत्वा ततो दिया विगि इन्ते परितापयन्ति ।
-
ट्ठा ताण सोहण, ओोसकभिसक अन्नहिं नयणं ।
गाढे कारणम्मि, यसकभिसक्कणं कुजा ॥ १८१ ॥ प्रदीपस्यारत्न शोधनं कर्तव्यम्। यद्वा-तं प्र दीपमवसर्पयति वा अभिसर्पयति । अथवा नयन्ति-संक्रा मयन्तीत्यर्थः । एवमभिवादकार समुपगीतार्थः कुर्यात् नागा
मझे व देउलाई, पाहिं उत्रियास होइ अतिगम । जे तत्थ सेहदोसा, ते इह आगाठे जयणाए ॥१८२॥
सहि
ते साधवो विकाले संप्राप्ताः सन्तः संप्रदीपे देवकुले स्थिता भवेयुः । यद्वा प्रामादिमध्ये देवकुलम् आदिशब्दात्प्रपासभादिकं वा तच्च दिया सागारिकाले तत्र प्रभातेऽपि समागता दिवा बहिः स्थित्वा सन्ध्यायां तत्र प्रविशन्ति । यद्वा-बहिः स्थितानां स्तेनश्वापदादिभयमत्र राश्री भवतीति वा समस्येति गमनं प्रवेशो भवति । तत्र च सप्रपायां वसतौ स्थितेयें पूर्व शिष्यविषयाः प्रतापनादयो दोषा उक्ता ते इहागाढे कारणे पतनया परिहर्त्ताः। यदि प्रमादतः प्रदीपन कं भवेत्, तत्र को विधिरित्याहअाए तुसिणीपा, नाए दल सविउलं बोलं । चाहिँ देउल सदो समागयाणं खरंटो व ।। १८३ ।। यदि केनापि न ज्ञातम्, यथा-संयताः स्थिताः सन्ति ततः तूष्णीका भूत्वा पलायन्ते । अथ शातं संयता अत्र स्थिताः सन्तीति ततः प्रदीपं दृट्रा महता शब्देन 'सविडलं 'बोलं कुर्वन्ति यावद् भूयान् जनो मिलितः । ततो बहुजनस्य पुरतः भन्ति पश्यत पश्यत केनापि पापेन प्रदीपनकं कृतमिति पादेकुलाइदिनित्य तथैव शब्द-पोलक यते । समागतानां लोकानां खररोटना कर्त्तव्या, तेन युष्मा - भिरेवैतत्प्रदीपितं येनैते श्रमणा दह्यन्ताम्, अस्माकं चोपकरणं सर्वमप्यत्र दग्धम् । एवं खरण्टिताः सन्तो न किंचिदुल्लपन्ति । बृ० २ उ० ।
(६) अथ वसती पाठादिसञ्चालननिषेधमादसेभिक्खु वा भिक्खुणी वा से पुगा उवस्मयं जाणेआ, असंजय भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा थिसे िवा उदुखलं वा ठागाओ ठाणं साहर बहिया वा निमाक्सु तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे ० जाव णो ठाणं वा चेइजा, अह पुरा एवं जाणेजा पुरिसंतरकडे जाव चे (०६५)
"
एवमचितनिःसारणसूत्रमपि नेयम् अत्र च प्रसादिविराधना स्यादिति भावः । श्राचा०२ श्रु० १ ० २ ० १ ३० साधूनामपि आगमनादिगृहेषु स्थातुं न कल्पते इत्याहकप्पर निगन्धाणं आहे आगमण हिंसि वा विगडगिहंसिया सीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अग्भावगासंसि वा
वत्थए ।। १२ ।।
अस्य व्याख्या प्राग्वत् ।
"
अथ भाष्यम्
एसेव गमो नियमा, णिग्गंथागं पि गवरि चउ लहुगा ।
वरिं पुण णाणत्तं, अभागासम्म ततियादी ||२१७॥ एष एव - निर्ग्रन्थी सूत्रोक्तो गम श्रागमनगृहादिविये नियमान्निर्ग्रन्थानामपि भवति, नवरं प्रायश्चित्तं चतुर्लधुकाः, शेषं तु सर्वमपि दोषजालं तथैव वक्तव्यम् । नवरं पुनरद्वितीयपदेहितां नानात्वम् किमित्याह-जिका गोकुलं तस्यां मानार्थ गताः सन्ति, आदिशब्दादयनि वा वर्त्तमाना अभ्रावकाशे वसेयुः, उत्सर्गतस्तु निर्यथानामप्यागमनगृहादिषु स्थातुं न कल्पते । श्रह -सूत्रेणानुज्ञातमवस्थानमतस्तेन सह विरोधः प्राप्नोति ।
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बसहि
सूरिराह
पुराणं, आगमे भोइयजणे व रक्खते । विगडे, वसीमूले च गिद्दोसे ।। २१८ ॥ पुराणं-चिरन्तनं यदागमनगृहं तत्र सागारिकः संप्रति कोऽ पि नागच्छति, यद्वा-तत्रागमनगृहे स्थितानां भोजिको-ग्रामस्वामी जनमुपागच्छन्तं रक्षति । ईदृशे सूत्रनिपातः - सूत्रविस्तारो मन्तव्यः । यथा य आरामो नवमालिका गुल्मादिभिर्गुतस्तत्राधो विवृते सूत्रमवतरति । बंशीमूलमपि यन्निर्दोषं तत्र सूत्रावतारः ।
श्रथैनामेव निर्युक्तिगाथां भाग्यकारः स्पष्टयतिअभुजमाणी उ सभा पवावा,
गापासम्म याणुपंथे । भू निवारेति जणं उतं,
कुप्पती सोय तर्हि व ठंति ।। २१६ ॥ सभाप्रपा वा या अपरिभुज्यमाना ग्रामस्यैकपार्श्वे भवति, (न च) नैवानुपन्ये-मार्गाभ्यर्म्मा । यद्वा भुज्यमानायामपि यत्र स्थितानां प्रभुग्रमस्वामी सम्यग्दृष्टिर्भद्रको वा जनमुपयान्तं निवारयति, स च जनो वार्यमाणः साधूनां ग्रामस्वा मिनो वा न कुप्यति, तत्र ईदृशे श्रागमनगृहेऽपि तिष्ठन्ति । गुम्मेहि गम्म घरम्मि गुत्ते, तुंगाऍ व एगदारे । तहेब गुत्ते छतम्मि ठंति
ण जत्थ लोगो वहु सपिलेति ॥ २२० ॥ गुल्मैवमालिकाको रटकादिभिर्गुप्तैर्वृत्या वा तुझ्या उचैस्तरया परिक्षिप्ते एकद्वारे आरामगृहे श्रधो गुप्तेऽप्युपरिच्छादिते स्थगिते तिष्ठन्ति परं यत्र बहुर्भूयान् लोको न सनिलीयते न समायाति ।
जं वंसिमूलं ग मुहं च तैण, पिहिदुवारं ण त व छिंडी । सुर्णेति सद्दं ण परोप्परस्स,
काइयं व य दिट्टिवाता ।। २२१ ।। द्वंशीमूलम् अलिन्दकादि तेन मूलगृहेण सहान्यतो न मुखं पृढग् द्वारं च । श्रत एव ततस्तदभिमुखा छिरिङका न भवति । यत्र च परस्परं संयता अविरतिकाश्च शब्दं न भुरवन्ति, न चैकत्र कायिकों कुर्वते, नैव च परस्परं दृष्टिपातः, केवलं मूलगृहेण महद्रव्य (हाइ) तः प्रतिबद्धं न वाकाययो-जनादयो दोषाः । एवंविधे कल्पते वस्तुम् ।
निवा राम
असई रुक्खमूले, जे दोसा तेहि वज्जिया ठंति । श्रद्धाणमन्भवासे, गेला गाढव गादी ।। २२२ ॥ एतेषामागमनगृहादीनामभावे ये पूर्वमस्थिदारुकादयो दोया उक्तास्तैर्वर्जितं वृक्षमूले तिष्ठन्ति । तथा अध्वानं प्रतिपन्ना अपरप्रतिश्रयाभावे श्रगाढे वा ग्लानत्ये वजिकादौ संप्राता श्रभ्रावकाशे वसन्ति ।
अथ मूले निष्ठतां विशेषं दर्शयति
कडं कुते सति मंडवस्स
२४०
( १५७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
1
For Private
बसहि
कडासती पोत्तिमते गम्मि | सो व उग्गो धणुतामणा य,
सोवादि पाडि त्तिय पुव्वलग्गे ॥ २२३ ॥
यत्र वृक्षमूले अधस्तान्मण्डपो भवति ततः प्रथमतः स्थातव्यं तदभावे कटं कुर्वन्ति । कटचिलिमिलिकां ददतीति भावः । अथ कटो न प्राप्यते ततः पोतं वस्त्रं चिलिमिलिकां कुर्वन्ति यदि स्तेनभयं न स्यात् । अथ स्तेनभयं तत्र वर्तते सागारिका ब्रुवते श्रमणक ! पटमण्डपं न कुर्विति, ततः शब्दः कर्तव्यः पक्षिणां छिच्छिका इत्यादिना शब्देन निवारणं कार्यमिति भावः । उपयोगो वा दातव्यः, धनुषैर्वा पाषाणैर्वा पक्षि णामुत्त्रासनां कुर्वन्ति भयमुपजनयन्तीत्यर्थः । सोट्टा नाम शु
काष्ठानि तानि च श्रादिशब्दादिष्टकादीनि च पूर्वल ग्नानि पातयन्ति । एषा वृक्षमूले तिष्ठतां यतना भणिता । श्रथाभ्रावकाशे तिष्ठतां प्रतिपाद्यते । श्रगाढे ग्लानत्वे दुग्धादिना प्रयोजनं चेत् तत्राभ्रावकाशे वसनं संभवेत्
कथमित्याहविसोहिकोडी हवई तु गामे,
चिरं व कजं ति वयंति घोसं । भासामा सति तत्थ गंतुं,
पालिरुक्खाऽसतिए छ | २२४ ॥
यदा स्वग्रामे शुद्धं दुग्धादि न प्राप्यते तदा स्वग्राम एव च यै विशोधिकोटिदोषास्तान् पञ्चकादिप्रायश्चित्तक्रमेण दापferer दुग्धादिकं गृह्णन्ति । श्रथ तथापि न लभ्यते चिरं वा प्रभूतदिवसात् तेन ग्लानस्य कार्यमिति कृत्वा घोषकुलं व्रजन्ति । कथमित्याह - अभ्यासे गोकुलप्रत्यासन्ने ग्रामे स्थित्वा गोकुलाद् दुग्धादिकमानेतव्यम् । अथ नास्ति प्रत्यासन्नग्रामस्तत्र व्रजिकायां गत्वा पाटलिकायां तिष्ठन्ति, तस्या श्रभावे वृक्षमूले तस्याप्यभावे श्रच्छन्ने अभ्रावकाशेऽपि तिटन्ति । ० २३० ।
( १० ) स्कन्धादिषु अन्तरिक्षे वसतिमाह-से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से जं पुग्ण उवस्सयं जाणेजा, तं जहा-खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंस वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंत लिक्खजायंसि रामत्थ, गाढागाढेहिं कारणेहिं ठाणं वा (नो) चेतेजा से आह चेतिए सिया यो तत्थ सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडे वा हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणिवा देता वा मुहं वा उच्छोलेज वा पधोएज्ज श, णो तत्थ ऊस पगरेजा, तं जहा उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा तं वा पित्तं वा पूयं वा सोणियं वारं वा सरीरावयवं वा, केवली वूया आयाणमेयं, से तत्थ उस पगरेमाणे पयलेज्ज वा पवडेज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाखे वा हत्थं वा०जाव सीसं वा प परं वा कार्यसि वा इंदियजायं लसेज्जा पाणाणि वा ह
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( S) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि अभिहणेज वा जाव ववरोवेज्ज वा, अह भिक्खू णं | __ यत्र रूपाभरणादौ अल्पतरा दोषाः तत्र तिष्ठन्ति, मृगा इव पुव्योवदिट्ठा हुजं तहप्पगारे उवस्सए अंतलिक्खजाए नो
मृगा अक्षत्वादगीतार्थाः नानाभरणादीनां दूरतः कुर्वन्ति ।
चिलिमिलिकां च रूपादीनामपान्तराले बध्नन्ति । निशि-राठाणंसि वा०३ चैतेजा । (सू०-६६)
त्रौ तत्र जागरण कर्त्तव्यम् , मा स्तेनादिराभरणादिकमपहरेस मितुर्यत्पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात् , तद्यथा-स्कन्धः- दिति कृत्वा गीतशब्दे च श्रूयमाणे महता शब्देन स्वाध्याय एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रयः,मञ्चमालो-प्रतीतौ, प्रासादों-द्वि
कुर्वन्ति । ध्यानलब्धिसम्पन्नो वा ध्यानं ध्यायति । श्रादितीयभूमिका, हयंतलम्-भूमिगृहम् , अन्यस्मिन् वा त- शब्दादप्राप्तनाटके वा विधीयमाने तदभिमुखमवलोकन्ते। थाप्रकारे प्रतिथये स्थानादिन विदध्याद् ,अन्यत्र तथाविधप्र
भावसागारिके द्वितीयपदमाहयोजमादिसि, स चैवंभूतः प्रतिश्रयस्तथाविधप्रयोजने सति
अद्धाण निग्गयादी, वासे सावयभए व तेणभए । यद्याहत्य-उपेस्य गृहीतः स्यात्तदानीं यत्तत्र विधेयं तदर्शयति-न तत्र शीतोदकानि हस्तादिधावनं विदध्यात्, तथा.न
आयरिया तिविहे वी, वासति जयणाए गीयत्था ।४११॥ च तत्र व्यवस्थित उत्सृष्टम्-उत्सर्जनं त्यागमुच्चारादेः श्रध्वनिर्गतादयो प्रामादीनामन्तः शुद्धा वसतिमलभमाना कुर्यात् , केवली ब्रूयात्-कर्मोपादानमेतद् आत्मसंयमवि- बहिरप्युद्यानादौ वसन्ति । अथ बहिर्वसताविमे दोषाः 'वाराधनातः। एतदेव दर्शयति-स तत्र त्यागं कुर्वनिपतेद्वा पतं- सति' त्ति वर्षति-पतति सिंहव्याघ्रादीनां वा श्वापदानां मान्यतरं शरीरावयवमिन्द्रियं वा विनाशयेत् । तथा प्राणिन- भयम् , स्तेनानां वा शरीरोपधिहराणां भयम्, ततो प्रामामामिहन्यात् , यावज्जीविताद् व्यपरोपयेत्-प्रच्यावयेदिति । देरन्तर्भावसागारिके जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदे (प्राजापत्यादिअथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत् प्रतिशादिकं यत्तथाभूतेऽ- परिगृहीतभेदाद्वा) त्रिविधेऽपि वसन्ति । तत्र च प्रतिमा न्तरिक्षजाते प्रतिश्रये स्थानादि न विधेयमिति । आचा० वस्त्रादिभिरावृताः क्रियन्ते, मनुष्यतिर्यस्त्रियश्च कटकचि२७०१ चू०२ १०१ उ० ।
लिमिलिकामपान्तराले दत्त्वा यथा न विलोक्यन्ते तथा (११) अथ निर्ग्रन्थीनां सागारिकवसतौ
श्रावृताः सन्तो गीतार्था यतनया वसन्ति । वृ० १ उ० ३
प्रक०। निषेधमतिदिशन्नाह
सस्त्रीके उपाश्रये निषेधमाहएसेव कमो नियमा, निग्गीणं पि होइ नायव्यो ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा पुरिसपडिमा उ तासिं,साणम्मि यजं च अणुरागो।४०८
सइत्थियं सखुडू सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उवस्सएष एव-द्रव्यभावसागारिकविषयः क्रमो निग्रन्थीनाम
एणो ठाणं वा०३चेतेजा। पायाणमेयं भिक्खुस्स गाहापि भवति-सातव्यः । नवरं दिव्यद्वारे तासां पुरुषप्रतिमा द्रष्टव्याः, मनुष्यद्वारे मनुजपुरुषाः, तैरश्चद्वारि तिर्यकपुरु
वइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विमइया वा छड्डी षा इति तिरश्चो वा श्वानविषयो येष्वनुरागो बभूव । तद् ।
वा उव्वाहिजा अपयरे वा से दुक्खे रोयातंके समुप्पदृष्टान्तो भवति 'जहा एगा अविरइया अवाउडा काइ- प्पजेजा, असंजए करुणपडियाए तं भिक्खुस्स गायं तेयं वोसिरती विरहे साणण दिट्ठा । सो य साणो पच्छि
लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा अभंगिज वा लोलितो वा दूर्णि करेंतो अलीणो । सा अगारी चिंतेड पेच्छामि ताव एस किं करेइ त्ति । तस्स पुरतो सागारियं अ.
मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा ककेश वा लोखूण वा वमेण भिमुहं काउं जाणुएहिं हत्थेहि य अहोमुही ठिया । तेण वा चुम्मेण वा पउमेण वा आघंसेज वा पघंसेज वा उचलेन्ज सा पडिसेविया । ताए अगारीए तत्थेव साणो श्रणगा- वा उबट्टेज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण रो जातो । एवं मिगछगलवानरादी वि अगारि अभि- वा उच्छोलेज वा पक्वालिज्ज वा सिणावेज वा सिंचेञ्ज लसंति " यत एते दोषास्ततः सागारिके प्रतिश्रये न
वा दारुणा वा दारुणं परिणामं कह अगणिकायं उजालेवस्तव्यम् ।
ज वा पञ्जालेज वा उजालित्ता कायं आयावेज वा पअथ द्वितीयपदमाह
यावेज वा, अह भिक्खू णं पुरोवदिट्ठा एस पतिमा जं अदाण निग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए।।
तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा० ३ चेतेति । गीयत्था जयणाए, बसंति तो दब्बसागरिए ॥ ४०६॥ (मू०-६७) अध्वनिर्गतादयस्त्रिकृत्वः-त्रीन वारान् निर्दोषां वसति | से भिक्खू' घेत्यादि, स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमुपाश्रयं मार्गयित्वा यदि न लभते ततोऽन्यस्यां वसतौ-असत्यां जानीयात् , तद्यथा-यत्र स्त्रियं तिष्ठन्ती जानीयात , गीतार्था यतनया द्रव्यसागारिकोपाश्रये वसन्ति । तथा-'सखुडु' ति सबालम् , दिवा-सह तुटैरवबद्धः यतनामेवाह
सिंहश्वमाजारादिभिर्यो धर्तते, तथा पशवश्च भक्तपाने जहि अप्पतरा दोसा, बाहरणादीण दूरतो य मिगा। |
च । यदि वा-पशूनां भक्तपाने तद्युक्तम् , तथा
प्रकारे सागारिके गृहस्थाः कुलप्रतिधये स्थानादि न चिलिमिलि निसि जागरणं.गीए सज्झायमाणादी४१० कुर्यात् . यतस्तत्रामी दोषाः । तद्यथा--आदानम्
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( ६५६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
सहि
कर्मोपादानमेतद् भिक्षोगृहपतिकुटुम्बेन सह संवसतो यतस्तत्र भोजनादिक्रिया निःशङ्का न संभवति । व्याधिविशेषो वा कश्चित् संभवदिति दर्शयति-' अलसगे 'त्ति हस्तपादादिस्तम्भः श्वयथुर्वा, विशुचिकाछद्द प्रतीते, एते व्याधयस्तं साधुमुद्वाधेरन्, अन्यतरद्वा दुःखं रोगो-ज्वरादिः श्रातङ्कः-सयः प्राणहारी शूलादिस्तत्र समुत्पद्येत तं चतथाभूतं रोगातङ्कपीडितं दृष्ट्रा श्रसंयतः कारुण्येन भक्त्या वा तद्भिक्षुगात्रं तैलादिना श्रभ्यज्यात्, तथा ईषन् म्रक्षयेद्वा । पुनश्च स्नानं सुगन्धिद्रव्य समुदयः, कल्कः कषायद्रव्यक्वाथः, लोघं प्रतीतम्, वकः - कम्पिल्लकादिः, चूर्णो यवादीनां पद्मकं प्रतीतम्, इत्यादिना द्रव्येण ईषत्पुनः पुनर्वा धर्षयेत् दृष्ट्वा चाभ्यङ्गापनयनार्थमुद्वर्त्तयेत् । ततश्च शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा 'उच्छोलेज ' त्ति ईषदुच्छोलनं विदध्यात् प्रक्षालयेत् पुनः पुनः स्नानं वा-सोतमाङ्गं कुर्यात्सिञ्चेद्वेति तथा दारुणा वा दारूणां परिणाम कृत्वा - संघर्ष कृत्वा श्रग्निमुज्ज्वालयेत् प्रज्वालयेद्वा । तथा च कृत्वा साधुकायमातापयेत् सकृत् प्रतापयेत् पुनः पुनः । अथ-साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत् प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते सागारिके प्रतिश्रये स्थानादिकं न कुर्यादिति ।
प्रयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमास इह खलु गाहावई वा ० जाव कम्मकरी वा श्रमसं अकोसंति वा पच्चति वा रुंभंति वा उद्दवेंति वा, ग्रह भिक्खु णं उच्चावयं मणं खियंछेजा, एते खलु अ
म अकोसंतु वा मा वा अकोसंतु • जाव मा वा उद्दवेंतु, अह भिक्खू णं पुव्योवदिट्ठा ० ४, जं तहप्पगारे सागारिए तवस्सए यो ठाणं वा० ३ चेइज्जा ( सू० - ६८ ) आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सट्टाए अगणिकार्य उज्जालेज्ज वा पज्जालेज वा विज्झवेज वा । अह भिक्खू उच्चावयं मणं गियंछिज्जा, एते खलु अगणिकायं उज्जालेंतु वा मा वा उज्जालेंतु, पञ्जालेंतु वा मा वा पञ्जालेंतु, विज्झतु वा मावा विज्झाविंतु । ग्रह भिक्खू णं पुव्योवदिट्ठा० ४ जं तहप्पगारे उवस्सए यो ठाणं वा० ३ चैतेजा । (सू०-६६ ) श्रयाणभेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स इह खलु गाहावतिस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मोत्तिए वा हिरो वा सुवम्मेसु वा कडगाणि वा तुडिगाणि वा तिसरगाणि वा पालंबाणि वा हारे वा श्रद्धहारे वा
गावली वा कणगावली वा मुत्तावली वा रयणावली वा तरुणीयं वा कुमारं अलंकियविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चावयमणं णियच्छेजा एरिसिया वा णो वा एरिसिया इय वा णं ब्रूया इति वा णं मणं साएजा । भिक्खू पुव्ववदिट्ठा० ४ जं तहष्पगारे उबस्सए नो ठाणं वा ० ३ चेतेा । ( सू०-७० )
सहि 'आयाण ' मित्यादि कर्मोपादानमेतद्भिक्षोः ससागारिक प्रतिश्रये वसतः, यतस्तत्र बहवः प्रत्यपायाः संभवन्ति । तानेव दर्शयति- इह - इत्थंभूते प्रतिश्रये गृहपत्यादयः परस्परत आक्रोशादिकाः क्रियाः कुर्युः, तथा च कुर्वतो दृष्ट्रा स साधुः कदाचिदुच्चावचं मनः कुर्यात्, तत्रोच्चं नाममैवं कुर्व्वन्तु, श्रवचं नाम-कुर्वन्विति शेषं सुगममिति । 'श्रयाण' मित्यादि, एतदपि गृहपत्यादिभिः स्वार्थमग्नि समारम्भे क्रियमाणे भिक्षोरुच्चावचमनःसंभवप्रतिपादकं सूत्रं सुभ्रमम् । अपि च- 'आयाण' मित्यादि गृहस्थैः सह संवसतो भिक्षोरेते च वक्ष्यमाणदोषाः । तद्यथा - अलंकारजातं दृष्ट्रा कन्यकां वा अलंकृतां समुपलक्ष्य ईदृशी वा तादृशी वा शोभना अशोभना वा मद्भार्यासदृशी वा तथाऽलङ्कारो वा शोभनोऽशोभन इत्यादिकां वाचं ब्रूयात्, तथेोच्चावचं शोभनाशोभनादौ मनः कुर्यादिति समुदायार्थः । तत्र गुणोरसना, हिरण्यम् -- दीनारादिद्रव्यजातम्, त्रुटितानि - मृणालिकाः प्रालम्बः श्रप्रदीपन श्राभरणविशेषः । शेषं सुगमम् । श्रचा० २ श्रु० १ ० २ ० १ उ० । तत्र रुग्णस्य साधोः प्रतिक्रियामाहअनट्ठपगडं लयं , भइज सयणासणं । उच्चारभूमिसम्पन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं ॥ ५२ ॥ श्रन्यार्थ प्रकृतम् — न साधुनिमित्तमेव निर्वर्तितम् लयनम् - स्थानं वसतिरूपं भजेत्-सेवेत, तथा शयनाशनमित्यन्यार्थ प्रकृतं संस्तारपीठकादि सेवेतेत्यर्थः । एतदेव विशेष्यते उच्चारभूमि सम्पन्नम् - उच्चारप्रश्रवणादिभूमियुक्तम्, तद्रहिते असकृत् -- तदर्थं निर्गमनादिदोषात्, तथा स्त्रीपशुविवर्जितमित्येकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितम् - स्त्र्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः ।
तदित्थभूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाहविवित्ताय भवे सिजा, नारीणं न लवे कहं ।
गिसिंथवं न कुञ्ज, कुञ्जा साहूहि संथवं ॥ ५३ ॥ विविक्ता च तदन्यसाधुभी रहिता च चशब्दात् तथाविधभुजङ्गायैकपुरुषयुता च भवेत् शय्या वसतिः यदि ततो नारीणाम् स्त्रीणां न कथयेत्कथां शङ्कादिदोषप्रसङ्गात्, औचित्ये विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत् । श्रविविकायां नारीणामपीति, तथा गृहिसंस्तवम् - गृहिपरिचयं न कुर्या त् तत्स्नेहादिदोषसंभवात् । कुर्यात् साधुभिः सह संस्तवम् - परिचयं कल्यास्मित्र योगेन -- कुशल पक्षवृद्धिभाव इति सूत्रार्थः । दश०८ ० २३० । गृद्दपतिगृहे न वसेद्यत्र मैथुनार्थे गृहिण्यो ऽभिकाङ्गेयुः-
याणभेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावतिणीओ वा गाहावइधूयाओ वा गाहावइसुहावा गाावधाईओ वा गाहावइदासीओ वा गाहाकम्मकरी वा तासिं च गं एवं वृत्तपुब्वं भवति, जे इमे भवंति समणा भगवंतो ० जाव उवरता मेहुणाओ धम्माओ, गो खलु एएस कप्पर मेहुणधम्मं परियारणाए आउट्टित्तए ० जान खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्मं परियारणाए आउट्टाविजा । पुत्तं खलु सा लभिजा श्रो
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि यस्सि तेयरिंस वच्चस्सि जसस्सि संपराइयं आलोय- अथ बहिर्वर्षे गाढं पतिते उपलक्षणमेतत् स्तेनाः स्वापदानि गगदरिसणिजं एयप्पगारं णिग्योसं सोचा णिसम्म तासिं
वा बहिर्विद्यन्ते तेन ते, न निर्गच्छन्ति तदा तेष्वनिर्गग्छत्स्वचणं अमयरीसडि तं तवस्सि भिक्खु मेहुणधम्मपडि
धिकृत्य सूत्रस्यावकाशः । तथा साधोः स्त्रिया प्रेरणा क्रियते
तदा प्रेरणायां तथा उदये-वेदोदये सूत्र प्रतिसेवना भणिता। यारणाए आउट्टावेजा, अह भिक्खू णं पुरोवदिट्ठा जं- किमुक्तं भवति-प्रेरणायामुदये वाऽधिकृतसूत्रस्योपनिपातः। तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा ० ३ चेतेजा
तत्र वारणप्रतिपादनार्थमाहएवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा साम- पडिसेहो पुव्वुत्तो, उज्जुमणज्जुं तहेव मिहणे च। ग्गियं । (सू०-७१)
तत्थम्मि निग्गमे वि य,जहिं व सुत्तस्स पारंभो ।।३५८॥ 'श्रआयाण' मि त्यादि पूर्वोक्ने गृहे वसतौ भिक्षोरमी दोषाः, धारणं प्रतिषेधः स च कल्पाध्ययने चतुर्थोद्देशके पूर्वमुक्तः । तद्यथा-गृहपतिभार्यादय एवमालोचयेयुर्यथैते श्रमणा मैथु- तथा तस्मिन् मिथुने ऋजु किं वा अनृजु इत्याद्यपि यद् नादुपरतास्तदेतेभ्यो यदि पुत्रो भवेत् ततोऽसौ श्रोजस्वी- वक्तव्यम् तत्तत्रैवाभिहितम् । तथा सस्त्रीकस्य पुरुषस्य यथा बलवान् तेजस्वी-दीप्तिमान् वर्चस्वी-रूपवान् यशस्वी- वसतिनिगमो भवति यथा वा अनिर्गम एतदपि तत्रैव कीर्तिमानित्येवं संप्रधार्य तासां च मध्ये एवंभूतं शब्द व्याख्यातम् । “जहिं व सुत्तस्स पारंभो" इत्येतत्पश्चाद्वया काचित् पुत्रश्रद्धालुः श्रुत्वा तं साधुं मैथुनधर्मम् 'प- ख्यास्यते । गतं व्यवहरणद्वारम् । डियारणाए.' ति आसेवनार्थम्-'प्राउट्टावेज्ज ' ति श्र- अधुना उदये प्रतिसेवनेति व्याचिख्यासुस्तान् प्रतिसेवभिमुख कुर्याद , अत एतदोषभयात् साधूनां पूर्वोपदिष्ट- मानान् दृष्टया कोऽपि वेदोदयवशात् यषु स्थानेषु मेतत्प्रतिज्ञादिकम् , यत्तथाभूते प्रतिश्रये स्थानादि न कार्य
प्रतिसेवनामारभते तानि स्थानानि प्रतिमित्येतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा सामग्य-सम्पूर्मो भिक्षुभा
पादयतिव इति । श्राचा०२.४०१ चू०२ अ०२ उ० ।
जुगछिडनालिगादिसु, पढमगजामादिसेवणा सोही। 'जत्थ एए बहवो इत्थीयो य पुरिसा य पाहावेंति०'
मूलादी कप्पम्मि य,पुवुत्ता पंचमे जामे ॥ ३५६ ॥ इत्यादि अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह
युगच्छिद्रे नालिकायामादिशब्दात्तथाविधान्यवस्तुपरिग्रहः। एगागियस्स दोसा, के नि य भवती उ सुत्तसंबंधो। । तेषु युगच्छिद्रनलिकादिषु प्रथमयामे सेबने प्रथमयामादावाकारणनिवासिणो वा, दुविहा सेविस्स पच्छित्तं ॥३५६।।
सेबनायां शोधिर्मूलादिका पूर्व कल्पाध्ययने उक्ना.सा चैवम्एकाकिनो दोषाः के इति शिष्यस्य प्रश्नावकाशमाशङ्कयाधिः
यदि रात्रेः प्रथमे यामे युगच्छिद्रेण नलिकायां करकर्म कृतसूत्रस्योपनिपातः, एप भवति सूत्रस्य संबन्धः । अथ
करोति तदा प्रायश्चित्तं मूलम् , द्वितीये यामे छेदः, वा-कारणनिवासिनो द्विविधासविनः-सचित्तासेविनः ,
तृतीये यामे पदगुरु, चतुर्थे यामे चतुर्गुरु. प्रभाते दिवसस्य श्रचित्तासेविनश्च कि प्रायश्चित्तमिति परप्रश्नभुपजीव्य
प्रथमे यामे रात्रिगतप्रथमयामापेक्षया पञ्चमे यामे मासप्रायश्चित्तप्रतिपादनाय मूत्रद्वयमाहेति संबन्धः । अनेन
गुरुः । तथा चाह-पञ्चमे यामे भवति सूत्रम् । पञ्चयाविषयसंबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-यत्र-यस्मिन्प्रदेशे प्रत्यक्षत
मधिकृतस्त्रमिति भावः । एतेन यदुक्तं प्राक् यत्र च सूत्रस्य उपलभ्यमानाः खियः पुरुषाश्च प्रश्नुवन्ति मैथुनकर्म प्रारभ
प्रारम्भस्तद्वक्ष्ये इति, तद्भावितम् । न्ते,मैथुनकर्म दृष्ट्रा कश्चिदुदीपमोहः स श्रमणो निग्रन्थोऽ
सम्प्रति द्वितीयसूत्रव्याख्यानार्थमाहन्यतरस्मिन्नचित्ते हस्तकांधुचिते युगच्छिद्रनलिकादौ दविहच्चा पडिमेयर-सन्निहितेतरअचित्तसच्चित्ते । श्रोत्रवति शुक्रपुद्गलान् निर्यातयन्-शुक्रपुद्गलनिर्घाताय हस्त
बाहिं व देउलादिसु, सोही तेसिं तु पुव्वुत्ता ।। ३६०॥ कर्मप्रवेशनाप्रसक्तो भवति, स च तथाप्रमत आपद्यते अनुद्धानिक मासिकं परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् । तथा
अर्चा द्विविधा । तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता च । तत्र श्रयत्रैते बहवः स्त्रियः पुरुषाश्च प्रश्नुवन्ति-मैथुनकर्म प्रारभन्ते
चित्ता द्विविधा-प्रतिमा,इतरा च । इतरा नाम स्त्रीशरीरं नितत्र तत् दृष्टा कश्चित् श्रमणो-निग्रन्थोऽन्यतमस्मिन्नचित्ते जीवम् । एकैका पुनर्द्विधा-सन्निहिता,असंनिहिता च । एतेषुप्रतिमादौ श्रोत्रपति शुक्रपुद्गलान् निर्यातयन् मैथुनप्रतिसे- प्रतिसेवनायां प्रथमे रात्रेयमे मूलम् , द्वितीये छेदः, तृतीये घनाप्रसनो भवति । स च तथाप्रसक्न प्रापद्यते चातुर्मासि
षड्गुरु,चतुर्थे चतुर्गुरु,पञ्चमेऽपि चतुर्गुरु । सचित्ता-स्त्रीशरी कमनुद्वातिकं गुरुक परिहारस्थानमित्येष सूत्रसंक्षेपार्थः।
रम् । तत्राग्रे विधिर्वक्ष्यते । तत्र ग्रामादीनामन्तरुक्तम् , बहिरअधुना माध्यविस्तरः
धिकृत्याह-बहिर्देवकुलादिषु प्रतिमादिकचित्तमासेषमान
स्य करकर्म वा कुर्वतस्तेषां भावानां शोधिः पूर्वोक्ला-अनन्तबाहिं वक्वारठिए, महिलादागम अवारणे गुरुगा।।
रोक्का द्रष्टव्या । करकर्म कुर्वतः पञ्चमे यामे मासगुरु, प्रतिवारण वासे पेल्लण, मुदए पडिसेवणा भणिया ॥३५७।। माधचित्तासेवने चतुर्गुरु इत्यर्थः । बहिर्वक्षस्कारे अपरके स्थिते स्वदोषवति तत्र निवेश
संप्रति या प्रेरणा पूर्वमुक्का तां भावयतिनादौ वा कृतसंकेता स्त्री सनीको वा पुरुषः समागच्छेत् ,
संकेय दिन एसो, संकेतं बच्चे हिं अपेच्छन्ती । समागच्छन् वारयितव्यः । अवारणे प्रायश्चित्तं चन्वारो गुस्का । 'वारणे' त्यादि तब यथा पारणं तथा वन्यम् ।। पेनेज्ज व तं कुलडा, पुत्तहा देज रूवं वा ।। ३६१॥
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वसाह अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि साधु कारिफ्यादिनिमित्तं निर्गच्छन्तं एटा सा कुलटा चि- गतजनमित्यर्थः । अव्य नाम-यस्य क्षतं न विद्यते तस्य न्तयेत् , स एष प्रागतो येन मम सोतोपत्तः । एवं चिन्त- ज्यानं कृत्वा-क्षतं कृत्वा अन्य बेतालोन्थानदोषप्रसज्जनात् यित्वा तं साधु गृहीयात् , साधुध तत्तथाग्रहलमास्वावद। ततोऽस्मिन् निर्जीवे लेश्ये-संक्लेश्ये सूत्रविचार इत्यर्थः । तथा च सति धर्मविराधमा । अथवा-तं दत्तसंकेत पुरुष- गीतार्थो यतोऽरक्तद्विष्टः सन् निलीयेत् शुक्रपुद्गलानिष्कामप्रेक्षमाणा तं कायिक्यादिविनिर्गतं साधु प्रेरयेत् , तथापि रुपेत् । ग्य०६ उ०। धर्मविराधना । यदि वा-कापि महिला तस्य साम्रोः (१२) श्रीपुंससागारिकोपाश्रये वस्तुं कल्पते न घेत्याहरमणीयं दृष्ट्वा ईशो मम पुत्रो भूयादिति पुनार्था सती सा- नोकप्पइ निग्गंथाणं इत्थिसागारिए उवस्सए वत्थए।२७ धुमाददीत , यदि नेच्छति ततोऽहमुडाई करिष्यामि , सतो
कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए ।२८। धर्मविराधना। अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाह
नोकप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए.२६।
कप्पा निग्गंथीणं इत्थिसागारिए उवस्सए वत्थए ॥३०॥ जइ सेव पढमजामे, मूलं सेसेसु गुरुग सम्बत्थ । अहवा दिवाईयं, सञ्चित्तं होइ नायव्वं ॥ ३६२॥
अस्य सूत्रचतुण्यस्य संबन्धमाहयदि प्रागुतप्रेरणावशात् स्त्रियं रात्रेः प्रथमयामे सेवते तदा
अविसिटुं सागॉरियं, वुत्तं तं पुण विभागतो इणमो । प्रायश्चित्तं मूलम् .द्वितीये यामे छेदः,वतीये पड्गुरुकाः,चतुर्थे
मज्झे पुरिससगारं, आदीयंते य इत्थीसु ॥ ४१६ ॥ चत्वारोगुरुकाः,पञ्चमेऽपि चत्वारो गुरुका इति । तदेवं प्रेरणा पूर्वसूत्रे अविशिष्ट स्त्रीपुरुषविशेषरहितं सागारिकमव्याख्यानद्वारेण सचित्तमचि म्यास्यातम्। अथवा-अन्यथा क्लम् , अधुना पुनः तदेव सागारिकं विभागतः-स्त्रीपुरुषसचित्तमचित्तम् । तथा चाह-सचितं दिव्यादिकं भवति- विशेषात् , अस्मिन् सूत्रचतुष्टये अभिधीयते । अत्र च मध्यव. शातव्यम् , दिव्यं तैर्यग्योनं मानुषं च।
तिसूत्रद्वये पुरुषसागारिक प्रादिसूत्रे अन्त्यसूत्रेच स्त्रीसागातदेव प्रतिपिपादयिषुराह
रिकमाश्रित्य विधिरभिधीयते, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य जं साऽसु तिधा तितयं, ता दिव्वं पासवं च संगीयं ।
(२७-२८-२९-३०) सूत्रचतुष्टयस्य व्याख्या-नो कल्पते नि
र्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ २७ ॥ कल्पते जह वुत्तं उवहाणं, न तं न पुस्मं इहावस्मं ।। ३६३ ।।
निर्ग्रन्थानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥२८॥ नो असवः-प्राणाः सह असवो यस्य येन वा तत् सासु-स
कल्पते निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ २६॥ चित्तमित्यर्थः। यत्तु साऽसु-सचित्तं तस्त्रिधा-त्रिप्रकारं भव
कल्पते निर्ग्रन्थीनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रति-दिव्यम् , मानुषम् , पाशवं च । तत्र मानुषं त्रितयं सचि
चतुझ्याक्षरार्थः । सम् , तद्यथा-जघन्यमध्यममुत्कृष्टं च । तत्र-जघन्य प्राकृतम्
अथ भाष्यकारो विस्तरार्थ विभरिणषुराहमध्यम कौटुम्बम् , उत्कृष्टं दारिडमम् । यथा त्रिविधं मानुषं दिव्यमपि जघन्यादिभेदभिन्नं त्रिधा, पाशवमपि च त्रिधा ज
इत्थीसागॉरिय उव-स्सयम्मि सन्चे व इस्थिया होइ । घन्यादिभेदतः । संगीतं व्याख्यातं यथा कल्पाध्ययने तथा देवी मणुय तिरिच्छी,सा चेव पसजसा तत्थ ॥४१७॥ ऽत्रापि व्याख्येयम् । तथा चोकमत्रोपधानं प्रायश्चित्तम् , तद. स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुं न कल्पते, सा चानन्तरसू. पिन तत् पूर्णमिहापघ्नं न वक्तव्यम् , किंतु-वक्तव्यम् द्वयोर्न- श्रे या दैवी मानुषी तिरश्ची च प्रतिपादिता सैवात्रापि प्रोः प्रकृत्यर्थावगमनात् ।
द्रष्टव्या । सैव च प्रसज्जना मिथ्यात्वा भोजिकादिरूपा, अत्रैवापवादमाह
तत्र च प्रायश्चित्तमपि तदेव मन्तव्यम् । वितियपदे तेगिच्छं, निब्बीइयमाइयं अतिकते।
अत्र परः प्राहताहे इमेण विहिणा, जयणाए तत्थ सेवेजा ॥३६४॥
जइ सच्चेव य इत्थी, सोही पसज्जणा य सच्चेव । चिकित्सां निर्विकृतिकादिकां प्रागुलामतिक्रान्ते प्रस्थाने- सुत्तं तु किमारद्धं, नोदक सुण कारणं इत्थ ॥ ४१८ ॥ शब्दश्रवणतो हस्तकर्मकरणतो वा अनुपशाम्यति वेदो- यदि सैव स्त्री सैव शोधिः-प्रायश्चित्तं सैव प्रसजना तदये ततो द्वितीयपदेन-अपवादपदनेन अनेन वक्ष्यमाणेन वि-|
हि किमर्थमिदं-स्त्रीसागारिकसूत्रमारब्धम् पुनरुक्तदोषदुष्टधिना यतनया सेवेत।
त्यानेदमारल्धुं युज्यते इति भावः । सूरिराह-नोदक!कातमेव विधिमाह
रणमत्रास्ते येनेदं सूत्रमारब्धम् ,तत्र अवहितः शृणु निशमय । खलखिलमदिडविसया, विसत्त अव्वंग बंगणं काउं । पुब्बभणियं तु पुनरवि, जं भन्नइ तत्थ कारणं भत्थि । ताहे इमम्मि लेसे, गीयत्थ जतो निलीएजा ॥३६॥ पडिसेहोऽणुएणातो, कॉरण विसेसोवलंभो वा ॥४१॥ खलं प्रतीतं यत्र सजीवस्यापि सेवने वैराग्यमुपजायते, किं तुशब्दोऽपिशब्दार्थे , पूर्व भणितमपि यगण्यते तत्रपुनर्निर्जीवस्य सेवने । तत्र निर्जीवप्रतिपादनार्थमाह- कारणमस्ति । किमित्याह-'पडिसेहो' तिये पूर्वमनुहां कुखिल-निर्जीवमित्यर्थः । तत्कथं सेवेत इत्यत पाह-प्र- वत्ता अर्था उक्तास्त पय भूयः प्रतिषेधद्वारेण भणितमपि विषं यथा भवत्येवं सेवेत रात्री सेवेतेति भावः । पुनः कथ- यद्भण्यते 'अणुत्त'त्ति ये अर्थाः पूर्व प्रतिषेधं कुर्वता भमित्याह-विसरवं-विगताः सत्त्वा यत्र तत् विसस्व वि-! णितास्तेषामेवानुमां कुर्वन् ययोऽपि दर्शयति-तथा कार
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( ६६२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
बसहि
णं निमितं तदर्शनार्थ भूयोऽपि दर्शयति स एवार्थो भ शमीयः । अथवा- पूर्व सामान्येन यः प्रतिपादितोऽर्थस्तस्यैव विशेषोपलम्भार्थं प्राग् भणितमपि प्रतिपादनीयम् । एवं प्राशुक्रमणने चत्वारि कारणानि सन्तीति ।
इह
आह-यद्येवं ततः प्रस्तुते किमायातमित्याह-हे सव्वनिसेहो सरिसाणुना विभागसुत्तेसु । जयगाउं भेदो, तह मज्झत्थादओ यावि ॥ ४२० ॥ श्रोघसूत्रे सर्वस्यापि सागारिकस्य निबन्धः कृतः, तु विभागसूत्रेषु सदृशानुज्ञा क्रियते । यथा पुरुषाणां पुरुसागारिके स्त्रीणां स्त्रीसागारिके वस्तुं कल्पते तथा यतनया यथा पुरुषेषु स्त्रीषु वा कर्तव्या तद्दर्शनहेतोर्विभागसूत्राणां भेदः । मध्यस्थादयो वा स्त्रीपुरुषाणा भेदा श्र येतो दर्शयिष्यन्त इति विभागसूत्राणां पृथगारम्भः क्रियते ।
अथ द्वितीयसूत्रे विशेषोपलम्भं दर्शयन्नाह-सांगारिय उवस्तयम्मि, चउरो लहुगा य दोस श्राणादि ।
वि य पुरसा दुविहा, सविकारा निव्विकारा य ॥४२१ ॥ कल्पते निग्धानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुमित्येवं यद्यपि सूत्रानुज्ञातं तथाऽप्युत्सर्गतो न कल्पते, यदि वसन्ति ततः चत्वारो लघुकाः, आशादयश्च दोषाः । तेऽपि च पुरुषाः द्विविधाः - सविकारा, निर्विकाराश्च । तत्र सविकारान् व्याख्यानयति-रूवं आभरणविही, स्थालङ्कारभोगणे गंधे |
आज नट्ट नाडग, गीए अ मोहरे मुखिया ||४२२ || रूपम् उद्वर्तनस्नाननखदन्त केशसंस्थापनादिना स्वशरीरे जनयन्ति । श्राभरणविधिं मणिकनकादिमयनानाभरणभेदान् वाणि च चीनांशुकादीनि परिदधते । श्रलङ्कारेण वा केशमाल्यादिना श्रात्मानमलं कुर्वन्ति । भोजनं वा महता विस्तरेण भुञ्जते, चन्दमकर्पूरादिभिः कोष्ठपुटपाकादिभिर्गन्धैरात्मानमालिम्पन्ति वासयन्ति वा । ततविततादिकं चतुर्विधमातोद्यं वादयन्ति, नृत्तं वा कुर्वन्ति । नाटकं नाटयन्ति । मधुरध्वनिमाया गीतमुञ्चरन्ति । एते सचिकारा उयन्ते । एतेषां रूपादीनि मनोहराणि दृष्ट्वा गीतादिशब्दांश्रुत्वा निशम्य तत्समुत्था दोषाः ।
एतेषु तिष्ठतः प्रायश्चित्तमाह
एक्केकम्म उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्धाया । आणादियो य दोसा, विराधणा संयमाताए ||४२६ ॥ लघव इत्यर्थः, श्राशादयश्च दोषाः । विराधना च संयमे, आत्मनि च द्रष्टव्या !
एवं ता सविकारे, निव्वकारे य इमे भवे दोसा । संसद्वेख विबुद्धे, अहिगरणं सुत्तपरिहासी ॥ ४२४ ॥ एवं सविकारेषु पुरुषेषु दोषा उक्ताः, निर्विकारेषु पुरुषेअमी दोषा भवेयुः । साधूनां स्वाध्याय सक्नेनावश्यकीनैवैधिकीसंबन्धिना वा शब्देन विबुद्धास्ते पुरुषाः साधुमिः सहाधिकारणमसंखडं कुर्युः । तत्रात्मविराधना सूत्र परि हाणि भवति ।
१" पुरिसागारिय उवस्सयग्मि, ऋउरो लहुगा व दोस भाषादि । "
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वसहि
संयमविगधना त्वियम्
आऊ जोवण वणिए, अगणिकुडुम्बी कुकम्म कुम्मरिए । तेणे मालागरे, उन्भामगे पंथिए जं ते ॥ ४२५ ॥ ( एवा गाथा' पडिवद्धसिजा ' शब्दे पञ्चमभागे ३२७ पृष्ठे व्याख्याता । )
नोदकः प्राह
एवं मुत्तं फलं, सुत्तनिवाओ उ असइ वसहीए । गीयत्था जयगाए, वसंति तो दव्वसागरिए ॥ ४२६ ॥ यद्येवं पुरुषेष्वपि निर्ग्रन्थानां वस्तुं न कल्पते तर्हि सूत्रम् 'कल्पत पुरुषसागारिके वस्तुमि ' त्येवं लक्षणम्, अफलं प्रा मोति, पुनःसूत्रनिपातो विशुद्धायां वसतावसत्यां मन्तव्यः । तथा च यद्यसागारिका वसतिर्न प्राप्यते ततो गीतार्था यतनया द्रव्यसागारिके वसन्ति पुरुषसागारिके इत्यर्थः ।
वि य पुरसा दुविहा, सन्नी अस्सन्नियो य बोधव्त्रा । मम्झत्थाऽऽभरण पिया, कंदप्पा काहिया चैव ॥ ४२७ ॥ तेऽपि च पुरुषाद्विविधाः - संशिनः, श्रसंज्ञिनश्च । संज्ञानाम - देवगुरुधर्मतत्त्वांनां यथा तत्परिज्ञानम्, सा विद्यते येषां ते संशिन:: श्रावका इत्यर्थः । तद्विपरीता श्रसंज्ञिनः; अभावका इत्यर्थः । एते प्रत्येकं चतुर्विधाः- मध्यस्थाः श्रभरणप्रिया कान्दपिकाः काशिकाश्च । एतान् व्याचछे
आभरणपिए जासु, अलंकरिते उ केसमादीणि । सइरहसियप्पल लिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा ॥ ४२८ ॥ अक्खाइया उ अक्खा - गाई गीयाइँ छलियकन्याई । कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होंति ||४२६|| एएसि तिरहं पिय, जे उ विगारा ण बाहिरा पुरिसा । arried निहुमा, निसग हिरिमं तु मज्झत्था ||४३०॥ केशादीनि माल्यादिभिरलङ्कारैरलंकुर्वतः पुरुषान् आभरप्रियान् जानीहि । ये तु स्मेरहसितप्रललिताः स्वेच्छयापरस्परमट्टहासादिना हसन्ति द्यूतदोलनादिना च क्रीडन्ति ये च शरीरकौकुचिकाः, विविधव्यङ्गवेष्टशकारिणस्ते कादर्पिकाः । तथा आख्यायिकास्तरङ्कवती-सलयवतीप्रभृत. यः श्राख्यानकानि - धूर्ताख्यानकादीनि गीतानि भुवकादि छन्दोविद्धानि गीतपदानि तथा ललितानि शृङ्गारकास्यामि कथा - वासुदेवचरितचेटककथाः दन्तकथा याः किंवदन्तीत्युत्पन्ना इत्येतत्समुत्था धर्मकामार्थत्रयवक्तव्यताप्रभबाः संकीर्णकथा इत्यर्थः एता आख्यायिकादीनि कथयन्तः कथिका उच्यन्ते । एतेषामाभरणप्रियादीनां त्रयाणामपि संबन्धिनो ये विकारास्तेभ्यो बाह्या बहिर्वर्तिनो ये वैराग्यरुचयः केवलवैराग्यधद्धालवो न शृङ्गारादिपुरुषा रसप्रियाः, मिवृत्ताः करणेन्द्रियेष्व संलीनाः, निसर्गेण स्वभावेनैव हीमन्तः - सलज्जा ईदृशा मध्यस्था शातव्याः । पुनरप्यमीषां प्रत्येकं भेदानाह
एक्का ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य । एवं सभी वारस, वारस अस्सनिणो होंति ।। ४३१ ॥
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वसहि
अभिधानराजेन्द्रः। एकैके मध्यस्थादयस्त्रिविधाः स्थविराः तथा मध्यमाश्च
जह कारणे पुरिसेसुं,तह कारणे इत्थियासु वि वसिजा । तरुणाश्च । ततो मध्यमस्थादयश्चत्वारः स्थविरादिभेदत्रयेण
प्रद्धाण वास सावय, तेणेसु व कारणे वसती ॥४३८॥ गुण्यन्ते जाता द्वादशभेदाः। एवं संशिनः श्रावकाच ते द्वादशविधाः, असंझिनोऽपि द्वादशविधा भवन्ति ।
यथा कारणे पुरुषेषु पुरुषवेषनपुंसकेषु वा वसन्ति तथा एतेम्वेव प्रायश्चित्तमाह
स्त्रीषु स्त्रीवेषधारिषु वा नपुंसकेषु कारणे बसेयुः । किं पु.
नस्तत्कारणमित्याह-अध्वानं प्रतिपन्नास्ततो निर्गता वा काहीया तरुणेसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणस्स । शुद्धामल्पतरदोषदुष्टां वा वसतिं न लभन्ते तत उपासेसेसुं चउलहुगा, समणाणं पुरिसवग्गम्मि ॥ ४३२ ॥ | नादौ तिष्ठन्ति । अथ वर्षे पतति, बहिर्वा भापदभयं शरीसंझिनामशिनां च यः काथिकस्तरुणः एतौ दो भेदी ये रोपधिस्तेनभयं वा तत हिशे कारण स्त्रीसागारिके, तर वक्ष्यमाणा नपुंसकाः पुरुषनेपथ्याः तेषामपि संशिनामसं- भावे स्त्रीवेषधारिषु नपुंसकेषु पूर्वोक्तक्रमेण बसन्ति । शिनां चेकैकाधिकस्तरुणः, एते चत्वारो भेदाः । एतेषु चतु- निष्कारणे तु तत्र तिष्ठतामिदं प्रायश्चित्तम्ए॒ तिष्ठतां प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । शेषेषु तिष्ठतां प्रत्येक काहीया तरुणेसुं, चउसु वि मूलं तु ठायमाणाणं । चतुर्लघु । पतत्प्रायश्चित्तं श्रमणानां पुरुषवर्गे भणितम् ।
सेसासु वि चउगुरुगा,समणाणं इथिवग्गम्मि ॥४३॥ कारणे पुनस्तिष्ठतां विधिमाह
स्त्रीषु स्त्रीवेषधारिषु च नपुंसकेषु याश्चतसः काधिकसन्नीसु पढमवग्गे, असती अस्सन्नि पदमवग्गम्मि । तरुण्यस्तासु तिष्ठतां निर्ग्रन्थानां मूलम् , शेषासु सबिनी तेण परं सन्नीसु, कम्मेण, अस्सन्निसुं चेव ।। ४३३॥ असंझिनीषु वा स्त्रीषु चतुर्गुरुकाः, एवं श्रमणानां स्त्रीवर्ग वसतौ निदोषायामसत्यां संक्षिषु ये प्रथमवर्ग मध्यस्थाः तिष्ठतां प्रायश्चित्तमुक्तम्। पुरुषास्ते तत्र तिष्ठन्ति, तत्रापि प्रथम स्थविरेषु, तेषामभावे जह चेव य इत्थीसुं, सोही तह घेव पुरिसवेसेसुं। मध्यमेषु, तदलाभे तरुणेष्वपि । अथ संक्षिनां प्रथमवर्गों न
तेरासिएसु विहिया,ते पुण नियमा उ पडिसेवी ॥४४०॥ स्थाप्यते ततोऽसंझिनामपि प्रथमवर्गस्थविरमध्यमतरुणेषु
यथैव श्रमणानां स्त्रीषु तिष्ठतां शोधिरभिहिता तयेष यथाक्रमं तिष्ठन्ति । ततः परमेतेषामभावे द्वितीयादिवर्गेषु
स्त्रीवेषेषु राशिकेषु सुविहितशोधिमयबुध्यस्वेत्युपस्कारः। क्रमेण तिष्ठन्ति । द्वितीयवर्गों नाम-भाभरणप्रियाः तेषु।
ते पुनः स्त्रीनपुंसका नियमात्प्रतिसेविनः । प्रतिसेवनाप्रथम संक्षिषु स्थविरमध्यमतरुणेषु एतेष्वेवासंशिषु तदभावे |
कारापणशीला इति । संक्षिनां तृतीयवर्गे कान्दर्पिकपुरुषेषु, तेषामलामे असंहिनां
अथ कारणे तिष्ठतां यतनामाहतृतीयवर्गे स्थविरादिषु यथाक्रमं स्थातव्यम् ।
एमेव होति इत्थी, वारस सनी तहेव प्रस्सन्नी। एवं एकेकतिगं, वोच्चत्थ कमेण होइ नायव्वं ।
सन्नीण पढमवग्गो,असइ प्रसन्नीण परमम्मि ॥४४१॥ मत्तण चरिम सन्नि, एमेव नपुंसएहिं पि ॥ ४३४॥ । एवमेव-पुरुषवत् स्त्रियः स्त्रीवेषधारिणश्च नपुंसकामध्यखाएवं मध्यस्थादिषु एकैकस्मिन् त्रिकं विपर्यस्तक्रमेण । प्रथम दिभिश्च भेदैः द्वादशसंझिनो द्वादश वा भसंशिनःप्रत्येकं भवस्थविरेषु,ततो मध्यमेषु, ततस्तरुणेषु इत्येवं लक्षणनातव्य | न्ति, तत्र प्रथमसंझिनां प्रथमवर्गे मध्यस्थनीलक्षणे तपमावे परं मुक्त्वा चरम संझिनम् । किमुक्तं भवति-चरमो भेदः असंशिनां प्रथमवर्गे स्थविरादिक्रमेण स्थातव्यम् । काथिकस्तत्र संशिनि प्रथमतत्रिकं न वारयितव्यं किं तु द्वि- एवं एकेकतिगं, वोच्चत्थ कमेण होइ नायव । कम् । तद्यथा-यदा तृतीयवर्गों न प्राप्यते तदा चतुर्थवर्गे प्रथ
मोत्तूण चरिमसन्नि, एमेव नपुंसएहिं पि॥४४२॥ मसंशिषु काथिकस्थविरेषुतदलाभे कापिकमध्यमेषु, तदप्रा
एवमेकैकस्मिन्नाभरणप्रियादौ वर्गे पिकं तकण्वादिभेदत्रय सावसंशिषु काथिकस्थविरेषु, तदभावे काथिकमध्यमेषु ति
विपर्यस्तक्रमेण नेतव्यम् । प्रथम स्थविरासु ततो मध्यमासुसष्ठन्ति । अथ तेऽपि न प्राप्यन्ते ततः संविषु काथिकतरुणेषु, तदभावे असहिष्वपि काथिकतरुणेषु तिष्ठन्ति । तत्रो
तस्तरुणीषु परं मुक्त्वा चरमां काथिकास्यां सशिनीम् । तत्र भयेऽपि प्रज्ञापनया यथा कथां न कथयन्ति एवं पुरुष
हि प्रथम सचिनीषु स्थविरासु,ततो मध्यमासु. तबलामे मसंस्थातव्ये विधिरुतः । एवमेव च नपुंसकेष्वपि वक्तव्यः। (वृ०)।
शिनीषु स्थविरामध्यमासु, ततः संशिनीषु स्थविरामध्य(तत्रत्यविधिः ‘णपुंसग' शब्दे चतुर्थभागे ९८०६पृष्ठे इतन्यः)
मासु. ततः संझिनीषु तरुणीषु, तदप्राप्तौ संझिनीषु तरुशी, .
तदप्राप्तावसंसिनीषु नरुणीषु तिष्ठन्ति । एवमेव स्त्रीवेषधारिषु एतेषु प्रायश्चित्तमाह
नपुंसकेष्वपि द्रव्यम् । भावितं निर्ग्रन्थसूत्रस्यम् । जह चेव य पुरिसेसुं, सोही तह चेव पुरिसवेसेसुं ।
संप्रति निर्ग्रन्थीसूत्रद्वयं भावयतितेरासिएसु सुविहिय, पडिसेवगअपडिसेवीसुं॥४३७॥
एसेव कमो नियमा, गिरगंथी पि होड नायबो। यथैव पुरुषेषुशोधिरुपवर्णिता,तथैव पुरुषवेषेष्वपित्रिराशि
जह नेसि इत्थियाओ,तह तासि पुमा मुणयन्वा ॥४४॥ के नपुंसकेषु सुविहितप्रतिसेविकेषु वा शोधि जानीहीत्युपस्कारः । सा बेयम्-पुरुषनपुंसकानां ये काथिकास्त
एप व क्रमो-नियमो निर्ग्रन्थीनामपि भवति सातव्यः । परं रुणास्तेषु चत्वारो गुरवः, शेषेषु भेदषु चतुर्लघुकाः । का
यथा तेषां निर्ग्रन्थानां स्त्रियो गुरुकतरा ज्ञातव्याः । रणे पुनरध्वनिर्गतादीनां वसतेरलाभे तिष्ठतां तथैव पुरु
काहीया तरुणीसु, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणी। धनपुंसकेष्वपि यतनाक्रमो यथा पुरुषेषु प्रतिपादितः। सेसासु बि चउलहुगा, समखीणं इत्थिवग्गम्मि॥४४॥
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( ६६४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
बसहि
नपुंसकानां मध्ये काथिकतरुणीषु चतसृष्वपि तिहन्तीनां चतुर्गुरुकाः शेषास्वपि द्वाविंशतिसंख्याकासु स्त्रीषु द्वाविंशती च स्त्रीनपुंसकेषु चतुर्लघुकाः । एवं श्रमणीनां स्त्रीवर्गे प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् ।
काही या तरुणेसुं, चउसु वि मूलं तु ठायमाणीणं । सेसेसुं चउगुरुगा, समणीयं पुरिसवग्गमि || ४४५॥
पुरुषाणां पुरुषनपुंसकानां च संहयसंज्ञिनां ये चत्वारः का fuकास्तरुणास्तेषु तिष्ठन्तीनां निर्ग्रन्थीनां मूलम् शेषेषु पुरु. बेषु पुरुष नपुंसकेषु प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । एवं श्रमणीनां पुरुषवर्गे प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् ।
अथ परप्रायश्चित्तदोषमाह
थेराइए हवा, पंचग पारस मासलहु उ । छेदो मज्झत्थादिसु, काहियतरुणीसु चउल हुआ ।।४४६ ॥ सनीय असणं, पुरिसनपुंसेस एस साहूणं । rea वि इत्थी, गुरुओ समणीय विवरीओ || ४४७॥ अथवा स्थविरादिषु त्रिषु पदेषु पञ्चकपञ्चदशको मासलघुः छेदो दातव्यः । तद्यथा - मध्यस्थेषु स्थविरेषु तिष्ठन्ति लघुपञ्चकछेदः, मध्येषु - मध्यमेषु लघुपञ्चदशकः, मध्यस्थेषु तरुणेषु लघुमासिकच्छेदः । एवमाभरणप्रियेषु कान्दकेिषु च त्रिविधेष्वपि मन्तव्यम् । काथिका अपि ये स्थविरा मध्यमाश्च तेष्वेवमेवावसातव्यम् । विशेषं चूर्णिकृत्पुनराह - 'काही घरं पनरस राइंदियाणि लहुन छेदो, मज्झिमे मासलहु छेदे 'ति ये तु काथिकास्तरुणास्तेषु चतुर्लघुमासिकच्छेदः, एवं पुरुषनपुंसका या ये संशिनस्तेषां समुदितानां ये अष्टचत्वारिंशत्संख्याका भेदास्तेषु यथोक्तक्रमेणेषु पञ्चकच्छेदः साधूनां भवति । स्त्रीषु स्त्रीनपुंसकेषु चैतेष्वेव मध्यस्थस्थविरादिभेदेषु साधूनामेष एव छेदो गुरुकः कर्त्तव्यः । तद्यथागुरुपञ्चको गुरुपञ्चदशको गुरुमासिको गुरुचतुर्मासिकश्चेति । श्रमणीनां पुनरेष एव छेदो विपरीतो दातव्यः, किमुक्तं भवतिश्रमणीनां स्त्रीवर्गे तिष्ठन्तीनां लघुपञ्चकादिच्छेदः । पुरुषवर्गे तु गुरुपञ्चकादिकः । शेषं सर्वमपि प्राग्वद् द्रष्टव्यम् । पृ० १
उ० ३ प्रक० ।
(१३) इहापि वसतिदोषविशेषप्रतिपादनायाहगाहावती यामेगे सुतिसमायारा भवंति से भिक्खु य असिणाणए मोयसमायारे से तग्गंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलो मे यावि भवति,जं पुण्वं कम्मं तं पच्छा कम्मं जं पच्छाकम्मं तं पुरेकम्मं तं भिक्खुपडियाए वट्टमाया करेजा वा यो करेआ वा । श्रह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा ० ४ जं तहप्पगारे उस्सए यो ठाणं वा घेतेजा । (सू०-७२ )
एके- केचन गृहपतयः शुचिः समाचारो येषां ते तथा, ते ख भागवतादिभा भवन्ति भोगिनो या चन्दनागुरुकुङ्कुमकपूरादिसेविनः, भिक्षुश्वाऽस्नानतया तथा कार्यवशात् 'मो'य'त्ति कायिका तत्समाचरणात्स भिक्षुस्तन्धो भवति, तथा च दुर्गन्धः एवंभूतब्ध तेषां गृहस्थानां प्रतिकूलो
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स
नानुकूलः अनभिमतः, तथा प्रतिलोमस्तद्गन्धाद्विपरीतगन्धो भवति, एकार्थिको चैतावतिशयानभिमतत्वाख्यापनार्थाबुपाताविति तथा ते गृहस्थाः साधुप्रतिज्ञया यत्तत्र भोजनस्वाध्यायभूमौ स्नानादिकं पूर्वं कृतवन्तस्तत्तेषामुपरोधात्पश्चात् कुर्वन्ति यद्वा - पश्चात् कृतवन्तस्तत् पूर्व कुर्वन्ति । एवमवसर्पणोत्सर्पणक्रियया साधूनामधिकरणसंभवः । यदिवा ते गृहस्थाः साधूपरोधात्प्राप्तकालमपि भोजनादिकं न कुर्युः, ततश्चान्तरायमनः पीडादिदोष संभवः । अथवात एव साधवो गृहस्थोपरोधाद्यत् पूर्व कर्म्म प्रत्युपेक्षणादिकं तत्पश्चात् कुर्युः, विपरीतं वा कालातिक्रमेण कुर्युर्न कुर्युर्वा । अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाविधे प्रतिश्रये स्थानादिकं न कार्यमिति ( प्रतिबद्धशय्यायाः सर्वो विषय: ' पडिबद्धसिज्जा ' शब्दे पञ्चमभागे ३२६ पृष्ठे गतः । )
तत्र गृहपतिना भोजनं संस्कृतं स्यासदा दोषमाहआयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयद्वाए विरुवरूवे भोयजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा, भिक्खुपडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेज वा उवकरेज वा तं च भिक्खु अभिकंखेजा भोत्तए वा पाय वा वियट्टित्तए वा । अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा ०४ | जं यो तहप्पगारे उस्सए ठाणं वा चेतेजा । (सू०-७३) _कर्मोपादानमेतद्भक्षोर्यद् गृहस्थावबद्धे प्रतिश्रये स्थानमिति, तद्यथा - 'गाहावइस्स अप्पणो 'ति तृतीयार्थे षष्ठी, गृहपतिना आत्मना स्वार्थ विरूपरूपो नानाप्रकार आहारः संस्कृतः स्याद् । अथ अनन्तरं पश्चात्साधूनुद्दिश्याशनादिपाकं वा कुर्यादुपकरणादि वा ढोकयेत्तं च तथाभूतमाहारं साधुर्भोक्तुं पातुं वाऽभिकाङ्गेत्, 'वियट्टित्तर व 'ति तत्रैवाहारगृद्धा विवर्तितुमासितुमाकात् शेषं पूर्ववदिति ॥ एवं काष्टानिप्रज्वालनसूत्रमपि नेयम् । तद्यथा
यत्र गृहपतिः काष्ठं भिन्देत् श्रग्निं वा प्रज्वालयेत्तदाहप्रयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइया सद्धिं संवसमाणस्स इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूववाई दारुयाई भिन्नपुव्वाइं भवति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूवाएं दारुयाई भिंदेज वा किणेज वा पामिवेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्टु अगणिकार्य उज्जालेज वा पञ्जालेज वा तत्थ भिक्खु अभिकंखिज्जा श्रायावितए वा पयावित्तए वा वियवित्तए वा, अह भिक्खू वा भिक्खुणी वा जं नो तहप्पगारे उवस्सए यो ठाणं चेतेा । ( सू० ७४) भाचा० २ श्रु० १ ० २ ० २ उ० । अप्रावृनद्वारे निषेधमाह
नो कप्पर निग्गंथीणं श्रगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए । एवं पत्थारं अंतो किचा एगं पत्थारं नाहिं किच्चा श्रोहाडिय चिलिमिलियागंसि एव यहं कप्पर वत्थए || १४ ||
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सहि
अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहडिसिमखे उबस्सएहिं तु संवतीयं ।
बम्वतति गए, वारेति तेसु वि अगुर्ति ॥ १६५ ॥ पूर्वसूत्रे प्रतिषिद्धानामापणगृहादीनां विपक्षा ये उपाथयाः कल्पनीया इत्यर्थः तेषु संवखन्तीनां ब्रह्मचर्यगुप्तिः प्रकृ ता, तदर्थ तेषु वस्तव्यमिति भावः । अतस्तस्याः प्रकृतेप्रक्रमेतेष्वप्यप्रतिषिद्धेषु प्रतिश्रयेषु श्रप्रावृतद्वारतद्रूपामगुर्ति वारयन्ति भगवन्तो भद्रबाहुस्वामिनः इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य ( १४ सूत्रस्य ) व्याख्या-नो कल्पते निथीनां साध्यीनां द्वारकेद्वारे उपाये वस्तुमित्येवं यदोषावालामे च तत्रापि वसन्तीति तदा इत्थं विधिर्विधेयः । तद्यथा - एक प्रस्तरं कटमन्तः प्रतिश्रयाभ्यन्तरे कृत्या एकं प्रस्तरं यदि त्वा ततधिमिलिकबहिः यावघाटिते पिदितेऽपि द्वारे सूत्रे व अवधारितशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राकृतत्वात् एवमनन्तरोक्न समिति वाक्यालङ्कारे कल्पते वस्तुमिति सूत्रसंचेपार्थः ।
विस्तरार्थं तु भाष्यकृदाददारे अपम्मी, निम्गन्धीयं न कप्पए पासो । उगुरु आयरियाई, तत्थ वि आणाइयो दोसा ।। १६६ ।। अप्राकृते उद्घाटिते द्वारे निधीनां न करपते चाखः । अत्र चैवं सूत्र माचायः प्रवर्तिन्या न कथयति चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी संयतीनां न कथयति चतुर्गुरु, आर्यिका यदि न प्रतिटएवति तदा तासां मासलघु तत्राप्यकथनेऽअवसे चाशादयो दोषा द्रष्टव्या
( ६६५) अभिधानराजेन्द्रः ।
दारे अगुम्मि भिक्खुखिमादीण संवसंतीणं ।
गुरुगा दोहि विसिट्ठा, चउगुरुगादी व छेदंता ॥१६७॥ द्वारे ते वादीना संवसन्तीनां द्वाभ्यां तपःकालाभ्यां विशिष्टाः चतुर्गुरुकाः, तद्यथा- भिक्षुरयाश्चतुर्गुरुकं तपसा कालेन च लघु अभिषेकायास्तदेव कालगुरु, तपोलघु गणावच्छेदे तपोगुरु काललघु, प्रवर्त्तिन्या द्वाभ्यामपि गुरुकं चतुर्गुरुकादयो वा छेदान्ता भवन्ति । तद्यथा - भिक्षु या प्रकृते द्वारे वसन्त्यानुर्गुरुम् अभिषेकायाः पदलघुकम् गणावच्छेदिन्याः पद्गुरुम् प्रवर्तिन्याः देव इति । अत्र दोषानाहतरुणा वेसित्थी, विवाहमादीसु होइ सइकरणं । इच्छमखिच्छे तरुणा, तेहा ताओ व उवहिं वा ॥ १६८ ॥ ॥ अस्य व्याख्या अनन्तरसूत्रवत् द्रष्टव्या । तत्र गमनिकामात्रं तुच्यते - तत्राप्रावृतद्वारे उपाश्रये तिष्ठन्तीनां संयतीनां तरुणान् वेश्याखियो वृद्धविवाहपतिप्रवेशादिषु वा पुरा स्मृतिकरणमुपलक्षण त्या कोतुकनिदानगमने या भवेत्, तरुणान् वा श्रवभाषमाणान् यदि सा प्रतिसेवितुमि च्छति ततो व्रतविराधना अथ नेच्छति ततोला पितेव गृह्णीयुः तथा स्तेनास्ता या संपतीरपदरेयुः, उपधि वा तासामपहरेयुः, इति ।
"
किंचअवि होंति दोसा, मारयते ममेदुवडी प
२४२
वसहि
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बहणी अगारी व दोघं संछोभवादीया ॥ १६६ ॥ अन्येऽप्यभ्यधिका दोषा भवान्त, तत्राप्रावृतद्वारे श्वापहो या स्तेना या चशब्दात् श्वानो वा प्रविशे धनां प्राप्नुवन्ति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । मैथुनार्थी- उद्वामकः प्रविशेस बलादप्युदारशरीरां संवत तिमीषु या मध्ये काचिद्यतिनां मोहयेत् कस्यापि गृहि णः पार्श्वे दूतीः प्रक्षेपयेत् । गृही वा कश्चित्तस्याः संयत्याः प्रसुप्तायाः सुप्तेषु साध्वीषु रात्रौ काञ्चिदगारिणी प्रेष्यदीव्य कारयेत् । आगारीषु या मध्ये काचित्संक्षोभ प रायतं कुर्यात् संयतीस कान वस्त्राणि प्रात्य शीतसंयती तु तदीयानि वस्त्राणि प्रावृत्यागारस्य सकाशं गछेदित्यर्थः यस्मादेवमादयो दोषास्तस्मात् अमावृतद्वारेप्रतिश्रये साध्वीभिर्न स्थातव्यम् ।
द्विपदे
किं कर्त्तव्यमित्याहपत्थरो तो बहि, तो बंधाहि चिलिमिलि उवरिं । परिहारि दारमूले, मत्तगसुघडं च जयणाए ॥ २०० ॥ प्रस्तार्यत इति प्रस्तारः कटः स च तयोः स्थानयोर्विधातव्यः । तद्यथा- प्रस्तारः द्विधा - श्रन्तः, बहिश्च । श्रन्तरे अभ्यन्तरप्रस्तारे- 'बन्धादि ति बधान नियन्त्रय वितिमि लिए परिविधिना काचिकीषु योजनीया प्रतीदारी द्वारमूले तिष्ठति, मात्रविसर्जनं स्वपनं च यतनया कर्त्तव्यमिति निर्युक्तिगाथासमासार्थः ।
अथ विस्तरार्थमाह
सई यकवाड, विदलकडादीउ दो कता उभश्रो । फरुट्ठियस्स सरिसो, बाहिरकडयम्मि बंधो उ ॥ २०१ ॥ यदि द्वारे कपाटसहितं भवति ततः सुन्दरमेव । अथ नास्ति ततः कपाटस्यासति प्रस्तारः क्रियते । प्रस्तारः कटः स च द्विदलकः । यदि दिल वंशदले तन्मयः कटो हिदलकटः प्रदिशब्दात्-शरकटः परिगृह्यते, इद्देशौ द्वौ कटौ द्वारस्योभयतः क्रियेते एकोऽभ्यन्तरे द्वितीयो बहिरित्यर्थः । ततः स्फरकस्य या मुष्टिर्ग्रहणस्थानं तस्य सदृशो बन्धो वाह्यकटे अभ्यन्तरतो दातव्यः ।
स च बन्धः किम्मयः कर्त्तव्य इत्याहसुतारज्जुबंधो, दुच्छि अतिरिल्लकडपम्मि |
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च
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हेट्ठा मज्झे उचरिं तिनि वि दो वा भये बंधा ॥ २०२ ॥ सूत्रस्थादिशब्दाद्यत्कलस्य या ऊसया वा यो रज्जुचरकः परिस्थूणे दृढध, तस्य बन्धा बाह्यकटके स्फरमुष्टिकसदृशो दातव्यः, अभ्यन्तरकडे ते दिवे कर्त्तव्ये कथ मित्यत आह हेड्डा माझे उपरि ति मध्ये फरकश्रेण्यामेवाधस्तादुपरि छिद्रद्वयं कर्त्तव्यम् । ततो बाझकटकस्फुरकमुष्टियरको हढं प्रवेश्य पश्चादभ्यन्तरकटस्य द्वयोरपि छिद्रयोः प्रवेश्य ततोऽभ्यन्तरेण निष्कास्य निविद्धं बन्धनीयः । ईदृशौ द्वौ वा श्रयो वा बन्धा बध्यन्ते । अभ्यन्तरप्रस्तारस्य चोपरि चिलीमिली बध्यते, सा च तन्निबध्नाति गोपयति, तथा च ते बन्धा बध्यन्ते, यथा प्रतिहारों मुक्त्वा अन्या काचित्र आनाति ।
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बसहि
आइ-सा प्रतिहारी कीरगुणान्विता स्थापनीयेत्युच्यते
काय उबचिया खलु पडिहारी संजईस गीयत्था । परिणयतकुलीणा, अभीरु वायामियसरीरा || २०३ || कायेनोचिता न शशरीरा गीतायां सम्पमधिगतसूत्रार्था परिणता वयसा बुद्ध्या वा'भुत्त' ति भुक्तभोगिनी कुलीना विशुद्धकुलोत्पन्ना श्रभीरुः - कुतश्चिदपि स्तेनोद्रामकादेवि - विर्धा विभीषिकां दर्शयतो न विभेति वायामपसरीर सि व्यायामाशी समर्थदेदा इत्यर्थः खलु संयतीनां प्रतिहारी स्थापयितव्या ।
शी
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( ९४६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सा च किं करोतीत्याह
श्रावासगं करिता, परिहारी दंडहत्थ दारम्मि | तिमि उ अप्पडिचरितं कालं धेनूय य पत्रे ||२७४॥ आवश्यकं - प्रतिक्रमणं कृत्वा प्रतिहारी दण्डकहस्ता अद्वारे तिष्ठति । ततश्च तिथि व त्ति तिखः संवत्यः कालप्रत्युपेक्षणायें निन्ति अप्पडिवरियं ति प्रादोषिककालं यथा साधवः प्रतिजागरितं गृह्णन्ति ततस्तथा नेति गृहीत्वा च कालं ततः प्रवर्त्तिन्या निवेदवन्ति, निवेद्य च स्वाध्याये प्रस्थापिते सर्वा अपि स्वाध्यायं कुर्वते।
कथमित्याहमोहाडिय दाराओ, पोरिसि काऊण पढमए जामे । परिहारि भग्गदारे, गणिमीठ उवस्सयहमि ॥२०५॥ अवपादितं विलिमिलिया पिडित द्वारम् अमद्वारं या सांता अवघाटितद्वाराः सर्वा अपि प्रथमे यामे सूत्रपौरुपीं कृत्वा ततो मध्ये प्रविशन्तीति वाक्यशेषः कुर्या खानां च प्रतिहारे अग्रद्वारे तिष्ठति गणिनी तु-प्रवर्तिनी तूपाश्रयस्य मुखे मूलद्वारे स्थिता स्वाध्यायं करोति । उभयविसुद्धा इयरा, पविसंतीओ पवित्तिणी छिवइ । सीसे गंडे वच्छे, पुच्छर नामं च काऽसि त्ति ॥ २०६ ॥ उभयं संज्ञा, कायिकी चद्धिं पास्ता उभयविवा, आहितान्यादेः श्राकृतिगणत्वात् पूर्वापरनिपातव्यत्ययः, इतराः संयत्यो यदा प्रविशन्ति ततः प्रवसिंनी किमेषा संपती उभयविशुद्धा न वेति परिज्ञानार्थं शी-शिस गये-कपोले बसि-हृदये एवं स्थानेषु परिस्पृशति नाम यं पृच्छति का किं नामाऽसि स्वमिति । यावत्तत्र प्रवेशसमये विलम्बते यस्मिश्च प्रताये निति सा पप्पा
किं तुज्झनिया, धम्मो दारं न होह एसो उ ।
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न व निरं पि भन्नइ मा जियलजत हुआ ॥२०७॥ कि तयैकरथा एच धमा पदे निर्मसि पि वा । द्वारभितो न भवति । एवमन्यव्यपदेशेन सा वक्तव्या । न च निष्ठुरं स्फुटमेव भएयते मा जियलजति जिल त्वं निर्लज्जानामेतदिति हेतोः ।
ततश्च
सब्वासु पनि सु, पडिहारी परिस्ति पंधर दारं ।
बसहि
मज्झे य ठाइ गणिणी, नेसायो चहवालें ||२०८ || सर्वासु संगतीषु प्रविष्ठासु प्रतिहारी प्रविश्य द्वारं पूर्वोक्तविधिना यप्नाति मध्येच- मध्यभागे गणिनीप्रवर्तिनी तिष्ठति संस्तारं प्रसूतानीत्यर्थः । शेषास्तु संयत्यचक्रवालेन मण्डलिया प्रवर्तिनी परिवार्य संस्तुरान्ति, यथा परस्परं सुप्तानां न संघट्टो भवति । श्रहकिमर्थ न संघट्टः क्रियते ।
उच्यते
सहकरण कोउल्ला, फासे कलहो व ते तं मोनुं । कडितरुणी कडितरुणी, अभिक्खविणा य जयणाए २०६ स्पर्शे श्रन्योन्यं संघट्टने भुकभुक्तानां स्मृतिकरणकौतूहले भवतः । कलहा असंखंड भवति, यथा श्रहं त्वया हस्तेन वा पादेन वा संघट्टिता, अनेन हेतुना तं स्पर्श मुक्या काचित् स्थविरा सा प्रथमतः संस्तारकं करोति, ततस्तदनन्तरिता तरुणी, पुनस्स्थविरा, पुनरपि तरुणी इत्येवं संस्तारकपतरविधिः । यतनया च यथा तासां स्मृतिकरणादि नोपजायते तथा अभी पुनः पुनः स्पर्शना प्रवर्तितन्या कर्तव्या । प्रतिहारी च द्वारमूले संस्तारयति ।
कथमित्यत आह
तणुनिदा पडिहारी, गोषिध घेतं च सुबह तं दारं | जगति वारण व नाउं आमोस दुस्सीलो || २१०॥ तन्वी स्तोका निद्रा यस्याः सा तथा एवंविधा प्रतिहारी तथा ग्रन्थि गोपयित्वा स्वपिति ; यथाऽन्याः संयत्यो न जानन्त्युद्धाटितम् । हस्तेन वा तद्देवरकप्रान्तं गृहीत्वा स्वपिति । अथ तत्रामोषाः स्तेना दुःशीला अभिपतन्ति; ततस्तान् ज्ञात्वा वारकेण जाग्रति ।
अथ मात्र कें यतनामाहकुमुह डगलेस कार्ड, मत्तगं इट्टगाइदुरुदाओ | लाल सराव पलालं व, छोढुभायं तु मा सदो ॥। २११ ॥ कूटमुखेप्यकण्डकेषु उगलेषु वा मात्रं कृत्वा स्थापयित्वा तस्य मात्रकस्योपरि शाम स्थाप्यते । तस्य च मूचिन छिद्रं पिते तत्र शिंदे वस्त्रमयी लाला लम्बमानचीरिका जाने या प्रक्षिप्यते मा मोकं युतीनां शब्दो भवत्विति कृत्वा तत उभयपार्श्वत इष्टिकाः क्रियन्ते, श्रदिशब्दात्पीठिकादिपरिग्रहः । तत्रारूढाः सत्यो रात्री मात्रकमेव व्युत्सृजन्ति ।
अथ स्वपनयतनामाह
सोऊण दोनि जामे, चरिमे उज्झिनु मोयमंतं तु । कालपडिलेहयातो, ओहाड़ियचिलिमिली तम्मि ॥ २१२ ॥ सुप्त्वा द्वौ यामौ- प्रहरौ चरमे यामे उत्थाय मोकमात्रमुज्झित्या परिष्ठाप्य ततः काले वैरात्रिकं प्राभातिकं च प्रत्युपेक्ष्य स्वाध्यायो यतनया क्रियते । तस्मिंश्च चरमे यामे अथपाडितपिलिमिलि लिया धाटितं पिडि तंद्वारे भवति मुकमपनीयते इति भावः
ताश्च कालं गृहीत्वा न प्रतिजाग्रति कुत इत्याहकापदं तह भयं विडा तेला व मेहराही व
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यसहि
देहरि दुब्बलओ, कालमयो ता व जग्गति ॥ २१३॥ यदि ताः प्रतिश्रये द्वारे स्थित्वा कालं प्रतिज्ञागृपुस्ततः सागारिकमनसि श्राशङ्कापदं भवति किमेषा कंचिदुद्धामकं प्रतीक्षिते यदेवमेषा प्रविष्टा जागतीति । तथा भयं च तासामरूपवत्त्वतयोपजायते द्विविधाथ स्तेनाः शरीरस्तेनोपधिनता से संपतीमुथिया - पहरेवुः । मैथुनार्थिनो वा संगतीमुपसपैवुः देदेन शरीरेण धृत्या च मानसावरमेन दुर्वास्ता, अतः ताः संयस्यः कालं न जाग्रति न प्रतिचरन्ति ।
( १६७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
किं चकम्मेहि मोहियाणं, अभिद्दवंताण कोत्थि जा भगइ । संकापदं व हो, सागास्यितेणए वाऽवि ।। २१४ ॥ यदि कम्मभिमोहिता धनकर्मकतया समुदीर्णमोहा: केचन पापीयांसः शीताच्यावयितुमभिद्रवेयुः ततः को विधिरित्यत आह- तेषामभिद्रवतां संयती को ऽयमिति भूते ततः तस्याः चतुर्गुरुका प्रायधित्तम् आयदोषाः शङ्कापदं वा खागारिकरूप अपिशब्दामैथुनाथिनो वा भवन्ति ।
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इदमेव भावयति-
अन्नोऽवि नूगमभिपड, एत्थ बीसत्थया तद्द्वीणं । सागारि सेजगा वा, सइत्थिगा वा उ संकेजा ।। २१५ ।। तदर्थिनो नाम तद्विवक्षितं स्तेन्यं मैथुनं वा सेवितुं ये समायातास्तेषां संयतीमुखात् इति वचने श्रुत्वा शङ्कादय उपजायन्ते नूनमभ्यो ऽपि कचिदोयामको अभिपतति येनैवमेषा क इति प्रश्नयति । ततश्च तेषां तत्र प्रविशतां विश्वस्तता भवति न भयमुत्पद्यते। ये सागारिकशय्यातरसिका वा प्रातिवेश्मिकास्ते एका या सखीका वा शङ्कां कुर्युः किमन्य एतासां संयतोनां दत्तसंकेतः कोऽप्युद्भ्रामको ऽत्रायाति । तेशियरं व सगारो, गिराह मारेज सो व सागरिषं । पडिसेह छोभकामण, काहिंती य प्पदोसं च ॥ २१६ ॥ अथवा क इति वचनं श्रुत्वा सागारिक उत्थाय स्तेनम् इतरं वा मैनार्थिनं गृह्णीयात् मारयेद्रास या स्नोमै नाय या सागारिकं मारयेत् सागारिके च मारिते तदीयाः संज्ञातकाः प्रतिषेधनं द्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदं कुर्युः । स्तेनादयश्च शय्यातरेण गृहीतसंवतीनां ' छोभ' त्ति अभ्याख्यानं दः अस्माकं माटिरेताभिगृहीता शासीत्
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वा सन्तः शय्यातरगृहं संयतीनां वा प्रतिश्रयं प्रदीपयेयुः । प्रदेषतो या वदन्यदर्पिते करिष्यन्ति तपिश्रमापन | प्रायश्चितम् !
कथं पुनस्तर्हि तद् वव्यमित्याहसंकियममं कियं वा, उभयट्ठि गच्चवेंति अहिलित्तं । कुति हमिति साहा, नत्थि ते माया पिया वा वि२१७ उभयं -स्तैभ्यं, मैथुनं च । तदर्थिनं शङ्कितं वा ज्ञात्वा श्रवगस्य अभिलीयमानमायान्तमेडि अनुकर शब्दातरिति या बक्रव्यमित्यर्थः । यद्वा हे श्रनाथ! निःस्वामिक ! किं ते नास्ति माता वा पिता वा यदेपर्यट सीति ।
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महि
जंतुवस्वं गो, विनाला जरम्गवा सगोरहगा । नत्थ इहं तुह चारी, खस्समु किं खादिसि अहला२१८ भञ्जन्ति-विध्वंसन्ते नः अस्माकमुपाश्रयं - छिन्नालास्तथाविधा दुष्टजातीया जरद्भवा जीवजीवद्दः सगोरथकाः तो नास्त्यत्र त्वद्येोग्या चारिः, नश्य - पलायस्व त्वं किमत्र खादयसि । अधन्य ! हे निर्भाग्य !, प्राकृतत्वात् गाथायां दीर्घत्यम् एतेनान्यापदेशना तस्य प्रविशतः प्रतिषेधः कृतो भवति ।
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द्वितीयपरमाद
श्रद्वाणनिग्गयादी, तिक्खुतो मग्गिऊ असईए ।
दव्वस्त व असईए, ताओ व अपच्छिमा पिंडी || २१६॥ श्रध्वनिर्गतादयः संयत्यः । त्रिकृत्वः - त्रीन् वारान् वसतिं मार्ग असत्यलभ्यमाने गुप्तद्वारे उपाश्रये अप्रावृतद्वारेऽपि वसन्ति । तत्र यदि कपाटमवाप्यते ततः सुन्दरमेव अथन प्राप्यते ततो द्रव्यस्य कपाटस्पासति कटकादिकमण्यानीय विधातव्यं यावदपश्चिमा सर्वान्तिमा यतना 'पतिताः सर्वा अधि 'पिंडि' ति पिडीभूष परस्परं करबन्धं कृत्या दडव्यग्रहस्तास्तिष्ठन्तीति । एनामेव नियुक्तिगाथां व्या
अतो व कवाडे, कंडिय दंडेहि चिलिमिली बाहिं । कढिया पिंडि भवंति, सभए काऊ गोलकरचंधा ॥ २२० ॥ भूयः परस्परं करबन्धं कपाटयुक्तस्य द्वारस्याभाव श्रन्यतोऽपि कपाटं याचित्वा द्वारं पिधातव्यम् । श्रथ याच्यमानमपि तन्न लब्धं ततो वंशकंटो याचितव्यः । तस्य श्रलाभे करिटका कटकशिखा तासामनासो दरडकेस्तिरश्रीनी चिलिमलिका किवते तावदण्डानामभावे - चिलिमिलिका बध्यते फलका-कि
यते । अथ कोऽपि तत्र तासामभिद्रवणं करोति. ततस्ताहसमयसँगै सति अन्योन्य करवन्धं कृत्वा पिडीभवन्ति ।
अंतो हवंति तरुणी, सहं दंडेहि ते य वालिति ।
अह तत्थ होंति व सभा, वारिंति गिही व ते होउ । २२१| अन्तमध्ये या तो अगृहीनदक दस्तास्तिष्ठति पि स्तु स्थगितामा अपिशब्द बृहद्यनिना बोलं कुर्वते, येन भूयान् लोको मिलति ताथ स्तेनमैथुनानि उपत राजः प्रताडयन्ति। अथ तय वृषभाः सचिदिताः ततस्ते गृहियो निवारयन्ति ।
निगंध दारपिहले लहुंचो मासो उदो भयादी । अगम निरगमणे, संघट्टमाइपलिमंथो ।। २२२ ।। निर्यथा यदि द्वारपिधानं कुर्वन्ति तना लघुको मासः प्रायश्चित्तम् आशा दोषाः विराधनाको ऽपि साधुः निर्गमनं प्रवेशं करोति अन्येन च साधुना द्वारपिधानाय कपार्ट प्रेरितं तेन च तस्य शिरसा परितापादिका ग्लालारोपणा । एवं निर्गमनेऽपि केनचिद्वह्निः स्थितेन पश्चान्मुखे कपाटे प्रेरिते शीष भिद्यते तत्र स जन्मादिशन्दात् परितापनमा वा द्वारे
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वसहि अभिधानराजेन्द्र: ।
वसहि पिधीयमाने अपाब्रियमाणे वा भवेत् । परिमन्थश्च सूत्रा-1 एकेम्मि उठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। व्याघातो भूयो भूयः पिदधतामपावृण्वतां च भवति ।
आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए ॥२२८। एतामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयति
द्वारमस्थगयतामनन्तरोता एकैकस्मिन् प्रत्यनीकप्रवेशादौ घरकोइलिया सप्पो, व संचाराई य होति हेट्वरि । स्थाने चत्वारो मासा उद्धाताः प्रायश्चित्तं भवति । आझाददकित्तवंगुरिते, अभिघातो णितयंताणं ।। २२३॥ । यश्चात्र दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया भावनोया । द्वारस्याधस्तादुपरि वा गृहकोकिला वा सो वा संचा-1 यदुक्ल चत्वारो मासा उदाता इति तदेव तदाहुल्यमकीरिमा वा कीटिका कुन्थुक सारिकादयो जीवा भवेयुः. आ-| कृत्य द्रष्टव्यम् । दिशब्दात्-कोकिलादयस्तत्र भवेयुः, स्यात्-कदाचित्कारणे
अतोऽपवदन्नाहपुधालम्बने पिदध्यादपि द्वारम् , जिनाः-जिनकल्पिका बाय- अहिसावयपञ्चस्थिसु, गुरुगा सेसेसु होति चउलहुगा। कास्तस्य कारणस्य सम्यग्वेत्तारः, परं द्वारं न पिदधति । तणगोले लहुगुरुगा, प्राणाइविराहणा दुविहा ॥२२६॥ शिष्यः प्राह
अहिषु श्वापदेषु स्तेनेषु चतुर्गुरुकाः, उपधिस्तेनेषु चतुर्लसति कारणे पिहेजा, जिन जाण गच्छे इच्छिमो नाउं । घुकाः प्राज्ञादयश्च दोषाः । विराधना च द्विविधा-संयमवि
आगाढकारणम्मितु,कप्पति जयणाए तं पिहितुं॥२२४।। राधना, आत्मविराधना च । तत्र संयमविराधना स्तेनैरपगच्छे-गच्छवासिनां सामाचार्याः विधि ज्ञातुं सूरिराह-आ- धावपहतेद्वारे अपिहिते सत्युपाश्रयं प्रविशत्सूण्हते तृणग्रहगाढं प्रत्यनीकस्तेनादिरूपं यत्कारणं तत्र यतनया वक्ष्य- णमग्निसेवनं वा कुर्वन्ति, सागारिकादयो वा तथा ये गोमाणलक्षणया गच्छवासिनां द्वारं स्थगितुं कल्पते । एष नियु:
लकल्पाः प्रविष्टाः सन्तो निषदनादि कुर्वाणा बहूमा क्तिगाथासमासाथैः
प्राणजातीयानामुपमर्द कुर्युः। श्रात्मविराधना तु प्रत्यनीकाअथैनामेव विवृणोति
दिपु परिस्फुटैवेति । आह झातमस्माभिः द्वारमपिधानकारजाणंति जिणा कजं, पत्तं पि तु तं न वेंति सेवेति ।
णम् । परं का पुनः यतनेति नाद्यापि वयं जानीमः।
उच्यतेथेरा वि उ जाणंति, अणागयं केइ पत्तं तु ॥ २२५॥ जिनाः-जिनकल्पिकास्तकार्यमनागतमेव जानन्ति,येन द्वारं
उवभागं हेवरिं, काऊण वएत वंगुरंते । पिधीयते । तच्च प्रत्यनीकस्तेनादिकं वक्ष्यमाणलक्षणं तमि
पेहा जत्थ न सुज्झइ, पमजिउं तत्थ सारिप्ति ॥२३० ।। श्व प्राप्तेऽपि तत्-द्वारपिधानं न भगवन्तो निषेवन्ते नि- नेत्रादिभिरिन्द्रियैरधस्तादुपरि चोपयोग कृत्वा द्वारं स्थरपवादानुष्ठानपरत्वात् । स्थषिरा अपि-स्थविरकल्पिकाःसा
गयन्ति वा आपवृण्वन्ति वा। यत्र चान्धकारे प्रेक्षा-चक्षुषा तिशयश्रुतज्ञानाश्च प्रयोगबलेन केचिदनागतमेव जानन्ति ।
निरीक्षणं न शुद्धधति ततो रजोहरणेन दारुदण्डकेन वा केचित्तु निरतिशयाःप्राप्तमेव तत्कार्य जानन्ति, सात्वा च यत.
रजन्यां प्रमृज्य सारयन्ति, द्वारं स्थगयन्तीत्यर्थः। उपलक्षनया तत्परिहरन्ति ।
त्वादुद्घाटयन्तीत्यपि द्रष्टव्यम् । वृ० १ उ० । अहवा जिणप्पमाणा, कारणसेवी अदोसर्व होइ।। उपाश्रयस्यान्तः शाल्यादीनि यत्र भवन्ति थेरा वि जाणग चिय, कारणजयणाए सेवंता ।। २२६॥
तत्र दोषमाहअथवा-'जिणप्पमाण' ति पदमन्य या व्याख्यायते- उवस्सयस्स अन्तोवगडाए सालीणि वा वीहीणि वा जिनः-तीर्थकरः प्रामाण्यात् कारणे द्वारपिधानसेवी | मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा प्रदोषवान् भवति । जिनानां हि भगवतामियमाशा-कारणे
गोधूमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खिन्नाणि यतनया द्वारं पिधातव्यम् । सेवमानाः स्थविरकल्पिका अपि नायका एव-सम्यग् विधिशा एव । श्राह-किं तत्कारणं
वा विक्खिन्नाणि वा विइगिमाणि वा विप्पामाणि वा येन द्वारं पिधीयते।
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि
वत्थए ॥१॥ पडिणीत्यतेणसावय, उन्भामगगोणसाणसुणगादी ।
अथास्य सूत्रस्य संबन्धमाहसीयं दुरद्धियासं, दीहा पक्खी च सागरिए ॥ २२७॥ एरिसए खत्तम्मि, उवस्सए केरिसम्मि बसितव्यं । उद्घाटिते द्वारे प्रत्यनीकः प्रविश्य आहननमपद्रावणं वा- | पुव्वुत्तदोसरहिते, बितियादि जहेस संबन्धो ॥१॥ कुर्यात् , स्तेनाः शरीरस्तेना वा प्रविशेयुः । एवं श्वापदाः
ईदृशे प्रथमोहेशकान्त्यस्तत्र वर्मिते आर्यक्षेत्रे विहरद्भिरुसिंहव्याघ्रादयः उद्घामकाः-पारदारिका गोवलीपर्दाः श्वान
पाश्रये कीदृशे वस्तव्यमिति चिन्तायामनेन सूत्रेणोपवर्यते । प्रायाः, तत एते वा प्रविशेयुः ‘साणे' ति-अनात्मवशः
पूर्वमाद्योद्देशके ये उपाश्रयस्य दोषाः सागारिकत्वादय उक्षिप्तचित्तादिः स द्वारे अपिहिते सति निर्गच्छेत् । शीतं
वास्तै रहितो जीवादिपरित्यक्तश्च यत्र उपाश्रयस्तत्र वस्तदुरधिसह हिमकणानुषक्तं निपतेत् । दीर्घा वा सप्पीः
व्यमित्येप पूर्वसूत्रेण सहास्य संबन्धः । पक्षिणो वा काककपोतप्रभृतयः प्रविशेयुः । सागारिको वा
अहवा पढमे सुत्त-म्मि पलंबा वप्पिया ण भोत्तव्वा । कश्चित् प्रतिश्रयमुदाटकद्वारं दृष्टा प्रविश्य शयीत वा विभामं पा गृहीयात् ।
तेसिं चिय रकबड्डा, तस्सऽहवा संनिवारेति ॥ २॥
उच्यते
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वसहि
बसहि
अभिधानराजेन्द्रः। अथवोत संबन्धस्य प्रकारान्तरताघोतके प्रथमोद्देशक प्र- अथव-चतुःशालादिगृहेषु यत्रोपाश्रयेष्वपवरकेषु वा थमे प्रलम्बसूत्रे विस्तरेण प्रलम्बान्युपवर्मितानि तानि न भो- इटिकादिमयेसु वा काष्ठकेषु वा मृत्तिकामयेषु वा धान्यानि क्लव्यानीति प्रतिषिद्धानि, अतो द्वितीयोद्देशकेऽपि प्रथमसूत्रे नित्यस्थगितानि तानि सदा पिहितानि अभोग्यानि-परितेषामेव प्रलम्बानां रक्षार्थ तै:जाख्यैः प्रलम्बैः सह वा भोगरहितानि तिष्ठन्ति । तत्र ये शेषा अपवारकाः-कोष्ठसमवस्थानं निवारयति
कास्तेषु निवासं निवारयति । अवि य अणन्तरसुत्ते, उवस्सतो अधिकते णिसी जत्थ । क पुनस्तर्हि वस्तु न कल्पते इत्याहसमणाय न निग्गंतुं, कप्पति अह तेण जोगो उ॥३॥ सालीहिं बीहीहि, तिलकुलत्थेहिँ विपकिन्नेहिं । अपि चेत्यभ्युच्चये, म केवलं पूर्वोक्त सम्बन्धद्वयं तृती- आइएणे वितिकिस्मे, अहलंदं ण कप्पती वासो ॥११॥ योऽपि सबन्धोऽस्तीति भावः । पूर्वसूत्रस्याधस्तादनन्तरसू
शालिभिः प्रीहिभिः तिलैः कुलत्थैरुपलक्षणत्वात् मुद्रमाषा-"नो कप्पा निग्गन्थस्स एगागियस्स राओ वा वि- दिभिश्च विप्रकीर्व्यतिकीरणरुपलक्षणत्वाद्विकीरणैश्च संकु थाले वा" इत्यादिलक्षण उपाश्रयः, यत्रैकाकिनां निशि-रा. | ले उपाश्रये निग्रेन्थानां निर्ग्रन्थीनां च यथालन्दमपि कालं ी विचारभूम्याद्यर्थ न निर्गन्तुं कल्पते । अथायं तेन सूत्रेण न कल्पते वासः । एषा श्रीभद्रबाहुस्वामिकृता गाथा, असह योगः-संबन्धः, इत्यनेकैः संबन्धैरायातस्यास्य व्या- नया सूत्रपदानि संगृहीतानि आकीरणग्रहणेन च उत्क्षिख्या-उपाश्रयस्य या अन्तर्वगडा-वगडाया अभ्यन्तरम् ,तथा सपदम् , विकीरणग्रहणे तु विक्षिप्तपदं गृहीतं मन्तव्यम् । श्रप्रतिश्रयमध्यं वा स्यात् , प्राङ्गणं वा । तो सालीनि व' त्र परः प्राह-ननु जातिवाचकाः शब्दास्ते चात्र शालिरित्या त्ति शालिबीजानि वा व्रीहिबीजानि वा । एवं मुद्रमापतिल-| दिपदैरेकवचननिर्देशेन व्यवाहियमाणा उपलभ्यन्ते ततः किकुलत्थगोधूमयवयवयवैरपि तदीजान्युच्यन्ते । यवयवा-यव- मयमत्र शालिभिर्जीहिभिरित्यादिबहुवचननिर्देशः कृतः। विशेषास्तवीजामि वा । पतानि बीजानि यत्रोपाश्रये उरिक्ष
उच्यतेतानि वा विक्षिप्तानि वा व्यतिकीयानि वा विप्रकी
सालीहिं बीहीहि व, इति उत्ते होति एतदुत्तं तु । एर्णानि वा तत्र नो कल्पते तदा निर्ग्रन्थानां वा यथालन्दमपि वस्तुम् । इह- यथालन्दं त्रिधा-जधन्यम् , मध्यमम् ,
सालीमादीयाणं, होंति पगारा बहुविहा उ ॥ १२ ॥ सत्कृष्टं च । यावता कालेनोदकाो हस्तः शुष्यति तज्जघ
शालिभिर्वा ब्रीहिभिर्वा इत्युक्त एवं बहुवचननिर्देशे कृते ग्यम्,पश्चरात्रिन्दिवासूत्कृष्टम् ,तयोरपान्तराले सर्वमपि मध्य
एतदुक्तमभिहितं भवति, शाल्यादीनां धान्यानां बहुविधाःमम् । अत्र जघन्यमध्यमयोः सूत्रावतारः। अपिशब्दः ‘सं-| बहुप्रकारा भवन्ति-तद्यथा-कलमशालिमहाशालिरित्यादि । भावनायाम् , जघन्यमपि मध्यममपि यथालन्दं नो कल्पते
उत्क्षिप्तादिपदानां व्याख्यानमाहवस्तुम् , किं पुनः उत्कृष्टमिति भाकपत्र चोरिक्षप्तादीनि __ उक्खित्तभिमरासी, विक्खिामा तेसि होति संबंधो। पदानि भायगाथयैव व्याख्यास्यन्ते इत्यभिप्रायेण च व्या. वितिकिलो सम्मेलो, विवइस्ले संघडं जाण ॥ १३ ॥ स्यातानीति सूत्रसंक्षेपार्थः । पृ०२ उ० ।
उत्क्षिप्तानि नाम येषां धान्यानां राशयो भिन्नाः, विक्षिअथ कोऽसावुपाश्रयो यस्यैषा वगडा वर्णिता । उच्यते- तानि नाम ते एष धान्यराशयो भिन्नाः, परमेकतः संबुद्धाः, वलया कोट्ठागारा, हेट्ठा भूमी य होइ रमणिजा।
अत एवाह-विक्षिप्तपदे व्याख्यायमामे तेषां भिन्नराशीनां सं
बन्धो भवति । व्यतिकीएर्णानि तु सर्वाण्यपि धान्यान्येकतः बीएहि विप्पमुको, उवस्सो एरिसो होइ ॥८॥
संमिलितानि । आह च-व्यतिकीएर्णपदे तेषां धान्यानां संमी वलयानि-कटपल्ल्यादीनि कोष्ठागाराणि च सुप्रतीतानि | लको भवति । विप्रकीरार्णानि तु सर्वतः संस्तृतानि पुष्पप्रयत्र भवन्ति, अधस्ताच्च तत्र भूमिर्भवति रमणीया-बी-| करवत् । यत एवाह-विप्रकीरणपदे संस्कृतं विप्रकीर्ण जाजायभावेन प्रशस्या, ईदृश उपाश्रयो बीजैर्विप्रमुक्तो भवति।। नीयात् । इदमेव व्याख्यानयति
अथात्र बीजाकीरणे प्रतिश्रये तिष्ठन्तीति प्रायश्चित्तमाहकडपल्लाणं समा, तणपल्लाणं च देसीतों वलिया । बीयाई आइल्ले, लहुओ मासो उ ग़ायमाणस्स । हिप्पडिसाणिमभुजं-तगा य कयभूमिकम्मंता ॥६॥ प्राणादियो य दोसा, विराधना संजमाऽऽताए ॥१४॥ देशीतो देशीभाषामाश्रित्य कटपल्ल्यानां तृणपल्यानां च व
'बीयाइ' ति आदिशब्दः-स्वगतानकभेदसूचकः, ततलयानीति संज्ञा तेषां मालेषु बद्धेषु धान्यानि क्रियन्ते, ता- श्व-बीजैः शाल्यादिभेदादनकप्रकारैराकारणे उपाश्रये तिष्ठनि च यत्र निष्परिशायीमि परिशाटरहितानि अभुज्यमानानि त प्राचार्यादेलधुमासः प्रायश्चित्तम् । अयं च तपःकालश्रव्यापार्यमाणानि । तथा कृतं भूमिकर्म-छगणलेपनादिकर्म विशेषितः । तद्यथा-आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुअन्तेषु प्रान्तप्रदेशेषु येषु तानि कृतभूमिकर्मान्तानि, अधस्ता. का, उपाध्यायस्य तपसा गुरुकः, वृषभस्य कालेन गुरुको, च भूमिकाबीजादिविप्रमुक्तानि, ईदृशे प्रतिश्रये वस्तुं कल्पते।
भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकः, एतत्प्रत्येकबीजविषयं प्राअथ कोष्ठागाराणि व्याचले
यश्चित्तमुक्तम् । अनन्तबीजेष्वप्येवमेव नवरं मासलघुस्थाने चाउस्सालघरेसु य, जत्थोवरि कोट्ठएसु धमाई ।
मासगुरुकम् । संयतीनामपि प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्यमिषेका
मिक्षुणीनामेवमेव वक्तव्यम् आझादयश्च दोषा भवन्ति । तथा पिच्चट्ठइतमभोगा, तेसु निवासं निवारेइ ॥१०॥ । विराधना संयमे, आत्मनि च मन्तव्या।
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वसहि श्रभिधानराजेन्द्रः।
वसहि इयं विधाऽपि पुरस्तादभिधास्यते । प्रकारान्तरेण विक्खिरणम्मि वि लहुआ,तत्थ विप्राणादिणो दोसा।१८ प्रायश्चित्तमाह
द्वितीयपदे-कारणे श्रध्वनिर्गमनादौ शुद्धोपाश्रयालाभे वा उक्खित्तमाइएसुं, थिराथिरेंहिं तु ठायमाणस्स ।
विप्रकीरणे उपाश्रये तिष्ठन्ति । कथमित्याह-पूर्व वृषभा दण्डपणगादी जा भिन्नो, विसेसितो भिक्खुमाईण॥ १५॥ प्रोञ्छनकं गृहीत्वा तत्र गत्वा यतनया यथा तेषां साहारणम्मि गुरुगा, दसादिगं मासे ठाति समणीणं । बीजानां परितापनादि न भवति तथा प्रमृज्य ततः सबाल - मासो विसोसितो वा, लहुओ साहारणो गुरुगा ॥१६॥
वृद्धमपि गच्छमानीय यथालन्दं तिष्ठन्ति । यदि प्रमार्जनायो उत्क्षिप्तादिषु स्थिरास्थिरभेदभिन्नेषु तिष्ठतां भिक्षुप्रभृतीनां
विविधानां बीजानां विकरणमितस्ततो विक्षेपणं कुर्वते पञ्चकादारभ्य भिन्नमासं यावत्तपःकालविशेषितं प्रायश्चित्तम्
तदा लघुमासः प्रायश्चित्तम् , तत्राऽप्यविधिप्रमार्जने आशातद्यथा-उत्क्षिप्तेषु स्थिरसंहननिषु लघवः रात्रिन्दिवानि,
दयो दोषाः। विक्षिप्तेषु स्थिरेषु तिष्ठतो लघु दश रात्रिदिवानि, अस्थिरेषु
अथैतदेव स्पष्टयतिलघु पञ्चदश रात्रिन्दिवानि, व्यतिकी मेषु स्थिरेषु तिष्ठतो गीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि, लघु पञ्चदश रात्रिन्दिवानि,अस्थिरेषु लघु विंशती रात्रिन्दि
थिरे य मज्झे तु महाथिरे वा । बानि,विप्रकीर्णेषु स्थिरेषु लघु विंशती रात्रिन्दिवानि.अस्थि
साहड्डमेगं तु वसंति लएहं, रेषु लघु पञ्चविंशती रात्रिन्दिवानि, एतत्सर्वमपि प्रायश्चित्तं भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकम् । वृषभस्य कालेन गुरुकम्,
उक्कोसयं जाणिय कारणं वा ॥१६॥ उपाध्यायस्य तपसा गुरुकम् , प्राचार्यस्य तपसा कालेन च केचिदध्वनिर्गतादयः साधवो विवक्षितग्रामं प्राप्ताः , तत्र गुरुकम् । एतत्प्रत्येकीजविषयप्रायश्चित्तंमुक्तम् ।साधारणवी- च गीतार्थाः पुरतो गत्वा त्रिकृत्वः शुद्धां वसति समीजेषु त्वेतदेव गुरुकं कर्त्तव्यम्। गुरुपञ्चकादारभ्य गुरुपञ्चविंश- क्षन्ते-प्रत्युपेक्षन्ते । यदि तथा समीक्षिते न प्राप्यते तदा शातिकाम्तमित्यर्थः । श्रमणीनां तु लघुदशरात्रिन्दिवेभ्यः प्रारब्धं ल्यादिबीजेषूत्कीरणेषु प्रथमं स्थिरसंहननिनः तिष्ठन्ति । तदलघुमासे तिष्ठति । तत्रापि भिक्षुएमा उभयलघुकम् , अभिषे. भावे अस्थिरसंहननिनः तिष्ठन्ति । तानि च बीजानि यतनया कायाः कालगुरुकम् ,गणावच्छदिन्यास्तपोगुरुकम् ,प्रवर्तिन्या प्रमृज्य एकान्ते सहरन्ति-संस्थापयन्ति , संहत्य च तत्र उभयगुरुकम्। एवं प्रत्येकबीजविषयमुक्तम,अनन्तबीजेषु तु ए. जघन्यं वा मध्यम वा यथालन्दं वसन्ति। कारणं वा सद्गुरुदशरात्रिदिवेभ्यः प्रारब्धं गुरुमासान्तं बक्तव्यम्। अथ- अध्वपरिश्रमादिकं ज्ञात्वा उत्कृष्टयपि यथानन्दं वसवा-भिक्षुप्रभृतीनां चतुर्मामप्यविशेषणोमांदिषु चतुर्वपि तपः- न्ति । अत्र पाठान्तरम्-'साहटुमेगं तु' त्ति तानि बीकालविशेषिते मासगुरुकः, उत्कीर्णषु तपसा कालेन च ल- जानि संहत्य तत एकमिति जघन्यं यथालन्दं बसन्ति । घुकःविकीर्मेषु कालेन गुरुकः,व्यतिकीषु तपसा गुरुकः,श्र- शेष प्राग्वत् । उत्कीर्णानामभावे विकीरणेषु, तेषामभावे व्यमन्तबीजेष्यप्युत्कीर्मादिष्वेवं तपःकालविशेषितं मासगुरुकम्। तिकीरणेषु, तदप्राप्तौ विप्रकीर्णेष्वपि तिष्ठन्ति । तत्रापि प्रथद्विविधा च विराधना-संयमात्मविषया मन्तव्या। तत्र सं. मं प्रत्येकेषु, ततः साधारणेष्वपि अधः क्रमेण तिष्ठन्ति । ततो यमविराधना निर्गच्छन् या प्रविशन् वा बीजानां सट्टनं | मासलघु संयतीनामप्येवमेव द्वितीयपदं मन्तव्यम्। परितापनमपद्रावणं वा कुर्यात् । ये च तदाश्रिताः प्राणिन
अह पुण एवं जाणिज्जा, नो उक्खित्ताई नो विक्खित्ताई स्तेषामपि साहनादिकं कुर्यात् । तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ।।
नो विकिनाई नो विप्पकिमाई रासीकडाणि वा पुंजकडाअधात्मविराधनां भावयति
णि वा भित्तिकडाणि वा कुलियकडाणि वालंछियाणि वा सालि जब अच्छि सालुग, निस्सरणं मासमुग्गमादीसुं।
मुद्दियाणि वा पिहिताणि वाकप्पइ निग्गंथाण वा निग्गसुस्सू गुज्झकुतूहल-विप्पइरण मास निस्सरणं ॥१७॥ ।
थीण वा हेमंतगिरहासु वत्थए ॥२॥ तत्र स्थितानां साधूनां शालियवाः शालूकाश्चाक्षणोः प्रविशन्तीति प्रविष्टश्चक्षुषी अनागादस्य वा अगाढस्य वा परि
अथ पुनरेवं जानीयात् , तानि शाल्यादीनि बीजानि तत्रो ताप्यते । तथा-माषादिषु विप्रकीर्णेषु गमनागमने विराधना |
पाश्रये नोत्क्षिप्तानि नो विक्षिप्तानि नो विकीर्णानि नो विप्र. निस्सरणे प्रस्खलनं भवति , ततश्च हस्तभङ्गादयो दोषाः ।। कोरर्णानि किं तु राशीकृतानि वा पुजीकृतानि वा भित्तीअत्र दृष्टान्तः-" एगो अगारो चिंतेह-जा सुस्सूगाए
कृतानि वा कुलिकाकृतानि वा लाञ्छितानि या मुद्रितानि गुज्झोरगाह पच्छामि, ताहे मासा श्रागमणनिग्गमणपहे वि-|
वा पिहितानि वा तत एवं कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रप्पकिन्ना, सा तत्थ वञ्चन्ती फिसलिया । गलियबसणाइ पडि
स्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् , इति सूत्राक्षरार्थः। या"इदमेवाह 'सुस्सू' इत्यादि श्वभूसंबन्धि यद्गुह्य तदवलो.
अत्र भाष्यम्कने यत् कुतूहलं तद्वशान्माषाणां विप्रकिरणं तत्तस्याः रासीकडा य पुंजे, कुलियकडा पिहितमुद्दिया चेव । वश्वाः निस्सरणे प्रस्खलनमभवत् । एवं तत्र स्थितानां
ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थसुत्तं तु ॥२०॥ साधूनामप्यात्मविराधना भवेत् ।
यत्रोपाधये राशीकृतानि कुलिकाकृतानि पिहितानि मुद्रिद्वितीयपदमाह
तानि चशदाद-भित्तीकृतानि लाञ्छितानि च बीजानि तत्र. बियपयकारणम्मि, पुचि वसभा पमज जतणाए। । तिष्ठतां चचतुर्गुरुकाः कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम्, उच्यते-म.
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वसहि
अभिधानगजेन्द्रः।
बसहि गीतार्थस्य । सूत्रं तु पुनः गीतार्थविषयं द्रष्टव्यमिति वा-| गीतार्था बसत्यनुज्ञापनाविधिमजानन्तो युवन्ति, निधिक्यशेषः । वृ०२ उ०। (अथ राशीकृतादिपदानां व्याख्यानं | न्तस्त्वमत्रार्थे भव, वयं रात्रिमपि प्रहरकेण जागरि'रासि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम् ।)
ष्यामः । अतः
जोतिसणिमित्तमादी, छंदं गणियं च अम्ह साधेत्था । अगीयस्स न कप्पइ, तिविहं जयणं तु सो न जाणाइ।।
अक्खरमादी डिंभे, गाधिस्स व अजतणा सुणणा ४६/ भएणुमाए जयणं, सपक्खपरपक्खजयणं च ॥४४॥
ज्योतिषनिमित्तम् आदिशब्दादन्यदपि गन्धर्वविद्यादिकम् , अगीतार्थस्य प्रस्तुतसूत्रविषयभूतं वस्तुं न कल्पते,यतोऽसौ
तथा छन्दःशास्त्रम्,गणितशास्त्रं वा यद्यस्माकं कथयिष्यथात्रिविधां यतनांन जानीते। तद्यथा-अनुशापनायतनाम् , स्व
क्षराणि वा-लिपिविज्ञानम् , तत प्रादिशम्दाद-व्याकरणापक्षयतनाम्, परपक्षयतनांचेति । तिस्रोऽप्येता वक्ष्यमाणस्व
दिकं वा यद्यस्माकम् , डिम्भानि-बालकानि प्राहयिष्यथ,तरूपाः। परः प्राह-अगीतार्थेनापि तावत्सूत्रमधीतम् , अतः |
तस्तिष्ठन्तु भवन्तः । इत्येवं वसतिस्वामिनोक्ने सति यदि कथमसौ न जानीते ? उच्यते-इह सर्वेषामप्यागमानामर्थप
ते अगीतार्थाः तत्प्रतिशृण्वन्ति, प्रामम् कथयिष्यामो प्राहरिशानमाचार्यसहायकादेवोपजायते, न यथाकथंचिद्, उक्तं
यिष्यामो वा इत्यनुमन्यन्ते, ततोऽनुज्ञापनया भयतना:च-"सत्स्वपि फलेषु यद्धन्, न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः।।
ता भवति। तद्वत्सूत्रमबुद्धे-रकम्पितं नार्थवद्भवति ॥१॥"।
तत्र चामी दोषाःइहमेवाहनिउणो खलु सुत्तत्थो,ण हु सक्को अपडिबोधितो गाउं ।
अएणुएणवण अजतणा, एए सागारिए घरे चेव ।
तेसि पि य वीयत्तं, सागारियवजियं जातं ॥ ५० ॥ ते सुणह तत्थ दोसे, जे तेसि तहिं वसंताणं ॥ ४५ ॥ निपुणः-सूक्ष्मः खलु सूत्रस्यार्थो भवति, अत एव न शा
एवमयतना अनुज्ञापनया, तत्र तेषु स्थितेषु सागारिकश्चिस्त्रस्य वाऽऽचार्येणाप्रतिबोधितः सम्यग् परिशातम् , अतो
न्तयति, एते साधवस्तावन्मदीयं धान्यगृहं रक्षम्ति । अतः गीतार्थः सूत्रमात्रेण पठितेन न यतनामवबुध्यते अथ तेषाम
अस्मादहं स्वजनादिकार्येण गच्छामीति परिभाष्य कुत्रचि. गीतार्थानां तत्र बीजाकीसोंपाश्रये वसतां ये दोषा भवन्ति
द् प्रामादौ प्रवसति । प्रोषिते च तस्मिन् गृह एव वा तान् शृणुत।
निश्चिन्ततया धान्यानां व्यापारमवहमाने तेषामपि संयअॅगीयत्था खलु साहू-णवरि दोसे गुणे अजाणता।।
तानां प्रीतिकं भवति । साधुः सागारिकवर्जितं जातम् । रमणिअभिक्खगामो, ठायंतष्ह धमसालाए ॥ ४६॥
अस्या एव गाथायाः पूर्वार्द्ध व्याचएअगीतार्थाः खलु केचनसाधवः साधुक्रियासु यताः नवरं के| तेसु ठिएसु पउत्थो, अत्यंतो वाऽविण वहती तत्ति। बलं सदोषाया निर्दोषाया वा वसतेरनुसापने दोषान् गुणा- | जति वि य परिसितुकामो,तह वि य ण व एति भतिगंतु।५१ न अजानन्तः कापि ग्रामे भैक्षं प्रभूतं लम्ध्या भिक्षया रमणी
तेषु-संयतेषु स सागारिको निश्चिन्ततया प्रोषितो गृहे वा योऽयं ग्राम इति कृत्वा अथानन्तरं धान्यशालायां तिष्ठति ।
तिष्ठन् धान्यानां तप्ति व्यापारं न वहति । यद्वा-धान्य इदमेव स्पष्टतरमाह
संलाभयितुं यद्यप्यसौ तत्र प्रवेष्टकामः तथापि न गन्तुंरमणिज्ज भिक्खगामो, ठायामो तहेब वसहिझोसेहि । न प्रवेष्टुं शक्नोति । धमधराणुलवणा, जति रक्खह देसु तो भंते ॥ ४७॥
कुत इति चेदुच्यतेकश्चिदगाताथः गच्छे प्रामानुग्रामिक विरहन् कमाप
संथारएहि य तहिं, समंततो आभिकिम्म विइकिमं । प्रामं संप्राप्तः । तत्र बहिः-देवकुलादौ स्थित्वा भिक्षार्थ पर्यटन प्रभूतमिष्टं भक्षं लब्धवान् , ततस्तैः साधुभिः प
सागारितो ण एती, दोसे य तहिं ण जाणाति ॥५२। रस्परमुक्त रमणीयोऽयं ग्रामः, अत इहैव मासकल्पं तिष्ठा
संस्तारकैस्तत्रोपाश्रये समन्ततः आभिकासे परिपाच्या प्र. मः । परं वसतिरद्यापि न गवेषितो, अतस्तं 'झोसेहि'
सूतैर्मालितम् , व्यतिकीमें तैरेवानुपूलं प्रभूतैव्याप्तं दृष्ट्रा त्ति देशीवचनत्याद्वेषयत । ततस्तैर्वसतिं प्रत्युपेक्षमाणैः
सागारिको नैति-न आगच्छति, ततो ये तत्र धान्यपरिशटना. कस्याप्यगारिणो धान्यगृहं दृष्टम् । ततस्तस्यानुशापना -
दयो दोषास्तानसौ न जानीते । गता अनुशापनया प्रयतना। ता । गृहपतिः प्राह-यदि तदन्तर्मदीयं धान्यगृहं तस्करगवा
अथ संयतलक्षणविषयां यतनामाहदिभिरपाहियमाणं रक्षत ततोऽहं प्रयच्छाम , नान्यथा। ते तत्थ समिविट्ठा, गेहिय संथारगा जहिच्छाए । अपि च
णाणादेसी साधू, कासइ चिंता समुप्पामा ।। ५३ ।। वसही रक्खणविग्गा, कम्मं न करेमोणेव पवसामो ।
ते अगीतास्तत्रापाश्रये सन्निविष्टाः-स्थिताः यरच्छया णिवितो होहि तुमं, अम्हे रत्तिं पि जग्गामो ॥४८॥ च तैस्तत्र संस्तारका गृहीताः . न गणावच्छेदकेन, यथा षयमस्या वसतेान्यशालारूपाया रक्षणे विग्नाः सन्तः रत्नादिकं प्रदत्ता इति भावः । नानादेशीयाश्च तत्र साधकृष्यादिकं कर्मापि न कुर्महे, न च सुहदादिभिरामन्त्रिताः | वस्तेषां मध्ये 'कासह'त्ति कस्यचिच्छन्दधर्मणः चिन्ता कापि विधाहादी कार्ये प्रामान्तरे प्रवसामः । ततस्ते अ-| समुत्पना।
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ततश्च
बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि यथाऽह
इतरथाऽपि च अस्माकं गृहे भिक्षां वा बलिं वा देवताअणुहूया धमरसा, णवरं मोतूण सेडगतिलाणं । निवेदनमुद्धरितं न गृहीथ, अत इदानीं संसारसागरात्ताकाहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारो ॥ ५४॥ रितोऽस्म्यहम् , अन्येनापि येन भवतामर्थः-प्रयोजनं तद्भअनुभूनास्तावदपरेषां धान्यानां रसाः, नवरं ' सेडगतिला
गवन्तः छन्देन-स्वेच्छया गृहीध्वम् । णं' ति श्वेतकतिलानां रसं मुक्त्वा , अत एव तद्विषयं लहुगा अणुग्गहम्मि य, अप्पत्तिग धम्मकंचुए गुरुगा। कौतुकमभिलाषं करिष्यामि, पूरयिष्यामीत्यर्थः । एवं विचि
कडुगफरुसं भयंते, छम्मासा करभरे छेदो ॥ ६०॥ म्त्य शेषसाधुषुप्रसुप्तेषु समारब्धवाँस्तान् तिलान् भक्षयितुम् ।
यद्येवं भद्रकोऽनुग्रहं मन्यते तदा चतुर्लघवः । अथ प्राततश्च
न्तोऽसौ ततोऽप्रीतिकं कर्यात् , एते धर्मकञ्चुकप्रविष्टा लोविगयम्मि कोउहल्ले, छद्रव्वतविराहण त्ति पडिगमणं ।। कं मुष्णन्ति एवमधीतिके चतुर्गुरवः । अथासी कटुकपवेहाणस ओहाणे, गिलाण सेहेण वा दिट्टो ॥ ५५॥ । रुषम्-चारस्त्व घिग मुण्ड ! दुरात्मान्नत्यादि वच
रुषम्-चौरस्त्वं घिग् मुण्ड ! दुरात्मन्नित्यादि वचनं भणन्ति विगते-व्यतीते सति कौतुके षष्ठवतस्य विराधना मा भूत्.
तदा पड़गुरवः । अथैवं ब्रूयात्-आहारे करभरभग्नरस्माएकवतभङ्गे च सर्वव्रतभङ्ग इति कृत्वा प्रतिगमन-भूयोऽपि
भिरिदानीं श्रमणकरो वोढव्यः तदा छेदः प्रायश्चितम् । गृहवासाश्रयणं कुर्यात् । वैहायसं-विरमणमभ्युपगच्छे- मूलं सइज्झएसु, अणवटुप्पो तिए चउक्के य । त् , अवधावनं संविनविहारं कुर्वीत पार्श्वस्थादिवि रत्थामहापहेसु य, पावति पारंचियं ठाणं ।। ६१ ॥ हारमाद्रियेत इत्यर्थः । अथवा-स संयतस्तिलभक्षणं विद- 'सइज्झका' नाम सहवासिनः प्रातिश्मिका इत्यर्थः,तैःधानो ग्लानो वा शैक्षण वा हो भवेत् ।
रिक्षातं यथा श्रमणैर्धान्यं स्तैन्येन भक्षितं ततो मूलम् । अथ
त्रिकेषु या चतुष्केषु वा साधूनां स्तेनबादः प्रसरमुपगतः तदट्टण वा गिलाणो, खुधितो भुंजेज जा विराधणता । तोऽनवस्थाप्यम् । अथ रथ्यासु पथि वा स्तैन्यापयशः समु
च्छलितं ततः पागश्चिकं स्थान प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । एमेव सेहमादी, मुंजे अप्पच्चयो वासिं ॥ ५६ ॥ तं साधु तिलान् भक्षयन्तं दृष्ट्वा ग्लानः क्षुधितः सन् तान्
अथ कटुकपरुषकरभरपदानि व्याचष्टेतिलान् भुजीत, ततश्चापथ्यसेवनतया तस्य परितापनादि
चारित्ति कडुय दुम्मु-डितो ति फरुसं हो त्ति पन्चइओ। का विराधना, तनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् । एवमेव शैक्षादयोऽ ममणकरो वोढव्यो, जातो म्हेकरभरहताणं ।। ६२ ।। ऽपि तं तिलान भुजानं दृष्ट्वा तथैव भुञ्जीरन् । अप्रत्ययो वा। चौरस्त्वमित्यादि वचनं कटुकम् , यतु दुर्मुण्ड इति वा ह. तेशं भवेत् , यथैतन्मृपा तथाऽन्यदप्यमीषामेवंविमिति । । तोऽसि प्रवाजित इति वा वचनं तत्परुष मन्तव्यम्, तथा उडाहं च करेजा, विप्परिणामो व होज सेहस्स। | स शय्यातरो यात्--अस्माकं करभरहतानां संप्रति श्र
मणानां करो योढव्यः संजातः । एषा स्वपक्षविषया श्रयगेण्हतेण व तेणं, सब्बो भुंजो समारद्धो ।। ५७ ।।
तनाऽभिहिता । स शैतस्तं तिलान् भक्षयन्तं विलोक्य परापरजनेभ्यः
अथ परपक्षविषयामयतनामाह-- कथयन् उडाहं कुर्यात् , विपरिणामो वा शैक्षस्य भवेत् ,विप
परपक्वम्मि अजयणा,दारे उ अवंगुतम्मि चउलहुगा । रिणतश्च सम्यक्त्वं चारित्रं लिङ्गं वा परित्यजेत् । तेन च साधुना गृह्णता भक्षयता सर्वोऽपि तिलपुञ्जः खादितुं स
पिहणो वि होति लहुगा,जं ते तसपाणघातो य ।। ६३ ।। मारब्धः।
मनुष्यगवादयो ये असंयतास्ते परपक्षास्तद्विषया श्रयत
ना भाव्यते । इह कोलिकादि जीवविराधनाभयाद्यदि द्वारफेडिय मुद्दा तेणं, कजे सागारियस्स अतिगमणं ।
मपावृतं करोति; न स्थगयतीत्यर्थः ततश्चतुर्लघवः । अथ
द्वारस्य पिधानं कुर्वन्ति तदाऽपि चतुर्लघु । यन्त्रे 'च' तदाकेण इमं तेणेहि, तेणाणं आगमो कत्तो ॥ ५८ ॥
कारके वा संचारिमाणामुद्देहिकादीनां प्रसप्राणिघातो भवतिलपुञ्जस्य या छगणलेपादिना मुद्रा कृताऽसीत् सा | ति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। तेन तिलान् भक्षयता स्फेटिता-अपनीता, तत्र क्वचित्का
गोणे य साणमादी, वारणलहुगा य जं च अधिकरणं । ये सागारिकस्य-शय्यातरस्यातिगमनं प्रवेशो भवेत् । इष्ट
खरए य तेणए य, गुरुगा य पदेसो जं च ॥६४ ।। श्व तेन खण्डिस्तिलपुञ्जः । ततः पृष्टं केनेदं धान्यं विलुतम् ?, साधवो भणन्ति स्तेनैः । सागारिकः प्राह-स्तेनाना
अपिहिते द्वारे गौः प्रविष्टो धान्यं भक्षयेत् ,श्वानो वा श्रादि
शब्दान् मार्जारो वा प्रविश्य धान्य विकिरेत् , 'वारमा ति तेच मागमनं कुतो मद्गृहे संजातो येनास्माभिन ज्ञात इति । तेन सागारिकेण चेतसि निश्चितम्-नूनमैतैरेव भुक्तमिदं धान्य
यदि वार्यन्त तदा चतुर्लघवः,ते च वारिताः प्रतिनिवृत्त्य व्रजमिति । स च भद्रको वा स्यात् ,प्रान्तो वा।
न्तो हरितमर्दनारूपं यदधिकरणं कुर्वन्ति तनिष्पन्नं प्रायश्चि
तम् । चशब्दादन्तरायं च तेषां कृतं भवति। तथा शय्यातरस्य भद्रकस्तावदिदं घूयात्
यद् यक्षरकम्-दासदासीरूपम् ,ये च स्तेनका धान्य हतुकामा इहरह वि ताव अम्हं,भिक्खं व बलिं च गिण्हह ण किचि ।।
ते यदि वार्यन्ते तदा चतुर्गुरुकाः. ते च वारिताः प्रद्वेषतो यएपिंह खु तारिओ मी, गिरोहह छंदेण जो अट्ठो ।।५६॥ | दभ्याख्यानपरितापनादिकं करिष्यन्ति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्।
ततश्च
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
बसहि तेसि भावारणे लहगा , गोसे सागारियस्स सिम्मि। निर्दिश्य कथयन्ति ततः स्तेनानां प्रहणाकर्षणादयो दोषाः। लहुगा य जं च रुडो, सिड्ढे संकापदं जं च ॥६५॥ ।
अशि-श्रकथिते एतैरेव हतमिति शङ्का स्यात् , तत्र भद्र
केतरदोषा भवन्ति । यद्यसौ सागारिको भद्रका तवा अनुअथैतहोषभयात्तेषां यक्षरकादीनां वारणं न करोति, त
प्रहं मन्येत । अथेतरः प्रान्तस्ततोऽप्रीतिकादयो दोषाः। दा चतुर्लघवः ते वारिताः सन्तः प्रविश्य धान्यं भक्षयेयुरपहरेयुर्वा ततो यदि गोसे-प्रत्यो सागारिकस्य कथ
तेच भद्रकमान्तदोषेविदं प्रायश्चित्तम्यन्ति यथाऽमुकेनामुकेन रात्रौ धान्यमपहतं ततश्चतुर्लघुका- लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा । नि । शिष्टे कथिते सति स रुष्टः सन् ययक्षरकादीनां परि
कडुगफरुसं भणन्ते, छम्मासा करभरे छेदो ॥ ७॥ तापनादि यतो बन्धनघातनं च विशेषतः करिष्यति तनिष्प
मूलं सएज्झएसुं, अण्णवटुप्पो तिए चउके य । नं प्रायश्चित्तम् । न कथयन्ति ततश्चतुर्लघुकाः। तच साधूना. मुपरि शङ्कापदं शय्यातरः करोति नूनमेतैरपहतं यदेवं न
रत्थामहापहेसु य, पावति पारंचियं ठाणं ।। ७१॥ कथयन्ति तत्र चतुर्लघु । निःशङ्किते चतुर्गुरु ।
गाथाद्वयस्य व्याख्या प्राग्वत् । __गवादीनां वारणे दोषानुपदर्शयति
एगमणेगे छेदो, दियरातो विणास गरहमादीया । तिरियनिवारण अभिहणण-मारणं जीवघातँ णासंतो।।
जं पाविहि ति विद्धणि-गतादी वसधि भलभमाणा७२ खरिया छोभविसागणि-खरएयं तावणादीया ।। ६६ ॥
सागारिकः प्रविष्टः सन्नकषां-तेषामेवानेकेषां वा-सर्वसागवादीनां तिरश्चां मिवारणे शृङ्गादिना संयतानामभिघातो | धूनांवा, यद्वा-एकस्य द्रव्यस्यानेकेषां वा तद्व्यान्यद्रव्यामारणं वा भवेत् , तेन च निवारिता नश्यन्तो जीवानामभि- णां व्यवच्छेदं विदध्यात् । अथवा-दिवा निष्काशयति चतुर्लहनने विनाशनं च कुर्युः। त्यक्षरिका च निवारिता संयतानां
घु, रात्री निष्काशयति चतुर्गुरु, निष्काशिताश्च स्तेनश्वापक्षोभमभ्याख्यानं दद्यात् । एष श्रमणो मां प्रार्थयते , विषं वा दादिभिर्विनाशं लोकाद्वा गर्दामासादयन्ति, पते स्तेना इति दद्यात् , वसतिं वा अग्निा प्रज्वालयेत् । द्वयक्षरको वा प्र- कृत्वा निष्काशिताः। आदिग्रहणेन प्रहणाकर्षणादयो दोषाः। द्विष्टः प्रतापनादिकं कुर्यात् ।
यश्च व्यध्वम्-अध्वतो विनिर्गताः, श्रादिशब्दाद-अशिवाअथ स्तेनका येन कारणेन धान्यमपहरन्ति तवाह- दिनिर्गता वा तदीयदोषेण वसतिमलभमाना आत्मविराधनाआसनो य छाणोसवो, कजं पि य तारिसेण धरमेणं ।।
दिकं प्राप्स्यन्ति तनिष्पनम् । एते अगीतार्थानां दोषा उकाः ।
अथ गीतार्थानधिकृत्य विधिमाहनेणाण य आगमणं, अच्छह तुणिहक्कका तेणा॥६७।।
गीयत्थेसु वि एवं, णिकारणा कारणे अजतणाए। क्षणकः देवसिक उत्सवः बहुदैवसिको वा, क्षपयुक्त उत्सवः क्षणोत्सवः शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, क्षण कारण कडजोगिस्स, कप्पति तिविहाऍ जतणाए॥७३॥ उत्सव इत्यर्थः । स स्तेनानां प्रत्यासन्नो वर्तते । तत्र च तेषां गीतार्था अपि यदि निष्कारणं धान्यशालायां तिष्ठन्ति, तादृशेन धान्येन कार्यमस्ति । ततस्तेनानामागमनम् , ततश्च कारणे वा स्थिता यतनां न कुर्वन्ति, ततस्तेष्यप्येवमेव गीतार्थाः भणन्ति , भदन्त ! स्तेनाः समायाताः सन्ति अत- दोषाः । अथ कृतयोगी गीतार्थः कारणे तिष्ठति तदा तस्तूष्णीकास्तिष्ठत । न कल्पते साधूनामेवं ज्ञातुम् अयं चो-| स्य त्रिविधया यतनया अनुशापनादिविषयया वक्ष्यमावरक इति । अथवा-संयतैः स्तेना। आयाताः सन्तीत्यु-| या तत्र स्थातुं कल्पते।। के स्तेना ब्रुवते-संयताः तूष्णीकास्तिष्ठत अन्यथा युष्मान् ,
इवमेव स्पष्टतरमाहश्रपदावयिष्यामः। __ एवमुक्तास्तैः किं कर्तव्यमित्याह
निकारणम्मि दोसा, पडिबंधे कारणम्मि निहोसा। गहियं च तेहि धम, घेत्तूण गता जहिंसि गंतव्वं । ।
ते चेव अजतणाए, पुणो वि सो लग्गती दोसे ॥७॥ सागारिओ य भणती,सउणी वि तिरक्खतीणेइं॥६॥
धान्यप्रतिबद्धे गृहे निष्कारणे तिष्ठतामेते दोषा मम्तम्याः।
भारणे त यतनया तिष्ठन्तो निदापाराभथ कार स्थितो बतगृहीतं च तैः स्तेनकैर्धान्यम् ,गृहीत्वा च ते. गतास्तत्रस्थाने यत्र तेषां गन्तव्यम् । सागारिकश्चात्मीयकार्येण प्रभा
कपत्ति ततस्ते एक पूर्वोक्ता दोषाः खगन्ति । ते समागतो मुद्राभेदं दृष्य भणति-भगवन् ! शकुनिकाs
किं पुनस्तकारसमिताहपि पक्षिण्यपि तावदात्मनो नीडमाश्रयं रक्षति , भवद्भिः अद्धाण निग्गतादी, तिक्कुले बग्गिऊस असतीए। पुनरेतदपि न रक्षितमिति भावः ।।
गीतत्था जतणाए, वसंति तो धमसालाए ॥७५ ॥ रासी ऊणे दटुं, सव्वं णीतं व धमखेरिं वा ।। अध्वनिर्गतादयविकृत्वः-श्रीन् बारान् विशुद्धा वसति मा. केण इमं तेणेहि, सिद्वे भद्देतर इमं तु ॥६६॥
गयित्वा यदि न प्राप्नुवन्ति तदा गीताथी यतनया धाम्यसन्-सागारिकस्तत्र धान्यरासी ऊनान्-तुच्छान् दृष्टा सर्व
शालायां वसन्ति । धान्य नीतमपहृतं विलोक्य, यद्वा-धान्यस्य खेरि परिशार्टि
तामेव यतनामाहइटा पृच्छति-केनेदमपहृतम् ? साधवोबुखते-स्तेनैः । स भूयः
तुसघनाई जहि यं, णिप्पडिपरिसाडिया या होति । पृच्छति, के पुनः स्तेनाः, ततो यदि नाम्ना वर्णेन वयसा वा तेसुं पढम ठायति, तेसऽसतीदंतखओसं ॥ ६॥
२०४
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बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
बमाहि येणाश्रयेषु तुषधान्यानि ब्रीहियवादीनि निष्परितानि परिः उवलक्खिया य धमा, संथाराणं जहाविधिग्गहणं । शटितानिया भवन्ति, तेषु प्रथमतस्तिष्ठन्ति । तेषामभावे यत्र
जो जस्स उ पाउग्गो, सो तस्स तहिं तु दायब्वो ॥२॥ बस्तखाचानि तिलादीनि धान्यानि तत्र तिष्ठन्ति , तिछतां यदि वसतिस्वामी ब्रूयात्-यद्यस्मदालकानां वैद्य
आचार्येणोपलक्षितानि तानि धान्यानि, ततः संस्तारकाज्योतिषादिकमक्षरादिविज्ञानं वा कथयिष्यथ गृहादिकं
णां यथाविधि-यथारत्नाधिकं प्रहणे प्राप्तेऽपि तत्र स भूयव रक्षिष्यथ ततो वसतिं प्रयच्छाम इति ।
औत्पत्तिकी सामाचारी स्थापयति, कथमित्याह-यो यतत्र साधुभिर्वक्रव्यम्
स्य-शैक्षग्लानादेगीतार्थादेर्वा धान्यस्य दूरे अदूरे वा यत्र
संस्तारकप्रायोग्यः स तस्य तत्रावकाशे दातव्यः। नविजोइसंग गणिय,ण अक्सरेण विय किंचि रक्खामो। अप्पस्सगा असुणगा, भायणखंभोवमा वसिमो ॥ ७७ ।।
निक्खमपवेसवजण, दूरे य प्रभाविया तु धरमाणं । वयं नापि ज्योति न गणितं नाक्षराणि शिक्षयामः, न
धमतेण परिणता, चिलिमिलि दिवरत्तसुमं तु ॥३॥ वा जानीमः, नापि किंचिद् गृहादिकं रक्षामः, कि तु-भाज- यत्र सागारिको धान्यग्रहणाथै निष्कामति प्रविशति वा मस्तम्भोपमा वसामः । यथा भवतां भाजनं स्तम्भकुख्या
तमवकाशं वर्जयित्वा साधुभिरासितव्यम् ,ये वा पुनरभाविदीनि सौख्यदौस्थ्यव्यापारं न वहन्ति, एवं षयमपि भव
ताः-अगीतार्थास्ते धान्यानां दूरे स्थाप्यन्ते, परिणताः-धर्मद्विमन्तव्याः । अत एव गृहे कस्यापि कार्यस्याधिपत्ति प
श्रद्धालयः स्थिरचेतसश्च ते धान्यान्तेन पार्थेन क्रियन्ते, श्यम्तोऽप्यपश्यकाः । यदा च कोऽपि ब्रूयात्-इदं शय्या
धान्यानां वाऽपान्तराले चिलिमिलिका दातव्या। गीतार्थतरस्य कथयत, तदा वयं शुण्वन्तोऽप्यश्रोतारो मन्तव्याः।
परिणामकैश्च दिवा च रात्रौ चाशून्यं कर्तव्यम् । यचेवमभ्युपगच्छन्ति तदा स्थातव्यम् , अत एवाह- ते तत्थ समिविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुवं । निकारणम्मि एवं , कारण दुलभे भणंतिमं वसभा ।
जागरमाण वसंती, सपक्खजतणाएँ गीयत्था ८४॥ अम्हे वि तेलगच्चिय, यधापवत्तं च इह तुज्झे ।। ७८॥ । ते साधवस्तत्रोपाश्रये सन्निविष्टा सन्तः खाध्यायादिकं कुनिष्कारणे भावे एवं तिष्ठन्ति । अथ अशिवादो कारणे शु
वन्तीति वाक्यशेषः । तैश्च संस्तारकविधिपूर्व यथा पूर्वोक्का या वसतिदुर्ममा ततो धान्यशालायां तिष्ठन्ति, इत्थं सा-|
दोषा न भवन्ति तथा गृहीताः-गृहीतार्थाः स्वपक्षयतनायै धारणवचनं वृषभाः भणन्ति, वयं तावदत्र स्थिताः, एवं यू.
स्वपक्षविषयरक्षार्थ जाप्रतः-सजागरा वसन्ति-स्वपन्ति । यमपि यथाप्रवृत्तं दिवसदैवसिकं व्यापार वहथ। एषा गता ठाणं वा ठायंती, णिसज महवा सजागर सुर्वति । अनुवापना यतना।
बहुसो अभिवंते, वयणमिणं वायणं देमि ॥८५॥ अथ स्वपक्षयतनामाह
यथा दृढसंहननास्ते स्थानं तिष्ठन्ति कायोत्सर्ग कुर्वन्तीत्यमाम ति अन्भुवगते, भिक्खवियारादिणिग्गतमियेसु ।।
धः। अथवा-'निसिज' ति निषमास्ते सूत्रार्थमनुप्रेक्ष्यमाणाभणति गुरू सागरियं, जाउं जे कज किं धनं ।।७।।
स्तिष्ठन्ति, यश्च शैक्षादिपरिणतस्तेषां धान्यराशीनां समीपे ब.
जनि तत्र गुरवो वृषभा वा सजागराः स्वपन्तस्तथा काशितामाममित्यनुमतार्थद्योतकम् , एवं यदि सागारिकेणानुमतं
दिशब्दं कुर्वन्ति, यथाऽसौ प्रतिनिवर्तते । अथासौ बहुशोभूमम निष्प्रत्युपकारिणो भूत्वा यूयं तिष्ठत, ततस्तत्र स्था
योऽपि द्रवति ततो गुरुभिः सामान्यत इदं वचनं वक्तव्यम्तव्यम् । स्थितानां च तत्रायं विधिः-ये सर्वेऽपि मृगा श्र
आर्याः! उत्तिष्ठत येन युष्मभ्यं वाचनां प्रयच्छामि, यद्वा-तमेव गीतार्था भिक्षायां विचारभूम्यादी वा निर्गता भवन्ति;
साधु भणन्ति । आर्य ! तुभ्यमहं वाचनां प्रयच्छामि । तदा गुरुराचार्यः सागारिकमन्यव्यपदेशेन भणति , किमथमित्याह-तत्र किं धान्यं वर्तत इति ज्ञातुम् । 'जे' इति पा
फिडियं धम्म ? वा, जतणा वारेति न उ फुडं चेति । दपूरण।
माणं सोही अमो, णिच्छंको होज गमणादी ॥८६॥ सालीणं बीहीणं, तिलकुलत्थाण मुग्गमासाणं ।
फिट्टन्ति दिग्मूढतया द्वारात्परिभ्रष्टं धान्यार्थिन वा धा.
न्यभक्षणेऽभिलाषिणं साधु यतनया वारयन्ति , न पुनदिट्ठ मए समिचया, अले देसे कुडुंबीणं ॥८॥
स्तस्य संमुखं स्फुटं रूक्षवचनं ब्रुवते । कुत इत्याह-मां शालीनां ब्रीहीणां तिलकुलत्थानां-मुद्रानां माषाणां च स. स्फुटमभिधीयमानमन्यः श्रोष्यति स च श्रुत्वा अन्येषां निचया अन्यास्मन् देशे कुटुम्बिनां गृहेषु मया दृष्टाः । कथयेत्ततश्च परम्परया सर्वैरपि साधुभिर्माते-निःशकोएवं च भणिय मित्त-म्मि कारणे सो भणामि पायरियं।। निर्लज्जो भवेत् , यद्वा-शातोऽस्म्यहमिति लज्जया गमअत्थि महं समिचया, पेच्छह णाणाविहे धमे ॥ ८१ ॥
नवैहासादीनि विदध्यात् ।
कथं पुनर्वारयन्ति इत्याहएवं चाऽऽचार्येण भणितमात्रेऽपि स सागारिकः कथनकारणे क्रमप्राप्ते सस्याचार्य भणति , भगवन् ! सन्ति मे ब.
दारं न होइ एत्तो, णिद्दामताणि पुंछ अच्छीणि । हवः सनिचयाः, पश्यत-मानादिधान्यानि । एवं ध्रुवन् ह
भण जं च संकियं ते, गिएहह वेरत्तियं भंते ।। ८७॥ स्तसंशया निर्दिशति , यथा अत्र शालयः सन्ति, अत्र गो- यः-स्फिटितो धान्यार्थी वा साधुः स वक्तव्यः। आर्य ! भूमाः अत्र तिला इत्यादि ।
यत्र भवान् गच्छसि, इतो द्वारं न भवति, निद्राप्रमते घाऽ
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अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि क्षिणी प्रोग्छ हस्तेन परिस्पृशोन्मीलयेत्यर्थः । यच किमपि | त्रालीयमानेषु स्तेनेभ्यः सकाशाद्वीजाना रक्षणार्थ गीतार्थाः ते सूत्रेऽर्थे वा शङ्कितं तदस्माकमग्रे भण, ते निःशकि- उचशब्देनेदं वचन ब्रुवते । तं कुर्महे । अन्ये साधवो वक्तव्याः, भवन्त ! आर्या ! गृहोभ्यं
किं तदिस्याहबैरात्रिकालं येन स्वाध्यायः क्रियते । गता स्वपक्षयतना। जागरह णरा निच्चं, जागरमाणस्स बढते वुड्डी । अथ परपक्षयतनामाह
जो सुवति ण सो धमो,जो जग्गति सो सया धमो॥१४|| परपक्खम्मि वि दारं, पिहंति जतणाए दो वि चारैति ।
भो नराः! नित्यं जाग्रत-जाप्रतस्तिष्ठत यतो जाग्रतो बुद्धिः तहवि य अठायमाणे, उवेह पुट्ठा व साहिति ।। ८८॥ सूत्रानुपेक्षादिना वर्धते । अत एव यः स्वपिति नासौ धपरपक्ष-गोश्वानमार्जारादौ प्रतिश्रयं प्रविशति यतन- म्यो सानाविधनाईः। यस्तु जागर्ति स सदा धन्यः । या द्वारं पिदधते । अथ द्वारं पिधातव्यं न भवति ततो सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरुसाण लोगसारत्था । द्वावपि-तिर्यग्मनुष्यो, दासो दासी वा , स्त्रीपुरुषी वा,
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥१५॥ भाक्रान्तिकानाकान्तिको स्तेनी वा , प्रविशन्तौ निवारय
स्वपतां पुरुषाणामर्था ज्ञानादयो लोकसारार्थाः त्रैलोक्यप्रस्ति । यदि तथापि न तिष्ठन्ति-धान्यग्रहात्रोपरमन्ते तत उपेक्षां कुर्वन्ति , तूष्णीकास्तिष्ठन्तीति भावः । सागारि
धानप्रयोजनभूताः सीदन्ति-हानिमुपगच्छन्ति । यत एवं तकेण च केनेदं धान्यमानीतमिति पृष्टाः सन्तः कथयन्ति ।
स्मात् जाप्रतः सन्तःपुरातनकर्म विधूनयत ।। अमुकेनामुकया वा, इति संग्रहगाथासमासार्थः ।
विसुरति सुवँतस्स सुतं, संकितखलियं भवे पमत्तस्स । अथैनामेव विवरीषुराह
जागरमाणस्स सुतं, थिरपरिचितमप्पमत्तस्स ॥१६॥ पेडियमपजियाणं, उवयोगं काउ सणिय ढक्कैति । स्वपतो-निद्रायमाणस्य थुतमाचाराकादिकं 'विसुरति' वि. तिरियणर दोनि एते, खरखरि पुंथी णिसिद्धितरो।८६।
स्मरति,प्रमत्तस्य-विकथादिप्रमादनिमनस्य शतिं किमत्र प्र.
देशे इदमालाप्यमिदमर्थमिदं वा भवत्युत नेति,संशयकोडीकचक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य, रजोहरणेन प्रमृज्य , शनैर्यथा जीवानां विराधना न स्यात्तथा द्वारं ढकयन्ति-स्थगयन्ति । अथ
तम् , स्खलितं वा भवति,न परावर्तयतः शीघ्रमागलति. किं तदानीमचक्षर्विषयं तत्र श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरुपयोग -
तु-संस्मरणेनेति भावः । जनतस्तु विकथादिप्रमादेनाप्रमतस्वा द्वारपिधानं कुर्वन्ति । तथा द्वौ नाम-तिर्यङ्नरौ, अथ
स्य श्रुतं स्थिरपरिचितं भवति । स्थिरं नाम-नितान्तमबा-खरो-दासः खरिका-दासी एते , यद्वा-पुरुषः स्त्री,
विस्मरणधर्मकम् , परिचितं नाम--परावर्त्यमानं क्रमेणो
कमेण वा समागच्छति, श्रुतं का समाप्तिं याति । अथवा-निसृष्ट इतरश्चानिसृष्टः, निस्ष्टो नाम-यस्य शप्यातरेण प्रवेशोऽनुज्ञातः।
नालस्सेण समं सुक्खं, न विजा सह निदया। गेएहंतेमु य दोसु वि, वयणमिणं तत्थ वेंति गीयत्था।
न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ॥१७॥
नालस्येन समं सौख्यम् , वैराग्यं न ममत्वेन, साऽऽरम्भेष बहुगंणसि च घमं, किं पगतं होहिती कल्लं ॥६॥
न दयालुतेति। स्त्रीपुरुषादिरूपयोः द्वयोरपि धान्यं गृहानयोर्गीता
अपि चा इदं वचनं ब्रुवते-भो भद्र ! पिधानमद्य धान्यं नयसि किं कल्ये प्रकृतं-प्रकरणं भविष्यति ।
जागरिया धम्मीणं, अहम्मियाणं च सुन्नया सेया । नीसढेसु उवेहं , सत्येण व नासिताउ तुण्हिक्का।।
वत्थाहि व भगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीय ॥६॥ बहुसो भणंति महिलं,जह तं वयणं सुणइ अप्लो ॥११॥
धाम्मिकाणां जागरिका श्रेयसी, अधार्मिकाणां तु सुप्तता निसृष्टा आक्रान्तिकस्तेना ये बलादपि हरन्ति; तेषु स
श्रेयसी। एवं विधवाघिपस्य शतानीकनृपतेर्भगिन्या जयमागतेषु उपेक्षां कुर्वन्ति , तूष्णीकास्तिष्ठन्ति । अन्यथा
तीनामिकाया जिनो वर्द्धमानस्वामी कथितवान् । अत्रकमहादिना शरण नाशिताः सन्ति । महिला वा भणन्ति
थानकम्-" वच्छा जणवए कोलंबीनयरीए सयाजीमो यथा तद्वचनम् अन्योऽपि शृणोति।
राया । तस्स जयंती नाम भगिणी परमसाविया । अनाया त. इदमेव व्यक्तीकरोति
स्थ भगवं बजमाणसामी समोसहो । जयंती हट्ठा निग्गया
भगवंतं वंदित्ता पुनरन्तुसया भंते ! मया जागरिया वा। साहूणं वसहीए, रति महिला ण कप्पती गंती।
भगवया वागरियं । जयंतो! धम्मियाणं जागरिया मया, बहुगं व सि धणं, किं पाहुणगा विकालो य ॥१२॥ सुत्तया । अधम्मियाणं तु सुत्तया मया, न जागरिया । एवं साधूनां वसतौ रात्रौ महिला-खी न कल्पते , संप्रति प्रा- पत्रत्तीए आलावगा भणिया" (ते च 'जयंती' शब्दे ४ भागे गच्छन्ती त्वं च बहिवं धान्यं गृहासि । किं प्रापूर्णकाः दर्शिताः) समायाताः, तेनेदानी ग्रहीतुमवसर इति । विकालच संप्रति
किंचवर्तते।
सुयह य अयगरभूओ, सुतं च से नासई ममपभूयं । तेणेसु णिसट्टेसुं , पुवावररत्तिमल्लियंतेसुं ।
होहिइ णोणभूत्रो, नट्ठम्मि मुए अमयभए । ६8 | तेण बियरक्खणट्ठा, वयणमिणं वेंति गायत्था ॥१३॥ स खलु अजगरभूतः सनिश्चिन्तो-निर्भरः स्वपिति नान्यः । निसृष्टेषु-आझन्तिकेषु स्तेनेषु पूर्वरात्रमपररात्रं वा त-। तस्यैवं स्वपतः श्रुतमप्यमृतभूतं माधुर्यादिभिगुः सुधा
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(६७६) वसहि अभिधानराजन्द्रः।
वसहि सहोदरं नश्यति, नऐ न शृतेऽमृतभूते गोभूनो-बलीवई-1 तणपुंजेस वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेहिं जाव चेतेजा। कल्पोऽसौ भविष्यति, पबमादीनि वाक्यानि गीतार्थास्तत्र
(सू०-७६) महता शब्देनोद्धोपयन्ति । यद्येवमुपरताः स्तेनास्ततो लटम् । अथ नोपरतास्ततः
एतद्विपरीतं सूत्रमपि सुगमम् , नवरमल्पशब्दोऽभाववाकिं कर्तव्यमिति अाह
ची। प्राचा०२ थु०२ चू०२ १०२ उ०।। तासेतूणं ऽवहिते, अवेति ऽपहिते व गोसेसाहेति । से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु जाणंता वि य तेणं, साहेति ण वामरूवेणं ॥ १०॥
वा अप्पंडेसु अप्पपाणसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पोयद्याक्रान्तिकस्तेनैः साधून खगादिशस्त्रेण प्रामयित्वा
स्साएसु अप्पुनिंगपणगदगमट्टियामकडासंताणएसु अह धान्यमपहतम् , अनाक्रान्तिकस्तेनाः समागच्छन्तः सं- सवणमायाए नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तयतीताः एवं तैरप्यपहृते गोसे-प्रभाते शय्यातरस्य हप्पगारे उवस्सए हेमंतगिएहासु वत्थए ॥ २८॥ कथयन्ति, यथा-स्तेनैर्धान्यमपहृतम् । अथाऽसौ भूयः प्रश्नयेत् के पुनः स्तेनाः? ततो यद्यपि वर्मरूपादिभिर्जानन्ति
से तणेसु वा जाव संताणएसु उप्पि सवणमायाए कतथापि न कथयन्ति,मा भूवन ग्रहणाकर्षणादयस्तेषामुपद्रवाः प्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतअथ वरार्णादिभिरकथितेषु तेषु साधवस्तैन्यार्थकारितया गिम्हासु वत्थए ।॥ २६ ॥ शङ्कयन्ते ततो यतनया कथयितव्याः ।
से तणेसु वा जाव संताणएसु अहे रयणिमुक्कमउडे नो इदमेव भावयति
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए सुण सावग जं वत्तं, तेणाणं संजयाण इह अज्ज । तेणेहि पवितुहिं, जाहे नीएक्कसिं धनं ॥१०१॥
वासावासं.वत्थए ॥३०॥ हे श्रावक ! शृणु स्तेनानां संयतानां चेहाद्य यदत्तम् । यदा से तणेसु वा जाव संताणएसु उपि रयणिमुक्कमउडे किल स्तेनैः प्रक्रिते कोष्ठा पायं नीतं-बहिनिष्का- कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए शितम्।
वासावासं पत्थए ति बेमि ।। ३१ ॥ ताहे उवगरणाणि य,भिन्नाणि हियाणि चेव अन्नाणि ।
सूत्रचतुष्टयस्य संबन्धमाहहरिओवही वि जाहे, तेणा न लभंति ते पसरं ॥१०२॥
श्रद्धाणातो निलयं, उति तहियं तु दो इमे सुत्ता । गहियाउहप्पहरणा, जाध वधाए समुट्ठिया अम्ह ।।
तत्थ वि उडुम्मि पढम, उडुम्मि दुइजणा जेणं ॥७५८॥ नऽस्थि अकम्म त्ति ततो,एतेसि ठिता सुतुण्हिक्का॥१०३॥
पूर्वसूत्रे अध्वा प्रकृतस्तत उत्तीर्मा निलयम्-उपाश्रयतत उपकरणान्यप्यस्य संवन्धीनि तैः कानिचिद्भिन्नानि मुपागच्छन्ति । तद्विषये च ऋतुबद्धवर्षावासयोः प्रत्येकअन्यानि पुनरपहृतानि । ततो हृतोपधयोऽपि स्तेना यदा मिमे द्वे स्त्रे प्रारभ्यते । तत्रापि प्रथमं सूत्रद्वयमृतुबद्धविद्वितीयं वारं धान्यं हर्जुकामा अप्यस्माकं पार्श्वतः प्रसरं न षयम् , द्वितीय वर्षावासविषयम् , कुत इत्याह-ऋतुबद्धे येलभन्ते तदा गृहीतायुधप्रहरणा अस्माकं वधाय ते समुत्थि- न कारणेन 'दुरजणा'-विहारो भवति, न वर्षावासे । पू. ताः, अभिहितं च तैः-श्रमणास्तूष्णीमावमास्थाय प्रसरत वसूत्रे च विहारोऽधिकृतः, अतः संबन्धानुलोम्येन पूर्वमृयूयम् ,अन्यथा सर्वानुपद्रावयिष्याम इति,ततश्चिन्तितमस्मा. तुबद्धसूत्रद्वयम् , ततो वर्षावाससूत्रद्वयमिति । भिर्नास्त्यमीषां पापकर्मकारिणामकर्मेति । ततो वयमेते
अहवा श्रद्धाणविही, वुत्तो वसहीविहिं इमं भणई । सुतूष्णीकाः स्थिताः।
साऽविय पुव्वं वुत्ता, इह उ पमाणं दुविहकाले ॥७५६।। एवमाचार्येणोक्ते सति शय्यातरः
अथवा-अध्वविधिः पूर्वसूत्रे उक्तः, इदं तु प्रस्तुतसूत्रे ष. किमुक्तवानित्याह
सतिविधि भणति । साऽपि च वसतिः पूर्व प्रथमोद्देशकासेजायरो य भएणति, अमं धर्म पुणो वि होहिंति ।
दिवनेकशः प्रोक्का , इह तु द्विविधेऽपि-ऋतुबद्धवर्षाएसो अणुग्गहो मे,जं साधू ण दुक्खविओं कोवि ।१०४। वासलक्षणे काले तस्याः प्रमाणमुच्यते । अनेन सम्बन्धेशय्यातरः सूरीन् भणति-भगवनस्माकमन्यदपि धाम्यं पु. नायातस्यास्य व्याख्या-अथ तु तृणेषु वा तृणपुञ्जेषु वा नरपि भविष्यति,परमेष महाननुग्रहो मे संवृत्तः, यत् कोऽपि पलालेषु वा पलालपुजेषु वा अल्पाण्डेषु वा अल्पप्राणेषु युष्मदीयसाधुः स्तेनैनं दुःखापित इति । वृ०२ उ० । अल्पबीजपु मल्पहरितेषु अल्पावश्यायेषु अल्पोत्तिङ्गपन
(१४) तृणादिपुजेषु वसतिदोषानिधित्सयाऽऽह- कदगमृतिकामर्कटसंतानकेषु इहाण्डकानि पिपीलिकादीनाम् से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जा- प्राणा-द्वीन्द्रियादयः, बीजमनङ्कुरितम्,तदेवाङ्कुरोद्भिन्नं ह. णेजा,तं जहा-तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा०सयंडे०जाव
रितम् 'अवश्यायः-स्नेहः, उत्तिङ्गः-कीटिकानगरम् , पन
कः-पञ्चवर्षसङ्करोऽनङ्कुरो वा अनन्तवनस्पतिविशेषः, ससंताणए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा०३ चेतेजा ।।
दकमृत्तिका-सचित्तो मिझो वा कर्दमः, मर्कटकः-कासे भिक्खू चा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा। लिकस्तस्य संतानकं जालकम् । अल्पशनिश्चेह सर्वत्र
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसाह भाववचनः, ततोऽण्डरहितेषु प्राणहितेषु इत्यादि मन्त- अण्डादीनि वा यत्र भवन्ति तत्र तिष्ठन्ति; ततस्तेषां विराव्यम् । श्राह-'सवणमायाए'त्ति अधः श्रवणमात्रया श्रवण- धनायां स्वस्थानप्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम्। योरधस्तात्र छदेन तृणादीनि भवन्ति, तथाप्रकारे उपाश्रये
कथं पुनरल्पशब्दोऽभावे वर्तते, अत आहनो कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तु- थोवम्मि अभावम्मि य. विणिोगो होति अप्पसहस्स। म् । अष्टावृतुबद्धमासानित्यर्थः । एवं प्रतिषेधसूत्रमभिधाय प्र. पञ्चिताविनेयानुग्रहार्थ विधिसूत्रमाह-अथ तुणे वा याव
थोवे उ अप्पमाणे, अप्पासी अप्पनिदो य ।। ७६३ ।। दल्पसंतानकेषु उपरि श्रवणमात्रया युक्नेषु तथाविधोपाश्रयेषु
स्तोके अभावे च अल्पशब्दस्य विनियोगो-व्यापारो भवति, कल्पते हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् । एवमृतुबद्धसूत्रद्वयं ब्या
तत्र स्तोकार्थवाचको यथा-अल्पमानः अल्पासी अल्पख्यातम् ॥ अथ वर्षावाससूत्रद्वयं व्याख्यायते-अथ हणेषु
निद्रोऽयम् । वा तृणपुलेषु वा यावदल्पसंतानकेषु ' अधोरयर्णि मुक
अभाववाचको यथामउडेसु' ति । अञ्जलिमुकुलितं बाहुद्वयमुच्छ्रितं मुकुट उ
निस्सत्तस्स उ लोए, अभिहाणं होइ अप्पसत्तो ति । च्यते, स च हस्तद्वयप्रमाणः। यदाह-वृहद्भाव्यकृत्-'मउडी लोउत्तरे विसेसो, अप्पाहारा तुअटेजा ॥ ७६४॥ पुण दोरयणी, पमाणतो हो मुणेयव्यो' रत्निभ्यां हस्ताभ्यां यः किल निःसरवः पुरुषस्तस्य लोके अल्पसत्वोऽयमित्यमुक्ताभ्यां यो निर्मितो मुकुटः स निमुक्तमुकुटः । ए- भिधानं भवति, लोकोत्तरेऽप्ययं विशेषः समस्ति, यथातावत्प्रमाणमधस्तादुपरि च यत्रान्तरालं न प्राप्यते तेव
अल्पाहारो भवेत् , अल्पवत्त्वग्वर्तयेत् । अभावे रश्यते । य. धोरत्निमुक्तमुकुटेषु तृणादिषु न कल्पते वर्षावासे वस्तु- था-अल्पातङ्कः-नीरोग इत्यर्थः। म , अथ तृणेषु वा यावदल्पसन्तानके उपरि रत्निमुक्त
अथ बीजादियुक्तेषु तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाहमुकुटेषु यथोक्लप्रमाणेषु मुकुटोपरिवर्तिषु संस्तारके
बियमट्टियासु लहुया, हरिए लहगा व होति गुरुगावा। निविष्टस्य साधोरर्द्धवतीयहस्ताद्यपान्तरालयुक्तग्वित्यर्थः । ईदृश्यां वसती कल्पते वर्षावासे वस्तुमिति । सूत्रचतुष्ट
पाणुसिंगदएK, लहुगा पणए गुरू चउरो ॥ ७६५॥ यार्थः।
बीजमृत्तिकायुक्नेषु तृणेषु तिष्ठतां चतुर्लघु, हरितेषु प्रत्येके
षु चतुर्लघु, अनन्तेषु चतुर्गुरु, प्राणेषु द्वीन्द्रियादिषु उत्तिहोअथ भाष्यकारः प्रथमसूत्र विवरीघुराह
दकयोश्चतुर्लघु, पनके चतुर्गुरवः । उकः सूत्रार्थः । तणगहणा रमतणा, सामागादी उ मइया सब्वे ।
अथ नियुक्तिविस्तरःसालीमाति पलाला, पुंजा पुण मंडवेसु कता ।। ७६०॥
सवणपमाणा वसही, अधिद्रुते चउलहुं च माणादी। तृणग्रहणादारण्यकानि श्यामाकादीनि साण्यपि तृणानि |
मिच्छवाउडपडिले-हया य साणा य बाले य ।।७६६॥ सूचितानि, पलालग्रहणेन शाल्यादीनि पलालानि गृहीतानि,
श्रवणप्रमाणा वसतिः, करर्णयोरघस्तात् तृणादियुक्ता या पुजाः पुनस्तृणानां पलालानां वोपरिमण्डपेषु कृता भवन्ति ।
भवति, तस्यामधः श्रवणमात्रायां तिष्ठतश्चतुर्लघु, आशायेषु हि देशेषु स्वल्पानि तृणानि तेषु पुञ्जरूपतया तानि
दयश्च दोषाः, मिथ्यात्वं च भवति । कथमिति चेदित्याहमण्डपेषु संगृह्यन्ते । अधस्ताद् भूमौ स्थापितानि मा वि
येषां-साधूनां सागारिकमपावृतं वैक्रियं वा तान् प्रविनश्ययुरिति कृत्वा।
शतो रटा लोको घूयात् , अहो हीप्रच्छादनमपि तीर्थपुंजा उ जहिं देसे, अप्पप्पाणा य होंति एमादी। । करेण नानुज्ञातम् , लज्जामयश्व पुरुष-खियोरलकारः ।स
नूनमसर्वक्ष एवासौ, एवं मिथ्यात्वगमनं भवेत् । अप्प तिग पंच सत्त य, एएणं वुवती सुत्तं ॥ ७६१ ॥
'पडिलेह ' ति उपर्युत्प्रेक्षिते शीर्षमास्फुटति । तत्र एवं यन देशे मण्डपेषु पुजीकृता भवन्ति तत्र विवक्षि- प्राणविराधनानिष्पन्नम् , अवनतानां च प्रविशतां निर्गतायां वसतो ते पुजा अल्पप्राणा अल्पबीजा एवमादिवि- च्छतां वा कटी पृष्ठं वा वातेन गृह्यते । अवनतस्य च प्रशेषेण युक्ता भवेयुः । अत्र कस्याप्येवं बुद्धिः स्यात् । अ- विशतः सागारिकं लम्बमानं पृष्ठतः श्वानो मार्जारो वा ल्पाः प्राणास्त्रयः पश्च सप्त वा मन्तब्याः । अत पाह- घोटयेत् 'बाले यति' उपरि-शीर्षे त्रास्फिटिते सप्पो एनेतेन परोक्नेनाभिप्रायेण सूत्रं व्रजति, किं तर्हि अल्पश
श्चिको वा दशेत् । यत पते दोषाः अतोऽध:-श्रवणमात्रायां मोत्राभाववाचको द्रष्टव्यः। प्राणादयस्तेषुन सन्तीति भावः।। वसतौ, न स्थातव्यम् । अत्र परः प्राह
द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपि-- वत्तव्वा उ अपाणा, वंधणुलोमेणिमं कयं सुत्तं ।
सवणपमाणा वसही, खेत्ते ठायते बाहि वोसग्गो । पाणादिमादिएसुं, वंते सहाणपच्छित्तं ॥ ७६२ ॥ पाणादिमादिएसुं, वित्थिनाऽऽगाढजतणाए ।। ७६७ ॥ यद्यभावार्थोऽल्पशम्नस्तत एवं सूत्रालापकाः वक्तव्याः
पुरेषु क्षेत्रवशिवादीनि भवेयुस्ततः क्षेत्राभावे अधः श्रव"अप्पाणेसु अबीएसु महरिएसु" इत्यादि । गुरुराह-ब- णमात्रायामप्यल्पप्राणादियुक्तायां तिष्ठतामियं यतना । बसधानुलोम्येनेत्थं सूत्रं कृतम् । 'अप्पपाणेसु' इत्यादि । एवं- तेर्बहिरावश्यकं कुर्वन्ति । अन्योऽपि यो व्युत्सर्गः कायोविधो हि पाठः सुललितः-सुखेनैवोच्चरितुं शक्यते । यदि त्सर्गः स बद्दिष्क्रियते । द्वितीयपदे स प्राणेषु आदिशपुनः वे त्रयः पञ्च वा द्वीन्द्रियादयःप्राणिन भादिशब्दात्- | म्दाद-बीजादिष्वपि वसतौ विद्यमानेषु पुनस्तत्र यतनया वि
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(१७८) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि तीर्थयां तिष्ठन्ति । सा येष्ववकाशेषु संसक्ला तान् क्षारेण
कुव्वंति उल्लोयकडं च पोति । लक्षयन्ति । कुटमुखेन वा हरितादिकं स्थगयन्ति । दगमसिकाबीजादीन्येकान्ते वृषभाः स्थापयन्ति । एवमागाढे
कप्पासई ए खलु सेसगाणं, परसे स्थितानां यतना विज्ञेया।
मुत्तुं जहमेण गुरुस्स कुजा ॥ ७७४ ॥ वेउब्व वाउडाणं, तुसा जयणा णिसिञ्जकप्पो वा।
दीर्घजातीयादिषु वसतौ विद्यमानेषु तेषां विद्यया बन्धं उक्भोगणितइंते, हु छिंदणाणामणा वाऽवि ॥ ७६८॥
कुर्वन्ति, विद्याया अभावे उपरिष्टादुल्लोच कुर्वन्ति, उल्लोचा
भावे कटम्, कटाऽभावे पोत्ति-चिलिमिलिका सर्वसाधूनाये विकुर्विताः-प्रावृतसागारिकास्तेषां प्रथमोद्देशकोक्ता य- मुपरि कुर्वन्ति । अथ तावन्तः कल्पाः न विद्यन्ते ततः शेषातना अवधारणीया, प्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्च पृष्ठतो निष- णां मुक्त्वा जघन्येन गुरोरुपरिष्टादुल्लोचं कुर्यात् । ०४ उ०। चां कल्पं वा कुर्वन्ति । श्वानादीनामुपयोगं ददाना नित्यं (१५) अभीक्ष्णं सामिकेष्ववपतत्सु वसेत् । निर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च । यान्युपरि तृणान्यवलम्बन्ते तेषां
से आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा प्रमाय॑ छेदनं नामनं वा कुर्वन्ति । व्याख्यातम् ऋतुषद्ध
परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं सूत्रद्वयम् । अथ वर्षावाससूत्रद्वयं विवृणोति
णो उवएज्जा । (सू०-७७) अंजलिमउलिकयामो,दोनिवि बाहू समुच्छिया मउडो। 'से' इत्यादि यत्र ग्रामादेर्बहिरागत्याऽऽगत्य पथिकादयस्तिहेड्डा उवरिं व भवे, मुकं तु तो पमाणाप्रो ।। ७६६ ॥
ष्ठन्ति तान्यागन्तागाराणि, तथा श्राराममध्यगृहाण्यारामा
गाराणि, पर्यावसथा-मठाः, इत्यादिषु प्रतिश्रयेवभीषणअजली मुकुलीकृतौ द्वावपि बाहू समुच्छुितौ मुकुट उ
म्-अनवरतं साधर्मिमकैः-अपरसाधुभिरवपतद्भिः आगच्छच्यते । मुक्तमुकुट पुनस्ततः प्रमाणात्तावत्तमङ्गीकृत्य संस्ता
द्भिर्मासादिविहारिभिश्छतिषु नावपतेत्-नागच्छेत् । तेषु कनिविष्टस्याध उपरि च यत्रान्तरालं प्राप्यते ईदृश्यामुपरि
मासकल्पादि न कुर्यादिति । प्राचा० २ श्रु० १ चू० २ रलिमुक्तमुकुटायां वसतौ वर्षाकाले स्थातव्यम् ।
अ०२ उ01 कुत इति चेदुच्यते
अधुना संसक्तद्वारमाहहत्थो लंबइ हत्थं, भूमीअो सप्पो हत्थमुटेति । पुढविदगअगणिहरिय-तसपाणसगारियादिसंसत्ता । सप्पस्स य हत्थस्स य, जह हत्थो अंतरा होई ॥७७०।।
बंभव्वय आईसण, विराहगा पञ्चवाया उ॥ ५६४ ।। फलकादी संस्तारकस्तत्तस्य हस्तौ, हस्ताभ्यामेकम् अधो
पृथिव्या उदकेनाग्निना हरितकेन त्रसप्राणैः सागारिकादिलम्बते, भूमितश्च सर्पो हस्तमुत्तिष्ठति, ततः सर्पस्य च
भिश्च, सागारिकः-शय्यातरः । श्रादिशब्दादन्यस्त्रीपुरुषगृहयथा हस्तोऽन्तरा भवति तथा कर्तव्यम् ।
स्थैः सम्मिश्रा संसक्का, तथा प्रत्यपाययति प्रत्यपाये पा___ यथा
तयतीति प्रत्यपाया, ब्रह्मव्रतादीनां दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य विमाला लंवति हत्थं, सप्पो संथारए निविट्ठस्स | राधिका, यत्र ब्रह्मव्रतादीनां विराधनोपजायते सा सप्रत्यसप्पस्स य सीसस्स य, जह हत्थो अंतरा होइ ॥ ७७१ ॥ पाया; शय्या इत्यर्थः। फलकादी संस्तारके निविष्टस्य मालासर्पो हस्तो लम्बत,
अत्रोभयत्रापि प्रायश्चित्तविधिमाहततः सर्पस्य शीर्षस्य च यथा हस्तोऽन्तरा भवति तथा वि. काएसु तु संसत्ते, सचित्तमीसेसु होइ सट्ठाणं । धेयम् । इरप्रमाण उपाश्रयो ग्रहीतव्य इत्यर्थः ।
सागारियसंसत्ते, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ ॥ ५६५ ॥ काउस्सग्गं तु ठिए, मालो जइ हवइ दोसु रयणीसु। | कायैः-पृथिवीकायादिभिः सचित्तैर्मित्रैश्च संसक्ने उपाश्रकप्पइ वासावासो, इय तणपुंजेसु सब्बेसु ॥ ७७२ ॥ | ये तिष्ठतः प्रायश्चित्तं स्वस्थानं स्वस्थाननिष्पन्नं भवति । कायोत्सर्गस्थितस्य मालो यदि द्वयो रन्योरुपरि भवति
तद्यथा-सचित्तैः-पृथिवीकायादिभिः संसक्ने चतुर्लघु, हरितैसदा कल्पते तस्यां वसतौ वर्षापासः कर्तुम् । अयमेव
रनन्तैश्चतुर्गुरु, प्रत्येकबीजैः रात्रिंदिवपञ्चकं लघु,अनन्तबीजैसर्वेष्वपि तृणपुलेषु विधिद्रष्टव्यः।
गुरुकम् , मित्रैः-पृथिव्यादिभिर्मासलघु,हरितैरनन्तैर्मिौर्मा
सगुरू, बीजैरनन्तैश्च मित्रैः सचित्तैश्च प्रसकायैश्चत्वारो गुउप्पि तु मुक्कमउडे, अहिरंते चउलहुं च आणाई । रुकाः । 'सागारिये' त्यादि पश्चिमार्द्धम् , निर्गन्थानां पुरुषमिच्छत्ते बालाई, बीयं आगाढसंविग्गो ।। ७७३ ॥ संसक्ने उपाश्रये तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः, स्त्रीसंसक्ने चत्वाअत उपरि मुक्तमुकुटे प्रतिश्रये स्थातव्यम् । अथाऽधो
रो गुरुकाः । निर्ग्रन्थीनां स्त्रीभिः संसक्ने चतुर्लघु, पुरुषसंसमुक्तमुकटे तिष्ठन्ति ततश्चतुर्णघु । आशादयो मिथ्यात्वं व्या- क्ने चतुर्गुरू, ये च यत्राज्ञाभङ्गादयो दोषास्ते च तत्र समायखादयश्च दोषाः पूर्वसूत्रोक्ता भवन्ति । द्वितीयपदमप्यागाढे
श्चित्तं वक्तव्याः। कारणे तत्रैव मन्तव्यम् । यत्र च तिष्ठन् संविग्न एव भवति । गुरुगा बंभावाए, आयाए चेव दंसणे लहुगा । अत्रेय यतना
आणादियो विराहण, भवंति एकेकगपयाउ॥५४६॥ दीहाइजाईसु उ विजबंध,
ब्रह्मापाय-ब्रह्मप्रत्यपाये श्रात्मनि-चैव भारममत्स्यपाये गु
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( ६७१) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि काश्चत्वारो गुरवः। दर्शने-दर्शनप्रत्यपाये चत्वारो ल- काले मासे पूर्ण वर्षाकाले-तुर्मासे पूर्णे-यत्र तिष्ठति सा घवः । आज्ञादयश्व-प्राज्ञाभङ्गादयो विराधना एकैकपदात् कालातिक्रान्ता वसतिः। 'सवे' त्यादि, या कोलमादायक भवन्ति-शातव्याः। द्विविधकरणोपघातादिषु सर्वेष्वपि प- न्तरमुक्ता ऋतुबद्ध मासे वर्षासु चत्वारो मासा इति । तामेव देष यथायोगमाज्ञाभङ्गादयो विराधना सप्रायश्चित्ता योज- द्विगुणां द्विगुणामवर्जयित्वा यत्र भूयः समागत्य तिष्ठन्ति नीया इत्यर्थः।
सा उपस्थाना । किमुक्तं भवति-ऋतुबद्धे काले नौ मासी अथ-के ब्रह्मप्रत्यपाया, प्रामप्रत्यपाया, दर्शनप्रत्यपाया
वर्षास्वष्ट मासान् अपरिहत्य यदि पुनरागच्छन्ति तस्यां बसवा?, तत श्राह
ती ततः सा उपस्थाना भवति । उप-सामीप्येन स्थानमबतिरियमणुयित्थियातो, बंभावातो उ तिविहपडिमातो।।
स्थानं यस्यां सा उपस्थानति व्युत्पतेः, श्रन्ये पुनरिदमाच
क्षते-यस्यां वसतौ वर्षावासं स्थिताः तस्यां द्वौ वर्षारात्रावअहिविलचलंतकुड्डा-दि एवमादी उ आयाए ॥५६७॥ न्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना भवति ।
आगाढमिच्छदिट्ठी, सव्वातिहि-मरुगबहुजणट्ठाणे । अर्वाक तिष्ठतां पुनरुपस्थापना । पासंडा य बहुविहा, एसा खलु दंसणावाया ॥५६८।।
जावंतिया उ सज्जा, अन्नेहिं सेविया अभिकता। यत्र तिर्यकत्रियो मनुष्यस्त्रियो वा, यदि वा-यत्र त्रिविधा | अन्नेहि अपरिभुत्ता, अणभिकंता उपविसेया ।। ६०२॥ प्रतिमा-तिर्यस्त्रीपतिमा मनुष्यस्त्रीप्रतिमा देवस्त्रीप्रति- शय्या-आचाण्डालेभ्यो यावन्तिकी, सा यदाऽन्यैश्वरकामा वा सा ब्रह्मप्रत्यपाया। तस्यां स्थितानां ब्रह्मवतविना- दिभिः पापण्डस्थैर्गृहस्थैर्वा निषेविता, पश्चात् संयतास्तिशसंभवात् । यत्र पुनरहिविलानि चलन्ति-बलानि कु-| ष्ठन्ति सा अभिक्रान्ता, सैव यावन्तिकी अन्यैः पापण्डस्थैर्गज्यानि आदिशब्दाच्चलवेलीधारणादिपरिग्रहः, एवमादिका | हस्थैर्या अपरिभुक्ता तस्यां यदि संयताः प्रविशन्ति, ततः सा श्रात्मनि श्रात्मप्रत्यपाया । तथा यत्रागादमिथ्यादृष्टियंत्र अनभिकान्ता। च सर्वेऽतिथयः समागच्छन्ति सर्वमित्यर्थः, यत्र मरुका- अत्तऽदु कडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वजा उ। वटुकास्तिष्ठन्ति बटुशाला इति भावः, यच्च यहूनामागन्तु- जम्हा तं पुबकयं, वजेति ततो भवे वजा ।। ६.३॥ कानां जनानां स्थानं वैदेशिककुटीत्यर्थः, यत्र बहुविधाः पा
आत्मार्थकृतां वसति यतिभ्यो दत्त्वा पुनरन्यामात्मार्थ कुपण्डाः-एवंरूपा वसतिः खलु दर्शनापाया दर्शनप्रत्यपाया । |
यन्ति यदि ततः सा यतिभ्यो दत्ता वा भवति । कया म्यु. संप्रति शय्याविधिद्वारमाह
त्पत्त्येत्यत आह-यस्मात्ता पूर्वकृतां वसति गृहस्था वर्जयन्ति कालातिकता वा, ठाण अभिकंतप्रणभिकंता य । यतिभ्यः किल दतत्वात् ,ततो वय॑ते इति वा भवति सा
पूर्वकृतात। वजा य महावज्जा, सावज महप्पकिरिया य ।। ५६६॥ शय्या नवप्रकारा भवन्ति, तद्यथा-कालातिक्रान्ता १
पासंडकारणा खलु, आरम्भो अभिणवो महावजा । उपस्थापना २ अभिक्रान्ता ३ अनभिक्रान्ता ४वा ५ महा
समणऽट्ठा सावजा, महासावजा उ साहुखं ।। ६०४॥ वा ६ सावद्या ७ महासावद्या ८ अल्पक्रिया ६ च ।
यत्र बहुना श्रमणब्राह्मणप्रभृतीनां पापण्डिनां कारणात्कारतत्र कालातिक्रान्तादिषु प्रायश्चित्तविधिमाह
णेन खल्वारम्भोऽभिनवः क्रियते सा महावा । श्रमणार्थाकालातीते लहुगो, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसुं ।
पश्चानां श्रमणानामर्थाय कृता सावद्या । या पुनरमीचामेव
साधूनामर्थाय कृता सा महासावद्या । वृ०१ उ०१ प्रक० । गुरुगा तिमु जमलपया, अप्पकिरियाएँ शुद्धो उ॥६००॥ (अल्पक्रियास्वरूपम् 'अप्पकिरिया' शब्दे प्रथमभागे ६१२ ऋतुबद्धे काले कालातिक्रान्ते तिष्ठति मासलघु. वर्षाकाले पृष्ठे व्याख्यातम् ।) चत्वारो लघवः, चतुर्यु स्थानेषु उपस्थानायामभिकान्ता- (१६) साम्प्रतं कालतिक्रान्तवसतिदोषमाहयामनभिकान्तायां वायां चेत्यर्थः तिष्ठतः प्रत्येक चत्वारो
से आगंतागारेसु वा०४ जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासालघुकाः, तथा-त्रिषु स्थानेषु महावायां सावद्यायां
वासियं वा कप्पं उवायणिता तत्थेव भुजो संवसंति - महासावद्यायां चेत्यर्थः प्रत्येकं चत्वारो गुरवः । परं तपःकालविशषिताः, तद्यथा-महावायां चत्वारो गुरुकाः
यमाउसो! कालाप्रतिकंतकिरियाऽवि भवति । (सू०-७८x) तपोगुरवः, सावद्यायां तपोगुरवः, महासावद्यायां तपसा
तेष्वागन्तागारादिषु ये भगवन्त ऋतुबद्धमिति शीतोष्णकाकालेन च गुरवः । 'जमलपया' इति तपःकालयोः संशा ।
लयो पल्पमुपनीय अतिवाह्य वर्षासु वा चतुरो मासानततोऽयमर्थः । त्रिषु स्थानेषु गुरुका यमलपदा-यमलपद- तिवाह्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासत अयमायुष्मन् ! काघन्तस्तपःकालविशेषिता द्रष्टव्याः । अल्पक्रियायां तु तिष्ठन् | लातिक्रमदाषः संभवति । तथा च स्यादिप्रतिबन्धस्नेहाशुद्धः।
दुद्गमादिदोषसंभवा वेत्यतस्तथा स्थानं न कल्पत इति । सांप्रतमेतासामेव कालातिक्रान्तादीनां व्याख्यानम- (उपस्थानदोषाः ' कालाइकंतकिरिया' शब्दे तृतीयभागे भिधित्सुराह
४६४ पृष्ठे गताः) उदुवासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेजा ।
अथ प्राभृतिकद्वारं बिभावयिषुराहसब्वे च उवट्ठाखा, दुगुणादुगुणं अबजेता ।। ६०१॥ । पाहुडिया वि य दुविहा, बायर-सुहुमा य होइ नायब्वा । ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्तस्यामृतुबद्ध। एकेका वि य एत्तो, पंचविहा होइ नायव्वा ॥८३७॥
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बसहि
(अस्वाध्याच्या पाडुडिया शमे पञ्चमभागे ११४ पृष्ठे गता । )
शब्दे
( L८० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
तत्र बाद पञ्चविधामपि तादादविद्वंसगछावणले पण, भूमिकम्मे पहुच पाहुडिया । उस्सक हिसकण, देसे सव्वे य नायव्त्रा ||८३८॥ विध्वंसनं यतेर्भददिभिराच्छादन] लेपनं कु क्यानां कर्ममेन गोमयेन च लेपप्रदानं भूमिकर्म-समविषमाया भूमेः परिकर्मणम् पचसि प्रतीत्य करणं त्रिशाल कर्तुकामः साधून प्रतीत्य चतुःशाल करोति, आरमीयं वा ई साधूनां वा आत्मार्थमपरं कारयतीत्यादि । एषा पञ्चविधाऽपि बादप्राभृतिका प्रत्येकं द्विधा अवश्यकतः अभिष्यकयतथ - श्रवष्वष्कणतः, नाम विवचितविध्वंसनादिकालस्य ह्रासकरणमर्षाक्करणमित्यथेः, अभिष्वष्कणं तस्यैव विवक्षितकालस्य संवदनं परतः करणमित्यर्थः । पुनरेकैके चिष्वंसनादयो द्विधादेशः सर्वतब्ध ज्ञातव्याः तत्र देशतः सर्वतो वा विध्वंसनमभिष्यन्कयतो भाग्यते। केनचिद् गृहपतिना चि तितम् पयेदं युद्धं ज्येष्ठमासे भक्त्वा ततोऽभिनवं करि ब्याम इति इतश्च ज्येष्ठमासे तत्र साधवो मासकल्पेन स्थिताः ततोऽसी चिन्तयति
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अच्छंतु ताव समया, गएसु मंतूरा एत्थ काहामो । श्रभासितेण संते, न एतिजा भंतुणं कुणिमो ॥ ८३ ॥ इदानीं तावदाताम् तिष्ठन्तु श्रमाः । गतेषु पथादाषाढमासे मत्वा करिष्याम इत्येतदभिष्वकम्। प्रथावण्यकमाह-'श्रभासित' इत्यादि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैरवभाषिते प्रदत्ते योपाभये सति पतिभिस्तपति ज्येष्ठमासे तायद साधकः स्थास्यन्ते ततो यावते नागछन्ति तापदेशाचे मासे मत्या कुर्म इति एतदवय हम्। भाषिते विध्वंसनपदम् ।
अथ छादनादीन्यतिदिशन्नाहएसो व कमो नियमा, खजे लेवे य भूमिकम्मे य । तेसाल - बाउसालं, पडुच करणं जई निस्सा ॥ ८४० ॥ एष वा अवष्वष्करातश्च क्रमो नियमात् मन्तव्यः कइस्याह - 'छजे' छादने लेपे लिम्पने भूमिकर्मणि च । तिष्ठन्तु सायदिदानीं भ्रमणाः पधाइतेषु सत्सु दविष्यामो मूर्ति या परिकर्मविष्याम इति एतदमिवच्कराम्। एताम्यानादीनि यथागतमेव करोति तदा वा
"
"
भाव्यते । ' तेसाल ' इत्यादि, त्रिशालं गृदं कर्तुकामोयतीनां निश्रया तान् प्रतीत्येति भावः चतुयत्करो तितरमतीत्य कारणमुच्यते ।
अथवा
पुब्वधरं दाऊण व, जईण अभं करिति सद्भाए । फाउमा वा अनं, यहाखाइस कालमोसके ।। ८४१ ॥ पूर्व स्वार्थ पूर्वकृतं यद् प्रीतचे पतीनां दस्यवाद प्रकारान्तरतायां स्वार्थमन्यदमिन बगारियां कुवन्ति तथा प्रतीत्य करणम् । अथवा केऽपिखाखाः स्वार्थ
यसहि
,
मम्यद् गृहं ज्येष्ठमासे कर्तुमनसः परं तत्र वैशाखमास स्वा नादिकं जिनचैत्येषु भाविताः ततस्ते चिन्तयन्ति श्रनागतमेव गृहं कुर्मो येन तत्र साधवो वैशाखमासि म्नानादिषु समये हि स्थास्यन्ति एवं साधून् प्रतीत्य कालमधष्वष्कयेयुः एतदवष्वष्कणतः प्रतीत्य करणमुक्तम् । श्रथाभिष्वष्कणतस्तदेवाह -
"
एमेव य यहाणाइस, सीयलकअऽडु कोइ उस्सबको। मंगलबड्डी सो पुरा गएसु तहि यं वसिउकामो ||८४२ ॥ पवमेवावण्यकश्यत् कोऽपि भवः शीतकाले गुदं कर्तुकामधिन्तयति वैशाखमासि स्नानं रथयात्रा वह भवि ध्यति तत्र च साधवः समागमिष्यन्ति तच्च तदानीमेव यत्कृतं नवगृहं शीतलं भवति । शीतले च तस्मिन् साधवः सुखमाशिष्यन्तेः श्रतः स्नानादिप्रत्यासन्न एव समये करिष्यामोति साधून प्रतीत्य स्नानादिषु शीतलकायार्थ बत्को ऽप्ययष्वष्कते एतदभिष्वष्कणतः प्रतीत्य करणा, स पुनरवष्वष्करामभिष्यक या मंगलबुद्धधा करोति, यथा- पूर्व साधवो मदीयं नवदं यदि परिभुञ्जते ततः पवित्रं भवतीति - तेषु च तेषु तत्र नयगृहे स्वयमेव वस्तुकाम इति । । अधावेव प्रायश्चित्तमाद
"
क
सव्वम्मि उ चउलहुया, देसम्मी वायराऍ लहु उ । सम्बम्म मासियं खलु देसे मित्रे व सुदुमाए ||८४३॥ बादरायां प्राभृतिकायामनन्तरोकायामेव सर्वता रिष्यमाणायां कृतायां वा तिष्ठति चत्वारो लघवः । देशतः करिष्यमाणायां कृतायां वा तिष्ठति मासलघु सूक्ष्मायां था प्राभृतिकायां यचयमाणयां भवति विधास्यमानायां विहितायां वा विकृति मासलघु देशतस्तस्यामेव मि
समासः ।
सा पुनः सूक्ष्मप्राभृतिका पञ्चविधा । तामेवाहसंमजणावरिया, उनले वहुमदीवर चैत्र । उस्सकणाहिसकण- देसे सव्वे य नायव्वा ॥ ८४४ ॥ समाज बहुरिया प्रमाजनम् आवर्षणम् उनकप्रदानम्, उपलेपनं गणमृतिकथा भूमिकाया लेपनम्। 'सु मेति सूक्ष्माणि समयभाषया पुष्पात्युच्यन्ते । तथा च दशवैकालिक निर्युक्तौ पुष्पाणामेकार्थिकानि-“ पुप्फा य कुसुमा वेब, फुल्ला य कुसुमादि य । सुमणा बेब सुडुमा य, डुमाकाचा विष॥१॥" सतश्च पुष्पाणां प्रकररचनेत्यर्थः । "दीवर बेच "ति दीपप्रज्वलनम्। एतानि पूर्वमात्मार्थ यमाणान्येव विद्यन्ते नवरं साधून प्रतीत्य देशता सयेतो या पद्यष्यकयममिष्यष्क वा क्रियते सा सूक्ष्मप्राकृतिका ज्ञातव्या ।
"
अथास्या एवायष्वष्करणाभिष्वष्कणे भावयति - जाव न मंडलिवेला, ताव परजामो होइ उसक्का । उडुं तु ताब पढिउं, उस्सक्कण एव सव्वत्थ ||८४५ ॥ थायन्मण्डलीबेला स्वाध्याय मण्डली कालो नोपढौकते तावन्ममार्जयाम इस्येवं विचिन्त्यानागतमेव यदि प्रमार्ज
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वसहि
यन्ति तदा श्रवष्वष्कं भवति । अथ साधवः स्वाध्यायं कुर्वाणास्तदानीं मरडल्यामुपविष्टाः सन्ति ततश्चिन्तयन्तिउतिष्ठन्तु तावदमी पठित्वा ततः पश्चात्प्रमार्जयिष्याम इति विचिन्त्य तथैव यदि कुर्वते तदा श्रभिष्वष्कणं भवति । एवमेवावष्वष्करणमभिष्वष्कणं च सर्वत्र घर्षणोपलेपनादावपि भावनीयम् ।
सा पुनः सूक्ष्मप्रभृतिका द्विविधा
छिन्नमहिना काले, पुणो य नियया य अनियया चेव । निहिडुमनिरि, पाहुडिया घट्ट भङ्गा उ ।। ८४६ ॥ काले-कालतः दिपा निकालिका अच्छ कालिका चेत्यर्थः यस्यामुपलेपनादिच्चेि प्रतिनियते मासादी का क्रियते सा कालिका या तु यदा तदावा कियते सा अधिकालिका पुनरेकैका द्विधा नियता अनियता चैव । नियता नाम -- या पूर्वाह्लादावेव वेलायाम् अवश्यमेव वा क्रियते विपरीता अनियता- पुनरेकैका द्विविधा निर्दिश अनिर्दिश च तत्र प्राकृतिका कारकः स निर्दिष्टः इन्द्रदत्तादिनानोपलक्षितः तेन क्रियमाया प्राकृतिकाऽपि निर्दिष्टा । तक्षिपरिता अनिर्दिश । अत्र च त्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गा भवन्ति । तद्यथा-छिन्नकालिका नियता निर्दिशा, निकालिका अनियता अनिर्दिश इत्यादि ।
( et ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अथ निकालिकां व्याख्यानयति
मासे पक्खे व दसरा - तर य पण एगदिवसे य । वाघाम - पाहुडिया, होइ पवाया निवाया य || ८४७ ॥ या प्राभृतिका मासे -मासस्यान्ते-पक्षे पक्षस्यान्ते दशरात्रे दशानामहोरात्राणां पर्यन्ते पञ्चके-पञ्चरात्रिंदिवान्ते एकदिइसे एकान्तरिते दिने शब्दाधिरन्तरं दिने दिने इत्यर्थः । ए
प्रतिनियते काले वा क्रियते सा निकालिका या तु प स् कस्मिहिवसे विधीयते सा कलिकेति । व्याघातिमप्राभृतिका नाम या सूत्रार्थपौरुषीवेलायां क्रियते सा भवति प्रवाता, निवाता चेति । प्रवाता नाम या ग्रीष्मकाले अपराह्ने उपलेपनादिकरसेन धर्म नाशयति । या तु शीतकाले पूर्वा उपलेपनकरसेन रात्री व्यपगतशीते जायते सानियाता भएयते ।
अथ कस्यां प्राकृतिकार्या वस्तु कल्पते कस्यां च नेत्यत आहपुब्वर अवर, खरम्मि अणुग्गर व अत्यमिए । मज्झन्तिएव वसही, सेसं कालं पडिबुट्ठा ॥ ८४= ॥ पूर्वा-अनुङ्गते सूर्ये अपराह्ने प्रस्तमिते मध्या या म ध्याह्नवेलायां मूत्रार्थपौरुष्यामनुत्थितेषु इत्यर्थ एतेषु कालेषु यस्यां प्राभृतिका क्रियते सा वसतिरनुज्ञाता सूत्रार्थव्याघाताभावात् सेसं कालं ति सप्तम्यर्थे द्वितीया । शेत्रे उद्गतसूर्यादी काले-यस्यां प्राभृतिका विधीयते मा
२४६
-
बसहि
प्रतिक्रुष्टा न कल्पते तस्यां वस्तुम्, सूत्रार्थव्याघातसंभवात् । अथ निर्दिशनिर्दिमाभूतिके भाषयतिपुरिसजाओ अगो, पाहुडियाकारओ उ निडिट्ठा । सेसा उ निद्दिट्ठा, पाहुडिया होड़ नायन्त्रा । ८४६ ॥ अमुकः पुरुषो जातः पुरुषप्रकार: प्रभृतिकाकारक इन्द्रदत्तादिनाम्ना यस्यां निर्दिष्टः सा निर्दिशा, शेषा तु सर्वोप्यनिर्दिश प्राकृतिका भवति शातव्या
,
अथ पूर्वोक्तं भङ्गाष्टकविषयं विधिमाहकाऊण मासकप्पं, वर्षति जा कीरई उ मासस्स । सा खलु निव्वाषाया, तं वेलारेख नितायं ॥ ८५० ॥ रड प्रथमे भद्रे या मासस्वान्ते क्रिया इति कृत्या नि कालिका, तत्राप्यपराह्न एवं विधीयमानत्वानियता अमुकपुरुषकर्तृत्वेन च निर्दिष्टा । तस्यां कृतायां प्रथमतः प्रचिशस्ततो मासकल्पं कृत्वा यदि मजन्ति कथमित्याह तं बेलारेश निताएं 'ति तस्याः प्राभृतिकाकरणवेलाया - वांनिसा प्राकृतिका निर्व्यापाता मन्तव्या सूत्रार्थण्यापाताभावात् कल्पते तस्यां वस्तुमिति भावः । शे या द्वितीयादयो भङ्गाः क्वापि कथंचित् सम्याधाता इति कृत्वा तेषु न कल्पते ।
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अथ प्रवातानिवातेति च पदद्वयं भावयतिरहे गिम्हकरणे, पवाय सा जेण नासई घम्मं । पुत्रहे जा सिसिरे, निब्वाय निव्वाय सा रचि ।। ८५१ ॥ ग्रीष्मे अपराह्ने यदुपलेपनस्य करणं सा प्रवाता। कुत इत्याह-येन सा रात्रौ नाशयति व्यपनयति धर्म ग्रीष्मभावनायाम् या शिशिरे शीतकाले पूर्वा उपलेपनकररोन दिवसस्य चतुर्भिः प्रहारैर्निवाता शुष्का इत्यर्थः सा रात्री निवाता भवति । एतयोः कारणतोऽवस्थातुं कल्पत इति ।
अथ नियधातिमां भवन्तरेणाहपुव्यदेऽपचिए, अवर उट्ठिएस य पसत्था । मज्झरहनिग्गएसु य, मंडलिसुतपेहवाघाया ।। ८५२ ॥ या पूर्वा अप्रस्थापिते सति स्वाध्याये, अपरा मुद्दिश्योन्धितेषु साधुषु मध्याह्ने तु भिक्षापर्यटनार्थे ब्रिग तेषु या प्राभृतिका क्रियते प्रशस्ता सा । कुत इत्याह- 'मंडलि सुयह' सि येन सूत्रमण्डल्यामुपकरण प्रेक्षणावाच वाघायत्ति अकारप्रश्लेषादव्याघाता-न व्याघातविधायिनी, अत एषा प्रशस्ता प्ररूपिता । बादरा सूक्ष्मा च पश्चविधा प्राभृतिका एवंविधया सहितायां वसती न स्थातव्यम् ।
अथ नास्ति तथाविधा अप्राभृतिका वसतिः । ततः कारणतः सप्राभृतिकायामपि तिष्ठतां पतनामाहतं वेलसारवंती, पाहुडियाकारगं च पुच्छति । मोनूय चरिमभंगं, जयंति एमेव सेसेसुं ॥। ८५३ ॥ atri वेलायां प्राभृतिकाकारकं च पुरुषं पृच्छन्ति कस्यां वेलायां भवान सम्मार्जनादि करिष्यतीति एवं चरमम्
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि अष्टम भङ्ग मुक्त्वा शेषेषु सप्तस्याऽपि भङ्गेषु यतन्ते-यतनां भिः परिषहोपसर्गरक्षुभ्यन् समविषमाणि-शयनासनाकुर्वन्ति।
दीन्यनुकूलप्रतिकूलानि मुनिः-यथावस्थितसंसारस्वभाव - चरिमे वि होइ जयणा, वसंति आउत्तउवहिणो निच्चं। वेत्ता सम्यग्--अरद्विष्टतयाऽधिसहेत , तत्र च शून्यदक्खे य वसहिपाले, ठवंति थेरा पुणित्थीसु ।। ५४ ।। गृहादों व्यवस्थितस्य तस्य चरन्तीति चरका-शमशचरमेऽप्यष्टमे भने अच्छिन्नकलिका अनियता अनिर्दियाचे.
कादयः, अथवाऽपि-भैरवा-भयानका रक्ष शिवादयः. अथत्येवलक्षणे आगाढे कारणे तिष्ठतां भवति यतना । कथमित्या
वा-तत्र सरीसृपाः स्युः-भवेयुः, तत्कृर्ताश्च परीपह-नित्यमायुक्तोषधयो वसन्ति, उपधौ आयुक्ताः सावधाना
हान् सम्यक अधिसहेतेति ॥ १४ ॥ सूत्र०१ श्रु०२ १०२ उ०। आयुक्तोपधयः राजदन्तादेराकृतिगणत्वाद--व्यत्यासेन पूर्व
रात्री वसतौ गमनविधिमाहपरनिपातः। मा गोमयादिना कोऽप्युपधिगण्ठं मे प्राभृतिका भिक्खू य राओ वा वियाले वा णिक्खममाणे वा करणव्याजेबापहरेविति सम्यगुपधिविषयमयधानं ददती
पविसमाणे वा पयलेज्ज वा पवडेज वा से तस्थ पयलत्यर्थः । दक्षांश्च वसतिपालान स्थापयन्ति । यदि च तत्प्राभृतिकाकारिणः पुरुषा न स्त्रियस्ततस्तरुणा वसतिपालाः
माणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव इंदियस्थापयितव्याः 'थेरा पुणित्थीसु'त्ति यदि खियस्ततो ये जायं वा लूसेज वा पाणाणि वा०४ अभिहणेज, जाव ववस्थविराः-परिपाकप्राप्तब्रह्मचर्यास्ते वसतौ स्थापनीया इति। रोवेज वा अह भिक्खु णं पुन्बोवदिद्वा०४ जं तहप्पगारे गतं प्राभुतिकाद्वारम् । वृ० १ उ०२ प्रक०।
उवस्सए पुरा हत्थेणं पच्छा पायेणं ततो संजयामेव णिजे भिक्ख सपाहुडियं सेजं अणुपविसइ अणुपविसंतं | खमेज वा पविसेज वा । (मू०-८८) वा साइजइ ।। ६४॥
तत्र कार्यवशाइसता राज्यादो निर्गच्छता प्रविशता वा,यथा जम्मि बसहीए ठियाणं कम्मपाहुडियाणं भवति सा सपाहु
चरकाधुपकरणोपघातो न भवति तदवयवोपघातो वा तथा डिया छावणलेवणादिकरणमित्यर्थः । निघू०५ उ० ।
पुरो हस्तकरणादिकया गमनागमनादिक्रियया यतितव्यम् , (१७) तथाविधकार्यवशाच्चरककार्पटिकादिभिः सह
शेष कराव्यं नवरं चिलिमिलिः-यमनिका चर्मकोशः-पासंवासे विधिमाह
णित्रं खल्लकादिः । भाचा०२ श्रु.१०२ ० ३ उ० । से भिक्ख वा भिक्खुणीवा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा (रात्री वसतिप्रवेशे पाहारकल्पना 'रामायण'शब्दे अस्मिखड़ियाश्रो खड्वारियायो गिययायो संनिरुद्धियामोमेव भागे ५३७ पृष्ठे उक्का ।) (वसतिमधिकृत्य भोजनविधिः भवंति तहप्पगारे उवस्सए राम्रो वावियाले वा णिक्खममा
'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे १००३ पृष्ठे गतः ।) णे वा पविसमाणे वा पुरा हत्येण पच्छा पाएण ततो संज
| इदानीं वसतियाश्चाविधिमधिकृत्याहतामेव मिक्खमेज वा पविसेज वा, केवली बया-बाया से आगंतागारेसु वा अशुवीय उवस्सयं जाइजा जे तत्थ पमेयं जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा म
ईसरे जे तत्थ समहिवाए ते उवस्सयं अणुमविजा कामं त्तए वा दंडए वा लडिया वा भिसिया वा नालिया वा | खलु आउसो! अहालंदं अहापरिन्नातं वसिस्सामो जाव चिलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा च- पाउसंतो जाव आउसंतस्स उवस्सते जाव साहम्मियाई म्मच्छेदणए वा दुब्बद्धे दुमिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले।
ततो उपस्सय गिहिस्सामो तेण परं विहरिस्सामो। सू०-८४) (सू० ८८+)
स भिक्षुरागन्तागारादीनि गृहाणि पूर्वोक्तानि तेषु प्रविश्यास भिजुर्यत् पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-| नुविचिन्त्य च किंभूतोऽयं प्रतिश्रयः ? कश्चात्रेश्वरः?, इत्येवं पुद्रिका लव्यस्तथा क्षुद्रद्वारा-नीचा उच्चस्त्वरहिताः | पर्या लोच्य च प्रतिश्रयं याचेत, यस्तत्रेश्वरो गृहस्वामी यो सबिरुद्धाः-गृहस्थाकुला वसतयो भवन्ति, ताश्चैव भवन्ति- | वा तत्र समधिष्ठाता-प्रभुर्नियुक्त त्तानुपाश्रयमनुज्ञापयेत् । तस्यां साधुवसतौ शय्यातरेणान्येषामपि कतिपयदिवस- | तद्यथा-कामम् , तवेच्छया श्रायुष्मन् ! त्वया यथा परिक्षातं स्थायिनां चरकादीनामवकाशो दत्तो भवेत् , तेषां वा प्रतिश्रयं कालतो भूभागतश्च तथैवाधिवत्स्यामः, एवमुक्तः पूर्वस्थितानां पश्चात् साधूनामुपाश्रयो दत्तो भवेत् । तत्र- स कदाचिद् गृहस्थ एवं ब्रूयात् यथा-कियत्कालं भवताम(आचा०२ श्रु०१चू०२० ३ उ०।)
त्रावस्थानमित्येवं गृहस्थेन पृष्टः साधुर्वसतिप्रत्युपेक्षक रात्रौ न प्रविशेत्
एतद् ब्रूयात् , यथा कारणमन्तरेण ऋतुबद्धे मासमेकं वर्षाजत्थऽत्थमिए अणाउले,
सु चतुरो मासानवस्थानमिति । एवमुक्तः कदावित्परो ब्रूयासमविसमाई मुणीऽहियासए ।
तावन्तं कालं ममाऽत्रावस्थानं वलतिर्वा, तत्र साधुः तथा
भूतकारणसद्भावे एवं ब्रूयात्-यावत्कालमिहायुष्मन्त चरगा अदुवा वि भेरवा,
भासते, यावद्वा-भयत उपाश्रयः तावत्कालमेवोपाश्रय अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥ १४ ॥ ग्रहीष्यामस्ततः परेण विहरिष्याम इत्यत्तरेण सम्बन्धः । तथा भिक्षुर्य त्रैवास्तमुपात सविता तत्रैव कायोत्सर्गादि- साधुप्रमाणप्रश्ने चोत्तरं दद्यात् , यथा-समुद्रसंस्थानीया सू. मा तिष्ठतीति यत्रास्तमितः, यथाऽनाकुलः-समुद्रवनकादि-1 रयो नास्ति परिमाणम् यतस्तत्र कार्यार्थिनः केवनागच्छन्ति
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सह
अपरे कृतकार्या गच्छन्ति अतो यावन्तः साधमिकाः समागमिष्यन्ति तावतामयमाश्रमः साधुपरिमाणं न कथनीयमिति भावार्थः । श्राचा० २ ० १ ० २ श्र० ३ उ० । (बहुषु सागारिकेषु एकं सागारिकं कुर्यात् इति 'सागारिय' श देवपते। ) सागारिकस्य नामगोये जानीयात्
(हरे ) अभिधान राजेन्द्रः।
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए सबसेजा तस्स पुव्वामेव णाम गोतं जाणेज्जा, तम्रो पच्छा तस्स गिहे णिमंतेमाणस्स वा अणिमंतेमाणस्स वा असणं वा पा वा खाइमं वा साइमं वा अफासुगं० जाव णो पडिग्गाहेजा । ( सू०-६० )
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सुगमं नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत शय्यातरस्य नामगोत्रादितव्यम् तत्परिज्ञानाच सुखेनैव प्राकादो मिक्षामन्तः शय्यातरगृहप्रवेशं परिहरिष्यन्तीति । बाबा २ श्रु० १ ० २ श्र० ३ उ० ।
सागारिकस्य निश्रया अनिया वा निवसेत्कप्पर निग्गंथीणं सागारियनिस्साए वत्थए || २३ ॥ कप्पड़ निग्गंथां सागारियनिस्साए वा अनिस्साए वा वत्थए || २४ ॥
अत्र माध्यम्-कल्पते निन्यानां सामारिकनिश्रयैय वस्तुमिति ।
साहू निस्समनिस्सा, कारणे निस्सा अकारणेऽणिस्सा | निकारणम्म लगा, कारणे गुरुमा अनिस्साए ।। ३१७॥ साधवः सागरिकस्य निश्रया अनिश्रया वा वसन्ति । तत्र कारणे निलया, प्रकारले वनिया वस्तव्यम्। यदि निष्ठा त्वनिश्रया र सागारिकनिया वसन्ति ततञ्चन्यारो लघुकाः । अथ कारने अधिया वसन्ति धारो गुरुका।
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अविष्कारले सामारिकनिया निष्ठतां दोषमादउद्वेति निवेसिंते, मुंजण पेहासु सारिमोए अ | सज्झायबंभगुती, असंगता तित्थऽय व ।। ३१८ ॥ कोऽपि साघुरुत्तिष्ठन् वा निविशमानो वा अपावृतो भवेत् । तं दृष्ट्रा पुरुषाः स्त्रियो वा हसन्ति, उडुञ्चकान् वा कुपंक्ति भोजन-समुदेशन त मांसदिशतो दृष्ट्वा प्रवीरन् - अहो मी अशुचय इति, प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणा तस्यां विधीयमानायां ते सागारिका उडुञ्चकान कुर्युः मोषसि निशि मोकेनायमनेकाकिन्स सेने उड्डा कुर्युः स्वाध्यायमधीयमानं परावर्तमाने या त्या कानातीनां स्त्रीणां वायवादी चिलोक माने ब्रह्मगुप्तवेत् असंयसि ये किलासंगताः प्रतिपन्नाः स्त्रीरहिते प्रतिश्रये स्थातव्यमित्येतद प्येते न जानन्ति तीर्थस्य वायों भयति-सर्वेऽप्येते - तादृशा इति । यत एते दोषा श्रत उत्सर्गतः सागारिकस्यानिधया वस्तव्यम् कारगे तु निश्रया परिकल्पते वस्तुम् । तचेदम
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तेणा सावय- मसगा, कारणनिकारणे व अहिगरणं । एहि कारणेहिं, वसंति निस्सा अनिस्सा वा ॥ ३१६||
वसहि
स्तेनाः श्वापदा वा यत्रोपद्रवन्ति तत्र ये गृहस्थाः परित्राणं कुर्वते तत तन्निश्रया वस्तव्यम्, मशका वाऽन्यत्राभि द्रयन्ति ततो निश्चयाऽपि वस्तव्यम् निष्कारणे तु निश्रया सामकाये पत्र वाहनादिकमधिकरणं भवेत्पतेः का रर्निया अनिश्रया वा यथायोगं वसन्तीति । वृ० १
उ० ३ प्रक० ।
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कः ससागारिक उपाश्रय इत्याह
से भिक्खु वा भिक्खुसी वा से जं पुरा उपस्सर्व जाणेजा समागारियं सागणियं सउदयं सौ पास्स सिक्समरापवेसणाए० जाव अणुचिंताए तहप्पगारे उवस्सए गो ठाणं वा० ३ तेजा । ( सू०-६१ )
स भिक्षुर्यत्युरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् तद्यथा - ससा - मारिक साऽग्रिकं सोदकम् तत्र स्वाध्यायादिकृते स्था नादि न विधेयमिति । श्राचा० २ श्रु० १ चू० २ ० ३ उ० । सागारिकापाश्रये वस्तुं कल्पते
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नो कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीय वा सागारिए उवस्सए वत्थए || २५ ॥
अस्य सम्बन्धमाह
निस्सति इपसंगे - साहु सागारियम्मि उ वसिञ्जा । ते व निस्सदोषा, सागारिप नि(ख) साओ मा हु । २२० । निधीनां सागारिकनियैव नित्यानामपि कारणे निश्रया वस्तुं कल्पते इत्युक्ते अतिप्रसङ्गेन दोषेण सागारिकेऽपि प्रतिधये वसेयुः कुत इत्याह-सामारिकोपाचये निवसन्तो मा तपः स्वस्थाननिवेशनादिविषया निश्रादोषा भवेयुः, अतः सागारिकस्वं प्रारभ्यते इत्यनेन सम्ब न्धेनायातस्यास्य (२५) व्याख्या -नो कल्पते निर्मन्यानां निर्थन्थीना वा सागारिके, सागारिकं द्रव्यतो भावतश्च स वक्ष्यभारतास्तीति व्युत्पत्तेर आदित्यादप्रत्यये सा गये उपाश्रये वस्तुमिति संक्षेपार्थः । अथ निर्युक्लिविस्तरःसागारियनिक्खेबो, चउव्धिहो होइ ऋणुपुव्वीए । नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहो भेओ ॥३२१ ॥ सागारिकपदस्थ निक्षेपतुर्विध अनुभति द्यथा नाम्नि स्थापनायां द्रव्ये, भावे, च, इत्येष चतुर्विधो भेदः । तत्र नामस्थापने गतार्थे ।
तो नोगा
रीतिरिइयागारिकमाहरूवं श्राभरणविही, वत्थालंकार भोयणे गंधे ।
आउ न नाडग-गीए सपने व दव्यम्मि ॥ ३२२ ॥ रूपम आभरणविधिः पत्रकारो भोजनं गन्धः तोयं जुनाट गीनं शयनीयं च एतद् इव्यसागादिकम् । रात्र रूपपई व्याख्यायते
जं कटुकम्ममाई-सरू सङ्ग्रामेतं भवेदव्वं । जीवाजीवविकं विसरिसरूवं तु भावम्मि ।। ३२३ ॥ यत्काकमणि या लेपकम् वा पुरुषरूपा निर्मि तं तत् स्वस्थाने द्रव्यसागारिकं भवेत् । स्वस्थानं नाम नि
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बसहि
अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि ग्रन्थानां पुरुषरूपं निर्ग्रन्थीनां तु स्त्रीरूपम् , यत्तु विसरशरूपं | चरितं यत्रैवं वस्त्राभरणानि परिधीयन्ते, विविधखाधकादीनि तद्भावसागारिकम् । निर्ग्रन्थीनां तु स्त्रीरूपं निर्ग्रन्थानां तु पु- यथेच्छ भुजते। अस्माकमपि गृहाश्रमे स्थितानामेतारशा रुषरूपं भावस्थ सागारिकमित्यर्थः । यद्वा-जीवविप्रमुक्तम्-] भोगा आसीरन् । पुरुषशरीरं स्त्रीशरीरं वा। तदपि स्वस्थाने द्रव्यसागारिकम् ,
इदमेव व्यनक्तिपरस्थाने तु भावसागारिकमिति । अथ श्राभरणविहीं' त्यादि एरिसो उवभोगे,अम्ह वि आसिप्पइ एह मोयल्ला । व्याख्यायते-आभरणं-कटकादि तस्य विधिर्भदा भाभर
दुकर करेमि भुसे, कोउगमियरस्स दट्टणं ।। ३२८ ॥ णविधिः, वस्त्रमेवालङ्कारो वस्त्रालङ्कारः । यदि वा-वस्त्राणिचीनांशुकादीनि अलङ्कारो द्विधा-कशालकारो माल्यालङ्का
ईडश एव गन्धमाल्यताम्बूलाधुपभोगः पूर्वमस्माकमप्यारभेदात् । भोजनम्-अशनपानखाद्यस्वाधभेदाश्चतुर्विधम् ,ग
सीत् , 'राह' इति निपातः पादपूरणे । इदानीं तु वयं उजाला:न्धः-कोष्टपुटपाकादिः, पातोद्यं चतुर्विधम्-ततम् ,विततम्,
प्रावल्येन मलिनशरीराः अलब्धसुखास्वादाश्च दुष्करं घनम् , शुचिरम् । “ ततं-वीणाप्रभृतिकं, विततं
केशश्मथुलुञ्चनभूमिशयनादि कुर्महे, इत्थं भुक्तभोगी चिन्तमुरजादिकम् । घनं तु-कांस्यतालादि, वंशादि--शुषिरं म
यति , इतरोऽभुक्तभोगी तस्य रूपाभरणादिकं दृष्ट्वा कौतुकं तम्" ॥२॥ नृत्तमपि चतुर्विधम्-प्राचितम् , रिभितम् , आर.
भवेत्। भडम् , भसोलम् । एते चत्वारोऽपि भेदा अनादिशासप्रसि
को दोष इत्यत आहदाः । नाटकम्-अभिनयविशेषः ।
सतिकोउगेण दुन्नि वि,परिहेज लइज्ज या वि आभरणं । अथवा
अनेसिं उवभोगं, करिज्ज वाएज्ज वुटाहो ।। २२६ ।। नर्स्ट होइ अगीयं, गीरजुयं नाडयं तु नायव्वं ।। स्मृतिश्च कौतुकं चेति द्वन्द्वैकवद्भावः, तेन स्मृतिकौतुकेन आभरणादी पुरिसो-वभोगदन्वं तु सहाणे ॥३२४॥ द्वापि भुक्ताऽभुक्तभोगिनी वखाणि वा परिदधीयाताम् , वह अगीतं-गीतविरहितं नाट्यं भवति, यत् पुनर्गीतयुक्तं आभरणं वा स्वशरीरे गृहीयाताम् , अन्येषां वा तनाटकं ज्ञातव्यम् । गीतं चतुर्दा-तन्त्रीसमम् , तालसमम्
गन्धशयनीयासनादीनामुपभोगं कुर्वाताम् , अातोचं-बादप्रहसमम् , लयसमं चेति । शयनम्-पल्यङ्कादि, यत्तदा
येतामसंयतो वा असंयतमलंकृतविभूषितं राष्ट्रा लोभरणादिकं यत्पुरुषोपभोग्यं तत् स्वस्थाने द्रव्यसागारिक
कमध्ये उडाहं कुर्यात् । निर्ग्रन्थानामिति भावः । अन्नं च भोजनगन्धातोघशयनानि
किश्वद्वयोरपि स्त्रीपुरुषपक्षयोः साधारणत्वाद् द्रव्यसागारिक- तचित्ता तल्लेसा, भिक्खा-सज्झायमुक्कतत्तीया। मेव, शेषाणि तु साधुसाध्वीनां स्वस्थानयोग्यानि द्रव्यसा
विकहाविस्सुतियमणा,गमणस्स अ उस्सुईभृया॥३३०॥ गारिकम् , परस्थानयोग्यानि तु भावसागारिकम् ।
तदेव-स्त्रीरूपादिचिन्तनात्मकंचित्तं येषां ते तश्चित्ता,लेश्या एतेषु प्रायश्चित्तमाह
नाम-तदङ्गपरिभोगाव्यवसायः, सा च लेश्या येषां ते तएक्ककम्मि य ठाणे, भोयणवजाण चउलहू हंति। ल्लेश्याः,भिक्षावाध्याययोर्भुनतप्तिर्व्यापारो येषां ते भिक्षावाचउगुरुगभोअणम्मि वि,तत्थ विप्राणाइणो दौसा।३२५
ध्यायभुक्ततप्तिकाः, तथा संयमाराधनीया वाग्योगप्रवृत्तिः एकैकस्मिन्-रूपाभरणादौ द्रव्ये सागारिकभोजनवर्जे ति
सा कथा तद्विपक्षगता विकथा, विश्रोतसिका नाम-स्त्रीरूपाठतां चतुर्लघवः । भोजनसागारिके चतुर्गुरवः, केषांचिन्म
दिस्मरणजनिता विन्दुविप्लुतिः तयोर्मनो येषां ते विकथाविसेनाभरणवस्त्रयोरपि चतुर्गुरवः तत्राप्याज्ञादयो दोषाः ।।
श्रोतसिकमनसः । एवंविधास्ते केचिद्गमने-धावने उत्सुका तथा
भवन्ति, केचिञ्च उत्सुकीभूता उत्प्रजिता इत्यर्थः । को जाणइ को किर सो, कस्स य माहप्पया समत्थत्ते ।
तत्र विकथा कथं भवतीत्याहधिइदुब्बला उ केई, देवेंति तो अगारिजणं ॥३२६॥ सुट्ट कयं पाभरणं,विणासियं न वि य जाणसि तुमं पि । को जानाति नानादेशीयानां साधूनां मध्ये कः कीदृशः- मुच्छुड्डाहो गंधे, विसुत्तिया गीयसद्देसु ॥ ३३१॥ कीहकपरिणामः कस्य वा कीदृशी महात्मता-महाप्रभा- एकः साधुर्ब्रवीति-सुष्ठ-शोभनं कृतमिदमाभरणम् , द्वितीयः वता, समर्थत्वे-सामर्थ्य लोभनिग्रहब्रह्मवतपरिपालनं वा | प्राह-विनाशितमेतत् , त्वमप्यविशेषज्ञो न जानासि । एवमुप्रतीत्य विद्यते, परचेतोवृत्तीनां निरतिशयैरनुपलक्ष्यत्वात् । त्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वतोस्तयोरेसंथडमुपजायते । मूर्छा वा तभूयो ये केचित् धृतिदुर्बलास्ते तत्र रूपाभरणादिभिरा- त्र रूपादौ कोऽपि कुर्यात् । तथा वाऽसौ सपरिग्रहो भक्षिप्तचित्ताः-परित्यक्त्रसंयमधुरा अगारीजनं 'देवेति' गछ- वति 'उडाहो गंधे'त्ति चन्दनादिगन्धेनात्मनं यदि कोऽपि न्ति परिभुञ्जते इत्यर्थः।
विलिम्पति पटवासादिभिर्वा वासयति ततः उड्डाहो भतथा
वति, नूनं कामिनोऽमी अन्यथा कथमित्थमात्मानं मण्डयके इत्थ भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केऽपि निक्खता।। न्तीतिमातोद्यगीतशब्दषु श्रूयमाणेपु विश्रोतसिका जायते।
अपि चरमणिज लोइयंति य, अम्हं पेतारिसा पासी ॥३२७।। केचिदत्र गच्छमध्ये भुक्तभोगिनः केचिदभुक्तभोगिनः तेषां
निचं पि दधकरणं, अवहियहिययस्स गीयसद्देहिं । चोभयेषामित्येवं भावः समुत्पद्यते-- रमणीयमिदं लौकिक ! पडिलेहणयज्झाए, ग्रावासगझुंजते रत्ती ।। ३३२ ॥
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( ८५) घसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि नित्यमपि-सर्वकालंगीतादिशब्दरपहतहृदयस्य प्रत्युपेक्षणा- तत्पुनरनन्तरोक्तं रूपं तत् त्रिविधम् दिव्यम् ,मानुप्यम्,नेरयां स्वाध्याये आवश्यके भोजने वैरात्रिके उपलक्षणत्वा- श्वश्च। पुनरककं त्रिधा-प्राजापत्यपरिगृहीतम्, कौटुम्बिकपरि. प्राभातिकादिषु च द्रव्यकरणमेव भवति, न भावकरणम् ।। गृहीतम् , दण्डिकपरिगृहीतं चेति । प्राजापत्याः प्राहमलोका भावकरणव्यापारेषु
उच्यन्ते । एवं त्रिविधमपि प्रत्यकं त्रिधा , जघन्यमबमोते सादितुमारद्धा, संजमजोगेसु वसहिदोसेणं ।
त्कृष्टभेदात्।
तत्र दिव्यस्य जघन्यादिभेदत्रयमाहगलति जतू तप्पंतं, एस चरितं मुणतव्वं ।। ३३३॥
वाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं व मज्झिमगं । जतु-लाक्षा यथा अग्निना तप्यमानं गलति , एवं रागा
वेमाणिय उकोस, पणयं पुण ताण पडिमासु ॥३३६।। ग्निना तप्यमानं चारित्रमपि गलतीति ज्ञातव्यम् ।
दिव्येषु यद्वाणव्यन्तरिकं रूपं तज्जघन्यम् , भवनपतिज्योति. उनिक्खता केई, पुणो वि संमेलणाएँ दोसेण ।
एकयोर्मध्यमम् , वैमानिकरूपम् उत्कृष्टम् । तत्र च तेषां वाणवचंति संभरंता, मंतूण चरित्तपागारं ॥ ३३४ ॥
व्यन्तरादीनां याः प्रतिमास्ताभिः प्रकृतमधिकारः, सागारि
कोपाश्रयस्य प्रस्तुतत्वात् , तत्र च प्रतिमानामिव सद्भावात् । तस्यां वसतौ स्त्रीपुरुषादिसंमेलनाया दोषेण केचिन्मन्द
प्रकारान्तरेण दिव्यप्रतिमानां जघन्यादिभेदामाहभाग्या उनिष्क्रान्ता-उत्प्रवजितास्ततश्चारित्रमेव प्राकारोयत्र नगररक्षार्थक्षमत्वाश्चारित्रप्राकारम् भक्त्वा तान्येव
कढे पोत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि । स्त्रीरूपादीनि संस्मरन्तः पुनरपि गृहवासं ब्रजन्ति ।
सेलम्मि य उक्कोसं, जंवा रूवा तु निष्फलं ।। ३४०॥ ततः किमभूदित्याह
या दिव्यप्रतिमा काष्ठकर्मणि वा पुस्तककर्मणि वा चि
अकर्मणि वा क्रियते तज्जघन्यं दिव्यरूपम् । या तुरएगम्मि दोसु तीसुं, चउहा चिंतेसु तत्थ आयरिओ।
स्तिदन्ते क्रियते तन्मध्यमम् , च पुन. शैले वाशपात्-मणिमूलं अणवढप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं ॥३३५ ॥
प्रभृतिषु च या क्रियते , तदुत्कृष्टम् । यद्वा-रूपानिपत्रं जयक उनिष्कामति ततो मूलम् , द्वयोरवधावतो:-अन
घन्यादिकं तद् द्रष्टव्यम् । यद् द्रव्यप्रतिमा विरूपा तजघन्य वस्थाप्यम् । तेषु अवधायमानेषु तत्राचार्यः पाराश्चिकं स्थानं
दिव्यरूपम् । या तु मध्यमरूपा तम्मध्यमम् । प्रामोति, यस्य वा यशेन तत्र स्थितास्तस्येदं प्रायश्चित्त
या पुनः सुरूपा तदुत्कृष्टम् । अत्र वायतप्रतिमायुते मिति । गतं द्रव्यसागारिकम् ।
उपाश्रये तिष्ठतश्चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम् । अथ भावसागारिकमाह
अथात्रैव विभागतः प्रायश्चित्तमाह
ठाणपरिसेवणाए, तिविहे वा दुविहमेव पच्छित्तं । अद्वारसविहऽभं, भावा ओरालियं च दिव्वं च ।
लहुगा तिमि वि सिट्ठा, अपरिग्गहें ठायमाणस्सा३४१॥ मणवयणकायगच्छण, भावम्मि य रूवसंजुत्तं ॥३३६॥
त्रिविधेऽपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टमेवभिन्ने दिव्ये प्रतिमाअष्टादशविधमब्रह्म भवति । तस्य चौदारिकदिव्यलक्षणी
युते तिष्ठतो द्विविधं प्रायश्चित्तम् , स्थान, निष्प च । तत्र द्वौ मूलभेदी । तत्रौदारिकं नवविधम्-औदारिकान् कामभो. निष्पत्रमिदम्-दिव्ये प्रतिमायुते परिगृहीते तिष्ठतखयश्चतुगान् मनसा गच्छति, मनसा गमयति, गच्छन्तमन्यं मन- लघुकास्तपःकालविशिष्टाः । तद्यथा-जघन्ये चत्वारो लघुसैवानुजानीते । एवं वाचाऽपि त्रयो भेदाः प्राप्यन्ते, कायना- कास्तपसा कालेन च लघुकाः, मध्यमे त एष कालगुरुकाः पि प्रयः। पतैत्रिभिस्त्रिकैर्नवभेदा भवन्ति । एवं दिव्येऽप्य- उत्कृष्ट त एव तपोगुरुकाः। ब्रह्मणि नवभेदा लभ्यन्ते । एवमेव तदष्टादशविधमब्रह्म सा
अथ परिगृहीते प्रायश्चित्तमाहगारिकं भवति । अथवा-रूपं वा संयुक्तं वा रूपसहगतं
चत्तारि य उग्घाया, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया। यदब्रह्म भावोत्पत्तिकारणं तदपि भावसागारिकम् ।
छम्मासा उग्घाया, उकोसे ठायमाणस्स ।। ३४२ ॥ एतदेव स्पष्टयति
पायावश्वपरिग्गहें, दोहि वि लहु हुंति एते पच्छित्ता। अहवा अबंभजुत्तो, भावे रूवा उ सहगयाओ वा। ।
कालागुरु कोडंबे, दंडियपारिग्गहे तवसा ॥ ३४३ ।। भूसणजीवजुयं वा, सहगय तव्वअियं रूवं ॥ ३३७ । ।
प्रथम-जघन्यं तत्र तिष्ठतश्चत्वार उद्धाता मासाः,लघवो माअथवा-यतो रूपाद्वा अब्रह्मरूपो भाव उत्पद्यते तदपिका- साइत्यर्थः,द्वितीयं-मध्यमं तत्र त एव चत्वारो मासा अनुदारणे कार्योपचारात् भावसागारिकम् । यथा-'नड्वलोदकं पाद
तागुरुका इत्यर्थः,उत्कृष्टे तु तिष्ठतः षड्मासा उदाताः षड्लघरोग' इति, तत्र यत् स्त्रीशरीरं भूषणसंयुक्नम् , अभूषितं
व इत्यर्थः। एतानि च प्रायश्चित्तानि प्राजापत्यपरिगृहीते या यज्जीवयुक्तं तपसहगतं मन्तव्यम् । यत्पुनः स्त्रीशरीरमेव
द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुकानि द्रष्टव्यानि । कौटुतर्जितं भूषणविरहितं जीवयुक्तं वा तदूपमुच्यते।
म्बिकपरिगृहीते वा एतान्येव कालगुरुकाणि, दण्डिकपरिगृ.
हीते एतान्येव तपसा गुरुकाणि । इदं च यस्माजघन्यातं पुण रूपं तिविह, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च । ।
दिविभागेन निर्दिष्टं संनिहिताऽसंनिहितभेदेन न विशेषितं पायावत्थकुटुंबिय, दंडिय पारिग्गहं चेत्र ॥ ३३८॥ | तस्मादेतदोषविभागप्रायश्चित्तमभिधीयते । अथ विभाग
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धसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि प्रायश्चित्तं निरूपयितव्यम् , तत्र चैतान्येव जघन्यमध्यमो
अथ मध्यमे प्रायश्चित्तमाहत्कृष्टानि संनिहिताऽसनिहितभेदाभ्यां विशेषमाणानि षट् |
चउगुरुग छच्च लहुगुरु,छम्मासिओ छेदो लहुमो गुरुगो। स्थानानि भवन्ति। एतेषु प्रायश्चित्तमाह
मूलं प्रणवदुप्पो, मज्झिमपसजणं मोत्तुं ॥३४६ ॥ चत्तारि य उग्घाता, पढमे विइयम्मि तो अणुग्घाया।
मध्यमे प्राजापत्यपरिगृहीते असंनिहिते अरष्टे प्रतिसेविते
चतुर्गुरवः, संनिहिते अदृष्टे षडलघवः । रष्टे पदगुरवः । कौ. तइयम्मि अणुग्घाया,चउत्थ छम्मास उग्घाता॥३४४॥
टुम्बिकपरिगृहीते असंनिहिते अरे षड्गुरवः । सचिहिते पंचमगम्मि वि एवं, छटे छम्मास होंति ऽणुग्घाया। दृष्टे लघुषाएमासिकच्छेदः, दृष्टे गुरुषाएमासिकच्छेदः । दसंनिहिएऽसंनिहिए, एस विही हाणमाणस्स ॥३४॥ रिडकपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्टे गुरुषाएमासिकच्छेदः, र. प्रथमं नाम-जघन्यमसंनिहितम् , द्वितीयं जघन्यं संनिहित- हे मूलम् , सचिहिते दृष्टे अनवस्थाप्यम् । एतम्मध्यमके प्रसम् , वतीयं मध्यममसनिहितम् ,चतुर्थे मध्यमं संनिहितम् ,प- जनां मुक्त्वा प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम्। श्रममुकष्टमसंनिहितम्, षष्ठमुत्कृष्ट संनिहितम् । अत्राऽयमु
उत्कृष्टविषयमाहचारणविधिः । जघन्यके असंनिहिते प्राजापत्यपरिगृहीते
तव छेदो लहु गुरुगो, छम्मासितो मूलसेवमाणस्स । तिष्ठति चत्वार उदाता मासाः, संनिहिते तिष्ठति त ए
अणवट्ठो पारंचिय, उक्कोसे पसजसं मोत्तुं ॥ ३५० ॥ व चस्वारो मासा अनुदाताः । मध्यमके असंनिहिते चत्वा रोमासा अनुदाताः, संनिहिते षण्मासा अनुद्धाताः। ए
उत्कृष्ट-प्राकृतपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्ट प्रतिसेविते पोऽसनिहित समिहितेच तिष्ठतःप्रायश्चित्तविधिरुतः ।
लघुपाएमासिकं तपः, दृष्टे गुरुषारमासिकं तपः । संनिहिते
अदृष्टे गुरुषाएमासिकं तपः, दृष्टे लघुषाएमासिकच्छेदः । कौअथ प्राजापस्यादिविशेषत एवमेव विशेषयति
दुम्बिकपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्टे लघुषाएमासिकच्छेदः, पडमिन्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं ।
रहे गुरुषाएमासिकच्छेदः, संनिहिते दृष्टे मूलम् , दण्डिकपिहयम्मि अकालगुरू,तवगुरुगा होन्ति तइयम्मि।३४६। परिगृहीते असंनिहिते अदृष्टे मूलम् , दृष्टे अनवस्थाप्यम् , प्रथमे स्थाने-प्राजापत्यपरिगृहीते एतानि प्रायश्चित्तानि दृष्टे पाराञ्चिकम् । एवमुत्कृष्ट दिव्यप्रतिमारूपां प्रसज्जनां मुदाभ्यामपि लघुकानि, तद्यथा-तपसा कालेन च । द्वितीये क्त्वा प्रायश्चित्तमवसातव्यम् । कौडम्बिके परिपहीते ताम्येष कालगुरुकाणि , तृतीये द- अथ यथाचारणिकाया अभिलाषः कर्त्तव्यस्तथा पिपरिपडीते पताम्येष तपोगुरुकाणि ।
भाष्यकृदुपदर्शयतिस्थानप्रायमित्तमेव प्रकारान्तरेणाह
पायावच्चपरिग्गहे, जहन्नसंनिहियए असंनिहिए । महवा भिन्तुस्सेयं, जामगाइम्मि ठाणपच्छित्तं ।
दिद्दादिद्वे सेवइ, एसाऽऽलावो उ सव्वत्थ ।। ३५१॥ गशियो उपरि बेदो, मूलायरिए पयं हसति ॥३४७॥
प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्ये असंनिहिते संनिहिते भरष्टे अपना पदेतजन्यादौ चतुर्लघुकादारभ्य पहगुरुकावसा- च सेवते, गाथायाम्-असंनिहिता इष्टपादयोर्बन्धानुलोम्या. में स्थानमायसिसमुहम्, तडिशोरेव द्रव्यम् , गणी-उ- त्पश्चानिर्देशः । एष ईदृश आलापः-उच्चारणविधिः सर्वत्र पाण्वायत्तस्य परगुरुकासुपरिवाल्य प्रायश्चित्तपदं व-| कौदुम्बिकपरिगृहीतादी मध्यमादी च कर्तव्यः। ते । एक पर्व चतुर्लघुकाव्यमधो इसति चतुर्गुरुकादा
अत्र नोदक पाहरभ्य तितीत्यर्थः। प्राचार्यस्य पदलघुकादारब्धं मूलं
जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठों तइऍ पारंची । यावत्प्रायश्चित्तम् , अचाप्य पदमुपरि बढते, अधस्तादेकं पर्व इसतीति । गतं स्थानमायश्चित्तम् ।
तम्हा ठायंतस्स य, मूलं प्रणवट्ठ पारंची ॥३५२॥ अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाह
यस्मात् प्रथमे-जघन्ये प्रतिसेवमानस्य चतुर्लघुकादारब्धं चत्तारि छच लहु गुरु, छम्मासितो छेदो लहु गुरुगा य।।
मूलं यावत्प्रायश्चित्तं भवति, द्वितीये-मध्यमे चतुर्गुरुक
मादी कृत्वा अनवस्थाप्यम् , तृतीये उत्कृष्ट लघुकादारमूलं जहमगम्मि य, सेवंति पसजणं मोत्तुं ॥३४८॥
ब्धं पाराश्चिकं यावद्भवति, तस्मात्तिष्ठत एव स्थाननिष्पप्राजापत्यपरिगृहीते जघन्ये असन्निहिते-अष्टे प्रतिसेषमा- मानि । जघन्यमध्यमोत्कृष्टे तु यथाक्रमं मूलानवस्थाप्यपारा. मे चत्वारो लघवः, दृष्टे चत्वारो गुरवः । संनिहिते अदृष्टे च- शिकानि भवन्तु। तुर्लघवः, कौटुम्बिकपरिगृहीते जघन्ये असंनिहिते अदृष्टे प्र
सूरिराहतिसेषिते लघुषारमासिकच्छेदः , दृष्टे पाएमासिकच्छेदः ।
पडिसेवणा य एवं, पसज्जणा होइ तत्थ एकेके । संनिहिते अदृष्टे गुरुषारमासिकच्छेदः, दृष्टे मूलम् । एतज्जघन्यं दिव्यप्रतिमारूपं सेवमानस्य प्रायश्चित्तं भणितम् । प्र
चरिमपए चरिमपदं,तं पि य आणाइनिप्फन्नं ॥३५३॥ सज्जना नाम रष्टे सति भोजिकाघाटिकादीनां प्रहणाकर्ष- जघन्यादि प्रतिसेवनायामेवं मूलानवस्थाप्यपाराश्चिकं याणप्रभूतानां वा दोषाणां परंपरया प्रसङ्गः, तं मुक्त्वा पतत्प्रा- वद्भवति । यश्चाशादिदोषनिष्पन्नं चतुर्गुरुकं तदपि द्रष्टव्ययमित्तम् , सनिष्पन्नं तु पृथगापद्यते ।
मिति संग्रहगाथासमासार्थः ।
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वसहि
(६८७) अभिधानराजेन्द्रः।
बसहि अथैनामेव विवरीषुराह
दे च वर्तमानो विराधनायां साक्षादेव वर्तते, परस्य च शजह पुण सव्वो विहितो, सेविजा होज चरिमपच्छित्तं ।। कादिकं जनयति । यथैतन्मृषा तथाऽन्यदपि सर्वममीषां तम्हा पसंगरहियं, ज सेवइ तं न सेसाई॥३५४॥ मृषेव । प्रसज्जना चात्र भोजिकादिरूपा तत्र चरम-पारापुनः शब्दो-विशेषणे, किं विशिष्टि यद्येष नियमो भवेत्
श्विकं यावत्प्रायश्चित्तं भर्वात । वृ०१ उ०३ प्रक० । तस्मात् प्रसारहितं यत् स्थान सेवते तनिष्पत्रमेव प्रा
अथानवस्थामिथ्यात्वविराधनापदानि व्याचष्टेयश्चित्तं भवति, न शेषाणि मूलादीनि ।
अणवत्थाऍ पसंगो, मिच्छत्ते संकमाइया दोसा । अथ "चरमपदे चरमपद" मिति पदं भावयति
दुविहा विराहणा पुण ,तहियं पुण संजमे इणमो॥३६२॥ अहिट्ठाओ दिहूं, चरमं तहि संकमाइ जा चरिमं ।
यथेष बहुश्रुतोऽप्येवं सागारिके प्रतिश्रये स्थितः, ततः अहव ण चरिमारोवण, ततो वि पुण पावए चरिमं|३५५।
किमित्याह-किमपिन तिष्ठामीत्येवमनवस्थाप्यम् , अन्यस्या
पि प्रसङ्गो भवति, मिथ्यात्वे शङ्कादयो दोषाः । शङ्का नाम अष्टपदाद् दृष्टपदं चरमम् , तत्र चरमपदे शङ्का भोजिकाघा.
किं मन्ये यथावादिनस्तथाकारिणोऽमी न भवन्ति । आदि टिकादिक्रमेण चरमपदं-पाराश्चिकं यावत् प्राप्नोति । श्रा
शब्दा-विरत्यादिधर्म प्रतिपद्यमानानां विपरिणाम इत्याह-यदि दृष्टं ततः कथं शङ्का ननु निःशङ्कितमेव , उच्यते-दुरेण गच्छतो दृष्टेऽपि पदार्थे सम्यग्विभाविते
दिदोषपरिग्रहः । विराधना द्विविधा-संयमे, आत्मनि च । शङ्का भवति । अथवा-या यत्र चरमारोपणा यथा जघ
तत्र संयमविषया तावदियम्न्ये चरममूलम् , मध्यमे चरममनवस्थाप्यम् , उत्कृष्टे चरम अणट्ठदंडो विकहा, वक्खेव विसोत्तियाएँ सइकरणं । पाराश्चिकम् , तत्तत्र चरमपदम् , ततोऽपि चरमपदात् शङ्का- आलिंगणादि दोसा, ऽसंनिहिए ठायमाणस्स ॥३६३।। दिभिः पदैश्वरमं पाराश्चिकं पुनः प्राप्नोति ।
अर्थः-प्रयोजनं तदभावोऽनर्थः तेन दण्डोऽनर्थदण्डः, स अहवा आणाइविरा-हणाइ एक्किकिया उ चरिमपदं।। च द्रव्यतो यदकारणे राजकुले दण्ड्यते, भावतस्तु निपावइ तेण उनियमो, पच्छित्तिहरा अइपसङ्गो ॥३५६॥
कारणं खानादीनां हानिः, सा सागारिके प्रतिश्रये स्थि
तानां भवति । विकथा-वक्ष्यमाणरूपा, व्याक्षेपो नाम-तां अथवा आमाऽनवस्थामिम्यात्वविराधनापदानां मध्ये य
प्रतिमा प्रेक्षमाणस्य द्वितीयसाधुना च सहोझापं कुर्वतः द्विराधनापदं तश्चरमम् , सा च विराधना द्विधा-श्रा
सूत्रार्थपरिमन्थः । विश्रोतसिका द्विधा-द्रव्यतः सारणी त्मनि, संयमे च । तस्या एकैकस्याः सकाशाच्चरमपदं-पाराश्चिकं प्राप्नोति । तत्र प्रतिमायाः स्वामी तेन दृष्ट्वा प्रतापि
पानीयं वहमानं तृणादिकचवरस्थानीयया चिंत्तविप्लुत्या
निरुद्धे सति चारित्रस्य विनाशो जायते सा विश्रोतसिकेतस्यात्मविराधनायां परितापनादिक्रमेण पाराश्चिकम्, संयम
त्युच्यते, तया स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनां कौतुकम् , आलिविराधनायां तु तस्याः प्रतिमायाः हस्ताद्यवयवे भग्ने यतः सस्थाप्यमाने सति 'छक्काय चउसु लहुगा' इत्यादिक्रमेण पारा
अनादयश्च दोषा भवन्ति । एते असंनिहिते प्रतिमारूपे ञ्चिकम् ,यत एवं प्रसङ्गः ततो बहुविधं प्रायश्चित्तम् । तेनायं
तिष्ठतो दोषाः। नियमतस्तिष्ठतः स्थानप्रायश्चित्तमेव न प्रतिसेवनापाय
अथ विकथापदं विवृणोतिश्चित्तम् , इतरथा अतिप्रसङ्गो भवति ।
सुट्टकया अह पडिमा,विवासियान वि य जाणसि तुमंपि। कथमिति चेदुच्यते
इय विकहा अहिगरणं,मालिंगणे भंगे भदितरा ।३६४। नत्थि खलु अपच्छित्ती,एवं ण यदाणि कोइ मुच्चेजा।
एकः साधुः ब्रवीति-सुष्ठुकृतेयं प्रतिमा,द्वितीयः प्राह-वि
नाशितेयं नापि च जानासि त्वमपि, इत्येवं विकथा । ततकारि-अकारिय-समया, एवं सइ रागदोसा य ॥३५७॥
श्वोत्तरप्रत्युत्तरिक कुर्वतोस्तयोरधिकरणं भवति । अथ कोयद्यप्रतिसेवमानस्यापि मूलादीनि भवन्ति तत एवं नास्ति |
उप्युदीर्ममोहस्तां प्रतिमामालिनेत , तत आलिङ्गने प्रतिकोऽप्यप्रायश्चित्ती, नचेदानी कश्चित्कर्मवन्धान्मुच्यताम् । यः
माया हस्तपादादिभङ्गो भवेत् , सपरिग्रहायाश्च प्रतिमायां प्रतिसेवते तस्य कारिणः अकारिणश्च समता भवति, एवं
भद्रकेतरदोषाः, भद्रका हस्तपादादिभने सजाते सति पुनः प्रायश्चित्तदाने सति रागद्वेषी प्राप्नुत इति ।
संस्थापनं विदध्यात् , प्रान्तः आकर्षग्रहणादीनि कुर्यात् । नयेऽपि चाशादिनिष्पन्नमिति पदं व्याख्यानयति- एते असंनिहिते दोषा उक्ताः । संनिहितेऽपि त एव वक्तव्याः । पुरिमादी आणाए, अणवत्थ परंपराएँ थिरिकरणं ।
एते चान्येऽधिकाःमिछत्ते संकादी, पसजणा जाव चरिमपदं ।। ६५८ ॥ वीमंसा पडिणीय-दृया व भोगित्थिणीच संनिहिया। अपराधपदे वर्तमानस्तीर्थकृतामाक्षाभकं करोति तत्र च- काणच्छी उकंपण, पालावनिमंतणपलोमे य ॥३६शा तुर्गुरु । अत्र च मौर्यमयूरपोषकवंशोद्भवैः, श्रादिशब्दादप- संनिहिता सा त्रिभिः कारणः साधु प्रलोभयेत् , विमृश्यारैश्चाशासारै राजभिदृष्टान्तः । ततश्च काले अनवस्था- द्वा, प्रत्यनीकार्थतया वा, भोगार्थितया वा, विमों नाम प्यं वर्तते, तत्र चतुर्लघु, अनवस्थातश्च परंपरया स्थि- किमेष साधुः शक्यः क्षोभयितुं नवेति, जिज्ञासा च-या प्ररीकरणं तदेवापराधपदमन्योऽपि करोतीत्यर्थः । तदा वा- तिमामनुप्रविश्य काणाक्षिकं वा उत्कम्पनं वा स्तनादीनां सौ देशतो मिथ्यात्वमासवते तत्र चतुर्लघु । अपराधप- विदधीत, पालापं वा कुर्यात् ।
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पसहि
(4 ) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि काणच्छिमाइएहिं, खोभिय-प्रोद्धाइयस्स भद्दाओ। ति एवमेकेन साधुना कार्य कृतं दृष्वा यो यत्र दृश्यते स तत्र नासह इतरो मोहं,सुवमकारेण दिटुंतो ॥ ३६६ ॥
बालवृद्धादिरपि सर्वो मार्यते, एवंविधं कटकमई कुर्यात् ।
यद्वा-यस्तस्याचार्यों गच्छः कुलगणसंघो वा तस्य प्रस्तारोयदा काणाक्षिप्रभृतिभिराकारैः क्षोभितपदा गृहास्येना
विनाशः क्रियते। मित्यभिप्रायणोद्धावितस्तस्य सा देवता यदि भद्रा त
तथातो नश्यति । इतरः साधुस्तस्यां दर्शनीभूतायां मोहं गच्छति, संमूढश्च तां द्रष्टुमिच्छति । हा कुत्र गताऽसि , देहि
गहणे गुरुगा मासा, कड्डणे छेदो य होइ ववहारे । सकृदात्मीयदर्शनमित्यादिप्रलापांश्च करोति । अत्र च
पच्छाकडम्मि मूलं, कड्डण विरूवणे नवमं ॥ ३७१॥ सुवर्णकारेण चम्पानगरीवास्तव्येनानसेनाख्येन दृष्टा- उट्ठावण निविसए, एगमणेगे पदोसपारंची।
तः । स चावश्यकादिग्रन्थेषु प्रसिद्धः । ( स च ' दसउर ' अणवट्ठप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिो होइ ॥३७२।। शचतुर्यभागे २४७७ पृष्ठे गतः।)
स साधुः प्रतिसेवमानो यदि देवकुलस्वामिना गृहीतः प्रत्यनीकार्थतयेति व्याचले
ततो ग्रहणे चत्वारो गुरुकाः, श्रथ हस्ते वा वस्ने वा वीमंसा पडिणीया, विद्द(द)रिसणखित्तमादिणो दोसा।
गृहीत्वा राजकुलाभिमुखमाकृष्टस्तत आकर्षणे पडलघअसंपत्ति संपत्ती, लग्गस्स य कट्टणादीणि ॥ ३६७ ।।
वः, तेन साधुना प्रत्याकर्षितस्ततः षण्मासा गुरवः, व्यव
हारे प्रारब्धे छेदः, पश्चात्कृते पराजिते मूलम्, उहप्रत्यनीकात् विमर्शात् काणाक्षिप्रभृतिभिराकारैः क्षोभ- ने-रासभारोहणादिके विरूपणे वा-नासिकादिकर्तनेन यित्वा यदाऽसौ उत्थापितस्तदा 'असंपत्ति' ति याव- विरूपणाकरण नवमम्-अनवस्थाप्यम् , एकस्मिन्ननेकेषु बसौ हस्तादिना नैव गृह्णाति , तावद्विदर्शनं-विव- वा साधुषु प्रद्वेषतोऽपद्रावणे कृते निर्विषये वा श्राशप्ते क्षितं रूपं दर्शयति । अथवा-विदर्शनं नाम-अलग्नमेव प्रतिसेवक प्राचार्ये वा पाराश्चिकम् । एवं च द्वयोरुबाहनलोको लग्नं पश्यति । यद्वा-सा तस्य साधोः क्षिप्तचित्ता- विरूपणयोरनवस्थाप्यः, योस्तु अपद्रावणनिर्विषयतायां दिदोषान् कुर्यात् , अथवा-परिभोगसंपत्ति कृत्वा तत्रैव द्वयोः पाराश्चिको भवतीति। तस्य सागारिकं लापयेत् , श्वा (ना) दिवत् लग्नस्य च तस्य लेप्यकस्वामी अन्यो वा दृष्टा ग्रहणाकर्षणादीनि कुर्यात् ।।
अथवा प्रद्विष्टः सन्नेवं कुर्यात्एतदेव व्याचष्टे
एयस्स नत्थि दोसो,अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो । पंता उ मसंपत्ती, इमेव मारिज खेत्तमादी य।
इति पंतो निम्चिसए, उद्दवणविरूवणं व करे ॥ ३७३॥
एतस्य प्रतिसेवकसाधोर्नास्ति दोषः किंतु-एनमपरीक्षितं संपत्ती य वि लाए, तु कड्डणादीणि कारजा ॥३६॥
यो दीक्षितवान् तस्यैव दोष इति विचिन्त्य प्रान्त श्राप्रान्तः पुनरसंपत्त्यामेव यावदद्याप्यसौ हस्तादिना न गृ
चार्य निर्विषयं कुर्यात् , अपद्रावयेद वा, कर्मनासानयनाकाति तावन्मारयेद्वा, क्षिप्तचित्तम् , आदिशब्दाद्यक्षाविष्टं वा
द्युत्पाटनेन विरूपणं वा कुर्यात् । कुर्यात् । संपत्त्यामपि सागारिकं लापयित्वा ग्रहणाऽऽकर्षणादीनि कारयेत् ।
अथासंनिहिते एते दोषाःअथ भोगार्थिनीपदं विवृणोति
तत्थेव य पडिबंधो, अदिट्ठगमणाइ वा अणितीए । भोगस्थि विगए कोउ-कम्मि खित्ताइदित्तचित्तं वा ।
एए अन्ने य तहिं, दोसा पुण होंति संनिहिए ॥३७४॥ दट्टण व सेवंतं, देउलसामी करेज इमं ॥ ३६६ ।।
तत्रैव-तस्यामेव देवतायां संयतस्य प्रतिबन्धो भवेत् , श्र
थवा-सा व्यन्तरी विगतकौतुका सती नागच्छति, ततस्तभोगार्थिनी देवता काणेक्षिकादिभिराकार रूपैः प्रलो
स्यामनायान्त्यां स प्रतिगमनादीनि कुर्यात् । एते चैवभ्य क्षुभितेन सह भोगान् भुक्त्वा , विगते भोगविषये
मादयो दोषा लेप्यकस्वामिना अदृष्टेऽपि संनिहिते प्रतिकौतुके, मा अपरया सह भोगान् भुतामिति कृत्वा तं
मारूपे भवन्ति। क्षिप्तचित्तं वा यक्षाषिष्टं हप्तचित्तं वा कुर्यात् । अथवा
ताश्च संनिहिताः प्रतिमा ईदृश्यो भवेयुः । तां देवतां सेवमानं तं साधुं दृष्ट्वा देवकुलस्वामी यथा भावेनेदं कुर्यात्
कढे पुच्छे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य । तं चेव निट्ठवेई, बंधण निच्छुभण कडगमद्दो य।
दिढिप्पत्ते स्वे, खित्तचित्तस्स भंसणया ॥३७५ ॥ आयरिए गच्छम्मि य, कुलगणसंघे य पत्थारो ॥३७॥
काष्ठमयी पुच्छमयी चित्रमयी दन्तकर्ममयी शैलकर्ममयी
प्रतिमा भवेत् । किं पुनस्तासामाश्रयस्थाने प्रतिसेवने वा। तमेव साधु क्रुद्धः सन् देवकुलस्वामी निष्ठापयति-मारयतीत्यर्थः । यदि षा-प्रचुरोऽसौ ततः स्वयमेव तं साधु
तासां पुनः संनिहितदेवतानामिमे प्रकाराःबध्नीयात् । अप्रचुरेऽपि प्रभुणा बन्धापयेत् , अथवा
सुहविनवणा सुहा, सुहविनवणा य होति दुहमोया । वसतेः-प्रामानगरादेशाद्वाज्याद्वा निष्काशयेत् , कटकः-स्क- दुहविनप्पा य सुहा,दुहविन्नप्पा य दुहमोया ।। ३७६ ॥ न्धाचारः स यथा परविषये तीरार्णः कस्याप्येकस्य रामः | विज्ञपना नाम-प्रार्थना प्रतिसेवना वा,सा सुखेन यासां ताः, प्रद्वेषेण निरपराधान्यपि प्रामनगरादीनि सर्वाणि मृडा- सुखविक्षपनाः, सुखेन मोच्यन्त इति सुखमोचाः-सुपरिस्या
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(८ ) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि ज्या इत्यर्थः, एष प्रथमो भक्तः। सुखविक्षपना दुःखमोचा हि-ताः साधनकाले लोकहिततया दुःस्वविक्षप्याः या ह्यइति द्वितीयः , दुःखविज्ञप्या सुखमोचा इति तृतीयः । दुः- भीष्टसंप्रापकतया दुःखमोचाः, इति भाविताश्चत्वारो भक्ताः । खविज्ञप्या दुःखमोचा चतुर्थः।
अथ प्राजापत्यादित्रिविधपरिगृहीतेषु गुरुलाघवमाहतत्र प्रथमभने दृष्टान्तमाह
तिएह वि कतरो गुरुतो, पागइकोडुबिदंडिए चेव । सोपारयम्मि नगरे, रबा किर मग्गितो उ निगमकरो।
साहसअपरिक्खमए, इयर पडिपक्खिपभुराया ॥३८०॥ अकरो ति मरणधम्मा,बालतवे धुत्तसंजोगो ॥३७७॥ शिष्यः पृच्छति-त्रयाणां प्राजापत्यकौटुम्बिकदण्डिको तो पंचसय भोइ अगणी, अपरिग्गह सालिभंजि सिंदूरे । प्राकृतकस्य प्रतिपक्षभूतौ । किमुक्तं भवति-तौ न साहसिको तुह मझधुत्तपुत्ता, दिअवन्ने विजखीलणया ॥३७८॥
तावप्यपरीक्षितकारिणौ, भयं च तयोर्भवति । अत्राचा" सोपारय नगरं, तत्थ निगमा अकरा परिवसंति । ताण
र्यः प्राह-दण्डिककौटुम्विको गुरुतरौ, प्राकृते लघुतरः । य पंच कुटुंबसयाणि । तत्थ राया मंतिणा बुग्गाहितो तेण
यतो राजा उपलक्षणत्वात्कौटुम्बिकप्रभुः प्रभुत्वाच्च स एनिगमा करं मग्गिता। ते पुत्ताण पुत्तियं करो एस म
कस्य रुष्टः संघस्य प्रस्तारं कुर्यादिति । विस्सा ति काउं नदिति । रमा भखिया-जान देह तो अथ कौटुम्बिकदण्डिकानां यद्भयमुत्पद्यते तदर्शयन् परः इमम्मि गेहे अग्गिपवेसं करेह । ततो ते सव्वे अग्गि
स्वपक्षं द्रढयन्नाहपविट्ठा । तेसिं नेगमाणं पंच महिलासयाई, ताणि वि अ- ईसरियत्ता रजा, व भंसए मच्चु पहरणा रिसो। गि पविटाणि । ताओ अतीए अकामनिजराए पंच विसया- ते य समिक्खियकारी,अम्मावि ते सिं बहू अस्थि ॥३८१॥ ओ वाणमंतरिवाश्रो जायात्रो तेहि य निगमेहिं तम्मि चेव
ऐश्वर्यवत्ता मृत्युः प्रहरणाश्चापायुधयुताः कोपिताः सन्तो नगरे देवलं कारियं अत्थि । तत्थ पंच सालिभंजिया सता ,
मामेते भ्रंशयेयुरिति, कौटुम्बिकः चिन्तयेत्-राजानुगाततो ताहि देवताहि परिग्गहियाओ ताओ अ देवताओ।न
अमी राज्यात् ध्वंशयेयुरिति चिन्तयति । ते च राजादयः कोई अप्पहिनो वि देवो इच्छइ । ताहे धुत्तेहिं समं संप
समीक्षितकारिणो नाविमृश्य कार्य कुर्वन्ति । अन्यच्च लग्गाश्रो । ते धुत्ता नस्स बंधेण भंडणं कार्ड माढत्ता, ए
तेषामन्या अपि बहवः प्रतिमाः सन्ति । अतस्तस्यामेसा मज्झं न तुज्झ, इतरो वि भणे-मझ न तुझं। जा
कस्यामेव तेषां नाऽऽदः । य जेण घुत्तेणं सह अच्छह सा तस्स सम्वं पुब्बभवं
एवं परेण स्वपक्षे भाविते सति सूरिराहकडेह । खतो ते भणति-अरे अमुकनामया एसा तुज्झ माया भगिणी वा, इयाणि अमुगेण समं संपलग्गा । ता य ए- पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बडुजणे फुसई । गम्मि पीईन बंधंति, जो जो पडिहाइ तेण सह अच्छति । पागइओ पुण तस्स व,निवस्स व भया न पडिकुआ।३८२। तं च सोउं तासि पुब्बभविपर्हि पुत्ताइहिं अम्हे एस अय
प्रस्तारः-कटकमईः एकस्य रुष्टः सर्वमपि यत्र व्यापादयती. सो चि काउं विजावाइएप खीलावियाउ ति । "
त्यर्थः, तद्दोषकारी राजा, नृपापराधश्च बहुजनान् स्पृगाथाक्षरयोजना-सोपारके नगरे रामा किल मार्गितो नि- शति, जनमध्ये प्रकटीभवति इति भावः । एवं कौटुम्बिगमानां-वणिग्विशेषाणां समीपे करः । तैश्चाकर इत्यपूर्वक
कस्याऽपि द्रष्टव्यम् । अत एतौ द्वावपि गुरुतरौ, प्रारोमा भूदिति कृत्वा मरणधर्मो व्यवसितः । तासां च भो
कृतकापराधस्तु बहुजनं न स्पृशति । अपि च-प्राकृतजिका-महेला पञ्च शतानि अग्निप्रवेशलक्षणेन बालतपसा
कस्तस्य वा-संयतस्य नृपस्य वा भयान्न प्रतिकुर्यात्देवता अपरिगृहीनाः संजाताः, धूतैश्च सह संयोगः । कथ- न प्रत्यपकारं करोति। मित्याह-सिन्दूरं-सिन्दूरारुणं यद्देवकुलं तत्र शालिभञ्जि. कानां पञ्च शतानि ताभिर्देवताभिः परिगृहीतानि । तत्र स्थि
अविय हु कम्म होणी, न य गुत्तीओ सि नेव दारट्ठा । ताश्च धूर्तेः समं संप्रलग्नाः 'तुह मज्झे त्ति नेयं तव ममेय
तेण कयं पिन नाइ, इतरेत्थ पुणो धुवा दोसा ॥३८३॥ मित्येवं ते धूर्ताः कलहायितवन्तः, ततस्तासां पूर्वभववृ- अपि चेत्यभ्युच्चये, प्राकृतका क्षेत्रखलादिकर्मभिरक्षणिकस्तसान्तं श्रुत्वा अवराणोऽयमस्माकमिति कृत्वा पुत्रादिभिर्वि-| तस्तासां प्रतिमानामुदन्तं न वहति , न च तत्संबन्धिनीषु चाप्रयोगेण तासां कीलना कारितेति । उक्तः प्रथमो भक्तः । देवद्रोणीषु गुप्तिरात्यन्तिकी रक्षा, न वा द्वारस्था-वारपाअथ शेषभङ्गत्रयं भावयति
लास्ततः कृतमपि प्रतिमाप्रतिसेवनं जायते,इतरत्र तु दण्डिबिइयम्मि रयणदेवय, तइए भङ्गम्मि सुइगविजाओ।
ककौटुम्बिकेषु पुनर्बुवा-अवश्यंभाविनः प्रस्तारादया दोषाः
द्वारपालादिरक्षासद्भावात् । अत एव तेषां प्रतिमासु पूर्व गौरीगंधारीइं, दुहविएणप्पा य दुहमोया ॥ ३७६ ।।
प्रभूततरं प्रायश्चित्तमुक्तम् । द्वितीये भने रत्नदेवतानिदर्शनम् ,सा घल्पर्चिकत्वात् कामा
न केवलं प्रतिमासु, किंतु स्त्रीच्यपि तदीयासु गुरुतरं ऽऽतुरत्वाच सुखविक्षपना सर्वसुखसंपादकतया च दुःखमो
प्रायश्चित्तं भवतीति प्रसङ्गतो दर्शयितुमाहचा। तृतीये भने शुचयो विद्यादेव्यस्ताः शुचितया महर्चिकतया च दुःखविज्ञपना, उग्रतया नित्यमत्यन्ताप्रमत्तैरा
रनो य इत्थियाए, संपत्ती कारणम्मि पारंची। राधनीयत्वात् पर्यन्ते सापायत्वाश्च सुखमोचाः। चतुर्थे पक्षे- | अमच्चि अणवटुप्पो, मूलं पुण पागयजबम्मि ॥३८४॥ गौरीगान्धारीप्रभृतयो माताविधादिदेवता द्रष्टव्याः तथा- रामः स्त्रियामग्रमहिष्यां यन्मैथुनसम्पचितच तब
२४८
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(210) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
वसहि
पाराञ्चिको भवति । श्रमात्यायामनवस्थाप्यम्, प्राकृतजनस्त्रियां पुनर्मूलम् ।
शिष्यः प्राह
तुझे मेहुणभावे, नाणचारोवणा तु कीस कया । जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासजा ॥ ३८५॥ दण्डिकादिपरिगृहीतासु प्रतिमासु खीषु वा तुल्ये मैथुनभावे कस्मादारोपणायाः - प्रायश्चित्तस्य नानात्वं विशदृशता कृता । सूरिराह-येन कारणेन नृपे राशि प्रस्तार:- कटकमर्दों भवति अतस्तत्राधिकतरं प्रायश्चित्तम् । तदपेक्षया कुटुम्बिके प्राकृते च यथाक्रमं स्वल्पा स्वल्पतरा दोषाः, ततस्तयोः प्रायश्चित्तमपि हीने हीनतरम् रागोऽपि च वस्तु श्रासाद्य भवति । यादृशं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा वस्तु रागोऽपि तत्र तादृशो भवतीति भावः । इदमेव भावयति
जह भागा इति मचा, रागादीचं दहा वओोकम्मे ।
रागाइविरया वि हु, पायं वत्थूण विहुरत्ता ||३८६ ॥ रागादीनां मात्रा जघन्यादिरूपासु त्रिषु यावत्संख्याकेषु भागेषु गता स्थिता कर्मण्यपि ज्ञानावरणादौ च यो बन्धः स तथैव दृष्टव्यः । अथ रागतया मात्रानानात्वं कथं भवतीत्याह - रागादीनां विधुरताऽपि मात्रावैषम्यमपि प्रायो वस्तूनखप्रभृतीनां विधुरत्वात् सुन्दरसुन्दरतरसुन्दरतमविभागाद्भवति प्रायोग्रह कस्यापि कदाचिद्वस्तु समन्त रेणापि रागादिसदृश्यं भवतीति ज्ञापनार्थम् यतयमतो युक्तियुक्तं दरिडकपरिगृहीतासु खीषु प्रतिमासु वा प्रायसिमानाम् । तदेवमुक्तं दिव्यप्रतिमायुतम् अथ दिव्यस्यैव देवयुतस्पायसरस्तत्सचितं न संभवति, जीवस्तस्य - दिव्यशरीरस्य तत्क्षणादेव विध्वंसनात् । यतु स
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देवीशरीररूपं देत स्थानप्रायश्चित्तं यथा प्रतिमायुते । प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तं तु यथा मनुष्यस्त्रीषु भशिष्यते । गतं दिव्यरूपम् ।
अथ मानुष्यरूपमाह
माणुस्सर्य पितिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं । पायावच्चकुटुंबिय, दंडियपारिग्गहं चेव ।। ३८७ ॥ मानुष्यकर्म रूपं विविधम्- जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च पुनत्रिविधम्-प्राजापत्यपरिगृहीतं कीम्यकपरिगृहीतम् दरिडकपरिगृहीतं चेति ।
,
तत्रोत्कृष्टादिविभागमाह
उकोस माउभना, मकं पुरा भगिणिधूतमादीयं । खरियादी य जहर्ष, पमयं सन्जितरे देहे ॥ ३८८|| इह गृहिणी मातरं भार्यां वा नाम्यस्य कस्यापि प्रयच्छन्ति, अतो माता भार्या चोत्कृष्टं मानुष्यरूपम्। यास्तु भगिनीदुहिदम्याद अन्यस्मै स्वाभिरुविताय दीप ताः पुनर्मध्यमम् । खरिका - दासी तदादयः इतरत् जघन्यम्, एतत्रयमपि प्रत्येकं द्विधा - प्रतिमायुतं - देहयुतं च । प्रतिमायुतं दिव्यम् युनेन तु सजीवेन इतरेण वा भजीयेन प्रकृतमधिकारस्तद्विषयं प्रायधितं तावदाहपढमिल्लुगम्मि ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्वाया ।
"
वसहि छम्मासाऽणुग्घाया, बिइए तइए भवे छेदो ॥ ३८६ ॥ प्रथमं नाम - जघन्यं मानुष्यरूपं तत्र प्राजापत्ये परिगृहीतादी मेऽपि तिष्ठतत्वारोऽनुदाता मासा, गुरवइत्यर्थः । द्वितीयं - मध्यमं तत्रापि त्रिष्वपि भेदेषु परमासा श्रनुद्धाताः, तृतीयमुत्कृष्टं तत्र भेदत्रयेऽपि तिष्ठतश्छेदः ।
अथ कीरश्छेद इति ज्ञापनार्थमाहपढमस्स तइयठाचे, जम्मासुम्पादयो भवे वेदो । चउमासो छम्मासो, बिइए तइए अणुग्घा ॥ ३६० ॥ प्रथमं प्राजापत्यपरिगृहीतम् । तस्य वतृतीय स्थानमुत्रमित्यर्थः तत्र पारमासिका छेद द्वितीय कौटुम्बिकपरिगृहीतं तस्य तृतीये खाने चतुर्गुरुकच्छेदः, तृतीयं वदिकपरिगृहीतं तत्रापि यत् तृतीयं स्थानं तत्र पारमासिक उद्धातच्छेदः । पढमिल्लुगम्मि तवारिह, दोहि वि लहु होंति एते पच्छित्ता । बिइयम्मिय कालगुरू, तवगुरुगा होंति तइयम्मि || ३६१ || प्रथमं प्राजापत्यपरिगृहीतं तत्र जघन्यमध्यमयोयें तपोऽदै प्रायश्चित्ते चतुर्गुरू, ते द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुके क
द्वितीयेोकपरिगृहीते ते एव कालगुरुके लीये दण्डिकपरिगृहीते ते एव तपसा गुरुके, कालेन लघुके । उत्कृष्टमुक्तं स्थानप्रायश्चित्तम् ।
अथ प्रतिसेवनामाहचउगुरुगा गुरुगा छेदो मूलं जहन्नए होइ। छगुरुगछेत्रमूलं, अवटुप्पो व पारंची ॥ ३३२ ॥ ( एवं दिमदि से पसजसं मोतुं । ) प्राजापत्यपरिगृहीतं जघन्यम् अहं प्रतिसेवा गु रवः, दृष्टे षण्मासा गुरवः । कौटुम्बिकपरिगृहीतं जघन्यमदृष्टं प्रतिसेवते परमासा गुरवः रटे छेदः । दरिपरि ही उत्कृष्ट मूलम् रहे अवस्थाप्यम् दरिकपरि होते उत्कृष्टे श्रदृष्टे, अनवस्थाप्यम्, दृष्टे पाराञ्चिकम्। दृष्टाऐ प्रतिसेयमानस्य प्रसजना शङ्का भोजि प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् । अत्र नोदकः प्राह
"
"
जम्हा पढमे मूलं चिए अगवट्टो तइऍ पारंची। तम्हा ठायंतस्स य मूलं अणवट्ठ पारंची || ३६३ ॥ अत्राचार्यः परिहारमाह
पढिसेवा य एवं पसलमा तत्थ दोइ एकेके । चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आखाइनिष्पन्नं ॥ ३६४ ॥ अनयोर्थ्याच्या प्राम्यत् ।
ते चैव तत्थ दोसा, मोरियआयाए जे भणियपुवि । आलिंगणा मोजूं, माणुस्से सेवमाणस्स ।। ३६५ ॥ तएवानवस्थामिध्यात्वादयस्तत्र मानुष्यकत्रीरूपे दोषा ये पूर्व ' मूरियार आणाए ' इत्यादि गाथायां भणिताः, नवरं दिव्यमाया लिने ये मदोषा भद्रकान्तकृता उक्ला. स्तान मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि मानुष्यकं यमानस्य म चितव्याः ।
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( ६१) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि इदमेव स्पष्टतरमाह
तैरश्चमाह
तेरिच्छगं पि तिविहं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोस । आलिंगते हत्था-इ भंजणे जे उ पच्छकम्माऽऽदी।
पायावच्च कुटुंबिय, दंडियपारिग्गहं चेव ॥ ४०४॥ ते इह नऽत्थि इमे पुण, नखादिविच्छेयणे सूया ॥३६६॥
तैरश्चमपि रूपं त्रिविधम्-जघन्यम् , मध्यमम् , उत्कृष्टश्च । लेप्यप्रतिमामालिङ्गमानस्य तस्य प्रतिमाया हस्तपादाद्य
पुनरेकैकं त्रिधा-प्राजापत्यं, कौटुम्बिकं, दण्डिकपरिगृहीतंवयवभने सति ये पश्चात्कर्मादयो दोषाः उक्नास्ते इह- श्चेति । मानुष्यके देहे युते न भवन्ति । इमे पुनर्दोषाः अत्र भव
तत्रन्ति-सा स्त्री कामातुरतया तं साधु नखैर्विच्छिद्यात् ,
अइयाऽमिला जहन्ना,खरमहिसी मज्झिमा वलवमादी। आदिशब्दान्तक्षतानि वा कुर्यात्, तैश्च तस्य श्रावकस्य स्वपक्षण वा परपक्षण वा तथा क्रियते । यदेतस्य वपुषि
गोणिकरेणुकोसा, पगयं सजिएतरे देहो ॥ ४०५ ।। नखदन्तक्षतानि दृश्यन्ते, तदेष निश्चितं प्रतिसेवक इति । अजिकाः-छगलिकाः , अमिलाः-पटकाः, एता जघन्या अथ मानुषीषु चतुरो विकल्पान् दर्शयति
जघन्य तैरश्वरूपमित्यर्थः । एवं खरमहिषीवडवाऽऽदयो म
ध्यमाः, गावः प्रतीताः, करेणवो-हस्तिन्यस्ता उत्कृष्टा उत्कृसुहविन्नप्पा सुहमो-इया य सुहविन्न(प्पा)पा य दुहमोया।
टं तिर्यग्रूपम्, एतत्त्रयमपि द्विधा-प्रतिमायुतं, देहयुतं च । दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया ।।३६७॥ इह सजीवेनेतरेणाजीवेन देहयतेन प्रकृतम् , तद्विषयं प्रासुखविक्षप्याः सुखमोच्याः १, सुखविज्ञप्या दुःखमोच्याः २, यश्चित्तमभिधास्यते इत्यर्थः । दुखविज्ञप्याः सुखमोच्या ३,दुःखविज्ञप्या दुःखमोच्याश्चेति।
तत्र स्थानप्रायश्चित्तमाहचतुर्वपि भङ्गेषु यथाक्रमममूनि निदर्शनानि
चत्तारि य उग्घाया, जहन्नए मज्झिमे अणुग्घाया। खरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायमाया य ।
छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स ॥४०६॥ उभयं सुहविन्नवणा,सुहमोयाँ दो हिं पि दुहमोया।३६८।
प्राजापत्यपरिगृहीतादौ जघन्यके तैरश्चदेहयुते तिष्ठति
चत्वार उद्धाताः । मध्यमे तिष्ठति चत्वारोऽनुद्धाताः, उत्कृष्ट खरिका-द्वद्यक्षरिका सा सर्वजनसाध्यतया सुखविशप्या, तिष्ठतः षण्मासा उद्धाताः। परिफल्गुसुखलवास्वादनहेतुत्वाञ्च सुखमोच्या १, या तु म
पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं । हर्द्धिका गणिका साऽपि साधारणस्त्रीत्वेनैव सुखविज्ञप्या, यौवनरूपविभ्रमादिभावयुक्तत्वेन दुःखमोच्या २, या पुनर
बिइयम्मि उ कालगुरू,तवगुरुगो होति तइयम्मि ।४०७ न्तः-पुरिका सा वर्षधरादिरक्षापालकैर्दुष्प्रापतया दुःखविश
तान्येव गुरुकाणि तृतीयं दण्डिकपरिगृहीते गुरुकाणि । गप्या प्रत्यपायबहुलतया च सुखमोच्या ३, या तु राक्षः
तं स्थानप्रायश्चित्तम् । संबन्धिनी माता सा सुरक्षिततया सर्वस्यापि च गुरु
अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाहस्थाने पूजनीयतया च दुःखविज्ञप्या, प्राप्ता च सती सर्वसौ- चउरो लहुगा गुरुगा, छेदो मूलं जहन्नए होई । ख्यसंपत्तिकारिणी, प्राणांश्च तत्र राक्षा विधीयमानान् प्रत्य- चउगुरुगछेदमूलं, अणवट्ठप्पो य मज्झिमए ।। ४०८ ॥ पायान् रक्षितुं शक्नोतीति दुःखविमोच्या ४ । उभयमिति प्रथमा सुखविज्ञाप्या सुखमोच्या १, 'सुहविनवण' त्ति द्विती
छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य होइ पारंची । या सुखविज्ञप्या परं दुःखमोच्या २, 'सुहमोय' सि तृतीया
एवं दिट्ठमादिद्वे, सेवंते पसजणं मोनुं ॥ ४०६ । सुखमोचा परं दुःखविज्ञप्या ३, चतुर्थी द्वाभ्यामपि दुःखा
प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्ये दृष्टे प्रतिसेवने चत्वारो लदुःखविनप्या दुःखमोच्या चेति।
घवः, कौटुम्बिकपरिगृहीते जघन्ये अदृष्ट चत्वारो गुरवः, अथाऽऽक्षेपपरिहारौ प्राह
दण्डिकपरिगृहीते जघन्ये अदृष्टे छेदः, दृष्टे मूलम् । प्राजा
पत्यपरिगृहीते मध्यमे अदृष्ट चत्वारो गुरवः, दृष्टे छेदः । तिण्ह वि कयरो गुरुयो, पागयकोंडुविदंडिए चेव ।
कौटुम्बिकपरिगृहीते मध्यमे अदृष्टे छेदः, दृष्टे मूलम् । दण्डिसाहस असमिक्खभए, इयरे पडिपक्खपभुराया ॥३६६॥ कपरिगृहीते मध्यमे अष्टे मूलम्, दृष्टे अनवस्थाप्यम् । प्राजाईसरियत्ता रज्जा, व भंसए मच्चु पहरणारिसओ।
पत्यपरिगृहीते उत्कृष्ट अदृष्टे छेदः, दृष्टे मूलम् । कौटुम्बिकपते य समिक्खियकारी,अन्ना वि ते सिं बहू अत्थि।४००।
रिगृहीते उत्कृष्ट अदृष्टे मूलम् ,दृष्टे अनवस्थाप्यम् । दण्डिकप
रिगृहीते उत्कृष्ट अनवस्थाप्यम् दृष्टे पाराश्चिकम् । एवं रशपत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसई । दृष्टयोः प्रसज्जनां शङ्कां भोजिकादिरूपां मुक्त्वा प्रायभितं पागइओ पुण तस्स व, निवस्स व भया न पडिकुजा । ज्ञातव्यम्। अवि य हु कम्मद्दोणी, न य गुत्सीओ सि नेव दारट्ठा । अत्र प्रागुक्नमेवाक्षेपपरिहारप्रतिबद्धं गाथाद्वयमाह-- तेण कयं पि न नजइ,इतरत्थ पुणो धुवा दोसा।।४०२॥ जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवढे तइऍ पारंची। तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणा उ कीस कया। तम्हा ठायंतस्स य, मलं अणवट्ठ पारंची ॥ ४१० ।। जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्ज ॥४०३॥
पडिसेवणाएँ एवं, पसजणा तत्म होइ इकिके । इदं गाथापञ्चकमपि दिग्द्वारवद्रष्टव्यम्। गतं मानुष्यकम्।। चरिमपदे चरिमपदं, तंपिय प्राणाइनिष्फ ॥४१॥
नीयतया च च तत्र रामामाच्या
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(१२) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि गतार्थम् ।
गुहाए ठियस्स सा दिणे दिणे पोग्गलं आणेउ देइ, सो वि ते चेव तत्थ दोसा, मोरियाणाए जे भणियप्रधि । तं पडिसेवइ । किमंग ! पुण जासु जीवियभयं नऽथि ता
सुन पडिसेवियब्वं" इति । यश्चोक्तम्-'विशेषतो जिनवचनलावणाएँ मोत्तुं, तेरिच्छे सेवमाणस्स ।। ४१२ ॥
परिगलितबुद्धिरिति तदप्ययुक्तम् , ततः किमेषोऽपि श्लोको मौर्यदृष्टान्तद्वारेण या भगवतामाशा बलीयसी प्रसाधि- भवतो न कर्णकोटरमध्यमध्यासिष्ट-"मात्रा स्वना दुहिता तस्या भने ये दोषाः पूर्व दिव्यद्वारेण मनुष्यद्वारेण च श्रा वा , न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पभणिताः, तेऽपि तथैवात्र द्रष्टव्याः, परम् बालापनादीन् मु- रिडतोऽप्यत्र मुह्यति" ॥१॥ उक्तं तैरश्चं रूपम् । तदुक्ती क्त्वा शेषास्तत्र तैरश्चे देहयुते सेवमानस्य भवन्ति । च समर्थितं भावसागारिकम् । एवं निर्ग्रन्थानामुक्तम् । एतदेवालापनादिपदं व्याचष्टे
वृ०१ उ०३ प्रक०।
(१८) गृहमध्यान्मार्गवत्युपाश्रये न निवसेत्जह हासखेड्डागार, विन्भमा होति मणुयइत्थीसुं ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा गाहावआलावगा बहुविहा,तह नत्थि तिरिक्खइत्थीसुं॥४१३॥
इकुलस्स मज्झ मज्झेणं गंतुं पंथए पडिबद्धं वा नो पनस्स. यथा मनुष्यस्त्रीषु हास्यक्रीडा आकारविभ्रमालापाश्च बहु
जाव चिंताए तह उव्वस्सए नो ठाणं चेइजा। (सू०-६२) विधा भवन्ति तथा तिर्यकत्रीषु प्रभावात् मनुष्यस्त्रीभ्यः तिर्यकत्रीणां विशेषः।
'से' इत्यादि यस्योपाश्रयस्य गृहस्थगृहमध्येन पन्थास्तत्र
बहुपापसंभवान्न स्थातव्यमिति । तथा गृहपतिकुलस्य अथ चतुर्भङ्गीमाह
मध्येन निर्गमप्रवेशे वस्तुम् । प्राचा. २ श्रृं० २ चू० २ सुहविन्नप्पा सुहमो-इया य सुहविभप्पॉ दुहमोया । अ०३ उ०। दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पॉ य दुहमोया ॥४१४॥ कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झ मज्झेणं गर्नु गतार्था ।
वत्थए ॥ ३५॥ अत्रोदाहरणानि
अस्य व्याख्या प्राग्वत् । अमिलाई उभयसुहा, अरहमगभाइमकडि दुमोया।
अथ भाष्यम्गोणाइ तइयभङ्गे, उभयदुहा सीहिवग्घीओ ॥ ४१५॥
एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा ।
नवरं पुण नाण, सालाए चिंडिमझे य॥५२० ।। अमिलाः-पटकास्ता प्रादिशब्दाद्-अजाखरिकादयश्च ति
एष एव निर्ग्रन्थसूत्रोक्तक्रमो निर्ग्रन्थीनामपि सातव्यः, र्यकत्रिय उभयसुखाः-तत्रातिप्रत्ययापत्त्या सुखविझप्याः,
नवरं तासां तत्र तिष्ठन्तीनां चतुर्लघुकं प्रायश्चितम् , वैकिलोकगर्हितत्वेन तुच्छसुखाखादहेतुत्वाञ्च सुखमोच्याः। 'अर
यापावृतादर्शविषयाश्च दोषा भवन्ति । शेषं सर्वमपि हनगभाइमक्कडि 'त्ति अरहन्नकस्य भ्रातृजाया तदनुरागात्
प्राग्वद् द्रष्टव्यम् ,नवरं पुनर्नानात्वं विशेषः,शालायां छिएिकमृत्वा या मर्कटी जाता, तदादयस्तिरश्च्यो दुःखमोच्याः, परं
कायां मध्ये त्रिध्वपि वक्तव्यम् । सुखविज्ञप्याः। (अरहन्नकदृष्टान्तश्च 'श्ररहमग' शब्दादवसा.
तत्र शालायां तावदाहतव्यः)२। तृतीयभङ्गे तु-गोमहिष्यादयः, ते स्वपक्षेऽपि दुःखेन सङ्गमं कारयन्ति किं पुनः परपक्षे मनुजेषु, ततो दुःखविज्ञपनाः।
सालाए कम्मकरा, उइंचयगीयसयउवसहणं । लोकजुगुप्सितश्च तासु संगम इति कृत्वा सुखमोच्याः३,यास्तु घरखामणं च दाणं, बहुसो गमणं च संबंधो ॥५३१॥ सिंहव्याघ्रीप्रभृतयस्ता उभयदुःखास्तत्र जीवितान्तकारिणी- शालायां स्थितानामार्यिकाणां कर्मकरा उचकान् कुर्युः। त्वाद् दुःखविझपना, अनुरक्लाश्च सत्यः प्रतिबन्धवन्धुरतया
यथा-याशी इयमार्यिका तादृशी मम शालिका मातुलदुःखमांच्याः ।
दुहिता वा विदधते गीतेन वा ते कर्मकरादयः । अत्र नोदकः प्रश्नयति-को नाम प्राकृतोऽप्येतास्तिर
प्रपश्चन्ते यथा-'चंदा सुखंति पडपंडरयं सुधंति,रजा जति श्वीर्वा लोकजुगुप्सिताः प्रतिसेवेत विशेषतो जिनवचनपरि
तरुणाण मणं हरंति' इत्यादि उपहसनं वा कश्चित्करोति । गलितमतिरित्यत्रोच्यते
ततश्च भिक्षार्थ गृहं गतायास्तस्याः क्षामणं दानं च वसपा
प्रादेर्गमनं च बहु तस्याः समीपे करोति । ततश्चैवं संबन्धजइ ताव णरवईसुं, मेहुणभावं तु पावए पुरिसो।। स्तयोः परस्परं घटनं भवति । जीवियदोच्चं जहि यं, किं पुण सेसासु जाईसु ।।४१६।। अथ पुनरेवोपहसनादीनि गाथात्रयेण भावयतियदि तावत् नरपतिपत्नीषु पुरुषो मैथुनभावं प्राप्नोति पाणसमा तुज्झ मया, इमा य सरिसी सरिव्वया तीसे। यत्र 'जीवितदोश्च' ति जीवितभयं प्रायः; जीवने संदेहो यासु संखे खीरनिसेश्रो, जुज्जइ तत्तेण तत्तं च ॥ ५३२॥ भवतीत्यर्थः, किं पुनः शेषासु खरिकादिजातिषु । तथा सो तत्थ तीऍ अन्ना-हि वावि निम्भत्थिो गमो गेहं। चात्र पान्त:-" एका सीरिसी रिउकाले मेहुणचा सा जाइपुरिसं अलममाणी पंथे वहंतं इकं पुरिसं घि
खामितो किल सुढिो, अक्खुन्नइ अग्गहत्थेहिं ।।५३३।। तुं गुहं पविट्ठा । बा९ काउमाढत्ता, सा य तेण पडिसेविता।
पाएसु चेडरूवे, पाडेत्तु भणाइ एस भे माता। तत्थ तसिं दोएह वि संसाराणुभावतो अणुरागो जातो । जं इच्छइ तं दिज व,तुमं पिसाइज जायाई ॥ ५३४॥
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(६३) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि तत्र शालादी कांचिदुदाररूपां संयती दृष्टा कश्चित् पु- । (१६) यत्र गृहपतिजनाः कलहं कुर्वन्ति गात्राभ्यनं वा रुषः स्वमुहृदं वक्ति पत्नी सा तव मृता, अपरा च तथा- कुर्वन्ति तत्र निषेधमाहविधा न विलोक्यते , इयं तु संयती समागता भिक्षार्थम् , से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्मयं जाणेजा तस्याः सरशी सहगरूपा सहग्वयाः, अतस्तवाऽनया सह | इह खल गाहावडे वाजाव कम्मकरीओ वा अपमएण मसम्बन्धो-विधीयमानः क्षीरनीरयोरिव तथा च लोहमपरे
कोसंति वा जाव उद्दवंति वा णो पएणस्स जाब सेव नचा गापि तप्तेन सह संयोज्यमानमिव युज्यते , सुश्लिष्टीभव
तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा० ३ चेतेा । (सू०-६३) ति । एवं बुवाणोऽसौ तया संयत्या अन्याभिर्वा संयतीभिर्गादं निभर्तिसतः सन् स वयस्योऽपि स्वगेहं गतः। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पूण उबस्सयं जाणा अन्यदा च स तदीयवयस्यः संयती भिक्षार्थ स्वगृहमा- इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीश्रो श अमममगतां शठतया मुदितः सुष्टु अतीवावृतःप्रयत्नपरः किल का- स्स गायं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए झामयन्निव अग्रहस्तैराचुभति । तस्याः पादौ विलगतीत्य
वा अभंगेंति वा मक्खेंति वा णो परमस्स जाब चिंताए र्थः । चेटरूपाणि च प्राक्तनपत्न्याः संबन्धीनि तस्याः संयत्याः पादयोः पातयित्वा भणति-एषा (भे) भवतां माता य-|
तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा०३चतेजा । (सू०-६४) किमपीयमिच्छति तत्सर्वमाहारादिजातमस्य दातव्यम् ,सं. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेयतीमपि भणति-एतत्त्वदीयं गृहम् , अमूनि च भवत्याः सं- ज्जा, इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीत्रो वा श्रमबन्धीनि जातान्यपत्यानि । अतस्त्वमेतानि सर्वाणि सङ्गो
मम्मस्स गायंसि णाणेण वा कक्केण वा लोदेण वा वमेण पयेः एवमुक्त्वा वस्त्रानपानादीनि बहुशस्तस्याः प्रयच्छति । सा च स्त्रीस्वभावतया तुच्छेनाप्याहारादिना वशीकि
वा चुप्मेण वा पउमेण वा आघसंति वा पसंति वा उब्वल्लं यत इत्यतो भूयो भूयस्तदीयगृहे गमनाऽगमनं कुर्वन्यास्त- ति वा उबर्दिति वा णो परमस्स णिक्खमणपवेसे जाव स्यास्तेन सह सम्बन्धो भवति , यत एते दोषा अतो न त- यो ठाणं वा०३ चेतेजा। (मू०-६५) से भिक्खू वा भित्र स्थातव्यम्।
क्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा इह खलु गाहाआह-यद्येवं ततः सूत्रापार्थक्यम् , नैवम्
वती वा० जाव कम्मकरीश्रो वा अम्मममस्स गायं सीओसुत्तनिवाओ पासे-ण गंतु बिइयपऍकारणज्जाए। सालाऍ मज्म खिंडी, सागारियनिग्गहसमत्थे ॥५३॥
दगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिति वा यत्र पावन गत्वा निगमप्रवेशः क्रियते तत्र निर्ग्रन्थी- पहोवेंति वा सिंचंति वा सिणावेंति वा णो पएणस्स . भिद्वितीयपदे-अध्वनिर्गमनादौ कारणजाते वास्तव्यमित्ये- जाव णो ठाणं वा०३ चेतेज्जा । (मू०-६६) से भिक्खू बमत्र सूत्रनिपातः । तत्र च शालायां वा मध्ये वा छिरिड-| वा भिक्खुणी वा इह खलु गाहावई वा० जाव कम्मकायां वा यदि सागारिको निग्रहसमर्थों जितेन्द्रियस्त
करीश्रो वा णिगिणा ठिया णिगिणा उल्लीणा मेहुणरुणादीनां वा संयतीरुपसर्पयतां खरएटनादिना शिक्षाकरणदक्षो भवति ततस्तत्र स्थातव्यम् ।
धम्म विमति रहस्सियं वा मंतं मंति, यो पएणस्स० एतदेव व्याख्यातुमाह
जाव णो ठाणं वा०३ चेतेजा । (सू०-६७) से भिक्खू वा पासेण गंतु पासे, वजंतु तहि यं न होइ पच्छितं । भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा भाइमसलेमज्झेण वज्ज गंतुं, पिह उच्चारं घरं गुत्तं ॥ ५३६ ॥
खं०जाव पास्स णो ठाणं वा०३चतेजा। (सू०-१८) दुज्जणवजा साला, सागार अवत्तत्तणगजुया वा।
'से' इत्यादि, सुगमम् , नवरं यत्र प्रातिबेशिकाः प्रत्यहं कएमेव मज्झ छिंडी,नियसावगसज्जण जणे वा ।। ५३७॥ लहायमानास्तिष्ठन्ति तत्र स्वाध्यायाधुपरोधान्न स्थेयमिति । यत्र पावेंन गत्वा निर्गम्यते प्रविश्यते वा, यद्वा गृहं गृह- एवं तैलाद्यभ्यङ्गकल्काधुद्वर्तनोदकप्रक्षालनसूत्रमपि नेयमिपतिकुलस्य मध्येन गत्वा प्रविश्यते , तद्यदि पृथक्त्वामका- ति । किञ्च-इहेत्यादि यत्र प्रातिवेशिकत्रियः ‘णिगिण' यिकाभूमिकागुप्तं च कुड्यकपाटादिभिः सुसंवृतं ततस्त- त्ति, मुक्तपरिधाना भासते, तथोपलीनाः-प्रच्छन्ना मैथुनत्रापि प्रायश्चित्तं न भवति, तत्र यदिशालायां स्थातव्यं स्या- धर्मविषयं किञ्चिद्रहस्यं रात्रिसंभोगं परस्परं कथयन्ति । त्तदा सा दुर्जनघर्जा-दुःशीलरहिता , यद्धा-सागारिकस्य अपरं वा रहस्यमकार्यसंबद्धं मन्त्रयन्त्रं मन्त्रयन्ते, तथासंबन्धिनो ये अव्यक्ता अद्याप्यपरिणतवयसोभ्रूणका बालका- भूते प्रतिश्रये न स्थानादि विधेयम् । यतस्तत्र स्वाध्यायक्षिस्तैर्युता या शाला तस्यां स्थातव्यम् , एवमेव चतुःशालका- तिचित्तविप्लुत्यादयो दोषाः समुपजायन्त इति । अपि चदिगृहमध्ये छिरिडकायां वा यत्र निजकास्तासामेव संयतीनां 'से' इत्यादि, कराव्यम् , नवरं तत्रायं दोषः चित्तभित्तिदर्शनालबद्धाः पितृभ्रात्रादयः श्रावका वा मातापितृसमाना जि- नात् स्वाध्यायतितिः, तथाविधचित्रस्थस्यादिदर्शनात् पूर्वनवचनभाविता भवन्ति, यानि वा सजनानां स्वभावत एव- क्रीडिताक्रीडितस्मरणकौतुकादिसंभव इति । आचा०२ श्रु० सुशीलानां तथा भद्रकाणां गृहाणि तत्र स्थातव्यम् । वृ०१ १०२ १०३ उ० ।। उ०३ प्रक०। ('अहिगरण' शब्देऽपि प्रथमभागे ५७१ प्रष्ठे
- (२०) अभिनिर्वगडायां वासमाहउक्नोऽयं विषयः)
से मामंसि वा. जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडा
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( २६४ ) अभिधान राजेन्द्रः । ए अभिनिद्दुवारा अभिनिक्ख मणप्पवेसाए कप्पड़ निगन्थाण य निग्गंधीण य एगो वत्थए । ११ ॥ अथ ग्रामे वा यावद्राजधान्या वा श्रभिनिषगडाके निपातानामनेकार्थत्वादभौत्यनेकानीनि नियता वगडाः परिपा अभिनिशब्दौ पृथग् द्योतको दृष्टव्यौ ततश्च पृथगनेकाबगडा यत्र तदभिनिवगडाकम् तत्र । एवमभिनिद्वारके अभि निष्क्रमण प्रवेशके व कल्पते निर्मन्थानां निर्ग्रन्थीनां च एकतो वस्तुमिति सूत्रार्थः ।
अथ भाष्यम्
एयोसविमुके, विच्छिन्नवियारथंडिलविसुद्धे । अभिनिव्वगडदुवारे, वसंति जयणाऍ गीयत्था ॥ १६३॥ एतैः प्रथमसूत्रोक्तदोषैर्विमुक्ते विस्तीर्णे महाक्षेत्रे विचारस्थfesलविशुद्धे यत्र भिक्षाचर्या संज्ञाभूमिश्च परस्परमपश्यतां भवति, तत्रैवंविधे श्रभिनिवगडाके - अभिनिद्वारे संयतीक्षेत्रे यतनया गीतार्था वसन्ति ।
कथमित्याह
पिह गोरउच्चारा, जे अब्भासेऽवि होंति उ निश्रश्रा । वीसुं वसुं वृत्तो, वासो तत्थोभयस्सावि ।। १६४ ॥ ये श्रभ्यासे मूलक्षेत्रप्रत्यासत्तौ नियोगा-ग्रामा भवन्ति तेऽपि साधुसाध्वीनां पृथग्गोचरचर्याकाः पृथगुश्चारभूमिकाश्च परस्परं भवन्ति, श्रास्तां मूलग्राम इत्यपिशब्दार्थः । उभयस्यापिच संयतानां संयतीनां तत्र पृथक् पृथगुपाश्रये वासः प्रोक्त इति ।
श्रत्र नोदकः प्रेरयन्नाह - तं नत्थ गामनगरं, जत्थियरीओ न संति इयरे वा । पुणरवि भणामो ऽरले,बसाउ जइ मेल दौसा || १६५ || ग्रामाश्च नगराणि चेति ग्रामनगरम्, यत्रेतराः पार्श्वस्थादिसंयत्यः, इतरे पार्श्वस्थादयो न सन्ति ततः पुनरपि वयं भणामः, यथा अरण्ये उष्यतां वासः क्रियताम्, यदि मीलनायामेवंविधा दोषाः ।
सुरिराहदितो पुरिसपुरे, मुरुंडदूतेरा होइ कायव्वो । जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुख्यव्या ॥ १६६ ॥ दृष्टान्तोत्र- पुरुषपुरे रक्तपटदर्शनाकीर्णे मुरुण्डदूतेन भ वति - कर्त्तव्यः । यथा तस्य मुरुण्डदूतस्य ते रपटा अशकुना न भवन्ति, तथा तस्य साधोरितराः पार्श्वस्थादयो भ तिव्याः, ता दोषकारिण्यो न भवन्तीत्यर्थः ।
इदमेव भावयति
पाडलि मुरुंडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणा वासो । भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रन्नो सचिवपुच्छा । १६७ |
पाटलिपुरे नगरे मुरुण्डो नाम राजा, तदीयदूतस्य पुरुषपुरे नगरे गमनम्, तत्र सचिचेन सह मीलनम् तेन च तस्यावासी दापितः, ततो राजानं द्रष्टुमागच्छन्तो भिक्षवो रक्तपटा शकुना भवन्तीति कृत्वा स दूतो न राजभवनं
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सहि प्रविशति । ततस्तृतीये दिने राजसचिवपार्श्व पृच्छा-किमिति दूतो नाद्यापि प्रविशति ।
निग्गमणं च अमच्चे, सन्भावाइक्लिए भगइ दूयं ।
तो बहिं च रत्था, नऽरहिंति इहं पवेसणाया ॥ १६८ ॥ श्रमात्यस्य राजभवनान्निर्गमनम् ततो दूतस्यावासे गत्वासचिवो मिलितः, पृष्टश्च तेन दूतः । किं न त्वं प्रविशसि राजभवनम् ?, स प्राह श्रहं प्रथमे दिवसे प्रस्थितः परं तत्र द fuडकान् दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्तः, अपशकुना एते इति कृत्वा । त तो द्वितीये तृतीयेऽपि दिवसे प्रस्थितः, तत्रापि तथैव प्रतिनिवृतः । एवं सद्भावे श्राख्याते कथिते - सति दूतममात्यो भणति एते इह रथ्याया अन्तर्बहिर्वा नापशकुनत्वमर्हन्ति, ततः प्रवेशना दूतस्य राजभवने कृता । एवमसंयताः किमपि पार्श्वस्थादयः संयत्यश्च रथ्यादौ दृश्यमाना न दोषकारिणो भवन्ति ।
अपि च
जह चैव श्रगारीणं, विवक्खबुद्धी जईसु पुव्वुत्ता | तह चैव य इयरीणं, विवक्खबुद्धी सुविहिएसु ॥ १६६ ॥ यथैवागारीणां वस्त्राभरणादिविभूषितानां पूर्वम् श्रागन्तुगदव्वविभूसिए' इत्यादिना यतिषु विपक्षबुद्धिरुक्ता तथैवेतराणां पाश्वेस्थादिसंयतीनां हस्तपादधावनाविभूषितविग्रहाणां सुविहितेषु स्नानादिविभूषारहितेषु विपक्षबुद्धिर्भवतीति द्रष्टव्यम् ।
श्रापणगृहादिषु निर्ग्रन्थीनां न वसतिः कल्पतेनो कप्पर निग्गन्धीणं श्रवणगिहंसि वा रत्थामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा तियंसि वा चउकंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए । १२ ।।
अथास्य संबन्धमाह-एयारिसखेत्तेसुं, निग्गन्थीणं तु संवसंतीणं । केरियम्मि न कप्पर, वसिऊण उवस्सए जोगो ॥ १७० ॥ एतादृशेषु पृथग्वगडाकेषु - पृथग्द्वारेषु वा क्षेत्रे निर्ग्रन्थीनां च संयतीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते इत्यनेन सूत्रेण चिन्त्यते एष योगः - संबन्धः ।
प्रकारान्तरेण संबन्धमाहदिट्ठमुयस्सवगहणं, तत्थुजाणं न कप्पर इमेहिं । बुत्ता सपक्खोवा, दोसा परपक्खिया इमो ॥ १७१ ॥ दृष्टम् अनन्तरसूत्रे उपाश्रयग्रहणम्, तत्रार्याणाममीषु प्रतिश्रयेषु वस्तुं न कल्पते, इत्यनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते । उक्का वा स्वपक्षतः स्वपक्षमाश्रित्य संयतानां संयतीनां च परस्परं दोषाः, इदानीं तु परपाक्षिकाः - - गृहस्थाख्यपरपक्षप्रभवा दोषा व्यावर्ण्यन्ते, इत्यनेकैः संबन्धैरायातस्यास्य (१२) सूत्रस्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्धीनां साध्वीनामापतगृहे वा रथ्यामुखे वा शृङ्गाटके वा चतुष्के वा चत्वरे वा अन्तरापणे वा वस्तुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः ।
श्रथ विस्तरार्थं प्रतिपदमभिधित्सुः प्रायश्चित्तमाहaariहरत्थाए, तिए चउकंतरावणे तिविहे ।
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
बमाहि ठायतिगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥१७२॥ | मक्रीकृत्योक्तम् , अन्यथा सर्वासामपि मूलमेव भवति । परतः आपणगृहे रथ्यामुखे त्रिकेचतुष्के शन्तरापणे त्रिविधे-त्रि
संयतीनां प्रायश्चित्तस्यैवाभावात् । प्रकारे वक्ष्यमाणस्वरूपे तिष्ठन्तीनां संयतीनां प्रत्येकं चत्वारो सव्वेसु व चउगुरुगा, भिक्खुणिमाईण वा इमा सोही । गुरुकाः प्रायश्चित्तम् , तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः । चउगुरुविसेसिया खलु, गुरुगा विव छदनिट्ठवणा।१७८ आपणगृहादीनां व्याख्यानमाह
अथवा सर्वेष्वपि-आपणगृहादिषु स्थानेषु चतुर्गुरुकाजं श्रावणमझम्मी, जं च गिहं आवणा य दुविहं वि ।। ऽविशषितं प्रायश्चित्तम् । अयं च प्रकारः प्रागुक्तोऽपि संग्रतं होइ आवणगिह, रत्थामुहरत्थपासम्मि ॥१७३॥
हार्थमिह भूयोऽप्युक्त इति न पुनरुकता । यदि वा-भिक्षुणी
प्रभृतीनामियं शोधिद्रष्टव्या । तद्यथा-चतुर्गुरुकास्तपःका-- यद् गृहमापणमध्ये समन्तादापणैः परिशिप्तं तदापणगृहम ,
लाभ्यां विशेषिताः। तत्र भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकम् उभयलघु। म. यद्वा-मध्ये गृहम् 'दुविहं वित्ति द्वाभ्यामपि च पााभ्यां यस्थापणे भवतः तदापणगृहं भवति । तथा रथ्यामुख-रथ्यायाः
भिषेकायास्तदेव तपसा लघु कालेन गुरुकम् । गणापावें भवति । तच्च त्रिविधम् ।
वच्छेदिन्याः, कालेन लघु, तपसा गुरु । प्रवर्तिम्याः का
लेन चतुर्गुरुकम् । यदि-वा चतुर्गुरुकादारभ्य छेद निष्ठापना तद्यथा
कर्तव्या । तद्यथा-भिक्षुण्याः सर्वेष्वपि स्थानेषु चतुर्गुरुतं पुण रत्थमुहं वा, बाहिमुहं वा उभयतो मुहं वा।
कम् , अभिषेकायाः षडलघुकम् , गणावच्छेदिन्याः पदगुरु महवा जत्तो पवहइ, रत्था रत्थामुहं तं तु ॥१७४ ॥ कम् , प्रवर्त्तिन्याः छेदः । यत्पुनह रथ्यायाः पावें वर्तमान रथ्याया अभिमुखं वाभ- अथात्रैव दोषानुपदर्शयितुं द्वारगाथामाहवेत् , बहिर्मुखं वा रथ्या तस्य पृष्ठतो वर्तत इत्यर्थः, उभयतो
तरुणा वेसित्थिविवा-ह रायमादीसु होइ सइकरणं । मुखं वा-यस्यैकं द्वारं रथ्यायाः पराङ्मुखम् , एकं तु रथ्या
इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व तानो वा ॥१७६।। या अभिमुखमित्यर्थः । अथवा-यतो-गृहात् रथ्या प्रवहति तद् थ्यामुखमुच्यते ।
आपणगृहादिषु स्थितानां साध्वीनां तरुणान् वेश्यास्त्री
विवाहं च दृष्टा राजादीनां दर्शने भुक्तभोगानां स्मृसिंघाडगं तियं खलु, चउरत्थसमागमो चउकं तु ।
तिकरणं भवति , इतरासां कौतुकम् । तरुणांछएहं रत्थाण जहिं, पवहो तं चच्चरं चेति ॥ १७५ ॥
श्व प्रार्थयमानान् यदीच्छन्ति ततः संयमविराधशुकाटकं नाम-यत्त्रिकं-रध्यात्रयमीलनस्थानम् ,कचित्तु सू- ना । अथ नेच्छन्ति तत उडाहादिकं कुर्युः, स्तनाच तप्रादर्श-तियंसि' वा इत्यपि पदं दृश्यते । तत्रैवं व्याख्या- त्रोपधि वा ता वा-आर्यिकाः अपहरेयुरािते द्वारगाथासशुकाटक-शृङ्गाटकाकारं त्रिकोणस्थानम् ,त्रिकं-रध्यात्रयमी
मासार्थः। लकः,चतुष्कं तु चतसृणां रथ्यानां सम्यग्गमः। तथा तत्र पक्षां
अथ विस्तरार्थ प्रतिपदमाहरथ्यानां प्रवहो-निर्गमत्वं चत्वरं अवते तीर्थकरगणधराः।
चउहाऽलंकारविउ-बिए तहिं दिस्स सललिए तरुणो । अह अंतरावणो पुण, वीही सा एगो व दुहओ वा।
लडहपयंपितपहसित-विलासगतिणेगविहकिड़े॥१८॥ तत्थ गिहँ अंतरावण, गिहं तु सयमावणो चेव ।।१७६।।
चतुर्दा-वस्त्रपुष्पगन्धाभरणाचतुर्विधो योऽलङ्कारस्तेनाअथेत्यानन्तये, अन्तरापणो नाम-धीथी हट्टमार्ग इत्यर्थः । चिंतानलंकृतान् तरुणान् तत्रापणगृहादिषु रष्ट्रा मोहादयो सा एकतो वा-एकपाद्येन 'दुहश्रो वि'त्ति द्वाभ्यां वा पा- भवन्तीति वाक्यशेषः। कथंभूतान्?, सललितान् ललितं नाम, वा॑भ्यां भवेत् , तत्र यद् गृहं तदन्तरापणगृहम् । यद्वा-गृहं हस्तपादाविन्यासविशेषः । उक्तं च-" हस्तपादाविन्यासोस्वयमेवापणस्तदन्तरापणः । किमुक्नं भवति-यत्रैकेन द्वारेण 5नेत्रौष्ठप्रयोजितः । सुकुमारो विधानेन, ललितं तत्प्रकीव्यवइियते द्वितीयेन तु गृहं तदन्तरापणगृहम् , एतेषु प्र- र्तितम् ॥१॥"तेन सहितान् , तथा लरभमन्योन्यं प्रजतिश्रयेषु संयतीनां न कल्पते स्थातुम् । अथ तिष्ठन्ति तदा ल्पितं-प्रकृष्टवचनं, प्रसहितं-हास्यम् विलासस्य , " स्थानाप्रागुतमेव चतुर्गुरुकाख्यं प्रायश्चित्तं प्राप्नुवन्ति ।
सनगमनानां, हस्तभ्रूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो , अथात्रैव प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाह
यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥१॥" इत्येवलक्षणा
गतिश्च सुललितपदन्यासरूपा अनेकविधा, बहूनां दोलनाश्रावणरत्थगिहे वा, तिगाइसुनंतरावणुजाणे ।
दिकाः क्रीडा येषां ते तथाविधास्तान् । चउगुरुगा छल्लहुगा, छग्गुरुगा छेयमूलं च ॥१७७॥
अथ वेश्यास्त्रीद्वारमाहआपणगृहे तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकाः, रथ्यागृहे तिष्ठन्तीनां
दिटुं विउब्वियाओ, कुलडा धुत्तेहि संपरिवुडाओ । पडलघवः - तिगार' त्ति त्रिकेषु चत्वरेषु तिष्ठन्तीनां षड्लघवः ‘सुन्न' ति अपरिगृहीते-शून्यगृहे अन्तरापणे वा
विव्वोयपहसियाओ, प्रालिङ्गणमाइ संमोहो ॥१८१॥ छेदः । उद्याने तिष्ठन्तीनां मूलम् । एवं भिक्षुणीविषयमुक्तम् । विकुर्विता-अलंकृताः कुलटाः-स्वैरिएयो; वेश्यात्रिय - गणापच्छेदिन्याः षडलघुकादारब्धं नवमे तिष्ठति,प्रवर्तिन्याः | त्यर्थः, धूर्तेः सबैः संपरिवृताः-समंततो वेष्टिताः, विवोकषड्गुरुकादारब्धं प्रायश्चित्तं दशमे पर्यवस्यति, एतचापत्ति- प्रहसिताः-विव्वोको नाम-"इहानामर्थानां, प्राप्तावभिमा
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वसहि
( ६) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि नगर्वसंभूतः । स्त्रीणामनावरकृतो, विव्वोको नाम विशेयः
इयरीण कोउहल्लं, निदाणगमणादयो सज्ज ॥१८५॥ ॥१॥" प्रहसितं-हास्याभिधानो रसविशेषः अस्य च लक्ष
एतारशान् मुक्त्वाऽस्माभिर्दीक्षा गृहीता, ईरशैर्वा सह गमिदम्-"हास्यो हास्यप्रकृतिः,हासो विकृतारवेषचेष्टाभ्यः।
विवाहिता वयमपि पूर्वमिति स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनीनाम्, भवति परस्थाभ्यः स च, भूना स्त्रीनीचयालगतः॥१॥"ते
इतरासामभुक्तभोगिनीनां पुनः कौतूहलं-कौतुकं भवेत् । ततविश्वोक-प्रहसिते विद्येते यासां ता विवोकप्रहसितवत्यः ।
श्चोभयासामपि सद्यो निदानगमनादयो दोषाः । निदानम्गाथायां प्राकृतत्वाम्मतुप्रत्ययलोपः। एवंविधा प्रापणगता
अस्मात्-तपोनियमादिप्रभावाद्वान्तरे ईदृशमेव पुरुषं लरष्टा तासां चालिङ्गनादिकाश्चेष्टाः क्रियमाणा निरीक्ष्य मोहः
भेयेति लक्षणम् , गमनं-स्वगृह प्रति भूयः प्रत्यावर्तनम्। समुहीप्स्यते। अथ विवाहद्वारमाह
अपि च
आयाणनिरुद्धाओ, अकम्मसुकुमालविग्गहधरीओ। तत्थ चउरंतमादी, इन्भविवाहेसु वित्थरा रइया । भूसियसयससमागम, रहासादी य निव्वहणे ।१८२।
तेसि पि होइ दटुं, वइणीश्रो समुन्भवो मोहो ॥१८६॥
आदानानि-इन्द्रियाणि निरुद्धानि याभिस्ता निरुद्धादानाः तत्राऽऽपणगृहादौ स्थितानां संयतीनामिभ्यविवाहेषु ये च
गाथायां व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः प्राकृतत्वात् । अकर्मतुरन्तादयो विस्तरा रचिताः,चतुरन्ता नाम-चतुरिका आदि. शब्दाद्वन्दनकलशतोरणादिपरिग्रहः,तथा यस्तत्र भूषितानां
णा-कर्मकरणाभावेन सुकुमार-कोमलं विग्रहं शरीरं धा
रयन्तीति अकर्मसुकुमारविग्रहधराः एवंभूता अतिनीः वस्त्रादिभिरलंकतानां स्वजनानां समागमः, यश्चरथेन वा अश्वेन वा आदिशब्दात्-शिविकया वा निर्वहणं वध्वाः सर्व
दृष्ट्वा तेषामपि नखिबालिप्रभृतीनां मोहस्य समुद्भवो भवति । द्वर्या श्वशुरगृहे नयनं तदर्शने भुक्तभोगिनीनां स्मृतिकरणम् ,
अथ 'इच्छममिच्छे तरुण' ति पदं विवृणोतिअभुक्तभोगिनीनां तु कौतुकमुपजायते, ततः प्रतिगमनादयो
संजमविराहणा खलु, इच्छाए णिच्छियं बर्हि गएहे । दोषाः।
तेणोवहिनिष्फन्ना, सोही मूलाइ जा चरिमं ॥१८७॥ अथ राजद्वारमाह
यदि तापणगृहादौ तरुणानवभाषमाणान् इच्छति ततः बलसमुदयेण महया, छत्तसिया वियणिमंगलिपुरोगा। संयमविराधना, अथ नेच्छति ततो बलादपि संयती बहिदीसंति रायमादी, तत्थ ऑनिता य निंता य ॥१८३॥
गुंतीयुः, 'तेणा उवहिं च तारो का' इति पदं व्याख्यायमहता बलसमुदयेन आनयन्तःप्रविशन्तो निर्गच्छन्तो राजा
ते-"तेणोबहिनिप्फया" इत्यादि शून्यगृहादिषु स्थितानां दयो राजेश्वरतलवरप्रभृतयस्तत्र दृश्यन्ते,कथंभूताः? 'छत्त
साध्वीनां स्तेना यधुपधिमपहरेयुः तत उपधिनिष्पना शोसिय'त्ति प्राकृते पूर्वापरनिपातस्यान्तवत्त्वात् सितं-श्वेतं छत्र
धिः, तद्यथा-जघन्यमुपधिमफहरन्ति पञ्चकम् , मध्यमपयषां ते सितछत्राः वियणित्ति बालवीजनिका मङ्गलानि-दर्प
हरन्ति मासिकम् , उत्कृष्टमपहरन्ति अनवस्थाप्यम् , तिम्रो णपताकादीनि एतानि पुरोगाणि-पुरतो गानि येषां राजादी
ऽपहरन्ति पाराञ्चिकम् ।
अपिच-- नां ते तथा।
ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थिखंडरक्खाणं। द्वारगाथायां 'रायमाईसु' त्ति यदादिग्रहणे कृतम् । तल्लन्धमर्थमाह
उद्भसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो ॥१८८॥ ते नक्खि चालिमुह वा-सिजंघिणो दिस्स अद्रियाणद्रि।।
चारित्रिकाणां स्थानं तदापणगृहादि भवेत् । तत उद्धर्षणा
प्रवचनस्य, तथा सद्यश्चारित्रात्प्रभ्रंशना चोपजायते । एषा होसुंणे एरिसगा, न य पन्ना एरिसा इतरी ॥१८४॥
द्वारगाथा । अथेयमेव व्याख्यायते-तत्र कुलगृहस्यापभ्राजतान्-पुरुषान् नखिबालिमुखवासिजचिनो दृष्ट्वा भुक्तभो- ना भाव्यते, आपणगृहादौ स्थिताः ताः दृष्टा कश्चित्तदीयगिन्योऽब्रुवन्-'णे' अस्माकमपीदृशाः पतय इति स्मृतिम् ,
झातीनामन्तिके गत्वा ब्रूयात् । इतरास्तु-अभुक्तभोगिन्यो नास्माभिरीदृशाः पूर्व प्राप्ता इत्येवं
किमित्यत माहकौतुकं कुर्युः । तत्र नखाः-करजा विद्यन्ते येषां ते नखिनः
ससिपाया वि ससंका, जासिं गायाणि संनिसेविंसु। प्रशंसायामत्र मत्वर्थीयः, यथा रूपवतीति । विशेषणानामन्य थानुपपत्या ताम्रोत्तुङ्गत्वादिगुणोपेताः विशिष्टा एव नखाः,
कुलफंसणिो ता भे,दोन्नि वि पक्खे विघसेंति॥१८॥ तद्वन्तः । प्रशंसायामत्र मत्वर्थीयः , यथा-रूपवती कन्ये- यासां-युष्मदीयसुतास्नुषादीनां प्रयत्नेन संरक्षमाणानां गा. त्यादिषु एवं बालाः-केशास्ते श्यामलनिचितकुञ्चितादिगु
त्राणि शशिपादा अपि-चन्द्रमरीचयोऽपि सशङ्काश्चकिता णोपेता येषां ते बालिनः, मुखवासः-कर्पूरादिभिर्मुखस्य इव संनिषेवितवन्तः, ताश्चेदानीमेवमापणगृहादौ वसम्त्यः सौरभ्यापादनं तदस्ति येषां ते मुखवासिनः, जडिनो--व-[.'भे' भवतां कुलस्य पांशवः-कुलमालिन्यकारिण्यो दावपि तुलस्थूलजवायुगलकलिताः, पते अर्थिनो-मैथुनाभिलाषि- पक्षी-पैतृकश्वशुरलक्षणो विघर्षयन्ति-विनाशयन्तीत्यर्थः । गः, अनचिनो वा यथाभावेन समागच्छेयुः, तांश्च दृष्टा एवं कुलगृहस्यापभ्राजना भवति। भुक्ताऽभुक्तसमुत्था दोषा भवन्ति ।
अथ 'स्थानं वेश्यास्त्रीषण्डरक्षाणा' मिति द्वारमाहतानेव भावयति--
छिन्नाइबाहिराणं, तं ठाणं जत्थ ता परिवसंति । एयारिसए मोत्तुं, एरिसए विवाहिताएँ सइभुत्ते। । इय सोउं दगुण व, सयं तु ता गेहमाणेति ।। १६०॥
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( ६६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सहि
यत्र ताः श्रमण्यः परिवसन्ति तत्र यदि छिन्नादिबाद्यानां स्थानम् दिना-दिनाला आदिशब्दाद्वेश्यायडरतवियूतकारादयो ये बाह्या विशिष्टजनवदितिनस्तेषां स्थाने यदि तिष्ठन्ति ततस्तदीयाः सज्ञातिका इत्येवं वृत्तान्तं श्रुत्वा दृष्टा वा ताः संबन्धिसंयतीः स्वं स्वकं गृहमानयन्ति । अलमनया प्रव्रज्यया यत्रैवंविधे स्थाने वासो विधीयते ।
अथाप्रवचने इति द्वारमाहपेच्छह गरहिवासा वहसीओ तयोषणा फिर सियाओ। किं मने एरिस, धम्मोऽयं सत्थु गरिहा य ॥ १६१ ॥ साधू प व गरहा, तप्पक्खीणं च दुगो हस अभिमुह पुणरावती, वच्चंति कुलप्पसूयाओ ।। १६२ ॥ ताआपण दष्ट्रा कश्चिद् ब्रूयात् पश्यत लोकाः ! यदेवं गर्हितवासाः शिखाने स्थितातिन्यस्तपोवनं फिल चिताः। किं मन्ये पततीर्थकता रियोऽयं धर्मो र इत्येयं शास्तुः तीर्थकरस्य गर्दा भवति । साधूनामपि च गां जायते अहो सदाचारवहिर्मुखा अमी ये स्वकीयाः सवतीरस्मिन्नस्थाने स्थापयन्ति तथा-येतत्पादिकाः साधुपावहुमानिनः धावकास्तेषां च पुरतो दुर्ज मोमपालको हसति पाश्च प्राथमभिमुखा तासां पुनरावृत्तिर्विपरिणामो वा भवति, कुलप्रसूताश्च याः प्रवजितास्तास्तादृशस्थानावस्थानेन अभाविताः सत्यो भूयो ग्रहाणि व्रजन्ति ।
अथ चारित्रभ्रंशनाद्वारमाहतरुणादीये दहुं, सकरणसमुब्भवेहिं दोसेहिं । पडिगमणादी वसिया, चरित्तभासुंडणा वाऽवि ॥ १६३ ॥ तरुणादीन् दृष्ट्रा स्मृतिकरणसमुद्भवैरुपलक्षणत्वात्कीसमुद्भः प्रतिगमनादीनि या पदानि तासां युभैवेयुः आदिशब्दादम्यती धकगमनादिपरिग्रहः । स्वलि या स्थिताः तरुणादिभिः प्रतिसेवनाया चारित्रभ्रंशना भयेत्। पते तिष्ठन्तीनां दोषा द्रष्टव्याः ।
अथ रथ्यामुखादिषु तानतिदिशन्नाहएए चैव य दोसा, सविसेसतरा हवंति सेसेसु । रत्थामुहमदीसुं, थिराधिरेहिं घिरे अहिया || १६४ ॥ एत एव तरुणादयो दोषाः शेषेषु रथ्यामुखशृङ्गाटकत्रिकादिष्वपि भवन्ति नवरं सविशेषतरा उत्तरोत्तरेषु -
यावदुद्यानम् । ते च तरुणाइयो द्विधा-स्थिरा, अथिरा श्च । स्थिरा नाम-येषां तत्रैच गृहाणि, अस्थिरा येषामन्यत्र गृहाणि । तत्र च स्थिरे अधिकतरा दोषाः प्रतिपत्तव्याः । द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपि कथमित्याहअद्वारा शिगवादी, तिक्युचो मग्गिऊ असईए । रत्थामुहे चउक्के, आवण तो दुहिं वाहिं ।। १६५ ।। उपलक्षखत्वात् शृङ्गाटकादीनामपि ग्रहणम् ततोऽयमर्थ:रथ्यामुखस्याभावे श्रापणगृहे स्थातव्यम्, तदप्राप्ती शृङ्गाटके वा तस्याप्यसस्थे चतुष्के, तस्यालाभे चत्वरे, तदप्राभौ अन्तगगणेऽपि स्थातव्यमिति ।
२५०
यसहि
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,
अथ तो दुहि वादिति पत्र व्या— अंतोमुहस्स अमई, उभयमु तस्म बाहिरं पिहए । तस्सऽसति बाहिरमुहे, सइ टहए थेरिया बाहिं ॥ १६६ ॥ पूर्वमन्तर्मुखे रथ्या मुखगृहे स्थानव्यम, अन्तर्मुखस्याऽसनि उभयमुखे तस्य च बहिदारं रथ्याभिमुखं पिदध ति कटादिना स्थगयन्ति । द्वितीयेन द्वारे निर्गमप्रवेशी कुर्वन्ति । तस्योभयमुखस्याभाव परिध्याभिमुखद्वारे तिष्ठन्ति तत्र च द्वारे सदा स्वगिनमेव कुर्वन्ति स्थरसाध्यश्च तत्र ' बाहिं ' ति बहिर्द्वारप्रत्यासन्नास्तिष्ठन्ति । अथ सामान्यत आपणगृहादिविधिमाहजत्थप्पयरा दोसा, जत्य व जयां तरंति कार्ड जे । निच्चमवि जंतिताणं, जंतितवासो तहिं बुत्तो ॥ १६७॥ यत्रात्तराः पूर्वोका दोषारतेषां दोषाणां परिहरले यत्र यतनां कर्तुं शक्नुवन्ति तत्रापणगृहादौ निष्ठन्तीत्याशयः तत्र च स्थितानां तासां नित्यं यन्त्रितानामपि यन्त्र - तवासः प्रोक्तः किमुतयः प्रायोग्योपक रावणादिना ताः सर्वदेव सुर्यास्तास्तथापि त पहा विशेषतो यथोक्रयतनया यत्रणा कर्तव्या ।
का पुनर्यतनेति चेदुच्यतेबोलेन कायकर, ठाणं वत्युं च पप्प भइयं तु । वंदेश इति निंति च, अविशीयनिहोडा चेव ॥ १६८ ॥ योसेन समुदायशब्देन स्वाध्यायकर येन पूना दोषा न भवन्ति स्थानं वा वस्तु वा प्राप्य भाज्यम् । स्वाध्याय करणं न कर्त्तव्यमित्यर्थः, वृन्देन च कायिकीसशाव्युत्सर्जनार्थमतियन्ति निर्यन्ति वा । श्रविनीतां च दुःशीलानां तरुणादीनां निवेदना कर्त्तव्या न तत्र प्रवेष्टुं दातव्यमिति भावः ।
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एएस असईए, सुन्ने बहिरक्खियाउ वसहेहिं । तेससती गिहिनीसा, बगाइसु भोइए नाउं ॥ १६६॥ एतेषामापणगृहादीनामसति श्रप्रतिपन्नादयो व्रतियो वृपनैः समर्थसाधुभिः समन्ततो रक्षिताः सत्यः शून्ये उपाश्रये वसेयुः । अथ वृषभा न भवन्ति, ततस्तेषामभावे गृहिणामगारिणां निश्रया भूत्यादिभिः सुगुप्तम्येऽपि प्रतिश्रये वसन्ति । कथमित्याह - ग्रामाधिपस्य-ग्रामस्वामिनो ज्ञातं विदितं कृत्वा वयमत्र भवदीयबाहुच्छायापरिगृहीताः स्थिताः स्म श्रतो भवता अस्माकं सारा करणीयेति । कप्पइ निम्गंधा आपसगिर्हसि वा० जाव अंतरापर्य सि वा वत्थए || १३ ॥
अत्र भाध्यम्
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एसेवकमो नियमा, निग्गंथासं वि नवरि चउलहुगा । सुत्तनिवातो तो मुहम्म तह चेत्र जयणाए ॥ २००॥ एष एव श्रम नियमानिन्यानामपि भवति तेषामध्याप गृहादिषु वखतां पूर्वोक्रा दोषाभवन्तीति भावः । नरं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम् । आह-यद्येवं तर्हि सूत्रं निरर्थकम् । तंत्र साधूनामापणादिषु वस्तुतत्वात् नैवं कार
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(EEE) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि णिकसूत्रम्, यद्यन्यत्रोपाश्रयो न प्राप्यते ततोऽन्तर्मुखे रथ्या- वादिभिर्भजनं भटादिभिर्वा रोधनं भवेत् । तथा च समुखे गृहे स्थातव्यम् । अत्र सूत्रनिपातः-सूत्रमषतरति तस्या- | त्यम्यस्यां वसतो गन्तव्यम् , तस्या अलाभेऽन्यद ग्रामान्तरं ऽभावे आपणगृहादिषु शेषेष्वपि तिष्ठद्भिस्तथैव-तेनैव विधि- गमनीयम् , यत्र च दुस्संचरा मार्गाः सलिलहरितादिभिरामा यतनया स्थातव्यम् । वृ० १ उ० ३ प्रक० ।
त्मविराधना संयमविराधना भवेत् । तथा बहुप्राणा मार्गा (२१) वर्षासु यादृशे उपाश्रये वसेत्तदाह
द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणामनेकजातीयानां सन्मूर्च्छनात् , तथा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा गाम वा
शय्यातरेण शून्यां वसतिमालोक्याऽदाक्षिण्या एते काऽप्य
नापृछय गता इति प्रद्वेषतस्तेषां सर्वेषां वा तद्रव्यस्यान्यद्जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय- व्यस्य वा व्युच्छेदः क्रियेत । इमे दोषास्तस्मात् शून्या वसतिः हाणिसि वा णो महती विहारभूमी णो महती वियारभू
कदापि न कर्तव्येति, जघन्यतोऽप्याचार्यस्योपाध्यायस्य चामी णो सुलभे पीढफलगसेजासंथारए णो सुलभे फासुए
स्मतृतीयस्य वर्षाकाले विहारः, अन्यथा प्रायश्चित्तम्। उंछे अहेसणिज्जे जत्थ बहवे समणमाहणअतिहिकिवणव
तथा चाह-- णीमगा उवागया उवागमिस्संति य अच्चाइमा वित्ती यो
वासाण दोएह लहुया, आणादिविराहणा वसहिमादी। परमस्स णिक्खमणपवेसाए जाव धम्माऽणुप्रोगचित्ताए
संथारग उवगरणे, गेलन्ने सल्लमरणे य ॥ २२ ॥ सेवं णचा तहप्पगारं गाम वा णगरं वा. जाव रायहाणं
यदि पुनद्वौं जनौ वर्षाकाले वसतस्तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो वा णो वासावासं उवल्लिएजा । से भिक्खू वा भिक्खुणी|
लघुका आज्ञादयश्च दोषाः । तथा विराधना वसत्यादेः श्रा
दिशब्दादात्मसंयमप्रवचनपरिग्रहः। तथा संस्तारकविषये वा से जं पुण जाणेजा गामं वा० जाव रायहाणिं वा०
उपकरणविषये च भूयांसो दोषाः तथा द्वयोर्जनइमंसि खलु गामंसि वा • जाव महती विहारभूमी योविहरतोरेकः कथञ्चनापि ग्लानो जायेत , ततो ग्लानं वमहती वियारभूमी सुलभे जत्थ पीढे० ४ सुलभे फासुए
सती मुक्त्वा अपरो भिक्षादिनिमित्तं बहिर्गतः, ये प
श्चात् ग्लानस्य दोषा द्वितीयाद्देशकेऽभिहिताः। यश्च सशउंछे अहेसणिज्जे णो जत्थ बहवे समण जाव उवागया
ल्यस्य सतो मरणं तदेतत्सर्वमत्रापि द्रष्टव्यम् । एष द्वारउवागमिस्संति वा अप्पाइमा वित्ती. जाव रायहाणिं वा |
गाथासंक्षेपार्थः। ततो संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा । (मू०-११२) सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो विराधना वसत्यादेस भित्र्यत्पुनरेवं राजधान्यादिकं जानीयात् ,तद्यथा-अस्मि
रिति विवृण्वन्नाह-- न् ग्रामे यावद्राजधान्यां वा न विद्यते महती विहारभूमिः- सुमं मुत्तुं वसहि, भिक्खादीकारणा उ जइ दो वि । स्वाध्यायभूमिः, तथा विचारभूमिः-बहिर्गमनभूमिः, तथा नै
वच्चंति ततो दोसा, गोणाईया हवंति इमे ॥ २३ ॥ वात्र सुलभानि पीठफलकशय्यासंस्तारकादीनि , तथा न सुलभः प्रासुकः पिण्डपातः उंछे' त्ति एषणीयः। एतदेव दर्श
यदि द्वावपि शून्यां वसतिं मुक्त्वा भिक्षादिकारणतो व्रजयति अहेसणिज्जेत्ति यथाऽसावुद्गमादिदोषरहित एषणीयो
तस्तत इमे वक्ष्यमाणा दोषा गवादिका-गवादिनिमित्ता भवति तथाभूतो दुर्लभ इति । यत्र च ग्रामनगरादौ बहवः
भवन्ति ।
तानेवाह-- श्रमणब्राह्मणकृपणवणीमगादय उपागताः अपरे चोपागमिप्यन्ति, एवं च तत्राऽत्याकीर्णा वृत्तिः, वर्तन-वृत्तिः, सा च
गोणे साणे छगले, मूगरमहिसे तहेव परिकम्मे । भिक्षाटनस्वाध्यायध्यानबहिर्गमनकार्येषु जनसङ्घलत्वादाकी- मिच्छत्तवडुगमादी, अच्छन्ते सलिंगमादीणि ॥ २४ ॥
र्णा भवति, ततश्च न प्राशस्य तत्र निष्क्रमणप्रवेशी यावञ्चि- गौः श्वा छगलः शूकरो महिषो वा शून्यां वसतिमवबुध्य न्तनादिकाः क्रिया निरुपद्रवाः सम्भवन्ति । स साधुरेवं प्रविशेत् तथा परिकर्म गृहस्थः कुर्यात् ,यदि वा-मिथ्यात्वोज्ञात्वा न तत्र वर्षाकालं विदध्यादिति । एवं च व्यत्ययसूत्र- पहता बटुकादयः प्रविशेयुः, अथैको गच्छत्येकः पश्वात्तिष्ठति मपि व्यत्ययेन नेयमिति । प्राचा० २ श्रु० १ चू० ३ ततः एकस्मिन्पश्चात्तिष्ठति स्वलिङ्गादीनि-स्वलिङ्गप्रतिसेवनाअ० १ उ०।
दय भान्मपरोभयसमुत्था बहवो दोषाः। एषाऽपि द्वारगाथा। वर्षावासे वसतिरशन्या कर्तव्या । सम्प्रति वर्षा
तत्र गवादिद्वारव्याख्यानार्थमाह-- कालविषयाणि प्रपश्चयति
गोणादिए पविटे, धाडंतमधाडने भवे लहूया । नियमा होइ असुमा, वसही नयणे य वस्मिया दोसा ।
अहिगरणवसहि भंगा, तह पवयणे संजमे दोसा।।२।। दस्संचरबहपाणे, वासावासे विउच्छेदो ॥ २१॥
गवादिके-गोश्वछगलशूकरादिके प्रविटे यदि तान गवावर्णवासे-वर्षाकाले नियमावसतिरशुन्या कर्तब्या, किं का- दीन् धाटयति ततस्तत्प्रायोऽयोगोलकल्पास्तिर्यश्च इति रणमिति चेत् , उच्यते-वर्षास्पकरणं सह नीयते । श्रथ तद्धाटनेन भवति प्रायश्चितं चत्वारो लघुकाः, तथा ते भिक्षादिगच्छन्नयति तर्हि वर्षप्रपातेन तिम्यते । तथा गवादयो निर्धाटिताः सन्तो हरितादीनि खादेयुस्ततोचाह-"उपकरणस्य सह नयने पूर्व कल्पाध्ययने तेमनाद- ऽधिकरणदोषसंभवः । 'अधाडणे 'त्ति अथ न निाटयति यो दोषा वर्णिताः " । अन्यच्च शून्यायां वसतौ कृतायां ग-! तर्हि वसतिमतः, तथा प्रवचने संयमे च दोषाः, प्रवचन
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि विराधना, उपलक्षणमेतत् , आत्मविराधना चेत्यर्थः । तथा- | प्रीतिकं करोति यथा अदाक्षिण्या पते अनापृच्छया गता हि-यदि श्वादयो बालमृतकलेवरादि भक्षयन्तस्तिष्ठन्ति इति तर्हि 'गुरुग' ति चत्वारो गुरुका मासाः । अथैकानेकमे तदा महतीप्रवचनस्य कुत्सेति प्रवचनविराधना । शूकरप्रभृत. देन तद्व्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदस्तदा तन्निमित्तमपि चतुर्गुरुकं यश्च निष्काश्यमानाः कदाचित् संमुखा अपि बलेरन् तत श्रा. प्रायश्चित्तम् । अधुना “मिच्छत्तवडुगमादीनि' व्याख्यानयतिस्मविराधना श्वाऽऽदयश्च तिष्ठन्तो मार्जारभूषिकादिकमुप- 'वटुचारणे' त्यादि वटुकाः-द्विजातयः चारणाः-वैतालिकविहन्युरिति संयमविराधना । तदेवं गोणे साणे' त्यादि व्या. शेषाः-भटाः-प्रतीताः, ते गताः क्वापि साधव इति विज्ञाय ख्यातम्।
तस्मिन् शून्ये उपाश्रये आवसेयुः, तत्र कलहादिप्रसकः। अधुना परिकम्म' ति व्याख्यानयति
तथा शून्या वसतिमालोक्य कश्चित्तिर्यङ् मनुष्यो वा समादुक्खं ठिएसु वसही, परिकम्मं कीरइ त्ति इति नाउं । । गत्य म्रियेत तत्र च राजग्रहादिदोषसंभवः । तथा केचिभिक्खादिनिग्गएK, सअट्ठ मीसुं विमं कुजा ॥ २६॥ त् शय्यातरस्य प्राघुर्मकाः शून्येयं वसतिरिति - ते गृहस्थाः परिभावयन्ति-स्थितेषु साधुषु दुःखं महता क- त्वा शय्यातरानुनया तत्र तिष्ठेयुनच ते निष्काशयिऐन वसतेः परिकर्म क्रियते स्वाध्यायभङ्गादिदोषभावात् ,ग-1
तुं शक्यन्ते, निष्काशिते निष्काशने वा प्रद्वेषादिप्रवृत्तिः, तेषु तु न कश्चिद्दोष इति ज्ञात्वा-परिभाव्य भिक्षादिनिमित्तं तथा तिरधी मानुषी वा प्रसवितुकामा शून्यां वसति निर्गतेषु साधुषु सबृत्तिखार्थ स्ववसतिबलिष्ठताकरणार्थ दृष्ट्वा तत्रागत्य प्रसुवीत, तस्या निष्काशने-आश्रयत्याजने मिश्रं वा संयता अपि सुखेन स्वाध्यायादिकं च कुर्युरिति
संयमविराधनादयो दोषाः। यथोक्काः प्राकपते शून्ये क्रिस्वार्थ संयमनिमित्तं च इदं वक्ष्यमाणं परिकर्म कुयुः।।
यमाणे दोषाः। तदेवाह
सम्प्रति 'अच्छते सति लिकमादीणि' इति व्याल्यानयतिउच्छेव विलच्छगणे, भूमीकम्मे समजणाऽऽमज्जे । अह चिट्ठति तत्थेगो, एगो हिंडइ उभयहा दोसा। कुड्डाण लिंपणं दू-मणंच एयं तु परिकम्मं ॥२७॥ सल्लिंगसेवखादी, भातुत्थपरे उभयतो य ॥ ३१ ॥ उच्छेवो नाम-यत्र पतितुमारब्धं तत्राम्यस्येष्टकादेः सं
अथ तत्रैकस्तिष्ठति एको हिण्डते तत उभयथा-उभस्थापनं विलस्थगनं कोलादिकृतविलेष्विष्टकोपलादिप्रक्षिप्यो
येन प्रकारेण यस्तिष्ठति गवादयश्च हिण्डन्ते तद्गताश्चेपरि गोमयमृत्तिकादिना पिधानम् ,भूमिकर्म नाम विषमाणि
त्यर्थः, स्वलिङ्गसेवनादयो दोषाः । स्वलिङ्गसेवना-संयतीभूमिस्थानानि भऋत्वा सन्मार्जन्या सन्मार्जनम्, आमर्जन
प्रतिसेवना आदिशब्दात्-परलिङ्गसेवना गहिलिङ्गसेवना मृदुगोमयादिना लिम्पनम् , तथा कुख्यानां लेपनं कुड्याना-1
च परिगृह्यते । कथंभूता इत्याह-प्रात्मनोत्थाः आत्मनैव मेव च दुमणं' ति धवलनम् एतत् परिकर्म कुर्युः।।
संयत्यादिकं कदाचित्मार्थयते इत्यर्थः । तथा परे परतः अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाह
संयत्यादिकृतक्षोभनात् , उभयतः स्वतः परतश्व समुत्थाः । जइ ढकंतो छेवा, तइमास विलेसु गुरुग सुद्धेसुं।
यदुनं प्राक् सोचा गयत्ति लहुगा' इत्यादि गाथापूवार्द्ध पंचिंदिय उद्दाते, एगद्गतिगे उ मलादी॥ २८॥ । तद्व्याख्यानार्थमाह'यति'यावन्त उच्छेवा ढक्किताः-समारचिताः तति'तावन्तो |
सुमे सागरि दई. संथारे पुच्छ कत्थ समणाप्रो । लघुमासाः प्रायश्चित्तम् । विलेषु शुद्धेषु पञ्चेन्द्रियजीवरहि
सोउं गय तिलहुगा, अप्पत्तियछदें चउगुरुगा ॥३२॥ तेषु स्थगितेषु'गुरुगन्ति चत्वारो गरुमासाः। अथ पश्चेन्द्रियव्याघातो विलस्थगने अभूत् तत एकद्वित्रिषु व्याहतेषु यथा
संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः-उपाश्रयः सागाक्रम मूलादि, एकस्मिन् पञ्चेन्द्रियेऽपद्राविते मूलम् , योर-1
रिकः-शय्यातरः, सप्तमी प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे, ततोऽयनवस्थाप्यम्, त्रिषु-त्रिप्रभृतिषु पाराश्चिकमिति।
मर्थः-शून्यं संस्तारमुपाश्रयं सागारिको दृष्टा पृच्छेत्-कुभूमीकम्मादीसुं, फासुग देसे उ होइ मासलहुँ।
त्र गताः श्रमणा इति , तत्र प्रतिवचः श्रुत्वा गता इति
झाते अग्रीत्यकरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । श्रनीतिके सव्वम्मि लहुग अफा-सुगेण देसम्मि सव्वे य ॥२६॥
समुत्पन्ने छेदे तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदे चत्वारो भूमिकादिषु भूमिकर्मसन्मार्जनमार्जनकुड्यलेपनधवल
गुरुकाः । तदेवं विराधना वसत्यादेरिति व्याख्यातम् । नेषु देशतः प्राशुकेषु कृतेषु प्रत्येक प्रायश्चित्तं भवति मा
संप्रति संथारगउवगरणे' इति व्याख्यानयतिसलघु । सर्वस्मिन् उपाश्रये प्राशुकेषु कृतेषु प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः । अप्राशुकेनापि जलादिना देशतः सर्वतो वा भू- कप्पट्ठगसंथारे, खेलण लहुगो तुवट्टि गुरुगो उ। मिकर्मादिषु कृतेषु प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः।
नयणे डहणे चउलहु, एते उ महल्लए वुच्छं ।। ३३ ।। सम्प्रति शय्यातरमधिकृत्य प्रायश्चित्तविधिमाह
संस्तारे-उपाश्रये यदि 'कप्पट्टग' ति बालकः खेलतिसोच्चा गय त्ति लहुगा,अप्पत्तिय गुरुगजं च वोच्छेदो।।
क्रीडति ततः खेलने प्रायश्चित्तं लघुको मासः । अथ त्ववडुचारणभडमरणे, पाहुणनिक्केयणा सुम्मे ॥ ३० ॥ । ग्वर्तनं कुर्यातहि त्वग्वर्तनकृतो गुरुको मासः। अथ स शय्यातरो यदि शून्यां वसतिमालोक्य कस्यापि पावे बालकस्तत्र स्थितस्तेन नीयते प्रदीए केन वा न द. पृष्ठा श्रुत्वा च तद्वच एतजानाति यथा गताः साधव इति ह्यते, तदा चतुर्लघु । अत
: कुन चाप्रीतिरुत्पन्ना तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। प्रथा- ति प्रायश्चित्तं वक्ष्ये ।
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सहि
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहपति
तुब्वनयसढणे, लडुगा गुरुगा हवंतऽणापारे । अह उति उनहे चि पेनृणं हिण्ड मासलहुं ||३४|| उल्ले लहुग गिलाणा - दिगा य सुझे ठवेंति चउलहुगा ।
रक्खतोवहम्मति, वहिते पावेंति जं जत्थ ||३५|| महान् पुरुषः शून्यमुपाश्रयेा तत्र त्वम्वर्तनं करोति । यदि वा उपकरणं नयति दहति या तददने वा प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । श्रथानाचारं करोति तत्रापि चत्वारो गुरुकाः । अथवा उपकरणेति व्याख्यानार्थमाह श्रहेत्यादि अथ उपहन्यते उपधिरिति मत्वा तं सह नीत्वा भिक्षार्थ हिण्डते तदा प्रायश्चित्तं मासलघु । अथ कथमपि सह नीतं वाक यते तदा चत्वारो लघुकाः अथ तस्मिन्नुपाश्रये शून्ये स ति ग्लानादिकान् प्रदिशब्दात् प्राघूरर्णकपरिग्रहः, गृहस्थाः स्थापयन्ति तदाऽपि चत्वारो लघुकाः । श्रथोपधि सह न नयति तदाऽसौ अरक्षितः सन् उपहन्यते, रैवऽपहियते। तदपहारे व जघन्यमध्यमोत्कृपापहारनिमि सं प्रायश्चित्तम्। ते च तस्मिन्नुपकरणे पन्नेषणादिक यत्रोपकरणविषये ती सेवा निमित्तमपि प्राधि
।
तस्क
नौ
(१०००) अभिधानराजेन्द्रः ।
प्राप्नुतः ।
संप्रति सन्नमरणे य इतिद्वारद्वयमाह
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मेलम्ममरणमल्ला, चितिउद्देसम्मिलिया पुि ते चेत्र निरवसेसा, नवरं इह ई तु वितियपयं ॥ ३६ ॥ ग्लान्यम् मरणसल्ल ति सशल्यमरणमेते द्वे अपि पूर्व-द्वितीयोदेशक प्रथमसूत्रे ये दोषतया सविस्तरं वर्णिते ते एव निरवशेषे अत्रापि वक्तव्ये, नवरं तत्र द्वितीयपदमपवादपदं नोक्तमिह तु ' इकारः ' पादपूरणे, तदुच्यते ।
संदेवाह
सिवादिकारणेहिं, हवा फिडिया उ खेत्तसंकमणे । ततियमेताय भवदीयहं वासासु जयण इमा ॥ ३७ ॥ शिवादिभिः कारणैः द्वावपि वर्षासु विहरतः । श्रथवाएकस्मात् क्षेत्रादन्यस्मिन् क्षेत्र संक्रमणे कथमपि मार्गतः स्फिटितौ- परिभ्रष्टावेकत्र वर्षासु विहरतः । उपलक्षणमेततेनैतदपि द्रष्टव्यम् - शिवादिकारणतो गणे स्फोर्ट काना जाता संकेतवशाय कविद्वर्षादी मिलि नाविति तत्तियमेत्ता उभवे ' इति शेषाः प्रतिभग्ना मृता या अवशिष्ट तावन्मात्रावेव द्वावेव भवतस्तिष्ठतः एवं डी वर्षासु भवतः । ततस्तयोश्च द्वयोर्वर्षासु इयं वक्ष्यमाणा
.
"
यतना ।
नामेवाहगोरखति महिं भिक्सवियारादि वितिय जाति । संघरमा घरे, निहोत्रं विहिं ॥ २८ ॥ को यति रक्षति द्वितीय भिक्षाविचारादी भिज्ञायां विचारे परिभूमावादिशन्दादयस्मिन्या प्रयाति एवं यवना तदा भवति यदा तौ संस्तरतः । ' असंयरे
ति
-
3
वसहि
थैकाकिनो भिक्षाया श्रलाभादन्यतो वा कुतश्चित्कारणात् न संस्तरतस्तदा संस्तरे द्वावपि सह हिण्डेते । तत्रेयं यतना - यदि वसतौ निदस्थ्यं - निर्भयं तदा उपधिमुपरि यसतेः स्थापयतो-यध्नीतः, यथा न कोऽपि पश्यतीति पर्वभूतां च यतनां कुर्वन्तौ न प्रायश्चित्तविषयी अथ न कुरुतस्तदा यत् श्रापद्यते प्रायश्चित्तं तत् प्राप्नुत इति ।
सुने बुद्धारो, कारणियं तं तु होति सुतं ति । कप्पो ति अणुमातो, वासाणं केरिसे खेत्ते ॥ ३६ ॥ यत एवं दोषास्ततो द्वयोर्विहारो वर्षासु साक्षात् पञ्चमेन सूत्रेण प्रतिषिद्धस्त्रयाणां तु विहारस्योद्धारः, अनुज्ञातः सूत्रेणै य पठेन कृतः सोऽप्युत्सतो न कल्पते ततस्तत्सू कारणकमशिवादिकारणनिष्पन्नं भवतीति वेदितव्यम्। अथ की क्षेत्र, वर्षा गाथायां षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् विहारः कल्पत इत्यनेन पदेनाऽनुज्ञातः ।
सूरिराह
महती विचारभूमी, विहारभूमी य सुलभविची य । सुलभा वसही य जहिं, जहस्मयं वासखेत्तं तु ॥ ४० ॥ पत्र महती विचारभूमिः पुरीषोत्सर्गभूमियत्र च महती विहार भूमिः भिक्षानिमितं भ्रमणभूमित्र व वृत्तिर्मिज्ञावृत्तिः सुलभा पसतिश पत्र सुलभा तत् जघन्य वर्षायोग्य क्षेत्रम् उत्कृष्टं त्रयोदशगुणोपेतम् । व्य० ४ उ० ।
अधुना पञ्चकं व्याख्यानयति
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संगहुवग्गहनिज्जर- सुचपञ्जवजायमव्यवच्छिती । पण मिणं पुचं जे वायहि ताव लंभादी ॥ ५८ ॥ यत् पञ्चकं पूर्वमुक्तं तदिदम् । तद्यथा-संग्रह उपग्रहः निर्जरा श्रुतपर्यवजातमव्यवच्छित्तिश्च । तत्र संग्रहः शिष्यांदः तथा च भूते शिष्यादयः संगृह्यन्ते, उपग्रहः – उपष्टम्भः ख च श्रुतज्ञानादिप्रदानतः, निर्जरा-ज्ञानावरणादिकर्म्मविनिर्जरणम् श्रुतपर्यवजातं प्रभूता प्रभूततरा श्रुतज्ञानपर्यायवृद्धि
वस्तीर्थस्य ये चात्महितोपलम्भादय श्रात्महितोपलम्भः परहितोपलम्भ उभयहितोपलम्भ एकाध्यं बहुमानं चेति तद्वापकं प्रतिपत्तव्यम् ।
एवं ठियास पालो, आयरितो सेंसें मासियं लहूयं । कप्पट्ठिनीलकेसी, आयसमुत्था परे उभये ॥ ५६ ॥ एवं त्रयोदशोपविमुक्ते योदशभिर्गुरु क्षेत्रे कारणयशतस्त्रया वर्षासु स्थितानां द्वयोभिक्षार्थं विनिर्गमे तृतीयः पश्चात्पालो वसतिपालः आचार्यः स्थापनीयः । अथान्यं स्थापयति तत श्राह शेषे तु श्राचार्यव्यतिरिक्ते सतिपाले स्थाप्यमाने प्रायश्चितं मासिकं लघु तथा यदि तरुणं श्रमणं च वसतिपालं पश्चात्स्थापयति तत इमे स्वलिङ्गा सेवनादिका दोषाः, तथा आत्मसमुत्था:, (परे) परससुन्धाः, उभयस्मिन् उभयसमुन्थाः कस्या इत्याह- क. पोलकेसी 'ति कल्पस्थिता वालिका नीलकेशी -- कृष्णकेशी तरुणीत्यर्थः । ततो विशेषणसमासः तस्या इव, विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् । इयमत्र भावना--यथा तरुणी बालिकरुन महतां व प्रार्थनीया भवति। एवं तरुमो
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( १००१) अभिधानराजेन्द्रः ।
[यसहि
उप तरुणीनां महनीनां व प्रार्थनीयः तस्मिन्पश्वात्स्याय माने स्वलिङ्गगृहलिङ्गसेवनविषया श्रात्मसमुत्थाः परसमुस्था उभयसमुत्थाश्व मैथुनदोषाः संभवन्ति । धनदेवाह
तरुखे वसहीपाले, कप्पट्ठिसलिंगमादिया उभया । दोसा उ पसजंती, अकप्पिए दोसिमे असे ॥ ६० ॥ तरुणे वसतिपाले सति कप्पट्ट सि तया बालिकाया इव स्वलिङ्गादिकाः स्वला सेवनगृदिलिङ्गावना 'आ उभया' इति श्रात्मसमुत्था उभयसमुत्था उपलक्षणमेतत् प रसमुत्थाश्च दोषास्तस्य प्रसज्जन्ति ।
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अकल्पिके च बालादाचिये दोषास्ताने वाहबम्मका किड्डा, पमजला वरिसा व पाहुडिया । संवार अगणिमंगे, मालवतेया व खाती व ।। ६१ ।। साधवः कदाचित् कारणवसतः सप्राभृतिकायां वसतौ स्थिता भवेयुः, तत्र यदि बालादिः वसतिपालः क्रियते तदा विशेषः तथाहि तत्र बलिकारकाः स्वभावेन वा गच्छेयुः कैतवेन का उच्यपि ये कैतवेन ते प्रथमत एवोपकर-शहरनिमित्तमागच्छन्ति कि स्वागतानां कुर्वतां या लमेकाकिनं दृष्ट्रा हरणबुद्धिरुपजायते ततोऽपहरन्ति । श्रधना-वाले विक्षिप्यमाणे उपकरणं करेण रयततो पति-परुिपकरणं निष्काश्यामि एवमुक्त्वा सकलमप्युपकरणमादाय बहिर्निर्गतस्तदेतद्भ्यन्तरे ते उपधिमपदरन्ति ये तु कौतुकेन समागच्छन्ति ते उपधिमपहर्तुकामा तेदुक ! पतिरेष समागच्छति ततस्त्वं व हिर्निर्य एवं तं बालं बहिर्निष्काश्योपधिमपहरन्ति । अ थवा ब्रूयुरिदं वयं बलिं करिष्यामस्ततस्त्वं बहिस्तिष्ठ अन्यथा रेस खरटना भविष्यति। एवमुक्ते वहिर्निर्गते वाले उपथिमपदरन्ति अथवेदमाचक्षते --- उपधिमभ्यन्तराद्वहिरप नय, पावलि विद्भ्य, स च बालस्तान स मस्तमुपकरणमेकवारं महीतुमशक्नुवन् स्तोकं गृहीत्वा बहिः संस्थाप्य यावदन्यस्य ग्रहणाय मध्ये प्रविशति तावसे धूर्त्ता श्रपहरन्ति ।' धम्मकह' ति धर्म्मकथाश्रवणाय केचित् स्वभावतः आगच्छेयुः, अपरे कैतवेन समागत्य वेत् ब्रुवते कथय खुल्लक ! अस्माकं धर्म्मकथाम्, स च तत्त्वमजानानः कथामारभते । ततः कथाममते केचित् तथैवोपविष्टाः शृण्वन्त्यपरे तूपधिमपहरन्ति । 'किड्डु' सि । क्रीडानिमित्तमपि केचित्स्वभावतः समागच्छन्त्यपरे केतयेन तेषु च समागतेषु स बालकः स्वयं था क्रीडति तान्वा क्रीडतः पश्यति, ततः क्रीडया व्याक्षिप्तस्य सतोउपहरन्ति । ' पमज्जणावरिसणा यत्ति य एव बलाबुको गमः स एव प्रमार्जने वर्ष च वेदितव्यः पाहुडिया' इति प्राकृतिका इति भिक्षा अर्थनिका च तत्र केचित् कैतवेन स्वभावेन वा पदन्ति दाय मिक्षाम् अथवा बहिर्निर्यादि याचथमर्थनिकां कुर्मः - तो यावद्भार्थ याति बहिर्वा निर्गच्छति ताद रन्ति धारदि अपरे कैतवेन स्वभावेन वा वदेयुः, यथा- एप राज्ञा सह स्कन्धावारः समागच्छति । तत्र स्वभावेन ततो नश्यति स नश्यन् बालस्तेरपन्दियते । २५१
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बसहि कैतवेन समागच्छन्तो युवते क्षुल्लक ! पलायस्व स्कन्धावारः समागच्छति, ततः स नश्यति इतरेऽपहरन्ति ।' श्रगणि 'ति प्रदीपनकं लग्नम्, परतः स्वभावेन श्रुत्वा स्वयं वाsवलोक्य स बालक उपधिलोभाद्वा न स्वयं वसतेर्बहिर्निंगच्छति, नापि किंचिदुपकरणं निष्काशयति, ततस्तस्य बालकस्योपकरणस्य च विनाशः । यदि वा - उपकरण निष्काशनाय मध्ये प्रविष्टो गुप्तः सन् वालको दखते। कैतवेन केचि त्युर्मन्दभाग्य ! नश्य प्रदीपन लग्ने पर्तते एवमुक्रेस उप करणं वहिर्मिकाशयितुमारभते ततोऽपहरन्ति भने मालव ते चि मालवा म्लेच्छविशेषाः शरीरापहारिणः स्तेना:उपकरणहारिणस्तैर्भङ्गे, स बालको भयतो जनेन सार्द्ध नश्यति न च सारमुपधिं गृह्णाति । यदि वा - उपधिप्रतिबद्धः सन् स वसतावेव तिष्ठेत्ततः स मालवैरपन्हियते, स्तेनैर्वा उपकरणमिति । अथवा - केचित् कैतवेन ब्रूयुर्मालवाः स्तेना या लक! समापतितास्तस्मात्पलायस्य जनेन साईमिति, पचमुख बालकस्तत्वमजानानो नश्यति, इतरे उपकरणमपहरन्ति । 'नाति' त्ति ज्ञातयः स्वजनास्ते समागतास्तैरेकाकी स्वतो नीयते श्रन्ये चोपधिमपहरन्ति । अथवा अन्येन केनचिदागच्छन्तो दृष्टास्तेन कथितम्-तुल्लक ! तव शातयः समागच्छन्ति, ततः स पलायते इतरखोपकरणमपहरति । अथवाको अपि धूर्तः कैतवेन ब्रूयात्-लक ते निजकाः ? शुल्लक आह-मुके ग्रामे नगरे वा । सो अन्यस्मै कथयति, ततस्तेषां सजातीयानां नाम चिह्नान्यवगस्य तस्य शुल्लकस्य समीपमागत्य भणति - श्रमुकस्य त्वं निजकः, क्षुल्लकः प्राह-कथं त्वं जानासि ?, ततः स तम्मातापित्रादीनां वर्षादि कथयति । ततः क्षुल्लकस्य प्रत्यय उपजायते । यतो हि तेषां निकः। ततस्तं भूतों ब्रूते - श्रागतास्तव निमिनम् मया श्रमुकप्रदेशे दृष्टा इति । ततः स पलायते इतरे हरन्त्युपकरणम् । एवं यथा बाले अकलिपके दोषास्तथा अध्यायमचे काम या क पिके वेदितव्याः ।
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तम्हा पालेह गुरू, पुव्वं काउं सरीरचितं तु ।
हरा युवहीणं, विराहणा धरंतमघरंते ।। ६२ ॥
ये तरसे बालकादी वा कल्पिके वसतिपाले स्थितेऽनतरोा दोषा आचायें से न भवन्ति तस्मात् गुरुराचायों यसतिपालं कथयति कथमति चेत आह-पूर्व शरीरचिन्तां कृत्याः संज्ञाभूमिं गत्वा इत्यर्थः । अथ शरीरचिन्तां न करोति ततः प्रायश्चित्तं मासलघु ।' इहरा ' इत्यादि । इतरथा - शरीरचिन्ताया करणे यदि संज्ञां धारयति तत आत्मविराधना मरणं ग्लानत्वं चावश्यं तनिरोधाद् मयति । अथ न याति किं तु मात्रके व्युत्सृजति ततः श्राद्धादीनामागतानां गन्धागमन उड्डाहः । अथ बहिर्याति तत्रोपधिविराधना तस्करापहाररूपा ये बैकाकिनो दोषास्ते च भयन्ति। एष संस्तर विधिरुः संस्तरणे पुनराचायों बस तिमलोकमानस्तस्मिन्नेव वाटके प्रत्यासनेषु गृहेषु भिक्षार्थं हिरडते ।
तथा चाह
जद पाटो तिराह वि, पनचंऽऽ तो गुरू न नीति ।
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बसहि
श्रह नेवाऽऽणे ताहे, वसहीएऽऽलोगहिंडण्या ।। ६३ ।। यदि संघाः साधुयुग्मं त्रयाणामपि आत्मद्विकस्य गुरोचेत्यर्थः, पर्याप्ते - परिपूर्ण मानयति ततो गुरुर्भिक्षार्थ न' नीति' त्ति निर्गच्छति । अथ नैव त्रयाणां पर्याप्तमानयत्यलाभादशक्लेर्वा तदा वसतेरालोको यथा भवत्येवमाचार्यस्य प्रत्यासन्नेषु गृहेषु दण्डनम् ।
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किं वत्पुनस्तत्र गृह्णातीति बेलासासु रहर, जत्तियमेतेरा होइ पञ्जतं । जावरा य ऊ इराणीयं तु तं गेहे ।। ६४ ।। तस्मिन्नेव वाटके प्रत्यासन्नेषु गृहेषु गृह्णाति । तावन्मात्रं यावन्मात्रेण पर्याप्तं भुञ्जते कि स्वयम्। तथा च सर्वे परिपूर्ण भवति । अथ तावन्न लभ्यते तर्हि यावता ऊनं तत् इतराभ्यामानीतं गृह्णाति ते नच त्रयोऽपि परिपूर्ण भुञ्जते किं त्वल्पम् ।
(१००२) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा चाह
सव्वे अप्पाहारा, भवंति गेल्लपमादिदोसभया । एवं जयंति तहियं वासावासे वंसता उ ॥ ६५ ॥ ग्लानादिदोषभयात्सर्वेऽपि तेऽल्पाद्वारा भवन्ति एवं त वर्षावासे वर्षायोग्ये क्षेत्रे वसन्तो यतन्ते । व्य०४ उ० । सम्प्रति शय्याकल्पिकमाह
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दुविहा हवंति सेजा, दव्वे भावे य दव्वखातादी । साहृदि परिग्गहिया, सचेत्र व भावओो सेजा ॥५५२|| द्विविधा भवति शय्या द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्य तः खातादयः खातमुच्छ्रितं च । एताः द्रव्यशय्याः साधुभिः परिगृहीताः भावतः शय्या भवन्ति । रक्खणगहणे तु तहा, सेजाकप्पो उ होइ दुविहो उ । सुभे बालगिलाणे, अव्वत्तारोवणा भणिया ।। ५५२ ।। शय्यायां कल्पाः शय्याकल्पिक इत्यर्थः । स द्विविधस्तस्याभावशय्यायाः रक्षणे. ग्रहणे वा । तत्र रक्षणे प्रोच्यते-वस तिनियमनस्तापत्रयितव्या। यदि पुनर्भादिप्रयोजनतो गच्छन्तः शून्यायां वसतौ बालं ग्लानमव्यक्तं वा वसतिपाले स्थापयन्ति तदा चारोपणाप्रायश्चितम् ।
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भणितमेवोपदर्शयति
पदमम्मिय चतुलहुयं सेसेसुं मासि यच्वं । दोहिं गुरु इक्केणं, चउत्थपऍ दोहि वी लहुयं ॥ ५५४ || प्रथममिद गाथाक्रमप्रामत्वात् शून्यमुच्यते । यदि वसतिं कुर्वन्ति तदाऽऽरोपणा चत्वारो लघुकाः द्वाभ्यां गुर बः तयथा तपो गुरुकाः कालगुरुकाध अथ वालं स्था पयन्ति तदा मासलघु । ग्लानं स्थापयन्ति मासलघु, त पोलघु कालगुरु | चतुर्थपदे - श्रव्यक्तस्थापनलक्षणे मासलघु- द्वाभ्यामपि लघुकम्। तद्यथा-तपसा, कालेन च । उक्काssरोपण |
साम्प्रतमेनेष्वेव दोषा वक्तव्यास्तव प्रथमं तावत् शून्ये दोषानाहमिरचारण, भाटगमरणं तिरिक्खमनुयाखं । आदेस वालनिके- यणे य सुन्ने भत्रे दोसा ।। ५५५ ।।
सहि शून्यायां कदाचित् शय्यातरस्य मिध्यात्वगमनं बटुकशो भाटप्रदेशस्तिरां मनुष्याणां या तब मरणम् आदेशाः प्राघूर्णिकास्तत्प्रवेशो व्यालप्रवेशः । एते शून्ये उपाश्रये कृते दोषा भवन्ति । तथा निकेतने प्रभूवायास्तिरधया था निष्काशने दोषाः ।
तत्र प्रथमं मिध्यात्वद्वारमाह-
सोचा पश्चिमपत्चिय, अकर्य तु मदक्खिणा दुविह छेदो। भरियभरागमनिच्छुभ गरिहा न सर्भति वत्था । ५५६ । भेदो य मासकप्पे, जह लंभे विहादि पाव तेयन्नं । वहितुत्थ निसागमणे, गरिहविणासाइ सविवेसा ।। ५५७ ।। ते साधवो भिक्षादिनिमित्तं सर्वमात्मीयं भाण्डमादाय शून्यां च वसतिं कृत्वा गताः, शय्यातरश्चागतो दृष्टा तेन शून्या- वसतिः । पृष्टुं कस्यापि पार्श्वे क्व गताः साधवः ?, गृहमानुषैरुक्तम्- दृश्यते शून्या वसतिः, तस्मादवश्यमन्यत्र गताः । इदं वचः श्रुत्वा यदि प्रीतिकमुपजायते यथा हि-गता नामेति तदारोपणाबत्वारो लघुकाः अथ तस्याप्रीकिमुत्पद्यते तदा प्रकृतशा एते एवमप्युपचारं न जानन्ति यथा पृच्छय गन्तव्यम्, अथवा श्रदाक्षिण्याः निस्नेहास्ततो नापृच्छय गता इति तदा चतुर्गुरुकम् । तथा द्विविश्वेदः। तथाहि स प्रतिस्तेषामन्येषां वा साधूनां त
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द्द्रव्यस्य-- वसतिलक्षणस्य श्रन्यद्रव्याणां वा -- भक्तपानादीनां व्यवच्छेदं कुर्यात्, भरियभरागमनिच्छुभ ति ततः स कषायितः शय्यातरः यदा ते साधवो भरितभाजनभरेणावनमन्त श्रागच्छन्ति तदा स्थानं न दद्यात् । तत्र यदि दिवा निष्काशयति तदा चत्वारो लघवः, तथा मेरी जनैः सहान्यां वसतिं पाचमाना श्रागादादिपरितापनामाप्नुवन्ति तेषां प्रावधित्तं चतुर्लघु तथा जनमध्ये गायन्ति किं निष्काशितास्त तो न भव्या एते इत्यन्यत्रापि ते वसतिं न लभन्ते । अन्यत्र च वसतिमलभमाना ग्रामादी वजन्ति ततो मासकल्पमेदः । तत्र च विहारक्रमे या विराधना तक्षिपनाऽपि तेषामारोपणा | तथाऽन्ये साधवो विहारादिनिर्गतास्तत्र समागतास्तत्र चान्या वसतिनं विद्यते स च शय्यातरस्तेषां दोषेणान्येषामपि न ददाति, ततो विहारगता वसतेरलाभे यत्ते श्वापदस्तेनादिभ्यो ऽनर्थमाप्नुवन्ति तन्निष्पन्नमपि तेषां प्रायश्चितम् । एवं तावत् कृतनिशाटनमात्रासमुक्रा दोषाः । अथ बहिरेव भुक्त्वा रात्त्रावागता वसतिं न लभन्ते तदाऽऽरोपणा चतुगुरु, सविशेषतराध गर्दादयो दोषा विनाश श्वापदादिभ्यः । अथवा शय्यातरः प्रथमं सम्यग्दृष्टितः पश्चादनाच्या मता इति भावविपरिणामतो मिध्यात्वं यायात् । गतं मिथ्यात्वद्वारम् ।
अधुना वटुकद्वारमाह
सुन्नंद बहुगा ओभासित ठाउ जा गया समणा । आगमपवेस संखड सागरिदिनं तिरिदियॉणं ॥ ५५८ ॥ संमिचेण व अच्छह, अलियं न करेमऽहं तु अप्पाणं । उहुंचणाऽहिगरणं, उभयपदोसं च निच्छूढा ।। ५५६ ॥
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सहि
सागॉरियसंजया, निच्छूटा तेण अगणिमाईहिं । जं काहिंति पट्ठा, उभयस्स वि ते तमावजे ।। ५६० ॥ शून्यां वसतिं दृष्ट्रा वटुकाश्च सागारिकमवभाषन्ते -या. चन्ते अस्माकमुपाश्रयं प्रयच्छत । शय्यातरो ब्रूते- -तत्र श्रमशास्तिष्ठन्ति । वटुकैरुक्तम्- गतास्ते । शय्यातरः प्राह तर्हि ति ष्ठत यूयं यदि गताः श्रमणाः । ते स्थिताः श्रागताः साधवः । प्रवेष्टुं प्रवृत्ता वखती, बटुकैर्निवारिता, मात्र प्रविश्य चयम तिष्ठामः । ततोऽसंखई - कलहः परस्परमुपजायते । बटुका यते वसतिरस्माकं स्वामिना दत्ता, किमत्र युष्माकम् इतरेऽपि वदस्ति स्वामिनैवास्माकमपि वसतिरदायि । ततः साधवः शय्यातरसकाशं गच्छन्ति स ब्रूते यूथमनापृच्छ्य शून्यं कृत्वा गताः, मया शांतं गता यूयं येन शून्या कृता दृश्यते बसतिः, अतो मया द्विजानां वटुकानां दत्ता वसतिरिति । त स्मात् संप्रत्येन परस्परं संचिन्त्य सूर्य बटुकायेकत्र स्थाने निष्ठ नाहमात्मानमलीकं करोमि तत्र यदि संवृत्येन तिष्ठ न्ति तत्र पठतां प्रतिलेखनां च कुर्वतां संयतमाषामिव उच कान देशीदमेतत् उपहासान् कुर्युस्ततोऽधिकरणसम् अथवा शय्यात भङ्गकस्ततस्तान् बटुकान् निष्काशयेत्, तथा च सत्यधिकरणं संवत्प्रयोगेण वर्ष निष्कासितास्तस्मात् ज्ञातव्यं संपतानाम् अथवा निच्छूटा निष्काशिताः सन्त उभयेषामपि सागारिकस्य संयतानां चोपरि प्रद्वेषं ग
यः ततस्ते एवं निचिप्ता निष्काशिताः सन्तः पद्विशास्तेन प्रयोगतोऽग्न्यादिप्रक्षेपतःधोभयस्यापि सागारिकस्य संपतानां च पदार्थजातं करिष्यन्ति तदपि तचिष्यन्नमपि प्रायधिसंयताः शम्यवखतिकारिण आपद्यन्ते । गर्त वटुकद्वारम् ।
(१००३) अभिधान राजेन्द्रः।
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इदानीं चारणद्वार-भाटद्वारे बाहएमेव चारणभडे, चारणउहुंचगा उ श्रहिगतरा । निच्छूढा च पदोस, वेणाऽगणिमाह जह बया ।। ५६१। एवमेव-पगतेनैव प्रकारेण चारणे, भाटे व दोषा वन
किमुक्कं भवति ये बटुकेषु दोषा उकास्ते चारले माटे प्रत्येकमयसातव्याः । नयरं धारणा बटुकेभ्यो ऽधिकतराः, यतस्ते उड़ञ्चका याचकाः । इयमत्र भावना-ते चारणाः प्रपश्वबहुलास्ततः संयतान् प्रपञ्च्य तेभ्यो याचन्ते, ततस्तैः सहैकनिवासेऽधिकतरा दोषाः । तथा चारणा भाटाच निष्काशिताः प्रद्वेषमापनस्तेनाग्न्यादिभिरुभयेषामप्यनर्थं कुर्युः प था वटुका इति ।
इदानीं तिग्मरणद्वारं मनुष्यमरणद्वारमादेशद्वारं
चाऽऽह
बट्टणिका उट्टाहो, पावारिस सुत्तमत्थवोच्छेदे | इति उभयमरणदोसा, आएस जहा बहुगमाई || ५६२ || शून्यां वसतिं रष्ट्रा गयादिस्ति अनाथमनुष्यों वा प्रविश्यानियेत तं यदि गृहस्थैरसंयतेः परिहापयन्ति तदा छर्दने - परिष्ठापने पराणां कायानां पृथिव्यादीनां विराधना । अथात्मना परिष्ठापयन्ति तदा प्रवचनस्योङ्गशः- उचिता यतेऽस्य कर्मण इति अथवा को उप्येवं रात यथा पतेरेवायं मारितः। अथवा-जुगुप्सा भवेत् अनुनयोऽमी यतो
वसहि
मृतमाकर्षयन्ति । अर्थतद्दोषभयान ते स्वयं परिष्ठापयन्ति नाप्यन्यैस्त्याजयन्ति तामृतगन्धेन संयतानां नासाशीसि जायेरन् । तथा अस्पाच्याविकमिति कृत्वा सूत्रप
न कुर्वन्ति मासलघु । श्रर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु । सूत्र पीरुपमर्थपीरुपीमकुर्वतां यदि सूवं नश्यति तदा चतुर्भ घु, अर्थो नश्यति चतुर्गुरु । श्रवश्च लोकेषूपजायते - ग्राममध्येऽपि वसन्तः श्मशाने तिष्ठन्ति इति एव मुभवस्य तिरधो मनुष्यस्य वा मरणदोषागतं तिर्यगमनुष्यमरणम्, अधुना आदेशद्वारमाह - श्रादेस जहा वहुमादी य' आदेशाः प्राघूरणकास्ते केचन शय्यातरस्य समागताः, त्याच वसतिं दृष्ट्र शय्यातरेण तत्र मुफ़ा तनो बटुकचारणभटेषु ये दोपास्ते अत्रापि योजनीयाः । गतमादेशद्वारम् ।
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अधुना व्यालद्वारं निकेतनद्वारे बाहअहिगरणमारणाणी, शियम्मि अच्छंते बालियातवहो । तिरितीय जहा वाले, वतिमणुस्सीएँ उड्डाही ॥। ४६२ ।। व्यालो नाम सप्पैः शून्यं दृष्ट्रा बसती प्रविशेत् । ततः श्रागताः सन्तः श्रमणा यदि तं निष्काशयन्ति तदाऽधिकरणं हरितकायादीनां मध्येन तस्य गमनात् । अथवा--स निष्काश्यमानः प्रद्वेषगमनतो दशेत्, ततो मरणम् । अथवा - निष्काशने जनसंमीलनतः स सप्प लोकेन मार्येत । अचैतदोषभीता न तं स निष्काशयन्ति ततस्तस्मिन् प्याले तिष्ठति आत्मविराधना तेन भक्षणात् पते च व्याले दोषाः । अथ निकेतने तानाह 'तिरतीय इत्यादि यदि निर्य प्रसूता निष्काश्यते ततः सा यथा व्यालस्तथैव नियमत इतस्ततो गती हरितकायादीन् व्यापादयेत् बालकानां च तत्संबन्धिनां तां बिना तया वाऽऽनीयमानानां मरणभवः । अथैतद्दोषभान निष्काश्यते, तदा सा विन्ती यदा तदा वा साधूनामनर्थ कुर्यात्, तत श्रात्मविराधना । अथ प्रसूता मानुषी निष्काश्यते, तथा एतेषामियमिति प्रवचनोडाइः । खाऽपि च निष्काश्यमाना कायान् विराधयेत्। लोको वा यात्-निरनुकम्पा एते, यद् बालसहितामिमां निष्काशयन्ति । सा च निष्काश्यमाना मद्वेषतः साधूनांमाले (कलई) दद्यात्, बेटरूपं वा मारयेत् ।
खड्डे व जड़ गया, उज्झमति होंति दोसा उ । एवं ता सुनाए, बाले ठषिते इमे दोसा ।। ५६४ ॥
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अथवा सा तत्र प्रसूता सती तं चेटरूपं त्यक्त्वा गच्छेत्, ततस्तं यदि उन्ति परित्यजन्ति तदा निरनुकम्पता दोषः । श्रथ नोज्झन्ति तदा उड्डाहः । एवमेते तावत् शून्याय बखतौ दोषाः ।
वाले स्थाप्यमाने पुनरमे
बलिधम्मका किड्डा, पमजणा वरिसणा य पाहुडिया । खंधार अगणिभङ्गे मालवतेखा य नाती य ।। ५६५ ।। बलिद्वारे धर्मकथाद्वारं फ्रीडाद्वारे प्रमाजनाद्वारम् आबपैणाद्वारं प्राकृतिकाद्वारं स्कन्धावारे यद् द्वारमझिद्वारे म द्वारं मालवस्तेनद्वारे सतिद्वार पर स्था प्यमाने दोषा वक्तव्याः ।
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(२००४) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसहि
तत्र प्रथमं बलिद्वारमधिकृत्य दोषानाहसाभावियतन्नीसा - ऍ आगया भंडगं श्रवहरति । नमित्ति व वाहिं, जा पविसह ता हरंतने || ५६६ ॥
साधवः कदाचनापि कारणवशतः सप्राभृतिकायां शय्यायां स्थिताः । सप्राभृतिका नाम सार्वजनिका यत्रागत्य बलिः प्रक्षिप्यते । तत्र ये बलिकारकास्ते द्विधा तत्र समागच्छेयुः । तद्यथा-स्वभावेन या उपकरणं वा हरिप्यामीति कैतवेन वा । तत्र ये बलिकारकाः स्वाभाविका नोपकरणहरणप्रवृतास्ते तत्रिया-बलिनिधया आगताः सतो बलिं कुर्वन्तो वालमेकाकिनं दृष्ट्वा संजातहरणबुद्धयो भाण्डकमपहरन्ति । अथवा बलिना प्रक्षिप्यमाणेनोपकरणं लेपयुक्तं क्रियते, ततः स बालो वक्ति बहिर्नयाम्युपकरणम्, येन न लेपयुक्तं क्रियते । ततः स बालो यावद्वहिर्निर्गतः प्रविशति तावदन्तरेऽपहरन्त्युपकरणमन्ये । स्वभावत इति गतम् ।
कैतवमधिकृत्याऽऽह
एमेव कइयवा ते, निच्छूढं तं हरंति से उवहिं । बाहिं च तुम अच्छ, अवहुवहिं जा कृणिमो ।४६७| यमेव-अनेनैव प्रकारेण कैतवाते समागता उपाधिमपहरेयुः । तथाहि — केचन धूतीः उपधिं हर्तुकामाः कैतवात् समागत्य बुल्लकं ब्रुवते - तुल्लक ! एष बलिः समाग
तित बहिर्निर्गच्छ एवं तं यनिर्निष्काश्य तस्योधिमपहरन्ति । अथ ते चैवं वदन्ति वयं बलि करिष्यामः सतया कुर्मालि अन्यथा रेण स्वरराटयिष्यते, एवं तं निष्काश्य तस्योपधिमपहरन्ति । यदि वा ते एवं मृयु यावद्वयं बलि कुर्मः तावदभ्यन्तरादात्मीयमुपधिमुपनय स प पालस्तत्कार्यमजानन् एकवारं च सर्वमुपकरणं नेतुमशक्नुवन् स्तोकं गृहीत्वा निर्गत्य बहिः स्थापयित्वा यावदभ्यन्तरे प्रविशति तावत्तदुपकरणमभ्यन्तरस्थितं धूर्तेरपहियते तदेवं बलिद्वारं गतम् । अधुना धर्मकथाद्वारमाह
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कितरय सभावेण व कहायमचे हरंति से अभे । किड्डातिसर्य रिखा, पासाति व सहेब किदुगं ।। ५६८॥ केचन पुरुषाः धर्मे शृणुम इति कैतवेन वा स्वभावेन वा समागच्छेयुः, तत्र स्वभावतः श्रागतानां बालकमेकाकिनं हा बुद्धिरुपजायते इतरे तु प्रथमत एव हरणचैव समागताः। ते ते कथय धर्मकथामस्माकमिति । ततः स कथां कथयितुं प्रवृत्तः, प्रबन्धेन च कथयति । कथाप्रमते केचिदमत उपविष्टाः शृरवमत्यन्ये तस्योपकरणमपहरन्ति गतं धर्मकथाद्वारम् । फ्रीडाद्वारमाह-' किडा' इत्यादि क्रीडायामपि द्विकं वक्तव्यम किमु भवति-क्रीडानिमित्तमपि केचन स्पभायत भागः कैतवेन था। स्वभावती उपयागतानां वालमेका फिनं दृष्ट्रा हरणबुद्धिसति । तत्र स स्वयं बालः क्रीइति गोलादिना । अथ कदाचित्स तुझको यात्-नवस्मार्क कीडा ततस्ते पदन्ति यद्येवं तर्दि रिक्षा
वसंहि
"
कुद, कः कियतो वारान् रिङ्गति एवं स वालो रिक्षा करोति । अथ तेन कल्पन्ते संपतानां रिया अपि कर्तुमिति । ततस्ते वदन्ति यद्येवमस्मान् क्रीडतः पश्य । त या सफीतुकेन कीडतः पश्यति । एवं स्वयं क्रीडया रिइवाभिर्वा पश्यन् वा क्रीडाप्रमत उपजायते। ततस्तदेवाम्ये तेन सह की इन्स्यन्ये हरत्युपकरमिति ।
संप्रति मार्जनद्वारमाचर्षद्वारं च युगपदादजो चैव बलिए गमो, पमाणा वरिस वि सो चेव । य एवं बलिद्वारे गमः स एव प्रमाजने आवर्षणे च द्रष्टव्यः । किमुक्लं भवति -प्रमार्जननिमित्तमावर्षणनिमित्तं वा केचित् स्वभावेनापरे कैतवेन समागच्छन्ति, समागत्य च बलिद्वारोक्न प्रकारेणोपकरणमपहरन्तीति । इदानीं प्राभृतिकाद्वारमाह
पाहुडियं वा गेएहसु, परिसाडखियं च जा कुणिमो । ५६६ | प्राभृतिका - भिक्षाऽपि भण्यते, अर्चनिकाऽपि । तत्र उभयमप्यधिकृत्य दोषानाह-कैतवेन स्वभावेन या केचन - युः, खुल्लक ! भिक्षां गृहाण । अथवा-द्वारे निर्गच्छ यावद्वयं प रिसानिकामर्चनिकां कुर्मः, एवमुक्तः स यावत् भिक्षामाददाति बहिर्वा निर्गच्छति तावत्तस्योपकरणं हरन्तीति । गतं प्राकृतिकाद्वारम् ।
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अधुना स्कन्धायारद्वारमग्निद्वारे बाह-खंधारभया नासति, एस व एति त्ति कइयवेणेस । अगणिभया व पलायति, नस्ससु अगी व एमेति। ५७० | कोऽपि स्वभावतः स्कन्धावारभयान्नश्यति ब्रूते च एष सराजकः स्कन्धावारः समागच्छति । स च तथा स्वभावतो नश्यन् बालमेकाकिने ट्राऽपहरेत् कैतवेन भूत एव क्षुल्लकः ! स्कन्धावारः समायाति, तस्माल्लघु पलायस्व । ततः स बालो नश्यति इतरे उपधिमुपहरन्ति अभिया कोऽपि स्वभावतः पलायते, स च पलायमानो वक्ति बहिरागच्छति नश्यतामिति । केचित्पुनः कैतवेन भूयुः मन्दभाग्याः नश्यत नश्यताग्निः समागच्छति ।
"
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।
ततः किमित्याह
वही लोभभया वा, अगणिभया वा ण किंचि नीइ । गुत्तो व सयं डज्झइ, उवहिं च विणा उ जा हाणी५७१ उपधिलोभाद् उपधिर्मध्ये तिष्ठति तं मुक्त्वा कथमहं यामि मा कश्चिदपहरेदित्युपधेर्लोभतोऽग्निभयाद्वा स बालो बहिर्न निर्गच्छति, न च तत्र बहिः किञ्चिनिष्काशयति, ततः कथमन्यग्रिसमागमने स मध्ये गुप्तः सन् स्वयं दाते केतवेनाभ्यागमं कथयित्वा वाले विप्रलम्भ्योपधिपमहरन्ति । उपधिं च विना या हानिस्तां साधवः प्राप्नुवन्ति । गतं स्कन्धावारद्वारमनिद्वारं च ।
सम्प्रति मालवद्वारं द्वारं वाहमालवणा पडिया, इवरे वा नासती जणेण समं । न य गेहइ सारुवहिं, तप्पडिबद्धो व हीरेजा || ५७२ || मालवा एव स्तेना:, मालवग्रहणेन द्वारगाथायां सूचिताः, इतरे अन्ये स्तेनाः स्तेनग्रहणेन केचित्तु कैतवेन स्वभा
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(१००५) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि वेन च ब्युर्मालवस्तेना इतरस्तेना वा पतिताः। तत्र ये कै- दोषास्ते ग्लानेऽपि । नवरं यस्तस्यात्मसमुन्थो दोषः स्वयं तवेन युवते ते पत्तनस्य ग्रामस्य चाभङ्गे जाते उपधिम- क्रीडात्मकः कथादोपो भयेन पलायनदोपश्च स । भवति, पहरन्ति । स्वभावेन कथने स बालो भयान्न सारमुपधि गृ. किं तु-स वारयितुं समर्थो न वा तं कोऽपि गणयति ग्लाहाति । अग्रहणे च तदभावे महती हानिः । अथवा-स त- नत्वात् । अन्यच्च-सुधापिपासया अन्यया वा वेदनया पस्मिन् उपधौ प्रतिबद्धः सन् मालवस्तेनैरितरैर्वा सोपधिर-| रिताप्यमानः सन् कृजेन् । ततो लोको यात्-अहो निपहियेत । गतं मालवद्वारं, स्तेनद्वारं, च ।
रनुकम्पाः साधयो यदमुं त्यक्त्वा हिरडन्ते । अपथ्यं वा संप्रति शातिद्वारमाह
लोकानीतमकल्पिकं संप्रति सेवेतेति । तथा अव्यक्तो नाम
अगीत:-अगीतार्थः स रक्षणकल्पे परोक्षः। किमुक्तं भवतिसनायगेहि नीते, एति व नीय त्ति नटें जं उवहिं ।
स स्वाभाविके कैतवे वा कथमुपकरणं रक्षणीयमिति न कहिनीय त्ति कइतवे,कहिए अन्नस्स सो कहई ॥५७३।।
जानाति । न वा स्वाभाविकेषु ग्लानत्वादिषु केन प्रकारेचिंधेहि आगमे उ, सो वि य साहेइ तुह निया पत्ता । णात्मा निस्तारयितव्यः कथं वा उपकरणमतः प्रागुक्तं नटे उवहिग्गहणं, तेहि व हं पेसितो हरति ॥ ५७४॥ ग्लानो ऽव्यक्तश्चैतानि पदानि न रक्षति । योऽपि व्यक्तः सो:स्वशातिकाः-स्वभावत श्रागतास्तैरेकाकी दृष्टः क्षुल्लकः,
पि यदि निद्रालुर्भवति "तरङ्गवत्या" दिकथाकथनव्यसनी वा तैनीतेऽन्ये पश्चादुपधिमपहरेयुस्ततस्तन्निष्पन्नं तेषां साधूनां
तदा न रक्षति प्रमादबहुलत्वात्। प्रायश्चित्तम् । अथवा-अन्येन केनापि ते स्वज्ञातयः आग- तम्हा य खलु अवाले, अगिलाणे वत्तमपमत्ते य । च्छन्तो दृष्टाः, तेनागत्य क्षुल्लकस्य कथितम्-निजकास्तव कप्पइ य वसहिपालो,धिइमं तह वीरियसमत्थो। ५७७॥ समागच्छन्तीति । ततः स पलायितः । तस्मिन्नष्टे यस्माद्वालादीनामेते दोषास्तस्माद्यः खल्वबालोऽग्लानो यमुपधि जघन्य मध्यममुत्कृष्टं वाऽपहरन्तिः तनि- व्यक्नो निद्राकथादिभिरप्रमत्तः । पुनः कथंभूत इत्याह-धृतिरूपन्नं तेषां प्रायश्चित्तम् । एवं तावत् स्वभावतः सहा- मान् यः तृषा सुधया वा परितापितोऽपि न शून्यां वसतिं तीनामागमनदोषा उक्नाः । अधुना कैतवेन तदागमनकथन- कृत्वा भक्लपानाय गच्छति स इति भावः । वीर्यसम्पन्नोतो दोषानाह-कोऽपि कैतवेनागत्य धूर्तो ब्रूते-चुल्लक ! क ते बलवान् यः स्तेनानां पततो निरोद्धं समर्थोऽग्न्यादिसंभव निजकाः सन्ति ?, तेन कथितममुके ग्रामे नगरे वा । तेनान्य- तूपधिमात्मानं च निस्तारयति ईदृशः कल्पते वसतिपालः । स्य धूर्तस्य कथितम् 1 मा खयमहं बुवाणो लक्ष्ये इति सोप्य अथ कियन्त ईदृशा वसतिपालाः स्थापयितव्यास्तत श्राहन्यो धूर्तस्तेषां खशातीनां चिह्नानि नामानि चावगम्य तस्य
सतिलंभम्मि अणियया,पणगं वजतो व होति अच्छित्ति । क्षुल्लकस्य समीपमागच्छति । आगत्य ब्रूते-स त्वममुकानां नि
जहण गुरु चिट्ठइ, तस्संदिट्ठो विमा जयणा ॥५७८।। जकः। क्षुल्लको वक्ति त्वं जानासि । इतरो ब्रूते-किं न जानामि।
सति भिक्षालाभे अनियता वसतिपालाः स्थापयितव्याः। ते मातरममुकनामिकां पितरं चामुकमीदृशेन वर्णेन रूपेण
अयमत्र भावः-यत्रैकः संघाटको भैक्षस्य प्रचुरस्य लावा । एवं संवादे कृते स चुल्लको वदति, सत्यमहं तेषां निज
भतोऽन्येषां त्रयाणां चतुर्मा चात्मनश्च पर्याप्तमानयति तकः । ततः स धूर्तो भाषते-ते निजकास्तव कृते समागताः,
त्र यावद्भिस्तिष्ठद्भिर्गच्छस्य पर्याप्तं भवति तावन्तस्तिष्ठन्ति । मया अमुकप्रदेशे दृष्टाः । सम्प्रति अन्ये प्रविशन्ति वदन्ति
अथवा-श्राचार्यादयः पश्च तिष्ठन्ति यैर्गच्छः समस्तोऽपि च । वयं तमात्मीयं नेष्याम इति । ततः स पलायते, इतरे
संगृहीतो वर्तते । अथवा-यो ज्ञायते एष सूत्रार्थग्रहणधारउपधिमुपहरन्ति । अथवा-वक्ति-तैरहं तथोदन्तवाहकः प्रे
णसमर्थोऽव्यवच्छिति करिष्यति स प्राचार्यस्य सहायो:षितस्ततः स विश्वास गच्छति, विश्वस्तस्तस्य चोपधिमप
स्ति । अथैवमपि न निस्तरन्ति ततो जघन्यतो गुरुरेकहरेत् । तवानयननिमित्तमहं तैः प्रेषितः, एवमुक्ते स बालः
स्तिष्ठति शेषाः सर्वे हिण्डन्ते । प्राचार्योऽपि कुलादिकार्येषु पलायते, इतरे तूपधिमपहरन्ति ।
निर्गच्छति, ततो य आचार्येण संदिष्टो मयि निर्गते सर्वमेएते पदे न रक्खति, बालगिलाणे तहेव अव्वत्ते ।
तस्य पुरत आलोचनादि कार्य स तिष्ठति । ततो यत्र तानिद्दाकहापमत्ते, वत्ते वि य ए भवे भिक्खू ॥ ५७५ ॥ नि बलिप्रभृतीनि पदानि स्वभावतः कैतवेन वा प्राप्तानि एतानि-बलिप्रभृतीनि पदानि-स्थानानि बालो न रक्षति भवन्ति तत्र तेन वसतिपालेनेयं यतना कर्त्तव्या। स्वाभाविकेषु कैतवेषु स्थानेषु बालो विप्रतार्यत इति भा
__ तत्र बलिपाते तावदाहवः । तथा ग्लानोऽव्यक्तो वा गीतार्थः । यद्वा-व्यक्तो गीता- अ (पु) पुवमतिहिकरणे,गाहाण य अमभंडगंछिविमो। र्थोऽपि च-यो भवेद्भिक्षुर्निद्राकथाप्रमत्तः सोऽप्येतानि प- भणइ व अठायमाणो,जन्नासइ तुझ तं उवरि ॥५७६।। दानि न रक्षति । कथाः-तरङ्गवत्यादयो द्रष्टव्याः ।
साधवो हि कारणेन सप्राभृतिकायामपि शय्यायां स्थिग्लानद्वारम् , व्यक्तद्वारं चाधिकृत्यैतदेव विशेषयन्नाह- ता भवेयुः। साधूनां चेयं समाचारी-ऋतुबद्धे काले बद्ध एमेव गिलाणे वा, सयकिड्डाकहापलायणे मोतुं । उपधिस्तिष्ठति वर्षाबद्धः तत्र सप्राभृतिकायां वसतौ वअव्वत्तो तु अगीतो, रक्खणकप्पे परोक्खो उ ॥५७६॥ |
स्वपि समस्तं भाण्डकमेकयोगं प्रकुर्वन्ति, ततो यदि एवमेव-अनेनैव प्रकारेण ग्लानेऽपि दोषा वक्तव्याः ,नवरं स्व
बलिकाराः समागच्छन्ति तथापि न कश्चिद् दोषः। अथ यं क्रीडाकथापलायनानि मुक्त्वा । इयमत्र भावना-ये वाले। -" रङ्गवती " धन्यः ।
२५२
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बसहि
ते कथमपहरणं कर्तुकामा ज्ञातव्याः उच्यते अपूर्वान् - वा ये स्वाभाविकास्ते प्रतिदिवसमागच्छन्तः परिचिताः, ये पूर्वास्ते हर्तुकामा विशेषाः। ये वा अतिथी - विशि इतिभा वलिकरणाय समागतास्तेऽपि हर्तुकामा - व्यास्तेऽपि यदि ब्रूयुर्निर्गच्छत, वयं बलिं करिष्याम
स्तदा गाथा वक्तव्या ।
(२००६) अभिधानराजेन्द्रः ।
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“न विलों लोणिज्जइ, न वि तुपिज्जइ घयं च तेल्लं च । किह नाम लोडग भे, धम्मम्मि ठविज्जए वट्टो ॥२॥ अनं भंडेहि चणं, चणकुट्टग जत्थ ते बहर चंचू । भंगुरचग्गहिते, मे खदिरा वइरसारा य ॥२॥ ततो जानते अयं प्रत्यभिज्ञाता इति । अथवा वक्तव्यं येषामेतदुपकरणं ते भैक्षस्यानयनाय गताः वयं त्वन्यभाण्डकमन्येषामुपकरणं न स्पृशामः । ततो यदि न तिष्ठन्ति तदा भूयो मरुति-शृणुत अस्माभिर्वारिता यूयं न तिष्ठध ततो यदत्र नश्यति तत् युष्माकमुपरि, एवमुक्ते ते तिष्ठन्ति ।
कारणे सपाहुडियाए, वासा वि करिंति एगमायोगं । सन्नाविय दिट्ठा वा, भगाइ जा सारवेमुवहिं ॥ ५८० ॥ कारणे सप्राभृतिकायां वसती स्थिता वर्षास्यपि समस्वस्थापि भारडकस्यैकमायोगं कुर्वन्ति ततो न किश्चिपलायते । तत्र ये कैतवेन बलिकारकाः समागच्छन्ति तेषु यतनाविधिरुक्तः । सम्प्रति स्वाभाविकेष्वाह-' सम्नाविये' त्यादि, ये शय्यातरेणान्येन वा बलिकाराः संज्ञापिता दृष्टा वा स्वयमन्यदा बलिं कुर्वाणास्तान् प्रति भरणतिवसतिपालास्तावत् प्रतीक्षज्यं पापपथि सारयामि एवमुक्ते प्रतीक्षन्ते ।
अपवरए को वा, काऊण भणाति मा हु लेवाडे । बहुपेणसारचिए, तहेव जं नासती तुकं ॥ ५८१ ॥ ततो वसतिपालो यदि कश्चिदस्त्यपवरकस्तत्र तदुपकरणं प्रक्षिपतिः । श्रथ नास्त्यपवरकस्ततः एकस्मिन् को सर्वमुपकरणं करोति भवति च शनैवेतिविधानरुत मा उपकरणं कूरसिक्थैः खरण्टयथ । अथ ते बहवो उन्मत्तकाः सहसैव प्रविश नैव सार्थमानसुपधि प्रतीक्षन्ते ततस्तथैव वक्रथं यथोप्रा, यथायत्र नश्यति तद् युष्माकमुपरीति ।
डगाराः
धर्मकथाद्वारयतनामाह
नत्थि कहाली मे, पुत्रं दिट्ठो व वेति गेलं । दाखादि संकाय प, भाउअंतो परिकडे ।। ५८२ ।। यदि ते केतवेन भावेन वा समागत्य धर्मकथामापृच्छन्ति, तदा वक्तव्यम् - नास्ति मे कथालब्धिः । अथ धर्मे कथयन् स पूर्व दः, ततो वदति-म्लानत्वं शिरो मे दुःखयति, गलको वेति । अथ ते धर्मकथाप्रष्टारो दानश्रद्धाः, आदिशब्दादभिगमश्च सम्यकत्वादयश्च सम्यग् ज्ञातारो वर्त्तन्तेः ततस्तेषां दानादिवाचकाणामशङ्कानां - शङ्काया श्रविषयाणां द्वारमूले दित्या आयोजयन् भाण्डकविषयमुपयोमं ददानः परि कथपति मा कथाक्रमले मयि कोपि हरेदिति हेतोः ।
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बसहि
सम्प्रति क्रीडाद्वारयतनामाह
दहुं पिरोनॅ लभामो, मा किड्डह मा हरिअिहं को वि । समजा वरिस, पाडिया चैव बलिसरिसा ॥५८२|| यदि केचित् कैतवेन स्वभावेन वाऽऽगत्य कीडन्ति तदा तान् प्रति वक्तव्यम् - वयमाचार्यादिपार्श्वतो द्रष्टुमपि कीउतो न समामडे, तस्मादत्र मा क्रीडत एय । तचैवमुच्यते मा कधिद्धरेदिति कृत्या प्रमार्जने आवर्षणे प्राकृतिकार्या च यथा बलिद्वारे तथा यतना कर्त्तव्या । खमणं निमंति ते उ, खंधारे कइयवे इमं भणति । किसे निरागसार्थ, गुतिकरा काहिई राया ॥ ५८४ ॥ भियां यदि कोऽपि निमन्त्रयति तदा पव्यम्-ममाय क्षणमिति। ये च स्कन्धावारे इदं भगति किन-अमाकं निरागसाम-निरपराधानां गुतिकरो रक्षाकरो राजा करिष्यति ।
यत्र तु स्वाभाविकः स्कन्धावारः समागच्छति । तत्रेयं भावना
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?
पशुणुप्पभुं निवेयण, देंति व पेल्नंति जाव नीरोमि । तह विय अठावमाणे पासे जं वा तरति नेउं ॥ ५८५|| प्रभुः नाम राजा अनुप्रभुः सेनाधिपतिभूतिस्तं गाया धर्म लाभयति विविक्रमस्माकमुपाश्रयं कुरुत । ततः स मनुष्यान् ददाति प्रेरयति समस्तानपि लोकानुपाश्रयप्रविष्टानिति । अथ स्कन्धावारो न व्रजति, किं तु तथैव स्थि तवान् तत्र यदि कोऽपि वसतिस्थाननिमित्तं प्रेरयेद्, प्र त्रापि प्रभोरनुप्रभोर्वा निवेदनं कर्त्तव्यं येन स वारयति । श्रथ प्रभुरनुप्रभुर्वा न वारयति श्रस्त्राधीना वा ते पुरुषास्ततो ब्रूतेयावदुपकर नयामि तावत्प्रतीज्ञस्य ततः कल्पं विस्तार्य सर्वमुपकरणं तत्र प्रक्षिप्योपरि बच्चा निष्काशयति । अथ प्रभूतमुपकर न शक्नोति सर्वमेकवारं नेतुं तदा त्रिषु चतुर्षु वा कल्पेषु बड़ा कोल्लुकपरंपरकेण महाराष्ट्रसिद्धकोल्लुकचक्रपरंपरन्यायेन निष्काशयति । श्रथ ते हरमृत्युपकरणं ततो यत्पार्श्वे सारं भारडमादियज्ञानेतु शक्नोति तयति ।
सम्प्रति स्वाभाविकोऽग्नौ यतनामाहकोल्लुपरंपरसंकलि, आगासं नेह वायपडिलोमं । अच्छुलुढा जलगे, अक्साई सारखे तु ।। ५८६ ॥ चलने प्रवर्द्धमाने सर्वमुपकर मेकवारमशक्नुवन् कल्पेषु चतुर्षु पञ्चसु वा बध्नाति च च फोल्कचन्यायेन परंपरया 'संकलि' सि तान् पोइलकान् दवरण संकल यत्र न तुखादिसंभवस्तत आकाशं तदपि वा प्रतिलोमं तत्र नयति । अथ ज्वलनेनातिप्रसरता ते अच्छुल्लूढाः स्वस्थानं त्याजितास्ततो यत्सारं भारडमसादि तनिष्काशयति ।
मालवस्तेनेषु पतनामाहअसरीरतेय मंगे, पचलाए जसे उ जं तरति नेई । न विधूमो न वि बोलो, न दयति जयो कइयत्रेसुं ५८७|| अशरीरस्तेन शरीरं नापहरन्ति ते ते प्र लायमाने जने चेतुं शक्नोति तमपति यदि पुनः कैतवेन तन्नयति,
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वसहि
(१००७) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि केचन घुवते-अग्निः समुच्छलितः,स्तेना वा द्विविधाः समाप- मडंबंसि वा पट्टणसि वा प्रागरंसि वा दोणमुहंसि वा तिताः,तदा ते वक्तव्या-न वै धूमो दृश्यते, 'न वि बोलो' त्ति| Amit
निगमंसि वा रायहाणिसि वा आसमंसि वा संनिवसंसि नापि जनस्य प्रपलायमानस्य बोलस्तस्मान्न द्रवति जनो दग्धः कैतवेश्यिति।
वा संवाहंसि वा घोसंसि वा अंसियंसि वा पुडभेयणंसि स्वज्ञातिद्वारे यतनामाह--
वा सपरिक्खेवंसि वा अबाहिरियसि वा कप्पद निग्गंथाणं अण्णकुलगोत्तकहणं, पत्तेसु विभीयपरिसो पेल्लेह।। हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए ॥६॥ पुव्वं अभीइपरिसे, भणाति लजाएँ न भणामि ॥५८८। एवमग्रेतनमपि सूत्रत्रयमुच्चारणीयं तच्च यथास्थानमे
वोच्चारयिष्यते। जा ताव ठवेमि वए, पत्ते कुड्डादिछेयसंगारो ।
अथास्य सूत्रचतुष्टयस्य कः संबन्ध इत्याहमासि हीरे उवहिं, अच्छह जासिं निवेएमि ॥५८६॥
वुत्तो खलु आहारो, इयाणि वसहीविहिं तु वन्नेह । यदि केचन स्वशातय भागता वर्तन्ते, न च ते तं प्रत्यभिजानते तदा अन्यकुलगोत्रकथनं कर्तव्यम्, अन्यत् कुलमन्य
सो वा कत्युवभुजइ, आहारो एस संबंधो ।। २८१॥ च गोत्रमात्मनः कथयति, अथ ते सम्यग्शातारः समागता- उकः खल्वनन्तरसूत्रे आहारः, इदानीं त्वस्मिन् सूत्रे स्तत्र यदि ते भीतपर्षदस्तदा तान् प्रेरयति-शास्ताहशा असतेर्विधि भगवान् भद्रबाहुस्वामी वर्षयति । यथा स यूयं बन्धयामि युष्मान् राजकुलेनेति । अथैवमुक्तास्ते नवि-1
माहारो गृहीतः सन् क प्रामादौ उपभुज्यते इति निरूभ्यति तर्हि तान् अभीतपर्षदो वक्ति ममाप्यतत् अभिप्रेत
पणार्थमिदमारभ्यते, एष द्वितीयप्रकारेस संबन्धः। मुनिष्कमणं परं लज्जया न भणामि युष्मान, यथाऽहमुभि
भूयोऽपि संबन्धमाहकमामीति,न वा शक्नोमि लज्जया युष्माकं समीपमागन्तुम् , तेसु सपरिग्गहेसुं, खेत्तेसुं साहुविरहिएमुं वा । तद्रव्यं कृतं यद् यूयमागताः किं तु तिष्ठत क्षणमात्रं यावदा.
किच्चिरकालं कप्पइ, वसिउं अहवा विकप्पो उ॥२८२।। गच्छन्ति साधवः । ततस्तेषां समीपे व्रतानि निक्षिपामि.मा
तेषु-क्षेत्रेषु सपरिग्रहेषु-साधुपरिगृहीतेषु साधुविरहिवा तेषां भट्टारकाणामुपकरणं शून्ये उपाश्रये केनापि हियेत।
तेषु वा कियन्तं काल निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा वस्तुं यायच तेषां निवेदयामि-यथाऽहं गमिष्यामीति तावत्तिष्ठत ।
कल्पते इत्यस्मिन् सूत्रे चिन्त्यते । अयं सम्बन्धस्याऽपरो कि एवं केनोपायेन तावत्तिष्ठन्ति यावत् साधवः प्राप्ता भवन्ति,
कल्प इत्यमीभिः संबन्धेरायातस्यास्य (६) व्याख्या-अत्र चततः उपाश्रयकुज्यस्य छिद्र पातयित्वा नश्यति, सङ्केतं च
संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्र व्याख्याने महइन्भौरवमिति - करोति-अमुकस्थाने मां गवेषयत आगत्य वा मम मिलितव्य
त्वा पदार्थादिमात्रमेवाभिधास्यते । संहितादिर्वस्तु पूर्वमिति ।
बत् वक्तव्य इति । से' शब्दो मागधदेशीयप्रसिद्धः; अथखंधारादी णाउं, इयरेऽवि तर्हि दुयं समभिएंति ।
शब्दार्थे, 'अर्थ' शब्दश्व प्रक्रियादिष्वर्थेषु वर्तते, यत उनम्अप्पाहेइ व तेसिं, अमुग कजं दुयं एध ।। ५६० ॥ अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुचयेष्विइतरेऽपि भिक्षार्थमटन्तः साधवः स्कन्धावारमनिमाभव- ति इहोपन्यासार्थे द्रष्टव्यः। ततश्च यथा साधूनामेकत्र क्षेत्रे स्तनपतनं वा ज्ञात्वा द्रुतम्-सत्वरं समभियान्ति-समा- वस्तुं कल्पते; तथा उपन्यस्यते इत्यर्थः । प्रामे वा नगरे वा गच्छन्ति , स या वसतिपालो भिक्षार्थ गतानां सदृशं कथ- खेटे वा खवटे वा मडम्ब वा पत्तने का श्राकरे वा द्रोणमुयति, यथा-अमुकं कार्यमापतितमिति हरत मा गच्छुत । गतं खे वा निगमे वा राजधान्यां वा पाश्रमे का संनिवेशे वा संरक्षणद्वारम्।
बाधे वा घोषे वा अंशिकायां वा पुटभेदेन वा सपरिक्षेइदानी ग्रहणकल्पिकमाह
पे-वृत्त्यादिरूपपरिक्षेपयुक्त अबाहिरिक-बहिर्भवा बाहिरिका
'अध्यात्मादिभ्यः इकणि' ति इकण् प्रत्ययः, प्राकारबदुविहकरणोवघाया, संसत्ता पच्चवायसिज्जविहीं।।
हिर्वर्तिनी गृहपद्धतिरित्यर्थः । न विद्यते बाहिरिका यत्र जो जाणति परिहरिउं, सो महणे कप्पितो होति ।५६१।
तदबाहिरिकं तस्मिन् , कल्पते निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु बसतेर्द्धिविधं करणम्-मूलकरणमुत्तरकरण च । तेन द्विवि
ऋतुबद्धकालसंबन्धिषु अष्टतु मासेष्वित्यर्थः , पकं मास धेन करणेनोपधातो यस्याः सा द्विविधकरणोपघाता; मू
वस्तुमनवस्थातुम् । वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः स्वगतानेलकरणोपहता, उत्तरकरणोपहता चेत्यर्थः। तथा पृथिव्यु
कभेदसूचका वा द्रष्टव्याः। इति सूत्रसमासार्थः । वृ०१ उ०२ दकतेजोहरितत्रसप्रामसागारिकसंयुक्ता-संसक्का ब्रह्मवता- प्रक०(त्रिशदहोरात्रमानमेकमृतुमासं कल्पते वस्तुमिति दिविराधनाकारिणी प्रत्यवाया, तथा विधिविधानं भेदः प्र
'मासकप्प' शब्देस्मिन्नेव भागे २६७ पृष्ठे गतम्।) (अयं हि कार इत्यनर्थान्तरम् , शय्याया विधिर्वक्ष्यमाणेन च शय्याया
ऋतुबद्धविहारो मासकल्प इत्युच्यते, सच जिनकल्पिकानां भेदः एतैर्मूलकरणादिदोषैर्यः सम्यक परिहर्नु जानाति स |
'जिणकप्पिय' शब्दे चतुर्थभागे १४६३ पृष्ठे गतम्।) (गच्छशय्याग्रहणे कल्पिको भवति । वृ० १ उ० १ प्रक० । नि. वासिना स्थविरकल्पिकानां वसतिद्वारम् 'जिणकप्प' शचू०। (परचक्रवेष्टितप्रामे वसतिद्वारम् ' उवरोह 'शब्दे द्वितीयभागे १०८ पृष्ठे गतम्।)
मासस्योपरि न वस्तव्यम् । अथोपरि दोषा अपवादश्चेति कदा कियन्तं कालं वसेदित्याह-ऋतुबद्धे एकं मासम्
द्वारद्वयमाहसे गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कव्वडंसि वा मासस्सुवरि वसति, पायच्छित्तं च होंति दोसा य ।
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वसहि.
(१००) वसहि
अभिधानराजेन्द्रः। बिइय पदं च गिलाणे,वसही भिक्खं च जयणाए।१२१॥ त्सप्तविंशमध्ययनं विरचितं तत्रादावेवेदमुपदेशसूत्रमभाणिमासस्योपलक्षणत्वाच्चतुर्णा वा मासानामुपरि यदि व
"न चिरं जण संवसे मुणी, संवासेण सिणेहु वहई । भिक्खु. सति तदा प्रायश्चित्तं दोषाश्च भवन्ति । द्वितीयपदं च ग्ला
स्स अणिञ्चचारिणो, आयटे कम्मा दुहायई ॥१॥” इति गतमुने ग्लानार्थम् , उपलक्षणत्वादशिवादिभिश्च कारणैर्मासस्यो
परिदोषा इति द्वारम् । मध्यवस्थानलक्षणं भवति । तत्र च वसतिभैक्षं च यत-|
अथ द्वितीयपदं भावयतिनया ग्रहीतकम् ।
बहुदोसे वतिरित्तं, जइ लब्भइ वेज ओसहाणि जहिं । अथैनामेव विवरीषुः प्रायश्चित्तापत्तिस्थानानि
चउभागतिभागत्ते, जयंतणिज्जे अलंभे वा ॥१२१६ ।। तावदाह
ग्लाननिमित्तमतिरिक्रमपिकालं वसेत्।अथोद्गमादिभिर्दोषैर्ब परिसाडिमपरिसाडी, संथाराहारदविहउवहिम्मि। हुदोषं तत्क्षेत्रं तत उत्पाट्य ग्लानं बहिर्गन्तव्यम् , यदि वैद्यौषडगलगसरक्खमल्लग-मत्तगमादीण पच्छित्तं ॥१२१२॥
धानि तत्र लभ्यन्ते । अथ ग्लानो बहिर्गन्तुं नेच्छति, वैद्यौषप्रोगासे संथारे, वीयारुच्चारवसहिगामे य ।
धानि वा बहिर्न लभ्यन्ते ततोऽनिच्छति अलाभे वा तत्रैव ग्रा
मे चतुर्भागीकृते त्रिभागीकृतेऽर्कीकृते वा वसती भिक्षायां च मास चउम्मासाधिग-वसमाणे हो इमा सोही॥१२१३॥ यतन्ते । इह च यद्यप्युत्सर्गतस्तं ग्राममष्टौ भागान् कृत्वा संस्तारको द्विधा-परिसाटी,अपरिसाटी च । परिसाटी- जायन्ते तथा चात्र संस्तरन्ति, ततः सप्त भागान् एवं यावफलकादिरूपः । एवं द्विविधमपि संस्तारकं यत्र मासक- देकं भागमपि कृत्वा यतन्ते इति पुरस्ताद्वक्ष्यते । तथापि चल्पं वासं वा कृतवान् तत्रैव ग्रामादौ गृह्णतः, एवमाहार- तुर्भागत्रिभागार्द्धग्रहणं तुलादण्डमध्यग्रहणन्यायेनाष्टभागामपि तेष्वेव कुलेषु गृह्णतः औधिकौपग्रहिकभेदात् द्विवि- दीनामपि ग्रहणार्थम् । धो य उपधिस्तस्मिंश्च तत्रैव गृह्यमाणे, डगलकानि-पुनः
प्रकारान्तरेण द्वितीयपदमाहप्रोञ्छनलेष्टुकः सरजस्कः क्षारः मल्लकमात्रे प्रतीते ते
ओमाऽसिवदुढेसुं, चउभागा न करिति अच्छंता । पामादिशब्दात्-काष्ठकिलिञ्चादीनां च तत्रैव ग्रहणे प्रायश्चित्तं भवति । तथा अवकाशः-प्रतिश्रयैकदेशः संस्तार:
पोरुसिमाई वुडी, करिति तवसो असंथरणे ॥ १२१७॥ संस्तारभूमिः एतैः पूर्वपरिभुक्तां चैव परिभुत, विचा
अवमाऽशिवराजद्विऐषु बहिः संजातेषु तत्रैवातिरिक्कमपि र:-प्रश्रवणम् उच्चारः-संज्ञा एतौ तत्रैव स्थगिडलमाचरति
कालं तिष्ठन्ति यावहिः सुभिक्षादीनि न जायन्ते । तच्च क्षेत्र वसति प्राक् परिभुक्तां परिभुङ्क्ते ग्रामस्योपरि ममत्वं करोति।
यदि लघुतरं ततस्तत्र तिष्ठन्तोऽसंस्तरणे सति चतुर्भागादियद्वा-अवकाशादिपु सर्वेष्वपि ममत्वं करोति, यथा-ऋतुबद्ध
रचनां न कुर्वन्ति, किंतु-तत्र पौरुष्यादितपसो वृद्धि कुर्वमासाधिकम् ,वर्षामास चतुर्मासाधिकं वसति । एतेषु स्था
न्ति । तद्यथा-ये पौरुषीप्रत्याख्यानिनस्ते पूर्वार्द्ध प्रत्याचक्षत, नेष्वियं वक्ष्यमाणा शोधिः।
ये पूर्वार्द्धप्रत्याख्यातारस्ते एकाशनं प्रत्याख्यान्तीत्यादि । तामेवाऽऽह
अथ एनामेव स्पष्टयति-- उक्कोसोवहिफलप, वासातीए य होति चउलहुगा ।
मासे मासे वसही, तणडगलादी य अन्न गिण्हंति । डगलगसरक्खमल्लग-पणगं सेसेसुलहुओ उ ॥१२१४॥
भिक्खायरियवियारा, जहिट्ठिया तत्थ नन्नासु॥१२१८।। उत्कृष्ट-वर्षाकल्पादौ फलके च-तत्रैव गृह्यमाणे वर्षाकाले
मासे मासे वसतिरन्या, तृणडगलादीनि च पूर्वपरिभुक्तानि
परित्यज्याऽन्यानि गृह्णाति, यस्मिश्च भागे मासकल्पं स्थिताच चत्वारो लघवः, डगलकसरजस्कमलकेषु उपलक्षणत्वात्
स्तत्रैव भागे तस्मिन्मासे भिक्षाचर्या विचारभूमिं च गच्छकाष्ठकिलिञ्चादी च रात्रिंदिवपञ्चकम् , शेषेषु-परिसाटीसस्तारकादिषु सर्वेष्वपि लघुको मासः ।
न्ति, नान्यासु-भिक्षाविचारभूमिषु। अथ मासाद्युपरि तिष्ठतो दोषानाह
अथ भागकरणस्यैव विधिमाह-- संवासे इत्थिदोसा, उग्गमदोसा व नेह तो कुजा। अट्ठाइजाव इकं, करिति भागं असंथरे गाम । चमढण गिलाण दुल्लभ-चारत्तिसिभासियाऽऽहरणं।१२१५ अट्ठा इच्चिय वसही,जयंति जा मूलवसही उ ॥१२१४।। ऋतुबद्ध वर्षावासे वा यथोक्तकालावधेरुपरि संवासे-एक- कदाचिदष्टौ ऋतुबद्धमासान् ग्लानकार्येण स्थातव्यं भवेत् , प्रावस्थाने संदर्शनसंभाषणादिना स्त्रीविषया श्रात्मपरोभय- अतो ग्राममष्टौ भागान् कुर्वन्ति ततः प्रथमेऽष्टभागे वसति समुत्था दोषा भवेयुः। प्रभूतकालावस्थानतश्च साधूनामुपरि तृणडगलादीनि च गृह्णन्ति, मासं च यावत्प्रथम एवाष्टभागे भद्रकगृहिणां गाढतरः स्नेह उपजायते। ततश्च ते स्नेहत उ- भिक्षाचर्या विचारभूमिगमनं च कुर्वन्ति । ततो यदि मध्ये द्मदोषान् श्राधाकादीन कुर्युः । ये तु प्रान्ताः गृहपतयस्ते मासे सम्पूर्णे ग्लानः प्रगुणीभूतस्तदैव निर्गन्तव्यम् ।
युः कियश्चिरमस्माभिरमीषामद्यापि दातव्यं तिष्ठतीति अथ न प्रगुणीभूतस्ततः पूर्फे मासे द्वितीयेटभागे तिष्ठन्ति, अतिचमढणया च क्षेत्र नीरसं भवति, ततो ग्लानस्य उपल- तत्राप्येष एव विधिर्मन्तव्यः । एवं तृतीयमष्टभागमादौ कृत्या क्षणवादाचार्यादीनां च प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत् । अत्र च वा- अष्टभाग यावत् द्रष्टव्यम् । अथाष्टभिर्भागैर्विभक्के ग्राम न रत्तकमहर्षेः कृतस्वल्पमात्रगृहं संगम्य प्रद्योतनृपेणोपहसि संस्तरति ततः सप्त भागान् कृत्वा यथैव यतन्ते । एवमयतस्योदाहरणम् । अत एव तेन भगवता ऋषिभाषितेषु य- संस्तरणे षट् भागानादी कृत्वा याषदेकमपि भागं कुर्यन्ति
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(१००६) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि एवं वसतीरपि प्रथमतः पृथक पृथक् मासकल्पप्रायोग्या - पुस्मम्मि अंता मासे, बहिया संकमण तं पि तह चेव । ष्टौ गृहाति, तदभावे सप्त षट् पञ्चाविक्रमेण यतन्ते यावत्तस्यामेव मूलवसतौ तिष्ठन्ति ।
नवरं पुण नाणत्तं, तणेसु तह चेव फलएसु ॥१२२३॥ अथात्रैव भङ्गकानाह
अभ्यन्तर मासकल्प पूर्णे बाहिरिकायां संक्रमणं कर्तव्यम् ।
तदपि संक्रमण तथैव-पूर्वस्त्रवत् द्रष्टव्यम् , नवरं पुनरत्र इत्थं पुण संजोगा, एकिक्कस्स उ अलंभे लंभे य ।
नानात्वं तुगाधु तथा फलकेषु । तत्र यदि बाहिरिकायामेव गविहाणं गुणिया , तुल्लातुल्लेसु ठाणेसु ॥ १२२० ॥ तृणफलकानि प्राप्यन्ते ततस्तत्रैव ग्रहीतव्यानि । अथ तत्र अत्र पुनः प्रक्रमेण एकैकस्य वसतिभागस्य वा अला- तानि न लभ्यन्ने ततोऽन्य ग्राम वजन्तु । अथ तत्राशिवाभे लाभे च यानि तुल्यानि तुल्यानि समानसंख्याकानि तेषु दीनि कारणानि नतो अभ्यन्तराण्येव तृणफलकानि बाहिविधानेन-चारिकाविधिना गुणिताः सन्तोऽनेके-बहवः | रिकायां नेतन्यानि। संयोगा-मनका भवन्ति । चारणिकाक्रमश्वायम्-अष्टौ व.
तत्र विधिमाहसतयोऽष्टी भिक्षाचर्याः १, अष्टौ वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः२, अबउवस्सयगमणे, अणॉपुच्छा नऽस्थि किंचि नेयध्वं । एवं षट् भिक्षाचर्याः ३, पश्च भिक्षाचर्याः ४, चतस्रो भि
जइ नेइ अगापुच्छा, तत्थ उ दोसा इमे होति ।१२२४॥ शाचर्याः ५, तिम्रो भिक्षाचर्याः ६, भिक्षाचय ७, एका
द्वितीये मासकल्पे बाहिरिकायामन्यमुपाश्रयं गच्छद्भिरनाभिक्षाचर्या ८, एवं सप्त वसतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः १, सप्त वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः २, इत्यादि चारणिकया
पृच्छया नास्ति किश्चित्तणफलकादि नेतव्यम् । यद्यनापृच्छया
नयति ततस्त्विमे दोषा भवन्ति । सप्तादिसंख्यावपि वसतिविषयासु प्रत्येकमष्टावष्टौ भाकाः प्राप्यन्ते । सर्वसंख्यया लब्धा भङ्गकानां चतुःषष्टिरिति । ताई तणफलगाई, तेणाहडगाइँ अप्पणो वाऽवि । अथैतेष्वेव भङ्गकेषु विधिमाह
निजत्तयहिगाई, सिट्ठाई तह असिट्ठाई ॥१२२५।। एक्काइ वि वसहीए, ठिया उ भिक्खाचरियाएँ पतंति ।
तृणफलकानि यन साधूनां दत्तानि तस्य स्तेनाहृतानि वा
भवेयुः, भामसंबन्धीनि वा भाति च प्रतिश्रयान्तरं नियमानि वसहीसु वि जयणेवं,अवि एक्काए वि चरियाए।१२२१॥
प्राप्यमाणानि गृहीतानि वा नीतानि सन्ति निशिष्टानि ग्रेषु भगवेकैव वसतिः प्राप्यते तेष्वेकस्यामपि बसतो
वा भवेयुः । स्थिता मिक्षाचर्यायां प्रयतन्ते । प्रथममष्टौ भागान् प्रामं वि
शिष्टाशिष्टपदं व्याख्यानयतिभज्य भिक्षां पर्यटन्ति, असंस्तरणे यावदेकमपि भागं कृत्वेति भावः। अपिशब्दो द्वयादिसंख्यकासु वसतिषु तिष्ठन्तः
कस्सेते तणफलगा, सिढे अमुगस्स तस्स गहणादी। सुतरां भिक्षाचर्यायां प्रयतन्ते इति सूचनार्थः। यत्र त्वकैव गिएहइ वा सो भीओ, पचंगिरलोगमुड्डाहो ॥१२२६॥ भिक्षाचर्या प्राप्यते तत्रैकस्यामपि भिक्षाचर्यायां पर्यटन्ते । स्तेनाहृतानि तृणफलकान्यनापृच्छय नीयमानानि पूर्वस्वाएवमेव वसतिध्वपि यतना कर्तव्या । वृ०१ उ०२ प्रक०। मिना राजगुरु या दृष्टानि । ततः साधुः पृष्टः कस्यै(२२) हेमन्तप्रीष्मयोद्धौ मासौ वस्तुं कल्पते
तानि ? , साधुः साह-अमुकस्य गृहपतेरिति, शिष्ट-कसे गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खे
थिते सति तद अहणाकर्षणादयो दोषा भवन्ति । तथाऽसौ वंसि सबाहिरियंसि कप्पइ निग्गन्थाणं हेमतगिम्हासु दो
साधुर्भातः सन निहते-अपलपति; न कथयतीत्यर्थः,
ततोऽशिष्टे साधी प्रत्यतिरादोषो भवति-तृणफलकदामासे वत्थए, अंतो इकं मासं बाहि एगं मासं । अंतो वस
यकगृहपतेः सबन्धी चौर्यकरणलक्षणो दोषः; स परकीयो माणावं अंतो भिक्खायरिया बाहिं, वसमाणाणं वाहि ऽप्यात्मनि लगतीत्यर्थः । लोके चोडाहो भवति-अहो भिक्खायरिया ॥७॥
साधवोऽपि परद्रध्यमपहरन्ति। अस्य संबन्धो, व्याख्या व प्राग्वत् । नवरं सबाहिरिके
अथ अत्रैव प्रायश्चित्तमाइप्राकारबहिर्वर्सिगृहपद्धतिरूपया बाहिरिकया सहिते कल्पते नयणे दिडे मिट्ट, गिएहण ववहारमेव ववहरिए । निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु द्वौ मासी वस्तुम् । कथमित्याह- लहुगा लगागरुगा, छम्मासा छेय मूल दुगं ।१२२७१ अन्तः-प्राकाराभ्यन्तरे पकं मासम्, पहिर्वाहिरिकायामप्येक
स्तेनाहलतानामपन्छया बाहिरिकायां नयनं करोति लघुमासम् , अन्तर्वसतामम्तर्भिक्षाचर्या, बहिर्वसतां बहिर्भिक्षा
को माग । तानि नीयमानानि राजपुरुषैदृष्टानि चर्येति ।
ततश्वत्याग लटका । तैः पृष्टे साधुना शिएं-कथितं यथाअथ भाष्यविस्तरः
मुकस्यैत marary गुरुकाः । अथ गृही राजपुरुषैएसेव कमो नियमा, सपरिक्लेवे य सबाहिरियम्मि । र्गृहीतस्तथा चन्यारो गुरुकाः । अथासौ तै राजकुलानवरं पुण नाणतं, अंतो मासो बहिं मासो ॥१२२२॥ भिमुखमाकलस्सनाः षण्मासा लघवः । अथ राजकुलाभिएष एव-प्रथमसूत्रोक्तः क्रमः सपरिक्षेपे-सपाहिरिकेऽपि मुखमाकरितापूस गृहस्थः प्रतिलोममाकर्पति ततः प्रामादौ नियमाद्वक्तव्यः, नवरं पुनः नानात्वविशेषोऽयम् अ- पड़ गुरुका - राजकुलं नीत्वा व्यवहारं कारितस्ततः न्तः-प्राकाराभ्यन्तरे मासो बहिरपि मासः, इत्येवं मासद्वथ-] छेद
य
दि स गृहस्थः पश्चात्कृतस्ततो मूलम् । मृतुबद्धे स्थातव्यम्।
1 बहुलोका
हस्तपादाद्यवयवं व्यङ्गिते वा कृते २५३
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हरिए।
(१०१०). वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि अनवस्थाप्यम् । अपद्राविते निर्विषये वा कृते पाराञ्चिकम् , | यतैर्वाहिरिकायां नीतानि, तदा चतुर्लघु । कथिते यद्यसासर्वत्र संयतस्यैतत् प्रायश्चित्तम् ।
वनुग्रहं मन्यते ततोऽपि चतुर्लघु । अथाप्रीतिकं करोति तदा अथ 'निराहव' पदं व्याख्याति
चतुर्गुरु । व्यवच्छेदं वा तद्व्यस्य तस्य साधोभूयः प्रदाने अहवा वि असिदुम्मी, एसेव उ तेण संकमे लगा।
कुर्यात् , 'पसजणा सेसे' त्ति शेषाणामन्येषामप्यशनपानका.
दिद्रव्याणामपरेषां वा साधूनां प्रसज्जनां-दानव्यवच्छेद नीसंकियम्मि गुरुगा, एगमणेगे य गहणादी॥१२२८॥
कुर्यात् । अथवा मम कथिते सत्येष तृणफलकदाता ग्रहणाकर्षणादि प्राप्यते इति मत्वा यदि न कथयति ततोऽशि-श्रकथिते
एसेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुब्बीए । एष एव स्तेनः संभाव्यते इत्येवं शङ्किते चतुर्लघुकाः , निःश- नवरं पुण नाणतं, चउरो मासा जहन्नपदे ॥ १२३३॥ तिते चत्वारो गुरवः । ततश्च तस्यैव एकस्यानेकेषां वा सा- एष एव गमः-प्रकारः फलकेष्वपि भवत्यानुपूर्व्या, यस्तधूनां ग्रहणादयो दोषा भवन्ति ।
णेषु 'नयणे दिढे सिट्टे' इत्यादिना भणितः, नवरं पुनरत्र तद्यथा
नानात्वं चत्वारो मासाः । जघन्यपदं नाम-यत्र तृणेषु लनयणे दिटे गहिए, कड़णववहारमेव ववहरिए । घुमासिकमापद्यते तत्रानापृच्छया बहिर्नयनमिति द्रष्टउड्डहणे य वियंगण, उद्दवणे चेव निन्विसए ॥१२२६॥
व्यम् , तत्र फलकेषु चतुर्लघु। लहुओ लहुया गुरुगा, छल्लहु छग्गुरुगछेयमूलं च । अथ मासद्वयादूर्ध्वमवस्थाने दोषान् द्वितीयपदं चाहअणबदुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिो होइ॥१२३०॥
दोएिंह उवरिं वसती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य । तृणानि प्रतिश्रयान्तरमनापृच्छया नयति लघुको मासः ।।
बितियपदं च गिलाणे,वसही भिक्खं च जयणाए।१२३४॥ राजपुरुईऐषु चत्वारो लघवः । ततः पृष्टे साधुना च निइते साधोर्ग्रहणं कुर्वति चत्वारो गुरवः । राजपुरुषैस्त्वं | सबाहिरिके क्षेत्रे द्वयोर्मासयोरुपरि यदि वसति ततः प्राचौर इत्युक्त्वा राजकुलाभिमुखमाकृष्टे षण्मासा लघवः। यश्चित्तं प्रागुक्तमेव मासलघुकाख्यम् , दोषाश्च त एवावसाअथ ते राजकुलाभिमुखमाकर्षन्ति, साधुश्च तान् प्रतीप-| तव्याः, ये अबाहिरिके क्षेत्रे संवासे इत्यादिना उक्लाः । द्विमाकर्षति , एवं कर्षणाकर्षण षण्मासा गुरवः । व्यवहारे तीयपदं च ग्लानविषयं तदेव वक्तव्यम्, तत्र च तिष्ठतां प्रारम्धे छेदः, व्यवहृते यदि संयतः पश्चात् कृतस्ततो मूलम् ।
बसतिभिक्षं च यतनया ग्रहीतव्यम् । बृ०१ उ० १ प्रक०। उहहनव्यानयोईयोरनवस्थाप्यः। अपद्रावणनिर्विषयाशापन
(प्रामादिषु निर्ग्रन्धानां द्वौ मासौ वस्तुं न कल्पते इति योद्धयोः पाराश्चिकम् इति ।
ससूत्रो भाष्यविस्तरः, 'णिग्गन्थी' शब्दे चतुर्थभागे पाह-कथं पुनस्तृणानि स्तेनाहतानि
२०४६ पृष्ठे गतः। संभवन्तीत्युच्यते
(२३) एकवगडायामेकपरिक्षेपायां वसतौ निषेधमाहदंतपुरे आहरणं, तेनाहडवच्चगादिसु तणेसु । से गामंसि वा जाव रागहाणिसि वा एगवगडाए एगदुछावणमीराकरणे, अत्थिरफलगं व चंपादि ॥१२३२॥ वाराए एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गन्थाण य आवश्यके योगसंग्रहेषु ‘दन्तपुरदन्तवक्के' इत्यस्यां गाथायां |
निग्गन्धीण य एगयो वत्थए ॥१०॥ यदाहरण-निदर्शनमुक्तम् , तत्र यथा दन्ताः केनापि न गृहीत.
अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याहव्या इति राजाऽऽशया प्रतिषिद्धत्वाद्धनमित्रसार्थवाहमित्रेण दृढमित्रेण दर्भपूलकैराच्छाद्य प्रच्छन्नमानीताः स्तेनाहृताः
गामनगराइएसुं, तेसु उ खेत्तेसु कत्थ वसियव्वं । संवृताः , एवं राज्ञा प्रतिषिद्धानि संभवन्ति तृणान्यपि जत्थ न वसंति समणी, अन्भासे निग्गमपहे वा ॥ १॥ स्तनाहतानीति । तैश्च वस्त्रकादिभिस्तृणैर्लानादीनां छा
प्रामनगरादिषु तेषु-पूर्वसूत्रोक्नेषु क्षेत्रेषु कुत्र वस्तव्यमिदनं प्रतिश्रयस्य वा मीराकरणं विधीयते । मीराक
ति चिन्तायामनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते । यत्राभ्यासे स्वनिरणं नाम-कटारादेराच्छादनम् । उपलक्षणमेतत् , तेन
श्रयाऽऽसने निर्गमपथे वा निर्गमद्वारे श्रमण्यो न वसन्ति प्रस्तरणार्थमपि तृणानि गृह्यन्ते । फलकं तु प्रस्तर
तत्र वस्तव्यमिति। णार्थ मीराकरणार्थ वा तश्चास्थिरफलकं चम्पकपत्रादि मन्तव्यम् । अस्थिरफलकं नाम-उपविशतां यदधो याति
अथ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाहतथैवंविधं चम्पकपत्रादि ।
अहवा निग्गंथीओ, दडु ठिया तेसु गाममाईसु । अस्तेनाहततृणानां नयने दोषानाह
मा पिल्लिजिहि कोई, तेणिमसुत्तं समुदियं तु ॥२॥ अत्तेणाहड नयणे, लहुओ लहुया य होंति सिट्ठम्मि । अथवा-निर्ग्रन्धीस्तेषु ग्रामादिषु स्थिता दृष्ट्वा मा कश्चिअप्पनियम्मि गुरुगा, वोच्छेदपसजणा सेसे ॥१२३२॥ दाचार्यादिस्तत्रागत्य प्रेरयेन्निष्काशयेदित्यनेन कारणेन इदं अस्तनाहतानां तृणानामनापृच्छय बहिनयने लघुको मासः।। सूत्रं समुदितं समायातमनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (१०)व्याअपरण केनापि तस्य शिएं-कथितं त्वदीयानि तृमानि स-, ख्या-अथवा-ग्रामे वा यावद्राजधान्यां वा, यावत्करणात्
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(१०११) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि नगरे वा खटे वा इत्यादिपदपरिग्रहः । एकवगडाके-एक- शङ्कादीन् दोषान् एकविचाराणामेकसंक्षाभूमिकानां निम्रद्वारके एकनिष्क्रमणप्रवेशके च क्षेत्र नो कल्पते निर्ग्रन्थानां | स्थानां च सूरिः स्वयमेव नियुक्तिगाथाभिर्यथावसरमुत्तरनिर्ग्रन्थीनां च एकतो मिलितानां वस्तुम-अवस्थातुमिति | प्रवक्ष्यति-भणियति। सूत्रसंक्षेपार्थः ।
तत्र प्रथमभङ्गे तावदोषानुपदिदर्शयिषुराहविस्तरार्थे तु भाष्यकृदाह
एगवगडं पडुच्चा, दोण्ह वि बग्गाण गरहितो वासो। वगडा उ परिक्खेवो, पुन्वुत्तो सो उ दब्वमाईसुं।
जइ वसइ जाणो तु, तत्थ उ दोसा इमे होंति ॥८॥ दारं गामस्स मुहं, सो चेव य निग्गमपवेसो ॥३॥
एकवगडमुपलणक्षणत्वादेकद्वारं च क्षेत्रं प्रतीत्य द्वयोवगडा नाम-ग्रामादेः सम्बधी परिक्षेपः, स पुनः परिक्षेपो- रपि वर्गयोः-साधुसाध्वीलक्षणयारेकत्र वासो गर्हितो-निद्रव्यादिको द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्नः । यथा-पूर्व 'पास- न्दितो; न कल्पते इत्यर्थः । यदि सापकः-संयत्योऽत्र से णिटुनमट्टिगखेडगकडगकंटिगा पवेदव्वं' इत्यादिना मास
गता इति जानानस्तत्रागत्य वसति तत इमे-वक्ष्यमाणाकल्पे प्रकृते उक्तस्तथैवात्रापि द्रष्टव्यः । द्वारं नाम-ग्रामस्य दोषा भवन्ति । मुखं ग्रामप्रवेश इत्यर्थः, स एव च निर्गमेणोपलक्षितःप्रवेशो
इदमेव सविशेषमाहनिम्रमप्रवेशोऽभिधीयते ।
एगवगडेगदारे, एगयरद्वियम्मि जो तर्हि ठाइ। इत्थं सूत्रे व्याख्याते सति शिष्यः प्राह
गुरुगा जइ वि य दोसा,न होज पुट्ठो तह बि सो उ॥६॥ दारस्स वा वि गहणं, कायव्वं अहव निग्गमपहस । एकवगडे एकद्वारे च क्षेत्रे यत्र पूर्वमेकतरः संयतवर्गः जइ एगट्ठा दुन्नि वि, एगयरं बृहि मा दो वि ॥४॥ संयतीवों वा स्थितो वर्त्तते तत्र य प्राचार्यादिः प्रवर्तियदि तदेव द्वारं स एव च निर्ग्रमप्रवेशतस्ततो हे प्राचार्य !
न्यादिर्वा पश्चादागत्य तिष्ठति तस्य चत्वारो गुरुकाः । यद्यपि द्वारस्य वा ग्रहण कर्तव्यम् , अथ निम्रमप्रवेशपथपदस्य यदि
च तत्र दोषा वक्ष्यमाणा न भवेयुस्तथाऽप्यसौ भावतस्तैः नाम द्वे अपि पदे स्त एकार्थे; तत एकनगरमेकद्वारपदम् ए
स्पृष्टो मन्तव्यः। कनिष्क्रमणप्रवेशपदं वा सूत्रे हि-भणेत्यर्थः मा द्वे अपि ।
तत्र पूर्वस्थितसंयतीवर्ग क्षेत्रमङ्गीकृत्य तावदाहएवं शिष्येणोक्ने सूरिराह
सोऊण य समुदाणं, गच्छं आणेतु देउले ठाति । एगवगडेगदारा, एगमणेगा अगएगा य ।
ठाइयँतगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥१०॥ चरिमो अणेगवगडा, अणेगदारा य भंगो उ ॥ ५ ॥
श्रुत्वा च समुदान भैक्षं सुलभप्रायोग्यं द्रव्यं ततो गच्छमानी. इह वगडाद्वारयोश्चत्वारो भङ्गाः । तद्यथा-एका बगडा ए
य देवकुले उपलक्षणत्वादपरस्मिन् वा सभाशून्यगृहादौ तिकं द्वारम् , यथा-पर्वतादिपरिक्षिप्ते कचिद् ग्रामादौ । एका
ष्ठति , तत्र च तिष्ठतामाचार्यादीनां चत्वारो गुरुकाः , घगडा अनेकानि द्वाराणि, यथा-प्राकरादिपरिक्षिप्ते चतुर्दा
तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः। रनगरादौ । अनेका वगडा एकं द्वारम्, यथा-पनसरःप्र.
पनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयतिभृतिपरिक्षिप्ते बहुवा(पा)टके प्रामादौ ३ अनेका वगडा भने
फागपइपेसविया, दुविहोवहिकञ्जनिग्गया वाऽवि । कानि द्वाराणि,यथा-युष्मी प्रकीर्मगृहे ग्रामादौ चतुर्थो भना४। उवसंपजिउकामा, अतिकमाणा च ते साहू ।। ११॥ यदि नामैवं चत्वारो भकास्ततः प्रस्तुते किमायात
संजइभावियखेत्ते, समुदा णेऊण बहुगुणं नच्चा । मित्याह
संपुग्नमासकप्पं, खिंति गणिं पुटपुट्ठा वा ॥ १२ ॥ तइयं पडुच्च भङ्गं, पउमसराईहि संपरिक्खित्ते ।।
केचन स्वसाधवः केनापि स्पर्द्धकपतिना क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ अन्नोन्नदुवाराण वि, हवेज एगं तु निक्खमणं ॥ ६ ॥ प्रेषिताः, यद्वा-द्विविधः-औधिकौपग्रहिकभेदभिन्नो य उपअत्र भङ्गचतुएये तृतीयं भकं प्रतीत्य एकद्वारग्रहणमेक- धिस्तस्योत्पादनार्थ कार्येषु वा कुलगणसासंबन्धिषु निर्गनिष्क्रमणप्रवेशग्रहणं च सूत्रे कृतम् , कुत इत्याह-पास- ताः, उपसंपत्नुकामा वा-उपसंपदं जिघृक्षवः, अध्वानं वा रसा, आदिशब्दात्-गर्तपर्वतेन वा संपरिक्षिप्ते प्रामादी अ. अतिक्रामन्तस्तत्र ते साधवः प्राप्ता एते स्पर्द्धकपतिप्रेक्षितान्यान्यद्वारकाणामपि वा (पा) टकानामेकमेव निष्क्रमणं भवे | दयः संयतीभावित क्षेत्रे समुदायं नीत्वा भैक्षं पर्यट्य त्। तिस्षु विषु पनसरःप्रभृतिव्याघातसंभवादेकस्यामेव | प्रचुरप्रायोग्यलाभेन बहुगुणं तत्क्षेत्रं ज्ञात्वा गुरूणां समीपदिशि निकमणप्रवेशौ भवतः।
मायाताः संपूर्णमासकल्पं गणिनमाचार्य पृटा वा ब्रुवते । ततः किमित्याह
कुत इत्याहतत्थ वि य होंति दोसा, वीयारगयाण अहव पंथम्मि।। तुज्झ वि पुस्मो कप्पो, न य खेत्तं पहियं म्हि जं जोग्गं । संकादीए दोसे, एगवियाराण वोच्छिहिति ॥७॥ जंपि य रुइयं तुझं, न तं बहुगुणं जह इमं तु ॥१२॥ तत्रापि च-तृतीये भने पृथक पाटकेषु स्थितानामपि किं क्षमाश्रमणाः ! युष्माकमपि मासकल्पाः पूर्मा वर्तन्ते न पुनः प्रथमभरे द्वितीयभने वा स्थितानामित्यादि-अपिश- च तत् क्षेत्र प्रत्युपेक्षितं यद्भवतां योग्यमनुकूलम् । यदपि च कदार्थः। विचारगतानां संक्षाभूमौ संप्राप्तानाम् , अथवा-तस्यां क्षेत्र युष्माकं रुचितमभिप्रेतं न तदहुगुणं यथेदमस्मत्प्रत्युच पथि-मार्गे गच्छतां दोषाः शङ्कादयो भवन्ति, तांश्च । पेक्षित क्षेत्रम् ।
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(१९१२) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसहि
परम्
एगोथ नवरि दोसो, संपर सो वि व न बाहए किंचि । न यसो भावो विजइ, अदोसवं जो अनिययस्स || १४ || नवरमेक एवात्र दोषो विद्यते, परं सोऽपि मां प्रति मदीयेनाभिप्रायेण न किञ्चिद्बाधते, न चाऽसौ भावः पदार्थो जगति विद्यते यो नियतस्य अनिश्चितस्यानुद्यमयतां पुरुषस्य दो वान् भवति किं तु सर्वोऽपि दोषान् इति भावः । श्रहवण किं सिट्ठेणं, सिट्ठे काहिहे न वा वि एयं ति । खुदमुहा संति इदं जे कोविला जिवयं पि ।। १५ ।। अथवा किमस्माकमनेनाग शिन-कथानक चिदित्यर्थः यतो पूर्व शिष्टे सति करिष्यथ वानवा एनमस्मदभिप्रेतमर्थमिति वयं न विद्मः । कुत इत्याह- क्षौद्रमुखामधुमुखा मधुरभासित-अस्मि नर्थे भवतां वल्लभेश्वराः, ये जिनवाचमपि कोपयेयुः - अन्य - था कुर्युः । श्रास्तां तावदस्मदादिवचनमित्यपिशब्दार्थः ।
इह सपरिहास निब्बंध पुच्छि वेइ तत्थ समणीश्रो । बलियपरिग्गहियाओ, होह दटा तत्थ प दयामो।। १६ ।। इत्येवं सपरिहासे तेनोक्ने आचार्यों महता निर्बन्धेन पृष्टः । कथय भद्र ! कीदृशस्तत्र दोषो विद्यते, ततः स ब्रवीति-तत्र श्रमण्यो बलिना - बलवता आचार्यादिना परिगृहीता विद्यन्ते. परं तथापि वयं दृढा भवन्तः, कामपि शङ्कां कुरुध्वम् । अत्रायै सर्वमप्यदं मरिष्यामि, अतस्तत्र बजाम पथम् । एवं भणतः प्रायश्चित्तमाह
भिक्खू साहइ सोउं, व भगइ जइ वावि तर्हि मासो । लहुगा गुरुगा बसमे, गणिस्स एमेव वेहा ॥ १७ ॥ यदि भिक्षुरनन्तरोकवचनं कथयति भुरखा वा भिरेवं भगति वाढं व्रजामः तत्र वयम्, ततो प्रायश्चिमासलघु तम् । अथ वृषभ उपाध्यायम् एवं ब्रवीति, प्रतिष्ठगोति वा ततस्तस्य चत्वारो लघवः । गणिन आचार्यस्य इत्थं भणतः प्रतिशृण्वतो वा चत्वारो गुरुकाः । एवमेवोपेक्षायामपि द्रष्टव्यम् । किमु यति-इजमो वयमिति वा प्रतिभुते यदिभिरुपेक्षां करोति तदा तस्य लघुमासिकम्। नृषभस्योपेक्षमाणस्य चतुर्लघु श्राचार्यस्योपेक्षां कुर्वाणस्य चतुर्गुरु ।
अथवा
सामत्था परिवत्थो, गहणे पवभेदपंथसीमाए । गामे वसहिपवेसे, मासादी भिक्खुणो मूलं ॥ १८ ॥ भिक्षुस्तत्र गन्तव्यं न वेति 'सामत्थं' पर्यालोचनं करोति मासलघु ' परिवस्थिति देशीशब्दोऽयं निर्णय वर्त्तते । ततो गन्तव्यमेव तत्रेति नियं करोति मास मह ति निर्णीय यदुपधिं गृह्णाति ततश्चतुर्लघु, पदभेदं कुर्वतअतुर्गुरुकम् पथि यजतः पदलघुकम् ग्रामसभायां मासच्छेदः, वसतौ प्रवेशं कुर्वतो मूलम् । एवं निशार्लघुमासादारभ्य मूलं यावत्प्रायश्चितमुक्रम्।
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"
गणिआयरिए सपदं, अहवा अविसेसिया भये गुरुगा । भिक्खुमा चउज पुच्छसि तो सुख होते ॥ १६ ॥
यसहि
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गणिन उपाध्यायस्य मासगुरुकादारभ्य स्वपदमनवस्थाव्यं यावत् आचार्यस्य चतुर्तपुकादारभ्य स्वपदं पाराशिकं यावत्प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् । अथवा-भिक्षुवृषभोपाध्यायाचार्याणां चतुमपि तपःकालविशेषिताश्चतुर्गुरुकाः तद्यथाभिक्षोर्द्वाभ्यामपि लघवः तपसा कालेन, वृषभस्य 'कालेन गुरवस्तपसा लघवः, उपाध्यायस्य तपसा गुरवः कालेन लघवः, आचार्यस्य तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरवः । अथ केषां तत्र तिष्ठतां दोषा इति यदि पृच्छसि ततः शृणुनिरामय दोषान् मयाऽभिधीयमानान् ।
तानेवाभिधित्सुराह
अनतरस्स नियोगा, सव्वेसि अणुप्पिएस वातेतु । देउले सभामुभे, निभीषमुद्देठिया गंतुं ॥ २० ॥ अन्यतरस्य भिक्षोः भिक्षुभावे नियोगान् सर्वेषां साधूनामनुप्रियेण अनुपात्यते श्राचार्यास्तत्र गत्या देवकुले वा सभायां या शून्य या नियोगस्य मुखे प्रवेशे एव स्थिताः, ततो निर्ब्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां चोभयेषां परस्परदर्शनेन बद्दयो दोषा भवन्ति । ( अत्र चाग्निदृष्टान्तः सूरिभिर्वर्णितः स च श्रग्गि' शब्दे प्रथमभागे १७५ पृष्ठे गतः । )
अथ 'किं पुरा तासिं तयं नऽत्थि ' ति पदं भावयन् शिष्येप्रश्नं कारयति - लुक्खमरसुरहमनिका -मभोषिसं देदभूसविरयाखं । सज्झायपेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो ॥ ३० ॥ कशम्— निःस्नेहम् ' अरसुद्ध' सि नम् प्रत्येकमभिसंबध्यते घरसम्-दिवादिभिरसंस्कृतम् अनु शीतलम् अनिका- परिमितंभ मोहं शीलमेषां ते सा नुष्णाऽनिकाम भोजिनस्तेषाम्, मकारावलाक्षणिकौ । तथा देहभूषायाः स्नानादिरूपायाः विरतानां प्रतिनिवृत्तानां खाध्यायः पठनादिरूपः प्रेक्षा प्रत्युपेक्षा तयोरादिशब्दा यावृस्यादिषु च व्यापारेषु व्यापृतानां साधुसाध्वी जनावरां कुतो मोडः पुरुषवेदाद्युदयरूपः संभवति ।
अथ प्रतिवचनमाद
नियखाइ लूणमद्दय, वावारे बहुविहे दिया काउं । सुक्खसुडिया विरर्ति, किसी बला किं न मोईति ॥ ३१ ॥
नियति निदानं निद्रायमित्यर्थः । प्रदिशम्य उत्तरत्र योग्यते। लवनं मईनं च प्रतीतम् एवमादीन
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विधान व्यापारान दिया कृत्या शुक्काः स्वानाद्यभावेन शीतोष्णादिभिका परिम्लाना: ' सुडित्रा' - भ्रान्ता एवंविधा अपि कृषीवलाः किमिति - परिप्रश्ने, भवानेवात्र पृच्छपते, कथय - किं ते रात्रौ न मुह्यन्ति ? न मोहमुपगच्छन्तिः मुह्यन्त्येवेति भावः ।
जड़ ताव तेसि मोहो, उप्पञ्जर पेसखेहि सहियाणं । अव्यावारसुद्दीनं न भविस्सर कि सु विश्वावं ||३२|| यदि च तेषां कृषीवलानां प्रेषखैः व्यापारैः सहितानां मोह उत्पद्यते ततो विरतानां संयतानामव्यापार सुखिनां तथाविधव्यापाररहिततया सुचनां कथं तु नाम नमोहोदयो भविष्यति ।
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(२०१३) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
सहि
अथाऽत्रैव पराभावमा परिहरतिकोई तत्थ भणिजा, उप्पने भिउं समत्यो चि । सो य प न वि होई, पुरिसो व घरं पलीवेंतो ॥३३॥ कश्चित्तत्रानन्तरोक्तेऽर्थे ब्रूयात् यद्यपि मोह उत्पद्यते तथाऽप्यहमुत्पत्रेऽपि मोहे आत्मानं निरोद्धुं समर्थ इति । गुरुराह-स पुनरेवं वक्ता नाशे अवसरेन निरों प्रभुः-समय भवति, पुरुष इदं यत् ।
अथैनामेव नियुक्रिगाथां व्याख्यानपति
कामं वेदा, ख होइ उदओ जहा वदह तुज्झे । वं पुख जिला उदयं, भावखतवखाखवावारा ॥ ३४ ॥ उप्पत्तिकारणार्थ, सम्भावं की जहा कसायास ।
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हु सिग्गहो सिसे, एमेव इमं पि पासामो ॥ ३५ ॥ वयं भावनातपांशानव्यापारान् भावनास्तु कलेवर श्वेतच्छप्रचिन्तनादिकाः, तपचतुर्यादिकं व्यापारः सूत्रार्थचिन्तनात्मकः । अपि च-" उदिदिकोटुप्पी सिया तं जहा-खेच पहुच, वत्युं पञ्च, सरीरं पडुच, उवहिं पहुच । इत्यादिना खानाङ्गादीनां पायोत्पत्तिकार क्षेत्रयवादीनां सङ्गावेऽपि यथा पायानां निमोन बेवान हैं, अपि तु श्रेयानेच एवमेव इदमपि प्रस्तुतं पश्यामः, मोहोदयकारतानां सद्भावेऽपि तहिं करिष्याम इति भावः । अत्र सूरिः परिहारमाहपहरखजाखसमग्गो, सावरखो वि हु छलिखई जोहो । बालेन य न छलिद, ओसहहत्वो न किं माहो ॥ ३६ ॥ प्रहरणं खद्रादि यानं हस्त्वादि ताभ्यां समन्त्र :-- सम्पूर्ण तथा सावरल सम्राटसहितान्दा बुद्धकादिगुणयुक्तोऽपि वया-योधः समरशिरसि प्रविष्टः प्रबलं कुर्वा सोऽपि योधान्तरेस तुल्यतेः एवं तथ्ध्वा हन्यते इत्यर्थः । यद्वा-द-वर्णग्राहको वादिनोऽपि कि व्यालेन-दुष्टसर्पेव न वाते-चलान एच, एवं यद्यपि भवान् भानवानपौठाकयापारयुगा अपि स्त्रीयांसंदर्शनादिकं कुर्वन् मोडोन कल्पत एवेति ।
अपि चउदयपडे विकरमण किमागमादीचितं न उनलाई ।
दो दिन सक्छ, विनय कुले ॥ २७ ॥ उदकघटे करतलेऽपि-इस्तखिने चित्रोको गृहम् शादीपितम्-प्रज्वलितं सनोज्ज्वलति न दीप्यते । श्रासावती दो
दिन प्रचापि बमोि पांच शक्यते एवं व्यादिल्पं स्वाधीनं तथाचि मोहोदयानिस प्रज्वलितं चारित्रगृदं वो मोटोको वकल्पेन बहुनाऽपि ज्ञानव्यापारादिना वासौ विधाय शक्य इति ।
किं च-रीडा संपत्ती वि हु, न खमा संदेरियम्य अत्य नायक पुख अत्य, जानि विवची न निटोसा ॥ ३० ॥
२५४
बसदि
संयनीक्षेत्रे गतानां मोहोडयनिरोधादिक व संहि तः संशयास्पद स्वीया परा पुन्द्रक्षरन्यायेन संपत्तिरपि न क्षमा-न श्रेयसी यः पुनः सावीरहितक्षेत्रगतसनादिको ऽर्थः पूत्र ज्ञातो-निर्दोषलेन निइतस्ततः कृतः कर्तुमाग्यो ज्ञानकुनस्तम्मिदियेथेऽपि कुतोऽपि वैगुण्यतो विपत्तिर्भवति साऽपि निर्दोषा
मन्तव्या ।
अथ परः प्राह
दूरेख मंजईओ अजईआदि उपहिमादागे ।
जड़ मेलखाए दोमो, तम्हा रचम्मि बसियन्वं ॥ ३६ ॥ संयत्यो दूरेन पृष्वसः परि बन् यास्तु असंयत्यः- अविरतिकास्ताः परिहर्तुमशक्याः वतस्वाभ्य उपधिराहारच लम्बते, ततो यदि मीलनायाः संसर्गस्व दोषः संयनिक्षेत्रे तिष्ठतां मवति ततः साधुमिररण्ये गत्वा वस्तच्यम् ।
सूरिगह
र त्रि तिरिक्खतो, परिषदोसा असंतती वावे । लजाय लवालो मुखमगुणं किं न ममडाली ॥४०॥ अरयेऽपि वसन् तिरन्यः खियो हरियो दोषनुपजनयन्ति तथा परिक्षा-मप्रत्याख्यानं तदोषश्च यवनि तयादि तत्रादारावमारात्परिक्षा त्याच्या कर्तव्यम् । तत्र प्रथमत एव कर्तुं न युज्यते विगतिसहितस्त्र जीवि तस्य दुष्यत्वात् न व संध्यानसंग्रचात्देवनमनप्रत्कोषियत्वाचे दोन
•
संविधानाचा विनयादान
सर्वदेखी
त्यत्ति धार्मते तत्र बटुकलं यचति । कोझे सायोना अच्छा सनई” इति वचन सदोषत्वात् । नवाचार काममा बन्न लवालको व्यामपि क्सन कं गुणं तपवार, सा यति स्वाम हिर
किंवकस्सद् विविचासो, निराहसा दुब्बार अमेदो वा । कहनमालक ४१॥ कस्यचिद्विनि-शुकविरहित अपि कालो वारसाला शक्लवेदोदडगावना ब्रह्माचार्यस्य यावन्ति । कषिपुरादुई स्थादिमांसक शान्तिधावना केन्दनीमोहसीन्तयोषसमचतत्वेनामेदोन किलोपो याचति ॥ चाशन्द: प्रकारान्तरयोजनार्थः ॥ नाहि कम्मोदयश्रक्तसाच प्रमाण मार्यादि कर्मकोपाकोरिया
इकारिकारस्तान्वियादेव नाखा तथा सामुन्या याचा शाकान्तिः स्वामी स्वयं जातः स्म ऽपि निरुद्धवान् तथा डिल्ली: मिकिंक रुद्धवान्, जोन सदिगी ॥
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दोजनाविदया
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(१०१४) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पि बजेइ ॥ ४२ ॥
आगन्तुकद्रव्यैर्वस्त्राभरणादिभिर्विभूषितमलंकृतं चशब्दाभवेद्वा न वा दोषायतनेषु-ब्रह्मविराधनादिदोषस्थानेषु |
दुद्वर्तनस्नानादिपरिकर्मयुक्तं च यस्मादगारस्त्रीणामौदावर्तमानस्य मनो निरोद्धं प्रभुत्वं-सामर्थ्य तथापि दोषायत
रिकं शरीरमन्यादृशमिव प्रतिभाति, तस्मादसमञ्जसो-विनानि दूरतः परिहरणीयानि। दृष्टान्तश्चात्र चूतफलदोषदर्शी
सरशस्ताभिः सह यतेः-साधोर्मलीमसशरीरस्य सचूतच्छायामपिवर्जयति । "जहा एगो रायपुत्तो अंबगपित्तस्स
मागमो-मीलकः। अंबगेहि अइखइएहिं वाही उठ्ठिो । सो वेजेहि जाप्पकतो
अपि चअंबगा य पडिसिद्धा। सो अन्नया पारद्धिं गो, अंबच्छायाए अविभूसिनो तबस्सी,निक्कामोऽकिंचणो मयसमाणो । चीसमइ । श्रमञ्चेण पुण पडिसिद्धो, तह वि ठाइ, ताहे तेण इय गारीणं समणे, लज्जा भयसंथवो न रहो ॥ ४७॥ चारिजंतेण वितं फलं गहियं । भणइ अमञ्च-न खाइज्जं को
अविभूषितो-विभूषारहितः एष तथा तपस्वी-तपाक्षीणदोसो गहिए त्ति । तेण पसंगदोसेण खइयं, विणट्ठो य । एस देहो निष्कामः-शुभरसगन्धाधुपभोगरहितः, अकिञ्चनो-निदिटुंतो । अयमत्थोवणओ-जहा तस्स रायपुत्तस्स विजेहिं परिग्रहः, ततो मृतसमानः शवकल्प एष इत्येवं सागारीअंबगा अपत्थ त्ति काउं पडिसिद्धा तहा भगवया वि साहणं णां श्रमणे अवज्ञा भवति । श्रमणस्य पुनरगारीभिः सह अञ्चतपडिसेवा इह परत्थ य अपत्थ त्ति काउं पडिसिद्धा। त-| विपक्षतया लज्जा । यच्चागारीभ्यो भयं तेन ताभिः सह न प्परिहरणोवाओ य इत्थीपसुपंडगसंसत्ताए वसहीए संजई.
संस्तवः परिचयो न वा रह एकान्त इति । खेत्ते य न ठायध्वं,इचाइ उवट्ठो । जो तेसु ठाइ सो नियमा
स्वपक्षे तु कथमित्याहपसङ्गदोसेण विणस्सइ, चरित्तरजस्स य अणभोगी भवइ,
| निब्भयता य सिणेहो, वीसत्थत्तं परोप्परनिरोहो । जहा सो रायपुत्तो । अन्नो पसत्थो रायपुत्तो सो चूतफलदोसदरिसी चूयच्छायं पि परिहरतो इह लोइयाणं कामभोगा. दाणकरणं पि जुञ्जइ, लग्गइ तत्तं च तत्तं च ॥४८॥ ण भोगी जातो । एवं जो साहू तिस्थयरपडिसेवादोसद- संयतस्य संयत्यां निर्भयता; न भयमुत्पद्यते, स्नेहश्चोभयोररिसी इत्थिसंसत्ताश्रो वसहीश्रो संजईखेत्तं च परिहरह सो पि भवति स्वपक्षत्वात् , विश्वस्तत्वं च विश्वासः; परस्परनियमा इह परत्थ य सव्वसुक्खाणं श्राभोगी भवात्ति"। गुह्यगोपनविषयः प्रत्यय इत्यर्थः,परस्परमुभयोरपि निरोधोअथ 'दूरेण संजईओ' इत्यादि यत्परणाक्षिप्तं
वस्तिनिग्रहात्मकः, तथा दानकरणमपि-वस्त्रपात्रादिलक्षणं तदेतत्परिजिहीर्षुराह
संयती प्रति तस्य युज्यते; संभवतीत्यर्थः । ततो यथा इत्थीणं परिवाडी, कायया होइ आणुपुब्बीए। तप्तं च तं लोहं लगति-संबध्यते तथा संयतीसंयतौ द्वावपरिवाडीए गमणं, दोसा य सपक्खमुप्पन्ना ॥ ४३॥
पि निरोधसंतप्तौ रहो लब्ध्वा लगत इति । स्त्रीणाम्-एकखुरादीनां परिपाटी-पद्धतिरानुपूर्ध्या कर्त- पाह-दृष्ट्रास्तावत् स्वपक्षपरपक्षसमुत्था दोष्यः परमेते व्या भवति-प्ररूपणीयेत्यर्थः । ततः परिपाटया यथा तासु कुत्र भवन्तीति निरूप्यताम् । उच्यतेगमनं भवतीति तथा वाच्यम् , दोषाश्च स्वपक्ष उत्पन्ना भव- वीयार भिक्खचरिया, विहारजइचेइवंदणादीसुं । न्ति वक्तव्यमिति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः ।
कब्जेसु संपरित्ता, ण होंति दोसा इमे दिस्स ॥४६॥ अथैनामेव गाथां व्याख्यानयति
एकवगडे-एकद्वारे च प्रामादौ विचारभूमिभिक्षाचर्याएगखुरदुखुरगंडी,सणक्खइत्थीसु चेत्र परिवाडी ।
विहारभूमियतिचैत्यवन्दनादिषु कार्येषु प्रतिश्रयान्निर्गतानां बद्धाण चरतीणं, जत्थ भवे वग्गवग्गेसु ॥४४॥ रथ्यादौ सम्पतितानां मिलितानाम् अन्योन्यं दृष्टा एते दोषा तत्थऽन्नतरो मुक्को-सजाइमेव परिधावई पुरिसो। भवन्ति । पासगए वि विवक्खे, चरइ सपखं अवेक्खंतो॥४॥ दूरम्मि दिहि लहुओ,अमुगो अमुगि त्ति चउलहू होंति । एकखुरा-वडवादयः द्विखुरा--गोमहिष्यादयः गण्डपदा- किइकम्मम्मि य गुरुगा, मिच्छत्तपसजणा सेसे ॥५०॥ हस्तिन्यादयः सनखपदाः--शुनीप्रभृतयः पतासु षष्ठीससम्योरर्थ प्रत्यभेदादतासां स्त्रीणां वर्गे वर्गे पृथक सजाती
यदि दूरेऽपि संयतः संयत्या दृष्टः, संयती वा संयतेन यदि NARE
दृष्टा तदा लघुको मासः, प्रत्यासनप्रदेशे समायातं संयतस्य यसमूहरूपेषु बद्धानां वा चरन्तीनां वा यत्र कापि-कुटीबाट
सम्यगुपलक्ष्यते संयती यद्यस्तु कोऽयं ज्येष्ठार्य ! ब्रूते, संयतो कादौ परिपाटी भवेत् , तत्राश्वगोहस्तिशुनकादीनामन्यतमः
वा संयतीमुपलक्ष्य अमुका संयतीति ब्रवीति तदा चत्वारो पुरुषो युक्तः सन् दुरस्थितामपि स्वजातीयामेव बडवादिकां
लघवः । अथ सा कृतिकर्मवन्दनं करोति तदा चत्वारो परिधावति । विपक्ष तु विजातीय-गवादिपक्षे पार्श्वगतेऽपि- गुरुकाः, ये चाभिनवधर्माणस्ते तथा वन्दमानामुपलभ्य प्रत्यासन्नस्थितेऽपि स्वपक्षमप्रेक्षमाणश्चरति, न पुनर्विपक्षम- मिथ्यात्वं गच्छेयुः। शेष-भोजिकाधाटिकादौ शङ्कां कुर्वाणे नुधावतीति भावः । एवं श्रमणोऽपि स्वपक्ष इति कृत्वा वि-| सति प्रसज्जना-प्रायश्चित्तस्य वृद्धिद्रष्टव्या। श्वस्तमनाः संयतीभिः सह सकं करोति ।
तामेवाहयतः
दिवे संका भोइय, घाडियणाईयगामबहिया य । आगंतुयदव्वविभू-सियंच ओरालियं सरीरं तु । चत्तारि छच्च लहगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥५१॥ असमंजसो उ तम्हा, गहित्यिसमागमो जइणो ॥४६॥ संयतस्य संयत्या कृतिकर्म क्रियमाणं केनचिद् दृष्टं दृष्टे सति
मवान्ता
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(totk) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसहि
तस्य शङ्का वक्ष्यमाणा संजायते ततश्चत्वारो गुरवः । अथ भोजिकाया- भार्यायाः कथयति ततब्धर्लघुफा, घाटि को मित्र तस्याग्रतः कथने चतुर, वातीनां स्वज नानां कथने पर लक्ष्या ग्रामस्य कथयति छेदः, प्रामयदिनिर्गत्य कथयति मूलम्, गामसीमायां कथने अनवस्थाप्यम्, सीमानमतिक्रम्य कथयति पाराधिक
कीदृशी पुनः शङ्का भवतीत्याहकुवियं नु पसादेंती, ओ सीसेण जायए विरहं । आओ तलपन्नचिया, पडिच्छई उत्तिमंगेणं ॥ ५२ ॥ तुरिति पितर्फे किमेषा संपती एवं यन्दमाना कुपितं सन्तमेनं संयतं प्रसादयति चाहोस्वित् शीर्षेय-मस्तकेन रद्द एकान्तं याचते, उताहो तेन साधुना तलेन वडकादिकरणेन प्रज्ञापिता सती प्रार्थनाम् उत्तमाङ्गेन प्रतीच्छति । इइ संकाए गुरुगा, मूलं पुण होइ निव्विसंके तु । सोही वासक्षतरे, लडुगतरी गुरुगतरी इयरे ।। ५३ ।। इति एवं शङ्कायां चत्वारो गुरुकाः, अथ निर्विशङ्कं कुपितप्रसादार्थमेव वन्दनकं करोति मन्यते ततो द्वयोरपि मूलम् भोजिकादि यो यस्य संबन्धेनाऽऽसअतरस्तत्र शोधिर्लघुकतरा, इतरस्मिन् पाटिकात्यादी संयम्धेन दूरतरे गुरुतरा ।
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अथ किमिति ज्ञातीनां प्रथमं न कथयतीत्याहविस्ससइभोइमित्ता- इसु तो नायत्रो भवे पच्छा । जह वह बहुजनाएं, करेह तह बढए सोही ॥ ५४ ॥ भोजक मित्रादिषु शरीरमात्रभिन्नेषु न किमपि गोपनीयमस्तीति कृत्वा यतोऽसी विश्वसिति ततो तीन वजनान पापयति यथा यथा बासी बहुजनज्ञानं करोति तथा तथा शोध प्रायश्चितं वर्तते। प्रधासी शायमानो जनः प्रतिषेधयति ततः प्रायश्चितमप्युपरमते । तथा चाऽऽह
पडिमेहो जम्मि पदे, पायच्छित्तं तु ठाइ पुरिमपए । निस्संकियम्मि मूलं मिच्छत्तपसा सेसे ॥ ४५ ॥ तेन पुरुषेण भोजिकाया श्राख्यातम् मया संयती संयतं शीप्रणामेनावभाषमाणा दृष्टा ततः सा प्रतिषेधयति न भवत्येवम् श्वमसमभाव इति ततः प्रायश्चित्तमप्युपरतम् । अथासौ तया न प्रतिषिद्धस्ततः प्रायश्चित्तं वर्द्धते, एवं घाटिकादिष्वपि वक्रव्यम् ततो यस्मिन् भोजिकादी पदे प्रतिषेधस्वतः पूर्वपदे शादी प्रायश्रितं विष्ठति, नो वर्द्धते । तथा कुपितप्रसादनार्थमेव करोतीति निःशहिले मूलम् । एवं मिथ्यात्वं शेषस्य च भोजिकादिविषयप्रायश्चित्तस्य प्रसञ्जना भवति ।
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कथं पुनर्भोजिकादयः प्रतिषेधयन्तीत्याहफिइकम्मं ती कर्म मा संक असंकखिचिताई । न वि भूतं न भविस्सह, परिसगं संजमघरेनुं ।। ५६ ।। [कृतिकर्म-वन्दनकं तया संयत्या कृतं मा प्राय अशी यचित्ता श्रमूः संक्लिष्टाः नापि भूतम् । श्रपिशब्दान्न भवति, भविष्यति भवत्परिकल्पितं कुपितप्रसादादिकम समय सचेष्टितं सयमधरेषु साधुसाध्वीजनेषु । एवं विचारभूमीगत दोषा उ
सहि
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अथ भिक्षाचर्यायां तानेवा पदमवितियातुरो वा सह कालतमुतो वा । रत्थामुहाइप विसं - नितो व जण दीसिजा ॥ ५७ ॥ रस्थामुदाइ ति तस्मिन् ग्रामे यामुळे आदिशन् दन्यत्र च तथाविधे स्थाने देव वा शून्य वा भवेत् रात्र प्रथमपरीहारः प्रथमालिकाम् द्वितीयपरीषदातुर इयपानार्थ प्रविशेत्, पहा-या सत्काला आदेशकालो भवति तावदत्रेयोपविष्ठस्तिष्ठामि अथवा तपस्वीपक्षकः स विश्रामग्रहणार्थम् यद्वात् कस्यापि मच्छ समुत्पन्ना तस्या अपनयनार्थम्, यद्वा-भिक्षाटनेन श्रान्तोऽहमतोऽत्र विश्रामं गृह्णामि; एवमेतैः कारणैस्तत्र प्रविशेत् । स च प्रविशन् ततो नियाजनेन दृश्यते संयत्यपि कारण प्रविशेत् । साऽपि प्रविशन्ती जनेन दृष्टा स्पात् । यत्र चतुर्भङ्गीमाह
संजयो दिट्ठो तह सं-जई य दोसि वि तदेव संपत्ती । रत्थामुहे व होजा, सुन्नघरे देउले वाऽवि ॥ ५८ ॥ संयतस्तत्र जनेन दृष्टो न संयती १, संयती दृष्टा न संयतः २, संयतः संयती च द्वावपि दृष्टौ ३, तथा द्वावपि न दृष्टौ ४, 'तब संपतीति : कारणे प्रथमद्वितीयपरीषदा55रतादिभिः संयतः प्रविष्टस्तैरेव संगत्या अपि तत्र संप्रासिरभूत् । एवमनन्तरोक्त चतुभैया रथ्यामुळे शून्यगृहे वा देवकुले वादर्शनं स्यात् । ततः किमित्याह
वणी पुव्यपविडा, जेणार्य परिसते जई एत्थ । एमेव भवति संका, वणिं दण पविसंति ॥ ५६ ॥ संयतं तच प्रविशतं राहते नूनं प्रतिनी पूर्वप्रविश वर्तते, येनाऽयं यतिरत्र प्रविशति । एवमेव व्रतिनीं प्रविशन्तीं दृष्ट्रा शङ्का भवति, नूनं संयतः प्रविशोऽच येनेयं प्रविशति । उभयं वा दुदुवारे, दहुं संगारउ ति मन्नति ।
ते पुणजइ अनोन्नं, पासंता तत्थ न विसंता ॥ ६० ॥ द्विद्वारे वा देवकुले उभयं संयतः संयती प्रविशेत्, तत्रैकेन द्वारेण संयतः प्रविशे द्वितीयेन तु संपती तौ च तथा रा संगार:- संकेतोऽधानयोरिति मन्यमानः तो च संपतीसंवती यद्यन्योन्यमद्रक्ष्यताम् ततस्तत्र नावेदयतां प्रवेश नाकरिउष्यताम् । इत्थं प्रये चतुर्भदर्शिता ।
अथ निर्गमनेऽपि तामतिदिशचाद। एमेव ततो सिंते, भङ्गा चचारि होंति नायव्त्रा । चरिमो तुल्लो दोसु वि, अदिट्ठभावेण तो सत्त ॥ ६१ ॥ एयमेय-प्रवेशयत् ततः शून्यगृदादेर्निर्गच्छतोरपि तयोश्वत्यारोमा भवन्ति हातव्याः, तद्यथा संयतो निर्गन रो न ती ती निच्छन्ती दान संयतः २ संयतः संय त्यपि द्वापि न च द्वयोरपि प्रवेशनिर्गमयोश्वरमः - चतुर्थो भङ्गस्तुल्यः । कुत इत्याह- अदृष्टभावेन द्वयोरपि संयतयोरन्येन ततध द्वाभ्यामप्येक एव गण्यते । एवं सप्त भङ्गा भवन्ति ।
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पतेषु दोषानाह
एकेकम्मिय भने दिट्ठाईया व गहणमाईया
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वसहि
अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि सचमगळे मासो, भाउमयादी य सविसेसा ॥ ६२॥ मासाइ जाव गुरुगा, अविसेसा हुंति सव्वेसि ॥ ६७॥ एकस्मिन मोरसतिशामोजिकादयो दोशामवान्ति। अथवा-चतुर्गुरुका एव मिथुप्रभृतीनां चतुर्णामपि तपःतत्रशानाम-किश्चित् श्रमसार्थमत्र प्रविशन्ती उत प्रतिसेवा काविषिता मवन्ति । तद्यथा-मिक्षोाभ्यामपि तपःकानार्थमिति तत्र चतुर्गुरु,स्वप्रतिसवीति निःशहिते मूलम् शेष
लाम्यां सघवः, वृषमस्य तपोलघवः कालगुरवः, उपाध्यामोजिकानिवेदनादि प्रायश्चित्तं प्राम्बग्द्रष्टव्यम्।तथा उमयोर
यस्थ तपोगुरुकाः काललघुकाः, प्राचार्यस्य द्वाभ्यामपि पिराजपुरुः तत्र प्रवेशेरष्टे सति प्रहलाकर्षसादयो दोषाः,
तपःकालाभ्यां गुरवः । एष चतुर्य आदेशः । अथ पञ्चमसामे ममासलघु, तत्र चात्मोमवादिसमुत्थाः सविशेषा
ममाह-मासाइ जाव' इत्यादि, यद्वा-मासादारभ्य चतुदोषाः । तथाहि-तत्रोमयोरप्यादन्योन्यदर्शने द्वयोरेक
गुरु यावदविशेषितानि-तपःकालविशेषरहितानि भिचुवृषसरस्व वा चित्तमेदः समवेत् , केनाप्यावां प्रविशन्तो न
मादीनां प्रार्याश्चत्तानि । तद्यथा-भिक्षोर्मासलघु, वृषमस्य यविति सन्वा तत्रैकान्ते घटनं मवेत् , आदिशब्दाच्च
मासगुरू, उपाध्यायस्य चतुर्लघुकम्, प्राचार्यस्य चतुर्गुरुनुवर्ष विराषितमावाम्बामिति मत्वा वैहायसमरसावधा
कम् । एतानि च प्रायश्चित्तानि सर्वेषां मनचतुष्टयेऽपि तपबनादीनि कुर्वाताम्।
कालाम्यामविशेषितानीति पञ्चम श्रादेशः। एवं तावत्प्रवेश
प्रत्यये पश्चपदेषु प्रायश्चित्तमुक्तम् । अथ प्रवेशविषयेषु माकेषु पञ्चमिरादेशः प्राय
अथ तत्र प्रविष्टानां ये दोषाः संभवन्ति तत्प्रत्ययं चित्तममिधिन्मुः प्रथमादेशतस्ताक्दाह
प्रायश्चित्तमाहचरिमे पढमे विइए, तइए मजे व हो इमा सोही।
दिट्ठोमासपडिस्सुय-संचारतुपट्टचलखउक्खवे । मासो नहुरो गुरुयो,चउत्तगुरुगाय भिक्खुस्स।६३
फासबपडिसेवख्या, चउलहुगाई उ जा चरिमं ॥६॥ चरमो नाम यत्र अपिन रहे.प्रथमो यत्र संयत एव दृष्टः,
एवं प्रविष्टयोः संयतसंयत्योः परस्परं दृष्टे-दर्शने सति द्वितीयो यत्र हे अपि दऐ४, एतेषु महेषु यथाक्रम मिचो
चतुर्लघवः, ततः संयतः संयती वा यद्यवभाषते ततश्चत्वारो रिवं शोधिमेन्तब्या। तद्यथा-मासो लघुकः, मासो गुरुकः,
गुरवः, अवमापिते सति यदि प्रतियोति तदा षट् लघवः, चतुर्लघुकाः, चतुरुकाः।
संस्तारके कृते पद् गुरवः, त्वग्वर्त्तने कृते छेदः, चलनवसमे य उबज्माए, आयरिएँ एगठासपरिवड़ी। । पादस्तस्योत्क्षेपे मूलम् , स्पर्शने अनवस्थाप्यम् , प्रतिसेवने मासमुळं आरम्मा, नायब्बा जाब छेदो उ॥ ६४॥ । पाराञ्चिकम् , एवं प्रविष्टानां प्रायश्चित्तमुक्तम्। वृषमस्योपाध्यायस्य आचार्यस्य चतुर्गुरुकादारब्धं वेदा
अथ नैगमविषयमाहम्तै द्रष्टव्यम् , एष प्रथमक श्रादेशः।
पविसंते जा सोही, चउसु वि भागसु वनिया एसा। अथ द्वितीय उच्यते
निक्खममाले सच्चिय, सविसेसा होइ मनेसु ।। ६६॥ अहवा चरिमे लहुओ, चउगुरुमं सेसएसु मङ्गसु ।।
संयतीसंयतयोः प्रविशतोर्या शोधिश्चतुपि भङ्गेषु पञ्चभिक्खुस्स दोहि वि लह, कालतवेदोहि वी गुरुगा।६।। मिरादेशैरेषा अनन्तरमेव वरिणता सैष शून्यगृहादेर्निष्काअथवा-चरमे मते लघुको मासः, शेषेषु त्रिवपि भलेषु मतोरपि सविशेषा चतुलपि भनेषु भवति । एवं तावद् ग्राप्रत्येकं चतुर्परुकम्, एतानि प्रायश्चित्तानि मिझोर्द्धयमपि मादेवहिर्वजन्तीनाम् अन्तर्विचारभूमौ गच्छम्तीमां भिक्षानपसा कालेन च लघुकानि , वृषभस्य कालगुरुकाणि उपा- चर्यायां च दोषाः प्रतिपादिताः। ध्यायस्य तपोगुरुखि, प्राचार्यस्योमयगुरूसि, एष द्वितीय
अधुना प्रामादेर्बहिर्विचारभुवं गच्छन्तीनां दोषानुपदर्शप्रादेशः।
यितुमाहअथ वतीय उच्यते
अंतो विशार असई, अवियत्त सगार दुजणवते वा। मासो विसेसिमो वा, तइया देसम्मि होइ मिक्सुस्स।
बाहिं तु वयेतीवं, अपत्तपत्तास्थिमे दोसा ।। ७ ।। गुरुगो लडुगा मुरुगा, विसेसियो सेसगावं तु ॥६६॥
अन्तीमादेरभ्यन्तरे विचारभूमेरमावे, अप्रीतिकं वा सा'वा' इति-अथवा, हतीयादेशचतुर्च पिमहेषुलघुमासस्तपः
गारिकः-शय्यातरस्तत्रत्युत्सर्जने कुर्यात् , दुर्जनवृतं वा-दुःकालविशेषितो मिक्षोभवति । तद्यथा-चतुर्मकेषु द्वाभ्यामपि
शीलजनपरिश्तं तत्पुरोहडम् , ततो प्रामादेवहिर्वजन्तीनपःकालाभ्यां लघुकं गुरुमासिकम् , प्रथमे तदेव तपसा
नामन्यं स्थण्डिलमप्राप्तानां वा इमे दोषाः । लघुकं कालेन गुरुकम् , द्वितीये कालेन लघुकम् तपसा गुरुकम् , तृतीये द्वाभ्यामपि तपःकालभ्यां गुरुकम् , शेषाणां
वीयारामिमुहीमो, साई दह्य संनियत्ताभो । वृषभोपाध्यायाऽऽचार्याणां यथाक्रमं गुरुको मासः। चत्वारो लहुमो लहुया गुरुगा, छम्मासा छेयमूलदुर्ग ॥७१ ॥ गरुकाश्चतुर्वपि भनेप्वेवमेव तपःकालविशेषिताः प्राय- विचारभूमेरभिमुखं गच्छन्त्यः साधुं तत्र यान्तं दृष्ट्वा यश्चित्तम् , एष तृतीय श्रादेशः।
दि संनिवर्तते तदा लघुको मासः, संनिवृत्ताः सत्यः संअथ चतुर्थमाह
ज्ञां धारयन्त्यो यद्यनागादं परिताप्यन्ते तदा चतुर्लघवः, महवा उगुरुगा चिय, विसेसिया हुंवि मिक्सुमाईणं ।। श्रागाढपरितापनायां चतुर्गुरवः । महादुास्त्र षड् लघवः, मू
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि यां षड्गुरवः, कृच्छ्रमाणे छेदः, कच्छोच्छासे मूलम्, समु- इति ते गोणीहि समं, धिइमलभंता उबंधिउं दारं । खाते अनवस्थाप्याम् , कालगमने पाराश्चिकम् ।
गामस्स विवच्छामो, बाहिं ठावेसु गावीओ ।। ७८ ॥ एनामेव गाथां व्याख्यानयति
विकुर्विता-वस्त्रादिभिरलंकृता बोन्दिः-शरीरं येषां ते विएसो वि तत्थ वच्चइ, नियत्तिमो आगयंसि गच्छामो ।
कुर्वितबोन्दयस्तेषामेवंविधानां भोगिकसंबन्धिनां खरकलहुओ उ होइ मासो, परितावणमाइ जा चरिमं ।।७२।।
र्मिकाणां लजमानाः सत्यो महेला बहिरनिर्गच्छन्त्यों गोबाटएषोऽपिऽसंयतस्तत्र स्थण्डिले व्रजति अतो निवर्तामहे ब
कपुरोहडं निभञ्जन्ति: पुरीषव्युत्सगांदिवाविनाशयन्तीत्यर्थः, यम् , अागते प्रतिनिवृत्ते सति गमिष्याम इति कृत्वा य- इत्येवं विचार्य ते श्राभीरा धृतिमलभमाना गोभिरात्मना सादि संयत्यो निवर्तन्ते तदा लघुमासः। अथ संशानिरो- संचारिताभिः सह बहिर्निर्गतग्रामस्य द्वारे बढ़ा विवत्सा:धनादनागाढपरितापनादिकं चरम-पायश्चिकं यावत्प्राय-|
वत्सरहिताः केवला एव गाः उपलक्षणत्वान्महिषीश्च प्रामश्चित्तम्।
स्य बहिः स्थापितवन्तः । ताश्च तत्र स्थिताः स्ववत्सवियोगड्डाकुडंगगहणे, गिरिदरिउजाण अपरिभोगे वा।
जिता महता शब्देन सकलामपि रात्रि विस्वरमारटितवत्यः, पविसंते य पविद्वे, निते य इमा भवे सोही ।। ७३ ॥ वत्सका अपि ग्रामं नि:स्थिताः तथैव शब्दायितवन्तः। अथ तान् साधून हवा यदि गर्तायां कुडले बंशजालिकायां
ततः किमभूदित्याहगहने-बहुवृक्षनिकुडले गिरिकन्दयों-पर्वतकन्दरायाम् ,उद्याने वच्छगगोणीसद्दे-ण असुवणं भोइए अहणि पुच्छा । वा अपरिभोगे प्रविशेयुः, ततः प्रविशम्तीषु-प्रविष्टासु निर्ग
सम्भावे परिकहिए, अनम्मि ठिो निरुवरोहे ॥७९॥ च्छन्तीषु चेयं शोधिः साधूनां भवति ।
तेषां वत्सकानां गवां च यः शब्दो विस्वरारटनलक्षणस्तेन दम्मि दिडे लहुओ, अमुई अमुओ ति चउगुरू होंति । भोगिकस्यास्वपनं-निद्रा न संयातेत्यर्थः। ततः अहनि-दिवसे ते चेव सत्त भङ्गा, वीयारगए कुडंगम्मि ॥७४॥ उद्गते सति तेन पृच्छा कृता । यथा-किमेवं रात्री गोमहिषं यदि दूरे संयत्या संयतः, संयतेन वा संयती दृष्टा ततो विस्वरसमारटत् । तैराभीरैस्ततः सर्वोऽपि सद्भावः लघुको मासः, अथ अमुका संयती श्रमको वा अयं ज्येष्ठार्यः
परिकथितः । ततोऽसौ भोगिकोऽन्यस्मिन् देवकुले नितिष्ठति तदा चतुर्गुरवो भवन्ति । तत्र च कुडले यदि कोऽपि
रुपरोधे-निर्व्याघाते गत्वा स्थित इति । संबतो क्विारार्थं गतः पूर्व प्रविष्टो वर्तते तदा त एव सप्त भ
अत्रोपनयमाहमाः।तद्यथा-संयतः प्रविशन् दृष्टो न संयती १,संयती प्रविश- एवं चिय निरवेक्खा, वइणीण ठिया निरोगपमहम्मि । न्ती दृष्टा न संयतः२,द्वावपि दृष्टौ ३, द्वावपि न दृष्टौ ४ा एवं
जा तासि विराधणया, निरोघपादी तमावजे ॥५०॥ निर्गमनेपि चतुर्भङ्गी, नवरं चतुर्थों भङ्गःप्रवेशनिर्गमयोरुभयोरपि तुल्य इति कृत्वा द्वाभ्यामप्येक एव गण्यते इति सप्त
एवमेव भोगिकबत् केचिन्निरपेक्षाः-संयता अतिना सभङ्गा भवन्ति । एतेषु च प्रायश्चित्तं प्रागिव द्रष्टव्यम् ।
म्बन्धी यो नियोगो ग्रामः क्षेत्रमित्यर्थः , तस्य प्रमुख निर्गअथ तत्र ग्रामद्वारे स्थितेषु तेषु यत्तासां संयतीनां नि
मप्रवेशद्वारे स्थिवास्तैर्या तासां निरोधादिका विराधना - रोधो भवति तदुत्थदोषदर्शनाय दृष्टान्तमाह
श्रादिशब्दादनागाढपरितापनादिका तामापद्यते तनिष्पन्नं आभीराणं गामो, गामदारे य देउलं रम्मं ।
तेषां प्रायश्चित्तं भवतीति भावः।
अहवण थेरा पत्ता, दहूं निकारणट्ठियं तं तु । आगमणभोइयस्स य, ठाइ पुणो भोइओ तहि यं॥७॥ भाभीराणां कश्चिद्रामस्तस्य च ग्रामस्य द्वारे देवकुलं
भोइयनायं काउं, प्राउट्टविसोहिनिच्छुभणा ॥१॥ रम्यम् । अन्यदाच भोगिकस्य ग्रामस्वामिनस्तत्रागमनम् ,त.
'अहवण'त्ति अखण्डमव्ययपदमथवेत्यस्यार्थे । अथवातस्तद्देवकुले भोगिकस्तिष्ठति ।
स्थविरा:-कुलस्थविरादयस्तत्र क्षेत्र प्राप्तमाचार्यादिकं प्रामहिलाजणो य दुहितो,निक्खमण पवेसणं च सिं दुक्खं ।।
मद्वार एव स्थितं दृष्ट्रा पृच्छन्ति, आर्य ! किमत्र संयतीक्षे
वे च भवानीरशे प्रदेशे स्थितः ?, इति । ततो निर्वचने प्रदसामत्थणा य तेसिं, गोमाहिससंनिरोधो य ॥७६॥ ते यदि निष्कारणिकस्ततो भोगिकशानमन्तरोनं कुर्वततस्तेषामाभीराणां महिलाजनो दुःखितोऽभूत् , निष्क- न्ति । यथा-तेन महिलाजनेन महान् क्लेशराशिरनुवभूवे एमणं प्रवेशनं च तासां विचारादौ गच्छन्तीनां दुःस्वं दुष्कर- वमेताभिरपि संयतीभिर्वा भवता अत्र स्थितेन महद् दु:मभवत् । ततस्तेषां 'सामथण' त्ति पर्यालोचनमभूत् ,यथा-| खमनुभवनीयम् । एवमुक्ते यद्यावृतः-प्रतिनिवृत्तस्ततो विशोमहिलाजनस्यातीव बाधा वर्तते । अथ एन भोगिकमुपाये-| धिं प्रायश्चित्तं देशतः क्षेत्रानिष्काशना कर्तव्या । नान्यत्र स्थापयाम इति ततस्तैर्गोमाहिषस्य-गोमहिषीस- ___ एवं ता दप्पेणं, पुट्ठो व भणिज कारणठिोऽमि । प्रहस्य स्ववर्त्मवियोजनस्य प्रामावहिर्नीत्वा-प्रामद्वारबन्धने रात्रौ संनिरोधः कृत इति ।
तहि यं तु इमा जयणा, किंकजं का य जयणा उ॥८२॥ इदमेव स्फुटतरमाह
एवं तावद्दणाकुट्टिकया स्थितानां दोषा उक्ताः । अथ विगुरुब्बियबोंदीणं, खरकम्मीणं तु लज्जमाणीओ।
कुलादिस्थविरैः पृष्टो भणेत्-कारणे स्थितोऽस्म्यहम् , ततः
पुष्टकारणसद्भावे न प्रायश्चित्तम् , न निष्काशना । भंजंति प्रणतीओ, गोवाडपुरोहडे महिला ||७७॥ | तत्र तु कारणे स्थितानामियं वक्ष्यमाणा यतना ।
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(१००) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
बसहि शिष्यः प्राह-किं पुनः कार्य-कारणम् ? का वा यतना । काः आदिशब्दात्-पानकस्य वा पानं शून्यगृहादिस्थानानि उच्यते
वर्जयित्वा कुर्वन्ति । संयतीनां पुरतः प्रथम समकं वा यतप्रद्धाणनिग्गयाई, अग्गुज्जाणे भवे पवेसो य । नया पर्यटन्ति, एष नियुक्निगाथासमासार्थः । पुषो ऊणे व भवे, गमणं खमणं च सव्वासिं ॥३॥
अथ विस्तरार्थे प्रतिपदमाहअधुना येऽध्यनिर्गता वसिम प्राप्तास्ते, आदिशब्दादशि
कडमकडं ति य मेरा, कडमेरा मित्तियं ति जइ पुट्ठा। वादिकारणेषु वर्तमानाः संयतीक्षेत्र प्राप्तास्तत्र बाह्योद्या- ताहे भणंति थेरा,साहह किह गिएिहमो भिक्खं ॥७॥ ने स्थिता गीतार्थाः संयतीप्रतिश्रये प्रहेयाः, तैश्च विधि
स्थविरैस्ताः वक्तव्याः, आर्याः ! युष्माकं मर्यादा-सामाचाना तत्र प्रवेशः कर्तव्यः । संयतीनां च मासकल्पः पूर्व ऊ- रिकाविधि जानीम इत्यर्थः । ततः स्थविरा भणन्ति कथयत नो वा भवेत् , यदि पूर्मस्ततो गमनं कर्तव्यम् । अथ न्यून
कथं भिक्षां गृहीमो वयम् । स्ततः सर्वासामपि क्षपणं भवतीति नियुक्तिगाथासमासाथैः । अथ विस्तरार्थमाह
ता बेंति अम्ह पुस्मो, मासो बच्चामो अहव खमणं थे। उव्वाया वेला वा, दूरुट्ठियमाइणो य परगामे ।
संपत्थियाओं अम्हे,पविसह वा जा वयं नीमो ॥८॥ इय थेरानो सिजं, विसंतणावाहपुच्छा य ॥८४॥
ता आर्यिका युवते-पूर्णोऽस्माकं मासकल्पः अतः सूत्रार्थपौअभ्यनिर्गतादयः साधवः संयतीक्षेत्र प्राप्ताः सन्तो यदि
रुष्यौ कृत्वा बजामो वयम्--प्रामान्तरं ब्रजिष्याम इति सा न तापदिक्षाया देशकालस्ततो यः पुरोवर्ती ग्रामस्तत्र
धवो यथासुखं पर्यटन्तु । अथवा-न पूर्णास्तथाऽपि क्षपण
मद्य ‘णे' अस्माकं सर्वासामपि ततः पर्यटत यूयम् । अथ गत्वा भैक्षं गृहन्तु । अथ ते उद्वाता:-अतीव परिश्रान्ताः,वे
नक्षपणं ततस्ता ब्युः-संप्रस्थिता वयं भिक्षाटनार्थ यूयं लावा तदानीमतिकामति, परग्रामे वा दरोत्थितादयो दो
पश्चात् पर्यटत । अथवा-प्रविशत-भिक्षामवतरत यूयं निर्गषाः, तत्र दूरे-दूरवर्ती स ग्रामो न तदानीं गन्तुं शक्य
च्छाम इति। ते, उत्थितो वा उद्वसीभूतोऽसौ आदिशब्दात्-पुलको वा
यदाच तासांक्षपणं भवति तदा यु:अभिनववासितो वा भाराकान्तो वा इत्यादिपरिग्रहः, इति विचिन्त्य अग्रोद्याने स्थित्वा यः स्थविरो-गीतार्थः स श्रा
विस्थिमो य पुरोहडो,अन्तोभूमी य णे वियारस्स । त्मद्वितीयः संयतीप्रतिश्रये प्रेक्ष्यते । स च तत्र गत्वा ब
सागारिओ य सन्नी,कुणइ उ सारक्खणं अम्हं ॥८॥ हिरेकपाबें स्थित्वा नैषेधिकीं करोति । यदि ताभिः श्रुतं
विस्तीर्ण 'पुरोहडं' वर्तते । गाथायां प्राकृतत्वात्पुंस्त्वनिहेंशः ततः सुन्दरम् । अथ न श्रुतं ततः शय्यानराणां निवेद्यते, ता
'णे' अस्माकमन्ताममध्ये विचारभूमिरस्ति , यश्चास्माकं आर्यिकाणां निवेदयन्ति । निवेदिते यदि सर्वा अप्यार्यिका
सामायिकः स संझी-श्रावकस्ततः संरक्षणमस्माकं करोति वृन्देन निर्गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । अथ प्रय
बहिर्विचारभुवं गन्तुं न ददातीत्यर्थः । एवं संयतीभिरुक्ने, र्शिनी प्रौढाभ्यां-वयः परिणताभ्यामार्यिकाभ्यां सहिता
साधवस्तत्र यथासुख पर्यटन्ति । अथ ताभिः पूर्वेक्षपणं न निर्गत्यानुजानीतेति भणति ततस्तो साधू आव्शय्यां
कृतं ततो यदि सुभिक्षं वर्तते प्रचुरं च प्राप्यते ततः संयत्यः साध्वीप्रतिश्रयं प्रविशतः । ततश्च ताभिः कृतिकर्मणि
क्षपणं कुर्वन्तु। अपि च-यद्यपि ताभ्यां साधुभ्यो भक्तपानं विहिते स गीतार्थः साधुरधोमुखमवलोकमानः प्राचार्य
प्रदतुं न कल्पते तथाऽप्येवं कुर्वन्तीति तामिः प्राघुये कृतं बचनेन तासामनाबाधपृच्छां करोति-कश्चिदुत्सर्पन्तीनां
भवति । अथ न शक्नुवन्ति क्षपणं कर्तुं ततः संयत्यः प्रासंयमयोगा निराबाधं भवतीनाम्? ग्लाना वा न काचिद्वर्तते ।
गेव पर्यटन्त्यो दोषानं गृहन्ति, संयता भिक्षाया देशकाले एवं पृष्टा किं कुर्वन्तीत्याह
पर्यटन्त उष्णं गृहन्दि । अथ संयतीनां दोषानमकारकं ततः अमुगत्थ गमिस्सामो, पुट्ठाऽपुट्ठा वई य वोत्तूणं ।
संयता दोषामितराः पुनरुष्णं गृहन्ति । इह भिक्खं काहामो, ठवणाइघरे परिकहेह ॥८५॥
उभयस्स अकारेत-म्मि दोसि णे अहव तस्स असईए । स्थविराः-गीतार्थाः पृष्टाः अपृष्टा वा अमुकत्र वयं गमिष्या
संथरि भणंति तुम्हे, अडिएसु वयं प्रडीहामो ॥१०॥ मः इत्युक्त्वा इदं भणन्ति-चयमिह प्रामे भिक्षां करिष्यामः उभयस्य-संयतीसंयतवर्गस्य दोषान्ने प्रकारके, अथवाततः स्थापनादिगृहाणि परिकथयत । श्रादिशब्दो मात्रादि-| तस्य दोषावस्यासत्यभावे संस्तरणे सति संयत्यो भणन्तिगृहसूचकः।
यूयं तावदटत, ततो युष्मासु अटितेषु वयमटिष्यामः । ततस्तेषु कथितेषु यो विधिः कर्त्तव्यस्तमाह
अथैक एव तत्र देशकालस्ततः क्रमेण पर्यटने वेलाया सामायारिकडा खलु, होइ अवडा य एगसाही य। | अतिक्रमो भवति ततः किंकर्तव्यमिस्याहमीरा पदमादी परतो समगं व जयणाए ॥६॥ तुज्झे गिएहह भिक्खं, इमम्मि पउरमपाणगामद्धे । हे भार्याः कृतसामाचारीका यूयमुत नेतितासां समीपे प्रष्ट वागडसाहीए वा, अम्हे सेसेसु धेच्छामो॥ ११ ॥ व्यम्,'अवहेत्ति एकस्मिन्मासाद्धे संयताः पर्यटन्ति, द्वितीय- संयत्यो खुवते-यूयं गृहीत भिक्षामस्मिन् प्रचुरानपानस्य स्मिन् संयत्यः । 'एगसाही यत्ति एकस्यां साहीकायां गृहप- प्रामस्याः , अस्मिस्तु प्रामाः वयं ग्रहीष्यामः । यदि वा-अअथांसाधवः पर्यटन्ति,द्वितीयस्यां साध्व्य इति । यद्वा-शीतम् | | स्मिन् पाटकेऽस्यां वा साहिकायां यूयं गृहीत, वयं शेषेउ वा यथायोगं गृह्णन्ति । तथा ' पढमाइ'ति प्रथमालि- चु प्रहीष्याम इति ।
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि भोलीनिवेसणे वा, वजितु अडंति जत्थ य पविट्ठा । पापः प्रतिभाति, कल्याणकारिणः पुनः सर्वोऽपि साधुकारी। नयवंदणं न नमणं, न य संभासो न वि य दिट्ठी।।१२॥
ततश्च'भोलि' ति प्रामगृहाणामेका पक्तिः निवेशनम्-एक
नूणं न तं वट्टा जं पुरा मे, निर्गमनप्रवेशानियादीनि गृहाणि, ततो यस्यां पङ्को नि
इमम्मि खत्ते जइभावियम्मि । घेशने वा संयत्यः पर्यटन्ति तां वर्जयित्वा अन्यस्यां पङ्- अवेयवञ्चाण जतो करेहा, क्लो अन्यस्मिन् वा निवेशने संयता भिक्षामटन्ति । अथ
अम्हाववायं अइपंडियाओ ॥१७॥ लघुतरोऽसौ ग्रामस्ततः पङ्क्त्यादिविभागो न शक्यते कर्तु
नून-निश्चितं यत् कुण्डलविण्टलं पुरा'भे' भवत्यः कृतवस्या ततो यत्र गृहादौ प्रविष्टा रथ्यायां वा गच्छन्त एकत्र मि
स्तदत्र क्षेत्रे यतिभाविते न वर्तते कर्तुम् । कुत एतज्ज्ञायते ? लन्ति तत्र च नैव वन्दनं-कृतिकर्म न वा नमनं-शिरःप्र
यद्वयं कुण्डलवेण्टलं कृतवत्य इति चेदत आह-अपेतवाणाममात्रं न च संमाषः-परस्पराऽऽलापो नापि च दृष्टिसं
च्यानां-वचनीयतारहितानां यत एवं यूयमिति पण्डिता मुखमवलोकनमाप्नुवन्ति, पूर्वोक्तशङ्कादिदोषप्रसङ्गात् इति ।। अतीव दुर्विदग्धाः, अस्माकमपवादमसदोषोद्धोषणं कुरुथ । पुब्वभणिए य ठाणे, सुनोगादी चरंति वजेंता।
इत्थमसंखड उत्पन्ने किं कर्तव्यमित्याहपढमबिइयातुरा वा, जयणा आइन्नधुवकम्मी ॥६३॥ । तत्थेव अणुवसंते, गणिणीते कहिंति तह वि हु अठते । पूर्वभणितानि च शङ्काविषयभूतानि शून्यौकः-शून्यगृहं गणहारीण कहेंति, सगाण गंतूण गणिणीओ।।६८॥ तदादीनि स्थानानि दूरेण वर्जयन्तश्चरन्ति , प्रथमद्वितीय-| यदि तत्रैव परस्परमुपशान्तं तदसंखडं ततः सुन्दरमेव । - परीषहातुराश्च यतनया जनाकीणे ध्रुवकर्मिका वा का- थनोपशान्तं ततो गणिन्याः-स्वस्याः स्वस्याः प्रवर्तिन्याः कठसूत्रधारादयो यत्र यन्ति तत्र प्रथमालिकां-द्रवपानं वा- थयन्ति, यदि न कथयन्ति ततश्चतुर्गुरवः । ततस्ते प्रवर्तिन्यौ कुर्वन्ति । एवं संयतीक्षेत्रे साधूनामागतानां विधिरुतः । मधुरया गिरा प्रायोपशमयतः । तथाऽप्यतिष्ठति-अनुपरते
अथ उभयेषु पूर्वस्थितेषूभयेषामेवागमने विधिमाह- द्वे अपि गणिन्यौ गत्वा स्वेषां स्वेषां गणधारिणां कथयतः, दोनिवि ससंजईया, एगग्गामम्मि कारणेण ठिया । यदि न कथयतः ततश्चत्वारो गुरुकाः । तासिं च तुच्छयाए, असंखडं तत्थिमा जयणा ॥६४||
ततः प्रवर्तिम्या कथिते गणधरेण किं विधेयमित्यत आहद्वये अपि वास्तव्या आगन्तुकाश्च साधवो यदि ससंय- उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारिनिवेदणं तु कायव्वं । तीका एकस्मिन् प्रामे कारणेन स्थिताः, तासां च संयतीनां जइ अप्पणा भणेजा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥६६।। तुच्छतया यद्यसंखडमुपजायते तत्रेयं वक्ष्यमाणा यतना: अधिकरणे उत्पन्ने सति प्रतिनीमुखादाकर्ण्य तेन गण
माह-तिष्ठतु तावद्यतना कथं पुनस्तासामसंखडमुत्पन्न-1 घरेण द्वितीयस्य गणधारिणो निवेदनं कर्तव्यम् । यदि स भूतमिति तावद्वयं जिज्ञासामहे, ताभिर्वास्तव्यसंयतीभि- गणधर श्रात्मनैव गत्वा द्वितीयगणधरसत्कां वतिनी भणेत्रागन्तुकसंयत्यः पृष्टाः-आर्याः १, किं यूयं यहच्छया भक्त- उपालभेत ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः । पानं लभध्वे नवेति ?, ताः प्राहुः
इदमेव सविशेषमाहचुम्माइविंटलकए, गरहियसंथवकए य तुज्झाहिं । वतिणी वतिणं वयणी,व परगुरुं परगुरुं च जइ वइणिं । ताइँ अजाणंतीयो, फब्बीहामो कहं भो॥६५॥ । जंपद तीसु वि गुरुगा, तम्हा सुगुरुण साहेजा ॥१०॥ चूमे-वशीकरणादिफलं द्रव्यसंयोगरूपं तेनादिशब्दाजज्यो- | यदि बतिनी अतिनी जल्पति-उपालभते, वतिनी वा यदि तिपनिमित्तादिना च विण्टलेन कृते-भाषिते तथा गर्हि- परगुरुमन्यसंयतीगणधरं जल्पति, परगुरुर्वा यदि वतिनी तः पूर्वपश्चात्संबन्धरूपो यः संस्तवः-परिचयस्तेन वा | जल्पति, तत एतेषु त्रिष्वपि चतुर्गुरुकाः। तस्मात् स्वगुरूणां कृते-भाविते युष्माभिः क्षेत्र यानि चूर्णादीनि कर्तुमजा- | कथयेत् । उपलक्षणत्वात् स्ववतिनी चोपालभेत । नानाः कथं वयमत्र 'फव्वीहामो 'त्ति देशीपदत्वात् य
अथ परव्रतिनीमुपालभमानस्य को रन्छया भक्तपानं लभामहे ।
दोषः स्यादित्यत्रोच्यतेवास्तव्यसंयत्यः प्रतिषुषते
जाणामि मियं भे, अंगं अरुम्मि जत्थ अर्कता। सेवाणुमारण परं जणोऽयं,
को वा एभन्न मुणइ, वारहिह कित्तिया वाऽवि ॥१०१॥ ठावेइ दोसेसु गुणेसु चेव ।
सा परवतिनी भण्यमाना व्यात्-जानाम्यहं यदून भवतापावस्स लोगो पडिहाइ पावो,
मनम् , यत्र यस्मिनङ्गे अरुषि-वणे युष्मदीयसंयती प्रति बुकलाणकारिस्स य साहुकारी ॥१६॥ वाणया मया यूयमाकान्ता स्थ. को वा पतमर्थ न जानाति स्थेन-खकीयनानुमानेन परमन्यमात्मव्यतिरिक्तमयं प्रत्यक्षो |
कियतो वा युवतो नियारयिष्यथ । यद्यहं वारिता सती न ज लभ्यमानो जनो दोषेषु गुणेषु च स्थापयति, अविद्यमाना
ल्पियामि तर्हि अन्येऽपि जल्पियन्तीति। मामपि तेषां तत्राध्यारोपं करोतीति भावः । एतदेव व्य
अपि चक्रीकरोति पापस्य-पापकर्मकारिणो जनस्य लोकः-सर्वोऽपि निग्गंध न विवायति,अलाहि किंवाऽवि तेण भणिएणं।
तुति
जिमाल: १,
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वसहि
(१०२०) अभिधानराजेन्द्रः।
घसहि छ.एत्तुं व पभायं, न वि सका पडसएणावि ॥१०२॥ । जं इत्थं नाणतं. तमहं वोच्छं समासेणं ॥ १०८॥ न हि निर्गन्धो वायुति किं तु यादृशस्य बनवण्डादेमध्ये- द्वितीयभङ्गो-यामादिकमभिनिद्वारम्-अनेकद्वारम् ,अत न समायाति ताहग्गन्धसहित एव.एवं भवतामप्यस्या उपरि एवाभिनिष्क्रमणप्रवेशे परमेकवगडम् , तत्र त एव दोषा य ईशः पक्षपातः सन निःसम्बन्ध इति भावः । श्रथवा- भवन्ति, ये प्रथमभने प्रोक्ताः। यत्पुनरत्र द्वितीयभने ना'अलाहि' अलमनेन बनेनाभिहितेन मर्मानुवेधित्वात् ,किंवा
नात्वं तदहं वक्ष्ये समासेन । तेन भणितेन कार्यम्,यतः-प्रभातं संजातं सन्न पटशतेनापि
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिछादयितुं शक्यम्। इत्थं तन्मुखानिर्गते असद्भूतार्थे ऽपि दूषणे
तह चेव अनहा वा-विभागया ठंति संजईखेते। जले पतिते इव तैलबिन्दौ सर्वतः प्रसर्पति , सूपणां महान् छायाघातो जायते।
भोइयनाए भयणा, सेसं तं चेविमं वमं ॥ १०॥ __स च तत्त्वत प्रात्मकृत एवैतद् दृष्टान्तमाह
तथैव "सोऊण य समुदाणं, गच्छं आणित्त देउले ठार" मज्झत्थं अच्छंतं, सीहं गंतूण जो विबोहेइ ।
इत्यादिना प्रथमभङ्गोकप्रकारेणेव, अन्यथा वा संयतीक्षेत्रे अप्पवहाए होई, वेयालो चेव दुज्जुत्तो ॥१०३॥
आगताः सन्तस्तिष्ठन्ति, तत्रच स्थितानां तेषां भङ्गिक
झाते भजना कार्या। यदि संयतीनां विचारभूम्यादिमार्गे मध्यस्थमुदासीनं तिष्ठन्तं सिंहं गत्वा-उपेत्य यः कश्चिद्वि
स्थिताः ततो भवति भोगिकज्ञातम् । अन्यथा तदनुमतं मबोधयति-विशेषेण पाणिप्रहारादिना बोधयति,स विबोधितः
बतीति भावः । शेषं सर्वमपि प्रायश्चित्तादि तदेव प्रथमभसन् तस्यात्मवधाय भवति, वेताल इव वा-दुष्प्रयुक्तो यथा
कोनं ज्ञातव्यम्। साधकमेवोपहन्ति एवमियमप्याचार्येण प्रबोधिता सती
इदं चान्यदभ्यधिकमभिधीयतेतस्यैव छायाघातमुपजनयति ।
एगा व होज साही,दाराणि व होज सपडिजुत्ताणि । यतश्चैवमतः
पासे व मग्गतो वा, उच्चे नीए व धम्मकहा ।। ११०॥ उप्पने अहिगरणे, गणहारि पवित्तिणी निवारेइ ।
तत्रानेकद्वारे एकवगडे प्रामादौ साधुसाध्यीप्रतिश्रययोअह तत्थ न वारेई, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥१०४॥
रेका वा साहिका-गृहपतिर्भवेत् , द्वाराखि परस्परं सप्रतिउत्पन्ने अधिकरणे गणधारी प्रवर्तिनी निवारयत्ति , अथ
मुखानि भवेयुः। अथवा-साध्वीप्रतिश्रयस्य पार्श्वतोवा मा. तत्र गणधारी न वारयति ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः। ततो गणधरौ द्वायपि मिलित्या संयतीप्रतिश्रयं गत्वा प्रव
गैतो वा उच्चे वा नीचे वा स्थाने स्थिता भवेयुः, तत्राव
स्थितानां धर्मकथा कोऽप्यशुभेन भावेन कुर्यादिति द्वारतिनी पुरतः कृत्वा स्वस्थसंयतीरुपशमयतः।
गाथासंक्षेपार्थः। तत्र वास्तव्यसंयत्य इत्थमुपशाम्यन्ते
अथ विस्तरार्थमाहपाहुन्नं ताण कयं, असंखडं देहतो अलज्जाओ।
वह अंतरियाणं खलु,दोएह वि वग्गाण गरहिमो वासो। पुवट्ठिय इय अजा, उवालभंताऽणुसासंति ॥१०॥ प्राघूर्यम्-श्रातिथेयं तासामागन्तुकसंयतीनां शोभनं कृतं
भाला संलावे, चरित्तसंभेइणी विकहा ॥ १११॥ यदेवमलज्जाः सत्योऽसंखड दत्थ-कुरुध्वम्,पूर्वस्थिता श्राचा
एकस्यां साहिकायां वृत्त्या अन्तरितयोः संयतसंयतीरूपर्याः स्वकीया श्रार्या उपालभमाना इत्येवमनुशासते।
योरपि वर्गयोरेका वासो गर्हितो-निन्दितस्तीर्थकरैः प्रतिआगन्तुकसंयतीनामुपशमनोपायः पुनरयम्
कुष्ट इत्यर्थः, यतस्तत्र संयतसंयस्योः कायिक्यादिव्युत्सएग तासिं खेतं, मलेह बिइयं असंखडं देह ।
जनार्थ निर्गतयोः परस्परमालापे-सज्जल्पे संलापे-पुनः
पुनः संभाषणे संजाते सति चारित्रसभेदिनी विकथा वयआगंतुय इय दोसं, सिंचिंति तिक्खाइमहुरेहि ॥१०६॥
माणरीत्या भवेत्। एकं तापत्तासां वास्तव्यसंयतीसत्कं क्षेत्र मलयथ-विना
अथैकसाहिकायामेव दोषानाहशयथ,द्वितीयं पुनरसंखडं दत्थ-कुरुध्वम् । आगन्तुका प्राचार्या इत्येवं दोषमधिकरणलक्षणं तीक्ष्णमधुरादिभिर्वचनैः
उभयेगतरवाए, व निग्गया दड्डु एकमेकं तु । 'सिंचिंति' ति विध्मापयन्ति-उपशमयन्तीति यावत् । संकानिरोहमादी, पबंध प्रातोभया वाऽऽसु ॥ ११२ ॥ ततश्च
उभयं संज्ञाकायिकीरूपं तस्य एकतरस्य वा व्युत्सर्जनाअबराह तुलेतूणं, पुथ्ववरद्धं च गणधरा मिलिया ।
थे निर्गतयोः संयतीसंयतयोरेकैकं दृष्ट्वा शङ्का भवति । तबोहिनुमसागरिए,दिति विसोहिं खमावेउं ॥१०७।। थाहि-संयतः कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ निर्गतः संयती रद्वायपि गणधगै मिलिप्तौ अपराधं तोलयित्वा यस्या या- ष्टा प्रतिनिवृत्तः, पुनरपि कायिकीसंहाभ्यामुदाध्यमानो घान् अपराधस्तं परस्परसंवादेन सम्यक निश्चित्य; या पूर्वा- निर्गतः, ततः संयती तं रष्टा शकां करोति-नूनमेष मां पराद्धा-पूर्वमपराद्ध यया सा, तथा असागारिके एकान्ते कामयते । एवं संयतस्यापि संयती प्रविशन्ती निर्गच्छन्ती बोधयित्वा ततो द्वितीयां तस्याः पश्चात् क्षमापयेत् । यः क्ष. च रष्टा शङ्का भवति । अथवा-लोकस्य शङ्का भवति यमापयित्वा सचोभयोरपि यथोचितां विशोधि-प्रायश्चित्तं प्रय| थैष एषा वा यदेवं पौनःपुन्येन प्रविशति निर्गच्छति वा च्छति इति, गतः प्रथमो भगः ।
तन्नूनमेनामेनं वा अभिलषतीति, निरोधो वा कायिकीअथ द्वितीयं भर विभावयिषुराह
संक्षयोभवेत् , आदिशग्दाद्-अनागाढपरितापनादिपरिग्रहः । अभिनिवारनिक्सम- पवेसे एगवगडितेचेव । । कथाप्रबन्यो वा वक्ष्यमाणो भवेत् । ततश्वात्मसमुत्येन उभ
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(१०२१), वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि यसमुत्थेन वा, वाशब्दात्-परसमुत्थेन वा दोषेण आशु- ध्यमानः संयतः प्रवातार्थे बहिर्निर्गच्छति, संयत्यप्येवमेव क्षिप्रं संयमविराधनाऽपि भवेत् ।
निर्गच्छति । ततो द्वावपि परस्परं दृष्टा लजया भूयः प्रविकुमारप्रवजितस्य वेत्थं कौतुकमुपजायते
शतः। ततः संयतः प्रविष्ट इति कृत्वा भूयोऽपि निर्गच्छ
ति, एवं संयतोऽपि तत एवं द्वितीय तृतीयं वा वारं निपस्सामि ताव छिदं, वनपमाणं पि ताव से दच्छं ।
गच्छतोः प्रविशतोश्च शङ्का भवति । नूनमेष एषा वा माइति छिडेहि कुमारा, लोएंती कोउहल्लेणं ॥ ११३॥
मभिधारयति, एकाग्रया च दृष्टया निरीक्षणेऽधिका शपश्यामि तावत्कमपि छिद्रं येन वर्म-गौरत्वादि प्रमाणं वा- का भवति। शरीराच्छ्यरूपं 'से' तस्याः विवक्षितसंयत्याः सत्कं तावदहं| चीसत्थऽवाउडनो-म दंसणे होइ लजवोच्छेदो । द्रक्ष्यामि, इति कृत्वा छिद्रैः कुमारा-अभुक्तभोगिनः कुतूहले
ते चैव तत्थ दोसा, आलावुनावमादीया ॥११६ ॥ नाऽवलोकन्ते । ततस्तेषां प्रतिगमनादयो दोषाः ।
अभिमुखद्वारप्रयुक्तयोरुपाश्रययोः विश्वस्तौ सन्तौ संयती. कथाप्रबन्धं व्याख्यानयति
संयती कदाचिदपावृतौ भवतः, तत एवमन्योऽन्य-परस्पर दुब्बलपुच्छेगयरे, खमणं किं तत्ति मोहमेसज्जं ।
दर्शने लज्जाया व्यवच्छेदो भवति । ततश्च तत्रालापोल्लापचा. तह वि य वारियवामो, बलियतरं बाहए मोहो।।११४॥ रित्रविरोधिविकथादयो दोषास्त एव मन्तव्याः । गतं द्वाएकतरः संयतः संयती वा दुबलो भवेत् , तत्र संयतं सं- राणि वा सप्रतिमुखानीति द्वारम् । यती पृच्छति-किमेवं दुर्बलोऽसि ? स ब्रूते-क्षपणं करो
अथ पार्श्वतो मार्गतो वेति द्वारं भावयतिमि । तत्र संयती प्राह-किं किमर्थे तत्क्षपणं ज्येष्ठार्य ! क्रि- एमेव य एकतरे, ठियाण पासम्मि मग्गो वाऽवि । यते,संयतः प्राह-मोहभैषज्यं-मोहचिकित्सनार्थमौषधमिदमासेव्यते । तथाऽप्यसौ मोहो वारितः सः न वारितः प्र
घिअंतरएगनिवे-सणे य दोसा उ पुव्वुत्ता ॥१२०॥ तीक्षते । वारितवामो-बलिकतरमतिशयेन मां बाधते।
एवमेव संयतीप्रतिश्रयस्यैकतरस्मिन् पार्श्वे मार्गतो वासंयती प्रतिवक्ति
पृष्ठतः स्थितानां वृत्त्यन्तरे एकस्मिन् वा निवेशने पाटके
स्थितानां दोषाः पूर्वोक्ता एवालापसंलापादयो मन्तव्याः। मूलतिगिच्छंन कुणह,न हुतराहा छिलए विणा तोयं ।
अथोचनीचद्वारं भावयतिअम्हे वि वेयणाश्रो, खइया एश्रा न वि पसंतो॥११॥
उच्चे नीचे व ठिा, दहण परोप्परं दुवग्गाऽवि । मूलचिकित्सां यूयं न कुरुथ, न हि तृष्णा तोयम्-उदके वि. ना छिद्यते, अस्माभिरप्येता एवंविधाः क्षपणप्रतीका वेद
संका वा सइकरणं, चरितभासुंडणा चयई ॥ १२१॥ नाः खादिता:-असकृदासेविताः परं तथाऽप्यसौ मोहो
उथे नीचे वा स्थाने स्थितौ द्वावपि वर्गौ साधुसाध्वीन प्रशान्तः।
लक्षणी भवेताम् , तत्र साधुः साध्वी वा परस्परं दृष्ट्रा कि
मेष मामभिधारयतीति शङ्कां वा कुर्यात् , स्मृतिकरणं या . मोहग्गिमाहुतिनिभा-हि एहि वायाहि अहियवायाहिं।
भुक्तभोगिनाम् , चारित्रस्य वा भ्रंशना-ब्रह्मवतविराधना वा धंतं पि घिइसमत्था, चलंति किमु दुब्बलधिईया।।११६॥ भवेत् । 'चयंह' ति सर्वथैव वा संयमं त्यजति-अवधावमोहानेराहुतिनिभाभिघृतादिप्रक्षेपकल्पाभिः , इत्येताह- नं कुर्यादित्यर्थः। ग्भिर्वाग्भिः अधिकमित्यर्थः, अहिते वा नरकादी पातयन्ती
इदमेवोशनीचपदद्वयं व्याचष्टेति अधिकपाता अहितपाता वा ताभिरेवविधाभिधत पि- माले सुभावो वा, उच्चम्मि ठिो निरिक्खई हेहूँ। त्ति अतिशयेनापि ये धृतिसमर्थाः तेऽपि चलन्ति-तुभ्य-] न्ति; किं पुनऽतिदुर्बलास्तथाविधमानसावष्टम्भाविक
वेटो व निवत्तो वा, तत्थ इमं होइ पच्छित्तं ॥ १२२ ॥ लाः, एवं संयतीमपि दुर्बलां प्रतीत्येवमेव वक्तव्यम् । गत
कदाचित्ते संयता माले-द्वितीयभूमिकादौ स्वभावतो वामेकसाहिकेति द्वारम् ।
उच्चे-देवकुलादौ स्थिता भवेयुः , संयत्यस्तु तद्विप
रीते नीचे ततोऽसौ तत्र 'ठिउ' त्ति ऊर्ध्वस्थितः 'बेटोअथ सप्रतिमुखानि द्वाराणीति द्वारमाह
व' त्ति उपविष्टः 'निवत्तो व' ति निवृत्तस्त्वग्वर्तित इत्यर्थः। सपडिदुवारे उवस्सऍ, निग्गीणं न कप्पए वासो।
यदि संयतीमधस्तानिरीक्ष्यते तद प्रायश्चित्तं भवतिदद्दूण एकमेकं, चरित्तभासुंडणा सजो ॥ ११७॥ संतर निरंतरं वा, निरिक्खमाणा सई पकामं वा । सप्रतिद्वारे-अभिमुखद्वारयुक्त निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये विद्यमाने
कालतवेहि विसिट्ठो, भिन्नो मासो तुवट्टम्मि ॥१२३।। साधूनां न कल्पते वासः, यदि वसन्ति ततस्तत्राभिमुख
सान्तरं नाम-यद्विण्टिकाया हस्तादिना उच्चो भूत्वा शिद्वारयोरुपाययोरेकैकमन्योन्यं दृष्ट्रा चारित्रभ्रंशना संयती
र शरीरं वा उच्चस्तरं कृत्वा पश्यति, निरन्तरं विएिटसंयतयोः सद्यः-तत्क्षणादेवोपजायते।
कादिकं विना स्वभावस्थ एव प्रेक्षते तत्र त्वग्वर्तिनः सन्किंच
निरन्तरं सकृदेकं वारं संयती निरीक्षते, ततो भिन्नमासो, घम्मम्मि पवायट्ठा, णिता दई परोप्पर दो वि। । द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुः । त्वग्वर्तित एव निरन्तरं लजा विसंति निंति य.संकाय निरिक्खणे अहिय।११।। प्रकाममसकृत्प्रेक्षते भिन्नो मासः कालगुरुः तपोलघुः। अथ यीमकाले 'धम्मम्मि' त्ति विभक्लिष्यत्ययात् घमणोद्वा-1 १-भामुंडणा इति पुस्तके भामुंडी' इति देशी शब्दामुरोधाद् भासुदखेति युक्तः।
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वसहि
(१०२२) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि स्वभावस्थः प्रेक्षमाणस्तां न पश्यन्ति ततः सान्तरं वि- रक्षते तद्रहितम् , अथवा-यतय उच्चैः स्थिता यतिन्यस्त गिटकामन्यद्वा किंश्चिदुच्छीर्षके कृत्वा सकृत्पश्यति भि- नाच
| नीचैः ततः करादिषु पूर्वन्यस्ते शिरसि अत्युचत्वादनवलोओ मासः तपोगुरुः काललघुः । सान्तरमेव प्रकाशं प्रेक्षते
कमानो यत्तानि करविण्टकादीनि प्रमुच्य-उत्सार्य पश्यति भिन्नो मासो द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरुकः। एवं त्वग्वर्स- तद्रहितम्,एतत्त्वग्वर्त्तनं कुर्वतोरहितमुक्तम्। विट्ठो पुण निसि. नं कुर्वाणस्य भणितम् ।
जंति उपविष्टः पुनर्निषद्यां मुक्त्वा यत् पश्यति तद्रहितम् । एसेव गुरु निविट्ठो, ठियम्मि मासो लहू उ भिक्खुस्स ।
तद्विपरीतं त्रिष्वपि स्थानेष्वरहितं द्रष्टव्यम् । एकेकठाणवुडं, चउगुरु अंतं च पायरिए ॥ १२४॥
दिट्ठीसंबधो वा, दोएह वि रहियं तु अनतरगत्ते । निविष्टो नाम-निषमस्तस्यापि प्रेक्षमाणस्य एष एव निर- अप्पो दोसो रहिए, गुरुकतरो उभयसंबंधे ।। १२६ ॥ न्तरसान्तरादिकोऽभिलाषो वर्त्तते वक्तव्यः, नवरे प्रायश्चित्तं अथवा-द्वयोरपि-संयतसंयत्योः यो दृष्टेष्टयोः सम्बन्धस्तस एव भिन्नमासो गुरुकश्चतुर्वपि स्थानेषु तपःकालबिशे- दरहितम् । यत्पुनरन्यतरगात्रनिरीक्षणं तद्रहितम् । अत्र चा. षितस्तथैव कार्यः। स्थितो नाम ऊ स्थितस्तस्याऽप्येष पवा- ल्पतरो दोषः , रहिते एकतरदृष्टिसंबन्धः , अरहिते तु भिलाणे नवरं प्रायश्चित्तं लघुमासस्तपःकालविशेषितः। एवं उभयदृष्टिसम्बन्धः, तत्र गुरुकतरा दोषाः। भिक्षोः प्रायश्चित्तमुक्तमावृषभोपाध्यायाचार्याणां यथाक्रममेकै
अत्र प्रायश्चित्तमाहकस्थानवृद्धिः कर्तव्या, यावदाचार्यस्य चतुर्गुरुकम् । तद्यथा- दोहि वि रहिय अरहिए, एक्कक सकामए पकामे । वृषभस्य गुरुभिन्नमासादारब्धं गुरुमासे, उपाध्यायस्य मा
गुरुगा दोहि वि लहुगा,लहुगुरुगतवेण दोहिं पि ।१३०॥ सगुरुकादारब्धं चतुर्लघुके, प्राचार्यस्य गुरुमासिकादारब्धं
द्वाभ्यामपि नयनाभ्यां निरीक्षणमित्यादिकं यदनेकविचतुर्गुरुके निष्ठामुपयातीति । एष प्रथम प्रादेशः।
धमरहितं भणितम् । तत्र सकामे चत्वारो गुरवः , अथ द्वितीयमाह
द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघवः । तत्रैव प्रकामे दोहि वि रहियसकामं, पकाम दोहिं पि पेक्खई जो उ।
चत्वारो गुरवः तपोलघुकाः । रहिते तु सकामे चतुचउरो य अणुग्घाया,दोहि वि चरिमस्स दोहि गुरू।१२५॥ गुरुकाः तपसा गुरवः । तत्र प्रकामे चतुर्गुरवो द्वाभ्यामपि 'दोहि वि' ति द्वाभ्यामपि नयनाभ्यां यनिरीक्षते तद्- गुरवः । यत् दृष्टिसंबन्धरूपमरहितमन्यतरगात्रनिरीक्षणरूपं हितम् , यदेकेन लोचनेन निरीक्षते तदरहितम् , एतदु- तु रहितं व्याख्यातम् ,तत्र चैवं प्रायश्चित्तयोजनम्-रहिते सभयमपि प्रत्येक द्विधा सकाम, प्रकामं च । तत्र सकाममेक- कामे चतुर्गुरु,उभये लघुकम् प्रकामे चतुर्गुरु कालगुरुकम्।श्रशः, तथा 'दोहिं पि पिक्खई जो उ'त्ति द्वाभ्यामपि रहिता- रहिते सकामे चतुर्गुरु तपोगुरुकम् , अरहिते प्रकामे चतुर्गुरु रहिताभ्यां सकामप्रकामाभ्यां वा यः प्रेक्षते तस्य चत्वारो उभयगुरुकम् । मासा अनुद्घाताः, द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां विशेषिताः एकेका उ पयाओ, साहीमाईसु ठायमाणाणं । प्रायश्चित्तम् । चरमस्य-चतुर्थभङ्गवतिनो द्वाभ्यामपि तपःका
निकारणढियाणं,सव्वत्थ वि अविहिए दोसा ॥१३॥ लाभ्यां गुरुकाः कर्तव्याः । एष पुरातनगाथासमासार्थः ।
अरहितसकामप्रकामनिरीक्षणानामेकैकस्मात्पदात्साहिअथास्या एव भाष्यकृद् व्याख्यामाह
कायामादिशब्दात्-सप्रतिमुखद्वारेषु पुरतो वा मार्गतो वा पायठिओ दोहि नयणेहि, पेच्छई रहिय मोत्तु एक्केणं । उच्चे वा नीचे वा सर्वत्रापि निष्कारणे तिष्ठतां कारणे वा तं पुण सई सकामं, निरंतरं होई तु पकामं ।। १२६ ।।
प्रविधिना अयतनया स्थितानाममी दोषा भवेयुः। पादाभ्यां तु स्थितो द्वाभ्यां नयनाभ्यां यत्प्रेक्षते तदरहितम् ,
दिट्ठा अवाउडाऽहं, भयलजाथद्ध होज खित्ता वा । यत्पुनरेकेन नयनेन मुक्त्वा -परित्यज्य निरीक्षते तद्रहितम् ।।
पडिगमणादी व करे, नित्थक्काओ व आउभया ॥१३२॥ यत्पुना रहितमपि सकृदेकवारं निरीक्षणं तत् सकामम् , काचित्संयती विचारभूमौ प्राप्ता संयतमागच्छन्तं दृष्टा निरन्तरमनेकशस्तदेव प्रकामं भवति ।
चिन्तयेत्-अहो अहम् ज्येष्ठार्येणापता रष्टा, ततः सा भ
येन लज्जया वा स्तब्धा-क्षिप्तचित्ता धा भवेत् । यद्वा-काअहवण समतलपादो, दोहि वि रहियं तु अग्गपाएहिं ।
श्चिदपावृता दृष्टाः कथममीषां पुरतः स्थास्याम इति कृत्वा इट्टालादी वि रहियं, एकेकसकामग पकामं ।। १२७॥
प्रतिगमनादीनि कुर्युः । अथवा-दृष्टं यद् द्रष्टव्यमिति निःस'अहवण' त्ति अथवा-समतलपादो यनिरीक्षते तदरहितम्,
धाय 'नित्थका' निर्मजा भवेयुः, ततश्चात्मसमुत्था उभयत्पुनरप्रपादाभ्यापि स्थितो निरीक्षते तद्रहितम् । अथवा | यसमुत्थाश्च दोषा भवन्ति । यदहाललेष्टुकावारूढः पश्यति तदरहितम् , तदपरं रहितं च।
यदि वापक्केकं प्रकाममन्त्यम्।
तासिं कक्खंतरगु-ज्झदेसकुचउदरऊरुमादीए । अहवण उच्चावेडं, करवेंटियपीढगादिसुं काउं।
निग्गहिय इंदियस्स विदढे मोहो समुजलति ॥१३३॥ ताओ वावि पमोसु, रहिउं वेट्ठो पुण निसिजं ॥१२८॥ तासां कक्षान्तरगुह्यदेशकुचोदरोरुप्रभृतीन अवयवान् रष्ट्रा अश्वथा-यदि संयता नीचैः प्रदेशे स्थिताः संयत्यस्तूस्ततः निगृहीतेन्द्रियस्यापि मोहः,समुज्ज्वलति किं पुनरितरस्येति। शिरः शरीरं वा उच्चयित्वा-उच्चैःकृत्य यनिरीक्षते, यद्वा
ततश्चामी दश कामावस्था उत्पद्यन्ते। करे-हस्ते विण्टिकायां पीठिकादिषु वा शीर्ष कृत्वा यनि- चिंतेइ१दमिच्छड़२, दीहं णीससइ३तह जरो४दाहो५ ।
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( १०२३) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसहि
भत्तअरोयग६मुच्छा७,उम्मत्तोदन जाखई ६ मरणं १० | १३४ चिन्ता नाम - शोकः १, ततो द्रष्टुमिच्छतिर, दीर्घ निःश्वसिति ३. तथा ज्वरो ४, दाहः५, भक्तस्यारोचकः ६, मूर्छा ७, उन्मतः संजायते ८, न जानाति किंचिदपि ६, मरणमुपजायते १० । एनामेव गाथां विवृणोति -- पढमे सोयति वेगे, दहुं तं इच्छती बिइयवेगे । नीससह तइयवेगे, भारुहर जरो चउत्थम्मि ॥ १३५ ॥ डज्झर पंचमवेगे, बडे भत्तं न रोयर वेगे । सत्तमगम्मि य सुच्छा, अट्टमए होइ उम्मत्तो ॥ १३६ ॥ नवमे न मु किंचि, दसमे पाहि मुच्चर मरणूसो । एएसिं पच्छित्तं वोच्छामि महाणुपुव्वीए ॥ १३७ ॥ प्रथमे शोचति वेगे-हा कथं तया सह संगतिर्भविष्यतीति चिन्तयतीत्यर्थः १, द्रष्टुं तां पूर्वदृष्टां पुनरपीच्छति द्वितीये वेगे २, निःश्वसिति, तृतीयवेगे दीर्घाभिः श्वासान् मुञ्चति ३, आरोहते ज्वरातुर्थे ४ दह्यते अनं पञ्चमवेगे ५, षष्ठे भक्तं न रोचते वेगे ६, सप्तमे वेगे मूर्छा ७, अष्टमे उन्मत्तो भवति ८, नवमे न जानाति किञ्चिदपीति निश्चेष्टो भवतीत्यर्थः ६, दशमे वेगे प्राणैर्मुच्यते मनुष्यः । एतेषां दशाना• वैगानां प्रायश्चित्तं यथाऽनुपूर्व्या वक्ष्ये--अभिधास्ये । तदेवाह --
मासो लहुआ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लड्डु गुरुगा । छम्मासो लघु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ १३८ ॥ प्रथमे लघुको मासः, द्वितीये गुरुकः, तृतीये चतुर्लघवः, चतुर्थे चतुर्गुरवः, पञ्चमे पद्लघवः, षष्ठे षद् गुरवः, सप्तमे छेदः, अष्टमे मूलम्, नवमे अनवस्थाप्यम्, दशमे पाराश्चिकम् । एकम्मि दोसु तीसु व, मोहार्वितेसु तत्थ आयरिश्रो । मूलं अणवटुप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं ॥ १३६ ॥ अथ मोहोदयेनैकः अवधावति उत्प्रवजति ततः श्राचार्यो मूलं प्राप्नोति, द्वयोरधावतोरनवस्थाप्यो भवति । त्रिषु श्रवधावमानेषु पाराश्चिकं स्थानं प्राप्नोति । गतमुञ्चनीचद्वारम् । अथ धर्मकथाद्वारमाहधम्मकहासुखगाए, अणुरागो भिक्खसंपयाणे य । संगारे पडिसुखखा, मोक्खरहे चैव खंडीए ॥ १४० ॥ धर्मकथायाः भ्रवणेन संयत्या अनुरागः संजायते, ततः स्निग्धमधुरभैक्षस्य संप्रदानं संयताय कारयति । ततः शृङ्गारस्य -- संकेतस्य प्रतिश्रवणं करोति । कः पुनः संकेत इति श्राह-' मोक्खरहे चैव ' ति श्रमुष्मिन् देशे रथो हिरिडच्यते, तत्रास्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षो भविष्यति ' खराडी ए' सिखण्डी छिरिङका तस्या-था द्वारमुदारं रात्रौ भविता दीर्घस्यालाक्षणिकत्वात् खण्डितं श्रामण्यस्य खण्डनाः तयोः प्रतिसेवमानयोर्जायते । एष संग्रहगाथासमासार्थः ।
अथैनामेव विवरीषुराह-असुभेण महाभावे - ण वा वि रतिं निसंतपडिसंते । बत्तेइ किनरो इव, कोई पुच्छा पभायम्मि ॥ १४१ ॥ कोऽपि साधुरशुभेन वा यथाभावेन वा रात्रौ निशान्ते प्रति
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यसहि निशान्ते अन्यत्र भ्रमणादुपरमेत, यद्वा-निशान्तेषु स्वेषु गृहेषु प्रतिश्रान्ते विभ्रान्ते जने किन्नर इव मधुरया गिरा धर्मकथां कांचित्परिवर्तयति तदाकर्ण्य संयत्यः प्रभाते पृच्छन्ति ।
यथा
कतरो सो जेण निसिं, कन्ना ये पूरिया व अमयस्स । सोम अहं अजावो, आसि पुरा सुस्सरो किं वा । १४२ । कतरोऽसौ येन माधुर्येण निशि रात्रौ कर्णाः 'से' अस्माकम् अमृतस्य पूरिता इव कृताः । स प्राह-सोऽहमस्मि । श्रार्याः ! पुरा पूर्वमहं सुस्वर आसम्, तदपेक्षया किंचिदसौस्वर्यमिदानीं मम विद्यते ।
यतः
रुक्खासणेण भग्गो, कंठो मे उच्चसद्दपडओ य । संधुकुलम्म नेहं दावेमि कए पुणो पुच्छा ।। १४३ ॥ रूक्षाशनेन -स्नेहरहितभोजनेन उच्चशब्देन पठतश्च मे कएठो भग्नः, ततो नेदानीं तथा सुखर इति, ततस्तदीयसौस्वर्येणातीवानुरञ्जिता काऽपि संयती प्राह- संस्तुते भाविते कुले स्नेहं घृतादिकमहं दापयिष्यामि, येन भवतां स्वरपाटवमुपजायते, ततस्तथा कृते सति पुनस्तथाऽपि तं दुर्बलं दृष्ट्वा पृच्छा कृता, यथा-ज्येष्ठार्य ! क्रिमेवं दुर्बलो दृश्यसे । एवं च कुर्वतोस्तयोः किंभवति - ( वृ० ) इति ' पेज ' शब्दे पञ्चमभागे १०८० पृष्ठे प्रतिपादितम् । )
ततश्च स तया दुर्बल इति पृष्टो ब्रूयात्
जह जह करेसि हं, तह तह नेहो में वट्टह तुमम्मि । ते नडिओ मि यलियं, जं पुच्छसि दुब्बलतरो चि । १४५ ॥ यथा यथा करोषि -संपादयसि स्नेहं तथा तथा 'मे' मम त्वयि स्नेहो वर्द्धते तेन च स्नेहेन नटितो - विडम्बितोऽस्म्यहं यस्त्वं पृच्छसि दुर्बलतर इति तदेतेन हेतुना दुर्बलो ऽहम् । एवमुक्ते सा ब्रूयात्
अमुगदिखे मोक्खरहो, होहि दारं व बोज्झिहिइ रतिं । तहयाणे पूरिस्सर, उभयस्स वि इच्छियं एयं ॥ १४६ ॥ अमुष्मिन् दिने रथो - रथयात्रा भविता, तस्यां साधुसावीजनेषु गतेषु अस्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षो भविष्यति । द्वारं वा छिरिङकया अमुकस्यां रात्री वक्ष्यते वहमानकं भविष्यति । तदा ' ' श्रावयोरुभयस्यापि यथैप्सितमेतत्पूरिष्यते । एवं संकेत प्रतिश्रुत्य प्रतिसेवनां कुर्बतोस्तयोः भ्रामण्यस्य खण्डनं भवति ।
ततश्च भग्नवतोऽहमिति कृत्वा यद्यवधावति । ततःएगम्म दोसु तीसुं, उवहावंतेसु तत्थ आयरियो |
मूलं अवटुप्पो, पावर पारंचियं ठाणं ॥ १४७ ॥ एकस्मिन्नवधावति मूलम्, द्वयोरनवस्थाप्यम्, त्रिषु पाराचिकमाचार्यः प्राप्नोति । द्वितीयपदे एतेष्वपि स्थानेषु तिष्ठेत् ।
कथमित्याहश्रद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण पडिलोमं । गीयत्था जयणाए, वसंति ते अभिदुवारा ॥ १४८ ॥ अध्वनो निर्गता आदिशब्दाद्-अशिवादिषु वर्त्तमानाः सहसै
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बसहि वैकवगडाकमनेकद्वारं संयतीक्षेत्रं प्राप्ताः, ततस्तत्र त्रित्यस्त्रीन् वारान् निरुपहतां वसतिं मार्गयित्वा यदि न प्राप्नुवन्ति ततः प्रतिलोमं प्रतीपक्रमणे गीतार्था यतनया अभिद्वारे संयतीक्षेत्रे वसन्ति के पुनः प्रतिक्रमन्त इति चेडुच्यते यानि पूर्वमेकसादिकादीनि धर्मकथापर्यन्तानि द्वारा
रायुक्तानि तेषु प्रथमतो यस्यां धर्मकथाशब्दः साध्वीभिः श्रूयते
तस्यां वसती वास्तव्यम् ।
(२०५४) अभिधानराजेन्द्रः ।
तत्र चेयं यतना-
सिंगार बोले, अह एगो विजपाडचं वा । सड्डादीनिब्बंधे, कहिए वि न ते परिकर्हिति । १४६ ॥ धर्मकयां परिवर्तयन्तः शृङ्गाररस दोलन च-वृन्दशब्देन परिवर्तयन्ति यचैकस्य कस्यापि व्यवरो नोपलक्ष्यताम्येन सह गुण्यतस्तस्य न संचरति । तत एकोऽपि विद्यापाठेन गुणयति, स्वरवर्जितमिति भावः । तदप्यनुच्यं नोश्चैस्तरेण शब्देन । अथ सुस्वरोऽयमिति ज्ञात्वा श्राद्धादय आदिशब्दाद्यथा भद्रकादयो वा निर्वन्धं कुर्युः यथा-स्वरेण धर्मे कथितेऽ पि मधुरस्वरेण धर्मे उक्रेऽपि प्रभाते संपतीनां न ते साधवः परिकथयन्ति । यथा-अमुकेनेत्थं धर्मः कथित इति । ईशघसरलाने उच्च वा नीचे या स्थातव्यम् ।
तत्रेयं यतना
।
कढ उच्च चिलिमिली वा तत्तो घेरा य उच्चनीए वा । पासे ततो न उभयं मत्तमजयगाउला सहा ।। १५० ।। प्रविशन्तो निर्गतो या पस्मिन् पार्श्वे परस्परं पश्यन्ति तत्र कटको वंशादिमयोधनो दीयते। अथ कटकोन प्राप्यते तदा चिलिमिली - वस्त्रमयी दातव्या । स्थविराश्च ततस्तस्मिन्पार्श्वे तिष्ठन्ति, संयतीनां तु क्षुल्लिकाः एव उक्ता उच्चनीचे यतना । अथोश्वनीचमपि न लभ्यते ततो यत्र संयतीवसतेः पार्श्वतो वा मार्गतो वा प्रतिभ्रयस्तत्र स्थातव्यम् । तत्र च तिष्ठतामियं वतना पासे ततो न उभयंति कायिकयादिभ्युत्सर्जनार्थ निर्गतो पत्र परस्परं पश्येयुस्ततस्तस्यां दिशि नोभयम्-न संज्ञां न वा कायिकी व्युत्सृजन्ति । तादृशस्य स्थण्डिलस्याप्राप्तौ मात्रकेषु यतनया व्युत्सृजन्ति । श्रथवा श्राकुलाः सशदास कायिकयादि पुरं व्रजन्ति तदभावे समतिमुखद्वारे तिष्ठन्ति ।
तत्र चेयं यतनापिहदारकरणअभिमुह - चिलिमिलिवेलाससद्दबहु निंति । साहीए अनादिसिं निंती न य काइयं तचो ।। १५१ ।। यत्र द्वाराणि परस्परमभिमुखानि तत्रान्यस्यां दिशि - थकू द्वारं कुर्वन्ति, अथ न लभ्यते अन्यस्यां दिशि द्वारं कर्तुं ततो द्वारे चिलिमिली नित्यबद्धा स्थापनीया, कटको वा अपान्तराले दातव्यः । काविषयाः संज्ञायाथ वेलां परस्परं स्थापयित्वा श्रसदृशवेलायां निर्गच्छन्ति, सशब्दाश्च कासितादिशब्द - खागमनसूचकं च कुर्वन्तो बहवो निर्यान्ति निर्गच्छन्ति । यत्रेका साहिका तत्रान्यस्यां दिशि यस्य द्वारं तत्र प्रतिभये तिष्ठन्ति । यतश्च संयतीनां प्रतिश्रयस्ततः कापिकीभूमिं न व्रजन्ति । एवं संज्ञाभूम्यामपि द्रष्टव्यम् ।
बसहि
कियद्वाऽत्र भणिष्यते
,
"
जत्थ ऽप्पतरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउं जे । तत्थ वसति जयंता, अनुलोमं किंचि पडिलोमं ॥ १५२ ॥ यत्रोपाध्ये अल्पतराः पूर्वोा दोषा भवन्ति यत्र च पादपूरणे, तत्रानुलोमं वा किमप्येकसाहिकादिकं स्थानं प्रतीयतनां यथोक्झां कर्तुं तरन्ति - शक्नुवन्ति जे इति त्य यथोक्तनीत्या यतमाना वसन्ति नात्र कोऽपि प्रतिनियमः किं तु - गीतार्थेनाल्पबहुत्ववेदिना भवितव्यमिति भावः ।
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कथं पुनरल्पतरा दोषा भवन्तीत्युच्यतेआयसमणीण नाउं कटिकप्पट्टी समाययं वक्षो । बहुपाडिवेसिजयणं, खमयरगं पारिसोहेइ || १५३ ॥ श्रात्मनः श्रमणीनां च स्वभावं दृढधर्मत्वादिकं ज्ञात्वा तथा यतितव्यम्, "किडिकप्पट्ट' त्ति स्थविरश्रमरायः लकाश्रोभयपार्श्वतः कर्त्तव्याः । वयसा समानां व संपती संदर्शनादौ दूरतो वर्जयेत् । यश्च गृहं बहुप्रातिवेशिकजनमीरशे प्रतिभये अवस्थानं क्षमतरमतिशयेन युक्तम् । विजने तु विश्वस्ततया बढ्यो दोषा भवेयुरिति । गतो द्वितीयो मङ्गः ।
अथ तृतीयभङ्गमाहपठमसर वियरगो वा बाघातो तम्मि अभिनवगडाए । तम्मि वि सो चेव गमो, नवरं पुण देउले मेलो ॥ १५४ ॥ तृतीयभको नाम - अनेकन डाकमेकनिष्कमप्रवेश प्रामादि तत्र वा मिनिअनेकधगडे एकद्वारे च क्षेत्रे पद्मसरो वा विदरको वा गर्त्तो वा व्याघातो भवेत् । येनानेके निष्क्रमणप्रवेशा न भवन्ति तस्मिन्नपि स एव गमः-प्रकारः सर्वोऽपि ज्ञातव्यः, नवरं केवलं पुनर्देवकुले मीलको भवति ।
कथमित्यत आह
अंतोवियार असई, अजाण हविजॉ तइयभङ्गम्मि । संकिगवीयारे, व होज दोसा इमं नाथं ।। १५५ ।। अनेकवमडाफे एकनिष्क्रमणप्रवेशे च प्रामादी स्थितेषु साधुषु आर्थिकाणामन्तस्तृतीयभङ्गे आयाता लोकाव्ये विचारभूमेरसता भवेत्, ततो वहिर्निर्गच्छन्तीनां संक्रिटविचारभूमेदषा भवेयुः संक्रिटविचारभूमिर्नाम एकद्वारतया अन्या संज्ञाभूमिर्न विद्यते ततः संपता अतिवायान्ति झासने या परस्परं संज्ञाभूमी, ततक्ष निर्गमने प्रवेशे वा देवकुले मेलको भवेत्। इदं चात्र शातम् ।
दृष्टान्त उच्यते—
वासस्स य आगमणं, महिला कुडऽशंतमेव रत्तट्ठी । देउलकोणे व तहा, संपत्ती मेलगं होजा ।। १५६ ।। कस्याधिन्महिलायाः कुसुम्भरवस्मयुगलाभिवसनायाः प्रावृषि घटं गृहीत्वा जलाहरणार्थे निर्गताया वर्षस्य यूरागमनम् ततोऽसी महिला रक्तार्थिनी रखने-कं कुसुम्भराग इत्यर्थः तदर्थिनी मे वर्षोदकेन पतता कुसुम्भरागो मा विलीयतामिति कृत्या कुठे घढे अन
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(१०२४) बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
बसहि तकेचवखे अपि प्रक्षिप्य स्वयमपावृतीभूय काऽपि स्तस्य प्रतिसेवमानस्थ सषिशेशे दोषः। स्त्री तु पेलवा-नि:देचकुले प्रविष्टा । तस्य च कोणके यावदसौ प्रविशति ता- संवा 'परज्म' ति परवशा । अत्र फुम्फुकेन पेश्या चरावत्तत्र कश्चिदगारः पूर्वप्रविष्टः प्रासीत् , तेन सा अपा- न्तः। यथा-फुम्फुका-करीचाग्निज्वलितः सन्नुहोप्यते, एवं वृता रष्टा, जातश्च तस्य मोहोदयः। ततस्तेन सा युक्ता, सीवेदोऽपि । यथा च.पेशी सर्वस्याप्यभिलषणीया एवमिरष्टा च तदन्यैः पुरुषैः । एवं तथा संप्राप्त्या तथाविधव- यमपि, मतो न तस्याः समधिको दोष इति। पतनादिसमायोगेनैकस्या एव विचारभूमेः प्रतिनिवृत्त
माह-यदि संयतीनामन्तस्तृतीयमझे विचारभूमियोः संयतीसंयतयोरेका देवकुलादौ वर्षाऽऽर्द्रवस्त्राणि परि- भवेत् ततः किंन वर्तते स्थातुम् ?, उच्यतेस्थलवतोर्मीलनं भवेदिति ।
जह विय होज वियारो,तो अजाण तइयभङ्गम्मि । अथ तस्यागारस्य किं संवृत्तमित्याह
तत्थ वि विकिंचणादी,विनिग्गयाणं तु ते दोसा।१६२॥ गहिरो सो य वराओ, बद्धो अवोडो दवदवस्स । संपाविश्रो रायकुलं, उप्पत्तीचेव कजस्स ॥१५७॥
यद्यप्यार्याणामन्तस्तृतीयभने पापातासंलोकलक्षणे विचारो
भवेत् , तथापि विवेचना-उद्वरितभक्तपानादिपरिष्ठापनिका गृहीतश्च स वराको राजपुरुषैश्च बद्धच अवकोटके श्रा-1
तत्प्रभृतिषु कार्येषु विनिर्गतानां साधुसाध्वीनां परस्परं मिलि मीतः, काटिकापश्चान्मुखीकृतबाहुयुगलो- 'दबदवस्स'
तानामेकद्वारे क्षेत्रे त एव पूर्वोक्का दोषा भवेयुः। अतस्तत्रात्ति शीघ्रं संप्रापितश्च राजकुलमयम् । तत्र च प्रस्तुतकार्य
पिन वर्तते स्थातुम् । स्योत्पत्तिः कारणिकैः पृष्टा, तेन चागारेण यथावस्थितं सर्वमपि तत्पुरतो विज्ञप्तम् ।
उपसंहरबाह
एए तित्रिवि भङ्गा, पढमे सुचम्मि जे समक्खाया। ततश्चजाणता वि य इत्थि, दोसवई तीऍ नाइवग्गस्स ।
जो पुख्ख चरिमो भङ्गो,सो बिइए होति सुत्तम्मि॥१६३॥ पच्चयहउँ सचिवा, करेंति आसेण दिद्वंतं ॥१५८॥ ।
एका बगडा एकं द्वारम् , एका बगडा अनेकानि द्वाराणि, नहि महत्यपि वृष्टयाधुपद्रवे स्त्रिया निरावरणत्वं शिष्टाना
अनेका षगडा एकं द्वारम् , एते प्रयोऽपि भङ्गा ये समाख्या मनुमतमिति कृत्वा स्त्रियं दोषवती जानन्तोऽपि तस्याः
तास्ते प्रथमे बगडासूत्रे प्रत्येतव्याः। तच प्रागेव व्याख्यातम् । संबन्धी यो सातिवर्ग:-स्वजनसमुदायस्तस्य प्रत्ययहेतोः स.
यः पुनश्चरमो भङ्गः-अनेका वगडा अनेकानि द्वाराणीतिचिवाः-कारणिकाः अश्वेन दृष्टान्तं कुर्वन्ति ।
लक्षणः स द्वितीये वगडासूत्रे द्रष्टव्यः । वृ० १ उ०३ प्रक० । तमेवाऽऽह
से मामंसि वाजाव संनिवेसिवा एगवगडाए एगदुवा चम्मिय-कवइय-चलवा, अंगणमझे तहेव पासोय। राए एगनिक्खमणपवेसाए यो कप्पति बहूणं अगडसुवलवाए भगुंठणणं, कजस्स य छंदणं भणियं ॥१५६।। याणं एगयउवणए अत्थियाइए जे केइ आयारपकप्पधरे चर्म-लघुस्तनुनाणविशेषस्तदस्याः संजातमिति चम्मिता, त्थि भाइण्हं केइ छेदे वा परिहारे वा गथि आइएहं एवं कवचिताऽपि, नवरं कवचत्वं महांस्तनुत्राणविशेषः एवं- के मायारकप्पधरे सब्वेसिंतेसिं तप्पत्तियं छेदे वा पविधा काचिबडवा कस्यचिन्नृपत्यादेरङ्गणमध्ये तिष्ठति ।
हारे वा ॥४॥ अश्वस्तथैव तत्र तां रष्ट्वा प्रधावितोऽपि चर्मितकवचितां न प्रतिसवितुं शक्नोति । यदा तु तस्या पडवाया अपावरण
“से गामंसि वा नगरंसि वा" इत्यादि । अत्र सम्बन्धप्रवर्मादेरपनयनं क्रियते तदा सुखेनैव प्रतिसेवितुमिधा एव
तिपादनार्थमाहमियमपि यद्यपावृता माऽभविष्यत् तदा नानेनाऽसौ प्रत्य
कप्पति गणिणो वासो, बहिया एगस्स प्रतिपसंगेन। संविण्यत् इत्यतयमेवापराधिनीति तैः कारणिकैः कार्यस्थ- मा अगडसुया वीसुं, वसेज भह सुत्तसंबंधो ॥२६॥ म्यवहारस्य छन्द-परिच्छेदकारि वचो भणितमिति। । कल्पते गणिनो-गणावच्छेदिनो चासो बहिरेकस्यैकाकिना,
एवं खु लोइयाणं, महिला अवराहि न पुण सो पुरिसो।। इति श्रुत्वा मा अतिप्रसनेन-अकृतश्रुता अपि विचक बसेइह पुण दोएह वि दोसो, सविसेसो संजए होई॥१६॥।
युः, ततस्तेषां विष्वग् बासप्रतिषेधार्थमिदं सूत्रम्, इत्येष एवम्-अमुना प्रकारेण खुरवधारणे,लौकिकानां महिलाअप
सूत्रसम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (५) म्याण्याराधिनी संवृत्ता; न पुनरसौ पुरुषः । इह पुनरस्माकं लोको
'से' शब्दोऽथशब्दार्थः । प्रामे वा नगरे वा यावत्करलात्सरे व्यवस्थितानां योरपि संयतीसंयतयोर्दोषः । अपि च
'खेडंसि वा कव्वडंसि वा" इत्यादि परिग्रहः। राजधासविशेषः-समधिको दोषः संयते भवति ।
न्यां वा 'एगवडाए वा' एका बगडा परिक्षेपो यस्याः सा,
एकवगडा तस्यां तथा एकस्मिन्प्रदेश निष्क्रमणप्रवेशी यस्यां कुत इति चेदुच्यते
सा एकनिष्क्रमणप्रवेशा तस्यांग कल्पते बहूनामकृतभुतापुरिमुत्तरिमो धम्मो, पुरिसे य चिई ससचया चेव ।
नामगीतार्थानामित्यर्थः । एकतः एकस्यां बसती वस्तुम् , पेलव परज्म इत्थी, फुफुगपेसी य दिढतो ॥१६१॥ अस्ति चात्र एतेषां मध्ये प्राचारप्रकल्पधरस्ताहि नास्त्यमीपुरुषोत्तरः-पुरुषप्रधानो यतः पारमेश्वरो धर्मः, पुरुषेच धृ षां कश्चित् छेदः परिहारोवा। वाशम्दादम्यदपि प्रायश्चित्ततिौमसत्य स्खलक्षणसमवचाप सस्वसंपन्नता भवति, तत- । म् । अथ नास्ति कश्चिदत्र एतेषां मध्ये प्राचारप्रकल्पधरस्त
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वसहि
(१०२६) प्रभिधानराजेन्द्रः।
वसहि हि 'तेसिं' तेषामन्तरा तस्मात्स्थानादिप्रतिक्रमणलक्षणात्। उ०। ( अत्र मिथ्यात्वद्वारम् 'मिच्छत्त' शब्देऽस्मिन्नेय छेदः परिहारो वा एष सूत्रसंक्षेपार्थः ।
भागे २७४ पृष्ठे गतम् ।) अधुना भाग्यविस्तरः
अधुना शोधिद्वारं सागारिकद्वारं चाऽऽह- . एगम्मि वीअसंते, न कप्पती कप्पती य संवम्मि । आवममणावरमे, सोहिं न मुणंति ऊणमहियं वा। उउबद्धे वासासु य, गीयत्थो देसिए चेव ॥ २६३ ॥ । जे वसहीए दोसा,परिहरंति न ते भयाणंतो ॥२६८।। एतेषां बहूनामकृतश्रुतानामेकती वसतामेकस्मिन्नपि गीता
| अकृतश्रुता आलोचिते परेण एष प्रायश्चित्तं प्राप्तो नवेति न थें असत्यविद्यमाने ऋतुबद्धे वर्षासु च वस्तुं न कल्पते । जानन्ति, अजानन्तश्चापनेऽनापन्ने वा प्रायश्चित-शोधि नैयदि वसति ततः ऋतुबद्धे काले प्रायश्चित्तं मासलघु, वर्षा- व ददति । यदि वा-ऊनामधिकां वा ददति । गतं शोधिद्वाकाले चतुर्लघुकम् । अथैकोऽप्यस्ति गीतार्थस्तर्हि तस्मिन् रम् । अधुना सागारिकद्वारमाह-ये च बसतौ दोषास्तानऋतुबद्धे वर्षासु च वस्तुं कल्पते; न तत्र प्रायश्चित्तमिति | जानन्तोऽकृतश्रुता न परिहरन्ति । भावः । किं कारणं गीतार्थेन सह संवसतां न प्रायश्चित्तमत
सम्प्रति ग्लानत्वाविद्वारचतुष्टयमावआह-गीतार्थोद्देशक एव भवति । इयमत्र भावना-यथा गेलने वोच्चत्थं, करेंति नयमयविधि वियाणंति । केचित् पुरुषा अटव्यां विप्रनष्टाः केनचिद्देशकेन दृष्टास्ते भ
श्रद्धाणमडंति सया,जतणा णयणो व ओमे वि.॥२६॥ णिता मा इतो वजन्तोऽटवीं प्रविशत-अहं भवतो निस्तारयामि । ततस्ते ऋजुकेन पथा नगरं प्रापिताः, एवं गीता
ग्लानत्वेऽज्ञानतो विपर्यास कुर्वन्ति, अनागाढे आगाढकृतथोऽपि मोक्षपथविप्रनष्टानां मोक्षपथप्रदर्शक इति तेन सह
मुभयत्रापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् । गतं ग्लानद्वारम् । अथ संवसतां कालद्वयेऽपि नास्ति प्रायश्चित्तमिति ।
कालगतद्वारमाह-न च मृतस्य विधि बन्धनच्छेदनादिकं
परिष्ठापनाविधि वा न जानन्ति मृतस्योपधिरुपहत इति त्यसम्प्रति परस्य प्रभावकाशमाशङ्कमान इदमाह
ज्यते । सम्प्रत्यध्वद्वारमाह-अध्वानं पन्थानमजानन्तः सदाकिह पुण होज बहूणं, अगडसुयाणं तु एगतो वासो।
सर्वकाल रात्रौ दिवसे वाऽन्ति न च कारणतो रात्रावपि होजाहि कक्खडम्मी, खेत्ते अरसादिचइयाणं ॥२६४॥
गमने यतनां जानन्तीति भावः। कथं-केन कारणेन पुनर्बहूनामकृतश्रुतानामेकत्र वासो भ
सम्भ्रमादिद्वारकदम्बकमाहयेत् , सूरिराह-कर्कशे क्षेत्रे अरसादित्याजितानां भवेदेकत्र- अगणादिसंभमेसु य, बोहिगमेच्छादिएसु य भयेसु । वासः । तथाहि-ते साधवो महति गच्छे वर्तमाना नगरे रूः
रायवाईसु य, विराहगा जयणऽयाणंता ।। २७०॥ रसविरसादिभिराहारैर्निर्मत्सिताः सम्प्रधारयन्ति, कियश्चिरं घयं रूक्षाहारैर्योग संस्तरणं कर्तुं शक्नुमस्तस्मात् गच्छामः
अग्न्यादिसम्भ्रमेषु तथा बोधिकाः स्तेना म्लेच्छाः प्रतीता एवं चिन्तयित्वा गच्छादपक्रमन्ति । एवमेतेषामकृतश्रुतानां
आदिशब्दात्-परचक्रादिपरिग्रहस्तदादिकेषु भयेषु राजबहूनामेकत्र वासः।
द्विष्टादिषु च भयेषु, राजद्विष्टं-राजप्रद्वेष आदिशब्दादशिवाचइयाण य सामत्थं, संघयणजुयाणमाउलाणं पि। ।
दिपरिग्रहः, तथा भिक्षाचर्या गते अकालवर्षतो नदीपूरेणा
वरुद्ध पथि सह व्रजतां मन्दगतित्वादपसृते यतनामजानन्तः उउवासे लहुलहुगा, सुत्तमगीयाणमाणादी ॥ २६५ ॥ संयमात्मविराधका भवन्ति । अरसविरसादिभिराहरैस्त्याजितानामाकुलानां संहनन
तथायुतानामपि अपिशब्दो भित्रक्रमत्वादत्र योजितः, एवं साम
संभमनदिरुद्धस्स वि, उनिक्खंतस्स अहव फिडियस्स । त्थं सामर्थ्यपर्यालोचनं भवति । यथा कियन्तं कालं वयं रू
अोसरियसहायस्स व,छड़े उवहिं उवहतो ति॥२७१ ।। क्षाहाराः स्थास्यामस्तस्मादपक्रमामो गच्छादिति । एवं चिन्तयित्वा यदि ऋतुबद्ध काले वसन्ति तदा प्रा
अग्न्यादिसंभ्रमवशादेकाकिनस्तथा नदीनिरुद्धस्य उत्रि
कान्तस्य अथवा-मन्दगतित्वात्सार्थस्फिटितस्य-अपसत. यश्चित्तं मासलघु , वर्षाकाले चतुर्लघुकम् । यतनाऽगीतार्थानां विषयेऽधिकृतं सूत्रं न केवलमधिकृतं प्रायश्चित्तम् । किं
सहायस्य च-अपगतसहायस्य उपधिरुपहत इति कृत्वा
छर्दयति-त्यजति अबहुश्रुतः । स्वाहादयश्च। तानष मिथ्यात्वादीन् दोषान् द्वारगाथया संजिघृक्षुराह
एएण कारणेणं, अगडसुयाणं बहूण विण कप्पो । मिच्छत्तसोहिसागा-रियाइगेलण अहव कालगए ।
बितिपऍ य रायडे, असिवोमगुरूण संदेसे ॥ २७२।।
एतेनानन्तरोदितेम कारणेनाकृतश्रुतानां बहूनामप्येकत्र वा. श्रद्धाणोमसंभम-भए य रुद्ध य ओसरिए॥ २६६॥
सो न कल्पते । द्वितीयपदे-अपवादपदे पुनः कल्पते । केत्यातेषामगीतार्थानां मतिमेदादिना मिथ्यात्वं स्यात् , तथा
ह-राजद्विष्टे अवमौदर्ये गुरूणां संदेशे च । तथाहि-राजप्रवेशोधिस्तैर्न ज्ञायते, तथा ससागारिकायां वसतौ ये दोषाः
पवशादेकाकी आत्मद्वितीयः आत्मतृतीयो वा भवेद , एवपरिहार्यास्तेषामपरिक्षानम् । अथवा-ग्लानत्वे,अथवा-काल
मशिवेऽवमौदर्ये च भावनीयम् । तथा गुरोः संदेशवशादागागते अध्वनि-मार्गे ' अयमे ' अवमौदर्ये अग्न्यादिसम्भ्रमे
ढकारणे गीताथोनामभावे अगीतार्था अपि वजन्तीति । बोधिकम्लेच्छस्तेमभये अकालवर्षेण रुद्धे तथा अपस्ते पथि गच्छतां कस्मिश्चित् मन्दगतित्वात् स्फिटिते या य
तह नाणादीणट्ठा, एएसिं गीतों दिज एकेको । तना तां न जानन्ति, एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः । व्य० ६।। असती एगानी वा,फिडिया वा जाव न मिलति ।२७३।
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घसहि
(१०२७) वसहि
अभिधानराजेन्द्रः। तथा ज्ञानाद्यर्थाय-ज्ञाननिमित्तं दर्शननिमित्तं चारित्रनिमित्तं णिबगडाए अभिणिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसणवैयावृत्त्यनिमित्तकरणं चलितानां तेषां गीतार्थानामभावे अगीतार्था अपि गच्छन्ति । स्पर्द्धकपतौ वा कालगते प्राचा
माणाए णो कप्पति बहूणं अकडसुयाणं एगयो वत्थए । र्यसमीपमथ सार्थात् मन्दगतितया स्फिटिता यावन्नाद्यापि
अस्थि या इ एहं केइ आयारपकप्पधरे जे तत्तियं रयणि मिलन्ति तावदेकत्र बहूनामकृतश्रुतानामपि वासो न विरु
संवसति णत्थि या इत्थ केइ छए वा परिहारे वा, णत्थि या ध्यते।
इत्थ केइ आयारकप्पधरे जे तत्तियं राति संवसति सब्बोसि एगाहिगमट्ठाणे, व अन्तरा तत्थ होज वाघाते । । तेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥५॥ तेणच्छेजा तत्थ वि, सहस्स नियल्लगा बेंति ॥२७४॥ से गामंसि वा' इत्यादि अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धतत्तो वि पलाविजइ, गीयत्थविइजई तु दाऊणं ।
इत्यताहअसतीए संगारो, कीरइ अमुगत्थ मिलियव्वं ॥२७॥
अमग्गामे वासं, णाऊण निवारियं अगीयाणं । कोऽपि साधुः गीतार्थाभावे प्राचार्येण कचित्प्रयोजन प्रेषि
सग्गामे मा वीसुं,वसेज्ज अगडा अयं लेसो ॥२७८ ॥ तो भणितश्चाचैव प्रत्यागन्तव्यमिति । एवमेकाहिगमे' एक
अन्यस्मिन् प्रामे अगीतार्थानां वासं निवारितं ज्ञात्वा मा दिनगमागमे अध्वनि अन्तराले तत्र व्याघातो भवेत् , तेन |
स्वग्रामे विष्वगपि वासः कल्पते इति मन्यमाना अकृताकारणेन स यत्र प्रेषितस्तत्रैवासीत् न प्रत्यागच्छति । अथ
अकृतश्रुताः स्वग्रामे विष्वक वसेयुः, अतस्तनिषेधार्थमिदं वा-तस्य स्वज्ञातय उत्प्रवाजननिमित्तमाचार्यसमीपमागताः
सूत्रमित्ययं सूत्रसम्बन्धलेशः। अपश्यन्तः सर्वतः समन्तात् निरीक्षन्ते, निरीक्षमाणाश्च तत्र
अथवाऽयमन्यः सम्बन्धःगता यत्र स गतस्तिष्ठति । ततो येषां समीपे स प्रेषितस्त- अगडसुया वाऽहिकया, समागमो एस होइ दोण्हं पि । साधुभिातम्, यथा-शैक्षस्य निजकाः समायातास्तिष्ठन्ति। सच्छंदणिस्सिया वा,निस्सयजयणाविहं भणिया।२७६। ते च युवते-वयमात्मीयमुत्प्रवाजयिष्यामस्ततोऽपि स्था- अनन्तरसूत्रे अकृतश्रुता अधिकृताः,अस्मिन्नपि सूत्रे त एवा नात् द्वितीयं गीतार्थ दत्त्वा पलायते दरम् , यत्र तन्निजकानां | कृतश्रुताःप्रोच्यन्ते इत्येष द्वयोरपि सूत्रयोः समागमः-सम्पगतिविषयो नास्ति । असति गीतार्थे अगीतार्थोऽपि स-1 कः। अथवा-अधस्तनानन्तरसूत्रे स्वच्छन्दतोऽनिश्रिता उक्नाः हायो दीयते । तेषां च संकेतः क्रियते , यथा-अमुकप्रदेशे अस्मिन्पनः गीतार्थनिश्रितानां यतना भणिता । अनेन सम्बमिलितव्यम् । अगीतार्थस्यापि सहायस्याभावे एकाक्यपि न्धेनायातस्यास्य (५ सूत्रस्य) व्याख्या-"से गामंसि वा" प्रेष्यते , तत्रापि संकेतः कर्त्तव्यः । एवमेकाकिस्त्रिप्रभृती-| इत्यादि पूर्ववत् । नवरम् 'अभिनिव्वगडाए' अभि-प्रत्येकंमां बाहुनामृतुबद्ध वर्षासु च वासो भवति ।
नियतो वगडः परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिर्वगडा तस्यां पृरायडुट्ठादीसु व, सम्वेसुं चेव होइ संगारो।
थक परिक्षेपायामित्यर्थः । तथा अभि प्रत्येकं नियतं द्वारं यनाणादि व ओसरणे, गीयत्थविइज्जगं मग्गो ॥२७६॥ स्याः सा तथा तस्याम् , तथा अभि-प्रत्येकं निष्क्रमणप्रवेअसती एगाणीउ, निम्बंधे वा बहूण अगीयाणं ।
शौ निष्क्रमणप्रवेशस्थानं यस्याः सा तथा तस्याम् ,वसतौ ब
इनामकृतश्रुतानामेकतो वस्तुम् , अस्ति वाऽत्र प्रकल्पधरो सामायारीकहणं, मा बहिभावं निरंभंति ॥ २७७॥ यस्तृतीयां रजनी गत्वा तैः सम वसति , तर्हि तेषामापन:राजद्विष्टादिषु-राजद्विष्टाशिवावमौदार्यसम्भ्रमादिषु सर्वेषु समापनो नास्ति कश्चिच्छेदः परिहारो वा । नास्ति कश्चिदाभवति संकेतः कर्त्तव्यः । तथा स्नानादिनिमित्तं-जिन- चारप्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनिं गत्वा तैः समं वसति, तर्हि प्रतिमास्नानरथनिर्याणादिनिमित्तं समवसरणं-भूयः सामा तेषां सर्वेषामपि तत् प्रत्ययमगीतार्थेन सह सम्बन्धनप्रत्ययः चार्यादीनां मिलनं भविष्यतीति समवसरणे श्रुते कोऽप्याचा
छेदः परिहारो वा , एष सूत्रसंक्षेपार्थः । र्यसमीपमागत्य द्वितीयं गीतार्थ मार्गयति, तस्य द्वितीयो
अधुना भाष्यविस्तरः। गीतार्थो दातव्यः । असति-अविद्यमाने गीतार्थे, अविद्यमाने तावद् विधा-सद्भावेनासद्भावेन वा । सद्भावो नाम-सन्ति
गामे उवस्सए वा, अभिनिव्वगडाएँ दोस ते चेव । गीतार्थाः परं ग्लानादिप्रयोजनव्यापृताः,असद्भावोमूलत एवं
नवरं पुण नाणतं, तइयदिवसे गीयसंवसणा ॥२८॥ गीतार्था न सन्ति । तत्र सद्भावेन असद्भावन वा अविद्यमाने ग्रामे वा एकस्मिन्नुपाश्रये विष्वक अभिनिर्वगडायां पृगीतायें स प्रतिषेधनीयो यथा नास्ति द्वितीयो गीतार्थः । अ. थक परिक्षेपायामुपलक्षणमेतत् पृथग्द्वारायां पृथग्निकथस निर्षन्धं करोति तर्हि एकाकी प्रेष्यते । यदिवा-बहवोऽ मणप्रवेशायां येऽनन्तरसूत्रे मिथ्यावादयो दोषा उक्कागीतार्थाः सहाया दीयन्ते । बहूनामपि शानदर्शनादिनिमितं स्त एवान्यूनातिरिका द्रष्टव्याः। नवरं पुनर्नानात्वमिदमगमनेच्छाभावात् । तेषां च बहूनामगीतार्थानां या पथि सा. स्मिन् सूत्रे यदि गीतार्था निश्रया बसन्ति तर्हि तृतीमाचारी या च समवसरणे प्रविष्टानां तस्याः कथमम् । अथ यविषसे गीतसंबसनम्-गीतार्थेन सह संघसनं कर्तव्यम, कस्माते निर्बन्धेऽपि कृते उत्कल्यन्ते तत आह-मानिरुद्धय- आचार्यस्तृतीयदिवसे तेषां शोधिनिमित्तं गातार्थमेक माना बहिर्भावं बजेयुरिति कृत्वा।।
प्रेषयति । एवं च तेषां नास्ति प्रायश्चित्तम् । सूत्रम्
अत्र पर पाहसे गामंसि वा. जाव सत्रिवेससि वा अभि-[ एवं पि भवे दोसो, दोसु दिवसेसु जे भणियपुब्धि ।
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( १०२८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसहि
कारमिवं पुल बसही मसती मिक्सोमये जमा २०१ मनु यदि दतीये दिवसे गीतार्थेन सह संवसममेवमपि ये पूर्व भक्षिता मिथ्यात्वादयो दोषास्ते इपोक्सियोचन्ति आचार्य शाह-सत्यमेतत्केवलमिदं सूत्रं कारणकारणवशमवृत्तमतो न दोषः । किं पुनस्तत्कारणमत ग्रह'वसहि असती ' इत्यादि, वसतिरेकत्र सर्वेषां न विद्यते, यदिवा-मिठा सर्वेषामेकत्र न भवति अथवा उभयमेकत्र सर्वेषां न सम्भवति, तत एतेषां त्रयाणां कारणानामन्यसमेन कारले पृथक पृथक वसन्ति। तत्र च यतना कर्त्तव्या । यतनया च संबसतां न प्रायश्चित्तम् ।
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तामेव यतनामाहसंकिड्डा बसहीए, निबेसवसंत अमवसहीए । असती य वाडगं तो, तस्सऽसती होऊ दूरे वा ॥ २८२॥ स्वप्रामे संक्रिडायामतिसङ्कटयां बसतो सर्वेषामेकत्र स्थानं न भवति तदा कनिवेशनस्यान्तः पृथगन्यस बखती स्थातव्यम् । असत्येकनिवेशनस्यान्तः-अन्यस्या वसतेरभावे वाटकस्यान्तः पृथगन्यस्यां वसतौ वसन्ति । अथ वाटकस्याप्यन्तः पृथगन्या वसतिर्न लभ्यते, तदा वाटकबहिईस्तशताभ्यन्तरे पृथगन्या वसतिगंधेया तस्य - स्तरातस्याभ्यन्तरे वसतेरभावे दूरेऽपि यसतिरन्या स्यात् । तत्र हस्तशताभ्यन्तरं यावत् यतनामाह-वीसुं पि वसंताणं, दोषि वि श्रावासगा सह गुरूहिं । दूरे पोरिसिभंगे, उग्वाऽऽगंतु विगर्हेति ॥ २८३ ॥ निवेशनपाटकहस्तशताभ्यन्तरे (वीसुं) विष्वपि वसतामेष विवि दिवसे हे अप्यावश्यके प्राभातिकमतिक्रमणलक्षये सह गुरुभिः कर्त्तव्ये मिक्षामप्यठित्वा ततः संनिवृत्ता आचार्यस्य समीपे समागत्याऽऽलोचयन्ति । अथ इस्तरातस्य हिसतिर्लब्धा तर्हि गुरुसमीपे चतुर्थीयामालोचना कृत्या वैकालिकमावश्यकं स्वकीयायां प सतौ कुर्वन्ति । ततः प्रातरप्यावश्यकं तत्र कृत्वा गुरुसमीप मागत्य प्रत्याख्यानं गृहन्तिदूरे इत्यादि यदि पुनरे न्यस्मिन् प्रामे स्थिता भवेयुस्ततो यदि गुवसकाशमागच्छतां पौरुषीभङ्गस्तत उद्घाटयां पीरच्यामागत्याचार्यसमीपे आलोचयन्ति, प्रत्याक्यानं च गृह्णन्ति पूर्वार्थिकम् । एतत् दूरे स्थितानामविशेषेणोकम् ।
अधुना विशेषमभिधित्सुराद्द
गीयसहाया उ गया, आलोयण तस्स सो वि य गुरूणं । भगडा पुस पत्तेयं, थालोती गुरुसमासे ॥ २८४ ॥ तत्र यदि तेषां दूरे स्थितानां कोऽपि गीतार्थः सहायोऽस्ति तर्हि ते गीतसहायाः - गीतार्थसहाया दूरे गताः सन्तस्तस्य गीतार्थस्य पुरतः अालोचयन्ति । स पुनर्गीसार्थ उद्घाटयां पीरूयां शुरूणां समीपमागत्य विकटयति । अय नास्ति को ऽपि तेषां गीतार्थः सहायस्तर्हि ते केवला अकृताः--अकृतश्रुता उदघाट्रायां पौरुष्यां गुरुसका समागत्य प्रत्येकमालोचयन्ति ।
मंठाय व जंताण व परिसिङ्गो यो गुरुं वयंति ।
बसहि
मेरे अजंगमम्मि व, मज्मगडे वाऽवि आलोए ॥ २८५॥ यदि दूरे बसतिर्लब्धा उद्घाटायां व पौरुभ्यामागच्छतां गं तां च पौरुषीभङ्गस्ततो गुरवः स्वयं तेषामकृतभुतानां समीपं ब्रजन्ति । माचायों बुद्धत्वेन चागन्तुं न शक्रस्ततः खबरे चाचायें से अतभुता मध्या गुरुसमीपमागत्यालोचयन्ति ।
एवं पि दुलहाए. पडिवसहरिया न ऐति पतिदिवस । समाधिया, भतरुये प नहिं विसन्ति ॥ २८६ ॥ एवमपि श्रनेनापि दुर्लभायां वसती दूरे प्रतिकृपमस्थिता न प्रतिदिवसं गुरुसमीपमागच्छन्ति, अर्थादापत्रे द्वितीये दिवसे आलोचका भागच्छन्ति। अथीरशास्ते प्र तिवृषभा यानाचार्यः प्रेषयति तत आह- समगुणे 'थादि, समोसा नाम येषां परस्परं प्रीतिस्तान् समनोज्ञान्
तीन तरुणान्मध्यमवयसो बहिः प्रतिवृषभानाचार्या विसर्जयन्ति । तदेवं यसत्यला पतनोला ।
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सम्प्रति भिक्षाया अलामे यतनामाहदुल्लभभिक्खे जति सग्गामुम्भामपल्लियामुं च । अतिखेयपोरिसिवहे, न वाऽवि ठायंति तो वीसुं ॥२८७॥ दुर्जने मे यदि समामे उद्धामकभिक्षाचरप्रत्यासन्नप्रामे पञ्जिकादिषु च यतन्ते, तथापि यतित्वाऽपि नास्ति संस्तरणम् । अथवा — अतिशयेन महता कालक्षेपेण यदि पयस कथमपि लभ्यते पीपीबन-द्वितीयचतुर्थौपी क्रेन ततो विष्य-अन्यक्षेत्रेऽपि गीतार्थाभावेनाकृतयुता अपि तिष्ठन्ति से चविष्य-क्षेत्रेषु तथा तिष्ठन्ति यथा आचायें स्पफेन सह त्रीणि स्पर्शकानि भवन्ति । उभयस्स अलंभम्मि वि, गीताऽसति वीसु ठंति अगडसुया । दुसु तिसु वा ठाणेसुं, पतिदिवसाऽऽलोऍ भायरितो । २८८ | उभयस्य — वसतेर्भेदक्षस्य बालाभे गीतार्थस्याभावे अकृतश्रुता अपि विष्वक तिष्ठन्ति । कथमित्याह-द्विषु त्रिषु वा स्थानेषु आचार्यस्थानेन तत्सहोत्कर्षतस्त्रिषु स्थानेषु इत्यर्थः, तत्र भिक्षा लाभ उभयालाभे वा विष्वक स्थितानां प्रतिदिवसमाचार्यस्तेषामन्तिकं गत्वा तानालोकते, प्रतिपृथ् दिदानेन तेषां सारं करोतीत्यर्थः ।
किंकारणमाचार्ये प्रतिदिवस तेषां समीपे गन्तव्यमत आह
सइरीभवन्ति अणवे - क्खणाऍ जह भिन्नवाहणा होए । पढिपुच्छ सोहि बोतरा, तम्हा उ गुरू सथा वयई । २८६| भिन्नप्रवहणाः स्वैरिणो भवन्ति, एवं तेऽपि स्वैरिणो जायन्ते तस्मात् प्रतिपृच्छा शोधित्वदानाय गुरु सदा तेषामन्तिकं व्रजति ।
तस्य पुनराचार्यस्य तेषां समीपं ब्रजतस्तैयत्कर्त्तव्ये वादतराइयस्स पार्थ, जोग्गाहारं व नैति पचो (ध्वो) सिं । कितिकम्मं च करेंति, मा जुभरहो व सीएआा ॥ २६० ॥ येषां समीपमाचायों गच्छति से आचार्यस्य पच्चो (यो सं सम्मुखं दुष्णायितस्य अतिशयतृषितस्य योग्यं पानं पानीयं योग्यमाहारं च प्रथमानिकानिमित्तं नयन्ति कविक
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(१०२६) वसहि अभिवानराजेन्द्रः।
वसाह व विधामक्ष कुर्वन्ति,मा अन्यथा जीरथ इव स सीवेत् ।
एतदेव सविस्तरमाहअथ नस्याचार्यस्य नित्यसहायो न विद्यते, तस माह- एवं अगडसुयाणं, वीसु ठियाणं तु तीमु गामेसु । असती निवसहाए, गेहद पारंपरेख असोले।
लहुया प्रसंथरंतो, तेसि अणिताण वी लहुतो ॥२६॥ ते चिय अमेहि समं, तं मलेउं नियत्तते ॥२१॥
सर्वेषां यद्याचार्येण समं नास्ति क्षेत्रं यत्र वसतिः संअसति-अषिधमाने नित्यसहाये-अवस्थितसहाये यः स- स्तरणं च भवति । अथवा-अस्ति बसतिः संस्तरण न विकलदिवसमाचार्येल सह हिण्डते, ततः पारंपर्येणान्यानन्यान् | चते, यदि वा-अस्ति संस्तरणं न पुनर्वसतिः, एवमैतेः सहायान् गृहाति । तद्यथा-एके साधवस्तावन्नयन्ति यावत् कारणैत्रिषु ग्रामेषु विष्वक् स्थिता अकृतभुतास्तेषामद्वितीयं स्फीकम्, ततस्ते तैः समं मेलयित्वा प्रतिनिवर्तन्ते ।। संस्तरणम् , तथापि स्थितानां यद्याचार्यों द्वयोरितरयोः स्पततोऽप्यन्ये साधवस्तावन्नयन्ति यावत्तृतीय स्पर्द्धकम् , तत ईकयोः प्रतिदिवसं सारां न करोति , तदा प्रायभि स्तेऽपि तैः सह मेलयित्वा प्रतिनिवर्तन्ते । तानि च स्पर्द्ध- चत्वारो लघुकाः । स्पर्द्धकसाधयो यद्याचार्यमनागच्छन्तं न कान्याचार्यस्य स्पीकेन सह त्रीणि स्पचकानि भवन्ति।
गवेषयन्ति तदा तेषामप्यनागन्छतां मासलघु । अथ चमाचार्य एकदिक्सेन त्रयाणामकृतश्रु
एमदिणं एक्केके, तिद्वाणत्थाण दुब्बलो वसति । तस्पर्धकानां शोधिं करोति । तत आहएगत्व वसितो संतो, तेसिं दाऊण पोरिसिं ।
मह सो अजंगमो चिय, ताहे इयरे तहिं एंति ॥२६६॥ मज्मारहे वितिय गंतुं, मोत्तुं तत्थावरं वए ॥ २६२॥
अथ ग्लानत्वेन वृद्धत्वेन दुर्बलतया न प्रतिदिवस विस्फ
केवागन्तुं शक्नोति तदा स दुर्बल प्राचार्यसिस्थान,स्थामात्मीये स्पर्बके उषितः सन् प्राचार्यः सूत्रपौरुषी दत्त्वा
नं स्पर्धकानामेकैकस्मिन् स्पर्द्धके एकैकं दिनं बसति । यथा मध्याहे द्वितीयं स्पीकं गच्छति, तत्र गत्वा भुङ्कत्या' शो
च वसति तथा प्रागेवोक्तम् । अथ स प्राचार्योऽतिवृखत्वेन चिरुत्वा तदनन्तरमपरं तृतीय स्पर्द्धकं ब्रजति । तत श्रा
ग्लानत्वेनाजामो जातस्तत इतरे स्पर्द्धकद्वयसाधवस्तत्रासोचनाविशोधि कृत्वा तत्रैव वसति।
चार्यसमीपे आगच्छन्ति, तेषामपि विधिर्मुलगाथायामुकः । एवमेगेण दिवसेण, सोहिं कुणति तिण्ह वि।
अथवा-तत्रान्यः प्रकारस्तमेवाऽऽहपडिपुच्छणं च बलवं, माह सुत्तमवत्थयं ॥ २६३ ॥ । एइ व पडिच्छए वा, महावि कलाव काउमवराधे। एवमेकेन दिवसेनाचार्यत्रयाणामपि स्पर्द्धकानां शोधि क
अतिरे पण परए, पक्खे मासे परतरे वा ।। २१७॥ रोति, यदि स प्रतिपृच्छां-प्रत्येकं पृच्छा सारां कर्तुं गन्तुं
यस्तेषां स्पर्द्धकसाधूनांमध्ये कोऽपि साधुर्मेधावी स सबलवान् । अत्र परः प्राह-यद्येवं तर्हि 'तइयं रयाणं संव- |
वेषां साधूनामपराधान् इदये धारयितुमलं तेन स्पीकसति' ति तदिदानीमपार्थकमवकाशाभावात्
साधव आलोचयन्ति । तद्यथा-स तेषामपराधपदानि कसुत्तनिवातो थेरे, कलाव काउं तिहेण वा सोहिं।।
लापं कृत्वा हृदये संपिण्याचार्यसमीपमागत्यालोचयति ।
तान्याचार्यः श्रुत्वा यद्यापचाः प्रायश्चित्तम् । ततो यत्र येबितियपयं च गिलाणे,कलाव काऊण भागमणं ।२६४)
नापचे प्रायश्चित्तं तमेनमित्थं वाहयेदिति भणित्या प्रेषप्राचार्यः प्राह-अधिकृतस्य सूत्रस्य निपातोऽवकाशः स्थ- यति । सोऽपि च साधुस्तेषां तत्कथयति प्रायश्चित्तं च तेपि चिरे । तथाहि-यद्याचार्यः स्थविरतया दुर्बलत्वेन वा प्रतिदि- साधवस्तद्वहन्ति । 'पडिच्छए 'शि अथवा-प्राचार्य श्रा वसं त्रिषु स्पर्द्धकेषु शोधि कर्तुं न शक्नोति तत एकैकस्मिन् त्मीयात् स्पर्डकात् विनिर्गस्य येन प्रदेशेन इतरे स्पर्धका स्पर्द्धके तृतीयां राात्र वसति । तथा चाह-आचार्यस्य प्रति वाऽऽगच्छन्तस्तस्मिन् प्रदेश मन्तरा प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति तदिवसमनागमने व्यहेण चाऽपराधान् कलापं कृत्वा-पिण्डयि- व स्पर्द्धकसाधव मागच्छन्ति । एको वा मेधावी अत्रात्वा शोधिमाचार्यस्य समीपे कुर्वन्ति । तथाहि-एकस्मिन् प्यालोचनादिकं तथैव 'मरे' इत्यादि पचतिरे स्थिस्पर्द्धके उषित्वा तत्र पौरुषर्षी दत्त्वा द्वितीये स्पर्द्धके समाया तास्तदा पश्चिमे पशमे दिवसे, यदि वा-पक्षेण पक्षण,अथवाति, तत्रैव वसति । तत्र वसनौ तत्रत्याः साधवो ये अपराधा मासेन मासेन, परतरे बेति परतरेस वा इपर्बमासाविना अभूवन ते एकत्र पिण्डयित्वा प्राचार्यस्य पुरत आलोचय- समागच्छन्ति । भागस्य चाचार्यादिसमीपे शोधि कुर्वन्ति । न्ति । आचार्यस्तु शोधिं ददात्यप्रमादार्थ चोपदेशं प्रयच्छति। से गामंसि वा • जाव संनिवेससि वा अभिषिदुवाराए अत्रापि द्वितीयपदमाह-द्वितीयपदम्-अपवादपदं ग्लाने सत्याचार्ये अपराधान् कलापं कृत्वा पिण्डयित्वा इत्यथैः, स्प
अभिणिक्खमणपवेसाए यो कप्पति बहुमुयस्स बम्भाचकसाधूनामागमनमाचार्यसमीपे । इयमत्र भावना-यद्या- गमस्स एगागियस्स भिक्खुस्स वत्थए, किंमग! पुखमचार्यों ग्लानत्वेनातिवृद्धत्वेमाऽजङ्गमः स्वयं न शक्नोति ते- प्पागमस्स अप्पसुयस्स भिक्खुस्स ॥६॥ षां समीपं गन्तुं तदा इतर-स्पर्द्धकद्वयसाधवो यथा मयूरः | ‘से गामंसि वा' इत्यादि । अत्र सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहस्वपिच्छान् कलापयति-एकत्र पिण्डयति एवमपराधानेकत्र पिण्डयित्वा हृदये सम्यगवधार्य गुरुसमीप
अगडमुयाण न कप्पड़, वीसु मा अइपसंगतो मुगवं । मागत्यालोचयन्ति । आलोचितेषु च तेषु अपराधेषु यदि
एगागितो वसेजा, निकायणं चेव पुरिमाणं ॥२८॥ प्रायश्चिसं दातव्यं भवति तदा प्रायश्चित्तमाचार्यों दत्त्वा अनन्तरसूत्रे अकृतश्रुतानां न कल्पते विष्वग् पास इति प्रमादाभावार्थमुपदेश व दवा विसर्जयनि।
श्रुत्वा माऽतिप्रसङ्गतः श्रुतवान् एकाकी बसेदित्येवमर्थमि२५८
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.वसहि
(१०३०) अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि दं सूत्रम् । तथा निकाचनं च नियमश्च पूर्वाणामकृतश्रुता- त्पापमाचरन् कुलागमतपस्विस्वपक्षपरपक्षभ्यो लज्जते । नां कृतमनेन सूत्रेण । तथाहि-यदि कृतश्नुतस्यापि न | यथाऽहमेवमाचरन् कथमात्मीयं मुखं तेषां दर्शयिष्यामि कल्पते एकाकिमो वासः किमा ! पुनरकृतश्रुतस्य तस्य एवं लज्जातः पापं न करोति । सुतरामेकाकिनो न कल्पते वास इत्येष सूत्रसम्बन्धः ।
सम्प्रति भयद्वारभावनार्थमाहअनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य ६) व्याख्या-अथ ग्रामे असिलोगस्स वा वाया, जो ऽतिसंकति कम्मसं । वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा अभिनिर्वगडायामभिनिर्धारायामभिनिष्क्रमणप्रवेशायामेतेषां त्रयाणामपि पदानां ब्या
तहा वि साहु तं जम्हा,जसो वलो य संजमो ॥३०३।। ख्यानं पूर्ववत् । न कल्पते बहुश्रुतस्य सूत्रापेक्षया एका
अश्लोकस्य बा-अवर्मस्य वा वादात्-प्रवादात् यः कर्मकिनो भिक्षोर्वस्तुम् , किमङ्ग! पुनरल्पागमस्याल्पश्रुतस्येति
अशुभासवनारूपमतिशयेन शक्यते-अपकीत्येपवादभयान सूत्रक्षेपार्थः।
कुरुते इत्यर्थस्तथापि तस्य तत् अशुभकानाचरणं सासम्प्रति भाष्यविस्तरः
धु यस्मात्तेन यशोऽभिकाशितम् , ' यशो वर्मः संयम इत्ये
कार्थम् । 'जसो ति वा संजमो त्ति वा वएणो त्ति वा अंतो वा बाहिं वा, अभिनिव्वगडाएँ ठायमाणस्स ।
एगट्ट' मिति वचनात् । ततः परमार्थतः संयमोपेक्षित इति गीयत्थे मासलहं, गुरुतो मासो अगीयत्थो ॥२६६ ॥ तदनाचरणं श्रेयः। अन्तरूपाचयस्याभिनिर्वगडायां-पृथक्परिक्षेपायां वसतौ सम्मति यशः संयम इत्येकार्थतया भगवद्वचनमुपयथा-एकस्यां पलभ्यां विष्वक अपवरके बहिरुपाश्रयस्याभि
दर्शयतिनिर्वगडायामन्यस्मिन् प्रतिश्रये यदि गीतार्थो भिक्षुर्वसति
जसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो। तदा तस्य तत्र तिष्ठतो गीतार्थस्य प्रायश्चित्तं मासलघ,
अलेस्सा तत्थ सिझति,सलेस्सा उ विभासिया ॥३४॥ अगीतार्थस्य गुरुको मासः।
ये नरा-मनुष्या वृत्तमात्मन इच्छन्ति ते यशः समुपजीवसांप्रतमन्तबहिर्वा गृहस्य या अभिनिर्वगडा तस्याः
न्ति-संयममुपजीवन्ति, इत्येतद् व्याख्याप्रज्ञप्तौ राशियुग्मप्रकारमाह
शते भणितम् । तथा च तद्ग्रन्थ:-"मणुस्सा णं भंते किं अंतो निवेसणस्स, सोही मादी.व जाव सग्गामो । प्रायजसं उवजीवंति" अात्मसंयममित्यर्थः। “ आयघरवगडाए सुत्तं, एमेव य सेसवगडासु ॥ ३०॥
जसं उबजीवंति" श्रात्माऽसंयममित्यादि, एवं यशःसंयमा
वेकार्थाबुक्की । नत्र ये अलेश्याः-शसशीप्रतिपन्नास्ते नियमात् निवेशनस्य गृहस्यान्तरभिनिर्वगडा, अथवा-निवेशनाद्वहि
सिध्यन्ति , सलेश्याः पुनर्विभाषिता-विकल्पिताः केचित्सिरन्या वसतिरभिनिर्वगडा तस्यां मुख्यतो द्रष्टव्यम् एवमेव
ध्यन्ति केचिन्न सिध्यन्तीत्यर्थः । तत्र ये भव्यास्ते सिध्यन्ति, शेषवगडासु निवेशनाद्वहिरभिनिर्वगडाप्रकारेषु च । तच्च गी
तत्राहमशुभं कर्म समाचरनभव्यो भविष्यामीति भयतो तार्थानामगीतार्थानां भिक्षूणामेकाकिनां वसतां प्रायश्चि
नाशुभकर्म समासेवते। तम् । तदेव प्रागुक्तं न केवलं प्रायश्चित्तं किं त्वन्येऽपि च दोषाः।
दाहिंति य गुरू दंडं, जइ नाहिंति तत्ततो । तथा चाह
तं च वोढुं न चाइस्सं, घायमादी य लोगतो ॥३०॥ प्राणादियो य दोसा, विराहणा होइ संजमायाए । यदि परस्यादिकं सविष्ये ततो यदि गुरवस्तरवतो कालजाभया उ गारव, धम्मसढरक्खाचउद्धा अ॥३०१॥
स्यन्ति तदा दण्डं-प्रायश्चित्तमुग्रं दास्यन्ति,तथोपें प्रायश्चित्तं
वोदुमहं न शक्ष्ये, नापि लोकतः-परयुवतिभादिलक्षणात् अन्तनिवेशनस्याभिनिर्वगडायां वसतौ तिष्ठत आशादयो
घातादिक-घातवधादिकं सोढुं शक्ये, इति भयतो नासवते दोषाः, तथा संयमविराधना आत्मविराधना च । एते
अशुभं कर्म । गतं भयद्वारम् । यथा प्राक् चतुर्थपञ्चमातिशय भाविते तथा भावनीये । यदि
अधुना गौरवद्वारमाहपुनरनभिनिर्वडायां वसतौ बसति तदा पापं कर्तुमिच्छतो
जोऽहं सहरकहासु पि, चकामि, गुरुसन्निहो। लज्जातो भयतो गौरवतो धर्मश्रद्धातो वा रक्षा चतुर्विधा स्यात् । किमुक्तं भवति-अनभिनिर्वगडायां बसतौ वसन् सोऽहं कहमुपासिस्सं, तमणायारसितो ॥ ३०६ ॥ संयमविराधनारूपमात्मविराधनारूपं वा पापं लज्जादिभ्यो योऽहं स्वैरकथास्वपि गुरुसन्निधौ गौरवेण चकास्मि सोन कुर्यादपि।
ऽहमनाचारक्षितस्तं गुरुं कथमुपासिस्ये , अनाचारदूषिततत्र प्रथमतो लज्जाद्वारं भावयति
तया तथारूपगौरवाऽसम्भवात् । नजणिजो उ होहामि, लजए वा समायरं ।
लोए लोउत्तरे चेव, गुरवो मज्झ संमता । कुलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपळखतो ॥ ३०२॥ मा हु मज्झावराहेण, होज तेसिं लहुत्तया ॥ ३०७॥ यद्यहं हस्तकम्मीचन्यद्वा पापं समाचरिष्यामि लज्जनीयो।
मम गुरवो लोके लोकोत्तरेऽपि च समतास्ततो ममाप
राधेन मा तेषां लघुता भूयात् । भविष्यामि, लजितश्च कथं कुलस्य गणस्य सङ्घस्य आग
तथामास्य वा तपस्विनो वा स्वपक्षस्य-श्रावकादेः परपक्षस्य मा-परतीर्षिकादिरूपस्य मुखं दर्शयिष्यामि । अथवा-त- माणणिजो उ सबस्स, न मे कोई न पूयए ।
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(१०३१) वसहि अभिधानराजेन्द्र:।
वसाहि तणाण लहुतरो होऽहं, इति वजेति पावगं ॥३०॥ सम्प्रति शुभाशुभपरिणामविवर्त्तनं दृष्टान्तेन अहं सर्वस्यापि माननीयः, न मां कश्चिन्न पूजयति, यदि
भावयतिपुनरधुना पापमाचरिष्यामि ततस्तृणेभ्योऽपि लघुतरो भ- जहा य अम्बुनाहम्मि, अणुबद्धपरंपरा । विष्यामीति हेतोः पापं-मैथुनासेवनादिकं वर्जयति । गतं वीई उप्पज्जए एवं, परिणामो सुभोऽसुभो ॥ ३१५ ।। गौरवद्वारम् ।
यथा अम्बुनाथे-समुद्रे अनुबद्धपरम्परा वीचिरुत्पद्यते , अधुना धर्मश्रद्धाद्वारमाह
एवं जीवस्य परिणामः शुभोऽशुभश्चानुबद्धपरम्पराक उपजापायसक्खियमेवेहं, पावगं परिवजए ।
यते।
शुभाशुभपरिणामवैचित्र्यमेव दृष्टान्तेन विभावयिअप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु धम्मतो ॥३०६ ॥
षुः कण्टकदृष्टान्त प्रागुपन्यस्तं भावयतियः पापकमात्मसाक्षिकमेव विवर्जयति स परमार्थतो ध
कएहागामी जहा चित्ता, कण्टकं वावि चित्तियं । मर्माधिकारीत्येवं मन्यमानस्य,अपिः-सम्भावनायाम, दुष्टस
तहेव परिणामस्स, विचित्ता कालकएडया ॥३१६ ॥ कल्पस्य रक्षा मूलत पवानुत्थानमुत्थितस्य विफलीकरणं वा सा खलु धर्मतो भवति । (व्य०) (धर्मश्रद्धाया मह
कृष्णागामी-कृष्णाशृगाला, यथा-सा कृष्णादिभी रेखात्फलतोपदर्शनम् 'धम्मसड्डा' शब्दे चतुर्थभागे २७३३ पृष्ठे
भिश्चित्रा-विचित्रवर्णा भवति,वृश्चिकस्य-महाविषस्य लाहगतम् । ) तदेवमनभिनिर्वगडायां वसतौ वसतो लजादीनि
गूलः कण्टक उच्यत । यथा स कृष्णादिरेखाभिश्चित्रितो ना. संयमविराधनारक्षकाण्युक्तानि अभिनिर्वगडायां पुनर्वसतः
नाप्रकारो भवति तथैव परिणामस्य विचित्राणि कालभेदेन शुभोऽशुभो वा मनःपरिणाम उपजायते।
कण्टकान्यसंख्येयस्थानात्मकानि भवन्ति ।
अथ कथं शुभादशुभे अशुभाडा शुभे परिणामे याति, तत्र तथा चाह
ललिकाष्टान्तमाइमणपरिणामो वीयी, सुभासुभो कंटएण दिटुंतो।
लंखिया वा जहा खिप्पं. उप्पतित्ता समोयइ । खिप्पं करणं जह लं-खियव्वं तहियं इमं होइ ॥३१॥
परिणामो तहा दुविहो, खिप्पं एति अवेति य ॥३१७॥ यथा गादीनां नदीनां वातनानन्तरानन्तरमनेका वीचय
यथा वा लडिका क्षिप्रमुत्प्लुत्य,क्षिप्रमेव समयपतति, तथा उत्पद्यन्ते एवं जीवस्यान्योन्यमनःपरिणाम उपजायते, सच परिणामो द्विविधा-शुभोऽशुभश्च क्षिप्रमागच्छति अपैति च । द्विधा-शुभः, अशुभश्च । अत्र दृष्टान्तः-कण्टकेन वृश्चिकला
एवं शुभाशुभे अशुभादा शुभे परिणामे गमनं कियन्ति झूलेन । यथा वा-लडिकायाः क्षिप्रं करणं तथैवमिदं भव
___ संख्ययाऽध्यवसायस्थानानीति चेदत आहति । एवं जीवस्य शुभोऽशुभश्च परिणामः क्षणेनोपजायते
लेस्साठाणे उ एकेके, ठाणासंखमतिथिया । क्षणेनैवापैति इत्यर्थः ।
किलिडेणेतरेणं वा, जे उ भावेण खंदती ॥ ३१८ ॥ अथ कथं मनसोऽवस्थानमत आहपरिणामाणऽवत्थाणं, सति मोहे उ देहिणं ।
एकैकस्मिन् लेश्यास्थाने संख्यामतिक्रान्तानि संख्याती
तानि स्थानानि-परिणामस्थानानि भवन्ति, यानि क्लिष्टेनतस्सेव उ अभावणं, जायते एगभावया ॥ ३१२॥ । संक्लिष्टेन इतरेण-विशुद्धन भावेन खुन्दति-आस्कन्दति प्रामनःपरिणामानामनवस्थानं देहिनां-प्राणिनां सति-विद्य- मोतीत्यर्थः । अथ कः संक्लिष्टः, को वा इतरो भाव इति माने मोहे भवति, तस्यैव तु मोहस्याभावेन जायते एकभा-1 चेत् ? , उच्यते-इह कृष्णलेश्यापरिणामो विशुद्धस्तस्मा
ता-मनःपरिणामस्य एकरूपता, तदेवं मनःपरिणामो वी- श्रीललेश्यामपरिणामो विशुद्धस्तस्मादपि कापोतलेश्यापचिरूपो व्याख्यातः।
रिणामो विशुद्धस्तस्मादपि तेजोलश्यापरिणामो विशुद्धः , इदानीं शुभाशुभपरिणामप्रतिपादनार्थमाह
तस्मादपि पचलेश्यामपरिणामो विशुद्धः, ततोऽपि शुक्ललेजहाऽवविजए मोहो, सुद्धलेसस्स झाइयो ।
श्यामपरिणामः। तथा शुक्ललेश्यापरिणामः क्लिष्टः, तस्मा
दपि पचलेश्यापरिणामः क्लिष्टः, तस्मात्तेजोलेश्यापरिणामः तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवड्डए ॥३१३ ॥ क्लिष्टः, तस्मादपि कापोतलेश्यापरिणामः, क्लिष्टः, ततोयथा शुद्धलेश्याकस्य ध्यायिनो-धर्मभ्यायिनः शुक्लध्या-1 पिनीललेश्यापरिणामस्तस्मादपि कृष्णलेयापरिणामः। उक्तं यिनो वा मोहोऽपचीयते तथैव विशुद्धपरिणामो विवर्धते ।। च-क्रमशः स्थितासु लेश्यागतासु जीवस्य भावपरिणतिषु । उक्तः शुभपरिणामः।
अवपतनोत्पतनाद्धा, संक्लेशाद्वा विशोध्याद्वा। अशुभपरिणामप्रतिपादनार्थमाह
प्रत्येकैकस्मिन् लेश्यास्थाने परिणामसंख्यातीतत्वं
भावयतिजहा य कम्मिणो कम्म, मोहणिज्जं उदिजह ।
भवसंघयणं चेव, ठितिं वाऽऽसज देहिणं । तहेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवति ॥ ३१४॥
| परिणामस्स जाणिज्जा, विवड्डी जस्स जत्तिया ॥३१६।। यथा च कम्मिणः सक्लिष्टलेश्यास्थानवर्सिन प्राध्यायि
भव एव संहननं भवसंहननं दृढभवं देहभवं चाधिकृत्येत्यर्थः। मो; रौद्रध्यायिनश्चेत्यर्थः, कर्म-मोहनीयं कषायनोकषायरूप- तथा स्थितिं च जघन्यादिभेदभिन्नमाश्रित्य देहिनां नारकादीमुदीयते, तथैव 'से' तस्य संक्लिष्टपरिणामो विवर्द्धते ।। नां यस्य-परिणामस्य कृष्णलेश्यादिरूपस्य यावती वृद्धिस्त
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(१०३२) अभिधानराजेन्द्रः ।
सि
स्वतायती जानीयात्। तथादि-नारकाणां देवतानां - धन्यायां खितो म्लेश्वापरिकामा नानाजीवादमा तरतममेदेन चिन्त्यमाना संदेषाः समवाधिकायामपि जघन्यथिती, द्विसमयाधिकायामपि जयन्यरिकतावेयं तावद्वाच्यं यावदुक स्थितिस्थानम् । एवं उपलेश्यायां परिक्षामा असंक्षा भवन्ति ।
एवं नीललेश्यागतस्य विशुद्धस्य भावस्य फलमादविसुज्यंतेय भावेश, मोहो समवचिज्जइ ।
मोहस्साऽवच वापि भावसुद्धी वियाहिया ॥ ३२० ॥ विशुध्यता भावेन लेश्यागतेन मोहो- मोहनीयं कर्म सम पचीयते - हानिमुपगच्छति । मोहस्यापयये चापि भाषषिशुद्धिर्जीवस्य परिणामविशुद्धियां स्याता प्रतिपादिता यथा कालक्षेप केवलधिया लाभो भयति । अथ मोहनीयं कर्म्म उदयप्राप्तं शुभपरिणामेन क्षपयितुं शक्यते किं वा न शक्यते इति ब्रूमः । तथा चाहउक्कतं जहा तोयं, सीयले उ बिजए ।
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गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेणं तहोदओ ॥ ३२१ ॥ यथा उत्कथ्यमानं तोयं शीतलेन तोयेन क्षीयते गदो वा अगदेन, तथा मोहनीयस्योदयो वैराग्येण क्षीयते । तदेवमुक्तं प्रसक्तानुप्रसक्तम् ।
अधुना प्रकृते योजनमाहअसुभोदयनिष्फला संभवंति बहुब्विहा ।
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दोसा गाणिस्सेवं, इमे अने वियाहिया ॥ ३२२ ॥ अशुमोदन-शुभकम्मयेन निष्पन्ना अन्तरुपाश्रयस्याभिनिवगडायां वसतावेवमेकाकिनो बहुविधा दोषाः, तदेवमन्तरुपाश्रयस्यामिनियेगडयां दोषाः संप्रति व हिरुपाश्रयस्पाभिनिर्वगडायां दोषानाह इमे वदयमाणा अन्ये दोषा एकाकिनो व्याख्याताः प्रतिपादिताः । तानेव द्वारगाथया संजिघृक्षुराह-मिच्छत्तसोहिसागा - रियादिगेल सखद्धपडिणीए । बहिपेल्लखित्थिवाले, रोगे वह सन्नमरणे य ॥ ३२३ ॥ एकाकिमो मिथ्यात्यगमनम् तथा शोधेरभावः तथा सागारिकप्रवेशो वसतौ चादिशन्दाथ चलत्य वसती दिपतनत श्रात्मविराधनेति परिग्रहः, तथा ग्लानत्वे प्रतिजागरणाभावः तथा एकाकिनों मन्दाझेनियारकाभावात् प्रचुरभक्षणसम्भवस्तथा च ग्लानत्वादिभावः तथा एकाकी प्रत्यनीकस्य गम्पो भवति तथा उद्धामका दण्डपाशादयो नगररक्षका वा एकाकिनं चोरोऽयं हेरिको वा न ज्ञायते कथमन्यथा एकाकीति विचिन्तयन्तो बहिः प्रेरयेयुः - प्रामाकागराद्वा बहिर्निष्काशयेयुरिति भावः । तथा स्त्रीदोषा एकाकिनो जायन्ते तथा ग्यालेन दृष्टस्य किरणसंभवः, रोगस्य च वृद्धिगमनम् तथा सत्यस्य सतो मरणमित्येष द्वारगाथासंक्षेपार्थः ।
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वसहि जोगाढमप्यसहायं कुतीर्थिकाः प्रज्ञापयन्त्यतो मिथ्यात्वगमनम्, तथा समापनः प्रायश्चित्तं कस्य पार्श्वे शोधिं करिष्यतिनेव कस्यचित्पार्श्वे ततः शोष्यभावः ।
सम्मति सागारिकद्वारं ग्लानद्वारं चाहगया आमोसमादीनं, सेजं वयति सारियं । असहायस्स गेलो, को मे किचं करिस्सइ || ३२५॥ श्रामोषकादीनां भयातस्त्रिषेकाकिनि सति शून्य - बसति दृष्ट्रा तो सागारिको जति द्वारणाथायामादिश तां ब्दस्य व्याख्यानं तत्रैव कृतम् । तथा असहायस्य ' से ' तस्य लानत्वे सति कः कृत्यं करिष्यति । खद्धाप्रत्यनीकरणद्वाराण्याह
मंदगी झुंजए खर्द्ध, ऊसढं ति निरंकुसो ।
एगो पद्मम्मो पे उम्भामया वयं ।। ३२६॥ एकाकी निवारकाभावाद् निरङ्कुशः ' ऊसढं ' ति उत्कृष्टमिति कृत्वा मन्दाग्निः प्रचुर भुक्। ततो ग्लानत्वादिदोषसम्भ वः, तथा एकः - असहायः प्रदुष्टस्य प्रत्यनीकस्य गभ्यो भवति तथा उद्धामका नगरादिरक्षका एकाकिनममुं चीरादिरिति कृत्वा नगरादेर्बहिः प्रेरयेयुः ।
अधुना स्त्रीद्वारमाह
वभिचारिम्मि परिणते, निंतिः दट्ठूण समण्णवसहीतो । पंतापणादगारो, उड्डाहो पतुसमादी || ३२७||
या व्यभिचारी नाम जारस्तस्मिन् परिणते सा खा केवापि कारणेन संयतवसति गता भवेत्। ततः श्रमश्वसतेस्तां निर्गच्छन्तीं दृष्ट्रा अगारः तस्या भर्त्ता अन्यो वा निजको arsनिजको वा तस्यामाशक्तः प्रता ( प्रान्ता) पनादि - मारणादि कुयात् । तथा च सति प्रवचनस्य उड्डाहः । प्रतापनाद्यभावे तस्य दर्शनस्य वा सफलस्वोपरि प्रद्वेष उपजायते, तथा ब सति तस्याम्यस्य या भक्तपानादिव्यवच्छेद दोषाः। सम्प्रति व्यालद्वारं रोगद्वारं वाहबाले वा विदट्ठस्स, से को कुणइ भेसजं । दीहरोगे विवद्धिं व, गतो किं सो करिस्सर || ३२८|| व्यासेन सर्व्वादिना दष्टस्य 'से' तस्य को भेषजं करोति नैव कश्चिदेकाकित्वात् तथा दीर्घरोगे कृत्याकरणतो विवृद्धि रातः सपचारिक करिष्यति नै किचित्केवलं मरिष्यतीत्यर्थः
शल्यमरणद्वारमाह
सल्लुद्धरणविसोही, मए य दोसा बहुस्सुए वाऽवि । सविसेसा अप्पए, रक्खन्ति परोप्परं दोऽवि ॥ ३२६॥ शल्योद्धरविशोधिरेकाकिनः सत्योदरणाभावस्ततो नृतेऽपि च सशल्ये तस्मिन् दोषाः तथाहि सशल्यो यो प्रियते स दीर्घकाले संसारमनुवर्तते इति । बहु
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साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो मिध्यात्वद्वारं शोधिद्वारं चाऽऽहश्रगाढस्स सहायं तु, पष्मवेंति कुतित्थिया । समावो विसोहिं च, कस्स पासे करिस्स६ || ३२४|| | स्त्यमुं विधि न जानातीति सशल्य एव म्रियते । यदि पुनर्द्वा
ते वाऽप्येकाकिनि मृते दोषाः । तथाहि सोप्येकाकी मृतो गृहिणा बलीवर्दाभ्यां मल्लेन, राजकुलेन वा निष्काश्यते । तथा वा लोकनिन्दाप्रवृते प्रवचनव्याघातः 'सविसेसा अप्पर ' इति अल्पभूते एकाकिनि सविशेषा दोषाः । तथाहि बहुश्रुत आलोचनाभावे सिद्धानामन्तिके आलोचयति, अल्पभुत
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बसहि
वपि बहुश्रुता (अल्पश्रुता ) वभिनिर्वगडायां वसतौ परस्परं सम्भूय वसतस्तदा द्वावपि तौ परस्परं रक्षयतः । अधुना 'खविलेसा अप्पमुप' इत्येतद् व्याख्यानयतिअप्पेव जिगसिद्धे आलोतो बहुस्सुतो । अगीतो तमजातो, ससनो जाति दुग्गर्ति ।। ३३० ॥ अप्येवमेवमपि एकाक्यपीत्यर्थः । बहुश्रुतो जिनेषु श्रईत्सु सिद्धेषु मनसि संप्रधारितेषु तेषां पुरत आलोचयिष्यति, अगीतोऽबहुश्रुतः पुनस्तं विधिमजानन् सशल्यो मृत्वा याति दुर्गतिमतः सविशेषो ऽत्पते ।
सम्मति रचन्ति परोप्परं दोऽवि त्ति व्याख्यानार्थमाह
सीहो रक्खइ तिणिसे, तिणिसेहि व रक्खितो तहा सीहो । एवम्मममसहिया, बिइयमद्धाणमादीसुं ।। ३३१ ॥ सिंहो रक्षति तिनिशान्, तिनिशवृक्षगुहां तिनिशैरपैति, ति निशवृक्षगुदवाऽपि सिंहो रयते, एवमभिनिर्वगडायां वसती यसन्तावन्योन्यसहितौ परस्परं रक्षयतः । अत्रैवापवादमाहद्वितीयपदम् - अपवादपद्मध्वानं प्रतिपत्रकारलेनैकाकी अ म्यसम्भोगकादीनां पार्श्वस्वादीनां या वसतेर्विष्यक अपवरके निवेशनादिषु वा वसेत् । श्रादिशब्दादशिवादिगृहीतो या विष्वक्र तिष्ठेत् ।
से गामंसि वा० जाव संनिवेसंसि वा एमवगडाए एगदुवारा एगनिक्खमणपवेसाए कप्पति बहुस्सुयस्स बभागमस्सएगाणिस्स भिक्खुस्स वत्थए उमओ काल भिक्खुभावं परिजागरमाणस्स ॥ ७ ॥
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+ से गामंसि वा जाव रायहासिसि वा इत्यादि अस्य सूत्रस्य सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहकारणतो वसमायो, गीतोऽमीओ व होति निदोसो ।
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( १०३३) अभिधानराजेन्द्रः ।
या खलु कारणवासिस्स जवथा ।। ३३२॥ कारणतो गीतार्थोऽगीतार्थो वा यतनया वसन् निर्दोषो भवति । सा च यतना कारणत एकाकिनो वसनशीलस्य पृमुक्ता । एतदर्थस्यापनार्थमिदं सूत्रम् ।
अधुना सूत्रत एव सम्बन्धमाह
सुचेणेव उ सुतं, जोइअह कारणं तु आसन । संबंधघरुव्वरण, कप्पर वसिउं बहुसुस ।। २३३ ।।
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सूत्रेव सूत्रं योज्यते -सम्बध्यते, तद्यथा - धनन्तरसूत्रेकाकिनो 'वासो निषिद्धोऽनेन तु सूत्रेणेदं प्रतिबहुश्रुतस्य गद्यते - कारणमाश्रित्याध्वप्रतिपत्त्यादिकं सम्बन्धगृहोद्वरके बहुश्रुतस्य वस्तु कल्पते, इत्येष सूत्रसम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (७) व्याख्या -अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यामेकवगढ़ायामेकपरिक्षेपायामेकद्वारायामे कनिष्कमप्रवेशायां वसती बहुभुतस्य बहुरंगमस्य भिक्षोवस्तुं कल्पते, केयखमुभयकालं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रतो-भिशुभावश्चारित्रं तस्याऽविराधनार्थ या सामाचारीयां कुर्यत इत्येष सूत्रसंक्षेपार्थः ।
अधुना भाग्यनिर्युक्लियस्तरस्तत्र भिक्षुभावम् पडिशा'गरमाणस्से' ति व्याख्यानार्थमाद भाष्यकृत् चरणं तु भिक्खुभावी सामाचारी जा तदट्ठाए।
२५६
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बसहि डिजागरणं तम्हा उभओ कालं अहोरचं ॥ ३३४ ॥ भिक्षोर्यथावस्थितस्य भावो भिक्षुभावः चरणं तदर्थं तस्य चारित्रस्थाविराधनार्थ या सामाचारी तस्थाः प्रतिजागरणंनामकरणम् उभयकालमहि रात्री आचार्योऽपि तस्यैवं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रतो गोसे रात्रिकं पृच्छति । दिवसेऽपि भक्तपानादिचिन्तां करोति, पिकाले च देवसिकं पृच्छति सु सन वृत्तस्तव दिवस इति एवमुभयकालमाचार्यस्तं प्रतिजागर्त्ति ।
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सम्प्रति निर्युक्तिविस्तरःवक्खारे कारणम्मि, निक्कारणे पुव्ववलिया दोसा । किं पुण हुआ कारण, तद्दोसाई मुणेयव्वा ॥ ३३५ ॥ वक्षारो नाम एकस्यां बलभ्यामभिनिर्वगडो विष्वक् अपवरकस्तस्मिन् कारणे सति वसनि, एतद्विषयमिदं सूत्रम् । यदि पुनः कारणमृते विव्वगपवरके वसति तदा पूर्वयसिंता मिथ्यात्यादयो दोषाः । किं पुनर्भवेत्तत्कारणं - द्वशात् पृथक अपवरके तिष्ठति तत आइ-स्वग्दोषादीनित्वग्दोष क्षयव्याध्यादीनि कारणानि ज्ञातव्यानि । तथाहिस्वग्दोषादिकमादाय यदि निष्काशयति तदा तस्य प्रायवित्तं चतुर्गुरुकम् तस्मान्न स निर्यूहयितव्यः किं तु पृथगपबरके स्थितः परिपालनीयः । स च त्वदोषो द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां भवति । (०) (विषया गाथा 'तहोस' शब्दे चतुर्थमागे २१८ पृष्ठे गता) तद्व्याख्या सेयम् - द्विविधस्त्वग्दोषस्तद्यथा - स्यन्दमानः, श्रस्यन्दमानश्च । तत्रास्यन्दनः-अ स्रावणश्वित्रप्रसुप्तिर्मण्डलप्रसुतिश्च । यस्तु स्यन्दमानः स कृमीन् प्रस्यन्दते, पूतं वा रसिकां वा । तत्र स्यन्दमाने त्वग्दोषे इयं वक्ष्यमाणा यतना । तामेवाह
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संदते वक्खा, तो बाहिं च सारया तिथि । जत्थ विसीदेज ततो, खायादी उग्गमादी वा ॥ ३३७|| स्यन्दमाने त्वग्दोषेऽन्तरस्यां वलभ्यां विष्वगपरकेतस्याभावे एकस्मिनिवेशने अन्यस्यां वसती स्थाप्यते । तत्र च वसतस्तिस्रः सारणाः - साराः कर्त्तव्याः । यत्र सको विसीदेत् । कास्तास्तिस्रः सारा इत्याह-हानादी-हाने, एशेने, चारित्रे व अथवा उङ्गमादी- उनमे उत्पादनापा बणायां वा ।
अथवा अन्यथा तिनः सारास्ता एवाहहवा भते पाणे, सामायारीऍ वा विसीयतं । एएसुं तिसु सारे, तिनि वि काले गुरू पुच्छे ।। ३३८ ॥ अथवेति प्रकारान्तरे भक्ने पाने सामाचार्या च एतेषु त्रिषु स्थानेषु सीदन्तं सारयत्याचार्यः। यदि वा तिस्रः सारा नाम श्रीनपि कालान् गुरुः पृच्छति ।
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कथमित्याह
गोसे केरिसयन्ति य, कयमकयं वाऽवि किं ति भावासं । भिक्ख लक्ष्मल, किं देखउ वातें मग्भद्दे ।। ३३६ ।। पेहियमपेहियं वा, वह ते केरिसं व अवरहे । निज्जूगम्मि गुरुगा, अविधी परिषद्ये वाऽवि ॥ २४०॥
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि गोसे-प्रातः इदं पृच्छति-कीरशं ते शरीरमिति, तथा त्वया तोः, तथा न केवलं दूरे संस्तारकः क्रियते; किंतु-तेन त्वग्दोकिमावश्यकं कृतमकृतं वा । तथा मध्याहे पृच्छति-भै| षवता यत्स्पृष्टं वस्त्रादि तत्परिहरन्ति पूर्वोक्तादेव दोषात् । स्वंया लब्धमलब्धं वा तव दीयतामिति । तथा अपराहे तदेवं प्रश्रवणयतना स्पर्शयतना च सप्रपञ्चोक्का । पृच्छति-किं तवोपकरणं केनापि त्वया वा प्रेक्षितं किंवा
सम्पति लालास्वेदयतनामाहमप्रेक्षितं कीरशं वा ते शरीरमिति । यदि पुनरेवं सारांन | न य झुंजते गद्धा, लालादोसेण संकमति वाही। करोति किं त्वमेव परित्यजति, तदा गुरोः प्रायश्चितं च
सेदो से वजिजइ, जल्लपडलंतरप्पो य ॥ ३४४॥ स्वारो गुरुकाः । अनियूहणेऽपि यद्यविधिना परिवर्तन-परिपालनं कारयति तदाऽपि चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् ।
नच एकार्थ-एकस्मिन्पात्रे तेन त्वग्दोषयता सह साधयो
भुजते, कुत इत्याह-यतो लालादोषेण संक्रामति व्याधिः । प्राणादियो य दोसा, विराहणा हो इमेहि ठाणेहिं । तथा 'से' तस्य त्वग्दोषवतः स्वेदः-प्रस्वेदो बज्यंते, तथा पासवणफासलाला, सेए मरुएण दिढतो ॥ ३४१ ॥ जल्लः शरीरमलस्तथा तत्सत्कानि पात्रपटलानि, तथा मान केवल प्रायश्चितं किं स्वाक्षादयो दोषाः, तथा एभिर्वक्ष्य
न्तरकल्पश्च परिन्हियते व्याधिसंक्रमभयात् । माणैः स्थान विराधना साधूनामात्मविराधना भवति । कैः
तथा चाहस्थानैरित्याह-प्रश्रवणेन तस्य स्यन्देन लालया खेदेन-प्रखे- एएहि कमइ वाही, एत्थं खलु सेडुएण दिटुंतो। देन, तथाहि-स्यन्दमानत्वग्दोषवतःप्रश्रवणस्पर्शनेनापि व्या. कुडखयकच्छुयसिवं, नयणामयकामलादीया ॥३४५॥ धिरम्यत्र संक्रामति । तथा गात्रस्पर्शनेन, यदिवा-तेन व्या. एतैर्जल्लादिभिव्याधिः-त्वग्दोषव्याधिः संक्रामति । अत्र धितेन ये परिभुक्ताः पीठफलकादयस्तान् यद्यव्याधिनः परि
दृष्टान्तः खलु सेकेन, तत एतानि परिन्हियन्ते । किं नाम भुजते तदा व्याधिः संक्रामति,तथा लालयासह भोजने व्या- त्वग्दोष एवं उतान्यस्मिन्नपि रोगे, तत माह-कुठेषु क्षयधिः संक्रामति तस्य प्रस्खेदेन यदि कोऽपि स्पृश्यते तदा त- व्याधौ कच्छाम्-पामायाम् अशिवे-शीतलिकायां नयस्थापि व्याधिः सञ्चरति । अत्र दृष्टान्तो मरुकेण सबुकब्राह्म- नामये-नयनरागे; कामलादी-एषा अनन्तरोदिता प्रश्रवणादिऐन तत्कथानकं चावश्यके प्रवन्धतः कथितमिति । ततोऽ
विषया यतना द्रष्टव्या। बधार्यम्।
एसॉ जयणा बहुस्सुय,अबहुस्सुय न कीरते तु वक्खारो। साम्प्रतमेतदेव पश्चार्द्ध व्याचिस्यासुः प्रथमतः प्रश्रवणे
ठावेंति एगया से, अपरीभोगम्मि उ जतीणं ॥३४६ ॥ यतनामाह
एषा-अनन्तरोदिता यतना बहुश्रुते द्रव्या, अबहुश्रुतेपासवणभन्न असती, भूतीए लक्खमा हु सियं मोयं । ऽप्येवम् , नवरं स संबगृहापपरके स्थाप्यते, भिन्नस्तु बचलणतलेसु कमेजा, एमेव य निक्खमपवेसो ॥३४२॥ क्षार:-अपवरको न क्रियते, सम्बद्धगृहापबरकाभावे वसते. तस्य-स्यन्दमानत्वग्दोषवतः पृथक कायकीभूमिः कर्तव्या,
रेकस्मिन् यतीनामपरिभोग्य तं स्थापयन्ति, अपान्तराखेकअन्यस्या विष्वक प्रश्रवणभूमेरसति-प्रभावे एकस्या एव
टो दीयते, कटाभावे भूत्या अन्तरं क्रियते । काधिक्या भूमेस्तस्य योग्यं पृथक अवकाशं भूत्या लक्ष
अथ किं कारणमबहुश्रुतो बहिने क्रियते, तत माहयति वृषभः । यथा साधवस्तं परिहरन्ति । तथा चाह-मा
विवजितो उज्झविवज्जएहिं, कोऽपि त्वग्दोषव्याधितस्य दृषितं मोकं-प्रश्रवणं पादैरा- मा बाहि भावं, अबहुस्सुतो उ । कमेत् । माक्रमणे को दोष इत्यत आह । आक्रान्ते तस्य प्रभवो चरणतलेघु--पादतलेषु त्वग्दोषव्याधिः संक्रामति,
__ कडाए भूती व तिरो करेंति, तथा तस्य--वग्दोषव्याधितस्य येनावकाशेन निष्क्रमणं प्र
मा एकमेकं सहसा फुसेजा ॥ ३४७॥ बेशो वा तमवकाशं भूत्या लक्षयति, येन साधवस्तमपि परि
उज्झविवर्जकैरहं विवर्जितः-परिहत इत्येवमबहुभुतोमा रम्ति । अपरिहरणे अनन्तरोदित एव दोषः ।
बहिर्भावमुपयासीदिति भिन्ने अपवरके न स्थाप्यते, किंतु
वसतेरेकस्मिन् प्रदेशे, तत्रापि काष्ठादिना फलकादिरूपेण, निती व सो काउ तली कमेसुं,
तदभावात् भूत्या वा अन्तरं कुर्वन्ति । मा एकैकेन त्वदोषण संथारतो दूरे असंदणेऽत्री।
साधवः सहसा स्पृशेयुः।। मा फासदोसेण कमेज तेसिं,
अस्यन्दमानत्वग्दोषे विधिविशेषमाहतथिकवस्थादि परीहरंति ।। ३४३ ॥
अगलंते न वक्खारो, लालासेयादि वजण तहेव । सस्थयमानत्वदोषी कमयोः-पादयोस्तलिके-उपानही उस्सासभाससयणा-सणादिहिं होंति संकंतं ।। ३४८॥ कृत्वा निर्गच्छति प्रविशति वा । योऽप्यस्यन्दमानत्वग्दोषी अगलति-अस्यन्दमाने त्वग्दोषे पृथग् वक्षार:-अपवरको तस्यापि कायिकीभूमिर्विवक क्रियते न पुनः पृथग्भूमिनि-1 न लालास्वेदादीनामादिशब्दादुच्छासभाषाशयनासनादिपभमप्रवेशलानम् । सम्पति स्यन्दमानस्यास्यन्दमानस्य च | रिग्रहः, वर्जनं तथैव यथा प्रागभिहितं गलति त्वग्दोषे । स्पर्शविषयां साधारणां यतनामाह--अस्यन्दनेऽपि त्वग्दोष तस्मादुच्छ्रासादीनां बजनमत आह-उच्छासभाषाशयनाप्रास्ता स्यम्बमाने इत्यपि शब्दार्थः । संस्तरको दूरे क्रियते, सनादिभिरादिशब्दात्-पीठफलकादिपरिग्रहः संक्रान्तिमा स्पर्शवोषण तेषां शेषसाधूनां व्याधिः संकमेदिति हे- प्योधर्भवति ।
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( १०३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । बसहि अगलंतमत्तसेवी असतीए कप्पे काउ भुअंति ।
एसा जया उ भवे, सव्वेसिं तेसि नायव्वा ।। ३५५ ।। यदि कायिकी भूमिर्न विद्यते, बहिश्च सागारिकस्तथा शेषसाधूनामरोगाणां मात्रकमगलन् - अस्यन्दमानत्वग्दोषवालेवेत । किमुक्तं भवति — कायिकीं तस्मिन्मात्रके व्युत्सजति, ततः कृते कल्पेऽरोगास्तस्मिन् व्युत्सृजन्ति । यदि पुन रकृते कल्पे व्युत्सृजन्ति तदा प्रायश्चितं चतुर्गुरुकम् । एषा यतना सर्वेषां गलस्वग्दोषिणामन्येषां च क्षयव्याध्याद्युपेतानां ज्ञातव्या । व्य० ६ उ० । ( उदकतीरे वस्तुं न कल्पते इति 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभाग २४४२ पृष्ठे व्याख्यातम् ) ( २४ ) शीतोदकशय्यामनुप्रविशनिजे भिक्खू सीओदगसे अणुपविसर अणुपविसंतं वा साइजइ ।। २ ।।
सह उदयेण सउदया, उपेत्य गच्छति उपागच्छति । साह जणी दुविधा - अनुमोयणा, कारावणा यतिसु वि । गाहा
अह सउदगा उसेज, जत्थुदगं जा य दगसमीवम्मि । एयासिं पत्तेयं, दोहं पि परूवणं वोच्छं ।। १२६ ॥ अथेत्ययं निपातः लागारिकस्यानन्तरभेदर्शने, मिपतति जत्थ गदं ति पाणियघरे प्रवादिजाए वा लेखाए दगसमीवे सा चिट्ठा तन तत्थ जत्थ उदगं तं ताव परूवेमि । जत्थ ग्राणाविहा उदया प्रच्छंति अमी ।
गाहा
बसहि
मुलूख जलपडलं, घरेंति माणं से काइयाइगते । सीए व दाउकप्पं, उवरिमधो तं परिहरति ॥ ३४६ ॥ यदि स त्वग्दोषव्याभ्युपेतः कायिक्या व्युत्सर्गीय - अति, भाजनं च तस्य धारयितव्यं भवति तदा' से' तस्य कायिक्यागतस्य मुक्त्वा स्फेटयित्वा जलपटलं भाजनमलसरण्टितं पटलमन्ये साधवो धरन्ति याबन्स आयाति । अथ स त्वग्दोषी ग्लानः शीते पतति नाऽऽत्मीयैर्वस्त्रैः कम्बलेन च संस्तरति तदा तस्य कल्पं वां प्रावरणाय दीयते । सोऽपि त्वग्दोष श्रात्मीयानां वस्त्रकल्पानामुपरि प्रावृणोति तच समर्पितं वस्त्रमधौतं परिहरन्ति । यदा तु तद्वस्त्रमात्मना प्रावरीतुकामास्तदा प्रक्षाल्य प्रावृण्वन्ति ।
असहुस्सुव्वत्तणादीणि, कुव्वतो विकु जत्तियं । खेयमकुब्वंत धोइजा, मट्टियादीहि तत्तियं ॥ ३५० ॥ असहस्य - त्वदोषव्याधितस्यागाढं ग्लानीभूतस्योद्वर्त्तमादि- 'उद्वर्त्तनमुपविष्टीकरणमि' त्यादि कुर्वतो यावत्स्पृष्टं त्वग्दोषगात्रादिना तावत् खेदमकुर्वन् मृत्तिकादिभिरुद्धृष्य प्रक्षालयेत् ।
असती मोयमहीए, कयकप्पऽगलंत मत्तए निसिरे । तेणेव य कयकप्पे, इतरे निसिरंति जयखाए ॥ ३५१ ॥ मोकमह्याः- प्रश्रवणभूमेरभावे अगलत्यस्नाविणि कृतकल्पे arrhoeat प्रश्रवणम्, अन्ये साधवोऽन्यस्मिन् मात्रके । पृथग्मात्राभावे तेनैव यत्र त्वग्दोषी व्युत्सृष्टवान् तत्रैव कृतकल्पे मात्रके इतरे साधवो यतनया यथा कायिक्या मात्रस्य च शरीरावयवस्पर्शो न भवति तथा कायिकी निसृजन्ति ।
एसा जाउ तहिं कालगते पुल इमो विही होई । अंतरकप्पं जल्लप-डलं च भगलंति उज्यंति ||३५२॥ एषा - अनन्तरोदिता यतना तत्रगलत्यगलति वा । त्वग्दो - ear कालगते पुनस्त्वग्दोषवति विधिरयं वच्यमाणो भवति तत्र प्रथमतोऽगलस्याह- आन्तरं कल्पं भाजनस्य जनपटलमुपरितनवामेते द्वे अपि वले उज्झन्ति-परिष्ठापयन्ति ।
किं कारणमत आहधोया वि न निद्दोसा, तेख छति ते दुवे ।
सगं तु कए कप्पे, सव्वं से परिभुजइ || ३५३ || प्रक्षालिते अपि ते वस्त्रे न निर्दोषे तेन येते- परिष्ठाप्येते शेषकं तु सर्वमपि ' से ' तस्य कृते कल्पे परिभुज्यते दोषाभावात् । गलति त्वग्दोषे विधिमाहसंदंतस्स वि किंचय, असतीए मोतुभायणुकोसं । लेवट्टगमवखित्ता, श्रसमयं धोबिडं लिंपे || ३५४ ॥ स्यन्दमानस्यापि स्यन्दमानत्वग्दोषवतो यत्किञ्चनास्ति तत्सर्वे परिष्ठाप्यते, केवलं यदि भाजनं नास्ति सति वा भाजने यदि तद्भाजनं सलक्षणं तदा तदेकभाजनमुत्कृष्टे मुक्त्वा शेषं परिष्ठाप्यते । तत्रापि लेपमट्टकं खापनीय उष्णोदकादिभिः प्रक्षाल्यान्यमयमिव कृत्वा पुनः लिम्पेत्, ततः परिभुञ्जीत ।
सीतोदे उसियोदे, फासुगमफासुगे य चउमङ्गा । ठायंते चउलहुगा, काम प्रगीयत्थसुतं ति ॥ १३० ॥ सीतोदगं फासूयं सीतोदगं अफासुयं, उसियोदर्ग फासुयं, उसिणोदगं अफासुयं । पढमभंगे उसिणोदनं सीतीभूतं उलोदगाति वा । वितियभंगे सब्बिसोरगं बेब, ततियभंगे उसिणोदगं, उब्वतं भंड बडत्थभंगे ता वा उद्गाणि । पढमततियभंगे ठायंतस्स मासलई, बितियच उत्थेसु चउलहुं । एयं कस्स पतिं । आयरिश्रो भणा-एवं प्रगीयस् पछि ।
फासुगस्स इमं बखाएं । गाहा— सीतितरफा चउहा, दव्वे संघट्टमीसगं खेते । कालतो पोरिसिपरा, तवस्थादी परिणतं भावे ॥१३१॥ जं सीतोदगं फासुग्रं इयरं ति जं उराहोदगं फासूयं तं चउग्विहं - दव्वओो खेतम्रो कालो भावओो य । दव्वओो
गोरससंसट्टे भागणे छूटं सीतोरगं तं, तेरा गोरससंसट्टेब परिणामियं दव्वतो फासुयं । खेत्तच जं कूषतलागाइसु ठियं मधुरं लवणेण मीसिजति, लवणेणं वा मधुरेण वा । कालतो जं इंधणे छूटे पहरमेत्तेण फासूयं भवति । भावओो जं वां रसं गंध फरिसविप्परिणयं । भावतो जं फासूयं दुतं सत्थ जो भ
भिक्खू ठाति तस्स एयं परिडसं । नि० चू० १६७० । सचितकर्मणि उपाश्रये न वसेत्
नो कप्पर निग्गंथाय वा निग्गंथीय वा सचितकम्मे उवस्सए वत्थए || २० || कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथी वा चित्तकम्मे उबस्सए वत्थए ॥ २१ ॥
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(१०३६) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि अस्य सूत्रस्य संबन्धमाह
गुरुकः तपोलघुकः,क्षिभो भ्यामपि लघुकः। निर्ग्रन्थीनामपि पढमचउत्थवयाणं, अतिचारो होज दगसमीवम्मि। ।
निर्दोषे चित्रकर्मणि तिष्ठन्तीनां प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्यइह वि य हुज चउत्थे,सचित्तकम्मे स संबंधो।। २६२ ॥
भिषेकाभिक्षुणीनामेवं तपःकालविशेषितो गुरुको मासः । प्रथमचतुर्थव्रतयोरप्कायपानस्त्रीपशुसंसर्गादिभिरतिचारो
निर्ग्रन्थाः सदोषे चित्रकर्मणि यदि तिष्ठन्ति तदा गुरुको दकसमीपे तिष्ठतां भवेदिति कृत्वा तत्र न तिष्ठतीत्यु
मासः पादौ क्रियते, षड् लघुकश्च पर्यन्ते। तद्यथा-भिक्षोर्माकम् । इहापि च सचित्रकर्मणि प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्थव
सगुरुकम् ,वृषभस्य चतुर्लघुकम् , उपाध्यायस्य चतुर्गुरुकम्, तस्यातिचारो भवेदिति कृत्वा तत्र न तिष्ठतीत्यनेन प्रतिपा
श्राचार्यस्य षड् लघुकम् । निर्ग्रन्थीनां तु सदोषे चित्रकर्मणि यते पष संबन्धः ।
तिष्ठन्तीनां चतुर्लघुकमादी कृत्वा षड्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तम् । प्रकारान्तरेण तमेवाह
तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्लघुकम् ,अभिषेकायाश्चतुर्गुरुकम् ,गणा नो कप्पइ जागरिया, चिडणमाईपया य दगतीरे ।
वच्छेदिन्याः षडलघुकम् , प्रवर्तिन्याः षड्गुरुकम् । एवमुभय
स्थापि-निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीवर्गस्य द्विविधे चित्रकर्मणि प्रायश्चि चित्तगयमाणसाणं, जागरिकाया कुतो अहवा ॥२६३॥
तं ज्ञातव्यम् । मो कल्पते जागरिका-धर्मध्यानं स्थान-स्थाननिषीदनादी
अथ विकथापदं व्याख्यानयतिनि दकतीरे कर्तुमित्युक्तम् , इह तु चित्रगतमानसानां कुतो
दि8 अन्नत्थ मए, चित्तं तं सोभणं न एयं ति । जागरिकास्वाध्यायौ संभवत इत्ययम् , अथवा-द्वितीयसंव
इति विकहापलिमंथो, सज्झायादीण कलहो या॥२६॥ न्धः । अनेन संबन्धद्वयेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा सचित्रकर्मणि-चित्रकर्मणा सं
तत्र चित्रकर्म दृष्टा कश्चित्साधुयात्-मया पूर्वमन्यत्र युक्ने उपाश्रये वस्तुम् , कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा
चित्रकं दृष्टं तश्च शोभनं वर्मकरेखादिशुद्धया रमणीयम् , न अचित्रकर्मणि उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रार्थः॥२०-२१॥
पुनरेतत् प्रत्यक्षोपलभ्यमानम्। तदाकर्यद्वितीयस्साधुयात्. अथ भाष्यविस्तरमाह
मुग्धबुद्ध!किं जानीते इत्थम्-इदमेव रमणीयम् इत्येवम् विक
था संजायेत । ततश्च स्वाध्यायादीनां परिमन्थः कलहश्चोभयो. निहोससदोसे वा, सचित्तकम्मे उ दोस आणादी।
रप्युसरप्रत्युत्सरिकां कुर्वतोरुत्पद्यते । यत पते दोषास्तस्मान्न सइकरणं विकहा वा, बिइयं असतीऍ वसहीए॥२६४॥
स्थातव्यम् । निर्दोषे वा सदोषे वा सचित्रकर्मणि प्रतिथये तिष्ठ- द्वितीयपदं वसतावसत्यामिति द्वारं भावयतितामाशादयो दोषाः, यत्र ताडशे वा चित्रकर्मखचिते वेश्म
प्रद्धाण निग्गयाई, तिपरिरया असइ अन्नवसहीए । नि पूर्वभोगान् बुभुजिरे, तेषां स्मृतिकरणमुपलक्षणत्वादितरेषां कौतुकमुपजायते । विकथा वा तत्र वक्ष्यमाणलक्षणा
तरुणे करिति दुरे, निच्चावरिए य ते रूवे ॥ २६ ॥
अवनिर्गतादयत्रीन् परिरयान्परिभ्रमणेन कृत्वा यदि युक्ताभवेत् । द्वितीयपदं चान्यवसतावसत्यां तत्रापि वसेत् ।
निरुपहता वसतिर्न प्राप्यते ततः सचित्रकर्मके उपाश्रये अथैनामेव नियुक्तिगाथा व्याख्याति
तिष्ठन्ति। तत्र च प्रथमं निर्दोषे पश्चात् सदोषेऽपि येच तरुणातरुगिरिनदीसमुद्दो, भवणा वल्ली लया विताणा य । ।
स्तान चित्रकर्मणो दूरतः कुर्वन्ति, तानि च रूपाणि नित्यानिदोसचित्तकम्मं, पुम्मकलससोत्थियादी य ॥ २६५।। श्रितानि सदैव चिलिमिलिकया प्रच्छादितानि कुर्वन्ति । तरवः-सहकारादयो गिरयो-हिमवदादयो नद्यो-गङ्गा- नापावृतानि तानि स्थापयतीत्यर्थः । ६०१ उ० ३ प्रक० । सिन्धुप्रभृतयः समुद्रो-लवणोदादिकः भवनानि-गृहाणि (२५) यत्र राजा तिष्ठति तत्रोपाश्रये न वसेत्वल्लयो-नागवल्ल्यादयः लता-माधवीचम्पकलतादयः तासां जे भिक्खू अह पुण एवं जाणेजा-इह जक्खतिए परिवुवितान-निकुरम्बं तथा पूर्मकलशस्वस्तिकादयश्च ये मान- सिए जे मिक्खू ताए गिहाए ताए विहाराए ताए पएसाए लिकाः पदार्थाः, पतेषां रूपाणि यत्रालिखितानि तश्चित्रकर्म निर्दोषं सातव्यम्।
ताओ वासंतरा य विहारं वा करेइ,सज्झायं वा करेइ, अअथ सदोषमाह
सणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा तिरियमणुयदेवीणं, जत्थ य देहा भवंति भित्तिकया।। पासवणं वा परिहवेइ अमयरं वा अणायरियं असमणपसविकार निविकारा, सदोसचित्तं हवइ एयं ॥२६६॥ उग्गकहं कहेइ कहतं वा साइजइ ॥ १२॥ तिर्यग्मनुजदेवीनामिति तिरश्चीनां मानुषीणां देवीनां चेत्य
अथेत्ययं निपात उक्तः। पिण्डः वसहिविससिणो पुणर्थः, एतासां देहाः सविकारा वा यत्र भित्तौ कृता-आलि
सहो यथा वक्ष्यमाण एवं जाणेजा 'शा' अवयोधने, इहखिता भवन्ति एतचित्रकर्म सदोषं भवति ।
भूप्रदेश अधेति वर्तमानदिने परितुसे'पर्युसिते वसेदित्यर्थः । अथात्रैव तिष्ठता प्रायश्चित्तमाह
जे भिक्खू तस्मिन् गृहे निकृष्टतरो अपवरकादिप्रदेशः तलहुगुरु चउएह मासो,विसेसितो गुरुगों आदि छल्लहुगो।। स्मिन्नपि निकृष्टतरः खद्धा स्थानं अवकाशः-विहारादि पकचउलहुगादी छग्गुरु,उभयस्स वि दुविहचित्तम्मि॥१७॥ रेज तस्स-द। निर्दाषे चित्रकर्मणि तिष्ठतां चतुर्मामपि तपःकालविशेषितो
गाहालघुमासः। तद्यथा-प्राचार्यस्य द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां गु
राया उअहि उसिते, तेसु पएसेस बितियदिवसादी । रुकः। उपाध्यायस्य तपोगुरुकः काललघुकः, वृषभस्य काल- जे भिक्खू विहरेजा, अहवा वि करेज सज्झायं ॥६॥
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वसहि
गाहा
(१०३७) बसहि
अभिधानराजेन्द्रः। असणादी वाऽऽहारे, उच्चारादीणि वोसिरेजा वा ।
अथ भाष्यकारो विस्तरार्थ विभणिषुराहसो प्राणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥२॥
सागारियं अनीसा, निग्गंथीणं न कप्पए वासो । प्राणादिणो दोसा तस्मिन् गृहे यस्मिन् राजा स्थितः
चउगुरु आयरिमादी, दोसा ते चव तरुणादी ॥३०॥ मागण्हा इति पासीत्ततो राया उच्चरियानो रक्सिजंति तस्थ गहणादयो दोसा । अह उच्चारपासवणे परिटुवेति ताहे
सागारिकः-शय्यातरस्तस्य निश्रां कृत्वा, किमुक्तं भवतिसमेत छनो विज्जति।
शय्यातरस्य या निश्रा-मया युष्माकं चिन्ता करलीया गाहा
भवतीति कुतोऽपि न भेत्तव्यमित्यभ्युपगमस्तामन्तरेख निर्मपम्हुट्ठ अवहितो वा, संका अभिचारुगंध किं कुणति । न्थीनां न कल्पते वासः। अत एवैतत्सूत्रम् । प्राचार्यों यदि
प्रवर्तिन्या न कथयति ततश्चत्वारो गुरुकाः, सान प्रतिइति अभिनववुच्छम्मि,चिरवुच्छ विपत्तत्राणादी।६३।
शृणाति तदा चत्वारो गुरुकाः, प्राचार्यमुखाद्वा भाकये सा तत्थ किंचि पम्हटुं । पम्हुटुं णाम-पडियं वीसरियं वा किंचि
संयतीनां न कथयति तदा चतुर्गुरुकाः । यति तान प्रतिहोज । अलण वि अवहरिते संकिजति । पम्हुट्ठस्स हरण
शृण्वन्ति तदा तासां लघुको मासः । तत्र वा परिगृहीते बुद्धिए इंदियट्ठिया उच्चाटणवसीकरणाणि एस पत्थ ठितो
उपाश्रये वसन्तीनां ते एव तरुणादयः-'तरुणा बेसिस्थि अभिचारु करेति । अहिणवपच्छे एते दोसा, चिरपवुच्छे
विवाह' इत्यादयो दोषाः । अपत्तियं गहणादिया दोसु वि ।
सागारियं अनिस्सा, भिक्खुणमादीण संवसंतीणं । प्रहवा सचित्तकम्मे, दहणो कारिते तु ते दिवे। गुरुगादोहि विसिट्ठा, चउगुरुगा चेव छेदंता ।। ३०१॥ प्रत्थाणी वासहरे, णु वणो संवाहितो बधई ॥३४॥ सागारिकस्यानिश्रया भिक्षुण्यादीनां संवसन्तीनां द्वाभ्यां तासु सचित्तकम्मासु वसहीसु प्रणारिसो भावो समुप्प- तपःकालाभ्यां विशिष्टाश्चतुर्गुरुकाः, तत्र भिक्षुण्यास्तपज्जति, पत्थ प्रस्थाणि मंडा वा एत्थ सेवासंघरं पत्थ णि- सा कालेन च लघुकाः, अभिषेकायाः कालेन गुरुकाः, गक्सो एत्थ संवाधितो एवमादिट्ठाणा दिटुं।
सावच्छेदिन्याः तपसा गुरुकाः, प्रवर्तिन्यास्तपसा कालेन गाहा
च गुरुकाः । अथवा-चतुर्गुकादीनि छेदान्तानि प्रायश्चिता. सुत्ताऽभुताण तहिं, हवंति मोहुम्भवेण दोसानो। नि । तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्गुकम् , अभिषेकायाः पद् पडिगमणादी जम्हा, एए उय विवजेजा ॥६॥ गुरुकम् , गणावच्छेदिन्याः पद्गुरुकम् , प्रवर्तिन्याश्छेद इति, भुत्तभोगीणं तं सुमरि मोहुम्भवो भवे । इतरेसिं काउं| प्रासादयश्च दोषाः। गण कारणेण।
अपि चगाहा
कंपइवातेण लया,अणिस्सिया णिस्सिया तुमक्खोमा। वितियपदमणप्पज्झे,उस्सप्पाइं न संभमा एसा ।
इय समणी अक्खोमा,सॉगारिनिस्सेयरा भइया ॥३०२॥ जयणा अणुसवेत्ता, करेज विहारमादीणि ॥६६॥
लता-बल्ली अनिधिता-वृक्षाद्यालम्बनरहिता पातेन प्रेर्यअणवजो सव्वाणि वि करेज । उस्सनं णाम तत्थ कोति
माणा सती कम्पते, निश्रिता तु-सालम्बना अक्षोभ्या-थाचारं वदति : प्रभूतमित्यर्थः । अाइयं स च लोगो प्रायरति
तेन चालयितुमशक्या । 'इय' एवं श्रमणी सागारिकअन्नवसहीए अभावे अग्गिमादिसंभमे वा घोहिगमाविभए
निश्रिता सती अक्षोभ्या, इतरा अनिश्रिता भक्का-विकषा जयणाप तप्पडियरगे अणुमवेत्ता विहारमादीणि करेति । नि०० उ०।
ल्पिता । यदि सा स्वयं धृतिबलयुक्ता तदा तरुणादीनामक्षो(२६)निर्ग्रन्थीभिः अभिश्रया सागारिकोपाश्रये न घस्तव्यम्
भ्या, धृतिदुर्बला तु क्षोभनीयेति भावः। नो कप्पइ निग्गन्थीणं सागारियमनिस्साए पत्थए ।२२।
आह-श्रमणी न खल्वाचार्यप्रवर्तिनीनिश्राविरहिता कदा
पि भवति अतः किमर्थं तस्याः सागारिकनिधयेत्युच्यते। अस्य सूत्रस्य संवन्धमाहएरिसदोसविमुक्क-म्मि आलए संजईण नीसाए।
दोहि विपक्खेहि सुसं-वुयाण तहवि गिहिनीसमिच्छति। कप्पइ जईण भइतो, वासो अह सुत्तसंबंधो ॥२६॥
बहुसंगहिया अजा, होति थिरा इंदलट्ठीव ॥ ३.३॥ इरशैरनन्तरोनर्दोषैर्विप्रमुक्तो य ालयः-उपाश्रयस्त
द्वाभ्यामप्याचार्यप्रवर्तिनीलक्षणाभ्यां यद्यप्यायः सुसंस्मिन् संयतीनां सागारिकनिश्रया परिगृहीतानां वासः
वृतास्तथापि सांग्रहिणः सागारिकस्य निवामिच्छन्ति मनकल्पते । यतीनां तु भक्तो-विकल्पितो; निश्रया वा
वन्तः। कुत इत्याह-बहुसंगृहीता-बहुभिराचार्यादिमिमिती
परिगृहीता आर्या स्थिरा भवन्ति, इन्द्रयशिरिष। बचा अनिश्रया वा तेषां वासः कल्पत इत्यर्थः । ए
ल्विन्द्रयष्टिर्बड्डीभिः इन्द्रकुमारिकाभिशा सती विमतेन द्वितीयसूत्रस्यापि वक्ष्यमाणस्य संबन्धः प्रतिपा
म्पा भवति एवमियमपि। दितः । अथैष सूत्रसंबन्ध इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य(२२) व्याल्या-नो कल्पते निग्रन्थीनां सागारिकानिश्रया-शय्यातरेण अपरिगृहीतानां वस्तुम् , कल्पते निर्ग्रन्थीनां सागा-1
पत्थेतो वि य संकर, पत्थिजंतो वि संकती बलियो। रिकनिश्रया परिगृहीतानां वस्तुम् । एष सूत्रसंक्षेपार्थः। सेवा बहू य सोभइ, बलवइगुत्ता तहजाद ॥३.४॥
२६०
भक्तो-विकल्पिवाग्रहीतानां वास
तेजश्रया वा ते
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(१०३८) अभिधान राजेन्द्रः ।
बसहि
प्रार्थयनप्यार्या तरुणादिजनः शङ्कते - बिभेतीत्यर्थः, तथा प्रार्थ्यमानोऽपि संयतीजनो बलिनः -- समर्थस्य शय्यातरस्य शङ्कते । श्रपि च-यथा सेनाबलिना — सेनानायकेन यथा या बधूर्वलवता श्वशुरपक्षेण गुप्ता रक्षिता शोभते तथा आर्याऽपि बलवता शय्यातरेण परिगृहीता सती विराजते । अमुमेवार्थे व्यतिरेकभङ्गया द्रढयतिसुपाऍ सुसंधाया, दुब्बलगोवा य कस्स न वि तक्का | इय दुब्बलनिस्सा नि-स्सियाउ अजा वितकाओ । ३०६ | शून्या - रक्षपालविरहिता दुर्बलगोपा वा-असमर्थरक्षपालपरिगृहीताः पशुसङ्गाता-गवादिपशुवर्गाः कस्य ते वित
-अभिलषणीया न भवन्ति, इत्यमुना प्रकारेण दुर्बलशय्यातरनिश्रिता सर्वथैव अनिश्रिता वा श्रार्याः सर्वस्यापि वितय:- प्रार्थनीया भवन्ति ।
अइया कुलपुत्तगभो-इयाउ पक्कन्नमेव सुनम्मि । इच्छमणिच्छे तरुणा, तेखा उवहिं व ताओ वा ॥३०॥ अजिका-छगलिका, कुलपुत्रकाणां च भोजिका महिला पक्कान्नं- मोदकशैवर्त्यादि यथैतानि शून्ये वर्त्तमानानि सर्वस्यापि स्पृहणीयानि भवन्ति, एवं श्रमण्योऽपि । तथा तरुणान् प्रार्थयमानान् यदि इच्छन्ति ततो ब्रह्मव्रतभङ्गः । अथ नेच्छन्ति ततस्ते बलादपि तासां ग्रहणं कुर्युः । स्तेना उपधि वा ता वा संयतीरपहरेयुः ।
उच्छुयघत गुलगोरस - एलालुगमाउलिङ्गफलमादी । पुप्फविही गंधविही, आभरणविही य वत्थविही ॥ ३०८ ॥ इनुघृतगोरसाः प्रतीताः एलालुकानि चिर्भटिकानि मातुलिङ्गफलानि - बीजपूराणि श्रादिशब्दादानादिपरिग्रहः । तथा पुष्पविधिश्चम्पकादिकापुष्पजातिः गन्धाः - कोष्ठपुटपाकादयस्तेषां विधिः-प्रकारो गन्धविधिः, एवमाभरणविधिर्वस्त्रविघिच । एते इक्षुप्रभृतयः, शून्या दुर्बलपरिगृहीता वा 'यथा सर्वस्यापि स्पृहणीयास्तथा संयत्योऽप्यनिश्रिता दुर्बलसागारिकनिश्रिता या तरुणादीनां स्पृहणीयाः । अतोऽनि भया दुर्बलनिश्रया वा न स्थातव्यम् । भवेत् । कारणं येनानिश्रयाऽपि तिष्ठेयुः ।
कथमिति चेदुच्यतेश्रद्धा निग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । संघर बसभा वा, ताओ य अपच्छिमा पिंडी ॥ ३०६ ॥ अध्वनो निर्गता आदिशब्दादमूनि वहमानका अध्यशीर्षे प्राता था त्रिकृत्वः परिगृहीता वसतिर्मार्गयितव्या । यदि न प्राप्यते ततः सागारिकस्याऽनिश्रयाऽपि तिष्ठेयुः । तंत्र संस्तर-कपार्ट तदम्यतो मार्गयित्वा दातव्यम् । अथ कपाटं न प्राप्तं ततो वृषभा गृही (पिएडी) भूय यः कश्चित्तरुलादिः संवतीरुपद्रवति तं प्रहरणादिभिर्निवारयन्ति । अथ वृपमा न सन्ति ततस्ता एव संयत्यो दण्डकव्यग्रहस्ताः freडीभूय विहन्ति । वस्तत्रोपद्रवं विकीर्षति तं दण्डकमु हिश्य निवारयन्ति, पोलं च महता शब्देन कुर्वन्ति । एषा पश्चिमायतनेति ।
अथ
भोइयमहतरगाई, समागयं वा भवंति गामंतु ।
For Private
सहि
निवगुत्ताणं वसही, दिअउ दोसा उ मे उबरिं ॥ ३१०॥ तत्र ग्रामादौ यो भोगिको महत्तरो वा श्रादिशब्दादन्यो वा प्रमाणभूतस्तम्, अथवा - ग्राममेकत्र सभादौ समागतं मिलितं दृष्ट्वा साधवो भणन्ति-नृपो - राजा तेन गुप्तारक्षिताः सन्तो वयं तं व्रताचारं परिपालयामः श्रतो नृपगुप्तानामस्माकं कथमप्येतद्दीयताम्, अन्यथा ये शून्ये प्रतिश्रये तिष्ठन्तीनां तरुण स्तेनाद्युपद्रवदोषा भवेयुः ते सर्वेऽपि युष्माकमुपरि भविष्यन्ति, एवमुक्ते ते भोगिकादयः संयतीप्रायोग्यां परिगृहीतां वसतिं दापयन्ति स्वयं वा प्रयच्छन्ति ।
अथ ये वृषभा बहिः प्रहरणादिव्यग्रहस्तास्तिष्ठन्ति
ते ईदृशाः कर्त्तव्या इति दर्शयतिकयकरणा थिरसत्ता, गीया संबंधियो थिरसरीरा । जियनिहिंदियदक्खा, तन्भूमा परिणयवया य ॥ ३११॥ कृतकरणा- धनुर्वेदकृताभ्यासाः स्थिरसस्त्वा - निश्चलमानसावष्टम्भाः गीताः - सूत्रार्थे विहितसंबन्धिनस्तासामेवसंयतीनां नालबद्धाः; भ्रात्रादिसंबन्धयुक्ता इत्यर्थः, स्थिरशरीरा:- शारीरबलोपेता जिता-वशीकृता निद्रा इन्द्रियाणि यैस्ते जितनिद्वेन्द्रियाः दक्षाः - कुशलाः तद्भीमाः तस्यामेव भूमौ भवास्तद्भूमिवास्तव्यलोकपरिचिता इत्यर्थः, परिणतवयसश्च - अतिक्रान्तयौवना मध्यमवयः प्राप्ताः एवंविधा वृषभास्तत्र स्थापयितव्या इति । बृ० १ उ० ३ प्रक० । कारणे अकारणे वा निर्ग्रन्थैर्निर्ग्रन्थीनां वसती न वस्तव्यम् -
नो कप्पs निग्गन्थाणं, निग्गन्धीणं उवस्सए आसइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीहत्तए वा तुट्टित्तए वा पयलाइत्तए वा निदाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहारितए उच्चारं वा पासवलं वा खलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवित्तए सज्झायं वा करितए झाणं वा झाइत्तर काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठात्तए ॥ १ ॥
अथास्य सूत्रद्वयोक्तानि निर्ब्रन्थीप्रायोग्याणि वस्त्राणि गृहीrer गणधरो निर्प्रन्थीवर्त्तापकः प्रवर्त्तिन्यास्तानि वस्त्राणि स्वयमेव ' पणामेडं ति श्रयितुं वतिनीनां वसतिं व्रजति । अतस्तद्विषयो विधिरनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते । प्रकारान्तरेण संबन्धमाह
वत्थाणि एवमादी - णि गणधरो गिरिहतुं सयं चैव । वच्चति वतिणीवसहिं, पवत्तिणीए पणावेतुं ॥ १ ॥ बीएहिं संसत्तो बितियस्सादिम्मि इह तु इत्थीहिं । चितिए उवस्सगा वा, पगता इह इंपि सो चैव ॥ २ ॥ द्वितीयोदेशकस्यादिसूत्रे बीजैः संसक्त उपाश्रयो भणितः । इह तु तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रे स्त्रीभिः संसक्त उच्यते । यथा द्वितीये उद्देशके बहुषु सूत्रेषूपाभया प्रकृताः येषु साधूनां वस्तुं न कल्पते अत इहाप्यादिसूत्रे स एवोपाश्रयः । अत्रोच्यते
तत्थ अकारणगमणं, पहुच्च सुतं इमं समुदियं तु । कोण वा गते तु - उवट्टणादीणि वारेति ॥ ३ ॥
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तत्र- निर्व्रन्थीनामुपाश्रये श्रकारणं वच्यमाणकारणकलापं वि नागमनं यत्प्रतीत्य इदं सूत्रं समुदितं समायातं तदनेन प्रतिविध्यते इति भावः । अथ कार्येण तत्र गताः, ततो गते - गमने पुनः संजाते त्वग्वर्तनादीनि कर्तुं वारयति अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (१) व्याख्या-नो कल्पते निर्मन्थानां, निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये स्थातुं वा निषतुं वा त्वग्वर्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा चतुर्विधमप्याहारमाहर्तुम्, उच्चारं वा प्रश्रवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वाध्यायं वा कर्तुम्, ध्यानं वा ध्यातुम्, कायोत्सर्गे वा स्थातुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः । अथ विस्तरार्थे भाष्यकृद्विभणिपुराहआपुच्छमणापुच्छा, व अको चउगुरुं तु वच्चंते ।
पुच्छियपडिसिद्धे सुद्धा लग्गा उबेहंती ॥ ४ ॥ स्थविराणामापृच्छया अनापृच्छया वा यद्यकार्ये निर्ग्रन्थीनामुपाश्रयं व्रजति ततश्चतुर्गुरुकम् । स्थविरा श्रपृष्टाः सन्तो यदि प्रतिषेधं कुर्वन्ति-मा व्रज नैव वर्तते निष्कारणं निर्ग्रन्थीनामुपाश्रयं गन्तुम्, एवं प्रतिषिद्धे स्थविरा शुद्धाः-न प्रायचितभाजः । श्रथ स्थविरा उपेक्षन्ते ततस्तेऽपि लग्नाःचतुर्गुरुकमापना इत्यर्थः ।
(२०३६) अभिधानराजेन्द्रः ।
अथवा
चउरो गुरुगा लहुगा, मासो गुरुगो य होति लहुगो य । आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य गीतगीतत्थे ॥ ५ ॥ आचार्यो यदि निष्कारणं निर्ग्रन्थीप्रतिश्रयं गच्छति ततचत्वारो गुरवः । अभिषेको वजति चत्वारो लघवः, गीताभिर्वजति गुरुको मास, अगीतार्थभिक्षुर्वजति लघुको
मासः ।
यद्वा
गमसे दूरे संकिय, खिस्संकभिलावकक्खसतिकरणं । प्रभासखपडिसुणणे, संपत्तारोवणा भणिता ॥ ६ ॥ निष्कारणं संयतीनामुपाश्रये गच्छति तत्र गतो दूरे स्थितः संयतः पश्यति १ एतास्ता इति २, कतरा पुनरियमित्येवं शङ्कां करोति ३ श्रमुका वा इयमिति निःशङ्कितं जानाति ४, संयतीभिः सममभिलापं करोति ५, कक्षान्तरादीनि विलोकयति ६, स्मृतिकरणमीदृशी मम स्यादिति लक्षणं करोति ७, तामवभाषते ८, अथ भाषिता सती सा प्रतिशृणोति, संपत्ति तथा सह करोति १०, एतेषु दशसु स्थानेध्वारोपणा वक्ष्यमाणा भणिता ।
अथात्र स्मृतिकरणपदं व्याचष्टे
भावम्मि उ संबन्धो, सतिकरणं एरिसा व सा श्रासी । श्रवाणं इणम, पणएमि सती भवइ एसा ॥ ७ ॥ भावे-भावतः प्रतिसेवनाभिप्रायेण तया सह यः संबन्धः क्रि यते यादृशी त्वम्-ईदृशी सा मद्भार्या आसीत्, एतत् स्मृतिकरणमुच्यते । अथवैतां संयतीमहममुमर्थे - प्रति सेवनालक्षणं प्रणयामि - प्रार्थयामीत्येषा स्मृतिरुच्यते ।
अथवा अनन्तरोक्तेषु दशसु स्थानेषु प्रायश्चित्तमाहचउरो य अणुग्धाया, लहुगो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लघु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ८ ॥
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बसहि
संयतीप्रतिश्रयगमने चत्वारो अनुद्धाता मासाः, दूरदर्शने मासलघु, शङ्कायां चतुर्लघवः, निःशङ्किते चतुर्गुरवः, श्रालापे परामासा गुरवः, स्मृतिकरणे छेदः, अवभाषसे मूलम्, प्रतिश्रवणे अनवस्थाप्यम्, संपत्त्यां पाराञ्चिकम् । एवं तावदोघतः प्रायश्चित्तमुक्तम् ।
अथ विभागतस्तदेव दर्शयितुमाहणिकारणमणम्मि, बहवे दोसा य पच्चवाया य । जिथेरपडिकुडा, तेसिं चाऽऽरोवणा इणमो ॥६॥ निष्कारणगमने बहवो दोषाश्च प्रत्यपायाश्च भवन्ति । तत्र दोषा आत्मपरोभयसमुत्थाः, पारलौकिकाः प्रत्यपायाश्च । भोगिनी घाटितया इह लौकिकाः, तत्रोभयेऽपि जिनैस्तीर्थकृद्भिः स्थविरैश्च गणधरादिभिः प्रतिकुष्टाः, यथाऽमी भवन्ति तथा न विधेयमित्युपदिष्टसिति भावः । तेषां च दोषाणामियं वक्ष्यमाणा आरोपणा - प्रायश्चित्तम् । तश्चैतेषु सूत्रोक्लपदेषु भवति ।
चिट्ठित्तु खिसीइत्ता, तुयट्टणिद्दा य पयलसज्झाए । झाणाऽऽहारविहारे, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ १०॥ स्थातुं निषतुं च त्वग्वर्तनं निद्रां प्रचलां स्वाध्यायं ध्यानम् आहारं वा कर्तु विहारं चंक्रमणमुपलक्षणत्वादुच्चारप्रश्रवणे कायोत्सर्गे वा कर्तु न कल्पते । अथ करोति ततः प्रायश्चित्तस्य मार्गणा भवति । इदमेव प्रकटयति
एतेसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणा विभागो य । जो एत्थं श्रवमो - Sणावस्मो वाऽवि जो एत्थं ॥११॥ एतेषां स्थापनादीनां प्रत्येकं प्ररूपणा विभागा दोषाणां विभाषालक्षणः कर्तव्यः । कथमित्याह-योऽत्र दोषजालेप्रायश्चितजाले वा आपनो यो वा अनापन्नस्तदेतद्वक्तव्यम् । यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनिकारणमविहीए, गिकारणओ तहेव य विहीए । कारण अविहीए, कारणतो चेव य विहीए || १२ || आदिभयाण aिri, अष्पतरीए उ संजतीसेअं । जे भिक्खू पविसेजा, सो पावति श्रखमादीति ॥ १३ ॥ साध्वीप्रतिथये प्रविशतां चत्वारो भङ्गाः । तद्यथा-निकारणे अविधिना साध्वीप्रतिश्रये, निष्कारणं विधिना, कारणतोऽविधिना, कारणतो विधिना प्रविशति । अत्रादिभजनानामाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामम्यतरया भजनयाभङ्गकेन संयतीनां शय्यां वसति यो भिक्षुः प्रविशति स शादीनि दूषणानि प्राप्नोति ।
तत्र प्रथमभङ्गव्याख्यानार्थमाहनिकारणम्मि गुरुगा, तीसु वि ठाणेसु मासियं गुरुगं ।
चलयदार मूले, अतिगयमित्ते गुरू पुच्छा ॥ १४ ॥ त्रीणि स्थानानि नाम - श्रग्रद्वारमध्यासन्नलक्षणानि एतेषु नैषेधिकमकुर्वतस्त्रीणि मासगुरुकानि भवन्ति । यदि द्वारमूले-द्वारसमीपे बहिस्तिष्ठति ततः चतुलघवः । अथैकमपि पदमुपाश्रयमध्ये अतिगतं प्रविष्टस्तदा प्रतिगतमात्रे चतुर्गुरुकः । पृच्छति-नौदकः पृच्छां करोति ।
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पसहि
कथमित्याह
बाबाइवानमादी, असेवतों के होंति गुरुगा उ । कीस उस चाहि लडुगा, अंतो गुरु चोदग! मुणेहि ॥ १५ ॥ प्रतिपातादिकमपराधमसेवमानस्य केन फारम सुरुका भवन्ति ?, करमाया दिद्वारमूले चतुकाः स्माच्चान्तः प्रविष्टमात्रस्य चतुर्गुरुकम् ? । आचार्य आहनोदक ! मृसु-निशमय अत्र कारणं येनैवं प्रायश्चित्तं दीयते ।
( १०४०) अभिधानराजेन्द्रः ।
किं तदित्याद
"
वीसत्या य मिलाला, खवियवियारे य भिक्खसज्झाए । पालीऍ होइ मेदो, अप्पास परे तदुभए य ।। १६ ।। कादिति विश्वस्ता अपावृतशरीरा भवेत् सा संक्षोममुपेयात् । म्लाना छपिका वा संयतसंक्षोमेशन भुजीत | विचारभूमौ मिक्षायां स्वाध्यायभूमौ वा प्रस्थितानां तासां व्याघातो भवेत्। पाली नाम-संयममहातडागस्थानति क्रमलक्षणः सेतुः तस्या श्रात्मपरोभयसमुत्थो भेदो भवति । यहा - पालीति बसतिपासिका भरायते, सार्द्धं संलापादि कुर्वतः श्रात्मसमुत्थपरसमुत्थोभयसमुत्थो वा मेदो भवतीति द्वारगाथासमासार्थः ।
-
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साम्प्रतमेनामेव विवृणोति -
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काई सुहवीसत्था, दरजेमिय अवाउडा य पयलाति । अतिगतमेते य तर्हि, संकियपयलांइया थद्धा ॥ १७ ॥ काचिदार्थिका वसतेरन्तः स्थिता सुखविश्वताम सुखेनापानृतशरीरा तिष्ठति । दरजिमिता या अर्जा दरं निवसना काचिदास्ते, अपावृतनिपणा वा काचित् प्रचलायते ततस्तस्मिन् संयते अकस्मादतिगतमात्रे प्रविष्ठमात्र एकदा हमनेनापावृतेति शहिता शङ्काऽऽकुला सती प्रपलायते सहसैव न पश्यतीत्यर्थः । प्रपलायिता सती संक्षोमतः स्तब्धगात्रा सा भवेत् ।
६
अयेदमेव व्याच
,
वीरल्लसउयवित्ता - सियं जहा सउणिवंदयं वृष्यं ।
वचंति य खिरवेक्खं दिसि विदिसाओ विवअंति ॥ १८ ॥ वीरशकुनाको लायका तेन समागच्छता विसितं सचया शकुनिकानाम्पक्षिणीनां वृत्तं ''विषां सचिरपेक्षं पुत्रभाण्डाद्यपेक्षारहितम् दिशो विदिशधादिमन्यमानं मजति सहसैव पलायते । एष दृष्टान्तः ।
अयमथपनयः
तम्मिय अतिगतमते, विचत्थाओं जहे ता उची । गिएहंति य संघाडि, रयहरणेयाऽवि मग्गति ॥ १६ ॥ तस्मिन् संयतेऽतिगतमात्र एच यचैव ताः शकुनिकास्तथे
अपि संयत्यो वित्रस्ता भवन्ति । सतथ काचिदपावृत गात्रा त्वरितं प्रावृणोति । श्रन्याः काश्चन संघाटिका गृहति । यास्तु संयतं दृष्ट्वा रजोहरणं मुक्त्वा नष्टाः ताः पश्चात् सुस्थीभूताः सत्यो रजोहरणानि मार्गयन्ति इति ।
यत्तु नोदकेनो प्राणातिपातादिकमसेयमानस्य कस्माच्चतुर्गुरुकं दीयते तदेतत्परिहरनाछकायास विराहय, पक्सुल खाणुकंटए विलिया । थद्धाय पेच्छिउं भावभेो दोसा उ वीसत्थे ॥ २० ॥ ताः संयत्यः कुम्भकारशालादौ स्थिता भवेयुः । तत्र च निरपेक्षा नश्यन्त्यो मृत्तिकादीनां पृथिवीकायम् उदकुम्भमलोठनेनारकायम्, उल्मुकघट्टनेनाग्निकायम्, यत्राग्निस्तत्र नियमाद्वायुरिति कृत्वा वायुकायम्, बीजहरितमर्दनेन वनस्पतिम्, कुन्धुकीटिकादिमर्दनेन सकार्य व विराधयेयुः । एषा पदकायविराधना, सा च तत्त्वतस्तेन एव साधुमा कृता। प्रस्वनं नाम अधस्तादुपरि वा स्फालनम् यद्वा तास नश्यन्तीनां भवेत्, खाना या कटकेन वा पादयोरुपधातः स्यात् । 'विलिया' वीडिता अकस्मात्तदर्शनाजिता सती काचित् वैहायसोद्बन्धनादि कुर्यात् । भयातिरेकता वा तथा भवेत् । तां च तथाभूतां हा भावनेदो भवति । सात्विकभा वप्रभवोऽयमस्य शरीरे स्तम्भ इत्येवमितराः संयत्यश्चिन्तयेयुरिति भावः । एवमादयो दोषा विश्वस्वार्थिकाविषया म न्तव्याः । गतं विश्वस्ताद्वारम् ।
यसहि
"
अथ ग्लानाद्वारमाह
कालाइमकमदाणे, गावतरं होऊ शेव पउसेआ । संखोभेण विरोधो, मुच्छा मरणं च असमाही ॥ २१ ॥ ग्लाना संयती तस्य संक्षोभेण न भुङ्क्ते । प्रतिचरिका वा तदर्थे मां न गच्छति, ततः कालातिक्रमेव तस्या मनपानप्रदाने गाढतरं ग्लानत्वं भवेत्, क्षपिकया या सान प्र णी भवेत् । अथवा तदीयसंक्षोमेण तस्या बातकर्मणः काविक्याः संज्ञाबाधा भवेत् । ततस्तद्वाधया मूर्च्छा संजायेत । निरोधेन वा मरणमाप्नुयात् । श्रसमाधिर्वा तस्या भवेत्, तत्रानागादपरितापनादिनिष्पक्षं प्रायधितम् ।
अथ ऋषिकाद्वारमाद
पारखगपडिया मा - श्रीयं वऽविगडियदंसित व मुंजे । अचिचतराए, परियाव असम्भवयये प ।। २२ ॥ क्षपिका - चतुर्थादितपः कर्मकारिणी पारणकार्य प्रस्थिताऽपि जेष्ठार्य आगत इति मत्वा निवर्तते । तथा च क्षपिकथा पारसकमानीतं परमविकटितमनालोचितमर्शितं च अनालोकितं सा न भुक्त इति कृत्वा प्रवर्तिनीं प्रतिपालयन्ती तिष्ठति । ततस्य तस्था अप्रीतिकमन्तरायो ऽनागादमामादं वा परितापो भवेत्, असत्यवचनं वा सा भूयात्, अहो यमस्मत्कार्याणां कीलक इव सांप्रतमुपस्थित इति । विचारद्वारमाद
नोलेऊणख सका, अंतो वा होअ णत्थि वीयारो । संते वायवचति, शिक्खमयविवास गरिहा ॥ २३॥ स साधुर्दारले उपचित्तुं न शक्यते । तासां च संपतीनामन्तर्विधारभूमिर्नास्ति, अस्ति वा परं तस्यां संज्ञा न वर्तते, शय्यातरेण वा सा नाऽनुज्ञाता तस्यां व्युत्सर्जनिष्काशनमसौ कुर्यात्, निष्काशिता च श्वापदादिभिर्विना
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वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
बसहि शं लोकाच गर्हामासादयति, तनिष्पन्नं तस्य-संयतस्य
कथमिति चेदुच्यतेप्रायश्चित्तम् ।
मोहतिगिच्छाखमणं,करेमि अहमवि य बोहि पुच्छा य । अथ भिक्षाद्वारमाह
मरणं वा अवियत्ता, अहमवि एमेव संबंधो ॥ २६ ॥ सइकालफेडणा ए-सणादि पेल्लंत पेलणा हाणी ।
स संयतस्तं संयतीप्रतिश्रयं गतो यावदेका वसतिपासंका प्रभाविएसु य, कुलेसु दोसा चरंतीणं ॥ २४॥
लिका तिष्ठति । ततस्तेन सा पृष्टा-प्रार्ये ! किमिति भवसंयत्यो भिक्षायां प्रस्थिताः, स च साधुः समायातः । त- ती भिक्षां नावतीरार्णा !, सा ग्राह-अध मम क्षपणम् , । स प्रतस्तस्या दाक्षिण्येन तावत् स्थितो यावद्भिक्षाया स- भयति-किं निमित्तम् , सा प्रतिबूते-मोहचिकित्सार्थम् । तकालदेशकालः स्फिटितः । ततोऽवेलायां भिक्षामटन्त्य ए. याऽपि स संयत एवमेव पृष्टो ब्रर्वाति-अहमपि मोहषणाशुद्धः श्रादिशब्दादुगमोत्पादनाशुद्धश्च प्रेरणं कुर्युः। -- चिकित्साथै क्षपणं करोमि । ततस्तेन पृच्छा कृता-पायें ! थन प्रेरयेयुः ततश्च प्रात्मनो हानिः-परितापो महादुःखा- भवत्या कथं बोधिरासादिता?, सा प्राह-मरणं मदीयभर्तुदिना भवेत् । प्रभावितकुलेषु वा अकालचरन्तीनां शङ्कादयो रजनिष्ट , तस्य वा अहमग्रीतिका-द्वेच्या पूर्वमभूवम् ; अदोषा भवेयुः। शङ्का मैथुनार्थविषया, आदिशब्दागोजिका
तःप्रव्रजिता । ततस्तया सोऽप्येवमेव पृष्ठः प्राह-अहमप्येवदिपरिग्रहः।
मेवाभीएकलत्रवियोगादिना प्रावाजिषम् । एवं भिन्नकथाअथ स्वाध्यायद्वारमाह
सद्भावकथनैर्भावसंबन्धो भवति ।। सज्झाए वाघातो विहारभूमि च पत्थियणियत्ता।
इदमेव स्फुटतरमाहअकरणणासारोवण-सुत्तत्थ विणा य जे दोसा ॥२५॥ ओमाणस्स व दोसा, तस्स व गमणेण सग्गलोगस्स । ज्येष्ठार्य आगत इति कृत्वा ताः पठनं परावर्तनं वा न
महतरियपभावेण य, लद्धा मे संयमे बोही ॥३०॥ कुर्वन्ति, एवं स्वाध्यायव्याघातो भवेत् । वसतौ वा अस्वा
अपमानं नाम-सापत्न्यतया यद्भर्ता मामवनततया पश्यति भ्यायिके जाते विहारभूमि स्वाध्यायभुवं प्रस्थिताः, भूय
स्म तस्य दोषादहं प्राब्राजिषम् । अथवा-मदीयो भर्ता मय्ये. स्तत्र संयत्तमागतं दृष्ट्रा निवृत्ताः । अतः 'प्रकरणे' ति सूत्र
कान्तानुरक्त आसीत् , अतस्तस्य स्वर्गलोकस्य गमनेन पौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु, अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति
तथा महत्तरिकया यन्मानवरते धर्माख्यानकानि कथितानि मासगुरु, सूत्रार्थनाशनिष्पन्ना चाउरोपणा । सा चेयम्-सूत्रं तत्प्रभावेण च लब्धा संयमबोधिः-संयम प्रतिपन्नवतीत्यर्थः। नाशयति चतुर्लघु, अर्थ नाशयति चतुर्गुरु, सूत्रार्थाभ्यां च
यद्वाविना ये दोषाश्चरणकरणहान्यादयस्तनिष्पन्नं सर्वमपि संय- पद्मिताऽम्हि घरासे, तेण हतासेण तो ठिया धम्मे । तस्य प्रायश्चित्तम्।
सिटुं एय रहस्सं, ण कहिजइ अणत्तस्स ॥ ३१ ॥ पालीभेदद्वारमाह
प्रदूमिता-प्रकर्षेण क्लेशिता अस्मि अहं ' घरासे' गृहवासे संजममहातडाग-स्सणाणवेरग्गसुपडिपुनस्स। प्राकृतत्वाद्वाशब्दलोपः, तेन हताशेन-कुपतिना, ततः स्थिता सुद्धपरिणामजुत्तो, तस्स उ अणइक्कमो पाली ।। २६ ॥
हमेवंविधे धर्मे , इदं च रहस्यमिदानी मया भवते शिष्ट
न कथ्यते। संयमः-पञ्चाश्रवादिविरमणात्मकः स एव महद्-विस्तीर्म यत्तडागं तस्य शानवैराग्यसुप्रतिपूर्तस्य; शानमाचारादि श्रु.
रिक्खस्स वा वि दोसो, अलक्खणो से प्रभागधिओ णु । वं तत्समुत्थं यद्वैराग्यं प्रतिसमयाविशुध्यमानभवनिर्वेदः तेन न य निग्गुणामि अञ्जो!,तुज्झ वि याणाहि य विसेसं॥३२॥ जलस्थानीयेन तु अतीव प्रतिपूर्णस्य यः सुद्धपरिणामयुक्त- मम पाणिग्रहणदिवसे यद् ऋक्षम्-नक्षत्रं तस्य वा कोऽपि स्तस्यानतिक्रमः स पालिरित्युच्यते।
दोष आसीत् , तेन स तादृशो निस्नेहोऽलक्षणोऽभागधेयश्च तस्य भेदः कथं भवतीत्याह
मम भर्ता अभवत् ,न चाहं निर्गुणा-गुणविकला, यद्वा-मासंजमाभिमुहस्सव, विसुद्धपरिणामभावजुत्तस्स।।
र्या! यूयमपि जानीय मदीयं विशेषम्-सगुणतानिर्गुणताविकहादिसमुप्पनो, तस्स उ भेदो मुणेयव्वो ॥ २७॥
विभागम् ।
एवमुक्ने संयतो यात्संयमाभिमुखस्य विशुद्धपरिणामभावयुक्तस्य पालिस्थानी
इटुकलत्तविओगे, अन्नम्मि य तारिसे अविअंते । यस्यानतिक्रमस्य यो विकथादिसमुत्पन्नो मिथःकथादिकरणसमुद्भूतो भेदो-विनाशः स इह पालिभेदो ज्ञातव्यः । स
महतरयपभावेण य, अहमवि एमेव संबंधो ॥ ३३ ॥
इएकलत्रस्य वियोगे संजाते अन्यस्मिश्च तादृशे कलत्रे चात्मपरोभयसमुत्थो भवेत्
अविद्यमाने महत्तरक-आचार्यों मम धर्ममाख्याति स्म, ततअहवा पालयतीति, उवस्सयं तेण होति सा पाली। स्तत्प्रभावेणाहमपि प्रवजितः 'एमेव 'त्ति यथा तया सवितीसे जायति भेदो, अप्पारण परोभयसमुत्थो ॥२८॥ कारमात्मीयं चरितमाख्यातं तथा संयतोऽप्येवमेव कथयनि अथवा या तत्र उपाश्रयं पालयति सा 'सत्यभामा भामे' एवं तयोः परस्परं भावसंबन्धो भवति । ति न्यायात् पाली भएयते: तस्या एकाकिन्यास्तं संयतंरष्टा
किं चाम्यत्मात्मसमुत्थः परसमुत्थ उभयसमुत्थो वा भेदो जायते। किं पिक्खह सारिक्वं, मोहं मे णेति मज्झ वि तहेव ।
२६१
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(१०४२) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
यसहि उच्चगगतामि मतॉ सा, इहराण वि पत्तिअंतोमि ॥३४॥ लायते एवं शङ्कायां चतुर्गुरुकाः । निःशङ्किते तु मूलं भवति । संयतस्तां संयती निश्चलया दृष्ट्या निरीक्षते , ततः सा
अन्नत्थ मोयगुरुओ, संजतिवोसिरणभूमिए गुरुगा। प्रवीति-किमेवं पश्यथ ?, स प्राह-मदीयभोगिन्या सह य- जोणोगाहणबीए, केऽयी धाराए मूलं तु ॥ ३६॥ अवत्याः सर्वथैव सादृश्यं तम्मा मोहं नयतिः किमेषा सैवेति; संयती कायिकां भूमि विमुच्यान्यत्र मोकस्य व्युत्सर्जने विभ्रमं जनयतीत्यर्थः । सा ब्रवीति-ममापि त्वं तथैव मोहं
मासगुरु , अथ संयतीव्युत्सर्जनभूमी व्युत्सजति ततश्चजनयसि । स प्राह-किं करोमि ममोत्सङ्गे गता स्थिता सा तुर्गुरु , उभयत्र च कदाचिद् दृष्टिक्लीवस्यान्यस्य वा बीजमृता.इतरथा यदि परोक्षंसा मृताऽभविष्यत् ततो देवानामपि निसर्गो भवेत् । तच वीज संयतीधाराहतं सदृर्ध्वमुद्धाविवचनेन प्रत्ययं नागमिष्यम्,यथा-त्वं सामम पत्नी न भवसीति। तं योनाववगाहते तत्र संयतस्य मूलम् , होडितायां च इय संदंसणसंभा-सणेहि भिन्नकधविरहजाएहिं । तस्यामुडाहादयो दोषाः । केचिदाचायो ब्रुवते धारया स्पृष्टसेजातरादिपासण-बोच्छेदे दुधम्म ति ॥३५॥
मात्र एव बीजे मूलं भवति, यत एते दोषाः अतो निष्कारणं
संयतीवसतिमविधिना न प्रविशेत् । गतः प्रथमो भगः । इत्येवं यत्परस्परं संदर्शनम् ,यच संभाषणम्-किमिति त्वम
द्वितीयभङ्गमाहधन गतेत्यादि पृच्छारूपं ताभ्याम् तथा यास्तया सह भिन्न
निकारणे विधीए, दोसा ते चेव जे भणियपब्धि। कथा-यस्य विरह एकान्ते योगः,पतश्चारित्रस्य भेद उपजायते। तथा शय्यातर आदिशब्दादन्यो वा तत्परिजनादिस्तयोः
वीसत्थाई सुत्तं, गेललाई उवरिमाभो ।। ४०॥ तथाविधं चेष्टितं पश्यति , स तदद्रव्यान्यद्रव्ययोर्व्यवच्छेद निष्कारणे विधिनाऽपि नैषेधिकीत्रयकरणरूपेण प्रवेशे त कुर्यात् । दुष्टधर्माण एते इत्येवं विपरिणाममुपगच्छेत् । एव दोषाः, ये पूर्व प्रथमभने सप्रपञ्चमुक्ताः, नवरं विश्वस्ताअथासौ तया सह संपत्तिं गच्छति, ततो नरकायुर्बध्नाति । विषया ये दोषा उताः , आदिशब्दात्तेषामेवानेकभेदसूचकः तीर्थकृतां सहस्य च महतीमाशातनां विधाय बोधिलाभ
तान् मुक्त्वा ये ग्लानादिविषया उपरितना दोषास्ते प्रतिबन्धकं कर्मजालमुपचिनोति । उक्तं च-" लिङ्गेण
द्वितीयभने संभवन्ति , विश्वस्ता दोषास्तु नैषेधिकीत्रयकलिङ्गणीए, संपत्ति जब निगच्छई मूढो। निरयाऊ य निबंधइ,
रणे न संभवन्तीति भावः। पासायणया अबोही य" इत्याह
निकारणे विधीए, तिहाणे गुरुगोजेण पडिकुटुं । पयलाणिहतुअद्वे, अच्छिद्दिवम्मि चमढणे मलं। कारणगमणे सुद्धो, णवरं अविधीऍ मासतियं ।। ४१॥ पासवणे सच्चित्ते, संकादुच्छम्मि उडाहो ॥३६॥
निष्कारणे विधिनाऽपि प्रविशन् यत्रिषु स्थानेषु नैषेधिकी प्रचला नाम-निषस्मस्य सुप्तजागरावस्था, निद्रायणं तु-1
प्रयुक्त तस्यापि मासगुरुकम् । कुत इत्याह-येन प्रतिकुएं निषमस्यैव स्वमम् ,त्वग्वर्त्तनं-संस्तारकं प्रस्तीर्य शयनम् ,श्र
भगवता निष्कारणमार्यिकावसतौ गमनम् । अथ तृतीयभाक्षिचमढनं-चक्षुषोर्मलनम् । एतानि कुर्वणो यद्यपि सागारि
माह-'कारणे' इत्यादि कारणे यः संयतीवसतीगच्छति सशुकादिना नष्टः तथापि चतुर्गुरु, रथे तु शङ्कायां चतुर्गुरु ।
खः, नवरमविधिना असमाचार्या प्रवेशनिष्पनं त्रिषु स्थानेषु निःशक्तेि मूलम् , प्रश्रवणं संयतीनां कायिकीभूमौ करोति
यदि नैवेधिकीत्रयं न करोति ततो मासलघुत्रयम् , द्वयोः चतुर्लघु सचित्ते' संयत्याः कायिकी व्युत्सृजन्त्या योनौ
स्थानयोन करोति मासलघुद्वयम् , एकस्मिन् स्थाने न करोति संयतनिसृष्टं शुक्रं बीजमवगाहेत ततो मूलम् , ' संकावु
एकं मासलघुकम्। स्थम्मिसि तं संयतं तत्र कायिकी व्युत्मजन्तं दृष्ट्वा सा- कारणतो प्रविधीए, दोसा ते चेव ये भणियपुग्छ । गारिकादिः शङ्कां कुर्यात् , किमेष श्रमणको रजन्यामत्रवो- कारणविधीऍ सुद्धो, इच्छं तं कारणं किंतु ॥ ४२ ॥ वितः १ ततो महानुहाहः प्रवचनस्य भवतीति । एषा पुरा
कारणतो विधिना प्रविशतो दोषास्त एव भवन्ति , ये तनगाथा ।
विश्वस्तादिविषयाः पूर्व भणिता इति। कारणे तु विधिना त्रिषु अथास्या एव व्याख्यानमाह
स्थानेषु नैषेधिकीत्रयं कृत्वा प्रविशन् शुद्धः । शिष्यः पृच्छतिपयलाणिद्दतुवढे, अच्छीणं चमढणम्मि चउगुरुगा। इच्छाम्यह शातुं किं तत् कारणं येन तत्र गम्यते। दिद्वे वि य संकाए, गुरुगा सेसेसु वि पदेसु ॥३७॥
सूरिराहप्रचलां निद्रां त्वग्वर्तनम् अक्षिचमदनं च कुर्वाणं यदि परो
गम्मइ कारणजाए, पाहुगए गणहरे महिड्डीए। न पश्यति ततश्चतुर्गुरुकाः , दृष्टेऽपि प्रचलादौ शङ्कायां च
पच्छादणा य सेहे, असहुस्स चउक्कभयणा उ॥४३॥ तुर्गुरुकाः, निःशौकते मूलम् , शेषेष्यपि अशिवादिसमुद्देशनस्वाध्यायपारणादिषु पूर्वोक्तप्रदेशेषु पारणादिष्वदृष्टेषु च
गम्यते संयतीनां प्रतिश्रय कारणजाते उपाश्रयम्, संस्तारकत्वारो गुरवः । दृष्टेष्वपि शङ्कायां चतुर्गुरु, निःशङ्किते मूलम् ।
प्रदानादिके प्राघूर्णको वा साधुः संयतीनामबोधपृच्छानि
मित्तं गच्छेत् , गणधरो वा मूर्छाविसूचिकादौ संयतीनामा. का पुनः शङ्का भवेदिति चेदुच्यते
गाढे कारणे समुत्पन्ने दिवा रात्री वा गच्छेत् । महर्जिको सज्झाएण णु खिप्पो, आउं अमेण जेण पयलाति ।
वा राजामात्यादिः प्रवजितः संयतीनां तेजोगौरवादिजनसंकाएँ होति गुरुगा, मलं पुण होति णिस्संके ॥३८॥ | नार्थ यायात, 'सेहिति शैक्षस्य राजपूत्रप्रवजितादिरमाल्या. नुरिति वितर्के , किमेष संयतः स्वाध्यायजागरेण खिन्नः, दिभिरुनिष्कामयितुमारब्धस्य प्रच्छादना संयतीप्रतिश्रये माहोखिदन्येन सागारिकासक्रेन रात्रौ सिनः । येनैवं प्रच- हात्वा कर्तव्या । काचिद्धा संयती ग्लाना तस्याश्चिकित्सा
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वसहि
(१०४३) अभिधानराजेन्द्रः।
वसंहि कर्तव्या । तत्र असहिष्णुसाधोश्चतुषकमजना भवति, चतु- दातुं वा गणधरो ब्रजेत् । तत्र पतितविस्मृतादेरुपकरणस्य भनीत्यर्थः । सा चेयम्-साध्वी सहिष्णुः साधुरपि सहिष्णुः, | यस्याः सत्कं तस्या एव यद्विभज्य समर्पणं तद्भाजनमुसाध्वी सहिष्णुः साघुरसहिष्णुः, साध्वी असहिष्णुः साधुः च्यते, यत्पुनरपूर्व उपधिरुत्पाद्य तासां दीयते तहानम्। प्रवसहिष्णुः । साध्वी साधुश्च द्वावप्यसहिष्णू । एष द्वारगाथा-| तिन्या अभावे शेषसंयतीनां विभज्य समर्पण विभजनम् , संक्षेपार्थः।
यत्तु प्रवर्तिन्या हस्ते समय॑ते तदानम् । अथ विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रथमद्वारमङ्गीकृत्याऽऽह
अथ संघप्राघूर्णद्वारमाहउवस्सए य संथारे, उवहीसंघपाहुणे ।
पोहाणाभिमुहीणं, थिरकरणं काउ अजियाणं तु । सेहट्ठवणुद्देसे, अणुन्ना भंडणा गणे ॥ ४४ ॥ गच्छेजा पाहुणो, संघकुलथेरगणथेरो ॥४८॥ भणप्पज्झ अगणिआऊ, वीआरे पुत्तसंगमे ।
अवधावनाभिमुखानां परीषहपराजितानामाथिकाणां स्थिसंलेहणवोसिरणे, वोसढे निट्ठिए तिऽहं ॥ ४५ ॥
रीकरणं कर्तुं प्राघूर्णको गच्छेत् । कः पुनः प्राघूर्णक इत्याउपाश्रयस्य संस्तारकस्योपधेर्वा प्रदानार्थ संग्रतीप्रतिश्रयं ग
ह-संघस्थविरः कुलस्थविरो वा उपलक्षणमिदम् तेमान्यो
ऽपि यः स्थिरीकरणलब्धिसम्पन्नः स गच्छति । च्छेत्, काश्चिद्वा संयत्यः परीषहपराजितास्तासामवधारणा
अथ शैक्षद्वारमाहभवति-विमुखा वर्तन्ते, तासां स्थिरीकरणाथै संघः प्राघूर्णो गच्छेत् , इह कुलस्थविरा गणस्थविरः संघस्थविरो वा संघस्य
अन्नत्थ अप्पसत्था, होज पसत्था य अजिगोवसए । गौरवाईतया प्रापूर्ण उच्यते । शैक्षस्य वा उपस्थापना कुला.
एएण कारणेणं, गच्छेज्ज उवट्ठवेउं जे ॥ ४६॥ नां वा स्थापनां कुर्तुं तत्र व्रजेत् । वसतावस्वाध्यायिके श्रुत
अन्यत्र विधीयमाना उपस्थापना क्षारागारे कचवराद्यस्योद्देशमनुवां वा कर्तुं तत्र गच्छेत् । भएडन-कलहः तद्वा प्रशस्तद्रव्ययुक्तत्वादप्रशस्ता भवेत् । आर्थिकोपाश्रये प्रशतासां परस्परं समुत्पन्नम् , तदुपशमनार्थ गन्तव्यम् । 'गणे' स्ता एतेन कारणेन शैक्षमुपस्थापयितुं 'जे' इति पादपूत्ति प्रवर्तिन्यां कालगतायां गणार्पणार्थ गच्छेत् । 'अण
रणे, आर्यिकावसति गच्छेत् । प' ति देशीपदमनात्मवशवाचकः ततश्चात्मवशाया य
स्थापनाद्वारमाहक्षाविष्टादिरूपाया आर्यिकाया मन्त्रतन्त्रादिप्रयोगणात्मवश
ठवणकुलाइ ठवेउं, तासि ठवियाणि वा णिवेदेउं । तां कर्तुं गच्छेत् । अग्निना वा संयतीवसतिर्दग्धा , अप्का- परिहरिउं ठवियाणि य, ठवणादियणं व वोत्तुं ज॥५०॥ यरेण वा प्लाविता, विचारभूमौ वा गच्छन्तीनां तासां दानश्रद्धादीनि स्थापनाकुलानि तासां समक्ष स्थापयिसोपसर्गे, 'पुत्ते'त्ति उपलक्षणत्वात् पुत्रं पिता भ्राता वा तुम् , यद्वा-तानि स्ववसतौ स्थापितानि परं तासां निवेतासां कालगतो भवेत् 'संगमे' ति पुत्रधात्रादिरेव ता- दयितुममुकममुकं च कुलं स्थापितमित्येवं ज्ञापयितुम् :सां संझातकश्चिरादागतो भवेत् , तस्य यः संगमो-मीलक- दानी वा तानि कुलानि स्थापितानि ततः परिहर्तुं न निस्तदर्थम्, तथा संलेखनं भक्तप्रत्याख्यानाय परिकर्मणं काचि- | वेष्टब्यानीत्येवं निवारयितुम् , येषु जन्मसूतकमृतसूतकादियुदार्यिका करोति, व्युत्सर्जनं वा-भक्तप्रत्याख्यानम् कर्तुकामा केषु कुलेषु पूर्वमित्वरस्थापना कृता तेषु विवक्षितावधिकाचिद् व्युत्सृजते व्युत्सृष्टं वा कयाचिद्भक्तं प्रत्याख्यातम्-अ. परिपूर्त्यनन्तरं भूयोऽप्यादान-ग्रहणं कुरुत इत्याशावचन बनशनं प्रतिपत्रमित्यर्थः, पतेषु कारणेषु गच्छेत् । अथ का- क्तुं गन्तव्यम् । चित् निष्ठिता कालगता, ततः शेषसंयतीनां शोकापनयना
अथोद्देशानुसाद्वारमाहथे व्यह-त्रीन् दिवसान् यावदुपर्यपि सरिणा गन्तव्य-| बसहीएऽसज्झाए, गोरवभयसद्धमंगले चेव । मिति श्लोकद्वयसंक्षेपार्थः ।
उद्देसादी काउं, वाएउ वा वि गच्छेज्जा ॥५१॥ अथैतदेव प्रतिपदं बिभावयिषुराह
घसतावस्वाध्यायिके जाते संयतीवसतिमुद्देशमनुशा वाकअजाणं पडिकुटुं, वसहीसंथारगाण गहणं तु। तुं गच्छेत् ,अथवा-यद्याचार्यः स्वयं तासामुद्देशादिकं करोति ओभासिउ दाउं वा, बच्चेजा गणहरो तेणं ॥ ४६ ॥
ततस्ता आचार्यविषयं यद्गौरवं यच्च तदीयं भयं ताभ्यां आर्याणां स्वयं वसतेः संस्तारकाणां च प्रहणं भगवता
शीघ्रं तदाश्रुतस्कन्धादिकमधीयते, प्राचार्येण वा स्वयमप्रतिकुएं-प्रतिषिद्धम् , अतो वसतिमवभाषितुं गणधरो ग
द्दिष्टे तासां महती श्रद्धोपजायते प्रशस्तद्रव्यादिगुणयुक्तछति, संस्तारकांश्च तासां प्रायोग्यमुत्पाच तान् प्रदातुं |
त्वाच तत्रोद्देशादौ विधीयमाने मङ्गलं भवेत् । पतैः कारणगणधरस्तत्र व्रजेत् ।
रुद्देशादिकं कर्तुं तत्र गच्छेत् । प्रतिवाचिन्यां वा कालगता
यामन्या काचित्तासां वाचनादात्री न विद्यते ततो गणधरो अथोपधिद्वारमाह
वाचयितुं गच्छेत् । पडियं पम्हुटुं वा, पलावियं प्रवाहियं च उग्गमियं ।
भण्डनद्वारमाहउवहिं भाएतुं जे, दाएजं वा विवच्चेजा ॥४७॥
उप्पने अहिगरणे, ठिउं सवेउं तहिं पसत्थं तु ।। भिक्षादी पर्यटन्तीनां तासामुपधिः पतितः स्वाध्यायभूमौवा अच्छति खउरियाउं, संजम सारं ठवेउंजे ॥ ५२ ।। गताना 'पम्हुटुं' ति विस्मृतः । उदकेन वा प्लावितः, अधिकरणे उत्पन्ने सति ताः संयमस्य सारं सर्वस्वभूतस्तेनर्याऽपहतः। सच भूयोऽपि साधुभिर्लब्धः, अपूर्वो या उ-| मुपशमं पार्वे स्थापयित्वा 'जे' ति प्राग्वत्। 'खउरियाउत्ति पधिस्तैरुद्रमित उत्पादितः। अतस्तमुपधि भाजयितुं वा । कलुषितचेतसः परस्परमालपन्त्यस्तिष्ठन्ति, ततस्ता हापश
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(१०४४) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसाह मयितुं तत्रैव-संयतीवसती गणधरस्यान्यस्य वा तथाविधो-| येऽपि तापत्रैलोक्यदेवमहिता-भुवनत्रयवासिभिः सुरासुरैपशमनलम्धिसम्पत्रस्य गमनं प्रशस्तं भवति ।
रभ्यचिंतास्तीर्थकरास्तेऽपि भगवन्तो नीरजस्सकलकर्मनिर्मु गणद्वारमाह
का गताः-प्राप्ताः सिद्धिम् , तथा स्थविरा अपि ऋषभसेनगौजह कालगया गणिनी,नस्थि उप्रभाउ गणहरसमत्था। तमादयः केचिचरमदेहधारिणो गताः सिद्धिम् , कथंभूताः? एतेण कारणेणं, गणचिंताए वि गच्छेआ॥ ५३॥ चरणगुणानां-मूलोत्तरगुणरूपाणां खगमेनैव चराणां नान्येषां यदि गणिनी कालगता, नास्ति चाऽन्या संयती गणधरो- वोपदेशद्वारेण प्रभावकार-प्रकर्षेण स्फातितारश्चरणगुणप्रभा बहनसमर्था । अत-एतेन कारणेन गणचिन्ताकरणार्थमपि वकाःधीराः-परीषहोपसगैरक्षोभ्याः,ययेवंविधा अपि महापु. गच्छेत् ।
रुषाः कालगतास्ततश्शेषजनस्य मरणे किमाश्चर्यमिति भावः। अथानात्मवशाद्वारमाह
तथाअज्जं जक्खाइहूं, खित्तचित्तं च दित्तचित्तं वा।
बंभीय सुंदरी या, अमा विय जाउलोगजेडाभो । उम्मातप्पत्तं वा, काउं गच्छेञ्ज अप्पज्झं॥ ५४॥ | तामो विय कालगया,किं पुण सेसाउ अजामो॥६०॥ यक्षणाविष्टा-गृहीता यक्षाविष्टा अपमानतया क्षिप्त-नटं | ब्राह्मी सुन्दरीच अन्या अपि च या लोकज्येष्ठा प्राचितं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता, या तु हर्षातिरेकेणापहत- र्यचन्दनामृगावतीप्रभृतय आर्यिकास्ता अपि कालगताः, चित्ता सा दीप्तचित्ता भण्यते, या तु मोहनीयकम्मोदयेन |
किं पुनः शेषा आर्यिकाः । चित्तस्तब्धतामुपगता सा उन्मादप्राप्ता, ईरशीमाया विज्ञा
ततःयाचार्या मन्त्रेण वा 'अप्पज्झ' ति आत्मवशां-स्वचित्तां कर्तु| नहु होइ सोइयव्यो, जो कालगमो दढो चरित्तम्मि । संयतीवसति यायात्-गच्छेत् ।
सो होइ सोतियन्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे ॥६॥ अग्निद्वारमाह
(नहु) नैवाऽसौ साधुसाध्वीजनः शोचितव्यो भवति । यश्चाजइ अगणिना उ वसही,दडा डझई डज्झिहिति व ति। रिहढो-निष्प्रकम्पः सन् भक्तप्रत्याख्यानादिविधिना कालनाऊण व सोऊण व, उवघेत्तुं जे व जाएञ्जा ॥ ५५॥ गतः, किंतु-श्रावकः शोचनीयो भवति यः पृथिव्याधुपमईयद्यमिना संयतीवसतिर्दग्धा. दह्यते वा संप्रति काले, अथ- नानेषणीय पिण्डादिग्रहणं वा कुर्वन् संयमेन दुबलो विहरति । या-प्रत्यासमाग्निप्रदीपनदर्शनेन धक्ष्यते इति ज्ञात्वा वा स्व
(१०) (आझाया विषयः 'आणा' शब्दे द्वितीयभागे १९८ यम् , श्रुत्वा वा-परमुखेनाकर्ण्य तां वसतिमुपग्रहीतुं-संस्था
पृष्ठे गतः ।) पयितुं निर्वापयितुं वा 'जे' इति पादपूरणे, संयतीवसति
अथ संगमद्वारमाहयायात्-गच्छेत् ।
पुत्तो पिया व भाया, अजाणं भागतो तहिं कोई। प्रथाप्कायद्वारमाह
चित्तण गणहरो तं, वञ्चति तो संजतीवसहिं ।। ६३ ।। नइपरेण व वसही, बुज्झइ बूढा व बुज्झिहिति व ति। पुत्रः पिता वा भ्राता था आयोणां संबग्धी चिरप्रोषितउदगभरियं व सोचा, उवषेत्तुं तं तु बच्चेजा ॥५६॥ स्तत्र कश्चिदागतो भवेत् , ततस्तं गृहीत्वा गणधरः संयतीनदीपूरेण प्रसरता वसतिः साम्प्रतमुह्यते-नीयते,व्यूढा था
वसतिं मजति । येन तासां तस्मिन् संहातकसाधी रहे सनीता, वक्ष्यते वा-नेष्यते उदकेन वा वसतिवृता। एवं श्रुत्वा
माधिरुपजायते। तां वसतिमुपग्रहीतुमुल्लोचनादिकं कर्तुं ब्रजेत् ।
अथ संलेखनव्युत्सृष्टद्वाराणि युगपदाहविचारद्वारमाह
संलिहियं पि य तिविहं, वोसिरियव्वं च तिषिह वोसष्टुं । घोडेहि व धुत्तेहि व, अहवा वि जती वियारभूमीए। कालगये ति य सोच्चा, सरीरमहिमाइ गच्छेजा ॥६४॥ जयणाए व करेउं, संठवणाए व वञ्चिजा ॥ ५७॥ इह सलेखितम् अपिशब्दात्-संलेख्यमानं वस्तु विधाघोटेश्वावधूतर्वा वसस्याः पुरो बगडे गच्छन्त्यस्ता उपस- आहारः शरीरमुपकरणं वा । यद्वा-उपधिः शरीरं कषायाय॑न्ते ततस्तेषां सानुनयनिवारणार्थ गच्छत् । अथ संयतीनां श्चेति । व्युत्सृष्टव्यमप्येवमेव त्रिविधम्, अनशनप्रतिपत्तिविचारभूमौ तेसमागच्छन्ति तन्निवारणार्थ गच्छेत् । अथवा- काले एतदेव त्रयं व्युत्सर्जनीयमिति भावः । एवं निसटयतनया तासां कायिकीभूमि-विचारभूमि वा कर्तुं पूर्वकृता
मपि त्रिविधमेषु त्रिष्वपि तस्याः स्थिरीकरणार्थ सूरिणा गया वा संस्थापनानिमित्तं व्रजेत्।
म्तव्यम् । यावत् कालगता सा संयतीति वार्ता श्रुता तां च पुत्रद्वारमाह
श्रुत्वा तस्याः शरीरमहिमाथै गणधरः स्वयमेव गतः । पुत्तो वा भाया वा, भगिणी वा होज ताण कालगया। जाहे विय कालगया,ताहे वि यदुमि तिथिवा दिवसे । अजाए दुखियार, अणुसट्ठीए वि गच्छेजा ॥ ५८॥ | गच्छेज संजईणं, गणुसद्घि गणहरो दाउं ॥६५॥ पुत्रो वा भ्राता वा भगिनी वा तासां कालगता भवेत् | यदाऽपि च प्रवर्तिनीप्रभृतिका महानिनादसंयती कालगता ततो या तत्रार्यिका दुःस्त्रिता शोकसागरावगाढा भवति भवति तदा द्वौत्रीन् वा दिवसान संयतीनामनुशिष्टिं प्रदातुं तस्या अनुशिष्टयर्थमपि सूरिः स्वयमेव गच्छेत् ।
गणधरो गच्छेत् । गतं गम्यते कारणजाते इति मूलद्वारम् । तस्याश्चयमनुशिष्टिदातव्या
अथ प्राघूर्णकद्वारमाहतेलोकदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिद्धिं । अप्पबितिऽप्पततिया, पाहुणया आगया सउवचारा। थेरा वि गया केई, चरणगुणपभावया धीरा ॥ ५९॥ सिआयरमामाए, पडिकुट्ठद्देसिए पुच्छा ॥६६॥
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भासंपला करेला
(२०४५) बसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि प्राघूर्णकाः साधव प्रात्मद्वितीया आत्मवृतीया वा तत्राग
प्राघुणकद्वारमेव प्रकारान्तरेण व्याचष्टेताः। तैश्च तत्र भुतं यथाऽत्र संयत्यस्तिष्ठन्ति । ततस्ते तासां
प्रयो विभपाएसो, पाहुणगममासिया उ तेलमए । वसतिं सोपचाराः प्रविशन्ति । सोपचारा नाम-त्रिषु स्था
चिलिमिलिअंतरिया खलु,चाउस्साले वसेऽजाणं ॥७॥ नेषु प्रयुक्तनधिकीशब्दाः, यद्वा-संयतीभिर्येषां वक्ष्यमाण
अयमन्योऽपर आदेशः प्राघुणकद्वारे समस्ति, ते प्राघुणउपचारः प्रयुक्तस्ते सोपचारा उच्यन्ते, तेषु समागतेषु प्रव
का आभाषिका द्रविडादिदेशोद्भवाः ततस्तत्र तेषामुपाश्रयो सिनी यदि स्थविरा तत मात्मद्वितीया निर्गच्छति । अथ
दुर्लभः। अतस्तदर्थे संयत्यो वसति मार्गयन्ति । यदि ताभिरतरुणी तत आत्मतृतीया, या च तत्र स्थविरा पुरतस्तिष्ठति
पि गवेषयन्तीभिर्न लब्धा ततो वृक्षमूलादिषु बहिर्वसन्ति । ततः साधवः शय्यातरकुलं मामककुलं प्रतिक्रुष्टकुलानि वा
अथ बहिः स्तेनभयं ततो यथार्याः स्थिताः सन्ति तच्चरजकादिसंबन्धीनि, औद्देशिकं च येषु कुलेषु क्रियते तानि
तुःशाल भवेत् 'तत्रान्यस्यां शालायां साधवश्चिलिमिलिकप्रष्टुं प्रवर्मिन्याः समीपे गच्छन्ति ।
या अन्तरिता वसेयुः। अथोपचारं व्याख्याति
चतु-शालस्याऽभावे विधिमाहप्रासंदग कट्ठमयो, मिसिया वा पीढगं व कट्ठमयं ।
कुठंतरस्स असती, कडओ पोत्तं च अंतरे थेरा। तक्खणलंभे असई, पडिहारिगपेहभोगखे ॥ ६७॥
तेसंऽतरिया खुड़ी, समणीण वि मग्गणा एवं ॥७२।। यदि साधुषु समागतेषु तत्क्षणादेव काष्ठमय आसन्दको:
अन्यस्या वसतेरभावे संयताः संयत्यश्चैकस्मिन् गृहे बशुषिरादिगुणोपेतः प्राप्यते, वृषिका वा काष्ठमयं वा पीढकं
सन्ति , कुड्यान्तरस्याभावे कटकोऽपान्तराले दीयते । कटलभ्यते,ततस्तदानीमेव तद् प्रहीतव्यम् । अथ तत्क्षणादेवास
कस्याभावे पोत- वस्त्रं तन्मयी चिलिमिलिका तस्याः स्तनभभदकादि न लभ्यते ततो गत प्रातिहारिकं गृहीत्वा स्थापय- यम् , ततो यस्मिन्पाचे संयत्यस्तस्याः प्रथम स्थविरास्तैरन्ति 'पेह' ति तचोभयसंध्यं प्रत्यपेक्षते ‘भोगण्ये' त्ति न्तरिताः सुखकास्ततो मध्यमास्ततस्तरुणा इति, एवं श्रमअकारप्रश्लेषादन्यान्यानामसंयतीजनस्य प्रातिहारिकस्य भो
णीनामपि मार्गणा कर्तव्या। तद्यथा-स्थविरसाधूनामासने गंन करोति । ततस्ते तत्रोपविष्टाः संयतीनां निरावाधादि
पुल्लिकास्ततः स्थविरास्ततो मध्यमास्ततो ढाऽऽसने तरुवार्ता पृष्ट्वा शय्यातरकुलादीनि पृच्छन्ति ।
रायः स्थाप्यन्ते। अथ केन विधिना ते पृच्छन्ति, केन वा विधिना तास्तेषां दर्शयन्तीत्युच्यते
तत्र स्थितानां विधिमाहवाहॉए अंगुलीऐं च, लट्ठीऍ व उज्जुनं ठियो संतो।
अभाए आभोगं, नाऍ ससई करेंति सज्झायं । न पुच्छेज न दाएज, पञ्चावाया भवे तत्थ ॥ ६८॥
अव्वुग्घाया व सुवे, अच्छंति व अन्नहिं दिवसं ॥७३॥
यदि तन जनेनाशाताः स्थितास्ततो रात्रावभोगमुपयोशय्यातरादिकुलं पृच्छन् दर्शयन् वा बाहया-बाहुं प्रसार्य | एवम् अकुल्या वा यष्टया वा गृहस्य ऋजुकं संमुखं स्थितः |
गं कुर्वते; तूष्णीका भासते इत्यर्थः। अथ बातास्ततः सन्न पृच्छत्, न वा दर्शयेत् । कुत इत्याह-यतस्तव
सशन-महता शब्देन युक्तं स्वाध्यायं कुर्वन्ति । अथ ते चोद्वापृच्छयमाने दर्श्यमाने वा प्रस्थपाया बहवो भवन्तीति ।
ताः-परिवान्तास्ततः स्वपन्ति । कारणतकवित्रीन् वा तानवाह
दिवसान तत्रैव यदि स्थास्नवस्ततो दिवसमन्यत्रोधानादिषु
स्थित्वा रात्रौ तत्र वसन्ति । तेणेहि अगणिणा वा, जीवियववरोवणं व पडिणीए ।
कारणाभावे तु तत्रैकरात्रापुषित्वा प्रभाते प्रजन्तिखरए खरिया सुराहा, नढे वदृक्खरे संका ॥६६॥
समखी समयपविडे, निसंतउल्लावकारणे गुरुगा। बाहादिकं प्रसार्य साधुना यद् गृहं पृष्ठं संयत्या वा दर्शितम ततः स्तेनैः किश्चिदपाहतं भवेत्, अमिना वा तद गृहं
पयलानिहतुबड्डे, अच्छीमलणे गिही मूलं ॥ ७४ ॥ दग्धम् , प्रत्यनीकेन वा तस्मिन् गृहे कस्यापि जीवन्यपरो- श्रमणीजने श्रमणजने च कायिकी कृत्वा प्रविष्टे सति योपणं कृतम् , साक्षरको वा द्वाक्षरिका वा केनचिदपाहता स्तु- कोऽनेको वा एक एवानेकाभिर्वा संयतीभिः समं निशान्ते निः था वा केनचिर्सेन सह पलायिता, वृत्तखुरोषा प्रधानस्तु- संचरवेलायामुलापकं कारणे-आगाढकारणाभावे कुर्वन्ति रकमो नये भवेत् , ततः साधुसाध्वीविषया शक्का भवेत् । नू. ततश्चतुर्गुरुकम् । तथाऽन्यत्रोद्यानादिषु श्वापदस्तेनाविभयानमतैरेवापतम् , दग्धमित्त्यादि । ततो नाऽविधिना पृच्छत् । द्वाऽपि तत्रैव तिष्ठन्ति,यदि प्रचलायन्ते, निद्रायन्ते,त्वग्वर्तयसत्र वासिनस्ते साधवो न हसन्ति, नवा कन्दर्प कुर्वन्ति ।। न्ति वा अक्षिणी मलयन्ति, तत्र चतुर्गुरुकम् । अथ गृही प्र
चलादि विदधानं तं दृष्ट्वा शङ्कां करोति-किमेष स्वाध्यायसेजायराण धम्म, कर्हिति अजाण देंति अणुसढि ।
जागरणेन खिन्नः प्रचलायते उत सागारिकजागरेणत्यादि, धम्मम्मि य कहियम्मि य, सब्वे संवेगमावना ॥७॥
ततश्चतुर्गुरु, निःशङ्किते मूलम् ।। शय्यातराणां धर्म कथयन्ति । आर्याणां वा उद्यतानां स्थि- ___ उच्चारं पासवणं वा, अन्नहिं मत्तएसु यजयंति । रीकरणाथै सीदन्तीनां पुनरुद्यमनार्थमनुशिष्टिं प्रयच्छन्ति । अद्दिट्ठपविट्ठा वा, अदिट्ट चिंते ततो भयिता॥ ७५ ।। धर्म च कथिते सर्वे श्राद्धाः संयत्यश्च संवेगमापना भवन्ति, उच्चारं प्रश्रवणं वा यदि बाहीकभूमि विमुच्यान्यत्र प्रकुश्रात्मनश्च निर्जरा भवति।
न्ति , मात्रकेषु वा कृत्वा बहिः परिष्ठापनायागतास्तत्र यदि २६२
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(१०४३) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि पहिभिरष्टाः प्रविष्टास्ततो भक्ता-विकस्पिताः। रष्टा वा
संतविभवा जइ तवं, करेंति अवज्झिऊण इड्डीओ। अदृष्टा वा निगच्छन्तीति भावः।।
सीयंतथिरीकरणं, तित्थविवड्डी य वालो य ॥१॥ तत्थऽपत्थ व दिवसं, अच्छंता परिहरति निदाई । यदि राजादिः संपदः अपोह्य-परित्यज्य तपः कुर्वन्ति ततो जयणाए व सुवंति, उभयं पि य मग्गए वसहिं ।।७६॥
वयम् संपदं प्रार्थ्यमानाः किमेवं प्रमादमनास्तिष्टाम इत्येवं तत्र रजन्यामुषित्वादिकं च ततस्तत्र वा संयतीवसतावन्यत्र
सीदन्तीनामार्यिकाणां स्थिरीकरणं कृतं भवति । स्थिरीकरणे वा उद्यानादिषु तिष्ठन्ति, निद्राप्रचलादिकं परिहरन्ति । यव
च क्रियमाणे तीर्थस्य वृद्विस्तीर्थवृद्धौ प्रवचनस्य वमो-यशःनिकान्तरिता यतनया स्वपन्ति, यथा सागारिको न पश्यति।
प्रवादप्रभाविता भवति । गतं महर्द्धिकद्वारम् । यदि तत्र कियन्तमपि कालं स्थातुकामास्तत उभयमपि सा
प्रच्छादना च शैक्ष इति द्वारमाहधवः साध्व्यश्वान्या वसति मार्गयन्ति,लब्धायां तत्र साध
वीसुं(भी)भूतो राया, लक्खणजुत्तो न विज्जती कुमॅरो । बस्तिष्ठन्ति । गतं प्रा (पूर्ण)घुणकद्वारम् ।
पडिणीएहिं कहिए, आहावंती दवदवस्स ॥२॥ अथ गणधरद्वारमाह
कस्यापि नृपतेस्त्रयः पुत्राः सम्यग्दर्शनलब्धबुद्धयो दीक्षा अहिणा विमूहका वा, सहसा डाहो व होज सासो वा। कक्षीकृतवन्तः । कालान्तरेण च स राजा विष्वग्भूतः-शरीजति आगाढ अजा-ण होइ गमणं गणहरस्स ॥७७॥
रात् पृथग्भूतः कालगत इत्यर्थः। ततोऽमात्यादयो वयमराज
काः सन्तो नार्थभाज इति परिभाव्य राज्यलक्षणोपेतं कुमार अहिना सप्र्पण काचिदार्यिका दष्टा, अतिमात्रे वा
प्रयत्नेन गवेषितवन्तः, परं न विद्यते कोऽपि लक्षणयुक्त कुभुक्त विसूचिका कस्याश्चिदजनिष्ट , सहसाऽपि तेनाग्निना
मारः। ततः कथितं प्रत्यनीकैः स्ववचनिकादिभिर्यथा ये श्रया दाहो दाहज्वरो वा भवेत्, श्वासो वा कस्याश्चि
स्यैव नृपतेः पुत्राः सन्ति ते साधयो विहरमाणा इवोद्याने दकस्मादजनि । एवमादिकं यद्यागाढं कार्यमार्याणां भ
संप्राप्ताः । ततस्ते अमात्यादयः सम्यग् ज्ञात्या छत्रचामरखपति ततो दिवा रात्री वा गणधरस्य गमनमनुज्ञातम् ।
नादिकं राजा वस्तु गृहीत्वा द्रुतं द्रुतमाधावन्ति साधूनां अथवा
समीपमागच्छन्ति । पडिणीयमेच्छमालव-गयगोणामहिसतेणगाई वा । अथ प्रत्यनीकाः केन कारणेन कथयन्तीत्युच्यतेआसन्ने उबसग्गे,कप्पइ गमणं गणहरस्स ॥७॥ भइसिं जणम्मि वसो, आयती इडिमंतपूया य । प्रत्यनीकम्लेच्छमालवस्तेनगजगोमहिषस्तेनकादयो वा सं- रायसुयदिक्खिएणं, तित्थविवडी य लद्धी य॥८३॥ यतीनामुपसर्गे कर्तुमारब्धाः । यद्वा-न तावदेवोपसर्गयन्ति , अमुना राजसुतेन दीक्षितेन अमीषां श्रमणानामतीव परं तेषामासन्न उपसर्गों वर्त्तते तत्क्षणादेव भावीत्यर्थः । ततः जने लोके वर्मवादः प्रवादो बिजम्भते, यथाऽहो अमीषामेव कल्पते गणधरस्य वा सामान्यस्य वा समर्थस्य वा तन्निवार- धर्मः प्रतिपत्तव्यः यत्रेदृशाः प्रवजन्ति । प्रायतिश्च संततिरणार्थ गमनम् । गतं गणधरद्वारम् ।
मीषामेवेनाविच्छिन्ना भविष्यति । ऋद्धिमन्तश्च श्रेष्ठयादय ए. अथ महर्द्धिकद्वारमाह
तत्प्रभावेणामीषां पूजां कुर्वन्ति । तथा राजसुतोऽत्र प्रवजित रायाऽमच्चे सेट्ठी, पुरोहिओ सत्यवाहपुत्ते य । इति कृत्वा अपि बहवः प्रव्रजिष्यन्तीति तीर्थवृद्धिलब्धिगामउडे रहउडे, जे य गणहरे महिड्डीए ॥७॥
श्वाहारवस्त्रादीनां प्रचुरा भवति । उत्प्रवजितेन पुनरमुना ब
मीदयो न भविष्यन्तीति बुद्धया प्रत्यनीकाः कथयन्ति । राजा-पृथिवीपतिः अमात्यो मन्त्री,अष्टादशानां प्रकृतीनां म
ततस्तानमात्यादीनुत्पनजनार्थमागच्छतः श्रुत्वा ते हत्तरः श्रेष्ठी, पौरजनपदयुक्तस्य राझो होमादिना अशिवायुपद्रवप्रशमकः पुरोहितः,यस्तु ऋयाणकजातं गृहीत्वा लोभार्थमन्य
राजपुत्राः किं कुर्वन्तीत्याहदेशं वजन् साथै वाहयति योगक्षेमचिन्तया पालयति स सार्थ
दण य रायिड्डि, परीसहपराइतो तहिं कोई। वाहः,पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-राजा राजपुत्र इत्यादि, पापुच्छइ आयरिए, सम्मत्ते अप्पमादो हु॥४॥ तथा प्रामकूटो-ग्राममहत्तरः,राष्ट्रकूटो-राष्ट्रमहत्तरः, एते प्र- तां राजसमृद्धिमागच्छन्ती रया तत्र कोपि राजपुत्रः परी. अजिता इह गृह्यन्ते । यश्व गणधरो राजादिबहुमतो विद्याऽ- पहपराजितः संस्तानाचार्यानापृच्छति-भगवन् ! अशक्नोऽई तिशयसंपन्नो वा एते सर्वेऽपि महर्द्धिका उच्यन्ते। प्रवज्यामनुपालयितुम् । ततः प्राचार्या भणन्ति-सौम्य !
एतेषां संयतीवसतिं गच्छताममी गुणा भवन्ति- सम्यक्त्वे भगवता हुनिश्चितमप्रमादः कर्तव्यः। अजाण तेयजणणं, दुजणसचकारया य गोरवया ।
नाऊण य माणुस्सं, दुल्लभं जीवितं च निस्सारं। तम्हा समणुप्म.यं, गणहरगमणं महडीए ॥८॥
संघस्स चेतियाण य, वच्छल्लतं करेाहि ।। ८५॥ आर्याणां तेजोजननं महात्म्योत्पादनं दुर्जनानां च सचम
ज्ञात्वा मानुष्य-मनुष्यभवं सुदुर्लभं जीवितं-च निःसारंकारता-साशङ्कता भवति, न किंचित् प्रत्यनीकत्वं कुर्वन्ती
मत्वा संघस्य चैत्यानां च वत्सलत्वं भक्ति कुर्यादिति । त्यर्थः । लोके चार्याणां गौरवमुपजायते, तस्मात् गणधरस्य
द्वितीयः पुनराह। महर्द्धिकस्य च राजपत्रजितादेगमनमार्थिकाप्रतिश्रये समनु
कि काहिंति ममेते, पडलग्गतणंत मे जटा इडी। मातम् । ताभार्थिकास्तान् राजादिदीक्षितान् दृष्टा इत्थं चि. कोवानिट्ठफलेसुं, विभवेसु बलेसु रज्जेज्जा ।। ८६ ॥ तयन्ति
किं करिष्यन्ति ममेते अमात्यादयः , पटलतृणभिव मया
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पसहि
(१०४७) अभिधान राजेन्द्रः।
वसहि राज्यऋद्धिर्जटाः-परित्यक्ताः, अपिच-राज्यादिविभवानां भु. | तिष्ठन् भिक्षावेलायां वा पर्यटन् यदि त्वरितं ग्लानाकानां ध्रुवं नरकपातः फलम् । बलश्चामीषां संध्याभ्ररागवत् . समीपं नागच्छति ततश्चतुरो मासान् गुरुकान् लगतिअतः को वाऽनिष्टफर्लामच्छेत् फलेषु अबलेषु च विभवेषु प्राप्नोति , अतो ग्लानां श्रुत्वा निर्जरामभिलषता सर्वेरज्येत्-रागमनुबध्नीयात्। एवमुक्त्वा प्रकट एव प्रदेशे स्थितः | णाप्यादेपेण तस्याः समीपं गन्तव्यम् ,कथं पुनस्तस्याः श्रव. सानुपसर्गानभिभूय स संयममनुपालयति ।
णं भवति ? उच्यते-यत्र ग्रामे ग्लाना विद्यते तस्य यहियस्तु तृतीयः स किं करोतीत्याह
| रदूरसमीपे व्यतिव्रजन्तं गृहस्थः कोऽपि ब्रूते-युष्माभिरस्याः तइनो संजमअट्ठी, आयरिए पणमिऊण तिबिहेणं ।
प्रतिजागरणं न क्रियते ?। साधुराह-सुष्ट क्रियते , गृही
साधुना सह प्रवीति । यद्येवं ततःगेलने नियडीए, अजाणग उवस्सगमतीति ॥७॥
लोलती छगमुत्ते, सोउं घेत्तुं दवं तु आगच्छे। तृतीयोराजपुत्रःसंयमार्थी, स गुरुभिरभिहितः-आर्य! संय सीप्रतिश्रये निलीयस्व । स प्राह-इच्छाम्यहं भगवचनम्,नि
तूरंतो तं वसहि, णिवेयणं छायणजाए ॥२॥ स्तारयत मां येन केनापि प्रकारेणास्मादुपसर्गसमुद्रात्। एव
एकाकिनी संयती छगणमूत्रे आत्मीय एव पुरीषप्रश्रवण मुक्तः स प्राचार्यान् त्रिविधेन मनोवाक्कायकर्मणा प्रणम्य |
लोलन्ती बिलुठन्ती अत्र ग्रामे तिष्ठति.एवं श्रुत्वा तत एव द्रवं निकृत्या ग्लानत्वं कृत्वा आर्याणामुपाश्रयं प्रविशति ।
पानकं गृहीत्वा त्वरमाणः संयतीवसतिमागच्छति । ततो अंतद्धाणा असई, जइमं मूलो य अविलीबीए ।
पहिः स्थित्वा शय्यातरीपाादार्यिकाया निवेदनं कारयति ।
यथा-बहिः साधुरागतोऽस्तीति । सा च शय्यातरी तस्या पीसित्ता देंति मुहे, अप्पगासं ठवेंति य विरेगो ॥८॥
आर्यिकाया दुर्निवसितगात्राणां छादनं कुर्यात् । अथ सान यद्यन्तनिकरणेऽञ्जनमन्त्रादि विद्यते ततः सोऽन्तर्हितः।
करोति तत आत्मनाऽपि यतनया तां छादयति । कृत्वा तत्रैव स्थाप्यते । अथ नास्त्यन्तङनकरणं ततः संयती. नेपथ्यं कारयित्वा तदसति नेतव्यः । यदि तस्य श्मशुकर्च
ततः साधुस्तस्या इत्थं स्थिरीकरणं करोतिविद्यते ततो लोचः क्रियते, अम्लिनीयीजादि च पिष्टा तस्य
आसासो वीसासो, मा भाहि ति थिरीकरणता से । मुखे ददति; तैर्मुखमालिम्पन्तीत्यर्थः । अप्रकाशे च प्रदेश धुवि व चीरकरणं, तीसऽऽप्पण बाहि कप्पो य॥१३॥ संयतीवसतौ तं स्थापयन्ति । विरेकश्च विरेचनकारकौषध-| आश्वासो नाम-धीरा भव, अहं ते सर्वमपि वैयावृत्त्य करिप्रयोगेण क्रियते।
ध्ये । विश्वासस्तु त्वं मम माता भगिनी दुहिता वा, अतो मा संथारकुसंघाडी, भ्रमणुले पाणए य परिसेभो।
भैषीः, एवं वयोऽनुरूपमविरुद्धं वचनं ब्रवीति । इत्यं तस्याः
स्थिरीकरणं कृत्वा छगणमूत्रलुलितां तां धावित्वा तस्या एघसणपीसणोसह, अधितिखरकम्मि मा बोलं ॥८६॥
बौपग्रहिकाणि चीवराणि, तेषामभावे प्रात्मीयान्यपि संस्तासंस्तारके स संयतः शाय्यते, मलिना पुटिता च कुसंघाटी
रके प्रास्तृपोति, तां वा परिधापयति । ततः खरण्टितचीसप्रावरणा कार्यते,अतोऽन्यद् दुर्गन्धिपानकं तेन तस्य परितः
पराणां प्रतिश्रद्धया बहिः कल्पो दातव्यः। भूमेरपि तस्या क्रियते । तथा काश्चन संयत्यस्तु चन्दनस्य घर्षणम् , अ
उपलेपनं कर्तव्यम् । भ्यास्तु पेषणमोषधस्य कुर्वन्ति , अपराः पुनः करतल
अथ प्रवेशविधि विशेषत पाहपर्यस्तमुखा भूमिगतहटयोऽधृति कुर्वाणास्तिष्ठन्ति । स्वरकमिकेषु च राजपुरुषेषु च समागतेषु भणन्ति-मा बोलं कुरु
एएहि कारणेहिं, पविसंते ऊ णिसीहिया तिनि। त, एषा प्रतिनी ग्लाना न युष्मदीयं बोलं सहते, एवमसौ ठिच्चा णं कायव्वा, अंतररे पवेसे य ॥६॥ तत्र संयतीवेषेण तिष्ठन् सर्वाण्यपि स्थाननिषदनादीनि एतैर्लानत्वादिभिः कारणेः संयतीवसती प्रविशता तिपदानि कुर्यात् । गतं प्रच्छादना वा शैक्ष इति द्वारम् ।
स्रो नैषधिक्यः कर्तव्याः। कथमित्याह-स्थित्वा प्रथमनषेधिअथासहिष्णोश्चतुष्कभजनति द्वारं विभावयिषुराह
कीकरणानन्तरं कियन्तमपि कालं प्रतीक्ष्य द्वितीया नैषेधिदोएिह वि सहू भवंती, सो व सह सा च होज उ असहू ।।
की, ततो द्वितीयानन्तरं तृतीयाऽप्येवमेव कर्तव्या। प्रथमा.
नषेधिकी दरे-अग्रद्वारे द्वितीया अन्तरे-मध्यभागे , तृतीया दोएहं पिउभसरणं, तिगिच्छजयणाए कायब्बा ॥१०॥ प्रवेशे मूलद्वारे विधातव्या । यस्या ग्लानसाध्याधिकित्सा क्रियते, यच यस्याः प्रति
ततःचारकः तौ द्वावपि सहिष्ण भवतः एष प्रथमो भगः । सो | पडिहारिए पवेसो, तकजसमाणणा य जयणाए । बसहु'त्ति साध्वी सहिष्णुः स च साधुरसहिष्णुरिति द्वि
गेलय चिट्ठणादी, परिहरमाणो जतो खिप्पं ॥४॥ तीयः। "साच होज उअसहु"त्ति सासाध्वी असहिष्णुःसा
शय्यातराभिः प्रातिहारिके प्रार्यया शापिते सति प्रवेशः धुः सहिष्णुः एष तृतीयः । साध्वी साधुश्च द्वावष्यसहिष्णू इ. ति चतुर्थः । एतेषु चतुर्यु मषु यतनया चिकित्सा कर्तव्या।
कर्सव्यः , प्रविष्टेन च तस्य-विवक्षितस्य ग्लानकार्यस्य पू
बाँकया बच्यमाणया यतनया संमानना कर्तव्या। एवं तत्र प्रथमभङ्गं तावद्भावयति
ग्लानत्वे तत्र स्थानादीनि पदानि कुर्यात् । तथा ग्लानसोऊणं भोगिलागि, पंथे गामे व भिक्खवेलाए।
कृत्यान्युत्सर्गतोऽशुद्धं परिहरन् करोति । अथ शुद्ध जह तुरियं नागच्छद,लग्गा गुरुए चउम्मासे ॥ १॥ न प्राप्यते-ततो 'जउ 'त्ति अनागाढे पञ्चकहान्या शुल्वा ग्लानां संयती पथि वा परिभ्रमन् प्रामे था। यतमानः करोति 'खिप्पं' ति आगाढे क्षिप्रमेव करोति । अ
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बसहि
थवा आत्मपरोभवसमुत्थदोषान् परिहरमाणो ग्लानकृत्यं करोति । कुत इत्याह- 'जतो खिप्यं' ति यत श्रात्मसमुत्थादिदोषानपरिहरतः क्षिप्रमेव संयमविराधना भवति ।
(१०४०) अभिधानराजेन्द्रः ।
कीदृशः पुनस्तां प्रतिजागतत्युच्यतेपियधम्मो दरधम्मो, मिसवादी अप्पकोउलो य । भगिलागयं खलु, परिजग्गति एरिसो साहू ॥६५॥ प्रिय इष्टो धम्मों यस्य स प्रियधर्म्मा, धम्मै दृढो निश्चलो ढ धर्मा राजदन्तादित्वात् दृढशब्दस्य पूर्वनिपातः, मितं-परिमिताक्षरं चक्रं शीलमस्येति मितबादी, अपशब्दस्पेदाभाववचनत्वादल्पम् - अविद्यमानं कौतूहलं स्त्रीरूपदर्शनादिषु यस्य सोऽल्पकी दसः। यः साधुरायग्लानां प्रतिजागर्ति। सो परिणामविहिप इंदियदारेहि संवरियदारो । जं किंचि दुब्भिगंध, सयमेव विर्गिचणं कुति ||३६|| सवैयावृत्यक वर्षगन्धादिभिः शुभा अपि भाषा भूयोव्यशुभा भवन्तिः अनुभा अपि च संस्कारविशेषतो विश्वसया या शुभा जायन्ते इत्येयं पुलानां परिणामविधि जानातीति परिणामविधिः। तथेन्द्रियद्वारेभ्यः संवृतद्वारः 'गम्ययपः कर्माधारे २२७४॥ इत्यनेन पञ्चमी । ततोऽयमर्थःइन्द्रियरूपाणि द्वारा त्यधिकृत्य संतद्वारो न पुनर्वाहाद्वाराणि । ईदृशः साधुर्यत्किचिदार्थिकायाः संज्ञादिकं दुरभिगन्धं तस्य स्वयमेव विवेचनं स्फेटनं परिष्ठापने या करोति ।
"
संवृतद्वारपदस्य सफलं या करणार्थमादगुज्भंगवदखकक्खो रुअंतरे तह थरांतरे दहुं ।
संहरति ततो दिहिं, न य बंधति दिडिए दिहिं ॥६७॥ गुह्याङ्गस्य वदनस्य कक्षयोरूर्वोश्च यान्यन्तराणि - श्रवका शास्तानि तथा स्तनान्तराणि च दृष्टा संहरति- भास्करादिय ततो दृष्टि नियर्शयति । न च नैयायिकायां दृशे दृष्टि बध्नात्ति-मीलयतीत्यर्थः ।
अथ यत्किचित् दुरभिगन्धमित्यादि व्याचष्टेउच्चारे पासवणे, खेले सिंघाडए विचिगया । उव्वत्तणपरियत्तण, गंतगणिलेवणसरीरो ॥ ६८ ॥ उच्चारस्य प्रश्रवणस्य खेलस्य सिंघाणस्य च विवेचनं करोति । उद्वर्तनं नाम-तस्या उत्तानायाः पार्श्वतः करणम्, ततः इतरस्यां दिशि स्थापनं परिवर्तनं तदपि करोति, नतर्क-पत्र तथा शरीरं च यदि संज्ञा मूत्रेण या लिसं ततस्तदपि निर्लेपयितव्यम् ।
किरियातीतं गाउं, जं इच्छति एसणाऍ तं तत्थ । सद्भावणा परिष्ठा, पडियरखकड़ा णमोकारो ॥ ६६ ॥ क्रियायां क्रियमाणायामपि या न प्रगुणीभवति सा कियासीता वाया सा प्रष्टम्याकेन भवत्या समाधिरुत्पद्यते, ततो यद् प्रयमिच्छति तदेषल्या शुद्धं शुद्धस्याला पचकहानियतनयाऽपि गृहीत्वा दातव्यम् । ततः सा तथा धद्वाप्यते यथा परिज्ञाय स्वयमनशनं प्रतिपद्यते । अनशनप्रति पक्षायाश्च सर्वप्रयत्नेन प्रतिचरणं धर्मकथा व तथा कर्त्तव्याः यथा सम्यगुत्तमार्थमाराधयति । नमस्कारश्च तस्या मरणबेलायां दातव्य इति ।
पसहि
किवासाध्याया विधिमाह
दव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति । खायमिव दव्वम्मिय, गवेसणा तस्स कायम्या | १००/ यस्य रोगस्य यद् द्रव्यं यस्या वा ग्लानाया यत् समाधिकारकं तत्प्रथमत एव ज्ञातव्यम् । ज्ञाते व तस्मिन् द्रव्ये सर्वप्रयलेन तस्य गवेषणा कर्तव्या ।
सयमेव दिट्ठपाठी, करेति पुच्छति भजायचो वेऊं । दीवणदव्वादिम्मिय, उवदेसे वादि जा लंभे ॥ १०१ ॥ वैद्यकशास्त्ररूपो दृष्टः पाठो येन स एवंविधः स्वयमेव चिकित्सां करोति, अथवा वैद्यकशास्त्राभिप्रायं न जानाति, ततो वैद्यं पृच्छति, तस्य च वैद्यस्य दीपनं करोति । यथाऽहं कारणत एकाकी संजातः, अतो मा अपशकुनं गृहीध्वम् । ततो येथेन इन्यक्षेत्रकालभावमेदाच्चतुर्विध उपदेशे दत्ते सति प्रवीति । यदि वयमेत सभाम ततः किं प्रयच्छामः । एवं पृष्ठे भूयो द्रव्यान्तरे उपदिष्टे ब्रूते - यद्येतदपि न लभामहे ततः किं कर्त्तव्यम्-एवं तावत् पृच्छति ; यावद्यस्य पृच्छा तिष्ठति उपरमत भुयो लाभः सदुपदेशे इत्यर्थः ।
अथ रात्री विधिमाहअन्मासे व बसेजा, संबद्धं उवस्सयस्स वा दारे । आगाढे गेलो, उवस्सए चिलिमिलिविभत्ते ॥ १०२ ॥ संयतीप्रतिश्रयस्याभ्यासे - समीपे यदसंबद्धमन्यद् गृहं तत्र वसेत् तस्याभावे संबद्धेऽप्यन्यगृहे, तदभावे उपाश्रयस्य वा द्वारे । अथ गाढं ग्लानकार्ये भवति तत उपाश्रयेऽपि चिलिमिलिकाविभक्ते सति ।
"
किमर्थे पुनरुपाश्रयस्यान्तर्वसतीत्याहउन्वय परिपत्तण, उभयविगिंचपाथगडा वा । तकरभयभीरक्खण, गमुकारट्ठा वसे तत्थ ।। १०३ ॥ तस्या उद्वर्त्तनं वा कर्तुम् उभयस्य वा कायिकीसंज्ञालक्षणस्य विवेचनार्थम् पातया या रात्री पानकदानार्थम् य द्वा-तत्र तस्करभयम्; सा च संयती स्वभावेनैव भीरुः ततो भयरक्षणार्थम् अचेति अथवा मरणवेलायाः प्रत्यासन्नरचे नमस्कारदानार्थे वा तत्र बसेत् ।
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धवलजुत्तोऽविमुखी, सेजातरसविसजिगादिज्जुतो । वसति परपञ्चयट्ठा, सज्ञाहणट्ठा य श्रवराणं ॥ १०४ ॥ यद्यपि स मुनिः सहिष्णुवाद प्रतिययुस्तचापि शब्यासरेस संहिना वा आयकेण सिद्धकेन वा सहवासिना युक्तसहितः संपतीप्रतिश्रयं वसति शय्यातरादिकमित्यं भवति न वर्तते ममैकाकिनः संयतीप्रतिश्रये रात्रौ वस्तुम्
तो मम द्वितीयेन भवता भवितव्यम् । अथ किमर्थमेव करोतीति वैदित्याइ परप्रत्ययार्थम् परेषामगारिणां प्रतीत्युत्पादननिमित्तम् पथाने विरुद्धाभिप्रायेणात्र वसति अपरेषां वा साधूनां श्लाघार्थम् - धन्या अभी येषामेवंविधः सुदृढो धर्म्म इति ।
सो निजरा वट्टति, कुणति य वचणं असंतवाणीयं । सपितिओ कहेती, परिवद्वेगागि वसमाणे ।। १०५ ।। स साधुरेव कुर्वन् विपुलायां निर्जरायां वर्तते । श्राशां
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बसहि
वाऽनन्तचानिनां सीतां करोति सद्वितीयो बसन तस्य द्वितीयस्य धर्मे कथयति । अथेकाकी वसति ततः सर्वामपि रात्रिं परिवर्तयति ।
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(२०४६) अभिधानराजेन्द्रः ।
परिजग्गा व खिप्यं, दोयह सहूणं तिगिच्छजतणाए । तत्थेव गगहरो म, अग्रहरि जयवाद तो येइ ।। १०६ ।। एवं तेन साधुना प्रतिजागरिता सा सिम-शीमं प्रगुणीभवेत् इत्थं द्वयोः सहिष्णोर्यतनया चिकित्साकरणमुक्रम्। तां च प्रगुणीभूतां गृहीत्वा यदि तस्या गणधरस्तत्रैवासन्ने समस्ति ततस्तं गाढं खरण्टयित्वा तस्य समर्पयति । अथान्यत्र दूरदेशे ततः सार्थेन सह तां तत्र प्रस्थापयति, स्वयं वा यतनया तत्र नयति ।
कथमित्याह
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निकारणे चमढणा, कारण गिरहेति महव अप्पाहे । गमणत्थि मिस्ससंबं-घि बजिते असति एगागी । १०७ । यदि सा ग्लाना संपती निष्कारणं गणादतिक्रम्बेकाकिनीभूता ततस्तां समदयति निर्भयतीत्यर्थः । अथ कारणिकी ततस्तां स्वयं नयति येषां वा आचार्यायां सा संयतीतेषां संदिशति यथा- युष्माकं संवती साम्प्रतमत्र तिष्ठति श्रस्या श्रनयमकृते संघाटकः प्रदेयः । यदा पुनः स स्वयं नयति । तदा इयं यतना । गमणि - स्थि इत्यादि साधन संबन्धिना धर्म प्रथमतो नयति, ततः खीसार्थेनेवासंबन्धिना ततः पुरुषमिश्रभिरपि श्रीभिः प्रथमं संबन्धिपुरुषयुक्ताभिरपि ततः पुरुपैरेव केवले, प्रथमं सबन्धिभिस्ततोऽसंबन्धिभिरपि समं नयति । एषां प्रकाराणामभावे स साधुरेककोऽपि तां नयति । तत्र चात्मना पुरतो गच्छति, संपती न ना नातिदूरे पृष्ठतः स्थिता श्रागच्छति । ततः प्रथमो भङ्गः ।
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अथ द्वितीय विभावविषुराहनबिय समत्यो सम्वो, हवेज एतारिसम्मि कजम्मि । कायन्वो पुरिसकारो, समाहिसंधारणाए । १०८ ॥ साध्वी सहिष्णुः साधुरसहिष्णुरित्ययं भङ्गो भाव्यते । नापि च-मेव सर्वोऽपि साधुरेतादृशे स्त्रियाः स्पर्शादायपि मनोमिनात्मक कार्ये समय भवेत्। ततः किं सा खाना ती ते परित्या नेत्याह-ज्ञानदारिया सां यः समाधिरन्योन्याविरोधिनेकत्रावस्थानं तस्य संघा रखायें तथा साधुना पुरुषकारः कर्त्तव्यः यथा तस्याः चिकित्सा क्रियते, आत्मनश्च शीलखण्डमा न भवति ।
स पुनः साधुः कथमसहिष्णुर्भवतीत्युच्यतेसोकण व पासिया, संलावेयं तदेव फासेणं ।
एतेहि असहमाये, तिमिच्छनया कायया ॥ १०६ ॥ स्त्रियाः शब्दं श्रुत्वा रूपं वा तदीयं दृष्ट्वा तया सार्द्धं वा यः संलापो वा तस्याः स्पर्शस्तेन वा तस्य मोहोद्भवे सति एतैः प्रकारैरसहमान- इन्द्रियनिग्रहं कर्तुमक्षमो यस्तेन यतनया चिकित्सा कर्त्तव्या । तद्यथा - प्रथमं सा ग्लाना मटण्या, आयें ! भवति किं सहिष्णुरसहिष्णुः १, सा गीतार्थी वा भवेदगीतार्था वा ? ।
२६३
यसहि
तत्र
अविकोविया उ पुट्ठा, भगाइ किं मं न पाससी थियए । छगमुत्ते लोलंगिं, तो पुच्छसि किं सहू असहु ॥ ११० ॥ अविकोविदा-अगीतार्था पृष्टा इदं भांति किं मां न पश्यसि ? निजके गये मूत्रे लोलन्तीम्, तत एवं पृच्छसि किं सहिष्णुरसहिष्णुरिति ।
साधुराह
पासामि णाम एतं देहाऽवत्थं तु भगिणि जा तुझं । पृच्छामि घितिबलं ते मा भविराहा होला ।। १११ ॥ नामेति - कोमलामन्त्रणे, भगिनि ! पश्याम्यहमेतां देहावस्थां या साम्प्रतं तव वर्तते । परमहं ते-तव धृतिबलं पृच्छामि मा मम तव च ब्रह्मव्रतविराधना भवेदिति कृत्वा । ततः साध्वी भूते
इहरा वि ताव सद्धे रूपाणि य बहुविहाणि पुरिसायं । सोऊण व दण व, मणक्खोभो महं को वि ।। ११२ । इतरथाऽपि - नीरोगाया अपि मम तावत्पुरुषाणां गीतादीन श्रुत्वा रूपाणि च बहुविधानि विशिष्टनेपध्यालंकृतानि दृष्ट्रा कोऽपि न मनागपि मनः क्षोभो भवति ।
किं चसंलवमाशी दिए गयामि विगर्ति व संफुसिचाणं । हड्डा वि किं तु सहि, तं पुरा यिगं धितिं जाण ॥ ११३ ॥ अहं सकलमपि दिवसं पुरुषेण सह संलपन्ती विकृत-विकारं न यामि, न वा पुरुषहस्ताद्यवयवसंस्पृशाऽपि विकारं गच्छामि तदेवं षापि नीरोगा ऽप्यहमेवं सहिष्णुः किं पुनरिहान ग्लानावस्थां प्राप्ता त्वं पुनर्निजकामात्मीयां पृर्ति जानीहि ।
एवमुक्ते स किं करोतीत्याहसो मग्गति साइम्मि, सधियदा भदगं वि ब च । देति य से वेदणगं, भत्तं पायं च पाउग्गं ॥ ११४ ॥ सो सहिष्णुः साधुतान्यत्र या ग्रामे साधर्मिक संपती मार्गपति । तत्र प्रथमं संचिनां गीतार्थी तदभावे संविशामगीतार्थाम्, तदलाभे पार्श्वस्थां गीतार्थाम्, तदप्राप्तौ पार्श्वस्थामगीतार्थाम् । अथ संयती न प्राप्यते ततः संज्ञिनीं-श्राविकाम्, तामपि प्रथमं गृहीतासुतास्ततो दर्शनाविकामपि तदप्राप्ती यथा भद्रिकामपि गवेषयति तदलाभे सूतिकां नयप्रसूतस्त्री सूतीकर्मकारिणीं मार्गयति । सा च धर्मकथया महाच्यते, यथा-धिकमेव संस्था वैपापं करोति । अथासौ मुधिकया नेच्छति ततो बेतनमपि तस्यै महं पानं या प्रायोग्यं ददाति ।
एयासि असतीए व कदेति जहा अहं खुर्मि अस सद्दाद्दी जयणं पुग्ण, करेमु एसा खलु जिणाखा ॥११५॥ एतासामनन्तरोक्तस्त्रीणामभावे स साधुस्तस्यां सुरतो मैवं कथयति, यथाऽहमसहिष्णुरस्मि, पराभवश्च चेतसि निश्चिनोति, यथा शब्दादिविषयां यतनां कुर्मः । एषा खलु निचितं जिनानामाज्ञा ।
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(१०५०) वसहि अभिधानराजेन्द्रः।
वसहि यतनामेवाह
तम् । मयाऽपि साधस्मिोति कृत्वा भवती चिकित्साकरणेन सहम्मि हत्थवत्था-दिएहि दिविम्मिचिलिमिलिंतरितो।। प्रगुणीकृता इतरथा मृता अभविष्यत् । एवं सुष्ठ-अतीव संलावम्मि परमुहो, गोवालगकंचुभो फासे ।। ११७॥ शापिता सा आत्मानम् आत्मनो निरभिलाषमित्यर्थः। ततश्च यद्यसौ साधुः शब्दे असहिष्णुः ततस्तां ग्लानां भणति-मा
चर-संप्रति निःशङ्का तपःकर्म । एवं तां शासित्वा स साबचनेन मां व्यापारय, किंतु-हस्तेन वा वस्त्रेण वा अगुल्या
धुरावश्यकी चेतयति; गमनं करोतीत्यर्थः। घा संज्ञां कुर्याः । यस्तु दृष्टिक्रीवः स सर्वमपि वैयावृस्य चि.
अथ द्वितीयपदमाहलिमिलिकया अन्तरितं करोति । अथासौ संलापकीयस्ततो बिइयपयमणप्पज्झे, पविसे यवि कोविए व अप्पज्झे । ऽवश्यसंलपनीये पराङ्मुखः संलापं करोति । स्पर्शलीवस्तु
तेण गणियाउ संभम,बोहिगतेणेसु जाणमवि ॥१२३॥ गोपालककम्बुकमात्मानं प्रावृस्य तस्याः सर्वमुद्वर्तनादि
द्वितीयपदे संयतीवसतौ अनात्मवशः क्षिप्तचित्तादिको कृत्यं करोति । गतो द्वितीयभन्नः।
नैधिकीत्रयकरणमन्तरेणापि प्रविशेत् । प्रात्मयशो वा योअथ तृतीयचतुर्थभङ्गयोरतिदेशमाह
ऽपि कोविदः शैक्षः सोऽप्यविधिना प्रविशेत् । यहा-स्तेएसेव गमो नियमा, निग्गन्थीए वि होति असहए। नायकायसंभ्रमेषु बोधिकस्तेनेषु वा जानन्नपि गीतार्थों दोएहं पि उ असहूणं,तिगिच्छजयणाऍ कायव्वा ।११।।
ऽपि सहसा प्रविशेत् । पृ० ३ उ०। एष एवं द्वितीयभनोक्लो गमः-प्रकारो नियमानिर्ग्रन्थ्या- जे भिक्खू णिग्गथीणं उवस्सयंसि प्रविहीए पमप्यसहिष्णो कर्तव्यानवरं या शम्दादियतना सा चात्मना| विसइ पविसंतं वा साइजइ ॥२॥ कर्तव्या , संयत्या च कारयितव्या । द्वयोरपि च
णिग्गंथाणं णिग्गंथीउवस्समो वसही तं जो अविसंयतीसंयतयोः सहिपावोर्यतनया द्वितीयतृतीयभङ्गोलया धीए पविसति तस्स मासलहुं प्राणादिया दोषा भवचिकित्सा कर्तव्या।
न्ति । नि० चू०४ उ०। प्रगुणीभूताच काचिदिदं ब्रूयात्
(२६) निर्ग्रन्थानां बसती निन्थीभिर्न गन्तव्यम्भायंकविप्पमुक्का, हट्ठा बलिगा य निव्वुता संती। । नो कप्पइ निग्गन्थीणं-निग्गन्थाणं उवस्सयंसि चिद्वित्तए प्रजा भणेज काई, जेदुओ वीसमामो वा ॥११६॥ |
वा. जाव कांउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए ॥२॥ भात न रोगेण विप्रमुक्ता सतीष्टा संजाता, तथा बलिका-उपचितमांसशोणिता निवृत्ता-खस्थीभूतेन्द्रिया ए
अस्य संबन्धमाहबंविधा सती काचिदार्यिका घूयात्-ज्येष्ठार्य ! चिरसंय
पडिवक्खणं जोगो, तासि पिण कप्पती जतीणिलयं । मभाराकान्तावावाम्, अत एनमसारं परित्यज्य यथासुखं कि
णिकारणगमणादी, जं जुज्जति तत्थ तं गेयं ॥१२४॥ चित्कालं तावद्विधाम्यावः-विश्राम गृहीवः।
'पडिवक्खेणं' ति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य प्रनिपक्षतया
निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्ध्युपाश्रये गमनादिकं कर्तुं न कल्पते, तथा दिद्वं परामुहं च, रहस्सगुज्झं च एकमेकस्स ।
तासामापि निर्ग्रन्थीनां यतिनिलये-निर्ग्रन्थोपाश्रये निष्कारणे
गमनादिकं कर्तुं न कल्पते, तदर्थप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमातं वीसमामो अम्हे,पच्छा वि तवं चरिस्सामो॥१२०॥
रभ्यते । अत्र च यत्प्रायश्चित्तदोषजालादि पूर्वसूत्रोक्तं यत्र रहस्यमेकान्तयोग्यं यद् गुह्यं तन्मदीयं भवता,मयाऽपि भव
निष्कारणगमनादौ युज्यते तत्र तत् स्वयं बुद्धयाऽभ्यू सादीयमुबर्तनपरिवर्तनादिक्रियासु बहुश एकैकस्य राष्ट्र परामृष्ट |
तव्यम् । अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (२) व्याख्या प्राग्वत् । च । तत्तस्मात् विश्राम्यावः किंचित्कालम् । पश्चात्पश्चिमे
अथ भाष्यम्काले तपश्चरिष्यावः।
एसेव गमो नियमा, पपवणरूवणासु अजाणं । तं सोचा सो भगवं, संविग्गोऽवजभीरुदधम्मो। .
पडिजग्गती गिलाणं,साहुंजतणाए अजाऽवि ॥१२॥ अपरिमियसत्तजुत्तो, णिकंपो मंदरो चेव ॥ १२१ ॥
एष एव पूर्वसूत्रोक्तो गमो नियमात् प्रज्ञापनाप्ररूपणयोरातत्तस्या आर्यिकायाः वचनं श्रुत्वा स भगवान् संवि- र्याणामपि मन्तव्यः । प्रज्ञापना-निष्कारणे अविधिना प्रविनो मोक्षाभिलाषी अवद्य-पापं ततो भीरुश्चकितः, ढ- शतीस्याद्युल्लेखन,चतुर्भल्याऽसौ सामान्यतः कथनं प्ररूपणा धर्मा चारित्रे स्थिरः, अपरिमितमियत्तारहितं यत् स
प्रथममेकैकभङ्गकस्य प्ररूपणा । तथा साधुं ग्लानमार्याऽपि त्वं धृतिबलं तेन युक्तः अत एव निष्कम्पो मन्दर इव यतनया तथैव प्रतिजागर्ति । नवरम्मेरुगिरिरिव, यथाहि-मन्दरो वायुना न कम्प्यते एवं प
सा मग्गइ साधम्मिश्र, सखि जहा भद्दसंवरादी वा । रिभोगनिमन्त्रणवायुना स भगवान कम्पितवान् ।
देति य से वेदयाणं, भत्तं पाणं च पायोग्गं ॥१२६॥ किंतु
द्वितीयतृतीयचतुर्थभङ्गेषु सा संयती साधर्मिकं साधु मार्गउद्धंसिया य तेणं, सुट्ट वि जाणाविता य अप्पाणं ।
यति,तदप्राप्तौ संशितं-श्रावकम् ,तदलामे यथाभद्रकम् ,तदचरसु तवं निस्संका, उवासिनं सो उ चिंतेइ ॥ १२२॥ भावे संवरं-स्नातिकाशोधनम्,आदिशब्दादन्यमपि तथाविधं उद्धर्षिता-खरण्टिता गाढं तेन भगवती सा संयती, यथा-| मार्गयति। यदि वा-असौ मुधिकया नेच्छति ततस्तस्य वेतनं निधौ ! ईरशं दुःखमनुभूय भवत्या वैराग्यमपि न संजा- | कमपि ददाति, भक्तं पानं च तस्य ग्लानस्य प्रायोग्यमुत्पा
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बसिह
वसहि
अभिधानराजेन्द्रः। दयति । वृ०३ उ० । पं० भा०। पं०चू० । अनन्तरहितायां |
(१०) स्कन्धादिषु अन्तरिक्षे वसतिः। पृथिव्यां स्थानादीनि न कुर्यात् । नि०चू०१३ उ०।(अभि
(११) निर्ग्रन्थीनां सागारिकवसतौ निषेधः । निषद्यागमनम्-'अभिणिसज्जा' शब्दे प्रथमभागे ७१८ पृष्ठे
(१२) स्त्रीपुंससागारिकोपाश्रये वस्तुं कल्पते न वा। व्याख्यातम् ।)-(उपसंपद्यमानेन कथं वस्तव्यम् इति 'उव
(१३) वसतिदोषविशेषप्रतिपादनम् । संपया' शब्दे द्वितीयभागे ६६३ पृष्ठे उक्तम् । )-(प्राचार्यो
(१४) तृणादिपुजेषु वसतिदोषाभिधानम् । पाध्याययोर्वसतेरन्तः एकाकी वस्तुं कल्पते इति 'अर
। (१५) अभीषणं साधुष्ववपतत्सु न वसेत् । सय' शब्दे प्रथमभागे २६ पृष्ठे व्युत्पादितम् । )-('जिण
(१६) कालातिक्रान्तवसतिदोषः। कप्पिय' शब्दे चतुर्थभागे १४८१ पृष्ठे जिनकल्पिकानां वस
(१७) तथाविधकार्यवशाचरककार्पटिकादिभिः सह संयासे तिः।)-('णितियवास' शब्दे चतुर्थभागे २०६७ पृष्ठे नित्य- विधिः। वासनिषेध उक्तः ।)-(वृद्धावासः 'उवसपया' शब्दे द्विती
(१८) गृहमध्यान्मार्गवत्युपाश्रये न निवसेत् । यभागे ६६८ पृष्ठे गतः।) (२७) श्रावकस्य वसतिमाह
(१६) यत्र गृहपतिजनाः कलहं गात्राभ्यङ्गं वा कुर्वन्ति तत्र
वासनिषेधः। निवसेज तत्थ सद्धो, साहूणं जत्थ होइ संपाओ। (२०) अभिनिर्वगडायां वासविधिः। चेइयहराइँ जम्मि, तयमसाहम्मिया चेव ॥४१॥ । (२१) वर्षासु कीदृशे उपाश्रये वसेत् । निवसेद-भावसेत्तत्र-नगरादौ श्राद्धः-श्रावकः साधूनां-य- | (२२) हेमन्तग्रीष्मयोौ मासौ वस्तुं कल्पेते। तीनां यत्र नगरादौ भवति-जायते संपात-आगमनम् , तथा| (२३) एकवगडायामकपरिक्षेपायां वसतो वासनिषेधः। चैत्यगृहाणि प्रतीतानि, यस्मिन् नगरादौ भवन्तीति गम्यते । (२४) शीतोदकशय्यायां प्रवेशनिषेधः । तथा तस्मादधिकृतश्रावकादन्ये-अपरे ये साधम्मिकाःसमा. (२५) यत्र राजा तिष्ठति तस्यां वसतौ न बसेत् । नमिकास्ते तदन्यसाधर्मिकाः श्रावकाः, चशब्दः समुचये, | (२६) निर्ग्रन्थानां वसतो निर्ग्रन्थीभिर्न गन्तव्यम् । एवकारोऽवधारणे, तस्य च तत्रैवेत्येवं संबन्धो श्यः । अ- (२७) श्रावकस्य वसतिः। थैवंविधे स्थाने निवसतः किं फलमिति चेदुच्यते-गुणानां वृ-वसहिदाणफल-वसतिदानफल-न० । वसतिदानफले, बृ०। शिः। तथा चोक्तम्-साधुसंपातादिपुरस्काराय
वसहिफलं धम्मकहा, कहणमलद्धीउ सीसवावारे। "साहूण बंदणेणं, नासति पावं असंकिया भावा । फासुयदाणे निज्जर, उवग्गहो भाणमाईणं ॥१॥
पच्छा अइंति वसहि, तत्थ य भुञ्जो इमा मेरा ॥७४०॥ मिच्छादसणगहणं, सम्महेसणविसुद्धिहउंच।
धर्मकथां कुर्वन्तः सूरयो वसतिफलं कथयन्ति यथाचियवंदणाइविहिणा, पन्नतं वीयरागेहिं ॥२॥
"रयणगिरिसिहरसरिसे, जंबूणयपवरवेइअक्खलिए। साहम्मियथिरकरणे, वच्छल्लं सासणस्स सारो ति।। मुत्ताजालगपयरग-खिखिणिवरसोभितविडंगे ॥१॥ भग्गसहायत्तणो, तहा प्रणासोयधम्माभो ॥३॥" | बेरुलियपयरविहम-खंभसहस्सोवसोभिअमुदारं। इति गाथार्थः ॥३॥ पञ्चा० १ विव०। (कस्यां वा| साहूण वसहिदाणा, लभते पयारिसे भवणे ॥२॥” इत्यावसतौ स्वाध्याय इति 'सज्झाय' शब्दे वक्ष्यते।) गृहे , दि। बृ० १ उ०२ प्रक० । 'भवणं घर मावासो, निलयो वसही निहेलणं अगारं'।
वसहिपाल-वसतिपाल-पुं० वसतिरक्षके, ओघ (भिक्षापाइ० ना० ४६ गाथा। वसतिस्वामिनि देवलोकं गते कः |
गतानां साधूनां यो वसतिरक्षपाल प्रास्ते तेन किं कर्तव्यशय्यातरः स्यादिति ? प्रश्नः, अत्रोरम्-स्वामित्वेन तचिन्ता
मिति 'भोयण' शब्दे पञ्चमभागे १६१६ पृष्ठे गतम्।) (आकारी स एव शय्यातरो भवतीति ।। ७७॥ सेन०२ उल्ला०।। साधुभिर्वसतिप्रमार्जनानन्तरं श्राद्धाः प्रतिलेखनां कुर्वन्ति,
चार्योवसतिपालत्वेन स्थापनीय इति 'वसति' शब्दे एबोक्नम्।) तदा पुनरपि श्राद्धानां वसतिप्रमार्जनं मृग्यते नवेति? प्रश्नः, वसा-वसा-खी०। शरीरस्नेहे, प्रश्न०१ आश्र0 द्वार । शरीअत्रोत्तरम्-यतिभिर्वसतिप्रमार्जनानन्तरं श्राद्धानां प्रतिले- रावयवे, स०। अस्थिमध्यरसे, स्था०४ ठा०१ उ० । साथै खनाकरणे काजकोद्धरणं कृतं विलोक्यत इति ॥ ११६ ॥ व्याघ्रमकरादयो मार्यन्ते । आचा०१ श्रु० १ ० ६ उ० । सेन०२ उल्ला०।
वसिब-वसित-त्रि० । वसिते, 'कुत्थो वसिओ' पाइ० ना० विषयसूची(१) कीरशी वसतिराश्रयणीया ।
२२५ गाथा । (२) साण्डा वसतिर्न मार्गयितव्या।
वसिउ-उषित्वा-अव्य० । स्थित्वेत्यर्थे, वृ० १ उ०२ प्रक० । (३) प्रतिश्रयगता उद्गमाविदोषाः।
वसिउं-वसितुम्-अन्य० । धातूनामनेकार्थत्वात् बन्धितुमित्य. (४)ौदेशिकी शय्यां न गृढीयात् ।
थे, तं०। (५) संयतार्थमसंयतः प्रतिश्रयं कुर्यात् ।
वसिद-वशिष्ठ-पुं० । स्वनामख्याते वाशिष्ठमूलगोत्रप्रवर्तके (६) प्रतिकर्म । (कतिप्रकारा शोधिः)
महर्षी, यद्गोत्रे आर्यसुहस्तिषष्ठगणधरा श्रासन् । स्था०७ (७) पिण्डादिषु वसतिदोषाः ।
ठा०३ उ०। श्रा० म०। पार्श्वनाथस्य तृतीये गणधरे, स्था० (८) वर्षावासयोग्या वसतिः।
5 ठा०३ उ० । कल्प० । आ० म०। औत्तराहाणां द्वीपकुमा(६) वसतौ पीठादिसञ्चालननिषेधः।
रागामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ० भ० स०।
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(१०५२) वसित्त अभिधानराजेन्द्रः।
वसुधा वसित-वशित्व-न० । सिद्धिभेदे , यतः सर्वारयेव भूतानि
प्रा० चूछ। देवे, प्रश्न०३ श्राश्रद्वार । धनिष्ठानक्षत्रस्य वसवचनं नातिकामन्ति । द्वा० २६ द्वा०।
वो देवताः । सू० प्र० १० पाहु । अनु० । ज्यो । मल्लीपूर्वभवसित्ता-उषित्वा-अव्य० । वासं कृत्वेत्यर्थे , 'गिहषासमझे घजीवस्य महाबलस्य बालवयस्ये, शा०१श्रु०८०तगवसित्ता'। आचा० १ श्रु०४ १०४ उ०।
रानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध० राषसुभेष्ठिवसिम-वसिम-पुं० । जनावासभूते जनपदे, पृ०१ उ०३ | सुतसिद्धवत्। प्रक०।
तथाहिवसिया-वशिता-स्त्री० । आत्मायत्ततायाम् , द्वा०१८ द्वा०। "अस्थिह नगरी तगरा,नगरीय महिव्य सुकणया सुपड़ा। वसीकय-वशीकृत-त्रि०ा पराजिते,प्राचा०१ श्रु०२ अ०४उ०।
सययं पुव्वाभासी, पासी सिट्टी वसू तत्थ ॥१॥
पयडियगुरुजणविणया, सेणी सिद्धो य तस्स दो तणया। वसीकरण-वशीकरण-न० । वश्यताकारके प्रयोगे, विपा०१
पयापसंता भद्दा, पियंवया धम्मतिसिया य॥२॥ श्रु०२०। कल्प० । नि० चू०। झा । “सरुषि नतिः सेयो सुणेवि धम्म, पव्वदो सीलचंदगुरुमूले। स्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम तद्विषि द्वेषः । दानमुपकारकी- चरणकरणेसु नवरं, पभायसीलो दढं जाओ ॥३॥ तन-ममन्त्रमूलं वशीकरणम् ॥१॥" स्था० ३ ठा० ३ उ०। वुहपिउपालणत्थं, अगहियदिक्खो गिहम्मि निवसंतो। बसीकरणसुत्त-वशीकरणसूत्र-न० । अवशा वशाः क्रियन्ते सिद्धो पुण सुद्धमई,प्रणवरयं चिंतए एवं ॥४॥ येन तत् । दोरके, नि० चू०।
काया अदम्भप्रारं-भकारणं चइयगेहवासमियं । जे भिक्खू सणकप्पासा उ वा उपकप्पासा उ वा वो
गिरिहस्सं परमसुहि-कहेउसम्वन्नुणो दिक्सं ॥५॥
काया सव्वं संगं, अंगम्मि बि निप्पिहो अह चाउं । डकप्पासा उ वा आलसिकप्पासा उ वा वसीकरमसुत्ताई
मिगचारियं चरिस्सं, सुहगुरुपयसेवणासत्तो ॥६॥ साइज्जइ ॥ ७१ ॥
कइया पहाण उपाहा-ण संगयं सयलदोसपरिमुकं । सो-वणस्सतिजाती तस्स वा गोकव्याणिजो कप्पा- आयारप्पमुहमहं, आगमसत्य पढिस्सामि ॥७॥ सो भएणति, 'उएल' ति पलाडाण गहरा भरणंति तस्स सर्मािगुत्तिपहाणं, पालिस्सं दुद्धरं कया चरणं । रोमा कम्वणिज्जा कप्पासो भरणति । अहवा-उराणा एव कइया उवसमलच्छी, वच्छेरमिही मम जहिच्छं ॥८॥ कप्पासो पोडा घमणी तस्स फलं; तस्स पम्हा कम्वणिज्जा गुरुतरउमलतवचरण-करणजलणम्मि खिवियअप्पाणं । कप्पासो भएणति । अवसा वा स कीरति जेण वसीकरण- नीसे समलविमुकं; कणंग व कया करिस्सामि ॥६॥ सुत्तयं सो पुण दोरो बा स कीए , उबकरणं षज्झति ति संलिहियदव्वभावो, कहया इह परभवेसु निरविक्खो। दुतं भवति ।
आराहणमाराहिय, पाणच्चायं करिस्सामि ॥१०॥ गाहा
इय सुमणोरहगुरुरह-आरुडमणो गमेह सो कालं । वसिकरणसुत्तगस्स, अंकमयं वट्टणं व जो कुज्जा । अनदिणे सेणमुणी, सिखं दटुं समणुपत्तो ॥११॥ बंधणसिव्वणहेतुं, सो पावति प्राणमादीणि ॥८६॥ जिणसुयभाषियमरणा, उप्पलदलकोमलाइवाणीए । सचित्ताचित्तदब्वा जेख बसीकीरति तं वसीकरणसुत्तयं
दाउं चोयणमजु-अमेगहिं दो वि उवविट्ठा ॥१२॥ जो करेति, अंछायं णाम-पराहपसिरणं बहणं गाम-दो
अह कम्मबिहाणाओ, विवाइया दो वि असणिवारण । तंतए जुत्तो बलेति, जहा-सिम्वणदोरो सकारदोरवलणं
अबंतक्खिो तो, जात्रो जणो परियणो य॥१३॥ वा वट्टणं पगहाए वा भको बट्टणं उपकरणातिवंधणहे, व
तत्थानया महप्पा, जुगंधरो केवली समोसरिओ। हस्स वा सिब्बणहेडं । सो आणाती दोसे पावति । नि० चू०
पुट्ठो गईविसेसं. वसुणा सो निययपुत्ताम् ॥१४॥ ३ उ०।
केवलिणा सिद्धंसे, सिद्धो सोहम्मकप्पमणुपत्तो।
सेणो पुणो महिही, वंतरदेवो समुप्पन्नो ॥ १५॥ वसीकारसम्मा-चशीकारसंज्ञा-स्त्री० । ममैवैते वश्या नाहमे
कारणमिह सामने, सुद्धे सिद्धस्स आसि करणिच्छा। तेषां वश्य इत्येवं विमर्शायां बुद्धौ, " दृष्टानुश्रविकविष
इयरेण उ सामन्नं, गहियं पिन पालियं सम्मं ॥ १६ ॥ यवतृषायस्य वशीकारसंशा बैराग्यम्" द्वा० ११ द्वा०।
इय सोउ गेहवासे, विरत्तचित्तो बहूजणो जाओ। वसु-वसु-नाद्रव्ये, संयमे च । प्राचा०१श्रु०अ०८उासूत्र। भषियपडिबोहहे, गुरू वि अन्नत्थ विहरित्था ॥१७॥ "दुब्वसुमुणी प्रणाणाए तुच्छए" प्राचा०१ श्रु०२ अ१६ उ० । सिद्धस्य वृत्तमेवं, निशम्य भव्याः शुभेन भाबेन । सूत्र० । द्रव्या० । वसुनि, द्रव्यभायभेदाद् द्विधा-द्रव्यवसूनि- प्रतिमुक्तप्रतिबन्धा, गेहे मन्दादरा भवत ॥१८॥ मरकतेन्द्रनीलवज्रादीनि,भाववसूनि-सम्यक्त्वादीनिानाचा० ध० २०२ अधिः । कृत्तिकादिकस्य द्वाविंशतितमस्य ग्रह१श्रु०१०१उनसूत्र०। "वसु वा अणुषसुधा जाणितु धम्म” | स्याधिपतौ देवे, स्था। वसु-द्रव्यं तद्भुतः कषायकालिकादिमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः, साधो, 'वीतरागो यसुईयो जिनो वा संयतो
दो बध । स्था० २ ठा० ३ उ०। ऽथवा' । आचा० १ श्रु०६ १.२ उ०। जीवप्रादेशिकाचा
स्वनामख्यातायामीशानाप्रमहिष्याम् , स्था० ४ ठा० २ यस्य निवस्य तिच्यगुप्तस्य गुरी, चतुर्दशपर्षिणि साधौ. उ० । ता०। स्वा०७ ठा० ३ उ० प्रा०म० उत्स। विशे। पाका वसुमा-उवा-धा० । ऊवं बाने, "उद्यातेरोरुम्मा-बममा"
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((१०५३) पसुमा अभिधानराजेन्द्रः।
वसूखरिचर ॥८।४।११॥ इत्युत्पूर्वस्य वातेर्वसुधा इत्यादेशः। वसु- रामकेशवौ कीडशौ तौ अतीयौ-मातापित्रोरधिकवल्लभो । प्राइ । उद्वाति । प्रा०४ पाद ।
उत्त०२२ अ०। (वसुदेवहिण्ड्यां कथा) (संघाचारे च)। वसआइ-देशी । उद्वातौ, दे० ना०७वर्ग ४६ गाथा । वसुदेवहिंडी-देशी-स्वनामखाते ग्रन्थे, वृ०। वसुबाय-उद्वात-त्रि.। म्लाने, पव्यानं वसुबाय, सुसि| वसुपुज-वसुपूज्य-पुं०। वासुपूज्यजिनपितरि, स० । मा० वायं मिलाणऽत्थे' पाइ० ना०८३ गाथा ।
चू० । आव०। प्रव०। वसुंधरा-वसुन्धरा-स्त्री० । चमरस्य असुरेन्द्रस्याप्रमहि-
| वसुभूइ-वसुभूति-पुं०। पाटलिपुरे जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य म
सुभूइ-वसुभात-पु० । पाटालपु
हागिरेः शिष्ये , श्रा०चू०४१० प्रा० म० श्राव ज्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ० । भ० । ईशानाप्रमहिष्याम् , स्था०५ ठा० २ उ० । भ० । शा० । नवमचक्रिणोऽग्रम
| वसुमई-वसुमती-स्त्री० । चम्पाराजस्य दधिवाहनस्य धाहिण्याम ,स०। पृथिव्याम् , “नेयं कुलक्रमायाता,शासने लि
रिणीदेव्यां जातायां पुत्र्याम् , श्रा० क. १० । प्रा० खिता न हि । खड्नाकृष्य भुजीत, वीरभोग्या वसुन्धरा
म०। कल्प० । (सैव चन्दनानाम्नी वीरजिनेन्द्रप्रवर्तिनी बभू॥१॥" मा० म०१०। “वसुन्धर व्व सव्वफासविसहे"
वेति 'प्रजचन्दणा' शब्दे प्रथमभागे २०६ पृष्ठे कथोक्ता।) पृथिवीवत् शीतातपाद्यनेकविधस्पर्शक्षमः । शा० १ श्रु०५
भीमराक्षसेन्द्रस्य द्वितीयाग्रमहिष्याम् , | स्था० ४ ठा० । अ०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे रुचकपर्वते वैडूर्यकटवा
वसुंधरायाम् , 'वसुहा वसुंधरा वसुमई मही मेहणी धरा सिन्यां दिकुमार्याम् , स्था०१ ठा० । ती जयन्तीनामपु
धरिणी । ' पाइ० ना० २६ गाथा । रीवास्तव्यवसुदत्तगृहपतिभार्यायाम् , ('मालोवहड' शब्दे वसुम-वसुमत-त्रि०। वसूनि द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, द्रव्यअस्मिन्नेव भागे२५७पृष्ठे कथा।) पृथिव्याम्,“वसुहा वसुंधरा वनि-मरकतेन्द्रनीलबजादीनि, भाववसूनि-सम्यक्त्वादीवसुई मही मेइणी धरा धरिणी।" पाइ० ना० २६ गाथा । नि, तानि यस्य यस्मिन्बा सन्ति स वसुमान् । द्रव्यवति, वसुंधरी-वसुन्धरी-स्त्री०। जीवानुशासनवृत्तिकरणोपष्टम्भ- आचा०१ श्रु०१०७ उ० । संयमवति मूलोत्तरगुणानां कस्य दोहट्टिवसतिवासिनः श्रीजासकश्रावकस्य भार्यायाम,
सम्यग्विधायिनि , सूत्र०१ श्रु०१३ अ० । निवृत्तारम्भ, बी०१ प्रति० ।
प्राचा०१ श्रु०५ १०३ उ०। सूत्र। नमगत्ता-वसुगप्ता-स्त्री० । उत्तरपाश्चास्यरतिकरपर्वतस्य - वसुमित्त-वसुमित्र-पुं। ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिश्वशुरे , येन कटक्षिणदिग्व्यवस्थितरलोचयापुरीवास्तव्यायामीशानेन्द्रस्या
व्यतिकरे पुस्तीनामकन्या दत्ता । उत्त० १३ अ०। प्रमहिन्याम् , स्था०४ ठा०२ उ०म०(अस्याः पूर्वोत्तर- वसुमित्ता-वसुमित्रा-खी० । अधोलोकवास्तव्यायां दिकमाजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १७१ पृष्ठे गता) या॑म् , ति । उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वते पश्चिमायां सर्ववसुदत्त-वसुदत्त-पुं० । सुरभिपुरे शुभमतेः प्रियमित्रस्य स-1 रखानाम्न्यां राजधान्यामधिष्ठितायामीशानेन्द्रस्याप्रहिण्यामरकेतोः पितरि सार्थवाहे, दर्श० ३ तत्त्व । जयन्तीनामपु-1 म् , स्था० ३ ठा०३ उ० । भ० । ती। रीवास्तव्ये गृहपती वसुन्धरापती, पिं० । सोमदसभा- वसुया-वसुका-स्त्री०। उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वते पूर्वदिकस्थर्यायां वृहस्पतिदत्तमातरि, स्त्री० । विपा०२ श्रु०१०।
रत्नास्योपर्यधिष्ठितायामीशानेन्द्रस्याप्रमाहिष्याम् , स्था०३ बसुदेव-वसुदेव-पुं० । कृष्णस्य नवमवासुदेवस्य पितरि, ठा०३ उ०। भ० । ति०। स० । अन्त । प्रा० क० । स्था० । आव० । उस०।
वसुल-वृषल-पुं० । शदे, प्राचा०२ श्रु०१चू०४ ० १ उन सोरियपुरम्मि नयरे, मासि राया महिदिए ।
कस्मिंश्चिद्देशे गौरवार्थे पुरुषामन्त्रणे 'वसुले' ति प्रयुज्यते ।
मा०१ श्रु० अ०। 'वसुल त्ति पुरिस नेवमालवे' वसुल वसुदेवेति नामेणं,रायलक्खणसंजुए ॥१॥
इति पुरुष नैवमालपेत् । दश०७०। सौर्यपुरे नाम्नि नगरे वसुदेव इति नाम्ना राजा आसीत् । वसवम्मख-बसवर्मन-पुं०। ऋषभदेवस्य षट्पष्टितमे पुत्रे, बचाप सायपुर समुद्रावजयप्रमुखा दश दशाहाः दश भ्रा- कल्प०१ अधि०७क्षण। तरो विद्यन्ते तेषु दशसु लघुर्धाता वसुदेवोऽस्ति , तथा-वससरि-वसमरि-पुं०। तिष्यगुप्तस्य जीवप्रादेशिकाचार्यपि वासुदेवपुत्रो विष्णुरभूत् तेन वसुदेवस्यैव वर्णनं कृ-
नि । तम् । कीदृशो वसुदेवो महर्द्धिकः-छत्रचामरादिविभूतियुक्तः, पुनः कीरश:-राजलक्षणसंयुतः हस्तपादयोस्तलेषु राशो
वसुहा-वसुधा-स्त्री०। पृथ्व्याम् , विशे० । प्रम० । पाइल्ना.
२६ गाथा। लक्षणानि चक्रस्वस्तिकाशवजध्वजछत्रचामरादिभिः स
वसुहारा-वसुधारा-स्त्री० । वसु-द्रव्यं तस्य धारा सततपाहितः । अथवा-औदार्यधैर्यगाम्भीर्यादिसहितः।
तजनिता वसुधारा । देवैः कृतायां स्वर्णदीनाराणां वृष्टी, तस्स भजा दुवे आसि, रोहिणी देवई तहा । उत्त०१२ श्र० । सुवर्णवृष्टी, श्रा० क १० । आ० म० । तासि दोएहं पि दो पुत्ता, इट्ठा रामकेसवा ॥२॥ कल्प० । हिरण्यप्रपातरूपायाम् (प्रा० म०१०) धारातस्य वसुदेवस्य द्वे भार्ये प्रास्ताम्-रोहिणी तथा देवकी।
याम् , भ०१५ श०। प्रा० मतीर्थकरजन्मादिष्वाकाशाद् यद्यपि वसुदेवस्य द्वासप्ततिसहस्रं दाराः आसन् , तथा
द्रव्यवृष्टौ , म०३ श०७ उ०। स०। प्यत्र उभयोरेव कार्यात्र रोहिणीदेवक्योरेव ग्रहणं कृतम् ,त- | वसूवरिचर-वसूपरिचर-पुं० । उपरिचरे वसुराजे, जी०। वसू पोरोहिणीदेवक्योईयोडौं पुत्रौ भभूताम् । द्वौ पुत्री कौ? | राजा उपरिचरः, स हि देवताधिष्ठिताकाशस्फटिकसिं
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०
( १०ku ) अभिधानराजेन्द्रः । वाइये म्लेधातोचां इत्यादेशः वा मायति प्रा० ४ पाद । । वाइ ( ग्) - वादिन् पुं० । वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपायां चतुरङ्गायां पर्षदि प्रतिक्षेपपूर्वकं स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी । निरुपमवादिलब्धिसम्पन्नत्वेन वावदूकवादिवृन्दारकवृन्दैरप्यमन्दीकृतवाग्विभवे, प्रव० १४८ द्वार । ध० परेगा जेये मन्त्रवादिनि धातुवादिनि ठा० ३ उ० | प्रब० । ( कस्य तीर्थकृतः कियन्तो वादिन इति ' तित्थयर ' शब्दे चतुर्थभागे २३०२ पृष्ठे उक्तम् । ) तीर्थिके, स्था० ४ ठा० ४ उ० । प्रश्न० । सूत्र० । (केचिद् वादिन एवं मायन्ति गता गौडदेशोद्भवा दूरदेशम् इत्यादिका 'इंदभूह' शब्दे द्वितीयभागे ५४४ पृष्ठ गताः । ) " वाइप्पमायकुसला - रायवारे बि लमाहप्पो" संथा वादिनिग्रहसाथै पारिहारिकस्य गमनं पारिहारिक शब्दे पञ्चमभागे ६२० दर्शितम् । ) बागणी वृन्ताकी स्त्री० 'बैंगन' इति प्रसिद्धे शाके, आव०
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रिचर हासनोपविष्टः सनाकाशस्फटिकमयस्य सिंहासनस्यादर्शमतो लोकेष्येवं प्रसिद्धिमगमत् सत्यवादी किलैष बसुराजः न प्राणात्ययेऽप्यलीकं भाषते, ततः सत्वावर्जितदेवताकृतप्रातिहार्य एवमुपर्याकाशे चरतीति । स चान्यदा हिंस्रवेदा प्ररूपकस्य पर्वतकस्य पक्षमभिगृह्य सम्यग्दृष्टेर्नारदस्य पक्षमनभिगृहचलीकवादित्वात् प्रकुपितदेवताचपेटाइलः सिं हासनात् परिभ्रो रौद्रध्वानमधिरुढः सप्तम पृथिव्यामप्रतिष्ठाननरकमयासीत् । जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । वसोवगय -वशोपगत-त्रि० । वशमुपगते, वश्ये, सूत्र० १ श्रु०
५ श्र० २३० |
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वह व्यथ-पुं० । व्यधयतीति व्यथः । लकुटादिप्रहारे, सूत्र० १ श्रु० ५ ० २ उ० | दण्डकादिधाते, उत्त० १ अ० । -त्रि० । योगवाहिनि, बृ० १ उ०२ प्रक० । नि० वहंत - वहत् ० परिभोगं कुर्वति ०ि०६०। - त्रि० । चपेटादिना ताडके, जं० २ वक्ष० । वहग-व्यथकवहड - देशी-दम्यवत्से, दे० ना० ७ वर्ग० ३७ गाथा । बहढोल-देशी-वायायाम् दे० ना० ७ वर्ग० ४२ गाथा ।
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वहण - वहन–२० । यानपोते, प्रश्न० १
। ।
द्वार 'पोधो वह
' पाइ० ना०६८ गाथा । ग्रहणे, यस्य श्राद्धस्य प्रथमोपधानस्प पहनानन्तरं द्वादशाम्दानि जातानि सन्ति, द्वितीयस्य तु किञ्चिम्यूनानि स प्रथममेवोपधानं पुनर्वदत्त अपी ति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम् - यदि मनः स्थाने तिष्ठति तदा प्रथमं द्वितीयं च परावृत्य वहति तदशको तु यस्य द्वादश वर्षाणि तत्परावृस्य वहतीति ॥ ८१ ॥ सेन० १ उल्ला० । वहपरीसह - वधपरीषह - पुं० त्रयोदशे परीषहे, श्राव०४०) (अस्य स्वरूपं ' परीसह ' शब्दे पञ्चमभागे गतम् । ) वहमाण - वहमान - त्रि० । नद्यादिश्रोतोवर्तिव्याप्रियमाणे, श्र० । वहिय- व्यथित - त्रि० । पीडिते, आ० म० १ ० वहिलग-वहिलक- पुं० । करभीवेसरबलीवर्दप्रभृतौ बृ० १ उ० ३ प्रक० । नि० चू० । बहुली - देशी ज्येष्ठभाषायाम् दे० ना० ७ वर्ग ४१ गाथा । महोल - देशी- लघुजलप्रवाडे, दे० ना० ७ वर्ग ४६ गाथा । वा-वा- अव्य० | विकल्पे, शा० १ श्रु० २ श्र० । व्य० । नि०
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चू० । पृ० । उत्त० । प्रश्न० । कर्म० । स्था० । पञ्चा० । श्रौ० । रा० । उत्तरपक्षापेक्षया विकल्पे, श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । रा० । पूर्वविकल्पापेक्षया समुच्चये, चं० प्र० १ पाहु० । व्य० | सम्म० । जीत० । दशा० । विभाषायाम् श्राष० ४ श्र० । व्य० | पक्षान्तरद्योतने, श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० १० । सू० प्र० । अथवाऽर्थे, विशे० । व्यवस्थायाम्, प्रति० इवार्थे, विशे० । श्रप्यर्थे, कल्प० १ अधि० ६क्षण। श्रा० म० पातनासूचने, विशे० अवधारते, स्था०८ डा० १० समुच्चये, विपा० १ ० २ श्र० । सू० प्र० । रा० । जं० । उपमायाम्, नं०। स्या० । वा विकल्पोपमानयोः, व्य०१३०। उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, जं० १ बक्ष० । पादपूरणे, उत्त० २८ श्र० । नि० ० । श्रानन्तर्ये, सूत्र० १ ० १६ श्र० । व्यवस्थायाम्, प्रति० । म्ले-धा० । हर्षक्षये. "लेर्षा - पव्वायो” ॥ ८ ।४ । १८ ॥ इति
४ अ० ।
वाइत - वादित्र - न० | वाद्ये, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । श्री० । वाइत्तए बाइ वाचवितुम् अन्य सूत्रं पाठयितुम्, अथवा आवयितुमित्यर्थे, बृ० ४ उ० ।
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वाह-व्यादिग्ध चि० विशिष्टव्योपदिश्ये, बके (इतिवृद्धाः ) भ० १६० ४ ० विपर्यस्तरत्नमालाचइनेकप्रकारे, श्राव० ४ श्र० । प्रा० चू० । बाइक्सर प्याविद्धाचर १० विपर्यस्वरत्नमालागतरत्नानीय विज्ञान विपर्यस्तान्यक्षराणि यत्र तत्तथा असंग्रथिते, अनु० । विशे० ।
- ।
वाइम-वातव्य - न० | कुविन्दैर्वस्तुविनिर्मितेऽश्वादिके, दश०
२ श्र० ।
वाइय वाचिक प्रि० उक्लिर्वाक तथा निर्वृतो वाचिकः । विशे० । वाक्प्रयोजनमस्य वाचिकः । ध० २ अधि० । वाकृते, आव० ४ ० । ० म० । श्रा० चू० । दुर्वचनादिके, सू० २ ० २ ० "जे मुंबईस पारो जोगो येन संरम्भेण वाद्रयाणि मुञ्चति स वाचिकः । विशे० मये, नपुं० । वृ० ५ उ० । नि० चू० ।
वाचित त्रि० आक्षेपपरिहारपूर्वकतया सम्पम्गुरुपादान्तिके नाते, य० ३३० पाठिते, शिक्षां प्राहिते श्राचा० १ ० ६ श्र० ३ उ० ।
वातिक-पुं० पातोऽस्यास्तीति वातिकः । स्वनिमित्ततोऽन्यथा या स्तब्धे मेहने सति श्रीसेवनायामकृतायां वेदं धारयितुमसमर्थे, घ० ३ अधि० वातिको न प्रभाजनीयः । बृ० ४ उ० ।
अथ वातिकं व्याचष्टे
उदर वा वियस्स, सविकारं जा न तस्स संपत्ती । तचनिय अधुडिए, दितो होइ अलभते ॥
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यहा सनिमितेनानिमितेन वा मोहोदयेन सागारिकं सविकारं कथयितुं भवति तदा न शक्नोति वेगं धारयितुं यावन प्रतिसेवनस्य संप्राप्तिर्भवति, एष वातिक उच्यते । अब सचनिकेना संस्कृताया अनार्याः प्रतिसेवकेना
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(१०५) वाइय अभिधानराजेन्द्रः।
वाइसमोसरण न्तो भवति-"एगो तच्चनिओ जलयरभावारूढो तत्थ तस्स पेक्षया इस्वत्वदीर्घत्वे व नित्यश्च कालवादिनः, उक्नेनैवापुरो प्रहाभावेण अगारी असंखुडा निविट्ठा । तस्स य त- भिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयो विधनियस्स तं ददर्छ सागारियं वद्धतेण वेयउकडयाए ल्प आत्मवादिनः ' पुरुष एवेद ' मित्यादि प्रतिपत्तुअसहमाणेण जणपुरो पडिगाहिया अगारी । तं च पुरिसा रिति, चतुर्थो नियतिवादिनः, नियतिश्च-पदार्थानामवश्यहंतुमारद्धा, तहा वि तेण न मुका जाहे से बीरियो स- म्तया यद्यथाभवने प्रयोजनकर्तीति पञ्चमः स्वभाववादिनःग्गो जाओ ताहे मुक्का।" अयमप्यलभमानो-प्राप्नुवन् नि- एवं स्वत इत्यजहता लब्धाः पश्च विकल्पाः । परतः इत्यनेरुद्धवेदो नपुंसकतया परिणमति । उक्लो वातिकः । पृ. ४ नापि पश्चैव लभ्यन्ते, तत्र परत इत्यस्यायमर्थः-इह सर्वउ०। स्था०नि०पू०। पं भा०। पंचू०। वीतरागोगवे, पदार्थानां पररूपापेक्षः स्वरूपपरिच्छेदो यथा इस्वत्वायपेतं० । उच्छूनत्वभाजने, विशे० । स्था। वातरोगिणि, वा- क्षो दीर्घत्वादिपरिच्छेदः, एवमेव चात्मनः स्तम्भकुम्भादीन तिक इव वातिकः । अयन्त्रिते , प्रश्न०३ आश्रद्वार। समीक्ष्य तव्यतिरिक्त हि वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्तत इत्यतो वादित-त्रि० शब्दत्वेन कृते, स्था०२ ठा० ३ उ०। पटहा
यदात्मनः स्वरूपं तत्परतः एवावधार्यते न स्वत
इति । नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमदिवादने, प्रश्न० ४ संवद्वार । वाद्यकलायाम् , सा च
नित्यत्वेनापि दशैव , एवं विशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः ततविततशुषिरघनवाद्यानां चतुःपञ्चव्येकप्रकारतया त्रयो
अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो दशधा । स०७२ सम। प्रश्न । औ० । " सुडु गाइ
विंशतिनवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति । एने यं सुठु वाइयं सुठु नश्चिय" आव०४०।
च विकल्पा एकैकशो न लभ्यन्ते शीलावदिति । तथा वाइल-वातिल-पुं०। पालकग्रामवास्तव्ये वाणिजके, ततो
अक्रियाधादिनां तु चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः, एवश्यम्-पुण्याsसामी पालयं नाम गामं गतो तत्थ वाइलो नाम वाणिययो
पुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरसोऽसिं गृहीत्वा तत्र वीरस्वामिनं प्रति प्रधावित इति
रूपविकल्पद्वयोपन्यासः असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यभेदी स्वशिर एव चिच्छेद । प्रा०चू०१०। श्रा०म०। म स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यहच्छा न्यस्यते । इयं वाइसमोसरण-वादिसमवसरण-न० । वादिनस्तीथिकाः स
चानभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिरिति पश्चाद्विकल्पाभिलापःमवसरन्स्यवतरन्ति पविति समवसरणानि । विविधमत- नास्ति जीवः स्वतः कालतः इत्येको विकल्पः, एवमीमीलकास्तेषां समवसरणानि वादिसमवसरणानि । क्रियावा. श्वरादिभिरपि यहच्छावसानैः सर्वे पद विकल्पाः, तथा धादिषु वादिमीलकेषु, स्था०।
नास्ति जीवः परतः कालत इति षडेव विकल्पा चत्तारिवाइसमोसरणा पम्पत्ता। तं जहा-किरियावाई,म- इत्येकत्र द्वादश , एवमजीवादिष्वपि पसु प्रत्येक किरियावाई, अस्माणिभवाई,वेणइयवाई । मेरइयाणं चत्तारि
द्वादश विकल्पाः, एवश्च द्वादश सप्तगुणाचतुरशीति
बिकल्पाः नास्तिकानामिति । अक्षानिकानां तु सप्तषष्टिवाइसमोसरणा पत्ता । तं जहा-किरियावाई जाव वेण
भवति, इयं चामुनोपायेन द्रष्टव्या-तत्र जीवाजीवादीन् नव इयवाई । एवमसुरकुमाराण वि०जाव थणियकुमारणं एवं
पदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं ॥ ३४५ ॥ सप्त सदादय उपन्यसनीयाः, सत्व १ मसत्त्वं २ सदसत्त्वं ३
वादिनः-तीथिकाः समवसरन्ति-अवतरन्त्येविति सम- अवाच्यत्वं ४ सद्वाच्यत्वं ५ असदवाच्यत्वं ६ सदसदवसरणानि विविधमतमीलकास्तेषां समवसरणानि वादिस- वाच्यत्व ७ मिति, तत एते नव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पत्तेमवसरणानि, क्रियां-जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां बद- स्तु चत्वार एवाद्या विकल्पाः, तद्यथा-सत्त्व १ मसत्त्वं २ न्तीति क्रियावादिन आस्तिका इत्यर्थः, तेषां यत्समवसरणं सदसदत्त्व ३ मवाच्यत्वं ४ चेति, त्रिषष्टिमध्ये क्षिप्ताः सप्ततत्त एवोच्यन्ते अभेदादिति, तनिषेधादक्रियावादिनो- पष्टि-भवन्ति, विकल्पाभिलापश्चैवम्-को जानाति जीवः नास्तिका इत्यर्थः, अज्ञानमभ्युपगमद्वारेण येषामस्ति सन्निति किंवा तेन झातेनेत्येको विकल्पः, एवमसदादयोते अज्ञानिकाः त एव वादिनोऽज्ञानिकवादिनः; प्रक्षा- ऽपि याच्याः, तथा सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति , किं नमेव श्रेय इत्येवं प्रतिक्षा इत्यर्थः , विनय एव बैन- वा-अनया बातया ? एवमसती सदसती अवनव्या चेति, यिकं तदेव निःश्रेयसायत्येवं वादिनो वैनयिकवादिन इति , सस्वादिसप्तभनयाश्चायमर्थः-स्वरूपमात्रापेक्षया वस्तुनः एतद्भेदसया चेयम्-"असियसयं किरियाणं, अकिरि- सत्त्वपररूपमात्रापेक्षया त्वसत्त्वम्तथा एकस्य घटादिद्रयवाईण होइ चुलसीह । अन्नाणियसत्तट्ठी, वेणइयाणं च- व्यदेशस्य ग्रीवादेः सद्भावपर्यायेण ग्रीवात्वादिनाऽऽदिष्टस्य बत्तीसा ॥१॥" इति , तत्राशीत्यधिकं शतं क्रियावादिना सत्वात् , तथा घटादिद्रव्यदेशस्यैवापरस्य बुध्नादेरसद्भावभवति । इदं चामुनोपायेनावगन्तव्यम्-जीवजीवाश्रव- पर्यायेण वृत्तत्वादिना परगतपर्यायेणवादिष्टस्यासत्वाद् वसंवरबन्धनिर्जराऽपुण्यापुण्यमोक्षाख्यान् नव पदार्थान् विर- स्तुनः सदसत्त्वम् ३ तथा सकलस्यैवाखण्डितस्य घटादिवचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यस- स्तुनोऽर्थान्तरभूतैः पटादिपर्यायनिधोलकुण्डलोष्ठायतनीयौ, तयोरधो नित्यानित्यभेदी , तयोरप्यधःकालेश्वरात्म- वृत्तग्रीवादिभिर्युगपद्विवक्षितस्य सत्त्वेनाऽसत्वेन वा वक्तुनियतिस्वभावभेदाः पञ्चन्यसनीयाः,पुनश्चेत्थं विकल्पाः क- मशक्यत्वात् तस्य घटादेव्यस्या वक्तव्यत्वम् ४, तथा घटा
व्याः-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, दिव्यस्यैकदेशस्य सद्भावपर्यायैरादिष्टस्य सत्वादपरस्य विकल्पार्थश्वायम्-विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन रूपेण न परा- स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टतया सवेनासत्वेन वा वक्तुमश
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(१०५६) अभिधान राजेन्द्रः |
वाइस मोसरणे
क्यत्वात् घटादिद्रव्यस्य सदवक्लव्यत्वमिति ५, तथा तस्यैव घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य परपर्यायैरादिष्टस्या सत्त्वादपरदेशस्थ स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टत्वेन तथैव वक्तुमशक्यत्वात् तस्य घटादेरसदवक्तव्यत्वम् ६, तथा - घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य स्वपर्यायैरादिष्टत्वेन सस्वादपरस्य परपर्यायैरादिष्टतया असस्वादन्यस्य खपरपर्यायैर्युगपदादिष्टस्य तथैव वक्तुमशक्यत्वेनावक्तव्यत्वात् तस्य घटादिद्रव्यस्य सदसदवक्तव्यत्वमिति ७, इह च प्रथमद्वितीयचतुर्था अखण्डवस्त्वाश्रिताः शेषाश्चत्वारो वस्तुदेशाश्रिता दर्शिताः, तथाऽन्यैस्तृतीयोऽपि विकल्पोऽखण्डवस्त्वाधित एवोक्तः । तथाहि श्रखण्डस्य बस्तुनः स्वपर्यायैः परपर्यायैश्च विवक्षितस्य सदसत्त्वमिति, अत एवाभिहितमाचारटीकायाम् -" इह चोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्तरविकल्पत्रयं न सम्भवति, पदार्थावयवापेक्षत्वात् तस्योत्पलेश्वावयवाभावादिति, " एवमज्ञानिकानां सप्तष्टिर्भवतीति । वैनयिकानां च द्वात्रिंशत् सा चैवमवसेयासुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितॄणां प्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टासु स्थानेषु भवन्ति, ते चैकत्र मीलिता द्वात्रिंशदिति । सर्वसंख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानीति ।
उक्तञ्च पूज्यै:-- " श्रास्तिकमऩमात्माद्या, नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः । कालनियतिस्वभावे-श्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः ॥ १ ॥ कालयच्छानियतीश्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं, न सन्ति सप्त स्वपरसंस्थाः ॥ २ ॥ श्रशानिकवादिमतं, नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भाबोत्पत्ति सदसद्, द्वैधाऽवाच्याञ्च को वेत्ति ? ॥ ३ ॥ बैनयिकमतं विनय-श्वेतोवाक्कायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञाति- स्थविराधममातृपितृषु सदा ॥ ४ ॥" इति । एतान्येव समवरणानि चतुर्विंशतिदण्डके निरूपयन्नाह - 'नेरद्रयाल ' मित्यादि सुगमम्, नवरं नारकादिपञ्चेद्रियाणां समनस्कत्वाच्चत्वार्यप्येतानि सम्भवन्ति, 'वि'गलेन्दियवां' ति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणाममनस्कत्वान्न सम्भवन्ति तानीति । स्था० ४ ठा० ४ उ० ।
जीवाः किं क्रियावादिनोऽक्रियायावादिनःजीवा णं भंते ! किं किरियावादी अकिरियावादी असा णियवादी वेणइयवादी १, गोयमा ! जीवा किरियावादी
अरियावादी व अमाणियवादी वि वेणइयवादी वि। सलेस्सा गं भंते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा, मोयमा ! किरियावादी वि अकिरियावादी वि अन्नाणियवादी व वेयवादी वि, एवं ० जाव सुक्कलेस्सा अलेस्सा गं भंते! जीवा पुच्छा, गोयमा ! किरियावादी यो अकिरियावादी नो अपाणियवादी णो वे -
इयवादी । कण्हपक्खिया गं भंते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा, गोयमा ! यो किरियावादी प्रक्रिरिवादी माणवादी वि वेणइयवादी वि सुकमविखया
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बाइसमोरण जहा सलेस्सा, सम्मद्दिट्ठी जहा अलेस्सा, मिच्छादिट्ठी जहा करहपक्खिया । सम्मामिच्छादिट्ठीणं पुच्छा, गोयमा ! यो किरियावादी यो अकिरियावादी अम्माfararata dusयवादी वि, गाणी • जाव केवलगाणी जहा अलेस्से, असाणी० जाव विभंगणाणी जहा करहपक्खिया । आहारसम्भोवउत्ता० जाव परिग्गहसमोवउत्ता जहा सलेस्सा, यो समोवउत्ता जहा अलेस्सा | सवेदगा • जाव णपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा । वेदगा जहा अलेस्सा । सकसायी • जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा, अकसायी जहा अलेस्सा, सयोगी० जाव कायजोगी जहा सलेस्सा, अजोगी जहा अलेस्सा सागारोवउता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा । (०८२४X ) 'जीवा 'मित्यादि । तत्र जीवाश्चतुर्विधा श्रपि तथा स्वभावत्वात् । ' अलेस्सा ण ' मित्यादि, अलेश्या अयोगिनः सिद्धाश्च ते च क्रियावादिन एव क्रियावादहेतुभूतयथावस्थितद्रव्य पर्यायरूपार्थपरिच्छेदयुक्तत्वाद्, इह च यानि सम्यग्दृष्टिस्थानानि अलेश्यत्वसम्यग्दर्शनशा निनोऽसज्यो पयुक्तत्वाबेदकत्वादीनि तानि नियमात्क्रियावादे क्षिप्यन्ते, मिथ्यादृष्टिस्थानानि तु मिथ्यात्वाज्ञानादीनि शेषसमवसरणत्रये ' सम्मामिच्छादिट्ठी ' मित्यादि, सम्यग्मिथ्यायो हि साधरणपरिणामत्वानो आस्तिका नापि नास्तिकाः, किं तु श्रज्ञानविनयवादिन एव स्युरिति । भ० ३ श० १ उ० ।
नैरयिकादीनाम्
रइया णं भंते ! किं किरियाबादी पुच्छा, गोयमा ! किरियावादी वि ० जाव वेणइयववादी वि सलेस्सा णं भंते ! खेरइया किं किरियावादी एवं चेव, एवं ० जान काउलेस्सा करहपक्खिया किरियाविवजिया । एवं एएवं कमेणं जश्चैव जीवार्य बत्तव्वया सच्चैव खेरहया खं वतव्वया वि० जान अणागालेण्डचा, बबरं जं मत्थि तं भाणियव्वं सेसं ख भष्म । जहा खेरइया एवं ० जाव थणियकुमारा । पुढवीकाइमा सं भंते ! किं किरियावादी पुच्छा, गोयमा ! यो किरि.... यावादी अकिरियाबादी वि श्रमाणियवादी वियो वेणइयवादी । एवं पुढवीकाइया णं जं प्रत्थि तत्थ सब्वत्थ वि एयाई दो मझिलाई समोसरणाई ०जान अलागारोवउत्ता वि एवं ०जाव चउरिंदियाणं सव्बट्ठाणेसु एयाई चेव मझिलगाई दो समोसरणाई, सम्मत्तवाहि वि एयाणि चैव मज्झिल्ल गाई दो समोसरखाई। पंचिदियतिरिक्खजोगिया जहा जीवा वरं जं श्रत्थि तं भाषियव्यं मणुस्सा जहा जीवा तहेव गिरवसेसं बाबा मंतर जोइसि - यवेमालिया जहा असुरकुमारा । (०८२४ )
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पाइसमोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
वाइसमोसरण 'पुढविकाइया ण' मित्यादि । 'नो किरियावाइ'त्ति मि-| स्सा एवं णरइया वि भाणियन्वा, णवरं गायव्वं जं ध्याष्टित्वात्तेषामक्रियावादिमोऽज्ञानिकवादिनश्च ते भव- |
अस्थि । एवं असुरकुमारा वि. जाव थणियकुमारा । न्ति , पादाभावेऽपि तद्वादयोग्यजीवपरिणामसद्भावाद्वैन
पुढवीकाइया सबट्ठाणेसु वि मझिल्लेसु दोसु वि सयिकवादिनस्तु ते न भवन्ति . तथाविधपरिणामादिति ।। 'पुढवीकाइया णं जे अत्थी' त्यादि, पृथिवीकायिकानां यद-।
मवसरणेसु भवसिद्धिथा वि अभवसिद्धिया वि एवं० जास्ति सलेश्यकृष्णनीलकापोततेजोलेश्यकृष्णपाक्षिकत्वादि , व वणस्सइकाइया । बेइंदियतेइंदियचउरिंदिया एवं चेतत्र सर्वत्रापि मध्यमं समवसरणद्वयं वाच्यमिति । 'एवं वणवरं सम्मत्ते श्रोहियणाणे आभिणिबोहियणाणे सुजाव चउरिदिया णमित्यादि ननु द्वीन्द्रियादीनां सासादन
यणाणे एएसु चेव दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भभावेन सम्यक्त्वं-ज्ञानं चेष्यते तत्र क्रियावादित्वं युक्तं
वसिद्धिया णो अभवसिद्धिया, सेसं तं चेत्र पंचिंदिसत्स्वभावत्वादित्याशङ्कयाह-'सम्मत्तनाणेहि वी' त्यादि । क्रियावादविनयपादौ हि विशिष्टतरे सम्यक्त्वादिपरिणामे
यतिरिक्खजोणिया जहा णेरइया णवरं नायव्वं जं स्यातां न सासादनरूपे इति भावः। 'जं अस्थि तं भा- अस्थि । मणुस्सा जहा प्रोहिया जीवा वाणमंतरजोखियव्वं' ति पञ्चेन्द्रियतिरश्चामलेश्याकषायित्वादि न प्रष्ट
इसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा । सेवं भंते ! भंते ! व्यमसंभवादिति भावः । जीवादिषु पञ्चविंशती पदेषु य
त्ति ॥ (सू० ८२५) भ०३० श०१ उ०। चत्र समवसरणमस्ति तत्तत्रोक्तम् । भ. ३० श०१ उ०। (पतेषामायुर्बन्धनिरूपणम् ' आउ' शब्दे द्वितीयभागे १६ | अणंतरोववन्नगा णं भंते ! णेरड्या किं किरियावादी पृष्ठे गतम्।)
पुच्छा, गोयमा ! किरियावादी वि . जाव वेणइयवादी किरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया अभव-| वि , सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा णेरड्या किं सिद्धिया ?, गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया। किरियावादी एवं चेव , एवं जहेव पढमुद्देसे णेरइया णं अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया पुच्छा, वत्तव्बया तहेव इह वि भाणियव्वा णवरं जं जस्स अगोयमा ! भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि । एवं त्थि अणंतरोववस्मगाणं णेरइयाणं तं तस्स भाणियव्वं । प्रमाणियवादी वि वेणइयवादी वि । सलेस्सा एवं सब्बजीवाणं • जाव वेमाणियाणं णवरं अणंतरोवणं भंते ! जीवा किरियावादी किं भव० पुच्छा , वलगाणं जं जहिं अत्थि तं भाणियव्वं । (सू० ८२६) गोयमा! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया। स- किरियावादी णं भंते ! अणंरोववामगाणेरड्या किं लेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं भव० पु-| भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ?, गोयमा ! भवसिद्धिया णो च्छा, गोयमा ! भवसिद्धिया वि प्रभवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया अकिरियावादी णं पुच्छा गोयमा ! एवं अनाणियवादी वि वेणइयवादी वि जहा सले- भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि । एवं अम्माखियस्सा, एवं जाव सुक्कलेस्सा, अलेस्सा णं भंते ! जी- वादी वि । वेणइयवादी वि । सलेस्सा णं भंते ! वा किरियावादी किं भव. पुच्छा, गोयमा ! भवसि- किरियावादी अणंतरोववागा मेरइया किं भवसिद्धिया द्विया नो अभवसिद्धिया, एवं एएणं अभिलावेणं क-/ अभवसिद्धिया?, गोयमा! भवसिद्धिया,नो अभवसिद्धिया । एहपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए सक्कपक्खि- एवं एएणं अभिलावणं जहेव श्रोहिए उद्देसए मेरइयाया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया णो अभवसि. णं वत्तब्धया भणिया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव द्धिया सम्महिट्ठी जहा अलेस्सा । मिच्छादिट्ठी जहा क. अणागारोवउत्त त्ति । एवं जाव माणियाणं णवरं - एहपक्खिया। सम्मामिच्छादिवी दोसु वि समोसरणेसु। जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं इमं से लक्खणे जे किजहा अलेस्सा । णाणी० जाव केवलणाणी भवसि- रियावादी सुकपक्खिया सम्मामिच्छादिट्ठिया एए सद्धिया यो अभवसिद्धिया, प्रमाणी. जाव विभंगणा- वे भवसिद्धिया यो अभवसिद्धिया सेसा सव्वे भवसिणी जहा कण्हपक्खिया सएहासु चउसु वि जहा सले- द्धिया वि अभवसिद्धिया वि सेवं भंते ! भंते ! ति । स्सा यो सम्सोवउत्ता जहा सम्मादिट्ठी । सवेदगा (मू० ८२६ +)। • जाव णपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा, अवेदगा परम्परोपपन्नकानां नैरयिकादीनाम्जहा सम्मदिट्ठी सकसाई . जाव लोभकसाई परंपरोववाणगा णं भंते ! णेरइया किरियावादी एवं जहा सलेस्सा । अकसाई जहा सम्मादिट्ठी सजोगी. जहेव ओहिओ उद्देसो तहेव परंपरोववमएसु वि णेरड्याजाव कायजोगी जहा सलेस्सा, अजोगी जहा स- दिनो तहेव हिरवसेसं भाणियव्वं तहेव तियदंडगसंगम्मादिट्टी। सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सले-1 हिनो सेवं भंते ! भंते त्ति० जाव विहरइ । (स. ८२७)।
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(२०६८) वाहसमोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
बाउकाइय एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडीवाउकलिया-वातोत्कलिका-स्त्री० । समुद्रस्येच वातस्योत्कसच्चेव इहं पि.जाव अवरिमो उद्देसो णवरं अणंतराच- | लिकायाम् , जी० १ प्रति० । भ०। तारि वि एकगमगा परंपरा चत्तारि वि एक्कगमएणं एवं | वाउक्का(का)इय-वायुकायिक-पुंगवायुः-पवनः स एव कायो चरिमा वि अचरिमा वि । एवं चेव गवरं अलेस्स केवली।
येषां ते वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः । प्रशा०
१ पद । जी० । दश । वायुशरीरत्वेन परिगृहीतेषु एकेन्द्रिअजोगीण भमइ सेसं तहेव सेवं भंते ! भंते ? ति । एए
यजीवभेदेषु, स०६ सम० । वायुकाया लक्षणादिभिद्वारएक्कारस वि उद्देसगा (सू०८२८)
ाख्यायन्ते । एवं द्वितीयादय एकादशान्ता उद्देशका व्याख्येयाः, नवरं तत्र वायोः स्वरूपनिरूपणाय कतिचिद द्वाराद्वितीयोदेशके इमं से लक्खणं' ति 'से' भव्यत्वस्येदं
तिदेशगी नियुक्तिकद्गाथामाहलक्षणं क्रियावादी शुक्लपाक्षिकः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च भव्य बाउस्स वि दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए । एव भवति नाभन्यः, शेषास्तु भव्या अभव्याश्चेति । अलेश्य- णाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोगसत्थे य ।। १६४॥ सम्यग्दृष्टिज्ञान्यवेदाकषाययोगिनां भव्यत्वं प्रसिद्धमेवेति वातीति वायुस्तस्य वायोरपि तान्येव द्वाराणि यानि पृनोक्नमिति । तृतीयोद्देशेक तु 'तियदंडगसगहिरो' त्ति इह थिव्यां प्रतिपादितानि, नानात्वम्-भेदः, तश्च विधानपरिदण्डकत्रयं नैरयिकादिपदेषु क्रियावाद्यादिप्ररूपणादण्डकः१, माणोपभोगशस्त्रेषु चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यामिति । आयुबन्धदण्डकोर, भव्याभव्यदण्डक ३ श्चत्येवमिति एका
तत्र विधानप्रतिपादनायाऽऽहदशोद्देशके तु-'अलेस्सो केवला अजोगी य न भाइ' ति। दुविहा उ वाउजीवा, सुहुमा तह बायरा उ लोगम्मि । अचरमाणामलेश्यत्वादीनामसम्भवादिति । भ०३ श०२ उ०।
सुहमा य सव्वलोए, पंचेव य बायरविहाणा ।। १६५ ॥ वाईकरण-वाजीकरण-न० । अवाजिनो वाजिनः करणम् वा.
वायुरेव जीवा वायुजीवाः, ते च द्विविधाः-सूक्ष्मबादरनामजीकरणम् । रेतोवृद्धया अश्वस्येव करणे, विपा । १ श्रु०७
कर्मोदयात् सूक्ष्मा बादराश्च । तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्याश्रा तद्धि अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनन
पितया अवतिष्ठन्ते दत्तकपाटसकलवातायनद्वारगेहान्तनिमित्तं प्रहर्षजननार्थम् । स्था०८ ठा० ३ उ०।
धूमवत् व्याप्त्या स्थिताः बादरभेदास्तु पश्चैवानन्तरगाथवाउ-पायु-पुं० । अपाने, स्था०६ ठा० ३ उ० ।
या वक्ष्यमाणा इति । वायु-पुं० । पवने, आव० ४ ० । चलनलक्षणे, सूत्र०१
बादरभेदप्रतिपादनायाऽऽहश्रु०१०१ उ० । स्पर्शतन्मात्रजे महाभूते. वायुत्वयुक्त, स उक्कलिया मंडलिया, गुंजा घणवायसुद्धवाया य । चानुष्णशीतस्पशेसंख्यापरिमाणाऽपृथक्त्वसंयोगविभागपर- बायरवाउविहाणा, पंचविहा वलिया एए । १६६ ॥ त्वाऽपरत्ववेगाख्यैनंवभिगुणगुणवान् । सूत्र०११०१०१ स्थित्वा स्थित्वोत्कलिकाभियों वाति स उत्कलिकावातः, म. उ० । वायुरात्मेति केचित् । प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । स्वाति- एडलिकावातस्तु वातोलीरूपः,गुञ्जा-भम्भा तद्वत् गुअन या नक्षत्रस्य देवे, सू० प्र० १० पाहु० । अनु । जं०।
वाति स गुजावातः,घनवातो-ऽत्यन्तघनः पृथिव्याद्याधारतया दो वाऊ । स्था० २ ठा० ३ उ०।
व्यवस्थितो हिमपटलकल्पो मन्दस्तिमितः शीतकालादिषु
शुद्धवातः ये त्वन्ये प्रज्ञापनादौ प्राच्यादिवाता अभिहितावायुकायिकजीवे, अनु० । स्था० । प्रय० । ध०। सम्म।
स्तेषामेवेव यथायोगमन्तर्भावो द्रष्टव्य इति एवमित्येते उत्त० । वायुकुमारे, भ०१ श०१ उ०। शक्रस्याश्वानीका
बादरवायुविधानानि-भेदाः पञ्चविधाः-पञ्चप्रकारा व्याधिपती, स्था०५ ठा० १ उ०। अहोरात्रस्य चतुर्थे मुहर्ने,
वर्णिता इति । प्राचा०१ श्रु०१ अ० ७ उ०। ज्यो०२ पाहु । कल्प० । स०। जं।
वायुक्कायिकप्रतिपादनार्थमाहबाउकम्म-वायुकर्मन्-न । अपानवायुनिसर्ग, तं०।
से किं तं वाउ(क्का)काइया?, वाउकाइया दुविहा पसत्ता । वाउकुमार-वायुकुमार-पुं० । भवनपतिदेवभेदे, प्रशा० १ पद ।। ('परिहारविसुद्धिय' शब्दे चतुर्थभागे ६६५ पृष्ठे तत्स्था
तं जहा-सुहुमवाउकाइया य, बादरवाउकाइया य । से नादिवतव्यता।) (अन्तक्रियादिविषयका दण्डकाच" अं.
किंतं सुहुमवाउकाइया?,सुहुमवाउकाइया दुविहा परमत्ता। तकिारयाऽऽ" दिशब्देषु।)
तं जहा-पजत्तगसुहुमवाउकाइया य, अपज्जत्तगमुहुमचउबिहा वायुकुमारा पसत्ता । तं जहा-काले महाकाले | वाउकाइया य । सेत्तं सुहुमवाउकाइया । से किं तं बादरवेलंबे पभंजणे । (सू० २२६) भ० ३ श० १ उ०।। वाउकाइया?,बादरवाउकाइया अणेगविहा परमत्ता,तं जहा
वायुकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा एवं चेव सेव भंते ! पाईणवाए पडीणवाए दाहिणवाए उदीणवाए उढावाए भंते ! त्ति । स्था० २ ठा०२ उ०।
अहोवाए तिरियवाए विदिसीवाए वाउम्भामे वाउक्कलिया वाउकुमाराइआहवण-वायुकुमाराद्याहान-न० । वायुकुमार-|
वायमंडलिया उक्कलियावाए मंडलियावाए गुंजावाए झंझामेघकुमारादीनामागमप्रसिद्धदेवविशेषाणां संशब्दने, पश्चा०२/
वाए संवट्टवाए घणवाए तणुवाए सुद्धवाए जे यावने विव।
तहप्पगारा ते समासो दुविहा परमत्ता । तं जहा
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(२०६९) वाउकाइय अभिधानराजेन्द्रः।
वाउकाइय पजत्तगा य, अपजत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपञ्जत्तगा ते सर्वोऽपि वायुकायो निश्चयतः सचित्तः, अतिहिमातिदुईिणं असंपत्ता। तत्थ णं जेते पज्जत्तगा एतेसि णं वरमादेसेणं
नाभावे तु यः प्राचीनादिवातः पूर्वादिदिग्वानः स व्यवहार
तः सचित्तः । यस्तु आक्रान्तादिकः आक्रान्तः पङ्कादिसमुगंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहा
त्थप्रभृतिकः पञ्चप्रकारो वक्ष्यमाणस्वरूपः सोऽचित्त इति । णाई संखिआई जोणिप्पमुहसयसहस्साई पज्जत्तगणिस्साए
आक्रान्तादिस्वरूपमेवाऽऽहअपञ्जत्तया वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा।।
अकंतधंतघाणे, देहाणुगए य पीलियाइसु य । सेत्तं बादरवाउकाइया । सेत्तं वाउकाइया। (सू०१८)
अच्चित्तवाउकाओ, भणिो कम्मट्ठमहणेहिं ॥ ४०॥ प्रतीत नवरं पाईणवाए ' इति यः प्राच्या दिशः स
आक्रान्ते-पादेनाकान्ते कर्दमादौ यो वातश्चिदिति शब्दं कुर्वमागच्छति वातः स प्राचीनवातः, एवं प्रतीचीनवातो द
न् समुच्छलति, यश्चाध्माते मुखबातभृते इत्यादौ वर्तते, क्षिणवात उदीचीनवातश्च वक्तव्यः, ऊर्द्धमुद्गच्छन् यो वा
यो वा घाणे-तिलपीडनयन्त्रे तिलपीडनवशात् सशब्दं ति वातस्स ऊवातः , एवमधोवाततिर्यग्वातावपि प
विनिर्गच्छन्नुपलभ्यते,यश्च देहानुगतः शरीराश्रित उच्छासरिभावनीयौ। विदिग्वातो-यो विदिग्भ्यो वाति , वा
निःश्वासवातनिसर्गरूपः, पीलितं-सजलं निश्चोत्यमानं वतोद्धामः-अनवस्थितवातः पातोत्कलिकाः-समुद्रस्येव वा- स्वादि आदिशब्दात्तालवृन्तादिपरिग्रहः तेषु च यः संभवति तोत्कलिकाः बातमण्डली-बातोली उत्कलिकावातः-उत्कः।
वातः एष पञ्चप्रकारोऽपि वातः कर्माष्टकमथनैरचित्तः प्रतिलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रितो यो वातः मण्डलिका-I पादितः। बातो-मण्डलिकाभिर्मूलत प्रारभ्य प्रचुरतराभिः समुत्थो संप्रति मिश्रं वायुकायं प्रतिपिपादयिषुईत्यादियो वातः,गुञ्जावातो-यो गुञ्जन शब्दं कुर्वन् वाति, झन्झा
स्थस्याचित्तवातकायस्य जले स्थितस्यवातः-सवृष्टिशुभनिष्ठुर इत्यन्ये , संवर्तकवातः-तृणा
क्षेत्रमाश्रित्य स्थलस्थितस्य च कालदिसंवर्तनस्वभावः, घनवातो-घनपरिणामो रत्नप्रभापृथि
माश्रित्याचित्तादिविभागमाहव्याद्यधोवी,तनुवातो-विरलपरिणामो घनवातस्याधः स्था | यी, शुद्धवातो-मन्दस्तिमितो वस्तिदृत्यादिगत इत्यन्ये । ते |
हत्थसयमेगगंता, दइयो अच्चित्सवीयए मीसो। समासतो' इत्यादि प्राग्वत् , अत्रापि संस्खेयानि योनि- तइयम्मि उ सच्चित्तो, वत्थी पुण पोरिसिदिणेसु ॥४१॥ प्रमुखाणि शतसहस्राणि सप्तावसे यानि । प्रशा०१ पद । इह ऊर्ध्वमपाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षितचन्तिअचित्तवायुकायिकमाह
वर्तिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थिग्गलकस्थगिता-- पंचविहा अचित्ता वाउकाइया पनत्ता । तं जहा-अकं-1 पानच्छिद्रेण संकीर्णमुखीकृतग्रीवान्तर्विवरेणाजापश्वोरन्यतते धंते पीलिए सरीराणुगए समुच्छिमे । (मू० ४४४)
रस्य शरीरेण निष्पन्नश्चम्ममयः प्रसेवकः कोत्थलकापरश्राकान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स ाक्रान्तः,
पर्यायो दृतिः । स चाचित्तमुखवातभृतः सन् दवरकेण गाढ यस्तु ध्माते इत्यादौ स ध्मातः, जलावने निष्पीड्यमाने बद्धमुखो नद्यादिजले प्लाव्यमानः क्षेत्रतो हस्तशतमेकं यावत् पीडितः उद्गारोच्छासादिः-शरीरानुगतः, व्यजनादिजन्यः
गम्ता तावत् स दृतितिस्थो वातकायोऽचित्तः प्रथमे च सम्मूच्छिमः, पते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भव
हस्तशतेऽतिक्रान्ते सति द्वितीये प्रविशन् मिथो भवति, न्तीति । स्था०५ ठा० ३ उ० ।
स च मिश्रस्तावद्भवति यावद् द्वितीयहस्तशतपयन्तः, ___सम्प्रति वायुकायपिण्डमाह
ततो द्वितीये हस्तशतेऽतिकान्ते तृतीये प्रविशन् सचित्तो वाउकाओ तिविहो, सञ्चित्तो मीसो य अञ्चित्तो।।
भवति । तत ऊर्ध्व सचित्त एव । अथवा-एकस्मिन्नेव
हस्तशते गमनेनागमनेन च पुनर्गमनेन च क्रमेणाचित्तत्वासञ्चित्तो पुण दुविहो, निच्छयववहारो चेव ॥३८॥
दिकमवगन्तव्यम् । यदि वा-हस्तशतगमनकालं परिभाब्यैवायकायत्रिविधस्तद्यथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च ।। कस्मिन्नपि स्थाने जलमध्यस्थितस्योतक्रमेणाचित्तत्वादिकं सचित्तः पुनर्द्विधा-निश्चयतो व्यवहारतश्च ।
परिभावनीयम् । इतिग्रहणं चोपलक्षणं तेन वस्तावप्येवं पतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य द्वैविध्यमचित्तं द्रष्टव्यम् । वस्तिश्च दृतियत् स्वरूपतो भावनीयः, नवरमपचाऽऽह
रचर्ममयस्थिग्गलकस्थगितग्रीवान्तर्विधरोऽतिविवृतमुखीसवलय घणतणुवाया, अइहिमअइदहिणे य निच्छयो।
कृतपाश्चात्यप्रवेशः स विशेषः, तथा 'वत्थि पुण पारसि दि
णेसु'त्ति । स्थले स्निग्धं रूक्षं च कालमाश्रित्य वस्तिर्वस्तिववहारपाइणाई, अकंताई य अञ्चित्तो ॥ ३९ ॥
स्थितो वातः उपलक्षणमेतत् । तेन दृतिस्थोऽपि वातः स्थसह वलयैर्वर्तन्ते इति सवलयाः, ये 'घणतणुवाय'त्ति वात | लस्थः स्निग्धं रूक्षं च कालमधिकृत्य यथाक्रमं पौरुषीषु दिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, घनवातास्तनुवाताश्च । किमुक्तं | नेषु चाचित्तादिरूपो वेदितव्यः । भवति ?-ये नरकपृथिवीनां पार्वेषु घनवातास्तनुवाता वा एनमेव गाथावयवं भाष्यकृद् गाथाचतुष्टयेन वलयाकारेण व्यवस्थिता वलयशब्दवाच्याः। ये च नरकपृ
व्याख्यानयतिथवीनामेयोधस्तात् घनवातास्तनुवानाश्च । तथा' अहिम अइदुद्दिणे य'त्ति अतिशयेन हिमे निपतति , अतिशयेन च
निद्धेयरो य कालो, एगंतसिणिद्धमझिमजहन्नो। दुर्दिने मेघतिमिरे मेधैर्गगनमण्डलस्थाच्छादने ये वायवः एष लुक्खो वि होइ तिविहो, जहन्नमझो य उक्कोसो॥१२॥
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बाउकाइय अभिधानराजेन्द्रः।
वाउकाइय एगंतसिणिद्धम्मी, पोरिसिमेगं अचेयणो होई । न्धस्पर्शात्मकश्च वायुरिष्यते, न यथाऽन्येषां यायुः स्पर्शयाबिइयाए संमीसो, तइयाइसचेयणो वत्थी ॥ १३ ॥
मेवेति प्रयोगार्थश्व गाथया प्रदर्शितः। प्रयोगश्चायम्-चेत
नावान् वायुः अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमत्त्वात् गवामज्झिमनिद्धे दो पो-रिसी उ अञ्चित्त मीसभो।।
श्वादिवत् , तिर्यगेव गमननियमाभावादनियमितविशेचउत्थीए सचित्तो, पवणो दइयाइमझगमो ॥ १४ ॥ षणोपादानाच परमाणुनानेकान्तिकासंभवस्तस्य नियमिपोरिसितिगमच्चित्तो, निद्धजहमम्मि मीसगचउत्थी। । तगतिमरवात् , 'जीवपुद्रलयोः अनुश्रेणिगति' रिति । सचित्तपंचमीए, एवं लुस्खे वि दिणवुडी ॥ १५॥
(तस्वा० अ०२सू० २७ ) वचनात् , एवमेष वायुः घनशुद्ध
बातादिभेदोऽशस्रोपहतश्चेतनावानवगन्तव्य इति । प्राचा इह कालः सामान्यतो द्विविधः, तद्यथा-स्निग्धो रुक्षश्च ।
१७० १०७ उ० । व्य० । विशे० । सूत्र । तत्र यः सजलः सशीतश्च स स्निग्धः, उष्णो-रुतः, स्निग्धो ऽपि त्रिधा तद्यथा-एकान्तस्निग्धो मध्यमो जघन्यश्च ।
परिमाणद्वारमाहतत्र एकान्तस्निग्धः अतिस्निग्धः । सक्षोऽपि त्रिधा-त
जे बायरपञ्जत्ता, पयरस्स असंखभागमित्ता ते । यथा-जघन्यो मध्यमः उत्कृष्टः । उत्कृष्टो नाम-अतिशयेन सेसा तिमि वि रासी, वीसं लोया असंखेजा ॥१६८।। रुतः, तत्र एकान्तस्निग्धकाले वस्तिगतो वायुकायः, उपल- ये बादरपर्याप्तका वायवस्ते संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयक्षणमेतत् , तेन रतिस्थोऽपि एकां पौरुषी यावदचेतनो भागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषात्रयोऽपि राशयो विभवति । द्वितीयस्यास्तु पौरुष्याः प्रारम्भेऽपि मिश्रः, स च | वक पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति । विशेतावद्यावत्परिपूर्णा द्वितीया पौरुषी, तृतीयस्यां तु पौरुण्या- पश्चायमत्रावगन्तव्यः बादराप्कायपर्याप्तकेभ्यो बादरवायुमादित एव सचित्तः, तत ऊर्व सचित्त एव । मध्यमे तु नि पर्याप्तका असंख्येयगुणाः, बावराप्कायापर्याप्तकेभ्यो बादग्धकाले द्वे पौरुष्यौ यावदचित्तस्तृतीयस्यांतु पौरुष्यां मिश्रः रवायुकायापर्याप्तका असंख्येयगुणाः, सूक्ष्माकायापर्याप्तचतुर्थ्यां सचेतनः । जघन्ये च स्निग्धकाले हत्यादिमध्यगतो केभ्यः सूक्ष्मवाय्वपर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्माकायपचायुः पौरुषीत्रिकं यावदचित्तः, चतुर्थपौरुष्यां मिश्रः, पञ्च- र्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुपर्याप्तका विशेषाधिकाः। म्यां तु सचेतनः । एवं रूक्षेऽपि द्रष्टव्यम् , केवलं तत्र दिन
उपभोगद्वारमाहबुद्धिः कर्तव्या । सा चैवम्-जघन्यरूक्षकाले बसत्यादिगतः वियणधमणाभिधारण, उस्सिचणफुसणाणु पाणू य। पवनो दिनमेकमचित्तो द्वितीये दिने मिश्रस्तृतीये सचित्तः,
वायरवाउकाए , उवभोगगुणा मणुस्साणं ।। १६६ ।। मध्यमरूक्षकाले दिनद्वयमचित्तस्तृतीदिने मिश्रश्चतुर्थदिने
व्यजनभखाऽऽध्माताभिधारणोत्सिश्चनफूत्कारप्राणापानासचेतनः, उत्कृष्टरक्षकाले दिनत्रयमचित्तश्चतुर्थदिन मिश्रः
दिभिर्वादरवायुकायेनोपभोग एव गुण उपभोगगुणो मनुपञ्चमदिने सचित्तः।
ज्याणामिति । प्राचा०१ श्रु०१०७ उ०। (वायुकायसंप्रत्यचित्सवायुकायप्रयोजनमाह
परिभोगः 'महब्बय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८३ पृष्ठे गतः।) दइएण वस्थिणा वा, पोयणं होज वाउणा मुणियो।
तत्सेवनिषेधमधिकृत्याऽऽहगेलनम्मि व होजा, सचित्तमीसे परिहरेजा ॥४२॥ अनिलस्स समारंभ , बुद्धा मभंति तारिसं । इतिना-हतिस्थेन वस्तिना-वस्तिस्थेन वेति-समुच्चये न सावञ्जबहुलं चेयं, नेयं ताईहि सेवियं ।। ३६ ॥ चाद्युत्तारे प्रयोजनं भवेद्वायुना मुनेः, अनेन जलस्थो वायु
'अणिलस्स' ति अनिलस्य-बायोः समारम्भं तालवृगुह्यते । अथवा ग्लानत्वे मन्दत्वे सति वायुना प्रयोजनं भव
न्तादिभिः करणं बुद्धास्तीर्थकरा मन्यन्ते-जानन्ति तादृशं ति । कापि हिरोगे हत्यादिना संगृह्य वातोऽपानादौ प्रक्षि
जाततेजःसमारम्भसदृशं सावधबहुलं पापभूयिष्ठं वैतमिति प्यते, अनेन स्थलस्थो गृहीतः । सचित्तमिश्री तु यत्नतः
कृत्वा सर्वकालमेव नैनं त्रातृभिः-सुसाधुभिः सेवितम्परिहरेत् । जलमध्ये स्वशक्ये परिहारे प्रायश्चित्तं पश्चादभि
आचरितं मन्यन्ते वृद्धा एवेति सूत्रार्थः । गृह्णीयात् । तदेवमुक्तो वायुकायपिण्डः । पि० ।
एतदेव स्पष्ठयतिलक्षणद्वाराभिधित्सयाऽऽह
तालअंटेण पत्तेणं , साहाबिहुयणेण वा। जह देवस्स सरीरं, अंतद्धाणं व अंजणादीसुं ।
न ते विइउमिच्छति , वेयावेऊण वा परं ॥ ३७॥ एवोवम आदेसो, वाए संते विरूवम्मि ।। १६७॥ । 'तालयंटेण' ति सूत्रम् , तालवन्तेन पत्रेण शाखायथा देवस्य शरीरं चक्षुषाऽनुपलभ्यमानमपि विद्यते, चेत- विधूननेन वेत्यमीषां स्वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायाम् , नावच्चाध्यवसीयते, देवाः स्वशक्तिप्रभावात्तथाभूतं रूपं | नते-साधवो बीजितुमिच्छन्त्यात्मानमात्मना , नापि कुर्वन्ति यचक्षुषा नोपलभ्यते, न चैतद्वक्तुं शक्यते-नास्त्यचे | बीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिभिरेव , नापि बीजयन्तं तनं चेति, तद्वायुरपि चचुचो विषयो न भवति, अस्ति च परमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः। चित्तवांश्चेति, यथा वाऽन्तर्धानमञ्जनविद्यामन्त्रैर्भवति मनु- उपकरणात्तद्विराधनेत्येतदपि परिहरमाहज्याणां न च नास्तित्वमचेतनत्वं चेति, पत्तदुपमानं वायावपि जंपि वत्थं व पायं वा , कंबलं पायपुंछणं । भवति, आदेशो-व्यपदेशोऽसत्यपि रूप इति । अत्र चास- न ते वायमुईरंति, जयं परिहरति य॥३८॥ च्छन्दो नाभाववचनः, किन्तु असत् रूपं वायोरिति'चक्षुर्गाचं जंपित्ति,सूत्रम् यदपि वस्त्र वा पात्रं वा कम्बलं वा पादपुतद्रूपं न भवति, सूक्ष्मपरिमाणात् परमाणोरिव । रूपरसग छनम् अमीषां पूर्वोक्तं धमापकरण तेनापिन ते वातमुदीरय
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(१०६१) बाउक्काइय अभिधानराजेन्द्रः।
वाउकाइय न्ति प्रयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया, किंतु-यतं परिहरन्ति पार- पाठान्तरं वा-'पहु य एगस्स दुगुछणाए' उद्रेकावस्थाभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण चेति सूत्रार्थः ।
वर्तननैकन गुणेन स्पर्शाख्येनोपलक्षित इत्येको-घायुस्तस्यैयत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्भः
कस्यैकगुणोपलक्षितस्य वायोर्जुगुप्सायां प्रभुः च-शब्दान तम्हा एयं वियाणिसा, दोसं दुग्गइवडणं ।
श्रद्धाने च प्रभुर्भवतीति, अर्थात्-यदि श्रद्धाय जीवतया वाउकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए॥ ३६ ।।
जुगुप्सते ततो योऽसौ वायुकायसमारम्भनिवृत्ती प्रभुरुक्तस्न 'तम्ह' ति सूत्रम् , व्याख्या पूर्ववत् । दश०६०२ उ०।
दर्शयतिशस्त्रद्वाराभिधित्सयाऽऽह-तत्र शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद् द्विवि
आयंकदंसी अहियंसि णश्चा, जे अज्झत्थं जाणइ से बधम् । द्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽह
हिया जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ एतं वियणे य तालवेंटे, सुप्पसिए पत्तचेलकमे य । । तुलमन्नेसि । (सू० ५६) अभिधारणा य चाहिं, गंधऽग्गी वाउसत्थाई ॥१७॥ (आयकदंसीत्यादिपव्याख्या 'आतंकदसि' शब्द हिन्यजनं तालवृन्तं सूर्पसितपत्रचेलकर्णादयः द्रव्यशस्त्रमिति,
तीयभागे १५४ पृष्ठे कृता । तदधिकमिह प्रदर्श्यते )नत्र सितमिति चामरं प्रस्विन्नो यद्वहिरवतिष्ठते वातागमन
अतो व आतङ्कदर्शी भवति । विमलविवेकभावात् स मार्गे साऽभिधारणा । तथा गन्धाश्चन्दनोशीरादीनाम्, अ.
वायुसमारम्भस्य जुगुप्सायां प्रभुः हिताहितप्राप्तिपरिहारानिः-ज्वाला प्रतापश्च, तथा प्रतिपक्षवातश्च शीतोष्णादिकः,
नुष्ठानप्रवृत्तः,तदन्यैवंविधपुरुषवदिति वायुकायसमारम्भनिप्रतिपक्षवायुग्रहणेन स्वकायादिशस्त्रं सूचितमिति, एवं भाव- वृतेः कारणमाह-'जे अज्झत्थमि' त्यादि आत्मानमधिशस्त्रमपि दुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षणमवगन्तव्यमिति । कृत्य यद्वर्तते तदध्यात्म तथ सुखदुःखादि, तद्यो जानातिआचा०१ श्रु० १ १०७ उ०।
अवबुध्यते स्वरूपतोऽवगच्छतीत्यर्थः। स बहिरपि प्राणिवायुकायविधिमाह
गणं वायुकायादिकं जानाति, तथैषोऽपि हि सुखाभिलाषी तालअंटेण पत्तेणं, साहाए विहुणेण वा ।
दुःखाच्चोद्विजते, यथा-मयि दुःखमापतितमतिकटुकमस
द्वेचकर्मोदयादशुभफलं स्वानुभवसिद्धम् । एवं यो वेत्ति स्वा. न बीइज अप्पणो कार्य, बाहिरं वा वि पुग्गलं ॥६॥
त्मनि सुखं च सवेद्यकर्मोदयात् शुभफलमेवं च योऽवगच्छ'तालअंटेण'त्तिसूत्रम् , तालवृन्तेन-व्यजनविशेषेण पत्रेण प
ति स खल्वध्यात्म जानाति, एवं च योऽध्यात्मवेदी मिनीपत्रादिना शाखया वृक्षडालरूपया विधूननेन वा व्यजनन स बहियवस्थितवायुकायादिप्राणिगणस्यापि नानाविधोया, किमित्याह-न बीजयेत् आत्मनः काय; स्वशरीरमित्यर्थः,
पक्रमजनितं स्वपरसमुत्थं च शरीरमनःसमाभयं दुःख बाह्यं वापि पुद्रलम् उष्णोदकादीति सत्रार्थः। दश०८०२ उ०।
सुख वा वेति स्वप्रत्यक्षतया परत्राप्यनुमीयते । यस्य पुनः अधुना सकलनियुक्त्यर्थोपसंजिहीर्युराह
स्वारमन्येव विज्ञानमेवंविधं न समस्ति कुतस्तस्य बहिर्व्यवसेसाई दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए ।
स्थितवायुकायादिवपेक्षा ?, यश्च बहिर्जानाति सोऽध्यात्म एवं वाउद्देसे, निजुत्ती कित्तिया एसा ॥ १७१ ॥ यथावदवैतीतरेतराव्यभिचारादिति । परात्मपरिज्ञानाच्य शेषाणयुक्तव्यतिरिक्तानि तान्येव द्वाराणि पृथिवीसमधिगमे यद्विधेयं तदर्शयितुमाह-'एतं तुलमन्नेसिमि' त्यादि एतां तुयान्यभिहितानीति, एवं सकलद्वारकलापव्यावर्णनाद् वायु- लां यथोक्तलक्षणामन्वेषयेद्-गवेषयेदिति । का पुनरसौ तुला? कायोद्देशके नियुक्तिः कीर्तितेषाऽवगन्तव्येति । गतो नाम- यथाऽऽत्मानं सर्वथा सुखाभिलाषितया रक्षसि तथा परमपि निष्पनो निक्षेपः।
रक्ष । यथा परं तथात्मानमित्येतां तुला तुलितस्वपरसुखदुःसाम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्। खानुभवोऽन्वेषयेत् एवं कुर्यादित्यर्थः । उक्तं च-'कडेण कंटएण तवेदम्
व, पाए विद्धस्स वेयणहस्स । जह होड अनिवाणी, सव्वपहुएजस्स दुगुंछणाए। (सू० ५५)
स्थ जिएसुतं जाण ॥१॥' तथा “मरिष्यामीति यद दुःखं, अस्य चायमभिसंबन्धः, हानन्तरोद्देशके पर्यन्त-|
पुरुषस्योपजायते। शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम् सूत्रे त्रसकायपरिक्षानं तदारम्भवर्जनं च मुनित्वकार
॥१॥" अतश्च यथाऽभिहिततुलातुलितखपरा नराः स्थावर. णमभिहितम् , इहापि तदेव द्वयं वायुकायविषयं मुनि
जनमजन्तुसंघातरक्षणायैव प्रवर्तन्ते । स्वकारणमेवोच्यते, तथा परम्परसूत्रसंबन्धः इहमे
कथमिति दर्शयतिगेसिं णो णायं भया' ति किं तत् सातं भवति पहु- इह संतिगया दविया, णावकखंति जीविउं । (सू०५७) एजस्स दुगुंछणाए' त्ति तथा प्रादिसूत्रसंबन्धन 'सुर्य 'हे' त्यादि इह-एतस्मिन् दयैकरसे-जिनप्रवचने शमनं मे पाउसंतेण' मित्यादि, किं तत् श्रुतम्, यत् प्रागुपदिष्ट शान्तिः-उपशमः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति नथैत-पडू एजस्स दुगुंछणाए ' ति । ' दुगुं- लक्षणसम्यग्दर्शनशानचरणकलापः शान्तिरुच्यते, निराबा-- छण ' ति जुगुप्सा, प्रभवतीति प्रभुः-समर्थः-योग्यो | धमोक्षाज्यशान्तिप्राप्तिकारणत्वात् , तामेवंविधां शान्ति गचा, कस्य वस्तुनः समर्थ इति, 'एजु' कम्पने, एजयती- ताः-प्राप्ताः शान्तिगताः शान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः, द. त्येजो-वायुः कम्पनशीलत्वात्तस्यै जस्य जुगुप्सा-निन्दा,तदा | विका नाम-रागद्वेषविनिर्मुक्काः द्रवः-संयमः सप्तदशविधानः सेवनपरिहारो निवृत्तिरिति यावत् , तस्याः-तद्विषये प्रभु- कर्मकाठिम्यद्रवणकारित्वाद् विलयहेतुत्वात्स येषां विद्यते भैयति वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ शक्लो भवतीति यावत् , ! ते द्रविकाः नाऽवकाति-न वाञ्छन्ति; नाऽभिलषन्तीत्यर्थः,
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(२०६२) बाउबाइय अभिधानराजेन्द्रः।
वाउकाइय किं नावकान्ति ?, जीवितुं-प्राणान् धारयितुं केनोपायेन |
च द्वितीयार्थे प्रथमा, ततश्चेवमन्वयो लगयितव्यः-पृथिव्याजीवितुं नाभिकान्ति; वायुजीवोपमर्दनेनेत्यर्थः । शेषपृथि
द्यारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणा उपादीयमानान् जानीहि, व्यादिजीवकायसंरक्षणं तु पूर्वोक्तमेव । समुदायार्थस्त्वयम्
के पुनः पृथिव्याद्यारम्भिणः। शेषकायारम्भकर्मणोपादीयन्ते? इहैव जैने प्रवचने यः संयमस्तद्वयवस्थिता एवोन्मूलि
इत्याह-जे आयारे ण रमं ति' ये-ह्यविदितपरमार्था झातातितुङ्गरागद्वेषद्रुमाः प्रभूतोपमर्दनिष्पन्नसुखजीविकानिर
नदर्शनचरणतपोवीर्याख्ये पञ्चप्रकाराचारे न रमन्ते-न भिलाषाः साधवो नान्यत्रैवंविधक्रियावबोधाभावादिति ।
धृति कुर्वन्ति, तदधृत्या च पृथिव्याद्यारम्भिणः, तान् कर्मएवं व्यवस्थिते सति
भिरुपादीयमानान् जानीहि । के पुनराचारे नरमन्ते?,शाक्य
दिगम्बरपार्श्वस्थादयः, किमिति ?, यत आह-श्रारम्भमाणा लज्जमाणे पुढोपास अणगारामो त्ति एगे पवयमाणा
अपि पृथिव्यादीन् जीवान् विनयं संयममेव भाषन्ते कर्माजमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउस-1
कविनयनाद्विनयः संयमः, शाक्यादयो हि वयमपि विनयत्थं समारम्भमाणे असे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । व्यवस्थिताः इत्येवं भाषन्ते, न च पृथिव्यादिजीवाभ्युपगमं तत्थ खलु भगवया परिमा पवेइया इमस्स चेव जीवियस्स। कुर्वन्ति, तदभ्युपगमे वा तदाश्रितारम्भित्वात् ज्ञानाद्याचारपरिवंदणमाणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघा
विकलत्वेन नष्टशीला इति । किं पुनः कारणम् ?, येनैवं ते दुष्ट
शीला अपि विनयव्यवस्थितमात्मानं भाषन्ते इत्यत श्राहयहेउं से सयमेव वाउसत्थं समारंभति,अमेहिं वा वाउसत्थं
'छंदोवणीया अज्झोववरणा' छन्दः-स्वाभिप्रायः इच्छा समारंभावेइ अप्ले वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणति तं से मात्रमनालोचितपूर्वापरं विषयाभिलाषणे वा तेन छन्दसोअहियाए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं
पनीताः-प्रापिता प्रारम्भमार्गमविनीता अपि विनयं भा
षन्ते, अधिकमत्यर्थमुपपन्नाः, तच्चित्तास्तदात्मकाः अध्युपसमुट्ठाए सोचा भगवो अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं
पन्नाः विषयपरिभोगायत्तजीविता इत्यर्थः,ये एवं विषयाशाणायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे,एस खलु मारे कर्षितचेतसस्ते किं कुर्युरित्याह-' प्रारम्भसत्ता पकरन्ति एस खलु णिरए इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं | संगं" प्रारम्भणमारम्भः सायद्यानुष्ठानं तस्मिन् सक्नास्तसत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अम्मे
त्पराः प्रकर्षेण कुर्वन्ति, सज्यन्ते येन संसारे जीवाः स सङ्गः
अष्टविधं कर्म विषयसको वा तं सङ्गं प्रकुर्वन्ति, सङ्गाच्च अणेगरूवे पाणे विहिंसति । (सू०५८)से बेमि-संति संपाइ
पुनरपि संसारः श्राजवंजवीभावरूपः एवं प्रकारमपायममा पाणा आहच संपयंति य फरिसं च खलु पुट्ठा एगे
वाप्नोति पद्जीवनिकायघातकारीति । संघायमावजंति जे तत्थ संघायमावजंति, ते तत्थ परिया- अथ यो निवृत्तस्तदारम्भात् स किंविशिष्टो वजंति जे तत्थ परियावजंति ते तत्थ उद्दायंति,एत्थ सत्थं
भवतीत्यत श्राहसमारंभमाणस्स तेचेइ आरम्भा अपरिमाया भवंति । एत्थ
से वसुमं सबसमामागयपरमाणेणं अप्पाणेणं अकरणिसत्थं असमारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिमाया भवंति
जं पावं कम्मं णो अमेसिं तं परिमाय मेहावी व सयं तं परिणाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेजा णेवs
छजीवनिकायसत्थं समारंभेजा णेवरमेहिं छजीवनिकायमेहिं वाउसत्थं समारंभावेजा णेवरमे वाउसत्थं समारंभंते
सत्थं समारम्भावेजा णेवले छज्जीवनिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा जस्सेते वाउमत्थसमारम्भा परिमाया
समणुजाणेज्जा, जस्सेते छजीवनिकायसत्थसमारंभा परि
माया भवंति से मुणी परिमायकम्मे त्ति बेमि । (सू०-६१) भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे त्ति बेमि । (सू० ५६) 'लजमाणा पुढो पासे' त्यादि पूर्ववन्नेयं यावत्-'से हु
'से' इति पृथिव्युद्देशकाद्यभिहितनिवृत्तिगुणभाक् षड्जीमुणीपरिमायकम्मे त्ति बेमि'।
वनिकायहनननिवृत्तो वसुमान्-वसूनि द्रव्यभावभेदाद् द्विधा संप्रति पहजीवनिकायविषयवधकारिणामपाय
द्रव्यवसूनि-मरकतेन्द्रनीलवज्रादीनि भाववसूनि-सम्यक्त्वादिदर्शयिषया तन्निवृत्तिकारिणां च संपूर्णमु
दीनि तानि यस्य यस्मिन्-वा सन्ति स वसुमान् ; द्रव्यवानिभावप्रदर्शनाय सूत्राणि प्रक्रम्यन्ते
नित्यर्थः, इह च भाववसुभिर्वसुमत्त्वमङ्गीक्रियते, प्रशायन्ते यैएत्थं एि जाणे उवादीयमाणा जे मायारेण रमंतिा
स्तानि प्रज्ञानानि यथावस्थितविषयग्राहीणि ज्ञानानि सर्वाणि
समन्वागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रशानः रंभमाणा विणयं वयंति छंदोवणीया अभोववमा आरं- सर्वावबोधविशेषानुगतः सर्वेन्द्रियज्ञानैः पटुभिर्यथावस्थितभसत्ता पकरंति संगं । (सू०-६०)
विषयग्राहिभिरविपरीतैरनुगत इति यावत् , तेन सर्वसपतस्मिन्नपि प्रस्तुते वायुकाये अपिशब्दात्-पृथिव्यादिषु मन्वागतप्रज्ञानेनात्मना । अथवा-सर्वेषु-द्रव्यपर्यायेषु सच समाश्रितमारम्भं ये कुर्वन्ति ते उपादीयन्ते; कर्मणा
म्यगनुगतं प्रज्ञानं यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रबध्यन्त इत्यर्थः, एतस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्ताः शेषनि- ज्ञानः, आत्मा भगवद्वचनप्रामाण्यादेवमेतत् द्रव्यपर्याकायवधजनितेन कर्मणा बध्यते,किमिति ?, यतो न होकजी- यजात नान्यथेति सामान्यविशेषपरिच्छेदान्निश्चितावनिकायविषय प्रारम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कर्तु
शेषज्ञेयप्रपञ्चस्वरूपः सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मेशक्यत इत्यतस्त्वमेवं जानीहि, श्रोतुरनेन परामर्शः । अत्र | १-पुनः पुन स्तत्रिवोत्पत्तिः ।
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(२०१३) अभिधानराजेन्द्रः ।
बाउकाइय
त्युच्यते, अथवा - शुभाशुभफलसकलकलापपरिज्ञानाश्नरकतिर्यग्नरामरमोक्षसुखखरूपपरिज्ञानाचा परितुष्यनेकान्ति कादिगुणयुक् संसारसुखे मोक्षानुष्ठानमा विष्कुर्वन् सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्माऽभिधीयते, तेनैवंविधेनात्मना करश्रीयमकर्तव्यमिह परलोकविरुद्धत्वादकार्यमिति मत्वा नास्वेषयेत् न तदुपादानाय पलं कुर्यादित्यर्थः किं पुनः तदकरणीयं नान्यमिति, उच्यते पापकर्म (प्राचा०|) ( तद्व्याख्या 'पावकस्म' शब्दे पञ्चमभागे ८७७ पृष्ठे गता । ) एतदेवाह - 'तं परिष्ठाय मेहावी' त्यादि तत्पापमष्टादशप्रका रं परिः - समन्तात् ज्ञात्वा मेधावी मर्यादावान् नैव स्वयं पजीवनिकायशखं स्वकाय परकायादिभेदं समारभेत नेयान्यैः समारम्भयेत् न चान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात् एवं यस्येते सुपरयकारिणः पजीवनिकाशस्त्रसमारम्भाः तद्विषयाः पापकर्म्मविशेषाः परिज्ञाता शपरिशया प्रत्याख्यानपरिशया च स एव मुनिः प्रत्याख्यातकर्मत्वात्, प्रत्याख्याताशेषपापागमत्वात्, तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । इतिशब्दोऽध्ययनपरिसमाप्तिप्रदर्शनाय प्रवीमीति सु धर्मा स्वाम्पाह - स्वमनीषिकाव्यावृत्तये भगवतो ऽपनीत नघातिकचतुष्टयस्य समासादिताशेषपदार्थाविवदिव्यज्ञानस्य प्रणताशेषगीर्वाणाधिपतेश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वि तस्य श्रीवर्द्धमानस्वामिनः उपदेशात्सर्वमेतदाख्यातं यदतिक्रान्तं मयेति । श्राचा० १ श्रु० १ श्र० ७ उ० । ( 'मूलगुणपदिवाशब्देऽवि भागे २२६ पृष्ठे पतस्य दर्शिकाकल्पका च प्रतिसेवना । )
"
वायुकायिकानां शरीरभेदानाह
तेसि सं भंते! जीवा कति सरीरंगा पद्मता गोयमा ! चारि सरीरमा पचत्ता, तं जहा ओरालिते बेठम्बिते तेre कम्मर सरीरगा पडागसंठिया, चत्तारि समुग्धा
या पणत्ता, तं जहा वेणासमुपाते कसायसमुपाते मारणंतियसमुग्धाए बेडब्बियसमुपाते आहारो गिज्या घाणं छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सियचउद्दिसि सिय पंचदिसि उववातो देवमणुयनेरइएस 5त्थि, ठिती जहमेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं तिनि वाससहसाई से से एगगतिया दुअगतिया परिचा असं चैव खेज पम्पत्ता समणाउसो !, सेत्तं बायरवाउक्काइया । सेत्तं बाउकाइया (खू० - २६४ )
तथा शरीरादिद्वारफलापचिन्तायां शरीरद्वारे चत्वारि शरीराणि श्रदारिकयेक्रियतेजसकार्मणानि चत्वारः समुधाताः – वैक्रियवेदनाकषायमारणान्तिकरूपाः स्थितिद्वारजघन्यतोऽन्तवक्रव्यमुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षसहस्राणि आहारो निन्याघातेन पददिशि व्यापातं प्रतीत्यस्यात् विदिशि स्याच्चतुर्दिशि स्वात् पञ्चदिशि लोकनिष्कुटादावपि बादरवातकायस्य संभवात् शेषं सूक्ष्मवातकायवत् उपसंद्वारमाह-सेतं बाउकाइया' इति उक्ा वायुकायिकाः । जी० १] प्रति०] पुञ्जकिया वायुकरणे खामोऽलाभो वा इति प्रश्न:, अत्रोत्तरम् - मुख्यस्यापुञ्जणिकया वायुकरणं ज्ञातं
वाउच्य
नास्ति परं गुद मलिकोडायनार्थं वायुकरणे लाभोऽस्ति न रामः यतो मछिकोडायनं गुरुभावेति ॥१४६॥ सेन० ४ उल्ला० ।
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वाउक्का (का) - वायुकाय- पुं०। प्रचण्डवाते, स्था०३ ठा०३ उ० । बाउकार से भंते! वाउपाए क्षेत्र अगसबसहस्ससुसो उद्दाइसा उदाइचा तत्थेव ओ ओ पच्चायाति १, हंता गोषमा ! •जाव पश्चायाति से भंते! किं पुढे उद्दाति अपुढे उद्दाति है, गोपमा ! पुढे उदाइ नो अपुढे उदाह । से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ असरीरी निक्खमइ ?, गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ सिय असरीरी निक्खमह से केाऽगणं भेते! एवं बुच्चइ सिय ससरीरी निक्खमइ सिय असरीरी निक्खमइ १, गोयमा ! बाउकायस्स से चचारि सरीरया पत्ता, तं जहा-ओरालिए वेव्विए तेयए कम्मए, ओरालियवेड व्वियाई विप्पजहाय तेयकम्मएहिं निक्खमति, से तेराऽट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सिय ससरीरी सिय सरीरी निक्खमइ । ( सू० ८६ )
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'वाउकाएं भंते !' इति श्रयं व प्रश्नो बायुकायप्रस्तावाद्विहितोऽन्यथा पृथिवीकायिकादीनामपि मृत्वा स्वकाये उत्पादोऽस्त्येव सर्वेषामेषां कायथितेरसंख्याततयाऽनन्ततया चोक्तत्वात् । यदाह - " असंखोसप्पिणी उस्स-पगीउ एगिंदियाण उ चउराहं । ता चेव ऊ अरांता वणस्वर व बोदण्या ॥ १ ॥ " तत्र वायुकायो वायुकाय पचानेकशतसहस्रकृत्य उद्दारत्त' ति अपहृत्य -मृत्वा ' तत्थेव ' त्ति वायुकाय एव ' पच्चायाइ ' त्ति 'प्रत्याजायते उत्पद्यते । पुट्ठे उद्दाइ' नि स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशस्त्रेण वा अपद्रवति- म्रियते ' नो अपुट्टे' त्ति सोपक्रमापेक्षमिदं 'निक्खमा 'सि स्वकलेवरात्रिःसरति, सिय ससरीरीति स्यात् कथञ्चित् ओरालियवेउब्विया विप्यजदायेत्यादि श्रयमर्थः- श्रीदारिकवैकियापेक्षा अशरीरी ते जसकार्मणापेक्षया तु सशरीरी निष्क्रामतीति । वायुकायस्य पुनस्तत्रैवोत्पत्तिर्भवतीत्युक्तम् भ० २ ० १ ३० । वाउक्खित्त - वातोत्क्षिप्त - त्रि० । समीरणोत्पाटिते, पिं० । वाउचारण-वायुचारण- पुं० पवनेष्यनेकदिग्मुखमुषेषु प्रतिलोमानुलोमवर्तितत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमत्स्खलितचरणविन्यासमास्कन्दति चारणभेदे, म० २ अधि० । वाउजीव-वायुजीव- पुं० । वायुकायिकजीवे, " दुविधा वाउजीवा-हुमा थ, वायरा य" उत० अ० श्राचा० । ३ । वाउत्तरवर्डिग वायूचरावतंसक न० तृतीये देवलोकविमाने, स०५ सम० ।
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बाउय वातोद्धृत त्रि० । वायुकम्पिते, चं० प्र० १८ पाहु० । " धाउपविजयवेजपती" पातोता विजयका - जयन्ती पार्श्वतो लघुपताकाद्वययुक्तः पताकाविशेषो वातो
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(१०६४) वाउनूय अभिधानराजेन्द्रः।
वाउभूह वृतविजयवैजयन्ती । भ० । श. ३३ उ०। सू० प्र० । यथा च वायुभूतेरयं संशयस्तथा विशेषत एव रा। जी ।
भाष्यकारो भावयन्नाहवाउप्पइया-वातोत्पतिका-स्त्री०। पक्षिजातिभेदे, प्रश्न. १ वसुहाइभृय समुदय, संभृया चेयण त्ति ते संका। आश्रद्वार।
पत्तेयमदिट्ठाऽवि हु, मजंगमउ व्व समुदाये ॥१६५०॥ बाउप्पवेस-वायुप्रवेश-पुं० । गवाक्षे, औ०।
जह मअंगेसु मओ, वीसुमदिट्ठोऽवि समुदए होउं । बाउम्भाम-वातोद्धाम-पुं०। अनवस्थितवाते, जी० १
कालंतरे विणस्सइ, तह भूयगणम्मि चेयएणं ।१६५०। प्रति० । प्रज्ञा० । वृष्यव्यभिचारिणि प्रदक्षिणं दिनु भ्रमति
वसुधा-पृथ्वी , आदिशम्दादपतेजोवायुपरिग्रहः , वसुधाप्रशस्ते वाते, अनु।
दय एव भवन्तीति कृत्वा भूतानि वसुधादिभूतानि, तेषां बाउभक्खि (ण)-वायुभचिन-पुं०। वायुमात्रभक्षके वान
समुदयः-परस्परमीलनपरिणतिर्वसुधादिभूतसमुदयः,तस्माप्रस्थे, नि०। औ०।
त्प्रागसती संभूता संजाता चेतनेत्येवंभूता तव शङ्का । सा बाउभइ-वायुभति-पुं०। गौतमगोत्रे इन्द्रभूतेतरि वीरजि-| च चेतना पृथिव्यादिभूतेषु प्रत्येकावस्थायामरष्टाऽपि धातजस्य तृतीये गणधरे, स०१ सम। प्रा०म०।
कीकुसुमगुडोदकादिषु मद्यानेषु मद इव तत्समुदाये संभूतेअथ तृतीयगणधरस्य वायुभूतेर्वक्लव्यतामभिधि
ति प्रत्यक्षत एव दृश्यते । तदेवमन्वयद्वारेण चेतनाया भूतसुराह
समुदायधर्मता दर्शिता । अथ व्यतिरेकद्वारेण तस्यास्तां दर्शते पब्वइए सोउं, तइओ आगच्छई जिणसगासं।
यितुमाह-'जह मजंगेसु' इत्यादि, यथा च मद्यानेषु मद
भावः प्रत्येकावस्थायामष्टोऽपि तत्समुदाये भूत्वा ततः बच्चामी वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासामि ॥१६४५॥
कियन्तमपि कालं स्थित्वा कालान्तरे तथाविधसामग्रीवशात् ताविन्द्रभूत्य-ग्निभूती प्रवजितौ श्रुत्वा तृतीयो-वायुभूति
कुतश्चित् विनश्यति, तथा भूतगणेऽपि प्रत्येकमसचैतन्य नामा द्विजोपाध्यो जिनसकाशमागच्छति, सातिशयनिज
भूत्वा ततः कालान्तरे विनश्यति । ततोऽन्वयव्यतिरेकापन्धुद्वयनिष्क्रमणाकर्णनाझगिति विगलिताभिमानो भगव
भ्यां निश्चीयते-भूतधर्म एव चैतन्यम् । इदमत्र हदयम्ति संजातसर्यशप्रत्ययः सन्नेवमवधार्याऽऽगतः-वजामि तत्रा
यत् समुदायिषु प्रत्येक नोपलभ्यते तत्समुदाये चोपलभ्यते हमपि वन्दे भगवन्तं श्रीमन्महावीरम् , वन्दित्वा च पर्युपासे
तत्समुदायमात्रधर्म एव, यथा-मद्याकसमुदायधर्मो मदः । स पर्युपास्ति करोमि तस्य भगवत इति ।
हिमचाङ्गेषु विष्वग् नोपलभ्यते,तत्समुदाये चोपलभ्यते,अत___ अपरश्च किं विकल्प्य समागतोऽसौ इत्याह
स्तद्धर्मः,एवं चेतनाऽपि भूतसमुदाये भवति,पृथग् न भवति, सीसत्तेणोवगया, संपयमिदग्गिभूइणो जस्स ।
अतस्तद्धर्मः । धर्मधर्मिणोश्चाभेद एव भेदे घटपटयोरिव ध. तिहुयणकयप्पणामो,स महाभागोऽभिगमणिजो १६४६। मिधर्मभावाप्रसङ्गात् । तस्मात् स एव जीवस्तदेव च शरीरम् । तदभिगमण वंदणो-वासणाइणा होज पूयपावोऽहं । वाक्यान्तरेषु पुनः शरीराद् भिन्नः श्रूयते जीवः , तद्यवोच्छिष्मसंसो वा,वोत्तुं पत्तो जिणसगासे ॥१६४७।।
था-'न हि वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति ,
अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इत्यादि । त. पूतपापो-विशुद्धपापः; अपगतचाप इत्यर्थः, शेषं सुगमम् ।
तस्तव संशय इति। ततः किम् ? इत्याह
अत्रोत्तरमाहआभडो य जिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं ।
पत्तेयमभावामो, न रेणुतेनं व समुदये चेया । नामेण य गोत्तेण य, सव्वएणू सव्वदरिसीणं ।१६४८।
मजंगेसु तु मो, वीसुपि न सव्वसो नत्थि॥१६५२।। व्याख्या पूर्ववदिति , इत्थं सगौरवं साञ्जसमाभापितोऽपि
'न समुदये चेय ति'न भूतसमुदायमात्रप्रभवा चेतना, भगवता सकल त्रैलोक्यातिशायिनी तस्य रूपादिसमृद्धिमभिवीक्ष्य क्षोभादसमों द्तसंशयं प्रयुं विस्मयात् तूष्णी
'पत्तेयभावाउ' त्ति भूतप्रत्येकावस्थायां; तस्या अंशतोऽपि स. माश्रितः पुनरपि उक्तः।
र्वथाऽनुपलब्धेरित्यर्थः। किं यथा कि प्रभवं न भवति ? किम् ? इत्याह
इत्याह-न रेणुतेलं व 'त्ति यथा प्रत्येकं सर्वथाऽनुपलम्भाद:
रेणुकणसमुदायप्रभवं नेलं न भवतीत्यर्थः । प्रयोग:तजीव तस्सरीरं, ति संसो न वि य पुच्छसे किंचि ।
यद् येषु पृथगवस्थायां सर्वथा नोपलभ्यते तत् तेषां सवेयपयाण य अत्थं,न याणसी तेसिमो अत्थो ।१६४६। मुदायेऽपि न भवति, यथा-सिकताकणसमुदाये तैलम् । यत्तु हे आयुष्मन् वायु भूते! 'तदेवं वस्तु जीवस्तदेव च शरीरम् तेषां समुदाये भवति न तस्य पृथगव्यवस्थितेषु तेषु न पुनरन्यत्' इत्येवंभूतस्तव संशयो वर्तते, नाऽपि च तदप- सर्वथाऽनुपलम्भः , यथैकैकतिलावस्थायां तैलस्य सर्वथा नोदार्थे किश्चिद् मां पृच्छसि । ननु यज्ञवाटानिर्गच्छता त्व- नोपलभ्यते च भूतेषु प्रत्येकावस्थायां चेतना , तस्माद् याऽभिहितमासीत्-'बोच्छिलसंसमो वा' इति, तत् किमि- नासौ तत्समुदायमात्रप्रभवा, किन्त्वर्थापत्तेरेवान्यत् किमतिन किश्चित् पृच्छसि ? । अयं च संशयस्तव विरुद्धवेद- पि जीवलक्षणं कारणान्तरं भूतसमुदायातिरिक्तं तत्र संपदभवणनिबन्धनो वर्तते । तेषां च वेदपदानामर्थे त्वं न जा- घट्टितम् , यत इयं प्रभवतीति प्रतिपत्तव्यम् । श्राह-प्रत्येमासि, तेम संशयं कुरुथे। तेषां चायं वक्ष्यमाणलक्षणोऽर्थ कावस्थायां सर्वथाऽनुपलम्भात् इत्यनैकान्तिकोऽयं हेतुः , इति।
प्रत्येकावस्थायां सर्वथानुपलम्धस्यापि मदस्य मद्याङ्गसमु
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बाउ भूइ
दावे दर्शनात् इत्याशङ्कवाद - 'मजंगे' इत्यादि धातकीकुसुमादिसु मद्याङ्गेषु पुनर्विष्वक पृथग् न सर्वथा मदो मास्ति, अपि तु या च यावती च मदमात्रा पृथगपि तेअस्त्येवेत्यर्थः । ततो नानैकान्तिकता देतोरिति ।
1
(२०६५) अभिधानराजेन्द्रः ।
भूतेष्वप्येवं भविष्यतीति चेत्, नैतदेवं कुतः ? इत्याहममिवणि वितरागाई, पमेयं पि हु जहा मयंगेसु । तह जइ भ्रूपसु भवे, या तो समुदये होजा ।। १६५३ ।। यथा प्रत्येकावस्थायां घातकीकुसुमेषु या च यावती चअमिश्चित्तभ्रमापादनशक्तिरस्ति गुदद्वारसादिषु पुनगिरतृप्तिजननशक्तिरस्ति, उदके तु वितृष्णताकरणशक्तिरस्ति आदिशब्दादन्येष्वपि मद्यानेष्वन्याऽपि यथासंभवं लिवया तथा तेनैव प्रकारेण व्यस्तेष्वपि पृथिव्यादिभूतेषु यदि काचिचैतन्यशक्तिरभविष्यत तदा तत्समुदाये संपूर्ण स्पष्टा बेतना स्यात् न चैतदस्ति तस्माद्भूतसमुदायमात्रप्रभवेयमिति ।
ननु यदि प्रत्येकावस्थायां मद्याङ्गेषु सर्वथैव मदशक्तिर्न स्यात् तदा किं दूषणं स्यात् ? इत्याह
जइ वा सव्वाभावो वसुं तो किं तदंगनियमोऽयं । तस्समुदयनियमो वा असु वि तो हवेजाहि ॥ १६५४ ।। यदि च मचाङ्गेषु पृथगवस्थायां सर्वचैव मदशपत्यभावः साई को यं तदनियमः कोऽयं धातकीकुसुमादीनां मद्याजानियमः तत्समुदायनियमाा किमिति मयार्थी धातकीकुसुमादीन्येवान्वेषयति, तत्समुदायं किमिति नियमेन मीलयात ? इत्यर्थः नम्यन्येष्वपि च भवाश्मगोममादिषु समुदितेषु मद्यं भवेदिति ।
,
"
अथ मद्यानेषु प्रत्येकावस्थायामपि मदशसिद्भावं साधिसमाकर कदाचित पर एवं स्यात् किम् ? इत्याहभूयाणं पत्तेयं, पि चेयणा समुदए दरिसणाओ । जह मअंगेसु मच्यो, मह तिहेऊन सिद्धोऽयं ।। १६५५ ।। स्वात् परस्य मतिः साधूकं यत् पृथगपि मयाहेषु एतदेव हि मम भूतेषु किञ्चिद् मदसामर्थ्यमस्तीति पस्तावस्थायां चैतन्यास्तित्यसिद्धावुदाहरणं भविष्यतिनयाहि-व्यस्तेष्वपि भूतेषु चैतन्यमस्ति तत्समुदाये त दर्शनात् मचाङ्गेषु मदवदिति । यथा मचानेषु मदः पृथगल्पत्वाद् नातिस्पष्टः, तत्समुदाये त्वभिव्यक्तिमेति, तथा भूतेष्वपि पृथगवत्थाचामणीयसी चेतना, तत्समुदाये तु भूयसीयमिति । अत्रोसरमाह-'हेऊन सिद्धोऽयमिति चेतनाया भूतसमुदाये दर्शनात् इत्यसिद्धोऽयं हेतुरित्यर्थः । आत्मनो भूतसमुदायान्तर्गतत्वेन चेतनायास्तद्धर्मत्वात् श्रात्माभावे च वत्समुदाये ऽपि तदसिद्धेरसिद्धोऽयं हेतुरिति भावः, यदि हिभूतसमुदायमात्रधर्मश्चेतना भवेत्तदा मृतशरीरेऽप्युपलभ्येत बायोस्तदानीं तत्राभावात् तदनुपलम्भ इति चेत् नियम् मलिकादिप्रयोगतस्तत्प्रक्षेपेऽपि तदनुपलब्धेः तेजस्तदानीं तत्र नास्तीति चेत्; न तत्प्रक्षेपेऽपि तदनुपलम्भात् । विशितेजोपाध्याभावादनुपलम्भ इति वेत् किं नामात्मसर वि डायान्यसद्वैशिष्ट्यम् ? ननु संज्ञान्तरेणात्मसत्वमेव त्वयाऽपि प्रतिपादितं स्यादिति । २६७
"
अथ परस्योत्तरमाराद्वय प्रतिविधानुमाहन पच्चक्खविरोहो, गोयम ! तं नारणुमाणभावाओ । तुह पच्चक्खविरोहो, पत्तेषं भूयचेय नि ।। १६५६ ।। ननु प्रत्यक्षविरूपमेवेदम् यत् भूतसमुदाये सत्युपलभ्यमानाऽपि चेतना न तत्समुदायस्येत्यभिधीयते, न हि घटे रूपादय उपलभ्यमाना न घटस्येति वक्तुमुचितम्, तदयुक्तम्, यतो न भूजलसमुदायमात्रे उपलभ्यमाना अपि हरितादयस्तन्मात्रमभया इति शक्यते पशुम् । तद्वीजसाधकानुमानेन वाध्यतेऽसानुपलम्भ इति चेत्। तदेतदिहापि समानम् एतदेवाह
प्रत्युत
गोयमेत्यादि ' वायुभूतेरपीन्द्र भूतिसोदर्यभ्रातृत्वेन समानगोवत्याद् गौतम इत्येवमामन्त्रणम्, यत्त्वं तदेतद्न भूतसमुदायातिरिक्कात्मसाधकानुमानखद्भावात् ततस्तेनैव त्वत्प्रत्यक्षस्य बाधितत्वादिति भावः । तवैव प्रत्यक्षविरोधः, किं कुर्वतः ? इत्याह-' पत्तेयं भूयत्रेय ' ति ब्रुवतः इति शेषः । प्रत्येकावस्थायां पृथिव्यादिभूतेषु वैतम्याभावस्यैव दर्शनात् तदस्तित्वं प्रत्यक्षरीव वाध्यत इति प्रत्येकं भूतेषु चेतना इति ध्रुवतस्तवैष प्रत्यक्षविरोध इत्यर्थः ।
किं पुनस्तदात्मसाधकमनुमानम् ? इत्याहभूइंदियोवलद्धाणुसरणओ तेहि भिन्नरूवस्स ।
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या पंचगवक्खो पलद्ध पुरिसस्स वा सरभो ।। १६५७॥ तेभ्यो भूतेन्द्रियेभ्यो भिरूपस्य कस्यापि धर्मतन प्रतिज्ञा, भूतेन्द्रियोपलम्धार्थानुस्मरणादिति हेतुः । यथा पञ्चभिर्गवाक्षेरुपलब्धानर्थाननुस्मरतस्तदतिरिक्तस्य कस्यापि देवदत्तादेः पुरुषस्य चेतनेति दृष्टान्तः । श्रयमत्र तात्पर्यार्थः इह य एको यैरनेकैरुपलब्धानर्थाननुस्मरति स तेभ्यो भेदवान् दृष्टः यथा पञ्चभिर्गवाचैरुपलब्धानर्थाननुस्मरन् देवदत्तः या यस्माद् भूतेन्द्रियात्मकसमुदायादभिस्रो न भवति, किं तर्हि ? अनम्यः, नायमेको ऽनेकोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता, यथाशब्दादिग्राहक मनोविज्ञानविशेषः, तैरुपलभ्यानुस्मरतोऽपि च तदनतिरिक्तत्वे देवदत्तस्यापि गवाक्षमात्र प्रसहो बाधकं प्रमाणम् । इन्द्रियाख्येयोपलभन्ते, न पुनस्तेरम्य उपलभत इति चेत् तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थाननुस्मरणात् तद्व्यापारे व कदाचिदनुपलम्भात् इत्यनन्तरमेवा दिति ।
बाउमूह
अनुमानान्तरमप्यात्मसिद्धये प्राह
तदुवरमे विसरणयो, तब्वावारे वि नोवलंभाओ । इंदिभिस्स मई, पंचगवक्खाणुभवियो व्व ॥। १६५८ ।। इन्द्रियेभ्यो निस्पैयं कस्यापीयं घटादिज्ञानला मतिरिति प्रतिक्षा। तदुपरमेऽपि अन्धत्य-वाधिर्वायवस्थागामिन्द्रियव्यापाराभावेऽपि तद्द्वारेणोपलन्धानामर्थानामनुस्मरणादिति हेतुः । अथवा - श्रस्यामेव प्रतिशायां तद्व्यापारेऽपि - इन्द्रियव्यापृतावपि कदाचिदनुपयुक्तावस्थायाम्, वस्वनुपलम्भादित्यपरो हेतुः । यदि द्रवाच इि भवेयुः तर्हि किमिति विस्फारिताज्ञस्यापि प्रगुणधोत्रादीन्द्रियवर्गस्यापि योग्यदेशस्थितानामपि रूपशब्दादिवस्तूनामनुपयुक्तस्य अन्यमनस्कस्य शून्यचित्तस्योपलम्भो न भयति । ततो ज्ञायते द्रियग्रामव्यतिरिकस्यैव कस्यचिदयमुपलम्भः, यथा पञ्चभिर्गवाक्षैर्योषिदादिवस्तून्यनुभवि
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(२०६६) वाउभूइ अभिधानराजेन्द्रः।
वाउभूइ तुर्दशकस्येति दृष्टान्तः । अत्रापि प्रयोगाभ्यां तात्पर्यमुपद-येष्वर्थेष्येकान्तेनैव युक्त्यन्वेषणपरैर्भाव्यम् । विशे०। ( परश्यते, तद्यथा-इह यो यदुपरमेऽपि यैरुपलब्धानामर्थानाम- भववक्तव्यता 'परभव' शब्दे पञ्चमभागे ५३० पृष्ठे गता।) नुस्मर्ता स तेभ्यो व्यतिरिक्तो दृष्टः, यथा गवाक्षरुपलब्धाना- इदानीमिहभवमङ्गीकृत्याऽऽह--अथवा-क्षणिकत्वमभ्युपगमर्थानां गवाक्षोपरमेऽपि देवदत्तः अनुस्मरति चायमात्मान्ध म्योक्तम् , अधुना तत् क्षणिकमेव न भवतीत्याहबधिरत्वादिकालेऽपीन्द्रियोपलब्धानर्थान् , अतः स तेभ्योऽ
न य सव्वहेव खणिअं, नाणं पुयोवलद्धसरणाओ। र्थान्तरमिति । तथा-इन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त श्रारमा, तद्व्यापारेऽप्यर्थानुपलम्भात् , इह यो यद्व्यापारेऽपि यैरुपल
खणिो न सरइ भूयं, जह जम्माणंतरविनट्ठो।१६७३। भ्यानर्थान् नोपलभते स तेभ्यो भिन्नो दृष्टः,यथा स्थगितगवा
न च सर्वथैव क्षणिकं ज्ञानं वक्तुं युज्यते । कश्चित्तु क्षकोऽप्यन्यमनस्कतयाऽनुपयुक्तोऽपश्यस्तेभ्यो देवदत्त इति ।
णिकतां भगवानपीच्छत्येव, इति सर्वथैव इत्युक्तम् । कस्माअपरमपि भूतेन्द्रियव्यतिरिक्तात्मसाधकमनुमानमाह
त्पुनर्शानं न क्षणिकम् ? इत्याह-पूर्वोपलब्धस्य बालकालाद्य
नुभूतस्यार्थस्य वृद्धत्वाद्यवस्थायामपि स्मरणदर्शनात् । न उवलब्भन्नेण विगा-रगहणो तदहिओ धुवं अत्थि ।
चैतदेकान्तक्षणिकत्वे सत्युपद्यते, कुतः ? इत्याह-'खणिपुवावरबातायण-गहणविगाराइपुरिसो ब्व ॥१६५६।।। ओ' इत्यादि यः क्षणिको नायं भूतमतीतं स्मरति , यथा इह ध्रुवं-निश्चितं तदधिकस्तेभ्य-इन्द्रियेभ्यः समधिको- जन्मानन्तरविनष्टः , एकान्तक्षणिकं चेष्यते ज्ञानम् , अतः भिन्नः समस्ति जीवः, अन्येनोपलभ्यान्येन विकारग्रहणा- स्मरणाभावप्रसङ्ग इति । त्, इह योऽन्येनोपलभ्याम्येन विकारं प्रतिपद्यते स त
क्षणिकवानपक्षे दूषणान्तरमप्याहस्माद् भिन्नो दृष्टः, यथा प्रवरप्रासादोपरितनस्ततः पदपरि- जस्सेगमेगबंधण-मेगतेण खणियं य विमाणं । पाटी कुर्वाणः पूर्ववातायनेन रमणीमवलोक्यापरवातायनेन समागतायास्तस्याः करादिना कुचस्पर्शादिविकारमुप
सब्बखणियविमाणं, तस्साजुत्तं कदाचिदवि ।१६७४।
यस्य वादिनो बौद्धस्य 'एकविज्ञानसन्ततयः सत्त्वाः' इति दर्शयन् देवदत्तः, तथा चायमात्मा चक्षुषाऽम्लीकामश्नन्तं दृष्ट्वा रसनेन हल्लासलालास्रावाऽऽदिविकारं प्रतिपद्यते,
वचनादेकमेवाऽसहायं शानं तस्य' सर्वमपि वस्तु क्षणिकतस्मात्तयोभिन्न इति । अथवा-ग्रहणशब्दमिहाऽऽदानपर्या
म्' इत्येवंभूतं विज्ञानं कदाचिदपि न युक्तमिति संबयं कृत्वाऽन्यथाऽनुमान विधीयते-इन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त--
न्धः । इष्यते च सर्वक्षणिकताविज्ञानं सौगतैः , 'यत् सत् श्रात्मा, अन्येनोपलभ्यान्येन ग्रहणात् , इह य श्रादेयं घ
तत् सर्व क्षणिकम् ' तथा,-'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः' टादिकमर्थमन्येनोपलभ्यान्येन गृह्णाति स ताभ्यां भेदवान् इत्यादिवचनात् । एतच्च क्षणिकताग्राहकज्ञानस्यैकत्वेन दृष्टः, यथा पूर्ववातायनेन घटादिकमुपलभ्यापरवातायनेन
संभत्येव, यदि हि त्रिलोकीतलगतैः सर्वैरपि क्षणिकैः गृह्वानस्ताभ्यां देवदत्तः, गृह्णाति च चक्षुषोपलब्ध घटादिक
पदार्थैः पुरः स्थित्वा तदेकं विज्ञानं जन्येत तदा तदेतमर्थ हस्तादिना जीवः, ततस्ताभ्यां भिन्न इति ।
जानीयात्--यदुत--'क्षणिकाः सर्वेऽग्यमी पदार्थाः' इ
ति । न चैवं सर्वैरपि तैस्तजन्यते । कुतः ? इत्याह-एअथान्यदनुमानम्
गबंधणं' ति यस्मादेकमेव प्रतिनियतं बन्धन-निवन्धसव्वेदिनोवलद्धा-णुसरणओ तदहियोऽणुमंतव्यो।
नमालम्बनं यस्य तदेकवन्धनं ज्ञानम् , अतः कथमशेषवस्तु. जह पंचभिन्नविना-णपुरिसविनाणसंपन्नो ।। १६६०॥ स्तोमव्यापिनी क्षणिकतामवबुध्येत?। अपि च-एकालसर्वेन्द्रियोपलब्धार्थानुस्मरणतः कारणात् तदधिकोऽस्ति म्बनत्वेऽपि यद्यशेषपदार्थविषयाणामपि झानानां युगपदुजीवः । दृष्टान्तमाह-यथा पश्चच ते भिन्नविज्ञानाश्च पञ्चभिन्न- त्पत्तिरिष्यते , श्रात्मा च तदर्थानुस्मर्ता, तदा स्यादशेविज्ञानाः, इच्छावशात् प्रत्येकं स्पर्श-रस-गन्ध-रूप-शब्दोप- षपदार्थक्षणिकतापरिज्ञानम् । न चाशेषार्थग्राहकानेकशायोगवन्त इत्यर्थः, पञ्चभिन्नविज्ञानाश्च ते पुरुषाश्च पञ्चभिन्न
नानां युगपदुत्पत्तिरिप्यते । किश्च-तदेकमप्येकार्थविषयविज्ञानपुरुषास्तेषां यानि स्पर्शादिविषयाणि विज्ञानानि तैः
मपि च विज्ञानं सर्वपदार्थगतां क्षणिकतामझास्यदेव सम्पन्नस्तद्वेत्ता यः पष्ठः पुरुषस्तेभ्यः पञ्चभ्यो भिन्नः । इद
यद्युत्पत्त्यनन्तरध्वंसि नाभविष्यत् । अविनाशित्वे हि मत्र तात्पर्यम्-य इह यैरुपलब्धानामर्थानामेकोऽनुस्मर्ता
तदवस्थिततयोपविष्ट सदन्यमन्यं चार्थमुत्पत्त्यनन्तरमुपरस तेभ्यो भिन्नो दृष्टः, यथेच्छाऽनुावधायिशब्दादिभिन्नजा
मन्तं दृष्टा सर्वमेवास्महर्जमस्मत्मजातीयवर्ज च वस्तु तीयविज्ञानपुरुषपञ्चकात तदशेषविज्ञानाऽभिज्ञः पुमान् , इ
क्षणिकमेव ' इत्यववुध्येत, न चैतदस्ति । कुतः ? , इत्याह-- च्छानुविधायिशब्दादिभिन्नजातीयविज्ञानेन्द्रियपञ्चकाशेष
'एगतेण खणियं चेति यस्य च बौद्धस्यकान्तेन क्षणिक विज्ञानवेत्ता चायमेक आत्मा, तस्मादिन्द्रियपञ्चकाद् भिन्न
क्षणध्वंस्येव विज्ञानम्, न पुनश्चिरावस्थाथि , तस्य कथं एवेति । शब्दादिभिन्नविज्ञानपुरुषपञ्चकस्येव पृथगिन्द्रिया
सर्ववस्तुगतक्षणिकतापरिज्ञानं स्यात् ? , तस्मादक्षणिकमेव णामुपलब्धिप्रसङ्गतोऽनिष्टापादनात् , विरुद्धोऽयं हेतुरिति
प्रमातृशानमेष्टव्यम्। तच्च गुग्णत्वादनुरूपं गुणिनमात्मानचेन्न; इच्छानुविधायिविशेषणात् , इच्छायाश्चेन्द्रियाणामस
मन्तरेण न संभवति । अतः सिद्धः शरीराद् व्यतिरिक्त म्भवात् , सहकारिकारणतयोपलब्धिकारणमात्रताया इ-|
आत्मेति। न्द्रियष्यपि सद्भावात् , उपचारतस्तेषामप्युपलब्धेरबिरो
उक्तगाथोक्लमेव कश्चिदर्थ भावयति-- धाददोषः । किन-प्रतिपस्युपायमात्रमेवैतत् , न ह्यतीन्द्रि- । जं सविसयनिययं चिय, जम्माणंतरहयं च तं किह णु।
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(१०६७) अभिधान राजेन्द्र ||
बाउम्र
नाहिति बहुपविष्द्या विसपत्रयभंगपाई णि । १६७५ । यत् स्वविषयमात्रनियतं जन्मानन्तरदतं प्रमाि ज्ञानम् तत्कथं सुबहु विज्ञानविषयगतान् राम-निरामकाय सुखदुःखितादीन् धर्मान् ज्ञास्यति न कथञ्चिदित्यर्थः अत्र परमतमाशङ्कथ परिहरन्नाह - गिरिज सम्वर्भगं ज य मई सविसयाऽणुमायाओ । पिन जमा, जुत्तं सत्ताइसिद्धीओ ॥१६७६॥ यदि च परस्यैवंभूता मतिः स्यात्, बहुत-एकमपिएका सम्यनमपि किमपि च प्रमातृविज्ञानं सर्ववस्तुगत भगृह्णीयात् कुतः इत्याह-स्वविषयानुमानादु ? क्रं भवति यस्मादयमस्मद्विषयः क्षकि अहं च दारानश्वररूपं ततो विज्ञानसाम्यादन्यान्यपि विज्ञानानि क्षणिकानिविषयसाम्पाच्चान्येपि विषयाः सर्वेऽपि इत्येयं स्वस्वविषयास्तदनुमानात् सर्वस्यापि वस्तु स्तोमस्य पाकित्यादि गृह्यते। अत्र दूषणमहतं पीत्या दि' तदपि न युक्तं न घटमानकम् । कुतः ? इत्याहयतस्तत् स्वविषयानुमानमन्येषां विज्ञानानामन्यविषयाणां
पक्षीकृतानां सत्तादिप्रसिद्धावयते न हि सत्येनाप्यसि धर्मिणि क्षणिकतादिधर्मः साध्यमानोविभ्राजते । कोहि नाम शब्दादिष्वादावेव सखेनाप्रतीतेषु कृतकत्वादिनाऽनित्यत्वादिधर्मान् साधयति, तत्र पक्षः प्रसिद्धो धर्मी ' इत्यादिवचनात् ? । न चेदेकमेकालम्बनं क्षणिकं च ज्ञानमेतद् वोढुं शक्नोति यदुत- श्रन्यज्ञानानि सन्ति तद्विषयाविद्यन्ते तेषां विषयाणां स्वविषयज्ञानजननस्वभावादव एवंभूता धर्माः सन्तीति एतदपरिज्ञाने च कथमेतेषां क्षणिकतां साधयिष्यति, धर्मिण एवाप्रसिविषयानुमानादेयान्यविज्ञानादिसत्ताऽपि सेत्स्व तथा हि-यथाऽहमस्मि तथाऽन्यान्यपि ज्ञानानि सन्ति, यथा च मद्विषयो विद्यते, एवमन्येऽपि ज्ञानविषया विद्यन्त एव यथा चाहं मद्विषयश्च क्षणिकः, एवमन्यज्ञानानिनिया क्षणिका पवेति एवं सर्वेषां सवं क्षणिकता
"
स्वविषयानुमानादेव सरस्वतीति एतदव्ययम् यतः सर्वातिग्राहकं ज्ञानरत्याज्जन्मानन्तरं मृतइवाहमस्मि, क्षणिकं च' इत्येवमात्मानमपि नावबुध्यते, अन्यपरिज्ञानं तु तस्य दूरोत्सारितमेव । किच-तत् स्वधिचयमात्रस्यापि क्षति समानकालमेव इयोरपि विनयात् । यदि हि स्वविषयं विनश्या
तक्षणिकतां निश्चित्य स्वयं पश्चात् कालान्तरे वि श्येत् तदा स्यात् तस्य स्वपियक्षणिकताप्रतिपत्तिः न चेतति ज्ञानस्य विषयस्य च निजनिजजनवित्या समानकालमेव बिनाशाभ्युपगमात् । न च स्वसंवेदन
त्या क्षणिकता गृहात इति सोमतेरिभ्यते, अनुमानगम्यत्वेन तस्यास्तैरभ्युपगमादिति ।
अत्र परस्योत्तरमाशङ्कय निचिकीर्षुरादजागेजा वासणा उ, साविवासिन- वासगिजाणं । जुत्ता समेच दोब्रहं न उ जम्माणतरहयस्स || १६७७॥ स्यादेतत् पूर्वपूर्वविज्ञानक्षरौरुत्तरोत्तर विज्ञान क्षणानामेवंभू
बाउभृश् ता वासना जन्यते ययाऽन्यविज्ञान - तद्विषयाणां सत्वक्षशिकतादीन् धर्मानेककालम्बनं किमपि च विज्ञान जानाति, अतः सर्वज्ञगिताज्ञान सौगतानां च विरुध्यते तदप्ययुक्तम्, यतः साऽपि वासना वासकवासनीययोर्द्वयोरपि समेत्य - संयुज्य विद्यमानयोरेव युक्ता न तु जन्मानन्तरमेव हृतस्य विनष्टस्य वास्यवासकयोश्च संयोगेनायस्थाने क्षणिकताहानि-िसाऽपि वासना क्षणिका, क्षणिका वा क्षणिकत्वे कथं तद्वशात् सर्वक्षणिकतापरिज्ञानम् । तकिये तु प्रतिज्ञाहानिरिति । सदेयं परपणं दूषयत्या सांप्रतं स्वपक्षमुपदिदशविपुरुपसंहर साह
',
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बहुविखाप्यभवो जुगनमणे गत्थयाऽवेगस्स | विमाणा वत्था वा, पडुच्च वित्तीविघाओ वा ॥ १६७८ ॥ पियाखविणासे, दोसा इचादयो पसति । न उठियसंभूयच्चय-विसाणमयम्मि जीवम्मि १६७६। तदेवं विज्ञानस्य प्रतिक्षणं विनाशेऽभ्युपगम्यमाने इत्यादयो दोषाः प्रजन्ति के पुनस्ते दोषाः ? इरवाह' बहुवि त्यादि इत्येवं संबन्धः । क्षणनश्वर विज्ञानवादिना भुवनत्रवान्तर्वर्तिसर्वार्थग्रहणायें युगपदेव बहूनां ज्ञानानां प्रभयउत्पादो ऽभ्युपगन्तव्यः, तदाश्रयभूतश्च तद्दृष्टानामर्थानामनुस्मर्ताऽवस्थित आत्माऽयुपगन्तव्यः अन्यथा पत् सत् तत् सर्वं किम क्षणिकाः सर्वे संस्काराः निरा त्मानः सर्वे भावाः' इत्यादि सर्वक्षणिकता दिविज्ञानं नोपपयेत तदभ्युपगमे च स्वमतत्यागप्रसक्तिः । अथवा क्षणिक विज्ञानमिष्तकस्यापि विज्ञानस्य युगपदनेकार्थता-सवैभवनान्तर्गतार्थग्राहिताऽभ्युपगन्तव्या येन सर्वक्षणिकतादिविज्ञानमुपपद्यते नचैतदिष्यते दृश्यते वा विसायावत्था व 'न्ति, यदिवा- श्रवस्थानम् - अवस्था, विज्ञानस्यावस्था विज्ञानावस्था ऽस्युपगन्तव्या भवति । इदमुक्कं भवति-विज्ञानपानल्पकल्पाशोऽवस्थानम् येन तस यंदा समासीनमन्यान्यवस्तुविनश्वरता सर्व णिकतामवगच्छेदिति सर्व प्रागेवोक्तमेव । एवं चाभ्युपगमे विज्ञानसंज्ञामात्रविशिष आत्मैवायुपगतो भवति । येतदूबहुविज्ञानप्रभावादिकं नेष्यते तर्हि प्रतीत्य वृत्तिविघातः प्राप्नोति इदमत्र हृदयम् - कारणं प्रतीत्याश्रित्य कार्यस्य वृत्तिः प्रवृत्ति हत्पत्तिरिति यावत् न पुनः कारणं का र्यावस्थायां कथञ्चिदप्यन्येति इत्येवं सौगतैरभ्युपगम्यते । इत्थं वायुपगम्यमाने ऽतीतस्मरणादिसमस्तव्य पदारोच्छे
4
3
,
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प्रसङ्गः । एवं हि व्यपहारप्रवृत्तिः स्याद् यद्यतीतानेकसंकेतादिज्ञानाश्रयस्त तद्विज्ञानरूपेण परिणामादन्वयी आत्माऽभ्युपगम्यते । तथाऽभ्युपगमे च सति प्रतीत्य वृत्त्यभ्युपगमविघातः स्यादिति । ननु यदि विज्ञानस्य क्षणविनाश एसे दोषाः प्रजन्ति तर्हि कामी दोषा न भवति ? हत्याह'न उठियेत्यादिन स्मभ्युपगते जीवेऽभ्युपगम्यमान एते दोषाः प्रजन्ति । कथंभूते जीये स्थित संभूतविज्ञानमये कथञ्चित् इस्पास्थितम् कथञ्चिभूत्तर पर्याव ण संभूतम् कथञ्चित्पुनः पूर्वपर्यायेण च्युतं विनष्टं यद् विज्ञानंः तन्मय इत्यर्थः । तस्मादनुमेवात्पादव्यय धौव्ययुक्तं
"
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(१०६७) वाउभूर अभिधानराजेन्द्रः।
वाकवासि शरीरावर्थान्तरभूतमस्मदभ्युपगतमात्मानं समस्तव्यवहार- तो भूतसंघातोऽयं विद्यमानकर्तृकः, आदिमत्प्रतिनियताकासिद्धये प्रतिपद्यस्वेति ।
रत्वात् घटवद्, यश्च तत्कर्ता स तदतिरिको जीवः इति । नन्वेवंभूतस्यात्मनः कथं भूतानि शानानि प्रवर्तन्ते, क- भूतातिरिक्तात्मप्रतिपादकानि च वेदवाक्यानि तवापि प्रतीस्माचहेतोस्तानि जायन्ते ? इत्याह
ताम्येव । तद्यथा-"सत्येन लभ्यस्तपसा वेष ब्रह्मचर्येस नि
त्यं ज्योतिर्मयो विशुद्धोऽयं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मातस्स विचित्तावरण-खोवसमजाइचित्तरूवाई ।
नः" इत्यादि । तदेवं सर्वेषामपि वेदवाक्यानां भूतातिरि खणियाणि य कालंतर-वित्तिणियमइविहाणाई।१६८० स्य जीवस्य प्रतिपादकत्वाद भूतेभ्योऽतिरिकं जीवं प्रतिमतेर्मतिमानस्य विधानानि-नानाभेदरूपाणि तस्य-य- - पद्यस्वेति। थोक्लरूपस्यात्मनः प्रवर्तन्ते । कथंभूतानि ? इत्याह-विचि- एवं भगवता संशयेऽपनीते सति वायुभूतिः किं कृत्वान् ! प्रो योऽसौ मतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्ततो जातानि अत ए
इत्याहव स्वकारणभूतक्षयोपशमवैचित्र्याद् विचित्ररूपाणि तथापर्यायरूपतया क्षणिकानि, द्रव्यरूपतया तु, नित्यत्वात् का
छिनम्मि संसयम्मि, जिणेण जरामरणविष्पमुकेणं । लान्तरवृत्तीनि । उपलक्षणं च मतिविधानानि, श्रुताऽव
सो समणो पव्वइमो,पंचहिं सह खंडियसएहिं॥१६८६॥ धिमनःपर्यायविधानान्यपि यथासंख्यं श्रुताऽवधिमनःप- व्याख्या पूर्ववत् । विशे०।
यज्ञानावरणक्षयोपशमवैचित्र्याद विचित्ररूपाणि यथास-वाउय-व्यापृत-त्रि० । व्यापारवति,शा०१ श्रु०८०ौ । भयं तस्य द्रष्टव्यानि । केवलं ज्ञानं त्वेकमेवाविकल्पं केव- वाउरिय-वागरिक-पुं०। वागुरा-मृगवन्धनं तया चरन्तीति लझानावरणक्षयादेव द्रष्टव्यमिति ।
वागुरिकाः । मृगब्याधे, अनु०। प्रा०म० । स्था। एतदेवाऽऽह
बाउल-वातूल-त्रि० ।' उर्भू-हनूमत्कण्डूय-धातूले ।। निचो संताणो सिं, सन्यावरणपरिसंखए जंच।
१ । १२१ ॥ इत्यूत उत्वम् । पाउलो । प्रा० । वातशब्दात् अकेवलमदियं केवल-भावेणाणंतमविगप्पं ॥१६८१॥ | स्त्यर्थे ऊलच् । वातरोगयुक्त उन्मत्ते, समूहाथै ऊल । वात'सिं' ति एतेषां च मतिज्ञानादिविधानानाम- समूहे, पुं० । वाच०।। विशेषितज्ञानमात्ररूपसन्तानो निस्योऽव्यवच्छिन्नरूपः, | बाउलग्ग-व्याकुलान-न० । सेवायाम् . “नि वि य वाडकेवलशानं त्वविकल्पं भेदरहितमुदितमाख्यातं भगवद्भिः। लग्गं कुणति"-'नित्य वाउलग्गति' सेवां कुर्वन्ति विदयतः सर्वस्यापि निजावरणस्य क्षय एव तदुपजायते । - धति । जीवा० २६ अधिः। तोऽविकल्पं केवलभावेनानन्तकालावस्थायित्वात् , अनतार्थविषयत्वासानन्तमिति । विशे० । पुनर्वायुभूतिः
वाउलणा-व्याकुलना-खी०। धर्मकथादिभिराचार्यस्य सम
यक्षेपे, व्य०४ उ०। संदिहानः-अनुपलब्धिविषयं प्रश्नं कृतवान् स च 'अणुवलद्धि' शब्दे प्रथमभागे ४११ पृष्ठे दर्शितः।)
वाउलिय-व्याकुलित-त्रि० । आकुलीभूते,पृ. ३ उ०प्रमा अतोऽस्य कर्मानुगतस्य संसारिणो जीवस्यामूर्तत्वाद् न- चाउलियसलिला-न्याकलितशलिला-स्त्री०। विलोलितजभस इव, कार्मणस्य तु सौम्यात् परमाणोरिव सतो- लायाम्, प्रश्न०३ आश्रद्वार। नुपलब्धिः, नासतः । कथं पुनरेतज्ज्ञायते-नासत आत्म- वाउली-वातोलि-स्त्री० । वास्यायाम् , शा०१ ०१ मा नोऽनुपलब्धिः , किन्तु-सतः? इति चेत् । उच्यते-अनु
प्राचा। मानस्तत्सत्त्वस्य साधित्तत्वादिति ।
बाउन्न-व्याकुल-मि०। “सेवादी वा" ॥८॥२ ॥ इति वेदोगद्वारेणाऽपि देहव्यतिरिक्रमात्मानं साधयितुमाह
वा लस्य द्वित्वम् । प्रा० । असमासे, भ०७ श०६ उ०।देहामारणे व जिए, जमग्गिहोचाइ सग्गकामस्स । ब्धे, प्रश्न०३ आश्रद्वार। वेयविहियं विहएणइ, दाणाइफलं च लोयाम्म १६८४॥ वातूल-त्रि० । वातरोगयुक्त, 'वाउलो जम्बुलो मुहुलो बहुजशरीरमात्रे जीवे सति गौतम ! यत् स्वर्गकामस्य वेद- पिरो य वायालो।' पाइ० ना० ६६ गाथा । विहितमग्निहोत्रानुष्ठानं तद् विहन्यते. देहस्य वह्निना-वाउल्लिया-व्याकुलिका-मी०। रूपके, अनु०। उत्रेव भस्मीकरणात् , जीवाभावे कस्यासौ स्वर्गों भवेत् ?
वाउसत्थ-वायुशस्त्र-न । वायव्ये शस्त्रे, सूत्र० १७०० इति भावः । दानादिफलं चानुभषितुरभावात् कस्य भवे
२ उ०॥ त ? इति । विरुद्धवेदपदश्रवणनिबन्धनधेष वायुभूतेजीवशरीरयोझेदाभेदविषयः संशयः।
| वाउसिय-वाकुश्य-न० । वकुशत्वे, कश्मलचारित्रत्वे ग्लान
त्वादिकारणं विनाऽपि हस्तपादादिक्षालमशालत्वे, जीत। अतो वेदपदार्थकथनद्वारेणापि तमपाकुर्वनाहविएणाणपणाईणं, वेयपयाणं तमत्थमविदंतो।
वाकुशिक-पुं० । विभूषणशीले, औ०। देहाणएणं मनसि, ताणं च पयाणमयमत्थो॥१६८ वाभोस-व्याक्रोश-त्रि । उद्बुद्धे, विशे। विज्ञानघनाख्यः पुरुष एवार्य भूतेभ्योऽर्थान्तरमित्यादि-वाकवासि(ण)-वल्कवासिन्-पुं० । वल्कवाससि वानप्रस्थे, ज्याच्या पूर्ववदेव । अत एव प्रागुकम्-शरीरतया परिण-| मौ० ।
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वाकहण
वाघाय
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वागरमाण - व्यागुणत्-त्रि० । व्याकुर्बति, स्था० ३ ठा०
४ उ० ।
,
चाकण - व्याकथन - न० । धर्मकथायाम् आ० म० १ ० । वाग - वल्क- पुं० । शणादिवृक्षत्वचि वृ० १ उ० । वागजोगजुन- वाग्योगयुक्त श्रि० प्राणवायुना सर्वक्रियासु नागरिता व्याकृत्य-अध्य० प्रतिपाद्येत्यर्थे प्रवर्तिते, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । बागड-व्याकृत-वि० लोकप्रतीतशब्दार्थे, संथा
-
सम० ।
3
व्यापृत- त्रि० । व्यापारसले वहमानके, पृ० ३३० । वागपणिहि वाक्प्रणिधि-पुं० वाग्नियमे, दश०५ ०२४० वागमई- वल्कमयी - बी० बल्केषु कृतायाम् पल्कमयेन यथेोरके वल्कलेन कृतायां चितिमिल्याम् नि चू० १ उ० । वागय- वल्कज- न० । वल्कनिष्पन्ने श्रतसीशणदुकूलादी, पं० चू० १ कल्प । यागरण-व्याकरण—–१० । व्याकिते प्रक्षान्तरमुत्तरतयाऽमि धीयते निर्णायकत्वेन यचतथा स० । परप्रशितार्थोत्तररूपे (०) निर्वचने, स्था० १ ठा० ३ उ० । श्रा० म० भ० | शा० । उपा० नं० पृष्टा ऽपृष्ठार्थकथने, कल्प० ३ अधि० क्षण पा० । यथाऽवस्थितार्थप्रज्ञापने, श्राचा० १ श्रु० ५ ०६ उ० । उपदेशे, आचा०१०१०१३० । (पाणिनीयव्याकरणे एव नाग्रह इति' पाणिखि ' शब्दे पञ्चमभागे ८४६ पृष्ठे उक्तम्) (यथा समवसरणेऽनेकेषां प्रनानां युगपदुत्तरं भगवान् ददाति तथोपरिष्टात्' समोर शब्दे परते व्याक्रियन्ते लौकिकाः वैदिकाः सामयिकाश्च शब्दा श्रनेनेति व्याकरणम्, । शब्दशास्त्रे तच प्रथमसृषभदेवेन शकेन्द्रं प्रति कथितमिति ऐन्द्रं व्याकरणं जातम् । श्र० म०१० प्रश्न० । व्याकरणानि च विशतिः - ऐन्द्र १ जैनेन्द्र २ सिद्धहेमचन्द्र ३ चान्द्र ४ पाणिनीय ५ सारस्वत ६ शाकटायन ७ वामन ८ विश्रान्त बुद्धिसागर १० सरस्वतीकण्ठाभरण ११ विद्याधर १२ कलापक १३ भीमसेन १४ व १४ गीड १६ नन्दि १७ जयोत्पल १८ मुष्टिम्याकरण १६ जयदेवाभिधानानि २० कल्प०१० १ क्षण । आ० चू० । आव० । आ० म० श्रौ० । नि० । अष्टौ ऐन्द्रादीनि व्याकरणानि न केवलं पाणिनीये याग्रहः कार्यः । आव० २ ० | व्याकरणं संस्कृतशब्दव्याकरणं प्राकृतश
(२०६६) अभिधानराजेन्द्रः ।
व्याकरणं प्रश्नव्याकरणं च । नं० । अन्यच्च ये केचन अबुद्धा धर्मे प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतर्कादिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतवानवबोधादबुद्धा इत्युक्तम्, न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्यव्यतिरेकेण तत्वावबोधो भवतीति तथा पोक्रम“शाखावगाह परिघट्टनतत्परोऽपि नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतस्त्वम् । नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्वी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेति ॥ १ ॥ " सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० । प्रश्ने खति निर्वचनतापादमाने पदार्थे, “समये महावीरे दिवसें एगनिसिखाए बडवा पागरणाई वागरित्था " ' बागरित्थ ' त्ति व्याकृतवान् । तानि चामतीतानि । स०५४ सम० ।
ठा० १ उ० ।
3
वागरणी - व्याकरणी - स्त्री० । प्रतिपादिकायाम्, स्था० ४
२६८
ब
बागलवरथनिपसिय-बल्लवखनियमित ल्कलस्तस्येदं वाल्कलं तद् वस्त्रं निवसितं येन स वाएकलवस्वनिवसितः । परिहितवाल्ल २०११ ०
६
६ उ० ।
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-
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3
3
वागुरा- वागुराखी० सुगन्ध सूत्र० २ ० २ ० । प्रति मृगबधपाशे प्रति अनु० उपानद्विशेषे या पादयोरङ्गुलीश्छादयित्वा उपर्यपि छादयति । वृ० ३
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उ० ।
3
स० ५.५
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मागुरिय-वागुरिक- पुं० वागुरया-मृगादिबन्धनरज्ज्या चरति वागुरिकः । प्रति० । लुब्धके, सूत्र० २ श्रु० २ ० स्था० । प्रश्न० । मृगघातके, वृ० १३०३ प्रक० । बाघाइम व्याघातिम न० प्याद्दननं व्याघातः - पर्वतादिस्खलनम् तेन निर्वृत्तं व्याघातिमम् । “भावादिमः ॥ ६ ॥ ४ । २१ ॥ इतीमप्रत्ययः । चं०प्र०१८ पाहु पर्वतादिकारके सू० प्र० २८ पाहु० सितव्यामादिकृते मरणमे 64 वाघाइयमाएसो अवरयो होल अतरतो । सलिमहिसीय ओ, एयं बाधाइयं मरणं " आचा० १ श्रु० ८ श्र० । वाघाय - व्याघात - पुं० । व्याहनं व्याघातः । स्खलने प्र० १७ पाहु० । चं० प्र० । पञ्चा० । विलोपे व्य० १० उ० । संहारणे, नं०। विनाशे श्राचा० १ श्रु० ६ ० ५ उ० । परिमन्थे, बृ० ४ उ० । प्रज्ञापनाद्वितीयपदे बादराग्नेरधिकारेवाचार्य पहुच पञ्चसु महाविदेदेसु ' तत्पव्याख्याने व्याघातो नामातिस्निग्धोऽतिको वा कालः तस्मिन्सति अयि ततो यदा पञ्चसु भरतेषु पञ्चरवतेषु सुषमसुषमा सुषमदुःषमा वर्त्तते तदाऽतिस्निग्धः कालो दुष्प मदुष्पमायां चातिरुक्ष इत्यप्रियवच्छेद इत्युक्रमस्ति अत्र च प्रथमारके तृतीयारके च बादराग्निनिषेधो भणितो न द्वितीयारके, तेन द्वितीयारकेऽग्निर्भवति नया है, कि सुपमदुष्णायामत्रानिनिषेधः प्रोक्ला 'अगणिस्स यउट्ठाणं' इत्यादिना वाग्निसंभवः प्रोचे तदेतत्कथं सङ्गबढ़ते किञ्च उत्सर्पिल्यां द्वितीयारके कियति गते बादरात्स्यिते कियति गते च तस्मिन् नीतिप्रवृत्तिस्तत्प्रवर्त्तका को भविष्यतीति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम् - प्रज्ञापनेत्यत्र प्रज्ञापनापुस्तकपाठानुसारेण प्रथमद्वितीयतृतीयार केषु कालस्यातिस्निग्धता प्रोका उस्तीति का शङ्का त था तृतीयारकेऽतिस्निग्धातायामुकायामपि तत्प्रान्ते मणिस्स व उद्वारी' इत्यादि मरानं तु अल्पस्या विवा धाविधाषि तथोत्सरिया द्वितीयारकस्यादी पुष्करयत्तदिपञ्चमेघवर्ष बादरवनस्पतिप्रादुर्भवने विनितमनुष्यैर्मासादिनिवृत्तिरूपा नीतिर्विद्दिता ग्रामादिनिवेशाश्वादिग्रहणादग्न्यादिसम्भवे पाकादिनिवर्त्तनं च प्रागजातजातिस्मरणात्प्रथम कुलकराद्विमलवाहनाद द्वितीयारक
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वाघाय
स्व प्रान्ते प्रवृत्तमिति द्वैमवीरचरित्रे प्रोक्लमस्ति ॥ २९२ ॥ सेन० ३ उल्ला० । वाघायरूव-व्याघातरूप त्रि० । परिक्षयस्वभावे, सूत्र० १ श्रु० ११ श्र० ।
(१०७०) अभिधानराजेन्द्रः ।
वाघारियपाणि- व्याघारितपाणि त्रि० । लम्बितभुजे, श्रवलम्बितबाही, प्रव० ६७ द्वार ।
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बाघुटिव व्याघूर्णित त्रिपले ० १ ० १० बाघल व्याघ्र पुं० [विक्रमवत्सराणाममनयमशतकेषु जाते क्षत्रियजातिविशेषे, " अणहिलपट्टनगरे भीमदेवानन्तरं बाघेला अत्तर लूणप्यसायवीरपवलवीसलदेवसारंगदेवकांदेचा गरिदा संजाया, ततो अशादीसुरता आ रणा पयट्टा " ती० २५ कल्प ।
वाड - वाट - न० । वृत्त्यादिपरिक्षिप्तगृहसमूहे, उत्त० ३४ श्र० । कण्टकवाटिकायाम्, उत्त० २२ श्र० । श्राचा० । प्रश्न० । पा फेति संशासि नि००३० वाडधाणग-वाटधानक- न० । स्वनामख्याते लघुनगरे, “दधिवाहनपुत्रेण,राशा व करकण्डुना । वाटधानकवास्तव्याश्वाडाला ब्राह्मणीकृताः। १।” इति तत्रत्याश्चाण्डालाः करकण्डुना ब्राह्मणीकृताः । प्रा० क० ४ श्र० ।
वाढ - वाढ - न० । श्रत्यर्थे, 'वाढन्ति भाणिऊं' वाढमित्यभिधायात्यर्थ करोम्यादेश शिरसि स्वाम्यादेशमित्युक्त्वा । आ० म० १ अ० । उत्त० ।
वाढंकार पारंफार - ० पतनान्यचेति कथने, विशे० नं०।
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आ० म० ।
वाण - वाण - पुं० । वण्- घञ्। मार्गणे, प्रश्न०४ श्राश्र० द्वार । शरे गवांस्तने, वैत्यमेवे, केवले, डिकाडा, भद्रमुझे राशि, कादम्बरीग्रन्धकारके कविभेदे च नीलभिण्टाम् । श्री० बाय० । श्राचा" अधिकुसुमेह वा वाकुसुमे वा प्रज्ञा० १० पद ४ उ० ।
वाणमंतर
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लयन्ति दक्खिकूलग ति यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वस्तव्यम्, उत्तरकूलग त्ति उक्तविपरीताः 'संखधमग 'ति' शंखं ' ध्यात्वा ये ' जमं ' ति यद्यन्यः कोऽपि नातीति कृति ले ये शब्दं कृत्वा भुञ्जते ' मियलुद्धय' त्ति प्रतीता एव ' हत्थिताबसति ये हस्तिनं मारायत्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति उनि ऊर्दीकृतदण्डा ये सञ्चरन्ति 'दिसापेक्खिणो 'ति उदकेन दिशः प्रोदय ये फलपुष्पादिसमुचिन्वन्ति' वाकवासिणो त्ति वल्कलवाससः 'चैलवासिणोत्ति स्यम्, पाठान्तरे पेलवासि सि समुद्रवेलासनिधिवासि नः 'जलवासियो' शि ये जलनिमझा एवासते शेषाः प्रतीता नवरं ' जलाभिसेयकढिलगाया' इति ये अस्नात्वा न भुअते स्नानाद्वा पाण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः । ( पाठान्तरे )जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः प्राप्ता ये ते तथा इंगालसोल्लियं ' ति श्रङ्गारैरिव पक्कम् ' कंडुसोल्लियं ' ति कन्दुपक्कमिवेति 'पलिशोषमया सस यसहस्समम्भहिवं ति मकारस्य प्राकृतप्रभवत्वाद्वर्षशतसहस्राभ्यधिकमित्यर्थः । अथवापत्योपमं वर्षशतसहस्रमभ्यधिकं च पल्योपमादित्येवं गमनिकः । ' पब्बइया समय ' त्ति निर्ग्रन्था इत्यर्थः ' कंदप्पिय ति कन्दपिकाः नानाविधहासकारिणः कुकुइय चि कुकुचेन कुत्सितावस्पन्देन चरन्तीति कौकुचिकाः, वे हि भ्रू नयनवदनकरचरणादिभिर्भाण्डा हव तथा चेन्ते यथा स्वयमहसन्त एव परान् हासयन्तीति 'मोहरियत्ति - खरा नानाविधा सम्बन्धाभिधायिनस्त एवं मौखरिकाः
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गीयरइपिय ' ति गीतेन या रती रमणं क्रीडा सा प्रिया येषां गीतरतयो वा लोकाः प्रिया येषां ते तथा-' सामलपरियान 'ति श्रमश्यपययं साधुत्यमित्यर्थः ' पाउति ति प्रापयन्तिः पूरयन्तीत्यर्थः ॥ ११॥ श्री० ॥
वाणमंतर व्यन्तर-पुं० [देवभेदे प्रा० १ पद अन्तरं नामअवकाशः, तच्चेहाश्रयरूपं द्रष्टव्यम्, विविधं भवननगरावासरूपमन्तरं येषां ते व्यन्तराः। तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः प्रथमे रत्नकाण्डे उपश्च प्रत्येकं योजनशतमपहाय शेपोजनशतप्रमाये मध्यभागे भवन्ति नगराएयपि तिर्यग्लोके । तत्र तिर्यग्लोके यथा - जम्बूद्वीपद्वाराधिपतेर्विजयदेवस्थान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसह समासा नगरी, धावासाः त्रिष्वपि लोकेषु तत्र ऊर्ध्वलोके परडकवनादाविति अथवा विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः तथाहि - मनुष्यानपि चक्रवर्तिवासुदेवप्रभृतीन् भृत्यवदुपचरन्ति केचिछातराइति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः यदि वा विविधमन्तरं शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे वाणमन्तरा इति पाठः । यदि धानमन्तरा इति पदसंस्कारः तत्रेयं व्युत्पत्तिः- वनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः । पृषोदरादिस्वादुभयपदपदान्तरालवर्तिमकारागमः । प्रज्ञा० १ पद ।
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वान - त्रि० । वनेषु भवे, स० ८०० सम० भ० । श्राव० । वाणपत्थ- वानप्रस्थ- पुं० । वनेऽव्यां प्रस्था - प्रस्थानमवस्थानं वा वनप्रस्था । साऽस्ति येषाम् तस्यां वा भवा वानप्रस्थाः । वने भवा वाना प्रस्था वा स्थितिः । वाना प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः वनतापसेषु, लोकप्रसिद्धाश्रम र्तिषु, नि० १ श्रु० ३ वर्ग ३ श्र० । वानप्पत्थ ति वने अटव्या प्रस्था -- प्रस्थानं गमनमवस्थानं वा वनप्रस्था सा अस्ति येषां तस्यां वा भवा वानप्रस्थाः । ' ब्रह्मबारी गृहस्वस्थ, वानप्रस्थो पतिस्तथा' इत्येवंभूतीयाधमबर्तिनः 'होतियति ब्रह्मिहोत्रिकाः 'पोतियं' ति वस्त्रधारिणः 'कोलिय 'ति भूमिशायिनः 'जन्दर' ति पहयाजिनः 'सह' ति श्राद्धाः 'थालह' सि गृहीतभाण्डाः। 'हुबउटु'त्ति कुण्डिकाश्रमणाः 'दन्तुक्खालिय'त्ति फलभोजिनः 'उम्मज्जक' त्ति उन्मजनमा स्नात 'समज'ति यन्मनस्यैवासकरगोन ये स्वाति 'नियम'भि स्नानाचे निमझा व ये क्षनिष्ठन्ति 'संप'सि मृत्तिकादिवर्यपूर्वकं येागइए देवे सिया अत्येगइए नो देवे सिया से केस
जीणं भंते! संजए अविर अप्पडिश्यपच्चक्खायपावकम्मे इम्रो चुए पेच्चा देवे सिया १, गोयमा ! अत्थे
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( १०७१) अभिधानराजेन्द्रः ।
वाणमंतर
० जाव इमो चुए पेच्चा अत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया १, गोयमा ! जे इमे जीवा गामाऽऽगरनगरनिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणसमसन्निवेसेसु अकामतहार कामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीतातवदंसमस गण्हाणगसेयजल्ल मलपंकपरिदाहेणं अ प्पतरं वा भुञ्जतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति अप्पां परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अनयरेसु वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । केरिसाणं भंते ! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ?, गोयमा । से जहानामए इहं मणुस्सलोगम्मि असोगव णेइ वा सत्तवण्णवणेइ वा चंपयवणेइ वा चूयवणेइ वा तिलगवणेइ वा लाउयवणेइ वा निग्गोहवणेइ वा छत्तोववणे वा असणवणेइ वा सणवणेह वा अयसिवणेइ वा कुसुंभवणे वा सिद्धत्थवणेइ वा बंधुजीवगवणेह वा णिश्चं कुसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवर्डे सगधरे सि ए अतीव २ उवसोमेमाणे २ चिट्ठइ, एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहभेणं दसवाससहस्सट्ठितीएहिं उक्कोसेणं पलिश्रवमट्ठिती एहिं बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि तद्देवीहि य आइमा वितिकिरणा उवत्थडा संथडा फुडा अवगाढगाढसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति, एरिसगाणं गोयमा ! तेसिं बाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता, से तेणऽट्टेणं गौयमा ! एवं वुच्चइ जीवे णं अ संजए ०जाव देवे सिया ! सेवं भंते ! भंते! त्ति, भगवं गोयमे समयं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । सू० १६ ) ।
' जीवे ण' मित्यादि व्यक्तं, नवरम् ' असंजए 'त्ति असा, धुः संयमरहितों वा, 'अविरए, ति प्राणातिपातादिविरतिरहितः विशेषेण वा तपसि रतो यो न भवति सोऽविरतः, ' अपsिहए' त्यादि, प्रतिहतं - निराकृतमतीतकालकृतं निन्दादिकरणेन प्रत्याख्यातं च वर्जितमनागतका - लविषयं पापकर्म - प्राणातिपातादि येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तन्निषेधादप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, अनेनातीतानागतपापकर्मनिषेध उक्तः । श्रसंयतोऽविरतश्चेत्यनेन वर्तमानपापासंवरणमभिहितम्, अथवा - (न) नैव प्रतिहतं तपोविधानेन मरणकालाद् श्रारात्क्षपितंप्रत्याख्यातं च मरणकालेऽप्याश्रवनिरोधेन पापकर्म येन स तथा; श्रथवा - (न) नैव प्रतिद्दतं - सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तितः प्रत्याख्यातं च सर्वविरत्यङ्गीकरणतः पापकर्म-ज्ञानावरणा
शुभं कर्म येन स तथा, 'इओ' त्ति इतः प्रज्ञापकप्रत्यक्षातिर्यग्भवान्मनुष्यभवाद्वा च्युतो मृतः 'पेच' त्ति जन्मान्तरे देवः स्यात् ? इति प्रश्नः, 'जे इमे जीवे' ति ये इमे प्र
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स तथा
वाणमंतर त्यक्षासन्नाः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वा 'गामे' त्यादि ग्रामादिष्वधिकरणभूतेषु तत्र ग्रामो - जनपदप्रायजनाथितः स्थानविशेषः ' आकरो- लोहाद्युत्पत्तिस्थानं नकरं-कररहितं निगमो - वणिग्जनप्रधानं स्थानं राजधानी-यत्र राजा स्वयं वसति खेटं धूलिग्राकारं कटं-कुनगरं मडम्बेसर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरं द्रोणमुखं जलपथस्थलपथोपेतं पत्तनं विविधदेशागतपरयस्थानं, तच्च द्विधा जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति, रत्नभूमिरित्यन्ये श्राश्रमं तापसादिस्थानं सनिवेशो-घोषादिः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तेषु अथवा -- ग्रामादयो ये सन्निवेशास्ते तथा तेषु ' श्रकामतरहाएत्ति अकामानां - निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां तृष्णातृड् अकामतृष्णा तथा एवमकामक्षुधा, ' अकामवंभचेअकामो निरभिप्राय ब्रह्मचर्येण स्यादिपरिभोगाभावरवासें' ति अकामानां निर्जराद्यनभिलाषिणां सताम् मात्रलक्षणेन वासो - रात्रौ शयनमकामब्रह्मचर्यवासः श्रतस्तेन अकामऋगृहाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेཀྶཾ་ ति श्रकामा येsस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः तेन, तत्र स्वेदः -- प्रस्वेदः याति च लगति चेति जल्लो - रजोमात्रं मलः -- कठिनीभूतं रज एव' पङ्को -- मल एव स्वेदेनार्द्रीभूत इति, 'अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं ' ति प्राकृतत्वेन विभक्तिविपरिणामादल्पतरं वा भूयस्तरं वा बहुतरं कालं यावत् वाशब्दो देवत्वं प्रत्यल्पेतरकालयोः समताऽभिधानार्थी केवलं देवत्वे सामान्यतः सत्यपि अल्पतरकालमकामनिर्जरावतामविशिष्टं तत्स्यांद् इतरेषां तु विशिष्टमिति, अप्पांपरिकिलेसंति त्ति विवाधयन्ति, ' कालमासे 'ति कालो-- मरणं तस्य मासः --- प्रक्रमादवसरः कालमासस्तत्र 'कालं किश्व ' त्ति मृत्वा ' वाणमंतरेसु ' त्ति वनान्तरेषु -- वनविशेषेषु भवा अवर्णागमकरणाद् वानमन्तराः, श्रन्ये त्वाहुः - वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्चेति वानव्यन्तरास्तेषामेते वानमन्तरा वानव्यन्तरा वाऽतस्तेषु देवलोकेषु -- देवाश्रयेषु ' देवत्ताए उववत्तारो भवंति 'ति ये हमे इत्यत्र यच्छन्दोपादानाने देवतयोपपत्तारो भवन्तीति द्रष्टव्यम् । तेसिं' ति ये देवलोकेष्व कामनिर्जरावन्ती देवतयोत्पद्यन्ते तेषामिति ' से जामए ' ति 'से' ति अथ यथा--येन प्रकारेण नामेति संभावने, वा क्यालङ्कारे वा 'ए' इत्यामन्त्रणार्थोऽलङ्कारार्थ एव 'इहं ' ति इह मर्त्यलोके ' असोगवणेइ व ' त्ति अशोकवनम् इतिशब्द उपप्रदर्शने, अनुस्वारलोपः सन्धिश्च प्राकृतत्वात् ' वा ' इति विकल्पार्थः, अथवा--' असोगवणे' इत्यत्र प्रथमैकवचनकृत एकारः इवशब्दस्तु वा क्यालङ्कारे, अशोकादयस्तु प्रसिद्धा एव नवरं 'सत्वन ति सप्तपर्णः - सप्तच्छद इत्यर्थः कुसुमिय ' त्ति संजातकुसुमं माइय ति मयूरितं संजातपुष्पविशेपमित्यर्थः, " लवइय तिलवकितं संजातपल्लवलवमङ्कुरवदित्यर्थः । — थवtय त्ति स्तवकितं संजातपुष्पस्तवकमित्यर्थः, गुलइय' ति सञ्जातगुल्मकं, गुल्मं च लतासमूहः ' गुच्छिय 'त्ति संजातगुच्छम्, गुच्छश्व पत्रसमूहः, यद्यपि च स्तवकगुच्छयोरविशेषो ना
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(२०७२) बाणमंतर अभिधानराजेन्द्रः।
वाणारसी मकोशेऽधीतस्तथापीह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः ।। गरावाससयसहस्सा पमत्ता, ते ण भोमेजा नगरा बाहिं 'जमलिय'त्ति यमलतया-समणितया तत्तरूणां व्यव- वडा अंतो चउरंसा एवं जहा-भवणवासीणं तहेवणयव्वा, स्थितत्वात् सञ्जातयमलत्वेन यमलितम् 'जुबलिय' त्ति युगलतया तत्तरूणां सञ्जातत्वेन युगलितम् । 'विणमिय'त्ति वि
णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा शेषण-पुष्पफलभरेण नमितमिति कृत्वा विनमितम् । 'पण-|
अभिरूवा पडिरूवा । (सू-१५०४)स । वाणमंतराणं मिय'ति तेनैव नमयितुमारब्धत्वात् ,प्रणमितं प्रशब्दस्यादि- भंते ! सव्वे समाहारा एवं जहा सोलसमसए दीवकर्मार्थत्वादिति' तथा सुविभक्काः अतिविभक्ताः सुनिष्पन्न- कुमारुद्देसए० जाव अप्पिद्विय त्ति सेवं भंते ! भंते ! ति। तया पिण्ड्यो-लुम्ब्यो मार्यश्च प्रतीताः ता एवावतंसकाः-THERS
(सू०-६६१) भ०१६ श० १० उ०। शेखरकास्तान् धारयति यत्तत्सुविभक्तपिण्डीमार्यवतंस-1 कधरम् ,ततः कुसुमितादीनां कर्मधारय इति । 'सिरीए'त्ति ।
, वाणमंतरी-वाणव्यन्तरी-स्त्री० । व्यन्तरदेवस्त्रियाम् , जी। श्रिया-वनलक्ष्म्या' उवसोभमाणे २ 'त्ति, इह द्विवचनम से किं तं वाणमंतरदेवित्थियाओ? वाणमंतरदेवित्थियाआभीक्ष्ण्ये-भृशत्वे इत्यर्थः । 'प्राइम' त्ति क्वचित्प्रदेशे दे- ओ अद्वविधाओ परमत्ताओ। तं जहा-पिसायवाणमंतरदेविवानां देवीनां च वृन्दैरात्मीयात्मीया वा समर्यादानुल्लानेन
न्दरात्मायात्माया वा समयोदानुल्लानेन | त्थियागोजाव सेत्तं वाणमंतरदेवित्थियाओ । (सू०-४५) व्याप्ता, श्राशब्दोऽत्र मर्यादावृत्तिः, तथा क्वचितु-'बिइम' |
जी०२ प्रति। त्ति, तैरेव वृन्दैर्निजावाससीमोल्लङ्घनेन व्याप्ताः, विशब्दो विशेषवाची, ' उवत्थड' त्ति उपस्तीर्णा उपशब्दः सामी
वाणर-वानर-पुं० । मर्कटे, प्रश्न १ आश्रद्वार। श्रा० चू०। प्यार्थः स्तृञ् चाच्छादनार्थः, ततश्चोत्पतद्भिर्निपतद्भिश्चान
अनु०। प्रव० । पाइ० ना० । “सो वाणरजूहवई कंतारे सुविवरतक्रीडासतरुपर्युपरिच्छादिताः, 'संथड ' त्ति संस्तीर्णाः
हियाणुकंपाए " श्राव०४ श्र० । श्रा० क०। संशब्दः परस्परसंश्लेषार्थः, ततश्च क्वचितैरेव क्रीडमानैर-वाणह-उपानह-स्त्री० । मोचके, पादत्राणे, ध०२ अधिक। न्योन्यस्पर्द्धया समन्ततश्चलभिराच्छादिता इति, 'फुड' तिवाणारसी-वाराणसी-स्त्री०।"करेणु-वाराणस्या रणोव्येत्यस्पृष्टा आसनशयनरमणपरिभोगद्वारेण परिभुक्ताः,स्फुटा वा | यः"1|११६। इति रस्थाने णः। प्रा० । काशीजनपदसप्रकाशा व्यन्तरसुरनिकरकिरणविसरनिराकृतान्धकारत- राजधान्याम् , स्था०१० ठा०३ उ०॥ सूत्र० । शा० श्रावन या। 'अवगाढगाढ 'त्ति । गाढं-बाढमबगाढास्तैरेव सक- प्रज्ञा। अन्त०। प्रव०। विपाती । लक्रीडास्थानपरिभोगनिहितमनोभिरधोऽपि व्याप्ताः, गाढा- "नत्वा तत्त्वाख्यायिनं श्रीसुपार्श्व,श्रीपाचच ध्वंसिताशेषवि वगाढा इति वाच्ये प्राकृतत्वादवगाढगाढाः, इह च देवत्व-। घनम् । वाराणस्यास्तीर्थरत्नस्य कल्पं, जल्पामस्सत्कल्पनायोग्यस्य जीवस्याभिधानेन तदयोग्यः सामर्थ्यांदवसीयत पोढकल्पम् ॥१॥" अस्त्यत्रैव दक्षिणे भरतार्द्ध मध्यमखण्डे एवेति । 'अत्थेगइए नो देवे सिए ' इत्येतस्यादावुक्तस्य काशीजनपदालंकृतिरुत्तरवाहिन्या त्रिदशवाहिन्याऽलंकृत
स्यानवचन कृत द्रव्यांमति,प्रथोद्देशकनिगमनार्थमाह- धनकनकरत्नसमृद्धा वाराणसी नाम नगरी, गरीयसामद्भ• सेवं भंते ! भंते 'त्ति यन्मया पृष्टं तद्भगवद्भिः प्रतिपादितं तानां निधानम् । वारणा नाम्नी सरित् असिनाम्नी च । तदेवमित्थमेव भवन्त ! नान्यथा, अनेन भगदचने बहुमानं वे अपि सरितावस्यां गङ्गामनुप्रविष्टे इति वारणासीति तदर्शयति । द्विर्वचनं चेह भक्तिसंभ्रमकृतमिति । एवं कृत्वा दुक्तं नामास्याः प्रसिद्धम् , अस्यां सप्तमो जिनसत्तमः भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति श्रीमान्सुपार्श्व ऐक्ष्वाकुप्रतिष्ठमहीपतिमहिष्याः पृथ्वीदेव्याः चेति । भ०१श०१ उ० । पश्चा०। चं० प्र० । उत्त। कुक्षाववतीर्य जन्मसुपादितत्रिभुवनजनवादितयशःपटहः अथ व्यन्तरभेदानां नामान्याह
स्वस्तिकलाञ्छितद्विशतधनुरुच्छ्रायः काञ्चनच्छायकायः क्र
मेण प्राज्यराज्यश्रियमनुभूय भूयः सांवत्सरिकं दानं प्रदाय पिसाय १ भूया २ जक्खा य ३, रक्खसा ४ किन्नराय
सहस्राऽऽम्रवणे दीक्षां च कक्षीकृत्य विहत्य छमस्थावस्थया ५ किंपुरिसा ६ । महोरगा य ७ गन्धव्वा ८, अट्ठहा वा- नवमासी केवलममलमासाद्य समेतगिरिमेत्य निर्वृतः। प्रयोणमन्तरा ॥ २०८॥
विशश्च जिनेशः श्रीपार्श्वनाथ ऐक्ष्वाकाश्वसेनसूनुर्वामाकुक्षिव्यन्तरा अष्टविधाः पिशाचारभूतारयक्षाश्च३ पुना राक्षसाः
संभवः पन्नगलचमो नवकरोच्छायो नीलच्छवियपुस्तारान्त
जन्माऽऽश्रमपदोद्याने कौमार एवोपासचारित्रभावः केव४ किन्नराश्च ५ किंपुरुषाः ६ महोरगाः ७ गन्धर्वाः एवम
लमुत्पाद्य तस्मिन्नेव शैलेशीमवाप्य सिद्धः, अस्यामेव एप्रकारा व्यन्तरा ज्ञेयाः । उत्त० ३६ अ०।
कुमारकाले भगवानेष एव मणिकर्रिणकायां पश्चाग्नितपस्तव्यन्तराणां स्थानान्याह
प्यमानात्कमठऋषेरायतिभाविनी विपदमात्मनो विदितकेवइया णं भंते ! वाणमंतराऽऽवासा पसत्ता',गोयमा! वानप्यन्तरुणज्वलनज्वालाभिरर्द्धदग्धदन्दशूकं जनन्या ज. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जो- नानां च संदर्य कुपथमथनमकार्षीत् । अस्यां काश्यपयणसहस्सचाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं भोगाहेत्ता हे
गोत्री चतुर्वेदी षट्कर्मकर्मठौ समृद्धौ यमलभ्रातरौ जय
घोषविजयघोषाभिधानौ द्विजवरावभूताम् , एकदा जयः द्रा चेग जोयणसयं वजेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएम ए
स्नातुं गङ्गामगात् , तत्र प्रदाकुना प्रस्यमानं भेस्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेजा न-1 कमेकमालोक्य तत्सर्प च कुललेनोरिक्षप्य भूमौ पातित
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बाणारसी
मद्रासीत् । सर्वमाक्रम्य स्थितं फुललं तमेव चराडप्रासैः खादन्तं सर्प च फुललवागतमपि विषणमण्डूकमा बीय प्रतिबुद्धः प्रत्रज्याक्रमादेकरात्रिकी प्रतिमां प्रपद्य विहरन् पुनरिमां नगरीमगात् । मासक्षपणपारणके पक्षपाप्रतिविस्यमादिभिः प्रतिषिद्धलतः श्रुत्वा ऽभिहितवर्षामुपदिश्य भ्रातरं विप्रां प्रत्यवृद् विरो विजयघोषः प्रामाजीद द्वावपि मोक्षं प्रापतुः । ती० । (नन्दाभिधानना विकवृत्तम्' गंद' शब्दे चतुर्थभागे १७४८ पृष्ठे गतम् । ) अस्यां संपादननरपतिः सातिरेककन्यासहस्रैः खन्नपि परस्पतिपृतनायेष्टितायां पुरि राज्यलक्ष्मी गर्भस्थोऽप्यवीरातवान् अस्यां मातषिर्वसनामा मृतगङ्गातीरलब्धजन्मा तिन्दुकोद्याने स्थितवान् गण्डीतिन्दुकं च यक्षं गुलगरीत हृदयमकार्षीत् । कोशिलिकनृपदिता च भद्रा मलचितसृर्षि विलोक्य निष्ठ्युतवती । ततस्तेन यक्षेणाविष्ठिता तेनैव मुखे वपुषि संक्रम्य परिणीता त्या च मुनिना, ततो रुद्रदेवेन यशपत्नी कृता । मासक्षपणपारणे च भिक्षार्थमुपागतो मातङ्गमुनिर्द्विजातिभिरुपहस्य कदर्थ्यमानः सरप्रेक्ष्य भद्रयोपलक्ष्य बोधितास्तं क्षमयामासुर्ब्राह्मणाः प्रत्यलाभश्च भक्ताद्यैः, विदधे विबुधैर्गन्धोदकवृष्टिः पुष्पवृष्टिदुन्दुभिवादनं वसुधारापातश्च । श्रस्याम् - " वाणारसीऍ कोटुऍ पासे गोचारिभद्दासणे य । दसिरीपउमद्दइ-रायगि सो चिद वीरे ॥ १ ॥ वासारसी य नगरी, अणगारे धम्मघोल धम्मजसे । गर, गोग्रासगंगा व अणुकंपा ॥ २ ॥ तदावश्यकनिर्युको संविधानकद्वयमनि । ती० ४२ कल्प | ( नन्दश्रीवार्ता
मासस्स य पार
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गंदसिरी' शब्दे चतुर्थभागे १७५१ पृष्ठे गता । ) अत्रैव पुर्या धर्मघोषधयसी द्वावप्यनगारी वर्षारामायस्थाताम्तीमा २ रुपयेनास्ताम् अन्यदा चतुर्थपारसके तृतीयप विहाराय प्रस्थिती शारदालनात ती गङ्गामुत्तरन्ती मनसाऽपि नाम्भ पेक्षतामपीयमिति दे वता तद्गुणावर्जिता गोकुलं विकुर्व्य गङ्गातीर्यौ तौ दध्योदनादिभिरुपन्यमन्त्रयत् । ती दत्तोपयोगी ज्ञातवन्ती यथेय मायेति प्रत्यषेधताम् पुरः प्रस्थितयोरनुकम्पया वाले व्य कार्यात् देवता, ती पायां भूमी शीतलाताप्यायिती प्रामं प्राप्य शुद्धोञ्छमादिषातामिति । श्रीमदयोध्यायामिवाकुवंश्यः श्रीहरिश्चन्द्रो महानरेन्द्रस्त्रिशङ्कुपुत्र उशीनरनृपसुतायाः सुतारादेव्या रोहिताश्वेन च पुत्रेण सहितः सुखमनुभवश्विरमशात्काश्यपीम् । एकदा सौधर्माधिपतिर्दिवि देवेन्द्रपरिषदि तस्य सत्ववर्णनामकरोत् तदधानाबुभौ गीर्वाणी चन्द्रमणिप्रभनामानी वसुन्धरामवती । तयोरेको वनवराहरूपं विकृत्यायोध्यापरिसर स्थितशकाय तारचेत्याश्रमं ससंभ्रमं भकं प्रववृते । अन्येषु सदसि सिं हासनस्थितो हरिश्चन्द्रमहीन्द्रस्तमाश्रमोपप्लवं शूकरोपशं श्रुत्वा तत्र गत्वा वाणप्रहारेण तं वराहं प्रहतवान् । तस्मित्वं शरेऽन्तर्हिते गर्हितेतरयरितः स धावतं प्रदे शमविशत्तावत्तत्र हरिणीं स्पाहतां तस्याः स्फुरन्तं
गलितं गर्म निभाल्प कपिञ्जलकुन्तलमित्राभ्यां सह प र्यालोच्य भ्रूणध्नं स्वमशोचयत् । प्रायश्चित्तग्रहणार्थे कुलपतिकन्यकानुमत (माल) मकार्षीत् । व्यवहारार्थं च ततोऽनेन
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(१००३) अभिधानराजेन्द्रः ।
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बाणारसी पापीयसा मन्मृगी इता तम्मरसे च मम मातुध मरणं भवि व्यतीति निशम्य कुपिताः कुलपतिनृपतयः, ततस्तत्पदोर्नि पत्य नरपतिरलपत् प्रभो ! सकलामपि वसुधां प्रतिगृह्य मा मेतस्मात् एनसो मोचय, तयोश्च मरणनिवारणाय हेमलक्षं दास्यामीति तेनान्यामिति प्रतिपत्रे सति कोटिल्यमृर्षि सह कृत्वा नृपः स्वपुरीमागात्, ततो वसुभूतेर्मन्त्रिणः कुन्तलस्य च सुहृदस्तत्स्यरूपमावेध कोशादेकलक्षमानाययत् ततः स्मित्या तापसः सागारको व्याकरोदस्मभ्यं जलधिमेखलामखिला मिलां त्वमदाः ततोऽस्मदीयमेव वस्त्वस्मभ्यमेवं दीयत इति कोऽयं न्यायः । अथ वसुभूतिः किमपि ब्रुवाणः कुलपतिना शापादपारिकार, कुन्तलस्तु शृगालः, तौ च वनमध्येऽवसताम् । राजा च मासमवधिं मार्गयित्वा रोहिताश्वमङ्गुलौ लगयित्वा सुतारया सह काशीं प्रति प्राचलत् क्रमादिमां पुरीं प्राप्य संखायां स्थितः तत्र शिरसि तु दत्वा वज्रहदयविमदस्ते देवी कुमारं देमसहस्रैर्विचित्राय सात
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पेपणादिकर्माणि निर्ममे । दारक समित्पत्रपुष्पफलायाजहार | राशीचिन्ताध्वान्तचेताः स कुलपतिः कनकं मार्गयितुमगाद् । दत्तं तस्मै राशीकाञ्चनसहस्रषट्म्, कुलप ती स्तोकमिति कुप्यत्यङ्गारको योचत् भोः किमर्थ पत्नीमपत्यं च विक्रीणीथाः अत्रत्यचन्द्रशेखरं नरेश्वरं किं न पाचसे वसु लक्षम् । राज्ञोक्तम् - अस्मत्कुलेनेदं सिद्धयति, डोंवउस्यापि वेश्मनि कर्मकरणमुररीकृत्य दास्यामि तब का चनमिति ततः कर्म कर्तुं प्रवृत्तण्डालेन श्मशानरणे नियुक्तः, ततः परं यथा ताभ्याममराभ्यामकारि मारिः पुर्याम्, यथा भूपादेशानीतमान्त्रिकेण राक्षसीप्रवादमारोउदय सुवारा मरडलमानीय रासभमारोपिता, यथा सुतः पावके दत्तम्पोऽपि न दग्धः, संस्कारं कर्तुमानीतः, तस्याः करमयाचिष्ट नृपतिः । यथा च सत्वपरीक्षानिर्वाणप्रमुदिप्रकटितनिजरूपः त्रिदशकृतपुष्पवृष्टिजयध्वनिः सर्वजनैः प्रशंशितः सात्त्विकशिरोमणिः इति, यथा च बर्हिर्मुखसुखाद्वराहादिपुष्पवृष्टिपर्यन्तं दिव्यमायाविलसितमवबुध्य यावच्चेतसि चमत्कृतस्तावत् स्वपुर्ण सदसि सिंहासनस्थं परिवारमपश्यत्, तदेवीकुमारविक्रयादिदिव्यपुष्पवर्षावसानं श्रीहरिश्चन्द्रस्य चरित्रं सत्वपरिक्षानिकषो ऽस्यामेष पुर्यामजनि । जनजनितविस्मयं यच्च काशीमाहात्म्ये प्रथमगुरुस्थानीयैरभिधीयतेपद्वाराणस्यां कलियुगप्रवेशो नास्ति, तथात्र प्राप्तनिधनाः कीटपतङ्गभ्रमरादयः कृतानेकचतुर्विधहत्यादिपाप्मानोऽपि मनुष्यादयो वा शिवसायुज्यामियतीत्यादि युक्तिरिक्तं तदस्मदादिभिः भानुमपि दुःशक म् किं पुनः कल्पे जल्पितुमित्युपेक्षणीयमेतत् धातुवाद सयादयन्मयादमन्त्रविद्या विधुराः शब्दानुशासनत कैनाटकालङ्कारद्योतितचूडामणिनिमित्तशास्त्र साहित्यादिविद्यानिपुणा निलपुरुष अस्यां परिवाजकेषु जटाधरेषु योगिषु ब्राह्मणादिचातुर्वएर्यचच नैकरसिकमनांसि प्रीणयन्ति चतुर्विंगतदेशान्तरयास्तम्याश्वास्यां जना दृश्यन्ते सकलकलापरिकल नकीतूहलिनः । वाराणसी येथे संप्रति चतुव विभा दृश्यते । तद्यथा - देववाराणसी यत्र विश्वनाथप्रासादः तन्मध्ये चाऽऽश्मन जैनं चतुर्विंशतिप पूजारूपमचापि विद्यते द्विती
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(२०७४) अभिधानराजेन्द्रः ।
वाणारसी
या राजधानी वाराणसी- पत्राचा पवना दुतीया मदन वाराणसी, चतुर्थी विजयवाराणसीति । लौकिकानि तीर्था नि अस्यां क इव परिसंख्यातुमीश्वरः अन्तर्वणं दन्तखातं त डागं निया श्रीपार्श्वनाथस्य वैस्यमनेकप्रतिमाविभूषितमा स्ले, अस्थाममलपरिमलभराकृष्टभ्रमरकुलसंकुलानि सरसीसु नानाजातीयानि कमलानि, अस्यां व प्रतिपदमकुतोभयाः संचरिष्णवो न वाध्यन्ते शाखामृगा मुकपूर्तीच अस्याः कोशवितये धर्मध्यानसंनिवेशो यत्र बोधिसत्वस्योरशि खरचुम्बितगगनमायतनम् । अस्यास सार्वयोजनद्वयात्परत चन्द्रावती नाम नगरी: यस्यां श्रीचन्द्रयभोगंर्भावतारादिकस्याणकचतुष्पमखिलमुचन जनतुष्टिकरमजनिष्ट " - गङ्गोदकेन च निपजन्मना च प्राकाशि काशिनगरी नगरीयसी । तस्था इति व्यथित कल्पमत्यभूतेः श्रीमान् जिनप्रभ इति प्रथितो मुनीन्द्रः ॥ १ ॥ " श्रीवाराणसीकल्पः । सी० ३७ कल्प |
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वाणिश्रय-वणिज्-पुं० । वणिजे, 'श्रावणिश्रा वाणिश्रया । '
पाइ० ना० १०५ गाथा ।
वाणिज - वाणिज्य - न० । पञ्चसु वणिव्यापारेषु, ध० पाणिभ्याम्याद
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वाणिज्याका दन्तलाचा-रसकेशविनाश्रिताः ॥ ५२ ॥ प्रयोत्तरान पक्ष वाणिज्यान्याद- 'वाणिज्याका' इत्यादि अत्रादिः प्रत्येकं योज्यस्ततो दन्ताधितो दन्तविषया वाणिज्याका - वाणिज्यं दन्तक्रयविक्रय इत्यर्थः । एवं लाक्षावणिज्यारसवणिज्या केशवणिज्याविषवणिज्यास्वपि । तत्र दन्ता हस्तिनां तेषामुपलत्यादन्येषामपि सजीवाचयवानां घूकादिनखहंसादिरोमचर्मचमरशृङ्गशङ्खशुक्लिकपर्दकस्तूरीपदी सकादीनां वणिग्या चात्राकरे महरूपा इष्टया वत्पूर्वमेव पुलिन्दानां मूल्यं ददाति दन्तादीन् मे सूर्य वदति, ततस्ते इत्यादीन् प्रन्त्यचिरादसौ वाणिकप व्यतीति, पूर्वानीतांस्तु क्रीणातीति श्रसहिंसा स्पष्टैवास्मिन् बाणिज्ये, अनाकरे तु दन्तादीनां ग्रहणे चिकये च न दोषः, यदाहु:-- दन्तकेशनखरो ग्रहसमाकरे। प्रसा ह्रस्य वणिज्यार्थ, दन्तवाणिज्यमुच्यते ॥ १ ॥ ॥ ६ ॥ ६० ॥ बाणी-वानी-श्री० वने भवायाम्, नि० १ ० ३ वर्ग ३० काणीर - वानीर- पुं० । वानीरे, "वंजुलो वेडसो य वाणीरो ।”
पाइ० ना० १४४ गाथा ।
बात (ता) ( ) -पात-पुं०] वायुकायिके, पं००१ द्वारा जी०म०
बातानाह
रायगिहे गरे ० जाव एवं वयासी - श्रत्थि णं भंते ! ईसिं पुरे वाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति ?, हंता अत्थि, अत्थि णं मंते ! पुरच्छिमे णं ईसिं पुरे वाया पत्था बाया मंदा वाया महावाया वार्यति हंता अत्थि । एवं प
त्थमेयं दाहिणे णं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पुरच्छिमदाहियेयं दाहिणपच्छिमेणं पच्छिमउत्तरेणं । जया बं मंते ! पुरच्छिमेणं ईसि पुरे वाया पत्या वाया मंदा
बात
वाया महावाया पायंति तथा सं पचरिथमे विईसि पुरे वाया, जया णं पच्चत्थिमेणं ईसिं पुरे वाया तया पुरच्छिमेव विहंता, गोयमा जया यं पुरच्छिमे तया ! संपवत्थमेश वि ईसि जया से पच्चत्थिमेण वि ईसिं तथा यं पुरच्छिमेण वि ईसिं, एवं दिसासु विदिसासु । अस्थि भंते ! दीविच्चया ईसिं १, हंता यत्थि । श्ररिवणं भंते! समुदया ईसि १ ता अत्थि । जया सं भंते! दीविया स तथा वं सा सामुदमा वि ईसिं, ज या सामुद्दया ईसिं तया गं दीविच्वया वि. ईसिं १, यो इणट्ठे समट्टे । से केद्वेगं भंते ! एवं बुच्चति जया
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दीविच्चया ईर्सियो गं तया सामुइया ईसिजया वं सामुदया ईसि को तया दीविच्चया ईसिं १, गोयमा ! तेसि श्रं वाचाणं अन्नमन्नस्स विवच्चासेणं लवणे समुद्दे वेलं नातिक्कमर से तेल द्वेणं जाव वाया वार्षति । अस्थि से मंते ! ईसि पुरे वाया पत्था वाया मंदा वाया महाबाया वायंति ९, हंता अत्थि । कया गं भंते ! ईसिं० जाव वायति ! गोयमा ! जया ं वाउपाए अहारियं रियंति तया गं ईसिं० जाव वायं वार्यति । अस्थि खं भंते ! ईसिं १ हंता अस्थि कया मंते ! ईसि पुरे वाया पत्या० :गोयमा ! जया ं वाउयाए उत्तरकिरियं रिमइ तया ईसिं० जाव वायंति । अस्थि णं भंते ! ईसि ? हंता अस्थि । कया गं भंते! ईसि पुरे वाया पत्या नाया १, गोयमा ! जया णं वाउकुमारा वाउकुमारीच्मे वा अप्पयो वा परस्त वा तदुभयस्स वा अडाए बाउकार्य उदीरेति तया से ईसि पुरे वाया जाव वायंति, वाउकाए णं भंते ! वाउकायं चैव आणमंति पाणमंति जहा खंदर तहा चचारि आलावगा नेयव्वा श्रगसयसहस्स० पुढे उद्दाति वा, ससरीरी मिक्खमति ॥ ( सू० १८० )
'रायगडे, इत्यादि, 'अथिति मत पाता वान्तीति योगः कीदृशाः ? इत्याह- 'ईसिं पुरे वायं ' तिम नाक तह वाताः 'पत्था वाय' क्ति पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः' मंदा वाय ' ति मन्दाः शनैः संचारिणोः महावाता इत्यर्थः 'महावाय' ? त्ति उद्दण्डवाता; श्रनपाः इत्यर्थः 'पुरच्छिमे णं' ति सुमेरोः पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः एवमेतानि दियिदिगपेक्षया षाणि उदिमेन यातानां वानम् अथ दिशामेय परस्परोपनिबन्धेन तदाह'जया ग' मित्वादि, इह च द्वे विकू सूत्रे द्वे विदिकसूत्रे इति । अथ प्रकारान्तरेण यातस्वरूपनिरूपसूत्रम् तत्रदिविसिया द्वापसम्बन्धिनः 'सामुदय' ति, समुद्रस्यै
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(१०७५) पात
अभिधानराजेन्द्रः। ते सामुद्रिकाः, 'अनयन्त्रविवच्चासेणं' ति अन्योऽन्यव्यत्या
वात (य)कएह-वातकृष्ण-पुणवत्सगोत्रान्तर्गतेऽवान्तरसेन यदेके ईषत्पुरोवातादिविशेषेण वान्ति तदेतरे न तथा- गोत्रप्रवर्तक ऋषी, स्था०७ ठा०३ उ०। विधा वान्तीत्यर्थः । वेलं नाइकमा' ति, तथाविधवात
वात (य)केत-बातकेत-न० । चतुर्थदेवलोकविमाने, स०५ द्रव्यसामर्थ्याद्वेलायास्तथास्वभावत्वाचेति । अथ वातानां
सम०। खाने प्रकारान्तरेण वातस्वरूपत्रयं सूत्रत्रयेण दर्शयन्नाह'अस्थि ण 'मित्यादि, इह च प्रथमवाक्यं प्रस्तावनार्थमितिवात (य) कूड-वातकूट-न। खनामख्याते चतुर्थे देवलोन पुनरुक्तमित्याशङ्कनीयम्, 'अहारिय रियति'ति, रीतं री
कस्थे विमाने, स०५ सम०। ति, स्वभाव इत्यर्थः तस्यानतिक्रमेण यथारीतं रीयते-वात (य) खंध-वातस्कन्ध-पुं० । घनवाततनुवातेषु, गच्छति, यदा स्वाभाविक्या गत्या गच्छतीत्यर्थः, 'उत्त-| स्था०२ ठा०४ उ०। राकिरियं ' ति, पायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकमुत्तरं वात (य) णिसग्ग-चातनिसर्ग-पुं० । अधिष्ठानेन पवननिन वैक्रियमत उत्तरा-उत्तरशरीराश्रया क्रिया गति- र्गमे, लाषामाचा। लक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियम्, तद्यथा-भवतीस्पेयं रीयते-गच्छति, पहचैकसूत्रेणैव वायुवानकारणत्रय
| वात (य) पइद्विय-वातप्रतिष्ठित-त्रि० । वातोपरिस्थिते, स्य वक्तुं शक्यत्वे यत्सूत्रत्रयकरणं तद्विचित्रत्वात् सूत्रगते
| "बायपाहिए उदही " वातप्रतिष्ठित उदधिर्धनोदधिस्तनुरिति मन्तव्यम् । वाचनान्तरे त्वाचं कारणं महावातवर्जिता.
बातोपरि स्थितत्वात् । भ० १२०६ उ० । स्था० । नाम् , द्वितीयं तु मन्दवातवर्जितानाम् , तृतीयं तु चतुर्णा- |वात (य) परिगय-वातपरिगत-त्रि० । देहगतवायुप्रेरिते, मप्युक्तमिति । भ०५।०२ उ०। मा०.चूछ । "एत्थ अट्ट वाया वातपरिगते वा देहे सति बाधवातेन चोत्क्षिप्त इति । वरणेवव्वा, तं जहा-पादीणवाए पदीईणवाए उदीणवाए दा- स्था०१ ठा० ३ उ०। हिणवाए, जो उत्तरपुरथिमे हां वातो सो सत्तासुयो, जो वात (य) पलिक्खोम-वातपरिक्षोभ-पुं०। वातोऽत्र घादाहिणपुष्ये णं सो तुंगारो, जो दहिणाबरे णं सो बीयायो,
| त्वा तद्वद् वातमिश्रत्वात् परिक्षोभहेतुत्वात्स वातपरिक्षोभ अधरुमरे ण मज्जभो । एवमेते अट्ठ पाया अरणेवि दिसासु | इति । भ०६ श०५ उ० । कृष्णराजौ, स्था०८ ठा० ३ उ० । अट्ठ, तं जहा-उत्तरसत्तासु य पुरिमसत्तासुमो य तहा पुरिमतुंगारो दाहिणतुंगारो तद्दा दाहिणवायवो अव
वात (य) फलहि-वातपरिध-पुं०।परिहननात् परिघोऽर्गरखीयावायाहि । अवरगज्जभो उत्तरगज्जभो य ।" इयमत्र
ला परिघाव परिघः । तमस्काये,स्था०४ ठा०२ उ०। पातोड भावना, अत्र चत्वारः शुद्धदिग्वातास्तद्यथा-प्राचीनवा
अपात्या तबद्धातमिश्रत्वात्परिघश्च दुर्लक्त्वात्स घातपरिधः। तः प्रतीचीनवातः उदीचीनवातो दक्षिणवातश्च । तत्र यः
भ०६ श०५ उ० । कृष्णराजौ, स्था०८ ठा० ३ उ० । प्राच्या दिशः समागग्छति स प्राचीनपातः, एवं शेषदि-वात (य)फलिहक्खोम-वातपरिषदोभ-पुं०। वातं परिधग्यातभावनाऽपि कार्या, चत्वारः शुद्धविदिग्वातास्तद्यथा- बत् क्षोभवति हेतुमागें करोतीति वातपरिघक्षोभः । वात उत्तरपूर्वस्यां सक्कासुको दक्षिणपूर्वस्यां तुसारो दक्षिणाप-1 एव या परिघस्तं चोभयति यः स तथा। परिघवनातलोभरस्यां बीजापः अपरोत्तरस्यां गर्जाभः । एवमौ शुखदिग्वि- कारके, स्था०४ ठा०२ उ०।। दिग्वाताः, अष्टावन्ये दिग्विदिगपान्तरालपर्तिनः । तद्यथा
वात (य)मंडलिया-वातमएडलिका-सी० । वातोल्याम, उत्तरस्या उत्तरपूर्वस्याश्चापान्तराले उत्तरसनासुका उत्तरपू
जी०.१ प्रति०। प्रज्ञा० । भ०। वस्याश्चापान्तराले पूर्वसनासुकः पूर्वस्या दक्षिणपूर्वस्यामापान्तराले पूर्वतुझारः दक्षिणपूर्वस्या दक्षिणस्थाश्चान्तरा
वात (य) मंडली-वातमण्डली-सी० । मण्डलेनोप्रवृत्ते दक्षिणतुकारः दक्षिणस्या दक्षिणापरस्याच दक्षिणवीजापः।। वाया, स्था०४ ठा० १ उ०
| वायौ, स्था० ४ ठा०१०। दक्षिणापरस्या अपरस्याश्चापरबीजापः । अपरस्या अपरोक्त-वाता (या) इद्ध-वाताविद्ध-पि० । वातप्रेरिते, उपा०७ रस्याश्वापरगर्जाभः । अपरोत्तरस्या उत्तरस्याधापान्तराले १०। उत्त०। “यायाविसु व्व हडो, भट्टिप्पा भविस्सउत्तरगर्जाभः। एवमेते षोडश । सप्तदश उत्कालिकावातः।ा. सि" श०२०नि००। म०.१ मा “पागासपइट्ठिया वाया" बातो घमवाततनुवा-वातावि-वातापि-पुं० । हर्षादगस्त्यमभ्यासादनतो विनरे तलक्षणः । स्था० ३ ठा० २ उ०। “पारुष्यसोचनतोद-] स्वनामच्यातेऽसुरे, ध०१ अधिक। शल-श्यामत्वभाव्यथचेष्टभङ्गाः। सुसस्वशीतत्वस्वरत्वशेषाः, कर्माणि पायोः प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥५॥" स्था० ४ ठा० ४ उ०।
एका वाता(या)हयग-वाताहतक-त्रि० । वायुनेपच्छोषमानीते, उ. .
पा०७०। वात (य)-वातकिन-त्रिकाबातो रोगविशेषोऽस्यास्ती-वातिक-वातिक-पुं०।वातोऽस्यास्तीति वातिका सनिमित्तति पातकी, पातकीय पातकी। वासूले, “स बातकी नाथ! तोऽन्यथामेहने स्तब्धे सति स्त्रीसेवायामकृतार्या वेदं धापिशाचकी वा" स्या।
रयितुमशक्के नपुंसकभेदे, प्रव १०६ द्वार । विकटे,१०५ उ०।
उच्छ्रितत्वे, स्था० ३ ठा०३ उ०। बात (य) कंटग-वातकण्डक-पुं० । पहिभित्रिते उपरि-1
वातलिय-वातलिक-पुं० । नास्तिके, दश०१०। गपिपिछले मध्ये जलशून्ये करके, मा. म.१०जी०।।' रा ।
बाद(य) वाद-पुं०। वदनं बादः। विशे। स्था०1०1स।
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वाद
वार्तायाम्, बृ०१ उ० ३ प्रक० । विकत्थने, स्था०६ ठा०३ उ० स्वदर्शनस्थापनलक्षणे (संथा०|) पूर्वपते, अ० अ० ज० अङ्गीकारे, सूत्र० १ ० १ श्र० ४ उ० । समभ्युपगम्यपञ्चावयवेन प्रयवयवेन वा वाक्येन छलजातिविरहिते भूतान्बेषपरे समर्थने, स० १२ सम० । सूत्र० ।
(१०७९), अभिधानराजेन्द्रः ।
प्रमाणनयतस्त्वं व्यवस्थाप्य संप्रति तत्प्रयोगभूमिभूतं वस्तुमियाभिप्रायोपक्रमं वादं वदन्तिविरुद्धयोधर्मगोरेकधर्मव्यवच्छेदेन स्वीकृत्य तचदन्यधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणवचनं वादः ॥ १ ॥
"
विरुद्धयोरेकत्र प्रमारोना ऽनुपपद्यमानोपलम्भयोर्धमयोर्मध्यादिति निर्धारणे षष्ठी सप्तमी वा । विरुद्धावेव हि धर्माबेकान्तनित्यत्वकथयित्यादी वा प्रयोजयतः पुनरितरौ, तद्यथा - पर्यायवद् द्रव्यं गुणवच्च, विरोधश्चैका धिकरणत्वेककालत्ययोरेव सतोः संभवति । अनित्या दु विर्नित्य आत्मेति भित्राधिकरणयोः पूर्वे निष्क्रियम् इदानी क्रियावद् द्रव्यमिति भिन्नकालयोश्च तयोः प्रमाणेन प्रतीतौ विरोधासंभवात् । अयमेव हि विरोधो यत्यमाणेनानुपलउसने नाम, अन्यथाऽपि तस्याभ्युपगमे सर्वत्र तदनु प्रसङ्गात् इति विरुदत्यान्यथानुपपत्तेरेकाधिकरणत्येककालत्वयोरवगतौ । यद् न्यायभाष्ये " वस्तुधर्मावेकाधिकरखी विवेककालापनयसितो" इति तयोरपादानम् तत् पुनरुक्तम्, अपुष्टार्थे वा । यदप्यत्रैवानवसिताविति, तदप्यव्यापकम् यतो वीतरागविषयवादकथायामनवसितत्यसद्भावेऽपि जिगीषुर्गोचरवादकथायां तदसद्भावात् । बीतरागवादो ह्यन्यतरसन्देहादपि प्रवर्तते । जिगीषुगोचरः पुन नाम निर्णयमन्तरेण प्रवर्तितुमुत्सहते। तथाहि यादी शादी नित्यत्यं स्वयं प्रमाणेन प्रतीत्येव प्रवर्तमामोऽसमानप्रतिपक्षप्रतिक्षेपमनोरथोऽहमहमिकाऽनुमानमु पन्यस्पति प्रतिवाद्यपि तत्रैव धर्मिणि प्रतिपचानित्यत्वधर्मस्तथेच पणमुदीरयतीति नाम मादकथामारम्भात् प्रागनबसायस्यावकाशः । ततोऽयं सूत्रार्थः- यावेकाधि करणाबेककाली व धर्मी विरुध्येते, तयोर्मध्यादेकस्य सथा नित्यत्वस्य कथंचित्यित्वस्य था, व्यवच्छेदेन निरासेन, स्वीकृततदन्यधर्मस्य कथंचिनित्यत्वस्य सर्वथा निस्वत्वस्य या व्यवस्थापनार्थ वादिनः प्रतिवादिन साथमदूषणच वाद इत्यभिधीयते सामथ्याच्च स्वपचविषयं साधनम्, परपक्षविषयं तु दूपणम्, साधनदूषणवचने च प्रमाणरूपे एव संभवतः, तदितरयोस्तयोस्तदाऽऽभासत्वात् न च ताभ्यां वस्तु साधयितुं दूषयितुं वा शक्यमिति । - यस्मिक्षेप धर्मिश्येकतरधर्मनिरासेन तदितरधर्मव्यवस्थापनार्थ पादिनः साधनवचनम् कथं तस्मिय प्रतिवादिमरतद्विपरीतं दूषचनमुचितं स्यात् व्याघातात् इति बेत् तदसत् स्वाभिप्रायानुसारेण वादिप्रतिवादिभ्यां तथा साधनपचने विरोधाभावात् पूर्व हि ताव पा दी स्वाभिप्रायेण साधनमभिधणे, पश्चात् प्रतिवाद्यपि स्वाभिप्रायेव भूषणमुद्भावयति न सत्पत्र साधन पये बैंकप्रेयधर्मिथितायिकमस्तीति न विवक्षितम्, किन्तु स्था
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बाद भिप्रायानुसरयेन पादिमतिवादिनी ते तथा प्रमुखाते इति तथैबोक्ने ॥ १ ॥
अङ्गनियममेवदर्शनार्थ पादे प्रारम्भको पदन्तिप्रारम्भकश्चात्र जिगीषुः, तत्स्वनिर्णिनीषुच ॥ २ ॥ तत्र जिगीषुः प्रसा प्रथमं च मारमारभते प्रथममेव च तस्वनिर्धिनीः इति द्वावप्येतो प्रारम्भको भक्तः । त जिगीषो:- "सारमातुरथाः पलायतामा बना दमुष्मात् । साटोपकोपस्फुटकेसरश्री - मृगाधिराजोऽयमु पेयिवान् यत् ॥१॥" इत्यादिविचित्रपदोत्तम्भनम् । अपि ! कपटनाटकपटो ! सितपट किमेतान् मन्यमेधसस्तपखिनः शिष्यानलीतुण्डताण्डयाडम्बरप्रचण्डपाण्डित्याविष्कारेण विप्रतारयसि ?, क जीवः १, न प्रमाणदृष्टमदृष्टम्, दवीयसी परलोकवार्तेति साक्षादाक्षेपो वा न विद्यते नरविद्यावदातस्तव सदसि कश्चिदपि विपश्विदित्यादिना भूपतेः समुत्तेजनं च इत्यादिर्वादारम्भः । तस्वनिर्णिनीपोस्तु समाचारिन् शब्दः किं कनिक स्यात् नित्य एष देति संशयोपक्रमो या कप नित्य एव शब्द इति निर्णयोपक्रमो वा इत्यादिरूपः । वचनव्यश्री सूत्रेप्यन्ये कचिदेकस्मिन्नपि प्रौढे प्रतिवादिनि पह योऽपि संभूय विपदेन जिगीषयः पर्यीरंध तत्वनिि भीषया सच मोडतथेच तांस्तावतो ऽप्यभ्युपैति प्रत्याया ति च तत्त्वं चाचष्टे । कचिदेकमपि तत्त्वनिर्णिनीषु बयोऽपि तथाविधाः प्रतिबोधयेयुः । इत्यनेकवादिकृतः, श्रीकृतश्च वादारम्भः संगृह्यते ॥ २ ॥
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तत्र जिगीषोः स्वरूपमाद्दुःस्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणाभ्यां परं पराजेतुमिच्छुर्जिगीषुः ॥ २ ॥
स्वीकृतो धर्मः शब्दादेः कथचिद नित्यत्वादिर्यः तस्य व्यवस्थापनार्थम्, यत्सामर्थ्यात् तस्यैव साधनं परपक्षस्य दूषणम ताभ्यां कृत्वा परं पराजेतुमिच्छुर्जिंगीपुरत्य थेः । एतेन यौगिको ऽप्ययं जिगीषुशब्दो बादाधिकारिनिपकरणे योगरूढ इति प्रदर्शितम् ॥३॥ ( तस्यनिर्णिनीपो स्वरूपं तत्तणिखिणीसु" शब्दे चतुर्थभागे २१०१ पृष्ठे गतम् ।) यादिप्रतिवादिनोईस्तिप्रतिइस्तिन्यायेन प्रसिद्धेर्यावद् वादिनः, तावद् चैव प्रतिवादिभिरपि भवितम्यम् इत्या
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एतेन प्रत्यारम्भकोऽपि व्याख्यातः ॥ ६ ॥ आरम्भकं प्रति प्रतीपं चाऽऽरभमाणः प्रत्यारम्भकः, सोऽयमेतेन प्रारम्भकमेप्रमेदरूपयेन व्याख्यातः । प्रदर्शि तभेदप्रभेदः सहृदयैः स्वयमवगन्तव्यः । एवं च प्रत्यारम्भकस्यापि जिगीषुप्रभृतयश्चत्वारः प्रकारा भवन्ति । तत्र यद्यप्येकैकशः प्रारम्भकस्य प्रत्यारम्भकेण साधे वारे पोडश भेदाः प्रादुर्भवन्ति, तथापि जिगीषोः स्वात्मनि तत्वनिर्मिती स्वात्मनि तस्वनिर्थिनीपोजिंगीपुरा, स्वात्मनितस्वनिोिः स्वात्मनि तत्वनिर्मितीपुरा च केवनिध केवलिना सह वादो न संभवत्येव इति चतुरो भेदान् पातयित्वा द्वादश्य तेऽत्र गश्यन्ते तद्यथा यादी जिगीषु प्रतिवादी तु जिगीषुः स्वात्मनि तवं निर्णिनीनं, परच सम्यनिखिनीषुः शायोपशमिकचानशाली, केव
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याद
ली च । तथा वादी स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः प्रतिवादी तु जिगीषुर्न स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुर्न परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकशानशाली, केवली च । तथा वादी परत्र तरवनिर्धिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानशाली प्रतिवादी तु जिगीषुः स्वात्मनि तस्वनिर्धिनीषुः परत्र तस्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकशानशाली, केवली च। तथा वादी परत्र तत्वनिर्णिनीषुः केवली व प्रतिवादी तु जिगीषुः स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकशानशाली, केवली चन एवमेते चत्वारश्चतुष्का षोडश नमुपलक्षितेषु चतुर्षु पातितेषु द्वादश भवन्ति “अङ्गनैयत्यनिधित्यै बादे यादफलार्थिमिद्वादशवा बखातच्या पते भेदा मनखिभिः"। अनियममेव निवेदयन्ति
तत्र प्रथमे प्रथमतृतीयतुरीयायां चतुरङ्ग एवं अन्यतमस्वाऽप्यस्वापाये जयपराजयव्यवस्थादिदौस्थ्यापत्तेः | १०|
प्रा
उक्तेभ्यश्चतुर्थः प्रारम्भकेभ्यः प्रथमे जिगीपी रम्भके सति प्रथमस्य जिगीषेोरेव तृतीयस्य परत्र - स्वनिर्धिनीषुभेदस्व क्षायोपशमिकज्ञानशालिक तद्भेदस्य तुरीयस्य केवलिनथ प्रत्यारम्भकस्य प्रतिवादिनब्धतुरङ्ग एव प्रकरणाद् वादो भवति । वादिप्रतिवादिरूपयोरङ्गयोरभावे वादस्यानुत्यानोपहततेय इति तयोरयत्नसिद्धत्वेऽप्यपराङ्गद्वयस्यावश्यम्भावप्रदर्शनार्थे चतुरङ्गत्वं विधीयते । प्रसिद्धं च सिद्धांशमिश्रितस्थ उपस्थिस्य विधानम् । यथा शब्दे हि समुच्चारित यावानर्थः प्रतीयते तायति शब्दस्याभिधैव व्यापार इति निःशेषच्युतचन्दनम्इत्यादौ वाच्य एवैकोऽर्थ इति प्रत्यवस्थितं प्रति द्वावेतावर्थी वाच्यः प्रतीयमानयेत्येवंरूपतया वाच्यस्य सिद्धत्वेउप प्रतीयमानपार्थक्यसिद्धयर्थं द्वित्वविधानम् । तत्र पादिप्रतिवादिनोभावे बाद एव न संभवति, दूरे जयपरा जयव्यवस्थाः इति स्वतः सिद्धावेव तौ । तत्र च वादियत् प्रतिवाद्यपि चेजिगीषुः तदानीमुभाभ्यामपि परस्प रस्य शाख्यकलहादेर्जय पराजयव्यवस्थाविलोपकारिणो निवारणार्थ लाभाच वापराद्वयमप्यवश्यमपेक्षणीयम् । अथ तृतीयस्तुरीयो वाऽसौ स्यात्, तथाऽप्यनेन जिगीपोर्यादिनः शाठयकलहाचपोहाय, जिगीषुता च प्रारम्भकेय लाभपूजाव्यात्यादितचे तदश्यत एवेति सिद्धेय बतुरङ्गता। स्वात्मनि तस्यनिर्थिनीयुस्तु जिगीषु प्रति यादितां प्रतिवादितां च न प्रतिपद्यते स्वयं तत्त्वनिर्णयानभिमाने परावबोधार्थ प्रवृत्तेरभावात् तस्मात् तस्वनिर्णयासम्भवाच्चः इति नायमिहोत्तरत्र च निर्दिश्यते ॥ १० ॥ अनषेव नील्या जिगीषुमिव खारमनि तस्वनिर्णिनीमपि प्रत्यस्य वादिता प्रतिवादिता वा न सङ्गच्छत इति पारिशेष्यात् तृतीयतुरीपधारेचास्मिन् वादः सम्भवतीति । तृतीयस्य तावदङ्गनियममभिदधते
द्वितीये तृतीयस्य कदाचिद् द्वषङ्गः कदाचित् व्यङ्गः । ११। स्वात्मनि तवनिर्णिनीषौ वादिनि समुपस्थिते सति तृतीयस्य परत्र तत्त्वनिर्णिनीषोः क्षायोपशमिकशानशालिनः प्रतिवादिनः कदाचि यो वादो भवति यदा ज
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(१०७७) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वाद
पराजयादिनिरपेक्षयाऽपेक्षितस्तत्रावबोधो वादिनि प्रतिवादिना कर्त्तुं पार्थते तदानीमितरस्य सभ्पसभापतिरूपस्याद्वयस्यानुपयोगात् । न ह्यनयोः स्वपरोपकारायैव प्रवृत्तयोः शाख्यकलहादिलाभादिकामभावाः सम्भवन्तियदा पुनरुताम्यताऽपि क्षायोपशमिकज्ञानशालिना प्रतिचादिना न कथंचित्वनिर्णयः कर्तुं शक्यते तदा तनिपार्थमुभाभ्यामपि सभ्यानामपेक्ष्यमाणत्वात् कलहलाभाद्यभिप्रायाभावेन सभापतेरनपेक्षणीयत्वात् यः ॥ ११ ॥ द्वितीय व वादिनि चतुर्थस्थानियममाडुःतत्रैव व्यङ्गस्तुरीयस्व ।। १२ ।।
तत्रैव द्वितीये स्वात्मनि तस्वनिर्मिती वादिनि तुरीयस्य परम तत्त्वनिर्तिनीपोः केवलिनः प्रतिवादिनः यङ्ग एव वादः, तस्वनिर्णायकत्वाभावासंभवेन सभ्यानामभिहितदिशा सभापतेश्चाऽनपेक्षणात् ॥ १२ ॥ तृतीयेऽङ्गनियममाहुः
तृतीये प्रथमादीनां यथायोगं पूर्ववत् ।। १३ ।।
परत्र तरवनिशिनीची क्षायोपशमिकज्ञानशालिन वादिनि निवेदितस्वरूपाणां प्रथमद्वितीयतृतीयतुरीयाणां प्रतिवादिनाम्, उक्तयुक्त्यैव प्रथमस्य चतुरङ्गः, द्वितीयतृतीययोः कदाचिद् द्वयङ्गः, कदाचित् व्यङ्गः, तुरीयस्य तु द्वय एव वा दो भवति । निःसीमा हि मोहहतकस्य महिमा, इति क चिदात्मानं निहतस्वमिव मन्यमानः समग्रपदार्थपरमादर्शिनि केवलिम्यपि तर्सियोपजननार्थ प्रवर्तत इति न कदाचिदसम्भावना, भगवांस्तु केवली प्रवलकृपापीयूषपूरपूरितान्तःकरणतया तमप्यययोजयतीति को नाम नानुमन्यते ? ॥ १३ ॥
परोपकारैकपरायणस्य भगवतः केवलिनः संभवन्त्यपि परत्र तस्यनिर्तिनीषा न केवलकलावलोकित सकलवस्तुतया कृतकृत्ये केवलिन विलसितुमुत्सहत इति प्रथमादीनां - याणामेवाङ्गनियममाद्दुः
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तुरीये प्रथमादीनामेवम् ।। १४ ।।
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परत्र तस्वनिर्थिनीची केवलिन पादिनि प्रथमद्विती यतृतीयानामेवमिति पूर्ववत् प्रथमस्य चतुरङ्गः, द्वितीयतृतीययोस्तु द्वय एव वादो भवतीत्यर्थः, " प्रारम्भकापेक्षतया यदेवमङ्गव्यवस्था लभते प्रतिष्ठाम् । संचिन्त्य त स्मादमुमादरेण प्रत्यारमेत प्रतिभाप्रगल्भः ॥ १ ॥ " ॥ १४ ॥ चतुरो वाद इत्युक्तम्, कानि पुनश्चत्वार्यङ्गानि ? इत्याहु:बादिप्रतिवादिसम्पसभापतयश्चत्वार्यङ्गानि ।। १५ ।।
स्पष्टम् ॥ १५ ॥
अथैतेषां लक्षणं कर्म च कीर्तयन्तिप्रारम्भकप्रत्यारम्भकीवेव मलप्रतिमलन्यायेन वादिप्रतिवादिनी ।। १६ ।।
यौ तौ प्रारम्भकप्रत्यारम्भकौ पूर्वमुक्लौ, तावेव परस्परं वादिप्रतिवादिनी व्यपदिश्येते यथा-द्वी नियुध्यमानी मन्त्रतिमल्लाविति ॥ १६ ॥
प्रमाणतःस्वपक्षस्थापनप्रतिपक्षप्रतिक्षेपावनयोः कर्म | १७ | वादिना प्रतिवादिना च स्वपक्षस्थापन परपक्षप्रतिक्षेपथ
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वाद
द्वितयमपि कर्तव्यम् एकतरस्यापि विरहे तत्वनिर्णयानु त्पत्तेः । अत एव स्वपक्षेत्यादिद्विवचनेनोपक्रम्यापि कर्मैत्येकवचनम्, यथेन्धनध्मानाधिश्रयणादीनामन्यतमस्याप्यपाये विकिरनिष्यतेः सर्वेषामपि पाक इत्येतया व्यपदेश इति । स्वपक्षस्थापन पर पक्षप्रतिरोपयोः समासेन निदेशः कचिदेषप्रयत्ननिष्पन्नताप्रत्यायनार्थम् । यदा हि नि वृत्तायां प्रथमकक्षायां प्राप्तावसरायां च द्वितीयकक्षायां प्रतिवादी न किश्चिद वदति तदानीं प्रथमकक्षायां स्वदर्शनानुसारेण सत्प्रमाणोपक्रमत्वे स्वपक्षस्थापनमेव परपक्षप्रतिक्षेपः, यदा वा विरुद्धत्वादिकमुद्भावयेत् तदा परपक्षप्रतिशेष एव स्वपक्षसिद्धिः इति समासेऽपि तुल्यकक्षताप्रदर्शनार्थमितरेतरयोगः । यथा स्वपक्षः स्थाप्यते तथा परपक्षः प्रतिक्षेण्यः, यथा चायं प्रतिक्षिप्यते तथा स्वपराः स्थाप्यः, न तु सर्वत्र पारिशेष्यात् परितोषिता भषितव्यम् । " मानेन पक्षप्रतिपक्षयोः क्रमात् प्रसाधनशेषकेलिकमेडी । वाष मलप्रतिमशनीतितो, वदन्ति थादिप्रतिवादिनौ बुधाः ॥ १ ॥ " ॥ १७ ॥
६
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(१०७८) अभिधान राजेन्द्रः ।
तिभाक्षान्ति माध्यस्थ्यैरुभयाभिमताः सभ्याः ॥ १८ ॥
नदीष्ण इति कुशलः, प्राधान्यख्यापनार्थं वादिप्रतिवादिसिद्धान्ततस्वनदीष्णत्वस्य प्रथमं निर्देशः। न चैतद्बहुधुतत्वे सत्यवश्यंभावि, तस्यान्यथाऽपि भावात् श्रवश्यापेक्षणीयं चैतत् इतरथा वादिप्रतिवादिप्रतिपादितसाधनवृषयेषु सिद्धान्तसिद्धत्वादिगुणानां तद्वाधितत्यादिदोषाणां चायधारयितुमशक्यत्वात्। सत्यप्येतस्मिन् धारणामन्तरेन वासरे गुणदोषायवोधकत्वमिति धारणाया अभिधानम्। कदाचिद् वादिप्रतिवादिभ्यां खात्मनः प्रीडताप्रसिद्ध सिद्धान्ताप्रतिपादितयोरपि व्याकरणादिप्रसिद्धयोः प्रसङ्गतः प्रयुक्रोद्भावितयोर्विशेषलक्षराच्युतसंस्कारादिगुणदोषयोः परिज्ञानार्थ बाहुथुत्योपादानम् । ताभ्यामेव स्वस्वप्रतिभयोत्प्रेक्षितयोस्त सद्गुणदोष योनिर्णयार्थ प्रतिभायाः प्रतिपादनम्। वादिप्रतिवादिनामध्ये यस्य दोपोऽनुमन्यते स यदि कचित् कदाचित् परुषमप्यमिद्धीत, तथापि नैते सभासद् कोपिशाचस्य प्रवेशं सहन्ते तत्त्यावगमव्याघातप्रसङ्गादिति क्षान्तेरुक्तिः । तत्त्रं विदन्तोऽपि पक्षपातेन गुणदोषौ विपरीतावपि प्रतिपादयेयुरिति मायस्यवचनम्। पभिः पभिर्गुरुभयोः प्रकरणात्पादिप्रतिवादिनोरभिप्रेताः सभ्या भवन्ति । सभ्या इति बहुवचनं त्रिचतुरादयोऽमी प्रायेण कर्तव्या इति ज्ञापनार्थम्, तदभावेऽपि द्वावेको वाऽसौ विधेयः ॥ १८ ॥
वादिप्रतिवादिसिद्धान्ततच्चनदीष्णत्वधारणावाहुश्रुत्यप्र- तत्समयोचितं तथा तथा विवेकुमलम्, न चासौ सभ्यै
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रपि योधयितुं शक्यते, स्वाधिष्ठितवसुन्धरायामस्फुरिताssशैश्वर्यो न स कलहं व्यपोहितुमुत्सहते, उत्पन्नकोपा हि पार्थिया यदि न तत्फलमुपदर्शयेयुः तदा निदर्शनम चित्राणां स्युः इति सफले तेषां कोये वादोषमद एव भवेदिति । कृतपक्षपाते च सभापती सभ्या पि भीतभीता इबैकतः किल कलङ्कः, अन्यतश्चालम्बितपक्षपातः प्रतापप्रज्ञाधिपतिः सभापतिरिति तस्तरमितो व्याघ्रः' इति नयेन कामपि कहां दशामाविशेषः, न पुनः परमार्थे प्रथयितुं प्रभयेषु प्रज्ञाऽऽहेश्वर्यमामाध्यस्थ्यसंपन्न इति ॥ २० ॥
"
वादिसम्याऽभिहिताऽवधारण कलहव्यपोहाऽऽदिकं चास्य कर्म ॥ २१ ॥
वादिभ्यां सम्यैथाभिहितस्याऽर्थस्याऽवधारणम् वादिनोः कलहण्यापोहो यो येन जीयते स तस्य शिष्य इत्यादेयदिप्रतिवादिभ्यां प्रतिज्ञातस्थार्थस्य कारणा पारितोषि कवितरणादिकं च सभापतेः कर्म" विवेकवाचस्पतिरुच्छ्रिताशः, क्षमान्वितः संहृतपक्षपातः । सभापतिः प्रस्तुतवादिसभ्यै-रभ्यते वादसमर्थनार्थम् ॥ १ ॥ " ॥ २१ ॥ अथ जिगीषादे कियत्क बादिमतिवादिभ्यां व्यमिति नितुमाहु
सजिगीषुकेऽस्मिन् यावत्सभ्यापेचं स्फूत वक्रव्यम् | २२| सह जिगीषुणा जिगीषुभ्यां जिगीषुभिर्वा वर्तते योऽसौ तथा तस्मिन वारे वादिमतिवादिगतायाः स्वसिद्धिपरपक्षप्रतिक्षेपविषयायाः शक्रशले परीक्षणार्थं पाचत् तत्र भवन्तः सम्याः किलाऽपेक्षन्ते तावत् कक्षाद्वयत्रयादिकृत सत्यां यादिप्रतिवादिभ्यां क्रव्यम् । ते च वाच्यौचित्यपरतन्त्रतया कदाचित् कचित् कियदप्यपेक्षन्ते इति नास्ति कश्चित् कक्षानियमः । इह हि जिगीतरतया यः कचिद् विपश्चित् प्रागेव पराक्षेपपुरःसवादग्रामसी प्रवर्तते तस्य स्वयमेव यादव
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वादिप्रतिवादिनोर्यथायोगं वादस्थानककथाविशेषाङ्गीकारमाऽग्रवादोत्तरवादिनिर्देशः, साधकबाधकोविदो पाऽवधारणम् यथाऽवसरं तयप्रकाशनेन कथाविरमणम्, यथासंभवं सभायां कथाफलकथनं चैषां कर्माणि | १६ |
यत्र स्वयमस्वीकृत प्रतिनियतवादस्थानको वादिप्रतिवादिनी समुपतिते तत्र सभ्यास्ती प्रतिनियतं वादयानकं सर्वानुवादेन दूष्यानुवादेन वा वर्गपरिहारेण वा व
वाद
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रूप्यमित्यादियोंसी कथाविशेषस्तं चाङ्गीकारयन्ति - स्याग्रवादोऽस्य चोत्तरवाद इति च निर्दिशन्ति वर्तदप्रतिवादिभ्यामभिहितयोः साधकबाधकयो दोषं वावधार यन्ति । यदैकतरेण प्रतिपादितमपि तत्त्वं मोहादभिनिवेशाद वाऽन्यतरो ऽनङ्गीकुवोसः कथायां न विरमति पदा या द्वावपि तत्वपराङ्मुखमुदीरयन्तौ न विरमतः तदा तत्त्वप्रकाशनेन सौ विरमयन्ति । यथायोगं च कथायाः फलं जयपराजयादिकमुपयन्ति ते खोषितं ति विवादतामवगाहते। " सिद्धान्तद्वयवेदिनः प्रतिभया प्रेम्णा समालिङ्गिता - स्तत्सच्छास्त्रसमृद्धिबन्धुरधियो निष्पक्षपातोदयाः । क्षान्त्या धारण्या च रञ्जितहृदो वाढं द्वयोः संमताः, सभ्याः शम्भुशिरो नदी शुचि शुभैर्लभ्यास्त एते - धैः ॥ १ ॥ ” ॥ १६ ॥
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प्रज्ञाशैश्वर्यचमामा ध्यस्थ्यसंपन्नः सभापतिः ॥ २० ॥
यययुक्तानां सभ्यानां शान संभवति तथापि वा दिना प्रतिवादिनो वा जगपोस्त संभवत्येवेति सभ्यानपि प्रति विप्रतिपद्यौ विधीयमानायां नाऽप्राज्ञः सभापतिस्तत्र
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(१०७६) बाद अभिधानराजेन्द्रः।
वाद शेषपरिग्रहे तदपरिग्रहे सभ्यैस्तत्समर्पणे वाऽग्रवादेऽधिका- दनार्थे चकारादिपदम् । निरर्थकं यथा-शब्दो वै अनित्यः रः तेन सभ्यसभापतिसमक्षमक्षोमेण प्रतिवादिनमुद्दिश्या- कृतकत्वात् स्खल्विति । अपरामृविधेयांशं यथा-अनित्यऽवश्यं स्वसिद्धान्त बुद्धिवैभवानुसारितया साधुसाधनं ख- शब्दः कृतकत्वादिति, अत्र हि शब्दस्याऽनित्यत्वं साध्य पक्षसिद्धयेऽभिधानीयम् । अथ क्षोभावः कुतोऽपि प्रागेवाड प्राधान्यात् पृथग् निर्देश्यम् , न तु समासे गुणीभावकासौ वक्तुमशक्लो भवेत् तदानीं दूरीकृतसमस्तमत्सरविकारैः लुष्यकलङ्कितमिति। पृथग् निर्देशेऽपि पूर्वमनुवाद्यस्य शब्दसभासारैरुभयोरपि वस्तुव्यवस्थापनदूषणशक्तिपरीक्षणार्थ स्य निर्देशः शस्यतरः, समानाधिकरणतायां तदनुविधेयतदितरस्याग्रे वादेऽभिषेकः कार्यः । अथ वादिनस्तूष्णीम्भा- स्यानित्यत्वस्याऽलब्धास्पदस्य तस्य विधातुमशक्यत्वादिवादेव पराजितत्वेन कथापरिसमाप्तेः किमितरस्याग्रवादा- त्यादि । तदेवमादि वदन् वादी समाश्लिष्यते नियतमलाभिषेकेण ?, इति चेत् । स्यादेतत् , यदि प्रतिवादिनो- ध्यतया। प्रतिवादिना तु स्वस्यानुषङ्गिकरलाध्यत्वसिद्धये ऽपि पक्षो न भवेत् , सति तु तस्मिन् वादीव तमसमर्थ | तत्प्रकाश्य साधनदूषण यत्नवता भाव्यम् , न तु तावयमानोऽसौ न जयति, नापि जीयते, प्रौढिप्रदर्शनार्थे तु तैव स्वात्मनि विजयश्रीपरिरम्भः संभावनीयः । प्रकटिततद्गृहीतमुक्तमप्रवादमङ्गीकुर्वाणः श्लाघ्यो भवेत् । उभा- तीर्थान्तरीयकलङ्कोऽकलकोऽपि प्राह-वादन्याये दोषमात्रेवयनङ्गीकुर्वाणौ तु भणयन्तरेण वादमेव निराकुरुत इति ण यदि पराजयप्राप्तिः पुनरुक्तवच्छुतिदुष्टार्थदुष्टकल्पनादुतयोः सभ्यैः सभाबहिर्भाव एवाऽऽदेष्टव्यः । तत्र वादी- ष्टादयोऽलकारदोषाः पराजयाय कल्पेरनिति । ननु वादी खपक्षविधिमुखेन था, परपक्षप्रतिषेधमुखेन वा साधन- साधनमभिधाय कराटकोद्धारं कुर्वीत वा, न था, काममभिदधीत, यथा-जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वान्य- चार इत्याचक्ष्महे। तत्राऽकरणे ताबद्न गुणो न दोषः । थानुपपत्तरिति, नेदं निरात्मकं तत एवेति । अत्र च तथाहि-स्वप्रौढरप्रदर्शनाद् न गुणः, परानुगावितस्यैव दूयद्यप्यर्थान्तराद्यभिधानेऽपि वस्तुनः साधनदूषणयोरसं
षणस्यानुद्धाराच न दोषः, उद्भावितं हि दूषणमभवादन कथोपरमः, तथापि परार्थानुमाने वक्तुर्गुण
नुद्धरन् दुष्ये । अथ कथं न दोषः ?, यतः सत्यपि दोषा अपि परीक्ष्यन्त इति न्यायात् स्वात्मनोऽश्लाघ्यत्ववि
हेतोः सामध्ये तदप्रतिपादानात् सन्देहे प्रारब्धासिद्धिः, धाताय यावदेवावदातं तावदेवाभिधातव्यम् । अन्यथा श
इत्यवश्यकरणीयं दृषणोद्धरणमिति चेत्, कस्यायं सन्देदानित्यत्वं साधयितुकामस्य 'प्रागेव नाभिप्रदेशात् प्रय.
हः? वादिनः, प्रतिवादिनः सभ्यानां वा । न तावद् वासप्रेरितो वायुः प्राणो नामोर्ध्वमाक्रामन्नुरःप्रभृतीनां स्था
दिनः, तस्यासत्यपि सामर्थ्य तन्निर्शयाभिमानेनैव प्रवृत्तः, नानामन्यतमस्मिन् स्थाने प्रयत्ने विधार्यते, स विधा
किं पुनः सति प्रतिवादिसभ्यसन्देहापोहाय तु सामर्थ्य र्यमाणः स्थानमभिहन्ति, तस्मात् स्थानाद् ध्वनिरुत्प
प्रमाणेनैव प्रदर्शनीयम् । तत्रापि प्रमाणान्तरेण सामर्थ्याप्रयते' इत्यादिशिक्षासूत्रोपदिष्टशब्दोत्पत्तिस्थानादिनिरूपणां
दर्शने सन्देहः, प्रदर्शने तु तत्रापि प्रमाणान्तरेण तत्प्रदर्शकर्णकोटरप्रवेशप्रक्रियां च प्रकाश्य य एवंविधः शब्दः
नेनाऽनवस्था । अथ यथा स्वार्थानुमाने हेतोः साध्यमध्यसोऽनिस्यः कृतकत्वादिति हेतुमुपन्यस्य पुनः पटकुटादि
वसीयते ? हेतोश्च प्रत्यक्षादिभिः प्रतिपत्तिः, न चाऽनवदृष्टान्तमुत्पत्त्यादिमुखेन वर्णयतः प्रथमकक्षैव न समाप्येत,
स्था, तथा परार्थानुमानेऽपीति चेत्, तर्हि यथा प्रत्यक्षादेककुतः प्रतिवादिनोऽवकाशः ?। किञ्च-परप्रतिपसये वच
स्यचिदभ्यासदशायां स्वतः सिद्धप्रमाणतयाऽनपेक्षितसामनमुच्चार्यत इति याबदेव परेणाऽऽकाशितम् , तावदेव यु.
र्थ्यप्रदर्शनस्यापि गमकत्वम् , एवमन्ततो गत्वा कस्यचित् कं वक्तुम् । लोकेऽपि वादिनोः करणावतीर्णयोरेकः स्व
परार्थानुमानस्यापि तथैव तदवश्यमभ्युपेयम् । इति गतं
सामर्थ्यप्रदर्शननियमेन । अथ यत्रानभ्यासदशायां परतः कीयकुलादिवर्णनां कुर्वाणः पराक्रियते, प्रकृतानुगतमे
प्रामाण्यसिद्धिः, तत्र तत्प्रदर्शनीयमेवेति चेत्, यदि न वोच्यतामिति चानुशिष्यते । किं पुनस्तदषदातम् ? इति
प्रदर्श्यते किं स्यात् ?, 'ननूक्तमेव-सन्देहात् प्रारब्धासिचेत्, यस्मिनभिहिते न भवति मनागपि सचेतसांचे
द्धिः, इति चेत् । तर्हि यथा सदपि सामर्थ्यमप्रदर्शितं न तसि केशलेशः, पते हि महात्मनो नितिमप्रतिभाप्रेय
प्रतिवादिना प्रतीयते, तद्वत् सन्देहोऽपि प्रतिवादिगतो सीपरिशीलनसुकुमारहदयाः स्वल्पनाप्यर्थान्तरादिसंकी
ऽप्रदर्शितः कथं वादिना प्रतीयेत?। स्ववुद्धधोत्प्रेक्ष्यत इति तनेन प्रकृतार्थप्रतिपसौ बिघ्नायमानेन न नाम न क्लिश्यन्ति ।
चेत् , इतरेणापि यदि तत्सामर्थ्य स्वबुद्धयैवोत्प्रेक्ष्येत, तदा तेन स्वस्खदर्शनानुसारेण साधनं दूषणं चाऽर्थान्तरन्यूनक्लिष्ट
किं सुखं स्यात् । अथ वादिनः साधनसमर्थनशक्ति परीक्षितुं तादिदोषाऽकलुषितं वक्तव्यम्। तत्रार्थान्तरं प्रागेवाऽभ्यधायि न तदुत्प्रेक्ष्यते तर्हि प्रतिवादिनो दृषणशक्ति परीक्षितुन्यून तु नैयायिकस्य चतुरवयवाघनुमानमुपन्यस्यतः । विष्ट मितरेणपि न सन्देहः स्वयमुत्प्रेक्ष्यते । अथ द्वितीयकयथायत् कृतकं,कृतकवायं, यथा घटः तस्मादनित्यस्तत्तदनि
क्षायां दूषणान्तरवत् सन्देहमपि प्रदर्शयन् स्फोरयत्येवत्यम् , कृतकत्वाच्छब्दोऽनित्य इत्यादि व्यवहितसंबन्धम् । दूषणशक्ति प्रतिवादी , इति चेद् । तर्हि वाद्यपि मेयाथै यथा-शब्दोऽनित्यो द्विकत्वादिति, द्वौ ककारी य- तृतीयकक्षायां दूषणान्तरवत् सन्देहमपि व्यपोहमानः किं
ति द्विकशब्देन कृतकशब्दो लक्ष्यते, तेन कृतकत्वादि- न समर्थनशक्ति व्यक्तीकरोति', किञ्च-केनचित् प्रकारेत्यर्थः । व्याकरणसंस्कारहीनं यथा-शब्दोऽनित्यः कृतक- ण सामर्थ्यप्रदर्शनात् कस्यचित् सन्देहस्यापोहेऽपि तस्य त्वस्मादिति । असमर्थ यथा-अयं हेतुने स्वसाध्यगमक प्रकारान्तरण संभवतोऽनपोहे कथं प्रारब्धसिद्धिः', विइत्यर्थेनाऽसौ स्वसाध्यघातक इति । अश्लीलं यथा-नो-1 प्रतिपत्तेरिव सन्देहस्यापि ह्यपरिमिताः प्रकाराः, इति
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वाद
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कियन्तस्ते स्वयमेवाशक्याऽऽराप शक्याः पराकर्तुं म्। न च प्रदर्शितेऽपि सामर्थ्यं स्वपक्षपक्षपातिनोऽस्प विश्रम्भः संभवति येन प्रारब्धमवबुध्येत । दृश्यन्ते हि साधनमिव तत्समर्थनमपि कदर्थयन्तः प्रतिवादिनः, इति साधनमभिधाय सामर्थ्याऽप्रदर्शनेऽपि दोषाभावात् स्थितमेतदकरणे न गुणो न दोष इति । करणे तु यदेव समदेदस्य विवादस्य वा भवेदास्पदम् तस्यैवोद्वारं कुर्या राः समलकियते प्रीडतागुणेन यदुद्धरेत् तत्सन्दिग्धमेव विवादापप्रमेव बोद्धरेदित्येवमवधार्यते नतु यावत् सन्दिग्धं विवादापत्र वा तावत् सर्वमुद्धरेदेवः असंख्याता हि सन्देहविवादयोर्भेदाः करतान् कात्स्नानराकर्ते वा शक्नुयात् ? । इति यावत्तेभ्यः प्रसिद्धिः प्रतिभा या भगवति प्रदर्शयति तावदुद्धरणीयम् तद्धिकारकरणे तु कदर्थ्यते सिद्धसाधनाभिधानादिदोषे| सिद्धमपि साधयंध कदा नामायं वावदूको विरमेदिति सत्यं व्याकुलाः स्मः, एकेन प्रमाणेन समर्थितस्यापि देतो: पुनः समर्थनाय प्रमाणान्तरोपन्यासप्रसङ्गात्, साध्यादेरप्येवम् इति न काञ्चिदमुष्य सीमानमालोकयामः । तेन सिद्धस्य समर्थनमनर्थकत्वाद् न कयम्। सिद्धसाध्यसमुच्चारणे सिद्धं साध्यायोपदिश्यसे ' इति न्यायात् साध्यसिद्धये त्वभिधानमस्यावश्पमुपेयम् अपरथा ह्यसिद्धमसिद्धेन साधयतः किं नाम न सिद्धयेस् ? | यत्र तु सिद्धत्वेननोपन्यस्तस्यापि सिद्धत्वं सन्दि
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विवादाधिरूढं वा भवेत् तत्र तत्समर्थनं सार्थकमेव । ततः स्थितमेतद् यो पत् सिजमभ्युपैति तं प्र ति न तत्साधनीयमिति । बौद्धो हि मीमांसकं प्रत्यनित्यः शब्दः सत्वात् इत्यभिधायोभवसिद्धस्यार्थक्रियाकारित्वरूपस्य स्वस्यासिद्धत्यमुद्धरन्न कमप्यर्थ पुष्णाति के
सिद्धमेवार्थ समर्थयमानो न सचेतसामादास्पदम् । अनैकान्तिकत्वं पुनराश पोखर अधिरोपयति सरसे सभ्यचेतसि स्वप्रौढिवल्लरीम् । तदिह यथा - कश्चित् चिकित्सकः कुतश्चित् पूर्वरूपादेः संभाव्यमानोत्पत्ति दोषं चिकित्सति, अन्यः कश्चिदुत्पन्नमेव, कश्चित्त्वसंभाव्यमानोत्पत्तितयाऽनुत्पन्नतया च निश्चिताभावम् इत्येते त्रयो यथोत्तरमुत्तममध्यमाधमाः तद्वायप्येकः कथचिदाशक्यमानोद्भावनं दोषं समुद्धरति अपरः परोद्भावितम् अन्यस्यनाशक्यमानोद्भावनमनुद्भावितं चेति एतेऽपि
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यो यथोत्तरमुत्तममध्यमाधमा इति परमार्थः । "स्वपक्षसिद्धये वादी साधनं प्रागुदीरयेत्। यदि प्रीढिः प्रिया तत्र, दोषानपि तदुद्धरेत् ॥ १ ॥ " इति, सं
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लोकः । द्वितीयकक्षायां तु प्रतिवादिना स्वात्मनो निदसिद्धये वादिवदवदातमेव वक्तव्यम् । द्वयं च विधेयम् - परपक्षप्रतिक्षेपः, स्वपक्षसिद्ध तंत्र कदाचिद् - यमप्येतदेकेनैव प्रयत्नेन निर्वर्त्यते यथा नित्यः शब्दः - तकत्वात् इत्यादी विरुद्धोद्भावने, परप्रहरखेनैव परप्राराम्यपरोपणात्मरक्षणप्रायं चैतत् प्रौढतारूपप्रियसखीसमन्वितामेव विजयश्रियमनुपपति असिद्धायुद्धावने तु स्वपक्षसिद्धये साधनान्तरमनित्यः शब्दः सत्वादित्युपाददानः केवलामेव तामवलम्बते तदप्यनुपादानस्त्वसि
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( १०८० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वाद
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खतायुद्धावनभूतं यतामात्रमेव प्राप्नोति नतुषतमां विजयश्रियम्। यदुदयनोभ्युपादिशत्-यादिवचनाधमवगम्याऽनूष दूषयित्वा प्रतिवादी स्थापन युञ्जीत, अयुञ्जानस्तु दूषितपरपणोऽपि न विजयीध्यस्तु स्यात्, आत्मानमरक्षन् परघातीव वीर इति । तयदीच्छेत् मीदतान्वितां विजयधियम् तथाऽप्रयत्नोपनत तयोः प्राणभूतां हेतोर्विरुद्धतामवधीरयेत्, निपुणतरमन्विष्य सति संभये तामेव प्रसाधयेत् । न च विरुद्धत्वमुद्भाव्य स्वपक्षसिद्ध साधनान्तरमभिदधीत व्यर्थत्वस्य प्रसक्तेः । एवं तृतीयकक्षास्थितेन वादिना विरुद्धत्वे परिहृते चतुर्थकक्षायामपि प्रतिवादी तत् परिहारोद्धारमेव विदधीत न तु दृपणान्तरमुद्भाव्य स्वपक्षं साधयेत्, कथाविरामाभावप्रसङ्गात् । नित्यः शब्दः कृतकत्वात्, इत्यादी हि कृतकत्वस्य विरुद्धत्वमुद्भावयता प्रतिवादिना नियतं तस्यैवानित्यत्वसिद्धी साधनत्यमध्यवसितम्, अत एव न तदाऽसौ साधनान्तरमारवयति । स वेदयं चतुर्थकक्षायां तत्परिहारोद्धारमनवधारयन् प्रकारान्तरेण परपक्षं प्रतिक्षिपेत् स्वपक्षं च साधयेत् तदानीं यादिना तद्दूषणे कृते स पुनरन्यथा समर्थयेत् इत्ये धमनवस्था। किञ्च एवं वेत्तु प्रतिवादी विरुद्धत्वोद्भावनमुखेनाऽनित्यत्वसिद्धौ स्वीकृतमपि कृतकत्वं हेतुं परिहृत्य सत्त्वादिरूपं हेत्वन्तरमुररीकृषत् तदा वाद्यपि निस्वत्यसिद्धी तमुपातं परित्यज्य प्रत्यभिज्ञायमानत्यादि साधनान्तरमभिदधानः कथं पायेंत ? अनिवारखे तु सेवानयस्था स्थाप्यते । तदिदमि रहस्यम्-उपक्रान्तं खाधनं दूषये वा परित्यज्य नापरं तदुद्दौरयेदिति विरुद्धत्वोद्भावनचत् प्रत्यचेण पक्षवाचोद्भायने ऽप्येकप्रयखनिर्य
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एय परपक्षप्रतिक्षेपस्वपक्षसिद्धी । कदाचिद् भित्रयत्ननिर्वत्यै एते संभवतः, तत्र चायमेव क्रमः - प्रथमं परपक्षप्रतिक्षेपः, तदनु स्वपक्षसिद्धिरिति । यथा - नित्यः शुद्धपात्प्रमेयत्वाद्वा इत्युक्रेऽसिद्धत्वानेका न्तिकत्याभ्यां परपक्षं प्रतिक्षिपेत् अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् इत्यादिना च प्रमाणेन स्वपतं साधयेत्। ननु न परं निगृह्य स्वपक्षसिद्धये साधनमभिधानार्हम् पराजितेन साधे विवादाभावात् न तु लोकेऽपि कृतान्तवक्त्रान्तरसंचारिणा सह रणो दृष्टः श्रुतो बेति । तत् किमिदानीं द्वयोर्जिगीषतोः कचिद्देशे राज्याभिषेकाय स्वीकृतविभिन्नराजबीजयोरेकश्चेदन्यतरं निहन्यात्, तदा स्वीकृतं राजवीजं न तत्राभिषिक्षेत् तदर्थमेव सौ परं निहतवान् । अकलो ऽप्यभ्यधात्" विरुद्धं तुमुनाव्यवादिनं जयतीवर प्रभासान्तरमुद्भाग्य, पक्षसिद्धिमपेक्षते " ॥ १ ॥ इति । परपक्षं व दूषयन् यावता दोषविषयः प्रतीयते तावदनुवदेत् निराश्रयस्य दोषस्य प्रत्येतुमशक्यत्वात् । नच सर्व दोषविषयमेकदेवाऽनुपदेत् एवं हि युगपद् दोषाभिधानस्य कर्तुमशक्यत्वात् क्रमेण दोषचचने कार्ये ततो निर्धार्य पुनः प्रकृतदोषविषयः प्र दर्शनीयः अप्रदर्शिते तस्मिन् दोषस्य वक्तुमशक्यत्वात् तथा च द्विरनुवादः स्यात्, तत्र च प्राक्तनं सर्वानुभाषणं व्यर्थमेव भवेदिति । अनुयादाऽनित्यः शब्दः कृतकत्वा
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(११) बाद अभिधानराजेन्द्रः।
वाद दियुक्ने कृतकत्वादिस्यसिद्धो हेतुः, कृतकत्वमसिद्धम् , अ-| र्यस्योद्वाहं ब्यधित स सदा नन्दताद देवसूरिः॥४॥ सिद्धोऽयं हेतुरित्येवमादिभिः प्रकारैरनेकधा संभवति । प्रज्ञातः पदवेदिभिः स्फुटदृशा संभावितस्तार्किकैः, श्रथ दूषणमेकमने या कीर्तयेत् , किमत्र तत्त्वम् ? । पर्ष
कुर्वाणः प्रमदाद् महाकविका सिद्धान्तमार्गाध्वगः । दजिज्ञासायामेकमेव , तस्मादेव परपक्षप्रतिक्षेपस्य सिद्धे
दुर्वाद्यङ्कुशदेवसूरिचरणाम्भोजद्वयीषट्पदः, द्वितीयादिदोषाभिधानस्य वैयर्थ्यात्, तजिज्ञासायां च संभवे
श्रीरत्नप्रभसूरिरल्पतरधीरेतां व्यधाद् वृत्तिकाम् ॥ ५॥ यावत्स्फूर्त्यनेकमपि प्रौढिप्रसिद्धेः , इति ब्रूमः " दूषण प
वृत्तिः पञ्च सहस्राणि, येनेय परिपठ्यते।। रपक्षस्य, स्वपक्षस्य च साधनम् । प्रतिवादी द्वयं कुर्या
भारती भारती चाऽस्य, प्रसर्पन्ति प्रजल्पतः॥६॥" द् , भिन्नाभिन्नप्रयत्नतः " ॥१॥ इति संग्रहश्लोकः । तृती
रत्ना०८ परि०। यकक्षायां तु वादी द्वितीयकक्षास्थितप्रतिवादिप्रदर्शितदूषणमदूषणं कुर्यात् , अप्रमाणयेच्च प्रमाणम् , अनयोर
शुष्कवादादिवादस्वरूपनिरूपणायाऽऽहभ्यतरस्येव करणे वादाभासप्रसङ्गात् । उदयनोऽप्याह-ना- शुष्कवादो विवादश्च, धर्मवादस्तथा परः । पि प्रतिपक्षसाधनमनिवर्त्य प्रथमस्य साधनत्वावस्थितिः ,
इत्येष त्रिविधो वादः, कीर्तितः परमर्षिभिः ॥ १॥ शङ्कितप्रतिपक्षत्वादिति , अदूषयंस्तु रक्षितस्वपक्षोऽपि न विजयी , श्लाघ्यस्तु स्याद् , वञ्चितपरप्रहार इव तमप्रहर- शुष्क एव शुष्को-नीरसः; गलतालुशोषमात्रफल इत्यर्थः, माण इति चेति । न च प्रथम प्रमाणं दृषितत्वात् परि- स चासौ वादश्च कमपि विप्रतिपत्तिविषयमाश्रित्य प्रतित्यज्य परोदीरितं च प्रमाण दूषयित्वा स्वपक्षसिद्धये प्रमा- वादिना सह वदनं शुष्कवादः । तथा विरूपो-जयप्राप्ताणान्तरमाद्रियेत् , कथाचिरामाभावप्रसङ्गादित्युक्तमेव । अत वपि परलोकादिबधको बादो विवादः, चशब्द उनसमुच्चये, एव स्वसाधनस्य दूषणानुद्धारे परसाधने विरुद्धत्वोद्भाव- तथा धर्मप्रधानो वादो धर्मवादः, तथा तेनात्यन्तमाध्यस्थ्यानेऽपि न जयव्यवस्थाः तदुद्धारे तु तदुद्भावनं सुतरां वि- दिना धर्महेमकषादिपरीक्षालक्षणेन वा प्रकारेण समुश्चयार्थो जयायेति को नाम नानुमन्यते ? । सोऽयं सर्वविजयेभ्यः वा तथा शब्दः, परः-प्रधानोऽपरो वा उपलवादाभ्यामन्यः लाध्यते विजयो यत्परोऽङ्गीकृतपक्षं परित्यज्य स्वपक्षा
इत्यनेन प्रकारेण एषोऽनन्तरोनास्तिस्रो विधा:-प्रकारा राधनं कार्यत इति । वादी तृतीयकक्षायां प्रतिवादिप्रदर्शि- यस्य स विविधः, कीर्तितः-संशब्दितः परमर्षिभिः-प्रधान तं दृषण दृपयेत , पूर्व प्रमाणं चाप्रमाणयेदिति । एवं चतु- मुनिभिरिति ॥१॥ र्थपञ्चमकक्षादावपि स्वयमेव विचारणीयम् ॥ २२॥
आद्यवादस्वरूपमाहअथ तत्त्वनिर्णिनीषुवादे कियत्का वादिप्रतिवादिभ्यां व-|
अत्यन्तमानिना सार्द्ध, क्रूरचित्तेन च दृढम् । क्रव्यमिति निर्णेतुमाहुःउभयोस्तत्त्वनिर्णिनीपुत्वे यावत् तत्वनिर्णयं यावत्स्फूर्ति
धर्मद्विष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः ॥ २॥
अत्यन्तम्-प्रत्यर्थं मानी--गी अत्यन्तमानी तेन स हि च वाच्यम् ॥ २३॥
जितोऽपि परगुण न मन्यते सार्द्ध-सह क्रूरचित्तेन-संएकः स्यात्मनि तत्वनिर्णिनीपुः परश्च परत्र , द्वौ वा प
क्लिष्टाध्यवसायेन स हि जितो वैरी स्यात्, चशब्दः रस्परम् , इत्येवं द्वावपि यदा तत्त्वनिर्णिनीषू भवतस्तदा।
समुच्चये, तथा दृढमत्यर्थ धर्मो-जिनाण्यातः श्रुतचायावता तत्त्वस्य निर्णयो भवति, तावत् ताभ्यां स्फूर्ती स
रित्ररूपस्तस्यैव दुर्गतौ प्रपततां धरणसमर्थत्वात्तस्य त्यां वक्तव्यम् ; अनिर्णये वा यावत् स्फुरति तावद् वक्त- द्विष्टो-द्वेषवान् धर्मद्विष्टः; तेन स हि निराकृतोऽपि धव्यम् । एवं च स्थितमेतत्
में न प्रतिपद्यतेऽतो व्यर्थः प्रयासः स्यात् , तथा--मूढे"स्वं स्वं दर्शनमाश्रित्य, सम्यक्साधनदूषणैः ।
न-युक्तायुक्तविशेषानभिज्ञेन स हि वादेऽनधिकृत एवं जिगीषोनिर्णिनीग्रुर्वा, वाद एकः कथाः भवेत् ॥१॥
प्रतिवादिना यो वादः स इति गम्यते । किमित्याह-शुभङ्गः कथात्रयस्याऽत्र, निग्रहस्थाननिर्णयः।
कवादोऽनर्थकवादो भवतीति गम्यम् । कस्येत्याह-तपस्विश्रीमदत्नाकरग्रन्थाद्, धीधनैरवधार्यताम् ॥२॥"
नः-साधोः तपस्विग्रहण चेह तस्य सदैवोचितप्रवृत्ति
कतया योग्यत्वेन शास्त्रेऽधिकारित्वोपदर्शनार्थमितरस्य यतः
चान्यथात्वेन तत्रानधिकारितोपदर्शनार्थं च । अथवा-हे " प्रमेयरत्नकोटीभिः, पूणे रत्नाकरो महान् ।
तपस्विनः ! इति । अथ कथमस्थ शुष्कवादत्वम् ? अनर्थवतत्रावतारमात्रेण, वृत्तरस्याः कृतार्थता ॥१॥
र्द्धनत्वादिति ब्रूमः, विजयेऽभिभवे तपस्विना कृते सति प्रमाणे च प्रमेये च, बालानां बुद्धिसिद्धये।
अस्यात्यन्ताभिमानादिदोषयुक्तस्य प्रतिवादिनः अतिपतकिञ्चिद्वचनचातुर्य-चापलायेयमादधे ॥२॥
नमतिपातः-मरण स एव श्रादिर्यस्य चित्तनाशादिदोषन्यायमार्गादतिक्रान्तं, किश्चिदत्र मतिभ्रमात् ।
वृन्दस्य तदतिपातादि भवतीति गम्यते । स हि विजितो मा. यदुक्तं तार्किकैः शोध्यं, तत् कुर्वाणैः कपां मयि ॥ ३॥
नात् म्रियेत चित्तनाशवैरानुबन्धाशुभकर्मबन्धसंसारपरिभ्रआशावासः समयसमिधा संचयैश्वीयमाने ,
मणादिकं वाऽऽप्नुयात् । अथवा-साधोरेव वैरानुबन्धात् सास्त्रीनिर्वाणोचितशुचिवचश्चातुरीचित्रभानौ ।
मर्थ्य सत्यतिपातं शासनोच्छेदादि वा कुर्यादिति भावना। प्राजापत्यं प्रथयति तथा सिद्धराजे जयश्री
तथा लाघवं महास्यं हानिर्भवतीति गम्यम् । हा०१२ अष्टका
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(१०५२) वाद अभिधानराजेन्द्रः।
वाद धर्मव्यवस्थातो वादः प्रादुर्भवतीति तत्स्व
अयमेवेति-तत्तस्मात् तत्त्वज्ञेन तपस्विना। अयमेव-धर्मरूपमिहोच्यते
वाद एव विधेयः । अपवादमाह-देशो-नगरपामजनपदादिः, शुष्कवादो विवादश्च, धर्मवादस्तथाऽपरः ।
श्रादिना कालराजसभ्यप्रतिवाद्यादिग्रहः, तदपेक्षया-तदाश्र.
यणेन गुरुलाघवं-दोषगुणयोरल्पबहुत्वं विज्ञाय अन्योऽपि कीर्तितस्त्रिविधो वाद, इत्येवं तत्वदर्शिभिः॥१॥
विवादः कार्यः ॥ ६॥ शुष्केति-स्पष्टः ॥१॥
अत्र ज्ञातं हि भगवान् , यत्स नाऽभाव्यपर्षदि। परानर्थो लघुत्वं वा, विजये च पराजये ।
दिदेश धर्ममुचिते , देशेऽन्यत्र दिदेश च ॥ ७॥ यत्रोक्नौ सह दुष्टेन, शुष्कवादः स कीर्तितः ॥२॥ अति-अत्र देशाद्यपेक्षायां शातमुदाहरणं हि भगवान् परेति-यत्र दुऐनात्यन्तमानक्रोधोपेचित्तेन सहोतो श्रीवर्धमानस्वामी । यत् स न अभाव्यपर्षदि प्रथमससत्याम् । विजये सति परस्य-प्रतिवादिनः परः-प्रकृष्टो
मवसरणेऽयोग्यसदसि धर्म दिदेश, अन्यत्र चोचिते प्रतिवाऽनों-मरणचित्तनाशवैरानुबन्धसंसारपरिभ्रमणरूपः
बोध्यजनकलिते देशे धर्म दिदेश ॥ ७ ॥ साध्वतिपातनशासनोच्छदादिरूपो वा। पराजये च सति
विषयो धर्मवादस्य, धर्मसाधनलक्षणः । लघुत्वं वा“ जितो जैनोऽतोऽसारं जैनशासनम् " इत्येव- स्वतन्त्रसिद्धः प्रकृतो-पयुक्तोऽसद्ग्रहव्यये ॥८॥ मवर्णवादलक्षणं भवति । स शुष्कवादो गलतालुशोषमा- विषय इति-धर्मवादस्य विषयो धर्मसाधनलक्षणः स्वत्रफलत्वात् कीर्तितः॥२॥
तन्त्रसिद्धः । सांख्यादीनां वष्टितन्त्रादिशास्त्रसिद्धः । अस छलजातिप्रधानोक्ति-दस्थितेनार्थिना सह।
ब्रहस्थाशोभनपक्षपातस्य व्यये सति , प्रकृतोपयुक्तः प्रविवादोत्रापि विजया-लाभो वा विनकारिता ॥३॥
स्तुतमोक्षसाधकः । धर्मवादेनैवासहनिवृत्त्या मार्गाभिमु
खभावादिति भावः ॥८॥ छलेति-दु:स्थितेन दरिद्रेण । अर्थिना लाभख्यातादिप्रयो
यथाऽहिंसादयः पञ्च-व्रतधर्मयमादिभिः । जनिना सह । छलमन्याभिप्रायेणोक्लस्य शब्दस्याभिप्रायान्तरेण दूषणम्, जातिश्वासदुत्तरम् । ताभ्यां प्रधानोक्तिः विवादो
पदैः कुशलधर्माद्यैः , कथ्यन्ते स्वस्वदर्शने ॥४॥ विरुद्धो वादः अत्रापि-विवादेऽपि विजयालाभः पर
यथेति-यथाऽहिंसादयः, श्रादिना सूनुतास्तेयब्रह्मास्यापि छलजात्यायुद्भावनपरत्वात् । वा-अथवा विघ्नकारि
परिग्रहपरिग्रहः , पञ्च स्वस्वदर्शने व्रतधर्मयमादिभिः , ता अत्यन्ताप्रमादितया छलादिपरिहारेऽपि प्रतिवादिनो
तथा कुशलधर्माद्यैः पदैः कथ्यन्ते । तत्र महायतपदेनैताऽर्थिनः पराभूतस्य लाभण्यात्यादिविघातध्रौव्यात् । बाधते
नि जनैरभिधीयन्ते । व्रतपदेन च भागवतैः , यदाहुस्तेन परापायनिमित्तता तपस्विनः परलोकसाधनमिति । ना
"पञ्च व्रतानि पञ्चोपवतानि" व्रतानि यमाः, उपवतात्रोभयथाऽपि फलमिति भावः ॥ ३॥
नि नियमाः" इति । धर्मपदन तु पाशुपतैः, यतस्ते दश
धर्मानाहुः-"अहिंसा सत्यवचन-मस्तैन्यं चाप्यकल्पना । ज्ञातस्वशास्त्रतत्त्वेन, मध्यस्थेनाऽघभीरुणा।
ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधो, ह्यार्जवं शौचमेव च ॥१॥ सन्तोकथाबन्धस्तवधिया, धर्मवादः प्रकीर्तितः॥४॥ पो गुरुशुश्रूषा , इत्येते दश कीर्तिताः"। १० सांख्यैासझातेति-झातं स्वशास्त्रस्याभ्युपगतदर्शनस्य तत्त्वं येन ,
मतानुसारिभिश्च यमपदेनाभिधीयन्ते-" पञ्च यमाः पञ्च एवंभूतो हि स्वदर्शनं दूषितमदूषितं वा जानीते । मध्य
नियमाः " तत्र यमाः-"अहिंसा सत्यमस्तैन्यं ब्रह्मचर्यमस्थेन-आत्यन्तिकस्वदर्शनानुरागपरदर्शनद्वेषरहितेन , एवं
व्यवहारश्चेति ," नियमास्तु-"अक्रोधो गुरुशुश्रूषा , शौभूतस्य हि सुप्रतिपादं तत्त्वं भवति । तथा अघभीरुणा- चमाहारलाघवम् । अप्रमादश्चेति" कुशलधर्मपदेन च बौपातकभयशीलेन, एवंभूतो ह्यसमञ्जसवना न भवतीति । बैरभिधीयन्ते, यदाहुस्ते-"दशा-कुशलानि, तद्यथा-हिंसहेति गम्यते तत्त्वधिया-तत्त्वबुद्धया । यः कथाबन्धः सा स्तेयान्यथाकामं , पैशून्यं परुषानृतम् । संभिन्नालापंस धर्मवादो-धर्मप्रधानो वादः प्रकीर्तितः ॥ ४॥
व्यापाद-मभिध्या इग्विपर्ययम् ॥१॥ पापकर्मेति दशधा, वादिनो धर्मबोधादि, विजयेऽस्य महत्फलम् ।
कायवाङ्मानसैस्त्यजेत् । इति" अत्र चान्यथाकामः-पा
रदार्यम् , संभिन्नालापोऽसंबद्धभाषणम् , व्यापादः-परपीश्रात्मनो मोहनाशश्च, प्रकटस्तत्पराजये ॥ ५॥ डाचिन्तनम् , अभिध्या-धनादिष्वसन्तोषः परिग्रह इति या. वादिन इति-वादिनो विजये सति । अस्य-प्रागुक्तविशे- वत् , दृग्विपर्ययो-मिथ्याभिनिवेशः, एतद्विपर्ययाश्च दश षणविशिष्टस्य प्रतिवादिनो धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्य कुशलधर्मा भवन्तीति । श्रादिपदाच ब्रह्मादिपदग्रहः । एताबोधः प्रतिपत्तिस्तदादि । आदिना अद्वेषपक्षपातावर्णवादा- न्यव वैदिकादिभिब्रह्मादिपदेनाभिधीयन्ते इति ॥६॥ दिग्रहः । महदुत्कृष्ट फलं भवति । ततः प्रतिवादिनः
मुख्यवृत्या क्व युज्यन्ते , न वैतानि व दर्शने । सकाशात् पराजये चात्मनोऽधिकृतसाधोः मोहस्यातत्वा
विचार्यमेतनिपुणे-रव्यग्रेणान्तरात्मना ॥१०॥ दौ तस्याद्यभ्यवसायलक्षणस्य नाशश्च प्रकट इत्युभयथाऽपि
मुख्येति-पतानि-अहिंसादीनि क दर्शने युज्यन्ते , कवा फलचानयमिति भावः ॥५॥
दर्शने न युज्यन्ते, एतन्मुख्यवृत्त्याऽनुपचारेण निपुणैर्धर्मअयमेव विधेयस्त-त्तत्वज्ञेन तपस्विना।
विचारनिष्णातैर्विचारणीयम् नान्यद्वस्त्वन्तरविचारणे धदेशाद्यपेक्षयान्योऽपि, विज्ञाय गुरुलाघवम् ॥६॥ मवादाभावप्रसङ्गात् । अव्यग्रेण-स्वशास्त्रनीतिप्रणिधाना
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(१०८३) वाद अभिधानराजेन्द्रः।
वाद दव्याक्षिप्तेन अन्तरात्मना-मनसा शास्त्रान्तरनीत्या हकशा-] न ह्यलौकिकमिह किंचिदुच्यते । न चाऽनवस्था वैद्यक रोगास्त्रोक्तप्रकाराणामहिंसादीनामप्रयुज्यमानता स्फुटमेव प्रती- | दिलक्षणवद् व्याकरणादौ शब्दादिवच व्यवस्थापपत्तेः, तयत इति स्वतन्त्रनीतिप्रणिधानेनैव विषयव्यवस्था विचार्य- | त्रापि संमुग्धव्यवहारमाश्रित्य लक्षणैरेव व्युत्पादनादिति। स. माणा फलवतीति भावः ॥ १० ॥
त्वत्र न शोभते,यतो वयं प्रमाणस्यार्थव्यवस्थापकत्वे व्यवहानतु स्वतन्त्रनीत्याऽपि धर्मसाधनविचारणे प्रमाणप्रमे- रव्यवस्थापकत्वे वा लक्षण न प्रयोजकमिति बृमो न तु सर्वत्रैव यादिलक्षणप्रणयने परतन्त्रादिविचारणमप्याव
तदप्रयोजकामति । समानासमानजातीयव्यवच्छेदस्य तदर्थश्यकमिति व्यग्रताऽनुपरमे कदा प्रस्तुतवि
स्य तत्र तत्र व्यवस्थितत्वात् । सामान्यता व्युत्पन्नस्य तच्छा. चारावसर इत्यत आह
स्वादधिकृतविशषप्रतीतिपर्यवसाननानवस्थाभावात् , केवल
केवलव्यतिरेक्येव लक्षणमिति नादरः, प्रमेयत्वादेरपि पदार्थप्रमाणलक्षणादेस्तु, नोपयोगोऽत्र कश्चन ।
लक्षणत्वव्यवस्थितः इत्यन्यत्र विस्तरः । वस्तुतो धर्मवाद तनिश्चयेऽनवस्थाना-दन्यथार्थस्थितेर्यतः ॥११॥
लक्षणस्य नोपयोगः, स्वतन्त्रसिद्धाहिंसादीनां तादृशधर्माप्रमाणेति-प्रमाण-प्रत्यक्षादि तस्य लक्षणं-स्वपराभा- न्तरसंशयजिज्ञासाविचारद्वारकतत्त्वज्ञानेनासद्ग्रहनिवृत्तेः । सिमानत्वादिः तदादेः, श्रादिना प्रमेयलक्षणादिग्रहः । त
अन्यथैवोपपत्तरितरभिन्नत्वेन ज्ञानस्य तत्साध्यस्यात्रानुपस्य त्वधर्मसाधनविषये कश्वनोपयोगो नास्ति । अयमभि- योगात्समुग्धशाननैव कार्यसिद्धिरित्यत्र तात्पर्यम् । प्रायः-प्रमाणलक्षणेन निश्चितमेव प्रमाणमर्थग्राहकमिति नन्वर्थनिश्चयार्थमेव लक्षणोपयोगः, तेन ज्ञानप्रामाण्यसंशतदुपयोग इति । न चायं युक्तः, यतस्तल्लक्षणं निश्चित- यनिवृत्तौ तन्मूलार्थसंशयनिवृत्त्याऽर्थनिश्चयसिद्धेः इत्याशङ्कामनिश्चितं वा स्यात् । आये किमधिकृतप्रमाणेन ?, प्रमा- यामाहणान्तरेण वा ?। यदि तेनैव तदेतरेतराश्रयः , अधिकृतप्रमाणालक्षणनिश्चयः तन्निश्चयाच्चाधिकृतप्रमाणनिश्चय इति ।
न चार्थसंशयापत्तिः, प्रमाणेऽतत्वशङ्कया। यदि च प्रमाणान्तरेण तन्निश्चयस्तदाह-तनिश्चये प्र
तत्राप्येतदविच्छेदा-द्धत्वभावस्य साम्यतः ॥ १३ ॥ माणान्तरेण तल्लक्षणनिश्चयेऽनवस्थानात्तन्निश्चायकप्रमाणेऽ
न चेति-नच प्रमाणऽतत्त्वशङ्कयाऽप्रामाण्यशतया अर्थपि प्रमाणान्तरापेक्षाऽविरामात् । यदि च प्रमाणान्तरेणा
- संशयापत्तिः, लक्षणं विनेति गम्यम् । तत्रापि-प्रमाणलक्षनिश्चितमेव लक्षणं प्रमाणनिश्चये उपयुज्यते इतीष्यते , तदाह-अन्यथाऽन्यतोऽनिश्चितस्य लक्षणस्योपयोगेऽर्थस्थि
णेऽपि । एतदविच्छेदादप्रामाण्यशङ्कायाः स्वरसोत्थापितातेरन्यतोऽनिश्चितेनैव प्रमाणेनार्थसिद्धेः । तदुक्तं हरिभद्रा
या अनुपरमात् । हेत्वभावस्य शङ्काकारणाभावस्य साम्यतः चार्येण-"प्रमाणेन विनिश्चित्य , तदुच्येत न वा ननु ।
तुल्यत्वात् । प्रमाणलक्षण इव प्रमाणऽपि शङ्काकारणाभाव। अलक्षितात्कथं युक्ता, न्यायतोऽस्य विनिश्चितिः ॥१॥
शङ्काया अनुत्पत्तरित्यर्थः। सत्यां चास्यां तदुक्त्या किं, तद्वद्विषयनिश्चितेः । तत एवा
अहिंसादिधर्मसाधनग्राहकं हि प्रमाणं परेषां षष्टितन्त्राविनिश्चित्य , तस्योक्ति (वा) ान्ध्यमेव हि ॥२॥"
दिकं स्वस्वशास्त्रमेव । तत्र चाहिंसादिग्रहणांशे सर्वतन्त्रइत्थमत्र प्रमाणलक्षणादेरनुपयोगः समर्थितः । इममेव
प्रसिद्धत्वेन न कदापि संशयस्तद्विशेषांश तु भवन्नयमसिद्धसेनसंमत्या दृढयन्नाह-यत इति यत आह वादी
नुकूल एव, नचैकांशे शङ्कितप्रामाण्यज्ञानमितरांशस्याप्यसिद्धसेन इत्यर्थः ॥ ११ ॥
निश्चायकमिति युक्तम् , घटपटसमूहालम्बनात् । घटांशे प्राप्रसिद्धानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः।
माण्यसंशय पटस्याप्यनिश्चयापत्तेरित्याशयवानाहप्रमाणलक्षणस्योक्ती, ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥ १२ ॥
अर्थयाथात्म्यशङ्का तु, तत्त्वज्ञानोपयोगिनी । प्रसिद्धानीति-प्रसिद्धानि लोके स्वत एव रूढानि, न तु
शुद्धार्थस्थापकत्वं च, तन्त्रं सद्दर्शनग्रहे ॥ १४ ॥ प्रमाणलक्षणप्रणेतृवचनप्रसाधनीयानि । प्रमाणानि-प्रत्य
अर्थति-अर्थस्याहिंसादाथात्म्यस्य स्वतन्त्रप्रसिद्धनित्याशादीनि । तथा व्यवहरण-व्यवहारः स्नानपानदहनपचना- श्रयवृत्तित्वानित्याश्रयवृत्तित्वादेः शङ्का तु विचारप्रवृत्त्या दिका क्रिया। चशब्दः प्रसिद्धत्यसमुश्चयार्थः । तत्कृतः प्रमा. तत्वज्ञानोपयोगिनी । ततश्च प्रतीयमान शुद्धार्थस्य-सर्वणप्रसाध्यः प्रमाणलक्षणप्रवीणानामपि गोपालवालाबलादीनां थाशुद्धविषयस्य व्यवस्थापकत्वं (स्थापकत्वं ) प्रमितिजनतथा व्यवहारदर्शनात्, ततश्च प्रमाणलक्षणस्याविसवादिक्षा- कत्वम् । सद्दर्शनस्य शोभनागमस्य ग्रह-स्वीकारे तन्त्रनं प्रमाणमित्यादरुक्ती प्रतिपादने ज्ञायते-उपलभ्यते 'न'-जैव प्रयोजकम् तद्हे च तत एव धर्मसाधनोपलम्भात् किं लक्षप्रयोजनं-फलं वर्तते । नेति वक्तव्ये शायते नेति' यदुक्तमाचार्येण णेनेति भावः । तदतिवचनपारुष्यपरिहारार्थम् । यस्त्वत्रायमुदयनस्यांपालम्भः ये तुप्रमाणमेव सर्वस्य व्यवस्थापकम् ,न तु लक्षणम्,तद
तत्रात्मा नित्य एवेति, येषामेकान्तदर्शनम् । पेक्षायामनवस्थेत्याहुस्तेषाम्-"निन्दामि च पिवामि चेति"
हिंसादयः कथं तेषां, कथमप्यात्मनोऽव्ययात् ॥ १५ ॥ न्यायापातः। यतो व्याप्त्यतिव्याप्तिपरिहारेण तत्तदर्थव्यव- तवेति-तत्र धर्मसाधने विचारणीये श्रात्मा नित्य एव स्थापकं तत्सद्व्यवहारव्यवस्थापकं च प्रमाणमुपाददते तदेव इति येषां सांख्यादीनामेकान्तदर्शनं तेषां हिंसादयः कतु लक्षणम् । अनुवादः स इति चदमका प्यनुवाद एव, थं मुख्यवृत्या युज्यन्त इति शेषः । कथमपि खरिडतश
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(१०८४) बाद अभिधानराजेन्द्रः।
वाद रीरावयवकपरिणामेनापि आत्मनोऽव्ययादखण्डनात् । न हि स्यादभिन्नो वा ? , प्राचे तत्संबन्धभेदादिकल्पनायामधुद्धिगतदुःखोत्पादरूपाहिंसा सांख्यानामात्मनि प्रतिबिम्बो- नवस्था । अन्त्ये च धर्मिद्वयातिरिक्तसंबन्धाभावेऽतिप्रसा दयनानुपचरित्ता संभवति । न वा नैयायिकानां स्वभिन्नदुःख- इति। रूपगुणरूपा सा, श्रात्मनि समवायेन प्रतिबिम्बसमयाययोरेव
आत्मकियां विना च स्या-न्मिताणुग्रहणं कथम् । काल्पनिकत्वात् । न च कथमपि स्वपर्यायविनाशाभावे हिंसाव्यवहारः कल्पनाशतेनाप्युपपादयितुं शक्यत इति । तदिद
कथं संयोगभेदादि-कल्पना चापि युज्यते ॥ १६ ॥ माह-"निष्क्रियोऽसौ ततोहन्ति, हन्यते वा न जातुचित् ।
आत्मेति-पात्मनो यावत्स्वप्रदेशैरेकक्षेत्रावगाढपुद्गलमकंचित्केनचिदित्येवं, न हिंसाऽस्योपपद्यते" ॥१॥
हणव्यापाररूपां क्रियां विना च मितारगुना-नियतशरी
रारम्भकपरमाणूनां ग्रहणं कथं स्यात् ? । संबद्धत्वाविशषे हि मनोयोगविशेपस्य, ध्वंसो मरणमात्मनः ।
लोकस्थाः सर्व एव ते गृोरन् न वा केचिदपि अविशेहिंसा तच्चेन्न तत्वस्य, सिद्धेरर्थसमाजतः ॥ १६ ॥ षात् । अरष्टविशेषान्मिताणुग्रहोपपत्तिर्भविष्यतीति चेन्न
अदृष्ट-पुण्यपापरूपे साकाजातिरूपस्य विशेषस्यामन-इति मनोयोगेविशेषस्य स्मृत्यजनकशानजनकमन:
सिद्धेः। मिताणुग्रहार्थस्य विशेषस्य जातिरूपस्याहसंयोगस्य ध्वंस-आत्मनो मरण तद्धिसा । इयं ह्यात्मनोऽ
कल्पनापेक्षया क्रियावत्त्वरूपस्यात्मन्येव कल्पयितुं युव्ययेऽप्युपपत्स्यते, अतिसान्निध्यादेव हि शरीरखण्डनादास्माऽपि खण्डित इति लोकानामभिमानो नायं विशेषदर्शि
क्लत्वात् । तत्संकोचविकोचादिकल्पनागौरवस्योत्तरका
लिकत्वेनाबाधकत्वाच्छरीरावच्छिन्नपरिणामानुभवस्य सार्वभिरादरणीय इति चेन्न, तत्त्वस्योक्नध्वंसत्वस्य अर्थसमा
जनीनत्वेन प्रामाणिकत्वाञ्चेति भावः । तथा श्रात्मनः क्रियां जतोऽर्थवशादेव सिद्धः । स्मृतित्वभावादेव स्मृत्यजन
बिना नियतशरीरानुप्रवेशानभ्युपगमे सर्वेषां शरीराणां नाश्चरममनःसंयोगस्यापि संयोगान्तरवदेव नाशात् । तथा
संयोगाविशेषेण सर्वभोगावच्छेदकत्वापत्तिभिया तदात्मच नेयं हिंसा केनचित् कृता स्यादिति सुस्थितमेव
भोगे तदीयादृष्टविशेषप्रयोज्यसंयोगभेदादिकल्पनाऽपि कथं सकलं जगत् स्यात् ।
युज्यते ? , अनन्तसंयोगभेदादिकल्पने गौरवात् । अवच्छेआत्मन एकान्तनित्यत्वाभ्युपगमे दृषणान्तरमाह
दकनया तदात्मवृत्तिजन्यगुणत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन शरीरेणाऽपि संबन्धो, नित्यत्वेऽस्य न संभवी । तच्छरीरत्वेन हेतुत्वे तु बाल्यादिभेदेन शरीरभेदाद् व्यभिविभुत्वेन च संसारः, कल्पितः स्यादसंशयम् ।। १७ ॥ चारः। अवच्छिन्नत्वसंबन्धेन तव्यक्तिविशिष्टे तद्व्यक्तित्वेन
हेतुत्वे तु सुतरां गौरवमिति न किंचिदेतदधिकं लतायाम् । शरीरेणापीति-नित्यत्वे सति अस्य श्रात्मनः शरीरेणापि सम संबन्धो न संभवी । नित्यस्य हि शरीरसंबन्धः
अनित्यैकान्तपक्षेऽपि, हिंसादीनामसंभवः । पूर्वरूपस्य त्यागे वा स्यादत्यागे वा ? पाये स्वभाव- नाशहेतोरयोगन, क्षणिकत्वस्य साधनात् ॥ २०॥ त्यागस्यानित्यलक्षणत्वान्नित्यत्वहानिः । अन्त्ये च पूर्व- अनित्येति-अनित्यैकान्तपक्षेऽपि क्षणिकशानसन्तानरूपास्वभावविरोधाच्छरीरासंबन्ध एवेति । विभुत्वेन चाभ्युप- | त्माभ्युपगमेऽपि हिंसादीनामसंभवो मुख्यवृत्याऽयोगः । नागम्यमानन हेतुना संसारोऽसंशयं कल्पितः स्यात् , सर्व- शहेतोरयोगेन-क्षयकारणस्यायुज्यमानत्वेन-क्षणिकत्वस्यगतस्य परलोकगमनरूपमुख्यसंसारपदार्थानुपपत्तेः। अथ- क्षणक्षयित्वस्य साधनात् । इयं हि परेषां व्यवस्था-नाशवा-विभुत्वे च संसारो न स्यात् , स्यावेदसंशयं कल्पि- हेतुभिर्घटादे शस्ततो भिन्नाऽभिन्नो वा विधीयेत?, आधे तः स्यादिति योजनीयम् । तदिदमुक्तम्-" शरीरेणापि घटादेस्तादवस्थ्यम् , अन्त्ये च घटादिरेव कृतः स्यात् इति स्वसंबन्धो, नात एवास्य सङ्गतः। तथा सर्वगतत्वाच्च, सं
भावत एवोदयानन्तरं विनाशिनो भावा इति । इत्थं च हिंसा सारश्चान्यकल्पितः ॥१॥"
न केनाचित्कियत इत्यनुपप्लवं जगत्स्यादिति भावः। परः शङ्कत
ननु जनक एव हिंसकः स्यादतो न दोष इत्यत्र जनकः किं अदृष्टादेहसंयोगः, स्यादन्यतरकर्मजः ।
सन्तानस्य क्षणस्य वा इति विकल्प्याद्ये दोषमाहइत्थं जन्मोपपत्तिश्च, न तद्योगाविवेचनात् ॥ १८ ॥
न च सन्तानभेदस्य, जनको हिंसको मतः । अदृष्यादिति-अदृष्टात् प्राग्जन्मकृतकर्मणो लब्धवृत्तिका
सांवृतत्वादजन्यत्वा-द्भावत्वनियतं हि तत् ॥ २१॥ त् । दहसंयोगाऽन्यतरकर्मजः स्यात् । आत्मनो विभुत्वे
न चति-न च सन्तानभेदस्य हिंस्यमानशूकरक्षणसन्तानाभयकमाभावऽपि देहस्य मूर्तत्वेनान्यतरकर्मसंभवादिति ।
नच्छेदेनोत्पत्स्यमानमनुष्यादिक्षणसन्तानस्य जनको लुब्धइन्थं जन्मनः संसारस्योपपत्तिः ऊर्ध्वलाकादी शरीरसंव
कादिहिसको भवेत् , तद्विसदृशसन्तानोत्पादकत्वेनैव तद्धिधांदवावलोकगमनादिव्यपदशोपपत्तः । इत्थमपि विभु
सकत्वव्यवहारोपपत्तेरिति वाच्यम् , सांवृतत्वात् काल्पनि त्याव्ययात् पूर्वशरीरत्यागोत्तरशरीरोपादानकस्थभाषत्वाच्च
कत्वात् सन्तानभेदस्य । अजन्यत्वात् लुब्धकाद्यसाध्यत्वात् । न नित्यत्वहानिः, एकत्र ज्ञान नीलपीताभयाकारयदेकत्रा
तद्धि जन्यत्वं हि भावत्वनियतं सत्त्वव्याप्तम् , सांवृतं च खरनकस्वाभाव्याविरोधात् , कार्यक्रमस्य च सामघ्यायत्तत्वा
विषाणादिवदसदेवेति भावः। दिन्याशयः । सिद्धान्तर्यात-न तद्योगस्य-शरीरसंयोग
द्वितीये त्याह-- स्थाविवेचनात् । तथाहि-किमयमात्मशरीरयाभिन्न वा! नरादिक्षणहेतुश्च, शूकरादेर्न हिंसकः ।
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बाद
(१००५) अभिधानराजेन्द्रः ।
शूकरान्त्यचखेनैव व्यभिचारप्रसङ्गतः ||२२|| नरादीति - नरादिक्षणहेतुश्च लुब्धकादिः शुकरादेहिंसको न भवति, शुकराम्यनेय व्यभिचारस्य हिंसकत्वातिव्याप्तिलक्षणस्य प्रसङ्गतः । म्रियमाणशुकरान्त्यक्षणोऽपि युपादानभावेन नरादिक्षणहेतुरिति लुब्धकवत् सोऽपि स्वहिंसकः स्यादिति भावः ।
इष्टापत्तौ व्यभिचारपरिहारे स्वाहअनन्तरचणोत्पादे, बुद्धलुब्धकयोस्तुला । नैवं तद्विरतिः कापि ततः शाखायसङ्गतिः ||२२|| अनन्तरेति-अनन्तरक्षलोत्पादे स्वाव्यवहितोत्तरविसदृशलोत्पादे [हिंसकत्वप्रयोजकेऽभ्युपगम्यमाने इति गम्यम् - तुग्धपोतुला साम्यमापचेत बुलुब्धकपोरनन्तर उत्पादकत्वाविशेषात् । चप्रकारेण तद्विरतिहिंसाविरतिः कापि न स्यात् । ततः शास्त्रादीनामहिंसाप्रतिपादकशाखादीमसङ्गतिः स्यात् । न चैतदिष्टं परस्य - " सत्तेऽस्स संति दंडानां सच्चेति जीवितं पिये अथानं उपर्म क उता, नेव हन्ने न घातये ॥ १ ॥ " इत्याद्यागमस्य परैरभ्युपगमात् ।
3
घटन्ते न विनाऽहिंसां, सत्यादीन्यपि तत्त्वतः । एतस्यावृतिभूतानि तानि षद्भगवाञ्जगी ॥ २४ ॥ घटन्त इति हिंसां बिना सत्यादीम्यपि न घटन्ते यत पतस्था अहिंसाया वृतिभूतानि तानि सत्यादीनि भ गवान् जगौ सर्वशो गदितवान् । न च सत्यादिपालनीयाभावे वृत्तौ विद्वान् यतत इति । ननु हन्मीति संकल्प एव दिसा तद्योगादेव च हिंसकत्वं तदभावाचाहिंसायास्ततश्च तद्मृतिभूतसत्यादीनां नानुपपतिरिति वेध, हम्मीति संक पक्षस्य सर्वथा नन्वये कालान्तरभाविफलजनकत्वाहुपपतेः कथंचिदम्यये चास्मत्सिद्धान्तप्रवेशापा धिकमन्यत्र ।
मौनीन्द्रे च प्रवचने, पुज्यते सर्वमेव हि । नित्यानित्य स्फुटं देहाद्भिनाभि तथात्मनि ||२५|| मौनीन्द्र इतिमौनीन्द्रे वीतरागप्रतिपादिते च प्रवचने सर्वमेव हि हिंसाऽहिंसादिकं युज्यते । नित्याऽनित्ये तथा स्फुटं प्रत्यक्षं देहाद्भिन्नाऽभिषे श्रात्मनि सति । तथाहि आत्मत्वेन नित्यत्वमात्मनः प्रतीयते, अन्यथा परलोकाद्यभावप्रसङ्गात् । मनुष्यादिना वानित्यत्वम्, अन्यथा मनुष्यभावानुच्छेदप्रसङ्गात् । धर्मिग्राहकमानेन तत्र नित्यत्वसिद्धावनित्यत्वथियः शरीरादिविषयकत्वमेवास्त्विति चेत्र धर्मिग्राहकमानेन त्रैलक्षण्यकलितस्यैव तस्य सिद्धेर्घटाद्युपादानस्यैव डानाद्युपादानस्य पूर्वोत्तरपर्यायनाशोत्पादयितवत्वनिष तत्यात् । यथा च भ्रान्तत्याभ्रान्तत्वे परमार्थसंव्यवहारापेक्षया परेषां न ज्ञानस्य विरुडे, यथा चैकत्र संयोगतदभावी तथा इच्यतो नित्यत्वं पर्यायतत्त्वं नास्मा के विरुद्धम् । अनपेक्षितविशिष्टरूपं हि इयम् अपेक्षि तविशिष्टरूपं च पर्याय इति । तथा शरीरजीययोर्मूत्वाभ्यां भेदः, देहकण्टकादिस्पर्शे वेदनोत्पतेश्चाभेद इति ।
"
૨૭૨
बाद
तदुक्रम्-" जीपसरीराणं पि. भेलाभेश्रो तहोचलंभाओ । मुत्तामुत्तत्तणश्रो, डिक्कम्मि य बेयणाश्रो अ ॥ १ ॥ ” न चेदेवं ब्राह्मणो नष्टो ब्राह्मणो जानातीत्यादिव्यवहारानुपपत्तिः विना ब्राह्मणस्य व्यासज्यवृत्तित्वमित्यादिकमुपपादितम
न्यत्र ।
पीडाको देह व्यापच्या दुष्टभावतः ।
त्रिघा हिंसागमप्रोक्का न हीत्यमपहेतुका ॥ २६ ॥ पीडेति पीडाकर्तुत्वतः पीडायां स्वतन्त्रस्यापृतत्वात् । देहस्य व्यापत्तिर्विनाशस्तया कथंचित्तद्वद्यापत्तिसिद्धिरिति भावः । दुष्टभावतो हम्मीति संज्ञेशात् । विधा जिनयोक्ता हिंसा । इत्थमुक्तरूपात्माभ्युपगमे न ह्यपहेतुका - हेतुरहिता भवति ।
-
अत्रैव प्रकारान्तरेणासंभवं दूषयितुमुपन्यस्यतिहन्तुर्जाति को दोषो, हिंसनीयस्य कर्मणि । प्रसक्रिस्तदभावे चाऽन्यत्रापीति मुधा वचः ॥ २७ ॥ इन्तुरिति - हिंसनीयस्य कर्मणि हिंसानिमित्तादृष्टे जाप्रतिलम्धति सति हन्तु को दोषः १ स्वकर्मव प्राणिनो हतत्वात्, तत्कर्मप्रेरितस्य च हन्तुरस्वतन्त्रत्वेना दुष्टत्वव्यवहारात् तदभावे च हिंसनीय कर्मविपा कामाचे व अन्यत्राप्यहिंसनीयेऽपि प्राणिनि प्रसक्रिः हिंसापत्तिरिति हिंसाऽसंभवप्रतिपादकं वचो मुधाऽनर्थकम् । हिंस्वकर्मविपाके य-दृष्टाशयनिमित्तता ।
"
हिंसकत्वं न तेनेदं, वैद्यस्य स्याद्रिपोरिव ॥ २८ ॥ हिंस्येति हिंस्यस्य प्राणिनः कर्मविपाके सति यद्यस्मातु दुष्टाशयेन हन्मीति संशेन निमितता प्रधानहेतुकमोंदयसाध्यां हिंसां प्रति निमित्तभावो हिंसकत्वम् तेन कारणेनेनं हिंसकत्वं रिपोरिच वैद्यस्य न स्यात् तस्य हिंसां प्रति निमित्तभावेऽपि दुष्टाशयाऽनासत्वात् । तदिदमाह–" हिंस्थकर्मविपाकेऽपि निमिरूत्वनियोगतः । हिंसकस्य भवेदेषा, दुष्टादुष्टानुबन्धतः ॥ १ ॥ " परमेरितस्यापि चाभिमरादेरिव दुष्टत्वं व्यपदिश्यत एव । हिंस्वकर्मनिर्जरणसहायत्वेऽपि च तथाविधा ऽऽश्याभाषाज हिंसकस्य वैयावृत्यकरत्वव्यपदेश इति इष्टव्यम् ।
"
इत्थं सदुपदेशादे - स्तन्निवृत्तिरपि स्फुटा । सोपक्रमस्य पापस्य नाशात्स्वाशयवृद्धितः ॥ २६ ॥ इत्थमिति - इत्थं परिणामिन्यात्मनि हिंसोपपत्ती सतांज्ञानगुरूणामुपदेशादे: आदिना अभ्युत्थानादिपरिग्रहः । तदाह- अभुद्वाणे विसर, परकमे साहुसेवा य संमहंसणलंभो, विरयाविरई विरई ॥ १ ॥ " सोपक्रमस्यापवर्तनीयस्य - पापस्य चारित्रमोहनीयस्य नाशात् । तन्निवृतिरपि हिंसानिवृत्तिरपि स्फुटा-प्रकटा वाशयस्य शुभा शयस्य न कमपि हन्मीत्याकारस्य वृद्धितोऽनुबन्धात् । तथारुचिप्रवृत्या च व्यज्यते कर्म तारतम् ।
संशयं जानता ज्ञातः, संसार इति हि श्रुतिः ॥ ३० ॥ तथारुचीति तथारुच्या सदाचारश्रद्धया प्रवृत्या च । ता
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(१०८६) बाद अभिधानराजेन्द्रः।
वादग्गंध रशं स्वप्रयत्नोपक्रमणीयं कर्म व्यज्यते । प्रवृत्तिरेवोपक्रम- | नेऽथें साधु-मधुरालापपूर्वम् बोधनमुत्तरप्रदानम् श्रोणीयकर्मानिश्चयादुपायसंशये कथं स्यादिति चेदर्थानर्थ- तुः सूक्ष्मोक्तिः-सूक्ष्मजीवादिभावकथनम् आचारादयः-- संशययोः प्रवृत्तिनिवृत्यङ्गत्वादित्याशयवानाह-संशयम- मेणाचारव्यवहारप्रज्ञप्तिदृष्टिवादा अभिधीयन्ते । परे प्राचार्या
नर्थगतं जानता हेयोपादेयनिवृत्तिप्रवृत्तिभ्यां परमार्थतः आचारादीन ग्रन्थान् जगुः, तैराचाराद्यभिधानादिति भावः । संसारोशात इति हि स्थितिः-प्रेक्षावतां मर्यादा । तथा एतैः प्रज्ञापितः श्रोता, चित्रस्थ इव जायते । चाचारसूत्रम्-"संसयं परिजाणतो संसारे परित्राते भव
दिव्यास्त्रवन हि क्वापि,मोघाः स्युः सुधियां गिर :11७॥ ति, संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिनाते भवतीति"॥
एतैरिति-व्यक्तः । अपवर्गतरोबीजं, मुख्या हिंसेयमुच्यते ।
विद्या क्रिया तपो वीर्य, तथा समितिगुप्तयः । सत्यादीनि व्रतान्यत्र, जायन्ते पल्लवा नवाः ॥ ३१॥
आक्षेपणीकल्पवल्ल्या, मकरन्द उदाहृतः॥८॥ अपवर्गेति-स्पटः।
विद्येति-विद्या-ज्ञानमत्यन्तापकारिभावतमोभेदकम् । क्रिविषयो धर्मवादस्य, निरस्य मतिकर्दमम् ।
या-चारित्रम् , तपः-अनशनादि वीर्य-कर्मशत्रुविजयानुकूलः संशोध्यः स्वाशयादित्थं, परमानन्दमिच्छता ॥ ३२ ॥
पराक्रमः तथा समितयः-ईयासमित्याद्याःगुप्तयो-मनोगुप्त्या.
द्याः । आक्षेपणीकल्पवल्ल्या मकरन्दो-रस उदाहृतः। विद्याविषय इति-मतिकर्दममादावेव प्रमाणलक्षणप्रणयनादि
दिबहुमानजननेनैवेयं फलवतीति भावः । द्वा०६ द्वा० । प्रपञ्चम् ।
बादं कृत्वा कस्यापि मतं न दूषयेत्वादनिरूपणानन्तरं तत्सजातीया कथा निरूप्यते
वायं विविहं समेञ्च लोए, अर्थकामकथा धर्म-कथा मिश्रकथा तथा।
सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । कथा चतुर्विधा तत्र, प्रथमा यत्र वर्ण्यते ॥१॥ अथेति-अर्थकथा कामकथा धर्मकथा तथा मिश्रकथा
पन्ने अभिभूय सन्चदंसी, एवं चतुर्विधा कथा । तत्र प्रथमाऽर्थकथा सा, यत्र यस्यां
उवसंते अविहेडए स भिक्खू ॥ १६ ॥ वर्यते-प्रतिपाद्यते।
यः पुनर्लोके विविधं वादं समेत्य 'अविहेट्टको' भवेत् कस्यविद्या शिल्पमुपायश्चा-निर्वेदश्वापि संचयः ।
चिरोधको न भवेत् कस्यचित् पक्षपात न कुर्यात् । लोके हि दक्षत्वं सामभेदश्च, दण्डो दानं च यत्नतः ॥२॥
बहनि दर्शनानि सन्ति ते परस्परं वादं कुर्वन्ति-अन्योन्य विद्येति-विद्यादयोऽर्थोपाया यत्र वर्यन्ते साऽर्थकथे
मतं दूषयन्ति, मुण्डा जटाधारिभिः नग्ना वस्त्रधारिभिर्गृह
स्थाः बनवासिभिः इत्यादिः स्वस्वमताभिशयवचनरूपं वाति भावः।
दं कृत्वा कस्यापि बाधां न कुर्यात् इत्यर्थः । कीदृशो यः?, रूपं वयश्च वेषश्च, दाक्षिण्यं चापि शिक्षितम् ।
सहितो-शानदर्शनचारित्रसहितः, पुनः कीदृशः?, खेदानुगतः दृष्टं श्रुतं चानुभूतं, द्वितीयायां च संस्तवः ॥ ३॥ खेदयति मन्दीकरोति कर्म अनेनेति खेदः-संयमस्तेन श्ररूपमिति-रूपं सुन्दरम्, वयश्चोदनम्, वेषश्चोज्ज्वलः,दाक्षि | नुगतः खदानुगतः सप्तदशविधसंयमरतः, पुनः कीदृशः ?, ण्यं च-मार्दवम्, शिक्षितमपि विषयेषु, दृष्टमद्भुतदर्शनमा- कोविदात्मा कोविदो-लम्धशास्त्रपरमार्थ आत्मा यस्यति श्रित्य, श्रुतं चानुभूतं च, संस्तवश्व-परिचयश्च , द्विती-| कोविदात्मा, पुनः कीदृशः?, प्राज्ञः-प्रकर्षेण अन्येभ्यः आधियायां-कामकथायाम् । रूपादिवर्णनप्रधाना कामकथेत्यर्थः । क्येन जानातीति प्रायः सारबुद्धिमान् । पुनः कीदृशः ?, अतृतीया क्षेपणी चैका, तथा विक्षेपणी परा।
भिभूय सर्वदर्शी अभिभूय-परीषहान् जित्वा रागद्वेषौ निअन्या संवेजनी निर्वे-जनी चेति चतुर्विधा ॥४॥
वार्य सर्वजन्तुगणम् आत्मसदृशं पश्यतीत्येवं शीलः सर्वद
शी, पुनः कीदृशः?, उपशान्तः कषायरहितः स्यात् , स भिक्षुतृतीयेति-तृतीया धर्मकथा च एका श्राक्षेपणी, तथा प
रित्युच्यते । उत्त० १५ अ० । “सम्महिट्ठी किरिया वादी रा विक्षेपणी, अन्या संवेजनी, च पुनर्निर्वेजनी इति च
मिच्छा य सेसगा वाई । जहिऊण मिच्छवाय,सेवह वायं इम सुविधा।
तत्थ ॥१॥" सूत्र०१ श्रु०१२ अ० । "जो जहवायं न कुणइ, आचाराद्वयवहाराच्च, प्रज्ञप्तेदृष्टिवादतः।
मिच्छट्टिी तश्रो हु को अन्नो । वद्धेई मिच्छत्त, परस्स प्राधा चतुर्विधा श्रोतु-श्चित्ताक्षेपस्य कारणम् ॥ ५॥
संकं जणमाणे ॥१६६६॥" पं० २०५ द्वार । जी० । ( वादार्थ प्राचाराविति-प्राचारं व्यवहारं प्राप्तिं दृष्टिवादं चाश्रि- परिहारकल्पस्थितस्य गमनं 'परिहार' शब्द पञ्चमभागे स्य पाद्या शेपणी चतुर्विधा । श्रोतुः चित्ताक्षेपस्य तत्वप्र- ६७४ पृष्ठे गतम् ।) (वादलब्धिसंपन्नः साहिवेषं विधाय तिपस्याभिमुखलक्षणस्य अपूर्वशमरसवर्णिकास्वादलक्षण- नास्तिकवादिराजं पदाक्रम्य गच्छतीति पुरिसजाय' शब्दे स्य वा कारणम् ॥
पञ्चमभागे १०३६ पृष्ठे उक्तम् ।) (श्रात्मानं पुरुषं क्षेत्र वस्तुक्रिया दोषव्यपोइश्च, सन्दिग्धे साधुबोधनम् । . विदित्वा ज्ञात्वा वादं प्रयुक्रे इति 'पोगमइ' शब्दे पश्चश्रोतः सूक्ष्मोक्किराचारा-दयो ग्रन्थान् परे जगुः ॥ ६॥
मभाग ४७ पृष्ठे उक्तम् ।) क्रियोति-क्रिया-लोचास्नानादिका दोषव्यपोहश्च-कथं-वाद (य) गंथ-वादग्रन्थ-पुं०। परपक्षनिराकरणेन स्वपक्षचिदापनदोषशुद्धयर्थप्रायश्चित्तलक्षणः संदिग्धे-संशयाप- प्रतिष्ठापने तर्कप्रकरणे, यो वि०।
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(१०००) अभिधानराजेन्द्रः ।
वादपचारंभग
वायग
याद (ग) पचारंभगवादप्रत्यारम्भक-पुं० । वादारम्भकं प्रति वामरत्थ- वामरथ्य-पुं० बामथापत्ये जे० ७ वक्ष० । प्रतीपमारभमाणे, रत्ना० ८ परि० ।
"
वादारंभगवादारम्भक - पुं० । तस्वनिर्णिनीषु जिगीषुरूपे वादमात्रारम्भके, रत्ना०८ परि० ।
वादि (म्) - वादिन् पुं० [बादलधिसम्प, नि० ० १ ४० (परवानिप्रमाणे गुणदर्शनम् अजाण शब्दे प्रथमभागे ३७४ पृष्ठे उक्तम् ।
,
रामा रम
वामलोभमा वामलोचना श्री० रामपाम् ' - । णी सीमंतिणी यह वामलोअसा विलया । पाइ० ना०
(१,
१२ गाथा ।
बाबाहा - व्यावाधा-स्त्री० । विविधा श्रबाधा व्याबाधा । आ० म० १ ० । प्रकृष्टपीडायाम् भ० ८ ० ३ उ० । बामवद्ध - वामवर्त्त पुं० । प्रतिकूलतया वर्तमाने, व्य० ३
"
प्रज्ञा० ।
उ० ।
नाम-वाम- न० | वा मन् । धने, वास्तुके च । मनोहरे, प्रतिकुले, सम्यभागस्ये, अथमे च वि० सम्यदेदे न० कामदेवे, महादेवे, तन्त्रोक्ते वेदाचारविरुद्धे मद्यादिपानरूपाचारे च । पुं० । वाच० " प्रतिकूले, वाम, पईव पश्चत्थिणो वामा ।” पाइ० ना० १५४ गाथा ।
व्याम - पुं० । व्यामीयते परिच्छिद्यते रज्ज्वाद्यनेनेति व्यामः । बहुलवचनात् जिति उच्प्रत्ययः । तिर्यग्यायप्रसारणप्रमाणे, रा० । जं० । जी० । स्था० ।
वामरत्थापण - वामरध्यापन- पुं० । वामरथर्थियुवापत्ये, यगोत्रे ऽभिजिदादिगणनया द्वाविंशं नक्षत्रम् जं० ७ पक्ष० । वामलूर - वामलूर - पुं० । वल्मीके, “रप्फा वम्मीश्र वामलूराय " पाइ० ना० १७१ गाथा ।
वामणिया - वामनिका - स्त्री० । अत्यन्तहस्वदेहायां हस्वोन्नतहृदयकोषायां वा स्त्रियाम्, श्री० ॥ भ० । दशा० । वामदेवसूरि- वामदेवसूरि- पुं० । नेमिचन्द्रसूरिकृतपञ्चसंग्रहस्य दीपिकानाम्याटीकायाः कर्त्तरि ० ० ।
वामण वामन-२० मकोडे संस्थानभेदे यत्र हि पाणि| मडहकोष्ठे पादशिरोग्रीवं यथोक्रममाणोपेतत्वात् पुनः शेषं को तन्मड न्यूनाधिकप्रमाणं भवति । स्था० ६ ठा० ३ ० । अनु० जी० । तं० । नि०चू० । यत्र तु हिट्ठिलकायं हस्तपा दादिकं यथोक्रप्रमाणोपेतमुरउदरादिकं महं प्रमाणरदितं भवति । कर्म० ६ कर्म० भ० कालानीचित्वेनातिहस्यदेहे, प्रश्न० १ आश्र० द्वार। पुं० । खर्वशरीरें, प्रश्न० ५ संव० द्वार । रा० । नि० । श्राचा० । वैयाकरणभेदे, यद्रचितं व्याकरणशास्त्र विशयकरणानामन्यतमम् । कल्प० १पार्श्वनाथस्य शासनय मतान्तरेण गजमुखनामके, स बीरगफणामण्डितशिराः श्यामवर्णः - वाहनश्चतुर्भुजो बीजपुरकोरमयुक्रदक्षिणपाणियो नकुलभुजगयुक्तवामपाणियुगश्च । प्रव० २७ द्वार ।
वामगध- वामनक- ५०। वामनके, “खम्बो इस्सो याम श्रो। " पाइ० ना० १०६ गाथा ।
म्लान- त्रि० म्लाने, " पव्वायं वसुनायं सुसिअं वायं मिलाणऽत्थे । पाइ० ना० ८३ गाथा ।
"
1
"
वामसिज- वामनीय-न० गुणदोष या संसर्गान्तरेण समति वायंत वादयत् त्रि० वाद्यं कुर्यति " गाता वातानसंसर्गजे, स्था० १० ठा० ३ उ० । चंता " श्र० I वायंतियववहार-वागन्तिकव्यवहार - पुं० । वागेवान्तः परिसमाप्तिर्वामन्तिकस्तत्र भयो वागन्तिकः स वासी व्यवहारयेति । याङ्मात्रनियमिते व्यवहारे, ०४३० ॥ वायग-वाचक-पुं० पूर्वगतं श्रुतं सुत्रमन्यच विनेयान् पाचयतीति वाचकः । पूर्वगतश्रुतधारिणि, वृ०६ उ० । वाचकः पूर्वधरोऽभिधीयते स च श्रीमानुमास्वातिनामा महातार्किकः प्रकरणपञ्चशतीकतां चाचार्योऽभवत् । पञ्चा० ६ विष० । उपाध्याये, विशे० । श्रा० म० । ( अथ स्वाभिमतसामान्यविशेषोभयात्मवाच्यवाचकभाव समर्थनपुरःसरं तीर्थात
बामर व्यामर्दन न० परस्परेश चाकायक्रमोटने, ०१ ध्रु० १ ० | कल्प० । श्रौ० ॥ भ० । बामण्यमाण - वामप्रमा २० प्रसारितभुजयुगलमाने, श्री० जं० ।
-
वामचर्स द्वारमाह
एहि भणिओ उ वच्चर, वच्चसु भणिओ दुतं समल्लिया । जं जह भष्यति तं तह, अकरेंतो वामवडी उ ||७७८|| यः शिष्य यहि-आगच्छेति भन्वितः सन् व्रजति बजेति भणितः सन् शीमं समातीयते, एवमन्यदपि कार्यय यथा भएयते तत्तथा अकुर्वाणो यामय उच्यते । नृ० १ उ० १ प्रक० | नि० चू० । वामपार्श्ववर्तिनि त्रि० । स्था० ४
डा० २ उ० ।
- । ।
वामा वामा स्त्री० [पोषिति पा० ना० । पार्श्वजनमालरि वाराणसीराजस्याश्वसेनस्य भार्यायाम्, कल्प० १ अधि० ६ क्षण | स० | प्रब० ।
-
वामेगकुंडलघर- वामैककुण्डलधर पुं० यामे एकमेव कुण्डलं धारयन्ति ये ते तथा वामकर्णमात्रेण कुण्डलधरे दक्षिणे करणे आभरणान्तरधारिणि, श्री० जी० । वामोह-व्यामोह - पुं० । मूढतायाम्
1
पञ्चा० ५ विव० ।
स्था० ।
वाय-वात- पुं० । वायौ, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । वाद - पुं० । पूर्वपक्षे, अष्ट० ५ अष्ट० । व्याज- न० । कपटे, द्वा० १८ द्वा० ।
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(१० ) बायग अभिधानराजेन्द्रः।
वायणा रीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवाच्यवाचकभावनिरासद्वारेण जागहदिढतेणं, परिचिते तावतमुद्दिसति ॥२६५ ॥ तेषां प्रभावैभवाऽभावनिरूपणम् 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे ६६ पृष्ठे गतम्।)
परिनिर्वाप्य वाचयति , किमुक्तं भवति-जाहकदृष्टान्तेन
यावन्मात्रमवग्रहीतुं शक्नोति तावन्मात्रमप्रेतनपरिचिते उवायगवर-वाचकवर-पुं० । वाचकप्रधाने, प्रशा० १ पद। दिशति एषा परिनिर्वाप्य वाचनता । व्य०१० उ०। (अर्थवायगवरवंस-वाचकवरवंश-पुं०। वाचकवरा:-प्रधानवाच
स्य निर्यापणा ' अस्थणिज्जावणा ' शब्दे प्रथममागे ५०६ कास्तेषां वंशः-प्रवाहो वाचकवरवंशः । पूर्वधाराणां -
पृष्ठे गता।) मभाविपुरुषपूर्वप्रवाहे, नं० । “चायगवरवंसाओ, तेवीसइ- | से किं तं वायणासंपदा ?, वायणासंपया चउब्विधा पमेण धीरपुरिसेणं । दुद्धरधरेण मुणिणा , पुब्वसुयसमि- एणत्ता, तं जहा-विजयं उद्दिसति विजयं वाएति परिबुद्धीणं ॥१॥" प्रशा० १ पद ।
णिचावियं बाएइ अत्थणिज्जवए यावि भवति । सेत्तं वायज्झयण-वाताध्ययन-न० । द्विगृद्धिदशानां प्रथमेऽध्यय
वायणासंपदा । ने, स्था० १० ठा०३ उ० ।
'से किंत' मित्यादि, कराव्यम् । गुरुराह-बायणे' त्यादि वायड-व्याकृत-त्रि० । प्रकटार्थे, ध०३ अधिक।
वचना संपचतुर्धा प्रश्नप्ता । विदित्वोदिशति १, विदित्वा सप्रावृत-त्रि० । अमावृते, विशे। ती०।
मुद्दिशति २, परिनिर्वाप्य वाचयति ३, अर्थनिर्यापकश्चापि वायडाग-वाग्डाक-पुं० । मुकुलिसर्पभेदे, प्रशा०१ पद ।
भवति ४, तत्र विहित्वोदिशति यथा योगविधिक्रमेय वायद्धि-वागृद्धि-स्त्री०। वाक्संपत्ती, श्रा० म०११०। सम्यग् योगेनाधीवैवमुद्दिशति १, समुद्दिशति वा यथा
योगसामाचार्यैव स्थिरपरिचितम् कुर्विदमिति वदतीति, अ. बायण(णा)संपया-वाचनासंपद-स्त्रीजगणिसंपर्दोदे, व्य०।
न्यथा अपारिणामिकादावपक्वघटनिहितजलोदाहरणेन दोषसंप्रति वाचनासंपदं चतुःप्रकारामाह
संभवात् , अथवा-आमभाजने वा निक्षिप्त क्षीरं विनश्यति. वायणभेया चउरो, विजियोद्देसणसमुद्दिसणया य । एवमयोग्यदत्तं सूत्रं विनश्यतीति २, परितः-सर्वप्रकारं निपरिनिव्वयप्पिया वा, निजवणा चेव अत्थस्स ॥२६॥
पियति, निरो निदिग्धादिभृशार्थदर्शनात् भृशं गमयते, पू
वदत्तालापकादिसर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य वाचनाया भेदाश्चत्वारस्तद्यथा-विचिन्त्य सम्यक् यो
सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रग्यता-परिनिश्चित्योद्देशनम्र,विचिन्त्यैव समुद्देशसमुद्देशनता
योजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्यवाचयति-सूत्रं प्रददाति ३, च २, तथा परिनिर्वाप्य वाचयति ३, अर्थस्य निर्यापना ४।
अर्थ:-सूत्राभिधेयं वस्तु तस्य निरिति भृशं यापना निर्वातत्र विचिन्त्योद्देशनमाह
हणा पूर्वापरसांगत्येन स्वयं मानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गतेणेव गुणेणं तु, वायइयव्या परिक्खिउं सीसा। मयति निर्यापयतीति निर्यापकः। चापिशब्दी विचारादिद्योउद्दिसति बियाणेउं, जस्स जोग्गतं तस्स ॥२६२॥ । तको ४, 'सेत्त' मित्यादि सुगमम् । दशा० ४ अ०। उत्त।
स्था० । ध०र०। अयमस्या वाचनाया योग्योऽयमयोग्य इति । तेनैव वाचनाविषयेण गुणेन शिष्याः परीक्ष्य वाचयितव्या नान्यथा । त- | वायणा-वाचना-स्त्री० । वाचनं वाचना । गुरुभ्यः श्रवणे, तो यत् यस्य योग्यं तत्तस्य विज्ञाय उदिशति ।
अधिगमे, विशे० । स्था० । गुरुप्रदत्तेनैव सूत्रस्य परिपाटीअत्रैव प्रकारान्तरमाह
रूपे, विशे० । गुरुसमीपे सूत्रावराणां ग्रहणे, उत्त० २६ अ । अपरीणामगमादी, वियाणिउं अभायणे न वाएति। ।
वाचनाफलम्जह माममदियघडे, अंबेवण छुन्भती खीरं ॥२६३॥ । वायगाए णं भंते ! जीवे किं जणयह १. वायणाएवं अपरिणामकादीन् आदिशब्दादतिपरिणामिकपरिग्रहः छे. णिजरं जणयह । सुयस्स य प्रणासायणयाए वह, सुयस्स दसूत्राणामभाजनानि विज्ञाय न वाचयति-नोद्दिशती अण्णासायणयाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलम्बइ, तित्थत्यर्थः । यथा पामे-अपके मृत्तिकाघटे, पके वा अम्ले | धम्म अवलम्बमाणे महानिअरे महापअवसाणे भवइ ।। न क्षीरं क्षिप्यते ।
(सू०-१६) जइ छुब्भती विणस्सइ, नस्सइ वा एवमपरिणामादि।।
हे पूज्य ! वाचनया पाचयतीति वाचना-पाठना तया जीवः नोद्दिसे छेयसुत्तं, समुद्दिमे वावि तं चैव ॥ २६४॥
किं जनयति?,गुरुराह-हे शिष्य ! वाचनया-सिद्धान्तवाचनेन यद्यम्ले क्षीरं क्षिप्यते तदा विनश्यति, यदि वा-आम-| निर्जरां कर्मशाटनं जनयति,तथा पुनः श्रुतस्य अनाशातनायां मृतिकाघटे घटस्य भङ्गतो नश्यति । एवमपरिणामा-| प्रवर्तते, तत्र च प्रवर्तमानो जीवस्तीर्थों गणधरस्तस्य धर्मः दौ छेदसूत्रं विनश्यति नश्यति वा-ततो नोहिति, एषा वि. श्राचारः श्रुतप्रदानरूपस्तीर्थधर्मस्तम् अवलम्बते, ततस्तीचिन्त्योद्देशनता , समुद्दिशेदपि तदेव योग्यं नान्यत् एषा | र्थधर्मम् अवलम्बमानस्तीर्थधर्मम् आश्रयन् महानिजरो विचिन्त्य समुद्देशनता।
भवति । महती निर्जरा यस्य स महानिर्जरो-महाकर्मविध्वंपगिनिव्वविया वाए, जत्तियमेत्तं तु तरह ओघेणु । । सको भवति । पुनमहापर्यवसानः महेत्-प्रशस्य मुक्त्यवाप्त्या
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(२०६६) अभिधानराजेन्द्रः ।
बायणा
पर्यवसानम् - अन्तः कर्मको भवस्य वा यस्य स महापर्ववलानश्च भवति, मुक्तिर्भवतीति हार्दम् । उत्त० २६ श्र० । अनुयोगे, पृ० ३ उ० । विनयाय निर्जरा सुत्रादिदाने आय०४ अ० । ध० । शिष्याध्ययने, अनु०। स्था० । दश० । स० । सूस्यार्थस्य वा प्रदाने, नं० । श्रा० म० । स० । ( गृहीतसामाचारकाणां सूत्रार्थवाचना दातव्या इति 'जिसकप' शब्दे चतुर्थभागे १४६६ पृष्ठे क्रम् ।।
वाचनादानग्रहणविधिरेवम्
"उवविसर उपभाओ, सीसा विचरति बंद तर सो तेसि सम्यसमर्थ, वायर सामार अप्पमुहं ॥ १ ॥ सोगाहणाइकुसलो, विश्वरइ वयरु व्व वायणं तेसिं । सीसा वि तह सुगति अजह सीसा सीहरिगुरु तथाऽन्यत्रापि -
॥२॥
" पर्यस्तिकामवष्टम्भं, तथा पादप्रसारणम् । वर्जयेद्विकथां हास्य-मधीयन् गुरुसनिधी ३ ॥ " इति प्रच्छनाविधिस्त्वेवम्
"श्रासणगो न पुच्छिज्जा, सिजागश्रो कयाऽवि गो । श्रागम्मुकुडो संतो, पुच्छिज्जा पंजलीउडो |४| " घ०३ अधि० । तच्च नो कप्पंति बाइनए, तं जहा अविशीए विगइपडिबद्धे अविश्रसवियपाहुडे ॥ ५ ॥ तो कप्पंति वाइत्तए । तं जड़ा - विशीए नो विगइपडिबद्धे विश्वोसविषपाहुडे | ६ |
यो नो कल्पन्ते वाचयितुं सूत्रं पाठयितुमर्थ वा श्रावयितुम्। तद्यथा श्रविनीतः - सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः । विकृतिप्रतिबद्धो -- घृतादिरसविशेषगृद्धोऽनुपधानकारीति भावः । अव्यवशमितम् अनुपशान्तं प्राभूतमय प्रातेरेकपालकोशलकं तीयकोपलक्षणं यस्यासी अव्यवशमितप्राभृतः । एतद्विपरितास्तु त्रयोऽपि कल्पन्ते चाचचितुम्। त द्यथा - विनीतो नाविकृतिप्रतिबद्धो व्यवशमितप्राभृसभेति सूत्रार्थः ।
अथ निर्युक्तिविस्तरः
चिगई अविऍ लडुगा, पाहुडगुरुगा य दोस आखादी | सो य इयरे व चत्ता, वितियं अद्वाणमादीसु ॥ ३१५ ॥ विकृतिप्रतिषद्धमपिनीतं च वाचयतश्चतुर्लघुका आज्ञादयश्च दोषाः । स च इतरे च साधवः परित्यक्ता भवन्ति । तत्र सतावत् विनयमकुर्वन् ज्ञानाचारं विराधयतीति कृत्वा परित्यक्तः । इतरे व तमविनीतं दृष्ट्रा विनयं न कुर्वन्तीति परित्यक्ताः । द्वितीयपदमत्र भवति । अध्यादिषु वर्त्तमानानां योऽविनीतादिभ्युपग्रहं करोति स वाचनीयः । पपा निर्युक्तिगाथा ।
एनामेव भाष्यकृद्विवृणोति - अविनीयमादियाणं, तिएह वि भयणाउ अट्टिया होंति । पदमे भंगे सुतं, पढमं वितियं तु चरिमम्मि ॥ ३१६ ॥ अविनीतादीनां त्रयाणामपि पदानामष्टिका भजना भवतिअमीत्यर्थः । यथा अविनीतो विकृतिवद्धोऽयवशमिसमाभृतः, अविनतोऽपि विकृतिप्रतिव्यमित प्रभृतः इत्यादिपदमोवि
s?
वायणा
व्यचशमितप्राभृतश्येति । अत्र च प्रथमे भने प्रथमसूत्रं निपतति चरमे अहमे द्वितीयं सूत्रमिति ।
"
-
अथ प्रयासामपि वाचने यथाक्रमं दोषानाइइहराऽवि ताव मति, अविशीतो लंभितो किमु सुते । मा गट्ठो रास्सिहिति, खए व खारावसेउत्तं ॥ ३१७ ॥ इतरथाऽपि सुतमदानमन्तरेणापि तावद् अविनीतः सभ्यते स्तब्धो भवति । किं पुनः भुतेन लम्भितः सन् महिमानमिति शेषः । अतः खयं नो ऽसावज्ञातेऽपि मां नाशयिष्यतीति ते वा क्षारावसेको मा भूदिति कृत्वा नासी वाचनीयः । अपि च
गोजूहस्स पढागा, सयं पयातस्स बङ्गयति वेगं । दोसोदयम्पसवणं, ण होइ ग शिदायतुल्लं च ॥ ३१८॥ दह गोपालको गवामग्रतो भूत्वा एव पताकां दर्शयति तदा शीघ्रतरं गच्छन्तीति श्रुतम्, ततो गोवर्गस्य स्वयं प्रयातस्य यथा पताका वेगं वर्द्धर्यात तथा दुर्विनीतस्यापि शुभप्रदानमधिकतरं दुर्विन वर्द्धयति । तथा दोषाणां --रोगाणामुदये शमनमौषधं न दीयते, यतश्च निदानादुत्रितो व्याधिस्तत्तुल्यं -- तत्सदृशमपि वस्तु रोगवृद्धिभयान दीयते, यद्वा- दोषोदये दीयमानं शमनं न निदानतुल्यं भवति किं तु भवत्येव ततो न दातव्यम् । एवमस्थापि दुर्विनयदोषतरे वर्तमानस्य श्रुतौषधमहितमिति कृत्वा न देषम् ।
9
विया पीता विजा, देति फलं इह परे य लोगम्मि । न फलंति विण्यहीणा, सस्माणि व तोयहीणाई ॥ ३१६ ॥ विनयेनाधीता विद्या इह परत्र व लोके फलं ददति । ज[नत्यजननयशःप्रवादलाभादिक मेडिकम् निःश्रेयसादिकं चामुष्मिकं फलं डोकयन्तीति हृदयम् चिनवहीनास्तु ता अधीता न फलन्ति सस्थानीय तोवहीनानि यथा-जलमन्तरेण धान्यानि न फलन्ति ।
अथ विकृतिप्रतिबद्धमाहरसलोलुपता कोई, विगर्ति ण मुयति ददो विदेहेणं । अख व समय चलद कोई दिया तीर ॥ ३२० ॥ रसलोलुपतया कधिदेहेन रदोऽपि विकृति न मुञ्चति, स वाचयितुमयोग्यः । कचित्पुनरभ्यङ्गेन विना यथा शकट न चलति तथा तथा विकृत्या विना निवोढुं न शक्नोति, तस्य गुरुणामनुश्या विधिना गृहतो वाचना दातव्येति । किंच
उस्सगं एगस्स वि, श्रगाहिमगस्स कारणा कुणति । गिएहति व पडिग्गहए, विगत परमे विसर्जता ।। ३२१ ।। योगं वहमानः कचिदेकस्याप्यवगाहिमस्य कारणात्कायोकरोति प्रतिग्रहे वा विकृति गृहाति परमेनाप्यमुनाप्युपायेन मे विकृतिविसर्जयितारः ।
एवं मायां कुर्वतः किं भवतीत्याह-तवे न होति जोगो, ण य फलए इच्छियं फलं विखा ।
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(१०१०) वायदा अभिधानराजेन्द्रः।
वायणा अविफलति विउलमगुणं,साहणहीणा जहा विजा।३२२।
वाचनीया अवाचनीयाःप्रतपाः-स्तपसा विहीनो योगः-श्रुतस्योद्देशनादिव्यापारो | चत्तारि वायणिजा पमत्ता, तं जहा-अविणीए विगइन भवति । न च तपसा विना गृह्यमाणा विद्या-श्रुतशा- पडिबद्ध अविनोसवियपाहडे मायी। चत्तारि वातणिज्जा नरूपा ईप्सितं-मनोऽभिप्रेतं फलं फलति, अपात्यभ्युच्चये, पसत्ता.तं जहा-विणीते अविगतिपडिबद्धे वितोसवितपाप्रत्युत विपुलमगुणमनर्थ फलति । यथा साधनहीना विद्या। यस्याः प्रज्ञप्तिप्रभृतिकाया विचाया उपवासादिको यः हुड अमाती। (सू० ३२६) स्था०४ ठा०३ उ०। साधनोपचारः सा तमन्तरेण गृह्यमाणा भवतीति भावः।
अव्यक्तं वाचयतिप्रथाग्यवशमितप्राभृतं व्याचष्टे
जे भिक्खू अव्बत्तं वाएइ वायंतं वा साइजइ । १६ । अप्पे वि पारमाणिं, अवराधे वयति खामियं तं च । जेभिक्ख अव्वतंण वाएति ण वायंतं वा साइजइ । २०॥ बहुसो उदीरयंतो,अविनोसिय पाहुडो स खलु ॥३२३॥
गाहाअल्पेऽपि परुषभाषणादावपराधे पारमाणिं परमं क्रोधसमुदातं यो ब्रजति तश्च क्षामितमपि यो बहुशः उदीरय
अव्बंजणजातो खलु, अम्बत्तो सोलसह वारेणं । ति, स खल्वव्यवशमितप्राभृत उच्यते।
तविवरीतो बत्तो, वातति परेण प्राणादी॥२०५॥ अस्य वाचनादोषानाह
जाव कक्खादिसु रोमसंभवो ण भवति ताव अब्वत्तो दुविधो उ परिचाओ, इह चोदणकलहदेवबच्छलक्षणा ।
तस्स भवे वत्तो। अहवा जाव सोलसवरिसो ताव अव्वत्तो
परतो बत्तो । जा अव्वतं वाएइ इयरंति अग्नं न पाएति तो परलोगम्मि य अफलं, खेत्तम्मि व ऊसरे बीजं ।३२४।।
प्राणादिया दोसा चउलहुं च ।। दुर्विनीतादेरपात्रस्य वाचनादाने द्विविधः परित्याग इहप
अव्यत्ते इमो अववादो। गाहा-- रलोकमेदागवति । तत्रेहलोकपरित्यागो नाम स यदि सारणादिना प्रेर्यते, तदा कलहं करोति । अपात्रवाचनेन नाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगते कालियाऽणुयोगे य । च प्रमतं प्रान्तदेवता छलयेत् , परलोके तु परित्यागः, श्रुत- सुत्तत्थजाणएणं, दव्वं खेत्तं च कालं च ॥ २०६ ॥ दानम् अफलं-सुगतिबोधिलाभादिकं पारत्रिकफल न प्रा
पूर्ववत् अववादे पत्तो इमेहिं कारणेहिं "वव्व खतं" गाहापयति, ऊपर इव क्षेत्र बीजमुप्तं यथा निष्फलं भवति ।
पूर्ववत्। ‘सा य इयरे य चत्ता' इति पदं व्याख्याति
जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वायंतं वा साइजह ॥२१॥ वाइअंति अपत्ता, हखुदाणुवयं पि परिसहो मो।
जे भिक्खू पचंग वाएइ व वायंतं वा साइजइ ॥२२॥ इय एस परिचाभो,इहपरलोगेऽणवत्था य॥३२५ ॥
इत्यादि अप्राप्त एयरस अत्थो अपात्रसूत्रे गत एव । आदिढे मनोवत् ज्ञानाचारविराधकतया संसारं परिभ्रमतीति
भावेति तहा वि इहं असुएणत्थं भमति अध्वत्तसुत्तस्त परित्यक्ता , इतरेऽपि साधवस्तान् वाच्यमानान् घटा चि
अप्राप्तसूत्रे भारिणयब्वे । म्तयन्ति-अहो अपात्राण्यपि यदि वाच्यन्ते 'हगुदाणि' ति।
गाहा-- ततः सांप्रतं वयमपीडशा भवामः 'इय ति' एवं तेषामपि दुर्विनयादौ प्रवर्तमानानामिहपरलोके परित्यागः परियाएण सुत्तेण, सुत्तेण य वत्तमवने य । कृतो भवति । अनवस्था चैवं भवति-नकोऽपि विनया- सुतं अवत्तं वायंते, वत्तमवाएंति प्राणादी॥ २०७॥ दिकं करोतीत्यर्थः।
परियारो दुविहो-जम्मणो, पब्वज्जाए य । जम्मणअथ द्वितीयपबमध्वादिषु भवतीति यदुक्कं तद् व्याचले- श्रो सोलसराहं वरिसाणं अपत्तो अम्बत्तो, पव्वज्जाए तिअद्धागोमादिउवग्गहम्मि,
बरिसाण अपवजस्स अव्वत्तो । जो वा जस्स सुसस्स वाए प्रपत्तं पि तु वढमाणं ।
काले बुनो तं अपावेतो अव्वत्तो, सुएल-मावस्सगेण
अणधीपदस्स वेयालिए अब्वत्तो दसवेयालिए अणधीते उपुच्छिजमाणम्मि व संथरेवी,
सरस्मयणाण अव्वत्तो । एवं सर्वे वयपरिवायसुले चउअमासतीए वि तु तं पि वाए ॥ ३२६ ॥ भंगो कायव्यो । पढमभंगो दोसु वि वत्सो, वितिनो सुरणं अध्वनि अवमौदर्ये श्रादिशम्दाद्राजशिष्टादिषु भक्तपाना- अब्बतो, ततिओ वएण अश्वत्तो, चरिमो दोहि वि अवतो दिना गच्छस्योपग्रहे वर्तमानमपात्रमपि दुर्विनीतादिकं ल- वाएंतस्स पढमभंगिलं अवाएंतस्स प्राणादिया य दोसा ब्धिसम्पन्नं वाचयेत् । अथवा-किमध्यपूर्व श्रुतं तस्य समस्ति चउलहुंच। यद् पुनश्च शिघ्यो न प्राप्नोति, तच्चान्यत्रासंक्रम्यमाणं व्य- अप्राप्तोऽपि वाएइ इमेहिं कारणेहिं । गाहापच्छिद्यते । ततः संस्तरणेऽपि अपात्रं वाचयेत्। यहा
नाउण य चोच्छेदं, पुबगए कालियाणुयोगे य । नास्ति तस्याम्यः कोऽपि शिव्यस्ततोऽन्यस्याभावे मा सूत्रार्थो विसरतामिति कृत्वा तमप्यपात्रं श्रुतं वाचयेत् ।
एतेहि कारणेहिं, अम्बत्तं चावि वाएजा ।।२०।। १०४३०खा । व्य० ।
पूर्ववत् । प्राप्तं पि न वाएति इमेहिं कारणेहिं ।
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(२०६९) बायपा अभिधानराजेन्द्रः।
बायणा गाहा
सुत्तत्थ तदुभए वा, उक्कममो वा वि वाएजा ॥१५४॥ दव्वं खेतं कालं, भावं पुरिसं तहा समासज्ज ।
पियधम्मदढधम्मस्स निसग्गमतो परिणामगस्स संएएहि कारणेहिं, सविपक्खा वावि वाएजा ॥२०॥ विग्गसमभावस्स षिणीयविण्यस्स परममेहाविणो परिस"श्रामे घडे मिहत्तं जहा जलं तं घडं विणासह" पूर्ववत् ।। | स्स कालियसुत्ते पुव्वंग एवमवोच्छिज्जो ति उक्कमेऽअब्वत्ते अप्राप्ते छेदसुतं वारज्जमाणे इदं दोसदसगं वि देजा। उढाणं 'श्रामे घडे' गाधा णिहितं-पक्खितं सिद्धं-कहियं नव ब्रह्मचर्याण्यवाच्य उपरितनं श्रुतं वाचयतिअप्पा आहारत्ता जत्थ तं अप्पाहार, अप्पधारणसामर्थ्य- जे भिक्ख णव बंभचेराई अवाएत्ता उवरिमं सुयं वाए। मित्यर्थः । नि० चू १६ उ०।
वाएंतं वा साइजइ ॥१८॥ जे भिक्खू हेडिल्लाई समोसरणाई अवाएत्ता उवरिमसु
णववंभचेरग्गहणेण सम्वो आयारो गहितो। अहवायं वाएर वायंतं वा साइजह ॥ १७॥
सव्वो चरणाणुरोगोतं प्रवाएत्सा उत्समसुत्तं वापति तगाहा
स्स प्राणादिया य दोसा तं च लहुं च । किं पुण तं आवासगमादीयं, सुत्ताणं जाव विंदुसाराभो । उत्तमसुत्तं? उक्कममो वादेतो, पावति माणाइणो दोसे ॥ १५१ ॥
उच्यते । गाहाजं जस्स प्रादीप तं तस्स हिडिल्लं, जं जस्स उवरि तं तस्स छेयसुत्तं असुयं, अहवा वि यं दिविवाभो भाइ । उपरिमं जहा दसवेयालियस्संग हेटिलं उत्तरज्झयणाण|
अोवा तं हि य सुत्ते,वणिजइ चउएह अणुअोगो॥१५॥ दसवेयालियं हेट्ठिलं एवं यं जाव बिंदुसारेति ।
गाहापुव्वद्धं कंठं। अहवा-बंभचेरादिप्रायार प्रवाएत्ताधगाहा
म्माणुोग इसिभासीयादि वापति । अहवा-सरप्पमत्तिमा सुत्तत्थ तदुभयाण, ओसरणं अहव भावमादीणं । गणियाणुनोगं बापति एवं उक्कमोच्चारणियाए सम्वो तं पुण नियमा अंग,सुयखंधा अहव अज्झयणं ॥१५२॥ वि भासियध्वो । एवं सुसे अत्थे वि चरणाणुरोगस्स समोसरणं णाम मेलो सो य सुत्तत्थाणं । अहवा-जवादि.
अत्थं अकहेता धम्मादियाणं अत्थं कहेति । प्रादेसमो णवपदभावाणं । अहवा-दम्बस्नेतकालभावाए पत्थ समोसढा
वा चउगुरुं-छेदे सुयं । कम्हा उत्तमसुत्तं भमति ?, जम्दा सम्वे अख्छित्ति वुतं भवति, तं समोसरणं भवति । तं
तत्थ सपायच्छित्तो विधी भएणति, जम्हा य तेण चरपुण किं होज?, उच्यते-अंग सुयसंधो अज्झयणं उद्देस
णविसुद्धी करेति तम्हा तं उत्तमसुतं दिट्ठिवाश्रो । कम्हा गो। अंग जहा-पायारोतं अवागत्ता सूयगडंगं पाएति ।
सुत्ते सुत्ते चउरो अणुओगा दसिज्जति । उक्तं च-"सुयखंधो जहा आवस्मयं तं प्रवाएत्ता दसवेयालिय
बुहत्ते" गाहा कंठ्या , णवरं वोच्छिण्णंति एगसुत्ते चउसुयक्खधं वापति । अज्झयणं जहा सामाइयं प्रवाएत्ता
राहमणुओगाणं जा कहणविधी सा पुहत्तकरणाण योचउवीसत्थयं वाएति । अहवा-सत्थपरिमं प्रवाएत्ता लोग
छिरणाण संपयं पवत्तहणज्जइ वा । अहवा-तेसिं अस्थाविजयं बापति । उद्देसगेसु जहा सत्थपरिक्षए पढमं साम
ण कहणसरूवेण एगसुत्ते व वत्थाणं वोच्छिण्णं पृथकप्रदेसयं प्रवाएता पुढविक्काउद्देसयं बितियं वापति । एवं सु
स्थापितमित्यर्थः । केश पुहत्तीकयं ?, उच्यते-बलबुद्धिमेहातेसु वि दट्टब्वं । अहवा-दोसु सुभक्खंधेसु जहा बंभचेरे -
धारणाहाणीणाप्रोविज्म “दुव्वलियपूसमित्तं च पहुच्च वाएता आयारंगे वाएति । सम्वत्थ कमतो एवं तस्स आ
देविंदे" गाहा कंठया । के पुण ते चउरो अणुप्रोगा?। णादिया दोसा चउलहुगा य । अत्थे बउगुरू भएणति, पं
उच्यन्ते । गाहातदेवया छलेज्ज।
कालियसुयं च इसिभा-सियाई चेव सूरपाती। इमे य दोसा
जुगमासज विभत्तो, अणुभोगो तो कमोचउहा।।१५६॥ उवरि सुयमसदहणं, हेडिवेहि य प्रभावितमतिस्स ।
कंठया । अहवा किं कारणं ण य वज्जितो चरणाणुयोगो पण यणिबहती पुच्छो,गेएहति हाबीय अलेसि।१५३। पढमं दारउवियं । हेडिला-उस्सग्गसुत्ता तेहिं प्रभावियस्स उपरिक्षा-अववा
उच्यते । गाहातसुया ते ण सद्दहति अतिपरिणामगो भवति । पच्छा वा नयवजियो विहु अलं,दुक्खक्खयकारो सुविहियाणं। उस्सग्गंण रोबर अतिक्कमेयं ति काउं तं ण गेण्हति भएणं उरिंगेहति । एवं श्रादिसुत्तस्स हाणी नासमित्यर्थः । श्रा
चरणकरणाणुमोगो, तेण कयमिणं पढमदारं ॥१५७।। विसु य बज्जितो उपरिसु अट्टाणण पयसेण बहुस्सुतो
कण्ठया । शिष्याह-कालियसुयं पायारादि एकारस अंगाभएणति।पुच्छिज्जमाणोय पुच्छण णिव्वहति, जारिसो एस
तत्थ य कप्पं आयारं तग्गता जे पुण अंगबाहिरा व्यसुयप्रयाणगो तारिसा अझ वि एवं भरणेसि पि अधण्णो भवति।
ज्मयणा ते कत्थ अणुनोगे वत्तन्वा ? | जम्हा एवमादी दोसा तम्हा परिवाडीए दायब्वं ।
उच्यते । गाहाइमो अववातो । गाहा
जं च महाकप्पसुयं, जाणिय सेसाणि छेदसुत्ताणि। .. काऊण य वोच्छेदं, पुव्वगतिकालियाजोगे य। चरणकरणायुयोगो,त्ति कालियछेदो उवगयाणि ॥१५॥
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(१०११) वायणा अभिधानराजेन्द्रः।
वायणा प्रावस्सय दसवेयालियं च एत्थ वत्तव्वं चरणधम्मगाणि- अणुप्रोगाणं अपहत्तकाले पुहन्तं विणा कारणेण कायव्वं, म्मगाणि य दवियाण सुत्तत्तणुप्रोगे कम? वि कारण । पुहत्तेण कारणेण उक्कमकरणं ण कायब्वं । अहवा-करेति गाहा
पडिसिद्धंतो इमातो आदिसुत्ते जे बोच्छेदादिया दोसा बुअवुडत्ते विउकरणं, पदमं वमिजते ततो धम्मो । त्ता ते भवंति। गणितदिवियाणि वि ततो,सोचेव गमो प्रहत्ते वा।१५६।।
गाहाकंठ्या । तेसु पुण जुगवं वमिजमाणेसुइमा विही । पायारे अणहीए, चउपह दाराण श्रमतरग वा । गाहा
जे भिक्खू वाएती, सो पावति आणमादीणि ॥१६॥ एकेकम्मि उ सुत्ते, चउएहं दोवाण आसितु विभागा।
सुयकडादिचरणाणुओगे वटुब्यो । संसं कंठं । दारे दारे य नया, गाहगगेएहतरा एया ॥१६॥
गाहासुत्ते सुत्ते चउरोदार त्ति अणुप्रोगा पुणो पक्केको, अणु
णाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगइकालियाणुजोगे य । ओगेण पहिं चिंतिज्जति, तयमयग्गाहगं पडुच्च गिराहतगं या संखेषवित्थरोहिं दट्टब्बा । जति गाहा । गोणं एवं
सुत्तत्थजाणएणं, अविहियविहिए य होयव्वं ॥१६॥ तु समत्थो गेराहतगो वि समत्थो तो सव्वपहिं बित्थरेण वि पूर्ववत्कंठ्या। भासियव्यं । बितियभंगे गेएहतगवसेण णातव्वा बितियभंगे जे भिक्खू अब्बत्तं वाएइ वायंतं वा साइजइ । १६ । जत्तियं बुतुं समत्थो ततिय भासति, चरिमे दोधि विजं सु
जे भिक्खु अव्वत् ण वाएति ण वायंतं वा साइजइ।२०॥ ताणुरुवं अपहत्ते पुहत्ते वा ते चउरो अणुप्रोगा कहं वि भासिज्जंति।
अपात्रमयोग्यमभाजनमित्यर्थः, तप्पडिपक्खो पत्तं । उच्यते । गाहा
जे भिक्खू अप्पत्तं वाएइ वायंतं वा साइबइ । २१॥ समतत्ति होति चरणं, समभावम्मि य ठितस्स धम्मो उ।।
जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वायंत वा साइजइ । २२। काले तिकालविसयं,ठविए वि गुणोऽणुदव्वत्ता ॥१६१।। अप्राप्त क्रमादनधृतश्रुतमित्यर्थः। तप्पडिपक्खो पत्नी प्राणातुलाधरणं च-समभावकरणं चरणसमभावट्टियस्स णि- दी चउलहुं वाएर चउरो वि सुत्ता एगट्ठा वक्खाणिज्जंति । यमा विसुद्धिसरूवो धम्मो भवति, काले णियमा तिकाल- नि०चू०१६ उ०। (तत्र 'अणुप्रोग' शब्ने प्रथमभागे ३४३ विसय चरणं । जम्हा समयखेत्तकालविरहितं ण किंचि प्र- पृष्ठे अनुयोगश्रवणपात्रीभूता बहुश्रुतादयः परिगणिताः थि अहवा-तिकालविसयं ति यं चत्थि कायब्वा, जहा धुवा. स्वस्वस्थाने व्याख्याताः।) अत्र तिम्रो व्याख्यास्तद्यथा णित्तिया सासती तहा चरणं भुवि च भवति भविस्सति या| प्राप्तमिवानुयोग श्रोतुमहति नाप्राप्तमिति प्रथमा, पात्र एदब्बाणुओगे चरणं चिंता किं दव्यो गुणो सि दवट्टिताभि-| वानुयोगश्रवणं कारयितव्यो नापात्र इति द्वितीया, व्यक्त प्पापण चरणं दब्वं पज्जवहिताभिप्पारण चरणं गुणो । एवानुयोग श्रावणीयो नाव्यक्त इति तृतीया, अस्यां च अहवा-पढमतो सामाइयगुणे पडिवत्तितो पुग्वमेव चरण तृतीयव्याख्यायां "वत्तो य" त्ति पाठो द्रष्टव्यः । लम्भति चरणद्वितस्स धम्माणुरोगो लम्भति । चरणधम्म
प्रथाधस्तनमेव व्याचिल्यासुराहट्रियस्स गणियाणुरोगो दिजति, ततोऽतिअणुप्रोगभावित
तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अब्बलचरिते । स्स थिरमतिस्स दव्वाणुरोगो य एहिं विधीहिं दसिज्जति । इदं च वय॑ते । गाहा
आयरियपारिभासी, वामावडे य पीसूणे ॥ ७६६ ॥ एत्थं पुण एकेके, दोयम्मि गुणा य होंत वायाए ।
आदी अदिट्ठभावे, अकडसमायारिए तरुणधम्मे । गुणदोसदिवसारो, णियतति सुहं पवत्ततिया ॥१६२॥
गब्बियपइन्ननिएहइ, छेयसुए वजए अत्थं ॥ ७६७ ॥ एत्थत्ति पतसिं अणुप्रोगाणयऽत्थकहणे 'पुण' विशेषणे, किं | तिन्तिणिकश्चलचित्तो गाणंगणिकश्च दुर्बलचारित्र श्राविशेषेति ?, एकेके अणुमोगे गुणा दरिसिजंति, अवायति चार्यपरिभाषी प्राचार्यपरिभावी वा वामावर्तश्च पिशुनश्च दोसा य । कहं ? उच्यते-पडिसिद्धं श्रायरंतस्स विहियं अ-| 'श्रावी अदिट्ठभावे ति आदी आवश्यकादिशास्त्रेषु वर्तमाना करेंतस्स य इहपरलोड्या दोसा, पडिसिखं वजेतस्स विहि- अदृष्टा भावा येन स आद्यदृष्टभावस्तथा अकृतसामाचायं करेंतस्स इहपरलोइया गुणा चरणाणुवचयभवणं गुण- रीकस्तरुणधर्मा च गर्वितः यः 'पइस 'त्ति प्रकीर्णप्रश्नः प्रसारो चरणविघातो कम्मुवचनो भवणवंदो संसारो । एवं कीर्णविधश्च 'निरहह' त्ति गुरुनिह्नवी एतेषां छेदश्रुतविगुणदोसदिट्ठसारो दोसु ठाणेसु सुहं णिवतति, गुणटाणेसु षयमर्थ वर्जयेत् न दद्यादित्यर्थः । (तितिणिकादयः स्वस्वय सुदं पवत्तते । अहवा-णयवादेसु एगंतग्गहे विट्ठ- स्थाने व्याख्याताः ।) (अत्र च तिन्तिणिकचलचित्तगाणंदोसो सुहं णिवत्तति प्रणेगंतगाहे य दिट्ठगुणो सुहं
गणिकदुर्बलचरित्राचार्यपरिभाषितवामावर्तपिशुनाकृतसा-- पवत्तति अतो भरणह।
माचारीकगर्वितप्रकीर्णनिह्नविन एकादशाऽपात्रभूताःशिष्याः। गाहा
आदिमोऽदृष्टभावः अप्राप्ततरुणधर्मा पुनरव्यक्तः । अपुहत्ते व कहेंते, पुहत्ते व कमेण वायंतम्मि ।
अथैषां सूत्रार्थप्रदाने प्रायश्चित्तमाहपुच्चमाणिना उदोसा, वोच्छेदादी मुणेयच्या ॥१६३॥ अब्बत्ते य अपत्ते, लहगा लहुगा य होति अप्पत्ते ।
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(१०१३) वायणा अभिधानराजेन्द्रः।
बायणा लहुगाय दव्वतितिणि,रसतितिणि होति चउगुरुगा७६३। ध्यायस्य मासलघु अननुज्ञातमनुज्ञात इति तृतीयः । अत्र अव्यक्तस्तरुणधर्मा तस्य तथा 'अपत्ते' ति अपात्राणामे
चाचार्यरुपाध्ययस्तस्य साधोः शृण्वतः सन्दिष्टः , आर्य !
पाठयेरमुं साधुमिति ; न पुनरितरः संदिष्टस्ततः स उपकादशसंख्याकानां सूत्रार्थी यदि ददाति तदा चत्वारो लघु
स्थितः सन्नुपाध्यायेन प्रश्नीयः। सौम्य ! क्षमाश्रमणः सन्दिकाः 'लहुगा य होति अप्पत्ते' ति अप्राप्त आद्यदृष्टभायस्तस्मै ददाति चत्वारो लघुकाः । अत्रैव वि
एस्त्वं न वेति ? ब्रूयात् सः, मया युष्माकमादेशो दीयमानः शेषमाह- लहुगा य दव्व' इत्यादि । द्रव्यतिन्ति
श्रुतो न पुनरहं सन्दिष्ट इत्युक्ते यद्यपाध्यायः पाठयति तदा णिकस्य ददाति चत्वारो लघवः, रसतिन्तिणिकस्य द
द्वयोरप्यध्याप्याऽध्यापकयोर्मासलघु, अथ न पाठयति तत दाति चत्वारो गुरवः , उपधिशय्यातिन्तिणिकयोर्ददानस्य
उपाध्यायः शुद्धः । अननुशातमननुशातो वाचयतीति चतु.
थों भङ्गः । अत्र चोपाध्यायोऽप्यननुज्ञातः, शिष्योऽप्यननुज्ञात चत्वारो लघवः । इत्यनुक्कमन्यत्रावसातव्यं निशीथचूर्णा
इति कृत्वा द्वयोरपि मासलघु।अत एवाह-शेषेषु-प्रथमभङ्गव्य. चुक्लत्वात्
तिरिक्नेषु भनेषु मासलघु,गाथायां प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे षष्ठी। अंतो बहिं च गुरुगा, पायरियगिलाणबालबिइयपयं । अविनयादयश्च दोषा भवन्तिाआदिशब्दावनवस्था अन्येषामश्रावरियपारिभासि-स्स होंति चउरो अणुग्धाया ७६४| पि यदृच्छयाऽध्ययनाध्यापनलक्षणादयो दोषाः परिगृह्यन्ते । आहारोपधिशय्याविषयामन्तर्बहिश्च संयोजनां कुर्वतश्च
गतमनुज्ञातद्वारम् । वृ०१ उ०१ प्रक०। ( परिणामकाति
परिणामकद्वाराणि स्वस्वस्थानयोरुतानि । ) त्वारो गुरवः, आचार्यग्लानयालादीनामर्थाय द्वितीयपदं भवति । एतदर्थ संयोजनामपि कुर्वन् शुद्ध इत्यर्थः । आचा
अव्यक्तवाचने प्रायश्चित्तम्र्यपरिभाषिणः पुनश्चत्वारो गुरवोऽनुदाताः प्रायश्चित्तम् ।
सामन्त्रं पुण सुत्ते, मयमायामं चउत्थमत्थम्मि। अथोपसंहरनाह
अप्पत्ताऽपत्ताऽव-त्तवायणुद्देसणाइसु य ॥ २५ ॥ तम्हा न कहेयव्वं, पायरिएणं तु पवयणरहस्सं ।
अपात्रः अयोग्यस्तिन्तिणिकश्चलचित्तःगाणंगणिकादि, अखत्तं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुत्तं ॥ ७६५ ॥
व्यक्नो-बयसा लघुः,श्रुतेन वाऽत्यल्पश्रुतः। एतेषामप्राप्तापाप्राचार्येण वचनरहस्यमपवादं न कथयितव्यम् , कथं पुनः त्राव्यक्तानां श्रुतं पाठरूपं यो ददाति, तद्देशमुद्देशानुक्षां पा कथयितव्यमित्याह-क्षेत्रमध्वादिकं प्रवेष्टव्यं ज्ञात्वा प्रथ- करोति, तस्यापि चतुर्थम् । चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, तेन मतोऽध्वकल्पादिकं प्रवचमरहस्यभूतमपरिणतानामपि कथ- प्राप्तपात्रव्यक्तानां च यो पाचना न ददाति उद्देशादींश्च यितव्यमन्यथा तेषां मार्गे गच्छतां संयमात्मविराधना न करोति तस्यापि चतुर्थमित्यर्थः । जीत। स्यात् , एवं कालमपि दुर्भिक्षादिकमागमिष्यन्तमागतं वा
पञ्चभिः प्रकारैर्वाचयेत्शात्वा यथायोगमपरिणतानामपि राहसिकश्रुतार्थ प्रकाशयेत्, पुरुष वा परिणामलक्षणमुपलक्षणत्वाद् भावं वा ग्लान
पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएजा, तं जहा-संगहट्टयाए उववृद्धासहिष्णुप्रभृतीनामुपग्रहणकरणादिलक्षणं ज्ञात्वा प्रका- ग्गहणट्ठयाए निज्जरट्टयाए सुत्ते वा मे पज्जवयाए भविशयेत् , गुज़-छेदश्रुतरहस्यमिति व्याख्यातं 'पत्तेय' ति
स्सइ सुत्तस्स वा अव्वोच्छित्तियट्ठयाए ॥ (सू०४६८) द्वारम् ।
'पंचही'त्यादि सुगमम् , नवरं सुतं-श्रुतं सूत्रमात्र वा बातथा अनुसातद्वारमाह
चयेत्-पाठयेत्,तत्र संग्रहः-शिष्याणां श्रुतोपादानं स एवार्थ:चउभंगोऽनुनाए, अणणुमाते य पढमतो सुद्धो। प्रयोजनं तस्मै संग्रहार्थाय, संग्रह एव वाऽर्थो यस्य स संसेसाणं मासलहु, अविणयमाई भवे दोसा ।। ७६६ ॥
प्रहार्थस्तद्भावस्तत्ता तया संग्रहार्थतया श्रुतसंग्रहो भव
त्वेषामिति प्रयोजनेनेति भावः । अथवैत एव मया संअत्रानुशाताननुशातपदाभ्यां चतुर्भङ्गी कार्या। तद्यथा-अनु.
गृहीता भवन्ति शिष्यीकृता भवन्तीति संग्रहार्थतया, तत्मातमनुज्ञातो वाचयतीति प्रथमः। अस्य भावना-कश्चित् प्रा.
संग्रहायेति भावः , एवमुपग्रहार्थायोपग्रहार्थतया वा एवं तीच्छिको गच्छान्तरादागत्य सूत्राध्ययनार्थमुपसंपन्नः, स
घेते भनपानवस्त्राद्युत्पादनसमर्थतयोपष्टम्भिता भवन्त्यिति चाचारनुसातः, आर्य! उपाध्यायस्य सकाशेऽधीष्वेति ।
भावः। निर्जरार्थाय निर्जरणमेवं कर्मणां भवत्थिति, श्रुतं ततः स उपाध्यायस्य समीपे गत्वा ब्रूते-भगवन् ! गुरु
वा अन्थो मे मम वाचयत इति गम्यते, पर्यवजातं जातिभिरहमादिष्टो भवतां पादमूले पठनार्थमिति । तत उपा- विशेष स्फुटतया भविष्यतीति, अव्यवच्छित्त्या नयन-श्रुतध्यायेनागत्य प्राचार्याः पृच्छनीयाः यथा-क्षमाश्रमणाः! पाठ- स्य कालान्तरप्रापणम् अव्यवच्छित्तिनयः, स एवार्थयाम्यहममुकं साधुमिति ? । ततो गुरुभिर्वामित्युक्त स उ-1 स्तस्मै इति । स्था० ५ ठा० ३ उ० । (अस्वाध्याये न पाध्यायेन पाठनीयः । एवं कुर्वन्ननुज्ञातो बाचयतेत्यभि- वाचयितव्यमिति ' असज्झाइय 'शब्दे प्रथमभागे ८३३ धीयते, एष प्रथमो भनः शुद्धः । अनुज्ञातमननुज्ञात इति पृष्ठे गतम् ।) (वाचनायां विनयादिप्रकाराः 'आयारद्वितीयः । तद्भावना-स साधुराचार्यैर्भणितः, पठोपाध्या- पकप्प ' शब्दे द्वितीयभागे ३५५ पृष्ठे गताः।) ( गृहयान्तिके । स तथैवमादिष्टः पठितुमुपस्थित उपाध्यायसन्नि- स्थेभ्योऽम्ययूथिकेभ्यो न वाचना देयेति 'अमाउत्थिय' शब्द धौ, स उपाध्यायो यद्याचार्यानपूष्ठा तं पाठयति तत उपा- | प्रथमभागे ४७२ पृष्ठे उक्तम् ।)
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वायणा अमिधानराजेन्द्रः।
वायणा प्रवर्तिन्यां मृतायां संयतीनां वाचना
संयतीरधिकृत्य तीर्थस्याचारित्रतया संयती निर्वाणं काsकप्पति निग्गंथीणं वितिगिढे काले सज्झायं करेत्तए नि
पिन गच्छति, निर्वाणस्य चाभावे दीक्षा निरर्थिका । ग्गंथनिस्साए ॥११॥
तम्हा इच्छावेती, एतासिं नाणदंसणचरित्तं । कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थनिश्रया व्यतिकृष्टेऽपि काले खा.
णाणेणं चरणेणं, काहिति अंतं भवसयाणं ॥ २१६ ।।
यतो निर्वाणाभावे दीक्षा निरर्थिका, अथवा तासां निध्यायं कर्तुमिति सूत्रार्थः ।
र्वाणाय भगवता दीक्षाऽनुज्ञाता , तस्मादेतासां दीक्षाबअधुना भाष्यप्रपञ्चः, तत्र प्रथमतः पूर्व
लादपि शानदर्शनचारित्रं समाहारत्वादेकवचनमिच्छापपक्षस्यावकाशं दर्शयति
यति, यतो 'अन्तं'-विनाशं भवशतानां करिष्यन्त्यार्यिकाः, कप्पइ जइ निस्साए, वितिगिढे संयतीण सज्झाओ।। यतो निवीणं लभ्यते झानचरणेन नान्यथा । इति सुत्तेणुद्धारे, कयम्मि उ कमागतं भणइ ॥२१२॥ नाणस्स दंसणस्स य, चारित्तस्स य महाणुभावस्स। कल्पते यतिनिश्रया व्यतिकृष्टे काले संयतीनां स्वाध्याय | तिएहं पि रदुखणऽट्ठा, दोसविमुक्को पवाएज्जा ।। २२०॥ इति सूत्रेणोद्धारे कृते परः क्रमागतं परिपाट्यागतमिदं भणति । शानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च कथंभूतस्यैकैकस्येकिं तदित्याह
त्यत पाह-महान् अनुभावः प्रभावो यस्य तत्तथा तस्य, पुव्वं वनेऊणं, संजोगविसं च जायरूवं च ।
एतेषां त्रयाणां रक्षणाय दोषविमुक्नो-वक्ष्यमाणदोष
विप्रमुक्तः प्रवाचयेत्। आरोवणं च गुरुई, न हु लब्भा वायणं दाउं ॥२१३॥
अप्पसत्येण भावेण, वाएंतो दोसवं भवे । पूर्व संयोगविषजातरूपं च विषं; सहजविषं चेत्यर्थः, श्रारो
केरिसो अप्पसत्थो उ, इमो सो इ पवुच्चती ॥ २२१ ॥ पणा च-प्रायश्चित्तं चतुर्थी वीयित्वा यत्संप्रति वाचनां ददत अन्तभूतण्यर्थत्वात् दापयतां दापयितुं (न हु) नैव लभ्यम्।
अप्रशस्तेन भावेन वाचयन् दोषवान् भवति, न प्रशस्ते
न । अथ कीदृशः सोऽप्रशस्तो भावः?, सूरिराह-सोऽप्रशएवं परेण पूर्वपक्षे कृते सूरिराह
स्तो भावोऽयं प्रोच्यते । कारणियं खलु सुत्तं, असति पवाएंतियाए वाएजा ।
तमेवाहपाढेण विणा तासिं, हाणी चरणस्स होजाहि ॥२१४॥
परिवारहेउमल-ट्टयाए वभियारक जहेउं वा। इदं खलु सूत्रं कारणिकं कारणेन निवृत्तम् , तदेव कारणमा
अगारा य बहुविहा, असंदुरादी उ दोसा य ।। २२२ ॥ ह-असत्यभावे प्रवाचयन्त्याः -प्रवर्तिन्या वाचयेत् संयतीः, परिवारो मे भूयादिति हेतोरनाऽर्थतया वा; अन्नं पानं वा अन्यथा पाठेन विना तासां चरणस्य हानिर्मवेत् ।
ममाऽऽनीय दास्यतीत्येतदर्थ वा इत्यर्थः, व्यभिचारार्थ वा यदि भवति ततः को दोष इत्यत आह
अन्येषां वा-एतदतिरिकानां कार्याणां हेतोः, अथ अगारा
णि-गृहाणि बहुविधानि असंवृतादीनि मे संपादयिष्यजातो पवइयातो, सग्गं मुक्खं च मन्त्रमाणीतो।
तीत्येतदर्थ यदि वाचयति तदा सः अप्रशस्तो भाव इति जइनऽत्थि नाणचरणं,दिक्खा हु निरस्थिया तासिं२१।। तस्य दोषाः । याः स्वर्ग मोक्षं च मृगयमाणाः प्रवाजितास्तासां यदि गणिणी कालगयाए,बहिया य ण विजए जया अम्मा । शानं चरणं च नास्ति ततो (हु)निश्चितं दीक्षा निरर्थिका । संता वि मंदधम्मा, मजायाए पवाएज्जा ॥ २२३ ।। कथं निरर्थिकत्यत आह
गणिन्या-प्रवर्तिन्यां कालगतायां तथान्यत्र वा बहिर्यदा
अन्या प्रब्राजिका न विद्यते, अथास्ति परं सत्यपि सा सव्वजगुजोयकर, नाणं नाणेण नजए चरणं ।
मन्दधर्मा ततः साधुर्मर्यादया प्रवाचयति । नाणम्मि असंतम्मी,अजा.किह नाहिति विसोहिं ।२१६।
तामेव मर्यादामाहसर्वस्वापि जगतः उद्योतकरं शानम् ,शानेन च जायते चर
आगाढजोगवाहिणी, पकप्पो वा वि होज असमत्तो। सन् , सतोपाने असत्यार्यिका विशोधिकार्य किशास्यति? नैवशास्पतीति भावः। .
सुत्ततो अत्थो यावि, कालगया य पवत्तिणी।२२४॥ ततो विशुज्यभावात् चरणाभावस्तथा चाह
श्रागाढयोगवाहिनी काऽपि संयती , यदि वा-कस्या
श्चित्संयत्याः प्रकल्पो-निशीथाध्ययनं सूत्रतोऽर्थतश्वासमानाणम्मि असंतम्मि, चरित्तं पि न विज्जए ।
तो भवेत्--वर्तते, अत्रान्तरे च प्रवर्तिनी कालगता। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया ॥२१७॥
अस्मा य सगच्छम्मी, जइ नऽत्थि पवाइया। झाने असति प्रागुनयुक्तश्चारित्रमपि न विद्यते, असति चा
अलगच्छा मणुमंतु, प्राणयंति ततो तहिं ।। २२५ ॥ रित्रे सकले तीथै नायिकाणां सचारित्रता।
अन्या स्वगच्छे यदि प्रवाचिका न विद्यते, ततोऽन्यअचरित्याए तित्थस्स, निवाणं नाभिगच्छद्र ।
गच्छात् मनोज्ञा--सांभोगिकीं तत्रार्यिकां वसतावानयन्ति । असती निचाणस्स य,दिक्खा होति निरत्थगा ॥२१॥ सा तत्थ निम्मवे एकं, तारिसीए असंभवे ।
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(१०६५) अभिधानराजेन्द्रः।
वायणा उग्गहधारणॉकुसलं, ताहे य नयति अनत्थ ।। २२६॥
था कल्पस्थानि-डिम्भरूपाणि रमयन्ति, मण्डयन्ति । ममीसा-मनोसा समानीता सती तत्र एकामार्यिकां निर्मापय
कुर्वन्ति वा । तथा स्थाल्यो-देवद्रोण्यस्तासु भिक्षार्थे -
जन्ति । तत्र घोटा-डङ्गरास्ते निरुद्धा बलादपि गृह्णन्ति । ति । अथ तादृशी-मनोशा न विद्यते तत आह तादृश्यभावे
स्थल्यां वा समवसृतः प्रत्यासन्ने य उपाश्रयस्तत्र वन्ति , ततोऽवग्रहधारणाकुशलामन्यत्रासांभोगिके गच्छान्तरे न.
वेश्यागृहाणि वा हिण्डन्ते, तत्पाटके वा वसतौ तियन्ति । तत्र संयतानां संयतीनां च परीक्षा कर्तव्या।
टन्ति, शाला-अश्वशाला वा तासु हिण्डन्ते, तासां वा सतथा चाऽऽह
मीपे उपाश्रये तिष्ठन्ति, यन्त्राणि-इक्षुयन्त्रतैलयन्त्रादिगृहासंविग्गमसंविग्गा, परिच्छियवा य दो वि वग्गाओ। णि तानि हिण्डन्ते, तन्मध्ये वा उपाश्रये वसन्ति । तथा अपरिच्छणम्मि गुरुगा,परिच्छ इमेहि ठाणेहिं ॥२२७।। बजे गोकुले वा वजन्ति, काथिकादिकत्वं बा कुर्वन्ति, गृहद्वावपि संयतसंयतीरूपी वगा संविनावसंविनाविति वा
निषद्यां बाधन्ते । एष द्वारगाथाद्वयसमासार्थः । परीक्षितव्यो, यदि न परीक्षन्ते ततो द्वयोर्वर्गयोरपरीक्षण साम्प्रतमेतदेव विवरीषुः प्रथमत आलोचनद्वारं स्वच्छन्द प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । सा च परीक्षा एभिर्वक्ष्यमाणैः द्वारश्चाह-- स्थानः कर्तव्या।
जा जत्त गया सा उ, नालोए दिवसपक्खियं वाऽवि । तान्येवाह
सच्छन्दा ता वयणे, महतरियाए न ठायंति ।। २३२ ।। वचंति ताव एंती, भत्तं गेएहति ताव जं देति ।
या यत्र गता सा ततः प्रत्यागता नाउलोचयति, नाकंदप्पतरुणवाउस, अकालऽभीया य सच्छंदा ॥२२८।।
पि काचन दैवसिकं पाक्षिकमपिशब्दात्-रात्रिकं वाs
तीचारमालोचयति । तथा स्वच्छन्दाः सर्या अपि संयताः संयतीनामुपाश्रये निष्कारणं व्रजन्ति ता अ
वर्तन्ते न महत्तरिकाया उपलक्षणमेतत्तत्रान्याचार्यो-- पि वा संयत्यः संयतानामुपाश्रयं निष्कारणमागच्छन्ति ,
पाध्याययोर्वचने न तिष्ठन्ति। तथा भक्तं पानं वा संयतानां पार्श्व संयत्यो यथा कथं चन गृहन्ति, ता वा संयत्यः संयतानां प्रयच्छन्ति, तथा प
अधुना वेण्टलादिद्वारचतुष्टयमाहरस्परं तरुणास्तरुण्यश्च कन्दर्पकथां कथयन्ति, तथा सं- वेंटलगाणि पउंज-ति गिलाणा याविण पडितप्पेंति । यताः संयत्यश्च वाकुशं भावं विभ्रति, तथा द्वापि व.
आगादेऽणागाढं , करेंतिऽणागा आगाढं ॥२३३।। वकाले चरतः, तथा संयता प्राचार्यान् न विभ्यति,
अजयणाए व कुब्बंति, पाहुणगादि अवच्छला । आर्थिकाः प्रवर्तिन्याः, तथा संयताः संयत्यश्च स्वच्छन्दा:मात्मन इच्छया; यान्ति आयान्ति वा इत्यर्थः ।
चित्तलाणि नियंसंति, चित्ता रयहरणा तहा ॥२३४॥ अट्ठमी पक्खिए मोत्तुं, वायणाकालमेव य ।
वेण्टलानि-खिटिकाचप्पुटिकादीनि प्रयुञ्जत, नापि ग्लापुव्वुत्ते कारणे वावि, गमणं होइ अकारणे ॥ २२६॥
लान् प्रतितर्पयन्ति-प्रतिचरन्ति । यदि वा-आगादे अना
गादं कुर्वन्ति, अनागाढे वा श्रागाढमयतनया कुर्वन्ति। तथा अष्टमी पाक्षिकं तथा वाचनाकालं तथा पूर्वोक्ता निग्ग
प्रार्मिकायामवत्सलास्तथा चित्रलानि-विचित्ररेखोपेताम्मति कारणजाए' इत्यादिना प्रन्थेन यानि कल्पेऽभिहितानि तानि मुक्त्वा शेषकालं यद्भवति गमनं तदकारण; निष्का
नि वस्त्राणि निवसते-परिदधति, चित्राणि वा नानाप्रकारणमित्यर्थः, एतेन ता वा संयत्यो निष्कारणमायान्तीति
राणि रजोहरणानि धारयन्ति । व्याख्यातम् ।
संप्रति सविकारद्वारमाहथेरा सामायारिं, अजा पुच्छंति ता परिकहेंति ।
गइविम्भमादिएहिं, पागारविगार तह पदंसेंति । । आलोयणसच्छंदं वेंटलगेलनपाहुणिया ।। २३०॥
जह किडगाण वि मोहो,समुदीरति किंतु तरुणाण।२३५॥ स्थविरा-प्राचार्या प्रारमीया आर्यिका वास्तव्यानामार्यि
गतिविभ्रमादिभिः श्राकारविकारांस्तथा प्रदर्शयन्ति यथा काणां समाचारी पृच्छन्ति, तथा कीरशी वास्तव्यानामा
किटकानामपि-वृद्धानामपि मोहः समुदीर्यते किं पुनस्तरर्यिकाणां सामाचारीति एवं पृष्टाः सत्यस्ताः परिकथय
पानामतिबहुशः। न्ति, या यत्र गतास्तास्ततः प्रत्यागता नालोचयन्ति, नापि
उच्छोलद्वारं कल्पस्थद्वारं चाहदेवसिकं रात्रिकं पाक्षिकं वाऽतीचारमालोचयन्ति । यथा
बहुसो उच्छोलंती, मुहनयणे हत्थपायकक्खादी । स्वच्छन्द वर्तते, नाचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीनां वश्यायत्ता। गेएहण मंडण रामण, भोयंति-वा ता कप्पटे ॥२३६ ॥ तथा वेण्टलानि प्रयुञ्जन्ति, न च ग्लानायाः प्रतितप्पेयन्ति, मुखनयनानि हस्तपादकक्षादिक च बहुशो-ऽनेकवारनापि प्राघूसकानां वात्सल्यं विदधति ।।
मुच्छोलयन्ति-प्रक्षालयन्ति, तथा गृहस्थबालकानां ग्रहणं कुचित्तलए सविकारा, बहुसो उच्छोलणं च कप्पट्टी। । वन्ति,मण्डनं वा रामणं वा क्रीडन, यदि वा ताः कल्पस्थान्थलिघोडवेससाला,जंत-वए-काहिय-निसेजा।।२३१।।
गृहस्थदारकान् भोजयन्ति । तथा चित्रलानि वस्त्राणि परिवधति, तथा सविकारा
__ स्थलीघोटद्वार, वेश्याद्वारं चाहगती उल्लापे च विकारसहिताः, तथा बहुशोऽनेकप्रकारं मु-|
थलिघोडादिहाणे, वयंति ते वाऽवि तत्थ समुति । खनयनकक्षाहस्तपादादीनामुच्छोलन-प्रक्षालन-कुर्वन्ति, त- वेसित्थीसंसग्गी, उवसंतो वा समीवम्मि ।। २३७ ।।
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वायणा अभिधानराजेन्द्रः।
वायणा स्थलीघोटादिस्थान; अत्रादिशब्दस्तेषामेव देवडङ्गराणामने- निक्खेवणे होंति गुरुगा,अह पुण सुद्धे वि मे दोसा।२४२ कभेदण्यापनार्थः, तावजन्ति, ते वा स्थलीघोटा देवडारा- | संयतवर्गे संयर्तावर्ग वा एकैकस्मिन्त्रसविने पतेन द्वितीयपरपर्यायास्तत्रार्यिकोपाश्रये स्थलीसमीपे समुपयन्ति-गच्छ तृतीयभक्ती गृहीतव्यो, अथवा-द्वयोरपि संयतसंयतीवर्गयोर. न्ति, तथा वेश्यास्त्रीसंसर्गः सदैव तासाम् , यदि वा-वेश्या- संविनयोरनेन प्रथमो भको गृहीतः, निक्षेपणे प्रायश्चित्तं च-- गृहसमीपे तासामुपाश्रयः।
त्वारो गुरुका भवन्ति, नवरं तपःकालविशेषिताः, प्रथमभक्के संप्रति शालायन्प्रकाथिकत्वद्वाराण्याह
द्वाभ्यामपि विशेषिताः। अथ पुनः शुद्धेऽपि चतुर्थे भने इमे तह चेव हत्थिसाला, घोडगसालाण चेव आसन्ने ।
वक्ष्यमाणा दोषास्तर्हि तत्रापि क्षेपणे चत्वारो गुरुकाः। जंति तह जंतसाला, काहीयत्तं व कुव्वंति ॥२३८॥
__सम्पति तानेव दोषानाह
तरुणा सिद्धपुत्तादी, पविसंति नियनगाण निस्साए । तथा चैव हस्तिशालानां घोटकशालानां चासन्न प्रदेश हिण्डन्ते, यदि वा-तासां प्रत्यासन्ने उपाश्रये वसन्ति, तथा
महतरियॉन निवारेंति,जदि विय पडिसेविते किंचि२४३ इक्ष्वादियन्त्रशालां गच्छन्ति , तत्समीपे वा वसन्ति । बज
तरुणाः सिद्धपुत्रादयो निजकानामात्मीयानामाथिकाणां द्वारं सुगमत्वान विवृतम् । काथिकत्वं वा कुर्वन्ति ।
निश्रया-वन्दनव्याजेन प्रविशन्ति, प्रवेशे च तत्रैव चिरकाल
मवतिष्ठन्ते तान् महत्तरिका यदि न निवारयन्ति,येऽपि च तत्र संप्रति स्थलीघोटद्वारे दोषमाह
वसती कांचिदार्यिकामात्मीयां प्रतिसेवन्ते-पर्युपासन्ते पर्युथलिघोडादिनिरुद्धा, पसज्ज गहणं करेज तरुणीणं । । पासीनाश्च चिरकालं तिष्ठन्ति तानपि न निवारयन्ति । यदि संका य होइ तहवि य, गोयरें किमु पाडिवेसेहि।२३।। निक्खेवणे तत्थ गुरुगा,अह पुण होजा हु सा समुज्जुत्ता। स्थलीघोटादयोऽनेकप्रकारा देवडारा निरुद्धाः कृताः सन्त- चरणगुणेसुं निययं, वियक्खणा सीलसंपन्ना ॥ २४४ ॥ स्तरुणीनां प्रसह्य-बलात्कारेण ग्रहणं कुर्युस्ततो गोचरेऽपि तत्रापि निक्षेपणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । अथ पुनः तत्र गतानां शङ्का भवति, किं पुनस्तैः प्रातिवेशिकस्तेषु प्रा- सा महत्तरिका चरणगुणेषु नियतं विचक्षणा शीलसंपन्ना तिथेश्मिकेषु सुतरां शङ्का । एवं हस्तिशालादिष्वपि दोषवि- सती समुधुक्का अयुक्तं समस्तमपि वारयति । भाषा यथायोगं कर्तव्या।
तथाकाधिकद्वारमेव सविस्तरं गृहनिषद्या
समा सीसपडिच्छीणं, चोयणासु प्रणालसा। बाधनाद्वारं चाह
गणिणी गुणसंपना, ऽपसज्झपुरिसाणुगा ।। २४५ ॥ सज्झायहुकजोगा, धम्मकहा विकहपेसणगिहीणं । शिष्याणां प्रातीच्छिकानां च समा , तथा चोदनासुगिहिनिसिजं च बाहं-ति संथवं वा करेंती उ॥२४॥
शिक्षणासु अनलसा-कृतोद्यमा 'गणिणी'-महत्तरिका गुणसं
पन्ना तथा अप्रसह्यः-अप्रधृष्यो यः पुरुषस्तदनुगता-तदस्वाध्यायेन मुक्तो योगो-व्यापारो यास ताः स्वाध्यायमु
नुसारिणी। योगास्तथाभूताः सत्यो गृहिणां धर्मफथानामाख्याने वि
संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे । कथानां च-स्त्रीकथादीनां करणे प्रेरणे च नानारूपे गृहिणामुधुक्ताः । तथा गृहनिषद्यां बाधन्ते; गृहनिषद्यामुपविशन्ती
सज्झायज्झाणजुत्ता य, संगहे य विसारया ॥२४६ ॥ त्यर्थः । संस्तवं वा-परिचयं वा गृहस्थैः सह कुर्वन्ति, उप
संविग्ना-सामाचार्या सम्यगुक्ता, तथा भीता पर्षद् यस्याः लक्षणमेतत् , वस्त्राण्यन्नपानं वा गृहस्थानां ताः संयत्यो द-1
सा भीतपर्पत् , यतः कारणे उपदण्डा, तथा स्वाध्यायध्याने दति, अविरताच मण्डयन्ति, मण्डनोपदेशं वा तासां प्रय
युक्ता संग्रहे च विशारदा।। छन्ति । मण्डनकानि वा ददतीति ।
विकथाविसोत्तियादीहि, वजिया जा य निश्चसो। एवं तु ताहि सिढे, निक्खिवियन्बाउ ताउ कहियंति ।
एयग्गुणोववेयाए, तीए पासम्मि निक्खिवे ॥ २४७ ॥ दोसु वि संविग्गेसुं, निक्खिवियध्वा भवे ताउ ॥२४१॥
या च नित्यशः-सर्वकालं विकथाविश्रोतसिकादिभिःप्रादि.
शब्दात्-ऋद्धिगौरवादिपरिग्रहः वर्जिता, पतद्गुणोपपेतायाएवमुक्तेन प्रकारेण ताभिः-संयतीभिः शिष्टे-कथिते ताक
स्तस्याः पार्श्वे निक्षिपेत् । निक्षिप्तव्याः ?, सूरिराह-द्वयोरपि संयतसंयतीवर्गयोः स
एयारिसाए असती, वाएजाहि ततो सयं । विनयोस्ता भवन्ति निक्षेप्तव्याः। अत्र संयतसंयतीवर्गयोःसविनासंविघ्नभेदाचत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-संयताः सीदन्ति सं.
वायएते इमा तत्थ, विही उ परिकित्तिया ॥ २४८॥ यत्योऽपि सीदन्तीति प्रथमो भगः,संयताः सीदन्ति न संयत्य एतादृश्या गणिन्या प्रभावे स्वयं वाचयेत् । तस्मिश्च वाइति द्वितीया, संयता न सीदन्ति किन्तु संयत्यः सीदन्तीति चयत्ययं वक्ष्यमाणो विधिः परिकीर्तितः। स्त्रीत्वं गाथायां तृतीयः, न संयताः सीदन्ति नापि संयत्य इति चतुर्थः । तत्र प्राकृतत्वात्। 'दोसु वि संविग्गेसुं' इति चतुर्थो भको गृहीतः, शेषेषु भङ्गेषु माया भगिणी धूया, मेहावी उज्जुया य आणत्ती । निक्षेपणं प्रतिषिद्धम्।
एयासिं असईए, सेसा वाएजिमा मोत्तुं ॥ २४६ ।। तथा च तत्र प्रायश्चित्तमाह
मातरं भगिनीं दुहितरं वा, कथंभूतामित्याह-मेधाविनीसंजतसंजतिवग्गे, संविग्गकेक अहव दोसुं तु । | मझायतीम् ऋजुकामकुटिलाम् प्राज्ञप्ताम्-यदुपदिश्यते त
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(२०१७) बायणा
अभिधानराजेन्द्रः। स्वै तथैव कारिकां वाचयेदिति योगः । एतासामसत्यभावे | तीयसति संयतवसतिं च मुक्त्वा शेषेष्वशङ्कनीयेषु शेषा भपि अस्वजना वाचयेत् , इमा वक्ष्यमाणा मुक्त्वा । स्थानेषु वाचयेत् । ता एवाह
उभयनिजे वयणीए, सपि यहाभद्द तह य धुवकम्मी। तरुणी-पुराण-भोइय, मेहुणियं पुबहसियवभिचारिं ।
मासमे सति मजा-णुवस्सए अप्पणो वावि ।।२५७॥ एतासु होंति दोसा, तम्हायनवायए ताभो ।। २५०।। उभयस्य-संयत्याः संयतस्य च निजे-स्वजने आसमे सति, तरुणी पुराणां-पश्चात्कृतवतां पुनरभ्युपगतदीक्षा भोग्यां- यदि वा-वृतिन्या निजे, अथवा-समिनि-श्रावके, यदि वाश्यां मैथुनिकी-भार्या यया सह पूर्व हसितमासीत् व्य- यथाभद्रके,अथवा-ध्रुवकर्मणि-लोहकारादी प्रत्यासने सति मिचारिणी-पूर्वावस्थायां स्वैरिणीम् एतासु यस्माद्वाच्यमा- वाचयेत् । अथान्यदर्शनीय स्थानं न विद्यते , ततः अन्यस्य मासु पूर्वाभ्यासेनात्मपरसमुत्था दोषा भवन्ति तस्मात्ता न स्थानस्य असति आर्याणामुपाश्रये, अथवा-यात्मम उपाचाचयेत्।
ये, यत्र शय्यातरस्य संलोको भवति तत्र स्थितोवाचयति। अत्रैव विशेषमाह
गतं क्षेत्रद्वारम्। बजकुहसमं चित्तं , जइ होज्जा विदोएह वि।
अधुना कालयतनाद्वारमाहतहाऽवि संकितो होइ, एयातो वाययंतए ।। २५१॥ | जइ अस्थि वावणं दितो, अदाउं ताहे गच्छद। यद्यपि द्वयोरपि वाच्यवाचकयोश्चितं बजकुड्यसमं त- अह तस्थि ताहे दाऊण, सुत्तइत्ताण पोरिसिं ॥२५॥ थाऽप्येता पाचयन् शक्तिः -शङ्कागोचरो भवति । तत ए- यदि साधूनां सूत्रस्यार्थस्य च वाचनादाता समस्तितासां वर्जनम् ।
ततः प्राचार्यों वाचनां साधूनामदत्त्वा गच्छति । प्रातरेपुत्रं तु किटिं असती-एमज्झिमैं दोसरहिय वाएति । व साध्वीनामशङ्कनीये स्थाने वाचनां दातुं गच्छतीति
भावः । अथार्थपौरुषीदाता समस्ति न सूत्रपौरुषीदाता तदा गणहरो प्रमयरोवा, विपरिणतो तस्स असतीए ।२५२।
सूत्रयतां संयतानां सूत्रपौरुषीं दत्वा गच्छति । पूर्व तावत् किरी-वृद्धां वाचयेत् , तस्यामसस्यां दोषरहितो गणधरो मध्यमां वाचयेत् । अथ गणधरः प्रयोजनान्तरेण
अह विजइ ताहे जाहि, तो जाइ पढमाएँ उ । व्याकुलस्ततस्तस्य गणधरस्यासत्यभावे परिणतोऽन्यतरो असतीए दोण्ह वी दाणे,इमा उ जयणा तहिं ।।२५६।। वाऽपि वाचयेत्।
अथ सूत्रस्य दाता विद्यते नार्थस्य, साधवश्वार्थवन्तो हितरुणेसु सयं वाए, दोसऽनयरेण वावि जुत्तेसु ।
अार्थिनोऽपि सन्ति ततःप्रथमपौरुष्यां संयतीनां वाचनाविहिणा उइमेणं तु, दवादीएण उ जतंतो ॥ २५३ ।।
प्रदानाय गच्छति । द्वितीयस्यां तु पौरुष्यामागत्य संय
तानामर्थ ददाति । अथ संयतानां सूत्रस्य अर्थस्य था अथान्यतरः परिणतो न विद्यते, किंतु-सर्वेऽपि तरुणा वृ
प्रदाता अन्यो न विद्यते, तदाऽन्यस्यासत्यभावे यानामया अन्यतरेण दोषण सविकारत्वादिना युक्तास्ततस्तरुणेषु
पि संयतानां संयतीनां चात्मन उपाश्रये एकस्मिन् तेन शेषेषु वृद्धेषु चान्यतरेण दोषेण युक्नेषु सत्स्वनेन-वक्ष्य
वाचना देया, तत्र द्वयानां वाचनादाने इयं वक्ष्यमाणा यतना। माणेन विधिना गणधरः स्वयं वाचयेत् । किं विशिष्ट
अत्र मण्डलीयतनाद्वारमापतितं तदेवाऽऽहइत्याह-द्रव्यादिना यतमानः । तामेव द्रव्यादियतनामभिधित्सुराह
कडिऽणंतरितो वाए, दीसति जणेण दोवि जह वग्गा। दब्बे खत्ते काले, मंडलिदिट्ठी तहा पसंगो य।।
बंधंति मंडलिं ते, उ एक्कतो वाऽवि एकत्तो ॥२६॥ एएमु जयणं बुच्छं, प्राणुपुब्धि समासतो ॥ २५४ ॥
ते संयताः संयत्यश्च मण्डली बध्नन्ति । तद्यथा-एकतः संद्रव्ये क्षेत्रे काले मण्डल्यां तथा रधिप्रसङ्गे एवमेतेषु स्था
यतमण्डली, एकतः संयतीमण्डली,अपान्तराले च संयतीनां नेषु यतनामानुपूर्त्या समासतो वक्ष्ये ।
व्यवधानाय कटो दीयते । तत्रापि प्रच्छन्ने प्रदेश स्थिताः तत्र प्रथमतो द्रव्ययतनामाह
शङ्कादयो दोषा उक्नास्ते अत्रापि स्युस्तत पाह-पत्र द्वा
बपि वर्गी संयतसंयतीसमुदायरूपावुपविष्टौ जनेन दृश्येते जं खलु पुलागदव्वं, तबिवरीयं दुवे वि मुंजंति।
तत्र स्थितः कटेनान्तरितो वाचयति । पुवुत्ता खलु दोसा, तत्थ निरोधे निसग्गे य॥ २५५॥
एवं सति यो गुणस्तमाहयत् खलु पुलाकम्-असारं द्रव्यं तद्विपरीतं द्वावपि वाच्यो, लोगे वि पञ्चतो खलु, बंदणमादीसु होति वीसत्था । वाचयिता चेत्यर्थः भुजाते, अन्यथा-तत्र व्याख्यानमण्डल्या दुग्गूढादी दोसा, विगारदोसा य नो एवं ॥ २६१ ॥ मूत्रादिनिरोधे निसर्गे वा पूर्वोक्ताः खलु दोषाः,उक्ला द्रव्ययतना। एवं क्रियमाणे सति लोकेऽपि शुद्धशीलसमाचारविषयः क्षेत्रयतनामाह
प्रत्यय उपजायते । येऽपि च वन्दनादिषु कार्येषु समागच्छसुभघरे पच्छने, उजाणे देउले सभाऽऽरामे।
न्ति तेऽपि द्वावपि वर्गी तथोपविष्टौ दृष्टा विश्वस्ता भवन्ति । उभयवसहिं च मोत्तुं, बाएज असंकणि असु ॥ २५६ ।। एवं च सति ये दुर्गुढादयः प्रच्छन्नप्रदेशादिभाविनो दोषाः, शून्यगृहाणि प्रच्छन्नान-विविक्लान् प्रदेशान् , तथा उद्या- ये च परस्परं संयतसंयतीनां विकारदोषास्ते न भवन्ति । मानि देवकुलानि सभा मारामाश्च, तथा उभयवसति-संय- | अथ कटो न विद्यते तदा बनेण चिलिमिली क्रियते ।
२७५
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बायणा
तथा चाह-
चिलिमिलिछेदे ठायइ, जह पासइ दोएह वी य वायंतो । दिट्ठीसंबंधादी, इमे य तहिमं न वाएजा ।। २६२ ।। प्रवाचयन् गणधरश्चिलिमिया उपलक्षणमेतत् कटस्य च देपर्यन्त तिष्ठति यथा द्वावपि संपतसंपतीवर्गी पश्यति। तत्र ये संयताः संयतीनां दृष्टीदृष्ट्याऽऽत्मीयया संबधन्ति ते दृष्टिसंबन्ध उच्यन्ते । श्रादिशब्दान्मैथुनादिपरिग्रहस्तानि मान् वक्ष्यमाणान्न वाचयेत् ।
(२०१८) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
सविकारा मेदुसादी, जया वि धितिदुब्वला ।
मेण वायए ते उ, निसिं च पडिपुंछणं ॥ २६३ ॥ ये दृष्टा सविकारा ये च मैथुनिकादयो मैथुनिको भत्त आदिशन्दापुरासादिपरिग्रहः ये चापि धृत्या दुर्वास्तान् अन्येनेोपाध्यायादिना वाचयेत्। निशि रात्री वा तेषां स दिग्धस्थानप्रतिग्रच्नम्।
"
1
अ य पचायंते पति सच्चे तहिं अदोसिल्ला | अणिसन्न थेरिसहिया, थेरसहा पवाएंतो ।। २६४ || अथान्य उपाध्यायादिः प्रवाचयन् न विद्यते तदा अस्मिन्नसति वाचयति सर्वे तत्र पठन्ति ततो दोपयन्तस्तत्राऽपि संवत्यः परयन्त्या अनिता अनुपविष्टा ऊ स्थित इत्यथे: वेन परस्परं न भवति तथा स्थविरा: सहिताः प्रवाचयन्नपि स्थविरसहायः प्रवाचयति येन तत्सहायः सर्वानपि निमालति ।
1
त्यो पठन्तीत्युकं तत्रापवादमाहजा दुब्बला होज्ज चिरं सातो, ताहे निसमा ण य उच्चसद्दा । पलंचसंघाडि न उजला व
अणुभा वासतिरंजली व ।। २६५ ।। या शरीरेण दुर्बला भवति वर्त्तते चिरं स्वाध्यायः कर्त्तव्यः तदा निषणा-उपविष्टा सती पठति न च उच्चशब्देन वृद्धवा शब्देनालापकमुद्धोपयतीत्यर्थः तथा संघाटिः प्रलम्वा पादगुल्फपर्यन्ता कियते नता तथा अनुसता पठति । किमुक्तं भवति-नोर्ध्वमुखा सती अन्यस्यान्यस्य मुखं विप्रेक्षमाया पठति । तथा वासो-परतेन तिरोहिताञ्जलिरालापकं गुरोः समीपे याचते ।
एयविहिविष्यको जतिवग्गं तु जो पवाएज्जा । मञ्जायाऽतितं तमणायारं वियाग्राहि ।। २६६ ।। एतेनानन्तरोहितेन विधिना यो यः संपतीय प्र याययेत् तं मर्यादातिक्रान्तमनाचारसहितं विजानीयात् ।
व्य० ७ उ० ।
"
वायणाकप्प - वाचनाकल्प - पुं० । वाचनाग्रहणसामाचार्थ्याम्पं० भा० १ कल्प। पं० चू० । वायणापडिया - वाचनाप्रति श्रवणा - स्त्री० । सूत्रदानस्य श्रवणे, पञ्चा० १२ विव० । वायणारिय-वाचनाचार्य-पुं० । उपाध्यायादिसन्दिष्टो य उहें शादि करोति तस्मिन् श्रध्यापनाचार्ये श्राव०४४० श्रा० चू०| वायणिय वाचनीय त्रि० । पाठनीये, स्था० ३ ठा० ४ उ० ।
"
वायामित्त वावप्यभवातप्रभ न० चतुर्थे देवलोकरचे विमानभेदे स
५ सम० ।
वाय महाववादमहार्णव- पुं० वेदान्तग्रन्थविशेषे स्वा० वायरुह वातरुहनानन्तजीवचनस्पतिभेदे प्रा० १ पद बायला- वात(य) ला खी० सातवाहननुपतिसहचरवीरजन्मभुवि, ती० ३२ कल्प ।
वायलेस - वातलेश्य - न० । चतुर्थदेवलोकीये विमानभेदे,
स०
५ सम० ।
वायव-वायद वि० वायुरस्यास्तीति वायवः। बातिके, "जाबहिरे जाइपंगुले हुंडे य वायवे णत्थि गं तस्स दारगस्स हत्था " । उपा० ६ श्र० ।
बापच वातपरी-म० चतुर्थदेवलोकविमाने, स०५ सम० वायव्या वायव्य-श्री० पश्चिमोत्तर विदिशि स्था० १०० ३ उ० । विशे० ।
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वायस - वायस-पुं० । काके, श्राचा० १ श्रु० ६ श्र० ४ उ० । प्रश्न० । जी० । प्रज्ञा० । ज्ञा० । अनु० । भामेइ तहा दिट्ठि चलचित्तो वायसु व्य उस्सग्गे' । श्राव० ५ ० | दृष्टि भ्रमयति चलचित्तो वायस इव इतस्ततो नयनगोलकभ्रमणं दिग्निरीक्षणं वा कुरुते उत्सर्गे इत्येवं लक्षणे कायोत्सर्गदोषे, प्रव० ४ द्वार ।
वायसंजय - वाक्संयत- पुं० । श्रकुशलवाग्निरोधात्कुशलवाग्निरोधेन संयमवति, दश० १० अ० ।
वायसपरिमंडल - वायसपरिमण्डल - न० । वायसादीनां पक्षिहां यत्र स्थानादिकं स्वराश्रयेणाशुभफलं चिन्त्यते तानिमिशा, सूत्र० २ ० २ ० ।
वाया - वाच् - स्त्री० । वचने, स्था० १० ठा० ३ उ० । इदमित्थं करोमीत्यात्मके वचसि, उत्त० १ ० । स्था० । विशे० ।
वाक्करणमाह
ari वाचवा, ए त्ति वायत्ति दव्यओ सा य । ओमपोग्गला जे गहिया तप्परिणया भावो।। २५२६ ।। वचनं वागुच्यते वा श्रनयेति वाकू, सा च द्रव्यतो द्रव्यवाग् एतद्योग्या भावयोग्या भाषावर्गाभ्यो गृहीताः पुङ्गला इति । ये तु तत्परिणता - भाषात्वेन परिणता उच्यमानाः पुद्गलाः सा भावो भाववागिति । विशे० । सरस्वत्याम् ' वाणी वाया भणिई सरस्सई भारई गिरा भासा ।' पाइ० ना० ५१ गाथा । वायाभियोग- वागभियोग- पुं०/वाचाऽभियोगो बागभियोगः वचसा प्रेरणे, सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० ।
"
वायाम - व्यायाम - पुं० । व्यापारे, स्था० १ ठा०२ ३० । यथालकुट भ्रामणम् । नि० चू० १ उ० ।
बायामण व्यायामन-१० व्यायाम करणे, जी० ३ प्रति०] १ अधि
वायामित्त - वाङ्मात्र न० । केवलवाचि, “ वायामिले जत्थ, भट्ठवरित्तस्स निग्गदं विहिणा । बहुलद्धिजुयस्स वि, कौरइ गुरुणा तयङ्गच्छं" ग० २ अधि० ।
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(१० ) वायायण अभिधानराजेन्द्रः।
बारिजमाण वायायण-वातायन-पुं०। गवाक्षे, 'वायायणो गवक्खो' रोराया प्रागो, सो तं विसभावियं जाणिऊण घोसावेश पाइ ना०११६ गाथा।
खंधावारे-जो एयाणि भक्खभोज्जाणि तलागाईसु य मिवायाल-वाचाल-त्रि० । वाचाले, “वाउल्लो जंबुल्लो मुहुलो हाणि पाणियाणि एएसु य रुक्खेसु पुष्फफलाणि मिट्ठाणि बहुजंपिरो य वायालो" पाइ० ना० ६६ गाथा।
उवभुंजा सो मर । जाणि एयाणि खारकडयाणि दुणा
पाणियाणि उव जेह जे तं घोसणं सुणित्ता विरया ते वार-चार-न०।दिने, आदित्यादिवारे, “तिथिर्वारं च नक्षत्रं |
जीविया इयरे मता , एसा दबधारणा । भावधारणाए योगः करषमेव च । पञ्चाङ्गम्"।द०प०। पङ्कप्रभायां नरक- दिटुंतस्स उवणश्रो-एवमेव रायत्थाणीपहिं तित्थगरेहि पृथिव्यामभिकान्तनरके, स्था०६ ठा० ३ उ०।
विसनपाणसरिसा विसय त्ति काऊण वारिया । तेसु जे पवारग-वारक-पुं०लघुघटरूपे,प्रा०म०१प्रागडुके,उपा०७०
सत्ता ते बहुणि जम्मणमरणाणि पाविहिंति, इयरे संसा
राओ उत्तरंति"॥४॥ आव०४०। अकृत्यप्रतिसेवक्रमे,व्य०१०। परिपाट्याम् , नि००१ उ०"अज्जाण वार
नां कुर्वतां प्रतिषेधने, वृ०१ उ०२ प्रक०। ओ पुण, मज्झिमओ होह अहरित्ता" प्रार्याणामप्येवमेवान्तरं तासां जनमध्य एवोपाश्रयस्यानुशातत्वात् , ससागारिके वारदत्त-वारदत्त-पुं०।राजगृहे नगरे स्वनामख्याते राशि, (स वसन्तीनां प्रश्रवणव्युत्सर्जनानन्तरमुदकस्पर्शनार्थवारकोम- च वीरान्तिके प्रव्रज्य द्वादश वर्षाणि संयम परिपाल्य विपुले ध्यमोपधावतिरिक्को भवति । वृ०३ उ०। अनु० प्रा० क०। | पर्वते सिद्ध इति, षष्ठे वर्ग नवमेऽध्ययने सूचितम् ।) अन्त० । (णिग्गथी' शब्दे चतुर्थभागे २०४६ पृष्ठे उक्तं तासां वारकग्रहणम् ।) नपुं० । गुप्तिगृहे, व्य०४ उ०। त्रि०। अशुद्धपाठ
वारधावण-वारधावन-न० । गुडघटधावने, दश.५ प्र० निषेधके, नि० । कल्प० । औ०। शा०। वारगजग्गण-वारकजागरण-न। वारकेण क्रमेण जागरण- वारवाण-वारवाण-पुं० । कञ्चुके , “कुप्पासो कंचुअनो म्,एके जाप्रति अन्ये स्वपन्ति तदन्तरं ते जाप्रत्यन्ये स्वपन्ति
गिंधुलो वारबाणो य" पाइ० ना० ६८ गाथा । इत्येवंरूपे क्रमिकजागरणे, व्य०४ उ०।
वारसवय-द्वादशव्रत-नावतभेदे, द्वादशवतपौषधिकानांच वारण-वारण-न० । निषेधने, प्रा०म०१०। व्य० । गजे, तारि भट्टस' सत्कपौषधिकानां चालोचनाप्रायश्चित्तप्रदान "दो घट्टो दन्ति वारणो" पाइ० ना० १० गाथा ।
मुपधानानुसारेणान्यथा वेतिप्रश्नः,अत्रोत्तरम् द्वादशवतपौ
षधिकादीनां प्रायश्चित्तप्रदानं सामान्यतो जीवधातादौ यारवारणमत्र-वारणमद-पुं०। हस्तिमदे, 'वारणमओ दाणं'।
गापतति तदनुसारेण न तूपधानाद्यनुसारेणेति सम्भाव्यत पाइ० ना०२०३ गाथा।
इति ॥ २५ ॥ सेन०१ उल्ला। वारणा-बारणा-स्त्री० । वृष वरणे इत्यस्य ण्यन्तस्य ल्युटि,
वारसावत्त-द्वादशावर्त-पुंगसूत्राभिधानगर्भे कायव्यापारविवारणा भवति । वारण-वारणा । निषेधनायाम् , श्राव० । शेषे,आव० ३ ०। अश्वलक्षणविशेषे च, द्वादशावर्ताश्च इमे सा च नामादिभेदतः षोढा भवति । तथा चाह- वराहोकाः-"ये प्रपाणगलकर्णसंस्थिताः, पृष्ठमध्यनयनोप
रिस्थिताः। ओष्ठसक्थिभुजकुक्षिपार्श्वगा-स्ते ललाटसहिताः नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे ।
सुशोभनाः॥१॥" जं०३ वक्षः। एसो उ वारणाए, निक्खेवो छविहो होइ ॥१२३७॥ वाराह-वाराह-त्रि० । वाराहसम्बन्धिनि नवमतीर्थकरप्रथमतत्र नामस्थापने गतार्थे , द्रव्यवारणा तापसादीनां ह- शिष्ये, स०। षष्ठबलदेवपूर्वभवजीवे, स० । लकृष्टादिपरिभोगवारणा अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेर्वा देश- वाराही-वाराही-स्त्री० । वराहमिहिरनिर्मितज्योति-शास्त्रनायाम, उपयुक्तस्य वा निहवस्यापथ्यस्य वारोगिण इति इयं
संहितायाम् , (तत्करणमुक्तम् ' भदबाहु' शब्दे पशमभागे चोदनारूपा, क्षेत्रवारणा तु यत्र क्षेत्रे व्यावयेते-कियते षा क्षेत्रस्य वाऽनार्यस्येति, कालवारणा यस्मिन्ब्यावर्यते
९३७० पृष्ठे ।) क्रियते वा कालस्य वा विकालादेः वर्षासु वा विहार- | वारि-वारि-स्त्रा०ा गजबन्धन, आ० क०१०। श्रावका का स्येति, भावधारणेदानीम् ; वा सा च द्विविधा-प्रशस्ता, अ. नपुं० । जले , " अंबु सलिलं वणं वारि नीर उदयं दयं पयं प्रशस्ता च । प्रशस्ता-प्रमादवारणा, अप्रशस्ता-संयमादि- | तोयं " पाइ० ना० २८ गाथा । “वार्यर्गलाभन इव प्रवृत्तः" वारणा । अथवाघत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति तयेहाधि- | इति रघुः । वाचि , सरस्वत्याम् , स्त्री० । वाच०। कारः,प्रतिक्रमणपर्यायताचास्याः स्फुटा। आव०४ अाश्रा०
वारिस-चारित-त्रि० । प्रतिषिद्धे, “पडिसिद्धो वारिओ" पाइ० चूला कुसंसर्गाद्यकृत्यस्य निषेधने, ध०२ अधिक गारष्टान्त:-"श्याणि वारणाए विसभोयणतलाएण दिटुंतो-ज
ना० २६३ गाथा। हा एगो राया परचक्कागम अदरागयं च जाणेत्ता गाम- | वारिखल-बारिखल-पुं०। प्रवाजके, वृ०१ उ०४ प्रक०। सु दुद्धदधिभक्खभोज्जाइसु विसं पक्तिवावेह । जाणि यवारिल-देशी-विवाहे, दे० ना०५५ गाथा। मिट्ठपाणियाणि वावितलागाईणि तेसुय, जे य रुक्खा पुष्फफलोवाणिनिविलोप पावारिज्जमाण-वार्यमाण-त्रि०। निवर्त्यमाने, भ०१५ श० ।
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अभिधानराजेन्द्रः।
बालुयप्पभा बारिजय-देशी-न । विवाहे, 'बारिजयं विवाहो'। पाइ भ०१.श०१ उ० । स्था। विशे वरुणदेवत्यार्या पश्चिम मा० १५४ गाथा।
दिशि, प्रा०म०१०। उत्तररुचकपर्वतस्य रत्नसायकवारिधाराचारण-वारिधाराचारण-पुं० । प्रावृषेण्यादिजल
उवास्तव्यायां विकुमार्याम्, प्रा००१०मा००।
मा०म० स्थानवमतीर्थकरप्रवर्तिभ्याम्,ति०। प्रव०। धाराविनिर्गतवारिधारावलम्बनेन प्राणिपीडामन्तरेण या
तथा कायोत्सर्गस्थितो निष्पवमानसुरेष बुबुडाशयमव्यति चारणभेदे, ग०२ अधिक।
करवं करोतीति वारुणीदोषः । वारुणीमत्तस्येव पूर्णमापारिप्पवेसण-वारिप्रवेशन-माजले प्रक्षेपे, प्रम१माभ.
नस्य स्थानं वारुणीदोष इत्यम्ये । प्रव. ५द्वार । व्यस्य द्वार।
वीरगणधरस्य मातरि, मा००१ १० प्रा०म० । मदिपारिभहम-वारिभद्रक-पुं०। अभक्षे, शैषलाशिनि, नित्यं
रायाम् , उत्त०३४ मा स्था०। “कायंवरी पसमा हाला स्नानपानादिधावमाभिरते वा। सूत्र०१ श्रु०७० भाग तह वारुणी महरा।" पाइ० ना०६४ गाथा । बतविशेष, सूत्र०१७०७५०।
वारुणोद-चारुणोद-पुं० । वारुणी-सुरा, तया समानं वाहबारिय-चारित-त्रिका अहिताभिवारिते, पा० । धामा।
णम् । वारुणमुदकं यस्मिन्स वारुणोदकः । लवणादिगणनया म०नि०यू०।
चतुर्थे समुद्रे, स्था०४ ठा०४ उ०। रा०1('वरुणोद' शब्दे वारयित्वा-अश्या प्रतिषिध्येत्यर्थे, सूत्र.१७०६०।
अस्मिनेष भागे पृष्ठे चक्रव्यतोका।) बारिवसह-वारिकृषभ-पुं०। बहने, आव०५०। वारेऊण-वारयित्वा-प्रव्य० । प्रतिषिध्येत्य), " बारेउसन वारिसिय-वार्षिक-न। वर्षोंडवे, भाव०५०।१०। अथ | कप्पा, जिणाण थेराण उ गिहीणं" नि००० १७०। वार्षिककस्यानि-यथा संघाचनादीनि बाविधानि यतः वाल-व्याल-पुं० । दुष्टस, ०१ उ०३ प्रक० । श्वापदभुभादविधायेकावशद्वारः प्रतिपादितानि । गायोत्तराचम्- जके, शा०१७० १० । आव०। व्यापा०म० भ०। "परवरिसं संपवण १,साहम्मिश्रभत्तिर जत्ततिगं३॥१॥जि- तं० । दुएगजे,व्यालाः सर्पा दुष्टगजाधोच्यन्ते । विशेा मौन एगिहलवणं । जिणधण-बुही ५ महपूय ६ धम्मजागरिया मा० क०। जी । भ०। राज । व्य० । कल्प। ७। सुभपूमा ८ उज्जव, तह तिस्थपहावणा सोही
वाल-पुं०ीकेशे 'केसा बिहुरा सिरोरुहा वाला'पार ॥२॥"०२ अधि।
ना० १०६ गाथा। बारिसेब-वारिपेण-पुंज वसुदेवस्य धारिएयां जाते पुत्रे, (स पारिएनेमेरम्तिके प्रवज्य षोडश वर्षाणि श्रामण्यं परिपा
| बाल-बालक-पुं०। अर्भके, 'हिरिबेरो वालमो' पार स्य शत्रुखये सिद्ध इति अन्तकृशानां चतुर्थे वर्गे पश्चमे -
मा० २१५ गाथा। ध्ययमे सचितम्।) अन्त०। श्रेणिकस्य धारिएयां जाते पुत्र, वालग्गाह (स
| वालग्गाहि (ए)-व्यालमाहिन-पुं० । सर्पग्रहणशीले, मा. (सबबीरस्वामीनोऽन्तिके प्रमज्य पशवर्षाणि भामण्यं प-| ०४०। रिपास्य मृत्वा सर्वार्थसिद्ध उपपच महाविदेहे सेत्स्यतीति वालवि (ग) व्यासपिन्-पु.। म्यालान्-भुजान पाम्तीअनुत्तरोपपातिके प्रथमे वर्गे पश्चमे अध्ययने सच्चितम् ।)| ति ब्यालपास्ते विद्यन्ते येषान्ते ज्यालपिनः । सर्पवधम्माभणु । भरतक्षेत्रजवीरजिनसमकालिके परबतजे चतुर्विशे चुपजीविषु, प्रश्न०२ भाद्वार। तीर्थकरे, ति०।
वालसतसंकणिज्ज-व्यालशभरनीय-त्रि० । भुजगादिसोला-वारिशेखा-सी। देवकुरुपु विद्युत्प्रभवक्षस्कारप- यो Twoतस्य कनकटवास्तव्यायां विकुमार्याम् , स्था० ठा०३ बालहि-चालधि-पुं० लागले, 'संगूलं वालही छिप्पं' पाह उ०मधोलोकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम् , स्वा०८ ठा०३| उ० कर्बलोकवासिन्यां दिक्कुमार्याम्, प्रा००१०।।
वालाइरक्खा-व्यालादिरचा-खी० । श्वापदभुजगादिभ्यो गजं.। तिमा० चू०। जम्यूमन्दरस्योत्तरेरकावतीनदीस
जादिभ्यश्च व्यापायमानस्य त्राण, पश्चा०२ वि०। जतायां महानद्याम् , स्था०५ ठा० । उ०शास्वतजिनप्रतिमायाम् , रा०ाती।
वालिभय-वालितक-त्रि० । भविष्यति काले, 'पालिभयंपवारिहि-वारिधि-पुं० । समुद्रे, अ० २६ अष्ट।
रित्तियं । पारना०२६५ गाथा। बारी-बारी-स्त्री०। गजबन्धिम्याम्, "बारी करिधरण्टाणं, वालुक-पालुङ्क-नवालुके, 'सीलुई चिम्भिरंच वालंक।
पाइ०मा०९७२ गाथा। पाइ०मा० २६७ गाथा। पारुण-वारुण-पुं० । वरुणदेवखामिके अस्त्रादौ, सत्र वालुयप्पमा-वालुकाप्रमा-स्त्री०। हतीयपृथिव्याम्-जी। शु०८ मामा नक्षत्रस्वामिनि, अनु। महोरात्रस्य पञ्च
बालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसदशे मुहूर्ते, ज०७ वक्ष०ा ज्यो। कल्प० ।चं०प्र०। । यसहस्सबाहवाए उवरि केवइयं भोगाहित्ता, हेद्वा केवइयं पारुशिप्पभ-वारुणीप्रम-पुं० । वरुणोदसमुद्रदेचे, स्था० ४] वजित्ता, मज्झे केवइए, केवइया निरयावाससयसहस्सा ठा०४ उ० । सू०प्र०।
परमत्ता, गोयमा वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोबारुणी-वारुणी-स्त्री० । वरुणो देवता यस्याः सा वारुणी। यणसयसहस्सबाहनाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं मो
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पालुयप्पमा
(१९०१)
अभिधानराजेन्द्रः। गाहित्ता हेर्यु एगं जोयणसहस्सं वजित्ता, मझे छन्वीसु- स्था० ३ ठा०४ उ० । प्राचा० । विजातीयेभ्यः सर्वथा व्यजरे जोयणसयसहस्ते । एत्थणं वालुयप्पभा पुढविनेरइया
वच्छेदे, स्या।
वावम्फ-०-धी०। श्रमकरणे, 'श्रमे वावम्फः ' ६॥ णं पसरस निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं ।
श्रमविषयस्य कृषो 'वावम्फ' इत्यादेशो भवतीति थाजी० ३ प्रति० १ उ०।
चम्फादेशः । वावम्फइ । थमं करोति । प्रा०४ पाद । पाव-चाव-श्रव्य० । वाशब्दार्थे, आ० म०१ अ०। 'वावि
चावरणसाला-व्यावरणशाला-स्त्री०। यत्राग्निकुण्डं स्वयंवर. त्ति' वा निवाओ वासहत्था। वाव इत्यय शब्दा निपातः, स हेतोर्नित्यमेव ज्वलति । एवंभूतायां शालायाम् , ०२ उ० । च वाशब्दार्थः-'अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृश-1 (विशेषोऽत्र 'वसहि' शब्दे ६५४ गतम् ।) तः। विशे०। वावग-व्यापक-त्रि० । व्याप्तिकर्तरि, तत्सत्त्वेऽवश्यं वर्तमान | वावहारिय-व्यावहारिक-पुं० । व्यवहारनिष्पन्ने, स. ६५
आधारभेदे, यथा-तिलेषु विद्यते तैलम् । श्रा०म०१०। सम०। चावविय-व्यावर्तित-त्रि० । पुखीकृते, ध०२ अधि०। । | वावादिय-व्यापादित-त्रि० । मारिते, स्था० ४ ठा० ३ उ० । बावड-व्यापृत-त्रि० । “प्रत्यादौ डः"१२०६॥ इति तस्य | वावाय-व्यापाद-पुं० । परपीडायाम् , द्वा०८ द्वा०। डः । प्रा० । व्यापारिते, संघा०१ अधि० १ प्रस्ता०नि० वावार-व्यापार-पुं० । करणे,प्रा०म०१अाश्राव० । श्रा००। चू० प्रा०म० । व्यापारयुक्ने वहमानके, वृ० ३ उ० । वावारिय-व्यापारित-त्रि० । नियुक्ने, उत्त०८ अ० । व्याकृत-त्रि० । स्पष्टे, प्रकटार्थे, दश०७०।
वाविद्ध-व्याविद्ध-त्रि० । विपर्यस्तरत्नमालागतरत्न इव विव्यापद्-स्त्री० । उपद्रवे, व्य०१ उ०।
पर्यस्ते, पा० म०१०। निरुद्धे, 'वावि (दि सोया' गर्भ बावडया-देशी० । अक्षणिकायाम् , ' वावडया अक्वणिमा'! न धरति व्यादिग्धं व्याविद्धं वा वातादिव्याप्तं विद्यमानमप्युपाइ० ना० १६१ गाथा।
पहतशक्तिक श्रोत उक्तरूपं यस्याः सा व्यादिग्धश्रोता व्यावावण-व्यापन-त्रि० । विनष्टे, प्रशा० १ पद । प्रश्न । वि- विद्धश्रोता वा गर्भ न धरति । स्था० ५ ठा०२ उ०1 शरारुभूते, प्रश्न०५ संव० द्वार । प्रज्ञा० । शकुनिशृगा
श्रा०म०। लादिभक्षणाद्वीभत्सतां गते, शा०१ श्रु०१२ अ०।
वाविय-व्यापृत-त्रि० । विविक्ते, विशे० । स्था। वावरमदंसण-व्यापनदर्शन-पुं० । व्यापनं विनष्टं दर्शनं ये- वाविया-वाविता-स्त्री० । सकृद्धान्यवपनवत्याम् , स्था० ४ पान्ते व्यापनदर्शनाः । निवादिषु, शा०१ श्रु०१२ अाध०। ठा०४ उ? वावस्मसोया-व्यापनश्रोतस-स्त्री० । व्याप-विनष्ट रोगतः वावी-बापी-स्त्री०। चतुरस्राकारे जलाशयविशेषे, स्था० ४ श्रोतो-गर्भाशयच्छिद्रलक्षण यस्याः सा तथा । नष्टगर्भाश
ठा०३ उ०। अनु०। झा० । श्री० । भ० । ति० चूछ । यच्छिद्दे, स्था०५०२.उ०।
प्रशा। जी जं०रा०। प्रशा० । पुष्करावर्ते जलाशयबावत्त-व्यावृत्त-त्रि० । शुभव्यापारवति, स्था०५ ठा०१ उ०
विशेष, प्रश्न०१आश्र० द्वार। (वापीनां वर्णकः 'पुक्खरिणी'
शब्दे पश्चमभागे ६६६ पृष्ठे उक्तः ।) वावत्ति-व्यापत्ति-स्त्री० । ब्यावर्तनं व्यावृत्तिःकुतोऽपि हिसाद्ययद्यानिवृत्ती, स्था।
वास-वर्ष-न०। वत्मसंवत्सरसंबदित्यादिपर्यायाः। हैमा लुप्ततिविहा वायत्ती परमत्ता, तं जहा-जाणू अजाणू विति
य र-ब श ष सांश-प-सा दीर्घः' ॥६॥ इति रलोपे दी।
प्रा०। भरतादिक्षेत्रे, स्था०२ ठा०४ उ०। गिच्छा । एवमझोववजणा परियावज्जणा । (सू०२१८) 'तिविहेत्यादि' ब्यावर्त्तनं-व्यावृत्तिः । कुतोऽपि हिंसा-|
वर्षाणि पाहचवद्यानिवृत्तिरित्यर्थः, सा च झस्य हिंसादेर्हेतुस्वरूप
जंबूमंदरस्स पव्ययस्स दाहिणेणं तश्री वासा पत्रता, फलविदुषो शानपूर्षिका व्यावृत्तिः सा तदभेदात् 'जा
तंजहा-भरहे हेमवए हरिवासे । जंबूमंदरस्स उत्तरेणं तो 'तिगदिता । या त्वज्ञस्याज्ञानात् सा'अजाणू' इत्यभिहि
वासा पएणचा, तंजहा-रम्मगवासे हेरन्नवए एरवए । ता। या तु विचिकित्सातः-संशयात् सा निमित्तनिमित्तिनोर
स्था० २ ठा० ४ उ०। भेदाद्विचिकित्सेत्यभिहिता । व्यावृत्तिरित्यनेनानन्तरं चारिप्रमुक्तं तद्विपक्षश्चाशुभाध्यवसायानुष्ठाने इति, तयोरधुना
(धातकीखण्डे द्वौ वर्षों 'धायइसंडदीर्व' शब्दे चतुर्थभागे भेदानतिदेशत आह-एवमित्यादि सूत्रे । एवमिति व्यावृ
२७४३ पृष्ठादारभ्य व्याख्यातो।) त्तिरिव त्रिधा " अज्झोपवजण ति” अध्युपपादनं क- ___ जंबूदीवे दीवे छ वासा परमत्ता, तंजहा--भरहे एरवए हेचिदिन्द्रियार्थे अभ्युपपत्तिरभिष्यत इत्यर्थः । तत्र जानतो विषयजन्यमनर्थ यातबाध्युपपत्तिः सा 'जाणू। या त्वजानतः
मवए हेरमवए हरिवासे रम्मगवासे । (सू० ५२२ x ) सा' अजाणू'। या तु संशयवतः सा विचिकित्सति । 'परि
स्था०६ ठा० ३ उ०। यावजण त्ति' पर्यापादनं पर्यापत्तिरासेवेति यावत .साऽप्ये- जंबूदीव णं भेत! दीवे कति वासा परमत्ता, गोयमा! बमेवेति । 'जाण त्ति 'शः स च शानात्स्यादित्युतम ।। सच वासा पमत्ता,तंजहा-भरहे१ एरवएरहेमवए ३हेरमवए
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(१९०२) वास अभिधानराजेन्द्रः।
वासंतियामउल हरिखासए ५ रम्मगवासे ६ महाविदेहे ७।०६ वक्षः।। भागे भरतमाहिमवतस्तस्यैवोत्तरे भागे ऐरवतं शिखरिणः जम्बूद्वीपे सप्त वर्षाणि 'जंबूदीव' शब्दे चतुर्थभागे १३७२/
परत इति एवमिति-भरतैरवतवत् एतेनाभिलापेन " जंबु
हीवे दीवे मन्दरसे" त्यादिना उच्चारणेनापरं सूत्रद्वयं वाच्यपृष्ठ प्रतिपादितानि।)
म्, तयोश्वायं विशेषः। 'हेमवए चे' त्यादि,तत्र हैमवतं दक्षिधातकीखण्डे सप्त वर्षाणि
णतः हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये हैरण्यवतमुत्तरतः रुक्मिधायइखंडदीवपुरच्छिमद्धे णं सत्त वासा पसत्ता,तं जहा- शिखरिणोरन्तः हरिवर्ष दक्षिणतो महाहिमवनिषधयोरभरहे. जाव महाविदेहे । (मु०-५५५+) स्था०७ठा०३उ०।।
तः रम्यकवर्षश्चोत्तरतो नीलरुक्मिणोरन्तरिति । स्था० २ क्षेत्रप्रकरणमाह
ठा०३ उ० । पुष्करवरद्वीपे द्वितीये वर्षे, स्था०२ ठा० ३ उ० ।
( पुक्खरवरदीव ' शब्दे पश्चमभागे ६६६ पृष्ठे गता जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा एतद्वक्तव्यता।) परमता, तं जहा-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं वर्ष-पुं० । वृष्टी, विशे० । नि० चू० । स्था० । वर्षोऽस्पतरो वृ. वाइबटुंति आयामविक्खभसंठाणपरिणाहेणं, तं जहा-भरहे ष्टिस्तु महतीति तयो दः । भ० ३ श. ७ उ० । जलसमूहे, चेव एरवए चेव एवमेएणं अहिलावणं नेयव्यं, हेमवए चेव
ज्ञा०१ श्रु०१०। आचा०।ध०। मेघे, भ०१६ श०८ उ०। हेरनवते चव हरिवासे चेव रम्मयवासे चेव । (मू०-८६४)
पुरुषो वर्षों वर्षति ।
| पुरिसे णं भंते ! वासं वासति नो वासतीति ?, हत्थं वा सुगम चैतत् , नवरमिह जम्बूद्वीपप्रकरणं परिपूर्ण
पायं वा बाहुं वा ऊरं वा प्राउट्टावेमाणे वा पसारेमाणे चन्द्रमण्डलाकारं जम्बूद्वीप तन्मध्ये मेरुम् उत्तरदक्षिणतः क्रमेण वर्षाणि च स्थापयित्वा, तद्यथा-"भरहं हेमवयं ति य,
वा कइ किरिए ?, गोयमा ! जाव च णं से पुरिसे वास हरिवास ति य महाविदेहं ति । रम्मय एरनवयं, एरवयं वासइ वासं णो वासतीति हत्थं वा जाव ऊरुं वा भाउचेव वासाई' ति । तथा वर्षान्तरेषु वर्षधरपीतान् हावेति वा पसारेति वा ताव च णं से पुरिसे काइयाए. कल्पयित्वा , तद्यथा-"हिमवंत १ महाहिमवंत-२, पब
जाव पंचहि किरियाहिं पुढे । (सू०-५८५) या निसढनीलवंता य४। रूपो ५ सिहरी ६ एए या
'पुरिसण' मित्यादि वासं वासह' वर्षों-मेघो वर्षति नो सहरगिरी मुणेयव्व" ति ॥ १ ॥ सर्वमेवं बोद्धव्यमिति ।
वा वर्षों वर्षतीति झापनार्थमिति शेषः । प्रचक्षुरालोके हि मन्दरस्य मेरोरुतरा च दक्षिणा च उत्तरदक्षिणे तयोरुतरदक्षिणयोरिति । वाक्ये उत्तरदक्षिणेनेति स्याद् एनप्रत्य
वृष्टिराकाशे हस्तादिप्रसारणादेव गम्यत इति कृत्वा हस्तायविधानादिति, द्वे वर्षे-क्षेत्रे प्रशप्ते जिनैः। समतुल्यशब्दः
दिकमाकुण्टयेद्वा, प्रसारयेद्वाऽऽदित एवेति ॥ भ०१६ श०८ सहशार्थः । अत्यन्तं समतुल्ये बहुसमतुल्ये प्रमाणतः अवि
उ०। प्रावृदकाले, सूत्र. १ श्रु०४ अ०२ उ० । प्रव० । द्वादशेष-विशेषलक्षणे नग-नगर-नद्यादिकृतविशेषरहिते अ
शमासात्मके कालभेदे, दर्श०५ तत्व । नानात्वे अवसप्पिण्यादिकृतायुरादिभावभेदवर्जिते। किमु
व्यास-पुं० । विस्तरे, रत्ना०७परि०। स्था० । कृष्णद्वैपापने, कं भवतीत्याह-अन्योन्यं-परस्परनातिवर्तेते, इतरेतरं न आव०२०। द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० १ पद । जी० । लड़येते इत्यर्थः । कैरिल्याह-पायामेन-दैर्येण विष्कम्भेन- वास-पुं० । समवस्थाने, सूत्र. १ श्रु० ७१० । अधिष्टाने, पृथुत्वेन संस्थानेन-आरोपितज्याधनुराकारेण परिणाहेन-प
स्था०५ दा० २ उ०। " तत्थ न कप्पइ वासो, आहारा रिधिनेति, इह च द्वन्द्वैकवद्भावः कार्य इति। अथवा-बहुस- जत्थ नाथि पंच इमे । राया वेज्जो धणिय,न वेड्या रूवजमतुल्ये आयामतः । तथाहि-भरतपर्यन्तश्रेणीयम्, "चोइस य क्खा य ॥१॥" व्य० १ उ० । “सुचिरतरमुषित्वा बान्धवै. सहस्साई, सया िचत्तारि एगसयराइं । भरहद्धत्तरजीवा, छ- विप्रयोगः, सुचिरमपि हि त्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । चकला ऊणिया किंचि"॥१॥ कला च योजनस्यैकोनविंश- सुचिरमपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो तितमोभाग इति२४४७१।ऐरवतेऽप्येवम् । तथा अविशेषो धर्म एकः सहायः॥१॥"सुगन्धिसारद्रव्यनिष्पन्ने कृत्रिपाविष्कम्भतस्तथाहि-"पंचसए छब्बीसे,छञ्च कलावित्थर्ड भर- कृत्रिमभेदभिन्ने गन्धे, दर्श० १ तत्त्व । सुगन्धद्रव्यनिष्पन्ने हवासंति, ५२६ अयमेव चैरवतस्यापीति, अनानात्वे सं.
शुष्कपेपिष्टे गन्धे,
पिंध० पौषधिकः पट्टपट्टिकालिखि. स्थानतः अन्योन्यनातिवर्तेते, परिणाहतः परिणाहश्च ज्याधनुः
तप्रतिमां वासेन पूजयति न वा ?, इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्पृष्ठयोर्यत्प्रमाणं तत्र ज्याप्रमाणमुक्तम्.धनुःपृष्ठप्रमाणं त्विदम्
पौषधिकः कारणं विना पट्टादिकं न पूजयतीति शेयमिति "चोइस य सहस्साई, पंचेव सयाई अट्टवीसाई। एगारस य
॥३४१ ॥ सेन० ३ उल्ला। कलाश्रो, धणुपुटुं उत्तरद्धस्स"। यथा भरतस्यैरवतस्यापि
वासम-न० । वस्ने, “चेले वास वसणं च अंसुअंभम्बरं तथैवेति १४५२८ । एकार्थिकानि चैतानि पदानि, भृशार्थस्वाचन पुनरुक्ततेति। उक्तश्च-"अनुवादादरवीप्सा-भृशार्थ
वत्थं।" पाह० ना०६६ गाथा। विनियोगहेत्वसूयासु। ईषत्संभ्रमविस्मय-गणनास्मरणे न
| वासंतिया-वासन्तिका-स्त्रा० । पुष्पप्रधाने वृक्षविशेषे, जं.१ पुनरुक्तमिति ॥" तद्यथा-भरहे चेवेत्यादि । 'उत्तरदा- वक्षः । प्रश्न । प्राचा० । झा० । प्रशा० । प्रा० मा १० । हिणणं' ति एतस्य पाठस्य यथासंख्यन्यायाना- वासंतियामउल-वासंतिकामुकुल-न० । वासन्तिकाकोरके, भयणात् यथा सत्यन्यायाश्रयणाच्च जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे. प्रश्न १ आश्र द्वार।
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वासंतियामंडव अभिधानराजेन्द्रः।
घामक्खेव वासंतियामंडव-त्रासन्तिकामण्डप-पुं० । वासन्तिकालताम | इससउईणअम् , अउम् अम्बो खईआसवलईणये मण्डपे, जी०४ प्रतिः।
अम् , अउम् अम्ओ सोसहिलईणअम् , अउम् बासकोडि-वर्षकोटि-स्त्री०।शतलतभिर्वगुणिते संख्याभेदे,
अम्ो अईणसम्ममाणसलद्भुईअम् , अउम् स्था०२ ठा०४ उ०।
यामम्मो भगवत्रो अरहो महइ महावीरवद्धमाणधम्मबासकोडाकोडि-वर्षकोटिकोटि-स्त्री० । वर्षकोटिभिर्गुणिता. याँ वर्षकोटी, शा.१ श्रु०६०। ।
तित्थंकरस्स, अउम् णमो सम्बधम्मतित्थंकराणं, अउम् बासक्खेव-वासक्षेप-पुं० । गन्धचूर्णस्य शिरसि क्षेपे, महा० ।
णम् ओ सबसिद्धाणं अउम् णम् ओ सबसाहूणं अउम् वासक्षेपमन्त्रः
णमो भगवतो महणाणस्स, अउम् णमो भगवओ एताहे गोयमा ! इमाए चव विजाए महिमंतियानो सत्त | सुयाणस्स, अउम् णमो भगवनो श्रोहण्माणस्स गंधमुट्ठीयो तस्सुसमंगे "नित्थारगपारगो भवेजासि"| अउम् णमो भगवतो,मणपजवणाणस्स अउम् णमो त्ति उच्चारमाणेणं गुरुणा घेत्तवाओ।
भगवओ केवलणाणस्स, अउम् णम्मो भगवतीए सुयद्अंउम् णम्ओ भगवो अरहो मइज्झउ म्ए भगवती | एवयाए, सिज्मउ मे एय् आहिवा विजा, अउम् णम्ओ महावि ज्जा , ईर् ए ईर् ए मह आवई र ए वद्धम् | भगवोणम्ओ अम् , अउम् णनम्नो णम्भओ ओ ओ प्राणवहर ए जय अंत् ए, अपर आजहए, स्त् श्राह्मा ।
अभिवत्तीसलक्खणं सम्मदंसणं, अउम् णमओ अट्ठाउपचारो चउत्थभत्तेणं साहिजइ, एयाए विजाए सव्वगमो रस्असईलअंगसहस्साहिट्ठियस्स, एईस् अम गएहइ, नित्थारगपारगो होइ,उवट्ठावणाए वा,गणिस्स अणुबाएवा इआण-ईसन ण्इसयसन गत्तण सरम ससत्त वारा परिजवेयन्वा नित्थारगपारगो होइ । उत्तिमट्ठ
व्वदुक्खणिम्महणपरमणिबुइकरस्स णं पवयणस्स । पडिवने वा अमिमंतिजइ पाराहगो भवइ, विग्यविणाय
एसा विजा सिद्धतिएहिं अक्सरेहिं लिहिया । गा उवसमंति, सूरो संगामे पविसंतो अपराजिमो भवइ ,
एसा य सिद्धतिया लिवी, अमुणियसमयसम्भाकप्पसम्मतिए मंगलवहणी खमवहणी हवइ । तहा साहू
वाणं सुयधरेहिं ण परमवेयधा, तह य कुसीलाणं च समणोबासगसद्धिगा सेसा सेसा सतसाहम्मियजणं च-|
॥ ४६॥ इमाए पवरविजाए सबहाउ अताणगं । अहिउब्विहेसं पि समयसंघेणं नित्थारगपारगो भवेजा । ध
मंतेऊण सो विजा,खंतोदंतो जिइंदिरो॥५०॥महा०५१० मोसि पुनोसि सलक्खणो सि तुमं ति उच्चारेमाणेणं गं- तथा-श्रीवीरजन्मनि गुलपयेटिकादिभोजनं लात्वा55धमुट्ठीमो घेत्तव्याभो । तमो जगगुरूणं जिणिंदाणं पूय
गच्छन्ति तदुपरि यतीनां वासक्षेपः कृतः शुद्धथति न वा
इति ? प्रश्नः , अत्रोत्तरम्-श्रीवीरजन्मनि गुलपपेटिकागा दसाम्रो गंधवामिलाणसियमल्लदामं गहाय सहत्थे
दिभोज्योपरि सुविहितानां वासक्षेपपरम्परा नास्तीति । योभयखंधे समारोवयमाणेणं गुरुणा णीसंदेहमेवं भाणि- १३० ॥ सेन० ३ उल्ला० । तथा–प्रतिष्ठाधिकारे साधूनां यव्वं । जहा भो भो जम्मंतरसंचियगुरुगुरुपुत्रपम्भारसुल- वासक्षेपाक्षराणि क सन्ति ?, यदि च सन्ति तदा प्रतिद्वसुविढत्त सुसहलमणुयजम्म देवाणुप्पिया! खइयं च
ठावत्प्रतिदिनं ते वासक्षेपपूजां कथं न कुर्वन्ति?, इति प्रश्नः,
अत्रोत्तरम्-पञ्चचत्वारिंशदागमानां मध्ये आवश्यकवृहद. परयगइदारं तुझं ति प्रबंधगो य अयसअकित्तीनीय
ती गणधरपदप्रतिष्ठाधिकारे साधूनां घासलेपाक्षराणि गोत्तकम्मविसेसाणं, तुमं ति भवंतरगयस्सघि उण दुखहो सन्ति , प्रतिदिनं वासक्षेपपूजाक्षराणि तु साधूनां कुत्रापि तुम्भ पंच नमोक्कारो भाविजम्मंतरेसु, पंचनमक्कारपभा-| न सन्तीति तद्विधानं कुतस्त्यमिति ॥२४७॥ सेन० ३उल्ला० । वनो य जत्थ जत्थोववओजा तत्थ तत्थुत्तमा जाई, उत्तम
मुरेणं णमो खीरासबलखीणं, ॐणमो सम्बोसहिलढाणं ॐ यमो च कुलरूवारोग्गसंपयं ति एयं ते निच्छइयो भवेजा।।
मक्खीणमहालबीणं णमो भगवत्रो मरहमो मार महावीरबदमा(महा०३०)
णधम्मतित्थंकरस्स णमो सम्बधम्मतित्थयराणं, ॐ णमो सम्बसिवाणं *मैउम् मम्भो क्उठ्मउईण्मम् ,अउम् मम्मो ॐ णमो सम्बसाहूणं ,ॐ यमो भगवतो मानायस * णमो मपभय माण्उम्भाईणमम् , अउम् मम्मो स्वम्भ- |
गवभो सुयनाणस ॐ एमो भगवभो भोहिनाणस्स ॐ णमो भग
वो मणपजवनाबस्स यमो भगवो केवलनाणस्स ॐ यमो -*णमो मरहमो भगवो महा महावीरवडमाणसामिस्स सिम्झउ मे भगवतीए सुपदेवयाए तिमउ मे एयादिवा विजा, णमो भगवमो ॐ भग; महा महाविजा बीरे बारे महावीरे जयवीरे सणवारे बद्ध- णमोव (ॐ यमो पं) भाउअभिवतासलक्ख सम्मदंसणं ॐ समो माणवीरे जए विजए जयंते अपराजिए भणीहए (ॐही स्वाहा)।
अट्ठारससलिंगसहस्साहिट्ठियस्स णीसम गेण्हा खियाणणीसल णिसयसल्ल २-रट्टिीवशाए इत्यपि पाठः।
गतेणं सरणसम्बदुक्खपिम्महणपरमनिम्बुडकरस्स यं पश्यणस्स-परम.३-ॐ बमो कुट्टनुरीयं खमो पयाणुसारीणं यमो संभिन्न-[ पवितुत्तमस्सेति ।
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(१९०४) - वासग अभिधानराजेन्द्रः।
वासघर वासग-वासक-पुंकवास' शब्दकुत्सायाम् । वासन्तीति वास- तेत्तीसं च सहस्सा. छथ सया जोयणाण चुलसीया। काः । भाषालब्धिसंपन्नेषु द्वीन्द्रियादिषु, श्राचा०१ थु०६ चउरो य कला सकला, महाविदेहस्स विषखंभो ॥४॥ अ०१०।
जोयणसयमुब्बिद्धो, कणगमया सिहरिशुलहिमवंता। वासग्ग-वर्षगत-त्रि० । आर्य वा तथा रूपम् । वर्षलक्षणे रुप्पिमहाहिमपंता, दुसउच्चारुप्पकणगमया ॥५॥ कालपरिणाममाथ्रिते, उस०२०।
वत्सारि जोयणसए. उठिबद्धा निसढनीलबंता य ।
निसहो तवणिजमश्री, वेरुलिश्रो नीलवंतगिरी॥६॥ वासघरय-वासगृहक-न० । शयनगृहे, कल्प० १ अधि० २
उस्सेहचउम्भागो, ओगाहो पायसो नगवराणं । क्षण । शा० । नि० चू०।
चट्टपरिही उ तिगुणो, किंचूणछभायजुतो ति ॥७॥" वासणा-वासना-स्त्री० । अविच्युत्याहिते संस्कारे, श्रा०म०
चतुरनपरिधिस्तु आयामविष्कम्भद्विगुण इति । स्था- २ १०।। (वासना सौगतानां कर्मेति 'कम्म' शब्दे ठा० ३ उ । जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरतो दक्षिणतश्च प्रयोतृतीयभागे २५७ पृष्ठे प्रतिक्षिप्तम्।)
वर्षधराः । स्था। वासत्ताण-वर्षत्राण-न० । छत्रे घ० । “वासत्ताणे पणगं,
जंबूर्मदरस्स दाहिणेणं तो वासहरपब्वया पम्पत्ता, तं चिलिमिलिपणगं दुगं च संथारे । दंडाई पणगं पुण, म
जहा-चुल्लाहिमवंते महाहिमवंते निसढे। जंबूमंदरस्स उत्तरेणं लगतिगपायलेहणिया॥॥" वर्षात्राणे पञ्चकम् . तद्यथा-क
तओवासहरपब्धया पसत्ता.तं जहा-सीलवंते रुप्पी सिहरी । म्बलमय सूत्रमयं २ तालपत्रसूची ३ लासपत्रकुटशीर्षक ४ छत्रकं ५ चेति । इमानि च लोकप्रसिद्धप्रमाणानीति । ध० (मू०-१९७४) स्था० ३ ठा० ४ उ०। ३ अधिक।
संग्रहेण षद्बासध (ह)र-वर्षधर--पुं०।वर्धितकरणेन नपुंसकीकृते अन्तः-1 जंबूदीवे छ वासहरपव्वया पम्पत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंते पुरमहलके, दशा०१०। वर्ष-क्षेत्रविशेष धारयते-व्यव- १ महाहिमवंते २ निसढे ३ नीलवंते ४ रुप्पी ५ सिहरी ६। स्थापयते इति । हिमवदादिषु, अनु० । स्था० ।
(सू०-५२२+ ) स्था० ६ ठा० ३ उ०। घर्षधरौ समी
सप्त वर्षधराःदो वासहरपचया पसत्ता। तं जहा-बहुसमउल्ला, अविसे
जंबूदीवे सत्त वासहरपब्बया पलता,तं जहा-चुल्लहिमसमणाणता । अनमन्नणाइवद्वृति पायामविक्खंभुच्चत्तोम्बे-ते महाहिमवंते निसनीलवंते रूपी सिहरी मंदरे। (सू०हसंठाणपरिणाहेणं । तं जहा-चुल्लहिमवंते चेव,सिहरी चे-1
७x) स० ७ सम० । स्था० । व, एवं महाहिमवंते चेव, रुप्पी चेव,एवं णिसढे चेव, णी-1 (खुद्राहिमवदादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) लबते चेव । (सू०-८०)
एषां धनुःपृष्ठोश्चत्वम्'ज'इत्यादि वर्षे क्षेत्रविशेष धारयतो व्यवस्थापयत इति
महाहिमवंतरुप्पीणं वासहरपब्बयाणं जीवाणं धणुपिटुंसवर्षधरौ।'चुल्ल' त्ति महदपेक्षया लघुर्हिमवान् चुल्लहिमवा- त्तावन्नं जोयणसहस्साई दोन्नि य तेणउए जोयणसए दस न्, भरतानन्तरः शिखरी पुनर्यत्परमैरवतः, तौ च पूर्वापरतो य एगृणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवणं ॥ (सू०-५७) लवणसमुद्रावबझवायामतश्च'चउवीससहस्साई, नब यस
"जीवाणं धणुपिट्ठान्त" मण्डले खण्डाकारं क्षेत्र इहएजोयणाण बत्तीसं। चुहिमयंतजीवा, श्रायामण कलद्ध च सूत्रे संवादगाथाम् “सत्तावन्न सहस्सा घणुपिटुंतण्उय ॥१॥ एवं शिखरिणोऽपि । तथा भरतद्विगुणविस्तारौ योजन
दुसय दस कल" ति ॥ स०५७ सम०॥ शतोच्छायौ, पञ्चविंशतियोजनान्यवगाढौ आयतचतुरस्रसं
सव्वे वि णं णिसहनीलवंता वासहरपब्धया चत्तारि स्थानसंस्थिती, परिणाहस्तु तयोः “ पणयालीस सहस्सा,
चत्तारि जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई सयमेगन्नव य वारस कलाओ। श्रद्धं कलाएँ हिमवं-तपरिरश्रो सिहरिणो चेव" ति ॥१॥ एवमिति यथा हिमवच्छिखरिणी
उबेहेणं परमत्ता । (सू०-१०६४) स० ३०० सम०। 'जंबूदीवे' त्यादिनाऽमिलापेनोलो एवं महाहिमवदादयो:- सम्प्रति वर्षधराणां विस्तारप्रतिपादनार्थमाहपीति । तत्र महाहिमवान् लध्वपेक्षया । स च दक्षिणतः, भरहेरवयप्पभिई, दुगुणादुगुणो उ होइ विवखंभो । रुक्मी चोत्तरतः । एवमेव निषधनीलवन्तौ नवरमेतेषामा
वासा वासहराणं, जावइ वासं विदेहेत्ति ॥१७८ ॥ यामादयो विशेषतः क्षेत्रसमासादवसेयाः ।
भरतैरवतप्रभृतीनाम् , किमुक्तं भवति-जम्बूद्वीपस्य दक्षिणकिञ्चितु तद्राथाभिरेवोच्यते
पार्श्वभरतादीनामुत्तराभिमुखानाम् उत्तरपावं,ऐरवतादीनां "पंचसए छब्बीसे, छच कलावित्थडम्भरहवासं । दक्षिणाभिमुखानां वर्षाणां वर्षधराणां च विष्कम्भं पूर्वस्मात् दससयवायन्नहिया, वारस य कलाश्रो हिमवते ॥१॥ द्विगुणो द्विगुणस्तावदवसेयो यावदुभयेषां वर्षे 'विदेहाई' ति हेमबए पंचऽहिया, इगवीससयानो पंच य कलाश्रो। इयमत्र भावना-भरतैरवतापेक्षया द्विगुणविष्कम्भौ शुलहिमदसऽहियवायालसया, दस य कलाओ महाहिमवे ॥२॥ वशिखरिणी, ताभ्यामपि द्विगुणविष्कम्भौ हैमवतहरण्यवहरियासे इगीसा, चुलसीइसया कला य एक्का य । तौ,ताभ्यामपि द्विगुणविष्कम्भी महाहिमवद् रुक्मिपर्वती,ता मोलससहस्स अट्ट य, पायाला दो कला निसढे ॥३॥ | भ्यामपि हरिवषरम्यकवर्षे द्विगुणविष्कम्भे, ततो निषधनी
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(११०५) बासघर अभिधानराजेन्द्रः।
वासप्याफल लवन्तौ द्विगुणविष्कम्भौ, ताभ्यामपि द्विगुणविष्कम्भं महा- दिनपडिवियणेण वि प्रादह नीससिऊण पडियं नरवाणाविदेहाभिधं वर्षमिति । ज्यो०१० पाहु ।
"माणी पियाविउत्तो,सुई सुयणे सुयतु उ पिसुणो।कन्नापिऊ समयखित्तेणं मंदरवजा एगुणसत्तरि वासा वासधरपन्च- दरिदो,एए चिंताउगहोति॥१॥" मंतिणा भाणियं-देव! किमेएया पामत्ता, तं जहा-पणतीसं वासा तीसं वासहरा चत्तारि
ण निरत्थएण चिंतासमुहमवगाहणेण, करेउ सामी दुहियाए उसुयारा । (सू०-६६४)स०।।
सयंवरमंडवो, मेलिजंतु सयलविजाहरभूगोयरनरसेहरकु
मारा । दंसिज्जंति पत्तेयं पत्तेयं सयलकलाकुसलपरमुत्तमगुवासघरकूड-वर्षधरकूट-पुं० न० वर्षधरपर्तसम्बन्धिनि शिखरे,
णगणवमणापुरमा । एवं कर सामिस्स मणसमीहियं होहि । सम्बे विणं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसयाई उ8 एवं ति पडिवजिऊण नरवाणा काराविश्रो चित्तशालिभंजिउच्चत्तेणं होत्था । मूले पंच पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं उबसोहियाणगमणिरयणथंभसयसमसिनो पहाणमंचाइमंच
कलियो विचित्तचित्तभिसिनयणाभिरामो फालिहामयसिपएणत्ता।(मू०-१०८) अथैकोनसप्ततिस्थानके किञ्चिलिख्यते-'समय' त्यादि, म
लासयसंबद्धपरमरमणिज्जकुट्टिमतलो सयंवरमंडवो । तोन्दरवज्र्जा-मेरुवर्जाः वर्षाणि च-भरतादिक्षेत्राणि वर्षधर
आहूय उभयसेणिनिवासिणो सयलविज्जाहरकुमारा भूमिपर्वताश्च-हिमवदादयस्तत्सीमाकारिणो वर्षधरपर्वताः समु. गोयरनरवाणो । कयमुचियकरणिज्जं । निरूपियं मयणावदिताः, एकोनसप्ततिः प्रक्षप्ताः, कथं ?, पञ्चसु मेरुषु प्रतिव- लीए सयंवरमंडवे समंगलदिवस , ततो पच्छयदियहे य विद्धानि सप्त भरतहैमवतादीनि पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि,तथा प्रतिमेरु विहनेवत्थियसरीरा नाणामणिकणगरयणविहूसियंगी चारुषद् षद् हिमवदादयो वर्षधरात्रिंशत्तथा चत्वार एवैतेषु चामीयरचिंचइयपेरंवहयलालोवमशहाणपरिहियसियसदसप्रकारा इति सर्वसंख्ययैकोनसप्ततिरिति । स०६८ सम०। वसणा पहाणनारिकरयधरियउइंडपुंडरीया सरयम्भगम्भसु. वासघ (ह) रपब्वय-वर्षधरपर्वत-पुं० । खुद्राहिमवदादिषु, ब्भससरलसुकुमालकंचणनिचयचारुचमरोवसोहियउभयपा
सिला पहाणपरियणाणुगम्ममाणा। समागया मयणावली जं० ३ वक्षः । स्था० । (एतद्वक्तव्यता 'वासधर' शब्दे ।)
रंगमंडवे । ततो दक्खिणसुइणा परमविणीपण सयलकलावासध (ह) रसंठिय-वर्षधरसंस्थित-पुं० । हिमवदादिवर्ष-
कलावकुसलेण सव्वनरनाहविनायकुलनायगुणगणावुत्तधरपद्धताकारे, भ०८ श०२ ३०॥
न्तेण रहवल्लाहकंचुइणा पहाणकंचणमयमणिरयणचिंचायलीवासपूजा-वासपूजा-स्त्री० । प्रत्यहं तीर्थकरपूजने, त्रिकाल
लालट्ठिहत्थेण भणिया । जहा सामि ! एस णं गयणवाहपुपूजाकरणे प्रभाते मालादिनिर्माल्यमपास्य सर्वस्नानेन वा- राहियो व्यहगिरिसिहरसंठियउत्तरसेढिसयलविजाहररासपूजा क्रियतेऽन्यथा वेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रभाते पु. यनेयो सिंगारसिरिसेहरो नाम, सूरो चायं कयकोउप्रो। एस रूपमालादिनिर्माल्यमनपास्य श्राद्धा वासपूजां कुर्वन्तो छ- पुण सियमंदिरनयरसामी नररयणचूलो नाम पंडियपयंडचंश्यन्ते, सर्वस्नानकरणेऽप्येकान्तो सातो नास्ति, हस्तपाद- डपासंडखंडखो,एयं पुण पुरोवत्तीण देवदिट्ठीए पसायं करेह प्रक्षालनेन शुद्धयतीति ॥१६७॥ सेन०४ उल्ला० ।
रहनेउरचकपुरवरभुत्तारं अणंगरहं जाणाहि। एवं परिवाडीए वासपूयाफल-वासपूजाफल-न० । तीर्थकरपूजायाः माहा-1 सव्वे वि दंसिया राइणो । एवं तस्स व पुहिं परिपेरिया ते त्म्यप्रदर्शने, दर्श। "अत्थि इहेव भारहे खित्तमझयारम्मि
सुरपुरनिवासिणो सिंहरहराइणो सयलसुहपरंपर व्य पक्खितारहारनीहारवं उज्जलविजाहरनिवासनयरसोहियउभयमे
त्ता कंठम्मि वरमाला । जाश्रो बद्दलकोलाहलो, संजाय महाहलाकलावो अणेगदेवदाणवनरिंदवासभूमी चउहिसे पिभ
विभूईए पाणिग्गहणं, जाओ य परोप्परं दढाणुराओ, उव/रहखत्तमाणदंडो व्व विरायमाणो वेयड्डो नाम नगवरो । तत्थ
जर राइणो समीहियाई मणुयलोयसुहाई। अह अनया सुहं
सदोहामयमझगयाए केणइ पुव्वदुक्कयकम्मपरिणायसेण दाहिणसेढिवरविलग्गमेहलावररयणभूयं देवनयरं व गयण
जाया अइसयदुरभिगंधा नियपरियणस्स नयरलोयस्स वि गणगामिनरनारिनियरोवसोहियं हथिणारं नाम नयरं ।
उब्वेयणिज्जा राहणो अइइट्टा ठाणो तीए पुण कारावित्रो तत्थ दरियारिदप्पविमहणो कोयंडदंडो व्व सरासणनिवासो
महाईए पुण सा उम्मुक्का तत्थ करेह नासाबंधपुव्वयं परितोणीरमझ व अणेगमग्गणोवसेविजमाणपयकमलो सजी
यणो सरीरट्टिइं। खंतियदुरट्टिया चेव रायनिउत्ता नरा। वचावं व सत्तुसंताससंपायगो जियसचू नाम राया। तस्स
मयणावली विपासायसिहरसंठिया विज्जाहरि व्व पम्भ णं रह व्व इट्ठा सम्वलोयाणं सद्दाइ समुद्द व्व आवासो वि.
टूविज्जारहंगधरणि व्व संभावियरयणिसमागमा रायसि सयगामाणं मयणकंदली नाम भज्जा. रई व अणंगस्स, सई
ब्व उल्लूरियसरससरोवरसारतामरसविसरा परमदुहिया व संकदणस्स अइट्ठा राइणो । तौए सह विसयसुहमणुहवं
अच्चंतउब्धिग्गमाणसा सोयसायरमझगया चिन्ताभरतस्स अणेगमणोरहसयसमायरिसियासयलसुहोदयसमप्पि
निभरा जाणुवरिउक्खियकरयलविणिहितवामकवोला वियवसंतो सुहसमुप्पायगा जाया मयणावली नाम कन्नगा। का
चिंतयंती नियकम्मपरिणइकडयविवागं चिट्ठइ । अहरावियं च पुतजम्मेव अणेगविप्पोसयसयलकलाकलायकुस- याए रयणीए पढमजामे समागयं सुयजुवाण मिहुला प्रत्ता य सयलजणनयणाभिरामं जोव्वर्ण । जाओ य चिंता- गयं ठियं पच्चासनगवक्खंतरे। कहतरे य भणिो निवरोराया।जओ"जाया जणयइ दुहिय,वरकालेजोब्वणे य पी- यसुईए , सामि ! कहेह किंचि कहाणयं । न जाह निविमायं । दुहिया दुहसयहेऊ,सया वि नामेण वि कहे ॥१॥"तो रणोवगयाणं रयणी, सुरण भणिय-पिए ! चरियं कपियं वा चिंतासागरमवगाहमाणमवलोइऊण रायाणं भणिय मइसा- कहेमि । सुईए भणियं-लोयणाणदणानि सुयाई चेव तुम्ह गरमंतिणा-सचितो व्व लक्खिज्जा सामीप्यमायणिऊण अ- पाए पसायतु । अणेमहा समइविगप्पियाई कप्पियाई च
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(१९०६) वासप्याफल अमिधानराजेन्द्रः।
वासपूयाफल रियं परममुणिविवत्रियं सद्धम्मबुद्धिजणगं कदेह । जहए-| करेमो पयरगंधेहि पूत्रोचयारं । तो भणियं सुईए-अजउत्त! वंता सुंदरि! सुणेहिसाबहाणा । ततो चिंतियं मयणा- किं सा न साविया जा एवंविहाणं पि महामुणाणं दुगुछ बसीए-अज शं सोयसायरनिवडियाए एयं सोडणं करेइ,सिद्धंतरहस्सं न याणइ । सुरण भणियं-एसा साविगा समुत्तरणं,ता मोसूण सयलचितं निसुणेमि सावहाणा होऊ परं मोदपसारा अविनायसिखंतभावा जहा महगा। ततोपा. ण । अत्थि इहेव क्यडनगरे दाहिरासेरि हथिणारं शीयं फासुयमुदयं, पकवालियं सरीरं मुणिवरस्स, प्रालिंपिनाम नयरं । तत्थ नमिरविज्जाहरसिरसेहराइअमंदारमाला- श्रो ससरगोसीसचंदणेणं,पक्वित्ता य समत्थसरीरोवरि वाबलीए पथकमलो जयसुरो नाम नरवई । तस्स णं सुहमई व्व सियसयलनहंगणाचुनगंधा, बंदिश्रो य भत्तिम्भरनिम्भरंगाए सयलसुहसंपायगा सुहमई भजा । अत्रया तीए गम्भाणु- सह पिययमेणं गयाइ जहचियं चेयाणं बंदणस्थ,अभिवंदिभाषो चेव जानो तित्थजत्ताकरणपरिणामो । लजाए ऊण य नंदीसराई सुचेझ्याणि जा विलग्गइ अट्ठावयं पलोएड न कहियं भन्नुणो । जायखामकबोला पुच्छिया य नरवडणा. मुर्णािदसा हुत्तं ता पेच्छइ तं मुणिवरं । ततो ससंकाए पुच्छिसुंदरि! कीस तुमं अकंडे चेव असंभावणिजसरीरा जाया। ओराया। सामियकहिं सो महामुणी,रमा वि अइनिउणं प. किमथि कोइ मए आणावडिच्छए तुम्भावमाणकारी, तो लोयतेण वर्णतराणि विट्ठो सिणिद्धगंधलुद्धमुद्धालिमालुम्माइसि हसिऊण लज्जाए मुहं परावत्तिऊण अहोमुहीए सुहम- लियसयलदेहमंडलो दवदवथाणुसरिसो । ततो दंसिओ राईए भणिय-पिय! नमम तुम्भ पयपसायो सुविणेऽवि कोऽ. इणा पिए! पेच्छह एयं भयवंतं उवसग्गिजंतं गंधलुङमहुयवि अवमाण करो ता किमेरिसं । ततो लज्ज पमुनूण अइ- रोहिं । ततो सुहमई विसायमावन्ना पिच्छह मए मंदभायाए भ. निबंध कहिये-जा अट्ठावयपव्वयाइसु सयं चेव गंतूण सु-| ती कया: नवरं प्रणत्थो जाओ, परं अहो मुणिणो धीरया, गंधेहिं बहलपरिमलपासियसयलदिसिमुहेहिं कोट्टपुडपा- अहो खंती,अहो मेरुगिरिस्सेव निप्पकंपया, तो गंतृण निवायमरहिं बासेहिं चुन्नेहिं पहाणपुष्फागुरुमाइएहिं पूर्य | रेमि उवसग्ग ति। अोइनाई गयणयलाओ निद्धाडिया सव्वे. करेमि । राइणा भणिय-पिए ! पूरेमि मणोरहे।विउब्वियं त
वि महुयरा । मुणिणो वि निश्चलमणोवाकायस्स झाणंक्षणमेव अणेगकिंकिणीजालमालोवसोहियं पलवं- तरियाए बट्टमाणस्स घाइयघाइकम्मचउकस्स निरावतमुत्ताहालाउलं माणकणगरयणखभसमूसियं गगणतलाव- रणं कसिणं पडिपुत्रं लोयावभासयं केवलाणं समुप्पत्रं । स्लीय सियचहुलविजयवेजयंतीविहुयदिसिवउज्जमुहमंडलं प- समागया य चउनिकाया देवा, कुषंति केवलिमहिम , सिंहाणरमणिज्जविमाण समारोविऊण ववगो चेव राया अट्टा- चंति चउद्दिसिं सुरहिगंधोदगसित्तभूमीए दिव्वं दसद्धव क्यपब्वयं , कयं परमसुरहिदव्वमीसजलेहिं पडपडहगीय- कुसुमरिसविरइयचारुचामीकरकमल, उबविट्रो य भयवं । पाइयरबपूरि जमाणगगणगर्णागरिकंदरविवरं विहीए तत्थ वंदिरो सदेवमणुयासुराए परिसाए,जयसूरेणावि खेयमजणं । पच्छा विरया पूया पहाणमुचकुंदमंदारासोयवउ- राहिवेण सह पियाए वंदिऊण परमविणपण भणियं-भय ! लपारियायकनियारचपाईकुसुमामंदामोयबासियदिसिवि. मरसिजाहि जमत्थावरद्धमम्हेहिं अनाणमोहमोहियमणेहिं । दिसिएहिं सुसिणिद्धगंधलुद्धचंचलचंचरीया उ सुहमई सह | भयवया भणियं-महाभाग! को तुम्हेत्थावरद्धो नियकम्मपभतणा पडिपुन्नमणोरहा अश्चंतरसियहियया, ताव पाच्छाइ- रिणइवसेण चेव पाणिणं सुहदुक्खाई परिणमंति तं सब्बहा यासेससरसवउलासोयकर्यबसहयारमंजरीबहुलामोश्रो ति- न खेलो कायव्वो। जो-"समसनुमित्तचित्ता, चरित्तिणो रिक्खाण वि नासियाविवरसंतावसंपायगो अग्याइयो असु-1 चत्तपुत्तहिसयणा।कम्मक्खयमुज्जुत्ता,अबरद्धेवि हुन कुप्पं हा गंधो , ततो ठइया नासिया , निन्छूढं हुं हुं ति ति॥१॥" भयवं! एवमेयं सच जहा चेव मुणिणो हति तदा भणतीए पुच्छिो य नियदइयो । सामि ! कस्सेरिसो गंधा वि उवसग्गकारणं जया वयं,कया तीसे महतिमहालियाए पअसहो तिरिक्खाण वि । खेयराहिवेण वि अवलोइऊण रिसाए धम्मदेसणा,तयावसाणे जयसूरिखेयराहिवो सह जावणंतराणि कहियं-पिए ! मा एवं दुगुंछ करेह , पेक्ख ण याए गो सटाणं, भुंजइ मणिच्छियाई भोगाई सुहमई पडि. एयं महप्पाण पुरतो सुद्धसिले काउस्सग्गट्टियं उद्धबाहुं पुन्नडोहला उचियसमए सव्वलक्खणधरं सुरूवं सुकुमालपासूरियाभिमुहं चत्तसयलसंग निष्पिवासं चत्तकलत्तपुत्तस- णिपायं दारगं पसूया।पइट्ठियं नाम कल्लाणगो,ततो तस्स रजहिसयरणजणबंधवसिणेहचारं श्राइच्चकरतावियमललित्तस- धुरापरिपालणसमत्थस्स दाऊणं रज्जं पब्बो सह जायाए गैरसवियजलाविलं देवदाणवरिंदवंददियपयकमलं पणा- जयसूरनरवई । काऊणं उग्गं तोकम्मं पालिऊण जहाविहीए ममित्तोवयारजण जणियपावसंतायोवसम । श्राउमाहीलेहपयं परमसामन्नं गतो देवलोगं सह सुहमईए, पुणो सुईप भणियं, महातवरिस अहीलणिज सया सीलसुयधर पिए ! एरिसा सुय ! कहेह किं सुहमई पुणो पाविस्सइ,सुरण भणियं-पिए ! चेव सवणा हवंति, जो-'मलमइलजुम्नवसणा,अन्हाणदंतव- सा संपयं देवलोगा चुया इहेव सुरपुराहिवस्स भज्जा जाया, रणविगहविणिमुक्का । छज्जीवधाविरया , जे ते तारति उभयं गंधप्यापभावेण अइहट्ठा राइणो परं संपह उप्पणं तं मुणिदु. पिा' ताए भागीय-सामिय एवमेयं, तहावि जइ फासुग्रोदएणं गुंछाजणियं कम्म, जाया तप्पभावेण अइदुग्गंधा सबलोयदु. परिमिएणं अंगपक्वालण मणुनायं होजा को दोसो हुंदो। गुणिज्जा-ततो मुक्का | एसा एयम्मि पासाए । सुईए भरिपयं. तश्रा भणिय रन्धा-पिएमा एवं पजपसु महादोसो सरीरसो इपाणवलह ! दुक्खिया अहं एयाए महाभागाए दुक्खणं । हणन्हाणस्स । जो-"सिंगारसंगमेयं, पढम जं मुसणं खरी- ता कहेह कियधिरं प्राइविपुन्नाए एत्थ अत्थेयब्वं ?, सुरणं रस्स । न्हागं तंबोला विव,यति लोप विविहाउ॥१॥" एवमेयं | भणियं-सामिणि!। एया पुब्बभवे चेव मुणिणो पुणो २ तहावि करेह मे मणसमाहि । धोएमो फासुभोदएणं , खमावणाए थोवमेत्तं कथं ता जा संपयं सत्त दिणे तित्थेस
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(१९०७) वासपूषाफल अभिधानराजेन्द्रः।
पासपूगाफल राण परमविसिट्टसुगंधेहि गंधपूयं करेइ ना सव्वदा नि- जिया भयवया वि पव्वाविया महाविमईए। इश्रो राइणाज्जरे । जापइ पुब्वायत्थसरीरा। एयकहावसाण सा पविट्रो य नियनगरे निरागदो वाहजालमोलरेलियकवोलो मयगावली हट्टतुट्टा पासाई पलोएड ता न पेनछह ते संसारसायर पिचितपतो। मयणावली वि दुक्करतवचरणअदाटुं सुमिहुणयं । तो सहस ति चित्ताश्या-किमेयं
रया विहपसह अजाहिं भावभुजयविहारेण देवो पि अहाउ सुमिणय?, कि वा मणवियप्पो?, किंवा देवेण पच्छवम्वेश | यक्खएणं चपिऊण विमाणाउ समुप्पन्नो खेयरसुत्रो.जातो य पडियोहिया?, एवंविहणाणावियप्पेहि सुई सुदेणं वाहि
सयलकलाकलावसीमाअायारो जोब्बणगुणरयणाणं संपुग्नया रयणी । ततो हट्टतुटाए जिणाययणसु काराविया पृया
पुन्नोदहिलावन्नजलनियरस्स । अन्नया तेण गयणंगणगामिणा विसिट्टपुप्फेहि, विसेसो सुविगंधगंधेहिं । ततो जिणपू
दिव्बविमाणारूढेण विट्ठा मयणावली भजा नियपडिसयस्स यारहाणमंतुत्थ पिसाउ व्व खणण देहाउ पणट्ठो असुहो गं
दुवारदेसे काउसग्गगया । तं तहाविहमवि दळूण पुवभवधो। जाया सहावसरीरा पच्चाविश्रो राया पासपरिवत्तिणा
म्भासो दठूणं जायअणुरानो परोदसेइ, अइदुल्लहा मूमिजणेणं । श्रमयरससित्तिणो व परमतोसमावन्नण दिनं
गोयराण नियविज्जाहररिद्धी. पयडेइ अणुराय, दंसह मयणपरमपारिओसियं, गतो सयं चेव नवरईमयणावलीपासे। हरि
वियारे, करेइ अणुकूलोषसग्गे, भणे महुरबयणहिं, कीस सभरेणं निम्भरेणं सयं चेव समारोथिया जक्खासणे, स-1 णं तुम किसोयरि ! कज्जेण विणा सुहोइसिरीसकुसुम माणीया महाविभूईए नियमंदिरे, काराविमो नयरमहसवो।।
व सुकुमालयलं, लावन्नस् निहाण, सधविलासाणं एवं पमोयभरनिभरस्स रनो निवेदयं उज्जाणपालेण ज-1
सादुल्लहं, अकयसुकयाणं नियसरीरं । एयाए खरककसहा देव! अमरतेयमुणिणो सयललोयालोयपयासगं समुप्पन्न
कटुकिरियाए हीणदरिद्ददुहियजमोहयाए नीश्रोपासिकीकेवलं वासं, समागया सुरासुरकिन्नरनरनियरा संपयं दे
ए ममाणुरायपरस्स पत्थणापवत्तस्स किंकरत्तमुवगययो पमाण । ततो भणियं मयणावलीए-सामिय! गच्छामो म-1
स्स पडिवयणं न देसि ?, सुणसु य अहं खेयरकुमारो मेयंको णिवंदणथं । जी-तप्पायपसायो चेव संपज्जति सयलस
नामा चलिओ य रयणमालाए बरकन्नगाए विवाहपनिमिभीहियाई, तुटुंति कम्मनियलाई, पणस्संति सयलसंसया, तं । दिवा तुम नायणियगमणविग्धकरा अंबरतलगएण । ता एवं तिपडिवजिऊण गतो महाविभूईए।वंदिओ य सबहुमाणं सुंदरि! पारुहसु दिव्ववरविमाणं, भुंजसु मए सम दाणसह जायाए । उवविट्टो तयंतिए कहावसाणे भणियं मय
वोवमे भोए । होउ णं एयाए कटुकिरियाए इहलोए फलं.एवं णावलीए-भयवं! किंतं सुमिणयं ?, किंवा दाणयेण वा केण्ड
जाव बहु भणिया वि पडिवयम् न देह तो पुणो वि भणिया, अणुकंपाए अहं मूढमणा पडिवोहिया सुयमिहुणरुवेण ।
चारुपेहिणि ! कीस कन्नमय करेसि ? जइ वि तुम सिवसु मुणिणा भणियं-भद्दे ! सोहुवेमाणिो देवो तुम्भ पुब्वभव
हसाहणुज्जुया तहावि यमाणुकंपाए पहि, आरुह विमाण । भत्ता तित्थकरसयासाश्रो सब्वमवितहं वियाणिऊणं तुम्भ
पिए ! जहा निययदसणेणं आदिवाई लोयणाई, एवं कामदुक्खसायनिवडियाए पडियाए पडिबोहणत्थमागो। पु
ग्गिजलियजालतीसं पतितं मे सरीरं सरलसुकुमारसंगनीरणो विमयणवलीए भणियं-भयवं! कहिं पुण सो संपयं मह
निवहेण निव्वाहेह, एवं श्रणेगचाडसयाणि कुणतस्स वि निप्पा मह हिवयनिब्वुरकये,मुशिणाभणियं-एसचेव तुह पुरो
बालमुकज्माणोवगयाए तयावरणिजकम्मक्खोवसमेणं सचिटुइ मणिरयणभूसखोवसोहियसरीरोोतो उट्ठिऊण मयणा
मुप्पनं सव्वहा निरावरणं केवलं नाणं । ततो समागया देवा, वलीए अभिवंदिश्रो, भणिभोय। सागय अणुवयारपरहियक
जाश्रो दिवोजोश्रो कया सव्वायरेणं केवलिमहिमा. विम्हिरशिकरसियस्स साहम्मियस्स केसाई पुणो तुम पच्चुवयारं
श्रो तं तारिसं धम्ममाहप्पं पेच्छिऊण, चिंतिय च चिट्ठामि करिस्सादेवेश भसियं-सुधम्मकरणलालसे!जह तुम अशंत
ताव किमेत्थमन्नं भवइ, ततो प्रारूढो मयणावलीए अजाए पच्चुवयारकरस्पतराहालय तो होय सत्तमदिणे चविऊ
भद्द ? परिचय संसारवाससमारंभ, परिहरसु किंपागफलण खेयराहिवसुओ भविक्स, तुम मम गिहेहिं चेव जाहिसि
सरिच्छा विसया,ता पडिवजसु पुब्बखेयराहिव भवपरिचाअनोपडिबोदेबन्योतीष भणिय-धनाई जइमम एरिसी सत्ती |
लियं समणधम्मं ततो कहिश्रो सब्बो वि पुव्यभवपबंधो, सं होही । ततो गतो सुरो सट्ठाण, रयणावली य नायवुत्ता अगदुस्ससंदोहसंक्मपराइमा नियदइयं भणि उमादत्ता।
भरियं च सुरभवबोहिपत्थणावयणं, ततो संभरिया जाया जहा-सयलसमीहियसंपायमहियाणंददायग! अजउत्त!ना
पडिबन च समं मयणावलीए वयणं । गहिया सुगुरुसगास यंते भवसम्व,अवगओचेवस्स वि दुबिलसियस्स कम्मुणो
दिक्खा, परिवालिया जहोवइट्टा, काऊणं सयलमलविणास विवागो । जइएवं ता नाह ! विसजेह समीहियसंपायग!
जाव सम्वदुक्खपहीणो परिनिव्वुडो "जयसूर-सुहमईए, वि. हिययाणददायग! अज्जउत्त! नाम करेमि परमपव्वज्ज, मु
ज्जाहरचरियमुत्तमं नाउं । भो भविया? होह सया, समुज्जुया का चेव मप मासि मज्मे सुहकम्मपरिणापरिपेरिएण।। वासपूयाए ॥१॥"। बासपूयाकहाणयं सम्मतं । दर्श०२ तस्व । ततोराइणाईसि हसिऊण भणियं-तहा वि पुणरागय रयणं | वासयंत-वासयत-त्रि०ा सुरभि कुर्वति,कल्प०१अधि०३क्षण । को परिचयह । मयणावलीए भणिय-सामिय ! मा पडिबंधं |
वासर-बासर-पुं० दिवसे, "अहो दिणा वासरा दिक्षा दिकरेहाजो दारुण मोहपसरो,दुरंतो विसयाहिलासो,अषि
अहा।” पाइ० ना० १५७ गाथा । बारणिज्जपसरो मच्चू, अलंघणिज्जो दिव्वपरिणामो, संझम्भः | रायसरिसं तारुसं,तडितचंचलाउ लच्छीउ,जुवईसहावसरि- वासरेणु-वासरेणु-पुं० । वासके रजसि, औ०। सो विसयपरिणामो। ता नाह! विसज्जिहमम किमेत्थ पडि- वासव-वासव-पुं० । इन्द्रे, को० । श्रा० चू० । अए। वैबंधकारणं । ततो अइबहुप्रभत्थणाहिं कहकह वि विस- वाव्ये पर्वते, तोरणामिधे पुरे दृढशक्त खेचरस्य पुत्र्याः क
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(१९०८) वासव अभिधानराजेन्द्रः।
वासीचंदणकप्प नकमालायाः पतित्वार्थ युद्धमृते खेचरे, उत्त० प्र० सामागिता-त्रिका वर्षाम्बम्या स्थिते. प्राचा० कनककूटपुराधिपतौ राशि, यस्य कमला कमलसेना सु
"से आगंतारेसु वा ४ये मबंतारो उउवाहियं वा वासावासिलोचना नाम्न्यः तिम्रो दुहितरः। ध०र०१ अधिः। इन्द्रे, "अखंडलो सुरवई, पुरंदरो वासवो सुणासीरो" पाह
यं वा कप्पं उवातिणावेसा" प्राचा०२७०२ चू०२ १०२उ० ना० २३ माथा।'
वासिउकाम-वर्षितुकाम--त्रि० । वर्षणकामे, स्था०३ठा०३ उ० वासवदत्त-वासवदत्त-पुं०। विजयपुरराजे कृष्णदेवीपतौ, वासिक-वार्षिक-त्रि० । वर्षाकालसम्बन्धिनि, च० प्र०१२ विपा०२७० ३ ०।
पाहु। वासवदत्ता-वासवदत्ता-स्त्री०। प्रद्योतस्य दुहितरि अनार-वासिक्कच्छत्त-वार्षिकच्छत्र-न० । वार्षिकाणि-वर्षाकाले पावत्या आत्मजायाम् , श्रा० चू०४ अ०। प्रा० क०। | नीयरक्षणार्थ यानि कृतानि तानि वार्षिकाणिः तानि च छश्राव०। (तहतव्यता 'सेणिय' शब्दे वक्ष्यते ।। वासव- त्राणि । वर्षाकालिकजलनिवारणछत्रेषु, जी०३ प्रति०४दत्ताचरितनिबद्ध नाटकभेदे, श्रा० म०१०।
धिकारा। वासवस-वासवसत-पुं०। जयन्त, "वासबसुश्री जयंतो" | वासिक्कतव-चार्षिकतपस--नविर्षाकालिके तपसि,तथा वार्षिपाइ० ना० १८ गाथा।
कतपः कियता कालेन पूर्ण भवतीति?,प्रश्नः,अत्रोत्तरम्-पतवासवारो-देशी-तुरगे, दे० ना० ७ वर्ग ५६ गाथा ।
दालोचनातपः प्रशीत्यधिकशतोपवस्त्रप्रमाणमेकवर्षे पूरण वासवालो-देशी-शुनि , दे० ना० ७ वर्ग ६० गाथा । भवति,तत्तपः उपवासाचामाम्लेकाशनकरीत्या क्रियते,परमेवाससंठिय-वर्षसंस्थित-त्रि० । भारतादिवर्षाकारे, भ० ७
कान्तरोपवासान कर्तव्याः,पुनस्तिथेतिहानिर्भवति तदोप
वनमेकाशनकं वा कर्तव्यम्, परमाचामाम्लं नायाति ततः श०२ उ०।
पर्वदिने उपवस्त्रमेव समायाति । तथा विंशत्यधिकशता चावाससय-वर्षशत-न० शतसंख्येषु वर्षेषु, “वीसं जुगाई वा- माम्लानि तेषां षष्टयुपवासानि भवन्तीत्यनया रीत्या अशीससयं" भ०६ श०७ उ०। विंशत्या युगैर्वर्षशतम् । नं०। त्यधिकशतोपवार्षिकं तपः पूर्ण भवति, एकाशनकानि कर्म० । अनु० । ।
त्वधिकान्यतोयशनकान्यपि करोति तथापि तपः पूर्ण वाससयसहस्स-वर्षशतसहस्र-न । वर्षलक्षे, “सयं वासस- भवतीति ॥ ७० ॥सेन०४ उल्ला० ।। हस्साणं वाससयसहसं" भ०६ श० ७ उ० । दशभि-| वासिंदु-वाशिष्ठ-पुं० । वाशिष्ठगोत्रे,०प्र०१० पाहु०। श्रावर्षशतैः परिमिते कालविशेष, अनु। भ० । “दस वासस-] चाज। प्रा०म०। 'मंडियपुत्ते वासिट्टगोत्रे' कल्प०२याई वाससहस्स" भ०१ श०५ उ०।
धि०८क्षण । स्था। वाससयाउ(क)य-वर्षशतायुष्क-पुलावर्षशतमायुर्यत्र काले म
जे वासिहा ते सत्तविहा पमत्ता,तं जहा-ते वासिहा ते उंनुष्याणां स वर्षशतायुष्कः कालस्तत्र यः पुरुषः सोऽप्युपचा-] राद् वर्षशतायुष्कः । ऐदंयुगीने शतायुपि पुरुषे , स्था० १०
जायणा ते जारेकएहा ते वग्यावच्चा ते कोडिबा ते ठा०३ उ०।
समी ते पारासरा । (सू०-५५१४) स्था०७ ठा० ३ उ० । वासहय-वर्षहत-त्रि० । श्रववृष्टे," ऊअटुं वासहयं" पाइवासिद्रिया-वाशित्रिका-स्त्री० । ऋषिगुप्ताद वाशिष्ठसगोत्राना०२१७ गाथा।
निर्गतस्य मानवगणस्य तृतीयशाखायाम् , कल्प० २ अधिक वासा-वर्षा-स्त्री० । वृष्टौ , वृ०१ उ०२ प्रक० । वर्षाकाले , | रक्षण । नि० चू० १ उ०।
वासित्ता-चर्षित-त्रि० । प्रवर्षणकारिणि,स्था० ४ ठा०४ उ० । वासारत्त-वर्षारात्र-पुं०। वर्षाकाले, संथा। वृ०। वर्षा एव वा
वासिय-वासित-त्रिका पटवासकुसुमादिभिरपनीतदुर्गन्धभा. सो बर्षावासः । स द्विधा-प्रावृद , वर्षा रात्रश्च। तत्र श्रावणभा | .ग०२अधिका० भाविते. आव०४ अास्था । समत्पद्रपदमासौ प्रावृहुच्यते, आश्विनकार्तिकौ तु वर्षारात्रः, श्राह
नशब्दपरिणामे द्रव्ये, विशे० । आ० म०। च चूर्णिकृत्-"पाउसो-सावणो भद्दवो अ, वासारत्तोअस्सोश्रो कत्तिो अत्थि" वृ०१ उ० ३ प्रक० । श्राश्वयु-|
वृष्ट-
त्रिवर्षितुमारब्धे,शा० १ श्रु०१०। सुरभीकते, कल्प जादी, भ०६ श०३३ उ०। भाद्रपदाश्वयुजलक्षणे द्वितीये १ अधि०२ क्षण। ऋतौ, शा०१ श्रु०६अ। अनु० । ज्यो । वर्षाऋतौ,'वासा-वासी-वासी-स्त्री० । 'वसुला' इति ख्याते लोहकारोपकरणरत्तो य घणसमा' पाइ० ना०१५६ गाथा।
विशेष, हा० २६ अष्ट। आचा। शा वासावास-ववर्षा-स्त्री० । वर्षासु वर्षाकाले वर्षा-वृष्टिः व
|वासीचंदणकप्प-वासीचन्दनकल्प-पुं० । उपकार्यनुपकारिपवर्षा । वर्षाकालिकवृष्टी, स्था०५ ठा०२ उ०।
पोरपि मध्यस्थे, श्राव०५०। वासीव वासी-अपकारवर्षावास-पुं० वर्षासु प्रावासोऽवस्थानं वर्षावासः। स्था०५
कारी तां चन्दनमिव दुष्कृतं तक्षणहेतुतयोपकारकत्वेन कठा०२ उ०ा आचा। कल्प० दशा व्या वर्षा-वर्षाकालस्त ल्पयन्ति-मन्यन्ते वासीचन्दनकल्पाः।हा०। यदाह-"यो मास्मिन्यासः। पर्युषणायाम् , नि. चू० १० उ० । चतु- मपकरोत्येष,तत्त्वेनोपकरोत्यसौ शिरामोक्षाधुपायन, कुर्वाण सिके , कल्प०३ अधि०हक्षण । पं०भा०। पं०चू। औ०।। इव नीरजम्॥" अथ वास्यामपकारिणयां चन्दनस्य कल्प इव
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(१०८) बासीचंदणकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
वासुदेव च्छेद इव य उपकारित्वेन वर्तन्तेते वासीचन्दनकल्पाः। श्रा. होइ बलाणं सो पण,पढमऽणुप्रोगाओं सायम्बो१२॥ इच-"अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । निगदसिद्धा एव। सुरभी करोति वासी,मलयजमपि तक्षमाणमपि ॥२॥"वास्यां
एतेषामेव गतिं प्रतिपादयत्राहवा चन्दनस्येव कल्प प्राचारो येषां ते तथा । अथ वास्यां
एगो असत्तमाए, पंच य छट्ठीऍ पंचमी एगो। सम्दनकल्पाश्चन्दनतुल्या येते तथा । भावना तु प्रतीतैव ।
एगो अचउत्थीए, कण्हो पुण तञ्च पुढवीए ॥४१३॥ हा० २६ अष्ट । शा०।।
गमनिका-एकश्च सप्तम्याम् ,पञ्च च षष्ठ्याम, पञ्चम्यामेका, वासुइ-वासुकि-पुं० । स्वनामख्याते महानागे, द्वी।
एकश्च चतुर्थ्याम् , कृष्णः पुनस्तृतीयपृथिव्यां यास्यति, गतो वासुदेव-वासदेव-पुं० । बलदेवलघुभ्रारि त्रिखण्डभरता
वेति सर्वत्र क्रियाध्याहारः कार्यः । भावार्थः स्पष्ट एव ॥४१३॥ धिपे,तभरते अवसर्पिण्यां नव वासुदेवाः, त्रिपृष्टपादयस्तेषां श्राव० ११० प्रा० चू० (वासुदेवानां बलं 'बल' शब्दे पपितरो मातरः प्रतिशत्रवश्चैवमुत्सर्पिण्यां नव । ऐरवतजाश्च | वमभागे १२८० पृष्ठे व्याख्यातम् ।) विशे०। प्रा० म०। नव नव वासुदेवाः । ति० । श्राव० । स० । ती० । स्था। (वासुदेवो वासुदेवं न पश्यतीति 'दुई' शब्दे चतुर्थभागे साम्प्रतं वासुदेवादीनां वर्णप्रमाणप्रतिपादनायाऽऽह- । २५६५ पृष्ठे कपिलं प्रति मुनिसुव्रतस्वामिसंवादेनोक्तम् ।) वीण वासुदेवा, सव्वे नीला बला य सुकिलया।
अथ वासुदेवस्य रत्नान्याहएएसि देहमाणं, वुच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ४०२ ॥
चकं खग्गं चरधरण३,मणी य४माला तहा गया संखो। पढमोधरणूणऽसीई१,सत्तरि२ सट्ठी३अपम४पणयाला॥ एए सत्त उ रयणा, सब्बेसि वासुदेवाणं ॥ २६ ॥ अउणत्तीसंच धरणू६,छब्बीसासोलसब्दसेवह॥४०३।।
चक्रखगधनुर्मणयः प्रतीताः । माला सदैव चाम्लाना
देवापिता, गदा-कौमोदकीनामा प्रहरणविशेषा, शङ:गाथाद्वयं निगदसिद्धम्।
पाञ्चजन्यो द्वादशयोजनविस्तारिध्वानः पतानि सप्तरत्नासाम्प्रतं वासुदेवादीनां गोत्रप्रतिपादनायाऽऽह
नि सर्वेषामपि वासुदेवानां भवन्ति । प्रव० २१२ द्वार। वबलदेव वासुदेवा, अद्वेव हवंति गोयमसगुत्ता।
सुदेवस्य पुत्रो वासुदेवः । कृष्णवासुदेवे, प्रा. म. १ नारायण पउमा पुण, कासवगुत्ता मुणेअव्या ॥४०४॥ अ०। अनु०।" वासुदेवोऽभवत्तत्र (द्वारीवत्याम् ) बसुदेनिगदसिद्धा।
वनृपाङ्गजः। देवकीकुक्षिकासार-कलहंसःक्षितीश्वरः ॥२॥" वासुदेवबलदेवानां यथोपन्यासमायुःप्रतिपादनायाऽऽह- प्रा०क०१०। चउरासीइविसत्तरि२,सट्ठी३तीसा य४दसश्य लक्खाई। कृष्णवासुदेवस्य भेरीत्रयकथा तनेदाश्चैवम्पम्मद्विसहस्साई६, छप्पमा वारसेगं चह ।। ४०५ ॥ "वासुदेवस्स तिनि भेरीओ, तं जहा-संगामिया, अम्भुझ्या,
कोमुइया । तत्र प्रथमा संग्रामकाले समुपस्थिते सापंचासीई १ पास-त्तरी अ२ परमट्टि ३पंचवएणा ४ य ।
मन्तादीनां शापनार्थ वाद्यते, द्वितीया पुनरागन्तुके कस्मिसत्तरस सयसहस्सा ५, पंचमए आउअं होइ ।। ४०६॥ श्चित्प्रयोजने समुद्भुते लोकानां सामन्तादीनां परिवापनाय, पंचासीइ सहस्सा ६, परमट्टी ७ तह य चेव परमरस ८ । तृतीया कौमुदीमहोत्सवाद्युत्सवज्ञापनार्थम् । ततो तिषि वि बारस सयाइँह आउं, बलदेवाणं जहासंखं ॥ ४०७।।
गोसीसचंदणमइंतो देवतापरिग्गहियातो तस्स चउत्थी भेनिगदसिद्धाः।
री असिवपसमणी । तीसे उप्पत्ती कजिर-तेणं कालेणं साम्प्रतममीषामेव पुराणि प्रतिपाद्यन्ते-तत्र
तेणं समएणं सक्को देविदो, सो तत्थ देवलोगे सूरमज्झे
वासुदेवस्स गुणकित्तणं करेइ । अहो उत्तमपुरिसा एए - पोमणं बारवइतिगं४, अस्सपुरं५ तह य होइ चकपुरं६। वगुणं न गिराईति, नीएण य जुद्धेण न जुज्झति । तत्थ एवाणारसीरायगिह,अपच्छिमो जाओं महराएका४०८।। गो देवो असहिंतो श्रागतो वासुदेवो वि जिग्रसगासं वंनिगदसिद्धा।
दगो पट्टितो । सो अंतरा कालसुणयरूवं मययं विउव्वा दुएतेषां मातापितृप्रतिपादनायाऽऽह
ब्मिगंध । तस्स गंधेण सव्यो लोगो पराभग्गो, वासुदेवेमिगावई १ उमा चेवर,पुहवी ३ सीमा य ४ अम्मया।।
ण दिट्ठो भणियं-वरण अहो इमस्स कालसुण्यस्स पं
हुरा बंता मरगयभायणनिहितमुक्तावलि व्व रेहंति । देवोचिं. लच्छीमई६ सेसमई, केगमई८ देवई इन ॥ ४०६ ।।
तेइ सचं गुणग्गाही। ततो वासुदेवस्स प्रासरयणं गहाय भ६१ सुभद्दार सुप्पभ३,सुदंसणा४विजयश्वेजयंतीया | पहावितो। सो य मंदुरापालपण नातो तेण कहियं जहा तह य जयंती अपरा-जिआय तह रोहिणीरचेवा४१०॥ आसो हीरह। ततो कुमारा रायाणो य निग्गया, ते हवह पयावइ१ बंभोर,रुद्दो३सोमो४ सिवोपमहसिवो३।
देवेण हयविप्पहया काऊण धाडिया। वासुदेवो निग्ग
तो भण-कीस मम आसरयणं हरसि ?, एसो मम अग्गिसिहअदसरहेक,नवमे भणिए अवसुदेवेहा४११॥
श्रासो तुम्भ न होह। देवो भणति-धर्म गुज्मे परानिगदसिद्धाः।
जिऊण गिराहाहि । वासुदेवेण भणियं-वादं किह जुज्झामो, __ एतेषामेव पर्यायवक्तव्यतामभिधित्सुराह
तुम भूमिप अहं च रहेणं , तो रहं गेराह । देवो भण-प्रपरिमाओ पन्चजा, ऽभावामो नत्थि वासुदेवाणं। । संमेरदेण। एवं प्रासो हत्थी पडिसिद्धो। याया जुझाया.
२७८
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वाहित
वासुदेव इस
पडतो। परैर्गवामिष ( प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार) व्यापारणे, प्रव० ६ देवो भगादिदेश वासुदेवे भक्तिं पराजितोऽहं मेदि आसरवण नादं नीयजुदेव जुज्भेमि ततो देवो तु समासो भगति परेहि परं कि वे देखि ?" वासुदेवेण भणि- असिवोsसमणि भरि देहि । तेरा दिना । एसा तीसे भेरीए उत्पती ॥ " श्र० म० १ श्र० । विशे० ।
द्वार । 'अतरें नयणप्पगारेणं नयणं वाहणं भरणति' । नि० चू० १८ उ० । शिविकांवेगसरादिके, कल्प० १ अधि० ५ क्षण । स्था० । ज्ञा० । रा० । हस्त्यश्वबली बदांदिके, औ० । शकटादिषु प्रश्न० १ आश्र० द्वार। रा० । ग० । यानपात्रेषु, प्रश्न० ५ श्राश्र० द्वार । प्रवहणेषु प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । (वाहनविधिप्रत्याख्यानम् ' आणंद शब्दे द्वितीयभागे ११० पृष्ठ उक्तम् ।)
( १११० ) अभिधोनराजेन्द्रः ।
बासुदेवखंधावार- वासुदेवस्कन्धावार - पु० । वासुदेवकटकस निवेशे, प्रशा० १ पद वासुदेवघर-वासुदेवगृह-म० वासुदेववेश्मनि श्र०म० अ० वासुदेवपडिमा - वासुदेवप्रतिमा स्त्री० । वासुदेवमूर्ती वासुदेवपडिमाए मुद्दे अहिद्वारा काऊ ठितो' आ० म० १ ० । बासुपुत्र वासुपूज्य- पुं०। भरत क्षेत्र जे अवसर्पिण्या द्वादशे जिने, पञ्चा०९ विचा०म० बसचे देवास्तेषां पूज्यः वासुपूज्यः वसुपूज्य एव वासुपूज्यस्तत्र सर्वेऽपि तीर्थकृतो वासुपूज्याः । ततो विशेषमाह
उदधेनुं गच्छति" ० ० ११०
1
वाहय वाहक पुं० अभ्यारे विशे० अभ्यन्दमे उ०१०। पूएइ वासवो जं, अभिक्खणं तेण वासुओ सो । तस्मिंश्च भगवति गर्भगते वासवो देवराजोऽभीक्ष्णं व्याहत त्रि० व्याहतिदुऐ, यत्र पूर्वेण परं व्याहन्यते यथाजननीं पूजति, तेन वासुपूज्य इति वा पृषोदरादित्वा"कर्म चालि फलं या कर्ता न त्वस्ति कर्मा" मित्यादि । दिष्टरूपनिष्पत्तिः । अथवा वासवो नाम वैश्रमणः स गर्भ- अनु० । विशे० । श्रा० म० । वाधिते, नं० । गते भगवति तद्वाजकुलमभीक्ष्णं वसुभी रत्नैः पूजयति वाहरमाण - व्याहरत्वसुभी शनैः पूजयति वाहरमाण व्याहरत् ष० अहुपति प्रा० ४ पाद झा पूरयति तेन कारणेन वासुपूज्यः ! श्र०म० २ श्र० । अन्० । ध० वाहरिडं व्याहृत्य-श्रव्य० । श्रकार्येत्यर्थे, व्य० ४ उ० । स० [प्र० (एतद्विषयिका 'तिरथयर' शब्दे चतुर्थभागे २२५७ पृष्ठादारभ्य सर्पा पक्यतोक्का) वाहि-व्याधि-पुं० विशिष्टचिसपीडायाम् ०१०१२ अचिरस्थायिनि (विषा० ० ७ ० ) उपरकुष्ठादिके, वासुपुत्रस्सर वासट्ठि गणा वासट्ठि गणहरा होरथा ॥ स्था० १० ठा० ३ उ० । रोगे, तं० । प्रश्न० । ज्वरातिसारादी, द्वा० १६ द्वा० । वृ० । स्था० ।
। श्रव०
"
"
वासुपूज्यस्येह द्विषष्टिर्गणा गणधराश्वोक्ताः, आवश्यके तु पयष्टिरुक्रेति मतान्तरमिदमपीति स० १२ सम०
वासुपुत्रे णं अरहा सत्तारं धरणूई उड्डुं उच्चत्तें होत्था ।
२०६२ सम० ।
वासुपुजे शंभरहा वहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भविता अगाराचो अगगारियं पचहए। (०-५२०+) खा०६ ठा० । बासेसि व्यास ० प सन्धिर्वा ॥ १२॥ इति संस्कृतोः सन्धिः सर्वः प्राकृते पयोभाया भवतीति सन्धिर्वा बासइसी वासेसी कृष्णपाने प्रा० १ पाद । वाह वाह पुं० वाहनं वाह भने सू० १०३ अ०४ उ० । वाहयतीति वाहः । शाकटिके. सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० । धरिमप्रमाणचिन्तायाम्, ज्यो० २ पाहु० । अष्टनिराश मानने अनु व्याध - पुं०] 'अधो मनयाम् ||८२७८ ॥ इति यलोपः प्रा० । 'ल-घ-थ-ध-भाम् ॥ ८ । १ । १८७ ॥ इति धस्य हः । प्रा० । लुके, ० ३ ० ।
वाहड़ - व्याहति - स्त्री० । भजनायाम् विशे० । वाहगणो- देशी - मन्त्रिणि, दे० ना० ६१ गाथा । बाइण-वाहन- न० । शकटाद्याकर्षणे, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार ।
.
| वाहकहा- वाहनकथा-श्री०। वेगसरादिकथायाम्, “संतइयं गजन-मयंगलं घराघरांतर हलक्खं । कस्सन्नस्स वि सेन, विन्नासियसनुसिनंभो ॥ १ ॥ " स्था० ४ ठा० २ उ० । वाहणा-उपानहू - स्त्री० । पादरक्षिकायाम्, भ० २०१० वाहतेस-वाहस्तेन पुं० मार्गबीरे, माओव
चउव्हिा वाही पाचा, तं जहा बाइए पित्तिए वसंभि ते सन्निवाइए || (सू० - ३४३४) ।
केवल बातो निदानमस्येति वातिकः। एवं सर्वत्र नवरं संनिपातः संयोगो द्वयोस्त्रयाणां वेति । स्था० ४ ठा० ४ उ० | द्विविधो व्याधिः- साध्योऽसाध्यश्च । श्र०म० | (अत्रत्या वक्तव्यता 'इंदभूद' शब्दे द्वितीयभागे १४३ पृष्ठे गता ) रुजि पञ्चा० १७ विष० ।" बाहिरोगवेषणोदरसा परिणामसलिल ति" व्याधयः-- स्थिराः कुष्टादयो- रोगाः - सद्योघातिनः शूलादयस्तज्जन्याया वेदनाया योदीरणा सैव परिणामो यस्य सलिलस्य तत्तथा तदेवंविधं सलिलं येषान्ते तथा, अत एवामनोशापनीयकाः । भ० ७ श० ६ उ० । रोगे, “श्रयंको यलो, वाही तह श्रामयो रोश्रा” पाइ० ना०५१ गाथा । वाहिगत्थ-व्याधिग्रस्त - त्रि० । कुष्ठाद्यभिभूते, द्वा० १२ द्वा०| वाहिणी - वाहिनी - स्त्री० । नद्याम् को० । नि० चू० । सेमायाम्, "सेणा वरुहिणी वा--हिणी अणीयं चमू सिनं । " पाइ० ना० ३४ गाथा ।
"
वाहित व्याहुतवि० 'कृपा' ॥
११२०० इति
त इवम् प्रा० । सेवादित्यात्तकारस्य वा द्वित्वम् । प्रा० । श्राहृते, उत्त० १ श्र० । जी० । शब्दिते. झा० १ ० १ ० । आहते, "ग्रह वाहित्तो" । पाइ० ना० २४७ गाथा ।
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बाहिप्प
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वाहिप्प व्याहु विवाह-धा० भापये, "यातेर्बाद प्पः " ॥ ८६ । ४ । २५३ ।। व्याहरतेः कर्मणि भावे न्र 'वाहिप्प ' इत्यादेशो वा भवति । तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक । वाहिप्पर । वाहरिकार । व्याहियते । प्रा० ४ पाद । बाहिम- चाहिम- त्रि० वादनयोग्ये श्राचा० २ ० १ ० ४ अ० २ उ० ।
बाहिय व्याधित०
( १९९१) अभिधानराजेन्द्रः ।
46
०
० ३ द्वार । ज्ञा० । पीडिते, सूत्र० १० ५ श्र० २ उ० । भगन्दरातीसारकुष्ठमीलार्थः प्रभृतिरोगग्रस्ते, ग० १ अधि० । ०६०। विशिष्टविपीडायति शोकादितिथि विशिष्ट अधिर्यस्य स व्याधिः । स्थिरो रोगः कुष्ठादिस्तद्वान् । शा० १ ० १३ श्र० । पं० सू० । रोगिणि, स्था० ३ डा० ४ उ० । ग्लाने, बृ० ३ उ० । नि० चू० । इयाणि वाहियति । गाहा
रोगेण वाहिणेत्रं, अभिभृतो जो तु अभिलसे दिक्खं । सोलसविडो उ रोगी, बादी पुरा होइ अट्टविहो । ३५८ ॥ कंठा । इमो सोलस विहो रोगो चेव मग्गियं पंगु वडभभिम्मणि मलसंच सकरपमेहं । बहिरंधकुंटवडभ, गंडीको टीक्खतेसूई || इमो अट्ठविहो बाही- 'जर सास कास डाहे, अतिसार भगंदरे य सूले य । तत्तो श्रीरघात, श्रासुचिरे बाहिरोगविदो ॥१४' प्रसुधातित्वात् व्याधिः, चिरघातित्या शेगः ।
रोगवाहिघत्थं पव्वावेतस्स दोसा आणादी इमे य । गाहाछक्कायसमारंभा, नालचरित्ताण चेव परिहाणी ।
सण पीस परणय, दोसा एवंविहा होंति ॥ ३५६ ॥ यदि तस्स तिगिआउट्टति तो एकापविराधा प स चरित परिहाणी पिलाणवेयावच्च वावडस्स सुत्तत्थपोरिसीओ करैतस्य वाणपरिहासी । चडवशिमादियाण पीसं घयमादीण परणयं एवमादिपलिमं धदोसेहिं अप्पणो सक्रिया परिहाणी । श्रध न करेति से किरिथं तो उसो वा बापादति पापि तं पा पति।
किं चान्यत् । गाहा
।
जाता अहाहसाला, समया विव दुक्खिया पडियरंता तत्तियपडणासंता,होञ व समणाण वा होजा || ३६०|| 'अणाहसास ति ' आरोग्गसाला गच्छवासो श्रणाइसायत् । तत्थ सादयो अनस्य यम, अन्नस्त विरेव
णस्स असणं, असस्स पाण्यं, अमस्स व घयाइयं एवमादिउग्गमेता दुबिया जाता। पच्च कंठं रोगि ति गतं । नि० चू० ११. उ० ।
विश्व
अ० । स० । विशेषे, उत्त० ३३ प्र० । विशे० प्रकर्षे, सूत्र० २ ०१ श्र० । विविधार्थी विशेषार्थी वा विशब्दः । श्र० म० १ अ० | ध० । श्राचा० । सूत्र० भ० । विपा० | 'प्यादयः ||२| २१८ ॥ प्यादयो नियतार्थवृतयः प्राकृते प्रयोः पि-विअप्यर्थे, प्रा० २ पाद ।
विगि देशी-निहते दे० ना० ६६ गाया । विशंसोदेशी या दे० ना० ७२ गाथा ।
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विभड - विकट न० । प्रकटप्रकाशे, स० ११ सम० । विविधीधमि मधे, उत्त० २ अ० । नि० चू० ।
विश्रडभोई (म्) - विकटभोजिन् पुं० । विकटे प्रकटप्रकाि यान रात्री दिवाऽपि वा अप्रकाशे न भुले घरानाद्यभ्ययहरतीति विकटभोजी । अरात्रिभोजिनि, स० ११ सम० । विडि वितर्दिन' सम्बई- विताई बिच्छु पर्द मर्दिते - ईस्य ||२३६॥ इति दस्य डः शरीरसन्धिपीडने, प्रा० विवडीकरण-विकटीकरण - न० । विकसितमुकुलितार्थमुकुलितभेदनं कुर्यतो मालाकारस्येव श्रालोचने, आव० ४ श्र० । विश्रड्ड- विदग्ध - त्रि० । 'दग्धविदग्धवृद्धिवृद्धे ढः ॥८२॥४०॥ इति संयुक्तस्य चतुरे, प्रा०२ पा
विऋण - व्यजन- न० 'इः खमादी' ॥ | १ | ४६ ॥ इति यकारस्य इकारः । तालवृन्तके, प्रा० १ पाद । विजया वेदना खी०पता बेदना-चपेटा देवर-केसरे' ॥ ८ | १ | १४६ ॥ इत्येत इत्त्वम् । शारीरदुःखे, प्रा० १ पाद । विसिय विकसित त्रिविकास प्राप्ते, " दरविशखिनं " अन या विकसितम्। प्रा०२ पाद "विश्वविजवरकमसामयते "विकसितं परं प्रधानं परत्ननंमुखं नयने च यस्य स तथा प्रमोदपूरितत्वात् । कल्प० १ अधि० १ क्षण ।
3
विद्याण-वितान-न० 'कगचजेति' तलुक्। विस्तारे । प्रा० १पाद । विचार-विचार- पुं० । बहिर्भूमेर्गमने, पं० ० १ द्वार । (कथं कर्त्तव्यो विचार इति श्रस्य वक्तव्यता 'अहयार' शब्दे प्रथमभागे १० पृष्ठे गता । )
।
विमारिया - देशी - पूर्वाह्न भोजने, दे० ना० ७१ गाथा । विधातुओं-देशी- असहने, ३० ना० ६८ गाथा विद्यालो - देशी-संध्यायाम्, चौरे च । दे० ना० ६० गाथा । विकिणव्यतिकीर्ण त्रि० परिपाटथा प्रसुते मिलिते,
२ उ० | दे० ना० | वृन्दैर्निजावाससीमोशनेन व्याप्ते, भ० १
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श० १ उ० ।
विष्य-वितीर्ण-वि० अनुशा ० १ ० २० स्था
वाहिसमारुग्गविष्ठाण - व्याधिशमारोग्यविज्ञान - न० व्याधि- विकीर्य - त्रि० । गमनागमनाभ्यां व्याप्ते, शा०१ श्रु० १ अ० । समाचारोग्यं तदयबोधे पं० सू० ४ सूत्र वाही व्याधी-स्त्री० व्याधद्वितरि ०६ ४०
19
बाहोम व्याधोपम प्र० व्याधस्थानीये व्य० २४० । विवि-अव्य० विविधे-सूत्र० १० १२० प्रकारे, सूत्र० १० १२ श्र० । विरूपरूपे, सूत्र० १
विइष्मवियार - वितीर्णविचार - पुं० । वितीर्णो राज्ञाऽनुज्ञातो विचारोऽवकाशो यस्य विश्वसनीयत्वात् असोवितीयचारः । राजानुज्ञातविचारे, शा० १ ० १ ० । वियह वितृष्ण त्रि० “इत् रूपादी तृष्णारहिते, प्रा० १ पाद ।
१२ कार
अनेक ० १२
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(१११९) अभिधानराजेन्द्रः।
विउला विस-विदित्वा-श्रव्य० । विज्ञायेत्यर्थे, दश०१०प० । '
विविउमंत--विद्वस-पुं० । विवेकिनि, यथावस्थितसंसारस्वभाव. इशु उद्देसणं' विदित्वा समुद्देशनं परिणामादिकं शिष्यं ज्ञा- मय घेत्तरि, सूत्र. १ श्रु० ३ १०२ उ० । त्वेत्यर्थः । स्था०८ ठा० ३ उ०।
| विउल-विपुल-त्रि०। प्रभूततरे, सूत्र०२ शु०१ श्राहा। विडय-विदित-त्रिकाशाते, आव०१०। प्रतीते, झा०११ श्रोधारा बहुशब्दार्थे,विश। स्थाआ. मका विस्तीर्णे, ध्रु०१८ अ० । कलिते, पाइ० ना०६१ गाथा।
औ० । नि० स०ग. जं.पं.चू०। उत्स०। चं०प्र०। विउ-विद्वम्-त्रि० । सद्विद्योपेते, सूत्र०२ श्रु. १ अ० ।
आव० । स्था० । झा । श्रा. म. जी०। प्रतिपणे, तं० । सदसद्विवेकश, सूत्र०१५.२ ० २ उ० । संथमकर
झा। महति, स्था०५ ठा०३ उ०। स्वनामख्याने पर्वतविशेष,
भ०२ श० उ० विपलकालवेये, प्रश्न०४०द्वार। शरीऐकनिपुणे, सूत्र०१ श्रु०१०४ उ० । ज्ञातसर्वपदाथेखभावे, सूत्र०१श्रु०१६ अ०। विदितसंसारस्वभावे, श्रा-|
ग्व्यापिन्यां वेदनायाम् , स्था० ६ ठा०३ उ० । भ० । विशे
पग्राहिगयाम् , स्था०२ ठा०१ उ० विउलवट्टबग्धारियमल्लचा०१ श्रु०५ अ०५.३० । विवेकिनि, सत्र० १ श्रु. ६ अ०। पण्डिते, दश०४०। गीतार्थे,प्रश्न०५ संव० द्वार। |
| दामकलावं' कल्प०१अधि०५ क्षण । विशाले, "वियडं विउलं सापके, आव० ६ ० । परिक्षावति, श्रा० चू० ६ ०।
पिहुल.वित्थिनं वित्थयं उरु विसालं" पाइना०८ गाथा ।
विउलकयवित्तिय-विपुलकृतवृत्तिक-पुं० । विहितप्रभूतजीवविउकंति-व्यवक्रान्ति-स्त्री०। मरणे, भ०१ श० ७ उ० ।।
| के, वृत्तिप्रमाणं चेदम्-अर्द्धत्रयोदशरजतसहस्राणि ।यदाहविउक्कमण-व्यवक्रमण-न । यवने , स्था० ३ ठा० ३
१० | "मंडलियाणं सहस्सा, पीइदाणं सयसहस्सा" औ०। उ० । स्थानान्तरगमने, आचा०१ श्रु०८ १०८ उ०।
विउलकुलबालिया-विषुलकुलबालिका-स्त्री० । विपुलकुलाविउक्कम्म-व्यवक्रम्य-श्रव्य०। परित्यज्येत्यथे, सूत्र० १० श्च ना बालिकाश्चेति विग्रहः । उत्तमकुलजातायां बालिश्रु०१ १०२ उ०। प्राचा।
कायाम् , भ० ६ श० ३३ उ०। विउकस-व्युत्कर्ष-त्रि० । माने, सूत्र०१ श्रु०११०२ उ०। विउलखंध-विपुलस्कन्ध--त्रि० । विपुलो विस्तीर्णः स्कन्धों
श्रात्मनः श्लाघायाम् , प्राचा०१ श्रु०६ १०४ उ०। शदेशो येषान्ते तथा । महास्कन्धेषु.जी० ३ प्रति०४ अधिका विउच्छेय-व्यवच्छेद-पुं०। विनाशे, पश्चा० १७ विव०। विउलट्ठाणभाव-विपुलस्थानभाव-पुं० । विपुलं मोक्षहेतुविउण-व्यावर्तन-ना अतीचारानिवृत्ती, स्था० ८ठा०३
| त्वात्सयमस्थानं च सेवते तच्छीलश्च यः स तथा । संयम
| स्थानसेविनि, दश०६०। उ०। आचा।
विउलतरग--विपुलतरक-त्रि० । प्रभूततरके, नं० । विउण-वित्रोटन-न । विविधमनेकप्रकारं श्रोटनमपनय
विउलधण-विपुलधन--न०। प्रचुरगवादिके, भ०६ श०३३३० । नम् , सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अनुबन्धच्छेदने, शा०१ श्रु०१६
|विउलमा--विपुलमति-स्त्री०। विपुलं-बहु विशेषसंख्योपेतं अ०भ०। तदध्यवसायविच्छेदने, स्था०३ ठा० ३ उ०।
वस्तु मन्यते गृह्णातीति विपुलमतिः, बाहुलकारकर्तरि निआचा।
प्रत्ययः । यदि वा-विपुला पर्यायशतोपेता चिन्तनीयघटादिवविउद्दणा-विकुट्टना-स्त्री० विविधा विरूपा वा कुट्टना । जा
स्तुविशेषग्राहिणी मतिर्मननं यत्तत् विपुलमतिः । बहुप्राहितिमरणशोककृतायां शरीरपीडायाम् . सूत्र०१ श्रु०१२ अ०।। ण्यां वस्तुविशेषग्राहिण्यां वा बुद्धौ, प्रा० म०१०। विशे। विउट्टा-बी०विकुट्टन-न० । शल्योद्धरणे, ओघ०। औ० । कर्म । ग० । भ० । प्रव०। विउट्टित्तए-विवर्तयितुम्-अव्य० । अतिचारानुबन्धि विच्छे- | विउलं वत्थुविसेसेणं, नाणं तग्गाहिणी मई विउला। दयितुमित्यर्थे, स्था० २ ठा० १ उ०।
चिंतियमणुसरइ घडं, पसङ्गो पंजवसएहिं ।। १४ ।। वित्रोटयितुम्-अव्य० । अतिचारानुबन्धि विच्छेदयितुमित्य- विपुलं वस्तुनो-घटादेर्विशेषणानां देशक्षेत्रकालादीनां मानं थें, स्था० २ ठा० १ उ०।
संख्यास्वरूप ताहिणी मतिर्विपुला, सा च परेण चिन्तितं विकुद्दयितुम्-अव्य० । अतिचारानुबन्धि विच्छेदयितुमि- घटं प्रसङ्गतः पर्यवशतैरुपेतमनुसरति । सौवर्मः पाटलिपुत्यर्थ, स्था०२ उ०१ उ०।
अकोऽद्यतनो महान् अपवरकस्थित इत्याद्यपि प्रभूतविशेविउड-नश-धा । " नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगाल
षविशिष्टं घटं परेण चिन्तितमवगच्छतीत्यर्थः। प्रव० २७०
द्वार । पा० । विशे० । कल्प० । नं। प्रलावाः" ॥८।४।३१॥ इति नशेएर्यन्तस्य विउडादेशः।। विउडा। नश्यति । प्रा०४ पाद ।
| विउलमइलद्धि-विपुलमतिलब्धि-स्त्री०। पर्यायशतोपेतघटा. विउडि-विकुटित-त्रि० । विनाशिते, पाह० ना०
विवस्तुविशेषचिन्तनप्रवृत्तमनोद्रव्यग्राहिस्फुटतरं संपूर्णम
नुष्यक्षेत्रविषयं शानं विपुलमतिलब्धिः । प्रव० २७० द्वार ।' १८८ गाथा।
विशुद्धतरे संपूर्णमनुष्यक्षेत्रवर्तिसंक्षिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यप्रत्यविउत्त-वियुक्त-त्रि० । शून्ये , श्रा०म० १ अ०।
क्षीकरणहेतौ मनःपर्यायज्ञानभेदे, ग०२ अधिक। विउट्टियमंदमइप्पसर-विकुट्ठिमन्दमतिप्रसर-त्रि० चूर्णिततुः | विउला-विपला-स्त्री० । सकलशरीरव्यापितया विस्तीर्णायां स्वशाधिकद्धिमागल्भ्ये, जी० मतिः ।
! बेदनायाम् , जी. ३ प्रति०१ अधि० २ उ०।
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बिउलाउन अभिधानराजेन्द्रः।
पिउपा. विउलाउल-व्याकुलाकुल-त्रि०। प्रतिब्याकुले, और प्रव०१द्वार। युच् भूषणादिभिरलङ्करणे, १० । विउवसिय व्यवशमित-त्रि० । उपशमिते, पृ. ६ उ० ।
मण्डने, वृ०४ उ० । नानारूपायां विक्रियायाम् , स. ५
समः। वैक्रियलन्धी, स्था। विउवसिमोदीरमवयण-व्यवशमितोदीरणवचन-न । व्य
दोएहं गम्भत्थाणं विउबणा पमत्ता, तं जहा-पंचिदिवशमितस्य पुनरुदीरणे नामनि षष्ठे बचने , १०। अथ व्यवशमितोदीरणे वचनमाह
यतिरिक्खजोणियाणं चेव, मनुस्साणं चेव । (सू०-८५) खामितवोसिडाई, अधिकरणाई तुजे उईरेति । स्था० २ ठा० ३ उ०। ते पावा खायव्वा, तेसिं च परूपणा इणमो ॥ ५८॥ एगा जीवाण अपरियाइत्ता विगुनवा । (८०-१८) क्षामितानि वचसा मिथ्यादुष्कृतप्रदानेन शमितानि वो
'एगा जीवाणं' ति प्रतीतम् अपरियार 'तिपशमितानि। विविधमनेकधा मनसा व्युत्सृष्टानि क्षामितानि
पर्यादाय परितः-समन्तादगृहीत्वा वैक्रियसमुदातेग बाबान बतानि व्युत्वानि चेति क्षामितव्युत्सानि । एवंविधा
पुद्रलान् या विकुर्वणा भवधारखीयवैक्रियशरीररचनालान्यधिकरणानि ये भूय उदीरयन्ति ते पापाः-साधुधर्म
णा स्वस्मिन् स्वस्मिन्नुत्पत्तिस्थाने जीवैः क्रियते साएबासा सातव्याः।
कैव प्रत्येकमेकत्वावधारणीयस्येति सकलवैकियशरीतेषां चेय प्ररूपणा
रापेक्षया वा भवधारणीयस्वैकलक्षणत्वात् कधिदिति । उप्पायगउप्पले, संबद्धे कक्खडे य बाहू य ।
या पुनर्वापुद्गलपर्यादानपूर्विका सोत्तरवैकियररचनालाभावगृणा य मुच्छण-समुग्धायति घायणा चेव ॥५६॥ खा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद् बैक्रियलम्धिमतलहुश्री लहुगा गुरुगा, छम्मासा हीतिं लहुग गुरुगा य।
स्तथाविधशक्तिमत्वाकजीवस्याप्यनेकाऽपि स्वादिति पर्व
बसितम् । अथ बाह्यपुद्गलोपादान एवोत्तरक्रियं भवतीति छेदो मूलं च तहा, अणवट्ठप्पो य पारंची॥६॥ ।
तोऽवसीयते ?, येनेह सूत्रे 'अपरियारत्ता' इत्यनेन - हो साधू पूर्व कलई कृतवन्तौ, तत्र च क्षामितम्युत्सरे।
बिर्वला व्यवच्छियते इति चेद, उच्यते-भगवतीवचनाउपि तस्मिन्नधिकरणा । अन्यदा तयोरेक एवं भवति-एवं
त् । स्था०१ ठा। नाम त्वबा तदानीमहमित्थमित्थं च भलितः, एष उत्पादक उच्यते। अस्य च मासलघु । इतरोऽपि जूते-अहमपि
तिविहा विगुव्वणा पएखता, तं जहा-बाहिरए पोग्गस्वया तदानी किं स्तोक भरिणतः, एवमुक्त उत्पादकः प्राह
लए परियाइत्ता एगा विगुब्बणा, बाहिरए पोग्गले बयदि तदानीं त्वमणिष्यस्तदा किमहमेवमेव स्वामवेक्ष्ये परियाइत्ता एगा विगुन्वखा , बाहिरए पोग्गले एवमधिकरणमुत्पन्नमुच्यते। तत्र द्वयोरपि चतुलैघु । सं
परियाइत्ता वि अपरियाइता वि एगा विगुनवा । बद्ध नाम-वचसा परस्परमाक्रोशनं कर्तुमारब्धं तत्र चलुक। कर्कशं नाम-तटस्थितैरुपशम्यमानावपि नोपशाम्य
तिविहा विउबणा पत्ता, तं जहा-मम्भतस्तदा षड्लघु । 'बाहु' ति रोषभरपरवशतया बाहू- तरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विउमखा । - बाहवि युद्धं कर्तुं लग्नौ तत्र षडगुरुकाः । पावर्सना ना- म्भंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एमा विउम्बसाअम्भंम-एकेनापरो निहत्य पातितस्तत्र छेदः। योऽसौ नि
तरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाचा वि एगा इतः स मूछो यदि प्राप्तस्तदा मूलम् , मारणान्तिकसमुदाते समवहते अनवस्थाप्यम् , अतिपातनं नाम-मरणं तत्र पा
विउव्वणा । निविहा विउबला पायचा, तं जहा-बाराश्चिकम् । वृ०६ उ०।
हिरम्भंतरए पोग्गले परियाइचा एगा विउब्वचा,पा. विउवाय-व्यापात-पुं०। भ्रंशे , सूत्र०१ श्रु०३१०३ उ०। हिरम्भंतरए पोग्गले अपरियाइचारमा बिउम्बबाबाविउबिजमाणं-वैक्रियमाण-
त्रिवैक्रियतया परिणम्यमाने, हिरम्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता बि अपरिवाइवा वि विउविजमाणे पुग्यले चलेजा।
एगा विउव्वणा । (सू०-१२०) वैक्रियमाणो वैक्रियशरीरतया परिणम्यमानो वैक्रियमाणो 'विविहे ' त्यादि । सूत्रत्रयी कराव्या नवरं बाबा परवा शरीरे परिचार्यमाणो मैथुनसंशया विषयीक्रियमाणः लान् भवधारणीयशरीरानवगारक्षेत्रप्रदेशवर्तिनो बैकिशुक्रपदलादिः परिचार्यमाणो वा भुज्यमानः स्त्रीशरीरादौ यसमुदातेन पर्यादाय गृहीत्वैका विकुला क्रियत इति शेशुक्रादिरेव चलेत् । स्था०१० ठा०३ उ०।
पातान् पर्यादाय या तु भवधारणीयरूपैव साण्या,यत्पुनर्भवविउच्च-विकुर्व-धा० । सामयिको ऽयं धातुः । पिक्रियावाम्, धारणीयस्यैव किश्चिद्विशेषापादानं सा पयोदयापि, अपर्यापञ्चा०१ विव० । प्रव०।
दायाऽपि,इति हतीया व्यपदिश्यते । अथवा विकुर्वसा-मनविउव्वइत्ता-विकुयं-अव्य01 वैकिय कृत्वेत्यर्थे , उपा०२ करणं तत्र वाहापुद्गलानादायाभरणादीन अपर्यादायकाम०।
खसमा-रचनादिना उभयतस्तृभयथेति । अथवा अपर्वादायेविउव्वणा-विकुवणा-स्त्रीला 'विकुर्व' विक्रियायामिति धातुः,
ति कृकलाससपोदीनां रक्तत्वफणादिकरणलक्षति। एवं हि
तीयसूत्रमपि, नवरमभ्यन्तरपुद्गला भवधारणीवेनीवारिया प्रातरौलीवशादिदं गए।
बा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशमयगाडास्तेष्वेव ये वर्तन्ते से २७६
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अभिधानराजेन्द्रः।
विउव्वणा अवसेवाः , विभूमापक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यन्तरपुद्गला| अंतो २ अणुप्पविस्समाणा २ वेयणं उदीरंति उज्जलं. इति । तृतीयं तु बाह्याभ्यन्तरपुद्रलयोगेन याच्यमिति । तथाहि-उभयेषामुपादानाद्भवधारणीयनिष्पादनं तदनन्तरं
जाव दुरहियास (सू०-८६x) तस्येव केशादिरचनश्च", अनादानाच्चिरविकुम्वितस्यैव
'रयणप्पो' स्यादि रसप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! प्रत्येक मुखादिविकारकरणम् , उभयतस्तु बाह्याभ्यन्तराणामनभि
किम् एकत्वम् एकं रूपं विकुर्वितुं प्रभवः, उत पृथक्त्वं मतानामादानतोऽन्येचाश्चानादानतोऽनिष्टरूपभवधारणीये--
पृथक्त्वशब्दो बहुवाची। प्राह च-कर्मप्रकृतिसंग्रहणिचूर्णितररचनमिति । स्था० ३ ठा० १ उ० ।
कारोऽपि-"पुहुत्तसहो बहुत्तवाई" इति प्रभूतानि रूपाणि
विकुवितुं प्रभवः, 'विकुर्व' विक्रियायाम , इत्यागमप्रसिद्धो नैरयिकविकुर्वणामाह
धातुरस्ति यस्य विकुर्वणा इति प्रयोगस्ततो विकुर्वितुमित्युनेरइयाणं भते ! कि एगत्तं पभू विउव्वित्तए, पुहत्तं कम् । भगवानाह-एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितु पृथक्त्वमपि पभू विउन्वित्तए ?, जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा
प्रभवो विकुर्षितुम् , तत्रैक रूपं विकुर्वतो मुद्गररूपं वा ।
मुद्गरः प्रतीतः, भुशुण्दिरूपं वा भुशुण्ढिः-प्रहरणविशेषः, नेयब्यो जार दुरहियास । (सू०-२०६ )
करपत्ररूपं वा असिरूपं शक्तिरूपं वा हलरूपं गदारूपं वा एग 'ति एकत्वं प्रहरणानाम् ' पुहत्तं' ति , पृथक्त्वम् मुशलरूपं वा चक्ररूपं वा नाराचरूपं वा कुन्तरूपं वा पात्वं प्रहरखानामेष , जहा 'जीवाभिगमे' इत्यादि । आ- तोमररूपं वा शूलरूपं वा लकुटरूपं वा भिण्डमालरूपं वा सापकौवम्-"गोयमा! एग पिपभू घिउव्यित्तए, पुर्तं, विकुर्वन्ति । करपत्रादयः प्रतीताः, भिण्डमालः शस्त्रजातिपिप बिउम्बित्तए। एग विउम्बमाणे एग महं मोग्गररू- विशेषः, अत्र संग्रहणीगाथा क्वचित् पुस्तकेषु-“मुग्गबंवा भुसुढिरूवं वा" इत्यादि । 'पुडुत्तं विउठवमाणे मोग्गर- रमुसुंढिकरकय-असिसत्तिहलं गया मुसलचक्का । नारासवाणिवेत्यादि । "ता संखेजाई मो असंखेजाई । एवं सं- यकुंततोमर-सूललउडभिंडमाला य ॥ १ ॥" गतार्था बसाई सरीरा विउव्वंति , विउवित्ता असमयस्स कार्य नवरं 'करकात्ति कचं करपत्रमित्यर्थः, पृथक्त्वं विअमिहलमाणारयणं उदीरेंति विउल उज्जलं पगाढं कक्कसं कुर्वन्तो मुद्ररूपाणि वा यावत् भिण्डमालरूपाणि वा ताकावं फरसं निट्ठरं च तिब्ब दुक्खं दुग्गं दुरहियास"ति।। भ्यपि सहशानि (समानरूपाणि) नो असहशामि (अ)सतमोज्ज्वला-विपक्षलेशनाप्यकलाकितां विपुलां-शरीरव्यापि- मानरूपाणि तथा संख्येयानि-परिमितानि न असंख्येयाकां प्रगाढां प्रकर्यवती कर्कशां कर्कशद्रव्योपमामनिष्टा- नि-संख्यातीतानि विसशकरणे असंख्येयकरणे वा मित्यर्थः , एवं कटुको परुषां निष्ठुरां चेति , चराडा रौद्रा शक्त्यभावात् । तथा संबद्धानि स्वात्मनः शरीरसंलग्रानि सीमा झगिति शरीरव्यापिका दुःखामसुखरूपां दुर्गा-दुः- नासंबद्धानि-स्वशरीरात पृथग्भूतानि, स्वशरीरात् पृथसाश्रयणीयाम् । अत एव दुरधिसह्यामिति । भ० ५ श० ग्भूतकरणे शक्त्यभावात् , विकुर्वन्ति । विकुर्वित्वा अन्योन्य
स्य कायमभिनन्तो वेदनामुदीरयन्ति । किं विशिष्टामित्याहसंप्रति वैक्रियशक्ति विचिचिन्तयिषुरिदमाह
उज्ज्वला दुःखरूपतया जाज्वल्यमानां सुखलेशेनाप्यकलव
तामिति भावः। विपुलां-सकलशरीरव्यापितया विस्तीर्णा इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए नेरतिया किं एकत्तं
प्रगाढां-प्रकर्षेण मर्मप्रदेशब्यापितया अतीव समवगाढां कपभू विउन्वित्तए पुहुनं पि पभू विउवित्तए ?, गोयमा ! शामिव कर्कशाम् । किमुक्तं भवति ?-यथा कर्कशः पाषाएकत्तं पि पभू पुहुत्तं पिपभू विउवित्तए । एगत्तं विउव्वेमा- णसंघर्षः शरीरस्य खण्डानि त्रोटयति एवमात्मप्रदेशान् था एग महं मोग्गररूवं वा एवं भुसुंढिकरवत्तअसिससिहल
त्रोटयम्तीव या वेदनोपजायते सा कर्कशा तां, कटुका
मिध टुकां पित्तप्रकोपपरिकलितवपुषो रोहिणीकटुकगदामुसलचकणारायकुंततोमरमूललउडभिंडमाला य०जाब
व्यमियोपभुज्यमानमतिशवेनाप्रीतिजनिकामिति भावः। तभिंडमालरूवं वा पुहुत्तं पि विउव्वेमाणा मोग्गर- था परुषां मनसोऽतीच रौत्यजनिक निष्ठुरामशक्यप्रतीरूवाणि वा. जाव मिंडमालरूवाणि वा, ताई संखजाई कारतया दुर्मेदां चण्डाम्-रुद्रां रौद्राध्यवसायहेतुत्वात् । नो असंखेजाई संबद्धाई नो असंबद्धाइं सरिसाइं नो अस
तीव्राम्-अतिशायिनी दुःखां-दुःखरूपां. दुर्गा दुर्लझ्याम
त एव च दुरधिसह्याम्। एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं या. रिसाइं विउच्वंति, विउव्वित्ता अण्णमएणस्स कायं अभि
वत् पञ्चभ्याम् , 'छट्टसत्तमीसुण' मित्यादि। पासप्तम्योः पुनः हणमाणा अभिहणमाणा वेदणं उदीरेंति, उज्जलं विउलं पृथिव्यानरयिकाः बहूनि-महान्ति गोमयकीटप्रमाणत्वात् , पगाढं ककसं कडुयं फरुसं निहुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं लोहितकुन्थुरूपाणि-आरक्ककुन्थुरूपाणि वज्रमयतुण्डानि दरहियासं एवं० जाव धूमप्पभाए पुढवीए छहसत्तमासु | गोमयकीटसमामानि विकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा अन्योन्यणं पुढवीसु नेरइया बहू मा हंताई लोहियकुंथरूवाई क्य- स्य परस्परस्य कार्य-शरीरं समतुरता वाचरन्तः रामयतंडाइं गोमयकीडसमाणाई बिउंव्वंति, गोमय
समतुरझायमाणा अश्वा व अन्योन्यमारुहन्त इत्यर्थः ।
'स्वायमाणा खायमाणा भक्षयम्तो भक्षयन्तोऽन्तरम्तरनुप्रविकीडसमाणाई विउम्बित्ता अनमनस्स कायं समतुरंगेमा
शन्तोऽनुप्रविशन्तः 'सयपोरागकिमिया इव' शतपर्वकमय खा २ सायमाणा २ सयपोगगकिमिया विच चालेमाणा| इव इसुपर्वक्रमय इव 'बालमाणा'२ शरीरस्य मध्यभागेन स
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(१९१५) बिउब्णा
अभिधानराजेन्द्रः। चरन्तो वेदनामुल्यादयन्युज्ज्वलामित्यादि प्राग्वत् । जी. ३] उब्बइ जाव णो तं तहा घिउन्बइ । तत्थ संजे से प्रति०२ उ०। सौधर्मशानयोरेकत्वविकर्वणामाह
अमायी सम्मट्टिी उववमए असुरकुमारे देवे से उज्जुसोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवा एगत्तं पभू विउ यं विउब्बइ जाव तं तहा विउबइ । दो मंते! बागवित्तए, पुंहुतं पभू विउवित्तए ?, हंता पभू । एगत्तं विउ- | कुमारा एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारा वारमब्वेमाणा एगिदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा पहत्तं तरजोइसियवेमाणिया एवं चेव सेवं भंते ! भंते ति। विउबेमाणा एगिदियरूवाणि वा० जाव पंचेंदियरूवाणि | (सू०-६२६) वा । ताई संखेज्जाई पि असंखेजाई पि सरिसाई वि अ-| 'दो भंते ! असुरकुमारा' इत्यादि, यह माथिमिथ्यासरिसाई पि, संबद्धाई पि असंवद्धाई पि रूवाई विउव्यंति, दृष्टीनामसुरकुमारादीनामृजुविकुर्वणेच्छायामपि पविकुविउचित्ता अप्पणा जहिच्छियाई कज्जाई करेंति० जाव
र्षणं भवति तन्मायामिथ्यात्वप्रत्ययकर्मप्रभावात् । श्रमा
यिसम्यग्रष्टीनां तु यथेच्छ विकुर्वणा भवति तदा वोपेअच्चुभो। गेवेजणुत्तरोववाइया देवा किं एगत्तं पभू विउ
तसम्यक्त्वप्रत्ययकर्मवशादिति । भ०१८२०५०। वित्तए पुहुत्तं पभू विउवित्तए ?, गोयमा ! एगत्तं पि पुहु
भव्यदेवानां विकुर्वणां प्ररूपयवाहतं पि । नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विउब्बंति वा
भवियदबदेवा खं भते! कि एगतं पभ विउनिविउविस्संति वा । (सू०-२१७४)
त्तए पुहुत्तं पभू विउम्बित्तए ?, गोयमा ! एग पि ' सोहम्मीसाणेसु णमित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त !| कल्पयोर्देवा एकत्वम्-एकरूपं विकुर्वितुं प्रभवः पृथ-|
पभू विउम्बित्तए पुहुत्तं पि प विउवित्तए । एम कत्वं ? बहुनीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम ! एकत्वमपि प्रभवो| बिउबमाणे एगिदियरूवं वा जाव पेचिदियरू का, विकुर्वितुं पृथक्त्वपि प्रभवो विकुर्वितुम् , एकत्वं विकुर्व
पुहुत्तं विउन्बमाले एगिदिवरूवासि वा जाव पंचिदिम्त एकेन्द्रियरूपं वा द्वीन्द्रियरूपं वा श्रीन्द्रियरूपं वा चतु-|
यरूवाणि वा। ताई संखेजाणिवा असंखेजाति वा संरिन्द्रियरूपं वा पञ्चेन्द्रियरूपं या विकुर्वितुं पृथक्त्वं कुर्वन्तः, एकेन्द्रियरूपाणि यावत्पञ्चेन्द्रियरूपाणि वा, तााप सं
बद्धवाणि श असंबद्धाखि वा सरिसाहिबा असरिख्येयानि विकुर्वन्ति असंख्येयानि वा । तााप सर-| साणि वा विउव्वंति विउवित्ता तमो पच्छा अप्पयो शानि-सजातीयानि वा असदृशानि वा-विजातीयानि
जहिच्छियाई कजाई करेंति, एवं खरदेवा वि, एवं पसंबद्धानि-अात्मनि समवेतानि असंबद्धानि-प्रात्मप्रदेशेभ्यः
म्मदेवा वि । देवाहिदेवाणं पुच्छा, गोयमा। एग पि पृथग्भूतानि प्रासादघटपटादीनि, यथा चतुर्दशपूर्वधरा घटात् घटसहस्रं पटात् पटसहस्रं विकुर्वन्ति विकुर्वित्था प- पभू विउन्वित्तए पुहुत्तं पि पy विउवित्तए, यो चेवर श्चात् यादृच्छिकानि कार्याणि कुर्वन्ति, एवं तावद्याबदच्युत | संपत्तिए विउब्बिसु वा,विउचंति वा. विउखिस्संति वा। कल्पदेवा । गेवेज्जगदेवा णं भंते' इत्यादि प्रश्नसूत्र प्रती- भावदेवाणं पुच्छा, जहा भवियदव्वदेवा । (सू०-४६४) तम्, भगवानाह-गीतम! एकत्वमपि प्रभवः, विकुर्षितुं पृथ
'भविषदम्वदेवाण' मित्यादि । 'एगत्ते पभू विउम्बित्तर' कत्वमपि । 'नो चेव ण' मित्यादि. नैव पुनः संपत्त्या साक्षा
सि भव्यद्रव्यदेवो मनुष्यः । पञ्चेन्द्रियतिर्यम् वा बैकियलवैक्रियरूपसंपादनेन विकुर्वितयन्तो विकुर्वन्ति विकुम्बिध्य
म्धिसम्पन्नः, एकत्वम् एकरूपं प्रभुः-समर्थो विकुर्ववितुन्ति,एवमनुत्तरोपपातिका अपि वक्तव्याः। जी०३ प्रति०२२० ।
म् 'पुहुतं' ति । नानारूपाणि , देवातिदेवास्तु सर्वयोअसुरकुमाराणामृजुवक्रविकुर्बणा
त्सुक्यवर्जितत्वात्रविकुर्वते, शक्लिसद्भावेऽपीस्थत उच्यते दोभंते! असुरकुमारा एगसि असुरकुमारावाससि असुरकु
'नो चेव ण' मित्यादि । 'संपत्तीए' ति बैक्रियरूपसेमारदेवत्ताए उववमा। तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं । पादनेन, विकुर्वणशक्तिस्तु विद्यते, तल्लब्धिमात्रस्य विधविउबिस्सामि त्ति उज्जुयं विउब्बइ, वकं विउब्धिस्सामीति मानत्वात् । भ० १२ श०६ उ०। वंकं विउब्बइ, जं जहा इच्छइ तं तहा विउब्बइ एगे असुर
देवो बाह्यपुगलानादाय प्रभुः कुमारे देव उज्जुयं विउन्धिस्सामीति वंकं विउबइ, वंकं
देवे खं भंते ! महिडिए जाव महाणुमाए बाहिरए विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउवा, जं जहा इच्छइ णो | पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवयं एगरूवं विउब्धितं तहा विउव्वइ । से कहमेवं भंते ! एवं ?, गोयमा! त्तए १, गोयमा! नो इणद्वे सभडे । देवे खं भंते।बाअसुरकुमारा देवा दुविहा पएणत्ता, तं जहा-मायी मि- हिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू', हंता! मासेमेते! च्छादिदी उववरणगा य अमायी सम्मद्दिट्ठी उववरण- किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउषद, सत्यगए पोग्गगा य । तत्थ णं जे से मायी मिच्छद्दिट्ठी उववरणए ले परियाइत्ता विकुबइ, अमत्थगए पोग्गले परियाइअसरकुमारे देवे से णं उज्जुयं विउविस्सामीति बंकं वि-त्ता विकव्वइ, गोयमा! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता १ पुरतं इति युक्तः पाठः ।
। विउबइ, तत्थगए मेग्गले परियाइत्ता विउबा नो
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बिउवणा अभिधानराजेन्द्रः।
विउठवणा महारथ गए पोग्गले परियाइत्ता विउबइ । एवं एएणं वा तिते वाजव महरते वा कक्खडत्ते वाजाव लुक्खत्ते गमेजाव एगवळ एंगरूवं १, एगवां प्रणेगरूवं | से तेमाऽदेणं गोयमा जाव चिद्वित्तए । सञ्चेव ण भते. से २. अगवमं एगरूवं ३, भणेगवणं अणेगरूवं ४, जीवे पम्बामेव अरूवी भवित्ता पभ रूवि बिउब्वित्ताणं चिचउमङ्गो। देवे गंभंते ! महिडिए जाव महाणुभागे द्वित्तए?,णो इणद्वे समडेजाव चिट्ठित्तए गोयमा अहमेयं माहिरए पोग्गले अपरियाइता पभू , कालयं पोग्गलं जाणामि, जाव जम्मं तहागयस्स जीवस्स अरूवस्स अकनीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए नीलगं पोग्गलं वा का- म्मस्स भरागस्स अवेदस्स अमोहस्स अलेसस्स असरीरस्स लगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए, गोयमा! नो इणले सम-ताभोसरीराभो विप्पमुक्कस्सणो एवं पन्नायतितं जहा-काहे,परियाइत्ता पभू । से णं भंते ! किं इह गए पोग्गले तं लत्ते वा जाव लुक्खत्तेवा,से तेणऽद्वेणं ० जाव चिडित्तए वा
व नवरं परिणामेइ ति भाणियव्वं, एवं कालगपोग्गलं | सेवं भंते ! भंते ! ति । (मु०-५६७) लोहियपोग्गलत्ताए,एवं कालएण जाव सुकिल्लं, एवं णी
'देवे ण 'मित्यादि, 'पुवामेव रुवी भवित्त ' नि पूर्वलएणं जाव सुकिल्लं,एवं लोहियपोग्गलंजाव सुकिल्लत्ताए
विवक्षितकालात् शरीरादिपुद्गलसंबन्धात् मूतों भूत्वा मूएवं हालिदएणंजाव सुकिलं,तं जहा-एवं एयाए परिवा- सः समित्यर्थः प्रभुः 'अरूविति अरूपिण-रूपातीतम् अमूडीए गंधरसफास कक्खडफासपोग्गलं मउयफासपोग्गल
तमात्मानमिति गम्यते, 'गोयमा !' इत्यादिना स्वकीयस्य ।
चनस्याव्यभिचारित्वोपदर्शनाय सम्बोधपूर्वकतां दर्शयन्नुत्तताए २, एवं दो दो गरुअलहुअ २ सीयउसिण २ णि
रमाह-'अहमेयं जाणामि' नि अहमेतद्वदयमाणमधिकृतप्रबलुक्ख २, वस्माइ सव्वत्थ परिणामेइ, आलावगा य दो भनिर्णयभूतं वस्तु जानामि विशेषपरिच्छेदेनेत्यर्थः। पासादो पोग्गले अपरियाइत्ता परियाइत्ता । (सू०-२५३) मिति सामान्यपरिच्छेदतो दर्शनेनेत्यर्थः । बुज्झामि' ति 'देवे ण' मित्यादि, 'एगवनं' ति कालाद्येकवलम्-एक
बुध्ये-श्रद्दधे , बोधेः सम्यगदर्शनपर्यायवात् । किमुक्तं भवरूपम्-एकविधाकारं स्वशरीरादि, 'इह गए' ति प्रज्ञा- ति?-'अभिसमागच्छामिति अभिविधिना साजत्येन चावपकापेक्षया इह गतान्-प्रज्ञापकप्रत्यक्षासन्नक्षेत्रस्थितानि गच्छामि-सर्वैः परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छिनधि । अनेनात्यर्थः । तत्थ गए 'त्ति देवः किल प्रायो देवस्थान एव त्मनो वर्तमानकालेऽर्थपरिच्छेदकरवमुक्तमथातीतकाले एभिवर्तत इति तत्र गतान्-देवलोकादिगतान् 'भराणस्थ गए' रेव धातुभिस्तदर्शयत्राह-'मए' इत्यादि, किं तदभिसमन्वात्ति प्रमापकक्षेत्रादेवस्थानाचापरत्र स्थितान् , तत्र च गतम्, इत्याह-'जम'मित्यादि, 'तहागयस्स' ति तथागतस्वस्थान एवं प्रायो विकुर्व(रु)ते, यतः कृतोत्तरवैक्रियरूप स्य-तं देवत्वादिकं प्रकारमापन्नस्य 'सरूविस्स' त्ति वर्णगपर प्रायोऽन्यत्र गच्छतीति नो इह गतान् पुद्रलान् पर्या- धादिगुणवतः । अथ स्वरूपेणामूर्तस्य सतो जीवस्य कदायेत्यायुक्तमिति । 'कालयं पोग्गलं नीलपोग्गलत्ताप' थमेतत् ? इत्याह- सकम्मरस 'त्ति कर्मपुद्गलसम्बइत्यादी कालनीललोहितहारिद्रशुक्ललक्षणानां पश्चानां व- धादिति भावः । एतदेव कथमित्यत माह ' सगगस्स ' ति
नां दशद्विकसंयोगसूमण्यध्येयानि । एवं 'एयाए पडि- रागसम्बन्धात् कर्मसंबन्ध इति भावः । रागचेह मायावाडीए गंधरसफास ' ति इह सुरभिदुरभिलक्षणगन्ध- लोभलक्षणो ग्राह्यः, तथा ' सवेयस्स'त्ति स्व्यादिवेदयुक्तस्य, द्वयस्यैकमेव । तिलकटुकषायाम्लमधुररसलक्षणानां पञ्चानां तथा ' समोहस्स ' ति इह मोहः-कलत्रादिषु स्नेहो रसानां दशद्धिकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि, अष्टानां च स्पशो
मिथ्यात्वं चारित्रमोहो वा, · सलेसस्स ससरीरस्स ' नां चत्वारि सूत्राणि परस्परविरुद्धेन कर्कशमृदादिना -
त्ति व्यक्तम् , ' ताओ सरीराश्रो अविप्पमुक्कस्स' ति येन येनैकैकसूत्रनिष्पादनादिति । भ०६ श० उ०।
शरीरेण सशरीरस्तस्माच्छरीरादविधमुक्तस्य , 'एवं' ति देखो रूपीभूत्वा अरूपी न भवति
वक्ष्यमाणं प्रज्ञायते सामान्यजनेनापि, तद्यथा-कालत्वं वे
त्यादि , यतस्तस्य कालत्वादि प्रज्ञायते अतो नासौ तथादेवे णं भंते ! माहीडिए० जाव महेसक्खे पुवामेव रूबी
गतो जीवो रूपी सन्नरूपमात्मानं विकुर्व्य प्रभुः स्थातुभवित्ता पभू अरूवि विउन्वित्ता णं चिद्वित्तए, णो इणढे मिति । एतदेव विपर्ययोग दर्शयवाह- सच्चेव णं भंते !' समडे। से केपट्टेणं भते! एवं बुच्चइ देवे णं जाव खो पभू | इत्यादि, 'सव णं भंते ! से जीवे' ति यो देवादिरभूत् स अरूवि विउवित्ताणं चिहित्तए?,गोयमा महमेयं जाणामि, | एवासौ भदन्त ! जीवः पूर्वमेव विवक्षितकालात् 'अरूवि ' अहमय पासामि, महमेयं बुज्झामि,महमेयं अभिसमझा
ति अवर्णादिः 'विं' ति वर्णादिमत्त्वम् 'नो एवं पराणा
यति 'ति नैवं केवलिनाऽपि प्रज्ञायतेऽसत्वात् , असत्वं गच्छामि।मए एयं णाय,मए एयं दिडं, मए एवं बुदं, मए
च मुक्तस्य कर्मबन्धहेत्वभावेन कर्माभावात्तदभावे च शरीएवं अभिसममागयं, जम्मं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स
राभावाद्वर्याचभाव इति । नारूपी भूत्वा रूपी भवतीति । सकम्मस्स सरागस्स सवेदणस्स समोहस्स सलेसस्स ससरी-1 भ० १७ श०३ उ०। रस्सताभो सरीरामो प्रविप्पमुकस्स एवं पलायति । तं जहा
बायुकायस्य विकुषणामाहकालते वाजाव मुक्लित्ते वा सुभिगंधत्ते वा दुम्भिसंधत्ते । भंते ! वाउकाए एगं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं
भवात
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विउवणा अभिधानराजेन्द्रः।
बिउठवचा वा हत्थिरू वा जाणरूवं वा एवं जुग्गगिल्लिथिलि-| तपताकं गच्छति । ऊवपताकास्थापना चेयम्-पतितपता. सीयसंदमाणियरूवं वा विउवित्तए १, गोयमा !नो इण्डे
कास्थापना वियम्,' एगो पडाग' ति एकतः एकस्या
दिशि पताका यत्र तदेकतःपताकम, स्थापना स्वियम् । 'दुहसमटे । वाउकाएणं विकुबमाणे पगं महं पडागासंठियं रूवं
ओ पडागं' ति,द्विधापताकम् , स्थापना स्वियम् । रूपान्तरविकुम्बइ । पभूणं भंते ! वाउकाए एगं महं पडागासंठियं| क्रियाधिकाराद्वलाहकसूत्राणि 'बलाहए 'त्ति मेघाः, 'परूवं विउवित्ता प्रणेगाई जोयणाई गमित्तए १, हता! रिणामेत्तए त्ति बलाहकस्याजीवस्येन विकुर्वणाया असम्भपभू । से भंते ! किं पायड्डीए गच्छइ परिड्डीए गच्छइ ?,
चात्परिणायितुमित्युक्तम्, परिणामश्चास्य विभ्रसारूपः ।
'नो श्रादहीए' त्ति अचेतनत्वान्मेघस्य विवक्षितायाः शक्लेरगोयमा! आयड्डीए गच्छइ णो परिडीए गच्छइ, जहा
भावानात्मा गमनमस्ति । वायुना देवेन वा प्रेरितस्य मआयडीए एवं चेव आयकम्मुणावि अायप्पयोगण तु स्यादपि गमनमतोऽभिधीयते 'परिहार 'त्ति 'एवं पुरिवि भाणियव्वं । से भंते ! किंऊसियोदयं गच्छइ,पयतोदगं
से प्रासे हथि' त्ति स्त्रीरूपसूत्रमिव पुरुषरूपाश्वरूपहगच्छद?, गोयमा ऊसिप्रोदयं पि गच्छइ पयोदयं पिगच्छ
स्तिरूपसूत्राण्यध्येतव्यानि । यानरूपसूत्रे विशेषोऽस्तीति इसे भंते किं एगो पडागं गच्छइ,दहरो पडागं ग
तद्दशैयति-पभू णं भंते ! बलाहए पगं महं जाणकवं
परिणामेत्ता' इत्यादि — पतोदयं पि गच्छई' इत्येतदन्तं स्त्री. च्छह, गोयमा! एगो पडागं गच्छह, नो दुहब्रो पड़ा
रूपसूत्रसमानमेव । विशेषः पुनरयम्-'सेभंते! किं एगगं गच्छइ । से णं भंते ! किंवाउकाए पडागा ?,गोयमा!| ओ चकवालं दुहओ चकवालं गच्छर ?, गोयमा ! चाउकाए णं से नो खलु सा पडागा । (सू० १५७)
एगो चक्कवालं पि गच्छा. दुहनो चकवालं पि गच्छर'
त्ति । अस्यैयोत्तररूपमंशमाह-नवरं 'एगो' इत्यादि। पभृणं भंते ! बलाहगे पगं महं इत्थिरूवं वाजाव संदमा
इह यानं-शकटं चक्रवाल-चक्रम् , शेषसूत्रेषु स्वयं विशेषो सियरूवं वा परिणामेत्तए ?, हंता! पभू । पभू णं भंते ! नास्ति. शकट एव चक्रवालसद्भावात् । ततश्च युग्यगिशिथि चलाहए एगं महं इत्थिरूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोय- ल्लिशिधिकास्यन्दमानिकारूपसूत्राणि स्त्रीरूपसत्रवदध्येयाणाई गमित्तए?, हंता! पभू । से भंते ! किंआयड्डीए गच्छइ,
नि । एतदेवाह-'जुग्गगिल्लिथिल्लिसीयासंदमाणियाणं तहेव'
त्ति । भ०३ श०४ उ० । परिडीए गच्छइ ?, गोयमा ! नो प्रायडीए गच्छइ,
भाषाविकुर्वणे प्रभुत्वमाहपरिडीए गच्छद । एवं नो आयकम्मुणा परकम्मुणा नो |
देवे णं भंते ! महिडीए. जाव महेसबखे रूबसहरसं विपायप्पभोगेणं परप्पभोगेणं ऊसितोदयं वा गच्छद पयो
उन्वित्ता पभू भासासहरसं भासित्तए, हंता पभ । सायं दयं वा गच्छइ । से भंते! किं बलाहए इत्थी', गोयमा!
भंते । किं एगा भासा भासासहरसं?, गोयमा!एगाणं सा बलाहए णं से णो खलु सा इत्थी, एवं पुरिसेण आसे
भासा णो खलु तं भासासहस्सं । (सू०-५३५४) हत्थी । पभूणं भंते ! बलाहए एग महं जाणरूवं परि
'देवे ण 'मित्यादि 'एगाणं सा भासा भास 'तिएकाsणामेत्ता अणगाई जोयणाई गमित्तए जहा इत्थिरूवं तहा | सौ भाषा, जीवैकत्येनोपयोगैकत्वात , एकस्य जीवस्यैकदा भाणियब्वं, नवरं एगो चकवालं पि दुहनो चक्कवालं एक एवोपयोग इष्यते,ततश्च यदा सत्याचन्यतरस्यां भाषायां
वर्तते तदा नाभ्यस्यामित्येकैष भाषेति । भ०१४ २०१3०1 पि गच्छइ (त्ति) भाणियव्वं जुग्गगितिथिलिसीयासंदमा
केरिसा विउबणा। णियाणं तहेव । ( सू० १५८)
तत्र केरिसविउवण' ति कीदृशी चमरस्य विकर्ष'पभूण' मित्यादि. 'जाणं' ति शकटम् 'जुग्गं' ति | णाशक्तिरित्यादिप्रअनिर्वचनार्थः प्रथम उद्देशकः । भ. ३ गोल्लविषयप्रसिद्धं जम्पानं-द्विहस्तप्रमाण वेदिकोपशोभितम्।। श०१ उ०। 'गिल्लिति हस्तिन उपरि कोल्लर रूपा या मानुषं गिलतीव गि- तत्र कीरशी विकुर्वणा ?, इत्याद्यर्थस्य प्रथमोदेशकस्येद लिः। थिलि त्ति लाटानां यदश्वपल्ल्यानं तदन्यविषयेषु । सूत्रम्थिली पुच्यते । 'सीय'त्ति शिविका कूटाकाराच्छादितो ज । तणं कालेणं तेणं समएणं मोया नाम नगरी होत्था. म्पानविशेषः। 'संदमाणि य'त्ति पुरुषप्रमाणायामो जम्पा
वएणो -तीसे णं मोयाए नगरीए बहिया उत्तरपुरनविशेषः। 'एगे महं पडागासैठियं' ति महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया पताकासंस्थितं स्वरूपेणैव वायोः पताकाकारशरी
च्छिमे दिसीभागे णं नंदणे नामं चेतिए होत्था । वरत्वात् वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति ।। मो--तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसड़े प'श्राइड्डीए' ति। श्रात्मर्या-आत्मशक्त्याऽऽत्मलब्ध्या वा। रिसा निग्गच्छह पडिगया परिसा । तेणं कालेशं तेलं 'आयकम्मुण' त्ति आत्मक्रियया 'प्रायपोगणं' ति
समएणं समणस्स भगवश्री महावीरस्स दोच्चे भंतेवान परप्रयुक्त इत्ययः । ऊसिनोदयं' ति उच्छित-ऊध्ये उदय-आयामो पत्र गमने तदुच्छ्रितोदयम्-ऊर्ध्वपताकमित्य
सी अग्गिभूती नाम अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे. थः । नियाविशेषण नेदम। पतोदयं ' ति पतदुदयं पति-| जाव पज्जुवासमाणे एवं बदासी-चमरे यं भंते ! -
२००
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विडम्बना अभिधानराजद्रः।
विउठवणा हॉरंदे असुरराया कमहिडिए ? केमहज्जुत्तिए । के- कारवन भन्यैः पालपन स्वयमिति, तथा महता रवेमहाबले ? केमहायसे १ केमहासोरखे ? केमहागु
ति योगः। 'माह' ति भाल्यानकप्रतिबद्वानीति खुद्धाः,
अथवा-'अहय' शिप्रतानि-अव्याहतानि नायगीमागे , केवइयं वसं पभू विउवित्तए । गोयमा ?
तवादितानि, तथा तन्त्री-बीणा तलताला:-इस्तताला: मरेशं प्रसुरिदमसुरराया माहिडिए. नाव महाणुमागे तला वा हस्ताा ताला:-कांसिकाः 'तुडिय'ति शेषसे तत्थ चोचीसाए भवणावाससयसहस्साणं चउसडीए सूर्याणि, ता घनाकारो ध्वनिसाधायो मृदो-मर्दनः सामाणियसाहस्सीणं वायचीसाए वायत्तीसगाणं. जाव पटुना-पक्षपुरुषेण प्रवादित इत्येतेषां बन्दोऽत एषां यो विशए, एवं महिडिए. नाव महाशुमागे, एवतियं
रवः स तथा तेन 'भोगभोगाई' ति भोगानि शम्दा
दीन् ' एवं महिहिए 'त्ति एवं महर्द्धिक व महर्टिका, पम् विउवित्तए, से जहानामए जुषति जुवाणे यन्महर्थिक इत्यन्ये । 'से जहानामप' इत्यादि, यथा इत्येवं हत्ये गण्हेजा, चकस्स वा नाभी अरयाउत्ता खुवति युवा हस्तेन हस्ते गृहाति, कामवशाब्राडतरग्रहसिवा, एवामेव गोयमा ! चमरे मसुरिंदे असुरराया वे
यता निरन्तरहस्ताकुलितयेत्यर्थः, रशन्तान्तरमाह-'चक
स्से' त्यादि, चकस्य वा नाभिः, किंभूता?-'अरगाउत्त' जिपसाग्याएवं समोह( खिजबाइ, वेउब्बियामुग्षा
त्ति अरकैरायुक्ता-अभिविधिनाऽन्विता परकायुक्ता 'सिसमोहलइसंखेजाई जोयखाई दंड निसिरइ,तं जहा-] य'त्ति' स्यात्-भवेत् , अथवा-अरका उत्तासितारखवावं. बाब रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसा
भास्फालिता यस्यां सा मारकोत्तासिता, एबमेव' तिनिडेद, महाबावरे पोग्गले परिसाडित्ता प्रहासुहुमे पोग्ग
रन्तरतयेत्यर्थः, प्रभुर्जम्बूद्वीपं बहुभिर्देवादिभिराकीर्ण कर्नु
मिति योगः । वृबैस्तु व्याख्यातं-यथा यात्रादिषु युवतियूपरिवारति, ब्रहामुहुमे पोग्गले परियाइत्ता दोच्चं पि
मो हस्ते लगा-प्रतिबद्या गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे, बेठबियसमुग्याए समोहखतिरत्ता पमर्थ गोयमा चमरे एवं यानि रूपाणि विकुम्बितानि तान्यकस्मिन् कर्तरि प्रभयुरिदै भारराया केवलकप्पं जंबुद्दी दीवं यहूहि तिबद्धानि । यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिरारकैः प्रतिमारकमारे देवेहिं देवीहि व भाइएणं वितिकिएणं
बद्धा घना निश्छिद्रा, पवमात्मशरीरमतिबीरसुरदेवैर्देवी
भिश्च पूरयेदिति। वेउब्वियसमुग्घाएणं' ति वैक्रिय करउपस्वर संबडं फुडं अवगाढा अवगाढं करेत्तए । अ
णाय प्रयत्नविशेषेण 'समोहण' ति समुपहन्यते समुइरें गोयमा ! पभू चमरे असुरिंदे असुरराया। पहतो भवति समुपहन्ति वा-प्रदेशान् विक्षिपतीति । तविरिषमसंखेने दीवसमुद्दे पहहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं स्वरूपमेवाह-संखजाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्डःदेवीदिय माइएखे वितिकिएचे उवत्थडे संथडे फुडे
ऊर्ध्वाध अायतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मयुगलसमूहः,
तत्र च विविधपुरलानादत्त इति दर्शयन्नाह-तद्यथा-रप्रवगावगाडे करेचए, एस वं गोयमा! चमरस्स
त्नाना-कर्केतनादीनाम् , इह च यद्यपि रत्नादिपुरला बारदस्स असुगएखो भयमेयारवे विसए विसयमेत्ते
औदारिका वैफियसमुदाते च वैक्रिया एव प्राह्या भवन्ति बुइए यो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुब्बति तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपादनाय का विकृविस्सति वा । (सू० १२६)॥
रत्नानामित्याद्युक्तम् , तच्च रत्नानामियत्यादि व्याख्येयम् ।
अन्ये त्याहुः-औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैकि'तेणं कालेण' मित्यादि सुगम , सबरं 'केमहिहिए । यतया परिणमन्तीति । यावत्करणादिदं दृश्यम्-वाराणं तिन रूपेण महद्धिकः ?, किंरूपा वा महर्द्धिरस्येति वेरुनियाणं लोहियक्खाणं मसारंगलाणं हंसगम्भाणं पुनयाकिंमहर्दिक, कियम्महर्दिक इत्यन्ये, 'सामाणियसा- णं सोगंधियाणं जोतीरसाणं अंकाणं अंजणाणं रयणाणं जाइस्सीणं' ति समानया-इन्द्रतुल्यया ऋख्या चरन्तीति यरूवाण अंजापुलयाणं फलिहाणं' ति, किम् ?, अत सामाविका 'तायत्तीसाए 'त्ति त्रयस्त्रिंशतः 'तायत्तीसगा- आह-'अहाबायरे'त्ति यथा बादरान्-असारान् पुद्गलान् पकति मन्त्रिकल्पानां यावत्करणादिदं दृश्यम्-"चउराई लो- | रिशातयति दण्डनिसर्गगृहीतान् , यश्चोक्तं प्रज्ञापनाटीकानपालार्य पंचराहं अग्गमहिसाणं सपरिवाराणं तिराहं परि- यां यथा-स्थूलान्-वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धासाणं सत्तरहं अणियाणं सत्तरहं अणियाहिवाईणं च उराणं
म् शातयती' ति तत्समुद्धातशब्दसमर्थनार्थमनाभोगिकं बउसट्ठीणं भायरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूणं च- वैफियशरीरकर्मनिर्जरणमाश्रित्येति । अहा सुहुमे' ति यमरचंचारायहाणीवत्थव्वाणं देवाण य देवीण य श्रादेवश्चं
था सूचमान्-सारान् 'परियाए' ति पर्यादत्ते, दण्डनिपारेवरचे सामित्तं भट्टितं श्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे सर्गगृहीतान् । सामस्येनादत्त इत्यर्थः। 'दोचं पि' त्ति पालेमाणे महयाऽऽयनहगीयवाहयतंतीतलतालतुडियघ- द्वितीयमपि धारं समुद्घातं करोति, चिकीर्षितरूपमिसमुरंगपहप्पयाइयरवेणं दिब्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे" र्माणार्थ ततश्च 'पभु' ति समर्थः ‘केवलकप्प' त्ति केसि तत्राधिपत्यम्-अधिपतिकर्म पुरोवर्तित्वम्-अग्रगा- बलः--परिपूर्णः कल्पत इति कल्पः--स्वकार्यकरणसाममित्वं स्वामित्वं-स्वस्वामिभावं भर्तृत्वम्-पोषकत्वम् श्रा- ध्यौपेतस्ततः कर्मधारयः , अथवा-केवलकल्पः-केवश्वरस्य-प्रामामधामस्व सतो बत्सेनापत्यं तत्तथा, त- | लज्ञानसदृशः परिपूर्णतासाधात्सम्पूर्णपर्यायो वा केवल
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बिउब्वणा
अभिधानराजेन्द्रः। करप इतिशब्दः । 'पाइन्न' मिख्यादय एकाधी अत्यन्तव्वा. रीहि य माइन्ने जाय विउम्बिस्संति वा । जतिसं मंप्तिदर्शनायोक्ताः । 'अदुत्तरं च पं' ति अथापरं च इदं च ते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो लोगपाला देसामध्योतिशयवर्णनम् . विसए 'क्ति गौचरो वक्रियकरण- वा एवं महिड्रिया. जाव एवतियं च शं पभ विशक्तः, अयं च तत्करणयुक्तोऽपि स्यादित्यत आह'विसयमेसे' ति विषय एच विषयमात्रं-क्रियाशून्यं 'बु.
| उम्बित्तए । चमरस्स यं भंते ! असुरिंदस्स असुररप'लि उक्तम् , एतदेवाह-संपत्तीए' लि यथोक्तार्थ- | नो अग्गमहिसीनो देवीमो के महिड्डियामो० जाव सम्पादनेन 'विम्बिसु घा' विकुर्वितवान् विकुति चा| | केवतियं च णं पभू विकुन्वित्तए १, गोयमा ! चविकुर्विष्यति वा..:चिकुर्व' इत्ययं धातुः सामयिकोऽस्ति,
मरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीभो विकुर्वणत्यादिप्रयोगदर्शनादिति।
महिड्डियामो० जाव महाणुभागाभो । तामो संवजति शं भंते ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया एमहि-|
त्व साणं साणं भवणाणं साणं साणं सामाणियहिए. जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, चमरस्स
साहस्सीणं साणं साणं महत्तरियाणं साखं सावं शंभंते ! असुरिंदस्स असुररनो सामाणिया देवा के
परिसाणं. जाव एमहिड्डियाभो भन्ने जहा लोमहिड्डीया. जाव केवतियं च णं पभू विकुन्धित्तए १, गपालाणं अपरिसेसं । सेवं भंते ! मते ! ति । (मु०१२७) गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररमो सामाणिया दे- __ भगवं दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीर बंदर या महिड्डिया. जाव महाणुभागा । ते शं तत्थ साणं
नमंसह वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तो गोयमे वायुभूती साणं भवखाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं सा
अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तथं गोथं अग्गमदिसीयं. जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमा
यमं वायुभूति प्रणगारं एवं वदासी-एवं खलु णा विहरति । एवं महिड्डिया. जाव एवइयं च णं
| गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया एवं महिडिए तं पभू विकुब्बित्तए, से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थे
चेव एवं सव्यं अपुट्ठवागरणं नेयव्वं भपरिसेसिय० जा
व भग्गमहिसीणं वत्तव्बया समत्ता । तए से तो णं हत्थे गेण्हेज्जा चक्कस्स वा नाभी अरयाउत्ता सि
गोयमे वायुभूती अणगारे दोच्चस्स गोयमस्स भग्गिभूइस्स या एवमिव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररबो एगमेगे सामाणिए देवें वेउब्धियसमुग्धापणं समो
अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पएसवे
माणस्स परूवेमाणस्स एयमद्वं नो 'सदहइ नो पत्तियइ मो हणइ समोहणित्ता. जाव दोच्च पि वेउब्धियसमुग्धापणं
रॉयड एयमदूं असद्दहमाणे अंपत्तियमाथे भरीएमाणे समोहणति समोहणित्ता पभू णं गोयमा ! चमरस्स
उद्याए उद्वेइ उद्वेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेशेव असुरिंदस्स असुररनो एगमेगे सामाणिए देवे केवल
उवागच्छद जाव पज्जुवासमाणे एवं बयासी-एवं खलु कप्पं जंबुद्दीचं दीवं बहहिं असुरकुमारेहिं देवहिं देवी
भंते ! मम दोच्चे गोयमे अग्गिभूती प्रमगारे एहि य पाइन्नं वितिकिन्नं उवस्थडं संथर्ड फुडं अवगा
वमातिक्खइ भासइ पन्नवेइ परूवेइ-एवं खलु गोदावगाढं करेत्तए । अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू च
यमा! चमरे असुरिंदे असुरराया महिडिर जाच महामरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो एगमेगे सामाणि यदेवे ति- णुभावे से णं तत्थ चोत्तीसाए भवखावाससक्सहरसा रियमसंखजे दीवसमुद्दे बहुहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं दे णं एवं तं चेव सध अपरिसेसं भाणियन्वं.वीहि य पाइएणे वितिकिरणे उवत्थडे संथडे फुडे व भग्गमहिसीणं वत्वया समत्ता । से कहमेयं मंअवगाढावगाढे करेत्तए । एस णं गोयमा ! चमरस्स | ते !, एवं गोयमादिसमणे भगवं महावीरे तब असरिंदस्स असुररनो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स | गोयमं वाउभर्ति प्रणगारं एवं बदासी-जएणं गोयमा! अयमेयारूचे विसर विसयमेते बुइए णो चेव णं संपत्तीए | टोच्चे गोयमा ! अग्निई मणगारे. सब पवमाविकब्बिस वा विकुब्बति वा विकुब्बिस्सति वा । ज-| तिक्खइ एवं भासइ एवं पनवेइ एवं परूनेई । ति णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररनो सामाणिया | एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया देवा एवं महिड्डिया. जाव एवतियं च णं पभू विकुन्धि- | महिडिए एवं तं चेव सत्वं० जाव अग्गमसए । चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररमो ताय- हिसीणं वत्तव्यया समत्ता सच्चे णं एसमद्रे । अहं तीसिया देवा केमहिड्डिया १, तायत्तीसिया देवा | पि णं गोयमा ! एवमातिक्खामि भासेमि पहामि जहा सामाणिया तहा नेयवा, लोयपाला तहेव, नवरं | परूवेमि, एवं खलु गोयमा ! चमरे जाव महिहिसंखेजा दीवसमहाभाणियच्या बहहिं असुरकुमारहिं-अ० ए सो चेव बितिमो गमो भाषियम्बो जाव अ
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(१९२०) अभिधानराजेन्द्रः।
विउवणा ग्गमहिसीभो, सचेणं एसमढे सेवं भंते ! भंते ! ति। तचे | भृती पुच्छति, उत्तरिख्ने सव्वे वाउभूती पुच्छइ, भंते ! चि गोयमे ! वायुभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभृती अणगारे समणं भगवं मबंदर नमसइ २ ता जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गिभूती श्र- हावीरं वंदति नमंसति २ सा एवं बयासी-जति णं भंते ! सगारे तेशेव उवागच्छइ २ ता दोच्चं गोयमं अग्गिभूतिं | जोइसिंदे जोतिसराया एवं महिडिए. जाव एवतियं च अलगारं वंदा नमंसति २ ता एयमद्वं सम्मं विणएणं णं पभू विकुवित्तए सके णं भंते ! देविदे देवराया केहजो जो खामेति । (मू०-१२८)
महिड्डिए जाव केवतियं च शं पभू विउवित्तए १, गोतए ग से सच्चे गोयमे वाउभृती अणगारे दोच्चेणं यमा ! सके यं देविंदे देवराया महिड्डिए०जाव महाणुभागोयमेशं अग्गिभूतिखामेणं अणगारेणं सद्धिं जेणेव स- गे, से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउमथे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-| रासीए सामाणियसाहस्सीणं० जाव चउण्हं चउरासीणं जति मं मंते ! चमरे मसुरिंदे असुरराया एवं महिड्डिए | आयरक्ख-(देव) साहस्सीणं अनसिं च० जाव विहरइ । •जाव एवतियं च णं पभू विकुब्बित्तए । बली णं भंते !| एवं महिड्डिए • जाव एवतियं च णं पभू विकुन्धिवहरोयसिंदे बहरोयणराया केमहिथिए • जाव केवइयं | त्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, नवरं दो चसं पभू विकृब्बितए ?, गोयमा ! बली णं वइरो- केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे अबसेसं तं चैव । एस गं गोबखिंदे वइरोयणराया महिड्डिए जाव महाणुभागे, सेणं | यमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरएणो इमेयावे विसए तस्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणि- विसयमेते णं बुइए नो चेव णं संपत्तीए विउब्बिसु वा यसाहस्सीखं सेसं जहा चमरस्स तहा बलियस्स विणे- विउव्वति वा विउव्विस्सति वा । (सू०-१२६) यध्वं । गवरं सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं ति भाणि
'नवरं संखेज्जा दीवसमुद्द' त्ति लोकपालादीनां सामायवं, सेसं तं चेव हिरवसेसं णेयवं, खवरं णाणत्तं निकेभ्योऽल्पतरद्धिकत्वेनाल्पतरत्याफ्रियकरणलब्घेरिति । बाणियव्वं भवणेहि सामाणिएहि,सेवं भंते ! भंतेत्ति। तच्चे 'अपुट्ठवागरण' ति अपृष्ठे सति प्रतिपादनं 'बारायणिगोयमे वायुभूती . जाव विहरति. भंते! ति । भगवं दे' ति दाक्षिणात्यासुरकुमारभ्यः सकाशाद्विशिष्ट रोचदोच्चे गोयमे अग्गिभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं
नं-दीपनं येवास्ति ते वैरोचना-औदीच्यासुरास्तेषु म
ध्ये इन्द्र -परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः 'साइरेग केवलकप्पं' वंदा २त्ता एवं वदासी-जइ णं भंते ! बली वइरोयणिंदे
ति औदीच्येन्द्रत्वेन बलेर्षिशिष्टतरलब्धिकत्वादिति । 'ए. वहरोयणराया एमहिड्डिए . जात्र एवइयं च णं पभू वं० जाय थपियकुमार'त्ति धरणप्रकरणामव भूतानन्दाविकुवित्तए । धरणे णं मंते ! नागकुमारिंदे नागकुमाररा- दिमहाघोषान्तभवनपतीन्द्रप्रकरणान्यध्येयानि, तेषु चन्द्रथा केमहिथिए जाव केवतियं च णं पभू विकुच्चि
नामान्येतद्गाथानुसारतो वाच्यानि--" चमरे १ धरणे २
तह चे-गुदेव ३ हरिकंत ४ अग्गिसीहे य ५। पुराणे ६ जलसए', गोयमा ! धरणे णं नागकुमारिंदे नागकुमार- कंते वि य ७, अमिय ८ विलंबे यह घोसे य १०॥१॥" राया एमहिडिए जाव से णं तत्थ चोयालीसाए एते दक्षिणनिकायेन्द्राः । इतरे तु--" बलि १ भूयारंगदे २ थे. भवणावाससयसहस्साणं छएहं सामाणियसाहस्सीणं ता
गुदालि३ हरिसह ४ऽगि ग्गि) माणव५ वसिट्टे ६ । जलप्पमे यत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं छएहं अ
७ ऽमियवा-हणे ८ पभंजण महाघोसे १०॥५॥" एतेषां च
भयनसंख्या-"चउतीसा १ चउच्चत्ता २" इत्यादिपूर्वोक्तग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तएहं अ
गापाद्वयादवसेया। सामानिकारमरक्षसंख्या चैयम्--"बियाणं सत्तरहं अणीयाहिवईणं चउत्तीसाए आयरक्ख
उसट्ठी सट्ठी खलु, छच्च सहस्सा उ असुस्थाजाणं । सादेवसाहस्सीणं अन्नेसि च जाव विहरइ । एवतियं च | माणिया उ एए, चउग्गुणा पायरषखा उ ॥१॥" - णं पभू विउवित्तए से जहानामए-जुवति जुवाणे जाव
अमहियस्तु प्रत्येकं धरणादीमा पद । सूत्राभिलापस्तु धर
णसत्रवत्कार्यः, ' वाणमंतरजोसिया वि ' ति व्यस्तरेपभू केवलकप्पं जंबुद्दीव दीपं जाव तिरियं संखेजे दी
द्रा अपि धरणेन्द्रयसपरियाग पायाः, पहेषु च प्रबसमदे बहूहिं नागकुमारीहिं जाव विउविरसंति वा । तिनिकायं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वौ हौ इन्द्रो स्याताम् , तद्यसामाणिया तायत्तीसलोगपालगा महिसीभो य तहेव , था-"काले य महाकाले १, सुसषपडिरूव २ पुण्णभहे य । जहा चमरस्स । एवं धरणे णं नामकुमारराया महिड्दिए ।
अमरबहमालिभदे, भीमे य तहा महाभीमे ॥ १॥ किंनरजाव एवतिय जहा चमरे तहा धरणेण वि, णवरं सं
किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे चेव तह महापुरिसे । अइका
यमहाकाये ७, गीयई चेव गीयजसे ८॥२॥" एतेषां खेजे दीवस मुद्दे भाणियव्यं । एवं जाव थणि यकुमारा
ज्योतिषकाणां च त्रायास्त्रशा लोकपालाश्च न सन्तीति ते बाथमंतरा जोइसिया वि, नवरं दाहिणिले सव्वे अग्गि-! नवाच्याः, सामानिकास्तु चतुःसहस्रसंख्याः । एतच्च
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fa
( ११२१ ) श्रभिधानराजेन्द्रः । बिडम्बला एतेषु च रिसियाणं सकेणं देविदेणं देवरष्णो दिव्वा देविड्डी ०जान अभिसममागया जारिसिया णं ( सकेणं देविंदेणं देवरथा दिव्वा देविड्डी ० जाव अभिसमयागया तारिसिया णं ) देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्डी ० जाव अभिसमन्नागया ।
से णं भंते ! तीसर देवे केमहिड्डिए ०जाव केवतियं च यं पभू विउव्वित्तए ?, गोयमा ! महिड्डिए जान० महाणुभागे । से णं तत्थ सयस विमाणस्स चउरहं सामाणियसाहसी चउरहं श्रग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिहूं परिसानं सत्तरहं अणियाणं सत्तण्हं श्रणियाहिवईणं सोलसरहं श्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अपेसिं च बहूणं वेमाणिया देवाण य देवीग० जाव विहरति, एवं महिड्डिए ० जान एवइयं च णं पभू विउच्चित्तए । से जहाणामए जुवर्ति जुवा हत्थे हत्थे रहेजा जहेव सकस्स तहेव० जाव एस णं गोयमा ! तीसयस्स देवस्स श्रयमेयारूवे विस विसयमेते बुड़ए नो चेव णं संपत्तीए विउ
सुवा ३ । जति णं भंते ! तीसए देवे महिड्डिए० जाव एवइयं च सं पभू विउव्वित्तए, सकस्स सं भंते ! देविंदस्स देवरभो सेस सामासिया देवा मडिया ?, तव सव्वं ० जाव, एस गं गोयमा ! सकस देविंदस्स देवरन्नो एगमेगस्स सामाजियस्स देवस्स इमेयारूवे विसयमेत्ते बुझ्ए नो चेव णं संपत्तीए विउत्रि वा विउध्विति वा विउव्विस्संति वा तायत्तीसाए य लोगपाल अग्गमहिसीणं जहेव चमरस्स नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे श्रमं तं चैव, सेवं भंते ! भंते ! ति । दोचे गांयमे • जाव विहरति । ( सू० - १३० )
' एवं खलु ' इत्यादि ' एवम्' इति वक्ष्यमाणन्यायेन सामानिकदेवतयोत्पन्न इति योगः, तीसए 'सि तिष्यका भिधानः सरांसि 'त्ति स्वके विमाने, पंचविहार पजत्तीए ति पर्याप्तिः - श्राहारसरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र पोढोका, इह तु पञ्चधा भाषामनः पर्याताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात्
चतुर्गुणाश्रात्मरक्षाः । श्रग्रमहिष्यश्चतस्र इति । सर्वेष्वपि दाक्षिणात्यानिन्द्रानादित्यं चाग्निभूतिः पृच्छति, श्रदांच्यांश्चन्द्रञ्च वायुभृतिस्तत्र च दाक्षिणात्येष्वादित्ये च केवलकल्पं जम्बुद्वीपं संस्तुतमित्यादि । श्रदीच्ये षु च चद्र च सातिरेकं जम्बूद्रीपमित्यादि च वाच्यम्, यथेाधिकृत वाचनायामसूत्रितमपि व्याख्यानं तद्राचनास्तरमुपजीव्येति भावनीयमिति । त कालेन्द्रस्त्रा --- भिलाप एवम् काले भंते! पिसाइंदे पिसाय-राया केमहिडिए ६ केवइयं च णं पभू विउत्ति ?, गोयमा ! काले ं महिहिए ६ से गं तत्थ असंखेज्जां मगरावाससहस्सां चउरहं सामाणियसाहसीं सोलसण्दं आयरक्खदेवसाहस्सी चउरहं श्रग्गमहसी सपरिवारां श्रसिं च बहूणं पिसायाणं देवा देवीण य आहेवचं ०जाव विहरद्द, एमहिहिए ६ एवइयं च गं पभू विउत्तिण जाय केवलकप्पं जंबुद्दीयं दीवं ०जाव तिरियं संखेचे दीवसमुद्दे ' इत्यादि, शक्रस्य प्रकरणे. 'जाव चराहं चउरासीण' मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम् - 'अहं श्रग्गमहिसी सपरिवाराणं चउरहं लोगपालाएं तिरहं परिसाएं सत्तरहं श्रणियाणं सत्तरहं अणियाहिबईगं 'ति, शक्रस्य विकुव्यंगोला ।
अथ तत्सामानिकानां सा वक्तव्या, तंत्र व स्वप्रतीतं सामानिकविशेषमाश्रित्य तवरितानुवादतस्तां प्रश्नयन्नाह
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जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया एमडिए ० जान एवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवाणुपिया गं प्रवासी तीस नामं अणगारे पगइभद्दए ० जाव विणीए छ घट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावे - माणे बहुपडिमा अट्ठ संवच्छराई सामध्पपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं भुसित्ता स िभत्ताइं श्रणसखाए छेदित्ता श्रालोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि मासि उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूतरिए अंगुल असंखेजभागमेत्तीए श्रोगाहणाए सकस्स देविंदस्स देवरलो सामाणियदेवत्ताए उववसे । तणं तीस देवे अहुणोववरणमेते समाणे पंचविहार पत्तीए पजत्तिभावं गच्छइ, तं जहा- आहारपजत्ती स रीर - इंदिय- आणापाणपञ्जत्तीए भासामणपञ्जत्तीए । तर यं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तभावं गयं समाणं सामाणियपरिसोववलया देवया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसा वत्तं मत्थए अजलिं कट्टु जएणं वद्धावेइ, वद्ध। वेइत्ता एवं वयासी अहो णं देवाणु पिएहिं दिव्वा देवडी दिवा देवजुती दिवे देवाणुभावे लद्वे पत्ते अभिसममागए जारिसाणं देवाप्पिएहिं दिव्या देविड्डी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसममा गए ता
१८१
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' लद्धे ' त्ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापेक्षया ' पत्ते 'ति प्राता देवभवापेक्षया ' श्रभिसमण्णागर' त्ति तद्भोगापेक्षया ' जहेव चमरस्स' सि श्रनेन लोकपालाग्रमहिषीणां ' तिरियं संखेजे दीवसमुद्दे' ति वाच्यमिति सूचितम् । भंते ! ति भगवं तच्चे गोयमे वाउभूती अणगारे समयं भगवं० जाव एवं वदासी- जति णं भंते ! सके दे-विंदे देवराया एपहिड्डिए ०जाव एवइयं च णं पभू विउच्वित्तए ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया केमहि - डिए ?, एवं तहेव, नवरं साहिए दो केवलकप्पे जं-बुद्दीचे दीवे अवसेसं तद्देव | ( सू० - १३१ )
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(१९२२) अभिधानराजेन्द्रः।
विउसमणया साखे शं मंते !' इत्यादि, ईशानप्रकरणम् इह च चत्त ७ छञ्चे-व ८ सहस्सालंतसुक्कसहसारे । सयचउरो पा. "एवं तदेव ' ति अनेन यद्यपि शक्रसमानवक्तव्यमीशा- णयपा-गएसुह--१० तिरणारणन्चुयश्रो ११-१२ ॥२॥" मेन्द्रप्रकरणं सूचितं तथाऽपि विशेषोऽस्ति , उभयसाधा- सामानिकपरिमाणगाथा-"चउरासीइ असीई, बावत्तरि सरणपदापेक्षत्वादतिदेशस्येति । स चायम्-'सेणं अट्ठावी- सरी य सट्ठी य । पराणा चत्तालीसा,तीसा वीसा दससहस्सा साए बिमाणावाससयसहस्साणं असीईए सामाणियसाह- ॥१॥" इहच शकादिकान् पञ्चैकान्तरितानग्निभूतिः पृच्छस्सीणं जाव चउराहं असीईणं भायरक्वदेषसाहस्सीणं ति।' ति, ईशानादींश्च तथैव वायुभूतिरिति.। भ०३ श० १ उ०। शानवक्तव्यतानम्तरं तत्सामानिकबक्तव्यतायां स्वप्रतीतम् । इदानी “निरयतिरिनरसुराणं उक्कोसविउठवणाकालो" तविशेषमाश्रित्य तचरितानुवादतः प्रश्नयबाह
इति त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाहजति स मंते ! ईसाये देविंदे देवराया एमहिडिए.जाव
अंतमुहुतं नरए-सु होंति चत्तारि तिरिम-मणुएसु । एवतियं च णं पभू विउवित्तए । (म०)एवं सामाणिय
देवेसु श्रद्धमासो, उकोसविउवणाकालो ॥१३२२ ॥ तावत्तीसलोगपालअम्गमाहिसीणं जाव एसणं गोयमा!
अन्तर्मुहूर्त नरकेत्कर्षतो विकुर्वणाऽवस्थानकालः, तिर्यईसाणस्स देविंदस्स देवरो एवं एगमेगाए अग्गमहिसीए शु मनुष्येषु चत्वार्यन्तर्मुहर्तानि, देवेषु भवनपत्यादिषु अर्द्धदेवीए अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए नो चेव णं
मासः पञ्चदशदिनान्युत्कृष्टतो विकुर्वणाकाल इति । प्रव० संपत्तीए विउब्बिसु वा०३॥ (सू०-१३२x ) एवं
२३० द्वार। सङमारे वि, नवरं चत्तारि केवलकप्पे जंबहीवे दीवे | विउव्वदुग-वैक्रियद्विक-न० । वैक्रियशरीरवैक्रियानोपानरूपे अनुचरं च शं तिरियमसंखेजे एवं सामाणियं तायत्तीस-|
वैक्रियोपलक्षिते वये, पं० सं०५ द्वार । कर्म। लोगपालभग्गमहिसीखं असंखेजे दीवसमुदे सम्बे विउव्वं- | विउन्बमाण-विक्रियमाण-त्रि० । विक्रियकरणवंशवर्तिनि, ति.सगंडमाराभोभारद्धा उवरिखा लोगपाला सब्वे विश्र
र स्था० ३ ठा०१ उ० । स्वेच्छया (सू० प्र०२० पाहु.) विसंखेजे दीवसमुद्दे विउध्विति, एवं माहिंदे वि, नवरं सा-|
कुर्वणां कुर्वति, भ० १२ श० ६ उ० । वैक्रियशरीरं कुर्वति,
- भ०३ श०२उ०। तिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे । एवं बंभलोए वि, विउबवग्गणा-बैक्रियवर्गणा-स्त्री० । वैक्रियशरीरमहलमानवरं भट्ट केवलकप्पे, एवं लंतए वि, नवरं सातिरेगे अट्ठ | योग्यवर्गणायाम , कर्म०५ कर्म। केवलकप्पे, महासुके सोलस केवलकप्पे, सहस्सारे सा- विउविउ-विकवितम--अव्य० । सिद्धान्तप्रसियो 'विकुर्व' तिरंगे सोलस, एवं पाणाए वि, नवरं बत्तीसं केवलं | इति धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः, ततस्तुमुन् । विएवं अच्चुए वि नवरं सातिरेगे बत्तीसं केवलकप्पे क्रियां कृत्वेत्यर्थे, सत्र०१ श्रु०११०२ उ० भ० । जंबुद्दीवे दीवे भन्नं तं चव, सेवं मंते ! भंते ! ति । तचे विउब्धिय-विकत्य-श्रव्य० । परिचारणायोग्य विधायेत्यर्थे, गोयमे वायुभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदइ | स्था० ३ ठा० १ उ०।। नमंसति जाव विहरति । तए णं समणे भगवं महावीरे | विकुर्वित-त्रि० । दैवशक्त्या कृते, आ० म० १ अ०। अन्नया कयाई मोयाभो नगरीमो नंदणामो चेतियाो पडि विउब्बियबोंदि-वैक्रियबोन्दि–त्रि० । विकुर्विता-वस्त्रादिनिक्खमहत्ता बहिया जणवयविहारं विहरहा (सू०-१३३), भिरलंकृता बोन्दिः-शरीरं येषां ते तथा। अलकृतशरीरेषु
(कुरुदत्तपुत्रवृत्तान्तं कुरुदत्तपुत्त 'शब्दे तृतीयभागे ५६१ | ०१ उ०३ प्रक० । पृष्ठे गतम्।) 'एवं सणंकुमारे वित्ति, अनेनेदे सूचितम्-'स-विउब्वियसमग्घाय-वैक्रियसमुद्धात-पु० । समुदातभेदे, कुमारे णं भंते ! देविंदे देवराया केमहिहिए ६ केवइयं |
(एतद्वक्लव्यताम् 'वेउब्वियसमुग्घाय' शब्दे दर्शयिष्यामः।) चणं पभू विउवित्तए ! , गोयमा ! सणंकुंमारे. ण देविंदे |
'विब्वियसमुग्धारण समोहयं' विहितोत्तरवैक्रियशरीरदेवराया महिहिए ६, से णं बारसण्हं विमाणावाससयसा
मिति । भ० ३ श०४ उ०। हस्सीणं वायत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं जाव चउण्डं बावत्तरीणं पायरक्खदेवसाहस्सीण' मित्यादीति,' अग्ग-| विउस-विदूम-पु०। कुशल, चउरा निउणा कुस महिसीणं ' ति यद्यपि सनत्कुमारे स्त्रीणामुत्पत्तिर्नास्ति | विउसा बुद्दा य पत्तट्ठा'पाइ ना०६० गाथा । तथापि याः सौधोत्पन्नाः समयाधिकपल्योपमादिदश-निरसन-व्यत
शविउसज-व्युत्सृज्य-अव्य० । परित्यज्येत्यर्थे, व्य०१ उ०। पल्योपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेश्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां | भोगाय सम्पचन्ते इति कृत्वाऽप्रमहिष्यः इत्युक्तमिति । एवं|
|विउसमणकालसभय-व्यवशमनकालसमय-पुं० । व्यवशममाहेन्द्रादित्राण्यपि गाथानसारेण विमानमानं सामानि- नं पुवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा । रताकादिमानं च विझायानुसन्धानीयानि । गाथाश्चैवम्-'क्ती
| बसाने, भ० १२ श०६ उ०। स भट्ट वीसा २, बारस ३ऽट्ट४ चउरो५य सयसहस्सा। विउसमाया-व्यवशमनता-स्त्री०। परस्मिन् क्रोधार्वित्तभारेण बंभलोया, विमाणसंखा भवे एसा ॥१॥ पराणासँ ६/ यति सति क्रोधोज्झने, भ०१० उ०।
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(१९२३) विउसमिय
अभिधानराजेन्द्रः।। विउसमिय-व्यवशमित-त्रि० । उपशमिते, स्था० ६ ठा०३ | १०। (व्युत्सर्गद्वारे द्रव्यम्युत्सर्गकरकराहकानां प्रशान्तत्वेग उ०नि० चू०।
भावनं 'करकंड' शम्दे तृतीयभागे ३५७ हे गम्।)
(ततो 'णमि' शब्ने चतुर्थभागे १८१० पृष्ठे बतुओं मेखकः।) विउसमियपाहुड-व्यवशमितप्राभूत-त्रि० । विशेषेणावसायितमवसानं नीतं प्राभृतं-कलहो येन स व्यवमितप्राभृतः ।
दवविउस्सग्गे खलु, पसनचंदो भवे उदाहर। व्युत्सृष्टकलहे , पृ० १. उ० ३ प्रक० ।
पडियागयसंवेगो, भावम्मि वि होइ सो पेव। विउसरण-व्युत्सर्जन-न० । परित्यजने, दर्श० १ तस्व। श्रा- द्रव्यम्युत्सों गणोपधिशरीरानपानादिव्युत्सर्गः । अथचा० । उत्सर्गे, आव० ५ अ०।।
या-द्रव्यव्युत्सगों नाम-आसध्यानादिभ्यायिनः कायोत्सर्गः,
अत एवाह-द्रव्यव्युत्सर्गे खलु प्रसनचन्द्रो राजर्षिर्भवसावाहविउसरणया-व्यवसर्जनता-स्त्री० । त्यागे, भ०२ श०५ उ०।
रणम् । भावव्युत्सर्गः स्वस्थानादिपरित्यागः। प्रथम-धर्मविउसविय-व्यवशमय्य-श्रव्य० । विविधमनेकप्रकारैर्द्रव्य- शुक्रध्यायिनः कायोत्सर्गः । तथा चाह--प्रत्यागतसंगो पदार्थप्रतिपत्तिपुरस्सरं मिथ्यादुष्कृतप्रदानेनावशमय्य उप
भावेऽपि-भावव्युत्सर्गेऽपि स एष प्रसनचन्द्रो राजर्षिकशमं नीत्वेत्यर्थे , पृ० १ उ०३ प्रक० । नि० चू०।
दाहरणमिति गाथाक्षरार्थः। प्रा०म०१०। मा०५०।
(अत्रार्थे प्रसन्नचन्द्रराजर्षिकथा 'पसरामचन्द' शये परविउस्सग्ग-व्यत्सर्ग-पुं० । विविधार्थों विशेषार्थो वा विश
मभागे ८११ पृष्ठे गता।) कुस्वप्नादौ कायोत्स, दः, उच्छब्दो-भृशार्थः, सर्जन-सर्गः, विविध-विशेषण आव०५०। वा भृशं त्यजनम्-अतीतसावद्ययोगमिति भावः। प्रा० म.१०।गौणादित्वात् व्युत्सर्गस्थाने-'विउसग्गों'। प्रा०]
| विउस्सग्गपडिमा-व्युत्सर्गप्रतिमा-श्रीबायोत्सर्गकर २पाद । परित्यागे, सच द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतो- णे, औ० । स्था। तथा पूर्वादिचतुष्याभिमुखस्य प्रत्येकागणशरीरोपध्याहारविषयो, भावतस्तु-क्रोधादिविषय इति ।।
हरचतुष्टयमानकायोत्सर्गे, स्था०४ ठा०३ ७०। आव०६०।ममत्वस्य त्यागे, उत्त० ३० अ०। निःस-विउस्सग्गारिह-व्युत्सई-नाकायचेष्टानिषेधोपयोगमाव तया देहोपधित्यागे, स्था०४ ठा०१ उ०। औ०। उप-| यत् दुःस्वमादिकमिव शुध्यति तत् ब्युत्साहनाजी प्रतिन योगसम्बन्धिनि कायोत्सर्गे, वृ०१३० ३ प्रक० । स्था०। प्रायश्चित्तभेदे, स्था०६ ठा०३०(म्युत्सर्गप्रायश्चित्तविभ० । अनेषणीयादिषु त्यक्तेषु गमनागमनसावधामस्वमद- पयः 'काउस्सग्ग' शब्दे वृतीयभागे ४२७ पूरे उहः।) शननौसन्तरणोच्चारप्रश्रवणेषु च विशिष्टप्रणिधानपूर्वककायवाखानोव्यापारत्यागे, ध०३ अधि०। प्रा०पू०।
|विउस्सिय-व्युत्मत-त्रिविविधमनेकप्रकारमुत्प्रावस्येन सि.
तो-बद्धः । स्वसमयेवभिनिविष्टे, सूब०१ श्रुर ०१०। द्रव्यभावग्युत्सर्गभेदानाह
संसारे उचितः। संसारान्तर्वर्तिनि, सूत्र.१ भु. १.। से किं तं विउस्सग्गे', विउस्सग्गे दुविहे पसते, विउड-विवध-त्रिका क-ग-ब-ज-त-इ-प-य-बां प्रायोकर जहा-दव्वविउस्सग्गे, भावविउस्सग्गेम। से कितंद- ।।१।१७७ ॥ इति बलुक। विदुषि, प्रा.१पाद । व्वविउस्सग्गे', दव्वविउस्सग्गे चउबिहे पसत्ते, तंजहा-विऊरमन-व्यवरमण-न० । विराधने, प.३ अधि। सरीरविजस्सगे गणविउस्सग्गे उवहिविउस्सग्गे भत्त-विकरिय-देशी । नहे, दे० ना०७वर्ग ७२ गाया। पाणविउस्सग्गे । से ते दबविउस्सग्गे । से किं तं मा-11
विऊड-यह-पुं०। रचनाविशेष, पशा०५विनाका वाविउस्सग्गे, भावविउस्सग्गे तिविहे पलत्ते, तं जहा
विभोग-वियोग-पुं० । क्षये, प्राचा०९७०४०. ३.। कसायविउस्सग्गे संसारविउस्सग्गे कम्मविउस्सग्गे । से किं|
: पित्रादिभिः सह विप्रयोगे, दर्श०४ तस्व । भाव। तं कसायविउस्सग्गे?, कसायविउस्सग्गे चउबिहे पयत्तेत विशोजय-वियोजन-न। विश्लेषणे- सूत्र. १ भु०५ . जहा-कोहकसायविउस्सग्गे माणकसायविउस्सग्गे मायाका १० खण्डने, विशे० । स्था। सायविउस्सग्गे लोहकसायविउस्सग्गे । सेतं कसायविउ-1
विभोयावहता-बियोजयिता-त्रि मोक्करि, स्था. बं. स्सग्गे । से किं तं संसारविउस्सग्गे, संसारबिउस्सग्गे च
२उ०। उन्विहे । पलत्ते, तं जहा-परइभसंसारविउस्सग्गे तिरिय
विभोल-देशी । प्राविग्ने, दे० ना० ७ वर्ग ६३ गाथा । संसारविउस्सग्गे मणुप्रसंसारविउस्सग्गे देवसंसारविउस्सग्गे । से तं संसारविउस्सग्गे । (सू०-२०)
विप्रोसिय--व्यवसित-त्रि० । विविधमवसितं म्बरसितम्।
पर्यवसिते, उपशान्ते, सूत्र.१ श्रु०१३ ०। 'संसारषिउस्सगे' सि नरकायुकादिहेतूनां मिथ्याष्टि
विख-विहन्ख-न । ब्रायमेवे, मा०पू०१०।। त्वादीनां स्यागः। औ०। (कर्मव्युत्सर्गः 'कम्मबिउस्सग्गशब्देहतीयभागे ३४२ पृष्ठे गतः।) इम्यभावव्युत्सर्गे, मावविविध-वृधिक-पुं० । 'इकपादौ ८११२स इति तार
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( ११२४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
विडि
स्वम् । प्रा० । “वक्रादावन्तः || १ | २६ ॥ इत्यनुस्वरागमः । विषyच्छुकण्टके जन्तुभेदे, प्रा० १ पाद ।
विं (वें) - वृन्त-न० । 'इदेदोवन्ते || १ | १३६॥ इति वृन्तशब्दे श्रुत इत् एत् श्रश्च भवतीति इदेदोत श्रादेशाः प्रा०] बन्धने, सूत्र० १ ० २ ० १ ३० । फलस्य मूले, आ० क० ४ श्र० । मूलनाले, ध० २ अधि० । विंटडाइ-वृन्तस्थायिन्- त्रि०| वृन्तेनाधोवर्तिना तिष्ठतीत्येवंशीलं बृन्तस्थायि । वृन्तमधोभागे उपरि पत्राणि इत्येवं स्थानशीले, रा० । आ० म० । श्री० ।
विटबद्ध - वृन्तबद्ध - न० । प्रतिमुक्तकप्रभृतिषु प्रज्ञा० १ पद । विंटल - विएटल-न० । तथाविधज्योतिषनिमित्तादिके छलो पजीवनोपाये, बृ० ।" चुझाइ विंटलकए, गरहिय संथवकर य तुज्झादि " वृ० १ उ० ३ प्रक० ।
विंतागी - वृन्ताकी - स्त्री० । गुच्छवनस्पतिभेदे, श्राचा० १ श्रु० १ अ० २ उ० । वृन्ताकीफलं न भक्ष्यम् । ध० २ अघि० । बिंदमाण - विन्दत् - त्रि० । लभमाने, नि० १ ० १ वर्ग
१ अ० ।
विंदावण - वृन्दावन - म० । मथुरासविधे यमुनातटस्थे वृन्दादेव्यावासभूते लौकिकवने, यो० वि० ।
बरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् ।
न त्वेवाविषयो मोक्षः, कदाचिदपि गौतम ! ॥१३= ॥ बरं- प्रधानं वृन्दावने - यमुना नदीतटवर्तिनि मधुरोपवनविशेषे रम्ये - रमणीये क्रोष्टुत्वम् शृगालत्वमभिवाषितम्अभिलषितम्, नत्वेव-नैव पुनरविषयः कदाचित्क्रियया साधयितुमयोग्यः मोक्षो ऽपवर्गः कदाचिदपि क्वाऽप्यवस्थावि शेषे वाञ्छितः । गौतमेति गालवेन निजशिष्य विशेषस्यामत्रणं कृतमिति । यो० बि० ।
बिंदु-पुं० न० | बिन्दु-पुं० । “गुणाद्याः क्लीबे वा" ॥८१॥३४॥ इति वा नपुंसकत्वम् । जलकणे, प्रा० । अनुस्वारपरिचायके, पतितबिन्दु संस्थाने, “बिन्दौ च वाग्बीजम् " जै० गा० । बिंदुसार - बिन्दुसार - पुं० । चन्द्रगुप्तसुते, अशोकश्रीमद्दाराज
पितरि मगधराजे, कल्प० २ अधि० ८ क्षण । विशे० । “चंदगुरुपपुतोऽयं, बिंदुसारस्स ननुश्रो । असोगसिरिणो पुत्तोअंधो जाय कागं ॥ ८६२ ॥ " वृ० १ उ० । नि० चू० १६ उ० । लोकशब्दोऽत्र लुप्तो द्रष्टव्यस्ततश्च लोकस्य विन्दुरिवाक्षरस्य सारं सर्वोत्तमं यत्तल्लोकबिन्दुसारम् । स०१४ सम० । चतुर्दशे पूर्वे, श्रा० म० १ ० | स्था० | श्राव० । हिणिज - बृंहणीय - त्रि० । मांसोपचयकारिणि, औ०। स्था० । शा० । जी० । धातूपचयकारिणि, जं० २ वक्ष० । जी० । संबद्धनीये, षो० ६ वित्र० ।
विकंपण - विकम्पन - न० । स्वस्वमण्डलाद्वहिरवष्वष्कणे, श्र भ्यन्तरप्रयेशने च । सू० प्र० १ पाहु० ।
सूर्यमण्डलानां विकम्पनमाह
विकपण विपत्ता सूरिए चारं चरति आहिते ति वदेजा १, तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीय परमत्ताओ । तत्थैगे एवमाहंसु-ता दो जोयणाई श्रद्धदुचतालीम तेतीतसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं रातिदिए विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरंति, एगे एवमाहंसु १। एगे पुरा एवमाहंसु - ता अड्डातिजाई जोगणाई एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु २। एगे पुरा एवमासु - तातिभागूणाई तिनि जोयणाई एगमेगेणं राइंदिए विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एव मासु ३ । एगे पुण एवमाहंसु-ता तिथि जोयलाई असीतालीसं च तेसीतिसयभागे जोयणस्स एग राइदिएवं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एवमाहं ४ | एगे पुण एवमाहंसु ता श्रद्धट्ठाई जोयणाइंगमेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहं ५ | एगे पुण एवमाहंसु ता चउभागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राईदिएवं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु ६ । एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि जोयणाई अद्धवावणं च तेसीतिसत भागे जोयणस्स एगमेगेणं राईदिएवं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु ७ । वयं पुण एवं वदामो-ता दो जोयणाई अडतालीसं च ए
"
ता केवतियं (से) एगमेगेणं रातिदिएवं दिकंपइत्ता श्रभितरं तथं मंडलं उवसंकमित्ता
9- पर्गादव एते तत्रानुक्तत्वादिहोलाः ।
तता गं पणतसिं च एगट्टिभागे
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भागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राईदिएवं विपत्ता २ सूरिए चारं चरति, तत्थ गं को हेतू इति वदे ?, ता प्रथमं जंबूदीचे २ ० जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते, ता जता खं सूरिए सव्वन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारस मुडुत्ते दिवसे भवति, जहलिया दुबालसमुहुत्ता राई भवइ । से क्खिममाणे सूरिए एवं संवच्छरं श्रयमाणे पढमंसि अहोरसि श्रभितराणंतरं मंडल उवसंकमिता चारं चरति । ता जया गं सूरिए अभितरातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा गं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता चारं चरति । तत्ता गं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं ऊणे. दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एडिभागमुहुतेहिं अहिया से शिक्खममाणे सूरिए दोसि अहोरसंसि अभितरं तवं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया गं सूरिए
चारं चरति,
जोयणस्स दोहिं
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(११२५). अभिधान राजेन्द्रः ।
विकपण
राइदिएहिं विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं अड्डारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुत्ते हिं ऊ दुवालसमुत्ता राई भवति, चउहिं एगडिभा गमुहुत्तेहिं अधिया । एवं खलु एतेणं उवाएणं णि
माणे सूरिए तताऽंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडतालीसं च raigभागे जोयणस्स एगमेगं मंडल एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपमाणे २ सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमिचा चारं चरति । ता जया गं सूरिए सव्वन्भंतरातो मंडलातो सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तता गं सव्वन्तरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीतेणं राईदिसतेणं पंचदसुत्तरजोयणसते विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवह, जहम्मए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । एस णं पढमं छम्मासे । एस णं पढमछम्मासस्स पजवसाणे । से य पविसमाणे सूरिए दो छम्मासं अयमाणे पढमंसि श्रहोरतंसि बाहिरातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता जता
सूरिए बाहिरातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तयां दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणसए एगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता चारं चरति, तता रंग अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, दोहिं एगट्टिभागेहिं मुहुतेहिं श्रहिए । से पविसमा सूरिए दोचंसि श्रहोरत्तंसि बाहिरचंसि मंडलसि उवसंकमित्ता चारं चरति । ता जया गं सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया गं पंचजोयणाई पणतीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स दोहिं राईदिएहिं विकंपइत्ता चारं चरति, राईदिए तहेव । एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमा सूरिए ततोऽंतराश्र तयातरं च मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई - डयालीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगमेगेणं राईदिएणं विकंपमाणे २ सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया गं सूरिए सव्ववाहिरातो मंडलातो सव्वन्धंत-रं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तता गं स-व्वबाहिर मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसतेणं पंचदसुनरे जोयणमते विकंपड़त्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उकोस अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भव--- इ । एस गं दोचे छम्मासे एस गं दोवस्त छ मासम्म पजवसाणे, एस ं आदिचे संवच्छरे, एस णं श्रदिवस संवरस्स पजवसाये || (सू० - १८ )
२ २
विकंपण
'ता केवइयं ते एगमेगें राईदिएं विकंपहत्ता' इत्यादि । ता इति पूर्ववत् कियत्प्रमाणं क्षेत्रमिति गम्यते । ' एगमेगें' ति अत्र प्रथमादेकशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकस्ततोऽयमर्थः - एकैकेन रात्रिन्दिवेन श्रहोरात्रेण विकम्प्य विकस्थ्य विकम्पने नाम - स्वस्वमण्डलाद् बहिरवण्यकणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा सूर्य-श्रादित्यश्चारं चरति, चारं चरन् श्राख्यात इति वदेत् ? । एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभाबोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्ररूपयति ' तत्थे' स्यादि । तx सूर्यविकम्पविषये खल्विमाः सप्त प्रतिपत्तयः परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-' तत्थेगे' त्यादि, तत्र -- तेषां ससानां प्रवादिनां मध्ये एके एवमाहु:-- द्वे योजने अधोंद्वाचत्वारिंशत् द्वाचत्वारिंशत्तमो येषां ते अर्धद्वाचत्वारिंशतस्तान—साद्वैकचत्वारिंशत्सङ्ख्यानित्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य । किमुरुं भवति ?--यशीत्यधिकशतसंख्यैर्भागैः प्रविभक्तस्य योजनस्य सम्बन्धिनोsधिकचत्वारिंशत्सङ्गयान् भागान् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यश्चारं चरति । अत्रैवोपसंहारमाह- एगे एवमाहंसु' । एके-- पुनर्द्वितीया एवमाहु:श्रर्द्धतृतीयानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य२ सूर्यश्चारं चरति । श्रत्राप्युपसंहारः- एगे एवमाहंसु ' २। एके पुनस्तृतीया एवमाहुः - त्रिभागोनानि त्रीणि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यचारं चरति । esोपसंहारः ' एगे एवमाहंसु' ३ । एके पुनञ्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहु:-- श्रीणि योजनानि श्रर्द्ध सप्तचत्वारिंशतश्वसार्द्धषट्चत्वारिंशतश्चेत्यर्थः, यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्वारं चरति श्रत्रैवोपसंहारमाह-- एगे एवमाहंसु ४ । एके पुनः पञ्चमा एवमाहु:-- श्रर्द्ध चतुर्थानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति । श्रत्रोपसंहारवाक्यम् - एगे एवमाहंसु ' ५ । एके पुनः प ष्ठास्तीर्थान्तरीया एवमाहु:-- चतुर्भागोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्वारं चरति । श्रत्रोपसंहारवाक्यम्- एगे श्वमाहंसु ' ६ । एके पुनः सप्तमा एवमाहुः चत्वारि योजनानि श्रपञ्चाशतच-साकपञ्चाशत्संख्यांश्च व्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं चरति । श्रत्रोपसंहारवाक्यम् एगे एवमाहंसु ' । तदेवं मिथ्यारूपाः परप्रत्तिपत्तीरुपदर्श्य, सम्प्रति स्वमतं भगवानुपदर्शयति - वयं पुण' इत्यादि । वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानोपलम्भपुरस्सरं वदामः । यदुत द्वे द्वे योजने श्रष्टाचत्वारिंशच्चैकर्षाष्टभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं चरति, चारं चरन् श्रख्यात इति वदेत् । साम्प्रतमस्यैव वाक्यस्य स्पष्टावगमनिमित्तं प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यति -- तत्थ को हेतू इति वपज्जा, तत्र - एवंविधवस्तुत स्वागतौ को हेतुः ?, का उपपत्तिरिति वदेत् भगवान् । एवमुक्ते भगवानाह -- ता अयण मित्यादि । इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परि
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अभिवानराजेन्द्रः। पूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च । 'ता जया ' मित्यादि ।| रेख खलु-निबितमेतेनोपायेन तत्तम्माडलप्रवेशप्रथमक तत्र यंदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं - लादूर्व शनैः शनैस्तत्तद्वहितमण्डलाभिमुखगमनरूपेण रति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षतः-1 तस्मात्तन्मएडलाधिकामन् तदनन्तरान् मण्डलात्तदनउकोऽधावण्मात्तौ दिवसों भवति , जघन्या चा-| न्तरं मण्डलं संक्रामन् २ एकैकेन रात्रिन्द्रिवेन वे योबसमुहूर्चा रात्रिः।' से निक्खममाले' इत्यादि। जने अष्टाचत्वारिंशतं वैकषष्टिभागान् योजनस्य निष्कततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिकामन् स स्यों नवं सं- म्पयन् २ प्रथमपएमासपर्यवसानभूते ज्यशीत्यधिकशततवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे| मे अहोरात्र सर्ववाय मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । 'सम्मितराणंतरं' ति-सम्वन्तरस्य मण्डलस्यानम्तरं-ब- 'ता जया ' मित्यादि, सुगमम् । 'तया ण ' मित्यादि, रिमदितीय मण्डलमुपसंक्रम्य चारं बरति, 'ता जयाण' तवा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय-अवधीकृत्य तत्तमित्यादि। तत्र यदा तस्मिन्नवसंवत्सरसत्के प्रथमेऽहोरात्रे| द्गतमहोरात्रमादि कृत्वा इत्यर्थः, त्र्यशीतेन-यशीत्यधिसर्वाभ्यन्तरामन्तरं द्वितीयं मण्डखमुपसंक्रम्य सूर्यश्वारं घर- केन रात्रिदिवशतेन पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि विति, चार चरितुमारभते, 'तदाब 'मिति प्राग्वत्, योजने कम्प्य , तथाहि-एकैकस्मिन्नहोरात्र में योजने अमहाचत्वारिंशतं व एकपष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन प्रचत्वारिंशतं वैकधिभागार योजनस्य विकम्पयति, तरात्रिदिवेन पामास्येनाऽहोरात्रेण विकम्प्य चारं चरति । तो दे योजने ज्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते, जाताएवमत्र भावना-सर्वाभ्यन्तरे मंण्डले प्रविष्टः सन् प्रथ- नि त्रीसि शतानि पदयष्यधिकानि ३६६ येऽपि चाष्टामवणादृर्व शनैः शनैस्तदनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं त. चत्वारिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि ज्यशीत्यधिकेन शतेन गुथा कथंचन मण्डलगत्या परिभ्रमति यथा तस्याऽहोरात्र- एयन्ते, जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीस्यधिकानि स्थ पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशतमेक- ८७८४, तेषां योजनानयनार्थमकषष्टया भागो इियते, सपविभागान् योजनस्थापरे च में योजने अतिक्रान्तो म्धं चतुश्चत्वारिंश योजनशतम् १४४ , एतत्पूर्वस्मिन् योजभवति, ततो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे एव द्वितीयम- नराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि पडसमुपसम्पनो भवति , तत उक्तम्-'तया णं दो जो- ५१०, एतावत्प्रमाणं विकम्प्य चारं चरति ।' तया ण ' षणाई अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगेणं मित्यादि , रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमम् , सर्वबाह्ये च मराइदिएणं विकंपात्ता सूरिए चार चरति तया ' एडले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणावें शनैः शनैरभ्यन्तरमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचर- सर्ववाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि
काले गमिति पूर्ववत् अष्टादशमुहतों दिवसो भवति मण्डलगत्या परिभ्रमति येन प्रथमपण्मासपर्यवसानभूवाभ्यां मुहतैकषष्टिभागाभ्यामूनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिः द्वा- ताहोरात्रपर्यवसाने सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेज्यां मुहकषष्टिभागाभ्यामधिका । तस्मिन्नपि द्वितीये म- कषष्टिभागान् योजनस्थापरे च वे योजने अतिक्रम्य डले प्रथमक्षणादृा तथा कथश्चनाऽपि तृतीयमण्डलाभि- सर्वबाद्यानन्तरद्वितीयमण्डसीमायां वर्तते , ततोऽनन्तमुखं मण्डलपरिभ्रमणगत्या चारं चरति यथा तस्याहो- रे द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्वदारात्रस्य पर्यन्ते द्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टि- ह्यानन्तरं द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशति , तथा चाहभागान् योजनस्यापरे च तद्वहिर्भूते द्वे योजने अतिका
से पविसमाणे ' इत्यादि , स सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डखादुक्तम्सो भवति, ततो नवसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथम- प्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयषण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे पख एव कृतीयं मण्डलमुपसंक्रामति । तथा चाह-से
'बाहिराणंतरं' ति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं द्वितीनिक्सममाणे' इत्यादि । स सूर्यों द्वितीयान्मण्डलात् प्र- यमनन्तरमण्डलमुषसंक्रम्य चारं चरति ,'ता जया ण' समक्षणाय शनैः शनैर्निष्कामन्-बहिर्मुखं परिमभ्रन्
मित्यादि, 'ता' इति-तत्र यदा सूर्यों बाह्यानन्तरंनवसंवत्सरसत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभिंतरतच्चं, ति स
सर्वबाह्यमण्डलानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं बाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति
चरति तदा एकेन रात्रिदिवेन सर्ववाहामण्डलसदा शभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां यावत्प्रमाणं क्षेत्र विकम्प्य
गतेन प्रथमषरामासपर्यवसानभूतेन योजने अष्टाचचार चरति, तावनिरूपयितुमाह-'ता जया ण' मित्या
त्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य , पतदि तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानृतीयं मण्डल
च्चानन्तरमेव भावितं, चारं चरति-चारं प्रतिपद्यमुपसंक्रम्य चारं चरति , तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां
ते । 'तया ण' मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमम् । सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततदनन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्च
‘से पविसमाणे' इत्यादि । स सूर्यः सर्वबाह्यानन्तराभ्ययोजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य वि
न्तरद्वितीयमण्डलादपि प्रथमक्षणार्ध्वं शनैः शनैरभ्यन्तरं कम्प्य, तथाहि-एकेनाप्यहोरात्रेण द्वे योजने अष्टाचत्वा- प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्र · बाहिररिशच्च योजनस्यैकषष्टिभागा विकम्पिता द्वितीयेनाप्य- तच्च' ति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं तृतीयमण्डलहोरात्रेण । तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भव- मुपसंक्रम्य चारं चरति , 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र निपतावमा विकम्प्य चारं चरति ।' तया ण' मित्या- यदा सूर्यः सर्वबाह्याम्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसंदि, रात्रिदिवपरिमाणं सुगमम् । सम्पति शेषमण्डलेषु क्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वबाह्यनमनमा-एवं खलुं, इत्यादि, एवमुक्नेन प्रका- मण्डलगतसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्चयोज
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(११२७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
विकंपण
"
यानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान योजनस्य विकम्प्य तथा एकेनाप्यहोरात्रेण प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान योजनस्य विकम्पयति । द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण द्वितीयषरमासप्रथमेन, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति । ' तया ग मित्यादि, रात्रिदिवपरिमाणं सुगमम् । एवं खलु पए sari पविमाणे ' इत्यादिसूत्रं प्रागुक्तसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयम् । सू० प्र० १ पाहु० । ( ' चंदमंडल ' शब्दे तृतीयभागे १०७६ पृष्ठे विकम्पक्षेत्रमुक्तम् । ) विकंपमाण - विकम्पमान - त्रि० । चलति, सूत्र ०१ श्रु० १४ अ० विकट्टिय - विकर्तित - त्रि० । पाटिते, तं० ।
विकडुभ- विकडुभ-न० । विदारिते, शालनके, सूत्र० १ श्रु० ५ अ० २३० । बृ० ।
विकट्ठ - विकृष्ट- न० । दूरे, शा० १ ० १ ० । विपरीतक
णे, प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार ।
विकत - विकिरत्-त्रि० । अन्नादिविकिरति, उत० २० अ० । विकत्थण - विकत्थन- न० | श्लाघने, व्य०६३० स्था०। श्राचा० । विकप्प-विकल्प--पुं० | भेदे, विशे० । प्रकारे, अनु० । स्था० । प्रश्न० । श्र० चू० । “ विकप्पो त्ति वा पगारो ति वा एकट्ठा " मनोविशेषे, विमर्श, विकल्पो व्याहतिर्भजना व्यभिचार इत्येकार्थाः । विशे० । स्था० ।
तो तु समासेणं, वोच्छामि विकप्पमहुणा तु ॥ अतिरेगं परिकम्मण, तह दुष्पायखा य बोधव्वा । मादिविकप्पो तु तत्थऽतिरेगं इमं होति ॥ एगेण अलेवकडं, कप्पो संघाडलेवगपकप्पो । तिप्पभिरं तु विकप्पो, मत्तगभोगो यऽखङ्काए ॥ पादेगेण अलेवं, गिरहे जिणकप्पिया तु सो कप्णो । दारंथेराण दोन पादा, संघाडेणं च हिंडंति ॥ तत्थेगपडिग्गहए, भत्तं लेवाडगम्मि हेराईति । एत्थ दवं मत्तग, दोयहं पी तिरिनगपकप्पो ॥ दारं
तिप्पभिति हिंडती, णिकारणमत्तसु वा गेहे । सो होति विकप्पो जइ, तत्थ य सोही इमो होति ॥ जदि भोयेणमावती, तति मासा जति दिखा तु श्रणाती। तावइया चउमासा, बितिया आरोवणा भणिया || समणीय तिएह कप्पो, चउपंचरहँ भणितो पकप्पो तु । ते परेण विकप्पो, एत्तो उवहिं तु वोच्छामि ॥ तिहि तु भणिता कप्पा, अतरंताऽधिपतिखो य कप्पविही। उप्पारा, तिट्ठाणाऽऽरोवणा भणिता | गणणाऍ पमाणेण य, उ विहियमाणं दुहा मुणेयव्वं । गणणाऍ जिणाणं तु एक्को दोसिंह वि वा कप्पो ॥
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दो रखी संडासी; इत्थीओ वाऽवि होति आयामे । रुंदादिवत्थं, एयपमाणप्पमाणं तु ॥
दो खोम्मि उहि एको, थेराखं तिरिह होति गराए श्रायामाण पमाणा, दुहत्थ श्रद्धं च वित्थिएहा ॥ एसो कप्पो, तु हवे पकप्पो तु गिलासए गुरुखं वा । चतुसत्तवाबिया उण, माणऽतिरिक्तं च वारेजा ।। कारले पकप्पो होती, विकप्पो विकारखे मुखेयब्बो । उपायणगो पविची, सो वतिरेगं धरेजाहि ॥ गणणाऍ पमाणेण व, गच्छडाए तु तं पमोत्तमं । जो अहो अतिरेगं, घरेति सोधी तु तस्स इमा ॥ चाउम्मासुकोसे, मासिगमज्भे य पंच य जहये । तिविम्मि वि उबहिम्मि, अतिरेगारोवस्था भणिता ॥ अतिरेगउवहिदारं, संखेवेोदितं मह इयाणि । दारंपरिक्रम्मदारवोच्छं, अपरिकम्मो जिलाऽणुबंधी तु ॥ कारणविही पकप्पो, थेरायं अविहिए विकप्पो उ । परिक्रम्मणा उ एसा, दुप्पायं अतो वोच्छं ॥ गाहट्ट गहाँ गेज्म, जहसंखेणिमो तु खायव्वो । पुरिसे पडिमा उबची, तिमिह तिगा भावसुद्धाई ॥ गाहगो गीयत्था खलु, पुरिसो नियमेण होति वायब्बो । दारंउमादियाहिं, गहणं पडिमाउ होंति न भवितुं ॥ दारं
उवही खलु, तिरिहत्ता हार उवहिसेज ति । तिमिह वितिविसुद्धाई, उग्गममादीहि नियमेणं ॥ एगेण चैव गहणं, कप्पो दोहिं भवे पकप्पो तु । तिप्पभिति तु विकप्पो, भत्ते पाखे तहा उवही ॥ आदितिएण तु गहणं, बितियट्ठासम्मि अन्भणुरहातं । हंदि परिरक्खणिओ, सुहाकरो सव्वसाहूणं ॥ आदि ति होति कप्पो, तिगं ति माहारउवहिसेआओ । गणं तुहोति तिविहं, उग्गममादी तिगविसुद्धं ॥ बितियद्वाणपकप्पो, तत्थ वि वा सुद्धमेव घेत्तनं । असती य अणुमातं, पणिहाणीए असुद्धं पि ॥ के पु कारणं, गच्छे ऽसुद्धं पि उग्गमादीहिं । घेप्पति भणति सुखम्, कारणमिण सो समासेयं ॥ रयणाकरो व्व जम्हा, उ आगारो होति सव्वसोक्खायं । गाणादीण य पभवो, ततो पमोक्खे तु तो रक्खे ॥
इहता महाणो, कालो विसमो सपक्खश्री द्रोसो । श्रदितिगभंगगेणं, गहणं भणितं पकप्पम्मि ॥ वियतिक्कतपमाणे, अणुवासो चेन कारयखिमिचं ।
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बिकल्प
( ११२८) अभिधानराजेन्द्र ||
विकहा
शिता या आहारोयहि । ताहि तिदि विवाि उगमायाणि पुरिसे त्ति एगो काये दियो। विओो नाम पकप्पो तत्थ हो जाति सब कप्पो तत्थ तिष्यभिह बहवो वि गेराइंति । किं चतं पेप्पर भतपारासेज्जोवइचार विकल्पो तिक प्प पकप्प-विकल्पो तत्थार जिसको तत्थ नियम एकेण गहरी उग्गमुप्पायरोसणार सुद्धं । बिश्यद्वारा नाम-पकप्पो तर निकारणे सिडि वि उग्गमा सु आहाराइगहण कारले रामदोसविप्यमुकस्स असूयं पि अदायं एतदुकं भवति तिरिद्ध तिका भावओो सुद्धा । किं कारणं ? आइकप्पट्ठियस्स उग्गमाइसुद्धस्स गहरी गच्छेय असुद्धमवि घेप्पर । हेवत्स ! गच्छो परिरक्खणिजो सबालबुट्टाउलो जम्हा सव्वसोक्करो जिसकप्पाईल तो निष्फली रयणागरदिडुंतसामत्था । केण पुर्ण कारऐं गच्छे उग्गमाइनसुद्धं पि घेप्पर ?, उच्यते - किरणया महायणो गाहा - जहा आकिरणदोसा सपक्खाह महायणोय साहय एत्थ अति जर एगो या दो या अति तेखि सुलभा मिसाई कालो व दुम्भिक्वाइयसमो स पक्खदोसार संविग्गा वि । महुराए कोंटल य दिट्ठतो । जहा - उग्गर्मेति श्रविकोविया य सावगा न याति ताहे श्रोमा दोसेण साहू स लइंति श्राहाराइ, ताहे श्राइतियमंगो नाम उम्गमाइगाएं अकमंति । किं पुरा तंति विहं मासा कालातं । पमासार आयप्यमाणम्रो अरे पि गिरजा, गवार दि - प्यारे पि रहेजा तपमाणात जोषस् परेण वि रहेजा । कालातं अगुवा उपसह । अणुवासोमा बासायासे या अन्य पुलो वि तत्थेव श्रच्छ । असिवाइसु कारणेसु परिकम ति अविहीर परिक्रमण पि करेजा । पसिओगोड ति अबिहीए परिक्क मेजा । श्रतो कंबलिं करेजा । अइरेगपमा पिधरेजा । परिहरण त्ति असंथरतो तो उरिणयं पि करेजा । सीवाभिभूय एवमाहयकार चिराई करेंति । सो वि सम्वो विकप्पो | पं० खू० ३ कल्प । श्रंशे, आ० म० १ ० । विकप्पण-विकम्पनन० छेदने प्र०१० द्वार विकप्पणस्थ - विकल्पनार्थ पुं० । भेदक बनायें, आ००१ ० विकप्पणा-विकल्पना- स्त्री० । अर्थभेदोपदर्शने, विशे० । विकप्पसो विकल्पशम्य अनेकप्रकारे व्य० १० उ० विकप्पिय-विकल्पित-त्रि० । उत्प्रेक्षिते प्रव० २ द्वार । विकरण - विकरण १० । विविधमनेक प्रकार करणं खण्डन यस्य तद्विकरणम् । लिङ्गविवेके, घृ० ४७० । विकराल - विकराल - त्रि० । भीमे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । विकल-विकल- त्रि० । सम्पूर्णे, भ० ७० ६ उ० । विकलाएस विकलादेश-पुं० नयवाक्ये स्था० २ डा० २
"
उ० ।
परिकम्मणपरिहरणे, उबही अतिरिचगपमाये । गच्छ सबालवुड्डो, गिलाण सेहादिएहि आदिरहे || एसोवमहाणे तू तस्स दुल्लभं तिगबिसुद्धं । दारं
कालो बिसमो दुम्भ-क्खमादिदोसा सपक्खओ उ इमे ।। वासात्थदी बहवे, प्रमाणतो तो होति । अहव असंविग्गा वी, जह महुरा कोंटइलगा केह । मायाऍ उडुमंती, सड्डा अवि गोऽवि व विजाये । एतेहि कारणेहिं, अलभेयाइ तिष्म गहणं तु ॥ आदितिगमुग्गमादी, भंगो तू सणा होति । कारणतो तिविहं पी, माणं तू ऽतिकमेजउ कदादी || किं पुख तिविद्धं मायं भवइति इगमो निसामेह । भवती व माणमागं, खेतपमायं च कालमागं च ॥ एवं तिविषमाणं, अतिकमो सिमो होति । मतिरेगपनायेगं तियह परेषं पि ग्राम गेयहेज्जा |
saक्कम तु परतो वि दुगाउ या मग्गे । कालपमाखातिक्कम - कुज्जा पाउरणगँ अकालें || दारंवसती कालातीतं, असिवादणुवासगं एयं । दारंपरिकम्मणमविदीए, पलिपड्डा दुम्बलम्मि कृज्जादि । दुल्लभलभे सीते ण अहियो उमियं पंतो ॥ अतिरिचपमायं वा वारिजति कारणेहि एएहिं । सो सन्चो तु पकप्पो, निक्कारणतो विकप्पो तु ॥ पं० भा० ३ कल्प |
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इयार्थि विकल्प-तत्र माहारेग अपकिजिएकपियस्स ताव एगेण पारण अलेवाडं गेरहंतस्स कप्पो भवति । चकमिचो नाम-दो विहिता एपडिम्म कुरं, एगपडिग्गहे पारायं लहारिमा पकप्पो देव । अह मत गेति मत्तं पाएं वा निकारणे ता विकल्प । श्रारोवणा से जड़ भोयणमा बहर बउलहुयार, अट्टमे दिवसे पारंविधो एवं पाए बत्थे या जिवा कप्यमाणार्थ संडासची सोत्थियो वा गणणा बनो दो तिथि वा । थेराण गणणा वि तिथि कप्पा । पमाणप्यमाणे
आयप्यमाणा एस कप्पो बिगप्पो पुरा गाहा - तिपि य भणिया । असंथरंतस्स वा श्रएणस्स वा बालबुडाइ चसारि सत या पाउरोजामा मामा उपायगो नाम पवसी तम्स बहुगा विकप्पा भवन्ति । से लाणमइरेगमणट्ठा | एए घरैताण उवहिनिप्फर पायfuge मासुको परिक्रमेति दारं अपरिकम्मा जिला उही घेरास पिटी परिकमिज तो प कप्पो अविदिपरिकम्मिरविको तुष्यति दारं । नस्य माह-गाइयो त ग्राहको ग्रह नियमित पुरुषमा प्रतिमा महीमपची निति तिमिका बिकथा श्री चिरुद्धाधकव्येन कथा
विकसिय विमित०
अ०म०
-
-
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(१९२४) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
विकहा
,
चनपद्धतिर्विकथा | स्था० ४ ठा० २ उ० । अनिष्टायाम् ( श्र० ४ श्र० पैशून्यापादिन्यां वा कथायाम्, सूत्र० १ श्रु० २ श्र० २ उ० ।
विकथा:
चत्तारि विकहाओ पत्ताश्रो, तं जहा - इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा रायकहा। (सू०२८२) स्था० ४ ठा०२ उ० । संथा० | घ० । प्रश्न० | ग० । (स्त्रीकथाद्याः स्वस्वस्थाने ।) विकथा:--
सत्त विकहाओ, पत्ता, तं जहा इत्थिकहा भत्तकहा देसकहा रायकहा मिउकालणिया दंसणभेयणी चरितभणी | ( सू० - ५६६ ) स्था० ७ ठा० ३ उ० । श्रव० । दर्श० | ग० | जीत० |
विकधासु प्रायश्चित्तम्
एवं तु अइकमिजणं गोयमा ! किंचूणगं दिवड व डिगं पुव्वरिहगस्स णं पढमजामस्स एयावसरम्मि उ गोयमा ! जेणं भिक्खू गुरूणं पुरओ विहीए सज्झायं संदिसाविऊणं एगग्गचित्तेसु जाओ ते दढं धिइए घडिगूणपढमपोरिसिं जावजीवाभिग्गहेणं अणुदियहं अव्वाणगहणं न करेजा, तस्स दुबालसमं पच्छित्तं निद्दिसेज्जा | अपुब्वनाणाहिजनाणस्स असई जमेव पुच्चाहिजयं तं सुचत्थोभयमणुसरमाणो एगग्गमाणसे परावत्तेजा, भतित्थीरायत करजणव याइविचित्तविगहासु ग अभिरमेजा श्रदणिजा । जेसिं च गं पुव्वाहीयं सुतं ग छेदे अपुन्नाणगहणस्स णं असंभवो वा तैसिमवि
1
गूढमपोरिसी पंचमंगलं पुणो २ परावत्तियं । श्रहा गं यो परावतिया विग्गहं कुव्त्रिया वा निसामिया वा से गं दे । एवं घडिगूलगाए पढम पोरिसीए जे गं भिक्खु एगग्गचित्तो सज्झायं काऊणं तत्र पत्तगमत्तगकमढाई भंडोवगरणस्स णं अवेक्खताउ तो विहीए पच्चु प्राणं ग करेजा तस्स गं चउत्थं पच्छितं निहिसेजा । भिक्खू सदोसपच्छित्तसद्दोस इमे सवत्थपइएयं जोजणीए जइ णं तं भंडोवगरणं ण भुंजीय श्रहा गं परिभुंजे दुवाल एवं कंता पढमपोरिसी । बीयपोरि - सीए अत्थरगहणं न करेआ पुरिमनुं, जइ गं वक्खायस्स गं अभावो अहाणं वक्खासं तत्थेव तं ण सुजा अवंदे, वक्खाणस्स संभवे कालवेलं ०जाव वापाइसज्झायं न करेआ दुवाल एवं एत्ताए कालवेला जं किंचि अइयाराड् य देवसियाइयारे निंदिए गरहिए लोइयपडिक जं किंचि काइगं वा वाइगं
|
वोसिरिजा समाहीए वा एगासणं गिलाणस्स सिं तु छट्टमेव । जइ गं दिया ग थंडिलं पच्चुपेहियं णो णं समाहिसंजमिया अपच्चुप्पेहिए थंडिले बहिया चैव समाहीए रयणीय मत्तं वा काइयं वा वोसिरिजा । एगासणं गिलाणस्स सेसाणे दुबालसं । अहाणं गिलाणस्स मिच्चुकडं वा एवं पदमपोरिसीए, बीयपोरिसीए सुत्तत्थाहिजा
।
२८३
विकहा
वा मासिगं वा उस्सुत्तायरणेण वा उम्मग्गायरणेण वा अप्पासेवणे वा अकरणिअसमायरणेण वा दुआएवा दुव्विचितिएण वा प्रणायारसमायरखेण वा अणिच्छियव्त्रसमायरणेण वा । असमणपाउमग्गसमायरणेण वा नाणे दंसणे चरिने सुसामाइए तियहं गुत्तियादीगं चउरहं कसायादीणं पंचरहं अणुव्त्रयाणं छं जीवनिकायाणं सत्तयहं पाखेसणमाईणं सत्तयहं पिंडेसणमाईणं अट्टहं पत्रयणमाईणं नवग्रहं बंभचेरगुत्तीणं दसविहसमणधम्मस्स एवं तु ० जाव णं पमाइचगालोबगमाईणं खंडणविराहणे वा भागमकुसलेहिं गं गुरूहिं पायच्छित्तमुवइटुं तं निमित्तेगं जहासतीए अगूहियबलवीरियपुरिसयारपरकमे असढत्ताए महीसमाणसे अणसणाइ सव्वब्भंतर दुबालसविहं तवोकम्मं गुरुणमंतिए पुणरवि गिकिऊणं सुपरिफुडं काऊण तह ति अभिनंदित्ता गं खंडखंडी विभनं वा एगपिंड
वाणं समचिट्ठेजा से गं वंदे । से भवयं । hi अखंडखंडी काउं समणुचिट्ठेआ १, गोयमा ! जे गं भिक्खु संच्छरद्धचाउम्मासखमयं वा एको लगं काऊणं न सकुखोइ तेणं छट्ठट्ठमदसमदुबालसद्धमास - खमणेहि शं तं पायच्छित्तं ऋणुपवेसेह, अममवि जं किचि पायद्वित्ताणुयं रतेणं अट्ठेयं खंडखंडीए समणुचिट्ठेजा । एवं तु मसौगाढं किंचू पुरिम एयावसरम्मि ( महा० ) (' जे गं पडिक्कमंते वा' इत्यादि 'पडिकमण ' शब्दे पंचमभागे ३१७ पृष्ठे गतम् । ) वंदते वा सज्झायं करेंतेह वा परिभमिते वा संवरंतेइ वा मएइ ( तपः कर्मविषयः 'तव' शब्दे चतुर्थभागे २२०४ पृष्ठे गतम् । ) तमेव बीयदि
वहिसेज जेसिं च यं वदताण वा पडिकमंताण वा दीहं वा मजरं वा छिंदि ऊ गयं हवेजा तेर्सि चणं लोयकरणं अन्नत्थ गमंतां उम्गं तवाभिरमणं एयाइ ख कुखंति तच गच्छं बच्चे, जेणं तुमं महोवसग्गमाहण गं उप्पायगं दुनिमित्त ममंगलावहं हविया । जे ऐ पढमपोरिसीए वा बीयपोरिसीए वा चंकमलियाए परिसकरेआ अगालसन्निए वा छद्धिं करेइ वा से णं जइ चव्विणं ण संवरेजा तो दिया थंडिलेहिं एगभोस
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अभिधानराजेन्द्रः। मोतू जे शं इत्थीकहं वा भत्तकहं वा देसकह वा राय- क्रो यथा आर्य ! यदीदं भूयः सेविष्यसे तच्छेदं मूलं या दाकरवा तेखकहं वा गोरच्छियकई वा अनं असंबद्धं वा|
स्यामः सोऽपि विकोविदः, तद्विपरीतोगीतार्थः। व्य०१ उ०। सेरहमासोदीरणकहं पत्थावेजा उदीरजा वा कहेज
पिकोस-विकोश-त्रि० । विकाशिते, विशे। अपनीतकोशके या काहावेज्जा वा से णं संवच्छरं जाव प्रबंदे । महा
निराधरणे, शा०१७०८०। परमवीइपोरिसीए जहणं कहाइ महया कारणवसेणं अ
विकोसायंत-विकोशायमान-त्रि० । विगतकोशीकृते, तं। एपडिगं वा सज्झायं न कयं तत्थ मिच्चुकमडं गिलाणस्स
विकंत-विक्रान्त-त्रि०। परकीयभूमण्डलाक्रमणसमर्थे,कल्प. अनेसि निबिगइयं । महा०.१ चू०।
१ अधि०३ क्षण । भ० । त्रयश्चत्वारिंशे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प.
१ अधि०७ क्षण। विकहाविहीस-विकथाविहीन-त्रि० । विकथया-भक्तकथादि-विवंति-विक्रान्ति-स्त्री० । विक्रमे, शा० १६० १६ अ०। अपया विशेषण-हस्तसंज्ञादरपि परिहारेण-हीनास्त्यनाः । -विकास-पंा पराक्रमे, तं०।ौ० । पौरुषे, श्री० । स्यकविकथादिकेषु १०३ उ०।
हरितिलकराजसुते, तं०। विकास-विकाल-पुं० । विगतः सन्ध्याकालोऽति विकालः १७०३प्रकादिनभिन्मेऽहोरात्रभागे, पृ०१३०३प्रकाचो
विकमपुर-विक्रमपुर-न० । विक्रमनगरे, (बीकानेर) “चोल पारवारिकादयो विरमन्स्यत्रेति । पृ०१३०३प्रकला संध्या.
| देसावयंसो कामाण य नयरे विक्रमपुरवत्थब्बपडू जिणवारकाले,०१उ०३ प्रक०। केषांचिदाचार्याणां दिवसलक्ष
सूरी चुल्लपिऊ साहुमाणदेवो" ती०२० कल्प। साखविगमात्संध्या विकालः । वृ०२ उ०३ प्रक। विक्कमवच्छर-विक्रमवत्सर-पुं० । वीरमोक्षात्४७० वर्षे प्रवृत्ते विकालग-विकालक-पुं० । स्वनामख्याते द्वितीये महाग्रह, विक्रमादित्यशके, अंग।
कल्प०१अधि०७क्षण ('महाग्गह' श५भागे विशेषो गत विकमसागर-विक्रमसागर-पुं०। जयपुरनगरराजस्य विक्रमविकासर-विकस्वर--त्रि० । “लुप्त-य-र-व-श-ष-सां शषसां
सेनस्य पुत्रे, दर्श० ३ तत्व । वीर्यः"॥८४३॥ इति मध्यदीर्घः । विकासनशीले,
विक्कमसिंह-विक्रमसिंह-पुं० । 'किरकम्म' शब्दे उदाहते . मा०१पाद।
शुमारमारीपती, प्रव०२ द्वार। विकिद-विकृति-स्त्री० । अन्यथाभावे, विशे।
विकमसरि-विक्रमसरि--पुं०। चान्द्रकुले देवानन्दसूरिशिष्ये, विकिंचणा-विवेचना-स्त्री० । उहरितभक्तपानादिपरिष्ठाप
ग०२ अधि।
|विकमसेण-विक्रमसेन-पुं० । भारतवर्षे जयपुरनगरराजे, बिकायाम् ,१०१ उ०३ प्रक०।
दर्श० ३ तस्व। विकिख-विकीर्ण-वि०। विक्षिप्ते, प्रश्न०३ आश्रद्वार।
विकमाइच-विक्रमादित्य-पुं०। संवत्सरप्रवर्तके उज्जयिनीराविरिणाभरण-विकीर्णाभरण-न० । विक्षिप्तालंकारे, प्रश्न
| जे, ती०४५ कल्प । (पञ्चदन्यात्तत्कथावगन्तव्या "कुडंआश्रद्वार।
बेसर' शब्ने तृतीयभागे ५७६ पृष्ठे तत्सम्यक्त्वग्रहणमुक्तम् ।) विकिरण-विकिरण-म० । विक्षेपे,शा०१ श्रु०८० वि-1
वि-विकय-विक्रय-पुं० । मूल्येनान्येषां वस्त्रपात्रादिकार्पणे, ग०। नश्वरत्वे, सं०।
"जत्थ य मुणिणो कयवि-कयाई कुव्वंति संजमाए । तं विकिरिज्जमाण-विकीर्यमाण-त्रि०। इतस्ततो विक्षिप्यमाणे,
| गच्छं गुणसायर!, विसं व दूरं परिहरेजा" ॥१॥ग०२ अधिक जी०३ प्रति०४ अधिः ।
विक्का-विक्लव-पुं० । “सर्वत्र ल-व-राम (व) चन्द्रे" ॥८ विकिरिया-विक्रिया-साविाबधाया-विशिष्टाया क्रिया ।। ७६ ॥ इति लस्य लुक । विकलतायाम् , प्रा०२ पाद । याम्, स्था०५ ठा०२ उ०।"विविहाय य विसिट्ठा य किरि-विकवया-विझवता-स्त्री० । तच्छेकातिरेकेणाहारादिष्वप्यया विकिरिया।" अनु०। विद्युबमाण-निकुर्बमाण-त्रि० । वैक्रियं कुर्वति , स्था० ३
नपेक्षतायाम् । दश० ६ ०।
विकायमाण-विक्रीयमाण-त्रि०। पापणे मूल्येन गृह्यमाणे, डा०१ उ०। विकस-विकुश-पुं० । वल्वजादिषु तृणविशेषषु , भ० ६ श०
"विकायमाणं पसदं रएण परिफासिय" दश०१ १०५ उा ७३० । औ०। घशा | रा
विकिण-वि-की--धा० । मूल्य गृहीत्वा वस्तुदाने, “क्रियः विकोय-विकोच-त्रि० । फुल्ले, विशे।
किणो वेस्तु केत्र "।४।५२ ॥ इति क्रीणाः परस्य
द्विरुक्तः कः चकारात् किणश्चादेशः। विक्किण । प्रा०।"स्व. विकोवण-विकोपन-न। प्रकोपने , झटिति तत्तवतया |
रादनतो वा"HE४।२४० ॥ इति भन्तेऽकारागमः । प्रसरीभवने, पिं०
विकेश्रह । विक्रीणाति । प्रा०४ पाद । विकोत्रिय-विकोविद-पुं० । गीतार्थे, परिणामके, व्य।
- उन्माने.
पो. गीतो विकोक्तिो खल,कयपच्छितो सिया अगीतोऽवि। रायत्ततया विस्तारे, स्था०५ ठा०३ उ०। पृथुत्वे, स्था०१० जीतो-गीवाः खलु कृतप्रायश्चित्तो विकोविदः। योऽप्यु-| ठा-उ०। सू०प्र०। “विक्खभायाममुप्पमाणे" विष्कम्भे
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(१९३१) विक्खंभ
अभिधानराजेन्द्रः।
विक्सेवशतिनायामेन शोभनमौचित्यानतिपर्ति प्रमाणं यस्य स विष्कम्भा
विक्षेपणाविनयमाहयामसप्रमाणः । रा०1 विस्तरे, " विक्खभो वित्थरो या अहिद दिदखल. दिद साहम्मियत्तविणएवं। परिणाहो।" पाइ० ना० १६८ गाथा।
चुयधम्म धम्में ठावे, तस्सेव हियद्वमन्महे ।। ३०३॥ विक्खभण-विष्कम्भन-नायथाशक्तिनिरोधे, पो०५विवः।
अष्टम्-अष्टधाणं दृष्टमिव र पूर्वमिष-धम्म प्राहविक्खंभसूह-विष्कम्भसूचि-खी० । विस्तरश्रेणी, अनु ।
यति । दृ-पूर्वधावकं साधम्मिकत्वधिमयम विनयविक्खमाण-धीक्षमाण-त्रि० । विविधं दिशु पश्यति , ध०३
ति; प्रवाजयतीत्यर्थः । तथा च्युतधर्म-धर्मात्प्रनष्ट पुनर्घअधिः ।
मैं स्थापयति । तथा तस्यैव चारित्रधम्मस्य वृद्धये हिविक्खरण-विकिरण-नाइतस्ततो विक्षपणे, वृ० २ उ०।। तमभ्युत्तिष्ठति । उपा।
तत्र प्रथमभेदव्यास्यानार्थमाहविक्खरिञ्जमाण-विकीर्यमाण-त्रि० । इतस्ततो विप्रकीर्यमा- वीणाणाभावम्मि,खिवि पेरणे विक्खिवित्तु परसमया।
ससमयंतेयमभिछभे, अदिधर्म तु दि8 वा ॥३०४॥ विक्खाय-विख्यात-त्रि०। प्रसिद्धे, "विक्खायो विस्सु
विशब्दो-नानाभावे 'क्षिप' प्रेरणे परसमयाद्विनिक्षिप्य नाश्रो पयडो"। पाइ० ना० १०८ गाथा ।
नाप्रकारं प्रियदृष्टधर्माणं दृष्टं चेति । वाश-उपमायाम् ।र विक्खाय-विख्यात-त्रि०। प्रसिद्धे, संघा० १ अधि० १ प्र- धर्माणमिव स्वसमयान्तेन स्वसमयाभिमुखममिक्षिपति। स्ता०। "इक्खागरायवसभो, कुन्थ् नाम नरेसरो। वि
एतदेव चरमपदं व्याचष्टेक्खायकित्ती भयवं, पसो गइमणुतरं ॥४०॥" उत्त० १८० धम्मसभावो सम्म-दसणं तं जम पुब्धि न उ लद्धं । विक्खिय-विकीर्ण-त्रि०। प्रसारिते, भ० १४ श०१ उ० ।।
सो होति दिट्ठपुचो, तं गाहइ पुबदिद्वं च ॥ ३०५॥ विक्खिच-विक्षिप्त-त्रि०। आकृष्टे, प्रश्न०१ श्राध० द्वार ।।
धर्मः स्वभावः सम्यग्दर्शनमित्येकार्थम् । तत्सम्यग्दर्शनं प्राथ। विक्षिप्तानि नामत एव धान्यराशयोऽभिन्नाः परमे- येन पूर्व न लब्धं स भवत्यदृष्टपूर्वोऽरएपूर्वधम्मस्तं पूर्वराष्ट्र कतः संबद्धाः । वृ०२ उ०।
मियाविविक्लो विश्रान्ततया पूर्वोपलब्धमिव धर्म प्रायति । व्याक्षिप्त-त्रिका अनेकविकबोकसंकुलायां सभायां देशना.
अहम् , इष्टमित्यस्यान्यथा व्याख्यानमाहकरणादिना व्याकुले, प्रब०२ द्वार ।
जह भायरं च पियरं, मिच्छद्दिहि पि गाहिसम्मत्तं । विक्खित्तय-विक्षिप्तक-त्रिका विक्षिप्ते, "विक्खित्तयं पहरणं"
दिट्टपुष्वं च सावग-साहम्मि करेति पवावे ॥३०६ ।। पाइ० ना० १८६ गाथा। विक्खिता-विक्षिप्ता-स्त्री० । प्रतिलेखितस्य वस्त्रस्य अप्रति--
नए-अरष्ट पूर्व-इष्टमिव-पूर्वमिव धर्म प्रायति । लिखितवस्रोपरिमोचने यवनिकादौ वा प्रक्षेपणे , वस्त्रा--
किमुक्तं भवति-यथा भ्रातरं पितरं वा सम्यक्त्वं ग्राहयति
एवमहष्टपूर्वे मिथ्याष्टिमपि सम्यक्त्वं ग्राहयति । ' दिटुचलादीनामूव क्षपणे , स्था०६ ठा० ३ उ०। इयं सप्रमा
साहम्मिय ति 'विणरणं' इत्यस्य व्याख्यानमाह-रष्टो नामदा प्रतिलेखना षष्ठी त्याज्या । उत्त० २६ अ०। 'विक्खित्त
दृष्टपूर्वः, स च श्रावकस्तं साधम्मिकस्यविनयेन शिक्षयतित्ति भएयते तत्राह-" विक्खेवं तु विक्खयो" विक्षेपां तु
सामिकं करोति; प्रवाजयतीत्यर्थः । तां विद्धि यत्र बस्त्रस्यान्यत्र क्षेपणम् । एतदुक्तं भवति-प्रतिलेखयित्वा वस्त्रमन्यत्र जवनिकादौ क्षिपति । अथवा-वि
'चुतधम्म धम्म ठावे' इत्यस्य व्याख्यानार्थमाहक्षेपो वस्त्राञ्चलानामूयं यत् क्षेपणम् , स च प्रत्युपेक्षणायां चुयधम्मो भट्ठधम्मो, चरित्तधम्मो तु दंसणातो वा । न कर्तव्यः । श्रोधक।
तं ठावेइ तहिं चिय, पुणो वि धम्मे जहोद्दिट्ठो॥३०७॥ विक्खेव-विक्षेप-पुं० । विस्मृतिगमने, व्य० ६ उ० । सप्तदशे
च्युतधम्मों नाम-भ्रष्टधर्मः, धाष्टो भ्रष्टधर्मः, निग्रंथस्थानभेदे,स्या० । क्षोभे, “छोहो विक्खेवो" पाइ० ना० राजदन्तादिदर्शनात् धर्मशब्दस्य परनिपाताकस्मात् च्युत २७० गाथा।
इत्याह-चारित्रधर्मात् दर्शनाद्वा । तं व्युतधर्माणं तत्रैवविक्खेवणविणय-विक्षेपणविनय-पुं०।विक्षिप्यते इति विक्ष- चारित्रधमें सम्यग्दर्शने वा यथोचिते पुनः स्थापयति । पणं तदेव विनयो विक्षेपणविनयः । विनयभेदे, प्रव० ।
एप तृतीयो भेदः। स चतुर्धा-सत्र मिथ्यादृष्टिं मिथ्यामार्गाद्विक्षिप्य सम्यक्त्व
'तस्सेध हियट्टमम्भुट्टे' इति चतुर्थभेदमाहमार्ग प्राहयतीत्येकः। सम्यग्दृष्टिं तु गृहस्थं गृहस्थभा
तस्सत्ती तस्सेव उ, चरित्तधम्मस्स दुहितुं तु । वाद्विक्षिप्य प्रवाजयतीति द्वितीयः । सम्यक्त्वाचारि वारेयऽणेसणादी, न य गिराहे सरं हियट्ठाए ॥३०॥ त्राद्वा च्युतं सद्भावाद्विक्षिप्य पुनस्तत्रैव व्यवस्थापय- तस्येति-तस्यैव चारित्रधर्मस्य वृद्धिदेतोरेपणादि धारयतीति तृतीयः, स्वयं च चारित्रधर्मम्य यथैवामिवृद्धि | | ति । हितार्थमभ्युत्तिष्ठतीति हितार्थाय । म स्वयमपणादि स्तथैव प्रवर्ततेऽनेवणीयपरिभोगादित्यागन च एषणीयप- गृह्वति । हिताथायेत्युपलक्षणं तेन हिसाब सुखाय समाय रिभोगादिस्वीकारेण चेति चतुर्थः । प्रय० ६४ द्वार। निःश्रेयसे अनुगामिकायाभ्युत्तिष्ठतीति प्रष्यम् ।
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विगह
विक्खेवणविषय
अभिधानराजेन्द्रः। ततो हिताविपदानां व्याख्यानमाह
बिड्या विक्खेवणी गया । इयाणे तझ्या-परसमयं कहेत्ता जं इहपरलोगे वा, हितं सुहं तं खमं मुणेयव्वं ।
तेसु चेव परसमएसु जे भावा जिणप्पणीपहिं भावोह सह
विरुद्धा असंता चेव वियप्पिया ते पुब्बि कहित्ता दोसा निस्सेयसँ मोक्खाय उ,यंत अणुगच्छते जे तु ॥३०॥
तेसिं भाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरयत्-यस्मात् कारणात् तत्-अभ्युत्थानमिहलोके हितं |
मिव कहवि सोभणा भणिया ते कहयइ । अहवा मिच्छावातेन हितमित्युच्यते । सुखम्-इहपरलोके सुखकरणात्,
दो णत्थितं भन्ना, सम्मावादो अत्थितं भएणति । तत्थ शमम्-पेडिकपारत्रिकप्रयोजनक्षमत्वात् , निःश्रेयस-कल्या-1
पुटिव णाहियवाईणं दिट्टीओ कहित्ता पच्छा अस्थित्तपक्सएकारित्वात् ,मनुगामि यन्मोक्षाय अनुगच्छति।व्य०१०उ० ।
वाईण दिट्ठीओ कहेह । एसा तझ्या विक्खेवणी गया । इयाविक्खेवणी-विक्षेपणी-सी । विक्षिप्यते सन्मार्गात्कुमार्गे णि चउत्थी विक्खेवणी । सावि एवं वेव । एवरं पुवि सोकुमार्गाद् वा सन्मार्गे भोताऽमयेति विक्षेपणी । स्था०४ भणे कहर पच्छाइयरेति । एवं विकिस्त्रवति सोयारंति" ठा०२ उ०। कथामेदे, स्था०।।
गाथाभावार्थः । दश० ३ १०१ उ० । विक्खेवणी कहा उठिवहा परमत्ता, तं जहा-ससमयं विक्खेविया-व्यापिका-स्त्री० । व्याक्षेपस्य व्याक्षेपशब्दस्य कहेइ,ससमयं कहेता परसमयं कहेइ१,परसमयं कहेत्ता सस
भावः प्रवृत्तिनिमित्तं व्यापिका। व्याक्षेपे, व्य०६ उ०। मयं ठाविता भवइ २, सम्मावायं कह सम्मावायं कहेता विग-वृक-पुं० । ईहामृगपर्याये, प्रश्न०१ आश्र० कार । मिच्छावायं कहेइ ३, मिच्छावायं कहेत्ता सम्मावार्य
| तरक्षके, मा०१ श्रु०१०। स्था० । प्रश्न।
विगइ-विकृति-स्त्री०। विकारे, पृ. ३ उ० । शरीरमनसोः ठावइत्ता भवइ४। (सू०-२८२४) स्वसमयं-स्वसिद्धान्तं कथयति-तगुणानुहीपयति पूर्व तत
प्रायो विकारहेतुत्वात् घृतादिरसविशेषे, स्था० । स्तं कथयित्वा परसमयं कथयति, तदोषान् दर्शयतीत्येका।
चत्तारि सिणेहविगतमो पसत्तामओ, तं जहा-तेन्लं एवं परसमयकथनपूर्वकं स्वसमयं स्थापयिता-स्वसमयगु- घयं वसा णवणीतं । चत्तारि महाविमतीओ पलत्ताओ, सानां स्थापको भवतीति द्वितीया २। 'सम्मावाय' मित्यादि | तं जहा-महं मंसं मजणवशीतं ॥ (मु०-२७४+) अस्थायमर्थः-परसमयेष्वपि घुणाक्षरन्यायेन यो यावान्
चत्तारि, इत्यादि, गवां रसो गोरसः' व्युत्पत्तिरेवेयं गोजिमागमतत्त्ववादसहशतया सम्यग् अविपरीतस्तस्वानां वा. दः सम्यवादस्तं कथयति । तं कथयित्वा तेष्वेव यो
रसशब्दस्य, प्रवृत्तिस्तु महिष्यादीनामपि दुग्धादिसपे रसे। जिनप्रणीततस्वात्-विरुद्धवं मिथ्यावादस्तं दोषदर्शमतः
विकृतयः शरीरमनसोः प्रायोविकारहेतुत्वादिति । शेषं प्रकथयतीति तृतीया ३ । परसमयेष्वेव मिथ्यावादं कथयित्वा
कटम् , नवरं सर्पिः-घृतम् नवनीत-म्रक्षण स्नेहरूपासम्यग्वादं स्थापयिता भवतीति चतुर्थी ४। अथवा-सम्य
विकृतयः स्नेहविकृतयो वसा--अस्थिमध्यरसः, महाग्वाद-अस्तित्वं मिथ्यावादः-नास्तित्वं तत्रास्तिकवादिष्टी
विकृतयो-महारसत्वेन महाविकारकारित्वात् , महतः सरुक्त्वा नास्तिकवादिष्टीमणतीति तृतीया। एतद्विपर्ययाश्च
स्वोपघातस्य कारणत्वाचेति । इह विकृतिप्रस्तावाद् विकसुर्थीति । स्था०४ ठा०२ उ०। द्वा० । ग०। औ० । दश ।
तयो वृद्धगाथाभिः प्ररूप्यन्तेविक्षेपणीमाह
"स्त्रीरं ५ दहि ४ वणीयं ४,
घय ४ तहा तेलमेव ४ गुड २ मज्ज। जा ससमयवजा खलु, होइ कहा लोगवेयसंजुत्ता।
महु ३ मंसं ३ वेव तह, परसमयाणं च कहा, एसा विक्खेवणी नाम ।।१६७ । प्रोगाहिमगं च दसमी उ॥१॥ कथयित्वा स्वसमय-स्वसिद्धान्तं ततः कथयति परसमयं
गोमहिसुट्टिपसूर्ण, एलगखीराणि पंच चत्तारि। परसिजास्तमित्येको भेषः, अथवा-विपर्यासाद्-व्यत्ययेन दहिमाइयाएँ जम्हा, उट्टीणं ताणि णो हुंति॥२॥ कथयति-परसमयं कथयित्वा स्वसमयमिति द्वितीयः ।
चत्तारि होति तेला, तिलभयसिकुसुभसरिसवाणं च । मिथ्यासम्यग्वादयोरेषमेव भंवतो द्वौ भेदाथिति मिथ्यावाद विईमो सेसाई, डोलाईणं न विगईओ ॥३॥ कथयित्वा सम्यग्वाद कथयति, सम्यग्वाद च कथयित्वा
दषगुलपिंडगुला दो, मजं पुण कट्टपिटुनिष्फ । मिथ्यावादमिति । एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे
मच्छियकोत्तियभामर-भेयं च तिहा महुं हो ॥४॥ कुमाहा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणीति गाथाक्षरार्थः ।
जलथलखहयरमंसं, चम्मं वससोणियं ति हेयं पि। भावार्थस्तु पृद्धविवरणादवसेयः। तखेदम्-"विक्षणी सा
प्राइल तिन्नि चलचल, श्रोगाहिमगं च विईओ॥५॥" बउविहा पत्ता,तं जहा-ससमयं कहेता परसमयं को
आदिमानि त्रीणि चलचलेत्येवं पक्कानि विकृतिरित्यर्थः । १, परसमयं कोत्ता ससमयं कहेड २, मिच्छावाद कोत्ता
"सेसा न होति विगई, अजोगवाहीण ते उ कप्पंती। सम्माबाद कहेर ३, सम्माया कहेसा मिच्छाबायं कहा।
परिभुज्जति म पार्य, जं निच्छयो न नजंति ॥१॥ तत्थ पुम्बि ससमयं कहेता परसमयं कहे-ससमयगुणे
एगेण वेव तवत्र, पूरिज्जति पूयपण जो ताओ। दीवर परसमयदोसे उपदंसेहएसा पढमा विक्नेवणी गया।
बीओ वि स पुण कप्पा, निग्विगई लेघडो नवरं ॥२॥" इयानी मिया भनाइ-पुटिव परसमयं कहेता तस्सेव दोसे
स्था०१ ठा०४ उ०। (तेलघृतवशानवनीतव्याख्या स्वस्वसबसेर, पुणो ससमयं कहे गुणे व से उपदंसह । एसा | स्थाने।)
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विगइ
(१९३३) विगइ
अभिधानराजेन्द्रः। नव विकृतयः
एतेषु स्वयमेव कानिचिद्विवृणोतिनव विगईओ पम्पत्ताओ, तं जहा-खीरं दहि णवणीयं अंबिलजुअम्मि दुद्धे, दुद्धट्टी दक्खमीसरद्धम्मि। सप्पि तिल्लं गुलो महुं मजं मंसं । (सू०६७४)
पयसाडी तह तंदुल-चुमयसेहम्मि अवलेहि ।। २३२ ॥ 'विगायोति विकृतयो विकारकारित्वात्पकानं तु कदा
अम्बिलेन युक्त दुग्ध दुग्धाटी किलाटिकेत्यर्थः, अन्ये तु चिदविकृतिरपि तेनैता नव अन्यथा तु दशाऽपि भवन्तीत,
बलाहिकामाहुः, तथा द्राक्षामिश्रे दुग्धे राद्ध पयसाटी, पतथाहि-'एकेण चेव तो. पूरिजा पूयएण जो ताश्रो। वी
यो-दुग्धं सटति-गच्छतीति व्युत्पत्तेः, तथा तन्दुलचूर्णकश्रो वि स पुण कप्पर, निग्विगइअलेवडो नवर' मिति । द्वि
सिद्धे दुग्धे अबलेहिका । तीयोऽपि विकृतिर्न भवतीति भावः। तत्र क्षीरं पश्वधा
. दधिविकृतिगतान्याहअडकागोमहिष्युष्ट्रीभेदाद् दधिनवनीतघृतानि चतुर्दैव, दोहए विगयगयाई, घोलवडाघोल सिहरिणि करंबो । उष्ट्रीणाम् तदभावात् , तैलं चतुर्दा-तिलातसीकुसुम्भसर्षप
लवणकणदहि य महिय,संगरिगायम्मि अप्पडिए।२३३। भेदात् । गुडो द्विधा-द्रवपिण्डभेदात् । मधु त्रिधा-माक्षिककौन्तिकभ्रामरभेदात् । मद्यं द्विधा-काष्ठपिष्टमेदात् । मांसं
दनि-दधिविषये विकृतिगतानि पञ्च घोलवटकावि-घोलविधा-जलस्थलाकाशचरभेदादिति । स्था०६ ठा० ३ उ० ।
युक्तवटकानि तथा घोलो-वस्त्रगालितं दधि, तथा शिखदश विकृतयः मनसो विकृतिहेतुत्वात् विकृतयस्ताव
रिषी करमथितखण्डयक्तदधिनिष्पन्ना. तथा करम्बको दधिदश । यदाहुः-"खीरं दहि णवणीयं, घयं तहा तेलमेव गुड
युक्तकरनिष्पन्नस्तथा लवणकणयुक्तं दधि च मथितं राजिमजं । महु मसं चेव तहा, उग्गाहिमगं च विगईओ ॥१॥"
का खाटकमित्यर्थः। तच संगरिकादिके पतितेऽपि विकृतितत्र पञ्च क्षीराणि गोमहिष्यजोष्टयैलकासम्बन्धिभेदात् ।
गतं भवति । संगरिका पुस्फलं शकलादौ पति पुनर्भदधिनवनीतघृतानि च चतुर्भेदानि, उष्ट्रीणां तदभावात् ।
वत्येव। तैलानि चत्वारि-तिलातसीलट्टासर्षपसंबन्धिभेदात् , शेष
घृतविकृतिगतान्याहतैलानि तु न विकृतयः लेपकृतानि तु भवन्ति । गुडः-इत्- पक्कघयं घयकिट्टी, पक्कोसहिउपरि तरियसप्प च । रसक्काथः, स द्विधा-पिण्डो, द्रवश्च । मद्यं द्वेधा-काष्ठषि
निम्भंजण वीसंदण, गई घय विगय विगइ गया।।२३४॥ टोद्भवत्वात् । मधु त्रेधा-माक्षिक, कौन्तिकं. भ्रामरं च । मांसं
औषकैः पक्वं घृतं सिद्धार्थकादि, तथा घृतकिड्डी-घृतमत्रिविधं-जलस्थलखचरजन्तूद्भवत्वात् , अथवा-मांसं त्रिविधं-चर्मरुधिरमांसभेदात् । अवगाहेन स्नेहबोलनेन निर्वृ
ल तथा घृतपक्वौषधोपरि तरिकारूपं यत् सपिस्तविकृतिसमवगाहिम पक्वान्नम् भावादिमः' ६-४-२१ । श्री सिकाइती
गतम् , तथा निर्भजंन पक्वान्नोती दुग्धघृतमित्यर्थः । तथा मः।यत्तापिकायां घृतादिपूर्णायां चलाचलं खाद्यकादि पच्यते
विस्पन्दनं दधितरिका कणिकानिष्पन्नद्रव्यविशेषः, सपातस्यामेवं तापिकायां तेनैवं घृतेन द्वितीयं तृतीयं च खाद्य
दलक्षप्रसिद्धं घृतविकृतिगतान्येतानि पश्चापीत्यर्थः। कादि विकृतिः ततः पक्वान्नानि अयोगवाहिना निर्विकृति
तैलविकृतिगतान्याहप्रत्याख्यानेऽपि कल्पन्ते । अथैकेनैव पूपकेन तापिका पूर्यते
तेल्लमली १ तिलकुट्टी २, दद्ध तेलं३तहोसहोवरियं । तदा द्वितीयं पक्कान, निर्विकृतिप्रत्याख्यानेऽपि कल्पते। लेप. लक्खाइ४दव्वपकं, तेल्लंश्तेल्लम्मि पंचेव ।। २३५ ॥ कृतं तु भवतीत्येषा वृद्धसामाचारी । ध०२ अधिः । तथा तैलमलिका तथा तिलकुट्टिः तथा दग्धं तैलं निभर्जनमिनहिनतलितपक्कानं कटाहविकृतिप्रत्याख्यानवतः कल्पते न त्यर्थः, तथा तैलपक्वौषधोपरिभागे यदुद्वरितं तथा लाक्षादिवेति ?, अत्र तद्दिनतलितपक्वान्नं कटाहविकृतिप्रत्याख्यान- द्रव्यपकं च तैलम् । एतानि तैलविकृतौ पश्च तैलविकृतिवतः प्रत्याख्यानकरणसमये यदि मुत्कलं रक्षितं भवति तदा| गतानि । कल्पते नान्यथेति परंपरा दृश्यते इति । ही० ४ प्रका० ।।
गुडविकृतिगतान्याहश्रावकैर्विकृतयो भक्ष्याः षट् । ता दुग्ध १ दधि २ घृत ३ तेल ४ गुड सर्वपक्कान्नभेदात् । ध० २ अधि० । आव ।।
अद्धकड्डिक्खुरसो २, गुडपाणीअं च सक्कराखंडं । इदानी कम्यां विकृतौ कानि किन्नामकानि कियन्ति विकृति
पायगुलं गुलविगई, विगइगयाइं तु पंचेव ॥ २३६ ॥ गतानि भवन्तीत्याह
अर्द्धकथितेचुरसस्तथा गुडपानीयम्, तथा शर्करा, तथा ख
राडम् तथा पाकगुडो येन खज्जकादिलिप्यते गुडविकृतौ विअह पेया १ दुद्धट्टी २, दुद्धवलेही य ३ दुद्धसाडी य ४।
कृतिगतानि एतानि पञ्चैव।। पंचव विगइगया, दुद्धम्मि य खीरसहियाई ॥२३१॥
पक्काने विकृतिगतान्याहअथानन्तरं पञ्चैव दुग्धे चशब्दस्यावधारमार्थत्वात् वि
जेखेगेणं तवओ, पूरिजइ पूयगेण तब्बीओ। कृतिगतानि भवन्ति, विकृतौ क्षीरादौ गतानि-स्थितानि विकृतिगतानि-विकृत्याश्रितानि न विकृतिरित्यर्थः । कानि
अक्खवियनहो पञ्चइ, जइ सब्वे होइने विगई ।। २३७ ॥ तानीत्याह-पेया: दुग्धकाञ्जिकमित्यर्थः । तथा दुग्धाटी
एग एगस्सुवरिं, तिन्नोवरिं बीअगं च जंपकं । दुग्धावलेहिका दुग्धसाटिका च क्षीरसहिता इति । - तुप्पेणं तेणं चिय, तइयं गुलहाणिया पभिई ॥ २३८॥ रेय्या पायसेन सहितानि पूर्वोक्तानि चस्वारि पञ्चमी च; एकं विकृतिगतं तद्यदेकस्य घाणस्योपरि पच्यते । कोक्षरेयीत्यर्थः । एतानि क्षीरे पश्च विकृतिगतानीति । | अभिप्रायः, प्रतिप्तघृतादिके तापके पकेनैव पूपकेन स
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बिग
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1
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कले पूरिते, द्वितीयपुषकादिस्तत्र प्रक्षितो विकृतिगतमेव भवति । यववाचि जेरोगे तो पूरिख पूयगेस - वीओ अधिषिय नेहो पच्चर, जर सो नह दो नई ॥१॥ द्वितीयं विकृतिगतं त्रयाणां घारणानामुपरि अप्रक्षिसापरघृतम्, यत्तेनैव 'तुप्पेण' ति घृतेन पकं तृतीयं गुडधानिकाप्रभृति ।
(१९३४) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा
चत्यं जले सिद्धा, लप्पसिया पंचमं तु पूपलिया । चुप्प डियतावियाए, परिपकंती समिलिए || २३६॥ चतुर्थ समुत्सारिते सुकुमारिकादी पञ्चबुद्ध (ड) रितघृतादिताकायां जलेन सिद्धा लपनश्रीः पञ्चमःपुनः स्वेदग्धापिकायां परिपका पूपका एवं च पद विह तिसंबन्धिनी पक्ष पक्ष विकृतिगतान मिलताबन्तीति । इह व विकृतिगतानां स्वरूपं नाचायें स्वमनीपियाऽभिदधे किं तु सिद्धान्ताभिहितमेव ।
यदाह
-
आवस्यकीय परिभवियं एत्थ वधि कहियं । कहिअन्नं कुसलाणं, परंजिश्रव्वं तु कारणिए ॥ २४०॥ आवश्यकचूर्णी परिभणितम्, अत्र प्रन्थे वर्षितं-सामाम्पद्वारेण कथितम् विशेषद्वारेणास्माभिरेतच कथयितव्यम्, कुशलानां बुद्धिमतां प्रयोक्तव्यश्च कारणिके-कारणिकविषये । अयमभिप्रायः यद्यपि रेवीप्रमुखाणि साक्षातियो न भवन्ति किं तु कृषि निर्विकृतिकानामपि कपन्ते तथापि उत्कृष्टानि एतानि द्रव्याणि भक्ष्यमाणाम्ययश्यं मनोविकारमानयन्ति शान्तानामपि न च कृतनिर्विकृतिकानामेतेषु भक्ष्यमाणेषु उत्कृष्ट निर्जरा संपद्यते त स्मादेवाननइति । यस्तु विविधतप करा दारानुष्कानं स्वाध्यायाध्ययनादिकं कर्तुं न शक्नोति सविकृतिमतान्युत्कृष्टान्यपि द्रव्याणि भुङ्क्ते, न कश्चिद् दोषः । कम्र्मनिर्जराऽपि तस्य महती भवति । याहुः" नवरं इह परिभोगो, निव्विइयां पि कारणावेक्खो । उदयां, नउ विसेसेण विनेश्रो ॥ १ ॥ श्रनिब्बिगइय-स्स असा जुई परीभोगो । इंद्रियजयदा विगई चायमि नो जुत्तो ॥ २ ॥ जो विगई चार्य, काऊ खाइ निद्धमहुराई । उकोसगदम्बाई तुच्छफलो तस्स सो नेचो ॥ ३ ॥ दीसंति के इहिं, पच्त्रक्खाए वि मंदधम्माणो । कारणिनं पडिलेवं, श्रकारणेणावि कुणमाणा ॥ ४ ॥ तिलमोअगतिलवहिं वरिसो लगनालिकेरखंडाई | होली पर्वजण च ॥५॥ घमंडगाई, रंधेयमा कुल्लुरिमपमुद्दे अकार के भुजति
पुण
-9
मय तंपि इह पार्थ, जडुतकारी ग्राममंतू जरजम्ममरणभीसण - भवनश्चिग्गचित्ताएं ॥ ७॥ मोतुं जिणाणमाणं, जियाण बहुदुहदवग्गितवियां । न हुन पडियारो, कोइ इदं भववणे जेण ॥ ८ ॥ विगई परिधम्मो, मोहो असुदि उदि सरवि चित्तखयपरो, कई अजे न बहिदि ॥ ॥
--
विगई
दावानलमज्भगचो, को तबसमट्टयाए जसमाई। संते विनसेवा, मोहालीदिए उधमा ॥ १० ॥ विग विगईभीओ, विगयगयं जो य भुंजए साहू । विगई विगयसहावी, बिंगई विगई बला नेइ ॥ ११ ॥ " इत्यादि। सुगमायेताः नपरमत्यगाथा किचिद्विपमत्याद्वितन्यते । विगतेर्नरकादिकाया यो मीतस्रस्तः साधुषिकृति क्षीरादिकाम म्हस्यापि दर्शनाद्विकृतिगर्त च क्षीराचादिकं यो भुस दुर्गनिवासीति शेषः कस्मादित्याह - विकृतियलात् जीवमनिच्छन्तमपि विगर्ति नरकादिकां नयतीति । एतदपि कुत इत्याह-विकृतितो वितिस्वभावा मनोविकारका रिस्वरूपेति । प्रव० ४ द्वार । बृ० ।
"
० चू० । नि० चू०| पं० व० दश० । (विकृताबुदाहरणम् 'आलंबण' शब्द द्वितीयभागे ३६४ पृष्ठे गतम् । ) ( वर्षासु विकृतिस्थापनम् ' पज्जुसवणाकप्प' शब्दे पञ्चमभागे २४२ पुढे उक्रम।)
4
विभुतिस्थारेति इच्छामो नाउं का विगती केवतियाउ वा । गाहा—
तेले घतणवणीते, दधिविगती उ होंति चचारि । फाय विगडे दो दो, खीरम्मि य होंति पंचैव ॥ ३४ ॥ मधुपोग्गलम्मि तिथि व चलचल ओगाहिमं च जं पकं । एतासिं अवदिर्थ, जोगमजोगे व संवरणे ॥ ३५ ॥
सवे ज्ञापकगिती, सेसा पुरा तेज्ञावाडा पुण, सब्वे घता एका य विगती । एवं वणीयादि वि दहिबिगतीओ वि बतारि गायीमहिसीयलगा च। फावि गुलो महति सो दुबिहोड
विषमतस्य दो भैया, पिक, गुलफडं च बीराणि पंच, गाधीमहिसीयलपट्टी च मणि तिथि-कौलिय मक्खियं भ्रामरं च । पोग्गलाणि तिथि, जलयं थलयं खहचरं च। चलयले त्ति तत्थ पढमं जं घयं वित्तं तत्थ अरणं अ पर्वती आदि जे ताणा एयतितं चलचति तेरा ते अचलचलओ गाहिमं भरणति । तत्थेव घता जे सेसा पचति तेरा चलचलेति चतो तेरा प्रतिज्ञा तिरिण घाणा मोत्तुं सेसा पच्चक्खाणिस्स कप्पंति । जति पति, जोगबाहिरस पुरा सेगावगती पति जो अपतरं विगर्ति ग्राहारेति जोगवाडी या संपरणे था ।
गाद्दा
गाढमणागाढे, दुविधे जोगे समासतो होति । आगादेश व वजय, भपगं पुरा होतऽहागाडे || ३६ ॥ जोगो दुविदो आगाडी प, असागाढो य अगाढतरा जम्मि जोगे जता सो गाढो यथा-भगवतीत्यादि. इतरो श्रणागाढो यथा-उत्तराध्ययनादि । श्रगाढे श्रोगाहिमवज्जा एवविगतीश्रो वणिज्जेति । दसमाए भयणा। सव्वा श्रोगाहिमविगती पीकप्पति, महाकप्पे से एक्का, पर मोतविगत - यति सेसा धागादेसु सध्वधिमतीतो कप्पति अगा पुरा दस बिगतीओतताओ जो गुरुगुणा कप्पंति
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उद्देसो।
(१९३५) बिगइ अभिधानराजेन्द्रः।
विगइ अणुगणाए विणा ण कप्पंति । एसा भयणा । जति अणुमाते मक्खंति अठायंते, पजंति (इ)यरे दिणे तिमि ॥४३॥ प्रविधीए तो जोगभङ्गो भवति वा । जोगभंगो दुविहो-सव्व- उभयम्मिश्रागाढेत्ति पदमभंगे दहेल्लगं भोगाहिमणिग्गालो भंगो, देसभंगो य ।
जंचा दोहिं तिहि वा दव्वेहि णिहं पक्केलगे हंसतलमाती
एपहिं पतिदिणा तिलि दिणे मक्खेति, 'अठाभंते 'तिजा विगतिमणडा भुंजति, ण कुणति आयंबिलं ण सद्दहती।। रोगो न उपसमति ताहे से सम्बहा जोगो णिक्लिपति। एसो तु सव्वभङ्गो, देसे भङ्गो इमो तत्थ ॥ ३७॥
गाहाविगती निक्कारणे अणुरणाओ भुजति आयंबि- जत्तिऍ अच्छति दिवसे,विगति सेवति ण उद्दिसे तं तु । लवारए आयंबिलं ण कारेति, सम्बरसे य भुंजति
तह वि य अठायमाणे, णिक्खिवणं सबधा जोगे ।४४| ण सद्दहति वा एस सव्वभको । श्रागादे सब्वभंगे चउगुरुं, अणागाढे सबभंगे चउलहूं, इमो
जति णिक्खिवती दिवसे, भूमीउ तत्तिए उवरि बट्टो। देसभंगे।
अपरिमियं उद्देसो, भूमीउ परं तथा कमसो।। ४५ ।। गाहा
जत्तिए दिवसे णिक्खित्तजोगो अच्छति, पुणो उक्खित्तजोकाउस्सग्गमकातुं, जति भोत्तूण कुणति वा पच्छा। गे जोगभूमीनो तत्तिए दिवसे उबरि वट्टिजति जोगभूसयकाउँ जे च भुजति,तत्थ लहू तिमि उविसिट्ठा॥३८॥
मीए वि विरायणजोगभूमीए जे केति दिवसा सेसा सो
जोगभूम्यतो भक्षति, तत्थ महाविणो कद्दमस्स अपरिमित्रो जदि कारणे काउस्सग्गमकाउं भुंजइ भोत्तूण वा पच्छा उद्देसो, विरायणजोगभूमीए परउबढिदिवसेसु कमेण उद्देकाउस्सग्मं करेति, सय वा काउस्सग्गं काउं भुजा । सो कज्जति । अम्मे भमंति-जत्तिए दिवसेण उद्दिटुं तत्तिए अवरो गुरुं भणति-मम विगति विसज्जेह । एएसु वि च-दिवसे, अपरिमिनो उसो कायव्यो। ततो परं कमेण उसु वि मासलहुं तवकालविसिटुं चउत्थे दोहि वि लहुं। जो पुण कारणे अणुराणातो काउस्सग्गं काउं भुजति सो
इदाणं बितियभंगो । गाहासुद्धो। आगाढजोगे वि देसभंगे एवं चेव नवरं मासगुरुं। ।
गेलममणागादे, रसवति होवरए असति पका। अणागादागाढजोगाण देसभंगे इमं पच्छित्तं । गाहा
तह वि य अठायमाणे, मा बट्टे णिक्खिवे य तहा ॥४६॥ ण करेति भुजितूणं, करेति काऊण भुजति सयं तु ।
जोगो आगाढे गेलो अणागाढे णेहावगाढभत्सरसोतीए वीसजे धम्मति य, तवकालविसेसिनो मासो।। ३६ ।।
छुम्भति होवरते बा। ते हावयवपोग्गला सरीरमणुइमो विगतिविवज्जणे गुणो
पविट्ठा रंगोवसमा भवंति. ततो दट्टेल्लगपक्केल्लगेहिं मक्खति । जागरंतमजीए वि, ण फुसे लूहवित्तिणं ।
तिमि दिणे अट्ठीए पजति तहावि अट्टिते तो रोगो मा जोगीऽहं ती सुहं लद्धो, विगती परिहरिस्सति ॥४०॥
अतीव रोगवही भविस्सति तम्हा जोगणिक्खेवो ।
तहेव जहा पढमभंगे । इदाणिं ततियभंगो अणागाढलोगे सुत्तत्थधरणहेतुं रातो जागरंतं अजीरातिया दोसा ण|
आगाढगेलराणे तिरिण दिणा दट्रेलगपक्केल्लगेहिं मों फुसंति लूहवित्तिणं । किं चान्यात्-जोगीऽहमिति लद्धे वि
ति अवरे तिरिण दिणे पति। सुहेणं विगतिवज्जंति । कारणे जोगीऽवि विगति श्रा
ततो परं । गाहाहारेति ।
तिमि तिगेगंतरिया, गेलमगाढपरतो णिक्खिवणा। गाहाबितियपदमणागाढे, गेलपवर महामहट्ठाणे ।
तिमि वि एगंतरिता, चउत्थछट्टेव णिक्खिवणा ॥४७॥ श्रोमे य रायडे, ऽणागाढाऽऽगाढ जतणाए ॥४१॥
तिरिण तिगेव तेसिं एकेको वि एगो णिव्वीयंतअणागाढगेलराणगहरणातो गाढं पि गहियं वए त्ति गोउलं
रिओ कायब्यो। तिगिण दिणे काउस्सग काउं विगति महामहो-इदमहादि श्रद्धाणे वा ओमे दुभिक्खे गय?
आहारत्ता चउत्थदिवसे णिब्धीय आहारेति । ताहे पंचवा, एतेहि कारणेहि अणागाढजोगी श्रागाढजोगी वा ज
मछट्ठसत्तमाणि दिवसाणि विगति आहारेति , अट्टमे यणाए विगति वि मुंजति ।
दिवसे निब्वायं करेति, नवमे दिणे विगति आहारेगाहा
ति, ताहे जति गोवसमति ताहे दसमे दिवसे जोगो जोगे गेलमम्मि य, अगाढितरे य होति चतुभंगो।
णिक्खिप्पति । इदाणिं चउत्थभंगो । एत्थ वि रसवतिणेहो
व मक्खणापमजणं तहेव, अतो परं तिरिण वि पच्छद्धपढमो उभयागाढे, बितिम्रो ततिओ य एक्केणं ॥ ४२ ।।
तिरिण वि तिया व एते , एगंतरएण णिब्धीतितेण जोगगेलराणेसु श्रागाढणागाढेसुचउभंगो कायव्यो । पढ- यव्या । विगति णीवीतितं-वि०१ नि०१ वि०नि०१ मे उभयमवि श्रमाद, बिलिए जोगो आगाढो गा गेलराणं
१ अतो परं अठायते सव्वहा जोगणिक्वेवो ताप न जोगो गेलगा पागाई. चन्थे दो विश्रणागाढा।
पातदिवसमलभते परिव्वसावेतब्यकट्टियब्वगे वा जोगणिगाहा
क्खोवो । अहवा-अजोगिगिलाणस्स वि खीराति णो होउभयम्मि वि आगाढे, दब्बे दड़े य पक्क एएहिं । जताहे य सग्गामे मग्गियध्वं । असति सक्खेते परगा
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(१९३६) विगह अभिधारराजेन्द्रः।
विगयकप्पणिभ मे सक्खेत्ते असति खेत्तबहिया तो विश्राणियव्वं । सव्व- विगई परिभुंजे पंचेव आयंबिलाणि दोएहं विगईणं उहा अलभते गिलाणोवचितं णिज्जेज्जा। वतियाए त्ति दारं, परिभुजे पंच निबिइगा इयाणिं अकारणिगो विग
__ तस्थिमा जयणा । गाहाबयिगा य अयोगीव, अदढो अतरंतगस्स दिअंति। ।
इपरिभोगं कुजा अट्ठमं । महा० १ चू०।।
| विगइंगालधूम-विगताङ्गारधूम--त्रि० । अङ्गारधूमदोषरहिते, णिव्वीतियमाहारो,सति अंतर विगतिणिक्खिविणा।४।।
प्राचा०१ श्रु० २०५०। अतरंतगो-गिलामो अदढो विणा वि गेलमएण जो दुम्बलो | मिस
लो विगइणिज्जूढ-विगतिनिर्यट-त्रि० । निर्विकृतिके, प्राचा० १ एते जया वामाणिजंति तत एतेसि सहाया अजोगवाही
श्रु०२१०५०। दिजंति । असति अजोगवाहीणं अणागाढजोगवाही वि दिजंति, अहवा अदढ त्ति अजोगवाहियो जे अदढसरी
विगइपञ्चक्खाण-विकृतिप्रत्याख्यान-न० । विकृतित्यागे, रा ते अंतरंगस्स वि घितिजगा दिजंति. तेऽपि तत्र ब
ध० २ अधि० ।('णिब्विगइ' शब्दे चतुर्थभागे २१३० लिनो भविष्यन्ति इत्यर्थः । जे जोगवाहिणो ते तत्थ व
पृष्ठे व्याख्यातमिदम् ।) ईश्राए णिश्चिययमाहारं गेहति । असति णिवीतियस्स
| विगइपडिबद्ध-विकृतिप्रतिबद्ध-त्रि० । घृतादिरसविशेषगृद्ध, अपजंतं वा लम्भति, ताहे अंतरंतरा काउस्सग्गं करेति ।
| अनुपधानकारिणि, वृ०४ उ० । स्था। विगति भुजंतु श्रायरणा पुण ततियभंगविकपणे ण सपयं | विगोदग-विगतोदक-त्रि० । बिन्दुरहिते, कल्प०३ अधिक सव्वहा वा णिब्वितीए अलब्भंते णिक्खिवणे जोगस्स । गाहा
विगंचिउ-विविच्य-श्रव्य० । परिष्ठाण्येत्यर्थे, व्य० २ उ० ।
...। विगमिजंत-विगण्यमान-त्रि० । आत्मपरेषां जुगुप्सायो.......................................॥४६॥ ग्ये, तं०। तत्थ पतिताए "आयंबिलपारण” श्राबिलस्स अलंभे । विगत्तग-विकर्तक-त्रि० । प्राणिनां चर्मापनेतृषु, सूत्र. २ अभत्तटुं करेज जति उपवासगस्स असण्ह ताहे | श्रु०२०। तकाति वेगंगियं भुजति । आदिसहातो वल्लचणगमुग्गपा-विगत्तिऊण-विकर्त्य-अव्य० । छित्त्येत्यर्थे, सूत्र १ श्रु० ५ णियं बिलं वा कंजियसागंता एवमाति जे णिब्धीतिय श्र
अ०२ उ०। त्थि तो वहति अलभते पुण भागाढजोगे जोगणिक्खेवो
| विगप्प-विकल्प--पुं० । अध्यवसायमात्रे, रत्ना० ३ परि० । आगाढा ऽणागाढा पुणो उक्खिसो उद्देसो तहेव । जहा गिलाणदारे । एवं वईश्राए।
चित्तविभ्रमे, श्रष्ट० ६ अष्टः । श्रवस्तुविषयायां शाब्द
चियाम् , द्वा० ११ द्वा०1"शब्दझानानुपाती वस्तुशून्योऽर्थोंइदाणि महामहे त्ति दारं । गाहा
विकल्पः" इति पतञ्जलिः । द्वा० २० द्वा०। "विकल्पः सबमहादीएसुं, पमस देवा छलेज तेण ठवे ।
शब्दार्थः" इति बौद्धविशेषाः। तथा-'ब्राह्मण' इत्युक्त तपो वा पीखिजंति व दढा, इतरे उ वहंति ण पदंति ॥ ५० ॥
जाति; श्रुतं वा, तपश्च जातिश्च श्रुतं चेति न प्रतिषसकमहो-इंदमहो आदिसहाश्रो सुगिम्हादि जो व जत्थ त्तिर्भवति, अपि तु-साकल्येन संबन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपः महामहो पतेसु मा पमत्तं देवया छलेज तेण उण उबट्टवण प्रभृतयस्संहताःप्रतीयन्त इति । बहुवप्यनेकसमुदायिभेतिमणागाढजोगणिक्खेवो। किंचान्यत्-तेसुय सक्कमहादि दावधारण विकल्पः । सम्म०१ काण्ड ३ गाथाटी०। दिवसेसु विगतिलाभो भवति, ताओ दुब्बससरीरा भुंजति विगप्पण-विकल्पन-न० । उपकरणपरिकल्पने,उत्त०२३ अग तहा पीणिज्जति बलिनो भवंतीत्यर्थः। इतरे णाम आगाढजो-निगणिमा
विगप्पिय-विकल्पित-त्रि० । कल्पनाशिल्पनिर्मिते,नाअनु।
निकाशित गवाही ते जोग वहंति-जोगखंधा अच्छंति, ण तेसु उद्देसो न
विगम-विगम-पुं० । विनाशे, विशे० । श्रा० म०। श्रा० वा पुम्वदिटुं पढ़ति।
क० । ग० । नि० चू० । स्था० । श्राव। निर्जरणे, इवाणि अशाणीमरायदुटुं च तिरिण वि दारे जुगवं वाखाणेति । दारगाहा
पश्चा० १५ विव०। प्रवाणोमदुढे, एसाणि जोगीण सेसपणगादी। ।
विगमसहाव-विगमस्वभाव-त्रि० । विनश्वररूपे, विशे० । असतीय प्रणागाढे,णिक्खिव सव्वासती इतरे ।।५१||
विगय-विकृत-विकारवति, शा० १ श्रु०८ ० । उपा० । अशाणुगामाणुगामिए छिएणद्धाणे वा जोगं वहंति, ताहे
विगतजीवे, वृ०२ उ०। जं एसणिजं तं जोगीण दिजति । सेस त्ति अजोगवाही
विगत-त्रि । अपगते , सूत्र. १ श्रु०१०४ उ० । व्यते पलंगपारहाणीए जयंति, फासुयएसणिजस्स असति तीते, बृ०२ उ० । प्रलीने, सूत्र०१ श्रु० ६ ० । विनष्टे , जा सम्वे जोगवाहिणो ण संथरंति ताहे अणागाढे जो- श्रा० मा १ श्र० । विप्रनष्टे, जी०३ प्रति०४ अधिक। गवाहीणं जोगो णिक्खिप्पड़, सब्बासति णाम सब्बहा ए- अतिक्रान्ते, पञ्चा०५ विव० । “विगयभग्गभुग्गभुमए " वि. सणिनो अलग्भमाणेश्यराण विभागाढे जोगो णिक्खि- कृते-विकारवत्यौ भने-विसंस्थुलतया भुझे यके भ्रुवौ यस्य प्पति । चउभागतिभागश्रद्धाण वा असंथरणा णिक्खेवो एवं पिशाचरूपस्य तत्तथा । उपा०२०! प्रोमोयरियरायडेसु वि । जोगो त्ति गयं । नि००४ उ। विगयकप्पयणिभ-विकृतकल्पकनिम-त्रिविकृतौ योऽरज
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विगयकप्पयणिभ अभिधानराजेन्द्रः।
विग्गह कादीनां कल्प एव कल्पकश्छेदः-खण्ड तन्निभम् । कर्पर-विगल्लण्यर-विगल्लनगर-म० । नगरभेवे, “विगउमीदेसे, सहशे, उपा०२१०।
विगल्लं नयरं तत्थ सिरिपालो नाम नरबई हुत्था" ती०५१ विगयकिरियणियहि-विगतक्रियानिवर्तिन-पुं०। विगतप्रा. णातिपातप्रचारे, शेषकायवाङ्मनोयोगसर्वदेशपरिस्पन्दत्वा-विगसंत-विकसत त्रि० । वर्द्धमानविकाशे, शा०१ श्रु०१०। त् विगतक्रियानिवर्तीत्युच्यते । सम्म० ३ काण्ड ।
विगसिय-विकसित-त्रि० । व्याक्रोशीभूते, अभिनवोदबुद्ध, विगयगेहि विगतग्रद्धि-त्रि० । विगता-अलीना बाह्याभ्यन्त-| चं०प्र०१पाहा रेषु वस्तुषु गृद्धिह्याभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः ।। विगहा-विकथा-स्त्री० । विरुद्धास्यादिविषया कथा । स०४ सूत्र.१७०६ अ०। प्राचा०। विगता-अपगता आहागदौ सम। जो संजो पमत्तो, रागदोसगो परिकहेछ । साउ गृद्धिर्यस्यासौ विगतगृद्धिः। आहारादिषु गृद्धिरहिते, "वु- विकहा पययणे, पन्नत्ता धीरपुसेहि'॥१॥ इत्युक्तलक्षणे कसिए य विगयगेही" सूत्र०१ श्रु०१ १०४ उ०। षायादिवशगेन कथने, द्वा० द्वा। विगयधूम-विगतधूम-न० । द्वेषरहिते, “रागेण सइंगालं | विगहापरायण-विकथापरायण-त्रि० । सप्तप्रकारविकथात
दोसण सधूमग ति णाययो" प्रश्न १ संघ द्वार। त्परे, ग०१ अधिक। विगयपक्ख-विगतपक्ष-पुं०। विगतं विगमो वस्तुनोऽवस्था-|
विगहामहण-विकथामथन-नाविकथाविनाशने,पं०व०३द्वार। म्तरापेक्षाया विनाशः; स एव पक्षो वस्तुधर्मस्तस्य वा पक्षः
विगहासील-विकथाशील-त्रि० विरुद्धकथाकथनस्वभावे , परिग्रहो विगतपक्षः। विनाशपले, " छिज्जमाण छिन्ने भिज्जमाणे भिरणे दज्झमाणे दहे, भिज्जमाणे मए णिज्जमाणे
ग०२ अधिक। णिज्जिरणे एएणं पंच पदा णाणट्ठा णाणाघोसा णाणावजणा
विगाढ-विगाढ-त्रि० । विशेषेण गाढो विगाढः । विनाशयिविगयपक्खस्स" विगतं विहाशेषकर्माभावोऽभिमतो जीवन | तुमशक्ये, उत्त० १० अ०। समन्ताद् व्याप्ते, स्था०१ ठा०। तस्याप्रासपूर्वतयाऽत्यन्तमुपादेयत्वात्तदर्थत्वाच्च पुरुषप्रया-1 विगार-विकार-पुं० । वर्णस्यान्यथाभावापादने, अनुकारागा. सस्य । भ० १ श० १ उ०।
द्यशुद्धाध्यवसाये, अष्ट० १५ अष्ट। विगयमोह-विगतमोह-त्रि०। मोहरहिते,ध०२ अधि०।
विगिंचण-विवेचन-ना पृथक्करणे, वृ०१ उ०३ प्रकला सूत्र पगतमोहे, अपगतमोहनीये, पो०१५ विव०।
श्राचा अपनयने, सूत्र०२ श्रु०१३ अा त्यागे,आचा०१ श्रु० विगयसोगा-विगतशोका-स्त्री० । नलिनायतीविजयक्षेत्रव-1
१०२ उ०ा स्थान सूत्र०। प्रा०चूना पश्चा०1निर्जरायाम्, र्तिपुरीयुगले, स्था०२ ठा०३ उ०। पंचसप्ततितमे महाग्रहे, स्था० ८ ठा०३ उ०। स्था०। ('महाग्गह' शब्दे विशेषो गतः)।
विगिंचमाण-विवेचयत-त्रिका क्षपयति, प्राचा०२ श्रु०६० दो विगयसोगा । स्था० १ ठा०१ उ०।
२ उ०। परिष्ठापयति, सकृच्छोधयति, स्था०५ ठा०२ उ०। विगयागार-विगताकार-त्रि०ा साकाररहिते, अनाकारप्रत्या
विगिंचिय-विविच्य-श्रव्यात्यक्त्वेत्यर्थे, श्राचा०१ श्रु०२ म. ख्याने, स्था०२ ठा०३ उ० ।
८ उ० भ०। विगरण-विकरण-न । उचितकरणादर्शने व्य० १० उ० । खण्डशः कृत्वा परिष्ठापने, वृ०४ उ०।
|विगिट्ट-विकृष्ट-त्रि० । नातिदीधे, झा० १ श्रु०१५१०। विगरणभाव-विकरणभाव-पुं० । कायनरपेक्ष्यणेन्द्रियाणां वृ-वागट्ठखमग-विकष्टक्षपक-पु०
विगिदुखमग-विकृष्टक्षपक-पुं०।अष्टमादिविकृष्टतपासेविनि, तिलाभे, द्वा०२६ द्वारा
पञ्चा० १३ विव०। विगराल-विकराल-त्रि० । विकृताङ्गोपाङ्गधरे,उत्स० १२ १०
विगीय-विगीत-त्रि० । निषिद्धे, प्रतिः । भयोत्पादके, तं।
विगुण-विगुण-पुं०। विगताः छानस्थिकहानादयो गुणा विगल-विकल-त्रि० । विरुद्धेन्द्रियवृत्तिषु, प्रश्न० ३ आश्र०
यस्य स विगुणः । श्रा०म० ११०। केवलिनि , सस्वरजद्वार । पाणिपादाद्यवयवव्यङ्गितेषु, पृ०१ उ०२ प्रक०। ।
स्तमोगुणरहिते, विशे०।। विगलतिक-विकलत्रिक-न। द्विन्द्रीयत्रिद्वीयचतुरिन्द्रिय-विगुव्वणा-विकुर्वणा-स्त्री० । वैक्रियकरणे , स्था० ६ ठा०
जातिलक्षणे विकलेन्द्रियजातिके, कर्म० ३ कर्म । क. प्र०।। ३ उ०। विगलाएस-विकलादेश-पुंगनयवाक्यापरपर्याये नये,स्थान| विगुम्वित्ता-विकुर्व्य--अव्य० । वैक्रियं कृत्वेत्यर्थे, स्था०७ विगलिंदिय-विकलेन्द्रिय-पुं०। विकलान्यसंपूर्णानि इन्द्रिया- ठा० ३ उ०। जियेषां ते विकलेन्द्रियाः । एकदिविचारितिष विगोवइत्ता-विगोप्य-अव्य० । गुप्तं प्रकटीकृस्येत्यर्थे , कल्प उ० । विशे०। अपञ्चेन्द्रियेषु, स्था० ३ ठा०१ उ०। (विकले। १ अधि०५ क्षण। न्द्रियाणां द्वीन्द्रियादीनां प्रत्येकशरीरिणां सर्वा वक्तव्यता | विग्गह-विग्रह-पुं० । कलहे, विशे०। प्रश्न । विशिष्टं या'पत्तेयसरीर' शब्द पञ्चमभागे ४२८ पृष्ठे उक्ला । | बेन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रहः। औदारिकशरीरे, भाना.
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विग्गह अभिधामराजेन्द्रः।
बिचित्त १४०५०२ उ० । युके, सूत्र०१७० १३० ।। विग्रहः-शरीरं यस्यास्ति स विग्रहविप्रहिका। बकाये,म०। बकगमने, स्था. ३ ठा०४ उ०। क्षेत्रविभागे, स्था० १० कहिणं भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पसत्ते,गोयमा! ठा०३ उ०। लोकमाडीचक्रे, स्था०२ ठा०४ उ० । काये, पाइ ना०५६ गाथा।
विग्गहकंटए एत्थ णं विग्गहविग्गहिए (लोए) पमचे। म.
१३ श०४ उ०। विग्गहकडय-विग्रहकएडक-न। विग्रहो-चक्रं कण्डकम्
विग्गहसीलस-विब्रहशीलत्व-ना पश्चादननुतापितया क्षमअवयवो विग्रहरूपं करडकं विग्रहकराडकम् । ब्रह्मलोकरुपरे लोकाऽवयवे, यत्र वा प्रदेशवृद्धधा हान्या वा वर्क
णादावपि सत्यप्राप्त्या व विरोधानुबन्धे, ध० ३ अधिः । भवति, तद्विग्रहकण्डकम् । प्रायो लोकान्तेषु अवयव- विग्गहिय-विग्रहिक-पुं०। विग्रहो-युखं स विद्यते यविशेष, भ०१३ श०४ उ० । अकादाने, शिस्ने, नि० चू० स्थासौ विग्रहिकः । युद्धप्रिये, सूत्र० १ ० १३ ।
| विग्गहियउएणयकुच्छि-विग्रहीतोन्नतकचि-त्रि० । विप्रहिविम्गहगह-विग्रहगति-सी० विगती, स्था०२ठा०३उ०म० ।। ता-मुष्टिमाया उन्नता च कुतिर्येषां ते विग्रहीतोन्नत
कुक्षयः । मुष्ठिमितकटिकेषु, जी०३ प्रति०४ अधिक। जीवेणं भंते । किं विग्गहगतिसमावभए भविग्गहगति
बिग्घ-नाविन-पुंगमन्सराये,प्राप०५०मा० समावमए १, गोयमा ! सिय विग्गहगइसमावभए सिय
तच्च विषयभेदात्पशधा-दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायअविग्गहगइसमावमगे, एवं • जाव वेमाणिए । जीवाणं
भेदात् । कर्म०५ कर्म०। “दितस्स लभंतस्स ब, भुजंतस्स भंते ! किं विग्गहगइसमावनया भविग्गहगइसमावनगा , व जिणस्स एस गुणो । खीणंतराययत्ते, जसे विग्धं न संगोयमा ! विग्गहगइसमावनगा वि अविग्गहगइसमावनगा |
भवर" जिनस्य-क्षीणसकलघातिकर्मणः शीलान्तरायवि । नेरझ्या शं भंते ! कि विग्गहगतिसमावनया अवि
त्वे सत्येष गुणो जायते, यदुत-से' तस्य जिनस्य ददतो
लभमानस्य वा मुखामस्य वकारस्यानुक्कसमुव्वयार्थत्वाहुग्गहगतिसमावनगा ?, गोयमा ! सब्वे वि ताव होजा पभुजानस्य च यशिनो न भवति, प्राकृतत्वाच्च विनशब्दस्य अविग्गहगतिसमावभगा १, महवा भविग्गहगतिसमावन- नपुंसकनिर्देशः । नं०। गाय विग्गहगतिसमावझे य २,अहवा अविग्गहगतिस-विग्धकर-विघ्नकर-त्रिका अन्तरायकारके, प्रश्न०३ श्राश्र. मावनगा य विग्गहगइसमावनगा य३ । एवं जीवेगिंदि- द्वार। "इह भवधिहारिणो सा,विग्धकरी पेयणा समझे" हर यवजो तियभंगो। (सू०-५६)।
भवविहारिणो । विघ्नकरी-विग्यविधातकारिणी वेदना स
मुत्तिष्ठति । संघा०१ अधिः। “विग्गहगइसमावन्नए 'त्ति विग्रहो-वकं तत्प्रधाना गति-||
विग्धजय-विजय-पुंगविग्रस्य धर्मान्तरायस्य जयः-परिमविग्रहगतिः। तत्र यवा धक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिस-1 मापन्न उच्यते, अविग्रहगतिसमापनस्तु ऋजुगतिकः स्थितो वान
वो निराकरणम् । विघ्नाभिभवे, पो. ३ विष०ा (विनविजय. वा. विग्रहगतिमिधमात्राश्रयणात यति चाषिप्रति वक्तव्यता 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६७० पृष्ठे गता।) समापन ऋजुगतिक एवोच्यते तदा नारकादिपदेषु सर्वदै-विग्यविधायणहेउ-विघ्नविधासनहेतु-पुं०। उपद्रवषिनाशना. बाविग्रहगतिकानां यदहुत्वं वक्ष्यति तन्त्र स्याद् , एकादी-| थे, जी०१ प्रति। नामपि तेषूत्पादश्रवणात् । टीकाकारेण तु केनाप्यभिप्रा-विग्धोवसममी-विघ्नोपशमनी-सी।विघ्नानुपशमवतीति येणाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एवं व्याख्यात इति ।।
विघ्नोपशमनी । पूजामेदे, पो विवा('या' शब्ने पक्षमा 'जीवा णं भंते !' इत्यादि प्रश्नः । तत्र जीवानामामनस्यात्
भागे १०७५ पृष्ठे दर्शितेषा।) प्रतिसमय विग्रहगतिमतां तनिषेधवतां च बहूना भावा
विषडण-विघटन-२० । विनाशने, शा. वाह-'विग्गहगह' इत्यादि । नारकाणां त्वल्पत्वेन विन-1
भु.१ । गतिमतां कदाचिदसम्भवाद् । सम्भवेऽपि चैकादी-विषण-विधन-न। विगतं धन-मेघ यत्र । मेषीते.ा. नामपि तेषां भावाद् , विग्रहगतिप्रतिवेधवतां च स- १६०० देव बहूनां भावात् । श्राह-'सव्ये वि ताव होज अधिग्गहे। विधाय-विधात-पुं० । अस्तरे, विशे०।। स्यादि विकल्पत्रयम् । असुरादिषु एतदेवातिदेशत पाह-विचट-विघ--
त्रिविरूपघोषकरणे, प्रश्न.३मामाद्वार। 'एव' मित्यादिजीवानां निर्विशेषाणामेकेन्द्रियाणां चोकयुकल्या विग्रहगतिसमापनत्वे. तत्प्रतिषेधे च बहुत्वमेवेति न
विचक्खु-द्विचचुष--पुं० द्विाभ्यां चकुरिन्द्रियावधिभ्या तत्त्वभनत्रयम् , तदन्येषु तु त्रयमेवेति । 'तियभंगो' तित्रिकरूपो| प्रहीतरि, स्था० ३ ठा०४ उ०। भलिकभनो, भात्रयमित्यर्थः । भ०१श०७० विचचिया-विचचिका-श्री० । विपादिकायाम् ,१०॥ विग्गहगइसमावभग-विग्रहगतिसमापनक-त्रिततिप्राप्त प्रक० । प्रश्नः । बु, भ०१श०२ उ०।
विचिकी-विचिकी-स्त्री०। बायभेदे, रा०। दिग्गहविग्गहिय-विग्रहविग्रहिक-पुं० ।विग्रहो-बक्रं तद्युतो विचित्त-विचित्र-त्रि० । विविधरूपवति,मा०१भु०२०।
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(१९३६) विचित्त अभिधानराजेन्द्रः।
विच्छिल नानाप्रकारे, विशे०।०प्र०ा अपूर्वे, प्रा०म०१०। प्रशा। र्थस्य विसंवाद इत्यादि विभाषा प्रागिव या दीक्षा निरर्थिनि०० विविधवर्णविशेषवति, स्था०१ ठा०३ उ० । विविध- | का । वृ० १ उ०१ प्रक० । चित्रयुक्त.सू०प्र०२० पाहु । कबुरे, शा०१N०६अास्था।
विच्चामेलियदाण-व्यत्यानेडितदान-न० । वितथसूत्रार्थप्र"विचित्तवत्थाभरणे" विचित्राणि वस्त्राणि वाऽऽभरणानि च यस्य वखारयेव वाऽऽमरणानि-भूषणानि अस्याभरणानि अ.
| दाने, विशे। वस्थोचितानीत्यर्थो यस्य स तथा स्थाठा० ३ उ० विचि- विच्चुइ-विच्युति-स्त्री० । विस्मरणे, विशे। सउल्लोए'विचित्रो विचित्रकलित उल्लोकः उपरिभागो यत्र त- विच्चय-विच्यत-त्रि० । विस्मरतः पतिते, व्य०८ उ०। तथा। कल्प०१अधि०२ क्षण। भाविचित्तमणिरयणकुट्टिमतसे विचित्राणां मणिरत्नानां कुट्टिमतलं बद्धभूभागो यस्य स
विच्चुया-विच्युता-स्त्री० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रशा० १ तथा । कल्प०१ अधि०७ क्षण । जी० । 'विचित्तमालामउली' | पद । जी०। विचित्रा मालाश्च पुष्पमाला मौलिश्च शेखरो यस्य स तथा।। विञ्चोयम-न । उपधानके, जी०३ प्रति०४ अधि। कल्प। स्था०८ठा०३उ० । 'विचित्तसुहकेउबहुला' विचित्रैर्नानाप्रकारैः शुभैर्मङ्गलभूतैः केतुभिर्ध्वजैर्बहुला ब्याप्ता विचित्रशुभकेतुब
विच्छह-विच्छर्द-पुं० । “सम्मद-वितर्दि-विच्छई-फछर्दि-कपहुला । रा०। जं०। 'विचित्तहत्थाभरणे' विचित्राणि नाना
ई-मर्दिते स्य" ।।२।३६ ॥ इति दस्य डः । प्रा०। मह रूपाखि हस्ताभरणानि येषां ते विचित्रहस्ताभरणाः । जी ति जनसामग्रीसम्म, 'बः प्रवेशोऽभवद्यस्य, विच्छन म३प्रति०४ अधि० । स्था० । भावेणुदेववेणुदारिणोः पूर्वलो- हीयसा।' प्रा० क० ११०। कपाले, स्था० ४ ठा०१ उ०।
विच्छाइत्ता-विच्छर्य-श्रव्य० । विशेषेण त्यक्त्वेत्यर्थे, कल्प० विचिचकुसुम-विचित्रकुसुम-नानानाविधपुष्पे,पञ्चाविव १ अधि०५क्षण । विचित्तकूड-विचित्रकूट-पुं०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य विच्छडिय-विच्छर्दित-त्रि० । त्यक्ने, स्था० ८ ठा० ३ उ० । पूर्वे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे वक्षस्कारपर्वते , स्था० “विच्छड़ियपउरभत्तपाणे" विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानः। वि१० ठा०३ उ०।
च्छर्दिते त्यने बहुजनभोजनदानेनावशिष्टोरिछष्टसंभवात् विचित्तत्थग-विचित्रार्थ-पुं०। बहुधार्थेषु, षो०६ विव० ।। सम्जातविच्छ पा नानाविधभक्तिके भक्तिपाने यस्य स विचित्तपक्ख-विचित्रपच-पुं० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०१
तथा । झा० १ श्रु०१ ० । विच्छर्दितं विविधमुज्झितं
बहुलोकभोजनत उच्छिष्टावशेषसम्भवात् । विच्छर्दितं वा प्रति०। प्रज्ञा । वेणुदेववेणुदारिणोरुसरलोकपाले, स्था०४
विविधं विच्छित्तिमद् विपुलं भक्तं च पानकं च येषां अ०१ उ० । भ०।
ते तथा । भ०३ श०५ उ०। विच्छर्दिते त्यक्ते बहुजनभोजविचित्तभेद-विचित्रभेद-त्रि० । बहुप्रकारे, पञ्चा०१६ विव०।
नावशेषतया विच्छर्दितवती विभूतिमती विविधभक्ष्यभोज्यविचिचवेस-विचित्रवेष-त्रिका विविधवस्त्रादिनेपथ्यधारिणि,
चोष्यलेह्यपेयाहारभेदयुक्ततया प्रचुरे भनपाने येषु तानि वृ० १ उ० ३ प्रक०।
तथा । स्था०८ ठा० ३ उ० । प्रामुक्ने, पाइ० ना० ७६ गाथा । विचित्ता-विचित्रा-स्त्री०। ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिकुमा-विच्छय--विचत-त्रि० । विविधप्रकारेण पीडिते, "वाहेण ज
र्याम्, प्रा०चू०११०। स्था०। प्राव। अधोलोकवासिन्यां | हावावच्छिए अबले होर गवं पचोइए।" सूत्र. १ श्रु०३ विकुमार्याम् , प्रा००१०। प्रा०म० ज०। नि। | ०१ उ० । अनेकप्रकारं हते, सूत्र०१ श्रु० ३ १०१ उ० । विव-विषय-त्रिकाच्युते, वाते,जी०३प्रति०४अधिकामामा
विच्छवि-विच्छवि-त्रि०। विगतच्छाये, स्फुरितच्छवी, जी० अपान्तराले, पं० २०२द्वार।
३ प्रति०१ अधि०२ उ०। विचवण-विच्यवम-०। भ्रंशे, विशे।
विच्छिदण-विच्छेदन-बहुवार सुष्ठु वा छेदने,नि०चू०३ उ०। विचामेलिय-व्यत्यानेडित-न। विपरीते, विशे।
विच्छिदमाण-विच्छन्दत-त्रि० । नितरामसकृद् वा छिन्दति, विचामेल भन्नु-असत्थपनवविमिस्सपयसेवो।
भ०८ श० ३ उ० । विशेषेण विविधतया था छिन्दति, भ० तं चेव महिावरिं, वायढे प्रावली नायं ।। २६७॥ ग्यस्याडितं नाम अन्यान्यशास्त्रपलवधिमिश्राणां तत्र द्र-विच्छिदावंत-विच्छिन्दत-त्रि० । नितरामसकृदा छिन्दति, ज्यतो व्यस्यानेडिते पायसमुदाहरणम्-"जहा कोलिया वय | निच०१उ०। गया तत्थ सेरि परमनं रंधेमो दुटुं प्रारहितं, इत्थ जं जं पुज्महतं तं पाचसो भवा ति तंदुला चवला मुग्गा ति-|
|विच्छिम-विच्छिन्न-त्रि०। सान्तरे, विशे०। साफसा (क) तं सव्वं विस्टुं अकिंचिकरं जायं।" एव विस्तीर्म-त्रि० । पृथुले, अतिविस्तीर्णे,प्रश्न०४ श्राश्रद्वारा मेव भावे । सूत्र व्यत्यानेडयति " सव्वभूयभूयस्स सम्म विस्तारवति, स्था०८ ठा०३ उ०। जं०भा० म०।" विभूगाईपासो" अत्रेदमपि घटत इति कृत्वा क्षिपति। धू- छिन्नविपुलभवणसयणा"-विस्तीर्णानि-विस्तारवन्ति वियतां धर्म सर्वस्व श्रुत्वा वैवावधार्यतामात्मनः प्रतिकुला- पुलानि-बहूनि भवनानि-गृहाणि शयनानि-पर्यानि परेषांन समाचरेत् । भावतो व्यत्यानेडितं सूत्रं कुर्वतोऽ- दीनि पासनानि-सिंहासनादीनि यानानि-रथादीनि वा
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((१९४०) अभिधानराजेन्द्रः।
विजय इनानि च वेगसरादीनि येषु कुलेषु तानि तथा । स्था०
१० ठा० ३ उ० । स०अभ्युदये, चं० प्र०१८ पाहु । जी०। ८ठा०३ उ०।
रा०1० । अपरेषामभिमवे, शा०१७०१०। विपा०। विच्छिएणतर-विस्तीर्णतर-त्रि०। विष्कम्भतो विस्तीर्णे,
परेषामसहमानानामभिभवोत्पादे, जी० ३ प्रति०४ अधिः । भ०१३ २०३ उ०।
विजयश्च पोदाविच्छिण्णदोहला-विच्छिन्नदोह (दोह) दा-स्त्री० । विवक्षितार्थवाञ्छानुबन्धायाम् , विपा० १६०२०।
लोगो भणिो दब, खितं कालो भ भावविजो भ। विच्छित्ति-विच्छित्ति-स्त्री० । भक्तिषु, विशारा विम्यासे,
भवसोगभावविजमो, पगयं जह बज्मई लोमो ।१६७ 'विनासो विच्छित्ती' पाइ ना० ११६ गाथा।
विजयस्य तु निक्षेपं नामस्थापने धुमत्वादनात्य द्रव्यादिविच्छिप्पमाण-विच्छुप्यमान-त्रि० । विशेषेण स्पृश्यमाने , |
कमाह-'इव्व' मित्यादिना, द्रव्यविजयो व्यतिरिको द्र
व्येण द्रव्यात् द्रव्ये पा विजयः कतिककषायाविना श्ले"मणोमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे" जं.२.या कल्प।
मादेनुपतिमल्लादेर्वा । क्षेत्रविजयः षटखण्डभरतार्यस्मिन् विच्छुडिय-विच्छटित-त्रि० । मुक्ने , मा०१ श्रु०१६ ७०।
वा क्षेत्र विजयः प्ररूप्यते । कालविजय इति कालेन विविच्छ्य-वृश्चिक-पुं० । पुच्छकण्टकविषधरे बतुरिन्द्रिजी-| जयो यथा पछिभिर्वर्षसहरीण्यतेनजितं भरतम ,कालस्थ
बभेदे, स्था०४ ठा०४ उ०। प्राचा० । प्रशा। जी०। प्राधान्यात् , भृतककर्मणि वा मासोऽनेन जित इति, यविच्छुयडंक-वृश्चिकडङ्क-पुं०। वृश्चिकपुच्छकण्टके, प्र- स्मिन् वा काले विजयो व्याख्यायत इति । भावविजय श्न०१आश्रद्वार।
औदविकादेर्भावस्य भावान्तरेख औपमिकादिना विजयः । विच्छ्यविजा-वृश्चिकविद्या-स्त्री० । वृश्चिकप्रधाना विद्या बृ.।
तदेवं लोकविजययोः स्वरूपमुपदय प्रकतोफ्योन्याह
'भवे' त्यादि, अत्र हि भवलोकग्रहणेन भावलोक एवाभिविकविद्या । शतसहस्रवृश्चिकविकुर्वणात्मिकायां परिवा
हितः, छन्दोभाभीत्या इस्व एवोपादायि, तथा चावाचिजकविद्यायाम् , प्रा० म०१०।
" भावे कसायलोगो, महिगारो तस्स विजएणं " ति,तस्य विरिभग-विच्छरितक-त्रिका जटिते, पाइ० ना०८० गाथा।
औदयिकभाषकवायलोकस्य श्रीपशमिकादिभावलोकेन विविच्छुलंगुल-वृश्चिकलाङ्गल-न०। वृश्चिकपुच्छे , वृश्चिक- जयः । प्राचा०१६०२ म०१ उ०। लालसंस्थानं पूर्वाषाढायाः। जं. ७ वक्षः।
तेनैव भावलोकविजयेन किं फलमित्याहविच्छ्रद-विक्षिप्त--त्रि० विक्षिप्ते, पाइ० ना०८३ गाथा।
विजिओ कसायलोगो, सेयं खु तो नियत्तिउं होइ । विच्छेय-विच्छेद-पुं० । विविधैः प्रकारैश्छेदे, उपा०७०।
कामनियत्तमई खलु, संसारा मुच्चई खिप्पं ।। १६८ ॥ विशे० । दशा।
विजितः-पराजितः कोऽसौ ?-कपायलोकः श्रीदयिकविच्छेयण-विच्छेदन-न० । दूरे व्यवस्थापने, विशेषण छ
भावकायलोक इति यावत् । विजितकषायलोकः सन् किदने, स्था०५ ठा०१ उ०।
मवामोतीत्याह-संसारान्मुच्यते क्षिप्रम् , अतस्तस्मानिवविच्छोल--कपि-धा० । चलने, “कम्पेर्विच्छोलः " ॥ ४॥
तितुं श्रेयः, खलुक्यालङ्कारे, अवधारणे षा,निवर्तितुं श्रेय ४६॥ कम्पेर्यन्तस्य विच्छोल इत्यादेशो बा। बिच्छोला । एव । किं कषायलोकादेव निवृत्तः संसाराम्मुच्यते माहोकंपेह । कम्पते । प्रा०४ पाद ।
श्विदन्यस्मादपि पापोपादानहेतोरिति दर्शयति-कामे' विच्छोलिअ-विच्छोलित-त्रि०। धावने,"धोनंविच्छोलिया स्यादि, गाथा सुगमम् । मतो नामनिपरो निपार ना० २६१ गाथा । प्रा० ।
क्षेपः । भाचा० १ श्रु० २ ० १ ० । “अएवं
विजपण बद्धाइ " जय विजयेत्यादिभिर्मालाभिधायविच्छोह-विचोभ-पुं० । विरहे , " पिन-माणुस-विछोह
कवचनशतैरित्यर्थः वर्धयते । औ० । रालोकोत्तरीगरु गिलिगिलिरादुमयंकु"। प्रा०४ पाद ।
त्या आश्विनमासे, अं०७ वक्षः। सू०प्र०। ज्यो । महो विजईदसूरि--विजयेन्द्रसूरि-पुं०। देवेन्द्रसूरिसतीयें देवभ
रात्रस्य सप्तदशे मुह, विजये मुहः षष्ठेन भलेन निद्रसरिशिध्ये, पृ० । “तृतीयशिष्याः श्रुतवारिवार्धयः , प- र्गतः श्रीवीरजिनः । श्रा० म०१०। प्रा० चू०। कल्प। रीषहाक्षोभ्यमनासमाधयः । जयन्ति पूज्या विजयेन्द्रसूरयः, ज्यो०।०प०।
झासाचं० प्र०ाचक्रवर्तिविजेतव्ये - परोपकारादिगुणौघसूरयः " ॥१३॥ १०६ उ० ।
वे, स्था० २ ठा०४ उ० । (विजयाः 'धायइसंडदीव' शम्दे चविजद-विहीन-न। परित्यक्ते, पं०१०१द्वार । ओघात तुर्थभागे ७४६ पृष्ठे व्याख्याताः।) व्य०।
कहिणं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुविजंभिय-विजम्भित-न० । मुखविस्फाटने, विशे।
कच्छे णाम विजए पपत्ते, गोयमा! सीमाए मविजय-विजन-त्रि० । विगतजने, भाष०४०।
हाणईए उत्तरेणं सीलवंतस्स बासहरपब्बयस्स दाहिविजय-विचय-पुं० निर्णये, स्था० १० ठा० ३३०।
रोणं गाहावईए महाणईए पचत्थिमयं चित्तकूडविजय-पुंग परदेशजये,कल्प०१ अधि०रक्षण । समृद्धी,स्था० स्स बक्खारपब्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ सं जंबुद्दी-पुस्तकानुरोधात् ।
। दीवे महाविदेो वासे मुकच्छे हामं विजए पम
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(१९४१) विजय अभिधानराजेन्द्रः।
विजयकुमार ते, उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे विजए, तहेव सुकच्छे प्ततिवर्षशतसहस्राणि सर्वायुरतिवाह्य मुक्तिं गतः सविजए, णवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया समुप्पाइ।
प्ततिधषि चानयोहमानमिति । उत्त० १८ प० ।
प्रब०। स०। तहेब सव्वं । (सू०-६५+)
विजए णं बलदेवे तेवरिं वाससयसहस्साई सव्वाउयं 'कहिण' मित्यादि, सर्व सुगम कच्छतुल्यवक्तव्यत्वात् , नवरं खेमपुरा राजधानी सुकच्छस्तत्र राजा चक्रवती स
पालइत्ता सिद्धे० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ ७३॥ मुत्पचते, विजयसाधनादिकं तथैव सर्वे वक्तव्यमिति शेषः। तथा विजयो द्वितीयो बलदेवस्तस्यह त्रिसप्ततिवर्षलक्षाउक्तः सुकच्छः । जं० ४ वक्षः । (महाकच्छविजयवक्तव्यता ण्यायुरुक्तम् । आवश्यके तु-पञ्चसप्ततिरितीदमपि मतान्तर'महाकच्छ' शब्देऽस्मिन्नेव मागे १८४ पृष्ठे गता।) (कच्छ- मेव । स०७३ सम। अष्टषष्टितमे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प०१ कावतीविजयवक्तव्यता 'कच्छगावई' शब्दे तृतीयभागे १८६ अधि०७ क्षण । जयस्य एकादशचक्रवर्तिपितरि,स०। उत्सपृष्ठे गता।)-(आवर्तविजयव्याख्या 'भाष'शब्दे द्वितीयभा
पिण्यां भविष्यति विशतितमे तीर्थकरे, प्रव० ४६ द्वार । गे ४४०पृष्ठे गता।)-(मलावर्तविजयवक्तव्यता 'मंगलवत्तवि
ती० । श्रीचन्द्रप्रभस्य शासनयक्षे, स हरितवर्णस्त्रिलोजय' शम्देऽस्मिन्नेव भागे १७ पृष्ठे गता।)-(पुष्कलायर्तविज
चनो हंसवाहनो द्विभुजः कृतदक्षिणहस्तचक्रो वामहयवक्तव्यता 'पुक्खलावत्तविजय' शब्दे पञ्चमभागे ६६८ पृष्ठे
स्तधृतमुहरच । प्रव० २६ द्वार । परिमतालनगरस्य गता।)-(पुष्कलावतीचक्रवर्तिविजयवक्तव्यता, 'पुक्खलावई'
उत्सरपौरस्त्ये दिग्भागे शालाटवीपल्लीराजे चोरसेनापती शम्ने पञ्चमभागे १६७ पृष्ठे गता।)-(वत्सविजयवक्तव्यता |
स्कन्धश्रीभर्तरि प्रभग्नसेनपितरि, विपा० १७०१ १०। 'वच्छ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) ऊध्र्वलोके प्रथमानु.
भृगुकच्छपुरसमवस्तसूरिशिष्ये, योऽवन्तीपुर्या किशिसरोपपातिकविमाने, तवास्तव्येषु देवेषु च। स०। अ
कार्यार्थ दौत्याय प्रेषितः । आव० ४ ० । प्रा० क०। नु०। प्रशा० । स्था। चं० प्र० जी०। जम्बूद्वीपस्य लवणस
राजगृहवासिनि स्वनामख्याते तस्करराजे, शा० १ ० मुद्रस्य धातकीखण्डस्य कालोदस्य पुष्करवरद्वीपस्य पु
२१०। ('धण' शब्दे चतुर्थभागे २६४५ पृष्ठे धनसार्थकरोदस्य च पूर्वद्वारेषु, स्था०४ ठा०२ उ०। विजयद्वारा- वाहवक्तव्यतायां तत्सम्मिश्रा एतजनव्यतोक्का।) एकविंशधिपती देखे, जी०३ प्रति०४ अघि० जी० । संघा०।०।। तीर्थकरस्य नमः पितरि, मत्स्यभेदे च। जी० ३ प्रति०४ (द्वारस्य देवस्य च वर्णको ‘लवणसमुद्द' शब्देऽस्मिन्नेव
अधि० । वप्रापतौ, स० ६ सम । ति। भागे ६२३ पृष्ठे दर्शितः।) नालन्दायां: वीरजिनस्य प्रथम- विजयकुमार-विजयकुमार-पुं० । लज्जालुत्वेन प्रसिद्ध स्वनाभिक्षादायके श्रेष्ठिनि, भ० १५ श० । कल्प० । प्रा० मख्याते विशालापुरीराजजयानुगपुत्रे, ध० र। क०। प्रा० म० । चतुर्दशतीर्थकरस्यानन्तजितः प्रथमभिं- “अत्थि सुविसालसाला, दुहा विसाला पुरी विसाल त्ति। शादायके, सामा०म० । वाणिजकमामे उज्झितकस्य तत्थ नियो जयतुंगो, चंदवई तस्स पाणपिया ॥१॥ दारकस्य पितरि, स्था०१० ठा० ३ उ० । पोलासपुरमगरे लज्जानइ नरनाहो, पडुपयडपयावधिजियदिणनाहो। अतिमुक्तककुमारपितरि, स्था० १० ठा० ३ उ० । अ- परकजसज्जचित्तो, विजो नामेण तप्पुत्तो॥२॥ म्स । भूगापुत्रपितरि, मृगग्रामराजे, स्था० १० ठा० ३ उ०। अन्नम्मि दिणे, कोई, जोई निवभवणसंठियं कुमरं । उपा० । मस्यामवसर्पिण्यां जाते द्वितीयबलदेवे, स० । भालयलमिलियकरकम-लसंपुडो फुडमिमं भणह ॥३॥ उत्सर्पिण्या भषिष्यति द्वितीयबलदेवे च ।स०७३ सम। कुमर ! मह अज्ज कसिण-टुमीइरयणीर भाइरवमसाणे । भावाति।
मंतं साइंतस्स य, तं उत्तरसाहगो होसु ॥४॥ तहेब विजश्रो राया, अणडा कित्तिपन्चए ।
तं पडिवज्जा कुमरो, परो परोहप्पहाणमणकरणो ।
पत्तो य भणियठाणे, करे करेऊण करवालं ॥५॥ रज्जं तु गुणसमिद्धं, पयहित्तु महायसो ॥५०॥
तो जोई जाई जोइ, कुंडकलियं करितु सुपवित्तो। हे मुने! तथैव विजयो मामा द्वितीयो बलदेवो राजा प्र- रत्तकणवीरगुग्गल-माईहिं तं च तप्पे ॥६॥ अजितो-दीक्षा प्रपन्नः, किं कृत्वा राज्यं तु 'पहिचु' इति पणिय निसग्गउवस-ग्ग वग्गसंसग्गरंगिरे तत्थ। परिहत्य । कीरशं राज्यम्-गुणसमृद्धं गुणैः-सप्ताङ्गैः पू- नियसत्तचराडरभर-कुमर ! खर्ण होसु अपमत्तो॥७॥ रणम्-स्वाम्य १ मात्य २ सुहृत् ३ कोश ४ राष्ट्र ५ दुर्ग ६ ब- निरुनियनासावंस-रग लग्गनयणो जयेह जा मंतं । लानि च ७ राज्याजानि । अथवा गुणः-इन्द्रियकाम- कुमरो वि जाव चिटुइ, तप्पासे खग्गधग्गकरो॥८॥ गुणैः पूर्णम् । कीरशो बिजयः 'अणट्टा' अनार्सः-पार्सध्या- ताव निरवजषिजो, एगो विजाहरो तहिं पत्तो। नरहितः, पुनः कीरशः, कीर्तिः-कीर्त्या उपलक्षितः, अथवा- अह अंपा कुमरं पर, निडालतडघडियकरकोसो॥६॥ 'अणद्राकित्ति' इति अनष्टा कीर्तिः श्रा-समन्तात् नष्टा तुममुत्तमसत्तधरो, सि सरणपत्ताण तुं सरनो सि । अकीर्तिर्यस्य स अमष्टाकीर्तिः । अयशोरहितः । ५० । बहु अस्थि सत्थमणचि-तयत्थकप्पमो तुं सि ॥१०॥ अत्र विजयराजकथा-द्वारावस्यां ब्रह्मराजस्य पुत्रः सुभ- ता तायव्वा ताय-व्व पुत्तिया महदुपिया इमा तुमए । द्राकुक्षिसम्भूतो विजयो नाम द्वितीयो बलदेवोऽस्ति, स जा वेरि खेयर द-प्पदुद्धरं जिणिय एमि अहं ।। ११ ॥ च स्वलघुभ्रातृद्विसप्ततिवर्षशतसहस्रायुर्विपृष्ठवासुदेवमर- किं कायब्वविमूढो,..."वि चिट्ठए कुमरो। णानन्तरं भामण्यमक्रीकृस्य उत्पादितकेवलझानः पञ्चस- ता झत्ति उप्परता, पनो खयरो अदिहिपां ॥१२॥
२८६
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(१९४२) विजयकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
विजयकुमार इत्थंतरम्मि नियसिय, कत्ती कशी रउद्दपाणितलो। तस्स य मिच्छट्ठिी , मित्तो प्रावल्लहो घणो नाम । असिमसिकसिणसरीरो, गुंजापुंजारुणस्थिउडो ॥ १३॥ सो पडिवजह वजि-विसनो ताव सवय काया ॥ ३६ ॥ अट्टहासजियपु-दृमाणवंभंडभंडचंडरवो।
तो चिंता जिणदासो, एए अनाणिणो वि जइ एवं । हण हण हण त्ति भणिरो, समुट्टिो रक्खसो एगो ॥१४॥
पावभरपसरभीरू, विसं व विसए परिहरति ॥ ३७॥ भणड य जोहरेरे, अणज! अज वि अकजसज्ज इहं। अवगयभवस्सरूवा, जिणपवयणसवणनायनायव्वा । मझ वि पूयमकाउं, चिट्ठसि ता धिट्ट! नट्ठोऽसि ॥ १५ ॥ निम्मलविवरणो विहु, ता कि अम्हेन ते चामो॥ ३८॥ मह मुहकुहरहुयासे, नुह संगिल्लं इमं कुमारं पि।
इव चिंतिन सविणयं , विणयंधरगुरुसमीवगाहियवो। लहु दहउ तणगणं पिव, अहव कुसंगो न कि जणई ॥१६॥ अणसणविहिणा मरिउं; जाश्रो सोहम्मसग्गसुरो॥ ३६॥ तब्वयणसवणउप्प-श्रमन्नुभरिओ भणे तो कुमरो। मित्तं पि वंतरं तं , जायं सो झत्ति ओहिणा दटुं। रेरे! तुहऽज्ज पत्तं, कयं तदत्तं समणुपत्तं ॥१७॥ निययं रिद्धिसमुदयं , निदसए बोहणत्थं सो॥४०॥ मह पासठिए विग्छ, इमस्स सको विकाउ नहु सको।
चिंतेइ वंतरो तो, अब्बो लहिऊण मणुयजम्ममहं; इय जपतो पत्तो, झत्ति कुमारो तयासत्रं ॥ १८॥
जह जिणधम्मं तया, सेवतो तो सुही इंतो ॥ ४१ ॥ अह दोवि कोवकडनिव-डभिउडियो फुरफुरंतअहरदला। जहरे जिय !गुणगुरुखो, गुरुणो अमरत्तरु व सेवंतो। अन्नुनं पहरंता, तरजंता फरुसवयणेहिं ॥ १६॥
तो रुद्ददरिदं पिव, न लहंतो हीणअमरत्तं ॥ ४२ ॥ जा संपत्ता दूरं, ता नवरयणीयरु ब्व रयणियरो।
जइ जियजिणपवयण श्रम-यपाणपवणो तया तुम हुँतो। खिसमित्तण कुडिलो, नयणगोयरपहं पत्तो ॥२०॥ असरिस अमरिसविसपर-बसत्तणं तो न पावतो ॥४३॥ पडियागो कुमारो, गयजीय जोइयं निएऊण ।
इञ्चाइ बहुवियं जू-रिऊण नियमित्तअमर वयणेण । गुरुतरविसायविहुरो, पलोयए खेयरिं तेण ॥२१॥
सम्मं सम्मं धम्मो, पडिवन्नो मुक्खतरुवीयं ॥४४॥ तमवि मयच्छिमपिच्छिय-हयसब्बस्सुब्ब दीणकसिणमुहो। दसवरिससहस्सठिई, निययं जाणित्तु भणइ सुरपवरं । निदइ अत्ताणमत्ता-ण कारण सरणपत्ताणं ॥२२॥
परकन्जचित्तमणुय-त्तणे वि बोहिजं मित्त !॥ ४५ ॥ इत्तो झत्ति स पत्तो, खयरो कुमरं नमितु वज्जरह ।
तियसेण वि पडिवन्ने , उबट्टिय वंतरो तुम जाओ। तुझ पभावेण मए, निहो दक्खो वि पडिवक्खो ॥२३॥ पकंतवीरवित्ती, न मुणसि नामं पि धम्मस्स ॥ ४६॥ ता परनारि सहोयर !, सरणागयवजपंजर ! सुधीर !।। तो तुज्झ बोहणकए, मए इमा बहुल बहुलिया विहिया। श्रणबज्जकज्जअप्पसु, मह पाणपियं पियं कुमर ! ॥२४॥ श्रोहावणं अपत्ता, जंन हु बुझंति माणधणा ॥४७॥ परकजउज्जयमणो, अह बीश्रो नत्थि इत्थ जियलोए। इय सुणमाणुश्चिय जा-इसरणफुडवियडमुणियनियचरित्रो जयतुंगरायवंसो, विभूसिनो तुज्झ जम्मेण ॥ २५ ॥ कुमरो विनयह सुरं, घिवोहि ओ साहु साहु तर ॥ ४८॥ जह जह थुब्याह कुमरो, तह तह उब्धिम्ग माणसो धणियं । तुं मह मित्तो तुंम-ज्झ-बंधवो तुं सया गुरू मझ। लज्जाभरमंथरकं-धरो य न हु किं पि जपेद ॥ २६ ॥ इय भणिय गिराहइ वयं, सुरअप्पियसाहुनेवत्थो ॥ ४६ ॥ तं पह पुणो पयंपाद, खयखारं पिय खरं गिरं खयरो। तो कयकाउस्सगं, कुमरमुणि खामिउं पणमिउं च । जा तुह कज्जं मह पण-इणीइ ता जामि एस अहं ॥ २७ ॥ पत्तो सुरो सठाणं, उदिश्रो इत्थंतरम्मि रवी ॥ ५० ॥ तुह-सरिसपवरपुरिस-स्स महप्पिया जइ सि जाइ उपभोग।
तत्थेव तया पत्तो , जयतुंगनिवो वि कुमरसुद्धिकए । लद्धं जं लहियवं, मणं पि मा कुणसु मणखेयं ॥ २८॥
पुत्तं निइत्तु सहस, त्ति लुतबिहुरं भणइ दीणो॥ ५१ ॥ इय वुतं उप्पो , खयरो ता चिंतए इमं कुमरो।
हा वच्छ ! पणयवच्छल!, छलिया अम्हे वि कह तप एवं।
धवलजस धरसु अज्ज वि, रजधुरुद्धरणधवलतं ॥ ५२ ॥ अह ह बह पावभरिश्रो, निम्मलकुलदसणो श्रह ये ॥२६॥
बुहवय उचियमेयं, वयमुज्जसु झत्ति सत्तिनयनकलिय। सरणागए न रक्खा, विजयकुमार त्ति किं न पज्जतं ।
तुह वयणामयपाणं, लहु लहा जणो इमो वच्छ॥ ५३॥ जं कुणसि परस्थिकलं-कअंकियं मझरे दिव्व !॥ ३०॥
इय जपंतं निसुणिय, मोहतिव्वं निवं वियोहेउं । वरमिहपाणचाओ, लज्जिकधणाण पवरपुरिसाणं ।
पारियकाउस्सग्गो, कुमरमुणी भणइ वयणमिण ॥ ५४ ॥ भट्टपइन्नाण कलं-कियाण न जिय पि जं भणियं ॥३१॥
भो भो नरिंद ! तडिलय-चलाइ अभिमाणमित्तसुद्दयाए । लज्जां गुणौघजननी जननीमिवार्या
सग्गापवग्गसंस-ग्गमग्गगुरुविग्धभूयाए ॥ ५५ ॥ मत्यन्तशुद्धहदयामनुवर्तमानाः॥
नरयबाहदुसह दुहका-रणाइ धम्मतरुजलणजालाए । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति ।
को एप्पमई अप्पं विडंबए रायलच्छीए ॥ ५६ ॥ सत्यवतव्यसनिनोन पुनः प्रतिक्षाम् ॥ ३२॥
पिउणा जशियं लच्छिं, भदणं पिव अप्पणा उ धूयं व । इह चिंताभरविहुरं, कुमरं को वि हु सुरो सुकंतिल्लो ।
परसतिय परस्थि, व किह ण सेविज लजालू ॥ ५७ ॥ जंपहाहरणपहा, उज्जोइयसयलदिसिचको ॥ ३३ ॥
पवणपहरिल्लकम्मलग्ग-लम्गजललवचलम्मि जीयम्मि।
कल्ले का धम्म, को भणह सकन विनाणो ॥ ५८॥ मा कुणसु कुमर ! खेयं, सेयं एवं सुणेहि मह वयणं । इयरो वि भणइ तुह वय-णसवणपवणा य मे सवणा ॥३४॥
जोआह सुरो वीरपुरे, पुरम्मि जिणदासनामवरसिट्टी ॥ जस्स ऽस्थि मच्चुणा सक्खं , जस्स वास्थि पलायणं । कयगुरुजण अणुसिट्टी, अचम्मिट्ठी विमलदिट्टी,॥ ३५॥ । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुएसियं ॥५६
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विजयकुमार अभिधानराजेन्द्र।।
विजयसिंह तथा
हस्राणि, त्रीणि षट् च शतानि वै ॥२॥" श्रीतपागच्छे जा जा वच्चा रयणी, न सा पडिनियत्तए।
श्रीविजयदेवसूरिवराणां गच्छे श्रीजीतविजयप्राशास्तेषां सा अहम्म कुणमाणस्स, अफला जंति राइनो॥६॥ तीथ्यंधराः श्रीनयविजयप्राशाः । अष्ट० ३२ अष्ट तथा
विजयदेवा-विजयदेवा-स्त्री० । मरिडकमौर्यपुत्रयोरिगणजो जाणड पुणरुतं, कइया होही उ धम्मसामग्गी ।
धरयोर्मातरि, प्रा०म०१ अ०। रंकधणुब्व विहिजउ, वयाण इरिह पि पत्ताणं ॥ ६१॥
विजयपुर-विजयपुर-न । सुमतिनाथस्य तीर्थकृतः प्रथमइय सुणियगलियमोहो, संवेयविवेयपरिगो राया। कुमररिसिपायमूले, सम्मं गिराहा गिहीधम्मं ॥ १२॥
पारणकस्थाने, प्रा०म०१०। विजयपुरराजस्य कनकरथ
नाम्नो धन्वन्तरिनामा वैद्य श्रासीत् । स्था०१० ठा३ उ०। यभत्तीह मुर्णि नमिउं, खामिनु गो निवासठाणम्मि । साहवि दढपात्रो, सयासयायारसारवत्रो ॥ ६३ ॥
पार्यवर्यपिता रुद्रसोमो द्विज पासीत् । समा० १ अधिक लज्जातवाइसहिओ, सहियो तिहुयणजणाण मरिऊण ।
१ प्रस्ता० । “चउत्थस्स उक्खेवो विजयपुरं णयरं गंदणजाओ तत्थेव सुरो, जिणदासो अथए जत्थ ॥ ६४ ॥
वणं उज्जाणं असोगो जक्खो वासवदत्तो राया" नि०। तसो चुया समाणा, महाविदेहम्मि जिणसमीवम्मि। विजयपुरा-विजयपुरा-स्त्री०। पचमकावतीविजयक्षेत्रवर्तिपुनिम्मियनिव्वणचरणा, सिद्धिं ते दो वि गमिहंति ॥६५॥ रीयुगले , जं०४ वक्षः। लज्जामकार्यपरिहारसुकार्यकार्य
दो विजयपुरानो । (सू०-६२+) स्था०२ ठा०३ उ०। रूपां सदा विदधतः क्षितिपात्मजस्य । एवं निशम्य फलमुसममेकताना,
विजयप्पभ-विजयप्रभ-पुं० । यशोषिजयसमकालिके तपागनित्यं समाश्रयत भव्यजनास्तदेनाम्॥६६॥"
च्छपदाधिष्ठिते सूरौ , नं०। इति विजयकुमारकथा । ध० ० १ अधि० १ गुण । विजयपंडरीगिणी-विजयपुण्डरीकिणी-स्त्री० । पुष्कलावतीविजयकूड-विजयकूट-न० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रुच
विजयनगर्याम् , दर्श० १ तत्व । कवरपर्वतस्य कूटभेदे, स्था०८ ठा०३ उ० ।
विजयवद्धमाण-विजयवर्द्धमान-पुं०। एकापि राष्ट्रकूटरक्षिते, विजयघोस-विजयघोष-पुं० । वाराणसीवास्तव्ये जयघोष
ग्रामभेदे, विपा०१ श्रु०१०। ('तस्त णं सयदुवारस्स भ्रातरि , उत्त० २५ १०। ती०। ( तत्कथा · जयघोष '
णयरस्स' इत्यादिसूत्रालापकः 'मियापुत्त' शब्देऽस्मिन्नेव शब्दे चतुर्थभागे १४१६ पृष्ठे उक्ला ।)
भागे २८८ पृष्ठे गतः ।) विजयचंद-विजयचन्द्र-पुं०। चित्रावालकगच्छीयभुवनचन्द्र
विजयमाण-विजयमान-पुं० । तपागच्छीयहीरविजयसूरिसूरिशिष्ये देवभद्रगणिगुरौ, ध० र० ३ अधिः । तपागच्छे, संवत्सरे १२८५-याते जगदिन्द्रसूरिशिष्य,ग०३ अधिक। तेन
शिष्यविजयराजेन्द्रसेनशिष्यविजयतिलकसूरिशिष्यविजयाच केशिकुमारचरित्रग्रन्थो रचितः । जै००।
नन्दगुरुशिष्यविजयराजशिष्ये, “तदनु पट्टपतिर्विहितो:विजयतिलगमूरि-विजयतिलकसरि-पुं० । हीरविजयशिष्ये
धुना, विजयराजतपागणभूभुजा। विजयमान इति प्रथिता
हुयो, विजयतेऽतुलभाग्यनिधिः सुधीः" ॥६॥ ध० ३ अधिः । विजयसेनसूरिशिष्ये, कल्प. ३ अधिक्षण। "विजयतिलकसूरिभूरिसरिप्रकृष्टो, दिनमणिरुदयाद्रौ तस्य पट्टे बभू
विजयवाणारसी-विजयवाराणसी-स्त्री० । विश्वनाथप्रासादव । कुमतितिमिरमुग्रं प्रास्य शुद्धोपदेश-प्रसमरकिरणों
स्थाने वाराणसीभागे, ती० ३८ कल्प। खूबुधद्व्य पनान्" ॥१॥ध० ३ अधि०।।
विजयविमल-विजयविमल-पुं०। गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्तिविजयदाणमूरि-विजयदानसूरि-पुं० । वीरजिनात्सप्तपञ्चा- कारके सूरौ, ग० ३ अधिः । ('गच्छायार' शब्दे तृतीयशानामानन्दविमलसूरीणां शिष्ये हीरविजयसूरिगुरौ, ग| भागे ८१२ पृष्ठेऽस्य मुनेवृत्तम् ।) ३ अधि०।
विजयवेजयंती-विजयवैजयन्ती-स्त्री०। विजयोऽभ्युदयस्तविजयदार-विजयद्वार-न० । जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीस्व-|
सूचिका वैजयन्त्यभिधाना या पताका। अथवा-विजएडकालोवपुष्करवरपुष्करोदानां द्वीपसमुद्राणां पूर्वद्वारे,
या इति वैजयन्तीनां पावकणिका उच्यते तत्प्रधाना वैजजं०१ वक्षः।
यन्ती विजयवैजयन्ती। रा०।सूत्र०जी० प्रा०म००। विजयद्सग-विजयध्य-न० । वितानकरूपे वस्तुविशेषे,स्था० |
भ० । विजयसूचके पावतो लघुपताकाद्वययुत पताकावि४ ठा०२ उ० । श्रा० म० । जी०।
शेषे, औ०। विजयदेवमूरि-विजयदेवमूरि-पुंग यशोविजयसूरिसमकालिविजयसिंह-विजयसिंह-पुं०। यशोविजयोपाध्यायसमकालि. कविजयप्रभगुरुविजयसिंहगुरौ,"सूरिश्रीविजयादिदेवसुगुरौ काचार्यविजयप्रभगुरौ, हीरविजयसूरिपट्टपरम्परासूरौ, । पट्टाम्बराहमणौ , सूरिश्रीविजयादिसिंहसुगुरौ शक्रासनं | दर्श। मुनिचन्द्रशिध्याजितदेवसूरिशिष्ये, ग ३ अधिक। भेजुषि । सूरिश्रीविजयप्रभो श्रितवति प्राज्यं च राज्याकतो, मलधारिहेमचन्द्रसूरिशिध्ये च । स च विक्रमे १९४२ संवत्सरे प्रन्थोऽयं वितनोतु कोविदकुले मोदं विनोदं तथा ॥१॥ विद्यमान आसीत् । कल्पसूत्रोपरिकल्पावबोधिनीनाम प्रत्यक्षरं निरूप्यास्य, प्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्टुभां स-I टीका व्यधात् । जै०१०।
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(१९४४) विजयसूरि अभिधानराजेन्द्रः।
विजया विजयसरि-विजयसूरि-पुं०। सुरत्नविजयविष्ये, "श्रीवीरप
काव्यम्हाधिपतिर्बभूव , सूरिः सुरत्नद्विजयो यशस्वी। यस्मिन् संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि महायते, समुद्रे विविशुः समग्रा, विद्याः सुनद्यश्च चतुर्दशापि" ॥१॥
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । द्रव्या०१५ अध्या०।
स्वाती सागरशुक्तिसंपुटगतं तज्जायते मौलिकं,
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो दृश्यते ॥२१॥ विजयसेद्वि-विजयश्रेष्ठिन-पुं० । स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध.
"निव्वुडदाणपहाणं, खमागुणं मुणियसुहमणो विजओ। जह नियह कं पि कलह, तयं तो भणाय वयणं ॥२२॥
बिलसिरपरमपमोया, खमापहाणा भवेह भो लोया ।। तत्कथा चैवम्
मा कुणह कह बि कोहं, ओहं पि व भवसमुदस्स ॥२३॥ " इह विजयवद्धणपुरे,अस्थि विसालु ति विस्सुओ सिट्ठी। | धम्मत्थकाममुक्खा-ण हारणं कारणं दुहसयाणं । कयकोहजोहविजओ, विजो नामेण से पुत्तो॥१॥ कलह कलहंसा इव, कलुसजलं चयह भो भविया !॥२४॥ सो उज्झायमुहाओ, कयाइ आणन्नई इमं वयणं ।
सव्वस्साविहिलीयं, अजंपियं जंपिया उ परमिहयं । अप्पहिएण नरेणं, खमापहाणेण होयव्वं ॥२॥
निउणमइस्स परस्स वि, अपुच्छियं पुच्छियाउ बरं ॥२५ ॥ खंती सुहाण मूलं , मूलं कोहो दुहाण सम्वाणं ।
इय पइदिणमुषपसं, दितं जणयं भणइ जिटुसुनो। विणो गुणाण मूलं, मूलं माणो अणत्थाणं ॥३॥ किं ताय ! तुम पुणरु-तमेमुवाससि सवसि ॥२६॥ जिणजणणी रमणीणं, मीण चिंतामणी जहा पवरो। विजओ जंपर अणुहव-सिद्धमिणं वच्छ ! मज्झ सो आह । कप्पलया य लयाणं, तहा खमा सव्वधम्माणं ॥४॥ कह णु भणह तो सिट्ठी, अजंपियं जंपिया उ घरं ॥२७॥ इह इक्कं चिय खर्ति, पडिवन्जिय जियपरीसहकसाया। गाढायरेण तणए-ण, पणिो अह भणे सिट्ठी वि। सायातमणता, सत्ता पत्ती पयं परमं ॥५॥
तुह जणणी पुराहं, पणुल्लिो बियडबडम्मि ॥२८॥ पीऊसवरिससरिसं, तं सो संगिणइ तत्सवुद्धीए ।
न य तं तीए विमए, कहियं जा तं सुहावहं जायं । जाओ बिउसो कमसो, पत्तो य सुतारतारुकं ॥६॥ तुमए वि तो एयं, कहियब्वं नेव कस्सावि ॥ २६ ॥ पियरेहि वसंतपुरे, सागरसिडिस्स गोसिरिंधूयं ।
हसिऊण ऊणमहणा, तेणं पुढें कयाइ किं मम्मो। परिणाविश्रो तहिं चिय , मुत्तु पियं नियपुरं पत्तो ॥७॥ सथमिण जं ताश्रो, तुमए कूवम्मि पक्खित्तो॥३०॥ ससुरगिहाउ कयाइ वि, घिन्तु पियं नियगिहम्मि सोहंतो। कद्द मायमिणं तीप, बटे सो श्राह ताय क्यणाश्रो। अद्धपहे पडिभणिनो, नियपियक्कंठियपियाए ॥८॥ तं सुणिय लजिया सा, हिययं फुडियं धस ति मया ॥३१॥ वाहा तिसापिसाई, भिसं ममं माह! तो इमो तुरियं । एयं नाउं विजओ, अप्पं अप्पासयं ति निंदंतो। पत्तो कूवे सद्धि , गुमग्गलग्गार वायाए ॥॥
सोयभरभरियहियो, करेह दाप्राइमयकिवं ॥ ३२॥ जा कहरवादि तओ, ता अबडेत विधिनु सा पत्ता। संवेगरंगियमणो, कयावि सिरिविमलसूरिपासम्मि । जयणगि भणड अहं, न तेण नीया असउणत्ता ॥१०॥ निरवजं पव्वज्जं, सज्जो पडिषजए विजो॥३३॥ निवडतो स तदुम्भव-तरुम्मि लग्गिय विणिग्गो तत्तो। सामनं बहुवरिसे, परिपालिय चाय पाटवं देहं । चिंता सहावसोमो, किं तीर अशुलिनो ब्रहयं ॥ ११ ॥ लहिउंच अमरगेह, कमेण पाचिहि य सिद्धिं पि ॥ ३४॥" हुं मायं पियगिहगमण-पवणचित्ता ता अरे जीव!। इति मिशम्य सुसाम्य निबन्धनं,विजयवृत्तसमुदारमनुत्तरम् । मा कुणसुतीह उवरिं, रोस सोसं च देहस्स ॥१२॥ प्रकृतिसौम्यगुणं गुणशालिनः,श्रयत भव्यजमा अमनच्छिदे३५ सब्बो पुवकयाण, कम्माणं पायए फलविवागं ।
इति विजयश्रेष्ठिकथा । ध०र७१ अधि० ३ गुण।। अबराहेसु गुणेसु य, निमित्तमित्तं परो होई ॥१३॥ .
विजयसेण-विजयसेन-पु०। अनारमर्दकाचार्यस्य रुद्रदेवस्य जर खमसि दोसयंते, ता तुह खंती होर अषयासो। अह न खमास तो सुह अवि, सया अखंतीइ वाचारो॥१४॥
अभव्यत्वपरीक्षके गर्जनकपुरसमवसते प्राचार्य पश्चा० ३
विवाहीरविजयसूरिशिध्ये, ध०३ अधि०। ('मानविजय' इह चितिय नियगेहं, पत्तो जगणीह पुच्छिनो भणइ । अवसउणकारणा मे, सुणहा नो प्राणिया अंब ॥ १५ ॥
शब्देऽस्मिन्नेष भागे २४२ पृष्ठेऽस्य वृत्तं गतम् ।) बहुना बहुआणयणे, पिऊहि भणिश्रो वि सोम उच्छहा।
"श्रीविजयसेनसूरि-प्रमुखैमुनिपुङ्गवैर्विगतदोषैः । सेविको ती घराईए, काहिद दुक्खं ति काऊण ॥१६॥
तपदारविन्दाः, श्रीगुरवस्ते जयन्तितराम् ॥ ७२॥"ग०३ कइया वि भिसं मित्तेहि, पेरिनो सो गो ससुरगेहे।
अधिः । स्वनामख्याते चन्द्रकान्तामगरीराजे. कल्प० १० ठाऊण काययदिणे, घिन्तुं पियं सगिहमणुपत्तो॥१७॥
अधि०१क्षण । एकोनविंशे अहोरात्रमुहूर्ते.चं० प्र०१०पाहु०। पियरेसु उपरएसुं, जायं तेसिं गिहस्स सामि ।
नागेन्द्रगच्छीये कलिकालगौतमविरुद्धवतो हरिभद्रसूरेः पिम्मपराण कमेणं , चउरो तणया समुप्पन्ना ॥१८॥
शिध्ये, धर्माभ्युदयग्रन्थकृति उदयप्रभस्य गुरौ, अयं १२५० पयई सोमसहायो, विचो पाएण हणिय बहुपायो।
संवत्सरे विद्यमान नासीत् । जै००। जानो सुसेवणिजो, परियणसुहिसयणपभिईण ॥ १६॥
| विजया-विजया-स्त्री०। पूर्वरुषकवास्तव्यायां दिकुमार्याम् , तरसंसग्गिवसेणे, पसमिक्कधणो घणो जणो जाओ। स्था०८ ठा० ३ उ० प्रा०चूछ । जंगीन मा०म०। ति। जं संगार जियाण, गुपा गुणाटुंति भणियं च ॥२०॥" प्रा०००। पक्षस्य सप्तमतिथिरात्रौ,०प्र०१० पा० ।
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विजया
अभिधानराजेन्द्रः। कल्प० । जं० । ज्यो० । अनारादीनां महाग्रहाणामप्रमहि-विजणाया-वैद्यज्ञाता-स्त्री० । स्थविरात् श्रीगुप्ताभिगैतस्य षीषु.स्था०४ ठा०१उ०भ०।०। श्रीविमलस्य शासनदे- चारणगणस्य शाखायाम् , कल्प०२ अधि०८क्षण । व्याम् , प्रव० २७ द्वार । ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे २२६६ पृष्ठेऽस्याः स्वरूपमुक्तम् । ) द्वितीयजिनस्य अजितस्वामिनो
विजपुत्त-वैद्यपुत्र-पुं० । वैद्यकशास्त्रचिकित्सोभयकुशलस्य मातरि, आव०१०। पञ्चमतीर्थकरस्य निष्क्रमणशिविका- पुत्र , विपा०१ श्रु०१०।। याम् , स०। आव० चतुर्थचक्रवर्तिभायार्याम् , स०। स्वना
विजमाण-विद्यमान-त्रि० । सति, पञ्चा०६ विव० । स्था० । मख्यातायां पार्श्वनाथान्ते वासिन्याम् ,प्रा०म०१अमृगावतीप्रतिहारिण्याम् ,प्रा०म०१०मा०चू०। पश्चमबलदेवमा
श्रा०चू० । आचा० । “अत्थि भायो ति या विजमातरि, साावा तिला उत्सरस्य प्रअनादिपर्वतस्य पूर्वदिशि
णभावो त्ति वा एगट्टा" प्रा० चू०१०। नन्दापुष्करिण्याम् , द्वीती। स्था० । शक्त्रायशिदेवो- | विञ्जय-वैद्यक-न। चिकित्साशाने, सूत्र० १श्रु० ३ म. त्पातपर्वतपूर्वदिग्राजधान्याम् , द्वी।
३ उ०। विजयाणंद-विजयानन्द-पुं० । धर्मसंग्रहवृत्तिकृन्मानषिजय
विञ्जल-विजल-न। विगतं जलं बिजलम् । शिथिलकर्दमे , गुरुशान्तिविजयस्य गुरौ, ध०३ अधिः। कल्प०। ('मारणविजय' शब्देऽस्मिन् भागे २४३ पृष्ठेऽस्य स्वरूपमुक्तम् ।)
नि० चू० १ उ०। दश ।
विजा-विद्या-स्त्री०। वेदनं विद्या। तत्त्वज्ञान, उत्त०६०। विजहण-विहान-न । परित्यागे, स्था। विजहण । ति
नं०। अत्यन्तापकारिभावतमोभेदके, दश०१०। सम्यश्राचार्योपाध्यायगणित्वादिभेदेन त्रिविधैव विहान-परि
गहाने, उत्त०५०।सूत्र०।०।ग०। परिक्षाने, प्रा०म०१ स्थागः । स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
श्र० स० । ससाधनायां प्रसप्त्यादिदेवताधिष्ठितायां वर्णाविज(य)हित्ता-विहाय-अव्य० । विशेषेण तदनुस्मरणात्मकेन |
नुपूर्ध्याम् , दर्श० ३ तत्त्व । व्य० । नि० चू० । पं० २०। पं. हित्वा।(उत्त०८०) परित्यज्येत्यर्थे, प्राचा०१९०११०३३० । भा०। पं० चू० । श्री०। झा०। विजाणत-विजानान-त्रि०। विवेकिनि, सूत्र०१ श्रु० ११ अ०
अथ विद्यामन्त्राख्यद्वारमाहविजिइंदिय-विजितेन्द्रिय-पुंगनिवृत्तविषयप्रसरे, द्वा०२द्वा०।
विजामतपरूवण-विजाए भिक्खुवासभो होइ। विजियसमुद्देसणा-विवित्यसमुद्देशना-स्त्री०। तदेव योग्य
मंतम्मि सीसवेयण, तत्थ मुरुंडेण दिद्वतो ॥ ४१४॥ नान्यदिति विचिन्त्य समुद्देशने, व्य० १० उ०।
विद्यामन्त्रयोः प्ररूपणा कर्तव्या। सा चैवम्-ससाधना विजियोइसणा-विजितोद्देशना-स्त्री० । सम्यग्योग्यतां परि
स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता वाऽक्षरपद्धतिर्विधा। असाधना पुरुषनिश्चित्योद्देशने, ब्य० १० उ० ।
रूपदेवताधिष्ठिता वा मन्त्रः । 'तत्थ' तितत्र विद्यायां मिविजोगंत-वियोगान्त-त्रि० । विरसावसाने, पं० सू०३ सूत्र ।खूपासको दृष्टान्तः, मन्त्रे शिरोवदनायां मुरुण्डेन राशोविज-विद्वम्-त्रिपण्डिते,सूत्र०१ श्रु०१३१०। सदसद्विवेकि
पलक्षितः पादलिप्तसूरिः । नि,यथावस्थिततत्त्वग्रहीतरि, सूत्र० १ श्रु०७०। सकलप
तत्र भिलपासकरष्टान्तं गाथाद्वयेन भावयतिदार्थानां करतलामलकन्यायेन वेत्तरि, सूत्र. १७०६०। परिपिडियमुल्लावो, अइपंतो भिक्खुवासमो दावे । सश्रुतिके, सूत्र०१ श्रु०६०।
जइ इच्छह श्रणुजाणह, घयगुलवत्थाणि दावेमि ॥४६॥ वैद्य-पुं० । चिकित्साकर्तरि, ग०१ अधिः । वैद्यकशाने,
गंतु विजामंतण-किं देमि घयंगुलं च वत्थाई। चिकित्सायां च कुशले, विपा० १७० ११०।
दिने पडिसाहरणं, केण हियं केण मुट्ठोमि ॥ ४६६॥ वैद्यस्वरूपम्
गन्धसमृद्ध नगरे धनदेवो नाम भिक्षूपासकः । स च साअम्मापिईहिं जणियस्स, भायंकपउरदोसेहिं । धुभ्यो भिक्षार्थ गृहे समागतेभ्यो न किञ्चिदपि ददाति । विजा दिति समाहि, जेहि कया आगमा हुंति ॥३६१॥ अन्यदा च तरुणश्रमणानामेकत्र परिपिरितानां परस्प
रमुल्लापः। तत्रैक नोक्तम्-अतिप्रान्तोऽयं धनदेवः संयतामातापितृभ्यां जनितस्य तस्याधिकृतस्य वणिजः श्रा
नां न किमपि ददाति, तदस्ति कोऽपि साधुर्य एनं तकान्-रोगान् ये समुत्था प्रचुरदोषास्तैरुपेतस्येति गम्यते । वैद्या ददति-कुर्वन्ति समाधि-स्वास्थ्य नीरोगतामित्यर्थः ।
घृतगुडादिकं दापयति । ततस्तेषां मध्ये केनाप्यचे
यदीच्छथ ततोऽनुजानीध्व मां, येनाहं दापयामि । तैयैः कृता-अभ्यस्ता आगमा-वैद्यकशास्त्रलक्षणा भवन्तिवर्तन्ते । व्य०१ उ०। (अष्टौ वैद्याः'गिलाण' शब्दे तृतीय
रनुसातः । ततो गतस्तस्य गृहमभिमन्त्रितो वि
घया। ततो ब्रूते साधून-किं प्रयच्छामि ? ,तेभागे ८८३ पृष्ठे वैद्यानुवर्तनायां व्याख्याताः।).
रुक्तम्-घृतगुडवखादि । ततो दापितं तेन संयते म्यः प्रचुरं विजकिरिया-वैद्यक्रिया-स्त्री० । चिकित्सापरिक्षानरूपे क-|
घृतगुडादिकम् । तदनन्तरंच प्रतिसंहता खुल्लकेन विद्या। जालाभेदे, कल्प० १ अधि०७ क्षण ।
का स्वभावस्थो भिरूपासकः । ततो यावन्निभालयति - २८७
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(१९४६) अभिधानराजेन्द्रः।
विजा तादिकं तावत्स्तोकं पश्यति । ततः केन मे हृतं घृतादि ?, श्रुतं व्यवहारणे ऋजुसूत्रेण वाचनादि । शब्दनयेन यथाकनाई मुषितोऽस्मि ?,इति विलपितुं प्रवृत्तः । ततः परि- थोपयोगः कारणकायोदिसकररूप सविकल्पचेतना-समाभजनेनोक्तम्-युष्माभिरेव दापितं संयतेभ्यः तत्कि यूयमेवं
रूढेन निर्विकल्पचेतना-क्षायोपशमकी साधनावस्था एवंभणथ ?, ततो मौनमवलम्ब्य स्थितः ।
भूतेन साधका निर्विकल्पा तात्त्विकी। तथा-केचित् केष__ अत्र दोषानुपदर्शयति
लझानरूपसिद्धविद्या इति श्राद्यनयचतुष्टयस्य द्रव्यनिक्षपा
न्तर्गतत्वेन कारणरूपा गृहीता; अतो न यन्त्र यस्य भावरूपडिविजथंभणाई , सो वा.अन्नो व से करिज्जाहि ।
पत्वेन कार्यरूपा उत्तरोत्तरसूक्ष्मा गृहीता तत्र कारणोद्यमेन पावाजीवी माई, कम्मणगारी य गहणाई ॥४६७॥ | कार्याऽऽदरवता भवितव्यम्यो विद्ययाऽभिमन्त्रितः स च स्वभावस्थो जातः सन् क
नित्यशुच्यात्मताख्याति-रनित्याशुच्यनात्मसु । दाचित्प्रद्विष्टोऽन्यो वा तत्पक्षपाती प्रद्विष्टः सन् प्रतिविद्यया स्तम्भनादि-स्तम्भनोच्चाटनमारणादि कुर्यात् । तथा
अविद्या तचधीविद्या, योगाचार्यः प्रकीर्तिता ॥१॥ पापाजीविनः-पापेन-विद्यादिना परद्रोहकरणरूपेण जी.
'नित्यशुच्ये' ति-अनित्याशुच्यनात्मसु नित्यशुच्यात्मतायनशीला मायिनः-शठा इति लोके जुगुप्सा । तथा का- ख्यातिः-अविद्या इत्यन्वयः । श्रनित्ये चेतनात् जातिभिन्नमणकारिण इमे इति राजकुले ग्रहणाकर्षणवेषपरित्याज- मूर्तपुद्गलगहणोत्पन्ने परसंयोगे या नित्यता ख्यातिः सानकदर्थनमारणादि । पिं० । ( परिव्राजकस्य सप्त विद्या । अशुचिषु-शरीरादिषु स्रवन्नवद्वाररन्धेषु शुद्धस्वरूविद्याः । तेरासिय ' शब्दे चतुर्थभागे २३६० | पावतरणनिमित्तेषु शुचिख्यातिः, अनात्मसु-पुद्गलादिषु पृष्ठे गताः।) ( भौमादीनि शास्त्राणि 'पुरिसविजय- आत्मख्यातिः 'अहमन्ये' इति बुद्धिः 'इदं शरीरं मम, विभगं' शब्दे पञ्चमभागे १०३६ पृष्ठ गतानि ।) " अङ्गानि अहमेवैतत् , तस्य पुष्टौ पुष्टः' इति ख्यातिः-कथन-शान वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च, तत्र रमणम्-इयमविद्या-भ्रान्तिबुद्धिः । या तत्त्वबुद्धिः, शुविद्या हाताश्चतुर्दश" ॥१॥ श्रा० चू०१ श्र० । वृ० । प्रा० म० । द्धात्मनि नित्यता-शुचिता-श्रात्मता-इति क्षप्तिः विद्याश्राव० । "तस्स दो विजातो अस्थि-श्रोणामणी य, उन्नाम- तत्वविवेकः । अत्र नित्यत्वं तु उत्पादव्ययध्रुवरूपेऽपि अर्पिणी य।"नि०चू०१ उ० । नमिविनमिभ्यां भगवानृषभः-गौरी- तानर्पितप्रकारेण द्रव्यास्तिककूटस्थनित्यता झेया। इयं विगान्धारी-रोहिणी-प्रज्ञप्तिलक्षणाश्चतस्रो महाविद्याश्च पाठ- द्या परमार्थसाधनपद्धतिर्योगाचार्यैः, योग:-ज्ञानश्रद्धाचरणासिद्धा एव दत्तवान् । यञ्चोतं किरणावलीकारेण अष्ट- स्मकमोक्षोपायः तस्य प्राचार्याः-तदाचरणकुशलाः तैः प्रचत्वारिंशत्संख्याका इति तदयुक्तम् । आवश्यकवृत्तौ अष्ट- कीर्तिता। अत्र भेदक्षानं साधनम् । उक्तं च अध्यात्मबिचत्वारिंशत्सहस्राणामुक्तत्वात् । कल्प०१ अधि०७ क्षण । (वि. म्दी-"यावन्तो ध्वस्तबन्धा अभूवन् , भेदज्ञानाभ्यास एद्यास्वरूपं 'वासक्खेव' शब्देऽस्मिन् भागे ११०३ पृष्ठे गतम्।) वात्र मूलम् । यावन्तोऽध्वस्तबन्धा भ्रमन्ति, भेदशानाभाव तत्रागमे
एवात्र बीजम् ॥ १॥" जे भिक्खू अमउत्थियाणं वा गारस्थियाणं वा विजं यः पश्येन्नित्यमात्मन-मनित्यं परसङ्गमम् । पउंजइ पउंजंतं वा साइजहा (सू०-२४) नि०चू०१३उ०। छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥ २॥ ('अण्णउत्थिय ' शब्दे प्रथमभागे व्याख्यातमिदम् ।) __ 'यः पश्य' दिति-य आत्मार्थी श्रात्मानं नित्यं-सदा (विद्या प्रतीत्य कथा 'अत्थकहा' शब्दे प्रथमभागे ५०७ श्रचलितस्वरूपम् , पश्येत्-अवलोकयेत् , परसंगम-शपृष्ठे उक्ला ।) विद्यते ज्ञायते आभिस्तत्त्वमिति विद्याः । श्रार- रीरादिकम् अनित्यम्-श्रध्रुचं पश्येत् , तस्य-साधनोद्यतस्य एयकब्रह्माण्डपुराणात्मिकायां वेदभक्तौ , “ विजा- मोहो-मौव्यं मुग्धता-मिथ्यात्वादिभ्रान्तिरूपा स एव माहणसंपया " उत्त० २५ अ०। विद्यानिक्षेपः-तत्र नाम- मलिम्लुचः-तस्करः छलम्-छिद्रं लब्धं न शक्नोतिविद्या इति नाम जीवस्याभिधानं क्रियते सा नामविद्या । अ- न समर्थो भवति । इति अनेन यथार्थज्ञानवतः रागादयो न क्षवराटककाष्ठादिविद्या इति स्थाप्यते, सा स्थापनाविद्या । प्रवर्द्धन्ते-तस्यात्मा मोहाधीनो न भवति । द्रव्यविद्या लौकिका शिल्पादिरूपा, लोकोत्तरा द्विविधा-कु
तरङ्गतरला लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् । प्रावचनिका-भारतरामायणोपनिषदुपा , लोकोत्तरा-सुप्रावनिका विद्या आवश्यकाचाराङ्गादिलक्षणा । साऽपि श.
अदभ्रधीरनुध्याये-दभ्रवद् भङ्गुरं वपुः ॥ ३ ॥ शरीरभव्यशरीरस्य तदभ्यासवतः अनुपयुक्तस्य द्रव्यविद्या । 'तरङ्गे' ति श्रदभ्रधीः--पुष्टबुद्धिः लक्ष्मीः तरङ्गवत्-जअथवा-अनुपयुक्तस्य-हेयोपादेयपरीक्षाविकलस्य याच- लधिकल्लोलवत् तरला-चपला तां तरङ्गतरलाम्-अस्थिना पृच्छना परिवर्तना धर्मकथा अनुप्रेक्षाषिकलाऽपि चेतना राम्, अनुध्यायेत् श्रायुः-जीवितं याति तद् वायुवत् , विज्ञप्तिद्रव्यरूपा झेया । भावविद्या तु लोकोत्तरार्हत्प्रणीताग- अस्थिरम्-गत्वरं प्रतिसमयविनश्वरम्, अध्यवसानामरहस्याभ्यासवतः नित्यानित्याद्यनन्तपर्यायोपेतचिन्पोपा- नि विघ्नोपयुक्तम् , अनुध्यायेत् --चिन्तयत्, वपुः--शदेयबुद्धिविभावाद्यन्तपरभावपरित्यागप्रक्षप्तिलक्षणाभाववि-1 रीरं पुद्गलस्कन्धनिश्चितम् अभवद्भगुरम्--भङ्गुशीचाभ्यासस्यावसरः, तत्र मत्यादिज्ञानक्षयोपशमनिमित्ता इ-| लम्, अनुध्यायेत्-इदं च यथार्थचिन्तनम् । भावन्द्रियादयः । नैगमेन विद्या सर्वजीवद्रव्यादिसंग्रहेण , द्रव्य- ना च स्वसम्पद्विमुक्तेन पृथ्वीकायस्कन्धासम्पदपेण
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(१९४७) विज्जा अभिधानराजेन्द्रः।
बिज्जा उपचरिता। न च ते सम्पत् तथा जीवः ज्ञानदर्शनवीर्य- | स्थित्यवगाहचेतनापूरणगलनादिलक्षणैश्च भेद एव , स्वासुखरूपैः भावप्राणैरेव जीवति । आयुर्जीवन तु बाह्यप्रा- शुद्धग्राहकतागृहीतपुर लेवपि न स्वगुणसंक्रमः, नाऽपि पुएसम्पन्धस्थितिहेतुतया तन्नात्मस्वरूपम् । तथा वर्णगन्धर- गलगुणसंक्रमः, यावत् एषां भेदचमक्रिया भिन्नद्रव्ये स्वद्रसस्पर्शाचेतनशरीरोपवयश्च न स्वरूपम् , तदपि अस्थि- व्यगुणपर्यायाणामेकद्रव्यं व्याप्यावस्थितानामाधाराधेयत्वेरम् इत्येवमस्थिरपरभावे स्वात्मधर्मप्रध्वंसके कः प्रति- नाभेदरूपाणामपि स्वस्वधर्मपरिणतिरूपा भेदचमक्रिया । बन्धः?, तदर्थ च स्वगुणानचेतनावीर्यादीन् कः परभा-| एवं द्रव्याद् द्रव्यस्य, गुणाद् गुणस्य, पर्यायात्पर्यायस्य स्ववग्रहणोन्मुखान् करोति ?। अत आत्मनि आत्मगुणप्रवृ-| भावस्य भेदलक्षणचमक्रिया विदुषा पण्डितेनैव अनुभूयते, त्तिरेव करणीया।
नान्येन द्रव्यानुयोगज्ञानविकलेन । उक्तं च सम्मती-" अशुचीन्यप्यशुचीकर्नु , समर्थेऽशुचिसम्भवे ।
मोमाणुगयाणं, "इमं व तं वत्ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्धदेहे जलादिना शौच-भ्रमो मृढस्य दारुणः॥४॥
पाणियाण, जावंत विसेसपज्जाया ॥४७॥१)जंदब्बखिस'शुचीन्यपी' ति मूढस्य--अज्ञस्य-यथार्थापरयोगरहित-|
काले, एगत्ताण पि भावधम्माणं । सुअनाणकारगण, स्य देहेन्द्रियायतने जलादिना-पानीयमृत्तिकादिसने
भए नाणं तु सा विज्जा ॥१॥" इति । हरिभद्रपूज्यः न शौचभ्रमः श्रोत्रियादीनां दारुणः-भयकृत् , यश्च जा
द्रव्यानुयोगलीनानामाधाकर्मादिदोषमुख्यत्वं न मतम् । स्याऽशुचिः स कि जलव्यूहैः शुचीभवति,?, कथंभूते देहे ?
तथा च भगवत्यते- समणोवासगस्स णं भंते ! शुवीन्यपि-कपूरादीन्यपि अशुवीकर्तुं समर्थे , देहसङ्गात्
तहारूवं समण वा माहणं वा अफासुगणं श्रणेसमलयजविलेपनादयोऽऽप्यशुचीभवन्ति, पुनः कथं भूते
णिज्जेणं असणपाणखाइमलाइमेणं पडिलाभमाणे किं कदेहे ? अशुचिसम्भवे-अशुचि आर्त्तवं मातुः रकं पितुः
ज्जइ ? गोयमा ! बहुतरा से निज्जरा कज्जइ, अप्पतरो शुक्र, तेन सम्भवः उत्पत्तिः यस्य स तस्मिन् । उक्तं च भव
से पाये कम्मे कज्जइ" । तद्वृत्तिः-इह च केचित् मभावनायाम्-"सुक्कं पिउणो माउ, सोणियं तदुभयं पि
न्यन्ते-असंस्तरणादिकारणे एवाग्रासुकादिदाने बहुतरा संसटुं । तपढमाए जीयो, आहारद तत्थ उप्पभो ॥१॥ जू
निर्जरा भवति नाकारणम् । यत उक्तम्-'संथरणम्मिश्रकाइसुणयभक्खे, किमिकुलवासे य वाहिखित्ते य । देहम्मि
सुद्ध , दोराह घि गेरादितयाण हि अं । आउरदिटुंतेणं, अषधुधिहुरे, सुसाणत्थाणे य पडिबन्धों" ॥२॥ अतः अस्थिरे
तं चैव हियं असंथरणे" ॥ १॥ अन्ये त्याहुः-कारणेऽपि अपवित्र औपाधिके अभिनवबन्धकारणे द्रव्यभावाधिकरणे
गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशात् बहुतरा निकः संस्कारः ॥ ४॥
जरा भवति, अल्पतरं च पापं कर्म इति निर्विशेषअथ देहे आत्मत्वारोपोऽपि बहिरात्मदोषीघः
त्वात् , सूत्रस्य परिणामस्य च प्रामाण्यात् । श्राहअतः तन्निवार्य स्वरूपे आत्मनः पावित्र्यं
"परमरहस्समिसीणं, समत्तगणिपिडगधरियसाराणं । करणीयं तदुपदिशति
परिणामिश्र पमाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं" ॥१॥ यः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम् ।
इमे पुनः
"चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुकवावारा। पुनर्नयाति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ॥ ५ ॥
चरणकरणस्स सारं, निच्छयसुद्धं न याणेति ॥२॥ 'यः स्नात्वेति'-स अन्तरात्मा देहात् भिन्न श्रात्मज्ञानी स्व
अहागडाइ भुजंति, अण्णमराणे सकम्मणा।। परविवेकी पर:-प्रकृष्टः शुचिः-पवित्रःशेयः पुरुषः, समता उवलिते वियाणिज्जा, ऽणुवलित्ते ति वा पुणो, ॥१॥ अरक्तद्विएता तद्पे कुण्डे स्नात्वा कश्मलजम्-पापोत्पन्न एतेहि दोहि ठाणेहि, ववहारेण विजइ । मलं हित्वा पुनः मालिन्यं न प्रामोति । सम्यक्त्वमावितात्मा
पतेहि दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥२॥ इति" परमश्रुचिः 'बन्धेण वोलइ कयाऽवि ' इति वचनात् ,
द्वितीययोगे २१ अध्ययने इत्यादि गीतार्थस्याकल्प सम्यग्दृष्टिरनेनांशेन स्नातकः न पुनः उत्कृष्टां स्थिति वना
कल्पम् , एषा लब्धिः तत्त्वज्ञानवतामेव ॥७॥ ति,पतदेव सहज पवित्रत्वम् ॥५॥ (अए०) ('आत्मबोधः' (६) इति श्लोकः 'प्रातबोध' शब्दे द्वितीयभागे १६२ पृष्ठे गतः।)
अविद्यातिमिरध्वंसे, दशाविद्याञ्जनस्पृशा । मिथो युक्तपदार्थाना-मसंक्रमचमक्रिया ।
पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः ॥ ८॥ चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषैवानुभूयते ॥७॥
'अविद्या' इति, हि-निश्चय योगिनः-समाधिदशावस्थाप्रवृ'मिथो युक्त ' इति परस्परं युक्ताना' मिलितानां पदार्था त्तचक्रयोगिनः श्रात्मनि एव-स्वात्मनि एव परात्मानम्-उस्कृनां-धर्मादीनामेकक्षेत्रावगाहिना पुनलानां च स्वक्षेत्रपरिण- एनिष्पन्नसिद्धात्मानम् पश्यन्ति-श्रात्मनि परमात्मत्वं निर्धातानामसंक्रमचमक्रिया, न संक्रमः परस्परमीलनरूपः
रयन्ति । कया? विद्याञ्जनस्पृशा दृशा अविद्या-अज्ञानमबोधचमक्रिया-चमत्कारः, एकक्षेत्रावगाढा अपि न परस्परं विद्या-तस्वबुद्धिरूपा, सा एव अञ्जनं तस्य स्पृशा दृशाव्यापारका भवन्ति इत्यनेन स्वरूपतो भिन्ना एव । एषां चम
चचुषा ,क सति ? अयथार्थोपयोगो वा तदव तिमिरं क्रिया विदुषा एव अनुभूयते-परिडतेनैव विभज्यते । कयं
तस्य ध्वंसः तस्मिन् , इत्यनेम मिथ्यात्यतिमिरध्वंसे जाते भूतेन विदुषा ?-चिन्मात्रपरिणामेन-बानमात्रपरिणामेन
सम्यग्दृष्टयः श्रात्मानम् अात्मनि पश्यन्ति, अत एव अनेशानमात्रबलेन इत्यनेम पश्चास्तिकायानां कैश्चित्साधारण
कोपयोगेन श्रुताभ्यासेन अात्मस्वरूपोपलम्भाय-तस्वपरीगुणैः अगुरुलध्वादिभिः तुल्येनापि असाधारणगुणैः गति-1 (-नेयं गाथा सम्मतायुपलभ्यते
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बिज्जा
क्षणाय पतितव्यम्, यथार्थम् आत्मस्वरूपपरिज्ञानं विद्यापरोपकारिणी इति ज्ञेयम् ॥ ८ ॥ अष्ट० १ अष्ट० ।
" विद्यया राजपूज्यः स्या- द्विद्यया कामिनीप्रियः । विद्या हि सर्वलोकस्य, वशीकरण कार्मणम् १ " स्था० ५ ठा० ३ ॥ उ० पार्श्वनाथशासनदेष्याम् ती०२ कल्प। विजाचरण - विद्याचरण - न० । श्रुतसंयमयोः, उत० २२ अ० विद्या च सरणं च किया ते द्वे अपि विद्येने कारयत्येन यस्येति विगृद्ध अर्थचादित्यान्मत्वर्थीयो ऽसी विद्यार णः । ज्ञानक्रियाजन्ये, सूत्र० १ ० १२ अ० । विआचरणपारग-विद्याचरणपारग- पुं० । विद्या- श्रुतज्ञानं तथा चर्यत इति चरणं चारित्रम्, विद्या च चरं च विद्याचरणे; तयोः पारगः - पर्यन्तगामी । उक्त० पाई० १८ अ० ज्ञानचारित्रयोः पारगामिनि उत्त० २३ ० विज्ञाचरणविशिष्य - विद्याचरयविनिश्रय- पुं० । विद्येति ज्ञानं तच्च सम्यग्दर्शनसहितमवगन्तव्यमन्यथा ज्ञानत्वायोगात, चरणं चारित्रमेतेषां फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रन्थो विद्याचरणविनियमेनं० विजाचारण- विद्याचारण-पुं० । विद्या श्रुतं तच्च पूर्वतत्कृतोपकारश्धारणो विद्याचारणः । भ० २० श० ८ उ० । उक्त० । विद्याविवचितः कानधारणो विद्याचारः। विशे० । विद्यावशतः समुत्पखगमनागमनलब्धी, प्रब०६८ द्वार। प्रति० । ० म० । पा० प्रा० चू० । “विद्याचारणास्तु गच्छन्त्येकेनोरपातकर्मणा। मानुषोत्तरमन्येन द्वीपं न मदीश्वरायम् ॥१॥ तस्मादायान्ति चैकेनोपायेनोत्पतिता यतः। याम्यायान्त्यूर्ध्वमार्गेऽपि तिर्यग्यानक्रमेण ॥२॥ ० २ अधि० । ( 'चारण' शब्दे ३ भागे ११७३ पृष्ठे विशेषः । ) विजानंदमूरि- विद्यानन्दवरि- ९० । कर्मप्रन्थपदकशोधकाचायें, कमे० २ कर्म० । ग० । विजानुभोग-विद्यानुयोग पुं०/रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाभिधायके शास्त्रे, स० २६ सम० । विज्ञाशुपचाप विद्यानुप्रवाद १० विद्या अनेकातिशयसंपना अनुमति साधनानुकूल्येन सिद्धिप्रकर्षेण प्रवद सीति विद्यानुवादम् दशमे पूर्वगते, तस्य पदपरिमाणम्एका पदकोटी दश च पदलक्षाः । नं० ।
(१९४८) अभिधानराजेन्द्रः ।
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विजाणुष्पवामस्स यं पुचस्स पारस पत्थू पचनास०| विजातिसय-विद्यातिशय-पुं० । विद्याविशेषेषु, यैराकाशगमादीनि भवन्ति । व्य० ४ उ० ।
विज्ञापिंड - विद्यापिण्ड पुं० । विद्यया व्याख्यानतो यः प्राप्तः fues: स विद्यापिण्डः । श्रावा० २३० १ ० १ ० उ० विद्ययोपार्जित उत्पादनादोषविशिटे आडारे, प्र०१७ द्वार पश्चा० । जी० । यदा विद्यया सुरं साधयित्वा आहारं गृड्डाति तदा विद्यापिण्डोद्वाप दोषः अथवा ग्रन्थमध्याप्य भोजनादिकं गृहस्थात् गृह्णाति तदा विद्यापिण्डो द्वादशो दोषः । उत्त० २४ श्र० । ध० । विद्यापि भु
जे भिक्खु विज्ञापिंड ज ज वा साइज ॥६३॥ मि० खू० १३ ३० ।
गाहा
विजाए उभरणं, वजे उम्माऍ (पुणे) गिएहए भिक्खं । सो मायाणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ १६२ ॥ नि० चू० १३ उ० । श्रा० क० । श्राचा० । स्था० । विजारंभ - विद्यारंभ- पुं० । प्रथमाध्ययनारम्भे, "सवणेण धगिट्ठाई, पुरुषसून वि करिज क्खिमणं । सयभितय पूसथभे, विजारंभं पवत्तिजा " ॥ २२ ॥ ८६८ ॥ ६० प० । विजावं विद्यावत् त्रि० महप्त्यादिविद्याशासिनि ४० २ अधि० । विजासत्थ-विद्याशाख१० विद्याधिष्ठिते शास्त्रे, सूच १ श्रु० ८ अ० ।
,
विज्यासिद्ध विद्यासिद्ध-५०
साधितषिधे सिमेरे ०
호
बिज्जासिद्ध
अधुना विद्यासिद्धं सनिदर्शनमुपदर्शयति
विज्जाय चकवडी, विज्जासिद्धो स जस्स वेगाऽवि । सिज्झेज्ज महाविजा, विज्जासिद्धोऽज्जखउडो व्व ॥
विद्यानां सर्वासां चक्रवर्ती - अधिपतिर्विद्यासिद्ध इति व्युत्पत्तेः । यस्य वा पकाउपि महाविद्या महापुरुषदसापि सिध्येत् स विद्यासिद्धः सातिशयत्वात् इखपुर यदिति गाथाक्षरार्थः । श्र० म० १ श्र० प्रा० चू० । आचा० । नि० चू० । संथा० ।
कथा यम्"आस्ते पुरं भृगुपुरं, लाटदेशललाटिका । तत्रापुटाचार्या, विद्यानां च ॥ १ ॥ तेषां च भगिनीपुत्रः शिष्यः प्राज्ञोऽस्ति बालकः । सेनेकदा गुरोः पावका जपतः ॥२॥ विद्यासदेव सा तस्य विद्यासिद्धगुरोर्वशात् । इतश्च गुडशाक्यं पुरमस्ति गुडाकरः ॥ ३ ॥ तः साधुभिर्वादे, परिवाद निर्जितः पुरा। पराभवामृतः सोऽभू-पक्षो बटुकराभिधः ॥ ४ ॥ भाषिताः साधवस्तेन प्राग्वेरस्मरणकधा । अथाऽऽर्य खपुटाचार्याः, संघेनाकारितास्तदा ॥ ५ ॥ मुक्त्वा तत्राखिलं गच्छं, भागिनेयं च बालकम् । स्वयमल्पपरीवारा, गुडशस्त्रं समाययुः ॥ ६॥ साधवः प्रेषिता मध्ये स्वयं वटुकरालये ।
"
"
सायं तत्र स्थिताः कृत्वो - पानही तस्य कर्णिकौ ॥ ७ ॥ निवेश्या सुप्ताः सौख्येन सूरयः। देवद्रय प्रातरायातो, दृष्ट्रा चख्यौ जनस्य तत् ॥ ८ ॥ एयुर्जनास्तमुद्वाट्यो- द्वाट्यैक्षन्त यतो यतः तत्र तत्र निरीक्ष्याधिष्ठानं राहे न्यवेदयन् ॥६॥ दृष्ट्रा राजाऽपि लकुट लेष्ट्राद्यैस्तमताडयत् । प्रहारांस्तान् गुरुस्तस्यान्तः पुरे समविक्रमत् ॥ १० ॥ भक्रियायैस्ततः स्तुत्या, शमितः प्रणतसः । अथार्थपुटाचार्या, उत्थाय स्वमदर्शयन् ११० शक्ति तस्य गुरोचनः सर्वो विसिजिये। उत्साहेमा राजाचा, गुरं प्राविशनपुरं ॥ १३ ॥
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(१९४६) विज्जासिद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
विज्झुप्पभ पहो षटुकरोऽग्रेऽगा-मूर्तयश्चापरा अपि ।
नगरश्रेणयः, दीर्घवैताच्या हि पञ्चविंशतियोजनान्युस्त्वेन रचन्मय्यो महाद्रोण्यो, ततोऽप्यग्रेच ते कृते ॥१३॥ पञ्चाशच मूलविष्कम्भेण । तत्र दश योजनानि धरणीतलाउत्पतन्स्यः पतन्त्यश्च, प्रभोः पाषाणमूर्तयः।
दतिक्रम्य दश योजनविष्कम्भा दक्षिणत उत्तरतश्च श्रेणयो एता निम्नन्ति जीवांस्त-नुच्यतामित्यवग् जनः॥१४॥ भवन्ति , तत्र दक्षिणतः पञ्चाशनगराणि, उत्तरस्ततु पततो लोकोपरोधेन, गुरुभिः करुणापरैः।
ष्टिरिति भरतेषु, ऐरवतेषु तदेव व्यत्ययेन । विजयेषु तु पश्च उक्लो बटुकरोऽन्याश्च, यातारः स्वस्खमाश्रयम् ॥ १५ ॥ पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशदिति । स्था०१० ठा०३ उ०। प्रतोलीद्वारमभितो, द्रोण्यौ मुक्ने न ते पुनः ।
विजाहरी-विद्याधरी-स्त्री०। विद्याधरसम्बन्धिन्याम् (बा. १ अन्यो मम समः कोऽपि, स्वस्थानं प्रापयेदिमे ॥१६॥
थु०१६ अ० प्रति०) कोटिककाकन्दिकाभ्यां निर्गतस्य कोगुरवोऽन्तर्गतास्तेऽथ, राजादीन् प्रत्यबोधयन् ।
टिकगणस्य शाखायाम् , कल्प०२ अधि०८क्षण। स्थविराद् उपशान्तो वटुकरो, जातः साधुषु भाक्तिकः ॥ १७ ॥
विद्याधरगोपालानिर्गतशाखायाम् , कल्प०२ अधि०८ क्षण। जामेयो भृगुकच्छे च, मिलितः सौगतेषु सः।
विअिडियामच्छ-विज्जिटिकामत्स्य-पुं० । मत्स्यभेदे , प्रज्ञा पात्राणि प्रेषयद् व्योम्ना, तदुपासकवेश्मसु ॥ १८॥ पुरस्थं मात्रकं श्वत-वस्त्रेण पिहिताननम् । तस्याप्यने टोप्परिका-मेकां संप्रासनस्थिताम् ॥१६॥
विज्जु-विद्युत-स्त्री० । तडिति , प्रव० २६८ द्वार । प्रक्षा। तन्मुखोऽभूजनो भूयान् , संघोऽथाज्ञापयद् गुरून् ।
स्था। सू०प्र०ा औ०1"विज्जुश्राअंति" विद्युतं बिकुर्वन्तीगुडशस्त्रादथायासीद् गुरुरक्षातचर्यया ॥२०॥
त्यर्थः । प्रा० म०१ ०। औ०। असुरकुमारस्याप्रमहितत्पाषाणामथायाता, भृतानामन्तरा शिला ।
ध्याम् , स्था०५ ठा०१ उ०। राईशानेन्द्रलोकपालानामविचके गुरुभिस्तस्यां, सर्वाण्यास्फाल्य पुस्फुटुः ॥२१॥
प्रमाहिष्याम् , स्था०४ ठा०१उ० भ०। (पूर्वोत्तरजन्मक
थाऽनयोः 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १७३ पृष्ठे गता।) भीतश्च पुलको नश्य-त्कृत्वो यातान गुरूंस्ततः।
विद्युत्कुमारे, पुं०। प्रश्न आश्रद्वार। बुद्धायतनमागत्य, गुरवो बुद्धमूचिरे ॥ २२॥ एहि शौद्धोदने ! वत्स!, बन्दस्वास्मानिहागतान् ।
विज्जुअंतरिया-विद्युदन्तरिका-स्त्री० । विद्युति सत्यामन्तरं भागत्य बुद्धप्रतिमा, पतिता गुरुपादयोः ॥ २३ ॥
भिक्षाग्रहणस्य येषामस्ति ते विद्युदन्तरिकाः। विद्युत्सम्पाते प्रेषितोऽगानिजस्थान-मुक्तः स्तूपोऽप्यवन्दत ।
भिक्षामनटत्सु, औ०। ऊचे च तिष्ठ स्वस्थाने, किंचिन्नम्रस्तथा स्थितः ॥२४॥
विज्जुकुमार-विद्युत्कुमार-पुं०।भूषणनियुक्तवतरूपचिडघरेषु निर्ग्रन्थानामित इति, तस्य ख्यातिरभूदतः।
भवनपतिभेदेषु , प्रशा०२ पद । प्रव० । स्था० भ०। एवंविधः सिद्धवाक्यो, विद्यासिद्धोऽभिधीयते ॥२५॥"
छावत्तरि विज्जुकुमारावाससयसहस्सा पम्पत्ता । (सू०श्रा००१ १० । दश।
७६४) स०७६ सम० । विज्जाहर-विद्याधर-पुं०। विद्यां धरन्तीति विद्याधरा वैता| व्यपुराधिपतिषु, सूत्र०१श्रु०१४ मा प्राप्त्यादिविविध-|
| विज्जुकुमारीमहत्तरिया-विद्यत्कुमारीमहतरिका-श्री०। विविद्याविशेषधारिषु, औ० । विशिष्टशक्तिमत्पूरुषविशेषेषु, जं.
| दिगुरुचकवास्तव्यासु दिकुमारीमहत्तरिकासु, स्था। ४ वक्ष रा०। मा० म०। प्रज्ञा०1"विज्जाहर जमलजुयल- चत्वारि विज्जुकुमारीमहत्तरियानो पसत्ताओ, तं जहाजंतजुत्तं पिव" ति । विद्याधरयोर्यत् यमलं समणिकं |
विद्याधरयोयेत् यमलं समश्रेणिकं| चित्ता, चित्तकणगा, सतेरा, सोयामणी । (सू०-२५६४) युगल-द्वयं तेनैव यन्त्रेण सञ्चरिष्णूपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण | युक्ता सा तथा ताम्, पार्षत्वाच्चैविधः समासः। भ०
विद्युत्कुमारीमहत्तरिकास्तु विदिग्ररुचकवास्तव्याः। एताच श०३३ उ०। बजासेनप्रवाजिते जिनदत्तपुत्रे, कल्प०२-1
भगवतो जातमात्रस्य चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाधि०८क्षण । सुस्थिससुमतिबुद्धयोः शिध्ये, कल्प०१ -
हस्ता गायन्तीति । स्था०४ ठा० १ उ०। धि०२ क्षण । विशतिव्याकरणानां मध्ये अन्यतमव्याकरण
छ विज्जुकुमारीमहत्तरियायो पपत्ताओ। तं जहास्य कर्तरि, कल्प०१ अधि०१क्षण।
पाला सका सतेरा सोयामणी इंदा घणविज्जुया । (सू०विजाहरनगरावास-विद्याधरनगरावास-पुं० । पैतान्यपर्वते | ५०७+) स्था० ६ ठा० ३ उ० । विद्याधरश्रेणिषु नगररूपेषु प्रायासेषु, जं० ४ वक्षः। (वे-विज्जुजिन्भ-विद्युजिह-पुं०। कर्दमस्थानुलन्धरनागस्याषायह 'शब्दे वर्णकः।)
सपर्वते, स्था० ४ ठा०२ उ०। विजाहरसेढि-विद्याधरश्रेणि-स्त्री०। दीर्घवैताव्यसंभयेषु वि-1
विज्जुदंत-विद्यदन्त-पुं० । स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे, स्था. चाधरनगरणिषु, स्था।
४ ठा०२ उ०। नं० । प्रव०। प्रशा०। ('अंतरदीव' शब्दे सबभो वि पं विजाहरसेढीयो दस दस जोयणाई वि- प्रथमभागे १७ पृष्ठे वक्तव्यतोक्ला ।) पखंभे पन्नता। (सू०७७४४)
विज्जुप्पभ-विद्युत्प्रभ-पुं० । देवकुरुपश्चिमगजदन्तके, स्था। सर्वाः सर्वदीर्धवैताव्यसंभवा विद्याधरणयो विद्याधर-1 ठा०३ उ० ।
२८८
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बिज्जुप्पभ
कहि णं भंते ! जबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे लामं वक्खारपव्त्रए पमते ?, गोयमा ! गिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरे णं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपच्चत्थिमे गंदेकुरा पच्चत्थिमे णं, पम्हस्स विजयस्स पुरत्थि मे णं । एत्थ णं जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपव्वए पपत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते यवरि सव्वतवणिजमए अच्छे ० जाव देवा आसयति । 'कहि ण' मित्यादि सर्व स्पष्टं माल्यवदतिदेशेन वाच्यत्वात् । नवरमयं सर्वात्मना रक्तसुवर्णमयः ।
अथात्र कूटवक्तव्यतामाह
विज्जुप्पभे णं! वक्खारपव्वए कह कूडा पसत्ता ?, गोमानव कूडा पत्ता?, तं जहा- सिद्धाययणकूडे विज्जुप्पभकूडे देवकुरुकूडे पम्ह कूडे कणगकूडे सोवत्थि कूडे सीओआकूडे सयञ्जलकूडे हरिकूडे। “सिद्धे अ विज्जुणामे, देवकुरु पम्हकणग सोवत्थी | सीओ य सयजल-हरिकूडे चेव बोव्वे ||१|| "एए हरिकूडवज्जा पञ्चसइया सेश्रव्वा । एएसिं कूडाणं पुच्छा, दिसिविदिसाओ अन्नाओ जहा मालवन्तस्स हरिस्सह कूडे तह चेव हरिकूडे रायहाणी जह चेव दाहिणं चमरचंचा रायहाणी तह सेश्रव्वा । कणगसोवत्थि कूडे वारिसेणबलाहयाओ दो देवयाओ अवसि डेस कूडेस कूडसरिसा मया देवा रायहाणी ओ दाहिणेणं से केणऽद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ-विज्जुप्पभे वक्खारपव्वए विज्जुपभे चक्खारपव्वए ?, गोयमा ! विज्जुप्पभे णं वक्खारपन्त्रए विज्जुमिव सव्त्रय समन्ता श्रोभासेइ उजोवेइ पभासेइ बिज्जुप य इत्थ देवे पलिश्रोत्रम डिइए ० जाव परिवसइ । से एएद्वेगं गोयमा ! एवं बुच्चइ विज्जुप्पभे२, अदुत्तरं च गं० जाव णिच्चे | ( सू० १०१ । )
।
(१९५०) अभिधानराजेन्द्रः ।
4
दो विज्जुप्पभा । ( सू०६२) स्था० २ ठा० ३ उ० । विज्जुप्पभदह - विद्युत्प्रभहद - पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिसे देवकुरुषु इदभेदे, स्था० ५ ठा० २३० । विज्जुमई- विद्युन्मती - स्त्री० । कालायां सन्निवेशे सिंहनामग्रामकूटेन सह रतायां गोष्ठी दास्याम् आ० म० अ० श्रा०चू० चित्रदुहितरि ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिभार्यायाम्, उत्त० १३० । विज्जुमाली - विद्युन्मालिन् - पुं० । पञ्चशैलद्वीपराजे उदयनराजाय वीरप्रतिमासमर्धके स्वनामख्याते यक्षे, ग०२ अधि०।
विज्जुप्पभे ' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् उत्तरसूत्रे सिद्धायतनकूटं विद्युत्प्रभवक्षस्कारनाम्ना कूटं देवकुरुनाम्ना कूटं पक्ष्मविजय कूटं कनक कूटं सौवस्तिक कूटं शीतोदाकूटं शतज्वलकूटं हरिनाम्नो दक्षिणश्रेण्यधिपविद्यत्कुमारेन्द्रस्य कूटं हरिकूटम् । उक्तमेव संग्रहगाथयाऽऽह - ' सिद्धे श्रविज्जुनामे' इत्यादि, पतानि हरिकूटा ( दी ) नि पञ्चशतिकानि ज्ञातव्यानि । एतेषां कूटानां ' कहि णं भंते! विज्जुपभे वक्खारपण्यए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पक्षते ?' इत्येवंरूपायां पृच्छायां दिशो विदिशश्च ज्ञेयाः यथायोगमवस्थित्याधारतया वाध्या इत्यर्थः । तथाहि मेरोर्द- विज्जुया - विद्युत्-स्त्री० बलिलोकपालानामग्रमहिष्याम्, स्था० क्षिणपश्चिमायां दिशि मेरोरासन्नमाद्यं सिद्धायतनकूटं तस्य दक्षिणपश्चिमायां दिशि विद्युत्प्रभकूटं ततोऽपि तस्यां दिशि तृतीयं देवकुरुकूटं तस्यापि तस्यामेव दिशि चतुर्थ पदमकूटम् । एतानि चत्वारि कूटानि विदिग्भावीनि । च तुर्थस्य दक्षिणपश्चिमायां षष्ठस्य कूटस्योत्तरतः पञ्चमं क
०क० | कल्प० । नि०चू० । श्रा०चू० । स्वनामख्याते ब्रह्मलोकेन्द्रे, श्रा० म०१ श्र० । श्रा० चू० । विज्जुमुह - विद्युन्मुख- पुं० । स्वनामख्यातेऽन्तरद्वीपे प्रव०२६२ द्वार। ( 'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे ६६ पृष्ठे वक्तव्यतोक्ला ।) विज्जुमेह-विद्युन्मेष - पुं० । विद्युत्प्रधाने जलबर्जितमेघे, भ०
७ श० ६ उ० ।
४ ठा० १ उ० भ० ।
,
विज्जुयार नककूटं तस्य दक्षिणतः षष्ठं सौवस्तिककूटं तस्यापि दक्षिणतः सप्तमं शीतोदाकूटं तस्यापि दक्षिणतोऽष्टमं शतज्वल कूटं, नवमस्य सविशेषत्वेन हरिस्सहातिदेशमाह-यथा- माल्यवद्वक्षस्कारस्य हरिस्सह कूटं तथैव हरिकूटं बोद्धव्यं सहस्रयोजनोश्चम् श्रर्द्धतृतीय शतान्यवगाढं मूले सहस्रयोजनानि पृथु इत्यादि । तथा पृथुत्वविपयकावाक्षेपपरिहारौ तथैव वाच्यौः नवरमष्टमतो दक्षिणतः इदं निषधासनमित्यर्थः । हरिस्सह कूटम् उत्तरतो नीलवदासनम्, अस्य राजधानी यथैव दक्षिणेन चमरचञ्श्चा रा जधानी तथैव ज्ञेया । कनकसौवस्तिक कूटयोर्वारित्रेणवलाके दिक्कुमार्यौ द्वे देवते, अवशिष्टेषु विद्युत्प्रभादिषु कूटेषु कूटसदृशनामानो देवा देव्यश्च राजधान्यो दक्षिणेन । यद्यप्युत्तरकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्धहरिस्सह कूटवज्र्जकूटाधिपराजधान्यो यथाक्रमं वायव्यामैशान्यां च प्रागभिहितास्तथा देवकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्धहरि कूटवज्र्जकूटाधिपराजधान्यो यथाक्रममाग्नेय्यां नैर्ऋत्यां च वक्तुमुचितास्तथापि प्रस्तुतसूत्रसम्बन्धियावदादर्शेषु पूज्यश्रीमलयगिरिकृत क्षेत्रविचार वृत्तौ च तथा दर्शनाभावात् श्रस्माभिरपि राजधान्यो दक्षिणेनेत्यलेखि । अथास्य. नामनिमित्तं पि पृच्छपुराह' से ट्रेण ' मित्यादि, उत्तरसूत्रे विद्युत्प्रभो वक्षस्कार पर्वतो विद्युदिव रक्तस्वर्णमयत्वात् सर्वतः समन्तादवभासते द्राणां चक्षुषि प्रतिभासति यदयं विद्युत्काश इति एतदेव दृढयति भास्वरत्वादासन्नं वस्तु द्योतयति, स्वयं च प्रभासते शोभते, तेन विद्युदिव प्रभातीति विद्युत्प्रभः । विद्युत्प्रभश्चात्र देवः परिवसति तेन विद्युत्प्रभः । शेषं प्राग्वत् । जं० ४ वक्ष० ।
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विज्जुयार- विद्युत्कार - पुं० । विद्युत्-तडित्सैव क्रियत इतिकारः -- कार्य विद्युतो वा करणं कारः क्रिया । विद्युत्क - रणे, स्था० ।
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विज्जुयार
अभिधानराजेन्द्रः। तिहिं ठाणेहिं देवे विज्जुयारं करेजा, तं जहा-विउबमा-विट्ठा-विष्ठा-स्त्री० । उपलक्षणे, मृत्तिकामले, गुथे च । पं० णे वा पडियारेमाणे वा तहाख्वस्स समणस्स वा माह-| ०१ द्वार । मस्स वा इड्डि जुई जसं बलं वौरियं पुरिसकारपरक्कम विट्ठाकोडागार--विष्ठाकोष्ठागार--न । वचस्कगृहोपमे कलेवरे, उबदसेमाणे देवे विज्जुयारं करेजा। (सू०१३३४) विद्युतं कुर्यादित्यर्थः, वैक्रियकरणादीनि हि सदर्पस्य भव- |
|विड-विट-पुं० । स्त्रैणे, स्त्रीलम्पटे, प्रा० म०१०। न्ति, तत्प्रवृत्तस्य च दोल्लासवतश्चलनविद्युद्गर्जनादीन्यपि | विट-स्त्री० । गोमूत्रादिपक्के लवणभेदे, दश० ६ १०। भवन्तीति चलनविद्युत्कारादीनां वैक्रियादिकं कारणतयोक्त-विडंक-विटक-पुं० । कपोतपाल्याम् , जी० ३ प्रति० ४ अमिति । ऋद्धि विमानपरिवारादिकां द्युति-शरीराभरणा-| धि० । लोमपक्षिभेदे, जी०१ प्रति०। दीनां यशः-प्रख्याति बलम-शारीरं वीर्यम्-जीवप्रभयम्, निव-विटम्बक-पं० विदषके. नानावेषकारिणि, जी०३ पुरुषकारश्च अभिमानविशेषः स एव निष्पादितस्ववि-1
प्रति०४ अधि० । शा०।। षयः पराक्रमश्चेति पुरुषकारपराक्रमम् । समाहारद्वन्द्वस्तदेतत्सर्वमुपदर्शयमान इति । स्था० ३ ठा०१ उ०।
| विडंबिय-विडम्बित-त्रि० । भूतावेष्टितपीतमद्यादिजनाङ्गवि
क्षेपतुल्ये, उत्त० १३ श्र० । विकृतिकृते, अनु । शा। विज्जुला-विद्युत-स्त्री०। “विद्युत्पत्रपीतान्धाल" ||१७३॥ इति स्वाथै लः । तडिति, प्रा०२ पाद ।
विडवि(ण)-विटपिन्-० । वृते, को०। विज्जुवएस-वैद्योपदेश-पुं० । वैद्यनिरूपिते, ग० १ अधिः। विडविड-रच्-धा० । निर्माणे, " रचेरुग्गहायह-विडविडाः"
॥८।४।१४। इति रचधातोः विडविड प्रादेशः । विडविविज्जुसिरी-विद्युच्छ्री-स्त्री० । आमलकल्पायां विद्युन्नामगृ
हुइ । रचयति । प्रा०४ पाद । हपतेर्विद्युद्दारिकाजनिकायां भार्यायाम् , शा०२ श्रु०१ वर्ग
विडाली-विडाली-स्त्री० । मार्जार्याम् , श्रा० क.१०। ४०। विज्जुसिहा-विद्युच्छिखा-स्त्री० । शिवमन्दरे नगरे ज्वलन- विडिम-विटपिन्-पुं० । वृत्ते, दश० १ अ०। शिखरस्य राम्रो देव्याम् , उत्त०१३ अ०।
विडिमंतरपरिवसण-विडिमान्तरपरिवसन-पुं० विडिमान्तविज्जुसोयामिणीपहा-विद्युत्सौदामिनीप्रभा-स्त्री०। विशेषण रेषु शाखान्तरेषु प्रासादाद्याकृतिषु परिवसनमाकालमावासो पोतते इति विद्युत् , सा चासौ सौदामिनी चेति विद्युत्सौ- येषां ते विडिमान्तरपरिवसनाः। वृक्षगेहालयेषु सुषमामदामिनी । तरप्रभा यस्याः सा विद्युत्सौदामिनीप्रभा । स्फु- नुष्यषु, विडिमान्तरनिवासिशब्दोऽप्यत्र । जी०३ प्रति० ४ रविद्युत्कान्तौ , उत्त०६ अ०।
अधिक। विज्झडिय-देशी-त्रि० । मिश्रिते , व्याप्ते, भ० ७ श०६ उ०।विडिमा-विडिमा-स्त्री० । ऊर्ध्वविनिर्गतायां वृक्षशास्खायाम् , विज्झवण-वि(ध्या)ध्मापन-न० । विधिधे उपशममे, नि० चू०
जी. ३ प्रति०४ अधि० । जं०।रा। ५ उ०। श्राचा । निर्वापने,आचा०२ श्रु०१ चू०२ १०१ उ०।
|विडा-ब्रीडा-स्त्री० । “सर्वत्र लवरामचन्द्रे"||२|७६॥ विज्झचेयव्व-विध्यापयितव्य-त्रि०। दाहादुपरमणे, नानि.
इति रलोपः । तैलादित्वाद् द्वित्वम् । विड़ा । ब्रीडा । लजाधापयितव्ये, दश०२०। प्राव।
याम् , प्रा०२ पाद । विज्झायसंकम-विध्यातसंक्रम-पुं०।यासां प्रकृतीनां गुणप्र-| विहार-विद्वार--न० । विगतद्वारे नक्षत्रे, पूर्वद्वारिके नक्षत्रे, त्ययतो बन्धो न भवति तासां संक्रमकरणे, पं० सं० ५/ पूर्वदिशागन्तव्ये यदाऽपरया दिशा गच्छति तदा तद् विद्वारं द्वार । क०प्र०।
भवति । व्य०१ उ०। पं० २० । नि० चू० । विशे०। द०५०। विटंक-घिटक-पुं०। कपोतपाल्याम् , प्रश्न०१ प्राश्र० द्वार ।
प्रा०म०। विट्टाल-अस्पृश्यसंसर्ग-त्रि० । स्पृठुमयोग्ये संसर्ग, “शी
विवर-न । यस्मिन् नक्षत्रे ग्रहो वक्रतामुपयाति शुद्ध वा प्रादीनां वहिलादयः" |४|४२२॥ इति । अस्पृश्यसंसर्ग
विधत्ते तादृशे नक्षत्रभेदे, जीत। स्य विद्यालः। "ज छडविण रयणनिहि. अप्पाउंतडिति तह विदत्त--अर्जित-त्रि० । "क्नेनाप्फुमादयः"॥८।४। २५८॥ प ति " प्राधपाद
इति अर्जितस्थाने विढत्तादेशः । उत्पादिते, प्रा०४ पाद । विदु-विष्ट-त्रि० । उपविष्टे , वृ०१ उ०३ प्रक०।
विढप्प--अर्ज--धा। उत्पादने, "अर्जेढिप्पः"॥८।४।२५१ ॥ पृष्ट-त्रि०। "इदुतौ वृष्ट-वृधि-पृथक-मृदङ्ग-नप्लके"] अन्त्यस्येति निवृत्तम् । अर्जेयिंढप्प इत्यादेशो वा भवति मारा१३७॥ इति ऋत इकारः। वृष्टिमपगते, प्रा०१पाद।। तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक। विढप्पा । पक्षे-पिढविज्जा । विट्टि-विष्टि-स्त्री० भद्रायाम् , प्रा० । करणभेदे, ववा- अजिजह । प्रा०४ पाद । दिकरणानामन्यतमे , प्रा० म० १ ० । सूत्र० । मा०विढव-अर्ज-धा० । उत्पादने, “ अर्जेविंढवः "।।४।१०८॥ म० । विशे० । आ० चू० । उत्त०। जं०।
| अर्जेविंढव इत्यादेशो वा भवति । विढया अर्जयति । प्रा० ।
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(१९५२) अमिधानराजेन्द्रः।
विषय विणइय-विनयित-त्रिका शिक्षा प्राहिते, स्था०१०ठा० ३ उ० विणमि-विनमि-पुं०। महाकच्छसुते, भगवता ऋषमेण पुत्रविणोणय-विनयावनत-त्रि० । सर्वैर्विनयैर्नमति, जी०३ त्वेन प्रतिपने बैताव्यनमेश्वरे विद्याधरे, कल्प०१ अधि०७ पति०४ अधि० । जं० । भ०।
क्षण । ती प्रा०चूछ । श्रा०म० श्रा०क०। (श्रस्य 'उसह' विणभोवगय-विनयोपगत-त्रि० । मानमकुर्वति,स०३२ समा
शब्दे द्वितीयभागे ११३३ पृष्ठे कथोक्ला।) विनयोपगतानाह
विणमिय-विनमित-त्रि० । विशेषेण फलपुष्पमारेण नते, " उज्जेणी अंबरिसी, मालुग तह निम्बए अपव्वजा।
औ० । शा० । भ० संकमणं च परगणे, अविणये विमए य पडिवत्ती॥१॥" | विणय-विनय-पुं० । विमयनं विनयः । कर्मापनयने, विनीय"उज्जयिन्यामिहाम्बार्षि-ाह्मणो मालुकाप्रियः।
ते याऽनेन कर्मेति विनयः । श्राव.२० विमयति-नाशनिम्बः सुतो मालुकायां, मृतायां स सुतो द्विजः ॥१॥ यति सकल क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म स विमयः । देशकाअत्यभूद् दुर्विनीतस्तु, निम्बकः कायिकाभुवि ।
लाद्यपेक्षया यथोचितप्रतिपत्तिलक्षणे (प्रा० म० १ ० । कण्टकान्यखनत् क्षौति, स्वाध्यायस्य प्रवेदने ॥२॥ प्रव० । दश । ध०।) कर्मविनयनसमर्थे अनुष्ठानविशेष, पहन्ति कालं विपर्यस्तां, सामाचारों करोति च ।
श्वा०६ विवाशा० स्था। ध०र०सी०। आम्तरतपोआचार्य साधबोऽथाहु-रस्त्वेषो यदि वा वयम् ॥ ३॥ रूपे, उत्त०१०। ग० स०सूत्र०1०। विशिष्टो नयो निःसार्यते स्म निम्बोऽथ, जनकोऽपि तमन्वगात् । विनयः । गुरुप्रतिपत्तिविशेषे,स्था० ३ ठा०३ उ० । दर्श०। गुगतोऽन्याचार्यनिकटे, तत्रापि निरसार्यत ॥ ४॥
रुशुश्रूषायाम् , स्था०४ ठा०४ उ०। प्राय। श्रा०म० श्रा० पञ्चप्रतिश्रयशता-न्यवन्त्यां हिण्डितोऽथ सः।
चू०। अभ्युत्थानपादधावनादो, दश०३१०पादधावनादि स्थितिः कुत्राप्यभूनाथ, संशाभूमौ पिताऽरुदत् ॥५॥
रूपे.(श्रा०म०१०) गुरुसेवाप्रकारे,दश६०५ उ० । सोऽवक किं रोदिषि पित-निम्बो नाम त्वया कृतम् ।
श्राव० । नं० । ग० । अञ्जलिकरणादी, भ० ६ श०३३ उ० । पितोने सान्वयं नाम, नादां किं त्वेवमेव तत् ॥ ६ ॥
औ०। श्रा०म० । अभिवन्दनादिलक्षणे (श्रा० म०१०। साम्प्रतं दुष्कृतस्ते भो!, लेभे नामपि स्थितिम् ।
पाचू०) अभ्युत्थानाद्युपचारे, प्रश्न०४ संव०द्वार । पा०का न चेत्प्रवजितुं शक्यं, तस्याप्यासीदथाधृतिः॥७॥ ऋषितस्तात ! कुत्रापि, मार्गयत् स्थानमेकदा।
घ. । प्रमाणे, भाव०२ १०। प्रा०चूछ । इच्छाकारादिदानेन
बलात्कारपरिहारादिलक्षणे एकत्रान्यत्रच गुचनुशया भोजनाइतो भावी विमीतोऽहं, पार्श्वे ऽगाहीक्षितुस्ततः ॥८॥
दिकृत्यकरणलक्षणे उपचारे, प्रश्न०३ संवद्वार। नि०चूकानीसाधवः शुभिताः सोऽवक, न करिष्यति दुर्नयम् ।
चैर्वृत्स्यनुत्सेके, प्राचा०१श्रु०११०१ उ०। "उववातो निहेतथाऽपीन्छन्ति ते नैव, तानाचार्यास्ततोऽभ्यधुः।
सो; पाणा विणो पोति एगट्टा" व्य०४ उ०। संयमे,भाप्राघूर्मको तिष्ठतोऽद्य, यातारौ स्वसुतः स्थितौ ॥६॥ स्थण्डिलादिविधि कुर्वन् , निम्बोऽप्यारञ्जयन्मुनीन् ।
चा०१ श्रु०१ १०७ उ०। चारित्रे, स० ३० सम०। अमृताम्रस्ततो जात-स्तेनान्येऽपि प्रतिश्रयाः ॥१०॥ कर्मणां द्राग् विनयना-द्विनयो विदुषां मतः । यिनयाद्यैररज्यन्त, सर्वत्राभून्महता।
अपवर्गफलाढयस्य, मूलं धर्मतरोग्यम् ॥ १॥ विनयोपगता तस्य, नादौ पश्चाच साऽभवत् ॥ ११ ॥"
'कर्मणामिति' कर्मणां-ज्ञानावरणीयादीनां द्राक्-शीघ्र विनश्रा० क०४०
यनाद-अपनयनाद्विदुषां विनयो मतः । अयमपवर्गफलेनाविणोवयार-विनयोपचार-पुं० । विनय एचोपचारो वि
व्यस्य पूर्णस्य धर्मतरोर्मूलम् ॥१॥ द्वा० २८ द्वा०। नयोपचारः। विनयरूपे उपचारे, "विनोवयारमाणस्स सं.
विनयनिक्षेपःजणा पूप्रणा गुरुजणस्स" आव.३०। विणोववस्म-विनयोपपन्न-त्रि० । शानदर्शनसेवनरूपं विन- विणयस्स समाहीए, निक्खेवो होइ दोएह वि चउको । यमुपपन्ने, उत्त०१०।
दबविणयम्मि तिणिसो,सुवन्नमिच्चेवमाईणि ॥३०६ ।। विण-विनष्ट-त्रि० । उच्छूनत्वादिविकारैः स्वरूपादपेते,मा. विनयस्य-प्रसिद्धतत्वस्य समाधेश्व-प्रसिद्धतस्वस्यैव नि१७०८०ा अत्यन्तविकृतावस्था प्राप्ते, प्रश्न०१आश्रद्वा- क्षेपो-न्यासो भवति । द्वयोरपि चतुष्को नामादिभेदात् । तत्र । विगतभावे, शा०१६०१०। व्यापने, स्था०५ठा०२
नामस्थापने सुष्मत्वादनाहत्य द्रव्यविनयमाह-द्रव्यविनयेउ० । विश्रुते , झा०१ श्रु०१०।
शरीरव्यतिरिक्ने तिनिसो-वृक्षविशेष उदाहरणम् । स रथाविणटुंग-विनष्टान-त्रि० । विकृतशरीरे, अप्रतिकर्मशरीरे, शादिषु यत्र २ यथाविनीयते स तत्र २ तथा २ परिणमति, सूत्र०१ श्रु० ३ १०१ उ०।
योगत्वादिति । तथा सुर्वणमित्यादीनि कटककुण्डलादिप्रका
रेण विनयनात् । द्रव्याणि द्रव्यविनयः भादिशब्दात्तत्तद्योविणढतेय-विनष्टतेजस्-त्रि० । निःसत्ताकीभूततेजसि , भ.
ग्यरूप्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः।दश० अ०२ उ०पाचून १५श। विणण-विन (वा)न-न। बस्त्रस्य वानकर्मणि, पृ० १३०
साम्प्रतं भावविनयमाह१प्रक०।
लोगोवयारविणो, अथनिमित्तं च कामहेउं च। विणत-विनत-न। प्राणतदेवलोकविमानभेदे, स०१६ समन भयविणयमुक्खविणो,विणोखलु पंचहा होइ ।३१०
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विषय
प्राभिधानराजेन्द्रः। खोकोपचारविनयो-लोकप्रतिपत्तिफलः अर्थनिमित्तं च | णाणविणए मणपज्जवणाणविणए केवलणाबविचए । अर्थप्राप्त्यर्थे च कामहेतुश्च-कामनिमित्तश्च तथा भयषिभयो भयनिमित्तः मोक्षविनयो-मोक्षानिमित्तः एवमुपाधिभे
(सू० २०+) औ० भ० । व्य दाद्विनयः खलु पञ्चधा-पश्चप्रकारोभवतीति गाथासमासार्थः।
दर्शनविनयः'व्यासाभिधित्सया तु लोकोपचारविनयमाह
से किं तं दसणविणए १, दंसणविणए दुविहे पडते, ते भन्मुट्ठाणं अंजलि-मासणदाणं च भइहिपमा य। जहा-सुस्मू(स्मु)सणाविए अणच्चासायणाविणए । से कि लोकोपचारविणो, देवयपूया य विभवेयं ॥३११॥ ते सुस्सूसणाविणए, सुस्सूसणाावणए अणगावह पत्त, 'अम्भुटाणं' तदुचितस्यागतस्याभिमुखमुत्थानम् अञ्जलिः | तं जहा-अन्भुट्ठाणेइ वा पासणाभिग्गहेइ वा पासणप्पदाविज्ञापनादौ प्रासनदानं च गृहागतस्य प्रायेण अतिथिपू- खेति वा सकारेह वा संमाणेइ वा कितिकम्मेइ वा अंजलि जा चाहारादिदानेन एष इत्थंभूतो लोकोपचारविनयः।। देवतापूजा च यथाभक्ति बल्याधुपचाररूपा विभवेनेति यथा |
पग्गहेइ वा एयस्स अणुगच्छणया ठिअस्स पज्जुवासखविभवं विभवोचितेति गाथार्थः। उक्नो लोकोपचारविनयः । या गच्छंतस्स पडिसंसाहणया । से तं सुस्सूसणाविणए । दश ६ ०१ उ०। प्रा०म० । नं० । व्य० ।
(सू० २०४) औ०। अर्थविनयमाह
(दर्शनविनयोऽप्यप्रकारः स च 'दसणायार' शम्ने चतुर्थभन्भासवित्तिछंदा-गुवत्तसं देसकालदाणं च।। भागे२४३६ पृष्ठे दर्शितः।) (अनत्याशातनाविनयः 'अणच्चाअम्भुट्ठाणं अंजलि-पासणदाणंच अत्थकए ।। ३१२॥
सायणाविण्य ' शब्दे प्रथमभागे २८३ पृष्ठे दर्शितः।) अभ्यासवृत्तिः-नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं छन्दोऽनुवर्त
उपसंहरनाहनम् अभिप्रायाराधनं देशकालदानं च कटकादौ विशिष्टनृपतेः __ एसो भे परिकहिओ,विणो पडिरूवलक्खणो तिविहो। प्रस्तावदानम्,तथा अभ्युत्थानमञ्जलिरासनदानं नरेन्द्रादीना
बावअविहिविहाणं, बेंति प्रणासायणाविणयं ॥३२४॥ मेव कुर्वन्ति अर्थकृतेऽर्थार्थमिति गाथार्थः । उकोऽर्थविनयः।
एषः-अनन्तरोदितः 'भ'-भवतां परिकथितो विनयः प्रतिक कामादिविनयमाह
पलक्षणविविधः कायिकादिः द्विपञ्चाशद्विधिविधानम्। एएमेव कामविणो, भये अ नेयव्बमाणुपुब्बीए।।
तावत्प्रभेदमित्यर्थः ब्रुवते-अभिदधति तीर्थकरा अनामोस्खम्मि विपंचविहो, पत्रणा तस्सिमा होइ॥३१३।। शातनावियं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः । एवमेव यथार्थविनय उक्नोऽभ्यासवृत्यादिः तथा कामवि
एतदेवाहनयः भये चेति भयविनयश्च ज्ञातव्यो-विज्ञेयः प्रानुपा
तित्थयरसिद्धकुलगण-संघकियाधम्मनाणनाणीणं । परिपाट्या, तथाहि-कामिनो वेश्यादीनां कामार्थमेवाभ्या
आयरियथेरओझा-गणीण तेरस पयाणि ॥३२॥ सवृत्यादि यथाक्रम सर्व कुर्वन्ति, प्रेध्याश्च भयेन स्वामिनामिति । उक्तौ कामभयविनयौ । मोक्षविनयमाह-मोक्षेऽपि तीर्थकरसिद्धकुलगणसंघक्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा श्रामोक्षविषयो विनयः-पञ्चविधः-पश्चप्रकारः प्ररूपणा-निरू- चार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां संबन्धीनि त्रयोदश पदानि, पणा तस्यैषा भवति वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ।
अत्र तीर्थकरसिद्धौ प्रसिद्धौ, कुलं-नागेन्द्रकुलादिगणः-कोदर्शनादिविनयमाह
टिकादिः संघः-प्रतीतः-क्रिया अस्तिवादरूपा, धर्मः-श्रुतध. दसणनाणचरित्ते, तवे य तह प्रोबयारिए चेव ।
म्मादिः ज्ञानम्-इत्यादि शानिनस्तद्वन्तः, प्राचार्यः प्रतीतः
स्थविरः-सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, उपाध्यायः प्रतीतः गणाएसोअमोक्खविणो, पंचविहो होइ नायव्यो ॥३१४॥ धिपतिर्गणिरिति गाथार्थः। दर्शनशानचारित्रेषु दर्शनशानचारित्रविषयः तपसि च
एतानि त्रयोदश पदान्यनाशातनादिभिश्चतुर्भिर्गुणितानि तपोविषयश्च तथा औपचारिकश्चैव प्रतिरूपयोगव्यापार
द्विपञ्चाशद्रवन्तीत्याहचैव , एष तु मोक्षविनयो मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो भवतिसातव्य इति गाथासमासार्थः। दश ६ अ०२ उ० । प्रा०
प्रणॉसायणा य भत्ती, बहुमाणे तह य वन्नसंजलणा। चू०। ग०। ध०। ति।
तित्थगराई तेरस , चउग्गुणा होति बावन्ना ॥३२६॥ ज्ञानादिसप्तविनया:
अनाशातना च तीर्थकरादीनां सर्वथा महीलनेत्यर्थः, से किं तं विणए?, विणए सत्तविहे पपत्ते, तं जहा-णा- तथा भक्तिस्तेष्वेवोचितोपचाररूपा, तथा बहुमानस्तेष्वेवासविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइवि- न्तरभावप्रतिबन्धरूपः, तथा च वर्णसंज्वलना तीर्थकरापए कायविणए लोगोवयारविणए । (मू० २०४)
दीनामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तना । एवमनेन प्रकारेण तीर्थज्ञानविनयः
करादयस्त्रयोदश चतुर्गुणा अनाशातनाधुपाधिमेदेन भवन्ति
द्विपश्चाशनेदा इति गाथार्थः । उक्नो विनयः । दश प्र०२ से किं तं गा वि . णाणविणए पंचविहे पहात्ते, तं
उ० । ( चारित्रधिनयः ' चारित्तविणय' शब्दे वतीयभागे जा-अभिडियामागविणर सुसणाणविणए घोहि- १७५ पृष्ठे गतः।)
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( १९५४) अभिधानराजेन्द्रः ।
विषय
से किं तं मणविणए १, मणविणए दुविहे पत्ते, तंजहा - पसत्थमणविणए, अपसत्थमणविणए । से किं तं अपसत्थमणविणए १२, जे का मणे सावजे सकिरिए सककसे कटुए खिडुरे फरुसे अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे परितारणकरे उद्दवणकरे भूभोवघाइए तहप्पगारं मणो यो पहारेञ्ज । सेतं अपसत्थमणोविणए । से किं सं पसत्थमणोविए ?, पसत्थमगोविए तं चैव पसत्थं भव्वं । एवं चैव वदवि वि एतेहिं पदेहिं चैव थेअब्बो से तं वदविणए । ( सू० २०X ) कार्याविनयः-
से किं तं कायचिणए १, कायविणए दुविहे पत्ते, तं जहा-पसत्थकायविणए, अपसत्थकायविणए । से किं तं अपसत्थकायविणए १, अपसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा –श्रणात्तं गमये अणाउतं ठाणे अणाउत्तं खिसीदणे श्रखाउतं तु दृणे श्रणाउतं उल्लंघणे अणाउत्तं पल्लंघणे श्रणाउतं सत्रिदियका यजोगजुंजणया । से तं अपसत्थकायविणए । से किं तं पसत्थकायविए ?, पसत्थकायविणए एवं चैत्र पसत्थं भाणि - यवं । से तं पसत्थकाय विणए । से तं कार्याविणए । ( सू० २०X ) औ० ।
कायिकमाह
अट्ठाणं अंजलि - श्रसगदाणं अभिग्गहकिई अ । सुस्स मणुगच्छण- संसाहणकाय अडविहो ॥ ३२५ ॥ अभ्युत्थानमर्हस्य अञ्जलिः प्रश्नादौ श्रसनदानं पीठका - पनयनम् अभिप्रहो--गुरुनियोगकरणाभिसंधिः कृतिश्चेति कृतिकर्म्मः बन्दनमित्यर्थः । शुश्रूषणं-- विधिवद्दूरासन्नतया सेवनम् । अनुगमनम् - श्रागच्छतः प्रत्युद्गमनं स्वसाधनं चregasनुवजनं चाष्टविधः कार्याविनय इति गाथार्थः । दश० ६ अ० २३० |
लोकोपचारचिनयः --
से किं तं लोगोवयारविणए १, लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-अब्भासवत्तियं परच्छंदाखुवनिअं 'कहेउं कयपडिकिरिश्रा अत्तगवेसणाया देसकालएणुयासव्वसु अपडिलोमया । से तं लोगोवयारविणए । (सू० २०X ) औ० ।
शुश्रूषणाविनयः-
से किं तं सुस्सूस। विणए ?, सुस्मृसणाविणए अरोगविहे पष्ठते, तं जहा - सकारेति वा सम्मायेति वा जहा चउद्दसमसय तयउद्देसए० जाव पडिसंसाहण्या । से तं सुस्यूसणाविणए । ( सू० ८०२X) भ० २५ श० ७ उ० । घ० । संथा० । प्रव० ।
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विषय सम्प्रति तृतीयं विनयभेदं प्रचिकटयिषुर्गा थापूर्वार्द्धमाहअभ्रुट्ठाणाईयं, विषमं नियमा पउंजइ गुणीयं ॥ श्रभिमुखमुत्थानमभ्युत्थानं तदादिः यस्य सः अभ्युत्थानाद्वारा, आगच्छताण समुहं जाएं। सीसे अंजलिकरणं, सदिरादिशब्दात्संमुखयानादिपरिग्रहः । तदुक्तम्- "द अन्भुयमास ढोयणं कुरजा ।। १ ।। निविसिज निसन्नेसुं गुरुण वंदरामुवासणं ताणं । जंताणं अनुगमणं, इय ि अट्ठा हो ||२|| " इति । तमित्थंभूतं विनयं प्रतिपत्ति निविमात् - निश्चयेन प्रयुङ्क्ते विदधाति गुणिनां गुरुगौवाणां पुष्पसालसुतवत् । ध० २०२ अधि० ३ लक्ष० । वाग्विनयः
से किं तं वइविणए १, वहविणए दुविहे पष्मते, तं जहापसत्थवइविणए, अप्पसत्यवइविणए य से किं तं पसत्थवइविरूप १ पस० २ सत्तविहे पच्छते, तं जहा- अपावए • जाव अभूताभिसंक । सेतं पसत्थवह विणए । से किं तं अप्पसत्थवइविणए १, अप्पसत्थवइविणएं सत्तविहे पत्ते, तं जहा - पावए सावज्जे • जाव भूताभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थविणए । सेत्तं वइविणए । (०८०२X ) म० २५
श० ७ उ० ।
वागादिधिनयमाह -
हियमिय फरुसवाई, अणुवीईभासिवाइयो विषभ । अकुसलचित्तनिरोहो, कुसलमणउईरणा चैत्र ।। ३२२ ।। हितमिता परुषवागिति हितवाक-हितं वक्ति परिणामसुदरं मितवाग्मितं स्तोकैरक्षरैः अपरुषवा अपरुषम् अनिष्ठुरं तथा अनुविचिन्त्यभावी स्थालोचितवक्रेति वाचिको विनयः । तथा अकुशलमनोनिशेधः श्रार्त्तध्यानादिप्रतिषेधेन कुशलमनउदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्येति मानस इति गाथार्थः ।
शाह किमर्थमयं प्रतिरूपविनयः कस्य चैष इति । उच्यतेपडिरूवो खलु विओ, पराणुयत्तिम्मचो मुखेभव्वो । अप्पडिरूवो विणश्रो, नायव्जो केवलीयं तु ॥ ३२३ ॥ प्रतिरूपः- उचितः खलु विनयः परानुवृस्यात्म कस्तप्तद्वसत्यपेक्षया प्राय श्रात्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्यात्मको मन्तव्यः श्रयं च बाहुल्येन छद्मस्थानाम् । तथा अप्रतिरूपो विनयः अपरानुवृत्यात्मकः, स च ज्ञातव्यः केवलिनामेव तेषां तेनैव प्रकारेण कर्मत्रिनयनात् तेषामपीत्वरः प्रतिरूपो ज्ञातकेवलभावानां भवत्येवेति गाथार्थः । दश० ६ श्र० २ उ० । स्था० ।
व्य० ।
प्रतिरूपविनयमाह
पडिरूवो खलु विणओ, काइयजोए य वायमाणसियो । श्रचउत्रिह दुविहों, परूवणा तस्सिमा होई ॥ ३२४॥ प्रतिरूपः- उचितः खलु विनयस्त्रिविधः, काययोगे च, वाचि, मानसः, कायिको वाचिको मानसच, अष्टचतुर्विधद्विविधः । कायिकोऽष्टविधः, वाचिकश्चतुर्विधः, मानसो द्विविधः । प्ररू
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अभिवानराजेन्द्र:।
विषय पणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं भवति वक्ष्यमाणलक्ष-1 मीवमागमिस्ससि तो ते मुयामि। तीए पडिस्सुयं विसजिया पति गाथार्थः। दश अ०२ उ०। उत्ताव्य। नि००। परिणीया य वासघरं पविट्ठा, भत्तारस्त सम्भावं कहिय, (विनयमूलो धर्म इति, विनयश्च कतिविध इति च 'थाव-| तेण विसज्जिा आरामं जाति । अंतरा चोरेहिं गहिया, सचापुत्त' शम्ने चतुर्थभागे २४०१ पृष्ठे दर्शितम् ।)
म्भावे कहिए तेहि मुका पुणो गच्छति । अंतरा रक्ससो विनये उदाहरणम् । इयाणि विणए ति दारं
आहारत्थी छरह मासाणं णीति तेण य गहिता । सम्भावे सि
ढे मुक्का । गया पारामियस्स पासं दिट्ठा. कतो सि भणति णीयासणंजलीप-ग्गहादिविणयो तहिं तु हरिएसो। ।
सो समयो, कहं मुका भत्तारेण ?, सव्वं कहेति । अहो सम्वभत्तीए उ महोसव, बहुमायो भावपडिबन्धो ॥ १३ ॥ |
पहलाए ति मुका कहमहं दुहामि मुक्का य पडिांति । सणीयं-नीयं निम्नं पासीयते जम्मि तमासणं नीयं म्वेहि मुक्का भत्तारसगासमक्खुमा गता। अभश्रो पुच्छतिपासणं णीयासणं । गुरूण गीततरं उबविसति। तं च
एत्थ केण दुकर कयं ?, जे तत्थ इस्सालू ते भणति भत्तापीठगादि पासणं भवति । दो वि हत्था मउलकमलसंठि- रेण, छुहा रक्खसेणं, पारदारिया मालिपण । हरिएसो भया अंजली भसति । पगरिसेण गहो पग्गहो। सोय णीयास- णति चोरेहिं । अभएण गहितो एस चौरोत्ति । रमा उवएस्स वा अंजलिपग्गहो वा । अहवा-णिसेज दंडगादीण पीओ पुच्छिश्रो सम्भावो कहिश्रो। राया भणति-जह चो. षा पग्गहो भवति । आदिसहग्गहणेण णिहाविगहापरि- रविजाओ देसि तो जीवसि तेण पडिसुयं देमि नि । पजिपहि । गाहा-एवं पठंतस्स वा सुणेतस्स वा विण-| पासणत्यो पढिउमावाहति ण वहा । अभो पुच्छिो किं मो भवति, इहरहा अविणो । अविसीयस्स पच्छित्तं, तं | ण वहति?,अभो भणति-अविण्यगहिया एस हरिकेसो भू. चिम--सुत्ते मासलहु । अत्थे मासगुरु । अहवा--सुत्ते-ह। मित्थो तुम सीहासणत्थो तो तस्स असं भासण दिलं राया अत्थे- । तम्हा विणपण अधीयब्बं । विणोववेयस्स इह णीततरे ठितो सिद्धा । एवं गाणं पि विणयगहियं फलं देति परलोगे विजाओ फलं पयच्छति तहिं तु अत्थे विणोव- अविणयगहियं ण देति । तम्हा विणपण गहियग्वं । विणयए कारित्ते ठियस्स जहा विजाओ फलं पयच्छंति तहा ह. त्ति दारं। नि.चू०१ उ. । (विनयाकरणे प्रायश्चित्तम् , रिएसो दिटुंनो भएणति । रायगिहं णयर सेणिो राया 'तवायार' शब्दे चतुर्थभागे २२०८ पृष्ठे दर्शितम् ।) सोय भजाए भवति । एगखों मे पासायं करेहि। तेण वहइ
साम्प्रतमार्तगवेषयविनयप्रतिपादनार्थमाहणो आणता गया कट्टछिंदा सलक्षणो महादुमो दिट्रो, धूयो वि दिएणो । इमं च तेहिं भणिय-जेण एस परिग्गहि-|
दयाऽऽबइमाईसुं, अत्तमणते गवेसणं कुणई । ओ भूतातिणा सो दरिसावं देउ जाव ण छिदामो, एवं भ- व्यापदि-दुर्लभद्रव्याऽसंपत्तौ च तथा भवति। केषुचित् णिऊस गता तहिण जेण य सो परिग्गहितो वाणमंतरेण | देशेष्ववन्त्यादिषु दुर्लभं घृतादिद्रव्यमिति , श्रादिशब्दात्तेण अभयस्स रातो दरिसाश्रो दिरणी । इमं च तेण भणि-| क्षेत्रापदादिपरिग्रहः। तत्र क्षेत्रापदि कान्तारादिपत्तने, कायं अहं एगखंभे पासायं सपायारपरिक्खेवं च करेमि, स- लापदि दुर्भिक्षे, भावापदि गाढग्लानत्वे आर्तस्य-पीडितव्वोउयपुप्फफलोबएण घण संडेण एवरं मा मज्झ पिल-| स्य अत्यन्तसहिष्णुतया अनार्तस्य वा यथाशक्ति यद्गश्रोवरिटिशो रुक्खो छिज्जा । अभएण पडिस्सुयं ।। वेषणं करोति-दुर्लभद्रव्यादि संपादयति स आर्तगवेको य सो तेण आरक्खियपुरिसेहि य अहो- घणविनयः। रायं रक्सिज्जा । अण्णया पक्कीए मायंगीए अकाले अं-|
सम्पति (भाष्यकार:) कालशताबिनयप्रतिपादनार्थमाहबदोहलो, भत्तारं भणह-प्राणेहि । सो भणति-अकालो अं. बगाणं । तीए लवियं-जतो जाणेसि ततो आणेहि । सो गयो |
आहारादिपयाणं, छंदम्मि उ छट्ठओ विणो ॥४॥ रायाण प्रामं तस्स य दो विजारो अस्थि-ओशामणी य, उ. षष्ठः कालभतालक्षणो विनयः,एष यदुत 'छन्दम्मि उ'राणाणी या प्रोणामणीए प्रोणामित्ता गहियाणि पज्जत्तगाणि, ति तृतीयाथें सप्तमी । तथा'तिसु तेसु अलंकिया पुहवी' उरणामिणीए उल्लामिया साहा। दिट्ठो य रराणा अंबग्गहणप- इत्यतोऽयमर्थः,छन्दसा गुरूणामभिप्रायेणेव तुशब्दस्यैवकारारिच्छडो, चिंतियं च जस्स एसा सत्ती सो अंतेउर पिध-| र्थत्वात् आहारादिप्रदानम् । किमुक्तं भवति-यद्यस्मै प्रतिभारिसेहि ति । अभयं भणति-सत्तरत्तस्स अम्भतरे जति ण | सते तदिङ्गिताकारादिभिरपि विज्ञाय प्राचार्यग्लानोपाध्याघोरं लभसि ततो ते जीवियं पत्थि । गवसति प्रभो। यप्रभृतीनामकालक्षेपं संपादयति । स एष कालकृतो विनयः। पेच्छ। य एगस्थ लोग मिलितं ए ताव गोपजो (जा- उक्तः कालज्ञताविनयः। नाति) आगच्छति । तत्थ आगंतु अभश्रो भएणति-जा- संप्रति सर्वत्रानुलोमतालक्षणं विनयमाहव गोज्जो श्रादह एवं ताव अक्खाणयं सुणेह । एगम्मि
सामायारिपरूवण-निद्देसे चेव बहविहे गुरुणो । दरिदकुले बहकुमारी रूपवती , सा य एगस्थ आरामे चोरियाई कुसुमाई गेराहर, ताणि य घेतं कामदेवं श्र
एमेय त्ति तह त्ति य, सव्वत्थऽणुलोमया एसा । ॥ थेति । साय अण्णया पारामिएण गहिया, असुभभावो 'गुरुणो' इत्यत्र-कर्तरि षष्ठी. गुरोः सामाचारीप्ररूपणे किअसो कहिउमारतो । सा भणति-मा मे विणासेहि तव मुक्तं भवति-इच्छामिथ्यादिरूपायां तस्यां तस्यां सामाचार्या वि भगिणी जर्जाचा अस्थि । सो भणति--किमेतेण ए- गुरुणा प्ररूप्यमाणायाम् एवमेतद्यथा-भगवन्तो बदन्ति । कदा मुयामि जया परिणीया तया जति पढमं मम स- नान्यथेति प्रतिपत्तिः, तथा बहुविधे बहुप्रकारे निर्देशे ताक
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अभिधामराजेन्द्रः।
पिणय तग्यज्ञापनलक्षणे गुरोर्गुरुणा क्रियमाणे या तथेति वचन- यदि इच्छा भवति तदाविष्टकार्यकरणाय , यदि वा-- तः कर्तव्यतया च प्रतिपत्तिरेषा सर्वाऽपि सर्वानुलोम- निच्छा तथापि विशुद्धान्वयतया विनययुक्तस्य गुरुवाक्याताविनयः।
नुलोमता । प्राममित्येवं गुरुवाक्योपबृंहणं गुरुवायोपदिउपसंहारमाह
एकार्यसंपादकता चेति लक्षणा युक्ता । इयमत्र भावना-जा
तिकुलसमन्वितेन विनयमिच्छता सदैव गुरोनिकटवर्तिलोगोवयारविणो, इस एसो वलिश्रो सपक्सम्मि।
ना भवितव्यं तत्र यदा गुरुः शिक्षयते तदा तां शिक्षामिभासज कारणं पुण, कीरइ जयणा विपक्खे वि ॥८६॥ च्छता अनिच्छता वाऽवश्यं गुरुवाक्यमाममिति तथैवेत्येव इत्येवमनेन प्रकारेण एष लोकोपचारविनयः स्वपक्षे-सु-1 वा उपबृंहणीय कार्य च संपादनीयमिति । घिहितलक्षणे वर्णितः। आसाद्य कारणे पुनर्विपक्षेऽपि गृ-1
पतदेव सविस्तरमाहइस्थेषु तथाविधागारिषु श्रावकेषु पावस्थादिषु च एष गुरवो जं पभासंति, तत्थ खिप्पं समुजमे । लोकोपचारविनयोभ्यासः वर्तित्वादिलक्षणो यतनया प्रवचनोत्रतिव्याघातपरिहारेण संयमानाबाधया च क्रियते । त
न हु सच्छंदया सेया, लोए किमुत उत्सरे ॥ १०॥ बेवं कायवाखानोलोकोपचारभेदतश्चतुष्प्रकारः प्रतिरूप- गुरवो यत्प्रभाषन्ते-कर्तव्यतयोपविशन्ति , तत्र क्षिप्रंविनय उक्तः।
शीघ्र समुद्यच्छेत्-सम्यगुद्यमं कुर्यात् , यतो'नहु-नैव स्वच्छ अथवा चतुष्प्रकारः प्रतिरूपविनयस्तानेव प्रकारान् दर्शयति
न्दता स्वाभिप्रायेणावर्तिता श्रेयसी लोकेऽपि अपिशब्दोऽ
त्रानुक्तोऽपि सामर्थ्यात् गम्यते, किमुत उत्तरे-लोकोत्तरे घउहा वा पडिरूवो, तत्थेगणुलोमवयणुसहियत्तं ।। सुविहितजनमार्गे परलोकार्थिनस्तस्य सुतरां न श्रेयसी, पडिरूवकायकिरिया, फासणसवाणुलोमंच ॥ ८७॥ शानादिविच्युतिप्रसङ्गात् । पाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः। अन्यथा वा चतुर्दा-व- जं जुत्तं गुरुनिहेसं. जो वि आइसई मुणी। तुष्पकारः प्रतिरूपविनयस्तत्र तेषु चतुषु प्रकारेषु मध्ये एकः
तस्सावि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता ।। ६१ ॥ प्रतिरूपविनयस्तावदयम्-यदुत अनुलोमवचनसहितत्वं यकिमपि कार्यमाविष्टः करोति तत्सर्वमनुलोमवचनपूर्वक
यथोक्नं गुरुनिर्देशं गुर्वाशारूपं योऽपि मुनिरादिशति-ककरोति नान्यथेति भावः । द्वितीयप्रतिरूपकायक्रिया; यथा
थयति तस्यापि तथा दिशतः प्रतिविधिना सूत्रोक्नेन युक्ता परिपाट्या शरीरविश्रामणमित्यर्थः। तृतीयः संस्पर्शनविनयः
गुरुवाक्यानुलोमता यथोक्तस्वरूपा। तदेवमुक्तोऽनुलोमवचन
सहितत्वरूपो विनयः। यथा गुर्वादेः सुखासिकोपजायते तदा मृदुसंस्पर्शात्मकः संस्पर्शनविनय इति भावः । चतुर्थः सर्वानुलोमता सूत्रे
संप्रति प्रतिरूपकायक्रियाविनयमाहसर्वानुलोममिति भावप्रधानो निर्देशः । चः समुच्चये । सा
अद्भाणवायणाए, निवासणए परिकिलंतस्स । च सर्वानुलोमता व्यवहारविरुखेऽपि प्राणव्यपरोपणकारि- सीसाइ जाव पाया, किरियापायादविणभो उ॥१२॥ ग्यपि चा समादेशे यथाक्रम तथेति प्रतिपत्तिस्तथैव च अध्वनि-मार्गे वा वाचनायां सूत्रार्थप्रदानलक्षणायां मिकार्यसंपादनमित्येवरूपा।
स्यासनतया-निरन्तरोपवेशनतः परिकान्तस्य-समन्ततः एतानेव प्रकारान् क्रमेण याचिख्यासुः प्रथमतोऽनुलोमव- क्रममुपागतस्य क्रिया प्रतिरूपकायक्रिया विधामखेति ताचनसहितत्वं व्याख्यानयति
त्पर्याथैः । कर्तव्येति वाक्यशेषः । कथं कर्तव्येत्यत आह
शीर्षादि यावत्पादौ शिरस प्रारभ्य क्रमेण तावत्कर्तव्या प्रमुग कीरउ आम-ति भणइ अनुलोमवयणसहितो उ।
यावत्पादौ , यदि पुनः पादादारभ्य करोति तदा अविनयवयणपसायाईहि य, अभिणंदइ तं वयं गुरुणो ॥८॥ पादादिमलस्य शीर्षादिषु लगनात् । इच्छाकारेण भो शिष्य ! अमुकं क्रियतामित्येवं गुरुणा स
अत्रैवापवादमाहमादिष्टे यो वचसा प्राममिति ब्रूते न केवल ब्रूते एव किं जतो पभणाइ गुरू, करेइ किइकम्म मो ततो पुवं । तु गुरोस्तां वाचं वदनप्रसादादिभिर्वदनस्य प्रसादेन-मुखस्य
संफरिसणविणो पुण, परिमउग्रं वा जहा सहइ ॥१३॥ प्रसन्नतया आदिशब्दात्-उत्फुल्लनयनकमलोऽअलिप्रग्रहादि
यतो वा अनादारभ्य गुरुर्भणति ततः पूर्वमारभ्य कृतिमा पाऽभिनन्दति महान् कृतः प्रसादो यदिदं समाविष्टमि
कर्म विश्रामणां । मो' इति पादपूरणे करोति । तथा त्येवं शापनेन म्फाति करोति स विनयविनयवतोरभेदो
च सति पादादप्यारभ्य कुर्वतो नाविनयः गुर्वाज्ञाकारित्वापचारात् अनुलोमवचनसहितःप्रतिरूपविनयः । तुशब्द एव
त् । उक्नोऽनुलोमकायक्रियाविनयः। संप्रति संस्पर्शनविनयमाकारार्थः । एवंरूप एवानुलोमवचनसहितो नान्य इति ।
ह-संफरिसणे' त्यादि संस्पर्शनविनयः पुनः परिमृदुकम्, अस्यैव विनयस्य करणे उपदेशमाह
वाशब्दावल्पमृदुकं वा यथा सहते तथापि विश्रामणां चोययंते परं थेरा, इच्छाणिच्छेव तं वइं।
करोति अतिखरेण विश्रामणायां परितापनसंभवात् । जुत्ता विणयजुत्सस्स, गुरुवक्काणुलोमता ||६||
अथ विश्रामणायां को गुण इत्यत आहस्थविरा-प्राचार्यादयः ते परं शिष्यं चोदयन्ते-शिक्षयन्ते
वायाई सट्ठाणं, वयंति भद्दासणस्स जे खुभिया। तेषां तत्राधिकारित्वात् । तत्र तां चोदनात्मिकां चाचं प्रति खेयजतो तणुथिरया, बलं च अरिसादयो नेवं ॥४॥
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विषय अभिधानराजेन्द्रः।
विणय पातादयो-वातपित्तश्लेष्माणो ये बद्धासनस्य सतः खुभि- अस्य च संहितादिक्रमेण व्याख्या-तत्र चास्खलितपदोचाताः-स्थानात् प्रचलितास्ते स्वस्थानं व्रजन्ति-स्वस्थानं प्र- रणं संहिता, सा चानुगतैव, सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वात् , ततिपद्यन्तेः तेन विक्रियां भजन्तीति भावः । तथा वाचनाप्र- था चाह-"हो कयत्थो वोर्नु, सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगदानतो मार्गगमनतो वा यः खेद उपजातस्य यतोऽपग- मो" त्ति । पदं तु नामिकनैपातिकादि स्वधियैव भाषनीयम् , मो भवति । तथा तनोः-शरीरस्य स्थिरता-दाय भवति , पदार्थस्त्वयम्-अन्यसंयुक्तस्यासंयुक्तस्य वा सचित्तादिषन विशरारुताभावः। अत एव च बलं शारीरं तदुपष्ट-! स्तुनो द्रव्यादिना संयोजन-संयोगः, स च संयुक्तसंयोगाम्भतो वाचिकं मानसिकं च। तथा एवं विश्रामणातो वाता- दिभेदेनानेकधा वक्ष्यते, तस्मान्मात्रादिसंयोगरूपादौदयिका. दीनां स्वस्थागमने अर्शनादयोऽशोसि वातपित्तश्लेष्म- दिक्रिष्टतरभावसंयोगात्मकाच विविधैः-शानभावनादिभिर्विजानि प्रादिशब्दात्-तदन्ये च रोगा नोपजान्ते । एते विश्रा- चित्रैः प्रकारैः प्रकर्षण-परीषहोपसर्गादिसहिष्णुतालक्षणेन मणायां गुणास्ततः कर्त्तव्योऽवश्यमनुलोमकायक्रियाविनयः, मुक्को-भ्रष्टो विप्रमुक्तः, तस्य-'अनगारस्ये' ति अक्यिमानसंस्पर्शनविनयश्च।
मगारमस्येत्यनगार इति व्युत्पन्नोऽनगारशब्दो गृह्यते, यस्व. संप्रति सर्वत्रानुलोमताविनयमाह
व्युत्पनो रूढिशब्दो यतिवाचकः, यथोक्तम्-'अनगारो मुसेयवऊ मे कागो, दिट्ठो चउदंतपंडुरो वेभो ।
निर्मोनी, साधुः प्रवजितो व्रती। श्रमणः क्षपणश्चैव, यति
धैकार्थवाचकाः॥१॥" इति । इह न गृह्यते, भिक्षुशब्देआम पडिति भणंते, सव्वत्थऽणुलोमपडिलोमे ॥६॥
नैव तदर्थस्य गतत्वात् , तत्र चागारं द्विधा-द्रव्य-भावभेदाश्वेतवपुः-श्वेतशरीरो मया काको दृष्टः। यदिवा-दमो-हस्ती त् । तत्र द्रव्यागारमगैः-नुमदृषदादिभिर्निर्वृत्तम् , भाषागारं चतुर्दन्तः, पाण्डुरश्च मया रष्टइति वर्तते । एवं प्रतिलोमे लो- पुनरगैः-विपाककालेऽपि जीवविपाकतया शरीरपुद्लादिकव्यवहारविरुद्ध गुरुणा कथमप्युच्यमाने इति प्रतिभणति षु बहिः प्रवृत्तिरहितैरनन्तानुबन्ध्यादिभिर्निर्वृत्तं कषायमोशिष्ये सर्वत्रानुलोमलक्षणो विनयः प्रतिपत्तव्यः। किमुक्तं | हनीयम् , तत्र च द्रव्यागारपक्षे तनिषेधे ततोऽनगारस्याभवति-यदि नाम श्वेतवपुर्मया काको दृष्ट इत्यादिकं लो- विद्यमानगृहस्येत्यर्थः, भावागारपक्षे त्वल्पताभिधायी, ततः कव्यवहारप्रतिकूलं कथमपि गुरुर्भणति तथापि तदानीं | स्थितिप्रदेशानुभागतोऽत्यल्पकषायमोहनीयस्येत्यर्थः । कषासकलजनसमक्षमाममित्येव वक्तव्यम् , न पुनस्तद्वचः कुदृयि. यमोहनीयं हि कर्म, न च कर्मणा स्थित्यादिभूयस्ये विरतव्यमा केवल विशेषार्थिना जनविरहे कारण प्रष्टव्यम् । तिसङ्गमः । यत आगमः-"सत्तरहं पयडीणं, अम्भितरो उ एवं हि सर्वानुलोमतालक्षणो विनयः प्रकटितो भवति ना- | कोडिकोडीओ।काऊण सागराणं, जह लहर चउराहमन्त्रन्यथा।
यर ॥१॥" इत्यादि, क्लिष्टतरभावसंयोगमुक्तत्वेनैव चास्य गतमिखु गोणसंगुलेहिं. गणेहि से दचकलाई से।
त्वे पुनरभिधानं कषायमोहनीयस्यातिदुष्टताख्यापनार्थम् ।
विशेष्यमाह-भिक्षो' रिति, अत्र च पचनपाचनादिव्याभग्गंगुली' वग्धं, तुद डिवगडं भणइ अामं ॥१६॥
पारोपरमतः साधुर्भिक्षते तद्धर्माचेत्यर्थे "सनाशंसभिक्ष उ" मिनु-प्रमिणु गोनसं-सर्पजातिविशेषम् अङ्गलैः-यथा कि-|
रिति (पा०३-२-१६८)ताच्छीलिक उप्रत्ययः । अस्य च यन्त्यङ्गलानि अयं गोनसो विद्यते इति । तथा गण-परिस-| वर्तमानाधिकारविहितत्वेऽपि सज्ञाप्रकारास्ताच्छीलिका ख्याहि 'से' तस्य गोनसस्य दंष्ट्राः, यदि वा-'से' तस्य च
इति भाष्यकारवचनाद् भिक्षुशब्दत्रिकालविषयो यतिपवालानि-पृष्ठस्योपरि मण्डललक्षणानि गणय, कियन्त्योऽ।
र्यायः सिद्धो भवति, शेषविवक्षायां च षष्ठी । अथवा-"म्य दंष्ट्रा कियन्ति वास्य पृष्ठस्योपरि चक्रवालानीत्येतत् गण-|
णगारस्स भिक्खुणो" ति अस्वेषु भिक्षुरस्वभिचुः जात्याचयित्वा कथयेति भावः। तथा अत्राकुल्यग्रभागेन व्यानं तुद
नाजीवनादनात्मीकृतत्वेनानात्मीयानेव गृहिणोऽन्नादिभिक्षतोत्रेण वा व्यथय, तथा 'डिव' निपस्योलमय श्रवट-कृपम् ।
त इति कृत्वा, स च यतिरेव । ततोऽनगारश्वासावस्वभिएवं प्राणिप्रतिलोम बदति गुरो, सर्वत्रानुलोमताविनययुक्तः
सुश्च अनगारास्वभिक्षुस्तस्य । किमित्याह-विशिष्टो विविधो शिष्य प्राममिति भणति । गुरवो हि सकलजगत्प्राणिवर्गवि- वा नयो नीतिर्विनयः साधुजनासेवितः समाचारस्तं, दिनषयपरमकरुणापरीतचेतसस्ततस्त एव युक्तमयुक्तं वा जान- मनं वा विनतं ' णीयं सज गई ठाणं' इत्याद्यागमात् । द्रन्ति । किमत्र शिष्यस्य चिन्तयेति शिष्येण सर्वत्रानुलोमवि
व्यतो नीचैर्वृत्तिलक्षणं प्रत्वम् , भावतश्च सध्वाचारं प्रतिनयमिच्छुना ईशमपि गुरुवचनं तथेति प्रतिपत्तव्यमिति ।
प्रवणत्वं प्रादुष्करिष्यामि-प्रकटयिष्यामि । कथमित्याहव्य०१०। ध०र०।(लौकिको लोकोत्सरिको बलीया
पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव इत्यर्थे " गुणवचनब्राह्मणानिति संशाभूमिगमनप्रस्तावे आचार्यस्य 'अइसय' शब्दे
दिभ्यः" (पा०५-१-१२६) कर्मणि चेति व्यम् , तस्य च प्रममभागे १६ पृष्ठे उक्तः।) ( सत्कारादिविनयेषु दण्डका |
पित्करणसामर्थ्यात् स्त्रीत्वे "षिदगौरादिभ्यश्चे" ति ( पा० 'सकार' शब्दे वक्ष्यते।)
४-१-४१) डीष्यानुपूर्वीक्रमः-परिपाटीति यावत् तया,द्विसाम्प्रतं सूत्रानुगमः, तत्रालीकोपघातजनकत्वादिदोषर-1
तीया तु'छन्दोवत् सूत्राणी' ति न्यायतः छान्दसत्वे ' सुहितं निर्दोषसार (वत्वा) त्वादिगुणान्वितं सूत्रमुग्धारणीयम्,
पां सुपो भवन्ती' ति वचनात् तृतीयार्थे , शृणुन-पाकतच्चेदम्
यत श्रवणं प्रत्यवहिता भवत । यद्वा-शृणु हेति-जगसंजोगविप्पमुक्कम्स, अणगारस्स भिक्खुणो।
नि जिनमते वा; व्याख्याद्वयेऽपि शिष्याभिमुखीकरणमिविणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्धि सुरोह मे ।। १॥ । त्यर्थः। अनेन च पराङ्मुखमपि प्रतिबोधयतो व्याख्यातुर्धर्म
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(१९५८) चिणय अभिधानराजेन्द्रः।
विणय एवेति ख्यापितं भवति । तथा च वाचकः- " न भवति धर्मः | वति, ततो नाप्रस्तुतत्वं प्रतिज्ञातस्येति स्थितम् । उत्त पाई श्रोतुः, सर्वस्यैकान्तताहितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्य, १०। बनुस्त्वेकान्ततो भवति ॥१॥" मे-मम विनयं विनतं वा सम्प्रति यदुक्तं विनयं प्रादुष्करिष्यामीति, तत्र विनयो धर्मः प्रादुष्करिष्यत इति प्रक्रमः । उक्तः पदार्थस्तदभिधानात् | स च धर्मिणः कश्चिदभिन्न इति धर्मिद्वारेण तत्स्वरूपमाहसामासिकपदान्तर्गतः पदविग्रहश्च ( उक्त इति) ततश्चाल
आणानिदेसयरे, गुरूणमुववायकारए । मावसरः, सा च सूत्रार्थगतदुषणात्मिका, “सुत्तगयमत्थविसयं, व दूसणं चालणं मयं तस्स" इति वचनात् , तत्र सूत्र
इंगियागारसम्पन्ने, से विणीए त्ति वुच्चइ ॥२॥ चालना-संयोगस्य विप्रमुक्नक्रियां प्रति कर्तृत्वात् संयोगा- आडिति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाऽभिव्यादिति कथं पञ्चमी?, अर्थचालना च 'विनयं प्रादुष्करिष्या
प्त्या वा शायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञा-भगवदभिहितागमरूपा मी' ति प्रतिज्ञातम् , उत्तरत्र च' श्राणाऽणिद्देसकरे ' इत्या
तस्या निर्देश-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनमाशानिर्देशः, इ. दिना 'खड्डयाहिं चवेडाहिं' इत्यादिना च विपर्ययप्रतिपा
दमित्थं विधेयमित्थं वेत्यवमात्मकः तत्करणशीलस्तदनुइनमपि दृश्यते इति कथं न प्रतिज्ञाक्षतिः ?, प्रत्यवस्थानं
लोमानुष्ठानो वा आशानिर्देशकरः , यद्वा-श्राशा-सौम्य ? शब्दार्थन्यायतः परोपन्यस्तदोषपरिहाररूपम् , यत आह "स
इदं कुरु इदं च मा कार्पोरिति गुरुवचनमेव , इत्थन्नायाओ, परिहारो पच्चवस्थाणं" तत्र च यद्यपि सं
तस्या निर्देश इदमित्थमेव करोमि इति निश्चयाभिधानं योगेन विमुच्यमानो भिक्षुः कर्म तथापि कर्तृत्वेनात्र विव
तत्करः, आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोधिमित्याशा
निर्देशतर इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद्भगवद्वचनस्य व्याक्यते, ततश्च तस्य तं विप्रमुञ्चतो विश्लेषोऽस्तीति विश्ले
ख्याभेदाः सम्भवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतुतया बाषक्रियायां संयोगस्य ध्रुवत्वेनापादानत्वान्न्याय्यैव पञ्चमी,
लाऽबलादिबोधोत्पादनार्थत्वाच्चास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्रं अत एव विप्रमुक्त इत्यत्र कर्मकर्तुः कर्मवद्भावात् कर्म
प्रदर्शयिष्यन्ते , तथा गुरूणाम्-गौरवाहाणामाचार्यादीनाणि नोऽपि सिद्धो भवति इति न सूत्रदोषो , नाप्यर्थदो
मुप-समीपे पतनं स्थानमुपपातः-दृग्वचनविषयदेशावषः । यतो यद् यल्लक्षणं तत्तद्विपर्ययाविधान एव तल्लक्षण
स्थानं तत्कारकः-तदनुष्ठाता , न तु गुवादशादिभीत्या मक्लेशन ज्ञातुं शक्यमिति । अत्र विनयाभिधानप्रतिज्ञाने:
तव्यवहितदेशस्थायीति यावत् , तथेङ्गित-निपुणमतिगप्यविनयाभिधानम् , तथा च शय्यम्भवप्रणीताचारकथा
म्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् भ्रूशिरःकम्पादि श्राकारःयामपि “वयछक्ककायछक्क" मित्यादिनाऽऽचारप्रक्रमेऽप्य
स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनानाचारवचनम् । अथवा-एकमपीदं सूत्रमावृत्त्या श्वेतो धा-|
दिः, श्राह च-" अवलोयणं दिसाणं , वियंभणं साडवती' तिवदर्थद्वयाभिधायकम् , ततश्चायमन्योऽर्थः-संयोगेन
यस्स संठवणं । श्रासणसिढिलीकरण , पट्टियलिंगाई कषायादिसम्पर्कात्मकेनाप्यविप्रमुक्तः-अपरित्यक्तः, संयोगा- एयाई ॥ १ ॥ " अनयोर्द्वन्द्वे इङ्गिताकारौ तौ विप्रमुक्तस्तस्य, ऋणमिव कालान्तरक्लेशानुभवहेतुतया ऋ
अर्थाद्-गुरुगती सम्यक् प्रकर्षण जानाति इङ्गिताणम्-अष्टप्रकारं कर्म तत् करोतीति कोऽर्थः ?--तथा त- कारसम्प्रशः , यद्वा-इङ्गिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानथा गुरुवचनविपरीतप्रवृत्तिभिरुपचिनोतीति ऋणकारस्त मेव कारणे कार्योपचारादिङ्गिताकारशब्देनोक्लम् , तेन सस्य भिक्षोः-कषायादिवशतो जीववीयंविकलस्य पौरुष- म्पन्नो-युक्तः , 'स' इत्युक्तविशेषणान्वितः विनीतः-विनउनीमेव भिक्षां तथाविधफलनिरपेक्षतया भ्रमणशीलस्य वि- यान्वितः, इति' सूत्रपरामर्श उच्यते तीर्थकृद्रणधनयं 'प्रादुष्करिस्यामि'इति"प्राकाश्यसम्भवे प्रादु" रिति व- रादिभिरिति गम्यते , अनेन च स्वमनीषिकाऽपोहमाह चनात् प्रादुःशब्दस्य सम्भवार्थस्यापि दर्शनादुत्पादयिष्या- इति सूत्रार्थः ॥२॥ मि, सम्भवति हीदमध्ययनमधीयानानां गुरुकर्मणामपि इह विनयोऽभिधित्सितः, स च विपर्ययाभिधान एव त. प्रायो विनीताविनीतगुणदोषविभावनातो शानादिविनयपरि | द्विविक्ततया सुखेन ज्ञातुं शक्यत इत्यविनयं धर्मिद्वारेणाहणतिः, अथवा-विरुद्धो नयो विनयः असदाचार इत्यर्थः,
प्राणानिद्देसकरे, गुरूणमणुववायकारए । तं प्रादुष्करिष्यामि-प्रकटयिष्यामि, कस्य-भिक्षोः-उन्नन्यायेन भिक्षणशीलस्य, सम्यग्-अविपरीतो योगः समाधिः--
पडिणीए असंबुद्धे, अविणीए त्ति वुच्चइ ।।३।। संयोगः, ततो विविधैः परीषहासनगुरुनियोगासहिष्णु
पादद्वयं प्राग्वत् , नवरं नयोजनादव्यतिरेकतो व्याख्ये
यम् , प्रत्यनीकः-प्रतिकूलवर्ती शिलाऽऽक्षेपककूलबालकवालस्यादिभिः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्तो विप्रमुक्तः तस्य, शे
श्रमणवत् , दोषानीकं प्रति वर्तत इति प्रत्यनीकः , किपं प्राग्वत् । एवं चाविनयप्रतिपादनस्यापि प्रतिज्ञातत्वात्
मित्येवंविधोऽसावित्याह-असम्बुद्धः-अनवगततत्त्वः , असर्व सुस्थम् । अपरस्त्वाह-प्रतिक्षातमपि विनयमभिधि
विनीतः-अविनयवान् इत्युच्यते ' इति पूर्ववदिति रसोरप्रस्तुतम् . इदमपि बालप्रजल्पितं यतः शास्त्रारम्भेऽभि.
सूत्रार्थः ॥३॥ धेयाद्यवश्यमभिधेयम् अन्यथा प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यसम्भवात् , त
___ साम्प्रतं दृष्टान्तपूर्वकमिहैवास्य सदोषतामाहप्रदर्शनात्मकं चैतत् प्रतिज्ञानम्, तथाहि-विनयं प्रादुष्करियामीत्युक्ते विनयोऽस्याध्ययनस्याभिधेयः, तत्प्रादुष्करणं
जहा सुणी पूइकएणी , णिक्कसिन्जइ सब्बसो। फलम, तथा चेदमुपेयम् , उपायश्चास्य प्रस्तुताध्ययनम् , इ. एवं दुस्सीलपडिणीए , मुहरी निक्कसिज्जइ ॥४॥ त्यनयोरुपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्ध इति च दर्शितं भ.। यथा इत्युपदर्शने , श्चसितीति शुनी , स्त्रीनिर्देशोऽत्य
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_ (१९५६) विषय अभिधानराजेन्द्रः।
विणय न्तकुत्सोपदर्शकः, पूती-परिपाकतः कुथितगन्धौ कृमिकु- | रस्य-उक्नन्यायेन शूकरोपमस्य नरस्य, 'चः ' प्ररणे, लाकुलत्वाद्युपलक्षणमेतत् , तथाविधौ कर्णी-श्रुती यस्याः यद्वा--शुन्याः शूकरस्य च दृष्टान्तस्य नरस्य च दार्शन्तिपक्करक्तं वा पूतिस्तद्व्याप्तौ कौँ यस्याः सा पूतिकर्णा, कस्याशोभनं भावं त्रयाणामप्युक्तरूपं श्रुत्वा, किमित्याह-विसकलावयवकुत्सोपलक्षणं चैतत् , सां चेदृशी शुनी, कि- नये वक्ष्यमाणस्वरूपे, स्थापयेदात्मानम् ,प्रान्ममैवेति गम्यते , मित्याह--निष्काश्यते-निर्वास्यते बहिनिःसार्यत इति
इच्छन्-वाञ्छन् हितम्-ऐहिकमामुष्मिकं च पथ्यम् यावत् , कुतः ?--'सबसो' त्ति सर्वतः-सर्वेभ्यो गो- आत्मनः-स्वस्य, इह च पुनदृष्टान्ताभिधानमुपसंहारपुरगृहाङ्गणादिभ्यः, सर्वान् वा हतहतेत्यादिविरूक्षवचन- त्वेनाविनये शिष्यस्याशुभभावस्योत्पादनार्थत्वेन वा नाप्रलतालकुटलेष्ठुघातादिकान् प्रकारानाश्रित्य 'छन्दोवत् | कृतमिति सूत्रार्थः ॥६॥ सूत्राणि भवन्ती' ति छान्दसत्वाच्च सूत्रे शस्त्र
यतश्चैवं ततः किमित्याहत्ययः । उपनयमाह-एवम्-अननैव प्रकारेण, दुष्ट
तम्हा विणयमेसिजा, सीलं पडिलमे जो। मिति रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं-स्वभावः समाधिरा
बुद्धउत्ते नियागट्ठी, न निक्कसिज्जइ कण्हुइ ॥ ७॥ चारो वा यस्यासौ दुःशीलः, प्रत्यनीकः प्राग्वत्, मुखेनारिमावहति मुखमेव वह परलोकापकारितयाऽरिरस्य मुधै
'तस्माद्' इति यस्मादविनयदोषदर्शनादात्मा विनये व वा कार्य विनैयारयो यस्यासौ मुखारिर्मुधारिर्वा-बहुवि
स्थापनीयस्तस्मात् विनयम् 'एषयेत्' अनेकार्थत्वेन धाधासम्बद्धभाषी, सूत्रत्वाद्वा 'मुहरि' त्ति मुखरो वाचाटो
तूनां पर्यवसितवृत्त्या वा कुर्यात् , एवं ह्यात्मा विनये स्थानिष्काश्यते 'सर्वतः' इतीहापि योज्यते, ततश्च सर्वतो
प्यत इति । किं पुनरस्य विनयस्य फलम् येनैवमत्रात्मनिष्काश्यते, सर्वथा कुलगणसंघसमवायबहिर्वर्ती विधीयत
नोऽवस्थापनमुद्दिश्यत इत्याशङ्कयाह--शीलम्--उक्तरूपं इति सूत्रार्थः ॥ ४॥
प्रतिवभेत--प्राप्नुयात्--' यत ' इति विनयात् , अनेन आह-दौःशील्यनिमित्त एवायमविनीतस्य दोषः, प्रत्य
विनयस्य शीलावाप्तिः फलमुक्तम् , अस्यापि किं फलमि
त्याह--बुद्धैः-अवगततत्वैस्तीर्थकरादिभिरुक्तम्--अभिहितं, नीकतामुखरत्वयोरपि तत्प्रभवत्वात् तत्र चैवमनर्थहेतौ किमसौ प्रवर्तत इति, अत्रोच्यते, पापोपहतमतित्वेन तत्रै
तच्च तन्निजमेव निजकं च-झानादिस्तस्यैव बुद्धरात्मी
यत्वेन तत्त्वत उक्तत्वात् , बुद्धोक्ननिजकम् , तदर्थयते--- वास्याभिरतिरिति कृत्वा, तामेव दृष्टान्तपूर्विकामाह
भिलषतीत्येवंशीलः बुद्धोक्लनिजकार्थी सन् , पठन्ति च-- कणकुंडगं जहिता णं, विटुं मुंजइ सूयरो।
'बुद्धवुत्ते णियाणट्ठि' त्ति बुद्धः--उक्तरूपैर्युक्तो-विशेएवं सीलं जहित्ता णं, दुस्सीले रमई मिए ॥५॥ घेणाभिहितः स च द्वादशाङ्गरूप आगमस्तस्मिन् स्थित
इति गम्यते, यद्वा-बुद्धानाम्--श्राचार्यादीनां पुत्र इव पुकणाः-तन्दुलास्तेषां तन्मिश्रो वा कुण्डकः--तत्क्षोदनो
त्रो बुद्धपुत्रः 'पुना य सीसा य समं विहित्ता ' इति वत्पन्नकुक्कुसः कणकुण्डकस्तं 'हित्वा' पाठान्तरतस्त्यक्त्वा
चनात् , स्वरूपविशेषणमेतत् , नितरां यजनं याग:--पूजावा विष्ठाम्-पुरीषं भुते--अभ्यवहरति 'सूकर' इति ग
यस्मिन् सोऽयं नियागो-मोक्षः, तत्रैव नितरां पूजासम्भवासूकरो, यथेति गम्यते, एवं शीलम्--उतरूपं प्रस्ता
त् , तदर्थी सन् , किमित्याह-न निष्काश्यते--न बहिष्क्रिवाच्छोभनं हित्वा--प्राग्वत्त्यक्त्वा वा दुष्टं शीलं दुःशीलं तस्मिन् भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशस्य दुष्ट शीलमस्येति
यते, कुतश्चिद् गच्छगणादेः, किन्तु-विनीतत्वेन सर्वगुणाधादुःशीलस्तद्भावो दौःशील्यं तस्मिन् , उभयत्र दुराचारा
रतया सर्वत्र मुख्य एव क्रियते इति भावः, इति सूत्रार्थः ॥७॥ दौ रमते--धृत्तिमाधसे मृग इव मृगः अशत्वादविनीत
कथं पुनर्विनय एषयितव्य इत्याह-- इति प्रक्रमः । इदमत्र हृदयम्--यथा मृग उद्गीर्णासिपुत्रिक
णिसंते सिया अमुहरि, बुद्धाणमंतिए सया। गौरिगायनपुरुषहेतुकमायतो मृत्युरूपमपायमपश्यन्नशः, ए
अदु जुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए॥८॥ वमयमपि दौःशील्यहेतुकमागामिनं भवभ्रमणलक्षणमपाय- नितराम्--अतिशयेन शान्तः उपशमवान् अन्तःक्रोधमनालोकयन्ना एव सन् गर्तासूकरोपमः सदा पुष्टिदायि- परिहारेण बहिश्च प्रशान्ताकारतया निःशान्तः स्याद्-भकणकुण्डकसदृशं शीलमपहाय विवेकिजनगर्हिततया वि- वेत् , तथा अमुखारिः-प्राग्वत् अमुखरो वा सन् बुद्धाछोपमे दुःशीले दौ-शील्ये वा रमते । इह च दृष्टान्तेऽपि वि- नाम्--श्राचार्यादीनाम् अन्तिके-समीपे , न तु , विनयभुक्त्यभिरतिरेवार्थत उना, तदविनाभावित्वात्तस्याः, य- भीत्याऽन्यथैव सदा-सर्वकालमर्यते--गम्यते इति अर्थः द्वा-शुभपरिहारेणाशुभाश्रयणमुभयत्रापि सादृश्यनिमित्तम-1 अर्तेरौणादिकस्थन् ( उषिकुषिगाऽर्तिभ्यस्थन् उ०२--४) स्तीति नोपमानोपमेयभावविरोध इति सूत्रार्थः ॥ ५॥ स च हेय उपादेयश्चोभयस्याप्यय॑माणत्वात् , तेन युक्काउक्लोपसंहारपूर्वकं कृत्योपदेशमाह
नि-अन्वितानि अर्थयुक्तानि, तानि च हेयोपादेयाभिधाय
कानि, अर्थादागमवचांसि , यद्वा--मुमुक्षुभिरर्थ्यमानत्वादसुणिया भावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य।
थों मोक्षस्तत्र युक्तानि-उपायतया सङ्गतानि अर्थ वा-- विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो॥६॥ । भिधेयमाश्रित्य युक्तानि--यतिजनोचितानि शिक्षत-- श्रुत्वा-आकर्य अभावं-नमः कुत्सायामपि दर्शना
अभ्यस्यत, प्रपञ्चिताविनेयानुग्रहाय, व्यतिरेकत आहदशोभनं भावं सर्वतो निष्काशनलक्षणं पर्यायं 'साणस्स'
निरर्थकानि--उक्नविपरीतानि डित्थडवित्थादीनि , त्ति प्राकृतत्वादिवेत्यस्य गम्यमानत्वात् शुन्या इव सूक- १- सूकर शब्दो दन्त्यादिस्तालव्यादिश्च ।
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विणय
यज्ञा- वैश्यिक वात्स्यायनादीनि स्त्रीकथादीनि वा 'तुः ' पुनरर्थे, वर्जयेत् — परिहरेत् । इह च निशान्त इत्यनेन प्रशमादीनामुपलक्षितत्वात् तेषां च दर्शनाविनाभावित्वाद दर्शनस्य च जिनोभावभज्ञानरूपत्वात् तस्यैव दर्शविनयत्वात् अर्थतो दर्शनचिनयो दर्शितः । उहि मा “दब्वाण सव्वभावा, उवइट्ठा जे जहा जिदेिहिं । तं तह सद्दहर गरो, दंसणविणश्रो हवति तम्हा ॥ १ ॥ " शेपेण तु भुतज्ञानशिक्षाऽभिधायिना ज्ञानदर्शनविनय उक्तः, गाणं सिक्ख गाणं गुणेइ गाणेण
तत्स्वरूपमाहसि सूत्रार्थः ॥ ८ ॥
(१९६०) अभिधानराजेन्द्रः ।
कथं पुनरर्थयुक्तानि शिक्षेतेत्याहअणुसासो न कुप्पा, खेति सेवेज पंडिए । बालहिं सह संसरिंग, हासं कीडं च वञ्जए ॥ ६ ॥ 'अनुशिष्ट' इति अर्थयुक्तानि शिक्ष्यमाणः कथञ्चित् स्खलितादिषु गुरुभिः परुषोक्त्याऽपि शिक्षितः न कुप्येत् न कोपं गच्छेत् किं तर्हि कुर्यादित्याह - क्षान्ति - परुषभाषणादिसह नात्मिकां सेवेत - भजेत, पण्डा- बुद्धिः सा संजातास्येति पण्डितः तथा चु-वाले शीलहीनैर्वा पा
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स्थादिभिः सह समं 'संसरिंग' ति प्राकृतत्वात्संसर्ग, इसने दासस्तं, कीट - अन्ताक्षरिकाप्रहेलिकादानादिजनितां वर्जयेत्परिहरेत् सर्वेषामप्येषां विशिष्टशक्षातिहेतुत्वात् लोकागमविरुद्धत्वाश्चेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ पुनरन्यथा विनयमाह
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माय चंडालियं कासी बहुयं मा य आलवे । काले य अहिजित्ता, तत्तो काइज इक्कत्रो ॥ १०॥ 'मा' निषेधे, चः समुच्यये पर कोचस्तद्वशादलीकम्-अनुताप चराद्वाली, भवालीका सुपलक्षणमेतत् यद्वा चण्डेनाssलमस्य चण्डेन वा श्रलितश्वण्डालः, स चातिकरस्वाण्डालजातिस्तस्मिन् भर्व चाराडालिकं क मेति गम्यते, अथवा - अचरा ! सौम्य ! अलीकम्-न्यथात्वविधानादिभिरसत्यं, गुरुवचनमागमं चेति गम्यते : मा कार्षीः मा विधाः, भगवदुद्दिष्टतिलोत्पाटकस्वेच्छालापिगोशालकवत्, बहेव बहुकम् अपरिमित मालजालरूपं 'मा च' इति प्राग्वत् श्राङिति स्त्र्यादिकथाऽभिव्यात्या लपेत्-भाषेत, बालापनात् ध्यानाध्ययनक्षितिवातक्षोभादिसम्भवात् किं पुनः कुर्यादित्याह - कालः- अध्ययचः - पुनरर्थे श्रधीनायबसरः प्रथमपौरुष्यादिस्तेन, " ततः अध्ययत्य- पठित्वा, नात्, अनन्तरमिति गम्यते, ध्यायेत्- चिन्तयेत्, 'एककेति भावतो रागद्वेषादिसाहित्य रहितः इज्यतस्तुविचित्रादिसंस्था, हत्थे हि चारा डालकरस्थानमधीतार्थस्थिरीकरणं च कृतं भवतीति भावः । इह च पादत्रयेण साक्षाद्वाग्गुप्तिरुक्का, ध्यायेदित्यनेन मनोगुप्तिः, श्रयपादोव्याख्यानद्वयेन तु कायगुप्तिरपि एताश्च चारित्रान्न एव यदुक्रम - पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहि हि गुदि । एस चरितायारी, श्रद्धविहो होद पायो ॥२॥ न च चारित्राचारस्तत्त्वतश्चरित्रांव
प्रच्छनाद्युपलक्षणमेतत्,
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नयादतिरिच्यते इति देशतस्तस्याप्यनेनाभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥
इत्यमकृत्यनिषेधः कृत्यविधिश्चोपदिष्टः कदाचिदेतद्विपयसम्भवे च किं करणीयमित्याह
ग्रहच्च चंडालियं कट्टु, न निरहविअ कण्हुइ | कडं कडं ति भासिआ अकडं नो कर्ड वि य ॥। ११ ।। ग्राहत्य कदाचित् चण्डालिकं च चाण्डालिकं चोलरूपम्, यद्वा परडवालीकं व बडाली इत्वा विधाय वीत न कृतमेवेति नापलपेत्, कदाचिदपि यदा परैरुपलक्षितो यदा वा नोपलक्षितस्तदा ऽपीत्यर्थः कि त कुर्या दित्याह - कृतम् - विहितं चाण्डालीकादि कृतमिति - इति कृतमेव, न भयलज्जादिभिरकृतमपि भाषेत -: - ब्रूयात्, अकृतम्तदेयाविहितं नोकृतमिति-अकृतमेव भाषेत, न तु मायोपरोधादिना कृतमपि, अन्यथा मृषावादादिदोषसम्भवात्, उपलतत्वाचास्य बहुनालपनकालाध्ययनादिविपर्यसम्भ येऽप्येतदेव कृत्यम् । इदं चात्राकृतं कथञ्चिदतिचारसम्भये साधकुर्वन् स्वयं गुरुसमीपमागत्य 'जद बालो जपतो जमकर्ज व उज्धं मति से तह झालोया, मायाभयविमुक्का उ ॥ १ ॥ " इत्याद्यागममनुस्मरन् कथचित् परैः प्रतीतमप्रतीतं वा मनःशत्वं यथावदालोचयेत् ततानेनान्तरतपो उन्तरगताऽऽलोचनाख्यप्रायश्चितभेदाभिधानम् अनेन च शेषतपोभेदानामप्युपलचितत्वात् तपो विनयमाद इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥
विषय
देवं पुनः पुनरुपदेशाद् यदेव गुरोरुपदेशस्तदेव प्रचर्तित निवर्तयितव्यं चेति स्पादाशङ्का, तदपनोदायाहमा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दमाइन्नो, पावगं परिवञ्जए ||१२||
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मा-निषेधे, गलिः - अविनीतः स चासावश्वश्च गल्यश्वः स इव, कशतीति कशस्तम् उपलक्षणत्वात् कशप्रहारं वचनम् प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयमुपदेशं, प्रस्तावाद् गुरूणाम्, इच्छेत् श्रभिलषेत्, पुनः पुनः- वारं वारम् कोऽभिप्रायः १-यथा गस्यश्वो दुर्विनीततया न पुनः पुनः कश्महारं विना प्रवर्तते निवर्तते वा, नैवं भवताऽपि प्रवृत्तिनिवृत्त्योः पुनःपुनगुरुवचनमपेक्षणीयं, किन्तु 'कसं व दमाइराणे' ति इवश[दस्य भिन्नक्रमत्वात् कसं धर्मयष्टि ट्राऽऽकीर्णो वि नीतः स चेह प्रस्तावादश्वः स इव, सूचकत्वात् सूत्रस्य, सुशिष्यो गुरोराकारादि दृष्ट्रा, पापमेव पापकं, गम्यमानत्वादनुष्ठानं परिवर्जयेत् सर्वप्रकारं परिहरेत् उपलक्षणस्वादितरच्चानुतिष्ठेत् पठन्ति च पावगं पडियार सि तत्र च पुनातीति पावकं शुभमनुष्ठानं प्रतिपद्येत -- श्रङ्गीकुर्यात् इहापि प्राम्यदितरत् परिहरेत् किमुक्रं भवति - यथा 33 फीस] [5] कशग्रहणादिनाऽऽरोहकाभिप्रायमुपलभ्य कशेनाताडित एव तदभिप्रायानुरूपं प्रवर्तते निवर्तते वा, तथा सुशिष्ये साध्या कारादिभिराचार्याशयमवगस्यबचनेनाप्रेरित एवं प्रवर्तते मा भूद् यथाऽऽरोहकस्येव गुरोरायास इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥
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पिणय अभिधानराजेन्द्रः।
विषय अत्र च नियुकिकृत गल्याकीर्णों व्याचिख्यासुः ' तत्त्वमे-1 णितो-छारं आणेह त्ति, पाणए लोयं काऊण पग्याषित्रो पर्यायाख्या' इति तत्पर्यायानाह
वयंसगा से अधिई काऊण पडिगया । तेऽवि उवस्मयं गंडी गली मराली, अस्से गोणे य हुँति एगट्ठा ।।
नियगं गया, विलंबिए सूरे पंथं पडिलेहेर, परं पच्चूसे व
बामि त्ति विसज्जियो। पडिलेहिउमागो। पच्चूसे निग्गया आइने य विणीए, य भद्दए वावि एगट्ठा ॥ ६४ ॥
पुरतो बञ्चति ति भणितो । वञ्चतो पंथातो फिडितो चंष्टगच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो धि- रुद्दो खाणुए पक्खलितो। रुसिएण हा दुटु सेह ति दंडएण हायोगमनेनेति गण्डिः , गिलत्येव केवलं न तु वहति ग- मत्थर पाहतो, सिरं फोडितं । तहावि सम्मं सहा विग्छति वेति गलिः, नियत इव शकटादौ योजितो राति मले पहाए चंडरहेण रुहिरोग्गलंतमुखाणो विट्ठो । हा! चवदाति लत्तादि लीयते च भुवि पतनेनेति मरालि:- दुटु कयं ति संवेगमावरणेण खामित्रो।" एवं गुरुप्रसादात् अमीच अश्वे तुरगे गोणे च बलिवई भवन्ति एका
चण्डरुद्राचार्यशिष्यस्येव सकलसमीहितावाप्तिरिति मत्या ऑः-एकोऽर्थो-दुष्टतालक्षणः अनन्तरोक्कनीत्या प्रवृत्तिनिमि
मनोवाकार्यगुरुचित्तानुवृत्तिपरैर्भाव्यमिति । अनेनानम्तरेण तभेदेऽप्यमीषामिति कृत्वा । आकार्यते-व्याप्यते विनयादि
च सूत्रेण प्रतिरूपयोगयोजनात्मक औपचारिको विनय उर. भिर्गुणैरिति आकीर्णः चः-पूरणे, विशेषेण नीतः-प्रापितः
इति सूत्रार्थः ॥ १३॥ प्रेरकचित्तानुवर्तनादिभिः श्लाघादीति विनीतः, भाति-शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिवृत्तिमिति भद्रः, स
कथं पुनर्गुरुचित्तमनुगमनीयमित्याहपव भद्रकः, चशब्दः इहाप्यश्वे गोणे चेति विषयानुवृत्त्य- णाऽपुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए। र्थः, अपिशब्द इह पूर्वत्र चानुक्लपर्यायान्तरसमुच्चयार्थः, ए
कोहं असचं कुबिजा, धारिजा पियमप्पियं ॥ १४॥ कार्था इति प्राग्वदिति गाथार्थः ॥ ६४॥ न चैवं गल्याकीर्णतुल्यशिष्ययोर्गुरोरायासजननाजनने एव
नापृष्टः-कथमिदम् ? इत्याद्यजल्पितः, गुरुणेति गम्यते. गुणदोषौ , किन्तु-गलिसदृशस्यानाश्रवत्वादेराकीर्णतुल्यस्य
व्यागृणीयात्-वदेत् , तथाविधं कारणं विना, किञ्चित्चित्तानुगतत्वाद्रेः सम्भव इति तद्वशतः कोपनप्रसादने अ
स्तोकमपि, पृष्टो वा न अलीकम्-अनृतं वदेत् कारपि । अत एवाह
णान्तरेण च गुरुभिरतिनिर्भत्सितोऽपि न तावत् कुध्येत्
कथंचिदुत्पन्नं वा क्रोधम् असत्यं-तदोत्पन्नकुविकल्पविअणासवा थूलवया कुसीला,मिउंपि चंडं पकरंति सीसा।
फलीकरणेन कुर्वीत-विदध्यात्, कथम् ?-धारयेत्चित्ताणुया लहु दक्खीववेया,पसायए तेहु दुरासयं पि।१३। स्थापयेत् , मनसीति शेषः, 'पियमप्पियं' ति इवाप्योर्ग'श्रणासव' ति श्रा-समन्तात् शृण्वन्ति-गुरुवचनमाक- म्यमानत्वात् प्रियमिवेष्टमिव सदा गुणकारणतया अप्रियन्तीत्याश्रवाःन तथा प्रतिभाषाविषयस्य तस्याश्रवणा- यमपि कर्णकटुकतया तदाऽनिष्टमपि , गुरुवदनाश्रवाः, पठ्यते च-'श्रणासुण' त्ति अस्यार्थः स एव चनमिति गम्यते, अत्र- श्लोकपूर्वार्धन वाचा यथा स्थूलम्-अनिपुणं यतस्बातो भाषितया वचो येषां ते स्थू- गुरुरनुवर्तनीयः तथोक्तमुत्तरार्धेन तु मनसेति । अथलवचसः 'कुशीला' इति दुःशीलाः, मृदुमपि-अकोपनमपि वा-नापृष्ट इति-न गुरुणैव किन्तु येन केनचिदपीत्यादि कोमलालापिनमपि वा चण्डं-कोपनं परुषभाषिणं वा प्रकुर्व- क्रमेण पादत्रयं सामान्येन प्राग्वन्नेयं, नवरं क्रोधम् उपलन्ति-प्रकर्षेण विदधति शिष्याः-विनेयाः, सम्भवति ह्येवंवि- क्षणत्वान्मानादिकषायं चोत्पन्नमसत्यं कुर्वीत । क्रोधासत्यधशिष्यानुशासनाय पुनः पुनर्वचनात्मकं खेदमनुभवतो मृ- तायामुदाहरण संप्रदायः-" कस्स वि कुलपुत्तयस्स भाया दोरपि गुरोः कोप इति । इत्थं गलितुल्यस्य दोषमभि- वेरिएण वावाइो । तो सो जगणीए भरणइ-पुस ! धायेतरस्य गुणमाह-चित्तं-हृदयं प्रक्रमात् प्रेरकस्यानुग- पुत्तघाययं घायसु ति, तो सो तेण जीवग्गहो गिरिहऊच्छन्ति कसपाताननपेक्ष्य जात्याश्ववदनुवर्तयन्तीति चित्ता
ण जणणीसमीवमुवणीश्रो । भणिो अणेण--भायघायय ? नुगाः लघु-शीघ्रमेव दक्षस्य भावो दाक्ष्यम्-अविलम्बितका
कहिं ते पाहणामि त्ति, तेण भणिो -जहिं सरणागया रित्वं तेन ' उववेय' त्ति उपपेता युक्ता दाक्ष्योपपेताः प्रसा- आहम्मंति, तेण जणणी अवलोकिया, ताए भरण-पु. दयेयुः सप्रसादे कुर्युः 'ते' इति शिष्याः, 'हुः' पुनरर्थः, दुः- त्त ! सरणागया श्राहम्मति । तेण भरणह--कहं रोसं खेनाऽऽश्रयन्ति तमतिकोपनत्वादिभिरिति दुराश्रयस्ताप,
सफलं करेमि ति । तेण भएणइ--ण पुत्त ! सव्यस्थ प्रक्रमाद् गुरुं, किं पुनरनुत्कटकषायमित्यपिशब्दार्थः। अत्रोदा. रोसो सफलो कज्जह । पच्छा सो तेण विसज्जिो ।" हरणं चण्डरुद्राचायशिष्याः, तत्र च सम्प्रदाय:-"अवन्ती
एवं क्रोधमसत्यं कुर्वीत, मानादिविफलीकरणे उदाहरजणवए उजेणीणयरीए राहवणुजाणे साहुणो समोसरिया,
णान्यागमादवधारणीयानि, इत्थमुदितानां क्रोधादीनां तेसिं सगासं एगो जुवा उदत्तवेसो वयंससहिओ उवागतो,
विफलीकरणमुपदिष्टम् । सम्प्रति यथैषामुदय एव न सो ते वंदिऊण भणति-भयवं! अम्हे संसाराउ उत्तारेह
स्यात् तथोपदेष्टुमाह- धारयेत्-स्वरूपेणावधारयेत् , पव्वयामि ति, एस एमेव पवंचेति त्ति काऊण 'घृष्यतां क- न तद्वशतो राग द्वेषं वा कुर्यात् , प्रियं-प्रीत्युत्पादक लिना कलिरि' ति चंडरुदं पायरियं उवदिसन्ति, एस ते शेषजनापेक्षया स्तुत्यादि, अप्रियं तद्विपरीतं निन्दादि. नित्थारेहि त्ति । सोऽवि य सभावेण फरुसो, तो सो वं- तत्रोदाहरणं संप्रदायः-"असिवोवद्दुए णयरे तिनि भूदिऊण भणइ-भगवं! पवावेह (दि) ममं ति, तेण भ- यवाइया रायाणमुवगया, भणंति-अम्हे असिवं उपसमेमो
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विषय अभिधानराजेन्द्रः।
विषय ति, राणा भणियं-सुमिणो केणोवाएणं ति । तत्थेगो भ-हिसं भागेण प्रागमिस्साह, मजदत्ता वि एवं वेव सामत्थेगह-अस्थिमहेगं भूयं , तं सुरुवं विउविऊण गोपुररत्थाह- हिंति, एवं तेहिं विसं पक्वित्तं, आइयो य अत्थं गतो, मु पडियडा , तं न णिहालयव्वं , तं णिहालियं रूसह । ते भायरो न भुत्ता, इयरे परोप्परं विससंजुतेण मज्जजो पुण तं निहालेति सो विणस्सा, जो पुण पिच्छिऊण मंसेण उवभुत्तेण मया , मरिऊण य कुगई गया , इयरे इह अहोमुद्दो ठाइ सो रोगाओ मुच्चहराया भणति-अलाहि परलोए य सुहभागिणो जाया, एवं ताव जिभिदियदमे, पएण भइरोसणेणं ति। विदो भणति-महच्चयं भूयं एवं सेसेसु वि दिएसु, अप्पादंतो सुही होइ, अस्सि महति महालयं रूवं विउठवति, लबोयरं विवियकुच्छि पं- लोए परस्थ य ।" इति सूत्रार्थः ॥१५॥ चसिरं एपादं विसिहं विस्सरूवं अट्टहासं मुयंतं गा
किं पुनः परिभावयन्नात्मानं दमयेदित्याहयंतं पणच्चंतं, तं विक्रितरूपं दळूणं जो पहसति पवंचेति
वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । घा तस्स सत्तहा सिरं फुटर, जो पुण तं सुहाहिं वायाहिं अभिणंदति धूवपुष्फाइहिं पूएइ सो सम्वहाऽऽमयातो
माऽहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहिं बहेहि य ॥१६॥ मुखाइ । राया भण-अलमेपणं पि। ततितो भणइ--मम
वर-प्रधानं मे-मया आत्मा-अभिहितरूपस्तदाधावि एवंविहमेघ खातिविसेसकरं भूयमत्थि, पियप्पियका- ररूपो चा देहः, 'दान्त' इति दमं प्राहितः असमञ्जसरिणं दरिसणादेव रोगेहिंतो मोचयति , एवं होउ ति- चेष्टातो ब्यावर्तितः, केन हेतुना ?-संयमेन-पश्चाश्रवसेण तहा कए असिवं उवसंतं । एवं साधू वि आसार- विरमणादिना, तपसा च-अनशनादिना, चशब्दो द्वयोरपत्ते सति सदादिपडिकूलत्ते च परोहिं परिभूयमाणो प-1 प्यनपेक्षितायां मुक्तिहेतुताविरहात् परस्परसापेक्षतासूचनापंचिजमाणो हसिज्जमाणो वा तथा थुबमाणो वा पूइज्ज-| र्थः, सम्यग्-शानसमुथयार्थो वा-विपर्यये दोषदर्शनायाहमाणो वा तं पियापियं सहेत"। अनेन च मनोगुप्त्यभिधा- | 'मा' प्राग्वत् , 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशः, परैः-आत्मव्यमाचारित्रविनय उक्त इति सूत्रार्थः॥१४॥
तिरिक्तः 'दम्मंतो'त्ति आर्षत्वाहमितः, कैः१-बन्धनःआह-क्रोधासत्याकरणादिभिरात्मदमनोपाय उक्तः, तत्र |
बधादिविरचितैर्मयूरयन्धादिभिः वधैश्व-लतालकुटादिताच बाह्येष्वपि दमनीयेयु सत्सु किमिति तस्यैव दमनोपाय |
उनः , अत्रोदाहरणम्-" सेयणो गंधहत्थी अडवीए हउद्दिश्यत ?, किं वा तहमने फलमिति , अत्रोच्यते-- थिजूहं महलं परिवसह, तत्थ जूहवती जाए जाए गयकअप्पामेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो ।
लभए विणासह, तत्थेगा करिणी पावराणसत्ता चिंते
जह कई चि गयकलभतो जायइ. सोऽपि एतेण विणासिअप्पादंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥१५॥
जिहि त्ति काउं लंगति ओसरह , जूहाहिवेण जूह छुम्भरअतति--सततं गच्छति शुद्धिसंक्लेशात्मकपरिणामान्तरा-1 पुणो ओसरह, ताहे बितियततियादिवस जूहेण मिला, णीत्यात्मा तमेव दमवेत्--इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन मनो- ताहे पगं रिसिभासमपयं विटुं, सा तत्थ अश्लीणा संवझेतरविषयेषु रागद्वेषवशतो दुएगजमिवोन्मार्गगामिनं स्वयं णिया य प्रणाएरिसो , सा पसूया गयकलहं, सो तेहिं विवेकाशेनोपशमनं नयेत् , पठन्ति च-'अप्पा चेव दमे- रिसिकुमारहिं सहिश्रो पुष्फारामं सिंचा, सेयणउत्ति से नायब्बो' ति स्पष्टम् , क्रिमेवमुपदिश्यत इति श्राह-प्रात्मैव, मं कयं । वयत्थो जातो , जहं दळूण जूहपति हतूण जुई हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् ‘खलु' इति यस्मात् दुर्दमः-दुर्ज- णण पडिवरणं । गतृण य अणेण सो पासमो विणासितो, यः , ततस्तहमने दमिता एव बाह्यदमनीया इति , न तह- मो अन्नावि कावि एवं काहिति ति। ताहे तेरिसितोरुसिया, मनमुपदिश्यत इति भावः , उक्तं हि--" सव्वमप्पे जिए पुप्फफलगहियपाणी सेणियस्स रएणो सयासं उवगया । जियं" कः पुनरेवंगुण इत्याह-आत्मा दान्त-उप- कहियं चणेदि-परिसो सव्वलक्खणसंपुराणो गंधहत्थी सेशममानीतः , सुखमस्यास्तीति सुखी , भवति , क?--- यणतो णाम । सेणिो हत्थिगहणाय गतो। सो य हत्थी स्मिन्-इत्यनुभूयमानायुषि विनेयाध्यक्ष लोके--भवे प- देवयाए परिगहितो, ताहे (प) श्रोहिणा श्राभोइयं-जहारत्र च इत्यागामिनि भवान्तरे, दान्ताऽऽत्मानो हि अवस्सं एसो घेप्पति, ताहे ताए सो भनाइ-पुत! वरं ते अपरमर्षय इहैव सुरैरपि पूज्यन्ते , अदान्ताऽऽत्मानस्तु प्पा दंतो, ण यऽसि परेहिं दमंतो बंधणेहिं वहहि य । सो एवं चौरपारदारिकादयो विनश्यन्ति , तथा--"सहेण मो भणिमो सयमेव रत्तीए गंतूण पालाणस्वभं अस्सितो " सवे-ण पयंगो मायरो य गंधेणं । आहारेण य यथा हि अस्य स्वयन्दमनान्महागुणः तथा मुक्यर्थिनोऽपि मच्छो, बज्झर फरिसेण य गइंदो ॥१॥” तद्वि- विशिष्टनिर्जरातः , इतरथा त्वकामनिर्जरातो न तथेति सूपर्ययतस्तु-इह परत्र च नन्दन्ति , तत्र चोदाहरणम्-“दो | प्रार्थः ॥१६॥ भायरो चोरा, तेसिं उबस्सए साहुणो वासावास उवाग. गुर्वनुवृत्त्यात्मकं प्रतिरूपविनयमाहया,तेहिं वासरत्तपरिसमत्तीए गच्छंतेहिं तेसिं चोराणं अन्नं वयं किंचि अपडिवजमाणाणं रतिं न भोत्तवं ति
पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । घयं दिलं । अन्नया तेहिं उद्दारहिं सुबहुयं गोमाहिसं आ
प्रावि वा जइ वा रहस्से, नेव कुजा कयाइ वि ॥१७॥ पीयं , तत्थ अन्ने महिसं मारेउ पइउमारद्धा , अन्ने मज-। प्रत्यनीकम् इति-प्रतिकूलम् , चः पूरणे , चेष्टितमित्युस्स गया , मंसहत्ता संपहारेन्ति-अद्धगे मंसे विसं पक्खि- पस्कारः , भावप्रधानत्याद्वा निर्देशस्य प्रत्यनीकत्वं केषावामो तो मजात्ताणं दाहामो , तभो भम्हं सुबहु गोमा-म्-बुद्धानाम्-अवगतवस्तुतस्वानां गुरुणामिति यावत्,
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(१९६३) अभिधान राजेन्द्रः ।
विणय
कया ?, वाचा, किं त्वमपि किञ्चिजानीषे १, इत्येवंरूपया विपरीतप्ररूपणायां प्रेरितस्त्वयैयैतदित्थमस्माकं प्ररूपितमित्याद्यात्मिकया वा, अथवा कर्मणा - संस्तारकातिक्रमणकरचरणसंस्पर्शनादिना श्रविः - जनसमक्ष प्रकाशदेश इति यावत्, यदिवा - रहस्ये विविक्लोपाश्रयादी 'न' इति निषेधे एव - श्रवधारणे, स च ' शत्रोरपि गुणा ग्राह्याः, दोषा वाच्या गुरोरपी' ति कुमतनिराकरणार्थः कुर्यात् इतिविदध्यात् कदाचित् - परुषभाषणादावपीति सूत्रार्थः ॥ १७॥ पुनः शुश्रूषणात्मकं तमेवाह
ण पक्खओ ण पुरओ, व किच्चा ण पिट्ठओ । न जुंजे ऊरुणा ऊरुं, सयणे व पडिस्सुणे ||१८|| न पक्षतः -- दक्षिणादिपक्षमाश्रित्य उपविशेदिति सर्वत्रोपस्कारः तथोपवेशने तत्पङ्किसमविशतः तत्साम्यापादनेनाविनयभावात्, गुरोरपि वक्रावलोकने स्कन्धकन्धरादिवाधासम्भवात् न पुरतः - अग्रतः, तत्र वन्दकजनस्य गुरुवदनानवलोकनादिनाऽप्रीतिभावात् नैव इति पूर्ववत् कृतिः- वन्दनकं तदर्हन्ति कृत्याः दण्डादित्वाद् यप्रत्ययः' ते चार्थादाचार्यादयस्तेषां पृष्ठतः -- पृष्ठदेशमाश्रित्य द्वयोरपि मुखादर्शने तथाविधरसवत्ताऽभावादिदोषसम्भवात् न युज्यात्-न संघट्टयेद् प्रत्यासन्नोपवेशादिभिः, ऊ रुणा - श्रात्मीयेन, ऊरुकृत्य संबन्धिनं तथा करणे ऽत्यन्ताविनयसम्भवात् उपलक्षणं चैतत् शेषाङ्गस्पर्शपरिद्वारस्य शयने शय्यायां शयित श्रासीनो वेति शेषः, किमित्याह-न प्रतिशृणुयात्, किमुक्तं भवति ? - कदाचिच्छय्यागतो गुरुणाssकारित उक्तो वा कृत्यं प्रति न तथास्थित एवावश्या कुर्म एवमित्यादिवचनतः प्रतिजानीयात्, किन्तु - गुरुवचन समनन्तरमेव सम्भ्रान्तचेता विनयविरचितकराञ्जलिः समीपमागत्य पादपतनपुरस्सरमनुगृहीतोऽहमिति मन्यमानो भगवनिच्छामोऽनुशिष्टिमिति वदेदिति सूश्रार्थः ॥ १८ ॥
पुनस्तमेवाह
नेत्र पन्हत्थियं कुआ, पक्खपिंड व संजए ।
"
पाए पसारिए वाऽवि, न चिट्टे गुरुगंतिए ॥ १६ ॥ नैव पर्यस्तिकां - जानुजङ्गो परिवत्रवेष्टनाऽऽत्मिकां कुर्यात्, पक्षापण्डं या बाहुद्वयकायपिण्डात्मकं संयतः - साधुः तथा पादौ प्रसारयेत् वाऽपि नैव, वा-समुच्चयार्थः, अपि:- किं पुनरित इतो विक्षिपेदिति निदर्शनार्थः । श्रन्यच्चम तिष्ठेत् नाऽऽसीत, क ?-गुरूणामन्तिके इति प्रक्रमादतिसन्निधौ, किन्तु चितदेश एव, अन्यथाऽविनयदोषसम्भवात्, अथवा 'पाए पसारिए वावि' त्ति पाठात् पादौ प्रसारितौ वाऽपि कृत्वेति शेषः, एकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रसार्य या न तिष्ठेद् गुरूणामन्तिके उचितप्रदेशेऽपीति, उपलक्षणं चैतदण्डपादिका ऽवष्टम्भादीनामिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ पुनः प्रतिश्रवणविधिमेव सविशेषमाहचाय रिएहि वाहिंतो, तुसिणीओ य कयाइ वि । पसायट्ठी नियागट्ठी, उवचिट्ठे गुरुं सया ॥
२० ॥
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विषय
श्राचार्यैः उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिभिः 'वाहितो ति व्याहृतः शब्दितः 'तुसिणीश्रो' ति तूष्णीकः तूष्णीशीलः न कदाचिदपि ग्लानाद्यवस्थायामपि भवेदिति गम्यते किन्तु - 'धन्यस्योपरि निपत त्यहितसमाचरणधर्मनिर्वाणी । गुरुवदनमलयनिसृतो, वचनरसश्चन्दनस्पर्शः ॥ १ ॥ ' इति । प्रसादोऽयं यदन्यसद्भावेऽपि मामादिशन्ति गुरव इति प्रेक्षितुम्-श्रालोचितुं शीलमस्येति प्रसादप्रेक्षी, पाठान्तरतः प्रसादार्थी वा गुरुपरितोषाभिलाषी 'खियागट्ठी' ति पूर्ववत्, उपतिष्ठेत मस्तकेनाभिवन्द इत्यादि वदन् सविनयमुपसपैंत्, गुरुं सदा सर्वकालमिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥
तथा
मालवंते लवंते वा, ग खिसीजा कयाइ वि । चइत्ता असणं धीरो, जत्रो जत्तं पडिस्सुखे ॥ २१ ॥ श्राङिति ईषलपति वदति लपति वा वारमनेकधा वाऽभिदधति न निषीदेत्-न निपराणो भवेत् कदाचिदपि - व्याख्यानादिना व्याकुलतायामपि, किन्तु ? - त्यक्त्वा - अपदाय आसनं - पादपुञ्छनादि, धिया राजते धीरः, अक्षोभ्यो वा परीषादिभिः, 'यत' इति यतो यत्नवान्' जत्तं' ति प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपे तस्य च द्वित्वे यहुरव आदिशन्ति तत् प्रतिशृणुयात् श्रवश्यविधेयतया श्रभ्युपगच्छेदिति यावत् । यद्वा-यत इति यत्र गुरवः, तत्र गत्वेति गम्यते यात्रां - संयमयात्रां प्रस्तावाद् गुरूपदिष्टां प्रतिश्टणुयादिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ पुनः प्रतिरूपविनयमेवाऽऽहआसणगण पुच्छिआ, रोत्र सिञ्जागयो कया । श्रागमुकु संतो, पुच्छिजा पंजलीगडे ॥ २२ ॥ ' श्रासनगतः' इति आसनासीनो न पृच्छेत्, सूत्रादिकमिति गम्यते नैव शय्यागत इति संस्तारकस्थितः, तथाविधावस्थां विनेत्युपस्कारः, 'कदाचिदपि बहुश्रुतत्वेऽपि किमुक्तं भवति ? - बहुश्रुतेनापि संशये सति 'न'- न प्रष्टव्यम्, पृच्छताऽपि नावज्ञया, सदा गुरुविनयस्यानतिक्रमणीयत्वात् तथा चाऽऽगमः - 'जहादि अग्गी जलं न मंसे, णाणाहुई मंतपयाहि सित्तं । एवायरि (री) यं उचचिट्ठाजा, श्रणतणाणोवगो ऽवि संतो ॥ १ ॥" किं तर्हि कुर्यादित्याह श्रगम्य-गुर्वन्तिकमेत्य उत्कुटुक इति-मुक्लासनः, कारणतो वा पादपुञ्छनादिगतः सन् शान्तो वा पृच्छेत्- पर्यनुयुञ्जीत, सूत्रादिकमितीहापि गम्यते, प्रकर्षेण अन्तःप्रीत्यात्मकेन कुतो - विद्दितोऽञ्जलिः उभयकरमीलनात्मकोsनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच्च कृतशब्दस्य परनिपातः, 'पंजलिउड' ति पाठे च प्रकष्टं भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुट इति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥
ईदृशस्य शिष्यस्य गुरुणा यत् कृत्यं तदाहएवं विणयजुत्तस्स, सुत्तं अत्थं च तदुभयं ।
पुच्छ माणस्स सिस्सस्स, वागरिज जहासुयं ॥ २३ ॥ एवम् इत्युक्तप्रकारेण विनययुक्तस्य-विनयान्वितस्य सूत्रकालिको कालिकादि श्रर्थ च तस्यैवाभिधेयं तदुभयम्-स्प्रार्थोभयं पृच्छतः -- शीप्सतः शिष्यस्य स्वयं दीक्षितस्यो
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विणय अभिधानराजेन्द्रः।
विणय पसम्पनस्य वा व्यागृणीयात्-विविधमभिव्याप्त्याऽभिदध्या-| पचारवचसा, 'शीलेन वे' ति पाठः, तत्र शीलं-महावतादि त् व्याकुर्याद्वा-प्रकटयेत् यथा येन प्रकारेण श्रुतम्-श्राक-1 उपचारात्तजनक वचोऽपि शीलं तेन, यद्वा-शील-समापित, गुरुभ्य इति गम्यते, न तु स्वबुद्धयैवोत्प्रेक्षितमि-1 धौ, ततः शीलेन-समाधानकारिणा-भद्र! भवादशामित्यभिप्रायः । अनेन च-"आयारे सुयविणए, विक्खिवणे चेव दमनुचितमित्यादिना, परुषेण-कर्कशेन , उभयत्र वच. होर बोजवे । दोसस्स य निग्याए,विणए चउहेस पडिवत्ती| सेति गम्यते, तत् प्रतिशृणुयात्--विधेयतया अङ्गीकुर्या॥१॥" इत्यागमाभिहितचतुर्विधाचार्यविनयान्तर्गतस्य, दित्युत्तरेण सम्बन्धः, किमभिसन्धायेत्याह-मम लाभः"सुसं अत्यं च तहा, हियकरणिस्सेसयं च वापर। अप्राप्तार्थप्राप्तिरूपः, यन्मामनाचारकारिणममी शासन्तीति एसो चउम्विहो खलु, सुयविणो होहणायब्धो ॥१॥ 'पहाए'त्तिएकारस्यालाक्षरिपकत्वात् प्रेक्ष्य-पालोच्य प्रेक्षया सुतं गाहेति उज्जुत्तो, अत्थं च सुणावए पयतेणं । था एवंविधबुद्धया 'पयतो' ति प्रयतः-प्रयसवान् पदतो जं जस्स होइ जोग, परिणामगमाइ तं तु सुयं ॥२॥
धा-तथाविधानुस्मयमाणसूत्रालापकादिति सूत्रार्थः ॥२७॥ निस्सेसमपरिसेसं, जाव समतं च ताव वापर ।
किमिह परत्र चात्यस्तोपकारि गुरुवचनर्माप कस्यचिदएसो सुयविणो खलु, निद्दिट्ठो पुब्वसूरीहिं"॥३॥
न्यथा सम्भवति ?, येनैवमुपदिश्यते इत्याहइस्याद्यागमाभिहितस्य श्रुतविनयस्य साक्षादभिधानम्,यच अणुसासणमोबायं, दुक्कडस्स य पेरणं । विनयं प्रादुष्करिष्यामीति प्रतिक्षाय 'अग्भुट्ठाणं अंजलि'तथा 'ईसणणाणचरित्ते' इत्यादिना प्रन्थेनैव न तस्य शुद्धस्वरूपा
हियं तं मत्रए पनो, वेस्सं भवइ ऽसाहुणो ॥२८॥ भिधानं, किंतु-णिसंते सिया अमूहरी' इत्यादि लिड़
अनुशासनम्-उक्तरूपम् ‘ोवाय' ति उपाये-मृदुपतादिपदैरुपदेशरूपतया, तदपि प्रसङ्गत एव यथायोगमा
रुषभाषणादी भवमोपायम् , यद्वा-ओबायं' ति सूत्रत्वात् चार्यविनयोपदर्शनपरमिति भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥२३॥ उपपतनमुपपातः-समीपभवनं तत्र भवमोपपातं गुरुसंस्ताउत्त० पाई०१०। (पुनः शिष्यस्य वाग्विनयः 'भासा'
रास्तरणविश्रामणादिकृत्यं दुष्कृतस्य च-कुत्सिताचशब्दे पञ्चमभागे १५४५ पृष्ठे गतः।)
रितस्य प्रेरण-हा! किमिदमित्थमाचरितमित्याद्यात्मकं इत्थं स्वगतदोषपरिहारमभिधायोपाधिकृतदोषपरिहारमाह
गुरुविहितमिति गभ्यते, हितम्-इह परलोकोपकारि, तदि
त्यनुशासनादि मन्यते प्रायः-प्रज्ञावान् द्वेष्यम्-द्वेषोत्पादक समरेसु अगारेसुं, गिहसंधिसु म महापहेसु ।
भवति-जायते, कस्य ?-असाधो:--अपगतभावसाधुत्वस्य, एगो एगिथिए सद्धिं, नेव चिढे न संलवे ।। २६ ॥ तदनेनासाधोगुरुवचमस्याप्यन्यथात्वसम्भव उक्त इति समरेषु-वरकुटीषु, तथा च चूर्णिकृत्-समरं नाम- सूत्रार्थः ॥ २८॥ जत्थ हेट्टा लोहयारा कम्मं करेंति' उपलक्षणत्वादस्यान्ये
अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाहध्वपि नीचास्पदेषु अगारेषु-गृहेषु गृहसन्धिषु च- हियं विगयभया बुद्धा, फरुसमप्पणुसासणं । गृहद्वयान्तगलेषु च महापथेषु-राजमार्गादो, किमि
वेस्सं तं होइ मृढाणं, खंति सुद्धिकरं पयं ॥ २६ ॥ त्याह-एकः-असहायः एका-असहाया सा चासी स्त्री च एकत्री तया सार्द्ध-सह नैव तिष्ठेत्-असंलपन्नेव चोर्द्ध
हितम्-पथ्यं विगतभयाः-सप्तभयरहिताः बुद्धाः-अयस्थानस्थो न भवेत् , न संलपेत्-न तयैव सह संभाष कु
गततत्त्वाः , मन्यन्त इति शेषः, परुषमपि-कर्कशमपि, अनुर्यात , अत्यन्तदुष्टतोद्भावनपरं चैकग्रहणम् , अन्यथा सस
शासनं शिष्याणां गुरुविहितमिति प्रक्रमः, द्वेष्यम्-द्वेषोत्पादि हायस्यापि ससहायया अपि च खिया सहावस्थानं सम्भा
तद् इति-अनुशासनं भवति मूढानाम्-अज्ञानानां अयं चैवंविधास्पदेषु दोषायैव, प्रवचनमालिन्यादिदोषसम्भ
शान्तिः-क्षमा शुद्धिः-आशयविशुद्धता तत्करणम् , यद्वाथात्, अथवा-सममरिभिर्वर्तन्त इति समरा द्रव्यतो ज
क्षान्तेः शुद्धिः-निर्मलता शान्तिशुद्धिस्तत्करणम् , अमूढानां नसंहारकारिणः संग्रामाः, भावातु स्त्रीणामरिभूतत्वात् क्षा
विशेषतः क्षान्तिहेतुत्वाद् गुर्वनुशासनस्य , मार्दवादिनादिजीवस्वतत्यघातिमः, तासामेव दृष्टया दृष्टिसम्बन्धाः,
शुद्धिकरत्वोपलक्षणं चैतद्, अत एव पद्यते--गम्यते तरह भावसमरैरधिकारः, सप्तमी चेयम्, ततोऽयं भा-|
गुणैानादिभिरिति पदं मानादिगुणस्थानमित्यर्थः, अपार्थः-व्यसमरा हि न स्युरपि प्राणापहारिणः, भाव
थवा-परुषमपीति अपिशब्दो भिन्नक्रमः ततश्च हितमप्यासमरास्तु शानादिभावप्राणापहारिण एव, विशेषतस्त्वे
यत्यां विगतभयाद् बुद्धाद्-श्राचार्यादेः उत्पन्नमिति शेषः, काकितायाम् , तत एवमेतेष्यपि दारुणेषु भावसमरेषु सत्सु
परुषं यच्छुत्यसुखदमनुशासनम्, तत्किमिस्याह-द्वेष्य नक एकस्त्रिया सार्द्धमगारादिपु तिष्ठेत् संलपेद्वा, अने
तद्भवति मूढानां , शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ नापि चारित्रविनय एवोकः । उपदेशाधिकाराच्च न पौन
पुनर्विनयमेवाहकपत्यम् , एवमन्यत्रापि भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥२६॥ आसणे उवचिद्विजा, अनुच्चेऽकुक्कुए थिरे। कदाचित्स्खलिते च गुरुभिः शिक्षितो यत्कुर्यात् तदेवाह- अप्पुत्थाई निरुत्थाई, निसीज्जा अप्पकुक्कुई ॥३०॥ जं मे युद्धाऽणुसासंति, सीएण फरुसेण वा।
श्रासनम्-पीठादि वर्षासु ऋतुबद्धे तु पायपुष्छनं तत्र मम लाभुति पेहाए,पयो य (२) पडिस्सुणे ।। २७॥ पीठादौ उपतिष्ठेत्--उपविशेत् , अनुश्चे-द्रव्यतो नीचे यन्मां बुद्धा अनुशासन्ति--शिक्षां ग्राहयन्ति शीतेन--सो- भावतस्त्वल्पमूल्यादौ , गुर्वासनात् इति गम्यते अकुक्कुचे
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विणय अभिधानराजेन्द्रः।
विणय अस्पन्दमाने, न तु तिनिशफलकवत् किश्चिचलति , तस्य स्नेहनिगडादि, सुहतमुपकरणमशिवोपशान्तये, सुह
काराङ्गत्वात् , स्थिरे-समपादप्रतिष्ठिततया निश्चले, अ- तं वा कर्मानीकादि, सुमृतमस्य पण्डितमरणमर्तुः, तथा म्यथा सत्वविराधनासम्भवात, ईदृश्यप्यासने अल्पमु
सुनिष्ठितोऽसौ साध्वाचारविषये, 'सुलट्टि ति शोभनमस्थातु शीलमस्येति अल्पोत्थायी, प्रयोजनेऽपि न पुनः स्य तपोऽनुष्ठानमित्यादिरूपं. कारणतो वा-" पयत्तएपुनरुत्थानशीलः, निरुत्थायी-न निमित्तं विनोत्थान- क्के सि व पकमालवे, पयत्तछिन्न सि व छिन्नमालवे । पशीलः , उभयत्रान्यथाऽनवस्थितत्वसम्भवात् , एवंविधश्च यत्तलट्टे त्ति व कम्महेउयं, पहारगाढे त्ति व गाढमालवे ॥१॥" किमित्याद्द-निषीदेत्-श्रासीत् 'अप्पकुक्कुइ' त्ति अल्प
इत्याप्तोपदेशात् प्रयत्नकृतपक्वादिरूपं बदेदपीति । अस्मिश्व स्पन्दनः , करादिभिरल्पमेव चलन् , यद्वा-अल्पशब्दोऽ- पक्ष प्रातरूपयोगयोजनात्मको वाचिकविनय उक्त इति सूभावाभिधायी, ततश्वाल्पम्-असत्, 'कुक्यं' ति को
प्रार्थः ॥ ३६॥ स्कुचं-करचरणभूभ्रमणाद्यसच्चेष्टात्मकमस्येत्यल्पकोत्कु
विनय एवादरख्यापनाय सुविनीतेतरोपदेशदानतो यद्गुरोवः , अनेनाप्यौपचारिकविनयः प्रकारान्तरेणोक्त इनि भवति तदुपदेशयितुमाहसत्रार्थः ॥ ३०॥
रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । सम्प्रति चरणकरणविनयात्मिकामेषणासमितिमाह
बालं सम्मइ सासंतो, गलिअस्थमिव वाहए ॥ ३७॥ कालेण णिस्खमे भिक्खू , कालेण य पडिक्कमे ।
रमते-अभिरतिमान् भवति पण्डितान्-विनीतविअकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥३१॥ नेयान् , 'सासत्' इत्याज्ञापयन् कथञ्चित् प्रमादस्खलिते 'कालेण' त्ति सप्तम्यर्थे तृतीया, काले प्रस्ताव नि
शिक्षयित्वा. गुरुरिति शेषः, कमिव कः ? इत्याह-हयमिवकामेत्-गच्छेत् भिक्षुः , अकालनिर्गमे श्रात्मकामनादि
अश्वमिब, कीदृशम् ?-भाति भन्दते वा भद्रस्तं-कल्याणावई दोषसम्भवात् , तथा कालेन च प्रतिकामेत्-प्रातनिवर्तेत 'वाहकः' अश्वन्दमः, बालम्-अझं ब्राम्यति-खिद्यते शाभिक्षाटनादिति शेषः, इदमुक्तं भवति-अलाभेऽपि-'श्रलाभो
सत्, स हिसकृदुक्ल एव न कृत्येषु प्रवर्तते, तत इदं कुरु इदं च त्ति न सोइज्जा , तवो त्ति अहियासए' इति समयमनु
मा कारित्यादि पुनः पुनस्तमाज्ञापयन् शिक्षयित्वा, कमिव स्मरन् , अल्प मया लब्धं न लब्धं वेति, लाभार्थी नाटन्नेव
कः?इत्याह-गलिम्-उक्तरूपमश्वमिव वाहक इति सूत्रार्थः।३७। तिष्ठेत् , किमित्येवमत श्राह-अकाल-तत्तरिक्रयाया श्र गुरोः श्रमहेतुत्वमुद्भावयन् बालस्याभिसन्धिमाहसमयं चेति , यस्माद्विर्ययकाले प्रस्तावे प्रत्युप्रेक्षणादि- खड्डयाहिं चवेडाहिं, अकोसेहि वहेहि य । सम्बन्धिनि 'कालामति' तत्तत्कालोचितं क्रियाकाण्ड
कल्लाणमणुसासंतं, पावदिट्टि त्ति मन्त्रह ॥३८॥ समाचरेत्-कुर्यात् , अन्यथा कृषीवलकृषीक्रियाया इवा.
खड्डुकाभिः-टक्कराभिः चपेटाभिः-करतलाघातैः श्राक्रोभिमतफलोपलम्भासम्भव इति गर्भार्थः, अनेन च काल-1 निष्क्रमणादौ हेतुरुक्तः, प्रसङ्गात् शेषक्रियाविषयतया वा|
शैः असत्यभाषणैः वधैश्च-दण्डिकादिघातैः, चशब्दादन्यै
श्चैवं प्रकारैर्दुःखहेतुभिरनुशासनप्रकारैस्तमाचार्य कल्याणम्नेयम् , समुच्चयार्थश्च तदा चशब्द इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥
इहपरलोकहितम् अनुशासन्तं-शिक्षयन्तं, पापा दृष्टिः-बु(निर्गतश्च यत्कुर्यात्तद् — एसणा' शब्दे तृतीयभागे ६६
द्धिरस्येति पापदृष्टिः, अयमाचार्य इति मन्यते, यथा-पापोऽयं पृष्ठे दर्शितम् ।)
मां हन्ति निघृणत्वात्, चारकपालकवत् पठन्ति च-'खड्डयायदुक्तं ' यतमान' इति तत्र वाग्यतनामाह
में' इत्यादि,अत्र व्यवच्छेदफलत्वाद् वाक्यस्य खड्डुकादय एवं सुकडं ति सुपक्कं ति,सुच्छिन्नं सुहडे मडे ।
मम नापरं किञ्चित् समीहितमस्तीत्यभिसन्धिना कल्याणमसुनिटिए सुलहि त्ति, सावजं वजए मुणी ॥३६॥
नुशासन (त)माचाय पापदृष्टि मन्यते,यद्वा-वाग्भिरप्यनुशा
स्यमानोऽसौखड्डुकादिरूपा वाचो मन्यत इति सूत्रार्थः॥३८॥ सुकृतं-सुष्ठु निर्वर्तितमन्नादि सुपक्कं-घृतपूर्णादि,
गुरोरतिहितत्वं प्रचिकाशयिपुर्विनीताभिसन्धिमाह'इतिः' उभयत्र प्रदर्शने, सुच्छिन्नं-शाकपत्रादि सुहृतं
पुत्तो मे भायनाइ त्ति, साहू कल्लाण मन्नइ । शाकपत्रादेस्तिकत्वादि घृतादि वा सूविलेपिकादीनां, तथा 'मडे' त्ति प्रक्रमात् सुष्टु मृतं घृताद्येव सक्तुसूपादी,
पावदिही उ अप्पाणं, सासं दासं व मन्नइ ।। ३६॥ तथा सुष्टु निष्ठितमित्यतिशयेन निष्ठां-रसकषपर्यन्ता- । पुत्रों में भ्राता ज्ञातिरिति, अत्रैवार्थस्य गम्यमानत्वात् त्मिकां गतं, ' सुलट्टि 'त्ति सर्वैरपि रसादिभिः प्रकारैः पुत्र इवेत्यादि बुद्ध्याऽऽचार्यों मामनुशास्तीति साधुःशोभनमिति, इतिः-एवं प्रकारार्थः , एवंप्रकारमन्य- सुशिष्यः कल्याण-कल्याणहेतुमाचार्यमनुशासनं था मन्यते दपि सावा प्रक्रमाद्वचो, वर्जयेन्मुनिः । यद्वा-सुष्टु कृतं स हि विवेचयति शिष्यः-सौहार्दादसौ मां शास्ति, दुर्षियदनेनारातेः प्रतिवृतं, सुष्टु पकं मांसाशनादि, सुच्छिन्नो- नीतत्व हि मम किमस्य परिहीयते ?, ममैव त्वर्थभ्रंश इति । ऽयं न्यग्रोधपादपादिः, सुहृतं कदर्यादर्थजातं, सुहतो वा बालोऽप्येवं किं न मन्यत इत्याह-पापदृष्टिस्तु-कुशिष्य। बौरादिः सुमृतोऽयं प्रत्यनीकधिग्वर्णादिः सुनिष्ठितोऽयं पुनरात्मानं 'सासं' ति प्राकृतत्याद्धितानुशासनेनापि शाप्रासादकूपादिः, 'सुलट्टि' त्ति शोभनोऽयं करितुरगादिरिति स्यमानं दासमिव मन्यते, यथा असौ दासवन्मामाशापयति, सामान्येनैव सावधं वचो वर्जयेन्मुनिः । निरवा तु सुक- ततोऽस्य शास्तरि पापदृष्टिताऽभिसन्धिरेव सम्भवतीति समनेन धर्मध्यानादि, सुपक्कमस्य पचनविज्ञानादि, सुनिल-। सूत्रार्थः ।। ३६॥
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विषय
विनय सर्वस्वमुपदेष्टुमाह
r कोव आयरियं, अप्पा पि ण कोवए । बुद्धोवधाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥ ४० ॥
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न कोपयेत्न कोणोपेतं कुर्यात् श्राचार्यम् उपलक्ष सत्यादपरमपि विनयार्हम् आत्मानमपि गुरुभिरतिश्रात्मानमपि ' गुरुभिरतिपरुषभाषणादिनाऽनुशिष्यमाणं न कोपयेत् कथञ्चित् सकोपतायामपि बुद्धोपघाती श्राचार्योपघातकृत् न स्यात्न भवेत् तथा न स्यात् तुद्यते व्यध्यतेनेनेति तोत्रंइव्यतः प्राजनको भावतस्तु तदोषोद्भावकतया व्यथोपजनकं वचनमेव तद् गवेषयति किमहममीषां जात्यादिकं व यतीति तवेषः प्रक्रमाद् गुरुणांना दिति यादख्यापनार्थत्वान्न पुनरुक्रम्, यदुक्तेोपान स्यात्तत्रोदाहरणम्- कश्चिदाचार्यादिगणिगुणसम्पत्समन्वितो युगप्रधानः प्रक्षीणप्रायकर्माऽऽचार्योऽनियतविहारितया विहर्तुमि परिजातः कचिदेकस्थान वायतस्थे । त्याजनेन चैतेषु भगवत्सु सत्सु सना धमिति विचिन्तयता तद्वयोऽवस्था समुचित स्निग्धमधुराद्वारादिभिः प्रतिदिवसमुपचर्यते स्म तवा गुरुकतया कदाचिदचिन्तयन्, यथा- क्रियश्चिरमयमजङ्गमोऽस्माभिरनुपालनीयः ततस्तमनशनमादापयितुमिच्छ्वोऽनिभधायकजना मुदिनीयमानमुचितमशनादि तस्मै न स मर्पयामासुः अन्तप्रान्तादि च समुपनीय सविषादमियतत्पुरत क्यन्तः किमिह कुर्मः १ यशामपि भवतानमनादि नामी विवेकविकलता सम्पादयितुमशते, श्राद्धानभिदधति च यथा - अत्यन्तनिःस्पृहतया शरीस्थापनामपि प्रत्यनपेक्षिणः प्रणीतं भक्तपानमाचार्या नेच्छन्ति, किन्तु संलेखना विधामध्यवस्तीति। ततस्ते तद्वचनमारा मन्युरनिभृतचेतसस्तमुपसृत्य समदं जगदुः भगछन् ! भुवनभवभावस्वभावावभासिष्यत्सु चिरतरातीतेष्यपित्सु भवत्सु भुवनमयभावदिवाभाति, तत्किमयमत्र भवद्भिरकाल एव संलेखनाविधिरारब्धः ?, न च वयममीषां निर्वेदतय इति मन्तव्यम् यतः शिरः स्थिता अपि भवन्तो न भारमस्माकममीयां वा शिष्याणां कदाचिदादधति, ततस्तैरिङ्गिरयगतं यथाऽस्मरिष्यमतिविजृम्भितमेतत् किममीषामप्रीतिहेतुना प्राणधारणेन न खलु धर्मार्थनांकस्यचिदशीतिरुत्पादयितुमुचितेति चेतसि विचिन्त्य मुकुलितमेव तत्पुरत उक्तम्- क्रिपच्चिरमजङ्गमैरस्माभिरूपरोधनीयास्तपस्विनो भवन्तथ तद्वरमुनमाचरितमुत्तमार्थमेव च प्रतिपद्यामहे इति तानसी संस्थाप्य भक्रमेव प्रत्याचचक्षे । इत्येवं बुद्धोपघाती न स्यादिति सूत्रार्थः ||४०|| एवं तावदाचार्य न कोपयेदित्युक्तं कथञ्चित् कु पिते वा यत् कृत्यं तदाहआयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएणं पसायए । विज्यविज्ञा पंजलिउडे, एजा न पुग्यो ति व ॥४१॥ आचार्यम् - उक्तस्वरूपम् उपलक्षणन्याडुपाध्यायादिकमपि कुपितम् - इति सकोपमनुशासनोदासीनताभिः 'पुरिसजावता विधि अभिगो ।
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( १९६१) अभिधानराजेन्द्रः ।
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विषय सेसम्म उ अभिश्रोगो, जणवयजाए जहा असे ॥ १ ॥ इत्यागमात् कृतबहिष्कोपं वा दृष्यप्रदानादिना त्याअवगम्य 'पत्तिणं' ति आर्षत्वात् प्रतीतिः प्रयोजनमस्पेति प्रातीतिकं शपधादि, अपिशब्दस्य बेद लुप्तनिर्दिएत्वात् तेनापि प्रसादयेत् । इदमुकं भवति गुरुकोषहेतु कमबोध्याशातनामुक्त्यभावादिकं विगणयन् यया तया गत्या तत्प्रसादनमेवोत्पादयेत् सर्वमपि वा प्रतीत्युत्पादकं बचा प्रातीतिकं तेन प्रसादयेत् यज्ञा- पत्तिय ति भीत्या साम्नेव न मेदवरापदर्शनेन एतदेवाहविध्यापयेत्कथचिदुदीरितको पानखानयुपशमयेत् - कतीत्यात्मकेन कृतो विदितोऽञ्जलिः उभकरमीलनात्मको ऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच्च - तशब्दस्य परनिपातः या भाषान्विततयाऽजलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुटः । इत्थं कायिकं मानसं च विध्यापनोपायमभिधाय पाचिकं वकुमाह-वदेत्यात् न पुन रिति, वशब्दो भिन्नक्रमः, वदेदित्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः कथञ्चित् कृतकोपानपि गुरून् विध्यापयन् वदेत् यथा-भगवन् ! प्रमादाचरितमिदं मम क्षमितव्यम्, न पुनरित्थमाचरिष्यामीति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ साम्प्रतं यथा निरपवादतयाऽऽचार्यकोष एव न स्यात्, तथाऽऽह
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धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धे हाऽऽयरियं सया । समायरंतो पवहारं, गरहं नाभिगच्छ ॥ ४२ ॥
धर्मेण -- क्षान्त्यादिरूपेणार्जितम् - उपार्जितं धर्मार्जितं, न हि क्षान्त्यादिधर्मविरहित इमं प्राप्नोतीति च:- पूरणे. विविधं विधिवद्वाऽवहरणमनेकार्थत्वाद्वाचरणं व्यवहारस्तं यतिकर्तव्यतारूपं, बुद्धैः - श्रवगततस्तैः श्राचरितं, सदा-सर्वकालम् 'त' मिति सदावस्थिततया प्रतीतमेव आयरन्-व्यवहरन्, यज्ञा-पत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् सु
त्याच धर्मार्जितो वैराचरितश्च यो व्यवहारस्तमाचरन् कुर्वन्, विशेषेणापहरति पापकर्मेति व्यवहारस्तं व्यवहारविशेषणमेतत्, एवं च किमित्याह - गम् - श्रवि नीतोऽयमित्येवंविधां निन्दां नाभिगच्छति--न प्राप्नोति, यतिरिति गम्यते । यद्वा-- श्राचार्यविनयमनेनाह, तत्र धर्मादनपतो धम्यन धर्मातिकान्तः, जियं च यवहारं 'ति
प्राकृतत्वाश्चास्य भिन्नक्रमत्वाज्जीतव्यवहारश्च, अनेन चागमादिव्यवहारव्यवच्छेदमाह अत एव बुद्धैः आचार्यैवरितः सदा सर्वकालं त्रिकालविषयत्वात् जीतव्यवहारस्य य एवंविधो व्यवहारस्तं व्यवहारं प्रमादात् स्वलितादौ प्रायश्चित्तदानरूपमाचरन् गर्दा - दण्डरुचिरयं निर्घृणो वेत्येवंरूपां जुगुप्सां नाभिगच्छति, आचार्या इति शेषः, न चायं निजक उपकारी वा मम विनेय इति न दण्डनीय इति ज्ञापनार्थ च धर्म्यजीतविशेषणम् पठन्ति च तमायरंतो मेहाविति सुगममेवेति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥
किं बहुना ?-- मणोगयं वकगयं, जाखिताऽऽपरियस्स उ । तं परिगिझ वाया, कम्मुला उपवायए ।। ४२ ।।
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विषय अभिधानराजेन्द्र:।
विषय मनसि-चेतसि गतम-स्थितं मनोगतं तथा वाक्ये व- इत्यर्थः । केषां केव ?-भूतानाम्-प्राणिनां जगती-- चनरचनात्मनि गतं वाक्यगतं, कृत्यमिति शेषः , वाक्यग्र- पृथ्वी यथेति सूत्रार्थः॥ ४५ ॥ इणं तु पदस्यापरिसमाप्तार्थाभिधायित्वेन क्वचिदप्रयोजक- ननु विनयः पूज्यप्रसादनफलः ततोऽपि च किमवाप्यत त्वात् , ज्ञात्वा-अवबुध्य आचार्यस्य-विनयाहस्य गुरोः,
इत्याह-- तुशब्दः कायगतकृत्यपरिग्रहार्थः, तत्-मनोगतादि प
पुजा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुव्वसंधुया । रिगृह्य-अङ्गीकृत्य वाचा वचसः इदमित्थं करोमि इत्यात्मकेन कर्मणा-क्रियया तन्निवर्तनात्मिकया तदुप
पसन्ना लंभइस्संति, विउलं अट्ठिअं सुयं ॥४६॥ पादयेत्-विदधीत, पठन्ति च' मणोरुई वक्करुई, जाणित्ता- पूजयितुमर्हाः-पूज्या-प्राचार्यादयः यस्य इति-विवक्षिऽऽयरियस्स उ' अत्र च-मनसि रुचिः-अभिलाषस्तामा- तशिष्योपदर्शकं सर्वनाम प्रसीदन्ति-तुष्यन्ति सम्बुद्धाःचार्यस्य ज्ञात्वा-इदममीणां भगवतामभिमतमित्यवगम्य , सम्यगवगतवस्तुतत्त्वाः, (उत्त०) (पूर्वसंस्तुतपदव्याख्यावाक्ये रुचिः-पर्यवसितकार्यवाञ्छा तां च, शेषं प्राग्वत् , 'पुवसंथुय' शब्दे पञ्चमभागे १०६४ पृष्ठ गता।) शेषविनयो. अनेन सूदमो विनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥४३॥
पलक्षणमेतत् प्रसन्ना इति-सप्रसादाः, पठ्यते च-संपनाः ___ स चैवं विनीतविनयतया याहक स्यात्तदाह
झानादिगुणपरिपूर्णाः सम्यग्-अविपरीताः प्रज्ञा येषां ते
सत्प्रज्ञा वा , लम्भयिष्यन्ति--प्रापयिष्यन्ति , किमित्यावित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोयए ।
ह-विपुलम्-विस्तीर्णम् अर्यत इति अर्थो-मोक्षः सप्रयोजजहोवइ8 सुकडं, किच्चाई कुव्वई सया ॥४४॥ नमस्येत्यार्थिक, तदस्य “प्रयोजनम्" (पा० ५-१-१०६)
इति ठक, अथवा-अर्थः स एव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीविते इति-विनीतविनयतयैव सकलगुणाश्रयतया प्र-| सार्षिक: "श्रत रनिठनौ" . ।
त्यार्थिकः, "श्रत इनिठनी" पा० (५-२-११५ ) इति तीतः प्रसिद्ध इति यावत् , 'अचोइए' त्ति यथाहि बल
ठन् , श्रुतम्-अङ्गोपाङ्गप्रकीर्णकादिभेदमागम, न तु हरिवद्विनीतधुर्यः प्रतोदोत्क्षेपमपि न सहते, कुतस्तनिपतनम् , | हरहिरण्यगर्भादिवत् साक्षात् स्वर्गादिकम् , अनेन पूज्यएवमयमप्यचोदित एव प्रतिप्रस्तावं गुरुकृत्येषु प्रवर्तत इति,
प्रसादस्यानन्तरफलं श्रुतमुक्तम् , व्यवहितफलं तु मुक्तिरिकुतः प्रेरितत्वमस्य ? , नित्यम्-सदा न कदाचिदेव, स्वयं| ति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ प्रवर्तमानोऽपि प्रेरितोऽनुशयवानपि स्यादिति कदा श
सम्प्रति श्रुतावाप्तौ तस्यैहिकफलमाहज्ञापनोदायाह-क्षिप्रम्-इति शीघ्रं भवति 'सुचोयए ' त्ति शोभने प्रेयितरि, गुराविति गम्यते, सोपस्कारत्वाश्च क्षि
स पुजसत्थे सुविनीयसंसए, प्रमेव प्रेरके सति कृत्येषु वर्तते, नानुशयतो विलम्बितमेव , मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया । पठ्यते च-'वित्ते अचाइए खिप्पं, पसन्ने थामवं करे' इति ,
तवोसमायारिसमाहिसंवुडे , अत्र च-प्रसन्नः-प्रसत्तिमान् , नाहमाशापित इत्यप्रससो भवति , किन्तु ममायमनुग्रह इति मन्यते, क्षिप्रमेव च
___ महज्जुई पंचवयाइँ पालिया ॥४७॥ तत्कुरुते, 'थामवं' ति स्थाम-बलं तद्वान् । किमुक्तं भवति?
स इति-शिष्यः प्रसादितगुरोरधिगतश्रुतः पूज्य-सकलजसति बले करोति, असति च सद्भावमेवाऽऽख्याति , यथा नश्लाघादिना पूजाई शास्त्रमस्येति पूज्यशास्त्रः, विनीतस्य हि ऽहमनेन कारणेन न शक्नोमीति । क्षिप्रमपि कुर्वन् कदा- शास्त्रं सर्वत्र विशेषेण पूज्यते, यदि वा--प्राकृतत्वात् पूज्य: चिद्विपरीतमर्धविहितं वा विदध्यात् तद्वयवच्छेदायाह-य
शास्ता गुरुरस्येति पूज्यशास्तृकः, विनीतो हि विनेयः शा. थोपदिष्टम्-उपदिष्टानतिक्रमेण सुकृतम्-सुण्टु परिपूर्ण
स्तारं पूज्यमपि विशेषतः पूजां प्रापयति,अथवा-पूज्यश्चासौ कृतं यथा भवत्येवं कृत्यानि करोति-निवर्तयति, सदा सता
शस्तश्च सर्वत्र प्रशंसास्पदत्वेन पूज्यशस्तः, सुष्ठ-अतिवा शोभनेन प्रकारेणेति सूत्रार्थः ॥४४॥
शयेन विनीतः-अपनीतः प्रसादितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थ
समर्पणेन संशयो दोलायमानमानसात्मकोऽस्येति सुविनी. सम्प्रत्युपसंहर्जुमाह
तसंशयः, सुविनीता वा संसत् परिषदस्येति सुविनीतणचा णमइ मेहावी, लोए कित्ती य जायइ ।
संसत्कः, विनीतस्य हि स्वयमतिशयविनीतैव परिषद्भव
ति, 'मणोरुड' ति मनसः-चेतसः प्रस्तावाद् गुरुसम्बकिचाणं सरणं होइ, भूयाणं जगई जहा ॥ ४५ ॥ ।
धिनी रुचिः-प्रतिभासोऽस्मिन्निति मनोरुचिः, तिष्ठतिशावा-अनन्तरमखिलमध्ययनार्थमवगम्य नमति-त-| भासते, विनयाधिगतंशास्त्रो हि न कथञ्चिद् गुरूणामप्रीतिस्कृत्यकरणं प्रति प्रहीभवति मेधावी-एतदध्ययनार्थाव-| हेतुरिति । तथा कम्मसंपय' ति कर्म-क्रिया दशविधा धारणशक्तिमान् मर्यादावर्ती वा, तद्गुणं वनुमाह-लोके- चकवालसामाचारीप्रभृतिरितिकर्तव्यता तस्याः सम्पकीर्तिः सुलब्धमस्य जन्म निस्तीर्णरूपो भवोदधिरनेनेत्या-| त् सम्पन्नता तया, लक्षणे तृतीया , ततः कर्मसम्पदोदिका श्लाघा चशब्दाः-एकदिग्व्यापिनी कीर्तिः, सर्व- पलक्षितस्तिष्ठतीति सम्बन्धः, हेतौ वा तृतीया, मनोरुदिग्ब्यापकं यशः ' इति प्रसिद्धेर्यशश्चेति समुच्चिनोति, | चित्यापेक्षया च हेतुत्वम् । अथवा-मनोरुचितेव मनोरुउभयमपि प्रक्रमानन्तुरेव जायते-प्रादुर्भवति, स एव | चिता, तिष्ठति-प्रास्ते कर्मणां-शानावरणादीनां सम्पद--उभवति , कृत्यानाम्-उचितानुष्ठानानां कलुषान्तःकरण- दयोदीरणादिरूपा विभूतिः-कर्मसम्पद् , अस्येति गम्यते त्तिभिरविनीतविनयैरतिदूरमुत्सादितानां शरणम्-आश्रय। तदुच्छेदशक्लियुक्ततया अस्य प्रतिभासमानतयेव तत्स्थि
दिमध्यमपि प्रक्रमानन्तुरेवच जानुष्ठानानां कलुपान्तःकरणाय । तदुच्छेदशक्रिय
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( १९६६) अभिधान राजेन्द्रः ।
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doपलक्ष्यमाणत्वात्, पठ्यते च - मणोरुद्द ' ति तत्र मनसो रुचिः - अभिलाषो यस्मिस्तन्मनोरुचि - स्वप्रतिभासानुरूपं यथा भवत्येवं तिष्ठति, कया ? - कर्मसंपदा -यस्यनुष्ठानमाहात्म्यसमुत्पन्नपुलाकादिलब्धिसम्पत्त्या पठन्ति च ' मणोरुहं चिट्ठर कम्मसंपयं' तत्र च मनोरुचितफलसम्पादकत्वेन मनोरुचितां कर्मसम्पदं शुभप्रकृतिरूपाम् अनुभवन्निति शेषः नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - 'मणिच्छ्रियं संपयमुसमं गय' सि, इह च संपदं यथाख्यातचारित्रसंपदम्, अन्यत् सुगममेव, तपसः - अनशनाद्यात्मकस्य सामाचारीति- समाचरणम्, यद्वा-तपश्च सामाचारी च न्यक्षतो वक्ष्यमाणस्वरूपा समाधिश्च चेतसः स्वास्थ्यं तैः संवृतः निरुद्धाश्रवः तपस्सामाचारी समाधिसंवृतः, यद्वा-तपस्सामाचारीसमाधिभिः संवृतं संवरणं यस्य स तथाविधः, महती श्रुतिः- तपो दीप्तिस्तेजोलेश्या वाऽस्येति महाद्युतिः, भवतीति गम्यते, किं कृत्वेत्याह- पञ्चमतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि, पालयित्वा निरतिचारं संस्पृश्येति सूत्रार्थः ॥ ४७ ॥
पुनरस्यैवैहिकामुष्मिकं च फलं विशेषेणाह
स देवगंधव्त्रम गुस्सइए, चरन्तु देहं मलपंकपुच्चयं । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वाऽप्परए महिड्डिए ||४८ ॥ त्ति बेमि ।
स- ताहग् विनीतविनयः देवैः- वैमानिक ज्योतिष्कैः गन्धर्वैश्च गन्धर्वनिकायोपलक्षितैर्व्यन्तरभुवनपतिभिः मनुष्यैश्च - महाराजाधिराजप्रभृतिभिः पूजितः - श्रर्चितो देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः त्यक्त्वा अपहाय देहं शरीरम्' मलकपुब्वयं' ति जीवशुद्धधपहारितया मलवन्मलः सास पावे वजे वेरे पंके पराए य' त्ति वचनात् पश्व कर्ममलपङ्कः स पूर्व कार्यात् प्रथमभावितया काररामस्येति मलपङ्कपूर्वकम्, यद्वा-' माओउयं पिऊसुकं ' ति वचनात् रक्तशुक्रे एव मलपङ्कौ तत्पूर्वकं सिद्धो वानिष्ठितार्थो वा भवति जायते शास्वतः - सर्वकालावस्थायी, न तु परपरिकल्पिततीर्धनिकारादिकारणतः पुमरिहागमवानशाश्वतः, सायशेषकर्मत्रांस्तु देवो वा भवति, 'अप्परए' त्ति अल्पमिति श्रविद्यमानं रतमिति - क्रीडितं मोहमीयकर्मोदयजनितमस्येति अल्परतो - लवसप्तमादिः अल्परजा वा प्रतनुबध्यमानकर्मा, महती - महाप्रमाणा प्रशस्या वा ऋद्धिः चक्रवर्तिनमपि योधयेत् इत्यादिका विकरणशक्तिः - तृणाप्रादपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपा वा समृद्धिरस्येति महर्द्धिकः, देवविशेषणं वा, इतिः-परिसमाप्तावेवमर्थे वा एतावद्विनयश्रुतमनेन वा प्रकारेण 'प्रवीमि ' इति गणभृदादिगुरूपदेशतः, न तु खोत्प्रेक्षया इति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ उक्लो ऽनुगमः । उत्त० पाई० १ ० । साम्प्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत् तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुश्चारणीयं तच्चदम्धंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विषयं न सिक्खे |
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सो चे ऊ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ ॥ १ ॥
' थंभा व त्ति, अस्य व्याख्या-स्तम्भाद्वा मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात् क्रोधाद्वा श्रक्षान्तिलक्षणात् मायाप्रमादादिति मायातो - निकृतिरूपायाः प्रमादाद् निद्रादेः सकाशात् किमित्याह-गुरोः सकाशे - श्राचार्यादेः समीपे विनयम् -- आसेवनाशिद भेदभिन्नं न शिक्षते--नोपादत्ते, तत्र स्तम्भात्कथमहं जात्यादिमान् जात्यादिहीनसकाशे शिक्षामीति, एवं क्रोधात्कचिद्वितथकरणचोदितोरोषाद्वा, मायातः शूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादाप्रक्रान्तोचितमनवबुध्यमानो निद्रादिव्यासङ्गेन, स्तम्भादिक्रमोपन्यास श्वेत्थमेवामीषां विनयविघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्भादिभ्यो गुरोः सकाशे विनय न शिक्षते, श्रन्ये तु पठन्ति गुरोः सकाशे विनये न तिष्ठति-विनये न वर्त्तते; विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह व
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स एव तु स्तम्भादिः ' विनयशिक्षाविघ्नहेतुः तस्य जडमतेः अभूतिभाव इति - अभूतेर्भावोऽभूतिभावः असंपद्भाव इत्यर्थः किमित्याह-वधाय भवति-गुणलक्षणभावप्रा विनाशाय भवति । दृष्टान्तमाह- फलमिव कीचकस्य कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय भवति, सति तस्मिंस्तस्य विनाशात् तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ जे आवि मंदि ति गुरुं विइत्ता,
डहरे इमे अप्पसुन ति नच्चा । इति पिच्छं पडिवजमाणा,
करति श्रसायण ते गुरूणं ॥ २ ॥ पग मंदावि भवंति एगे,
डहरावि (अ) जे अबुद्धोववेश्रा । मायारमंतो गुणसुट्ठिअप्पा,
जे हीलिया सिहिरिव भासकुआ ।। ३ ।। जेवि नागं डहरंति नच्चा,
आसाय से अहि य होइ । एवायरि पि हु हीलयंतो,
निच्छई जाइ पहं खु मंदो ॥ ४ ॥ सीविसो वावि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउ परं नु कुआ १ । चायरिअप्पाया पुण अप्पसना,
अबोहि श्रसायण नत्थि मुक्खो ॥ ५ ॥ जो पावगं जलिश्रमवक मिजा,
विसं वा विहु कोवइजा । जो वा विसं खाय जीविट्ठी,
सोवमाssसायाया गुरूणं ॥ ६ ॥ सिचा हु से पावय नो डहिजा, सीविसो वा कुविभो न भक्खे |
विषय
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विणय अभिधानराजेन्द्र
बिणय सिधा विसं हालहलं न मारे ,
अयमर्थोपनयः-एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्था. न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥७॥
पितं हीलयन् निर्गच्छति जातिपन्थानम्-द्वीन्द्रियादिजा
तिमार्ग मन्दः-अक्षः, संसारे परिभ्रमतीति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ जो पब्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे ,
अत्रव दृष्टान्तदान्तिकयोर्महदन्तरमित्येतदाह- 'श्रासि ' सुत्तं व सीहं पडिबोहइजा ।
त्ति सूत्र , 'आशीविषश्चापि' सऽपि पर सुरुष्टः-सुकुजो वा दए सत्तिअग्गे पहारं,
द्धः सन् किं जीवितनाशात् -मृत्योः परं कुर्यात् ? , न __एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥ ८॥
किंचिदपीत्यर्थः, आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना-हीलनया
अननुग्रहे प्रवृत्ताः , किं कुर्वन्तीत्याह-प्रबोधिम्-निमित्तहेसिमा दु सीसेण गिरिं पि भिंदे,
तुत्वेन मिथ्यात्वसंहति , तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धात् , सिधा हु सीहो कुविओ न भक्खे ।
यतश्चैवमत आशातनया गुरोनास्ति मोक्ष इति , अयोधिसिधा न भिंदिज व सत्तिअग्गं ,
सन्तानानुबन्धेनानन्तसंसारिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ५॥ किं
च-'जो पावगं' ति सूत्रं , यः पावकम्-अग्नि ज्वलितं नावि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥६॥
सन्तम् 'अपकामेद्' अवष्टभ्य तिष्ठति, ' प्राशीविषं वापि आयरिअपाया पुण अप्पसत्रा,
हि-भुजङ्गमं वापि हि कोपयेत्-रोपं ग्राहयेत् , यो वा अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो।
विषं खादति जीवितार्थी-जीवितुकामः, एषोपमा
अपायप्राप्ति प्रत्येतदुपमानम् , अाशातनया कृतया गुरूणां अम्हा अणावाहसुहाभिकंखी ,
संबन्धिम्या तद्वदपायो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अत्र विगुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा ॥१०॥
शेषमाह-'सिमा हु' त्ति सूत्र , स्यात्-कदाचिन्मन्त्रादिकिंच-जे प्रावि 'त्ति सूत्र , ये चापि केचन द्रव्यसा
प्रतिबन्धादसौ पावकः-अग्निः न दहेत्-न भस्मसात्कुधयोऽगम्भीगः, किमित्याह-'मन्द इति गुरुं विदित्वा' र्यात् , श्राशीविषो बा-भुजङ्गो वा कुपितो न भक्षयेत्क्षयोपशमवैचित्र्यात्तत्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञावि- न खादयेत् , तथा स्यात्-कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव कल इति स्वमाचार्य ज्ञात्वा तथा कारणान्तरस्थापितमप्रा. विषम्-हालाहलम् अतिरौद्रं न मारयेत्-न प्रारपस्त्यामवयसम् इहरोऽयम्-अप्राप्तवयाः खल्वयं , तथा 'अ
जयेत् , एवमेतत्कदाचिद्भवति न चापि मोक्षो गुरुहीलनरूपश्रुत' इत्यनधीतागम इति विशाय , किमित्याह--ही- या-गुरोराशातनया कृतया भवतीति सूत्रार्थः ॥ ७॥ किंलयन्ति--सूयया अस्यया वा खिसयन्ति, सूयया-अतिप्र- च-जो पव्ययं ' ति सूत्र, यः पर्वतं शिरसा उत्तमानेन शस्त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति, असूयया तु-मन्दप्रस्त्व- भेसुमिच्छेत् , सुप्तं वा सिंह गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत् , मित्याभिदधति, 'मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना' इति गुरुन यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहरणविशेषाग्रे प्रहारं इस्तेन, हीलनीय इति तस्वमन्यथाऽवगच्छन्तः कुर्वन्ति आशातनां- एषोपमाऽऽशातनया गुरूणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥८॥ लघुतापादनरूपां ते-द्रव्यसाधवः गुरूणाम्-प्राचार्या
| अत्र विशेषमाह- सिमा हु' त्ति सूत्रम् , स्यात्-कदाणां तत्स्थापनाया अबहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वे- चित्कश्चिद्वासुदेवादिः प्रभावातिशयाच्छिरसा गिरिमपिपामाशातनेति बहुवचनम् , अथवा-कुर्वन्ति अाशातनाम्
पर्वतमपि भिन्द्यात् , स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिहः कुपिस्वसम्यगदर्शनादिभावापहासरूपां ते गुरूणां संबन्धिनी, तो न भक्षयेत् , स्याद्देवतानुग्रहादेर्न भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रं प्रतनिमित्तत्वादिति सूमार्थः ।।२।। अतो न कार्या हीलनेति ,
हारे दत्तेऽपि, एवमेतत्कदाचिद्भवति, न चापि मोक्षो गुरुश्राइच-' पगइ' ति सूत्र, प्रकृत्या स्वभावन कर्मवैचि- हीलनया-गुरोराशातनया भवतीति सूत्रार्थः ॥ ६॥ एवं ध्यात्, मन्दा अपि-सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति एके- पावकाद्याशातनाया गुर्वाशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थकेवन वयोवृद्धा अपि, तथा डहराः, अपि च-अपरिणता, माह-आयरिश्र'त्ति सूत्रम् , श्राचार्यपादाः पुनरप्रसमा अपिच-बयसाऽन्येऽमन्दा भवन्तीति वाक्यशेषः। किं वि- इत्यादि पूर्वार्ध पूर्ववत् , यस्मादेवं तस्माद् अनाबाधसुशिश ? इत्याह-ये च श्रुतबुद्ध्युपपेताः, तथा सत्प्रज्ञाव- | खाभिकाजी-मोक्षसुखाभिलाची साधुः गुरुप्रसादाभिमुख
तः श्रुतेन बुद्धिभावेन वा, भाविनी वृत्तिमाश्रित्याल्पश्रुता आचार्यादिप्रसाद उद्युक्तः सन् रमेत-वर्तत इति सूत्राइति, सर्वथा प्राचारवन्तो-ज्ञानाद्याचारसमन्विताः र्थः ॥१०॥ गुणसुस्थितात्मानो--गुणेषु--संग्रहोपग्रहादिषु सुष्ठ-भावसार स्थित--आत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः, ये
जहा हि अग्गी जलणं नमसे, हीलिताः--खिसिताः शिस्त्रीव--अग्निरिवेन्धनसंघातं भ
नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । स्मसात्कुयुः-सानादिगुणसंघातमपनयेयुरिति सूत्रार्थः॥३॥ एवायरिअं उवचिट्ठइजा, विशेषेण डहरहीलनादोषमाद- जे प्रावि ' त्ति सू. अणंतनाणोवगोवि संतो ॥११॥ त्रम् , यश्चापि कश्चिदशो नाग-सर्प डहर इति --बाल इति शास्वा-विज्ञाय अाशातयति--किलिश्चादिना कदर्थ
जस्संतिए धम्मपयाइँ सिक्खे, यति स-कदर्यमानो नागः 'से' तस्य कदर्थकस्य अ
तस्संतिए वेणइयं पउंजे । हिताय भवति-भाषण प्राणनाशाय भवति, एप. दृष्टान्तः।। सकारए सिरसा पंजलीओ.
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पिण्य
कायग्रा भो मणसा अ निचं ॥ १२ ॥
लजा दया संजम बंभचेरं, कल्ला भागिस्स विसोहिठाणं ।
जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूयामि ।। १३ ।। जहा नियंते तवणचिमाली,
पभासई केवलभारहं तु । एवायरियो सुसीलबुद्धिए,
विरायई सुरमज्झे व इंदो ॥ १४ ॥ जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो,
यक्सततारागणपरिवुडप्पा । सोहई विमले श्रम्भमुके,
एवं गणी सोहर भिक्खुमज्झे ॥ १५ ॥ महागरा आयरिया महेसी,
समाहिजोगे सुमीलबुद्धिए ।
तराई,
(११७० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संपाविका
आराहए तोसइ धम्मकामी ॥ १६ ॥ सुच्चा ण मेहावी सुभासिचाई, सुस्सए आयरिअप्पमत्तो । भाराहइत्ता व गुणे अरोगे,
से पावई सिद्धिमपुत्तरं ति ।। १७ ।। बेमि । केन प्रकारेणेत्याह-' जहा हि अग्गि' त्ति सूत्रम्, यथा श्राहिताग्निः कृतावसथादिर्ब्राह्मणो ज्वलनम् - अनि नमस्यति, किं विशिष्टमित्याह- नानाडुतिमन्त्र पदाभिषिक्तम्-तत्राहुतयो- घृतप्रक्षेपादिलक्षणा मन्त्रपदानि अग्नये स्वाहेत्येवमादीनि तैरभिषिक्तं - दीक्षा संस्कृतमित्यर्थः, एवम्-अग्निमिवाचार्यम् उपतिष्ठेत् — विनयेन सेवेत किं विशिष्ट इस्याह- अनन्तज्ञानोपगतोऽपी' ति अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तशानं तदुपगतो ऽपि सन्, किमङ्ग! पुनरस्य इति सूत्रार्थः॥ १२॥ एतदेव स्पष्टयति- 'जस्सी' ति सूत्रम्यस्यान्तिके-यस्य समीपे धर्मपदानि - धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिक्षेत - श्रादद्यात् तस्यान्तिके - तत्समीपे किमित्याह - वैनयिकं प्रयुञ्जीत विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः । कथमित्याह-सत्कारयेदभ्युत्थानादिना पूर्वोक्तेन शिरसा - उत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः - प्रोद्वताञ्जलिः सन् कायेनदेहेन गिरा - वाचा मस्तकेन वन्दे इत्यादिरूपया 'भो' इति शिष्यामन्त्रं मनसा 'च' भावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं - सदैव सत्कारयेत, न तु सूत्रग्रहणकाल एवं कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ एवं च मनसि कुर्यादित्याछ- 'लजादय ' त्ति सूत्रम्, लज्जा- अपवादभयरूपा दया-अ नुकम्पा संयमः पृथिव्यादिजीवचिषयः ब्रह्मचर्यम् - विशुद्धतपोऽनुष्ठानम् एतल्लज्जादिविपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवfree कल्याणभागिनो जीवस्य विशोधिस्थानम् - कर्ममलापनयनस्थानं वर्तते, अनेन ये मां गुरवः - श्राचार्याः 'स
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ततम् - अनवरतम् अनुशासयन्ति-कल्याणयोग्यतां नयन्ति तानहमेवंभूतान् गुरून् सततं पूजयामि, न तेम्योऽन्यः पूजाईं इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ इतश्चैते पूज्या इत्याह-- 'जह ' सिं सूत्रम्, यथा निशान्ते-- राज्यवसाने: दिवस इत्यर्थः तपन् अर्चिर्माली - सूर्यः प्रभासयति-उद्योतयति केवलम्-संपूर्ण भारतम् - भरत क्षेत्रं, तुशब्दादन्यश्च क्रमेण एवम् अचिंमालीवाऽऽचार्यः श्रुतेन श्रागमेन शीलेन- परद्रोहविरतिरूपेण बुद्धया च स्वाभाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जी. वादिभावानिति । एवं च वर्तमानः सुसाधुभिः परिवृतो विराजते सुरमध्ये इव - सामानिकादिमध्यगत इव इन्द्रः इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ किंच' जह' ति सूत्रम्, यथा शशीचन्द्रः कौमुदीयोगयुक्तः: कार्तिक पौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः स एव विशेष्यते--नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा--नक्षत्रादिभिर्युक्त इति भावः, से- श्राकाशे शोभते । किं विशिष्टे खे ? - विमलेऽभ्रमुक्ते श्रभ्रमुक्तमेवात्यन्तं विमलं ( तत् ) भवतीति ख्यापनार्थमेतत् एव चन्द्र इव गणी - (तत्) आचार्यः शोभते मिथुमध्ये साधुमध्ये, अतोऽयं महत्त्वा रपूज्य इति सूत्रार्थः ।। १५ ।। किच--' महागर ' त्ति सूत्रम्, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया श्राचार्या महैषिलो -मो. क्षैषिणः, कथं महैषिण इत्याह-- समाधियोगनशील बुद्धिभिः - समाधियोगैः -- ध्यानविशेषैः श्रुतेन द्वादशाङ्गाभ्यासेव शीलेन - परद्रोहविरतिरूपेण बुद्धया च श्रौत्पत्तिक्यादिरूपया अन्ये तु व्याचक्षते - समाधियोगश्रुतशीलवुजीनां महाकरा इति । तानेवंभूतानाचायान् संप्राप्तुstarsनुत्तराणि ज्ञानादीनि श्राराधयेद्विनयकरणेन सहदेव, अपि तु-तोषयेद् - श्रसकृत्करणेन तो ग्राहयेत् धर्मकामो निजैरार्थे, न तु ज्ञानादिफलापेक्षया ऽपीति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ ' सोच्ना ण ' त्ति सूत्रम् श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि गुर्वाराधनफलाभिधायीनि, किंमित्याह-- शुश्रूषयेदाचार्यान् श्रप्रमत्तो--निद्रादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेत्यर्थः य एवं गुरुशुश्रूषापरः स श्राराध्य गुणान् - अनेकान् ज्ञानादीन् प्राप्नाति सिद्धिमनुत्तरां मुक्लिमित्यर्थः अनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा ब्रवीमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः ।। १७ ।। दश० ६ ० १ उ० ।
मूलाउ
'खंधप्पभवो दुमस्स,
धाउ पच्छा समुर्विति साहा । साहप्पसाहा विरुति पत्ता ।
ओसि पुष्कं च फलं रसो अ ॥ १ ॥ एवं धम्मस्स विण, मूलं परमो से मुक्खो । जेण किति सु सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छ ॥ २ ॥ विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते, तत्रेदमादिमं सूश्रम् -' मूलाउ' इत्यादि, अस्य व्याख्या - मूलाद् -- श्रादिप्रबन्धात् स्कन्धप्रभवः - स्थुडोत्पादः, कस्येत्याह-डुमस्य वृक्षस्य ततः--स्कन्धात् सकाशात् पश्चात्तदनु समुपयान्ति श्रात्मानं प्राप्नुवन्युत्पद्यन्त इत्यर्थः । कास्ता इत्याह-- शाखा: -- तद्भुजाकल्पाः, तथा शाखाभ्य--उक्तलक्षणाभ्यः प्रशाखास्तदंशभूता बिरोद्दन्ति-जा
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ए-/ सुमिनायागुणमाइ-तहे
माह-
अभिधानराजेन्द्रः।
विणय बन्ते-तथा तेभ्योऽपि पत्राणि-पर्णानि विरोहन्ति रभावम् उपस्थिताः-प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥५॥ एतेष्वेततः-तदनन्तरं 'से' तस्य तुमस्य पुष्पं च फलं च व विनयगुणमाह-' तहेव' ति सूत्रम् , तथैवेति-तथैवैते रसश्च फलगत एवैते क्रमेण भवन्तीति सूत्रार्थः ॥१॥ ए- सुयिनीतात्मानः विनयवन्त प्रात्मक्षा औपवाह्या राजाबं रटान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजनामाह-एवं' ति दीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते किमित्याह-श्यन्तेसूत्रम्-एवं-दुममूलवत् धर्मस्य-परमकल्पवृक्षस्य विन. उपलभ्यन्त एव सुखम्बाहादलक्षणम् एधमानाः - यो मूलम् आदिग्रवन्धरूपं 'परम' इत्यमो रसः 'से' त- नुभवन्तः शुद्धि प्राप्ता इति विशिष्टभूपणालयभोजनादिभावस्य फलरसषन्मोक्षः, स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकग- तः प्राप्तईयो महायशमो-विरूपातसहमा इति सूत्रार्थः ॥६॥ मनसुकुलागमनादीनि , अतो विनयः कर्तव्यः किं वि- एतदेव विनयाऽविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याहशिष्ट इत्याह-येन-विनयेन कीर्ति-सर्वत्र शुभप्रधा
तहेब अविणीअप्पा, लोगम्मि नरनारिभो । दरूपां तथा श्रुतम्-अङ्गप्रविष्टादि श्लाघ्यम्-प्रशंसास्पदभूतं निःशेषम् संपूर्णम् अधिगच्छति-प्राप्नोतीति ॥२॥
दीसंति दुहमेहंता, छायाविगलितेंदिया ॥७॥ अविनयवतो दोषमाह
दंडसत्था परिज्जुना, अपम्भवयणेहि भ।
कलुणा विवन्नच्छंदा, खुप्पिवासाइपरिगया ॥८॥ ने अचंडे मिए थद्धे , दुबाई नियडी सढे ।
तहेब सुविखीअप्पा, लोगसि नरनारियो । धुज्मा से अविणीअप्पा , कटुं सो अययं जहा ॥३॥
दीसति मुहमेहंता, इढि पत्ता महायसा ॥ ६ ॥ विणयं पि जो उवाएणं, चोइनो कुप्पई नरो।
'तहेव 'त्ति सत्रम् , तथैव-तियश्च इव अधिनीतात्मान दिव्यं सो सिरिमिजंति , दंडेण पडिसेहए ॥ ४॥
इति पूर्ववत् । लोके अस्मिन्मनुष्यलोके, नरनार्य इति 'जे 'त्ति सूत्र , यः चण्डो-रोपणो मृगः-अशः हित- प्रकटार्थ रश्यन्ते दुःखमेधमाना इति पूर्ववत् , छाराः (ताः) मप्युक्नो रुष्यति तथा स्तब्धो-जात्यादिमदोन्मत्तः दुर्वाग्- कसघानवणाङ्कितशरीराः विगलितेन्द्रियाः अपनीतनाअप्रियवक्ता निकृतिमान्-मायोपेतः शठः-संयमयोगेष्वना- सिकादीन्द्रियाः पारदरिकादय इति सूत्रार्थः ॥ ७॥ तथा रतः , एभ्यो दोषेभ्यो विनयं न करोति यः उह्यतेऽसौ 'दंड' त्ति सूत्रम् , दराडाः-वेत्रदण्डादयः शस्त्राणि खनादीपापः संसारस्रोतसा अविनीतात्मा-सकलकल्याणे- नि ताभ्यां परिजीर्णाः-समन्ततो दुर्वलभावमापादिताः कनिबन्धनविनयविरहितः। किमिवेत्याह-काष्ठं स्रोतोग- तथा 'असभ्यवचनैश्च 'खरकर्कशादिभिः परिजीर्णाः, त तं-नयादिप्रधाहनिपतितं यथा तद्वदिति सूत्रार्थः ॥३॥ एवंभूताः सतां करुगाहेतुत्वाकरुणा-दीना व्यापत्रच्छन्दकिं च-'विण्यं पी' ति सूत्रम् , विनयम्-उक्तलक्षणं सः परायत्ततया अपेतस्वाभिप्रायाः, शुधा-बुभुक्षया पिपायः उपायेनापि--एकान्तमृदुभणनादिलक्षणेनापि अपि- सया-तृषा पंरिगता-व्याप्ता अन्नादिनिरोधस्तोकदानाभ्याशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, चोदितः--उक्तः कुप्यति- मिति, एवमिह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुभावतः एवंभूरुष्यति नरः । अत्र निदर्शनमाह-दिव्याम्-अमानुषी | ताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेखिततग विशया इति म असौ-नरः । श्रियं--लक्ष्मीम् श्रागच्छन्तीम्-आत्म सूत्रार्थः ॥ ८॥ विनयफलमाह-'तहेव 'त्ति सूत्रं, तथैवमो भवन्तीम् दण्डेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति-निवा-] विनीततियश्च इव सुविनीतात्मानो लोके अस्मिन्नरनार्यरयति । एतदुक्तं भवति-विनयः संपदो निमित्तं, तत्र स्ख- इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धि प्राप्ता महायलितं यदि कश्चिच्चोदयति स गुणस्तत्रापि रोषकरणेन शस इति पूर्ववदेव, नवरं स्वाराधितनृपगुरुजना उभयलोवस्तुतः संपदो निषेधः, उदाहरणं चात्र दशारादयः कु- कसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ रुपागतश्रीप्रार्थनाप्रणयभकारिणस्तद्रहितास्तदाकारी-- एतदेव विनयाऽधिनयफलं देवानधिकृत्याहव तयुक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थ ॥४॥
तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह
दीसंति हमेहंता, आभिप्रोगमुवट्ठिा ॥१०॥ तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया।
तहेव सुविणीअप्पा, देवा जस्खा अगुज्झगा। दीसंति दुहमेहंदा, आभिप्रोगमुवदिशा ॥५॥
दीमति सुहमेहंता, इड्डेि पत्ता महायमा ।। ११ ।। तहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया ।
'तहेव' त्ति सूत्रं , तथैव-यथा नरनार्यः अविनीदीसंति सुहमहंता, इडि पत्ता महायसा ॥६॥
तात्मानो-भवान्तरेऽकृतविनयाः देवा-वैमानिका ज्यो'तहेब ' ति सूत्रम् , तथवेति--तथैवेते प्रविनीतात्मानः- तिषका यक्षाच-व्यन्तराश्च गुह्यका-भवनवासिनः , तविनयरहिता अनात्मज्ञाः, उपवाखाना-राजादिवल्लभानामेते एते दृश्यन्ते श्रागमभावचचुषा दुःखमेधमानाः पराक्षाकर्मकरा इत्योपवाद्याः हया:-प्रश्वाः गजा-हस्तिनः , करणपरवृद्धिदर्शनादिना,धाभियोग्यमुपस्थिताः अभियोगःउपलक्षएमेतन्महिषकादीनामिति। एते किमित्याह-र-| श्राक्षाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यमियोगी तद्भाव श्रामियोम्यः श्यन्ते-उपलभ्यन्त एव मन्दुरादौ अविनयदोषेण उभयलो. कर्भकरभावमित्यर्थः, उपस्थिताः-प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥१०॥ कवर्तिना यबसादियोढारः दुःस्वम्-संक्लेशलक्षणम् ए- विनयफलमाह- तहेब' त्ति तथैवेति पूर्ववत् सुविधयन्तः-अनेकार्यत्वादनुभवन्तः श्रामियोम्यं--कर्मक-- नीतात्मानो-जन्मान्तरकृतविनया निरविचारधर्माराधका
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(१९७२) अभिधानराजेन्द्रः।
विणय इत्यर्थः, देवा यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव, दृश्यन्ते सुः चार्यवचनं नातिवतेत, युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूखमेधमाना अहत्कल्याणादिषु, द्धि प्राप्ता-इति देवा | त्रार्थः ॥१६॥ धिपादिप्राप्तईयो महायसशसो विख्यातसद्गुणा इति सू.
विनयोपायमाहवार्थः॥ ११॥ एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखदुःखसंभवस्तेषु वि.
नी सिजं गई ठाणं, नीअं च भासणाणि । नयाविनयफलमुक्तम् । अधुना विशेषतो लोकोत्तरविनयफ- नीनं च पाएँ वंदिजा, नीअं कुजा अंजलि ॥१७॥ लमाह
संघवइत्ता काएणं, तहा उबहिणामवि । जे आयरिश्रउवज्झा-याणं सुस्सूसॉवयणकरा | खमेह अवराई मे, वइज न पुणुत्ति अ॥ १८ ॥ तेसिं सिक्खा पवटुंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ १२ ॥ दुग्गो वा पोएणं, चोइओ वहई रहं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा उणिआणि श्र। एवं दुब्बुद्धिकिच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुबई ।। १६ ।। गिहिणो उवभोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा ॥ १३॥ (पालवंते लवंते वा, न निसिजाइ पडिस्सुणे । जेणं बंधं बहं घोरं, परिआवं च दारुणं।
मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्साए पडिस्सुणे ॥) सिक्खमाणा निश्रच्छंति, जुत्ताते ललिइंदिया ॥१४॥
कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ता ण हेउहि । तेऽवि तं गुरुं पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा । तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवावए ॥२०॥ सकारंति नमसंति, तुट्ठा निद्देसवत्तिणो ॥१५॥
नीचां शय्या-संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशाकिं पुणं जे सुअम्गाही, अणंतहिकामए ।
स्कुर्यादिति योगः, एवं नीचां गतिम् श्राचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो पायरिया जंवए मिक्खू तम्हा तं नाइवत्तए ॥१६॥
नातिदूरेण नातितं यायादित्यर्थः । एवं नीचं स्थानमाचा
यस्थानात् , यत्राचार्य श्रास्ते तस्मानीचतरे स्थाने स्थात'जे पायरित्र'ति सूत्र, य प्राचार्योपाध्याययोः-प्रती
व्यमिति भावः । तथा नीधानि लघुतराणि कदाचित्कारतयोः शुश्रूषावचमकरा-पूजाप्रधानवचनकरणशीलास्ते
णजाते श्रासनानि पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेपां-पुण्यभाजां शिक्षा-ग्रहणासेवनालक्षणा भावा--
वत,नान्यथा । तथा नीचं च सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादाधरूपाः प्रवर्द्धम्ते-वृधिमुपयान्ति दृष्टान्तमाह-जल--
याचार्यसत्की बम्बेत,नावया|तथा क्वचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रसिक्का व पादपा-वृक्षा इति सूत्रार्थः ॥१२॥
कायं कुर्यात्-संपादयेचाञ्जलिं,न तु स्थाणुवस्तब्ध एवेति सूपतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याह-श्रात्मार्थम्
पार्थः॥१७॥एवं कायविनयमभिधाय वाग्विनयमाह-संघट्टियश्रात्मनिमित्तमनेन मे जीविका भविष्यतीति , एवं परार्थ
स्पृष्टा कायेन-बेहेन कथञ्चित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य था-परनिमित्तं वा पुत्रमहमेतग्राहयिष्यामीत्येवं शिल्पा
तथा उपधिनाऽपि-कल्पादिना कश्चित्संघट्ट मिथ्यादुनि-कुम्भकारक्रियादीनि मैपुण्यानि च-पालख्यादिक
कृतपुरःसरमभिषन्द्य क्षमस्व-सहस्व अपराधं-दोषं लालक्षणानि गृहिणः-असंयता उपभोगार्थम्-अन्न
मे मन्दभाग्यस्यैवं वदेद-यात् न पुनरिति च-नाहपानादिभोगाय, शिक्षन्त इति वाक्यशेषः। इह लोकस्य
मेनं भूयः करिज्यामीति सूत्रार्थः॥ १८॥ एतच्च बुद्धिमान् कारणम्-इह लोकनिमित्तमिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ येन
स्वयमेव करोति, तदन्यस्तु कथमित्याह-दुगौरिव-गशिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं निगडादिभिः बधं
लिबलीवईवत् प्रतोदेन-प्रागदण्डलक्षणेन चोदितोकवादिभिः घोरं-रौद्रं परितापं च दारुणम्-एतज
विद्धः सन् बहति-नयति क्वापि रथं-प्रतीतम् , एनितमनि निर्भर्त्सनादिवचनजनितं च शिक्षमाणा गुरोः
वं-दुगौरिव दुर्बुद्धिः-अहितावहबुद्धिः शिष्यः कृत्यानासकाशात् नियच्छन्ति-प्राप्नुर्वान्त 'युक्ता' इति नियुक्ताः
म्-आचार्यादीनां कृत्यानि वा-तदभिरुचितकार्याणि शिल्पादिग्रहणे ते ललितेन्द्रिया-गर्भेश्वरा राजपुत्रादय
उक्त उक्तः-पुनः पुनरभिहित इत्यर्थः, प्रकरोति-निइति सूत्रार्थः ॥ १४॥ तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तं पादयति प्रयुक्त चेति सूत्रार्थः ॥ १६॥ एवं च कृतान्यमूगुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरबचना
नि न शोभनानीत्यतः ( प्राह )-काल-शरदादिलक्षणं, भिनन्दनेन तस्य शिल्पस्यत्वरस्य कारणात् , तन्निमित्तत्वा
छन्दः सदिच्छारूपम् उपचारम्-आराधनाप्रकारं, चदिति भावः । तथा सत्कारयन्ति-वस्त्रादिना, नमस्यन्ति
शब्दादेशादिपरिग्रहः, एतत् प्रत्युपेक्ष्य-ज्ञात्वा हेतुभिःअञ्जलिप्रग्रहादिमा । तुष्टा-इत्यमुत इदमबाप्यत इति हष्ट- यथानुरूपैः कारणैः, किमित्याह-तेन तेनोपायेन गृहस्थावनिर्देशयर्मिना-प्राक्षाकारिण इति सूत्रार्थः ॥ १५॥ यदि जमादिना तत्तत्-पित्तहगदिरूपमशनादि सम्प्रतिपादतावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति श्रतः-'कि' सूत्रं, किं पुनर्यः येत् , यथा काले शरदादौ पित्तहरादिभोजनं प्रयातनिवातासाधुः श्रुतमाही-परमपुरुषप्रणीतागमग्रहणामिलाषी अ. दिरूपा शय्या इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च नन्तहितकामुकः' मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः, तेन तु भाराधनाप्रकारोऽनुलोमं भाषण ग्रन्थाभ्यासवैयावृत्त्यसुतरां गुरवः पूजनीया इति । यतश्चैवमाचार्या यादम्ति करणादिदेशे अनुपदेशाधुचितं निष्ठीवनादिभिहेतुभिः श्लेकिसपि तथा सथाउनेकप्रकारं भिक्षुः-साधुस्तस्मासदा-! माद्याधिक्य विज्ञाय तदुचितं संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥२०॥
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विषय
विणय
अभिधानराजेन्द्रः।
रायणाहिएसुं विणयं पउंजे, विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य ।
डहरा अवि अजे परिपायजिड्डा । जस्सेयं दुहओ नाय, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ २१ ॥ नीमत्तणे वट्टइ सञ्चवाई , जे प्रावि चंडे मइइडिगारवे,
उवायवं वक्ककरे स पुजओ ॥३॥ पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे।
अनायउंछं चरई विसुद्धं, अदिदुधम्मे विणए अकोविए,
जवट्ठया समुत्राणं च निच्च । असंविभागी न हु तस्स मुक्खो ॥ २२ ॥
अलडुग्रं नो परिदेवइज्जा, निद्देसवित्ती पुण जे गुरूणं,
लडुं न वीकत्थई (वा) स पुज्जो ॥४॥ सुभत्थधम्मा विणयम्मि कोविभा।
संथारसिज्जासणभत्तपाणे, तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं,
अप्पिच्छया अइलाभेऽविसंते । खवित्तु कम्मं गइमुत्तमंगय ॥२३॥ त्ति बेमि ।
जो एवमप्पाणभितोसइज्जा ,
संतोसपाहबरए स पुज्जो॥५॥ विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां , संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव, यस्यैतत्-शानादिप्राप्त्यप्राप्तिद्वय
सक्का सहेउं आसाइकंटया, म् उभयतः-उभयाभ्यां विनयाऽविनयाभ्यां सकाशा
अश्रो मया उच्छहया नरेणं । त् भवतीत्येवं 'मातम्-उपादेयं चैतदिति भवति शिक्षाम्- प्रणासए जो उ सहिज्ज कंटए, ग्रहणासेवनारूपाम् असौ-इत्थंभूतः अधिगच्छति प्रा
वईमए कनसरे स पुज्जो ॥६॥ मोति, भावत उपादेयपरिक्षानादिति सूत्रार्थः ॥२१ ॥ एतदेव हढयन्नविनीतफलमाह-यश्चापि चण्ड:-प्रवजि
मुहुत्तदुक्खाउ हवंति कंटया , तोऽपि रोषणः ऋद्धिगौरवमतिः-ऋद्धिगौरवे अभिनिवि
अश्रो मया तेऽवि तो सुउद्धरा । टः पिशुनः-पृष्ठिमांसखादकः नरो-नरव्यञ्जनो न भा- वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि , वनरः साहसिकः--अकृत्यकरणपरः हीनप्रेषणः-हीन
वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ ७॥ गुर्वाशापरः अष्टधर्मा--सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा विनयेऽकोविदो--विनयविषयेऽपण्डितः असंविभागी-यत्रक
आचार्य-सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठाये, किमिचन लाभेन संविभागवान् । य इत्थंभूतोऽधर्मो नैव तस्य
स्याह--अग्निमिव तेजस्कायमिव प्राहिताग्निः ब्राह्मणः शुमोक्षः, सम्यग्रेश्चारित्रवत इत्थंविधसक्लेशाभावादिति
श्रूषमाणः-सम्यक्सवमानः प्रतिजागृयात् तत्तत्कृत्यसंपासूत्रार्थः ॥ २२ ॥ विनयफलाभिधानेनोपसंहरनाह-निर्देश- दनेनोपचरेत्, आह-यथाऽऽहितामिरित्यादिना प्रागिदमुक्त पाशा तवर्तिनः पुनये गुरूणाम्-श्राचार्यादीनां श्रुतार्थधर्मा- मेब, सत्यं, किंतु-तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्य इदं तु रमाधिकादिइति प्राकृतशेल्या थुतधर्मार्थाः, गीतार्था इत्यर्थः, विनये
कमप्यधिकृत्योच्यते, वक्ष्यति च-'रायणिएसु विणयमि' त्याकर्तव्ये कोविदा-विपश्चितो य इत्थंभूतास्ती. ते महास
दि, प्रतिजागरणोपायमाह-आलोकितं-निरीक्षितम् इङ्गितस्थाः श्रोधमेनं--प्रत्यक्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रं दुरुत्तार मेव च अन्यथा वृत्तिलक्षण शात्वा विज्ञायाचारूयं यःतीत्वैव तीर्खा, चरमभव केवलित्वं च प्राप्येति भावः, ततः साधुः छन्द:-अभिप्रायमाराधयति यथा शीते पतति प्रावरक्षपयित्वा कर्म निरवशेषं भवोपग्राहिसंशितं गतिमुत्तमां णावलोकने तदा नयने , इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुसियास्यां गताः-प्राप्ताः । इति ब्रवीमिति पूर्ववदिति सूत्रा- एव्याद्यानयनेन स पूज्यः स इत्थंभूतः साधुः पूजाईः कर्थः॥ २३ ॥ दश०६०२ उ०।
ल्याणभागिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ प्रक्रान्ताधिकार पवाहइह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह
प्राचारार्थ शानाद्याचारनिमित्तं विनयम् उक्तलक्षणं
प्रयुले करोति यः शुश्रूषन् श्रोतुमिच्छन् , किमयं आयारिअं अग्गिमिवाहि अग्गी,
वक्ष्यतीत्येवम् । तदनु तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यसुस्सूसमाणो पडिजागरिजा।
म् आचार्टीयं ततश्च यथोपदिष्टं-यथोक्लमेव अभिकाआलोइअं इंगिअमेव नच्चा,
अन् , मायारहितः श्रद्धया कर्तुमिच्छन् विनय प्रयुङ्गे , अजो छंदमाराहयई स पुज्जो ॥१॥
तोऽन्यथाकरणेन गुरुं त्विति-आचार्यमेव नाशातयति
न हीययति यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥२॥ किं च-रत्नाआयारमट्ठा विणयं पउंजे,
धिकेषु-ज्ञानादिभावरत्नाभ्युच्छितेषु विनयं-यथोचितं प्रयुसुस्सूसमाणो परिगिझ वकं ।
ते-करोति, तथा डहरा अपि च ये वयाश्रुताभ्यां पर्या
यज्येष्ठाः-चिरप्रवजितास्तेषु विनयं प्रयुक्त, एवं च यो नीजहोवइ8 अभिकंखमाणो,
चत्वे-गुणाधिकान् प्रति नीचभावे वर्तते सत्यवादी-अवि___ गुरुं तु नासाययई स पुओ ॥ २॥ रुद्धयक्ता तथा अवपातवान् वन्दनशीलो निकटवर्ती वा २६४
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अभिधानराजेन्द्रः।
विषय एवं च यो वाक्यकरो-गुरुनिर्देशकरणशीलः स पूज्य इति
गिएहाहि साहू गुणमुंचऽसाहू । सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ किं च-अज्ञातोन्छ-परिचयाऽकरणेनाशातः
विप्राणिश्रा अप्पगमप्पएणं, सन् भावोज्छ गृहस्थोद्धरितादि चरति-अटित्वाऽऽनीतं भुङ्क्ते. न तु शातस्तबहुमतमिति, एतदपि विशुद्धम्-उद्गमा
___ जो रागदोसेहि समो स पुजो ॥ ११ ॥ दिदोषरहितम् , न तद्विपरीतम् एतदपि यापनार्थम्-संयम- तहेव डहरं च महलगं वा, भरोद्वाहिशरीरपालनाय नान्यथा समुदानं च-उचितभि
.. इतिथ पुमं पव्वइअं गिहिं वा। क्षालब्धं च नित्यं-सर्वकालं न तूञ्छमप्येकत्रैव बहुलब्ध
नो हीलए नोऽवि अखिसइज्जा, कादाचित्कं घा, एवंभूतमपि विभागतः अलब्ध्वा-अमासाद्य, न परिदेवयेत-न खेदं यायात् , यथा-मन्दभा
थंभं च कोहं च चए स पुज्यो॥१२॥ ग्योऽहमशोभनो वाऽयं देश इति, एव विभागतश्च ल- जे माणिश्रा समयं माणयन्ति, ध्वा-प्रायोचितं न विकत्थते-न श्लाघां करोति-स पुण्यो
जत्तेण कनं व निवेसयंति । ऽहं शोभनो वाऽयं देश इत्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः
ते माणए माणरिहे तवस्सी, ॥४॥ किं च-संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि प्रतीतान्येव एतेषु अल्पेच्छता-अमूर्छया परिभोगोऽतिरिकाग्रहणं
जिइंदिए सच्चरए स पुओ ॥ १३ ।। था अतिलाभेऽपि सति संस्तारकादीनां गृहस्थेभ्यः सका- तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, शात् य एवमात्मानम् अभितोषयति-येन वा तेन वा या
सुच्चा था मेहावि सुभासिमाई। पयति संतोषप्राधान्यरतः-संतोष एवं प्रधानभावे सक्तः
चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥५॥ इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह-शक्याः सोदुम प्राशये-त्ति इदं मे भविष्यतीति चउक्कसायावगए स पुजओ ॥ १४ ॥ प्रत्याशया, क इत्याह-कण्टका अयोमया-लोहात्मकाः उ- गुरूमिह सययं पडिअरित्र मुणी, सहतानरेण-अर्थोद्यमवतेत्यर्थः. तथा च कुर्वन्ति केचिद
जिणमयनिउणे अभिगमकुसले । योमयकएटकास्तरणशयनमप्यर्थलिप्सया, न तु वाक्कण्ट
धुणिरयमलं पुरकडं, काः शक्या इत्येवं व्यवस्थिते अनाशया-फलप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु सहेन कण्टकान् वाङ्मयान्-खरादिवागा
भासुरमउल गई वया ॥ १५ ॥ त्ति बेमि ।। मकान कर्णसरान-कर्णगामिनः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥६॥ किंच-समापतन्त-एकीभावेनाभिमुखं पतन्तः, क इत्याएतदेव स्पष्टयति-मुहर्सदुःखा-अल्पकालदुःखा भवन्ति क- ह-वचनाभिघाताः-खरादिवचनप्रहाराः कर्णगताः सम्तः एटका अयोमयाः वेधकाल एवं प्रायो दुःखभावात् ,ते- प्रायोऽनादिभवाभ्यासात् दौर्मनस्य दुष्एमनोभावं जनयन्ति ऽपि ततः-कायात् सूहरा:-सुखेनैवोद्धियन्ते व्रणपरिकर्म प्राणिनामेवभूतान वचनाभिघातान् धर्म इति करवा सामाच क्रियते. वाग्दुरुक्तानि पुनः दुरुद्धराणि-दुःखेनोद्धियन्ते यिकपरिणामापनो न त्वशक्त्यादिना परमाप्रशूरो-दानमनोलक्षवेधनाद् वैरानुषन्धीनि-तथा श्रवणप्रद्वेषादिनह प- संग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूगे जितेन्द्रियः सन् यः सहरत्र च वैरानुबन्धीनि भवन्ति अत एव महाभयानि, कुगति
ते मतु तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ पातादिमहाभयहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ७॥
तथा-अवर्णवादं च अश्लाघावादं च पगङ्मुखस्य-पृष्ठत .. समावयंता वयणाभिघाया,
त्यर्थः प्रत्यक्षतश्च प्रत्यक्षस्य च प्रत्यनीकाम-अपकारिणी
चौरस्पमित्यादिरूपां भाषां तथा अवधारिणीम्-अशोकन्नं गया दुम्मणि जणंति ।
भन एवायमित्यादिरूपाम् अप्रियकारिणी च-श्रोतुमृतधम्मु त्ति किच्चा परमग्गमूरे,
निवेदनादिरूपां भाषां वाचं न भाषेत सदा यः कदाचिजिइंदिए जो सहई स पुञ्जो ॥८॥
दपि नैव ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ तथा-अलोअवणवायं च परम्मुहस्स,
लुपः-आहारादिष्चलुब्धः अकुहकः-इन्द्रजालादिकुहकरहि
तः श्रमायी कौटिल्यशून्यः अपिशुनश्चापि-नो छेदभेदकर्ता अ. पच्चक्खो पडिणीअं च भासं ।
दीनवृत्तिः-आहाराद्यलाभेऽपि शुद्धवृत्तिः नो भावयेद् अकुमोहारणि अप्पिकारिणिं च ,
शलभावनया परं, यथाऽमुकपुरतो भवताऽहं वर्णनीयः नाभासं न भासिज्ज सया स पुजो ॥४॥
पिच भावितात्मा-स्वयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः अ
कौतुकच सदा नटनर्तकादिषु यः स पूज्य इति सूत्राअलोलुए अकुहए अमाई,
र्थः॥१०॥किंच-गुणैः-अनन्तरोदितैर्विनयादिभिर्युक्तः साअपि (पी) सुणे आवि अदरणवित्ती।
धुर्भवति, तथा-अगुणैः-उलगुणविपरीतैरसाधुः, एवं सनो भावए नोऽवि अ भाविअप्पा,
ति गृहाण साधुगुणान् मुश्वासाधुगुणानिति शोभन उप
देशः, एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या विज्ञापयति विविध शाअकोउहल्ले असया स पुज्जो ॥१०॥
पयत्यात्मानमात्मना यः, तथा रागद्वेषयोः समः न रागुणेहि साहू अगुपहिसाहू,
गवान द्वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः॥११॥ किंच-तथैवे
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विलय
(१९७५) विषय
अभिधानराजेन्द्रः। ति पूर्ववत् डहरं वा महलकं वा वाशब्दान्मध्यम था खियं | अभिग्रहेति-अभिग्रहो-गुरुनियोगकरणाभिसन्धिः, आसपुमांसमुपलक्षणत्वानपुंसकं वा प्रबजितं गृहिणं वा वाशब्दा- गरपाग:-पासनदानं पीठकाद्युपनयनमित्यर्थः । श्रभ्युत्थान दन्धतीथिकं वा नहीलयति, नापि च खिसयति. तत्र सूयया निषण्णस्य सहसाईदर्शनेन । अञ्जलिग्रहः-प्रश्नादो कृतिअसूयया वा । सकृद् दुशभिधानं हीलनम् , तदेवासकृत्खि- कर्म च वन्दनम् शुश्रूषा-विधिवददूरासन्नतया सेवनम् । पसनमिति । होलनखि सनयोश्च निमित्तभूतं स्तम्भं च मानं | श्चागतिगच्छतः, समुखं च गतिरागच्छत इति॥४॥ च क्रोधं च रोपं च त्यजति यः स पूज्यो , निदानत्यागेन तत्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ किं च-ये
कायिकोऽष्टविधश्चाय, वाचिकश्च चतुर्विधः। मानिता अभ्युत्थानादिसत्कारैः सततम्-अनवरतं शि- हितं मितं चापरुष, त्रुवतोऽनुविचिन्त्य च ॥५॥ ध्यान् मानयन्ति-श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिः, तथा| कायिक इति--श्रयं चाष्टविधः कायिक उपचारः । वाचियत्नन कन्यामिव निवेशयन्ति-यथा मातापितरः, क- कस्तु चतुर्विधः-हितं परिणामसुन्दर घुवतः प्रथमः. मितं म्यां गुणैर्वयसा च संवर्य योग्यभर्तरि स्थाययन्ति एव- स्तोकाक्षरं त्रुवतो द्वितीयः,अपरुषं चानिष्ठुरं बुधतस्तृतीयः, माचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं रष्ट्रा महत्याचार्यपदेऽपि अनुविचिन्त्य-स्वालोच्य च बुवतश्चतुर्थ इति ॥५॥ स्थापयन्ति । तानेयंभूतान् गुरुन्मानयति योऽभ्युत्था
मानसश्च-द्विधा शुद्ध प्रवृत्याऽसन्निरोधतः । नादिना मानाहान्-मानयोग्यान् तपस्वी सन् जितेन्द्रिपः सत्यरत इति , प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणद्वयं , स
छमस्थानामयं प्रायः, सकलोऽन्यानुवृत्तितः ॥ ६ ॥ पूज्य इति सूनार्थः ॥१३॥ तेषां गुरूणाम्-अनन्तरादि-1 मानसश्चेति-मानसश्चोपचारो द्विधा शुद्धप्रवृत्त्या धर्मतानां गुणसागगणां-गुणसमुद्राणां संबन्धीनि श्रुत्वा ध्यानादिप्रवृत्या, असन्निरोधत आर्तध्यानादिप्रतिवेधात् मेधावी सुभाषितानि-परलोकोपकारकाणि चरति-श्रा- अयं च सकलः प्रायः प्रतिरूपो विनयश्छमस्थानामन्याचरति मुनिः-साधुः-पश्चरतः-पञ्चमहावतसक्त:-त्रिगु- नुवृत्तितः आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्तेः प्रायोप्रपणादशातसो-मनोगुप्त्यादिमान् चतुःकपायापगत इति-अपगतको- केयलभावदशायां केवलिनामपि । अन्यदा तु तेषाममतिधादिकपायो यः स पूज्य इनि सुत्रार्थः ॥१५॥ प्रस्तुतफ- रूप एव विनयस्तथैव तत्कर्मविनयनोपपत्ते । तदुक्तम्-"प. लाभिधानेनोपसंहरबाह-गुरुम्-प्राचार्यादिरूपम् इह-मनु डिरूवो खलु विणो, पराणुअत्तिमइओ मुणेअब्बो । अप्प. ध्यलोके सततम्-अनवरत परिचर्य-विधिनाऽऽराध्य मु डिरूयो विणो, णायव्वो केवलीण तु॥१॥" ॥६॥ निः-साधुः, किंविशिष्टो मुनिरित्याह-जिनमतनिपुणःश्रागमे प्रवीणः अभिगमकुशलो-लोकमाघूर्णकादिप्रति
अहत्सिद्धकुलाचार्यो-पाध्यायस्थविरेषु च । पत्तिदक्षः, स एवंभूतः विधूय रजोमलं पुराकृतं, क्षए- गणसंघक्रियाधर्म-ज्ञानज्ञानिगणियपि ॥ ७॥ यित्वा अष्टप्रकारं कर्मेति भावः, किमित्याह-भास्वरांझा
अर्हदिति-अर्हन्तस्तीर्थकराः सिद्धाः-क्षीणाएकर्ममलाः, मतेजोमयत्वात् अतुलाम्--अनन्यसदृशीं गति-सिद्धि
कुलम्- नागेन्द्रादि. प्राचार्यः-पञ्चविधाचारानुष्ठाता तनरूपां बजति--गच्छति तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रक
रूपकश्च । उपाध्यायः-स्वाध्यायपाठकः स्थविरः-सीदतां टजात्यादिना प्रकारेण धीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥१५॥
स्थिरीकरणहेतुः, गणः-कौटिकादिः संघः-साध्यादिसदश ६ ०३ उ०।
मुदायः, किया-अस्तिवादरूपा, धर्म:-श्रुतधर्मादिः, शानम्कर्मणां द्राग्विनयना-द्विनयो विदुषांमतः।
पत्यादि, शानिनस्तद्वन्तः, गणिः-गणाधिपतिः ॥ ७॥ अपवर्गफलाढ्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् ॥१॥ (द्वा०)।
अनाशातनया भक्त्या, बहमानेन वर्णनात । (अस्मिन्नेव शब्दे ११५२ पृष्ठे प्राग् व्याख्यातः।)
द्विपश्चाशद्विधः प्रोक्को, द्वितीयश्चौपचारिकः॥८॥ ज्ञानदर्शनचारित्र-तपोभिरुपचारतः ।
अनाशातनयेति-अनाशातनया-सर्वथाऽहीलनया, भक्त्या अयं च पञ्चधा भिन्नो, दर्शितो मुनिपुङ्गवैः ॥२॥ उचितोपचाररूपया. बहुमानेनान्तरभावप्रतिबन्धरूपेण, व.
नात्-सद्भूतगुणोत्कीर्तनात् , द्वितीयश्चानाशातनात्मक 'झानेति' शानादीनां विनयत्वं पूर्वकर्मविनयनादुत्तरक
औपचारिकविनयो द्विपञ्चाशद्विधः५२ प्रोक्तः । त्रयोदशपदानां विन्धाच द्रष्टव्यम् ॥२॥
चतुर्भिर्गुणने, यथोकसंख्यालामात् ॥८॥ प्रतिरूपेण योगेन, तथा नाशातनात्मना। उपचारो द्विधा तत्रा-दिमो योगत्रयात्रिधा ॥३॥
एकस्याशातनाऽप्यत्र, सर्वेपामेव तत्त्वतः।
अन्योऽन्यमनुविद्धा हि, तेषु ज्ञानादयो गुणाः ॥६॥ प्रतिरूपेणेति-प्रतिरूपेणोचितेन योगेन । तथाऽनाशातनान्मना अाशातनाऽभावेन उपचारो द्विधा । तत्रादिमः
एकस्येति-अत्राहदादिपदेषु एकस्यापि आशातना तत्त्वतः प्रतिरूपयोगान्मको योगत्रयास्त्रिधा कायिको वाचिको मा-|
सर्वेषां हि यतस्तेषु शानादयो गुणा अन्योन्यमनुषिद्धाः, मसश्चेति ॥३॥
यदेव ोकस्य शुद्धं ज्ञानं तदेवापरस्यापि । इत्थं च ही.
लनाविषयीभूतज्ञानादिसंबन्धस्य सर्वत्राविशेषादेकहीलने अभिग्रहासनत्यागा-वभ्युत्थानाञ्जलिग्रहौ ।
सर्वहीलनापत्तेदारुणविपाकत्वमवधार्थ न कस्यापि हीलना कृतिकर्म च शुश्रूषा, गतिः पश्चाच्च संमुखम् ॥४॥ । कार्येति भावः ॥६॥
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(११७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
विषय
नूनमन्पश्रुतस्यापि, गुरोराचारशालिनः । हीलना भस्मसात्कुर्याद्, गुणं वह्निरिवेन्धनम् ।। १० । 'नूनमिति' नूनं - निश्चितमल्पश्रुतस्याप्यनधीतागमस्यापि कारणान्तरस्थापितस्य गुरोराचार्यस्याचारशालिनः पञ्चविधाचारनिरतस्य हीलना गुणं स्वगतचारित्रादिकं भस्मसात् कुर्यात् इन्धनमिव वह्निः ॥ १० ॥ शक्त्यग्रज्वलनन्याल - सिंहक्रोधातिशायिनी । अनन्तदुःखजननी, कीर्तिता गुरुहीलना ॥ ११ ॥ शक्त्यप्रेति-शक्तिः प्रहरणविशेषस्तदग्रं शक्त्य, ज्वलनोऽग्निः व्यालसिंहयोः - सर्पकेसरिणोः क्रोधः - कोपः, तदतिशायिनी - तेभ्योऽप्यधिका अनन्तदुःखजननी गुरुहीलना कीतिता दशवेकालिके ॥ ११ ॥
पठेद्यस्यान्तिके धर्म-पदान्यस्यापि सन्ततम् । कायवाङ्मनसां शुद्धया, कुर्याद्विनयमुत्तमम् ॥ १२ ॥ पठेदिति - यस्यान्तिके धर्मपदानि-धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि पठेत् । अस्य सन्ततमपि निरन्तरमपि न तु सूत्रग्रहणकाल एव, कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गात् । कायवानसां शुद्धा उत्तमं विनयं कुर्यात् ॥ १२ ॥ पर्यायेण विहीनोsपि, शुद्धज्ञानगुणाधिकः । ज्ञानप्रदानसामर्थ्यादतो रत्नाधिकः स्मृतः ॥ १३ ॥ पर्यायेणेति - श्रतो धर्मपाठकस्य सदा विनयाईत्वात् पर्या येण चारित्रयर्यायेण विहीनोऽपि शुद्धज्ञानगुणेनाधिको शानप्रदानसामार्थ्यमधिकृत्य रत्नाधिकः स्मृत श्रावश्यकादौ । स्वापेक्षितरत्नाधिक्येन तस्वव्यवस्थितेः । विवेचितमिदं सामाचारीप्रकरणे ॥ १४ ॥
शिल्पार्थमपि सेवन्ते, शिल्पाचार्य जनाः किल । धर्माचार्यस्य धर्मार्थ, किं पुनस्तदतिक्रमः ॥ १४ ॥ शिल्पार्थमिति व्यक्तः ॥ १४ ॥
ज्ञानार्थ विनयं प्राहु-रपि प्रकटसेविनः ।
अत एवापवादेना- न्यथा शास्त्रार्थबाधनम् ॥ १५ ॥ शानार्थमिति श्रत एव ज्ञानादिग्रहणे विनयपूर्वकत्वनियमस्य सिद्धान्तसिद्धत्वादेवापवादेन ज्ञानार्थे प्रकटसेविनो ऽपि विनयमाहुः, पर्यायादिकारणेष्वेतदन्तर्भावात् । अन्य था तथाविधकारणेऽपि तद्विनयानादरे शास्त्रार्थबाधनं शाखाशाव्यतिक्रमः । तदुक्तम्- "एयाइँ श्रकुव्वतो, जहारिहं श्ररिहदेसिए मग्गे । णं हवद्द पवयणभत्ती, अभत्तिमतादश्रो दोसा ॥१॥" |
नन्वेवमपवादतोऽपि प्रकटप्रतिषेविणोऽगृहीतग्रहिलनुपन्यायेन द्रव्यवन्दनमेव यदुक्तं तद्भङ्गापत्तिर्ज्ञानगुणबुद्धया तइन्दने भाववन्दनावतारादित्याशङ्कय तदुक्तिप्रायिकत्वाभिप्रायेण समाधत्ते
न चैवमस्य भावत्वाद्, द्रव्यतोक्तिर्विरुध्यते । सद्भावकारणत्वोक्ने-र्भावस्याप्यागमाख्यया ।। १६॥ न चैवमिति - न चैवं ज्ञानार्थ प्रकटप्रतिषेविणोऽपि विनयकरणेऽस्य शानार्थविनयस्य भावत्वाद्द्रव्यत्वाक्शिरापवा
For Private
विण्य दिकविनयस्योपदेश पदादिप्रसिद्धा विरुध्यते भावस्यापि श्रागमाख्यया - आगमनाम्ना सद्भावकारणत्वोक्तः पुष्टालम्बनत्ववचनादस्वारसिक कारणस्थल एवोशनियमादिति । भावलेशस्तु मार्गानुसारी यत्र कचिदपि मार्गोद्भासनार्थ वन्दनादिविनयाईतानिमित्तमेव श्रूयते । यदुक्तं बृहत्कल्पभाष्ये - " दंसणनाणचरितं तवविण्यं जत्थ जत्तियं पासे । जिणपन्नन्तं भक्ती - इ पूयए तं तर्हि भावं " ॥ १६ ॥ विनयेन विना न स्या - जिनप्रवचनोन्नतिः | पयःसेकं विना किं वा, वर्धते भुवि पादपः ॥ १७ ॥ विनयं ग्रामाणो यो, मृदुपायेन कुप्यति । उत्तमां श्रियमायान्तीं, दण्डेनापनयत्यसौ ॥ १८ ॥ त्रैलोक्येऽपि विनीतानां दृश्यते सुखमङ्गिनाम् । त्रैलोक्येऽप्यविनीतानां, दृश्यतेऽसुखमङ्गिनाम् ॥१६॥ ज्ञानादिविनयेनैव, पूज्यत्वाप्तिः श्रुतोदिता । गुरुत्वं हि गुणापेचं, न स्वेच्छामनुधावति ॥ २० ॥ विनये च श्रुते चैव तपस्याचार एव च । चतुर्विधः समाधिस्तु, दर्शितो मुनिपुङ्गवैः ॥ २१ ॥ शुश्रूषति विनीतः सन् सम्यगेवावबुध्यते । यथावत् कुरुते चार्थ, मदेन च न माद्यति ॥ २२ ॥ श्रुतमेकाग्रता वा मे, भविताऽऽत्मानमेव वा । स्थापयिष्यामि धर्मेऽन्यं, वेत्यध्येति सदागमम् ॥२३॥ कुर्यात्तपस्तथाऽऽचारं, नैहिकामुष्मिकाशया ।
द्यर्थं च नो किंतु, निष्कामो निर्जराकृते ॥ २४ ॥ इत्थं समाहिते स्वान्ते, विनयस्य फलं भवेत् । स्पर्शाख्यं स हि तचाप्ति - बधमात्रं परः पुनः ॥ २५ ॥ अक्षेपफलदः स्पर्श - स्तन्मयी भावतो मतः । यथा सिद्धरसस्पर्श - स्ताम्रे सर्वानुवेधतः ।। २६ । इत्थं च विनयो मुख्यः, सर्वानुगमशक्तितः । मिष्ठान्नेव सर्वेषु निपतनिक्षुजो रसः ।। २७ ।। दोषाः किल तमांसीव, क्षीयन्ते विनयेन च । प्रसृतेनांशुजालेन, चण्डमार्तण्डमण्डलात् ॥ २८ ॥ श्रुतस्याप्यतिदोषाय, ग्रहणं विनयं विना । यथा महानिधानस्य, विमानधनसन्निधिम् ॥ २६ ॥ विनयस्य प्रधानत्व - द्योतनायैव पर्षदि । तीर्थं तीर्थपतिर्नत्वा कृतार्थोऽपि कथां जगौ ॥ ३० ॥ for fact यैस्तु शुश्रूषोऽपि परैरपि । तैरप्यग्रे सरीभूय, मोक्षमार्गो विलुप्यते ॥ ३१ ॥ नियुक्ते यो यथास्थान - मेनं तस्य तु सन्निधौ स्वयंवराः समायान्ति परस्य रतिसंपदः ॥ ३२ ॥ अर्थः स्पष्टः ॥ ३२ ॥ द्वा० २६ द्वा० ।
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विणय अभिधानराजेन्द्र:।
विजय तदेव प्रवपयामभ्युचतो नित्यं गुरुकुलवासमावसन् सर्वत्र भूत्वा परि-समन्ताद् प्रजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी मखानशयनासनादावुपयुक्तो भवति तदुपयुक्तस्य च गुणमु-|
वेत्, तथा-निद्रां च-निद्राप्रमाद च भिक्षुः-सत्साधुःप्र. जावयवाह
मादाङ्गत्वान्न कुर्यात् । एतदुक्तं भवति-शब्दाश्रवनिरोधेन जे ठाणमो य सयथासणे य,
विषयप्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमावः, - परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते ।
शब्दादन्यमपि प्रमावं विकथाकषायाविक न विदध्यात् ।
तदेवं गुरुकुलवासात् स्थानशयनासनसमितिगुप्तिप्वागतसमितीसु गुत्तीसु य भायपने,
प्रज्ञा प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथं कथवियागरिते य पुढो वएज्जा ॥५॥
मपि विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिरूपा (वि) तीर्णः-प्रतिसहाणि सोचा अदु भेरवाणि,
काम्तो भवति, यदि वा-मद्गृहीतोऽयं पञ्चमहावतभारा
ऽतिदुर्वहः कथं कथमप्यन्तं गच्छेत् । इत्येवंभूतां विचिअण्णासवे तेसु परिव्वएज्जा ।
कित्सां गुरुप्रसादाद्वितीणे भवति, अथवा-यां काश्चिच्चिनिदं च भिक्खू न पमाय कुज्जा ,
सविप्लुर्ति देशसर्वगतां तां कृत्स्ना गुर्वन्तिके वसन् वितीकहं कहं वा वितिगिच्छति ॥६॥
णों भवति अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति ॥६॥ डहरेण बुड्डेणऽणुसासिए उ,
किश्वान्यत्-स गुर्वन्तिके निवसन् कचित् प्रमादस्खलितः
सन् वयःपर्यायाभ्यां शुल्लकेन-लघुना चोदितः-प्रमादाचरातिलिएणावि समव्वएणं ।
रणं प्रति निषिद्धः, तथा वृद्धेन वा-वयोऽधिकेन भूतासम्मं वयं थिरतो णाभिगच्छे ,
धिकेन वा अनुशासितः-अभिहितः, तद्यथा-भवद्विधानाणिज्जंतए वावि अपारए से ॥ ७॥
मिदमीप्रमादाचरणमासेवितुमयुक्तं , तथा रत्नाधिकेन
वा-प्रवज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा समवयसा वा विउवितेणं समयाणुसिढे,
अनुशासितः-प्रमादस्खलिताचरणं प्रति चोदितः कुप्यडहरेण वुड्डेण उ चोइए य ।
ति यथा अहमप्यनेन द्रमकमायेणोत्तमकुलप्रसूतः सर्वजअच्चुट्ठियाए घडदासिए वा ,
नसंमत इत्येवं चोदितः-इत्येवमनुशास्यमानो न मिथ्या
दुष्कृतं ददाति न सम्यगुत्थानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशा अगारिणं वा समयाणुसिढे ॥८॥
सनं सम्यक स्थिरता-अपुनःकरणतयाऽभिगच्छेत्-प्रतिपयो हि निर्विरणसंसारतया प्रव्रज्यामभ्युद्यतो नित्यं गुरु
घेत, चोदितश्च प्रतिचोदयेद् , असम्यकप्रतिपद्यमानश्चाकुलवासतः स्थानतश्व-स्थानमाश्रित्य तथा शयनता-प्रास- सौ संसारस्रोतसा नीयमान-उद्यमानोऽनुशास्यमानः कुनतः, एकश्चकारः समुच्चये, द्वितीयोऽनुक्तसमुचायार्थः, च- पितोऽसौ न संसारार्णवस्य पारगो भवति । यदि वा-माकारागमनमाश्रित्यागमनं च तथा तपश्चरणादौ पराक्रमतश्च
चार्यादिना सदुपदेशदानतः प्रमादरखलितनिवर्तनतो मोक्ष (सु) साधोः-उद्युक्तविहारिणो ये समाचारास्तैः समायुक्तः
प्रति नीयमानोऽप्यसी संसारसमुद्रस्य तदकरणतोऽपारग सुसाधुयुक्तः सुसाधुर्हि यत्र स्थानं-कायोत्सर्गादिकं वि
एव भवतीति ॥७॥ साम्प्रतं स्वपक्षचोदनानन्तरतः (र) धत्ते तत्र सम्यक् प्रत्युपेक्षणादिकां फ्रियां करोति। कायोत्सर्ग
स्वपरचोदनामधिकृत्याह-विरुद्धोत्थानेनोत्थितो व्युत्थितःच मेरुरिव निष्प्रकम्पः शरीरनिःस्पृहो विधत्ते, तथा शय- परतीर्थिको गृहस्थो वा मिथ्याष्टिस्तेन प्रमावस्खलिते चोनं च कुर्वन् प्रत्युपेक्ष्य संस्तारकं तद्भुवं कायं चोचितकाले
दितः स्वसमयेन , तद्यथा-नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे गुरुभिरनुज्ञातः स्वपेत् , तत्रापि जानदिव नात्यन्तं निःसह व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि, यदिवा-व्युस्थितः-संयइति । एवमासनादिष्वपि तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण स्वा माद् भ्रष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेन-मईध्यायध्यानपरायणेन सुसाधुना भवितव्यमिति । तदेवमादि- त्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितो मूलोत्तरगुणाचरणे स्वसुसाधुक्रियायुक्तो गुरुकुलनिवासी सुसाधुर्भवतीति स्थितम्।
लितः सन् चोदितः-आगम प्रदाभिहितः, तद्यथा-नैतअपि च-गुरुकुलवासे निवसन् पञ्चसु समितिवीर्यासमि
त्वरितगमनादिकं भवतामनुज्ञातमिति, तथा अन्येन वा मित्यादिषु प्रविचाररूपासु, तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचारा
ध्यारष्टयादिना शुल्लकेन-लघुतरेण वयसा वृजेन वा कु. प्रविचाररूपासु, पागता-उत्पन्ना प्रशा यस्यासावागतप्रक्ष:- त्सिताचारप्रवृत्तश्चोदितः, तुशब्दात्समानवयसा बा तथा संजातकर्तव्याकर्तव्यविवेकः-स्वतो भयति , परस्यापि च अतीवकार्यकरणं प्रति उत्थिता अत्युत्थिताः, यदि वाव्याकुर्वन-कथयन पृथक पृथग्गुरोः प्रसादात् परिशातस्वरू- दासीत्वेन अत्यन्तमुत्थिता दास्या अपि दासीति तामेव पः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनम् तत्फलं च विशिनष्टि-घटदास्या-जलवाहिन्याऽपि चोदितो न क्रोधं घदेत्-प्रतिपादयेदिति ॥५॥ ईर्यासमित्याधुपेतेन यद्विधेयं तह- कुर्यात् , एतदुक्तं भवति-अत्युत्थितयाऽतिकुपितयाऽपि शयितुमाह-शब्दान्-वेणुवीणादिका मधुराम्-श्रुतिपेशलान् चोदितः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुन कुप्येत् किं पुनरम्येथुत्वा-समाकरर्य, अथवा-भैरवान्-भयावहान् कर्णकट्टनाक- नेति । तथा अगारिणां-गृहस्थानां यः समय:--अनुष्ठानं गर्य शब्दान् श्राश्रवति तान् शोभनत्वेन अशोभनत्वेन वा गृ- तत्समयेनानुशासितो, गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तु ह्वातीत्याश्रवो नाश्रवोऽनाश्रवः , तेष्वनुक्लेषु प्रतिकूलेषु यदारब्धं भवतेत्येवमात्मावमेनापि चोदितो ममैवैतच्छेयः श्रवणपथमुपगतेषु शम्देष्वनावो-मध्यस्थो रागद्वेषरहितो। इत्येवं मन्यमानो मनागपि न मनो दूपयेदिति ॥5॥
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विषय अभिधानराजेन्द्रः।
विषय पतदेवाह
एवमेतामुपमाम् उदाहतवान्-अभिहितमान् वीर:-तीर्थकरो पण तेसु कुज्मेण य पब्बहेजा,
ऽन्यो वा गणधरादिकः अनुगम्य-बुद्धा अर्थ-परमार्थ चोदण यावि किंची फरुसं वदेजा।
नारुतं परमापकारं सम्यगात्मन्युपनयति, तद्यथा-अहमनेन
मिथ्यात्ववनाजम्मजरामरणाचनेकोपद्रवबहुलात्सदुपदेशतहा करिस्संति पडिस्सुरोजा,
दानेनोत्तारितः, ततो मयाऽस्य परमोपकारिणोऽभ्युत्थानवि सेयं खु मेयं स पमाय कुजा ॥६॥
नयादिभिः पूजा विधेयेति । अस्मिन्नर्थे बहवोरष्टान्ताः सन्ति
तद्यथा-"गहम्मि अग्गिजाला-उलम्मि जहणाम डज्झमाणवर्णसि मूढस्स जहा अमूदा,
म्मि । जो कोहेर सुयंतं, सो तस्स जणो परमबंधू ॥१॥ जह मग्गाणुसासंति हितं पया।
वा विससंजुत्तं, भत्तं निजमिह भोत्तुकामस्स । जो विसतेणेव (तेणावि ) मझ इसमेव सेये,
दोसं साहा, सो तस्स जो परमबंधू ॥२॥"॥११॥श्रजं मे बुहा समखुसासयंति ॥१०॥
यमपरः सूत्रेलेव रष्टान्तोऽभिधीयते-यथाहि सजलजलधमह तेण मृदेण अमृढगस्स,
राम्छादितबहलान्धकारायांरात्रौ नेता-नायकोऽटम्यादी ख
भ्यस्तप्रदेशोऽपि मार्ग-पन्थानमन्धकारावृत्तत्वात्स्वास्ताकायच पूया सबिसेसजुत्ता ।
दिकमपश्यत्र जानाति-न सम्यक् परिच्छिनत्ति । स एव एओवमं तत्थ उदाहु वीरे,
प्रखेता सूर्यस्य-प्रादित्यस्याभ्युमेनापनीते तमसि प्रकाअणुगम्म प्रत्वं उबदेति सम्म ॥११॥ शिते विकचके सम्यगाविभूते पाषाणदरिनिम्नोत्रतादिकेखेता जहा अंधकारंसि रानो,
मार्ग जामाति-विवक्षितप्रदेशप्रापकं पन्थानमभिव्यकवचः मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे ।
परिच्छित्ति-दोषगुणविचारणातः सम्यगवगच्छतीति ।१९
एवं दृष्टान्तं प्रदय दार्शन्तिकमधिकृत्याहसे सरिअस्स भन्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ॥१२॥
एवं तु सेवे वि अपुडघम्मे ,
धम्मं न जालाइ भवुज्झमाणे । तेषु-स्वपरपक्षेषु स्खलितचोदकेच्वात्मदितं मम्बमानो न कुभ्येत् अन्यस्मिन् वा दुर्वचनेऽभिहिते म कुप्येद एवं च
से कोचिए जिसवयोण पच्छा , चिन्तयेत्-"आकुष्टेन मतिमता, तस्वार्थविचारणे मतिःका
बरोदये पासति चातुमेव ।। १३ ॥ र्या । यदि सत्यं कः कोपः, स्यादनृतं किं नु कोपेन ?
उझं अहे तिरियं दिसासु , ॥५॥" तथा नाप्यपरेण स्वतोऽधमेनापि चोदितोऽईन्मा
तसा व जे थावरा जे य पाणा । र्गानुसारेण लोकाचारगत्या वाऽभिहितः परमार्थ पर्यालोच्य तं चोदकं प्रकर्षेण व्यथेत्-दण्डादिप्रहारेण पी
सबा जए तेतु परिबरज्जा, डयेत्, न चापि किश्चित्परुषं तत्पीडादिकारि वदेत्-घूया
मबमोतं अविकंपमाणे ॥१४॥ त् , ममैवायमसदनुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चो
कालेख पुच्छ समियं पयासु , दयति, चोदितश्चैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेय
प्राइक्समालो दवियस्स वित्तं । मेवंविधं च पूर्वर्षिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्य तथा करिष्यामीत्येवं मध्यस्थवृत्त्या प्रतिश्टणुयाद् अनु
तं सोपकारी ( य) पुढोपवेसे , तिष्ठेच-मिथ्यादुष्कृतादिना निवत्तेत , यदेतचोदनं नामै
संखा इमं फेवलियं समाहिं ॥१५॥ तन्ममैव श्रेयो, यत पतङ्गयात्कचित्पुनः प्रमादं न कुर्या- मस्ति सुठिचा विविहेण तायी , म्नवासदाचरणमनुतिष्ठेदिति ॥६॥ अस्यार्थस्य रष्टाम्तं द
एएतु या संति निरोहमाहु । शयितुमाह-वने-गहने महाटव्यां दिग्भ्रमेण कस्यचिद् व्याकुलितमतेर्नष्टसत्पथस्य यथा केचियपरे कृपाकृष्टमानसा
ते एव मक्संति तिलोगदंसी, अमूढाः-सदसन्मार्गशाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां हित- सज्जमेयंति पमायसंग ॥ १६ ॥ म्-अशेषापायरहितमीप्सितस्थानप्रापकं मार्ग-पन्थानम् वथा बसावन्धकारावृतायां रजन्यामतिगहमायामटअनुशासन्ति प्रतिपादयन्ति, स च तैः सदसद्विवकिमिः व्यां मार्ग न जानाति सूर्योद्मेनापनीते तमसि पयाजासार्गावतरणमनुशासित प्रात्मनः श्रेयो मन्यते , एवं ते- नाति एवं तु शिष्यक:-अभिनवप्रबजितोऽपि सूत्रार्थानिष्पनाप्यसदनुष्ठायिना चोदितेम न कुपितम्यम्, अपि तु-ममा. भः अपुर-पुष्कला सम्यगपरिक्षातो धर्मः-श्रुतचारित्रायमनुग्रह इत्येवं मन्तव्यम् , यदेतद् बुद्धाः सम्यगनुशासयन्ति स्यो दुर्गतिप्रस्तजन्तुधरणस्वभावो येनासावपुरधर्मा, सन्मार्गेऽवतारयन्ति पुत्रमिव पितरः तन्ममैव श्रेय इति सवागीतार्थ:-सूत्रानभिज्ञत्यादबुध्यमानो धर्म न जामन्तव्यम् ॥१॥ पुनरप्यस्यार्थस्य पुष्टवर्थमाह-थे- नातीति- सम्यक परिच्छिनत्ति, स एव तु पश्चाद् गुरुकुलत्यानन्तर्याथै, वाक्योपन्यासाथै वा, यथा तेन-मूढेन सन्मा- वासाजिनवचनेन कोविदः-अभ्यस्तसर्वसप्रणीतागमत्वानि
र्गावतारितेन तदनन्तरं तस्य अमूदस्य-सत्पथोपदेष्टुः पु- पुणः सूर्योदयेऽपगतावरणाचुरे यथावस्थितान् जीवालिम्दादेरपि परमुपकारं मन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या, दीन् पदार्थान् पश्यति । इदमुक्कं भवति-यथा हि इदि
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विणय अभिधानराजेन्द्र:।
बिणप यार्थसंपर्कात्साक्षात्कारितया परिस्फुटा घटपटादयः पदार्थाः तस्य शान्तिर्भवति अशेषद्वन्द्वोपरमो भवति । तथा निरोप्रतीयन्ते एवं सर्वक्षप्रणीतागमेनापि सूक्ष्मव्यवहितविप्रक- | धम्-अशेषकर्मक्षयरूपम् आहुः-तद्विदः प्रतिपादितवन्तः । एस्वर्गापवर्गदेवतादयः परिस्फुटा निःशकं प्रतीयन्त इति । अ. | क एवमाहुरित्याह-त्रिलोकम्-ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लक्षणं द्रष्टुं पिच-कदाचिचक्षुषाऽन्यथाभूतोऽप्यर्थोऽन्यथा परिच्छि- शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिनः तीर्थकृतः सर्वशास्ते एवम् चते , तद्यथा-मरुमरीचिकानिचयो जलभ्रान्त्या किंशुकनि- अनन्तरोक्नया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन रहा थाबयोऽग्न्याकारणापीति । न च सर्वशप्रणीतस्यागमस्य क- चक्षते-प्रतिपादयन्तीति । एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसा चिदपि व्यभिचारः, तद्वयभिचारे हि सर्वशत्वहानिप्रस- रोत्तारणसमर्थ ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तो न पुनर्भूकात् , तत्संभवस्य चासर्वशेन प्रतिषेद्धमशक्यत्वादिति य एतं (नं ) प्रमादसङ्ग मद्यविषयादिकं सम्बन्ध विधेय॥ १३ ॥ शिक्षको हि गुरुकुलवासितया जिनवचनाभिज्ञो त्वेन प्रतिपादितवन्तः ॥१६॥ भवति , तत्कोविदश्च मूलोत्तरगुणान् जानाति, तत्र मू
किश्चान्यत्लगुणानधिकृत्याह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् दिक्षु विदिषु चेत्य
निसम्म से भिक्खू समीहियऽटुं, नेन क्षेत्रमङ्गीकृत्य प्राणातिपातविरतिरभिहिता , द्रव्य
पडिभाणवं होइ विसारए य । तस्तु दर्शयति-त्रस्यन्तीति प्रसाः-तेजोवायुद्वीन्द्रिया
आयाण अट्ठी बोदाणमोणं , दयश्च, तथा ये च स्थावराः-स्थावरनामकर्मोदयवर्तिनः पृथिव्यवनस्पतयः, तथा ये चैतनेदाः सूक्ष्मबादरपर्याप्त
उवेच्च सुद्धण उवेति मोक्खं ॥ १७॥ काऽपर्याप्तकरूपा दशविधप्राणधारणात्प्राणिनस्तेषु,सदा-स
स गुरुकुलवासी भिक्षुः द्रव्यस्य वृत्तं निशम्य-अवगम्य र्षकालम् , प्रमेन तु कालमधिकृत्य विरतिरभिहिता, यतः
स्वतः समीहितं चार्थ-मोक्षार्थ बुद्धा हेयोपादेयं सम्यक परिव्रजेत्-परि-समन्ताद् व्रजेत् संयमानुष्ठायी भवेत् , भाव
परिक्षाय नित्यं गुरुकुलवासतः प्रतिभानवान्-उत्पन्नपतिप्राणातिपातविरति दर्शयति-स्थावरजङ्गमेषु प्राणिषु तद
भो भवति, तथा सम्यक् स्वसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छोतृणां पकारे उपकारे वा मनागपि मनसा प्रवेषं न गच्छेद् , आ- यथावस्थितार्थानां विशारदो भवति-प्रतिपादको भवति । स्तां तावद् दुर्वचनदण्डप्रहारादिकं, तेष्वपकारिष्वपि मनसा मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं-सम्यग्ज्ञानादिकं तेनार्थः स ऽपि न मालं चिन्तयेद्, अविकम्पमानः-संयमादचलन
एव बाऽर्थः पादानार्थः स विद्यते यस्यासावादानार्थी , स सदाचारमनुपालयेदिति । तदेवं योगत्रिककरणत्रिकेण द्रव्य- एवंभूतो झानादिप्रयोजनवान् व्यवदानं-द्वादशप्रकारं तपो क्षेत्रकालभावरूपां प्राणातिपातविरतिं सम्यगरकदिष्टतया- मौनं-संयम पाश्रवनिरोधरूपस्तदेवमेतौ तपःसंयमावुपेत्यउनुपालयेद् एवं शेषारयपि महामतान्युत्तरगुणांश्च प्रहणा
प्राप्य ग्रहणासेवनरूपया द्विविधयाऽपि शिक्षया समन्वितः सेवनाशिक्षासमन्वितः सम्यगनुपालयेदिति ॥ १४॥ गुरो
सर्वत्र प्रमादरहितः प्रतिभानवान् विशारदश्च शुद्धन-निरन्तिके वसतो बिनयमाह-सूत्रार्थ तदुभयं वा विशिष्टेन
रुपाधिना उद्रमादिदोषशुद्धेन चाहारेणात्मानं यापयनशेप्रष्टव्यकालेनाचार्यादेवसरं ज्ञात्वा प्रजायन्त इति प्रजा
षकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमुपैति 'न उबेइमारं' ति कचित्पाठः, जन्तवस्तासु प्रजासु जन्तुविषये चतुर्दशभूतप्रामसंबद्धं क
बायो नियन्ते स्वकर्मपरवशाः प्राणिनो यस्मिन् स मार:शिवाचार्यादिकं सम्यगितं-सदाचारानुहायिनं सम्यग् वा
संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गेणात्मा - समन्तावा जन्तुगतं पृच्छेदिति । स ब तेन पर प्राचार्या
नं वर्तयन् न उपैति । यदि वा-मरण-प्राणत्यागलक्षणं दिराबक्षाणः अभूषयितव्यो भवति । यदायज्ञासस्तदर्श
मारस्तं बहुशो नोपैति । तथाहि-अप्रतिपतितसम्यक्त्व उयति-मुक्लिगमनयोग्यो भन्यो इम्यं रागद्वेषविरबाडा इन्यं
स्कृष्टतः सप्ताटी वा भवान् म्रियते नोर्वमिति ॥१७॥ सत्र. तस्य द्रव्यस्व-बीतरागस्य तीर्थकरस्य बातम-कान १० १४०। (गुरुकुलनिवासितया धमे सस्थिता - संयमानं वा तत्प्रणीतमागर्म वा समयमायामास
हुश्रुता प्रतिभानवन्तोऽर्थविशारदाश्च सन्तो यत्कुर्वन्ति पोऽयं माननीयो भवति । कवमित्कार-'' - तदर्शितम् 'धम्मकहा'शब्दे चतुर्थभागे २७१२ प्रष्टे ।) दिना कधितं भोत्रे-कणे कर्तुं शीलनस्य भोपकारी-थो
सच प्रश्नमुदाहरन् कदाचिदन्यथाऽपि पदेशकारी भावाविधायी सन् पृथक पृथगुपयतमादरेख
यादतस्तत्प्रतिषेधार्थमाहदये प्रवेशपे-चेतसि व्यवस्थापयेत् । व्यवस्थापकीयं द
बो छायए योऽवि य लूसरजा , शंयति-संस्थाप-सम्यकशात्वा 'इम' मितिवमा
माण सेवेज पगासणं च । बलिन वंचलिक-केवलिना कथितं समाधि सम्मान बयावि पने परिहास कुजा, सम्यबानादिकं मोक्षमार्गमाचार्यादिना कथितं यथोपदेश प्रवर्तकः प्रथा विविक्तं वये पृथग्व्यवस्थापयेदिति ॥ १५ ॥
बयाऽऽसिया वा य वियागरेजा ॥१६॥ किंचाम्यत्-अस्मिन् गुरुकुलवासे निवसता वपतं श्रुत्वा ।
भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे , सम्यक लयव्यवस्थापनद्वारेणावधारितं तस्मिन् समाधि
मणिबहे मंतपदेस गोयं । भूते मोक्षमार्गे सुष्टु स्थित्वा विविधमेति-मनोवाकायकर्म
सकिंचि मिच्छे मनुए पयासुं, भिःहतकारितानुमतिभिर्वाऽश्मानं पातुं शीलमस्वेति पायी
सासु धम्माणि ण संवएजा ॥२०॥ जन्तूनां सदुपदेशदानतलासकरणशीलो वा तस्य स्वपर- सः-प्रश्नस्योदाहर्ता सर्वार्थाश्रयत्वादनकरण्डकल्पः कुमायिणः, एतेषु च समितिगुप्त्यादिषु समाधिमार्गेषु स्थि- त्रिकापणकल्पो वा चतुर्दशपूर्विग्णामन्चतरो वा क
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(१९५०) विलय अभिधानराजेन्द्रः।
विषय शिवाचार्यादिभिः प्रतिभानवान् अर्थविशारदस्तदेवंभूतः कु
अभिसंघए पावविवेग भिक्खू ।। २४ ।। तश्चिनिमित्तात् मोतुः कुपितोऽपि सूत्रार्थ न छादयेत्
यथा परात्मनोस्यिमुत्पद्यते तथा शम्दादिकं शरीरावमाम्बथा व्याख्यानयेत् स्वाचार्य वा नापलयेत् धर्मकथां वा
यवमन्यान् वा पापधर्मान् सावधान् मनोवाक्कायथ्याकुर्व्यसाथै छादयेद् आत्मगुणोत्कर्षाभिप्रायेण वा परगुणा
पारान् न संधयेत्-न विदध्यात्, तद्यथा-वं विन छादयेत् ।तथा परगुणान लूपयेत्-न विडम्बयेत् ,शास्त्रार्थ
न्धि मिन्धि । तथा कुप्रावचनिकान् हास्यप्राय नो. वा नापसिद्धान्तेन व्याख्यानयेत् । तथा समस्तशासवेत्ताऽई
प्रासयेत्, तद्यथा-शोभनं भवदीयं व्रतं, तद्यथा-" मृसर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता न मतुल्यो हेतुयु
द्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तं पानकं चापराहे। क्लिभिरर्थप्रतिपादयितेत्येवमात्मकं मानम्-अभिमानं-गर्व न
दाक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण सेवेत , नाप्यात्मनो बहुश्रुतत्वेन तपस्वित्वेन चा प्रकाशनं
रएः ॥१॥" इत्यादिकं परदोषोभावनप्राय पापबन्धककुर्यात् । चशब्दादन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत् । तथा
मिति कृत्वा हास्येनापि न वक्तव्यम् । तथा-' प्रोजो' रा. म चापि प्रज्ञावान्-सश्रुतिकः परिहासं-केलिप्रायं ब्रूयाद्,
गद्वेषरहितः स बाह्याभ्यन्तरप्रन्थस्यागाद्वा निष्किश्चनः सन् यदिवा-कथंचिदबुध्यमाने श्रोतरि तदुपहासप्रायं परिहासं
तथ्यमिति परमार्थतः सत्यमपि परुषं बचोऽपरतोषिन विदध्यात्। तथा नापि चाशीर्वावं बहुपुत्रो बहुधनो
कारिपरिजया विजानीयात् प्रत्याख्यानपरिक्षया च परि[बहुधर्मों ] दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यादि व्यागृणीयात् । भा
हरेत् । यदि वा-रागद्वेषविरहादोजाः तथ्य-परमार्थभूपासमितियुक्नेन भाव्यमिति ॥ १६॥ किं निमित्तमाशीर्वादो
तमकृत्रिममप्रतारकं परुषं-कर्मसंश्लेषाभाषानिर्ममत्वादनविधेय इत्याह-भूतेषु-जन्तुषु उपमर्दशङ्का-भूताभिशङ्का
ल्पसत्त्वैर्दुरनुष्ठेयत्वाद्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वा परुतयाऽऽशीर्वाद सावा-सपापं जुगुप्समानो न ब्रूयात् ,
घ-संयम विजानीयात्-तदनुष्ठानतः सम्यगषगच्छेत् । तथा तथा गात्रायत इति गोत्रं-मौनं वासंयमस्तं मन्त्रपदेन
स्वतः कश्चिदर्थविशेष परिक्षाय पूजासत्कारादिकंवाऽवाप्य न विद्याप्रमार्जनविधिना न निर्वाहयेत्-न निःसारं कुर्यात् ।
तुच्छो भवेत्-नोन्मादं गच्छेत् । तथा न विकत्थयेत्-नात्मायदिवा-गोत्रं-जन्तूनां जीवितं मन्त्रपदेन राजादिगुप्तभाषण
नं श्लाघयेत् परं वा सम्यगनवबुध्यमानः नो विकथयत्पदेन राजादीनामुपदेशदानतो न निर्वाहयेत्-नापनयेत् ।
नात्यन्तं चमढयेत् । तथा अनाकुलो-व्याख्यानावसरे-धपतदुक्तं भवति-न राजादिना साधै जन्तुजीवितोपमर्दकं मकथावसरे वाऽनाविलो लाभादिनिरपेशो भवेत् , तथा कुर्यात् , तथा प्रजायन्त इति प्रजा:-जन्तवस्तासु प्रजासु
सर्वदा अकषायः-कषायरहितो भवेद् मितुः-साधुरिति ।२१॥ मनुजो-मनुभ्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकां वा न किमपि
साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह-भिक्षुः-साधुर्व्याख्यान लाभपूजासत्कारादिकम् इच्छेद्-अभिलषेत् । तथा कुत्सि
कुर्वनर्वाग्दर्शित्वावर्थनिर्णय प्रति प्रशङ्कितभावोऽपि शकततानाम्-असाधूनां धर्मान्-वस्तुदानतर्पणादिकान् न संव
औद्धत्य परिहरनहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कश्चिदित्येवं गर्व देत्-न घूयाद् , यदिवा-नासाधुधर्मान् ब्रुवन् संवादयेद् ,
न कुर्वीत, किन्तु-विषममर्थ प्ररूपयन साशङ्कमेव कथयेद्, अथवा-धर्मकथां व्याख्यानं वा कुर्वन् प्रजास्वात्मश्लाघारूपा
यदि वा-परिस्फुटमप्यशङ्कितभावमप्यर्थ न तथा कथयेत् य. कीर्ति नेच्छेदिति ॥२०॥
था परः शङ्केत, तथा विभज्यवाद-पृथगर्थनिर्णयवाद व्याकिश्चान्यत्
गृणीयात् , यदिवा-विभज्यवादः-स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलिहास पिणो संधति पावधम्मे,
तं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं ___ोए तहीयं फरुसं वियाणे ।
वदेद, अथवा-सम्यगर्थान् विभज्य-पृथक् कृत्वा तद्वावं वदे
त् , तद्यथा-नित्यवादं द्रव्यार्थतया; पर्यायार्थतया त्वनियो तुच्छए णो य वि कंथइजा ,
त्यवादं वदेत् । तथा स्वद्रब्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पश्रणाइले वा अकसाइ भिक्खू ॥ २१ ॥ दार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम्संकेज याऽसंकितभावभिक्खू,
" सदैव सर्व को नेच्छे-त्स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव
विपर्यासा-नचेन्न व्यवतिष्ठते ॥१॥" इत्यादिकं विभज्यवाद विभजवायं च वियागरेजा।
यदेदिति । विभज्यवादपि भाषाद्वितयेनैव चूयादित्याहभासादुयं धम्म समुट्ठितेहि ।
भाषयोः-श्राद्यचरमयोः सत्यासत्यामृषयोढिकं भाषाद्विक वियागरेजा समया सुपन्ने ।। २२ ।।
तद्भापाद्वयं कचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यदा वा
सदा वा व्यागृणीयात्-भाषेत । किंभूतः सन् ?-सम्यक अणुगच्छमाणे वितहं विजाणे,
सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिताः सत्साधव उद्युक्नवितहा तहा साहु अककसेणं ।
हारिणो न पुनरुदायिनृपमारकवकृत्रिमास्तैः सम्यगुत्थितः ण कत्थई भास विहिंसइज्जा,
सह बिहरन चक्रवर्तिद्रमकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा ।। २३ ।।
शोभनप्रज्ञो भाषाद्वयोपेतः सम्यग्धर्म व्यागृणीयादिति ॥२२॥
किश्चान्यत्-तस्यैवं भाषाद्वयेन कथयतः कश्चिन्मेधावितसमालवेज्जा पडिपुन्नभासी ,
या तथैव तमधमाचार्यादिना कथितमनुगच्छन् सम्यगवबुनिसामिया समिया अनुदंसी।
भ्यते, अपरस्तु मन्दमेधावितया वितथम्-अन्यथैवाभिजाप्राणाइसुद्धं वयणं भिउंजे ,
नीयात् , तं च सम्यगनवबुध्यमानं तथा तथा-तेन तेन
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विणय अभिधानराजेन्द्रः।
विणय देतूदाहरणसक्रिप्रकटनप्रकारेण मूर्खस्त्वमसि तथा दु- य नातिवलं वदेद् अध्ययनकर्तव्यमर्यादा नातिलायेत्स.
रूढः खसूचिरित्यादिना कर्कशवचनेनानिर्भर्त्सयन् यथा (दस) दनुष्ठानं प्रतिबजेद्वा,यथावसरं परस्परावाधया सर्वाः यथाऽसौ बुध्यते तथा तथा-साधुः सुष्ठु बोध- क्रियाः कुर्यादित्यर्थः । स एवंगुणजातीयो यथाकालवादी येत् न कुत्रचित्क्रुद्धमुखहस्तौष्ठनेत्रविकारैरनादरेण कथ- यथाकालचारी च सम्यग्हाष्टमान्-यथावस्थितान् पदायन् मनःपीडामुत्पादयेत् । तथा प्रश्नयतस्तद्भाषाम- र्थान् श्रद्दथानो देशनां व्याख्यानं वा कुर्वन् दृष्टि-सम्यपशब्दादिदोषदुष्टामपि धिङ मृर्खासंस्कृतमते ! किं ग्दर्शनं न लूपयेत्-न दूषयेत् । इदमुक्तं भवति-पुरुषविशेष तवानेन संस्कृतेन पूर्वोत्तरव्याहतेन वोच्चारितेनेत्येवं शात्वा तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरिहारेण यन विहिस्यात्-न तिरस्कुर्याद् असंबद्धोद्घडनतस्तं प्र- था यथा श्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीभवति, न पुनः शङ्कोत्पाअयितारं न विडम्बयेदिति । तथा निरुद्धम्-अर्थस्तोकं | दनतो दृष्यते, यश्चैवंविधः स जानाति-अवबुध्यते भादीर्घवाफ्यैर्महता शब्ददुर्धरेणार्कविटपिकाष्ठिकान्यायेन न क- षितुं-प्ररूपयितुं समाधि-सम्यग्दर्शनशानचारित्राख्यं सम्यथयेत् निरुद्धं वा स्तोककालीन व्याख्यानं व्याकरणतर्कादि-| कचित्तव्यवस्थानाख्यं वा तं सर्वशोक समाधि सम्यगप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या न दीर्घयेत्-न दीर्घकालि- बगच्छतीति ॥ २५ ॥ किञ्चान्यत्-'अलूसए' इत्यादि सर्वशोकं कुर्यात् । तथा चोक्तम्-'सो अत्थो वत्तव्वो, जो भएण- मागम कथयन् ‘नो लूपयेत्' नान्यथाऽपसिद्धान्तव्या। अक्सरेहि थोवहिं । जो पुण थोबो बहु-खरेहि ख्यानेन दूषयेत् , तथा न प्रच्छन्नभाषी भवेत् सिद्धान्तार्थसो होइ निस्सारो ॥१॥” तथा किंचित्सूत्रमल्पाक्षरम- मविरुद्धमवदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न गोपयेत् , ल्पार्थ वा इत्यादि चतुर्भङ्गिका । तत्र यदल्पाक्षरं महाथै यदिवा-प्रच्छन्नं वाऽर्थमपरिणताय न भाषेत्, तद्धि सिद्धान्ततदिह प्रशस्यत इति ॥ २३ ॥ अपि च यत्पुनरतिविष- रहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते। तथा चोमत्वादल्पाक्षरैर्न सम्यगवबुध्यते तत्सम्यग्-शोभनेन प्रका- क्रम-"अप्रशान्तमतौशास्त्र-सद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिरेण समन्तात्पर्यायशब्दोच्चारणतो भावार्थकथनतश्चाल- नवोदीणे, शमनीयमिव ज्वरे ॥१॥” इत्यादि, न च सूत्रमन्यत् पेद् भाषेत समालपेत् , नाल्पैरेताक्षरैरुक्त्वा कृतार्थो भ-1 स्वमतिविकल्पनतः स्वपरायी कुर्वीतान्यथा वा सूत्रं तदर्थ वेद्, अपि तु-शेयगहनार्थभाषणे सद्धेतुयुक्त्यादिभिः श्रो- वा संसारात् नायी त्राणशीलो जन्तूनां न विदधीत, किमित्यतारमपेक्ष्य प्रतिपूर्णभाषी स्याद्, अस्खलितामिलिताही- म्यथा सूत्रं न कर्त्तव्यमित्याह-परहितैकरतः शास्ता तनाक्षरार्थवादी भवेदिति । तथा प्राचार्यादेः सकाशाद्य- स्मिन् शास्तरि या व्यवस्थिता भक्तिः बहुमानस्तया थावदर्थ थुत्या--निशम्य अवगम्य च सम्यग-यथावस्थि- तद्भक्त्या अनुविचिन्त्य ममानेनोक्तेन न कदाचिदागतमर्थ यथा गुरुसकाशावधारितमर्थ प्रतिपाद्यं दृष्टुं शी- मबाधा स्यादित्येवं पर्यालोच्य वादं वदेत् । तथा यलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी; स एवंभूतः संस्तीर्थ-| छूतमाचार्यादिभ्यः सकाशात्तत्तथैव सम्यक्त्वाराधकराया-सर्वक्षप्रणीतागमानुसारेण शुद्धम्-अवदातं पूर्वा- नामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्ष प्रतिपद्यमानः प्रतिपादपराविरुद्धम् निरषचं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सति- येत्-प्ररूपयेन सुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेदिउत्सर्गमपवादविषये चापवाद तथा स्वपरसमययोर्यथास्वं ति ॥ २६ ॥ सूत्र. १ श्रु०१४ अ०। वचनमभिवदेत् । एवं चाभियुञ्जन भिक्षुः पापविवेक लाभ- याणि विणएणं-जहा मगहविसए गोबरगामे पुप्फसालो सरकारादिनिरपेक्षतया कामाणो निर्दोष वचनमभिसन्ध- गिहवती । भद्दा भारिया पुत्तो से पुष्फसालसुतो सो मायायेदिति ॥४॥
पियरं पुच्छई-को धम्मो ?, तेहिं भलाइ मायापियरं सुस्सूसिपुनरपि भाषाविधिमधिकृत्याह
यव्वं दो चेव देवयाई माया पियरो य जीवलोगम्मि । तत्थ वि अहावुइयाइं मुसिक्खएजा,
पिया विसिट्टो,जस्स वसे वट्टा माया। ताहे सोताण पायमुहजइजमाणातिवलं वदेजा।
धावणाई विभासा देवयाणि व सुस्सूसई। अन्नया गामभोइनो
प्रागतो ताणि संभंताणि पाहुसं करेंति । सो वि चिंतेइ एयासे दिद्विमं दिद्विण लूसएज्जा,
णि वि एस देवयं एयं पूएमि तो धम्मो होहिह । तस्स सुस्सूसे जाणई भासिउं तं समाहिं ॥२५॥ सा कया । अन्नया तस्स भोइयस्स अन्नो महल्लो दिट्ठो० जाव अलूसए णो पच्छन्नभासी,
सेणियो राया तो लग्गिउमारद्धो । सामी समोसढो सेणो सुत्तमत्थं च करज्ज ताई।
णिो इहिए गंतूण वंदइ, ताहे सो सामि भणह अहं तुम्भो
श्रोलग्गामि, सामिणा भणिय-अहं रयहरणपडिग्गहतायाए सत्थारभत्ती अणुवीइवाय,
श्रोलग्गिजामि ताणं सुषणाए संबुद्धो । एवं विणएणं सासुयं च सम्म पडिवाययंति ॥२६॥
माइयं लभइ ॥ श्रा० म० १ ०। ( ‘विणयकम्म' शब्दे यथोक्तानि तीर्थकरगणधरादिभिस्तान्यहर्निशं सुष्टु शिक्षेतः | ऽप्येतत्कथानकं स्फुटं वक्ष्यते।) ग्रहणशिक्षया सर्वशोकमागर्म सम्यक् गृह्णीयाद् आसेवना- "विणएण गरो गंधे-ण चंदणं सोमयाइ रयणियरो। शिक्षया त्वनवरतमुधुक्तविहारितया सेवेत , अन्येषां च महुररसेणे अमयं, जणप्पियत्तं लहइ भुवणे ॥२॥ तथैव प्रतिपादयेत् , अतिप्रसक्कलक्षणनिवृत्तये त्वपदिश्यते सुविसुद्धसीलजुत्तो, पाव कित्ति जसं च इहलोए । सदा ग्रहणासेघमाशिक्षयोर्देशनायां यतेत, सदा यतमानोऽपि सव्वजणवल्लहो वि य, सुहगइभागी य परलोए ॥३॥" यो यस्य कर्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वा तांघेलामतिल-1 ध० २०१अधि०४ गुण । नीती, उत्त० अ०।
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(१९९२) विणयकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
विणयंधर विणयकम्म-विनयकर्मन-न। विनयनं विनयः। कर्मापनय-1 तारा सिरीय विणया, देवी नामाउ विमलसीलाओ। नमित्यर्थः । विनीयते वाऽनेनाप्रकारं कर्मेति विनयस्तस्य
जमगं चउरो परिणे- पवरसिट्टीण धूयाश्रो ॥६॥ च कर्म विनयकर्म । पूजाकमणि, कृतिकर्मणि, प्रव०२द्वार । ववहारसुद्धिसारो, पायं परिहरिय पावपम्भारो। आव० । वैनयिककृत्ये, पञ्चा०८विव०। विनयकर्माऽपि द्वि- सो सुहजलहिनिमग्गो, कालं बोलइ अणुठिवग्गो ॥७॥ धा-द्रव्यतो निहावादीनामनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च । भावत को इसुहिश्रो इहयं, नयरे नयकुलहरे सया सुहिए। उपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां विनयक्रियेति । श्राव० ३ ०।
वत्ता इमा पवत्ता, कयाऽवि नरनाहअत्थाणे ॥८॥ उदाहरणं विनये पुष्पशालकथा
एगेण तत्थ भणियं सुहियाण जणाण मत्थयमणि व्य । मागधे गोवरग्रामे, पुष्पशालः कुटुम्बिकः ।
अस्थि इह इन्भपुत्तो, धणियं विणयंधरो नाम ॥६॥ भद्रा भार्या च तस्याऽऽसीत् , पुष्पशालस्तु तत्सुतः॥१॥
जस्स धणं धणयस्स व, जणप्पियं रूखममरपहुणु व्य । स मातापितरावूचे, को धर्मस्तावचोचतुः।
जीवस्स व अमलमई, करिरायस्स व सया दाणं ॥१०॥
जस्स य पिया उचउरो, अइसयसुंदेरमंदिरं वटुं। विनयाद्वत्स ! शुश्रूषा, मातापित्रोविधीयते ॥२॥ द्वे एव देवते वत, माता च पिता च जीवलोकेऽस्मिन् ।
विलियानो अमरीश्रो, मन्ने नो इंति दिद्धिपहं ॥ ११ ॥ तत्रापि पिताऽभ्यधिको, यस्य वशे वर्तते माता ॥३॥
इचाह बहुपयारं, निरुनिरुवमवन्नणं सुणिय ताणं ।
मयणसरपसरविदुरो, राया रायाउरो जाओ ॥१२॥ पादशौचादिशुश्रूषां, स चक्रेऽथ सदा तयोः। प्रामाधिपोऽन्यदाऽऽयातः, स ताभ्यामप्यपूज्यत ॥४॥
तिहुयणमणोहरीओ, कहमह संपविहंति एयायो। सोऽथ दध्यावसौ ताव-मत्पित्रोरपि दैवतम् ।
इय चिंताउरचित्त-स्स तस्स बुद्धी इमा जाया ॥ १३ ॥ तच्छुश्रूषामथाकार्षी-द्भावी लाभो महानितः ॥ ५॥
पञ्चाइय पउरजणं, दोस उपाइयं च सेणियो।
गिराहामि बला ताओ, न होमि गरिहारिहो जेण ।। १४॥ तस्याप्यन्योऽन्यदाऽधीशः, प्राप्तस्तं सोऽप्यपूजयत् ।
इय निच्छिय एगते , निभिश्च भिच्चो पयंपियो तेण। अस्याप्यसौ पूज्य इति , मुक्त्वैतमहमप्यमुम् ॥६॥ विणयंधरेण सद्धिं, कुण मित्ति कवडनेहेण ॥ १५॥ सेवेऽथ तस्य सेवायां, प्रवृत्तो धर्मकामुकः
तत्तो वि भुज खंडे, लहुं लिहाविय इमं तुम गाई। उपर्युपरि सेवार्थी, श्रेणिक सेवते स्म सः ॥ ७॥
पच्छन्नमेव मज्झं , उवणेहि अयाणियंतेणं ॥ १६ ॥ श्रेणिकोऽपि नमन् दृष्टः, श्रीवीरं सोऽथ दध्यिवान् ।
तथा हिसेवेऽहमप्यमुं तस्मात् , पूजितैरपि पूजितम् ॥८॥ अथोचे भगवन्तं स, प्रभो! सेवां करोमि वः।
"पसयच्छिरइवियश्वणि,अज अभग्गस्स तुह दुसहविरहे। स्वाम्यूचे साधुवेषेण , सेवाऽस्माकं विधीयते ॥६॥
सा जामिणी तिजामा, तिजाम सहसि व्व मह जाया" ।१७ तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं, संबुद्धो व्रतमग्रहीत् ।
तेण वि तहेव विहिए, निवेण पउराण पेसियं भुजं । एवं वैनयिकात्तस्या-ऽभवत्सामायिकवतम् ॥१०॥ श्रा० क.
देवीए गंधपुडे, पहियं विणयंधरेण्यं ॥१८॥
भो भो लिवी परिच्छ, विहिऊण विणिच्छयं कहह मझ। १०। श्रा० चू०।
नहु पन्छा कहियवं, अहह अजुतं कयं रन्ना ।। १६॥ विणयचंदमूरि-विनयचन्द्रसूरि-पुं०। तपागच्छीये रत्नसिंह
ते वि हुन हुँति दुद्धे , पूयरया तह वि सासणं पहुणो। मूरिशिष्ये, येन कल्पसूत्रे नियुक्तिः कृता, विक्रमीये १३२५ सं. कायब्वं ति भणतो, कुणंति हत्थे लिविपरिच्छं ॥२०॥ वत्सरे अयमासीत् । जै० इ० ।
पिच्छि वि लिविसंवायं, भणियं नायरजणेण सविसायं। विणयण-विनयन-न० । गमने , पापणे, प्रा० चू०१ श्र०। जर वि लिवी संवाश्रो, न य घडइ इमं तु पयानो ॥२१॥ विणयएणु-विनयज्ञ-पुं०विनयो-शानदर्शनचारित्रौपचारि- जो चरह मणभिरामे, सल्लइतरुनियरबहलपारामे । करूपस्तं जानातीति विनयशः । सानादिरत्नत्रयझे, प्राचा०१
सो कंटइयसरीरे , करी करीरे कहं रमइ ।। २२ ॥ ध्रु०२ १०५ उ०।
जो दुललियो सलिले, सया वि माणससरस्स अइविमले।
सो कह करेइ किंई, कलहंसो गामनदम्हि ॥ २३ ॥ विणय(यं)धर-विनयधर-पुं०। स्वनामख्याते पुरुष, ध० र०।
जो अत्थर तप्पासे, खणमवि पडिपुनपुनपसरस्स । विनयंधरकथा पुनरेवम्
वंजुलसंगेण विसं-व पन्नगो मुयइ सो पावं ॥ २४॥ "अस्थि ह सुवनहरा, चंपा चंपयलय ब्व पवरपुरी। ता मज्झत्थो होउ, देवो चिंतेउ वत्थुपरमत्थं । फुरियनयधम्मबुद्धी , तत्थ निवो धम्मबुद्धि सि ।।१।। अगडतयं पि गडियं, एयं केणावि पिसुणेण ॥२५॥ अमरीश्रो वि जयंती, रूपेण पिया य तस्स विजयंती। सुद्धो वि फालिहमणी, उवाहिवसओ धरेइ अन्नतं । सिट्टी य इब्भनामो, पुनजसा नाम से भज्जा ॥२॥
खलसंगाउ इमस्स वि, खलिय अक्खलियसीलस्स ॥२६॥ निश्च गुरुजगपणो , नियतणुअइकंतकंतिजियकणो।
इय भणिए परजणे, पडियारं मयगसब्ब अगणतो। उल्लसिरबहुलविणश्रो, ताणं विणयंधरो तणो ॥३॥
भंजियमेरालाणो, पगो असमंजसं निवई ॥२७॥ सो सम्बकलाकुसलो, कोमुइनाहु व सयलजणइटो। भणइ य रे रे सुहडा, हठेण पारोह तस्स तस्स दायाओ। निरुवमसुंदेरिमरंग संगयं जुब्वणं पत्तो ॥४॥
मुद्देह य हदगेहे, निद्धाडिय परियणं दूरे ॥२८॥ सुहसंगहियकलाश्रो , लाणमउवहसियनियसरमणीयो। तुम्भे पुण नायरया, हंहो दोसिल्लपक्खवाइल्ला । साययकुलजम्माओ , पडियन्नगिहत्थधम्माओ॥५॥ । तं कारह मह पुरो, सुद्धं जेणासु मुंचामि ॥२६॥
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(१९८३) विणयंधर अभिधानराजेन्द्र।।
विणयंधर यि पउरं फरसागरा-हि ताडिया धाडिया नरिंदेण। प्रहभणइ गुरू निवरह, पासी नयम्मि हथिसीसम्मि। किवणेण मग्गणा इव, पउरा पत्ता सगेहेसु ॥ ३० ॥ राया वियारधवलो , धवलजसो धंवलियदियंतो ।। ५४ ॥ तो विणयंधरभज्जा, ताओ निरवज्जकजसज्जाओ।
तस्स चरो बेयाली, अगन्नकारुन्नमाइगुणसाली । प्राणाविय सुदृडेहिं, राया पक्खिवा ओरोहे ॥३१॥
निवं परोषयारी , आसि दढं पावपरिहारी ॥५॥ ताण सुरुवं दट्छु, चिंतह निवई महो अहं धन्नो।
सो अइउदारयाए , पइदिवसं असणमाइसमपुर्ण। जं निसुया दिट्ठाओ, मम गेहमिमाउ पत्ताओ॥ ३२॥
दाउ कस्सइ उचियं, पच्छा भुंजा सयं नियमा।।५६ ।। बहुचाइवयणपुव्वं, विसर पत्थि तो नियो ताहि ।
सो अन्नदिणे बिंदु-ज्वाणो, पडिमाठियं सविहिनाई। सम्रोण य वयणाहि. महासहहिं इमं भणिो ॥ ३३॥ उवसमरसं व मुत्तं , दट्टुं तुट्टो थुणा एवं ।। ५७ ॥ पररमणीरमाय, स्वं पासंति अहह मूढमणा ।
जिलस्तुतिकाव्यम्ममणाग पि हुअप्पं, निवडतं भीमभवकृपे ॥ ३४॥
वपुरि अंगविनासु वपुरिलोयणपणलवणिम, परजुबाजुब्वणभरं, जे जोअंते जण जए जिणइ ।
कटरिभालुसुबिसालु कटरिमुहकमलपसचिम । कुसुमसरो वि अणंगो, कह ते वुवंति नरसीहा ॥ ३५॥
भरिरि सरलुभुयजुयलु अरिरि सिरिवत्थहसस्थिम, परकतं कामंता, गयसुचरियजीविया महामलिणा।
अाइयचरण भवहरण अइयसव्वंगसुचंगिम ॥ गुरुपावकारिणो इव, कह ते दसति निययमुहं ॥ ३६ ॥
भरि कुणह नयणघणुरंक धउ वलिवलिजोइवि पहु पर। इह विनडिय अप्पाणं, कुलं कलंकि अकित्ति अर्कता। देवादिदेव तिहुयण तिलो परमप्पउंजिम लहु हु लहु।५८। अइदुस्सहनरयदुह-गितावतवि-भमंति भवे ॥ ३७॥ ।
एवं थुणिऊण अणू-ण भत्तिरायण सुद्धसद्धिलो। स्य सुणिय दोसजालं , नराहमाणं विसावीसाणं।
बहुमाणमुब्वहतो, जिणम्मि सगिह इमो पत्तो ॥५६॥ माणसा वि सीलरयण, मा महल्प कलसंभूया ॥३॥ पत्राणुबंधिपुग्नो-दपण अह तस्स भोयगावसरे। इय सुरिणय सोविलक्लो,सयलदितनिसंच कह कह वि।। सिरिसुविहिजिणो भिक्खा-नागो गिहदुवारम्मिा॥६॥ गमि गोसे पत्तो, तासि पासे पुलो वि निवो ॥ ३८ ॥
तं सुटूटु दडु बंदी, अमदाणंदजायरोमंचो। ता नियह ताउ सम्वा-उजलग जालालिकविलकेसानो। पडिलाभेद जिणिदं , परिवेसियकामगुणिएणं ।। ६१ ॥ भइसयबीभच्छीत्रो, जरजीवरमलिणगत्तानो ॥४०॥ चितर य अहं धन्नो , अजमम जम्मजीवियं सहलं । परिगलियजुब्बणाओ, रागीण विरागकरणपउणाश्रो। जं पाणिपुडेणमिणं , दाणं गिराहा सयं भयवं ॥ १२ ॥ चितर य निराणंदो, वेरग्गगो नरवरिंदो ॥४१॥
अह उग्घुटुं गयणे , अहो सुदाणं अहो सुदाणं ति । किएस दिष्टिबंधो, मइमोहो वाऽवि सुविणो किंवा।। वियसिय मुहेहि विबुहे-ति ताडिया अमरभेरीमो ॥६३॥ किंवा दिवपोगो, अहवा पावप्पभावो मे ॥ ४२ ॥ बहुजणजणियचमकं , गंधोदगकुसुमबरिसणं जायं । अहह हयासण मए, कलंकियं नियकुलं सया विमलं । उक्कोसा वसुहारा , पडिया भुवणंगणे तस्स ॥ ६४॥ वित्थारिश्रो य भुवण, तमालदलसामलो अयसो॥४३॥ नर सुर असुरपहू विहु , वंदिनु वंदियो वि से पत्ता। दशाह बहुविहं जू-रिऊण राया विसजए तायो ।
सुह परिणामेण तया , जाया सम्मत्तसंपत्ती ॥६५॥ विणयंधरस्स पासे, सज्जो जाया सरूवत्था ॥ ४५ ॥ काउं सुपत्तपत्तं , वित्तं चित्तम्मि जिणमणुसरंतो। इत्तो य तत्थ नयरे, पत्तो सिरिसरसेणवरसूरी ।
सो चाय पूरदेहं , पत्तो पढमें अमरगेहं ॥६६॥ पत्ता गुरुनमणत्थं, निवविणयंधरपउरलोया ॥४५॥ तत्तो चविश्री एसो, जाओ विणयंधरो उ लोयपियो। तिपयाहिणपुग्वमपु-ब्वभावभावियमणा नमिय गुरुणो। तहाणपुत्रवसो , इमाउ जायाउ जायाओ ।। ६७ ।। निसियति उचियंदसे, इय कहइ गुरू वि धम्मकहं ॥४६॥ तुह बेरग्गनिमित्तं , तासिं सुइसीलरंजियमणाए । धम्मो दुविहो भणियो, जिणेहि जियरागदोसमोहेहिं। सासणदेवीह तया , इमा विरुवाउ विहियाओ ।। ६८।। सिवनयरिगमणगम्भो, सुसाहुधम्मो य गिहिधम्मो ॥४७॥ इय सुणिय फुरियगुरुवरण , धम्मबुविनियो । तत्थ य पढम साव-ज कजपरिवजणुज्जुओ उज्जू ।
काऊण रजसुत्थं, सुत्थमाणो गिरावर विक्स ।। ६६ ।। पंचमहन्वयपव्वय-गुरुभारसहुबहणपवणो ॥४८॥
विणयधरो वि धम्मे, बहुमाणं बहुजणाण बहतो। समिईगुत्तिपवित्तो, अममत्तो सनुमित्तसमचित्तो।
चउहि वि भजाहि समं, महाविभूई पब्बडओ ॥ ७॥ खतो दंतो संतो, अवगयतत्तो महासत्तो ॥ ४६॥
पउरावि सससीए, धम्म गहिउं वयंति सट्टाण। निम्मलगुणगणजुत्तो, गुरुपयभसो करे जो सत्तो।
सूरी वि सपरिवारों, सुहेण अन्नत्थ विहरे ॥ ७॥ सो अचिरेण पावइ, सुमम्गलग्गो पवग्गपुरं ॥ ५० ॥
तो धम्मबुद्धि विणयं-धर मुणिणो चरियचरणमकलंक। तकरणासत्तेहि, सावगधम्मोऽवि होइ कायब्यो ।
निहणियअसेसकम्मा, जाया संकलियसिवसम्मा ।। ७२ ।। कालेण सोऽविसिवसु-खदायगो देसिनो समए ॥५१॥
श्रुत्वेति वृत्तं विनन्धरस्य, इय सोउं धम्मकह, लद्धावसरेण पुच्छियं रना।
प्रभूतलवाहितबोधिबीजम् । भयवं ! किं कयमसम, सुकयं विणयंधरेण पुरा ॥५२॥
भो भव्यलोका ! विलसद्विवेका! जं सम्वपित्रो एसो, पियाउ एयस्स पवररुवाओ।
लोकप्रियत्वं गुणमाश्रयध्वम् ।। ७३ ।। केण पोगेण तया, ताउ विरुवाउ जायाओ ॥ ५३ ॥ इति विनयंधरकथा समाप्ता ।ध०र०१ अधि०४ गुख ।
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विषयपडिवत्ति
अभिधामराजेन्द्रः।
विषयसमाहिहाण विणयपडिवसि-विनयप्रतिपत्ति-स्त्री० । विनयस्य प्रारम्भे , | थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पमत्ता । कअङ्गीकारे, दशा।
| यरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं विणयसमाहिडाणा पत्ता ?, आयरितो अंतेवासी इमाए चउबिहाए विणयपडिवत्तीए | इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाखा विणएत्ता णिरिणितं गच्छति । तं जहा-भायारविणएणं | पनत्ता। तं जहा-विणयसमाही सुभसमाही तवसमाही सुयविणएणं विक्खेवणाविणएणं दोसनिग्घायणाविणएणं। आयारसमाही।
प्राचार्याः आङित्यभिव्याप्त्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चवि- "सुअं में" इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या-श्रुतं मया धाचारमाचरति आचारयति वा इत्याचार्यः, पूर्वोकगुण- आयुष्मंस्तेन भगवता एवमाख्यातमित्येतद्यथा-षड्जीव. युक्तो वा अन्तवासि ' ति अन्ते-समीपे वस्तुं चा- निकायां तथैव द्रष्टव्यम् । 'बह खल्विति' इह क्षेत्र प्रवचन वा रित्रक्रियायां वस्तुं शीलमेषामित्यन्तेवासिनः तान् 'इमा- स्खलुशम्दो विशेषणार्थः। न केवलमत्र किं त्वन्यत्राप्यन्यतीए'ति अनयाऽनन्तरवक्ष्यमाणया चतुःसंख्यया विनयस्य प्र. र्थकृत्प्रवचनेष्वपि स्थविरैर्गणधरैर्भगवद्भिः-परमैश्वर्यादितिपतिः प्रारम्भानीकार इति यावत् विनयप्रतिपत्तिस्त- युक्तश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि-विनयसमाधिभेदरूपाया विनयप्रतिपत्त्या विनयित्वा शिक्षयित्वा अनृणीभवति । णि प्रज्ञप्तानि-प्ररूपितानि । भगवतः सकाशे श्रुत्वा ग्रन्थत यदा प्राचार्येण गच्छोद्धारकरणसमर्थोऽन्यः कोऽपि शि
उपरचितानीत्यर्थः । कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः, अ. न्यो विनयितो भवति तदा स अनृणीभवतीति । स(ऋर्ण- मूनि खलु तानील निना निर्वचनम् । तद्यथेत्युदाहरणोपस्तु लोकेऽपि गर्हितो भवति निन्दापात्रमित्यर्थः, स च न्यासार्थः। विनय .माधिः , श्रुतसमाधिः , तपःसमाधिः , चतुर्दा शिव्ययति, तद्यथा-श्राचारविनयेन १, श्रुतविनयेन२, आचारसमाधिः। तत्र समाधान समाधिः-परमार्थत श्राविक्षपणाविनयेन ३, दोषनिर्घातनतया ॥ दशा०४ अ०। व्य०। स्मनो हितं सुख । विनये विनयाद्वा समाधिः विरिणयपरिहीण-विनयपरिहीन-त्रि० । शिक्षावियुक्त, ध। नयसमाधिः । एवं शषेष्वपि शब्दार्थों भावनीयः। २ अधिक।
___एतदेव श्लोकेन संगृह्णातिविणयम्भंसि(ण) विनयभ्रंशिन-पुं० । विनयाद् भ्रश्यतीति
विणए सुए पनवे, पायारे निश्चपंडिमा । विनयभ्रंशी । विनयकरणभीरौ, विशे०।।
अभिरामयंति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिना ॥१॥ विणयमूल-विनयमल-पुं० । विनयो विनीतता मूलं कार
अस्य व्याख्या-विनये यथोक्तलक्षणे , श्रुते-अनादौ , तपण यस्यासी विनयमूलः। विनयप्रभवे, पा०।
सि बाह्यादौ , आचारे च मूलगुणादौ चशब्दस्य व्यवहित विणयबई-विनयवती-स्त्री० । विगतभयाया अन्तिके प्रत्र
उपन्यासः । नित्य-सर्वकालं पण्डिताः-सम्यकपरमार्थवेदिजितायां साव्याम् , सा च भक्तप्रत्याख्यानेन मृत्वा दे- नः । किं कुर्वन्तीत्याह-अभिरामयन्ति अनेकार्थत्वादाभिमु. वलोकं गता । आव० ४ ०। श्रा० चू०।
स्येन विनयादिषु युञ्जत प्रात्मान-जीवम् । किमित्यस्योपादविणयवादि(ण)-विनयवादिन-पुं०। विनयादेव केवलात् यत्वात् । के एवं कुर्वन्तीत्याह-ये भवन्ति जितेन्द्रियाः, जिक्रियामाध्यासिद्धिमिच्छति वैनयिके, प्राचा १ श्रु०१०७
तचक्षुरादिभावशत्रवः त एव परमार्थतः पण्डिता इति प्रदउ०। सूत्र।
शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ विणयविजय-विनयविजय-पुं० । कल्पसुबोधिकाकारे ,
विनयसमाधिममिधित्सुराहश्रीकीर्तिविजयगणि-शिष्योपाध्यायश्री ५ विनयविजयग- चउब्बिहा खलु विणयसमाही भवइ । तं जहा-मणुणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां सामाचारीव्याख्यानं स
| सासिअंतो सुस्सइ १, सम्मं संपडिवाइ २, वेयमारा म्पूर्णम् । कल्प० ३ अधि० २ क्षण । “तस्य स्फुरदुरुकीर्तर्वाचकवरकीर्तिविजयपूज्यस्य । विनयविजयो बिने
हर ३, न य भवइ अत्तसंपग्गहिए ४, चउत्थं पयं भवइ । वः, सुबोधिको व्यरचयत् कल्पे ॥१॥" कल्प०३ अधिक भवइ अ इत्थ सिलोगो॥ २क्षण।
'चउविहे ' त्यादि । चतुर्विधः खलु विनयसमाधिविणयसंपम-विनयसम्पन्न-त्रि० । अभ्युत्थानादिविनयस- भवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । ' अणुसासिमाने, पं० चू०१ कल्प । स्था। श्री० ।
जंतो' इत्यादि। अनुशास्यमानस्तत्र तत्र चोचमानः शुविणयसमाहि-विनयसमाधि-पुं०। विनयस्य समाधेश्च प्रति- श्रूषति-तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति । इच्छाप्रवृत्ति
तः तत् सम्यक् संप्रतिपद्यते । सम्यगविपरीतमनुशासपादके दशबैकालिकस्य नवमेऽध्ययने, दश०८०(वि
नतत्त्वं यथाविषयमवबुद्धयते २। स चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेणय ' शब्दे सर्वा वक्तव्यतोक्का।)
रेय वेदमाराधयति । वेद्यतेऽनेनेति घेदः-श्रुतझानं तद्यथोविणयसमाहिवाण-विनयसमाधिस्थान-नाविनयसमाधि
क्नानुष्ठानपरतया सफलीकरोति ३। अत एव विशुद्धप्रवृभेदरूपेऽर्थे, दश।
तेन च भवत्यात्मसंप्रगृहीतः । श्रात्मैव सम्यक प्रकर्षण - सामान्योक्नविनयविशषोपदर्शनार्थमिदमाह
गृहीतो येनाई विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना । स तथा सुभं मे पाउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु मारमोत्कर्षप्रधामत्याद्विनयादर्मचैवंभूतो भवतीत्यभिप्रायः ।
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(१९७४) विषयसमाहिट्ठाण
अभिधानराजेन्द्रः। चतुर्थ पदं भवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरोत्तरगुणा-] (बौद्धानां स्वत एव निर्हेतुको विनाश इति तृतीयभागे 'ख. पेक्षया चतुर्थमिति । भवति चात्र लोकः । अत्रेति विन-णिवाय' शब्दे ७०४ पृष्ठे परीक्षितम् ।) "विणासो बलस्स" नयसमाधौ श्लोक छन्दोविशेषः। स चायम्
(नारी) पुरुषबलस्य क्षयहेतुत्वात् । उक्तं च-" दर्शने हरते, पेहेइ हिआगुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिदिए। चित्तं,स्पर्शने हरते बलम् । सङ्गमे हरते वीर्य, नारी प्रत्यक्षरा. न य माणमएण मञ्जई, विणयसमाहि प्राययहिए ॥२॥
क्षसी ॥१॥" तं०। प्रा०म०। 'पेहेरे' इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या-प्रार्थयते-हितानुशा
विणासण-विनाशन-न० । शैलेश्यवस्थायां सामस्त्येन कर्मासनमिच्छतीहलोकपरलोकोपकारिणमाचार्यादिभ्य उपदेश
भावापादने, प्राचा०१ श्रु० अ०१ उ०। माशुश्रूषतीत्यनेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते। तशावबुद्धं स- विणासधम्मणि]-विनाशधर्मन-
त्रिविनश्वरस्वभावे, पृ० त्पुनरधितिष्ठति-यथावत् करोति । न च कुर्वन्नपि मानम- | ३ उ०। देन-मानगर्वेण माद्यति-मदं याति । विनयसमाधौ-विन-विणासवाय-विनाशवाद-पुं० । क्षणिकैकान्तवादे, स्या। यसमाधिविषये आयतार्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः ॥ २॥
विणासि[ए]-विनाशिन-त्रि०ा विनश्चरे, विशे०। दश००४ उ०।।
| विणिउत्त-विनियुक्त-त्रि० । प्रतिसमय प्रवृत्तिमति, विशे०। विणयसुद्ध-विनयशुद्ध--न०। 'किडकम्मविसोहि पउं-जए जो
निवेशिते, शा०१ श्रु०१०। व्यापारिते, व्य०१ उ०। महीणमहरितं । मणवयणकायगुत्तो,तं जाणसु बिणयो
विणिमोग-विनियोग-पुं०। नियोगे, विणिोगो त्ति वा निसुद्धं ॥१॥' इत्युक्तलक्षणे विनयतः सुद्धे कृतिकर्मणि, स्था० ५ ठा०३ उ० प्रा० चू०। प्राव।
ोगो त्ति वा एगट्टा । श्रा०चू०१०। प्राशयभेदे, पो०३ विमयस्सुय-विनयश्रुत-न० । विनयप्रतिपादके उत्तराध्यय
विव० । विशे०। (कदा विनियोगः कार्य इति 'जोग' शब्दे
चतुर्थभागे १६१६ पृष्ठे गतम् ।) नानां प्रथमेऽध्ययने, उत्त०१०। तत्र चाद्यं विनयश्रुतमिति तस्य कीर्तनावसरः । न च तद् उपक्रमाचनुयोग
विणिक्खमित्ता-विनिष्क्रम्य-अव्य० । विमुच्येत्यर्थे, पश्चा० द्वारतद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादनमन्तरेण शक्यं की- 25 विव०।. तयितुमिति मन्वानः प्रस्तुताध्ययनस्यानुयोगविधानक्रम- विणिगृहण-विनिगृहन-प्रच्छादने, प्राचा० २ थु०१चू०१ मर्थाधिकारं चाह
अ०१० उ०। तत्थऽज्झयणं पढम, विणयसुयं तस्सुवक्कमाईणि। । विणिघाय-विनिघात-पुं० । विनाशे, सूत्र०१ श्रु०७०। दाराणि पनवेठ, अहिगारो इत्थ विणएणं ॥ २८॥ पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावजंति । तं जहा-सद्देतत्र-एतेष्यध्ययनेषु मध्ये अध्ययनं प्रथमम्-आद्यं वि- हिं० जाव फासेहिं । (मु०-३६.x) नयाभिधानकं श्रुतं विनयश्रुतं मध्यपदलोपी समासः । त
विनिघातं मरणं मृगादिवत्संसारं वाऽऽपद्यन्ते प्राप्नुवन्तीस्य इति-विनयश्रुतस्य उपक्रमादीनि द्वाराणि प्ररूप्य-त
ति । श्राह च-"रक्तः शब्दे हरिणः; स्पर्श नागो रसे च वारिद्वेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादनद्वारेण प्रज्ञाप्य , एतदनु- चरः । कृपणपतङ्गो रूपे, भ्रमरो गन्धे ननु विनष्टः॥१॥पयोगः कार्य इति शेषः, अधिकारश्चात्र विनयेन , तस्येहा- वसु रक्ताः पञ्च विनष्टा, यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु नेकधाऽभिधानात् । श्राह-'पढमे विणश्रो' इत्यनेनैवोक्त्वा- रक्तः, प्रयाति भस्मान्ततां मूढः ॥२॥” इति । स्था०५ ठा०१ त पुनरुक्तमेतद, उच्यते-शास्त्रपिण्डार्थविषयं तत् , पतच्च | उ०प्रतिस्खलने, अनु०। प्रस्तुतैकाध्ययनगोचरमिति न पौनरुक्त्यमिति गाथार्थः । उत्त० पाई०१०।
विणिच्छय-विनिश्चय-पुं० । विगतो निश्चयो विनिश्चयः । विणयहीण-विनयहीन-त्रि० । अकृतोचितविनये, ध०३| अनु० । उत्तः। श्रा०म० श्रा० चू० । निर्णये, सूत्र०१ श्र०
११ अ०। निःसामान्यानां विशेषाणां निश्चये, विशे। अधिः । श्राव।
तिविहे विणिच्छए पसत्ते, तं जहा-अत्थविणिच्छए, धविणयायार-विनयाचार-पुं०। शानाचारभेदे, नि० चू० १०॥
भ्मविणिच्छये, कामविणिच्छए । (सू०-१८६४) विणस्समाण-विनश्यत-त्रि० । अनेकशो म्रियमाणे, उपा०
अर्थादिविनिश्चया अर्थादिस्वरूपपरिज्ञानानिास्था०३ठा०३० ७०। विणा-बिना-श्रव्य० । वर्जयित्वेत्यर्थे, पश्चा, १२ विव०।- विणिच्छियट्ठ-विनिश्चिताथे-त्रि०। प्रश्नानन्तरम् । (भ०११ न्तरेणार्थे , व्य० १ उ०।
श०११ उ०।) ऐदंपर्यार्थस्योपलम्भात् (भ०२ श०५०) विणायग-विनायक-पुं० । राक्षसभेदे, प्रशा०१ पद । ' श्रेयां
निर्णीतार्थे, कल्प०१ अधि०४क्षण। सि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अधेयसि प्रवृत्तानां | विणिज्जरा-विनिर्जरा-खी। विशेषेण निर्जरणं विनिर्जरा। क्वापि यान्ति विनायकाः॥१॥" प्रा० म० १ ०। । पूर्वोपचितशुभाशुभकर्मपरिशाटे, सा च समितिगुप्तिश्रवणविणास-विनाश-पुं० । भूतविघटने, सूत्र०१ श्रु०१ ० १ धर्मभावनामूलगुणोत्तरगुणपरीषहोपसर्गादिसहनतरस्य भउ०। दराडे, दण्डो निग्रहो याताना विनाश इति पर्या-| वात । जात०। याः। श्राव०६ अ० । अत्यन्ताभावरूपे, मूत्र. २ श्रु० १! विणिद्दिट्ट-विनिर्दिष्ट-त्रि० । उक्त, पश्चा०१६ विव०।
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विणिम्माण अभिधानराजेन्द्रः।
बिएणति विणिम्माण-विनिर्माण-न० । निर्मापणे , विशे। शब्दादिविषयोपभोगे वा चित्तम्-अन्तःकरणं यस्य स तथा। विणिम्मुयंत-विनिर्मुञ्चत्-त्रि० । विसृजति, औ० । विक्षिप- आचा०१७० २ १०१ उ०। अभिनिविष्टचित्ते, प्राचा०१ ति , शा०१ श्रु०१०। विकिरति, प्रश्न० ४ श्राश्रद्वार।
ध्रु०६ अ०१ उ०।
विणिय-विनिहत-त्रि० । व्यापादिते, सूत्र०१ श्रु०७०। विणियढणा-विनिवर्तना-स्त्री० । पञ्चेन्द्रियाणां विषयेभ्यो विशेषेण निवर्सने , उत्त० २६१०।
विशेषेण निपातिते, उत्त०३ अ०। विनिवर्तनायाः फलमाह
विणिहिय-विनिहित-त्रि०। विशेषेण निहित स्थापितं विनि
हितम् । पातिते, स्था। विणिवट्टणयाए णं भंते ! जीवे किंजणयइ ?, विणिवट्ट
विणीय-विनीत-त्रि०विनयप्रापित्ते, उत्त०१०। प्रा०म०। णयाए णं पावाणं कम्माणं अकरणयाए अब्भुटेइ पुव्वव
शा० । अनुद्धतप्रकृती, द्वा० २१ द्वा० । विनीतात्मतया प्रश्रद्धाण य निजरणयाए तं नियत्तेह, तो पच्छा चाउरंत
यवति,तं० सूत्राप्रतिकापं०सू०। स्वाभीष्टकारित्वात् (श्राव० संसारकंतारं वाईवयइ ॥ ३२॥
१०) बृहत्पुरुषविनयकरणशीले, तं०। विनयवति, कहे स्वामिन् ! विनिवर्तनया विषयेभ्य आत्मनः परा- ल्प०१ अधि०५क्षण । गुणाधिकेषु गौरवकृति, ध० १ श्रङ्मुखीभावेन जीवः किं जनयति ?, गुरुराह-हे शिष्य !। धि० भ०।०। प्रा००। विनीता गुरुजनगौरवकृतः। वि. विनिवर्त्तनया पापकर्मणामकरणत्वेन सावद्यकर्मत्यागेन नयवति हि सपदि संपदः प्रादुर्भवन्तीति श्रावकगुणत्वम् । अभ्युत्तिष्ठते-धर्माय सावधानो भवति, पूर्ववद्धानां पाप
प्रव०२४६ द्वार । ध०र० । सदैवागर्वितत्वेन विनया प्रति कर्मणां निर्जरया नूतनपापकर्मणामकरणत्वेन सावद्यकर्म
प्रहीभूतमनोवाकाये, दर्श०२ तत्त्व। अपनीते, उत्त०१०। स्यागेन अभ्युत्तिष्ठते-धर्माय सावधानो भवति । पूर्वबद्धानां सूत्र। (विनीतस्याऽविनीतस्य च स्वरूपमनुपदमेव 'विरणय' पापकर्मणामनुपादनेन तत् पापकर्म निवर्तयति-निवारयति, शब्दे उक्तम् ।) ततः पश्चात् चातुरन्तसंसारकान्तारं ' वीईवयइ ' व्य-विणीयणगरी-विनीतनगरी-स्त्री०। ऋषभदेवस्य जन्मस्थातिव्रजति-व्युत्क्रामतीत्यर्थः ॥ ३२ ॥ उत्त० २६ श्र० । नेऽयोध्यायाम् , श्रा० म०१ अ०।
विविनशयनाशनतायां च विनिवर्त्तना भवतीति तामाह-विणीयताह-विनीततष्णु-त्रि०अपेताभिलाषे, दश०८श्रण विनिवर्तनया-विषयेभ्यः श्रात्मनः पराङ्मुखीकरणरूपया-विणीयदोहला-विनीतदोहदा-स्त्री० । वाञ्छाविनयनात् अपापकर्मणां-सावद्यानुष्ठानानामकरणतया न मया पापा
पनीतदोहदायाम् । विपा०१ श्रु०२०। नि कर्तव्यानीत्येवंरूपयाऽभ्युत्तिष्ठते--धर्म प्रत्युत्सहते पुबद्धानां पापकर्मणामिति प्रक्रमश्चशब्दो निर्जरणानन्तरं
विणीयसंसार-विनीतसंसार-त्रि०ातीर्थकरादौ विनष्टसंसारे, द्रष्टव्यस्ततः पूर्वबद्धानां निर्जरण्या चशब्दादभिनवानु- | श्रा० चू०४ अ०। पादाने च तदिति कर्म निवर्तयति-विनाशयति, यदि वा विणीया-विनीता-स्त्री०। विनीता मनुष्या अत्रेति विनीपापकर्मणां-शानावरणादीनाम् 'अकरण्या' इति आषेत्वाद् ता। श्रा०च०१०। अयोध्यायाम् , ती० १२ कल्प। अकरणेन अपूर्वानुपार्जनेनाभ्युत्तिष्ठते मोक्षायेति शेषः । पू
('अउज्झा' शब्दे प्रथमभागे तत्कल्प उक्तः ।) ( तदुत्पत्तिः बद्धानां च कर्मणां निर्जरणया अन्यत् प्राग्वत् ॥ ४०॥
'उसह ' शब्दे द्वितीयभागे उक्ना।) उत्त० पाई २६ अ०। विणियपरास-विनिवृत्तपराश-त्रिका विनिवृत्ता-निवृत्ताप-विणु-विना-अव्य० । “पुनर्विनः स्वार्थे बुः" ॥८॥४॥ ४२६ ॥ रस्य श्राशा येषां ते तथा । सर्वथा पुद्गलाशारहिते निर्वाञ्छुके,
| अपभ्रंशे पुनर्विना इत्येताभ्यां स्वार्थे हुः प्रत्ययो भवतीति "विनिवृत्तपराशानाम् ।" अष्ट० ३२ अष्ट।
हुः । अन्तरेणार्थे, 'विणु जुज्झे न बलाहु' । प्रा०४ पाद । विणियट्टमाण-विनिवर्तमान-त्रि०। समस्ताशुभव्यापारात् विणुत्ति-विनोक्लि-स्त्री०।"विनोक्तिः सा विनाऽन्येन यत्रान्यः (आचा०१ श्रु०५ १०४ उ० ।) भोगेभ्यो वा विषयेभ्यः। सन्नचेतरः" इत्यनलक्षणेऽलंकारे, प्रति। निवर्तमाने, प्राचा०१ श्रु०५ अ०४ उ० !
विणेय-विनेय-पुंगशिष्ये, नं। आव० । शास्तानुयोग्ये, विशेष विणिवण-विनिवर्तन-न० । असंयमस्थानेभ्यो विरमणे, विगोयामागा
स्थानेभ्यो विरमणे, विणेयाणुगुप-विनेयानुगुण्य-न। शिक्षीयसत्त्वानुरूप्ये,पभ०१७ श० ३ उ०।
चा०१६ विव०। विणिवाइय-विनिपातिक-न० । नाट्यभेदे, प्रा०म०१ अ विणोय-विनोद-पुं०। विश्रामे, आ० चू०१०। श्रा०म०। विणिवाय-विनिपात-पुं० । सुतादिमरणे, अनु० । धर्मभ्रंशे, | श्राचा। संसारे च । स्था०४ ठा०३ उ०। औ०।
विनोकस-पुं० । नरविहीने निवासगृहे, व्य०५ उ० । विणिविद्र-विनिविष्ट-त्रिविविधमनेकधा निविष्टं स्थितम् । विमत्त-विज्ञप्ति-त्रि० । उक्ने, सूत्र० १ श्रु०४ अ० २ उ० ।
नानाप्रकारैर्निविष्टे, प्राचा० १N०२ अ० १ उ० । विपत्ति-विज्ञप्ति-स्त्री० । विविधं विशेषेण वा शपनं प्रबोधनं विणिविचित्त-विनिविष्टचित्त-त्रि० । विविधमनेकधा नि-विज्ञप्तिःविशा विज्ञान वा विति। परि विष्ट स्थितमवगाढमर्थोपार्जनोपाये मातापित्राद्यभिष्वङ्गे वाम। श्राचा । ज्ञाने, सूत्र०१७० १२ अ०। "विज्ञप्तिः फलदा
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(१९८७) विएणत्ति अभिधामराजेन्द्रः।
विएणाणवाई पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याशानात् प्रवृत्तस्य , ह्योऽर्थः ? किं परमाणुरूपः स्थूलावयविरूपो वा न तावफलासंवाददर्शनात् ॥ ३०॥"नयो।
त्परमाणुरूपः प्रमाणाऽभावात्। प्रमाणं हि प्रत्यक्षमनुमानं वा?। विपत्तिहेउभूय-विज्ञप्तिहेतुभूत-त्रि०।क्षातव्यसामर्थ्यायुक्त, न तावत्प्रत्यक्ष-तत्साधनं बद्धकक्षम् । तद्धि योगिनां स्यात् विज्ञप्तिकारणे, श्रा० चू०१०।
अस्मदीदानां वा नाद्यम् । अत्यन्तविप्रकृष्टतया श्रद्धामात्रविमयपरिणयमेत्त-विज्ञकपरिणतमात्र-पुं० । विज्ञ एव विक्ष
गम्यत्वात् । न द्वितीयम् , अनुभवबाधित्वात् । न हि वयम. कः स चासौ परिणतमात्रं च कलादिष्विति गम्यते । विश
यं परमाणुरयं परमाणुरिति स्वप्नेऽपि प्रतीमः, स्तम्भोऽयं कुपरिणतमात्रे, शा० १ श्रु० १ ०योग्यविज्ञान प्राप्ते, भ० ११
म्भोऽयमित्येवमेव नः सदैव संवेदनोदयात् । नाप्यनुमानेन
तसिद्धिः, अनामतीन्द्रियत्वेन तैः सह अविनाभावस्य श०११उ०1विपा०।।
क्वापि लिङ्गे ग्रहीतुमशक्यत्वात्। किं च-श्रमी नित्या अनित्या विमवण-विज्ञपन-न । विक्षप्तौ, परिच्छेदे, आ०म० १ ०
वा स्युः । नित्याश्चेत्क्रमेणाऽर्थक्रियाकारिणो युगपद्वा ? । न " पासवण त्ति वा विमवण त्ति वा एगटा" श्रा० म०१०
क्रमेण; स्वभावभेदेनाऽनित्यत्वापत्तेन युगपत् , एकक्षणे एव सिमावणा-विज्ञापना-स्त्री०।विज्ञप्तिकायाम्, सप्रणयप्रार्थने,
कृत्स्नार्थक्रियाकरणात् क्षणान्तरे तदभावादसत्त्वापत्तिः । भ० श. ३३ उ० । सूत्र० । ज्ञा० । नि०। प्रतिसेवनायाम् ,
अनित्याश्चेत् क्षणिकाः, कालान्तरस्थायिनो वा ? क्षणिकाप्रार्थनायाञ्च । बृ०१ उ०३ प्रक० । विज्ञाप्यन्ते याः कामा
श्चेत् , सहेतुका निहतुका वा ? । निर्हेतुकाश्चेन्नित्यं सत्त्वमसर्थिभिस्तदर्थिन्यो वा कामिनमिति विज्ञापनाः । स्त्रीषु, सूत्र०
त्वं वा स्यानिरपेक्षत्वात् । अपेक्षातो हि कादाचित्कत्वम् । १ श्रु०२ अ०३ उ०।
सहेतुकाश्चेत्, किं तेषां स्थूलं किंचित्कारणं परमाणवो वा? । विष्याण-विज्ञान-न। विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानम् । "शोभः" ।
न स्थूलं; परमाणुरूपस्यैव बाह्यार्थस्याऽङ्गीकृतत्वात् । न च २४२॥ इति काचित्कत्वादत्र न अकारःप्रा०। "नशोर्णः" इति
परमाणवः । ते हि सन्तोऽसन्तः सदसन्तो वा स्वकार्याणि शस्थाने णः । प्रा० । ज्ञानदर्शनोपयोगे,विशे०। श्री० । क्षयोपश
कुर्युः ? सन्तश्चेत् , किमुत्पत्तिक्षण एव , क्षणान्तरे वा?। मविशेषत एवावधारितार्थविषये, तीव्रतरधारणाहेतो बोध
नोत्पत्तिक्षणे , तदानीमुत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् तेषाम् । अथविशेषे,नंबाचक्षुरादीन्द्रियोएलब्धिरूपे विशेषावबोधे, श्रातु।
" भूतियेषां क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यते" इति वचनान ने। सूत्रका हिताऽहितमाप्तिपरिहाराध्यवसाये, श्राचा०१श्रु०
वनमेव तेषामपरोत्पत्ती कारणमिति चेत् ,एवं तर्हि रूपाणवो ४१०२ उ० । अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चये,स्था० ३ ठा०
रसाणूनाम् , ते च तेषामुपादानं स्युरुभयत्र भवनाऽविशेषा ३ उ० । मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदे,शा० १
त् । न च क्षणान्तरे, विनष्टत्वात् । अथासन्तस्ते तदुत्पादकाश्रु० १ ० । अनेकप्रकाररूपादिकरणे , तं० । अनेकधर्मि
स्तर्हि एकं स्वसत्ताक्षणमपहाय सदा तदुत्पत्तिप्रसङ्गः, तदसणि वस्तुनि तत्तथाध्यवसाये, दश०४ श्र० ।'णाणे विराणा
स्वस्थ सर्वदाऽविशेषात् । सदसत्पक्षस्तु "प्रत्येकं यो भवेहो. णफले' प्रव०२ द्वार । ज्ञानं विशिष्टज्ञानफलम् । श्रुतज्ञानाद्धि
पो, द्वयोभावे कथं न सः ?,” इति वचनाद्विरोधाघ्रात एव । हेयोपादेयविवेककारिविज्ञानमुत्पद्यते । भ०३ श०७ उ० । विज्ञायतेऽनेनेति । मनसि, विज्ञाने, अनु० ।
तनाणवः क्षणिकाः नापि कालान्तरस्थायिनः क्षणिकपक्षसविल्याणखंध-विज्ञानस्कन्ध-०। रूपविज्ञानादिरूपे बौद्धपरि
दृक्षयोगक्षेमत्वात्। किं च-श्रमी कियत्कालस्थायिनोऽपि भाषिते पञ्चसु स्कन्धेष्वन्यतमे, सूत्र०१ श्रु०१०१ उ० ।
किमर्थक्रिया पराङ्मुखाः,तत्कारिणो वा ?। श्राद्ये खपुष्पवद
सत्वापत्तिः उदग्विकल्पे किमसद्पं सद्रपमुभयरूपं वा ते का. विष्माणघण-विज्ञानघन-पुं० शानदर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानं तन्मयत्वादात्मा विज्ञानघनः । कल्प०१ अधि०६क्षण । वि
यं कुर्युः । असदपं चेत्-शशविषाणादेरपि किं न करणम् । ज्ञानपिण्डे , सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ०। पृथिव्यादि
सद्रपं चेत् , सतोऽपि करणेऽनवस्था। तृतीयभेदस्तु प्राग्वभूतानां विज्ञानलवसमुदाये, पृथिव्यादिविज्ञानांशानां पिण्डे,
द्विरोधदुर्गन्धः । तन्नाणुरूपोऽर्थः सर्वथा घटते । नापि स्थूविशे० । (“विमाणो "० ( १५६३-१५६४) इत्यादिगाथा
लावयविरूपः । एकपरमारवसिद्धौ कथमनेकतत्सिद्धिः ? द्वयम्-'श्राता' शब्दे द्वितीयभागे १७६ पृष्ठे व्याख्यातम् ।)
तदभावे च तत्प्रचयरूपः स्थूलावयवी वामात्रम् । किं च-श्रविष्याणपत्त-विज्ञानप्राप्त-त्रि० । हिताहितप्राप्तिपरिहारा
यमनेकावयवाधार इष्यते । ते चावयवा यदि विरोधिनस्त
हि नैकः स्थूलावयवी; विरुद्धधर्माध्यासात् । अविरोधिनध्यवसाय प्राप्ते , आचा०१ श्रु०४ १०२ उ० । अवाप्तसद्बोधे, |
श्वेत्प्रतीतिबाधः, एकस्मिन्नेव स्थूलावयविनि चलाचलरक्काउपा०१०।
रक्ताऽऽवृतानावृतादिविरुद्धावयवानामुपलब्धेः । अपि चविष्माणवाइ--विज्ञानवादिन-पुं० । शेषनीलादिविकल्पशू
असौ तेषु वर्तमानः कात्स्न्येनैकदेशेन वा वर्तते? कात्स्न्येन न्यस्य पारमार्थिकरागादिवासनाविशेषरहितस्य बोधलक्षण- वृत्तावेकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वादनेकावयववृत्तित्वं न स्य प्रतिज्ञापके चौद्धभेदे, षो० १६ विय० । स्या० ।
स्यात् ; प्रत्यवयव कात्म्येन वृत्तौ चावयविबहुत्वापत्तेः । तन्मतनिरासः
एकदेशेन वृत्तौ च तस्य निरंशत्वाभ्युपगमविरोधः, सांशन संविदद्वैतपथेऽर्थसंविद् विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम् । त्वे वा तेऽशास्ततो भिन्नाः, अभिन्ना वा ? । भिन्नत्वे पुनरप्यने अथ व्याख्यातुमुपक्रम्यते-तत्र च बाह्यार्थनिरपेक्ष माना- कांशवृत्तरेकस्य कात्स्न्यैकदेशविकल्पानतिक्रमादनवस्था । द्वैतमैव ये बौद्धविशेषा मन्यते तेषां प्रतिक्षेपः । तन्मतं चेदम्- अभिन्नत्वे न केचिदंशाः स्युः । इति नास्ति बाह्योऽर्थः क
हकादिकलकाऽनङ्कितं निष्प्रपञ्चं ज्ञानमात्रं परमार्थ-| श्चित् । किन्तु-ज्ञानमेवेदं सघे नीलाद्याकारेण प्रतिभाति । सत्। बाह्यार्थस्तु पिवारमेव न क्षमते। तथाहि-कोऽयं बा- बाह्यार्थस्य जत्वेन प्रतिभासायोगात् । यथोनं "वाकारबु
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( ११८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
विसावाह
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"
जिनका दृश्यानेन्द्रियगोचरा:" अलङ्कारकारेणाप्युक्रम्"यदि संवेद्यते नीलं कथं वा तेन संवेद नीलं कथं वा तदुच्यते ? ॥१॥" यदि बाह्योऽर्थो नास्ति किं विषयस्य घटपटादिप्रतिभास इति बेधनु निरालम्बन पचायमनादिषितथार्ततो निर्विका ज्ञानयत् स्मशानवद्वेति । अत एवोक्रम्-" नान्योऽनुभावो बुद्धयाऽस्ति, तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते ||१|| बाह्यो न विद्यते ह्यर्थो यथा बालैर्विकल्प्यते । वासनालुण्ठितं चित्त-मर्थाभासे प्रवर्तते ॥२॥” इति । तदेतत्सर्वमवयम् । ज्ञानमिति हि क्रियाशब्दस्ततो ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं ज्ञप्तिर्वा ज्ञानमिति । अस्य च कर्मणा भाव्यं; निर्विषयाया शप्तेरघटनात् । न चाकाशकेशादौ निर्विषयमपि दृष्टं ज्ञानमिति वाच्यं तस्याप्येकान्तेन निर्विषयत्वाऽभावात् । न हि सर्वथाऽगृहीतसत्य केशज्ञानस्य तत्प्रतीतिः । स्वमज्ञानमप्यनुभूतार्थविषयत्या निरालम्बनम् । तथा च महाभाष्यकारः -"यदि चिंतिय-सुवि दिट्ठयारदेवपाणू वा । सुमिणस्स निमित्ताई, पुरणं पावं च गाऽभावा ॥ १ ॥ 'यश्च ज्ञानविषयः स बाह्योऽर्थः । भ्रान्तिरियमिति चेद् चिरं जीव भ्रान्तिहिं मुख्येकचिद् दृष्टे सति करणाऽपाटवादिना अन्यत्र विपयस्तग्रहणे प्रसिद्धा । यथा शुक्रो रजतभ्रान्तिः । अर्थक्रियासमर्थेऽपि वस्तुनि यदि भ्रान्ति नाताभ्रान्तव्यवस्था । तथा च सत्यमेतद्वचः- “ श्राशामोदकतृप्ता ये, ये चास्वादितमोदकाः । रसवीर्यविपाकादि, तुल्यं तेषां प्रसज्यते ॥ १ ॥ " न सामूत्यर्थदूषणानि स्पाादादिनां बाधां विदधते, परमाणुरूपस्य स्थूलावयविरूपस्य चार्थस्पाङ्गीकृतवात् । यच्च परमाणु पक्षखण्डने ऽभिहितं प्रमा वाऽभावादिति । तदसत्। तत्कार्याणां घटादीनां प्रत्यक्ष तेपणमपि कथंचित् प्रत्यक्षत्वं योगिप्रत्यक्षेण च साक्षात् त्यक्षत्वमवसेयम् । अनुपलब्धिस्तु सौक्ष्म्यात् । अनुमानादपि तत्सिद्धिः, यथा - सन्ति परमाणवः स्थूलावयविनि - पस्यन्यथाऽनुपपत्तेरित्यन्तर्व्याप्तिः । न चाणुभ्यः स्थूलोस्वाद इत्येकान्तः स्थूलादपि सूत्रपटलादेः स्थूलस्य पटादेः प्रादुर्भावधिभावनात् आत्माकाशादेरङ्गलकार्यत्यकलीका राय यत्र पुनरसुभ्यस्तदुत्पत्तिस्तत्र ततकालादिसामग्रीसव्यपेतक्रियावादु संयोगातिशयम पेय मयितचैव यदपि किंचायमनेकावयवाधार इत्यादि न्यगादि, तत्रापि कहिरोयनेकाचचाऽविष्यभूतवृत्तिरवयव्यभिधीयते । तत्र च यद्विरोष्यनेकाचचाधाराय
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मनिदितं रथंचिदुपवत एव तावदवयवात्मकस्य तस्यापि कथंचिदनेकरूपत्यात् । यथोपन्यस्तमपि च असौ तेषु वर्तमानः कायैनैकदेशेन वा यतेत्यादि तत्रापि विकल्पयाऽनभ्युपगम एवोत्तरम् अधियग्भावेनाऽवयविनोऽययबेषु वृत्तेः स्वीकारात्। किं च यदि वाह्योऽर्थो नास्ति किमि दानी नियताकारं प्रतीयते 'नीलमेतदि' ति ? | विज्ञानाकारो ऽयमिति चेन्न ज्ञानाद्वहिर्भूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे तु श्रहं नीलमिति प्रतीतिः स्यान्न त्विदं नीलमिति । ज्ञानानां प्रत्येक माकारभेदात् कस्यचिदहमिति प्रतिभासः कस्यचिनीलमेतदिति चेत् । नीलाद्याकारवदमियाकारस्य व्यय।
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स्थितत्वाभावात् । तथा च यदेकेनाहमिति प्रतीयते तदेवापरेण त्वमिति प्रतीयते । नीलाद्याकारस्तु व्यवस्थितः, सर्वैरष्येकरूपतया ग्रहणात् | भक्षितहत्पूरादिभिस्तु यद्यपि नीलादिकं पीतादितया गृह्यते तथापि तेन न व्यभिचारः, तस्य भ्रान्तत्वात् स्वयं स्वस्य संवेदनेऽहमिति प्रतिभासत इति चेत् किं परस्यापि संवेदनमस्ति ?, कथमन्यथा स्वशब्दस्य प्रयोगः १, प्रतियोगिशब्दो यं परमयेश्यमाण व प्रवर्त्तते। स्यरूपस्यापि भ्रान्त्या भेदप्रतीतिरिति चेत् । हन्त ! प्रत्यक्षेण प्रतीतो भेदः कथं न वास्तवः ? । भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेत् । ननु कुत एतत् अनुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्धेरिति चेत् किं नुमानमिति पृच्छामः यद्येन सह नियमेनोपलभ्यते ततो न भिद्यते । यथा सचन्द्रादसञ्चन्द्रः । नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहार्थः । इति व्यापका ऽनुपलब्धिः । प्रतिषेध्यस्य ज्ञानार्थयोर्भेदस्य व्यापकः सहोपलम्भानियमस्तस्याऽनुपलब्धिर्नियोनलपीतयोर्युगपदुपलम्भनियमाभावात् । इत्य नुमानेन तयोरभेदसिद्धिरिति देश संदिग्धानैकान्तिका नास्यानुमानाभासत्यात् । ज्ञानं हि स्वपरसंवेदनं तत्परसं वेदनतामात्रेणैव नीलं गृह्णाति स्वसंवेदनतामात्रेणैव च नीलबुद्धिम्। तदेवमनयोर्युगपदग्रहणात्सहोपलम्भनियमो स्ति । अभेद नास्ति इति सहोपलम्भनियमरूपस्य हेतोविपक्षाद् व्यावृत्तेः संदिग्धत्वात् संदिग्धाऽनैकान्तिकत्वम् । प्रसिद्ध सहोपलम्भनियो, नीलमेतरिति बहिर्मुखताथेऽनुभूयमाने तदानीमेवान्तरस्य नीलानुभवस्यानुभवात्। इति कर्म प्रत्यक्षस्यानुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदात्म अपि च प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वेनाधितविषयत्वादनुमान स्यात्मलाभो, लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमि - त्यन्योन्याश्रवदोषोऽपि दुर्निवारः अर्थाभावे च नियतदेशाधिकरणाप्रतीतिः कुतः १ न हि तत्र विवक्षितदेशेऽयमारोप
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तो नान्यत्रेयस्ति नियमहेतुः । वासनानियमात्तदारो पनियम इति खेत् । न तस्था अपि तदेशनियमकारणाभा यात् सति सद्भावे पदेशो ऽर्थस्तद्देशो ऽनुभवस्तदेशा च तत्पूर्विका वासना । बाह्यार्थाभावे तु तस्याः किं कृतो देशनियमः ? । अथास्ति तावदारोपनियमः । न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषणे घटते बाह्यचार्थो नास्ति। तेन या सनानामेव वैचित्र्यं तत्र हेतुरिति चेत् तद्वासनावैचित्र्यं यो धाकारादन्यदनम्पद्वानम्पचेत् वांधाकारस्यैकत्वात्कासां परस्परतो विशेष अन्यदर्थे कः प्रद्वेषो येन सर्पलोकप्रतीतिरपभूपते । तदेवं सिद्धानार्थयोर्भेदः तथा च प्रयोगः। विवादाप्यासितं नीलादिज्ञानादव्यतिरिक्तं विरुध मध्यस्तत्वाविरुद्धधर्माध्यास ज्ञानस्य शरीरान्तः, अर्थस्य च बहिः ; ज्ञानस्या परकाले, अर्थस्य च पूर्वकाले वृत्तिमत्त्वात् ज्ञानस्य श्रात्मनः सकाशाद् अर्थस्य व स्वकारणेभ्य उत्पत्तेः ज्ञानस्य प्रकाशरूपत्वादर्थस्य च जडरूपत्वादिति । अतो न ज्ञानानेऽभ्युपगम्यमाने बहिरनुभूषमानातीति कथमपि संगतिमङ्गति । न च होतं शक्यमिति। अत एवाद स्मृतिकार: सिं वित्" इति । सम्यग् श्रवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूमनदेति संवत् स्वसंवेदते तु संवेदनं निम् तस्या अद्वैतम्। षद् द्वयोर्भाचो द्विता द्वितेय तं प्रज्ञादिवात् स्वार्थिकेसि न द्वैतमा प्रतिपादेयम् । द्वैतमद्वैतं बाझार्थप्रतिक्षेपादेकत्वम्
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(१९९१) विएणाणवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
विराकुमार संविदद्वैतं शानमेवैकं तात्त्विकं न बायोऽर्थ इत्यभ्युपगम प्राकृतत्वात् । उत्पाद (स्य) उप्पावत् लुप्तभावप्रत्ययत्वात् इत्यर्थः । तस्य पन्थाः-मार्गः संविदद्वैतपथस्तस्मिन् । साना- | चा एका विद्वत्ताः विज्ञता घेत्यर्थः । स्था०१ ठा। द्वैतवादपक्ष इति यावत् । किमित्याह-" नार्थसंवित्" ।येय
विश्लेय-विजेय-त्रिका अवबोद्धव्ये, दर्श०१ तस्व । अवगम्तबर्हिमुखतयाऽर्थप्रतीतिः साक्षादनुभूयते सा न घटते इत्यु
ET व्ये, विशे। पस्कारः । एतच्चानन्तरमेव भावितम् । एवं च स्थिते सति | किमित्याह-"विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम् " इति-सु-विण्हवण-विस्नपन-ना विशेषेण स्नपने,वृ०१उ० २ प्रक० । गतो-मायापुत्रस्तस्य सम्बन्धि तेन परिकल्पितं क्षणक्षयादि | बालस्नापने, पं० व०५ द्वार।। वस्तुजातमिन्द्रजालभिवेन्द्रजालं, मतिव्यामोहविधायित्वात्। विण्डावणग-विस्नापनक-न। विविधैर्मन्त्रमूलादिभिः संसुगतेन्द्रजालं सर्वमिदं विलूनशीर्णम्-पूर्व विलून पश्चात् | काजलै
| स्कृतजलैः स्नापनके, प्रश्न० २ आश्र० द्वार । शीणे विलूनशीर्णम् । यथा किंचित्तणस्तम्बादि विलूनमेव शीर्यते-विनश्यति एवं तत्कल्पितमिदमिन्द्रजालं तृणप्राय
|विगिह-वृश्नि-पुं० । स्वनामख्याते अन्धकवृश्निपुत्रे, अन्त। धारालयक्तिशत्रिकया छिन्नं सद्विशीर्यत इति । अथवा- । (स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकद्दशायथा निपुणेन्द्रजालिककल्पितमिन्द्रजालमवास्तवतत्तद्वस्त्व- नां प्रथमवर्गे दशमाध्ययने सूचितम् ।) दूततोपदर्शनेन तथाविधं बुद्धिदुर्विदग्धजनं विप्रतार्य पश्चादि-विण्ह-विष्णु-पुं०। "सूक्ष्म-श्न-रण-स्न-द-रणां राहः" ॥२॥ न्द्रधनुरिव निरवयवं विलूनशीर्णतां कलयति, तथा सुगत
७५॥ इतिष्णस्य रहः । प्रा० । वाशिष्ठसगोत्रस्य जेहिलस्य मापरिकल्पितं तत्तत्प्रमाणतत्तत्फलाउभेदक्षणक्षयज्ञानार्थहेतु
| ढरसगोत्रे स्वनामख्याते शिष्ये,कल्प०२ अधि०८ क्षण । वासुकत्वज्ञानाद्वैताभ्युपगमादि सर्व प्रमाणाऽनभिक्षं लोकं व्या
देवे,प्रा०क०१अास्था०"जले विष्णु स्थल विष्णु-र्विष्णुःपमोहयमानमपि युक्त्या विचार्यमाण विशरारुतामेव सेवत
र्वतमस्तके। सर्वभूतमयो विष्णु-स्तस्माद्विष्णुमयं जगत्"॥१॥ इति । अत्र च सुगतशब्द उपहासार्थः । सौगता हि शोभनं
अनेन हि वाक्येन विष्णोर्महिमा प्रतीयते। कल्प० । गतं ज्ञानमस्येति सुगत इत्युशन्ति । ततश्चाहो तस्य शोभनमानता येनेत्थमयुक्तियुक्तमुक्तम् । इति काव्यार्थः॥१६॥ स्या०।
"जले विष्णुः स्थले विष्णु-विष्णुः पर्वतमस्तके। (विस्तरार्थस्तु 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे १६६० पृष्ठे गतः। ) ज्वालमालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ १॥ विसाय-विज्ञात-त्रि० । विशेषेण नातं विज्ञातम् । श्राचा०१
तथाधु० १ ०१ उ० । विदिते, प्राचा०१ श्रु० १ ० १ उ० ।। अहं च पृथिवी पार्थ!, वाय्वझिजलमप्यहम्। विज्ञाय-श्रव्य० । अवेत्येत्यर्थे । दश०८ अ०। पं० सू०।।
वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥२॥ विमायपरिणयमेत्त-विज्ञातपरिणतमात्र-त्रि० । विज्ञातं-वि
तथाशानं तत्परिणतमात्र यत्र सः। परिपक्वधिशाने , कल्प० १ सो किल जलयसमुत्थे, गुदएणेगनवम्मि लोगम्मि । अधि० ३ क्षण।
वीतीपरंपरेणं, घोलतो उदयमझम्मि ॥३॥ विमाया-विज्ञात-त्रि०। प्रतिभेदशानेन पदार्थानां परिच्छे- स किल मार्कण्ड ऋषिः। दके, प्राचा० १ श्रु०५१०५ उ०। सूत्र० ।
पेच्छर सो तसथावर-पण?सुरनरतिरिक्खजोणीयं । विष्णास-विन्यास-पुं०। निक्षेपे, विशे०।
एगन्नवं जगमिणं, महभूयविवज्जियं गुहिरं ॥२॥
एवंविहे जगम्मि, पिच्छइ नग्गोहपायवं सहस्सा। विएणु-विद्वस्-पुं० । पण्डिते, द्वा० २७ द्वा० । अष्टः । ज्ञानपि
मंदरगिरि व तुंग, महासमुहं व वित्थिन्नं ॥३॥ एडे,सूत्र. १ श्रु०१ अ० १ उ० जिनागमगृहीतसारे,प्राचा
खंधम्मि तस्स सयण, अच्छह तह बालो मणभिरामो। २ श्रु०४चू०।
(विष्णुरित्यर्थः) अथ (यश्च ) विद्वानिति द्वारमाह
संविद्धो सुद्धहियो, मिउकोमलकुंचियसुकेसो॥४॥ विदु जाणए विणीए, उववाए जो उ चिट्ठइ गुरूणं । हत्थो पसारिश्रो से, महरिसिणो पहि वच्छ ! भणिोय । तबिवरीयविणीए, अदिते दिते अलहु गुरुगा।।७६शा
खधे इमं विलग्गसु, मा मरिहिसि उदयवुड्डीए ॥ ५॥ विदमाने इत्यस्य धातोत्ति-जानातीति व्युत्पत्या विद्वान्
तेण य घेतं, हत्थे, मिलिश्रो सो रिसी तो तस्स ।
पिच्छड उदरम्मि जयं, ससेलवणकाणणं सव्वं ॥६॥” इति । शायक उच्यते । स चेहाभ्युत्थानासनप्रदानादिरूपस्य विनयस्य विशाता ग्राह्यः। न केवल शायकः, किंतु-विनीतो य-|
पुनः सृष्टिकाले विष्णुना सृष्टम् । कुदर्शनता चास्य प्रतीथावसरमभ्युत्थानादिविनयप्रयोक्ता । तथा उपपाते-श्राशा
तिबाधितत्वात् । प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार | श्रवणनक्षत्रस्य निर्देशे गुरूणां 'यस्तु'-यः पुनर्वर्त्तते तस्य सूत्रं न ददाति चतु-|
देवतायाम् , जं०.७ वक्षः । सू०प्र० । लघु, अर्थे न ददाति चतुर्गुरु । गत(यश्च)विद्वानिति द्वारम् ।। दो विएहू (सू०) स्था० २ ठा० ३ उ०। वृ०१ उ० १ प्रक०।
विण्हकुमार-विष्णुकुमार-पुं०। वैक्रियलब्धिसंपन्नत्वेन प्रएगा विएणू । (मु०-३२)
सिद्ध स्वनामख्याते साधौ , कर्म०। (विष्णुकुमारस्य विद्वान् विज्ञो या तुल्यबोधत्वादेक इति । ब्रीलिङ्गत्वं च वृत्तम् ‘पावा' शब्दे पञ्चमभागे ८८६ पृष्ठे गतम्।)
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(१९६०) दिशामार अभिधानराजेन्द्रः।
वितिगिच्छा विकमारसंबन्धः कुत्र प्रन्थे वर्तते । तथा तेन यल्लक्षयोज-| वितरण-वितरण-न० । दानार्थनिमन्त्रणे, प्राचा० १७० मप्रमापं कृतं श्रूयते तत् किमुत्सेधालनिष्पनेन योज-| E१०। मेन प्रमाणाहुलनिष्पन्नेन वा । तथा तेन पूर्वपश्चिमसमुद्रयोः पादौ मुक्ती स्त इत्यप्युक्तमस्ति तेनैतदाश्रित्य यथा घट
वितल-वितल-त्रि.। शवले, 'सवले ति वा पितले ति वा मानं भवति तथा प्रसाद्यमिति ? । अत्र विष्णुकुमारसंबन्धः
| एगट्ठा प्रा० चू०४०। उत्तराध्ययनवृत्तिपुष्पमालावृत्तिप्रमुखग्रन्थेषु वर्त्तते , तथा | वितह-वितथ-त्रि० । अयथाभूते, सा० १ ० १ ० । तेन यालक्षयोजनप्रमाणं रूपं कृतं वर्तते तदुत्सेधाङ्गलनिष्पत्र- सूत्र । असद्भूते, प्राचा०१ श्रु० २०३ उ० । श्राव० । योजनप्रमाणेन , यत्पुनः पूर्वपश्चिमसमुद्रयोः पादौ मुक्तौ त- दश। मिथ्यावितथमवतमिति पर्यायाःप्रा०म०१०॥ जम्बूद्वीपमध्यस्थलवणसमुद्रखातिकायामिति संभाव्यते , वितहं ति वा असच्चं ति वा एगटुं। श्रा००१०। अन्यथा उत्सेधाकुलनिष्पन्न लक्षयोजनप्रमाणशरीरस्य चर-1 स्था। सूत्र। णाभ्यां पूर्वपश्चिमलवणसमुद्रस्पर्शनं दुःशक्यमिति ॥३॥ ही०दितहकरण-वितथकरण-नाविपरीतकरणे,पं०व०४ द्वार। ४प्रका। विरहगायत्ती-विष्णुगायत्री-स्त्रीला 'वागविशुद्धाय विद्महे
वितहायरण-वितथाचरण-न। अन्यसामाचार्या आचरणे,
श्रोघ०। वागविशुद्धाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्' इति विष्णुदेवताकगायत्र्याम् , गा।
वितिकिम-व्यतिकीर्ण-त्रि० । अनानुपा विप्रकीर्णे, नि. विएहमित्त-विष्णुमित्र-पुं० । मानपिण्डशब्दे उदाहते स्वना- चू०१६ उ०। मख्याते श्रावके, पिं०।
वितिकीर्ण-त्रि० । एकतः सम्मिलितेषु सर्वेष्वपि धान्येषु, विएहुसिरी-विष्णुश्री-स्त्री० । वीरतीर्थे सर्वान्तिमायामन-||
व्यतिकीर्णा यदेतेषां धान्यानां सम्मोलका भवन्तीति उक्तः । गार्याम् , 'एरिसगुणजुत्ता चेव सुगहियनामधिज्जा विराहुकु
वृ०२ उ०। मारी 'महा०४०।
* वितिगिच्छतिम्-विचिकित्सातीर्ण-त्रि०। चिसविप्लुतिसंशवितंडा-वितएडा-स्त्री० । वितण्डयते पाहन्यतेऽनया प्रतिपक्ष- यज्ञानं वा अतिक्रान्ते, सूत्र.१ ध्रु०१० अ०। साधनमिति । प्रतिपक्ष स्थापनाहीने वाक्ये, अभ्युपेत्य पक्ष वितिगिच्छा-विचिकित्सा-स्त्री० । चित्तविप्लुतौ,सूत्र०१ श्रु० योन स्थापयति स वैतरिडकः। इति हि न्यायवार्तिकम् ।। १४ अ०। दानादौ फलं प्रति सन्देहे, ध०२ अधिः ।। जैनपरिभाषया-तत्वविचारमौखये , स्या। नि० चू० ।। मतिविभ्रमे, ध० १ अधि० । स्था० । सूत्र० । आशसूत्र० स०। कल्प।
कायाम् , आचा०१ श्रु० ३ ० ३ उ० । नि० चूछ । वितक-वितर्क-पुं० । विमर्श , नं० । नि० चू० । श्रुते , आव०
वि इति विशेषण विविधैः प्रकारैर्वा चिकित्सा-प्रतिक्रिया। ४०।
स्था०४ ठा०२ उ०। सूत्र० । विमर्षे, मीमांसायाम् , सूत्र०२ वितय॑-त्रि० । प्रार्थनीये, वृ०१ उ० ३ प्रक० ।
श्रु०२ १०। आशङ्कायाम् , आचा०१०३ १०३ उ०। अने. वितकिय-वितर्कित-त्रि । वितर्किते, पं० चू०१ कल्प। पणीयाशङ्कायाम्, प्राचा०२ १०१००१ १०३ उ०ा युक्त्यावितडी-वितटी-स्त्री० । विरूपासु नदीषु, शा०१ श्रु०१ अ०।
ऽऽगमोपपनेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः, किमस्य महतस्तपः
क्लेशायासस्य सिकताकणकवलनादेरायत्यां मम फलसंपदभ. वितएहा-वितृष्णा-त्रि० । विगतगायें, द्वा० ११ द्वा०।। विष्यति किंवा नेति । श्राव०४ अाश्रा०चून दाणि वितिवितत-वितत-न०। विस्तृते, संघा०१ अधि०१ प्रस्ता०ा वित-| गिच्छत्ति दारं-'संतम्मि वि वितिागच्छ गाहा-पच्छद्धं 'संततीकृते, ताडिते, मा०म०१ अाजीला प्रशासभा पटहादि. म्मि विजमाणम्मि'अवि-पयत्थसंभावणे। फि-संभावयति?-प. के, ०२ वक्ष। जी०। सूत्र०। “ततं वीणादिकं शेय, विततं शक्खे वि ताव अत्थे वितिगिच्छं करेति किमु परोक्खे, पतं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि,वंशादि शुधिरं मतम्।।" संभावयति-वितिगिच्छा णाम चित्तविप्लुतिः जहा-थाणुरयं स्था०४ ठा०४ उ०। श्रीहेमचन्द्रास्तु विततस्थाने आनद्धमा- पुरिसोऽयमिति । सिज्मेजत्ति । जहाऽभिलसितफलपावणं हुः । ०५ वक्ष०ारा०जी० । स्थान प्राचा०। प्रा०चून सिजीणगारेण संदेहं जणयति । मे इति आत्मनिर्देशः। अयमिप्रश्नः। सप्तसप्ततितमे महाग्रहे, स्था०२ ठा०३ उ०।० ति ममाभिप्रेतः। अर्थ अर्थ्यत इत्यर्थः । एस पयस्थो भणिओ। प्र० । कल्प।
उदाहरणसहिओ समुदायत्थो भमति-सा वितिगिच्छा दुविदो वितता। (सू०) स्था०२ ठा०३ उ०।
हा-देसे, सके य । तत्थ देसे अम्हे मोयसेयमल्लजल्लपंकदिद्ध
गत्ता अच्छामो अभंगुव्वट्टणादिण किंचि वि करेमोणो यणविततपक्खिण]-विततपक्षिण-पुं०। विततो पतावस्यति ।।
जति किं फलं भविस्सतिण वा??पमातिदेसे । सव्वसो-वंभच स्था० ४ ठा०४ उ० । बहिर्वीपवर्तिनि पक्षिभेदे , सूत्र० २ रणकसुप्पाडणजल्लधरणभूमिसयणपरिसहोवसग्गविसहरणाभु०३ अ०।
णि य एवमाईणि बहुणि करेमो न नजद किमेतेसि फल होवितह-वितर्द-पुं० । विविधं तर्दयतीति वितर्दः। तर्द-हिंसा
जवा ण वा एवं वितिगिच्छति। जे ते प्रातिजुगपुरिसा से यामित्यस्मात्कर्तरि पचाद्यन् । हिंसके, संयमे, प्रतिकूले च ।। संघयणधितिबलजुत्ता जहाभिहितं मोक्खमग्गं पाचरंता जप्राचा०१ श्रु०६५०४ उ०।
हाऽभिलसियमत्थं साति;अम्हे पुण संघयणादिविहया फलं
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वित्ति
(१९६१) वितिगिच्छा
अभिधानराजेन्द्रः। विलहिज्जामो सवा?,ण गजति । अहवा-सव्वं साहूणं लच-वितिमिरकर-वितिमिरकर-पुं० । वितिमिराः करा यस्यासौ बिटुं जति लवरं जीवाकुतो लोगो ण विट्ठो होतो तो सुंदर | वितिमिरकरः । निरन्धकारकिरणे, जं. २ वक्षः।। होतं देसयितिगिच्छा एसा । सम्बसो वितिगिच्छा-जइ स
वितिय-द्वितीय-त्रि० । द्वित्वसंख्यापूरके, प्रश्न. २/भामा वएणूहिं तिकालदरिसीहि सव्वं सुकरं विटुं होतं ताणं -
द्वार । अमौदशस्-सपायां द्वितीयसुब्धिभक्ती, "विश्या उपएम्हारिसा कापुरिसा सुहं करेंता एवं सुंदरं-होतं । निक
| सणे" अनु० । उत्त। चू०१3०1विचिकित्सायां विद्यासाधकसावगो नंदीसरबरगमणं दिव्यगंधाणं देवसंसग्गेण मित्सस्स पुच्छण,विजाए पदा वितियपद-द्वितीयपद-न० । अपवादपदे, नि००१ उ०। एवं साहणं मसाणे,चउपायगसिक्कय हेटा इंगालखायरो पतलो वित्त-वित्त-त्रि०। विनयादिगुणेन प्रसिद्ध, उत्स०१० । अटुसयवारा परिजविसापादो सिक्कगस्स छिजादा एवं बीओ,
स्थानमा विख्याते,निकानपुंगद्रव्ये,स०३० सम० । शा. तो य छिज्जा । चउत्थे छिन्ने आगासेण वचन । तेण
उत्त०। पो०। औ० दशा। सूत्रा आचा। द्रव्यजाते, सा विजा गहिया कालचउद्दसरात साहेर मसाणे । चोरो
सूत्र०१ श्रु० अ० वित्ते गद्धो वित्तगद्ध इति । वित्त यणयरारक्खिएहिं पारद्धो परिभममाणो तत्थेव अाइगो ।
इति अदत्तादानस्योपलक्षणम् । उत्त०५०। सूत्राद्वा०। शाहे वेढेउ मसाणं ठिया। पभाए घिप्पिहि सो य भमंतो तं विज्जासाहगं पेच्छह। तेण पुच्छिो । सोभणड । विजं सा.
वृत्त-न० । अनुष्ठाने, संयमे, शाने च । सूत्र०१ ध्रु० २ १० हेमि। चोरोभण केण ते दिशा। सो भणइ-सावगणं । चो- | ३ उ० । सच्छन्दस्के पद्ये, सूत्र. १ श्रु.१०१ उ०। रेण भणियं । इमं दब्वं गिराहाहि विजं देहि। सो सहो वित्त-वृत्तस्थ-पुं० । वृत्तमनाचारपरिहारः सम्यगाचारपाविचिकिच्छा सिभिजा नवत्ति। तेणं दिन्ना। चोरो चिंता | लनं च तत्र तिष्ठन्तीति वृत्तस्थाः। प्राचाररतेषु, “ वित्तसावगो कीडियाए वि पावं नेच्छइ सच मेयं तो सो साहि- ट्ठणाणबुट्टारिहा" ध० । सेवाऽभ्युत्थानादिलक्षणा गुणभाजो उमारद्धो सिद्धा। इयरोस लुद्धो गहिरो। तेण आगसगएण हि पुरुषाः सम्यक सेव्यमाना नियमात्कल्पतरव इव सदुपलोगो भेसिप्रोताहे सो मुक्का। दो विसावगा जाय त्ति।श्रा० देशादिफलैः फलन्ति । यथोक्तम्-"उपदेशःशुभो नित्यं, दर्शनं प्रव०। ध०। वृ०। स्था। युक्त्या समुत्पन्नेऽपि मतिव्यामो- धर्मचारिणाम् । स्थाने विनय इत्येतत् , साधुसेवा फलं महत् होत्पन्नचित्तविप्लुतो, द्वा०१४ द्वा०। सूत्र० । चित्तभ्रान्ती,से| ॥॥" ध०१ अधिक। शीती, सूत्र०१७०१२ अ०। दश । फलं प्रति शङ्कायाम् , पश्चा०१५ विव० । उपा। जीत०।
वित्तड्ड-वित्ताढ्य--पुं० । विभवनायके, द्वा० १४ द्वा।
वित्तपाइ (D)-वित्तपातिन्-त्रि० । वित्तेन पतनशीले , वितिगिच्छासणा-विचिकित्सासंज्ञा-स्त्री०। मोहोदयात् चि.|
योविं०। तविप्लुतो, आचा०१ श्रु०११०१ उ०।
वित्तप्पजाय-वृत्तप्रजात-न० । पद्यप्रकारे, स्था०७ ठा० ३ उ०। वितिगिच्छासमावस्म-विचिकित्सासमापन-पुं० । अनेषणी-वित्तवाव-वित्तवाप-पुं० । वित्तस्य-धनस्य श्रावकाधिकारा
याशङ्कागृहीते, प्राचा०२ श्रु०१ चू०१०३ उ०। मयायोपात्तस्य वा यो व्ययकरणम् । सत्कार्येषु धनव्यये,ध० वितिगिच्छिय-विचिकित्सित-त्रि०। फलं प्रति शङ्कोपेते,
२ अधि। स्था० ३ ठा०४ उ०। अस्मिन्नुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीति
वित्तसंजुत्त-वित्तसंयुक्त-त्रि०। प्रभूतद्रव्यवति,प्रभूतवित्तो छइत्पत्स्यते न वेत्येवं संशयिते, (भ०) किमिदमिहोत्तरमिदं
दारतया ब्यापारयन्नपि अन्येषां भावमुत्पादयति , अहो धवेति सञ्जातशत इदमित्थमुत्तरं साधु इदं च न साधु । भ०
न्याः खल्बमी य एवंविधोदारतया निजभुजोपात्तं वित्तं जि२श०२ उ०। स्था० । शा०।
नायतनेधुपयोग नयति । ततश्च शासनोन्नतिश्च जायते । स्व
वित्तानुसारेण जिनभवनविधौ प्रवर्तमानेन स्वाशयवृद्धिवितिगिट--ध्यतिकृष्ट-त्रि० । अतिशयेन क्षेत्रतो भावतश्च वि
रपि कृता भवति । दर्श०१ तत्व । कृतेन व्यतिकृष्टदिशमुद्दिशेत् । व्य०७० । दरदेशवर्तिनि , वृ०१ उ०३ प्रक०। ('उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे ८११ पृष्ठे
विचास-वित्रास-पुं० । विक्षोभे, उत्त०२०। श्रा० म० । व्याख्यातम् ।)
आचा।
विचासणय-वित्रासनक-न । विकरालरूपादिदर्शने, आव० वितिस-वितीर्ण-त्रि०। प्रतिक्रान्ते, सूत्र०१२०११०२ उन।
४०। वितिमिर-वितिमिर-त्रि० विगतं तिमिरं तिमिरसंपाद्योभ्रमो वित्ति-वृत्ति-स्त्री० । वृत्तिर्वर्तनम् । कृपादित्वादिस्वम् । प्रा० । येषां ते वितिमिरः। प्रकृष्टेतरविति तरप्प्रत्ययः। ततः प्रा- राजादेशकारिणो जीविकायाम् , विपा०१ श्रु० १ ० । कृतलक्षणे स्वाथै कः प्रत्ययः। नं०। श्री०। भ्रमरहिते, वि-| भ० । स्था०। सूत्र० । शा० । शुद्धतरके वा निरन्धकारेषु, कर्मतिमिरवासनापगमात् ।
अथ तान्येव नामतः श्लोकद्वयेनाह (प्रशा०३६ पद।) क्षीणावरखे, भ०५१०४ उ० स०। न०। विगताशानेषु, औ० । नपुं० । ब्रह्मलोके पश्चमविमाने ,
वृत्तयोऽङ्गारविपिना-नोभाटीस्फोटकर्मभिः । स्था०६ ठा०३ उ०॥
वाणिज्याका दन्तलाक्षा-रसकेशविषाश्रिताः ॥५२॥
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वित्थाररुइ
(१९६१) वित्ति
अभिधानराजेन्द्रः। यन्त्रपीडनकं निर्ला-ञ्छनं दानं दवस्य च ।
हिरवेक्खस्स उ जुत्तो, संपुष्पो संजमो चेव ॥ ७॥ सरःशोषोऽसतीपोष-श्चेति पश्चदश त्यजेत् ॥ ५३॥ |
वृत्तिव्यवच्छेदे-जीविकाविघाते वृत्तिक्रियाविरुद्धपूजाकाध० २ अधि०। (तत्तच्छब्दानां व्याख्या स्वस्वस्थाने)
लाश्रयणे कृते, चशब्दो-विशेषद्योतकः, पुनःशब्दार्थः ,
तस्य चैव भावना-वृत्तिक्रियाविरुद्धकालाश्रयणे वृत्तिव्यनपालने, प्रव० ६५ द्वार । विविधैरभिग्रहविशेषैर्वर्तने, नं० ।
कछेदो भवति । वृत्तिव्यवच्छेदे पुनः । किमित्याह-गृहिणो भ० । नि० । दश० । औ० । पश्चा० । दशा०। विपा० ।
गृहस्थस्य सीदन्ति-न प्रवर्तन्ते सर्वक्रिया-धर्मलोकाश्रिप्राचा० । सूत्र। ध०। पं० २० । वृ० । जीवनोपाये, कल्पक
ना समस्तव्यापाराः । अथ सीदन्तु ताः सकलकरमपवि१अधि०१क्षण । निर्वाहे, ज्ञा० १६०१० । स्था० ।
मोषपरपरममुनिपदपजपूजनप्रवृत्तस्य किं ताभिरित्यत्राहप्राणसंधारणे , स्था०६ ठा० ३ उ०। देहपरिपालनायाम् ,
निरपेक्षस्य तु वृत्तिनिःस्पृहस्य पुनः पुरुषस्य युक्तः-सादश०१ अायथानियुक्तपुरुषेभ्यः सुवर्णस्य द्वादशशतसह
तो विधेयतया संपूर्णः सर्वविरतिरूपतया परिपूर्णः । संयस्राणि (प्रा०म०१०।) वर्तन्तेऽनयेति द्वात्रिंशत्कवलप
मश्चैव साधुधर्म एव साधोरिवान्यथा सर्वथा निरपेक्षत्वाप, प्राचा० १७० ८ ० १ उ०। प्रव० । अनुष्ठाने, | सिद्धे । इति गाथार्थः ॥ ७॥ पञ्चा० ४ विव० । सूत्र०१ श्रु०१० अ० । अभ्यन्तरायां निवृत्ती. आचा०१ धु०२१०१ उ० तान्त्रिक्या परिभाषया घ्राणेन्द्रिये, द्वा०
वित्तिसंखय-वृत्तिसंचय-पुंगसंप्रज्ञातसमाधौ,दा०२० द्वारा २६ द्वा० । सूत्रविवरणे, विशे० । आव० । बहुसंस्कृताक्ष- विकल्पस्यन्दरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । रनिबद्धसूत्रादिविवरणरूपायाम् , संथा० । समुदायलक्ष
अपुनर्भावतो रोधः, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः॥२५॥ रणस्यावविनोऽवयवे, द्वा०। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।
विकल्पेति-स्वभावत एव निस्तरङ्गमहोदधिकल्पस्यात्म
नोऽम्यजन्मनां पवनस्थानीयस्वेतरतथाविधमनःशरीरद्रव्यतञ्चित्तं वृत्तयस्तस्य, पश्चतय्यः प्रकीर्तिताः ।
संयोगजनितानां विकल्पस्यन्दरूपाणां वृत्तीनाम् , अपुनर्भाद्वा० ११ द्वा०(वृत्तयः 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२१ पृष्ठे वतः पुनरुत्पत्तियोग्यतापरिहारात् ,रोधः-परित्यागः केवल व्याख्याताः ।) द्रव्यगुणकमैसामान्यविशेषेषु पञ्चसु पदार्थेषु शानलाभकाले अयोगिकेयलित्वकाले च वृत्तिसंक्षयः प्रोवर्तनाद् वृत्तिः । समवाये, स्या० ।
च्यते । तदाह-"अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा । वित्तिकंतार-वृत्तिकान्तार-नावृत्ति विका तस्याः कान्तार. अपुनर्भावरूपेण, स तु तत्संक्षयो मतः ॥१॥" द्वा० १८ द्वा०।
('जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६३१ पृष्ठे गतोऽयं वृत्तिसंमरण्यं तदिव कान्तारं क्षेत्र कालो वा वृत्तिकान्तारम् ।
क्षयविस्तरः ।) निर्वाहाभावे, उपा० ११०।
वित्तिसंखेव-वृत्तिसंक्षेप-पुं० । वृत्तेर्भिक्षाचर्यारूपायाः संक्षेपो. वित्तिकर-व्यक्तिकर-पुं० । व्यक्तिकरणशीलो व्यक्तिकरः। नि.
ऽभिग्रहविशेषात्संकोचनं वृत्तिसंक्षेपः । पा० । भिक्षाचर्यारूपे रवशेषव्युत्पत्तिमतिचारानतिचारफलादिभेदभिन्नमर्थ भा
(ग०१ अधि०) बाह्यतपोभेद,स०६ सम० । द्रव्याघभिग्रहणे, षमाणे, प्रा०म०१०।
पञ्चा०।सा (वृत्तिः)द्रव्यतो द्वात्रिंशत्कवलमानपूर्णाहारापेक्षा वृत्तिकर-त्रि० । निर्वाहकरे, शा० १ श्रु० १ ०।
येकादिकवलन्यूनाहारग्रहणतोऽनेकविधा । भावो नोदरिका तु वित्तिच्छेय-वृत्तिच्छेद-पुं० । वर्त्तनोपायविघ्ने, सूत्र. १ श्रु० कषायत्यागः,तथा वृत्तेर्भिक्षाचर्यायाः संक्षेपणमल्पताकरण वृ७ अ०। प्राचा० । प्रश्न । “जे य दाणं पसंसंति, वह-|
त्तिसंक्षेपणं द्रव्याद्यभिग्रहग्रहणम् । तत्र द्रव्यतो लेपकृदेवेतरमिच्छंति पाणिण । जे उ तं पडिसेइंति , वित्तिच्छेयं करें
देव वा,द्रव्यं मया ग्राह्यमित्यादि । एवं क्षेत्रतः खग्राम एव परतिते ॥१॥" प्रश्न०२ श्राश्रद्वार।
ग्राम एव वा एतावत्स्वेव वा, गृहेषु यल्लप्स्यत इत्यादि । एवं वित्तिदाण-वृत्तिदान-न० । नियुक्तपुरुषेभ्यः सार्द्धद्वादशसुव
कालतः पूर्वाहे मध्याह्ने अपराह्ने वा,भावतः पुनरुत्क्षिप्तमेव वा
गायतो वा रुदतो वा यल्लप्स्यत इत्यादि । पञ्चा०१६ विधा। सहस्रदाने, श्रा० म० १ ० । वित्तिभिक्खा-वृत्तिभिक्षा-स्त्री० । "निःस्वान्धपङ्गवो ये तु,न |
वित्तेसि-वित्तैषिन्-त्रि० । वित्तं-द्रव्यं तदन्वेष्टुं शीलं येषां ते शक्ला वैक्रियान्तरे । भिक्षामटन्ति वृत्त्यर्थ वृत्तिभिक्षेयमुच्यते |
वित्तैषिणः । द्रव्यार्थिषु, सूत्र०२ श्रु०६अ। ॥१॥" इत्युक्तलक्षणे भिक्षाभेदे, हा०५ अष्ट।
वित्थड-विस्तृत-त्रिका विस्तरवति,प्रव०६४ द्वार। औलारा वित्तिय-वित्तिक-त्रि. । वित्तं द्रव्यं तदस्ति यस्येति । धन-| वित्थर-विस्तर-पुं० । प्रपञ्चे, पा० म०१०। महावचनसं
समृद्ध, वृत्ति चाश्रितलोकानां ददाती वृत्तिदम् । जीविका- दर्भ, स० । प्रव०।। दातरि, शा०१ श्रु०१० । स । श्री।
| वित्थराल-विस्तराल-त्रि० । विशाले, स्था०५ ठा०१ उ०। वित्तिवोच्छेय-वृत्तिव्यवच्छेद-पुं० । जीविकाविधाते, पश्चा वित्थार-विस्तार-पुं० । विष्कम्भे, स्था०५ ठा०३ उ०। पृथ
अथ कथमापवादिककालानाश्रयणे शुभसन्तान- क्त्वे, नि० चू० ४ उ० । ___ व्यवच्छेदः स्यात् ? वृत्तिव्यवच्छेदादिति
वित्थाररुइ-विस्ताररुचि-पुंश विस्तारो-व्यासः सकलद्वादबृमः । एतदेवाई
शाङ्गस्य नयैः पर्यालोचनमिति ततोऽपवृंहिता रुचिर्यस्य स वित्तीवोच्छेयम्मि य,गिहिणो सीयंति सव्वकिरियायो। विस्ताररुचिः । प्रज्ञा०१पद । विस्तारो व्यासस्तजा रुचि
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वित्थाररुड अभिधानराजेन्द्रः।
विदुगुंडा यस्य तथा । दर्शनिभेदे , धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वप- विदिशा-वितीर्ण-त्रि० । विदत्ते , प्रा०म०१ अराजानुोयाणां सर्नयैः प्रमाणैर्वातरि, स्था० १० ठा० ३ उ०।
शाने, रा०। “विदिएणच्छत्तबालवीयणा" वितीर्णच्छत्रबाअथ विस्ताररुचिमाह
लवीजना वितीर्ण राज्ञा प्रसादतो दत्तं छत्र चामररूपा बालदवाण सम्वभावा, सम्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा।
वीजनिका यस्यै सा तथा । गणिकायाम् , विपा०१९०२
१०। “विदिण्णवियारे" साधुः वितीणों राजानुशातो विसब्वेहि नयविधीहिं, वित्थारराई मुणेयम्बो ।।९७१॥
चारोऽवकाशो यस्य स विश्वसनीयत्वात्स वितीर्णविचारः। द्रव्याणां-धर्मास्तिकायादीनामशेषाणामपि सर्वे भावाः प. संघकार्यादिष्विति प्रकृतम् । विपा०१ श्रु०२०। र्यायाः सर्वप्रमाणैरशेषेः प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धा यस्य प्र
विदिसा-विदित्वा-अन्य० । बुद्धेत्यर्थे, आचा.१०८० माणस्य यत्र व्यापारस्तेनैव प्रमाणेन प्रतीताः, 'सम्बेहिं ' ति
८उ०। सर्वेश्च नयविधिभिगमादिनयप्रकारैरमुं भावमयममुं चायं नयभेदमिच्छतीति स विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः। सर्वव
विदित्तासमुद्देसणा-विदित्वासमुद्देशना-स्त्री० । शात्वा परिस्तुपर्यायप्रपश्चावगमेन तस्य रुचेरतिविमलरूपतया भा
णामत्वादिगुणोपेतं शिष्यं यद्यस्य योग्यं तस्य तदेव समुदिपात् । प्रव० १४६ द्वार । प्रशा०। ध०।
शतः । वाचनासंपनेदे, उत्त०१०। वित्थिम-विस्तीर्ण-त्रि० । विस्तारवति, भ०२ श०५ उ०। विदित्तोइसणा-विदित्वोद्देशना-खी०ज्ञात्वा परिणामत्वारा। संथा। आवाराऊोधोऽपेक्षया प्रथत्वे,जी० दिगुणोपेतं शिष्यं यद्यस्य योग्यं तस्य तदेवोहिशतः । उहेश३ प्रति०४ अधि० "वित्थिरणछत्तचामरबालवीयणे" वि
नालक्षणे वाचनासंपर्दोदे, उत्त० ११०। स्तीर्णानि छत्राणि चामररूपबालव्यजनिकाश्च येषां ते तथा। विदिय-विदित-त्रि० । प्रत्यभिज्ञाते, विपा०१ श्रु०३०। भ०१३ श०६ उ०। “वित्थिरणविउलभवणसयणासणजा- | उत्त। ति० । प्रा० चू० । पर्यालोचिते, नं। गवाहणाइराणा" विस्तीर्णानि-विस्तारवन्ति विपुलानि-प्र- विदिसा-विदिश-स्त्री० । एकप्रदेशात्मिकायां कोणदिशि, पुराणि भवनानि-गृहाणि शयनासनयानवाहनैराकीर्णानि
आचा०१ श्रु० १०१ उ०। मोक्षसंयमाभिमुखाया दिशोsगेषां ते तथा । अथवा-विस्तीर्णानि-विपुलानि भवनानि
न्यस्यां कुदिशि, आचा०१ श्रु०५१०३ उ०। येषां ते, शयनासनयानवाहनानि चाकीर्णानि गुणवन्ति येषां ते तथा । भ०२ श०५ उ01 “विस्थिरणविउलबलवाहणं
विदिसापडण--विदिकप्रतीर्ण-त्रि०। मोक्षसंयमाभिमुखा दिक ति" विस्तीरणविपुले-प्रतिविस्तीरणे बलवाहने-सैन्यगजा- ततोऽन्या विदिक नां प्रकर्षण तीर्णः विदिकप्रतीर्णः । असंजादिके यस्य स तथा । भ० ११ श० ११ उ० । कल्प० ।
यमाभिमुखे, आचा० १ श्रु०५१०३ उ०। विदंड-विदण्ड-पुं०। विशिष्टदण्डे , जीत।
विदिसावाय-विदिग्वात-पुं० । विदिग्भ्यो वाति वायुकाये, विदंसग-विदंशक-पुं० । विदंशतीति विदंशकः। श्येनादी.] प्रशा०१ पद । स्था० । प्रम०१ श्राश्र० द्वार । पक्षिबन्धनविशेषे, उपा०१०।।
| विदु-विदित्वा-अव्य० । विज्ञायेत्यर्थे, वृ०३.उ०।।
विद्वस-त्रि० । बुधे, पश्चा० १६ विव० । कालशे, आचा०२ विदंसण-विदर्शन-न० । अन्धकारस्य वस्तुप्रकाशने , प्रश्न | १ आश्र द्वार । अलग्नस्यैव लग्नत्वेन दर्शने, पृ०१ उ०३
श्रु०४ चूका ('विएणु'शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरो गतः।)
विद्गुंछा-विद्वज्जुगुप्सा-स्त्री० । विद्वांसः-साधवः विदितप्रक०नि०चू०।
संसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसंघास्तेषां गुजुप्सा-निन्दा । विदद्ध-विदग्घ-त्रिविचक्षणे, पो०१० विव०। गेयनीति
साधुजुगुप्सारूपे दर्शनाचारातिचारे, यथा-अस्नानात् प्रनिपुणे, द्वा०२२ द्वा०। धूमगन्धिनि अजीर्णभेदे, ध०१ अधिक
स्वेदजलक्लिन्ना मलिनत्वाद् दुर्गन्धिवपुषो भवन्ति तान्त्रिविदन्भ-विदर्भ-पुं० । सप्तमतीर्थकरप्रथमशिष्ये, स०।
न्दति, आव० ६ ० को दोषः स्याद्यदि प्रासुकेन वारिविदर-विदर-पुं०। खुद्रकनद्याकारेषु मदीपुलिनस्यन्दजल- णा अशक्षालनं कुरिन् भवन्त इत्येवमपि न कुर्यादेह
स्यैव परमार्थतोऽशुचित्वात् । श्राव०६०। गतरूपेषु, सा० १ श्रु०१०।
विदुगुच्छ त्ति वि भमति,सा पुण माहारमोयमसिणाई। विदरिसण-विदर्शन-न० । विरूपाकारे, विभीषिकादिष्टे,
तीसु वि देसे गुरुगा, मूलं पुण सबहिं होंति ।। २५॥ उत्त० ३६ अ०।
विदू-साहू कुच्छति-गरहति; निन्दतीत्यर्थः । वि इति विविदाय-विदित्वा-अव्य० । विद-शाने क्तः। विज्ञायेत्यर्थे, तियविकप्पदरिसणे । भएणइत्ति-भणियं होति,सा इति-सा दशा०४०।
बिदुगुंछा पुणसहो विसेसणत्थे दटुब्यो । पुव्वाभिहितावविदारय-विदारक-त्रि०। विदारयतीति विदारकः । स्फोट-| तिगिछातो इमं विदुगुच्छ बिसेसयति । सा पुण वितुके, प्रश्न०१ संव० द्वार।का।
गुंछा इमेसु संभवति-आहारे त्ति वल्लिकरेसु आहारंति ।
अहवा-मंडलिविहाणेण भुजमाणा पाणा इव सव्वे एकविदालण-विदारण-न। विविधप्रकारारणे, प्रश्न १
लाला असुइलो, एते मोए-ति काइयं योसिरिङ दवंग भाद्वार।
गेरहंति । समाहिसु वा बोलिरिलं तारिसेसु ष संबई ૨૬
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विदुरांछा
त
9
भायणाणि विंति । असिणारे ति अण्डाणा य एते पसेयजियमलम्यंतरगत्ता सया कालमेवं चिति थादिसतो -सोबीरंगग्गणं तेच व शिक्षेवणं मोयपडिमा पवित्तीय पते यति जहां केस का विदुगुंदा स्थुदाहरणं-सहो पव्यंते वसति । तस्स धूयाविवाहे किह वि साहु आगता सा पिडला भढ़िया पुति ! पडिलाहेहि, सा मंडियपसाहिता पडिलाहेति । साहू जज्ञगंधो ती अग्धाओ सा हियपण चितेति अहो अपो धम्मो भगवता देखियो जति फासूपण राजा को दोसो होखा ? । सा तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता कालगता । देवलोगगम, चुता मगहरायगिहे गढ़िया धूया जाया । गभगता चैव रतिं जणेति । गग्भसाडयेहिं वि ण पडति, जाता समाणी उज्झिया । सा गंधेण तं वर्ण वासेति । सेखियो यते मम्मेण चिम्मच्छेति सामि वंदन्तो सो संधावारो तीर गंध व सहते, उम्मग्येण य पयाओ । रक्षा मे, दिदि, बारिया गंधों विट्ठा भणति - एसेव ममं पढमपुच्छा, भगवं पुण्ग्वभव कहेति । भगति - एस कहिं पच्चरणुभविस्सति ? । सामी भति-तीप तं चेतितं । इदाणिं सा तव चैव भजा भविस्सति । अभामहिसी वारस संक्राति सा कई जातियया? जा सुमं सममाणस्स पिट्टीय हंसोली काहिति से जाणिखसि, वंदिता गो सा अवगयगंधा एगार शाहीरीए गडिता । संवड़िया जोम्बस्था जाया कोमुदीयारं माताए समं आगता । श्रमो पेशियो पच्वं कोमुदीवार पेछति । तीसे दारियाए श्रंगफासेणं सेणिश्रो अज्झोववदो साममुदियाय ती इंसिया बंधति । अभ्यस्स तीसे कहेति साममुद्दा हरिता मग्गाहि ते मला पेखिता हिं बारा बढ़ा, ते प माशु पीति । सा दारिया रा चोरी गहिता । श्रभश्रो चिंतेति । एतदत्थं तीसे दंसियाए वे - यो बढो, अभयो गयो सेवियरस समीपं । भगति-गहिलो चोरो कहिं सो, मारिओ, सेशि अधिर्ति पगओ अभश्रो भरण- मुक्का सा पुरा मया आसाय धीया चरेता परिणीया । अरण्या करण व रमंति। राणिया पोतं बुक्करणए ण हाति हत्थं वो देति जाहे राया जिप्पर ताहे एवं ताति-इयरीए जितो पोतं वेढेत्ता विलग्गं । रराणा सरियं मुखा, भति-ममं विसखेह बिखज्जिया पयाय एवं विचार फलं देति दारं गतं नि० ० १ ० । विदुग्ग- विदुर्ग - पुं० । समुदाये, २०१०८ उ० । नि० चू० विदुपरिसा - विद्वत्पर्षद् -- स्त्री० । अनेकविज्ञानपर्वदि, रा० । विदुर विदुर-५० क-ग-प-ज०' इत्यादिस्य काचित्क - । । स्वादलोपो न ० १ पाद बन्धुदत्तखाना पाटलिपुत्रे विवस विद्रवस-१० विनाशकरणे, जी० १ प्रति । प्रा० नगरे वादपराजयेन प्राजितेऽप्यलिङ्गे पददर्शनपर विविध विद्रवित त्रि० विनाशिते व्य० २४० । लौकिकसाधी, ध० र० । इस्तिनापुरनगरराजधृतराष्ट्रभ्रातरि विद्दान-विद्रुत - त्रि० । मुकुलादित्वात् उत श्राकारः । वि क्षत्रिये, शा० १ ० १६ प्र० । नटे, प्रा० १ पाद । विसय-विदूषक मानावेपादिकारिणि, अनु श्री० । विदेश-विदेश--पुं० । स्वकीयदेशापेक्षयाऽन्यदेशे, ज्ञा० १ ० अ० विदेशो द्विधा-अनूप धनद्यादि
|
।
| विदेहसुकुमाल - विदेहसुकुमार - पुं० । विदेहशब्देनात्र गृहवास उच्यते, तत्र सुकुमारः । दीक्षायां तु परीषदादिसदनेऽतिकठोरत्वात् । वीरे, कल्प० १ अधि० ५ क्षण । आचा० । विश्व विद्रव पुं० बिस, डा० १००
-
विदायमाण- विद्वस्यत् - शि० विद्यांसो वयमित्येवं मन्यमानेषु, " अहे संभवंता विहायमाणा श्रहमंसा विउक्कमे " आ
चा० १ ० ६ ० ४ उ० ।
( ११२४) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
विहाय माण पानी बहुलोऽनूपः तद्विपरीतो जङ्गलो; निर्जल इत्यर्थः । वृ०
१ उ०२ प्रक० ।
विदेह विदेह पुं० लोकप्रसिद्धे राजर्षी, सच प्रम्राज्य क्षत्रियपरिव्राजकेषु प्रसिद्धोऽभूत् । श्रौ० । विशिष्टं देहं यस्य सः | कल्प० १ कधि० ५ क्षण । ऋषभदेवस्य अष्टाविंशतितमे पुत्रे, कल्प अधि । तद्राज्ये मिथिलानगरी प्रति बजे जनपदे, शा० १ ० ८ श्र० । उत्त० । श्राष० । प्रज्ञा० । स्था० । सूत्र० । इद्देव भारहे वासे पुग्वदेसे विदेहा णामंजणवया । संप काले तिरहुति देसो त्ति भएगर ' । ती० १८ कल्प | आ० चू० । नि० खू० । वर्षभेदे, चत्वारि वर्षाणि - विदेहे अपरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा । स्था० ४
ठा० २३० ।
विदेहकूड विदेहकुट-१० जम्बूद्वीपे मन्दरस्योसरे मीलयतो वर्षधरस्य तृतीयकूटे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । विदेहजंबू-विदेहजम्बू-श्री० विदेदेषु जम्मू विवेदजम्मू । विदेदान्तर्गतोत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् सौमनस्यहेतुत्वात् । जम्बुसुदर्शनायाम् जी० ति०४० जे० जम्बूद्वीपो नया जन्या भुवनत्रयेऽपि विदितमहिमा ततः संपन्नं यथोक्तयशोधारित्वमस्याः । जं० ४ वक्ष० ।
विदेहजय- विदेहजार्थ पुं० विदेश— त्रिशला तस्यां जाता अर्चा- शरीरं यस्य स तथा । वीरस्वामिनि, कल्प० १ अधि० ५ क्षण ।
विदेहजात्य - पुं० | वीरस्वामिनि, आचा० २ ० ३ चू० । विदेहदिश-विदेहदन पुं० । विदेहसाविशता तस्या अप । - स्यं वैदेहदत्तः । धीरस्यामिनि ०१
--
विदेहदिन्ना- वैदेहदत्ता - स्त्री० । त्रिशलायां वीरस्वामिमात
रि, कल्प० १ अधि० ८ क्षण । श्राचा० । विदेहपुरा- विदेहपुत्र पुं० कूषिके, "बजी विदेश ज
स्था" भ० ७ श० = उ० ।
विदेहरायवरणमा विदेहराजवरकन्यका श्री० । विदेहो - - | मिथिलानगरी जनपदस्तस्य राजा कुम्भकस्तस्य वरकन्या या सा तथा । शा० १ श्रु० ८ अ० । मलीस्वामिन्यामेकोनविंशतीर्थकृति, स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
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(३१) बिहुम अभिधानराजेन्द्रः।
विपरिणामित्तर विद्दम-विद्रम-पुं०। प्रवाले, ध०२ अधि०। मा० । स्था०। | विधयरयमल-विधतरजोमल-पुं०। रजच मलं च रजोमले।" विद्दय-विद्वत-त्रि० । अभिभूते, शा०१ श्रु०१०। | विधूते प्रकम्पितेऽनेकार्थत्वाद वा अपनीते रजोमले यैस्ते विद्ध-विद्ध-त्रि० । ताडिते, प्राचा०१ श्रु० ५० ३ उ०। | तथाविधाः । अकर्मसु सिद्धेसु, ल। वृद्ध-पुं० । श्रुतपर्यायाभ्यां महति, "तस्सेस मग्गो गुरुषि
विधेयता-विधेयता-स्त्री० । विधेयवृत्ती, विषयताविशेष, ध. सेवा" उत्त० ३२ अ०। “विद्धकहनिरूवियं" प्रा०२ पाद ।
१अधिक।
विपंची-विपञ्ची-स्त्री०। वितन्त्र्यां वीणायाम् , जी०३ प्रति विद्धंसण-विध्वंसन-न। रोगज्वरादिना जर्जरीकरणे, तं०।
४ अधि० । प्रश्न । रा! प्राचा। विनाशे, प्रश्न. ३ आश्र० द्वार । सर्वथा क्षये, स्था०३ ठा०१०।०। बसतेभजने, वृ०१ उ०२ प्रक०। प्रक
विपक-विपक्क-त्रि० । विशिष्टपरिपाकमागते, जी. ३ प्रतिक तेरुच्छेदे, शा०१ ध्रु०१०।
४ अधिः ।
विपक्ख-विपक्ष-पुं । शत्री, उत्त० १४ अ०। विद्धंसणधम्म-विध्वंसनधर्म-त्रि० विध्वंसनं धर्मोऽस्येति ।। विशरारुस्वभावे,गत्वरे, सूत्र०१ श्रु०२१०२ उ०। प्राचा०।।
विपक्खभृय-विपक्षभूत-त्रिका तत्पतिबन्धकतयाऽस्यन्तप्रति विद्धकइ-वृद्धकवि-पुं० । रुपादित्वाद्-दः । प्राचीनकवी,
| भूते, उत्त० १४ १० । शत्रुभूते, उत्त० १४ १०। प्रा०१पाद।
विपञ्चइय-विप्रत्ययिक-नाष्टिवादस्य स्वनामख्याते सूत्रे,सका विद्वत्थ-विध्वस्त-त्रिका प्ररोहसमथै, "विद्धत्था अविद्ध-[विपच्छिय-विपश्चित-पुं० । विदुषि, स्या०। स्था जोणी जीवाणं होइ" दश०४०।
विपञ्जय-विपर्यय-पुं०। मिथ्याशाने,द्वा०११ द्वा० । (उद्देशाविद्धि-वृद्धि-स्त्री० । वर्धेन स्वनामख्याते औषधिभेदे, पश्चा० | नुसारेण विपर्ययस्वरूपं 'पमाण' शब्दे पश्चमभागे ४५३ पृविव० । कुटुम्बिनां वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादिग्रहणे,
ष्ठे गतम् ।) (विशेषः 'खाई' शब्दे ३ भागे ७३५ पृष्ठे गतः।) विपा०१६०१०
विपणोद्धय-विप्रणोदयत-त्रि०। विविधैः प्रकारैः संसारभाविद्धिकर-वृद्धिकर-पुं० 1 समृद्धिहेती, “दस नक्वत्ता पाण- वनादिभिः प्रेरयति, आचा० १ श्रु०५० २ उ०। स्स विद्धिकरा" स्था० १० ठा०३ उ०।
विपत्ति-विपत्ति-स्त्री० । कायस्यासिद्धी, वृ०१ उ०२ प्रक०। विद्यण-विदध्वा-अव्य० । वेधं कृत्वेत्यर्थे, सूत्र. १७०५ विपत्तिशब्देन कायस्यासिद्धिरत्राभिधीयते । तदुक्तम्-"संअ०१०।
प्राप्तिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां द्विविधा स्मृता । सम्प्राप्तिः सिविधम्म-विधर्मन्-०। विगतो धर्मो येभ्यस्ते विधर्माणः।। धिरर्थेषु, विपत्तिश्च विपर्ययः॥१॥" ०१ उ०२ प्रक०। धर्मरहितेषु, प्रति।
विपरामसंत-विपरामृशत-त्रि०। विविधमनेकप्रकारं विषयाविधम्ममाण-विधर्मयत-त्रि० । विगतधर्म कुर्वति, विपा०१ भिलाषितया परामृशत्युपतापयतीति । दण्डकशतताडनाश्रु.१०।
दिभिर्घातयति, प्राचा०१ ध्रु०५ १०१ उ०। नानापीडाकरविधका-विधवा-स्त्री०। रण्डायाम् , नि० चू०८ उ०।
गर्वधकरणे, प्राचा०१ श्रु०८ १०२ उ० । विधाण-विधान-न० । यद्येन प्राप्तव्यं तस्य करणे, "असंसयं | विपरिकुंचिय-विपरिकुश्चित-न। अर्द्धवन्दित एव देशादिक तं असुणाणमग्गं, गतो विधाणे दुरतिक्कमम्मि" पृ० १॥
थाकरणे,ध०२ अधि०। प्रव०॥"देसकहावित्तंते कधेति दरउ०३ प्रक०।
बंदिप विपरिकुंची" वन्दिते-अर्द्धवन्दनके दत्ते सति देशविधाय-विधात-पुं० । व्यन्तराणामौत्तराहाणामिन्द्रे, स्था०
कथावृत्तान्तान् यत्र करोति तद्विपरिकुञ्चितम् । वृ०३ उ०। २ ठा० ३ उ०।
विपरिणमणा-विपरिणमना-स्त्री० । गिरिसरिदुपलन्यायन विधुणणा-विधुनना-स्त्री० । धूञ्-कम्पने, विविधप्रकारा
व्यक्षेत्रादिभिर्वा करणविशेषेण वा अवस्थान्तरापादने,स्था. धुणणा विधुणणा । मा० चू०२ अ०। नि०० । अपनयने, |
४ ठा०२ उ०। सूत्र. १ श्रु०१६ अ० । आचा।
| विपरिणममाण-विपरिणमत-त्रि०ा परिणामान्तराणि गच्छविधुर-विधुर-म० अपापे, प्रश्न० ३ आश्र द्वार ।
ति, भ०७ श०१० उ०।
विपरिणाम-विपरिणाम-पुं० । विविधेन प्रकारेण परिणमनं विधूत-विधूत-त्रि० । सुम्से, आचा०१७०६०३ उ०।
विपरिणामो वस्तूनामिति । स्था०४ ठा०१०। परिणामाविधतकप्प-विधूतकल्प-पुं० । विधूतः-पुरणः सम्यक स्पृष्टः न्तरगमने,विभक्तिविपरिणामरूपे व्याख्याने, आचा०१ श्रु०१ कल्पा-आचारो येन स तथा । कृताचारे, प्राचा०१०६अ०५ उ०। १०३ उ०।
| विपरिणामाणुप्पहा-विपरिणामानुप्रेक्षा-स्त्री०। वस्तूनां प्रविषमवाण-विधमस्थान-न० । विधूमस्याग्नेः स्थाने, सूत्र०१] तिक्षणं विविधपरिणामगमनानुचिन्तने,ग०१ अधि०।म। भु०५०२ उ० । “समूसियं णाम विधूमठाण, जं सोय-विपरिणामित्तए-विपरिणामयितुम्-अव्य०।विपर्ययतः परिसत्ता करणं भति" सूत्र०१ श्रु०५५०२ उ०, ! णामयितुमित्यर्थे, उपा०२०।
विपरित
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विपरिणामिय अभिधानराजेन्द्रः।
विप्परियास विपरिणामिय-विपरिणामित-त्रि०। स्थितिघातरसघाता- विप्पजहियव्य-विप्रहातव्य-त्रिका त्याज्ये, भ०६ २०३३ उ०। दिमिः विपरिणामं नीते, भ०६२०१उ०।
विप्पडिवण-विप्रतिपन-त्रिणविशेषेण प्रतिपनो विप्रतिपन्नः। विपरियास-विपर्यास-पुं०। वैपरीत्ये मिथ्यात्वमोहे, प्राचा०१|शा०१७०१३ अ०। विविध प्रतिपनो विप्रतिपत्रः। प्राश्रु०६१०४ उ० । उत्त० ।।
| चा०१६०८०१ उ०। स्था० । साधुसम्मार्गदेषिणि, विपलाइजंत-विपलायमान-त्रि०। विपलायति, विपा० १सूत्र. १७०२ १०१ उ०। असंबद्ध, विशे। ध्रु०२ मा
|विप्पडिवसि-विप्रतिपत्ति-स्त्री० 1 मिथ्याभिनिवेश, स्था०६ विपाग-विपाक-पुं० । पुण्यपापरूपकर्मफले, विपा०१०१ ठा०३ उ०। अस्था।
विप्पडिवेयण-विप्रतिवेदन--1०। पर्यालोचने, प्राचा०१भ्र० विपिक्खंत-विप्रेक्षमाण-त्रिका पश्यति,प्रभ० ३ आश्रद्वार। विपित्त-देशी-विकसिते, दे० ना० ७ वर्ग ६१ गाथा।
विप्पणह-विमणष्ट-त्रि० । वीति-विधिना प्रेति-प्रकर्षण विपिनकम्म-विपिनकर्मन-म० । कर्मभेदे, ध० । विपिनं
| प्रक्षिप्यमाणो-नष्टः । नि००२ उ०। स्वामिकैर्गवेषयट्टि वन, तत्कर्म-छिनाच्छिन्नवनपत्रपुष्पफलकन्दमूलतणकाष्ठ- रपिअप्राप्ते, प्रश्न०३ संघद्वार। कम्बावंशादिविक्रयः, कणवलपेषणं बनकच्छादिकरणं च,
पच: विप्पणमंत-विप्रणमत-त्रि० । विविधं संयमानुष्ठानं प्रति पता-" छिनाच्छिन्नवनपत्र-प्रसूनफलविक्रयः । कणानां एलनोत्पेषाद् , वृत्तिश्च वनजीविका ॥१॥" इति । अस्यां च
प्रणमत् , । प्रहीभवति, सूत्र०१ श्रु.१०२ उ०। बनस्पतेस्तदाश्रितत्रसादेव घातसम्भव इति दोषः ॥२॥
विप्पणासधम्म-विप्रणाशधर्म-त्रि०। प्रणाशो-विनश्वरोधघ०२ अधिक।
मः-स्वभावो यस्य तद्-विप्रणाशधर्मम् । विनश्वरस्वभावे, विपुल-विपुल-त्रि०। प्रचुरे, भ०२ श०५ उ०। प्रमधि
तं०। स्तीणे, प्रश्न०५ संव. द्वार ।
| विप्पमाय-विप्रमाद-पुं० विविधे प्रमादे, सूत्र० १ ०१४मा विप्पइड-विप्रकृष्ट-त्रि० । बृहदन्तराले, जी० ३ प्रति० ४
विप्पमुक्क-विप्रमुक्त--त्रि० । अपगते, सूत्र०१ श्रु०१५ १० ।
विविधं परमार्थभावनया शरीरानुबन्धात्प्रमुक्तो विप्रमुक्तः । अधिक।
प्राचा०१धु०५०२० सूत्र अनु०। विविधमनेविप्पइट्ठणाण-विप्रकीर्णज्ञान-न० । असन्निकृष्टार्थवाने, द्वा०
के प्रकारैः प्रकर्षेण प्रभावसारं मुक्ता-परित्यक्तः। दश०३ २६ द्वारा
अ० ज०। प्रक्षा। उत्तासूत्र । व्युते, सूत्र०२७०२ अन विप्पइम्स--विप्रकीर्ण-त्रि० । अनेकधा विक्षिप्ते, दश ५ |
विप्पय-विप्पक-पुं० । कुट्टिते त्वग्ररूपे, वृ०२ उ०। अ०१ उ०।
विप्परद्ध-विपराभू-त्रि० । व्याहते, हा० १ ०१०। विप्पइमबाहु-विप्रकीर्णबाह-त्रि०। विप्रकीर्णी-अवकीर्णीविरलाविरलावित्यर्थः, बाहू यस्य स विप्रकीर्णबाहुः । विर
विप्परिणामियभाव-विपरिणामितभाव-पुं० । विपरिणामिलभुजे ,तं०।
तो विवक्षिताचार्यादुत्तरितो भावो यस्य स विपरिणामितविप्पभोग-विप्रयोग-पुंज अप्रणिधाने,प्रव०६द्वार। वियोगे,
भावः । स्वाचार्य प्रति प्रतिकूलवृत्ती, पृ० ३ उ० । श्राव० अ०। औ०। स्था।
विपरियास-विपर्यास-पुं०। विविधोऽनेकप्रकारः पर्यासःविष्पगम्भिय-विप्रगम्भित-त्रि० । विविधं विशेषेण वा धा
परिक्षेपः । अनेकधाऽरघट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणे, सूत्र० १
श्रु०१२ अातत्वे अतत्त्वाभिनिवेशः, अतत्त्वे च तस्वाभिनिवे. प्रोपगते, सूत्र०१ श्रु०१०२ उ०।
शः,हितेऽहितबुद्धिरित्येवंभूते विपर्यये, आचा०१७०२ १० विप्पचेड्यन्व-विप्रत्यक्तव्य-त्रि०। स्याज्ये, नं०।
३ उ०। सूत्र० । पर्यायान्तरे, भ०१४ श०६ उ०। आचा। विप्पजढ--विग्रहीण-त्रि० । परित्यक्ते, उत्त० ८ ०। नि० व्यत्यये, सूत्र०१ श्रु०७० । जन्मजरामरणरोगशोकोपसा। अनु० । आचा।
द्रवे, सूत्र०१७०१३ अ०। आत्मानं विपर्यासयति,नि००। विप्पजहणा-विप्रहाणि-स्त्री० । विशेषेण विविध प्रकर्षतो विपर्यासो नाम अबंभचेरं । श्रा० चू०४०। हानिस्त्यागो विप्रहाणिः । परित्यागे, औ०।
जे भिक्खू अप्पाणं विप्परियासेइ विप्परियासंतं वा विप्पजहमाण-विप्रजहत्-त्रि० । परित्यज्यति, स्था० २ ठा० |
साइजइ ॥ १७३ ।। जे भिक्ख परं विप्परियासेह विप्परि२ उ०।
यासंतं वा साइजइ ॥ १७४ ॥ विप्पजहसेणियापरिकम्म-विप्रहाणश्रेणिकापरिकर्मन-ना विपर्ययकरणं विप्परियासणा तम्मि चउगुरुगा सा य विप्प. रष्टिवादपरिकर्मभेदे, स०।
रियासणा चडब्विहा दव्वादिया इमा। विप्पजहाय-विप्रहाय-अव्य० । स्यकत्वेत्यर्थे, सूत्र. १ श्रु०४॥
१-भत्र विप्परद्ध-विप्परिणामियभाव-विपरियास-इत्यादौ पार्षत्वाभ०१३०
स्पकारस्य दित्वम् ।
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(११६७) विपरियास अभिधानराजेन्द्रः।
विप्परियास
बयपरिणामं वा विवरीयं करेति वदति वा । जहा-गडो, दम्वे खेसे काले, भावे य चउब्विहो विवजासो। थेरो तरुणं घेसं करोति तरुणो वा थेरं करोति । जम्म पएएसियासतं, वोच्छामि प्रहाणुपुब्बीए ॥६३॥
बज्जापरियागं वा, षिवरीयं वदति, जहा-वीसतिषासप
रियागो पंचवीसपरियागंभप्पाणं कहेति, पंचवीसवासपदब्वम्मि दारिमं वा-दिएसु खेत्तेसुशाममादीसु।
रियागो वीसवासपरियागं कहेति । काले गेललावहि-भावम्मि य थिन्वुयादीसं ॥ ६४॥
भावविवशासो इमो। माहाजो प्रजाणयस्स पुच्छतस्स दालिम अंबाडयं वा अंबाड्यं दालिमं कहेति । खेते विवज्जासं दुनामे कए, जहा-आणंद
अतवस्सिणं तवस्सि,ददं गिलाणोमि सो विहुख तिलो। पुरं मकस्थली अक्कस्थली माणवपुरं, कालविवज्जासो-अ- सारिक्खो सोऽमिमह, नवचि सरवणभेदं वा ॥६६॥ णागाढे गेलने प्रणागाढकालकरण,उवहिं वा अकाले गेबह- कोऽवि साहू समावकिसो सरीरेण, सो पुच्छितो सोस्थति काले ण गिएहति । भावम्मि य अप्पाणं अनिव्वुतं णिम्यु- मं तबस्सी सो अपाणं मतवस्सि कहेति । अहवा-सभायं सेति, निव्वुयं परं अनिघुयं पगासेति । मादिसरातो पकिसो अगिलाणो विसट्टो जायवितिगतिमादियं देहि मे समादिया भावा वा तथा।
गिलाणो ति । सहेहि वा पुच्छितो सो तुम गिलाणो ति।। गाहा
श्राम ति वदति । अहवा-सहेहिं पुच्छितो कयरो सो गि जेण पगारेण भवे,
लाणो?, देमि से पामोग्गं, ताहे अप्पाणं वदति । गचं था थियो उ तमसहा जो तु ।
किसं साधु सेति अगिलाणं । लुद्धो या हद्वेऽवि दिलाणे
गंतुं सहेजायति-सो गिलाणो अन विण तरति, देख मपति करेति वदति,
से दधिखीरादियं पाउग्गं । कोइ चिरप्पवासी सयको तविप्परियासो भवे एसो ॥ ६५॥
स्स सरिसयं साधु बटुं भणेज , एस साहू तस्स सारवयणभाव इति द्रव्यादिको भायः,नियतो ति ठितो तंत्र- क्सो, ताहे सो साहू भज-सोऽम्हि अहं, सम्भूतं वा पबहा जो साह मासा मन्नति, किरियाए वा करेति, अच-1
बभिचातो अवलावं करोति । वत्ति सरवनभेदिकारीस्स वा अग्गतो पन्नावेतो वदति एसो विपर्यासः।
णीहि वा अप्पा अनहा करेजा। तत्थ दब्वभावविप्परियासो इमो । गाहा
(विपर्यासे प्रायश्चित्तम् ) गाहाचेयएणं व वएज्जा, कुज व चेयरणमचित्तं वावि । एतेसि कारणाणं, एगतराएण जो विवजासे। वेसगहणादिएसु वि, थीपुरिसं अण्णहा दब्वे ॥६६॥ अप्पाणं च परं वा, सो पावति प्राणमादीखि ।। ७०॥ सविसं पुडवाइयं दब्वं प्रचित्तं वदति करोति वा दजा- दव्वादिविपजासं, अहवा वी भिक्खुणो वदंतस्स । लादिणा । इत्थि वा पुरिसनेवत्यं करेति वदति, पुरिसं था | अहिगरणाइ परेहि, मायामोसं प्रदत्तं च ॥१॥ इरिथमवत्थं करेति वदति वा, अएलहाकारमित्यर्थः।। से भावे पुख-ममादिसु तिमस्य व्याख्या। गाहा
'प्राणादिया य दोसा, संजमविराहणा य, मायाकरणं च
बादरमुसाबायभासणंला कीस वा अपलवसि सि - साएतणभाउज्झो, अहवा उज्झातो भणइ साएते ।
संबडं भवेज्जा। बत्थबमवत्थम्बा, मालबों मागधोऽमहा वाऽहं ॥६७॥ कोवि साहू अउज्माणगरातो पाहुणगो गतो, सो वत्थ- विनियपदं गेलणं, खेने सतीए व अपरिणामेसु । ब्बगसाधुन पुग्छितो-भाउज्भाती मागतो सि', ताहे सो
अपस्सढे दुलमे, एवं चउसु वि पदेसुं वि॥७२॥ भावि-यो भउज्मामो साएयातो पागतोऽम्हि । सो वत्थग्बगसाहूतं वितियणाम ण याणति । एवं सापते पुच्छि
गेलने सि-दव्याववादो, खेत्ताधवाए ति खेत्ताववादोभते अउज्झ भासति । अहवा-वत्थन्वगोऽसि ति पुच्छि
परिणामेसु त्ति कालाववादो, अनस्सटे दुलमेति भावावते अवस्थव्वं मप्पाणं कधिति । अवस्थव्वगो वा अप्पाण
वायो । चउसु वि दम्बादिपसु पत्तेयं पते अपवादपदा इपत्थव्वं कहेति । मालवविसयुप्पएलो वा पुच्छितो मगह
मेण विधिणा । तत्थ गेलने-अचित्तस्स अलंभे फलाइयं विसर उप्पण्णं वा अण्णं वा कहेति, एवं मागधः स पृष्टः
मिस्सं सचितं वा प्राणियंतं च गिलाणो णेच्छति ताहे मालवमन्य या विषयं कथयति।
तो भरणति, अवस्सं एयं अविसंधेव । भोसदं पलंवादियं ___ कालभावविव्वजासो इमो। गाहा
प्राणीयं च गिलाणस्स अप्पत्थं जम्हा जातं तं भन्नति एवं वरिसा हिसासु रीयति, इतरेसु एयरी तो वयति मने।
मिस्सं सचितं संसत्तं वा । जदि गिलाणो भणेज-कीस
भेतो एयं गहियं ?, स भन्नति-प्रणाभोयाणि एवं पवयपरिणाम व वए, परियायं वा विवजासं ॥ ६॥ | रिटवेयब्वं । खेतासतीए वि अतोज्झाए मासकप्पो कतो परिसाकाले रीयति यो उदुबळे, ब्रह्मा णिसासु रीय- वासावासो या पुग्ने मासकप्पे वासाकाले वा भने खेतिनो दिवा, सतो पनवेति वासासु रातो वा बिहरि-जासतीए तहेव ठितो, ताहेततो खेत्तातो मनो कोऽवि गीयव्वं । इयरेतु व गुबो दिवसे य णो विहरियव्वं ।। यत्थो अन्नं खेतंअपरिणामगाणं सकासं पाहुणगोगतो।ताए मनुते मन्यते चा वासासु रातोय विहरणं भेयमिति ।। तेहिं परिणामोहिं पुच्छितो-कतो.मागतोऽसिताहे सो.
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विपरियास
यथोचितेतिमा पते अपरिक्षामा जातिस्संति सि पतेणितियवासंति त्ति ताहे सो गीयत्थो भवति श्रागतोऽहं सायातो । इदाणि कालतो अपरिणामगेसु ति-कारणे अदियत्थमिसे बेतव्यं दव्यं भवं भवेजा उदितो कारणे या उदितं अदितं भरोजा, अस्थं गतं या भणेज्जा । (घरतीति) भावतो अस्सऽट्ठा दुझमे विदुमे गिलाणादिपाओगे अप्पो अन्नरस वा भट्टा परसवपस करेति ।
1
तवसी वि सो तवस्सीति अप्पाणं भणेज्जा, तस्स वा तथसिस्सऽडा तं देमि अगला वा गिलाएं पाएं भणेा, जेण वा परववदेसेण लभति तं ववदेसग्गहणं वा करेति । नि० चू०११ उ० । श्रा० चू० । (अन्ययूथिकान् प्रति विपर्यासविषय:स्थिय शब्दे प्रथमभागे ४७२ पृष्ठे गतः । )
"
विपरिवासिभूय विपर्यासीभूतत्र अभ्युपपन्ने, आचा० २ ० १ सू० १ ० ३ उ० । विप्पलाव - विप्रलाप – पुं० । विविधे अनर्थके वचसि स्था० ७ डा० ३ उ० । ० ।
विप्पवसिय विशोषित — ०ि देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्ते, शा०
१ ० २ ० ।
(१९६८). अभिभान राजेन्द्रः ।
1
विप्रोष्य - अव्य० | परदेशं गत्वेत्यर्थे, “पंचाहेण वा विप्पबसिग्रनो वा गच्छेजा ।" श्राचा० २ ० १ ० ५
अ० २३० ।
-
विप्पसाय-- विप्रसाद - पुं० । विविधः प्रसादो विप्रसादः । आगमदृष्ट्वाऽऽत्मनो विविधैरुपायैरिन्द्रियप्रणिधानप्रमादादिभिः प्रसादे, आचा० १ ० ३ ० ३ ३० । पिपरा विप्रहीण - ० विविधे प्रकर्षेण दीनो-रहितः । पृ० ४ उ० । सूत्र० । विमुक्ते, प्रश्न० १ प्राश्र० द्वार। अपगतकर्त्तव्यविवेके, सूत्र० १ ० ५ ० १ ३० । विप्पित्त - विप्पित्वा-श्रव्य० । कुट्टयित्वेत्यर्थे, बृ० २ उ० । विषय-विष्पित-विस्य जातमात्रस्यैवाकुष्ठप्रदेशिन्योर्म भ्यमाभिर्मलयित्वा वृषणद्वयं गालित तादृशे नपुंसकभेदे, पृ० १ उ० ३ प्रक० | ग० । घ० । पं० भा० । पं० चू० । विष्णुय-विप्लुत वि० विष्णु स्था० ५ डा० १३० । विष्णुस विपुष्म० मूत्रस्य पुरीषस्थ वाऽवयवेषु प्रा० म०
१ अ० ।
विप्पेक्खिय-विप्रेक्षित- न० । विविधमर्द्धाक्षिकटाक्षादिभिर्भेदैः प्रेक्षितं विप्रेक्षितम् । वृ० १ ० ३ प्रक० । निरीक्षिते, नि० चू० १३० । प्रश्न० । विशे० ॥ भ० । विष्णोसहि विप्रोषधि-पुं० मूत्रपुरीषयोरवयवो मियतेइति उचार इतिश्रवणम् श्रो धिर्यस्येति । लब्धिभेदे, यस्य हि विपुषः परस्य व्याध्यपन
सर्मथा भवन्ति । विशे० । श्र० । श्रा० म० । ग० प्रश्न० । चिप्पोसडिगहण विटुस्स मद्द कीरह तं देव वि श्रो सहिसामन्थज्जते विष्पोसहि भन्नति । प्रा० चू० १ ० । 'मुचपुरीसाथ विपुसो विप्पो' नि । मूत्रपुरीष गोर्विषोऽत्र
विग्भम
यथाः इह विमुच्यते विष्णुसो पाथि 'सि पाठस्तु प्रथास्तरेष्वदृष्टत्वादुपेक्षितः । अथवा - अवश्यमेतद्वयाख्यानेन प्रयोजनं तदित्थं व्याख्येयम् - वाशब्दः - समुचये, अपिशब्द- एवकारार्थी, भिन्नक्रमश्च । ततो मूत्रपुरीषयोरेवावयवा ह विप्रमुच्यते इति । अन्ये तु भाषन्ते वि इति विष्ठा, प्र इति प्रश्रवणं-मूत्रं सूचकत्वात् सूत्रस्येति । ततः ' एए ति 'एतौ विमूत्राarat, 'अन् य ' सि अन्ये च लेलजल के - शनखादयो बहवः सर्वे च समुदिता श्रवयवा येषां साधून सुरभवो रोगोपशमसमर्थाय ते साधवो भवन्ति । कथंभूता? इत्याह-'त उसहि पति' ति ते च ते श्रौषधयश्चतदीपधयो विरम्प्रयेजनकेशनखाद्योषधयः सर्वोपचयथ साधयो भवन्तीत्यर्थः । एतदुकं भवति-यम्माहात्म्याम्मू
पुरीषावयवमात्रमपि रोगराशिमाशाय संपद्यते सुरमचसा विडीषधि ० २७० द्वार पा०| विष्कंदमाण - विस्पन्दमान १० स्वतन्त्रे इतबेत थावति, आचा० १ ० ४ श्र० ३ उ० ।
विष्फाल - विस्फाल - धा० विघाटने, विविध प्रकारे रफाखने, मि० ० ४ उ० पृष्ठायाम् विष्फाले देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः । विष्फालन त्ति वा पुच्छण ति वा एगट्ठमिति वचनात् । व्य० १३० ।
"
विष्फालिय- विस्फाल्य- अव्य० । भृशं पाठयित्वेत्यर्थे - चा० २ ० १ ० ३ श्र० २ उ० । विस्फारित बि० । विकाशिते " विष्फालियपुंडरीवस्य - । या " विस्फारितं रविकिरविकाशितं यत्पुण्डरीकं-सितप तन्नयने येषां ते विस्फारित पुण्डरीकनयनाः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
विप्फुजिय- विस्फूर्जित- त्रि०। सम्यग्व्याख्यानविलसिते,प्रति०। विष्फुरंत विस्फुरत्-बि० विविधं परिणमति, प्रति । इतस्ततस्तडफडति, उत्त० १६ अ० । विफल-विफल-फिलासाधने ०२० द्वार विबद्ध-विबद्ध - त्रि० । विशेषेण बद्धे, सूत्र० १ श्रु० ३ श्र० २७० । विबुह - विबुध- त्रि० । फुल्ले, श्रा० म० १ ० । पुं० । देवे, हरिभइरिमित्रस्य मानदेवगुरोः शिष्ये ०३ अधि विवोह - विबोध-५० जागरणे, पञ्चा० १ वि० ० म० । विभंत विभ्रांत त्रि० । विविधं भ्रान्ते, आचा० १ ० ६
"
अ० ४ उ० ।
चिम्स विस ५० प्राणातिपाते, प्राणिमावियोजने
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-
स्था० ५ ठा० १ उ० ।
विम्भम विभ्रम-पुं०तिचितादिरूपसंभये, ०३३०मनसोर्भ्रान्तत्वे, स० ३५ सम० । रा० । श्रा० म० । पं० व० । पञ्चदशे गौणालीके, प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वार । (विभ्रमस्वरूपम् ' प्रबंभ ' शब्दे प्रथमभागे ६७६ पृष्ठे गतम् । )
समुद्भवे, शा० १ ० १ ० । शृङ्गाररसप्रभवे मनसोऽ स्थिरत्वे, “यश्चित्तवृत्तेरनवस्थितत्वं शृङ्गारजं विभ्रम उज्य
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विन्भम अभिधानराजेन्द्रः।
विमंगणाण तेऽसौ ।" उत्त० १५ मा विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादि-| किरियावरणे जीवे संतेगइया समणा वा माहणा वा एववियुक्तत्वम् । विभ्रमो-वक्त्रमनसोचन्तिता विक्षेपस्तस्यैवा- माइंसु नो किरियावरणे जीवे, जे ते एमाइंसु मिच्छ ते भिधेयार्थ प्रत्यनासक्तता, किलिकिश्चितं-रोषभयाभिलाषादि.
एवमाइंसु तच्चे विभंगणाणे ३ । अहावरे चउत्थे विभंभावानां युगपदसकृत्करणम् , अादिशब्दात्-मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्वियुक्तं यत्तत्तथा तद्रावस्तत्त्वम् ॥ २६ ॥ श्री।
गणाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा पिम्भलगइ-विहुलगति-त्रि०। अर्दवितर्दगतिमत्सु, जं०२वक्ष०ा | जाव समुप्पाइ, से णं तेणं विभंगणाणे समुप्पनेणं विम्भिडिमच्छ-विन्भिटिमत्स्य-पुं० । मत्स्यभेदे, विपा०१ | देवामेव पासइ बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइचा पुढेगत्तं श्रु०८०
णाणत्तं फुसित्ता फुरित्ता फुट्टित्ता विगुम्वित्ताणं विगुम्वित्ता विम्भिसमाण-विभ्रश्यत-त्रि०। असकृदेदीप्यमाने, प्रा०म० पंचिद्वित्तए तस्स णमेवं भवइ-अस्थि णं मम भइसेसे पा
णदसणे समुप्पने मुदग्गे जीवे संतेगइया समणा वा माहणा विभंग-विमङ्ग-। विपरीतो भगः-परिधिप्रकारो यस्मिन्
वा एवमाहंसु अमुदग्गे जीवे, ते एवमासु मिच्छं ते तद् विभङ्गमिति । प्रष० २२६ द्वार । प्रज्ञा । सूत्र० । कर्मः।
एवमाहंसु चउत्थे विभंगणाणे ४ । महावारे पंचमे विभंमिध्यारष्टेरवधौ, स्था० ३ ठा०३ उ०। पं० सं० । नि००।
गणाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्सजाव समुप्पाइ विभंगणाण-विभङ्गज्ञान-न० । विरुद्धो, वितथो वाऽयथा
से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासह वस्तुभक्तो-वस्तुविकल्पो यस्मिस्तद्विभनं तव तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति । मिथ्यात्वसहितायवधी, स्था।
बाहिरम्भंतरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पुढेगत्तं गाण सत्तविहे विभंगणाणे पसत्ते, तं जहा-एकदि सिलोगा-| जाव विउवित्ता णं चिद्वित्तए तस्स णमेवं भवइ-अस्थि भिगमे १, पंचदिसिलोगाभिगमे २, किरियावरणे जीवे जाव समुप्पने अमुदग्गे जीवे संतेगइय समणा वा मा३, मुदग्गे जीवे ४, अमुदग्गे जीवे ५, रूवी जीवे ६, हणा वा एवमाहंसु मुदग्गे जीवे जे ते एवमाहंसु मिच्छं सम्वमिणं जीवा७ । तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे ज- ते एवमाहंसु पंचमे विभंगणाणे ५। पाहवरे छठे विभया यं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंग-| | गणाणे-जया णं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा णाणे समुप्पज्जति, से णं तेषं विभंगणाणेणं समु- जाव समुप्पाइ से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पोणं प्पन्नेणं पासइ । पाईखं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं | देवामेव पासइ बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइत्ता वा अ-- वा उर्छ वा जाव सोहम्मे कप्पे तस्स यमेवं भवइ-अ- परियाइत्ता वा पुढेगत्तं णाणत्तं फुसित्ता जाव विउधिस्थि यं मम अइसेसे णायदंसणे समुप्पने एगदिसिं लो- चा चिट्रिसए तस्स णमेवं भवह-अस्थि णं मम अइससे गाभिगमे, संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु
| णाणदंसणे समुप्पन्ने रूबी जीवे संतेगइया समणा वा मापंचदिसिं लोगाभिगमे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एव
हणा वा एवमासु अरूवी जीवे जे ते एवमाहंसु मिच्छं मासु पढमे विभंगणाणे १। अहावरे दोच्चे विमंग- ते एवमाहंसु छठे विभंगणाणे ६ । अहावरे सणाणे, जया णं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा तमे विभंगणाणे जया णं तहारूवस्स समणस्स विभंगणाणे समुप्पाइ से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्प
वा माहणस्त वा विभंगणाणे समुप्पजह से णं न्नेणं पासइ, पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं
तेणं विभंगणाणणं समुप्पन्नेणं पासइ सुहुमेणं वाउवा उडे जाव सोहम्मे कप्पे तस्स णमेवं भवइ-अस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने पंचदिसिं लोकाभि
कारणं फुडं पोग्गलकार्य एयंतं वेयंत चलंतं खु गमे संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाइंसु एगदिसिं
भंत फंदंतं घट्टतं उदीरेंतं तं तं भावं परिणमंतं तस्स णमेवं लोगाभिगमे जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, दोच्चे
भवइ-अत्थि णं मम अइसेसे णाणदसणे समुप्पने सबमिणं विभंगणाणे २। अहावरे तच्चे विभंगणाणे, जया णं
जीवा संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहिंसु जीवा
चेव अजीवा चेव, जे ते पवमाहिंसु मिच्छं ते एवमाहंसु तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पाइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ पाणे
तस्स णमिमे चत्तारि जीवनिकाया णो सम्मसुवगया भ-- भइवाएमाणे मुसं वयमाणे अदिन्नमादित्तमाणे मेहुणं प
वंति, तं जहा-पुढविकाइया आऊ तेऊ वाउकाइया । इच्चेडिसेवमाणे परिग्गहं परिगेएहमाणे वा राइभोयणं भुज
एहिं चउहिं जीवनिकाएहिं मिच्छादंडं पवत्तेइ सत्तमे वि
भंगणाणे ॥ ७ ॥ (सू०-५४२) माणे वा पावं च णं कम्म कीरमाणं णो पासइ, तस्स ण- सत्तविहे, त्यादि सप्तनिध-सप्तप्रकार विरुद्धो मेवं भवह-अस्थि णं मम अइससे णाणदंसणे समुप्पन्ने वितथो वा अन्यथा वस्तुभयो-वस्तुविकल्पो यास्मस्त
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(१२००) विभंगणाण अभिधानराजेन्द्रः।
विमंगवाण द्विभनं तच्च तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्गशान देम कदाचितः कश्चिदित्यर्थः । एकत्वम्-एकरूपत्वम् ,नामिथ्यात्वसहितोऽवधिरित्यर्थः । 'एगविसं' ति एकस्यां वि- नात्वम-नामारूपत्वं विकृत्य उत्तरक्रियतया' चिट्टित्तए' शि एकया दिशा पूर्वादिकयेत्यर्थः। लोकाभिगमः-लोकाव- ति स्थातुम्-मासितुं प्रवृत्तानिति वाक्यशेष इति संबन्धः । बोध इत्येकं विभनयानम् । विभङ्गता चास्य शेषदिचु लो- कथं विकृत्येत्याह'फुसित्ता' तानेव पुद्रलान् स्पृष्टा तथाकस्यानभिगमेन तत्प्रतिषेधनादिति । तथा पश्चसु दिनु ऽऽत्मना स्फुरित्वा-वीर्यमुल्लास्य पुद्रलान् वा स्फोरयित्वालोकाभिगमो नैकस्यां कस्यांचिदिशीति इहापि विभा- तथा स्फुटित्वा-प्रकाशीभूय पुद्रलान् वा स्फोटयित्वा वाता एकदिशि लोकनिषेधादिति । क्रियामात्रस्यैव प्राणा- चनान्तरे तु पदद्वयमपरमुपलभ्यते । तत्र संवर्य सारानेकीसिपातादेवः क्रियमाणस्य दर्शवात्सहेतुकर्मणवादर्शमात् कृत्य निवर्य प्रसारान् पृथकृत्येति, अथवा-पर्याप्तपुद्रक्रियैवावरणं कर्म यस्य स क्रियावरणः, कोऽसौ ?-जीव- लरुत्सरवैक्रियशरीरस्यैकत्वं नानात्वं च कर्मतापचं स्पृस्ट्रात्यवष्टम्भपरं यद्विभकं ततृतीयं, विभङ्गता चास्य कर्मणो प्रारभ्य तथा स्फुरत् कृत्वा-स्फुटं कृत्वा सम्-एकीभावेन ऽदर्शनेनानभ्युपगमादेवमुत्सरत्रापि विभङ्गताऽवसेयेति ३ मु. वर्तितं सामान्यनिष्पनं कृत्वा निर्वर्तितं कृत्वा सर्वथा परिसयग्गे' ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भ- माप्य, किमुकं भवति-विकुर्व्य-चैफियं कृत्वा नवौदारिपत् भवनपत्यादिदेवानां बाधाभ्यन्तरपुद्रलपर्यादानतो कतयेति, तस्येति-विभमानिनो वाद्याभ्यन्तरपुद्रलपर्यावैक्रियकरणदर्शनादिति चतुर्थम् ४।'अमुदग्गे जीवे' ति दानप्रवृत्तवान् पश्यत एवं भवति इति विकल्पो आयते । देवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्रलादानविरहेण वैक्रियवतां दर्शनाद् | 'मुदग्गे' ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इति ४, भबाह्याभ्यन्तरपुद्रलरचितावयषशरीरो जीव इत्यवसाय- अथापरं पश्चमम्-तत्र बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान् अपर्यादाषत् पश्चमम् ५ तथा 'रूबी जीवे'त्ति देवानां क्रियशरीरव- येत्यत्र निषेधस्य क्रियसमुदातापेक्षित्वादुत्पत्तिक्षेत्रस्थासादर्शनादूप्येव जीव इत्येवमवष्टम्भवत् षष्ठमिति ६ तथा स- स्तूत्पत्तिकाले गृहीत्वा भवधारणीयशरीरस्यैकत्वमेकदेवापेस्वमिणं जीव'त्ति वायुना चलतः पुदलकायस्य दर्शना- क्षया कराठाधवयवापेक्षया था, मामात्वं त्वमेकदेवापेक्षयाहत्सर्वमेवेदं वस्तु जीवा एव चलनधर्मोपेतत्वादित्येवं निश्व- स्ताङ्गल्याद्यवयवापेक्षया वा, विकुर्व्य स्थातुं प्रवृत्तानित्यादि यवत्सप्तममिति । संग्रहवचनमेतत् 'तत्थे' त्यादि त्वेतस्यैव शेपं प्राग्वताबाह्यपुद्रलपर्यादानं हि विनोत्तरवैक्रियैकत्वनाना. विवरणवचनमुत्तानार्थमेव, नवरम् 'तत्थति तेषु सप्तसुम- त्वे किल न भवति इति भवधारणीयमिहाधिकृतम् , तदेवध्ये 'जया णं' ति यस्मिन्काले 'से गं' तिइह तदेति गम्यते | मबाह्याभ्यन्तरपुद्रलरचितशरीरदेवदर्शनात्तस्यैवं विकल्पो स विभङ्गी 'पास'त्ति उपलक्षणत्वाजानातीति च अन्य- भवति । 'अमुदग्गे' त्ति बाह्याभ्यन्तरपुद्रलरचितावयवथा मानत्वं विभङ्गस्य न स्यादिति । 'पाईणं वे ' त्यादि, था| शरीरो जीव इति ५। 'रूवी जीवे ' ति पुद्गलानां पर्याविकल्पार्थः 'उहं जाव सोहम्मे कप्पे' इत्यनेन सौधम्मात्प
दाने अपर्यादाने च वैक्रियरूपस्यैकानेकरूपस्य देवेषु वर्शरतः किल प्रायः बालतपस्विनो न पश्यन्तीति दर्शिम् त- नाबूपवानेव जीव इत्यवसायो जायते तस्य अरूपस्य थाऽवधिमतोऽप्यधोलोको दुरधिगमो विभङ्गशानिनस्तु सु
कदाचनान्यदर्शनादिति ६। 'सुहुमे' त्यादि सूचमेण-मन्देतरामित्यधोदिग्दर्शनमिह नाभिहितं दुरधिगम्यता चाधो
नन तु सूचमनामकर्मोदयवर्तिना तस्य वस्तुचालनासमर्थलोकस्य त्रिस्थानकेऽभिहितेति । 'एवं भयह 'त्ति एवंवि
त्वात् । 'फुड' ति स्पृष्टं पुद्गलकाय-पुद्रलराशिम् 'एयंत'ति धो विकल्पो भवति-यदुत अस्ति मे अतिशेष शेषा
एजमानं-कम्पमानं घेजमान-विशेषेण कम्पमानं चलन्तं एयतिक्रान्तं; सातिशयमित्यर्थः । शानं च दर्शनं च, खाने
स्वस्थानादन्यत्र गच्छन्तं बुभ्यन्तम् अघोनिमज्जन्तं स्पम या दर्शनं शानदर्शनं ततश्चैकदिशो दर्शनेन तत्रैव लो
म्दन्तम्-पच्चलन्तं घड्यन्तं वस्त्वन्तरं स्पृशन्तमुदीरयन्तं कस्यापलम्भादाह-एकदिशि लोकाभिगम इति, एकदिग्मा
वस्त्वन्तरं प्रेरयन्तं तं समनास्येयमनेकविधं भावं पर्याव एव लोकस्तथोपलम्भादिति भावः। सन्ति-विद्यन्ते ए
यं परिणमन्त-गच्छन्तम् ' तं सबमिणं ' ति सर्वमिदं कके श्रमणा वा ब्राह्मणा वा ते चैवमाहुः-अन्यास्वपि
चलत्पुद्रलजातं जीवाः स्पन्दनलक्षणजीवधर्मोपेतत्वाद्यच्च पश्चसु दिक्षु लोकाभिगमो भवति , तास्वपि तस्य विद्य
चलदपि श्रमणादयो जीवाश्चाजीवाश्चेति प्राहुस्तन्मिथ्योते मानत्वात् । ये ते एवमाहुः-यदुत पञ्चस्वपि दिनु
तदभ्यवसाय इति , ' तस्स णं ' ति तस्य विभामालोकाभिगमो मिथ्या ते एवमाहुरिति प्रथम विभा
नवतः इमे ' ति वक्ष्यमाणान सम्यगुपगताः अचज्ञानमिति १ । अथापरं द्वितीयम्-तत्र 'पाईणं वे' त्यादी
लनावस्थायां जीवत्वेन न बोधविषयीभूताः , तद्यथा-पृपाशब्दश्चकारार्थों द्रष्टव्यः, विकल्पार्थत्वे तु पश्चानां दिशा
थिव्यतेजोवायवः, चलनदोहदादिधर्मवता प्रसानामेव पश्यत्ता न गम्यते; एकस्या एव च गम्यते । तथा च प्रथम- दोहदादित्रसधर्मवतां वनस्पतीनामेव च जीवतया प्रक्षाद्वितीययोर्विभङ्गयोभैदोन स्यादिति कचिद् वाशब्दानश्य- नात् । पृथिव्यादीनां तु वायुचलनेन स्वप्तचलनेन च त्रम्त एवेति २, प्राणानतिपातयमानानित्यादिषु जीवानिति ग- सत्वेनैव प्रज्ञानात् स्थावरजीवतया तु तेषामनभ्युपगमाम्यते,'नो किरियावरणे' त्ति अपितु कर्मावरण इति ३, 'दे
चेति । 'इपहि' ति इति हेतोरेतेषु चतुर्यु जीवनिकायेचामेव' ति देवानेव भवनवास्यादीनेव । 'बाहिरभंतरे' ति| पुमिथ्यात्वपूर्वो दण्डो हिंसामिथ्यादण्डस्तं प्रवर्सयति तबाह्यान्-शरीरावगाहक्षेत्रादभ्यम्तरान्-अवगाहक्षेत्रस्थान
बूपानभिशः संस्तान् हिनस्ति निहते चेति भाव इति पुद्रलान्-वैक्रियवर्गणारूपान् पर्यादाय परि-समन्तात् | सप्तमं विभवानमिति ७ । स्था०७ डा०.३ उ० । पा० । बैक्रियसमुद्धातेनादाय गृहीत्वा 'पुढेगत्तं' ति पृथकालदेशमे- अनु० ।
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(१२०१) अभिधान राजेन्द्रः ।
विभंगणाण
विभङ्गज्ञानविषयः -
विभंगनाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पष्पत्ते, गोयमा ! से समासओ चउब्विहे पष्मत्ते, तं जहा- दव्वशो खत्तम कालो भावो । दव्वश्रो णं विभंगनाणी विभंगनाथपरिगयाई दव्वाई जाणइ पासइ, एवं • जाव भावओो गं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जागर पासइ । ( सू० ३२२ + )
'दव्य गुं विभंगणाणी 'त्यादि ' जाणइ' ति विभङ्गज्ञानेन ' पासह' त्ति श्रवधिदर्शनेनेति । भ० श० २३० । ( ' ओहि ' शब्दे तृतीयभागे १४६ पृष्ठे विभङ्गवव्यतोक्शा । ) विभङ्गज्ञानेन देवोऽपरं पश्यति । देवाधिकारादिदमाह
विसुद्ध से गं भंते ! देवे असमोहरणं श्रप्पा एवं विसुद्धले देवं देवि अन्नयरं जाणति पासति १, १ । गोयमा ! यो तिट्टे समझे, एवं अविसुद्धलेसे असमो हरणं अप्पाणं विसुद्धलेसं देवं देविं श्रण्ययरं जाणइ पासह २ | भविसुद्धलेसे समोहरणं अप्पाणेणं अविसु
सं देवं देवि प्रणयरं जाणइ पासइ ३ | अविसुद्ध - लेसे देवे समोहरणं अप्पाणं विसुद्धलेसं देवं देवि अ पयरं जाणइ पासर ४ । अविसुद्धले से समोहया अस मोहरणं अप्पाणेणं अविशुद्धलेसं देवं देवि भण्ण्यरं जाणइ पासइ ५ | अविसुद्धलेसे समोहया असंमोहरणं अप्पाणेणं विमुद्धलेसं देवं देवि भण्ण्यरं जाणइ पासह ६ । विसुद्धलेसे असमोहरणं अप्पाणं अविसुद्धलेसे देवं देवं प्रणयरं जाणइ पासइ १ । विमुद्धलेसे अस मोहरणं विसुद्धलेसं देवं देवि श्रमयरं जाणइ पासइ २ । विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहरणं अविसुद्धलेसं देवं देवि भण्यरं जाणइ पासह १, हंता जागर पासर । एवं विसुद्धले से गं भंते ! देवे समोहरणं विमुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणद्द् ?, हंता जागइ ४ । विसुद्धलेसे समोहया समोहरणं श्रविद्धलेसं देवं देविं अयरं जाण पास ५ । विसुद्धलेसे समोहया समोहएवं विसुद्धलेसं देवं देवि भण्ण्यरं जाणइ पासर ६ । एवं हेल्लिएहिं अट्ठहिं न जाइ न पासइ उवरिल्लएहिं चउहिं जागर पासइ । सेवं भंते ! भंते ! ति ।। ( सू० २५४ )
'अविसुद्धे' त्यादि, 'अविसुद्ध लेसे रां' ति अविसुद्धलेश्यो विभङ्गशानो देवः ' श्रसमोहरणं श्रप्पारायणं' ति श्रनुपयुक्रेनात्मना, इहाविशुद्ध लेश्यः १ श्रसमवहतात्मा देवः २ अविशुद्धलेश्यं देवादिकम् ३ इत्यस्य पदत्रयस्य द्वादश विकरुपा भवन्ति, तद्यथा-' अविसुद्धले से णं देवे अलमोहरणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देवि अरण्यरं जाणइ पासह ?, नो इण्डे समंटू ' इत्येको विकल्पः १ । ' अविसुलेसे स२०१
विभत्ति
मोहरणं विसुद्धलेसं देवं देवि अरण्यरं जाणइ पासह, नो इण्ट्ठे समट्ठे ' इति द्वितीयः - २ । श्रविसुद्धले से समोहं अविसुद्धले देवं देवि अरण्यरं जाणइ पासइ णो इट्ठे समट्टे' इति तृतीयः - ३ । ' अविसुद्धलेसे समोहरणं वि सुद्धले देवं देवि अरण्यरं जाणइ पासह, नो इट्ठे समट्ठे ' इति चतुर्थः ४ । ' अषिमुद्धलेसे समोहया समोहरणं अप्पाणं श्रविसुद्धलेसं देवं देवि श्रयरं जाणा पासइ यो इट्टे समट्ठे ' इति पञ्चमः ५ । ' अविसुद्धले से समोहया लमोहपणं विसुद्धलेसं देवं देविं श्ररणयरं जाणइ पासह, नो इणट्ठे समट्ठे ' इति षष्ठः ६ । ' विसुद्धलेसे समोहरणं श्रप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देवि श्रयरं जाणइ पासइ, नो इ
समट्ठेति सप्तमः । विसुद्धले से श्रसमोहरणं विसुद्धले सं देवं देवि प्रणयर जारा पासइ, नो इण्ट्ठे समट्ठे ' ति श्रष्टमः । एतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्र षभिर्मिथ्यादृष्टिस्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति । 'विसुद्धले से समोहरणं अविसुद्धलेसं देवं देवि अरण्यरं जाणइ ?, हंता जागा ' इति नवमः । विसुद्धले से समोहरणं विसुद्धलेसं देवं देविं अरण्यरं जाणइ ? हंता जाणइ ' इति दशमः ९० । विसुद्ध - लेसे समोहया समोहरणं अप्पारोणं अविसुद्धलेसं देवं देवि अरण्यरं जाणइ पासह ?, हंता जागर त्ति एकादशः ११ । ' विसुद्धले से समोहया समोहरणं श्रप्पाऐणं विसुद्धलेसं देवं देवि अरण्यरं जाणइ पासइ' त्ति द्वादशः १२ । एभिः पुनश्चतुर्भिर्विकल्पैः सम्यग्दृष्टित्वादुपयुक्तत्वानुपयुक्तत्वाच्च जानाति, उपयोगानुपयोगपक्षे उपयोगांशस्य सम्यग्ज्ञानतुत्वादिति । एतदेवाह - ' एवं हेट्ठिल्लेडिं' इत्यादि, वाचनान्तरे तु सर्वमेवेदं साक्षाद् दृश्यत इति । भ० ६ श० ६ उ० ।
विभंगु - विभङ्ग न० । तृणभेदे, प्रशा० १ पद । विभञ्ज - विभज्य - त्रि० । विभक्तुं शक्ये, स्था० ३ ठा० २३० । विभज्य - अव्य० | पृथक्कृत्वेत्यर्थे, सूत्र० १ श्रु० १४ अ० । विभजवाय - विभज्यवाद - पुं० । स्यादवादे, " संकेज या संकितभावभिक्खू, विभज्जवायं व वियागरेजा " विभज्यवा दः - स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद् । अथवा सम्यगर्थान् विभज्य पृथक कृत्वा तद्वादं वदेत् । सूत्र० १ श्रु० १४ श्र० ।
विभत्त - विभक्त - त्रि० । विभागवति, तं० जी० । विविक्ले, प्र
४० ४ श्रश्र० द्वार । दृश्यमानान्तरे, भ० ७ श० ६ ० । श्री० जे० । पृथग्व्यवस्थापिते, ना० म० १ अ० । भाचा० । भोजनविशेषरहिते, जं० २ वक्ष० । भावे क्लः । नपुं० । विभागे, श्राचा० १० २ ० १ ३० ।
विभत्ति-विभक्ति - स्त्री० । विभजनं विभक्तिः । विभक्तायाम्, ज्ञा० १ ० १ अ० । पार्थक्येन स्वरूपप्रकटने, नं० । विभक्लिनिक्षेपः
णिक्खेवो विभत्तीए, चउव्विहो दुविह होइ दव्वम्मि । आगमनोयागमश्र, नोश्रागमत्र असो तिविहो ।। ५५३ ॥ जाणगसरीरभविए, तव्वइरिसे य सो भवे दुविहो । जीवाणमजीवाण य, जीवविभत्ती तहिं दुविहा ॥ ५५४॥ सिद्धाणमसिद्धाय य, अजीवाणं तु होइ दुविधा उ ।
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(१२०२) विभत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विभत्ति रूवीणमरूवीण य, विभासियचा जहा सुत्ते ॥५५५॥ व्यः,तत्रापि सीमन्तकादिनरकेन्द्रकावलिकाप्रविष्टपुष्पावकी. भावम्मि विभत्ती खलु-नायव्वा छबिहम्मि भावम्मि । कवृत्तव्यस्रचतुरस्रादिनरकस्वरूपनिरूपणम् । तिर्यग्लोक
विभक्तिस्तु-जम्बूदीपलवणसमुद्रधातकीखण्डकालोदसमुद्रेमहिगारो एत्थं पुण, दव्यविभत्तीऍ अज्झयणे ।।५५६॥
स्यादिद्विगुणद्विगुणवृद्धया द्वीपसागरस्वयंभूरमणपर्यन्तस्थतथा विभक्लिनिक्षेप सति विभक्तिर्भवेत् द्विविधा-द्विप्रकारा रूपनिरूपणम् । ऊर्वलोकविभक्तिः-सौधमोथा उपर्युपरि दैविध्यं चास्याः संबन्धिभेदादेवेति। तमाह-जीवानाम- व्यवस्थिता द्वादश देवलोकाः नव ग्रैवेयकानि पञ्च महाविजीवानां च कोऽर्थः१जीवविभक्तिः-जीवानां विभागेनावस्था
मानानि, तत्रापि विमानेन्द्रकावलिकाप्रविष्टपुष्पावकीर्णकपनम् , एवमजीवविभक्तिश्च । उत्तरत्राप्येवमेव संबन्धिभेदाद् । वृत्तव्यम्रचतुरनादिविमानस्वरूपनिरूपणमिति । दिगाश्रयभेदो व्याख्येयः। तहि' ति वचनव्यत्ययात्तयोर्जीवाजीवविभ- सेन तु पूर्वस्यां दिशि व्यवस्थितम् , क्षेत्रमेवमपरास्यपीति क्योर्मध्ये द्विविधा-सिद्धानामसिद्धानांच-'अजीवाणं तु'। द्रव्याश्रयणाच्छालिक्षेत्रादिकं गृह्यते, स्वाम्याश्रयणाच्च देवत्ति तुरपिशध्दार्थस्ततोऽजीवानामपि भवति 'दुविहा उ' त्ति | दत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य वेति । यदि या-क्षेत्रविभक्तिरार्या:तु अवधारण, ततो द्विविधैव रूपिणामरूपिणां च विभाषि- मार्यक्षेत्रभेदाद् द्विधा । तत्राप्यार्यक्षेत्रमर्धवाद्विशतिजनपदोतव्या-विशेषेण व्यक्तं वक्तव्या, यथा सूत्र-प्रक्रान्ताध्ययनरू पलक्षितं राजगृहमगधाविकं गृह्यते । पे, इह तु प्रक्रमायाताऽपि पौनरुक्त्यप्राप्तेरसौ न प्रतिपा- "रायगिहमगहचंपा, अंगा नह तामलि ति वंगा य । चत इति भावः । भावे-मावनितेपे विमतिः, खलु-निधितं
कंत्रणपुरं कलिका, वाणारसी चेव कासी य ॥१॥ बातव्या षडविधे भाव-षाकारोदयिकादिभावविषया।प्रा.
साकेयकोसलागय-पुरं च कुरुसोरियं कुसट्टा य । ह-एवमनेकविधायां विभक्कायिह कयाऽधिकारः?, उच्यते
कंपिनं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव ॥२॥ अधिकार:-अधिकृतं अत्रेति प्रस्तुते-पुनःशब्दो-चाक्यान्त- वारवई य सुरट्ठा, मिहिलविदेहा य बच्छक संबी। रोपन्यास द्रव्यविभक्त्या जीवाजीवद्रव्यविभागायस्थापनरू
नंदिपुरं संदिग्भा, भहिलपुरमेव मलया य ॥ ३॥ पया तस्या एवात्र प्रवर्वमानत्वादिति भावः । इति नियु- बहराडमछपरणा, अच्छा तह मित्तियावर दसरणा। झिगाथाएकावयवार्थः इत्यवसितो नाम निष्पन्नमिक्षपः। उ- सुतीमई य चेदी, वीयभयं सिंधसोवीरा ॥४॥ स०पाई० ३६ अ०।
महुरा य सूरसेणा, पाथा भंगी य मासपुरिबट्टा । सांप्रतं विभक्तिपदनिक्षेपार्थमाह
सावरथी य कुणाला. कोडीवरिसं च लाढा य॥४॥
सेययिया विय गयरी, केययश्रद्धं च पारियं भणिय। थाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य ।
जत्थुप्पत्ति जिग्गाणं, चक्की रामकिराहाणं ॥६॥ एसो उ विभत्तीए, णिक्खेवो छब्धिहो ॥६६॥
अनार्यक्षेत्रं धर्मसंज्ञारहितमनेकधा । तदुक्तम्'नाम ठवण' त्यादि , विभक्तर्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल- सगजवणसबरबब्बर-कायमुरुंडो दुगोणपक्कणया । भावभेदात् षोढा निक्षपः । तत्र नामविभक्रिर्यस्य कस्य- अक्खागहरणरोमस-पारसखसखासिया चेव ॥१॥ चित् सचित्तावन्यस्य विभक्तिरिति नाम क्रियते, तद्यथा- दुविलयलवासवोकस, भिलिदपुलिदकोंचभमररूया। स्वादयोऽसौ विभक्लयस्तिबादयश्च । स्थापनाविभक्रिस्तु यत्र कांबोयचीणचंचुय, मालयदमिला कुलक्खा य॥२॥ ता पव प्रातिपदिकाद्धातोर्वा परेण स्थाप्यन्ते पुस्त
केकयकिरायहयमुह, खरमुह गयंतुरयमेढगमुहा य । कपत्रकादिन्यस्ता बा। द्रव्यविभतिजीवाजीवभेदाद द्विधा, हयकराणा गयकराणा, अराणे य श्रणारिया बहवे ॥ ३॥ तत्रापि जीयविभक्रिः सांसारिकेतरभेदाद् द्विधा तत्राप्य- पाया य चंडदंडा प्रणारिया णिग्घिणा गिरणुकंपा । सांसारिकजीवविभक्निद्रव्यकालभेदात् द्वेधा , तत्र द्रव्यत
धम्मो त्ति अक्खराई, जेसु ण णजंति सुविण यि ॥४॥ स्तीर्थातीर्थसिद्धादिभेदात्पश्चदशधा । कालतस्तु प्रथम- कालविभक्तिस्तु प्रतीताऽनागतवर्तमानकालभेदात् त्रिधा। समयसिद्धादिभेदादनकधा। सांसारिकजीवविभक्लिरिन्द्रियः | यविषकान्तसुषमादिकक्रमेणाश्वसर्पिण्युत्सपिण्युपलक्षितं द्वा जातिभवभेदात्रिधा । तत्रेन्द्रियविभक्तिः-एकेन्द्रियविकले- दशारं कालचक्रम् , अथवा-“समयावलियमुहुत्ता, दिवसमा न्द्रियपक्षेन्द्रियभेदात्पञ्चधा , जातिविमतिः-पृथिव्यप्तेजो- होरत्तपक्षमासाय। संवच्छरयुगपलिया, सागरउस्सप्पिपबायुवनस्पतित्रसभेदात् षोढा, भवधिभनि रकतिर्यङ्म- रियट्टे' त्येवमादिका कालविभक्तिरिति । भावविभक्तिस्तु-जी. नुष्यामरभेदाचतुर्धा, अजीवद्रव्यविभक्रिस्तु रूप्यरूपिद्रव्य- वाजीवभावभेदाद्विधा-तत्र जीवभावविभक्तिः औदयिकोपभेदाद् द्विधा । तत्र रूपिद्रव्यविभक्निश्चतुर्धा, तद्यथा-स्क- शमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभेदात् न्धाः स्कन्धदेशाः स्कन्धप्रदेशाः परमाणुपुद्गलाश्च । अरूपि- पदप्रकारा । तत्रौदयिको गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनानाद्रव्ययिभक्तिर्दशधा, तद्यथा-धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकाय- नाऽसंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्ठ्येकैकैकपड्भेदक्रमेणैकविंश. स्य देशा धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः । एवमधर्माकाशयोरपि तिभेदभिन्नः, तथौपशमिकः सम्यक्त्यचारित्रभेदाद् द्विविप्रत्येकं त्रिभेदता द्रष्टव्या, अद्धासमयश्च दशम इति । क्षेत्र- धः,क्षायिकः सम्यक्त्वचारित्रज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगविभक्तिमतुर्धा, तद्यथा-स्थानं दिशं द्रव्यं स्वामित्वं चा- वीर्यभेदानवधा, क्षायोपशमिकस्तु ज्ञानाशानदर्शनदानादिभिस्य । तत्र स्थानाश्रयणादूर्वाधस्तियग्विभागव्यवस्थितो | लब्धयश्चतुखिपश्चभेदाः । तथा सम्यक्त्वचारित्रसंयमाखोको वैशाखस्थानस्थपुरुष इव कटिस्थकरयुग्म इव द्रष्ट-1 संयमभेदक्रमेखाशदशधेति, पारिणामिको जीवभव्याभव्यव्यः । तत्राप्यपोलोकविमतिः-रत्नप्रभाधाः सप्त नरकपृथि- स्वादिरूपः, सानिपातिकस्तु द्विकादिभेदात् पर्विशतिमेदः,
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(१२०३) विभत्ति अभिधानराजेन्द्र:।
विभासा संभवी तु घडिधोऽयमेव गतिभेदात्पश्चदशधेति । अजी-विभाग-विभाग-पुं० । विभजन-विभागः । विस्तरे, नि० चू० घभावविभक्तिस्तु मूर्तानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः।
२० उ० । व्य० । प्रव०। प्रस्तायोऽवसरो विभाग इत्यनान्तअमूर्तानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनादिक इति । सूत्र०१ १०,
रम् । विशे। श्रा० मा प्राप्तिपूर्विकायामप्राप्तौ,सम्म०३ का५.अ. १ उ०। ('अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे ४०५ पृष्ठे
एड । विशे०। नैयायिकसंमतगुणमेदे,व्यक्तापादने, प्रा० म० द्वावपि विभक्ती द्रष्टव्ये ।) (प्रथमाद्वितीयातृतीयाचतुर्थी- १० । अंशे,स्था० ३ ठा० ३ उ०। बंटगो विभागो वेति एगटुं पञ्चमीषष्ठीसप्तमीलक्षणा वचनविभक्कयो ' वयणविभत्ति' आय०४ अ०। शब्देऽस्मिनेव उक्काः ।)
विभावण-विभावन-न०। प्रकटा करणे, प्राविर्भावने,सूत्र विभत्तिभाव-विभक्तिभाव-पुं०। विभागरूपे, भ०।
२६०१०। अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति विभावणा-विभावना-स्त्री०। संविभागे, संविभागो विमातदर्शयितुमाह
बना भण्यते,यथा-व्रतानां धारण समितीनां रक्षणं कपायाफम्मनो णं भंते ! जीवे नो अकम्मो विभत्तिभावं | णां निग्रह इत्यादि । (६०) विभावनं तु प्राणातिपाताद्विरमपरिणमइ, कम्मो णं जए नो अकम्मो विभत्तिभावं णं यावत्परिग्रहाद्विरमणमिति । वृ० ३ उ० । ('अंतरगिह' परिणमइ ?, हंता गोयमा ! कम्मश्रो शं तं चेव जाव
शब्द प्रथमभागे ८८ पृष्ठे सूत्रं गतम् ।) परिणमइ नो अकम्मो विभत्तिभावं परिणमह. सेव।
विभावता-विभावता-स्त्री०। विभावस्वभावे, दश. १०। भंते । सेवं भंते ? ति ।। (सू०-४५२)
विभावसभाव-विभावस्वभाव-पुं० । स्वभावादन्यथाकरणे
द्रव्या०। कम्मो ' मित्यादि, कर्मतः सकाशाम्नो अकमंतः-न कर्माणि विना जीयो ‘विभक्तिभाव-विभाग
स्वभावादन्यथाभावो, विभावोऽपि महदव्यथा । रूपं भावं नारकतिर्यग्मनुष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाम- नानादेशादिकर्मोपा-धिर्यतो घटते कथम् ॥ ८॥ मित्यर्थः परिणमति-गच्छति, तथा-' कम्मो णं जए' स्वभावात् योऽन्यथामावः स विभावस्वभावः, कथ्यते इति त्ति गच्छति तांस्तान्नारकादिभावानिति । जगत्-जीव- तु महव्यथारूपं लगति । एतच विभावस्वभावस्याङ्गीकरण समूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जङ्गमाभिधानो "जगन्ति विना जीवस्य नानादेशादिकर्मोपाधिः कथं घटते नानादेशाजमान्याहु" रिति वचनादिति । भ० १२ श०४ उ०। । धनियतदेशकालादिविपाकिकर्मोपाधि वस्य अलमा युविभत्तिभिन्न-विभक्निभिन्न-न० । सूचनो, यत्र विभक्तिव्य- ज्यते, तत उपाधिसंबन्धयोग्यानादिविभावस्वभाव इति । त्ययः--यथा वृक्ष पश्य इति वक्तव्ये वृक्षः पश्यति ध्यात्।।
द्रव्या० १२ अध्या०।। अनु० । विशे० प्रा०म० भत्र हि विमरन्यथाप्रयोगाद्
विभासग-विभाषक-पुं० । अनुयोगाचार्येण भणितस्य व्याविभक्निभिन्नत्यम् । वृ०१ उ०१ प्रक०।
ख्यानस्य सम मापमाणे , विशे। विभाषकस्तु अनुयोगाविभत्तिविपरिणाम-विभक्तिविपरिणाम-पुं० । विभक्तीनां व्य | चार्यभापितस्यैव अनेकधा अर्थमभिधत्ते, यथा-समभावःत्यासे, प्राचा०१७०१०५०। श्राव०।
सामयिकं समानां वा-ज्ञानदर्शनचारित्राणां यः समवायः विभव-विभव-पुं०। कृतसफलसंपदि, शा०१ श्रु०१ अकालदम्या
समाय एव सामायिक स्वार्थे इकण् प्रत्यय इत्यादि। श्रा०म०१ म्, स०१४६ सम। समृद्धौ,शा०१ श्रु०१७ मा विभव'
अ०। श्रा० चू०('भासम' शब्दे पश्चमभागे १५२१ पृष्ठे
उदाहरणम् ।) इति किं मदस्ते, उत विभवः किं विवावमुपयासि ? । कर विभासा-विभाषा-स्त्री. विविधा भाषा विभाषा । विषयषिनिहितकन्दुकसमाः, पातोत्पाता मनुष्याणाम्॥९॥ प्राचा०१ शु०२१०६ उ०।
भागव्यवस्थापनेन व्याख्यायाम् , आव०२०। निचू। विभवण-विभवन-न० । विरूपकरणे, नि०चू०१६ उ०।
पश्चा। विविधपर्यायशब्दैः स्वरूपकथने,प्रा०म०११०।
भास त्ति या विभास त्ति वा वत्तियं ति या एगट्ठा। श्रा०चू० विभवसार-विभवसार-त्रि०। विभूत्युत्कर्षे, पश्चा०८ विव०। १०।०।
घा विभवापेक्षायाम् , पश्चा०२ विव०। ध० तथा विभ- साम्प्रतमभ्रपटलदृष्टान्तसमन्वितं विभाषाद्वारमाहवादीनां वित्तवयोऽवस्थानिवासस्थानादीनामनुसारत आनु- एगपए उ दुगाई, जो अत्थे भणइ विभासा उ । कप्येण यो वस्त्राभरणादिभोगः लोकपरिहासाधनास्पदतया योग्यो वेषः कार्य इति भावः। यो हि सत्यप्याये कार्पण्याद्
असइ य आसु य धावइन य सम्मइ तेण पासो उ/२०१४ व्ययं न करोति. सत्यपि वित्ते कुचेलत्वादिधर्मा भवति स
एकेणं एकदलं, ताहि कयं विइयएण बहुतरगा। लोकगर्हितो धर्मेऽप्यनधिकारी स्यात् । प्रसन्ननेपथ्यो हि पु. तइएण छाइयं तं, तिल्लंबिलमादिगाएहिं ॥२०२॥ मान् मङ्गलमूर्तिर्भवति, मालाच श्रीसमुत्पत्तिः, यथोक्तम्- एकेन छत्रकारेण त्रयाणामात्मीयशिष्याणां छत्रच्छा"श्रीमगलात्प्रभवति, प्रागल्भ्याश्च प्रवर्द्धते । वाफ्यात्तु कुरुते दनार्थमभ्रपटलानि दत्तानि । छत्राण्याच्छादयत । तत्रैमूलं, संयमात्प्रतितिष्ठति ॥१॥" मलमित्यनुबन्धं प्रति तिष्ठती- केन शिष्येण एकमभ्रपटलदलं तत्र छत्रे कृतम् , द्विति प्रतिष्ठां लभत इति । ध०१ अधिक।
तीयेनात्मीये छत्रे बहुतराणि द्वित्रिचतुःप्रभृतीनि अभ्रपविभवोचिय-विभवोचित-त्रि०। स्वसमृद्धयनुरूपे, पञ्चा. - | टलानि लापितानि, तृतीयेन बहून्यभ्रपटलानि दत्त्वा हैविव०॥
लाम्लादिभिरूपापैस्तु छत्रं सर्वात्मना छादितम् । किमुक्तंभ
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विमासा
पति- तान्यभ्रपटलदलानि पालितानि तैलाम्लादिभिस्तिमित्था सर्वथा निर्भेदम् । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः-प्रधमशिष्यसदृशो भाषकः, द्वितीयशिष्य सदृशो विभाषकः । तथा चाह-य एकस्मिन् द्वित्रादीनर्थान् वक्ति, यथा-अश्नाती
स्यश्वः; यदिवा - श्राशु धावति न च श्राम्यतीत्यश्वः, एष विभाषकः तस्य भाषणं विभाषा । तृतीयशिष्यसदृशो व्यक्तिकरः । उक्तं च- " पढमसरिच्छो भासग, विश्यविभासो य तय वितिकरो ' इति । वृ० १ ० १ प्रक० । विकल्पे, भजनायां च । दश० ४ श्र० । श्रुतस्य शेषविशेषरूपायां भाषायाम् ; विशे० । अर्थकथने, नि० चू० १ ३० ।
विभासित्तर- विभाषयितुम् -'
(१२०४) अभिधानराजेन्द्रः ।
- अव्य० । व्याख्यातुमित्यर्थे, प्रा०
म० १ श्र० । प्रय० ।
विभि - विभिन्न - त्रि० । विदारिते, उत्त० ३२ श्र० । विशेषेण सूत्रमखण्डीकृते, उत० १६ श्र० । विभीयग- विभीतक-पुं० । 'बहेडा' इति ख्याते वृक्षभेदे, विशे० । विभीसण - विभीषण- पुं० । अपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकायां नगर्यो जितशत्रुनृपतिपुत्रे वासुदेवे, आ० चू० १
अ० । आ० म० ।
विभ्रु - विभु - त्रि० । व्यापके, विशे० । हा० । श्रा० म० । स० । विभूइ विभूति - स्त्री० । उत्कृष्टपरसंपदि, श्राव० ४ ० । ० म० | शा० | रा० । विच्छुर्दे, औौ० । नि० चू० । स्था० । प्रश्न० विभूसणा - विभूषणा - स्त्री० । मण्डनायाम् श्रा० म० १ श्र० । श्रौ० । व्य० । चूल त्ति वा विभूसगं ति वा सिहरं ति वा पते एगट्ठा | नि० चू० १ ३० । स्नानविलेपनधूपननखदन्तकेशसंमार्जनादिके स्वशरीरसंस्कारे, प्रव० ६६ द्वार । विभूसा - विभूषा - स्त्री० । विभूषणं विभूषा । शरीरोपकरणकरणादिषु स्नानधावनादिभिः संस्कारे, उत्त० १६ श्र० । वस्त्रादिराढायाम्, दश० ८ श्र० । स्फारोदारशृङ्गारकरणे, आ० म० १ अ० । रा० । उचितनेपथ्यादिकरणे, औ० ।
सासु णं भंते! कप्पेसु देवीओ के रिसयाओ विभूसाए पत्ताओ, गोयमा ! दुविहाओ पत्ता, तं जहा - वेउन्त्रियसरी य अवेउब्वियसरीराओ य । तत्थ गं जाओ वेउव्वयसरी राओ ताओ णं सुवष्पसद्दालाओ सुबसद्दालाई वत्थाई पवरपरिहिताओ चंदाराणाओ चंदविलासिणी चंदद्धसमणिडालाओ सिंगारागारचारुवेसाध संगय ० जाव पासातीयाओ ० जाव पडिरूवाओ ।
विभूषाप्रतिपादनार्थमाह
सोहम्मीसाणा देवा केरिसया विभूसाए पत्ता १, गो- विभूसावत्तिय - विभूषाप्रत्यय - न० । विभूषानिमिते, दश० ै।
विभूषाकरणे दोषमाह
या ! दुबिहा पत्ता, तं जहा - वेडव्वियसरीरा य, अवेउब्वियसरीरा य । तत्थ गं जे ते वेउव्वियसरीरा ते हारविराइयवच्छा ० जाव दसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाया जाव पडिवा । तत्थ णं जे ते अबे उव्वियसरीरा ते गं श्राभरणवसणरहिता पगतित्था विभूसाए पत्ता | सोह
विभूसावत्ति तत्थ यं जाओ अवेब्बियसरीराओ ताओ णं श्राभरणवसणरहियाओ पगतित्थाओ भूसाए पछताओ, सेसेसु देवा देवीयो णत्थि ० जाव अच्चुतो, गेविजगदेवा फेरिया विभूसा पत्ता?, गोयमा ! आभरणवसणरहिया य, एवं देवी णत्थि भाणियन्वं, पगतित्था विसाए पता । एवं अणुत्तरा वि । (सू० २१८ )
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सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीडशानि विभूषया प्रक्षप्तानि ?, भगवानाह - गौतम ! द्विविधानि प्रशप्तानि, तथथा - भवधारणीयानि उत्तरवैक्रियाणि च । तत्र यानि ( तानि ) भवधारणीयानि तानि - श्राभरणवस - नरहितानि प्रकृतिस्थानि विभूषया प्रशप्तानि स्वाभाविक्येव तेषां विभूषा नौपाधिकीति भावः तत्र यानि (तानि) उत्तरवेक्रियरूपाणि शरीराणि तानि 'हारविराइयवच्छा ' इत्यादि पूर्वोक्तं तावद्वाच्यं यावत् 'दस दिसानो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा विभूसाए पत्ता ' अस्य व्याख्या प्राग्वत् । एवं देवीव्वपि नवरं ' ताश्री गं श्रच्छुराश्रमे सुवलसदालाओ' इति नूपुरादिनिर्घोषयुक्ताः 'सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवरपरिहिताओ सर्किकणीकानि वस्त्राणि प्रवरमत्युद्भर्ट यथा भवत्येवं परिद्दितवत्य इति भावः । 'चंदाराणाश्रो चंदविलासिशीश्रो चंदद्धसमनिडालाश्रो चंद्राद्दियसोमदंसणाश्रो उक्काइव उज्जोवेमाणीश्रो विज्जुघणमरीइसूर दिप्पंततेय श्रहिययरसंनिकासा सिंगारागारचारुवेसाओ, पासाईयाओ दरिणिजाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ' इति प्राग्वत् एवं देवानां शरीरविभूषा तावद्वाच्या यावदच्युतः कल्पः, देव्यस्तु सनत्कुमारादिषु न सन्तीति न तत्सूत्रं तत्र वाच्यम् । 'गेवेज्जगदेवाणं भंते ! सरीरा केरिलगा विभूसार पन्नता ? गोयमा ! गेवेजगदेवा सं पगे भवधारणिजे सरीरे ते णं श्राभरणवसणरद्दिश्रा पगइत्था विभूसाए परणत्ता' इति पाठः । एवमनुत्तरोपपातिका अपि वाच्याः । जी० ३ प्रति० २ उ० ।
विभूसावत्ति भिक्खू, कम्मं बंधइ चिकणं । संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।। ६५ ।। विभूषाप्रत्ययम् - विभूषानिमित्तं भिक्षुः साधुः कर्म वध्नाति चिक्कणं-दारुणं, संसारसागरे घोरे-रौद्रे येन कर्मणा पतति दुरुत्तारे-अकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीर्घ इति सूत्रार्थः ॥ ६५ ॥
एवं वाह्यविभूषापायमभिधाय संकल्पविभूषापायमाहविभूसावति चेयं, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावज बहुलं चेयं, नेयं ताईहि सेवित्रं ।। ६६ ।। 'विभूस' त्ति सूत्रं विभूषाप्रत्ययं - विभूषानिमित्तं चेत एवं चैवं च यदि मम विभूषा संपद्यत इति, तत्प्रवृत्त्यङ्गं चित्तमित्यर्थः, बुद्धा:- तीर्थकराः मन्यन्ते- जानन्ति, ता- रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषाक्रियासदृशं सावध
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(१२०४) विभुसावत्तिय अभिधानराजेन्द्रः।
विभूसावत्तिय बहुल वैत-पार्सध्यानानुगतं चेतः, नैतदित्थंभूतं त्रादा अप्पणो कार्यसि वणं तेखेण वाघरण वा वामेण वा बसाएण भि:-मात्मागमैः साधुभिः सेषितम्-आचरितं कुशल
वाणवणीएणं वा मखेज वा भिलिंगेज वा मखतं वा भिचित्तत्वातेषामिति सूत्रार्थः ॥६६॥ दश०६ . २ उ०। मा०म० शा० । ग० प्रा० चू। (साधोर्विभूषाप्रत्ययः
लिंगंतं वा साइज्जइ ।। ११५ ॥ जे भिक्खू विभूसावडि'बभचेरसमाहिट्ठाण' शब्दे ५ भागे १२६६ पृष्ठे दर्शितः।) ।
याए अप्पणो कायंसि वणं लोद्धेण वा ककेण वा एहवविभूषाप्रत्ययमार्जनादि
णेण वा पउमचुम्मेण वा वरमेण वा सिणाहणेण वा उबजे भिक्खू विभूसावडिए अप्पणो पाए मामलेज वा देज वा परिवद्वेज्ज वा उबटुंतं वा परिवर्दृतं वा साइजपमखेज वा प्रामअंतं वा पमअंतं वा साइजइ ॥ १.१॥ इ॥११६ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो काजे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए संवाहेज वा| यंसि वणं सीमोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा पलिमहेज वा संवाहतं वा पडिमहंत वा साइजइ ॥१०२॥ उच्छोलेज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण साइजइ।।११७॥जे भिक्खू विभूसादडियाए अप्पणो काया वरमेण वा वसाएण वा खवणीएण वा मंखेज वा| यंसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा मंखेज्ज वा मंतं वा मिलिजेज वा मंखतं वा भिलिंगंतं वा साइजह ॥१०॥जे| रयंतं वा मंखतं वा साइअइ ॥ ११८ ॥ जे भिक्खू विभिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए लोद्धेण वा ककेण | भूसावडियाए भप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरिवा एहवणेण वा पउमचुम्मेण वा सिणाहणण वा उव्वद्वेज वा यं वा असियं वा भगंदलं वा अप्लयरेण वा तिक्खेण वा रियड्डेज वा उब्बटुंतं वा परियद॒तं वा साइजइ ।।१०४॥ सत्थजाएण अच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा अच्छिदंतं जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए सीमोदगविय- वा विच्छिदंतं वा साइज्जइ ॥ ११६ ॥ जे भिक्खू विभूडेण वा उसिखोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज सावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइअइ ।।१०५॥ जे भिक्खू असियं या भंगदलं वा अपयरेण वा तिक्खेण वा सत्थविभूसाचडियाए अप्पणो पाए फूमेज वा रएज वा मं- जाएण अच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा पूर्व वा सोणिय खेज वा फुमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइजइ ॥१०६||
वाणीहरेज्ज वा विसोहिएज वा णीहरंतं वा विसोहंतं जे मिक्ल विभूसावडियाए अप्पणो कार्य प्रामजेज वा वा साइज्जइ ।। १२० ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अपमजेज वा भामजंतं वा पमअंतं वा साइजइ ॥ १०७॥ प्पणो कार्यसि गंडं वा पलिय वा अरिय वा असियं जे भिक्ख विभूसावडियाए अप्पयो कार्य संवाहेज वा पलि-| वा भगंदलं वा अपयरेण वा तिक्खेम वा सत्थजाएण मद्देज वा संवाहतं वा पलिमइंतं वा साइजइ ॥१०८॥ अच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज वा पूर्व वा सोणियं वाणीजे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य तेल्लेण वा घ- हरेज्ज वा विसोहिएज्ज वा सीओदगवियडेण वा उच्छोएण वा वरमेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा लेज्ज वा पधोवेज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साभिलिङ्गेज वा मखंतं वा भिलिङ्गन्तं साइबइ ॥१०६॥ इजइ ॥ १२१ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य लोद्धेख वा कके | कार्यसि गडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंए वा एहवणेण वा पउमचुम्मेण वा वरमेण वा सिणा- दलं वा अम्लयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण मच्छिहणेण वा उबट्टेज वा परिवडेज वा उबटुंतं वा परिवर्ल्डतं | देज वा विच्छिदेज वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा वा साइजइ ॥११०॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए मप्पणो | विसोहेज वा अप्लयरेण वा अालेवणजाएणं आलिंपेज वा कायं सीमोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उ- विलिंपेज वा आलिंपतं वा विलिंपतं वा साइजइ ॥१२२।। च्छोलेज बा पधोवेज वा उच्छोलतं वा पधोवंतं वा सा-| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा इजइ ॥१११॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं | पलियं वा परियं वा असियं वा भगंदलं वा अम्पयरेण वा फमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वा रयतं वा मं- तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेज्ज वा खंतं वा साइआइ ॥११२ ॥ जे भिक्खू विभू० अप्पणो | पूर्व वा सोणियं वाणीहरेज वा विसोहिएज वा अम्मयकायंसि वणं आमजेज वा पमओज वा आमअंतं वा रेण पालेवणजाएणं तेल्लेण वा घएण वा वरमेण वा पमअंतं वा साइ अइ ॥११३॥ जे भिक्खू विभृ० अप्पणो | बसाएण वा अभिगेज वा मखेज वा अभिगतं वा मंखंकायंसि बणं संवाहेज वा पलिमद्देज वा संवाहंतं वा पलि- तं वा साइज्जइ ॥ १२३ ।। जे भिक्खू विभूसावडियाए मतं वा साइजइ ।। ११४ ॥जे भिक्ख विभसावडियाए। श्रप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा असियं वा भगदसं
३०२
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( १२०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
विभूसावत्तिय
वा श्रयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण श्रच्छिदेज वा बिच्छिदेश वा पूयं वा सोखियं वा गीहरेञ्ज वा विसोहिएज वा अपरेण वा धुवेश वा पधुवेज वा धुतं वा पधुवंतं वा साइज ।। १२४ ।। जे भिक्खु विभूसावडियाए अप्पयो पालुकिमियं वा कुच्छकिमियं वा अप्पणो अंगुलियाए निवेसिय हरेज वा खीहरेज वा हरंतं वा गीहरंतं वा साइजइ | १२५ || जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाओ हसिहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्जइ । १२६ ।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई बच्छरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा कप्पतं वा संठतं वा साइजइ ॥ १२७॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए - पण दीहाई जंघरोमाई कप्पेज वा संठवेज्ज वा कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ १२८ ॥ जे भिक्खु विभूसावडिhere were दीहाई मीसकेसाई कप्पेज्ज वा संठनेज्ज वा कप्तं वा संठतं वा साइज्जइ ॥ १२६ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई कमरोमाई कप्पेज वा संवेज्ज वा कप्तं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ १३० ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई भ्रमयरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्जइ ।। १३१ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई अच्छपत्ताई कप्पेज वा संठवेज्ज वा कप्पंतं वा संठवतं वा साइज्जइ ।। १३२ ।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अ पण दीहाई चक्खरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज वा कप्पंत वा संठवतं वा साइज्जइ ॥। १३३ ।। जे भिक्खू विभूसाaiser अप्पणी दीहाई नक्करोमाई कप्पेज वा संठवे जवा कप्पतं वा संठवतं वा साइज ।। १३४ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई मसुरोमाई कप्पे जवा संठवे वा कप्पतं वा संठयंतं वा साइजइ । १३५ | जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई कक्खरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा कप्पतं वा संठवतं वा साइजइ ।। १३६ ।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई पासरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवतं वा साइज || १३७ || जे विक्खू विभ्रूसावडियाए अप्पणो दीहाई उत्तरउडाई कप्पेज वा संठबेज वा कप्पंतं वा संठवतं वा साइज ।। १३८ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अपणो दंते अघसेज वा पघसेज वा माघसंतं वा पघसंतं वा साइज्जइ ।। १३६ ।। जे भिक्खु विभूसावडियाए अप्पणो दते सीओदगवियडे या उसियोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज || १४०|| जे भिक्खू विभूसाचडियाए |
मज्ज वा श्रमज्जतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ १४८ ॥ जे भिक्खु विभूसावडियाए अप्पयो अच्छी
संवाहेज्ज
|
वा पलिपदेज वा संवाहतं वा पलिमद्दतं वा साइजइ ॥ १४६ ॥ जे भिक्खु विभूसावडियाए अप्पसो अच्छीणि तेल्लेख वा घर वा वरणेण वा बसाएण वा सवणीएण वा मंखेज्ज वाभिलिङ्गेज वा मंखतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ ॥। १५० ।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीसि लोग वा ककेण वा एहा लेख वा पउमचुष्पेण वा वसाय वा उल्लोलेख वा उब्वद्वेअ वा उल्लोलंतं वा उब्बतं वा साइजइ । १५१ । जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पसो अच्छी सीओदगवियडेख वा उसिलोदगविपडेख वा उच्छोलेज वा पधोवे वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ ॥ १५२ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पसो अच्छीसि फूमेज वा रए वा मंखेज वा फूर्मतं वा रयंतं वा मंखतं वा साइजइ || १५३ || जे भिक्ख विभूसावडियाए अप्पणो अच्छिमलं वा कामलं वा दंतमलं वा गहमलं वा खीहरेइ सीहरंत वा साइज || १५४|| जे भिक्खू विभूसाबडियाए - प्यस्सो कायाचो सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वाणीइरेज वा बिसोहेज वा खीहरंतं वा विसोहतं वा साइजर || १५५|| जे भिक्खु विभूसावडियाए गामाणुग्गामं दूइजमाणे अप्पणो सीसवारियं करेइ करंतं वा साइजइ ॥ १५६ ॥
विसावत पण दंते फूमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वा रयंतं मंखतं वा साइज || १४१|| जे भिक्खू विभूसावाडयाए अप्पणो उट्ठे आमजेज वा पमजेअ वा आमतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ १४२ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पयो उडे संवाहेज्ज वा पतिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पतिमतं वा साइज्जइ ॥ १४३ ॥ जे भिक्खू अप्पणो उट्ठे तेल्लेख वा घएस वा वशेण वा वसाए वा वणीएख वा मंखेज्ज वा भिलिङ्गेज मंखतं वा भिलिङ्गतं वा साइज्जइ ॥ १४४ ॥ जे भिक्खु विभूसावडियाए अप्पयो उट्ठे लोहेण वा ककेण वा एहारोख वा पउमचुषेण वा वमेण वा उल्लोलेज वा उब्वट्टेज्ज वा उल्लोलतं वा उच्चतं वा साइजइ ॥ १४५ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उट्ठे सीओोदगवियडेण वा उसिगोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलंतं वा प्रधोवंतं वा साइज्जइ ॥ १४६ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियार अप्पणो उट्ठे फूमेज वा रएज्ज वा मंखेज्ज वा फूमंतं वा रयंतं वा मखतं वा साइज्जइ ॥ १४७ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि श्रामज्जेञ्ज वा
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farerefor
विभूषाप्रतिज्ञया एवं० जाव सीसवारियं करेति । सुतं जे भिक्खु विभूसावडियाए व या पडिम्मई वा फेवलं वा पायपुर्ण वा अवयपरे वा उपगरबजाये
बिमल
पश्रयणेमु उज्जलोवहिधरणं करेंतस्स जा जहिं जयखा संभवति सा कायन्वा रविकिरणमभिधारण+सर-सतर साम जखित्थाएं तेण तस्सेस कली ॥ १ ॥ " नि० चू० १५३० ।
घरे घरंतं वा साइज्जन ।। १५७ ॥ जे भिक्छ विभूसा विभूतिय-विभूषित - वि० स्वादिभिः सञ्जातविभूषे ।
बडियाr वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुञ्वणं वा अपरे वा उपगरसजावं धोवेद धोवंतं वा साइज ॥ १५८ ॥ जे भिक्खू विभूसावडियार वत्थं वा परिग्गदं या कंपलं वा पायवणं वा अरण्यरं वा उवगरसजायं वेद घुतं वा साइज ।। १५६ ।।
भ० । शा० । श्रन्त० । प्रश्न० | कल्प० भ० । मण्डिते, दर्श० ३ तस्व । अलंकृते, विशे० आ० म० । श्राव० । विभेलय-विभीतक पुं० (बडेडा) वृ विमग- विमक पुं० पर्वकवनस्पति विमज्म-विषय-१० अन्तराले विशे० ।
तं सेवमाणे आय डम्मासयं परिहारद्वालं उत्पातियं विमय विमनस् त्रि० विभूसार प्रातस्स चलड्डु पछि ।
गाद्दा
पादपमणमादी, सीसद्वाराउ जाव उवहिंति ।
जे कुअ विभूसा, बरथादि परेज वाऽऽयादी ॥ ३७३ ॥ दिया हि भाणिया दोसा ।
(१२०७) अभिधानराजेन्द्रः ।
गाहा
इयरह वि ताण कप्पति, पादादिपमजणं विभूसाए । देहपलोग पसंतो, साता उच्छोलगमणादी || ३७४ ॥ इधर सिविल विभूसार जो विभूसार पदे पमउज्जणं करोति सो तेरा पसंगेण देहपलोयणं करेज्जा ताहे सापडिया उच्छोलयादि देसे सम्ये या पइति तप्पसंगे प पडिगमगात्री करेखा ।
गाहा-
एमेव व उदगर, अभिक्खवये विराहया दुबिहा । संकाय अमादी मुद्दतदितो ॥ ३७५ ॥
भिक्खा पुणे पुणो, दुविधा -- श्रायविराहणा संगमविराहसा, संकाए जहा वा ससरीरोचकरखपाओसो दीसति तदा से ये कोई पलंगो वि अस्थि एवं अविरता संकंति, उज्जाले विहिते य तेरागमुहणंवयदितो पगे सावरिया बहुविस्पजागमा, पगेय र कंबलर यस पडिलाभिता, भणिता य- पाउस व सिम्म छह । ते पाउण णिग्गच्छता तेगगेहिं दिट्ठा, वसहिं गंतुं तत्थ हा कया गा वि राम्रो भागता। भयंति, वेड तं कंबलरयणं । इंसिया य तेहिं एते मुहसंतगा कता । तेरागेहि महिं सीवावेतुं मुक्का | जम्दा पते दोसा तम्हा स विभूसार चारवर्ष सम्पेसिलाएं इमं वितिय जासंभवं भणियम् ।
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गाहा
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चितिपदमण, अप्प वावि दुविह इच्छे अभियोगविदुभिसमादिसुं जा जहिं जयगा ३७६ । अब बेतादिगो सेहो वा जातो असेहो वि दुविधा मोहतमिम तिमि वा मोहोदर रायाविनियोग या असिवे वा असियोषसमयनिमिया हस्सन्नतिमा सादितत्पुतो या वर पिकल मादि
विगतमिव वि ति विमनाः । विषले उत्त० १० अ० विषक्षतचेतसि, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार। चि
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१२ अ० । शोकाकुलमनसि, जं० २ यक्ष० । प्रश्न विगतं भोगकषायादिष्व रतौ वा मनो यस्य स विमनाः । असंयमचित्ते, आवा० १ ० ४ ० ४ ३० ।
विमता विमता स्त्री० [बज्रवीर्थराम्रो भार्यायाम्, उस०२३७०। विमरिस - विमर्श-पुं० विकश्ये, मनोविशेषे स्था० ४ ठा० १ उ० । विशे० ।
विमल विमल भि० विमान्तुकले २०१५ ०
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रा० । तं० जी० । स्वाभाविकागन्तुकमलरहिते, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । तं० । औ० रा० स० । कर्ममलरहिते, उत० १२० । “विमलमहातवचिचं " विमलेन मेलं महत्--महाजातीयमेवं तपनीयं रक्तवर्णस्वर्णम् । करूप० १ अधि० २ क्षय । षट्सप्ततितमे महाग्रहे, चं० प्र० २० पाहु० । सू० प्र० ।
दो विमला । ( ० ६० X ) स्था० २ ठा० ३ उ० । सहस्रारस्याष्टमदेवलोकेन्द्रस्य पारियानिके विमाने, स्वा०८ ठा० ३ उ० । श्री० । ऋषभदेवस्य पञ्चमे पुत्रे, कल्प० १ अधि ७ क्षण । श्रनतप्राणतयांदेवेन्द्रयोः पारियानिकविमानवाहके देवे, जं ५ क्ष० । द्वादशदेवलोकस्थविमानभेदे, स० २२ सम० । सनत्कुमारदेवलोक सम्बन्धिनि षष्ठे विमाने, स० ७ सम० । अस्यामवसर्पिण्यां भरतशेत्रजे त्रयोदशे तीर्थकरे, आ० म० । नामान्वर्थमाह-- विमलः विगतमलो, ज्ञानादियोगाद्वा विमलः । तत्र सर्वेऽपि भगवन्त इत्थंभूताः इतो विशेषमाहबिमलतणुमहद्धं गम्भयतो माताए सरीश्री य प्रतिविमला। जो तेरा विमलेति । श्रा० म० २०) सामरणं सव्वे विमलमती, बिसेसो माताए सरीर विमलं जातं बुद्धीतति ॥ १३ ॥ श्रा०० २ श्र० स० । ध० भ० | कल्प० । अनुः । काम्पिल्यनगरे, ती० २४ कल्प | ( काम्पिल्यपुरे ऽस्य जन्मादीति 'कंपिल ' शब्दे तू - तीमागे १७ पृठे गतम्) (तिस्थपरशदे २२७४ पृष्ठे सर्वा वक्तव्योक्ता । ) विमल (सू ४६ X )
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अरो छप्पन्नं गणा गणहरा (ख) होत्था । ०५६ सम० ।
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बिमल
विमलस्स यां भरत्र अडसट्ठि समयसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । (सू० ६८+ )स० ६८ सम० । पुरुषाः सिद्धाः
विमलस्स यं धरयो गं पउभालीस पुरिसजुगाई अणुपिट्ठि सिद्धाइं० जाव प्पहीलाई । सू० ४४ + ) स०४४ सम० । पञ्चमे भारतातीतजिने, प्रव० ७ द्वार । ति० । भारते वर्षे उत्सर्णियां भविष्यति मल्लीपर्याये द्वाविंशे तीर्थकरे, स० ति० (विमलस्पाईतः शिष्यसम्तानेन सुमसेनानमारेण गोशालकजीवो विमलवाहनराजो भस्मीकृत इति गोसालग शब्दे दतीयभागे १०३४ पृष्ठे मतम्। भारते भविष्यति दशमे चक्रवर्तिन ती० २० कल्प | परयते वर्षे भविष्यति एकविंशे तीर्थकरे, स० द्वितीयतीर्थंकरस्याजितस्वामिनः पूर्वभवजी स०| मामा कुवलयचन्द्रश्रेष्ठिनः सुते, ध० २० ।
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तरकथानकञ्चैवम्
( १२०८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सिरिनंद समय, अस्थि कुसस्थलपुरं मयणसरिं । सत्य कुवलयदो बंदो] व्व जसपिओ सिद्धी ॥ १ ॥ गयवंदा गंदसिरी, सिरीव पुरिसुतमस्स से भज्जा । विमलसदेषनामा, तायं पुसा सदा भत्ता ॥ ५ ॥ पग पायमीक जिट्टो विवरीय कविडो उ । कइया विकीलिउं ते, उज्जागया नियंति मुणि ॥ ३ ॥ तरस कमकमलममले पनिमित्तु उपविट्ठा । साइ सि कहर धम्मं तालुचियं सयलजीवहियं ॥४॥ हयसयलकम्मलेघो, देवो गुरुणो विसुद्धगुणगुरुणो । धम्मो दयारम्मो भुवणे रयणन्तं पयं ॥ ५ ॥ इय सुणि तुट्ठेहिं गहिश्रो सम्मत्तमाइ गिहिधम्मो । समत्थेहिं तेहि, दुद्धरजधम्मधुरधरणे ॥ ६ ॥ से अदि बलिया, गहिरं पथियाइपुम्बदेसम्मि केण विपदिएस इमं अपदे पुच्ची चिमलो ॥ ७ ॥ भो कसु पंजलप, घणधनीरमरणा
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विमलो वि दंडभीरू, जंपर सहये न याखामि ॥ ८ ॥
भणे पुणो पहिओ, गामे नयरे व करथ गंतव्वं । सिट्टी तर सो साहर, श्रग्धिस्सर जन्थ नशु पणियं ॥ ६ ॥ पुस पहिरनवियं निधनपरं
तु बसि ।
ह किंचि ॥ १० ॥
इय बुसे ।
११ ॥
स भइ निवहाणीए, न य नयरं अस्थि मम जर प्रभसि विमल तुमं, तर समं एमि ते सो श्राह सहच्छा, इंताण तुमाण के अम्हे ॥ अह पत्तो पुरवाहिं, पागत्थं जाब जालप जलं । विमलो तापहरणं, भणिश्रो अप्पेसु मह दहणं ॥ १२ ॥ सो वि पप तं पर, मह पासे जिमसु श्रवि य भो पहिय ।। नय मणिपमुद्दा, तु कप्पय समयपडिसेह ॥ १३ ॥ तथादिमडुमखमेसमेस-मूलसत्यग्गितमताई |
न कया वि हु दायव्वं, सद्धेहिं पावभीरूहिं ॥ १४ ॥ अन्यत्राप्युक्तम्-मानि देयानि पञ्च द्रव्याणि परितैः । अग्निर्विषं तथा शस्त्रं. मद्यं मांसं च पञ्चमम् ॥ १५ ॥ तो सो कुचि अरे रे चि निषिद्ध
दुधम्मिट्ठ !
मल
बद्धुचराई पकुणसि, मह पुरश्रो बिमल इय भणिउं ॥ १६॥ उत्तासियसलजयो, कति बहिरं लग्गो जह तस्स किंचि भीयं, बउ बरिहुतं गयं गयणं ॥ १७ ॥ तह पर मिले पर रे पागकर महणिमध्येसु जं सिउद बाद, हरा ते नासिहं पाये ॥ १८ ॥ इयरो वि भगइ जललव - चलाण पाणाण कारणा भद्द ! । को नाम पावभीक, हम परिसपावसाबद ॥ १६ ॥ अधिरेहि धिरो समले हि गमलो परबसेहि साहीको । पाणेहि जइ विटप्पर, धम्मो ता किं न खलु पन्तं ॥ २० ॥ जासितं पण न उस निरत् करेमि पायमहं । तो सो संहरिय तणू, नियरुवं काउमाह तयं ॥ २१ ॥ विमल मलगुणगरासि तुमं तुमं चिय सपुचे। ॐ सक्को वि पसंसद्, तुह पयदं पावभीदत्तं ॥ २२ ॥ सावज्जवय ण्वजण -- पञ्चलमिच्चल सुधम्मवर सुवरं । सो भइ तर दिनं, दितेण सदंसणं सव्वं ॥ २३ ॥ वरदाणपरे अमरे, पुणो वि जंपर इमो अहो भद्द ! | नियम अप करे गुणगुणग्गणे ॥ २४ ॥
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तमि निरीहे, सम्पविष्य मसि सुमो । बंधिय तदुसरीए, बलावि पत्तो सयं ठां ॥ २५ ॥ विमलो करेस, सह देवास ते पि तो पता पुच्छति पहियचरियं, जहड्डियं सोऽवि साहेइ ॥ २६ ॥ जिणमुणिमरणपुष्वं, ते भुन्तुं श्रह गया नयरमज्झे । ता तत्थ पुरे वणिए- हि श्रावला लहु पिहिज्जेति ॥ २७ ॥ चरंगवल पचलं, सो तो मम समरस था। मालिया पायारो, दिव्यं ति य गोयरकवाडे ॥ २५॥ तं सरि बिमले कोऽचि पुच्चि पुरिसो भीर्यपि पुरमे, किं दीसह महससे पि ॥ २८ ॥ तो विमलले ठाऊ भरोसो वि जह इत्थ । बलिबंधुकरो पुरिसु-तमु व्व पुरिसुत्तमो राया ॥ ३० ॥ इक्को चिय से पुतो, अमिलो नाम विजिय अमिलो । सोभियत इसियो भुगे ॥ ३१ ॥
किरिया
प्पणी गाढं पुरिए परिमल । अपि न व दिट्ठो बिसहरो मुझे ॥ ३२ ॥ पतोनियो वि तहि मयं वकुमरे नि विरुतिगो मुमतुंपणादिजाओ को पटलो ॥ ३३ ॥ बहुविहाम्रो, नरिदविदारपाई बिहियाओ। न जाओ को विगुणो, तत्तो भणियं निवेण इमं ॥ ३४ ॥ जह कह वि किं पि कुमर-स्स मंगुलं जायए श्रमश्चवरा ! | तो मपि न सरणं, जललो जालाभरियो ॥ ३५ ॥ तो बुलो परिवारो, कति अंडरी करुसरं । सामंता विविसना, खलमलियो सवलपुरलोचो ॥ २६ ॥ अह दाविओो पडओ, निवेण श्रउलमणे इय नयरे । जो जीवांवर कुमरं, तस्स श्रहं देमि रज्जद्धं ॥ ३७ ॥ तं सुणिय भइ विमलं सहदेवो भाय ! कुरासु उबयारं । श्रोलियम, कुमरं जिया लड्डु एसो ॥ ३८ ॥ गरु अहिगरणमिवं बंधन को रखकारसे कुल ।
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बिमलेणं बुत्ते, सहदेवो भगद भो भाय ! ॥ ३६ ॥ उज्जीविऊस कुमरं, अम्छ कुबहस वि दलेसु दालिदं । कवि जीवो फिर करिख कुमरो वि जिम्मे ॥७०॥
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(१२०८) विमल अभिधानराजेन्द्रः।
विमलवाहन एमाह तम्मि भणिरे, जा विमलो कि पि उत्तर ताव।। इति विमलदृष्टान्तः समाप्तः। घ००१ अधि०६ गुरु। बेलं चलाउ इमिणा, गहियमणि छित्तो पडदो ॥ ४१॥ साकेते महाबलस्य राशचित्रकरे, श्राव. ४० प्रा० मीनो कुमरसमीवे, मणिमोहलिऊण छंटिओ एसो।
चू० । क्षीरोदसमुद्रस्याधिपतौ देवे च। सू०प्र०१६ पाहु । सुत्तविउछ व्व खणे-ण उट्टिो पुच्छर नरिंदं ॥४२॥ किंताय ! एस पुरिसो, अंबा अंतेउरी उ पुरलोश्रो।
| विमलकूड-विमलकूट-न। जम्बूद्वीपे सौमनसषक्षस्कारप. सम्वो वि इत्थ मिलिमो, तो राया कहा तं सव्वं ॥४३॥
र्षतस्य बत्साभिधानाधोलोकनिवासिविकुमार्यावासभूते पहिडेणं सहदेवो, रजणं निमंतिओ रखा।
श्वमे कटे, स्था० ७ ठा० ३ उ० । सो आह देव जस्स-प्पभावो जीवित्रो कमरो॥४॥ | विमलकुमार-विमलकुमार-पुं० । खनामख्याते विमलराजसो मह भाया जिट्ठो, विमलो विमलासमो सपरिवारो। | तनूजे, ध०२० १ अधि० १६ गुण । (विमलकुमारचरितं चिट्ठा चउहत-स्स देसु एयं इहाणे ॥ ४५ ॥
कृतज्ञतायामुदाहतम् ‘कयएणू' शब्दे वतीयभागे ३४७ पृष्ठे।) तो गच्छह तत्य नियो, सह सहदेवेण करिवरासदो। विमलगणि-विमलगणिन-पुं०अभयदेवसूरिशिष्ये,“प्रथमा. तं व? सुछ उट्ठो, अवगहि वि पभणए एवं ॥ ४६॥
दरों लिखितो, विमलगणिप्रभृतिभिर्निजविनेयः । कुर्वभो विमल! पुत्तभिक्खा, दिन्ना सुन्नासयस्स मज्भ तुए।
द्भिः श्रुतभक्ति, दरधिकं विनीतैश्च ॥ १३॥" भ०४१ श०। तो काऊण य सायं, लहु मह गिहमेहि देहि मुदं ॥४७॥ |
धर्मघोषसूरिशिष्ये, येन चन्द्रप्रभसूरिकृतदर्शनशुद्धिप्रन्थस्य जह जह जंपर तं पर, राया क्यणाह पणयपउणाई। टीका कृता । जै०१०। गुरु महिगरणपवित्ती, तह तह सल्ला विमलहियए ॥४८॥ |
विमलगुत्त-विमलगात-पुं० । विचित्रवेगकृपस्य बतग्राहके पडिमणियं तेण नरिं- अनयविसपसर हरणसु नरिंद! | सहदेवविलसियमिणं, ता किजा उचियमेयस्स ॥ ४६॥ |
आचार्य, संघा० १ अधि० १ प्रस्ता। पारोविनो गयवरे, सबंधयो नियगिहे इमो नीनो।
विमलपोस-विमलपोष-पं० । जम्बूद्वीपे भारतक्षेत्रे अतीताभणियो य रजविसए, रन्ना पडिभणद इय विमलो ॥५०॥ यामुत्सर्पिण्यां जाते पञ्चमे कुलकरे, स्था०७ ठा०३७०। कंता खरकम्म, वीयं महरित्तया परिगहस्स। विमलचंद-विमलचन्द्र-पुं०। विक्रमसमये बान्द्रकुलेता निव महमहु कर्ज, रजेणमवजमूलेण ॥ ५१ ॥ मानदेवरिशिष्य, तस्माच विमलचन्द्रः, सहेमसिजिभूष मह स जिगासं नाउं, सहदेवं तस्स निवरणा दिनं । सूरिवरः। ग०३ अधि०। वृहद्गच्छीयवादिदेवसरिगुरुमाहयगयरहभडजणवय-पुरपसुहं पि भाउं सम्वं ॥ ५२॥ तरि प्रश्नोत्तरमालिकानामग्रन्थकर्तरि, अयमाचार्यः विक्रमे अप्पित्तो धघलहरं, सरं व कमलाउल उदयकलियं । १२२६ संवत्सरे विद्यमान पासीत् । जै०१०।। विमलो पुण सिट्टिपए, संठविनोऽणिच्छमाणो वि ॥५३॥ विमलजम-विमलयशास-पं० । भारते वर्षे समझलापती नियजणयपमुहलोमो, समाणिो तत्थ तेहि अह विमलो।।
पुष्पचूडपितरि, ती०४२ कल्प। कुव्वतो जिणधम्म, सम्ममइनमा बहुकालं ॥५४ सहदेवो उण रजे, रट्टे विसएसु भइसयसय (ति) रहो।
विमलणाह-विमलनाथ-पुं०। विमलतीर्थकरस्य प्रतिमायाभकरं कर बहर, पुवकरे दंडए लोयं ॥ ५५॥
म् , काम्पिल्ये गङ्गामूले सिंहपुरे च श्रीविमलनाथः। ती. वियर पावरसे, अहिगरणे कुणाहणा अरिदेसे।
४३ कल्प। असहजभावगमो.कया विविमोजिम | विमलणाहत्थय-विमलनाथस्तव-पुं० । समन्तभद्रविरकरिकमहकम्नसवला-रायकमलाइकारणा भाय !।
चिते श्रीविमलनाथस्तोत्रे, 'नयास्तव स्यारपदलान्छना इमे को पावेसु पबत्ता, नियनियमधुरं विराहिता ॥ ५७॥
रसोपविखाइब लोहधातवः । भवम्बभिप्रेसफला यतस्त, बरमनलम्मि पवेसो, फणिमुहकुहरे घरं करो खित्तो।
तो, भवन्तमार्याःप्रणताःहितैषिणम् ॥१॥स्था०२ ठा०३ उ०। वरमसमामयपीडा, न विराविराहणा भाष!॥८॥ विमलदि-विमलाड़ि-पुं०। शत्रुश्चये, ती०१ कल्प। इय निसुणतो जाओ, जलभरियघणु व्य कसिणवयणो सो। विमलधी-विमलधी-त्रि० । विमलबुखी, पो.वियः। विमलेण तमो मोणं, विहियमजोगु त्ति काऊणं ॥ ५६ ॥
विमलप्पभ-विमलप्रभ-पुंक्षीरोदसमुद्रदेवे,खू०प्र०१६पाहु। जिणथम्मे षिगयरई, वियत्रविरदप्फुरंत पावर्मा ।
विमलप्पभरि-विमलप्रभसरि-पुंगतपागच्छीये, सोमप्रममाघसमसत्यदंड, कुब्वंतो बंतसम्मतो ॥६॥ केव वि नरेश पुर्व, वियहिएणं कया वि सहदेखो।
त्रिशिध्ये, ग०३ अधि। साहिउंछल कुरीए, इणिमो पत्तो पढमपुर्वि ॥१॥
विमलवर-विमलवर-०। प्राणतदेयेन्द्रस्य नवमदेवलोतयण्गुरुगाहरभवजल-निहिम्मिश्राइसहियदुसहदहनिवह।
काधिपतेः पारियानिके विमाने, स्था० १० ठा० ३३०। काकाविलहिय नरज-म्मकम्महणिउंगमीससिवं ॥२॥
विमलोत्तमे, 'विमलवरबद्धचिधपट्टे' विमलवरो पद्धप्रांतपावर्भार, विमलो पुण पालिऊण गिहिधम्म।
भिकपट्टी वरत्रादिमयो यैस्ते तथा। विपा०१ श्रु०२०। जानो प्रमरो पबरो, महाविदेहम्मि सिज्झिहिर ॥६॥
विमलवाहन-विमलवाहन-पुं०। अपरविदेहजवयस्यस्य मा. इत्यवेत्य विमलस्य चेधितं, वेष्टितं न खलु कर्मकोटिभिः। यिनः सम्पति हस्तित्वं प्राप्तस्य प्राभियोग्यतां गतस्य तेजना!भवत पापभीरयो, धीरबोधिचरणव्यवस्थिताः।६४। -भगवत कृतिः ।
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विमाण
विमल वाहण बानीकरणात् लोके विमलवाहनेति नाम्ना प्रसिद्धः । विमलमूरि-विमलसूरि-- पुं०। नागिलकुलीयविजय सेनसूरिशिभारतेऽस्यामय सर्वियां जाते, प्रथमे फुलफरे, आ०म० १ अ० । ति० । स्था० । स० । श्रा० चू० । ( ' कुलगर ' शब्दे तृतीयमा २८३ पृष्ठे चक्रव्यतोका । )
ये, येन प्राकृतभाषानिबद्धं पद्मचरित्रं निर्ममे । श्रयमाचार्यः विक्रमी संवत्सरे ग्रासीत्, "पंधेष व वाससा समा तीसवरससंत्ता बीरेडि सिद्धिमुषगए, तो निव रियमेचं ॥१॥" इति तस्यो। ० ० । तत्रत्योक्तेः विमलहरिस - बिमलदर्ष पुं० स्वनामख्याते बाचके श्राचायें, यदुवंश्येन भाषविजयवाचकेन विनयविपरिचितस्प टीका सुबोधिका व्यशोधि । कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । विमला विमला श्री० वितिमित्या उदिशि स्था० १० ठा० ३ उ० । विशे० । सा च रुचकादूर्ध्वं विनिर्गता दिक् । आ० म० १ ० । स्था० भ० | धरण्लोकपालकालस्याग्रमहिष्याम्, स्था० ४ ठा० १ उ० । गीतरतेर्गन्धर्वस्याप्रमहिष्याम् भ० १० शु० ५ ० खा० पोतनपुरराजवज्रसिंहामात्यस्यात्यन्तवल्लभायां भार्यायां कमलस्य कुमारस्य मातरि ० १ तस्य त्रयोदशस्य तीर्थंकरस्य निष्क्रमशिविकायाम् स० ।
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विमला चल-विमलाचल-पुं० । विमलपर्वते, ती० १ कल्प (' सनुंजय' शब्देऽस्य वक्तव्यतां वक्ष्यामि ) विमाण-विमान- न० । विविधं मन्यते उपभुज्यते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानम् । प्रज्ञा० १ पद । जी० । वैमानिकदेवावासविशेषे, स्था० २ ठा० ४ उ० जी० । प्रश्न० ॥ भ० । तानि च ज्योतिः संवन्धीनि अनुत्तरविमानान्तानि विमान व्हेन गृह्यन्ते । ० ४ तत्व जी० (ईशानविमानानां 'लोगपाल' शब्देऽमिव भागे ७२२ पृष्ठे व्यतोक्का । )
सम्प्रति वैमानिकदेवानां विमानान्याद
विमलवाहसे गं कुलकरे सचाविहा रुक्खा उपभोगतामागतं जहा- "मलंगवा य भिङ्गा, चितंगा चैव होंति चित्तरसा । मणियंगा य अणिमा, सत्तमगा कप्परुक्खा य ।। १ ।।" ( सू० ५५६x )
(१२१०) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा विमलवाहने प्रथमकुलकरे सति सविधा इति पूर्व दशविधा अभूवन् । 'रुख' ति कल्पवृक्षाः । ' उवभोगसाप' ति उपभोग्यतया । 'हव्वं' शीघ्रमागतवन्तः, भोजमादिसंपादनेनोपभोगं तत्कालीनमनुष्याणामागतान्यर्थः । 'मत्संगया य' गाड़ा। 'मतंगया य' इति मत्तं मदस्तस्य कारणत्वान् मद्यमिह मसशब्देनोच्यते तस्याङ्गभूताः-कारणभूतास्तदेव वा अङ्गमवयधो येषां ते मनाङ्गका-: मुखपेयमद्यदायिन इत्यर्थः । चकारः पूरणे । 'भिंग' ति संज्ञाशस्वत्वात्। भृङ्गारादिविविधभाजन संपादका मुद्राः 'चिसंग' सि चित्रस्थानेकविधस्य मात्वस्य कारणवारिवाङ्गाः। 'चित्तरल' ति चित्रा विचित्रा रसा मधुरादयो मनोहा रिलो येभ्यः सकाशात्संपद्यन्ते ते सिरसा: 'मख्यिंग' ति मणीनामाभरणभूतानामङ्गभूताः कारणभूता मणयो वा अङ्गान्यवयवा येषां ते मण्यङ्गाः भूषणसंपादका इत्यर्थः । अणियण' ति श्रनद्मकारकत्वादनना विशिष्टवस्त्रदायिनः ।
शब्द वाऽयमिति । 'कल्परक्त' सि उपनिरिसामाम्यकल्पित फलदायित्वेन कल्पना- कल्पस्तत्प्रधाना वृक्षाः कल्पवृक्षा इति । स्था० ७ ठा० ३ ३० । कल्प० । ० क० ।
화이
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विमलवाहणे णं कुलकरे नव घणुसयाई उङ्कं उच्चत्तें होत्था । ( ० - ६६६ ) स्था० ६ ठा० ३ उ० । स० । गोशालस्योत्तर भवजीवे देवसेनापरपर्याये राजनि, ( स च सुमङ्गलेनानगारेण तेजोदग्धो मृत इति गोसालग शब्दे दतीयभागे २०३१ पृष्ठे कथितम्) भरतक्षेत्रे - देशे म्युचूडनगरे चम्बुशेखरनरपतेरमात्यस्य प थस्य भार्याया रतिकन्दल्याः पितरि श्रेष्ठिनि दर्श० १ तत्त्व । भारते वर्षे आगामिन्यामुत्सर्पिषां जनिष्यमाणे पञ्चमे कुल करे, स्था० १० ठा० ३ उ० । जम्बूद्वीपे ऐरवते वर्षे श्रागामिन्यामुरसरियां जनिष्यमाणे प्रथमे कुलकरे, स० तृती यतीर्थंकरस्य संभवस्य पूर्वभवजीवे, स० । महापद्मापरनाम भार वर्षे उत्सर्पिणी प्रथमतीर्थकरे, स्था० डा०३० (स्य 'उस्सप्पिणी' शब्दे द्वितीयभागे ११७१ पृष्ठे कथोक्ला ) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे श्रागामिन्यामुत्सर्पिण्यां जनिष्यमाणे
चक्रवर्तिनि स० पुलवंश्ये अपश्चिमनरे न्द्रे, ति० । “राया य विमलवाहणो, सुमुहो नामेरा तस्स य श्रमचो । इह दुसमाए काले, रायामयो अपच्छिममो" | ३६ | ति० । “अस्याः पश्चिममुद्धारं राजा विमलवाहनः । श्रीदुष्प्र भवरीया मुपदेशाद विधास्यति ॥२॥ " ती० १ कप
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कहि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं विमाणा पएयता १। ( ० २०७+ )
'कहि ये मंते! वेमाशिवाय मित्यादि के भदन्त वैमानि कानां देवानां विमानानि प्रशप्तानि ? ( जी०) भगवानाह - इ-गौतम ! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागाद् रुचकोपलक्षितादिति भावः ऊर्ज चन्द्रसूर्यग्रतारापाणामप्युपरि बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि वइनि योजनसहस्राणि नियोजनशतसहस्राणि बडीयोंजनकोटीकोटीः ऊर्डे दूरमुत्प्लुत्य - बुद्धधा गत्वा, एतच्च सार्द्धरज्जुपलक्षणम्, तथा चोक्तम्- " सोहम्मम्मि दिवडा, अड्डाइज्जा य रज्जु माहिदे । बंभम्मि श्रद्धपंचम, छ अच्चुए सत्त लोगंते ॥ १ ॥ ” " मित्यादि, अत्र एतस्मिन् सार्द्धरज्जुपलक्षिते क्षेत्रे ईषत्प्राग्भारादक सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तक शुकसह खारानतप्राप्तारणाच्युतमेवानुरे षु स्थानेषु अत्र - एतस्मिन् वैमानिकानां चतुरशीतिविमानावासशतसहस्राणि सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशतिर्विमानानि ८४६७०२३ भवन्तीत्याख्यातानि । इयं च संख्या- बत्तीस अट्ठ वीसा, वारस अटु चउरो सयसहस्सा" इत्यादिसंख्यापरिमलिनेन भावनीयाते से विमाला
पत्थ
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ग
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(११११) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
विमाण
इत्यादि, तानि विमानानि सर्वरत्नमयानि ' अच्छा सराहा लराहा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निष्यंका निक्कंकडछाया सप्पभा ससिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिवा | जी० ३ प्रति० १ ३० । सौधर्मे विमान संख्यामाह
सोहम्मे कप्पे वत्ती विमाणावाससयसहस्सा णं पात्ता । ( सू० ३२ X ) स० ३२ सम० ।
सोहम्मीसासु कप्पेसु पढमे पत्थडे पडमावलियाए एग`मेगाए दिसाए बासट्ठि विमाणा पत्ता | ( सू० ६२ X )
'सोहम्मी' त्यादि तत्र सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति, सनत्कुमार माहेन्द्रयोर्द्वादश ब्रह्मलोके षट्, लान्तके पञ्च, शुक्रे चत्वारः, एवं सहस्रारे श्रनतप्राणतयोचत्वारः, एवमारणाच्युतयोः ग्रैवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः त्रयः, अनुत्तरेष्वेक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति । एतेषां च मध्यभागे प्रत्येकमुदुविमानादिकाः सर्वार्थसिद्धविमानान्ता वृत्तविमानरूपा द्विषष्टिरेव विमानेन्द्रका भवन्ति । तत्पार्श्वतश्च पूर्वादिषु दिचु व्यस्त्रचतुरस्रवृत्तविमानक्रमेण विमानानामावलिका भवन्ति । तदेवं सौधर्मेशानयोः कल्पयोः प्रथमे प्रस्तटे सर्वाधस्तन इत्यर्थः ' पढमावलियाए ' ति प्रथमा - उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया श्राद्याश्चतस्र श्रावलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकस्तत्र अथवा प्रथमात्-मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य यासावावलिका विमानानुपूर्वी तया, अथयोत्तरोतरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा श्रधावलिका तस्याम् ' पढमावलिय ' ति पाठान्तरे तु उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमाऽऽवलिका सा द्विषष्टिद्विषष्टिप्रमाणेन प्रशप्तेति, एगमेगाए 'ति उडविमानाभिधान देवेन्द्रकापेक्षया एकैकस्यां पूर्वादिकायां दिशि द्विषष्टिद्विषष्टिर्विमानानि प्रशप्तानि द्वितीयादिषु पुनः प्रस्तटेषु एकैकहान्या विमानानि भवन्ति यावद् द्विषष्टितमेऽनुत्तरसुरप्रस्तटे सर्वार्थसिद्धदेवेन्द्रकः पार्श्वे तदेकैकमेव भवतीति । स०६२ सम० ।
देवेन्द्रस्तवे पुष्पावकीर्णकानां सौधर्मादिविमानानां संख्याअउणा उइसहस्सा, चउरासीई व सयसहस्साई । एगूणयं दिव, सयं च पुप्फावकिमाणं ॥ २०८ ॥ सत्ते व सहस्साई, सयाइँ बाबत्तरा भट्ट भवे । भावलियाइविमाणा, सेसा पुप्फावकिष्याणं ॥ २०६ ॥ श्रावलियाइविमाणा, अंतरयं नियमसो असंखियं । संखिञ्जमसंखिजं, भणियं पुप्फावकिन्नाणं ।। २१० ॥ ।। ११३५ ।। द० प० ।
श्रारणे कप्पे दिवडुं, विमाखावाससमं पपत्ता, एवं भ च्चुए वि । ( सू० १५० ) स० १५० सम० । त्रिप्रतिष्ठितानि विमानानि
तिपट्टिया विमाणा पत्ता, तं जहा - घणोदहिपट्ठिया वणवायपइडिया उबासंतरपइडिया । ( सू० १८० X )
विमाण
प्रतिष्ठानसूत्रस्येयं विभजना (देवेन्द्रस्तवे ) - "घणउदहिपह डाणा, सुरभवणा होंति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपट्टाणा, तदुभयसुपट्टिया तीसु ॥ १८६ ॥ १११७ ॥ तेरा परं उवरिमगा, श्रागासंतरपट्टिया सव्वे ॥ (१६०) (१९१८) "ति ।
स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
सकुमारमाहिदे कप्पे विमाणपुढवी किं पहडिया पण्णत्ता ? गोयमा ! घणवायपइट्ठिया पण्णत्ता । बंभलोए
भंते! कप्पे विमाण पुढवी गं पुच्छा, गोयमा ! घणवायपइट्टिया पष्ठत्ता, लंतगे खं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! तदुभयपट्टिया पण्णत्ता, महासुकसहस्सारेसु वि तउभयपइट्ठिया । चाणय ०जाव अच्चुएसु णं भंते ! कप्पेसु पुच्छा, गोमा ! वासंतरपइडिया पण्णत्ता, गेविजविमाणपुढवीणं पुच्छा, गोयमा ! उवासंतरपइट्ठिया पण्णत्ता, अणुत्तरोववाइयपुच्छा, गोयमा ! उवासंतरपट्टिया पण्णत्ता । (सू० २०६ + )
भदन्त ! सनत्कुमारमादेन्द्र कल्पयोर्विमानपृथिवी किंप्रतिष्ठिता- कस्मिन् प्रतिष्ठिता किमाश्रयाः किमाधारा इत्यर्थः प्रशप्ता, भगवानाह गौतम ! घनोदधिप्रतिष्ठिता प्रशता, एवं सनत्कुमा रमाहेन्द्रेषु घनवातप्रतिष्ठिता ब्रह्मलोकेऽपि धनवातप्रतिष्ठिता, लान्तके तदुभयप्रतिष्ठिता - घनोदधिधनवात प्रतिष्ठिता, महाशुक सहस्रारयोरपि तदुभयप्रतिष्ठिता, आनतप्राणतारणाच्युतेष्ववकाशान्तरप्रतिष्ठिता-आकाश प्रतिष्ठिता, एवं प्रैवेयकविमानपृथिवी अनुत्तरविमानपृथिवी च । (उक्तं च- "घणउदहि०" इत्यादि अनुपदमेव) जी० ४ प्रति०३३० । “दुसु तिसु तिमु कप्पेसु घघिण्वायतदुभयं च कमा" इत्यत्र घनोदधिघनवाततदुभयानां तद्वलयानां च विष्कम्भादिप्रमाणं कियदस्ति, कुत्र चेति संदिहानोऽस्ति । तन्निर्णये च तत्रत्यभूमेरपि विष्कम्भायामादिनिर्णयो भवति ? "दुसु तिसु तिकप्पेसु घरणुद हिघणवायतदुभयं च कमा" । अत्र घनोदध्यादीनामसु स्वर्गेषु विमानानामाधारतया आगमे प्रतिपादनं - मस्ति, न तु तेषां परिमाणवलयानि चाद्य यावद् दृष्टानि स्मृतिमायान्ति । ही० ३ प्रका० ।
त्रिरवस्थितानि विमानानि
तिविधा विमाणा परयचा, तं जहा - अट्ठिता वेडन्विता पारिजाणिता । ( सू० १८० + )
अवस्थितानि - शाश्वतानि वैक्रियाणि भोगाद्यर्थ निष्पादितानि यतोऽभिहितं भगवत्याम् - "जाहे भेते ! सक्के देविदे देवराया दिव्वाई भोगभोगाई भुंजिकामे भवद्द से कहमियाणि पकरे ?, गोयमा ! ताहे च गं से लक्के देविंदे देवराया एवं महं नेमिपडिरुवगं विउब्वह" नेमिरिति चक्रधारा - दुद्धृतविमानमित्यर्थः । “एगं जोयणसयहस्सं आयामविखंभेण" मित्यादि यावत् “पासायवर्डिस सयणिजे तत्थ गं से सक्के देविंदे देवराया श्रहिं श्रग्गमहिसीहि सपरिवाराहि दोहि य अणीहि गड्डाणीपण गंधग्वाणीपण य सद्धि महया गट्ट० जाव दिव्त्राई भोगभोगाई भुंजमा विहर चि" परि-परियानं - तिर्यग्लोकावतरणादि तत्प्रयोजनं
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विमाथ
येषां तानि पारियानिकानि - पालक पुष्पकादीनि वक्ष्यमाणाभीति । स्था० ३ ठा० ३ ३० ।
सौधर्मेशानयोर्विमानपृथिवी -
सोहम्मीसाणेसु णं भंते १ कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइडिया पत्ता, गोयमा ! घणोदधिपइडिया पष्ठत्ता । (सू० २०६+)
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( १२१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सोहम्मीसासु मं भंते !" इत्यादि सौधम्र्मेशानयोः, सूत्रे द्विवचनेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । उक्तं च-" बहुवययेण दुवयं छुट्ठिविभत्तएँ भन्न । जह हत्था तह पाया, नमोऽत्यु देवाहिदेवां ॥ १ ॥ जी० ४ प्रति० ३ उ० । विमामानामन्तराले भूमिरस्ति न बा ?, इत्यत्र सा नास्तीति विज्ञायते, यतो भगवत्यादौ नरकसत्काः सप्त ईषत्प्राभारा चैकेति श्रचैव पृथिव्य उक्ताः सन्ति । यदि स्वर्गेपि साऽभविष्यत् तदाऽधिकाऽपि उक्ताऽभविष्यदिति । ही० ३ प्रक० ।
सोहम्मीसासु बंभलोए य तिसु कप्पेसु चउसट्ठि विमाणावाससय सहस्सा पाता । (सू० ६४ X )
सोहम्मी त्यादि सौधर्मे द्वात्रिंशदीशाने ऽष्टाविंशतिः, ब्रह्मलोके च चत्वारि विमानलक्षाणि भवन्तीति सर्वाणि चतुःषष्टिरिति 'चउसट्ठिलट्ठिए' ति चतुःषष्टिर्यष्टीनां शरीराणां यस्मिन्नसौ चतुःषष्टियष्टिकः । स०६५ सम० । विमानानां बाल्यमुच्चत्वं वसोहम्मीसाकप्पे विमाणपुढवी केवइयं वाहल्लेणं पपगोयमा ! सत्तावीस जोयणसयाइं वाल्लेणं पण्यता । एवं पुच्छा, सकुमारमा हिंदेसु छच्चीसं जोयणसयाई । जंभjara पंचवीसं, महामुकसहस्सारेमु चउब्वीसं, श्राणयपाणयमारणच्चुएसु तेत्रीसं सयाई गेविअविमाणपुढवी arati, अणुत्तरविमाणपुढवी एकवीसं जोयणसयाई वाहलेणं । ( सू० २१० X )
'सोइम्मी सासु मि त्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कपयोर्विमानपृथिवी कियत्- किंप्रमाणा बाहल्येन प्रज्ञता ?, भगवानाह - गौतम ! सप्तविंशतियोजनशतानि वाइल्येन प्रज्ञप्ता | एवं शेवसूत्राण्यपि भावनीयानि नवरं सनत्कुमार माहेन्द्रयोः पविशतियोंजनशतानि वक्तव्यानि । ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्चविंशतिः, महाशुक्रसहस्रारयोश्वतुर्विंशतिः, श्रनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु प्रयोविंशतिः, प्रैवेयकेषु द्वाविंशतिः, अनुत्तरविमानेषु एकविंशतियोंजनशतानि ।
संप्रति विमानानामुच्चैस्त्वपरिमाणं प्रतिपिपादयिषुराहसोहम्मीसासु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केवतियं उडुं उच्चत्यं १, गोयमा ! पंच जोयणसयाई उ उच्चत्तेयं । ( सू० २११+ )
'सोहम्मीसासु रामि' त्यादि इह विमानं महानगरकपं तस्य चोपरि वनखण्डप्राकारमासादादयस्तत्र पूर्वेण
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विमाण
सूत्रकदम्बकेन विमानपृथिवीबाहल्यमुक्तम्, अनेन प्रासादापेक्षया उच्चत्वमुच्यते इति गर्भः । सौधम्र्मेशानयोर्भदन्त ! कपयोiिमानानि कियत उर्द्धमुच्चैस्त्वेन प्रहप्तानि ?, भगयानाह - गौतम ! पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन प्रशप्तानि मूलप्रसादादीनां तत्र पञ्चयोजनशतोच्छ्रयप्रमाणत्वात् एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः -
संकुमारमाहिंदेसु छ जोयणसयाई । (सू० २११x) सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षट् योजनशतानि वक्रव्यानि । जी० ३ प्रति० १ ३० । स्था० ।
ब्रह्मलोकलान्तकयोः -
भलंत सत्त । ( ० २११४ ) ग्रह्मलोकलान्तकयोः सप्त योजनशतानि । जी० ३ प्रति० १ उ० ।
महाशुक्रसहस्रारयोः
महासुक्क महस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा भट्ट जोयखत याई उड्डुं उच्चत्ते पष्मत्ता । (सू० १११४) स०८००संम० ।
श्राणयपाणयश्चारणऽच्चुरसु कप्पेसु विमासा नव जोयणसयाई उड्डुं उच्चतेगं पाता । (सू० २११४ ) मैवेयकेषु -
वेगविमायाणं भंते! केवइयं उङ्कं उच्चतेयं १, गोयमा ! दस जोयणसयाई । (सू० २११x ) प्रैवेयकेषु दश योजनशतानि ।
अनुत्तरविमानेषु -
अणुत्तरविमाणाणं एकारस जोयणसयाई उड्डुं उच्चतेयं । ( सू० २११४ )
अनुतरेष्वेकादश योजनशतानि सर्वत्रापि विमानानि वाहल्यचत्वमीलनेन च द्वात्रिंशत् योजनशतानि उपर्युपरि बाहल्येनोचैस्त्वस्य वृद्धेर्भावात्, उशं च-
" सत्तावीससयाई, आदिमकल्पेसु पुढविवाहलं । पक्केकहाणिसे से, दुदुगेण दुगे चउक्के य । पंचसु उडवलेणं, श्राइमकप्पेसु होंति य विमाणा । एक्केकबुद्धिसे से, दुदुगे य दुगे चउक्के य । गेविज्जरणुत्तरेसुं, एसेव कमो उ बुडिडाणीए । एक्ककम्मि विमाणा, दोषि वि मिलिया उ बत्तीसं ॥ ३ ॥ जी० ३ प्रति० १ ३० । स० ।
अनुत्तरोपपातिकेषु -
अणुतरोववाइयाणं देवाखं विमाणा एकारस जोगणसयाई उट्टं उच्चत्ते पम्पता । (सू०११३) स०११०० सम० ।
संस्थानमाह
सोहम्मीसासु यं भंते ! कप्पेसु विमाणा किंसंडिता terer ?, गोयमा ! दुविहा पष्पत्ता, सं जहा - भावलियापविट्ठा य, बाहिरा य । तत्थ खं जे ते आवलियापचिट्ठा ते ति
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(१२१३) विमाण अभिधानराजेन्द्रः।
विमाण विहा परमत्ता । तं जहा-वडा तंसा चउरंसा । तत्थ णं जे ते अक्खाडगसंठाणसंठिया सबभो समंता वेड्यापरिक्तिमावलियबाहिरा ते गंगाणासंठाणसंठिता पण्णत्ता, एवं ता चउद्वारा पत्ता । (सू० १८०४)
जाव गेवेज्जविमाणा । अणुत्तरोववाइयविमाणा दुविहा | 'तिसंठिए' त्यादि, सूत्रत्रयं स्फुटमेव, केवलं त्रीणि सं. पक्षचा, तं जहा-बढे य तंसा य । (सू. २१२) स्थितानि-संस्थानानि येषां तानि, त्रिभिर्वा प्रकारैः संस्थि
तानि त्रिसंस्थितानि । 'तत्थति तेषु मध्ये 'पुक्खरकणि'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ' इत्यादि सौधर्मेशानयोर्भद
'त्ति पुष्करकर्णिका-पनमध्यभागः, सा हि वृता समोमत! कल्पयोर्विमानानि किंसंस्थितानि प्राप्तानि?, भगवाना
परिभागा च भवति । सर्वत इति-दिषु समन्तादिति-वि-गौतम ! द्विविधानि प्राप्तानि, तद्यथा-पावलिकाम
विधु सिंघाडगं' ति त्रिकोणो जलजफलविशेषः, एकत:विधानि प्रावलिकाबाखानि च । तत्रापलिकाप्रविष्टानि नाम
एकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानमित्यर्थः 'अक्खाडगो' चतु. यानि पूर्वादिषु चतसृषु दिचु श्रेण्या व्यवस्थितानि, यानि
रनःप्रतीत एव, वेदिका-मुण्डाकारलक्षणा, एतानि चैवंपुनरापलिकाप्रविष्टानां प्राणप्रदेशे कुसुमप्रकर इस यत
ऋमाण्येवावलिकाप्रविधानि भवन्ति, पापायकीर्णानि स्वम्पस्ततो विप्रकीर्णानि तान्यावलिकाबाह्यानि तानि पुष्पा
थाऽपीति । भवन्ति चात्र गाथाःबकीनीत्युच्यन्ते, पुष्पाणीव इतस्ततोऽवकीर्णानि-विप्र
"सब्बेसु पत्थडेसुं, मज्झे घट्ट अणंतरे तंसं। कीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तिः, तानि च मध्यपतिनो विमानेन्द्रस्य दक्षिणतोऽपरत उत्तरतश्च विद्यन्ते
एयंतर चउरंस, पुणो वि बटुं पुणो तंसं ॥१॥
यहूं वहस्सुवार, संसं तंसस्स उप्परि होह। तु पूर्वस्यां दिशि । उक्तं च-पुप्फावकिनगा पुण, दाहिण
चउरसे चउरंसं, उइंतु विमाणसेढीभो ॥२॥ तो पच्छिमेण उत्तरतो । पुब्वेण विमाणिद-स्स नत्थि पुप्फावकिमा उ॥१॥''तत्थ पमि' त्यादि, तत्रावलिकाप्र
घट्टच बलयगं पिव, तंस सिंघाडगं पिय विमाणं ।
चउरंसविमाण पिय, अक्वाडगसठियं भणियं ॥ ३ ॥ विष्टायलिकाबाह्येषु मध्ये यानि तानि श्रावलिकाप्रविष्टानि
सम्बे पट्टविमाणा, एगदुवारा हवन्ति विग्नेया। तानि त्रिविधानि प्राप्तानि , तद्यथा-वृत्तानि यसाखि चतुरस्राणि । इहावलिकाप्रविष्टानि प्रतिप्रस्तटं विमानेन्द्र
तिनिय तंसविमाणे, चत्तारि य होति चउरसे ॥४॥ कस्य पूर्वदक्षिणापरोत्तररूपासु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या ध्य
पागारपरिक्खिमा, यदृषिमाणा हवंति सम्बे थि। बस्थितानि, घिमानेन्द्रकश्च सर्वोऽपि वृत्तस्ततः पार्श्वब
चरसबिमाणाणं चहिसिं वेड्या होह ॥५॥
जत्तो वहविमाणं, तत्तो तंसस्स वेदया हो। तीनि चतसृष्यपि विशु व्यस्राणि तेषां पृष्ठतश्चतसृष्वपि
पागारो योधब्बो, अवसेसेहिं तु पासेहि ॥६॥ दिचु चतुरस्राणि तेषां पृष्ठतो वृत्तानि, ततोऽपि-भूयोऽपि
प्रावलियासु विमाणा, बट्टा तंसा तहेव चउरंसा । इयत्राणि ततोऽपि चतुरस्राणि, इत्येवमावलिकापर्यन्तस्तत्र
पुण्फावगिनया पुण, अणेगविहरूवसंठाणा ॥७॥" त्रिविधान्येयापलिकाप्रविष्टानि । 'तत्थ णमि ' त्यादि ,
स्था० ३ ठा०३ उ०॥ तत्र यान्यावलिकाबाह्यानि तानि नानासंस्थानसंस्थितानि प्राप्तानि, तथाहि-कानिचिन्नम्यावर्ताकाराणि, कानिचि
अधुना त्वायामविष्कम्भादिपरिमाणप्रतिपादनार्थमाहस्विस्तिकाकाराणि, कानिचिद् खडाकाराणीत्यादि । उता सोहम्मीसाणेसुण भते! कप्पेसु विमाणा केवतियं माच-"प्रावलियासु विमाणा , बट्टा तसा तहेव चउरंसा ।। यामविक्खंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पएणता,गोयमा। पुष्पावकिन्नगा पुण , अणेगविहरूबसंठासा ॥१॥" एवं दुविहा परबत्ता,तं जहा-संखेजवित्थडाय असंखेजवितावद्वाच्यं यावद् प्रैधेयकविमानानि तान्येव यावदावलि-| काप्रविष्टानामावलिकाबाह्यानां च भावात् , परत पाव
स्थडा य । जहा नरगा तहा . जाव अणुत्तरोववातिया लिकाप्रविष्टान्येब, तथा चाह-'अशुभरविमाणा से भंते ! | संखेजवित्थडा य असंखेजवित्थडा य । तत्थ णं जे से विमाणा किंसंठिया पत्ता' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भ- संखेजवित्थडे से जंबुद्दीवप्पमाणे, तत्थ जे से असंखेजगवानाह-गौतम! द्विविधानि प्राप्तानि, तद्यथा-'बट्टे य
वित्थडा असंखेजाई जोयणसयाई जाय परिक्खे तंसा य'मध्यवर्तिसर्वार्थसिद्धास्यं विमानं वृत्तं, शेषाणि विजयादीनि चत्वार्यपि ग्यमाणि । उनं च-एग घट्ट पएणत्ता । (सू० २१३ ४) संसा,चउरोय अणुसरविमाणा'। जी०३ प्रति०१ उ० । भ० 'सोहम्मीसाणेसुण भंते!'इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! त्रिसंस्थितानि विमानानि
कल्पयोर्विमानानि कियदायामविष्कम्भेन कियत् परिक्षेपेल
प्राप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! द्विविधानि विमानानि प्रतिसंठिया विमाला पमत्ता, तंजहा-वट्टा तसा चउरंसा।।
सप्तानि, तद्यथा-संख्येयविस्तृतानि, असंख्येयविस्तृतानि वत्थ णं जे तं वट्टा विमाणा ते शं पुक्खरकलियासंठाण- च। तत्र यानि तानि संख्येयविस्तृतानि संख्येयानि योजनसंठिया सब्बभो समंता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा प- सहस्राण्यायामविष्कम्भेन संख्येयानि योजनसहस्राणि पत्रसा। तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा ते सिंघाडगसंठाण
रिक्षेपेण, तत्र यानि तानि असंख्येयविस्तृतानि असंख्येयानि
योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असंख्येयानि योजनसहस्रा. संठिया दुहमो पागारपरिक्खित्ता एगो वेइयापरिक्खि
णि परिक्षेपेण, एवं तावत् वाच्यं यावत् प्रैधेयकविमानामि त्ता तिवारा पता। तस्थ एंजे ते चउरंसविमाणा ते खं| तानि यावत संख्येयविस्तृतानामसंख्येयविस्तुतानां चबा
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(१२१४) विमाण अभिधानराजेन्द्रः।
विमाण हल्येन भावात् नतु परतः। तथा चाह-'अणुत्तरविमाणे ण
संप्रति प्रभाप्रतिपादनार्थमाहभंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणमि' त्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम् ।। सोहम्मीसाणेसुण भंते! कप्पेसु विमाणा केरिसयाए भगवानाह-द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-संख्येयविस्तृ
पभाए परमत्ता, गोयमा ! णिच्चालोया णिच्चुओया सतानि असंख्येयविस्तृतानि च । सर्वार्थसिद्धं संख्येयविस्तृतं शेषाण्यसंख्येयविस्तृतानीति भावः । तत्र यत्तत् संख्येयवि
यंपभाए पभाए परमत्ता, जाव. अमुत्तरोववातियषिमास्तृतं तत् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि यो- । णा णिचालोया णिच्चुञ्जोया सयंपभाए परमत्ता । (सू० जनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि हे शते सप्तविंशत्यधिके
२१३ ४)। योजनानां क्रोशत्रिकमष्टाविशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गलानि एकमर्दालमिति परिक्षेपेण, तत्र यानि तानि असंख्येय
सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि विस्तृतानि तानि असंख्येयानि योजनसहनाण्यायामवि
प्रभया प्रक्षतानि कीरशी तेषां प्रभा प्रशतेति भावः। भकम्भेन असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्राप्तानि ।
गवानाह-गौतम ! प्रभया प्राप्तानि-नित्यालोकानि नित्यजी०३ प्रति०१ उ०।
मालोको-दर्शनं दृश्यमानता येषां तानि नित्यालोकानि न संप्रति वर्णप्रतिपादनार्थमाह
तु जातुचिदपि तमसाऽऽधियन्त इति भावः। कथं नित्यासोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा कतिवमा पमत्ता',
लोकानि इति हेतुद्वारेण विशेषणमाह-नित्योद्योतानि
निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति गोयमा! पंचवमा परमत्ता, तं जहा-किण्हा नीला लो-| हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यस्मान्नित्यं सततमप्रतिघमयोतो हिया हालिद्दा युक्किन्ला । (सू० २१२ +)
दीप्यमनता येषांतानि नित्योद्योतानि,तथा ततो नित्यालोका'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! दत्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! | नि, सततमुद्योतमानता च परसापेक्षाऽपि सम्भाव्यते यथा कल्पयोर्विमानानि कतिवनि प्रसप्तानि ?, भगवानाह-गौ- मेरोः स्फटिककाण्डस्य सूर्यरश्मिसंपर्कतस्तत वाह-वतम ! पञ्चवर्यानि, तद्यथा-कृष्णानि नीलानि लोहितानि यंप्रभाणि, स्वयं सूर्यादिप्रभावत् देदीप्यमानता येषां तानि हारिदाणि शुक्लानि, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि । तथा, पवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः
सम्पति गन्धप्रतिपादनार्थमाहसणंकुमारमाहिंदेसु चउवमा नीला. जाव सुकिला। सोहम्मीसाणेसुणं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया ग(सू० २१३ +)
न्धेणं पसत्ता ?, गोयमा! से जहानामए कोढपुडाण वागवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि कृष्णवर्णाभावात्।।
जाव गंधेणं पएणत्ता, एवं जाव एत्तो इहतरगा चेजी०३ प्रति०१उ०।
व जाव अणुनरविमाणा । (सू० २१३४) सणंकुमारमाहिंदेसुणं कप्पेसु विमाणा चउवष्या परमत्ता,
___'सोहम्मीसाणेसुणं भंते !' इत्यादि सौधर्मेशानयोर्भदतं जहा-णीला लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला । (सू० ३७५४)|
न्त! कल्पयोर्विमानानि काहशानि गन्धेन प्राप्तानि ? भगवा'सर्णकुमारे' स्यादिका द्विसूत्री सुगमा चेयं, नवरं सन
नाह-गौतम! "से जहानामए कोट्ठपुडाण वा चंपगपुडाण वा कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि कल्पान्तरेषु वन्यथा, तदुक्तम्
दमणगपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपु. "सोहम्मि पंचवमा, एक्कगहाणी उ जा सहस्सारे। दो दो
डाण वा मरुयापुडाण वा जाईपुडाण वा जूहियापुडाण वा तुला कप्पा, तेण परं पुंडरीयाश्रो॥१॥" द्वयोर्द्वयोः क
मल्लियापुडाण वा राहाणमज्जियापुडाण वा केयइपुडाण वा पा ल्पयोर्वर्णस्य हानिः कार्येत्यर्थः । स्था० ४ ठा० ४ उ०।
उलिपुडाण वा नोमालियापुडाण वा वासपुडाण वा कबंमलोगलंतएसु वि तिवमा लोहिया. जाव सुकिल्ला, प्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिजमाणाण वा कुट्टि(सू० २१३ +)
ज्जमाणाण वा रुविजमाणाण वा उक्कीरिजमाणाण वा विब्रह्मलोकलान्तयोस्त्रिवर्णानि कृष्णनीलवर्णाभावात् । जी०३
क्वरिजमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा परिभाइजमाणा प्रति०१ उ०।
ण वा भंडाओ वा भंडं साहरिजमाणाण वा पोराला महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा दुवमा पन्नत्ता,
मगुण्णा मणहरा घाणमणनिव्वुइकरा सव्वतो समंता गन्धा
अभिनिस्सरंति भवे पयारवे सिया नो इण्टे समटे । तं जहा-हालिद्दा य सुकिला य । आणयपाणतारणच्चुएसु
ते णं विमाणा एत्तो टुतरा चेव कंततरा चेव मगणुसुकिल्ला, गेविजविमाणा सुकिला, अणुचरोववातियविमा- रणतरा चेव मणामतरा चेव गंधेणं पसत्ता"। अस्य व्याणा परमसुकिल्ला वरमेणं परमत्ता । (सू० २१३+) । ख्या पूर्ववत् । एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमामहाशुक्रसहस्रारयोर्द्विवर्णानि कृष्णनीलदारिद्रवर्णाभा- नानि । जी० ३ प्रति०१ उ०। वात् , अानतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु एकवर्णानि, शुक्लव
स्पर्शप्रतिपादनार्थमाहस्यैकस्य भावात् , ग्रेवेयकविमानानि अनुत्तरविमानानि च
सोहम्मीसाणेसु विमाणा केरिसया फासणं पण्णत्ता, से परमशुक्लानि । उक्तञ्च-" सोहम्मि पंचवरणा, पक्कगहीणा उ जा सहस्सारे। दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं पुंडरीया,
जहानामए आइणेति वा रूतेति वा सम्बो फासो भाणि(भो)ई॥१॥"जी. ३ प्रति०१०।
| यचो . जाव अणुत्तरोववातियविमाणा।
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(१२१५) अभिधानराजेन्द्रः ।
विमाण
सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि स्पर्शेन प्रशतानि ? भगवानाद-गौतम ! " से अहानामए अइरोइ वा रूवे वा वूरे वा नवणीपद वा इंसगग्भतुली वा सिरीसकुसुमनिच वा पवालकुसुमपत्तरासीइ वा भवे एयारू
१, नो इट्टे समट्ठे । तेणं विमाणा इतो इतरा चेव कंतत रा चैव मातरा चैव मणामतरा चैव फासेणं पत्ता" इति पूर्ववत् एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि । महत्त्वप्रतिपादनार्थमाह
सोहम्मीसासु णं भंते ! (कप्पेसु) विमाणा केमहालिया पत्ता ? गोयमा ! अयमे जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सो चैव गमो० जाव छम्मासे वीइवएआ० जाव अत्थेगइया विमाणावासा वीइवएजा, अत्थेगइया मिवाणावासा नो aisarजा० जाव अणुत्तरोववातियविमाणा अत्थेगतियं विमाणं वीइवएञ्जा अत्थेगतिया नो वीइषएा । (सू०२१३ + ) ‘सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु' इत्यादि सौधर्मेशानयो भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि किंमहान्ति किंप्रमाणमहत्त्वानि प्र शतानि ?, भगवानाह - 'गौतम ! श्रयं जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपवाक्यं परिपूर्णमेवं द्रष्टव्यम्। "सव्वद्दीवसमुद्दाणं सव्वम्भन्तराय सव्वखुड्डाए बट्टे तेल्लापूपसंठाण संठिए बट्टे पुक्खरकरिणयासंठाणसंठिए वट्टे पडिपुराणचंद संठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं श्रायामविक्खंभेणं तिम्नि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्सा दो य सया सत्तावीसा तिनि य को अट्ठावीसं धनुसयं तेरह अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्वेवेणं पन्नत्ते " इदं च पूर्ववत् भावनीयम् । देवो नाम महर्द्धिको यावन्महानुभावः, यावत्करणान्महाद्युतिरित्यादिपरिग्रहः । 'जाव इणामेवे ' ति यावदिदानीमेव अनेन चप्पुटिकाश्रयानुकरणपुरस्सरमत्यन्तं कालस्तोकत इति कृत्वा केवलकल्पं परिपूर्ण जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातैस्तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः । त्रिः सप्तकृत्व एकविंशतिवारान् अनुपरिवत्य प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य 'हव्वं' - शीघ्रमागच्छेत् । 'से गं देवे' इत्यादि सदेवस्तया सकलदेवजनप्रसिद्धया पूर्वदृष्टान्तभावितया उत्कृष्टया अतिशायिन्या 'तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्धाए उद्धुयाए जवणाए छेयाए ' अमीषां पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् । दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजन् यावदेकादं वा द्वपदं वा उत्कर्षतः षण्मासान् व्यतिव्रजेत् । तत्रास्त्येककं विमानं यत् व्यतिव्रजेत्, अस्त्येककं विमानं यत् न व्यतिव्रजेत् । ' एवं महालियाणं' ति एतावन्ति महान्ति गौतम ! विमानानि प्रशप्तानि एवं निरन्तरं तावद्वक्लव्यं यावदनुत्तरविमानानि ।
सौधर्मेशानयोर्विमानानि किम्मयानि ।
सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा किम्मया पात्ता १, गोमा ! सव्वरयणा मया पष्मत्ता, तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उवचयंति सासया णं ते विमाणे दव्त्रयाए ०जाव फासपजवेहिं असासया ० जाव अणुत्तरोववाइया विमाया । ( सू० २१३ x )
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विमाण सोहम्मीसासु ण मित्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्चमानानि किम्मयानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह - गौतम ! सर्वात्मना रत्नमयानि अच्छानि यावत्प्रतिरूपाणि'तत्थ ' मित्यादि, तत्र तेषु विमानेषु बहवो जीवा पृथिवीकायरूपाः पुद्गलाश्चापक्रामन्ति-गच्छन्ति व्युत्क्रामन्ति- उत्पद्यन्ते । तथा चीयन्ते चयमुपगच्छन्ति, उपचीयन्ते - उपचयमुपगच्छन्ति । एतत्पुलापेक्षं विशेषणं पुद्गलानामेवं चयोपचयधर्म्मकत्वात् । शाश्वतानि भदन्त ! विमानानि द्रव्यार्थतया प्रक्षप्तानि, वर्णपर्यायै रसपर्यायैर्गन्धपर्यायैः स्पर्शपर्यायैरशाश्वतानि प्रशप्तानि । एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि । जी० ३ प्रति० १ उ० ।
शशानविमानानां नीचोभतत्वम्
सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो विमाणेहिंतो ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाणा ईसिं उच्चयरा चेव ईसिं उभयतरा चेव । ईसाणस्स वा देविंदस्स देवरन्नो विमाणेहिंतो सकस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाणा णीययरा चेव ईसिं निन्नयरा चेव १, हंता १ गोयमा ! सकस्स तं चैव सव्वं नेयव्वं । से केखणं १, गोयमा ! से जहानामए-करमले सिया देसे उच्चे देसे उन्नए देसे बीए देसे निन्ने से तेणद्वेणं । ( सू० १२३x)
' उच्चतरा चेव ' ति उच्चत्वं प्रमाणतः 'उन्नयतरा चेव' ति उन्नतत्वं गुणतः, अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम्, उन्नतत्वं तु प्रासादपीठापेक्षमिति । यच्चोच्यते-' पंचस उच्चत्तेयं श्राइमकप्पेसु होंति उ विमाण ' ति तत्परिस्थूलन्यायमङ्गीकृत्यावसेयं तेन किंचिदुच्चतरत्वेऽपि तेषां न विरोध इति । देसे उच्चे देसे उन्नए ति प्रमाणतो गुणतश्चेति । ( ज्यौतिषिकाणां स्थानानि 'ठाण ' शब्दे चतुर्थभागे १७०७ पृष्ठे दर्शितानि । )
चन्द्रविमानम् -
चंदविमाणे णं भंते ! किंसंठिते पत्ते १, गोयमा ! अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिते सव्वफालितामए अन्भुग्गतभूसि तपहसिते वष्म, एवं सूरविमाणे वि नक्खत्तविमाणे वि ताराविमा वि सव्वे श्रद्धकविट्ठसंठाण संठिते । चंदविमाणे णं भंते! केवतियं श्रयामविक्खंभेणं १ केवतियं परिक्खेवेणं १ केवतियं बाहल्लेणं पत्ते १, गोयमा ! छप्पने एसद्विभागे जोयणस्स श्रयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अट्ठावीसं एगसट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पष्पत्ते | सूरविमाणस्स वि सच्चैव पुच्छा, गोयमा ! अडयालीसं एगसद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं चउवीसं एगसट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं गहविमाणे वि अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं सविसेसं परिक्खेवे कोसं बाहल्लेणं । क्खत्तविमाणे णं कोसं श्रयामविक्खंभेणं तं विगुणं
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विमाण अभिधानराजेन्द्रः।
विमाण सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहलेणं परमत्ते, तारावि- हि-किल किमपि वस्तुपजराद-यंशादिमयप्रच्छादनविशेमाणे णं अद्धकोसं पायामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविमेसं
पाद् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वात् शोभते तथा तदपि परिक्खेवणं पंचधणुसयाई बाहलेणं पणते । (सू० १९७)
विमानमिति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तू
पिका शिखरं यस्य तत् मणिकनकस्तूपिकाकं, तथा विक'वंदविमाणे णं भंते !'इत्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त ! किं सितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादी प्रतिसंस्थितं ' किमिव संस्थितं प्राप्तम् ?, भगवानाह-गौतम ! कृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्व-मित्यादिषु पुण्द्राणि रत्न'मर्थकपित्थसंस्थानसंस्थितम् ' उत्तानीकतमी कपित्थं त- मयाश्वार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैश्चित्रं विकसितशतपत्रपुण्डरीस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमीकपित्थसंस्थानसंस्थि- कतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रम्, 'अंतो बहिं च सरहे' इत्यादि तम् । माह-यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्द्धकपित्थसंस्था- अजनपर्वतोपरिसिद्धायतनद्वारवत् , ' एवं सूरविमाणे वि' मसंस्थितं तत उदयकालेऽस्तमयकाले वा यदि वा ति- इत्यादि, एवं चन्द्रविमानमिव सूर्यविमानमपि वक्तव्यं, प्रहधकपरिभमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धकपित्थफलाकारं विमानमपि नक्षत्रविमानमपि ताराविमानमपि, ज्योतिर्षिमोपलम्पते ?, कामं शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, मानानां प्राय एकरूपत्वात् । 'चंदविमाणे णं भंते !'इत्यादि अर्बकपित्थस्य शिरस उपरि दमवस्थापितस्य परभागा- चन्द्रविमानं भदन्त ! कियदायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपण वर्शनतो व लतया रश्यमामत्वात् , उच्यते-दहाईकपित्थ- कियद्वाहल्येन प्राप्तम् , भगवानाह-मौतम! पदपश्चाशतकलाकारं चन्द्रविमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं । किन्तु
मेकपष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायामविष्कतस्य विमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य
म्भमानं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपण, अष्टाविंशतिमेकपष्टिज्योतिभकराजस्य प्रासादः, सच प्रासादस्तथा कथश्च
भागान् योजनस्य वाहल्येन प्राप्तम् । 'सूरविमाणे णं भंते" मापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वर्तुल श्राकारो
इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , भगवानाद-गौतम! अष्टचत्वाभवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्र
रिंशतमेकष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायातिभासते ततो न कश्चिदोषः । नवैतत् खमनीपिकाया
मविष्कम्भमानं त्रिगुण सविशेष परिक्षेपेण , चतुर्विशतिविजृम्भितम् , यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेष.
मेकपष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन । गहविमाणे णं भंते ! गवत्यामाक्षेपपुरस्सरमुक्तम्-"अद्धकविट्ठागारा, उदयस्थमण
इत्यादि प्रश्नसूत्र तथैव, भगवानाह-गौतम! मर्सयोजनम्मि कह न दीसंति । ससिसूराण विमाणा , तिरियक्वेसे
मायामविष्कम्भेन तदेयार्द्धयोजनं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेठियाणं च ॥१॥ उत्तापद्धकविट्ठा-गारं पीढं तदुवरि च
पेण कोश बाहल्येन । 'नक्षत्तविमाणे णं भंते।' इत्यादि पासायो । बट्टालेखेण ततो, समवढं दूरभावातो॥२॥" तथा
प्रश्नसूत्र तथैव, भगवानाह-गौतम! कोशमेकमायाभविष्कसर्व मिरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं तथाऽभ्युद्गता-पा
म्भेन तदेवायामविष्कम्भपरिमाणं त्रिगुण सविशेष परिक्षेभिमुक्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः प्रबलतया सर्वासु दिक्षु
पेण अर्द्धकोशं च बाहल्येन प्राप्तम् । 'ताराविमाणे वं मसूता या प्रभा तया सितम् अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितम् ।
भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव, भगवानाह-गौतम ! अर्द्धयावत्करणात्-'विविद्दमणिरयणभत्तचित्ते वा उद्धृयविजय
कोशमायामविष्कम्भेन तदेवायामयिष्कम्भायामपरिमाणं बैजयन्तीपडागच्छतातिछत्तकलिये तुंगे गगणतलमणुलिहं
त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, पञ्चधनुःशतानि बाहल्येन प्रक्षतसिहरे जालंतररयणपंजलोम्मीलियमणिकणगभियागे
सम् । एवं परिमाणं च ताराविमानमुत्कृष्पस्थितिकस्य ता. वियसियसयवत्तपुंडरीयतिलगरयणरचंदचित्ते अंतो बहि
रादेवस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं, जवन्यस्थितिकस्य तु पञ्चधनु:च सरहे तवणिज्जवालुयापस्थडे सुहफासे सस्सिरीयरू
शतान्यायामविफम्भेन अवतीयानि धनु-शतानि याहके पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे ' इति , तत्र
स्येन, उक्तञ्च-तस्वार्थभाष्य-"प्रष्टचत्वारिंशयोजनकषधिविविधा-भनेकप्रकारा मणयः चन्द्रकान्तादयो रत्नानि च
भागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः चन्द्रमसः षट्पञ्चाशत् , प्रहाकतनादीनि तेषां भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्र
णामड़योजनं, गव्यूतं नक्षत्राणां, सर्वोत्कृष्टायास्ताराया - भ-अनेकरूपवद् प्राश्चर्यवद्धा विविधमणिरत्नभक्तिचित्रं, चक्रोशः, जघन्यायाः पञ्चधनुःशतानि, विष्कम्भार्थवाहल्यातथा वातोवृता-बायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तरसंसू
भभवन्ति सर्वे सूर्यादयो नृलोके" इति।। विका वैजयन्त्यभिधानाः पताका विजयवैजयन्त्यः, अथवा- चंदविमाणे णं भंते ! कति देवसाहस्सीनो परिवहति.. विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकक्षिका उच्यन्ते, तत्प्रधाना
गोयमा! चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभवैजयन्यो बिजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयर्जि
गाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफे. ता वैजयन्त्यः छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि सेः कलितं बातोवृतविजयवैजयन्तीपताकाकलितं तुझम्
परययणिगरप्पगासाणं (मुहुगुलियपिंगलक्खाणं) थिरउच्चम् अत एव गगणतलमणुलितसिहरं ' गगनतल-1 लट्ठ (पउह) बट्टपीवरसुसिलिट्ठसुविसितिक्खदादाविडंमनुलिसद्-अभिलायद् गगनतलानुलिखच्छिखरं, तथा जा- वितमुहाणं रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाणं (पसतानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि
स्थसत्थवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं) विसालपीवरोरुपडिसदनन्तरेषु विशिएशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तज्जालान्तररत्नम् । सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः। तथा पत्र-1
पुष्पविउलखंधाणं मिउविसयपसत्थसुहुमलक्खणविच्छिसद् उन्मीलितमिव-बहिष्कृतमिव पबरोन्मीलितमित्र, यथा-। सकेसरसडोवसोभिताणं चंक्रमितललियपलियघवलगन्नि
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(१२२७) अभिधानराजेन्द्रः ।
विमाण
तगतीणं उस्सियसुखिम्मियसुजायअप्फोडियगंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदन्ताखं वद्दरामयदादाणं तत्रजिजीहाणं तवणिजतालुयाखं तवणिजजो सगसुनोतिताणं कामगमाणं पीतिगमायं मयोगमाणं मणोरमाणं मोहराणं श्रमियगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपर कमाणं महता अप्फोडियसीहनातीयबोलकलयलरवेण महुरेख य मणहरेण य पूरिंता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चारि देवसाहस्सी सीहरूवधारिणं देवाणं पुरच्छिमिल्लं बाहं परिवर्हति । चंदविमाणस्स णं दक्खिणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणियरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुयल - सुट्ठितपीवरवरवइरसोंडवट्टियदिनसुरत्तपउमप्पका सा ब्भ्रुष्मयगुणा [ मुहा ] णं तवणिज विसालचंचलचलंतचवलकष्म विमलुजलाणं मधुवमभिसंतविद्धपिंगलपत्तलतिवसमणिरयणलोयणाणं अब्भुग्गतमउलमल्लियाणं धवलसरिससंठितणिव्वणदढकसिणफालिया मयसुजायदंतमुसलोवसोभिताणं कंचणकोसीपविट्ठदंतग्गविमलमणिरयण रुइस्पेरंतचित्तरूवगविरायिताणं तवणिअविसालतिलगपमुहपरिमंडिताणं णाणामणिरयणमुद्धगेवेअवद्धगलयवरभूसबाखं वेरुलियविचित्तदंडणिम्मलवइरामयतिक्खलडअंकुस - कुंभजुयलंतरोदियाणं तवणिञ्जसुबद्धकच्छदप्पियबलुद्धरां जंन्रणयविमलघरणमंडलवइरामयलालाल लियतालणाग्रामणिरयणघण्टपासगरयतामयरज्जुबद्धलंबितघंटा जुयलमडुरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवट्टियमुजावल - क्खसपसत्थतवखिअबालगत्तपरिपुच्छणाणं उवचियपडि - पुष्पकुम्मचलणलहु त्रिकमाणं अंकामयणक्खाणं तवणिजतालुयाणं तवणिजजीहाणं तवणिजजोत्तगमुजोतियाणं कामकमा पीतिकमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराखं अभियगतीणं अमियबलवी रियपुरिस कारपरकमाणं महया गंभीरगुलगुलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरे - ता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीचो मयरूत्रधारीणं देवाणं दक्खिणिलं बाहं परिवर्हति । चंदवि - माणस्स खं पश्च्चत्थिमेणं सेताणं सुभगाणं सुप्पभाणं चंकमियललिपपुलित चल चत्रलककुदसालीणं समयपासाणं संगयपासागं सुजायपासाणं मियमाइतपीणरइतपासासं झसविहंगसुजात कुच्छीणं पसत्थसिद्धमधुगुलितभिसंतपिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपरिपृम्प विपुलखंधाणं वट्ठपडिपुष्प विपुलकवोलकलिताणं घरा णिचितसुबद्धलक्खणुराईसिश्राखयवसभोट्ठाणं चंक्रमितललितपुलियचकवालच बलगञ्चितगतीणं पीवरोरुवट्टिय सुसंठितकडीणं श्रोलंबपलं
|
३०५
For Private
विमा बलक्खणपमाणजुत्तपसत्थर मणिञ्जवालगंडाणं समखुवालधारीणं समलिहिततिक्खग्गसिंगाणं तणुसुडुमसुजातखिद्धलोमच्छविधराणं उवचितमंसलविसालपडि पुष्पखुद्दपमुहपुंडराणं ( खंधपएससुंदराणं ) वेरुलियभिसंतकडक्खसुखिरिक्खणाणं जुत्तप्पमाणप्पधाणलक्खणपसत्थरमविजनगरगलसोभिताणं घग्घर गसुबद्धकण्ठपरिमंडियाखं नाग्रामणिकखगरयणघएटवेयच्छगसुकयर तियमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंत सस्सिरीयाणं पउमुप्पलभसलसुरभिमालाविभूसितायं वइरखुराणं विविधविखुरा फालियामयदंताणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिज जोत्तमसुजोतियाखं कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगया मोरमाणं मोहराणं अमितमतीणं अभियबलवीरियपुरिसयारपरक माणं महया गंभीरगज्जियरवेणं मधुरेण य मणहरेण य पूरेंता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूपधारिणं देवाणं पञ्चत्थिमिल्लं बाई परिवहंति । चंदविमाणस्स णं उत्तरेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं जाणंतरम लिहायणाणं हरिमेलामदुलमल्लियच्छाखं घणणिचितसुबद्धलक्खणुपताचंकमि ( चंचुचि) यल लियपुलियचलचवल चंचलगतीणं लंघणवग्गणधावधारण तिवरजईण सिक्खितगईणं सातपासाणं ललंतलामगलायवर भूसणाणं समयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं भितमायितपीणरइयपासाणं झसविहगसुजातकुच्छीणं पीपीवरवट्टितसुसंठितकडीणं ओलंबपलंवलक्खणपमाण जुतपसत्थरमणि जब। लगंडाणं तखुसुहुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं मिउविसयप सत्थसुडुमलक्खयविकिष्पकेसरवा लिधराणं ललियसविलासगति ( ललंतथासगल ) लाडवर भूसणाणं मुहमंडगोचूलचमरथासगपरिमंडियकडीणं तवणिजखुराणं तवणिजजी हाणं तवणिजतालुयाणं तवणिजजोत्तगसुजोतियाणं कामगमाचंपीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मोहराणं - मितगतीणं अमियबलवी रियपुरिसयारपरक माणं महया हयहे सिय किलकिलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरेंता वरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सी - थरूनधारीणं उत्तरिल्लं वाहं परिवर्हति ॥ ( सू० १६८x ) 'दविमाणें भंते ! ' इत्यादि, चन्द्रविमानं समिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! कति देवसहस्राणि परिवहन्ति ? भगवानाह - गौतम ! षोडश देवसहस्राणि परिवहन्ति, तद्यथा पूर्वेण - पूर्वतः एवं दक्षिणेन पश्चिमेन उत्तरेश् । तत्र वहन्ति । दक्षिणेन गजरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्त्राणि पूर्वेण सिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि परिपश्चिमेन वृषभरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि उन्न
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( १२१०) अभिधानराजेन्द्रः ।
विमाण रेणाश्वरूपधारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि । इयमत्र भावना-चन्द्रादिविमानानि तथा जगत्स्वाभाव्यानिरालस्वनान्येव वहन्ति श्रवतिष्ठन्ते, केवलमाभियोगका देवास्ते तथाविधनामकमदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीवानां वा निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमानाः प्रमोदभूतः सततवहनशीलेषु विमानेष्वधः स्थित्या केचिरिसहरूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचिद् वृषभरूपाणि केविश्वरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति । नचैतवनुपपन्नं, यथाहि - कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोनभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य संमत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थ सर्वमपि स्वोचितं कर्म नायकसमक्षं प्रमुदितः करोति तथा श्रमियोfret देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृदा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इति निजस्फातिविशेष प्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्ति । एवं सूर्यादि - विमानविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि । जी०३ प्रति० २
ज० ॥ जं० ।
अत्थि णं भते ! विमाणाई सोत्थियाणि सोत्थियावत्ताइं सोत्थियपभाई सोत्थियकन्ताई सोत्थियवन्नाई सोत्थियलेसाई सोत्थियझयाई सोत्थिसिंगाराई सोत्थिकूडाई सोरिथसिद्धाई सोत्थुत्तरवर्डिसगाई १, हंता अस्थि । ते यं भंते । त्रिमाणा के महालया पण्णत्ता, गोयमा ! जातिए णं सूरिए उदेति जावइए णं च सूरिए श्रत्थमेति एवतिया तिरणोवासंतराई अत्थेगतियस्स देवस्स एगे चिकमे सिता, से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए ० जाव दिव्वाए देवगतीए वितीवयमाणे २, • जान एकाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासा वितीवएआ अत्थेगतिया विमाणं वितीवजा अत्थेगतिया विमाणं नो वितीयएज्जा, एमहालता गं गोयमा 1 ते विमाणा पत्ता, अस्थि भंते । विमाणाई अचीणि अच्चिएवत्ताई तहेव०जा
अच्चुत्तरवर्डिसगार्ति, हंता अस्थि, ते विमाणा के महालतापाता, गोयमा ! एवं जहा सोत्थी (माई) शिवरं एगतियाई पंच उवासंतराई अत्थेगतियस्स देवस्स एगे विकम्मे सिता सेसं तं चैव । अस्थि - णं भंते ! विमाणाई कामाई कामता ० जाव कामुत्तरवर्डिसयाई ?, हंता अस्थि ते सं ते विमाणा के महालया पत्ता?, गोयमा ! जहा सोत्थी विरं सत्त उवासंतराई विक्रमे सेसं तहेव ॥ श्रत्थि सं भंते! विमलाई विजयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताई ?, हंता अत्थि, ते गं भंते ! विमाणा के महालया?, गोयमा! जातिए सूरिए उदेइ एयाइ नव उपासंतराई सेसं तं चे
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विमाण व नो चेवणं ते विमाणे वीइवएजा एमहालया संविमाया पष्यता समणाउसो ! । [ सू० ६६ ]
'अस्थि भंते!' इत्यादि, श्रस्तीति निपातो बहर्थे, सन्ति-विद्यन्ते समिति वाक्यालङ्कारे, विमानानि विशेषतः पुरायप्राणिभिर्मन्यन्ते तद्गतसौख्यानुभवनेनानुभूयन्ते इति विमानानि तान्येव नामग्राहमाह-अवषि श्रर्चिर्नामानि एवमरावतीनि अर्चिःप्रभाणि श्रर्चिःकान्तानि श्रर्चिर्वणनि अविश्यानि श्रर्चिवजानि श्रर्चिःशृङ्गाराणि अचिः सृ (शि) ष्टानि श्रर्चिः कुटानि अतित्तरावतंसकानि सर्वसंख्यया एकादश नामानि । भगवानाह - 'हंता श्रत्थि ' इन्तेति प्रत्यवधारणे श्रस्तीति निपातो वह सन्त्येवैतामि विमानानीति भावः । ' के महालया ' मित्यादि. किंमहान्ति कियत्प्रमाणमहस्वानि । समिति पूर्ववत् भदन्त ! तानि विमानानि प्रशप्तानि ?, भगवानाह - गौतम ! ' जाव य उपह सूरो, ' इत्यादि जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्त्तमानः सूर्यो यावति क्षेत्र उदेति यावति च -
सूर्योऽस्तमुपयाति एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, उदयास्तमितप्रमितमधिकृतं क्षेत्रं त्रिगुणमित्यर्थः अस्त्येतद्- बुद्ध्या परिभावनीयमेतद् यथैकस्य विवक्षितस्य देवस्यैको विक्रमः स्यात् तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे सूर्य उदेति सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिष्यधिके योजनानामेकस्य च योजनस्यैकविंशतिः षष्टिभागा एतावति क्षेत्रे, उक्तञ्च - "सीयाली ससहस्सा, होरिण सया जोयणां तेबट्टी । इगवी सम्सट्टिभागा, कक्कडमाइकिम पे नरा ॥१॥" ४७२६३, एतावत्येव क्षेत्रे तस्मिन् सर्वोत्कृष्टे दिवसेऽस्तमुपयाति । तत एतत्क्षेत्रं द्विगुणीकृतमुदयास्तापान्तरालप्रमाणं भवति, तचैतावत्-चतुर्नवतिः सहस्राणि पञ्च शतानि शित्यधिकानि योजनानामेकस्य च योजनस्य कृतं यथोक्तविमानपरिमाण करणाय देवस्यैको विक्रमः परि(च) द्वाचत्वारिंशत्यष्टिभागाः ६४५२६॥ एतावत्त्रिगुणी
कल्प्यते । स चैवंप्रमाणः - द्वे लक्षे त्र्यशीतिः सहस्राणि पञ्च शतानि श्रशीत्यधिकानि योजनानाम् एकस्य च योजनस्य पष्टिभागाः षद् २८३५८०६ इति । 'से गं देवे ' इत्यादि स - विवक्षितो देवः तया— सकलदेवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया त्वरितया चपलया चण्डया - शीघ्रया उद्धतयाजवनया कया दिव्या देवगत्या, अमीषां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः, व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् जघन्यत एकाहं वा द्वहं वा यावदुत्कर्षतः पण्मासान् यावद् व्यतिव्रजेत् गच्छेत् । तत्रैवं गमन अस्त्येतद् यथैकं किञ्चन विमानं पूर्वोक्तानां विमानानां मध्ये व्यतिव्रजेत् श्रतिक्रामेत् तस्य पारं लभेते. ति भावः । तथा अस्त्येतद् यथैककं विमानं न व्यतिव्रजेत्, न तस्य पारं लभेत । उभयत्रापि जातावेकवचनं, ततोऽयं भा. वार्थ:- उक्तप्रमाणेनापि क्रमेण यथोक्तरूपयाऽपि च गत्या पमासानपि यावदधिकृतो देवो गच्छति तथापि, केषाञ्चिद्विमा नानां पारं लभते केपशञ्चित् पारं न लमते इति एतावन्महान्ति तानि विमानानि प्रक्षप्तानि हेभ्रमण ! आयुष्मन् ! अस्थि भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विमानानि स्वस्तिकानि स्वस्तिकावर्णानि स्वस्तिकप्रभाणि स्वस्तिककान्तानि स्वस्तिक
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बिमाण अभिधानराजेन्द्रः।
विमाणवाम वर्णानि स्वस्तिकलश्यानि स्वस्तिकस्वजानि सस्तिकश- अबाह्यकालिकतभेने च द्विधा एकाऽस्पग्रस्थार्था. काराणि स्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिककूटानि स्वस्तिकोस- तथाऽन्या महाग्रन्थार्था । अतः बुल्लिकाविमानप्रविभक्तिर्मरावतंसकानि', 'हंता अस्थि 'इत्यादि, समस्तं प्राग्वत् , हती विमानप्रविक्तिरिति । पा० नं० । व्यः । •मवरमा 'एवढ्याई पंच श्रीवासंतराई' इति कराव्यम् ,
खुडियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे चत्तालीस उदयास्तापान्तरालमं पञ्चगुणं क्रियत इति भावः । 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विमानानि कामानि उद्देसणकाला पएणता । (सू०४०४) कामावानि कामप्रभाणि कामकान्तानि कामवर्णानि का- महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एकचचामलेश्यानि कामध्वजानि कामशृङ्गाराणि कामशिष्टानि काभकूटानि कामोत्सरावतंसकानि ?, 'हंता अस्थि' इत्यादि
लीसं उद्देसणकाला पएणता। (सू० ४१+ ) स. सर्वे पूर्ववत्, नबरमत्रोदयास्तापान्तरालक्षेत्रं सप्तगुणं करी-|
४१ सम। व्यं, शर्ष तथैव ।' अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त! विमाणभवण-विमानमवन-नाविमानाकारे भवने, "विमाविजयबैजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि ?, 'हंता - णभवणं सुविणे पासह" विमानाकारं भवनं विमानभवनम् , स्थी' त्यादि, प्राग्वत् , नवरमत्र 'एवढ्याई' नव श्रीवासं
| अथवा देवलोकाद् योग्यतरति तन्माता विमानं पश्यति,यस्तु तराई' इति वक्तव्यं शेषं तथैव । उक्ता
नरकात्तन्माता भवनमिति । भ० ११ श०११ उ० । कल्प० । "जाबर उदेह सूरो. जावद सो प्रथमेइ अवरेणं ।
विमाणवरपोंडरीय-विमानवरपुण्डरीक-न० । विमानवरेणु तिय पण सत्त नवगुणं , काउं पत्तेय पत्तेयं ॥१॥
मध्येषु पुण्डरीकमिव, अत्युत्तमत्वात् । विमानोत्तमे, सीयालीससहस्सा, दो य सया जोयणाण तेवट्ठा।
कल्प०१ अधि० ३ क्षण। इगवीससट्ठिभागा, कक्खडमाइम्मि पेच्छनरा ॥२॥
विमाणवास-विमानवास-पुं० । सुरलोके,प्राव०३ अ०भ०। एयं दुगुणं काउं, गुणिजप तिपणसत्तमाहिं। आगयफलं च जं तं , कमपरिमाणं बियाणाहि॥३॥ सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणवासा चत्तारि विसकमेडिं, चंडादिगईहि जंति छम्मासं।
पपत्ता ,गोयमा वत्तीसं विमाणवाससयसहस्सा पसत्ता, तह वि य न जति पारं, केसि चि सुरा विमाणाणं॥४॥" एवं ईमाणाइस अदा सवारसभट्टचत्तारि एयाई सयसहजी० ३ प्रति०१ उ०।
स्साई परमासं चत्तालीसं छएयाई सहस्साई आणए पाणए विमाबपत्थड-विमानप्रस्तट-पुं०। विमानसम्बन्धिषु घमस- चत्तारि मारणच्चए तिमि.एयाणि सयाणि । एवं गाहाहिं मभागेषु , सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति । माणियन्वं । (सू० १५०+) स० १५० सम० । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्वादश , ब्रह्मलोके पद , लाम्तके पश्च, शुक्र चत्वारः. एवं सहस्रार आमतप्रासतयोश्चत्वारः,
वत्तीसट्ठावीसा, वारस अट्ट चउरो सयसहस्सा। एवमारणाच्युतयोंवेयकेवधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः, म
पना चत्तालीसा , छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥१॥ उत्तरेपु एक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति । सः।
प्राणयपाणयकप्पे,चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिथि। सम्वे वेमाणियाणं वासहि विमाणपत्थडा पस्थडग्गेणं सत्त विमाणसयाई, चउसु वि एएसु कप्पेसुं ॥२॥ पएणत्ता । [सू० ६२४]
एकारसुत्तरं हे-द्विमेसु सत्तुत्तरं सयं च मज्झिमए । 'सव्व' ति सर्वे वैमानिकानां देवविशेषायां संम्बन्धि- सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥३॥ नो द्विषष्टिविमानप्रस्ता-विमानप्रतराः प्रस्तनाग्रेस प्र
(-सू० ४३ ) भ० १ श. ५ उ०। स्तटपरिमाणेन प्राप्ता इति । स०६२ सम। साधुचर्याफलभोगवस्थानविशेषमाह
" सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवया विमाणायासा पगण
ता',गोयमा! वतीसं चिमाणावाससयसहस्सा पएणत्ता" भलोए शंकप्पे छ विमाशपरवडा, पत्ता, तं जहा- एवमीशानादिप्वपि द्रष्टव्यम् । एतदेवाह-एवं ईसाणाभरए विरए नीरए निम्मले वितिमिरे विसुद्धे । [२० ५१६] | इसुत्ति एवं गाहाहि भालियब्वं' ति 'बत्तीस अडवीसा' 'बंभलाए 'त्ति पञ्चमदेवलोके पडेब विमानप्रस्तटाः प्र
इत्यादिकाभिः पूर्वोक्तगाथाभिस्तदनुसारेणेत्यर्थः । प्रतिसप्ताः, श्राह च-"तेरस वारस ३छ पंच ५, वेब ६चत्तारि
कल्पं भिन्त्रपरिमासा विमानावासा भवितव्यास्तरीका बउसु कप्पेसु॥१॥ गेविज्जेसु तिय तिय, ३-३-३-एगो य
बाच्यः 'जाव तेणे विमाणे त्यादि यावत् पडिरूवा. नबरअलुत्तरेसु. भवे।" इति १३-१२-६-५-१६-६-१-सर्वेऽपि
मभिलापभेदोऽयं यथा-" ईसाणे णं भंते ! कपणे केवइया ६२ द्विषाएः । स०४ सम। तद्यथा-'अरजा' इत्यादि सुगम
विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, गोयमा ! अट्ठावीसं विमेवेति । स्था०६ठा०३ उ०।
माणावाससयसहस्सा भयंतीति मक्खाया । ते णं त्रिमाणा०
जाव पडिरूया" एवं सर्व पूर्वोक्तगाथानुसारेण प्रज्ञापनाविमाणपविमत्ति-विमानप्रविमकि-स्त्री० । प्राबलिकाप्रविष्टे ।
द्वितीयपदानुसारेण च वाच्यमिति । (सू. १०.) स. तरविभजनं यस्यां प्राप्यती सा. विमानयमितिः । अ- १५० सम०।
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(१२२०) बिमाणवास
अभिधानराजेन्द्र:। सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पसु पिणापा(च)नासमय- एए खलु अहिंगारा, अज्मयणम्मी वित्तीए ॥३४२॥ सहस्सा पमत्ता । (सू०६.x)
अस्थाध्ययनस्यानित्यत्वाधिकारः तथा पर्वताधिकारः सट्टि 'ति सौधर्म द्वात्रिंशदीशाने चाष्टाविंशतिधिमान-| पुना रूप्याधिकारः तथा भुजगत्वगधिकार एवं समुद्राधिलक्षाणीति कृत्वा षष्टिस्तानि भवन्तीति । स०६० सम।
कारख इत्येते पश्चार्थाधिकाराम्तांश्च यथायोग सूत्र एव
भविष्याम इति। ईसाणे खं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा प
नामनिष्पचे तु निक्षेपे विमुक्तिरिति नाम, भस्य च सत्ता। (सू०२८४)स०२८ सम०।
नामादिनिक्षेपः उत्तराध्ययनान्तःपाति विमोक्षाध्ययनवदिसोहम्मसणंकुमारमाहिंदेसु तिसु कप्पेसु वावचं विमाणा- त्यतिदेषु नियुक्तिकार पाहबाससयसहस्सा पत्ता । (मू० ५२) स. ५२ सम० । जो चेव होइ मुक्खो, साउ विमुत्तिपगयंत भावेणं ।
सहस्सारे शं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा पासा । देसविषुका साहू, सब्वविमुक्का भवे सिद्धा ॥ २४३॥ (सू० ११६४) स० ११६ सम।
य एष मोक्षः सैव विमुकिः, अस्याश्च मोक्षवम्मिक्षेप - माहिंदे शं कप्पे भट्ट विमाणावाससयसहस्सा पएण
त्यर्थः । प्रकृतम् अधिकारो भावविमुक्त्येति । भावषिमुक्तिपा(सू० १३१)स०।
स्तु देशसर्वभेदात् द्वेधा-तत्र देशतः साधूनां भवस्थकेवलि
पर्यन्तानां, सर्वविमुक्तास्तु सिद्धा इति, अष्टविधकर्मविचसंतए कप्पे पनासं विमाणावाससहस्सा पगणता । टनादिति । (सू० ५.४)स०५० सम।
सूत्रानुगमे सूत्रमुचारयितव्यम् । तदम्विमाखावलिया-विमानावलिका-स्त्री०। भावलिकाप्रविष्षु भणिश्चमावासमुर्विति जंतुणो, प्रैवेयकादिविमानेषु, प्रक्षा०२ पद ।
पलोयए सुश्चमिणं अणुत्तरं । विमायोववमग-विमानोपपत्रक-पुं० विमानेषु-सामान्यरू- विउस्सरे विन्नु अगारबंधणं, पेपपत्रो विमानोपपन्नकः । जी. ३ प्रति०४अधिः । प्रैवेय
अभीरु भारंभपरिग्गहं चए ॥१॥ कानुत्तरलक्षणविमानोपपन्ने कल्पातीते वैमानिकभेदे, स्था.
मा बसन्त्यस्मिन्नित्यावासो-मनुष्यादिभवस्तरीरं २ ठा०२ उ०।
वा तमनित्यमुप-सामीप्येन यान्ति-गच्छन्ति जन्तवःविमाया-विमात्रा-स्त्री० । विविधा मात्रा विमात्रा। सूत्र १ प्राणिन इति, बससवपि गतिषु यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्रतश्रु०२ १० । अनेकविधमात्रायाम् , विशे।
जानित्यभावमुपगच्छन्तीत्यर्थः । एतच मौनीन्द्रं प्रवचनमविमिस्स-विमिश्र-त्रि०। युक्ने, विशे०माचा।
नुत्तरं श्रुत्वा. प्रलोकयेत्-पर्यालोचयेद, यथैव प्रवचने
नित्यत्वादिकमभिहितं तथैव लक्ष्यते-दृश्यते इत्यर्थः । एविमउल-विमकुल-त्रि० । विकसिते, नं०।ौ० रहा।
तच्च श्रुत्वा प्रलोक्य च विद्वान् व्युत्सृजेत्-परित्यजेत् विसक-विमुक्त-त्रि० । निःसने, आचा०२७०४०। लोभ
अगारवन्धन-गृहपाश पुत्रकलनधनधान्यादिरूपम् । किम्भू. द्वेषत्यक, प्रश्न. ३ संव. द्वार । प्राचा।
तः सन् ? इत्याह-मभीरुः-सप्तप्रकारभयरहितः परीषदोपिमुक्कसंधिबंधण-विमुक्कसन्धिबन्धन-त्रिकासयीकृतसन्धा- पसर्गाप्रपण्यम प्रारम्भ-सावधमनुष्ठानं परिग्रहं सवाने, भ०६ श० ३३ उ० । लीकृताङ्गसन्धाने, प्रश्न.१ प्रा-1
घाभ्यन्तरं त्यजेदिति ॥१॥ श्र० द्वार।
साम्प्रतं पर्वताधिकारेविमुस-विमुक्त-त्रि० । विविधं मुक्तः । अनेकैः प्रकारैर्मुक्ने,
तदागयं भिक्खुमणंतसंजयं, (“विमुत्ता हु ते जणा" इत्यादिसूत्रम् (७४) लोगविजय' शम्बेऽस्मिन्नेव भागे ७२७ पृष्ठे व्याख्यातम् ।)
अमेलिसं विन्नु चरंतमेसणं ।
तुदंति वायाहि अभिवं नरा, विमलया-विसकता-स्त्री०। धर्मोपकरणेष्वपि अमूर्खायाम्, दश०७०।
__सरेहि संगामगयं व कुंजरं ।। २॥ विपत्ति-विमुक्ति-स्त्री० । मोक्ष, आचानिक्षेपः चतुर्थचूडा- |
तयाभूतं साधुम-अनित्यत्वादिवासनोपेतं व्युत्गृ हक
धनं त्यक्तारम्भपरिप्रहं, तथाऽनन्तेष्वेकेन्द्रियादिषु सम्यम् रूपं विमुक्तयध्ययनमारभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहा
यतः संयतस्तम् अनीरशम्-अनन्यसरशं विद्वांस-जिनानन्तरं महावतभाषनाः प्रतिपादिताः , तदिहाप्यनित्य
गमगृहीतसारम् एषणार्या बरन्त-परिशुखाहारादिना वर्सभावना प्रतिपाचते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्यय
मानं तमित्थंभूतं भिचुनरा:-मिध्यायः-पापोपहतारमानः नस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्रोपकमान्त
चाग्भिः-असभ्यालाः तुदन्ति-व्यथन्ते, पीडामुत्पादकगतमाधिकारं वयितुं नियुक्किदाह
म्तीत्यर्थः, तथा लोष्ठप्रहारादिभिरभिद्रवन्ति चाकमिति प्रशिच्चे पन्चए रुप्पे, अगस्स तहा महासाद्दे य। । स्टान्तमा-शरैः संपामगतं कुखरमिव२॥
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विमुत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विमुक्ति अपि च
नादनन्तजिनस्तेन, किंभूतानि व्रतानि ?-महागुरूणितहप्पगारेहि जणेहि हीलिए,
कापुरुषैवहत्वात् निःस्वकराणि-स्वं-कर्मानादिसम्बन्धाससदफासा फरुसा उईरिया।
सदपनयनसमर्थानि निःस्वकराणि उदीरितानि-आविष्कृता
नि तेजस इव तमोऽपनयनात्त्रिदिशं प्रकाशकानि । यथा-तेतितिक्खए नाणि अदुढचेयसा ,
जस्तमोऽपनीयो धस्तिर्यक् प्रकाशते एवं तान्यपि कर्मगिरि व वारण न संपवेयए ॥३॥ तमोऽपनयनहेतुत्वात्त्रिदिशं प्रकाशकानीति ॥६॥ तथाप्रकारैः-अनार्यप्रायैर्जनः हीलितः-कदर्थितः, कथं ?, मूलगुणानन्तरमुत्तरगुणाभिंधित्सयाऽऽहपतस्तैः परुषास्तीयाः सशब्दाः-साक्रोशाः स्पर्शाः-शीतो- सिएहि भिक्खू असिए परिवए, पणादिका दुःखोत्पादका उत्-प्राबल्येनेरिता-जनिताः कृता इत्यर्थः, ताँश्च स मुनिरेव हीलितोऽपि तितिक्षते-सम्यक
असअमित्थीसु चइज पूयणं । सहते, यतोऽसौ सानी-पूर्वकृतकर्मण एवायं विपाकानुभव
प्रणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, इत्येवं मन्यमानः, अदुष्टचेताः-अकलुषान्तःकरणः सन् न मिजई कामगुणेहि पंडिए ॥७॥ बतेः संप्रवेपते-न कम्पते मिरिरिव यातेनेति ॥३॥
सिताः-बद्धाः कर्मणा-गृहपाशेन रागद्वेपादिनिबन्धनेन के अधुना रूप्यदृष्टान्तमधिकृत्याह
ति गृहस्था अन्यतीथिका वा, तैः असितः-अबद्धः-तैः सा. उवेहमाणे कुसलेहि संवसे,
ई सङ्गमकुर्वन् भिक्षुः परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी भवेत् । अकंतदुक्खी तसथावरा दुही।
तथा स्त्रीषु असजन्-सङ्गमकुर्वन् पूजनं त्यजेत् ,
न सत्काराभिलाषी भवेत् । तथा अनिश्रितः-असंबद्धअलूसए सबसहे महामुणी,
इहलोके-अस्मिन् जन्मनि तथा परलोके-स्वर्गादाविति, तहाहि से सुस्समणे समाहिए ॥४॥ एवंभूतश्च कामगुणैः-मनोशशब्दादिभिः न मीयते-न उपेक्षमाणः-परीपहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वो. तोल्यते न स्वीक्रियत इति यावत् , पण्डितः-कटुविपेक्षमाणो-माध्यस्थ्यमवलम्बमानः कुशलैः-गीताथैः सह सं. पाककामगुणदर्शीति ॥ ७॥ • बसेदिति । कथम्? , अकान्तम्-अनभिप्रेतं दुःखम्-अ
तहा विमुक्कस्स परित्रचारियो, सातावेदनीयं तद्विद्यते येषां प्रसस्थावरणां तान दुःखिभासस्थायारान् अलूपयन्-अपरितापयन पिहिताश्रवद्वारः।
धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो। पृथ्वीवत् सर्वसहः-परीषहोपसर्गसहिष्णुः महामुनिः-स- विसुज्झई जंसि मलं पुरेकर्ड, म्यग् जगत्त्रयखभाववेत्ता तथा ह्यसौ सुश्रमण इति समा
समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥८॥ क्यातः॥४॥ किश्च
तथा-तेन प्रकारेण मूलोत्तरगुणधारित्वेन विमुक्तो-निस्स
गस्तस्य, तथा परिज्ञान परिक्षा-सदसद्विवेकस्तया चरिविऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं,
तुं शीलमस्येति परिवाचारी शानपूर्व क्रियाकारी तस्य, विखीयतएणस्स मुणिस्स झायो।
तथा धृतिः-समाधानं संयमे यस्य स धृतिमांस्तस्य, दुःसमाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा,
खम्-असाताबेदनीयोदयस्तदुदीर्ण सम्यक क्षमते-सहते, तवो य पमा य जसो य पद ॥ ५॥
न वैक्रव्यमुपयाति, नापि तदुपशमाथै वैद्यौपधादि मृगयते,
तदेवंभूतस्य भिक्षोः पूर्वोपात्तं कर्म विशुध्यति-अपगविद्वान्--कालज्ञः नतः-प्रणतः प्रकः, किं तत् ?--धर्मपद- च्छति । किमिय ? समीरित-प्रेरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषाम्-क्षान्त्यादिकं, किंभूतम् ?--अणुत्तरम्-प्रधानमित्यर्थः, अग्निनेति ॥८॥ तस्य चैवंभूतस्य मुनर्विगततृष्णस्य ध्यायतो धर्मध्यानं
साम्प्रतं भुजहत्वगधिकारमधिकृत्याहसमाहितस्य-उपयुक्तस्याग्निशिखावत्तेजसा ज्वलतस्तपः प्रया यशश्व धर्मत इति ॥५॥
से हु(हू)परिभासमयम्मि वडई,
निराससे उवरयमेहुना चरे। तथादिसो दिसंऽयंत जिणेण ताइणा,
भुयंगमे जुन्नतयं जहा चए,
विमुच्चई से दुहसिज माहणे ॥६॥ महब्बया खेमपया पवेइया। महागुरू निस्सयरा उईरिया ,
स-एवंभूतो भिक्षुर्मूलोत्तरगुणधारी पिण्डैषणाध्ययना
र्थकरणोद्युक्तः, परिक्षासमये वर्तते, तथा निराशंसः-2तमेव तेउ ति दिसं पसासगा ॥६॥
हिकामुष्मिकाशंसारहितः,तथा मैथुनादुपरतः, अस्य चोदिशो दिशमिति-सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिषु क्षम- पलक्षणत्वादपरमहाव्रतधारी च, तदेवंभूतो भिक्षुर्यथा सपदानि-रक्षणस्थानानि प्रवेदितानि--प्ररूपितानि, अनन्त-| पः कञ्चुकं मुक्त्वा निर्मलीभवति एवं मुनिरपि दुःखाशभासौ शानामतया नित्वतया वा जिन-रागद्वेषजय- व्यातः-नरकादिभवाद्विमुच्यत इति ॥६॥
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(१२२१) चिमत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विमोक्ख समुद्राधिकारमधिकृत्याह
विमोक्षस्य निक्षेपं चिकीर्षुनियुक्तिकार पाहजमाहु ओहं सलिलं अपारयं,
नाम ठवण विमुक्खो, दब्वे खित्ते य काले भावे य। महासमुदं व भुयाहि दुत्तरं ।
एसो उ विमुक्खस्स, निक्लेवो छब्बिहो होइ ॥२५॥ अहे य णं परिजाणाहि पंडिए ,
नामविमोक्षः स्थापनाविमोक्षो द्रव्यविमोक्षः क्षेत्रविमोक्षः
कालविमोक्षो भावविमोक्षश्चेत्येवं विमोक्षस्य निक्षेपः पोटा से(हू) हु मुणी अंतकडे ति दुच्चई ॥१०॥
भवतीति गाथासमासार्थः। यं-संसारं समुद्रमिव भुजाभ्यां दुस्तरमाहुस्तीर्थकृतो
व्यासार्थप्रतिपादनाय तु सुगमनामस्थापनाव्युदासेन - गणधरादयो घा , किम्भूतम् ?-श्रोधरूपं, तत्र द्रव्योघः
ब्यादिविमोक्षप्रतिपादनद्वारेणाहसलिलप्रवेशो भावौघ श्रानवद्वाराणि, तथा मिथ्यात्वापपारसलिलम् , इत्यनेनास्य दुस्तरत्वे कारणमुक्तम् । अथैनं
दध्वविमुक्खो नियला-इएमु खित्तम्मि चारयाईसुं। संसारसमुद्रमेवंभूतं सपरिक्षया सम्यग् जानीहि , प्रत्या- काले चेइयमहिमा-इएसु अणघायमाईभो ॥ २५ ॥ स्यामपरिक्षया तु परिहर पण्डितः-सदसद्विवेकशः । स च
द्रव्यविमोक्षो वैधा-मागमतो, मोबागमतश्च । आगमतो मुमिरेवंभूतः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥ १० ॥
जाता, तत्र चानुपयुक्तः, नो प्रागमतस्तु शरीरभव्यशरीरअपि च
व्यतिरिको निगडादिकेषु विषयभूतेषु यो विमोक्षः स द्रव्यजहा हि बद्धं इह माणवेहि ,
विमोक्षः । सुव्यत्ययेन वा पञ्चम्यर्थे सप्तमी, निगडादिभ्यो
द्रव्येभ्यः सकाशाद्विमोक्षो द्रव्यविमोक्षः,अपरकारकवचनसजहा य तेसिं तु विमुक्ख आहिए।
म्भवस्तु खयमभ्यूह्याऽऽयोज्यः । तद्यथा-द्रव्येण द्रव्यात् समहा तहा बन्धविमुक्ख जे विऊ,
चित्ताचित्तमिवाद्विमोक्ष इत्यादि, क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन् से (ह)हु मुणी अंतकडे ति वुच्चई ॥११॥ क्षेत्र चारकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते, क्षेत्रदानाद्धा ययथा-येन प्रकारेण मिथ्यात्वादिना बद्धं कर्म-प्रकृति
स्मिन्या क्षेत्रे व्यावय॑ते स क्षेत्रविमोक्षः । कालविमोक्षस्तु स्थित्यादिनाऽऽत्मसात्कृतम् इह-अस्मिन् संसारे मानवैः
चैत्यमहिमादिकेषु कालेष्वानाधातादिघोषणापादितो या
वन्तं कालं मुच्यते यस्मिन्बा काले व्याख्यायते सोऽभिधीमनुष्यैरिति, तथा यथा च सम्यग्दर्शनादिना तेषां कर्म
यत इति गाथार्थः। खां विमोक्ष याख्यातः इत्येवं याथातथ्येन बन्धविमोक्षयोर्यः सम्यग्वेत्ता स मुनिः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥ ११ ॥
भावविमोक्षप्रतिपादनायाहइमम्मि लोए परए य दोसु वि,
दुविहो भावविमुक्खो, देसविमुक्खो य सब्वमुक्खो य । न विजई बंधण जस्स किंचि वि ।
देसविमुक्खा साहू, सव्वविमुस्खा भवे सिद्धा ॥२६॥ से (हू ) हु निरालवणमप्पइटिए ,
भावविमोक्षो द्विधा-बागमतो, नोब्रागमतश्च । भागमतो ___ कलंकलीभावपहं विमुच्चइ ति बेमि ।। १२॥
माता तत्र चोपयुक्तो, मोबागमतस्तु द्विधा-देशतः, सर्वतश्च ।
तत्र देशतोऽविरतसम्यग्दृष्टीनामाधकषायचतुष्कक्षयोपशअस्मिन् लोके परत्र च द्वयोरपि लोकयोर्न यस्य बन्धनं
माद् देशविरतानामाचारकषायक्षयोपशमाद्भवति,साधूनां च किश्शनास्ति स निरालम्बनः-ऐहिकामुष्मिकाशंसारहि
द्वादशकषायक्षयोपशमात् क्षपकघेण्यां च यस्य यावन्मात्र तः अप्रतिष्ठितः-न कचित्प्रतिबद्धोऽशरीरी वा स एवं
क्षीणं तस्य तत्क्षया देशविमुक्ततेत्यतः साधवो देशविमुक्ताः। भूतः कलंकलीभावात्-संसारगर्भादिपर्यटनाद्विमुच्यते -
भवस्थकेवलिनोऽपि भवोपनाहिसद्भावाद्देशविमुक्ता एव, सर्ववीमीति पूर्ववत् । उक्नोऽनुगमः । आचा०२७०४चू०। प्राचारास्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य षोडशेऽध्ययने, स० ।
विमुक्ताश्च सिद्धा भवेयुरिति गाथार्थः । आचा। निचू पावा विमुच्यते प्राणी सकलयन्धनेभ्यो ननु बन्धपूर्वकत्वान्मोक्षस्य निगडादिमोक्षवदियया सा विमुक्तिः ॥ १२ ॥ गौणीहिंसायाम् , प्रश्न १ सय स्याशङ्काव्यवच्छेदार्थ बन्धाभिधानपूर्वकं मोक्षमाहद्वारा सन्धदज्ञानामष्टमे अध्ययने, स्था० १० ठा०३ उ०। । कम्म य दव्वेहि समं, संजोगो होइ जो उ जीवस्स । विमुह-विमुख-त्रि० । निरपेके, विशे० । विमुखस्यादेरभाषा ___सो बन्धो नायवो,तस्स विभोगो भवे मुक्खो ॥२६१॥ विमुखम् । भ०२ श०२ उ०!
कर्मद्रव्यैः कर्मवर्गणाद्रव्यैः सम-साद यः संयोगो विसहया-विमुखता--स्त्री० । बैमुख्ये, षो०४ वियः।
जीवस्य सम्बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपो बद्धस्पृष्ठविमुहीकय-विमुखीकृत--त्रि० । विरञ्जिते, प्रश्न० ३ माघ निधत्तनिकाचनावस्थश्च ज्ञातव्यः । तथैकैको ह्यात्मप्रदेशोs
नन्तानन्तैः कर्मपुलैर्बद्धः, बध्यमाना अप्यनन्तानन्ता द्वार।
एव, शेषाणामग्रहणयोग्यत्वात् । कथं पुनरष्टप्रकारं कर्म विमोइ(चि)य-विमोचित-त्रि०) स्वस्थानाचबिते,वृ.३ उ०।
वध्नातीति चेद्?, उच्यते-मिथ्यात्वोदयादिति । उक्तं विमोक्ख-विमोक्ष-पुं० । परित्यागे, श्राचा० ११००१ | च-" कहं गं भंते ! जीचा अट्ट कम्मपगडीओ उनिसर्ग, विशे। .
| बंधति ? , गोयमा ! माणावरणिज्जस्स कम्मरस
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(१२२३) विमोक्व अभिधानराजेन्द्रः।
विम्हावण उदएणं दरिसणावरणिजं कम्मं निच्छन्ति , सणमोह-विमोयग-विमोचक-त्रि०। अपनेतरि, सूत्र०१७.६०। णिजस्स कम्मस्स उदपण मिच्छत्तं णियच्छन्ति , मि-विमोयणा-विमोचना-त्रि । त्याजने, सूत्र०१ श्रु०१३ मा उछतेणं उपजेणं , एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ ब. | मा। घह" यदिवा-“लहसुप्पिगत्त-स्स रेणुभो लग्गई जहा मंगे। तह रागदोसणेहा-लियस्स कम्मं पि जीवस्स ॥१॥"
विमोयतर-विमोच्यतर-त्रिका त्याज्यतरे, स्था०२ ठा०१ उ०। इस्यादि, तस्यैवम्भूतस्याष्टप्रकारस्य कर्मणः प्रास्रवनिरो- विमोह-विमोह-पुं० । विगतो मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा। पात् तपसाऽपूर्वकरणक्षपकणिप्रक्रमेण शैलश्यवस्थायां प्राचा० १ २०८०८ उ० । अज्ञानरहितेषु, उत्त वा योऽसौ वियोगः-क्षयः स मोक्षो भवेदिति गाथार्थः।
५० अनुसरोपपातिनो विमोहाः । मोहसमुन्थेषु परीषअस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वात् प्रारब्धासिधारावतानुष्ठा
बोपसर्गेषु प्रादुर्भूतेषु विमोहो भवेत्तान् सम्यक सहेतेति नफलत्वात् तीर्थिकः सह विप्रतिपत्तिसद्भावाश्च यथाव
यत्राभिधीयते स विमोहः । स्था०९ ठा०३ उ० । प्राचास्थितमव्यभिचारिमोक्षस्य स्वरूप दर्शयितुमाह। यदिषा
रामप्रथमश्रुसस्कन्धस्य सप्तमे अध्ययने, स०१ सम०। आपूर्व कर्मवियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपमभिहितम् , साम्प्रतं
प० । उत्त। विमोहा इवाल्पवेदादिमोहनीयोदयतया वि
मोहाः । अथवा-मोहो द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । द्रव्यजीववियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपं दर्शयितुमाह
तोऽन्धकारो, भाचतश्च-मिथ्यादर्शनादिः । स द्विविधोऽपि जीवस्स अत्तजणिए-हि चेव कम्मेहि पुत्वबद्धस्स । सततरत्नोद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र संभषेन सम्वविवेगो जोते-ण तस्स अह इत्तिगो मुस्खो॥२६॥
विगतो मोहो येषु ते विमोहाः । उत्त०५ अ०। आचा० । जीवस्यासंख्येयप्रदेशात्मकस्य स्वतोऽनन्तज्ञानस्वभावस्या
विमोहित्ता-विमोझ--अव्यामोहमुत्पाद्येत्यर्थे, भ० १० १०३ त्मनैव-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपरिणतेन जनितानि बद्धानि यानि कर्माणि तैः पूर्वबद्धस्यानादिबन्धबडम्या विम्ह-घेश्मन-न० । बसती, ध०३ अधिक। प्रधाहाऽपेक्षया तेन कर्मणा सर्वविवेकः-सर्वाभावरूपतया |विम्हणिज-विस्मयनीय-त्रि० । “योत्तरीयानीय-तीय यो विश्लेषस्तस्य-जन्तोः, अथेत्युपप्रदर्शने एतावन्मात्र एव-1 कृये जः"॥१२४८ ॥ इति यस्य द्विरुको जकारो वा। मोक्षो नापर:-परपरिकल्पितो निर्याणप्रदीपकल्पादिक इति| विस्मयविषये, प्रा०५पाद। गाथार्थः।
विम्हय-विस्मय-पुं० । “परम-श्म-म-स्म-झां म्हः" ।। उक्तो भावविमोक्षः। स च यस्य भवति तस्यावश्यं भ- २७४॥ इति स्मभागस्य मकाराकान्तो हकारः। प्रा० । श्राकपरिक्षादिमरणत्रयान्यतरेण मरणेन भाव्य, तत्र कार्ये प्रय, आव०४०। मयाऽप्राप्तपूर्वमिदमित्येवंरूपे प्रमोदे, कारणोपचारात् तम्मरणमेव भावविमोक्षो भवतीत्येतत्प्र-I पश्चा३विव० । अनु० । तिपादयितुमाह
विम्हर-स्मृ-धा० । स्मरणे, "स्मरेझर-झूर-भर-भल-लढ-विभत्तपरिमाइंपिणि, पायवगमणं च होई नायव्वं । म्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः"॥८४।७४ ॥ इति स्मरतेर्वि
म्हरादेशः। विम्हरइ । स्मरति । प्रा०४ पाद । जो मरइ चरिममरणं, भावविमुक्खं वियाणाहि।।२६३।।
विस्मृ-धा० । विस्मृतौ, "विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः" भक्तस्य परिक्षा भक्तपरिक्षाः अनशनमित्यर्थः, तत्र त्रिविभव
॥।४।७५॥ इति विस्मरतेर्विम्हादेशः । विम्हरद । तुर्विधाहारनिवृत्तिमान् संप्रतिकर्मशरीरो धृतिसंहननवान् |
विस्मरति । प्रा०४ पाद । यथा समाधिर्भवेत्तथा अनशनं प्रतिपद्यते, तथेङ्गिते प्रदेशे
विम्हावण-विस्मापन-न । बालस्मयने, पं. व. ५द्वार। मरणमिङ्गितमरणमिदं चतुर्विधाहारनिवृत्तिवरूपं विशिष्टसंहननवतः स्वत एवोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तब्यम् । तथा
आश्चर्यकुहकपराक्षेपकरणे, नि० चू०। परित्यक्तचतुर्विधाहारस्यैवाधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्त- जे भिक्खू अप्पाणं विम्हावेइ विम्हावंतं वा साइजइ।१७०॥ रमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोप-सामी- जे भिक्ख परं विम्हावेइ विम्हावंतं वा साइजइ।। १७१।। प्येन गमनं-वर्तनं पादपोपगमनमेसच ज्ञातव्यं भवति । विस्मयकरणं विम्हावणा । आश्चर्य कुहकपराक्षेपकरणयो हि भवसिद्धिकश्वरमम्-अन्तिम मरणमाश्रित्य नियते मित्यर्थः। स एतत्पूर्वोक्लत्रयान्यतरेण मरणेन म्रियते , नान्येन वैहा
गाहानसादिना वालमरणेनेत्येतच्चानन्तरोक्तं मरणं चेष्टामदापा
विम्हावणा उ दुविधा, अभूयपुव्वा य भूयपुव्वा य । धिविशेषात् त्रैविध्यमनुभवद्भावमोक्षं विजानीहीति गा
विजा तवइंदजालिय, निमित्तवयणादिसं चेव ॥५८|| थार्थः ॥ श्राचा०१७०८०१ उ० (मरण' शब्दे-स्मिव भागे ११३ पृष्ठे मरणभेदा इदमध्ययनं च व्याख्यातम् ।)
विजार मंतेण वा तवोलद्धीए वा इंदजालेण या ना
नाणागतपहुप्पनेण वा णिमित्तवयणेण आदिसहातो विमोक्खण-विमोक्षण-न० । अष्टविधकर्मणः पृथक्करणे , उ-|
अंतद्धाणपादलेवजोगेण वा, अहवा घयणं मरहठ्यदमित०८० विमोचके, सूत्र०१ श्रु०००। कर्मवन्धनान्मु- यकूडब्धगोल्लयकीरट्टकसेंधवातीयाण य कुट्टिकरणं । इमं - किकरणे, उत्त०२६ १०।
भूतपुब्वाण भूतपुवाण य वक्खाणं ।
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(१२२४) अभिधानराजेन्द्रः।
विया गाहा
जाहे चउलहू पत्तो, ताहे विम्हावेज्जा । नि० चू०११ उ०। जो जेण अकयपुब्बा, अस्सुयपुवा अदिषुव्वा वा। विम्हावित-विस्मापयत्-त्रि०। विस्मापके, इन्द्रजालिनि, सा होतऽभूयपुव्वा, तबिवरीया भवे भूता ॥ ५९॥
| स्था० ४ ठा०४ उ० । पं०५०। ('परविम्हावग' शब्दे पञ्चम.
भागे ५४८ पृष्ठे ऽयं व्याख्यातः।) जेण पुरिसेण जो विज्जामंतजोगदजालादियोपयोमे अप्पणा अकयपुब्बो अनेण वा कन्जमाणो न दिट्ठो
विय-विद्-पुं० । विदन्तीति विदः । विदुषि, प्रा०म०१ मा असुतो वा सो तस्स अभूतपुब्बो भमति, तविवरीतो पुण विवितवेचे, सूत्र०१ श्रु०१०४ उ०। भावे किए । विज्ञाने, मो सयंकतो विट्ठो सुतो वा सो भूतपुब्बो भन्नति । एत्थ स्था०५ ठा० ३ उ०। संभूते चउलहुं, असंभूए बउगुरुं, नेमिचे अतीते चउलहूं, अविच-अव्य० । समुथयार्थे, अपि चेत्यव्ययद्वयस्थाने विपहप्पन्नागतेसु चउगुरूं।
यशब्दः समुच्चयार्थः । जी०१ प्रतिः। ... एत्थ निमित्तषयणे असम्भूते इमं उदाहरणं
व्यय-पुं० । विगमे, स्था० ५ ठा० ३ उ०। गाहा
बियइ-विगति-स्त्री० । मरणे, स्था। दिव्वं अच्छेर वि-म्हनो य प्रतिसाहसं।
एगा वियती । (सू० २३) अतिसोय कतो से, खाउं जे किं सुहंणातुं ॥६॥
'बिय'ति विगतिर्विगमः, सा चैकोत्पादवदिति विकृति. दो जणा मिलिउ कित्तियादियाण सत्तरहं णक्खत्ताणं बिगतिरित्यादिव्याख्यान्तरमप्युपचितमायोज्यम् , अस्माभिः इमं णाम संगारं करेंति । अच्छेरं विम्हतो अतिसाहसं
स्तु उत्पादसूत्रानुगुण्यतो व्याख्यातमिति ॥२३॥ स्था०१ ठान चतिसतो कतो |से णातुं जे किं पाहि ति किमुहं गाउं
विकृति-स्त्री० । विकारे, पिं०। ('विगई' शब्देऽस्मिन्नेव भाने एवं मधादि अणुराहादि धणिट्ठादि, एवं संगारं करित्ता बहुजणमझे एवं भासति-जो जं सत्तवीसाण मक्खसाणं विशषः। अनंतरं छिवति तमहं जाणामि, तं परोक्ख कातुं छिकं । वियंग-रिग(क)ताग--त्रि०। विगतकर्णनासाहस्तायके,शा०१ इतरो संगारसाहू भणाति-जदि पुब्बदारियं तो पुब्या म- श्रु० १५ १० । प्रश्न ।। हा महोट्रिबा महो दिव्वं नाणं ताहे जाणतिक्किया एवं | वियंजिय-व्यञ्जित-त्रि०अभिव्यक्तीकृते,सूत्र०२७०१ अन्नम्मि विसंगारे नामे उकितिते जाणति । एवं सव्वणक्खत्ते वियंति-व्यन्ति-स्त्री० । विशेषणान्तिय॑न्तिः। अन्तक्रियाजापति।
याम् , आचा०१७०८०४ उ०। गाहाएत्तो एगतरेणं, विम्हितकरखेन सन्नसंतेणं।
वियंतिकारय-व्यन्तिकारक-पुं० । विशेषेणान्तिय॑न्तिरन्तअप्पपरं विम्हाहे, सो पावति प्राणमादीणि ॥ ६१॥ ।
किया तस्याः कारकः । आचा०१ श्रृ०८१०४ उ० । क
भक्षयविधायिनि, प्राचा०१ श्रु०८०५ उ०। विजामंतादिया एगतरेण विम्हावंतस्स आणादिया
| वियंभिय-विजृम्भित-त्रि० । प्रबलीभूते, मा० १७०१०। पइमे दोसा।
विवृतातायाम् , मा०१७०६० । विस्फुरिते, प्रश्न गाहा
३ आश्रद्वार। उम्मायं पावेजा, तददुजाएण पडिणिए खितं ।
वियकिल-विचकिल-पुं० । वनस्पतिविशेषे, प्राचा० १ ० भत्तं व परं का, तव शिवहशेब माया य॥ ६२॥ प र परिसं मया कतेति सयमेव दित्तचिसो भवेज्जा, तं वा वि. वियक-वितर्क-पुं० । विकल्पे, स्था०४ डा०१० । अरे, करणटं जाएजा। दिने अहिगरण अदिज्जते पडिणी- | पातु.1 मीमांसायाम् , सूत्र०२७०६०। प्राकृते स्त्री
पर्दू जायजा तो।पसोवा विम्हावितो खित्तचित्तो भवति । विज्जाजीवण | स्वमपि । द्वा०२१द्वा०। (सप्तविंशतिर्वितर्का ति 'मित्ता' प्रयोगेश य तवो णिवहति-विफलीभवतीत्यर्थः । असम्भूते | शब्देऽस्मिनेव भागे व्याख्याताः।)
मायाकरणं मुसाघादो य । जम्दा एते दोसा तम्हाणो बे-वियज्माण-वितर्कभ्यान-न। कथं राज्यादि प्रहीष्य इति म्हाविजा।
चिन्तामाध्याने नन्दराज्यं जिघृक्षोश्चाणक्यस्येव दुयोने, इमेहिं कारणेहिं विम्हावेज्जा। गाहा
प्रातु। असिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे भए व गेलो।। वियक्खण-विचक्षण-पुंजविविधमाण्याति-कथयतीति विप्रद्धापरोहए वा, जयणाए विम्हयावेज्जा॥६३॥ चक्षणः । पण्डिते, दश०६ अ०। विदुषि, दश०५०१ उ०। असिवश्रवणयणेण विम्हावेजा, अहवा असिवे औमे ग्र
षो। उत्त। विविधं सर्वाषु विषु पश्यति, ओघ०। ध०। पतो विम्हावेज, रायबुट्टे भए य आउंटणाणिमित्तं विम्हा
| वियच्चा-विगतार्चा-स्त्री० । विगतस्य-विगमवतो जीवस्य, घेजा,गेल अाउंटणटा प्रोसहट्ठा वा रोधगद्धाणेसु वि श्र. मृतस्येत्यर्थः अर्चा-शरीरं विगताः । विगतिमन्जीपुग्वणाणादिगाणि बहुकारणाणि अधिक्खिऊण विम्हावेजा। वशरीरे, स्था०१ ठा०॥ वंच जयणाते।सा इमा-पुव्वं मंतेण पगाविजयणा वा विचर्चा-स्त्री० । विशिषपतिपद्धती, विशिष्टभूषायां च ।
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(१२२५) वियच्चा
अभिधानराजेन्द्रः। एगा वियचा । (सू०-२४)
एतेसिं स्वरूपं पूर्ववत् । जहा पिंडणिज्जुत्तीए । एतेसु परिक एका विगतार्चा विचर्चा वा सामान्यात् । स्थानडासंचउलहुं । जंच दुगुंछियपिंडग्गहणे पच्छित्तं च भवति-g। वियद-व्यावत्त-त्रिका निवृत्ते,अपगते,भ०१ श०१ उसका
गाहाविवर्त-पुं०। कारणविकारेण वस्तुजन्मनि, द्वा०१० द्वा०।
एमेव तिविहकरणे, पामिर्च पडिगहे य परियड्ढे । ("परिणामा विवर्तन्ते जीवस्तु न कदाचन" इति 'जोग' श- |
अणिसढे अच्छिजे, तिविहं करणं णवरि णस्थि ॥६॥ दे चतुर्थभागे १६२१ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम् ।)
तिविहं करणं-कृतं कारितं अनुमोदितं च । अच्छिजलिविवढछउम-व्यावृत्तच्छन्-पुंगा व्यावृत्तं मिवृत्तमपगतं छन । सट्रेसु तिविहं करणं ण भवति, सेसं सव्वं वितियपदं पूर्वशठत्वमावरम वा यस्यासौ व्यावृत्तछना । केवलिनि,भ०१॥
पत् । नि० चू०१६ उ०। (दतिविषयः 'दत्ति' शब्दे चतुश०१ उ० स०। कल्प० । “वियदृछउमाण" व्यावृत्तछमभ्यः
र्थभागे २४१० पृष्ठे गतः।)
गाहाकादयतीति छया-घातिकर्माऽभिधीयते, ज्ञानावरणादि, तवन्धयोग्यतालक्षणश्च भावाधिकार इति असत्यस्मिन् क
वियडत्तस्स उ विहिणे, गंतुं देति ग्रह बलाणीति । र्मयोगाभावात् । अत एवाहुरपरे-असहजाऽविद्युति, व्या-1 जयपाएँ पत्तवासे, गोयणबलवंतवदणमवि ॥ १३ ॥ वृत्तं छा येषां ते तथाविधा इति विग्रहः, नाक्षीणे
जह जुत्तभेत्तपीएण अतिरित्तेण वा मतो वियडत्तगो जातासंसारेउपवर्गः क्षीणे च न जन्मपरिग्रह इत्यसत्; हेत्व
मत्तो पराधीण उवहिं णिग्गच्छेन ताण देति से णिग्गंतुं, भावेन सदा तदापत्तेः । न तीर्थनिकारो हेतुः, अविद्या
बला णितो जयण त्ति जहाण पीडिज्जति तहा पत्तवासति भावन तत्संभवाभावात् , तद्भावे च छमस्थास्ते, कुतस्ते
बज्झइ । श्रह पत्तवासिं तो मोकलो वा नाएज वा पलवेज पां केवलमपवर्गो घेति भावनीयमेतत् । न चान्यथा भव्यो
वा तो आसमविति प्रासममुहं तं पिसे विज्जति। अहवाच्छेदेन संसारशून्यतेत्यसदालम्बनं प्राह्यम् , अानन्त्येन भ
देतो तिरहं दाणं अतिरित्तमवि गेण्हिज्ज । ग्योच्छेदासिद्धः। अनन्तानन्तकस्यानुच्छेदरूपत्वाद् अन्यथा
गाहासकलमुक्तिभावनष्टसंसारिवदुपचरितसंसारभाजः सर्वसंसारिणः इति बलादापद्यते । अनिष्टं चैतदिति । व्यावृसमान
विवियपदं गेलमे, विज्जुबदेसे तहेव सिक्खाए । इति ॥ २६ ॥ ल०।
गहणं अतिरित्तस्स वि, विज्जुवदेसे यातियरं ॥१४॥ वियदृभोइ(ण)-व्यावृत्तभोजिन-त्रि० । व्यावृत्ते सूर्ये भुबने गेलराणट्ठा वेज्जुयदसेण सिक्खाए वा, एतेहि कारणेहि इत्यवंशीलो व्यावृत्तभोजी । प्रतिदिनभोजिनि, भ० २२०
गहणं अतिरित्तस्स । प्रातियरं पि अतिरित्तस्स गेलराण
सिक्खादिविशेषतो वेज्जुबदेसेण तं पुण इमेसु ठाणेसु क२उ०॥ वियइमाण-विवर्तमान-त्रि०। विचरति,बा०१ श्रु०१०
मेण गेराहेज । गहणं पुराणसावगसढप्रहामहदासणसहे य
भावियकुलेसु, ततो जयणाए, न तु परलिङ्गेण । प्राचा
जे भिक्ख वियडं गहाय गामाणुग्गामं दूइजइ दूइज्जतं चियट्टिऊण-विवर्तितम-श्रव्य० । विविधमनेकप्रकारं वा व-1
वा साइजइ ॥ ६॥ तितुमित्यर्थे, पं० चू० ५ कल्प।
वियडेण हत्थगतेण जो गामाणुगाम दूजा तस्स भावियट्टित्सए-विवर्तयितुम-श्रव्यः । श्रासितुमित्यर्थे, प्राचा
णादी बउलहुंच। २ श्रु०१०२ १०२ उ०।
गाहावियड-विकट-न। समयभाषया जले, स्था०५ ठा०२ उ०।। कारणतो सग्गामे, सति लब्भति जो (सयं) परग्गामे । सूत्र। विगतजीवे उदके, सूत्र. १ श्रु० अ०। प्रासु- आणिआए वियर्ड, णिज्जा वा प्राणमादीणि ॥१५॥ कोदके, आचा०१ थु० अ०१ उ०। सूत्र०। नि० चू०। कारणो वियर्ड घेत्तब्वं, तं पि सग्गामे 'सती' ति लब्भशीतोष्णादिशोण विकारं प्रापित प्रामुकीकृते, ०२ उ०।। माणे जोपरग्गामातो आणति सग्गामाश्रो वा परग्गामं णिउष्णोदके, स्था० ३ ठा० ३ उ०। पल्यलादिगते जले, तं०। ज्जा तस्स प्राणादिया इमे दोसा। देशीवचनत्वात् । तडागिकायाम् , उत्त० २५० । मधे,
गाहापिं०। (विकट क्रीणातीस्यादिकीयगड' शब्दे तृतीयभागे
परिगलणपषडणे वा, अणुपंथियगंधमादिउडाहो। ५६५ पृछे गतम्।)
पाहारइयरे तेणा, किं लद्ध ति कुतूहलो चेव ॥१६॥ जे भिक्खू वियडं पामिच्चइ पामिच्चवइ पामिच्चिय
परिगलते पुढवादिछकाया विराहिज्जति । परियस्स वा माहह दिजमाणं पडिग्गहेइ पडिग्गइंतं वा साइजइ ॥२॥ भायणभग्गो य छक्कायविराहणा। अहवा परिगलंते पडियजे भिक्खू वियर्ड परिय इ परियट्टाबेइ परियट्टियमाहह | स्स वा छड़िते अणुपंथिो वा पडिपंथिो वा गंधमाघाएदिजमाणं पडिग्गहेइ पडिग्गतं वा साइजइ ॥३॥
जा । सो य उडाहं करेषज । अंतरावा आहारतणा भाययं
उग्घाडेज, ते दटुं श्रादीपज्ज, उड़ाई वा करेपज । इयर त्ति जे भिक्खू वियर्ड प्रच्छिज्ज अणिसिद अभिडमाहह
उवकरणतेणा ते वा कुतूहलेण भायणं उग्गाहेपजा किं खदिमाख पडिग्गहेइ पडिग्गहनं वा साइज्जह ॥४॥ अंतित उडाई करेपजा । जम्हा एवमादी दोसा
३.3
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अभिधानराजेन्द्रः।
वियहस गाहा
भागे ६४ पृष्ठे गतम् ।) (एवद्विषयकप्रतिसेवना'मूलगुणतम्हा सलु सग्गामे, घेत्तूर्ण बंधणं तहा कुज्जा।। पडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४४ पृष्ठे उक्ला ।) एत्तो चिय उवउत्तो, गिहीण दरेण संचरितो ॥ १७॥
विस्तीर्णसूचमतरबुद्धिगम्ये,त्रिन०प्र०१पाहु । उपा० । मा खलुसद्दो सग्गामावधारणे, स्वग्राम एव ग्रहीतव्यं । सग्गा
शा०। प्रभूते, सूत्र.२ थु०२०। प्रतिप्रकटे स्थूरे, व्य०१ मासति परगामातो आणियव्वं । कारणे वा परगाणे
उ० स०। पुंगा एकपञ्चाशत्तमे महाग्रहे, कल्प०१अधि०॥ बब्वं इमेण विहिणा संकुडमुहभायणे ओमंथिय सरावं घणं
क्षण। सू०प्र० । । परिबंधणं कुजा, पंथं उवउत्तो गच्छति । जहा णो परिग-1
दो वियडा । (सू०) स्था० २ ठा० ३ उ०। साति, पक्खलति. वा, गिहीण या एयं जंताण हेट्ठोवारण विकृत-त्रिका अस्वाभाविके,व्य०७ उ०। हरतो मच्छति । तं पि भायण वा से कप्पदि सासुसंवृतं विपत-त्रिका अनावृते, स्था०५ठा०२ उ०। बरेति । अषवादकारणेण परगामणेति माणावेति ।
वियडगिह-विवृतगृह-न० । अधःकुडघाभावादुपरि . गाहा
उछादनाभावादनावृते गृहे,पशा०८विवस्था० । प्राया। वितियपदं गेलमे, वेज्जुवएसे तहेव सिक्खाए।
१०। षिवृतम्-अमावृतं, तब देधा-मध ऊर्ध्व च। तत्र
पायत एकादिदिक्ष्वनावृतमधोविवृतम, नाच्छादितममाल. श्तेहि कारणेहि, जतणेमा तत्थ कायव्या ॥१८॥
गृहं चोर्ध्वविवृतं; तदेव गृह विवृतगृहम् । उकञ्च-"अनाउंडं र्ववत् । एवमादिकारणहिं गेराहतस्स इमा जयणा । जंतु चउद्दिसि पि, दिसामहो तिनि दुये य पक्का । अहो भये गाहा
तं वियडं गिहं तु, उहं श्रमाच प्रतिच्छदं च ॥१॥" ति।
स्था० ३ ठा०४ ३०। पुराणेसु सामएसुं, सलिमहामद्ददाणसड्ढे य । मज्झत्थकुलीणेसुं, किरियावादीसु तग्गहणा ॥१६॥
| वियडजाण-विवृतयान-० तल्लरकर्जिते शकटे, भ. पुब्वं पुराणस्स हत्थातो घेप्पर, तस्स असति गहिताणु
१.श०११ उ०। ब्बतसायगस्स , ततो अविरयसम्महिटिस्स, ततो अहाभ
वियडणा-विकटना-खी० । आलोचनायाम् , भोषः। इगस्स, ततो दाणसङ्कस्स, मज्झत्था-जे णो अम्हं सासखं| य० । प्रति० । । नि० चू०। पं०५०। पडिवला, यो यसि ते या जातिकुलीणा एत्थ फुलीणोवियडदत्ति-विकटदत्ति-स्त्री० । विकट पानकाहारस्त
टुता पट्ट आदय सदशेत्यर्थः । क्रियां वदति | स्य दसय एकप्रक्षेपमदानरूपाः । पानकदत्तिषु, स्था। क्रियावादीति येत्यर्थः।
णिग्गंथस्सणं गिलायमाणस्स कप्पंति ततो वियडदत्तीखेत्ततो पुण इमेसु गहणं। गाहा
श्रो पडिग्गाहित्तते, तं जहा-उक्कोसा मज्झिमा जहमा। गिहकुलपाणागारिसु, गहणं पुण तस्स होदि ठाणेहि । (सू० १७२) सागारियमादीहिं, ओगाढे अनलिंगेणं ॥२०॥
निर्ग्रन्थस्य ग्लायतः अशक्नुवतःवेदनादिना अभिभूयदोहि ठाणेहिं गहणं करेति, पुराणादियाणं गिहेसु, पाणा- मानस्येत्यर्थः, आहारग्रहणं हि वेदनादिभिरेव कारणरनुशागारि सि-कलाणायणे । पुराणादिगिहासह पच्छा कलाणाव तम्,'तो' ति तिनः वियर्ड' सिपानकाहारः,तस्य दत्तयःणे गिरहेति। पुटवं सजातरनिहातो आणिज्जति । जे दुराणयणे पकप्रक्षेपप्रदानरूपाः प्रतिग्रहीतुम्-प्राधयितुं घेदनोपशमादोसाते परिहरिया भयंति सज्जातरगिहासति पच्छा णिवे येति, उत्कर्षः-प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा, उत्कर्षतीति वोत्कसमतो वाडगसाहि सग्गामपरग्गामातोय। जत्थ सलिंगण पी; उत्कृऐत्यर्थः , प्रचुरपानकलक्षणा, यया दिनमपि याएगडाहो तत्थ परलिोणं गहणं करोति।
यति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव चित
प्णो भवति थापनामात्र था लभते । अथवा-पानकविशेगाहा।
पादुत्कृष्ठाचा घाच्याः, तथाहि-कलमकानिकावधावणादेअह दिङमस्सुतेसुं, परलिङ्गेणंतरे सलिङ्गेहि ।
क्षिापानकादेर्वा प्रथमा १, षष्टिका (दि) कालिकादेमध्य. भासज वावि दोस, अदिद्वपुब्वे वि लिङ्गेण ॥२१॥ मा २, तृणधान्यकालिकादेरुष्णोदकस्य था जघन्येति । देशसत्य गरे गामे वा सो साधू केइ दिद्यो वा अगारीहिं
कालस्वरुचिविशेषाद्वोत्कर्षादि नेयमिति । स्था०३ठा०३ उ०। वा मुतो तत्थ परलिंगेणं हितो गराइ । ण तरति जस्थ पुण | वियाघम्मिय-विकटधम्मिक-पुं० । स्वनामख्याते शत्रुसो परलिहितो वि पञ्चभमति जति सलिंगरण वा मेयहति । अयचैत्योद्धारकारके, ती०१ कल्प। महया 'श्रासजवा वि दोस' ति, जत्थ बोसो ण णजति, किं वियडभोइ(ण)-विकटमोजिन-त्रि० । विकटे-प्रकटे दिवएतेसिं वियडं कप्पं अकप्पं ति, ण या लोगो गरहति तत्थ | सेन रात्रौ (इति यायत्) भो शीलमस्येति विकटभोजी । सलिंजणु गेएहति । 'अविट्ठपध्ये' त्ति जत्थ गामणगरादिसु
चतुर्विधाहाररात्रिभोजनबर्जके, पञ्चा० १० विव० । उपा० । अविठ्ठपुवा तत्थ वा सलिंगेण गएहति । नि० चू. १६ उ०। (गालनविषयः 'गालण' शब्दे तृतीयभागे ८७१ पृष्ठ | वियडवेस-विकृतवेष-पुं० । देशदशाविभषानुचितयेषे, दर्शक गतः) ( पिकडपानविवरण 'घसहि' शब्देऽस्मिन्नेव । ३तत्व।
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बिचार
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(१२९७)
अभिधानराजेन्द्रः। वियडा-विता-स्त्री० । योनिभेवे, तत्र सीन्द्रियादीनां चतु- वियत्य वितस्त-पुं० । अष्टाविंशतितमे महाप्रहे, सा। रिन्द्रियपर्यन्सानां सम्मूछिममनुष्याणां च विवृता योनिस्ते. दो वियत्था। (म०६०+) स्था० २ ठा०३ उ.। पामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पषमुपलभ्यमानत्वात् ।
तिति-
पंद्वावधाजलप्रमाणे मानमेवे, जी. प्रज्ञा०१० पद। वियडावइवासि(न्)-विकटापतिवासिन्-विकटावतीवा-१ प्रतिः।
वियय-वितत-त्रिका विस्तारिते, मा० १०८०प्रसास्तव्ये, स्था।
रिते. विश।
०२ ठा०३ उ०|| वियर-वितर-पुं०। नदीपुलिमादी जलार्य गर्ने, खा.. पियडाबाइ(न)-विकटापातिन-पुंजम्बूद्वीपे मन्दरस्योसरत
डा०४ उ०। पेरण्यवते व प्रभासदेवाधिष्ठिते वृत्तबैताख्यपर्वते, स्था०२
विदर-पुं। जलस्थानविशेष,शा०१२०१ मा कूपिकायाम्, डा० ३३०॥
नि० चू०१५ उ०। यो वियडाबाई । सू०६२x)
विवर-नार, उत्त०२० मा निझरविशेष ,शा०१७. विकटापातिदेवयोदित्वेन तदावासपर्वतावपि डौ। स्था० | ४०। २ ठा० ३३०॥
| वियरण-विचरण-नाबालानां विजढीकरखे, प्रव० ३५ विपडासय-विकटाश (अ) य-पुं० । विकट-जलं तस्याशयः | माथयो वा स्थानं चिकटाशयो विकटायो घा। धुलुके,
वितरण-न० । ग्रहणानुशादाने, नि००२ उ०। भ० १५०।
वियरिय-विचरित-त्रि०। प्रासेविते, शा० १ ०४०। वियडासव-विकटाश्रव-त्रि०ा अनिवारिताभ्रघे, “षियडा.
वियसंती-विकसन्ती-खी अमुकुलितायाम् , प्रशा०२ पद। सवा जलम्मि उ, कहं तु नावा न घोडेजा।" "थियडासवे' त्यादि, विकटानि-अतिप्रकटानि स्थूगणीत्यर्थः श्राश्रयाणि
जी। जलप्रवेशस्थानानि यस्य स तथा । व्य०१ उ०।
वियसिय-विकसित-त्रि०। प्रफुल्लिते, 'वियसियसयपत्तोंड वियडी-विवटी-स्त्री० । विरूपायां तट्याम् , अटयां च ।
रीया'विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणिच द्वारादौ
प्रकृतित्वेन स्थितानि यत्रेति । सू० प्र० १८ पाहु। स०॥ पा०१०१०।
प्रज्ञा०रा०॥ वियंडिजंत-विकव्यमान-त्रि० । आलोच्यमाने, व्य०५ उ० ।
वियाउरी-विजनयित्री-खी० । अपत्यानां विजननालावियडोदग-विकटोदक-न०। प्रासुकजले, पश्चा०१-विव० ।
याम् ,
निश्रा०म० । शा० वियन-ध्यक-त्रि०ा परिस्फुटे, सूत्र०१ श्रु० १४० वयः- वियागरेमाण-व्याकुर्वत-त्रि०। सम्यग् व्याकर्तरि,याचा०२ थुताभ्यां परिणते, स०१८ समायालभाषाभिएकान्ते, सूत्र०
शु०१चू०२ १०३ उ०। कथयति, सूब०१ शु०१४ म.. २ ० १ मा अमुक्के, विवेकं प्राप्ते, सूत्र.१ अ० २ उ० । द्रव्यभायवृद्ध, श०६०। स्था० । धीरजिनेन्द्रस्य च
व्यागृणत-त्रिका प्रतिपादयति,सूत्र १ श्रु०१४ अाव्याल्या. तुर्थे गणधरे, प्रा०म०१०। ('वत्त 'शब्देऽस्मिन्प्रेय
नयति, सूत्र०१ ध्रु०१३ ०। आचा। भागे ८२८ पृष्ठे पतवर्णनमुक्तम् ।) प्रीतिकरे, बा.१०५ वियाण-वितान-न० । अनेकेषां संघाते , नि० चू०१ उ०। श्रा स्था।
वियाणग-विज्ञापक-पुं०। यि, पश्चा० १२ विव०। वादावियचकिच-यकत्य-त्रिका कार्य कृत्वाऽपिर, स्था।
मिश, व्य०१०। विशिधावबोधसहिते, प्राचा०१००१ 'वियत्तकिव' ति व्यहस्य भावतो-गीतार्थस्य कल्यं करणीय
अ०२ उ०। व्यक्तकस्य-प्रायश्चित्तमिति । गीतार्थो हि गुरुलाधवपर्यालोचमेन यस्किन करोति तत्सर्वे पापविशोधकमेव भवती
वियाणमाय-विजानत-निविशेषेण विविध वा मानन् ति । अथवा-पानाचतिचारविशुद्धये यानि प्रायश्चित्ता
विजानन् । अवगच्छति, उत्त० १२ अाअर्थधर्मशे, उत्तम म्यालोचनादीनि विशेपतोऽभिहितानि तानि तथा व्यप
१२ .। दिश्यन्ते । प्रायश्चित्ते, स्था०४ ठा० १ उ०।
वियाणिय-विज्ञाय-अव्य० । विशेषेण (देवगतिमनुष्यगतिवित्तका-भिः । प्रायश्चित्ते, विशेषण-अवस्थाचौचित्येन | स्वागामित्वलक्षणेन) शात्येत्यर्थे, उस०७०। सूत्रः । विशेषानभिहितमपि दत्तं वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः। यत्कि-वियाय-विजनय्य-श्रव्य० । प्रसूयेत्यर्थे, 'वियायपुर हस्थिशिमाध्यस्थगीतार्थेन कृत्यमनुष्ठान तत् विदत्तकृत्यं प्राय- जूहेण समं घरति' प्राव०४ अ०। श्चित्तमेव । स्था०४ ठा०१ उ०।।
वियार-विचार-पुं० मते, अभिमते , विशे। विचरणमर्यावियत्तण-विवर्त्य-श्रव्य पावत्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु० - |
द् व्यञ्जन , व्यञ्जनार्थे , तथा मनःप्रभृतीनां संयोगानाभ०१उ०॥
मन्यतरस्मादन्यतरस्मिमिति विचारः । अर्थव्योगसं
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विचार
"
क्रान्तौ स्था० ४ ठा० १ उ० । श्राव० । नं० । सञ्चरणे, विपा० १ ० ६ अ० | अवकाशे, शा० १ श्रु० १ अ० । रा० । चारादिपरिष्ठापने, व्य० १ उ० । नि० चू० | प्रब० । संज्ञाम्युत्सर्जनार्थ बहिर्गमने, प्रब० १०१ द्वार । ग० । आव० । सम्प्रति विचारकल्पमादअप्पने अकहिता, महिगयपरिच्छयम्मि चउगुरुगा। दोहि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥४१७|| सूत्रे - सप्तसतकक्षसे प्रोपनिलिये या अप्रापदि विचारभूमावेकाकिनं प्रस्थापयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चस्वारो गुरुकाः ते चाभ्यां गुरुका, तद्यथा तपोगुरुकाः, कागुरुका। अथ प्राप्तेऽपि धुते तदर्थमकथयित्वा - धनेऽप्यधिगतस्तदर्थों नयेत्यपरिज्ञायाऽधिगतमपि सम्प श्रद्दधाति न चेत्यपरीक्ष्य यदि प्रेषयति तदा प्रत्येकमकथ मेऽधिगमेऽपरीक्षणे च तस्य प्रायश्चितं चत्वारो लघुकाः । ते व विचाराधिकारात् सर्वत्रापि च द्वाभ्यां लघवः, तपा लघुकाः काललघुकाव्य न केवलमेतत् प्रायश्वितं किंत्याशादयश्च दोषाः । संयमविराधना स्वयं सोऽप्राततादित्वा देकाकी प्रस्थापितः षट्सु जीवनिकायेषु संज्ञां व्युत्सृजेत, उ
या परियुत्सृजन् कुर्यात् विरुददिषु भ्युत्सृज नेनायुपोऽपगमत आत्मविराधना तस्मात्
(PARK) अभिधानराजेन्द्रः ।
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पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ। . तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर नवएग भेदेणं ॥ ४१८ ॥ यदा सूत्र सप्तसप्तकादिरूपं पठितं भवति, तस्य चार्थः कथितोऽधिगतोऽधिगम्य च सम्पक धडानविषयीकृतो:स्तीति निशीथोक्रेन प्रकारेण परीरुपमा रात्रिविधं सचित मचित्तं मिश्रं च स्थण्डिलं परिहारविषयेण नवकभेदेन त्रिभिर्मनोधाकाशु परिहरति । तद्यथा सचितं स्थरि लं तन्मनसा स्वयं न गच्छति, नाप्यन्यान् गमयति, न चाव्यभ्यं गच्छन्तमनुजानाति। एवं धावारे कायेनापि । एवं मिश्रमत्रितं चापातसंलोकादिदोषदुष्टं संभवति । वि (चा) कारकल्पिकेन विचारभूमी मतेन स्थण्डिले उपवेष्टव्यम् । ० १ ० १ प्रक० ! ( ' थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे २३७० प्रष्ठ शेवधिरूपतः।)
विचारण- विचारण- न० अनुगमन, अनु अर्थानां पर्यालोचने, आ० म० १ ० । स्था० ।
विदारण न स्फोटने, विशे० भा० भेदने आव०४
श्र० । स्था० ।
विरह
विद्याल-विकाल - पुं० । सन्ध्यायाम्, नि० चू० ४ ३०। विपा०| सन्ध्यापयमे, नि० चू० ४ उ० । शा० । श्राचा० । प्रत्यपराढकालसमये, झा० १ ० १ ० । ० म० । विचाल - १० | भतराले विशे
,
व्याल - पुं० । सर्पे, श्राचा० २ ० १ चू० १ अ०५ ७० । विद्यालय - विचारण- न० । ईहाशाने, “वियालणं ति ईहणं ति मग्गणं वि वा एगटुं । " श्रा० चू० १ श्र० । विद्यालय विकाल पुं० द्वितीये महादे, खू०प्र०२०पा० । दो वियालगा (सू० ६०+) स्था० २ ठा० ३ उ० भ० विद्यालयारि ( ग ) - विकालचारिन् पुं० [धिकालेऽपि राम्राaft चरतीति विकासचारी । श्र० । साहसिकत्वाद् रात्राaft विचरणशीले, ज्ञा० १ ० १ ० । वियावरा - वितापन- न० । शीतार्दितस्य शीतापनयनाय काष्ठः प्रज्वालने, श्राचा० १० १०५३० । विषावस-व्यय-० ले, "सामी भियगामं गा तस बहिया विद्यावतरस हयस्सरसामंते" अव्यक्तं पतितशटितम् ; प्रकटमित्यर्थः । श्रा० म० १ ० । ० चू० । महाशुकदेवलोकस्थविमानभेदे. स्था० २ ठा० १ ३० । स्तनितकुमारन्द्रयार्थोपमहाघोपयोदचिणलोकपाल, २०३
शु० ८ उ० 1 स्था० ।
वियास- व्यास - पुं० । पराशरपुत्र, कृष्णद्वैपायनप, विशे० ।
सूत्र० ।
विहाय व्याख्या स्त्री व्यास्यायन्ते च यस्यां सा व्याख्या प्राकृतत्वात्वती स० १२६ सम० । वियाहिव व्याख्यात- प्रि० । विविधमाख्यातां व्याख्यातः । श्राचा० १ श्रु० ४ ० ४ उ० । तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादिते, श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० ३ उ० । स्था० । भ० । व्याहृत-त्रि कथिते १०२ अधि० प्र० प्राचा० | उत्त० वियुक्त वियुक्त - त्रि० । रहिते, नि० चू० २० उ० । विशे० । विय्या (आ) दल-विद्याधर पुं०" यां
इति यस्थाने द्विरुक्को यः । वैताढ्यपर्वतमनुष्ये, "अप्प किल विव्याहले गरे" प्रा० ४ पाद
विरगुपधा० गोपने, “गुप्येर्विर- डी ॥ १५० ॥ इति गुप्यते विरादेशः । विरइ । गुप्पइ। गुप्यति । प्रा०४पाद । विपारभूमि विचारभूमि - श्री० शरीरचिन्ताद्यर्यगमने - मज घा० आमदने, भमय मुसुर-मूर-सूर-सूडरूप० ३ अधि० ६ क्षण । विष्ठोत्सर्गभूमौ आखा० २ ० १ विर- पविरञ्ज - करञ्ज-नीरञ्जाः " ॥ ८ । ४ । १०६ ॥ इति भ धू० १ ० ३ उ० । व्य० । मि० चू० । वृ० । धातोदिरादेशः । बिरह । भनक्ति । प्रा०४ पाद । विचाररवणागर-विचाररत्नाकर पुं० [दीरविजयरिशिष्य विरह-विरति स्त्री० विरमण विरतिः कीर्तिविजय कल्पसुबोधिकाकारविनयविजयगुरौ, कल्प० ३ णातिपातादिनिवृत्तौ, सूत्र० १ ० ११ प्र० । प्रश्न० । अधि० (विचाररत्नाकरवृत्तम् 'कल्पसुबोडिया शब्दे ( पायाश्वायचिरई " ( महा० १ ० ) इत्यादि " चू० तृतीयभागे २३८ पृठे गतम् ।) आलोयणा शब्दे द्वितीयभागे ४३६ पृष्ठ मतम् ) । विधारामयसंग्रह - विचारामृतसंग्रह - पुं० चैत्यपूजाद्यर्धप्रति सावद्ययोगाभिवृत्ती, विशे० उत्त० प्रश्न० ० ० ॥ बजे प्रन्थमेवे, ध० २ अधि० ।
स्वा० १ डा० । प्रा
·
सम्पूर्विकार्यासावारम्भाधि
० १ ० १
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(१२२८) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिरह
अ० । प्रत्यारूपेषार्थेषु निवृत्तिपरिणामे, पञ्चा०वि०र्जने, संघा० १ अधि० १ प्रस्ता० आ० म० ।
विरहग्ग
विरल- विरल - त्रि० । अल्पे, अष्ट० २६ अष्ट० । ० ० डा० । उपा० ।
विरालिया विरलिका श्री० रिकामे । - - । प्र० ८२ द्वार । द्विसरसूत्र पट्ट्याम्, पृ० ३७० । विरली - विरली - स्त्री० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त० ३६ प्र० । विरलोतमंग-बिरलोत्तमाङ्ग १० विरलकेगे, "लोयविरहुतमंग" अत्र उत्तमाङ्गशब्देन उत्तमाङ्गस्थाः केशा उच्यन्ते । पिं० विरन-तन्- घा० " तनेस्तड-त-तय- विरज्ञाः " ॥ ८ ॥ ४ ॥ १३७ ॥ इति तनधातोर्विरज्ञादेशः । विरज़र। तनोति । प्रा० विरलन - विरल्लक- पुं० । लायकपक्षिणि, पृ० २ उ० । विरचिम-तत-त्रि० तनुम् विस्तारे इत्यस्य, । "तनेस्तड तड तच विरङ्गाः ॥ ८४१२७॥ धातोर्विरज्ञादेशः प्रा० । विरलीकृते ०२ क्ष० जी० विस्तारिते स्था०४०४० जलाईषुः दे० ना० ७ वर्ग ८२ गाथा ।
विरस-विरस १० विगतरसे, पुराधापीदनादी, स्था०५
विरहपरिणाम-विरतिपरिणाम पुं० । प्राणातिपातादिनिवर्स ने पारमार्थिकाध्यवसाये, घ० २ अधि० । पं० ६० ।
विरइभाव-विरतिभाव - पुं० । सावद्ययोगविरमणपरिणामे, प
शा० १४ विव० ।
विरहय - विरचित - त्रि० । निर्मिते, शा० १ ० १ ० | कल्प० । विहिते, स० । 'बिरइयरका पूरे विरचिते वरकलंपूरे प्रधान कर्णाभरणविशेषौ यस्य स तथा । भ० ७ श० ६ उ० ॥ श्र० । विरइरयण - विरतिरत्न -- न० । प्रत्युत्तमत्वाद् विरतितस्वे, पं०
६० ५ द्वार ।
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विरंगभंग - विरङ्गभङ्गि - जि० तथाविधरङ्गेन- रागइव्येस तिर्यत्र तद् बिरङ्गभङ्गि । वर्णचित्रे, व्य०८ उ० । विरत - विरक्त- त्रि० । कचिदपि रतिमप्राप्ते, प्रश्न० २ श्र० द्वार संव० द्वार धातु विविधराने, विरागे वा । आचा० १ ० २ श्र० ३ उ० । विरमल - विरमण-न० | रागादिविरतिप्रकारे, डा० १०८ अ० । श्रातुः । सर्वसावद्ययोगनिवृत्तौ, आ० म० १ ० | विरमाल - प्रति ईच धा० प्रत्याशापणम्, “प्रतीशेः सामय विहीर विरमालाः " ८ ४ १२३ । इति प्रतीतेविरमाला देशः । विरमाला । प्रतीक्षते । प्रा० ४ पाद । विरय विरत त्रि० विरमति स्म सावद्ययोगेभ्यो निते मेति विरतः । “गत्यकर्मण्यनाधारे वा" इति कर्तरिक्रमत्यय पं० सं० १ द्वार । प्राणातिपातादिनिवृत्ते, दश० २ श्र० । उत्त० । विषयसुखनिवृत्ते द्वा० २७ द्वा० । श्रौ० । दश० । सूत्र० । असंयमानिवृते, उत्त० १५ अ० । सूत्र० । प्राचा० । हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवृत्ते, आचा० १ ० ५ ० २३० । उत्त० । सूत्र० । संधा० । श्रचा० । निवृत्ते, सूत्र० १० २ अ० १ ४० । सम्यक्संयमरूपेणोत्थिते, सूत्र० १ श्रु० २ ० २० शे० । विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः । तपोरते, दश० ४ श्र० । घ० । पुं० । द्वाससप्ततितमे महाप्र, चं० प्र० २० पाहु० सू० प्र० । कल्प० । कर्म० । श्रा० म० । विरतिर्विरतं क्लीवे रूप्रत्ययः । मपुं० । सावधयोप्रत्याख्याने, कर्म० २ कर्म० । ( अविरयसम्महिडि रामे प्रथमभागे ८०६ पृष्ठे व्याख्यातमेतत् । ) विरयण - विरचन - न० । निक्षेपे, अनु० । विरयणा - विरचना - स्त्री० । प्रस्तारे, अनु० । विधौ, स्था० ४
ठा० २३० ।
विरयाऽविरइ--विरताविरति - स्त्री० । विरमणं - विरतं न विरति रविरतिः, विरतं चाविरति यस्यां मिनी सावितावि रतिः । देशविरतिसामायिके, विशे० । विरयाऽविरय - विरताविरत - त्रि० । विरतः स्थूलादिविशेषणेभ्यः प्राणातिपातादिभ्यो ऽविरतश्चानिवृत्तः सूक्ष्मादिविशेषणेभ्यः स एवेति बिरताविरतः । पञ्चा० ६ विष० । झा० ० । श्राव० । विशे० | देशविरते श्रावके, स० २४ सम० । ३०८
ठा० १ उ० । शा० । दश० भ० । प्रश्न० ।
विरसमेह विरसमेष-पुं० [विरुद्ध मेथे, भ० ७ ० ६ ० दे० ना० ।
विरसाहार- विरसाहार त्रि०|विरसं विगतरसं पुराणधाम्यीदनादि श्राहरन्तीति विरसाहाराः । विरसो वाऽऽद्दारो यस्य स विरसाहारः । अभिप्रदविशेषेण विरसंस्यैवाद्दर्तरि स्था० ५ ठा० १ उ० । सूत्र० । श्रौ० । विरह-विरह-पुं० विनाशे, पञ्चा १२ विय० । अभावे, पं० व० ३ द्वार । विजनत्वे, नि० । ज्ञा० । त्यागे, पञ्चा०४ विव० । " अटकाव्यं प्रकरणं कृत्वा यत्पुरुयमर्जितम् । विरहातेन पापस्य, भवन्तु सुखिनो जनाः ॥ १॥ ” विरहशब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितं विरहात्यारिमद्रसूरेरिति । हा० ३२ अष्ट० ।
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असत्तमा णं पुढवी उकोसेणं छम्मासा बिरहिया उबवाएणं, सिद्धिगणं उकोसेयं अम्मासा विरहिया उबवाएणं । ( ० ५३५ X ) ।
६.
अधः सप्तमीत्यत्र सप्तमी हि रक्षप्रभाऽपि कथञ्चिद् भव तीति तद्व्यवच्छेदार्थमधो ग्रहणम् अतस्तमस्तमेत्यर्थः । सा पत्मासान् विरहितोपपातेन यदाह" बीस मुडता १, सत्त अहोरस २ तह य पद्मरस ३ । मासो य ४ दो य ५ चउरो ६, धम्मासा विरहकालो उ ७ ॥ १ ॥” इति । सिद्धिगतावुपपातो गमनमात्रमुच्यते न जन्म, ततूनां सिद्धस्याभावादिति, इहोलम् - " एगसमभो जहनं, उक्कोसेणं हवंति इम्मासा । विरहो सिद्धिगईए, उब्बया नियमा १।" इति शेषं सुगममिति ॥ स्था ६ ठा० ३ ३० । एकान्त - कुसुम्भरक्तवस्त्रयोः, दे० ना० ७ धर्म १ गाथा । बिजने, नि० चू० १ उ० । विरहग्गि-विरहानि - पुं० । “इस्वः संयोगे” ॥ ८ ॥ १८४॥ इति संयोगे परे दीर्घस्य इस्यः प्रियविप्रयोगजनितशोकानी: प्रा०
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विरुद्ध
(१२३०) विरहय
अभिधानराजेन्द्रः। विरहय-विरहक-पुं० । पुष्पप्रधाने, विशः। अन्तरकाले, मा०] विराधना:-खण्डनास्तत्र-मानस्य विराधना ज्ञानविराधना। म०१ अ॥
ज्ञानप्रत्यनीकता-निहवादिरूपा पयमितरेऽपि नबरं दर्शनं विरहानल-विरहानल-पुं० । विरहाग्नी, “विरहानलजालक
सम्यग्दर्शनं क्षायिकादिचारित्रं सामायिकादीति ॥ ३॥ स.
३ सम० । प्रश्न । कस्यचिद्वस्तुनः खण्डने, आव०४ अ०। रालि अउ पहिलो को वि बुडविडिअो" । प्रा०४ पाद ।
स्था०ाखण्डनायाम् , विराहणा खंडणा भंजणा य एगट्ठा । विरहाल-देशी-कुसुम्भरक्ने वस्त्रे, दे० ना०७ वर्ग ६८ गाथा ।
नि० चू०१3०। पं० सू। अपराधासेवने, पो० १३ विव०। विरहालंभ-विरहालम्भ-पुं० । विजनालम्भे, नि० चू० १ उ०। पं०१०। औ० प्रा० चूछ । विराधना द्विविधा-संयमे, विरहाली-विरहाली-स्त्री० । कणधान्यभेदे, ध० २ अधि० । आत्मनि च। तत्र संयमविषया तावदियम्-"मणटो दंडो चिरहिय-विरहित-त्रि० । विजनस्थाने, विपा० १ श्रु०६०।
विकहा, वक्खेवो विसोत्तिया य साकरण। आलिंगणाए वियुक्त, मातु: । त्यक्ते. प्रव०४० द्वार। विशे“निरयगईणं
दोसा, संनिहिए वायमाणस्स ॥१॥" बु.१ उ०३ प्रक० । केवायं कालं विलं विरहिया" भ०१श०१० उ०।
नि०चू०। श्रा०चू। नाणस्स विराहणाणाणविराहणा। श्रा० विरा-वि-ली-धा। बिलयगमने, विराह । विलिजह । विली.
चू. “पडिकमामि तिहिं विराहणाहिं।"विगतामाराला
बिराहणा, नाणविराहणाए अकालसज्मायकारभो उदाहरई। यते । प्रा०४ पाद।
दसणविराहणाए सावगधीता जल्लगंधेगा चरित्तविराहलाए: विराग-विराग-पुं० । विरजने, प्राचा० १ श्रु० ३ ० ३ उ०।
खुाओ सुतो जातो, महिसोबा, एताहिं तिहिं विराहणादि "विरागरूवसु गच्छेजा" प्राचा०१ श्रु० ३ ०३ उ०। जो मे० जाव दुकडंति । प्रा००४मा । (एते हे अपि सूत्रका (सर्वकामेषु विरक्तता'सव्वकाम'शम्दे वक्ष्यते।)विरुद्धो
विराधने 'पलम्ब' शब्दे पञ्चमभागे ७०५ पृष्ठे गते।) (संयमरागो विरागः । अमनोरागे, विगतो रागो मन्मथभावो विराधना योगविराधनादिवालन्यता 'उस्सारकम्प' राब्वे यस्मात्स विरागः । वैराग्ये, तं०।
द्वितीयभागे ११७४ पृष्ठे गता।) विराड-विराट-पुं०। विशेषो राद् यत्र । देशभेदे , तद्देशा-विराहणी-विराधनी-खी। ज्ञानदर्शनचारित्रविराधमाकाधि नपे च । नगरभेदे, यत्र युधिष्ठिरकाले कीचकराजो रियां भाषायाम् , "सचा मोसा विराहणी होर" वश०७अा राजा मासीत् । “नवमं इयं विराडनगरं तत्थ णं तुम कीयं ('भासा' शब्दे पञ्चमभागे १५२३ पृष्ठे वक्तव्यतोका।) रायं भाउयसयसमग्गं करयल-जाव समोसाह" ॥शा०१ विराहिता-विराध्य-प्रव्यगदूषयित्वेत्यर्थे,सूत्र०१ ०१११०। ध्रु०१६ ०।
| विराहिय-विराषित-त्रि० । देशभने, पाव०५ ० । सुतरां विराम-विराम-पुं०। अवसाने, दश० अ०१०।
भने, एकान्ततोऽभावमनापादिते, ध० ३ अधि० । दुःखेन विरामपच्चयाभास-विरामप्रत्ययाभ्यास-पुं०विरामो वितर्का- | स्थापिते, आव०४ माघ। दिचिन्ताल्यागः स एव प्रत्ययो विरामप्रत्ययस्तस्याभ्यास:- | विराहियसंजम-विराधितसंयम-पुं० । विराधितः सरममा पौनः पुन्येन चेतसि निवेशनं विरामप्रत्ययाभ्यासः। वि-] खरिडतो न पुनःप्रायश्चित्तप्रतिपस्या भूयः सन्धितः संयमो रामप्रत्ययस्य शतताभ्यासे, "विरामप्रत्ययाण्यासा-नति |
यैस्ते विराधितसंयमाः। स्खण्डितचारित्रेषु, प्रशा०२० पद। नेति निरन्तरात् । ततः संस्कारशेषाच, कैवल्यमुपतिष्ठते।"
विरिंच-विरिचि-पुं० । ब्रह्मणि, प्रजापतौ पाइ० मा०। द्वा०२० द्वा०। घिरायंत-विराजमान-त्रि०। शोभमाने, शा०१ श्रु.१०।
| विरिंचिय-देशी-विमल-विरकयोः, ३० मा०७ वर्ग ६३ गाथा।
विरिचिर-दे० ना० अश्वविरलयोः, देना०७ वर्ग ६३ गाथा। प्रश्नारा०ासूत्र। विराल-विडाल-पुं० मार्जारे,प्रशा०११ पद। “जहा विडाला-|विरिक-देशी-पाटिते, दे० ना०७ वर्ग ६४ गाथा।
वसहस्स मज्झे, न मूसमावसही पसत्था" उत्त०३२ मा विरिजन-देशी-अनुचरे, देना०७ वर्ग ६६ गाथा। विराली-विडाली-स्त्री० । मार्जार्याम्, प्रशा०११ पद । सूत्राविरुभ-देशी-विरूपार्थे, दे०मा०७वर्ग ६३ गाथा। मा० म० । परिवादप्रयतमूषिकविधाप्रतिपक्षभूतायां वि-विरुद्ध-विरुद्ध-त्रिका प्रतिपन्थिनि, पश्चा०११ विवाहेत्वाबालप्रधानायां विद्यायाम् , आ०म०१०ापा०का विशा| भासभेवे. रत्ना। विदारी-सी० । बल्लाभेदे, प्रव०४द्वार । ध०।
अधुना विरुद्धलक्षणमाचक्षतेविराहग-विराधक-पुंगधिराधयतीति विराधकःशानादीनां साध्यविपर्ययेणैव यस्यान्यथाऽनुपपत्तिरध्यवसीयते स विनाशके, नि० चू०१ उ० । स०। राहा । विरुद्ध इति ॥ ५२ ॥ विराहणा-विराधना-स्त्री० । विराध्यन्ते दुःखं स्थाप्यन्ते प्रा- ___ यदा केनचित्साध्यविपर्ययेणाविनाभूतो हेतुः साध्याविनाणिनाऽनयेति विराधना । आव०४ाज्ञानादीनां सम्य-| भावभ्रान्त्या प्रयुज्यते तदाऽसौ विरुद्धो हेत्वाभासः। गननुपालनायाम् , प्रश्न०५ संव० द्वार।
अत्रोदाहरणम्तो विराहणा पणता, तं जहा-नाणविराहखा, दंस- यथा नित्य एव पुरुषोऽनित्य एव वा, प्रत्यभिज्ञानादिअविराहणा, चरित्तविराहणा । (सू०३+)। मत्वादिति ॥ ५३॥
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(१२३१) अभिवानराजेन्द्रः।
विरोहि मादिशब्दात्-स्मरणप्रमाणतदाभासादिग्रहः । अयं च हे- नर्मिविशेषविपरीतसाधनौ तु सौगतसम्मती हेत्वाभासातुः प्राचि साध्ये सांख्यादिभिराख्यातः स्थिरैकस्वरूपपुरुष- वेव न भवतः साध्यस्वरूपविपर्ययसाधकस्यैव विरुद्धत्वेनासाभ्यविपरीतपरिणामिपुरुषेणैव व्याप्तत्वाद्विरुखः । तथाहि- भिधानाद् अन्यथा समस्तानुमानोच्छेदापत्तिः । तथाहियद्येष पुरुषः स्थिरैकस्वरूप एव तदा सुषुप्ताद्यवस्थायामिष अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति हेतुरनित्यतां साधयन्नपि यो बाह्यार्थग्रहणादिरूपेण प्रवृत्यभावात् प्रत्यभिज्ञानादयः कदा-1 यः कृतकः स शब्दो न भवति, यथा घटः। यो यः कृतकः चिन्न स्युः, तनावे वा स्थिरैकरूपत्वहानिः । अवस्थामेदादयं स श्रावणो न भवति, यथा-स पवेति धमिणः स्वरूपं व्यवहारः इत्यप्ययुक्तम् , तासामवस्थातुर्यतिरेकाव्यतिरे- विशेषं च साधयत्येवेत्यहेतुः स्यात् , नचैवं युक्तमिति ॥ ५३॥ कविकल्पानुपपत्तेः, व्यतिरेके तास्तस्येति संबन्धाभावः। अ.| रत्ना०६ परि०। पुण्यपापपरलोकाद्यभ्युपगमपरेऽक्रियाषाव्यतिरेके पुनरवस्थातैवेति तदवस्थस्तदभावः । कथं च तदे- दिनि, तस्य सर्वपाखण्डिभिः सह विरुद्धचारित्वात् । कान्तैक्य अवस्थाभेदोऽपिभवेत् । तथैकान्तानित्यत्वेऽपि सा-| ग०२ अधि०। औ०। शा० । स्या० । देशकालनृपलोकध्ये सौगतेन क्रियमाणे अयं हेतुर्विरुद्धः परिणामिपुरुषेणैव | धर्मविरुद्धवर्जनम् । ध०२ अधिक। व्याप्तत्वात् । तथाहि-अत्यन्तोच्छेदधर्मिणि पुरुषे पुरुषान्तरचित्तबदेकसम्तानेऽपि स्मृतिप्रत्यभिशाने न स्यातां नित्या
विरुद्धरञ्ज-विरुद्धराज्य-२० । विरुद्धः स्वकीयस्य रामः प्रनित्ये पुंसि पुनः सर्वमेतदवदातमुपपद्यते । विरोधादेः सा.
तिपन्धी तस्य राज्य कटकं देशो वा विरुद्धराज्यम् । स्वरामान्यविशेषवचित्रमानवमासंभवात् । तथा तुरङ्गोऽयं -
अविरुखनृपस्य सेनायां, राज्ये च । पश्चा०१ विव०। ध. सङ्गित्वादित्याचप्यत्रोदाहर्तव्यम् ।ये च सति सपक्षे पक्ष- २०५०। विपक्षम्यापका इत्यादयो विरुद्धभेदास्तेऽस्यैव प्रपञ्चभूताः। विरुदरजाइक्कम-विरुद्धराज्यातिक्रम-पुं० । विरुनृपयो तथाहि-सति सपणे चत्वारो विरुद्धाः पक्षविपक्षव्यापको
राज्यं विरुवराज्यं तस्यातिक्रमोऽतिलानं विराज्यातियथा-नित्यः शम्मः कार्यत्वात् । सपक्षधात्र चतुर्वपि व्यो
क्रमः । विरुद्धनृपाझामन्तरेण तद्देशगमनरूपे स्थूलादत्तामादिनित्यः, स्वकारखसमवायः कार्यत्वम् ; उभयान्तोप
दानविरतेऽतिचारे, भाव०६०। श्रा० । उपा०। खक्षिता सत्ताऽनित्यत्वमित्येके, तदभिप्रायेण प्रागभावस्यापि निस्यत्वायुक्तमेव विरुजोदाहरणम् । म्यथा नवि- विरूड-विरूद-भि० । अारितेषु द्विदलधान्येषु, प्रव०४ शाब्यापि कार्यत्वं स्यात् । यदा त्वादिमत्वमेष कार्यत्वं तदा | | द्वार । । प्रध्वंसस्य निस्यत्वेऽपि कार्यस्थमस्तीत्यनैकान्तिकं स्यान्न
विरूव-विरूप-त्रि० । नानाभूते , प्राचा०१० १०३ विरुद्धमिति । अयं च परे शम्ने विपक्षे घटादौ व्याप्य व. ताविपक्षकदेशवृत्तिः पक्षव्यापको यथा-नित्यः श
उ०। सूत्र० । बीभत्सामवस्था प्राप्ते, शा०१ श्रु०८०। यः सामान्यवस्वे सत्यस्मदादिवायेन्द्रियग्राह्यत्वात् । अई- विरूवरूव-विरूपरूप-त्रि० । विरूपं बीभत्सं मनोऽनाहादि, स्य कस्याभिधानात् प्रहणयोग्यतामात्रग्राह्यत्वमुक्तम् , ते- विविध वा मन्दादिभेदादूपं येषां ते विरूपरूपाः। प्राचा०१ मास्य पशव्यापकत्वम् , विपक्षे तु घटादावस्ति न सुखा- ध्रु०६१०३ उपनिष्टरूपतया नानाप्रकारेषु, आचा. दौ ॥२॥ पक्षविपक्षकदेशवृत्तिर्यथा-निस्यः शब्दः प्रयत्नानन्त
१श्रु०२१०१ उ०। सूत्र० । नि० चू० । बीभत्सरूपे, रीयकत्वात् । अयं हि पुरुषादिशब्दे पक्षेऽस्ति न वाय्या
आचा०१ श्रु०१०१९०। विशम्ने घटादौ च, विपक्षे न विद्युदादौ ॥ ३ ॥ पक्षकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापको यथा-नित्या पृथिवीकृतकत्वात् । कु
विरेय-विरेक-पुं० । विभजने, वृ०३ उ०प्राव०। तकत्वं वृक्षमुकादावस्ति पृथिव्यां न परमाणी, विपक्षे तुघ- विरेवण-विरेचन-न० । कोष्ठशुद्धिरूपे, उत्त० १५ १० । टादौ सर्वत्रास्ति । असति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः पक्ष- वाम्त्यादिना-दिश०३०) निःश्रोतमादिभिर्वा अघोविविपक्षम्यापको यथा-आकाशविशेषगुणः शम्बः प्रमेयत्वात् ।।
रेके,बा०१ श्रु०१३ १०। आचापाव। उत्त०। (विपषु. चतुर्वप्याकाशे विशेषगुणान्तरस्याभावात् सपक्षाभा- रचने प्रायश्चित्तादि 'वमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम् ।) कः । अयं च पक्षे शम्दे, विपक्षे च कपादी व्याप्य वर्तते । निरूहे च। सूत्र०१ श्रु०६०।। पक्षविपकवेशवृत्तिर्यथा-तत्रैव पक्षे प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् | अयं पक्षे पुरुषादिशब्दे एव, विपक्षे च रुपादाववास्तिन विरोयण-विरोचन-पुं० । विविधैः प्रकार रोच्यन्ते दीप्यन्ते वाय्यादिशब्दे षिचुदादौ च ६ पक्षब्यापको विपक्षकदेशव- इति विरोचनाः । उत्तरदिग्वासिषु, स्था० ४ ठा० १ उ० । तिर्यथा-तत्रैव पक्षे बाहोन्द्रियग्राह्यत्वात् । अयं शब्दं पतं विरोल-मन्थ-धा। बिलोडने, “मन्थघुसल-विरोली " न्यानोति, विपक्षे तु रूपादावस्ति न सुखादौ ७ । विपक्ष- ॥ ४।१२१ ॥ इति मन्थधातोर्विरोलादेशः। विरोलइ । व्यापकः पक्षकदेशवृत्तिर्यथा-तत्रैव पक्षे अपदात्मकत्वात् ।
व पक्ष अपदात्मकत्वात्। मध्नाति । प्रा०४ पाद । अयं पक्षकदेशे वरात्मकेऽस्ति नान्यत्र , विपक्षे तु रूपादौ
विरोह-विरोध-पुं० । विपर्यये, विशे। द्विविधो हि विरोध:सर्वत्रास्ति । ननु चत्वार एव विरुद्धभेदा ये पक्षव्यापका मान्ये ये पक्षकदेशवृत्तयस्तेषामसिद्धलक्षणोपपन्नत्वात् ।।
परस्परपरिहारलक्षणः, सहानवस्थानलक्षणश्च । नं। सूत्रा तदसत् । उभयलक्षणोपपत्रत्वेनोभयव्यवहारविषयत्वात् । विरोहि-विरोधिन्-त्रिका विरुद्धे,पूर्वापरविरोधादिदोषामाते, तुलायां प्रमासप्रमेयष्यवहारबत् । धर्मिस्वरूपविपरीतसाच । स्या।
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(१२३२) अभिधानराजेन्द्र:।
विलुलिय बिल-विड-न० । बनिविशेषोत्यो खवणभेदे, प्राचा०२ ४० विपा०।१०।०। स्वकुलोचिस्येन श्टकारादिकरणे, राका १०१०६ उ० । जत्थ विसर लोणं नत्थि तरथ उविलासिय-विलासित-त्रि०। विलासः संजातोऽस्येति तार
सो पचति तं विललोणं भवति । नि० चू०११ उ०। कादिदर्शनादितच्प्रत्ययः । विलासबस्याम् , जी०३ प्रति०४ विलम-देशी-सूर्यास्तमने, देना०७ वर्ग ६३ गाथा। अधिया जातविलासे,हा०१९०१७ मा विलाम-देशी-अधिज्य-दीनयो, देना. ७ वर्ग १२ विलिन-देशी-सज्जायाम् , देना०७ वर्ग ६५ गाथा। गाथा।
विलिंगश-विलिान-नाकन्दर्पप्रधानानां वासंयोगादिविलमोलग-वेशी०। लुण्टाके, ये प्रामं मुष्णन्ति । १०१३० कानां क्रियाणां करणे, प्राचा०२७०२०२० ३प्रक०।
विलिंजरा-देशी-धानासु, देना०७ वर्ग ६६ गाथा। विलंब-विलम्ब-पुं० । परिमन्थरे, स्था० . ० ३ ०। विलिंपावंत-विलेपयत्-त्रि० । विलेपनं कुर्वति , नि० ० विलंबिय-विलम्बित-न० । सूर्येण परिभुज्य मुक्त नक्षत्रभेदे, व्य०१०। विशे। पं०व०मा०मा०प० बिलम्ब-विलिइय-व्यलीकित-त्रि० । सखातम्यलीके, म.१५श.। करणे, नाट्यभेदे च । मा०म०१०रा०।
|विलिय-व्यलीक-०।“ स्वप्नादौ"॥ १॥४६॥विलग्ग-विलग्न-त्रिकामवस्थिते, प्रभ०३माश्रद्वार । प्रा० स्थादेर्यस्येस्वम् । प्रा०।"पानीयादिग्वित्"।।१।१०१॥ म। नि० चू०।
इति मध्येकारस्त्येत्वम् । प्रा० । असत्ये, प्रा० । पिलद्वि-वियष्टि-त्री०। चतुरलोनाऽऽत्मप्रमाणे दण्डभेदे ,विलिब्बिली-देशी-कोमलनिःस्थामतनौ, दे०मा० ७ वर्ग "लट्ठी पायपमाणा, विलट्ठी चउरंगुणेण परिहीणा," ध० ६६ गाथा। ३ अधिक।
विलिहमाण-वित्तिखत्-त्रि । नितरामनेको वा कर्षति, विलय-विलय-पुं० । विनाशे, विशे। प्राव।
भ.८०१ उ. विलया-वनिता-स्त्री० । “ वनिताया विलया" ॥८।२। विलिहिज्जमाण-विलिख्यमान-त्रि० । खच्यमाने, कल्प०१
१२८॥ इति वनिताया विलयादेशो था। योषिति , प्रा० । अधि०१कण। विलवणया-विलपनता-स्त्री० । लिष्टभाषणे, ग० १ अधि०। विलीग-विलीन-त्रि० । किने, हा० १०१ मा जुगुप्सिते, विलवमाण-विलपमान-पि० । मार्तस्वरं कुर्वाणे, विपा] प्रश्न०१आश्रद्वार । बा। १०२० विलापान कर्षति.विपाप विलुंगय-बिलक-पुं० । निर्ग्रन्थे, अकिञ्चने, प्राचा०२० विलविय-विलपित-न० । आर्तस्वरे, प्रश्न. ५ संष
१ चू०१०२ उ०।
विलुंचण-विलुचन-ना विच्छिस्या विश्वतो वा लुश्चने,पिं०। द्वार। विलापे, मा०१ श्रुअा विलपितमिव विलपितम् । निरर्थकतया मत्तबालगीततुल्ये, उत्त०१३ अ०।ौ।
विलुंप-काइन्व-धा० । वाम्छायाम् ,"काहेराहाहि-लाहि
लापर-फ-मह-सिह-बिलुम्पाः ॥८।४।१६२ ॥ इति विलवियसह-विलपितशब्द-पुं० । भर्तृगुणान् स्मारं २
काक्षतेर्षिलुम्पादेशः । विलुपद । काइति । प्रा०४ पाद । प्रलापरूपे शब्दे, उत्त०१६ १० ।
| विलुपन-देशी-कीटे, दे० ना०७ वर्ग ६७ गाथा। विलसंत-विलसत्-त्रि० । दीप्यमाने, कल्प० १ अधि०३ क्षण।
मान, कल्प०१ प्राध०३ क्षण। विलंपइसा-विलम्पयित-पि० । कशामहारादिभिरत्यन्त दु:विलसिय-विलसित-न० । नेत्रविकारे, मा० १श्रु. १
खोत्पादनेन जुम्पके, सूत्र०२७०२० । सर्वस्वापहारेण अ०। कर्तरिकः । त्रि०। विलासवति, श्री।
प्राशु पश्चत्वं नयति, भाचा० १ ० ८ ० २ १० । विलह-देशी-धवले, दे० ना०७ वर्ग ६१ गाथा।
ग्रामघातादिना लुण्ठके, प्राचा०१ २०८१०५ उ०। विलाव-विसाप-पुं०। पारस्वरकरणे, प्रमा१माभाद्वार। विलुत्त-विलुप्त-त्रि० । विशेषण लुप्ते, "षिलुत्तो विवंतेहिशब्दविशेषे, प्रभ० ३ आश्र० द्वार।
ककेहि णंतसो" विलुप्तः-बुन्थितः। विशेषेण सुप्तो विलुप्तः
मासानेत्रान्त्रकालेयादिषु चुण्टित इत्यर्थः । उत्त० १६० । विलास-विलास-पुं० । सकामे नेत्रचेष्टाविशेष, अनु।हा। स्त्रीणां स्थानासनगमनाविरूपे चेष्टाविशेष,सच “स्थानास
विलुत्तहिमन-देशी-प्रासनिककार्यकरणानभिजे, देना ७ नगमनाना, हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो, यः
। वर्ग ७३ गाथा। लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ॥१॥" अन्ये त्याहु-विलासो-ने | विलुप्पमाण-विलुण्यम अजो विकारातथा बोकम्-"हाबो मुखधिकारः स्याद्भाव- | माने, उपा०७०। चित्तसमुद्भवः । विलासो मेत्रजोयो, विभ्रमो असमुद्भवः विलुलिय-विलुलित-त्रि० । शिथिलतथा पश्चले, प्रा. ३ ॥१॥"रा०ाी । मामा० । प्रश्न । ग० । बा०।। श्राश्रद्वार सुनिने, प्रश्न १ आभार ।
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बारा
(१२३३) विलेषण अभिधानराजेन्द्रः।
विवरीउप्पाय विलेवण-विलेपन-न० । कुमचन्दनादिभिलेपने, पो. विवञ्ज-विपर्यय-पुं० । अन्यथाकरणे, पं० २०४ द्वार ।
विवानी। कुडमचन्दनादिना विलेपनकरणे,ध०२ अधि०। व्यत्यासे, पश्चा०६ विव० । अस्मिस्तदध्यवसाये, विशे। विलेवणविहि-विलेपनविधि- । विलेपनप्रकारे, उपा० १ / विवजणा-विवर्जना-स्त्री०। विशेषतस्त्यागे, मिथ्याश्रुतश्र
अ०। (विलेवणविहिपरिमाणं करेइ इति 'माणद' शब्दे द्वि-| वणकुटाष्टसङ्गत्यागे, उत्त० ३२ । "तस्सेस मग्गो गुरुतीयभागे १०६ पृष्ठे गतम् ।) यक्षकर्दमादिपरिक्षाने,०२व- विद्धसेवा, विवजणा बालजखस्स दूरा ।" उत्त०२२ अ०। २० । कलाभेदे, शा०१ श्रु०१०। औ०।
विवजत्थ-विपर्यस्त-त्रि०। विपरीते, पवा० १२ विव० । विलेविया-विलेपिका-स्त्री०। पानभेदे, विलेपिकायाम्, वृ०। विवजयंत-विपर्ययत-त्रि०ा अनेक प्रकारैः सूमोक्तः परिहविलेपिका द्विविधा-एका काजिकविलेपिका, द्वितीया | रति, दश०५१०१ उ०। उदकविलेपिका । वृ०१ उ०२ प्रक० ।
विवजास-विपर्यास-पुं० । वैपरीत्यभवने, विसे। सूत्र। विलोड-वि-सं-बद-धा० । विरुद्ध संबादे, विपरीतकथने,
आचा० । “मूढो विपरियासमुवेति" विपर्यासमुपैति, तत्त्वेऽ "विसंवदेविप्रह-विलोट्ट-फंसाः ॥ ८।४। १२६ ॥ इति ।
तत्त्वाभिनिवेशमतत्वे च तत्त्वाभिनिवेशं च । हितेऽहितबुद्धिविसपूर्वस्य वदधातोर्विलोट्टादेशः। पिलोहह । विसंवदति ।
मेवं सर्वत्र विपर्यय विदधाति, उक्तं च “दाराः परिभवकारा, प्रा०४ पाद।
बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। मोहो जनस्य कोऽयं, ये रिविलोव-विलोप-पुं० । उच्छेदे, सूत्र० १ श्रु०१ ० २ उ०।।
पवस्तेषु सुहृदाशा ॥१॥" प्राचा०१ श्रु० २ ० ३ उ० । अवच्छेदने, प्राचार श्रु०२ १०३ उ०। सद्धर्माद् बाधने,सूत्र० |
|विवञ्जिय-विवर्जित-त्रि० । रहिते, जी०१ प्रति० । अष्ट । १ श्रु०१३ अ०।
विकले, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । विन-विन्व-पुं० । संयोगे-"इत पद् वा"॥८।१।८५॥
विवडणी-विवर्धनी-स्त्री०। विशेषेण वृद्धिहेतो, "कामराइति इत एत्वं वा । वेल्लं । विलं । प्रा०। बहुबीजफले
गविवणि" विषयरागस्य अतिशयेन वृद्धिकीम् । उत्त० वृक्षभेदे, प्रशा०१७ पद । आचा। अनु० । स्थानान्तरालेषु, देना०७ वर्ग ८६ गाथा। विल्लल-विल्ल(ल्वल-पुं०। सनखचतुष्पदविशेषे,प्रशा०१ पद। विवणि-विपणि-पुं० । वणिकपथे, औलामा० । दरिद्वाप
णे, वृ०१ उ०। विलिय-विलीय-त्रि० । दीप्यमाने, विशेषेण लीने, औ०।। विव-इव-अव्य० । इवार्थे, तं० । “मिव पिव विव व्व व विन|
विवाम-विवर्ण-त्रि० । अशोभनवणे, प्राचा०२ श्रु०१०५
अ०२ उ० रूपवणे, प्रश्न.२ आश्रद्वार। विगतवणे, दशक इवार्थे वा ॥ ८।२।१८२ ॥ इति इवार्थे विवशब्दः । प्रा० ।
५१०२ उ०। विवइ-विपद्-श्री०। “भापद्विपत्संपदा द इ."||४||
द्विपर्ण-त्रिकापर्णद्वययुक्त,"विवन्नो रुक्खो" प्राचा०२४० ४०० ॥ इति विपदोऽन्त्यस्य दस्य ः। विपत्ती, प्रा०४ पाद ।
१चू०५१०२ उ० द्विपर्णा-वृक्षः, अरोद्गमावस्थायां हि विवक-विपक्क-त्रि० । सुपरिनिष्ठिते, प्रकर्षपर्यन्तमुपगते, उ.]
प्रथम द्वौ पर्णी भवतः । वृ०१ उ०१ प्रक०। दयागते, स्था०५ ठा०२ उ०।
विवपच्छंद-विवर्णच्छन्दस्-त्रिका परायत्ततया अपेतस्वाभिविवक्ख-विपक्ष-पुतविपरीत पक्षा-धमा विपक्षः। विवाह प्राये, दश००२ उ०।
तवस्तधर्मस्य विपरीते धर्म,अनुशयथा शृगाली अशिषाऽप्य-विवमसारसह-विवर्णसारशब्द-पुं०। विगतसर्वद्रव्यभाण्डे, मालिकशब्दपरिहारार्थ शिवा भएयते । अनु० । वैध-| म्ये, विशेविसरशः पक्षी विपक्षः,साध्यादिविपर्यये,दश०१
उत्त०१४ अ०। अ.(हविपक्षः पञ्चम इति 'अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे
विवत्ति-विपत्ति-स्त्री० । कार्यविनाशे, निचू. १५ उ० । ४०६ पृष्ठे गतम्।)
वि० "सम्प्राप्तिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां द्विविधा स्मृता। विवक्खपडिसेह-विपक्षप्रतिषेध-पुं०। अनुमानवाक्यस्य प
सम्प्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु, विपत्तिश्च विपर्ययः॥१॥" निच. छेऽवयवे, दश०१० (विशेषव्याख्या 'अणुमारा' शब्द
१५ उ०। प्रथमभागे ४०६ पृष्ठे गता।)
विवद्धन-विवर्द्धन-न० । विविधैः प्रकारैर्वृद्धिकरे, मा० १ विवस्खा-विवचा-स्त्री० । धनुरिच्छायाम् , पिं०।
श्रु०१० विवक्खापव्व-विवक्षापूर्व-त्रि० । विवक्षाकारणे, दश विवर-विवर--न। विगतावरणतया विवरम्। माकाशे. भ. अ०॥
१७ श०८ उरन्ध्र, उत्त०२०प० । आचा० । सूत्र० । विवच्छा-विवत्सा-स्त्री० । वत्सरहितायाम् , पृ०१ उ०३ विवरण-विवरण-न० । बालानां विजढीकरणे, ध०२ अधिक।
प्रक० । सिन्धुसाते नदीभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ०। विवरीउप्पाय-विपरीतोत्पात-पुं० । अशुभसूचके, प्रकृतिविविवच्छिव-विपश्चित-पुं०। एकान्तपण्डिते,द्वा० ३१ द्वा०।। कारे, प्रश्न २ाकारा
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( १२३४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिवरीय
विवरीय-विपरीत- त्रि० । परमार्थादन्यथाभूते, सूत्र० १ ० १ ० ४ उ० । विपर्यस्ते, नि० चू० १ ३० । विवरीयपरूवणा- विपरीतप्ररूपणा - स्त्री० । अन्यथा पदार्थकथनायाम्, आव० ४ श्र० । उन्मार्गदेशनायाम्, ध० २ अधि०। विवलीयभासग - विपरीतभाषक - पुं० । भाषकाद् विपरीतो विपरीतभाषकः । राजदन्तादिवत्समासः । श्रभाषके, अनु०। विवस - विवश - त्रि० । पराधीने, कर्म० १ कर्म० । विवाग - विपाक - पुं० । विपचनं विपाकः । शुभाशुभकर्मपरिणामे, स० १४५ सम०। नं० । अशुभफलदायकत्वे, पञ्चा०१ विव० । विपच्यमानतायाम्, रसप्रकर्षावस्थायाम्, भ० श० ३२७० | द्वा० । उदये साध्ये, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । परिणामे, श्राव० ४ श्र० । अनुभावे, स्था० ४ ठा० २ ३० । परिपाककाले, उस० ३२ श्र० । सूत्र० । फले, सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । पुष्टतायाम्, श्रा० म० १ ० । द्विगुखिदशानां द्वितीयेऽध्ययने, स्था॰ १ ठा० ३ उ० । भारते वर्षे श्रागामिन्यामुत्सर्पिण्यां
भविष्यति एकोनविंशे जिने, स० । जी० ।
विवागखंति–विपाकक्षान्ति-स्त्री० । विपाके क्षान्तिः विपाकशान्तिः । कर्मफलविपाकं नरकादिगतमनुपश्यतो दुःखभी रुतया मनुष्यभारमेव वाऽनर्थपरम्परामालोचयतो विपाकदर्शनपुरस्सरायां क्षान्ती, पो० १० विव० ।
विवागविजय-- विपाकवि ( च ) जय - पुं० । विपाकः कर्मणां ज्ञानावरकत्वादि विचीयते-निर्णीयते विजीयते-अभिगमद्वारेण परिचितीक्रियते यस्मिंस्तद् विपाकविज (च ) यम् । स्था० ४ ठा० १ उ० । अशुभकर्मविपाकानुचिन्तनार्थे प्रकृत्यादिभेदभिनस्य कर्मणः स्वरूपध्यानरूपे धर्मध्याने, ध० २ अधि० । प्रा० चू० ।
विवागविरस - विपाकविरस- पुं० । बहुतरदुःखानुबन्धबीजत्वेन परिणतिविरसे, द्वा० १३ द्वा० ।
विवागसाधण - विपाकसाधन-न० । अनुभावकारणे, पं० सू० १ सू० ।
विवागसुय- विपाकश्रुत-न० । विपचनं विपाकः । शुभाशुभकपरिणाम इत्यर्थः । तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम् । नं० । एकादशात्रे, विपा० ।
अथ विपाकश्रुतमिति कः शब्दार्थः १, उच्यते- विपाकःपुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतम् - आगमो विपाकश्रुतम् इदं च द्वादशाङ्गस्य प्रवचनपुरुषस्यैकादशमङ्गम् । इह च शिष्टसमय परिपालनार्थ मङ्गलसम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि किल वाच्यानि भवन्ति । तत्र वाधिकृतशास्त्रस्यैव सकलकल्याणकारि सर्ववेदिप्रणीतश्रुतरूपतया भावनन्दीरूपत्वेन मङ्गलस्वरूपत्वात् न तो भिन्नं मङ्गलमुपदर्शनीयम् । अभिधेयं च शुभाशुभकर्मणां विपाकः, स चास्य नाम्नैवाभिहितः । प्रयोजनमपि श्रोतुगतमनन्तरं कर्मविपाकावगमरूपं नाम्नैवोक्तमस्य । यत्किल कर्मविपाकावेदकं श्रुतं तत् शृण्वतां प्रायः कर्मविपाकावगमो भवत्येवेति । यत्तु निःश्रेयसावाप्तिरूपं परम्परप्रयो
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जनमस्य तदाप्तप्रणीततयैव प्रतीयते, न ह्याप्ता यत्कथञ्चिन्निःश्रेयसार्थे न भवति तत्प्रण्यनायोत्सहन्ते प्राप्तत्वहानेरिति । सम्बन्धोऽप्युपायोपेयभावलक्षणो नाम्नैवास्य प्रतीयते, तथाहि - इदं शास्त्रमुपायः कर्म्मविपाकावगमस्तूपेयमिति । यस्तु गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धोऽस्य तत्प्रतिपादनायेदमाहतेणं कालेयं तेणं समएणं चंपा णामं गयरी होत्था, वरण - पुनभद्दे चेइए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने, वरणभो चउइसपुब्बी चउनाणो गए पंचहिं अणगारसहिं सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाणुपुवि० जाव जेणेव पुण्यभहे चेइए अहापडिरूवं० जाव विहरह, परिसा निरगया धम्मं सोच्चा निसम्म जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं अजजंबूनामं अ|णगारे सत्तुस्सेहे जहा गोयमसामी तहा० जाब झाणको
डोवगए विहरति । तए गं अअजंबूनामे अणगारे जायस ० जाव जेणेव अजसुहम्मे अणगारे तेखेव उवागए तिक्खुत्तो याहिणपयाहिणं करोति करेत्ता वंदति वंदेत्ता नम॑सति नर्मसित्ता जाव पज्जुवासति, एवं वयासी - (सू० १ ) ( विपा० )
एक्कारसमस्स णं भंते ! अंगस्य विवागसुयस्स समयेणं० जाव संपत्ते के श्रट्ठे पन्नत्ते, तते गं अअसुहम्मे भगगारे जंबुं अणगारं एवं वयासी एवं खलु जंबु ! समयेयं ० जाव संपतेणं एकारसमस्त अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नता, तं जहा - दुहविवागा य १, सहविनागाय २, जहां भंते! समणेणं० जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता, तं जहा - दुहविवागा य १, सुहविवागा य २ | ( सू० २ )
'दुहविवागा यति दुःखविपाकाः पापकर्मफलानि दुःखा नां वा - दुःखहेतुत्वात् पापकर्मणां विपाकास्ते यत्राभिधेयतया सन्त्यसौ 'वरणानगर' मिति न्यायेन दुःस्खविपाकाः - प्रथ मथुतस्कन्धः, एवं द्वितीयः सुखविपाकः। तप णं' ति ततःअनन्तरमित्यर्थः ।
पढमस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स दुहविवागाणं समणें ० जाव संपत्ते कह अज्झयणा पन्नत्ता १, तते गं भजसुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी एवं खलु जंबू ! समषेणं • जव आइगरेखं तित्थगरेणं ० जाव संपत्तें दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा - " मियपुत्ते १ (य) उज्झियते२, अभग्ग ३ सगडे ४ बहस्सई५ नंदी ६ । उंबर७ सोरियद, य देवदत्ता य अंजू य १० ॥ १ ॥ " ( सू० २ + )
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( १२३५ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
विवाग
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'मियते' इत्यादि गाथा, तत्र 'मियपुत्ते' सि मृगापुत्राभिधानराजसुतवक्लव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं मृगापुत्रः १ । एवं सत्र, नवरम् 'उक्किए' त्ति उज्झितको नाम सार्थवाहपुत्रः २, 'अभग्ग', ति सूत्रत्वादभग्नसेनो विजयाभिधानचौर सेनापतिपुत्रः ३, 'सगडे' चि शकटांभिधान सार्थवाहसुतः ४, 'बहस्सा ' ति सूत्रत्वादेव गृहस्पतिदत्तनामा पुरोहितपुत्रः ५, 'नंदी' इति सूत्रत्वादेव नन्दिवर्द्धनो राजकुमारः ६, 'उंबर' सि सूत्रत्वादेव उदुम्बरदत्तो नाम सार्थवाहसुतः ७, 'सोरियदने' त्ति शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धपुत्रः ८, चशब्दः समुच्चये 'देवदत्ता य' त्ति' देवदत्ता नाम गृहपतिसुता, चः समुच्चये 'अंजू य' सि अजूनाम सार्थवाहसुता १० । विपा० १ ० १ श्र० । अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययने किञ्चिल्लिख्यतेतेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गगरे गुणसिले चेसोहम्मे समोसढे जंबू० जाव पज्जुवास एवं वयासी-जति णं भंते ! समणेणं० जाव संपत्तेणं दुहविवागासंं श्रयमट्ठे पत्ते . सुहविवागाणं भंते ! समखेणं ० जाव संपत्तेणं के अड्डे पष्पत्ते १, तते गं से सोहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी- एवं खलु जंबू समयेणं • जाव संपत्ते सुहविवागाणं दस अज्झयणा पद्मत्ता, तं जहा“सुबाहू १ भद्दनंदी२य, सुजाए य३ सुवासवे ४ । तहेव जिखदासे५ य, धणपती य६ महम्बले७ ॥१॥ भद्दनंदी ८ म हर्ष ६, वरदते १० ।” (०३३ x) विपा० २ श्रु० १० । से किं तं विवागसुयं १, विवागसुए गं सुकडदुक्कडाणं क्रम्माणं फलविवागे आघविअंति, से समासओ दुविहे पष्पत्ते, तं जहा-दुहविवागे चैव, सुहविवागे चैव । तत्थ गं दस दुहविवागाणि, दस सुहविवागाणि । से किं तं दुहविवागाणि १, दुहविचागेस गं दुहविवागाणं नगराई उज्जाणारं चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंपराओं य आघविअंति । सेत्तं दुहविवागाणि । से किं तं सुहविवागाणि १, सुहविवागेसु सुहविवागाणं खगराई उज्जाणारं चेहयाई वणखंडा रायायो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइड्डिविसेसा भोगपरिचाया पव्वञ्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहालाई परियागा पडिमा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाखाई पाश्चवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाया पुख बोहिलाहा, अंतकिरियाच य आघविअंति । दुहविबागेसु यं पाखाश्वाय लियवयण चोरिक्ककरणपरदारमेडुससंगयाए महतिब्वक सायदि यप्पमायपावप्पनोयप्रसुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा खिरयगतितिरिक्खजोणिबहुविहवसणसयपरंपरापनद्धाणं मणुयते वि आगयायं जहा पावकम्म
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विधाग सेंसेस पावगा होन्ति फलविवागा बहवसणविणासनासाकन्नुर्द्वगुट्टकरचरणनहच्छेयण जिन्भच्छेश्रण अंजणकडग्गिदाइगयचलणमलणफालखउलंब बसूललयालउडलट्ठिभंजयतउसीसगत तल्लकलकलअहिसिंचणकुंभिपागकंपखाथिर - बंधणवेहवज्झकत्तणपतिभयकरकरपल्लवणादिदारुणासि दुक्खाणि प्रणोवमाणि बहुविविधपरंपराणुबद्धा ण सुचंति पावकम्मबल्लीए, अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्खो तवेल घिरधणियबद्धकच्छेण साहेणं तस्स वावि हुआ । एसो य सुहविवागेसु णं सीलसंजमणियम गुणतवोवहाणेसु साहूसु सुविrिe अणुकंपासयप्पयोगतिकाल मइविसुद्धभत्तपालाई पंथयमणसाहियसुहनीसेसतिब्वपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धा जह य निव्वर्त्तेति उ बोहिलाभं जह य परितीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियडभरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं प्रमाणतमंधकारचिक्खिल्लसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभिय चक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंड प्रणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधंति मउगं सुरगणेसु जह य अणुभवंति सुरगण विमाणसोक्खाणि श्रणोवमाणि, ततो य कालंतरे चुत्राणं इहेव नरलोगमागया आउवपुपुष्परूवजातिकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमेहाविसेसा मित्तजणसयणधणधष्यविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुन्भवाथ सोक्खाख सुहविवागोत्तमेसु, अणुवरयपरंपराबद्धा असुभाणं सुभाणं चैव कम्माणं भासिमा बहुविहा विवागा विवायसुयम्मि भगवया जिणवरेण संवेगकारणत्था अने वि य एवमाझ्या बहुविहा वित्थरेय अत्थपरूवणया आघविअंति, विवागसुअस्स गं परित्ता वायणा संखेजा अणुभगदारा० जाव संखेजाओ संगहणीयो । से गं अंगडयाए एकारसमे अंगे वीसं अज्झयणा वीसं उदेणकाला वीसं समुद्देसणकाला, संखेजाई पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पष्मत्ता । संखेआणि अक्खराणि भयंता गमा अता पजवा० जाव एवं चरणकरणपरूवणया श्राघविअंति, सेत्तं विवागसुए || ११ || ( सू० १४६ )
'से किं त' मित्यादि, विपचनं विपाकः - शुभाशुभकम्मैपरिणामस्तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं ' विवागसुए ण 'मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं ' फलविपाके चि फलरूपो विपाकः फलविपाकः तथा ' नगरगमणाई' ति भगवतो गौतमस्य भिक्षाद्यर्थं नगरप्रवेशनानीति । एतदेव पूर्वोक्तं प्रपञ्चयन्नाह - ' दुहविवागेसु ण 'मित्यादि, तत्र प्राणातिपातालीकवचनचौर्यकरणपरदारमैथुनैः सह 'सर्सगयाए 'त्ति या ससंगता सपरिग्रहता तथा संचितानां क मेणामिति योगः, महातीत्रकषायेन्द्रियप्रमादपापप्रयोगाशु
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विवागलय
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माध्यवसायसञ्जितानां कर्मणां पापकानां पापानुभागा-अशुभरसा ये फलविपाका - विपाकोदयास्ते तथा ते आव्यायन्त इति योगः । केषामित्याह - निरयगतौ-तियैग्योनी च ये बहुविधव्यसनशतपरम्पराभिः वडा ते तथा तेषां जीवानामिति गम्यते । तथा मनुवते चि मनुजत्वेऽप्यागतानां यथा पापकर्मशेषेण पापका भवन्ति फलविपाका अशुभा विपाकोदया इत्यर्थः तथा श्राख्यायन्ते इति प्रकृतम् । तथाहि वधो-यश्यादिताडनं वृषणविनाशोवर्द्धितककरणं तथा नासायाश्च कर्णयोश्च श्रोष्ठस्य चाङ्गुष्ठानां च करयोध चरणयोध भवानां स यच्छेदने तथा जिहादनम् अंजन 'चि अञ्जनं तप्तायः शलाकया नेत्रयोः
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या देवस्य सारतैलादिना 'कडग्गिदातिकानांविदलवंशादिमयानामग्निः कटाग्निस्तेन दाहनं कटाग्निदाहनं; कटेन परिवेष्टितस्य बाधनमित्यर्थः तथा गजचलनमखनं फालनं विदारणम् उम्बर्ग-वृक्षशाखादावुइन्धन तथा शलेम लतया सकुटेन यथा च भजने गात्राणां तथा पुगा-धातुविशेषे सीसकेन च तेनैव तमेन तैलेन कलकल ति शब्देनाभिषेचनं तथा कुम्भ्यां भाजनविशेषे पाकः कुम्भीपाकः कम्पन-शीतलजलाच्छोटनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजननं तथा स्थिरवन्धनं-निविनियत्र वेधः कुन्तादिना शस्त्रेण भेदनं कर्त्तनं-त्यगु त्रोटनं प्रतिजयकरं भयजननं तच तत् करप्रदीपनं व बसनायेतस्य तैलाभिषिकस्य करयोरग्निप्रबोधनमिति कर्मधारयः, ततश्च वधश्च वृषणविनाशश्चेत्यादि यावत्प्रतिभयकरकरमदीपनं चेति इन्द्रः ततस्तानि आदियेषां दुःखानां तानि च तानि दारुणानि चेति कर्म्मधारयः । कानीमानीत्याह-दुःखानि किम्भूतानि - अनुपमानि दुःखविपाकेवाख्यायन्त इति प्रक्रमः । तथेदमाख्यायते बहुविविधपरपराभिः दुःखानामिति गम्यते । अनुबद्धाः सन्ततमालि - हिता बहुविधपरम्परानुबया जीवा इति गम्यते न मुच्यन्तेन त्यज्यन्ते, कया ? - पापकर्मवल्ल्या दुःखफलसम्पादिकया किमित्याह - यतो वेदयित्वा - अननुभूय कर्मफलमिति गम्यते, दुर्यस्मादर्थे, नास्ति न भवति मोहो-वियोगा कर्मणः सकाशात् जीवानामिति गम्यते । किं सर्वथा नेत्याह- तपसा अनशनादिना किम्भूतेन :- पृतिः - वि समाधान तपा' घसियति सत्य बडा-निष्पीडि ता कच्चा बन्धविशेषो यत्र तत्तथा तेन प्रतिचलनेस्पर्थः । शोधनम् अपनयनं तस्य कर्मविशेषस्य 'वाद' चि सम्भावनायां ' होज्जा' सम्पद्येत नान्यो मोक्षोपायो ऽस्तीति भावः । एत्तो ये ' त्यादि इतश्चानन्तरं सुखविपाकेषु, द्वितीवधुतस्कन्धान्ययवित्यर्थः यदाख्यायते तदभिधीयते इति शेषः, शीलं ग्रह्मचर्य समाधिर्वा संयमः -- प्राणातिपातविरतिर्नियमा - श्रभिग्रहविशेषाः गुणाः- शेषमूलगुणाः उत्तरगुणाश्च तपोऽनशनादि एतेषामुपधानं विधानं येषां ते तथा श्रतस्तेषु शीलसंयमनियमगुणतपउपधानेषु केष्वित्याहसाधुषु यतिषु किम्भूतेषु ?- सुष्ठु विद्दितम् - अनुष्ठितं येषां ते सुविहितास्तेषु भक्तादि दत्त्वा यथा बोधिलाभादि निर्वर्त्तयन्ति तथहाख्यायत इति सम्बन्धः । इद्द च सम्प्रदानेऽपि सप्तमी न दुटा विषयस्य विवक्षयात् म
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(१२३१) अभिधानराजेन्द्रः ।
विवागस्य
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नुकम्पा - अनुक्रोशस्तत्प्रधान आशयः - चित्तं तस्य प्रयोमो व्यावृतिरनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन तथा तिकालम ति' ति त्रिषु कालेषु या मतिः - बुद्धिर्यदुत दास्यामीति परितोषो दीयमाने परितोषो दत्ते च परितोष इति सा त्रिकालमतिस्तया च पानि विशुद्धानि तानि तथा, तानियानिपानानि चेति अनुकम्पाश्यप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्ध भक्तपानानि प्रदायेति क्रियायोगः केन प्रदात्याह-प्रयतमनसा- श्रादरभूतचेतसा, हितोऽनर्थपरिहाररूपत्वात् सुखहेतुत्वात् सुखः शुभो वा 'नीसेस' त्ति निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् तीव्रः - प्रकृष्टः परिणामः - श्रध्यवसानं यस्याः सा तथा सा निधिता-असंशया मतिः-तसुखनिःश्रेयसतीमपरिणामनिश्चितमतयः, किं ? पय च्छिऊणं' ति प्रदाय, किं भूतानि भक्तपानानि १-प्रयोगेषु शुद्धानि दायकदानव्यापारापेक्षया सकलाशंसादिदोषरहितानि ग्राहकव्यापारापेक्षया चोङ्गमादिदोषवर्जितानि ततः किं ? यथा च येन च प्रकारेण पारम्पर्येय-मोचसाथकत्वलचणेन निर्वर्तयन्ति भव्यजीया इति गम्यते तुन्दो भाषामात्रार्थः, बोधिलाभम् यथा च परितीकुर्वन्ति-हस्वतां नयन्ति संसारसागरमिति योगः । किभूतं?-नरनिरवतिर्थकुसुरगतिषु पञ्जीचानां गमनं परिभ्रमण स एव विपुलो विस्तीर्णः परिवतों-मत्स्यादीनां परिवर्तनमनेकधा सक्षर यत्र स तथा तथा अरतिभयविषादशोकमिध्यात्वान्येव शैलाः पर्वतास्तेः सइद सीयों यः स तथा ततः कर्म्मधारयोऽतस्तम्, इह च विषादोदैन्यमात्रं शोकरत्वाकन्दनादिचिह्न इति तथा अज्ञानमेव तमो अन्धकारं महान्धकारं पत्र स तथा अतलं, 'विवि सुदुत्तारं' ति चिक्खिलं - कर्दमः संसारपक्षे तु चिक्खिसे विषयधनस्यजनादिप्रतिबन्धस्तेन सुदुस्तरो दुःसोसाय यः स तथा तम्, तथा जरामरणयोनय एव संतुभितं महामरस्यमकराद्यनेकजलजन्तुजातसम्मर्देनं प्रविलोडितं चक्रवालं जलपरिमाण्डल्यं यत्र स तथा तं, तथा षोडश कषाया एव स्वापदानि - मकरग्राहादीनि प्रकाण्डचरडानिश्रत्यर्थे रौद्राणि यत्र स तथा तम्, अनादिकमनवदग्रमनन्तं संसारसागरमिमं प्रत्यक्षमित्यर्थः, तथा यथा च सागरोपमादिना प्रकारेण निबध्नन्त्यायुः सुरगणेषु साधुदानप्रत्ययमिति भावः, यथा चानुभवन्ति सुरगणविमान सीख्यानि अनुपमानि ततब्ध कालान्तरेण च्युतानाम् इदेव सि तिर्यग्लोके नरलोकमागतानामायुर्वपूर्वर्णरूपजातिकुलजन्मारोग्यबुद्धिमेधाविशेषा आख्यायन्त इति योगः, तत्रायुषो विशेष इतरजीवायुषः सकाशात् शुभत्वं दीर्घत्वं च एवं वपुःशरीरं तस्य स्थिरसंहननता वर्णस्योदारगीरत्वं रूपस्यातिसुन्दरता जातेरुतमायं कुलस्याप्येवं जन्मनो विशिष्टक्षेत्रकाली निराबाधत्वम् आरोग्यस्य प्रकर्षः बुद्धिरीत्पत्तिक्यादिका तस्याः प्रकृष्टता मेधा अपूर्व शक्तिस्वा विशेषः प्रकृतैवेति तथा मित्रजनः सुलोकः स्वजन:पितृपितृव्यादिः धनधान्यरूपो यो विभवो - लक्ष्मीः स धनधान्यविभवस्तथा समृद्धेः - पुरान्तः पुरकोशकोष्ठागा-रबलवाहनरूपा याः सम्पदो यानि साराणि - प्रधानानि वनितेषां यः समुदायः समूहः स तथा इत्येतेषां
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(१२३७) विवागसुय
अभिधानराजेन्द्रः। स्तत एषां ये विशेषतः प्रकर्षास्ते तथा, तथा बहुविधका- छलजातिप्रधानो यः, स विवाद इति स्मृतः॥४॥ मभोगोद्भवानां सौक्यानां विशेषणतीहापि सम्बन्धनीयम् ,
लब्धिः-सुवर्णादीनां लाभः ख्याति-प्रसिद्धिः ताभ्यारामविपाक उत्तमो येषां ते शुभविपाकोत्तमारतेषु जीवेष्वि
मर्थः प्रयोजन यस्यास्ति स तथा तेन, तुशब्दः पुनःशब्दार्थः, ति गम्यम् । इह चेयं षष्टपणे सप्तमी, तेन शुभविपाकाध्यय
स चायवादविवादयोर्विशेषद्योतकः स्याद्भवेत् यो वाद नवाच्यानां साधूनामायुष्कादिविशेषाः भविपाकाध्ययने
इति संबन्धः, दुस्थितेन-दरिद्रेण मनोदुःस्थितेन वा अमहाप्यास्यायन्ते इति प्रकृतम् । अथ प्रत्येकं श्रुतस्कन्धयोरभिधेये
स्मना-अनुदारचित्तेन एवंविधस्य हि पराजये हि विषादपुण्यपापविपाकरूपे प्रतिपाद्य तयोरेव योगपधेन ते पाह-'म
त्तिच्छेदादिदोषप्रसनेन साधोःपरलोकबाधेति कृत्वा वादस्य गुवरये' स्यादि, अनुपरता-अविच्छिन्ना ये परम्परामुबद्धाःपारम्पर्यप्रतिबद्धाः, के ?-विपाका इति योगः, केषाम् ?
विरुद्धता स्यादत एव कारणात् विशेषितोऽसाविति । इह च
सह वादिनेति गम्यम्, छलजातिप्रधानो यस्तत्र छलं वाक्छअशुभानां शुभानां चैव कर्मणां प्रथमद्वितीयश्रुतस्कन्धयोः
लादि यथा नवकम्बलो देवदत्तः जातयो दूषणाभासाः यथाकमेणैव च भाषिताः-उला बहुविधा विपाकाः विपाक
अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति , अस्य हेतोर्दूषणं भुते एकादशाले भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः-सं
तथाहि-यदि घटगतं कृतकत्वं हेतुस्तदा तच्छब्देन सिद्धबेगहेतयो भावाः अन्येऽपि चैवमादिका आख्यायन्त इति
मित्यसिद्धो हेतुः, अथशब्दगतं तदनित्यत्वेन व्याप्तं न सिद्धपूर्वोक्नक्रियया वचनपरिणामाद्वोत्तरक्रियया योगः, एवं च
मित्यसाधारणानकान्तिको हेतुरिति तत्प्रधानो यः स तथा बहुविधा विस्तरेणार्थप्ररूपणता प्राख्यायन्त इति । शेष
स एवंविधो वादो विवाद इति स्मृत-एवमभिहित इति ॥४॥ करख्यम् , नवरं संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाणेति, तत्र किल एका पदकोटी चतुरशीतिश्च लक्षाणि द्वात्रिंशश्च
___ कस्माद्विवादोऽयं स्मृत इत्याह । मूलसूत्रम्सहस्राणीति ॥ ११ ॥ स०१४६ सम० । नं० । “ नामेण पूस- विजयो रात्र सन्नीत्या, दुर्लभस्तत्ववादिनः । मित्तो, समणो समणगुणनिउणविंधतितो। होही अपच्छिमो। तद्भावेऽप्यन्तरायादि, दोषोऽदृष्टविघातकृत् ॥ ५ ॥ किर, विवायसुयधारको धीरो॥" ति।
विजयः-प्रतिवाद्यभिभवद्वारेण जयो हिर्यस्मात्-अत्र छलाविवाय-विवाद-पुं०।विरुद्धो वादो विवादः । श्राचा०१७० दिप्रधाने विवादे सन्नीत्या-शोभनेन न्यायेन यतस्तत्र सन्नी४०२ उ०। विप्रतिपत्ती, प्रक्ष० २ संव० द्वार । विप्र- त्युद्ग्रहणपरस्यापि छलाय शब्दादिना निग्रहस्थानावाप्तिः तिपसिसमुत्थवचने, क्रोधकार्यवादस्य क्रोधकषायविशेष. स्यात्, दुलेभी न सुलभः। कस्यत्याह-तत्त्ववादिनः वस्तुत. भ०१२००५ उ० । स०। सूत्रवाक्कलहे. जी०१ स्ववदनशीलस्य साधोः अथात्यन्तप्रमादितया छलादिपरिहप्रति०। कलहो ति वा भंडणं ति वा विवादो त्ति वा एगदें। रतो विजयस्य लाभो भवति तत्रान्तरायादिदोषमाह-तानि० चू०१६ उ०।
घेऽपि आस्तां विजयाभावो दोषस्तद्भावेऽपि परनिराकरणे छविहे विवादे पामते, तं जहा-ओसक्कतित्ता उस्सकइ
हि अन्तरायः प्रतिवादिनो लाभख्यात्यादिविघात आदिर्य
स्य शोकप्रद्वेषादेः स तथा स चासौ दोषश्चेत्यन्तरायादि. त्ता अणुलोमहत्ता पडिलोमतित्ता भइत्ता भेलतित्ता।।
दोषः संभवतीति गम्यते । स हि पराजितो राजादिभ्यो न (सू०४१२)
किंचिल्लभते, लब्धं चास्य हियते । किंविधो दोष इत्याह-म'छबिहे' त्यादि षधिः-पभेदो विप्रतिपन्नयोः कचि
दृष्टविघातकृतत् परलोकव्याहतिकारीति ॥५॥ हा० १२ दर्थे वादो-जल्पो विवादः प्रशप्तः, तद्यथा-'ओसक्कात्त'
अष्ट। ति अवष्वक्य-अपस्त्यावसरलाभाय कालहरणं कृत्वा
शक्रेशान्योर्विवादःयो विधीयते स तथोच्यते, एवं सर्वत्र, कचिच्च 'ओ- अत्थि णं भंते ! तेसिं सकीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं सक्कावत' ति पाठस्तत्र प्रतिपन्थिनं केनापि व्याजे
विवादा समुप्पअंति, हंता अस्थि । से कहामिदाथि पकनापसऱ्या-अपस्तं कृत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते, 'ओसकात्त'त्ति उत्ष्यष्क्य-उत्सृत्य लब्धावसरतयोत्सुकी
रेही, गोयमा, ताहे चेव णं ते सकीसाणा देविंदा देवरासकावइत्त'त्ति पाठान्तरे परमत्सकीकत्यलया. यावो सणंकुमारं देविंदं देवरायं मणसीकरेंति । तए बसरो जयार्थी विवदते, तथा 'अणुलोमहस' त्ति विवा-| M से सणंकुमारे देविदे देवराया तेहिं सकीसाणेहिं देविदेहिं दाध्यक्षान् सामनीत्याऽनुलोमान् कृत्वा प्रतिपन्थिनमेव वा|
देवराईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव सकीसाणाणं दे. पूर्व तत्पत्ताभ्युपगमेनानुलोमं कृत्वा 'पडिलोमहत्ता' प्रतिलोमान् कृत्वा अध्यक्षान् प्रतिपन्थिनं वा, सर्वथा सामर्थ्य
विंदाणं देवराईणं अंतियं पाउम्भवंति, जं से वयइ तस्स सतीति, तथा 'भइत्त' ति अध्यक्षान् भक्त्वा --संसेव्य,
आणा उववायवयणनिद्देसे चिट्ठति । (सू०१४.) भ. तथा 'भेलहत्त' ति स्वपक्षपातिभिर्मिधार कारणिकान् कृ-३ श०१ उ०। त्वेति भावः । क्वचितु-'भेयइत्त' सि पाठः, तत्र भेदयित्वा विवाह-विवाह-पुं० । पाणिग्रहणे , प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । केनाप्युपायन प्रतिपन्थिनं प्रति कारणिकान् द्वेषिणो विधाय वैवाड़ी विवाह एव तत्कर्म या वैवाहां सामान्यस्वपक्षग्राहिणी वेति भावः । स्था० ६ ठा०३ उ०।
तो गृहस्थधर्म इति प्रकृतम् , अग्रेऽपि सर्वत्र क्षेयम् । लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याद्, दुःस्थितेनाऽमहात्मना।। अत्र लौकिकनीतिशास्त्रमिदम्-द्वादशवर्षा स्त्री पोड
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विवाह
शवर्षः पुमान् तौ विवाहयोग्यौ, विवाहपूर्वी व्यवहारः कुटुम्योत्पादन परिपालनारूपधतुरो वन कुलीनान् करोति । बुझितो परविधानम् अधिवादिसाक्षिकं व पाणिम विवाहः । स च लोकेऽष्टविधः, तत्र अलंकृत्य कन्यादानं
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यो विवादः १. भिववनियोगेन कन्यादानं प्राज्यापत्य २ गोमिथुनदानपूर्वमा २ यत्र यशार्थमुत्यजःकन्याप्रदानमेव दक्षिणा देवा । पते धर्म्या विवाहात्वारः गृदन्योचितदेषपूजनादिव्यवहारासामेतद्न्तरङ्गकारणत्वात्। मातुः पितुर्वन्धूनां चाप्रामाण्यात् परस्परानुरागेण समवायाङ्गान्धर्वः ५, पणबन्धेन कन्याप्रदानमासुरः ६, प्रसह्य कम्याग्रहणाद्राक्षसः ७, ममत कन्याप्रदात्पैशाचःमः पते च चत्वारोऽधः। यदि वधूवरयोरनपपाएं परस्परं - चिरस्ति तदा अथय अपि धर्म्याः शुद्धकलत्रलाभफलो विवाहः । तत्फलं च सुजातसुत संततिरनुपहता चित्तनिदित्यविहितत्यमाभिजात्याचारविशुद्धत्वं देवातिथिबान्धवसत्कारानवद्यत्वं चेति । कुलवधूरक्षणोपायास्त्वेते गृहकर्मविनियोगः परिमितोऽर्थसंयोगः, अस्वातन्त्र्यं सदाचार मातृतुल्य स्त्री लोकावरोधनमिति ॥ ६०१ अधि० । “वर्षासु शुभकार्याणि नान्यान्यपि समाचरेत् । गृहिणां मुख्यकार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा ॥ १ ॥ " कल्प० १ अधि० ७ क्षण । श्रा० म० । ( सर्वतः पूर्वमृषभेन भगवता युगलिकमनुष्याणां विवाहोऽनुष्ठापित इति 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे २६२७ पृष्ठे उम्) ( एवं जगहुरुविषय महा दानविप्रतिपत्तिनिरतस्वेव राज्यदानविषयतां निरस्य परमतं राजशब्देऽस्मिक्षेत्र भागे दर्शितम्) (विवाह करण परविवाह करण' शभा पृष्ठे व्याख्यातम्।) विवाहचूलिया व्याख्या चूलिका- खी० । व्याख्या- भगवती तस्याश्चूलिका व्याण्याचूलिका संक्षेपिकानां दशानां प ञ्चमेऽध्ययने स्था० १० ठा० ३ उ० । नं० । पा०| ध० । ती०/ विवाहपत्ति - व्याख्याप्रज्ञप्ति - स्त्री० । भगवत्यपरनामके प्रवचनपुरुषस्य पञ्चमे २० विवाह (घ) प्र(झा)ज्ञ (चि) प्ति- स्त्री० भगवत्यपरनामके प्रवचनपुरुषस्य पञ्चमे श्रङ्गे, भ० ।
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अथ विवाहपति सि कः शब्दार्थः १, उच्यते, विवि धा-जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः अभिविधिना पनिखिल पाया मर्यादा वा परस्पराफीलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानि - भगवतो महावीरस्य गौनमादिविनेयान् प्रति प्रतिपदार्थप्रतिपादनानि व्याक्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते - प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम् ? अथवा विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्त इति व्याख्या:- अभिलाप्यपदार्थवृत्तयस्ताः प्र शाप्यन्ते यस्याम् २, अथवा व्याख्यानाम्-अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः शप्तयो - ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः ३, श्रथवा व्याख्यायाः - अर्थकथनस्य प्रशायाश्च - तद्धेतुभूतबोधस्वव्याख्यासु वा प्रज्ञाया प्राप्तिः - प्राप्तिः श्रात्तिर्वा आदानंयस्याः सकाशादसी व्याख्याप्रातिपतिर्वा ४-५ व्याख्याप्रज्ञाद्वा-भगवतः सकाशादातिरातिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा ६, अथवा विधाड़ा- विविधा विशिष्टा वा -
(१२३८) अभिधानराजेन्द्रः ।
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विवाहपति
प्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्यां विवाहा वा विशिष्ट सन्ताना विबाधा वा प्रमाणावाधिताः प्रज्ञा श्राप्यन्ते यस्याः, विवाहा चासौ विवाधा चासौ या प्रति-अर्थमा विवादविवादशाप्तिः विवाधप्रज्ञाप्तिर्विबाधप्रशतिर्वा ७-८-१-१०- ( भ० १ ० १०) स० । अनु० पा० विवाहपतित स स्य पञ्चाङ्गस्य समुन्नतजयकुञ्जरस्पेय ललितपरपद्धतिबुद्धजनमनोरञ्जकस्य उपसर्गनिपाताव्ययस्वरूपस्य घनोदाशब्दस्य लिङ्गविभक्तियुक्तस्य सदास्यातस्य समस्य देवताधिष्ठितस्य सुवर्णमरिडीदेशकस्य नानाविधाद्भुतमपरचरितस्य पशुप्रश्न सह समासस्य चतुरयोगचरणस्य ज्ञान चरणनयनयुगलस्य व्यास्तिकपर्याया स्टिफनपतिपदन्तमुरालस्य निधपव्यवहारनयसमुझतकु
म्भद्वयस्य प्रस्तावनावचनरचनाप्रकाण्डशुण्डादण्डस्य निगमनवचनातुच्छपुच्छस्य कालाद्यष्टप्रकारप्रवचनोपचारचारुपरिकरस्य उत्सर्गापवादसमुच्छलदतुच्छघस्टायुगल घोषस्य यशः पटइपटुप्रतिरवापूर्णदिक्चक्रवालस्य स्याद्वादविशदाङ्कुवशीकृतस्य विविधहेतुहेतिसमूह समन्वितस्य मिथ्यात्वाशानाविरमरसनाय श्रीमन्महाबीरमहाराजेन नियुक्रस्य बलनियुक्रक कल्पनायक मतिप्रकल्पितस्य मुनियोधरनायाधमधिगमाय पूर्वमुनिशिल्पिकल्पितयो वरगुणत्वेऽपि हस्वतया महतामेव वाञ्छित वस्तुसाधनसमयोवृत्तिचूर्णिनाकियोस्तदन्येषां च जीवाभिगमादिविविधविवरणरकलेशानां संघट्टनेन बृहत्तरा अतातामप्युपकारिणी हस्तिनायकादेशादिव गुरुजनवचनात्पूर्वमुनिशिल्पिकुलोत्पत्रैरस्माभिर्नाडिकेयं वृत्तिरारभ्यते इति शास्त्रप्रस्तावना । ( सू० १ ) भ० १ ० १ उ० ।
णमो अरिहंताणं समो सिद्धाणं समो आयरिया मो उवज्झायाणं णमो लोए सम्बसाहू ( ० णमो बंभीए लिवीए । ( सू० २ ) ।
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अधिकृतशास्त्रस्येव महतत्याक्ति मङ्गलेन, स्थादिदोषप्राप्तेः सत्यं किन्तु शिष्यमतिमङ्गल परिग्रहार्थे मङ्गलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय वेत्युक्तमेवेति । श्रभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन व्याख्यानतिरिति नानेो का इति ते पुननोच्यन्ते तत एव श्रोतृप्रत्याष्टफ सखिजे । तथाहि रह भगवतोऽर्थव्याख्या अभिधेयतया उक्ताः, तासां च प्रज्ञापना बोधो वाऽनन्तरफलं, परम्परफले तु मोक्षः, स चास्याऽऽतवचनावादेव फलतथा सिद्धो, न ह्याप्तः साक्षात् पारम्पर्येण वा यन मोक्षानं तत्प्रतिपादयितुमुत्सहते अनासत्यप्रसङ्गात् तथाऽयमेव सम्ब न्धो यदुतास्य शास्त्रस्येदं प्रयोजनमिति ॥ २ ॥ तदेवमस्य शास्त्रस्यैकथुतस्कन्धरूपस्य सातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्थ उद्देशक दशसहस्री (१०००० ) प्रमाणस्य प ( ३६००० ) सहस्रपरिमाणस्य श्रष्टाशीतिसहस्राधिकलक्षद्वय (२०००) प्रमाणपदराशमंकुलानि दर्शितानि प्रथमे शते ग्रन्थान्तरपरिभाषयाऽध्ययने दशोदेशका भवन्ति । उद्देशका - श्रध्ययनार्थदेशाभिधायिनोऽध्ययनविभागाः । उद्दिश्यन्ते - उपधानविधिना शिष्यैस्याचार्येण, यथाएतावन्तमध्यवनभागमधीत्येवमुदेशास्त पयोदेशका
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(१२३६) अभिधामराजेन्द्रः । विवाहपति सांध सुखधरसस्मरणादिनिमित्तमाद्याभिधेयाभिधानद्वारेण पदर्शयन् भगवान् सुधम्मैस्वामी जम्बूस्वामिनमाथित्वेदसंप्रदयां गाचामाद
माइ
तेयं कालेयं तेणं समएवं रायगिहे नामं नयरे होत्था, वयणओ, तरस यं रायगिहस्स महिया नगरस्स उतरपुरछिमे दिसीभाए गुणसिलए नामं चेइए होत्था, सेखिए राया, चेल्ला देवी । ( सू० ४ )
अथ कथमिदमवसीयते यदुत - सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमभिसंबन्धग्रन्थमुक्तवानिति ?, उच्यते-सुधस्थामिवाचनाया एवानुवृतत्वात् श्राह च "तित्थं च सुम्माश्रो, निरवया गणरा सेसा" सुधम्मस्वामिन जम्बुवाम्येव प्रधानः शिष्योऽतस्तमाश्रित्येयं वाचना प्रवृतेति । तथा षष्ठाने उपोद्घात एवं दृश्यते - यथा किल सुधर्म्मस्वामिनं प्रति जम्बूनामा प्राह-" जा णं भंते ! पंचमस्स - गस्स विवाहपतीय समसे भगवया महावीरे अयम पत्ते, छटुस्स ं भंते ! के श्रट्ठे पनन्ते ?” चि तत एवमिहा पि सुधर्मैव जम्बूनामानं प्रत्युपद्धातमवश्यमभिहितवानव्यवसीयत इति । अयं चोपोद्घातप्रन्थो मूलटीकाता ख मस्तं शास्त्रमाश्रित्य व्यास्यातोऽप्यस्माभिः प्रथमोदेशकमा - श्रित्य व्यापारयते प्रतिशतं प्रत्युद्देशकमुपोद्घातस्येद्द था
नेकधाऽभिधानादिति । अयं च प्राण व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृता न व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादि'ति । 'तेयं काले' ति, ते इति प्राकृतीवशात्तस्मिन् यत्र तनगरमासीत्, एकारोऽन्यत्रापि वाक्यालङ्कारार्थो यथा"इमा णं भंते! पुढवी" त्यादिषु काले अधिकृतावसर्पिणीच
विभागलाण इति 'ते' ति तस्मिन् पत्रासी भगवान् धर्मकथामकरोत् 'समय'ति समये-कालस्यैव विशिष्टे विभागे, अथवा तृतीयैवेयं ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनेय 'रायगिदे' सि एकारः प्रथमैकवचनप्रभधः 'कयरे श्रागच्छद्द दित्तरुवे' इत्यादाविव । ततश्च राजगृहं नाम नगरं 'होत्थ' ति अभवत् । नन्विदानीमपि तचगरमस्ती स्यतः कथमुक्रमभवदिति, उच्यते, वर्णकग्रन्थोक्तविभूतियुक्रं तदैवाभयत् न तु सुधर्मस्यामिनो बाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्यात्कालस्य तदीयशुभभावानां दानिभावात् । 'वन' त्ति इद्द स्थानके नगरवर्णको वाच्यः, प्रन्थगौखभयादिव तस्यालिखितत्वात् । भ० १ ० १ उ० । " इति गुरुगमभ सागरस्यादमस्य, स्फुटमुपचिताः पचमाअस्य सद्यः प्रथमशतपदार्थापर्तगर्तव्यतीतो विवरणपोतं प्राप्य सद्धीवराणाम् ॥ १ ॥” इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचितायां भगवतीवृती प्रथमशतं समाप्तमिति । भ० १ श० १० उ० ।
अथ द्वितीयं व्याख्यायते तचापि प्रथमोदेशकः तस्य चायमभिसम्बन्धः-प्रथमशान्तिमोदेशकान्ते जीवानामुत्पादविरोऽभिहिततु तेषामेवोच्हासादि चिन्त्यतइत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमुपोद्घातसूत्रानन्तरसूत्रम् । गाहा
ऊसासखंदर वि य १, पुर्वि २ दिव २, अन्नउत्थि ४ भासा ५ य । देवा य ६ चमरचंचा ७, समय खित्त & उत्थाय १० वीचसए ॥१॥ म० २ ० १ ३० ।
प
रायगिंदचलणदुक्के कंखपश्यसे य पगइपुढवीओ । जाते नेरइए, बाले गुरु य चलाओ ॥ १ ॥
"
अधिकृतगाथार्थो यद्यपि वच्यमाणोदेशकदशकाभिगमे स्वयमेवावगम्यते तथाऽपि बालानां सुखावबोधार्थमभिधीयते - तत्र 'रायगिहे' त्ति लुप्तसप्तम्येकवचनत्वाद्राजगृहे नगरे वक्ष्यमाणोद्देशकदशकस्यार्थो भगवता श्रीमहावीरेण दर्शित इति उपाध्येयम्। एवमन्यथापीष्टविभयन्ताभ्यसे या 'चल' ति चलनविषयः प्रथमोदेशकः चलाये - लिए' इत्याद्यर्यनिर्णयार्थ इत्यर्थः १, 'दुसे' ति दुःखविषयो द्वितीयः 'जीवो भदन्त स्वयं कृतं दुःखं वेदवती त्यादिननिर्णयार्थ इत्यर्थः २ किमि थ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्यदर्शनग्रहरूपो जीवपरिणा मः स एव प्रकृष्टो दोषो जीवदूषकाप्रदोषस्तद्विषयस्तृतीयः, 'जीवेन मदन्त । काङ्ग्रामोदनीय कर्म कृत मि श्याद्यर्थनिर्णयार्थ इत्यर्थः ३, चकारः समुच्चये, 'पग' ति प्रकृतयः- कर्मानुदेशकस्यार्थः, 'कति भदन्त ] क प्रकृतयः ?" इत्यादिवासी ४, 'पुढचीओ' ति रत्नप्रभादिषि व्यः पञ्चमे वाच्याः, कति भदन्त ! पृथिव्यः ?' इत्यादि च सूत्रमस्य५, 'जावतो 'ति यावच्छब्दोपलक्षितः षष्ठः' यावन्तो भदन्त ! अवकाशान्तरात्सूर्य' इत्यादिवासी 'नेरइट' सिनेरि कशब्दोपलक्षितः सप्तमः नैरविको भदन्त निरये उत्पद्यमा नः' इत्यादि च तत्सुत्रम् । ७, 'बाले' ति बालशब्दोपलक्षित
"
म 'एकान्तवालो मदन्त ! मनुष्यः' इत्यादिसूत्रवासी 'गुरु' ति गुरुकविषयो नयमः कथं भदन्त ! जीवा गुरुकमागच्छन्ति इत्यादि सूत्रमस्य यः समुच्चयार्थः 'चलणाओ' ति बहुवचननिर्देशाच्चलनाद्या दशमोद्देशकस्यार्थाः, तत्सूत्रं वैयम्- 'अम्यूथिका मदत ! एवमाख्यान्ति चलद् अचलितमित्यादी'ति प्रथमशतोदेशक प्रहणिगाथार्थः ॥ १ ॥
तदेवं शास्त्रोद्देशे कृतमङ्गलादिकृत्योऽपि प्रथमशतस्यादौ विशेषतो मङ्गलमाह
नमो सुषस्य || ( ० ३ ) ।
'नमो सुपस्स' ति नमस्कारोऽस्तु श्रुताय - द्वादशाङ्गीरूपा वायवचनाय मन्यदेवतानमस्कारो मङ्गलाय भवति, न च तमिदेयतेति कथमयं मङ्गलार्थ इति ?, अपोष्यतेश्रुतमिदेवतैव तां नमस्करणीयत्वात्, सिद्धवत्, नमस्कुर्वन्ति च श्रुतमईन्तो, 'नमस्तीर्थाये' ति भणनात् । तीर्थच तं संसारसागरोचरणासाधारणकारणत्वात् तदाधार त्वेनैव च सहस्य तीर्थशब्दाभिधेयत्वात् तथा सिद्धानपि मलार्थमहन्तो नमस्कुर्वन्त्ये- "काऊनमोहारसियामहिं तु सो मिरहे " इति वचनादिति ॥ ३ ॥
एवं तावत्प्रथमशतोद्देशकाभिधेयार्थलेशः प्राग्दर्शितः, ततच 'यथोद्देशं निर्देश, इति न्यायमाश्रित्यादितः प्रथमोद्देशकार्य वाच्यः, तस्य च गुरुपर्वक्रमलक्षणं सम्बन्ध
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(१९४०) अभिधानराजेन्द्रः ।
विवाहपति
" श्रीपमा गुरुपिण्डे रात खितानेकशते द्वितीयम्। अनैपुणेनापि मया व्यचारि, सूत्रप्रयोगक्षवचोऽनुवृस्या ॥१॥" इति । भ० २ ० १० उ० ।
तृतीयं व्यान्यायते अस्य चायमभिसम्बन्धः अनन्तर उस्तिकाया उाः इह तु तद्विशेषभूतस्य जीवास्तिकायस्थ विविधधर्मा उच्यते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्य तृतीयशतस्योदेशकार्थसङ्ग्रहायेयं गाथाकेरिसविउव्वणाचम-रकिरियजाणित्थिनगरपाला य । अहिवह इंदियपरिसा, ततियम्मि सए दसुद्देसा ॥६॥ भ० ३ श० १ उ० ।
मु
" श्रीपञ्चमाङ्गस्य शतं तृतीयं व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्तिम् शक्रोऽपि गन्तुं भजते दि यानं, पान्या सुखाये कियो न शक्तः ? ॥ १ ॥ " भ० ३ ० १० उ० । तृतीयते प्रायेण देवाधिकार उक्तः, अतस्तदधिकारवदेवचतुर्थ शतं तस्य पुनरुद्देशकार्याधिकारसंग्रहगाथा - चचारि विमाणेर्दि, चचारि व होति रामदाणीहिं । नेरइए लेस्साहिय, दस उद्देसा चउत्थसए । भ० ४ श० १ उ० । 'स्वतः सुबोधेऽपि शते तुरीये, व्याख्या मया काचिदियं विरब्धा । दुग्धे सदा स्वादुतमे स्वाभावात्, क्षेपो न युक्तः किमुशर्करायाः ॥ १ ॥ भ० ४ श० १० उ० ॥
चतुथैतान् लेश्या उक्ताः, पचमते तु प्रायो लेश्यावन्तो निरूप्यते इत्येवं संबन्धस्यास्वोदेशकसंग्रहाय गायेयम्
परवि अनिल गंठिय, सद्दे छउमायुएयण खियंठे । रायगिहं चंपा चं-दिमा य दस पंचमम्मि सए ॥ १ ॥
भ० ५ ० १ उ० ।
'धीरोदनाद्वेरिव पञ्चमस्थ, शतस्य देशानिय साधुशब्दान् । विभिद्य कुश्येव बुधोपदिष्ट्या, प्रकाशिताः सन्मणिवन्मयाऽर्थाः ॥ १॥ भ० ५ श० १० उ० । व्याख्यातं विचित्रार्थे पञ्चमं शतम् ।
अधावसरावातं तथाविधमेव बहमारम्यते, तस्य तस्य बोदेकार्थसंग्रहणी गाधेयम्
वेण आहार मह-स्सवे य सपएस तमुय भविए य । साली पुढची कम्म, अस्थि दस अट्टगम्मि सर |१| 'बेय' त्यादि, तत्र 'बेयण' ति महावेदनो-महानिर्जर इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरः प्रथमः १ । ' आहार ' ति अहाराद्यर्थाभिधायको द्वितीयः २ । 'महस्सवे' यति महाश्रवस्य पुला बच्पन्ते इत्याद्यर्थाभिधानपरस्तृतीयः ३ 'सपएस' सि सप्रदेशो जीवोऽप्रदेशो वा इत्याद्यर्थाभिधायकतुर्थः । 'समुदयति तमस्कायार्थनिरूपणार्थः पञ्चमः भवि चि भन्यो-नारकत्वादिनोत्पादस्य योग्यस्तन्पतानुगतः
६। खालि चि शास्यादिधाम्ययव्यताऽधितः स समः ७पुषि सि रत्नप्रभारिपृथिवीचयताऽथोंहम 'कम्म' ति कर्मबन्धाभिधायको नवमः । ' अन्नस्थिति अन्ययुधिषयतार्थी दशमः १० इति । ०६ श० १ ३० । “ प्रतीत्य भेदं किल नालिकेरं, षष्ठं शतं मन्मतितमति । तथापि विद्वत्सभायां नियोजय भीतं परोपयोगम् १०६० १००।
विवादपण
व्याख्यातं जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरं षष्ठं शतम् । अथ जीवाचप्रतिपादनपरमेव सप्तमं शतं व्याक्यायते, तत्र बादावेवोदेशकार्थसंग्रहगाथा
आहार विरति थावर, जीव पक्खी य आउ अणगारे । उमत्था संवुड - उत्थि दस सत्तमम्मि सए ॥१॥ 'आहारे' त्यादि 'आहार' त्ति आहारकानाहारकवशव्यतार्थः प्रथमः । ' विरह ' चि प्रत्याख्यानार्थी द्वितीयः । तत्र 'पावर'ति वनस्पतिषशम्यतार्थस्तृतीयः 'जीव'ति संसारिजीवप्रज्ञापनार्थचतुर्थः पक्की व सि अचरजीवयोनिवलतार्थः पञ्चमः।' 'चि आयुष्यार्थः षष्ठः । 'अणगारे' सि अनगारवक्तव्यतार्थः सप्तमः । ' उमत्थ' ति वस्वमनुष्यषङ्गम्यतार्थोऽष्टमः।'असंबुद्धसिनारम्यतार्थो नवमः । उत्थियति कालोदाविप्रभृतिपरतीर्थिकयम्यताय दशम इति भ० ७ ० १ ० " शिष्टोपदिष्टयष्टवा, पदविन्यासं शनैरहं कुर्वन् । ससमशतविवृतिपथे, सतिमान् वृद्धपुरुष ॥ भ० 35 इव ॥ १
७ श० १० उ० ।
पूर्व पुलादयो भावाः प्ररूपिता इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्ररूप्यन्त इत्येवं सम्बद्धमष्टमशतं विव्रियते; तस्य बीदेशकसंग्रदार्थ पोले 'त्यादि गाथामाद
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पोग्गल श्रीविस रुक्ख किरिय आजीव फासुगमदत्ते । पडिणीय बंधारा-हणा य दस अट्ठमम्मि सए ॥ १ ॥ 'पोग्गल 'सि पुलापरिणामार्थः प्रथम उद्देशका पुल एवोच्यत एवमन्यत्रापि । 'सीविस' ति भासीविषादिविषयो द्वितीयः क्खति संख्यातजीवादिवृक्षवि वयस्तृतीयः । किरिय' ति कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थयतुर्थः 'आजीव' चि ब्राजीविचक्रव्यतार्थः पञ्चमः 'फासुय' ति प्रासुकदानादिविषयः षष्ठः । 'अदत्ते 'ति अदतादानविचारणार्थः सप्तमः । ' पडिणीय 'ति गुरुप्रत्यनीकायर्थप्ररूपणार्थी एमः' बंधे चि प्रयोगवन्धायभिधानाथ नवमः । ' आराहण' ति देशाराधनाद्यर्थो दशमः । ०८ ० १ ० " सङ्गक्त्याहुतिना विखमहसा पार्श्वप्रसादाग्निना, तक्षामाक्षरमन्त्रजप्तिविधिना विघ्नेन्धनप्लोषितः । सम्पने ऽनधशान्तिकर्मकरवे समादहं नीतवान् सिविं शिल्पिमतव्यास्थान सम्मन्दिरम् ॥ १॥ ० ८ शु० १० उ० ।
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व्याख्यातमष्टमशतम् । अथ नवममारभ्यते अस्य चायममिसम्बन्धः मते विविधाः पदार्था उक्ाः नवमेऽपि य एव भङ्गयन्तरेणोच्यन्ते इत्येवं सम्बन्धस्योदेशकार्यसंसूचिकेयं गाथा
जंबुद्दीने जोइस, अंतरदीवे असोच गंगेय ।
इंग्गामो पुरिसे नवमम्मि समम्मि चोचीसा ॥ १ ॥ 'बुद्दीवे' त्यादि तत्र ''जम्बूद्वीपपव्यतावि पयः प्रथमोदेशकः । 'जोइस 'ति ज्योतिष्कविषयो द्वितीयः। 'अंतरदीये' ति अन्तरद्वीपविषयाः अष्टाविंशविदेशका अ सोच'सि अत्वा धम्मं लभेतेयाच चैत्रतिपादनार्थ एकत्रि तमः । 'गंगेय' ति गाङ्गेयाभिधाना उनमारयन्तार्थी द्वात्रिं
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विवाहपएणत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विवाहपरवत्ति शतमः । 'कुंडग्गामे ति ब्राह्मणकुण्डग्रामविषयत्रयस्त्रिंशत्त- रूपणार्थो दशम इति । भ० १२०१०। “गम्भीररूपस्य मः। 'पुरिसे'त्ति पुरुषाः पुरुष मन्तीत्यादिवशव्यतार्थश्चतुर्ति- महोदर्यत्, पोतः परम्पारमुपैति मज। गतावशक्तोऽपि निशत्तम इति । म०६ श०१ उ०। “अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारि- जप्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्य विजृम्भितं तत्॥१॥"म० १२ पः, श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसर्पितेजसा । दुर्घष्यसंमोहतमोप- श०१० उ०। सारणा-द्विभक्तमेवं नवमं शतं मया ॥१॥" भर श० ३४ उ०।
व्याख्यातं द्वादशं तत्र चानेकधा जीवादयः पदार्था उकाव्याख्यातं नवमं शतम् । अथ दशमं व्याख्यायते-अस्यायम
स्त्रयोदशेऽपि त एव भङ्गयन्तरेणोच्यन्त इत्येवं सम्बभिसम्बन्धोऽनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिता इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्त इत्येवं सम्बन्धस्यास्योहे
द्वमिदं व्याख्यायते । तत्र पुनरियमुद्देशकसंग्रहगाथाशकार्थसंग्रहगाथेयम्
पुढवी देवमणंतर-पुढवी आहारमेव उववाए । दिसि संवुडमणगारे, आइडी सामहत्थि देवि सभा। भासा कम्मऽणगारे, केयाघडिया समुग्धाए ॥१॥ उत्तर अंतरदीवा, दसमम्मि सम्मि चोचीसा ॥१॥ 'पुढवी' इत्यादि, 'पुढवी' ति नरकपृथिवीविषयः प्रथमः ।
'देव' त्ति देवप्ररूपणार्थो द्वितीयः। 'अणंतर' त्ति अनन्त'दिसी' त्यादि 'दिसि' त्ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देश
राहारा नारका इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरस्तृतीयः । 'पुढधी' कः । 'संवुडमणगारे' त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः ।।
ति पृथिवीगतवक्तव्यताप्रतिबद्धश्चतुर्थः । 'श्राहारे' सि 'आइहि,त्ति आत्मीया देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिकामेदित्याद्यर्थाभिधायकस्तृतीयः । 'सामहत्यित्ति श्या
नारकाद्याहारप्ररूपणार्थः पञ्चमः । ' उववाए' ति नारका
युपपातार्थः षष्ठः । 'भास' त्ति भाषार्थः सप्तमः । 'कम्म' महस्त्यभिधानश्रीमन्महावीरशिध्यप्रश्मप्रतिवद्धश्चतुर्थः । 'दे
त्ति कर्मप्रकृतिप्ररूपणार्थोऽष्टमः । 'अमगारे केयाघडिय' वित्ति । चमराद्यप्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः । 'सम' त्ति
त्ति अनगारो-भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय' सुधर्मसभाप्रतिपादनार्थः षष्ठः। 'उत्तरअंतरदीव' त्ति उत्तर
त्ति रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि वृजेदित्यार्थप्रस्यां दिशि ये अन्तरद्वीपास्तत्प्रतिपादनार्था अष्टाविंशतिरुहे.
तिपादनार्थो नवमः, 'समुग्घाए' त्ति समुद्घातप्रतिपादशका एवं चादितो दशमे शते चतुस्त्रिंशदुद्देशका भवन्तीति ।
नार्थों दशम इति । भ० १३ श० १ उ०। "प्रयोभ०१०श०१उ० "इति गुरुजनशिक्षापार्श्वनाथप्रसाद-प्रसृत
दशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदसरपतत्रद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य । दशमशतविचारमाधराम्येs
प्रसादात् । नान्धकारे विहितोद्यमोऽपि, दीपं विना पश्यति धिरूढः, शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधानकोऽपि ॥१॥" भ०
वस्तुजातम्" ॥१॥ भ०१३ श०१० उ० । १००० ३४ उ०॥
व्याख्यातं विचित्रार्थ प्रयोदशतम् । अथ विचित्रार्थमेव व्याख्यातं दशमं शतम् । अथैकादशं व्याख्यायते,अस्य चा- क्रमायातं चतुर्दशमारम्यते , तत्र च दशोदेशकास्तत्र यमभिसम्बन्धः-अनन्तरशतस्याम्तेऽन्तरद्वीपा उक्नास्ते च सङ्ग्रहगाथा चेयम्वनस्पतिबहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रति
चर उम्माद सरीरे, पोग्गल अगिणी तहा किमाहारे । पादनायैकादशं शतं भवतीत्येवं सम्बद्धस्यास्योद्देशकार्थसंग्रहगाथा
संसिट्ठमंतरे खलु, अणगारे केवली चेव ॥१॥
'चर उम्मायसरीरे' त्यादि तत्र 'चर' त्ति सूचामात्रत्वादस्य उप्पल सालु पलासे, कुंभी नाली य पउम कनी य ।।
चरमशब्दोपलक्षितोपि चरमःप्रथम उद्देशकः। 'उम्माय' ति नलिण सिव लोग काला, लंभिय दस दो य एकारे॥१॥
उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः। सरीरे'त्ति शरीरयम. ११०१ उ०। (व्यास्या 'वणप्फर' शब्देऽस्मिन्नेव ब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः।'पुग्गल'ति पुद्गलार्थाभिधाभागे गता।) “एकादशशतमेवं, व्याख्यातमबुद्धिनाऽपि यकत्वात् पुद्गलश्चतुर्थः। 'अगिणिति अग्निशब्दोपलक्षितत्वायन्मयका । हेतुस्तत्राणहिता, श्रीवाग्देवीप्रसादो वा ॥१॥" दग्निः पञ्चमः। 'किमाहारे' ति किमाहारा इत्येवंविधप्रश्नोभ० ११ २०१२ उ०।
पलक्षितत्वात्किमाहारः षष्ठः । 'ससिट्ट' त्ति "चिरसंसिटोसि व्याख्यातं विविधार्थमेकादशं शतम् । अथ तथाविधमेव
गोयम" ति इत्यत्र पदे यः संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वा
संश्लिष्टोद्देशकः सप्तमः । 'अंतरे' ति पृथिवीनामन्तराभिबादशमारभ्यते तस्य चोद्देशकार्थाभिधानार्था गाथेयम्
धायकत्वादन्तरोद्देशकोऽएमः । 'अणगारे' ति अणगारेति संखे जयंति पुढवी, पोग्गल अइवाय राहु लोगे य। पूर्वपदत्वादनगारोहेशको नवमः । 'केवलि' त्ति केवलीति प्रनागे य देव माया, वारसमसए दसुद्देसा ॥१॥ थमपदत्वात्केवली दशमोद्देशक इति । भ०१४ श. १ उ०। 'संखे' इत्यादि, शाश्रमणोपासकविषयः प्रथम उद्देशकः ।
"चतुर्दशस्येह शतस्य वृत्ति-र्येषां प्रभावेण कृता मयैषा । 'जयंति' ति जयन्त्यभिधानश्राविकाविषयो द्वितीयः । 'पु- जयन्तु ते पूज्यजना जनाना, कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः रवि 'त्ति रत्नप्रभापृथिवीविषयस्वतीयः। ' पुग्गल 'त्ति ॥१॥" भ०१४ श०१० उ०। पुद्रलविषयश्चतुर्थः । अहवाए' ति प्राणातिपातादिविषयः व्याख्यातं चतुर्दशं शतम् । अथ पञ्चदशममारभ्यते, तस्य चाय पञ्चमः । 'राहु' त्ति राहुवक्तव्यतार्थः षष्ठः । 'लोगे य'त्ति | पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-अनन्तरशते केवली रत्नप्रभादिकं वलोकविषयस्सप्तमः। नागे य'त्ति सर्पवाव्यतार्थोऽष्टमः। स्तु जानातीत्युक्तं तत्परिक्षानं चात्मसंबन्धि यथा भगवता श्री. 'देवति देवभेदविषयो नवमः।' भाय'ति आत्मभेदनि- मन्महावीरेण गौतमायाऽविर्भावितं गोशालकस्य स्त्रशिया
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(१२४२) विवाहपत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विवाहपरणत्ति भासस्य नरकादिगतिमधिकृत्य तथाऽनेनोच्यते इत्येवं संब- मारवक्तव्यतार्थस्त्रयोदशः । 'सुवरण' त्ति सुवर्णकुमारार्थान्धस्यास्येदमाविलम्
नुगतश्चतुर्दशः । 'विज्जु' ति विद्युत्कुमाराभिधायकः पश्चसमो सुयदेवपार भगवतीए।
दशः । 'वाउ 'त्ति वायुकुमारवक्तब्बतार्थः षोडशः। 'अ
ग्गि' ति अग्निकुमारवकन्यतार्थः सप्तदशः। 'सत्तरसे' ति " श्रीमन्महावीरजिनप्रभावा-द्रोशालकाहरुतिबद्तेषु ।।
सप्तदशशते एते उद्देशका भवन्ति । भ०१७ २०१७ उ० । समस्तपितु समापितेय, वृत्तिः शते पञ्चदशे मयेति ॥१॥" |
"शते सप्तदशे वृत्तिः , कृतेयं गुबनुमहात् । यदन्धो याति भ०१५ श०।
मार्गेण, सोऽनुभावोऽनुकर्षिणः॥१॥" भ०१७ श०१७ उन व्याख्यातं पशवशं शतं, तत्र वैकेन्द्रियादिषु गोशालकजी-| व्याख्यातं सप्तदशशतम्। श्रथावसायातमष्टादर्श व्याख्यायमस्थानेकपा जन्म मरणं बोक्कमितीहापि जीवस्य जन्म- ते, तस्य च ताबदादावेरेवमुद्देशकसंग्रहणी गाथामरणाचुज्यते,त्येवं सम्बद्धस्यास्येयमुरेशकाभिधानसूचिका
पदमे विसाहमायं-दिए । पासाइवाय असुरे य । गाथा
गुल केवलि अणगारे, भविए तह सोमिलारसे ॥१॥ अदिगरि जरा कम्मे, जावतियं गंगदत्त सुमिणे य ।
'पढमे' त्यादि, तत्र 'पढमें तिजीबादीनामर्धानां प्रथमाडउवभोग शोग बलिमो-हिदीव उदही दिसा थणिया॥१॥
प्रथमत्वादिविचारपरावण उद्देशकः प्रथम उच्यते, स चास्य 'अहिगरती' स्वादि 'अहिगरगि' ति अधिक्रियते-धि- प्रथमः। 'विसाह' ति विशाखा नगरी तदुपलक्षितो विबते कुट्टना लोहादि यस्यां साऽधिकरणी-लोहकाराद्य- शाखेति द्वितीयः । 'मागदिए य'तिमाकन्दीपुत्राभिधानापकरणविशेषः, तत्प्रतिपदार्थविशेषितार्थविषय उद्देश- ऽनगारोपलक्षितो मान्दिकस्तृतीयः। 'पाणाइवाय' ति कोऽधिकरएवेबोब्बते । स चात्र प्रथमः । 'जर'त्ति जरा- प्राणातिपातादिविषयः प्राणातिपातश्चतुर्थः। 'असुरे य' ति वर्णविषयत्वाबारेति द्वितीयः । 'कम्मे' ति कर्मप्रकृतिप्रभ- असुरादिवक्तव्यताप्रधानोऽसुरः पञ्चमः । 'गुल' ति गुलासिकाक्सियाकम्मेति तृतीयः । 'जावइयं ' ति 'जाव- चर्थविशेषस्वरूपनिरूपणपरो गुलः बहुः । केबलि' सि इथ' मित्यमेवमादिशब्देनोपलक्षितो 'जावइमिति' चतु- फेवल्यादिविषयः केवली सप्तमः । 'अणगारे' त्ति अनगाथः । गंगदत' ति 'गङ्गादत्तदेववक्तव्यताप्रतिबद्धत्वाद्ग- रादिविषयोऽनगारोऽष्टमः। 'भविय'ति भव्यद्रव्यनारवन एव पश्चमः। 'सुमिणेय'ति स्नमविषयत्वात्स्वप्न इ- कादिप्ररूपणार्थों भव्यो नवमः । 'सोमिल' ति सोमिलाति पहुः । 'उबनोग' ति उपयोगार्थप्रतिपादकत्यादुपयोग भिधानब्राह्मणवक्तव्यतोषलक्षितः सोमिलो दशमः। 'अटुएब सलमः। 'सोग' ति लोकलरूपाभिधायकत्याश्लोक ए. रसे' ति अदशशते एते उद्देशका इति । भ० १८०१ उ०। बामापलि' ति बलिसम्बन्धिपदार्थाभिधायकत्वालि
"अष्टादशशतवृत्ति-विहिता वृत्तानि वीक्ष्य वृत्तिकताम् । रेवा ' मोहि' तिअवधिज्ञानप्ररूपणार्थवादधिरेव
प्रारुतनरो घरष्ट, न कर्मक प्रभुर्मवति ॥१॥" भ० १८ बसनः । द्विीपकुमारबक्तब्यतार्थों दीप एकादशः।
श०१० उ०। 'उदहि'
सिमरविषयत्वादुदधिरेव द्वादशः । 'दिसि' विमारविषयत्वादिगेव त्रयोदशः। धणिय ' ति
व्यास्यातमष्टादशशतमथावसरायातमेकोनविंशतिरविषयत्वात्तनित एव चतुर्दश इति । भ०१६
तमं व्याख्वाबते, तत्र चादाचेवोद्देशक..." सम्यक् श्रुताचारविवर्जितोऽप्यह, यदप्र
सङ्ग्रहाव गाथाकोपारकरपाबिचारमाम् । अविनमेतां प्रतिपोडशं शतं, लेस्सा य गम्भ पुरवी, महासवा चरम दीन भवसाय । वाग्देवासासाबरमदा१" भ०१६ २०१४ उ०। निव्वत्ति करण वणचर-सुरा य एगूणवीसइमे ॥१॥ ग्याल्यात गोडसं शतम् । अथ क्रमाबातं सप्तदशमारभ्यते, 'लेस्से' त्यादि । तत्र 'लेस्सा य' ति लेश्याः प्रथमोतस्प बादामोशकसंग्रहाव गाथा
देशके याच्या इत्यसो लेश्वोद्देशक एबोच्यते, एवमन्यत्रापि । कुंजर संजय सेसे-सि किरिव ईसाब पुढवि दग वाऊ ।।
अशम्बः समुचये । 'गम्भ' ति गाभिधायको द्वितीयः ।
'पुढवि' सि पृथिवीकाधिकादिवाकव्यतार्थस्तृतीयः । 'महाएमिंदिप नाग सुर-बविज्जु वायुऽग्गि सत्तरसे ॥१॥
सब' ति नारका महाखबा महाक्रिया इत्याद्यर्थपरश्चतुर्थः । 'मापिसब कुंजर' सि श्रेणिकसूनोः शिक- 'चरम' ति चरमेभ्योऽल्पस्थितिकभ्यो नारकादिभ्यः परमा राजपाविमा हस्तिगज तत्प्रमुखार्थाभिधा- महास्थितयो महाकर्मतरा इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः पञ्चमः
यात्र वप्रचनदेशक उच्यते-बुवं सर्वत्र । 'संजय' 'दीव तिडीपायभिधानार्थः पवः। भवसायत्ति भवनाद्यर्धादिपावलीनः । ति शैलेता- ऽभिभामा सतमः। नित्यत्तित्ति निम्पितिः शरीरादे
मायाभिधा
स्तदर्थोडक्स'करण' तिकरमों मपम 'पलचरसुरा ब. पशमः।'पुर- त्ति बनपाखरा-ग्वन्तरा देवास्तवनम्बतार्थों दशम इति।भ. कामाची १५.३ "एकोमासस्य स्वीका-मझोs
प्यका सुजनानुभावात् । चन्द्रोषलचन्द्रमरीचियोग-दन 'नाति एकेमि
नाग' ति नागकु- मधुबाहोऽविषयः प्रसूते॥१॥" भ• १६.१ उ० ।
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विवाहपति
व्याख्यातमेकोनविंशतितमं शतम् । अथावसरायातं विंशतितममारभ्यते तस्य चादावेवोदेशक संग्रह की वेदिये स्वादिगाथामाह
बेइंदियमागासे, पालबहे उनचए य परमाणू । अंतर बंचे भूमी, चारण सोनकमा जीवा ॥ २ ॥
I
"
बेदिति प्रीन्द्रियादिभ्यताप्रतिषयः प्रथ मोदेशको पोशक पयोध्यत इत्येवमन्यत्रापि । 'आ गासे' सि शाकाशाचथ द्वितीयः 'पाय'ति प्राणातिपाताचर्थपरस्तृतीयः 'उपचय' ति भोत्रेन्द्रियाद्युपचयातुर्थः 'परमाणु' सि परमाणुषव्यतार्थः पञ्चमः' - तर मित्रभाशर्करप्रभावन्तरालय क्रम्यतार्थः हः । 'बंधे' जीवप्रयोगादिबन्धार्थस्वतः 'भूमि' तिम् कर्मभूम्यादिप्रतिपादनार्थोऽष्टमः 'बार' विद्याचारगायर्थो नवमः । 'लोबकमा जीब' ति सोपक्रमायुषो निरुपक्रमाबुवा जीवा दशमे वाच्या इति । भ० २० श० १३० । "विंशतितमशतकमल, विकालितं पचनकिरः । विवरणकरणारे व सेवितं मधुलिदेव मया ॥ १ ॥ भ०
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२० श० १० उ० ।
म्याख्यातं विंशतितमशतम् । अथाबसरायातमेकविंशतितममारभ्यते, अस्व बादावेवोदेशकबर्गसंग्रहायेयं गाथासालि कल असि से, इक्खु दम्भे व दम्भ तुलसी व । अट्ठे दस वग्गा, असीति पुन होंति उद्देसा ॥ १ ॥
स
भ०२१०१३० । (व्याख्या चास्व 'बशप्फर' शब्दे ८१२ पृष्ठे ग ता) एकविरा प्रायोव्य तदपि लेतः गुणाधावी. गुडशेषो गुडेऽचि यत् ॥१॥ भ० २१० व्याख्यातमेकविंशतितमं शतम् । अथ क्रमायातं द्वाविंश व्याख्यायते तस्य चादावेयोदेशकबर्गस महावेगं गाथा
वर्ग
( १२४३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
तालेगट्टिय बहुबी बगा व गुच्छा व गुम्म बनी य । बस वग्गा एए, स िपुग्ण होति उद्देसा ॥ १ ॥
गाथा५
भ० २२ श० १ वर्ग | (८१४ पृष्ठे 'बणण्फ' शब्दे गता । ) "ज्ञातु, गम्भीरं च कथञ्चन। गम्भीर भाषाभ्यामिद वृत्तिः करोतु फिम् १०२२० ६ वर्ग व्याख्यातं ज्ञातिधावसरायातं योविंशतमा रभ्यते, अस्वचादावेवोदेशक वर्गसंग्रहावेयं गाथाआलु लोहो अवया, पाटी तह मास बनि बौय । पंचते दस वगा, पचासा होंति उद्देसा ।। १ ॥ भ० २३ श० १ बग ।
"प्राक्क्रनशनचश्रेयं प्रयोविंशे शतं यतः । प्रायः समं तयो रूपं व्याख्यातोऽपि निष्फला भ० २३१०४ बर्ष । व्याख्यानं त्रयोविंशं शतथावसायात अनुवि शतं यत व सर्वोदका
उववाय परीमाणं तंत्र
लेस्सा दिट्टी खान पाउ
विवाहपत्यन्ति
"
"
समा कसाय इंदिय, समुग्धाचा नेवला य वेदे व । भाऊ चमानताबा, कायनेो ॥ २॥ 'उबवाये ' त्वादि, पतच व्यहं मबरम् ' उबबाब ' ति ना. रकादयः कुत उत्पद्यन्ते इत्येवमुचपातो वाच्यः, • परीमाति ये नरकादिपत्स्यन्ते तेषां खावे उत्पमाना न परिमाणं बाध्यं संप्रयति तेषामेव नारकाविपित्स्नां सहन बाध्य 'उच' ति नारकाविवाचिनामयगाइनाप्रमायं वाच्यम् एवं संखाप्ययलेवम्'धोति विवक्षितपर्यायेान्यवनस्थानकाव बेदो 'ति तावत्कायान्तरे वागत्या पुनरपि यथासम्भवं तत्रैवागमनम् । २४ ० १ ब "चरमजिनवरेन्द्रमोदितार्थे परार्थ निगलधरेत्यादितानिन्द्यसूत्रे । विवृतमिह शते नो कर्तुमिडे बुधोऽपि प्रचुरगमगभीरे किं पुनर्माडशोऽशः ॥ १॥ भ० २४ श० २४ उ० । व्याख्यातं चतुर्विंशतितमतम् अथ प
9
"
भ्यते तस्य चैवमभिसम्बन्धः - प्राक्तनशते जीवा उत्पादादिशन्तिता र तु तेषामेव लेस्वादको भाषाधिन्त्वन्ते इत्येवं सम्बन्धस्यास्योदेशकसंग्रहगाथेवम्
लेखा व दब्य संठा- जुम्म पजन विषं समखा न । हे भवियाऽभविए, सम्मा मिन्छे व उद्देता ॥ १ ॥ 'लेसे ' स्यादि । तत्र 'लेखा व तिथ दयो
वा इति लेश्वोदेशक श्वायमुच्यत इत्येवं मंत्र । 'दय'ति द्वितीये द्रव्याणि वाक्यानि । 'संडाव' ि तृतीये संस्थानादयोऽर्थाः ''तु कृतयुग्मादयो ऽर्थाः ''ति पञ्चमे पर्ययाः । 'निबंड' - कादिका निर्मन्थाः 'समया पनि सप्तमे लामाविकाि बतादयोऽथां' आहे' सिमटने नारकादयो वन् तथा वाच्यं कथम् ?, ओधे लामान्ये वर्त्तमाना भव्याभम्यादिविशेषसैरविशेषिता इत्यर्थः । 'भवि' ति नबने भ
श
विशेष मारकादयो यथोत्यचन्ते तथा वाच्यम् । भवति दशमे भव्यत्थे वर्तमाना अभयविशेषणा इत्यर्थः । 'सम्म'ति नकाशे सम्बन्हविशेषाः 'मिच्छेय'ति द्वादशे मिध्यात्वे वर्त्तमाना मिथ्यारविशेष इत्यर्थः । 'उस मते द्वादशोदेशका भवन्तीति । ४० २५ श० १ ०" कविहीकामाच्यं कचिद कार्ति चिदपि गतं वाक्यविषयम् जायं कचिदपि महाशास्त्रमपरं समाश्रित्य व्वाच्या शत इह कृता दुर्गमगिराम् ॥ १ ॥ " भ० २५ २० १२ उ० । व्याख्यातं पञ्चविंशतितमं शताअथ परिय चायमभिसंबन्धः अनन्तरश्ते नारकादिजीवानामु ताव कम्बन्धमूर्विकति म नोडर्मोऽपि विचार्यते इत्येवं सम्बन्धस्वास्थकाशकप्रमाणस्य प्रत्युद्देशकद्वारनिरूपणाय ताब
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जेस्स परिश्वय. दिडी मा बो
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(१२४४) विवाहपरवति अभिधानराजेन्द्रः।
विवाहपत्ति 'जीया य'त्यादि जीवा य'त्ति जीवाः प्रत्युदेशकं ब- १ उ० । “शतमेतद्भगवस्या , भगवत्या भावितं मया चक्रव्यतायाः स्थानम् , ततो लेश्याः पाक्षिकाः ष्टयः वाण्याः । यदनुग्रहेण निरव-प्रहेण सदनुग्रहेण तथा प्रज्ञानं ज्ञानं संज्ञा घेदः कषाया योग उपयोगच बन्धव- ॥१॥" भ० ३१ श. २८ उ०।" एकत्रिंशे शते नारकम्यतास्थानम् , तदेवमेतान्येकादशाऽपि स्थानानीति माथा- काणामुत्पादोऽभिहितो द्वात्रिंशे तु तेषामेवोद्वर्तनोच्यते थः। भ० २६ श०१ उ०।" येषां गौरिव गौः सदर्भपयसां| इत्येवं संबद्धमष्टाविंशत्युद्देशकमानमिदं व्यास्यायते । भ. दात्री पवित्रात्मिका, सालारसुविग्रहा शुभपदक्षेपा सुब- ३२ श०१ उ० । “व्याख्याते प्राक्शते व्याख्या, कृतैवास्य ोन्विता । निर्गत्यास्य ब्रहाणाद् बुधसभाप्रामाजिरं राज-| समत्वतः । एकत्र तोयचन्द्रे हि, दृष्टे रष्टाः परेऽपि ते ॥१॥" येत् , ये चास्यां विवृतौ निमित्तमभवनन्दन्तु ते सूरयः॥१॥" म० ३२ श० २८ उ० । द्वात्रिंशे शते नारकोद्वर्तनोका नारभ०२६ श० ११ उ०।
काश्चोवृत्ता एकेन्द्रियादिषु नोत्पद्यन्ते, के च ते इत्यस्याम्याल्यातं परविशं शतम् । अथ सप्तविंशमारभ्यते, अ. माशङ्कायां ते प्ररूपयितव्या भवन्ति, तेषु नैकेन्द्रियास्तावस्थ चायमभिसंबन्धः अनन्तरशते जीवस्य कर्मबन्धनक्रिया- प्ररूपणीया इत्येकेन्द्रियप्ररूपणपरं प्रयस्त्रिंशं शतं द्वादशाभूतादिकालविशेषेणोक्ता, सप्तविंशशते तु जीवस्य तथावि- वान्तरशतोपेतं व्याख्यायते । भ० ३३ श० १ उ०।"व्यास्येभैव कर्मकरणक्रियोच्यत इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- यमिह स्तोकं, स्तोका व्याख्या तदस्य विहितेयम् । न योजीवे णं भंते ! पण कम्मं किं करिंसु करेंति करिस्सं
दनमात्राया-मतिमात्र व्यञ्जन युक्तम् ॥१॥"भ०३३।०६ उ० । ति ११, करिंसु करेंति ण करिस्संति २१, करिंसु ण
प्रयस्त्रिंशशते एकेन्द्रियाः प्ररूपिताश्चतुर्विंशच्छतेऽपि भ
अयन्तरेण त एव प्ररुप्यन्ते । भ० ३४ २०१ उ०। "यद्गीर्दीकरिति करिस्संति ३१,करिंसु ण करेंति ण करिस्संति ४ ॥ पशिस्खेव खण्डिततमा गम्भीरगहोपम-प्रन्थार्थप्रचयप्रकागोयमा! अत्थेगइए करेंसु करेंति करिस्संति१. प्रत्येगइए शनपरा सदृष्टिमोदावहा । तेषां शप्तिविनिर्जितामरगुरुप्रसाकरिंसु करिति ण करिस्संति २, भत्थेगइए करिमु न
श्रियां श्रेयसां , सूरीणामनुभावतः शतमिदं व्याख्यातमेवं करेंति करिस्संति ३, अत्थेगइए करिंसु ण करेंति णक
मया ॥१॥"भ० ३४ श०६ उ०। चतुर्तिशशते एकेन्द्रि
याः श्रेणिप्रक्रमेण प्रायः प्ररूपिताः,पञ्चत्रिशे तु त एव रारिस्संति ४ । भ० २७ श०१ उ०। (सू०८१८४)
शिप्रक्रमेण प्ररुप्यन्ते । भ० ३५ श०१ उ० । “व्यास्या श"व्याख्यातशतसमानं, शतमिदमित्यस्य नो कृता विवृतिः। तस्यास्य कृता सकट, टीकाऽल्पिका येन नचास्ति चएसमाने मागें, किं कुरुतादर्शकस्तस्य ?॥१॥" भ० २७ सिंः । मन्देकनेत्रो वत पश्यताद्वा, रश्यान्यकष्ट कथमुपतो२०११ उ०।
ऽपि ॥१॥" भ० ३५ श. १२ उ० । पञ्चत्रिंशे शते सव्याख्यातं कर्मवक्तव्यतानुगतं सप्तविंशं शतम्।अथ क्रमाया.
स्यापदैरेकेन्द्रियाः प्ररूपिताः षट्त्रिंशे तु तैरेव द्वीन्द्रियाः तं तथाविधमेवाष्टविश व्याख्यायते,तत्र चैकादशोदेशका जी
प्ररूप्यन्ते । भ० ३६ श०१ उ०। पायेकादशद्वारानुगतपापकमादि दण्डकनवकोपेता भव
सव्वाए भगवईए अद्वतीसं सतं सया १३८ । उद्देसन्ति चाद्योद्देशकस्येदमादिसूत्रम्
गायं १६२५ भ० ४१ श०। जीवा सं भंते ! पावं कम्मं कहिं समजिमिंस , कहिं
आधानि द्वात्रिंशच्छतान्यविद्यमानावान्तरशतानि ३२त्रयसमायरिंसु ?, गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोशिएस खिशादिषु तु सप्तसु प्रत्येकमवान्तरशतानि द्वादश ८४, होजा॥१॥भ०२८ श०१ उ०।
चत्वारिंशे त्वेकविंशतिः, २१ एकचत्वारिंशे तु नास्त्यवान्त"इति चूर्णिवचनरचना-कुजिकयोद्घाटितं मयाऽप्येतत् ।
रशतम् । , एतेषां च सर्वेषां मीलनेऽष्टत्रिंशदधिकं शताना अष्टाविंशतितमशत-मन्दिरमनघं महापचयम् ॥१॥"भ.
शतं भवति । एवमुद्देशकपरिमालमपि सर्व शास्त्रमबलो२८ २०११ उ०।
क्यावसेयम् , तबैकोनविंशतिशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि । व्याख्यातं पापकर्मादिवशम्यतानुगतमष्टाविंशं शतम् । अथ
"इह शतेषु कियत्स्वपि वृत्तिका, विहितवानहमस्मि सुशकमायातं तथाविधमेवैकोनत्रिशं व्याख्यायते, तत्र च तथै
हितः। विवृतिचूर्णिगिरां विरहाद्विहक, कथमशहमियर्त्यबैकादशोदेशका भवन्ति । म०२९ ० १ उ०। "अनुसत्य
थवा पथि। " एकचत्वारिंशं शतं वृत्तितः परिमया टीका, टीकय टिप्पिता प्रपटुनेव । अप्रकटपाटवोऽपि
समाप्तम् ॥ ४१.
अथ ममवत्या म्यास्वाप्राप्त्याः हि, पट्टयते पटुगमेनाटन् । १॥" म० २६० ११ उ०।
परिमासानिधित्सया माथामाहम्याल्यातमेकोनविंशं शतम् । अथ त्रिंशमारभ्यते-अस्व चायं पूर्वेद सहामिसम्बन्धः-प्राङ्गनशते कर्मप्रस्थापनाचादित्य
चुलसी य सयसहस्सा, पदास पवरवरखासदंसीहिं । जीवा विचारिता इह तु कर्मबन्धादिहेतुभूतवस्तुवादमा
मावाभावमचंता, पत्रचा एत्थमंगम्मि ॥१॥ शिख त एव विचार्यन्ते । म० ३०१०१ उ०।"यद्वाङ्म- 'चुलसी'त्यादि, चतुरशीतिःशतसहस्रासि पदानामत्राहामन्दरमन्यनेन, शालार्सवादुच्छलितान्यतुच्छम् । मा- | इति सम्बन्धः। पदानि च विशिसम्पदाक्यम्बानि, बाथरत्नानि ममापि हो, यातानि ते वृत्तिकृतो जयन्ति । | प्रवरायां वरं यज्वानं तेन पश्यन्तीत्येवंशीला येते प्रवरवर॥१॥" म०३०२०११ उ०। त्रिंशत्तमशते चत्वारि समवसर शानदर्शिनस्तैः देवतिमिरित्यर्थः प्रसानीति योमः । इदपायुकानीति चतुष्टयसाधाच्चतुर्युग्मवाकव्यतानुगतम- मस्व सूत्रस्थ स्वरूपमुरुमथार्थस्वरूपमाह-'भावामावमशर्षिशत्युदेशक्युमेकत्रिशं तं ज्यास्यायते । म ११० इंत' ति मावा-जीवादयः पदार्थः अमावाश्चत पदाम्या.
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(१२४५) विवाहपएणत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विवाहपएपत्ति पेक्षया भावाभावाः , अथवा भावा-विधयः, अभावा-नि- मंझ पि देउ मेहं, बुहविबुहणमंसिया णिच्चं ॥१॥ षेधाः प्राकृतत्वाञ्चेत्थं निर्देशः, अनन्ताः-अपरिमाणाः अथ
सुयदेवयाएँ पणमिमोजिए पसाएण सिक्खियं गाणं । वा-भावाभावैर्विषयभूतैरनन्तानि भावाभावानन्तानि चतुरशीतिः शतसहस्राणि प्राप्तानि अत्र-प्रत्यक्ष पश्चमे इत्य
असं पवयणदेवी, संतिकरी तं नमंसामि ।। २॥ र्थः अङ्गे-प्रवचनपरमपुरुषावयव इति गाथार्थः ॥१॥ सुयदेवयाएँ जक्खो, कुंभघरो भसंति वेरोट्टा। अथान्त्यमङ्गलार्थ संघ
विजा य अंतहुंडी, देउ अविग्घं लिहंतस्स ॥३॥ समुद्ररूपकेण स्तुवन्नाह
इति श्री विवाहपन्नत्ती पंचम अंगं सम्मत्तं । भ० । तबनियमविणयवेलो, जयति सदा नाणविमलविपुलजलो। यदुक्तमादाविद साधुयोधैः, हेतुसतविपुलवेगो, संघसमुद्दो गुणविसालो ॥२॥
श्रीपञ्चमाङ्गोन्नतकुञ्जरोऽयम् । ' तवे ' त्यादि गाथा , तपोनियमविनया एव वेला
सुखादिगम्योऽस्त्विति पूर्वगुर्वी.
प्रारभ्यते वृत्तिवरत्रिकेयम् ॥१॥ जलवृद्धिरवसरवृद्धिसाधाद्यस्य स तथा जयति-जेतव्यजयेन विजयते सदा-सर्वदा ज्ञानमेव विमलं-निर्मलं
समर्थितं तत्पटुबुद्धिसाधु
साहायकात् केवलमत्र सन्तः । विपुलं-विस्तीर्ण जलं यस्य स तथा, अस्ति ( अस्ताघ )
सबुद्धिदाच्याऽपगुणान् खुनन्तु, त्वसाधर्म्यात्स तथा, हेतुशतानि-इष्टानिष्टार्थसाधननिराक
सुखग्रहा येन भवत्ययैषा ॥२॥ रणयोर्लिङ्गशतानि तान्येव विपुलो-महान् वेगः-कल्लोलावििदरयो यस्य विवक्षितार्थक्षेपसाधनसाधर्म्यात्स तथा
चान्द्रे कुले सद्धनकक्षकल्पे, संघसमुद्रः-जिनप्रवचनोदधिर्गाम्भीर्यसाधात् , अथवा
____ महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात् । साधर्म्य साक्षादेवाह-गुणैः-गाम्भीर्यादिभिर्विशालो विस्ती
छायान्वितः शस्तविशालशास्त्रः, णस्तरहुत्वाद्यः स तथेति गाथार्थः ॥२॥
श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ॥ ३॥
तत्पुष्पकल्पी विलसद्विहारणमो गोयमाईशं गणहराणं , णमो भगवईए वि
___ सद्गन्धसम्पूर्वदिशौ समन्तात् । वाहपन्नचीए, णमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स ।। (कुसुम) बभूवतुः शिष्यवरावनीच“कुम्मसुसंठियचलणा , अमिलियकोरंटवेंटसंकासा ।
वृत्ती श्रुतवानपरागवन्तौ ॥४॥ सुयदेवया भगवई, मम मतितिमिरं पखासेउ ॥१॥"
एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः,
ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः । परमत्तीए आयिमाणं अट्ठएहं सयामं दो दो उद्देसगा उ
तयोविनयेन विवुद्धिनाऽप्यलं, दिसिज्जति खवरं चउत्थे सए पढमदिवसे अट्ठ विति
वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवरिया ॥५॥ यदिवसे दो उद्देसगा उद्दिसिज्जंति, सवरं खवमाओ स- तयोरेव विनेयानां, तत्पदं चानुकुर्वताम् । तामओ पारदं जावइयं जावइयं तावइयं तावइयं एकदि- श्रीमतां जिनचन्द्राख्य-सत्प्रभूखां नियोगतः॥६॥ बसेसं उद्दिसिज्जंति, उक्कोसेमं सतं पि एगदिवसेखं म
श्रीमजिनेश्वराचार्य-शिष्याणां गुखशालिनाम् ।
जिनमद्रमुनीन्द्राखा-मस्माकं चाझिसेविनः ॥७॥ ज्झिमेखं दोहिं दिवसेहिं सतं, जहालेखं तिहिं दिवसेहि
यशश्चन्द्रगखेर्गाद-साहाय्यात्सिद्धिमागता। सतं एवं०जाव वीसतिमं सतं, खबरं गोसालो एगदिवसेसं परित्यक्तान्यकृत्यस्य , मुक्तायुक्तविवेकिनः॥॥ युग्मम् । उद्दिसिज्जंति । जदि ठिओ एगेण चेव आयंबिलेख शास्त्रार्थनिख्यसुसौरभलम्पटस्य,
विद्वन्मघुवतगणस्य सदैव सेव्यः । अखुलजिहिति । अह ल ठितो आयंबिलेख छढेसं अ
श्रीनिर्वृतास्यकुलसन्नदपकल्पः , पुसवति, एक्कचीसवावीसतेवीसइमाई सताई एक्कदि
श्रीद्रोणसरिरनवद्ययशःपरागः ॥६॥ वसेसं उद्दिसिज्जंति, चउचीसतिम सयं दोहिं दिवसेहिं छ शोधितवान् वृत्तिमिमां, छ उद्देसगा, पंचवीसतिमं सयं दोहिं दिवसेहिं छछ उ
युलो विदुषां महासमूहेन ।
शास्त्रार्थनिष्कनिकषखद्देमगा, बंधिसयाइ अट्ठसयाई एगेसं दिवसेशं सेढिसयाई
कषपट्टककल्पबुद्धीनाम् ॥ १०॥ वारस, एगेलं एगिदियमहाजुम्मसयाई वारस, एगेखं एवं विशोधिता तावदियं सुधीमिदियाखं वारम, तेइंदियाखं वारस, चरिंदियाखं वारस,
स्तथापि दोषाः किल सम्भवन्ति ।
मन्मोहतस्तांश्च विहाय सङ्गिएगेख असषिपंचिंदिया वारस, सस्थिपंचिदियमहाजुम्म
स्तब्राहमाप्तामिमतं यदस्याम् ॥ ११ ॥ सयाई एकवीसं एगदिवसेख उद्दिसिज्बंति, रासीजुम्मसतं
यदवातं मया पुण्य, वृत्ताविह शुभाशयात् । एमदिवसेसं उद्दिसिज्जति । (सू०८६६)।
मोहाद्वृत्तिजमन्यञ्च, तेनागो मे विशुध्यतात् ॥ १२॥ मना बियसियमरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिबा देवी।। अन्यकृता देवेमा गाथा इति । प्रतीयते-२-मन्थलेखनकर्तृकृतानि ।
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विवाहपण्पत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विवाहपत्ति अस्याः करणग्वाल्या, श्रुतिलेखनपूजनादिषु यथाईम् । खराई,अणंता गमा,अणंता पज्जवा,परित्ता तसा, अणं-- दायिकसुतमाणिक्यः, प्रेरितवानस्मदादिजनान् ॥ १४ ॥
ता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपएएत्ता अष्टाविंशतियुक्त, वर्षसहने शतेन चाभ्यधिके।
भावा आपविजंति परमविजंति परूविज्जति निदंसिज्ज-- अणहिलपाटकनगरे, कृतेयमच्छुप्तधनिवसतौ ॥ १५ ॥ अष्टादशसहस्राणि, षट् शतान्यथ पोडश।
ति उवदंसिज्जंति । से एवं आया से एवं णाया एवं विइत्येव मानमेतस्थाः, श्लोकमानेन निश्चितम् ॥१६॥ एणाया एवं चरणकरणपरूवणया आपविज्जति । से ग्रन्थसंख्या (१८६१६) भ० टी०।।
नं वियाहे ॥५॥ (सू० १४०) विवाहपन्नतीए एकासीतिं महाजुम्ममया पएणत्ता। 'सेकिंतं वियाहे'इत्यादि,अथ केयं व्याख्या ?, व्याख्यायन्ते (सू०८१४)
प्रार्था यस्यां सा व्याख्या।' वियाहे' इति च पुंल्लिङ्गनिर्देशः
प्राकृतत्वात् , 'वियाहे णं' ति व्याख्यया व्याख्यायां वा स'विवाहपनसीर' त्ति न्यास्याप्राप्तौ एकाशीतिमहायुग्म
समया इत्यादीनि नव पदानि सूत्रकृतवर्णके व्याख्यातत्वाशतानि प्राप्तानि । इह च शतशब्देनाध्ययनान्युच्यन्ते,तानि
विद्द कराठ्यानि, 'वियाहे प' मित्यादि नानाविधैः सुरैः कृतवुग्मादिलक्षणराशिविशेषविचाररूपाणि, अत्रान्तराध्य
नरेन्द्रः राजर्षिभिश्च विविहसंसइय' त्ति विविधसंशयितैःबनसभाबानि तदबगमावगम्यानीति । स०८१ सम।
विविधसंशयवद्भिः पृष्टानि यानि तानि तथा तेषां नानाविविवाहपबत्तीएणं भगवतीए चउरासीई पयसहस्सा प- धसुरनरेन्द्रराजऋषिविविधसंशयितपृशनां व्याकरणानां दग्गे पछत्ता । (म० ८४+)
पत्रिंशत्सहस्राणां दर्शनात् श्रुतार्था व्याख्यायन्त इति
पूर्वापरेण वाक्यसम्बन्धः । पुनः किम्भूतानां च्याम्यास्याप्राप्त्वां-भगवत्यां चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदा
करणानाम् ?, जिनेनेति भगवता महावीरेण 'वित्थरेण प्रेण-पदपरिमाणेन,इह च यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं मतान्तरेण भासियाणं' विस्तरेण भणितानामित्यर्थः, पुनः किंभूतातु बादशपदसहस्रपरिमाणत्वादाचारस्य , एतद्विगुण- नाम् ?, 'दब्वे' त्यादि, द्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्यवप्रदेशपरिणात्याच शेषाङ्गानां वास्याप्रति लक्ष अष्टाशीतिः सहमा- माऽवस्थायथाऽस्तिभावाऽनुगमनिक्षेपनयप्रमाणसुनिपुणोपणि पदानां भवन्तीति । तथा चतुरशीतिर्नागकुमारावासल- कमैर्विविधैः प्रकारैः प्रकटः प्रदर्शितो यैर्व्याकरणैस्तानि शामि, चतुश्चत्वारिंशतो दक्षिणायां,चत्वारिंशतश्चोतरायां तथा तेषां, तत्र द्रव्याणि--धर्मास्तिकायादीनि गुणा-माभाचादिति । स०८४ समः।
नवर्णादयः क्षेत्रमाकाशं कालः-समायादिः पर्यवाः-स्वपरविवाहप्रशप्तिविषयः
भेदभिन्ना धाः , अथवा-कालकृता अवस्था--नवपुरा
णादयः पर्यवा:--प्रदेशा निरंशावयवाः परिणामा-अवस्था - से किं तं विवाहे ?, वियाहे णं ससमया विहिज्जति |
तोऽवस्थान्तरगमनानि यथा-येन प्रकारेणास्तिभावःपरसमया विवाहिज्जति ससमयपरसमया विवाहिअंति । अस्तित्वं सत्ता यथास्तिभावं अनुगमः संहितादिव्याख्याजीवा विवाहिजंति अजीवा विवाहिजंति जीवाजी- नप्रकाररूपः उद्देशनिर्देशनिर्गमादिद्वारकलापात्मको वा निवा विवाहिजंति । लोगे विवाहिजई, अलोए विश्राहि
क्षेपो-नामस्थापनाद्रव्यभावैर्वस्तुनो न्यासः नयप्रमाणं नअई, लोगालोगे विवाहिजई । वियाहे णं नाणावि
या-नैगमादयः सप्त द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकभेदात् मानन·
यक्रियानयभेदानिश्चयव्यवहारभेदाद्वा द्वौ ते पव तावेव-- हसुरनरिंदरायरिसिविविहसंसइनपुच्छियाणं जिणेणं वि
वा प्रमाण वस्तुतस्वपरिच्छेदनं नयप्रमाण, तथा सुनिपरण:त्थरेण भासियामं दन्बगुलखेत्तकालपज्जवषदेसपरिणाम- सुसूक्ष्मः सुनिपुणो वा सुष्ठ निश्चितगुण उपक्रमः-श्रानु--- जहच्छिद्विअभावअनुगमनिस्खेवलयप्पमाणसुनिउणोवक्क- पूर्व्यादिः विविधप्रकारता चैषां भेदभरणनत एवोपदर्शिते-- मविविहप्पकारपगडपयासिवाणं लोगालोगपयासियाणं सं
ति । पुनः किंभूतानां व्याकरणानां, लोकालोको प्रकाशिती
येषु तानि तथा तेवां, तथा-'संसारसमुहरूंद उत्तरगममसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाशं सुरवइसंचूजियाणं भवियज
त्थाण' ति संसारसमुद्रस्य रुन्दस्य-विस्तीर्णस्य उत्तरणेणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणं मुदिदीवभू- तारणे समर्थानामित्यर्थः , अत एव सुरपतिसम्पूजितानां यईहामतिबुद्धिवद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागर- प्रच्छकनिर्णायकपूजनात् सनत्वेन श्लाघितत्वाद्वा. तथा 'भगाणं दंसणाओ खुयत्थबहुविहप्पगारा सीमहियथा य गु
विय जगण्यहिययाभिणदियाण' ति भव्यजनानां भव्यत्रा
गिना जा-लोको भन्यजनप्रजा भव्य जनपदो तम्या : गमहन्था,वियाहस्म णं परिना वायणा,संखेजा अणुप्रोग
स्तम्लाहमयश्चित्तैरभिनन्दितानामन दिनानानि. दारा, संखेजात्रो पडिवत्तीओ, संग्वा वेदा, ममता सि- सद, नया तमोरजसी-ज्ञानात काति-नाशलागा, संखेजायो निज्जुनो ।
iary समोरजाविध्वस
..
व तन सुष्टु १ अंगे एग सुयक्खंधे,एगे सारा अन्यायमा ५. पटाई,दस समुहेसगनह- लन्दा ११
सरहामांतवुद्धिव नरमाई पयसहभ्याई पक..
तीपभृतहा
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(१२४७) विवाहपत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
विवित्तपरिया मतिः-अबायो निश्चय इत्यर्थः बुद्धिः-ौत्पत्तिक्यादिचतुर्वि- अखुसोअपद्विअबदु-जसम्मि पडिसोअलद्धलक्लेख । घेति, अथवा-तमोरजोविध्वंसनानामिति पृथगेव पदं पाठा- पडिसोचमेव अप्पा, दायब्बो होउ कामेवं ॥२॥ न्तरेण सुदृष्टदीपभूतानामिति च, तथा 'छत्तीससहस्समणूण
अखुसोत्रहो लोबो,पडिसोश्रो पासवो सुविहिनावं याणं ' ति अन्यूनकानि पत्रिंशत् सहस्राणि येषां तानि तथा, इह मकारोऽन्यथा पदनिपातश्च प्राकृतत्वादनवद्य इति,
अणुसोत्रो संसारो, पडिसोश्रो तस्स उत्तारो ॥३॥ 'वागरणाण' ति ब्याक्रियन्ते प्रश्नान्तरमुत्तरतयाऽभिधीयन्ते तम्हा मायारपर-कमेख संवरसमाहिबहुले। निर्णायकेन यानि तानि व्याकरणानि तेषां दर्शनात्-प्र- चरित्रा गुखा अ नियमा,अ हुंति साहूब दद्वन्या ।।४। काशनादुपनिबन्धनादित्यर्थः । अथवा-तेषां दर्शनाः, उपदर्श- चूडां तु प्रवक्ष्यामि-चूडां-प्राग्व्यावर्णितशम्दार्थो तुश का इत्यर्थः । क इत्याह-'सुतत्थबहुविहप्पयारे' ति श्रुत- ब्दविशेषितां भावचूडां प्रवक्ष्यामीति-प्रकर्षणावसरप्राप्ता विषया-अर्थाः श्रुतार्थाः; अभिलाप्यार्थविशेषा इत्यर्थः, श्रुता भिधानलक्षणेन कथयामि, श्रुतं-केवलिभावितमिति वा आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये अर्थास्ते श्रुतार्थाः, इयं हि चूना श्रुत-श्रुतज्ञानं वर्तते, कारणे कार्योपचाअथवा-श्रुतमिति सूत्रम् , अर्था-नियुक्त्यादय इति श्रुतार्था- रात् , एता केवलिभाषितम्-अनन्तरमेव केवलिना प्ररू. स्ते च ते बहुविधप्रकाराश्चेति विग्रहः, श्रुतार्थानां वा बहवो पितमिति सफलं विशेषणम् । एवं च वृद्धवादः-कयाविधाः-प्रकारा इति विग्रहः। किमर्थ ते व्याख्यायन्ते?,इत्याह- चिदार्ययाऽसहिष्णुः कुरगडुकप्रायः संयतश्चातुर्मासिकादा शिष्यहितार्थाय-शिष्याणां हितमनर्थप्रतिघातार्थप्राप्तिरूपं त- बुपवासं कारितः, स तदाराधनया मृत एव । ऋषिधादेवार्थः प्रार्थ्यमानत्वात्तस्य तस्मै इति । किंभूतास्ते?,अता- तिकाऽहमित्युदिना सा तीर्थकरं पृच्छामीति गुणार्जिह-गुणहस्ता गुण एवार्थप्राप्त्यादिलक्षणो हस्त इव हस्तः प्र- तदेवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिसमीपम् , पृटो भगवान धानावयवो येषां ते तथा ' वियाहस्से' त्यादि तु निगमना- अदुष्पचित्ताऽधातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां प्राहितेति न्तं सूत्रसिद्धं, नवरं शतमिहाध्ययनस्य संज्ञा चतुरशीतिः इदमेव विशेभ्यते-यच्छ्त्वेति-वच्छृत्वा--प्राकये सुपुपदसहस्राणि पदापति समवायापेक्षया द्विगुणताया | एयानां-कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां धर्म-अचिइहानाश्रयणादन्यथा तद्विगुणत्वे द्वे लक्षे अष्टाशीतिः सह- न्त्यचिन्तामरिकल्पे चारित्रधर्मे उत्पद्यते मतिः--संजायते स्राणि च भवन्तीति । स०१४१ सम०।
भावतः भशा । अनेन चारित्रं--चारित्रवीज चोपजायत विवाहिय-विवाहित-त्रि० । संजातविवाहे, पा०म०१० इत्येतदुक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥१॥ एतद्धि प्रतिक्षासूत्रम् , स्था ।
इह चाध्ययने चर्यागुणा अभिधेयाः, तत्प्रवृत्ती मूलपादभ्रविविध-विपिन-न । बने, ध०२ अधि०।
तमिदमाह-मनुस्रोतःप्रस्थिते-नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ट - विविखकम्म-विपिनकर्मन-न। चिन्नाछिन्नवनपत्रपुष्प
बद् विषयकुमार्गद्रन्यक्रियानुकल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथा
विधाभ्यासात् प्रभूतलोके तथा प्रस्थानेनोदधिगामिनि , फलकन्दमूलतृणकाष्ठकम्बावंशादिविक्रये कणदलपेषणे, ब
किमित्याह-प्रतिस्रोतोलन्धलक्ष्येव द्रग्यतस्तस्यामेव नद्यां नकच्छादिकरणे च । विपिन-वनं तत्कर्म छिन्नाच्छिन्नव- कधिदेवतानियोगात्प्रतीपस्रोतःप्राप्तलक्ष्येण, भावतस्तु वि. नपत्रपुष्पफलकन्दमूलवणकाष्ठकम्बावंशादिविक्रयः कणदल- पयादिवैपरीत्वात्कञ्चिदचाप्तसंयमलक्ष्येण प्रतिस्रोत एवऐप बनकच्छादिकरणं च । यतः-"बिन्नाच्छिन्नबनपत्र- दुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादिसंयमलयाभिमुखमेव प्रसूनफलविक्रयः । कणानां दलनोत्पेषा-दत्तिश्च वनजीविका आत्मा-जीवो दातन्यः-प्रवर्तवितव्यो भवितुकामेन--सं॥१॥” इति । अस्यां च वनस्पतेस्तदाश्रितत्रसादेश्च घात- सारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना. न. सम्भव इति दोषः २ । ध०२ अधिक।
पुद्रजनाचरितान्बुदाहरणीकृत्यासम्मानप्रवर्ण चेतोऽपिकविवित्त-विविक्त-त्रि०। स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते, सूत्र. १७० तन्वम् , अपि त्वागमैकप्रवलेनैव भवितव्यमिति । २१.२ उ०। स्यादिरहितोपाश्रये,उत्त०३२१०।श्राचा १०। प्रश्न । पृथग्भूते त्यक्ते, प्राचा०१७०८१०८ उ०।
"निमित्तमासाथ बदेव किसान रहस्यभूते, दशा०५ अ०। आ० म०। एकान्तसंबिग्ने, व्य.
स्वधर्ममार्ग विस्जन्ति वाहिताः । ४ उ०।
तपःश्रुतझानधनास्तु साधनो, विवित्तरिया-विविक्नचर्या-स्त्री०। पशुपण्डककुशीलवर्जि
न बान्ति कच्छे परमेऽपि बिक्रियाम् ॥९॥
तथाताजवद्याश्रयाश्रयणे, पञ्चा०१६ विव०।।
कपालमादाब विपन्नवाससा, अधुना विविक्तचर्या सा पुनरियम्
वरं हिषश्मसमृद्धिरीक्षिता । बारामजाणादिसु, थीपसुपंडगविनाजिरसु (ज) ठाणं ।। विहाय लज्जां न तु धर्माबेशसे, पसगादीण य गह, तह भणियं एसणिजाणं ॥१॥
सुरेन्द्रता (सा) थेऽपि समाहितं मनः ॥२॥ गया विविक्तचर्वा । दश.१०।
पापं समाचरतिपातलो जमन्यः, चूलिमे तु पवस्वामि, मुझं केवलिभातिनं।
प्राप्यापदं सवश्व बिमध्यबुद्धिः । जं सुमित्तु सुपुण्णा, धम्मे उप्पजए मई ॥१॥
प्रातात्ववेऽपि न तु माधुजनः स्वतं,
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विवित्तचरिया
( १२४८) श्रभिधानराजेन्द्रः |
वेलां समुद्र इव लङ्घयितुं समर्थः ॥ ३ ॥
इत्यवं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ श्रधिकृतमेव स्पष्टयन्नाइ- अनुस्रोतः सुखो लोकः - उदकनिम्नाभिसर्पणवत् प्रवृस्याऽनुकूलविषयादिसुखो लोकः कर्मगुरुत्वात्, प्रतिस्रोत एव तस्माद्विपरीतः श्रश्रवः - इन्द्रियजयादिरूपः परमार्थपेशलः कायवाङ्मनोव्यापारः श्राश्रमो वा - व्रतग्रहणा दिरूपः सुविहितानां - साधूनाम् उभयफलमाह - श्रनुस्रोतः संसारः - शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव, कारणे कार्योपचारात्, यथा-विषं- मृत्युः, दधि-त्रपुषी, प्रत्यक्षो - ज्वरः, प्रतिस्रोतः- उक्तलक्षणः, तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी 'सुपां सुपो भवन्ती'ति वचनात् तस्मात् संसाराद् उत्तारः- उत्तरणमुत्तारः, हेतौ फलोपचारात् यथाऽऽयुघृतं तण्डुलान्वर्षति पर्जन्य इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मात् श्राचारपराक्रमेणेति - श्राचारे- ज्ञानादौ प्रवृत्तिबलं यस्य स तथाविध इति, गमकत्वाद्बहुव्रीहिः तेनैवंभूतेन साधुना 'संवरसमाधिबहुलेने' ति संबरे - इन्द्रि यादिविषये समाधिः - श्रनाकुलत्वं बहुलं - प्रभूतं यस्य स इति समासः पूर्ववत् तेनैवंविधेन सता प्रतिपाताय विशुद्धये च किमित्याह-चर्या भिक्षुभावसाधनी बाह्यानियतवासादिरूपा गुणाश्च - मूलगुणोत्तरगुणरूपाः नियमाश्व - उत्तरगुणानामेव पिण्डविशुद्ध्यादीनां स्वकालासेवननियोगाः भवन्ति साधूनां द्रष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवन्ति, सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणा रूपेणेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ दश० २ चू० ।
पराक्रमः
गि(हिणो) हीण वेत्रावडियं न कुजा, ऽभिवायं वंदणपूणं वा । अकिलिट्ठेहि समं वसिज्जा,
मुखी चरित्तस्स जो न हाणी ॥ ६ ॥ इयं साधूनां विहारचर्येति सूत्रस्पर्शनमाददवे सरीरभवित्र, भावेण य संजय इहं तस्स | उगहिया पग्गहिया, विहारचरिया मुअव्वा ॥ ३६८ ॥ साधूनां विहारचर्याऽधिकृतेति साधुरुच्यते, स च द्रव्यतो, भावतश्च । तत्र 'द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः, 'शरीरभव्य' इति मध्यमभेदत्वा दागमनो श्रागमशशरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तद्रव्यसाधूपलक्षणमेतत्, 'भावेन चेति' द्वारपरामर्शः स एव 'संयत' इति संयतगुणसंवेदको भावसाधुः । इद्द श्रध्ययने तस्य- भावसाधोः श्रवग्रद्दीता- उद्यानारामादिनिवासाद्यनियता प्रगृहीता-तत्रापि विशिष्टाभिग्रहरूपा उत्कुटुकासनादिविहारचर्या मन्तव्याबोद्धव्येति गाथार्थः ।
सा चेयमिति सूत्रस्पर्शेनाहअणि पइरिकं, अपायं सा मुआणि उंछं । प्पी कलहो, बिहारचरिया इसिपसत्था ॥ ३६६ ॥ व्याख्या सूत्रवदवसेया । श्रवयवक्रमस्तु गाथाभङ्गभयाद्, अर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवद् द्रष्टव्य इति । 'विहारचर्या ऋषीयां प्रशस्ता' इत्युक्तं तद्विशेषोपदर्शनायाह-' श्राकीर्णामा
विवित्तवरिया
नविवर्जना च 'विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ते' ति, तत्राकीर्णराजकुलसंखड्यादि श्रवमानं खपक्षपरपक्षप्राभूत्यजं लोकाबहुमानादि, अस्य विवर्जना, श्राकीर्णे - हस्तपादादिलूषणदोश्रात् श्रवमाने अलाभाऽऽ घाकर्मादिदोषादिति । तथा उत्सनदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमुपनीतम् ' उत्सन्नशब्दः प्रायो वृत्तौ वर्त्तते यथा-" देवा श्रसनं सायं वेयं वेति " किमेतदित्याह - भक्तपानम् श्रोदनारनालादि इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्धयति, त्रिगृहान्तरादाहृत इत्यर्थः, ' भिक्खग्गाही एग-त्थ कुणइ वीओ य दोसुमुवओोग " मिति वच नादित्येवंभूतमुत्सन्नं दृष्टाहृतं भक्लपानमृत्रीणां प्रशस्तमिति योगः । (दश०) उपदेशाधिकार एवाह- गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात् स्वपरोभयाश्रेयः समायोजनदोषात् तथा अभिवादनं - वाङ्नमस्काररूपं चन्दनं काय प्रणामलक्षणं पूजनं वा वस्त्रादिभिः समभ्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्यात् उक्तदोषप्रसङ्गादेव तथैतद्दोषपरिहारायैवासंतिष्टैर्गृहिवैयावृत्त्याकरणसंक्लेशरहितैः साधुभिः समं वसेन्मुनिः चारित्रस्य - मूलगुणादिलक्षणस्य यतो-येभ्यः साधुभ्यः सकाशान हानिः संवासतस्तदक्षत्यानुमोदनादिनेत्यनागतविषयं चेदं सूत्रं प्रयनकाले संक्लिष्टसाध्वभावादिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ ख या लभेजा निउणं सहायं, गुणाहि वा गुण समं वा । sarsa पावाइँ विवजयंतो,
1
विहरिज कामेसु असजमाणो ॥ १० ॥ संवच्चरं वाऽवि परं पमाणं,
वी च वासं न तहिं वसिजा । सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू, सुत्तस्स त्यो जह आणवे ॥ ११ ॥ जो पुव्वरत्तावररत्तकाले,
संपेहए अप्पगमप्पगेणं । किं मे कडं किं च में किञ्चसेसं,
किं सकणिजं न समायरामि १ ।। १२ ।। किं मे परो पासइ किं च अप्पा,
किं वाऽहँ खलिश्रं न विवज्जयामि । इच्चैव सम्मं अणुपासमाणो,
अणायं नो पडिबंध कुजा ॥ १३ ॥ जत्थेव पासे कई दुष्पउत्तं,
कारण वाया श्रदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरिजा,
इन खिष्पमिव क्खलीणं ॥ १४ ॥ जस्सेरिसा जोगजिइंदिअस्स,
मरिसस निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी,
सो जीआई संजमजीविएणं ॥ १५ ॥
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(१२५८) विवित्तचरिया अभिधानराजेन्द्रः।
विवित्तसपणा असंक्तिः समं वसेदित्युक्तमत्र विशेषमाह-कालदोषाद् त्मा कचिन्मनाक संवेगापन्नः ?, किं वाऽहमोघत एव न यदि लभेत-न यदि कथंचिद् प्राप्नुयात् नि- स्वलितं न विवजयामि, इत्येवं सम्यगनुपश्यन् अनेनैव पुणे-संयमानुष्ठानकुशलं सहाय-परलोकसाधनद्वितीयं. प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा सम्यग-अागमोक्नेन विधिना भूकिंविशिष्टमित्याह-गुणाधिकं वा-ज्ञानादिगुणोत्कटं वा , यः पश्येत् अनागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात्-श्रागामिकालगुणतः समं घा, तृतीयार्थे पश्चमी गुणस्तुल्यं वा , विषयं नासंयमप्रतिवन्धं करोतीति सूत्रार्थः ॥ १३॥ कवाशब्दाद्धीनपि जात्यकाश्चनकल्पं विनीतं वा । ततः थमित्याह-यत्रैव पश्येत्-यत्रैव पश्यत्युक्तवत्पगत्मदर्शकिमित्याह-एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि-पापकार- नद्वारण क्वचित्-संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ णान्यसदनुष्ठानानि विवजयन् -विविधमनकैः प्रकारैः सू- दुष्प्रयुक्तं-- दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते, केनेत्याहप्रोक्नः परिहरन् विहरेदुचितविहारेण कामेषु-इच्छाका- कायेन वाचा, तथा मानसेनेति, मन एव मानसं: करणमादिषु असज्यमानः-सङ्गमगच्छन्नेकोऽपि विहरेत् , न तु | त्रयेणत्यर्थः । तत्रैव-तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे धीरो-बु. पावस्थादिपापमित्रसहं कुर्यात् , तस्य दुष्टत्वात्। तथा | द्धिमान् प्रतिसंहरेत्-प्रतिसंहरति य श्रात्मानं; सम्यग् वान्यैरप्युक्तम
विधि प्रतिपद्यत इत्यर्थः । निदर्शनमाह-पाकीणों जवादि"वरं विहर्तुं सह पन्नगर्भवे-च्छठात्मभिर्वा रिपुभिःसहोषितुम् । भिर्गुणः, जात्योऽश्व इति गम्यते असाधारणविशेषणात् । अधर्मयुक्तश्चपलैरपण्डितै-न पापमित्रैः सह वर्तितुं क्षमम् ।। तश्चेदम्--क्षिप्रमिव खलिन-शीघ्र कविकामिय, यथा जाइहैव हन्युभुजगा हिरोपिताः,धृतासयश्छिद्मवेक्ष्य चारयः। त्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्र खलिनं प्रतिपद्यते, असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र चैवह च हन्यते जनः ॥२॥ एवं यो दुष्प्रयोगन्यांगन खलिनकल्पं सम्यग् विधिम् , तथा
एतावतांऽशन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ यः पूर्वरात्रपरलोकविरुद्धानि , कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ।
त्यधिकारोपसंहागयाह-- यस्य साधाः ईदृशाः--स्वहिताआत्मानं योऽभिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः? ॥३॥ | लोचनप्रवृत्तिरूपा योगा--मनोवाक्कायव्यापारा जितन्द्रितथा
यस्य--वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियकलापस्य धृतिमत:--संब्रह्महत्या सुरापानं , स्तेयं गुर्वङ्गनागमः।
यमे सधृतिकस्य सत्पुरुषस्य-प्रमादजयान्महापुरुषमहान्ति पानकान्याहु-रेभिश्च सह संगमम् ॥ ४॥"
स्य नित्यं-सर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारभ्याऽमरइत्यलं प्रसझेनेति सूत्रार्थः ॥ १०॥ विहारकालमानमाह
णान्तम् ' तमाहुलों के प्रतिवुद्ध जीविनं ' तमेवंभूतं संवत्सरं वापि-अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको |
साधुमाहुः-अभिदधति विद्वांसः लोके-प्राणिसंघाते पयेष्ठावग्रह उच्यते । तमपि , अपिशब्दान्मासमपि , परं प्र-|
प्रतिबुद्धजीविनं-प्रमादनिद्रागहतजीवनशील, स-एवंगुणमाण-वर्षाऋतुबद्धयोरुकृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् ,
युक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन कुशलाभिसंधिभाद्वितीयं च वर्षम्-चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, द्वि
वात् सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेनेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ तीय वर्षे वर्षासु-चशब्दान्मासं च ऋतुबद्धे न तत्र-क्षेत्रे |
दश०२ चू। यसेत् , यत्रको वकल्पो मासकल्पश्च कृतः , अपि तु विवित्तजीवि (या)-विविक्रजीविन-त्रि० । विविक्त नापसनदोषाद् द्वितीयं तृतीयं च परिहत्य वपादिकालं तत- शुपण्डकसमन्वितशय्या दर्गहतमसंक्लिष्ट जीवितुं शीलमस्तत्र वसदित्यर्थः , सर्वथा । किं बहुना ? , सर्वत्रैव सूत्र- स्थति विविक्तजीवी। स्यादि संसक्तासनादिवर्जनतो जीवनस्य मार्गेण चरेद्भिक्षुः-आगमादेशेन वर्त्ततेति भावः । त. शील, भ. ६ श० ३३ उ०। त्रापि नौघत एव यथा श्रुतग्राही स्यात् अपि तु सूत्रस्य अर्थः- पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गा
विवित्तमउअ-विचिक्नमृदक-त्रि०। दोपवियुक्त, लोकान्तरापवादगर्भो यथा श्राज्ञापयति-नियुङ्क्ते तथा वर्तेत , ना
संकीर्णे वा कोमल, “ विवित्तमउपाहि सयणासणेहिं " न्यथा । यथेहापवादतो नित्यवासेऽपि वसताघेव प्रतिमा
भ० ६ श० ३४ उ। सादि साधूनां संस्तारगोचरादिपरिवर्तेन, नान्यथा, शुद्धा- विवित्तवासवसहि-विविक्तनासवसति-स्त्री० । विविक्तानांपवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणाविनाप तदर्थ प्रत्यु- निर्दोषाणां वासो-निवामो यस्यां, सा चासी वसतिः । निपेक्षणेनानुष्ठानेन वत्तेत , न तु तथाविधलोकोयां तं परि- दर्दोषजनावाले, प्रश्न. ३ सब० द्वार । तदन्यसाधुभी रहित्यजेत् , तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ विवि- | तायां वसतौ च । दश०८ अ०। क्लचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह-यः साधुः पूर्वरात्रापर- विवित्तसयणासणसेवणया-विविनशयनासनसेवनता-स्त्री। रात्रकाले . रात्रौः प्रथमचग्मयोः प्रहयोरित्यर्थः , संप्रेक्षते
विधिनानि रुयाद्यसंसक्तानि यानि शयनासनानि उपलक्षसूत्रोपयोगनीत्या श्रात्मानं कर्मभूतमात्मनैव करणभूतेन ।
गत्यादुपाश्रयश्च तेषां या सेवनता सा तथा। भ०१७ श०३ कथमित्याह---के मे कृताित-छान्दसत्वात्तृतीयाथें
उ० । स्त्रीपशुपण्डकादिरहितशयनासनानामासेवनायाम् , षष्ठी । किं मया कृतं शक्यनुरूपंतपश्चरणादियोगस्य ?. किं
उत्त० २६ अ०। च मम कृत्यशेष--कर्तव्यशेषमुचितम् ?. किं शक्यं वयाऽ
तत्फलमाहवस्थानुरूपं वेयावृत्त्यादि न समाचगाम न करोमिः, नदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ॥ १२॥ तथा- किं मम
विविच सयणासणसेवणयाए णं भंते ! जीवे किं जम्मलितं पर:- स्वपनगरपान तत्तण पश्यति ? किं ना। यह १, विवित्तसयणासणसेवणयाए णं चरित्तगुर्ति
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या खोपयशयनासनस्त/ANA बार।
(१२०), विवित्तसयणा अभिधानराजेन्द्रः।
विवेग जणयइ, चरितगुते णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एग
| या अनेकगुणे तपसि रते, दश श्र०४ उ०। 'विविहन्तरए मोक्खभावपडिवन्ने अविहकम्मगंठिं निज्ज- |
| गुणतचोरए निचं भयह निरासए' दश. ६०४ उ०। रेइ ॥ ३१ ॥
विविहजाइ-विविधजाति-स्त्री०। नानाजातीयेषु, प्रश्न १ हे भदन्त ! विविक्तानि-स्त्रीपशुपण्डकवर्जितानि शयना- | सनानि-उपाश्रयस्थानानि यस्य स विविक्तशयनासनस्त
|विविहजोग-विविधयोग-पुं० । बहुविधव्यापारे , पश्चा० ११ स्य भावो विवक्तशयनासनता तया स्त्रीपशुपण्डकादिरहि
विव०। तस्थितिनिवासत्वेन जीवः किं जनयति?। गरुराह-हे शि-|विविहतित्थकप्प-विविधतीर्थकल्प-पुं०। खरतरगच्छालङ्काप्य ! विविनशयनासनतया जीवश्चरित्रगुप्ति चारित्रस्य | रश्रीजिनप्रभसूरिविरचिते कल्पप्रदीपाऽपरपर्यायेऽनेकतीर्थानां रक्षां जनयति, गुप्तवरित्रश्च जीवो विविक्लो-विकृत्यादिश- कल्पे, स च "अनुष्टुमां सहस्राणि, त्रीणि नव शतानि च । रीरपुष्टिकारकवीर्यवृद्धयादिकद्वस्तुरहित आहारो यस्य स एकोनत्रिंशदन्यस्मात् ३६२६ ग्रन्थमानं विनिश्चितम् ॥१॥" इयविविक्ताहारस्तादृशः स्यात् । तथा दृढ़ निश्चलं चरित्रं यस्य प्रमागाः शत्रुञ्जयादितीर्थानां निखिलवक्तव्यताप्रतिबद्ध श्रास दृढचरित्रः, पुनरत एव एकान्तेन-निश्चयेन रक्त-आसक्तः गमैतिह्यभूलो जिनप्रभसूरिभिर्महता श्रमेण सन्दृब्धः पुरेति एकान्तरतः संयमेन सावधानः स्यात् । तथा मोक्षभावेन वृत्तजिज्ञासुभिस्त्वयश्यं वीक्ष्यः । नापरोऽस्मादेवविधो ग्रन्थो मनसा प्रतिपन्न:-आश्रितो मोक्षो मया साध्य इति बुद्धि- विक्रमार्कसमयाद्यवनसमयं यावद् भारतदशादर्शक उपलमान् क्षपकणि प्रतिपद्याष्टविधकर्मग्रन्थि निर्जरयति-क्ष- भ्यते । ती०५५ कल्प। पयति । उत्त० २६ अ०।।
विविहपाण-विविधपान-न० । द्राक्षापानकादौ, प्रश्न. ५ विवित्तेसि(ण)-विविक्तैषिण-त्रि० । विविक्तं स्त्रीपशुपण्डका
संव० द्वार। दिविरहितं स्थानमेषितुं शीलमस्य । स्त्रीपशुपण्डकादिर
विविहप्पगार-विविधप्रकार-त्रि० । अनेकप्रकारेषु, पं० ३० हितस्थानसेवके. सूत्र०१०४०१ उ०। विविदिसा-विविदिषा-स्त्री । वेदितुमिच्छा विविदिया ।
४ द्वार। जिन्नासायाम् , पञ्चा०४ विद्य।
विविहवाणसंजुत-विविधवर्णसंयक्त-त्रि०ाविचित्राक्षरसंयोगे,
पो० ६ विष। विविद्धि-विवृद्धि-स्त्री० । उत्तरभाद्रपदनक्षत्राधिपती देवे,
विविहवत्थ मल्लधारि-( ण् )-विविधवस्त्रमाल्यधारिन-त्रिका स्था।
विविधानि शुभतराणि वस्त्राणि माल्यानि च धारयन्तीत्येदो वित्रिद्धी । ( सूत्र०६०+)। स्था० २ ठा० ३ उ०।
वंशीलाः विविधवनमाल्यधारिणः । अनेकविधवस्त्रमाल्यविविह-विविध-त्रि० । अनेकप्रकारे, चं० प्र० १८ पाहु० ।
धारकेषु, जी०४ प्रति०२ उ०। आचा। सूत्र.1 नि० चू। दश। प्रश्न । पं० चू० । विविहवित्थराणुगम-विविधविस्तरानुगम-पुं०। विविधश्चारा० । स० । नानाप्रकारे, प्राचा० १७० २ ० ३ उ० ।।
सौ सत्पदनरूपणाधनेकानुयोगद्वाराश्रितत्वेन विस्तरानुगजं.। विचित्रे, प्रा. म०१ अ० । रा० । “ विविहतारारू
मः । विस्तारानुगमनीयानेकजीवादितत्त्वानां विस्तरप्रतिपावोचिया" विविधैस्तारारूपैस्तारिकारूपैरुपवितानि तोर
। दने , स० १३७ सम०। णेपु हि शोभार्थ तारिका निबध्यन्ते इति प्रतीतम् । जी०
विविहवस-विविधवेश-पुं० । विविधवेश्याजने, औ०। ३ प्रति०४ अधिः । “ विविहदेसनेवस्थगहिययेसे " विविधैर्देशनेपथ्यैर्गृहीतो वेपो यैस्ते विविधदेशनेपथ्य- विविहसत्त-विविधसत्त्व--पुं० । विविधा बहुप्रकारा वर्णागृहीतवेषाः । जी०३ प्रति०४ अधि०।"विविहफलहरस- दिभेदात् सत्त्वा येषामनन्तकायिकवनस्पतिभेदानां ते तथा। गणामियचित्तडाले, " विविधफलमरेण सन्नामितान्यवन- अनेकविधसत्त्वेषु, भ०७ श०३ उ०। 'अणतजीवा विवितीकृतानि चित्राणि विविधानि डालानि शाखा यस्य स | हसत्ता ।' भ०७श०३ उ०। तथा । पञ्चा० १६ विव०।' विविहमुतंतरोवियं ' विवि
विविहसत्थ-विविधशस्त्र-न। स्वकायपरकायभेदेषु शस्त्रेषु. धा विविधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्काफलानि अन्तरेति
प्रश्न० १ आश्र० द्वार। अन्तराशब्दो गृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद् वीप्सां गमयति अन्तरा' आरोवियाग्रारोपितानि यत्र तानि तथा । विवेगे-विवेक-पुं० । विवेचन विवेकः। 'विचिर' पृथग्भावे । जी. ३ प्रति०४ अधिः । 'विविवाहिसयसमिकेयं ' इह श्रोघ० । परित्यागे, प्राचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। व्य० । संनिकेत स्थानम् । भ०६ श० ३३ उ० ।
सूत्र शिवेकस्त्यागः । स्था०१ ठा० । स्वजनसुवर्णादित्या
गे, आ० म०१ अ०। संसक्तानपानोपकरणशय्यादिविविविहकरणबुद्धि-विविधकरणबुद्धि-त्रि०। विविधचिकीर्षों,
षये त्यागे , ध० ३ अधि० । अशुद्धभक्लादिविवेचने, ग०१ प्रश्न०५ श्राश्र० द्वार।
अधिक । भ० । अनेषणीयभक्कादित्यागे, । पञ्चा० १६ विविहगर--विविधकर--पुं० । ३६ ऋषभदेवपुत्रे, कल्प० १
विव० । कायोत्सर्गाऽभिधाने, आव० ५ अ०। ('दव्वाअधि०७ क्षण।
इओ विवेगो०-(३६६) इत्यादिपिण्डनियुक्तिगाथया विवेविविहगुणतवोरय-विविधगुणतपोरत-त्रि० । अनशनाद्यपेक्ष-| कव्याख्या — उग्गम' शब्दे द्वितीयभागे ६६४ पृष्ठे कृता ।)
३ उ० । पाहावत्थराणुगम-नि
म०१ अ० । रा
वोचिया,
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विवेग
।
शास्त्रोकार्थविभागस्थापना समर्थ दर्श० ५ तस्य देयोपादे परिरक्षणे, अ० १५ अष्ट० । बुद्धवा पृथक्करणे, औ० । स्था० । विनिश्चये, प्रति० ।" स्यात्क्षणक्रमसम्बन्ध-संयमाद्यः द्विवेकजम् । ज्ञानाज्जात्यादिभिस्तच्च, तुल्ययोः प्रतिपत्तिकृत् " द्वा० २६ द्वा० । (विवेकाष्टकम् श्राता ' शब्दे द्वितीयभागे २०६ पृष्ठे गतम् । )
(१२५१) अभिधान राजेन्द्रः ।
विवेगखाइ - विवेकख्याति स्त्री० । प्रतिपक्षभावनावलादवि द्याप्रविलये विनिवृत्तज्ञातृत्वकर्तृत्वाभिमानाया रजस्तमोमलानभिभूताया बुद्धेरन्तमुखायाश्चिच्छायायाः संक्रान्तौ द्वा०| २५ द्वा० ( 'विषेषस्यातिनिरूपणं' 'मोषख' शब्देऽस्मि भागे ४३४ पृष्ठे द्रष्टव्यम् । )
I
विवेगद्दि-विवेकाद्रि-पुं० । तत्त्वज्ञानतत्स्वरमण गिरौ, पृ० १५ विव्वोत्र - देशी - अवलोकितविश्रान्तयोः, दे०ना०७वर्ग-गाथा। विव्वोय-विव्योक - पुं० । “इष्टानामर्थानां प्राप्तायभिमानगर्वसंभूतः स्त्रीमनादरतो, वियोको नाम विशेषः
क्षणे स्त्रीणां चेष्टाभेदे, बृ० १ ० ३ प्रक० । ग० । ज्ञा० । आचा० । देशीपदं वा 'विश्वोय' त्ति । श्रङ्गजविकारे, अनु० । । । 3 विव्योषण - देशी न० उपधानके सू० ० २० पाहु दश० [झा० भ० 'विव्वोयणा' उपधानकान्युच्यन्त इति जीवाभिगममूलटीकाकारोक्नेः । रा० ।
विस - विष-स्त्री गरले, उत्त०१६ श्र०। ग० प्रश्न० |" गरलं । विसं । पाइ० ना० २१० गाथा प्रब० । श्राव० । ध०र० । यौ० वि० । कालकूटे, प्रश्न० ९ श्राश्र० द्वार । श्राव० । विषगर लक्ष्व ब्रह्मसुतवत्सनाभेति पर्यायाः । है? । विषकालकूटगरलहालाहलफाफोला: पुंनपुंखका है० (विषया रूपा 'उयोगपरिगरि शदे द्वितीयभागे ६०१ पृष्ठे गता । ) विषं स्थावरजङ्गमभेदाद् द्विधा । स्था०१०टा०३३० । वल्लीभेदे, व्य० ४ उ० ।
अष्ट० ।
विवेगपडिमा विवेकप्रतिमा श्री० । विवेचनं विवेकरत्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां च गणशरीरानुचिन्तापानादीनां तत्प्रतिपत्तिर्विवेकप्रतिमा अभिप्रदविशेषे स्था० २ ० ३ ० सुद्धातिरिक्रनपान शरीरतन्मला दित्यागे स्था० ४ ठा० १ उ० ।
|
विवेगमासि ( ) विवेकभाषिन् वि० भाषासमि डुवेते,
,
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श्राचा० २ श्रु० १ चू० ४ ० २३० | विवेगविलास- विवेकविलास पुं० खनामख्याते आयकशीचाचारप्रतिपादके ग्रन्थे, "मौनी वस्त्रावृतः कुर्याद्दिनसन्ध्या. द्वयेऽपि च । उदङ्मुखः शकृन्मूत्रे, रात्रो याम्याननः पुनः ॥ १॥३१ ध० २ अधि० ।
विवेगारिह - विवेकाई न० परित्यागशोध्ये स्था० १०टा०
३ ३० । प्रायश्चित्तमेदे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । अशुद्धभक्तादिविवेचने, औ० । स्था० । यस्य चानेषणीयग्रहणादेर्विधिना परित्यागय शुद्धिर्भवति जीत व्य० (विषेका प्रायश्चित्तम् ' उभयारिह ' शब्दे द्वितीयभागे ८४३ पृष्ठे गतम् । ) अधुना विवेका भगपतेपिंडोबहिसिलाई, गहिये कडजोगियोवड तेरा । पच्छा नागमसुद्धं मुझे विहिया विनिचितो ।। १६ ।। पिण्डसंघातो ऽशनपानखाद्यस्वाद्यभेदभिन्नः उपधिरोधिक उपदिकध प्रागुक्ररूपः शय्या उपाश्रयः आदिशन्दात् श्रीप धगोष्ठामलकादिग्रहः । ततः पिण्डोपधिशय्यादिकं योगिना गीतार्थेन सूतोऽतोऽपि चाधिगतशेपतत्सवर्तमानभूतेन उपयुक्रेन दत्तोपयोगेन गृहीतं पचाद् मह शानन्तरम् उद्मोत्पाद पादम्यतरदोष पत्येऽशुद्धमिति ज्ञातं न विधिना पातालोकादी स्थण्डिलेपरित्यजन् शुद्धो निर्दोषो भवति ।
कालद्भाणा इच्छिय- मणुग्गयत्थमियगहियमसदेण । कारणगहिउब्धरियं, भत्ताइविगिंचियं सुद्धो ॥ १७ ॥ कालाध्यातिक्रान्तं प्रहरादूर्ध्वं भयमा कालातिकान्तम् अयोजनातिरेकादानीतं चावातिक्रान्तं तथ साधूनामप रिभोग चाहमाधूनामुपयुकत्वात्कथं कालातिकान्तत्व
विसन्धि
"
संभवः ? सत्यम्, संभवत्येव ग्लानादिहेतोः, तत्रतो वा स्थ डिलं न स्यात् सागारिका या तत्र स्युचौरादिभयं वा तथा स्यादिति । अथानुगतास्तमितगृहीते प्रशउत्वेन मेघमहि कामहीधररजो राहुभिरावृते भास्वति प्रातरुद्वतबुद्धया गृहीतं पश्वात्काले गृहीतमिति ज्ञातं तथा कारणगृहीतोद्वृत्तं बालग्लानाचार्य प्राधू एकदुर्लभद्रव्य सहसा लाभादिना कारणेन गृहीतस्य विधिना च क्रस्पोवृतं भकादिअशनपानं खाद्यरूपम् प्रशठः श्रुतोक्नस्थण्डिले विविञ्चनत्यजन् शुद्धः कोऽर्थः ? कालतिकान्नादीनां सर्वेषां विवेकाप्रायश्चित्तेनैव शुद्धिर्भति । उक्कं विवेकार्ड जीत। विधेयथा- विवेचना स्त्री० निजेरायाम्, स्था०८ डा०३ ३०
विष्- स्त्री० । विष्ठायाम्, अ० १६ अ० । वृष - पुं० । गवि, व्य० १ उ० ।
विस-१० कमलकन्दे मा० १ पाद विसय-विषय- ० गोयरे, 'गांधरी चिसो पाइ० ना० २६१ गाथा ।
बिसञ्चोदय विषयोदय ५० विषयग्रहणेन विषयविषयो मोहः परिगृहाने विषयेण विषयिणोपलक्षात् विषयविषयमहोदये ०१० विसंखलिय-विशृङ्खलित नियम को० । विसंखलया विशृङ्ख(लिका)ला श्री० - | "खच्दा उद्दामा निरम्गला मुक्ता विसंखलया" पाह ना० १३ गाथा |
च्याम्
सिंधुल- विस्थुल त्रि० "डोस्थि विसंस्थुले" ॥ २३२ ॥ इति संयुक्रस्यः प्रा० 'लदिविदुलधाई।' प्रा०४ पाद विह्नले, "विहुलं विसंठुलं जाए "। पाइ० ना० २६४ गाथा । चिसन्धि- विसन्धि-पुं० विगलितबन्धने सूत्र० २ ० १ श्र० । श्रव० । व्यवस्थितौ श्रा० चू० ४ श्र० । द्वापञ्चाशतमे महाग्रहे, स्था० २ ठा० ३ उ० ।
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(१२५२) विसंधि अभिधानराजेन्द्रः।
विसंभोग दो विसंधी। (सू०80+) स्था०२ ठा०३उ०कल्प। विसंभोग-विसंभोग-पुं० । दानादिभिरसंव्यवहारे, स्था०३ विसंभ-विश्रम्भ-पुं० । विश्वासे, प्रव०२ द्वार ।
ठा० ३ उ० । आर्यसुहस्तिसमयाद्विसंभोगः। व्य० । विसंभाण--विश्रम्भस्थान-न । विश्वासस्थाने,प्रव०२ द्वार।
अधुना भाष्यविस्तरःविसंभोइय-विसंभोगिक-पुं०।विसंभोगो दानादिभिरसंव्यव
संभोइए ति भणिते, संभोगो छविहो उ आदीए। हारः, स यस्यास्ति सविसंभोगिकः । स्था० ३ ठा०३ उ०॥
भेदप्पभेदतो वि य, ऽणेगविहो होति नायवो ॥५१॥ मण्डलीबाह्ये, स्था० ५ ठा० १ उ० । भोजनादिभिरसंव्यवहार्ये, |
__ संभोगिक इति भणिते संभोगो विचार्यते । तत्रादौ संसाम्भोगिकस्य विसम्भोगीकरणमाह
भोगः पड्डिधो भवति भेदाभेदतोऽपि च एकैकस्य भेदस्य
प्रभेदतः पुनरनेकविधो भवति । तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसं
तत्र प्रथमतः षड्धिमाहभोगियं करेमाणे णातिकमति । तं जहा-सयं वा दुई सड्ढस्स
पोहे अभिग्गहें दाणे, गहणे अणुप.लणाएँ उववाए । वा निसम्म तचं मोसं आउट्टइ चउत्थं नो आउइ । संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविही मुणेयव्यो ।॥५२॥ (सू० १७३)
श्रोघे-उपध्यादौ अभिग्रहे दानग्रहे अनुपालनायामुपपाते 'साहम्मिय' ति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्तम्, । एवमेते पञ्च संभोगा भवन्ति, षष्ठसंभोगविधिः संवासे शात. सम्-एकत्र भोगो-भोजनं संभोगः-साधूनां समानसामा- व्यः । चारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः
तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमत स विद्यते यस्य स सांभोगिकस्तं विसंभोगो दानादिभि
ओघसंभोगमभिधित्सुगहरसंव्यवहारः स यस्यास्ति स विसंभोगिकस्तं कुर्वन्नाति
अोघो पुण वारसहा, उवधिमादिकमेण बोधव्यो । काति-न लजयत्याज्ञां सामयिकं वा विहितकारिवादि कायव्व परूवणया, एतेसि आणुपुव्वीए ॥५३॥ । ति । स्वयमात्मना साक्षात् दृष्ट्रा सांभोगिकेन क्रियमाणां उवहिसुयभत्तपाणे, अंजली पग्गहेइ वा। सांभोगिकदानग्रहणादिकामसमाचारी तथा 'सहिस्स'त्ति
दावणा य निकाए य, अब्भुट्ठाणे ति आवरे ॥५३।। श्रद्धा-श्रद्धानं यस्मिन्नस्ति स श्राद्धः श्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यः साधुस्तस्य वचनमिति गम्यते निशम्य-श्रव
कितिकम्मस्स (य) करणे, वेयावच्चकरणे इ य । धार्य , तथा 'तचं' ति एक द्वितीयं यावत् तृतीयं 'मोसं' समोसरणसन्निसेजा, कहाए य पबंधणे ॥५४॥ ति मृषावादम् अकल्पग्रहणपार्श्वस्थदानादिना सावधि- श्रोघसंभोगो द्वादशप्रकारस्तद्यथा-उपधिविषयः १, श्रुतषयप्रतिक्षाभङ्गलक्षणमाश्रित्येति गम्यते श्रावर्तते--निवर्त- विषयः २, भक्लपानविषयः ३.अञ्जलिग्रहविषयः ४, 'दावणार' ते : तमालोचयतीत्यर्थः, अनाभोगस्तस्य भावात् प्राय- त्ति दापना-शय्यातरोपधिस्वाध्यायशिष्यगणानां प्रदापन श्चित्तं चास्योचितं दीयते, चतुर्थत्वाश्रित्य प्रायो नो प्रा- तद्विषयः ५, 'निकाय 'त्ति निकाची निकाचनं-छवनं निवर्तते-तं नालोचयति, तस्य दर्पत एव भावादिति, श्रा- मन्त्रणमित्यकार्थास्तद्विषयः ६,'अम्भुट्ठाणे त्ति श्रावरे' अ. लोचनेऽपि प्रायश्चित्तस्यादानमस्येति,अतश्चतुर्थासंभोगका | परीऽभ्यत्थानविषयः ७.'कितिकम्मरस य'इत्यादि.कृतिकर्म रणकारिणं विसंभोगिकं कुर्वनातिक्रामतीति प्रकृतम् । वन्दनकं तत्करणविषयः ८, वैयावृत्यकरणविषयः ६, समयउक्तं च-" एग व दोवि तिन्नि व. आउटुंतस्स होइ प
सरणविषयः १० , सन्निषद्याविषयः ११ , कथाप्रबन्धनविच्छित्तं । प्राउटुंते बि तो, परिणे तिराहं विसंभोगो ॥१॥" पयश्च ॥१२। इति एतच्चूर्णिः-स सम्भोइओ असुद्धं गिराहतो चोइश्रो
तत्रोपधिसंभोगः षट्पकारस्तथा चाहभगर-" संतपडिचोयणा. मिच्छा मि दुक्कडं, ण पुणो उबहिस्स य छब्भेया, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धो । एवं करिस्सामा," एवमाउट्टो जमावन्नो तं पायच्छित्तं दाउं परिकम्मण परिहरणा , संजोगो छट्ठो होइ ॥ ५५ ॥ संभोगो । एवं वीयवागए वि, एवं तइयवाराए बि, तइय. उपधेरुपाधिसंभोगस्य षद्द भेदा भवन्ति, तद्यथा-उद्गमशुवाराश्रो परो चउत्थवागए तमेवाइयारं सबिऊण आउ- द्धः १. उत्पादनाशुद्धः २ एषणाशुद्धश्च ३, परिकर्मणाटुंतस्स वि विगंभोगो' इति । इह चाद्य स्थानद्वयं गुरु- संभोगः ४, परिहरणासंभोग : ५, संयोगविषयः षष्ठः संभोगः तरदोषाश्रयम् । यतस्तत्र ज्ञातमात्रे श्रुतमात्रे च विसम्भोगः ६, तत्र यत्सांभोगिकः सांभोगिकेन सममाधाकम्मादिभिः षो. क्रियते, तृतीयं त्वल्पतरदोषाश्रयं, तत्र हि चतुर्थवेलायां डभिरुद्गमदोषैः शुद्धमुपधिमुत्पादयति एष उद्मशुद्धमुपधिस विधीयत इति । स्था०३ ठा०३ उ०।
संभोगः। श्रथाशुद्धभुत्पादयति तर्हि येन दोषेण अशुद्धमुत्पासंभोगिक विसंभोगिकं करोति
दयति तनिष्पन्न प्रायश्चित्तमापद्यते । तत्रापीयं व्यवस्थानवहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे संभोइयं विसंभोडयं
अशुद्धग्राही सांभोगिकः शिक्ष्यमाणः सति में प्रतिचीदनेऽपि
मन्यमानो मिथ्यादुष्कृतपुरस्सरं न पुनरेव करिष्यामीति करेमाणे णाइक्कमइ, तं जहा-आयरियपडिणीयं उबझा
ब्रुवाणः प्रत्यावर्तते , तदा यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्त हत्त्या संयपडिणीय थेरपडिणीयं कुलपडिणीयं । गणपडिणीयं । भोग्यते , एवं द्वितीयवारं तृतीयवारमपि चतुर्थवेलायां मंघपडिणीयं । नाणपडिणीयं । दंसणपडिणीयं । चरित्तप-|
त्वावृत्तस्यापि न संभोगः। अथ निष्कारणे अन्यसांभोगि
केन समं शुद्धमशुद्धं चोपधिमुत्पादयति, तर्हि सोऽपि यदि डिणीयं । ( म०६६१) स्था०६ ठा०३ उ० । शिक्ष्यमाणः व्यावतते ततः संभोगविषयीकिगते अन्यथा
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विसंभोग अभिधानराजेन्द्रः।
विसंभोग प्रथमवेलायामपि तस्य विसंभोगः । एवं द्वितीयवारं तृतीय- पइिंशतिभङ्गेषु सांभोगिकेन समं शुद्धः, असांभोगिकादिभिः पारमपि चतुर्थवारमावृत्तस्यापि नियमतो विसंभोगः । वार- सममसांभोगिकादिविषयं नादिसंयोगनिष्पन्नं प्रायश्चिप्रयेऽपि तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु, कारणे त्वन्यसांभोगिके- त्तम् । तद्यथा-उद्गमनिष्पन्नमुत्पादनानिष्पन्नमित्यादि, एवनापि सममुपधिमुत्पादयन् शुद्धः । एवं पार्श्वस्थादिभिर्गृहि- मुक्तमुपधिसंभोगः। भिर्यथाछन्दैश्व सह वेदितव्यम् , प्रायश्चित्तविधिरपि तथैव
सम्प्रति श्रुतसंभोगादीनतिदेशत श्राहनवरं यथा-छन्दे मासगुरु चतुर्गुरुकमित्यपरे । योऽपि पाव
एवं जहा निसीथे, पंचमउद्देसए समक्खातो। स्थादेः संघाटकं प्रयच्छति तस्यापि मासलघु. तथा संयतीभिः संविनाभिरसंविनाभिर्वा सांभोगिकाभिरसांभोगिका-|
संभोगविही सब्बो, तहेव इह इं पि वत्तव्यो॥५६॥ भिर्वा सममुद्रमेन शुद्धमशुद्धं वोपाधमुत्पादयतश्चतुर्गुरुकम्।। एवमुक्तेन प्रकारेण यथा निशीथे-निशीथाध्ययने पञ्चमे एतत्तावत्पुरुषवर्गेऽभिहित संयतीवर्गेऽपि द्रष्टव्यम् । एवं घो-| उद्देशके सर्वश्रुतादिसंयोगनिष्पन्न प्रायश्चित्तविषयं संभोगडशभिरुत्पादनादोषेर्दशभिरेषणादोषैः सांभोगिकेन सममुप- विधिः समाख्यातस्तथैवेहापि वक्तव्यः । स च ग्रन्थगौरवभधिमुत्पादयन् शुद्धः, विपर्यासे प्रायश्चित्तविधिः पूर्ववत् (२, यान्न शक्यते लिखितुमिति तत एवावधारणीयः । ३)। 'परिकम्मण' त्ति परिकर्मणा नाम यदुपधिमुचितप्र
एष च संभोगविधिः पूर्वमस्मिन्न भरते सर्वसविग्नानामाणकरणतः संयतप्रायोग्यं करोति । तत्र भङ्गाश्चत्वारस्तद्य
मेकरूप श्रासीत् पश्चात्कालदोषत इमे सांभोगिका इमे त्वथा-परिकर्मणा कारणे विधिना १. कारणेऽविधिना २, नि
सांभोगिका इति प्रवृत्तम् । किं कारणमिति चेदत श्राहकारणे विधिना ३, निष्कारणेऽविधिना ४, अत्र प्रथमभङ्गः शुद्धः, द्वितीये मासलघु तपोगुरु. तृतीये मासलघु कालगुरु
अगडे भाउय तिलतं-दुले सरक्खे य गोणि असिवे य । कम् , चतुर्थे मासलघु द्वाभ्यां गुरु । संविग्नरम्यसांभोगिकैः अविणढे संभोगे, सव्ये संभोइया प्रासी ।। ५७ ॥ समं चतुर्थेष्वपि भङ्गेषु मासलघु,अत्रापि द्वितीयादषु भङ्गेषु पूर्ववत् । तपःकालविशिष्टता गृहस्थैः पार्श्वस्थादिभिः सम
पूर्वमविनटे से गे सर्वे संविग्नाः सांभोगिका एकसंभोगा
पासीरन् । पश्चात्तु कालवैगुण्यतः सांभोगिकाऽसांभोगिकप्रत्येकं चतुर्लघुकं, यथाछन्दैः समं चतुर्गुरुकमत्रापि द्वितीया
विभागः । तत्र दृष्टान्तोऽवटः गाथायां जातायेकवचनम् , दिषु भङ्गेषु प्राग्वत् , तपःकालविशिष्टता । तथा सांभोगिकी.
एवमुत्तरत्रापि । तथा द्वौ भ्रातरौ २, तिलाः ३, तण्डुलाः ४, नां संयतीनामुपधि विधिना संयतीप्रायोग्य गणधरः परिक
सरजस्काः ५, गोवर्गश्चाशियविषयः ६। र्मयन् ददानश्च परिशुद्धः, अविधिना परिकमैयतश्चतुर्गुरु, पावस्थादिसंयतीनां गृहस्थानां च कारणे विधिनेत्यादि भ
तत्रावटदृष्टान्तभावनार्थमाहचतुष्टये प्रत्येकं चतुर्गुरु । द्वितीयादिषु भङ्गेषु तपःकालवि- आगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणढे कूवे तो पुच्छा । शिष्टता प्राग्वात् । तथा परिहरणा नाम परिभोगस्तत्रापि भ.
कुत आणीयं उदयं,अविण? नासि सा पुच्छा ।। ५८॥ अचतुष्टयं कारपे विधिना १, कारणेऽविधिना २. निष्कारणे विधिना ३, निष्कारणेऽविधिना ४, तत्र प्रथमभङ्गे सांभोगि
" एगस्स नगरस्स पक्कीए दिसाए बवे महुरोदगा कूवा, कैः सममुपकरणं परिभुञ्जानः शुद्धः, शेषेषु द्वितीयादिषु भने
तत्थ केइ कवा आगंतुकेग तया विसाइणा दोसेण केइ तदुः षु मासलघु तपःकालविशिष्टम् , असांभोगिकैः सममुपकरणं
त्थेण खारलोणविसपाणियांसगसंभवरूवेण विट्ठा । तत्थ परिभुञ्जानस्य चतुर्ध्वपि भनेषु मासलघु, द्वितीयादिषु तु
केसु वि कृवेसु पाणिय पिजमाण कुट्टाइणा सरीरसंदूसणतपःकालविशिएता पार्श्वस्थादिभिर्गृहस्थादिभिश्च सममु
कर हवाइ । केई जीयंतकरा भवंति । केह राहाणायमणासु पभुआनस्य भङ्गचतुपयेऽपि प्रत्येकं चतुर्लघु, यथाछन्दैः संय- अविरुद्धा, केई राहाणाइसु विरुद्धा । तत्र बहुजणो एयतीभिः गृहस्थाभिश्चतुर्गुरु । उभयत्रापि द्वितीयादिषु भङ्गेषु दोसदुट्टे ते नाउ प्राणीण पाणीए पुन्छइ, कश्रो प्राणितपःकालविशिष्टता ५। संयोगो-यादिपदानां मीलनम् । तत्र
तन्थ जइ निहोस तो परिभुजंति, अह सदोसं तो वजंति । भङ्गाः पदिशतिः, तद्यथा-दश द्विकसंयोगाः, दश त्रिकसंयो. नत्य वि जइ जाणतेन सदोममार्णायं ताहे सो तो फेडिगाः पश्च चतुष्कसंयोगाः एकः पञ्चसंयोगः । तत्र दश जह जिजाइ य । श्रह अशणतेणमाणीयं तो वारिज्जा द्विकसंयोगा इमे-साम्भोगिकेन सममुद्रमनोत्पादनया च शु. मा पुणः आणेजासि ।" अक्षरगमनिका त्वेवम्-अागन्तुकेन द्धमुपधिमुत्पादयतीति प्रथमः, उद्गमेनेषणया च दिनीय ! तदुत्थेन वा दोषेण कूपे कृपसंघाते विनष्टे सति ततस्तदउगमेन शुद्धमुत्पादयति परिकर्मयति चेति तृतीय.। उह नन्तरं यतस्ततो वा समानीते उदके लोकस्य पृच्छा प्रावर्तन मेन शुद्धमुत्पादयति परिहरति चेति चतुर्थः । एते चत्वारो- कुत पानीतमिदमुदकम् ? इति । अविनष्टे कृपसंघाते नासीत् ऽपि भङ्गा उद्गम पदममुश्चत लब्धाः पवमुत्पादनापदा
सा पृच्छा । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः अविनष्टे संभोगे न मोचनेन लभ्यन्ते त्रयः, एषणापदामोचनेन द्वौ, परिकर्मणा
सांभोगिकासंभोगिकपृच्छा आसीत् . अधुना दुषमानुभायपरिहरणापदयोरेकः । दशत्रिकसंयोगा इमे-साम्भोगिकः
तः केचिश्चारित्रशरीरोसरगुणपका अभवन् , केचिश्चारित्रसाम्भोगिकन सममुद्रमेनोत्पादनया एषणया च शुद्ध मुत्पा
जीवितव्यपरोपकाः । केचित्संस्पर्शपरिभोगिनः । केचित्संदयतीति प्रथमः । उद्गमेनोत्पादनया च शुद्धमुत्पादयति परिकर्मयति चेति द्वितीयः । उह्नमेनोत्पादनया च शुद्धमुत्पादय
स्पर्शतोऽपि विवर्जिताः । ततः परीक्षा १ ॥ ति परिहरति चेति तृतीयः। इत्याधुपयुज्य वक्तव्यम् । एवं प.
अधुना भ्रातृदृष्टान्तमाहश्चचतुष्कसंयोगाः। एकः पश्नकसंयोगश्च वक्तव्यः । एतेषु च ।
भोइकुलसेधि भाउय, दुस्सीलेगे तु जा यतो पुच्छा।
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विसम्म
विसंभोग
अभिधानराजेन्द्रः। एमेव सेसपसु वि, होइ विभासा तिलाईसु ॥ ५६ ॥ विसंवाय-देशी०-मलिने, दे० ना० ७ वर्ग ७२ गाथा । द्वौ भ्रातरौ भोजिकुलसेवकी राजकुले अभ्यहितसेवको विसंबायणा-विसंवादना--स्त्री०। अनाभोगादिना गवादिकसर्वत्रावारितप्रसारी, तयोः कनिष्ठोऽन्तःपुरे कृतानाचारो | मश्वादिकं यद्वदति कस्यचित् अभ्युपगम्य वा यन्त्र करोति जातस्ततो रामा प्रवेशो निवारितः । ज्येष्ठोऽपि च राशोऽ| तादृशे मिथ्याप्रत्यये, स्था०४ ठा०१ उ०। कथिते प्रवेशं न लभते, प्रतीहारेण तु कथिते राज्ञा पृरत्यतेविसकंठिया-विसकठिका-स्त्री०। विसं मृणालमिव ककागतो ज्येष्ठः कनिष्ठो वा । तत्र ज्येष्ठ इति कथिते स |
एठोऽस्त्यस्याः ठन् । बलाकायाम् , श्रा०म०१०। प्रवेश्यते,इयं तु पृच्छा पूर्व नासीत्। कालक्रभेगा च कस्मिन् कनिष्ठे दु.शीले जाते प्रावर्तत। उपनयभावना प्राग्वत् । ति
विसकंद-विसकन्द-पुं०। खाद्यविशेष,जी०३प्रति०४ अधिः । लादिरशान्तानाह-एमेवे' त्यादि एवमेवानेनैव प्रकारेण शे
विसकल-विशकल-त्रि० । खण्डाखण्डीकृते, व्य० ८ उ०। बेष्वपि तिलादिषु दृशान्तेषु भवति विभाषा-व्याख्यानं क- विसकलिय-विशकलित-त्रि० । खण्डिते, आ० म०१ अ०। सेव्यम् । तच्चेदम्-पूर्व सर्वेष्यपि प्रापणेषु अपूतिकास्तिला | विसकुंभ-विषकुम्भ--पुं० । स्फोटिकाविशेष, वृ० ३ उ० । अदुष्ट जम्मानस्तण्डुला विक्रयाय प्रसार्यन्ते स्म, ततः काल- विषHANI 'विमासमेरो विमपिटायो . दापात्त एकेन वणिजा निकृतिबहुलेन पूतिकास्तिलाः ठा०४०। प्रसारिताः , अपरेण तु एजन्मानस्तन्दुलास्ततो लोकस्य विसकण-विष्वष्कण-न०। शीघ्रविध्या (ध्मा)पनार्थ ज्वलतापृच्छा प्रावर्तत,कीरशास्तवापणे तन्दुलाः कीदृशा वा तिला
| मुल्मुकानामपकपणे, बृ०२ उ०। इति. पूर्व तु नासीत् । उपनयः प्राग्वत् (३-४) तथा एकस्मि-- | गरे एकस्यां दिशि बहुनि देवकुलानि तेषु सर्वेषु सरजस्का
विसगंडूस-विषगण्डूप-पुं० । कालकूटभृतगण्डूषे, 'जह वसन्ति सुशीलास्तान् सर्वानपि भूयान् जनो निर्विशेष पूज |
णाम विसगंडूसं कोती घेतूण नाम तुरिहको' सूत्र. १ यति.पश्चात्केषुचिहेवकलेषःशीला जाताः.गिमन्त्रणवेलाया | श्रु० ३ १०५ उ०1 प्रश्न। पृच्छा प्रवृत्ता कतमानिमन्वयामि । पूर्व त्वेवरूपा पृच्छा ना. विसघाइ (ण)-विषघातिन-त्रि० । गरदोपहननशीले, पश्चा. सीत् । उपनयः प्राग्वत्थापकस्मिन्ग्रामे महान् गोवर्गः | १४ विव०।दश। . स कदाचिदशिवेन गृहीतततस्तस्मात् प्रामादानीतासु | विसघारियजोगतुल्ल-विषघारितयोगतुल्य-पुंहालाहलव्या. गोषु लोकस्य पृच्छा अभवत् । कुतो ग्रामादानीता कस्य | प्तपरुषव्यापारसदृश, श्रस्पष्ट वेतनस्वादरूपे, पश्चा०६ विव०। गावगस्ययामात । पूर्व तु नासात् ६। एवमत्रापि विन, स-विसञ्जणा-विसर्जना-स्त्री०। मुत्कलने, व्य०४ उ०। भोगे सांभोगिकः परीक्ष्य संभोज्यते।
विसब्जिय-विसृष्ट-त्रि० । प्रेरिते, ज्ञा०१ श्रु० १३ अनि तथा चाह
चू० । श्रा०म० श्राव। साहम्मिय वइधम्मिय, निघरिसमाणे तहेव कुवे य। ।
विसट्ट-दलि--धााचूर्णीकरणे,विकासे चा“दलि बल्योर्विसट्ट गावीपुक्खरिणी य, नीयल्लगसेवागमणे ॥ ६॥ | वम्फौ" ॥८४।१७६॥ इति दलेर्धातोर्विसट्टादेशः । विमधर्मता-समानधर्मशीलता तां सम्यक् परीक्षया ज्ञात्वा सहर । विदलति । प्रा०४ पाद । भुञ्जते विधर्माता-विगतधर्मशीलता तां शात्वा परि-| दलित-त्रि० । “विसह विहडिअत्थे।"पाइ० ना० २४३ बजयन्ति । यथा सुवर्ण निघर्षे निकपोपले परीक्ष्य यदि युक्त गाथा। ज्ञायते ततः प्रतिगृह्यते, अन्यथा तु परित्यज्यते । एवमज्ञा
विसद्रमाण-विदलत-त्रि० । विकसति, शा० ४ ठा०४ नशीलोऽपि भाजनेन परीक्षणीयः। यदि भाजनस्य तलम
उ०। भ०। घृण्मुपकरणं या विधिना सेवितं तत 'श्रालएण विहारे
विसट्टया-विषार्थता-स्त्री०। विषमेवार्थो विधार्थस्तभावण' मित्यादिवचनतः सामिको शेयः , शेषस्तु वैधर्मिमकः । यथा या कृपे, यदि वा-गोषु यथा वा पुष्करिणी यथा
स्तत्ता । विषत्वे, भ०८ श०२ उ० । स्था। वा निजकस्य भ्रातुः सेवकस्यागमने परीक्षा तथा अत्रापि
विसह-विषम- । नीरोगे, दे० ना०७ वर्ग ६२ गाथा । पाह परीक्ष्य सभोगविसंभोगौ । उक्नः सप्रपञ्चः संभोगः । ना० २०७ गाथा।
सम्प्रति येनाधिकारस्तमभिधित्सुरिदमाह- विसण-विशन-न० । प्रवेशे,व्य०७ उ०। गएसि कयरेणं, सम्भोगेणं तु होइ सम्भोगी। विसयदि (गण )-विषनन्दिन-पुं० । प्रथमवलदेवस्याचल. समणाणं समणीतो, भष्मइ अणुपालणाए उ॥ ६१ ॥ स्य पूर्वभवजीवे. स० । तिः । एतेषामनन्तरोदिताना संमोगाना मध्ये कतरेण सम्भोगेन विसम-विषम-त्रि० । विविधमनेकप्रकारं सन्नो मग्नो विसभोगिम्यः श्रमणानां श्रमण्यो भवन्ति ?, सूरिगह-भरायते
षण्णः । उत्त०६०। सूत्र० । विशेषेण सनो निमग्नो विअनुपालनया-अनुपालनारूपेण सम्भोगेन,तदेवमुक्तः संभोगः। परणः । उत्त०८१०। श्राचा० । विशेषेण दीने, उत्त० १२ व्य०५ उ० । निचू०।
अ०। सूत्र० । प्राचा० । अवसक्ने विषयप्रधाने, सूत्र० १ विसंवइन-विसंवदित-वि० । विसंवादयुक्ने, “विश्र विसं-1
थु०१२ अ०। शोकिते, प्रश्न. ३ श्राथ० द्वार। असंयमे, वइअ।" पाहना०२४६ गाथा ।
सूत्र०१ श्रु०५०२ उ०।
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(१२५५) विसरणचित्त अभिधानराजेन्द्रः।
विसग विसरणचित्त-वियएणवित--त्रि०। मूछिते, सूत्र० १७०५ (विषमपदं गहण शब्द तनीयभागे ८६० पृष्ठे व्याख्यातम ।) अ०२ उ०।
निस्नेहे दुःसंचारे,प्राव०४ा प्रतिकूले,सूत्र ७०२ १०२ विसरणेसि(ण)-विषएणैषिण-त्रिक। विषाणोऽसंयमस्तमे
उगा "चलबहुलविसमचम्मो" चलं श्लथं बहुलं स्थू विषम
बलियुक्तं चर्म यस्य स तथा । स्था०४ ठा०२० । असंयमे, पितु शालमस्येति विषषी । असंयमगयेषके, “दुगुणं करे। सूत्र. १७०२ अ०१ उ० । दुर्गमत्वाद् विषमम् । आकाशे, से पावं पूयणकामो बिसनेसी'। सूत्र०१ श्रु०४०१ उ०।
भ०२ श०२ उ०। 'विसर्ट विसम' पाइना०२०७ गाथा। विसत्त-विसच्च--त्रि० । विगताः सस्वा यत्र तद् विसत्त्वम् ।
विसम-विषमय-त्रि०। 'मयट्यदर्वा' ॥१॥ ५० ॥ मविगतजने , व्य. ६ उ० ।
यद्प्रत्यये आदेरतः स्थाने अाह इत्यादेशः। विश्मयः । विसविसद-विशद-त्रि०। धवले , कल्प० १ अधि० ५ क्षण ।
मइओ। विसमश्रो । विषप्रचुरे, प्रा०१ पाद । न्यक्के, नि० चू०१ उ०।
विसमंत-विषमान्त-पुं० । कूटपाशादियुक्तप्रदेशे , सूत्र० १ विसदसण-विषदर्शन-पुं०। आगाढकारणे उत्पन्ने प्रतिसेव
ध्रु०१०२ उ। माने, नि० चू०१ उ०।
विसमचारिणक्खत्त-विषमचारिनचत्र पुं०। विषमचारीणि, विसपरिगय-विषपरिगत-त्रि०। विषव्याप्ते, स्था० ४ ठा० यथा स्वतिथिष्वन्तर्वतीनि नक्षत्राणि यत्र स विषमचारिन
क्षत्रः । विषमचारिनक्षत्रयुके संवत्सरे, 'ससिसगलपुण्णमाविसपरिणय-विषपरिणत-त्रि० । विषरूपापन्ने, स्था० ४ ठा० सी, जोएइ विसमचारिणखत्ते' । स्था० ५ ठा०३ उ० । १०।
विसमय-देशी-भल्लातके, दे० ना० ७ वर्ग ६६ गाथा । विसपरिणाम--विषपरिणाम-पुं० । गरलपरिपाके, स्था।
विसमसंधिबंधण-विषमसन्धिवन्धन-त्रि०। विषमाणि दीर्घछब्धिहे विसपरिणामे पामते, तं जहा-डके भुत्ते निव
इस्वत्वादिना सन्धिरूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिइए मंसाणुसारी सोणिताणुसारी अद्विमिजाणुसारी । (सू० बन्धनाः । असमसन्धिबन्धनेषु. भ०७ श. ६ उ०। ५३३४)
विसमाव-विषमातप-पुतलोपः । “पदयोः सन्धिर्वा" 'डके ति दष्टम्य प्राणिनो दंष्ट्रा विषादिना यत्पीडाकारी ॥८।१।५॥ इति संस्कृतोक्नः सन्धिर्वा । प्रतिकूलधम्ने , तद्दष्टं जगनविषम् , यश्च-भुक्तं सत् पीडयति तद् भुक्तमित्यु । प्रा०१पाद । च्यते,तच स्थावरम् । यत्पुनर्निपतितम् उपरि पतितं सत्पीड
विसमिअ-देशी-विपुलोस्थितयोः, दे० ना. ७ वर्ग १२ यति तनिपतितं त्वग्विर्ष दृष्टिविषं चेति त्रिविधं स्वरूपतः,
गाथा। तथा किंचिन्मासानुसारी मांसान्तधातुव्यापकं किंचिच्छोणितानुसारी तथैव किंचिचास्थिमज्जानुसारि तथैवेति त्रि- | विसमीस-विषमिश्र-त्रि०। गरलयुक्त , सूत्र०१ श्रु०४ अ० विध कार्थतः । एवं च सति पदविधं तत्ततस्तत्परिणामोऽपि १ उ०। पोटैवेति ॥ स्था०६ ठा०३ उ०।
विसमेह-विषमेघ-पुं० । जनमरणहेतुजले मेघे, भ० ७ श. विसप्पमाण-विसर्पत-त्रि०। विस्तारं बजति, भ० २ श०१
६ उ.। उ० प्रा० माशा० । रा। विशेषेण सर्पतीति विसर्पत् ।
विसय-विशद-पुं० । निर्मले, जी०३ प्रति०४ अधि० । जं०। विस्फुरति, उत्त० ३५ १०। विसप्पि(ण)-विसर्पिण-त्रि० । विसर्पणशीलं विसर्पि । वि
व्यक्ने , औ० । स्पष्टे, शा० १७०१०। रा०। धवले,औला स्तारयुक्ने, पो० ११ यिव० ।
विशय-पुं० । विशन्त्यस्मिन्निति विशयः । गृहे , उत्त० ७ विसम-वृषभ-पुं०। बलीव, भ०११ २०१०।
श्री संभावनायाम् , 'विसश्रोत्ति वा सम्भवो त्ति वा उ. विसभक्खण-विषभक्षण-न० । विषं तालपुटादि तस्य भक्ष
यति त्ति वा एगट्टा' प्रा० चू० ११०। णं विषभक्षणम्, ग०२ अधि० । गरलाशने , विषभक्षणेन
विषय-पुं० । विषीदन्ति धर्म प्रति नोत्सहन्ते एतेविति मरणभेदे , भ०२ श० १ उ० ।
विषयाः, यद्वा-सेवनकाले मधुरत्वेन परिणामे चातिकटुकविसभा परिक्खय-विषभागपरिक्षय-पुं०। स्वनामख्याते चौ
त्वेन विषस्योपमा यान्तीति विषयाः। उत्त० ४ श्रा।
विधीयन्ते निवध्यन्ते विषयिगोऽस्मिस्मिन्निति विषयः । द्धानां संशाभेदे, विषमागपरिक्षयो बौद्धानाम् । द्वा०२४ द्वा०।
गोचरे, परिच्छेद्ये, रत्ना०५ परि० । पश्चा। ध० । ग्राह्ये विसम-विषम-त्रि० । "शषोः सः" ॥ ८।४। ३०६ ॥ इति प- अर्थे, भ०८श०२ उ०। 'विषयः प्राप्तिर्गोचर एगट्टा' प्रा००
स्य सः। प्रा०। दुरारोहावरोहस्थाने, जं०२ वक्षाजी। १अाविषीदन्त्येतस्मिन् सक्काः प्राणिन इति विषयाः।इन्द्रियगो निम्नोन्नते, विपा०१ श्रु. ३ अ० । प्रश्न । श्राचा । निक चरे,आव०४ असा शब्दरूपरसगन्धस्पर्शादी, ग०२ अधिक। चू०दश। तं० । विषमभूमिप्रतिष्ठिते, भ. ३ श०४ उ०। श्राचा० । व्य० । जी० । भ० । प्रायः। उत्तक । स्था। सूत्र पाषाणगततर्वाद्याकुलभूमिरूप,भ०३ श०२ उ०। स्थावृ०।। व्य० । प्रव० । शा० । चक्षुरादिग्राह्येषु रूपादिषु,द्वा०२३द्वा।
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(१२५६). विसय अभिधानराजेन्द्रः।
विसयग्गाम दश । शब्दादिषु (विषयषु) जीवाः सजन्ति यावद्रम- स्पर्शव्याकुलितमति-गजेन्द्र इव बध्यते मूढः॥५॥ न्ते । स्था।
एवमनेके दोषाः, प्रनष्टशिष्टेष्टरष्टिचेष्टानाम् । पंच कामगुणा परमत्ता , तं जहा-सदा रूवा गंधा रसा दुर्नियमितेन्द्रियाणां, भवन्ति बाधाकरा बहुशः ॥६॥ फासा ३, पंचहिं ठाणेहिं जीवा सञ्जन्ति, तं जहा-सद्देहिं० एकैकविषयसना-द्रागद्वेषातुरा विनष्टास्ते । जाव फासेहिं ४, एवं रजंति ५, मुच्छंति ६, गिझंति किं पुनरनियमितात्मा. जीवः पञ्चेन्द्रियवशार्सः ॥७॥ ७, अझोववजंति ८, ( स्था० ) पंच ठाणा अपरि
तथा विषयैस्तरवोऽपि विगोपिताः, यतः पठ्यते
पादाहतः प्रमदया विकशत्यशोकः, माता जीवाणं अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सिताते
शोकं जहाति वकुलो मधुशीधुसिक्तः। प्रणाणुगामियत्ताते भवति, तं जहा-सहा. जाव फासा
आलिङ्गितः कुरवकः कुरते विकाश१० , पंच ठाणा सुपरिमाता जीवाणं हियाते सुभाते.
मालोकितः सतिलकस्तिलको विभाति ॥६॥ जाव आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा-सदा . जाव ग०३ अधिक। क.सा ११, (सू० ३६०+)
"उपभोगोपायपरो, वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । 'कामगुण ति कामस्य-मदनाभिलाषस्य अभिलाषमात्र- धावत्याक्रमितुमसी, पुरोऽपराहे निजच्छायाम् ॥१॥" स्य वा संपादका गुणाः-धर्माः पुद्गलानां , काम्यन्त इति प्राचा०१ ध्रु०२ १०४ उ०। कामाः ते च ते गुणाश्चेति चा कामगुणा इति ३, 'पंचहि
अथेन्द्रियविषयमानमाहठाणेहि' ति पञ्चसु पञ्चभिर्वा इन्द्रियैः-स्थानेषु-रागाद्याश्रये
वारसहि जोयणेहि, सोयं परिगिएहए सदं ॥११२१४॥ पुतेर्वा सह सज्यन्ते-सङ्ग-संबन्धं कुर्वन्तीति ४, 'एच' मिति पञ्चस्वेव स्थानेषु रज्यन्त-सङ्गकारणं राग यान्तीति ५,
रूवं गिएहइ चक्खू, जोयणलक्खाउ साइरेगानो। मूर्च्छन्ति-तद्दोषानवलोकनेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संर- गंधं रसं च फासं, जोयण नवगाउ सेसाणि ॥११२२॥ क्षणानुबन्धवतो वा भवन्तीति ६, गृध्यन्ति-प्राप्तस्यासंतोष
द्वादशभ्यो योजनेभ्य भागतं घनगर्जितादिशब्दमुत्कृष्टतो णाप्राप्तस्यापगपरस्याकालावन्तो भवन्तीति ७, अध्युपपचन्ते-तदैकचित्ता भवन्ताति तदर्जनाय वाऽधिक्येनोपपद्यन्ते
गृह्णाति श्रोत्रं, न परतः आगताः खलु ते शब्दपुद्गलाउपपन्ना घटमाना भवन्तीति ८, (स्था०) ( 'विरिणघा
स्तथा स्वाभाब्यान्मन्दपरिणामास्तथोपजायन्ते,येन स्वस्खविय'शब्देऽप्यस्मिन्नेव भागे गतम्।) 'अपरिगणाय' त्ति अपरि
पयं श्रोत्रज्ञानं नोत्पादयितुमीशाः , श्रोत्रेन्द्रियस्य च तशया स्वरूपतोऽपरिज्ञातान्यनवगतानि अप्रत्याख्यानपरिक्ष
थाविधमत्यद्भुतं बलं न विद्यते येन परतोऽप्यागतं शब्द या वा प्रत्याख्यातानि अहितायापायायाशुभायापुण्यबन्धा.
शृणुयादिति । तथा चचुरिन्द्रियमुत्कर्षतः सातिरेकायोजन
लक्षादारभ्य कर कुट्यादिभिरव्यवहितं रूपं गृह्णाति-परिच्छि. यासुखाय वाऽक्षमायानुचितत्यायाऽसमर्थत्वाय वाऽनिः)
नत्ति, परतोऽव्यवहितस्यापि परिच्छेदे चतु:शक्त्यभावात् , यसायाकल्याणायामोक्षाय वा यदुपकारि सत्कालान्तरमनुयाति तदनुगामिकं तत्प्रतिषेधोऽननुगामिकं तद्भाव
पतधाभासुरद्रव्यमधिकृत्योच्यते, भासुरंतु द्रव्यं प्रमाणास्तस्य तस्मै अननुगामिकत्वाय भवन्ति १० । द्वितीयं
कुलनिष्पन्नेभ्य एकविशतियोजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यन्ति
यथा पुष्करवरद्वीपार्द्धमानुषोत्तरनगनिकटवर्तिनो नराः कविपर्ययसूत्रम् ११ । स्था० ५ ठा० १ उ०।।
केसंक्रान्ती सूर्यबिम्धम् । उक्तं च-"इगवीसं खलु लक्खा, "विषस्य विषयाणांच, दरमत्यन्तमन्तरम् ।
चउतीसं चेव तह सहस्साई । तह पंच सया भणिया, उपयुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥१॥"
सत्तत्तीसाएँ अइरित्ता ॥१। इइ नयणविसयमाणं . पुसूत्र०१ श्रु०४ अ० १३० ।
क्खरदीयवासिमणुप्राणं । पुवेण य अबरेए य, पिहं पिहं "न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाम्यति । होइ नायव्व ॥२॥" तथा शेषाणि-घ्राणरसस्पर्शनेन्द्रिहविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्द्धते ॥१॥"
याणि क्रमेण गन्धं रसं स्पर्श च प्रत्येकमुत्कर्षतो नवभ्यो सम्म०३काराडा
योजनेभ्य भागतं गृहन्ति न परतः, परत आगतामां मयदुक्तं श्रीप्रशमरती
न्दपरिणामत्वभावात । प्राणादीन्द्रियाणां च रूपाणामपि "कलरिभितमधुरगान्ध-तूर्ययोषिद्विभूषणरवाद्यैः ।।
परिच्छेदं कर्तुमशक्कत्वात् । प्रव० १८८ द्वार । देशे, जनपदे, मश्रोत्रायबद्धहृदयो, हरिण इव नाशमुपयाति ॥१॥
एडले, पश्चा०६ विव०। गतिविभ्रमेशिताका-रहास्यलीलाकटाक्षविक्षिप्तः । विसयंगण-विशयाङ्गण-न । विशम्त्यस्मिन् विशयो गृहं रूपावेशिनचक्षुः , शलभ इव विपद्यते विवशः ॥ २॥
तस्याङ्गणम् । गृहागणे, उत्त० ७ ० । स्नानागगवर्मिक-वर्णकधूणाधिवासपटबासैः ।
विसयंगणा-विषयाङ्गना-स्त्री० । विषयप्रधानायामङ्गनायाम्, गम्धभ्रमितमनस्को, मधुकर इथ नाशमुपयाति ॥ ३ ॥ मिष्टानपानमांसौ-दनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा ।
सूत्र० १ श्रु० १२ अ०। गलयन्त्रपाशवसो, भीम इध विनाशमुपयाति ॥४॥
|विसयग्गाम-विषयग्राम-पुं० । शब्दाविविषयसमूहे , प्राचा शयनासनसंबाधन-सुरतनानानुलेपनासक्तः । | श्रु० ३ ०२ उ० ।
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दा।
पिसयचाग अभियानराजेन्द्रः।
विसरिमगम विसयच्चाग-विषयत्याग-पुं०।भोगसाधनपरिहारे, द्वा०२७|विसमसारत्त-विषयमारत-न। प्रधानमोचरन्वे. पनाह
विव० । विसयलिरोह-विषयनिरोध-गात्मद्रन्यैकाप्रतायाम् ,अ- | विसबसुह-विषयमुम्न--10। विश्वेन्द्रियसंसर्गजे सुखे, "वि. ४०२ अष्ट।
सयमुहं दुक्खं चिब, दुश्मपडियारो तिमिच्छ व्य । तं विसयतएहा-विषयतृप्या-खी शब्दादिविषयलालसायाम्, सुहमुबधागो , न उ उबयारो विरपा त .."अर०२
अटका "अस्पचरयमरलरख-रण यति सपिच्छिम संसार । इदानी विषयतृष्णालक्षणमाह
मुकं विसं व विसम, विसयमुहं हि ताण बमो॥१॥" गम्यागम्पविभागं, त्यक्त्वा सर्वत्र वर्तते जन्तुः।। संघा०६ अधि०१प्रस्ता। विषयेषवितृप्तात्मा, पतो भृशं विषयतृप्लेयम् ॥१॥
(महाप्रत्यास्याने) 'गम्ये' त्यादि गम्यागम्ये लोकप्रतीने तयोविभाग बासेवन तबकडेण व अम्मी, लमजलो वा नईमहम्सेहिं । परिहाररूपस्तं त्यक्त्वा विषयानियमेन व्यवस्थितः, सर्वत्र व
न इमो जीवो मको, तिप्पेठं काममोगेहिं ।।१५॥ तते जन्तुः सामान्येन सर्वत्र प्रवर्तते जन्तुः-प्रासी विषयेषुशब्दस्पर्शरसरूपगन्धेष्यक्तृितात्मा सामिलाप एव यतो वस्था
समकद्वेश व अम्मी, लणउलो वा नईसहस्सेहिं । विषयतृष्णायाः सकाशाद् भृशमत्यर्थ विषयतृच्या इवमिति न इमो जीयो सक्को,तिप्पे अन्धमारेशं ।। ५६ ।। इयं विषयतृष्योच्यते । पो०४ विव० । सूत्र।
तणकट्ठेस व अम्गी, लक्खजलो वा महमइस्मोहिं । विसयधम्मदि-(प)-विषयधर्मार्थिन-
बिस्त्रीपरिभोगा- |
न इमोजीचो सको, निप्पेटं बोयसाविहीर ।।७। थिनि , नि० चू०१ उ०।।
क्लवाहसामाखो, दुपारोक्सारको अपरिमिको। चिसयपडिकूल-विषयप्रतिकूल-त्रि०। ६ ताविषयपरिभो- न इमोजीचो सको, विप्षे संधमधेहि || ५८ ।। गनिषेधकत्वेन प्रतिलोमे, भ०६ श० ३३ उ01
अविवचोऽयं जीवो, अईयकासम्मि प्रामयिम्साए । चिसयपडिभास-विषयप्रतिभास-पुं०। विषयः घोबादान्द्रक- सद्दाख य स्वाण य, गंधाम्प रमाया फामा ५६ ।। मानगोचरः शब्दादिस्तस्यैव न पुनस्तत्प्रवृत्तीनजन्यस्था- | कपतसंगने-देनुत्तरकुलवंसकम्पम् । न्मनोऽर्थानर्थसद्भावस्य प्रतिमासः प्रतिमासवं परिच्छेदो |
उबदार ण व तिचो, न य मरविजाहम्मुमु ।। ६० ।। यत्र तद्विषयप्रतिभासम् । ऐहिकामुष्मिकेषु छाचास्थिकलानविषयेष्वर्थेषु प्रवृत्तावान्मनस्तात्त्विकार्थाचवन्तिभासलन्थे
खाइरस व पीएम ब, नब एसो ताइयो हाइ अप्पा । माने, हा अष्ट। (विषयाणां विषकण्टकत्वं गाण'
जह दुम्बई न बच्छ, सो सरणे ताइयो होइ ।। ६१ ।। शब्दे चतुर्थभागे १६७६ पृष्ठे व्याख्यातम् । )
देविंदचकाट्टि-सगाई रजाइँ उत्तमा मोगा । विसयपमाय-विषयप्रमाद-
पुंशब्दादिविन्यजसमादे,"चि-| पचा अरणतम्बुलो, न स सह तिन्ति मानो तेहिं ।। ६२ ।। षयच्याकुलचित्तो, हितमहितं मन वेत्ति जन्तुरसम् । ना- खीरदोच्दुरखमुं, साऊन्स्य महोदहीन्सु बहुसोप्रति । म्मादनुचितचारी, चरति चिरं दुःखकान्लारे ॥२॥" स्था०६ |
उत्र्यायो ण प समाहा, छिया मे सरियलमलेग्णां ॥६३ ॥ ठा.३ उछ। विसयपास-विषयपाश-पुं० । शब्दादिरूपेषु रज्जुबन्यनेषु.
लिबिहेण य सुहमउलं, सम्हा कामक्सियमुक्काम्यां । मूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०।
बहुसो मुहमणुभूग, न य सुहसबहाए ते तिसी ॥६५॥ क्सियभेद-विषयभेद-पुं० । गोचरविशेषे, पचा विन।
||१६७।।द०प०। बिसयमेत्त-विषयमात्र-न। विषय एच विषयमात्रम् । क्रिया
" बार विस स्वयं बिम्म्मसुह. इकसि बिसि ण मरति । शून्ये अर्थमात्रे, भ०३ श०१०!
विस्मयामिस पुण धारिया, गार गारएहि पनि २॥" सूत्र विसयराग-विषयराग-पुं० । शब्दादिविषयिष यो रकन्ये.
शु०४ १० १३० । सैन्ये. दे० ना ७ सर्ग १२ गाथा ।
विसयारंमय-विषयारम्मक-पु० । विषयाणामारम्मोऽस्योस प्रा० चू. १ अ।
विषयारम्भकः । बियाणे सायद्यारम्भप्रवृते, भाया । विसयविगयचोच्छिरणकोउहल्ल-विषयविगतव्ययच्छिन्न- श्रु.५०१ उ.। कौतूहल-त्रिका विषयेषु शब्दादिषु विगतं व्याधियानमत्यन्तं | विसर--बिसर-पुं० । मत्स्यगन्धनविशेष. यिा शुभ मा तीगा कौतूहले यस्य म तथा । विषयविषयककोवृहतरहिते. विसरण-विशरण-म० । परिशरने. स्या- 1. डा। भ० श. : उ०।
विसरिया-विसरिका-स्मी । सररे मि १० : उ० । विसयविवेग-विषयविवेक एक विषयपरित्यामो. दश
विसरिस-बिसदृश-पि० । यिजातीये, प्रा. १० मा । विसरिसगम-विसशगम-
मिरजायमानमा मला चिसयस-सिएटवष पुरु: अबलाकारे औ..!
। काराड ।
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विसल्ल
बिसाहा
खद्वेषलिङ्गे, (विशे० 1) स्नेहादिसमुत्पन्नमोहे, आव० ४ ० । श्री० मपुं० एकादशदेवलोकविमानभेदे, स०२० सम० । शल्योडारकरले वि विसायसिन विस्वादनीय त्रि० विशेषतस्तद्रसमधिकृत्य स्वादनीये जं० २० विशेषत आस्वादवितुं योग्ये जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
1
विसन - विशन्पवि० विगतानि शल्यानि मायादीनि वस्यासौ विशल्यः । उद्गतशल्ये, श्राव०५ श्र० । विसलकरणी- विशल्पकरणी श्री० चामे, सूत्र० २ ० २ ० विसल्ला - विशल्या स्त्री० । श्रोषधिविशेषे, ती० ६ कल्प । विसल्लीकरण-विशल्यीकरण - न० । विगतानि शल्यानि मा यादीनि यस्पासी विशल्यः प्रविशल्यः विशल्यः क्रियते इति विशल्पीकरणम् । शस्पोजर, ०२ अधि० । विसवाणिज - विषवाणिज्य- १० विषं शृङ्गकादितच्चोपल-विसारय-विशारद-पुं० विपस्थिति, विशे० नं० ० ० विचक्षणे, उत० २० अ० । पं० चू० । संथा० रा० । पण्डिते, शा० १ ० १ अ० । प्रश्न० ॥ श्र० । विसारी-देशी कमलासने दे० ना० ७ वर्ग ६ गाथा विसाल- विशाल वि० विस्ती, डा० १ ० १ ०पा०मा० कल्प० । ६० । ज्यो० । जं० । संथा० रा० । श्रा० म० । श्राव०। स० । बहुले, श्रा० चू०५ श्र० । पुं० । एकोनाशीतितमे मद्दाग्रहे, स्था० २ ठा० ३ उ० चं० प्र० । सू० प्र० ।
1
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दो विसाला ( ० ६० X ) स्था० २ ठा० ३ ४०
दासमम्येषां जीवचातहेतुनामुपविषाणामस्यानां तेषां वा सिज्यम् प्र०६ द्वार। पञ्चा जीवघातप्रयोजने विपत्रविक्रयते विषालयन्त्रायो हरिता लादिवस्तुनः विक्रयो जीवितस्य विषवाणिज्यमुच्यते ॥१॥" इत्युक्लाने, (उपा० १ श्र० । ध० ॥ श्र० चू० । श्राव०) वाणिज्यभेदे. ध० । विषं शृङ्गकादि, तथोपलक्षणं जीवघातहेतूनामस्त्रादीनां ततो विशस्त्रकुशीकुद्दालादिलोहहलादिविक्रयो विषवाणिज्यम् । अस्मिथ शुरुवत्सनाभादेदेरिताल सोमलतारादेश विप स्य शस्त्रादीनां च जीवितत्वं प्रतीतमेव दृश्यन्ते च ज साईहरितालेन सहचैव विपद्यमाना मक्षिकादयः सोमलक्षारादिना तु भनियोऽपि विषादिवाणिज्यं च परेऽपि निषेधयति यतः कन्याविक्रयिणश्चैव रसविऋषिस्तथा । विषयिनरा नरकगामिनः ॥ १ ॥ इति । अट्टादित्रविक्रयोऽपि योगशास्त्रे विषवाणिज्य योक्लो यतः विपाग्रहलयन्त्रायो हरितालादिवस्तुनः । विक्रयो जीवितस्तस्य विषवासिस्यमुच्यते ॥ १ ॥ घ० २ अधि० ।
नपुं०|अष्टमदेवलोकस्थविमानभेदे, ख०१८ सम० । चतुर्थग्रैवेयकविमाने, प्रव० १६४ द्वार । पुं० । समुद्रव्यवहारे जातिविशेषे, सूत्र ०१ श्रु० १ ० ३ उ० । द्वितीये कन्देन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ उ० ।
,
विसाल- देशी जलधी, दे० ना० ७ वर्ग ७१ गाथा । विसालसिंग -- विशालशृङ्ग-पुं० । स्वनामख्याते पर्व्वते, पिं० विसाला - विशाला - स्त्री० । नगरीभेदे, आ० क० १ ० 1 त्रयोविंशतितीर्थंकरस्य शिविकाभेदे, स० । पश्चिमाञ्जनादिपर्व्वतस्य दक्षिणदिशि स्वनामख्यातायां पुष्करिण्याम्, ती० २३ कल्प । शैलप्रभस्य पूर्वेण राजधान्याम्, द्वी० । सूत्र० । महावीरस्य जनन्याम्, सूत्र० १ श्रु० २ श्र० ३ उ० विसावेग - विषावेग-पुं मिध्यात्वस्य त्वरायाम् अए०
,
( १२५८) अभिधानराजेन्द्रः ।
विसहर - विषधर पुं०। सर्पे, “विसहरगइ व्व श्वरियं, कविवकं महेलां " सू० १ ० ४ ० १ उ० । विमा-विषाख० सागरपुत्रस्य दुहितरि विपाभायया
-
म् आ० चू० ६ श्र० ।
3
विसाइ विषादिन् जि० विषाद, असु विसाएमाण-विस्वादयत् - त्रि० । विशेषेण स्वादयन् । सर्वा ssearch खर्जूरादेरिवाल्पत्यक्ले, कल्प० १ अधि० ५ क्षण | विपा० ।
विसाण - विषाण - न० । शृङ्गे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । श्राचा० । प्रश्न० । शूकरदन्ते, विषाणशब्दो यद्यपि गजदन्ते रूढस्तथापि इह शूकरदन्ते प्रतिपत्तव्यः । उपा० ७ अ० शा० अनु० विसाणच्छेय-विषाणच्छेद- विषाणविशेषे, औ० । विसाणि (न्) - विषाणिन् पुं० । शृङ्गरूपेणावयचेनावयविनि
1
विसारओ-देशी- धृष्टे, दे० ना० ७ वर्ग ६६ गाथा । विसारण - विस्तारण- न० । उद्वापनकृते विस्तारणे, ६०२
अधि ।
"
३२ अनु० ।
विसाह - विशाख- पुं० । गणेशे, पाइ० ना० २२ गाथा | स्वामिकार्तिके वाच० ।
विसाहनंदि (न्) - विशाखनन्दिन् पुं० वीरस्य ज वस्य विश्वभूतेः पितृव्यपुत्रे, कल्प० १ अधि० २६ चल । आ० म० । श्रा० चू० ।
विसाहभृह - विशाखभूति - पुं० । राजगृहे नगरे विश्वनन्दिनो रातो भ्रातरि युवराजे, आ० म० १ अ० । श्रा० चू० । " राजा राजगृहे विश्व-नन्दी विश्वाभिनन्दनः । पत्म्यां प्रिय विशाय नन्दी तस्य सुतोऽभवत् ॥ १ ॥ विशास्त्रभूतिर्युवरा - डनुजो धारिणी प्रिया । मरीचिजीवस्तस्याभूत्, विश्वभूत्याच्या सुतः ॥ २ ॥" श्रा० क० १ श्र० ।
अनु० ।
विसाद - विषाद- पुं० | पराभवगमने, सूत्र ०१ श्रु० ३ श्र० १३० दैन्यभावे, सूत्र० १ ० ३ ० १ उ० । विषीदन्ति । संयमानुष्ठानात् । शीतली भवने, भ्रंशे, सूत्र ०१ ० ३ ० १ उ० । 'क्रिम
द्दमत्र प्रदेशे सामायात इति खेदस्वरूपे, अनुभ स्वप्नानुभूतदुः- | विसाहा - विशाखा पुं० ! इन्द्राग्निदेवताके पञ्चतारे नक्षत्र
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(१२५६) विसाहा अभिधानराजेन्द्रः।
विस भेदे, स०५ सम। सू० प्र० । अनु । स्था। ज्यो।चं. विवाविशुध्यमानभावे, पं० सू० ३ सूत्र । प्रशस्ते, प्र०। ।
स्था०३ ठा०४ उ० । विरहिते, श्री० । विशुशिमुपगते,स। विसि--वृ(व्य)षि-पुं०। "इत्कृपादो" ॥ १।१२८॥ इति श्रादेः | उत्पादनादोषरहिते.प्राचा०९ श्रु०६ १०४ उ० । नपु०। ब्रह्माशून इस्वम् । विसी । ऋषीणामपनयने, प्रा०१ पाद। ।
लोकस्य स्वनामख्याते प्रस्तरे, स्था०६ ठा० ३ उ०। "विसुविसिट्ठ-विशिष्ट-पुं० । प्रधाने, कल्प० १ अधि० २ क्षण ।
द्धकुलवंससंतालतंतुबद्धणपगम्भवयभाविणीप्रो," विशुद्धऔ० । जंगारामनोहरे, शा०१U०१० । रमणीये,
कुलवंश एव सन्तानतन्तुर्विस्तारितन्तुस्तबर्द्धनेन पुत्रोत्पाकल्प०१ अधि०३क्षण । अतिशयवति, पञ्चा० १६ विव०।।
दनद्वारेण तवृद्धी प्रगल्भं समर्थ यद् वयो यौवनं तस्य भावः शोभने, कल्प०१ अधि०३क्षण ।
सत्ता स विद्यते यासां तास्तथा । भश ३३ उ०। "वि
सुद्धगंधजुत्तेहिं "रा विसिद्धखमग-विशिष्टचपक-पुं०। अष्टमादितपखिनि, पश्चा० । १२ विव०।
| विसद्धकिरिया-विशुद्धक्रिया-स्त्री०। अनवद्यानुष्ठाने, पञ्चा. विसिद्वगुणजीवलोग-विशिष्टगुणजीवलोक-पुं० । विशिष्टगु.
१६ विवा णः संसाराभिनन्दिसत्वापेक्षया मार्गाभिमुखः स चासो
विसुद्धकोडि-विशुद्धकोटि-पुं०। क्रीतकृताद्याहारदोषकोटी, जीवलोकश्च सरवलोको विशिष्टगुणजीवलोकः । ममताभ- आचा०१७०८०२ उ०। व्यजीवलोके, पञ्चा० १० विव०।
विसुद्धजाइकुलवंस-विशुद्धजातिकुलवंस-पुं०। विशुद्ध जाविसितर-विशिष्टतर-त्रि०ा तीव्रतरशुभाभ्यवसायविशेषणो- तिकुले यत्राविधेषु वंशेषु, कल्प०१ अधि०२क्षण। स्कृष्टतरेषु संयमस्थानकण्डकेषु वर्तमाने, वृ०६ उ०। विसद्धजोग-विशद्धयोग-पुं० निरवद्यमनोवाक्कायव्यापारे,पविसिपफाइ-विशिष्टपुष्पादि-पुं०। प्रधानसुमनःप्रभृतौ, प. शा० ७वियः। ञ्चा० ४ विव०।
विसुद्धतरग-विशुद्धतरक-पुं० । वितिमिरतरके, अतिशयविविसिद्धबुद्धि-विशिष्टबुद्धि-स्त्री०। प्रकारताविशेष्यतोभयशा
शुद्धे, नं०। लिन्यां बुद्धौ,नयो । ( नैयायिकास्तु विशेषणं तत्र च विशेष
विशष- | विसुद्धधी-विशुद्धधी-स्त्री०। विशुद्धा निर्मला धीवुद्धिरिति णान्तरं १ विशिष्टस्य वैशिष्टयम् २ एकविशिष्टेऽपरवैशिष्टय
विशुद्धधीः "बुद्धिः कर्मानुसारिणीति वचनात् । निर्मलवुम् ३ एकत्र द्वय ४ मित्येवं चतुर्द्धा विशिष्टा वैशिष्टयबु
दौ, ध० ३ अधिक। द्धिः ॥ ७॥ इति ‘णय' शब्द चतुर्थभागे १८७१ पृष्ठे | दर्शितम्।)
| चिसुद्धभाव-विशुद्धभाव-त्रि०। विशुद्धः स्वपरसंसारनिस्तारविसिद्वय-विशिष्टक-त्रि०। विशेषवति, पञ्चा० १६ विव०।
णैकतानतयाऽ वदातो भावोऽभिप्रायो यस्य स विशुद्धमा
वः । व्य०३ उ०। विशुद्धाध्यवसायिनि, पो०१३ विव० । विसिलिंग-विशिष्टलिङ्ग-न० । सांख्यपरिभाषया भूतेषु,
विसुद्धि-विशुद्धि-स्त्री० । विशुद्धेः परिशुद्धनिःशकितत्वाद्वा०२०द्वा०॥
दिदर्शनाचारवारिपूरप्रक्षालितशङ्कादिपङ्कतया प्रकर्षप्राप्तिबिसिण--देशी-रोमशे, दे० ना.७ वर्ग ६४ गाथा ।
लक्षणायां सम्यग्दर्शनसत्कायां सम्यक्त्वशुद्धोध०१ अधिक। विसी-देशी-करिशारौ, विसी-करिशारिः । दे० ना०७ वर्ग |
विसुयजस-विश्रुतयशस्-त्रि० । विख्यातकोत्तौं, संथा। गाथा। विसीयमाण-विषादत-त्रि० । संयमे, अवसीदति, प्राचा०१
विसुयण--विसूचन-न० । ग्रन्थने, नि० चू०२ उ० । श्रु०६ ०१ उ०।
विसुयाविणा-देशी-विशुचीकृत-त्रि०ाविशोधिते,व्य०६उ०। विसुज्झमाण-विशुद्धयमान-त्रि०॥ विशुद्धिं गच्छति, भ०१३ विसुव-विषुवत्-न० । समरात्रिदिनकालके अयनांशक्रमेण
श०१ उ० । उत्तरां विशुद्धिमनुभवति, पञ्चा०२ विव०। । रवेः तुलामेषराशिसंक्रान्तिभेदे, ज्यो। विसुज्झमाणभाव-विशुद्धयमानभाव-पुंजविशुद्धसमानो वि. संप्रति विषुवत्प्रतिपादकं पञ्चदशं प्राभृतं विवक्षुराहहितानुष्ठानेन भावो येषां ते विशुद्धयमानभावाः । विहितानु
आसोयकत्तियाणं, मज्झे वइसाइचित्तमज्झे य। धाननत्परेषु, पं0 मू०४ सूत्र ।
एत्थ सममहोरत्तं, तं विसुवं अयणमझेसु ॥१॥ विसुज्झमाणय-विशुद्धयमानक-त्रि० । उपशमश्रेणिक्षपक- अश्वयककार्तिकयोर्मासयोर्मध्ये तथा वैशाखचैत्रयोमध्ये
श्रणी वा समारोहति, भ० २५ श०७ उ० । स्था। ऽस्मिन्ननन्तरे सममहोरात्रं भवति , तब पूर्वपुरुषपरिविसुणिय-विशन्य-न० । अतिशुन्ये, प्रश्न १ आश्रद्वार। भाषया विषुवमिति व्यवहियते । तथा चोक्कमभिधानकोशे
'समरात्रिंदिवः कालो, विषुवत् विषुवं च तत्' तानीत्थंभूताविसत्तिया-विश्रोतसिका-स्त्री० । अपध्याने, श्राव०४०।।
निविपुवाणि अयनमध्येषु-श्रयनमध्यभागेषु भवन्ति ! इयमत्र विसुद्ध-विशुद्ध-त्रि० । निदोषतया संमते, उत्त० १ ०। नि. भावना-अश्वयुग्मासानन्तरकार्तिकमासे यथाभागं दक्षिणा. एकलङ्क. सूत्र. १ श्रु० ४ ० २ उ० । निर्दोष, औ०। यनविषुवाणां संभवः,तथा चैत्रमासानन्तरं वैशाखे यथासंभजंग। झा निर्मल, प्रा. म. १ अकरा ! संथा० । वमुत्तरायणविषुवसंभवः । तत एतस्मिन्नवकाशे समाहोरात्रगगादिदोषरहिते, प्रश्न ५ संव० द्वार । अनवद्ये, पश्चा० । संभवः । यदा पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा पञ्च
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( १२६० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
विव
माना रात्रिः तच्चेत्थंभूते समोराध्यमागमत एव रवौ भवति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलासर्वदापि मान्नति त्यतिमं मडलं यदा सूर्यवचारे वरति तदा सकला व्यवहारतो विकुमित्याख्यायते निपतस्तु वस्मिडोरावे समो दिवसः समा रात्रिस्तस्मिन्न
सोसाईटिस्वतिमण्डल
संभाला बोटीकायाम् "र विमंडलमत्यं नाम विसुर्व” ति ।
संप्रति नेमविक्रमेव विषुक्कालप्रमाणमनन्तरो सूत्रकृदुप दर्शयति
पचरहुतदियो, दिवसेस समा न जा हवइ राई | सो होइन, दिनराई तु पिनि ॥२॥
भवति पञ्चदशमुहर्त्तणमासन्दिवसेन समाना रात्रिः पञ्चदश मिले समोरा नाक पर साकल्येन शिवानिति समौ गत्रिदिवसौ तत्र मस्येते इत्यंभूतयो रात्रिदो संघका सविषुक्काल
सम्पतं कतिपर्वातिक्रमे कस्यां तिथात्रीप्सितविषुवं भवतीति विषुवाननाय कररामाद
गुरुवोना हम्मुख हुन्न । पट्टे होति तिही, नायव्वा सब्दविमुवे ॥३॥
माननिवानि तानि विले, किमुक्कं भवति तत्संख्या प्रियत इति धृत्वा च नानिकले तो पनानि तदकतरं च पदगुमानि कर्त्तव्यानि पभिश्च गुमने यदागच्छति तानि प पांसि ज्ञातव्यानि । पर्यायां चाद्धे यद्भवति तास्तिथयः सर्वेषु विषुवेषु ता यथायोगं हातच्या एष करलगाथाक्षरार्थः । सम्पति करसभावना क्रियते—कनिपवातिक्रमे कस्यां निविनिमायां रूपकं खायते नन् दिन किसने जाते हे रूपे ते रूपने किये ि एकं रूपं तस्य पर्भिर्गुगने जानाः पद ते प्रतिराश्यन्ते तेषामदं कियने जानाम्यः श्रामनं पपवातिक्रमे तृतीयस्यां तिथौ प्रथमं विषुवमिति । न द्वितीयं विपुवं कतिपयतिक्रमे कस्यां भवतीनि यदि जिज्ञासा तदा द्वे रूपे भियेने ते द्विगुनन पश्चात् प्रतिनिधिले जानानि अष्टादशतानि प्रतियन्ते तेषां व प्रातराशितानामर्द्ध नव. श्रागतं द्वितीये वनक्रमे नवम्यां निधाविति २ तथा कतिकम्पनियो तृतीय विश्यमिति जिज्ञासायां
भन्ने तानि न द्वाभ्यां गुस्यन्ते जातानि करुणापहारे स्थितानि पश्चात् पञ्चनानि पद्मि गुजाता त्रिशन. मा प्रतिराश्यते प्रतिराशितायाश्च आगन विशुन्यतिक्रमे पञ्चदश्यां तृतीय वन तथा दशम व कनिर्वातिक्रम कस्यां तिथौ भवतीति यदि तुमड़ा ना उसको जियने सद्विगु जाना विशानः, तस्यापयते जाता एकोि
विसुव
तिः, सा षद्भिर्गुण्यते जातं चतुर्दशोत्तरं शतम्, तत् प्रतिराश्यते तस्यार्द्ध सप्तपञ्चाशत्, तस्याः पर्वानयनाथ पञ्चदशभिमांगो हियते लब्धानि त्रीणि पर्वाणि तानि पर्वराशी प्रि प्यन्ते पादतले च द्वादश। तत भगते सप्तदशोत्तरप ताविक द्वादश्यां दशममिति १० । अत्रैवार्थे करणान्तरमाइ - रूवोसविसुवगुणिए, छलसीसयपक्खिवाहिते खउई । पचरस माइला, पन्या सेसा निधी होइ ॥ ४ ॥ यत् विषुवे धातुमितेन कपोनेन तत्संख्याकोन्या षडशीत्यधिकं शतं गुण्यते गुणिते च तस्मिन् विनयतिप्रक्षेपे ततः परमजिते सति ये अका पास्तानि पर्याणि ज्ञातव्यानि शेषाशास्तिक्षयः, एष करलमाथाक्षरार्थः । भावना त्वियम् प्रथमं विषुवं कतिपयति कस्यां तियो भवतीति जिज्ञासायां रूपं देकरूपदीनं कियते जातमाकाशम् तेन चिकं शतं गुरु जातं शून्यं खेन गुसने समिति ' वचनप्रामाण्यात्, ततः शून्ये तस्मिन् त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते तस्याः पञ्चदशभिर्माने हते लब्धाः पद् शेषाः तिष्ठन्ति श्रीसि श्रामनं मेदनीयस्य तिथी प्रथमं विषुवमिति ती
"
विर्याचन्नायां प्रीति रूपसिप्रियन्ते तेभ्यो रूपापहारे जाते हे रूपे तस्यां पडशीत्यधिकं शतं गुरुते जानानि शांति तानि द्विमन्यधिकानि ३७२ प्रि जानानि चत्वारि शतानि पञ्चपश्यधिकानि ४६२ प यते लग्या एकत्रिंशत् आगतं त्रिशल्यवातिक्रमे पञ्चदश्यां तृतीयं विषुवमिति ३ ।
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भूयः प्रकारान्तरेणात्रैवार्थे करणमाहइगतीमा ओवगुवा, पंचहि भेष व्यतिगुथिया साउ। तिरियो भवंति सव्वे-सु चैव विसुवेसु नायव्वा ॥ ५ ॥ एकत्रिंशत् यथोत्तरमोजोगुणाः- विषमगुणाः प्रथमतः कर्त्त व्याः, तद्यथा - प्रथमविषुवचिन्तायामेकगुणा द्वितीयविषुवचिन्तायां त्रिगुलाः, तृतीयविषुवचिन्तायां पञ्चगुणाः, चतुविषुवचिन्तायां सप्तमुखाः, पञ्चमविषुवचिन्तायाम् नवगुसाः एवं यावदशमविषुवचिन्तायामेकोनविंशतिगुखाः ततः तथाच सति यज्ञभ्यते तानि पापवसेयानि शेषास्त्वंशा उद्वरितास्त्रिगुखिताः सन्तो यावन्तो भवन्ति तावत्प्रमाणास्तिथयः सर्वेषु विषुवेषु ज्ञातव्याः । तयथा - प्रथमनुचिन्तायामेकत्रिंशत् एकेन सुखितं तदेव भवतीति जाता एकत्रिंशदेव तस्याः पञ्चभिर्भागे हृते कधाः पट एकः पश्चादुद्वरति स त्रिगुणः क्रियने जातास्त्रयः श्रागतं पतिक्रमे तृतीयस्यां तिथौ प्रथमं विचिन्तायामेकत्रिंशत् पचभय जातं पञ्चपञ्चाशधिकं शतम्. १५४, तस्य पञ्चभिर्मागो हियते लग्भा एकत्रिशत् आगतं त्रिंशत्यर्वातिकमे पञ्चदश्यां तृती तथा दशमाचन्तयामेश कानविंशत्या गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतानि नवाशीयधिकानि ५६ पञ्चांग हिने लधं सप्तदसोनर शतशेषातिश्रुतिरायानाद्वा
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बिसुव
दश सप्तदशोत्तरपर्वशतातिक्रमे द्वादश्यां दशमं विषुवमिति । पुनरप्यत्रैवार्थे प्रकारान्तरेण करणमाहपब्वा य बडादिका, दुवारसॉऽदिया दमाचसाखाउ । तिगमाइगा विष तिही, धदुगरा सम्बविसुवेसु || ६ ||
(१९६१) अभिधानराजेन्द्रः ।
विषुवेषु पर्वचिन्तायां पडादिकानि यथोत्तरं द्वा शाधिकानि तावद् ज्ञेयानि यावदशावसानानि दशसंख्यानि विषुवाणि भवन्तीत्यर्थः । तथा पर्वाणामुपरि तिथिचिन्तायां त्रिकादिकाः - त्रिप्रभृतिका यथोत्तरं पडत्तरास्तिरायः सर्वेषु विषुवेषु तावदवसेवा वावसानि विषुवादशसंख्यानि भवन्ति तद्यथा--प्रथमं चिपुर्वपदपतिक्रमे तृतीयस्यां तिथी द्वितीयविषुवचिन्तायां प्रागुपर्व संख्याने द्वादश प्रक्षिप्यन्ते तिथिसंख्यया षद् तत आगतं द्वितीयं विषुवम् अष्टादशपनातिक्रमे नवम्यां तिथी। भूयोऽपि द तीयविषुवचिन्तायाम् अनन्तरोकृपर्वसंख्याने द्वादश प्रक्षिप्य
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तिथिचिन्नायां पततं पवित्रिंशत्पर्वातिक्रमे पञ्चदश्याम् । चतुर्थोवषुवचिन्तायां पुनरप्यनन्तरो रूपर्वसंख्याने द्वादश प्रक्षिप्यन्ते, तिथिचिन्तायां षट्, ततस्तिय एकविंशतिर्भवन्ति, पञ्चदशभिश्च गुण्यन्ते लब्धमेकं पर्व, तत्पराशी प्रक्षिप्यते श्रागतं त्रिचत्वारिंशत्पर्यातिकमे पठयां तिथी चतुर्थ विषुवमिति४ एवं पञ्चमाम्यपि दशमपयेतानि विकास भावनीयानि ।
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तत्र पर्वसंख्याने संग्राहिका इयं गाथाछक व्वारस तीसा, तेयाला पंचपण अट्ठी | तह य असी विणउई, पंचाऽहियसयं च सत्तरस ॥ ७ ॥ प्रथमं विपुत्रं षट् पर्वाण्यतिक्रम्य द्वितीयं द्वादश, तृतीयं त्रिशतमं सप्तदशोनं चतुर्थ त्रिचत्वारिंशत्, पञ्चमं पञ्चपञ्चाशत्, षष्ठं षष्टिः, सप्तममशीतिः, अष्टमं द्विनवतिः नवमं पअधिकं शतम्, दशमं सप्तदशोत्तरशतम् ।
संप्रति पर्योपरि तिथिसंख्यानसंग्राहिकां गाथामाहतया नवमी व तिही, पद्मरसी छडि वारसी चेव । जुगपुब्वद्वेश्या, ता चेन हवंति पच्छद्वे ॥ ८ ॥ युगपूर्व यानि पञ्च चिषुवासि तेषु यथाक्रममिमाः प परि तिथयस्तद्यथा तृतीया नवमी पञ्चदशी पष्ठी द्वादशीविश्वस्य पश्चाद्भवन्ति तृतीयस्य प्रथमं विषयं द्वितीयं नवम्यां तृतीयं पञ्चदश्यां चतुर्थ पञ्चमं द्वादश्याम् एता एव तिथयः क्रमेण युगस्य पश्चाद्धेऽपि भवन्ति । तद्यथावि तृतीयस्यां सप्तमं नवम्याम् अमं पञ्चदश्यां नवमं षष्ठयां, दशमं द्वादश्यामिनि एवंभूते निध्यानयनार्थ वाऽमु प्रकार पूर्वसूरयः परिभाष हायनगतदिवस राशेस्यशीत्यधिकशतप्रमाणस्य दश वि
कलयुगे भवन्ति इति दर्शनांगो हियते लग्धा श्रष्टादश, ते त्यज्यन्ते प्रयोजनाभावात् शेषा उद्वरन्ति त्रयस्ते प्रथमविषुवादारभ्य यथोत्तरं द्वयत्तरेण ओजसा प्रतियां ते त्रय एकेन
गुण्यन्ते द्वितीययचिन्तायां त्रिभिस्तृतीयविषुवत्रन्नायां समाभः पर्यधावद्दशमयिषुर्याचन्तायामेकोनविंशत्या, पर्याया
बिसुष
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उद्धरन्ति ता गुण्यन्ते, ततो यथोक्तास्तिथयो भवन्ति । तद्यथा-प्रथमविषुवचिन्तायां ते त्रयः, एकेन गुणितं तदेव भवतीति तत भगतं प्रथमं विषु तृतीयस्यां तिथौ द्वितीय विषुवचिन्तायां ते त्रयस्त्रिभिर्गुण्यन्ते जाता नव श्रागतं द्वितीयं विषुवं नवस्यामिति । तृतीयविषयचिन्तायां यः प शभिर्गुण्यन्ते जाताः पञ्चदश, भागतं तृतीयं पञ्चदश्याम् । चतुर्थविषुवचिन्तायां ते त्रयः सप्तभिर्गुण्यन्ते जाता एकविंशतिः शेषास्तिष्ठन्ति षद् आगतं चतुर्थे विषु षष्ठामिति । एवं सर्वत्रापि भावनीयम् । सम्पति केन नक्षत्रेस सह योगे किं विषुवमिति चिन्त्यते, तत्र यदि दशभिर्विषुवैः सप्तषष्टिश्व पर्याया लभ्यन्ते ततो द्विभागविषुवेण कति चन्द्रपर्याया लभ्यन्ते ?, राशित्रयस्थापना - १०-६७-१ अत्रामयेन राशिना एककलक्षखेन ममस्य राशेः पष्टिरूपस्य गुणने जाता सप्तपहिरेव विषुवं वाऽयनस्य द्विभागरूपमिति दश द्वाभ्यां गुरुयन्ते जाता विंशतिः, तया सप्तषष्टेभांगोला पर्यायाः शेषास्तिष्ठन्ति सप्त ते पर्यायरूपं भागं न प्रयच्छन्तीति श्रष्टादशभिः शतैस्त्रिंशैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति विंशतिलक्षणच्छेदराशिगतेन शून्येन सह शून्यस्यापवर्तनायां जातं त्र्यशीत्यधिकं शतम् १८३, तेन सप्त गुण्यन्ते जातानि द्वादश शतानि एकाशीयधिकाराविंशतिलो अन्त्य शून्यापवर्तनेन जातो किस्न समयायः समत्राणि नक्षत्रभागा गुरुबन्ते, आतानि चतुशिधिकशतानि चतुस्त्रिंशदधिकशतादीनि शोधनकानि, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा, स्थितानि शेषाणि द्वादश शतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि १२३१. ततः पद्मः शतैः सप्तत्यधिकः ६७०, उत्तरभाद्रपदान्तानि पञ्च नक्षत्राणानि स्थितानि पचान्येको नस प्रत्यधिकानि ४६२ शिधिकेन शतेन रेवती शुद्धा स्थितानि चत्वारि शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ४३५, ततोऽचतुरंशदधिकेशन अश्विनी शुद्धा शेपासि
श्रीणि शतानि एकोत्तराणि ३०१, ततः सप्तषष्ट्या भरणी शुया स्थिते पत्ते २३४ ततोऽपि शिदधिकेन शतेन कृतिका, शेवं तिष्ठति शतम्, आमादीनि कृतिकापर्यन्तानि नय पतिम्य दशमस्य रोहिणी नक्षत्रस्य धनुरिंशदधिकशतभागान शतमगास प्रथमं विपुर्व भवतीति द्वितीयं विपुर्व कस्मिन् चन्द्रनीति यदि विज्ञातुमिच्छा तदा पूर्वक्रमेण - राशिकमनुसर्तव्यम्, तद्यथा-- यदि दशभिर्विषुवैः सप्तषष्टिपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां विश्वाभ्यां कति चन्द्रपर्यायान् सभामहे ? राशित्रयस्थापना २०६७२, द्वितीय त्रिभिरथनाभागेोराशिविकरूपः स्थाप्यते तेन चान्येन राशिना निम ध्यमः समष्टिरूप राशिपते जाते एकोत्तरे २०२ विषायनस्य द्विभागरूपमित्यादि राशि यो द्वाभ्यां गुण्यते जाता विंशतिः, तया भागो हियते लदश चन्द्रमाः शेपस्तम्बेकः स पर्याय भाग प्रशभिः शनैखरीः सप्तपष्टिकमागैर्गुयिष्याम इति विशतिलक्षणच्छेदराशिगतेन शून्येन सह शून्यस्यापवर्तनाय जातंयशीत्यधिकशतं १०३ तेनैकेन
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( १२६२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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गुरपते जातम् पशीत्यधिकशनम् एकेन गुसितं तदेव भवतीति वचनात्। ततोऽभिजित द्वारिंशत् शुद्धा शे तिष्ठत्येकचत्वारिंशदधिकं शतम् १४१, ततोऽपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन श्रवणः शुद्धः शेषाः तिष्ठन्ति सप्त, आगतम् - श्रवणनक्षत्रमतिक्रम्य धनिष्ठानस्य वसुदेवासचतुखिशदधिकशतभागानवगाहा द्वितीय विषुवं प्रवर्तते इति तथा चतुर्थे विषुवं कस्मिन्नन्द्रनक्षत्रे भवतीति जिज्ञा सायां त्रैराशिकम् यदि दशभिवैिः सप्तपन्निक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततः सप्तभिर्विषुवद्विभागैः पर्याया लपले राशित्रयस्थापना - १०-६७-७, अत्रान्त्येन राशिना सप्तकलक्षणेन भागो हियते मध्यमस्य राशेगुणने जातानि चत्वारि शतानि एकोनसप्रत्यधिकानि ४६६, तेषां विंशत्या भागो हियते लग्धास्त्रयोविंशतिः पर्यायाः, शेषा उद्वरिता नव नागुक्तयुक्त्या 5. शीत्यधिकेन शतेन गुरुयन्ते जातानि बोडस शतानि सम चत्वारिंशदधिकानि १६४० ततोऽभिजित दारि शत् सुजाः स्थितानि शेपालि पोडश शतानि पोतराणि १६०५ पचतुर्दशभिः शतैः चतुःसप्तत्यधिकः १७७४ मृगशिरः पर्यन्तान्येकादश नक्षत्राणि शुद्धानि स्थितं पथदेकत्रिंशदधिकं शतं १३१, ततोऽपि सप्तधा श्रार्द्रा शुडा. खिता शेषा चतुपागतम् अादीनि श्रा
पर्यन्तानि द्वादश नक्षत्रात पुनर्वसु नक्षत्रस्य चतुशिविभागानां चतुःपरिसंस्थानां चतुर्थ विषुव द्वर्त्तत इति । एवं सर्वाण्यपि विषुवनक्षत्राणि भावनीयानि । तत्संग्राहिका चेयं गाथारोहिणि वासव साई आदि अभि मित पिउ देवा । आमिति विवीसुदेवा, जमणा इह बिसुवरिक्खा॥६॥ इतीति श्रमूनि यथाक्रमं विषुवाणां नक्षत्राणि तद्यथा - प्रथमस्य विवस्य प्रवृत्तावादौ नक्षत्रं रोहिणी. द्वितीयस्य वासववसुदेवतोपलक्षितं प्रनिष्ठानक्षत्रं, तृतीयस्य स्वातिः, चतुर्थस्पाऽदितिदेवतोपलक्षितं पुनर्वसु नक्षत्रं पञ्चमस्थाभिवृद्धिदेयतोपलक्षितमुत्तराभाद्रपदस्य मित्रो मित्रदेवतोपलक्षमनुराधा नक्षत्रम् सप्तमस्य पितृदेवता-मया एमस्य अश्विनी, नवमस्य विष्वग्देवा-उत्तराषाढाः, दशमस्यार्यमा अर्यमदेवोपलक्षितमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमिति । संप्रत्येतेष्वेव विषुवेषु सूर्यनक्षत्रं प्रतिपिपादिपुरादक्खि सूरो, पंच वि विसुवाणि वासुदेवेणं । जोएड उत्तरेणऽवि, आइयो आसदेवेयं ॥ १० ॥ दक्षिणायने वर्तमानः सूर्यः पञ्चापि विवास वासुदेवेनस्वामिनक्षत्रे योजयति, उत्तरेणाऽपि उत्तरस्यामपिदिशि
आदित्यः पञ्चाश्विदेवेन अश्वदेवोपलनवीन योजयति । किमुकं भवति पञ्चापि दक्षिणायनविषुवाणि स्वाति नक्षत्रेण सह योगे प्रवर्त्तन्ते, पञ्चापि चोत्तरायण विपुवाणि अश्विनी नक्षत्रेण योगे इति । तत्रेयं भावना - यदि दशभिर्विषुत्रैः पञ्च सूर्यपर्याय लभ्यन्ते ततोऽपनद्विभागरूपे प्रथमेव किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १०-५-१, अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य पञ्चकरूपस्य राशेर्गुणनाज्जाताः प
विसुव
५
व आयराशिः विषुवरूपो विषुवं च प्रथममयनविभाग 'चैत्र, इति द्वाभ्यां गुण्यते जाता विंशतिः तया पूर्वराशेर्भागो हियते लम्धः एकः एते निपतनपरिमाणानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः गुणयिष्याम इति गुणकाररारापपर्तना जातानि न शतानि पञ्चदशोत्तरास ६१५, तैरेको ऽनन्तरोक्तश्चतुर्थभागो गुण्यते, जातानि तान्येव नय शतानि पञ्चदशोत्तराणि तेभ्योऽपाशीत्या पुण्यः शुद स्थितानि च शतानि सप्तविंशत्यधिकानि २७ तेषां चतुखिंशदधिकेन तेन भागो हियते लम्धाः पट पचात् ति इति त्रयोविंशतिः आगतमपादीनि चित्रप नक्षत्राण्यतिक्रम्प स्वातिनक्षत्रस्य चतु
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गानां विशतिभागानवगाह्य प्रथमं विषुवं सूर्यः प्रवर्त्तयति, यदा तृतीयविविषया चिन्ता क्रियते तदा तृतीयं वि बुवं पञ्चानामयनद्विभागानामतिक्रमे भवति तत एवं त्रैराशि के कर्म, दशभिर्थिवैः सूर्याया लभ्यन्ते ततः प
किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना १०-५-२ अत्रान्त्येन राशिना पञ्चकलक्षणेन मध्यमस्य पञ्चकरूपस्य राशेगुणना जाता पञ्चविंशतिः ततः पूर्ववदाचो राशियां गुण्यते जाता विंशतिः, तया भागो हियते, लब्धः एकः परिपूर्णः पर्यायः पश्वादेकश्चतुर्थभागोऽवतिष्ठते, ततः पूर्वक्रमेसात्रापि तृतीये विषुवे स्वामित्रलाभः । चमुत्प रिमान्यमानानि पञ्चापि दक्षिणायनचचाणि स्पातिन पलभ्यन्ते नान्यत्रेति संप्रत्युत्तरायाभावना क्रियते उत्तरायविषयाणि विवाहमूनि यथा-द्वितीयं चतुर्थ पष्ठमष्टमं दशमं च । द्वितीयं च विषुवं त्रयाणामनद्विभागानामन्ते भवति, चतुर्थ सप्तानां षष्ठमेकादशानामष्टमं पञ्चदशानां दशममेानविंशतेः तत्रेयं त्रैराशिक कर्म यदि दशभिर्विषुः पञ्चसूनया लभ्यन्ते ततखिम रविभागः किं लभामदे ? राशिचयस्थापना १०-५-३ अत्रान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यमः पञ्च कलक्षणो राशिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश, श्राद्यश्च दशकलक्षणो राशिः पूर्ववत् द्वाभ्यां गुण्यते जाता विंशतिस्तया भागो हियते लब्धास्वयश्चतुभांगास्तानष्टादशभिः शतैखिशयिष्याम इति तस्य गुणराशेरद्धेनापवर्त्तना, जातानि नव शतानि पदशोत्तराणि १४ तैरनन्तरोकाखणे गुरुयन्ते जातानि सप्तविंशतिशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकनि २७४५, तेभ्योशीत्या पुण्यः शुद्धः स्थितानि पश्चात् पविशतिशतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि २६५७ नशतेन भागहर लग्धा एकोनविंशतिः शेोत्तरं शत
११९ जित्द्वाचत्वारिंशता शुद्धा, शेषा तिष्ठकोनसप्तति ६८ कोनविंशतिमध्या त्रयोदशभिरादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि श्रभिजिन्नक्षत्रं प्रागेव शोधितम्, ततः पञ्च नक्षत्राणि शुद्धानि, एकेन च
रेवती आगतमश्विनी नक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामेकोनसप्ततिभागानवगाहा सूर्यो द्वितापविपूर्व प्रय ति तथा चिन्तायामे यदि - विषुवैः पञ्च सूर्यनक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते ततः सप्तभिरयनद्विभागः किं लभ्यमिति ?, राशित्रयस्थापना १०-५-७, अत्रान्त्येन राशिना सप्तकल उन मध्यमराशेर्गुणने
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विमुव अभिधानगजेन्द्रः।
विसुब जाताः पञ्चत्रिंशत् ३५, तस्याः पूर्वोक्तयुक्त्या विशत्या यो पशिर्वाभ्यां गुण्यते. जाता विंशतिः, तया भागो हियते भागो हियते लब्धः एकः १ सूर्यनक्षत्रपर्यायः, पश्चाद- लब्धानि लग्नपर्यायाणां चत्वारि शतानि अष्टपञ्चाशदधिकाघतिष्ठन्ते पञ्चदश. ते च त्रयः पर्यायचतुभांगास्ततस्ते प्रागु- नि ४५८. न तैः प्रयोजनम् शेषाः निष्ठन्ति पञ्चदश १५, ततः क्युक्त्या नवभिः शनैः पञ्चदशाधिकैगुंगयन्ते जातानि सप्त- | प्रागुतगणितक्रमेणागतमश्विनीनक्षत्रस्य लग्नप्रवर्तकस्य चतुविंशतिशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि २७४५, ततः पूर्वो- | स्त्रिंशदधिकशतं भागानामेकोनसंख्येषु भागषु द्वितीय विषुवं वयकारेण तावद्वक्तव्यं यावदागतमश्विनीनक्षत्रस्य चतुर्विंश प्रवर्तते। एवं पञ्चम्बपि दक्षिणायनविषुवंषु लग्नं भावनीयम् , दधिकशतभागानामेकोनसप्ततिभागानवगाह्यसूर्यश्चतुर्थवि- साम्प्रतमुत्तरायणविषुवलग्नभावना क्रियते-यदि दशनिधिघुवं प्रवर्तयति.एवमुक्तनीत्या परिभाव्यमानानि पश्चाप्युत्तरा- घुवैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिशदधिकानि लमपर्यायाणां भवन्ति पणविषुवाणि अश्विनीनक्षत्रे एवं यथोदितभागाऽतिक्रमे प्र- ततस्विभिरयनविभागैः किं लभ्यमिनि?, गशित्रयस्थापनावर्तन्ते इति ।
१०-१८३५-३.अत्रान्त्येन राशिना (त्रिकलक्षणेन) राशेर्गुणने तदेवं दक्षिणोत्तरायणविषुवेषु नक्षत्राणि प्रतिपाद्य जानानि पञ्चपञ्चाशत्शतानि पश्चोनराणि ५५०५. ततः प्रालग्नं प्रतिपादयति
गुनयुक्त्या आद्यगशिर्वाभ्यां गुण्यते जाना विशनिस्तया भालग्ग दक्षिणायण, विसुवेसु वि अस्सउत्तरं अयणे । गोहियते लब्धे द्वे शते पञ्चमातत्यधिके - ७५, लग्नपर्यायारणां लग्गं साई विसुवेसु, पंचमु वि दक्खिणं अयणे ।।१२।।
न तैः प्रयोजनमिति, शेषाः तिष्ठन्ति पञ्च५. मन किल, एक
श्चतुर्भाग इत्येकः स्थाप्यते ततः प्रागुनयुक्त्या स नवभिश्शनः दक्खिणमयणे विसुवे, नहयलेऽभिजि रसायले पुस्से।
पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यते जातानि नवशनानि पञ्चदशोत्तगणि उत्तरअयणे अभिई, रसायले नहयले पुस्से ॥१३॥
११५, तेभ्यो ऽयाशीत्या पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चादष्टौ शदक्षिणायनगनेषु पञ्चस्वपि विषुवेषु अश्वे-अश्वदेवोपलक्षि- तानि सप्तविंशत्यधिकानि ८२७, तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शते अश्विनौनक्षत्रे लग्नं भवति। किमुक्तं भवति-पञ्चापि दक्षि- तेन भागो हियते लब्धाः पट . पश्चात् तिष्ठात याविंशतिः, सायनविषुवाणि मेषलग्ने प्रवर्तन्ते इति, तथाहि-यदि दश- पद्दभिश्चारलेषादीनि चित्रापर्यन्तानि षट् नक्षत्राणि शुद्धानि, भिर्विषुवैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां | आगतं स्वातिनक्षत्रस्य लग्नप्रवर्तकस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतभवन्ति ततोऽयनद्विभागलपे प्रथमे विषुवे किं लग्नं भवती- भागानामेकोनसप्ततिसंख्येषु भागेषु गतेषु द्वितीय विवं प्रति ? , राशित्रयस्थापना १०-१८३५-१. अत्रान्त्येन राशिना | वर्तते । एवं चतुर्थविषुवचिन्तायामेवं त्रैराशिकम्-यदि दशएककलक्षणेन मध्यो राशिगुण्यते गुणितश्च सन् स तावा- भिर्विषुवैरणादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लमपर्यायाणां नेव भवति एकेन गुणितं तदेव भवतीति' न्यायात् । विषुवं- लभ्यन्ते ततः सप्तभिरयन द्विभागः किं लभ्यमति ?, राशिचायन द्वभाग रूपं भवतीति विषुवपरिमाणकदाचो रा- त्रयस्थापना-१०-१८३५ ७, अचान्त्येन राशिना मध्यराशिशिर्वाभ्यां गुण्यते जाता विंशतिस्तया भागो हियते लब्धा गुण्यते जातानि द्वादश सहस्राणि अष्टौ शतानि पञ्चचत्वाएकनवतिपर्यायाः शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश, तेषां पञ्चकनापव- रिंशदधिकानि १२८४५, तेषां विंशत्या भागो हियते लब्धानि सना जातात्रयस्ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शशि
षट् शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां ६५२ शेषादधिकगुणयिष्याम इति गुरुवारराशेरद्धेनापवर्तना जातानि स्तिष्ठन्ति पञ्च ततः प्रागुक्लगणितक्रमेण आगतं स्वानिक्षत्र नव शनानि पञ्चसाधनानि १५. नैनयो गुण्यन्ते जाता- स्य लग्नप्रवर्तकस्य चतुर्विंशदधिकशतभागानामेकोनसप्ततिनि सप्तविंशतिशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि २७४५ , ते- संख्येषु भागेषु गतेषु चतुर्थड विपुवं प्रवर्तते. एवं पञ्चस्वपि भ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चात् पविशति- उत्तरायणेषु विषुवलनं भावनीयम् । इह यदा सूर्यो दक्षिणा शतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि २६५७ तेषां चतुर्विंशदधिक- यनविषुवे अश्विन्या प्रवर्तते तदा पाश्चात्यं लग्नं स्वातौ म्याशतेन भागहरखं लब्धा एकोनविंशतिः शेषं तिष्ठत्येकादशो- श्चिन्योश्च मध्ये ऽर्भािजद्वतंते स्म भावि द्वितीयाऽद्धेमध्य च त्तरं शतम् ११.१. तस्मादभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा शे- भावी पुष्यः,ततो दक्षिणायनविषुवेषु पञ्चस्वपि भाजनमा पास्तिष्ठन्त्येकानसप्ततिः ६६ अत्र एकोनविंशतिमध्यात् त्रयो- स्तल अतिक्रान्तपाश्चात्याद्धार्थतत्वात् पुप्या रसानल दशभिः लेगादीनि उत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धा- भाव्युत्तरार्द्धमध्यभावित्वात् , यदा तु-विरुत्तरायण विश्व नि, अभिजिनक्षत्रं प्रागेव शोधितं, ततः पञ्चभिः श्रवणादी
स्वातौ वर्तते तदा पाश्चात्यं लग्नमश्विभ्यां स्वायश्चिन्याश्च नि उत्तरभद्रपदापर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्वानि, अभि- मध्य च पुष्यो, भाविद्वितीयाचमध्ये भावि लग्नम् अभिजित. जिनक्षत्रं च प्रागेव शोधितं , ततः पञ्चभिः श्रवणादीन्युत्त- तत उत्तरायणविषुवंषु पञ्चस्वपि पुष्या नभस्तल अतिक्रान्त रभाद्रपदापर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्धानि, एकेन च शेगा
पाश्चात्या गतत्वात् अभिजित् रसातले भाव्युत्तराद्धमरेवा शुद्धा, आगतमश्विनीनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशत-1 चभावितत्वात् तदेवमुक्तं विष्वगतं लग्नम् । भागानामेकोनसप्ततिसंख्येषु प्रथम विषुवं भवति । द्वितीय
सम्पति कः कालो निश्चयतो विषवस्येति प्ररूपयतिविषुवचिन्तायामेवं त्रैराशिकम्-यदि दशभिर्विषुवैरष्टादशशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां लभ्यन्त ततः प
मंडलमज्झत्थम्मि य, अचक्सविमयं गयम्मि सूरम्मि। श्वभिरयनद्विभागैः किं लभ्यमिति राशित्रयस्थापना-१०-1 जो खलु मत्ताकालो, सो कालो होई विमुवस्स ॥१४|| १८३५-५, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणने जातान्येकनव- मण्डलमध्यस्थेः साईद्विनवतिमण्डलमध्यभागवर्तिनीत्यतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ६१७५, ततः प्रागुक्तयुक्त्याss-12ः। अचुर्विषयगते कलया चक्षुर्विषयमतीतो व्यवहा
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(१२६४) विसुव अभिधानराजन्द्रः।
विसेस रतश्चक्षुर्विषयातीत इति विवक्षितः तस्मिन् सूर्ये यः खलु वच्मि तन्मियोति.लोकरूढिनिराकृतो यथा शुचि नरशिरःकमात्राकालो दिवसरात्रिमध्यगतसंधिरूपः स विषुवकालो पालमिति । तजातदोषविषयेऽपि भेदो जन्ममर्मकर्मादिभिः, वेदितव्यः । तथाहि-यदि दशभिर्विषुवैरष्टादश सूर्योदयशता जन्मदोषो यथा-"कच्छोल्लुयाए घोडीए,जाओ जो गद्दहेग नि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते ततोऽयनद्विभागरूपे विषुवे छूढण । तस्स महायणमझ, आयाग पायडा होति ॥१॥" किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना १०-१८३०-१, अत्रा इत्यादिरनेकविधः२, चकारः समुच्चये। तथा दोसे'त्ति पूर्वोक्तन्येन गशिना मध्यराशेर्गुणने जातानि तान्येवाष्टादश शतानि सूत्रे ये शेषा मतिभङ्गादयोऽष्टावुक्तास्ते दोषाः दोषशब्देनेह त्रिंशदधिकानि १८३०, आद्यश्च राशेः प्रागुक्लयुक्त्या द्वाभ्यां
संगृहीतास्ते च दोषसामान्यापेक्षया विशेषा भवन्त्येवेतिगुण्यते जाता विंशतिस्तया भागो हियते लब्धा एकनवति- दोषो विशेषः । अथवा-'दोसे' त्ति दोषेषु शेषदोपविषये विरेकश्च द्विभागः अहोरात्रस्य, ततः आगतमीपत्त्या द्विनव. शेषो भेदः स चानेकविधः स्वयमूह्यः ३ । ('एगट्ठिय' वक्तव्यता तितमे अहोरात्रे दिवसस्य रात्रश्च यः सन्धिरूपः कालः स 'एगट्ठिय' शब्द तृतीयभागे १९९० पृष्ठे। ) अथवा दोषशब्द मात्राकालः स निश्चयतो विषुवकालः। नन्वत्र संदेहः किमयं इहापि संबध्यते,ततश्च न्यायोग्रहण शब्दान्तरापेक्षया विशेष सूर्योदयसन्धिरित्यभिधीयते; किं वा-अस्तमयसन्धिः?, इति ४। तथा कार्यकारणात्मक वस्तुसमूह कारणमिति उच्यत-अस्तमयसंधिर्यतो दिवसादिरहोरात्रः, तथा चोक्तं | विशेषः कार्यमपि विशेषो भवति, न चेहोको दशस्था"दिवसादिरहोरात्र" इति । ततो दिवसोऽतिक्रान्तोऽस्तम- नकानुवृत्तेः । अथवा-कारणे-कारणविषये विशेषो भेदो यश्व प्रवर्तते इत्यस्तमयसंधिरेवाऽभिधीयते ॥ इति श्रीमल- यथा परिणामिकारणं मृत्पिण्डः,अपेक्षाकारणं दिग्देशकालायगिरिविराचतायां ज्योतिष्करण्डकटीकायां विषुवप्रतिपाद- काशपुरुश्चक्रादिाअथवोपादानकारण मृदादि.निमित्तकारलं के पश्चदशं प्राभूतं समाप्तम् । ज्यो०१५ पाहु ।
कुलालादि,सहकारिकारणं चक्रचीवगदीत्यनेकधा कारखम् । विसहया-विषचिका-स्त्री० । अजीर्णोद्भूते वमनाध्मानविरे- अथवा दोषशब्दसंबन्धात् पूर्वव्याख्यातः कारणदोषो दोपसावादिसामृत्युकृजि, उत्त० १० अ०। अजीर्णविशेषे, उत्त.
मान्यापेक्षया विशेष इति।चः समुच्चये तथा प्रत्युत्पन्नो वार्त१० अ०।
मानिकोऽभूतपूर्व इत्यर्थो दोषो गुणेतरः, स चातीतादिदोष
सामान्यापेक्षया विशेष अथवा-प्रत्युत्पन्ने सर्वथा वस्तुन्यभ्युविमूणिय-विशून्य-त्रि० । उत्कृते,सूत्र० १ श्रु०५ १०२ उ०॥
पगते विशेषो यो दापोऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादिः स दोपिमूणियंग-विशूनिताङ्ग-त्रि० । उत्कृताते, अपगतत्वचि,
षसामान्यापेक्षया विशेष इति६, तथा नित्यो यो दोषोऽभवसूत्र० १ थु०५ ०२ उ०।
व्यानां मिथ्यात्वादिरनाथपर्यवसितत्वात् सदोषसामान्यापेविमूर-खिद-धा० । दैन्ये, " खिदेर्जूर-विसूरौ" ॥८ ॥
क्षया विशेषः । अथवा-सर्वथा नित्ये वस्तुनि अभ्युपगते यो २३॥ इति खिदेर्विसूगदेशः। विमूह । खिद्यते। प्रा०४पाद ।। दोषो बालकुमाराद्यवस्थाभावापत्तिलक्षणः स दोषसामान्याविसूरण-खेदन-न० । चित्तम्वदे, प्रश्न. ५ आश्रद्वार। पेक्षया दोषविशेष इति । तथा 'हियट्टमे' ति अकारप्रश्लेषाविसेदि-विश्रेणि-त्रि० । विद्धा विदिगाश्रिता श्रेणियंत्र त- दधिकं वादकाले यत् परप्रत्यायनं प्रत्यतिरिक्तं दृष्टान्तनिग
मनादि तद्दोषः, तदन्तरेणैव प्रतिपाद्यप्रतीतेस्तदभिधानद्विश्रेणि । भ०२ श०१३० । विरुद्धदिस्थिते, नं०।
स्यामर्थकत्वादिति ।प्राह च-"जिणवयणं सिद्धं चे-च मागणए विसेस-विशेष-पु०। “शपोः सः" ५८ ! १।२६०॥ इति शपोः
कत्थई उदाहरणे । आसजउ सोयारं, हेऊ वि कहिचि भसः । प्रा०।भेदे, पर्याये, व्यक्ती. विशे। उत्त। नि० चू०।। राणेज्जा ॥१॥" तथा "कथा पंचावयवं,दसहा वा चहान पर्यायो विशयो धर्म इत्यनान्तरम् । स्था० ४ ठा०२ उ०।। पडिकुट्ट'मिनि । ततश्चाधिको दोषो दोषविशेषत्वाद्विशेष इति दशन("विशेषोऽपि द्विरूपो गुग्णः पर्यायश्च ॥६॥ इति । अथवा अधिके दृष्टान्तादौ सति यो दोषो दृषण वादिनः सोसूत्रम 'मणियवाई शब्द तृतीयभागे ७०ऽपृष्ठे व्याख्यानम्।) ऽपि दोषविशेष एव अयं चाष्टम आदितो गण्यमान इति - विशेश:
॥' अत्तण 'त्ति आत्मना कृतमिति शेषस्तथोपनीतं प्रापिदमविहे विमसे पाने.तं जहा-वत्थु तज्जायदोसे य, दोसे
तं परेरगति शेषः, वस्तुसामान्यापेक्षयाऽऽत्म कृतं च विशेषः एगट्टिने निय। कार य पटुप्पन दोमे निव्वेहियट्टमे।१।"
परोपनीतं चापगे विशेष इति भावः, चकारयोर्विशेषशब्द
स्य च प्रयोगो भावनावाक्ये दर्शितः । अथवा-दोषशब्दानुवृ. अत्तणा उवए य, विमम नि व ते दस । (मू०७४३४)
नेगत्मना कृतो दोषः परोपनीतश्च दोष इति दोषसामान्या'दम' त्यादि विशेषों मेदो व्यकिरियनर्थान्तरम् वधु' पेक्षया विशेषावेतौ इति । एवं ते विशेषा दश भवन्तीति इहा. इत्यादि सार्द्धः श्लोकः , वम्विनि प्राक्रनसूत्रस्यान्तोको यः दर्शपुस्तकेषु-'निश्चे हियट्टमे 'त्ति दृष्ट न च तथाष्टौ पर्यन्त नमः, तन्नामिनि नम्यवादाक्रम् । प्रतिवाद्यादेोन्यादि इति निशे इति व्याख्यातम् । स्था०१० डा० ३ उ० । शाक द्विायो नागो वस्तुनचान दोपस्तत्र बस्तुदोषः पक्षदोए- एवायं शहद इत्यादिविशेषकाने. विशे० सम्म । सुत्रः । ग्नज्ञानदायन-जान्यानिटी ननम्नौ व विशेरी दोबमामा- तुल्य जानिगुणक्रियाधागना नित्यद्रव्याणां परमाण्याकापानिया. अथवा-बम्नुहार-वम्नुहोगविषये विशेषणे-भेदः शदिगादीनामत्यन्तव्यावृनिवृद्धिहेती पदार्थभेदे. आ० मा गगननिराकतन्वादिना प्रत्य निराकृतो यथा श्राव- ० । स्था। आथ विशेषास्ते चानमन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वेन पाः शब्दः, अनुमाननिगरुनो यथा निन्य शरद, प्रतीनिनि- पगश्रीयन्ते. नत्रदचिन्त्यते-या तेषु विशेषबुद्धिः सा नार राकृतो गधा चम्द्र ही वक्चविगाहनो या विशेषतुकाऽवयितव्या मानवस्थाभयात् । स्वतः समाच
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विसेस अभिधानराजेन्द्र:।
विसेसाबस्सय यणेच तद द्रव्याविष्वपि विशेषबुद्धिःस्थानिक द्रव्यादिव्य-विसेसबद्धि-विशेष्यवद्धि-स्त्री० । विशेष्यताक्रान्तबुद्धी, नातिलिविशेषरिति । द्रव्याव्यतिरिक्तास्तु विशेषा अस्माभि-| गृहीतविशेषणाविशेष्यबुद्धिरिति वचनात् । स्या० रण्याश्रीयन्ते सर्वस्य सामान्यविशेषात्मकत्वादिति। एतनुप्र-विसेससम्मा-विशेषसंज्ञा-स्त्री०। पृथगभूताभिधाने, सम्म०१ क्रियामात्र, तद्यथा-"नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः" नित्य
काण्ड। द्रव्याणि च । चतुर्विधाः परमाणवो मुक्तात्मानो मुक्तमनांसि चेति नियुक्तिकत्वादपकर्णयितव्यमिति । सूत्र०१ श्रु० १२
विसेसावस्सय-विशेषावश्यक-न०। मावश्यकग्रन्थस्य प्रअाविसेसो दुविहो, अंतषिसेसो,अणंतविसेसो य । प्रा. थमाध्ययनभाज्यविवरणे, विशे० । चू०१०। अन्त्या विशेषाः-सकलसाधारणरूपाः, अबान्तरविशेषाश्च पररूपव्यावर्तनक्षमाः। मा० म०१० ।
श्रीसिद्धार्थनरेन्द्रविश्रुतकुलव्योमप्रवृत्तोदयः, प्रकर्षे, स० १४६ सम०। रमणीयत्वे, वृ०१ उ० ३ प्रक० ।
सदोधांशुनिरस्तदुस्तरमहामोहान्धकारस्थितिः। विश्लेष-पुं० । वियुक्तीकरणे, पृथक्करणे, विश्लेषे कृते स
उताशेषकुवादिकौशिककुलप्रीतिप्रणोक्षमो, ति यदवतिष्ठते तदपि विश्लेषतो जातत्वाद् विश्लेषः । आ
जीयावस्खलितप्रतापतरणिः श्रीपईमानो जिनः ॥१॥ रोपणाच्छेदे, व्य०१ उ०।
येन क्रमेण कृपया श्रुतधर्म एष, विसेसण-विशेषण-न । भेदे, ब्यावर्तने, 'संभवद्व्यभिवा
श्रानीय मादशजनेऽपि हि संप्रणीतः। राभ्यां स्याद् विशेषणमर्थवत् 'ल। प्रा०म०।०।।
श्रीमत्सुधर्मगणभृत्प्रमुखं नतोऽस्मि,
तं सूरिसामनघं स्वगुरूंश्च भक्त्या ॥२॥ विसेसणविसिस्सभाव-विशेषणविशेष्यभाव-पुं० । व्यावर्त्य
आवश्यकप्रतिनिबद्धगभीरभाष्यब्यावर्तकन्वे, प्रा० म०१०।
पीयूषजन्मजलधिगुणरक्षराशिः। विसेसणाण-विशेषज्ञान-न । प्रात्मनो गुणदोषाधिरोह
ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षिती यः, लक्षणस्य विशेषस्य माने, यथा-"प्रत्यहं प्रत्यवेक्षत, नर- सोऽयं गणिविजयते जिनभद्नामा ॥३॥ श्वरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं, किन्नु सत्पुरुषरि- यस्याः प्रसादपरिवर्धितशुद्धबोधाः, ति ॥१॥"ध०१ अधिक।
पारं प्रजन्ति सुधियः श्रुततोयराशेः । विसेसएणु-विशेषज्ञ-पुं० । विशेष जानातीति विशेषः ।
सानुग्रहा मयि समीहितसिद्धयेऽस्तु, यथावस्थितगुणदोषविवेचनसहे, दर्श०२ तस्व। अपक्षपा- सर्वशासनरता श्रुतदेवताऽसौ ॥४॥ तित्वेन गुणदोषविशेषाविशेषवेदिनि,ध०१ अधिः । तदितर- इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकाविषवस्तुविभागवेदिनि अविशेषज्ञस्तु दोषानपि गुणत्वेन गु- अध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपमावश्यकं तावदर्थतस्तीर्थकरैः, णानपि दोषत्वेनाध्यवस्यति । प्रव० २३६ द्वार।
सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम् । अस्य चातीव गम्भीरार्थता ससाम्प्रतं विशेषज्ञ इति षोडशं गुणं प्रचिकटयिषुराह
कलसाधुश्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुवत्थूणं गुणदोसे, लक्खेइ अपक्खवायभावेण ।
दशपूर्वधरण श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिनतव्यास्थानरूपा "श्रापाएण विसेसगणू , उत्तमधम्मारिहो तेण ॥ २३ ॥
भिणियोहिअनाणं, सुयनाणं चेव श्रोहिनाणं च" इत्यादि
प्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता। तन्मध्ये च सामायिकाध्ययवस्तूनां द्रव्याणां सचेतनाऽचेतनानां धर्माऽधर्महेतूनां वा
ननियुक्ति विशेषत पवातिबहुविचारदुर्षिशेयार्थामतिशयोपगुणान् दोषांश्च लक्षयति-जानात्यपक्षपातभावेन-माध्य
कारिणी चावगम्य केवलामृतरसस्यन्दिवाग्विलासैः श्रीमस्थ्यसुस्थचेतस्तया पक्षपातयुक्तो हि दोषानपि गुणान्
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैस्तदर्थव्याख्याऽऽत्मकमेव 'कयगुणानपि दोषानध्यवस्यति समर्थयति च । उक्तश्च-"आ
पवयणप्पणामो' इत्यादिगाथासमूहस्वरूपं भाज्यमकारि। ग्रही वन निनीपत्ति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ।
तस्य च यद्यपि श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैः, श्रीकोट्यापक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥१॥"
चार्यैश्च वृत्तिर्विहिता पत्तते, तथाऽप्यतिगम्भीरवाक्यात्मअतः प्रायेण बाहुल्येन विशेषतः सारेतरवेदी उत्तमध
कत्वात् , किंचित्संक्षेपरूपत्वाच-दुःषमानुभावतः प्रमादिमहिः प्रधानधर्मोचितो भवति । सुबुद्धिमन्त्रिषदिति । ध०
भिरपचीयमानानां किमपि विस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां २०१अधि०१६ गुण । (तवृत्तम्-'सुबुद्धि' शब्दे वक्ष्यते।)
नाऽसौ तथाषिधोपकारं सांप्रतमाधातुं क्षमाः, इति पिचिन्स्य वस्त्ववस्तुषिभागवेदिनि, वृ०४ उ०।
मुत्कलतरवाक्यप्रबन्धकमा किमपि विस्तरपतीय मन्दमतिजाणाति जो विसेसं, हिताहितादीण सो विसेसरण।
नाऽपि मया मन्दतममतिशिष्यावबोधार्थ, भुताभ्याससंपाण वि होति णिब्बिसेसो, समचंदणलोद्धिचिखल्लो॥ दनार्थ च वृत्तिरियमारभ्यते। विशे०। । पं०भा०१ कल्प । विशेषं जानातीति विशेषः । श्रा- अथ प्रकृतोपसंहारार्थमात्मनः औद्धस्यपरिहारार्थचार्यः विशेष जानीते अनुवर्तविशेष वा । पं०चू०१कल्प। श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्याः प्राहुःविसेसप्या-विशेषपूजा-स्त्री० । धर्माचार्यादितविशेषार्चना- इय परिसमापियमियं, सामाइयमत्थमो समासेण । याम् , पञ्चा०८ विव०।।
वित्थरो केवलियो, पुन्वविभो वा पहासंति॥३६०२।। विसेसपूयापुत्र-विशेषपूजापूर्व-२० । प्राक्तनदिनापेक्षया वि
इत्युक्तमकारेण सर्वेणापि भाष्येणावश्यकप्रन्थस्य प्रथममशितरार्चनपुरःसरे, पश्चा-विवः ।
ध्ययनं सामायिकं समासेन-संक्षेपेणार्थतः परिसमापितं
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( १२९६) अभिधानराजेन्द्रः ।
विसेमावस्मय
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संक्षेपेणास्यार्थः कथितः संक्षेपमानमात्रशकिराम्यम | विस्तरतस्यशेषविस्तरेणातिगम्भीरार्थत्वादिरं केवलिनः पूविदो वा प्रभाषन्त इति ।। ३६०२ ।।
अचैतद् भाग्यं श्रुत्वा विनेयानां यदिदेव फलं भवति तदुपदर्शनार्थमाह
न्
सच्यायोगमूल, मासं सामाअस्स सोऊन । होइ परिकम्मिश्रमई, जोग्गो सेसाणुयोगस्स || ३६०३ ॥ इदं च सर्वानुयोगमूलं - सर्वानुयोगकारणं सामायिकस्य भाष्यं - विवरणं श्रुत्वा निशम्यैतत्परिकर्मितमतिः सन विनेयः शेषशाखानुयोगस्य योग्य: कुलमो भव ति । इति चत्वारिंशद्गाथार्थः ॥ ३६०३ ॥ पूर्वे चाध्यवसानप - पर्यन्तव्याख्यातगाथानाम् ||२८०३ ॥ उभयं व्याख्यातभाष्यगाथानाम् || ३६०३ || शेषाणि तु चतुर्दशाधिकसप्तशतान्यतिदे शेनैव गतानि न तु व्याख्यानानिने गणितानि इत्येषा शिष्यदिता नाम विशेषावश्यकवृत्तिः समाप्ताद गम्भीरापारजन्मजरामरणसलिलसंचयसंपूर्ण र
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तभ्राम्यन्महामोहावर्तभीमे विविधविस्रोतसिकावेलाव्यतिकरदुरतिकमै निःसंरूपविकल्प कल्लोलमालाकुले प्र सरदज्ञानमहामेघदुर्दिनान्धकारनिकुरम्बभीषणे अनेकापद्विद्युन्निपात संपादितमहाभये रागद्वेषदुर्वात संततिसंजनितहृदयत्कम्पे अविधानसंज्पलितकोधातिरीपडवामु से अमानमानशेलस्खलन दुर्गी कृतममागमन्यतिकरे मायायल्लीवितानगुप्यत्सत्व संघात विमवसलिलातिदुप्रलो भ्रमहोदरे विषिधन्याधिसंबन्धमत्स्य कच्छपृष्ठपुच्छ टाटोपग्राहकादिप्रचुरजलचरसंचरण संजनितविषमसंचारे शारीरमानसानन्त दुःखप्रदापारसंखारवारांनिधी मां निमनं विकलं निःशरणं दीनमवलोक्य कोऽपि करुणापरीतमानसः सद्गुणगुरुमहापुरुषः सम्पम्दर्शनातिदमहाप्रतिष्ठानमष्टादशशीलाङ्ग सहस्रविचित्रफलक निविडघटनाविराजितं सम्यग्ज्ञाननियमकान्वितं सुसाधुसंस कार्थसूत्रनिटिबन्धनव संवरकीलप्रभग्ननिःशेषा
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अपद्वारे सुतिसामायिकच्छेदोपस्थानीयमेदमिवरम्यभूमिकाइयं तदुपपतिसाधुसमाचारकरणरणमण्डपं समन्ततोत्रियस्वरागुप्तम् अशुभाच्य घसायसंनद्धदुर्योधयोधसहस्रदुरवलोकं, सर्वतो निवेशितसद्गुरूपदेशाथलिकनिकुरम्यं मध्यव्यवस्थापितस्थिरतरानसरलसद्बोधकूपस्तम्भं तद्विन्यस्तप्रकृष्टशुभभावमयमद्दासितपटं तद्ग्रसमारूढमौसदुपयोगपञ्जरदोवारिकं तवामाद्नगरनिकरसमायुक्तमित्यादिसर्वाङ्गसंपू र्णतया प्रवणं चारित्रमयं महायानपात्रं समर्पयामास, भणितवांश्च भो महाभाग ! समधिरोह त्वमस्मिन् यानपात्रे । समारुदान मदशियां कुर्याम दुस्तरमध्यनुं कुर्वाणस्त्वमक्षेपेणैव भवजलधिमुत्तीर्य प्राप्स्यसि निःशेषदुःखातिक्रान्तमनन्तसुखमयं शिवरत्नद्वीपम् । ततश्च तद्वचनेनाश्वासितोऽहमारूढ स्व समर्पितं च मम तेन महापुरुषेण सद्भावनामञ्जूषायां प्रशिष्य शुभमनोनामकं महारत्नम् अभिहितं च मां प्रति र क्षणीयमिदं प्रयत्नतो भद्र ! तिष्ठति हास्मिन् महाप्रभावे शुभमनोरने एतद् यानपात्रम्, यथोक्तो निर्यामकः, कूपस्तम्भः, यो धा, परवारिक सर्व क्रमेणावतिष्ठमानमभीत्व प्रा
विसावस्य
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पयति, तदभावे तु सर्वमेतत् प्रलयमुपयाति । श्रत एव तव पृष्ठतः सर्वादयेतदपहरणार्थ लमिष्यन्ति ते मोहराजादयो दुतरकाराः तेभ्यश्च त्वयेदमित्रीयम्। सद्भावनाम पाङ्गानां चातो नानामसंभवे ऽन्यान्यमूनि च तदङ्गानि तस्यां निवेशनीयानि । इत्यादिशिक्षां प्रयच्छन् मयाऽपि समं दूरदेशं गत्वा ततोऽन्तर्दितः संजातः । धुता सर्वो5पि व्यतिकरः प्रमादपरतामिधानां महापक्ष समाधिनेन दुष्टतरकराधिपतिना मोहराजेन ततो रे रे तस्कराधमाः! दता वयम् यतः केनाग्यरमरिया निजपानपात्रमारोप्यास्मदविषयभूतं शिवरत्नद्वीपं नेतुमारब्धः सोऽमुकसंसारिजीवः, स च न केवल चलितः, किमयन्यानपि यचादमामा खड़ा नेकान् नयन् तिष्ठति तद् यावदेतदस्मदी यसंसारनाटकं सर्वशून्यं न करोति तावद् धावत धावत ' इति षः भ्रममुत्थाय महाबु दुर्बुनिमिकांम हानावमारूढः कुवासनाभिधान नौवृन्दादि रूढाशेषतस्करनिकरसहित एव प्रधावितः सत्वरम् । समागतश्च यानपाप्रदेशम्। ततः पूरकृतं पञ्जरदीयारिके भो भोः ! समायाता एतास्तास्तस्करचेटिकाः, प्रगुणीभवत यूयम् । तदेतत् श्रुत्वा त्या नियमकोत्साहितास्तदुपदिशविधिनैय रलमण्डपमा रूढाः सञ्जीभूताधारित्रधर्मपतिसैन्येन सह पूर्वोरुपा योधाः। गृहीतानि च सर्वैरपि परदीयारिकामियो चितं जीवादिस्वचिन्तनादिरूपाणि नाराचादिप्रहरणानि । मोदराजेनापि निरूपितो मिथ्यादर्शनमन्त्री उत्पादिताः कषायचरटाः, तर्जितं हास्यादिषट्लुएटाकवृन्दम् पुरस्कृतः पुरुषवेदादिपरिवृत काममहातस्करः व्यापारितानिद्वा तद्रादयः प्रेरिता सुर्दशनावरणादयः अग्रेसरीकृतं रोगाचसातवे दनीय सैन्यम् प्रवर्तिता जरा उत्तरायाय स्वयमपि च निजतनयरागके सरिद्वेषगजेन्द्रादितलपर्णान्वि तेन मोहचरटाधिपेन वेष्टितं समन्ततोऽनन्त गुणपरिपाटया यानपात्रम्। प्रहर्तुमारब्धं चापेन सर्वैरपि समकालम् । ततश्च सदागमसेनाधिपोत्साहितेन सम्यग्दर्शनमन्त्र माक्षिप्तो मिथ्यादर्शनमन्त्री, प्रशम - मार्दवा - ऽऽर्जवादिमहायोधैरपि लीलयैव निरुद्धाः क्रोधादिकषायखरडा, वैराग्यब्रह्मवामासुरपि दूरमुत्यासितो हास्यादिनिजतवर्गानुगतः काममा लुटका अप्रमादमदारधिनाऽपि श्रुतोपयोगोद्यमादिनाराचैस्ताडिताः शिरसि निन्द्रा-तन्द्रादयः, तदावरणक्षयोपशमचीरेणाप्यधरीकृताञ्च क्षुदर्शनावरसादयः सद्धर्मानुष्ठानोद्दीपित सातोदय सैनिकेनापि वि लक्षीकृतं रागाद्यसातवे दनीय सैन्यम्, पुण्योदयमहाबलराजपुत्रेणापि निष्प्रभावीकृता जराऽन्तरायादयः । एवमन्येषामप्यनन्तानां चारित्रधर्मराज सैनिकानां निजनिजप्रतिपक्षेण सह महासमरसम्म प्रसेनजसे किञ्चिदनश्यमानमवलोक्य ' रे रे तस्कराधमाः ! किमेतदारम्यम्, स्थिरीभूय लगत लगत सर्वात्मना ' इति ब्रुवाणो मोहचरटचक्रवर्ती ससैन्यवारयो युगपत् प्रम् केचित् तीव कुलपातिनो मोदसैनिकाः केनापि पण समारोहन्ति तद् पानपात्रम् विमतारयितुमुपक्रमन्ते माम् प्रविशन्ति रणमण्डपस्यान्तः, प्रहरन्ति छत्रीभूताः समाहत्य जर्जरयन्ति सद्भावनामपाङ्गानि ततो मया तस्य परमपुरुषस्योपदे
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(१२६७) विसेसावस्सय अभिधानराजेन्द्रः।
विसोदलय शं श्रुत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यकटिप्पनिका- शान्तः श्रीजयसिंहसूरिरभवद् निःसचूडामणिः ॥ ३ ॥ भिधानं सद्भावनामञ्जूषायां नूतनफलकम् , ततोऽपरमपि। रत्नाकरादिवतस्माद् , शिष्यरत्नं बभूव तत् । शतकविवरणनामकम् , अन्यदप्यनुयोगद्वारवृत्तिसंज्ञितम् । स वागीशोऽपि नो मन्य, यद्गुणग्रहणे प्रभुः ॥४॥ ततोऽपरमप्युपदेशमालासूत्राभिधानम् , अपरंतु तदृत्तिना- श्रीवीरदेवविबुधैः, सन्मन्त्राद्यतिशयप्रवरतोयैः । मकम् , अन्यच जीवसमासविवरणनामधेयम् , अन्यत्तु भव- दुम इव यः संसिक्तः, कस्तहुणकीर्तने विबुधः ॥५॥ भावनासूत्रसंक्षिप्तम् , अपरं तु तद्विवरणनामकम् , अन्यच्च
तथाहिझटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामञ्जूषाया अङ्गभूतं नि- आशा यस्य नरेश्वरैरपि शिरस्यारोप्यते सादरं, बेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं नूतनदृढफलकम् । एतैश्च नू- यं राऽपि मुदं व्रजन्ति परमं प्रायोऽतिदुष्टा अपि । तनफलकैर्निवेशितैर्वज्रमयीव सञ्जाताऽसौ मञ्जूषा, तेषां पा- यद्वक्ताम्बुनिधिर्यदुज्ज्वलबचः पीयूषपानोचतेपानामगम्या। ततस्तैरतीवच्छलघातितया सञ्चूर्णयितुमार
गीर्वाणैरपि दुग्धसिन्धुमथने तृप्तिन लेभे जनैः ॥ ६॥ ब्धं तद्द्वारकपाटसम्पुटम् । ततो मया ससंभ्रमेण निपुणं कृत्वा येन तपः सदुश्वरतरं विश्वं प्रबोध्य प्रभोतत्प्रतिविधानोपायं चिन्तयित्वा विरचयितुमारब्धं तद्द्वार- स्तीर्थ सर्वविदः प्रभावितमिदं तैस्तैः स्वकीयगुणैः। पिधानहेतोर्विशेषावश्यकविवरणाभिधानं वज्रमयमिव नून- शुक्लीकुर्वदशेषविश्वकुहरं भव्यैः स्तुतं सस्पृहं, मकपाटसम्पुटम् । ततश्चाभयकुमारगणि-धनदेवगणि जिनम- यस्याशास्वनिवारितं विचरति श्वेतांशुगौर यशः ॥७॥ द्रगणिलक्ष्मणगणि-विबुधचन्द्रादिमुनिवृन्द-श्रीमहानन्द- यमुना प्रवाहविमल-श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिसम्पर्कात् । श्रीमहत्तरावीरमतिगणिन्यादिसाहाय्याद्रेरे निश्चितमि- अमरसरितेव सकलं, पवित्रितं येन भुवनतलम् ॥८॥ दानी हता वयम् , यद्येतद् निष्पद्यते, ततो धावत धावत , विस्फूर्जत् कलिकालदुस्तरतमः सन्तानलुप्तस्थितिः, गृहीत गृहीत, लगत लगत , ' इत्यादि पूत्कुर्वतां सर्वात्म- सूर्येणेष विवेकभूधरशिरस्यासाच येनोदयम्। शक्त्या युगपत् प्रहरता हा हा रवं कुर्वतां च मोहादिचरटानां सम्यग्नानकरैश्चिरन्तनमुनिमः समुयोतितो, चिगत् कथं कथमपि विरचय्य तदद्वारे निवेशितमेतदिति।। मार्गः सोऽभयदेवसूरिरभवद तेभ्यः प्रसिद्धो भुवि ।।६।। ततः शिरो हृदयं च हस्ताभ्यां कुट्टयन् विषशो मोहमहाच- तच्छिष्यलवप्रायै-रगीतार्थैरपि शिष्टजनतुष्पै। रटः , समस्तमपि विलक्षीभूतं तत्सैन्यम् , विलीनं च सना-1
श्रीहेमचन्द्रसरिभि-रियमनुरनिता प्रकृतवृत्तिः ॥१०॥ थकमेव । ततः कचित् क्षेमेण शिवरत्नद्वीपं प्रतिगन्तुं प्रवृत्तं
शरदां च पश्चसप्त-त्यधिकैकादशशतेवतीतेषु ११७५ । तद् यानपात्रमिति ।
कार्तिकसितपञ्चम्यां, श्रीमजयसिंहनृपराज्ये ॥ ११ ॥ "क श्रीजिनभद्रगणेः. पूज्यस्यैतानि भाग्यवचनानि ।
विशे। तर्कव्यतिकरदुर्गा-ण्यतिगम्भीराणि ललितानि ॥१॥ विसोग-विशोक-त्रिका विगतशोके, उत्त०३२ मा आचा विवृतानि स्वयमेव हि. कोट्याचार्यैश्च बुधजनप्रवरैः। विसोगा-विशोका-स्त्री०। योगजसिद्धिभेदे, द्वा० २६ द्वा०। सङ्गच्छतेक पुनरपि, ममापि वृत्तेः प्रयासोऽत्र ॥२॥
(विशोका सिद्धिः 'केवलि' शब्दे तृतीयभागे ६६८ पृष्ठे ऋजुभणितिमिच्छतामिह, तथापि मत्तोऽपि मन्दबुद्धीनाम् ।
व्याख्याता ।) उपकारः केषाश्चित् , समीक्ष्यते शिष्टलोकानाम् ॥ ३॥ तेनात्मपरोपकृति, संभाव्य मयाऽपि भाग्यवृत्तिरियम्।
विसोतिया-विस्रोतसिका-स्त्री०। इन्द्रियैर्मनसा संयमस्थाविहिता श्रुतेऽतिभक्ति, शुभं विनोदं च चिन्तयता ॥४॥
नसावने. व्य०६ उ०। ज्यादिरूपसन्दशेनस्मरणापध्यानकयह किमपि वितथं. लिखितमनाभोगतः कुबोधाद्वा ।
चवरनिरोधतःहानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमशस्यशोषफलायां तत् सर्व मध्यस्थै-मय्यनुकम्पापरैः शोध्यम् ॥५॥
चित्तविक्रियायाम् , दश०५१०१ उ०प्राचा०। विश०। कृत्वा च विवरणमिदं, यत् पुण्यमुपार्जितं मया किञ्चित् ।
विश्रोतसिका द्विधा-द्रब्यतो, भावतश्च। तत्र द्रव्यतःसारिणी तेनाभवक्षयाद-स्तु जिनमते प्रीत्यविच्छेदः ॥ ६॥"
पानीयं वहमानम् । भावतः-यया तृणादिकचवरस्थानीयया ग्रन्थानं प्रत्यक्षरं गणनया सहस्राणि (२८०००)
चित्तविप्लुत्या निरुद्ध सति चारित्रस्य विनाशो जायतेसा श्रीमत्तपोगॅणगगनाकणगगनमणिप्रभैः स्वपुण्यार्थम् । विश्रोतसिकेत्युच्यते । बृ०१ उ०३ प्रक० । बाचू०। शङ्काबिजयानन्दमुनीन्द्र-श्चित्कोशेऽसौ प्रतिर्मुमुचे॥१॥" याम्,-प्राचा०१७०१०३ उ० । विशेषावश्यकप्रशस्तिः
विसोदमय-वृषोदन्वत्-पुं० । विधिकृतमात्रप्रतिमापूजामरू"भीप्रश्नवाहनकुलाम्बुनिधिप्रसूतः,
पके, प्रति। क्षोणीतलप्रथितकीर्तिरुदीर्णशास्त्रः।
पृषोदन्वदनुसारिणो मतमुपन्यस्य दूषयतिविश्वप्रसाधितविकल्पितवस्तुरुच्चै
चन्द्याऽस्तु प्रतिमा तथापि विधिना सा कारिता मृग्यते, श्छायाश्रितप्रचुरनिर्वृतभव्यजन्तुः॥१॥
स प्रायो विरलस्तथा च सकलं स्यादिन्द्रजालोपमम् । सानादिकुसुमनिचित, फलितः श्रीमन्मुनीन्द्रफलवृन्दैः। कल्पदुम इव गच्छः, श्रीहर्षपुरीयनामाऽस्ति ॥२॥
हन्तैवं यतिधर्मापौषधमुखश्राद्धक्रियादेविधेपतस्मिन् गुणरत्नरोहणगिरिगाम्भीर्यपाथोनिधि
दौलभ्येन तदस्ति किं तव न यत् स्यादिन्द्रजालोपमम्।६८। स्तुत्वानुकृतक्षमाधरपतिः साम्यत्वतारापतिः ।
प्रति०। 'चेय' शब्दे तृतीयभागे १२४३ पृष्ठे सोपपत्तिकं सम्यगबानविशुद्धसंयमतपःस्वाचारचर्यानिधिः,
व्याख्यातम्।
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(१२६०), चिसोहात्ता अभिधानराजेन्द्रः।
विसोहि विसोहइत्ता-विशोध-अव्यका अपनीयेलायें,सूत्र.श्रु०६अदोण्ह वि घडगा समप्पिया, वञ्चद्द गोउलाओ दुद्धं पाणह। विसोहण-विशोधन-न । त्यजने, प्राचा०२ २०१०३
ते कावोडीओ गहाय गाते दुद्धघडए औरऊण कावोडीओ
गहाय पडिनियत्ता। तत्थ दोम्मि पंथा-एगो परिहारेण सोय १०३ उ०। अपगमने, आचा०२ धु० ३ चू० । बहुशः
समो, बितिओ उज्जुएण, सो पुण विसमखाणुकंटगबहुलो। योधने, स्था०५ ठा०२ उ०। व्रतानां पुनर्नवीकरणे, हा०१
तेसि एगो उज्जुएण पट्टिओ, तस्स पक्खलियरस एगो घडो भु०१६ १० । अतिचारकलङ्कस्य शुभभावजलेन शोधने,
भिएणो, तेण पडतेण बिहभो विभिएणो । सो विरिको स्था०८ ठा०३ उ० । निर्मलत्वाधाने, स० १३७ सम० ।
गो माउलगसगासं। बिहओ समेण पंथेण सणियं सणियं (कायस्य विशोधनम् ‘परकिरिया' शब्दे पश्चमभागे ५१५
आगो अक्खुडियाए दुद्धकावोडीए, एयरस तुट्ठो । इयरो पृष्ठे उक्तम् ।)
भणिो -न मए भणिय को चिरेण लहुं वा पहित्ति, मए विसोहणा--विशोधना-स्त्री० । प्रमार्जनायाम् , स्था० ६ ठा० भणियं-दुद्धं पाणेह त्ति, जेण प्राणीयं तस्स दिएणा, इयरो ३ उ०।
धाडियो । एसा दव्यपरिहरणा । भावे विटुंतस्स उवणाविसोहि-विशोधि-स्त्री० । पिण्डचरणादीनां निर्दोषतायाम् ,
कुलपुत्तत्थाणीपहिं तित्थगरोह आणतं, दुद्धत्थाणीयं चा
रित्त, अविराईतेहिं करणगत्थाणीया सिद्धी पावियव त्ति, स्था० ३ ठा०४ उ० । कर्ममलिनस्यात्मनो विशुद्धिहेतुत्वाद
गोउलत्थाणीओ मणुसभवो, तो चरित्तस्स मग्गो उज्जुविशोधिः । विशे। आवश्यके, अनु०। प्रतिक्रमणे, प्रा.
श्रो जिणकप्पियाण । ते भगवंतो संघयणधिइसंपराणा, दव्वचू०४०। पडिक्कमणं ति वा १, पडियरण ति वा २,
खित्तकालभावावइविसमं पि उस्सग्गेणं यश्चंति, वंको थेरपडिहरणं ति वा ३, वारणं ति वा ४, णियत्ती ति वा ५,
कप्पियाण, स उस्सग्गावयायोऽसमो मग्गो, जो अजोग्गो निंदति वा ६, गरिहंति वा ७, विसोहि ति वा ८ । एतेसिं
जिणकप्पस्स तं मग्गं पडिवजह सो दुघडट्ठाणीयं चारिएगट्ठियाणं इमाणि अट्ठ उदाहरणाणि-(श्रा० चू०४ १०)
तं विराहिऊण करणगत्थाणीयाए सिद्धीए अणाभागी भवा, विशोधिपर्यायोदाहरणानि-तत्थ पडिक्कमणे श्रद्धाण-| जो पुण गीयत्थो दव्वखित्तकालभावावईसु जयणाए जयदिटुंतो-जहा एगोराया गयरबाहिं पासायं काउकामो सो. सो संजम अविराधित्ता अचिरेण सिद्धि पायेइ ३ । (श्रा. भणे दिणे सुत्ताणि पाडियाणि, रक्खगा णिउत्सा, भणिया ५०) (वारणाया दृष्टान्तः 'चारणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०६६ य-जइ कोर इत्थ पविसिज सो मारेयम्वो, जर पुण ताणि पृष्ठे गतः।) इयाणि णियत्तीए दोरहं करणयाणं, पढमाए चेव पयाणि अक्कमंतो पडिभोसरर सो मोयम्बो । ती ते. कोलियकरणाए दिटुंतो कीरा-एगम्मि गयरे कोलिओ, सिं रक्खगाण बक्खित्तचित्ताणं कालहया दो गामिलया तस्स सालाए धुत्ता वसति । तत्थेगो धुत्तो महुरेण सपुरिसा पविट्ठा, ते णाइदूर गया रक्खगेहि दिट्ठा, उपरिसि- रेण गायइ, तस्स कोलियस्स धूया तेण सम संपलग्गा । यसग्गेहि य संलत्ता-हा दासा! कहिं पत्थ पविट्ठा , तत्थे- तेण भरणइ-नस्सामो जाव ण णज्जामु त्ति । सा भणइगो काकधट्ठो भणइ-को पत्थ दोसो सिइओ तो पहा- मम वयंसिया रायकरणगा, तीए समं संगारो जहा दोहि विप्रो, सो तेहिं तत्थेव मारिओ। बितिभो भीमो तेसु चेव वि एकभज्जाहि होयब्वं ति । तोऽहं तीए विणा ण वच्चापएसु वेव ठिो भणइ-सामि! अयाणतो अहं पविट्ठो, मा मि । सो भण-सा वि प्राणज्जउ । तीए कहियं, पडिम मारह, जं भणह तं करेमि त्ति । तेहिं भरणह-जह अण्ण- स्सुयं च कमाए, पहाविया महल्लए पच्चूसे । तस्थ केण वि प्रोमणकमंतो तेहि चेव परहिं परिमोसरसि तो मुश- उम्गीय-("जइ फुल्ला कणियारया चूयय !." इत्यादिगाथा सि । सो भीनो परेण जत्तेण तेहिं चेष पपहिं पडिनियत्ती,सो 'चूय' शब्दे तृतीयभागे १२०४ पृष्ठे सव्याख्या गता।) एवं मको । इहलो भोगाणं आभागी जामो, इयरो चुक्को। च सोउं रायकराणा चिंतेह-एस चूओ वसंतेण उवालद्धो एतं दस्वपंडिकमणं । भावे दिटुंतस्स उवणी-रायत्थाणी- जइ करिणयारो रुक्खाण अंतिमो पुष्फिो ततो तव किं एहि तित्वयरेहिं पासायत्थाणीओ संजमो रक्खियम्वोत्ति पुष्फिएण उत्तिमस्स ?, ण तुमे अहियमासघोसणा सुया?, श्रावस, सोय गामिगत्थाणीपण एगेण साहुणा अइक- अहो ! सुट्टु भणिय-जह कोलिगिणी एवं करेइ तो किं मिश्रो, सो रागहोसरक्खगऽभाहनो सुचिरं कालं संसारे मए वि कायव्वं ? , रयणकरंडो वीसरिउ ति एएण जायम्वमरियव्याणि पाविहिति । जो पुण किह विपमाएण छलेण पडिनियत्ता । तदिवसं च सामंतरायपुत्तो दाइयविअसंजमं गो तो पडिनियत्तो अपुणकरणाए पडिकमए प्पग्दो तं रायाणं सरणमुवगो । रगणा य से सा दिराणा सो णिव्याणभागी भवह। परिकमणे अशाणदिटुंतो गतो । इटा जाया । तेण ससुरसमग्गेण दाइए णिज्जिऊण रजं (श्राव०) (प्रतिचरणाया उदाहरणम् ' परियरणा ' शम्दे लद्धं । सा से महादेवी जाया । एसा दव्बणियत्ती। भावणि. पञ्चमभागे ३३६ पृष्ठे गतम्)दयाणि परिहरणाए दुखकारण यत्तीए दिटुंतस्स उवणभो-करणगत्थाणीया साह.धुत्तत्थादिटुंतो भएणइ दुखकाओ नाम बुद्धघडगस्स काबोडी । एगो णीपसु विसएसु श्रासजमाणा गीतत्थाणीपण आयरिएण कुलपुत्तो, तस्स दुवे भगिणीश्रो अरणगामेसु वसंति । तस्स जे समणुसिट्ठा णियत्ता ते सुगई गया, इयरे दुग्गई गया। धूया जाया, भगिणीण पुत्ता तेसु वयपत्तेसु ताो दो वि | वितियं उदाहरणं दव्यभावणियत्तणे-एगम्मि गच्छे एगो भगिणीश्रो तस्स समग चेव बरियारो आगयाश्रो। सो तरुणो गहणधारणासमत्थो त्ति काउं तं पायरिया वट्टार्विभणड्-दुरहं प्रत्थीणं कयरं पियं करेमि?, वह पुत्ते पेसह, | ति अण्णया सो असुहकम्मोदएण पडिगच्छामि त्ति पहाजो खेयरणो तस्स दाहामि लि,गामाओ, पेसिया। तेण तेसिं विप्रो, णिग्गच्छतो य गीतं मुह । तेण मंगलनिमित्तं उद
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(१२६६) विसोहि अभिधानराजेन्द्रः।
विसोहि ोगो दिनो । तत्थ य 'तरुणा सरजुवाणा इमं साहिणिय | सिक्खाविया-ममं रयण संवाहिती अक्वाणयं पुच्छिगायंति
जासि, जाहे राया सोउकामो, जा सामिणि ! राया पष"तरियव्वा य पइराणा, मरियव्वं वा समरे समत्थेणं।।
दृड किंचि ताव अक्खाण्यं कहेहि, भणइ, कहेमि-एगश्रसरिसजणउल्लावा, न हु सहियव्वा कुलप्पसूएणं ॥१॥"
स्स धूया, अलंघणिज्जा य जुगवं तिन्नि वरगा श्रागया , अस्या अक्षरगमनिका-तरितव्यावा-निर्वोढव्याचा प्रतिक्षा दक्खिरणेणं मातिभातिपितीहिं तिरह वि दिराणा, जणतामर्तव्यं वा समरे समर्थन, असदृशजनोलापा नैव सोढव्याः
श्रो श्रागयाओ । सा य रतिं अहिणा खइया मया, एगो कुले प्रसूतेन । तथा केनचिन्महात्मनैतत्संवाद्युक्तम्-“लज्जा तीए समं दहो, एगो अणसण वट्टो, एगेण देवो भारागुणौघजननी जननीमिवाऽऽर्या-मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमा- हिनो । तेण संजीवणो मंतो दिएणो, उज्जीवाविया, नाः। तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थिति
ते तिरिण वि उवट्ठिया, कस्स दायव्वा ?, किं सक्का पक्का व्यसनिनो न पुनः प्रतिक्षाम् ॥१॥" गीतियाए भावत्थो
दोराहं तिराहं वा दाउ?। तो अक्खाह त्ति, भणह-निहाइया जहा केह लद्धजसा सामिसंमाणिया सुभडा रणे पहार
सुवामि, कलं कहेहामि । तस्स अक्वाणयस्स कोउहश्रो विरया भज्जमाणा एगेण सपक्खजसावलंबिणा अ
लेणं बितियदिवसे तीसे चेव वारो प्राणत्तो, ताहे सा फालिया-ण सोहिस्सह पडिप्पहरा गच्छमाण त्ति ।
पुणो पुच्छह । भणइ-जेण उजियाविया सो पिया, जेण तं सोउं पडिनियत्ता, ते य पट्रिया पडिया पराणीप, भग्गं
समं उज्जीवाविया सो भाया, जो अणसणं पट्ठो तस्स च, तेहिं पराणीयं, सम्माणिया य पहुणा, पच्छा सुभडवाय
दायव्व ति। सा भणइ-अण्णं कहेहि । सा भणइ-एगसोभंति वहमाणा । एतं गीयत्थं सोउं तस्स साहुणो चिंता
स्स रगणो सुवएणकारा भूमिघरे मणिरयणकउज्जोया अजाया-एमेव संगामत्थाणीया पव्वजा जइ तश्रो परा
णिग्गच्छता अंतेउरस्स आभरणगाणि घडाविजंति । एगो भजामि तो असरिसजणेण हीलिस्सामि-एस समणगो
भणइ-का उण वेला वट्टर ? , एगो भणइ-रत्ती वट्टा, पच्चोगलिओ त्ति, पडिनियत्तो आलोइयपडिकंतेण पाय
सो कहं जाणड ? , जो ण चंदं ण सूरं पिच्छा , तो अरियाण इच्छा पडिपूरिया ५ । इयाणि जिंदाए दोराह करण
क्वाहि । सा भणइ-णिद्दाइया, बितियदिणे कहे-सो रगाणं बिइया करणगा चित्तकरदारिया उदाहरणं कीरइ-ए
ति अंधत्तणेण जाणइ । अराण अक्खाहि त्ति, भणह-एगो गम्मि णयरे राया, अराणेसिं रायाणं चित्तसभा अस्थि मम
राया तस्स दुवे चोरा उट्टिया, तेण मंजूसाए पक्खिपत्थि त्ति जाणिऊण महामहालियं चित्तसभं कारेऊण
विऊण समुद्दे छूढा, ते किच्चिरस्स वि उच्छल्लिया, एचित्तकरसेगीए समप्पेह । ते चित्तेन्ति । तत्थेगस्स चित्तगर
गेण दिट्ठा मंजूसा, गहिया, विहाडिया, मगुस्से पेच्छा। स्स धूया भत्तं प्राणेइ, राया य रायमग्गण श्रासेण वेग
ताहे पुच्छिया-क इत्थो दिवसो छूढाणं ?, एगो भणाणमुकेण पह। सा भीया पलाया किहमवि फिडिया गया
चउत्थो दिवसो, सो कहं जाणइ ?, तहेव बीयदिणे कहेपिया वि से ताहे सरीरचिंताए गश्रो, तीए तत्थ कोट्टिमे व.।
इ-तस्स चाउत्थजरो तेण जाणेइ । अराणं कहेह-दो सवराणहि मोरपिच्छं लिहियं । राया वि तत्थेव एगागिश्रो च.
त्तिणाश्रो, एकाए रयणाणि अस्थि, सा इयरीए ण बिस्स. कमणियाओ करेति। सा घि अराणचिनेण अच्छा । रराणो
भइ मा हरेजा, तोऽरणाए जत्थ णिक्खमंती पविसंती तत्थ विट्ठी गया, गिराहामि त्ति हत्थो पसारिश्रो, णट्टा दु
य पिच्छइ तत्थ घडए छोद्रण ठवियाणि, ओलितो घक्खाविया, तीए हसियं, भणियं च रगणाए-तिहिं पाएहिं
उश्रो । इयरीए वि रहं णा हरिउं रयणाणि, तहेव य घ. आसंदरोण ठाइ जाव चउत्थं पायं मग्गतीए तुम सि लद्धो।
डश्रो ओलित्तो। इयरीए णायं हरियाणि ति, तो कई राया पुच्छह-किह त्ति ?, सा भराणा-अहं च पिउणो- जाणह, श्रोलित्तए हरिताणि त्ति ?, विइए दियसे भणरभत्तं आणमि, एगो य पुरिसो रायमग्गे भासेण बेगप्पमु- सो कायमो घडओ, तत्थ ताणि पडिभासंति हरिक्केण एइ, ण से विराणाणं किह बि कंचि मारिज्जामि त्ति । एसु णथि । अरागण कहेहि, भणइ-एगस्स रराणो चत्तारि तत्थाई सरहिं पुराणेहिं जीविया, एस एगो पाओ। बिइओ, पुरिसरयणागि तं जहा-"मित्ती रहकारो, सहस्सजोपाश्रो राया, तेण चित्तकराणं चित्तसभा विरिका, तत्थ | ही तहेव विज्जो य । दिगणा चउराहं करहा, परिणीया इक्किके कुटुंबे बहुश्रा चित्तकरा मम पिया इक्कओ, तस्स नवरमेक्केण ॥१॥" कथं ?, तस्स रगणो अइसुंदरा धूया , वि तत्तिो चेव भागो दियो । तइओ पाओ मम पिया, सा केण वि विज्जाहरेण हडा, ण गाजर कूओऽवि तेण राउलिय चित्तसभ चित्तंतेण पुव्यविढक्तं णिटुबियं, सं- पिक्खिया, रराणा भणियं-जो करणगं भाइ तस्सेव सा। पर जो वा सो वा आहारो सो य सीयलो केरिसो होइ ? तो मित्तिगण कहिय-अमुगं दिसं णीया, रहकारेतो पाणीए सरीरचिंताए जाइ । राया भणइ-अहं किह ण श्रागासगमणो रहो को, तो चत्तारि वितं विचउत्थो पात्रो ?, सा भणह-सव्यो यि ताव चिंतेइ-कुतो लग्गिऊण पहाविया । अम्मि (भि)ो विजाहरो, सहइत्थ आगमो मोराणं ?, जइ वि ताव पाणित्तिलयं होज्ज स्सजोहिणा सो मारिश्रो, तेण वि मारिजंतेण दारितो वि ताव दिट्टीए णिरिक्खिज्जइ, सो भण-सञ्चयं याए सीसं छिन्नं, विजेण संजीवणासहीहिं उजियामुक्खो, राया राओ । पिउणा जिमिए सा घरं गता । रराणा चिया, प्राणीया घरं । रराणा चउराह वि दिराणा । दारिया वरगा पेसिया, तीए पिया माया भणिया-देह ममं ति, भणइ-किह अहं चउराह वि होमि ?, तो अहं अग्गि भरणइ य अम्हे दरिद्दाणि किह रराणो सपरिवारस्स पूयं पविसामि, जो मए समं पविसह तस्साह, एवं होउकाहामो ?. ब्वस्म से रराणा घरं भरियं, दासी य रगणार | ति, तीए समं को अग्गि पविसइ ?, कस्स दायभ्या ,
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विसोहि
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वितिय समिति निमित्ते सायं जहा ए साण मरह त्तिं तेण श्रब्भुवगयं । इयरेहिं णिच्छियं, दारियार चियद्वास्स हेड्डा सुरंगा वाणिया । तत्थ ताणि चियाणाणि कट्टासि दिल्याणि अम्मी रो जाहे ताहे ताणि सुरंगाए रिस्सिरियाणि तस्स दिरणा । कदि सा मगर-कार अविरया पर जं तिचा कडा मग्गिया, ताहे रूचादिबंध दिन्ना इयरी प्यार साथिदा पत्ते पर वेब अहि । एयं करवाणि परिसाणि गवासि करनपदि मणिया । सा भरा- देमि त्ति, जाव दारिया महती भूया ए सफेति वा ताप कसिया मणियारले वि aar देमि, मुयह, ते ऐच्छति । तो कि सक्का हत्था छिदिउँ ?, ताहे भणियं श्ररणे परिसर चैव कडए घडाये देखो, तेऽवि विच्छन्ति, ते चैव दाया कई सेठवेयव्वा ?, जहा य दारियाए हत्था ण छिंदिजंति, कहं तेसिमुत्तरं दायव्वं ?, आह तीए भणियब्वा श्रम्ह वि जइ ते वेब रूवर देह तो श्रम्हे वि ते चैव कडए देमो, परिसाणि अक्खा
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मालिकती दिवसे दिवसे राया हम्माले आओ। सतिणीओ से विदासि मांति, साय विशकरदारिया श्रो वयं पचिणि दाहिया चिराग मणिव वीराणि व पुरश्रो कार्ड अप्पा शिंदर, तुमं चित्तयरधूया सिया, पाणि ते पितिसंतिषाणि बत्थाणि आभरणाणि य इमा खिरी रामसिरी अगाओ उदिओदिवकुलप्यम् याम्रो रायधृवाओ मोनुं राया तुमं अवतरता ग मा काहिसि एवं दिवसे दिवसे वारं करे - विती से कह बि खायं, ताओ रायाणं पायपडिया विसविंति मारिजिहिसि एयाए कम्मणकारियाए । एसा श्रपवरण पविसिउं कम्मणं करोति, रण्णा जोइयं सुयं च । तु से महादेविषट्टो बडो एसा दयविदा भावि [दाखवा] अप्पा विदजीवतुमे संसार दिंडं ! ते निरवतिरियगई कदमवि माणुस सम्माचरण लाति जेंस पसाए सम्बलोयमाणणिजो पूखियो यता मा गव्यं काहिसि । जहा श्रहं बहुसुत्रो उत्तिमचरित्तो व ति ६ । दव्वगरिहाए परमारिबार रितो - एगो मरुओ भरायचो तस्स तरुणी महिला सा बलिवइसदेवं करिती भगइ काका बिमेमि ति तो उवज्झायनिउत्ता बट्टा दिवसे दिवसे सुगिदिई रक्अंति, बलिबहसदेव करेति । तस्ये गो वही चिंते व एसा मुद्धा जा कागाल बिभेद, असडिया एसा, सो तं पडिचरद्द । सा य सम्मदाए पर - कूले पिंडारो, ते समं संपलग्गिया । अरण्या तं घड
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सम्मयं तरंती पिंडारसगासं ववइ । चोरा य उत्तरंति, तेसिमेगो सुंसुमारेण गहिश्रो, सो रडइ, तीप भएर ढोकेदिति टोकि मुमो तीर भणिओ कि कृतित्थे उतिराणा, सो डियो तं मु किंतो वो सा य वितियदिवसेबल करे, तरस य बरस रफ्वारो तेरा भएयर" दिया कागाण बीहेसि रति तरसि राम्मयं । कुतित्थाणि य जानासि ढोकिणिवानिव ॥ १ ॥” तीर भएगर
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(12:00) अभिधान राजेन्द्रः ।
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"
विसोहि
किं करोमि ?, तुम्हारिसा मे विच्छेति, सा तं उवयरह भण-ममं इच्छति । सो भगह कहं उवज्झायस्स पुरडारस्संति ? ती वितियं-मारेमि एवं अभावर्यतो मे एस भता भविस्सा ति मारियो । पेडिया - ऊ अडवी उवि उमारदा वामेतरी निया घडयी ममितुमारा हुई रा सके अदिवासि च से कुशिमं गलति उपरि, लोगेण डीलिजा पहमारिया दि दर चितीं पुरावती जावा, तादे सागरदेव अम्मो ! परमारिया भिक्खं ति, एवं बहुकालो गयो ।
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अरण्या साडुणीं पाएसु पडतीए पडिया पेडिया, पव्य। जं ७ इया एवं गरदेव दुधरियं । इयासिसोदीय त्यागया दोणि दिट्ठता, तत्थ वत्थवितो - रायगिद्दे सेखियो राया, तेरा खोमगलं शेवमस्त समप्पियं कोमुदिवारो व बहरते दो भागं अनुचरते दिण्णं, सेणिश्रो श्रभश्रो य कोमुदीए पच्छरणं हिंडंति, दि संयोग सितं, आगयाओ, रयगेण वाडियाओ तेस बारे सोहियाणि गोंसे सावियाणि । सम्भावं पुfogue कहियं रयपण । एस दव्वविसोही । एवं साहुया दि अहीकालमावरिवस्स झालोपययं तेरा विसोही कायन्य सि, अगो जहा णमोकारे एवं साबि शिंदाऽगरण अतिचारविसं श्रोसारेयव्वं, एसा विसुद्धी । कार्थिकानि ०४० प्रायश्चित्ते, प० १ ० । विशेषेण शोधिशोधिः । शिष्येणालोचितेऽपराधे सति तद्योग्यायधिस प्रदाने, ओघ० ।
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उगमादिभिरविद्यमानतया वा विशुद्धि:- पिएडवर णादीनां निर्दोषता सा उद्गमादिविशुद्धिः, उद्गमादीनां वा वि शुद्धिर्या सा तथेति । इदमेवातिदिशन्नाह
तिविहा विसोही पचता तं जहा उग्गमविसोही उप्याययविसोही एसखाविसोही (०१६४४) खा० २
।
ठा० ४ उ० ।
पंचविद्या विसोही पण्णत्ता, तं जहा उग्गमविसोही १, उप्पाणविसोही २, एसणाविसोही ३, परिक्रम्मविसोही ४, परिहरणविसोही । (०४२५४) स्था० ५ ठा० २३० ॥
दसविहा विसोही पद्मत्ता, तं जहा - उग्गमविसोही उप्याययविसोही ० जाव सारख विसोही । (सू०७३८x) स्था । १० ठा० ३ उ० ।
तत्रोद्गमादिविशुद्धिः १-२ - भक्तादेर्निरवद्यता, 'जाव' त्ति कर णात् 'एस' ३ त्यादि वाच्यमित्यर्थः तत्र परिकर्मा-सत्यादिसारवणलक्षणेन क्रियमायेन विशुद्धियां संयमस्य सा परिकर्मयिशुद्धिः ४ । परिहरण्या वस्त्रादेः शास्त्रीययाऽऽ सेवनया विशुद्धिः परिहरणाचिति ५ ज्ञानादित्रयविशुद्धयस्तदाचा रपरिपालनातः ६-७-८ अचियत्तस्य- अप्रीतिकस्य विशोधिस्तन्निवर्तनादत्रियत्त विशोधिः ६, संरक्षणं संयमार्थम् उपध्यादेस्तेन विशुद्धिचारिषस्येति संरक्षः१० अथ योगमायुपाधिकादशप्रकाराऽपीयं घेतसो विशुद्धिर्विशुमानता भणितेति । स्था० १० ठा-३ उ० ।
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विसोहिकरण अभिधानराजेन्द्रः।
विस्सोअसिमा विसोहिकरण-विशोधिकरण-न० । अतिचारापगमादात्मनो विस्संभिय-विश्वभ्रत-पुं० । विन्दुरलाक्षणिकः विश्व-जगत् नैर्मल्यकरणे, ध०२ अधिक।
बिभर्ति-पूरयति कचित्कदाचिदुत्पत्त्या सर्वजगदव्यापनेनेति विसोहिकोडि-विशोधिकोटि-स्त्री० । अल्पतरदोषदुष्टाया- विश्वभृत् । जीवे, एकैकेन जीवेन विश्वस्मिन्ननेकशो भ्रान्त
त्वात् , उक्नं च-"णस्थि किर सो पएसो, लोए बालग्गकोडिमुगमादिदोषकोटी, दश०५ अ० १ उ० । नि० चू।
मेत्तोऽवि। जम्मणमरण वाहा, जत्थ जिएहिं न संपत्ता"उत्त. विमोहिदाण-विशोधिस्थान-न । कर्ममलापनयनस्थाने, द
३० श० अ०१उ०।
विस्सकप्पलया-विश्वकल्पलता-स्त्री० । फलवचिकास्थाने विसोहित्तए-विशोधयितुम्-अव्य० । उच्चारादिखरण्टितोप
पार्श्वनाथप्रतिमायाम् , ती० ४३ कल्प। करणादेः प्रक्षालनं कर्तुमित्यर्थे, स्था०२ ठा०१ उ०। पूयाद्यपने-|
विस्सकम्म-विश्वकर्मन्-पुं०। देवत्वष्टरि ऋषभदेवस्य चतुर्थे तुमित्यर्थे, विपा०१७०८ ०।
पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण । स्वनामख्याते नटभेदे , पिं० । विसोहिय-विशोधित-त्रिका विविधमनेकप्रकारं शोधितो वि. शोधितः । कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषतां नीते, सूत्र०
विस्सगय-विश्वगज-पुं०। कुक्कुटेश्वरतीर्थे पार्श्वनाथप्रतिमा
याम् , ती० ४३ कल्प। २ श्रु०१४ १०। विशोध्य-अव्य० । अपनीयेत्यर्थे, प्राचा० २ श्रु०१० १
विस्सतिलग-विश्वतिलक-पुं० । चम्पायां वासुपूज्यजिनप्र१०१ उ०।
तिमायाम् , ती० ४३ कल्प। विसोहिया-विशोधिका-स्त्री० । विशुद्धिकारिण्याम् ,सूत्र०१ विस्सभूइ-विश्वभूति--स्त्री० । वीरजिनसत्कषोडशभवीयजीव श्रु०३१०३ उ०।
विश्वनन्दिभ्रातृविशाखनन्दियुवराजपुत्रे, कल्प० १ अधि०२ विसोहेमाण-विशोधयत्-त्रि०। पादादिलग्नस्य निरवयवत्वं क्षण । ती० । प्रा० म० । प्रा० चू०। ('मरीइ' शब्दे ६ भागे कुर्वति, शौचभावेन शोधयति, स्या०।
विशेषः) विस्स-विश्व-त्रि० । सर्वशब्दार्थे,स्था०१० ठा० ३ उ० । षो।
विस्सर-विस्वर-त्रि० । विकृतशब्दे, प्रश्न १ आभ० द्वार । ऋषभदेवस्य षट्सप्ततितमे ७६ पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण ।।
विरूपशब्दस्वरूपे, शा०१ श्रु०६०। स्वनामख्याते देवगणे, पूर्वाषाढानक्षत्रस्य विश्वेदेवा देवताः।
विस्सरूव-विश्वरूप-त्रि० । नानाविधे, विशे। चं० प्र० १० पाहु । अनु। जं०।
विस्सवत्थु-विश्ववस्तु-न० । कालत्रयवर्तिसामान्यविशेषात्मदो विस्सा । (सू०६.४) स्था०५ठा०३ उ०। विस्सउर-विश्वपुर-न०। स्वनामख्याते नगरभेदे, अथ विश्व विस्सवाइ-विश्ववादिन-पुं० । सर्ववादिनि, वीरजिनेन्द्रवापुरे धरणेन्द्रो राजा महेन्द्रः पुत्रः । ग०२ अधि।
| दिनामन्यतमे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । विस्सोमुह-विश्वतोमुख--न० । प्रतिसूत्रं चरणानुयोगाद्य-1
विस्ससेण-विश्वसेन-पुं०।ऋषभदेवस्य चतुःषष्टितमे पुत्रे,कनुयोगचतुष्टयव्याख्याक्रमे, "धम्मो मंगलमुकिट्ट" मित्यादि
ल्प०१ अधि०७ क्षण । शान्तिनाथस्य पितरि, प्रव०१२ द्वार। श्लोके चत्वारोऽनुयोगा व्याख्यायन्ते । अनन्तार्थत्वाद् वा श्र
जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे जातस्य पञ्चमचक्रवर्तिनः पितरि, स०। नेकमुखे,अनु। विशे। मामला सर्वतोऽधिकृतार्थप्रयच्छ
अहोरात्रस्यैकोनविंशतितमे मुहर्ने, सू० प्र० १० पाहु० । के, वृ०१ उ०१ प्रक०।
| विस्साषण-विश्राणन-न०। दाने, प्रा०म०१०।भाचा विस्संता-विश्रान्ता-स्त्री०। योगसमापत्तिभेदे, सा च निर्वि
विस्साम-विश्राम-पुं० । विश्रम्यते-बिरम्यते गलमेतेषु : चारसमाधिपर्यन्ते प्राह्यसमापितरूपा । द्वा०२० द्वा०।।
इति विधामाः। प्रणिपातदण्डकादिसंपत्सु विश्रमणस्थानेषु , विस्संतिमतित्थ-विश्रान्तिकतीर्थ-न० । मथुरास्थतीर्थभेदे,
प्रब०१ द्वार । चित्तस्याश्वासने, स्था०४ ठा०३ उ०। ती०८ कल्प।
| विस्सामणा-विश्रामखा-स्त्री० । श्रमापनयमसंबाधनादिरूपा
यां (ध०२ अधि०) शीतोदकादिना (निचू० ३ उ०।) विस्संदण-विस्यन्दन-न० । कणिकानिष्पन्नद्रव्यविशेषे, ध०
असंबाधनायाम् , प्रव०३८ द्वार। २ अधि०। विस्संभ-विश्रम्भ-पुं० । विश्वासे, व्य०३ उ०।
विस्सुय-विश्रुत-त्रि० । विख्याते, संघा० । औ० ।
विस्सुयकित्तिय-विश्रुतकीर्तिक-त्रि०। प्रतीतख्यातिके.का. विस्संभपाइ-विश्रम्भघातिन्-त्रि० । विश्वासघातके, मा० १
१ श्रु०१०। श्रु०२०।
विस्सुयजस-विश्रुतयशस्-त्रि० । ख्यातकोत्तौ , मा० १ ० विस्संमण-विश्रम्भण-न० । विश्वासे. आचा०१७०८
• । विश्वास. आचा०१ ध्रु०६ १६० प्रति०। अ०६ उ०।
विस्सोम(सिस्सिा -विश्रोतसिका-स्त्री०। संयमस्पर्शमकी. विस्संभर-विश्वम्भर-पुं० । भुजपरिसर्पभेदे, सूत्र० २६०३
कृत्याध्यवसायसलिलस्य विश्रोतोगमने, श्रा० प्रा०। अपप्र०।०। प्रज्ञा
ध्याने, दर्श०४ तत्त्व।
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विस्सोसिचार०
विस्सो[[स][सिआरदिय विश्रोतसिकारहित भि० संयमानुसारिचेतोषिघातवर्जिते, पं० ० ३ द्वार । चिह्न-विह-पुं० । अनेकाइगमनीये पथि साचा० २०१० ३ अ० १ उ० । अध्वनि, नि० चू० १३० । अटवीप्राये दीवें अध्वनि, श्राचा० २ ० १ चू० ३ ० ३ उ० । विधन० विधीयते क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विधम् । श्राकाशे, भ० २० श० २ उ० ।
विहायस् १० विशेषे दीयते व्यज्यते तदिति विद्वायः । आकाशे, भ० २० श० २३० । चिहई - देशी-वृन्ताक्याम् ००७ वर्ग ६३ गाथा । विहंगम - विहङ्गम- पुं० । विहायसा गच्छतीति विहङ्गमः । पक्षिणि, सूत्र० १ ० ३ ० ४ उ० ।
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एमए समया बुत्ता, जे लोए संति साहुयो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रथा ॥ ३ ॥
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('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६८८ पृष्ठे व्याख्यातमिदं सूत्रम् ।) अवयवार्थ सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्या प्रतिपादयति तत्रापि विहङ्गमं व्यास द्विविधः द्रव्यविहङ्गमो भायबिडंगमध । तत्र तावद् द्रव्यविहङ्गमं प्रतिपादयन्नाह -
(१२७२) अभिधानराजेन्द्र
"
धारे तं तु दब्वं तं दब्यवहङ्गमं त्रियाणाहि । भावे विहंगम पुरा, गुणसमासिद्धियो दुविहो ।। ११७।। धारयति - श्रात्मनि लीनं धत्ते ततु द्रव्यमित्यनेन पूपण कर्म निर्दिशति वेन हेतुभूतेन विहंगमेरपस्थत इति । तुशब्द एवकारार्थः । अस्थानप्रयुक्तश्च, एवं तु द्रष्टव्यःधारयत्येय, अनेन च धारयत्येव यदा तदा इव्यविक्रमो भवति नोपभुङ्ग इत्येतदावेदितं भवति इव्यमिति चात्र क
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पुद्गलद्रव्यं गृह्यते न पुनराकाशादि, तस्थामूर्त्तत्वेन धारसायोगात् संसारजीवस्य न कथंचिन्मूनत्वेऽपि प्रकृतानु पयोगित्वात् । तथाहि यदसी भवान्तरं नेतुमलं यच विह महेतुतां प्रतिपद्यते तदत्र प्रकृतम्, न चैवमन्यः संसारिजीव इति तं द्रव्यविहंगममित्यत्र यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धादग्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ उपजायते- धारयत्येष तद् द्रव्यं यस्तं इव्यमिमितिह मास इति इष्यविहंगमः इत्यं जीवद्रव्यमेव, विहंगमपर्यायेणाssवर्तनाद, विहंगमस्तु कारणे कार्योपचारादिति । तं विजानीहि श्रनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्त इत्येवमादिभिर्जानीहि । दश० ।। भावविहंगमव्याख्या 'भाव' शब्दे पसमभाग २४२० पृष्ठे गया) तस्मिन् भावे कर्मविपाकलक्षणे, किम् ? विहङ्गमो वश्यमाशब्दार्थः पुनः शब्दो विशेष न पूर्वस्मादत्यन्तमयमस्य एव जीव किं तु स एव जीवस्त एय युगलास्तथाभूता इति विशेषयति गुरुध हा व गुण गुणः अन्यर्थः संशा पारिभाषिकी सिद्धिः सिद्धिः सि दिशब्दः सम्बन्धवाचकः तथा च लोकेऽपि
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·
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बतु" इत्युक्ते
सम्बन्ध एवं प्रतीयत इति नया गुरुभूतया कि -द्विविधोद्विकारण
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विहंगम
गुणसिद्ध या अन्वर्थसम्बन्धेन तथा संज्ञासिद्धया च-यहच्यामिधानयोगेन च यद्येवं द्विविधइति नपव्यम् गुणसंहासियेत्यनेनैव वैविध्यस्य गतत्वात् न, अनेनैव प्रकारे वैविध्यम् आगमनोआगमादिभेदेन नेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ११७ ॥
"
"
"
तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायमाभित्य गुणसिद्धबा यो भावविहङ्गमस्तमभिधित्सुराद्द
"
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विमागास भाइ, गुणसिद्धी तप्पइट्ठियो लोगो । तेरा उ विदङ्गमो सो, भावत्थो वा गई दुविहा ।।११वा विजातिविमुञ्चति ते हि स्थिति दायात्खयमेव तेभ्यः श्राकाशप्रदेशेभ्यश्च्यवन्ते, तांश्च्यवमानान्विमुञ्चतीति, शरीरमपि च मलगण्डोलकादिविमुञ्चत्येव (इति) मा भूत् संदेह इत्यत आह-शाकाशं भरायते, न शरीरादि संज्ञाशब्दत्वात्, आकाशन्ते दीप्यन्ते स्वधमोंपेता आत्मादयो यत्र ताकाशम् किम् १-संतिष्ठत इत्यादि क्रियाव्यपोहार्थमाह-भण्यते श्राख्यायते । गुणसिद्धिरित्येतत्पदं गाथाभङ्गभयादस्याने प्रयुक्रम् संवन्धश्रास्यते नतु विहंगमः 'स' इत्यत्र तेन वित्यनेन सह वेदितव्य इति । ततया वाक्यार्थः तेन तुष्यस्यैयकारार्थमाधारणार्थत्वाद्येन विमाकाशं भय्यते तेनैव कारणेन गुसिद्धबा -- श्रन्यर्थसम्बन्धेन विहङ्गमः । कोऽभिधीयत इत्याह-- तत्प्रतिष्ठितो लोकः, तदित्यनेनाकाशपरामर्शः, तरमाकाशे प्रतिष्ठितः तत्प्रतिष्ठितः प्रतिष्ठति स्म प्रतिष्ठितः प्रथितवानित्यर्थः अनेन स्थितः स्थास्यति चेति गम्यते । कोऽसावित्यमित्यत आह-लोक: सोक्यत इति लोकः, केवलज्ञानभास्वता दृश्यत इत्यर्थः । इह धर्मादिपञ्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्तिकायस्याधारत्वेन निर्दित्याश्चत्वार एवास्तिकाया गृह्यन्ते यतो नियुक्लिकारेणाभ्यधाषितत्प्रतिष्ठितो लोकः विहङ्गमः स इत्यत्र विहे गर्भास गतो गच्छति गमिष्यति चेति विहङ्गमः, गमिरयमनेकार्थत्वादातूनामवस्थाने वर्त्तते ततश्च विहे स्थितयांस्तिष्ठति स्थास्यति बेति भावार्थः स इति चतुरस्तिकायात्मकः, भावार्थ इति भावश्चासावर्थश्व भावार्थः, श्रयं भावविहङ्गम इत्यर्थः । उ एकेन प्रकारेण भावविहङ्गमः, पुनरपि गुणसिद्धिमन्येन प्रकारेणाभिधातुकाम श्राह - ' वा गतिर्द्विविधेति, वाशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, एवं तु इष्टव्यः-- गतियाँ द्विविधेति तत्र गमनं गच्छति वाऽनयेति गतिः, द्वे विधे यस्याः सेयं द्विविधा, द्वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥ ११८ ॥
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तथा चेदमेव द्वैविध्यमुपदर्शयन्नाह-भावगई कम्मगई, भावगई पप्प अस्थिकाचा उ । सब्वे विहंगमा खलु, कम्मगईए इमे भया ।। ११६ ॥ भवन्ति भविष्यन्ति भूतवन्तश्चेति भावाः, अथवा-भवत्येतेषु लगता उत्पादमा परिणामधिशेषा इति भावाः- अस्तिकायास्तेषां गति तथा परिसामवृत्तिभषगतिः, तथा कर्मगतिरित्यत्र क्रियत इति कर्मज्ञानावरणादि पारिभाषिकम क्रिया या कर्म च ततिश्वासौ कर्मगतिः, गमनं गच्छत्यनया बेति गतिः,
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विहंगम
तत्र 'भावगति प्राप्य अस्तिकायास्तु' इति त्र भाषगतिः पूर्वषतां प्राप्य अभ्युपगम्याश्रित्य किम् ? 'अस्तिकायास्तु' धर्मादयः तुरान् पकारार्थः स चावधारये तस्य चतः प्रयोगः, भावगतिमेष प्राप्य न कर्मगति, सर्वे विहङ्गमाः खलु सर्वे चत्वारः नापुनः कारामाधारत्वात्। विक्रमा इति-विहं गच्छन्त्यवतिष्ठते स्वतां विभ्रतीति विहङ्गमाः । चशब्दोऽवधारणे विहंगमा एव न कदाचिन्न विहंगमा इति, कर्मगते:प्राग्निरूपित शब्दार्थायाः किम् - इमौ भेदी वयमासलक्षणाविति गाथार्थः ॥ ११६ ॥
तावेयोपदशेपनाह-
(१२७३ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
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तस्या
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चिगगई चलखगई. कम्मगई उय समासओ दुबिहा | तदुदयवेययजीवा, विहंगमा पप्प विहगगई ॥ १२० ॥ इद्द गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिमि रिति गतिः विहायसि - आकाशे गतिर्विद्वायोगतिः, कर्मप्रकृतिरित्यर्थः तथा चलनगतिरिति परियं परिस्पन्दने वर्त्तते चलने स्पन्दनमित्येको ऽथैः चलने च त इति सा चलनगतिः - गमनक्रियेति भावः । कर्मगतिस्तु समासतो द्विविधेत्यत्र तुशब्द एवकारार्थः, स वाचधारणे, कर्मगतिरेव द्विविधा न भावगतिः, एकरूपत्वेन व्याख्यातत्वात् तत्र तदयवेदकजीवा' इति । अत्र तदित्यनेनावन्तरनिर्दिष्टां विहायोगति निर्दिशति, तस्या- विडायोगतेः उदयस्य विपाक इत्य थे, तथा वेदयन्ति - निर्जरयन्ति उपभुञ्जन्तीति वेदकाः नदुदयस्य वेदकाश्च ते जीवाश्चेति समासः । आह-तदुदयवेदका जीवा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यम् नजीवानां वेदकत्वावेदकल्प योगेन सफलत्वात् प्रवेदका मिद्धा इति । विहङ्गमाः प्राप्य विहायोगति' मिति अत्र विदे विहायोगरुदयादुद्गच्छन्तीति विहङ्गमाः प्राप्य श्राधि? स्य कि प्राप्य वायोगतिम् - विहायोगतिरुका तां विपस्ताम्यक्षरात्येवं तु द्रव्यानि विहायोगतिं प्राप्य तदुदयवेदकजीवा विहंगमा इति गाथार्थः ॥ १२० ॥
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अधुना द्वितीयकर्मगतिभेदमधिकृत्याह-चलनं कम्मगई खलु पहुच संसारिणो भवे जीवा । पोग्गलदव्वाई वा, विहंगमा एस गुणसिद्धी ।। १२१ ॥ चलनं-स्पन्दनं तेन कर्मगतिर्विशेष्यते कथम् ?-चनाख्या या कर्मगतिः सा चलनकर्मगतिः, एतदुक्तं भयति-- कम्र्मशब्देन क्रियाऽभिपते' सैय गतिशब्देन मे चलनशन्देन च । तत्र गतिविशेष किया किशेष चलनम् । कुतः ?--व्यभिचाराद् इह गतिस्तावनरकादिका भवति श्रतः क्रियया विशेष्यते, क्रियाऽप्यनेकरूपा भोजनादिका ततखलनेन विशेष्यते, अतधलनाच्या कमंगविश्वसनकर्मगतिस्ताम् अनुस्वारोऽलाक्षणिक - शब्द एवकारार्थः स चावधारणे, चलनकर्मगतिमेव न विहायोगतिं प्रतीत्य-- धाश्रित्य किम् ? संसरणं-संसारः, संसरणं-- ज्ञानावरणादिकर्मयुद्धानां गमनं स एषामस्तीनि संसारिकः अनेन सानां युदासः भये इति अ
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विहगगणाम
,
शब्दो भवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्त जीवा उपयोगादिलक्षणाः ततश्चायं वाक्यार्थः --- चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो भवेयुर्जीया विहंगमा इति विदं गच्तुति चलन्ति सर्वेराममदेरिति विहंगमा तथा 'पुङ्गलद्रव्याणि वे' स्था दि. पूरणगलनधर्माणलातानिपुङ्गव्याणि
,
पु
विप्रतिपत्तिनिरासार्थम् तथा येते पुलाः केचिदन्याः सन्तोऽभ्युपगम्यन्ते सर्वे भाषा निरात्मानः' इत्यादिवचनाद, अतः पुलानां परमार्थसद्रूपताख्यापनार्थे द्रव्यग्रहणम्, वाशब्दो विकल्पयाची, द्गलद्रव्याणि वा संसारियो वा जीवा विहंगमा इति । तत्र जीवानधिकृत्याग्यर्थी निदर्शितः, पुलास्तु विहं गच्छ न्तीति विहंगमाः, तच गमनमेषां स्वतः परतश्च संभवति, अब स्वतः परिगृह्यते विहंगमा इति च प्राकृतशेल्या जीचापेक्षया बोक्रम्, अन्यथा द्रव्यपणे विहंगमानीति वक्तव्यम् एव भाषाविहङ्गमः कथम् ? -गुडिया-वर्यसम्ब न्धेन, प्राकृत शैल्या वाऽन्यथोपन्यास इति गाथार्थः ॥ १२१ ॥ एवं गुणसिद्धया भावविम उक्तः साम्प्रतं संज्ञासि या अभिधातुकाम ग्रह
"
सन्नासिद्धिं पप्पा, विहंगमा होंति पक्खियो सच्चे । (१२२)
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संज्ञानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः तया सिद्धिः संज्ञासिद्धिः, संज्ञासंबन्ध इति यावत् तां संज्ञासिद्धिं प्राप्यश्राश्रित्य किम् ? - विहे गच्छन्तीति विहंगमा भवन्ति, के?पक्षा येषां सन्ति ते पक्षिणः, सर्वे- समस्ता हंसादयः पुलादीनां विहंगमत्वे सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतत्वात् । दश० १ ० । विहग-विहग-पुं० । पक्षिणि, अनु० | ध्य० | ० | कल्प० । स्था० । रा० । “ विहग इव सव्वश्रो विषयमुको, " विहग सर्वतो विप्रमुक्तः निष्परिग्रह इत्यर्थः । प्रश्न० ५. संव० द्वार ।
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- । विहगगह विहायोगति स्त्री गमनं गतिः सा पुनर पा वादिविहरणात्मिका देशान्तरमासहेतुन्द्रियादीनां प्र तिरभिधीयते नैकेन्द्रियाणां पादादेरभावात् । कर्म्म० १ कर्म० । विहायसा - आकाशेन गतिर्विद्यायोगतिः । श्राकाशगमने, कर्म० १ कर्म० । सा द्विधा शुभा प्रशस्ता अशुभअप्रशस्ता । क्रमेणोदाहरणमाह-'बसुट्ट' त्ति वृषो, वृषभः सौरमेयो बलीवर्द इति यावत् ततो वृषस्य उपलक्षणत्वाद्गजलभराजहंसादीनां प्रशस्ता विहायोगतिः उ-करमः क्रमेलक इति यावत्ततः उष्ट्रस्य उपलक्षणत्वात् खरतिड़ादीनामप्रशस्ता विहायोगतिरिति । कर्म० १ कर्म० । विहगगणाम विहायोगतिनामन्न० विद्यायोगतिनिबन्धनं नामकर्म । नामकर्मभेदे यतः शुभेतरगमनयुक्तो भवति । स० [२] सम० । कम्० विहायसा गतिर्गमनं विहायोगतिः । ननु सर्वगतत्वाद्विद्दासस्ततोऽन्यत्र गतिरेव न संभवतीति किमर्थ विहायसा विशेषणम् ?, सत्यमेतत् किं तु यदि गतिरित्येवोध्येत तर्हि नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्त्याशङ्का स्यासतस्तद्वयवच्छेदार्थ विहायसा त्रिशेपराम् विहायसा गतिः, न तु नारकत्यादिपर्याप
"
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पा गतिः विहायोगतिस्तन्नाम विहायोगतिनाम
,
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(१२७४) विहगगइणाम अभिधानराजेन्द्रः।
विहायस तत् विविध-प्रशस्तविहायोगतिनाम, अप्रशस्तविहायोगति- | श्रामण्यं परिपाल्य मृत्वा विजये कल्पे देवत्वेनोपपद्य महानाम । तत्र यदुदयाजन्तोः प्रशस्ता विहायोगतिर्भवति, य-1 | विदेहे वर्षे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमे धगें था हंसादीनां तत् प्रशस्तविहायोगतिनाम, यदुदयात्पुनरप्र- | अष्टमेऽध्ययने सूचितम् ।) शस्ता विहायोगतिर्भवति यथा खरोष्ट्रमहिषादीनां तदप्रश-विहवण-विधवन-न। विनाशे, शा०१६०१०। स्तविहायोगतिनाम । कर्म०६ कर्म । पं० सं०।
विहवा-विधवा-स्त्री० । धवो मनुष्यः स विनष्टो यस्या इति विहगगइपवजा-विहगगतिप्रव्रज्या-स्त्रीपक्षिन्यायेन परि
समासः । श्रोधामृतपतिकायां नार्याम् , व्य०३ उमाका बारादिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च या सा विहग-विहसिय-विहासित-न। अर्द्धहसितादी, झा०१ श्रु०६०। गतिप्रवज्या । प्रव्रज्याभेदे, स्था० ४ ठा०३ उ०।
विहसिवित्र-देशी-विकसिते, दे० ना०७ वर्ग ६१ गाथा। विहम-देशी-पिअने, दे० ना०७ वर्ग ६३ गाथा ।
विहा-विधा-स्त्री०। विधान विधा। उपसर्गादातः। ५।३।११०। विहत्तु-विहत्य-अव्यानाशयित्वेत्यर्थे, 'अंदसु पक्खी य वि
इत्यङ् प्रत्ययः । नं० । विधाने, भेदे, विशे० । प्रकारे, अनु। हत्तु देहं ' । सूत्र०१ श्रु०५ अ० १ उ०।
सूत्र०। प्राचा० । स्था० । शा० । विहत्थि-वितस्ति-स्त्री० ।"वितस्ति-वसति-भरत- कातर-विहाड-विघाट-त्रि.विकटे, ब्य०१ उ०। मातुलिङ्गे हः" ॥ १।२१४॥ इति तस्य हः । प्रा०। वि-विहाडग-विघाटक-त्रि०।चूर्णके, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। स्तृताङ्गुलिहस्ते, सूत्र.१ २०५१०१ उ०ा वारस अंगुलाई विहत्थी" भ०६ श०७ उ०। द्वादशाङ्गलप्रमाणा वित
Tई | विहाडजणपज्जुवासण-विहाटजनपर्युपासन-न० । विहाटयस्तिः। प्रय०२५४ द्वार । द्वादशाङ्गलानि वितम्तिः । द्वौ पादौ
ति दीप्यमानाञ्छोत्रबुद्धौ प्रकाशमानानर्थान् दीपयति प्रकावितस्तिः । अनु० । जं०।
शयतीति विहाटः विहाटश्चासौ जनश्चतुर्दशपूर्वधिदादिलो
कः, तस्य पर्युपासनम्- कारणे कार्योपचारात् ' सेधाजविहम्ममाण-विहन्यमान-त्रि० । विविध परीषहोपसगैईन्य
निततयाख्यानम् । वागमव्याख्याने, सम्म ३ काण्ड । माने, प्राचा०१ श्रु०६ ० ५ उ०।
विहाडण-देशी-अनर्थे, दे० ना०७ वर्ग ७१ गाथा। विहम्मेमाण--विधर्भयत-त्रि० म्याचारभ्रटान् कुर्वति, वि
विहाडिय-देशी-विनाशिते, जी०१ प्रति०। पा०१ श्रु०१०॥ विहय-विहत-त्रियविशेषतस्ताडिते, प्रश्न०१आश्रद्वार । विहाण-विधान-न० । भदे, श्राव, ४० प्रकारे, आव०४विहरण-विहरण-नाविचरणे,प्रश्न० ४ श्राश्र द्वार। क्रीडने,
श्रा विशे० । नि० चू० । पं०व० । श्राचा० । प्रश्न । 'धातवोऽर्थान्तरेऽपीति' विवों हरतिः क्रीडायाम् । प्रा०।
सम्पादने, पो०६ विव० । स्था। विधिलमितरव्यवच्छिन्नं
धानं पोषणं स्वरूपस्य यत्तत् प्रतीत्य सामान्यचिन्तामाथिविजनस्वे, विपा० १ श्रु० ६ ०।
त्येति शेषः, कृष्णो नील इत्यादिप्रतिनियतो वर्णविशेष इति विहरंत-विहरत-त्रि० । निष्प्रतिबन्धकत्वेनानियतं विचरति,
यावत् । इतरव्यवच्छेदकतयाऽर्थपोषणे, जी० १ प्रति० । उत्त०२०। विहरता वि य दुविहा, गच्छगया गच्छनि- विधि-प्रभातयोः, दे० ना०७ वर्ग १० गाथा। ग्गया चेव' श्रोय।
| विहान-नका परित्यागे, स्था० ३ ठा०३ उ०॥ विहयपवजा-विहतपत्रज्या-स्त्री०। दारिद्रयादिभिररिभिर्वा |
वा विहाणग-विधानक-न। स्वार्थे कः। भेदे,प्रश्न०१ आश्रद्वार। विहतस्य प्रवज्यायाम् , स्था०४ ठा० ४ उ० ।
विहाणाएस-विधानादेश-पुं० । भेदप्रकारे, भ० २५ श०४ विडरिग्र-देशी-सुरते, ३० ना०७ वर्ग ७० गाथा ।
उ०। समुदितानामप्येकैकस्यादेशने, भ० २५ श०३ उ०। विहरियन्त्र-विहर्तव्य-त्रि० । साधुना चरितव्ये,प्रश्न०३ स-1
विहाणु-विभात-न० । प्रातःकाले; "शीघ्रादीनां वहिल्लादयः" व० द्वार।
४२२॥ इति विभातस्थाने विहाणु इत्यादेशः। “ढोल्ला विहरेमाण-विहरत-त्रि० । विहारेण रामादिषु अवतिष्ठमा-|
मर तुह वारिश्रा, मा करु दोहामाणु । निद्द गमिही रत्तडी, ने, रा०।
दडवड होइ विहाणु।" प्रा०४ पाद । विहल-विफल-त्रिश्रप्राप्तेच्छिताथै, प्रश्न० ३ आश्रद्वार। विहाय--विहाय-अव्या चिमुच्येत्यर्थे, पश्चा०६ विव० । त्यविह्वल-त्रि०। "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक"। क्त्वेत्यर्थे, सूत्र० १ श्रु०१४ अ०। ८२३७७। इति वलोपः। "रहोः" शE३॥ इति हस्य द्वित्वं विहायस्-न । अाकाशे, औ०। न । विभ्रान्ते, प्रा०२ पाद ।
| विहायगइ-विहायोगति-स्त्री० । स्पृशद्गत्यादिके गतिभेदे, भ० विहल-विहल-पुं०। मगधराजश्रेणिकस्य चेल्लणागर्भजे हल्ले- ८ श०७ उ०। प्रव। न सह यमलजे पुत्रे, भ. श. ३ उ० । आव० । श्राविहायस-विहायस्-पुं०। मगधराजश्रेणिकमहाराजस्य चेल्ल. क. । प्रा० चू० । ( स च वीरान्तिके प्रव्रज्य द्वादश वर्षाणि | णादेवीगर्भसम्भूते खनामख्याते रात्रि,अणु०(स च वीरान्ति
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विहार
(१२७५) विहायस
अभिधानराजेन्द्रः। के प्रवज्य द्वादश वर्षाणि श्रामण्यं परिपाख्य विजये देवलोके | गीयत्थे इड्विदुर्ग, सेसं गीयत्थनिस्साए ॥ २४ ॥ उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमे बर्गे षष्ठेऽध्ययने सूचितम् ।)
गीताथी द्विविधास्तद्यथा-गच्छगता , गच्छनिर्गताच ।
तत्र 'गच्छनिर्गता इमे' जिनकल्पिको गीतार्थः, परिहारविविहार-विहार--पुं० । विहरणं विहारः । मनुष्यत्वेनावस्थाने, |
शुद्धिकोऽपि गीतार्थः, अपिशम्दाघथालन्दकल्पिकः प्रतिउत्त०१४ १०। क्रीडायाम् , स्था०८ ठा० ३ उ० । एकरा-| माप्रतिपन्नोऽपि च गीतार्थः, अमीषां विहारो गीतार्थः । गपादिना विचित्रक्रीडायाम् , प्रश्न १ संव० द्वार । सूत्र०।। च्छवासे गीतार्थे गीतार्थविषये ऋद्धिद्विकम् तद्यथा प्राचार्य, स्था० । विचरणे, स्था० ७ ठा० ३ उ०। मुनिचर्यायाम् , उपाध्यायश्च । अथवा-श्राचार्यः शेषं चतुष्टयम्-उपाध्यायग०१ अधि० । व्य० । मासकल्पादौ, आव०४ पासूत्र।। प्रवृत्ति-स्थविर-गणावच्छेदिरूपमेतच द्विकं स्थाननियुक्त (१) विहारनिक्षेपमाह
मिति । व्यवह्रियते स्वस्वव्यापारे तेषां नियुक्तत्वात् , शेषाः नाम ठवणा दविए, भावे य चउब्बिहो विहारो हो।
सर्वे अनियुक्ताः। ते यदि गीतार्थाः, यदिवा-भगीतार्थाः सबै
गीतार्थनिश्रया विहर्तव्यम्। विविहपगारेहि रयं, हरई जम्हा विहारो उ ॥२१॥
अत्र पर प्राहमामविहारः, स्थापनाविहारः, द्रव्ये-द्रव्यनिमित्तं द्रव्यभूतो विहारो द्रव्यविहारः, भावे-भावविहारः, परमेष धि
चोएइ अगीयत्थे, किं कारण मो निसिझइ विहारो । हारश्चतुर्विधो भवति । इह च नोश्रागमतो भावविहारेण सुण दिटुंतो चोयग, सिद्धिकरं निण्हवे एसि ॥ २५ ॥ गीतार्थेनाऽधिकारः, न शेषैः, ततस्तमधिकृत्य व्युत्पत्ति
चोदयति-प्रश्नं करोति, अगीतार्थे अगीतार्थस्य किं कोमाह-यस्माद्विविधैरनेकैः प्रकारै रजः-कर्म हरति तस्मा
रणं-किं निमित्तं 'मो' इति पादपूरणे निषेध्यते विहारः। द्विहार इत्युच्यते । विविध हियते रजः-कम्मीनेनेति विहारः,
सूरिगह-हे चोदक! त्रयाणामप्येतेषां गीतार्थाऽगीतार्थनिभकर्तरि घप्रिति व्युत्पत्तेः सम्प्रति नामादिभेदा व्याख्येयाः।
श्रितानां सिद्धिकरं दृष्टान्तं शृणु। तत्र यस्य विहार इति नामस नामविहारः स्थापनाविहारश्चिअकर्मण्यन्यत्र वा पालिख्यमानः स्थापनाविहारः। द्रव्य
तमेवाहविहारो द्विधा-आगमतो, नोागमतश्च । तत्रागमतो
तिविहे संगिल्लम्मि, जाणते निस्सए अजाणते । विहारशब्दार्थशाता तत्र चानुपयुक्तः । नोश्रागमतनिधा-स- | पाणंधि छित्तकरणे, अडवि जले सावए तेणा ॥२६॥ शरीर-भव्यशरीर-तद्यतिरिक्रभेदात्। तत्र शशरीरभव्यशरीरे
संगिलो नाम-गोसमुदायस्तस्मिन् रक्षणीये त्रिविधो रक्षा प्राग्वत्।
के रष्टान्तः,तद्यथा-जानन निश्रितोऽजानंश्च, एषोऽतरार्थः । तद्व्यतिरिक्तमाह
भावार्थस्त्वयम्-" एगो रक्खगो नगरस्स गावीण, सो पाहारादीणट्ठा, जो उ विहारो अगीयपासत्थे । निजेहिं श्रोगासेहिं गावीतो जंतीए तीनो य खेत्ताईणं अवजो याचि अणुवउत्तो, विहरइ दब्वे विहारो उ॥२२॥ रोहं न करेति । तेहिं प्रोगासेहिं नेइ प्राणेह य । जत्थ य तेयो नाम आहारादीनामाहारोपधिप्रभृतीनामायोत्पाद
णाइभयं नऽस्थि तत्थ चारे । अन्नया दो पुरिसा गाधीनो माय अगीतानाम्-अगीतार्थानां पार्श्वस्थानां च, गाथायां रक्खामि त्ति उट्टिया। अम्हे भइयाए गायो रक्खामो ति च समाहारद्वन्द्वः षष्ठीसप्तम्योरथै प्रत्यभेदाश्च सप्तम्या निर्दे- नागरगा चिंत्तन्ति-सो एगो न तरइ सब्बनगरस्स गावीओ शः, तथा-योऽप्यनुपयुक्तः सन् विहरति एष सर्वोऽपि द्रव्य- रक्खिउं । तम्हा एए विनिजुजंतु त्ति भणिया-रक्खह । तत्थ विहारः, आयो द्रव्यनिमित्तत्वात् द्रव्यविहारः। द्वितीयोऽ. एगो तस्स पुराणस्स संखेडिपालस्स निस्साए गावीमो मेह नुपयुक्तत्वादिति उक्नो द्रव्यविहारः । भावविहारो द्विधा- प्राणेश्य । अजाणतोत्ति काउंतस्स मरण चंकमा। बितिआगमतो,नोभागमतश्च । तत्राऽऽगमतो विहारशब्दार्थज्ञाता श्रो संखेडिपालश्रो चितेति-अहमन्नस्स निस्साए न चारेमि तत्र चोपयुक्तः, नोभागमतो भावविहारो द्विधा-गीतार्थों,
सयमेव अहं रक्खिउं समत्थो। सो चारीओ पतो अजाणतो निधितश्च ।
इमाणि ठाणाणि न याणाइ । 'पाणंधी ति देशीपदमेतत् वर्ततथा चाह
नीवाचकम् । ततोऽयमर्थक्षेत्रे क्षेत्रक्षेत्रसकुलेषु प्रदेशेषु नगर. गीयत्थो य विहारो, बीअो गीयत्थनिस्सितो होइ। प्रदेशनिर्गमयोग्या वर्तन्यः क्षेत्रपारणंधयः तान्न जानाति, अएत्तो तइयविहारो, नाऽणुमातो जिणवरेहिं ॥२३॥
जानंश्च ताभिर्गा नयति पानयति च यत्र क्षेत्रषु शाल्यादय उ.
तास्तिष्ठन्ति, गावश्च गच्छन्त्य प्रागच्छन्त्यश्च रच्यमाणा अपि विहारः प्रथमो भवति गीतार्थ:-गीतार्थसाध्यात्मको,
शाल्यादि चरन्ति । ततः क्षेत्रस्वामिभिः क्षेत्रोपद्रवमूल्यं याद्वितीयो गीतार्थनिश्रितः-गीतार्थस्य निश्रा-सं- च्यते । एवं करणेऽपि दोषा वाच्याः। करणं नाम-राजकीयश्रयणं गीतार्थनिश्रा,सा साताऽस्येति । पाठान्तरं गीतार्थ- मन्यदीयंचा चीतम् । तथा अडवित्ति सो बराकोऽजानन् गा मिश्रित इति,तत्र गीतार्थसंयुक्त इति व्याख्येयम्।इतः-श्राभ्यां | अटवीमपि प्रवेशयति, तत्र पुलिन्दादिमिर्गावो मार्यन्ते, तथा गीतार्थ-गीतार्थनिश्रिताभ्यामन्यस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो 'जले ति सोऽजानन् नद्यादिषु तत्र प्रदेशे गाः पाययति यत्र जिनवरेन्द्रः।
ग्राहादिभिर्जलचरैव श्राकृष्यन्ते 'सावए ' ति स मूढो(२) तत्र गीतार्थ गीतार्थनिश्रितं च विहारमाह- वराकस्तत्र प्रदेशे नयति यत्र व्याघ्रादयो दुष्टस्वापदास्तैश्व जिणकप्पितो गीयत्यो,परिहारविसुद्धितो वि गीयत्थो।। गाव उपद्यन्ते, ' तेणं' ति तेषु च निकुञ्जादिषु नयति पत्र
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(१२७६) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
बिहार स्तेनानां प्रसरस्ततस्तेनास्ता अपहरन्ति, एवं सोऽजानन्
अधुना एषणाद्वारमाहगाविनाशयति।इतरस्तु जानन् एतानि सर्वाण्यापरस्थानानि
माहार उवहि सेजा, गुग्गमउप्पायणेसणकडिल्ले। परिहरति, योऽपि निश्रितस्तमपि परिहारयति,एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः-योगीतार्थः ससर्वानपि दोषान् स्वयं परि
लग्गइ अवियाणंतो, दोसे एएसु सब्वेसुं ॥३०॥ हरति, यस्तु निश्रितस्तं परिहारयति । यः पुनः स्वयमगीता- आहारो-भक्तपानादिरूपः, उपधिः-कल्पादिलक्षणः, शय्या. धों यश्च प्रगीतार्थनिश्रितस्तयोरात्मविराधना संयमविराध- वसतिः, एतेषां ग्रहणे इति गम्यते । किं विशिष्ठे ?, इत्याहना च भवति ।
उद्भमेन-उद्गमदोषैः षोडशभिराधाकर्मप्रभृतिभिरुत्पादनया उ. (३) तानेवात्मविराधनादिदोषान् विवक्षारगाथामाह--
त्पादनादोषैर्धाच्यादिभिः षोडशभिरेषणया-गवेषणादिदोषैः
शकितघ्रक्षितप्रभृतिभिः संयोजनाप्रमाणानारधूमैः काकगामग्गे सेहविहारे, मिच्छत्ते एसणादिविसमे य ।
लादिक्षितैश्च 'कडिल्ले' इति महागहने सति सोऽविजानन् सोही गिलाणमादी,तेणा दुविहा व तिविहा वा ॥२७॥ एतेष्वनन्तरोदितेषु दोषेषु सर्वेषु लगति । द्वारगाथायामेषमार्गे-मार्गविषये तथा शैक्ष-शैक्षकुलविषये एवं विहारे मि- णादाविति य आदिशब्दः स समस्तोद्गमादिदोषपरिग्रहाथैः। ध्यात्वे एषणाऽऽदौ विषमे शोधौ ग्लानादौ दोषाः,स्तेना द्विवि तथा 'विसमें' इति विषमे च पर्वतजलादौ या यतना तां सन धाखिविधा या ये भवन्ति तेभ्योऽपि दोषा भवेयुः, एप द्वा- जानाति, अजानंश्चात्मविराधनां संयमविराधनां चामोति । रगाथासंक्षेपार्थः।
___ सम्प्रति शोधिद्वारमाहसाम्प्रतमेनामेव द्वारगाथां विवरीषुः प्रथमतो
मूलगुण उत्तरगुणे, आवमस्स य न जाणई सोहि । मार्गद्वारं शैक्षद्वारं चाह
पडिसिद्धे त्ति न कुणति,गिलाणमादीण तेगिच्छं ॥३०॥ मग्गं सद्दव रीयइ, पाउस उम्मग्गगहणजयणाए ।
मूलगुणविषये उत्तरगुणविषये च प्रायश्चित्तमापत्रस्य सेहकुलेसु य विहरइ, अणुयत्तति ण गाहेइ ॥ २८॥ | यस्य यादृशी यस्मिनपराधे दातव्या शोधिस्तस्य तादशी मार्ग--पन्थान सेवते सोऽजानन् अगीतार्थः सन् द्रवचारि- तस्मिन्नपराधे न जानाति, अजानानश्चाप्रायश्चिऽपि श्रतया रीयते--गच्छति । तत्र संयमविराधना कुन्थ्वादिसत्वो
तिप्रभूतं प्रायश्चित्तं दद्यादिति महत्याशातना भवेत् । गतं पमर्दनात् , आत्मविराधना पादादिविस्खलनात्। तथा श्र- शोधिद्वारम् । अधुना ग्लानादिद्वारमाह-'पडिसिद्धे' त्यादि न्यतया 'पाउस'त्ति प्रावृष्यपि काले गच्छति तत्रापि सं
प्रतिषिद्धा खलु चिकित्सा षड्जीवनिकायविराधनोपपत्तेयमविराधना आत्मविराधना च । तथा मार्गोन्मार्गानभिज्ञ
रिति वचनमेकान्तेनाङ्गीकुर्वन् ग्लानादीनाम् श्रादिशब्दः स्वतया उन्मार्गेऽपि गच्छति, तत्र स्थाणुकण्टकादिभिरात्माविरा
गतानेकभेदसूचकः आगाढानागाढसहासहबालतरुणग्लाधना, सचित्तपृथिव्याद्युपमर्दनात्संयमविराधना च । तथा
नादीनां चिकित्सां न करोति, न च तद्विषयां यतनां जानाग्रहणशिक्षायाम्, श्रासेवनाशिक्षायां वा अप्रवीणत्वात्, अय
ति । ततः चिकित्साया यतनायाश्च प्रकरणे भूयांसो दोषातनया वा गच्छेत् अयतनया च संयमात्मविराधना । गतं
स्ते च प्रागेव प्रथमोद्देशकेऽभिहिताः। मार्गद्वारम् । शैक्षद्वारमाह- सेहे' त्यादि शैक्षकुलानि-अभिन
सम्पति तेणा दुविहा व तिबिहा वा' इत्यादि वप्रपन्नवतानि तेष्वक्षतया स विहरति-तेभ्यो यतनया भ
व्याख्यानयतिपानादिकमुत्पादयतीति भावः । तथा न तानि अनुवर्त्त- अप्पसुय ति य काउं, बुग्गाहेउं हरंति खुट्टादी। यति-नानुवर्तनागुणतः बर्द्धमानतरधर्मश्रद्धाकानि करोति तेणा सपक्ख इयरे, सलिंगिगिहिमबहा तिविहा ॥३१॥ अनुवर्तनाया अपरिज्ञानात् । तथा न प्रायति तानि प्र
स्तेना द्विविधाः-स्वपक्षाः, परपक्षाश्च । तत्र स्वपक्षा द्विइणशिक्षामासेवनाशितां वा श्रावकधम्मोचिताम् उभयो
विधाः-गीतार्थाः, पावस्थादयश्च । नत्र गीतार्था इदं चि. रपि शिक्षयोस्तस्याकुशलन्यात् । गतं शैक्षद्वारम् ।
म्तयन्ति-अमी अल्पश्रुता अल्पश्रुतत्वाच अगीतार्थाः; नचाअधुना विहारद्वारं मिथ्यात्वद्वारं चाह
गीतार्थाना क्षेत्रमस्ति । ततः एवं चिन्तयित्वा तेषां सचित्तादस्सुदे से पच्चंते, वइयादिविहारपाणबहुले य। । दि गीतार्था अपहरन्ति । पावस्थादयः पुनः खुल्लकादीन् ब्यु अप्पाणं च परं वा, न मुणइ मिच्छत्तसंकंतं ॥ २६ ॥
दग्राहयन्ति, तथा दुष्करा चर्याऽमीषां न च दुष्करचर्यायाः
सम्प्रति देशकालौ तस्मादत्रागच्छतेति । एवं व्युग्राह्य सोऽमतया दस्युवेशे-चौरदेशे विहारं करोति, यदि घा
खुल्लकादीन आदिशब्दात्तरुणादिपरिग्रहः, अपहरन्ति । परप्रत्यन्ते-बहुले म्लेच्छाकुले,अथवा-लुब्धतया प्रजिकादौ
पक्षा-मिथ्यादृष्टयस्तेऽपि खुल्लकादीन् व्युग्राह्य अपहरन्ति । श्रादिशदात्-स्वजातिकादिकुलपरिग्रहः, यदि वा-प्राणियहु
अथवा-त्रिविधास्तेनास्तद्यथा-स्वलिङ्गाः, पार्श्वस्थादयः ले जीवसंसक्ने देशे एतेषु यथायोगमामविराधना संयमविरा
तेऽपि पूर्ववत्, गृहिणस्तस्करास्ते उपधिप्रभृतीनपहरन्ति । धना च भूयसीति । गतं विहारद्वारम् । अधुना मिथ्यात्वद्वा
अन्ये घा-स्वलिगृहिण्यो व्यतिरिक्तास्ते च भिक्षुकादयोऽरमाह-'अप्पाणंचे' स्यादि, स वराकोऽजानन् प्रास्मानमपि कुप्रकपणादिभिर्मिथ्यात्वशङ्कासंक्रान्तं न जानाति , नाऽपि
वगन्तव्यास्ते खुल्लकादीन व्युग्राह्याऽपहरन्ति । परम् । ततः मान्मनः परस्य च मिथ्यात्वं प्रबर्द्धयतीत्युभये
एए चेव य ठाणे, गीयस्थो निस्सितो उ वजेइ । पामपि संसारप्रवर्द्धकः । गतं मिथ्यात्वद्वारम् ।
भावविहारो एसो, दुविहो उ समासो भणिभो ॥३२॥
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(१२७७) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार एतान्येवानन्तरोदितानि स्थानानि गीतार्थो गीतार्थनि-विहारस्यैवासम्भचात् । अथ सफलं तर्हि द्वयोर्विहारः सूत्रे श्रितश्च वर्जयति । तत्र गीतार्थः स्वयं कुशलत्वाद् , गी-| नानुज्ञात इति योऽयमर्थतः प्रतिषिद्धो भवद्भिर्विहारः सोसार्थनिश्रितश्च गीतार्थोपदेशेन एष भावविहारो द्विवि-| ऽथों निरर्थकः सूत्रेणाऽबाधितत्वात् । धो भणितः समासतः-संक्षेपेण ।।
प्राचार्य आहसो पुण होई दुविहो, समत्तकप्पो तहेव असमत्तो । मा वय सुत्तनिरत्थं, न निरत्थगवाइणो जतो थेरा। तत्थ समत्तो इणमो, जहममुक्कोसतो होइ ॥ ३३ ॥ कारणियं पुण सुत्तं, इमे य ते कारणा हुंति ॥ ५० ॥ स पुनः-भावविहारो द्विविधोऽपि भूयो द्विविधो भव- मा वद-मा बृद्दि त्वं चोदक ! यत्सूत्रं निरर्थकम् , यतः स्थति, तद्यथा-समाप्तकल्पः , तथैवासमाप्तो-समाप्तक- विरा भगवन्तो निरर्थकवादिनो न भवन्ति तेषां श्रुतकेवल्पः । तत्र यः समाप्तकल्पः स द्विविधो भवति । तद्यथा- लित्वात् । यद्येवमर्थतः प्रतिविद्धो द्वयोर्विहारः, अथ च सूत्रे जधन्य, उत्कृष्टश्च ।
प्रतिपादित इति कथम् ? अत आह-सूत्रं पुनः कारणेषु भवं अनयोरेव प्रमाणमाह
कारणेन निवृत्तं वा कारणिकं कारणान्यधिकृत्य प्रवृत्तमिति
भावः । तानि च कारणानि भ्रमूनि-वक्ष्यमाणलक्षणानि । गीयत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहमतो होइ ।
तान्येवाहवत्तीससहस्साई, हवंति उक्कोसो एस ॥ ३४ ॥ असिवे प्रोमोयरिए, रायासंदेसणे जयंता वा। गीतार्थानां (तिरह) त्रयाणां विहारः समाप्तकल्पो जघन्यो अजाण गुरुनियोगा, पवजा नातिवग्गदुगे ।। ५१ ॥ भवति,उत्कृष्टस्त्वेष समाप्तकल्पो द्वात्रिंशत्सहस्राणि भवन्ति । | अशिव-क्षुद्रदेवताकृत उपद्रवः तस्मिन् द्वयोपिहारः, तथा तिएह समत्तो कप्पो, जहमओ दोलि उज्जुया विहरे। | अवमौदर्य-दुर्भिक्ष तस्मिन् . अथवा-राजा प्रद्विष्टो भवेत् गीयत्थाण वि लहुओ, अगीऍ गुरुगा इमे दोसा ॥३५॥
ततो द्वयोर्विहारः 'संदेसण 'त्ति-श्राचार्यप्रेषणेन द्वौ वि
हरेयाताम् 'जयन्ता वा' इति यतमाना नाम ज्ञाननिमित्तं दर्शत्रयाणां किल समाप्तकल्पो जघन्यो भवति । ततो यदा
ननिमित्तं वा प्रयत्नवन्तः । इयमत्रावना-विषमशास्त्राणि द्वी विहरतस्तदा द्वयोर्गीतार्थयोर्विहरतोर्लघुको मासः सम्प्रति कालगृहीतानि च र्याद नाभ्यस्तानि क्रियन्ते ततो प्रायश्चित्तम् , अगीतार्थयोश्चत्वारो गुरुकाः । द्वयोश्च
विस्मृतिमुपयान्ति । गच्छे च सबालवृद्धाकुले भिक्षाचर्याविहरतोरिमे वक्ष्यमाणा दोषाः ।
दिना व्याघातस्तत आचार्यानापछय तैर्विसृष्टी द्वावप्यन्यत्र तानेवाह
गच्छेयाताम् । एवं दर्शनप्रभावकशास्त्रनिमित्तमपि द्वयोर्विदोएह वि विहरंताणं, मलिंगगिहिलिंगअन्नलिंगे य । हारो भावनीयः । श्राचार्याणां या एकस्मात् क्षेत्रात् , अन्यहोइ बहुदोसवसही, गिलाणमरणे य सल्ले य ॥३६॥
स्मिन् क्षेत्रे नयने संघाटस्य गुरुनियोगात् द्वयोर्विहारो भवेत् .
यदि वा-प्रव्रज्याभिमुखः कोऽपि सञ्जातत्ततस्तस्य स्थिरीद्वयोर्विहरतोः स्वलिङ्गगृहिलिङ्गानधिकृत्य भूयांसो दोषाः ,
करणार्थ सवाटकः प्रेष्यः, गदि वा-ज्ञातिवर्गः-स्वजनवर्गः तथा एका वसतिपालकः. एको मिक्षार्थ गतस्तत्र यो
कस्याऽपि साधोर्चन्दापनीयो जातः , ततस्तद्वन्दापनार्थ द्वी भिक्षार्थ गतस्तस्य स्वलिङ्गे मंन्यस्या पालापादिकं
विहरेयातामिति । पृच्छन्त्या श्रात्मपगेभयसमुत्था दोषाः, परलिने चरका
तत्र यतनामाहदिकायाः, गृहिलिङ्गे स्त्रियाः प्रोषितभर्तृकादिकायाः, 'होड बहुदोसवसहि' त्ति हिगडमानात् वसतिबहुदोषा भवति ।
समयं भिक्खग्गहणं, निक्खमणपवेसणं अणुप्मवणं । किमुक्तं भवति-वसतिपालस्य हिण्डमानापेक्षया भूयांसो एको कहभावामो, एको व कहं न आवमो ॥ ५२ ॥ दोषाः। एकान्तमिति कृत्वा स्वलिङ्गिन्यादीनामुपपातसम्भ- यदि नाम प्रागुक्तकारणवशात् तौ विहरन्तौ द्वावपि सवात् , प्रदीपनके च लग्ने एकाकी स कथं करोति । मकं-युगपत् भिक्षाग्रहणं कुरुतः: समकं भिक्षानिमित्तं हिश्रथेते दोषा मा भूवन्निति शून्यां वमतिं कृत्वा निर्ग- राडेते इत्यर्थः । एवं समकमेव शेषप्रयोजननिमित्तमपि च्छतः तदानीं वक्ष्यमाणा बनो दोशस्तद्यथा-द्वयो- निष्कामतो व्रजतः, समकमेव च प्रविशतः-गत्वा प्रत्याविहरतोयोको ग्लानो भवति तदा तस्य ग्लानस्य एका- गच्छतः, तथा समकमेवाऽनुज्ञापनं कुरुतः । किमुक्नं भवकिना मोचन पिपासादिसम्भवः, तथा मरणे-मरणका- ति-समकमेव नषेधिक्यादिकं शरगातरादिकमनुशापयतः ले शल्यं नोद्धतमिति शल्यन तथाऽवस्थिते सति गरी- ततः एकाकिनः सतो ये प्रागुक्ता दोषाः ते प्रायो न सम्भयांसो दोषाः । व्य० । ( वसतेः सर्वो विषयः वसहि' शब्दे | वन्ति । पर आह-यद्येवं समकभिक्षाग्रहणादिकरण कथमेकः ऽस्मिन्नेव भागे ६३८ पृष्ठे गतः।)
प्राप्तः-प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, एको वा कथं नाऽऽपन्नः? इति। __ अत्रोपसंहारमाह
सूरिराहजम्हा एते दोसा, तम्हा दुण्डं न कप्पति विहारो। एगस्म खमणभाण-स्स धोवणं बहियइंदियऽत्थेहिं । एयं सुत्तं विफलं, अह सफलं निरन्थयो अत्थो ॥४६॥ | एएहि कारणेहिं, आवलो वा अणावलो ।। ५३ ।। यस्माद् द्वयोर्विहारे एते-अनन्तरोदिता दोषणस्तस्मान । एकम्प क्षपणमभक्तार्थोऽभवत्-एकेन तु क्षपणं न कृतम् , कल्पते दयोपिहारः । अत्र पर ग्राह-लन्येतत्मत्रमफलं यो- तत्र यदि तपएकारी शस्नोति ततो द्वावपि समकं भिक्षा
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(१२७८) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार निमित्तं हिण्डेते । श्रथ क्षपणकृत् न शक्नोति । तेत वंदामि साहुस्स वि पते वेव गुणा रावरं परिवारो वएको भिक्षार्थ गच्छति , एकस्तूपाश्रय एव तिष्ठति, ज्जिज्जति । चेतिया चिरायतणा अपुव्वा य अहवा अभिएवंद्वयोरप्येकाकित्वसम्भवः । तथा-भाणम्स धोवणं' ति |
रणवा कया। अथ धावनार्थमुपाश्रयादहिर्विनिर्गत एकस्तूपाश्रयस्यैवान्त
गाहास्तिष्ठति एवमेकाकिनी जातौ । ततो यो भिक्षागतो यो वा दच्छीहामि व णीए, सम्मी व भोयणादि लब्भामो । भाजनप्रक्षालनार्थ बहिर्विनिर्गतो यो वा बसताववतिष्ठते स
दोसोवमे अपुग्यो, वइगादिसु खीरमादीणि || २७० ।। इन्द्रियार्थ रूपरसादिभिरियानिः समापतितं राग द्वेष वा
कण्ठा । णिक्कारण विहरंतस्स इमे दोसा। प्रयाति रागद्वेषगमनाच्च प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते । तत एवम
गाहाजन्तरोदितः कारणैरेकः प्रायश्चित्तस्थानमापन्नो भवत्येकस्त्व
अद्धाणे वञ्चन्ता, भिक्खूवधितेणसाणपडिणीए । नापन्न इति । अथवा-यद्यपि नाम भिक्षाग्रहणादिनिमित्त समकं हिराडेते तथाप्येक आपद्यते प्रायश्चित्तस्थानमपणे
भोमाण अभोजघरे,वयथंडिलसती य जे तत्थ ॥२७१।। नैव । व्य०२ उ०।
अद्ध। गो असमो भवति भिक्खा वसहिं ण लब्भति, एतेसु नतः समकहिण्डनेऽप्येको घटते प्रायश्चित्तमापन्नोऽप- परितावणादिणिक्खमगं ! उवहि-सरीरा तेणा भवंति साणग नेति. इतश्च विषया न प्रमागम् ।
पडिणीपसु बुजए हम्मए वा हिंडताणं सपक्खपरपक्खोयत पाह
माणं भवति, अभोजघरे पवयणहीलणा य भवति । असति भणसा उपेति विसए,मणसा विय सन्नियनि एतेसुं। थंडिलस्स पुढधिमादीजीपविराहेति जे दोसा जं च पन्छि
सं सव्वं उवउज्जि वक्तव्यं । इय वि हु अज्झत्थसमो,बंधो विमया न उ पमाण।।५।।
गाहाइह विषयोपलब्धिव्यतिरेकेणाऽपि मनसा-अन्तःकरणेन विषयान्-रूपादीन उपैति-अध्यवस्यतीति भावः । मनमैव च ।
संजमतो छकाया, आत कंदष्टि वायरलु वाया य। तेभ्यो-विषयेभ्यः सन्निवर्तते विरज्यते इत्यर्थः । इत्यपि-ए- उवधिअलेव हरावण,परिहाणी जा य तेण विणा ।२७२। वमपिह-निश्चितमध्यात्मसमोऽध्यात्मानुरूपः:परिणामानु- णिक्कारणो अडतो छक्कायविराहणं कुणति, पस संजममारी इत्यर्थः,बन्धः-कर्मबल तस्मान्न विषयाः प्रमाणम् । विराहणा । कंदट्टि वाविजति वायरलूवावी भवंति । एस तेषु सत्स्वपि केषाश्चिद्रागद्वेषाऽसम्भवात् , तदभावेऽपिच- प्रायविराहणा । सागारिभया परिस्संतो वा पमादेण वा केषाश्चिन्मनसा तत्सम्भवादिति ।
उवहिं ण पडिलेहेति, हरावेइ वा । उवहिम्मि अवहरिए एवं खलु आवले, तक्खण आलोयणा उगीयम्मि । जा तेण विणा परिहाणी तेण अग्गिगहणसेवणादि जं करिठवणिज उवतित्ता, वेयावडियं करे वितिओ ।। ५६॥
स्सति तं सव्वं पच्छित्तं वत्तव्यं । एवम्-उक्लेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेकस्मिन् प्रायश्चित्त
गाहाम्थानमापन्ने तेन तत्क्षणमेव-तत्कालमेव गीतार्थस्य पुरत वेलातिकमपत्ता, अणेसणादातुरा नु लेविजा । पालोचना दातव्या । तत्र यदि द्वावपि गीतार्थी विहरतस्त- पडिणीयसाणमादी, पच्छाकम्मं चञ्चेलम्मि ॥२७३ ॥ नः स्थापनीयं प्रागुक्तस्वरूपं स्थापयित्वा यः प्रायश्चि
भिक्खा वेलातिकंतं पत्ता अपुच्छता अणसण पि लेविज्जा सम्थानमापन्नः स परिहारतपः प्रतिपद्यते । द्वितीयः कल्प
तगिणप्फराणं पच्छित्तं । पढमबितिएसु वा परिसहेसु वा श्रास्थितो भवति स एव चानुपारिवारिक इति तस्य वैयावृत्त्य
उरा जे सेवेत तगिण'फराण, पडिणीतेण हते साणेण वा खकरोति । व्य०२ उ०।
विए श्रायविराहणाणिप्फरणं । अचेले भिक्खंतस्स हिंडनइदाणि णिज्जुत्तिवित्थरो । गाहा
स्स पच्छाकम्मदोसा भवंति, संकातिया य दोसा तेणऽट्टे सेहाण वुड्डवासी, वसमाणा णवविकप्पवेहारी।
मेहुणऽटे वा भवंति । मि० चू०२ उ०। अनु० । पश्चा०। ध०। दतिअंता दुविहा, णिक्कारणिया य कारणिया ॥२६७।। बृ० । पं० व० । ग०। कारणनिष्कारणे वक्ष्यति । शेषं गतार्थमेव । इमे कारणिया
(४) संप्रति विहारकल्पिकमाहआयरियसाहुचेइयाण य वंदणणिमित्तं गच्छति, समीणं दंस.
गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सियो भणियो। गऽत्थंभोयणवत्थाणि वा लभिस्सं ति गच्छति, अपुव्वदेसदं.
इत्तो तइयविहारो, नाणुनाओ जिणवरेहिं ।। ६६२ ।। सणस्थ वतितादिसु वा खीरज लम्भिस्सामीति गच्छति ।। गाद्दा
गीतः-परिक्षातोऽर्थो यैस्ते गीतार्था जिनकल्पिकादयस्तेषां आयरिय साधुवंदण, चेतियणी यल्लगा तहा सम्मी।
स्वातन्त्र्येण यद्विहरणं स गीतार्थो नाम प्रथमो विहारः । त
था गीतार्थस्याऽचार्योपाध्यायलक्षणस्य निश्रिताः-परतन्त्रा गमणं च देसदसण, णिक्कारणिए य वइगादी ॥२६॥
यद्च्छवासिनो विहरन्ति स गीतार्थनिधितो नाम द्वितीयो अप्पुव्वविवित्त बहु-स्सुता य परिवारवंद आयरिया ।
विहारो भणितः । इत ऊर्ध्वमगीतार्थस्य स्वच्छन्दविहारिणपरिवारवजसाधू, चेति अपुव्वा अभिनवा वा ॥ २६६ ॥ स्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैर्भगवद्भिस्तीर्थङ्करैरिति । अयुब्या इमे आयरिया विवित्ता गिरतिचारचरित्ता बहुस्सु वृ० १ उ०१ प्रक०। (गीतार्थविषयः 'गीयत्थ' शब्दे तृतीया विचित्तसुया य बहुसाहुपरिबुद्धा य परिसे पायरिए यभागे १०२ पृष्टे गतः, तत्स्वरूपप्रतिपादिका गाथा चत
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(१२७६) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार त्रैव गता-तद्व्याख्याऽत्र)-इह सूत्रार्थधरत्वे चतुर्भङ्गी। तद्य- उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्ठतिहाणो ॥ ६९८ ॥ था-सूत्रधरो नामैको नार्थधरः१,अर्थधरो नामैको न सूत्रधरः
एकः सन् विहरतीत्येवं शील पकविहारी, सब अजातक२, एकस्सूत्रधरोऽप्यर्थधरोपि ३, अपरो न सूत्रधरो ना
ल्पिकोऽगीतार्थः , तथा च्यवनं-चारित्रात् प्रतिपतनं प्यर्थधरः४, अयं चतुर्थों भङ्ग उभयशून्यत्वादवस्तुभूतः। शेष
तस्य कल्पः-प्रकारश्च्यवनकल्पः-पार्श्वस्थादिविहार भनत्रयमधिकृत्याह-गीतेन सूत्रेण केवलेन सम्यक्पठितेन
इत्यर्थः, तस्मिन् यो भवेत् स एकाकित्वमुपसम्पन्न गीतमस्यास्तीति गीती भवति । अथैन केवलेन सम्यगधिग.
प्रतिपन्नः सन् मन्दः-सबुद्धिविकलो भविष्यति, व्युत्स्तेनार्थी भवति,शातव्यम् अर्थधरः इत्युक्तं भवति । यस्तु प्री
त्रिस्थानः-व्युत्सृष्टशनि-परित्यक्तानि त्रीणि स्थानानि-मातेन चार्थेन चोभयेनाऽपि युक्तस्तं गीतार्थ विजानीहि इति ।
नादिरूपाणि येन स व्युत्सृष्टत्रिस्थानः, एषा नियुक्तिगाथा । इदमत्र तात्पर्यम्-तृतीयभगवत्यैव तत्त्वतो गीतार्थशब्दमविकलमुद्रोदुमर्हति न प्रथमद्वितीयभगवर्तिनाविति ।
अथैनामेव विवृणोति(५) अथ येषां गीतार्थानां तनिश्रितानां वा
मुत्तूण गच्छनिग्गते, गीयस्म वि एकगस्स मासो उ । विहारो भवति तान् दर्शयति
अविणीए चउ गुरुगा, चवणे लहुगा-य भंगट्ठा ॥६६६।। जिनकप्पिओ गीयत्थो,परिहारविसुद्धिोऽवि गीयत्थो।
मुक्त्वा गच्छनिर्गतान्-जिनकल्पिकादान् गीतार्थस्याऽपि गीयत्थे इडिदुर्ग, सेसा गीयत्थनीसाए ॥६६शा एककस्य एकाकिविहारं कुर्वतो मासलघु, अविनीत गीता) जिनकल्पिको नियमाद्गीतार्थः परिहारविशुद्धिकः, अपिश- एकाकिविहारिणि चत्वारो गुरुकाः, च्यवने-पार्श्वस्थादिब्दात्प्रतिमाप्रतिपन्नको यथालन्दकल्पिकश्चावश्यतया गीतार्थः
विहारे यदि मनसाऽपि संकल्प कुरुते तदा चत्वारो लघुकाः, जघन्यतोऽप्यधीतनवमपूर्वान्तगीताचारनामकतृतीयवस्तुक
'भंग?' ति अष्टौ भङ्गा अत्र कर्त्तव्याः । तद्यथा-एकाकी वादेषामिति । तथा गच्छे गीतार्थविषयमृद्धिमतोराचार्यो
अजातकल्पिकः च्यवनकल्पिकश्च १, एकाकी जातकल्पिकपाध्याययोकिं द्रष्टव्यम् ।सूत्रे अनुलोमः प्राकृतत्वात् प्राचा
श्च्यवनकल्पिकश्वर, एकाकी अजातकल्पिको न व्यवनकर्य उपाध्यायो चा नियमाद्गीतार्थः । एष सर्वेषामपि स्वात
ल्पिकः ३, एकाकी जातकल्पिको न च्यवनकल्पिकः४, एवयेण विहारो विशेयः, शेषाः साधो गीतार्थनिश्रया प्राचा
मेकाकिपदेन चत्वारो भङ्गा लब्धाः, नैकाकिपदेनापि चत्वारो योपाध्यायलक्षणगीतार्थपारतन्त्र्ये विहरन्ति ।
लभ्यन्ते । संख्यया अष्टौ भङ्गाः । अत्राऽमो भन्नस्त्रिीप
पदेषु शुद्धत्वात्मायश्चित्तरहितः । शेषेषु तु यथायथमनन्तरोकं इदमेव पश्चाचे भावयति
प्रायश्चित्तम् । एतेषु सप्तष्वपि भङ्गेषु वर्तमानस्य दोषमुपदपायरियगणी इडी, सेसा गीता वि होंति तनीसा ।
शयितुमुपसम्पन्नपद ब्याचष्टेगच्छगयनिग्गयावा,ठाणनिउत्ता ऽनिउत्ता वा ।।६६६॥
एगागित्तमणट्ठा, उपसंपाइ चुत्रो व जो कप्पों। प्राचार्य-सूरिर्गणी-उयाध्यायः एतौ यत ऋद्धिमन्तौ सा
सो खलु सोचो मंदो, मंदो पुण दव्यभावेणं ॥७००। तिशयशानादिद्धिसम्पनी अतिशायनेऽत्र मत्वर्थीयः, यथा रूपवती कन्येत्यादी अतःशेषाः साधवो गीतार्था अपि त
य एकाकित्वम् अनर्थात्-ज्ञानादिप्रयोजनाभावादुपसम्पद्यते निश्रया प्राचार्योपाध्यायपरतन्त्रतया विहरन्ति । अथ के ते
अङ्गीकरोति, यो वा च्युतः प्रतिपतितः कल्पात्-संविनय शेषाः, इत्याह-गच्छगता, गच्छनिर्गता वा । तत्र गच्छगता हारात् स खलु बराकः द्रव्यजीवितेन जीवन्नपि शोच्यः-- गच्छमध्यवर्तिनः, गच्छनिर्गता" असिवे श्रोमोयरिए"
शोचनीयः संयमजीविताभावात् , मन्दश्वासौ ( मन्दम्वरूपं इत्यादिभिः कारणैरकाकीभूताः । अथवा-स्थाननियुक्ताः
'मंद' शब्दे अस्मिन्नेव भागे २५ पृष्ठ गतम् । ) वृ०१ उ०१ प्रस्थानाऽनियुक्ता वा स्थाने-पदे नियुक्ना व्यापारिताः स्थान
क० । अथ यदुक्तं नियुक्तिगाथायां 'होहिद चोसतिद्वारगे । नियुक्ताः-प्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकाख्याः; पदस्थगीतार्था
त्ति तत्र कानि पुनस्ताति त्रीणि स्थानानि यानि न पइत्यर्थः । तद्विपरीताः स्थानाऽनियुक्ताः, सामान्यसाधव इत्य
रित्यक्तानि । उच्यतेर्थः । एते सर्वेऽप्याचार्योपाध्यायनिश्रया विहरन्ति । नाणाई तिहाणं, अहव ण चरणप्पो परयणं च । कथमित्याह
सुत्तत्थ तदुभयाणि व, उग्गमउप्पायणामो वा।।७०२।। मायारपकप्पधरा, चउदसपुवी अजेय तम्मझा।
एकाकी-मानादीनि शानदर्शनचारित्राणि श्रीणि स्थानानि तन्नीसाएँ विहारो, सबालवुड्डस्स गच्छस्स ।। ६६७॥
वक्ष्यमाणनीत्या परित्यजतीति 'अहवरण ' ति अखण्डमभाचारप्रकल्पधरा निशीथाध्ययनधारिणो जघन्यगीतार्थाः, व्ययमथवाऽर्थे चरणमारमा प्रवचनं चेति वा श्रीणि स्थानानि। चतुर्दशपूर्विणः पुनरुत्कृष्टाः, तन्मध्यवर्तिनः कल्पव्यवहार- तत्र गीतार्थतयाऽसौ षट्कायविराधनया चरणम् , अतिप्रचुदशाश्रुतस्कन्धधरादयो मध्यमाः तेषां जघन्यमध्यमोत्कृष्टानां
राहारलक्षणादिना ग्लानत्वाधापना वाऽऽत्मानम् अयतनया गीतार्थानामनिश्रया बालवृद्धस्याऽपि गच्छस्य विहारोन
संशाव्युत्सर्गादिना प्रवचनं च परित्यजति । अथवा-सूभवति ।
प्रार्थतदुभयानि त्रीणि स्थानानि, तत्रासावकाकितया कदा(६) न पुनरगीतार्थस्य स्वच्छन्दमेकाकिविहारः कर्तुं युक्तः चित्सूत्रं विस्मारयति, कदाचिदर्थ, कदाचित्तदुभयम् । यद्वा. कुत इति चेदुच्यते
उद्गमोत्पादने वाशब्दादेषणा बेति त्रीणि स्थाननि च एगविहीर अजा-यकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे । । निरशन्वादेकाकी परित्यजतीति प्रकटमेष ।
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(१२८०) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिहार
अथ यथाऽसी ज्ञानदर्शनचारित्राणि परिहरति तथाऽभि धित्सुराह
पुव्वयस्स य गहणं, न य संकिये पुच्छणा न सारणया । गुणतोऽपर दई, सीद एगस्स उच्छाद ।। ७०२ ॥
अपूर्वस्य श्रुतस्याग्रहणमेकाकितया पाठवितुरभावात् । न शङ्किते सूत्रे ऽर्थे वा कस्याऽपि पार्श्व प्रच्छनम्, न वा सूत्रम वा विकुट्टयतः सारणा - शिक्षणा मैवं पाठीरित्यादिका भवति तथा अपरान् गुणतो दृष्ट्रा सीदति परिहीयते एकस्यैकाकिन उत्साहः स्वार्थपरावनायामभियोग इत्युको ज्ञानपरिद्वार।
सम्पति दर्शनचरणयोः परिहारमाहचरगाऽऽनुग्गणं न च वच्छलाइ दंसणासंका। श्री सोहि अजनया, निप्पग्गहिया व चरणम्मि || ७०४ ॥ नरकारिभिः कणाद सौगत सांख्यप्रभृतिभिः पापरिभिः कुयुकाभिमदेव सोऽगीताचेतथा तस्य भवेत् । न चासावेाकितया साधर्मिकाणां वात्सल्यमादिशकर तीर्थभावनां वा कुर्यात् शङ्कायो वा दोषा देशतः सर्पतो वा तस्य भवेयुरित्येवं दर्शनमसी परिहरति तथा 'थी' इत्येकाकिन्या स्त्रिया सम्भादि नाऽऽत्मपरोभयसमुत्या दोषा भवेयुः । 'सोहि नि सोधिःप्रायश्रितं तदपराधमापन्नस्थ तस्य को नाम ददातु। अनुधमता च तस्य सारणादीनां निष्पादिव' ति भवेत् नियन्यगागुर्वाज्ञेति यावत् निर्गतः प्रग्रहादिति निष्प्रग्रहस्तस्य भावनिता गुर्वाज्ञाया श्रमावान्पाणिपादमुखधावना दिनिराकरोतीत्यर्थः एवं चरतविषयपरित्याग इति । किंव सामभवजोगार्थ को मिहिण्णसंधुओ होइ । दंसणनाणचरित्ता - ण मइल पावई एक्को ॥ ७०५ | स एकाकी आमरायभाविनां विनययापतीनां यो गानां बाह्यो नाऽऽभागी भवति । गृहिणामगारिणां संज्ञा समाचारस्तस्यां संस्तुतः परिचयवान् भवति दर्शनानार प्राणां मालिन्यमेकः सन् प्राप्नोति । तत्राभि परिणामितमतेर हो मीणामपि दर्शनं निपुणो का परि तसंवर्तित समीचीनभिव प्रतिभासते इत्यादिना विस विप्लवेनोन्मार्गप्ररूपण्या वा दर्शनमालिन्यं विशाखिलमास्यायनापितान्यभ्यस्वतस्तेषु बहुमानबुद्धिं कुर्वतो कानमालिन्यं पुनरेकाफि सुप्रीतमेव ।
अथ गृहसंज्ञासंस्तुतः कथं भवतीत्युच्यतेकपमकर गिहिकजे, संतप्पद पुच्छई तर्हि वसई | संथवसिहदोसा भासा हिमनदुसोगो य ॥ ७०६ ॥ गृहकार्ये क्रयविक्रयादावनभिमते कृते, अभिमते वा श्र
संतप्यते सन्तापमनुभवति यथा अशोभनं समजनि यदेतेनागारिणा श्रमुकं वस्तु व्यवहृतम्, अमुकं न व्यवहुतमित्यादि । तथा पुष्यति लामादिकां बार्त्ता च तस्य पार्श्वे पृच्छति, तहि वसई 'ति तत्र तेषां गृहस्थानां मध्य प्रवासौ वसति, तत्र च घसतो नि
बिहार रन्तरं यस्तैः सह संस्तपस्तेनात्यन्तिकः स्नेहस्तेषु समुअसति तद्वान् तदीयपस्या यत् क्रीडापनं यचारगदि तादिशिक्षापणं यच्च तदुपरोधतः कुण्टलविण्ट लादिकरणं तदेवमादयो दोषा द्रष्टव्याः, तथा भाषां-- सावद्याम सावगीवातावात् आवक ! गभ्यतामा गभ्यतामुपविश्यतामित्यादि गृहिरके व वस्तुजाते केनचिचीरादिना हते स्वयं वा नष्टे तस्य स्नेहातिरेकतः शोकः-- परिदेवनादिरूपः स्यादिति, यत एवंविधदोषोपनिपातस्तत एकाकिविहारविरहेण गच्छ्वाखमध्यासीनेन साधुना यावज्जीवं विहरणीयम् । पृ० १ ० १ प्रक० कीदृशस्य गच्छो दीयते ? अयोग्यस्थ वा गच्छं प्रयच्छन् अयोग्यो वा गच्छं धारयन् कीदृशं प्रायचितं प्राप्नोति इति 'गदर' शब्दे भागे ८२० पृष्ठे ।) (प्रायवित्तविषयः 'पच्छित्त' शब्देऽपि पञ्चमभागे २०३ पृष्ठे गतः । ) (७) आचार्यस्योपाध्यायस्यैकाकिनो विहारो न कल्पतेनो कप्पर आयरियउपज्झायस्स एमाणियस्स हेमंतगिम्हासु चरिए ॥ १ ॥ कप्पड़ आयरियउवज्झायस्स अप्पचिइयस्स हेमंतगिम्हासु चरिए ॥ २ ॥ णो कप्प गावच्छेइयस्स अप्पत्रीयस्स हेमंत गिम्हासु चरिए ॥ ३ ॥ कप्पर गणावच्छेइयस्स अप्पतइयस्स हेमंतगिम्हासु चरिए ॥ ४ ॥ णो कप्पड़ आयरियउवज्झायस्स अप्पचीयस्स वासावासं वत्थए || ५ || कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए || ६ || यो कप्पड़ गयावच्छेइयस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए ॥ ७ ॥ कप्पड़ गणावच्छेइयस्स अप्पच उत्थस्स वासावासं वत्थए ॥ ८ ॥ से गामंसि वा० जाव संनिवेसि वा बहूणं यरिय उवज्झायाणं पबियाणं, गणावच्छेइयाणं अप्पतइयाया, कप्पइ हेमंतगिम्हासु चरिए अन्नमरणं णिस्साए ॥ ६ ॥ से गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा बहूणं आयरियउवज्झायाणं अप्पतइयाणं बहूणं गणावच्छेइयाअप्पचउत्थाएं कप्पर वासावासं पत्थए मन्नं निस्साए ।। १० ।। ( व्य० )
म कल्पते आचार्यश्योपाध्याय समाहारो - चार्योपाध्यायं तस्य आचार्योपाध्यायस्य चेत्यर्थः एकाकिनो हेमन्तग्रीष्मयोः शीतकाले उष्णकाले चेत्यर्थः, चरितुंविहर्तुम् ॥ १ ॥ कल्पते श्राचार्यस्योपाध्यायस्यात्मद्वितीयस्य हेमन्तग्रीष्मश्चरितम् ॥ २ ॥ एवं द्वे सुत्रे गावच्छेदकस्य भावनीये नवमत्रा (३) आत्मनिषेधः द्वितीयसूत्रे (४) स्वारम तृतीयस्यानुना । एवममीषां चत्वारि वर्षायापपि वेदितव्यानि नरमत्र प्रथमसूत्रे(2) प्राचार्यस्योपाध्यायस्य वामद्वितीयस्य प्रतिषेधो द्वितीय) स्वात्मीयस्यानुशा तृतीय (७) गावच्छेदकस्यामनीयस्य प्रतिषेधः चतुर्यसूत्रे () स्वात्म चतुर्थस्पानुदेतिया बाजयस्वतोऽपि विहारो न कल्पते यस बर्ष जघन्यादिभेदतो विहारपरिमाणम्।
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बिहार
पणगो व ससगो वा, कालदुगे खलु जहम्मतो गच्छो । बचीसाइसहस्त्रो उकोसो सेसमो मन्को ॥ ४ ॥ कालनिके ऋतुबद्धे काले, वर्षाकाले च जघन्यतः खलु यथाक्रमं गच्छो भवति, पञ्चकः सप्तकन्ध । पञ्च परिमाण - मस्य पञ्चकः, एवं सप्तकः, वाशब्दः समुच्चये । किमुक्लं भवति तु काले पक्षको वर्षाकाले सरका मिति चेत् , उच्यते-नवशे काले आचार्य आत्मश्रीयो गावच्छेदकत्वात्मीयः एवं पचकः । वर्षाकाले जघन्यत आचार्य आत्मतृतीयो मयावच्छेदकः आत्मच तुर्थः पर्ष सप्तक इति उत्कर्षतः कालशिकेऽपि द्वात्रिंशत्सहस्राणि । तथा च भगवत ऋषभस्वामिनो ज्येष्ठस्य गणधरस्य पुण्डरीकनानो द्वात्रिंशत्सहस्रो गच्छोऽभूत् । शेषकःशेषपरिमाणो मच्छो मध्यमः ।
(८) सम्प्रति जघन्यतः पञ्चकसप्तकाभ्यां हीनतायाः प्रायधितमाद
उठवासे लहुलगा, एए गीते भगीते गुरुगुरुगा । अकपसुषाण राचि लहुओ लहुया वसंतासं ॥ ५ ॥
उडत ऋतुकाले पञ्चकाय हीनानां गीतार्थानां विहरतां प्रायश्चित्तं लघुको मासः । ' वाले 'ति वर्षाकाले ससकात् हीनानां गीतार्थानां विहरतां चत्वारो लघुका मासा, पते लघुलघुका गीते गीतार्थविषयायाः । गीते अमीतार्थविषयाः पुनर्गुरुगुरुकाः किमुकं भवतिऋतुकाले पञ्चकात् हीनानामगीतार्थानां वसतां प्रायश्चित्तं गुरुको मास, वर्षाकाले सप्तकात् हीनानामगीतार्थानां च चत्वारो गुरुका मासाः । श्रकृतश्रुतानामगृहीतोचित - सूत्रार्थतदुभयानां बहुनामपि पचफसलकादीनामपि वसतां यथाक्रममृतुकाले प्रायश्चित्तं लघुको मासः, वर्षाकाले खत्यारो लघुकाः।
(१२८१) अभिधान
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अत्र चोदक आह-एवं सुचविरोहो, अत्थे वा उभयतो भवे दोसो । कारणियं पुण सुनं इमे य तहि कारणा हुंति ॥ ६ ॥ यदि नामेतद् जघन्यादिभेदेन गच्छपरिमाणं तत एवं सति सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयता विरोधे दोषो भवेत् स्बेऽन्यथा विहारानुज्ञानात् । अत्राचार्यः माह- कारणिक कारणैर्निर्वृत्तं पुनरिदं सूत्रमतो न दोषः । तानि च कारयानि पुनरिमानि वक्ष्यमाणानि तत्राधिकृतसूत्रप्रवर्त्तनतो भवन्ति ।
तान्येवाहसंघय पाउलया, नवमे पुष्यम्मि गमयमसिवादी । सागरजाये जयणा, उउबद्धे लोयणा भणिता ॥ ७ ॥ या कारणविषया शेषयन्यविषया व सुचागाथा ततोऽयं संक्षेपार्थः संहननं ययुत्तमं भवति व्याकुलता वा व्याकुलीभवनं वा गच्छे, नवमे वा पूर्वे, उपलक्षणमेतत् स्शमे या सूत्रमभिनवगृहीतं सम्यक स्मसंयमस्ति गमनं वा शिवादिभिः शिवाय
३२१
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राजेन्द्रः ।
बिहार
शम्, 'सागर' ति स्वयम्भूरमणसदृशमतिप्रभूतमनेकासि - शयसम्पन्नम् नवमं पूर्व परावर्त्तनीयमस्ति, ततः पतेः कारपि विरेयाताम् । तथा-'जाते' चि जातादिकल्पो वक्तव्यः, तत्रापि भङ्गचतुष्टये प्रथमवर्जेषु शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु यतना वक्तव्या । तथा ऋतुबद्धे काले आगच्छगच्छद्भिरविरहितं तत् स्थानं कर्तव्यं गणिनाऽप्यवलोकमा स्वयं करणीया कारीया था। पतानि कारणान्पधिकृतसूत्रप्रवृत्तौ भणितानि ।
साम्यतमेनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतः संहननमिति परं व्याख्यानयतिवायरिय उवज्झाया, संघयणधितिए जे उ उबवेया । सुभत्यो बहु, गहितो गच्छे व पापातो ॥ ८ ॥ श्राचार्या वा उपाध्याया वा ये संहननेन प्रथमेन वज्र-ऋष - नाराचलचणेन धृत्या च वज्रकुसमानया उपेताः सूत्रमय वा बहु-प्रभूतो गृहीतो गच्छे च सूत्रार्थसारण
व्याघातः ।
(६) कुतो व्याघात इति
उच्यते व्याकुलनातः । तामेव व्याकुलनामाह
धम्मकहि महिडीए, आवस्यनिसिहिया य आलोए । पडिपुच्छ वादि पहुराग, रोगी तह दुल्लभं भिक्खं ॥ ६ ॥ बाउला सा भणिया, जह उद्देसम्मि पंचमे कप्पे । नवम दसमा पुब्बा, अभिवगहिया उनासेखा || १०|| स हि धर्मकथी लब्धिसम्पन्नस्ततो भूयान् जनः श्रोतुमागच्छतीति धम्मंकथथा व्याकुलना तथा महर्दिको राजादिः धर्म्मश्रवणाय तस्य समीपमुपागच्छति, ततस्तस्य विशेषतः कथनीये तदावर्तने भूयसामावर्जनादन्यथा व्याकुलनातः सम्यग् धर्म्मग्रहणाभावे तस्य रोषः स्यात् । तसिंग रुऐ भूयांसो दोषाः। अथवा अन्यः कथनापि मद्द जिंकाय कथयति, तदानीमपि तुष्णीकैर्भवितव्यं मा भूत् कोलाहलतस्तस्य सम्यग्धर्म्माप्र तिपत्तिरिति कृत्या तथा महति गच्छे बहव आवश्यक निर्गच्छन्तः कुर्वन्ति बहवः प्रविशन्तो नैषेधिक ते सम्यग्निरीक्षणीयाः, अन्यथा तयोरकरणे उपलक्षणमेतदन्यस्या अपि सामाचार्याः प्रत्युपेक्षणाऽदेः सम्यकरणे यदि स्मारणं न करोति तत उपेक्षाप्रत्ययप्रार्याश्वसम्भवस्तत आवश्यकादिनिरीक्षणायां व्याघातः । तथा भिक्षामटित्वा समागतस्य तस्य सहाटकस्वालोचयतो यदि पठ्यते तदा विकटनायामप्रेतनस्थ पश्चात्तनस्य च सम्मोहः, सम्मोहाच्च सम्यगनालोचना, सद्भावाच्चरव्याघात इति तदाऽऽलोचनायां न पठनीयम्। तथा च गच्छे वसतो बद्दवः प्रतिपृच्छानिमित्तमागच्छन्ति, ततस्तेषामपि प्रत्युत्तरदाने व्याघातः । तथा तं हुतं तत्र स्थितं श्रुत्वा वादिनः समागच्छन्ति ततस्तेऽपि निग्रहीतस्याः, अन्यथा प्रवचनोपघातस्ततस्तन्निग्रहणेऽपि व्याकुलना तथा महति गये बद्दचः प्राघूकाः समागच्छ न्ति ततस्तेषां विभ्रामण्या पर्युपासनया च व्याघातः तथा बहचः खलु महति गये महानास्तेषां यावदालोचना धूयते तावव्याकुलन तथा मद्दति गणे भूयसां प्रा
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विहार
(१२८२)
अभिधानराजेन्द्रः। कादीनां प्रायोग्यं दुर्लभमिति साधवः केऽपि कुत्राप्यन्य- स्यवस्तमपहार्युरिति कृत्वा द्वयोरत्युपपधिर्मृतकशरीरं वाअप्रेषणीया इति व्याघातः। 'वाउलणा सा' इत्यादि, एषा | न्यतरेण वोढव्यं ततो ये कालगतानां देहं द्वयोरुपधि या व्याकुलना यथा कल्पे-कल्पाध्ययने पञ्चमे उद्देशे सविस्तर वोढुं समर्थास्ते अधिकृतसूत्रविषयाः। मणिता तथाऽत्रापि द्रष्टव्या । 'नवमदसमाउ पुग्वे' ति व्या
तथा चाहक्यानर्यात, नवमे दशमे पूर्वे अभिनवे गृहीते यदि सततं न
एयगुणसंपउत्ता, कारणजाएण ते दुयग्गाऽवि । स्मयते ततो नश्येतामतोऽर्थ द्वयोर्विहारः ।।
उउबद्धम्मि विहारो, एरिसयाणं अणुनातो ॥१४॥ 'गमणमसिवादी' ति व्याख्यानार्थमाह
एतैरनन्तरगाथोक्नर्गुणैः सम्प्रयुक्ता एतहणसम्प्रयुक्ताः, काअसिवादिकारणेहिं, उम्मुगनायं ति होज जा दोमि।। रणजातेनानन्तरोदितेन केनचित्कारणविशेषेण तावाचासागरसरिसं नवमं, अतिसयनयभंगगहणता ॥ ११ ॥ र्यादिकावुणध्यायादिको वा ऋतुबद्ध काले विहरतो नकअशिवं नाम-मारिः सा उपस्थिता तत्र च बातमुल्मुकं
श्चित् दोषोऽधिकृतसूत्रेणानुज्ञानात् , तथा चाऽऽह-रिशयोयथा उल्मुकानि बहून्येकत्राहृतानि ज्वलन्ति एकं द्वौ वा
तुबद्धे काले अधिकृतसूत्रेण विहारोऽनुशातो दोषाभान ज्वलतः, एवं त्रिप्रभृतिषु बहुषु मारिः प्रभवति नैकस्मिन्
पात्कारणविशेषस्य च गरीयस्वात् जातेति चत्वारः कल्पाः इयोर्वा । तत एवमशिवकारणेनादिशब्दादवमौदर्येण राज
सूचिताः। प्रद्वेषतो वा गणभेदस्तावद्भवति यावत् पृथक पृथक् द्वा
तानेवाऽऽहबपि भवेतामतो नानुपपन्नो द्वयोर्विहारः। 'सागरे' नि व्या- जातो य प्रजातो वा, दुविहो कप्पो उ होति नायब्बो। ज्यानयति सागरसदृश-स्वयम्भूरमणजलधितुल्यं नव
एकेको वि य दुविहो,समत्तकप्पो य असमत्तो ॥ १५ ॥ ममुपलक्षणमेतत् , दशमं च पूर्वम् । कस्मादित्याह-अतिशयनयभनादनकैरतिशयैरनेकैनयैरनेकैमेजैश्च गुपिलत्वात् , ततो
द्विविधः खलु कल्पो भवति सातव्यस्तद्यथा-जातोऽजाउ-गीतार्थानामतिशयाकरर्णनं मा भूत्, नयबहुलतया भा
तश्च । एकैकोऽपि च द्विधा-समाप्तकल्पः,असमाप्तकल्पश्च । बहुलतया वा बहूनां मध्ये परावर्तनं दुष्करमिति द्वयो
एतानेव चतुरो व्याख्यानयतिबिहारः।
गायत्थो जायकप्पो-ऽगीतो खलु भवे प्रजातो तु ।
पणगं समत्तकप्पो, तदनगो होति असमत्तो ॥ १६ ॥ पाहुडविजातिसया, निमित्तमादी सुहं व पइरिके। जातकल्पो नाम-योगीतार्थःसूत्रार्थतदुभयकुशलः,अगीत:
अगीतार्थः खलु भवेदजातो-ऽजातकल्पः । समाप्तकल्पो नाम छेदसुयम्मि व गुणणा,अगीयबहुलम्मि गच्छम्मि॥१२॥
परिपूर्णसहायः, स च जघन्येन पञ्चकं-पश्चकपरिमाण ऋतुप्राभूत-पयोतिषप्राभृतं गुणयितव्यं विद्यातिशया नाम विद्या
बद्धे काले-वर्षाकाले सप्तपरिमाणः तदनकस्तस्मात्पश्चकात्सविशेषा वैराकाशगमादीनि भवन्ति ते वा परावर्तनीया ब
सकाद्वा हीनतरः कल्पो भवत्यसमाप्तोऽपरिपूर्णसहायत्वात्। सन्ते । निमित्तम्-अतीतादिभावप्ररूपकम् , अादिशब्दात्
अत्र भनचतुष्टयं तदेवाहयोगा मन्त्राश्च परिगृह्यन्ते । पते सर्वेऽपि सुख-सुखेन प्रति.
अहव जातो समत्तो, जातो चेव य तहेव असमत्तो। रिक्त-विविक्त प्रदेशे अभ्यस्यन्ते, न अगीतबहुले-अगीतार्थसंकुले गच्छे छेदश्रुतस्य व्यवहारादेर्गाथायां सप्तमी षष्ठयर्थे
असमतो जातो य, असमत्तो चेव उ अजातो ॥१७॥ गुणना-परावर्तनम् कर्तुं शक्यम् , मा तेषामगीतार्थानां क
अथवेति प्रकारान्तरे पूर्व कल्पचतुष्टयं सामान्यतःप्ररूभ्यटनतः श्रुत्वा विपरिणामतो गच्छान्निर्गमनमभूदिति
पितमिदानीं संयोगतः प्ररुप्यते । जातकल्पोऽपि समाप्तकसूरेरुपाध्यायस्य चात्मद्वितीयस्यान्यत्र गमनम् ।
स्पोऽपीत्येको भक्तः । जातकल्पोऽसमाप्तकल्प इति द्वितीयः।
प्रजातकल्पः समाप्तकल्प इति तृतीयः । अजातकल्पोऽसमा. (१०) सम्प्रति यारशे द्वयोरन्यत्र गमनमुचितं तादृशमाह
प्रकल्प इति चतुर्थः । अत्र प्रथमभङ्गः शुद्धः, शेषेषु तु त्रिकयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुयरहस्सा। घु भनेषु यतना कर्त्तव्या। जे य समत्था वोढुं, कालगयाणं उवाहिदेहं ॥ १३॥ । 'तेसिं 'जयणे ति सूचागाथोकं पदं व्याख्यानयन् प्राहकृतकरणानामगीतार्थतया-परिणामकतया चाम्यवापि तेसि जयणा इणमो, भिक्णग्गहनिक्खमप्पवेसे य । अन्यैः सहानेकशःईशानि कार्याणि कृतवन्तः । यद्यपि च ऽणुमवणं पिव समगं, बेंति य गिहें दिजहोहाणं ॥१८॥ कदाचित् द्वितीयं सहायं न कृतवान् तथाऽपि योग्यतया तेषामाधवजीनां त्रयाणां भजानामिय यतना-समकमेकसत्करणीय इव द्रष्टव्यः । स्थविराः श्रुतेन पर्यायेण च,तथा कालं भिक्षाग्रहाय उपलक्षणमेतत् विचाराय च निकमः, सूत्रार्थयोर्विशारदाः सूत्रार्थविशारदाः, तथा श्रुतानि रहस्या- समकमेव चावग्रहस्यानुशापनम् । इयमत्र भावना-भिक्षाननि अनेकान्यनेकशो यैस्ते श्रुतरहस्या इति सहायं प्रति विशे- | हणाय विचाराय या सर्वमुपकरणमादाय समकमेव निष्कापणं सूररुपाध्यायस्य वा पूर्वगतसूत्रार्थधारिणोऽधिगतच्छे- मतः समकमेव च प्रविशतः, तथा वसति प्रथमं याचमादश्रुतस्य च श्रुतरहस्यत्वाव्यभिचारात्, तथा योरे- नौ समकमेव शय्यातरमनुशापयतः, तथा निर्गच्छन्ती सकतरस्मिन् कालगते अपरेण शरीरपरिस्थापनिकां कर्तुं ग- मकमेव शय्यातरसमीपमुपगम्य अवाते, यथा-गृहे-गृहस्य छता द्वयोरप्युपधिः शून्यायां बसती म मोक्रव्यो नद-प्रतिक्षयस्य उपधान-स्थगनं दद्यादिति ।
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विहार
(१२८१)
अभिधानराजेन्द्रः। 'उबुबद्धे'ति पदव्याख्यानार्थमाह
रिगह-एकक्षेत्रस्थितानां मार्गणा कर्त्तव्या, कस्य क्षेत्रे भवति उडुबद्धे अविरहियं, एतं जं तेहि होइ साहूहिं । कस्याक्षेत्र; कस्य नाऽभवति क्षेत्रमित्यर्थः।
तत्र परस्परोपसम्पदा समाप्तकल्पभूतानां भवत्यन्येषां म कारेइ कुणइ व सयं, गणी वि ओलोयणमभिक्खं ।१६।
भवतीत्येवमर्थ तथा चैतदेव नियुक्तिकृत् सविस्तरमाहऋतुबद्ध काले तयोः कारणवशतस्तथास्थितयोस्तत्स्थानमागच्छििभक्षार्थ ग्राम प्रविद्भिर्विचारार्थाय वा नि
उउबढे समत्ताणं, उग्गहो एगदुगपिडियाणं पि । र्गत्य मिलनार्थमायद्भिर्गच्छद्भिश्च पुनः स्वस्थानं प्रति प्र- साहारणपत्तेगे, संकमति पडिच्छए पुच्छा ॥ ६८॥ चलद्भिः साधुभिरविरहितं भवति ' ओलोयण ' त्ति पदं पञ्च जनाः समाप्तकल्पा ऊना असमाप्तकल्पाः,ऋतुबद्धे काले व्याख्यानर्यात-योऽसौ गणी प्राचार्यः सोऽपि तयोईयोजन- | बहूनामाचार्याणां परस्परोपसंपदा समाप्तकल्पानामेकद्विकयोरवलोकना-गवेषणामभीक्षणं द्वितीय तृतीये वा दिने स्वयं |
पिरिडतानामपि पश्चाप्येककाः सन्तः पिण्डिताः एकपिकरोति अन्यैर्वा कारयति ।
रिडताः । अथवा-द्विकेन वर्गद्वयन एका-एकाकी एकश्चउपसंहारमाह
तुर्वर्गः । अथवा-एको द्विवर्गोऽपरत्रिवर्ग इत्येवरूपेण पि. एएहि कारणेहि, हेमंते गिम्हें अप्पबीयाणं ।। रिडता द्विकपिरिडतास्तेषामेकद्विकपिरिडतानामपिशब्दाधिइदेहमकंपाणं, कप्पति वासो दुवेएहं पि ॥२०॥
स्-त्रिवर्गपिरिडतानां चतुर्वर्गपिण्डितानामपि नत्र त्रिवर्गपिएतैरनन्तरोदितैर्व्याकुलनादिभिः कारणैर्हेमन्ते-शीतकाले
ण्डिता द्वावप्येकाकिनावेकत्रिवर्गः, चतुर्वर्गपिण्डितास्त्रय
एकाकिन एको द्विवर्गः अवग्रह आभवति । न शेषाणामसप्रीष्मे-धर्मकाले द्वयोरप्यात्मद्वितीययोराचार्योपाध्याययो.
माप्तकल्पस्थितानां यदि पुनीं गच्छौ समाप्तकल्पावेकत्र क्षे. धृत्या देहेन चाकम्पयोरचाल्ययोधृतेर्वनकुड्यसमानत्वात् ,
वे समकं स्थिती स्यातां तदा तत् क्षेत्रमामवति, द्वयोरपिं देहस्य च प्रथमसंहननात्मकत्वात् कल्पते वासस्तदेवमृतुबद्ध
तयोः साधारणम् । तश्च साधारण क्षेत्र तेषां समाप्तकरूपतकालविषयाणि सूत्राणि भाष्यकृता प्रपश्चितानि । (व्य० ४
या प्रत्येक स्थितानां मध्ये ये सूत्रार्थनिमित्तं यानुपसम्पद्यन्ते उ०।) (वसतिविषयः 'वसहि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६६८
तत उत्तीर्य तेषामुपसम्पद्विषयाणामाभाब्यतया संक्रामति । पृष्ठादारभ्य रष्टव्यः)
तथा चाह-साधारण क्षेत्र प्रत्येक व्यवस्थितमपि प्रतीच्छके अस्य (6) सूत्रस्य सम्बन्धमभिधित्सुराह
प्रतीच्छकादुत्तीर्य तेषां संक्रामति ते हि प्रतीच्छाकास्तन्निंइति पत्तेया सुत्ता, पिंडगसुत्ता इमे पुण गुरूणं ।
श्रामुपपन्नास्ततस्तेषां क्षेत्रमितरेषां संक्रामति । अथ प्रतीच्छदुप्पभिई तिप्पभिई, बहुत्तमिह मग्गणा खेत्ते ६६ ॥ का नोपसम्पद्यन्ते केवलं 'पुच्छ 'त्ति पृच्छामाचं सूत्रार्थवि. इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारेणाऽष्टी प्रत्येकानि-प्रत्येकभावीनि षया क्रियते तदा 'पुच्छ ' त्ति इत्यादिना मार्गणा कर्तव्या। सुत्राण्युक्तानि प्रत्येकानन्तरं चः समुदाये इति, इमे पुनद्वै ब
अत्रैव विशेषमाहक्यमाणे पिण्डकसूत्रे । केषां पिण्डक इत्याह-गुरूणामाचा- अप्पवितियप्पतइय-द्वियाण खेत्तेसु दोसु दोण्हं तु । र्यादीनाम् । प्राचार्यादिसमुदायविषये इत्यर्थः । अनेन सम्ब- उद्धवद्धे होइ खेतं, गमणागमणं जतो अस्थि ॥६६॥ न्धेनायातस्यास्य(सू०६)व्याख्या-'से' शब्दोऽथशब्दार्थः। अथ
एकस्मिन् क्षेत्रे एक आचार्य उपाध्यायो वा आत्मद्वितीयः प्रामे वा यावत्करणात्-'नगरंसि वा पट्टणंसि वा मडंबंसि स्थितोऽपरस्मिन् क्षेत्रे अपर प्राचार्य उपाध्यायो गणावच्छेवा' इत्यादिपरिग्रहः, सन्निवेशे वा बहूनां द्वित्रिप्रभृतीनामाचा- दको घाऽऽत्मतृतीयःस्थितः, केवलं परस्परमुपसंपदा ततस्तयोपाध्यायानामात्मद्वितीयानां बहूनां द्वित्रिप्रभृतीनां गणाव
यो योरपि क्षेत्रयोरात्मद्वितीयात्मतृतीयस्थितयोः ऋतुबद्धे च्छेदकानामात्मतृतीयानां हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुं कल्पते -
काले तदुभयमपि क्षेत्रमाभाव्यं भवति । कुत इत्याह--गमन्योन्यनिश्रया परस्परोपसंपदा । अथ प्रामे वा यावत्सनि
नागमनं यतः परस्परमस्ति परस्परोपसंम्पन्नत्वादतः समाबेश वा बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मतृतीयानां बहूनां ग
सकल्पतया भवत्याभाव्यमिति । णावच्छेदकानामात्मचतुर्थानां च वर्षावासं वस्तुं कल्पते
(११) सम्प्रति यैः कारणैरुपसम्पद्यते तान्याहअन्योन्यनिश्रयेत्येष सूत्रसंक्षेपार्थः ॥६॥ अत्र बहुत्वव्याख्या
खेत्तनिमित्तं सुहदु-क्खतोबसुत्तत्थकारणे वाऽवि । नार्थमाह-दुप्पभिड' इत्यादि द्विप्रभृति त्रिप्रभृति वा पत्र बहुत्वमवगन्तव्यम् । किमर्थमिदं सूत्रमिति चेत्, उच्यते-इह
असमत्ते उवसंपय-समत्ते सुहदुक्खयं मोतुं ॥ ७० ॥ मार्गणा क्षेत्रे कर्तव्येत्येतदर्थम् एकस्मिन् क्षेत्र स्थितानां क
असमातस्य असमाप्तकल्पस्योपसम्पद्भवति क्षेत्रनिमित्तं सु. स्य क्षेत्रमाभावति कस्य नेति चिन्तायां ये परस्परनिश्रया:
खदुःखहेतोर्वा सूत्रार्थकारणाद्वा। किमुक्तं भवति-अन्यत् ता. समाप्तकल्पा वर्तन्ते तेषामाभवति,अन्येषां नेत्येवमर्थमित्यर्थः।
दृशं क्षेत्र न विद्यते। यदिवा-असमाप्तकल्पतया विहरतां दु:पतदेवाक्षेपपुरस्सरमाह
खं, समाप्तकल्पतया विहरतां सुखमिति सुखदुःखहेतोः, अथहेट्ठा दोएह विहारो, भणितो किं पुण इयाणि बहुयाणं ।
वा-सूत्रार्थकारणावा असमाप्तकल्पा अन्यं गच्छमुपसम्पद्य
न्ते इति, समाप्ते समाप्तकल्पस्य पुनरुपसम्पदि सुखदुःखतां एगक्खित्तठियाणं, तु मग्गणा खेत्त अक्खेत्ते ॥ ६७॥ मुक्त्वा शेषाणि कारणानि द्रष्टव्यानि । समाप्तकल्पा अभ्यऋतुबद्धे काले द्वयोर्विहारोधस्तात्पूर्व द्वितीयसूत्रे उपलक्ष- क्षेत्र तादृशं नास्तीति क्षेत्रनिमित्तं सूत्रनिमित्तं तदुभयनिमिणमेतत् वर्षासु षष्ठसूत्रेण त्रयाणां ततस्तेनैवेदं गतार्थमिति
तं वाऽन्यद् गच्छान्तरमुपसम्पद्यन्ते न सुखदुः-खहेतोःसकिम्-किमर्थ पुनरिदानी बहुकानामाचार्यादीनां? सूत्रम्, सू-| माप्तकल्पतया तेषां विहरणे दुःखाभावादिति भावः ।
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अभिधानराजेन्द्रः। मथ ते कथमेकाकिनोऽसमाता वा जाता इत्यत पाह
साधारणट्ठियाणं, सेहे पुच्छंतुवस्सए जो उ । पडिमग्गेसु ममसु व, असिवादीकारणेसु फिडिया वा।। दरत्थं पिहुनिययं, साहेति उत्तस्स मासगुरु ॥११०॥ एएण तु एगागी, असमत्ता वा भवे थेरा ॥ ७१॥ ।
विचारादिविनिर्गतं साधु रष्टा कोऽपि शैक्षकः पृच्छति शेषेषु साधुषु व्रतात् प्रतिभन्नेषु वा मृतेषु वा । अथवा-ये
कुत्र साधूनां वसतय इति, एवं साधारणस्थितानाम्-साधाअशिवादिभिः कारणैः स्फिटिताः-परस्परं वित्रुटिता एतेन
रणक्षेत्रावस्थितानामुपाश्रयान पृच्छति शैक्षो यो निजकमास्थविरा एकाकिनोऽसमाता वा भवेयुः।
स्मीयमुमाश्रय दूरस्थमपिशवात्-प्रत्यासत्रं षा साधयतिसाम्प्रतम् ‘एगदुगपिण्डियाणं (६५) इत्यस्य कथयति तस्य हु-निश्चितं प्रायश्चित्तं मासगुरु। व्याख्यानार्थमाह
किं कथनीयमिस्याहएगदुगपिडिया वि हु, लम्भति प्रमोपनिस्सिया खेत् ।
सम्वे उदिसियम्वा,(अह)पुच्छर कयरोय एत्थ पायरितो। असमत्ता बहुया विहु,न लभंति अणिस्सिया खतं ।७२।
बहुस्सुय तवस्सि पव्वा-यगोय तस्थ वि कहेयव्वा।१११॥ एककाः पिण्डिता एकपिरिडताः, द्विकेन-वर्गद्वयेन पिण्डि
सर्वे यथाक्रममुपाश्रया उद्देष्टव्याः, यथा-अमुकस्याचार्यताः अपिशब्दात्-त्रिकपिण्डिताश्चतुष्कपिण्डिताश्च । -
स्योपाश्रयोऽमुकप्रदेशेऽमुकस्याऽमुके इति, एवं कथिते यत्र मीषां भावना प्रागेवोक्ता हु-निश्चितम् , अन्योऽन्यनिधि
याति तेषामाभवति । अथ स पृच्छेत् कतरोऽत्राचार्यः बहुश्रुसाः-परस्परमुपसम्पन्ना लभन्ते क्षेत्रम् , ये पुनरसमाप्ताः पर
तो वा तपस्वी या प्रवाजको वा तत्रापि तस्यामपि पृच्छास्परोपसम्पदग्रहणाभावतोऽसमाप्तकल्पास्तिष्ठन्ति ते परस्प
यां तथैव कथनीयमन्यथा कथने मासगुरु । रमनिश्रिताः, 'निमिसकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायादत्र हेतौ प्रथमा। ततोऽयमर्थः-परस्पर
सव्वे सुयत्था य बहुस्सुया य, मनिश्रितस्वात् बहुका अपि सन्तो हु-निश्चितं न लभन्ते
पव्वावगा पायरिया पहाणा। क्षेत्र समाप्तकल्पानामेव क्षेत्रस्याऽऽभवनात् । तथा पूर्वाचा
एवं तु वुत्ते समुवेति जस्स , यकृतिस्थितिः।
सिद्धे विसेसो चउरो य किएहा ॥ ११२ ॥ जइ पुण समत्तकप्पो, दुहा ठितो तत्थ होज चउरखे।
अथ सर्वे श्रुतार्थाः सर्वे बहुभुताः सर्वे च प्रव्राजकाः सर्वे चा. चउरोऽवि अप्पभूते, लभंति दो ते इतरनिस्सा ॥७३॥
चार्याः प्रधानास्ततस्तथैव यथाभावं कथनीयाः, पवं तूने यदि पुनः समाप्तकल्पः पञ्चजनात्मको यसतेः सङ्गटनादो- यस्य समीपं समुपैति सस्याऽऽभवति । अथाऽस्मीयानां बहपेणैकस्मिन् क्षेत्रे द्विधा स्थित एकस्यां वसतौ द्वौ जनावप- तरगुणोत्कीर्तनतोऽन्येषां बहुतरनिन्दनेन रागद्वेषाऽऽकुलतरस्यां त्रयस्तथाऽस्मिन् क्षत्रे अन्यस्यां वसतावम्ये चत्वारो | या विशेष कथयति, ततः शिष्टे विशेषे तस्य-विशेषकथकस्य जनाः स्थिता भवेयुस्तथाऽपि चत्वारोऽपि तस्य क्षेत्रस्या:- प्रायश्चित्तं चत्वारो मासाः कृत्स्नाः-परिपूर्मगुरुका इत्यर्थः । प्रभवो न तेषां तत् क्षेत्रमाभाव्यं भवति । यो पुनद्वौ तौ तत्
अथ सर्वेषां मिलितानां स शैक्षः समागत एवं घूयात्क्षेत्र लभेते । कुत इत्याह-इतरनिश्री, अत्राऽपि हेतौ प्रथमा।
धम्ममिच्छामि सोउं जे, पव्वइस्सामि रोइए। यतस्तावितरत्रयनिश्रातः समाप्तकल्पत्वाल्लभन्ते । अथ कस्मादसमाप्तकरूपानामेकाकिनां चाभाव्यं क्षेत्र नम.
कहणालवितो हीणो, जो पढम सो उ साहति ॥११३॥ बतीत्यत पाह
धर्मे श्रोतुमिच्छामि युष्माकं पार्थे 'जे' इति पादपूरणे, श्रुएगागिस्स उ दोसा, असमत्ताणं च तेण थेरेहिं ।। ते धमें रुचिते-प्रतिभासिते सति प्रजिष्यामि एवमुक्त एस ठविया उ मेरा,इति वि हु मा होज एगागी ॥७४॥ कथना सा धर्मस्य भवति । कः कथयतीति चेदत प्राहयत एकाकिनः सतोऽसमाप्तानां च-असमाप्तकल्पानांच
यो लब्धितः कथनलब्धेरहीनः स प्रथम साधयति-कथयति ।
अथाऽन्येऽपि द्वित्रिप्रभृतयो लन्धितः समानास्तहि यो रदोषा भूयांसस्तेन कारणेन स्थविरैरेषा मर्यादा स्थापिता
नाधिकस्तेन कथयितव्यम्। स्यपि खलु कारणात् क्षेत्रानाभवनलक्षणात् एकाकिनो समाप्तकल्पा वा मा भूवनिति । व्य०४ उ० ।
पुणो वि कहमिच्छंते, तत्तुलं भासते परो। तत्र साधारणशैक्षं वक्तुमाह
एवं तु कहिए जस्स, उवडायति तस्स सो।। ११४॥ अक्खेत्त जस्सुवठितो, खत्ते वा समठियाण साहारे। । अहं पुनरपि कथां-धर्मकथां श्रोतुमिच्छामीति ततः पुनरपि वायन्तियववहारे, कयम्मि जो जस्सुवट्ठाइ ।। १०६॥ कथां-धर्मकथा श्रोतुमिच्छामीति प्रवीति,ततः पुनरपि कथाअक्षेत्रे स्नानादिप्रयोजनतः काप्येकत्र मिलितानां यो य
धर्मकथा श्रोतुमिच्छति परोऽन्योभाषते परं ततुल्य तावन्मा स्योपतिष्ठति शैक्षः स तस्याऽऽभवति । अथवा-समकमेक
त्रमेवमपरवेलायामन्योऽपि । उक्नं च-'जारिसं पढमेण कहियं कालं ये स्थिताः पृथक पृथक् समाप्तकल्पास्तेषां समकस्थिः |
तारिस सेसहि वि कहेयब्वमिति' एवं प्रदीपकथनसदृशता तानां तत्क्षेत्र साधारणं; तस्मिन् साधारणे क्षेत्रे समक
सर्वैः कथिते यस्योपतिष्ठते तस्य स आभवति । अथाऽन्ये स्थितानाम् , अथवा-पश्चादागता अप्येवं व्यवस्थां कृत्वा
विशेषण विशेषतरेण कथयन्ति तर्हि तेषां न लभन्ते, किंतुप्रविष्टाः-यस्योपतिष्ठति तस्याऽऽभवति, तत एवं वाचन्तिके
यो रत्नाधिकस्तेषां तस्य स भवति । व्यवहारे कृते यो यस्योपतिष्ठति स तस्याऽऽभवति ।
अणुवसंते च सव्वेसिं, सलद्धिकहणा पुण ।
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विहार
(१२५) विहार
अभिधानराजेन्द्र:। राइविवादि उवसंतो, तस्स सो मा य नासउ॥११॥
तामेवाहअथ यारशं प्रथमेन कथितं तारशमन्यैरपि कथिते स नो- समकुलगा कुलथेरे गणथेरे, गणिज्यएयरा संघे । पशाम्यति-न प्रव्रज्याभिमुखीभूतो भवति ततः तस्मिन्न-1 रायणिए थेरेऽसति, कुलादिथेराण वि तहेव ॥११६॥ नुपशान्ते पुनः कथना धर्मस्य सर्वेषां रत्नाधिकादीना-र
यदि ते सर्वे समकुलकाः-समानकुलकास्ततः कुलस्थविरस्य नाधिकप्रभूतीनां स्वलब्ध्या-यथा स्वशक्तुिलनया, एवं च
ददति । अथान्यकुलका अपि विद्यन्ते ततः 'सो' सहस्थकथने यस्य समीपेस उपशान्तस्तस्याऽऽभवति । कस्मादेवं
विरस्य, अथैषां मध्ये तत्कालमेकस्याऽप्यभाषस्तत श्राहकथनेति चेदत पाह-मा सोऽनुपशान्तः सन् नश्यतु
'रायणिए' इत्यादि रत्नाधिकस्थविरस्याभावे कुलादिस्थवि. संसारं परिभ्रमत्विति कृत्वा । अथ सर्वे प्राचार्या एकत्र मिलितास्तिष्ठन्ति स च शैक्षक एवं कश्चन पृच्छति को
राणामपि तथैव अभावे ददति। प्राचार्यस्तत एवं कथनीयम्-सर्वे बहुश्रुताः, सर्वे याs
साहारणं व काउं, दोएिह वि सारेंति जाव अलो उ। ऽचार्याः, सर्वे प्रधाना इति , एवमुक्त यदि शैक्षको ब्रूते यं उप्पजइ सिं सेहो, एमेव य वत्थपत्तेसुं ॥ १२०॥ जानीथ यूयमाचार्य तं मम दर्शयत।
साधारणं वा तं शिष्यं कृत्वा द्वावपि तं तावत्सारयतो तत्राह
यावदन्यशिव्यस्तयोरुत्पद्यते। ततो विभजनमिति । अत्र द्वि. जं जाणह मायरियं, तं देह ममंतिए व भणियम्मि। | ग्रहणं त्रिप्रभृतीनामुपलक्षणं तेन बहूनामप्ययं न्यायो द्रष्टजइ बहुया ते सीसा, दलंति सव्वेसिमेकेकं ।। ११६ ।।
व्यः । एवमेव वस्त्रपात्रेष्वपि साधारणतया सम्पनेषु विधियं जानीथ युग्माचार्य तं मम 'देह' ति दर्शयतेत्येवं भ
द्रष्टव्यः। णिते यदि ते शिष्याः शिष्यत्वेनोपस्थिता बहवो भवन्ति,
अत्र पर आहततः सर्वेषामेकैकं शिष्यं ते एकत्र मिलिताः परस्परसम्म- चोएइ वत्थपाया, कप्पंते वासवासि घेत्तुं जे । स्या ददति-प्रयच्छन्ति।
जह कारणम्मि सेहो, तह तालचरादिसुं वत्था ।।१२१॥ अथ एकः शिष्यस्तत्र विधिमाह
चोदयति शिष्यः वर्षावासे वनपात्राणि प्रहीतुं कल्पन्ते राइणिया थेरा सति, कुलगखसंघे दुगादिणो भेदा। काका पाठयति प्रश्नावगमः । सूरिराह-यथा कारणे पूर्वोपएमेव वत्थपाए, तालायर सेवगा वणिए ॥११७॥ स्थित इत्येवलक्षणे अव्ययच्छित्तिकारको भविष्यतीत्येवं यद्येक एव शिष्यस्तदा यस्तेषां सर्वेषामपि रात्निको रत्ना- रूपे या अपवादतः शैक्षः कल्पते तथाऽपवादतस्तालाचघिकस्तस्य तं समर्पयन्ति । अथ सर्वे समरत्नाधिकास्त- रादिषु वस्त्राणि उपलक्षणमेतत् पात्राणि च कल्पन्ते । तो यस्तेषां वृद्धतरस्तस्य । अथ सर्वे वृद्धास्तहिं यस्य शि- साहारणो अभिहतो, इयाणि पच्छाकडस्स अवयारो। ग्या न सन्ति तस्य । अथ सर्वेषामपि शिष्या न विद्यन्ते
सो उ गणावच्छेइय-पिंडगसुत्तम्मि भलिहिति ॥१२२।। तत इयं सामाचारी-सर्वेषां शिष्याणामसत्यभावे 'कुल' त्ति यदि ते सबै समानकुलास्ततः कुलस्थविरस्य ते वदति ।
यदुक्तं प्राक द्विविधं शैक्षं वक्ष्ये-साधारण, पश्चात्कृतमिति अथान्यकुलसत्का अपि तत्र ते तत पाह-'गण' त्ति गण
च तत्र साधारणः शैक्षोऽभिहितः, इदानी पश्चात्कृतस्याsस्थविरस्य समर्पयन्ति । अथान्यगणसत्का अपि तत्र विद्यन्ते,
वतार:-प्रस्तावः स तु गणायच्छेदकपिएडगसूत्रे गणावच्छेतत आह-'संघ'ति सहस्थविराय ददति । अथवा-स ए
दकबहुत्वसूत्रे भविष्यते तदेवमाचार्योपाध्यायगतान्येकत्वकः शिष्यः साधारणस्तावत् क्रियते यावदन्ये उपतिष्ठन्ते
बहुत्वसूत्राणि भावितानि । उपस्थितेषु च तेषु यदा सर्वेषां परिपूर्णा भवन्ति तदा
संप्रति गणावच्छेदकैकत्वबहुत्वसूत्राणि बिभावयिषुराहविभज्यन्ते । एवं द्विकादयोऽपि भेदा वाच्याः-विप्रभृती- एमेव गणावच्छे, एगत्तपुहुत्तदुविहकालम्मि । नामपि शिष्याणामुपस्थितानामेव विभाषा कर्तव्या । एव- जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वुच्छं समासेणं ॥ १२३॥ मेव-अनेनैव च प्रकारेण वनपात्रेऽपि-वस्त्रपात्रादिलामेऽपि द्रष्टव्यम् । तव वस्त्रपात्राऽदिकं तालाचरा वा दधुः सेव
एवमेवाचार्योपाध्यायसूत्रगतेन प्रकारेण द्विविधे कालेका वा वणिजो वा एतेषां प्रायो वर्षासु दानसम्भवात् ।
ऋतुबद्ध काले वर्षाकाले च गणावच्छेदकैकत्वपृथक्त्वसूत्रा
णि भावयितव्यानि । किमुक्तं भवति-यथा आचार्योपाएनामेव गाथा व्याचिख्यासुः प्रथमतः 'रायणिया
ध्यायानामेकत्वपृथक्त्यसूत्राणि द्विविधकालगतानि व्याख्याथेरा सनि' इति व्याख्यानयति
तानि, या वाऽऽभवति अनाभवति च समाचारी, तथा गरायणियस्स उ एगं, दलंति तुल्लेसु थेरगतरस्स । णायच्छेदकस्याऽप्येकत्वपृथक्त्वसूत्राणि द्विविधकालगतातुलेसु जस्स असती, तहावि तुला इमा मेरा ॥११॥
नि भावयितव्यानि, सैव च सामाचारी अाभवत्यनाभवएकं शिष्यमुपस्थितं रात्निकस्य-रत्नाधिकस्य ददाति ।
तीति, नवरमत्र यन्नानात्वं तदहं समासेन वक्ष्ये । तत्र अथ सर्वे समरत्नाधिकास्ततस्तुल्येषु रत्नाधिकेषु यः स्थ- |
ऋतुबद्धे तापदण्यने यदि गणावच्छेदक आत्मद्वितीयो चिरतरस्तस्य, 1 सर्वे स्थविरतरास्ताई तुल्येषु स्थविरत
घसति तदा तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु । रेषु यस्य शिवमभावस्तस्य, अथ शिष्याभावेनाऽपि सर्वे
इमे च दोषाः-- तुल्यास्तत इयं मर्यादा।
जह होति पत्थणिज्जा, कप्पट्टी नीलकेमीका
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(१२८६) विहार
अभिधानराजेन्द्रः।। तह चेव गणावच्छो,किं कारण जेण तरुणो उ ।। १२४॥ साधारण क्षेत्र स्थिता यदि यथा वारंवारणायाः परयथा 'कप्पट्टी' ति बालिका नीलकेशी-कृष्णकेशी; तरु
स्परं कण्डूयन्ति एवं वारंवारेण परस्परं सूत्रमर्थ वा णीत्यर्थः सर्वस्य तरुणस्य महतो. वा प्रार्थनीया भवति,
गृह्णन्ति, यथाऽहमद्य तव पावें गृहामि कल्ये त्वं मम तथा गणावच्छेदकोऽपि । किं कारणम् ?, सूरिह-येन
पार्श्वे ग्रहीष्यसि । अथवा-पौरुषीप्रमाणेन मुहर्वा वाकारणेन स गणावच्छेदकस्तरुणस्ततस्तरुणतया तरुण्या म
रकं कुर्वन्ति तदा यो यदा यस्य पायें गृह्णाति तस्य ताहत्या वा प्रार्थनीयो जायते ।
वन्तं कालमाभाव्यमितरः सूत्रस्यार्थस्य वा प्रदाता अपह
रति। दोएहं चउकम्मरहस, हवेज छकं न मो न संभवति ।
मह पुवठिए पच्छा, अप्पो एजाहि बहुस्सुतो खेत्ते । सिद्धं लोके तेण उ,परपञ्चयकारणा तिमि ॥१२॥
सो खेत्तुवसंपमो, पुरिमलो खेत्सितो तत्थ ।। १२६।। लोके इदं सिद्ध-प्रतीतं यद् द्वयोश्चतुःकर्ण रहस्यं भवति ष.
अथ पूर्वस्थिते क्षेत्रिके क्षेत्रस्वामिनि गणावच्छेदके टकर्ण, 'मो' इति पादपूरणे । त्रयाणां रहस्यं न सम्भवति.
प्राचार्य वा पश्चादन्यो बहुश्रुतस्तस्मिन् क्षेत्रे आगच्छति तेन कारणेन परप्रत्ययकारणात् परेषां प्रत्ययोत्पादनार्थ त्रयो
तर्हि स तदनुमत्या तत् क्षेत्रमुपसम्पन्न इति तत् क्षेत्रे क्षेत्रिविहरन्ति । इतरथा समर्थः स आत्मनिग्रहं कर्तुम् । प्रयोऽपि
कः-क्षेत्रस्वामी पूर्वतनः एव न पश्चातनः। चोत्सर्गतो न कल्पन्ते तत इदमपि सूत्रं कारणिकमवगन्तव्यम्।
खेत्तेतो जइ इच्छे-जा सुत्तादी उ किंचि गिरोहउं । कारणतश्च तेषां त्रयाणां तिष्ठतामियं यतना
सीसं जइ मेहावि, पेसे खेतं तु तस्लेव ॥ १३० ।। जयणा तत्थुबद्धे, समभिक्खाणुल्म णिक्खम पवेसो।। क्षेत्रिकः-क्षेत्रस्वामी यदि पश्चादागतस्य समीपे किञ्चिन्नु वासास दोगिह चिद्रे.दो हिंडेऽसंथरे इयरे ॥१२६॥ सूत्रादिग्रहीतुमिच्छति तत्र यदि शिष्य मेधाविनं प्रेषयति तत्र ऋतुबद्धे काले इयं यतना-समकं भिक्षा. समकं
तहि क्षत्रं तस्यैवं पूर्वस्थितस्य न पश्चादागतस्य। शय्यातरस्य समीपे वसतेरनुज्ञा, समकं विचारार्थ नि- असती तब्धिहसीसे. अणिखित्तगणे उ वायए संकमति । क्रमः, समकं बसती प्रवेशः । वर्षासु पुनरियम्-द्वौ पश्चात् अहवा य अगीयत्थे, निक्खिवइ गुरुगन य खेत्तं ।।१३१॥ तिष्ठतो हिरडेते एतच संस्तरणे. इतरौ द्वौ गणावच्छे
अथ तथाविधो मेधावी शिष्यो नास्ति नतस्तद्विधे शिष्ये दकतदन्यलक्षणौ वसनेः प्रत्यासम्नेषु गृहेषु वसतिं प्रलोकमा
अति-विद्यमाने अनिक्षिप्ते स्वशिष्यस्य गीतार्थस्य, गण नौ हिण्डेते यावता न पूर्यते तावदितरानीतं गृह्णीतः । इद
यदि सूत्रादि पश्चादागतस्य समीपे वासयति, नर्हि तत्क्षेत्रे मपि वषांविषयं कारणिकम् । अकारणे चतुर तिष्ठतां
पश्चादागते वाचयति संक्रामति । अथागीताथै स्वशिष्ये प्रायश्चित्तं चतुर्लघु।
गणं निक्षिपति निक्षिप्य च पश्चात्सूत्रादि वाचयति, तर्हि सम्प्रति बहुत्वविषये गणायच्छेदकसूत्रे भावयति- अगीतार्थे गणं निक्षिपतस्तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, एमेव बहूणं पी, जहेव भणिया उ अायरियसुत्ते । न च तस्य क्षेत्रं, किंतु-सूत्रादिवाचयितुः पश्चादागतस्य । जाव य सुअोवसंपय, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं ॥१२७ । अह निक्खिवती गीते, होई खेत्तं तु तो गणस्सेव । एवमेव-अनेनैव प्रकारण । किमुक्तं भवति-यथा एक- तस्स पुण अत्तलामो, वायंते न निग्गतो जाव ॥१३२॥ वे ऋतुबद्धे वर्षासु च पूर्व सूत्रमुक्तमेवं बहूनामपि ऋ-| अथ गीते-गीताय शिष्ये गणं निक्षिपति निक्षिप्य च पश्चातुबजे वर्षासु च वक्तव्यम् । भावनाऽपि च यथा बहुत्व- दागतस्य समीपे सूत्रादि गृह्णाति, 'तो' ति ततः क्षेत्रं गण. विषये आचार्यसूत्रे भणिता तथैवाऽत्राऽपि भणनीया । स्यैवाऽऽभवति न पाठयितुः पश्चादागतस्याचार्यस्य । अथ सा च तावत् यावत् श्रुतोपसम्पत् । तथाहि-तैरपि समा
यदा गणमनिक्षिप्यागीतार्थे वा निक्षिप्य सूत्रादि गृह्णाति तदा प्रकल्पीकरणार्थमन्योऽन्यनिश्रया वर्तितव्यम् । परस्परोप- कियन्तं कालमाभाव्यं तत् क्षेत्र पाठयितुः, अत आह-तसम्पदा इत्यर्थः । सा च निश्रा द्विविधा-गीतार्थनिश्रा, स्स' इत्यादि, तस्य पुनः पाठयितुः पुनस्तस्मिन् क्षेत्रिकेवा. श्रतनिधा च । तत्र यदीतार्थस्य समीपे उपसम्पत्सम्पा- | वयति प्रात्मलाभः आत्मीयत्वेन क्षेत्रस्यालम्मन तावत् दनं सा गीतार्थनिधा, तया परस्परोपसम्पन्नत्वेन समा- यावत् स ततो गच्छान्न निर्गतो भवति, किमुक्तं भवतिप्तकल्पीभूतयोर्कयोस्त्रयाणां वा वर्गाणां समकमागतानां सा- यावत्तस्य समीपे अध्ययनार्थमवतिष्ठते तावत्तस्याध्यापयितुः धारण क्षेत्रम् । तथा श्रुतार्थ निश्रा श्रुतनिश्रा, साऽपि च | पश्चादागतस्याऽऽभवति तत् क्षेत्रम् , यदपि च शिष्यादिकं यथा प्राकू प्राचार्यसूत्रेऽभिहिता तथा अत्रापि भणितव्या , तस्य सूत्रादिग्रहीतुरुपतिष्ठति तदपि तस्याऽऽभवति, निर्गते नवरमिदं तत्र निधायां नानात्वम् ।
व ततो गच्छात्तस्मिन् भूयस्तस्यैव पूर्वस्थितस्य क्षेत्र सेक्रातदेवाऽऽह
मतीति । साधारणडिया उ, सुतत्थाई परोप्परं गिरहे। - आगंतगोऽवि एवं, ठवेंतो खेतोवसंपयं लभति । वारंवारेण तहिं, जह पासा कंडुयते उ ।। १२८॥ साहारणे य दोएह, एसेव गमो य नायव्यो ।।१३३ ॥ ते सर्वे द्विवगास्त्रिवर्गा वा समाप्तकल्याः समकमेकस्मि-| आगन्तुकोऽपि एवं पूर्वोक्लेन प्रकारेण गच्छे स्थापयन् न क्षेत्रे यदि स्थितास्ततः साधारणं तत् क्षेत्रम् , ते तस्मिन् । क्षेत्रोपसम्पदं लभते । इयमत्र भावना-आगन्तुकोऽपि यदि
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( १२००) अभिधान राजेन्द्रः ।
बिहार
पूर्वस्थिने सूत्रादि एकानि अन्यस्यागन्तुकस्य समीपे सूत्रादि जिमेधाविनं शिष्यं प्रेषयति यदिवा-गीतार्थे ग निक्षिप्य स्वयं वाचयति तदा तत्क्षेत्र तस्यैव मूलागस्तुकस्य । अथ गणमनिक्षिप्य श्रगीतार्थे वा गणं निक्षिप्य सूत्रादि गृह्णाति तदा ग्राहयितुः क्षेत्रम् श्रगीतार्थस्य च गणं निक्षिपतः प्रायश्वितं चतुर्गुरुकमिति । तथा साधारणे व पोराचार्य सुत्रादिचिन्तायामेव एप गमो ज्ञानभ्यस्तद्यथा-द्वयोः साधारणक्षेत्रे एको यथपरस्य समीप सुमादिकं प्रहीतुकामः प्रा विनीतं शिष्यं प्रेषयति गाया गीतार्थे निचिप्य स्वयं युद्धानि तदोभयो साधारणम् । श्रथ गणमनिक्षिप्यागीतार्थे वा निक्षिप्य वाचयति तदापः क्षेत्र नेतरस्य तदपि च तावद्याव त्स ततो गच्छान्न निर्गच्छति । निर्गते उभयोः साधारणम् । अगीतार्थस्य याचतुर्गुरुम्।
•
साहारणो उ भणितो, इयाणि पच्छा कडं तु वोच्छामि । सो दुविहो बोधन्धो, गिरथसाविचो ।। १३४ ॥ साधारणोऽभिहितः इदानीं पश्चात्कृतं वक्ष्यामि, सच धाद्विविधः तद्यथा-गृहस्थः सारूपिकच गृहेगृहलिने तिष्ठतीति गृहस्थः, समानं रूपं सरूपं तेन चरतीति सारूनिका
अनयोरेव स्वरूपमभिधित्सुराह
सो ससिह गिहत्थो, रयहरवज्जो उ होइ सारूत्री । धारे निसिजं तु एवं ओलंवगं ।। १३५ ।। गृहस्थः पश्चात्कृतो द्विविधः - अशिखः, सशिखश्च । तत्र यः केशान् धारयति स सशिखाकः, यस्तु मुण्डनेन तिष्ठति सोऽशिखाको भवति, रजोहरण्यर्ज, रजोहरण
ये दाणादीनामुपलक्षणम्। ततोऽयमर्थः यः केवलं शिरसो मुण्डनमात्रं कारयति न च रजोहर कपापादिकंधरनि सोऽशिखाक इति । यस्तु सारूपी सापिका स निषद्यामेकनिषधोपेतं रजोहरखम् असम्यकं दण्डमुपलक्षणमेतत् पात्रादिकं च धारयति, शिरश्च मुण्डयति ।
अत्राऽऽभवनमाह
गिहिलिंगं पडिवञ्जर, जो ऊ तद्दिवसमेव जो तं तु । उवसामेती मो तस्सेव ततो पुरा आसी ॥१३६॥
यो व्रतं मुक्त्वा गृहिलिङ्ग प्रतिपन्नो योऽन्य उपलक्षणमेतत् मूलाचार्यो वा तद्दिवसमेव उपशमयति पुनरपि व्रतग्रहणायामिमुखीकरोति येनैव उपशमितस्तस्यैवाऽऽभवति, न मूलाचार्यस्य उक्रं च पच्छाकडो गिद्दत्यी-भूनो तदिवस पव्यइउमिच्छइ । जस्स सगासे इच्छा, तस्सेव य होइ सो चेव ||" इति एष विधिः पुरा आसीत्, संप्रति पुनर्लिङ्गे परित्यक्तेऽपि त्रिषु वर्षेषु गतेषु तदाभवनपर्यायः परिपूर्णो भवति मारत (न अ ) ।
किं कारणं केव वात्रायेंगेयं मर्यादा स्थापितेति चेत आहइसिंह पुण जीवाणं, उक्कडकनुसत्तणं वियाणित्ता ।
बिहार
तो भवाहुणा उ, वरिसा ठाविया ठत्रणा ॥ १३७॥ इदानीं पुनर्जीचानामष्टं फलुपत्वं विज्ञाय ततो भद्रवाहुना त्रैवर्षिका त्रियपत्रमा स्थापना - मर्यादा स्थापिता । चारित्रया संयमेोदकपरिवहनला कि मर्या दा पालीकृतेति भावः । सम्प्रति त्रैवर्षियामेव स्थापनायां विशेषमभिधित्सुराहपरलिंग निराहवे वा सम्मसणजहे उ संकते । तद्दिवसमेव इच्छा, सम्मत्तजुते समा तिमि ॥ १३८ ॥ परलिङ्गं द्विधा गृडिलिङ्गं परतीपिंकलित प रतीर्थिकलिङ्गं गृह्यते तस्मिन् परतीर्थिकति निहये या - त्यक्सम्यग्दर्शने संक्रान्ते यस्य समापे तद्दिवमपीच्छातस्य स श्रभवति । श्रयमत्र भावः स भग्नवारित्रपरिणामः सम्यग्दर्शनमपि परित्यज्य परिवाजकादीनां निवानां मध्येगतः यदि तद्दिवसमेव यस्य समीपे प्रब्रजितुमिच्छति ततः स तस्यैवाऽऽभवति न मूलाचार्यस्य । अथ सम्यक्त्वसहि तः परािदिषु गतस्ततस्तस्मिन् सम्पने परसादिगते मुलाचायमर्यादा तिस्रः समाः-श्रीणि वर्षाणपेषु पूर्वेषु पूर्वपस्पति ।
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एमेव देसियम वि, सभातिर तु समरणुसिटुम्मि । मेसु वि एवं अचाइमेन पुरा एसिंहं ।। १३६ ॥ एवमेव - श्रनेनैव प्रकारण दोशकऽपि समाभाषिकेण समानभाषाव्यवहारिणा समनुशिष्टे ज्ञातव्यम् । किमुक्कं भवनिद्रविडान्धादिदेशोद्भवो म्लेच्छप्राय आर्यभाषामजानानो यो विपरितः सन् गृहस्थीभूतः प रिब्राजकादिषु नियेषु वा मिलितो यदि केनाऽपि सामाषिकेण समनुशिष्टः सन् प्रत्यावर्तते तर्हि तस्य समनुशासकस्याऽऽभवति, नाऽन्यस्य । अथ ससम्यक्त्वः परलिङ्गादिषु गनस्तर्हि मूलाचार्य पर्यायपरिमाणं तिस्रः समाः । अवसयषि एवं पूर्वमासीत् यथा अवधीभूतं तदिवसमषि यत्र प्रशमयति स तस्याऽऽभवति । इदानीं पुनः कषायैरत्याकी नेयं व्यवस्था, किं तु त्रीणि वर्षाणि । उक्तो गृहस्थः
पश्चात्कृतः
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सम्पति साकपिकमधिकृत्याहसारूपी जञ्जीवं, पुव्वावरिवस्स जे य पवावे | अपवाविऍ सच्छंदो, इच्छाए जस्स सो देइ ॥ १४० ॥ सारूपिको रजोहरणादिधारी स यावज्जीवं पूवाचार्यस्याऽऽभवति न तु त्रिवर्षप्रमाणा तस्य मर्यादा। यानि च ससारूपिकः प्रव्राजयितुं मुण्डितानि करोति तान्यपि पूर्वाचार्यस्वाऽऽभयन्ति ने मुनित्वात्। पानि पुनस्तेन न मुरिङतानि किं त्वद्यापि सशिखाकानि वर्त्तन्ते तदायत्तानि च ता न्यप्रवाजितान्यधिकृत्य स्वच्छन्द आत्मेच्छा । तथा चाहयस्येच्छया स ददाति तस्याऽऽभवान्त नाऽन्यस्येति । एनया पुत्रादिषु द्रव्यं पुत्रादीनि पुनः पूर्वाचार्यस्वभवन्ति। जो पुरा निहत्थमुंडो, वा मुंडो उ नि० परिमाणं | अरिणं पव्यावे, सयं च पुष्वायरिसच् ।। १४१ ।। यः सदस्य गुरु गृहस्थमुराड चुरेण मुड़इ
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विहार
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(१२ )
अभिधानराजेन्द्रः। स्यर्थः। अथवा-मुण्डो लोचेन मुण्डः एष द्विविधोऽपि मु-चार्या विहरन्ति तत्र तत्र तस्य सागारिकं किमपि अतिएडो गृहस्थस्खे करोति, न तु रजोहरणदण्डपात्रादि धारय- दूरे वा ते उपलभ्यन्ते, ग्लानो वा पूर्वाचार्यों जात इति । ति, तेन सारूपिकाभिः सप्रयाणां वर्षाणामारतो-ऽर्वाक
एवं खलु संविग्गे, ऽसंविग्गे वारणा न उदिसणा। यानि प्रवाजयति-मुएितानि करोति तानि स्वयं च याबस्त्रीणि वर्षाणि न पूर्यन्ते तावत्सर्व पूर्वाचार्यस्याऽऽभवति ।
भन्भुवगतो भणती, पच्छ भणंतेण से इच्छा।१४६। अप्पाविते सच्छंदा, तिएहं उवरिं तु जाणि पब्वाये। एवमुक्तेन प्रकारेण संधिने पूर्वाचायें उद्दिश्यमाने स्खलु अपव्वावियाणि जाणिय,सोविय जस्सिच्छए तस्सा१४२॥
विधिरुतः । अथ स पूर्वाचार्यमात्मीयमसंविनमुहिराति , यानि पुनस्रयाणां वर्षाणामारतोन प्रवाजितानि-न मु
तर्हि तेनाऽसंविग्ने पूर्वावायें उद्दिश्यमाने तस्य धारणारिडतानि कृतानि किंतु सशिखाकानि वर्तन्ते तानि स्व
प्रतिषेधः कर्तव्यो न दातव्या तस्य प्रवज्या गुरुनिन्दक
स्वादिति भावः । न च स तं पूर्वाचार्यमसविनमुद्दिशेत् , च्छन्दात् यस्मै प्रयच्छति तस्याऽऽभवन्ति, प्रयाणां वर्षाणा
एष भगवतां परमगुरूणामुपदेशः । न उदिसणा' - मुपरि पुनर्यानि प्रजाजयति-मुण्डितामि करोति यानि वा
त्यादि. अथ स ब्रूते माहं संविग्नमसंविनं पा पूर्वाचार्यप्रवाजितानि सशिखाकानि तिष्ठन्ति सोऽपि च स्वयमात्मना
मुदिशामि, किं तु-त्वमेव ममाचार्य इति, तर्हि यदि पूर्वायस्य सकाशे इच्छति-प्रतिभासते तस्य समीपे प्रवाजयति
चार्यस्य नोद्देशना, यं वाऽभ्युपगतस्तं प्रत्येचं भगति, ततः प्रनजति च तानि यस्येच्छति तस्याऽभवन्ति त्रिवर्षमर्यादा.
स प्रवाजनीयः। अथ स प्रवाजितः सन् पश्चाद्वदेत् यथा पाः परिपूर्णीभूतत्वात्।
पूर्वाचार्यस्याऽहं न युष्माकमिति तत पाह-पश्चादेव गंतुणं जइ वेत्ती, महयं तुझं इमाणि अनस्स। भणति , तस्मिन् न 'से' तस्य इच्छा, किंतु-यमभ्युपगतएयाणि तुझ नाहं, दो वी तुज्झ दुवेऽमस्स ।।१४३॥ | स्तस्यैव सः। त्रिवषप्रमाणायां मर्यादायामतिकान्तायां पूर्वाचार्यस्य |
एतदेव स्पष्टतरमाहसमीपं गत्वा यदि ब्रूते-अहं युष्माकमन्तिके प्रवजिष्यामि , यानि पुनरिमानि मम समीपे उपस्थितानि तान्यन्यस्याऽ
एमेव निच्छिऊणं, उ8तो पच्छ तेसिमाउहो । मुकस्य पार्श्वे प्रवजिच्यन्ति । अथवा-एतानि युष्माकम- इयरेहि व रोसवितो, सच्छंददिसं पुणो न लभे ।१४७ हमन्यस्य, अथवा-द्वावपि एतान्यहं च युष्माकं, यदि वा
उपतिष्ठन् प्रवज्यां जिघृक्षुरेवमेव मे त्वमाचार्य इति निश्चिद्वावपि एतान्यहं चान्यस्य तदा यदिच्छति तत् प्रमाणम् । तदेवाह
स्य प्रवजितः सन् यः पश्चात्तयां पूर्वाचार्याणामात्मीयानामा.
वृत्तो जायते.इतरैर्वा येषां समीपे प्रमजितस्तै रोषितः सन् छिम्मम्मि उ परियाए, उवडियंते उ पुच्छिउं विहिणा।।
अहं पूर्वाचार्यस्यैव न युष्माकमिति स एवं युवाणः पुनः तस्सेव अणुमपखं, पुवदिसा पच्छिमा वावि।।१४४॥
स्वच्छन्ददिश-स्वेच्छया दिशं न लभते, किंतु यमभ्युपगतछिन्ने पर्याये, वर्षत्रयमर्यादायामतिकान्तायामित्यर्थः तस्मि
स्तस्यैव स इति । न स्वयमुपतिष्ठति अन्यांचोपस्थापयति विधिना , तं रष्ट्रा
यस्तु पश्चारकतो न ज्ञातो यस्यानुज्ञातस्याऽपि पूवैदिकतस्यैवोपतिष्ठतोऽनुमतेनेछया पूर्वा दिक, पश्चिमा वा दीयते, किमुक्तं भवति-यदि पूर्वाचायमिच्छति ततः पूर्वाचा
संग्रहणे भावो न ज्ञायते तस्य लिङ्गदामे विविधमाहयस्याऽऽभवति । अथाऽन्य तान्यस्य शेषतदुपस्थापित- अमाते परियाए, पुस्मे न कहेज जो समुद्रुतो । विषयेऽपि च तस्येच्छा प्रमाणं, सा च प्रागेवोपदर्शिता। स लागू माय गेज्झति,मा वन दिक्खिज मे भयणा १५८। यदि सम्यगुपशान्तः सन् स्वकमाचार्यमाश्रयते तर्हि स प्रवा.
अज्ञातः सन् यः पर्याये पूराणेऽपि समुपतिष्ठन् आत्मानं जनेन संग्रहीतव्यः, यदि पुनर्न संगृह्णाति ततः प्रायश्चित्तं मासलघु । अन्यच्च तेनासंग्रहणे यदि तस्य श्रद्धाभको
न कथयति यथाहममुकस्याऽऽचार्यस्य पश्चात्कृत इति । क
स्मान कथयति इति चेदत आह-लज्जया, यदि वाभवति , यदपि चान्यस्य समीपे दूरं गच्छन् पथि स्तेनश्वापदादिभ्योऽनर्थ प्राप्नोति तनिमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तं
मा तत्पाक्षिण केनाऽप्यहं ग्रहीये, अथवा-माम् अमी
पश्चात्कृतं सात्वा न दीक्षयेयुरिति भजनात्-विकल्पतस्मादवश्यं संग्रहीतव्यः।
नात् न कथयति । संविग्गमुदिसते, पडिसेवंतस्स संथरे गुरुगा। किं अम्हं तु परेणं, अहिकरणं जं तु तं सेसि ॥१४॥
नाते व जस्स भावे,न नजए तस्स दिजए लिंगे। अथान्यस्य समीपे प्रचजन् स पूर्वाचार्यमात्मीय संविग्न
दिसम्मि दिसिं नाहिति,कालेण व सोसुणंतो वा ।१४।। मुद्दिशति-प्रकाशयति , तस्मिन् संविग्नमुद्दिशति यस्य हाते या पश्चात्कृततया तस्मिन् प्रवज्यार्थमुपस्थिते यस्य समीपे प्रवजितुमिच्छति स यदि प्रतिषेधति, यथा-किम- भायो न शायले केनाऽपि कारणेन पूर्वाचार्यसमीपं न स्माकं परेण-परकीयन यत् येषामधिकरणं तत्तेषां भव- गत इति तस्य ज्ञातस्याज्ञातस्य वा लिङ्गं दीयते,दत्ते च लिविति तस्य एवं प्रतिषेधतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । केस आत्मीयां दिशं कालेन पूर्वाचार्यस्य लक्षणं हास्यपतच संस्तरणे सति द्रष्टव्यम् । अथासंस्तरन् प्रतिषेधति त. ति, स वा पूर्वाचायः कालेन परम्परया शृण्वन् तं शातः शुषः। अथ स पूर्वाचार्यस्यैव पावें कस्मालिप्र- स्यति, ततो यस्य समीपे प्रतिभासते तस्य समीपतिपद्यते ?, उच्यतेमाचार्याः, यदि वा-पत्र यत्र ते लो- । मुपगच्छतु । व्य०४ उ० ।
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बिहार
कैः सह बिहार कुर्यात् के सह या न कुर्यात् तथाऽपि प्रथमं येन मुनिना छद्मस्थेनापि साकं केवली विहरेत्, तत्स्वरूपं गाथाइबेनाऽऽह
गीत्ये जे सुसंविग्गे, अखालस्सी दढम्बए । अक्खलियचरिचे समयं रागद्दोसविवञ्जए । ४१ ।। निविश्रममपठाये, सोसि ( ग ) फसाए जिईदिए । विहरिजा ते सति खउमत्थेस वि केवली ॥४२॥ तु, अनपोयांच्या-गीतः परिज्ञातोऽर्थः देवसूपस्य येन स गीतार्थः, यद्वा—गीतार्थावस्य विद्येते इत्यभ्रादित्वादप्रत्यये गीतार्थः । तत्र गीतम्-सूत्रम् अर्थः- तद्वयाच्यानम् । उक्तं च श्रीबृहत्कल्पभाग्यपीठिकायाम्
((REL) अभिधानराजेन्द्रः ।
"गी गुणिते विदित्थं खलु वयंति गीयत्थं । गीण यत्थेण य, गीयत्थो वा सुयं गीयं ॥ १ ॥ गील डोगी अस्थी थे हो नाच्यो ।
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fire य अत्थे य, गीयत्थं तं वियाग्राहि ॥ २ ॥ " यः सुविग्गेति अत्यर्थं संवेगवान् आलस्यमस्यास्तीति आलस्यी न आलस्यी अनालस्वी प्रातस्परहित त्यर्थः दानि निलानि तानि नियमा उत्तरगुणा इति यस्यासी रयतः अस्खलितम्-प्रतीचाररहितं चारित्रं मूसगुणरूपं यस्यासी प्रस्वलितचारित्रः सततमगतं रागद्वेषविवर्जितः तत्र मायालोभात्मको रामः कोचनामात्मको द्वेष इति निष्ठापितानि क्षयं नीतान्यष्टौ मदस्थानानि-मानभेदा जातिकुलरूपयललामभूततपोविभवमदाच्या येनासौ निष्ठापितामदखानः, शोषिताः रुपायाः सभेदाः कोधमानमायालोमाच्या नोकषाया या बेनासी शोचितकषायः जितान्यात्मवशीकृतानीन्द्रियाणि श्रोत्रगुनासाजिकात्वमनोरूपाणि येनाऽसी जितेन्द्रियः स्थादिति शेषः । एवंविधेन तेन रथेनापि सा केवलमेकं ज्ञानमस्यास्तीति केवली विहरेत् — विचरेत् । शब्दादेकत्र बसेदपि । यद्वा-तेन इन सा केवल्यपि विहरेत् छुग्रस्थस्तु तेन सार्द्धं सुतरां बिहरेदित्यर्थः । इति विषमातरेति लक्ष गाथादन्दसी ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ग० २ ० ( सह विहारादि न विधीयते ते अगीयत्रादेप्रथमभागे १६२ उक्ाः) (केन सार्द्धं केवली विह रेदिति 'परदारगमण' शब्दे पञ्चमभागे ५२७ पृष्ठे दर्शितम् ।) नो खलु कप्पर देवाणुपिया ! समणा जाब पमचा विहरिए । (०५८) ० १०५०। (१२) वर्षासु न विहरेत् -
जो कप्पर निधार्य वा निग्गंधीय वा बासावासासु चरित्र ॥ ३६ ॥
अस्य सम्बन्धमाह
अहिगरणं काऊस व गच्छर वं वाऽवि उपसमेतुं जे । पुत्रं च अणुवसंते, खामेस्सं वयति संबंधो ।। ५२ ।। अधिकरणं कृत्वा कषायानुबद्धमना अन्यत्र प्रामादौ गच्छति, यद्वा-तदधिकरणमुत्पन्नं श्रुत्वा कश्चिद्धर्मश्रद्धावान् त
३२३
बिहार दुपशमयितुमागच्छति 'जे' इति पादपूरणे। पदिवा पूर्वमनुप शान्तः सन्नन्यत्र प्रामादौ गतस्तत्र च स्वयमम्योपदेशेन बा रामयिष्याम्यहं तं साधुमिति परिणाममुपगतो भूयस्तत्रैव प्रा. मे मजति, तच्च गमनमनेन सूत्रे वर्षासु प्रतिषिध्यते - त्ययं पूर्वसूत्रेण सहास्य सम्बन्धः ।
अथास्यैव तृतीयं सम्बन्धप्रकारं व्याख्याति - अहवा असामियम्मि, सि को गच्छेज ओसवयकाले । सुभमवि तम्मि उगमणं, वासावासासु चारेउं ॥ ५६३ || अथवा अनुपशान्त एवान्यत्र गतस्तत्र च वर्षासु पर्युचणाकाले समायाति सत्यधिकरणे मया न क्षमितम् । अतः
कथं मे सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं विधीयमानं सुखमेध्यतीति परिभाव्य यत्र द्वितीयः साधुचतुर्मास्यां स्थितोऽस्ति त त्राधिकरणं क्षमयितुं गच्छति, तच्च तत्र गमनं शुभमपि वर्षावर्षास्वनेन सूत्रेण वारयति इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य ( सू० ३६) व्याख्या -नो कल्पते निर्मन्थानां निर्मन्धीनां वा वर्षोपलक्षिता वर्षा वर्षावर्षास्तासु । 'चर' गतिभक्षगयोरिति धातुरत्र गत्यर्थो गृह्यते प्रामात् प्रामं पर्यटितुमित्यर्थः । यद्वा-भक्षणार्थोऽप्यत्र गृह्यते, तथाहि भक्षणं-समुद्देशनं तच्च यथा ऋतुबद्धे साधूनां तथा वर्षासु कर्नु न कस्पते, तदानी दि चतुर्थभादिप्रत्याख्यानपराय मंति विकृतीनां चामी मन कर्त्तव्यमिति सूत्रार्थः । अथ निर्युक्तिविस्तरः । वासावासो दुविधो, पाउसवासो उ पाउसे गुरुगा । वासासु होंति लडुगा, ते वि य पुझे अर्थितस्त्र ॥५६४॥ वर्षा एव पासो वर्षावासः, स द्विधा प्रावृद वर्षाराणस्थ तत्र भवराभाद्रपदमासी प्रावृच्यते चाग्निकार्तिकी वर्षारात्रः । श्राह च चूर्णिकृत् - " पाओोसो सावणो भद्दवनोघ. वासारतो चासो कतिम्रो अस्थि "तब यदि प्रा वृषि ग्रामानुग्रामं चरति तदा चतुर्गुरुकाः, वर्षासु विचरतश्चतुर्लघुकाः, त एव चत्वारो लघुकाः पूयर्णे वर्झरात्रे अनिर्गच्छतः प्रायश्चित्तम् !
तत्र प्रावृषि विहरतस्तस्य दोषानाहवासावासविहारे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । श्राणाइयो य दोसा, विराहया संजमायाए ॥ ५६५॥ इह वर्षावासः आवशो भाद्रपदस्याभिधीयते तत्र विहार कुर्वतश्वत्वारो मासा अनुधाता गुरवः प्रायश्वितं मयति । श्राशादयश्च दोषाः, विराधना च संयमाऽऽत्मविषया । तामेव भावयति - छक्कायण विराहण, आवडणं विसमखाणुकंटेसु । वुज्झण अभिहणरुक्खो, न सावय तेथे गिलाखे य५६६ वर्षासु विहरतः षद्कायानां विराधना, तथा प्रपतनं वर्षे निपतति वर्षाकल्पादितीमनभयाद् वृक्षादेरधस्तिष्ठतः तदीयशास्त्रादिना शिरस्यभिघातो भवेत्, यद्वा-श्रापतनं कर्दमे पिछले प्रविश्य चन् विषमे च भूदे निपतेत् खाकीलकः स पादयोरास्फालेत् कण्टकैर्या पातले त् उदकवाहेन वा गिरिनद्यां वा वाहनमु
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विहार
(१२६०)
अभिधानराजेन्द्रः। क्षिप्याऽन्यत्र नयनं भवेत् । तथा गिरिनदीतटीकया मार्गे ते चव तत्थ दोसा, वितियपदं तं विमुंचतं ॥६००। गच्छतोऽभिघातो भवेत् । 'रुक्खो ल' ति यद्यार्दीकरण- | एतदनन्तरोक्तं प्रायश्चित्तदोषजाल द्वितीय पदं च प्रावृषिभयाद् वृक्षमालायते स च वृक्षः प्रबलवातप्रेरिततया पतेत् , भणितम् । अथ वर्षासु-वर्षाराने अश्विनकार्तिकरूपे चरति तत्राऽऽत्मसंयमविराधना । तथा यस्य वृक्षस्याधस्तिष्ठति- ततश्चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तं, त एव च षद्कायविराधनादयो तस्योपरि चित्रकादिकः श्वापदः आरुढो भवेत् तेनानागा- दोषाः। ढमागाढं पा परिताप्येत तेणे' त्ति अवहमानेषु मार्गेषु
तदेव च द्वितीयपदमभिधीयतेद्विविधाः स्तेना-विश्वस्ताः संचरेयुः, तैरुपधेर्वा तस्य वा असिवे प्रोमोयरिए. रायढे भये व गेल। साधोरपहारः क्रियेत । अकाले वा परिभ्रमन् स्तेनक इति शङ्कवेत ?-'गिलाणे' ति तीमनादिके चोपभुक्ने अजीर्य
नाणाइतिगस्सऽढा, वीसुंभण पेसणेणं वा ॥६०१॥
अशिव अवमौदर्ये राजद्विष्टे भये वा ग्लानकारणे वा समाणे ग्लानो भवेत् । एवमेतेष्वात्मविराधना संयमविराधना
मुत्पशे वर्षासु प्रामानन्तरं गच्छेत् . एतावत्प्रागुक्तमेव द्विती. संयमात्मविराधना वा या यत्र सम्भवति सातत्र योजनीया।
यपवम् । अथैतदपरमुच्यते-सानादित्रयस्याऽपि भय योअथ षट्कायविराधनां व्याख्यानयति
न्यत्र वर्षासु गच्छेत् तत्र अपूर्वः कोऽपि श्रुतस्कन्धोऽन्यस्या अक्खुबेसु पहेसु, पुढवी उदगम्मि होइ उहो वि।। ऽऽचार्यस्य विद्यते, स च भक्तं प्रत्याख्यातुकामो वर्तते सच उल्लपयावणगणी, इहरा पणगो हरियकुंथू ॥ ५६७॥ श्रुतस्कन्धस्तस्मादाचार्यादगृह्यमाणो ग्यवच्छिद्यते अतस्त
दध्ययनार्थे वर्षास्वपि गच्छेत् । एवं दर्शनप्रभायकशास्त्राणाअनुमा-अमर्दिताः पन्थानः प्रावृषि भवन्ति तेषु विहरन्
मध्यध्ययनार्थ गच्छेत् । चारित्रार्थ नाम तत्र क्षेत्रे स्त्रीसमुपृथ्वीकार्य विराधयति, तथा द्विविधमापः भौमान्तरिक्षमे
स्थदोषैरेषणादोषैर्या चारित्रं न शुद्धयति तन्निमित्तमन्यत्र दाद द्विप्रकारमप्युवकं तदा सम्भवति ततोऽकायविराध
वर्षासु गच्छेत् 'बीसुंभणं'-मरणं तत्र यस्याऽचार्यस्य ते ना, वर्षेणाऽऽीभूतमुधिं यद्यग्निना प्रतापयति तदाऽग्निवि
शिष्याः स प्राचार्यों मरणमुपगतः, तस्मिश्च गच्छे अपर राधना । यत्राऽग्निस्तत्र वायुरवश्यं भवतीति वायुविराधना
आचार्यों न विद्यते अतस्ते वर्षास्वप्यन्यं गणमुपसंपर्नु गऽपि । इतरथा यदि उपधि न प्रतापयति तदा पनकाः संमू
च्छेयुः, अथवा-विश्वग्भवनं नाम कश्चिदुत्तमार्थ प्रतिपत्नुछन्ति, तत्संसक्नं चोपधि प्रावृण्वतः प्रत्युपेक्षमाणस्य वा अनन्तकायसाहनादिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । हरितानि वा
कामस्तस्य विशोधिकरणार्थ गच्छेत् । 'पेसणेणं व ' त्ति दूर्वादीनि तदानीमचिरोद्रतानि चिरन्तनानि च भवेयुः ततो
कश्विदाचार्येणान्यतरस्मिन् औत्पत्तिके कारणे वर्षास्वपि बनस्पतिविराधना । अप्रत्युपेक्षमाण उपधौ कुन्थुप्रभृतयो-|
प्रेषितो भवत्, सच तस्मिन् कारणे समापिते भूयोऽपि गुरूजन्तवः सम्मूर्च्छन्ति, मार्गे गच्छतामिन्द्रगोपसिसुनागु
णां समीपे समागच्छेत् । कुत्तिकादयनासप्राणिनो बहवो भवन्ति , ततः त्रस
अथ वेदं द्वितीय पदम्कायविराधना, एवं षमापि कायानां विराधना यतः प्रा- पाऊ तेऊ वाऊ, दुब्बलॉ संकामिए अोमाणे।। वृषि विहरतां भवति तो न विदर्तव्यम् ।
पाणाइसप्पकुंथू, उट्ठण तह थंडिलस्सऽसती ॥ ६०२॥ द्वितीयपदे विहरेदपि कथमित्याह
प्रकायेन वसतिः साविता भवेत् , स्थण्डिलानि वा व्यूढाअसिवे प्रोमोयरिए, रायड्ढे भए व गेलो।
नि, अग्निकायेन वा प्रतिश्रयो ग्रामो वा दग्धो,वायुकायेन वा श्रावाहादीएसु व, पंचसु ठाणेसुरीएज्जा ॥ ५६८॥
वसतिग्ना 'दुब्बले' सि वर्षेण तीम्यमाना वसतिदुर्बला अशिवे परपक्षतोऽवमौदर्ये या सजाते असंस्तरन् गच्छेत् ,
पतितुकामा संजाता 'संकामिय' ति संग्रामो धिग्जाराजधिरे विरोधनाभये या गच्छेत् । भये या बोधिकस्तेनस
तीयादेः कस्याऽपि प्रत्यनीकस्य संक्रामितो दत्त इत्यर्थः । श्र. मुत्थे यद्यमी मां द्रक्ष्यन्ति ततोऽपहरिष्यन्तीति मत्या वा
थवा-संकामय' ति तानि श्राद्धकुलानि अन्यत्र प्रामे सं
क्रान्तानि 'ओमाणे' त्ति इन्द्रमहादिषु बहवः पाण्डुराजगच्छेत् , ग्लानो वा कश्चिदप्यत्र सातस्तस्य प्रतिचरणार्थ
प्रभृतयः प्रागतास्तैरेव मानं सञ्जातं प्राणादिर्वा माकटिगच्छेद, श्राबाधादिषु वा पञ्चसु स्थानेषत्पन्नेषु प्रावृष्यपि
कौशिकादिभिः वसतिः संसक्ला भवेत्, सो वा वसतौ सरीयेत्-प्रामान्तरं गच्छेत्।
मागत्य स्थितः, अनुरिनामकैर्वा कुन्थुजीवैर्वसतिः संसक्ता (३) तान्येवाबाधादीनि स्थानानानि दर्शयति
समुपजायते, ग्रामो वा सकलोऽप्युत्थितः सचोद्वसीभूतः, आचाहे व भये वा, दुब्भिक्खे वाहवादो हंसि ।। स्थण्डिलस्य वा विचारभूमिलक्षणस्य हरितकायादिभिरभापवाहणे व परेहि, पंचहि ठाणेहि रीइजा ॥ ५६६ ॥ वः समजनि । एवमादिकस्तत्र व्याघातो भवेत्। आवाधं नाम-मानसी पीडा-भय स्तेनादिसमुत्थं दुर्भिक्षप्र
अत एव ते साधवः प्रागेवा, विधि विदधतितीतम् एतेषु समुत्पनेषु, अथवा-बाढके-नौपानीयप्रवाहे प्र- मूलग्गामे तिमि तु, पडिवसभेसुं पि तिनि वसहीओ। तिश्रये प्रामे या व्यूढे सति परैर्वा प्रत्यनीकैदण्डकादिभिः ठायंता पेहिंति उ, वियारवाघायमाइट्ठा ।। ६०३ ।। प्रमथने परिभवे ताडने वा विधीयमाने एतेषु पञ्चसु स्था- मूलग्रामो नाम यत्र साधवः स्थिताः सन्ति तस्मिन् तिम्रो नेषु प्रावृष्यपि रीयेत्।
वसतीः प्रत्युपेक्षन्ते, प्रतिवृषभग्रामो नाम येषु भिक्षाचर्यया एतं तु पाउसम्मि, भणियं वासासु नवरि चउ लहुगा ।। गम्यते तेष्वपि प्रत्येक तिम्रो बसतीस्तिष्ठन्त एव प्रत्युपे
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बिहार
तेत्यिाद मूलग्रामे यदि विचारभूमेर्वा व्याघा तो भवति ततस्तेषु प्रतिवृषभग्रामेषु तिष्ठति । ताकाते समुत्प
(१२६१) अभिधानराजेन्द्रः ।
यतनामाह
उदगागखवायासु, अन्नस्स सती पथं तद्दवणे । संकामियम्मि भयथा, उदुगथंडिल अन्नत्थ ||६०४ || उनकेन वा अग्निना या बातेन या आदिशम्दात् समासादि जन्तु संसक्त्या व्याघाते समुत्पन्ने अन्यस्यां वसतौ तिष्ठन्ति । अथ नास्त्यन्या वसतिस्तेन उदकाग्निवातान् स्तम्भनीविair स्तम्भयन्ति यत्र च सप्र्पः समागत्य तिष्ठति तत्र तस्य सर्पस्यापद्रावणं विद्यया अन्यत्र नयनं कुर्वन्ति । यत्र च ग्रामस्वामी कुलानि वा श्रन्यानि संक्रान्तामि तत्र भजना कर्त्तव्या । यदि स ग्रामस्वामी कुलानि वा भद्रकाणि ततस्तत्रैव तिष्ठसन्ति । अथ प्रान्तानि ततोऽन्यत्र गच्छन्ति । अथाऽसौ ग्राम उत्थितः स्थण्डिलानां व्याघातः समजायत ततोऽन्यग्रामे गच्छन्ति ।
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अवमानशय्यायां यतनामाह
इंदमहादी वसभा, गतेसु परतित्थिएमु य जयंति । पढिजसमे सखेने दुब्बलसेआ पदे चूर्ण ॥। ६०५ ।। इन्द्रमहोत्सवादी या बहुषु परतीर्थिकेषु समागतेषु स्वक्षेत्रे ये प्रतिवृषभप्रामास्तेषु अन्तरपलिकासु च भिक्षाग्रहशाय यतन्ते । अथ तेष्वपि न संस्तरन्ति ततोऽन्यत्र गच्छन्ति, दुवैलायां वर्षे सीम्यमानतया वसतौ दुर्बलायां स जातायां स्थूसां दद्यात् ।
अथ बसतिप्रमार्जने विधिमाहदोन्नि तु पमअयाउ, उडुम्मि वासासु तश्य मज्झरहे । सहि बहुसो पमजण, अईव संघट्टणा गच्छे ||६०६॥ बसतेरष्टसु ऋतुबद्धमासेषु द्वे प्रमार्जने कर्त्तव्ये । तद्यथापूर्णा अपरा च वर्षासु पुनः दतीया प्रमार्जना मध्या वि श्रेया अथ कुन्युप्रभृतिभिखसमाः संसना वसतिस्ततः वर्षाया व वयोप्रमाणादतिरिक्रमपि बहुप्र मार्जनं कुर्यात् । अथ बहु प्रमार्जने तत्र प्राणानामतीय सङ्घट्टो भवति प्रतिवद्दयो या जास्ततोऽन्यत्र प्रामे ते गच्छेयुः ।
य,
गच्छतां च मार्गे यतनामाहउत्तणससावयाणि च गंभीराणि य जलाणि वजेता । तलियारहिया दिवस, अब्भासतरे वए खेते ॥ ६०७ ॥ उतृणानि नाम ऊर्ध्वो भूतानि तृणादीनि दीर्घाणीति यावत् तानि यत्र मार्गे भवन्ति, सभ्यापदानि च सिंहव्याघ्रादिपदोपेतानि यत्र दुणानि भवन्ति गम्भीराणि अतलानि जलानि यत्र भवन्ति तान् मार्गान वर्जयन्तस्तलिकारहिताअनुपानत्का दिवसतो गच्छन्ति, न रात्रौ । यच्चाभ्यासतरमतिप्रत्यासनं क्षेत्रं तत्र व्रजन्ति । वृ० १३०३ प्रक० । श्राचा० । (१४) साम्प्रतं सामान्येन शय्यामीकृत्वाऽऽह से भिक्खु वा भिक्खुणी वा समा वेगया सिजा भविजा
बिहार
बिसमा वेगया सिजा भविजा,पचाया गया०निवाया वे वाया• ससरक्खा बेगया० अप्पससरक्खा वेगया० सदसमसगा वेगया० अप्पदंसमसगा वेगया० सपरिसाडा वेगया अपरिसाडा वेगया० सउवसग्गा वेगया० निवसग्गा वेगया० | तहष्पगाराहिं सिजाहिं संविजमाखाहिं पग्गहियतरगं बिहारं विहरिला नो किंचि वि गिलाइन एवं खलु जं सच्चद्वेहिं सहिए सदा जए नि बेमि । ( ० - ११० )
सुखोन्नेयं यावतथाप्रकारासु वसतिषु विद्यमानासु प्र दीनतरम्' इति यैव काचिद्विषमसमादिका वसतिः सम्पन्ना तामेव समचितोऽधिवसेत् न तत्र व्यलीकादिकं कुर्यात्, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यं यत्सवर्थः सहितः सदा यतेतेति । श्राचा० २ ० १ ० ३ ० १ ३० ।
(२५) प्रथमप्रावृषि प्रामानुग्रामं पतिजे भिक्खू पदमपाउससि गामाशुम्मामे दूज दूर बा साइज ।। ४६ ।।
जे भिक्खु बसाइ वासं पओसवियंसि गामायुग्गामं दूइअदूत वा साह ॥ ४७ ॥
जेति णिसे भिक्खू पुग्ववक्षिता पाउसो साढो साथगोय दो मासा । तत्थ आसाढो पढनपाउसो भएपति, अहवा खण्ड उत्तजे पदमो पाउसो परिषञ्जनि वेख पदम पाउसो भगवति । तस्य जोगग्गा जति अनुपधाझावे दो सिसिरगिम्देसु रीतिजति जति दो वा पा सुखति वृदयति तस्व चरगुरुं श्राणादियो य दोसा भति । एस सुत्यो । इवाति विस्तुती । गाद्दा
विहिसुते जो उगमो, पडमुद्देसम्मि आदिओ सुते । सो वरिवसेसो, सम्मुदेसम्म वासासु ॥ ५०६ ॥ विधि सम्वेष आयारा इह तु बिसेसे बिलियत संततियणं हरिया भरगति तस्स वि पदमुस तस्स विघातिसुते जो विधी भवितो सो चेव गिरयसेसो सिीहदसमुद्दे से पढमपाउससुत्ते विधी वत्तग्यो। सो य इमो अपगते बलु वासावासे अभिष्यषु मे पाया - मिसंभूता बहवे वि य अहुणो भिरणा अंतरा से मग्गा । बहुपासा बहुचीया ते सावस्या यो गामाशुम्मा तिजेजा । नि० चू० १० उ० ।
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श्रशिवादिकारणेषु वर्षास्वपि विहरेत्-तथा योनियूतमत्रस्थानलक्षणः सप्ततिदिनमानः पर्युषणाकल्प उक्तः सोऽपि कारणाभावे एव कारणे तु सम्मध्येऽपि विहतु कल्पते । तद्यथा
"अशिये भोजनास २ राज ३ रोग ४ पराभये । चतुर्मासमध्येऽपि विकल्पतेऽभ्यतः १ ॥ असति स्थण्डिले ५ जीवा-कुले ६ च वसतौ ७ तथा । कुन्युवौ तथा सप्पै १० चिडतुं कल्पते ऽभ्यतः ||२||" तथा पभिः कारवैधनुर्मासकात्परतोऽपि धातु कल्पते"वर्षादविर मेथे, मार्गे कर्दमदुर्गमे । अतिक्रमेऽपि का तिंक्या स्तिष्ठन्ति मुनिसत्तमाः ॥ १॥" कल्प०१ अधि०१ क्षण ।
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(१२१२) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार तए णं अहं गोयमा अमया कयाइ पढमं सरदकाल
अथ नियुक्तिविस्तर:समयंसि अप्पबुडिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं पुम्मेऽनिग्गमे लहुगा, दोसा ते चेव उग्गमादीया । सिद्धत्थगामानो णगराओ कुम्मारगाम णयरं संपडिए दुबलखमगगिलाणे, गोरस उवहिं पडिच्छति ॥६०८॥ विहाराए । (सू० ५४२+) भ० १५ श०।
यदि पूर्णे वर्षावासे ततः क्षेत्रान्न निर्गच्छन्ति ततः चत्वा('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे १०१६ पृष्ठे ब्याख्या गता।)। रो लघुकाः, त एव चोगमाशुद्धि समुत्थादयो दोषा ये (वर्षासु सार्मिकाणामुदन्तवहनार्थ चतुः पञ्च योजनानि मासकल्पप्रकृते दर्शिताः । अपरे चामी दोषाः 'दुब्बल':गच्छेत् , तत्र वस्त्रग्रहणम् 'उबहि' शब्दे द्वितीयभागे १०६७ त्यादि , ये साधवो वासेन दुर्बलाः-कृशीभूतशरीरास्ते पृष्ठे उक्तम् ।)
कदा वर्षावासं पूरयिष्यन्त इत्येवं निर्गमनं प्रतीक्षमाणा (१६) वर्षासु व्यतिक्रान्तासु विहरेत् । साम्प्रतं गतेऽपि
यत्परितापनादिकमवाप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । वर्षाकाले यदा यथा च गन्तव्यं तदधिकृत्याह
क्षपका वा विकृष्टतपोनिस्तप्तवपुषो निर्गमनं प्रतीक्षन्ते ग्ला
नो वा अधुनोत्थितो दुःखं तत्र तिष्ठति तत्र चतुर्मासादूर्ध्वअह पुण एवं जामिजा चत्तारि मासा वासावासाणं वीति
मप्यवस्थाने क्षेत्रस्य चमढिततया तथाविधपश्वाद्यभावात् , कंता हेमंताण य पंच दसरायकप्पे परिसिते अंतरा से मग्गे गोरसाऽऽधारको वा कश्चित् सिन्धुदेशीयः प्रवजितः, सोबहू पाणा०जाव ससंताणगा णो जत्थ बहवे. जाव उवा
ऽपि गोरसाभावान्न तत्र स्थातुं शक्नोति, उपधिर्वा पूर्वगृही. गमिस्सन्ति, सेवं नच्चा णो गामाणुग्गाम दूइजिजा ॥
तः परिक्षीणः, अतस्तम् अभिनवमुत्पादयितुं साधवो निर्ग
मनं प्रतीक्षन्ते, ततस्तेन विना यत्परिताप्यन्ते. तन्निष्पन्नम-1 अह पुण एवं जाणिजा चत्तारि मासा वासावासाणं वीतिक
निर्गच्छतां प्रायश्चित्तम् । ता हेमंताण य पंच दसरायकप्पे परिवुसिए अंतरा से मग्गे अथ निर्गच्छन्ति तर्हि किं भवतीत्याहअपंडा० जाव ससंताणगा बहवे जत्थ समण जाव उवा
एए न होंति दोसा, बहिया सुलभं च भिक्ख ओही य । गमिस्संति य सेवं णचा तो संजयामेव गामाणुग्गामंद
भवसिद्धियाउ प्राणा,बिइयपय गिलाणमादीसु ॥६०६।। इजिजा। (सू०-११३)
निर्गच्छतामेते अनन्तरोक्का दोषा न भवन्ति । बहिश्वप्रथैवं जानीयाद् यथा चत्वारोऽपि मासाः प्रावृद्का- बहिर्नामेषु विहरतां भैक्षं सुलभं भवति, तेन च दुर्बलक्षलसम्बन्धिनोऽतिक्रान्ताः; कार्तिकचातुर्मासिकमतिक्रान्त
पकादीनामाप्यायना स्यात् , उपधिश्च बहिः प्राप्यते, भवमित्यर्थः , तत्रोत्सर्गतो यदि न वृष्टिस्ततः प्रतिपद्येवान्य
सिद्धिकाश्च सत्त्वा योधमासादयन्ति, केचिद्वा तदानीमाअ गत्वा पारणकं विधेयम् , अथ वृष्टिस्ततो हेमन्तस्य चार्याणां दर्शनमभिलषन्ति तेषां च विरत्यादिप्रतिपत्तिः, श्रा पञ्चसु दशसु वा दिनेषु पर्युषितेषु-गतेषु गमनं विधे
झा च भगवतां-तीर्थकृतां कृता भवति, यत एवमतो मिर्गयम् , तत्राऽपि यद्यन्तराले पन्थानः सारडा यावत्सस- न्तव्यम् । द्वितीयपदे ग्लानादिषु कारणेषु निर्गच्छति आदिन्तानका भवेयुर्न च तत्र बहवः श्रमणब्राह्मणादयः स
शब्दाद्-अवमौदर्यादिपरिग्रहः, अत्र च यतना यथा मासमागताः समागमिष्यन्ति वा ततः समस्तमेव मार्गशीर्य
कल्पे कृता तत्र 'भागतिभागद्धे जयन्ति निच्छे अलम्मेवा' यावत्तत्रैव स्थेयं, तत ऊर्ध्व यथा तथाऽस्तु न स्थेयमि
इत्यादिना दर्शिता तथैव द्रष्टव्या। ति । एवमेतद्विपर्ययसूत्रमप्युक्तार्थम् । आचा०२ श्रु०१ चू० ३ १०१ उ० । दश । नि० चू० । ओघ ।ग०।
तम्हा उ विहरियव्वं, विहिणा जे मासकप्पिया गामा । (१७) हेमन्तप्रीष्मयोश्चरितुं कल्पते
छड्लेइ वंदणादी, तइ लहुगा मग्गणा पच्छा । ६१०॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासुचार
यदि ग्लानादिकारणं न स्यात्ततो अवश्य विधिना मासए॥ ३७॥
कल्पः, प्रकृतोला ये मासकल्पप्रायोग्या प्रामास्तेषु पिहर्त
व्यम् । अथ मासकल्पप्रायोग्याणि क्षेत्राणि चैत्यवन्दनादिभिः अस्य सम्बन्धमाह
कारणैर्वच्यमाणैः छईयति तदा यावन्ति क्षेत्राणि परित्यज्य दुस्संचर बहुपाणा-दि काउँ वासासु जंन विहरिंसु ।। गच्छति 'तई'त्ति तावन्ति चतुर्लघुकानि 'मग्गणा पच्छ' ति तस्स उ विवजयम्मि, चरन्ति मह सुत्तसंबंधो॥६०७॥ ।
द्वितीयपदे मासकल्पप्रायोग्यक्षेत्राणामपि परित्यागे ये गुणावर्षासु कईमाकुलतया दुस्संचरं बहुप्राणहरितादिसंकु
स्तेषां मानणा-अन्वेषणा प्रत्याहिता। लं वा मेदिनीतलं भवतीति कृत्वा यत्तदानीं न विहत
अथ वन्दनान्येव कारणानि प्रतिपादयतिवन्तः, तत एव तस्य वर्षाचासस्य विपर्यये ऋतुबद्धका- आयरियसाहुवंदण-चेइयनीयलए तहा सन्नी । लेषु संचरमकल्पप्राणजातीयं वा मत्वा चरन्ति । अथैष
गमणं च देवदंसण-वइगासु य एवमाईणि ॥ ६११॥ पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्य सम्बन्ध इत्यनेन सम्बन्धेना55यातस्याऽस्य (सू०३७) व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां था | श्राचार्याणां साधूनां चैत्यामां वा चन्दनार्थ गच्छन्ति, निजनिर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मयोरटसु ऋतुबद्धमासेषु-चरि- काः-संज्ञातकाः असंझिन:-श्रावकास्तेषामुभयेषामपि दर्श.. तुं-प्रामाऽनुग्रामं पर्यरिमिति सूत्रार्थः ।
नार्थे देशदर्शनार्थ वा गमनं करोति । बजिकासु वा क्षारा
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(१२६३) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
बिहार दिकं लप्स्येऽहमिति कृत्वा गच्छति, पवमादीनि कारणानि | गच्छस्य वा बहुगुणतरं तत् क्षेत्र स्थानप्रत्यनीकाद्यभावात् मासकल्पयोग्यक्षेत्रं परित्यजन्नवलम्बते ।
भिक्षात्रयवेलासद्भावात् , प्राचार्यादीनां वा प्रायोग्य तत्र __ अथ तान्येव व्याख्यानयति
विद्यते । यद्वा-'पायरियाई व' ति सम्यक्त्वं ग्रहीतुकामाः
केचिदाचार्याणां दर्शनं कासन्ति श्रादिशब्दात्परप्रवादी अपुव्वा विवित्तबहु-स्सुया य परियारवं च आयरिया ।
वा कश्चिदुद्घोषणं कारयेत् , यथा-शून्याः परप्रवादाः, परियारवजसाहू, चेइयपुवा अभिनवा वा ॥६१२॥
इत्यादि, ते चाचार्या वादलब्धिसम्पन्ना अतस्तन्निग्रहार्थमाहिस्सामि व नीए, सन्नी वा भिक्खुमाइबुग्गाहो। । मागाढयोगवाहिनां वा प्रायोग्यमर्वाक् न प्राप्यते, परस्मिन् बहुगुणअपुव्वदेसे, वइगाइसु खीरमादीणि ॥ ६१३ ॥ ग्रामे तु प्राप्यते । यद्वा-आगाढं सप्तधा , तद्यथा-द्रव्या
ऽऽगाढं क्षेत्राऽऽगाढं कालागाढं भावागाढं पुरुषागाद • अपूर्वा-अरएपूर्वा विविक्ता निरतिचारचारित्रा बहुश्रुताना
चिकित्सागाढं सहायागाढम् । तत्र द्रव्यागाढमेषणीय म-युगप्रधानागमा विचित्राः श्रुतवन्त उपचारवन्तश्च बहुसा
द्रव्यं यत्र न लभ्यते, क्षेत्रागाढं नाम-तदतीव खलु क्षेत्र धुसमूहपरिवृता एवंविधा प्राचार्या अमुके नगरे तिष्ठन्ति
स्वल्पभैक्षादायकमित्यर्थः, कालागाढं तत्क्षेत्र न ऋतुक्षम, तानहं वन्दिष्ये, साधघोऽप्येवंविधगुणोपेता एव नवरं परि
भावागाढं-ग्लानादीनां प्रायोग्यं तत्र न लभ्यते, पुरुषागावारवर्जास्ते भवन्ति ।चैत्यानि अपूर्वाणि वा चिरन्तनानि जी
ढमाचार्यादिपुरुषाणां तदकारकम् , चिकित्सागाढं वैद्यास्तत्र वन्तस्वामिप्रतिमादीनि अभिनवानि वा तत्कालकृतानि
न प्राप्यन्ते, सहायागाढं सहायास्तत्र न सन्तीति । एतानि ममादृष्टपूर्वाणीति बुद्ध्या तेषां वन्दनाय गच्छन्ति । तथा निजकान् वा संज्ञातकान् ग्राहयिष्यामि बोधयिष्यामी
एएहि कारणेहिं, एक्कदुगंतरतिगंतरं वाऽवि । त्यर्थः। संझिनो वा श्रावकान् भिक्षुकादिः कुप्रावचनिकपरिवा- __ संकममाणो खेतं, पुट्ठो वि जो नऽतिक्कमइ ।। ६१६॥ जकादिः परपाषण्डीव्युग्राहयति-तेषां स्थिरीकरणार्थ,देशो.
एतैरशिवादिभिः कारणैरेकं वा द्वे वा त्रीणि घाऽपान्तरावा बहुगुणः सुलभभैक्षतादिगुणोपेतोऽपूर्वश्च वर्तते, जि
लक्षेत्राणि अतिक्रम्यापरं क्षेत्र संक्रामन् पूर्वोक्नदोषैः स्पृकायां गोकुले आदिशब्दात्-प्रचुरद्रव्यं प्रतिग्रामादिषु वा|
घोऽपि न दोषवान् भवति , यतो यस्मात्तीर्थकराशामसौ क्षीरदधिघृतावगाहिमादीनि लभ्यन्ते एवमादिभिः कारण
नातिकामति । यद्वा-यतो नाम यतनायुक्तः । र्मासकल्पप्रायोग्याणि क्षेत्राणि परित्यजति ।
निकारणगमणम्मि उ, जे चिय आलंबणाउ पडिकुट्ठा । अत्र दोषान् दर्शयति
कजम्मि संकमंतो, तेहिं चिय सुज्झई जयणा ।६१७) श्रद्धापे उव्वाता-भिक्खोवहिसाणतेणपडिणीए ।
निष्कारणे अशिवाद्यभावे यद-गमनमपान्तरालक्षेत्राओमाण अभोजघरे, थंडिले असती य जे जत्थ ॥६१४॥
रित्यागेन क्षेत्रान्तरसंक्रमण तत्र तान्येवाऽऽचार्यसाधुचैत्यते साधयोऽध्वनि वजन्त उद्वाताः-परिश्रान्ताः सन्तश्चि
चन्दनादीनि पालम्बनानि प्रतिक्रुष्णानि-प्रतिषिद्धानि कार्येन्तयन्ति-अत्र ग्रामे गुरवः स्थास्यन्ति, प्राचार्याश्च तं ग्राम
द्वितीयपदे शानदर्शनादिविशुद्धिनिमित्तं संक्रामन् तैरेवाचाव्यतीत्याऽग्रतो गतास्ततस्ते छिन्नायामाशायां व्रजन्तो यद
र्यादिभिरालम्बनैर्यतनायुक्नेषु शुद्धयति-अदोषभाग् भवतीनागाढमागाढं वा परिताप्यन्ते तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। मैक्ष
त्युक्तो मासकल्पविहारः। बृ० १ उ०३ प्रक०। पा तत्र स्फिटितायां वेलायां न प्राप्यते, अत्यन्तपरिश्रान्ता
(१८ अथ बिहारद्वारविषयं विधिमभिधित्सुराहमार्ग एवोपधि परित्यजेयुः। अकाले पर्यटतां श्वान उपद्रवं कुर्युः,स्तेना वा तेषामुपधि तानेव वा अपहरन्ति । प्रत्यनीको निप्फत्तिं कुणमाणा, थेरा विहरंति तेसिमा मेरा । वा तदानीं विजनं मत्वा हन्याद्वा मारयेद्वा । अपमानं स्व- आयरियउवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य ॥६१८॥ पक्षतः परपक्षतो वा भवेत्। श्रभोज्यगृहेषु वा रजकादि
शिष्याणां निष्पत्ति कुर्वन्तः स्थविरा-गच्छवासिनः सासम्बन्धिषु भिक्षां गृह्णीयुः, तत्रैव वा तिष्ठेयुः, ततश्च प्रवच
धवो विहरन्ति-अप्रतिबद्ध विहारं विदधति । तेषां चेत्थं नविराधना । स्थण्डिलानि वा तत्र न भवेयुः, तेषामभावे विहरतामियं मर्यादा-सामाचारी । तत्र गच्छवासिनस्तासंयमात्मविराधना । एवं ये यत्र दोषा भवन्ति तेऽत्र यो
वत्पञ्चविधाः-तद्यथा-प्राचार्यः, उपाध्यायो, भिक्षवः, स्थविजयितव्याः ।
राः, क्षुल्लकाश्चेति । अथ द्वितीयपदमाह
धीरपुरिसपनत्तो, सप्पुरिसनिसेवित्री श्रमासविही। बितियपए असिाई, उवहिस्स व कारणा व लेवो वा । बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियाई व आगाढे ॥६१५॥
तस्स पडिलेहगा पुण,सुत्तत्थविसारया भणिया।६१६। द्वितीयपदे अशिवादीनि कारणानि विशाय व्यतिव्रजेयुरपि
धीरपुरुषैस्तीर्थकरगणधरैः प्रक्षप्तः, सत्पुरुषैश्च जम्बूप्रभतत्र यदपान्तराले क्षेत्रं तदशिवगृहीतम्, आदिशब्दाद्-अव
वादिभिर्निषेवितुमनुष्ठितो मासकल्पविधिः । तस्य पुनर्मामौदर्यराजद्विष्टादिदोषयुक्तं स्वाध्यायो वा तत्र न शुद्धयती
सकल्पविधेः प्रत्युपेक्षकाः सूत्रार्थविशारदाः साधवो भत्यादिपरिग्रहः । उपधिर्वत्रपात्रादिरूपस्तत्र न लभ्यते ,
पिता भगवद्भिः । स पुनर्विहारः शरदादिर्भवति । पुरोवर्तिनि तु प्रामादी लभ्यते अतस्तस्य कार
कथमिति चेदुच्यतेसात् लेपो वाऽप्रतोवर्तिनि प्रामे लभ्यते न तत्र, वासावासे ऽतीए, अद्वसु वारो अतो उ सरदाई।
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बिहार
(१२६४) अभिधानराजेन्द्रः ।
पडिलेहसंकमविही, ठिए य मेरं परिकहेऽहं ।। ६२० ॥' वर्षावासे प्रतीते - अतिक्रान्ते अष्टसु ऋतुबद्धमासेषु वारो मासे मासे क्षेत्रान्तरगमनलक्षणो विहारो भवति श्रतः शरदादिरयं मन्तव्यः । तत्र च क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाविधि क्षेत्रान्तरसंक्रमणविधि प्रत्युपेक्षिते च क्षेत्रे 'ठिए' त्ति स्थितानां सतां या काचिन्मर्यादा तामहं परिकथयिष्यामि ।
प्रतिज्ञातमेव यथाक्रमं व्याचिख्यासुराहनिग्गमम्मिय पुच्छा, पत्तमपत्ते इत्थिए वाऽवि । वाघायम्मि अपत्ते इत्थिए तस्स असतीए ॥ ६२१|| यत्र वर्षावासः कृतस्ततः क्षेत्रान्निर्गमने पृच्छा, किं कार्त्तिक. चतुर्मासिके निर्गन्तव्यम्, उताऽप्राप्ते श्राहोस्विदतिक्रान्ते ।। उच्यते - यदि कोऽपि व्याघातस्तदा श्रप्राप्ते या श्रतिक्राते वा निर्गच्छन्ति तस्य व्याघातस्याऽसत्यभावे प्राप्ते चातुर्मासिकदिने मार्गशीर्षप्रतिपदि निर्गत्य बहिर्गत्वा पारयन्ति ।
कः पुनव्यार्घात इत्याहपत्तमपत्ते रिक्खं, असाइमं पुत्रमासिणिमहो वा । पडिकूल त्तिय लोगो, मा वोच्छिह तो अईअम्मि । ६२२ | प्राप्ते चातुर्मासिक दिवसे अप्राप्ते वा यथाऽऽवार्याणाम् ऋऋदक्षं नक्षत्रमसाधकम् - अननुकूलं पूर्णमासीमहो वा तदा भवेत् कार्त्तिकीमहोत्सव इत्यर्थः । तत्र च लोको निर्गच्छन् साधून् दृष्ट्वा श्रमङ्गलं मन्यमानः प्रतिकूला अस्मिन्महोत्सवप्रतिपन्थिनोऽमी इत्येवमावश्यति ततोऽतीते निर्गन्तव्यम् ।
पत्ते इत्थिए वा, असाहगं तेरा गिति अप्पत्ते । नाऊं निग्गमकालं, पडिचरए एस बिंति तहा ||६२३|| प्राप्ते अतिक्रान्ते वा निर्गमनकाले नक्षत्रमसाधकम्, उपलक्षणत्वान्मेघो वा वर्षणानोपरंस्यते, पन्थानः कईमदुर्गमाश्च भविष्यन्तीत्यतिशयज्ञानवशेन परिशाय तेन कारणेनाप्राप्ते चातुर्मासके निर्गच्छन्ति, निर्गमनकालं ज्ञात्वा प्रतिवरकान् — क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् प्रेषयन्ति । तथा तेष्वायातेषु सत्सु निर्गमनकाल उपढौकते । तच क्षेत्रं द्विधा दृष्टपूर्वम्, अदृष्टपूर्व च । उभयमपि नियमेन प्रत्युपेक्षणीयम् । कुत इति चेदुच्यते
अप्पडिलेहिऍ दोसा, वसही भिक्खं च दुल्लहं होआ । बालाइगिलाणाण व, पाउग्गं अहव सज्झाओ ॥ ६२४ ॥ अप्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे गच्छतामेते दोषाः । सा पूर्वदृष्टा वसतिः स्फोटिता पतिता वा भवेत् श्रन्ये वा साधवस्तत्र स्थिता बा भवेयुः, भैक्षं वा दुर्लभं भवेत्, दुर्भिक्षाऽऽदिभावात् बालादीनां ग्लानानां वा प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत्, स्वाध्यायो वा दुर्लभः स्यात् ; मांसशोणितादिभिरस्वाध्यायिकैराकीरत्वात् ।
यतचैवमतः किं विधेयमित्याहतम्हा पुत्र पडिले - हिऊण पच्छा विहीऍ संकमणं । पेसह जह अणापु-च्छिउं गणं तत्थिमे दोसा || ६२५।।
For Private
विहार तस्मात्पूर्व प्रत्युपेक्ष्य पश्चाद्विधिना संक्रमणं तत्र कर्त्तव्यम् । श्रथाप्रत्युपेक्षिते व्रजन्ति ततश्चतुर्लघु, श्राशाभने चतुर्गुरु, अनवस्थायां चतुर्लघु । यद्वा - संयमविराधनादिकं प्राप्नुवन्ति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यदि पुनराचार्यो गणं गच्छुमनापृच्छय क्षेत्रे प्रत्युपेक्षकान् प्रेरयति तदा मासलघु ।
तत्र च गणमनापृच्छ्य प्रेषणे इमे दोषाः
खा साव-मसगा, ओम - ऽसिवे सेह - इत्थि - पडिणीए । थंडिल्लवसहि उट्ठा-ण एवमाई भवे दोसा ।। ६२६ ॥ स्तेना द्विविधाः- शरीरस्तेना, उपधिस्तेनाश्च । श्वापदा:सिंहव्याघ्रादयः मशकाः प्रतीताः अवमं- दुर्भिक्षम् श्रशिवं - व्यन्तरकृतोपद्रवः शैक्षस्य वा तत्र मारिकं स्त्रियो वा स्नेहोद्रेकबहुलाः साधूनुपसर्गयन्ति, प्रत्यनीको वा को 5प्युपद्रवति, स्थण्डिलानि वा तत्र न विद्यन्ते, वसतिर्षा नास्ति, उट्ठाणे ' त्ति उत्थितः स देशः एवमादयस्तत्रापातराले पथि गच्छतां दोषा भवन्ति ।
तत्र स्थाने प्राप्तानां पुनरिमे दोषाःपश्चंत तावसीओ, सावय दुब्भिक्ख तेणपउराई | नियगयउप्पव्वायण, फेडण्या हरियपत्तीए ॥ ६२७ ॥ स ग्रामः प्रत्यन्तो म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः, तापस्यो वा तत्र प्रचुरमोहाः संयमात्परिभ्रंशयन्ति, श्वापद्भयं दुर्भिक्षः, स्तेनप्रचुराणि च तानि क्षेत्राणि, शिक्षकस्यान्यस्य वा कस्याs पि साधोस्तत्र निजकाः स्वजनास्ते तमुत्प्रवाजयन्ति, प्रद्विष्टो वा प्रत्यनीकस्तत्र साधूनुपद्रवति, उत्थितो वा सग्रामः स्फुटिता वा सा वसतिः स्फिटितानि वा परिणामितानि तानि कुलानि येषां निश्रया तत्र गम्यते । अत्र चूर्णिकृत् -" फिडियाणि वा ताणि कुलाणि जेसि निस्साए गम्मइ " ति हरियपसीए' सि हरितपत्रशाकं बाहुल्येन तत्र भक्ष्यते । अथवा-तत्र देशे केषुचिद्गृहेषु राज्ञा दण्डं दत्त्वा देशतापहारार्थमागन्तुकः पुरुषो मार्यते, गृहस्य चोपरिष्टादावृक्षशाखाचिह्नं क्रियते, एतेन चिहेना ऽस्माभिराक्यात मेवाभवद् यन्मारणेऽप्यस्माकं न दोष इति, यत एते दोषा अतः सर्वमपि गणमामन्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषणीयाः ।
यदि पुनर्न सर्वमपि गणमामन्त्रयते तत एते दोषाः । सीसे जइ श्रमंते, पडिच्छगा तेरा बाहिरं भावं । जर इअरे तो सीसा, तेऽवि समत्तम्मि गच्छति ॥ ६२८ ॥ तरुणा बाहिरभावं न य पडिलेडोवहिं न किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वचिमो थेरा ॥ ६२६ ॥ यद्याचार्यः शिष्यान् केवलानामन्त्रयति कस्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषयितुमुचिता इति ततो मासलघु, श्राशादयश्च दोषाः प्रतीच्छुका तेन कारणेन बाह्यं भावं गच्छेयुः । श्रहो अद्य शिष्या एवामीषां सर्वकार्येषु प्रमाणं न वयमित्यतो रागद्वेषदूषितत्वात्को वा नामामीषामुपकण्ठे स्थास्यतीति । यदि इतरान् प्रतीच्छुकानामन्त्रयति ततः शिष्याः बर्हिर्भावं गच्छेयुः, प्रतीच्छुका एव तावदमीषां प्र
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बिहार
(१२६५
अभिधानराजेन्द्र:। सादपात्राणि अतः किमर्थं वयमेव वैयावृस्यादिप्रयास कुर्म- । तं तु न जुजइ वसही, फेडण आगंतु पडिणीए ॥६३३।। इति, तेऽपि-प्रतीच्छकाः समाप्ते सूत्रार्थग्रहणे स्वगच्छं केचित् भणन्ति पूर्व प्राक् प्रत्युपेक्षिते क्षेत्र एवमेव गन्तव्य गच्छन्ति । ततश्चाचार्य उभयरपि प्रतीच्छकैः शिष्यैः प- न पुनस्तत्र क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेक्षणीया इति। तनुन युज्यतेरित्यक्तः सनेकाकी सजायते । अथ वृद्धानामन्त्रयते तत- म घटते, कुत इत्याह-वसतेः कदाचित् स्फेटनं कृतं भवेत् , स्तरुणा बहिर्भावं मन्यन्ते, न च-नैव गुरूणां क्षेत्रप्र- आगन्तुको वा प्रत्यनीकस्तत्र संवसेत् , अतः पूर्वएमपि त्युपेक्षकाणां वा उपकरणं प्रत्युपेक्षन्ते, न पा स्थविरादी- क्षेत्र प्रत्युपेक्षणीयम् । नामुपधिं वहन्ति, न च कृतिकर्म भनपानाऽऽनयनविश्राम
अथ कथं प्रष्टव्यमित्याहणादिकं कुर्वते, वृद्धा एव सर्वमपि विधास्यन्ति, के पुनर्वयम
कयरी दिसा पसत्था, अमुगी सब्वेसि अणुमए गमणं । स्थापितमहत्तरा इति । अथैतद्दोषभयात् तरुणानेव पृच्छति, सतः स्थविराश्चिन्तयेयुः मौलकपत्रसदृशा-मौलम्-आध
चउदिसितिदुएकं वा, सत्तगपणगं तिग जहले ॥६३४॥ यत्पूर्व परिपकप्रायम् , यदि वा-मूलकः कन्दविशेषस्तस्य यदा सर्वेऽपि साधवो मिलिता भवन्ति तदा गुरवो ब्रुवतेयत्पत्रं निस्सारं तत्सरशा वयम् , अत एव परिभूताः- आर्याः! पूणों ऽयमस्माकं मासकल्पः क्षेत्रान्तरं सम्प्रति प्र-- परिभवपदमायाता इत्यतो ब्रजामो वयं गणान्तरमिति । त्युपेक्षणीयम्, अतः कतरा दिक् साम्प्रतं प्रशस्ता । ते ब्रुवतेअथाऽकिञ्चित्करत्वात् स्थविराणामनामन्त्रणादपि अमुका पूर्वादीनामन्यतमा, एवं सर्वेषां यद्यसावनुमता अका नाम हानिः सम्पद्यते ?, उच्यते
भिरुचिता तदा गमनं कर्त्तव्यम् । प्रथमं चतसृष्वपि दिषुजुन्नमिएहि विहूणं, जं जूहं होई सुद्धवि महलं ।
अथ चतुर्छा कोऽप्यशिवादिरुपद्रवस्ततस्तिसृषु दिनु , तद
भावे द्वयोर्दिशोस्तदसत्येकस्यां दिशि गच्छन्ति । ते चैकैकस्यां तं तरुणरहसपोइय-मयगुम्मइयं सुहं हंतुं ॥ ६३०॥
दिस्युत्कर्षतः सप्त बजन्ति । सप्तानामभावे पञ्च जघन्येन तु जीर्णाः परिणतवयसो ये मृगास्तैर्विहितं यत् यूथं भव- प्रयः साधवो नियमागच्छन्ति । तत्र च ये आभिप्रहिकाःति सुष्टुप्यतिशयेन महत्-महासमूहाऽऽत्मकं तंत् यूथम् । क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रतिपन्नाभिग्रहास्ते स्वयमेव गुरुनापृ'तरुख 'त्ति भावप्रधानत्वात् निर्देशस्य तारुण्येन यौवन- च्छय गच्छन्ति। वशेन यद् रभसश्चापलं गोरिगीतश्रवणादिविषयं तेन
अथ न सन्त्याभिग्रहिकास्ततः को विधिरित्याह'पोतित' ति देशीवचनत्वादितस्ततः स्पन्दितं मदगुल्मितं
वेयावच्चगरं वा-लवुडखमयं वहंतऽगीयत्थं । मदेन घुर्मितचेतनं तत् सुखं हन्तुं विनाशयितुं सुखेन तवापाद्यत इति भावः । उक्तं च-" अतिरागप्रणीतान्य-ति- गणवच्छेइअगमणं, तस्स व असती य पडिलोम।।६३५॥ रभसकतानि च । तापयन्ति नरं पश्चा-क्रोधाध्यवसितानि वैयावृत्त्यकरम् १ बालम् २ वृद्धम् ३ क्षपकम् ४ वहन्तम्च॥१॥" यतश्चैवमतः सर्व एव मिलिताः सन्तः प्रष्टव्याः। योगवाहिनम् ५ अगीतार्थम् ६ एतान्न क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय व्या___ अवैव प्रायश्चित्तमाह
पारयेत् , किंतु-गणावच्छेदकस्य गमनं भवति । तस्य वाशपायरिय प्रवाहरणे, मासे वाहित्तणागमे लहो।।
ग्दादपरस्य वा गीतार्थस्यासत्यभावे प्रतिलोम-प्रतिक्रमेण
पश्चानुपूयेत्यर्थः , एतानेवाऽगीतार्थानादिं कृत्वा व्यापारवाहिताण य पुच्छा, जाणगसिद्धे तमो गमण।।६३१।।।
येदिति संग्रहगाथासमासार्थः।। प्राचार्या गणं नव्याहरन्ति-नामन्त्रयन्ति मासलघु, शिष्य
अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाहप्रतीच्छकतरुणस्थविराणामन्यतमानविशेष्याऽऽमन्त्रयन्ति तदापि मासलघु । तेऽपि व्याहताः सन्तो यदि नागच्छन्ति
आइतिए चउगुरुगा, लहुप्रो मासो उ होइ चरिमतिए। तदापि मासलघु। व्याहत्य च सर्वमपि गणं, पृच्छा कर्तव्या। प्राणाइणो विराहण, आयरियाईसु णेयन्वा ।। ६३६ ।। यथा-कतरत् क्षेत्र प्रत्युप्रेक्षणीयम्, ततोमायकेन क्षेत्रस्वरू
आदित्रिके वैयावृस्यकरबालवृद्धलक्षणे व्यापार्यमाणे चपे पृटे शिष्टन कथिते सति गमनं क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैः कर्तव्यम् ।
त्वारो गुरुकाः । चरमत्रिके तु क्षपकयोगवाह्यगीतार्थआमन्त्रणस्यैव विधिमाह
लक्षणे लघुको मासः, आशादयश्च दोषाः, विराधना चा55घुइमंगलमामंतण-नागच्छइ जो व पुच्छिमो कहई । चार्यादीनां ज्ञातव्या। तस्सुवरिं ते दोसा तम्हा मिलिएसु पुच्छिजा ॥६३२॥
___ तामेव भावयतिआवश्यक समापिते स्तुतिमाल कृत्वा तिनः स्तुतीर्दत्त्वे- ठवणकुले नव साहइ,सिट्ठा व न दिति जा विराहणया। ति भावः. सर्वेषामपि साधूनाम् आमन्त्रणं कर्तव्यं, कृते चा परितावणमणुकंपण, तिण्ह समुत्थो भवे खमत्रो॥६३७॥ मन्त्रस्ये च यः कश्चिन्नागच्छति प्रागतो वा क्षेत्रस्वरूपं पृष्टः
वैयावृत्त्यकरः प्रेक्ष्यमाणो रुक्ष्यति, रूषितश्च यान्यासन्न कथयति तदा मासलघु, तथा तस्योपरि ते दोषाः स्तेन
चार्यादिप्रायोग्यदायकानि स्थापनाकुलानि तानि न श्वापदादयो भवन्ति ये तत्र गतानां भविष्यन्तिातस्मान्मिलि
कथयति, शिष्टानि वा कथितानि परं तानि ततेषु सर्वेष्वपि पृच्छेत् , उपलक्षणत्वात्सर्वेऽपि च कथयेयुः।
स्यैव ददति, नान्यस्य तेन भावितत्वात्तेषां ततोऽलभ्यमातत्रैव मतान्तरमुपन्यस्य दूषयमाह
ने प्रायोग्ये या काचिदात्मनो ग्लानादीनां वा विराधना भई भकति पुग्वं, पडिलेहिय एवमेव गंतव्वं । | तनिष्पन्नमाचार्यस्थ प्रायश्चित्तम् । अथ पकं प्रेषयति त
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(१२६६) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार तोऽसौ शीतातपादिना परिताप्यते तनिष्पन्नम् , देवता वा। दभाव अनागाढयोगी बाह्ययोगवाही योग निक्षिप्य प्रेष्यते । काचित् क्षपकमनुकम्पमाना खलु क्षेत्रेऽपि भक्तपानमुत्पा- | अस्याप्यसत्यभावे क्षपकः तञ्च प्रथम पारयेत्-पारण कादयति . लोको वा क्षपक इति कृत्वा तस्याऽनुकम्पया सः | रयेत्, ततो मा क्षपणं कार्करिति शिक्षां दत्त्वा प्रहिणुयात् । धमपि ददाति नाऽन्यस्य,तपःक्षामकुक्षिश्चासौ तिसृणां गो- तस्याऽप्यभावे वैयावृत्त्यकरःप्रेष्यते, 'दामम' त्ति स वैयावृचरचर्याणामसमर्थ इति ।
स्यकरो वास्तव्यसाधूनां स्थापनाकुलानि दर्शयति-ततो बालद्वारमाह
बालपृद्धयुगलं, कथंभूतं ?, समर्थ-दृढशरीरं वाशब्दो विकहीरेज व खेलेज व, कजाकजं न जाणई बालो।
ल्पार्थः । सहितं वा-वृषभसाधुसमन्वितम् । इत्थमादिस्तैः सो व अणुकंपणिजो,न दिति वा किंचि बालस्स॥६३८॥
शेषसाधूनां स्वमुपधिं समर्प्य परस्परं क्षामणं कृत्वा गम
नकाले भूयोऽपि गुरुनापृच्छय गन्तव्यम्। यदि नाऽऽपृच्छन्ति हियेत वा म्लेच्छादिना, खेलयेद्वा चेटरूपैः साढे, कार्या:
तदा मासलघु। कार्य च-कर्त्तव्याकर्त्तव्यं न जानाति बालः । स च बालः स्व
ते चावश्यिकी कृत्वा निर्गच्छन्ति, कियन्तः कथं चेत्याहभावत एवाऽनुकम्पनीयो भवति,ततः सर्वोऽपि लोकस्तस्मै भक्तपानं प्रयच्छति । स चागत्याचार्याय कथयति, यथा स- तिनेव गच्छवासी, हवंतऽहालंदियाण दोभि जणा। मपि प्रायोग्यं तत्र प्राप्यते । ततस्तद्वचनादागतस्तत्र ग- गमणे चोदक पुच्छा, थंडिलपडिलेह हालंदे ॥ ६४३ ॥ छो यावन्न किञ्चिलभते, न ददाति वा किश्चिद्वालाय लोकः
जघन्यतस्त्रयो गच्छवासिनो जना एकैकस्यां दिशि - पराभवनीयतया दर्शनात् ।
जन्ति, यथालन्दिकानां तु गच्छप्रतिबद्धानां द्विजनावकवृद्धद्वारमाह
स्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षको गच्छतः, शेषास्तु तिसृषु वितु । ग. वुड्डो ऽणुकंपणिज्जो, चिरेण न य मग्गथंडिले पेहे। च्छवासिनामाचार्या आदिशन्ति,यथा-यथालन्दिकानामपि अहवावि बालवुड्डा, असमत्था गोयरतियस्स ॥६३६।। योग्य क्षेत्र प्रत्युपेक्षणीयं तेषां च गमने प्ररूपिते नोदकवृद्धः-परिणतवया अनुकम्पनीयो लोकस्य भवति, ततश्चा च्छा वक्तव्या, स्थण्डिलप्रत्युपेक्षणं यथालन्दिकानां वाच्यम् । ऽयं सर्वत्राऽपि लभते नापरातथा स मन्द मन्द गच्छन् चि- __ तत्र गमनद्वारं विवृणोतिरकालेनोपैति, न च मार्ग पन्थानं स्थण्डिलानि च प्रत्युपेक्षते ।
पंधुच्चारे उदये, ठाणे भिक्खंतरा य वसहीो । अथवा-बालवृद्धौ भसमी गोचरत्रिकस्य-त्रिकालभिक्षा
तेणा सावयवाला, पञ्चावाया य जाणविही ॥६४४॥ टनस्येति। योगवाहिद्वारमाह
पन्थानं-मार्गम् ‘उच्चारे' ति उच्चारप्रश्रवणभूमिके
'उदिय' ति पानकस्थानानि येषु बालादियोग्य प्राशुदुरंतो वन पेहे, गुणणालोमे न य चिरं हिंडे ।
कैषणीय पानकं लभ्यते, ' ठाणे' त्ति विश्रामस्थानानि विगई पडिसेहेई, तम्हा जोगिन पेसिजा ॥ ६४०॥
'मिक्ख' त्तिं येषु येषु प्रदेशेषु भिक्षा प्राप्यते न वा अन्तरायोगवाही श्रुतं मम पठितव्यं वर्तत इति चरमाणः स- अन्तराले च सतपःप्रतिश्रयाः सुलभा दुर्लभा वा स्तनाः अपान्तराले पन्थानं न प्रत्युपेक्षते, गुणना-परावर्त्तना तस्या श्वापदा व्यालाश्च यत्र सन्ति, न वा प्रत्यपायाश्च यत्र दिवा लोभेन चिरमसौ भिक्षां न हिण्डते, लभ्यमानापि विकृति रात्रौ वा भवन्ति, तदेतत्सर्व सम्यग् निरूपयद्भिर्गन्तव्यम् । घृतादिकमसौ प्रतिषेधयति, तस्माद्योगिनं न प्रेषयेत् । यानं-गमनं तस्य विधिरय द्रष्टव्य इति । अगीतार्थद्वारमाह
इदमेव व्याविख्यासुराहपंथं च मास वासं, उवस्सयं एच्चिरेण कालेण ।
वावारियसच्छंदा-ण वावि तेर्सि इमो विही गमणे । एहामो त्ति न जाणइ, ऽगीतो पडिलोम असतीए।६४१॥ दव्वे खित्ते काले, भावे पंथं सुपडिलेहे ॥ ६४५ ॥ अगीतार्थपन्थान-मागे मास-मासकल्पविधिं वासं- व्यापारिता-श्राचार्येण नियुक्ताः स्वच्छन्दा नाम ये आवर्षावासविधिम् उपाश्रय-वसतिम् एतानि परीक्षितुं न भिग्रहिकास्तषामुभयेषामप्ययं गमने विधिः । तद्यथा-द्र-" जानाति । तथा शय्यातरेण पृष्टः कदा यूयमागमिष्यथ?,ततो | व्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च पन्थानं प्रत्युपेक्षन्ते । ऽसौ प्रवीति-इयता कालेनाद्धमासादिना वयमेष्याम इत्येवं
कथमित्याहबदतो यः गल्यविधिभाषणजनितो दोषस्तमगीतार्थों न
कंटगतेणा वाला, पडिणीया सावया य दब्बम्मि । जानाति, यत एवमतः प्रथमतो गणावच्छेदकेन गन्तव्यम् । तम्याऽभावे अपरोऽपि यो गीतार्थः स व्यापारणीयः, त
समविसमउदगथंडिल-भिक्खायरियंतरा खत्ते ॥६४६।। स्याप्यसत्यमाव प्रतिलोमं पश्चानुपूर्त्या पतानेव गीतार्थमा- दिय राउ पञ्चवाए, य जाणई सुगमदुग्गमे काले । दि कृत्वा प्रेषयेत् ।
भावे सपक्खपरप-क्खपल्लणा निएहगाईया ॥६४७॥ केन विधिनेत्युच्यते
द्रव्यतः कण्टकास्तेना ब्यालाः प्रत्यनीकाः श्वापदाश्च पसामायारिमगीए, जोग्गमणागाढखमग पारावे ।
थि प्रत्युपेक्षणीयाः । क्षेत्रतः-समो-गिरिकन्दराप्रपातनिम्नोवेयावच्चे दामण-जुयलसमत्थं व सहियं वा ।। ६४२॥ प्रतरहितः पन्था विषमस्तद्विपरीतः 'उद्ग' ति पानीअगीतार्थ शोधनियुकिसामाचारी कथयित्वा प्रेषणीयत- यदुलो मार्गः स्थण्डिलानि भिक्षाचर्या तथा अन्तरा--
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(१२६७) विहार
अभिधानराजेन्द्रः। पान्तराले यसतयः । कालतो-दिवा रात्री वा प्रत्यपायान्
अथैतदेव व्याचष्टेजानाति, यथाऽत्र दिवा प्रत्यपाया न रात्री, रात्री न
बाले वुढे सेहे, पायरियगिलाणखमगपाहुखए । दिवेति यथा दिवा रात्रौ चाऽयं पन्थाः सुगमो दुर्गमो
तिथि उकाले जहियं,भिक्खायरिया उ पाउग्गा॥६५२॥ वा । भावतः-वपक्षण परपक्षण वा प्रेरित आक्रान्तोऽयं प्रामः पन्था वा न येति । अथ कः पुनः स्वपक्षःको वा परपक्ष
षष्ठीसप्तम्योरर्थे प्रत्यभेदात् बालस्य वृद्धस्य शैक्षस्थाss इस्याह-'निराहगाइय'नि निहवाः-पावस्थादयः साधु
बार्यस्य ग्लानस्य क्षपकस्य प्राघुबर्णकस्य च प्रायोग्या तब लिङ्गधारिणः स्वपक्षाः आदिग्रहणात्-चरकपरिव्राजकादयः | नुकूलप्राप्यमाणभक्तपाना त्रीनपि पूर्वापराहमध्याहुलक्षणान् परपक्षाः एवं प्रत्युपेक्षमाणास्तावद् प्रजन्ति यायविवक्षित-| कालान् यत्र भिक्षाचर्या भवति तत्क्षेत्रं गच्छस्य योग्यक्षेत्र प्राप्ताः । उक्तं गमनद्वारम् ।
मिति गम्यते। मथ नोदकपृच्छाद्वारमाह
कथं पुनस्तत्प्रत्युपेक्ष्यत इत्याह
खतं तिहा करित्ता, दोसीये नीणितम्मि उवयंति । सुत्तत्थाणि करिते, न वत्ति वञ्चंतगा उ चोएर।
अनोखे बहुलद्धो, थोवंदन मा य रूसिजा ॥ ६५३ ॥ न करिति साहु चोयय,गुरूण निइआइमा दोसा॥६४८॥
क्षेत्र विधा-त्रीन् भागान् कृत्वा एकं विभागं प्रत्युषपरो मोदयति-क्षेत्रप्रत्युपेक्षका वजन्तः किं सूत्रार्थी कुर्व
सि पर्यटन्ति , द्वितीयं मध्याह्ने, तृतीय साया। तत्र यते न वा ?, गुरुराह-न कुर्वन्ति, मा भूवन् गुरूणां नित्यवा
त्र प्रातरेव भोजनस्य देशकालस्तत्र प्रथमं पर्यटन्ति । सादयो दोषाः, अतः सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति यदि कुर्वन्ति तदा
अथ नास्ति प्रातः काऽपि देशकालस्ततो दोसीणे' मासलघु । अर्थपौरुष्या मासगुरु ।।
पर्युषिते पाहारे निस्सारिते वदन्ति, यथा अन्यान्येषु गृहेषु 'थण्डिलपडिलेहहालंदे' सि पर्द व्याख्यानयति
पर्यटद्भिः बहुः-प्रचुर आहारो लब्धस्तेन च भूत
मिदं भाजनम् , अतः स्तोकं देहि, मा च रुषः-मा रोपं सुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवेंता वयंति जहॉलंदी।
काषीर्यदेते न गृह्णन्तीति, एतच्चामी परीक्षार्थ कुर्ववन्ति किथंडिल्ले उवमोग, करिति रसिं वसंति जहिं ॥ ६४६ ॥
मयं दानशीलो न वेति । यथालन्दिकाः सूत्रार्थपौरुष्यावपरिहापयन्तो विहारं भि- अहव न दोसीणं चिय, जाणीमो देहि थे दहि खीरं । क्षाचर्या च तृतीयस्यां पौरुष्यां कुर्वाणा बजन्ति । यत्रच
खीरे व य गुल गोरस-थोवं थोवं च सव्वत्थ ॥६५४॥ रात्रो वसम्ति तत्र स्थण्डिले--कालग्रहणादियोग्ये उपयोग
अथवा न वयं दोसीणमेव जानीमः,किंतु-देहिणे' अस्मभ्यं कुर्वन्ति।
दधि क्षीरं च । क्षीरे लब्धे सति घृतं गुडं गोरसं च याचयिकेन विधिना गच्छवासिनस्तत्र क्षेत्रे प्रविशन्तीत्याह
स्वा सर्वत्र स्तोकं स्तोकमेव गृह्णन्ति । एवं तावत्प्रशस्यौ सुत्तत्थे अकरेंता, भिक्खं काउं अइंति अवरहे।
यौ भिक्षाया देशकाली यानि च भद्रककुलानि तानि सभ्य
गवधारयन्ति , यथा बालवृद्धक्षपकादीनां प्रथमद्वितीयवितियदिणे सज्झामओ,पोरिसि श्रद्धाऍ संघाडो॥६५०॥
परीपहार्दितानां समाधिसन्धारणार्थ प्रातरेव तेषु पेयादीनि सूत्रार्थावकुर्वन्तः प्रस्तुतक्षेत्रासम्ने ग्रामे भिक्षां कृत्वा यानि चापनीयन्ते एवमेकस्य पर्यायं गृहीत्वा यसतिमागसमुद्दिश्यापराहे विचारभूमि स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षमाणा म्यालोचनादिविधिपुरस्सरं समुद्दिश्य मध्याहे द्वितीये भिविवक्षित क्षेत्रम् 'अइंति' ति प्रविशन्ति, ततो वसति गृही. क्षां पर्यटन्ति। त्वा, तत्राऽवश्यकं कृत्वा, काले प्रत्युपेक्ष्य, प्रादोषिकं स्वा
कथमित्याह-- भ्याय कृत्या, प्रहरद्वयं शेरते। ये तु न शेरते ते अर्द्धरात्रिकवैरात्रिककालद्वयमपि गृहन्ति । ततःप्राभातिकं कालं गृही.
मज्झण्हें पउरभिक्खं,परिताविय पेज्ज जूसपयकढियं । स्वा द्वितीयदिने स्वाध्यायः कर्तव्यः। ततोऽर्द्धयां पौरुष्या
प्रोभासिमणोभासिय, लब्भह जं जत्थ पाउग्गं..६५५॥ मतिकान्तायां संघाटको भिक्षामटति।
मध्याह्ने प्रचुर भै तथा परितापितं-परितलितं सुकुमाएतदेवाह
लिकादि यत्कान्तं, यद्वा-परितापितं कथितं; कट्टरादिकमि
त्यर्थः, पेया-यवागू. यूषो-मुगरसः तथा पयो दुग्धं कथिवीयारभिक्खचरिया, वुत्ताण विरुग्गयम्मि पडिलेहा ।
तं-तापितम् एवमवभाषितमनवभाषितं वा यद्यत्र प्रायोग्यचोयग भिक्खायरिया, कुलाइ तहवस्सयं चेव ॥६५॥ मन्विष्यते तत्तत्र यदि लभ्यते तदा प्रशस्तं तत् क्षेत्रम् , अविचारभूमिः प्रथममेवापराहे प्रत्युपेक्षणीया, ततो रात्रा
पाऽप्येकस्य पर्याप्तं गृहीत्वा प्रतिनिवृस्य समुद्दिश्य संशाभूबुषितानामचिरोद्गते सूर्ये अर्द्धपौरुष्यां भिक्षाचर्यायाः प्र
मिगल्या वैकालिकी पात्रादिप्रत्युपेक्षणां कृत्वा सायाहेतस्युपक्षणा भवति । अत्र नोदकः प्रश्नयति, किमिति प्रात
तीयविभागे भिक्षामटन्ति । रारभ्य भिक्षाचर्या विधीयत ? सूरिरभिदधाति एवं भिक्षा
कथमित्याहवयाँ कुर्वाणाः कुलानि-दानकुलादीनि तथोपाश्रयं च
चरिमे परिताविय पे-ज्जक्खीर पाएस अतरणट्ठा। शास्यन्तीति समासार्थः।
एकेक्कगसंजुत्तं, भत्तऽटुं एकमेकसि ॥ ६५६ ॥ ३२५
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विहार
विहार
अभिधानराजेन्द्रः। चरमे भिक्षाकाले परितापितं पेयाक्षीरं येषु प्राप्यते तानि
कथमित्याहकुलानि सम्यगवधारयन्ति । किमर्थमित्याह-आदेशाय प्राघूः | जेहिं कया उवस्सय-समणाणं कारणा वसहिहेउं । कास्तदा समागच्छेयुः, अतरणो ग्लानस्तदानीं पथ्यमुपयु
परिपुच्छिय सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तणं ॥ ६६१॥ जीत तदर्थमुपलक्षणत्वाद्वालाद्यर्थ च । अत्राऽप्येकस्य पर्याप्त गृहीत्वा प्रतिनिवर्तन्ते । यत आह- एक्केक' इत्यादि एक्कैक्कः
इह श्रमणाः पञ्चधा, तद्यथा-शाक्याः, परिव्राजका, गेरुका साधुरन्यसाधुना संयुक्तो यस्मिन्नानयते तदेकैकं संयुक्त भ
श्राजीवकाः,निर्ग्रन्थाश्च । तेषामेव वा कारणात् कारणमुद्दिश्येनार्थमुदरपूरमाहारमकैकस्य साधोरायाऽऽनयन्ति। इदमुक्तं
त्यर्थः । कारणमेव व्यनक्ति, वसतिः-अवस्थानं तद्धेतोस्तनिभवति-प्राती साधु सहकेन पर्यटतः, तृतीयो रक्षपाल
मित्तं यदिभिः कृता उपाश्रयास्तेषां समीपे भिक्षामटद्भिः पआस्ते। द्वितीयस्यां वेलायां तयोर्मध्यादेक श्रास्ते अपरःप्रथ
रिपृच्छयोपाश्रय मूलोत्पत्तिं पर्यनुयुज्य सदोषाः सावद्या दोमव्यवस्थितं गृहीत्वा प्रयाति, तृतीयस्यां तु द्वितीयवेलारक्ष
पदुष्टास्ते उपाश्रयाः प्रयत्नेन परिहर्तव्याः। पालःप्रथमव्यवस्थितरक्षपालन सह पर्यटति । यस्तु वारद्वयं
तथापर्यटति स तिष्ठति, एवं त्रयाणां जनानां द्वौ द्वौ वारी पर्यट- जेहिं कया उवस्सय-समणाणं कारणा वसहिहे। नं योजनीयम् ।
परिपुच्छिय निहोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ ॥ ६६२ ॥ भोसहभेसजाई, काले य कुले य दाणसड्डाई।
यैः कृता उपाश्रयाः श्रमणानां-निर्ग्रन्थवर्जानां शाक्यादीसग्गामे पेहिता, पेहेंति तो परग्गामे ॥ ६५७॥ । नां कारणाद्वसतितोस्तान् परिपृच्छय निर्दोषाः-निरवऔषधानि-हरीतक्यादीनि, भेषजानि-पेयादीनि, त्रिफलादी
वास्ते उपाश्रयाः परिभोक्त 'जे' इति निपातः पादपूरणे , नि च । 'काले य'त्ति येषु कुलेषु यत्र काले बेलायां वा दानश्रा
सुखं भवति । सुखनैव संयमबाधामन्तरेण ते परिभुज्यन्त शादीनि कुलानि एतानि स्वग्रामे प्रत्युपेक्ष्य ततः परग्रामे प्र
इत्यर्थः। त्युपेक्षन्ते।
जेहि कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं । अत्र चालनां कारयति
परिपुच्छिय सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥६६३॥ चोयगवयणं दीहं, पणीयगहणं नणु भवे दोसा। यैः कृता प्राभृतिका-उपाश्रयेषु उपलेपनधवलनादिका जुञ्जइ तं गुरुपाहण-गिलाणगट्ठा न दप्पट्ठा ।।६५८॥
श्रमणाना-पञ्चानामपि साधूनामेव वा कारणास
तिहेतोस्तान् परिपृच्छय सदाचाः उत्तरगुणैरशुद्धत्वात् , जइ पुण खद्धपणीए, अकारणे एक्कसि पि गिएिहजा ।
सावद्यास्ते उपाश्रयाः प्रयत्नेन परिहर्तव्याःतहियं दोसा तेण उ, अकारणे खद्धनिद्धाई ।। ६५६ ।।
जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं । नोदकः-प्रेरकस्तस्य वचनं चालनारूपं न तु तेषामित्थं दीर्घा
परिपुच्छिय निदोसा, परिभोत्तु जे सुहं होइ ।। ६६४ ॥ मिक्षाचयों कुर्वतां प्रणीतस्य च दधिदुग्धादेग्रहणे दोषाः सू
यैः कृता प्राभृतिका श्रमणानां साधुवर्जितानां तापसात्रार्थे परिमन्थमोहोद्भवादयो भवेयुः । सूरिराह-भद्र! युज्यते
दीनां कारणाद् वसतिहेतोः तान् परिपृच्छय निर्दोषा इति तत्प्रणीतग्रहणं दीभिक्षाटनं च प्रापूर्णकग्लानार्थ न दार्थ
मत्या परिभोक्तुं 'जे' इति प्राग्वत् सुखं भवति-सुखनैव तन्मनोबलवर्णादिहेतोः, यदि पुनः 'खद्धं' प्रचुरं प्रणीत-स्निग्धं
परिभुज्यन्त इत्यर्थः। मधुरमिति अकारणे-गुर्वादिकारणाभावे एकशोऽपि गृह्णीयान्न तस्मिन् खद्धप्रणीतग्रहणे भवेयुर्दोषाः । कुत इत्याह
अथ कीदृशे स्थाने वसतिरन्वेषणीया?, उच्यते-यावअकारणे आत्मार्थ यस्मात्तेन 'खद्धनिद्धाई ति प्रचुरस्निग्धा
न्मानं वसितुमाकान्तं भवति तावन्मानं पूर्वाभिमु. नि भक्ष्यन्ते इति वाक्यशेषः । अतो गुरुग्लानादिहेतोः क्षेत्रप्र
खवामगोपविष्टवृषभाकारं बुद्धया परिकल्प्य त्युपेक्षणे काले प्रणीतं गृह्णतां चिरं च पर्यटतां न कश्चिद्दोष
प्रशस्तेषु स्थानेषु वसतियुज्यते । अथ इति।
कुत्रावयवस्थाने गृहाणामावसतिः
किंफला भवति?, इति उच्यतेअथ 'कुलाइ तह तस्स पंचेव'त्ति पदं व्याख्यायते । भिक्षामटन्तः कुलामि जानन्ति, कथमित्याह
सिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नऽत्थि होइ चलणेसु । दाणे अभिगमसड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते ।
अहिठाणे पोट्टरोगो, पुच्छम्मि व फेडणं जाणे॥६६॥ मामाए अवियत्ते, कुलाइ जाणंति गीयत्था ॥६६०॥
मुहमूलम्मि य चारी, सिरे अ ककुहे य पूअसक्कारो। दानश्रद्धानि-प्रकृत्यैव दानरुचीनि अभिगमश्रद्धानि-प्रति- खंधे पट्टीइ भरो, पुट्ठम्मि य घायो वसहो ।।६६६॥ पन्नाणुव्रतानि श्रावककुलानि सम्यक्त्वश्रद्धानि-अविरत- शृङ्गकखोडे-शृङ्गप्रदेशे यदि वसतिं करोति तदा निरसम्यग्दृष्टीनि तथैव मिथ्यात्वे-मिथ्यादृष्टिकुलानि मामका- न्तरं साधूनां कलहो भवति, स्थानमवस्थितिः पुनर्नास्ति निमा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशन्त्विति प्रतिषेधकारीणि चरणेषु गाढप्रदेशेषु अधिष्ठाने आपादप्रेशे 'पुढे' ति 'अवियत्ते' ति नास्ति प्रीतिः साधुषु गृहमुपागतेषु येषां उदरं तस्य रोगो भवति, पुच्छे-पुच्छप्रदेश स्फेटनमपतान्यप्रीतिकानि एतानि कुलानि गीतार्थाः पर्यटन्तः सम्यग् नयनं वसतेर्जानीहि ॥६६॥ मुखमूले यदि वसतिः तदा चाजानन्ति उपाश्रयांश्च जानन्ति ।
| री भोजनसम्पत्तिः, प्रशस्ता, शिरसि शृङ्गयोर्मध्ये ककुदि च
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(FREE) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिहार
वसतिकरणे पूजा च वस्त्रपात्रादिभिः सत्कारश्चाभ्युत्थानादिना साधूनां भवति । स्कन्धप्रदेशे पृष्ठदेशे च बसती सत्यां साधुभिरितस्तत आगच्छद्भिर्भरो भवति । पोट्टे उदरप्रदेशे वसती गृह्यमाणायां धावतो नित्यसो वृषभो वृषभपरिकल्पनागृहीतवसति निवासी साधुजनो भवतीत्येवं परीक्षा प्रशस्तस्थानव्युदासेन प्रशस्तेषु स्थानेषु स्त्रीपशुपण्डकवर्जिता यसतिरन्वेषणीया । तदन्वेषणे चाऽयं विधिः
देउलिय वा अणुविए तम्मि जंच पाउम्गं । भोगकाले किचिर, सागरसरिसा य आयरिया ।।६६७ ।। देवकुलिका - यक्षादीनामायतनं तत्पार्श्ववर्त्तिनो वागताः, श्राह - किमर्थं देवकुलिकाया निबन्ध उच्यते, सा प्रायेण ग्रामादीनां वहिर्भवति, साधुभिधोत्सगंतो बहिः स्वातव्यम् देवकुलिका च विविक्लावकाशा भवति, अतः प्रथमतस्तया अनुज्ञापना कर्त्तव्या । अथ गाऽस्ति देवकुलिका पहिय सत्यपाया ततो ग्रामादेरन्तः प्रतिश्रयोऽन्विष्यते पस्तत्र प्रभुः सन्दिष्ठो वासप्रायोग्यं वक्ष्यमाणामनुज्ञाप्यते अनुष्ठापिते सति तस्मिन् यच तेन प्रायोग्यमनुज्ञातं तस्य परिभोग का र्यः । अथाऽसौ नानुजानीते प्रायोग्यं ततो भोजनदृष्ठान्तः कर्त्तव्यः । तथा कियच्चिरं कालं भवन्तः स्थास्यन्तीति पृष्ठे अभिधातव्यं यावत् भवतां गुरूणां प्रतिभासते कियन्तो भवन्त इहावस्थास्यन्ते इति पृष्टे वक्लव्यं सागरः- समुद्रस्तत्सहहा प्राचार्या भवन्तीति संग्रहगाथासमासार्थः ।
अथैनामेव व्याचिख्यासुः “ अविदिने परिभोगं, श्रणुन्नवि सम्म" इति पदं वियोति
जं जंतु अणुन्नायं परिभोगं तस्स तस्स काहिंति ।
विदि परिभोगं, जड़ काहिति तत्थिमा सोही ।। ६६८ ।। 'यद्यनृण्डगलादिकं शय्यातरेणानुज्ञातं तस्य परिभोगमभिरुचिते क्षेत्रे समायाताः सन्तः करिष्यन्ति, यदि पुनरवतीर्णे राज्यातरेणाननुज्ञाते द्रव्यक्षेत्राऽऽदी परिभोग कोऽपि करिष्यति तत्रेयं वक्ष्यमाणा शोधिः ।
तामेवा 55
इक्कडकढिखे मासो, चाउम्मासो अ पीढफलएसु । कडुलिंचे परागं पारे तह मलगाईसु ।। ६६६ ॥ कटमये कठिनमये च संस्तारके असे गृह्यमाणे लघुमासाः चत्वारो मासा लघयः पीठफलकेषु तथा काष्ठनिम्ययोः क्षारमञ्जकतुण्डगलादिषु च पञ्चकम्, अतः प्रायोग्यमनुशापनीयम् ।
अथाऽसौ षात् किं तत्प्रायोग्यं ततो वन्यम्दव्वे तणडगलाई, अच्छणभाणाइ धोवणे खित्ते । काले उच्चाराहं भावे गिलावा इस कुरुवमा ।। ६७० ॥ प्रायोग्यं चतुर्याइय्यतः, क्षेषतः, कालतो, भावतच तत्र द्रव्यतः - तृणडगलानि, आदिशब्दात्-क्षारमलकादीनि च । क्षेत्रतः - ' अच्छ' ति स्वाध्यायादिहेतोः प्राङ्गणादिप्रदेशेऽवस्थानं भोजनानाम् आदिग्रहणादाचार्यादिसत्कमलिनयायां धावनं - प्रक्षालनं प्रतिश्रयाद्वहिर्विधीयते कालतो रात्रौ दि
बिहार वा वा अवेलायामुञ्चारस्य प्रश्रवणस्य वा व्युत्सर्जनं भावतो ग्लानस्यापरस्य या प्राकादेर्नियातप्रधानाद्यवकाशस्थापनेन समाधिसम्पादनमित्युक्ते यदनुजानाति ततः सुम्दरम् । अथ ब्रूयात्— मया युष्मभ्यं वसतिरदत्ता अहमन्यं युष्मदीयं प्रायोग्यं न जानामि ततो क मा भोजनान्ते उद्दिष्टः स उपदिश्यते ' कूरुवमे' ति कूरो-भक्तं तस्योपमा यथा केनचित्कस्वाऽपि पार्श्वे ः प्रार्थितस्तेन च दश ततस्तस्य स्नानासनभोजनादौ केनावगाहिमसूपनानाविधव्यञ्जनादीन्यपि दीयन्ते एवं भवताऽपि वसतिं प्रयच्छता सर्पमपि प्रायोग्यं दत्तमेव भवति परं तथाऽपि वयं भवन्तं भूयोऽपि तृतीयवतभावनामनुवर्त्तयन्तोऽनुज्ञापयामः । एवमुक्ते स सर्वमपि प्रायोग्यमनुजानीयात् ततो यत्र यदुच्चारादि व्युत्सर्जनमनुज्ञातं तत्तत्र विधेयम् ।
यत श्राह
उच्चारे पासवणे, अलाउनिल्लेत्रणे य अच्छणए । करणं तु अणुभाए, अनुसाए भने लहुआ ||६७१। उच्चारस्य प्रश्रवणस्य अलाबुनिर्लेपनस्य पात्रप्रक्षालनस्य अच्छणए ' ति स्वाध्यायाद्यर्थमवस्थानस्य गाथायां षष्ठयधे सप्तमी करणं समाचरणं शय्यातरेणाऽनुज्ञाते प्रदेश कर्त्तव्यम् । अथाऽनुज्ञाते अवकाशे उच्चारादिकं करोति । तदा लघुको मास इति । गतं भोजनद्वारम् ।
अथ कियचिरं कालमिति द्वारं यदि शय्यातरः प्रश्नयति कियन्तं कालं यूयं स्थास्यथ ततो वक्तव्यम् -
"
,
जाव गुरुण य तुज्झ व केवइया तत्थ सागरेणुवमा । has काले रोहिह, सागर ठवेंति श्रभेऽवि ।। ६७२ ॥ यावद् गुरूणां च युष्माकं प्रतिभाति तावदवस्थास्यामः परं निययाते मासमेकं व्याघाते तु हीनमधिकं वयमेकत्र तिष्ठामः । अथ मासमेव स्थास्याम इति निर्द्धारितं ततो मासलघु । अथाऽसी प्रश्नयेत् कियन्तो निध ततो वव्यम्' सागरेणुनम सि सागरः- समुद्र स्तेनोपमा यथा - समुद्रः कदाचित्प्रसरति, कदाचिश्चापसरति, एवमाचार्योऽपि कदाचिद्दीक्षामुपसम्पदं वा प्रतिपद्यमानैः साधुभिः परिवारितः प्रसर्पति कदाचित्तेष्वेवाऽन्यत्र गतेष्वपसर्पति, अत इयन्त इति संख्यांक पत्वेतायन्तो वयमिति निश्चितं ते तस्य मासलघु अथासौ पृच्छति-कियता कालेन एष्यथ- श्रागमिष्यथ ततः साकारं सविकल्पं वचनं स्थापयन्ति ब्रुवते इत्यर्थः, यथा श्रन्यक्षेत्रे प्रत्युपेक्षकाः
परासु दिक्षु गताः सन्ति ततस्तैर्निवृत्ते यदा गुरूणां निक टे समेष्यति तदा व्याघाताभावे इयत्सु दिवसेसु, व्याघाते तु हीने अधिके वा काले वयमेष्याम इति यः पुनरियता कालेनागमिष्याम इति प्रपीति तस्य मासलघु ।
पुदि दिज्ज, अहव भणिआ भवंतु एवइया । तत्थ न कप्पर वासो, असई खेतस्सऽणुनाओ ||६७३ ॥ श्रथाऽसौ पूर्वदृष्टान् यैः प्राग्मासकल्पो वर्षावासो वा कृत श्रासीत् तानेवेच्छति नान्यान्, भणति वा ये साधवो मया दृष्टपूर्वास्तेषामहं शीलसमाचारं सर्वमपि जानामि अतस्त
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बिहार
एवेह समानेतव्या न शेषाः । अथवा भणेत् ये वा ते घासा धवो भवन्तु परमेतावन्त एवात्र तिष्ठन्तु तत्र किं कर्तव्यमित्याह तत्रैवं शय्यातरेण निर्धारिते सति न कल्पते वासो-न युज्यते तस्यां वसताववस्थातुमिति भावः । अथ नास्त्यपरं मासकरूपप्रायोग्यं क्षेत्रं तत इतरस्या बसतेरलाभे तस्यामेव वसतौ वासोऽनुज्ञातः ।
तत्र व वसतां यदि प्राघूर्णिकः समागच्छति ततः को विधिः ?, इत्याह
( १३०० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सकारो सम्मायो, भिक्खग्गहणं च होइ पाहुणए । जइ वसइ जाणओ तहि, भावजई मासियं लहुगं | ६७४। सत्कारो - वन्दनाऽभ्युत्थानादिः सम्मानो-विश्रामणादिः भिक्षाग्रहणमुपविष्टस्य भिक्षाया श्रानयनम् एतत्सर्वमपि प्राघूर्ण के भागते सति कर्त्तव्यं, यदि वसतिर्थेषां वा परिमितानांदसा तदा यावन्तः प्राघूर्णकाः समायाताः तावतो वास्तव्यानन्यत्र विसर्थ प्राघूर्णकाः स्थाप्यन्ते । अथ नामग्राहं गृहीत्वा नियमितानामेव साधूनां सा दत्ता ततः प्राघूरकस्य वसतिस्वरूपं निवेद्यते, निवेदिते च यदि कोऽपि वसतिस्वरूपं जानानोऽपि तत्र वसति तदा श्रापद्यते मालिकं लघुकम् ।
ततः-
faraम्मे भिक्खगहणे, कयम्मि जाणाविश्रो तर्हि वसई । हियन संका-सुरहा उब्भामवोच्छेदो ।। ६७५ ॥ कृतिकर्मणि- विश्रामणादौ भिक्षाग्रहणे च कृते सति वसतिस्वरूपं शापितः सन् रात्रौ बहिर्वसति । यदि शापितोऽपि सन् बहिर्न वजति तदा सागारिकस्य केनचिeatराऽऽदिना हृते-नटे त्र एवमेवादृश्यमाने कस्मिँश्चिद्वस्तुनि शङ्का भवेत्, नूनं यदद्यामुकं वस्तु न दृश्यते, तदेतेषां यः प्राघूर्षको रात्रावुषित्वा प्रतिगतः तेन हृतं भविष्यति, स्नुषा वा बधू रात्रावुद्धामकेन सह गता भवेत्, तत्राऽपि यदि प्राघूरणकस्य शङ्कां सागारिकः करोति तदा तद्द्द्रव्याम्यद्रव्याणां व्यवच्छेदो भवेत् । .
एवं वसतौ लब्धायां किं विधेयमित्याह-पडिलेहियं च खतं, थंडिलपडिलेह मंगले पुच्छा । गामस्स व नगरस्स व, मसाणकरणं पढमवत्थं ॥ ६७६ ॥ यदा क्षेत्रं सम्यक् प्रत्युपेक्षितं भवति तदा महास्थरिडलं - शत्रपरिष्ठापन भूमिलक्षणं प्रत्युपेक्षणीयम् अमङ्गलेषु पुच्छति, भगवन्तो ! यूयं तिष्ठन्त एव किमेवम् ? अमङ्गलं कु रूपं, सूरिराह- ग्रामस्य वा नगरस्य वा 'मसाणकरणं ' ति श्मशानस्थापनायोग्यं प्रथममाद्यं वास्तु प्रत्युपेक्षीत इति वाक्यशेषः । इयमत्र भावना - ग्रामनगरादीनां तत्प्रथमतया निवेश्यमानानां वा वास्तुविद्याऽनुसारेण प्रथमं श्मशानवास्तु निरूप्य ततः शेषाणि देवकुलसभा सौधादिवास्तूनि निरुध्यन्ते, लोके तथा दृष्टत्वात् । न च तदमाङ्गलिकम् , एवमत्राऽपि महास्थण्डिलं प्रथमं प्रत्युपेचमाणमस्माकं न अमाङ्गलिक भवतीति ।
तच्च कस्यां दिशि प्रत्युपेक्षणीयम् ? । उच्यतेदिसा वरदक्खिण्या, अवरा वा दक्खिणाय पुव्वा बा
For Private
बिहार
,
अवरुत्तरा य पुम्वा, उत्तरपुव्युत्तरा चेव ।। ६७७ ॥ पउरपाणपटमा, बितियाए भत्तपाय न लभंति । ततियाऍ उवहिमादी, चउत्थी सज्झायँ न करेति ॥ ६७८ ॥ पंचमिचesसंखड, खड्डीऍ गणस्स भेदणं जाण । सतमिए गेलं, मरणं पुरा अट्ठमीए उ ।। ६७६ ॥ प्रथमतो महास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणविषया अपरदक्षिणविषया अपरदक्षिणा दिकू । अथ तस्यां नदीक्षेत्रे 'श्रमीए उ प्रथमा अपरदक्षिणा दिकं प्रचुरान्नपाना भवति तस्यां प्रत्युपेक्षमाणायां प्रचुरमन्नपानं प्राप्यत इत्यर्थः, यदि तस्यां सत्यां द्वितीयां दक्षिणां प्रत्युपेक्षन्ते तेन भक्तपानं म लभन्ते । अथ प्रथमायां कोऽपि व्याघातस्ततो द्वितीयामपि प्रत्युपेक्षमाणाः शुद्धाः । एवमुत्तरास्वपि दिनु भावनीयम् । तथा तृतीयस्याम् 'उवहिमाइ' त्ति उपधिर्वापात्रादिकः स्तेनैरपहियते तस्मिंश्चापहते तृणप्रहरणानिलेवनादयो दोषाः, चतुर्थ्यां स्वाध्यायं न कुर्वन्ति-स्वाध्यायः कर्त्तव्यो न भवतीत्यर्थः, पञ्चम्यामसंखड - कलहः साधूनां भवति, प
गणस्य- गच्छस्य भेदनं द्वेधीभवनं जानीहि, सप्तम्यां ग्लानं लानत्वं साधूनां जनयति, अष्टम्यां पुनर्मरणमपरस्य साधोरुपजायते ।
श्रमुमेव गाथाद्वयोरूमसमकगाथया प्रतिपादयतिसमाहीँ य भत्तपाणे, उवगर तुमंतुमा य कलहो उ । भेदो गेल्लनं वा, चरिमा पुरा कडुते अनं ॥ ६८०॥
प्रथमायां भक्तपानलाभेन साधूनां समाधिः- रुचिर्भवति, द्वितीयायां भक्तपानं न लभन्ते, तृतीयायामुपकरणमपहियते, चतुर्थ्याम् एकः साधुरपरं भणति त्वमेवमपराध कृतवान्, अपरो ब्रूते न ममापराधः त्वमेवेदं विनाशितवानित्येवं तुमंतुमा भवति, तस्याः करणेन स्वाध्यायो न भवतीति भावः । पञ्चम्यां कलहो-भण्डनं, षष्ठयां भेदोrogस्य द्वैधीभावः, सप्तम्यां ग्लानत्वम्, चरमा अष्टमी पुनरम्यं साधुं कर्षति पञ्चत्वं प्रापयतीत्यर्थः ।
एकिकम्म तु ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । प्राणाइणो य दोसा, विराहया जा जहिं भणिया ।। ६८१ ॥ एकैकस्मिन् स्थाने यथोक्तक्रममन्तरेण दक्षिणादीनां दिशां प्रत्युपेक्षणे चत्वारो मासा अनुद्धाताः प्रायश्चित्तं भवति ।
शादयश्च दोषाः, विराधना - भक्तपानलाभो पधिहरणादिका या यत्र भणिता सा तत्र द्रष्टव्या ।
एतेन विधिना यदा क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं भवति तदा किमपरं भवतीत्याह
पडिलेहियं च खितं, अह य अहालंदिया आगमणं । नऽत्थि उवस्सयवालो, सब्वेहि वि होइ गंतव्वं ॥ ६८२ ॥ एकतो गच्छ्रवासिभिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं भवति अथाप्रान्तरे यथालन्दिकानामागमनं भवति, ते हि सूत्रार्धपौरुच्या या हापयन्तस्तृतीयपौरुष्यां विहारं कुर्वन्तो गच्छवासिभिः क्षेत्रे प्रत्युपेक्षिते समायान्ति तेषां च नाऽस्वि
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बिहार
तत्र क्षेत्र स्थापना योग्य उपाश्रयपालः जनद्वयस्यैवागमनादिति कृत्वा सर्वैरपि भवति गन्तव्यम् ।
अथ ते यथालकाः कथं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षते ?, उच्यतेपुच्छित रुदयं खेनं गच्छे पटिबद्ध बाहि पेर्हिति । जं तेसिं पाउग्गं, खित्तविभागे य पूरिंति ।। ६८३ ॥
(१३०१) अभिधान राजेन्द्रः ।
ये गच्छप्रतिबद्धा यथालन्दिकास्तैर्गच्छ्वासिनः पृष्टाः आर्या ! आयी अभिरुचितं क्षेत्रे भवति है ततो गवासिनः प्राहुः - अभिरुचितं, ततो यथालन्दिका गच्छ्वासिनः प्रत्युपेक्षितस्य क्षेत्रस्य ' वाहि ' त्ति सक्रोशयोजनाद्वहिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते कथमित्याह-वत्तेषां यथालन्दिकानां प्रायोग्य कल्पनीयमले पहले भलपानं, परिकर्मरहिता व वसतिस्तदेव गृह्णन्ति, क्षेत्रविभागाश्च षड्वीथिरूपास्तानपि पूरयन्ति ।
जं पि न वञ्चति दिसिं, तत्थ वि गच्छिन्नगासि पेहेंति । पम्मदिय एसचाए, विगई लेवाटवजाई ||६८४|| यामपि दिशं यथालन्दिका न यजन्ति तत्राऽपि तस्थामपि दिशि गच्छयासिनः क्षेत्रप्रत्युपेचकाः तेषां यथालन्दिकानां योग्यं स्वप्रत्युपेक्षित क्षेत्रस्य सकोशयोजनाद्व हिक्षेत्र, कथमित्याह-प्रगृहीतथा साभिग्रहया तृतीय पौरुष्या उपरित नैषणया विकृतिलेपकृतवर्जे भक्तपाने गृहाति, घृतादिका विकृती: तकनीमनादिकं द्राक्षापानादिकं वा लेपकतं वर्जयन्तीत्यर्थः ।
जर विन्निगम, एहामु त्ति लहुओ य भाषाई । परिकम्मकुडकर, नीदरणं कडुमाईयं । ६८५ ।।
यदि ते गच्छ्वासिनस्त्रयो जनास्ततः सर्वेषामपि गुरुसकाशे गमनं ते गच्छन्तो यदि सामारिकेस पुष्य
"
- कि यूपमागमिष्यथ नया ततो यद्येश्याम-आगमध्याम इति निर्वचनमर्पयन्ति ततो लघुको मासः श्राशादयश्च दोषाः । शय्यातरचिन्तयति यद्येते एष्यन्ति प्रतिगतास्तत्र समागमिष्यन्तीति परिभाग्य परिकमै प लेपनादिकं बसते कुर्यात् कृपस्य या जीयोपलस्वात्कपाटस्य वा करणं संस्थापनं विदध्यात् काष्ठानामादिग्रहणात् दशानां धान्यस्य वा मीटर निष्काशन कुर्यात् यद्वा तेषामाचार्याणामपरं किमपि क्षेत्रमभिरुचि
"
ततस्तत्र गताः ।
तत्र च क्षेत्रे अपरे साधवः समायातास्ततः किमित्याहअद्वाणनिग्गवाई, असिवादिगिलागओ य जो जरथ । हामोनियलडुओ, तत्थ वि आणाइयो दोस।। ६८६ ॥ अध्याविमो मार्गस्तेन निर्माता- निष्कान्ता शिवादिभिर्वा कारणैः प्रेरिताः परिश्रान्तास्ते साधवस्तश्रायाताः । तत्र चान्या वसतिर्नास्ति सा व प्राचीनसाधुप्रखुपेक्षिता वसतिस्तेर्याचिता सागारिको भूते-मषेपम
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साधन चास्ति तेऽष्येष्याम इति भणित्यागताः सन्ति, तो नाहं दातुमुत्सहे। एवं ते समानाः श्वापदस्तेन कण्टकैः शीतेन वा प्रारभ्यमाणाः प्र३२६
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बिहार
तिगमनादीनि कुर्युम्लांनो वा यस्तेषां स विहारं कार्यमा - यो पत्र पापरितापनादिकं प्राप्नोति तनिष्यन्नं प्रायश्चितम् । यतश्चैवमत एष्याम इति न वक्तव्यम् । न एष्याम इत्यपि वदतां मासलघु तथा उध्याशादयो दोषाः ।
अपरो वक्ति
विक विकरण वि, फेडणधन्नाइ छुभगमावासे । नीतेि किरणं, विराहणा हाणि हिंडते ॥ ६८७ ॥ नागमिष्यन्ति साधव इति कृत्या विक्रीय विकलभाटकेन दत्ता सा वसतिः, विक्रयेण वा दत्ता; विक्रीतेत्यर्थः स्फेटनं वा वसतिकृतं धान्यस्य, आदिशन्दात्माण्डस्यान्यस्य चोपकरणजातस्य क्षेपणं. तस्यां कृतम् । वचारणादयो वा तत्र शय्यातरेण बासिताः । तेषां चतदेवमति तय समागताः ।
स प्राह- युष्माकं साधुभिरिति कथितं - वयं नेष्यामः, ततो मयेयमन्येषां दत्ता, धान्यादिना वा भृता । ततो यथा भद्रकोऽसी सागारिकस्तान बटुकादीनिष्काशयति ततस्तेपु निष्काश्यमानेष्यधिकरणं प्रद्विषाः सामारिकस्य साधूनां या करिष्यन्ति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। वसति बिना दि एडमानानाम्, इतस्ततः पर्यटतां या संयमादिविराधना या च सूत्रार्थयोः परिद्वास्तिथिष्पमपि प्रायश्चितम्। तस्मान चक्रव्यं नेष्याम इति ।
किं पुनस्तर्हि वयम् उच्यते
जह अम्हे तह अत्रे, गुरु जेट्टमहाजणस्स अम्हे मो । पुब्वभणिया उ दोसा, परिहरिया कुट्टमाईया ||६|| यथा वयमत्रागतास्तथा श्रन्येऽपि साधवस्तिसृषु दिक्षु गताः सन्ति ततो न जानीमः कीदृशं रोषं तैः प्रत्युपेक्षि तमस्ति अस्माकं तावदिदं क्षेत्रमभिरुचितं परं गुरवश्चाचार्याः ज्येष्ठमहाजनाश्च ज्येष्ठार्य साधुसमुदायो गुरुज्येष्ठमहाजनं तस्य वयं ' मो' इति पादपूरणे, परतन्त्रा वर्तामहे इति वाक्यशेषः। ततस्तत्र गतानां गुरूणां येष्ठायां वा यद्विचारे समेष्यति तद्विधास्यामः एवं ब्रुवाणैः पूर्वभणिताः कुख्यकरणादयो दोषाः परिताः ।
"
इत्थमुक्त्या सागारिकमापृध ते किं कुर्वन्तीत्याहजइ पंच तिनि चत्ता-रि वस्तु सत्तस्सु पंच अच्छंति । चोदक पुच्छा सज्झा-य करणवश्चंत अच्छंते ॥ ६८६ ॥ यदि ते पच जनास्ततस्त्र पस्तत्रैवासते, ही गुरुका च्छ्रतः, अथ षट् जनास्ततश्चत्वारस्तिष्ठन्ति द्वौ गुरूणामभ्यर्षे व्रजतः, अथ सप्त जनास्ततः पञ्च तत्रैवासते द्वौ गुरूणामुपकण्ठे गच्छतः, यदि च ऋजुः पन्थाः सव्याघातस्ततोऽपरं पन्थानं प्रत्युपेक्षन्ते नोदकः पृच्छति ये च गुरुसका व्रजन्ति ये च तत्र उपाश्रये असते ते उभये अपि किं स्वाध्यायं कुर्वते न वा ? |
उच्यते
वश्चंत करण अच्छंत अकरण लहुआ मासों गुरुश्रो य । जावर कार्ल गुरुगो, न इति सव्वं अकरणाए ।।६६०||
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विहार
ये तावत् ब्रजन्ति ते यदि सूत्रपरूष कुर्वन्ति ततो मासअपरूपकुर्वन्ति मासगुह। ये सुपाधये विहन्ति तेषां सूत्रपौरुण्या प्रकरणे लघुको मासः, अथपौरुष्या - करणे गुरुको मासः । यावत्कालं गुरूणां समीपं न यान्तिन प्राप्नुवन्ति तावत् ' सव्यं अकरणाए 'त्ति सर्वमपि सूत्रमधेच न कुर्वन्ति ।
(१३०२) अभिधान राजेन्द्रः ।
इदमेव सविशेषमाह
जय वि असंतरखेचं, गया तह वि अगुणयंतगा एंति । नितियाईमागच्छे, इतरत्थ य सिजवाघाओ ।। ६६१ ॥ यद्यप्यनन्तरमव्यवहितमेव क्षेत्रगतास्ते ततोऽन्तः सूत्रार्थयकृप्यताम् आयान्ति कुत इत्याह-नित्यवासाइयो दोषा गच्छस्य मा भूवन इतरत्र च प्रत्युपेक्षित क्षेत्रे - रकालं विलम्ब्यागच्छन्तं शय्याया उपाभ्रयस्य व्याघातो मा भूत् ।
"
यतएवमतोऽगुणयतः समागम्य ते इदं कुर्वन्तिते पस गुरुमगासं, आलोएंती जहकमं सव्वे | चिंता वीमंसा वा आपरिवाणं समुप्पन्ना ॥ ६६२ ॥ ते प्रत्युपेक्षा प्राप्ताः सन्तो गुरुकारामालोचयन्ति यथाक्रमं सर्वेऽपि स्वरूपम् ततोपमालोचनां वा चिन्ता-कस्यां दिशि व्रजाम इत्येवं लक्षणा मीमांसा च शिभिप्रायविदारणा प्राचार्याणां समुत्पन्ना।
अथैनामेव गाथां भावयति-गंतूण गुरुसगासं, आलोएत्ता कर्हिति खेत्तगुणे । न य सेस कहणमाणो- अ संखडं रत्ति साहंति ||६६३ || गत्या गुरूणां सकाशमालोच्य गमनागमनातिचारं कथयन्ति क्षेत्रमुखान् ते चाचार्यान् विमुरूप नच शेषा साधूनां कथयन्ति इत्याह-मा भूद क्षेत्रप पातसमुत्थम्, यद्यन्येषां कथयन्ति तदा मासलघु. तस्माद्रावो 'साइन्ति' ति कथयन्ति कथमिति चेत् ? उच्यते-वार्या आवश्यकं समाप्य मिलितेषु सर्वेष्वपि साधुषु पृच्छति, आधी ! खालोचन की शान क्षेत्रादि तत उत्था गुरूनभिबाइलयो यथाज्येष्ठमालोचयति । पढमाएँ नत्थि पढमा, तत्थ य घयखीरकूरदधिमाई । विवि व लयाए, दो अनि तेसि च धुबलंभो ॥ ६६४||
भासिय घुवलंभो, पाउम्गाणं चउत्थिए नियमा । इहरा चि जहिच्छाए, तिकालजोगं च सम्मेसि ॥६६५||
:
प्रथमायां पूर्वस्यां दिशि यदस्माभिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं तत्र प्रथमा-सुपीपी नास्ति तस्यामेव भिक्षाटनवेलासम्भ यात् परं तदेव वीरकरदध्यादीनि प्रकामं प्राप्यन्ते । द्वितीयाः क्षेत्रप्रत्युपेक्षका म्रुचते--द्वितीयस्यां दिशि द्वितीया अर्थपौरुषी नास्ति, तस्यामेव भिक्षाटनवेलाभावात् घृतदुग्धदध्यादीनि तु तथैव लभ्यन्ते । तृतीया ब्रुवते --तृतीयस्वां दिशि अपि विद्येत मध्यामिक्षालाभसद्भावात् तेषां च घृतदुग्धादीनां धुपो निश्चितो लाभ इति । तथा चतुर्थाः पुनरित्यमाहुः -- श्रस्मत्प्रत्युपेक्षितायां
इ
बिहार
चतुथ्यों दिशि प्रायोग्यानामयभाषितानां षोऽवश्यंभावी लाभः इतरथाऽप्ययभाषणमन्तरेणाऽपि यया प्रकामे त्रिकाले पूर्वाह्नमध्यापराइल कालत्रये सर्वेषामपि बालवृद्धानां योग्यं सामान्य पानं प्राप्यते इत्थं सर्वैरपि स्वस्वक्षेत्र स्वरूपे निवेदिते सत्याचार्याश्चिन्तयन्ति कस्यां दिशि गन्तुं युज्यते ।
ततः स्वयमेवाद्यानां तिसृणां दिशां सूत्रार्थहान्यादिदोषजालं परिभाष्य चतुर्थी दिननन्तरोदोषरहितत्वेन ग
न्तव्यतया विनिश्चित्य किं कुर्वन्ति ? इत्याहइच्छाहणं गुरुणो, कहिं वयामो ति तत्थ अ. दरिया | सुहिया भर्गति पदमं तं चिय अणुयोगतनिन ।।। ६६६।। बिइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही व सहयगं खिनं । आयरिओ उ चउत्थं, सो य पमाणं हवइ तत्थ ॥ ६६७|| गुरो: प्राचार्यस्य इच्छाग्रहणं शिष्याणामभिप्राय परीक्ष भवति, आर्याः ! कथयत- कुत्र कस्यां दिशि वजाम ?, इति । ततो येकाः खोदभरलेकचितास्ते सुमिताः संभ्रा न्ताः सन्तो भणन्ति-प्रथमां दिशं व्रजामो यत्र प्रथमपौरुष्यामेव प्रकामं भोजनमवाप्यतेः तामेव दिशम् 'अणुओोगतत्तिल्ल' ति अनुयोग कनिष्ठाः शिष्याः श्रागच्छन्ति नितिन द्वितीयपीरुष्यां निष्यधानमर्थवं भवति ये तु ग्राहिरास्ते भगति द्वितीयां दिशं गच्छामः । यत्र न सूत्रपरुषीव्याघात इति ये तूमय ग्राहिणन्ते तृतीयदिग्वर्ति क्षेत्रमिच्छन्ति तत्र हि द्वयोरप्याद्यपी रुप्योर्निपात सूत्रार्थग्रह भवतः । श्राचार्यास्तु चतुर्थे क्षेत्रं गन्तुमिच्छन्ति । यतस्तत्र त्रिष्वपि काले बालवृडायचे, सामान्यमक्रं प्राघूर्णकाच नावभावितमिति दुग्धादि प्रायोग्यं न प्राप्यते न च कोपे सूत्रार्थयोर्व्याघात इति स एव चाचार्यस्तत्र तेषां मध्ये प्रमा गं भवति ।
आद- किं पुनः कारणं येनाचायश्वतुर्थक्षेत्रमिच्छन्ती
त्यत आह
मोहुम्भओ उ लिए, दुम्बलदेहो न साहए अत्थं । तो मला साहू, दुऽस्सो होइ दिडुंतो ।। ६६८ ॥ प्रथमद्वितीयतृतीयेषु क्षेत्रेषु प्रचुरस्निग्धमधुराहारप्राप्तेः शरीरेण बलवान् भवति, बलवतश्चावश्यंभावी मोहोद्भवः । एवं तर्हि यत्र भिक्षा न लभ्यते तत्र गत्वा वुभुक्षाक्षामकुक्षयनिष्ठन्तु नैव दुर्बलदेडः साधु साधयत्यर्थ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं यत एवं ततो मध्यमवला - नातिवलयन्तो न चातिला साधव इष्यन्ते । दुष्टाश्वो भवत्यत्र दृष्टान्तः दुष्टाश्वो गर्दभः, स यथा प्रचुरभक्षणाद्दुर्जयः सम्मुल्लुत्य कुम्भकारारोपितानि भाण्डानि भिनन्ति भूयस्तेनेव कुम्भकारेण निरुद्वाऽऽहारः सन् भाण्डानि पोद्धुं न शक्नोति स एव च गर्दभो मध्यमा डारकिया प्रतिचयमाणः सम्पम् भारडानि यति एवं साधयोऽपि यदि स्निग्धमधुराभ्यवहारतः शरीरोपचयभाजेो भवन्ति तत उत्पनियारमोहोकनया संयमयोगान् बलादुपमर्देयुः, आहाराभावे चातिक्षामवपुषः संयमयोगान् वोढुं न शक्नुयुः । मध्यमबलोपेतास्तु व्यपगतौत्सुक्या अग्निपरिणामाः सुखेनैव संयमयोगान् वहन्नीति मत्या क्षेत्रत्रयं परिहृत्याचार्याश्चतुर्थे क्षेत्र वनन्ति ।
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(१३०३) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार
तान्येवाहपणपएणगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा धरई। सागारिऽपुच्छगमण-म्मि बाहिरा मिच्छगमणकयनासी। जइ तरुणा नीरोगा, वच्चंति चउत्थगं ताहे ।। ६६६ ॥ गिहिसाहू अभिधारण, तेणगसंका य जंचऽन्न।।७०४॥ पञ्चपशाशद्वार्षिकस्य मानुषस्य विशिष्टाहारमन्तरेण हा सागारिकमनापृच्छय यदि गच्छन्ति ततः सागारिकश्चिनि:-बलपरिहाणिर्भवति । पञ्चपञ्चाशतो वर्षेभ्यः पारात् । न्तयेत् . 'बाहिर' ति बाह्या लोकधर्मस्यामी भिक्षवः । यतःवर्तमानो येन वा तेन वा आहारेण प्रियते निर्वहति । त- "आपुच्छिऊण गम्मइ. कुलं च सीलं च माणिो हो। तो यदि ते साधवः करुणास्तथा नीरोगास्ततश्चतुर्थमेव अभिजाओ ति अभन्नइ सोऽवि जणो मारिणश्रो होहा॥" क्षेत्रं व्रजन्ति . न शेषाणि ।
एष लोकधर्मः । तथा-'मिच्छगमण' तिये लोकधर्ममपि जइ पुण जुष्मा थेरा, रोगविमुक्का य साहुणो तरुणा।
प्रत्यक्षहए नायबुद्धयन्ते ते कथमतीन्द्रियमदृष्टं धर्ममवभो
त्स्यन्ते, इति सागारिको मिथ्यात्वं गच्छेत् । तथा कृतनाते अणुकूलं खितं, पेसिति न यावि खग्गृहे ।। ७०.॥
शिनः कृतना पते एकरात्रमपि हि यस्य गेहे स्थीयते तयदि पुनर्जीणाः पञ्चपञ्चाशद्वार्षिकादय रात भावः. के ते
मनापृच्छय गच्छतां भवत्यौचित्यपरिहाणिः किं पुनस्मीस्थविरा-वृद्धाः, तथा तरुणा अपि ये रोगेण ज्वरादिना मु
पामियान्त दिनानि मम गृहे स्थित्या युक्तं मामनापृच्छय क्रमात्रा अत एव क्षुधाऽसहिस्नवो न यदपि समप्याहार
गन्तुमिति । तथा अन्यस्य प्रातिश्मिकस्य, अपिशब्दात्जानं परिणमयितुं समर्थास्तानेवंविधांस्तु स्थविरतरुणाननु
सागारिकस्य वा हृते नष्टे वा कस्मिश्विद्वस्तुनि स्तेनकशङ्का कूलं प्रायोग्यलामसंभवेन हितं क्षेत्रं-प्रथमाक्षेत्रादिकं गी
भवेत् . यदमी साधवोऽनापृच्छय गतास्तन्नूनमेभिरेव स्तेनितं सार्थमेकं ससहायं समर्थाः प्रेषयन्ति, ये न चाऽपि-नैव
तद् द्रव्यमिति । 'जं चऽनं' ति यश्चान्यद्वसतिव्यवच्छेदादि सगृहा-अलसाः 1 स्निग्धमधुराचाहारलम्पटाः खग्गूढा
भवति तदपि द्रष्टव्यम्। उच्यन्ते । पाह-कियता पुनः कालेन ते वृद्धादयश्च पुष्टि गृहन्ति ।
तदेवाऽऽहउच्यते-पञ्चभिर्दिवसः। तथा च वैद्यकशास्त्रार्थ
वसहीए चोच्छेदो, अभिधारिताण वाऽवि साहूणं । सूचिकामेतदर्थविषयामेव गाथामाह
पव्वजाभिमुहाणं, तेणेहि व संकणा होजा ॥ ७०५ ॥ एगपणगढमासं, सद्धीसु ण मणुयगोणहत्थीम् । विप्रलम्भितास्तावदमीभिरेकवारम् अत ऊधं ये केचित् राइदिएहि उ बलं-पणगं तो एक दो तिन्नि ||७०१॥
संयता इति नामोद्वहन्ते तेभ्यो वसतिं न प्रदास्यामीत्येवं क्षीणशरीरस्य शुनः-पोष्यमाणस्यैकेन रात्रिन्दिवेन बलमुप
वसतेयवच्छेदो भवेत् , अभिधारयन्तो नाम ये साधवस्त
माचार्य मनसि कृत्योपसम्पद प्रतिपत्त्यर्थं समायातास्ते जायते,एवं मनुष्यस्य रात्रिंदिवपञ्चकेन गोबलीचर्दस्यार्द्धमा
सागारिकं प्रश्नयन्ति-प्राचार्याः कस्मिन् क्षेत्र विस्तवन्तः ?, सेन हस्तिनस्तु क्षीणवपुषः पुष्टिमारोप्यमाणस्य षष्टया
सागारिक पाह-यः कथयिन्वा ब्रजति स शायते. यथा श्रमदिवसैबलमुद्भवति । ततः पते वृद्धादयः प्रथमक्षेत्रे प्रोष्यमा.
कत्र गत इति । ये तु प्रथमत एव ताबदच्छन्ति ते कथं णाः पञ्चकमेकं रात्रिंदिवानां व्यवस्थाप्यन्ते, ततश्चतुर्थक्षेत्रे
शायन्ते ततस्तेषामभिधारयतां साधूनामहो लोकव्यवहारमीयन्ते । अथ पञ्चकेनामी न बलं गृहीतवन्तः ततः
बहिर्मुखा अमी प्राचार्याः को नामामीषामुपकराठे उपसम्पदे पश्चके तथाऽपि बलमगृहानाः त्रीणि पश्चकानि व्यव
स्यते इति कृत्या स्वगच्छे गणान्तरे वा गमनं भवेत् । स स्थाप्य चतुर्थक्षेत्रे नेतव्याः।
चाचार्यस्तेषां श्रुतवाचनादिजन्याया निजैगया अनामोगी एवं ते चतुर्थक्षेत्रगमनं निीय शय्यातरमापृच्छय क्षेत्रा
भर्यात प्रवज्याभिमुखानां वा तेहिं ' ति स्तेनविषया शङ्का म्तरं संक्रामन्ति । तद्विषयं विधिमभिधित्सुगह
भवेत्। किमुक्तं भवति-कोचिदगारिणः संसारप्रपञ्चविरक्तचेतसागारिय पापुच्छण, पाहुडिया जह य वजिता होइ ।
सस्तदन्तिके प्रवज्या प्रतिपित्सवः समायाताः. सागारिक के वच्चंते पुरो, भिक्खुणों उद हुआयरिया ॥७०२॥
पृच्छन्ति, कगता प्राचार्याः ?, स प्राह-वयं न जानीमस्तक्षेत्रान्तरं संक्रामद्भिः सागारिकस्याऽऽप्रच्छनं कर्तव्यं, य स्वरूपमिति । ततस्तेषां शङ्का जायते--यथा--नून किर्माप था च प्राभृतिका हरिततच्छोभाधिकरणरूपा वर्जिता भ- सागारिकस्य बोरयित्या गतास्ते, अन्यथा किमर्थमेष पपति तथा विधिना आमच्छनीयं. तथा गच्छता के पुरतो रिस्फुटमाचार्याणां गमनवृत्तान्तं न निवेदयतीति । ततश्च बजन्ति, किं भिक्षवः उताहो आचार्या इति निर्वचनीय- ते प्रवज्यामतपद्यमाना यत्पराणां जीवनिकायानां विराधना म् । एष द्वारगाथासमासार्थः।
कुर्वन्ति । यथा छोटिकनिहवादिषु व्रजन्ति, अपरान्विश्वअथैनामेव विवरीषुगह
जतो विपरिणामयन्ति. तनिष्पन्नमाचार्याणां प्रायश्चित्तम्। सागारिश्रणापुच्छण, लहुओ मासो उ होइ नायव्यो । यत एवमतः सागारिकमान्य गन्तव्यं सा च पृच्छा द्विआणाइणो य दोसा, विराहणा इमेहि ठाणेहिं ।।७०३।।
विधा-विधिपृच्छा. अविधिपृच्छा च । सागारिकमनापृच्छय यदि गच्छन्ति तदा लघुको मासः
तत्राविधिपृच्छामभिधित्सुः प्रायश्चितं तावदाहप्रायश्चित्तं भवति-ज्ञातव्यः । आझादयश्च दोषा विराधना |
अविहीपुच्छणे लहुश्रो, तेसिं मासो उ दोस आणाई । षा मातृस्थाने प्रवचनादेर्भवति ।
मिच्छत्त पुवभणिए,विराहण इमेहि ठाणेहि ॥७०६।।
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( १३०४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
बिहार
अविधिप्रच्ने तेषामाचार्याणां लघुको मासो, दोषाभावादयः तथा मिध्यात्वं पूर्वभणितं प्रागुक्रमे मन्तव्यम् । विरा धना एभिः स्थानैर्भवति ।
,
तान्येवाह
"
सहसा दहुं उग्गा - हिरण सिजायरी उ रोविजा । सागारियस संका, कलहे व सहज खिसराया ||७०७ || अविधिपुच्छा नामाकरणं विहारार्थमुद्राहा पृच्छन्ति वयमिदानीं विहारं कुर्महे, ततः सहसा अकस्मादुद्वाहिते चोपकरणे प्रस्थितान् दृष्ट्वा शय्यातरी रुद्यात्, तत् दृष्ट्रा सागारिकस्य शङ्का भवेत् मपि प्रवसति कदाचियस्या प्रक्षिणी अधुपातं न कुरुतः अमीषु तु प्रस्थितेथिमभूषितः, ततो भयं कारयेनेति मिध्यात्वंगच्छेत् तद्द्द्रव्याम्यद्मन्यव्यवच्छेदादयश्च दोषाः । तथा 'स इज्भि' ति प्रातिवेश्मिकी रुदतीं शय्यातरीं दृष्ट्वा पश्चास्कलदे समुत्पन्ने खिंसनां कुर्यात्, किमम्यद्भवदीयं दुखरितमुद्वीर्यते येन तदानीमाचार्येषु विहारं कर्तुमुद्यतेषु भत्या रुदितम् । किं वा आचार्यस्ते पिता भवति येन रोदिषी ति । अथानागतमेव पृच्छन्ति वयममुकदिवसे गमिष्यामः तत्राप्यमी दोषाः
हरियच्छेअखखपद्द- पधेवणं किचणं च पोताणं । गमणं च अमुगदिवसे, संखडिकरणं विरूवं च ॥७०८|| ते शय्यातरमनुष्या श्रन्येद्युः साधवो गमिष्यन्तीति कृत्वा क्षेत्रादौ न गच्छन्ति, ततो यानि ततः महान्ति तानि धर्म्म - युबेटरूपाणि स्नुषाश्च पुरोहदादिषु दरितच्छेदनं यद्वापरस्परं पदपदिकाना 'घेप' उपमर्दनं ति कर्मन या विदयुः। पोतानि वस्त्राणि तेषां प्रचालनं कुरम् । यद्वा-अमुकदिवसे गमनं करिष्याम इत्युक्ते संयतोऽयं संखड्याः करणं भवेत्, तत्र यदि गृह्णन्ति तदाssधाकर्मादयो दोषाः श्रगृह्णतां तु प्रद्वेषगमनादयः । 'विरूवं' ति विरूपमनेकप्रकारं कुपधवलनादिकमपरमप्यधिकरणं कुर्युः यत एते दोषाः अतोऽविधिन विधेया ।
कः पुनः पृच्छायां विधिरित्याहजत्तो पाए खेत्तं, गयाउ पडिलेहगा ततो पाए । सागारियस्स भावं, गुइति गुरु इमेहिं तु ॥७०६|| पतः प्रमेयता दिनादारभ्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षका गताः, ततः प्रगे ततः प्रभृति सागारिकस्य भावं प्रतिबन्धं तनूकुर्वन्ति तनुं प्रापयन्त गुरव आचार्या एभिर्वचनैः ।
तान्येवादउच्छू वोलिति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडाओ । वसहा जायच्छामण-गामा पम्माणचिक्खल्ला ॥७१०॥ अप्पोदगाय मग्गा, वसुद्दा वि य पक्कमट्टिया जाया । हिमपंथा, विहरणकालो सुविहियाणं ॥७११ ॥ इह पूर्व शरदादिभिर्विहारो भवतीत्युक्रम् अतः शरत्कासमेवाङ्गीकृत्याऽभिधीयते इयो बोलयन्ति-व्यतिक्रामन्ति वृतिस्थपरिक्षेषां तु जातपुत्रभावाः समुत्प
बिहार तुम्यकास्तथा वृषभा जातच्छामनप्रामाः प्रम्लानचा अपोदकाथ मार्गाः, वसुधा च पमृतिका जाता। अन्यैः पधिकादिभिरुकान्ताः सुधाः पन्थानः सम्प्रति वर्तते, तो विहरणकालः सुविहितानाम्, एतद्द्वाधाद्वयं शय्यातरस्य
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यतो गुरवर्धक्रमं कुर्वन्तः पठन्ति ततः शय्यात यात्-भगवन्! किमिदानीं यूयं गमनोत्सुकाः, गुरवः प्राहुः बाद मन्तुकामा वयं प्रेषिताथाऽस्माभिः क्षेत्रान्तरं प्रत्यु क्षितुं साधवः, इत्थमन्तराऽन्तरा प्रज्ञाप्यमानानां शय्यातरमनुष्याणां व्यवच्छिद्यते स्नेहानुबन्धः ।
ततः-
आवासगकयनियमा, कल्लं गच्छामु तो उ आयरिया | सपरिजणं सागरियं, वाहेउं देति श्रणुसद्धिं ॥ ७१२ ॥ आवश्यकं प्रतिक्रमयं तदेवाश्वमनुष्ठेयत्यनियमः सत यैस्ते कृतावश्यक नियमाः । गाथायां प्राकृतत्वादावश्यकशउदस्य पूर्वनिपातः 'कलं गच्छामु' त्ति "वर्त्तमानासने वर्त्तमाने ' ति वचनात् कल्ये प्रभाते गमिष्याम इति मत्वा तत श्राचार्याः सपरिजनं सकुटुम्बं सागारिकं व्याहृत्य ददति अनुशिष्ट धर्म्मकथां कुर्वन्तीत्यर्थः ।
ततः
पव्वा सावओो वा, दंसणसड्डो जहन्नम वसहि | जोगम्मि वमाणे, अगं वेलं गमिस्सामो ।। ७१३ ।। स शय्यातरो धर्म्मकथां श्रुत्या कदाचित्वज्यां प्रतिपद्यते। अथ प्रतिपत्तुमशकस्ततः आवको भवति देशविरति प्रतिपद्यते । अथ तामप्यङ्गीकर्तुमक्षमस्ततो दर्शनाडोऽविरतसम्यग्रष्टिर्भवति अथ दर्शनमप्युररीक नोत्सहते ततो जघन्यतोऽपश्यतया वसति साधूनां यथा ददाति तथा प्रज्ञाप्यते भूयोऽपि धर्मकयां समाप्याचार्या मुते योऽसौ योगो गमनायास्मान् प्रेरयति तस्मिन् वर्त्तमाने सति 'अमु वेलं ' ति सप्तम्यर्थे द्वितीया अमुकस्यां वेलायां गमिष्याम इत्थं विकासवेलायां कथयित्वा प्रत्युपसि यजन्ति । कथमित्याह
तदुभयसुतं पडिले - हया व उग्गषमलुम्गए वाऽवि । परिच्छऽहिकरण तेणे, नट्ठे खग्गूढसंगारो ।। ७१४ ॥ तदुभयं सूत्र पौरूषीमर्थपरूप च कृत्वा व्रजन्ति । अथ दूरं क्षेत्रगत ततः सूत्रपौरूषीं कृत्वा, अथ दूरतरं ततः पादोन प्रहरे पात्रप्रत्युपेक्षणं कृत्वा, अथ दूरतमं ततः उद्गतमात्रे सूर्ये, अथ दवीयान् मार्गों गन्तव्यः गच्छस्य तृषादिभिराक्रान्त उत्सूरं न शक्नोति गन्तुं ततोऽनुगते सूर्ये प्रचलन्ति 'पडिडि सि निशि निर्गता उपाश्रयाद्वहिः पर स्परं प्रतीक्षन्ते, अन्यथा ये पश्चानिर्गच्छन्ति ते न जानन्ति केमापि मार्गेण गताः साधवः ततो महता शब्देन श्रग्रेतनान् साधून् व्याहरेयुः, ततधाधिकरणमकाययन्त्रवाहनवविग्ग्रामान्तरगमनादि भवति तेणे न चि ते पाश्चात्य साधवोऽप्रेतमानां नष्टाः स्फिटिताः सन्तः स्तेनकै रु पयेरन् अतः प्रतीक्षणायां सम्मूढ' त्ति कश्चित्खग्गूढो निद्रालु रुपलक्षणत्वात्कचिन कल्पते साधूनां रात्रौ विहर्तुमिति 'संगारो' त्ति कयाऽपि सङ्केतः क्रियते यात्रा गन्तव्यमिति ।
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(१३०५) अभिघानराजेन्द्रः।
बिहार अथाऽस्या एव गाथायाः कानिचित् पदानि विवृणोति- विभज्य गृहन्ति, तत्र च यथाऽभिग्रहिका बालवृद्धादीना. पडिलहंते विय विं-टिया उ काउं कुणंति सज्झायं ।
मुपधिरस्माभिर्वोढव्य इत्येवं प्रतिपन्नाभिप्रहाः सन्ति तत
स्ते परस्परं विभज्य गृहन्ति । चरिमा उग्गाहेडं, सोच्चा मज्झाहि वच्चंति ॥७१५॥
अथ न सन्त्याभिग्रहिकाः ततः को विधिरित्याहते साधवः प्रभाते प्रत्युपेक्षमाणा एव वस्त्राणि विण्टिका
आयरिश्रोवहिबाला-इयाण गिण्हंति संघयणजुत्ता । कुर्वन्ति , विण्टिकां कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति, तायद्यावच्चरमा-पादोनपौरुषी । ततः पात्रकाणि प्रत्युपेक्षणापूर्वमुद्राह्य
दो सुत्ति उमिसंथा-रए य गहणेकपासणं ॥ ७२४ ॥ प्रन्थिदानादिना सजीकृत्य ततोऽर्थ श्रुत्वा मध्याहे प्रहर- प्राचार्योपधि बालादीनां चोपधि गृहन्ति संहननयुक्ताः इयं समाप्य व्रजन्ति।
अनाभिग्रहिका अपि सन्तो ये समर्थाः साधवः । कथमित्याकथमित्याह
ह-द्वौ सौत्रिको कल्पोपका-ऊर्मिकाकल्पः संस्तारकः, च
शब्दादुसरपट्टकश्च । एतेषामाचार्यादिसम्बन्धिनां 'गहणेकनिहिकरणम्मि पसत्थे, रणक्खत्त अहिवईण अणुकूले।।
पासेणं' नि सप्तम्यर्थे तृतीया एकस्मिन् पावें एकत्र स्कन्धे चित्तूण शिंति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता।।७१६॥ ग्रहणं कुर्वन्ति, द्वितीयेऽनुपाचे आरमीयमुपधि स्थापयन्ति । तिथिश्च-नन्दाभद्रादिका, करणं च-ववादिकं, तिथिकरणं
अथ 'खग्गूढ' ति एवं विवृणोतितस्मिन्नुपलक्षणवाद्वारयोगमुहूर्तादिषु प्रशस्तेषु, नक्षत्रे चा- रतिं न चेव कप्पइ, नीयदुवारे विराहणा दुविहा । ऽधिपतीनामाचार्याणामनुकूलं वहमाने सति. किमित्याह
परमवणबहुतरगुणा , अणिवीभोव उवही वा ॥७२॥ अक्षान गरूरणामुत्कृष्टोपधिरूपान् गृहीत्वा वृषभा गीतार्थ साधव शकुनान परीक्षमाणा'निति-निर्गच्छन्ति ।
कश्चित् धर्मश्रद्धालुतया खग्गूढतया वा प्राऽऽह-रात्री न
चैव कल्पते विहर्नु यतः-'नीयदुवारं तमसं कोटुगपरिवज्जए भाह-किमय प्रथममाचार्या न निर्गन्छति ?. उच्यते- ।
त्ति वचनात् ,दिवाऽपि तावन्नीचद्वारे कोष्ठके प्राणिनां कण्ट वामस्स य आगमणं, अवसउणे पाया नियत्ता य । । कादीनां चोपलभ्यमानतया द्विविधा संयमात्मविराधना प्रोभावणा उ एवं, आयरियो मग्गो तम्हा ॥७१७॥
भवति , इति कृत्वा प्रवेष्टुं न कल्पते. किं पुनः रात्रौ विह
कल्पिष्यते । इत्थं वाणस्य तस्य प्रज्ञापना कर्तव्या । यथापर्षण वर्षा वृमिस्तस्यागमनं रष्ट्रा अपशकने वा दृष्ट वृ
वरतक्षेत्रस्य गन्तव्यतया बहुतरा गुणसेवा बालवृद्धस्य पभा प्रस्थिताः सन्तो निवृत्ता अपि न लोका वादमासा- गच्छस्य साम्प्रतं रात्री गमने भवनि, इत्थमपि प्रक्षादयन्ति सामान्यसाधुत्वात् , यदि पुनगचार्यो वृधिमपश- पितो यदि नेच्छति ततो द्वितीयः सहाया दीयते उपधिर्वा कुनान वा विनाय निवर्त्तते तन एवमपभ्राजना भवात, तस्य जीम उपहतश्च समय॑ते मा सारतस्तदीयोपधिः स्तेनेयथा-यदि ज्योतिषिकाणां विज्ञानं तदप्यमी आचार्या न गृहोत,मा वा रात्रौ सुप्तस्योपहन्येत इति । तदेवमुक्तविधिना पश्यन्ते , अपर किमवभोत्स्यन्ते , तस्मादाचार्या मार्गतः- ततः क्षेत्रान्निर्गत्य सूत्रोक्लनीत्या गच्छन्ति । ग्रामे च प्राप्ताः पृष्ठनो निगच्छन्ति, न पुरतः। अथ पुरतो गच्छन्ति ततो क्षेत्रप्रत्युपेक्षका यत्र पूर्व वसतिः प्रत्युपेक्षिता आसीत् तत्र पासलघु । एतेन के वच्चंते पुरा उ भिक्खुणो उदाहु- प्रथम स्वयं गत्वा वसति निरूप्य ततो गच्छं तत्र प्रवेशयन्ति, श्रयरिय" ति पदं भावितम् । ६०१ उ०२ प्रक० । तत्र रात्रावुपित्वा प्रभाते प्रामान्तरं गच्छन्ति । या प्रशस्तेषु शकुनपु सञ्जातंषु गुरवः किं कुर्वन्ति ?,
एवं वाइत्याह
वच्चंतेहि य दिट्ठो, गामो रमणिजभिक्खसज्झायो। "जायरऽणुमासड, पायरियो मेसगा चिलिमिलिं तु। | जं कालमणुन्नामो, अणगुन्नाए भवे लहुओ ॥७२६।। का: गिए तुपहि, मारविय पडिसया पुचि ॥ ७२२ ।। बद्भिस्तैः साधुभिः कश्चिद् ग्रामो दृष्टः, कथंभूतो-रमणीशय्यानराननुशासन प्राचार्याः यथा-वजामा वयं भवद्भिः
यं सुखप्राप्यत्वेन मनोज्ञभक्तपानलामेन च भैक्षम् अत एवं धमकर्मण्यप्रमतर्भवितव्यमिति .शेषास्तु साधवः चिलिम -
च रमणीयः स्वाध्यायश्च यत्र स रमणीयभिक्षस्वाध्यायः।एत्या नद्धा नदन्तरिताः सन्तः उपधिं गृह्णन्ति-स. !
चंविधो ग्रामोऽयं यावन्तं कालमैकदिवसलक्षणं स्थातव्येनाs त्रीत्यर्थः । कथंभूताः? सारविता-सम्मार्जितः प्रतिश्रयो|
नुशातः तावन्तं कालं वसन्तो न प्रायश्चित्सभाजो भवन्ति । यम्न रविनप्रतिश्रयाः पूर्व प्रथमम् ।
अनुमाते द्वितीयादिषु दिवसेषु वसतां लघुको मासो भवेत् । अथ क कियदुरक गण गृहानीन्युच्यते--
अथवा
तवसोसिय उध्वाया. खलु लुक्खाहारदुम्बला वाऽपि । पालाईया उबर्हि, जंगा तरति तत्तियं गिरहे ।
एग द्ग तिन्नि दिवसे, वयंति अप्पाइया वसिउं॥७२७॥ पण जहाजार मेस नरुणा विरिंचंति ॥ ७२३ ।।
तपसा-पष्ठाऽएमादिना ये शोषिताः, ये वा उद्वाता अतीय बालवृद्धशाजितायो यावन्मात्रमुपधि वोढुं शक्नुव- परिश्रान्ताः, ये च खलु ति कर्कशक्षेत्रादायाताः,ये वा रूक्षा. लि तावन्मात्रमव गृह्णन्ति , यां च सर्वधन न शक्नुवन्ति हारमोजित्वात् दुर्बलाः एते एकं वा द्वौ या त्रीन् वा दिवतदा उघन्येन सर्यस्तोक दया या बातमुपधि गृह्णन्ति , सान् तस्मिन् ग्रामे उषित्वा स्थित्वा प्राप्यायिता मनोशा55शेष बालादिम कमुपकर तगा.-मयः विरिश्चन्ति- हारैः स्वस्थीभूता अपरं ग्राम वजन्ति ।
३२
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विहार
(१३०१ बिहार
अभिधानराजेन्द्रः। इदमेव भावति
नैष्यामो-नो गमिष्याम इत्युक्ते ये पूर्व क्रीतादयो यसते - पढमदिणे समणुमा, सोही वुडी अकारणे परतो। । टकसमर्पणविक्रयणादयो दोषा वर्णितास्ते चैव अर्थः-प्रयोतिदिस व समणुनाया, तो परेणं भवे सोही ॥६२८॥
जनं तदभावोऽनर्थ तेन प्रयोजनमन्तरेणत्यर्थः। तत्र प्रामे रस
गोरसबहुलतया तेषां निष्क्रमतां कालविलम्बलगनाश्चिकीप्रथमदिने तत्र प्रामे वसतां समनुज्ञा प्रथमो दिवसस्तत्रा:नुशात इति भावः । ततः परतो द्वितीयादिदिवसेष्वकारणे
र्षितमासकल्पे क्षेत्रे वसतिं शय्यातरो भाटकेन समर्पयेत् , वि
क्रीणीत वा, धान्यादिना वा चिनुयात् ,वटुकादीनां वा दद्यात् वसतां शोधिः-प्रायश्चित्तं तस्याऽभवतिः सा चानन्तरगा
ततस्त एवाऽऽत्मविराधनादयो दोषाः । कारणे तु तिष्ठतांयथायां वक्ष्यते। अथ तपःशोषितत्वादिकमनन्तरगाथोक्तं कारणं वर्तते तत्र त्रीरायपि दिनानि समनुशातानि ततो दिवसत्रया
तना-एकं द्वौ त्रीन् वा दिवसान् छित्त्वा तथा गन्तव्य यथा
विलम्बमन्तरण तत् क्षेत्र प्राप्यत इति भावः। त्परतः शोधिः-प्रायश्चित्तं भवेत् । तामेवाऽऽह
एवमतेन विधिना वजन्तस्तावद्गता यावन्मूलक्षेत्रं ततः
किमित्याहसत्तरत्तं तवो होइ. तो छेनो पहावई ।
भत्तऽद्विया वि खमगा, पुद्धि पविसंतु ताव गीयत्था। छएण छिनपरियाए, तभो मलं तो दंग ॥७२॥ सप्तरात्रं यावत्तपो भवति ततः-सप्तरात्रानन्तरं छेदः प्रधा
परिपुच्छिय निदोसे, पविसंति गुरुगुणसमिद्धा ॥७३३ ।। यति,छेदेनाऽप्यच्छिन्नपर्याये साधौ ततो मूलं, ततो द्विकम्- ते हि भनार्थिनः क्षएकाः वसन्तस्तत्र क्षेत्रे प्रविशन्ति अनवस्थाप्यपाराञ्चिकद्वयम् ।
भक्लार्थिनो-भोलकामाः क्षपकाः-उपोषिताः, तत्र च पूर्वइदमेव व्याख्यानयति
ताबद्रीतार्थाः प्रविशन्तु, ततस्तैः गीतार्थैः परिपृच्छा शय्यामासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुया य होंति गुरुगा य ।
तरं प्रति, निर्दोष उपाश्रये सुनिश्चिते सति प्रविशन्ति गुरवो छम्मासा लहुगुरुगा, छेत्रो मृलं तह दुगं च ७३०॥
गुणसमृद्धाः। साऽभिप्रायकमिदं विशेषणम्-ते हि भगवन्तो
गुरवो गुणः समृद्धाः अतो यदि प्रथम प्रविश्य सव्याघातां इह प्रथमदिवसे वसन्तोऽनुज्ञाता एव पढमदिणे समणुम'
वसति गत्वा प्रतिनिवर्तन्ते ततो भवति महानवराणयाद:सि वचनात् , द्वितीये दिवसे यदि मनोशाहारलम्पटतया
यथतेषामेतदपि भानं नाऽस्तीति ततः पश्चात्प्रविशन्ति । नत्र ग्रामे वसन्ति तदा लघुको मासः, तृतीये गुरुकाः, चतुर्थे चत्वारो लघवः, पञ्चमे चतुर्गुरवः, षष्ठे परमासा लघवः, सप्त
अथैनामेव गाथां विवरीषुराहमे पगमासा गुरवः सप्तरात्रानन्तरमष्टमे दिवसे छेदः, नवमे
बाहिरगामे पुच्छा, उज्जाणे ठाणवसहिपडिलेहा । मूलं, दशमे अनवस्थाप्यम् , एकादशे पाराश्चिकमिति । अथ त. इहरा उ गहियभंडा, वसहीवाघाय उड्डाहो ॥ ७३४ ॥ पःशोषितशरीरादयस्ते ततस्त्रीणि दिवसानि वसन्तः प्राय
प्रत्यासन्ने बाह्यग्रामे उषिताः प्रत्युषसि विक्षितक्षेत्रस्योश्चित्तं नाऽऽपद्यन्ते"तिम्नि व समणुनाय"त्ति वचनात्, चतु
धानमागम्य तत्र उद्याने तिष्ठन्ति । यैः क्षेत्र प्रत्युपेक्षितं ते बथे दिवसे वसतां लघुमासः पञ्चम गुरुमासः, षष्ठे चतुर्लघवः,
सतिप्रत्युपेक्षणार्थ प्रत्युपेक्षन्ते, इतरथा यदि वसतिमप्रत्युसप्तम चतुर्गुरवः, अष्टमे षट् लघवः, नवमे षट् गुरवः, दशमे
पेक्ष्य प्रविशन्ति ततो मासलघु । सा वसतिरन्येषां प्रदत्ता छेदः, एकादशे मूल, द्वादशे अनवस्थाप्यं त्रयोदशे पाराश्चिक
भवेत् , ततो गृहीतभाएडाः-गृहीतोपकरणा वसतिव्याघाते मिति विशषचूर्यभिप्रायः ! बृहद्भाध्ये पुनरित्थमुक्तम्
सत्यपरां वसतिमन्वेषयन्त इतस्ततः पर्यटन्ति, तथाभूतांश्च "इकिक सत्त वारा,मासाईयं तवं तु दाऊण। छनो वि सत्तस
रा उडाहो भवेत् , यथा अहो निष्परिग्रहा निर्ग्रन्था इति । तो तिनि गमा तस्स पुश्वुत्ता ॥१॥" पूर्व पीठिकायाः तस्य
ततः किं विधेयमित्याहछेवस्य ये त्रयो गमा उताः तेऽत्राऽपि द्रष्टव्याः । तत्र यतः स्थानात्तपःप्रारब्धं तत प्रारभ्य छेदोऽपि दीयते; लघुमासा.
तम्हा पडिलेहिय सादारभ्यत्यर्थः, इत्येको गमः । लघुपञ्चकादारभ्यति द्वितीयः, हियम्मि पुबगतमसति सारविए । गुरुपचकादारभ्येति तृतीयः । इदं सामान्यतः प्रायश्चित्तम् । फु(फाइगफे(फ)इपवेसो, विशेषत आह
कहणा न य उट्ठऽणायरिए॥ ७३५॥ भणगुमाए निका-रणे य गुरुगाइयं चउएहं पि।।
तस्माश्चिलिमिली प्रोञ्छय दण्डकपोछने गृहीत्वा वसति गुरुगा लहगा गुरुगो, लहुमो मासो य अच्छंते ॥७३१॥ प्रत्युपेक्ष्य यदि सा नान्येषां प्रदत्ता तदा 'साहियम्मि' ति अननझाते दिवसत्रयादृर्व निष्कारण वा-कारणं विना प्रथ | शय्यातरस्य प्राचार्या आगताः सन्तीति कथयन्ति । यदि मदिवसाध्य गुर्वादीनां चतुर्मामपि तिष्ठतां यथाक्रमं गुरुका | पूर्वगताः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकास्तत्र सम्ति तदा तैः प्रागेव वसलघुका गुरुको लघुकश्च मासः । इयमत्र भावना-आचार्य- तिः प्रमार्जितैव । अथ न सन्ति ततः स्वयमेव ' सारविस्याऽननुज्ञाते निकारणे वा तिष्ठतश्चत्वारो गुरवः वृषभस्य ए ति सम्मार्जिते प्रतिश्रये द्वारे च चिलिमिली वया चत्वारो लघवः, अभिषेकस्य गुरुमासो, भिक्षोलघुमासः । धर्मकथिकमेकं मुक्त्वा व्यावृत्य गुरूणां निवेदयन्ति, ततो वृ. प्राह किं निमित्तमित्थं प्रायश्चित्तमापद्यते । उच्यते- षभास्तथैवाक्षान् गृहीत्वा शकुनान् परीक्षमाणाः प्रविशनेहामु ति य दोसा, जे पुव्वं बमिया कड्यमादी।
१- फुटुग' शब्दो लघुतरगच्चैकदेशवाचकः । अत्र न सोऽर्थः प्रतीयते । ते चेव अगाद्वाए, अच्छंने कारण जयणा ।। ७३२॥ २-अत्र- फमुग' शब्दः प्रतीयते । -तथा- 'फड' शब्दश्च ।
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बिहार
न्ति, तैश्च प्रविप्रैः शेषाः साधवः स्पर्द्धकस्पर्द्धकैः प्रविशन्ति न पुनः सर्वेऽपि एकत्र पिण्डीभूयेति भावः । यश्च तत्र धर्मकfथकः स्थित आस्ते स सागारिकस्य धर्मकथां करोति, सपरिवसि आचार्य मुक्त्वा शेषसाधूनां ज्येष्ठार्याणामप्युत्थानं न करोति, मा भूत् धर्मकथाया व्याघात इति ।
अथ वृषभाणां प्रविशतां शकुनाऽपशकुनविभागनिरूपणायाह
(120) अभिधान राजेन्द्रः ।
महलकुचेले अभंगियन पसरोय खुञ्ज वडभे य । एयाई अपसत्थाई होंति उ गामं महंताणं ॥ ७३६ ।। खेतपडचरग तावस, रोगी विमला य आतुरा विजा । कासायवत्थय लिया व कर्ज न साहिन्ति ॥ ४३७ ॥ 'नदीतूरं ' गाहा - 'समं जयं' गाहा । चतस्रोऽपि गाथाः प्राग्दग्नवरं दक्षिणपाद्वामपार्श्वगामी गृहीते।
इत्थं वृषभेषु प्रशस्तैः शकुनैः प्रविष्टेषु सूरयः शेवं प्रविशन्तः सन्तः किं कुर्वन्तीत्याह-पपिसंते आपरिए, सागारि उ होइ पुव्वदच्वो । अद्दद्दू पविट्ठो, आवजह मासियं लहुयं ॥ ७३८ ॥ 'पविते आयरियायें सप्तमी, वसतिं प्रविशता या सागारिकः पूर्वमेय द्रव्यो भवति । अथ सागारिकमव प्रविष्ट प्राचार्यः तत श्रापद्यते मासिकं लघुकम् ।
अथावार्थमायान्तं दृष्ट्रा धर्मकधी किं करोतीत्याहआयरियाणे, ओभावणबाहिरा प्रदक्खिन्ना । कहवं तु बंदसिज, अखालवतेऽपि भालावो ।।७३६ ॥ धर्मकविना आचार्याणामभ्युत्थानं कर्त्तव्यं यदि न करो ति तदा अपभ्राजना लाघवमाचार्याणां भवति, नूनं नामधारक पवाऽयमाचार्यो नाऽस्य किमप्याशैश्वर्ये विद्यते । यद्वा--लोकव्यवहारस्य बाह्या अमी, यतः पञ्चानामप्यकुलीनां तावदेका ज्येष्ठा भवति । तथा श्रदाक्षिण्याद्-गुरूनपि प्रति एतेषां दाक्षिण्यं नाऽस्तीति शय्यातरश्चिन्तयति- 'कहणं तु 'ति शय्यातरस्य धर्मकथिना कथनीयं यथा - वन्दनीया यते भगवन्त इति । ततो गुरुभिरनालपतोऽपि शय्यातरस्याऽऽलापः कर्त्तव्यः ।
अथ न कुर्वन्त्यालपनमाचार्यास्तत एते दोषाःखद्धा निरोपयारा, अग्गदणं लोकजचवोच्छेदो ।
तुम्हा खलु भालवणं, सयमेव य तत्थ धम्मकड़ा।।७४ ● ॥ शय्या तरश्चिन्तयेत् - अहो श्रात्माभिमानिन एते वचसाऽपि नाव मोरयं प्रयच्छन्ति निरुपकाराः कृतमप्युपकारं न बहु मन्यन्तेः कृतघ्ना इत्यर्थः । श्रग्रहणम् - अनादरो मां प्रत्यमीषां लोकयात्रामप्येते न जानन्ति । लोके हि यो यस्याश्रयदानादिनोपकारी स ततः स्निग्धदृष्ट्याऽवलोकनमधुरसंभाषणादिकां महतीं प्रतिपत्तिमतीति इत्ये कपा पितस्तद्द्द्रव्यस्यान्यास वा व्यवच्छेदनं कुर्यात् यत यं तस्मात्खलु आलपनमाचार्येण कर्त्तव्यं स्वयमेव च तत्राss
1
बिहार
चार्येण धर्मकथा कार्या । ( वृ० ) ( बसतिदानफलम् ' बसहिदायफल स्मिमेव भागे २०५१ पृष्ठे गतम्) अथाऽचार्याणां धर्मकथने लग्धिर्न भवति तदा शिष्यधर्मकचालब्धिसम्पर्क व्यापारयेयुः ततः पचादाचार्याः प्रविशन्ति वसति तत्र च प्रविष्टानां भूयः पुनरियं मर्यादा- समाचारी ।
9
तामेवाभिधित्सुराह
मजाया पडवणं, पवनगा तत्थ होंति भायरिया | जो उ अमजाइलो, भावज मासि लङ्घयं । ७४२ ।। मर्यादा व सामाचारी स्थापना व दानादिकुलानां तयोः प्रवर्त्तकास्तत्र क्षेत्रे आचार्या भवन्ति यच साधुयांदामायायैः स्थापितां न पालयति स आपयंत मासिकं लघुकम् ।
9
मर्यादामेवाह
"
"
•
पडिले संथारग, आयरिए तिनि सेसे एकेकं । विटियडक्या, पविसद ताहे व धम्मकही ।। ७४३ ।। उच्चारे पासवणे, लाउअगिल्लेवणे अ अच्छणए । करणं तु अणुभाए, असगुमाए भये लहुआ ||७४४॥ संस्तारकभूमीनां प्रत्युपेक्षा अबलोकनां कुर्वते तत्राऽचार्यस्य तिस्रः संस्तारकभूमयो निरूपणीयाः। तद्यथाएका निवाता अपरा प्रदाता, तृतीया निवातप्रवाता। शेषाणां साधूनामेकैकां संस्तारकभूमिं यथारनाधिकतया अर्पयन्ति न यथा कथञ्चिदिति । तैश्च तदानीमारमीचिटिकानामुत्क्षेपणं कर्त्तव्यं येन नास्ति क्षिप्तः सुभूमिभागः प्रतिनियतः परिमारुच्छेदेनाऽऽगम्यते तदा व धर्मरथी संस्तारक सार्थे धर्मकथामुपसंहृत्य प्रतियाभ्यन्तरे प्रविशति तथा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः शय्यातरानुशा भुवं ग्लानाच दर्शयन्ति यथा पति प्रदेशे उच्चारपरिष्ठापन मनुज्ञायत व कर्तुम् एवं पासव प्रश्रवणभूमिम् अलाउदि अलाना पां कल्पकरणप्रायोग्यं प्रदेश निर्लेपनं तस्य स्थानम् अच्छयति यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिरास्ते, पतानि तथैव द शयन्ति । ततो य एव शय्यातरेणानुज्ञातोऽवकाशस्तप्रेयोच्चारादीनां करणं भवद्भिरादिष्टम् अननुज्ञाते त्वयका ये कुर्वतो मासलघु तद्द्रव्यान्यङ्गव्यव्यवच्छेदादया दोषाः । उक्का मर्यादा । वृ० १ ० २ प्रक० । ( स्थापनाकुलानि वणाकुलशब्दे तृतीयभागे १९८२ नि | ) ( पूर्वपश्चिमानां मासकल्पो नेति 'मासकप्प ' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे २६७ पृष्ठे उक्तम् । ) (निर्ग्रन्थीनां मासकल्पः 'ग्गिंधी' शब्दे चतुर्थभागे २०४७ पृष्ठे गतः । ) (११) मापादयेऽपि विहाराः सन्तिअप्पविद्धो यसया, गुरूवएसेस सन्यभावेसु | मासाइविहारेणं, बिहरिज जहोचि नित्रमा ॥६५॥ अप्रतिबद्धश्व सा; अभिष्वङ्गरहित इत्यर्थः, गुरूपदेशेन हेतुभूतेन । केत्याह- सर्व्वभावेषु चेतनाऽचेतनेष्वप्रतिबद्धः । किमित्याह- मासादिविहारेण समयप्रसिद्धेन विहरेत् प
,
-
6
"
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(१३०८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
बिहार
थोचितं संहननाथौचित्येन नियमान्नियमेन विहरेदिति गाथार्थः ।
पराभिप्रायमाशङ्क्य परिहरति
मोत्तूण मासकप्पं, अनो सुत्तम्मि नत्थि उ विहारो । ता कह माइग्गहणं, कजे ऊणाइभावाओ || ८६६ ॥ मुक्त्वा मासकल्पं—मासविहारम् अन्यः सूत्रे - सिद्धान्ते नास्त्येव विहारस्तथाश्रवणात् तत्कथं कस्मादादिग्रहणमनन्तरगाथायामेतदाशङ्कयाह-कार्ये तथाविधे सति न्यूमाऽऽदिभावात् न्यूनाधिकभावात्कारणात्तदादिग्रहणमिति गाथार्थः ।
एपि गुरुविहारा - विहारो सिद्ध एव एअस्स । are कीस भणि, मोहजयऽट्ठा धुवो जेण ॥ ८६७ नन्वेवमपि गुरुविहारात्सकाशाद्विहारस्सिद्ध एव एतस्य उपस्थापितसा धोर्भेदेन किमिति भणितो विहार इत्याशङ्क्याह- मोहजयार्थ – चारित्रविजयाय धुवो येन कारऐन तस्य विहार इति गाथाऽर्थः ।
एतङ्गायनायैवाह
इयरेसि कारणेणं, नीचावासो वि दव्वओो हुआ । भावेण उ गीभाणं, न कयाइ वि विहिपरायाणं ॥ ६८८|| इतरेषां - गुर्वादीनां कारणेन संयमवृद्धिहेतुना नित्ययासोऽप्येकत्र बहुकाललक्षणो द्रव्यतो भवेत् । अपरमार्थावस्थानरूपेण, भावतस्तु परमार्थेनैव गीतानां गीतार्थभिक्षूणां न कदाचिदपि नित्यवासो भवति । किं भूतानाम्विधिपरायणानां यतनाप्रधानानामिति गाथार्थः । अत्रैव विधिमाह
गोअरमाईणं, एत्थं परिश्रत्तणं तु मासाओ । जहसंभवं निओ गो, संथारम्मी विही भणि ॥६६॥ गोचरादीनामिति - गोचर बहिर्भूम्यादीनामत्र-विहाराधिकारे परावर्त्तनं तु केषाञ्चित्कदाचिदौचित्येन मासादौ ऋतुबद्धे मासे वर्षासु च चतुर्षु यथासम्भवं सत्सु. गोचरादिष्वित्यर्थः, नियोगो - नियम एव संस्तारक परावर्त्तन विधिणित इह तीर्थकरादिभिरिति गाथाऽर्थः । प्रकृतीपयोगमाह
एस विडिहा, निश्रमेणं दव्यओ वि मोहुदए जइणो विरखावण- फलमित्थ बिहारगहणं तु ॥ ६० ॥ पतस्यापि विधिप्रतिषेधात् प्रतिषेधेन नियमेनावश्यन्तया द्र व्यतोऽपि बिहारेणापि माहोदय सनि यतः भिक्षोविंहारस्यापनफलं विहारख्यापनार्थमत्राधिकारे विहारग्रहणं कृतमा - चार्येणति गाथाऽर्थः ।
प्रयोजनान्तरमाह
आईओ चित्र पडि-धनजयत्थं व हंदि सहाखं । विहिफासणऽत्थमहवा, सहविसेसाइविसयं तु ॥ ६०१ ॥ श्रादित एवाग्भ्य प्रतिबन्धवर्जनार्थ स्वक्षेत्रादौ हन्दि शि
For Private
बिहार क्षकाणां विहारग्रहणं विधेः स्पर्शनार्थमथवा प्रयोजनान्तर मेतच्छृष्यकविशेषादिविषयमेव, विशेषां परिणामका दिर्विहरणशीलो वेति गाथार्थः । उक्तं विहारद्वारम् । पं० व ३ द्वार । (२०) मार्गयतनामधिकृत्याह
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाग्गुग्गामं दुइजमाखे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दद्रूण तसे पाणे उद्धट्टु पादं
आ साहहु पायं रीइजा वितिरिच्छं वा कट्टु पायंडजा, सइ परकमे संजयामेव परिकमिजा नो उज्जुयं गन्छिजा, तो संजयामेव गामाणुगाम दूइजिजा । क्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दू. प्रमाणे अंतरा सपाणाणिवा बीयाणि वा हरियाणि वा उदए वा मट्टिश्रा वा अविद्धत्थे सइ परकम • जाव नो उज्जुयं गच्छिआ, तो संजयामंत्र गामाणुगामं दइजिजा । (सू०-११४
स भिक्षुर्यावद् ग्रामान्तरं गच्छन् पुरत अग्रतः - युगमात्रम् चतुर्हस्तप्रमाणं शकटोर्द्धसंस्थितं भूभागं पश्यन् गच्छेत तत्र च पथि दृष्ट्रा त्रसान् प्राणिनः पतङ्गादीन् 'उद्धटु' ति पादमुद्धृत्यातलेन पादपातप्रदेशं वाऽतिक्रम्य गच्छन् एवं संहृत्य शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवक्षितपादपान प्रदेशादारत एव विन्यस्य उत्क्षिप्य वाऽग्रभागं पाणिकरा गच्छेत्, तथा तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत् श्रयं चान्यमार्गाभावे विधिः । सति त्वन्यस्मिन् पराक्रमे-गमनमार्गे संयतः सन् तेनैव पराक्रमेत्-गच्छेत् न ऋजुनत्येवं ग्रामान्तरं गच्छेत् सर्वोपसंहारोऽयमिति' से' इत्यादि, उत्तानार्थम् । आचा० २ ० १ चू० ३ ०१ उ० (पथि पद्कायप्रतिसेवना 'मूलगुणपडि सेवणा' शब्दे पञ्चमभागे ३४३ पृष्ठे उक्ता । )
(२१) यत्र अन्तरा ग्रामे चौरास्तत्र न विहरेत्से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पचंतगाणि दसुगायगा - णि मिलक्खुणि अणायरियाणि दुसनप्पाणि दुप्पन्नवणिजाणि अकालपडिबोहीसि अकालपरिभोईसि सइ लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहारखडियाए पaजिजा गमलाए, केवली बूया - आयाणमेयं । तेलं बाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो गए ति कट्टु तं भिक्खु अक्कोसिज वा ०जाव उद्दविज वा वत्थं वा पत्तं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अच्छिंदि वा भिंदिज वा अवहरि वा परिदुविअ वा, ग्रह भिक्खुणं पुब्बोवदिट्ठा परिणा०४, जं तहप्पगाराई विरूवरूबाई पचंतियाणि दस्सुगायतलाखि ०जाव विहारबत्तियाए नो पवज्जिज्ज वा गमणाए तो संजया गामाणुगामं दूइज्जिज्जा । ( सू० - ११५ ) ।।
स भिक्षुप्रमान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् नद्यथाअन्तरा - ग्रामान्तराल विरूपरूपाणि- नानाप्रकाराणि प्रास्यन्तिकानि दस्यूनां - चौराणामायतनानि - स्थानानि म
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(१३०१) विहार
अभिधानराजेन्द्रः। सक्खण ' ति पर्व शबरपुलिन्द्रादिम्लेच्छप्रधामानि अना
विरुद्धगत्ये गमनादौ प्रायश्चित्तम्योणि-पशिजनपदबाह्यानि दु.सजाप्यानि दुःखेनार्य- । नो कप्पइ निग्गंथाख वा निग्गीण वा बेरजविरुदरजं. संशांशाप्यन्ते , तथा-दुष्प्रज्ञाप्यानि-दुखेन धर्मसंसो
सि मजंगमणं सजं आगमणं मजंगमणाऽऽगमणं करि पदशेनानायसंकल्पानिचय॑न्ते. कालप्रतिबोधीनि-न तेषां
तए, जे खलु निग्गंथे वा निग्गंथी वा बेरअविरुद्ध अमि कश्चिदपर्यटनवालोऽस्ति , अर्द्धरावादावपि मृगयादी गममस भवात् ,तथा अकालभोजीन्यपीति , सत्यन्यस्मिन् प्रा- सअंगमणं सजं पागम सङ्गं गमसाऽऽगमखं करेग्नं मादिक विहारे विद्यमानेषु चान्येवार्यजनपदेषु न तेषु म्ले- वा साइजइ । मे दही विकममा आवाइ चाउमा इछस्थानेषु विहरिष्यामीति गमन न प्रतिपद्येत, किमिति ?,
सियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥ ३८॥ यतः केवली श्रूयात्-कर्मोपादानमेतत् . संयमात्मविराधनातः, तत्रात्मविगधने संयमविराधनाऽपि सम्भ
अथास्य मत्रस्य का सम्बन्ध इत्याहबतीन्यात्मविराधनां दर्शयति-ते-म्लेच्छाः - णम् चोरो त्ति अइपसंगा, विरुद्धरजे विमा चरिजात इति वाक्यालकारे , एवमूचुः , तद्यथा-अयं स्तेनः, इय एसो उपधात्री, वेराविरुद्धसुत्तस्स ॥६। अयमुपचरकः--चरोऽयं तस्मादस्मच्छत्रुग्रामादागत
अनन्तरसूत्रे हेमन ग्रीष्मयोग्रामानुप्रामं ति.... मन इति कृत्वा वाचा आकाशययुः । तथा दरडेन तायेयुः, यावज्जीविताद्वयपरोपरयु, तथा वस्त्रादि प्राच्छि
कर्न कल्पते एकोनियमानो विरुद्धगडमिनमान म्युः-अपहरेयुः, ततस्तं साधु निर्धाटययुरिति । अथ सा
समाचरेदियभिप्रायेणेद सूत्रमारभ्यत पप बगावद्ध धूनां पूर्वोपदिष्टमेत प्रतिज्ञादिक यत्तथाभूतेषु म्लेच्छस्थाने
राज्यसूत्रस्योपोद्धातः-सम्बन्ध . अनेना:यातस्याम्य षु गमनार्थ न प्रतिपद्यते, ततस्तानि परिहरन् संयत एव
(सू०-३८) व्याख्या-नो कल्पने निग्रन्थानां वा निग्रंन्धान प्रामाऽन्तरं गच्छदिति ।
वा वैराज्ये विरुद्धगज्ये वा मद्यस्तन्काल गमन मय श्राग
मनं सद्यो गमनागमनं कर्नु यः स्खल नियन्या धा निन्थी (२२) अराजकादिग्रामेषु न विहरेत्
वा वैराज्यविरुद्धगज्य सद्यो गमन सा श्रागमन सद्यः से भिक्खू वा भिक्खुणी वा दइज्जमाणे अंतरा से अराया- गमनागमन करोति कुर्वन्न वा
म्यानमादयति । णि वा गणरायाणि वा जुवरायाखि वा दो रजाणिवावे
द्विधाऽपि तीर्थकृतां राज्यम्य न पानामांतका
मन् श्रापचते-प्राप्नोनिनुमासिक परिकारस्थानमनु रजास्थि वा विरुद्धरजाणिवा सइ लादे विहाराए संथरमा
तिर्फ चतुर्गुरुकमित्यथः । इनि प्रसंन्ना। खेहि जणवएहि नो विहारवाडियाए परज्जेज गमणाए,केव
| মু বিলাস মাস ली दया-पायाणमेयं, तेसंबाला तं चेव जाव गमणाए
वेरं जत्थ उ रजे, वेरं जाम व वजं वा। ता संजयामेव गामासुमामंदइजेजा। (सू०-११६)
जं च विरजइ रजे-णं तर विजय वा ॥ ६२८ ।। कल्यं, नबरम् .अराजानि-यत्र राजा मृतः युवराजानि- यत्र गय पूर्वपुरुषारं गगन वैर नपत्याच्यते-- यत्र नाद्यापि राज्याभिषेको भवतीति ।
का शब्दनिष्पत्तिः । यद्रा में पूर्वपुरपपरम्परागतंबर :
म्प्रति ययो राज्ययार नामुद म प्रथया से मिक्खू वा भिक्सुखी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे
परकीयग्रामनगरवाहाद नि कुर्वन यत्र राजा बर-विगंध
रज्यते नाश इमरं विगज्यमुच्यने, यदि वा-बदायममा अंतरा से विहं सिया, से जं पुख विहं जाखिजा एमाहे
त्यादिप्रधानपुरुष रजेप' ति विवक्षितन राज्ञा सा ग वा दुचाहेण वा तिमाहेश वा चउचाहेख वा पंचाहे
विरज्यने--विग्ला भवति तद्वैराज्यम, रूपनिष्पत्तिः स ख वा पाउन्निज वा ना पाउसिज वा तहप्पगारं विहं| वंथाऽगि निर्मातवशान, यद्वा-विगना मृनः प्रोषिता वा भोगाहगमखिजं सइ लादे० जाव गमवाए, केवली - गजा यस द्वगतराजकम-अराजकमित्यर्थः, नंदच बैग या पायाखमयं, अंतरा से वासे सिया पाणेसु वा पखए- |
ज्यम् । यत्र तु द्वयोराप गो गज्ये परस्परं गमनागमनं वि
रुद्धं द्विद्धगज्यमुच्यते। सु वा बीएमु वा हरिएसु वा उदएसु वा मट्टियाए वा
मद्यः प्रभवानि शेषपदानि कर नएअविद्धत्वाए अह भिक्खू जं वहप्पगारं विहं अखेगाह
सजग्गहबाऽतीय, अभागयं याग्यि । गमणिजं. जाव यो पवजिज वा गमखाए ततो संजया
पावगपडुच कय, हाजा गम च उभयं वा ।।६::: गामासुगाम हजेजा। सू०-११७)
सद्या वर्तमानकाल्भानि य? न गमनादि स भिचुर्घामान्तरं मन्छन् यन्युनरेवं जानीयात् अन्तरा- कल्पन, एवं सद्या प्रहलादीतमनागत नव मामान्नराले मम गच्छनः — विहं' ति अनेकाहगमायः वाग्नि भवति । यत्र वैरं पर्वोक्कमस्ति पत्रक पन्थाः स्यात्-भवत्, तमेवंभूनमध्यानं ज्ञात्वा सत्यन्य- विष्यनया सम्भाव्यमानं नापि क्षेत्रे गमन स्मिन् विहारस्थाने न तत्र गमवाय मतिं विदध्यादिति, कर्मण्यानीति भावः . नथा प्रज्ञापकं प्रतीत्य र शेष सुगमम् । पाबा.२ शु-१८०३ म१०। । मनम् उभयं वा-गमनागमनमत्र भवति ॥
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(१३१०) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिहार
कस्तिष्ठति, ततो वदन्यत्र गभ्यते तङ्गमनम् - अन्यतः स्थानात् प्रज्ञापकसम्मुखं यदागम्यते तदागमनं गत्वा प्रत्यागमने विधीयमाने गमनाऽऽगमनम् । दृ०१ उ०३ प्रक० । अथ वाऽनेनैवाऽधिकारः वैराज्यग्रहणा देतेऽप्यर्थाः सूचिता भवन्तीति दर्शयति
अखराए जुराए, तत्तो वेरजए अ वेरजे । एतो एकेकम्मि उ, चाउम्मासा भवे गुरुगा ।। ६२२ ॥ अराजके यौवराज्ये ततश्च बैराज्ये ततश्च वैराज्येइति चतुरण भेदानाम् एकैकस्मिन् गच्छतस्तपः कालविशेपिताश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः । तत्र प्रथमे द्वाभ्यामपि कालाभ्यां लघवः, द्वितीये कालगुरवः, तृतीये तपोगुरबः, चतुर्थे ह्राभ्यामपि गुरवः ।
अराजकादीनामेव चतुरको म्याक्यानमाहअखरायं ति व मरखे, जुबराया जाब दोब्बऽभिसित्तो । वेरजं तु परबलं, दाइयकलहो उ वेरअं ॥ ६२३ ॥
यस्य प्राक्तनस्य राशो मरणे सजाते सति यावदद्याऽपि राजा युवराजचेत्येतौ द्वावपि नाभिषिक्ती तावदराजकं भरायते, प्राचीननृपतिना यो यौवराज्याभिषिक्त ग्रासीत् तेनाधिष्ठितं राज्यं परमनेन यावद्याद्याऽपि द्वितीयो युवराजोऽभिषिक्तः तावद्यौवराज्यमुच्यते । यत्र तु परबलं-परचक्रमागत्य विराज्यं करोति तद्वैराज्यम् । यत्र तु द्वयोर्दाविकयोः सगोत्रयोरेकराज्याभिलाषिणोः स्वस्वकटकसनिविष्टाभ्यां परस्परं कलहो-विग्रहस्तद्वैराज्यमुच्यते । विरुद्धराज्यं व्याख्यानयति
विरुद्धा वाणियमा, गमणाऽऽगमयं च होति अविरुद्धं । विस्संचारविरुद्धे, न कप्पती बंधणादीया ।। ६२६ ॥ यत्र वैराज्ये वाणिजकाः परस्परं गच्छन्ति अविरुद्धास्तत्र साधूनामपि गमनं विरुद्धं न भवति, कल्पते तत्रगन्तुमिति भावः । यत्र तु वणिजां शेषजनपदस्य च निसंचारं कृतं गमनाऽऽगमननिषेधो विहितः प्रतस्तद्वैराज्यं विरुद्धमुच्यते, तस्मिन् विरुद्धे गमनादि न कल्पते ।
अता चोरभेया, वग्गुरसेथा पलाइणो पहिया । पडिचरगा य सहाया, गमणागमबम्मि नायव्वा ।। ६२५ ॥ ('अत्ताण' पदव्याख्या 'अत्तारा' शब्दे प्रथमभागे ५०४ पृष्ठे गता ।) तथा-चौरा - गवादिहारिणः२, भेदा नाम गृहीतवापा दिया रात्रौ च जीवहिंसापरा म्लेच्छविशेषाः ३, वागुरिका:- पाशप्रयोगेण मृगघातकाः ४ शुनिका:-द्वितीया लुब्धकाः ५, पलायिनो नाम-ये भट्टादयो राशः पृछां बिना सकुटुम्बाः प्रणश्य राज्यान्तरं गच्छन्ति ६, पथिका - नानाविधनगरमा मदेशपरिभ्रमणकारिणः ७, प्रतिचरका नाम-ये परराष्ट्राणि स्वयं प्रकशचारितया गवेषयन्ति हेरिका इत्यर्थः ८ एते आत्मादयोऽत्राणादयो वा
भेदा भवन्ति, केषाञ्चिदाचार्याणां वागुरिकाः शौनिकाय द्वयेऽप्येक एव भेदास्तन्मतेनाष्टमा अमिरका भवन्ति, महिः सर्पः पूर्वस्मादकृतेऽप्यपकारे परं मारय
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बिहार
न्तीत्यहि मरकाः, एते सहायाः साधूनां वैराज्यगमनाऽऽगमने ज्ञातव्याः ।
एतेष्वेव भङ्गोपदर्शनायाह
श्रताणमाइए, दियपहदिडे य भट्टिया भगणा । एतो एगतरेणं, गमनागमयम्मि मलाई ।। ६२६ ॥ श्रात्मादिभेदेषु अत्राणादिषु वा सहायेषु एकैकस्मिन् दिवापथष्टपदैः सप्रतिपक्षेरष्टिका भजना भवति। अष्टौ भङ्गा भवन्तीत्यर्थः । तथाहि आत्मना सहायविरहिता हिया मार्गेण राजपुरुषैर्दृष्ट्रा गछन्ति १ आत्मना दिवामार्गेण राजपुरुषैरदृष्टाः २, आत्मना दिवा उन्मार्गेल राजपुरुषैर्दष्टाः ३, आत्मना दिवा उम्मार्गेण वा राजपुरुरहाः ४, आत्मना रात्री मार्गेण दृष्टाः ५, आत्मना राश्री मार्गेणादृष्टाः ६, भ्रात्मना रात्रादुम्मार्गेण दृष्टाः ७, आत्ममा रात्रान्मार्गेणाडा गच्छन्ति ८, एवं चौरादिभिः द्वितीग्याल्यानापेक्षया स्वत्राणादिभिः प्रतिचर कान्तिक सहायैरपि सार्द्धं गच्छतां प्रत्येकमडौ भङ्गाः कर्त्तव्याः, 'एसो ' इत्यादि पश्चार्द्धम् । एतेषामष्टानां भेदानां प्रत्येकमष्टविधामां मध्यादेकतरेणाऽपि प्रकारेण यो गमनं करोति तस्याऽsशाsनवस्थादयो दोषा भवन्ति ।
प्रायश्चित्तं चेदम्अत्तागमाइएसुं, दियपहृदिट्ठेसु चउलहू होंति । राम्रो अह अदिडे, चउगुरुगा इक्कमे मूलं ।। ६२७ ॥ आत्मादिषु अत्राणादिषु वा पदेषु, ये दिवाविषयाः प्रथमे चत्वारो भङ्गकास्तेषु दृष्टादृष्टपदाभ्यां सप्रतिपक्षाभ्यामुपलक्षितेषु तपः कालविशेषिताश्चत्वारो लघुकाः ये तु रात्रिविषयाः पाश्चात्याश्चत्वारो भङ्गकास्तेषु प्र पथा दृष्टादृष्टपदाभ्यां सप्रतिपक्षाभ्यामुपलक्षितेषु पःकालविशेषिताश्वत्वारो गुरुकाः । यतो राज्यारमधावितस्तस्यातिक्रमेऽतिलङ्घने कृते सति मूलम् ।
त
अथ सर्वभङ्गपरिमाणज्ञापनार्थमाहअत्ताणमाइयाणं, अट्ठएहऽदुहि पहि भइयाणं ।
सट्ठिए पदाणं, विराहखा होइ सा दुविहा ||६२८॥ आत्मादीनामत्राणादीनां वा अष्टानां पदानामष्टभिः पदैर्भः प्रत्येकं भक्तानां गणितानां चतुःषष्टिसंस्थानि भङ्गकपदानि भवन्ति । वतुःषष्टिश्च पदानामन्यतरेण गच्छत इयं द्विविधा संयमात्मविराधना भवति ।
तामेवाहकायगहखक-पंथिं भित्स चेत्र अइगमसं । सुमम्मिय अगमणं, विराहखा दुह वग्गाखं ॥ ६२६ || अपथे शस्त्रोपहतपृथिव्यां गच्छन् पृथिवीकार्य, नद्यादिसन्तरणे अवश्यायसम्भवे वाऽप्कायं, दवानलसम्भवे सार्थिकप्रज्ज्वालिताग्निप्रतापने वा तेजस्कायं यत्राऽग्निस्तत्र नियमाद्वायुर्भवतीति कृत्वा वायुकायं, हरितादिमईनप्रलम्बासेवने वा वनस्पतिकार्य, पृथिव्युदक वनस्पतिसमाधितत्र सा. नां परितापनादौ सकायम् । एवं षद्कायान् विराधयतीतिसंयमविराधना । तथा राजपुरुषा ग्रहणाकर्षणादि विदभ्यरि
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बिहार अभिधानराजेन्द्रः।
बिहार स्यात्मषिराधना।अथ ते साधवः पन्थानं-मार्ग भिस्वा च उत्प- अथ चौरहेरिकाविभयतो गाढतरमपराधो भवति महान् घेन परजनपदेऽभिगमनं-प्रवेशं कुर्वम्ति ततो गाढतरेऽपराधे। | दोषस्तेषां लगतीति भावः । अत्र साधूनामेव दोषो क-स्थाबरादिशूल्ये वा स्थण्डिलपालिविरहिते मार्गेऽतिगमने यो- नपालकानाम् । अथ स्थानपालकाः सुप्ता भवन्ति,शून्यं वा तत् रपि वर्गयोः संयतानां सहायानां च विराधना भवतीति। स्थानकं वर्तते स्थानपालकानामन्यत्र कुत्राऽपि गमनात् । अथ षट्कायविराधनायां प्रायश्चित्तमाह
सत्र यदि साधवो गच्छन्ति तथा द्वयोरपि वर्गयोः खा
नपालकानां, संयतानां चेत्यर्थः । प्रहणाकर्षणादयो दोषाः छकायचउसु लहुगा. परित्तलहुगा य गुरुगसाहारे।
भवन्ति। संघडणपरितावरण, लहुगुरुग निवायणे मलं ॥६३०॥
सानेव सप्रायश्चित्तानमर्शयतिभस्य ग्याल्या प्राग्वत्।
गेएहणे गुरुगा धम्मा-स काखे बेउ होइ ववहारे। अथ प्रहणाऽऽकर्षणपन्यास
पच्छा कडे य मूलं, ग्रहणविरुभले नवमं ॥६३॥ संजममिहितदुभयम-दगा य तह तदुमयस्स वियपंता।। उदावणनिब्बिसए, एगमयेगे पभोस पारंची। पउभंगों मोम्मिएहि, संजयमहा विसजेति ॥६३१॥ भगवदुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचियो होइ ।।६३६।। गौल्मिका माम-ये रामपुरुषाः स्थानकंबडा पश्यामं रक्षय
गाथादयस्याऽपि व्याख्या प्राग्वत् ,एवमात्मनेवासहायानाजितेषु चतुर्भशी, संयतभद्रका गृहस्थप्राम्लाः १.हस्थभद्र
मजालसहायानां वा गच्छता दोषाः अभिहिताः । काः संयतप्रान्ताः२,संयतभद्रका अपि गृहस्थभद्रका अपि ३,।
अथ चौरादिसहाययुक्तानां दोषानतिविशवाहसंयतभद्रकाःन गृहस्थभद्रकाः,
किंतु-तदुभयप्रान्ताः मथते एमेव सेसएसुं, चोराईहिं समं तु गच्छंतो। संयतभद्रकाः गौसिमकाः; प्रथमहतीयभापर्तिन इत्यर्थः, ते | सविसेसयरा दोसा, पत्थारो जीवभसणया ॥ ६३७॥ साधून गच्छतो विसर्जयन्ति न निरुन्धन्ते ।
एवमेव बौरप्रतिचरकादिसहायैः शेरैरपि समकं बजता संजयभद्दगमुके, बीया घेतुं गिही विगिएहति । दोषास्त एव ग्रहणाकर्षणादयो वक्तव्याः परं सविशेषतराः ।
तथाहि-तेषां साधूनांदोषेण यदन्येषामपि तदच्छीयानां जे पुण संजयपंता, गेएहति जती गिही मुतुं ॥६३२॥
वा कुलस्य वा सास्य वा ग्रहणाकर्षणादिकम् , एष प्रसंयतभद्रकैर्मुकामपि साधून द्वितीयाः-द्वितीयभाव- स्तार उच्यते-स वा भवेत् जीवितस्य वा चरणस्य षा भंशनं तिनः स्थानपालकास्ते संयतप्रान्तवद् गृहन्ति ।। स्यात् , यावच्छब्दोपादानात् शरीरविकर्सबमेवा एव्याः। पहीत्वा च ते गृहिसोऽपि प्रथमस्थानपालकान् गृह
सविशेषदोषदर्शनार्थमाहन्ति कस्मादयगिरमी संयता मुक्ता इति कृत्वा, थवा- तेबद्दम्मि पसजण, निस्संकिएँ मलं भहिमरे चरिमं । ते साधवो गृहस्थसहिता गच्छन्तः संयतभद्रकैर्मुक्का
जइ ताव होंति भद्दय, दोसा ते तं चिमं वसं ॥६३८॥ पृहस्था अपि तैरमीय साधूनामेते सहाया इत्यभिप्रा
स्तेमादिभिः सह गच्छन् स्तैग्याथै प्रसजनं करोति स्तैयेख मुक्ताः, परं ये द्वितीयभावर्तिनः स्थानपालकास्ते संय
म्यादिकं करोति, कारयति अनुमम्यते वा इत्यर्थः। यदि स्ते. तप्रान्ततया संयतान गृहीत्वा गृहस्थामपि गृहन्ति यस्मामीभिः समं यूयं गच्छत इस्यतो यूयमप्यपराधिनः इति
मोऽयमिति शरूयते तदा चत्वारो गुरुकाः. निःशहिते - कृत्वा, ये पुनः संयतमाम्ताः पुनःशब्दो विशेषणोकि विशिन
खम् । अभिमरोऽयमिति निःशहिते चरम पाराशिकम् । अपि रि-ये गौरिमकाः संयतानामेवातीव प्रदिरास्ते पहिलो मु
ब-यदि तावचे स्थानपालका भवन्ति तथाऽपि वैराज्य त्या यतीन राहन्ति ग्रहीत्वा बन्धमादिकं कुर्युः।
संकामतः साधून वा चिन्तयन्ति-पतेऽपि यदीरशानि कु
यम्ति तर्हिम किमप्यमीयां मध्ये शोभनं, तीर्थकरेल वा पढमतइयमुकामं, रजे दिशाख दोपह विविखासो। । किमप्रतिषिवं बैराज्यसंक्रमणमित्यादि । एवं यतेऽपिपररजपवेसे वं, जमो व खंती तहि विएवं ॥३३॥ प्रान्तीभवन्ति । अथवा-बदिते खानपाला भद्रका भवएवं प्रथमहतीयभायोः संयतभद्रमुकाः सन्तः साधवः
न्ति तदा तैर्विसर्जितानां परराइविधानांत एव दोषाः,तदेख परराज्ये प्रविशंभराजपुरुषः, ततः पहा:-किमुत्पथेना
चतुर्गुरुकादिकं प्रायमित्तम् । याताः ! , यदि साधवो भसन्ति-उत्पथेन, तत
बाम्यत्प्रायश्चित्तावह दोपजालम्उन्मार्गगामित्वात् बारिका पते. इति रुत्वा प्रहशाकर्ष
पायरिय उबझाया, कुलगसंषो व चेइमाईच। बादिकं प्राप्नुवन्तिामथवते पथा वयमागताः ततोयोर- सब्वे विपरिच्चत्ता, वेरज्जं संकमंतेवं ।। ६३६ ।। पिवयोर्षिनाणे भवति, संयतानां खानपालकानां वेति प्राचार्या-अर्थदातारः उपाध्यायाः-सूत्रप्रदाः कुलं-जागेभावमएवं परराज्यप्रवेशे दोषा अभिहितायतोऽपि राज्या- म्द्रादि गम्-परस्परसापेक्षानेककुलं संघः समुदायः स्यानिनिर्गच्छन्ति तत्राप्येत एव दोषा भवन्ति ।
भगवहिम्बानि जिनभवनानिवाापते प्राचार्यादयः सपक्षियो अथ पंथं भिन्स' स्थाविपद व्याख्यानयति
वृक्षानागच्छन्ति तस्मात्तानेव वृक्षानुसातयामः मा फलारक्खिाइ वा पंथो, जहतं मिलण जगवयसयंति ।
र्थिनः शकुना आगच्छन्तु, पतेन दृष्टान्तसामध्येन तानेवाड
चार्याऽऽदीनुदातयामो येन तदर्थमिह कोऽपि नाऽऽगच्छति गाढतरं भवराहो, सुने सुते वि दोपहं पि ॥ ६३४॥ |तपते दोषाः।
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बिहार
अत:
एयारिसे बिहारी, न कप्पई समयाय सुचिदियाखं । दो सीमेऽनिमई, जिससीमं रायसीमं वा ॥ ६४० ॥ तारशे वैराज्ये विहारः भ्रमणानां सुविहितानां नकपते यस्तु करोति स द्वे सीमानाकामति तथा-जिनयीमान न तेरा कर्तुमिति लक्षणांराज्यासीमानं न कर्त्तव्यो मदीयराज्यात्परराज्ये गमाऽऽगम इति रूपाम् ।
( १३१२) अभिधान राजेन्द्रः ।
किन
बंध वदं च बोरं, बाबा एरिसे बिहरमाथे । तम्हा उ विवज्जेज, वेरजविरुद्धसंकमणं ॥ ६४१ ॥ बन्धी-निगडादिनियन्त्रणं. वधः -- कशाघातादिः, घोरं-भकमरमा यत आपद्यते तस्माद्वराज्यसंक्रमणं
येत्
अथ द्वितीयपदमाह-देखना माता, भचविसोही गिलाणमारिए । अधिकरणवादराय, कुलसंगत कप्पती गंतुं ॥। ६४२ ॥ दर्शनार्थं वा वेगज्यसंक्रमणमपि कुर्यात् 'माय' सिमातापिनी कस्याऽपि प्रब्रजितुकामस्य शोकेन निषे
भ
नम्
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मोहन कचित्साधु प्रत्याख्यातुकामः स विशामलोचनां दातुकामो मीतार्थस्य पार्श्वे गच्छेत् अजङ्गमम्य तस्य पार्श्वे गीतार्थ गच्छन्ति 'गिलास' सिग्लाया प्रतिबरसा प्रायोम्पोच्चता आवरिय नि आवासमीपे आचार्याणमारेशन या ग अधिकरणसि कम्यापि साधोः केनाऽपि गृहिणा विकरणमुत्पच ही नोपशाम्यति, ततः प्रज्ञापनामानम्पोपशमनाय मति बाद' राज्ये बाद कश्विथितस्तस्य निग्रहार्थ बादलब्धिसम्पन्नेन व्यं राय ' ति राजा वा कश्चित् परराष्ट्रीयः साधूनानुपरि प्रतिष्टम्नस्योपशमनार्थ सम्धिन सम्त 'कुलसंगत ' नि उपलक्षणत्वात् कुलगण संघसङ्गतं किमपि कार्यमुन्यन्नामित्यर्थः अथ राजकुलसंगत' एकमेव परं राजकुलेन सह सङ्गतं बद्धं केनाऽपि साधुनाऽचितं नाति एवमादिषु कार्येषु रा गन्तुं कल्पत
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अनजानपदानपति
सुनत्यपविमास्यम्मि पवित्र उत्तिमम्मि । एतारिसम्म कप्पर, वेरज्जविरुद्धे संकमणं ।। ६४३ ।। दर्शनप्रभावकशास्त्राणामाचा गदिश्रुतज्ञानस्य वा सम्बन्धि पदन्यत्राऽविद्यमानं वातदुभयं नत्र विशारदः कश्विदाकार्यः स वासमार्थम् अनशनं प्रतिपन्नो यस्मिश्च क्षेत्रेऽसौ पगले ती सूत्रार्थी मा यच्छेदं प्रापनामिति कृत्या नाद कारणे राज्यविरुद्धं कम कर्त्तुं
अथ येन विधिना तत्र गन्तव्यं तमभिधित्सुराहअापुच्छि भारक्खिय, सेट्ठि सेगावर अमच्चरायाखं । इगम निग्गमखे, एस विही होइ नायब्बो ॥ ६४४ ॥ आयातितः बेहिनं ततः सेनापनि तोराजानमप्यापृच्छय निर्गन्तव्यं प्रवेष्टव्यं वा एष विधिरतिगमने निर्गमने च ज्ञातयो भवति ।
बिहार
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अमुमेवार्थे प्रकटयन्नाहधरक्खितो विसअर, अहव भणिजा स पुच्छह तु सेट्ठि । जाव निवो ता नेयं सुद्धा पुरिसो व दूतेां ।। ६४५ ॥ वैराज्यविरुद्ध राज्यं गच्छता प्रथमत एव रक्षिकः प्रव्यः यद्यसौ विसर्जयति ततो लम्। अथायी भवेत् श्रेष्ठिने-श्रीदेवताभ्यासितशिरोवेष्टनविभूषितो समापृच्छ तनः श्रेष्ठी प्रष्टव्यः । एवं नृपो यावत् नृपा राजा नेतव्यं वक्तव्यमित्यथे ती पृो यदि विसर्जयति ततः सुन्दरम् श्रथाऽसौ ब्रूयात् अहं न जानामि सेनापति प्रश्नयत ततः सेनापतिः प्रनितो यद्यनुजानीते ततः शोभनम् । अथाउसी यात्— अमात्यं पृच्छ ततो ऽसामात्यः पृणे यदि विसर्जयति नतो लष्टम् । श्रथ ब्रूयात् राजानं पृच्छ तनो राजाऽपि प्रष्टव्यः। एते च राजादयो यदि विसर्जयन्ति तदा मु द्वापट्टकं दूतपुरुषा वा मार्गयितव्याः, येन राजादिना विसर्जिता एते इति स्थानपालकाः प्रत्ययतः प्रथममवतारयन्ति । यो वा दूतस्तत्र राज्ये व्रजति तेन सार्द्धं गच्छन्ति एवं तामयतो राज्याधिगच्छन्ति तत्र विधिक
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अथ पत्र राज्ये मन्तुकामस्तत्र प्रविशतां विधिमाह
जत्थ वि य गंतुकामा, तत्थ वि कारिंति तेसि खातं तु । रक्खा ते वि य, तेथेव क्रमेण पुच्छति ॥६४६ ॥ यत्रापि राज्ये गन्तुकामास्तत्राऽपि ये साधवो वर्त्तन्ते तेषां सन्देशकप्रेयलेन वा कुन्ति यथा वयमितो यत्र राज्यातत्राऽऽगन्तुकामा अतो भवन्तस्तत्रारक्षकादीर पृच्छति यदा तैरनुज्ञाता भवन्ति तदा तान् साधून् शापयन्ति, यथा तैः भारक्षकादिभिरत्रानुज्ञाताः सन्ति भवद्भिरत्रागन्तव्यम् । एष निर्गमन प्रवेशे च विधिरुक्तः ।
श्रथ श्रयरियत्ति ' पदं विशेषतो भावयन्नाह - राईण दोषह भंडण, आयरिए आसियावणं होइ | कमकरणे करणं वा निवेद अयथाएँ संकमणा ॥ ६४७|| यो राक्षोः परस्परं भराउने फलो वर्त्तते तत्रैकस्य राज्ञः प्याचार्योऽतीव सत्कारानं द्वितीयवानस्तत्परिज्ञायात्मीयदक्षपुरुषैः 'श्रासिश्रावणं' ति तस्थाबापस्यापहरणं कारयति अस्मिन् हि गृहीतेसम्म तिर्थ गृहीत एव भवतीति तत्र च यः करणेधनुर्वेदरपासे कृतपरिभ्रमस्तस्य तत्र करणं भवति । मेनाचार्यापारिणा सह युद्धं कर्तुमुपतिष्ठत इत्यर्थः अथ नास्तिकतकरणस्ततं यस्य राशः सकाशादपहृतस्तस्य निवेदन यतनया शेषसाधवः संक्रमणं कुसंन्ति ।
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(१३१३) विहार
अभिधानराजेन्द्रः। इदमेव स्पष्टतरमाह
नो मट्टियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिदिय छिदिय विकुभन्भरहियस्स हरणे, उजाणाऽऽइट्टियस्स गुरुणो उ। । जिय विकुञ्जिय विष्फालिय विप्फालिय उम्मग्गेण हरियउबट्टणे समत्थे, दगए वावि ते विउलं ॥ ६४८॥ वाहाए गच्छिजा, जमेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियापेसवियम्मि अदत्ते, रमा जइ विउ विसजिया सिस्सा। णि अवहरंतु, एवमाइट्ठाणं संफासे नो एवं करिआ, से पुगुरुणो निवेइयम्मि, हारिंतगराइणो पुचि ॥ ६४६ ॥ ब्वामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहिजा तो संजयामेव गाअभ्यहितस्य-राजमान्यस्य गुरोराचार्यस्योधानसभाप्रपा- माणुगामं दूइज्जेजा । (सू० १२५) दिषु स्थितस्य हरणं भवति, यदि च कोऽपि युद्धकरणेन वा ___ स भिचुरुदकादुत्तीर्णः सन् कर्दमाविलपादः सन् नो . . तस्योद्वर्तनायांचालनायां समर्थो भवति,ततःस तं निवार्या- रितानि भृशं छित्त्वा तथा विकुब्जानि कृत्वा एवं भृशं पाटऽऽचार्य प्रत्याहरति । अथ नास्त्युद्वर्तनासमर्थः ततःक्षणमात्र
यित्वोन्मार्गेण हरितवधाय गच्छेत् । यथैनां पादमृत्तिका साधवस्तूष्णीका आसते, यदा प्राचार्यापहारी दूरं गतो भ- हरितान्यपनयेयुरित्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत् , न चैतत्कुर्यावति तदा सर्वेऽपि साधवो वोलं कुर्वन्ति, अस्माकमाचार्यो
च्छेषं सुगममिति तो धावत लोका इति । आसन्नस्थिते तु वोलं न कुर्वन्ति,
(२३) मार्गे वप्रादिके गमनविधिमाहमा भूत्परस्परं बहुजनक्षयकारी युद्धविप्लव इति । ततश्च रा
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे जा साधुभिरभिधातव्यः-अनाथा वयमाचार्यैर्विना प्रत प्राचार्या यथा आगच्छन्ति तथा कुरुत । एवमुक्तोऽसौ द्वि
अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पासगाणि वा तोरतीयस्य रामो दूतं विसर्जयति, शीघ्रमाचार्यः प्रेषणीय इति । णाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा यदि प्रेषितस्ततो लष्टम् । अथाऽसौ दृते प्रेषितेऽप्याचार्य दरीभो वा सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमिजा, नो उज्जुयं न ददाति न विसर्जयतीत्यर्थः । ततः साधवो द्वे त्रीणि वा
गच्छेजा, केवली बूया-आयाणमेयं, से तत्थ परक्कममाणे दिनानि राजानं दृष्ट्रा ब्रुवते-अस्मान् विसर्जयत येन गु
पयलिज वा पयलिज वा से तत्थ पयलमाणे वा पयलरूणामुपकण्ठं गच्छामः । कीदृशा वयं गुरुविरहिता अत्र तिष्ठन्तः, स्वाध्यायादिकं चात्र न किमपि निर्वहतीत्यादि |
माणे वा, रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाएवमुक्ते यद्यपि ते शिष्या न राज्ञा विसर्जितास्तथापि गुरूणां ओ वा वल्लीमो वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि सन्देशकप्रेषणेन निवेदयन्ति, यथा वयमागच्छामः, ततो वा अवलंबिय अवलंबिय उत्तरिजा, जे तत्थ पाडिपहिया गुरवः 'हारितगराइणो पुवि' ति अपहर्नुः रामः पूर्वमेव
उवागच्छति ते पाणी जाइजा २, तो संजयामेव अवलंनिवेदयन्ति, अहं शिष्यानप्यानयामि अतः स्थानपालाना
बिय अवलंबिय उत्तरिजा तो संजयामेव गामाणुगामं मादेशं प्रयच्छत, येन ते तान्न गृहन्तु. एवं निवेदिते यतनया संक्रमणं कुर्वन्ति । वृ० १ उ० ३ प्रक० । नि० चू०। दूइजेजा । (सू० १२५४) जे भिक्खू वेरजं विरुद्धरज्जं सजं गमणं सजं आगम-|
सभिक्षुओमान्तराले यदि वप्रादिकं पश्येत्ततः सत्यन्य
स्मिन् संक्रमे तेन ऋजुना पथा न गच्छेत् , यतस्तत्र गणं सजं गमणाऽऽगमणं करेइ करतं वा साइजइ ॥१७७।।
दिौ निपतन् सचित्तं वृक्षादिकमवलम्बते, तचायुक्तम् । जेसिं राईसं परोप्परं वेररजं जेसिं राईणं परोप्परं गमणाग- अथ कारणिकस्तेनैव गच्छेत् , कथञ्चित्पतितश्च गच्छतो मणं विरुद्धं तं वेरजविरुद्धरज । सज्जगहणावट्टमाणा काल- बल्ल्यादिकमप्यवलम्ब्य प्रातिपथिकं हस्तं वा याचित्या सं ग्गहणं । अहवा-अभिक्खं गमणं करेति पनवगं पहुच गमणं, यत एवं गच्छेदिति । प्राचा०२ श्रु०१०३०२०। अण्णट्ठाणातो पागमणं, गन्तुपडियागयस्स गमणाऽऽगमणं । (पङ्कादिसंक्रममार्गः 'गईसंतरण' शब्दे चतुर्थभागे १७४० एवं जो करे तस्स प्राणादिया य दोसा, चउगुरुं च से पृष्ठे उक्तः ।) पच्छितं । एसो सुत्तत्थो। नि०चू०११ उ०। ('नदीसंतर- किच-यवसाऽऽदिसंसृष्टे मार्गे विधिमाहणविधिः 'ईसंतरण' शब्दे चतुर्थभागे १७४२ पृष्ठे उक्तः।) से भिक्ख वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दइजेमाणे -
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउन वा कार्य ससिणि- तरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचक्काथि खं वा कायं णो मामलेज वा नो पमजेज्ज वा, अह पुण वा परचक्काणि वा से णं वा विरूवरूवं संनिरुद्धं पेहाए विगमोदए मे काए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं कार्य प्राम- सइ परकमे संजयामेव णो उज्जुयं गच्छेजा, सेणं परो सेजिज वा जाव पयाविज वा तो संजयामेव गामाणु- णागमो बइजा पाउसंतो! एस णं समणे सेणाए अभिगामं दूइजेजा । (सू०-१२४४) आचा० २ श्रु० १ चू० निवारियं करेइ, से णं बाहाए गहाय भागमह, से णं ३ १०२ उ०।
परो चाहाहिं गहाय आगसिज्जा, तं नो सुमणे सिया० उदकोत्तीर्णस्य गमनविधिमाह
जाव समाहीए तो संजयामेव गामाणुगाम दइज्जेज्जा। से भिक्ख वा भिक्खुणी वा गामाऽणगामं दइज्जमाणे | (सू०-१२५४)
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अभिधानराजेन्द्रः। स भिपुर्यवि प्रामान्तराले यवसं-गोधूमाविधाम्यं श-णिवा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वा वणाणि वा वणकटस्कन्धावारनिवेशादिकं वा भवेत् तत्र बहुपायसम्भवात्त- विग्गाणि वा पब्बयाणि वा पचयविदुग्गाणि वा श्रगम्मध्येन सस्यपरस्मिन् पराक्रमे न गच्छेत् , शेषं सुगममिति।।
डाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ वा वावीमो (२४) प्रातिपथिकपृच्छायां विधिमाह
वा पुक्खरिणीभो वा दीहियाभो वा गुंजालियाओ वा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे |
सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा नो वाअंतरा से पाडिवाहिया उवागच्छिजा, ते णं पाडिवाहिया | सामोरी
हाम्रो पांगज्झिय पगिज्मिय जाब निज्माइजा, केवली एवं वइजा पाउसंतो ! समणा ! केवइए एस गामे वा०
व्या-आदाणमेयं । जे तत्थ मिगा वा पसू वा पक्खी वा सरीजाव रायहाणी वा केवइया इत्थ भासा हत्थी गामपिंडो
सिवा वा सीहा वा जलचरा वाथलचरावा खहचरा वा सत्ता लगा मणुस्सा परिवसंति। से बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहु
ते उत्तसिज वा वित्तसिज वा वार्ड वा सरडं वा कंखिजा, जवसे, से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजबसे?, एय
चारित्ति मे अयं समणे, अह भिक्खू सं पुब्बोचदिदुपप्पगाराणि पसिणाणि पुच्छिज्जा , एयप्पगाराणि पुट्ठो
त्तिमः०४ जं नो बाहामो पगिझिय पगिझिय निज्मावा भट्ठो वा नो वागरिजा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स
इजा, तो संजयामेव पायरियउवज्झाएहिं सद्धिं गामावा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबढेहिं सहिते सया
गुग्गामं इजिजा ।। (सू०-१२७) जइजासि । (सू०-१२६ ) त्ति बेमि ॥
स भिक्षुओमान्तरं गच्छेत् तस्य च गच्छतो यद्येतानि भवेयुः, 'से' तस्य भिक्षोरपान्तराले गच्छतः प्रातिपथिकाः-स- तद्यथा-कच्छाः-नद्यासन्ननिम्नप्रदेशा मूलकवालुकादिवाटिम्मुखाः पथिका भवेयुः. ते चैवं वदेयुर्यथा-आयुष्मन् !श्रम- का या 'दरियाण' क्ति अटव्यां धासार्थ राजकुलावरुद्धमूमयः ण !किम्भूतोऽयं प्रामः? इत्यादि पृष्टो न तेषामाचक्षीत. निम्नानि-गत्तौदीनि वलयानि-नचादिवेष्टितभूमिभागाः ग. मापि तान् पृच्छदिति पिण्डाऽथः,पतत्तस्य मिक्षोःसामध्य- हनं-निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्र वा गुजालिकाः-दीर्घा गम्भीरा: मिति । आचा०२ श्रु०१ चू० ३ १०२ उ।
कुटिलाः सदणाः जलाशयाः सरस्पतयः--प्रतीताः , (२५) मागे वप्रादीनि नाङ्गल्या दर्शयेत् । इहानन्तरं गमन. • सरासरःपतयः '-परस्परसंलग्नानि बहूनि सरांसीति , विधिः प्रतिपादितः. इहाऽपि स एव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन एवमादीनि बाहादिना क प्रदर्शयेत् नावलोकयेद्वा, यसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्याऽदिसूत्रम्
तः केवली धूयात्-कोपादानमतत् . किमिति', यतो ये से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दुहुज्जमाणे
तत्स्थाः पक्षिमृगसरीसृपादयस्ते पास गच्छेयुः, तदा
वासिनां वा साघुविषयाऽऽशका समुत्पद्येत । अथ साअंतरा से वप्पाणि वाजाव दरीमो वा जाव कूडागारा
धूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिक्षादिकं यत्तथा न कुर्यात् , माणि वा पासायाणि वा नूमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि वा
चार्योपाध्यायादिभिश्च गीता सह विहरेदिति । पवयगिहाणि वा रुक्खं वा चेइयकडं थूमं वा चेइयकर्ड
(२६) साम्प्रतमाचार्यादिना सह-गच्छतः साधोर्विधिमाहमाणसणाणि वा • जाव भवणगिहाणि वा नो बाहाम्रो
से भिक्खू वा मिक्खुणी वा पायरियउवज्झाएहिं सद्धि पगिज्मिय पगिझिय अंगुलिपाए उद्दिसिय उद्दिसिय
गामाणुगाम दुइज्जमाणे नो पायरियउवझायस्स मोलमिय श्रोणमिय उन्ममिय उनमिय निझाइजा,
हत्थेण वा हत्थं जाव प्रणासायमाणे तो संजयामेव तमो संजयामेव गामाणुगामं दूइजेजा ॥
| आयरियउबज्झाएहिं सद्धिं जाव इजिज्जा । से भिरख स मिथुप्रामाद् प्रामान्तरं गच्छन् यचन्तराले पतत्पश्येत् , वा भिक्खुणी वा पायरियउत्रज्झाएहिं सद्धिं इज्जमातद्यथा-परिखाः प्राकारान् कूटागारान-पर्वतोपरि गृहाणि
थे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिा नमगृहाणि-भूमिगृहाणि, वृक्षप्रधानानि तदुपरि वा गृहा
, ते शं पाडिवाहिया णि वृक्षगृहाणि, पर्वतगृहाणि-पर्वनगुहाः, 'हक्काचे- एवं वइज्जा-पाउसंतो! समणा! के तुम्भे, कत्रो वा इनकडं' ति वृक्षस्याऽधो व्यन्तरादिस्थलकं स्तूवा-व्य- एह , कहिं वा गच्छिहिह , जे तत्थ पायरिए वा उतराविरुतं-तदेवमादिकं साधुना भृशं बाहुं प्रगृह्य-उत्ति
वज्झाए वा से भासिज वा वियागरिजवा, पायरियउबबाली प्रसार्य तथा कायमवनम्योत्रम्य वागदर्शमी नायवलोकनीय , दोषाश्चात्र दग्धमुषितादी साधुराश
ज्मायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंत. ताजितेन्द्रियो वा सम्भाव्येत,तत्स्थः पक्षिगणा वा सन्त्रा रा भासं करिजा, तमो संजयामेव अहाराइगिएण सद्धि। सं गच्छेत् , पदोषभयात्संयत एव दयेत् -गछदिति । जाव वा दुइज्जिज्जा ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा प्र
मागें,कच्छादीनि नाङ्गल्या प्रदर्शयेत् , तथा- हाराहणियं गामाणुगामं दूइजमाणो राइणियस्स हत्थेण से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजेजमाणे हत्थं जाव प्रणासायमाणे तो संजयामेव महाराइणिअंतरा सेकच्छाणि वा दरियाणि वा नूमाथि वा वलया- यंगामाणुगाम.दइज्जिज्जा ।। से भिक्खू वा भिक्खणी
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(१३५) अभिधान राजेन्द्रः ।
बिहार
वा महारइणि गामाखुगामं दृश्अमाये अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिआ, ते यं पाडिवहिया एवं बहआ
उसंतो ! समया ! के तुम्मे १, जे तत्थ सम्वराइसिए से भासिज वा बागरिञ्ज वा, राइणियस्स भासमाणस् वा विद्यागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिजा, तो संजयामेव अहाराइथियाए गामायुगामं दूशीजा । (सू०-१२८ )
स भिक्षुराचार्यादिभिः सह गच्छंस्तावन्मात्रायां भूमौ स्थितो गच्छेद् यथा हस्तादिसंस्पर्शो न भवतीति । तथा-स भिक्षुराचार्यादिभिः सार्द्धं गच्छन् प्रातिपधिकेन पृष्टः सन् श्राचार्यादीनतिक्रम्य नोत्तरं दद्यात् नाप्याचार्यादी जल्पत्यन्तरभाषां कुर्यात्, गच्छ संयत एव युगमात्रया दृष्टथा यथारत्नाधिकं गच्छेदिति तात्पर्याथेः । एवमुत्तरसूत्रद्वयमप्याचार्योपाध्यायैरिवापरेणाऽपि रनाधिकेन साधुना सह गच्छता हस्तादिसंघट्टो अन्तरभाषा च वर्जनीयेति द्रष्टव्यमिति ।
किश्च -
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा दुइजनाले अंतरा से पाडिबहिया उवागच्छिा, ते गं पाडिवहिया एवं वदेजथाउसंतो ! समणा ! अवियाई इतो पडिवहे पासह तं जहा मणुस्सं वा गोगं वा महिसं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसिवं वा जलयरं वा से आइक्खह दंसह, तं नो ग्रहक्खिजा नो दंसिज, नो तस्स तं परिनं परिजाखिजा, तुसिणीए उवेहि, जाणं वा नो जाणं ति वइखा, त श्री संजयांमेव गामाग्गामं दूइज्जेजा ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मामाखुगामं दुइजेज्जा अंतरा से पाडित्रहिया उवागच्छिा, ते यं पाडिवहिया एवं वइज्जा-माउसंतो ! समया ! वियाई इतो पडिवहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाखि वा तथा पत्ता पुप्फा फला बीया हरिया उदगं वा संनिहियं श्रगणि वा संनिक्खितं से आइक्खह० जाव इञ्जिज्जा से भिक्खु वा भिक्खु fी वा गामाशुगामं दूइज्माणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते गं पाडिवहिया एवं उसंतो ! समया ! अवियाई इतो पडिवहे पासह जवसाणि वा ० सेवा विरूवरूवं संनिवि से माइक्खह• जाब दुइज्जिजा || से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामालुगामं दूइजमाणे अंतरा पाडिबहिया० जाब आउसंतो ! समखा ! केवइए इत्तो गामे वा • जात्र रायहाणि वा से आइक्खह • जाब दुइ जिज्जा ।। से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामः गामं इज्जेज्जा, अंतरा से पडिवहिया धाउसतो ! समया ! कवइए इसो गामस्स नगरस्स वा० जाव राय
जाव
For Private
बिहार
हाथीए वा मग्गे से आइक्खर, तहेव० जाव दूइज्जिज्जा ।। ( सू०-१२६ )
'सै' तस्य भिक्षोर्गच्छतः प्रातिपथिकः कश्चित्संमुखीन एतद् ब्रूयात्, तद्यथा आयुष्नन् ! भ्रमण !, अपि च किं भवता पearnsaar कश्चिन्मनुष्यादिरुपलब्धः ? तं चैवं पृच्छन्तं तूष्णींभावेनोपेक्षेत, यहिया-जानन्नपि नाहं जानामीत्येवं वदेदिति । अपि च-स भिक्षुप्रमान्तरं गच्छन् केनचित्सम्मुखीमेन प्रातिपधिकेन पृष्टः सन् उदकप्रसूतं कन्दमूलादि नैवांचक्षीत, जानन्नपि नैव जागामीति वा ब्रूयादिति । एवं यवसासमादिसूत्रमपि नेयमिति । तथा कियद्दूरे ग्रामादिप्रश्नसूत्रपपि नेयमिति । एवं कियाम् पन्थाः ? इत्येतदपीति । किश्श
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइअमाणे अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए० जात्र चिनचिल्लडं वियाल पडिप पेहाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेलं गच्छिजा, नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिञ्जा, नो गहणं वा वर्ण वा दुगं वा अणुविसिञ्जा, नो रुक्खंसि दुरूहिजा, नो महइमहालयंसि उदयंसि कार्य विउसिजा, नो वार्ड वा सरणं वा सेवा सत्यं वा कंखिजा अप्पुस्सुए० जाव समाहीए तो संजयामेव गामाणुगामं दूइजिजा ।
स भिक्षुप्रमान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले गां- शुभ या दर्पितं प्रातपथे पश्येत्, तथा सिंहं व्याधं यावनिकं तदपत्यं वा व्यालं क्रूर दृष्ट्रा च तद्भयामेवेोन्मार्गेण गच्छेत् न च गहनादिकमनुप्रविशेत् नापि वृत्तादिकमारोहेत्. न खोदकं प्रविशेत् नापि शरणमभिकाङ्गेत् अपि त्वरुपोत्सुकोऽविमनस्कः संयत एव गच्छेत् । एतच्च गच्छनिर्गतैर्विधेयं गच्छान्तर्गतास्तु व्यालादिकं परिहरन्त्यपीति । किच
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण त्रिहं जाणिजा इमंसि खलु विहंसि बहवे श्रमोसगा उवगरणपडियाए सपिंडिया ग च्छिा, नो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छिआ० जाव समाहीए तो संजयामेव गामा णुगामं दूइजेजा (सू०-१३०)
'से' - तस्य भिक्षोर्मामान्तराले गच्छतः ' विहं ' ति श्रटवीप्रायो दीर्घोऽध्वा भवेत्, तत्र च श्रामोषकाः स्तेनाः उपकरणप्रतिज्ञया- उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः, न तद्भयादु*मार्गगमनादि कुर्यादिति ।
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दुइजनाये अंतरा से आमोसगा संपिडिया गच्छिआ, वे यं भ्रामोसगा एवं बइ आउसंतो ! समखा ! आहर एयं वत्थं वा पत्तं वा कंबलं वा पायपुंखणं वा देहि शिक्खिवाहि, तं नो दिजा निक्सिविजा, नो वंदिय वंदिय जाइआ नो अंजलि कहु जाइजा, नो कलुगपडियाए जोइजा, भम्मिगाए जायचाए जाइजा,
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(१३१६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिहार तुसिणीयभावेण वा तेणं श्रमोसगा सयं करणिअं ति कट्टु कोसंति वा० जाव उद्दविंति वा वत्थं वा पत्तं वा कंबलं वा पाळणं वा श्रच्छिदिज वा०जाव परिट्ठविज वा, तं नो गामसंसारियं कुआ, नो परं उवसंकमित्तु नो रायसंसारियं कुञ्ज धूया - उसंतो! गाहावई एए खलु श्रमोसगा उवगरणपडियाए सयं कररिअं ति कट्टु अक्कोसंति वा ०जाव परिट्ठवंति वा, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्टु विह रिजा, अप्पूसए ०जाब समाहिए तो संजयामेव गामा
गाणं दूइजेजा । एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिखुश्रीए वा सामग्गियं जं संघद्वेहिं सहिते सया जइजासि चि वेमि । ( ० - १३१ )
स भिक्षुर्ग्रामान्तरे गच्छन् यदि स्तेनैरुपकरणं याच्येत तत्तेषां न समपयेत्, बलाद् गृह्णतां भूमौ निक्षिपेत् न च चौरगृहीतमुपकरणं वन्दित्वा दीनं वा वदित्वा पुनर्याचेत, अपि तु धर्मकथनपूर्वकं गच्छान्तर्गतो याचेत, तूष्णींभावेन वोपेक्षेत, ते पुनः स्तेनाः स्वकरणीयमिति कृत्वैतत्कुर्युः, तद्यथा-- श्राक्रोशन्ति वाचा, ताडयन्ति दण्डेन यावज्जीवितास्याजयन्ति, यस्त्रादिकं वाऽऽच्छिन्द्युर्यावत्तत्रैव प्रतिष्ठापयेयुः - त्यजेयुः, तच्च तेषामेवं चेष्टितं न प्रामे संसारणीयं- कथनीयं नापि राजकुलादी, नापि परं गृहस्थमुपसंक्रम्य चौरचेष्टितं कथयेत् माप्येवंप्रकारं मनो वाचं वा सङ्कल्यान्यत्र गच्छेदिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामथ्र्यमिति । श्राचा० २ ० १ चू० ३
श्र० ३ उ० ।
(२७) पूर्वोत्तरदिग्मानं विहारक्षेत्रस्याह
कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं ० जाव गमगहाओ एचए, दक्खिणं ० जाव कोसंबीओ एत्तए पञ्चच्छिमेणं •जाव धूणाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं० जाव कुणाला विसयाओ एत्तए, एतावता तत्थ कप्पर एतावता च आरिए खेते, गो से कप्पइ एत्तो बाहिं तेण परं जत्थ नागदंसणचरिताई उस्सप्पंति त्ति बेमि ॥ ५१ ॥
अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः इत्याह
इति काले पडिमेहा, परूवितो यह इदाणि खेत्तम्मि | चउदिसि समगुमायं, मोत्तूर्ण परेण पडिसेहो ।। १०६०॥ इति- अमुना प्रकारेण रात्रिलक्षणो यः कालस्तद्विषयः प्रतिबेधः प्ररूपितः । अथानन्तरमिदानीं क्षेत्रविषयः प्ररूप्यते, कथमित्याह - चतसृषु दिक्षु यावत् क्षेत्रमत्र सूत्रे समनुज्ञातं तावन्मुक्त्वा परेण बहिः क्षेत्रेषु विहारस्य प्रतिषेधो मन्तव्यः । किञ्चहेट्ठा वि य पडिसेहो, दव्वादी दव्वे आदिसुत्तं तु । घडिमत्तचिलिमिलीए, वत्थादी चेव चत्तारि ॥ १०६१ ॥ East रत्था दगती - रयं च विहचरमगं च खित्तम्मि ।
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बिहार
सोरियपाहुड भावे, सेसा काले य भावे य ।। १०८२ ॥ अधस्तनसूत्रेष्वपि द्रव्यक्षेत्रकालभाववित्र्यप्रतिषेधो मन्तव्यः, तत्र द्रव्यप्रतिषेधपरमादिसूत्रं; प्रलम्बप्रकृतमित्यर्थः । तथा घटीमात्रसूत्रं चिलिमिलिकासूत्रं च वस्त्रादिप्रतिषेधकानि च चत्वारि सूत्राणि एवं तावत् “निग्गंधं च सं गाहाबकुलं श्रणुष्पविद्धं केइ हत्थे वा पापण वा " इत्यादिलक्षणं द्वितीयमिदमेव, " बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा " इति विशेषितं तृतीयचतुर्थे त्वेयमेव, निर्व्रस्थीविषये पतान्यपि द्रव्यप्रतिषेधपराणि। तथा वगडासूत्रं रथ्यासुखापणगृहादिसूत्रं दकतीरसूत्रम् एतदेव प्रस्तुतं, चरमसूत्रम् । एतानि क्षेत्रप्रतिषेधपराणि। तथा योऽन्यतो विभागान् स्वसागारिकसूत्राणि यत्र प्रभूतमधिकरणं तद्विषयसूत्राणि भावप्रतिषेधपराणि, शेषाणि तु मासकल्पप्रकृतप्रभृतीनि सर्वाण्यपि सूत्राणि काले च भावे च उभयोरपि प्रतिषेधकानि भवन्ति ।
अहवण सुत्ते सुत्ते, दव्वादीयं चउण्टतोतारो | सोउ अधीणो वत्तरि, सोत्तरि यतो अणियमो तु । १०६३। अथवा न पृथग् द्रव्यादिविषयाणि सूत्राणि किं तु सूत्रे चतुर्णा द्रव्यक्षेत्रकालभावानामवतारः प्रदर्शयितव्यः, स चाsaतारो वक्करि वाधीन आयत्तः । यदि वक्ता तथाविधप्रतिपाइनशक्तिसमन्वितः, श्रोता च ग्रहणधारणालब्धिसम्पअः तदा भवति सूत्रे चतुर्णा द्रव्यादीनामवतारः, अन्यथा तु नेति भावः । श्रतो नायं नियमो यदवश्यं प्रतिसूत्रं द्रव्यादिचतुष्टयमवतारणीयमित्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्य ( सू० ५१) व्याख्या कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्मन्थीनां वा पूर्वस्यां दिशि यावदङ्गमगधान् एतुं विहर्तुम्, अङ्गो नाम-चस्पाप्रतिबद्धो देशः दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बी, पर्व प्रतीच्यां दिशि स्थूणाविषयं यावदेतुम् उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावदेतुम् सूत्रे पूर्वदक्षिणादिपदे यस्तृतीयानिर्देशो लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् एतावत्तावत्क्षेत्रभवधीकृत्य विहतु कल्पते । कुत इत्याह-पतावत्तावदस्मादार्यक्षेत्रं नो 'से' तस्य निर्मन्थस्य वा निर्ग्रन्थ्या वा कल्पते, अत एवंविधात् श्रार्यक्षेत्रात् बहिर्विहर्तुं ततः परं बहिर्देशेषु यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राणि उत्सर्पन्ति - स्फीतिमासादयन्ति तबविहर्त्तव्यम् । इतिः परिसमाप्तौ प्रवीमीति तीर्थकरगणधरोपदेशेन न तु स्वमनीषिकयेति सूत्राऽर्थः । वृ० १ उ० ३
प्रक० ।
(२८) केदं सूत्रमुक्तम् । अथेदं सूत्रं भगवता यत्र क्षेत्रे यं व कालं प्रतीत्य प्रशतं तदेवाह -
सायम्मि पुरवरे, सभूमिभागम्मि वद्धमाणेण । सुत्तमियं पष्पतं, पडुच तं चैव कालं तु ॥ १११० ॥ साकेते पुरवरे उद्याने समवसृतेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना सूत्रमिदं तमेव वर्त्तमानं कालं प्रतीत्य निर्मन्थ-निर्मन्थीनां पुरतः प्रशप्तम् ! कथमित्याह
मगहा कोसंबी य, धूणाविस कुणालविस य । साविहारभूमी, एतावताऽऽरियं खेत्तं ।। ११११ ॥
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विहार अभिधानराजेन्द्रः।
बिहार अस्मात्-साकेतात् पूर्वस्यां दिशि कौशाम्बीविषयम् , अप नाऽणुव्रताः एते सुविहितानां-साधूनामभिग्रहान् जानरस्यां दिशि स्थूणाविषयम् , उत्तरस्यां दिशि कुणालावि- न्ति । अभिग्रहा यथा-इत्थमाहारादिकममीषां कल्पते इत्थं षय, यावद् ये देशाः एतावदार्यक्षेत्र मन्तव्यम् । अत एव च न कल्पते । अथवा-अभिग्रहा द्रव्यक्षेत्रकालभावविसाधूनामेषा बिहारभूमिः । इतः परं निर्ग्रन्थनिन्धीनां विहर्त शेषाः प्रागुक्तस्वरूपास्तान् शात्या ते संमिश्रावकास्तथैव अकल्पते । पृ०१ उ० ३ प्रक०।।
प्रतिपूरयन्ति । एतैः कारणैरार्यजनपदे बिहारः कर्त्तव्य इति (२६) अथाऽऽर्यक्षेत्रविहारकारणमाह
वाक्यशेषः । यद्यार्यक्षेत्राद्धहिः ततश्चत्वारःअनुद्याता मासाः जम्मणनिक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमानो।
प्रायश्चित्तम्। भवणवइवाणमंतर-जोइसबेमाणिया देवा ।। १११५ ॥ प्राणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिQतो। इहाऽऽर्यक्षेत्रे भगवतां तीर्थकृतां जन्मनिष्क्रमणयोश्चशब्दात् एतेण कारणेणं, पडुच्च कालं तु परमवणा ।। ११२०॥ झानोत्पत्ती च भवनपतिवाणमन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा
श्राक्षादयश्च दोषा बिराधना चात्मसंयमविषया। तत्र च महिमाः-सातिशयपूजाः कुर्वन्ति. ताश्च रष्ट्वा बहवो खुद्धा
स्कन्दकाचार्येण दृष्टान्तः कर्तव्यः । अत एतेन कारणेम विबुध्यन्ते-प्रवज्यां प्रतिपद्यन्ते, अचिरप्रवजिताः अपि स्थि
बहिर्न गन्तव्यम् , एतद्भगवद्बर्द्धमानस्वामिकालं प्रतीत्योरतरा भवन्ति ।
नम् । इदानीं तु सम्पति नृपतिकालं प्रतीत्य प्रज्ञापना क्रिउप्प णाणवरे, तम्मि अणते पहीणकम्माणो। यते, यत्र यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्युन्सप्पन्ति तत्र तत्र वितो उवदिसंति धम्म,जगजीवहिया य तित्थकरा।१११६।
हर्त्तव्यम् । तस्मिन् देशे अनन्ते-अपर्यवसिते शानवरे-मतिश्रुता
अथ स्कन्दकाचार्यदृष्टान्तमाहदिशेषज्ञानप्रधाने केवलाऽऽख्ये उत्पन्ने-तदाचारककर्मक्षया- दोच्चेण अागतोखं-दएण वादे पराजितो कुवितो। दाविर्भूते सति प्रहीणकर्माणः-प्रक्षोणघातिकौशास्तीर्थ
खंदय दिक्खा पुच्छा,णिवारणाऽऽराहपव्यजा।।११२१॥ करास्ततो शानोत्पत्त्यनम्तरं धर्म-श्रुतचारित्ररूपं जगज्जीव. हितायोपदिशन्ति ।
उजाणाऽऽयुधणूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुव्वं । लोगच्छरयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं। थंभविरिको णिदाणं, कंबलदाणे रयोहरणं ॥११२२॥ संसय वागरणाणिय य,पुच्छति तहिं जिणवरिंदो१११७॥ अग्गिकुमारुत्रवातो, चिंता देवी, चिण्हरयहरणं । लोकस्य-मनुष्यलोकस्याश्चर्यभूतं विस्मयकारि देवाना खेयण सपरिसदिक्खा, जिणसाहर वातडाहो य।।११२३॥ मुत्पतनं निपतनं च दृष्ट्वा बहवो जीयाः प्रतिबुद्धधन्ते तथा देवमनुष्यतिर्यगरूपाः असत्ययाः संशिनः स्वस्वसंशयानां
कथा-"सावत्थी नयरी जियसनू राया धारणी देवी तेसि ध्याकरणानि निर्वचनानि जिनवरेन्द्रान् तत्रार्यजनपदे पृच्छ
तु पुत्तो खंदतो कुमारो युवगया, भगिणी से पुरन्दरजसा । न्ति, भगवन्तोऽपि च सातिशयत्वात्तपामसंख्येयानामपि यु.
सोय खंदतो सावतो अभिगतो, इओ य उत्तराबहे पश्चयंता गपदेव संशयानुन्मूलयन्ति ।
कुंभकारकडं नगरं. दंडती राया तस्स दोहितो पालतो। सा
पुरन्दरजसा दंडतिस्स रना दिना अन्नया पालयदतो पागतो अपि च--
खंदयकुमारेण रायपरिसाए वाए पराजिओ पट्टो से विय समणगुणविदुत्थ जणो, सुलभो उवधी सततमविरुद्धो।।
सविसयं गतो। खंदतो पंचहिं सरहिं सद्धि पब्बाओ मुगिस प्रारियधिसयम्मि गुणा,णाणचरणगच्छवुड्डी या१११८। व्ययसामिणो अंतिए.तस्सव ते सीसा जाया । अन्नया तिरथभ्रमणगुणा-मूलोत्सरगुणरूपाः, तब पश्च महावतानि मूल
यरं प्रापुच्छति-पंवहिं सपाहि सद्धि कुंभकारकर वचामि,मगुणाः उद्गमोत्पादनेषणादोषाः विशुद्धिरणादशशीलासह
गवया वारितो मोवसगंति, पुणा पुच्छति-भाराहया, तुम स्राणि चोत्तरगुणान्ताः, वेत्ति-जानानीति श्रमणगुणवित्
मो सेसा पागहया,एवं सोगती कुंभकारकडं,तस्स उखाणे रिशोऽत्रार्यजनपदे जनो-लोकः अत्र चौपधिरोधिक उप
ठितो पालगण य दिट्ठा । ताहे तेणं पुब्बवेरेणं दंडती बुग्गाप्रहिका स्वतन्त्रेण--स्वसिद्धान्तोक्न प्रकारेण विसुद्धो-1
हितो । एस पर्गसहपराजितो पंवाहें सरहिं सद्धिं तब रजं दूषितः सुलभः-सुखेनैव लभ्यते, पते प्रायविषये विहरतां
पेन्छेहिनि.सोयन पत्तिया । ताहेऽण पाउहाणि अग्गुगुणा भम्ति । तथा ज्ञानस्य चरणस्योपलचरणस्वादर्शनस्थ
जाणे ठवियालि । दसेऊय बुग्गाहितो। तो भणति-तुमं वाज वृद्धिर्भवति व्याधाताभायोजानवशनचारित्राणि स्फी वेव से अंजामसितं करोहितेष पुरि सज्जकंठं कयं, सम्वे तिमुपगच्छन्तीति भावः । गच्छस्य वान वृशियति बानां पारडा चिनिबिंदपण भणिय ममं पदम मारेहिाताहे सोभभव्यजन्तूनां प्रप्रयाप्रतिपत्तिः।
पनि-तुम पिच्छाहिताय सीसे वहिजंते, एवं ते सम्वे वहिएत्थ किर समि सावग,जाति अभिग्गहे सुविहियाणं ।
या, सिद्धे यापमा खस्यस्स बद्धस्स रुहिरविरिकाहि य
सियमाणस्स सासमु य खंडिजंतेसु असुहो परिणामो पतेहि कारणेहि,विहिगमखे होंतऽणुग्याया ।।१११६।।
स्थाया ॥रररला जातो. नेण नियाखयं कयं । अग्गिकुमारेसु उवउत्तो,भगिणीअत्र किलार्यक्षेत्रे संशा-गुरुदेवधर्मपरिवानं सा विद्यते |ए से बलरय दिनं । ततोहिंतो रयहरण कवं, तं रुहिरायेषां से सशिनः- भघिरतसम्यगडएयः थावकाः प्रतिप-। यलिसाणेदिय मंसं ति काउंगहियादेवीए अम्गतो पाडिय।
३३०
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(१३१८) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार कतो एय रयहरणं. किं मम भाया मारिओ ? ति । तीए राया गन्तुं वारयति ततः किमङ्ग! पुनरविहमनध्वानम् , जनपदे भणितो अहो विणट्ठोऽसि । ताहे सो अग्गिकुमारसु पज्जत्तो सुतरां रात्रौ गन्तुं न भवतीति भावः । अनेन सम्बन्धेनाजातो। ताहे नगरस्स सव्वतो जोयणपरिमंडले जं किंचि यातस्यास्य(सू०४७)व्याख्या नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रतह वा कटुं वा तं सारिउ दहं सजणवयं नयरं । सो जण- न्थीनां वा रात्रौ विकाले वा अध्वगमनम् एतुमिति सूत्रार्थः । वो अणेण सपुत्तदारओ सह सुयणेणं कुम्भीए पक्को. पुरं
अथ भाष्यविस्तर:दरजसा य मुणिसुब्बयतिन्धयरपायमूले साहारिया सपरि
इहरह वि तान कप्पड़, अद्धाणे किंतु रायविसयम्मि। सा"। श्रथ गाथाक्षरयोजना-श्रावस्त्यां पालको दौत्येनागतः, सच वादे स्कन्दकेन पराजितः। ततोऽसौ तस्योपरि कुपितः।
अत्थाऽऽवत्ती संसइ, कप्पइ कजे दिया नूणं ॥६६॥ इतश्च स्कन्दकस्य सुव्रतस्वामिपाश्वे दीक्षा अधीतसूत्रार्थस्य
इतरथाऽपि तावन्न कल्पते अध्वानं गन्तु, किंतु-किं पुना तस्यान्यदा भगवतां समीप पृच्छा, बजाम्यहं कुम्भकारकृतं
रात्रिविषये तत्र सुतरां न कल्पते । यतश्च सूत्रं रात्रिविषयं नगरम् ,भगवता तु मोपसर्गमिति भणित्वा निवारणा कृता।
प्रतिषेध विधत्ते, अतोऽर्थापत्तिः सामर्थ्य गम्या, सा वै तथा त्वदर्जाः सर्वेऽप्याराधका इति च भवन्ति । ततस्तं कु
शंसति-कथयति, नूनं ज्ञायते दिवा कार्ये शानादौ समुत्पने म्भकारकृतपुरमागच्छन्तं श्रुत्वा पालकेन यत्रोद्यानेऽसौस्थितः
अध्वानमपि गन्तुं कल्पते । तत्रायुधानां 'यूमण'त्ति प्रच्छन्नं स्थापना कृता । ततो नृप
अध्वानमेव भेदतः प्ररूपयवाहस्य कथना यथैष परीषहपराजितस्त्वां मारयित्वा त्वदीयं रा. अद्धाणं पि य दुविहं, पंथो मग्गो य होइ नायब्बो । ज्यमधिष्ठास्यतीत्यादि, ततो राज्ञः कोपोऽभवत् , भणितं च ।
पंथम्मि नत्थि किंचि वि, मग्गो सग्गामे गुरुआणा८६७ यत्ते रोचते तदमीषां कुरुष्वेति । ततस्तेन पुरुषयन्त्रं कृत्वा पीडयितुमारब्धाः साधवः, स्कन्दकेनोक्नं पूर्व मां यन्त्रम
अध्वा द्विविधस्तद्यथा-पन्थाः, मार्गश्च । पन्थाः नाम-यत्र ध्ये प्रक्षिप। ततस्तेन पापाऽऽत्मना स्कन्दकस्य स्तम्भे गाढ
ग्रामनगरपल्लीवजिकानां किञ्चिदेकतरमपि नाऽस्ति , यत्र तरं बन्धनं कृतं, ततो निपीड्यमानसाधुसम्बन्धिनीभिः शो
पुनामानुग्रामपरंपरया वासो भवति स ग्रामो मार्ग इति णितविरक्ताभिः सिक्नेन स्कन्दकेन निदानं कृतम् । भगिन्या
उच्यते । द्वयोपि रात्री गच्छतश्चत्वारो गुरुकाः, दिवा तु च तस्य कम्बलरत्नदानं कृतमासीत् ,तेन च रजोहरणं कृतम्।
पथि चतुर्गुरवः, मार्गे चतुर्लघवः, श्राक्षादयश्च दोषाः । स्कन्दकस्य च विपद्याग्निकुमारपपातः, ततो रजोहरणं तं पुण गामिज दिवा, रत्तिं वा पंथगमणमग्गो वा । शोणितलिप्तं चिह्नमवलोक्य देव्याश्चिन्ता नूनमपद्रावि
रत्तिं आएसदुगं, दोसु वि गुरुगा य आणादी ।।८६८|| ताः साधवः पापात्मनेति । ततः प्रभूतं राज्ञः पुरतः खेदनं ततः सपरिषदः सपरिवारायास्तस्या दीक्षादापनार्थ जिन
स पुनरध्वा दिवा गम्यते, रात्रौ वा । तश्चोभयमपि गमनं
पथि वा मागै वा स्यात् । तत्र रात्रिशब्दे आदेशद्वयम् । केसमीपे संहरण-नयनं संवर्तकवानं विकुळ सकलस्याऽपि
चिदाचार्या त्रुवते ससन्ध्या यतो राजते-शोभते तेन निरुपुरस्य दाहो-दहनम् । यत एवमादयो दोषाः श्रतो नाऽनार्य
क्रिरीत्या रात्रिरुच्यते, यस्तु संध्याया अपगमः स विकालः। क्षेत्रे विहर्त्तव्यम् । वृ०१ उ०३ प्रक० । (यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्युत्सर्पन्ति तत्र विहर्त्तव्यमिति यदुनं तद्विषय
अन्ये तु ब्रुवते-यतः सन्ध्याया अपगमे चोरपारदारिकाकाभिधानं संपइ' शब्दे वक्ष्यते।)
दयो रमन्ते ततोऽसौ रात्रिगित परिभाष्यते, सन्ध्यायां तु
यत एते विरमन्ति ततः स विकालः पन्थानं वा यदि (३०) निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्री विकाले वा
रात्री विकाले वा गच्छति तदा द्वयोरपि चत्वारो गुरवः, विहारनिषेधः
आशादयश्च दोषाः । इयमन्याचार्यपरिपाट्या गाथा ततो न नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राम्रो वा वि-|
पौनरुक्त्यम्। याले वा अद्भाणगमणं पत्तए॥४७॥
- तत्र मार्गे तावदोषानुपादिदर्शयिषुराहअथास्य सूत्रस्य का सम्बन्ध इत्याह
मिच्छत्ते उडाहो, विराहणा होइ संजमाताए । हरियाइडिअढाए, होज्ज विहे माइयं न वारेमो। रीयाइ संजमम्मि, छक्काय अचक्खुविसयम्मि १८६८॥ जं पुण रत्तिं गमणं , तदट्ट अबऽदु वा सुत्तं ॥८६४॥ रात्रौ मार्गे गच्छतः साधून रष्ट्रा कश्चिदभिनवधा मिविहे-अध्वनि गच्छतां हताहतिकार्थमेवमादिकं पल्लीगमन- ध्यात्वं गच्छेत् , उड्डाहो वा भवेत् . षिराधना संयमाऽऽत्मप्रभृतिकं भवेत् , न वयं तद्वारयामः, यत्पुना रात्रावध्वनि ग-।
विषया भवेत् । तत्र संयमविराधना-गीतार्थाः समितिप्रभूमनं तदर्थ-हताहतिकानिमित्तम्, अन्यार्थमन्येषां शानादि-| तिकाः ईर्यासमितीन शोधयन्ति, रात्रौ वा चक्षुरविषये षट्कारणानामर्थाय तत्र सूत्रमवतरति, तन्न कल्पते इति भावः। काया विराध्यते एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। अहवा तत्थ अवाया, वच्चंते होज्ज रत्तिचारिस्स।
साम्प्रतमेनामेव सविस्तरं विवृणोति
कि मम्मे निसि गमणं, जतीण सोहिंति वा कथं इरियं । जह वा विहं विरत्ति,वारितिविहं किमंग! पुणो।८६६) अथवा तत्रा-स्वनि वजनां यो रात्रिचारी-रात्री गमनशी जइवेसेण व तेणा, वडंति गमणाइउडाहो ॥६००॥ लस्तस्य संयमात्मप्रवचनविषया बहवः प्रत्यपाया भवेयुरिति अमीषां-परलोककार्योधतानां यतीनां किमर्थे निशि-रात्री रात्री गमनं च धार्यते यदि च-बिहमप्यध्धानमपि रात्रौ । गमनम् । किं मन्ये दुपचित्ता अमी,कथं वा रात्रावटन्तोऽमी
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विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार ईया शोधयन्ति । यथा चैतदसत्य तथा सर्वमप्यमीषामस- विध्येत । आत्मसमुत्थं स्तेनादिना वा अहेतुविराधनस्वचित्त. त्य मिथ्यात्वं स्थिरीकृतमुत्पादितं वा भवति, तथा यतिवे-] विकल्पेनोत्प्रेक्षितमकस्माद्भय रात्री मार्गे गच्छतो भवेत् । घेण नूनममी स्तेनाः पर्यटन्तीतिकृत्वा ग्रहणाऽऽकर्षणादिप
अथात्रैव द्वितीयपदमाहदेषु विधीयमानेषु महान् प्रवचनस्योडाहो भवेत् ।
कप्पड गिलाणगट्ठा, रर्ति मग्गे तहेव संझाए । संजमविराहणाए, महव्वया तत्थ पढमछक्काया।
पंथो य पुन्वदिट्ठो,पारक्खिउ पुबभणिो य ।।०६॥ बिइए अतेण तेणं, तइए ऽदिनं तु कंदाई ॥१०॥
ग्लानो-रोगातः स एकस्माद्रामाज्ञामान्तरं नेतन्यो, यद्वा. संयमविराधना द्विविधा-मूलगुणविषया, उत्तरगुणविषया |
ग्लानः कश्चिदपरत्र ग्रामादौ सञ्जातः, तदर्थं तत्र गन्तव्यम् । वा। मूलगुणविषयायां व्रतानि विराध्यन्ते,तत्र प्रथमे महाव्रते एवं ग्लानार्थ रात्री वा सन्ध्यायां वा मार्गे-गन्तुं कल्पते, येन रात्रावचक्षुर्विषयतया षट्रायाः पृथिव्यादयो विनाशमश्नुवते च यथागन्तव्यं स च पूर्वमेव दृष्टः प्रत्युपेक्षितो यथा भवति द्वितीये रजन्यामयं स्तेन इति भाषेत् .तृतीये कन्दमूलादिकम- तथा कर्तव्यम् , आरक्षिकश्च पूर्वमेव भणितव्यो यथा वयं दत्त-स्वामिना अवतीर्ण गृह्णीयात् ।
ग्लानकारणेन रात्रौ गमिष्यामः भवद्भिर्न किमपि छल अथवा
ग्रहीतव्यम् ,एवमुक्ने तेनानुसाते सति गच्छन्ति । गतं मार्गदिय दित्ते वि सचित्ते, जइ तेनं किमुय सबरीविसए ।। द्वारम् । जेसिं च ते सरीरा, अविदिन्ना तेहि जीवेहिं ॥६०२॥
अथ पथिद्वारमाहयद्वा-कन्दादिकं स्वामिना दत्तं गृह्णाति तथाऽपि सचिस- दुविहोय होइ पंथो, छिन्नद्धाणतरं अछिन्नं च । मिति कृत्वा जिनैस्तीर्थकरैर्नानुशातमिति दिवाऽपि स्तन्य
छिन्नम्मि नत्थि किंचि,अछिन्नपल्लीहि वइगाहिं।।१०७॥ भवति, किं पुनः शर्वरी-रात्रिस्तद्विषये, तदा गोचरी गृढतः 'जेसिं'येषां जीवानां तानि कन्दादीनि शरीराणि तै वैर.
द्विविधश्च भवति पन्थाः, तद्यथा-छिनाध्वान्तरम् , अवितीर्णानि गृहतः तृतीयव्रतभङ्गो भवति ।
च्छिमाध्वान्तरं च । छिन्न-ग्रामादिरहितमध्वलक्षण, यदन्त
रमपान्तरालं, तद्विपरीतमच्छिन्नाध्यान्तरम् । तत्र छिन्ने पथि पंचमे असणादी, छडे कप्पो व पढमबिइया वा।
ग्रामनगरपल्लीवजिकानां किञ्चिदेकतरमपि नाऽस्ति सर्वथैव भागवोत्तिय जातो,अपरिणतो मेहुणं पि वए।।६०३॥ शून्यत्वात् , यः पुनरच्छिन्नः पन्थाः स पल्लीभिर्वजिकाभिर्वा पञ्चमे महावते अनेषणीयमादिशब्दाद-पाकीर्णविकीर्ण युक्तो भवति । हिरण्यादिकं च गृह्णतः परिग्रहो भवति, षष्ठे रात्रिभक्तवते
छिन्नेण अछिन्नेण यरत्तिं गुरुगा य दिवसतो लहुगा । अध्वकल्प भुजीत 'पढमबीए व' त्ति प्रथमपरीषहाऽऽतुरो वा
उद्ध)हरे पवजण, सुद्धपदे सेवती जं च ।।६०८॥ रजम्यां भुञ्जीत वा पिवेद्वा । एवं षष्ठव्रतविराधना । ततश्चभनवतोऽहमिति बुद्धा मैथुनमपि व्रजेत्-सेवेत । यद्वा-यो
अनन्तरोक्नेन छिन्नेन वा अच्छिन्नेन वा पथा व्रजतो रात्री ऽद्याप्यपरिणतः स साथै व्रजति सति कायिक्यादिनिमित्त- चतुर्गुरुकाः, दिवा गच्छतश्चतुर्लघुकाः, अत एव यत्रोर्बुदराः मपसृतः सन् कांचिदविरतिकामप्यपस्तां विलोक्याल्पसा
पूयन्ते तत्र यद्यध्यानं प्रतिपद्यन्ते तदा शुद्धपदेऽप्येतत् गारिके प्रतिसेवेत । भाविता मूलगुणविराधना ।
प्रायश्चित्तम् , यच्चाकल्पनीयादिकं किमपि सेवते तनिष्पन्न उत्तरगुणविषयां वदति
पृथक प्रायश्चित्तमापयते। इरियादिसोहि रत्ति, भासाए उच्चसहवाहरणं ।
इवमेव स्वस्तरमाह
उद्धहरे सुभिक्खे, खेने विरुवाहवे सुहविहारे । न य आदाणुस्सग्गे, सोहए काइ ठाणाई ॥६०४॥ रात्रावीर्यादीनां समितीनामशोधिर्भवति, तत्राचपुर्विषय
जइ पडिवअइ पंथ,दणेशपरंनभन्नणं ॥ ६०६॥ त्वेनेर्यासमितिपथो विप्रनष्टानां साधनामुपशब्देन व्याहरणं
ऊर्बदरे अनन्तरोक्ने सुमिने-सुसममै क्षेमे स्तेनपरचकाकुर्वन् भाषासमितिमुपलक्षणत्वादुदकाद्राविमपश्यनेषणास
विभयरहिते, निरुपद्रवे-नाशिवायुपद्रवर्जिते सुखविहारेमिति तथा अप्रत्युपेक्षिते 'ठाणाइ 'ति-स्थाननिषदनादीनि |
सुखेनैव मासकल्पविधिना विहर्तुं शक्ये एवंविधे जनपदे कुर्वचादाननिक्षेपसमितिमस्थरिडले 'कार' ति कायिकी सोत यदि पन्थानं वा प्रतिपद्यते। कथमित्याह-परं केवलं म्युत्सृजन उत्सर्गसमिति च न शोधयति । एषा सर्वा संय
दर्पण देशदर्शनादिनिमित्तं न ज्ञानादिना पुष्टालम्बनेन । मविराधना।
ततः किं भवतीत्याहअथाऽत्मविराधनामुपदर्शयति
प्राणा न कप्पद त्ति य, प्रणवत्थपसंगताएँ गणणासो । वाले तेणे तह सा-बए य विसमे य खाणुकंटे य।।
वसणादिसमावणे, मिच्छत्ताऽऽराहणा भणिया ॥१०॥
आशा-न कल्पते अध्वानं गन्तुमितिलक्षणा भगवतां-विमाकम्ह भय समुत्थे, रत्तिं मग्गे भवे दोसा ।। ६०५।
राधिता भवतीति, अनवस्था-यद्येष-बहुश्रुतोऽप्येवमध्वारात्री मार्गे गच्छतः एते दोषाः, व्यालेन-सादिना दश्येत, नं प्रतिपद्यते ततः किमहं न प्रतिपद्य एवमनवस्थातः प्रस्तेनैरुपकरणं संयतो वा हियेत, सिंहादिभिर्वा श्वापदैरुप | सकेन-परम्परया सर्वस्याऽपि गणस्य नाशश्चारित्रव्यवच्छेयेत् , विषमे वा निम्नोन्नते प्रपतेत्, स्थाणुना वा कारकैा। दः प्राप्नोति । तथा अध्वानं प्रतिपत्रः सन् सदा व्यसनं
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(१३२०) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार द्रव्याचापदम् प्रादिशब्दादपरं वा कमपि प्रत्यपायं समा- अपरीणामगमरणं, अइपरिणामा य होइ नि(च्छ त्थका। पन्न.-प्राप्तो भवति, तथा मिथ्यात्वस्याऽऽराधना-अनुष
निग्गयगहणे चोइय, भणंति तइया कहं कप्पे ॥१५॥ अना भणिता , तथाहि-साधून मध्वनि व्यसनाविसमापना
तत्राध्यनिगमछतामेषणीयाऽलाभे पञ्चकम्, यदि यतनयाs. म् दृष्ट्रा लोको घूयात्-अहो अमीषां तीर्थकरेगनदपि न
नेषणीयमपि गृह्यते तचापरिणामको न गृहाति भगृहारष्टं यदेवविधो बहुप्रत्यपायः पन्था न प्रतिपत्तव्यः। अथ विरा धना भाव्यते । सा च द्विधा-आम्मान, संयमे च ।
नस्य तस्य मरणं भवेत् । ये पुनरपरिणामकास्ते अकल्पनी
यग्रहणं रहा 'नि(स्थ)च्छक्का' निलजा भवन्ति. ततश्चाध्वतत्राऽऽत्मविराधनामाह
नो निर्गताः सन्तोऽकल्पग्रहणं कुर्वाणा गीताधः प्रतिनोबायखलुवायकंडग-पावडणं विसमखाणुकंटेसुं ।
दिता आर्या ! मा गृहीध्यमकल्पम् । ततस्ते-जुषते तदा - वाले सावयतेणे, एमाइ हवंति प्रायाए ।। ६११ ।। ध्वनि वर्तमानानां कथमकल्पत-कल्पनीयमासीत् । अध्यानं गच्छतः खलुका-जानुका, जानुकादिसन्धयो वा
तेणभयोदककजे, रत्ति सिग्धगतिं दूरगमणे वा। तेन गृह्यन्ते 'वायकंडय'त्ति जतायां वातने करटका उत्तिधन्ते, विषमे वा स्थाणौ या आपतनं-प्रस्खलन भवति, क
वहणावहणे दोसा, बालादी सनविद्धे य ॥ ६१६ ॥ एटका वा पादयोर्लगेयुः, व्याला वा श्वापदा या उपद्रवेयुः। स्तनभये दराडचिािलिकां विना उदककायें चर्मकएवमादिका आत्मविराधना मन्तव्या।
रकं गुलिका खोलिकां विना यत् प्राप्नुवन्ति रात्री संयमविराधना नाम
सार्थवशेन शीघ्रगती दूरगमने वा उपस्थिते, तलिकाभिछकायाण विराहण, उवगरणं बालवुड्सेहा य ।
विना बालवृद्धादयः प्रपतन्ति तान् यदि कापोतिकया
वहन्ति तदा स्वयं परिताप्यन्ते । अथ कापोतिकया न वहपढमेण व चिइएणव, सावयतेणा य मिच्छा य ।।१२।।
न्ति ततस्ते परिताप्यन्ते । शल्यविद्धाः शस्त्रकोशकेन बिना अस्थण्डिले स्थाननिषदनादि कुर्वन् पृथिव्यादीनां पराणां
शल्ये अनुध्रियमाणे परितापनादिकं प्राप्नुवन्ति तम्निष्पन्न कायानां घिराधनां करोति, उपकरणं नन्दीप्रतिग्रहादि गृ
प्रायश्चित्तम् । यत एवमतो निष्कारणे अध्वा न प्रतिपत्तव्यः। काति, ततो भारेण वेदनादयो दोषाः । अथ न गृह्णाति तत उपकरणेन विना यत्प्राप्नुवन्ति तनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् । बाल
कारणे तु प्रतिपद्यमानानामयं क्रमःवृद्धशैक्षाश्च प्रथमेन वा द्वितीयेन चा परीषण परिताप्यन्ते,
बिइयपयगम्ममाणे, मग्गे असती य पंथे जतणाए । साधयो वा श्वापदेभयन्ते, स्तेनैरुपकरणमपहियते, म्लेच्छा
परिपुच्छिऊण गमणं. अछिमे पल्लीहि वहगाहि।।१७।। घा शुल्लकानपहरेयुर्जीविताद्वा व्यपरोपयेयुः।
द्वितीयपदे अध्यनि गम्यमाने प्रथम मार्गेण, मार्गस्याअथोगकरणपदे विशेषतो व्याख्यानयति
सति पथि, पथाऽपि यतनया गन्तव्यम् । तत्र च जनं परिपृउबगरणगएहणोभा-रवेदणा तेणगम्मि अहिगरणं ।। च्छय यः पल्लीभिर्वजिकाभिर्वा अच्छिन्नः पन्थाः तेन गमनं रीयादिअणुवोगो, गोम्मियभरवाहउडाहो ॥१३॥
विधेयम् , तदभावे छिन्नेनाऽपि । वृ०१ उ०३ प्रक०। (आगा
ढविषयः 'आगाढ' शब्दे द्वितीयभागे ८६ पृष्ठे गतः।) उपकरण-नन्दीप्रतिग्रहाध्वकल्पगुणिकादि यदि गृहन्ति ततो भारेण महती वेदना ज्ञायते, बहूपकरणाश स्तेनानां
अथ भागादविषये कर्तव्यता स्पष्टयतिगम्या भवन्ति । एतेषु चापकरणेषु असंयतेन परिभुज्यमा- असिवे अगम्ममाणे, गुरुगा नियमा विराहणा दुविहा । नेषु अधिकरणं, भाराकान्तानां च, यदि वा-अनुपयागो भ
तम्हा खलु गंतव्वं, विहिणा जो वलियो हेट्ठा॥२७॥ धति, बहुपकरणान् वा रष्ट्वा गौल्मिकाः-स्थानपाला उपद्र- अशिव समुत्पचे सति यदि न गम्यते ततश्चत्वारो बेयुः. लोको वा यात्-अहो बहुलो लोभो भारवहाच एते
गुरवः , तत्र च तिष्ठतां नियमात् द्विविधा संयमाऽऽमनो एवमुडाहो भवति ।
विषया यात्मनः परस्य चेति विराधना । यत एवं तस्मा(३१) अथैतहोषादुपकरणमुज्झन्ति ततो यत्नेन विना
त् खलु-निश्चितं विधिना गन्तव्यम् । कः पुनर्विधिरित्याहयत्प्राप्नुवन्ति तनिष्पनं प्रायश्चित्तम्
योऽधस्तादोघनिर्युको "संवच्छर वारसए. ण होहि असिवं चम्मकरगसत्थादी, दुलिंगकप्पे अचिलिमिणिभगहणे।। ति ते तो विति" इत्यादि गाथाभिर्वर्मितः। शेषाण्यप्यबतसविपरिणमुहाहो, कंदाइवधो य कुच्छा य ॥१४॥
मौदर्यादीनि निदानानि यथैवौघनियुक्तौ तथैव वक्तव्यानीति । पूर्वार्द्धपश्चा पदानां यथासंख्येन योजना कार्या, तद्यथा
उवगरण पुरुषभणियं, अप्पडिलेहिंति चउगुरुम प्राणा। चर्मकरकं यदि न गृहन्ति ततस्त्रसानां--पूतरकादीनां वि- भोमाणपंत सत्थिय, अतिपतिय अप्पपत्थयणे।। ६२१ ।। राधना, शस्त्रकोशस्यादिशब्दात्-गुलिकाखालादीनामग्रहण उपकरणं पूर्वभणितं चर्मकरकादिकं तदगृहानस्य चतुकण्टकादिशल्यविद्धानां शैक्षादीनां च विपरिणामो भवति, गुरुकाः, सार्थ या यदि न प्रत्युपेक्षन्ते तदापि चतुर्गुरवः, लिङ्गद्वयं-गृहिलिङ्गम् , अन्यपाषण्डिकलिकंच। तयोरुपक- प्रासादयश्च दोषाः । सार्थः कदाचिदवमानेन स्वपक्षपरपरणे अगृहामाणे स्वलिङ्गनेव रात्रौ भक्तग्रहणे पिशिताऽऽ- शकतेनातीवोद्विजितो भवेत् , यद्वा-सार्थिका अतिप्राविग्रहणे वा उडाहः स्यात् , अध्यकरूपं विना कम्पमूलादी- स्तिका वा सार्थचिन्तकाः प्रान्ताः भवेयुः अल्पपथ्यदनो मां वधो भवति, चिलिमिलिकाया अग्रहणे उज्ज्वल्या भु- वा-स्वल्पशम्बलः स सार्थः । अत एतद्दोषपरिहारार्थ सार्थी बानान् विलोक्य जनो जुगुप्सां कुर्यात् ।
प्रत्युपेक्षितव्यः।
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(१३२१) विहार अभिधानराजेन्द्रः।
विहार कथं पुनरित्यत्रोच्यते
___तत्र द्रव्यतः प्रत्युपेक्षणां तावदाहरागद्दोसविमुको, सत्यं पडिलेहि सो उ पंचविहो।। अणुरंगाऽऽई जाणे, गुच्छाऽऽई वाहणे अणुनवणा । भंडी वहिलग भर वह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो ।।२२।। धम्मु त्ति वा भईय व,बालादि अणिच्छ पडिकुट्ठा ६२७ रागद्वेषविमुक्तो नाम यस्य गन्तव्ये न रागो, यदि वा-न
अनुरङ्गाः-घसिकास्तदादीनि यानानि गवेषणीयानि, प्राद्वेषः स सार्थः प्रत्युपेक्ष्यते । पृ०१ उ० ३ प्रक०। ( स सार्थः
दिशब्दात्-शकटादिपरिग्रहः, वाहनानि-गुण्ठादीनि गुण्डो पञ्चविधः, इति 'सत्थ' शब्दे वक्ष्यते ।)
नाम-घोटको महिषो वा प्रादिशब्दात्-करभवृषभादिअथैनामेव गाथां विवृणोति
परिग्रहः । एतेषां यानानां वाहनानां वा सुज्ञापना कर्तव्या, गंतब्बदेसरागी, असत्थसत्वं पि जणति जे दोसा।
यथाऽस्माकं कोऽपि बालो वृद्धो दुर्बलो ग्लानः शल्यपियो
वा गन्तुं न शक्नुयात् स युष्माभिरनुरझादी वा प्रारोइसरो सत्थमसत्थं, करेइ अच्छन्ति जे दोसा ।।२३।।
हयितव्यः , यवं धर्म इति कृत्वाऽनुजानन्ति ततः यो गन्तब्ये देशे रागी स सार्थप्रत्युपेक्षकः कृतोऽसार्थ- सुन्दरम् । अथ नानुजानन्ति ततो भूत्या मूल्यनाऽपि मपि सार्थे करोति, ततः कुसार्थेन गच्छतां ये दोषास्ते यथाऽऽरोहयन्ति तथा प्रज्ञापयितव्याः। अथ मूल्येनाऽपि समापद्यन्ते । इतरो नाम-गन्तव्यदेशे दोषवान् स सार्थ- बालादीनामारोहणं नेच्छन्ति ततः प्रतिक्रुष्टाः-प्रतिषिद्धास्तैः मध्यसार्थ करोति, ततस्तत्राशिवादिषु सन्तिष्ठमानानां ये सह न गन्तव्यमित्यर्थः। दोषास्ते प्राप्नुवन्ति ।
अपि चउप्परिवाडी गुरुगा, तिसु कंजियमादिसंभवो होजा। दंतिक गोर-तिल्लग-गुलसप्पियमादिभंडभरिएसुं । परिवहणं दोसु भवे, बालादी सल्लगेलने ।। ६२४ ॥
अंतरवाघातम्मि व, तं देंति हए उ किं देंति ॥२८॥ उत्परिपाट्या यथोक्तक्रममुल्लवथ यदि सार्थेन सह
मोदिकभण्डिका शकटयादिकं यद्वहुविधं दन्तखाद्यकं तगच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकाः । किमक्तं भवति--भण्डीसार्थे
इन्तिकं 'गोर' ति-गोधूमाः तैलगुडी प्रतीतौ सर्पिःविद्यमाने यदि बहिलिकसार्थेन गच्छन्ति तदा चतुर्गुरु
घृतम् एवमादीनां भक्नभाण्डानां यत्र शकटानि भृतानि काः। श्रथ भण्डीसार्थो न प्राप्यते ततो वहिलिकसार्थेना
प्राप्यन्ते स सार्थो द्रव्यतः शुद्धः , यत एषमादिभाण्डभृऽपि गन्तव्य, तत्र विद्यमाने यदि भारवाहसार्थेन गच्छन्ति
तेषु शकटादिषु सत्सु यद्यप्यन्तरा-अपान्तराले व्याघाते वतदाऽपि चतुर्गुरवः । एवं भारवाहादिसार्थेष्वपि भावनीयम् ।
(नदीपूरादिकमुत्पद्यते तथापि तदन्तिकं ते सार्थिकाः तत्र चायेषु भराडीवहिलकभारवाहकसार्थेषु काधिकादिपा
स्वयमपि भक्षयन्ति , साधूनामपि च प्रयच्छन्ति । इतरथा नकानां सम्भवो भवेत् , द्वयोस्तु भएडीवहिलकसार्थयो
तेषामभावे किं ददति ?; न किमपीत्यर्थः । कलानामादिशब्दाद-वृद्धानां ग्लानानां च परिवहनं भवेत् ।
व्याघातकारणान्येव दर्शयति(३२) किं पुनः सार्थे प्रत्युपेक्षणीयमित्याह
चासेण णदीपूरे-ण वाऽवि तेणभयहत्थिरोधे य।
खोभो व जत्थ गम्मति,असिवं वेमादि वाघाता॥२६॥ सत्थं च सत्यवाहं, सत्यविहाणं च आदियत्तं च ।
सार्थस्य गच्छतोऽपान्तराल वागाढवर्षेण वा नदीपूरेण दव्वं खत्तं कालं, भावो माणं च पडिलेहे ॥ २५॥
वा बहुतरदिवसान् व्याघात उपस्थितः, अग्रतो वा स्तेसार्थ सार्थवाहं सार्थविधानम् श्रादियात्रिका द्रव्यं क्षे- नानां भयमुत्पन्न, दुष्टहस्तिना वा मागों निरुद्धः, यत्र वा अंकाले भावम् अवमानं च प्रत्युपेक्षत इति द्वारगाथा- नगरादौ गम्यते-गन्तुमिष्यते तत्र रोधको राज्यक्षोभो संक्षेपार्थः।
वा अशियमुत्पन्नम् , एवमादयो गमनस्य व्याघाता भवसांप्रतमेनामेव विवृणोति--
न्ति । ततश्च प्रस्थितेषु यद्यपान्तराले सार्थः सन्निवेश सत्थि त्ति पंचभेया, सत्थाहा अट्ट आइयत्तीय ।। कृत्वा तिष्ठति, तथा च सति कापि बहुविधवाचद्रव्य सत्वस्स विहाणं पुरा, गरिखमाइ चउब्विहं होई ॥२६॥ तासु गन्त्रीषु सुखेनैव साधवः संस्तरन्ति, मतस्तेन सह सार्थ इति पदेन भण्डीसाऽऽदयः पूर्वोक्ताः पञ्च भेदाः
गन्तव्यम्।
न पुनरीहशेगृहीताः, सार्थवाहाः पुनरौ, आदियात्रिका अप्ययौ, उभयेऽप्युत्तरत्र वध्यन्ते । सार्थविधानं पुनर्गणि
कुंकुमय अगरुएतं, चोयं कत्थूरिया य हिंगुं वा । मादि भेदाच्चतुर्विधं भवति । तत्र गगिम--यदेकद्वयादि- संखग लोणय भरिते, ण तेण सत्येण गंतव्वं ॥६३०॥ संख्यया गयित्वा दीयते, यथा हरीतकीपूगफलादि । ध- कुकुमम् अगरु-जगरपत्र 'चोयं' ति त्वक् कस्तूरिकाहि रिमं-यतुलायां धृत्वा दीयते, यथा--खण्डशर्करादि, मेयं- गुरेवमादिकमखाबद्रव्यं यत्र भवति; यश्च शंखन लवयत्पलादिना सेतिकादिना वा मीयते यथा--घृतादिकं वा । णेन वा भृतः-पूर्मः तत्राऽन्तरा व्याघाते समुत्पन्ने तिष्ठन्तः परिच्छेचं नाम-यातुपा परीक्ष्यते, यथा--वस्त्ररत्नमौक्ति- शम्बलसार्थिकाः किं प्रयच्छन्तु, यत एवमतरतेम तारकादि, एतचतुर्विधर्माप द्रव्यं भण्डीसादिषु प्रत्युपेक्ष- शेन सार्थेन सह न गन्तव्यम्। गला द्रव्यमा मयुपेक्षाला। णीयम् , तथा इपक्षेत्रकालभावैरपि सार्थः प्रत्युपेक्ष
अथ क्षेत्रकालभावेस्तामाहगोगा।
खत्ते जं वालाऽऽडी, अपरिस्ता वसतिगा । ३३१
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(१३२२) विहार
अभिधानराजेन्द्रः। काले जो पुव्वण्हे, भावें सपक्खादणोमाणं ।।६३१।। (३३) साम्प्रतमध्वानं प्रतीत्य भानुपदशेयतियावन्मात्रमध्वानं बालवृद्धादयोऽपरिश्रान्ता ब्रजन्ति-- सत्थपणए य सुद्धे, य पेन्बो कालकालगमभोगी। गन्तुं शक्नुवन्ति तावन्मात्रं यदि सार्थो व्रजति तदा सा
कालमकालट्ठाई, सत्थहेट्ठादियत्ती य ।। ६३७ ॥ र्थः क्षेत्रशुद्धः, तथा यः सूर्योदयवेलायां प्रस्थितः पूर्वाऽहे
सार्थपञ्चके-भण्डीसार्थो, वहिलकसार्थकश्च । अवमाने शुतिष्ठति अयं कालतः शुद्धः, यत्र तु स्वपक्षभिक्षाचरैरन
द्धो वा स्यात्प्रेरितो वा । यः शुद्धस्तेन गन्तव्यम् । तथा कालवमानं स भावतः शुद्धः।
गामिनोऽकालगामिनो वा , कालभोजिनोऽकालभोजिनो एकिको सो दुविहो, सुद्धो ओमाणपेनितो चेव ।।
पा, कालनिवेशिनोऽकालनिवेशिनो वा, स्थण्डिलस्थायिनोऽमिच्छत्तपरिग्गहितो, गमणे अदणे अठाणे य ॥३२॥ स्थण्डिलस्थायिनो वा, एते पश्चाऽपि सार्था भवेयुः। भएडीसार्थवहिलकसार्थयोर्मध्यादेकैको द्विविधः-शुद्धः, तथा अष्टौ सार्थवाहा अष्टौ वाऽऽदियात्रिकाः एभिः पदैः अशुद्धश्च । शुद्धो नाम-योऽनवमाने प्रेरितः, अवमाने प्रेरि- कियन्तो भङ्गा उत्तिष्ठन्ते इत्याहतोऽशुद्धः । सार्थवाह श्रादियात्रिको वा यो वा तत्र प्रधानः
एतेसिं तु पयाणं, भयणाए सयाइँ एक्कपत्रं तु । स यदि मिथ्यादृष्टिस्तदा समर्थो मिथ्यात्वपरिगृहीत इति कृत्वा नाऽनुगन्तव्यः' गमणे अदणे य ठाणे य'ति गमने-यः
वीसं च गमा नेया, एत्तो य सयग्गसो जयणा ।।६३८॥ सार्थों मुदुगतिः अच्छिन्नेन वा पथा ब्रजति, अदनं-भो- एतेषां पदानां संयोगेन भजनायां-भङ्गरचनायां विधीयमाजनं तद्वैलायां यस्तिष्ठति स्थान--स्थएिडले यो निवेश नायामेकपश्चाशत् संख्यानि शतानि विंशतिश्च गमा-भङ्गका करोति ईशः शुद्धः।
ज्ञेयाः एत्तो य सयग्गसो जयण' त्ति श्रार्षत्वादेषु शुद्धाअथ स्वपक्षपरपक्षाऽवमानं व्याख्यानयति
शुद्धेषु सार्थवाहाऽऽदियात्रिकेषु भद्रकमान्तेषु अल्पबहुत्व
चिन्तायां शताग्रशः-शतसंख्यामेदा यतना भवति । समणा समणि सपक्खो, परपक्खो लिंगिणो गिहत्था य।
अमुमेवाऽर्थ भाष्यकारः प्रकटयन्नाह-- आयोसंजमदोसा, असई य सपक्खवजेण ॥६३३॥
कालुटॉयी कालनिवे सि, ठाणट्ठातीय कालभोगी य । स्वपक्षः-श्रमणाः, श्रमण्यश्च, परपक्षो-लिङ्गिनो, गृहस्थाश्च ।
उग्गतऽणथमियथंडिल-मज्भरह धरंतसूरे य॥६३६।। इह लिङ्गिनोऽन्यतीर्थिकाः प्रष्टव्याः, ईदृशेन भिक्षाचरवर्गण
इह पूर्वाऽर्द्धपश्चाऽर्द्धपदानां यथासंख्यं योजना, तद्यथापाकीणे पर्याप्तमलभमानानाम् अात्मसंयमदोषा भवन्ति ।
कालोत्थायी नाम सार्थो-य उद्गते सूर्य उत्तिष्ठते; चलतीत्यर्थः। तत्राऽऽत्मदोषाः परितापनादिना, संयमदोषास्तु कन्दाss
कालनिवेशी-योऽनस्तमिते रात्रिप्रथमायां पौरुष्यां निवेश दिग्रहणनेति । अथवा-अनवमानं सर्वथैव न प्राप्यते ततो
कृत्वा तिष्ठति, स्थानस्थायी-यः स्थरिडले जिकादौ तिष्ठति, ऽवमानस्याऽसति स्वपक्षावमानं वर्जयित्वा यत्र परपक्षाऽव
कालभोजी-यो मध्याह्न सूर्य वाऽपि ध्रियमाणे भुङ्क्ते । मानं भवति तेन गन्तव्यम् । तत्र जनो भिक्षाग्रहणे विशेवं जानाति हमे श्रमणा एते तु तनिकादय इति ।
एतेसिं तु पयाणं, भयणा सोलसविहा उ कायचा । __ "गमणे, अदणे य, ठाणे य" त्ति पदत्रयं व्याचष्टे- सत्थपणएण गुणिया, असीतिभंगा तु णायचा ह४०॥ गमणं जो जुत्तगती, वडगापल्लीहि वा अछिम्मेण ।
एतेषां चतुर्णा पदानां षोडशविधा भजना कर्तव्या। तद्यथा
कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्थायी कालभोजी १ । अका. थंडिल्लं तत्थ भवे, भिक्खग्गहणे य वसही य ।'६३४॥ लोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्थायी अकालभोजीशकालोआदियणे भोत्तणं, न चलति अवररहें तेण गन्तव्यं ।
स्थायी कालनिवेशो अस्थानस्थायी कालभोजी. ३ । कालो
स्थायी कालनिवेशी श्रस्थानस्थायी अकालभोजी, ४ । एवमतेण परं भयणा तु, ठाणे थंडिल्लमाईसु ॥९३५॥
कालनिवेशपदेनापि चत्वारो भङ्गाः अवाप्यन्ते । लब्धा अष्टी गमनशुद्धो नाम--यः सार्थो युक्तमतिर्मन्दगमनो; न शीन भताः। एते कालोत्थायिपदेनाऽप्यष्टौ प्राप्यन्ते. जाताः षोडश गच्छतीत्यर्थः । यो वा वजिकापलीभिरच्छिन्नः पन्थास्तेन ग- भङ्गाः । एते च सार्थपञ्चके ऽपि प्राप्यन्त इति पञ्चभिर्गुण्यन्ते, रुति यतस्तत्राच्छिन्ने पथि स्थण्डिलं भवति, जिकादौ व गुणिताश्च अशीतिर्भङ्गका भवन्ति । सुखेनैव भिक्षाग्रहण वसतिश प्राप्यते । अदनं--भोजन सत्थाह अद्वगुणिया, असीति चत्ताल छस्सता होति । तालायां यस्तिष्ठति, भुक्त्वा चापराहे न चलति तेन सह ते आइयत्तिगुणिया, सत एका परमवीसहिया॥४१॥ गन्तव्यम् । तेण परं भयगा' तिप्राकृतत्वात्पञ्चभ्यर्थे तृतीया',
पूर्वलज्धा अशीतिर्भङ्गकाः प्रतिसार्थप्रत्युपेक्षका भालोचतसो भोजनादनन्तरमपराद्धे यश्चलति नत्र भजना कार्या ।
यन्ति । यदि सर्वेऽपि साधवः समर्थास्तदानी गन्तुं ततः शुद्धः ।
अथ सार्थवाहम्याऽनुशापनायां विधिमाहश्रथ न शक्नुवन्ति ततोऽशुद्ध इति । स्थानं नाम-गममादुप रम्य निवेश कृत्वा क्वचित्प्रदेशेषु अवस्थान, तत्र यः स्थण्डि
दुबह वि वियत्तगमणं, एगस्स वियत् होइ भयणाओ। लस्थायी स शुद्धः,अण्डिले तिष्ठन्नशुद्ध इति । वृ०१ उ० अप्पत्ताण निमित, पते सत्थम्मि परिसाओ ॥४२॥ ३ प्रक०। (अथ यदुक्तम् अष्टौ सार्थवाहा आदियात्रिकाश्चेति यत्रैकः सार्थवाहः तत्र तमनुशापयन्ति । ये प्रधा-- तदेतत् सत्यवाह' शब्दे वक्ष्यामि।)
नपुरुषास्तेऽनुज्ञापयितव्याः । अथ द्वौ सार्थाधिपती ततो
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विहार
(१९२३)
अभिधानराजेन्द्रः। द्वावप्यनुशापयितव्यो, यदि प्रीतिकं ततो गमनं कर्तव्यम् ।। यावत् स्थण्डिलं प्राप्नुवन्ति,एवं वृषभा यतन्ते । यद्वा-वृषभाः अथैकस्याऽप्रीतिकं भवति ततो यस्तयोःप्रेरकः प्रमाणभू-| पुरतो गत्वा यत्र स्थण्डिलं तत्र प्रथमत एव तिष्ठन्ति । अथ सस्तस्य प्रीतिक गन्तव्यम्, सार्थ च प्राप्तानां निमित्तं शकुन- सर्वथैव स्थरिडलं न प्राप्यते धर्माधर्माकाशास्तिकायप्रदेग्रहणं भवति । साथै प्राप्ताः पुनःसार्थस्यैव शकुनेन गच्छन्ति, | शेष्वपि व्युत्सृजन्ति । सार्थप्राप्ताश्च तिनः परिषदः कुर्वन्ति । तद्यथा-पुरतो मृग
अमुमेवार्थमतिदेशद्वारेणाहपरिषद, मध्ये सिंहपरिषदं , पृष्ठतो वृषभपरिषदम् ।
पुव्वं भणिया जयणा, भिक्खे भत्तट्टवसहिथंडिल्ले । अथ - दोण्ह वि' त्ति पदं विवृणोति--
सो चेव य होति इहं, णाणत् णवरि कप्पम्मि ||६४७|| दोन्नि वि समागयास-त्थिगो य जस्स य वसेण वचंति । भिक्षा-भक्तार्थवसतिस्थण्डिलविषया यतना पूर्वमधम्तनअणणुमविते गुरुगा, एमेव य एगतरपंते ॥ ६४३॥ ।
सूत्रेषु, ओघनिर्यको वा भणिता । सैवेहाध्वनि वर्तमानानां सार्थवाह आदियात्रिकश्च द्वावपि समागतौ मिलि- |
मन्तव्या, स्थानाशून्यायं तु किञ्चिदत्रापि वक्ष्यते तत्र भैक्षद्वारे
नवरं केवलमिद्द कल्पे अध्वकल्पविषयम् । बृ० १ उ०३ तौ समकमनुशापयन्ति । अथवा-सार्थिकः सार्थों वि-|
प्रक०। (अनार्थे 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५१७ पृष्ठे चते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थवाह एकः पश्चादनुज्ञाप्यते,
बहु वक्तव्यं गतम् ।) यस्य वा वशे सार्थो व्रजति सोऽनुशाप्यः। अथाऽननुशा- (३२) निर्ग्रन्थस्य रात्रौ थिकाले वा एकाकिनो गन्तुं न कल्पतेपिते सार्थवाहादी वजन्ति तदा चत्वारो गुरुकाः। अथ द्वौ सावकत्र मिलितौ स्यातां, तत्र च द्वौ सार्थाधिपती,
नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स रात्री वा वियाले वा द्वावप्यनुशापयितव्यौ । अथैकमनुज्ञापयन्ति तत्रैवमेव चत- बहिया वियारभृमि वा विहारभृमि वा निक्खमित्तए वा गुरुकाः । अथैकतरः प्रान्तः ततश्चिन्तनीयं स प्रेरको वा ।। पविसित्तए वा कप्पति से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स यदि प्रेरकस्ततो न गन्तव्यमित्याह
वा रामओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूजो होई पेलतो, भणंति तुह बाहुछायसंगहिया। मि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ ४६॥ बच्चामऽणुग्गहो त्ति य,गमणं इहरा उ गुरु आणा ।६४४।
अथाऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाहयस्तत्र प्रेरकः प्रमाणभूतो भवति तं धम्म लाभयित्वा भणन्ति- आहारो नीहारो, अवस्समेसो तु सुत्तसंबंधो । यद्यनुजानीत ततो वयं युष्माभिः सह युष्मदाहुच्छायासंगृही- तं पुण ण पडिसिद्धं,बारे एगस्स निखिमणं ॥१०५६।। ता व्रजामः,एवमुक्ने यद्यसौ यात्-भगवन्ननुग्रहोऽयं मे अहं
पूर्वसूत्रे संखडिग्ररूपणाद्वारेणाहार उक्तः; तस्मादाहारादसर्वमपि भगवतामुदन्तमुद्बहामीति, एवमनुज्ञाते गमनं विधे.
वश्यं भवेन्नाहार इत्येतद्विषयो विधिरनेन सूत्रेणोपवर्यते । यम् । इतरथा यद्यसौ तूष्णीकस्तिष्ठति ब्रवीति वा मा समा
कथमित्याह--तत्पुनर्नाहार करणमाहारानन्तरमवश्यंभावि-- गच्छत, यदि गच्छन्ति ततश्चत्वारोगुरवः,आशादयश्च दोषाः।
त्वान्न प्रतिषिद्धं. किंतु-तदर्थ यदेकस्य-एकाकिनो निष्क्रमणं ततो यदि सार्थवाहस्य अपरस्य वा प्रेरकस्याऽग्री
तदेव निवारयतीत्येष सूत्रसम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातिके गम्यते तत पते दोषाः
तस्याऽस्य (सू०४६) व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थस्य साधोरेपडिसेहणणिच्छुभणं, उवकरणं वालमादिवाहारे । । काकिनो रात्रौ वा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहार
भूमि वा उद्दिश्य प्रतिश्रयान्निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा । कल्पमॉतिजत्तगुम्मिएहिं, च उद्धमंते ण वारेति ॥ ४५ ॥
ते से' तस्य निर्ग्रन्थस्याऽऽत्मद्वितीयस्य वा आत्मतृतीयस सार्थवाहादिः प्रान्तः महाऽटीमध्यप्राप्तानां साधूनां भ. स्य वा रात्रौ वा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारतपानं प्रति सार्थनिष्काशनं विदध्यात् , उपकरणं वा बाला
भूमि वा निष्कमितुं वा प्रवेष्टुं वा इति सूत्रसमासार्थः । दीन् वा अन्येन स्तेनादिना हारयेत्-अपहरण कारयेदित्यर्थः ।
अथ नियुक्तिविस्तरः-- पादियात्रिकैर्वा सार्थारत्तिकैगौल्मिकर्वा स्थानरक्षापालेरु
रति वियारभूमि, णिग्गंथेगाणियस्स पडिकुवा । समानान्-मुष्यमाणान् साधून वारयति--उदासीन प्रास्ते
लहुगो य होति मासो,तत्थ विभाणाइणो दोस।।१०६०। इत्यर्थः।
रात्री विचारभूमिर्निर्ग्रन्थस्यैकाकिनो गन्तव्ये प्रतिष्टा। यत एवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह--
सा च द्विविधा-कायिकीभूमिः, उच्चारभूमिश्च । कायिकीमद्दगवयणे गमणं, भिक्खे भत्तट्ठणाएँ वसधीए । भूमि यदि राबावेकाकी गच्छति ततो लघुमासः प्रायश्चिथंडिल्ल असतिमत्तग-वसभा य पदेसवोसिरणं ॥९४६॥ सम्: तत्राप्याज्ञादयो दोषाः।
तथा-- सार्थवाहादिर्भद्रको ब्रूयात्--यद यूयमादिशत तदहं सर्व
तेणाऽऽरक्खियसावय-पडिणीए थीणपुंसतेरिच्छे । मपि सम्पादयिष्यामि, सिद्धार्थकवस्वम् , एकपुष्पवद्वा शिरसि स्थितोऽपि भारं न कुरुषे, एवं वचने भणिते सति
ओहाणपेहिवेहा-यसे य वाले य मुच्छा य ॥१०६१॥ गमनं कर्मव्यं गच्छद्भिश्वाऽध्वनि भैक्षविषया सार्थनासमुद्दे- स्तेनैरुपधिः संहियेत, आरक्षिका एकाकिनं रष्ट्रा चौर इति शनं तद्विषया वसतिविषया च यतना कर्तव्या । संशां-का-| बुद्ध्या ग्रहणाऽऽकर्षणादिकं कुयुः श्वापदा वा सिंहव्याघ्रादयो यिकी वा स्थण्डिलस्याऽसति मात्रके व्युत्सज्य तायद्वहन्ति | भक्षेयुः, प्रत्यनीको वा तमेकाकिन मत्या प्रतापनादिकं कु
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( १३२४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बिहार
र्यात्, स्त्री वा नपुंसको वा तमेकाकिनमुदारशरीरं दृष्ट्वा बलादपि गृह्णीयात् तिर्यञ्चो या दुष्गवादयस्तमभिघातयेयुः, तिर्यग्योनिकां वा स एकाकी प्रतिसेवेत, यो वा अवधावनप्रेक्षी स एकाकी निर्गतः सन् तत एवमपज्ञायेत, स्त्रिया वा पण्डकेन वा प्रतिस्खलितः सन् भग्नवतोऽहं जात इति बुद्ध्या वैहायसमुद्बन्धनं कुर्यात्, व्यालेन वा सर्पेण दश्येत् मूर्छा या तत्र गतस्य भवेत् तद्वशेन भूमौ प्रपतेत् । तस्य परितापमद्दादुःखप्रभृतयो दोषाः ।
अस्या एव गाथाया लेशतो व्याख्यानमाहथडे तिरंगी य, खलितो बेहाणसं च श्रोधावे । तणोवधीसरीरे, गहणाऽऽदी मारणं जोये ।। १०६२ ।। स्त्रियां पण्डके तिर्यग्योनिकायां वा स्खलितो-मैथुनप्रतिसेवनया अपराधमापन्नः सन् भग्नव्रतस्य किं मे जीवितेनेति बुद्ध्या वैहायसमभ्युपगच्छेत् । यो वा अवधावनप्रेक्षी स तत एवावधावेत् । शेषाणि सप्त द्वाराणि तेषु यथाक्रममेते दोषाः । तद्यथा - स्तेनेषूपधिशरीरग्रहणम् । आरक्षिकेषु ग्रहणाऽऽकर्षणादि देशेषु तु श्वापदादिभारणमुपघातः संयतस्य भवतीति योजयेत् — योजनं कुर्यात् ।
यत एवमतः -
दुपभि अम्मा, ण य सहसा साहसं समायरति । वारेति च णं वितिओ, पंच य सक्खी उ धम्मस्स । १०६३ । द्विप्रभृतयः साधवो रात्रौ कायिकीभूमौ गच्छन्तः स्तेनारक्षकादीनामगस्या भवन्ति, न च द्वितीये साधौ तटस्थे सति सहसा साहसं - मैथुनप्रति सेवनवैहायसादि समाचरति, समाचरितुकाममपि तमात्मद्वितीयः साधुर्वारयति । यतो धर्मस्य पञ्चमहाव्रतस्य पञ्च साक्षिणो भवन्ति । तद्यथा - अर्हन्तः सिद्धाः साधवः सम्यग्दृष्टयो देवा श्रात्मा चेति । श्रतः साधौ तृतीयसाक्षिणि पार्श्ववर्त्तिनि न सहसा साहसं समाचरति, एवं तावत्कायिकी भूमिमङ्गीकृत्योक्तम् ।
अथोच्चारभूमिमधिकृत्याहएए चैव य दोसा, सविसेसुन्चारमायरंतस्स | सबितिजगणिक्ख मरणे, परिहरिया ते भवे दौसा । १०६४ | एत एव स्तेनारक्षिकादयो दोषाः सप्रायश्चित्ताः सविशेषाःसमधिका रजन्यामैकाकिन उच्चारमाचरतो मन्तव्याः । यदा तु विचारभूमौ गच्छन् सद्वितीयः प्रतिश्रयान्निष्क्रमकरोति तदा स्तैन्यादयो दोषाः परिहृता भवेयुः । कथमित्याहजति दोपि तिमि वेदितु, खेति तेणभए वातिदारेको । सावयभयम्मिएको, णिसिरति तं रक्खती बितिश्रो १०६५ । यदि द्वौ संयतौ कायिकीभूमौ निर्गच्छतः तदा यस्तत्र जागर्ति तस्य निवेद्य द्वावपि निर्गच्छतः । स्तेनभये तु ततो द्वयोर्मध्यादेको द्वारे तिष्ठति, द्वितीयः कायिकीं व्युत्सृजति । अथ श्वापदादिभये एकः तत्र कायिक निसृजति, द्वितीयो दण्डकवस्तस्तं कायिकी व्युत्सृजन्तमात्मानं च रक्षति ।
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बिहार (३५) अथैकाकिनो यतना प्रतिपाद्यते - सभया सति मत्तस्स, एक्को उवओोगदंड हत्थे । वतिकुते कडिं, कुणति य दारेऽवि उपभोगं ।। १०६६ ।। यदि समयं द्वितीयस्य तत्राऽभावः, ततः मात्रके व्युत्सर्जनीयम् । अथ मात्रकं न विद्यते तत उपयोगं कृत्वा दण्डकं हस्ते गृहीत्वा वृतेर्वा कुड्यस्य वा अन्तेन - पार्श्वेन कटिं कृत्वा कायिक व्युत्सृजति । द्वारेऽपि स्तेनादिप्रवेशविषयमुपयोगं करोति
बितियपदे तु गिलाण - स्स, कारणा महव होज एगागी । पुञ्चट्ठियनिद्दोसे, जतणाऍ पिवेदि उच्चारे ||१०६७|| द्वितीयपदे तु ग्लानस्य कारणादेकोऽपि निर्गच्छेत् । श्रथवा स साधुशिवादिभिः कारणैरेकाकी भवेत्, यद्वा-तत्र पूर्व निर्दोषं निर्भयमिति मत्वा स्थितः पश्चात्सभयं सञ्जातं तत्राऽपि यतनया निवेद्य तथैवोच्चारभूमौ वा गच्छन्ति ।
अथ ग्लानस्य कारणादिति पदं व्याख्यानयतिएगो गिलाणपासे, बितिओ पुच्छिऊण तं नीति । चिरगतगिलाणमितरो,जग्गंते पुच्छिउं गीति ॥ १०६८ ।। इह ते प्रयो जनाः, तेषां च मध्ये एको ग्लानो विद्यते, एकश्च तस्य ग्लानस्य पार्श्वे तिष्ठति, द्वितीयस्तमापृच्छय कायिकयादिभूमौ निर्गच्छति । स च यदि चिरगतो भवति तत इतरो ग्लानस्य पार्श्वे स्थितो ग्लानं जाग्रतमापृच्छ्य निर्गच्छति ।
जहि यं पुण ते दोसा, तेणाऽऽदीया ण होज पुव्वृत्ता । एकोऽवि णिवेदेतुं, तो वि तहिं णऽतिक्कमति । १०६६ ।। यत्र पुनस्ते पूर्वोक्ताः स्तेनादयो दोषा न भवन्ति तत्रैकोऽपि साधूनां जाग्रतां निवेद्य निर्गच्छन् भगवदाशां नातिक्रामति । एवं विचारभूमिविषयो विधिरुक्तः ।
अथ विहारभूमिविषयमाह
बहिया विहारभूमी, दोसा ते चैव हियछकाया । पुव्वदिट्ठे य कप्पर, बितियं आगाढसंविग्गो ॥ १०७० ॥ प्रतिश्रयाद्वहिर्विहारभूमौ स्वाध्यायभूमौ रात्रावेकाकिनो गच्छतस्तत एव स्तेनारक्षिकादयो दोषा भवन्ति, अधिकाश्च पायविराधनानिष्पन्नाः । द्वितीयमपवादपदमत्रोच्यते कल्पते रात्रावपि स्वाध्यायभूमौ पूर्वदृष्टायां दिवा प्रत्युपेक्षितायां गन्तुं तत्राप्यागाढकारणे यः संविग्नः स गच्छति । श्रथाऽऽगाढपदं व्याचष्टे
ते तिमि दोष्णी अहवेकतूर्ण
एवं च सुत्तप्पसगासमस्स । समातियं णत्थि रहस्ससुतं,
याऽवि पेहाकुसलो स साहू || १०७१ ॥ ते साधवो रात्रौ विहारभूमौ गच्छन्त उत्सर्गतस्त्रयो जना गच्छन्ति, त्रयाणामभावे द्वौ गच्छतः । श्रथ ग्लानादिकार्यव्यापृततया द्वितीयोऽपि न प्राप्यते एवमेकाक्यपि गच्छेत् । किमर्थमित्याह- अस्य - विवक्षित साधोर्नवम् - अधुनाऽधीतं
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बिहार
ससूत्रस्पर्शकनिर्युक्तिरूपेणार्थेन सहितं परावर्त्तनीयं वर्त्तते । स्वाध्यायिकं च वसतौ तदानीं नाऽस्ति । श्रथवा रहस्यसूत्रं निशीथादिकं तद् यथा द्वितीयो न शृणोति तथा परावर्त्तयतव्यम् । न चासौ साधुरनुपेक्षा कुशलः । एतेनाऽऽगाढकारयेन रात्रापि विहारभूमी यन्तुं कल्पते ।
तत्र कीदृशे गृहे कीदृशेन वा साधुना गन्तव्यमिति दर्शयति
आसन्नगेहे दिवदिभोमे,
घेण कालं तहि जाइ दोसं । यस्मिंदिओ दोसविवजितो य
( १३२५) अभिधावराजेन्द्रः ।
शिदाविकारालसवजितऽप्पा ॥ १०७२ ।। कालं गृहीत्वा दोषं प्रतिप्रादोषिकं स्वाध्यायं कर्तुमासन्नगेहे दिवा भौमे - दिवा प्रत्युपेक्षितोश्चारप्रश्रवण भूमिके याति गच्छति । स च वश्येन्द्रियः इष्टाऽनिविषयेषु वर्त्तमानानामिन्द्रियाणां निगृहीता दोषाः - क्रोधादयस्तैर्विवर्जितः तथा निद्रया विकार या हास्याऽऽदिना आलस्येन वर्जित आत्मा यस्य स तथा एवंविधस्तत्र गन्तुमर्हति माडनीदृशः । तन्भावियं तं तु कुलं अदूरे, किचा सकार्य खिसिमेव एति । वा विदूरे,
वाघाततो वा
सोऊण तत्थेव उवेइ पाते ।। १०७३ ।। यस्मिन् धावकादिकुले स गच्छति तस्यां वेलायां प्रविशद्भिः साधुभिर्भावितं तद्भावितं तदप्यदूरे श्रदूरदेशवर्त्ति एवंविधे गृहे प्रादोषिकं स्वाध्यायं कृत्या - परिवर्त्य निशायामेव प्रतिश्रयमागच्छति । अथ रजन्यामागच्छतोऽपास्तराले दुश्यपादिभिः स्तेनादिभिर्व्याघातः अथवा दूरे दुग्देशवर्तिनी सा विहारभूमिः ततस्तवैयद सुवा प्रातः - प्रभाते प्रतिश्रयमुपैति । वृ० १ ३ प्रक० ।
9
( ३६ ) निर्धन्या रात्रिविहारः
नो कप्पड़ निग्गंधीए एगाणियाए राम्रो वा वियाले वा बहिया विचारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमि वा पविसित्तए वा । कप्पड़ से अप्पबिइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पच उत्थी वा राम्रो वा वियाले वा वहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्चए वा पवित्तिए वा ।। ५० ।।
अस्य व्याख्या प्राग्वत् ।
अथ भाष्यम्
सो चैव य सम्बन्धो, नवरि पमाणम्मि होइ णाणत्तं । जे यजतीणं दोसा, सर्विसेसतरा उ अजाणं ॥ १०७४ || स एव निर्ग्रन्थसूत्रोक्तसम्बन्ध इहाऽपि सूत्रे ज्ञातव्यः, नबरं केवल प्रमाणेभ्यो निभ्थीनां नानात्वं निर्धग्धानां - योस्त्रयाणां निर्गन्तुं कल्पते, निर्ग्रन्थीनां तु द्वयोस्तिसृणां चतसृणां वा इत्ययं संख्याकृतो विशेष इति भावः । ये च स्तेनाऽऽरक्षिकाऽऽदयो यतीनामेकाकिनिर्गमने दोषाः श्रार्या ३३२
णामपि त एव सविशेषतरा मन्तव्याः हिता इति भावः ।
5
बिहार
तरुणाद्युपद्रवस
1
बहिया वियारभूमी, निग्गन्थेाणियाए पडिसिद्धा । चगुरुगाऽऽयरियादी, दोसा ते चेत्र आणादी। १०७५ रात्री वहिविचारभूमी गमनमेकाकिन्या निर्झन्ध्याः प्रतिपिम् एतत्सूत्राचार्यः प्रवर्तिनों न कथयति - तुर्गुरवः । प्रवर्तिनी भिक्षुणीनं कथयति चतुर्गुरवः । भिक्षुयो न प्रतिश्टरवन्ति मासलघु । प्रवर्त्तिनीमतिक्रम्य भिलादिकया एकाकिन्यो निर्गच्छन्ति यतुगुरवः, दोषाश्च ते एवाऽऽशादयां द्रष्टव्याः । भीरू अकिचे उ बलाबला य, संकितगागमणी उ रातो ।
मा पुप्फभूयस्स भवे विणासो,
सीलस थोवाण ण देति गंतुं ।। १०७६ ।। इह स्त्री प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव भीरुः - अल्पसत्या पुरुषं च प्राप्य सा श्रवला अकिञ्चित्करी, अत एव तस्या श्रवलेति नाम । अबला च खभावादेव चञ्चलाः श्रत एकाकिनी श्रमणी रात्री विचारभूमी गती आशङ्किता स्थान अवश्यमे या व्यभिचारिणीति । तमानस्य शरीर पुष्पसु कुमारस्य शीलस्य विनाशेो भवेदिति कृत्या लोकानामध्याया रात्री विचारभूमी गन्तुं भगवन्तो न ददति नानुजानन्तीत्यर्थः ।
3
उपाश्रयेऽपि ताभिरीदृशे वस्तव्यमिति दर्शयतिगुगुत्तदुवारे, कुलपुते इत्थ मज्झ निहोसे | भीतपरिसमदविदे अजा सिजागरे भणिए ||१०७७ ||
"
गुप्तो नाम वृत्त्यादिपरिक्षिप्तः गुप्तद्वारः सकपाट ईदृशे उपाश्रये स्थातव्यं, शय्यातरश्च तासां कुलपुत्रको गवेषणीयः, तस्यैव शय्यातरस्य या भगिनीप्रभृतयस्तासां संबन्धि यद् गृहं तन्मध्यवर्ती संपतीनाम् उपाययो भवति । सोऽपि निर्दोष:पुरुषसागारिकादिदोषरहितः । कुलपुत्रकश्च भीतपर्षद् मार्दविकापणीयः । भीतपर्वनाम यद्भयात्तदीयः परिवारो कमध्यमाचारं कर्तुमुत्सहते माविको मधुरवचनः ईरा आर्यायाः शय्यातरो भणितः ।
रात्रौ च प्रतिश्रये ताभिरियं यतना कर्त्तव्यापत्थरो अंतोहि, अंतो बंधाहि चिलमिली उवरिं । तं तह बंधति दारं, जह ते अा ण जाणाई || १०७८ ॥ प्रस्तारः कटः स एकः प्रतिश्रयाभ्यन्तरे द्वितीयस्तु प्रतिश्रवाइहिः कर्त्तव्यः अन्तथाभ्यन्तरे कटस्योपरि चिलिम लिकां बध्नीत नियन्त्रयेत च । प्रतिहारी तथा बध्नाति द्वारं यथा तान् — बन्धानन्या संयती मोक्तुं न जानाति ।
सन्थारेगंतरिया, अभिक्खणा योजणा य तरुणीणं । पडिहारि दारमूले, मज्झे य पवित्तिणी होति ॥ १०७६ ॥ संस्तारकमेकान्तरितानां वृद्धानां भवति अमी च तरुणीनां पतनया प्रयतन्या प्रतिदारिकया पो
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विहार
विहार
अभिधानराजेन्द्रः। जना-सट्टना-कर्तव्या । प्रतिहारि च द्वारमूले स्वपिति, म येयं प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रत्यक्षा बुद्धिः सा प्रायः स्वं-स्वध्ये सर्वमध्यवर्तिनी प्रवर्तिनी भवति ।
कीयं यत्कार्य हिताऽहितप्रवृत्तिरूपं निवृत्तिरूपं वा तद्ग्रनिक्खमणपिडियाणं, अग्गद्दारे य होइ पडिहारी।
हणे तत्परिच्छदे अलसा-जडा, परार्थेषु तु-परप्रयोजनषु
जागरूका-जागरणशीलाः । अत एव तद्दोषमिह-जीवलोदारे पवित्तिणीसा-रणा य फिडिताण जयणाए।१०८०
के कर्ता-आत्मीयकार्यसाधको जनः पातुर-उत्सुकः सन् रात्रौ विचारभूमौ निष्क्रमणं पिरिडताना-समुदितानां; त्रि. न पश्यति, यकं दोषमुदासीनजनो--मध्यस्थलोकः तटचतुःषष्ठप्रभृतीनामित्यर्थः, प्रतिहारी द्वारं समुदाय प्रथमत | स्थः पश्यति, अतोऽहं भवतां पार्वादात्मानमहितेषु वर्तएवाग्रद्वारे तिष्ठति । प्रवर्तिनी पुनारे स्थिता संयती यदा मानं निवारयामीति प्रक्रमः। प्रविशति तां शिरसि कपोलयोर्वक्षसि च स्पृष्टा प्रवेशयति ।
तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा , याश्च तत्र स्फिटिता द्वारविप्रनष्टा इतस्ततः परिभ्रमन्ति तासां यतनया यथा अप्रीतिकं न भवति तथा स्मारणा कत
वसंति णारीउ तहिं वसेजा। व्या । प्रायें ! इहा गच्छ, इतो न भवति द्वारम् ।
ता बेति रत्तिं सह तुज्झ णीहिं , अथ द्वितीयपदमाह
अणिच्छमाणीसु विभेमि बेति ॥ १०८५॥ बिइयपदे गिलाणाए,तु कारणा अहव होज एगागी।। एवमुक्ते सति यद्यसौ श्रावक इति तदुक्तं प्रतिपद्यते
आगाढे कारणम्मि, गिहिणीसाए वसंतीणं ॥१०८१॥ तदा तस्य-शय्यातरस्य यत्रागम्या-माताभगिनीप्रभृतयो द्वितीयपदे ग्लानायाः संयत्याः कारणादेकाकिन्यपि वि
नार्यों वसन्ति तत्र सा एकाकिनी संयती वसेत् । ताश्च
स्त्रियो ब्रूते, रात्रौ युष्माभिः सह कायिकाद्यर्थ निर्गमिचारमूमौ गच्छेत् , कथमिति चेदुच्यते-इह प्रवर्तिनी यदा
च्यामि, तो यदा भवत्य उत्तिष्ठन्ते तदा मामप्युत्थापआत्मतृतीया भवति, तत्राऽप्येका ग्लानायाः पार्श्वे तिष्ठति,
यत । यदि ता नेच्छन्ति ततोऽहं रात्रावेकाकिनी निर्गच्छद्वितीया तु निवेद्य निर्गच्छति । अथवा-सा अशिवादिभिः ।
न्ती बिभेमि इत्येवं ब्रवीति । कारणैरेकाकिनी भवेत् , तत्र चागाढे-श्रात्यन्तिके कारणे गृहनिश्रया वसन्तीनामेकाकिनीनां विधिरभिधीयते ।
एवमप्युक्ता यदि ता द्वितीया नाऽऽगच्छन्ति
तदा किं कर्त्तव्यमित्याहएगा उ कारणठिया, अविकारकुलेसु इत्थिबहुलेसु ।
मत्तासईए अपवत्तणे वा, तुज्झ वसाऽहं णीसा, अजा सेजातरं भणति ॥१०८२॥
सागारिए वा निसि णिक्खमंती । एका आर्यिका कारणेन पुष्टालम्बनेनाऽविकारकुलेषु-हा
तासिं णिवेदेतु ससद्ददंडा, स्यादिविकारविरहितेषु स्त्रीबहुलेषु स्थिता सती शय्या
अतीति वा णीति व साधुधम्मा ॥ १०८६ ॥ सरमित्थं भरगति-अहं यु-मन्निश्रया वसामि, ये च मम किश्चित् क्षणमायान्ति तत्राऽहं भवद्भिः स्मारणीया ।
मात्रके कायिकी व्युत्सर्जनीया । अथ मात्रकं नास्ति , य
द्वा-तस्या मात्रके कायिक्याः प्रवर्तमाने गमनं न भवति , इदमेव स्फुटतरमाह
सागारिकबहुलं वा तद्गृहम् । एतैः कारणैः निशि-रात्राअपुनपुंसे अवि देहमाणी,
वेकाकिनी निष्क्रामन्ती तासां शय्यातराणां निवेद्य शवारेसि धूताऽऽदि जहेव भजं ।
ब्द-काशितादिशब्दं कुर्वती दण्डकं हस्ते कृत्वा साधुधतहाऽवराहेसु ममं पि पेक्ख,
-शोभनसमाचारा अतियाति वा निर्गच्छति वा । एवं
तावद्विचारभूमिविषयो विधिरुक्तः। जीवो पमादी किमु जो ऽवलाणं ॥ १०८३ ॥
(३७) अथ विहारभूमिविषयमाहभो श्रावक ! यथा त्वमपूर्वपुंसोऽदृष्टपूर्वपुरुषान् पश्यम्तीमपि प्रास्ता तैः सह संभाषणादि कुर्वाणामित्यपिश
एगहि अणेगाहि व, दिया व रातो व गन्तु पडिसिद्धं । म्दार्थः, दुहितरम् , आदिशब्दाद्-भगिनीप्रभृतिका भार्या वा चउगुरु पायरियादी,दोसा ते चेव जे भणिया।।१०८६॥ यथा वारयसि तथाऽपराधेषु स्खलितेषु-अनुचितसन्दर्श
एकाकिनीनाम् , अनेकाकिनीनां वा बहीनामपि गाथायांच नादिषु मामपि प्रेक्षस्व अहमपि तथैव वारणीया । यतो
पष्टयर्थे तृतीया, दिवा वा रात्री वा विहारभूमौ संतीनां गन्तुं जीयः सर्वोऽपि प्रायः प्रमादी-अनादिभवाभ्यस्तप्रमादब- प्रतिषिद्धं-न कल्पते । अत एव यद्येनमर्थमाचार्याः प्रवहुल:, किं पुनयोंऽबलानां-स्त्रीणां सम्बन्धी, स चपलस्व- तिन्या न कथयन्ति तदा चतुर्गुरवः, प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न भावतया सुतरां प्रमादीति भावः ।
कथयति चतुर्गुरवः , भिक्षुण्यो न प्रतिशृण्वन्ति लघुमापायं सकजग्गहणा ऽलसेयं,
सः, दोषाश्च त एव द्रष्टव्याः ये पूर्व विचारभूमौ भणिताः। बुद्धी परत्थेसु अजागरूका।
द्वितीयपदे गन्तव्यमपीति दर्शयतितमाउरो पस्सति णहकत्ता,
गुत्ते गुत्तदुवारे, दुअणबजे णिसणस्संतो। दोमं उदासीजणो नहं तु ॥ १०८४॥
वाडग संबंधिणियस-मि बितिय आगाढसंविग्गा१०८८
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विहार
गुप्ते गुप्तद्वारे दुर्जनवर्जे दुःशीलजनरहिते गृहे स्वाध्यायकरपार्थ गन्तव्यं तच गृहं यदि निवेशनस्य पाटकस्याभ्यन्तरयति भवति । अथ निवेशनान्तने प्राप्यते ततोऽन्यस्मिन्नपि पाटके यः संयतीनां पित्रादिरशङ्कनीयः सम्बन्धी यो या शय्यातरस्य निजसुदादयो वा संही आयको मातापित्स मानस्तस्य गृहे गन्तव्यम् । एतच्च द्वितीय पदमागाढे संविग्नाया श्रर्थिकाया मन्तव्यम्, किमुक्तं भवति व्याख्याप्रज्ञप्तिप्रभृतिश्रु तमागादयोग काविदायिका प्रतिपन्ना सा च यदि संविग्रा हास्यादिवर्जिता ततस्तस्या श्रात्मतृतीया आमचतुर्थया धरमपञ्चमया वा पूर्वोक्रगुणोपेतं गृहं गत्वा स्वाध्यायः कर्त्तुं कल्पते ।
( १३२७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पडिवनिकुसलमञ्जा, सज्झायज्झाणकरण उज्जुत्ता । मोनूय अम्मरहितं अजाय कप्पती गंतुं ॥ १०८॥ प्रतिपत्तिः- उत्तरप्रदानं तत्र कुशला निपुणा या काचिदार्या सा तस्याः समर्पणीया, तथा या श्रगाढे योगं प्रतिपन्ना सा स्वाध्यायस्य यद् ध्यानमेकाग्रतया करणं त
शे उद्युक्ता भवेत्, ' मोसूल अव्भरहियं ' ति येषु कुलेषु यथाभङ्गकादिषु संपतीनामागमनमभ्यर्हितं गौरवा तानि मुक्त्वा अन्यत्र कुले श्रार्यकाणां न कल्पते गन्तुम् । एवंविधकुले गत्वा स्वाध्यायं कुर्वतीनां यद्यसौ गृहपतिः प्रश्नयेत् किमर्थं भवत्य इद्दाऽऽगताः ?, ततः प्रतिपत्ति कुशलया वक्तव्यम्
सम्झाइयं न त्थि उवस्सए म्हं,
आगादयोगं च इमा पदचा तरेण सो भद्दमिदं च तुज्भं,
"
संभावणिजा उण अमहा ते ।। १०६० ॥ हे आयक! योऽयमस्माकमुपाश्रयः तत्र स्वाध्यायकं नास्ति, इयं संयती आगाढयोगं प्रवृत्ता वर्त्तते, 'तरेण ति शय्यातरेण सह युष्माकमिदमीदृशं सकलजनप्रतीतं सौहार्द तन्मत्वा वयमत्र समागताः श्रतो नान्यथा त्वया वयं सम्भावनीयाः ।
अपि चखुद्द जो णत्थि ण याऽवि दुरे,
पच्छपभूमी य इहं पकामा ।
केहि लोग समेतं,
सहायसीले जोजमा से ।। १०६१ ।। मुझे जमी लोक इद नास्ति न वेदं युष्मद्गृहं दूरे अस्मत्प्रतिश्रयाद्दूरवर्ति भूमि प्रकामा विस्तृता, अस्माकं स्वाध्यायो निर्व्याघातं निर्वहति । किंचयुष्माकं लोकस्य च वृत्तं प्रतीतमेतत् यथा-' ' अस्माकं स्वाध्यायशीलानां गाढतर उद्यमः -प्रयत्नो भवति । वृ० १३० ३ प्रक० ।
इदानीं मार्गद्वारं प्रतिपादयग्राह नियुक्रिकार:पंथं तु वच्चमाणं, जुगंतरं चक्खुणा व पडिलेहा | अदूरचक्खुपाए मुहुमतिरिच्छग्गएँ न पेहे || ३२५||
बिहार
पथि व्रजन् युगान्तरे चतुर्दश्मा तन्मात्रान्तरं चपा प्रत्युपेक्षेत किं कारणम् १ यतोऽतिदूरयःपाने - ति सूक्ष्मतिमतान् प्राणिनः न पेहेन पश्यति दूरे दूरतरे प्रहितत्वावसुः ।
चासन्ननिरोहे, दुक्खं दडुं पि पायसंहरणं ।
"
छायविओरमणं सरीर तह भवपाखे य ॥ ३२६ ॥ अत्यास निरोधं करोति तदाऽपि प्राणिनां दुःखेन पादसंहरणं पादं प्राणिनि निपतन्तं धारयतीत्यर्थः, अतिसन्निकृष्टत्वाच्चसुपः 'एकापविओोरमण' ति पटकाया नां विराधनं भवति शरीरविराधनां तथा भक्तपानविराधनां करोतीति ।
इदानीमस्या एव गाथायाः पश्चार्द्ध व्याख्यानयन्नाह
भाष्यकारः-
उडुमुह करतो, क्वतो त्रियक्खमाणो य । बायरकाए वहए, तसेतरे संजमे दोसा ।। १८८ ॥
·
ऊर्द्धमुखो व्रजन् कथासु च रक्तः– सक्तः श्रययकतोचि पृष्ठतोऽभिमुखं निरूपयन् विमति विविधं सर्वासु दिचु पश्यन् स एवंविधो बादरकायानपि व्यापादयेत् तरां पृथिव्यादीन् स्थापरकायान् ततश्च संयमे संयमविषया पंते दोषा भवन्तीति ।
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हदानी शरीरविराधनां प्रतिपादयन्नाहनिरवेक्खों पर्थतो, आवडिओ खाकंटसिमेसु । पंचह इंदिया, अन्नतरं सो विराहेजा ।। १८६ ॥ निरपेक्ष मजन प्रपतितः सन् स्वाकट विषमेषु विषमम् उन्नतं तेष्यापतितः पञ्चानामिन्द्रियाणां चक्षुरादीनामन्यतरत् स विराधयेत् ।
इदानीं ' भत्तपाणे य' त्ति अवयवं व्याख्यानयन्नाहभत्ते वा पाणे वा, ऑवडियपडियस्स भिन्नपाए वा । कायविरम, उड्डाहो अप्पयो हाथी १६० आपाततवासी पतिपतिपतितः तस्य लाभानि ने भन्ने वा पात्रके सति भक्ने वा प्रोज्झिने पानके वा ततः प कायव्युपरमं भवति, उड्डाहश्च भवति श्रात्मनश्व हानि: क्षुधाबाधनं भवति, ततः पुनः षट्कायव्युपरमणमुडाहश्च । दहि घय तकं पयमं-बिलं व सत्थं तसेतराण भव । खद्धम्मिय जणवाओ, बहुफोडे जं च परिहाणी ।१३१। तानि तानि कदाचिभितपः कानि भव न्ति, ततश्च तान शस्त्रम् केषां ? - त्रसानामितरेषां च पृथिव्या दीनां भवेत् 'सम्मिति प्र तत्र भने लोकेन सति जनापवादो भवति, उड़ाहः-यदुत 'बहुफोडे' ति बहुभक्षका एत इति, या चाऽऽत्मपरितापनिकादिका परिहा सा च भवति ।
तथा पात्रविराधनायां याचनादोषान्प्रदर्शनिकुं
क्लिकारःपतं च मग्गमाणे, इवेज पंथे विरा
दुविहाय भवे तेगा, परिकम्मे सुर ३२७॥
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बिहार
पात्र वान्विपति सति ग्रामादी भवेत् पथि विराधना द्वि विधा - श्रात्मविराधना, संयमविराधना च । पथि स्तेनाश्च द्विप्रकारा भवन्ति – उपधिस्तेनाः, शरीरस्तेनाथ । लच्येऽपि कृच्छ्रात्पत्रके तत् परिकर्मयतः तद्व्यापारे लग्नस्य सूत्रार्थपरिद्वातिः । श्रध० (प्रलम्बार्थ विहारः ''प मभांग ७१२ पृष्ठे गतः । ) अध्वद्वारे, बृ० १ उ० ३ प्रक० । नि० चू० | स्वाध्यायार्थं कन्दरोद्यानादौ गमने जीत० । बौद्धायश्रये प्रश्न० १ ० द्वार । (दुर्भिक्षादौ रात्रिभोजनस्य कपनीयता 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५१६ पृष्ठे उक्ला । ) चरिकाप्रविस्य भिक्षोर्विहारः 'बरियापविट्ठ' शब्दे तृतीयभागे १९५५ पृष्ठे गतः । ) ( गणादपक्रम्य परपाखण्ड प्रतिमामुपसम्पद्यते विरेदिति उपसंपया शब्दे द्वितीयभागे २००५ पृष्ठ उक्तम् | ) ( एकाकी एकया स्त्रिया सह न विहरत् इति 'इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे ६१४ पृष्ठे गतम् ।) (जिनकल्पिक - स्य बिहारः 'धमिरकरण मे वतुर्थभागे २३ पृष्ठे गतम्) · शिष्यस्कन्धचढिनविहारवर्णकः 'संधचढियविहार' शब्द तृतीयभागे ७०१ पृष्ठे गतः । ) ( एकाकिविहारप्रतिमा 'गल्ल विहार' शब्दे तृतीयभागे २० पृष्ठे उक्ला । ( वीरजिनेन्द्रस्य बिहारः 'वीर' शब्दे वक्ष्यते । ) (द्वे वर्षारात्रे नैकत्र वसेत्, विहारकालमाने च विवित्तनरिया शब्देऽस्मिन्नेव भागे १२४८] गतम्) ( नदीसन्तरणम् राईसतार शब्दे चतुर्थभागे १७३८ पृष्ठे उक्तम् । )
4
अधिकारसूत्री
( १ ) विहारनिक्षेपः ।
(२) गीतार्थनिश्रया बिहारः ।
(१०) की (११)
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(३) श्रात्मविराधनादिद्वारगाथा |
(४) विहारकल्पिकः ।
(५) गीतार्थानां तत्रिधितानां या बिहारः ।
(६)
गीतार्थस्य स्वच्छन्दाकिनो बिहारनिषेधः । ( ७ ) आचार्यस्योपाध्यायस्यैकाकिनो विहारो न कल्पते । ( = ) जघन्यतः पञ्चकसप्तकाभ्यां हीनतायां प्रायश्चित्तम् । (६) व्याकुलनायां बिहारः ।
योग्यत्र गमनमुचितम् ? |
तेषां निरूपणम् ।
( १३२८ ) अभिधानरजिन्द्रः ।
(१२)
विहरेत् ।
( २३ ) बिहारे आवाधादीनि स्थानानि । ( १४ ) सामान्येन मङ्गीकृत्य विधिः ।
(१४) प्रथमानुपाविहारे प्रायश्चित्तम् ।
(६)
पिहरेत्।
(१७) हेममयोविहारः । (१८) बिहारः । (१६) मासकल्पादन्ये ऽपि विहाराः ।
२०) मार्गयतनामधिकृत्य विहरेत् । (२१) यत्राऽन्तरा ग्रामे चौरास्तत्र न विहरेत् । (२२) बराजकादिग्रामेषु नरेन् (२३) मार्गे प्रादिके विहारविधिः
(२४) प्रातिपधिद्वाय विहारविधिः । २५) निदर्शयेत्। (२६) वार्यादिना सह गच्छतः साधविधिः । (२७) बिहारक्षेत्रस्य पूर्वोत्तरदिग्मानम् ।
(२) भगवता कुत्र (५१) इदं खूषं निरूपितम् । (२१) क्षेत्र विहारकारणम् ।
(३०) निन्यानां वा निधीनां वा रात्री विकाले या विहारनिषेधः ।
(३१) विहारे उपकरणत्यागे प्रायश्चित्तम् । (३२) किं पुनः साथै प्रत्युपेक्षणीयम् । ( ३३ ) अध्वानं प्रतीत्य भङ्गाः ।
(३४) रात्री विकाले वा एकाकिनो बिहारनिषेधः । (३५) एकाकिनां यतनाप्रतिपादनम् । ( ३६ ) निध्या राचिविहारः । (३७) विहारभूमिविषयः ।
विहारकप्प-विहारकल्प पुं० विहरणं विहारो वर्त्तनं तस्य व्यवस्था स्थविरकल्पादीनामुच्यते यत्र ग्रन्थऽसौ बिहारकल्पः । पा० उत्कालिक नं० विहारगमण- बिहारगमन-१० विदर कांडन विहारस्तेन गमनम् । उद्यानादौ क्रीडया गमने, सूत्र० १ श्रु०३ श्र० २ उ० । विहारघरय - विहारगृहक- न० | स्वनामख्याते उद्याने, यत्र वा सुपूज्यो जिना निष्क्रान्तः । श्रा० म० १ ० विहारचरिआ - विहारचर्या - स्त्री० । विहाररूपायां साधुचर्यायाम्, दश० २ ० । ( ' विवित्तचरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतां वर्णितया । )
बिहारजना - विहारयात्रा श्री उद्यानक्रीडायाम्, 'विहारजन्तं निजी मेडिकुंडिसि बेह' उन० २०० । विहारभूमि - बिहारभूमि श्री स्वाध्यायभूमी, प्राचा० २
"
"
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श्रू० १ ० १ ० १ उ० । बृ० । नि० चू० । भिक्षानिमित्तभ्रमणभूमी ०४३० जनखगमने बिहारी जिनसदमनीति ' वचनात् । कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । विहारवत्तिया - विहारप्रतिज्ञा स्त्री० । विहरिष्यामीति गमनप्रतिज्ञायाम्, श्राचा० २ श्रु० १ चू० ३ ० १ ३० । विहारि (न्) - विहारिन् - त्रि० । विहरतीत्येवंशीलो बिहारी । ध० ३ अधि० । विहरणशीले, आचा० १ ० ५ ० ४ उ० । बिहावरी - विभावरी-श्री० रात्री पाइ० ना० । विहावसु-विभावसु-पुं० । अग्नौ पाइ० ना० । विहि-श्री० विधि-पुं० विधानं विधिः प्रकारे, आव०६ प्र० ज्ञा० । दश० । भेदे, व्य० ५ उ० । उपा० । सम्यग्ज्ञानदर्शनयो यौगपद्येमातौ, सूत्र० १ ० ११ अ० उपोद्घाते, आव० १ अ० । प्ररूपणे, श्रा० म० १ श्र० । अनुष्ठाने, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । विधाने, सम्यक्करणे, पञ्चा० ५ विव० । ध० । अनुज्ञायाम्, श्राव० ४ ० । न्यायः स्थितिर्मर्यादा विधानमित्येकार्थाः । श्राचारे, व्य० ७ उ० । श्र० म० । विस्तरे रचनायाम्, नि० चू १ उ० । सर्वकौशले, श्रा० म०२ श्र० । प्रतिपतिक्रमे पञ्चा २० शाखाये - स्कारकमयोगानी डा० २४ अ० अस्तित्वादिभावे, नयो० । विधिमभिदधति "विधिः सदेश" इति । सदसदेशात्मनो वस्तुनो योऽयं सवंशो भावरूपः स विधिरित्यभिधीयते । रत्वा० ३ परि० । विचारे, संस्म० ३ काण्ड । माल्याद्याः स्त्रियाम् " || ८ । १ । ३५ ॥ इति स्त्रीत्वम्- विही । प्रा०
विहि
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(१३२१) अभिधानराजेन्द्रः।
विहिसेस एकार्थी:--
विहिया-विहिता-स्त्री०। "वृद्धयाधर्थमसङ्गस्य, भ्रमरोपमयाs अणुपुच्ची पडिवाडी, कमो यनामो ठिई य मजाया। टतः। गृहिदेहोपकाराय , विहितेति शुभाशयात् ॥१॥" होइ विहासं च तहा, विहीऍ एगडिया हुंति ॥ इत्युक्तलक्षणे भिक्षाभेदे, ध०१ अधिक। मानुपूर्वी परिपाटी क्रमः न्यायः स्थितिः मर्यादा विधान- विहियाऽणुहास-विहिताऽनुष्ठान-न०। विहितमाप्तागमे विमेकार्थिकानि विधेरेतानि । ०१ उ०१ प्रक०।
धेयनयाऽनुमतं यवनुष्ठानं क्रिया तविहितानुष्ठानम् । पश्चा विहिंस-विहिस्य-त्रि० । विहिंस्यन्त इति विहिंस्याः। विधा. ६विव० । दीक्षादीक्षितसमाचाररूपसद्वत्ते, पश्चा०२ विवा त्येषु. प्रश्न०२ श्राश्रद्वार ।
आगमोक्नक्रियायाम् , पञ्चा०१६ विव० । उचितक्रियायाम् , विहिसण-विहिंसन-न० । विविधव्यापादने, प्रश्न १ श्रा- पञ्चा०१८ विव०। । अ० द्वार।
विहियाऽणुहाणपर-विहिताऽनुष्ठानपर-त्रि०। प्रागमोक्तकिविहिंसमाण-विहिंसत्-त्रि० । विविधैरुपायैर्हिसति , प्राचा० यानिष्ठे पश्चा०१४ विव०। १ श्रु०५०५ उ०।
विहिवाय-विधिवाद-पुं० अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः'इत्याविहिंसा-विहिंसा-खी। विविधैरुपायैहिंसायाम्, प्राचा०१ विके चोदनावाक्ये, प्रा० म०१०। श्रु०५ १०४ उ० । जन्तुघातादौ, अनु। विधाते, प्रश्न १ विहिसार-विधिसार-पु० । विधिप्रधान; ध०र०। श्राश्रद्वार।
विहिसारं चिय सेवइ, सद्धालू सत्तिमं अणुवाणं । विहिंसिय-विहिंसित--त्रि० । हिंसां प्राप्तं हिंसितम् , विरूपं हिं
दन्वाइदोसनिहो, विपक्खवायं वह तम्मि || ६१ ॥ सितं विहिंसितम् । असम्यनिर्जीवीकृते, सूत्र०२७०१० विधिसारं-विधिप्रधान सेवते-अनुतिष्ठति श्रद्धालुः-श्रद्धा विहिकरण--विधिकरण-न०। प्रागमोत्तीर्णविधिविधाने, जी० गुणवान् शक्तिमान्-सामध्योपेतः सन्ननुष्ठान-प्रत्युपेक्षणेष१प्रति
णादिकं श्रद्धालुत्वस्यान्यथानुपपत्तेः, यदि पुनः-शक्तिमान विहिकारग-विधिकारक-त्रि० । सूत्राशासम्पादके, पं० २० १
स्यात् ततः का वार्तेत्याह?-द्रव्याण्याहारादीनि आदिश
ब्दात्-क्षेत्रकालभावाः परिगृह्यन्ते, तेषां दोषः--प्रतिकूलता द्वार।
तेन निहतोऽपि-गाढपीडितोऽपि पक्षपातं भावप्रतिबन्ध विहिगहिय-विधिगृहीत-त्रि०। अलुब्धेनोद्गमिते, लोभ
वहति-धारयति,तस्मिन्नेव-विध्यनुष्ठान एव साधारणत्वाराहित्येनोद्गगमादिदोषदुष्टे, श्राव०६०।
द्वाक्यस्येति । ध००३ अधि०२ लक्ष। विहिणाह-विधिनाथ--पुं०। कोटाद्वारतीथै पार्श्वप्रतिमायाम् , |
विहिसाराऽसट्टाण-विधिसाराऽनुष्ठान-न० प्रवचनकुशलभेती०४३ कल्प।
दे,ध०र०॥ विहिपडिसेहजुय-विधिप्रतिषेधयत-त्रि० । वनस्पत्यादिहि
सम्प्रति विधिसारानुष्ठानमिति पञ्चमं भेदं प्रकटसादिष्वासेवापरिहारान्यिते, पञ्चा० ११ विव०।
यन् गाथापूर्वाश्माहविहिपडिसेहाऽणुग-विधिप्रतिषेधाऽनुग--न० । विधिश्च प्रतिपेधश्च तावनुगच्छति यत्तत् विधिप्रतिषेधानुगम् । रुचिनिर
वहइ सइ पक्खवायं,विहिसारे सव्वधम्मणद्वाणे (५४x) पेक्षतया शास्त्रानुसारेण क्रियासु प्रवर्तने, दर्श० ३ तत्व। ।
वहति-धत्ते सदा पक्षपातं-बहुमानं विधिसारे--विविहिपवा-विधिप्रपा-स्त्री०। स्वनामख्याते प्रकरणप्रन्थे, अष्ट
धानप्रधाने सर्वधर्मानुष्ठाने-देवगुरुवन्दनादौ, इनमुक्तं भव
ति-विधिकारिणमन्य बहु मन्यते स्वयमपि सामग्रीसमावे १६ अष्ट।
यथाशक्ति विधिपूर्वकं धर्मानुष्ठाने प्रवर्तते, सामध्यभावे पुनविहिपारण-विधिपारण-न० । प्रत्याख्यानस्पर्शनादिविधान
विध्याराधनमनोरथान मुश्चत्येवमप्यसावाराधकः स्याद् छयुक्त भोजने, पञ्चा०१६ विव०।
प्रसेनष्ठिवत्। ध००२ अधिक। (तत्कथा 'बंभसेण' विहिपुब्ब-विधिपूर्व-न० । अविधिपरिहारेण (पो० ६ विव०) शब्दे पश्चमभागे गता।) शास्त्रोक्तविधानपुरःसरे, पो० १२ विव०।
विहिसाहण-विधिसाधन-नाअनुष्ठानप्रकाशने,पशा रविवा विहिप्पभोग-विधिप्रयोग-पुं०। दुनिर्मित्तप्रणिधानविधानप्र-विहिसुवण-विधिस्वपन-नाजिनार्चनबन्दनविशेषप्रत्यास्यायुक्ती, पञ्चा० १२ विव०।
| नकरणादिविधिना शयनक्रियायाम् , पश्चा०१ विष०। विहित-विधिभुक्त-न । एषणीयं गृहीत्वा पश्चान्मएडल्यां | विहिमेवणा-विधिसेवना-स्त्री० । नीत्यनुपालनायाम् , पश्चा
कृतप्रतरगच्छे सिंहवादितेन विधिना वा भुक्ने, आव०६०।। ८विव०। विहिय-विहित-त्रि०। आचरिते, संथा। चेष्टिते, शा० १ विहिसेवा-विधिसेवा-स्त्री०। आगमाभिमतम्यायसेवायाम्, थु०१०। अनुष्ठाने, नपुं० श्राव०३० । पिञ्जिते, दे० “विधिसेषा दानादौ" विधिसेवा-भागमाभिमतन्यायसेना०७ वर्ग ६४ गाथा।
| वा । पो०५ विव०।। विहियतव-विहिततपम्-त्रि० । विहितं दत्तं गुरुभिस्तपोरूपं विहिसेस-विधिशेष-पुं०। विहितानुष्ठानस्य उक्नापेक्षयाऽनुप्रायश्चित्तं यस्येति । गुरुदनतपोऽनुष्ठातरि, जीत०। । के शेष, पनागर विव० ।
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विहुणण अभिधानराजेन्द्रः।
वीइवयण विहणण-विधुनन-न०। वीजनके, पृ०४ उ०। दशा। सूत्र मज्झेणं वीइवइजा?,णो तिणडे समढे।समिडीए णं भंते! दवे विहणिय-विधूय--अव्य० । कल्पयित्वेत्यर्थे, सूत्र.१ श्रु० २ समिड्डियस्स देवस्स मज्झं मझेणं वीइवएजा?, यो ति
प्र.१ उ.। अपनीयेत्यथै, सूत्र०२२०६०। प्राचा० ।। पट्टे समढे, पमत्तं पुण वीवएजा, सेणं भंते ! किं विविश्वस्येत्यर्थे, स्था०३ ठा० ३ उ० । सूत्र।
| मोहित्ता पभू अविमोहित्ता प्रभू?, गोयमा! विमोहेत्ता पभू विहय-विधत--त्रि०। प्रकम्पिते, श्राव.२० विविधमने
नो अविमोहेत्ता पभू । से भंते ! किं पुचि विमोहेत्ता पच्छा काकारं धूमपनीतम् । श्रावा. १ श्रु० ३ ० ३ उ०। । वीइवएजा, पुचि नीइवएत्ता पच्छा विमोहेजा?, गोयमा। विद्यकप्प-विधतकन्य--त्रि०। विधूतः कल्प आचारोयस्या
पुचि विमोहेत्ता पच्छा वीइवएज्जा, णो पुष्विं वीइवइत्ता ऽसौ विधूतकल्पः। अपनीताचारे,प्राचा०१ श्रु०३ १०३ उ०। पच्छा विमोहेजा। महिडीए णं भंते ! देवे अप्पड्डियस्स विहर-विधर-न० । इष्टजनवियोगे. शा०१७०२ अ० आव०। देवस्स मज्झं मझेणं वीइवएज्जा ?, हंता वौइवएजा, से विहण-विहीन-त्रि० । रहिते, नि०।
शं मंते ! किं विमोहित्ता पभ अविमोहेतापभू, गोयमा! विहेज-विधेय-त्रि० । विधिविषये, सूत्र. १ श्रु०१३ ०। विमोहता विपभूअविमोहेत्ता विपभू, से भंते! किं पुब्बिं विहेजया--विधेयता-स्त्री० । विषयताविशेषे, प्रति०। विमाहेत्ता पच्छा वीइवइजा पुब्बिं वीइवइत्ता पच्छा विद्वेत-विहेटयत-त्रि० । विशेषण हिंसति, उत्त० १२१०।। विमोहेस.', गोयमा! पुब्बि वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवइजा बिदब--विहेठक-त्रि०। विविधमनेकप्रकार,हेडको-बाधकः । पुट्विं वावीइवएत्ता पच्छा विमोहेजा। अप्पिडिए णं भते! शसस्थानीये अभिचारमन्त्रे, “षदशतानि नियुश्यन्ते, प- असुरकुमारे महड्डियस्स असुरकुमारस्स मज्झ मज्झेणं शूनां मध्यमे ऽहनि । अश्वमेधस्थ बचना-मन्यूनानि पशुभि- चीइवएजा? यो इणद्वे समडे, एवं असुरकुमारेऽधि तिन्नि त्रिभिः ॥१॥" इत्यादि । सूत्र०१ श्रु०८ ०।
आलावगा भाणियव्या, जहा ओहिएणं देवेणं भखिया, विहेलय-विभेलक-पुं० । ग्रामाकामे प्रतिमास्थितस्य वीर-|
एवं० जाव थनियकुमाराणं, वाणमंतरजे इसियवमासिए णं जिनेन्द्रस्य पूजके स्वनामरुपाते यक्ष, पाचू०११०। ।
एवं चत्र ॥ अप्पड्डिए णं भंते! देवे महिड्डियाए देवीए मझ विहोड-डि-धा० । आघाते , “ तडेराहोड-विहोडौ" |
मज्झेणं वीइवरजा?, णो इणद्वे समढे । समट्टिए णं भ॥८।४।२७ ॥ इति तडेः ण्यन्तस्य विहोडादेशः । विहो
ते ! देवे समिड्डियाए देवीए मझ मज्झणं वीइवएजा, डयति । ताडयति । प्रा० । जुगुप्सनीये, १.१ उ०२ प्रक० ।
एवं तहेव देवेण य देवीण य दंडओ भाणियव्यो० जावी-देशी-विधुर-तत्कालयोः, दे० ना०७ वर्ग ६३ गाथा।
व वेमाणियाए । अप्पड्डिया णं भंते ! देवी महड्डियस्स बीड-वीचि-स्त्री० । महाकल्लोले, औ० भ० । पाइना ऊमौं,
देवस्स मज्झ मज्झेणं एवं एमो वि तइओ दंडओ भाआव०४ अ० । स्था० । हस्व कल्लोले, विविक्तत्वे, विवेचनाद्विविक्तस्वभावाद् वीविः । अाकाशे, भ० २० श०२ उ०।।
खियब्धो० जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्रियस्स वेवीइंगाल-वीताङ्गार-न। वीतो-गतोऽङ्गागे रागो यस्मात्तद् |
माणियस्स मज्झमझेणं वीइबएजा ?, हंता वीइवएजा । बीताकारम् । अङ्गाराख्यग्रासैषणादोषरहिते भिक्षाभेदे ,
अप्पड्डिया णं भंते! देवी महिड्रियाए देवीए मझमभ०७ श०१ उ०।
ज्झेणं वीइवएजा?, णो इणद्वे समढे, एवं समडिया वीइकंत-व्यतिक्रान्त-त्रि० । उल्लङ्कितवति, भ० १० श०३ उ० देवी समड्डियाए देवीए, तहेव महड्डिया वि देवी अप्पड़िवीइकमइत्ता--व्यतिक्रमय्य-अव्यानीत्वेत्यर्थे,भ०७०१ उ०। याए देवीए तहेब, एवं एकेके तिनि तित्रि आलाववीइपंथ--वीचिपथिन-पुं० । कषायवतो मार्गे, भ०१० श. २ गा भाणियबा० जाव महड्डिया णं भंते ! वेमाणिणी उ० । (अस्य व्याख्या 'अणगार ' शब्दे प्रथमभागे २७२ | अप्पड्डियाए वेमाणिणीए मज्झ मज्झेणं वीइवएजा ?, पृष्ठे गता।)
हंता बीइवएज्जा, सा भंते ! कि विमोहित्ता पभू तहेव. वीइधूम-वीतिधम-नाद्वेषरूपदोषरहिते, भ०७ श.१०। जाब पुचि वा वीइबइत्ता पच्छा विमोहेजा एए चवीइभय-वीतिभय-न। सिन्धुसौवीरेषु उदायननृपपालित त्तारि दंडगा ।। (सू०४०१) भ०१० श. ३ उ० । नगरे, भ०१३ श०६ उ० । श्रा० चू० । श्राव० । नि० चू। देवे णं भंते ! महाकाए महासरीरे अणगारस्स भाविवीइवहत्ता-व्यतिव्रज्य-अव्य० । व्यतिक्रम्येत्यर्थे, भ० ३ श० | यप्पणो मज्झ मज्झेणं वीइवरजा , गोयमा ! अत्थे७ उ०।
गइए वीइवएजा अत्थेगतिए नो वीइवएजा, से केबढे. वीइवयण-व्यतिव्रजन--न । व्यतिक्रमे, उल्लाने, भ०।
णं भते! एवं वुच्चइ अत्थेगतिए वीहवएजा अत्थेगतिए अप्पड्डीए णं भंते ! देवे से महड्डियस्स देवस्स मज्झ | नो वीइवएजा ?, गोयमा! दुविहा देवा पम्पत्ता । तं
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( १३३१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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जहा - मायी मिच्छादिट्टी उपवन्नगा व अमायी सम्महिट्ठी उचचन्नगा व तत्थ गं जे से मायी मिच्छादिडी उवचन्नए देवे से अणगारं भावियऽप्पा पास पा सित्ता नो वंदति नो नमसति नो सकारेति नो कल्लागं मंगलं देवयं चेयं० जाव पज्जुवासति से अवगारस्स भावियप्पणो मज्भं मज्मेणं वीइवएजा, तत्थ गं जे से अमायी सम्मद्दिट्ठी उववन्नाए देने से गं अणगारं भाविप्पाणं पास पासिता वंदति नम॑सति० जाव पज्जुवासति । सेणं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झं मज्मेणं नो वीयीवएजा, से तेणऽदेणं ! गोयमा ! एवं युचइ० जान नो वीवएजा । असुरकुमारे णं मंते ! म हाकाये महासरीरे, एवं चेत्र एवं देवदंडओ भणियन्त्रो • जाव वेमाणिए । ( सू० ५०६ )
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'देवे ' इत्यादि, इह च कविदियं द्वारगाथा दृश्यते'महाकाय सकारे, सत्येणं वीरवयंति देवा उ । वीसं क्षेत्र य ठाणा. नेरइयां तु परिणामे ॥ १ ॥ इति, अस्याथार्थ उद्देशकार्याधिगमागम्य एवेति । 'महाकायति महान् बृहत् प्रशस्तो वा कायो निकायो यस्य स महाकाया, महासरीरे ति बृदतनुः परं देवदंडओ भारियोसि नारकपृथिवीकायिकादीनामधिकृतपतिकरस्याऽसम्भयात् देवानामेव च सम्मवादेवदहको व्यतिकरे भणितव्य इति । भ० १४ ० ३ उ० ।
!
अप्पट्टी गं भंते! देवे महट्टियस्स देवस्स सज्यं मज्झे बीजा है नो तिा समझे, समिङ्कीए गं भंते ! देवे समस्त देवस्समयं मझे बीए, गो इस समट्ठे, पमन्तं पुण पीवजा से गं भंते! किं सत्थे अमिता पभू अथकमिता पभू ?, गोषमा अमिता पभू नो अकमित्ता पभू से गं भंते ! किं पुधि सत्येयं मकमित्ता पच्छा वीपीवा पुदि बीईव एजा पच्छा सत्थे अकमेजा है, एवं एएवं अभिलावेगं जहा दसमसएआइडी उद्देसए तहेब निरवसेसं चचारि दंडगा भणियन्ना० जाव महड्डिया वैमाणिणी अप्पड्डिया बेमागिणीए (सू० - ५०८X )
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'अपरि णं' इत्यादि, एवं एप अभिलावेणं' इत्यादि. हिउदेति दशमशतस्य तृतीयोदेशके 'निश्वसति समस्तं प्रथमं दण्डकसूत्रं वाच्यम् तत्र चापदि कमहर्द्धिकाऽऽलापकः समर्द्धिकालापकश्चेत्यालापकद्वयं साक्षादेव दर्शितम् . केवलं समर्द्धिकालापकस्यान्तेऽयं सूत्रशेषो दृश्य:- गोयमा ! पुत्रि सत्थे श्रक्कमित्ता पच्छा बीइवरजानो पीना पड़ा सरथे अमिता यस्तु महर्द्धि काल्पमिहिर से भंते! देव अस्ति देवस्स मज्भं मज्झेणं श्रीश्वपज्जा ?, हंता बीज से भंते! किं सत्यं अकामता पेभू अक
बीसेस
मित्ता प्रभू !" शस्त्रेण हत्वा श्रहत्वा वेत्यर्थः, 'गोयमा ! श्रकमित्तावि प्रभू श्रणकमित्ता विप्रभू । ले भने ! किं पुवि सन्थे अमिता पच्छा बीजापुरिया पछा सत्ये अमेजा ? गोयमा पुषि वा सम्धेनं अमिता पाथीचा पुत्र या वीश्वरला पच्छाशक मिज' ति 'चत्तारि दंडगा भागिव्वति तत्र प्रथमदण्डक उक्लापत्रयात्मको देवस्य देवस्य च द्वितीयस्येवंविध एव नवरं देवस्य व देव्याश्च एवं तृतीयोऽपि नवरं देव्याश्च देवस्य च चतुर्थी नरंदे देत एवाऽऽह - जाव महडिया वैमाणिती पडियार बेमादिगी' ति 'मनुस यमिति । भ० १४ श० ३ उ० । (व्यतिवचनं विचित्रं परिणाममधिकृत्य 'तेडकाइ श३४ पृष्ठेरतः प्रतिपादितम् । )
वीचि (इ) दव्त्र-वीचिद्रव्य न० । वीनिर्विवक्षित द्रव्याणां तदव ययानां च परस्परेण पृथग्भाषी विनिमयेन यथ नात् तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि । एकादिप्रदेश नेषु द्रच्येषु भ० १४० १३० पाना मु येनाहार पूर्वसादिनीच पुरुते पर पूर्ण स्त्यवचिद्रव्याणीनि टीकाकारः । भ० १४ ० ६ उ० । (नरविकादयो वीचिव्यापचिष्याणिवा आहारयन्ती ति सव्याण्यम् 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे ५०६ पृष्ठे उक्तम् ।) बीचि (इ)वेग पीथिवेग पुं० झोलचे ०१० बीची देशी घुश्यामाधाम दे० ना० ७ वर्ग ७३ गाथा । - । दीनदोडा श्री० "स्वगः प्राप
॥ ८ ।
४ | ३२६ ॥ इत्याकारस्य ह्रस्वः । प्रा० । विपच्याम्, प्रश्न० ५ संव० द्वार। जी० । श्राचा० ।
गया बीमका खी० वाद्यविशेषे खियां स्पर्धे - स्त्री० । स्त्रियां कः प्रत्ययः । श्रात्रा० २ ० २ ० ४ ० । 'तुंबवीणियसद्दाणि या नि० ० ५३० । ( अनेकप्रकारा वीखिका 'मुहवीथिया' शब्देऽस्मिनेय भागे गता । ) वीतगिद्धि-चीतवृद्धि स्त्री० विगता एविदिषयेषु यस्य स बीतगृद्धिः । श्राशंसादोषरहिते, सूत्र० १० ८ ० । वीभावण-विभापन- २० भयोत्पादने नि००।
।
वीहाती भिक्खू, भंते लडुगा गुरू मसंतमि । आणादी मिच्छi, विराहणा होति सा दुविहा ||४१ || नि० चू० ११ उ० । ( अस्या व्याख्या-- भय' शब्दे पञ्चमभागे १३७६ पृष्ठे गता । )
वीमंस-विमर्ष पुं० [धिमर्पण विमर्थः । अपायात्पूर्वे इंद्रायात्तरे प्रायः शिरःकहदूयनादयः पुरुषधर्मा इद घटन्ते इति । पुरुषोऽयमिति प्रत्यये, विशे० । श्रा० म० । नं० |
विमर्श - पुं० इदमित्थमेव घटते इथे या तद्भूतमित्थमेव या तद्भावीति यथावस्थित वस्तुस्वरूपनिये, नं० विन्तात ऊर्ध्वं विशेषात् पार्थाभिमुखे एव व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्माऽपरित्यागतोऽन्वबुध
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( १३३२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
पीस
विमनं विमर्शः । ईहायाम्, नं० प्रा० चू० । सूत्र० । किमेष साधुः शक्यः क्षोभयितुं नवेत्येवमादिके विकल्पे, दृ० १
उ० ३ प्रक० ।
नीमंसा-मीमांसा - स्त्री० । मातुमिच्छा मीमांसा । प्रमाखजिज्ञासायाम्, विशे० । नं० । श्रा० म० । परीक्षायाम्, मि० चू० १७० | शैक्षकादिपरीक्षायाम्, "वीमंसा सेहमाईलं "
स्था० १० ठा० १ उ० ।
वीय-वीस - वि०। विगते, स्था०२ डा० १३० । श्रपगते, विशे० । बीण वीजन न० | वंशादिमये अन्तग्रह्मदण्डे बायूदीरके,
म० ६ ० ३३ उ० । शा० ।
व्यजन - न० | चामरादिना बायुकरणे, दश०४ अ० । सूत्र० ।
आबा० । प्रश्न०
बीयदोस - वीतद्वेष - पुं० । द्विष्यतेऽनेनेति द्वेषः द्वेषमोहनीयं कर्म आत्मनः कचिदज्ञानपरिणामापादनात् द्वेषणं द्वेष | वेदनीयकर्मापादितो भावोऽप्रीतिपरिणाम एव । वीतो द्वेपो यस्येति । क्षीणद्वेषे, पं० सू० १ सूत्र । होउ मे एसा सम्मं गरिहा । हो उ मे अकरणनियमो । बीयभय-वीतभय-न० । उद्यनराजपालिते सिन्धुसौवीरदे - ताणं गुरूणं कल्ला मित्ताणं ति होउ मे एएहिं संजोगो । बहुमयं ममेयं ति इच्छामि श्रणुसद्धिं । अरहंताणं भगवं
शप्रधाननगरे, श्रा० क० ३ ० प्र० । ती० । प्रशा० प्रा० म० । आव० ।
होउ मे एसा सुप्पत्थणा होउ मे इत्थ बहुमायो । हौउ मे मुक्खीति ।
वीयमोह - वीतमोह - पुं० । मुह्यतेऽनेनेति मोहः वेदनीयं कर्म । आत्मनः कचिदज्ञानपरिणामापादनात् मोहनं वा मोहः । मोहनीय कर्मापादितो भावोऽज्ञानपरिणामः । क्षीणमोहे, पं० सू० १ सूत्र ।
बीयराग - वीतराग - पुं० । वीतो रागो मायालोभकषायोदयरूपो यस्य स वीतरागः । दर्श० ५ तस्व । कर्म० । स्था० । व्यपेताभिष्यते, पञ्चा० ४ विव० । सर्वशे, नि० चू० २० उ० ।
णमो वीयरागाणं ( सू० १+ )
'नमो वीतरागेभ्यः ' । तत्र रज्यते अनेनेति रागः रागघेदनीयं कर्म, आत्मनः कचिदभिष्वङ्गपरिणामापादनात् रञ्जनं वा रागः रागवेदनीयकर्मापादितो भावोऽभिष्वङ्गपरिणाम एव । चीतोऽपेतो रागो येषां ते वीतरागाः, तेभ्यो ममः । पं० सू० १ सूत्र
मुहमं वा बायरं वा मणेण वा वायाए वा कारण वा कयं वा कारावि वा अणुमयं वा रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा इत्थ वा जम्मे जम्मंतरेसु वा गरहिमेचं दुकडमेयं उज्झियन्वमेयं विप्राणिचं मए कल्ला समित्तगुरु भगवंतत्रयणाओ एवमेति रोइअं सद्धाए अरहंत सिद्धसमक्खं गरहामि अहमिणं दुक्कडमेअं उज्झियन्त्रमेयं इत्थ मिच्छा मि दुकडं, मिच्छा मि दुकडं, मिच्छा मि दुकडं ।
सूक्ष्मं, बादरं वा, स्वरूपतः । कथमेतदाचरितम् ? इत्याहमनसा वाचा कायेन वा कृतं चात्मना १, कारितं चान्यैः २, अनुमोदितं वा परकृतम् ३ । एतदपि रागेण वा द्वेषेण वा
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बीयराग
मोहेन वा । अत्र वा जन्मनि जन्मान्तरेषु वा अतीतेषु गहिंतमेतत् कुत्सास्पदम् दुष्कृतमेतत्सद्धर्मबाह्यत्वेन, उज्झितव्यमेतत् यतया । विज्ञातं मया, कल्याणमित्रगु
भगवद्वचनात् । भगवद्वचनप्राप्ती प्राय इयमानुपूर्वीत्येवमुपन्यासः । एवमेतदिति रोचितं श्रद्धया तथाविधकर्मक्षयोपशमजया । ततः किम् ? इत्याह- अर्हत्सिद्धसमक्षं तानधिकृत्य गर्थेऽहमिदं कुत्सामीत्यर्थः । कथम् ? इत्याह-दुष्कृतमेतत् उज्झितव्यमेतत् । श्रश्र - व्यतिकरे 'मिच्छा मि दुक्कडं ' वारत्रयं पाठः । व्याख्या अस्य अर्थविशेषत्वात्प्राकताक्षरैरेव न्याय्या, निर्युक्लिकारवचनप्रामाण्यात् । श्राह च निर्युक्लिकार:
“मिति मिउमद्दवत्ते, छ ति य दोसाण छायणे होइ । मिति य मेराऍ ठिश्रो, दुति दुगुच्छामि अप्पाणं ॥ ६८६ ॥ कति कडं में पावं, डसि य डेवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छादुक्कड - पयक्खरत्यो समासे ॥ ६८७ ॥ " अत्रैतत्सुन्दरत्वान्नाऽसम्यगभिमन्यमान श्रह
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भवतु मम एषा - अनन्तरोदिता, सम्यग्गर्दा भावरूपा । भवतु मे अकरग्नियमः ग्रन्थिभेदव सदबन्धरूपः, गर्दाविषय इति सामर्थ्यम् । बहुमतं ममैतद् द्वयम् इत्यस्मादिच्छामि अनुशास्तिम्- उदितप्रपञ्चबीजभूताम् । केषाम् ? इत्याहअहतां भगवतां, तथा गुरूणां कल्याणमित्राणामिति । प्रतिपन्नतत्त्वानां गुणाधिकविषयैव प्रवृत्तिर्व्याय्या, इत्येवमुपन्यासः । प्रणिध्यन्तरमाह - भवतु मम एभिः -- अर्हदादिभिः संयोगः; उचितो योग इत्यर्थः । भवतु ममैषा सुप्रार्थना अर्द्धदादिसंयोगविषया । भवतु ममात्र बहुमानः प्रार्थनायाम् । भवतु मम इतः प्रार्थनातो मोक्षबीजं सुवर्णघटसंस्थानीयं प्रवाहतः कुशलानुबन्धि कर्मेत्यर्थः ।
तथा
पत्ते एएम अहं सेवारिहे सिया आणारिहे सिभा पडिवत्तिजुत्ते सिमा निरइभारपारगे सिमा ।
प्राप्तेषु तेषु श्रदादिषु श्रहं सेवाईः स्याम् । श्रईदादीनामेवाशाहों स्याम् । एतेषामेव प्रतिपत्तियुक्तः स्याम् । एतेषामेव निरतिचारपारगः स्यामेतदाज्ञायाः ।
एवं सानुषां दुष्कृतगमभिधाय सुकृतासेवनमाहसंविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं । अणुमोएमि सब्वेसिं अरहंताणं अणुाणं । सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं । सव्वेसिं आयरिश्राणं आयारं । सव्वेसिं उवज्झायाणं सुप्याणं । सव्वेसिं साहूणं साहुकिरिश्रं । सब्वेसिं सावगाणं मुक्खसाहण जोगे । सव्वेसिं देवाणं सव्वेसिं जीवाणं होउ कामाणं कल्लाणाऽऽसयाणं मग्गसाहजोगे ।
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(१३३३) बीयराग अभिधानराजेन्द्रः।
बीयराग संविप्रः सन् यथाशक्ति किम् ? इत्याह-सेवे सुकृतम् एवमेतत्सूत्रं सम्यक् पठतः संवेगसारं, तथा शृण्वतःएतदेवाह-अनुमोदेऽहमिति प्रक्रमः । सर्वेषामर्हताम् अनु- याकर्णयतः अन्यसमीपात्, तथाऽनुपेक्षमाणस्य अर्थानुठान धर्मकवादि । एवं सर्वेषां सिद्धानां सिद्धभावम्-अ- स्मरणद्वारेण । किम् ? इत्याह-श्लथीभवन्ति, मम्दविपाकज्याबाधादिरूपम् । एवं सर्वेषामाचार्याणाम् प्राचार-बाना. तया। तथा परिहीयन्ते, पुदगलापसरणेन । तथापीयन्ते चारादिलक्षणम् । एवं सर्वेपामुपाध्यायानां सूत्रप्रदानं सद्वि- निर्मूलत एवाशयविशेषाभ्यासद्वारेण । के? इत्याह-अशुभिवत् । एवं सर्वेषां साधूनां साधुक्रियां सत्स्वाध्यायादिक- भकर्मानुबन्धाभावरूपाः । कर्मविशेषरूपा वा । ततः किम् ? पाम् । एवं सर्वेषां श्रावकाणां मोक्षसाधनयोगान् वैया- इत्याह-निरनुबन्धं वाऽशुभकर्म यच्छेषमास्ते । भनसामर्थ्य वृत्यादीन् । एवं सर्वेषां देवानाम्--इन्द्रादीनाम्। सर्वेषां विपाकप्रवाहमकीकृत्य शुभपरिणामेनानन्तरोदितसूत्रप्रभवेजीवानाम्। सामान्येनैव भवितुकामानामासन्नभव्यानां, क. न । किमिव ? इत्याह-कटकबद्धमिव विषं मन्त्रसामध्येंस्वाणाऽऽशयानां-शुद्धाशयानाम् एतेषाम् । किं ? इत्याह- माल्पफलं स्यात् । अल्पविपाकमित्यर्थः । तथा सुखापनेयं मार्गसाधनयोगान् सामान्येन कुशलव्यापाराननुमोदे, इति स्यात् , सम्पूर्णस्वरूपेणैव । तथा अपुनर्भावं स्यात्कर्म, पुनस्तक्रियानुवृत्तिः । भवन्ति चैतेषामपि मार्गसाधनयोगाः, मि- थाऽबन्धकत्वेन । एवमपायपरिहारः फलत्वेनोक्तः । ध्यारशीनामपि गुणस्थानकत्वाभ्युपगमात् ।
इदानीं सदुपायसिद्धिलक्षणमेतदभिधातुमाहअनभिग्रहे सति प्रणिधिशुद्धिमाह
तहा प्रासगलिअंति परिपोसिजंति निम्मविजंति सुहहोउ मे एसा अणुमोअणा । सम्मं विहिपुन्धिमा, सम्म
कम्माणुबंधा । साणुबंधं च सुहकम्म पगिट्ठ पगिढभावसुद्धाऽऽसया, सम्म पडिवत्तिरूवा, सम्मं निरहमारा । प
जिनं नियमफलयं सुप्पउत्ते (ब्ब) वित्र महाऽगए सुहफले रमगुणजुत्तभरहंताइसामत्थो अचिंतसत्तिजुत्ता हि ते
सिमा सुहपवत्तगे सिमा परमसुहसाहगे सिमा अपडिबंधभगवंतो बीभरागा सब्बरणू परमकवाणा परमकवाणहेऊ
मेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीअंति सुप्पणिहाणं ससत्ताणं मृडे अम्हि पावे अण्णाइमोहवासिए अणभिने
म्म पढिअव्यं सम्मं सोअव्वं अणुप्पेहिअव्वं ति । भावमो हिमाऽहिमाणं अभिन्ने सिआ अहिअनिवित्ते
तथा पा सकलीक्रियन्ते आक्षिप्यन्ते इत्यर्थः । तथा परिपोसिमा हिमपवित्ते सिमा पाराहगे सिमा उचिअपडिव
च्यन्ते, भावोपचयेन । तथा निर्माप्यन्ते परिसमाप्ति नीयन्ते । सीए सबसत्ताणं सहिअंति । इच्छामि सुकडं, इच्छामि के ? इत्याह--कुशलकर्मानुबन्धा इति भावः । ततः किम् ? सुक्कडं, इच्छामि सुक्क(क)डं।
इत्याह-सानुबन्धं च शुभकर्म, प्रात्यन्तिकानुबन्धापेक्षम् । भवतु ममेषाऽनुमोदना अनन्तरोक्का । सम्यग्विधिपूर्यिका,
किंविशिष्टम् किम् ? इत्याह-प्रकृएं-प्रधानं प्रकृएभावासूत्रानुसारेण । सम्यक शुद्धाशया, कर्मविगमेन । सम्यक र्जितं-शुभभावार्जितमित्यर्थः । नियमफल, प्रकृष्टत्वेनैव । त. प्रतिपतिरूपा, क्रियारूपेण । सम्यनिरतिचारा, निर्वहणे- | देवभूतं किम् ? इत्याह-सुप्रयुक्त इव महाऽगदः एकान्तकल्यामाकुतो भवतु ? इत्याह-परमगुणयुक्ताईदादिसामर्थ्यतः । णःशुभफल स्यादनन्तरोदितं कर्म । तथा शुभप्रवर्सकं स्यादमादिशब्दात्सिद्धादिपरिग्रहः । प्रार्थनायाः सविषयतामाह- नुबन्धेन । एवं परमसुखसाधक स्यात् पारम्पर्येण, निर्वाअचिन्त्यशक्तियुक्ता हि ते भगवन्तोऽहंदादयः, वीतरागाः णावमित्यर्थः । यत एवम् , अतोऽस्मात्कारणात् अप्रतिसर्वज्ञाः प्राय प्राचार्यादीनामप्येतद्वीतरागादित्वमस्तीत्येव- बन्धम् पतत् प्रतिबन्धरहितम् , अनिदानमित्यर्थः। अशुमभिधानं तद्विशेषापेक्षं त्वाह-परमकल्याणा प्राचार्यादयोऽपि भभावनिरोधन-अशुभानुबन्धनिरोधेनेत्यर्थः। शुभभावनापरमकल्याणहेतवः सत्स्वानां तैस्तैरुपायैः सर्व पवैते मूढ- बीजमिति कृस्वैतत्सूत्रं सुप्रणिधानं शोभनेन प्रणिधानेन श्वास्मि पाप एतेषां विशिष्टानां प्रतिपत्ति प्रति । अनादि- सम्यक प्रशान्तात्मना पठितव्यम् अध्येतव्यम् । श्रोतव्यमोहवासितः संसारानादित्वेन ! अनभिज्ञो भावतः परमा- मन्वाख्यानविधिना। अनुप्रेक्षितव्य-परिभावनीयमिति । न थतः । हिताहितयोभिशः स्यामहमेतत्सामर्थेन । तथा च," होउ मे एसा अणुमोदना सम्मं विहिपुब्बिगा" इत्याअहितनिवृत्तः स्या, तथा हितप्रवृत्तः स्याम् । एवमागधकः
दिना निदानपदमेतदिति मन्तव्यम् । क्लिष्टकर्मबन्धहेतोस्यामुचितप्रतिपस्या, सर्वसत्वानां सम्बन्धिम्या । किम् ?
वानुबन्धिनः संवेगशून्यस्य महर्थिभोगगृद्धावध्यवसानस्य इस्याह-स्वहितमिति । इच्छामि सुकृतम् एवं वारत्रयं निदानत्वात् । अस्य च तल्लक्षणायोगात् । अनीरशस्य चानिपाठः । उत्तममेतत्सुकताऽऽसेवनम्, विशेषतः पृथग्गतामां दानत्वात् । श्रारोग्यप्रार्थनादेरपि निदानत्वप्रसवात्। तथा घनच्छेवलदेवमृगोदाहरणात् परिभावनीयम् ।।
चागमविरोधः-" श्रादग्गबोधिलाभ, समाधिवरमुत्तम सूत्रपाठे फलमाह
देतु।" इत्यादिवचनश्रवणादिस्यलं प्रसङ्गेन। एवमेनं सम्म पढमाखस्स सुरणमाणस्स अणुप्पेहमा
सूत्रपरिसमाप्तावथसानमङ्गलमाहसस्स सिदिलीभवंति परिहायंति खिज्जति असुहकम्मा- नमो नमिअनमिश्राणं परमगुरुवीअरागायं। नमो सेसप्रबंधा। निरणबंधे वा असुहकम्मे भग्गसामत्थे सुहपरि-[ नमुक्कारारिहाणं । जयउ सब्वएणुसासणं । परमसंबोडीए सामेणं कडगषदेवि अविसे अप्पफले सिमा सुहाव- सुहिणो भवंतु जीवा, सुहियो भवन्तु जीवा, सहिणो भवशिजे सिमा अपुणभाचे सिमा।
न्तु जीवा इति ।
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(२३३४) बीयराग अभिधानराजेन्द्रः ।
वीधराग नमो नतनतेभ्यः देवर्षिवन्दितेभ्य इत्यर्थः । केभ्यः ? इत्याह-| वास्यवासकभाव उक्तः, सोऽपि युगपद्भाविनामेवोपलभ्यते, परमगुरुवीतरागेभ्य इति यावत् । नमः शेषनमस्काराहेभ्य | यथा तिलकुसुमानाम् , उक्नं चान्यैरपि-"अवस्थिता हि वाआचार्यादिभ्यो गुणाधिकेभ्य इति भावः । जयतु सर्वशशा-| स्यन्ते, भावा भावैरवास्यतैः" तत् कथमुपादयोपादानक्षणसनं, कुतीर्थापोहेन । परमसम्बोधिना वरबोधिलाभरूपेण योर्यास्यवासकभावः?, परस्परमसाहित्यात् ,उक्नं च-"वास्य. सुखिनो भवन्तु. मिथ्यात्वदोषनिवृस्या जीवाः--प्राणिन इति वासकयोश्चैव-मसाहित्यान्न वासना । पूर्वशणैरनुत्पन्नो, अस्य वारत्रयं पाठः। पं० सू०१ सूत्र । प्रशमरसनिमग्नं वास्यंत नात्तरः क्षणः ॥१॥ उत्तरेण विनष्टत्वान्न च पूर्वस्य दृष्टियुग्मं प्रसन्नं , बदनकमलमङ्कः कामिनीसङ्गशून्यः । वासना ॥" अगि च-वासना वासकाद्भिन्ना वा स्यादभित्रा करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबन्धवन्द , तदसि जगति देवो | वा?, यदि भिन्ना तर्हि तया शून्यत्वात् नैवान्यं वासयति , वीतरागस्त्वमेव ॥१॥" प्रतिः । (वीतरागत्व- वस्त्वन्तरवद् . आथाऽभिन्ना तर्हि न वास्ये वासनायाः संका
ण' शब्दे चतुर्थभागे १४६० पृष्ठे वि- न्तिः तदभिन्नत्वात् , तत्स्वरूपवत् , संक्रान्तिश्चत्तहि अस्तरतो दर्शिता ) (अशिष्टा 'आता' शब्दे द्वितीयभागे न्वयप्रसङ्ग इति यत्किश्चिदेतत् । यदप्ययुक्त-सक२११ पृष्ठ दर्शिता ) ततोऽवशिष्टा पुनरत्र दर्श्यते-स्यादेतत् लमपि जगद्रागद्वेषादिदुःस्वसंकुलमभिजानानः कथमिदं न कश्चिदन्यः क्षणेभ्यः सन्तानः, किन्तु-य एव कार्यकारण
सकलमपि जगत् मया दुःखादुद्धर्तव्यमित्यादि, तदभावप्रवन्धेन क्षणानां भावः स एव सन्तानः, ततो न क- पि पूर्वापगसंबद्धबन्धकीभाषतमिव केवलधाष्टर्घसूचकं, चिद्दोषः, तदप्ययुक्तम् , भवन्मते कार्यकारणभावस्याप्यघट- यतो भवन्मतेन क्षणा एवं पूर्वापरक्षणटितानुगमाः परमामानत्वात् , तथाहि-प्रतीत्य समुत्पादमात्र कार्यकारणभा- थसन्तः, क्षणानां चावस्थानकालमानर्मकपरमाणुव्यतिक्रमवः ततो यथा विवक्षितघटक्षणानन्तरं घटक्षणः तथा प- मात्रम् ,अत एवोत्पत्तिव्यतिरेकेण नान्या तेषां क्रिया सङ्गति
दिक्षणोऽपि, यथा च घटक्षणात् प्रागनन्तरो विवक्षितो घ. मुपपद्यते, 'भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैष चोच्यते' इति वटक्षण तथा पटादिक्षणा अपि, ततः कथं प्रतिनियतकार्य- चनात्,तनी ज्ञानक्षणानामुत्पत्त्यनन्तरं न मनागप्यवस्वानं.नाकारणभावावगमः ?, किञ्च-कारणादुपजायमानं कार्य स- पि पूर्वापरक्षणाभ्यामनुगमः,तस्मान्न तेषां परस्परस्वरूपायघातो वा जायेत असतो वा?, यदि सतः तर्हि कार्योत्पत्ति
रणं,नाप्युत्पत्यनन्तरं कोऽपि व्यापारः,ततः कथमर्थोऽयं मे पु. कालेऽपि कारणं सदिति कार्यकारणयोः समकालताप्रस
रः साक्षात्प्रतिभासते इत्येवमर्थनिश्चयमात्रमप्यनकक्षणसम्भ जः म च समकालयोः कार्यकारणभाव इष्यते, मात्रपत्याद्य
वि अनुस्यूतमुपपद्यते ?,तदभावाच कुतः सकलजगतो रागविशाद . घटपटादीनामपि परस्परं कार्यकारणभावप्रसक्तः,
द्वषादिदुःख सकुलतया परिभावनम्?,कुतो वा दीर्घतरकालाअथाऽसत इति पक्षः,तदप्ययुक्तम् , असतः कार्योत्पादायोगा
नुसन्धानेन शास्त्रार्थचिन्तनम्?,यत्प्रभावतः सम्यगुणायमभित्, अन्यथा खरविषाणाप तदन्पत्तिप्रसक्नेः, न चात्य ऽन्ता
साय कृपाविशनात् मोक्षाय घटनं भवेदिति । ननु सर्वोऽयं भावप्रध्वंसाभावयोः कोऽपि विशषः, उभयत्रापि वस्तुसत्त्वा
व्यवहारो ज्ञानक्षणसन्तत्यपेक्षया, नैकक्षणमधिकृत्य, तत्कंयभावात् . प्रध्वंसाभावे वस्त्यासीत् तेम हेतुरिति चेत् यदा
मनुपपत्तिरुद्भाव्यते ?, उच्यते-सुकुमारप्रशो देवानांप्रियः, ऽसीत् तदा न हेतुः अन्यदाच हेतुरिति साध्वी तत्त्वव्यव
सदव सप्तटिकामध्यमिष्टान्न भोजनमनाशशयनीयशयना
भ्यासेन सुवैधितो न वस्तुयाथात्म्यावगमे चित्तपरिक्लेशमर्थाितः । अन्यञ्च तद्भावे भाव इत्यवगमे कार्यकारणभावाव
धिसहते,तेनास्माभिरुतमपि न सम्यगवधारयसि, ननु ज्ञागमः म च तद्भावे भावः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते उतानुमानेन?
नक्षणसन्ततावपि तदवस्थैवानुपपत्तिः, तथाहि-वैकल्पिका न तावत्प्रत्यक्षण पूर्ववस्तुगतेम हि प्रत्यक्षेप पूर्व वस्तु परिच्छि
अवैकल्पिका वा ज्ञानक्षणाः परस्परमनुगमाभावादविदितनमुत्तरवस्तुगतेन तृत्तरं, न चते परस्परस्वरूपमवगच्छतो,
परस्परस्वरूपाः, न च क्षणादमवतिष्ठन्ते, ततः कथमेष नाप्यन्योऽनुसन्धाता , कश्चिदेकोऽभ्युपगम्यते, तत एतदन
पूर्वापरानुसंधानरूपो दीर्घकालिकः सकलजगद्दुःखितापन्तरमेतस्य भाव इति कथमवगम:?, नाप्यनुमानेन, तस्य प्र
रिभावनशास्त्रविमर्शादिरूपो व्यवहार उपपद्यते?, अक्षिणी त्यक्षपूर्वकन्वात् , तद्धि लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणपूर्वकं प्रवर्तते,
निमील्य परिभाव्यतामेतत् , यदप्युच्यते स्वग्रन्थेषु-निर्विकलिङ्गलिङ्गिसम्बन्धश्च प्रत्यक्षेण ग्राह्यो नानुमानेन अनुमानेन
ल्पकमर्थाकारमुत्पन्नं पूर्वदर्शनाहितवासनाप्रबोधात्तं विकल्प ग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्नेः, न च कार्यकारणभावविषये प्रत्यक्ष प्रा.
जनयति येन पूर्वापरानुसन्धानात्मकोऽर्थनिश्चयादिव्यवहावर्तिष्ट ततः कथं तत्रानुमानप्रवृत्तिः ?, एवं शानक्षणयोरपि प
रः प्रवर्तते, तदप्यतेनापाकृतमवसेयं, यतो विकल्पोऽप्यनेरस्परं कार्यकारणभावावगमः प्रत्यस्तो वेदितव्यः , तत्रापि
कक्षणात्मकः, ततो विकल्पेऽपि यत्पूर्वक्षणे वृत्तं तदपरक्षणो स्वेन स्वेन संवेदनेन स्वस्य स्वस्य रूपस्य ग्रहणे परस्परस्व.
न वेत्ति, यश्चापरक्षणे वृत्तं न तत्पूर्वक्षणः, ततः कथमेष दीरूपानवधारणादेतदनन्तरमहमुत्पन्नमतस्य चाहं जनकमित्य
र्घकालिकोऽनुस्यूतकरूपतया प्रतीयमानोऽर्थनिश्चयादिव्यवनवगतेः, तन्न भवन्मतेन कार्यकारणभावो,नापि तदवगमः, त
हारो घटते? । अपि च-भवन्मतेन ज्ञानस्यार्थपरिच्छेदव्यतो याचितकमण्डनमेतद्-एकसन्ततिपतितत्वादेकाधिकरणं वस्थाऽपि नोपपद्यते, अर्थभावे शानस्योत्पादाद् , अर्थकार्यवन्धमोक्षादिकमिति । एतेन यदुच्यते-उपादेयोपादानक्षणा- तया तस्याभ्युपगमात् , 'नाकारणं विषय' इति वचनात् , ने नां परस्परं वास्यवासकभावादुत्तरोत्तरविशिष्टविशिष्टतरक्ष- च वाच्यं तत उत्पन्न मिति तस्य परिच्छेदकम् ,इन्द्रियस्यासोत्पत्तेः मुक्तिसम्भव इति, तदपि प्रतिक्षिप्तमवसेयम् , उपा- प्यर्थवत्परिच्छेदप्रसक्नेः ततोऽप्युत्पादात् तदभावेऽभावात् । दानोपादेयभावस्यैवाक्लनीत्याऽनुपपद्यमानत्वात् , योऽपि च नाऽपि सारूपात,सर्वस "पि सर्वदेशविकल्पाभ्यामयोगातू
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(१३३५) वीयराग अभिधानराजेन्द्र
वीयराग तथाहि-न सर्वात्मना अथैन सह सारूप्यं सर्वामिनार्थेन | न्तरेऽनुगच्छति, ततः कथं ततोऽनन्तरं कालान्तरे वा विशिसह सारूप्ये शानस्य जरूपताप्रसक्ने, अन्यथा सर्वात्म- , मानमुदयते ?, एवं हि तन्निर्हेतुकमेव परमार्थतो भवेत् । मा सारूप्ययोगात् , नाप्येकदेशेन, सर्वस्य सर्वार्थपरिच्छेद - अथ पूर्व विज्ञानं प्रतीत्य तदुत्पद्यते तत्कथं तन्निर्हेतुकम् ?, कत्वप्रसनात् , सर्वस्यापि शानस्य सर्वैरपि वस्तुभिः सह क्रीडनशीलो देवानां प्रियो यदेवमेवाऽस्मान् पुनः पुनरायाकेनचिदंशेनान्ततः प्रमेयत्वादिना सारूप्यसम्भवात् ,आह च |
सथति, ननु यदा यत्पूर्व विज्ञानं न तदा तद्विशिष्टं शानमुपभवदाचार्योऽपि धर्मकीर्ति ननयप्रस्थाने-"सर्वात्मना हि जायते यदाच तदुपजायतेन तदा पूर्वविज्ञानस्य लेशोऽपि सारूप्ये, मानमझानतां बजेत् । साम्ये केनचिदंशेन, सर्व तत्कथं तन्त्र निर्हेतुकम् ?, यदप्युक्नन्-'किश्चित्कालान्तरे' सर्वस्य वेदनम् ॥१॥"न च सारूप्यादर्थपरिच्छेदव्यवस्थि- इति, तदपि न्यायबाह्य, चिरविनष्टस्य कार्यकरणायोगाद्, तावर्थसाक्षात्कारो भवति, परमार्थतोऽर्थस्य परोक्षत्वात् ,
अन्यथा चिरविनष्टेऽपि शिस्विनि केकायितं भवेत् .ननुचिर. ततो योऽयं प्रतिप्राणिप्रसिद्धः सकलैरपीन्द्रियैर्यथायोगम- विनष्टादप्यनुभवात् स्मृतिरुदयमासादयन्ती दृश्यते, न च र्थसाक्षात्कारो यच गुरूपदेशश्रवणं शास्त्रनिरीक्षण वा यव
होऽनुपपन्नता, तद्वत् ज्ञानान्तरमपि भविष्यति को दोषः ?, शात्तवंशात्वा मोक्षाय प्रवृत्तिः तत्सर्वमेकान्तिकक्षणिक
उच्यते-दृश्यते चिरविनष्टादप्यनुभवात् स्मृतिः, केवलं सापक्षाभ्युपगमे विरुध्यते स्यादेतत्-परमार्थत पतदेव, त
ऽपि भवन्मतेन नोपपद्यते, तत्राप्युक्तदोषप्रमद्वात् , ततोऽयथाहिन्नशानं कस्यचित् परिच्छेदकम् , उकनीत्या ग्राहक
मपग भवतो दोषः, न च राष्टमित्येव या कश्चित्परिकस्थायोगात् , नाऽपितत्कस्थचित्परिच्छेचं,तत्रापि ग्राह्यग्राह
ल्पनामधिसहते, किन्तु-प्रमाणोपपत्रं तत्र यथा भवनपरि
कल्पना तथा न किमप्युपपद्यते. नताश्यमन्य ज्ञानमकत्यायोगात्, ततो पाखग्राहकाकारातिरिकंकानमेव केवलं
भ्युपगन्तव्यम् , तथा च सति न कश्चिद्दोषः , सर्वस्यापि स्वसंविदितरूपत्वाव-नवयं प्रकाशते, तेनाद्वैतमेव तस्वम्, यस्तु तथार्थनिश्चयादिको व्यवहारः सोऽनादिकालसंलीनवास
स्मृत्यादेरुपपद्यमानत्वात् , तथाहि-अनुभवेन पटीयसाऽवि
रुघुतिरूपधारणासहितेनात्मनि वासनाऽपरपर्यायः संस्कार नापरिपाकसम्पादितो द्रव्यः , तदप्यचुक्तम् , वासनाया
प्राधीयते,सच यावदवतिष्ठते तावत्तारशार्थदर्शनादाभोगतो अपि विचार्यमाणाया अपहमानयात्, तथाहि-सा वास
या स्मृतिरुदयते,संस्काराम्भावे तु न,ततोऽन्वयिज्ञानाभ्युपगमे ना असती, सती वा?, पदसती, असतः खरविषाण
परमार्थतोऽनुसन्धातुरेकस्याभ्युपगमात्कार्यकारणभावावगस्येव सकलोपास्याबिकलतवा तथा तथाऽर्थप्रतिभासहेतु
मो निखिलजगदुःखितापरिभावनं शास्त्रपौर्वापर्यालोचस्वायोगाद्, अथ सती तर्हि सा मानाद् व्यत्यरक्षीत् न वा ?,
मेन मोक्षोपायसमीचीनताविवेचनमित्यादि सर्वमुपपद्यते व्यत्यरैक्षीच्चद्वैतहानिः, अपस्याभ्युपगमाद्, अपि च-सा
तन्त्र नैरात्म्यादिभावना रागादिनेशप्रहाणिहेतुः , तस्या शानाद् व्यतिरिका सती एकापा वा स्यादनेकरूपा वा?,
मिथ्यारूपत्वात् । यदपि च उक्तम्-श्रात्मनि परमार्थन तावदेकरूपा एकरूपत्वे तस्या नीलपीताचनेकप्रतिभास
तया विद्यमाने तत्र स्नेहः प्रवर्तत इति तत्राचीनावस्थाहेतुत्यायोगात्, स्वभावभेदेन विना भिन्नभिन्नार्थक्रियाकर-1
यामेतदिष्यत एव, अन्यथा मोक्षायापि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, त. णविरोधात्, अथानेका तर्हि नामान्तरेखार्थ एव प्रतिपन्नः,
थाहि-यत एवात्मनि स्नेहः तत एव प्रेक्षावतामात्मनो दु:तथादि-सा बासना ज्ञानाद् व्यतिरिका, अनेकरूपाच,अर्थोड
खपरिजिहीर्षया सुखमुपादातुं यत्नः, तत्र संसारे सर्वत्रापि प्येवंरूप एवेति, अथाव्यतिरिका सापि च पूर्वविज्ञानज
दुःखमेव केवलम् , तथाहि-नरकगतौ कुन्तानभेदकरपत्रशिरःनिता विशिष्टज्ञानान्तरोत्पादनसमर्था शक्तिः, श्राह च प्रज्ञा
पाटनशूलारोपकुम्भिपाकासिपत्रवनकृतकर्णनासिकादिच्छेद करगुप्तः-"वासनेति हि पूर्वविज्ञातजनितां शक्तिमामनन्ति
कदम्बवालुकापथगमनादिरूपमनेकप्रकारं दुःखमेव निरन्तरं वासनास्वरूपविदः" एवं तर्हि पूर्वपूर्वविज्ञानजनिताः कालभे
नाक्षिनिमीलनमात्रमपि तत्र सुखम् , निर्यग्गतावपि अङ्कशकदेन तत्तद्विशिष्टविशिष्टतरज्ञानोत्पादनसमर्थाः शक्तयोऽनेकाः
शाभिघातपाजनकतोदनवधबन्धरोगक्षुत्पिपासादिप्रभवमनेप्रबन्धेनानुवर्तमानाः तिष्ठन्ति,तत एकस्मिन्नपि शानक्षणेऽने
कं दुःखम् ,मनुष्यगतावपि परप्रेषगुप्तिगृहप्रवेशधनबन्धुवियो. का वासनाः सन्ति, शक्तीनामेव वासनात्वेनाभ्युपगमात् , ता- गानिसम्प्रयोगरोगादिजनितं विविधमनेकं दुःखम् देवगता. सांच शानक्षणाव्यतिरेकादेकस्याः प्रबोधे सर्वासामपि प्र
वपिच परगतिविशिष्टधुतिविभवदर्शनात् मात्सर्यमान्मनि तबोधः प्राप्नोति, अन्यथा व्यतिरेकायोगात्, ततो युगपदन- द्विहीने विषादः च्युतिसमये चातिरमणीयविमानवनवापीस्तू.
विज्ञानानामुदयप्रसङ्गः, स चायुक्तः, प्रत्यक्षबाधितत्वात् ।। पदेवागनावियोगजनिष्टजन्मसन्तापं वाऽवेक्षमाणस्य तप्ताअन्यच्च-झाने विनश्यति तदव्यतिरेकात्ता अपि निरन्वय
योभाजननिक्षिप्तशफरादप्यधिकतरं दुःखम् , यदपि च-मनुमेव विनष्टाः, ततः कथं तत्सामर्थ्यात्कालभेदेन तत्तद्विशिष्ठ-] च्यगतौ देवगतौ वा किमप्यापातरमणीयं कियत्कालभावि विशिष्टतरझानान्तरप्रसूतिः ?, स्यादेतत्--पूर्वमेव विज्ञानं | विषयोपभोगसुखं तदपि विषसम्मिश्रभोजनसुखमिव पर्यन्तदा पाटवाधिष्ठितं, वासना तज्जनिता शक्तिः, उक्नदोषप्रसङ्गात् , रुणत्वादतीव विदुषामनुपादेयम् , तन्न संसृतौ कापि विदुषातच पूर्व विज्ञानं किश्चिदनन्तरं तथा तथा विशिष्ट भानं ज- मास्थोपनिबन्धो युक्तः । यत्तु निःश्रेयसपदमधिरूढस्य सुखं नयति, किश्चित् कालान्तरे, यथा जाग्रदशाभाविज्ञानं स्वप्न- तत्परमानन्दरूपमपर्यवसान च, तश्च प्रायो युक्तिलेशन प्रा. कामं, न च व्यवहितादुत्पत्तिरसम्भाव्या, रष्ठत्वात् , तथा- गेवोपदर्शितम् , अागमतो वाऽनुसतव्यम् , (नं०)(भागमप्रहि-अनुभवाच्चिरकालातीतादपि स्मृतिरुदयमासादयन्ती माणबलाद्धि सकलमपि परलोकाऽऽदिस्वरूपं यथावदवगरश्यते, तदप्युक्तम्, तत्राप्युक्तदोषानतिक्रमात् , यद्धि पूर्व- म्यते, इति 'अागम' शब्दे द्वितीयभागे ७८ पृष्ठे उक्तम् ।) विज्ञानं निरन्वयमेव विनष्ट न तस्य कोऽपि धर्मः क्षणा- तत आगमबलादुक्लस्वरूपमोक्षसुखमवेत्य तत्राऽऽगमे सर्वा
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'अभिधानराजेन्द्रः।
बीयसोगा स्मना निषहमानसः संसाराद्विरको यद्यसंसारहेतुः तत्त- प्रकृतेः पूर्वमभावात् , प्रथात्मस्वभावरूपा सा वासना हिं परिजिहीररकदिष्टः सर्वकर्मनिर्मूलनाय प्रकर्षेण पतते , तस्याः कदाचनाप्यात्मन इवोपरमासम्भवात्सर्वदाऽप्यमुतस्य चैव प्रयतमानस्य कालक्रमेण विशिष्टकालादिसाम
तिरेवेति । यत्किचिदेतत् । यदप्युक्तम्- रागादयो धर्माः, ग्रीसम्प्राप्तौ प्रतनुभूतकर्मणः सकलमोहविकारप्रादुर्भावधि -
तेच किंधम्मिणो भिना अभिवा वा' इत्यादि, तदप्ययु. निवृत्तेरणिमात्रैश्वर्यलग्धावपि नौत्सुक्यमुपजायते, अत एव
वं, भेदामेवपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात्, केवलभेदा:पतस्य मोक्षेऽपि न स्पृहाऽभिवापरपर्याया, तस्या अपि
भेदपक्षे धर्मधर्मिमावस्यानुपपद्यमानत्वात् , (नं.) (इतोमोडविकारत्वात् , केवलं सा संसाराद्विरक्तिहेतुः स्वयमपि
ने 'धम्म' शब्द चतुर्थमागे २६६३ पृष्ठे गतम्।) ततधन -परंपरागिरनुबन्धिनीत्यर्वाचीनावस्थायां प्रशस्यते, न
सर्वेषां बीर रागरवप्रसका केवलभेदस्यानभ्युपगमात्, नानु यदि मोकेऽपि न स्पृहा कथं तर्हि तदर्थ प्रवृत्त्युपपत्तिः ।
पि दोषक्षयवदात्मनोऽपि यः केक्साभेवस्यानभ्युपगमाम, लोकेऽपि स्पृहाव्यतिरेकेणापि तमत्कार्यकरणाय प्रवृ- दिति सर्व सुस्थम् । ननु येनैव क्रमेण भगवतो:ति दर्शनात् , तथाहि-दृश्यन्ते केचित् गम्भीराशया अभि
तिशयलाभः तेनैव क्रमेण तदभिधानं युक्रिमन्नाऽन्यथा । वहात्मिका स्पृहामन्तरेणापि यथाकालं भोजनाद्यनुतिष्ठ- |
भगवतम प्रथमतोऽपायापगमातिशयस्य लाभः, पश्चात् म्तः, तथाविधौत्सुक्यलाम्पटयाचदर्शनाद् । अपि च-यथा
सानातिशयस्य तकिमर्थ व्युत्क्रमनिर्देशः१, उच्यते-फलम मोक्षे स्पृहा तथा न संसारेऽपि, संसारादत्यन्तं प्राधानाः समारम्भा इति शापनार्थम् ।।दर्श । गतराविरकत्वात् , ततः सकलमपि संसारहेतुं परित्यजन्तः गद्वेषमोहे, संथा। कथमिव संसारपरिक्षये मोक्षस्पृहाव्यतिरेकेणापि न मु-बीयरागगामि (ग)-चीतरागगामिन-त्रि०। जिनविषये, क्लिभाजः ?, तदेवं सर्वत्र स्पृहारहितस्य सूत्रोक्लनीस्या | पञ्चा०५चिव मानादिषु यतमानस्य भावनाप्रकर्षे सत्यशेषरागादिकर्म
वीयरागत्थय-वीतरागस्तव-पुं०। श्रीहेमरिविरचिते बीतपरिक्षयता भवति मुक्तिः, पतेन यदुक्तम्-' तत्स्नेहवाशा
रागस्तोत्रे, ध०२ अधिः । डच तत्सुखेषु परितर्षवान् भवति' इत्यादि, तदपि नि
वीयरागदसणारिय-वीतरागदर्शनार्य-कधीतरागदर्शनायें, विषयमयगन्तव्यम् , उक्लनीत्या तस्ववेदिनः परितर्षाचभावादिति स्थितम् । सांख्याः पुनराहु:-" प्रकृतिपुरुषान्तर
प्रज्ञा पद । (ते च द्विविधाः 'पायरिय'शम्मे द्वितीयपरिज्ञानान्मुक्तिः" तथाहि-"शुद्धचैतन्यरूपोऽयं, पुरुषः प
भागे ३३७ पृष्ठे गताः।) रमार्थतः। प्रकृत्यन्तरमहात्वा, मोहात्संसारमाश्रितः॥१॥"
वीयरागया-वीतरागता-खी। बीतो रागो यस्मात्स वीततः प्रकृतेः सुखादिस्वभावाया यावत् न विवेकेन प्रहणं तरागस्तस्य भावो वीतरागता । रागद्वेषाभावे, उत्त. २६ तायन मुक्तिः, केवलज्ञानोदये तु मुक्तिः, तदप्यसद्, श्रा- भ० । रागद्वेषनिवारणे, उत्त० २६ ०। स्मा होकान्तनित्यः सुखादयस्तूत्पादव्ययधर्माणः, ततो | बीयरा(ग)ययाए णं भंते! जीवे किंजणयइ', वीयराययाविरुद्धधर्मसंसर्गादात्मनः प्रकृतेर्मेदः प्रतीत एव. किं न
एणं नेहाऽणुबंधणाणि य तएहाऽणुबंधणाणि य वोच्छि मुक्तिः १, अथैतदेव संसारी न पर्यालोचयति ततो न
न्दर मणुषाऽमणुसु सहफरिसरसरूवगंधसुचव विरघसायस्यासंभवात् , तथाहि-यावत् संसारी नावन विवे अइ ॥४५॥ कपरिभावनम , अथ च विवेकपरिभावने संसारित्वव्यपग- । हे भगवन् ! वीतरागतया जीवः किं जनयति !, बीतोमः, ततो विवेकाध्यवसायासंभवात् न कदाचिदपि सं- | गतो रागो यस्मात्स वीतरागस्तस्य भावो वीतरागता साराद्विप्रमुक्तिः । अपि च-सृष्टेरपि प्रागात्मा केवल एण्य- तया चीतरागतया-रागद्वेषाभावेन किं फल जनयति । ते, ततस्तस्य कथं संसारः ?, कथं वा मुक्तस्य सतो न गुरुराह-हे शिष्य ! वीतरागतया स्नेहाऽनुबन्धनानि स्नेहभूयोऽपि ?, अथ सृष्टः प्रागात्मनो दिक्षा ततो दिर. स्य अनुरुलानि बन्धनानि पुत्रमित्रकलाविषु प्रेमपाशान क्षावशात्प्रधान सहकतामात्मनि पश्यतः संसारः, मु. तथा तृष्णानुबन्धनानि द्रव्यादिषु आशापाशान् , व्यवक्लिस्तु प्रकृतेर्दुएतामयधार्य प्रकृतेर्विरागतो भवति, ततो च्छिन्नत्ति विशेषण त्रोटयति पुनर्मनोशेषु-मनोहरेषुचः-पुनः न पुनः प्रकृतिविषया दिरक्षेति न भूयः संसारः, तद- अमनोशेषु-अमनोहरेषु शम्मस्पर्शरसरूपगन्धेभ्यो घिरज्यतेप्ययुक्तम् , स्वरुतान्तविरोधात् , तथाहि-दिक्षा नाम द्र
विषयेभ्यो बिरनो भवतीति भावः । उत्त०२६ मा प्टुमभिलाषा, सच पूर्यरटेण्यर्थेषु तथा स्मरणतो भवति,
| वीयरागसुय-वीतरागश्रुत-०। सरागव्यपोहेन वीतरागस्वन च प्रकृतिः पूर्व कदाचनापि दृष्टा, तत्कथं तद्विषयौ
| कप प्रतिपायते यत्राध्ययने तबीतरागश्रुतम् । वीतरागस्वस्मरणाभिलायौ ?, अपि च-हमरणाभिलाग प्रकृतिविका
| रूपप्रतिपादकेऽध्ययने, नं० । पा०। भौविनौ, स्मरणाभिलाषाभ्यां च महत्वानम |वीयसोग-चीतशोक-पुं० । पश्चलप्ततितमे महामहे, कल्प इत्यन्योन्याश्रयः. माह-"अभिलासम्मरणयो.. प्रकले १अधि०६क्षण । स्था। सूत्रः। मा०म०। द्वीपसमूरेव वृत्तितः । अभिलाषाच तवत्ति-रिस्यम्योऽन्यसमाश्रयः। विशेषाधिपती, दी। ॥१॥" अथानादियासमावशात्प्रकृतिविषयौ स्मरणाभि-पीयसोगा-चीतशोका-खी० । जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे शलिला. लापो, तदप्यसत्, पासमाया अपि प्रकृतिविकारतया वतीविजयराजधान्याम् ,स्था०७०३ उ०मा० प्रा०मन
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(१३३७)
अभिधानराजेन्द्रः। बीर-वीर-पुं० । विशेषणेरयति मोक्ष प्रति गच्छति गमयति (१०) चतुर्दशमहास्वप्नखरूपम्। वा प्राखिमः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति वारयति वा| (११) वीरस्य यौवनाऽवस्था।
(१२) खप्नसंख्या। रागादि शत्रून् प्रति पराक्रमयतीति वीरः। निरूक्तितो वा
(१३) यत्प्रभृति धीरः सिजार्थगृहे संहतः तत्प्रभृति शकबीरः । यदाह-"विदारयति यत्कर्म , तपसा च विराजते।
बचनेन ज़म्भकदेवैरत्नसंचय भानीतः सिद्वार्थगृहे। तपोवीर्येण युक्रम, तस्माद् वीर इति स्मृतः॥१॥" स्या।
(१४) भगवतो वीरस्य जम्मकालः। जम्मकुण्डली व 'पूर"वीर विकास्ती। पाापराकषायादिशत्रसैन्यजयाद (१५) वीरस्य जम्मनि रात्रिःप्रकाशरूपा। (विशे०)'र' गतौ कियत् क्षपितकर्मसाध्वपेक्षया विशेषत (१६) तीर्थप्रवर्तना) वीरं प्रति प्रेरणा । रियति-क्षिपति तिरस्करोति भशेषारयपि कर्माणीति | (१७) संबोधनद्वारम् । वीरः। अथवा-विशेषत रियति शिवपदं प्रति भव्यजन्तून
(१८) वीरेण वार्षिकदानं दतम् । गमयतीति वीरः। यदि वा-विशेषतः शिवपदं स्खयमियर्ति
(१६) निश्चक्रमणद्वारम् ।
(२०) शक्रश्च देवराजो हंसलक्षणेन पटशाटकेम केशान् प्र. गच्छतीति वीरः । अथवा-' विदारणे, विदारयति कमरि
तीच्छति, भगवतामुपरि देवदृष्यवां च स्थापयति । पुसंघमिति धीरः । अनन्यानुभूतमहातपाश्रिया वा विराज
(२१) तस्य भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिसमनन्तरमेव मनःपतातिबीरः । अन्तरजमोहमहाबलनिर्दलनार्थमनन्तं तपो
र्यायज्ञानमुदपादि। बीर्य व्यापारयतीति वा वीरः । विशेष सूत्रा० प्रा० (२२) शकः प्रभु विज्ञापयामास । मार' गतिप्रेरणयोरित्यस्य विपूर्वस्याऽजन्तस्य विशेषण (२३) बीरो दीक्षाकालात् कियदनन्तरमचेलो जातः। रियति कर्म गमयति याति चेह शिवमिति वीरः । श्राव.४ (२४) वीरस्योपसर्गाः। प्र० । प्रज्ञा ! ग०। पं० सं० । ध० । घनघातिकर्मसंघातवि- (२५) उपसर्गसहनानन्तरं धीरस्य श्रमणत्वम् ।
(२६) वीरस्य केवलज्ञानोत्पत्तिः। दारणाऽनन्तरं प्राप्तातुलकेवलश्रिया विराजत इति धीरः।
(२७) वीरस्य निर्वाणकालः। तीर्थकति , प्राचा०१०१०४ उ० । कर्मविदारणस
(२८) वीरस्य श्रमणाऽऽदिसंपत्। मर्थे , सूत्र०१६०२१०१३०। प्राचा०। परीषहोपसर्ग
(२६) वीरस्तवाऽध्ययनम् । कषायसेनाविजयात् (प्राचा०१ श्रु०१ १०३ उ०। सूत्र०।)
(३०) प्रकीर्णकवार्ताः। संग्रामतो या धीरे, मा० १ श्रु०१०भ० । सूत्र० । परा
(१) वीरस्य निक्षेपः , स्तुतयश्चनीकमेदिनि सुभटे, सूत्र०१ १०८ अ० । औरसबलवति,
वीरवरस्स भगवतो, जरमरणकिलेसदोसरहियस्स । ज्य०३ उ० । शुनकद्वितीये शस्त्रापेक्षारहिते मृगयाखेलके, ०१ उ० । चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे , नपुं० । स.
बंदामि विणयपणतो, सोक्खुप्पाए सया पाए ॥६॥ ६ सम । तगरायां नगर्या पुष्पमित्रादिशिध्यकाष्ठकाचार्यस्य (सू०-१०८४) शिष्ये, व्य०३ उ० । धीरयति-कषायान् प्रति विक्राम- 'वीरवरस्से' त्यादि.शूर वीर विक्रान्ती,वीरयति स्म वीरः,स तीति वीरः ।। रा० । आ० म० । विशेषेणेरयति प्रेरयत्यष्ट- च नामादिभेदाचतुर्दा भिधमानो नामवीरः , स्थापनावीरो, प्रकारं कर्मारिषदवर्ग वेति वीरः । शक्तिमति, आचा० द्रव्यवीरो,भाववीरश्च । तत्र यस्य जीवस्य जीवस्य वाऽन्व१७० २ १०६ उ०।'ईर' गति-प्रेरणयोः, विशेषण
र्थरहित वीर इति नाम क्रियते स नामवीरो'नामनामवतोरईरयति--गमयति स्फेटयति कर्म प्रापयति वा शिवमिति
भेदात्' नाम चासौ वीरश्च नामधीरः । स्थापनावीरो वीरस्य वीरः । अथवा-'र' गती अविशेषेण-अपुनर्भावेन रयति
सुभटस्य,स्थापना वीरवर्द्धमानस्वामिस्थापनात्, व्यवीरो शिवमिति वीरः। नं। प्राचा० । दर्श। अस्यामवसर्पिण्यां
द्विधा-आगमतो, नोप्रागमतश्च। तत्रागमतो हाता तत्र भरतक्षेत्रे जाते चरमतीर्थकरे, पातु। स०। श्रीमहावीर
चानुपयुक्तः,'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात् , नोचागस्वामिनि, कर्म०२ कर्म०।
तनिधा,तचथा-शरीरद्रग्यवीरो भव्यशरीरद्रग्यवीरस्तष्ठा
तिरिक्तश्च । तत्र वीर इति पदार्थशस्य यच्छरीरं जीवविप्रयुक्तं विषयसूची
सिजशिलातलादिस्थितं तद्भूते द्रव्यवीरः, यत्पुनर्वालकस्य
शरीरं वीर इति पदार्थमद्यापि नावबुध्यते, अथ चाव(१) वीरस्य निक्षेपः, स्तुतयश्च ।
श्यमायत्यां भोत्स्यते स तथाविधभाविभावत्वात् भव्य(२)श्रीवीरजिनकथा ।
शरीरद्रव्यवीरः,तयतिरिकः स्वशत्रुविदारणसमर्थोऽनेकशः (३)विस्तरवाचनया धीवीरचरितम् ।
संग्रामशिरसि लब्धजयपताकश्चकवादिः । भावीरो (४) देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम् ।
द्विधा , तद्यथा--आगमतो, नोआगमतश्च । तत्राऽऽमगतो (५) देवानन्दायै ऋषभदतेन स्वप्नफलकथनम् ।
मातोपयुक्तच वीरपदार्थे, नोागमतो दुर्जयसमस्तान्तररि(६)शकः श्रीवीरं नमस्करोति।
पुविदारणसमर्थस्तस्यैकान्तिकात्यन्तिकवीरत्वसद्भावात् । (७) भगवान् कथम् उत्पन्न इत्याह ।
सू० प्र०२० पाहु। कल्पा सूत्र० । वीरस्य द्रव्यक्षेत्रकाल(८) गर्भव्युत्क्रान्तिः ।
भावभेदाच्चतुर्धा निक्षेपः , तत्र शरीरभव्यशरीरव्य(E) हरिनैगमेषिणं प्रति शकामा |
तिरिक्को द्रव्यवीरो द्रव्यार्थ संग्रामादायतकर्मका३३५
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(१३३८) वीर
अभिधानराजेन्द्रः। रितया शूरः, यदि वा-यत्किचित् वीर्यवद् द्रव्यं तद्
(२) श्रीवीरजिकथा-- द्रव्यवीरेऽन्तर्भवति । तद्यथा-तीर्थकृदनन्तबलवीयों लोकमलोकं कन्दुकवत् प्रक्षेप्तुमलम् । तथा मन्दरं दण्डं क
श्रीवीरचरितं वर्णयन्तः श्रीभद्रबाहुस्वामिनो जघन्यमध्यमत्वा रत्नप्रभां पृथिवीं छत्रवद्विभृयात् । तथा चक्रवर्तिनो
याचनात्मकं प्रथम सूत्र रचयन्ति-- ऽपि बलम्-“दो सोला बत्तीसा" इत्यादि तथा विषादी- | तेणं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे नां मोहनादिसामर्थ्यमिति । क्षेत्रवीरस्तु यो यस्मिन् क्षेत्रे- पंचहत्थत्तरे होत्था। उदभुतकर्मकारी वीरो वा यत्र व्यावयते, एवं कालेऽप्यायोज्यम् , भाववीरो यस्य क्रोधमानमायालोभैः परीपहादि
'ते ग कालेणं' तस्मिन् काले-अवसर्पिणीचतुर्थारकपर्यभिवात्मनो जेता(सूत्र०) “गको परिभमउ जए, वियर्ड जि
न्तलक्षणे, गकारः सर्वत्र वाक्यालंकारार्थः, ते णं समए णं' णकेसरी सलीलाए । कंदप्पदुट्टदाढो, मयणो विडारिनो
निर्विभाज्यः कालविभागः समयस्तस्मिन् समये 'समणे जेणं ॥ ३॥" तदेवं वर्धमानस्वाम्येव परीघहोपसर्ग
भगवं महावीरे' तिश्रमणस्तपोनिरतः, 'भगवं' ति भगवान् रनुकूलप्रतिकूलरपराजितोऽद्भुतकर्मकारित्वेन गुणनिष्पन्न
अर्कयोनिवर्जितद्वादशभगशब्दार्थवान् , यदाहुः-"भगोऽर्कत्वात् भावतो महावीर इति भण्यते । यदि वा-द्रव्य- (१) शान (२) माहात्म्य (३)-यशो (४) वैराग्य (५) वीरो व्यतिरिक्त एकभविकादिः, क्षेत्रवीरो यत्र-तिष्ठत्य- | मुक्तिषु (६)। रूप (७) वीर्य (८) प्रयत्ने (1) च्छासौ व्यावय॑ते वा, कालतोऽप्येवमेव , भाववीरो नोआग- (१०) श्री (११) धमै (१२) श्वर्य (१३) योनिषु (१४) मतो वीरनामगोत्राणि कर्माण्यनुभवन् स च वीरवर्धमान-1 ॥१॥" अत्र श्राद्यान्त्यो अर्थी वर्जनीयौ । ननु अन्योऽर्थस्तु स्वाम्येवेति । सत्र०१ श्रु०६ अ०।
वर्ण्य एव, परमर्कः कथं वयंः ? सत्यम् , उपमानतया अर्को "चञ्चश्चन्द्रमरीचिमारुरुचिरा विश्वम्भरा राजते,
भवति, परं वत्प्रत्ययान्तत्वेन अर्कवान् इत्यर्थो न लगतीति कीर्तिर्विष्टपचन्द्रशेखरशशी शीतांशुशीतस्विषम् ।
वर्जितः, महावीरे' त्ति, कर्मवैरिपराभवसमर्थः, श्रीवर्धमानयः शुद्धाशयशुद्धबुद्धिविभवो धीरोधिनोत्युभव ,
स्वामीत्यर्थः। ('पंचहत्थुत्तरे होत्था' एतव्याख्या 'कनाणग' वीरं नौमि नमत्सुरासुरशिरो घृष्टांव्हिविश्वाणीः ॥२॥"
शब्द तृतीयभागे ३८४ पृष्ठे गता।) (कल्प०)। दर्श०१ तस्व।
कल्याणकानि पञ्चैव"भुक्ताफलमिव करतल-कलितं विश्वं समस्तमपि सततम् । तं जहा-हत्युत्तराहिं चुए चहत्ता गम्भं वकते. हत्थयो वेत्ति विगतकर्मा, स जयति नाथो जिनो वीरः ॥१॥"
त्तराहिं गम्भाओ गम्भं साहरिए, हत्थुत्तराहिं जाए, चं०प्र० १ पाहु।
हत्थुत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब"जयति णवणलिणकुवलय-वियसियसयपत्तपसलदलच्छो । वीरो गइंदमयगल-सुललिगगयविक्कमो भयवं ॥२॥" सूत्र०
इए, हन्थुत्तराहिं अणते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे १ श्रु०१६ अ०।
कसिणे पडिपुराणे केवलवरनाणदंसणे समुप्पने, साइणा “नमः शमितनिःशेष-कर्मणे वरशर्मणे ।
परिनिव्वुए भयवं । (मू०१४) श्रीचीराय भवाम्भोधि-लब्धतीराय तायिने"॥ संथा। षो। 'तं जह' ति तद्यथा-पञ्चहस्तोत्तरत्वं भगवतो म"जयति परिस्फुटविमल-ज्ञानविभावितसमस्तवस्तुगणः ।
ध्यमवाचनया दर्शयति-' हत्थुत्तराहिं चुए ' ति उप्रतिहतपरतीर्थिमनाः, श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् ॥ १॥" त्तराफाल्गुनीषु च्युतो देवलोकात् 'चइत्ता गम्भं वक्ते' जी०२ प्रति
त्ति च्युत्वा गर्भे उत्पन्नः । ' हत्थुत्तराहिं गब्भारो गम्भं "वन्दे वीरं तपोवीरं, तपसा दुस्तरेण यः।
साहरिए'त्ति उत्तराफाल्गुनीषु गर्भात् गर्भ संहृतः, देवाशुद्धं स्वं विदधे स्वर्ण, स्वर्णकार इवाग्निना ॥१॥" जीत।
नन्दागर्भात्त्रिशलागर्भे मुक्त इत्यर्थः । हत्थुत्तराहिं जाए' सि "विष्णोरिय यस्य विभो, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम् ।
उत्तराफाल्गुनीषु जातः 'हत्थुनराहि मुंडे भवित्ता अगाराशतमम्बशतकप्रणतः, स श्रीवीगे जिनो जयतु ॥१॥" कर्म०
श्रो अणगारिश्र पचहए' त्ति उत्तराफाल्गुनीषु मुण्डो भूत्वा ५ कर्म०।
तत्र द्रव्यतो मुण्डः केशलुचनेन, भावतो मुण्डः रागद्वेषा
ऽभावेन, अगारात्-गृहात् निष्क्रम्येति शेषः, अनगारिता. "जयति विजितान्यतेजाः, सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् ।
साधुतां पव्वइए' ति प्रतिपन्नः, तथा-' हत्थुत्तराहि' ति विमलस्त्रासविरहित-स्त्रिलोकचिन्तामणिवीरः ॥१॥" दशक
उत्तराफाल्गुनीषु 'अणन्ते ति अनन्तम्-अनन्तवस्तुवि१०।
षयम् 'अणुत्तरे' त्ति निर्याघातं --भित्तिकटादिभिरस्ख"स्पष्टं चराचरं विश्वं, जानीते यः प्रतिक्षणम् ।
लितं 'निरावरणे ति समस्ताऽऽवरणरहितं 'कसिणे 'त्ति तस्मै नमो जिनेशाय, श्रीवीराय हितैषिणे ॥" ज्यो०१ पाहु।
कृत्स्नं सर्वपर्यायोपेतवस्तुळापकं 'पडिपुग्ने' त्ति परिपूर्ण "यस्य शानमनन्तवस्तुविषयं यः पूज्यते दैवतै
सर्वावयवसंपन्नम्, एवंविधं यत् वरं-प्रधानं • केवलबरनित्यं यस्य वचो न दुर्नयकृतेः कोलाहलैलुंग्यते।
नाणदसणसमुप्पन्नेत्ति केवलज्ञानं केवलदर्शनं च। तत उत्तरागद्वेष मुखद्विषां च परिषत् तिता क्षणायेन सा'
राफाल्गुनीषु प्राप्तः, 'साहगा परिनिव्वुए भयवं' ति स्वातिस श्रीवीरविभुर्विधूतकलुषां बुद्धि विधत्तां मम॥२॥" स्या० ।। नक्षत्रे मोक्षं गतो भगवान् ।
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वीर
(३) अथ विस्तरवाचनया श्रीवीरचरितमाहकाले णं ते गं समए णं समणे भगवं महावीरे, जे से गिम्दा चउत्थे मासे अट्टमे पक्वे आसाहसुद्धे तस्स सं
सामुद्धस्स छपक्से गं, महाविजयपुष्फुतरपवरपुंडरिया महाविमाणाओ बीसं सागरोमडियाओ आउ क्खणं भवखएवं ठिइक्खएणं अतरं चयं चहत्ता इहेव जम्बुद्दीचे दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे, इमीसे ओसप्पि बीए सुमसुमाए समाए विताए सुसमाए समाए विकताए सुसमदुसमाए समाए विइकंताए, दुसमसुसमा ए बहुबिताए सागरोवमकोडाकोडीए बायांलीसवाससहस्सेहिं ऊणि पञ्चहत्तरिए वासेहि श्रद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं इकवीसाए तित्थयरेहिं इक्खागकुलसमुप्प हिं कासवगुतेहिं दोहि य हरिवंसकुलसमुप्पनेहिं गोयमसगुतेहिं, तेवीसाए तित्थयरेहिं विक्कतेहिं समणे भगवं महावीरे चरमतित्थयरे पुज्यतित्थयर निधि, माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भा रिवार देवानंदाए माहणीए जालंधरसगुचाए पुग्वरचावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएवं श्राहारवकंतीए भववकंतिए सरीरत्रकंतिए कुच्छिसि गन्भतावकं समणे भगवं महावीरे तिनायोवगए श्रावि हुत्था-चहस्सामि नि जागई, चपमाये न जाय, ए मिचि जागर ॥
"
(१३३६) अभिधान राजेन्द्रः ।
5
'ते गं काले ं 'ति तस्मिन् काले, ' ते गं समय गं' ति तस्मिन् समये चतुर्थो मासः, 'श्रमे पक्खे ' ति अष्टमः पक्षः, कोऽर्थः, ' आसाढसुद्धे' ति श्राषाढशुक्लपक्षः 'तस्स गां श्रसादसुद्धस्स ' ति तस्य श्राषाढशुक्लपक्षस्य 'छडीपक्खे 'ति षष्ठीरात्रौ 'महाविजयपुप्फुत्तग्पवरपुंडरीश्राश्रो महाविमालाओ ति महान विजयो यत्र तन्महाविजयं ' पुप्फुत्तर' ति पुष्पोत्तरनामकं ' पवरपुडरीश्राश्रो ि प्रयरेषु अन्यश्रेष्ठविमानेषु पुण्डरीकमिय- श्वेतकमलमिय अतिश्रेष्ठमित्यर्थः तस्मात् महाविमासानि महाविमानात् किंविशिष्टात् ?' बांस सामरोवमाओ सि विंशति सागरोपमस्थितिकात् तत्र हि देवानां विंशतिसागराणि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, भगवतोऽपि एतावन्येव स्थितिरासीत् । अथ तस्माद्विमानात् उक्खति देवायुः क्षयेण ' भखपणं ' ति देवगतिनामकर्मक्षयेण 'ठि इक्खपणं ' ति स्थितिर्वैक्रियशरीरेऽवस्थानं तस्याः क्षयेण पूर्गीकरणेन न्तरं ति अन्तररहितं *यवं व्यवनं कृत्वा 'इहेव जम्बुद्दीचे दीवे ' त्ति अस्मिनेजम्बूदीपनानि द्वीपे भारहे वासे 'ति भरतक्षेत्रे 'दासिरसि दक्षिणाभरते हमसे सीि यत्र समये समये रूपरसादीनां हानिः स्यात् साध्वसर्पिणी, ततोऽस्यामवसर्पिण्यां 'सुसमसुसमाए ' त्ति सुषमसुत्र
4
4
,
"
6
वीर
4
मानानि समाद पिता 'भि चतुःकोटाकोटिसागर प्रमाणे प्रथमारके प्रतिक्रान्ते 'सुसमाए समाप' ति सुष मानाम्नि त्रिकोटाकोटिसागरप्रमाणे द्वितीयारके, 'विता'व्यतिक्रान्ते सुसमदुसमाए समाए 'ति सुषमदुःषमानाम्नि द्विकोटाकोटिसागरीयारके विकताए व्यतिक्रान्ते श्रतीते ' दुसमसुलमाप समाए' त्ति दुःषमसुषमानाम्नि चतुर्धारके' बहुविताएं' ति बहु व्यति कान् किञ्चिने, तदेवाह सागरोवमकोडाफोडी वायालीसा पाससहस्सेहिं ऊणिया स चित्वारिंशद्वर्षसह पोना (४२०००) एका सागरकोटा कोटिधनुर्धारक प्रमा सं तत्रापि चतुरस्य नियमे मासेहि सेति पञ्चमति (७४) साघवर्षेषु सार्द्धामासाधिकेषु शेषेषु श्रीवीराऽवतारः । द्वासप्ततिवर्षा णि श्रीवीरस्यायुः श्रीवीरनिवांणाच मिसा हमासेधनुर्धारक समाप्तिः ततः पूर्वी या नियारिंश वही सा एकविंशत्येकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणयो पञ्चमारकषष्ठारकयोः सम्बन्धी शेषा सानि त्थयरेहिं ' ति एकविंशतितीर्थकरेषु 'इक्खागकुलसमुपपन्नेहि तिच्याकुकुलसमुपकारादि ति काश्यपनोत्रेषु' दोहि य' ति द्वयोर्मुनिसुव्रतनेम्योः हरिवंसकुलसमुपपन्नेहिं ' ति हरिवंशकुलसमुत्पन्नयोः 'गोयमसगुत्तेहिं ति गौतमगोषयोः एवं चाहि तेदिति योविंशतीरेषु सम भग महावीरे 'ति श्रमणो भगवान् महावीरः किविशिष्टः 'परमतित्थपरेति चरमतीर्थङ्करः पुनः किविशिष्टः । 'पुव्यतित्थयनिहिडे' ति पूर्वतीथङ्करनिर्दिष्टः श्रीवीरो भविष्यतीत्येवं पूर्वजनैः कथितः 'माहराकुंडगामे नयरे त्ति ब्राह्मणकुण्डग्रामनामके नगरे 'उसभदत्तस्स माहणस्स' सि ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य, किंविशिष्टस्य ?, 'कोडालसगुतस्त्र' सिकोडाले समान गोत्रं यस्य स तथा तस्य, कोडालगोत्रस्येत्यर्थः भारिया देवानंदाय माहणीए 'त्ति तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः जासम्धरसगुप्ताए 'ति जलन्धरसगोत्रायाः कदा! पुष्परता वरन्तकालसमसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मध्यरात्रे - त्यर्थः हन्तराहि नकलत्ते 'उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे 'जोगमुवागणं ति चन्द्रयोगं प्राप्ते सति कया! आहारयतिए 'सि आहारापकाया दिव्याहारत्यागेन भवयतिए' ति दिव्यभवत्यागेन 'सरीरवतिए' ति दिव्यशरीरत्यागेन 'कुछ गम्भत्ताए वते ' कुक्षौ गर्भतया व्युकान्त इति सम्बन्धः ' समये भगवं महावीरे' अथ यदा श्रमणो भगवान् महावीरः गर्भे उत्पन्नस्तदा 'तिम्नाणोबगर आचि होय नियोगासीत् 'बरसामि त्ति जागइ ' ततः च्यविष्ये इति जानाति व्यवनभविव्यत्कालं जानातीत्यर्थः, 'चयमाणे न जाण्इ ' च्यवमानोनो जानाति, एकसामायिकत्वात् चुर मिति जागर च्युतोऽस्मीति व जानाति ।
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(४) देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम्
जं रयचिणं समणे भगवं महावीरे देवादाए मा
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(१३४०) वीर अभिधानराजेन्द्रः।
वीर हगीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए वक्रते, तं पश्यति, यस्तु नरकादायाति तन्माता भवनमिति इयोरेरयणिं च णं सा देवाणंदा माहणी सयणिजंसि सुत्त
कतरदर्शनाचतुर्दशैव स्वप्नाः (१२) रानानामुखयो राशिः
(१३) शिक्षी-निधूमोऽग्निः (१४) 'तए णं सा देवानंदा जागरा ओहीरमाणी मोहीरमाणी इमे एयारूवे उराले |
माहणी' ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'इमे' ति इमान् कनाणे सिवे धने मंगले सस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे 'एयारवे 'ति एतद्रूपान् 'उदाले' ति उदारान-प्रशस्तार पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं जहा-"गय--वसह-सीह-अभि- 'जाव' ति यावच्छयेन पूर्वपाठोऽनुसरणीयः 'चउद्दस सेम-दाम-ससि-दिणयर-भयं-कुंभं । पउमसर-सा
महासुमिणे'ति यथोक्लान् चतुर्दश महास्वप्नान् 'पासित्ता
णं पडिबुद्धा समाशी' ति दृष्टा जागरिता सती 'हट्ठा' गर-विमा-ण-भवण-रयणुषयसिहिं च॥१॥"तए शं सा
या विस्मयं प्राप्ता, 'तुट्ठा' संतोष प्राप्ता 'चित्तमाणंदिण' देवाणंदा माहणी इमे एयासवे उराले जाव चउइस म- चिनेन आनन्दिता, 'पीइमणा' प्रीतियुक्नचित्ता 'परमसोमणहासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हद्वतुट्ठचित्त- सिमा' परम सौमनस्य-सन्तुचिसत्वं जातं यस्याः सा तथा माणंदिना पीइमणा परमसोमणसिमा हरिसवसविसप्पमा
'हरिसवस' सिहर्षवशेन 'विसप्पमाण' लि विस्तारवत् 'हि.
अय'त्ति दयं यस्याः सा तथा.पुनः किंभूता ? 'धाराहयकपहिया धाराहयकयंबपुष्फगं पिव समुस्ससिभरोमकूवा
यंबपुप्फगं पिव' सि धारया-मेघजलधारया सिक्कमेषिधं सुमिणुग्गहं करेइ, सुमिणुग्गहं करित्ता, सयणिजाओ यत्कदम्बतरुकुसुमं तद्धि मेघधारया फुल्लति ततस्तद्वत् 'सअन्भुढेइ, सय० अब्भुट्टित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए - मुस्ससिअरोमकूवा' समुरुसितानि रोमाणि कृपेषु यस्याः विलीबाए रायहंससरिसीए गईए, जेयव उसमदत्ते मा
सा तथा एवंविधा सती सुमिणुग्गहं करे करेला' स्वमाना
मवग्रहं स्मरण करोति, तत्कृत्वा च 'सयणिज्जाओ अम्भुट्टेड' हणे, तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता, उसमदत्तं माहणं
शय्याया अभ्युत्तिष्ठति, 'अम्भुट्टित्ता' अभ्युत्थाय 'अतुरिअ' जएणं विजएणं बद्धवावेइ, बद्धाविता भद्दासणवरगया त्ति अत्वरितया मानसौन्सुक्यरहितया 'अचवल 'तिपासत्था वीसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं द. चपलया कायचापल्यवर्जितया, 'असंभन्ताए' ति असम्भ्रासनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह एवं बयासी(५)- म्तया अस्वलन्त्या 'अविलंबित्राए 'मि विलम्बगहतया एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज सयणिजसि
'रायहंससरिसीए गईए' राजहंससहशया गत्या 'जेणेव उस
भदत्ते माहणे' यत्रैव ऋषभदत्तो ब्राह्मणः 'तेणेय उवागच्छई' सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एयारूवे
तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'उसभदसे माहणं' उराले० जाव सस्सिरीए चउद्दस १४ महासुमिणे पासि ऋषभदत्तं ब्राह्मणं 'जएणं विजएणं वायर' जयेन विजयेन त्ता शं पडिबुद्धा ॥६॥
वर्धापयति-आशिषं ददाति, तत्र जयः स्वदेशे विजयः परदे'जं रयणि च णे समणे भगवं महावीरे' ति यस्यां
शे 'वद्धाविता' वर्धापयित्वा च 'भद्दासणवरगया' भद्रासन
बरगता ततश्च 'आसत्थ' ति आश्वस्ता श्रमापनयनेन 'बीरजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः 'देवाणंदाए माहणीए ' देवानन्दाया ब्राह्मण्याः 'जालंधरसगुत्तार' जालन्धरसगो
सत्थ' सि विश्वस्ता शोभाऽभावेन, अत एव 'सुहासणवरगश्रायाः 'कुञ्छिसि गम्भत्ताए वळते'कुक्षौ गर्भतया उत्प
य' ति सुखेन आसनवरं प्राप्ता, 'करयलपरिग्गहियं दसनह' पाः, 'तं रयणि च णं सा देवाणंदा माहणि' ति तस्यां रज
करतलाभ्यां परिगृहीतं कृतं दशनखाः समुदिता यत्र तम् न्यां सा देवानन्दा ब्राह्मणी ' सणिजंसि' शयनीये पल्य
'सिरसावत' ति शिरसि पावनः प्रदक्षिणभ्रमणं यस्य तम्, के सुत्तजागर' ति नातिनिद्रायन्ती नातिजाप्रती,अत ए
एवंविधं 'मत्थए अंजलि कटु' अञ्जलिं मस्तके कृत्वा देवान
भदा 'एवं बयासि' ति एवम् प्रवादीत्, किं तदित्याह-(५) प'मोहीरमाणी ओहीरमाणि त्तिअल्पां निद्रां कुर्वन्ती 'इमे, 'एयारुवे' त्ति एतपान्-वक्ष्यमाणस्वरूपान् 'उराले' त्ति
'एवं खलु अहं देवाणुप्पिा ' एवं निश्चयेन अहं हे घेषानुप्रिउदाराम्-प्रशस्तान् ‘कल्लागणे' त्ति कल्याण हेतुन् 'सिवे ति
य! स्वामिन् ! 'अन्ज सर्याणज्जसि' अद्य शय्यायां सुत्तशिवान-उपद्रवहगन् 'धन्ने त्ति' धन्यान्-धनहेतून् 'मंग
जागा श्रीहीरमाणी बहीरमाणि' ति सुप्तजागरा अल्पनिद्रा मेति मङ्गलकारकान् 'सस्सिरीए' त्ति सश्रीकान् 'चउद्द
कुर्वती 'इमति इमान 'एयारवे' ति एतद्रूपान् 'उराले' ति समहासुमिणे इशान चतुर्दश महास्वमान् 'पासित्ता णं
उदारा 'जावे सस्सिरीए' ति यावत् सश्रीकान् 'चउद्दसमपरिपुद' ति दृष्टा जागरिता 'तं जह'त्ति तद्यथा-गय (१)
हासुमिणे' लि चतुर्दश महास्वप्नान् 'पासित्ता णं पडिबुद्ध' यसह (२) सीह (३) अभिसे (४), दाम (५) ससि त्ति, रष्ट्रा जागरिता॥६॥ (६)दियर (७) झयं (८) कुंभ (R) पउमसर(१०) । तं जहाँ-बाय० जाव सिहि च॥शाएएसि णं देवाणुप्पिसागर (११) विमा-भवण (१२ ) रयणुश्चय (१३)| अ! उरालाणं चउद्दसएहं महासुमिणाणं के मएणे क. सिहिश्च (१४)॥१॥ हस्ती (१) वृषभः (२) सिं
| ब्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ, तए णं से उसम१(३) अभिषेकः श्रियाः सम्बन्धी । ४ ) पुष्पमाला (५) चन्द्रः (६) सूर्यः (७) यजः (८) पूर्णकुम्भः (8)
दत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए अंतिए एअमटुं मुच्चा पापलक्षितं सरः (१०) समुद्रः । ११) विमान देयसम्ब- निसम्म हडतुड.जाव हिश्राए धाराहयकयंबधुप्फगं पिन्धि, भवनं-गृद, तत्र यः स्वर्गादवतरति, तन्माता विमानं व समुस्ससियरोमकूवे सुमिणुग्गहं करेइ करिता, ईई
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बीर
अणुपविस ई अणुपत्रिसिता अप्पो साहाविएवं मइपुन्त्रएणं बुद्धिविन्नाणेणं तेसिं सुमिला अत्थुग्गहं करे, अत्युग्गदं करिता देवासंद माहणिं एवं वयासी- उराला खं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, कल्लाणा गं ० जाव सस्सिरिया आरोग्गतुट्ठिदीहाउकल्लाणमंगलकारगा तुमे देवापिए ! सुमिखा दिट्ठा, तं जहाअत्थलाभो देवाप्पिए !, भोगलाभो देवाप्पिए !, पुरालाभो देवाप्पिए !, सुक्खलाभो देवाप्पिए !, एवं खलु तुमं देवापिए नवरहं मासाणं बहुपडिपुभागं श्रद्धमागराईदित्राणं वइकंताणं सुकुमालपाणिपायं महीपडिपुनपंचिदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेचं माणुम्माणपमाणपडिपुष्पसुजायसव्वंगसुंदरंगं ससिसोमागारं कंतं पिदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि ॥ ७ ॥
(१३४१) अभिधानराजेन्द्रः ।
' तं जहा ' तद्यथा ' गय ०जाव सिद्दि च ॥ १॥ त्ति गय इत्यादितः 'सिहिं' चेति यावत् पूर्वोक्ताः स्वप्ना ज्ञेयाः ' परसि णं देवाप्पिन' ति एतेषां देवानुप्रिय ! ' उरालाणं ' ति प्रशस्तानां ' जाव चउदसण्हं महासुमिणाणं ' ति यावत् चतुर्दशानां महास्वप्नानाम् ' के मराणे 'ति मन्येविचारयामि' कलाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सर ' इति कः कल्याणकारी फलवृत्तिविशेषो भविष्यति, तत्र फलं पुत्रादि, वृत्तिर्जीवनोपायादि तय गं से उसभवते माइणे ' ततः स ऋषभदत्तो ब्राह्मणः ' देवादार माहणीय ' ति देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः ' अंतिए ' ति अन्तिके पा 'श्रम सुच्चा' एतमर्थ श्रुत्वा कर्णाभ्यां ' निसम्म सि निशम्य - चेतसा श्रवधार्य ' हट्ठतुटु ०जाय हियए ' सिहृष्टः तुष्टः यावत् हर्षवशेन विसर्पितहृदयः ' धाराहयकर्यवपुप्फगं पिव समुस्ससिश्ररोमकूवे ' सि मेघधारया सिक्लकदम्बवृक्षपुष्पवत् समुच्कृसितानि रोमाणि कूपेषु यस्य सः एवंविधः सन् सुमिरणुग्गहं करेह' त्ति स्वप्नधारणं करोति 'करित' ति तत् कृत्वा च 'ईहं अणुपविसर' ईहाम्-अर्थविचारणां प्रविशति 'ईहं अणुपविसित्ता' तां कृत्वा च
अपणो साहाविषणं मइपुव्वरणं बुद्धिविन्नाणें ति श्रात्मनः स्वात्मनः स्वाभाविकेन मतिपूर्वकेण बुद्धिविशानेन, तत्र अनागतकालविषया मतिः, वर्तमानकालविषया बुद्धिः, विज्ञानं चातीतानागतवस्तुविषयं 'तेसि सुमिणाएं अत्युग्गहं करेह 'ति ततस्तेषां स्वप्नानाम् अर्थनिश्वयं करोति' अत्युग्गहं करिता' तं कृत्वा 'देवां माहाणे' देवानन्दाब्राह्मणीम् — एवं वयासि' त्ति एवमवादीत् किं तदित्याहउराला गं तुमे देवाशुम्पिए ! सुमिया दिट्ठा ' उदारास्त्वया देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्ट्राः, कल्लाणा णं स्सिरीय' सि कल्याणकारकोः यावत्, सश्रीकाः 'आरोग' आरोग्यं - नीरोगत्वं ' तुट्ठि ' सि तुष्टिः सन्तोष, ' दीहा-' उ ति दीर्घायुविरंजीवित्वं 'कल्ला' सि कल्याणमुपद्रवा भावः ' मंगलकारगाणं तुमे देवा खुप्पिय ! सुमिया दिट्ठा ' मङ्गलं वातावाप्तिः, एतेषां वस्तूनां कारकास्त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः तं जह' ति तद्यथा-' अत्थ
0 जाव स
३३६
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वीर लाभो देवाप्पिए' सि अर्थलाभो भविष्यति हे देवानुप्रिप्रिये !' पुत्तलाभो देवाप्पिए 'सि पुत्रस्य लाभः हे देये ! 'भोगलाभी देवाणुप्पिए' ति भोगानां लाभः हे देवावानुप्रये ! ' सुक्खलाभो देवाप्पिए' सि सौम्यलाभो हे देवानुप्रिये ! भविष्यतीति सर्वत्र योज्यम् एवं ब तुमं देवाखुलिए' ति एवं खलु त्वं देवानुप्रिये ! ' नवराह मासाएं बहुपडिपुन्नाणं' ति नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्वेषु साईसप्ताहोअट्टमा रादिश्राणं वश्कताएं ' रात्राधिकेषु प्रतीतेषु एतादृशं दारकं पुत्रं 'पया--- हिसि' सि प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः । किंविशिष्ट दारकम् ?, 'सुकुमालपाणिपार्थ' ति सुकुमारं पाणिपादं यस्यैवंविधं, पुनः किंविशिष्टं दारकम् ? 'अहीण' सि अहीनानि लक्षणोपेतानि 'पडिपुन पंचिदिनसरीर' ति स्वरूपेण प्रतिपूर्णानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तादृशं शरीरं यस्य स तथा तम्, तथा - 'लक्खणवंजणगुणोववेचं' ति तत्र लक्षणानि चक्रितीर्थकृतामष्टोत्तरसहस्रम् बलदेववासुदेवानामष्टोत्तरश
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तम्, अन्येषां तु भाग्यवतां द्वात्रिंशत् । ( कल्प० ) तानि च द्वात्रिंशत् ' लक्खणवंजणगुणोववेय ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५१५ पृष्ठे दर्शितानि । ) व्यञ्जनानि च मतिलकादीनि तेषां ये गुणास्तैरुपपेतम् पुनः किं विशिष्टम् ?, 'माणुम्माणपडिपुष्पसुजायसव्वंगसुंदरंगं' ति, तत्र मानं जलभृतकुण्डान्तः पुरुषे निवेशिते यदि तज्जलं द्रोणमानं भवेत् तदा स पुरुषो मानप्राप्तः, यदि च तुला रोपितोऽर्धभारमानः स्यात् तदा स उन्मानं प्राप्तः उन्मानप्राप्तः (कल्प ० ) कचिदेशे किञ्चिदूनशेरत्रयस्यापि मानत्वव्यवहारात्, तथा 'पमाण ति' स्वाङ्गुलेन अष्टोत्तरशताङ्गुलोच्च उत्तमपुरुषः, मध्यद्दीनपुरुषौ च पद्मवति (६६) चतुरशीत्यङ्गुलोचौ स्याताम् अत्र उत्तमपुरुषोऽपि अन्य एव, तीर्थङ्करस्तु द्वादशाकुलोष्णीषसद्भावेन विंशत्यधिकशनाङ्गलोच्यो भवति, ततच मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुजातानि सर्वाङ्गानि शिरः प्रमुखाणि यत्र एवंविधं सुन्दरम् अङ्गं यस्य तथा सं, पुनः किविशिष्टम् 'ससिसोमागारे' ति शशिवत्सौम्याकारं 'कम्तं' ति कमनीयं पियदसणं' ति वलभदर्शनं ' सुरूवं ' ति शोभनरूपं ' दारयं पयाहिसि सि दारकं प्रजमिष्यसीति शेयम् ॥ ६ ॥ सेवि
दारए उम्मुकबालभावे विनायपरिणयमिते जुब्वणगमणुपने, रिउब्वे - जउव्वे - सामवे - अथव्वणवे - इतिहासपंचमाणं निषंदुच्छद्वाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउरहं वेा । णं सारए वारए धारण, सडगवी, सट्ठितंतविसारए, संखाणे सिक्खाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुते जोइसामयमे प्रभेसु श्र बहुसु भए परिवायएसु नएसु सु परिनिट्ठिए आवि भविस्सइ ॥ १० ॥
'सेवित्र दारण' ति सोऽपि च दारक एवंविधो भवियति, किंविशिष्टः दारकः ?' उम्मुकबालभावे 'ति त्यक्तवाल्यो जाताष्टवर्षः पुनः किंविशिष्टः दारकः- 'विन्नायपरिणयमित्ते' ति विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य स ततः कमाच्च, किं
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( १२४२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
वीर
विशिष्टः दारकः - ' जेवणगमणुपते' सि यौवनमनुप्राप्तः पुनः किविशिष्टः दारक:-' रिउब्वे - जउवे - सामवेश्रथव्वणवेश' ति ऋग्वेद (१) यजुर्वेद (२) सामवेदा (३) अथर्वण ( ४ ) वेदानां कीदृशानाम् ' इतिहासपत्रमा 'ति इतिहासपुराणं पञ्चमं येषां ते तथा तेषां पुनः कीहशानां निघंटुच्छद्वाणं' ति निघण्टुर्नामसङ्ग्रहः षष्ठो येषां ते तथा तेषां पुनः कीदृशानां 'संगावंगाएं' ति श्रङ्गोपाङ्गसहितानां तत्र श्रङ्गानि शिक्षा १ कल्पो २ व्याकरणं ३ छन्दो ४ ज्योति ५ र्निरुक्तम् ६, उपाङ्गानि श्रङ्गार्थविस्ताररूपाणि, पुनः कीदृशानां ' सरहस्साएं ' ति तात्पर्ययुक्तानां ' चउरहं वेयाणं ' ति ईदृशानां पूर्वोक्तानां चतु वेदानां 6 सारए 'त्ति स्मारकः अन्येषां विस्मरणे 'वार' त्ति वारकः, श्रन्येषामशुद्ध पाठनिषेधात् 'धारण' त्ति धारणसमर्थः, तादृशो दारको भावी. पुनः किंवि० 'सडंगवी 'ति पूर्वोलानि षट् श्रङ्गानि विचारयतीति षडङ्गवित् ज्ञानार्थत्वे तु पौनरुक्त्यं स्यात् पुनः किंवि० 'सट्ठितंतविसारए 'सि पष्ठितन्त्रं कापिलीयं शास्त्रं तत्र विशारदः पण्डितः पुनः किंवि० संखासे ' कि गणितशस्त्रे यथा-" अर्ध तोये कर्दमे द्वादशांशः, षष्ठो भागो वालुकायां निमग्नः ॥ साधों इस्तो दृश्यते यस्य तस्य स्तम्यस्याशु ब्रूहि मानं विचिन्त्य ॥ १ ॥ " स्तम्भो हस्ताः ६ कचित् 'सिक्खाणो ' त्ति पाठः तत्र सिक्खाण' शब्देन श्राचारग्रन्थः ' सिक्खाकष्येत्ति शिक्षा श्रज्ञरास्नाथग्रन्थः, कल्पश्च यज्ञादिविधिशा
तत्र, तथा ' बागरणे ' त्ति व्याकरणे - शब्दशास्त्रे, तानि च विंशतिः, ( कल्प० ) ( ' वागरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शितानि ) ' छंदे 'ति छन्दःशास्त्रे 'निरुत्ते ' त्ति पदभ अने व्युत्पत्तिरूपे टीकादी इत्यर्थः ' जोइसामय' त्ति ज्योतिःशास्त्रे ' अनैसु श्र बहुसु' त्ति एषु पूर्वोक्तेषु अन्येषु च बहुषु' बंभणहिए ' नि ब्राह्मणहितेषु शास्त्रेषु परिवा यपसु' ति परिव्राजकसम्बन्धिषु 'नरसु' ति नयेपु-श्राखारशास्त्रेषु 'सुपरिनिट्ठिए आऽवि भविस्स' त्ति प्रतिनिपुणो भविष्यतीति योगः ।
(५) देवानन्दायै ऋषभदत्तेन स्वप्नफलकथनम्
तं उराला गं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिला दिट्ठा० जाव श्ररुग्गतुडिदीहाउ मंगल्लकारगा गं तुमे देवागुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठ ति कट्टु भुजे । अणुवूहइ ॥ ११ ॥ तए गं सा द्देवाणंदा माहणी उसभदत्तस्स माहणस्स अंतिए एअमङ्कं चानिसम्म, हडतुडु ० जाव हियया, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं व्यासी ॥१२॥ एवमेयं देवाणुपिया ! तह मेयं देवागुप्पिया ! अवितहमेयं दे वाणुपिया ! असंदिद्धमेत्रं देवापित्रा ! इच्छियमेचं देवापि ! परिच्छियमे श्रं देवागुप्पिया ! इच्छियप -
वीर
च्छित्ता उसभदत्तेणं माहणेणं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई झुंजमाणी विहरइ ।
'तं उराला गं तुमे देयाप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा' तस्मात् कारणात् उदाराः त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः 'जाव श्रारुग्गतु हिदीहाउ मंगलकारगा गं' ति यावत् श्रारोग्यतुटिदीर्घायुः कल्याणमङ्गलानां कारकाः 'तुमे देवाप्पिए! सुमिणा दिट्ठ' ति त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः इति क
ति इति कृत्वा 'भुजो भुजौ श्रणुवूद्दर' सि भूयो २ वारं वारम् अनुवृंहयति अनुमोदयति ॥११॥ तर गं सा देवानंदा माहणि 'ति ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'उसभदत्तस्स माद्दणस्स तिए ' ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य पार्श्वे 'एयम सुच्च 'ति इममर्थ श्रुत्वा 'निसम्म ' ति चेतसा श्रवधार्य हट्टतुट्ट ०जाव हियय ' ति दृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्ण हृदया 'करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थर अंजलि कट्ट' करतलाभ्यां कृतं दशनखा मिलिताः यत्र तं शिरसि आवतौं यस्य तम. ' ईदृशं मस्तके करसम्पुटं कृत्वा एवं वया'सी' ततः सा देवानन्दा एवमवादीत् ॥१२॥ किमित्याह- 'एवमे देवापि त्ति एवमेतदेव देवानुप्रिय ! ' तहमेअं 'देवामित्र ' त्ति तथैवैतद्देवानुप्रिय ! यथा यथा भवद्भिरुक्रम्। श्रवितहमेचं देवाप्पिन ' ति यथा स्थिनम् एतदेवानुप्रिय ! ' श्रसंदिद्धमेश्रं देवापि त्ति सन्देहरहितम् एतद्देवानुप्रिय ! ' इच्छिश्रमेयं देवालय ति ईप्सितम् एतद्देवानुप्रिय ! ' पडिच्छिश्रमे देवापिश्र ' त्ति प्रतीष्टं युष्मन्मुखात् पतदेवं गृहीतं देवानुप्रिय ! 'इच्छि पछि मे देवापिय ' त्ति उभयधमोंपेनं देवानुप्रिय !' सच्चे एस श्रट्टे' त्ति सत्यः स एषोऽर्थः ' से ' इति श्रथ' जहेयं' ति येन प्रकारेण इममर्थ ' तुब्भे वग्रह ' त्ति यूयं वदथ ' इति कट्टु ' इति कृत्या - इति भणित्या' से सुमि सम्मं पडिच्छर ' त्ति तान् स्वप्नान् सम्यग् अङ्गीकरोति ' पडिच्छित' नि अङ्गीकृत्य ' उसभदत्ते माहणं सर्द्धि' ति ऋषभदतब्राह्मणेन सार्धम् 'उरालाई माणुस्सगाई' ति उदारान् मानुष्यकान् ' भोगभोगाई ' ति भोगाईभोगाम् भुंजमाणा विहरर ' भुञ्जाना विहरति । ( कल्प० ) ( शक्रवक्रयताप्रतिबद्धं चतुर्दश १४ सूत्रम् 'सक' शब्दे वक्ष्यामि । )
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इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं श्रोहिया भोएमा आभोएमा विहरइ । तत्थ गं समयं भगवं सुकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालमगुत्तस्स महावीरं जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे दाहिणड्डूभरहे माणभारियाए देवाणंदाए माहणए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए वर्कतं पासह पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमादिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए घा राहयकयंत्रसुरहिकसुम चंचुमालड्यऊ ससियरोमकुत्रे विश्र - सियवरकमलाणानयणे पयलियवरकड गतु डियकेऊरमउ
डिच्छियमेश्रं देवाणुप्पित्रा ! सच्चेणं एस अड्डे से जहेयं । डकुंडलहारविरायंतत्रच्छे पालंबलंबमाणघोलंतभूमणघरे, तुन्भे वह कि सुमिणे सम्मं पडिच्छर पडि | ससंभ्रमं तुरिअं चवलं, सुरिंदे सीहासणाओ अ
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वीर
अडिया पायपीटाओ पचोरुहह पच्चोरुहइना पेरुलियरिरिडुंजणनिउणोवचित्रमिसि मिसितमणिरयणमंडिआओ पाउयाओ ओमुअर ओमुड़ता एगसाडिचं उत्तरासंगं करेइ करेत्ता अंजलिमउलि मग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सतऽङ्कपवई अणुगच्छद अगच्छता वामं जासुं अंचे अंचिता दाहिणं जाएं परथितलंसि साहहु तिक्खुतो बुद्ध धरणितलंस निवेसेह, निवेसिया ईर्सि पच्चुन्नमइ, पच्चुन्नमइसा कडगतुडिअर्थभिभाभो भुयायो साहर साइरिणा करपलपरिग्गहिमं दसनहं सिरसाब] मत्थर अंजलि कह एवं व्यासी
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'
पुनः स किं कुर्वत्रित्याह- इमं च ' नि इमं 'केवकति सम्पूर्ण अदीव दीवं ति जम्बूदीपं 'बि उलेख 'ति विपुलेन विस्तीर्णेन ब्रोणि ति अवधिना ' आभोरमाणे श्रभोरमाणे विहरद्द ' त्ति अवलोकयन् अवलोकयन् विहरति आस्ते इति सम्बन्धः तत्थं सम भगवं महावीरं ति तत्र समये भ्रमण भगवन्तं महावीर बुद्दीचे दीवेत्ति अस्मि जम्बूद्वीपनानि द्वीपे भारदे वासेति भरतक्षेत्रे ' दादिह भरदे दि भिरते माकुंडा नगरे ब्राह्मणकुण्डग्रामनामके नगरे ' उसभदत्तस्स' ति ऋषभदत्तस्य ' माइणइस ब्रह्मणस्य किंविशिष्टस्य कोडाल सगुन ति फोडाः समाने गोत्र यस्य स तथा कोडालगोषस्येत्यर्थः, • भारिप देवादाय माहवीय चि तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः 'जालंधरसगुत्ताए' त्ति जालन्धरसगोत्रायाः 'कुछसि गम्भत्ताए वकतं ' ति कुक्षौ गर्भतया उत्पाद पश्यति 'पासा'-दृष्ट्रा तदुचि समादि दृष्टः तुष्टः विनेन धनन्दितः पीये मीतिर्मनसि यस्य सः -- 'परमसोमणस्सिए ' परमं सौमनस्यं प्राप्तः सौमनस्यं तुष्टचित्तत्वं हरिसवसविण्यमाराहियए हर्षवशेन विसर्पमानं हृदयं यस्य सः धाराहयकयंत्रसुरहिकुसुम' ति धाराहतं यत्कदम्बस्य सुरभि कुसुमं तत् 'माल' ति रोमाञ्चितः अत एव ऊससिरोमये 'ति उच्नरोमकूपः तथा विश्वविरकमलाऽऽणणण्य' त्ति विकसितं वरं प्रधानं यत्कमलं तइन आमने मुखं नयने च यस्य स तथा प्रमोदपूरितत्वात् पनि तत्र प्रचलितानि भगवदर्शने अधिक सम्भ्रभवस्वात् कम्पितानि वरकडग' ति वराणि कटकानि कानि 'डि सि टिनाश्व यारक्षकाः, ' बहिरखा ' इति लोके ' मउडकुंडल त्ति मुकुटं कुण्डले प्रसिद्धे, एतानि प्रचलितानि यस्य स तथा । पुनः किंवि० 'हारविरायंतवच्छे ' ति हारविराजमानं 'वच्छ ' ति हृद यं यस्य स तथा ततो विशेषणसमासः पुनः किं वि० 'पापानि मानम्यो भुम्बनकं प्रलम्बमानं यत्प्रालम्बो घोलंतभूधरे नि दोलायमानानि भूषणानि च तानि धरति यः स तथा ' ससंभ्रमेति सादरं रिचवलं सुरिंदे सीहासणाश्रो अम्भुट्टे' ति त्वरितं चपलं वेगेन सुरेन्द्र सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति ' अम्भुट्टिन' ति श्रभ्युत्था
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( १३४३) अभिधानराजेन्द्रः ।
--
धीर
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य यावत् ' पादपढाओ पश्चोरुहर ' सि यत्र पादौ स्थाप्येते तत्पादपीठं कथ्यते, पश्चोरुद्दित्त तस्मात्प्रत्यवतरनि सि प्रत्यवतीय व पादुके अमुञ्चति किंविशिष्टे ते वे रुति मरकते नाम नीलरत्नं परिरिजण 'ति वरि प्रधाने रिठे अञ्जननाम्नी श्यामरत्ने यने रत्नैः कृत्या निशोथिति निपुणेन शिल्पिना उपचिते पुनः किंचि० मिलिमिसिन सिदेदीप्यमानानि ' मणिरयणमंडिचाउ ' त्ति मण्यश्चन्द्रकान्ताद्यः. नानि कर्केतनादीनि तैर्मण्डिते ' पाउश्राश्रो श्रोमुश्र सिपालु मुवति मुन ति यमु च्य ' एगसाडिश्रं उत्तरासंग करेइ, करित 'त्ति एकपटमुत्तरासनं करोति तत् कृत्वा च अलमलिग् हत्येति अञ्जलिर मुकुलीत जिती अग्रदस्ती पेन स तथाभूतः तित्थवराभिमुद्दे सतद्रूपयाई अयुगहम सप्तापदानि गीयंकराभिमुखोऽनुगच्छति अयुगच्छित्त' त्ति तथा कृत्वा वामं जाएं श्रंचे ' ति यामं जानुत्पादयति, भूमी अग्नं स्थापयति चिन ति तथा संस्थाप्य दादियं जाएं धरणितलेसिति इक्षियं जानुं धरणीतले साटन निवेश्य 'निक्सो, ति वारत्रयं मुद्धा धरणितलंसि निवेसेइ ' ति मस्तकं धरणीतले निवेशयति निवेसिता तथा कृत्या ईसिं पच्चुन्नमइ 'ति ईषत् प्रत्युन्नमति, उत्तरार्धेन ऊद्धों भतीत्यर्थः प्रमित ति ऊभूय कि मिश्राश्रो भुखाया साहरहति फटकत्रुटिका का रक्षिकास्मः स्तम्भिते भुजे' साहर' सि वालपति साहरि'त्ति पालयित्वा 'करयपरिगदि दसनहं ति करत परिगृहीतं हस्तसम्पुटघटितं दश नखाः समुदिता यत्र स तथा तं ' तिरसावत्तं ' ति शिरसि मस्तके आवर्तः प्रदक्षिणभ्रमं यस्य एवंविधं मत्थर अंजलि कड ति मस्तके हत्या एवं यासि शिवमवादीत्। किं तदित्याह
ति तथा हत्या
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नमुत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थवराखं समुद्रापुरिसुसमा पुरिससीदाणं पुरिसवरपुंडरीया पुरिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमा लोगनाहार्य लोगहियां लोगपईवाणं लोगपओअगराणं अभय-दयाणं चक्खुदवाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीबदवाणं बोहिदवाणं धम्मदयार्थ धम्मदेसवाणं घमनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंत चकवट्टी गं दीवो--ताणं - सरणं गई- पड्डा - अप्पडिहयवरनाणदंसधराणं विउमाणं जिणारां जावयाणं तिन्नायं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं सव्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं सिवमय लमरुअमांत मक्खयमव्त्राचाहमपुगराविचिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्तायं नमो जि। यावं जिममयाणं ।
(६)शकः श्रवीरं नमस्करोतिनमुत्थु णं- समणस्स भगवओो महावीरस्स पुव्व
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वीर
( १३४४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पुब्वतित्थयरनिद्दिहस्स ०जाव संपाविउकामस्स । बं दामि यं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गति कट्टु समयं भगवं महावीरं बंदइ नमसर, वंदिता नमसिना सीहासवरंसि पुरत्थाभिमुहे सनिसने, तए सं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरभो श्रयमेरूवे अन्भथिए चिंतिए पत्थिए मयोगए संकप्पे समुप्पजित्था ॥ १६ ॥ न खलु एयं भूयं, न भव्त्रं, न भविस्सं, जनं अरहंता वा चकबड्डी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा किविणकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा माहणकुलेसु वा, आयासु वा आयाइति वा आयाइस्संति वा ॥ १७ ॥ ' नमोऽत्यु णं समणस्स भगवओो महावीरस्स ' नमोऽस्तु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुग्वतित्थयरनिद्दिट्ठस्स पूर्वतीर्थङ्करैः निर्दिष्टस्य ' जाब संपाविउकामस्स यावत् सिद्धिगतिनामकं स्थानं सम्प्राप्तुकामस्य, श्रीवीरो हि अथ मुक्तिं यास्यतीति एवं विशेषणम्, इमानि सर्वाण्यपि विशेषणानि चतुर्थ्येकवचनान्तानि ज्ञेयानि ॥ ' वंदामि गं भगवंतं तत्थ गयं इह गए' बन्दामि श्रहं भगवन्तं तत्र गतं देवानन्दाकुक्षौ स्थितमित्यर्थः अत्र स्थितोऽहं ' पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गयं ति कट्टु' पश्यतु मां भगवान् तत्र स्थितः इह स्थितम् इति उक्त्वा समयं भगव महावीरं ' श्रमण भगवन्तं महावीरं ' बंदर नमसह ' वन्दते नमस्यति 'वंदिता नर्मसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा' सीहासरावरंसि पुरस्वाभिमुद्दे सन्निसराणे' पूर्वाभिमुखः सिंहासने सनिवरण उपविष्ट इत्यर्थः, 'तर णं तस्स सक्क्स्स देविदस्त देवरन्नो' ततस्तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवानां राशः ' अयमेश्ररुवे ' श्रयमेतद्रूपः 'अम्भस्थिर ' श्रात्मविषय इत्यर्थः ' चितिए ' चिन्तात्मकः 'पत्थर' प्रार्थितोऽमिलापरूपः 'मयोगए ' मनोगतो, न तु वचनेन प्रकाशितः, ईदृशः 'संकप्पे ' संकल्पो विचारः 'समुप्यज्जित्था' समुत्पन्नः ॥ १६ ॥ कोऽसौ इत्याह- 'न खलु प भू' न निश्चयेन एतद्भूतमतीतकाले ' न भव्वं न भवति पतत् वर्त्तमानकाले, ' न भविस्सं' एतत् न भविष्यति श्रागामिनि काले । किं तदित्याह-'जन्नं अरहंता वा' यत् श्रईतो बा ' चकवड्डी वा ' चक्कवर्त्तिनो वा ' बलदेवा बा ' बलदेवा वा 'वासुदेवा वा ' वासुदेवा वा अतकुलेसु वा अन्त्यकुलेषु - शत्रकुलेषु इत्यर्थः ' पंतकुलेसु वा' प्रान्तकुलेषु'अधमकुलेषु ' तुच्छकुलेसु वा ' तुच्छाः अल्पकुटुम्बाः तेषां कुलेषु वा 'दरिद्दकुले वा' दरिद्रा निर्धनास्तेषां कुलेषु वा 'किविणकुलेसु वा ' कृपणाः अदातारस्तेषां कुलेषु वा ' भिक्खागकुलेसु वा ' भिक्षाकाः - तालाचरास्तेषां कुलेषु वा ' माइणकुलेसु वा' ब्राह्मणकुलेषु वा तेषां भिक्षुकत्वात्, पतेषु ' श्रायासु वा' आगता अतीतकाले ' श्रायाइंति बा' आगच्छन्ति वर्तमानकाले ' आयाहस्संति वा ' आगमिष्यन्ति - अनागत काले, पतन भूतमित्यादि योगः । तर्हि श्रईदादयः चत्वारः केषु कुलेषु उत्पद्यन्ते इत्याहएवं खलु अरहंता वा चक्कबड्डी वा बलदेवा वा वासु
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वीर
देवा वा, उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइनकुलेसु वा इक्खागकुलेसु वा खतियकुलेसु वा हरिवंसकुलेसु वा अभयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाइंसु वा श्रायाइंति वा आयाइस्संति वा ॥ १८ ॥
'एवं वालु' एवम् अनेन प्रकारेण खलु निकाये ' अरहंता वा' अर्हन्तो वा 'चकबट्टी वा' चक्रवर्त्तिनो वा ' बलदेवा वा ' बलदेवा वा ' वासुदेवा वा वासुदेवा वा ' उग्गकुलेसु वा उम्राः श्री आदिनाथेन आरक्षकतया स्थापिता जनाः तेषां कुलेषु भोगकुलेसु वा ' भोगाः गुरुतया स्थापिताः, तेषां कुलेषु रायम्बकुलेसु वा' श्रीषमदेवेन मित्रस्थाने स्थापिताः तेषां कुलेषु 'क्लायकुलेसु वा' इचवाकाः श्री ऋषभदेववंशोद्भवाः, तेषां कुलेषु हरिवंसकुलेसु वा' तत्र 'हरि' सि पूर्वभक्वैरिनीतहरिवर्षत्रयुगलं, तस्य वंशो हरिवंशस्तत्कुलेषु अशयरेसु वा ' अन्यतरेषु वा 'तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु ' विशुद्धे जातिकुले यत्र एवंविधेषु वंशेषु तत्र जाति : - मातृपक्षः, कुलं - पितृपक्षः, ईदृशेषु कुलेषु 'मायाइंसु वा ' आगता अतीतकाले 'श्रायाइति वा ' आगच्छन्ति वर्त्तमानकाले ' आयाइस्संति वा' आगमिष्यन्ति अनागतकाले न तु पूर्वोक्तेषु ।
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(७) तर्हि भगवान् कथम् उत्पन्न इत्याहप्रत्थि एसे वि भावे लोगच्छेरयभूए भणताहि उस्सप्पिणी - श्रोसप्पिणीहिं विइकंताहिं समुप्पजइ ।
( सू० १६+ )
'अस्थि पुण पसे वि भाषे' अस्ति पुनः एषोऽपि भावो भषिताख्यः 'लोगच्छ्रेरयभूप' लोके श्राश्वर्यभूतः ' अंताहि उस्सप्पिणीश्रसप्पिणीहिं' अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु 'विक्ताहिं समुप्पजर' व्यतिक्रान्तासु ईदृशः कश्चित्पदार्थ उत्पद्यते, तत्रास्यामवसर्पिण्याम् ईदृशानि दश आचर्याणि जातानि । कल्प० १ अधि० २ क्षण । ( तान्याश्चर्याणि 'अच्छे' शब्दे प्रथमभागे २०० पृष्ठे उक्तानि । )
समसे भगवं महावीरे वासी इराईदिएहिं विइकंतेहिं तेयासीइमे राईदिए वट्टमाणे गन्भाओ गन्धं साहरिए । ( सू० ८३X ) स० ८३ सम० ।
नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइयस्स अजिन्नस्स उदरणं जं यं अरहंता वा चक्कवडी वा बलदेवावा, अंतकुलेसु वा पन्तकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा किविकुलेसु वा माहणकुलेसु वा श्रायाइंसु वा श्रायाईति वा आयाइस्संति वा कुच्छिसि गन्भत्ताए वक्कमिंसु वा वकमंति वा वकमिति वा ।
'नामगुत्तस्स कम्मस्स नाता गोत्रम् इति प्रसिद्धं यत्कर्म गोत्राभिधानं कर्मेत्यर्थः, तस्य किंविशिष्टस्य 'बीएस्स' ति अक्षस्य स्थिने श्रायेण 'प्रवेश्यस्त' ति अवेदितस्य रस
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(१३४५) अभियामराजेन्द्रः।
पीर स्व अपरिभोगेन 'भणिजिसस्सति प्रनिर्जीसस्य जीवप्रदे.
| भूए अणंताहिं उस्सप्पिलीमोसप्पिणीहिं विश्वंताहिं शेभ्यो परिणटितस्य रशस्य गोत्रस्य नीचैगोत्रस्य उदयेन | मगजनि नामा
| समुप्पजति नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीखस्स अवे ममवान् प्राह्मलीकुक्षौ उत्पन्न इति योगः। तच्च नीचैगौत्र भगवता स्थूलसप्तविंशतिभवापेक्षया तृतीयभवे बद्धम् । क
इमस्स अणिजिमस्स उदए णं, जं णं अरिहंता वा रूप०१ अधि०२क्षण । (वीरस्य अष्टाविंशतिर्भवाःमरी चकवड्डी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतशब्बेऽस्मिन्नेव भागे १५१ पृष्ठे गताः।)
कुलेसु वा तुच्छकुलेसुवा किविकुलेसु वा दरिदकुलेसुवा (८) गर्भव्युत्क्रान्तिः
भिक्खागकुलेसु वा पायाइंमु भायाइंति वा मायाइस्संति नोचवणं जोणीजम्मणनिक्खमणेणं निक्खमिंसु वा | वा कम्छिसि गम्भत्ताए बकर्मिसु वा बकमंति वा बकमिनिक्खमिति वा निक्खमिस्संति वा । अयं च णं समणे
स्संति वा, नो चेव णं जोखीजम्मणनिक्खमणणं निक्खभगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे माहणकुंडग्गामे मिमु वा निक्खमिति वा निक्खमिस्संति वा ॥२३॥ नयरे उसमदत्तस्स माहखस्स कोडालसगुत्तस्स भारि- च णं समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे याए देवाखंदाए माहखीए जालंधरसगुचाए कुच्छिसि | माहणकुंडग्गामे नयरे उसमदत्तस्स माणस्स कोडालसगम्मत्ताए वकते, तं जीभमेनं तीअपच्चुप्पचमणागयाणं
गुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए सकाणं देविंदाणं देवरायाणं अरिहंते भगवंते तहप्पगारे- कुञ्छिसि गम्भत्ताए वक्रते ॥ २४ ॥ तं जीभमेनं तीहिंतो अंतकुलेसु वा पंतकुलेमु वा तुच्छकुलेसु वा दरि
अपच्चुप्पभमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं (कलसु वा भिक्खागकुलेसु वा किविणकुलेहितो माह- अरिहते भगवते तहप्पगारेरितो अंतकले हितो पंतकलेपकुलेहिंतो तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा भोगकूलेसु वा हितो तुच्छकलेहिंतो दरिहकलेहितो किविणकलहितो वरायन्नकुलेसु वा नायकुलेसु वा अभयरेसु वा तहप्पगारे-| सीमगकुलेहिंतो माहणकुलेहिंतो तहप्पगारेमु उग्गकुलेसु सु क्सुिद्धजाइकुलवंसेसु जाव रजसिरिं कारेमाणे पाले
| वा भोगकुलेसु वा रायन्नकुलेसु वा नायकुलेमु वा खत्तिमाणे साहरावित्तए-तं सेयं खलु मम वि समखं भगवं
यकुलेमु वा इक्खागकुलेमु वा हरिवंसकुलेसु वा अनयरे. महावीरं चरमतित्थयरं पुण्यतित्थयरनिदिदं माहणकुंड-1
सु वा तहप्पगारेसु वा विमुद्धजाइकुलवंसेसु साहरावित्तए ग्गामायो नयरामो उसमदत्तस्स माहणस्स भारियाए| ॥२५॥ देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ ख- ___ 'तं जीअमेयं' तस्मात् हेतोः जीतम्-पतत् , माचार त्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स एष इत्यर्थः, केषामित्याह-तीअप्पच्चुप्पामणागया ' खत्तियस्स कासवगुत्तस्स भारियाए तिसलाए खनिया- अतीतयसमानाऽनागतानां 'सक्काणं देविदाणं देवराया
ण' शकाणां देवेन्द्राणां देवराजानां, कोऽसौ इत्याह-यत् सीए वासिहसगुचाए कुछिसि गम्भत्ताए साहरावित्तए,।
'अरिहंते भगवते' महतो भगवतः 'तहप्पगारेहितो' जे वि य णं से तिसलाए खचियाणीए गम्भे तं पि य णं
तथाप्रकारेभ्यः 'अंतकुलहितो' अन्तकुलेभ्यः 'पंतकुलेदेवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुञ्छिसि गम्भ- हिंनो' प्रान्तकुलेभ्यः 'तुच्छकुलेहितो' तुच्छकुलेभ्यः चाए साहरा वित्तए-ति कड्ड एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता दरियकुलहितो' दन्द्रिकुलेभ्यः ' भिक्खागकुलेहितो . हरिणेगमेसिं पायवाणीयाहिवई देवं सहावेइ सद्दावेत्ता
भिक्षाबरकुलेभ्यः 'किषिणकुलेहितो' रुपणकुलेभ्यः 'माह
एकुलेहितो 'बाह्मणकुलेभ्यश्चावाय 'तहप्पगारेसु ' तथाएवं वयासी ॥२१।। एवं खलु देवाणुप्पिमा!न एभं भूभ,
प्रकारेषु · उग्गकुलेसु वा' उग्रकुलेषु वा 'भोगकुलेसुवा' न एमं भम्ब, न एवं भविस्सं, जंवं अरिहंता वा च- भोगकुलेषु या रायचकुलेसु वा 'गजन्यकुलेसु वा 'मायबबट्टी वापसदेवा वा वासुदेवा बा, अंतकुलेसु वा पं. कुलेसु वा 'हातकुलेषु वा 'अन्नयरसुवा' अन्यतरेषु वासलेमु वा किविसकुलेसु वा दरिदकुलेमु वा तुच्छा
'तहप्पगारेसु' तथाप्रकारेषु 'विसुद्धजाइकुलवंसेसु वा'
विशुद्ध जातिकुले यत्र रिशेषु वंशेषु 'जाव रजसिरि' लेसु वा भिक्खागकुलेसु वा मायाइंसु वा मायाइंति वा
भायाइति वा या
यावत् राम्यनिय कारेमाणे ' कुर्वत्सु 'पालेमाणे ' पालय मायाइस्संति वा, एवं खलु मरिहंता बा चकवडी वा सुच 'साहरावित्सर' मोचयितुम् इन्द्राहामेष प्राचारः बलदेवा वा वासुदेवा वा उग्गकुलेसु वा, भोगकुलेसु वा | • सेयं च मम वि' ततः श्रेयः खलु युक्तमेतन्ममापि, राइन्नकुलेमु वा नायकुलेसु वा खत्तियकुलेमु वा इस्खा
किं तदित्याह 'समण भगवं महावीर' श्रमण भगवन्तं गकुलेसु वा हरिवंसकलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु
महावीरं 'चरमतित्थयरं' चरमतीर्थकर 'पुब्बतित्थयर
निदिट्ट' पूर्वतीर्थकरैर्निर्दिष्ट माहणकुडग्गामाप्रो नयरामों' विसुद्धजाइकुलवंसेसु भायाइंसु वा मायाइति वा माया
ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् 'उसभदत्तस्स माहणस्स' इस्संति वा ॥२२॥ अत्थि पुण एसे वि भावे लोगच्छरय-1 अपभदत्तस्य ब्राह्मणस्य भारियाए' भार्यायाः 'देवाणं
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बीर
स्मीति जानाति, ननु संहियमाणो न जानातीति कथं युक्तं संहरणस्य असमसामायिकत्वात्, भगवतश्च विशिष्टज्ञानवस्त्रात् उच्यते-इदं वाक्यं संहरणस्य कौशसंज्ञापकं, तथा तेन संहरं कृतं यथा भगवता ज्ञानमपि अज्ञातमिवाभूत्, पीडाऽभावात् यथा कश्चिद्वदति स्वया मम पादातथा कण्टको उद्धृतो यथा मया ज्ञात एव मेति, सौस्यातिशये च सत्येवंविधो व्यपदेशः सिदान्तेऽपि दृश्यते, तथाहि - 'तहिं देवा वंतरिना वरतरुणीगीअवाइअरवेणं निष्वं सुहिअपमुइया गयं पिकालं न याणंति' इत्यादि, तथा च 'साइरिज्जमाणे वि जावर' इत्याचाराङ्गोक्तेन विरोधोऽपि न स्यात् इति ममतव्यम् ।
जं रयचि णं समये भगवं महावीरे देवागंदाए माइसीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खसियाfor वासिस गुत्ताए कुच्छिसि गन्भचाए साहरिए, तं रचिणं सा देवाणंदा माहणी सयणिअंसि सुन्त जागरा मोहरमाणी मोहीरमाणी इमेयारूवे उराले० जाव उद्दसमहासुमिये तिसलाए खतिभागीए इडे पासितापडिबुद्धा, तं जहा, 'गय - '० गाहा ॥ ३१ ॥ जं रयखिं च मं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीचो तिसलाए खनिनाणीए वासिद्धसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरिए, तं रयगि चणं सा तिसला खचित्राणी तंसि तारिसंसि वासघरंसि अभितर सचित्तकम्मे बाहिरओ मिश्रघट्टमट्ठेविचितउम्लो चिम्लियतले मणिरयणपणासि अंधयारे बहुसमसुविभतभूमिभागे पंचत्र सरतसुरईितुकपुप्फपुंजोवयारकलिए कालागुरुपत्ररकुंदुरु कतुरुकडज्यंत धूत्रमघमतगंधु जुयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधबडिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिअंसि सालिंगणबट्टिए उभओ बिम्बोभवे उभयो उन्नए मज्झेब य गंभीरे गंगापुलिवालुमाउदालसालिसए - उभवीचको मिश्रदुगुन्लपट्टपमिच्छने सुविरइभर यत्ताणे रत्तंमुखसंबुडे सुरम्मे भाईगरूयवूरनवबीअतूलतुलफासे सुगंधवरकुसुम चुभसयणोबवारकलिए, पुव्वर सावरतकालसमयंसि सुत्तजागरा श्रोfरमाबी मोहरमाणी, इमे एयारूत्रे उराले० जाव चउद्दस महामुमिले पासित्ता यं परिबुद्धा, तं जहा - " गय-वसहसीह - अभिसेय-दाम-ससि - दिययरं भयं कुंभं । पउमसर सागर - विमा-य भवस -रमणुच्चय सिहिं च ॥ १ ॥ " 'जं रयाणि च ं ' यस्यां व रात्रौ समणे भगवं महाबीरे ' भ्रमणो भगवान् महावीरः देवादा माहणीर' देवानन्दाया ब्रह्मण्याः जालंधरसगुसाप जालन्धरसगोत्रायाः कुच्छीओो ' कुक्षितः 'तिसलाप सन्ति प्राणीय' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः 'बासिBe
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( १३४६ अभिधामराजेन्द्रः ।
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बीर सगुत्ताए' वाशिष्ठगोत्रायाः 'कुच्छिसि गम्भत्तार साहरिए' कुक्षिविषये गर्भतया मुक्तः 'तं स्यणि च ' तस्यामेव रात्रौ 'सा देवादा माहणी' सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'सयहिअंसि शय्यायां सुत्तजागरा ' सुप्तजागरा 'ओहीरमाणी ओोहीरमाणी' अल्पानिद्रां कुर्वती 'इमे पयारुवे उराले ' इमाम् एतदूपान् प्रशस्तान् 'जाव चउदस महासुमिणे' यावत् चतुदेश महास्वमान् 'तिसलाए खत्तिश्राणीए इडे पासिता सं पडिबुद्धा' त्रिशलाया क्षत्रियाण्या हृता इति दृष्ट्वा जागरिता 'तं जहा' तद्यथा-' गययसह ०गाहा ' 'गयवसह' इति गाथाsत्र वाच्या ॥ ३१ ॥ ' जं रर्याणि च एं' यस्यां च रात्री 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः ' देवादाप माहणीय ' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः ' जालंधरसगुत्ताए ' जालन्धर सगोत्रायाः ' कुच्छीओो ' कुक्षितः ' तिसलाए ' खतिखीए ' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ' बासिसगुत्तए ' वासिष्ठसगोत्रायाः 'कुच्छिसि गम्भताए साहरिए ' कुक्षौ गर्भतया मुक्तः ' तं रथं च गंं ' तस्यां रजन्यां सा तिसला खाने श्राणी ' सा त्रिसला क्षत्रियाणी 'तंसि' तस्मिन् तारिसगंसि ' तादृशे वकुमशक्यस्वरूपे महाभाग्यवतां योग्ये ' बासघरंसि ' वासगृहे, शयनमन्दिरे इत्यर्थः, किंविशिष्टे वासगृहे-' अभितरओ सचित्तकम्मे ' मध्ये चित्रकर्मरमणीये, पुनः किविशिष्टे -' बाहिरओ ' बाह्यभागे ' दूमिश्र ' सुधादिना धवलते घट्टे' कोमलपापाणादिना घृष्ठे, श्रत एव ' मट्टे' सुकोमले, पुनः किविशिउष्टे-' विचित्त उल्लोश्रतले ' विचित्रो विविधवित्रकलित उलोक उपरिभागो यत्र तत्तथा चिम्लिश्रतले ' देदीप्यमानतलः अधोभागो यत्र तत्तथा कर्मधारये विचित्रोलोकचिलिततले, पुनः किविशिष्टे - ' मणिरयअपणासिनंधयारे ' मणिरत्नप्रणाशितान्धकारे, पुनः किंविशिष्टे -' बहुसम ' - त्यन्तं समोऽविषमः पञ्चवर्णमणिनिबद्धत्वात् सुविभत्त सुविभक्तः विविधस्वस्तिकादिरचना मनोहरः, एवंविधो 'भूमिभागे 'भूमिगागो यत्र तस्मिन् पुनः किंविशिष्टे-' पंचवनसरससुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए ' पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा ' मुक' ति इतस्ततो विक्षिप्तेन ईरशेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण पूजया कलिते, पुनः किंविशिष्टे 'कालागुरु' कृष्णागुरु प्रसिद्धं ' पवरकुन्दुरुक्क ' विशिष्टं चीडाभिधानं गन्धद्रव्यविशेषः 'तुरुक्क ' तुरुष्कं सिहकाभिघानं सुगन्धद्रव्ये 'उज्यंतधूव दह्यमानो धूपो दशाङ्गादिरनेक सुगन्धद्रव्यसंयोगसमुद्धृतः, एतेषां वस्तूनां सम्बन्धि यः । मघमघंत ' मघमघायमानोऽतिशयेन गन्धवान् 'गंधुद्धमाभिरामे' उद्धतः प्रकटीभूतः, एवंविधो गन्धस्तेनाभिरामे, पुनः किंविशिष्ऐ-'सुगंधबरगन्धिर' सुगन्धाः सुरभयो ये वरगन्धाः प्रधानचूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तथा तस्मिन्, पुनः किंविशिष्टे - गंधवट्टिभूए ' गन्धवर्तिर्गन्धद्रव्यगुटिका तत्सशेऽतिसुगन्धे इत्यर्थः, एतादृशे बालभवने, अथ तंसि' तस्मिन् 'तारिसगंसि' तादृशे वक्तुम् अशक्यस्वरूपे महाभाग्यवतां योग्ये ' सयणिज्वंसि' शयनीये, पल्यङ्के इत्यर्थः इदं विशेष्यम्, किंविशिष्टे - ' सालिंगणबडिए ' सालिङ्गनवर्त्तिके आलिङ्गनवर्तिका नाम - शरीरप्रमाणं दीSureshपधानं तथा सहिते, पुनः किंविशिष्टे – उभयो '
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अभिधानराजेन्द्रः। स्य क्षत्रियस्य 'कासवगुत्तस्स' कश्यपगोत्रस्य ' भारि- दूलान् 'परिआएर' पर्यादत्ते: गृहातीत्यर्थः ॥२७॥ याए ' भार्यायाः 'तिसलाए खत्तिप्राणीए ' त्रिशलायाः 'परियारत्ता' पर्यादाय गृहीत्वा 'दुवं पि' द्वितीयवाक्षत्रियाण्याः 'वासिट्रसगुत्ताए' वाशिष्ठगोत्रायाः कु- रमपि उब्वियसमुग्धाएणं' वैकियसमुद्घानेन 'समोछिसि गम्भताए ' कुक्षौ गर्भतया 'साहराहि ' मुश्च हणह' पूर्ववत् प्रयत्नविशेष करोति 'समोहणिता' प्रय'जे विय णं' योऽपि च 'से तिसलाए' तस्याः त्रिशला- सविशेषं कृत्वा 'उत्तरवेउब्वियरूवं' उत्तरक्रिय, भषधायाः 'खतिवाणीए'क्षत्रियाण्याः 'गम्भे' गर्भः 'तं पिय रणीयापेक्षया अन्यत् इत्यर्थः, ईरशं रूपं, 'विउब्या' विसं 'तमपि 'देवाणंदाए माहणीए 'देवानन्दायाः ब्राह्म- कुर्वने करोति विउब्वित्ता' तथा कृत्वा 'ताए' तया 'उण्याः 'कुञ्छिसि 'कुक्षो 'गम्भताए' गर्भतया 'साहराहि, किटाए' उत्कृष्टया. अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया 'तुरिमाए' मुश्चः 'साहरिता' मुक्या 'मम एप्रमाणसिनं 'मम ए- त्वरितया, चित्तौत्सुक्यवन्या 'चवलाए ' कायचापल्ययुतामाज्ञप्तिम्-प्राज्ञां 'खिप्पामेव' शीघ्र · पचप्पिणाहि . क्रया चंडार'चरडया अत्यन्ततीव्रया 'जयणाए' शेषगनिप्रत्यय, कार्य कृत्वाऽऽगत्य मयैतत् कार्य कमम् इति | जयनशीलया उद्धश्राए' उतया,प्रचण्डपवनोबूतधूमादेरिव शीघ्र निवेदय इत्यर्थः॥२६॥तए णं से हरिणेगमेसी ततः स 'सिम्बाए' अत एव शीघ्रया'छेत्राए'ति कुत्रचित् पाठः, हरिणैगमेषी पायत्तासीयाहिई देवे पादात्यनीकाधिपति- तत्र छेकया विनपरिहारदतया 'दिवार देवयोग्यया. ईरदेवः 'सकणं देविदेणं ' शक्रेण देवेन्द्रेण · देवरना ' देवरा- श्या 'देवगईए'देवगत्या 'बीइवयमाणे वीहवयमाणे' गच्छन्, जेन 'एवं खुले समाणे' एवमुक्तः सन् 'हट्टजाव ' अधस्तादुतरन् अधस्तादुत्तरन् ' तिरिश्रमसंखिजाणं दीयावत्-यावत्करणात् 'तुट्ठचिन्नमाणदिए पीहमणे परम
बसमुदाण' तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां 'मझ मज्झसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण इत्यादि सवं चक्रव्यम् । णं' मध्यं मध्येन-मध्यभागेन जेणेव जंबुद्दीवे दीये' 'हियए' हर्षपूर्णहदयः, अथैवंविधः सन् हरिणेगमेषी'क
यत्रैव जम्बूद्वीपो डीपः 'भरहे वासे' भरतक्षेत्र 'जेणेव मारयल 'करतलाभ्यां 'जाव' यावत् , यावत्करणात्-' परि
हणकुंडग्गामेनयरे' यत्रय ब्राह्मणकुणण्डग्राम नगरं जेणेव उस ग्गहिय इसनहं सिरसावत्सं मत्थए अंजलिं' इति प्राग्वत् भदत्तस्स माइणस्स गिहेंयत्रैव ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य गृहंपाच्यम् 'कटु' तथा मस्तके अञ्जलिं कृत्या ' ज देयो
'जेणेव देवाणदा माहणी' यत्रैव देवानन्दा ग्राह्मणी ' तेप्राणवेह' ति यत् शक्रः प्राज्ञापयति 'प्राणाए विणएणं णेव उवागच्छह' तत्रैव उपागच्छति ' उवागच्छित्ता ' घयण पडिसुणा' आज्ञाया उतरूपाया यचनं तद्विनय- उपागम्य च 'आलोए' पालोके दर्शनमात्रे 'समलम्म न प्रतिशृणोति-अङ्गीकरोति 'पडिसुणिता ' प्रतिश्रुत्य
भगवनो महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य च-अङ्गीकृत्य च 'उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं' ईशाणकाण
'पायाम करे' प्रणामं करोति 'पणामं करिता' प्रणाम मामके दिग्विभागे इत्यथैः. तत्र 'अयकमह' अपक्रामति
कृत्वा च देवाणंदामाहणीए' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः गच्छतीत्यथः अबक्कमिना' अपक्रम्य गत्वा च 'विउव्यि
'परिजणाए' सपरिवारायाः 'ओसोवणि' अवस्थापिनी असमुग्धारण समोहण' वैशियममुद्घातेन समुद्धान्त
निद्रा 'दलई ददाति दलिता तां दत्वा च 'असुमे पुग्गले वैक्रियशरीरकरणा) प्रयत्नविशेषं करोतीत्यर्थः ' समोह
अशुबीन् पुरनान् , अपवित्रानित्यर्थः 'प्रबहरा' अपहरति णिता'प्रयत्नविशेषं कृत्वा 'संखिजाई जोपणाई' संख्येय
दूरीकराति' अवहरित्ता' तथा कृत्वा च 'सुभे पुग्गले' योजनप्रमाणं दण्डं-दण्डाकारं शरीरबाहल्यमूर्दाध श्रा
शुभान पुनलान् । पवित्रपुद्रलानित्यर्थः - पक्सिवा' यातं जीवप्रदेशकर्म पुगलसमूहं 'निस्सरह' शरीराद्वहिः नि-|
प्रक्षिपात ' पाक्वचित्ता' प्रक्षिप्य च ' अणुजाण में काशयतीत्यर्थः, तत्कुर्वाणस्तु एवंविधान पुगलान् प्रावते
भयचं ति कह' अनुज्ञानातु-प्राज्ञां ददातु मां भगवान् 'तं जहा ' तद्यथा- रयणाणं ' रलानां कर्केत
इति कृस्या. इत्युक्त्वा 'समणं भगवं महावीर' श्रमण भगमादीनां १, यद्यपि रत्नपुद्रला औदारिका वैक्रियशरीरकर
घम्न महावीरम् 'अब्बाबाह' व्यावाधारहिनं भगवन्नम् णे असमर्थाः, तत्र क्रियवर्गणा पुनला एव उपयुज्यन्ते,
'अब्बाबाहेणं' अव्याबाधेन. मुखेन 'दिव्येणं पहावेण' दितथापि रत्नानामिव सारपुद्रला इति शेय' बयराणं' व
ध्यन देवयोग्यन प्रभावेण 'करयलसंपुडेणं गिराहा' करतलजाणा-हीरकाणां २, 'वेरुलिनाणं' बर्याणां नीलरला
सम्पुटे गृहानि, न च तेन गृह्यमाणस्यापि गर्भस्य काचित् माम् ३, “लोहिअक्खाणं' लोहिनाक्षाणां ४, 'मसारगलाणं'
पीडा स्यात्, यदुक्तं भगवत्याम्-'पभूणं भंते !हरिणेगमेसी मसारगल्लानां ५, 'हंसगम्भाणं' हंसगर्भाणां ६, 'पुलयाणं'
सकदूर इत्थीगमं नहसिरसि वा रोमकूवसि वा साहरिपुलकानां ७, सोगंधियाणं' सौगन्धिकानां ८,'जोईरसाणं'
सरवानीहरित्तए वा? हंता पभू.नो चेव गं तस्स गम्भस्स ज्योतीरसामा , 'अंजणाणं' अजनानाम् १०, 'अंजणपु
पायाहं वा वाबाई या उप्याएजा, छावच्छेनं पुष करिजा' लयाणं' अञ्जनपुलकानां ११, ' जायरूयाण जातरूपाणां
छविच्छेदं त्वकछेदनम् अकृत्या गर्भस्य प्रवेशयितुम् अशक्य१२, 'सुभगाणं ' सुभगानाम् १३, 'अंकाणं 'अकानां १४,
स्वादिति 'करयलसंपुडणं गिारहत्ता हस्ततलसम्पुटे ग्रही'फलिहाणं ' स्फटिकानां १५, 'रिहाणं' रिष्टानाम् १६ । ए
त्वा च 'जेणेव स्वत्तियकुण्डग्गामे नयरे' यत्रैव शत्रियकुताः बोडश रत्नजातयस्तेषां च 'अहाबायरे' यथाबादण्न्
एडप्रामनामनगरं • जेणेव सिद्धत्थम्स बलियस्स गिहे' अत्यन्तम् प्रसारान् : स्थूमान् इत्यर्थः 'पुग्गले' नान पुद्र- यत्रैव सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य गृहं जेसेव तिसला स्वन्तिलान् 'परिसाडे परित्यजति परिसाडित्ता' परित्यज्य 'अहा- याणी' यत्रैव त्रिशलानाम क्षत्रियाणी 'तेणेव उबागच्छा' सुहुमे'यथा सूक्ष्मान् । अत्यन्तं सारान् इत्यर्थः,तान पुग्गले'पुः । तत्रैव उपागच्छति 'तिसलाए खत्तिश्राणीए' त्रिशलायाः
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क्षत्रियायाः सपरिश्रणाप' परिवारसहितायाः 'श्रीसोब विस्थापन नि ददाति दलित तां दराच अपुले अवर' अभाव पुलान् दूरीकरोति हरिता' तथा कृत्या सुने पुग्गले पि पशुमान् पुछालान् प्रतिपति पक्खिवित्ता प्रक्षिप्य व * समर्थ भगर्थ महावीरं भ्रम भगवन्तं महावीरम्-अब्वाषाद्दं ' व्याबाधारहितम् श्रब्षाबाहें' अब्याबाधेन सु दोन दिग्वेण पदायेयं दिग्वेन प्रभावेन तिसलार ब चिमणी त्रिशालायाः पत्रियाण्याः 'कुहनिम्मा' कुक्षी गर्भतया साहस' मुखति त्र गर्भाशयात् गर्भा शये, गर्भाशयात् योनौ, योनेर्गर्भाशये, योनेयोनौ इति गर्भसंहरणे चतुर्मी भवति तत्र योनिमार्गेण प्रादाय गर्भाशये मुञ्चत्ययं तृतीयो भङ्गोऽनुज्ञातः, शेषाश्च निषिद्धाः श्रीभगवतीसूत्रे ' जे वि य शंसे तिसलाए खत्तिश्राणीए गन्भे' योऽ पिच तस्याः शिलायाः त्रियायाः गर्भः पुत्रः पि अयं देवादामाहणी तमपि गर्ने देवानन्दाया वारायाः कुछिसि गम्मत्ताए ' कुक्षिविषये गर्भतथा 'साइरद्द' मुवति 'साइरिता मुत्या व जामेव दि पाउ भूप' यस्याः एव दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः श्रागतः ' तामेव दिसि पडिगए ' तस्यामेव दिशं पश्चातः स देव इति ॥ २८ ॥ ' ताए उकिडाए ' तथा अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया' तुरिश्राए' चितौत्सुक्यवस्था ' बबलाए कायचापल्ययुक्तया चंडाए' अत्यन्ततीव्रया ' जयलाय ' सकलगतिजेश्या' उद्धआए' उबूतया 'सिग्धाए' अत एव शीत्रया दिव्या देवयोग्यथा देवगण या देवत्या तिरिभ्रमविज्ञाएं तिर्यगू असंयेानां दसमुद्दामयो' द्वीपसमुद्राणां मध्ये मध्ये मध्यभागेजोषसपसाइस्पिड योजन लक्षमासाभिः बिगहिं' विग्रहैः पदन्यासान्तरैः उप्पयमाणे ' ऊर्ध्वमुत्पसामेय लोहम्मे कप्पे ' यत्र स्थाने सौधर्मे करणे सोहम्मर विमा सौधर्मावतंसकनामविमाने 'ससि सीहासरांसि शकनामसिंहासने सबके देविंदे देवराया' शत्रूनामा देवेन्द्रः देवराजोऽस्ति 'तेणामेव उवागच्छ तत्रैव स्थाने उपागच्छति उपागचा उपा गस्य च 'सक्कल देविंदस्स देवरनो' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य समाधिं विध्यामेव ' तां पूर्वोमाडांशीअमेव पच्चपि प्रत्यर्पयति कृत्या निवेदयति सदेवः इति ॥ २६ ॥
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(१३७५) अभिधानराजेन्द्रः ।
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स खनिअस कासवगुस मारिच. एतिसला खचियादीए वासिमसार पुग्दर सावरतकालसमयंसि इत्युतराहिं नक्खते जोगमुवागणं अब्याबाई अन्याबा कुच्छिसि भत्ता साहरिए ||३०|| तेयं कालेयं तेयं समएणं समखे भगवं महावीरे तिभा खोवगए भावि हुत्थासाहरिजिस्सामि ति जागर, संहरिजमा नो जागाइ, साहरियमिचि जागर ।
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' तेणं कालें ' तस्मिन् प्रस्तावे ' तेणं समपणं ' तस्मिन् समये समये गये महावीरे भ्रमणो भगवान् महावीरः 'जे से वासात मासे योऽसी वर्षाणां वर्षाकालसम्बन्धी तृतीयो मासः ' पंचमे पक्खे' पञ्चमः पक्षः, कोइसी इत्याह- सोअबदुले 'आम्बिनमासस्य कृष्णपक्षा 'तस्स से आसो अबदुलस्स' तस्स आश्विनयडुलस्य तेरसीखें' त्रयोदश्याः पक्षः, पश्चार्धरात्रिरित्यर्थः, तस्यां 'बासीहराइदिएहि विश्यंतहिं' द्वपशीतौ अहोरात्रेषु अतिक्रान्तेषु ते सीइमस्स राइदिअस्स ' प्रयशीतितमरणsaोरात्रस्य ' अंतरा घट्टमाणस्स ' अन्तरकाले रात्रिलक्षणे काले वर्तमाने हिमाशुकंपणं स्वस्य इन्द्रस्य च हितेन तथा भगवतः अनुकम्पकेन भगवतो भक्लेन, अनुकम्पायाश्च भक्तिषाचित्वम् आयरिअऋणुकंपाए गच्छो श्रणुकंपित्रो महाभागो ' इति वचनात्' इरिरोगमे सिखा दे इरिगमैषिनामकेन देवेन 'सक्कवयणसंदिट्ठे' शक्रवचनेन
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दिन प्रेषितेन 'मादकुंडग्गामाओ' ब्राह्मनकुरमान् नयराओ' नगरात् 'उसभदत्तस्स माहणस्स ' ऋषभदत्तस्य प्रह्मवस्य 'फोडालस गुत्तस्स' कोडालसगोत्रस्य मारिआप देवादाय माहसीय भार्याया देवानन्दायाः ब्राह्मरायाः ' जालंधरसगुताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छिन्नो' कुक्षितः खत्तिअकुंङग्गामे नयरे ' क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे * नायाएं वचिमाणं ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां सिद्धस्थस्स चियस्स सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्स 'कासयगुत्तस्स' काश्यपगोत्रस्य ' भारिश्राए तिसलाए बत्तिश्राणी 'भायया शिलाशः क्षत्रियायाः वासिलगुत्ता' बाशगोत्रायाः 'पुब्वरतावर सकाल समयं सि' मध्यरात्रकालसम ये 'हत्तरा नक्ा तेरा' उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे 'जोगमुवागएवं चन्द्रेयसम्बन्धे उपायते सति अन्यायापी डारहितं यथा स्यात्तथा अव्वाबाहे अव्याबाधेन दिव्यप्रभावेन कुच्छिसि गम्भत्तार साहरिए' कुक्षिविषये गर्भतया संहृतः; मुक्त इत्यर्थः । अत्र कबेरुत्प्रेक्षा - " सिद्धार्थपार्थिवकुलाप्तगृह प्रवेशे, मौहूर्त्तमागमयमान इव क्षणं यः । दिवापितषान् भगवान् द्वयशीर्ति; विद्यालये स चरमो जिनराद पुनातु ||३०||" तेयं कालेयं तस्मिन् काले तेयं समयणं ' तस्मिन् प्रस्तावे च 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'तिनासोबगर आऽचि हुत्था' त्रिभिउपगतः सहितः प्रभवत् 'साइरिखिस्सानि
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जाणार' संहरिष्यमाणः इतः संहरिष्यामि इति जानाति 'साइरिखमा नो जाए' संहियमाणः संहरसमये न जानाति 'साहरिएमि' ति जाणार' संहृतोऽ
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तेयं कालेयं तेयं समयं समये भगवं महावीरे जे से बासाहं तथे मासे पंचमे पक्खे असले, तस्स यासोबहुलस्त तेरसीपक्खेसं बासीइराईदिएहिं वीकंतेहिं तेसीइमस्स राइदिअस्स अंतरा वमाणस्स हिमाणुकंपएवं देवेशं हरिणगमेसिया सकन्या संदिट्ठेयं माहवदम्मामा नराम्रो उपमदचस्स माइलस्म फोडालसगुहांनेः भो चस्स मारियाए देवादा माइलीए जालंधर गुचार - छीओ खत्तियकुं डग्गामे नयरे नायाखं खत्तिभासं सिद्धस्थ ।
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स्मीति जानाति, ननु संहियमाणो न जानातीति कथं युक्तं, संहरणस्य असङ्गयसामायिकत्वात्, भगवतश्च विशिष्टज्ञानवस्त्रात् उच्यते - इदं वाक्यं संहरणस्य कौशसंज्ञापकं, तथा तेन संहरणं कृतं यथा भगवता ज्ञानमपि अज्ञातमिवाभूत्, पीडाऽभावात् यथा कचिद्वदति स्वया मम पादात्तथा कण्टको उद्धृतो यथा मया ज्ञात एम मेति, सौस्यातिशये च सत्येवंविधो व्यपदेशः सिवान्तेऽपि दृश्यते, तथाहि - 'तर्हि देवा वंतरिक्षा वरतourगीअवाइअरबेणं निरुखं सुहिअपमुहना गयं पिकालं न याणंति' इत्यादि, तथा च साहरिजमाणे वि जायह' इत्याचाराङ्गोक्तेन विरोधोऽपि न स्यात् इति ममतव्यम् ।
जं रयचि णं समये भगवं महावीरे - देवाणंदाए माइमीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खतियाबीए वासिस गुत्ताए कुच्छिसि गन्भसाए साहरिए, तं रयमिं च यं सा देवागंदा माहणी सयणि अंसि सुत्त जागरा ओहीरमाथी ओहीरमाथी इमेयारूवे उराले० जाव उसमा सुमिणे तिसलाए खचित्राणीए इडे पासिसायं पडिबुद्धा, तं जहा, 'गय - ' ० गाहा ॥ ३१ ॥ जं रयखिं च यं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुताए कुच्छीओ तिसलाए खत्तिभाणीए वासिद्धसगुत्ताए कुच्छिसि गन्मत्ताए साहरिए, तं स्यणि च यं सा तिसला खत्तित्राणी तंसि तारिसंसि वासघरं - सि अभितरभो सचित्तकम्मे बाहिरओ मिश्रघट्टमट्ठेविचितउम्लोअचिम्लियतले मतिरयणपणासि अंधयारे बहुसमसुविभतभूमिभागे पंचवासरतसुरहिनुकपुष्फपुंजोबंयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुक तुरुकडज्यंत धूत्रमघमपंतगंधु जुयाभिरामे सुगंभवरगंधिए गंधबडिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिशंसि सालिंगबबट्टिए उभो बिम्बोभवे उभभो उमए मज्झेब य गंभीरे गंगापुलियत्रानुचाउद्दालसालिसए - उभवीजचो मित्र दुगुन्लपट्टपमिच्छने सुविरइभरयताये रसंमुबसंबुडे सुरम्मे भाईगरूयनूरनवबीच तुलतु म्लकासे सुगंधवरकुसुम चुकासयणोबबारकलिए, पुष्वरत्तावरतकालसमयंति सुत्तजागरा श्रोहीराणी ओहीरमाणी, इमे एयारूत्रे उराले० जाव चउदस महासुमिये पासिचा सं परिबुद्धा, तं जहा - " गय-वसहसीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिखयरं - झयं- कुंभं । पउमसर सागर - विमा - भवय-रमणुश्चन सिहिं च ॥ १ ॥ " 'जं रयाणि च सं' यस्यां च रात्रौ समये भगवं महाषीरे ' भ्रमणो भगवान् महावीरः • देवदा माहणीय ' देवानन्दाया ब्राह्मण्याः जालंधरसगु शाप जालन्धरसगोत्रायाः कुच्छीचो ' कुक्षितः 'तिसखाए बत्तिप्राणीप' त्रिशलायाः क्षत्रियायाः 'बासि
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( १३४६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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For Private
बीर लगुत्ता' वाशिष्ठगोत्रायाः 'कुछिसि गम्भताप साहरिए' कुक्षिविषये गर्भतया मुक्तः 'तं स्यसि च तं ' तस्यामेव रात्रौ 'सा देवादा माहणी' सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'सर्यादिअंसि शय्यायां सुतजागरा ' सुप्तजागरा 'ओहीरमाणी श्रोहीरमाणी' अल्पानिद्रां कुर्बती ' इमे पयारूवे उराले ' इमान् एतद्रूपान् प्रशस्तान् 'जाव चउद्दस महासुमिये' यावत् चतुदेश महास्वमान् 'तिसलाए खत्तिश्राणीए हडे पालिता सं डिबुद्धा' त्रिशलाया क्षत्रियाण्या हुता इति दृष्ट्वा जागरिता 'तं जहा' तद्यथा - 'गयवसह ०गाहा ' 'गयवसह' इति गाथाऽत्र वाच्या ॥ ३१ ॥ ' जं रर्याणि च णं यस्यां च रात्रौ ' समणे भगवं महावीरे ' श्रमणो भगवान् महावीरः ' देवादार माहणीए ' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालंधरसगुस्साए ' जालन्धरसगोत्रायाः ' कुच्छीओो ' कुक्षितः ' तिसलाए ' खत्तिश्राखीए ' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ' वासिसगुत्तर' वासिष्ठसगोत्रायाः 'कुच्छिसि गम्भताए साहरिए ' कुक्षौ गर्भतया मुक्तः ' तं रयाणि च ' तस्यां रजम्यां ' सा तिसला खत्तिश्राणी ' सा त्रिसला क्षत्रियाणी 'संसि' तस्मिन् तारिसगंसि ' तादृशे वकुमशक्यस्वरूपे महाभाग्यवतां योग्ये 'वासघरंसि ' वासगृहे, शयनमन्दिरे इत्यर्थः, किंविशिष्टे वासगृहे-' अब्भितरनो सचित्तकम्मे ' मध्ये चित्रकर्मरमणीये, पुनः किविशिष्टे -' बाहिरओ बाह्यभागे 'मिश्र ' सुधादिना धवलिते' घट्टे' कोमलपाप्राणादिना घृष्टे, अत एव मट्टे' सुकोमले, पुनः किविशिऐ- विचित्त उल्लो श्रतले ' विचित्रो विविधवित्रकलित उलोक उपरिभागो यत्र तत्तथा चिलिचतले ' देदीप्यमानतलः अधोभागो यत्र तत्तथा कर्मधारये विचित्रोलोकचिलिततले, पुनः किविशिष्टे - ' मणिरयचपणासिअंधयारे ' मणिरत्नप्रणाशितान्धकारे, पुनः किंविशिष्टे - ' बहुसम ' अ त्यन्तं समोऽविषमः पश्चवर्णमणिनियद्धत्वात् ' सुविभ सुविभक्तः विविधस्वस्तिकादिरचनामनोहरः, एवंविधो 'भूमिभागे ' भूमिगागो यत्र तस्मिन् पुनः किंविशिष्टे - पंखवनसरससुरहिमुक्कयुप्फपुंजोवयारकलिए ' पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिया 'मुक' त्ति इतस्ततो विक्षिप्तेन ईरशेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण पूजया कलिते, पुनः किंविशि 'कालागुरु' कृष्णागुरु प्रसिद्धं ' पबरकुन्दुरुक्क ' विशिषं चीडाभिधानं गन्धद्रव्यविशेषः 'तुरुक्क ' तुरुष्कं सिहकाभिघानं सुगन्धद्रव्ये 'उपभंतधूव ' दह्यमानो धूपणे दशाङ्गादिरनेकसुगन्धद्रव्यसंयोगसमुद्धृतः, पतेषां वस्तूनां सम्बन्धि यः मघमघंत मघमघायमानोऽतिशयेन गन्धवान् 'गंधुद्धाभिरामे' उद्धतः प्रकटीभूतः एवंविधो गन्धस्तेनाभिरामे, पुनः किंविशिष्टे - 'सुगंधवरगन्धि' सुगन्धाः सुरभयो ये वरगन्धाः प्रधानचूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तथा तस्मिन्, पुनः किंविशिष्टे - ' गंधवट्टिभूए ' गन्धवर्तिर्गन्धद्रव्यगुटिका तत्सदृशेऽतिसुगन्धे इत्यर्थः, एतादृशे बासभवने, अथ तंसि' तस्मिन् 'तारिसगंसि' तादृशे वक्तुम् अशक्यस्वरूपे महाभाग्यवतां योग्ये ' सयणिज्यंसि ' शयनीये, पल्यङ्के इत्यर्थः, इदं विशेष्यम्, किंविशिष्टे -' सालिंगराय द्विप' सालिङ्गनवर्त्तिके प्रालिङ्गनवर्तिका नाम - शरीरप्रमाणं दीगण्डोपधानं तथा सहिते, पुनः किंविशिष्टे -' उभभो '
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(१३५०) बीर
अभिधानराजेन्द्रः। उभयतः शिरोऽन्तपादान्तोः ' बिब्बोधणे उच्छीर्षके
तो पुणो हारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरययमयत्र तत्तथा तस्मिन् , पुनः किंविशिष्टे- उभो उनए'
हासेलपंडुरतरं रमणिजपिच्छणिजं थिरलट्ठपउट्ठवट्टपीवयत उभयत उच्छीर्षकयुक्ने, अत एव उभयतः उन्नते, पुनः किंविशिष्टे-' मझेण य गंभीरे ' तत एव मध्ये नते
रसुसिलिट्ठविसिद्दतिक्खदाढाविडंबिअमुहं परिकम्मिश्रजगम्भीरे च, पुनः किंविशिष्ट ' गंगापुलिणवालुअाउद्दाल- चकम्मगलकोमलपमाणसोहंतलट्ठउटुं रत्तुप्पलपत्तमउअसु सालिसए' तत्र 'उद्दाल' ति उद्दालेन पादविन्यासे कुमालतालुनिल्लालियग्गजीहं मसागयपवरकणगताविअधोगमनेन गङ्गातटवालुकासदृशे , अयमर्थः--यथा
अभावत्तायंतवट्टतडियविमलसरिसनयणं विसालपीवरवगङ्गापुलिनवालुका पादे मुक्त अधो व्रजति, तथा अतिकोमलत्वात् स पल्यकोऽपीति शेयं, पुनः किं विशिष्टे
रोरु पडिपुन्नविमलखंधं मिउविसयसुहुमलक्खणपसत्थ'उवषी' परिकर्मितं, 'खोमिन' क्षोमम्-अतसीमयं
वित्थिन्नकेसराडोवसोहिअं ऊसिअसुनिम्मियसुजाया'दुगुल्लपट्ट' खुकुल वस्त्रं तस्य यः पट्टो यु- प्फोडिअलंगूलं सोम्मं सोम्माऽऽगारं लीलायंतं नहयलाओ गलापेक्षया एकपट्टः, तेन 'पडिच्छन्न' आच्छादिते , पुनः उवयमाणं नियगवयणमइवयंत पिच्छइ सा गाढतिक्खकिंविशिष्ट-सुविरइभरयत्ताने 'सुष्टु विरचितं रजत्राणम्-अपरिभोगावस्थायामाच्छादनं यत्र तस्मिन् ,
ग्गनहं सीहं वयणसिरीपल्लवपत्तचारुजीहं ३ ॥ ३५ ॥ पुनः किंविशिष्टे-'रत्तंसुअसंवुडे' रक्कांशुकेन मशकग्रहा- तो पुणो पुन्नचंदवयणा, उच्चागयठाणलट्ठसंठिअं भिधानेन रक्तवरणाच्छादिते, तथा 'सुरम्मे' अतिरमणी- पसत्थरूवं सुपइट्ठिअकस्मगमयकुम्मसरिसोवमाणचलणं ये, पुनः किंविशिष्टे-'अाइपगरुअरनवणीअतूलतुल्लफासे' आजिनकं-देशान्तरीय चर्म , रुतं प्रतीतं , बूरो
अच्चुन्नयपीणरइअमंसलउवचियतणुं तबणिद्धनहं कमलपवनस्पतिविशेषः, नवनीतं-म्रक्षण तूलम्-अर्कतूलम् , ए
लाससुकुमालकरचरणं कोमलवरंगुलिं कुरुविंदावत्तवट्टाभिः वस्तुभिः तुल्यः समानः स्पर्शो यस्य तथा तस्मि- णुपुव्वजंघ निगूढजाणुं गयवरकरसरिसपीवरोरु चामीन् , एतद्वस्तुवत्कोमले इत्यर्थः, पुनः किंविशिष्टे-'सुगंध- कररइअमेहलाजुत्तं कंतविस्थिन्नसोणिचकं जच्चंजणभमबरकुसुमचुनसयणोवयारकलिए' सुगन्धवरैः अतिसुग
रजलयपयरउज्जुअसमसंहिअतणुअाइजलडहसुकुमालमन्धैः कुसुमैः चूर्णैः वासादिभिश्च यः शयनोपचारः शय्यासंस्क्रिया तेन कलिते; कुसुमैः चूर्णैश्च मनोहरे इत्यर्थः,
उअरमणिजरोमराई नाभिमंडलसुंदरविसालपसत्थजधणं 'पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' मध्यरात्रकालप्रस्ताव 'सु
करयलमाइजपसत्थतिवलियमझ नाणामणिकणगरयसजागरा ओहीरमाणी श्रोहीरमाणी' सुप्तजारा अल्प- णविमलमहातवणिजाभरणभूसणविराइयमंगुवंगं हारनिद्रां कुर्वती 'इमे एयारूवे' इमान् एतद्रान् 'उराले' विरायंतसुंदमालपरिणद्धजलजलंतथणजुअलविमलकलस प्रशस्तान् 'जाव चउद्दस महासुमिणे' यावत् चतुदेश महा
आइयपत्तिअविभूसिएणं सुभगजालुजलेणं मुत्ताकलावस्वमान् 'पासित्ता णं पडिबुद्धा' दृष्टा जागरिता, 'तं ज
एणं उरत्थदीणारमालविरइएणं कंठमणिसुत्तएणं कुंडलजुहा' तद्यथा-'गय १ वसह २ सीह ३ अभिसे-श्र४ दाम ५ ससि ६ दिणयर भयं कुंभं पउमसर १० सागर ११
अलुल्लसंतअंसोवसत्तसोभंतसप्पभेणं सोभागुणसमुदएणंविमा-भवण १२ रयणुश्चय १३ सिहि च १४॥१॥' इयं आणणकुडुबिएणं कमलामलविसालरमणिजलोअर्णि गाथा सुगमा।
कमलपजलंतकरगहिअमुक्कतोयं लीलावायकयपक्खएणं (१०) चतुर्दश महास्वमस्वरूपम्
सुविसदकसिणघणसण्हलंबंतकेसहत्थं पउमद्दहकमलवातए णं सा तिसला खत्तिाणी तप्पढमयाए-चउइंतमू
सिणि सिरिं भगवई पिच्छइ हिमवंतसेलसिहरे दिसागइंदो. सिअगलिअविपुलजलहरहारनिकारखीरसागरससंककिर
रुपीवरकराभिसिच्चमाणिं ४ ॥३६॥ कल्प. १ अधि०२ णदगरययमहासेलपंडुरं समागयमहुयरसुगंधदाणवासि
क्षण । तमो पुणो सरसकुसुममंदारदामरमणिजभृअं चंपगायकपोलमूलं देवरायकुंजरवरप्पमाणं पिच्छइ सजलघण
ऽसोगपुन्नागनागपिअंगुसिरीसमुग्गरमल्लिाजाइजूहिअंकोविपुलजलहरगजियगंभीरचारुधोसं इभं सुभं सव्वलक्षण
लकोज्जकोरिंटपत्तदमणयमनवमालिअबउलतिलयवासंकविगं वरोरुं १॥३३॥
तिअपउमुप्पलपाडलकुंदाइमुत्तमहकारसुरभिगंधिं अणुव. तो पुणो धवलकमलपत्तपयराइरेगरूवप्पमं पहास
ममणोहरेण गंधेणं दस वि दिसाओ वि वासयंतं सब्बोमुदनोवहारेहिं सव्वो चेव दीवयंतं अइसिरिभरपि
उअसुरभिकुसुममल्लधवलविलसंतकंतबहुवनभत्तिचित्तं छन्लणाविसप्पंतकंतसोहंतचारुककुहं तणुसुद्धसुकुमाल
प्पयमहुअरीममरगणगुमगुमायंतनिलिंतगुंजंतदेसभागंदालोमनिद्धच्छविं थिरसुबद्धमंसलोवचिअलट्ठसुबिभत्तसुंदरंग
मं पिच्छइ नभंगणतलाओ उवयंतं ५ ॥३७।। (कल्प०) पिच्छाइ घणवट्टलट्ठउक्किट्ठतुप्पग्गतिक्ख सिंगं दंतं सिवं
(६ षष्ठस्वप्नस्वरूपम् 'चंद' शब्द तृतीयभागे १०६४ पृष्ठे समाणसोहंतसुद्धदंतं वसहं अमित्रगुणमंगलमुहं २ ॥३४॥ गतम् ।) (सूरदर्शनविशिष्टं सप्तमं स्वप्नम् 'सूर' शब्दे वक्ष्य
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(१३५१) वीर अभिधानराजेन्द्रः।
वीर ते ।) (ध्वजदर्शनविशिष्टमष्टम स्वप्नम् ‘झय' शन्दे चतु- | गं मेरुगिरिसंनिगासं पिच्छह सा रयणनिकररासिं १३ ॥४॥ र्थभागे १६६० पृष्ठे गतम्।)
सिहिं च सा विउलुजलपिंगलमहुघयपरिसिच्चमाणनितो पुणो जच्चकंचणुजलंतरूवं निम्मलजलपुनमुत्तमं
मधगधगाइयजलंतजालुजलाभिरामं तरतमजोगजुत्तेहिं दिपमाणसोहं कमलकलावपरिरायमाणं पडिपुन्नं सब
न जालापयरेहिं अन्नुन्नमिव अणुप्पइन पिच्छइ जालुजमंगलभेयसमागमं पवररयणपरिरायंतकमलट्ठियं नयणभू
लणग अंबरं व कत्थइ पयंत अइवेगचंचलं सिहि ।।१४।४६।। सणकरं पभासमाणं सबो चेव दीवयंतं सोमलच्छी
इमे एयारिसे सुभे सोमे पियदंसणे सुरूवे सुविणे दट्टण निभेलणं सव्वपावपरिवजिअं सुभं भासुरं सिरिवरं सव्वो
सयणमज्झे पडिबुद्धा अरविंदलोयणा हरिसपलइअंगी। उयसुरभिकुसुमासत्तमल्लदाम पिच्छइ सा रययपुनक
एए चउद्दस सुमिणे, सव्वा पासइ तित्थयरमाया , जं लसं ॥४१॥
रयणि वक्कमइ कुच्छिसि महायसो अरिहा ॥४७॥ तए णं तो पुणो रविकिरणतरुणबोहियसहस्सपत्तसुर
सा तिसला खत्तियाणी इमे एयारूचे चउद्दस महासुमिणे भितरपिंजरजलं जलचरपहकरपरिहत्थगमच्छपरिभु
पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्ठ-तुट्ठ जाव--हियया ज्जमाणजलसंचयं महंतं जलंतमिव कमलकुवलयउप्पल
धाराहयकयंवपुप्फगं पित्र समूससिअरोमकूवा सुमिणुग्गई तामरसपुंडरीओरुसप्प माणसिरिसमुदएणं रमणिज्जरूव
करेइ करित्ता सयणिज्जाओ अब्भुटेइ अब्भुद्वित्ता पायपीसोहं पमुइअंतभमरगणमत्तमहुयरिगणुक्करोलिजमाणक
ठाओ पच्चोरुहइ, पायपीठाओ पञ्चोरुहिता अतुरिअमचमलं कायंबगबलाहयचक्ककलहंससारसगबिअसउणगण
वलमसंभताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव मिहुणसेविज्जमाणसलिलं पउमिणिपत्तोवलग्गजलबिंदु
सयणिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छइ उवानिचयचित्तं पिच्छइ सा हिययनयणकंतं पउमसरं नाम
गच्छित्ता सिद्धत्थं खत्तिअंताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियार्हि सरं सरोरुहाभिरामं १० ॥ ४२ ॥
मणुनाहिं मणोरमाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं तो पुणो चंदकिरणरासिसरिससिरिवच्छसोहं चउग
धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हियमणपवङ्कमाणजलसंचयं चवलचंचलुच्चायप्पमाणकल्लोल
यपल्हायपिज्जाहिं मिअमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी२ लोलंततोयं पडुपवणाहयचलियचवलपागडतरंगरंगंतभं-|
पडिबोहेइ॥४८॥ तए णं सा तिसला खत्तिपाणी सिद्धत्थेणं गखोखुन्भमाणसोभंतनिम्मलुक्कडउम्मीसहसंबंधधावमाणा
रना अब्भणुनाया समाणी नाणामणिकणगरयणभत्तिवनिपत्तभासुरतराभिरामं महामगरमच्छतिमितिमिगिल-| चित्तंसि भद्दासणंसि निसीयइ निसीइत्ता आसत्था वीसनिरुद्धतिलितिलियाभिधायकप्पूरफेणपसरं महानईतुरिय-|
त्था सुहासणवरगया सिद्धत्थं खत्तिअं ताहिं इटाहिं वेगसमागयभमगंगावत्तगुप्पमाणुच्चलंतपच्चोनियत्तभम- जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी-।। ४७॥ माणलोलसलिलं पिच्छइ खीरोयसायरं सा रयणिकर
एवं खलु अहं सामी, अञ्ज तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सोमवयणा ११ ॥ ४३॥
वसो जाव-पडिबुद्धा, तं जहा-गयवसह. गाहा, तं तत्रो पुखो तरुणसूरमंडलसमप्पहं दिप्पमाणसोभं उत्त-एएसिं सामी उरालाणं चउद्दसएहं महासमिणाणं के मकंचमहामणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्सदिप्पंतनहप्पईवं क- मने-कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ॥५०॥ तए णं णगपयरलंबमाणमुत्तासमुज्जलं जलंतदिव्वदामं ईहामि- मे सिद्धत्थे राया तिसलाए खत्तिप्राणीए अंतिए एयगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरसंसत्त- मढे सुच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-जाव हियए धाराहयनीवकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं गंधव्वोपबजमाणसंपुन्न- सुरभिकुसुमचंचुमालइयरोमकूवे ते सुमिणे ओगिण्हई , घोसं निच्चं सजलघणविउलजलहरगज्जियसद्दाणुणा- | ओगिरिहत्ता ईहं अणुपविसइ, ईहं अणुपविसित्ता अप्पणो इणा देवदुंदुहिमहारवेणं सयलमवि जीवलोयं पूरयंतं, का- साहाविएणं मइपुचएणं बुद्धिविनाणेणं तेसिं सुमिणाणं लागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कडज्झमाणधूववासंगउत्तममघमवंत- अत्थुग्गहं करेइ करित्ता तिसलं खत्तिआणिं ताहिं इट्ठाहिं गंधुयाभिरामं निच्चालोयं सेयं सेयप्पमं सुरवराभिरामं | जाव मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहि वग्गूहिं संलवमाणे संलपिच्छइ सा साओवभोगं विमाणवरं पुंडरीयं १२ ॥४४॥ | वमाणे एवं क्यासी-॥५१॥ उराला णं तु मे देवाणुप्पिएं!
तो पुणो पुलगवेरिंदनीलसासगकक्केयणलोहियक्ख- सुमिणा दिट्ठा, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा मरगयमसारगल्लपवालफलिहसोगंधियहंसगन्भअंजणचंद- दिवा, एवं सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया प्रारुगतुट्टि प्पहवररयणेहिं महीयलपइडिअंगगणमंडलंतं पभासयंतं,तुं-! दीहाउ-कल्लाण-मंगल्लकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुं
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अभिधानराजेन्द्रः। मिया दिड्डा, प्रत्यलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलामो देवा- तुङ जाव-हियया, जावभंजलि का एवं सामि' चि सुप्पिए पुत्तलामो देवाणुप्पिए। सुक्खलामो देवाणुप्पिए! प्राणाए विणएवं वयणं पडिसुशंति परिसुमिता सिदत्व रजलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! स्स खत्तियस्स अंतिभामोपडिनिक्खमंति,पडिनिक्समिता नवण्हं मासारखं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं जेणेव बाहिरिमा उवडाणसाला तेथेव उवागच्छति, उविश्कताखं भम्हं कुलकेउं अहं कुलदीवं कुलपब- वागन्छित्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवहाणसावं यं कुलबडिंसयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं गंधोदगसित्तं सुइं जाव-सीहासयं रयाविति रयाविचा कुलदिपयरं कुलाऽऽधारं कुलनंदिकरं कुलजमकरं कुलपा- जेणेव सिद्धत्ये खतिए तेशेव उवागच्छति उवागच्छित्ता यवं कुलविवद्धणकरं मुकुमालपाणिपायं महीणपडिपुन्न- करयल जाव मत्थर भंजलिं का सिद्धत्यस्स खतिमपंचिंदियसर्गरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणप्पमा- स्स तमाणतिनं पचप्पियंति ॥ ५६ तए णं सिद्धत्थे खगपडिपुन्नमुजायसव्वंगसुंदरंग ससिसोमागारं तं पिय-| त्तिए कलं पाउप्पभाए रयणीए फन्लुप्पलकमलकोमलुदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि ॥ ५२॥
म्मीलियम्मि महापंडुरे पभाए रसासोगप्पगासकिंसुमसु(११) वीरस्य यौवनावस्था
प्रमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपारावयचलणनयणपरहुभसुरतसे विभ यंदारए उम्पुक्कबालभावे विन्नायप्प- लोणजासुमसुमरासिहिंगुलनिभराइरेगरेहंतसरिसे क. रिणयमित्ते जुन्धणमणुपत्ते सूरे वीरे विकते विस्थिमवि- मलायरसंडविवोहए उनिम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिखउलबलवाहणे रजबई राया भविस्सइ ॥५३॥ तं उराला |
यरे तेभसा जलंते,तस्स य करपहरापरद्धम्मि अंधयारे वाणं. जाव सुमिणा दिट्ठा, दुचं पि तचं पि अणुवहा॥
| लायवकुंकुमेणं खचिभब्य जीवलोए, सयणिजामो अन्नतए णं सा तिसला खत्तिाणी सिद्धत्थस्स रबो मंतिए दुइ ॥ ६० ॥ प्रभुहिता पायपीटामो पचोरुहइ पच्चोएयमढे सुच्चा निसम्म हडतुडु० जान-छियया करयलप- रुहिता जेणेव अणसाला तेखेव उवागच्छह उवागच्छिरिग्गहि० जाव मत्थए अंजलि कह एवं वयासी-11५४|| त्ता अट्टणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, अणेगवायामएवमेयं सामी,तहमेयं सामी अवितहमेयं सामी,भसंदिद्धमेयं जोगवग्गणवाहुमहणमलजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते सयपासामी, इच्छियमे सामी, पडिच्छियमेनं सामी, इच्छि
गसहस्सपागेहिं सुगंधतिनमाइएहिं पाणणिजेहिं दीवणिजेअपडिच्छियमेयं सामी, सच्चे णं एस अढे से जहेयं
हिं मयणिजेहिं बिहणिजेहिं दप्पणिजेहिं सबिदियगायपतुन्भे वयह त्ति कडु ते मुमिणे सम्म पडिच्छइ पडिच्छित्ता
न्हायणिोहिं भन्भंगिए समाणे तिचम्मंसि निउणेहि सिद्धत्थेणं रमा अन्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभ- पडिपुत्रपाणिपायसुकमालकोमलतलेहिं भम्भंगणपरिमद्दत्तिचित्तामो, भद्दासणामो अन्मुडेइ,मभुद्वित्ता अतुरियम
णुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं दस्खेहिं पढेहिं कुललेहि चवलमसंभंताए अविलंबिभाए रायहंससरिसीए गईए मेहावीहिं जिभपरिस्समेहि पुरिसेहिं भड्डिसुहाए मैससुहाए जेणेव सए सणिजे, तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता, तयासुहाग रोमसुहाए चउचिहाए मुहपरिकम्मणाए संवाहएवं वयासी-मा मे एए उत्तमा पहाणा मंगला सुमिणा खाए संवाहिए समाणे भवगयपरिस्समे महणसालामो दिवा अबेहि पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्संति त्ति कह देवय- पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमिना जेणेव मजणघरे तेव गुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगलाहिं धम्मियाहिं कहाहिं उवागच्छद उवागच्छित्ता मजणघरं मणुपविसइ,मणुपविसुमिणजागरियं जागरमागीपडिजागरमाणी विहर।।५६।। सित्ता समसजासाकुलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुहिमतले तप यं सिद्धत्थे खत्तिए पच्चूसकालसमयंसि कोडुवित्र- रमणिजे एहाणमंडसि नाणामखिरयणभत्तिचित्तंसि एहापुरिसे सद्दावेद सहावित्ता एवं वयासी-।। ५७ ॥ खि- णपीटंसि सुहनिसने पुप्फोदरहिम,गंधोदएहि भ, उपहोप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! अज सविसेसं बाहिरिनं उव-| दएहि अ, मुडोदएहिम, सुहोदएहि यकवाणकरणहाणसालं गंधोदयसित्तं सुइसंमज्जिवलितं सुगंधवरपं- पवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउभसएहिं बहुविहेहि पवन्नपुप्फोवयारकलिमं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझं- कल्लाणगपवरमजणाऽवसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइनवधूवमधमतगंधुदुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूमं| लुहिअंगे महयसुमहरषद्सरयणसुसंधुडे-सरससुरभिगोकरेह कारवेह,करिता कारवित्ता सीहासणं रयावह रयावेहि- सीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालापनगविलवणे माविता ममेयमाणत्तिमं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह ॥५८॥ तए णं ड्रमणिसुवने कप्पियहारद्वहारतिसरयपालंबपलबमाणककोडुवित्रपुरिसा सिद्धस्थे रन्ना एवं खुचा समाया हह- डिसुत्तसुकयसोहं पिरागेविजे अंगुलिअगललियकया
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( १३५३) अभिधानराजेन्द्रः ।
वीर
भरणे वरकडगतुडिअर्थभिप्रभु अहिअरूवसस्सिरीए कुंडल जो भाग मउडदत्तसिरए हारुच्छियसुकयरइचबच्छे मुद्दिमापिंगलंगुलीए पाल पलंबमाण सुकयपडउत्तरिजे नाणामणिकणगरयणविमलमहरि अनि उ णोवचित्रमिसिमितिविरइ सुसिलिट्ठविसिठ्ठलट्ठयविद्धवीरवलए किं बहुणा कप्परुक्खए त्रिव अलंकि अविभूसिए नरिंदे, सकोरंट मल्लदा मेणं छतेणं धरिजमाणेणं सेवरचामराहिं उवाणीहिं मंगलजयसद्दकयालोए अगगणनायगदंडनायगराईसर तलवर मावि अकोडुंबिय मंतिगणगदोवारियमच्चचढे पीढमद्दनगरनिगमसिट्ठिसे गावइसत्थवाह संधि - वालसद्धि संपरिवुडे धवल महामेहनिग्गए इन गहगणदिप्पं तरिक्खतारागणारा मज्झे ससि व्व पित्रदंसणे नरवई न रिंदे नरवसहे नरसी अन्महिअरायतेयलच्छीए दिप्पमाणे मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, मञ्जणघर। ओ पडिनिक्खभित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उबागच्छर उवागच्छित्ता सीहासांसि पुरत्थाभिमुद्दे निसीइ निसीइत्ता, अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए अट्ठभद्दासण।ई सेअत्रत्थपच्चुत्थयाई सिद्धत्थकय मंगलोत्रया राई रयावे, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणामणिरयणमंडिग्रं अहिश्रपिच्छणिजं महग्धवरपट्टणुग्गयं सहपट्टभचिसयचिचाणं ईहामित्र उ सभतुर गनर मगरविहगवालग - किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवण लयपउमलयभत्तिचित्तं अभि तरिअं जवणिअं अंछावेइ, श्रद्धावित्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउमसूरगो (च्छ ) त्थयं से अवत्थपच्चुत्थयं सुम अंगसुहफरिसगं विसिद्धं तिसलाए खत्तिआणीए भद्दसणं यावे, रयावित्ता कोबिअपुरिसे सहावेह, मदाता एवं वयासी ||६४ || खिप्पामेव भो देवाप्पि -
अगमहानिमित्तत्तत्थधारए - विविहसत्थ कुसले सुविणलक्खणपाढए सहावेह ।। तए गं ते कोटुंबिय पुरिसा सिद्धत्थे रन्ना एवं वृत्ता समाणा, हट्ट तुट्ठ० जावहियया करयल •जाव पडिसुगंति ||६|| तर गं० पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तिस्स अंतिचाओ पडिनिक्वमंति पडिनिक्खमित्ता कुंडग्गामं नयरं मज्झ मज्झेणं जेणेव सुविणलक्खपाढगाणं गेहाई तेणेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता, सुविणलक्खखपाढए सदाविति ॥ ६६ ॥ तए गं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खतियस्स कोचिअ पुरिसेर्हि सद्दाविश्रा समाणा हट्ठ-तुट्ठ० जावहियया एहाया कयबलिकम्मा कयकोउ मंगलपायच्छता सुद्धपवेसाई मंगलाई वत्थाई पवराई परिहिया अमहग्घा भरणालंकियसरीरा सिद्धत्थयह रियालिया क
३३३
बीर यमंगलगाणा सएहिं सएहिं गेहेहिंतो निग्गच्छति निग्गच्छित्ता, खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्भं मज्भेणं जेणेव सिद्धत्थस्स रन्नो भवणवरवर्डिसगपडिदुवारे तेयेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भवणवरवर्डिसगपडिदुवारे एमओ मिलति मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवडायसाला, जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए, तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता करयल •जाव अंजलि कट्टु, सिद्धत्थं खत्तियं जएं विजएणं वद्धाविंति ॥ ६७ ॥ कल्प० १ अप्रि० ३ क्षण | तणं ते सुविलक्खगपाढगा सिद्धत्थें रन्ना - दियपूइसकारि सम्माणिश्रा समाणा पत्ते पत्ते पुव्वनत्थेसु भद्दाससु निसीयंति ।। ६८ ।। तए गं सिदूत्थे खत्तिए तिसलं खत्तियाणि जवणिअंतरियं ठावे ठात्रित्ता पुष्कफलपडिपुन्नहत्थे परेणं विणएवं ते सुवि
लक्खपाढए एवं वयासी ।। ६६ ।। एवं खलु देवा पित्रा ! अज तिसला खत्तियाणी तंसि तारिसगंसि० जात्र सुत्तजागरा श्रोहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एयारूवे चउदस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धा ॥ ७० ॥ तं जहा - 'गयवसह ० ' गाहा— तंएएसिं चउद्दसहं महासुमिणाणं देवापि ! उराला गं के मन्ने कल्लागं फलवित्तिविसेसे भविस्स ॥ ७१ ॥ तए गं ते सुमिणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खतियस्स अंतिए एयमहं सुच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० जाव हियया, ते सुमिणे सम्मं ओगिएहंति ओगिरिहत्ता ईहं अणुपत्रिसंति अणुपविसित्ता अन्नमन्नेणं सद्धिं संचालित संचालित्ता तेसिं सुमिणाणं लट्ठा गहिऽट्ठा पुच्छिऽट्ठा विचिच्छियऽट्ठा सिद्धत्थस्स रन्नो पुरनो सुमिणसत्थाई, उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी ॥ ७२॥
'तर ते सुविएलक्खणपा ढगा' ततस्ते स्वप्न लक्षणपाठकाः सिद्धत्थे रना वंदिन' सिद्धार्थेन राज्ञा वन्दिताः गुणस्तुतिकरणेन पू' पूजिताः पुष्पादिभिः 'लक्कारिन ' सत्कारिताः फलवस्त्रादिदानेन ' सम्माणिश्रा समाणा ' सम्मानिताः अभ्युत्थानादिभिः एवंविधाः सन्तः पत्ते प ते पुनत्थेसु महासणेसु निसीयंति ' प्रत्येकं प्रत्येक पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति ॥ ६ ॥ ' तर णं सिद्धत्थे खत्तिए ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः ' तिसलं खत्तिआणि ' त्रिशलां क्षत्रियासीं ' जवणिअंतरियं ठावे' यवनिकान्तरितां स्थापयति 'ठावित्ता' स्थापयित्वा पुष्फफलपडिपुन्नहत्थे ' पुष्पैः प्रतीतैः फलैर्नालिकेरादिभिः प्रतिपूर्ण हस्तौ यस्य स तथा यतः - " रिक्तपाणिने पश्येच्च, राजानं देवतं गुरुम् ॥ निमित्तशं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत् ॥ १ ॥ " ततः पुष्पफलप्रति पूर्णहस्तः सन् परेण विराए
' उत्कृष्टेन विनयेन ते सुविणलक्खपाढए तान् स्वप्नलक्षणपाठकान् ' एवं वयासी' एवमवादीत् ॥ ६६ ॥ कि
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( १३५४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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मित्याह - ' एवं खलु देवाणुप्पित्रा !" एवं निश्चयेन भो देवानुप्रियाः ! 'अज्ज तिसला खत्तिश्राणी' अद्य त्रिसला क्षत्रियाणी ' तंसि तारिसगंसि ' तस्मिन् तादृशे शयनीये 'जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी' २ यावत् सुप्तजागरा श्रल्पनि द्रां कुर्वती 'इमे पारूवे ' इमान् एतदूपान् 'उराले चउइस महासुमिणे ' प्रशस्तान् चतुर्द्दश महास्वप्नान् 'पासित्ता गं पडिवुद्रा ' राष्ट्टा जागरिता ॥ ७ ॥ तं जहा' तद्यथा 'गयवसह० गाहा' 'गयवसह' इति गाथा चात्र वाच्या, ' तं गपर्सि ' तस्मात् एतेषां चउदसरदं महासुमिणाणं' चतुद्देशानां महास्वनानां 'देवापिया' हेदेवानुप्रियाः ! 'उरालाएं ' प्रशस्तानां ' के मने' कः विवारयामि 'कल्ला' कल्याणकारी फलवित्तिविसेसे भविस्सर' फलवृत्तिविशेषः भविष्यति ॥ ७१ ॥ ' तर णं ते सुमिणलक्खणपाढगा ' ततस्ते स्वप्नलक्षणपाठकाः सिद्धत्थस्स खनियस्स 'सिद्वार्थस्य क्षत्रियस्य ' अंतिम एयमहं सुच्चा' पार्श्वे एनमये श्रुत्वा 'निसम्म ' निशम्य च ' हट्टनुटु० जाव श्रिया हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहृदयाः ' ते सुमिरो सम्मं श्रोगिरहंति ' तान् स्वप्नान् सम्यग् हृदि धरन्ति श्रगिरिहता' हृदि धृत्वा 'ईहं अणुपविसंति' अर्थविचारणाम् अनुप्रविशन्ति विसित्ता' अनुप्रविश्य च ' अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संचालित ' अन्योऽन्येन परस्परेण सह सञ्चालयम्ति - संवादयन्ति पर्यालोचयन्तीत्यर्थः, 'संचालित्ता' सञ्चा ल्य च ' तेसि सुमियां ' तेषां स्वप्नानां 'लट्ठा' लब्धो sa यैस्ते लब्धार्थाः स्ववु द्र्यावगतार्थाः 'गहियट्ठा ' परस्परतो गृहीतार्थः ' पुच्छियट्ठा ' संशये सति परस्परं पृटार्थाः, तत एव 'विणिच्छियट्ठा' विनिश्चितार्थाः श्रतएव 'अहिगयट्ठा' अभिगतार्थाः श्रवधारितार्थाः सन्तः 'सिद्ध स्थस्स रनो पुरो' सिद्धार्थस्य राशः पुरतः 'सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा' स्वप्नशास्त्राण्युच्चारयन्तः 'सिद्धत्थं खत्तियं' सिद्धार्थ क्षत्रियम् एवं वयासी' एवमाचादिषुः । (१२) स्वप्नसंख्या -
एवं खलु देवापिया !, अम्हं सुमिणसत्थे बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा, बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा, तत्थ देवाप्पिया ! अरहंतमायरो वा चकवट्टिमायरो वा अरहंतंसि वा चकहरंसि वा गन्धं वक्कमारांसि वा, एएसिं तीसाए महासुमियाणं, इमे चउद्दस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुज्यंति, तं जहा - गयवसह० गाहा ॥ ७३ ॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गर्भ वकमासि एएसिं चउद्दसहं महासुमिणाणं, अन्नयरे सत्त महासुमिये पासिताणं पडिबुज्भंति ॥ ७४ ॥ बलदेवमायरो वा बलदेवसि गर्भ वकमासि एएसिं चउद्दसहं महासुमियाणं अन्नयरे चत्तारि, महासुमिये पासित्ता गं पडिबुज्झति ।। ७५ ।। मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गन्भं वकमासि एएसिं चउद्दसहं महासुमियाणं अन्नयरं एगं महासुमियं पासिता णं पडिबुज्झति ॥ ७६ ॥
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वीर
इमे यणं देवाप्पा ! तिसलाए खनिमणीए चउदस महासुमिया दिट्ठा, तं उराला गं देवागुप्पिया ! तिसलाए खत्तिणीए सुमिणा दिट्ठा, ० जाव मंगल्लकारगा गं देवाप्पा ! तिसलाए खत्तिप्राणीए सुमिया दिट्ठा, तं श्रत्थलाभो देवाप्पा, भोगलाभो देवाणुप्पिश्रा पुतलाभो देवाप्पा, सुक्खलाभो देवाणुप्पिया ! रजलाभो देवापि ! एवं खलु देवाप्पिया ! तिसला खत्तिआणी नवराहं मासाणं बहुपडि पुन्नाणं श्रद्धट्टमाणं, राईदिश्राणं विकंताणं, तुम्हें कुलकेउं कुलदीवं कुलवर्डिसयं कुलपव्त्रयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुल वित्तिकरं कुलदिणयरं कुलाऽऽधारं कुलजसकरं कुलपायवं कुलतंतुसंतायवित्रद्धकरं सुकुमालपाणिपायं ग्रहीणपडि पुनपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माण प्पमा
पडिपुन्नसुजायसव्वंग सुंदरगं ससिसोमागारं कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि ।। ७७ ।। से वि य णं दारए उम्मुकबालभावे विभायपरिणयमित्ते जोव्वणगम
पत्ते, सूरे वीरे विकते वित्थिन्न विपुलबलवाहले चाउ रंत कवट्टी रजबई राया भविस्सर, जिणे वा तिलुकनायगे धम्मवरचाउरंतच कवट्टी ||७८|| तं उराला गं तुम देवाप्पा, तिसलाए खत्तित्राणीए सुमिया दिट्ठा० जा मंगल्लकारगां देवाणुप्पि ! तिसलाए खत्तित्राणीए सुमिया दिट्ठा ॥ ७६ ॥ तए णं सिद्धत्थे राया तेर्सि सुमिणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमहं मुच्चा निसम्म हट्ठट्ठ ० जाव हिश्रए करयल ०जात्र ते सुमिण लक्खणपाढए एवं वयासी ॥ ८० ॥ एवमेयं देवाप्पिया ! तहमेयं देवाप्पा! अवितहमेयं देवाप्पिया ! इच्छियमे देवापित्रा ! पडिच्छियमे देवाणुपिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाप्पिया ! सच्चे णं एस अट्ठे से जहेयं तुब्भे वह ति कट्टु, ते सुमि सम्मं पडिच्छर पडिच्छिता ते सुमिगलक्खणपाढए विउलेणं असणेणं पाणेणं खाइमेणं साइमेणं पुष्पवत्थगंधमल्लालंकारें सकारेs सम्माणे सकारिता सम्माणित्ता विउलं जीवि - यारिहं पीइदाणं दल, विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलित्ता पडिविसखे ॥ ८१ ॥ तए गं सिद्धत्थे खत्तिए सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ अब्भुट्ठित्ता जेणेव तिसला खत्तिश्राणी जवणिअंतरिया तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता तिसलं खत्तियाणिं एवं वयासी ॥ ८२ ॥ एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुमिणसत्यंसि बायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणा० जाव एगं महासुमिगं पासित्ता गं पडिबुज्यंति ॥ ८३ ॥ इमे य णं तुमे दे खुप्पिए ! चउद्दस महासुमिया
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बीर
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अभिधानराजेन्द्रः। दिट्ठा । तं उराला णं तुमे जाव-जिणे वा तेलुक्कना- (१३)यत्प्रभृति वारः सिद्धार्थगृहे संहतः तत्प्रभृति शक्रवचयग धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी ॥५॥ तए णं सा ति- नेन जृम्भकदेवैः रत्नधनसंचय आनीतः-सिद्धार्थगृहेसला खत्तिपाणी, एअमटुं सुच्चा निसम्म हट्टतुट्ट जाव | जप्पभिई च णं समणे भगवं महावीरे तंसि गयकुलंसि हियया, करयल जाव ते सुमिणे सम्म पडिच्छह ॥८६॥ | साहरिए, तप्पभिई च णं बहवे बेसमणकुंडधारिणो तिरिपडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रना अन्भणुनाया समाणी, ना- यजभगा देवा सकवयणेणं से जाई इमाई पुरा पोराणाई खामणिरयणभत्तिचित्ताओ भदासणाश्रो अन्भुढेइ प्रभुः। महानिहाणाई भवंति-तं जहा-पहीणसामिप्राई पहीणद्वित्ता अतुरिअं अचवलं जाव रायहंससरिसीए गईए , सेउप्राई पहीणगोत्तागाराई उच्छिन्नसामिप्राई, उच्छिन्नजेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सेउमाई, उच्छिन्नगोतागाराई, गामागरनगरखेडकब्बडसयं भवणं अणुप्पविट्ठा ।। ८७॥
मडंबदोणमुहपट्टणासमसंबाहसन्निवेसेसु, सिंघाडएसु वा, 'इमे य णमि' त्यादि ' तो पयाहिसि ' त्ति पर्यन्तं तत्र | तिएसु वा , चच्चरेसु वा , चउम्मुहेसु था, महापहेसुवा, इमे च देवानुप्रिय ! त्रिशलया क्षत्रियाण्या चतुर्दश महा
गामट्ठाणेसु वा , नगरहाणेसु वा . गामनिद्धमणेसु वा . स्वप्ना रशस्ततो महास्वप्नत्वात् महाफलत्वं दर्शयति-' तंजहे ' त्यादि तद्यथा-अर्थलाभो देवानुप्रिय ! इत्यादि पूर्व
नगरनिद्धमणेसु वा, श्रावणेसु वा , देवकुलेसु वा , स. बत् ॥ ७७॥से वि असमि' त्यादितः । चकवहि ति ' भासु वा , पवासु वा, आरामभु वा , उजाणेसु वा , यावत् तत्र सोऽपि च दारकः उन्मुक्तबालभावो यौवनाव- वणेसु वा, वणसंडेसु वा , मुसाणमुन्नागारगिरिकंदरसंतिस्थामनुप्राप्तो राज्यपती राजा चक्रवर्ती भविष्यति जि
सेलोषवाणभवसगिहेसु वा, सन्निक्खित्ताई चिटुंति, ताई नो वा त्रैलोक्यनायको धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती तत्र जिनत्वे चतुर्दशानामपि स्वप्नानां पृथक् फलानि इमानि-चतु
सिद्धत्थरायभवणंसि साहरंति ||८८॥ दन्तहस्तिदर्शनाचतुर्दा धर्म कयिष्यति १, वृषभदर्शना- | 'जप्पभिई च णं समणे' भगवं महावीरे यतः प्रभृति द्भरतक्षेत्रे बोधिबीजं च वस्यति २, सिंहदर्शनान्मदनादि- यस्माद्दिनादारभ्य श्रमणो भगवान् महावीरः 'तंसि रादुर्गजभज्यमानं भव्यवनं रक्षिष्यति ३, लक्ष्मीदर्शनाद्वार्षि- यकुलसि साहरिए' तस्मिन् राजकुले संहतः ' तप्पभिई कदानं दत्त्वा तीर्थकरलक्ष्मी भोक्ष्यते ४ , दामदर्शनास्त्रिभु- च' ततः प्रभृति , तस्मादिनादारभ्य ' बहले वेसमणकुंबनस्य मस्तकधार्यों भविष्यति ५, चन्द्रदर्शनात् कुव-| डधारिणो' बद्दवः, वैश्रमणो-धनदः, तस्य कुण्डः-श्रायत्तलये मुदं दास्यति ६, सूर्यदर्शनाद्भामण्डलभूषितो भवि-1 ता, तस्य धारिणः, अर्थात् वैश्रमणायत्ताः तिरियजंभयति ७, ध्वजदर्शनाद्धर्मध्वजभूषितो भविष्यति ८, कलश-| गा देवा' तिर्यग्लोकवासिनो जम्भकजातीयाः तिर्यग्जृम्भदर्शनाद्धर्मप्रासादशिखरे स्थास्यति , पवसरोदर्शनान्सुर- काः उच्यन्ते, एवंविधाः देवाः · सकवयणेणं ' शक्रवचनेन संचारितकमलस्थापितचरणो भविष्यति १० , रत्नाकर- शक्रेण वैश्रमणाय उक्तं , वैश्रमणेन तिर्यगजम्भकेभ्य इति दर्शनात्केवलरत्नस्थानं भविष्यति ११, विमानदर्शनाद्वैमा- भावः , ' से जाई इमाई' से 'सि अथशब्दार्थे , अथ ते निकानामपि पूज्यो भविष्यति १२, रत्नराशिदर्शनात्मप्रा- तिर्यगजम्भका देवाः यानि इमानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि 'पुकारभूषितो भविश्यति १३, नि माग्निदर्शनात् भव्य- रा पोराणाई' पुरा पूर्व निक्षिप्तानि अत एव पुराणानि कनकादिकारी भविष्यति १४ , चतुर्दशानामपि समुदि- चिरन्तनानि 'महानिहाणाई भवंति ' महानिधानानि भतफलं तु चतुर्दशरफ्ज्वात्मकलोकाप्रस्थायी भविष्यति ॥७॥ यन्ति 'तं जहा' तद्यथा-तानि कीरशानि? 'पहीणसा'तं उराला गमि' त्यादितः 'सुविणा दिट्टे' ति यावत् प्रा- मिनाई' प्रहीणस्वामिकानि, मल्पीभूतस्वामिकानीस्यर्थः, अग्बत् ॥५०॥ एवं' इत्यादितः 'एवं बयासी' ति या- त एव 'पहीणसेउमाई' प्रवीणसेक्टकानि, सेक्का हि उपबत् प्राग्बत् ॥१॥'एवमेयं' इत्यादितः पडिविसज्जे' रिधनक्षेप्ता, स तु स्वाम्येव भवति, पुनः किंविशिानि इति यावत् तत्र ते सुविणलापाढए ' इत्यादि तान् 'पहीणगोत्तागाराई' येषां महानिधानानां धनिकसम्बन्धी स्वप्णलक्षणपाठकान् विपुलेन प्रशनेन शास्यादिना पुष्पैः | नि गोत्राणि अगाराणि च प्रहीणानि विरलीभूतानि भवअप्रचितर्जात्याविपुष्पैः क्वैः प्रतीतर्गन्धर्वासचूर्णैः मा- न्ति तानि प्रहीणगोत्रागाराणि उच्छिन्नसामिाई 'उस्यैर्ग्रथितपुष्पैः अलंकारैर्मुकुटादिभिः सत्कारयति सम्मान- च्छिन्नः सर्वथा अभावं प्राप्तः स्वामी येषां तानि उच्छिन्नयति च विनयवनप्रतिपत्त्या विपुलं जीविकाईम् श्राजन्म-| स्वामिकानि उच्छिन्नसेउमाई' उच्छिन्नसेक्तकाणि उनिर्वाहयोग्यं प्रीतिवानं ददाति प्रीतिवानं दत्वा च प्रति- छिन्नगोत्तागाराई' उच्छिन्नगोत्रागाराणि, अथ केषुकेषु विसर्जयति ॥२॥ तए णमि' स्यादितः 'एवं बयासी' ति स्थानेषु तानि वर्तन्ते इत्याह-'गामागरनगर खेडकबडयावत् प्राग्वत् ॥६३ ॥' एवं खल्वि' त्यादितो 'बुज्मंती' मडंबदाणमुहपट्टणासमसंबाहसंनिवेसेसु' प्रामाः करवन्तः, ति यावत् पूर्ववत् ॥४॥'इमे य ण मि' त्यादितः 'च- आकराः लोहाद्युत्पत्तिभूमयः, नगराणि कररहितानि, खेकट्टी' ति यावत् प्राग्वत् ॥८५ ॥'तए णं से इत्यादितः टानि धूलिपाकारोपेतानि, कर्बटानि कुनगराणि मडम्बानि *परिच्छर' ति यावत् प्राग्वत् ॥८६॥'पडिच्छित्ते' त्या-] सर्वतोऽर्धयोजनात्परतोऽवस्थितप्रामाणि, द्रोणमुखानि यत्र दितः 'पशुपविसि' ति यावत् प्राग्वत् ॥ ७॥ | जलस्थलपथावुभावपि भवतः, पत्तनानि जलस्थलमार्गयो
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(१३५६) अभिधानराजेन्द्रः।
धीर रम्यतरेण मार्गेण युक्तानि, श्राश्रमास्तीर्थस्थानानि तापस- ___ 'रयणि च णं समणे भगवं महावीरे' तत्र समिति स्थानानि वा, संबाहाः समभूमौ कृर्षि कृत्वा कृषीवला यत्र- वाक्यालङ्कारे यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः 'नाय. धान्य रक्षार्थ स्थापयन्ति , सनिवेशा सार्थकटकादीना- कुलंसि साहरिए' शातकुले संहतः, 'तं रयाणि च णं तं नाय. मुत्तरणस्थानानि, एतेषां द्वन्द्वः, तेषु तथा 'सिंघाडपसु वा' कुलं तस्यां रात्रौ, ततः प्रभृति इत्यर्थः. तत् भातकुलं ' हिशृङ्गाटकेषु शृनाटकफलाकारस्थानेषु वा ' तिएसु या ' रएणणं वहित्था' हिरण्येन रुप्येन अघटितसुवर्णेन वा अवत्रिकेषु, मार्गत्रयमिलनस्थानेषु वा 'चच्चरेसु वा' चत्व- छत, 'सुवरणणं चहित्था' सुवर्णेन प्रतीतेन अवर्धत, 'एवं घ. रेषु. बहुमार्गमिलनस्थानेषु वा 'चउम्मुहेसु या' चतुर्मुखेषु गण' धनेन (कल्प०) 'धरणेणं' धान्येन (कल्प०) 'रजेणं रादेवकुलच्छत्रिकादिषु वा महापहेसु वा महापथेषु राजमार्गेषु ज्येन सप्ताङ्गेन 'रटेणं' राष्ट्रण देशेन 'बलेणं' बलं चतुरसैन्य वा, तथा 'गामट्ठाणसु वा' प्रामस्थानानि उद्धसग्रामस्थानानि तेन'बाहणेणं' वाहनेन औष्ट्रप्रमुखेन 'कोसेणं' कोशन भाण्डातेषु वा 'नगरढाणेसु वा'उद्वसनगरस्थानानि तेषु वा 'गाम- गारेण 'कोटागारेणं' कोष्ठागारेण धान्यगृहेण 'पुरेणं' नगरण निशमणेसुवा' ग्रामसम्बधीनि निर्धमनानि जलनिर्गमाः
अंतेउरेणं' अन्तःपुरेण प्रतीतेन 'जणवएणं' जानपदेन देश'स्खाल' इति प्रसिद्धास्तेषु 'नगरनिद्धमणेसु वा ' एवं नगर वासिलोकेन 'जसवारणं घहित्था' यशोवादेन साधुवादेन च निर्धमनेषु वा 'आवणेसु वा' आपणा हास्तेषु ' देवकुलेसु
अवर्धत 'विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंस्खसिलप्पवालघा' देवकुलानि यक्षायायतनानि तेषु 'सभासु वा' सभासु रत्तरयणमाइएणं' विपुलं-विस्तीर्ण धनं गवादिकं, कनकं जनोपवेशनस्थानेषु 'पवासु वा' प्रपासु पानीयशालासु
घटिताटितप्रकाराभ्यां द्विविध, रत्नानि ककेंतनादीनि, 'पारामेसु' आरामेषु कदल्याधाच्छादतेषु स्त्रीपुंसयोः
मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः मौक्तिकानि प्रतीतानि शङ्का दक्षिणाक्रीडास्थानेषु ' उजाणेसु वा' उद्यानेषु पुष्पफलोपेतवृक्षशो.
वर्ता, शिला राजपट्टादिकाः, प्रबालानि विद्रमाणि.रक्लरत्नाभितेषु बहुजनभोम्येषु उद्यानिकास्थानेषु इत्यर्थः । बणेसु
नि पारागादीनि, आदिशम्दाद्वस्त्रकम्बलादिपरिग्रहस्तेन तचा' बनेषु एकजातीयवृतसमुदायेषु 'वणसंडेसु वा' बन
था 'संतसारसाघरजेण' सत्-विद्यमान नविन्द्रजालाखण्डेषु अनेकजातीयोत्तमवृक्षसमुदायेषु — सुसाणसुन्नागारगिरिकंदर 'स्मशानं' शून्यागारं शून्यगृहं, गिरिकन्दरा
दिवत्स्वरूपतोऽविद्यमानम् , एवंधिधं यत् सारस्वापतेयंप्रतीता पर्वतगुहेत्यर्थः 'संतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु वा'
प्रधानद्रव्य, तेन तथा 'पीइसकारसमुदएणं' प्रीतिर्मानसी
तुष्टिः, सत्कारो-बखादिभिः स्वजनता भक्तिस्तत्समुदयेतत्र गृहशब्दः प्रत्यक योज्यः, शान्तिगृहाः शान्तिकर्मस्थानानि, शैलगृहाः पर्वतगृहाः पर्यंतभुत्कीर्य कृतगृहा इत्यर्थः ।
न.तद्नातकुलम् 'अवि अईव अभिवहित्था' अतीव अतीव
अभ्यवर्खत"तए णं समणस्स भगवो महावीरस्स' ततः उपस्थानगृहाः श्रास्थानसभाः , भवनगृहाः कुटुम्बिवसन
श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अम्मापिऊण 'मातापित्रोः स्थानानि, ततः श्मशानादीनां द्वन्द्वः , अथ एतेषु प्रामादिषु
'अयमेयारवे अभथिए० जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था' शृङ्गाटकादिषु च यानि महानिधानानि 'संनिक्वित्ताई चि.
भयमेतद्रपः श्रात्मविषयः, यावत् संकल्पः समुदपद्यत, टुति' पूर्व कपणपूरुषैः संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, ' ताई सिद्धस्थरायभवणंसि साहरंति' तानि तिर्यक्ज़म्भका देवाः सि
॥ ॥ कोऽसौ इत्याह-'जप्पभिरं च णं' यतः प्रभृति द्धार्थराजभवने संदरन्ति-मुश्चन्तीति योजना ॥ ८ ॥
'अम्हं एस दारए कुच्छिंसि गब्भत्ताए वकंते' अस्माकम्
एप दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः 'तप्पभिई चण' ततः जं रयणिं च ण समण भगवं महावीरे नायकुलंसि साह-|
प्रभृति 'अम्हे हिरणं वहामो' वयं हिरण्येन वर्धामहे 'सुव
गणेण बहामो' सुवर्णन वर्धामहे 'धणेणं धन्नेणं जाव संरिए, तं रयणिं च ण ते नायकुलं हिरमेणं वद्वित्था सुव |
तसारसावजेणं' धनेन धान्येन यावत् विद्यमानसारस्वापमेणं वढित्था धणेणं धनेणं रज्जेणं रद्वेणं बलेणं वाह- तेयेन 'पीइसकारेणं अईव अईव अभिवड्डामो' प्रीतिसत्कारेणणं कोसणं कोट्ठागारणं पुरेणं अंतेउरेणं जणवएणं जस-| ण च अतीव अतीव अभिवर्धामहे,'जया णं अम्हं एस दारए वाएणं वडित्था विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसि
जाए भविस्सह''तस्माद् ' यदा अस्माकमेष दारकः जातो
भविष्यति 'तया णं अम्हे एयस्स दारयस्स' तदा वयमेतस्य लप्पवालरत्तरयणमाइएणं सेतसारसावइज्जेणं पीइसक्कार
दारकस्य, 'एयागुरूवं' एतदनुरूप-धनादिवृद्धेरनुरूपम् अत समुदएणं अईन अईव अभिवड्डित्था ।। तए णं समणस्स एव 'गुमं गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करिस्सामो' गुणेभ्य प्राभगवो महावीरस्स अम्मापिऊणे अयमेयारूवे अभत्थि- | गतं तत एव गुणनिष्पन्न नामधेयं करिष्यामः, किं तदित्याए. जाव से कप्पे समुप्पजित्था ॥ ८६ ॥ जप्पमिदं च ह-'वद्धमाणु 'ति, वर्धमान इति ॥१०॥ णं अम्हे एस दारए कुच्छिसि गम्भत्ताए वकेते तप्पभि- तए णं समणे भगवं महावीरे माउअणुकंपणट्ठाए निच्चइंच णं अम्हे हिरएणणं वडामो, सुवनेणं, धणेणं धने- ले निष्फंदे निरयणे, अल्लीणपन्लीणगुते आऽवि होत्था
० जाब सेतसारसावइजेणं पीइसक्कारेणं अईव अईव | ॥६१ ।। तए णं से तिसलाए खत्तिपाणीए अयमेयारूबड़ामो जया णं अम्हे एस दारए जाए भविस्सइ तया णं वे. जाव संकप्पे णं समुप्पज्जित्था हडे मे से गब्भे, मडे अम्हे एयस्स दारयस्स एपाणुरूवे गुण्णे गुणनिष्फलं ना- मे से गम्भे, चुए मे से गम्भे, गलिए मे से गम्भे एस मधिज्ज करिस्सामो "वद्धमाणु" ति ॥६॥ । मे गम्भे, पुग्छि एयइ, इयाणि नो एयइ सि कहु, ओहय
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वीर
मयसंकप्पा चिंतासोगसागरं पविट्ठा, करपलपन्हत्यमुदी, अट्टज्माणोवगया भूमीगवदिडिया किया । तं पिव सिद्धस्थरायवरभवणं उपरयमुइंग तंवीतलतालनाढ अजयमरणं दीयविमणं विहरइ ।। ६२ ।। तए गं से सम भगवं महावीरे माऊ अ अयमेयारूवे अन्भत्थि मणोगयं संकष्पं समुप्पनं विचाणिता एगदेसेणं एयह । तए सं सा तिसला खनिआणी हट्ट तुट्ठ० जान हियया एवं व पासी ॥ ६३ ॥ नो खलु मे गन्मे हडे० जाव नो गलिए एस मे गन्भे पुचिनो एयइ-इयागि एयइ त्ति कट्टु हट्ठतुङ० जाव हियया एवं विहरइ || ४ ||
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तए
'तर ं समणे भगवं महावीरे' ततः श्रमणो भगवान् महाबीर: माउसुकंपट्टाए' मयि परिस्पन्दमाने मातुः क मा भूदिति मातुः अनुकम्पनार्थ मातुर्भवत्यर्थम् अन्येनापि मानुभक्तिरेवं कर्त्तव्या इति दर्शनार्थ च, निश्चले ' निश्चलः 'निफंदे' निष्पन्दः किंचिदपि चलनाऽभावात् ' अत एव 'निरेयणे' निरेजनो निष्कम्पः ' अल्लीण ' आ ईषल्लीनः अङ्गगोपनात् ' पल्लीकलीन उपाङ्गगोपनात् अत एव' गुत्ते याऽवि होत्था ' गुप्तः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः वाऽपि स विशेषणसमुच्चये अभवत् अत्र कविः"एकान्ते किमु मोहराजविजये मन्त्रं प्रकुयि ध्यानं किंञ्चिदगोचरं विरचयत्येकः परब्रह्मणे ॥ किं कल्याणरसं प्रसाधयति वा देवो विलुप्यात्मकं रूपं कामविनिग्रहाय जननीकुक्षायसी यः श्रिये ॥ १॥" ॥ ६१ ॥ " त से से सिलाए खनियासी ततो भगवतो निचलावस्थानन्तरं तस्यास्त्रिशलाक्षत्रियाण्याः श्रयमयारूवे ● जाय संकप्पे समुपविजत्था अथमेतद्रूप यावत् अध्यवसायः समुत्पन्नः कोऽसौ इत्याह-हडे मे से 'हृतः मे स गर्भः 'मडे मे से गन्मे' अथवा-स मे गर्भः मृतः 'चुप मे से गन्भे' अथवा स मे गर्भः किं च्युतो, गर्भस्वभावात् परिभ्रष्टः 'गलिए मे से गम्भे' अथवा स मे गर्म कि गलितः द्रवीभूय क्षरितः यस्मात्कारणात्' एस मे गच्भे पुवि एयह ' एष मे गर्भः पूर्वमेजते, पूर्व कम्पमानोऽभूत् 'इयाणि नो एयइ ति कट्टु ' इदानीं नैजते न कम्पते, इति कृत्वा इति हेतोः ' श्रद्दयमणसंकप्पा' उपहतः कलुषीभूतो मनःसंकल्पो यस्याः सा तथा 'चिंतासोगसागरं पविा चिन्ता गर्नहरणादिविकल्पसम्भवा श्रर्तिस्तया यः शोकः स एव सागरः समुद्रस्तत्र प्रविष्टा बुडिता, अत एव करयल पल्इत्थमुद्दी' करतले पर्यस्तं स्थापितं मुखं यया सा तथा अट्टग्भाणोवगया आर्तध्यानोपगता' भूमीगयदिट्टिया भियाग्रह' भूमिगत दृष्टिका ध्यायति, अथ सा त्रिशला तदानीं यद् ध्यायति, तस्यिते"सत्यमिदं यदि भविता, मदीयगर्भस्य कथमपीह तदा । निष्पुयक जीवानामवधिरिति ख्यातिमत्यभयम् ॥१॥ यद्वा चिन्तारत्नं न दि गम्इति भाग्यहीनजनसदने ॥ नापि च रत्ननिधानं भवति ॥ २ ॥ कल्पतरुमैरुभूमी, न पाडुभैवति भूम्यभाग्यवशात् ॥ न हि निष्यपिपासितां पीयूषसामग्री ॥ ३ ॥
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(१३५७) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वीर
हा धि धिम् देवं प्रति किं चक्रे तेन सततवक्रेण । यन्मम मनोरथतरु - मूलादुन्मूलितोऽनेन ॥ ४ ॥ आत्तं दत्वापि च मे, लोचनयुगलं कलङ्कविकलमलम् । दया पुनरुदालित - मधमेनानेन निधिरत्नम् ॥५॥ आरोग्य मेरुशिखरं प्रपातिता पापिनाऽमुनाऽहमियम् । परिवेष्याच्या भोजनभाजनमलजेन ॥ ६ ॥ यद्वा मयाऽपरावं भवान्तरेऽस्मिन् भवेऽपि किं घातः । यस्मादेवं कुर्वनुचिताऽनुचितं न चिन्तयसि ॥ ७ ॥ अथ किं कुर्वे व च वा, गच्छामि वदामि कस्य वा पुरतः । दुर्देवतेन दग्धा, जग्धा मुग्धाधमेन पुनः ॥८॥ किं राज्येनाप्यमुना, किं वा कृत्रिमसुखैर्विषयजन्यैः । किंवा दुकूलशय्या - शयनेोद्भवशर्महर्म्येण ॥ ६ ॥ गजवृषभादिस्मैः सूचितमुचितं शुचि त्रिजगदयम् । त्रिभुवनजना सपत्नं, विना जनानन्दि सुतरत्नम् ॥ १० ॥
युग्मम्
धिक संसारमसारं धिक दुःखव्याप्तविषयसुखलेशान् । मधुलिखड्गधारा - लेहनतुलितानहो लुलितान् ॥ ११ ॥ यद्वा मयका किंचित् तथाविधं दुष्कृतं कर्म । पूर्वभवे परपिभिः प्रोक्तमिदं धर्मशास्त्रेषु ॥ १२ ॥ (कल्प० ) ( यैः कर्मभिर्गर्मनाशो जायते तद् यभागे ८३८ पृष्ठे गतम् । )
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गम्भ' शब्दे तृती
यतः -
कुरंडरंडत्तदुम्भगाएं, पंतर्निदुविसकनगाई । लहंति जम्मंतरभग्गसीला नाऊण कुज्जा दढसीलभावं | २०| एवं चिन्ताक्रान्ता, ध्यायन्ती म्लानकमलसमवदना । दृष्टा शिष्टेन सखी - जनेन तत्कारणं पृष्टा ॥ २१ ॥ प्रोवाच साम्रलोचन - रचनानिःश्वासकलितयचनेन । किं मन्दभागधेया, पदामि जीवितं मेऽगात् ॥ २२ ॥ सख्या जगुरथ रे सखि !, शान्तममङ्गलमशेषमन्यदिद । गर्भस्य तेऽस्ति कुशलं न वेति वद कोविदे सत्यम् ॥२३॥ सा प्रोचे गर्भश्य च कुशले किमकुशलमस्ति मे सरूपः । त्वयुक्त्या मापना पतति भूपीडे ॥ २४ ॥ शीतलवातप्रभृतिभिरुपचारैर्बहुतरैः सखीभिः सा । संप्रापितचैतन्यो- तिष्ठति विपति च पुनरेवम् ॥ २५ ॥ गरुए अणोरपारे, रयणनिहाणे अ सायरे पत्तो । छिद्दघडो न भरिज्जर, ता किं दोसो जलनिहिस्स ॥ २६ ॥ पणे वसन्तमासे, रिडिं पायति सलगराई । जं न करीरे पत्तं, ता किं दोसो वसंतस्स ॥ २७ ॥ उडुंगो सरलतक, बहुफलभारेण नमिश्रसन्बंगो । कुज्जो फलं न पाव, ता किं दोसो तरुवरस्स ॥ २८ ॥ समीहितं यक्ष लभामहे वयं
प्रभो ! न दोषस्तव कर्मणो मम । दिवाप्युलूको यदि नावलोकते,
तदा स दोषः कथममालिनः ॥ २६ ॥ अथ मे मरणं शरणं किं करणं विफलजीवितन्येन । तत् श्रुत्वेति व्यपत्, सख्यादिः सकलपरिवारः ॥ ३० ॥ हाकिमुपस्थितमेतत् निष्कारणवैरिवधिनियोगेन ।
हा कुलदेव्यः क गताः, यदुदासीनाः स्थिता यूयम् ॥ ३१ ॥ अथ तत्र प्रत्यूहे, विचक्षणाः कारयन्ति कुलवृद्धाः ।
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(१३५८) वीर
अभिधानराजेन्द्रः। शान्तिकपौष्टिकमन्त्रो-पयाचितादीनि कृत्यानि ॥३२॥ पातोद्यगीतनृत्यः सुरलोकसमं महाशोभम् ॥ ७॥ पृच्छन्ति च दैवज्ञान् , निषेधयन्त्यपि च नाटकादीनि । | वर्धापनागताधन-कोटी गृहन् ददश्च धनकोटीः । अतिगाढशब्दविरचित-वचनानि निवारयन्त्यपि च॥३३॥ सुरतरुरिव सिद्धार्थः, सजातः परमहर्षभरः ॥८॥" राजाऽपि लोककलितः, शोकाकुलितोऽजनिष्ट शिष्टमतिः । कल्प०१ अधि०४क्षण । (भगवान् वीरः गर्भस्य मासपट्टे किं कर्त्तव्यविमूढाः, संजाता मन्त्रिणः सर्वे ॥ ३४॥" । व्यतिकान्ते एतदूपमभिग्रहं गृह्णाति स्म-न मम कल्पत अस्मिन्नवसरे च तत्सिद्धार्थराजभवनं यादृशं जातं. तत् मातापितृषु जीवत्सु दीक्षा गृहीतुमिनि 'अभिग्गह' शन्दे सूत्रकृत् स्वयमाह- तं पि य सिद्धत्थरायवरभवणं ' प्रथमभागे ७१३ पृष्ठे उक्तम् ।) (सुखेन त्रिशला गर्भ परिवहति तदपि सिद्धार्थराजवरभवनम् ' उवयरमुइंगतंतीतलतालना- रक्षति च इति 'गब्भ' शब्दे तृतीयभागे ८३८ पृष्ठे उक्तम् ।) डइज्ज जणमणुन' मृदङ्गो-मईलस्तन्त्री-वीणा, तलताला- (१४) भगवतो वीरस्य जन्मकालः कुण्डलीचहस्ततालाः, यद्वा-तला-हस्ताः, ताला:-कंसिकाः नाटकीया| तेमा मालेगा
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे
, नाटकहिता जनाः पात्राणीति भावः,एतेषां यत् मनोज्ञत्वं,तत्
से गिम्हाणं पढमे मासे , दुच्चे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स उपरतं-निवृत्तं यस्मिन् , एवंविधम् , अत एव 'दीणविमणं बिहरह'दीन सत् विमनस्कं-व्यग्रचतस्कं विहरतिप्रास्ते ण चित्तसुद्धस्स तेरसीदिवसेणं, नवराहं मासाणं बहुप॥१२॥'तए से समणे भगवं महावीरे' तं तथाविधं
डिपुन्नाणं अट्ठमाणं राईदियाणं विइकताणं उच्चट्ठापूर्वोदितं व्यतिकरमवधिना अवधार्य भगवान् चिन्तयति
णगसु गहेसु , पढमे चंदजोगे, सोमासु दिसासु "किं कुर्मः कस्य वा बूमो, मोहस्य गतिरीदशी।
वितिमिरासु बिसुद्धासु जइएमु सवसउणेसु , पयाहिदुषेर्धातोरिवास्माकं, दोपनिष्पत्तये गुणः ॥ १॥ मया मानुः प्रमोदाय, कृतं जातं तु खेदकृत् ।
णाऽणुकूलंसि भूमिसप्पंसि मारुयंसि पवायंसि , निष्फभाविनः कलिकालस्य, सूचकं लक्षण ह्यदः ॥ २॥ नमेइणीयंसि कालंसि , पमुइयपकीलिएसु जणवएसु पञ्चमारे गुणो यस्माद् , भावी दोषकरो नृणाम् । पुधरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं चंनालिकेराम्भसि न्यस्तः, कर्पूरो मृतये यथा ॥ ३॥" । देणं जोगमुवागएणं आरोग्गारोग्गं दारयं पयाया ॥६६।। इत्येवं प्रकारेण स श्रमणो भगवान् महावीरो 'माऊअ अ- | तेणं कालणं' तास्मन् काले । तेणं समएणं ' तस्मिन् यमयारुवे' मातुरिममेतदूपम् ' अब्भत्थियं पत्थियं मणोग- समये 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः यं 'आत्मविषय प्रार्थितं मनांगतं ' संकप्पं समुप्पन विजा- 'जे से गिम्हाण पढमे मासे' योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो गित्ता' संकल्प समुत्पन्न अवधिना विज्ञाय 'एगदेसेणं ए- मासः 'दुचे पक्खें' द्वितीयः पक्षः 'चित्तसुद्ध' चैत्रमासस्य यइ' एकदेशन अङ्गल्यादिना एजते-कम्पते , 'तए ण सा शुक्लपक्षः तस्स ण चित्तसुद्धस्स' तस्य चैत्रशुद्धस्य 'तेरतिसला खत्तिश्राणी' ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी' हट्र- सीदिवसेरंग' त्रयोदशीदिवसे नवराहं मासाणं बहुपडिपुतु?" जाव-हियया ' हश्तुष्टादिविशेषणविशिष्टा यावत् , नाग' नवसु मासेषु बहुप्रतिपूणेषु 'अद्भट्ठमाणं राइंदिश्राहर्षपूर्ण हदया 'एवं बयासी ' एवमयादीत् ॥ १३ ॥ अथ | ण बिइकताण' अर्धाष्टमरात्रिन्दिवाधिकेषु सार्द्धसप्तदिवाकिमवादीदित्याह-'नो खलु मे गम्भे हडे' नैव-निश्च- | धिकेषु नवसु मासेषु व्यतिक्रान्तेषु, इति भावः, तदुक्तम्येन मे गो हतोऽस्ति जाव नो गलिए ' यावत् नैव गलि- " दुराहं वरमहिलाण, गब्भे वसिऊण गडभसुकुमाला। तः 'एस में गम्मे पुब्धि नो एयइ' एष में गर्भः पूर्व न क. नवमासे पडिपुराण, सत्त य दिवसे समहरेग"॥१॥ म्पमानोऽभृत् , ' इयाणि एयइ त्ति कट्ट' इदानी कम्पते इ- इदं च गर्भस्थितिमानं न सर्वेषां तुल्यं , तथा चोक्लम्ति कृत्वा ' हट्ठतुट्ट • जाव हियया एवं विहरइ' हृष्टा तु- “दु १ च उत्थ २ नवम ३ बारस ४, टा यावत् हर्षपूर्णहृदया, ईदृशी सती विहरति । अथ तेरस ५ पन्नरस ६ सेस १८ गठिई। हर्षिता त्रिशला देवी यथाऽचेष्टत तथा लिख्यते
मासा अडनवतदुवरि, "प्रोल्लसितनयनयुगला, स्मेरकपोला प्रफुल्लमुखकमला। उसहाश्रो कमेणिमे दिवसा ॥१॥ विज्ञातगर्भकुशला, रोमाश्चितकञ्चुका त्रिशला ॥१॥ चउ १ पणवीसं २ छहिण ३, प्रोवाच मधुरवाचा, गर्भ में विद्यतेऽथ कल्याणम् ।
अडवीसं ४ छच्च ५ छच्चि ६ गुणवीसं ७॥ हाधिक मयकाऽनुचितं, चिन्तितमतिमोहमतिकतया ॥२॥ | सग८ छब्बीसंछ १०च्छ य ११, सन्त्यथ मम भाग्यानि, त्रिभुवनमान्या तथा च धन्याऽहम।। वीसि १२ गवी से १३ छ १४ छब्बीसं १५॥२॥ श्लाघ्यं च जीवितं मे, कृतार्थतामाप मे जन्म ॥३॥
छ १६ पण १७ अड १८ सत्त १६४ य २०, श्रीजिनपदाः प्रसेदुः, कृताः प्रसादाच गोत्रदेवीभिः । अड २१? य २२छ २३ सत्त२४ होन्ति गम्भलिणा"।। इति। जिनधर्मकल्पवृक्ष-स्त्याजन्माराधितः फलितः ॥४॥ सप्ततिशतस्थानके श्रीसोमतिलकसूरिकृते-" उच्चट्ठाण गएवं सहर्षचित्तां, देवीमालोक्य वृशनारीणाम्।
एसु गहेसु" तदानीं गृहेषु उच्चस्थानस्थितेषु, प्रहाणामुचत्वं जय जय नन्देत्याद्या-शिषः प्रवृत्ता मुखकजेभ्यः ॥५॥ चैवम्-" श्रीधुच्चान्यज १ वृष २, मृग ३कन्या ४ कर्क हर्षात् प्रवर्तितान्यथ, कुलनारीभिध ललितधवलानि । ५ मीन ६ वणिजों ७ शैः ॥ दिग् १० दहना ३ पार्विशति उम्भिताः पताका, मुक्तानां स्वस्तिका भ्यस्ताः ॥ ६॥ २८-तिथी १७ षु५ नक्षत्र २७ विंशतिभिः ॥ १ ॥ अयं मानन्दाऽदैतमय, राजकुलं तद्रभूव सकलमपि । | भाक:--मेषादिराशि सूर्यादय उच्चाः, तत्रापि दशा
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अभिधानराजेन्द्रः। दीनंशान् यावत् परमोच्चाः , एषां फलं तु--" सुखी १ | माणभूआ' भृशमाकुला इव 'कहकहगभूया याऽवि हुत्था' भोगी २ धनी ३ नेता ४, जायते मण्डलाधिपः ५ ॥ हर्षाऽट्टहासादिना कहकहकभूतेव, अव्यक्तवर्णकोलाहलमनृपति ५ श्चक्रवर्ती च ७, क्रमादच्चग्रहे फलम् ॥१॥ नि- यीव, एवंविधा सा रात्रिरभवत् , अनेन च सूत्रेण सुरकृतः हि उहि नरिंदो, पञ्चहि तह होइ श्रद्धचक्की श्र। छहि । सविस्तरो जन्मोत्सवः सूचितः॥ स चायम्-"अंचतना अपि होइ चकवट्टी, सत्तहितित्थरो होइ ॥२॥"' पढमे च- दिशः, प्रसेदुर्मुदिता इव । वाययोऽपि सुखस्पर्शा, मन्द मन्द दजोए 'प्रथम प्रधाने चन्द्रयोगे सति 'सोमासु दिसासु '
घवुस्तदा ॥१॥" कल्प०१ अधि०५ क्षण । (देवकृतः तीर्थकरसौम्यासु रजोवृष्यादिरहितासु दिक्षु वर्तमानासु, पुनः स्याभिषेकोत्सवः 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभांग २२४८-२२५७ किंविशिष्टासु दिक्षु- वितिमिरासु' अन्धकाररहितासु, पृष्ठे गतः।) भगवजन्मसमये सर्वत्र उद्योतसद्भावात् , पुनः किंवि० " अस्मिन्नवसरे राक्षे. दासी नाम्ना प्रियंवदा । 'विसुद्धासु' विशुद्धासु, दिग्दाहाद्यभावात् , 'जइएसु सव्व- तं पुत्रजननोदन्तं, गत्वा शीघ्र न्यवेदयत् ।।१॥ सउणेसु' सर्वेषु शकुनेषु काकोलूकदुर्गादिषु जयिकेषु जयका- सिद्धार्थोऽपि तदाकार्य, प्रमोदभरमेदुरः । रकेपुसत्सु पयाहिणाणुकूलंसि'प्रदक्षिणे प्रदक्षिणावर्त्तत्वात्, हर्षगद्गदरोमांचो-दमदन्तुरभूघनः ॥२॥ अनुकूले शीतत्वात् सुखप्रदेशे भूमिसप्पंसि' मृदुत्वात् भूमि- विना किरीटं तस्यै स्वां, सर्वानालंकृति दी। सपिणी, प्रचण्डो हि वायुः उच्चैः सर्पति, एवंविधे - मारु- तां धौतमस्तकां चक्रे. दासत्वापगमाप सः ॥ ३॥" अंसि' मारुते-वायौ 'पवायंसि' प्रवातुमारब्धे सति 'नि-।
जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे जाए, तं रयणि प्फममेइणीयसि कालंसि' निष्पना, कोऽर्थः-निष्पन्नसवंशस्या मेदिनी यत्र एवंविधे काले सति 'पमुइअपक्कीलिएसु
च णं, बहवे वेसमणकुंडधारी तिरियजंभगा देवा सिद्धत्थजणवएसु' प्रमुदितेषु सुभिक्षादिना , प्रक्रीडितेषु प्रक्रीडि- रायभवणंसि हिरएणवासं च सुवरणवामं च वयरवासं च तुमारब्धेषु वसन्तोत्सवादिना, एवंविधेषु जनपदेषु जनपद- वत्थवासंच, प्राभरणवासं च, पत्नवासं च, पुष्फवासं च, वासिषु लोकेषु सत्सु 'पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वग
फलवासं च, बीअवासं च, मल्लवामं च, गंधवासं च, त्रापररात्रकालसमये ' हत्थुत्तराहि नक्षत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएणं' उत्तरफाल्गुनीभिः समं योगमुपागते चन्द्रे स
चुन्नवासं च वएणवासं च, वसुहारवासं च, वासिंसु ।।६८॥ ति 'आरोग्गारोग्गं' आरोग्या आवाधारहिता सा त्रिशला
'जं रयणि च ण' इत्यादिना 'वासं वासिंसुति यावत् आरोग्यम्-आबाधारहितं ' दारय पयाया ' दारकं-पुत्रं
पर्यन्तं तत्र हिरण्यम्-रूप्यम् 'सुवसे' त्यादीनि तु पदानि प्रजाता-सुषुवे इति भावः ॥८६॥ कल्प० १ अधि०४ क्षण । |
प्रारख्याख्यातानि 'वसुहार' त्ति वसु--द्रव्यं तस्य वीरजन्मकुण्डलीचक्रम्
धारा--निरन्तराणि । शेष सुगमम् ।
तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए भवणवइवाणमंतरजोइस
वेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणाभिसेयमहिमाए कके०१०म०
याए समाणीप, पच्चूसकालसमयसि नगरगुत्तिए स
दावेइ सद्दावित्ता एवं बयासी ।। हह ॥ खिप्पामेव भी सू०१७०
देवाणुप्पिा ! खत्तियकुंडग्गामे नयंर चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुस्साण वद्धणं करेह, करित्ता कुंडपुरं न.
या सभितरबाहिरियं आसियसम्मजिप्रोवलितं संघाडरा०४०
गतिअचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु सिनसुइसमट्ठरत्थंतरावणवीहियं मंचाइमंचकलिग्रं नाणाविहरागभूसि
अज्झयपडागमंडिअं लाउल्लोइयमहिनं गोसीससरसरत(१५) वीरजन्मनि रात्रिः प्रकाशरूपा
चंदणददरदिनपंचंगुलितलं उबचियचंदणकलसं चंदणजं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए, सा णं घडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोवसत्तविपुलबट्टरयणी बहुहिं देवेहिं देवीहि य ओवयंतेहिं उप्पयंतेहिं | वग्धारियमल्लदामकलावं पंचवन्नसरससुरहिमुक्कपुप्फपुंजोउप्पिजलमाणभृया कहकहगभूया आवि हुत्था ॥३७॥ क्यारकलिअं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कडझतधूवमघम'जं रयणि च णं' यस्यां च रात्रौ 'समणे भगवं महावीरे घंतगंधुद्धाभिरामं सुगंधवरगंधिअं गंधपट्टिभूअं नड - जाए' श्रमणो भगवान् महावीरो जातः ‘सा रयणी यहुहिं देवहिं देवीहि य' सा रजनी बहुभिर्देवैः शक्रादिभि
दृगजल्लमल्लमुट्ठियवलंबगपवगकहगपाढगलासगारक्खगबहीभिर्देवीभिः दिक्कुमार्यादिभिश्च 'प्रोक्यतेहिं ' अवपत
लखतणइल्लतुबंवीणियअनगतालायराणुचरिअं करेह, काद्भिर्जन्मोत्सवार्थ स्वर्गाद भुवमागच्छद्भिः 'उप्पयंतेहिं' उत्प | रवेइत्ता य असहस्सं मुसलसहस्सं च उस्सवेह, उतद्भिरूयं गच्छद्भिर्मेरुशिखरगमनाय, तैः कृत्वा 'उपिजल- सविता ममेयमाणतिरं पच्चाप्पिणह ॥१०० ॥ तए
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(१३६०)
अभिधानराजेन्द्रः। णं ते कोडंबियपुरिसा सिद्धऽत्थेणं रना एवं वुत्ता स-न्दनं , तैः दत्ताः पश्चाङ्गुलितला हस्तकाः कुज्यादिषु माणा हद्वतुट्ठ० जाव हियया करयल. जाव-पडिसु- | यत्र तत्तथा, पुनः किंविशिष्टम् ' उवचियचंदणकलसं'
गृहान्तश्चतुष्केषु स्थापिताः 'चन्दनकलशाः यत्र तत्तणिता खिप्पामेव कुंडपुरे नयरे चारगसोहणं जाव उ
था'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं ' चन्दनघटैः स्सवित्ता, जेणव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति सुकृतानि रमणीयानि तोरणानि.च प्रतिद्वारदेशभागं द्वाजेणेव सिद्धन्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छित्ता सिद्धत्थस्स रस्य द्वारस्य देशभागे यस्मिन् तत्तथा , पुनः किंविशिष्टखत्तियस्स तमाणत्ति पच्चप्पिणंति ॥ १.१॥
म्-'अासत्तोसत्तविपुलवट्टवग्धारियमन्जदामकलावं ' आस· तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए' ततोऽनन्तरं स सिद्धा
क्नो भूमिलग्न उत्सक्नश्च उपरि लग्नो विपुलो-विस्तीणों व. र्थः क्षत्रियः, ' भवणवदवाणमंतरजोइसवेमाणिपहिं दे
तुलः प्रलम्बितो माल्यदामकलापः-पुष्पमालासमूहो यहिं' भवनपतयः, व्यन्तराः, ज्योतिषकाः , वैमानिकाः,
स्मिन् तत्तथा, पुनः किंविशिएम्-'पंचवमसरससुरहिततः समासस्तैः एवंविधैः देवैः 'तित्थयरजम्मणाभिसे
मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं' पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो यमहिमाए कयाए समाणीए' तीर्थङ्करस्य यो जन्माभि
ये मुक्ताः पुष्पपुखास्तैर्य उपचारो-भूमेः पूजा तया ककस्तस्य महिम्नि उत्सवे कृते सति 'पच्चूसकालसम
लितं, पुनः किंविशिष्टम्-' कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कयंसि' प्रभातकालसमये 'नगरगुत्तिए सद्दावेद ' नगर
डम्झंतधूवमघमघतगंधुद्धाभिरामं' दह्यमानाः ये कृष्णागोप्तकान्-श्रारक्षकान् शब्दयति-श्राकारयतीत्यर्थः । गरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुष्कधूपाः, तेषां मघमघायमानो यो ग• सद्दावित्ता' शब्दयित्वा च ' एवं क्यासी ' एवमवा- न्धः, तेन 'उडुयाभिरामन्ति' अत्यन्तमनोहरम् , पुनः किंदीत् ॥ ६ ॥ ' खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया' क्षिप्रमेव भो
विशिष्टम्-सुगंधवरगंधियं ' सुगन्धवराः-चूर्णानि तेषां देवानुप्रियाः !' खत्तियकुंडग्गामे नयरे' क्षत्रियकुण्डग्रामे न
गन्धो यत्र तत्तथा तं, पुनः किंविशिष्टम्-गंधवट्टिभूयं ' गरे 'चारगसोहण करेह ' चारकशब्देन कारागारमुच्य
| गन्धवृत्तिभूतं-गन्धद्रव्यगुटिकासमानं, पुनः किंविशिपम्ते, तस्य शोधन-शुद्धिं कुरुत, बन्दिमोचनं कुरुत इ- *"नडनगजलमनमुट्ठिय' नटा--नायितारः, नर्तकाःत्यर्थः । यत उक्तम्-"युवराजाभिषेके च , परराष्ट्रोपम- स्वयं नृत्यकर्तारः, जल्ला-वरत्रास्त्रेलकाः मल्लाः, प्रतीताः, ईने । पुत्रजन्मनि वा मोक्षो , बद्धानां प्रविधीयते ॥१॥" मौष्टिका-ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति ये मल्लजातीयाः 'येलंकिश्च-'माणुम्माणबद्धणं करे। ' तत्र मान रसधान्यविष- बग' विडम्बका विदूषका-जनानां हास्यकारिणः ये स्वमुयम् , उन्मानं तुलारूपं तयोर्वर्द्धनं कुरुत , 'करित्ता' - खबिकारमुत्प्लुतयन्ति ते वा 'पवग' प्लवका ये उत्प्लत्वा च ' कुंडपुरं नयर सब्भितरबाहिरिनं' अभ्यन्तरे ब- चन्त गादिकमुल्लल्यन्ति, नद्यादिकं वा तरन्ति कहग' विश्व यथोक्नविशेषणविशिष्ट कुण्डपुरनगरं कुरुत, कार- सरसकथावकारः 'पाढग' सक्रादीनां पाठकाः 'लासग' यत, अथ किंविशिष्टम्-'आसिप' आसिक्नं सुगन्ध- लासका ये रासकान् ददति 'आरक्खग' आरक्षकाःजलच्छण्टादानेन ' संमजिप्रोवलित्तं ' समार्जितं कचवरा- तलवराः 'ख' लङ्गा वंशाग्रखलकाः 'मख' मखाः-चिपनयनन , उपलिप्तं छगणादिना , ततः कर्मधारयः, पुनः त्रफलकहस्ता भिक्षुका-गौरीपुत्रा इति प्रसिद्धाः 'तूणकिंविशिष्टम्-'सिंघाडगतिअचउक्कचञ्चरचउम्मुहमहापह- इल्ल 'तूणाभिधानवादित्रवादकाः-भिविशेषाः 'तुंबधीपहेसु' शुकाटकं-त्रिकोणं स्थानं, त्रिकं-मार्गत्रयसंग- णिय' तुम्बधीणिका-वीणावादकाः, तथा 'अणगतालामः, चतुष्क-मार्गचतुष्टयसनमः, चत्वरम्-अनेकमा-| यराणुचरियं ' अमेके ये तालाचरास्तालादानेन प्रेक्षाकार्गसङ्गमः चतुर्मुख-देवकुलादि , महापथः-राजमार्गः, रिणस्तालान् कुट्टयन्तो वा ये कथा कथयन्ति तैः अनुचपन्थानः-सामान्यमार्गाः एतेषु स्थानेषु 'सित्त ' सिक्कानि | रितं संयुक्तम् ' एवंविधं क्षत्रियकुण्डग्राम नगरं 'करेह कारजलेन , अत एव 'सुर' शुचीनि पवित्राणि 'संम? ' | वेह' कुरुत स्वयं, कारयत अन्यैः , करित्ता कारवित्ता संमृष्टानि कचरापनयनेन समीकृतानि 'रत्यंतरावणवी- य' कृत्वा कारयित्वा च, 'जूअसहस्सं मुसलसहस्सं च हियं ' रथ्यान्तराणि . मार्गमध्यानि , तथा आपणवीथ- उस्सवेह' यूपाः-युगानि तेषां सहस्रं तथा मुशलानि प्रयश्च हट्टमागा यस्मिन् तत्सथा, पुनः किंविशिष्टम्-'मं- तीतानि तेषां सहस्रम् ऊर्वीकुरुत युगमुसली/करणन चाइमंचकलिथं मचा-महोत्सवविलोककजनानामुपवे- च तत्रोत्सवे प्रवर्तमाने शकटखटनखण्डनादिनिषेधः प्रतीशननिमित्तं मालकाः, अतिमश्चकाः-तेषामपि उपरि- यते इति वृद्धाः 'उस्सवित्ता' तथा कृत्वा च 'मम एयकृत्वा मालकास्तैः कलितं . पुनः किंविशिष्टम्-'माणा- माणत्तिय पच्चप्पिणह' मम एतामाक्षां प्रत्यर्पयत 'कार्य विहरागभूसिअज्झयपडागमंडि' नानाविधै रागैर्विभूषि- कृत्वा कृतम् इति मम कथयतेत्यर्थः ॥ १०॥' तए णं ता य ध्वजाः सिंहादिरूपोपलक्षिता वृहत्पटाः, पता- ते कोदुबियपुरिसा' ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः 'सिद्धत्थेकाश्च लव्यस्ताभिर्मरिडतं विभूषितं , पुनः किंधिशिष्ट- णं रन्ना' सिद्धार्थेन राशा ' एवं बुत्ता समाणा ' एवमुक्ताः मलाउलोइअमहियं' छगणादिना भूमौ लेपनं सेढिका- सन्तः 'हट्टतुटु० जाव हियया 'हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षपूर्णदिना मित्यादी धवलीकरण , ताभ्यां महितमिव पूजित- हृदयाः 'करयल० जाव पडिसुणित्ता' करतलाभ्यां यामिव , पुनः किंविशिएम्- गोसीससरसरत्तचंदणदहर- वत् अञ्जलि कृत्वा-प्रतिश्रुत्य अङ्गीकृत्य 'स्त्रिप्पामेव कुंडदिनपंचंगुलितलं' गौशीर्ष चन्दनविशेषः , तथा स- पुरे नयरे ' शीघ्रमेव क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे 'चारगसोहं रसं यत् रक्तचन्दनं, तथा दर्दरनाम पवेतजातच- जाय उस्सविता ' बन्दिगृहशोधन बन्दिमोचनं यावत्
मोचन याका
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बीर
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मुशलसहस्रं चोर्ध्वकृत्य ' जेणेव सिद्धत्थे खतिए ' यप्रेय सिद्धार्थः क्षत्रियः तेष उपागच्छति तथैव उपा गच्छन्ति ' उवागच्छित्ता ' उपागत्य च ' सिद्धत्थस्स खसिसिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य तमारुतियं पचप्पिसंति' सामाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति कृत्वा निवेदयन्ति ॥ १०१ ॥
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"
तसं सिद्धत्थे राया जेणेव भट्ट साला तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता जाव सब्बोवरोहेणं सव्वपुप्फगंधवत्थमल्लालंकारविभूसा सम्यतुडिअस निनाएवं महया इड्डीए महया जुईए महया समुदणं महया तुडिअजमगसम गपवाइएवं संखपखप मेरिझल्ल रिखरमुहि हुङ्कमु रजमुई गहिनि वासनाइयरवेणं उत्सुकं उक्करं उकिडं अदिज्जं अमिजं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणिआवरनाडइजकलियं अगताला पराणुचरिथं अणुअमुगं अमिलागमलदामं पमुह अपकीलियसपुरज जाणवयं दसदिवसं ठिइवडियं करे || १०२ ।। तए गं सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिइवडियाए बट्टमाखीए सहए अ साहस्सिए अ सयसाहस्सिए अ, जाए अ दाए अ भाए अ दलमाणे श्र दवावेमा अ, सहए अ साहस्सिए अ सयसाहस्सिए अ, लंभे पच्छिमाये अ, पढिच्छावेमा अ, एवं बिहरह] ॥ १०३ ॥ 'तर सं सिद्धस्थे राया' ततोऽनन्तरं सिद्धार्थो राजा ' जेदेवाला यत्रेव मनशाला - परिभ्रमणस्थानं ' तेणेव उवागच्छा' तत्रैवोपागच्छति ' उवागच्छित्ता ' उपागत्य ' जाव सब्वोरोहेणं' अत्र यावच्शब्दात्- 'सविडीए, सव्त्रजुए, सब्वबलेणं, सव्ववाहयेणं, सव्वसमुदएवं इत्येतानि वाक्यानि तेषां चायमर्थः सविहीर' ति सर्वया ऋज्या युक्त इति गम्यम्, एवं सर्वेष्वपि विशेषयेषु वाच्यं सर्वथा युक्त्या उचितवस्तु संयोगेन सर्वेण बलेन -- सैम्येन, सर्वेण वाहनेन-शिबिका तुरगादिमा सर्वे समुदयेन परिवारादिसमूहेन एवं पाद सूषितमभिधाय ततः सम्योपरोदेस' इत्यादि वाच्यम्, तत्र 'सम्योपरो' ति सर्वोपरोधेन सर्वेण अन्तःपुरेसेत्यर्थः । 'सम्वपुण्फ गंधवत्थमज्ञालंकारविभूसाए सर्वया पुष्पगन्धयमद्वारा विभूषया युक्तः सम्यतुडियसनिनापणं सर्ववादित्राणि तेषां शब्दो निनादः प्रतिरवश्च तेन युक्तः महया दही महत्वाचा दत्रादिरुपया युक्तः
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महया जुइए ' महत्या युक्त्या - उचिताडम्बरेण युक्तः 'महया बलेलं ' महता बलेन चतुरङ्गसैन्येन युक्तः ' महया बाहले महता वाहनेन, शिविकादिना महया समुदय महता समुदयेन स्वकीयपरिधारादिसमूहेन युक्तः ' महया घरतुडियजमगसमगध्पवाइरणं महत्-विस्तीर्ण यत् वराणां प्रधानानां त्रुटितानां ---वादित्राणां जमगसमगं युगपत् प्रवादितः शब्दस्तेन तथा संपव भेरिझल्लरिखरमुहिडुडुक मुरजमुइंगदुदु हिनिग्घोसना इयरवें' शङ्खः -- प्रतीतः पणवो -- मृत्पटहः, ढक्का--झल्लरी प्रती
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ता, खरमुखी - दुन्दुभिः देववाद्यम् एतेषां योनिर्घोषो । पढमे दिवसे ठिइवडियं करेंति, तइए दिन से चंदमूरदंस
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( १३६१) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वीर
,
महाशब्दो, नादितं च प्रतिशब्दस्तद्वयो यो रवस्तेन, एवं रूपया सकलसामध्या युक्तः सिद्धार्थो राजा दश दिवसान् यायत् स्थितिपतितां फुलमर्यादां महोत्स्वरूप करोतीति योजना ॥ अथ किंविशिष्टां स्थितिपतितामित्याह'उत्सुक'उको शुल्कं विक्रेतव्ययासकं प्रति मराडचिकायां राजदेयं मादा इति लोके तेन रहितां, पुनः किंविशिष्टाम् उक्कर उत्करां करो ममादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजा इथे तेन रहिताम् एकटुं ' उत्कृष्टां सर्वेषां हर्षहेतुत्वात् पुनः किंविशिष्टाम्दियां यत् यस्य युज्यते तत्सर्वे तेन हतः मायं न तु मूल्यं देयं मूल्यं तु तस्य राजा ददातीति भावः अत एव अमिद्धं श्रमेषाम् अमिताने वस्तुयोगा
,
9
3
"
अथवा अदेयां विक्रयनिषेधात् अमेयां क्रयविक्रयनिषेधात् पुनः किंविशिष्टाम् ' अभडपवेसं' नास्ति कस्यापि गृहे राजादेशदापनार्थ भटानां राजापुरुषाणां प्रवेशो यत्र सा तथा तां पुनः किंविशिष्टाम् अदंडकोदंडिमं दो यथाऽपराधराजग्राह धर्मकुडो मह त्यपराधे राजा धनं ताभ्यां रहिताम् पुनः किंविशिष्टाम्- 'अधरिमं' धरिमम्-ऋणं तेन रहिताम् ऋरास्य राशा दत्तत्वात् पुनः किंविशिष्टाम् -' गणियावर - नाडइज्जफलियं गणिकावरे:- नाटकीयैः नाटकप्रति पात्रे कलितां पुनः कविशिरोगतालावराच रिअलचरैः प्रेज्ञाकारिभिः अनुवरितां सेवितां पुनः किंविशिष्टाम्यमुरं धनुता वादकः अ परित्यक्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा तां पुनः किंविशिष्टाम् अमिलापमझरामं अम्लानानि माझ्य दामानि यस्यां स तथा तां पुनः किविशिष्टाम्'पमुपपलिसपुरजावर्थ प्रमुदिताः प्रमोदयन्तः श्रत एव प्रक्रीडितुमारब्धाः पुरजनसहिता जानपदा देशलोका यत्र सा तथा ताम् 'दसदिवसविडिये करे दश दिवसान् यावत्वंविधां स्थितिपतितामुत्सयां कुलमर्यादां करोति ॥ १०२ ॥ ' तए गं सिद्धत्थे राया' ततः स सिद्धार्थो राजा 'दसाहियार ठिडिया बहमासीदाहिकायां - दशदिवसप्रमाणायां स्थितिपतितायां वर्तमानायां 'सह अ' शतपरिमाणान् 'साहस्सिए ' सहस्रपरिमाणान् 'सरसाइस्सिए अ' लक्षप्रमाणान् 'जाए ' यागान् अर्हत्यतिमापूजा, भगवन्मातापित्रोः श्रीपार्श्वनाथसन्तानीयाव कन्यात् बजधातोश्च देवपूजार्थत्वात् यागशब्देन प्रतिमापूजा एव ग्राह्या, अन्यस्य यशस्य असम्भवात् श्रीपार्श्वनाथसस्वानीयधायकत्वं वानयोराबारा प्रतिपादितम् दा अदा यान् पर्वदिवसादी दानानि भाए ' सम्धद्रव्यविभागान् मानितज्यांशान् 'दलमागे ' ददद स्वयं 'दयावेमा अ दापयन् सेवकैः 'सहए य साहस्सिए य सयसाद्दस्लिप य शतप्रमाणान् सहस्रप्रमाणान् लक्षप्रमाणान् एर्वविधान् 'लंभे पडिच्छ्रमाणे अ पडिच्छावेमाणे य' लाभान् 'वधामणा' इति लोके प्रतीच्छन् स्वयं गृह्णन्, प्रतिग्राहयन् सेवकादिभिः 'बिर अनेन प्रकार व विहरति-आते ॥ १०३ ॥ तए गं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो
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धीर
(१३६२), वीर
अभिधानराजेन्द्रः। णिनं करेंति, छडे दिवसे धम्मजागरियं जागरेंति, ए- नि-श्वेतानि सभाप्रवेशयोग्यानि, माङ्गल्यानि-उत्सवसूचकाकारसमे दिवसे विइकते निव्वत्तिए असुइजम्मकम्मकरखे,
-नि, प्रवराणि-श्रेष्टानि वस्त्राणि परिहितौ 'अप्पमहग्धाभर
णालंकियसरीरा' अल्पानि-स्तोकानि महा_णि बहुमूल्यानि संपत्ते वारसाहे दिवसे, विउलं असणं पाणं खाइमं सा
यानि पाभरणानि, तैः अलङ्कृतं शोभितं शरीरं याभ्यां तइमं उवक्खडाविति, उबक्खडावित्ता मित्तनाइनियगसय- था तौ, एवंविधौ भगवन्मातापितरौ'भोत्रणवेलाए भोत्रणसंबंधिपरिजणं नायए खत्तिए अ आमतेइ आमंतित्ता, णमंडसि' भोजनवेलायां भोजनमण्डपे 'सुहासणवरगया' तो पच्छा एहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल
सुखासनवराणि गती सुखासीनौ इत्यर्थः 'तेण मित्तनाइनि
यगसंबंधिपरियणेण' तेन मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं पवराई वत्थाई प
रिजनेन 'नाएहि खत्तिरहिं सद्धि' शातजातीयैः क्षत्रियैः सारिहिया अप्पमहग्याभरणाऽलंकियसरीरा भोप्रणवेलाए
ई 'तं विउलं असणं पाणं स्वाइमं साइम' तं विपुलमशनं भोप्रणमंडवंसि सुहासणवरगया तेणं मित्तनाइनियगसं- | पानं खादिम स्वादिमं च 'आसाएमाणा' श्रा-ईषत् स्वादयबंधिपरियणेणं नायएहिं खत्तिरहिं सद्धिं तं विउलं अस
न्तौ बहु त्यजन्ती, इच्वादेरिव 'विसाएमाणा' विशेषेण स्वा
दयन्ती, अल्पं त्यजन्ती, खजूगदेरिव 'परिभुजे माणा' सर्वणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परि -
मपि भुजानौ अल्पमपि अत्यजन्ती भोज्यादेरिव 'परिभाएजेमाणा परिभाएमाणा एवं वा विहरंति ॥ १०४ ।।
माणा' परिभाजयन्तौ परस्परं यच्छन्तौ एवं वा विहरंति' 'तए णं समणस्स भगवश्रो महावीरस्स' ततः श्रमण- अनेन प्रकारेण भुञ्जानौ तिष्ठत इति भावः ॥ १०४ ॥ स्य भगवतो महावीरस्य · अम्मापियरो पढमे दिवसे'
जिमिअभुत्नुत्तरागया वि अणं समाणा आयंता चोमातापितरौ प्रथमे दिवसे 'ठिवडियं करेंति' स्थितिपतितां कुरुतः, 'तइए दिवसे चंदसूरदसणियं कति' तृतीये
क्खा परमसुइभूषा तं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियदिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनिकामुन्सवविशषं कुरुतः। (कल्प०) (तद्वि
| णं नायए खत्तिए विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं धिश्च 'चंददरिसणिया' शब्दे तृतीयभागे१०७१ -पृष्ठे हर्शिता।) सक्कारेंति संमाणेति सकारिता सम्माणित्ता तस्सेव (चन्द्रदेवस्वरूपम् 'चंदमंडल' शब्दे तस्मिन्नेव भाग १०८५ मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणस्स नायाणं खत्तिप्राण पृष्ठे दर्शितम्।) (चन्द्रविमानस्वरूपम् चंदविमाण'शब्बे तस्मि
य पुरओ एवं वयासी-॥१०॥ पुब्धि पिणं देवाणुप्पिया! व भागे १०६५ पृष्ठे दर्शितम्।) एवं सूर्यस्यापि दर्शनं, नवरं मूर्तिः स्वर्णमयी ताम्रमयी वा मन्त्रश्च-"आँ अर्हे सूर्योऽसि,
अहं एयंसि दारगंसि गम्भं वकंतसि समाणं सि इमे तमोऽपहोऽसि सहस्रकिरणोऽसि जगश्चक्षुरसि प्रसीद।" एयारूवे अमथिए० जाव समुप्पञ्जित्था-जप्पभिई च णं आशीर्वादश्वायम्-'सर्वसुरासुरवन्धः, कारयिताऽपूर्वसर्व- अम्हं एस दारए कुञ्छिसि गम्भताए वक्ते तप्पभिई कार्याणाम्। भूयात्रिजगचक्षु-मङ्गलदस्ते सपुत्रायाः॥१॥" चणं अम्हे हिरणं वडामो, सुयश्रेणं वडामो घणेर्ण । इति सूर्यदर्शनविधिः । साम्प्रतं च तत्स्थान शिशार्दप
धन्नेणं रजेणं. जाव सावइजेणं पीइसक्कारेणं अईव णो दश्यते- छठे दिवसे धम्मजागरियं जागरेति , ततः षष्ठे दिवसे 'धम्मजागरिय' ति धर्मेण कुलधर्मेण घ
अईव अभिवड्डामो, सामंतरायाणो वसमागया य ॥१०६।। च्या रात्री जागरण धर्मजागरिकां जागृतः, षष्ठे दिने जाग
तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ, तया णं रणमहोत्सषं कुरुत इति भावः, एवं च 'पकारसमे दिवसे वि अम्हे एयस्स दारगस्स इमं एयाणुरुवं गुण्णं गुणनिकंते' एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते सति 'निव्वत्तिए असुइ
प्फनं नामधिकं करिस्सामो “वद्धमाणु" त्ति ता अम्हं अजम्मकम्मकरणे' अशुचीनां जन्मकर्मणां नालच्छेदादीनां करणे निर्वर्तिते-समापिते सति 'संपत्ते बारसाहे दिवसे'
अ मणोरहसंपत्ती जाया, तं होउ णं अम्हं कुमारे बद्ध-- द्वादशेच दिवसे सम्प्राप्ते सति भगवन्मातापितरौ 'विउलं | माणे नामेणं ॥ १०७ ॥ समणे भगवं महावीरे कासवअसण पाण खाइमं साइमं उवक्खडाविति' विपुलं बहु - गुत्ते णं, तस्स णं तो नामधिजा एवमाहिजंति , तं शनं पानं स्वादिम स्वादिमंच उपस्कारयतः प्रगुणीकारयतः
जहा-अम्मापिउसंतिए बद्धमाणे, सहसमुइयाए समणे - *उवक्खडावित्ता' उपस्कारयित्वा च मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं' मित्राणि-सुहृदादयः ज्ञातयः-सजातयः,
अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं-खंतिखमे-पडिनिजकाः-स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजनाः-पितृव्यादयः,
माणं पालए-धीम-अरइरइसहे-दविए-वीरित्रसंपने-देसम्बन्धिनः-पुत्रपुत्रीणां श्वशुरादयः, परिजनो--दासीदा- वेहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीरे ।। १०८॥ सादिः 'नायर खत्तिए य' शातक्षत्रियाः श्रीऋषभदेवसजाती- 'जिमिय भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा' ततः जिमिती यास्तान् 'भामंतेरत्ता'श्रामन्त्रयति, प्रामन्य च 'तो पच्छा भुक्त्युत्तरं-भोजनानन्तरमागती-उपवेशनस्थाने समागतो, राहाया कयबलिकम्मा' ततः पश्चात् स्नाती, कृतं बलिकर्म अपि च निश्चयेन एवंविधौ सन्तौ 'प्रायंता चोक्खा परमसु. पूजा याभ्यां तथा तौ 'कयकोउअमंगलपायच्छुित्ता'कृता- इभूया' आचान्ती शुद्धोदकेन कृताचमनौ सिक्थाद्यपनयनेन नि कौतुकमङ्गलानि, तान्येव प्रायश्चित्सानि याभ्यां तथा तौ चोक्षौ,अत एव परमपवित्रीभूतौ सन्तौ 'तं मित्तनाइनियग'सुद्धप्पासाई मंगललाई पवराई वत्थाई परिडिया' शुद्धा-! सयणसंबंधिपरियणं' तं मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिष
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(१३६३) वीर
अभिधानराजेन्द्रः। रिजनं 'नायए खत्तिए अ'शातजातीयांश्च क्षत्रियान् ‘वि- हते , न तु तत्र हर्षविषादौ कुरुते इति भावः ‘दविए' उलेण पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं' विपुलेन पुष्पवखगन्धमा- द्रव्यं तत्तद्गुणानां भाजन , रागद्वेषरहिते इति वृद्धाः लालङ्कारादिना 'सकारति सम्माणेति' सत्कारयतः सम्मान- 'बीरिसंपन्ने' धार्य पराक्रमस्तेन संपन्नः, यतो भगवायतः 'सकारिता सम्माणित्ता' सत्कार्य सन्मान्य च 'तस्से. न एवंविधस्ततः 'देवेहिं से णामं कर्य समणे भगवं व मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणस्स' तस्यैव मित्रज्ञा- महावीरे' देवैः ‘से' इति तस्य भगवतो नाम कृतं तिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनस्य 'नायाणं खत्तिाण य श्रमणो भगवान् महावीर इति तृतीयम् ३, ॥ १०८॥ तदि-- पुरो'शातजातीयानां क्षत्रियाणां च पुरतः ‘एवं बयासी' दं नाम देवैः कृतं , कथं कृतमित्यत्र वृद्धसंप्रदायःएवमवादिष्टाम-॥१०॥ पुब्धि पिणं देवाणुप्पिया!' पूर्वमपि | अथैवं पूर्वोक्नयुक्त्या सुरासुरनरेश्वरैः कृतजन्मोत्सवो भभो देवानुप्रियाः ! भो स्वजनाः 'अम्हं एयंसि दारगंसि गवान् द्वितीयशशीव मन्दाराऽतर इव वृद्धि प्राप्नुवन कगम्भं वक्रतसि समाणसि' अस्माकमेतस्मिन् दारके गर्भ मेण एवंविधो जातः-"द्विजराजमुखो गजगजगतिः, अरुउत्पन्ने सति 'इमे एयारूवे अभत्थिए • जाव समुप्पजि- णोष्टपुटः सितदन्तततिः। शितिकेशभरोऽम्बुजमम्जुकरः . स्था' अयमेतद्पः आत्मविषयः यावत् संकल्पः समुत्प- सुरभिश्वसितः प्रभयोल्लसितः ॥ १॥ मतिमान् श्रुतवान् सोऽभूत् , कोऽसौ इत्याह-'जप्पभिरं च णं अम्हं एस प्रथितावधियुक , पृथुपूर्वभवस्मरणो गतरुक । मतिकादारए कुञ्छिसि गम्भत्ताए वर्कते' यतः प्रभृति अस्मा-| न्तिधृतिप्रभृतिस्वगुणै-जगतोऽप्यधिको जगतीतिलकः कम् एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः 'तप्पभि च ण | ॥ २॥" स चैकदा कौतुकरहितोऽपि तेषामुपरोधात् अम्हे' तत्प्रभृति वयं 'हिरणेणं वडामो' हिरण्येन रू- समानवयोभिः कुमारैः सह क्रीडां कुर्वाण आमलकीप्येन वर्धामहे 'सुवरणणं वड्डामो' सुवर्णेन वर्धामहे 'ध-| क्रीडानिमित्तं पुराद् बहिर्जगाम । तत्र च कुमारा वृक्षागण धनेणं रज्जेणं . जाव सावइजेण' धनेन धान्येन | रोहणादिप्रकारेण कीडन्ति स्म । अत्रान्तरे सौधर्मेन्द्रः राज्येन यावत् स्वापतेयेन द्रव्येण 'पीइसक्कारेण अषि श्र- सभायां श्रीवीरस्य धैर्यगुणं वर्णयन्नास्ते , यदुत पश्यत वि अभिवडामो'प्रीतिसत्कारेण अतीव अतीव अभिवर्धामहे भो देवाः ! साम्प्रतं मनुष्यलोके श्रीवर्द्धमानकुमारो बालोऽ 'सामंतरायाणो वसमागया य' स्वदेशसमीपवर्तिनः रा- प्यबालपराक्रमः शक्रादिभिर्देवैरपि भापयितुमशक्यः, कटरे जानः 'सीमा डा राजा' इति च वश्यम्-प्रायत्तत्वमाग
बालस्यापि धैर्य, तदाकर्य च कश्चिन् मिथ्याग्ताः ।। १०६ ॥ 'तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भवि
देवश्चिन्तयामास-अहो शक्रस्य प्रभुत्वाभिमाने निरङ्कुशा स्सइ' तस्मात् यदा अस्माकमेष दारको जातो भविष्यति
विचारा पुम्मिकापातेन नगराक्रमणमिवाऽश्रद्धेया च बच'तयाणं अम्हे एयरस दारगस्स' तदा वयमेतस्य दार
नचातुरी , यदिम मनुष्यकीटपरमाणुमपि इयन्तं प्रकर्षे प्राकस्य 'इमं एयागुरुवं गुराणं गणनिप्फनं' इमम-पतद
पयति, तदद्यैव तत्र गत्वा तं भीषयित्वा शक्रवचनं वृनुरूपं गुणेभ्यः आगतं गुणैर्निष्पन्नं 'नामधिज्जं करिस्सा
था करोमि , इति विचिन्त्य मर्त्यलोकमागत्य शिशपामुमो बद्धमाणु' त्ति एवंविधमभिधानं करिष्यामः ‘वर्द्ध- शलस्थूलेन लोलजिहायुगलेन भयङ्करकारेण करतरामान ' इति 'ता अम्हं अपज मणोरहसंपत्ती जाया ''ता' कारेण प्रसरत्कोपेन ऋजुफटाटोपेन दीप्रमणिना महाफणिइति सा पूर्वोत्पन्ना अस्माकं अद्य मनोरथस्य संपत्तिः जा- नातं क्रीडातरुमावेष्टितवान् , तद्दर्शनाच्च पलायितेषु ता'तं होउ अम्हं कुमारे बद्धमाणे नामेणं' तस्मात् | सर्वेषु चालेषु मनागप्यभीतमनाः श्रीवर्द्धमानकुमारः स्वयं भवतु अस्माकं कुमारः 'वर्द्धमानः' नाम्ना कृत्वा ॥१०७।। तत्र गत्वा तं फणिनं करेण गृहीत्वा दूरं निक्षिप्तवान् , 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'का- ततः पुनः कुमारी कन्दुकक्रीडारसे प्रस्तुते सति स देवोसवगुत्तणं काश्यप इति नामकं गोत्रं यस्य स तथा ऽपि कुमाररूपं विकुऱ्या तां क्रीडां कर्तुं प्रववृते । तत्र चायं 'तस्स णं तश्रो नामधिज्जा एवमाहिज्जंति' तस्य भ- पण:-पराजितेन स्कन्धे आरोपणीय इति . साच्च पगवतः त्रीणि अभिधानानि एवमाख्यायन्ते-'तं जहा' राजितं मया जितं वर्धमानेनेति वदन् श्रीवीरं स्कन्धेसतद्यथा 'अम्मापिउसंतिए बदमाणे ' मातापितसत्कं मारोप्य भगवद्भापनाय सप्ततालप्रमाणशरीरः संजातो, भमातापितृदत्तं ' बर्द्धमान' इति प्रथम नाम १, 'स- गवानपि तत्स्वरूपं विज्ञाय वज्रकठिनया मुण्या तत्पृष्ठ हसमुख्याए समले' सह समुदिता सह भाविनी तपः- जघान, सोऽपि तत्प्रहारवेदनापीडितो मशक व संकोचं करणादिशक्तिः, तया श्रमण इति द्वितीयं नाम २, 'अ
प्राप ॥ ततश्च शक्रवचनं सत्य मन्यमानः प्रकटितस्वरूपः यले भयभेरवाणं' भयभैरवयोर्विषये अचलो निष्प्रक
सर्व पूर्वव्यतिकरं निवेद्य भूयो भूयो निजमपराध क्षम
यित्वा स्वस्थानं जगाम स देवः , तदा च सन्तुष्टचित्तेन म्पः, तत्र भयम्-अकस्माद्यं विधुदादिजातं, भैरवं तु
शक्रेण 'श्रीवीरः' इति भगवतो नाम कृतम् । यदुक्क्रम्-'बासिंहादिकं, तथा 'परिसहोवसग्गाणं' परिषहाः चुत्पि
लत्तणे वि सूरो , पयईए गुरुपरक्कमो भयवं। धीरुत्ति पासादयो द्वाविंशतिः-(२२) उपसर्गाश्च दिव्यादयश्वत्वारः, सप्रभेदास्तु षोडश-(१६) तेषां खतिखमे'
कयं नाम, सकणं तुट्ठचित्तेणं ॥ १" इत्यामलकीक्रीडा । शाम्त्या क्षमया क्षमते, न त्वसमर्थतया यः स शान्ति-|
(कल्प.) (वीरस्य लेखनशालागमनम् - लेहसाला 'शम्ने क्षमः 'पडिमाणं पालए' प्रतिमानां भद्रादीनाम् एकरा
ऽस्मिन्नेव भागे ६६७ पृष्ठे उक्तम् ।) त्रिक्यादीनां वा अभिग्रहविशेषाणां पालकः ‘धीमं' धी
समणस्स णं भगवो महावीरस्स पिमा कासवगुत्तेमान् सानत्रयाभिरामत्वात् 'प्रयासहे' भरतिरति स- णं, तस्स णं तमो नामधिजा एवमाहिजंति, जल
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सिद्धत्वा सिजसे वा, जससे वा ॥ समयस्स भगवओ महावीरस्स माया बासिट्ठगुणं, तीसे तो नामभिजा एवमाहिति तं जहा तिसलाइ वा वि - दिन्नाइ वा पीइकारिणी वा ॥ समणस्स भगवओो महावीरस्स पिचिजे सुपासे, जिट्ठे भाषा नंदिवद्धये भगिणी सुदंसणा भारिया जसोया कोडिना गुत्तेणं समयस्स भगवओ महावीरस्स धूया कासवगोते गं तीसे दो नामविज्जा एवमाहिति से जहा भोज्जाद वा पियदंसणाइ वा समणस्स भगवओो महावीरस्स नत्तुई कासवगुणं सीसे थं दो नामधिना एवमाहिअंति तं जहासेसवई वा जसवई वा ।। १०६ ।।
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समणस्स भगवन महावीरस्स भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'पिया कासवगुणं ' पिता कीदृशः ? काश्यपः गोत्रेण कृत्वा ' तस्स गं तत्रो नामधिज्जा " तस्य श्रीणि नामधेयानि एवमादिति वाच्यायतं जहा सिद्धत्थेइ वा सिजसे या जसंसेइ वा तद्यथासिद्धार्थ इति वा, श्रेयांस इति वा यशस्वी इति वा । 'समणस्स भगवओो महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य माया बासिगुत्ते माता वाशिष्ठगोषेण सीसे तो नामधिज्ञा' तस्याः त्रीणि नामधेयानि एवमादिजंति ' एवमाख्यायन्ते - तं जहा तिसला इ वा विदेहदिना वा पीकारिणी इ वा तयथा- त्रिशला इति वा, विदेदविना इति वा प्रीतिकारिणीति वा समणस्स भग बचो महावीरस्स' भ्रमलस्य भगवतो महावीरस्य सिजे सुपासे पितृश्यः काको' इति सुपाएवं भाया नंदिवज्रणे ज्येष्ठो भ्राता नन्दिवर्द्धनः भगिणी सुखा भगिनी सुदर्शना भारिया जसोया कोडियागुले मायां यशोदा सा कीटशी कीहिया गोत्रे समणस्स भगवो महावीरस्स' भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'धूश्रा कालवगोतेणं' पुत्री काश्यपगोत्रेण 'ती से दो नामधिज्जा एवमाद्दिज्जति ' तस्था द्वे नामधेये, एवमाख्यायेते जाणोज्जाद वा पिपदसणार यात था - अणोज्जा इति वा, प्रियदर्शना इति वा, ' समग्रस्त भवो महावीरस्स' भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य न
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( १३६४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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कासवं पुत्र्याः पुत्री दौहित्री काश्यपगोत्रे तीसें दो नामधिज्जा एवमाहिज्जंति' तस्याः द्वे नामधेये पायेते तं जहा से वा जसवई या ' तद्यथा - शेषवती इति वा यशस्वती इति वा ॥ १०६ ॥
समये भगवं महावीरे दक्खे दक्सपइले पडिरूने भालीगे भद्दए विसीए नाए नायपुत्रे मायकुलचंदे विदेहे विदेहदिमे विदेहजचे विदेहस्रमाले तीस वासाई विदेहंसि कह सम्मापिउर्हि देवलगएहिं गुरुमहत्तर एहिं अम्मलुभाए सम्म तपाइले पुणरचि लोअंतिएदि जीधकप्पिएहिं देहि ताहिं इट्ठाहिं ० जाव वग्गूहिं श्रणवरयं अभिनंदमाया य अभिष्यमाणा एवं वयासी ।। ११० ।।
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समणे भगवं महावीरे ' भ्रमणो भगवान् महावीरः क्ले ' दक्षः - सकलकलाकुशल: ' दक्खने ' दक्षा - निपुणा प्रतिज्ञा यस्य स तथा समीचीनामेव प्रतिज्ञां करोति, तां सम्यग् निर्वहतीति भावः पडिकये प्रतिरूपः-सुन्दररूपवान् 'चाली' झालीनः सर्वगुराभि भद्रकः सरलः 'विशी' विनीतो विनयवान् 'नाए' ज्ञातःप्रख्यातः 'नायपुते' ज्ञातः- सिद्धार्थस्तस्य पुत्रः, न केवल पुत्रमात्रः किन्तु नायकुलचन्दे' हातले चन्द्र विदेहे' वज्रऋषभनाराच संहननसमचतुरस्रसंस्थानमनोहरत्वात् विशिष्ठो देदो यस्य स विदेद्यः 'विदेहरि' विदेहदिशा-शिलातस्या अपत्यं वैदेहदिन्नः 'विदेहजथे ' विदेहा- त्रिशला तस्यां जातमर्चा - शरीरं यस्य स तथा विदेदस्माले ' विदेहशब्देन अत्र गृहवास उच्यते, तत्र सुकुमालः दीक्षायां तु परिषदादिसहने अकठोरत्वात् 'तीस वासाई विदेसि कट्ट' त्रिंशद्वर्षाणि गृहवासे कृत्वा पथि गृहस्थभावे स्थित्वेत्यर्थः 'अम्मादेव मातापित्रोर्देयत्वं गतयोः ।' गुरुमद्दन्तरपरि अम्भसुमार गुरुमहसरेन्दिवर्द्धनादिभिरभ्यनुज्ञातः 'समतपइचे' समाप्तमतिश्च "मातापित्रोः ना जियामी" ति गर्भगृहीतायाः प्रतिज्ञायाः पुरखात् सव्यतिकरस्येवम्-प्रष्टाविंशतिवर्षातिक्रमे भगवतो मातापितरौ, श्रावश्यकाभिप्रायेण तु स्वर्गम्, आचाराङ्गाभिप्रायेण तु अनशनेन प्रच्युतं गती, ततो भगवता ज्येष्ठ भ्राता पृष्टः, राजन् ! ममाभिग्रहः सम्पूर्णोऽस्ति, ततोऽहं प्रवजिष्यामि, ततो नन्दिवर्द्धनः प्रोवाच भ्रातः ! मम मातापि विरहदुःखितस्य अनया वार्तया कि ते चार क्षिपसि ततो भगवता मोहम् पिश्रमाभाइमाणी, भजा पुत्तत्तरेण सध्ये वि। जीवा जाया बहुसो, जीवस्स उएगमेगस्स ||१|| ' ततः कुत्र कुत्र प्रतिबन्धः क्रियते इति निशम्य नन्दिवर्द्धनोऽवोचत् भ्रातरहमपि इदं जानामि, कितु प्राणतोऽपि प्रियस्य तब विरहो मामतितमां पीडयति, ततो मदुपरोधाद्वर्षद्वयं गृहे तिष्ठ, भगवानपि एवं भवतु, किन्तु राजन्! मदनकोऽपि आरम्भः कार्यः प्राकाशनपानेनाहं स्थास्यामि इत्यवोचत् राज्ञापि तथा प्रतिपन्ने समधिकं वर्षद्वयं वस्त्रालङ्कारविभूषितोऽपि प्रासुकैषणीयाहारः सच्चित्तजलमपिबन् भगवान् गृहे स्थितः, ततः प्रभूति भगवता अचित्तजलेनापि सर्वखानेन तं च यावजीवं पालितं दीक्षोत्सवे तु सबित्तोदकेनापि खानं कृतं तथाकल्पत्वात् एवं भगवन्तं वै विलोक्य - तुर्दशस्वमसूचितत्वाच्चक्रवसिंधिया सेवमानाः श्रेणिकच
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प्रद्योतादयो राजकुमाराः स्वं स्वं स्थानं जग्मुः । 'पुरारवि लोति' पुनरपि इति विशेषद्योतने एकात् इति विशेषो द्योत्यते, लोकान्ते संसारान्ते समासप्रतिज्ञः स्वयमेव भगवान् वर्त्तते, पुनरपि लोकान्तिकैर्देवैर्बोधित भवाः लोकान्तिकाः एकावतारत्वात्, अन्यथा ब्रह्मलोकपासिनां तेषां लोकान् भवत्वं विद्यते ते च नवविधा यदुक्तम्
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"सारस्स य १ माइच्चा २, वन्ही
३ अरुणा य ४ गइतोया य ५ डिग्रा ६ अव्वाबाहा ७,
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अभिधानराजेन्द्रः।
वीर अग्गिच्चा - चेष रिट्टा य॥८६॥
एतदेवाहएए देवनिकाया, भयवं वोहिन्ति जिणवरिदं तु !
सारस्सयमाइचा, वएही करुणा य गद्दतोया य । .. सव्वजगज्जावहिय, भयवं तित्थं पवत्तेहि ॥७॥" |
तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिचा चेव रिट्ठा य ॥८६॥ यद्यपि स्वयम्बुद्धो भगवांस्तदुपदेशं नापेक्षते, तथापि तेषामयमाचारो वर्तते, तदेवाह--'जीयकप्पिएहिं देवहिं' जी
एए देवनिकाया, भयवं बोहिंति जिणवरिंदं तु । तेन-अवश्यंभावन कल्प-अचारो जीतकल्पः सोऽस्ति येषां
सबजगजविहियं, भयवं तित्थं पवत्तेहि ॥७॥ से जीतकल्पिकास्तैः, एवंविधा देवाः विभक्तिपरावर्तनात् . ___ एवं अभित्थुवंतो, बुद्धो बुद्धारविंदसरिसमुहो।। ते देवाः ' ताहिं इटाहिं' ताभिः इष्टाभिः 'जाव वग्गूहि
लोगंतियदेवेहि, कुण्डग्गामे महावीरो ॥८॥ यावत्शब्दात्- कंताहिं मणुन्नाहिं' इत्यादि पूर्वोक्तः पाठो
इदमपि गाथात्रयं सुगमत्वाच्च न प्रतन्यते, न तु पूर्वमृषवाच्यः, एवंविधाभिर्वाग्भिः 'अणवरय' निरन्तरं भगवन्तम्
भदेवाधिकारे पूर्व संबोधनमुक्तं पश्चाद 'दानसंबोहेण परि'अभिनंदमाणा य' अभिनन्दवन्तः समृद्धिमत प्राचक्षाणा:
व्वाए 'इति पाठक्रमात् इह तु पूर्व दानं पश्चात्संबोधनं 'दा'अभिथुव्वमाणा य' अभिवन्तः स्तुति कुर्वन्तः सन्तः।
णं संबोहनिक्खमणे' इति वचनात् ततः कथं परस्परं 'एवं वयासी' एवमवादिषुः॥ ११०॥
न विरोधः नैष दोषो न सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत (१६) तीर्थप्रवर्तनार्थ वीरं प्रति प्रेरणा
संबोधनोत्तरकालभाविनी महादानप्रवृत्तिः किंतु केषाश्चिजय जय नंदा, जय जय भद्दा, भदं ते जय जय खत्तिअव- देवमपि भवति-पूर्व महादानं पश्चात्संबोधनमिति दाणे'इतिरखसहा, बुज्झाहि भगवं लोगनाह सयलजगजीवहियं पव- वचनात् , अथवा-भवतु नियमः स च द्विधा घटते पूर्व तेहि धम्मतित्थं, हियसुहनिस्सेयसकरं सव्वलोए सबजी
सम्बोधनं पश्चान् महादानम् , अथवा--पूर्व महादानं पश्चावाणं भविस्सइ-त्ति कटु जय जय सई पउंजंति ॥१११॥
संबोधनं , तत्र पूर्वनियमेन संबोधनद्वयन्यासोऽल्पवक्तव्य
त्वादेवं तावत् संभविनः पक्षा उपन्यस्तास्तत्त्वं विशिष्टश्रत'जय जय नंदा' जयं लभस्ख, सम्भ्रमे द्विवचनं, नन्दति विदो जानन्तीति कृतं प्रसङ्गेन । गतं संबोधनद्वारम् । प्रा० समृद्धो भवतीति नन्दस्तस्य सम्बोधनं हेनन्द ! दीर्घत्वं म०१०। प्राकृतत्वात् , एवं ' जय जय भद्दा' जय जय भद्र !-कल्या
(१८) वीरेण वार्षिकदानं दत्तम्रणवन् 'भई ते' ते-तव भद्रं भवतु 'जय जय खत्तियवरव- पुवि पिणं समणस्स भगवो महावीरस्स माणुस्ससहा' जय जय क्षत्रियवरवृषभ ! 'बुज्झाहि भगवं लोगनाह'
गाओ गिहत्थधम्मामो अणुत्तर आभोइए अप्पडिवाई बुद्धधस्व भगवन् ! लोकनाथ!'सयलजगज्जीवहियं' सकलजगज्जीवहितं ' पवत्तेहि धम्मतित्थं ' प्रवर्तय धर्मतीर्थ,
नाणदंसणे हुत्था-तए णं समणे भगवं महावीरे तेणं यत इदं 'हियसुहनिस्सेयसकर ' हितं--हितकारकं, सुखं अणुत्तरेणं आभोइएणं नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणशर्म, निःश्रेयसं मोक्षस्तत्करं 'सव्वलोए सव्वजीवाणं' स कालं आभोएइ, आभोएत्ता चिच्चा हिरन्नं, चिच्चा सुवनं, वलोके सर्वजीवानां 'भविस्सइ त्ति कटु जय जय सइं
चिच्चा धणं, चिच्चा रज्ज, चिच्चा र, एवं बलं-वाहणंपउंजंति' भविष्यतीति कृत्वा इत्युक्त्वा जय जय शब्द प्रयुञ्जन्ति ॥ १११ ॥ कल्प०१ अधि०५ क्षण।
कोसं-कोडागारं, चिच्चा पुरं, चिच्चा अंतेउरं, चिच्चा जण(१७)अधुना संबोधनद्वारम्-तत्र यदा भगवान् निष्क्रमिष्या | वयं, चिच्चा विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिल-- मीति मनः संप्रधारयति तदा ये लोकान्तिका देवाः सारख- प्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावइजं, विच्छङ्कइत्ता, तादयो ब्रह्मलोके कल्पे रिविमानप्रस्तटे स्वकीयविमाने स्व
विगोवइत्ता दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता , दाणं दाइयाणं कीये प्रासादावतंसके प्रत्येकं चतुर्भिःसामानिकसहनस्तिस. भिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडश
परिभाइत्ता ॥ ११२ ॥ भिरारक्षकदेवसहनैरन्यैश्च स्वस्वविमानवास्तव्यैर्देवैः संपरि-| 'पुब्बि पि णं समणस्स भगवश्रो महावीरस्स' इदं पदं वृता दिव्या भोगान भुञ्जाना आसते तेषामासनानि प्रच- 'गिहत्थधम्माओ' इत्यस्मादने योज्यं , श्रमणस्य भगवतो लन्ति ततोऽवधि प्रयुज्यात् प्रयुज्य चाभोगयन्ति ततो जान- महावीरस्य 'माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माश्रो' मनुष्ययोन्ति यथा स्वामी निष्क्रमिष्यामीति मनः संप्रधारितवान् | ग्यात् एवंविधात् गृहस्थधर्मात् गृहव्यवहारात् पूर्वमपि 'अततश्चिन्तयन्ति-कल्प एष लोकान्तिकानां देवानां भगवता- युत्तरे आभोइए' अनुपममाभागे उपभोगः सप्रयोजनं महतां निष्क्रमणकाले संबोधनं कर्त्तव्यमिति । तत एवं चि- यस्य तत् आभोगिकम् 'अप्पडिवाइनाणदसणे हुत्था' न्तयित्वा उत्तरपूर्वी दिशमवक्रम्य द्विकृत्वो वैक्रियसमुद्धातेन अप्रतिपाति आकेवलोत्पत्तेः स्थिरम् एवंविधं ज्ञानदर्शनम् समवहत्योत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वते विकुर्वित्वा भगव- | अवधिज्ञानम् , अवधिदर्शनं च अभूत् 'तए णं समले भगवं तः समीपमागत्याकाशे स्थिता मधुराभिर्वाग्भिरेवमवादिषुः- महावीरे' ततः श्रमणो भगवान् महावीरः तेणं अणुत्तरेणं " जय जय नन्दा जय जय भद्दा जय जय मुणिवरवसभा भाभोइपण ' तेन अनुत्तरेण प्राभोगिकेन ' नाणदसणेणं' बुज्झाहि भगवं लोगनाह ! पवत्साहि भयवं धम्मतित्थं हिय- शानदर्शनेन 'अप्पणो निक्खमणकालं' श्रात्मनो दीक्षाकालं सुहनिस्सेयसकरं जीवाणमेयं भविस्सा चि" ततो वन्दन्ते - 'आभोपइ'आभोगयति-विलोकयति 'आभोहत्ता' प्रानमस्यन्ति । वन्दित्वा नमस्यित्वा यतमागतास्तत्र गता भोग्यब' चित्रा हिरण' त्यक्त्वा हिरण्यं सायं 'चिच्चा
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( १३६६) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
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सुवक्षं ' त्यक्त्वा सुवर्ण 'चिच्चा धणं' त्यक्त्वा धनं 'विश्वा रज्जं त्यक्त्वा राज्यं ' चिश्चा रहुं त्यक्त्वा राष्ट्र देशम् 'एवं बलं वाहणं कोर्स कोट्ठागारं ' एवं सैन्यं वाहनं कौशं कोष्ठागारं ' चिच्चा पुरं ' त्यक्त्वा नगरं ' चिच्चा तेउरं ' त्यक्त्वा अन्तःपुरं 'चिश्चा जणवयं' त्यक्त्वा जनपदं देशवासिलोकं 'विच्वा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइ ' त्यक्त्वा विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्खशिला प्रबालरक्तरत्नप्रमुखं 'संतसारसावइज्जं ' सत्सारस्वापतेयम् एतत् सर्वे त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ' विच्छता' विच्छुर्य विशेषेण त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ' विगोवइत्ता ' विगोप्य तदेव गुप्तं सद्दानातिशयात् प्रकटीकृत्येति भावः, अथवा - विगोप्य कुत्सनीयमेतदस्थिरत्वादित्युक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ' दाणं दायारेहिं परिभाइता' दीयते इति दानं धनं तत् दायाय दानार्थमाच्छन्तिआगच्छन्तीति दायारा याचकास्तेभ्यः परिभाज्य विभागैर्दवा, यद्वा-परिभाव्य - आलोच्य इदममुकस्य देयम् इदममुकस्यैवं विचार्येत्यर्थः पुनः किं कृत्वा 'दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता' दानं धनं दाथिका गोत्रिकास्तेभ्यः परिभाज्य विभागशो दरवेत्यर्थः, अनेन सूत्रेण च वार्षिकं दानं सूचितं तश्चैवम्-भगवान् दीक्षादिवसात् प्राग्वर्षेऽवशिष्यमाणे प्राप्रकाले वार्षिकं दानं दातुं प्रवर्त्तते, सूर्योदयादारभ्य कल्पवर्त्तवेलापर्यन्तमष्टलक्षाधिकाम् एकां कोटिं सौवर्णिकानां प्रतिदिनं ददाति, वृणुत वरं वृणुत वरम् इत्युद्घोषणा पूर्वकं यो यन् मार्गयति तस्मै तद्दीयते तच्च सर्व देवाः शक्रादेशेन पूरयन्ति, एवं च वर्षेण यद्धनं दत्तं तदुच्यते
"तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीई य हुंति कोडीओ । श्रासीइं च सहस्सं, एयं सवच्छ दिनं ॥ १॥" तथा च कवयः
"तत्तद्वार्थिकदानवर्षविरमदारिद्रथदावानलाः, सद्यः सज्जितवा जिराजिव सनालङ्कार दुर्लक्ष्यभाः । सम्प्राप्ताः स्वगृहेऽर्थिनः सशपथं प्रत्याययन्तो ऽङ्गनाः, स्वामिन्!(स्वीय)षिगजनैर्निरुद्धहसितैः के यूयमित्युचिरे । १1" कल्प० १ अधि० ५ क्षण ।
( ११ ) अधुना निश्वङ्क्रमणद्वारम्मणपरिणामों अकंतो,अभिनिक्खमणम्सि जिणवरिंदे। देवेहिं देवीहि य, समंततो वत्थयं गयणं ॥
मनः परिणामश्च कृतः 'श्रभिनिक्खमणम्मि' अभिनिष्क्रमणविषयो जिनवरेन्द्रेण तावत् किं संजातमित्याह- देवैर्देवीभिश्च समन्ततः सर्वासु दिक्षु सर्वमवस्तृतं व्याप्तं गगनम् । भवणवश्वाणमंतर+जोइसवासी विमाणवासी य ।
धरणियले गयणयले, विज्जुज्जोओ को खिप्पं ॥ यैर्देवैर्गगनं व्याप्तं ते खल्वमी वर्त्तन्ते-भवनपतयश्च व्यन्तराव ज्योतिर्वासिनश्चेति द्वन्द्वः समासः, तथा विमानवासि नश्च श्रमीभिरागच्छद्भिर्धरणितले गगनतले च विद्युद्वत् . उद्योतो विद्युदुद्योतः कृतः क्षिप्रं शीघ्रम् ।
जाव य कुंडग्गामो, जाव य देवाण भवण आवासा ! देवेहिं देवीहि य, अविरहियं संचरंतेहिं || यावत्कुण्डग्रामो यावच्च देवानां भवनाऽऽवासाः अत्रान्तरे
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गगनतलं धरणितलं च देवैर्देवीभिश्च श्रविरहितं व्याप्तं संचरद्भिः । एतत् सामान्येनोक्तं विशेषप्रक्रिया त्वेवं-यदा भगवान् स्वामी लोकान्तिकदेवैः संबोधितस्तदा नन्दिवर्द्धन प्रमुखस्वजनवर्गसमीपमुपागतवान् उपागत्य चैवमवादीत् इच्छामि युष्मदनुज्ञातः प्रव्रज्यां ग्रहीतुमिति । श्र० म० १ ० । ते काले तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से हेमंताणं पढमे मासे, पढमे पक्खे, मग्गसिरबहुले तस्स गं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं पाईणगामिणीए छाया पोरिसी अभिनिविट्ठाए पमाणपत्ताए, सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्ते चंदप्पभाए सिविए सदेवमणुत्रासुराए परिसाए समयुगम्ममाणमग्गे संखियचक्कियलंगलिश्रमुह मंगलि वद्धमाणपूसमाणघंटियगणेहिं, ताहिं इट्ठाहिं ० जाव वग्गूहिं अभिनंदमाणा य अभिधुव्यमाणा य एवं वयासी ।। ११३ ।। " जय जय नंदा, जय जय भद्दा, भदं ते, अभग्गेहिं नाणदंसणचरितेहिं
जियाई जिणाहि इंदियाई, जित्र्यं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्घोवियवसाहि तं देवसिद्धिमज्झे, निहणाहि रागद्दोसल्ले तवेणं धिरणि बद्धकच्छे, महाहि अकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं, सुक्केणं, अप्पमत्ते हराहि
राहणपडागं च वीर ! तेलुकरंगमज्झे, पावयवितिमिरमणुत्तरं केवलवरनाणं, गच्छय मुक्खं परं पयं जिणवरोवइट्ठे मग्गेण अकुडिलेख हंता परीसहचमुं, जय जय खत्ति
वरवसहा, बहूई दिवसाई बहुई पक्खाई बहूई मासाई बहूई उऊ बहूई अयणाई बहूई संवच्छराई, अभीए परीसहोवसगाणं खंतिखमे भयभेरवाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ ति कट्टु जय जय सद्दं पउंजंति ॥ ११४ ॥ तए गं समणे भगवं महावीरे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्यमाणे अभि थुव्वमाणे, हिययमालासहस्सेहिं उमंदिजमाणे उन्नंदिजमाथे, मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्पमाणे विच्छिष्पमाणे, कंतिरूवगुणेहिं, पस्थिज्जमाणे पत्थिजमाणे, अंगुलि - मालासहस्सेहिं दाइज्ज़माणे दाइज्जमाणे दाहिणहत्थे बहूणं नरनारीसहस्साणं अंजलि मालासहस्साइं पडिच्छमाणे पच्छिमाणे, भवणपतिसहस्साई समइकमाणे समइकमाणे तंतीतलतालतुडियगीयवाइअरवेणं महुरेग य मणहरेणं जयजय सदघोसमीसिएणं मंजुमंजुला घोसेण य पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे सव्बिड्डीए सव्वजुईए सव्चवलेणं सव्ववाहणेणं सन्वसमुदपणं सव्वायरेणं सव्वविभूइए सव्यविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वसंगमेणं सव्वपगइए हिं सन्बनाडएहिं सव्वतालायरेहिं सव्वावरोहेणं सव्वपुप्फगंध भल्लालंकारविभूषण सव्वतुडियममन्निनाएणं मह
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या इडीए महया जुईए महया बलेयं महया वाहणेयं महया समुदणं मइया वरतुडियजमगस मगपवाइएवं संखपणवपचद्दमेरिझम्लरिखरमु हिदुद्विनिग्पोसना इयरवेणं कुंडपुरं नगरं मज्यं मज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छिता जेणेव नामसंडवसे उजाने जैव असोगवरपायचे तेणेव उवागच्छइ ।। ११५|| तेखेव उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठावेत्ता, सीयाश्रो पच्चरुes, पचोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं श्रोमुत्र, श्रोमुइचा, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता छट्ठेणं भत्तणं प्रयाणएवं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं चंदेणं जोगवागणं एवं देवदुसमादाय एगे अभीए मुंडे भविचा अगाराओ अग्रगारिअं पव्व ।। ११६ ।
'तें काले' तस्मिन् काले 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये 'समग्रे भगवं महावीरे भ्रमको भगवान् महावीराजे सेहेमंताणं' योऽसौ शीतकालस्य 'पढमे मासे पढमे पक्खे' प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः ' मग्गसिरबहुले ' मार्गशीर्षमासस्य कृष्णपक्षः 'तस्स मग्गशिरबहुलस्स' तस्य मार्गशीर्षलस्य 'दसमीपकखेणं' दशमीदिवसे 'पाईणगामिणीए छायापूर्वदिग्ामियां छायायां पोरिसीए अमिनिविद्वा पौरुष्यां पाचात्यपौरुष्यामभिनिवृत्तायां जातार्यापमापत्ता' प्रमाणप्राप्तायां न तु न्यूनाधिकायां सुम्बपसं दिवसे' सुव्रताख्ये दिवसे ' विजपणं मुहुत्ते ' विजयाख्ये मुझसे बंदण्यभार लिविचार चन्द्रप्रभायां पूर्वोक्तायां शिविकायां कृताः विशुद्धयमानलेश्याकः पूर्वाभिमु खः सिंहासने निषीदति, शिविकारूढस्य च प्रभोदक्षिणबः कुलमहत्तरिका हंसलाये पठशाटकमादाय, बामपा
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( १३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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च प्रभोरम्बधात्री दीक्षोपकरणमादाय पृष्ठे चैका वरतशी स्फारशृङ्गारा धवलच्छत्रहस्ता, ईशानकोणे चैका पूर्ण कलशहस्ता, श्रग्निकोणे चैका मणिमयतालवृन्सहस्ता भद्रासने निषीदति ततः श्रीनन्दिनृपादिष्टाः पुरुषाः बावत् शिविकामुत्पाटयन्ति तावत् शको दाक्षिणात्यामुपरितनी बादाम, ईशानेन्द्र श्रीसराहामुपरितन बाहां, समरेन्द्रो दाक्षिणात्यामधस्तनीं बाहां, बलीन्द्र श्रौत्तराहाम् अधस्तन बाहां, शेषाश्च भवनपतिष्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेन्द्राब्धञ्चलकुरुडलाचाभरणकिरणरमणीयाः पञ्चवर्गपुष्य
कुर्वन्तो दुभीताडबन्तो यथा शिविकामुत्पाटयन्ति । ततः शक्रेशानौ तां वाहां त्यक्त्वा भगवतश्चामराणि बीजयतः, तदा च भगवति शिक्षिकाकडे प्रस्थिते सति शरदि पद्मसर इव, पुष्पितम् अतसीवनमिव, कर्णिकावनमिस, चम्पकवनमित्र, तिलकवनमिव रमणीयं मगनत सुरवरैरभूत् किञ्च - निरन्तरं वाद्यमानभम्भाभेरीमृदङ्गदुन्दुभिशङ्खाद्यनेकवाद्यध्वनिगगनतले भूतले च प्रससार । तनादेन च नगरवासिन्यस्त्यक्तवस्व कार्या नार्यः समाग
यो विविधाभिर्जनान् विस्माययन्ति स्म । (कल्प०) (इति 'कोडपदंसस 'शब्दे दतीयभाये ६७० पृष्ठे गतम् इत्थं नागरंनागरीनिरीक्ष्यमाविश्कर्षस्य भगवतः पुरतः प्रथमतो रत्नमयान्यौ मङ्गलाबि क्रमेण प्रस्थितानि तद्य
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वीर था स्वस्तिकः १ श्रीवत्सो २ नम्यावत ३ वर्तमान म नन्द्यावर्तो ४ द्रासनं ५ कलशो ६ मत्स्ययुग्मं ७ दर्पणश्च ८ ॥ ततः क्रमेण पूर्णकलशभृङ्गारचामराणि ततो महती वैजयन्ती, ततश्वपं ततो मणिस्वर्णमर्थ सपादपीदं सिंहासनं ततोऽशतमारोहरहितानां वरकुञ्जरतुरगाणां, ततस्तावन्तो घण्टापताकाभिरामाः शखपूर्णा रथाः, ततस्तावन्तो वरपुरुषाः, ततः क्रमेण हय १ गज २ रथ ३ पदात्यनीकानि ४ ततो लघुपताका सहस्रपरिमण्डितः सहस्रयोजनोथो महेन्द्रध्वजः, ततः खड्गग्राहाः, कुन्तग्राहाः, पीठफलक ग्राहाः, ततो दासकारकाः, नर्तनकारकाः कान्दर्पिका जयजयशब्दं प्रयुञ्जानास्तदनन्तरं बहब उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रियास्तलबरा माम्विकाः कीटुम्बिका बेनि साथवाडा, देवा देव्यश्च स्वामिनः पुरतः प्रस्थिताः, तदनन्तरं सदेवमसुराण ' देवमनुजाऽसुरसहितया 'परिसाए' स्वर्गमर्त्यपातालवासिन्या पर्षदा 'समणुगम्ममाण सम्यग् अनुगम्यमानं ' मग्गे अग्रतः खिय' शंखिकाः शंखवादकाः ' चक्किय' चाक्रिकाश्चक्रप्रहरणधारिणः लंगलिय ' लाङ्गलिका गलावलम्बितसुवदिमयलाङ्गलाकारधारियो भटविशेषाः । मुहमंगलिय मुझे प्रियवहारधादुकारिण इत्यर्थः । वज्रमाण पर्ज वर्द्धमानाः स्कन्धारोपितपुरुषाः पुरुषाः पूसमाण पुष्यमाणा मागधाः घंटियगणेहिं घण्ट्वा चरन्तीति घारिटका: 'राउलिया इति लोके प्रसिद्धाः पतेषां ग
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परिवृतं च भगवन्तं प्रक्रमात् कुलमहत्तरादयः स्वजनाः ताहि इट्ठाहिं जाव वग्गूहिं' ताभिरिष्टादिविशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिः ' अभिनंदमाणा य अभिधुव्वमाणा य' श्र भिनन्दन्तः अभियन्ता एवं पयासी एवमचादिषुः । ॥ ११३ ॥ ' जय जय नंदा ' जय जयवान् भव, हे समृद्धिमन् !' जय जय भद्दा भदं ते ' जय जयवान् भव, हे भद्रा भइकारक ! ते तुभ्यं भद्रमस्तु किच- अभग्गेदि नागदं सत्चरितेभिन्नैर्निरतिचारेशीनदर्शनचारित्रेः 'अंजिया जिसाहि इंदिया' अजितानि इन्द्रियाणि जयपशी 'रु' जिये च पालेद्दि समणधम्मं ' जितं च स्ववशीकृतं पालय श्रमधर्म जिवविधो बिसाहितं देवसिद्धिमझे ' जितविघ्नो ऽपि च हे देव ! प्रभो ! त्वं वस, कुत्र सिद्धिमध्ये अत्र सिद्धिशब्देन श्रमधर्मस्य वशीकारस्त स्व मध्यं लचणया प्रकर्षस्तत्र त्वं निरन्तरायं तिष्ठेत्यर्थः । 'निगाह रामदोसम्झे रागद्वेषमही निजहि-निहारा तयोर्निग्रहं कुरु इत्यर्थः, केन ' तवेणं' तपसा, बाह्याभ्यन्तरेण तथा विधखियबद्धकच्छे पृतौ संतोषे धे वा अत्यन्तं बद्धकक्षः सन् ' महाहि अट्ठ कम्मसत्तू ' अष्टक - मैशन मर्दय, परं केनेत्याह-- झा उत्तमे सु ध्यानेन उत्तमेन राज्ञेनेत्यर्थः तथा अप्पमतो दरादि आराहणपडा च वीर तेलुक रंगम' प्रमत्तः सन् त्रैलोक्यम् एव यो रङ्गो मल्लयुद्धमण्डपस्तस्य मध्ये आराधनपताकामाहर-गृहाण । यथा - कश्चिन्मनः प्रतिम विजित्य जयपताकां गृह्णाति तथा त्वं कर्मशत्रून विजित्य श्राराधनपताकां गृहाण इति भावः 6 पावयवितिमिरमत्तरं केवखवरमाएं प्राप्नुहि च वितिमिर वि
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मिररहितमनुत्तरमनुपमं केवलवरज्ञानं, 'गच्छ य मुक्खं परं ' पगच्छ मोक्षं परमं पदं केन जिसपराय मग्गेण अकुडिलेण जिनवरोपदिष्टेन अकुटिलेन मार्गेण, अथ किं कृत्वेत्याह- हंता परीसहच त्यांपरीसेनां ' जय जय खत्तियवरवसहा ' जय जय क्षत्रियववृषभ ! बहु दिवसाहून दिवसान् बहुरं प ' 6 थक्खाई ' बहून् पक्षान् 'बहूई मासाई ' बहून् मासान् बहन ऋतून मासद्वयममितान् बहु अ यणाई बहूनि अयनानि षाण्मासिकानि दक्षिणोत्तरायणलक्षणानि ' बहूइं संवच्छराई ' बहून् संवत्सरान् यावत् 'अभीए परीसहोवसग्गाणं ' परीषहोपसर्गेभ्योऽभीतः सन् ' तिमे भयभैरवाणं भयभैरवाणां विद्युत्सिहादिकानां क्षान्त्या क्षमो, न त्वसामर्थ्यादिना, एवंविधः सन् त्वं जय, अपरं च 'धम्मे ते अविग्धं भवउ ति कट्टु' ते तब धर्म अविप्रं विप्राभावोऽस्तु इति कृत्वा हयुक्त्या जय जय सई परंजीत ' जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ १२४ ॥ ' तर गं समण भगवं महावीरे ततः श्रमणो भगवान् महावीरः क्षत्रियकुण्डग्रामनगरमध्येन भूत्वा यत्र ज्ञातखस्वनं यत्राशोकपादपस्तत्र उपागच्छतीति योजना । अथ किंविशिष्टः सन् ' नयणमालासहस्सेहि " नयनमालासपिमा पछिमाणे प्रेश्यमाणः प्रेमापुनः पुनः विलोक्यमानसौन्दर्यः पुनः किंविशि० 'वयणमाला सहस्सेहिं वदनमालासह सिस्थित कानां मुखपतिसहस्रः अभियुष्यमाणे अभियुज्यमाणे पुनः पुनः अभिष्ट्रयमानः पुनः किंविशि० श्रमालास हस्सेहि हृदयमालासहस्रः उनंदिज्जमा उम्मंदिज्ज ' माणे ' उन्नन्द्यमानः २, जयतु जीवतु इत्यादि ध्यानेन समृदि प्राप्यमाणः पुनः किंविशि० मोरदमालासहस्सेद मनोरथमालासह विदयमाने २' विशेषे स्पृश्यमानः वयमेतस्य सेवका अपि भवामस्तदापि वरमिति चियमानः पुनः किंवि० 'कंतिरुवगु' कान्तिरूप तिजमा पचिजमाणे' प्रार्थयमानः प्रार्थ्यमानः स्वामित्वेनभर्तृत्वेन वाञ्छ्यमान इत्यर्थः, पुनः किंवि०' अंगुलिमालासहस्पेटिं अनिमालासह दाबि भरनारी सहस्साएं 'दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणाम्'अंजलिमालासहस्सा अनिमालासहस्राणि नमस्कारान् प डिमांडमारा प्रतीच्छन् प्रतीच्छन गृह्णन् पुनः किंचि०-भवांसस्साई भवनपतिसहस्राणि 'समइकमा समाजमा समतिक्रामन् समतिक्रामन् पुनः कवितालयगीषवाइपरचेणं' तन्त्री-बीसा, तलतालाः- हस्ततालाः, त्रुटितानि वादित्राणि, गीतं गानं चादितं पादनं शम्देन पुनः कीदृशे न - महुरेण य मणहरेणं मधुरेण च मनोहरेण, पुनः करशेन जयजय सरपोसमीसिप' जयजयशब्दस्य यो घोष उदघोषणं तेन मिश्रितेन पुनः कीशेन मंजुमंजुघोराय ममजुना घोषेण च श्रतिकोमलेन जनस्वरेण ' पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे सावधानीभवन् सावधानीभवन् सव्विडीए' सर्व समस्तच्छ्ादिराजचिह्नरूपया सम्यई सर्वत्या प्राभरादिसम्बन्धिन्या न्याय्यले सर्वचलेन -
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( १३६८) अभिधानराजेन्द्रः ।
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स्तितुरगादिरूपकटकेन 'सव्ववाहणं ' सर्ववाहनेन करभवेसरशिषिकादिरूपेण सम्यसमुदयं सर्वसमुद्धेन म हाजनमेलापफेन सव्वापरेण सर्वादरेया सर्वोचित्यकरणेन सत्यविभूषण सर्वविभूत्या सर्वसंपदा सम्बधि सार सर्वविभूषया समस्ततोभया 'सम्यसंममेयं सर्वसम्भ्रमेण प्रमोदजनितौत्सुक्येन 'सव्वसंगमे ' सर्वसङ्गमेन सर्वस्वजनमेलापन सपदि सर्वप्रकृतिभिः प्रशदशभिर्निंगमादिभिः नगरवास्तव्य प्रजाभिः सम्यनाद पसिना' सच्चतालापरेहिं सर्वतालाचरे: स व्यावरोहें ' सर्वावरोधेन सर्वान्तः पुरेण सव्वपुष्पगंधमज्ञालंकारविभूसाए ' सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया प्रतीतया सम्बडिवसदसच्चिनाएगा 'सर्वत्रुटितशब्दानां यः शब्दः संनिनादश्च प्रतिरवस्तेन सर्वत्वं च स्तोकानां समुदाये स्तोकैरपि स्यात्तत श्राह - ' महया इडीए " महत्या
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ऋद्धया महया जुईए महत्या त्या ' महया बलें' मदता बलेन महया समुद
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मद्दता समुदमहता
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महया वरनुपिजमगमगप्पवाह उतरेस वरतानि प्रधानवादित्राणि तेषां जमग एवंविधेन समग' समकालं प्रवादनं यत्र संखपण्यपदमेरी भाखरमुहिक दुहिनिग्धोसनाइपर वेणं' शंखः प्रतीतः, पण्यः - मृत्पटहः, पटह:- काष्ठपटहः, भेरी - ढक्का, भल्लरी - प्रतीता, खरमुखी - काहला, हुडक्कः त्रि
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तुल्यचाद्यविशेषः, दुर्मिया तेषां निर्घोषः तस्य नादितः प्रतिशब्दः तदूषेव रवेय-शब्देन युक्रम् एवंरूपया पात्रता प्रजन्तं भगवन्तं पृष्ठतव्यतुरसैन्यपरि कलितो ललितष्त्रयामविराजितो नन्दिवर्धन ग च्छति । पूर्वोक्लाडम्बरेण युक्तो भगवान् 'कुंडपुरं नगरं मउभं मज्झेणं' क्षत्रियकुण्डनगरस्य मध्यभागेन ' निग्गच्छर निर्गच्छति 'निग्गच्छित्ता ' निर्गत्य ' जेणेव नायसंडवणे उखाणे ' यत्रैव शतखण्डवनम् इति नामकम् उद्यानमस्ति 'जेणेव असोगवर पायये यत्रैव अशोकनामा परपादपः - ष्ठवृक्षः तेणेव उपागच्छत उपागच्छति॥१२५वामच्छित्ता' उपागत्य ' श्रसोगवरपायचस्स ' अशोकवरपादपस्य 'अहे सीयं ठावेइ' अधस्तात् शिबिकां स्थापयति' ठाविता ' स्थापयित्वा 'सीयाश्रो पथ्थोरुहद्द ' शिबिप्रत्यवतीर्य " पश्चोरुहित्ता कातः प्रत्यवतरति 'सयमेव श्राभरणमनालङ्कारं धनुषा स्वयमेव ग्रामरखमाल्यालङ्कारान् उत्तारयति श्रोमहत्ता 'सातवीरवलयं चैवम् अङ्गुलीभ्यश्च मुद्रावलि पाणितो, बीरल भुजाभ्यां झटित्यङ्गदे । हारमथ कण्ठतः कर्णतः कुण्डले, मस्तकान्मुकुटमुन्मुञ्चति श्रीजिनः ॥ १ ॥ तानि चाभर शानि कुलमचरिका हंसारापाटन गृहाति गृहीस्वा च भगवन्तमेवमवादीत् - "इक्खागकुलसमुपने सि यां तुमं जाया, कासयगुले सि तुमं जाया, उदितोदितनायकुलनयलमिश्रसिद्धत्यजन्यखति असुरसि तुर्म जाया जश्चखत्तिश्राणीए तिसलाए सुए सि गं तुमं जाया देविन्दनरिन्दहि किसी सि तुमं जाया एत्थ सि यं कमियं मरु आलम्बे असिधारामध्ये चरिश्रव्वं जाया परिकमिश्रव्वं जाया, अरिंस व श्र
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ट्ठे नो माइ " इत्यादि उक्त्वा वन्दित्वा नमस्कृत्य एकतोऽपक्रामति । ततश्च भगवान् एकया मुष्टया कूर्चे, मताभिः शिरोजान एवं खयमेव पंचमुद्रिय सोयं करेह' स्वयमेव पञ्चमौरिक साथ करोति अधि० ५ क्षण । )
(कल्प० १
( १३६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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(२०) शक्रश्च देवराजो हंसलक्षणेन पटशाटकेन केशान् प्रतीच्छति भगवतामुपरि देवदूष्यवस्त्रं च स्थापयति
जिणवरमणुभवित्ता, अंजणघणरुयगविमलसंकासा । केसा खण नीया, खीरसरिसनामयं उदहिं ॥ १०७ ॥ शक्रेण जिनवरं भगवन्तं वर्द्धमानस्वामिनमनुज्ञाप्य श्रञ्जनं प्रसिद्धं घनो-मेघः रुका-कृष्णमणिविशेषः तेषामिव विमलः संकाशः - छायाविशेषो येषां ते अञ्जनघनरुचकविमलसंकाशाः, के ते इत्याह- केशाः किं क्षणेन नीताः क्षीरसदशनामानमुदधिं क्षीरोदधिमित्यर्थः । श्रा० म० १ ० ।
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'करिता ' तथा कृत्वा चणं भले अपा षष्ठेन भक्तेन श्रपानकेन 'हत्थुत्तराहिं नक्खत्तें चंदेणं जोगमुवागणं' उत्तराफाल्गुम्यां चन्द्रयोगे सति एगं देवदू समादाय' शक्रेण वामस्कन्धे स्थापितम् एकं देवदूष्यमादाय 'एगे' एको रागद्वेषसहायविरहात्, 'अबीए' अद्वितीयः यथाहि ॠषभश्चतुःसहस्या राशा, मल्लिपाश्च त्रिभिखिभिः शतैर्वासुपूज्यः पदात्या शेषाध सहस्रेण सह प्रजितास्तथा भगवान् न केनापि सहेत्यतः अद्वितीयः 'मुंडे भत्ता' यतः शिरःकलोचनेन भावतः क्रोधाद्यपनयनेन मुण्डो भूत्वा श्रगाराओ अणगारियं पव्वइए अगारात् गृहात् निष्क्रम्य अनगारितां साधुतां प्रवजितः प्रतिपक्षः तद्विधिधाय एवं पूर्वोक्रप्रकारेण कृतपञ्चमीटिकलोचो भगवान् यदा सामायिकम् उच्चरितुं पाति तदा शक्रः सकलमपि पायकोलाहले निवारयति ततः प्रभुः " नमो सिद्धाणं" इति कथनपूर्वकं " करेमि सामाइश्रं सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामी " त्यादि उच्चरतिन तु 'भंते' त्ति भणति, तथाकल्पत्वात् । कल्प० १ अधि० ५ क्षण । चारित्रप्रतिपत्तिकाले स्वभावतो भुवनभूषणस्य भगयतः शो देवष्यं वस्त्रमुपनीतवान्। अत्रान्तरे कथानकम्"देव पञ्च तं जाहे से करे पत्रापि उपय सोधिजाता उद्वितो सो य दाणकाले कहिं पि य वागतेअहो पड़ा भगत भजार अवादिते सामिणा एवं दाग दत्तं तुमं पुण कहिं विहिंसिजाहि पुरा पत्यंतरे विल भेज्जासि, ततो सो श्रागतो भणह-- जहा मम सामी न किंचि तुभेहिं दिनं इयाणि पि देहि ति ताहे सामिणा तस्स दूसस्स श्रद्धं दिनं सव्वं परिवत्तं ति अन्नं मे नात्थि तेण नागस्स उपणीयं जहा पयस्व दसिया बंधादि तेरा पुहमकतील. सो भरा भगवता दियं तुचागो भइ-तंपि से अद्धं आरोहि, जया पडिहियं भयवतो सातो तो गं श्रहं तुनामि ताहे लक्खं मोल्लं भविस्सर ता तुज्झ वि श्रद्धं, मज्झ वि श्रद्धं पडिवन्नं ताहे पउलग्गितो सेसमुपरि भगीहामि ।
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(२२) तस्य भगवतचारित्रप्रतिपत्तिलमनन्तरमेव मनःपर्या यज्ञानमुपादि सर्वतीत वा कमो यत आह ( भाष्यकारः ) -
तिहि ँ नाणेहि समग्गा, तित्थयरा जाव होंति गिहवासे । पडिवमम्मि चरिते चडनाशी जाव खउमत्था ॥ ११०॥ त्रिभिः मतिश्रुतावधिभिः समग्राः सम्पूर्णातीर्थकराबाद गृहावासे भवन्ति वसन्तीत्यर्थः प्रतिपचे पुनथारित्रे चतुर्ज्ञानिनो भवन्ति, कियन्तं कालं यावदित्याह-यायथावच्चतुर्ज्ञानिनः प्रा०म० अ०
एवं च चारित्रग्रहणानन्तरमेव भगवतश्चतु ज्ञानमुत्पद्यते ततः शक्रादयो देवा भगवन्तं यदित्यानन्दीश्वरयात्रांकृत्या स्वं स्वं स्थानं जग्मुः । कल्प० १ अधि० ५ क्षण । ततश्चतुर्ज्ञानो भगवान् बन्धुवर्गमापृच्छय च विहारार्थं प्रस्थितो ' बन्धुषऽपि दृष्टिविषयं यावत् तत्र स्थित्वा"वया विना धीर ! कथं प्रजामो चुना शून्ययनोपमाने। गोष्टीसुखं केन सहाऽऽचरामो,
भोक्ष्यामहे केन सहाऽथ बन्धो ! ॥ १ ॥ सर्वेषु कार्येषु च वीरवीरे
त्यामन्त्रणादर्शनतस्तथाऽऽयं ! | प्रेमप्रकर्षादभजाम हर्ष,
निराश्रयाश्चाथ कमाश्रयामः ॥ २ ॥ अतिप्रियं बान्धवदर्शनं ते,
सुधाञ्जनं भावि कदास्मदक्ष्णोः । नीरागचित्तोऽपि कदाचिदस्मान्,
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स्मरिष्यसि प्रोगुणाभिराम ! ॥ ३ ॥ " इत्यादि बदन कऐन नित्य साधूलोचनः स्वगृदं जगाम । किञ्च प्रभुक्षामहोत्सवे यद्देवैर्गाशीर्षचन्दनादिना पुष्पैश्च पूजितोऽभूत् साधिकमासचतुष्कं यावत् तदवस्थेन च गन्धेन श्रकृष्टा भ्रमरा श्रागत्य गाढं त्वचं दशन्ति, युवागन्धपु याचन्ते मीनयति च भगवति रुष्टास्ते पुशपसर्गान कुर्वन्ति, स्त्रियोऽपि भगवन्तम् अद्भुतरूपं तथा सुगन्धशरीरं च निरीक्ष्य कामपरवशा अनुकूलान् उपसर्गान् कुर्वन्ति भगवांस्तु निष्यकम्पः सर्व सहमानो विहरति । तस्मिन् दिने च मुहूर्त्ताविशेषे कुमारग्रामं प्राप्तस्तत्र रात्री कायोत्सर्गे स्थितः इतब्ध तत्र कचिद् गोपः सबै दिनं - ले नृपान् वाइयित्वा सम्ध्यायां तान् प्रभुपार्श्वे मुक्त्वा मोनोहाय गुदं गतः, वृषभास्तु चरितुं गताः सवागत्य प्रभुं पृष्टवान् देवार्य ! क्क मे वृषाः ? श्रजल्पति च प्रभौ श्रयं न वेत्तीति वने विलोकितुं लग्नः, वृषास्तु रात्रिशे
,
स्वयमेव प्रभुपार्श्वे श्रागताः, गोपोऽपि तत्रागतस्तान् दृष्ट्रा अहो! जानताऽपि अनेन समग्र रात्रि मितःति कोपात् समुत्पाटय तु धावितः। इत शक वृत्तान्तमधिना त्या गोपं शिक्षितवान् ।
(२२) अथ तत्र शकः प्रभुं विज्ञगयामास प्रभो ! तवोपसंग भूयांसः सन्ति ततो द्वादश वर्षे यावत् यावृत्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि ततः प्रभुरवादीदेवेन्द्र ! कदाप्येतन्न भूतं न भवति न भविष्यति च । यत् कस्यचिद्देमेन्द्रस्य असुरेन्द्रस्य वा साहाय्येन तीर्थइराः केवलज्ञानत्पादयन्ति किन्तु - स्वपराक्रमेणैव केवलज्ञानमुत्पादयन्ति,
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(१३७०) वीर
अभिधानराजेन्द्रः। ततः शक्रोऽपि मरणान्तोपसर्गवारणाय प्रभोर्मातृष्वज्ञेयं | अणुलोमा वा, पडिलोमा वा, ते उप्प सम्म सहइ खमइ व्यन्तरं चैयावृत्त्यकरं स्थापयित्वा त्रिदिवं जग्मिवान् । ततः
| तितिक्खइ अहियासेइ ।। ११८॥ प्रभुः प्रातः कोल्लाकसन्निवेशे बहुलब्राह्मणगृहे मया सपात्रो
'समणे भगवं महावीरे 'श्रमणो भगवान् महावीरः ' साधमेः प्रज्ञापनीय इति प्रथमपारणां गृहस्थपात्रे परमान्नेन च कार, तदा च-चेलोत्क्षेपः (१) गन्धोदकवृष्टिः (२) दुन्दुभि
इरेगाई दुवालसवासाई 'सातिरेकाणि द्वादश वर्षाणि यानादः (३) अहो दानमहो दानमित्युद्घोषणा (४) वसुधारा
वत् ' निश्चं बोसट्टकाए 'नित्यं दीक्षाग्रहणादनु यावजीवं वृष्टि (५) श्चेति पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, एषु वसुधारा
व्युत्स्टकायः' परिकर्मणावर्जनात् ' वियत्तदेहे' व्यक्तदेहः स्वरूपं चेदम्-"श्रद्धत्तेरस कोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुधा
परीषहसहनात् , एवंविधः सन् प्रभुः 'जे केर उवसग्गा
उप्पजंति ' ये केचित् उपसर्गा उत्पद्यन्ते, 'तं जहा' तयथा रा। अनेरस लक्खा, जहन्निश्रा होइ बसुहारा ॥१॥"
'दिब्बा वा' दिव्याः देवकृताः' माणुस्सा वा' मानुष्याः मनुततः प्रभुर्विहरन् मोराकसन्निवेश दुइजन्ततापसाश्रमे गतस्तत्र सिद्धार्थभूपमित्रः कुलपतिः प्रभुमुपस्थितः 'प्रभुणापि
ष्यकृताः ' तिरिक्खजोणिश्रा वा ' तैर्यग्योनिकाः तिर्यक
कृताः ' अणुलोमा वा' अनुकूलाः, भोगार्थ प्रार्थनादिकाः पूर्वाभ्यासान्मिलनाय बाहू प्रसारितौ,तस्य प्रार्थनया च एका
'पडिलोमा वा' प्रतिकूलाः प्रतिलोमाः ताडनादिकाः 'ते रात्रि तत्र स्थित्वा नीरागचित्तोऽपि तस्याग्रहेण तत्र चतुर्मासा
उप्पन्ने सम्म सहर 'तान् उत्पन्नान् सम्यक सहते भया:ऽवस्थानमङ्गीकृत्य अन्यतो विजहार । अष्टौ मासान् विहृत्य
भावेन 'खमई'क्षमते क्रोधाभावेन ' तितिक्खइ' तितिक्षते, पुनर्वर्षार्थ तत्रागतः,आगत्य च कुलपतिसमर्पिते तृणकुटीर
दैन्याकर इव'अहियासेहिते'अध्यासयति निश्चलतया ॥११॥ के तस्थौ तत्र च बहिस्तृणाप्राप्त्या बुधिता गावोऽन्यैस्तापसैः स्वस्वकुटीरकान्निवारिताः सत्यः प्रभुभूषितं
कल्प०१ अधि०६ क्षण । कुटीरं निःशकं खादन्ति, ततः कुटीरस्वामिना कुलपतेः पुर
तमोणं समणे भगवं महावीरे इमं एयारूवे अभिग्गहं अतो रावाः कृताः, कुलपतिरप्यागत्य भगवन्तमुयाच-हे
भिगिणिहत्ता बोसिट्ठचत्तदेहे दिवसे मुहुत्तसेसे कम्मारगाम वर्द्धमान ! पक्षिणोऽपि स्वनीडरक्षणे दक्षा भवन्ति,त्वं तावत् समणुपत्ते तो णं समणे भगवं महावीरे वोसिढचत्तदेहे राजपुत्रोऽपि स्वमाश्रयं रक्षितुमशक्तोऽसि । ततः प्रभुमयि
अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गसति एषामप्रीतिरिति विचिन्त्याषाढशुक्लपूर्णिमाया आरभ्य पक्षे अतिक्रान्ते वर्षायामेव इमान् पश्च अभिग्रहान्
हेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिइए अभिगृह्य अस्थिकग्राम प्रति प्रस्थितः । अभिग्रहाश्चेमे-' ना. गुत्तीए तुट्ठीए ठाणेणं कमेणं सुचरियफलनिव्वाणमुत्तिमग्गे प्रीतिमदगृहे वासः, स्थेय प्रतिमया सदा २ । न गेहिविनयः | णं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । एवं वा विहरमाणस्स जे केइ कार्यों ३, मौनं ४ पाणौ च भोजनम् ५॥१॥'
उवसग्गा समुप्पजंति-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया (२३) वीरो दीक्षाकालात्कियदनन्तरमचेलो जात:
वा ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाउले अव्वहिए समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं चीवरधारी | अदीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म सहइ खमइ हुत्था, तेणं परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए ॥ ११७॥ | तितिक्खइ अहियासेइ । (सू०२७६४)आचा०२श्रु०३चू० । 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'संव-1 बहिश्रा य णायसंडे , आपुच्छित्ताण नायए सब्वे । च्छरं साहियं 'मासं' साधिकं-मासाधिकसंवत्सरं यावत् दिवसे महत्तसेसे. कुमारगाम समणुपत्तो ॥१११ ।। 'चीवरधारी हुत्था' चीवरधारी अभूत् 'तेणं परं अचेलए' तेन परं ततः उर्व साधिकमासाधिकवर्षाचे च श्र
बहिर्धा च कुण्डपुरात् शातखण्डे उद्याने, आपृच्छय चेलकः 'पाणिपडिग्गहिए' पाणिपतद्ग्रहः करपात्रश्चाभवत्,
शातकान्-वजनान् सर्वान्-यथासन्निहितान् , ततत्र अचेलकभवनं चैवम्-साधिकमासाधिकसंवत्सरावं
स्मात् निर्गतः, कारग्रामगमनायेति वाक्यशेषः। तत्र च
पथद्वयम् । तत्र च एको जलेन, अपरः स्थल्याम् ,तत्र भगविहरन् दक्षिणवाचालपुरासन्नसुवने वालुकानदीतटे कण्टके विलग्य देवदृष्या? पतिते सति भगवान् सिंहावलो
वान् स्थल्यां गतवान् , गच्छंश्च दिवसे मुहूर्त शेषे कर्माकनेन तदद्राक्षीत् , ममत्वेनेति केचित् , स्थण्डिलेऽस्थण्डिले रग्राम समनुप्राप्त इति गाथार्थः। तत्र प्रतिमया स्थित इति । या पतितमिति बिलोकनायेत्यन्ये, अस्मत्सन्ततेवनपात्रं
अत्रान्तरे-" तत्थेगो गोवो, सो दिवसं बहल्ले वाहित्ता
गामसमीवं पत्तो, ताहे चिंतेह पए गामसमीवे चरंतु, अहं सुलभं दुर्लभ वा भाषीति बिलोकनार्थमिति अपरे, वृद्धा
पिता गावीओ दुहामि , सोऽवि ताव अन्तो परिकम्म स्तु कण्टके वस्त्रविलगनात् स्वशासनं कण्टकबहुलं भविप्यतीति विज्ञाय निर्लोभत्वात् तद्वस्त्रार्द्ध न जग्राहेति, ततः
करेइ , तेऽघि बइल्ला अडविं चरन्ता पविट्ठा, सो गोवो पितुर्मित्रेण ब्राह्मणेन गृहीतम् । अर्द्ध तु तस्यैव पूर्व प्रभुणा
निग्गश्रो, ताहे सामि पुच्छह-कहिं बदला?, ताहे सामी तु
रिहको अच्छह , सो चितेइ-एस न याणइ, तो मग्गिउं पदत्तमभूत् । कल्प०१ अधि०६क्षण । (२४) वीरस्योपसर्गाः
वत्तो सब्बरति पि, तेऽवि बहल्ला सुचिरं भमित्ता गामस
मीवमागया माणुसं दळूण रोमंथंता अच्छंति, ताहे सो समणे भगवं महावीरे साइरेगाई दुवालसवासाई निचं
श्रागओ, ते पेच्छइ तत्थेव निविटे, ताहे आसुरुत्तो एबोसट्टकाए वियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं
पण दामपण पाहणामि, पपण मम एए हरिश्रा, पभाए जहा--दिव्वा वा, माणुस्सा चा, तिरिक्खजोणिया वा, घेतण पच्चिहामि त्ति ताहे सको देवराया चिंते-कि
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वीर
अभिधानराजेन्द्रः। भज सामी पढमदिवसे करेइ ? जाव पेच्छह गोवं धावंतं , | सउणी वि ताव अप्पणियं णेई रक्खति, तुमं वारेताहे सो तेण थंभिओ, पच्छा आगो, तं तजेति-दुर- | ज्जासि, सप्पिवासं भणति । ताहे सामी अचियप्पा!न याणसि सिद्धत्थरायपुत्तो एस पवायो। एय- | तोग्गहो त्ति काउं निग्गो , इमे य तेण पंच अभिम्मि अंतरे सिद्धत्थो सामिस्स माउसियापुत्तो बा- ग्गहा गद्दिश्रा, तं जहा-अचियसोग्गहे न वसियव्वं १, लतवोकम्मेणं वाणमंतरो जापल्लो, सो आगो । निचं वोस?कारण २, मोणेण ३, पाणीसु भोत्तवं ४, गिहताहे सक्को भणइ-भगवं! तुभ उपसग्गबहुलं, अहं स्थो न बंदियब्वो न भुटेतब्बो ५,एते पंच अभिग्गहा । तत्थ वारस वरिसाणि तुभं वेयावच्चं करेमि । ताहे सामिणा भ- भगवं श्रद्धमासं अच्छित्ता तो पच्छा अट्टितगामं गतो। णिअं-न खलु देविंदा ! एयं भूअं वा (भव्वं वा भविस्सं वा) तस्स पुण अट्टिअगामस्स पढम वद्धमाणगं नाम आसी, जमं अरहंता दोविंदाण वा असुरिंदाण वा निस्साए कदटु सो य किह अट्ठियग्गामो जाओ ?, धणदेवो नाम वाणिकेवलनाणं उप्पा.ति, सिद्धिं वा वच्चंति , अरहंता स- अश्रो पंचहिं धुरसएहिं गणिमरिमभेज्जस्सभरिपहिं तेएण उट्ठाणबलविरियपुरिसकारपरक्कमेणं केवलनाणं उ- ण तेण आगो , तस्स समीवे य वेगवती नाम नदी, तं प्पाडेति । ताहे सक्केण सिद्धत्थो भएणइ-एस तब नियन्ल- सगडाणि उत्तरंति, तस्स एगो बहल्लो सो मूलधुरे जु
ओ, पुणो य मम बयणं-सामिस्स जो परं मारणंतिधे उ- प्पति, तावच्चएण ताओ गडिओ उत्तिण्णाश्रो, पच्छा बसग करेइ तं वारेज्जसु , एवमस्तु , तेण पडिस्सुअं स- सो पडिश्रो छिन्नो, सो वाणिश्रो तस्स तणपाणिग्रं को पडिगो सिद्धत्थो ठिो । तद्दिवसं सामिस्स छट्टपा- पुरओ छड़ेऊण तं अवहाय गो । सोऽवि तत्थ बालुगाए रणयं, तो भगवं विहरमाणो गो कोलागसगिणवेसे , जेट्ठामूलमासे अतीव उरहेरण तराहाए छुहाए य परिताविजतत्थ य भिक्खट्टा पविट्ठो बहुलमाहणगण, जेणामेव कुल्ला- इ, बद्धमाणो य लोगो तेणं तेण पाणि अं तणं च वहए सन्निवेसे बहुले माहणे । तेण महुधयसंजुत्तेण परमरणे- ति, न य तस्स कोइ वि देइ, सो गोणो तस्स पोसण पडिलाभित्रो । तत्थ पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई । मावराणो, अकामतराहाए, छुहाए य मरिऊण तत्थेय गामे अमुमेवार्थमुपसंहरनाह
अग्गुज्जाणे सूलपाणी जक्खो उप्पराणो, उबउत्तो पासति
तं बलीवद्दसरीरं, ताहे रुसिश्रो मारिं पिउब्बति, सो गोवनिमित्तं सक्क-स्स आगमो वागरेइ देविंदो । गामो मरिउमारद्धो, ततो अद्दणा कोउगसयाणि करेंति, कोल्लाबहुले छट्ठ-स्स पारणे पॉयस वसुहारा ॥४६१॥
तह वि ण ठाति, ताहे भिरणो गामो अरणगामेसु संकंतो,
तत्थवि न मुंचति, १ ताहे तेसिं चिंता जाता-अम्हेहि ताडनायोचतगोपनिमित्तं प्रयुक्तावधेः शकस्य देवराजस्य
तत्थ न नज्जा कोऽवि देवो वा दाणवो वा विराहिश्रो, किम् ? , आगमनम् आगमः अभवत् , विनिवार्य च गो
तम्हा तहिं चेव वच्चामो, आगया समाणा नगरदेवयापं वागरेर देविंदो 'त्ति भगवन्तमभिवन्द्य , व्याकरोति
ए विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति अभिधत्ते देवेन्द्रो-भगवन् ! तवाहं द्वादश वर्षाणि वैयावृ
बलिउवहारे करेंता समंतो उडमुहा सरणं सरणं ति स्यं करोमीत्यादि, 'वागरिंसु' वा पाठान्तरं ' व्याकृति
जं अम्हेहिं सम्म न चेट्टिनं तस्स खमह, ताहे अंतलिघानिति भावार्थः , सिद्धार्थ वा तत्कालप्राप्तं व्याकृतवान्
क्लपडिवरणो सो देवो भणति-तुम्हे दुरप्पा निरणुकंपा । देवेन्द्रः-भगवान् त्वया न मोक्तव्य इत्यादि। गते देव
तेणं तेण य पह जाह य, तस्स गोणस्स तणं वा पाराजे भगवतोऽपि कोल्लाकसन्निवेशे बहुलो नाम ब्राह्मणः
णि वा न दिएणं, अतो नत्थि भे मोक्सो, ततो रहाषष्ठस्य-तपोविशेषस्य पारणके , किम् ? , 'पॉयस' इति
या पुष्फबलिहत्थगया भणति-दिट्टो कोवो पसादमिच्छापायसं समुपनीतवान् , वसुधारेति तद्गृहे वसुधारा पति- मो, ताहे भणति-एताणि माणुसअट्टिाणि पुंजं काऊण तेति गाथाक्षरार्थः । कथानकम्-"तो सामी विहरमाणो उवरि देवउलं करेह, सूलपाणिं च तत्थ जक्खं बलिवई गो मोराग सनिवेस , तत्थ मोराप दुइजंता नाम पासं- च एगपासे ठवेह, अरणे भणति-तं बहल्लरूवं करेह, तस्स डिगिहरथा, तेसिं तत्थ आवासो, तेसिं कुलवती भग-| य हेट्ठा, ताणि से अट्टिआणि निहणह, तेहिं अचिरेण वो पिउमित्तो, ताहे सो सामिस्स सागरण उवट्टिा , कयं, तत्थ इंदसम्मो नाम पडियरगो को । ताहे लरेताहे सामिणा पुज्वपश्रोगेण बाहा पसारिश्रा , सो भण-| गो पंथिगादि पेच्छह, पंडरटिअगामं देवउलं च ताहे पुच्छंति अस्थि धरा, एत्थ कुमारवर ! अच्छाहि, तत्थ सा- ति अरणे कयरानो गामाश्रो अागता जाह व ति, ताहे मीए एगराइयं वसित्ता पच्छा गतो, विहरति , तेण य भणंति-जत्थ ताणि अट्टियाणि, एवं अद्विअगामो जामो, भणिय-विवित्तानो वसहीरो , जर वासारत्तो कीर, प्रा. तत्थ पुण वाणमंतरघरे जो रत्ति परिवसति सो तेण गच्छेज्जह अणुग्गहीया होज्जामो, ताहे सामी अट्ठ उउ-| सूलपाणिणा जक्खेण वाहेत्ता पच्छा रत्तिं मारिजा, वद्धिए मासे विहरेत्ता वासावासे उवागते तं चेव दूर- ताहे तत्थ दिवसं लोगो अच्छति, पच्छा अण्णस्थ गच्छपजंतयगाम एति , तत्थेगम्मि उडवे वासावासं ठियो। प- ति, इंदसम्मोऽवि धूपं दीवगं च दाउं दिवसो जाढमपाउसे य गोरूवाणि चारिं अलभंताणि जुगणाणि त- ति । इतो य तत्थ सामी आगतो, दृतिज्जंतगामपापाणि खायंति , ताणि य घराणि उब्बोल्लेति , पच्छा ते साओ, तत्थ य सम्वो लोगो एगत्थ पिडिभो अच्छह, यारेति, सामी न वारे, पच्छा इजंतगा तस्स कु- सामिणा देवकुलिगो अणुराणविश्रो, सो भणति-गामो लवास्स साहेति जहा एस एताणि न णिवारेति , जाणति, सामिणा गामो मिलिओ चेवाणुएणविश्रो, गाताहे सो कुलवती अणुसासति, भणति-कुमार ।। मो भणति-पत्थ न सक्का वसिउं, सामी भणह-नवरं
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तुम्हे अणुजाण, ते भरांति-ठाह, तत्थेक्क्को बस हिं देश, सामीति जाति-जसो संयुकदिति ति त्ति, ततो मकते पडिमं ठिम्रो, ताहे सो हदसम्म सुरे घरे से बेच धूवपुष्पं दारं कपडियकारोडिए सव्ये पोहता भणति जाह मा विणस्सिदि तंपि देवजयं भणति तुम्भे बिणीध, मा मारिहिजिहिध, भगवं तुसिणीश्रो, सो वंतरो सिंहदेवकुलगामेण य भतोऽचिनजाति - च्छ जं से करोमि, ताहे संभाए चैव भीमं श्रट्टट्टहास मुतो बीडयति ।
( १३७२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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पद्विवेदणं च एक्केका वेश्रणा समत्था पागतस्स जीवितं संकामे, किं पुरा सत वि समेताओ उजलाओ, अहियासेति ताहे सो देवो जा न तरति वाले वा खोपा जाहे खोभेउं ताहे परितंतो पायवडितो खामेति, समह भट्टारगन्ति । ताहै सिद्धस्यो उद्धार भणविभो सुलपाती अपस्थिअपत्थिता न जागसि सिद्धत्थरायपुर्ण भगवंतं तिरथपरं, जह एवं सको जाय तो ते निम्मिसर्व करे, ताहे भीओ दुगुर्ण चामे, सिद्धत्यो से धम्मं कहे तथ उवसंतो महिमं करेइ सामिस्स तत्थ लोगो चिंतेसो तं देव मारिता इदासि फीला तत्थ सामी दे सूचनारि जामे अतीच परिवावियो पहायकाले मुरुत्तमे निहापमादं गओ, तत्थ इमे दस महासुमिये पासिता पडिबुढो, तं जहा - तालपिसाओ ओ । सेउलो - कोइलो अ दोsवि एते पज्जुवासंता दिट्ठा, दामदुगं च सुरहिकुसुममयं गोवग्गो श्र पज्जुवार्सेतो, पउमसरो विषुपक, सागरो मे निथिको सिसूरो अपहारस्सीमेंडलो उगमंतो, अंतेहि य मे माणुसरो वेडियो नि, मंदरं चारूढोमि त्ति । लोगो पभाए श्रागश्रो, उप्पलो श्र, इंदसम्मो अ ते अ अश्चयिं दिव्यगंधमपुप्फबासं व पा संति, भट्टारगं च अक्खयसव्यंग, ताहे सो लोगो सम्वो सामिस्स उद्धिसिंहलायं करें तो पारसु पड़ियो भत्त जहा देवरजप देवो उपसामियो, महिमं पगो उप्पलो विसामि दद वैदिभ्रमणियार-सामी तुम्भेदि - तिमरातीए दस सुमिणा दिट्ठा, तेसिमं फलं ति, जो ता लपिसाचो हो तमचिरेण मोहलिज उम्मूलेहिसि, जो श्र से सउणो तं सुक्कज्भाणं काहिसि जो विचित्तो कोइलो तं दुयालसंग पराणवेहिसि, गोवग्गफलं च ते खविsो समसमणीसावगसाविगासंघो भविस्सर, पउमसरा चव्विदेवसंघाश्रो भविस्सर, जं च सागरं तिरणो तं संसारमुत्तारिदिसि जो सूरो तमचिरा केवलनाएं ते उपजिहि त्ति, जं चंतेहिं माणुसुत्तरो वेढिश्रो तं ते निम्मलो जसकित्तिपयावो सयलतिहुणे भविस्सर त्ति, ज च मंदरमारूढोऽसि तं सीहासणत्थो सदेवमणुश्रासुराए परिसाए धम्मं पराणवेदिसि नि दामदुर्ग पुरा न याणामि । सामी भगति - हे उप्पल ! जं गं तुमं न जाणासि तवं अहं दुविहं सागारागगारि धम्मं परणहामि त्ति, ततो उप्पलो वंदित्ता गो तत्थ सामी अमासेण खमति । एसो पढमो वासारतो १ ततो सरए निरगंतून मोरागं नाम सलिवेसं गश्रो, तत्थ सामी बाहिं उजसे डिओ तत्थ मोराय सरुिणवेसे अच्छंदा नाम पाखंडस्था तत्थे च तम्मि सरिसे कॉलवेटले जी. वति, सिद्धत्थओ अ एक्कलश्रो दुक्खं अच्छति वसंमो पूनं च भगवो श्रपिच्छतो, ताहे सो बोलेंतयं गोवं सहावेत्ता भगति गर्दि पधावितो गर्दि जिमि पंधे यदि विडो व एवंगुणविसिद्ध सुमिणो तं वागरे, सो आउ मित्तपरिचिताएं कहेति सगिामे व पगासिएस देवज्जश्र उज्जाणे तीताणागयवट्टमाणं जाएइ, ताहे अरणोsfa लोओ आगो, सव्वस्स वागरे, लोगो आउट्टो महि मे करेड, लोगेस असिरहिओ अच्छा, ताहे सो लोगो म
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अभिहितार्थोपसंहारायें गाथाइयमाह-अंतग पिउणो, बस तिब्बा अभिग्गहा पंच । अचियतुम्महि न बसणा- १विचं बोस २ मोगेयं । ४६२ पाणीपत्तं ४ गिविं-दणं च ५, तउ वद्धमाणवेगवई । धणदेवमूलपाणि-दसम्म वासऽडिअग्गामे || ४६२ ॥ विहरतो मोराकसन्निवेशं प्राप्तस्य भगवतः तन्निवासी दुइज्जन्तकाभिधानपाषण्डस्थो दूतिज्जन्तक एवोच्यते, पितुः - सिद्धार्थस्य वयस्यः - स्निग्धकः, सोऽभिवाद्य भगवन्तं वसतिं दत्तवान् इति वाक्यशेषः । विहृत्य च अन्यत्र वर्षाकालगमनाय पुनस्तत्रैवागतेन विदितकुलपत्यभिप्रायेण किम् ?, ' तिब्वा अभिग्गहा पंच ति सीमा:-रोशः अभिमा, पक्ष गृहीता इति थाक्यशेषः । ते चामी अविवादिनवसति अ चियतं - देशीवचनम् श्रप्रीत्यभिधायकं ततश्च तत्स्वामिनो न प्रीतिर्यस्मिन्नवग्रहे सोप्रीत्यवग्रहः तस्मिन् न वसनं न तत्र मया वसितव्यमित्यर्थः शिवं बोलमोसिनत्यं सदा व्युष्टकावेन सता मौनेन विहर्त्तव्यम् 'पाणीपर्स' ति पाणिपात्रभोजिना भवितव्यम्, गिविंद ' ति - हस्वस्य वन्दनं चशब्दादभ्युत्थानं च न कर्त्तव्यमिति । एता. न अभिमान गृहीत्वा तथा तस्मात्यिवासा में' ति वर्षाकालम् अस्थिग्रामे स्थित इति अध्याहारः । स बास्थिप्रामः पूर्व वर्धमानाभिधः खल्वासीत् पश्चात् अस्विग्रामसंज्ञामित्यं प्राप्तः तत्र हि वेगवती नदी, तां धनदेवाभिधानः सार्थवाहः प्रधानेन गवाऽनेकशकटसहितः समुत्तीर्णः, तस्य व गोरनेकशकटसमुत्तारण तो हृदयच्छेश्रो बभूव सार्थवाहः तं तत्रैव परित्यज्य गतः, स वर्धमामनिवासिलोकाप्रतिजागरितो मृत्वा तत्रैव शूलपाणिनामा यक्षोऽभवत्यलोककारितायतने स प्रतिष्ठितः इन्द्रशर्मनामा प्रति जागरको निरूपित इत्यक्षरार्थः । एवमस्यासामपि गाथानामक्षरगमनिका स्वषुद्धया कार्येति । कथानशेषम् जाहे सो अट्टट्टहासादिणा भगवंत खोटं पताहे सो सम्पो लोगो तं सई सोऊस भीओो अन सो देव मारिजातस्थ उप्पलो नाम पलाकडी पा सावचिजओ परिव्वायगो अटुंगमहानिमित्त जाणगो जणपासाओ तं सोऊस मा तित्थंकरो होज अधिर्ति करे, बीदेव रगिंनुं ताहे सो वाणमंत जाहे सदेव नदीदेति ताई हरिरुवेणुवसम्म करेति पिसायरुवे नागअ य एतेहिं पिं जाईनं तरति खोडं ताहे सत्तविहं वे. रूवेण द उदी; तं जहा - सीम्वेयां कच्छनासादंतन
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वीर
सहपत्य अच्छेद नाम जो सिद्धत्यो भणति - सो किंचि जागर, ताहे लोगो गंतुं भगह-तुमं न किंचि जाएसि, देवच जावर सो लोम अप्पा ठाउकामो भगति -पह जामो, जइ मज्झ पुरश्रो जाणइ तो जाणइ । ताहे लोगेण परिवारिओ ह. भगवन पुरओ ठिश्रो तणं गहाय भगति - एयं तरी किं छिदिहि ति न वति, सो चिंतेइ - जह भणति -न छिजिहि त्ति तो छिंदिस्सं, अह भणइ छि जिहि तितो न हिंदिस्सं । ततो सिद्धत्थे मणि-हिब्रिहि चिसो हिदिउमाढतो, सके व उपयोगो दिलो, वज्रं पक्खित्तं, श्रच्छंद्रगस्स अंगुलीओ दस वि भूमीए पडिआओ ताई लोगे खसियो, सिद्धस्थ व से रुट्टो । मुमेवार्थ समासतोऽभिधित्सुराह नियुक्लिकारःरोदाय सत्त वेपण, धुइ दस सुमिणुप्पलऽद्धमासे व । मोराए सकारं, सको अच्छंदए कुवि ।। ४६४ ॥ समासव्याख्या - रौद्राश्च सप्त वेदना यक्षेण कृताः, स्तुतिश्च तेनैव कृता, दश स्वप्ना भगवता दृष्टाः, उत्पलः फलं जगाद, 'अद्धमासे य' त्ति अर्धमासमर्धमासं च क्षपणमकार्षीत् मोराचां लोका सत्कारं चकार शक अच्छन्दके तीर्थकरहीलनात् परिकुपित इत्यक्षरार्थः । इयं नियुक्तिगाथा । एतास्तु मूलभाष्यकारगाथाः
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मीमहास हत्थी, पिसाय नागे व वेदखा सच | सिरकपनासदन्ते, नछि पट्टी व सचमिया ॥ ११२ ॥ तालपिसार्य १दो को इला व ३दामदुगमेव ४गोवग्गं |५| सर६ सागर ७सूरं - तेह-मन्दर १० सुविणुप्पले चेव ॥११३॥ मोहे का पण रे, धम्मे ४संघे ५ य देवलोएक्ष्य । संसारं ७णाण जसे धम्मं परिसाऍ मज्झम्मि ॥ ११४ ॥ भीमाऽडासः हस्ती पिशाचो नागा बेदनाः सप्तशिरःकनासादन्तनखाक्षिपृष्ठौ च सप्तमी, एतद् व्यन्तरेण कृतम् । तालपिशाचं द्वौ कोकिलौ च दामद्वयमेव गोवर्ग सरः सागरं सूर्यम् पत्रे मन्दरं सुविणुष्पले 'सि, पतान् स्वप्नान् वान् उत्पफलं कथितवान् इति तच्चेदम्-मोहं च ध्यानं प्रयचनं धर्मः सह देवलोक देवजनयेत्यर्थः संसारं ज्ञानं यशः धर्म दो मध्ये मोहं च निराकरिष्यसीत्याविक्रियायोगः स्वय कार्यः । मोरागस, वाहिँ सिद्धत्यतीतमाईणि । साहइ जणस्स अच्छे-दपत्रोसोदेअसके । १६ ॥ अर्थोऽस्याः कथानकोक्ल एव वेदितव्य इति । इयं गाथा सर्वपुस्तकेषु नास्ति सोपयोगा च कथानक शेषम् तो सिद्धत्थो तस्स पनोसमावलो तं लोगं भणति - एस चोरो कस्स चोरिति भगद, अत्येत्य वीरघोसो साम कम्मकरो?, सो पादे पडिश्रो श्रद्धे ति, अत्थि तुम्भ अमुककाले दस पलयं वट्ट पट्टपुब्वं ?, श्रमं श्रत्थि तं एएए हरियं, तं पुरा कहिं ?, एयस्स पुरोद्दडे महिसिंदुरुक्खस्स पुरत्थि - मेणं इत्थमित्तं गंतूणं तत्थ खण्डिं गैरहइ । ताहे गता, दिट्ठ, आगया कलकल करेमासा अपि सुगह-अस्थि पत्थं इंदसम्मो नाम गिद्दवई ? वाहे भगति अस्थि, ताहे को
श्रमुमेवार्थमभिधित्सुराह
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तयमवच्चं भजा, कहिही नाहं तच पिउवयंसो । दाहिणवायालसुबालुगाकं वत्थं । ४६६ ॥ पदानि - तृतीयमवाच्यं भार्या कथयिष्यति ' ततः पितुर्वयस्यस्तु दक्षिणवाचालसुबरीवालुका कण्टके वस्त्रं किया या हारतोऽक्षरगमनिका वयुद्धया कार्येति ताहे खामी वच उत्तरवाचालं 'तत्थ अंतरा कणगखलं नाम श्रासमपयं' तत्थ दो पंथाज्जुगो को य जो सो उज्धो सो का मज्भेण वञ्चर, वंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहाविश्रो, तत्थ मोबालहिं वारिओ एत्थ विट्टविसो सप्पोमा प यच्चद' सामी जाति-जसो मविप्रो संतितश्रो गतो जक्खघरमंडवियाप पडिमं ठिलो । सो पुरा को पुण्यभवे आसी, बमगो' पारसार गओ पासिगमत्तस्स ते मंडलिया विरादिचा 'बुर परिबो
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ता
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( १३७३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वीर
सयमेव उचट्ठियो, जहा अहं अपि तुम्भ रो अमुयकालम्मि न िस आह-आम अस्थि सो पण मारिता खाओ अद्वियाणि प से बरीदये पासे उक्कुडियाए निहयाणि, गया, दिट्ठाणि, उडिकलयले करैता आगया, ताई भांति एवं विति' ।
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श्रमुमेवार्थे प्रतिपादयन्नाह निर्युक्लिकृत्छेयंगुलि कम्मा - र वीरघोस महिसिंदु दसपलियं । निइइंदसम्म उरण, बयरीए दाहिणुक्कुरुते । ४६५ ।। अच्छन्दकः तुणं जग्राह छेदः अङ्गुलीनां कृतः खल्विन्द्वेश, 'कम्मारवीरघोस' ति कर्मकरो वीरघोषः, तत्संबन्ध्यनेन महि सिंदुदसपलियं दश पलिकं करोटकं गृहीत्वा महिसेन्दुवृक्षाधः स्थापितम् एकं तावदिदं द्वितीयम् इन्द्रशमं करणकोऽनेन भ शितः, तदस्थीनि चाद्यापि तिष्ठत्येव दक्षिणोत् रुट इति गाथार्थः ॥ ४६५|| 66 ततियं पुरा श्रवश्यं, अलाहि भ हितेश, ते निबंध करैति पच्छा भगति वच्चह भजा से कहेहिर, सा पुरा तरस व विणि मग्गमाथी अच्छति, ताप सुयं - जहा सो विडंबिनो ति 'श्रंगुलीश्रो से छिन्नाओ' सा य तेण तद्दिवसं पिट्टिया ' सा चिंतेति-नवरि एउ गामो ' ताहे साहेमि' ते आगया पुच्छति सा भराइमा से नामं ress ' भगिणी पती ममं नेच्छति 'ते उक्किट्ठि करे मारणा तं भांति - एस पावो एवं तस्स उडाहो जाओ' एस पावो, जहा न कोई भि पि देताहे अप्पसागारिय आगओ भगइ – भगवं ! तुम्भे अनत्थ वि पुजिज्जह 'अहं कहिं जामि ? ' ताहे श्रचियतोग्गहो त्ति काउं सामी निग्ग । ततो वच्चमाणस्स अंतरा दो वाचालाओ - दाहिना उत्तरा वतासि दोर व अंतरा दोनईश्रो- सुवलवालुगा रुप्पवालुगा य' ताहे सामी दक्खिसवाचालाओ सन्निवेसाश्रो उत्तरवाचालं वश्चइ ' तत्थ सुवरणबालुवा नदीप पुलिये कंटियाए तं परर्थ बिलां' सामी ग तो पुणोऽवि अवलोइयं किं निमित्तं ?, केई भांति ममसीप अवरे किं थंडिले पडि प्रथंडिले ति 'केई सहसागारें' केई परं सिरसागं पत्थपत्तं सुलभं भविस्सइ ? तं च ते धिजाइएण गद्दिश्रं 'तुझागस्स उवसीयं सयसहस्समोल्लं जायं ' एक्क्क्क्स्स परणासं सहस्साणि जायाणि ।
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(१३७४) बीर
अभिधानराजेन्द्रः। सो भणति-किं इमानोऽवि भए मारिश्रानो लोयमारित्रा
अनुक्ताथै प्रतिपादयन्नाहभो दरिसेइ, ताहे खुडएण नाय-चियाले भालोहि त्ति, सो |
उत्तरवायाला ना-गमेण खीरेण भोयणं दिव्वा । आवस्सए आलोएत्ता उवविट्ठो, खुट्टो चिंतेइ-लूणं से विस्सरिय,ताहे सारिनं रुटो पाहणामिति उद्धाइओ खुडः
सेयवियाएँ पएसी. पंचरहे निजरायायो।। ४६८॥ गस्स,तत्थ थंभे भावडिओ मनो विराहियसामरणो जोइसि. उत्तरवाचाला नागसेनः क्षीरेण भोजनं दिव्यानि श्वेताएसु उववरणो, ततो चुओ कणगखले पंचएवं तावससयाण व्यां प्रदेशी पञ्चरथैः नैयका राजनः-नैयका गोत्रतः, प्रदेशे कुलवास्स तावसीए उदरे आयाओं, ताहे दारगो जाओ, त- निजा इत्यपरे । शेषो भावार्थः कथानकादवसेयः । तदम्त्थसे "कोसिओ" ति नाम कयं,सोय अतीव तेण सभावेण 'तो सामी उत्तरवाचालं गो , तत्थ पक्खक्खमणपारचंडकोधो, तत्थ अनेऽवि अस्थि कोसिया तस्स “चंडको- णने अतिगो, तत्थ नागसेणण गिहवाणा खीरभोयणेख सिओ" ति नाम कय,सो कुलवती मो,ततो य सो कुलई पडिलाभित्रओ, पंच दिव्वाणि पाउम्भूयाणि, ततो सेयंबियं जाओ, सो तत्थ वणसंडे मुच्छिो , तेसिं तावसाण ताणि गो, तत्थ पदेशी राया समणोवासो भगवश्रो महिम फलाणि न देह, ते अलभंता गया दिसो दिसं जोऽवि तत्थ करेह, तो भगवं सुरभिपुरं वच्चह तत्थंतराए णेज्जगा रागोवालादी पति तं पि हंतुं धाडेइ, तस्स अदूरे सेयंबिया ना- याणो पंचहिं रथेहि पन्ति , परसिरगणो पासे , तेहिं तत्थ म नयरी, ततो रायपुत्तेहिं आगंतूणं विरहिए पडिनिवसेण
सामी वंदिनो पूरो य । ततो सामी सुरभिपुरं गो, तत्थ भग्गो विणासिनो य, तस्स गोवालपहिं कहियं, सो कंटि- गंगा उत्तरियव्वा, तत्थ सिद्धजत्तो नाम नाविओ, नेमल्लो याणं, गयो, ताश्रो छड्रेत्ता परसुहत्थो गो रोसेण धमधर्म- नाम सउणजाणो , तत्थ य णावाए लोगो विलग्गइ , कोतो, कुमारेहिं दिट्ठो पंतप्रो, तं दट्टण पलाया, सोऽवि कुहा
सिएण महासउणेण वासियं । कोसिश्रो नाम उलूको। ततो उहत्थो पहावेत्ता खड़े आवडिऊण पडिओ, सो
खेमिलेण भणियं-जारिसं सउणेण भणियं तारिस अम्हेहिं कुहाडो अभिमुद्दो ठिो, तत्थ से सिरं दो भाए कयं, तत्थ
मारणतियं पावियब्वं, किं पुण? हमस्स महरिसिस्स पभा
वेण मुच्चिहामो । सा य णावा पहाविया सुदाढेण य सागमो ताम्म चव वसंडे दिटिविसो सप्पो जाओ, तेण रोसेण लाभेण य तं रक्खइ वणसंडं, तो ते तावसा सब्वे
कुमारराइणा दिट्ठो, भयवं णावाए ठिो । तस्स कोवो जादहा, जे अदवगा ते नट्ठा, सो तिसझ वणसंडं परियंचिऊणं
भो । सो य किर जो सो सीहो वासुदेवत्तणे मारियो सो
संसार भमिऊण सुदाढो नागो जाओ। सो संवट्टगवायं वि. जं सउणगमवि पासह तं डहर, ताहे सामी तेण दिट्ठो, ततो
उज्वेत्ता णावं ओबोलेउ इच्छर, इश्रो य कंबलसबलाणं प्रा. आसुरुसो, ममं न याणसि ?, सूरं णिज्माइत्ता पच्छा सामि
सणं चलियं । (श्राव०) (कंबलशबलयोवृत्तम् 'कंबल' पलोएड, सो न डज्मा जहा अरणे । एवं दो तिरिण वा
शब्द तृतीयभागे १७६ पृष्ठे गतम् । ) णागकुमारेसु उवरा, ताहे गंतूण डसइ, डसित्ता अबक्कमह-मा मे उवरिप
वरणा, (ते) ओहिं पति , • जाव पेच्छंति तित्थगडिहि ति, तह विन मरइ, एवं तिमि वारे, ताहे पलोएंतो
रस्स उवसगं कीरमाणं , ताहे तेहिं चिंतियं अलाहि ता अच्छति अमरिसेणं, तस्स भगवो रूवं पेच्छंतस्स ताणि
अरणणं, सामि मोएमो, आगया , एगेण गावा गहिया , विसभरियाणि अच्छीणि विज्झाइयाणि सामिणो कंतिसोम्मयाए । ताहे सामिणा भणि-उबसम भो चंडकोसिया!
एगो सुदाढेण समं जुज्झर , सो महिहियो। नस्स पुण ताहे तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स जातीसरणं
चवणकालो, इमे य अहुणोववएणया , सो तेहिं पराइनो,
ताहे ते णागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेंति , सत्तं सवं समुप्पएणं, ताहे तिक्खुतो आयाहिणण्याहिणं करेत्ता
च गायति , एवं लोगोऽवि ततो सामी उत्तिएणो। तत्थ भत्तं पच्चक्खाइ मणसा । तित्थगरो जाणा, ताहे सो विले तुंडं छोढुं ठिो, माई रुट्ठो संतो लोग
देवेहिं सुरहिगंधोदयवासं पुप्फवासं च बुटुं, तेऽवि मारेहं, सामी तस्स अणुकंपाए अच्छा, सामि ददळूण गो
पडिगया। बालबच्छवाला अल्लियंति, रुक्नेहिं आवरेत्ता अप्पाणं
अमुमेवार्थमुपसंहरबाहतस्स सप्पस्स पाहाणे खिवंति, न चलति त्ति अल्लीणो क- सुरहिपुर सिद्धजत्तो, गंगा कोसिभ विऊ य खमिलयो। ट्रेहिं घट्टिो तह वि न फंदति ति। तेहिं लोगस्स लिटुं, तो लोगो आगंतूण सामि वंदित्ता तं पि य सप्पं महेह । श्र
नाग सुदाढे सीहे,कंबलसबला य जिणमहिमा॥४६६॥ एणाओ य घयविकिणियाओ तं सप्पं मक्खेति, फरुसिति,
महुराए जिणदासो, आहीर विवाह गोण उववासे । सो पिवीलियाहिं गहिरो,तं वेयणं अहियासेत्ता अद्धमास
भंडीर मित्तऽवच्चे, भत्ते णागो हि आगमणं ॥४७०॥ स्स मश्रो सहस्सारे उववरणो।
वीरवरस्स भगवो, नावारूढस्स कासि उवसग्गं । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह
मिच्छादिट्ठि परळू, कंबलसबला समुत्तारे ॥ ४७१ ॥ उत्तरवाचालन्तर-वणसंडे चंडकोसियो सप्पो ।
पदानि-सुरभिपुर सिद्धयात्रः गङ्गा कौशिकः विद्वांश्च खेन डहे चिंता सरणं, जोइसकोवाऽहि जाओऽहं ।।४६७।। मिलकः नागः सुदंष्ट्रः सिंहः कम्बलसबलौ च जिनमहिउत्तरवाचालान्तरवनखण्डे चण्डकौशिकः सर्पः न ददाह मा मथुरायां जिनदासः आभीरविवाहः गोः उपवासः भचिन्ता स्मरणं ज्योतिष्कः क्रोधाद् अहिर्जातोऽहमिति,अ-1 एडीरः मित्रम् अपत्ये भकं नागौ अवधिः श्रागमनं वीरक्षरगमनिका स्वबुद्धया कार्येति ॥४६७ ॥
बरस्य भगवतः नावमारूढस्य कृतवान् उपसर्ग मिथ्याह
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(१३७४)
अभिधानराजेन्द्रः। ष्टिः परद्ध-विक्षिप्तं भगवन्तं कम्बलसबली समुत्तारितव | सबगो परिक्खाविप्रो० जाव कूडओ, ताहे भणति-जेल न्तौ । अक्षरगमनिका स्वबुझ्या कार्या। ततो भगवं दगती. | जहा भवियव्यं खतं भवति असहा, लजिनो आगतो तो राए रियावहियं पडिकमाइ, पत्थिो ततो , गदीपुलिणे भगवं चउत्थमासक्खमणपारणए नालंदानो निग्गो,कोमाभगवो पादेसु लक्खणाणि दीसंति महुलिथचिखल्ले, कसन्निवेसं गओ, तत्थ बहुलो माहणो माहणे भोयाबेति तत्थ पूसो नाम सामुद्दिो , सो ताणि पासिऊण चितेर, घयमहुसंजुतेण परमसेण, ताहे तेण सामी पडिलाभित्रो, एस चक्कवट्टी गतो एगागी , वच्चामि ण वागरेमि , तो तत्थ पंच दिव्वाणि । गोसालोऽवि तंतुवागसालाए सामि मम एसो भोगा भविस्संति, सेवामि शं कुमारत्तणे, सा- अपिच्छमाणो रायगिहं सम्मंतरबाहिरिनं गवेसति, जाहेन मीऽवि थूणागस्स सरिणवेसस्स बाहिं पडिमं ठिो, त- पेच्छर ताहे नियगोवगरणं धीयराणं दाउं सउत्सरोटुं मुंड स्थ सो सामि पिच्छिऊण चिंतेइ अहो मए पलालं अहि- काउंगतो कोल्लागं, तत्थ भगवतो मिलिभो, तो भगवं जि, एपहिं लक्खणेहिं जुत्तं, एएण समणेण न होउं । गोसालेण समं सुवरणस्खलगं वञ्चइ, एत्थंतरा गोवा गाबीहिंइओ य सको देवराया मोहिणा पलोएड्-कहिं अज सा- तो स्त्रीरं गहाय महल्लिए थालीए णवएहिं तंदुलेहिं पायसं मी ? ताहे सामि पेच्छा, तं च पूस, आगो सामि व- उवक्खडेति, ततो गोसालो भणति-पह भगवं! एत्थ भुजामो, न्दित्ता भणति-भो पूस! तुम लक्खणं न याणसि एसो अ- सिद्धत्थो भणति-एस निम्माणं चेवन वञ्चह, एस भजिहिति परिमिश्रलक्षणो, ताहे वरणेह लक्खणं अभितरगं-गो- उल्लहिज्जती । ताहे सो असतो ते गोवे भणति एस देवज्जगो स्वीरगोरं रुहिरं पसत्थं, सत्थं न होइ अलिअं, एस ध. तीताणागतजाणो भणति-पस थाली भजिहिति, तो म्मवरचाउरंतचकवट्टी देविंदनरिंदपूडओ भवियजणकुमुया- पयत्तेण सा रक्खह, ताहे पयत्तं करति वंसविदलहिं सा पद्धा णंदकारो भविस्सर, ततो सामी रायगिहं गो, तत्थ | थाली, तेहिं अतीव बहुला तंदुला छूढा, सा फुटा, पच्छा णालंदाए बाहिरियाए तंतुवागसालाए एगदेसम्मि अहा- गोवालाणं जेणं जे करुलं आसाइयं सो तत्थ पजिमिश्रो, तेपडिरूवं उग्गहं अणुराणवेता पढमं मासक्खमण उवसंप- ण न लद्ध, ताइ सुठुतरं नियति गेराहा। ज्जित्ता णं विहर । तेणं कालेण तेणं समएणं मंत्र
अमुमेवार्थ कथानकोक्लमुपसंजिहीपुराहली नाम मंखो, तस्स भद्दा भारिया गुठिवणी सरवणे ना
कुल्लाग बहुल पायस, दिव्या गोसाल दटु पच जा। म सरिणवेसे गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए पसूआ , गोरणं नाम कयं गोसालो ति, संवाडिओ, मंखसिप्पं अ
चाहिं सुवणखलए, पायसथाली नियइगहणं ।।४७४॥ हिन्जिओ, चित्तफलयं करेइ, एकल्लो विहरंतो रा- कोल्लाकः बहुलः पायसं दिव्यानि गोशालः दृष्या प्रवज्या यगिद्दे तंतुवायसालाए ठिो, जत्थ सामी ठिओ , तत्थ | बहिः सुवर्णखलात् पायसस्थाली नियतेग्रहणं च । पदार्थ वासावासं उबागो। भगवं मासखमणपारणए अभितार उक्त एव । याए विजयस्स घरे बिउलाए भोयणविहीए पडिलाभि-| बंभणगामे नंदो-वनंद उवणंद तेय पच्चद्धे । मओ । पंच दिब्वाणि पाउम्भूयाणि, गोसालो सुणता आगओ पंच :दिव्वाणि पासिऊण भणति-भगवं ! तु
चंपादुमासखमणे, वासावासं मुणी खमइ ।। ४७५ ॥ झं अहं सीसो ति सामी तुसिणीनो निग्गो । बिति. ब्राह्मणग्रामे नन्दोपनन्दौ उपनन्दः तेजः प्रत्यर्धे चम्पा द्विमामासखमणं ठिो, बितिए आणंदस्स घरे खज्जगविहीए सक्षपणे वर्षावासं मुनिः क्षपयतीति । अस्याः पदार्थः कथासतिए सुणंदस्स घरे सव्वकामगुणिएण, ततो चउत्थे मास- नकादवसेयः । तच्चेदम्-ततो सामी बंभणगामं गतो. तत्थ समण उपसंपज्जित्ता णं विहरह।
नंदो उवर्णदो य भायरो, गामस्स दो पाडगा, एक्को नंदस्स अभिहितार्थोपसंग्रहायेदमाह
बितिो उवणंदस्स. ततो सामी नंदस्स पाडगं पविट्टो नंद
घरंच, सत्य दोसीऽमणं पडिलाभित्रो नंदेण गोसालो उबनशृणाएँ बहिं पूसो, लक्खणमम्भंतरं च देविंदो।
दस्स,तेण उवणदेण संदिटुं-देहि भिक्खं, तत्थ न ताव वेला रायगिहि तंतुसाला, मासक्खमणं च गोसालो ॥४७२।।
ताहे सीअलकूरो णीणिो, सो तंणेच्छा,पच्छा सा तेण वि मंखलि मंख सुभदा, सरवण गोबहुलमेव गोसालो।। भराणति-दासी! एयस्स उवरि छूभसुत्ति, ताए छूढा, अपविजयाणंदसुणंदे, भोमण खजे अकामगुणे ॥४७३॥
तिपण भणनि-जा मज्म धम्मायरित्रस्त अत्थि तयो तेए
वा एयस्स घरं डझउ , तत्थ अहासमिहिनेहिं वाणमंतरेहि पदानि-स्थूणायां बहिः पुष्यो लक्षणमभ्वन्तरं च देवेन्द्रः
मा भगवतो अलियं भवउ ति तेण तं दहं घरं । ततो सामी राजगृहे तन्तुवायकशाला मासक्षपणं च गोशालः मनाली
चंपं गओ, तत्थ वासावासं ठाइ, तत्थ दोमासिरण खमणेण मङ्खः सुभद्रा शरवणं गोबहुल एव गोशालो विजयः श्रानन्दः
खमइ, विचित्तं च तवोकम्म, ठाणादीए पडिमं ठार, ठाणुसुनन्दः भोजनं खाद्यानि च कामगुणं शरवणं गोशालोत्प
ककुडओ एवमादीणि करे । एस ततिश्रो वासारत्तो। त्तिस्थानम् । शेषाऽक्षरगनिका स्वधिया कार्या । गोसालोकत्तियदिवसपुस्लिमाए पुच्छा-किमहं अज भत्तं लभिस्सामि ?,
कालाएँ सुनगारे, सीहो विज्जुमई गोडिदासी य । सिद्धत्येण भणियं-कोहवर अंबिलेण कूडरूवगं च दक्खि. खंदो दन्तिलियाए, पत्तालग सुमगारम्मि ॥ ४७६ ॥ थे, सो यरिं सव्वादरेण पडिहिनो, जहा भंडीसुणप, पदानि-कालायां शून्यागारे सिंहः विद्युन्मती गोष्ठीदासी म कहिं चि वि न संभाइयं, ताहे अवररहे एक्केणं कम्मक- च स्कन्दः दन्तिलिकया पात्रालके शून्यागारे । अक्षरगमव अंबिलेखको दियो ताहे जिमिश्रो, एगो कवनो दियो, निका क्रियाध्याहारतः स्वधिया कार्या । पदार्थः कथान
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कादवसेयः, तथेदम-ततो चरिमं दो मासियपारण्य बाद्विपारेला कालाय नाम सबिस गयो गोसालेय समं तत्थ भगवं सुरणघरे पडिमं ठिनो, गोसालोऽवि तस्स दारपहे ठिश्रो । तत्थ सीहो नाम गामउ (कु) ङपुतो विज्जुमईए गोट्टीदासीए समं तं चैव सुरणधरं पविट्ठो, तत्थ तेरा भ
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- समयो या माहो वा पडिको या कोई ठि सो साइड जा रथ पचामो, सामी तुरिदको अर गोसालोऽवि तुरिहक्कओ, ताणि श्रच्छित्ता णिग्गयाणि । गोसालण सा महिला छिल्का सा भणति - एस पत्थ कोइ, ते अभिगतूण पिट्टिश्रो, एस धुत्तो श्रणायारं करेताणि देतो ताहे सामि भग-अलोपहिज्जामि, तुम्भे वारेह सिद्धत्यो भगा कीस सीले न खसि किं अम्देऽपि आण्णामो ?, कीस या तो न अच्छसि ता दारे ठि । ततो निम्गंतूय सामी पत्तकाल - यं गो, तर वि तदेव सुधरे ठियो गोसालो ते भ एवं अंतोडियो, तत्थ संदलो नाम गामउदोप्पिणिच्चियादा सीए दत्तिलियाए समं महिलाए लज्जतो तमेव सुरण घरं गओ, तेऽवि तद्देव पुच्छति, तद्देव तुरिहक्का अच्छंति, जाहे ताणि निग्गच्छति ताहे गोसाले हसियं । ताहे पुणोऽवि पिडिओ, ताहे सामि विसर - श्रम्हे हम्माम तुम्भेन वारे किं अम्हे तुम्हे लामो १,
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ताहे सिद्धत्थो भणति - तुमं अप्पदोसेण इम्मसि, कीसतुंडं न रक्खेसि ? -
(१२७६) अभिधान राजेन्द्रः ।
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मुणिचंद कुमाराए, कॅवणय चंपरमणिञ्जउजाये । चोराऍ चारि अगडे, सोम जयंती उवसमेइ ||४७७॥ पदानि - मुनिचन्द्रः कुमायां कूपनयः चम्परमणीयोद्याने चौरायां चारिको ऽगडे सोमा जयन्ती उपशामयतः । पदार्थः कथानकावसेयः तच्चेदम्-" ततो भगवं कुमाराय नाम सरिसं गयो तत्थ पंपरमणि उज्जाणे भगवं पडिमं ठिओ। इस य पासायचो मुखिचंदो पासावच्चिज्जो नाम थेरो बहुस्सुनो बहुसीसपरिवारो तम्मि सन्निवेसे कूवणयस्स कुंभगारस्स सालाए ठिचो सो य जिनकप्पपडिमं करेइ सीसं गच्छे ठवेत्ता, सो य सत्तभावणार प्यां भावेति- "तवेण सत्तेण सुतेरा, एगतेण बलेण य । तुला पंचहा बुत्ता, जिराकप्पं पडिवज्जओ ॥ १ ॥ " एआ श्री भावनाओं, ते पुरा खत भावसार भावेति सा पुरा " पडमा उबस्सयस्मि वितिया, बादि ततिय चउकम्मि । सुरण घरम्मि चउत्थी, तह पंचमिश्रा मसाणम्मि ॥ १ ॥ " सो बितियाए भावेइ । गोसालो सामिं भण्इ एस देसकालो हिँडामो। सिद्धत्थो भएह-अज्ज अम्ह अन्तरं पच्छा सो हिंडतो ते पासा चिज्जे पासति, भणति य- के तुम्भे ?, ते भांति अम्बे समया निम्गंधा, सो भएति हो निगंथा, इमो मे एत्तिश्रो गंथो, कहिं तुष्भे निग्गंथा ?, अप्पयो परियं वर-परिसो महप्पा के ता तेहिं भएह-जारिसो तुमं तारिसो धम्मायरिनोऽवि ते सर्व महीयलिंगो, ताहे सो रुट्टो अन् धम्मापरियं सबइति जह मम धम्मायरियस्स प्रत्थि तवो सादे तुम्भं प डिस्सओ डज्झ । ते भांति - तुम्हाणं भसिएण श्रम्हे न
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बीर
कामो ताहे सो मतो साइर सामिस्स - मर सारंभा सपरिग्गद्दा समया विट्ठा, तं सम्यं सादा साहे सिद्धत्येण भणि ते पासायचा साइयो, न ते द ति । ताहे रती जाया, ते मुणिचंदा श्रायरिया बाहि उवस्वगस्स पडिमडिया, सो कृष्णयो तदिवस खेलीएमसे पाऊण विद्याले पर मरोझो जाप पास से मुखिचंदे आयरिए, सो चिंते-एस बोरो सि, तेरा से गए य हिया, ते निस्सासा कया, न भाषाओ पिया, ओहि णा उप्पर्क आउंच विधिं देवलोचं गया। तत्थ महासचिहिप वाणमंत देवेहि महिमा कया, ताहे गोसालो बा हिडिओदेते निव्वयं सो जायर-एस डज्म सो तेखि उपस्सगो, साहेइ सामिस्व, एस तेसि पडिशीया उवस्वचो दरका सिद्धस्वोभान सि उवस्सनो डस्झर, तेर्सि आयरियाणं श्रहिणां उप्परणं आउयं च शिद्रियं देवसोगं गया, तस्थ अदासनिहिपहि वाणमंतरेद्दि देवेहिं महिमा कया, ताहे गोसालो बाहिठि - श्रो पिच्छर, ताहे गश्रो त पदेसं, जाव देवा महिमं काऊ पडिगया ताहे तरस त गंधोद्गवास पुण्फवासं च द ट्टण अम्मदियं दरिसो जाओ । ते साडुणो उब- अरे तुम्मे न वाराह परिसगा बेव बोडिया हिंदह, उडेब, आयरियं कालगयं पि न याग्रह ?, सुबह रतिं सव्वं ताहे ते जाति-सचिल्लो पिसानो, रतिं पि हिंडद ताहे तेऽचि तस्स सदेव उद्विमा, गया आयरियस्स समासं जाय पेंति-कालमयं । तादे से अधिर्ति करे अन्देहिं ण णाया आयरिया कालं करेंता, सोऽवि चमदेता गो । ततो भगवं चोरागं सन्निवेसं गयो, तत्थ चारियत्ति काऊ
उहुंचालगा अमडे पक्तिविति, पुणे व उत्तारि ति, तत्थ पढमं गोसालो सामी न, ताव तत्थ सोमा-जयन्तीश्रो नाम दुवे उप्पलस्स भगिणीयो पासावच्चिचाओ जाहे न तरति जमेकार्ड ता परिवाइयचं करेति, ताहि सुर्य-परिसा के वि दो जणा उबाल पतिविजयंति ताओ पुण जायंति--जदा परिमतित्थगरो पव्वाओ, ताई गयाओ, जाय पेच्छति, ताहि मोश्रो, ते उज्भंसिया अहो विणस्सिडकामेति, तेहिं भपण बमाविया महिया य ।
पिट्टी चंपा वासं, तत्थ चठम्मासिएय खमखेणं । कयंगल देउल रिसे, दरिदथेरा य गोसालो || ४७८ ॥ ततो भगवं पिट्टीचं गनो, तत्थ वउत्थं वासारसं करेड, तत्थ सो चउम्मासियं खवणं करेंतो विचितं पडिमादीहिं करे, ततो वाहि पारिता कयंगलं गो, तत्थ दरिद्दधेरा नाम पासंडत्था समहिला सारंभा सपरिग्गहा, ताण वाडगस्स मज्झे देवलं, तत्थ सामी पडिमं ठियो दिवस व फुसि सीयं पद्धति ता - से जागरखो, ते समहिला गायति, तत्थ गोसालो भएति-परिसोऽपि नाम पाटो भगणा सारंभो समहिलोय । सव्वाणि य एगट्ठाणि गायंति, वायंति य । ताहे सो तेहि शिष्टो सो तर्हि माइमासे तेल सीपण सतुसारेण अच्छा संकुरो भिदि पुणे वि
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आणि पुणोऽवि भणति, पुणेोऽविं खीणिओ एवं तिरिण बारा शिलुडो अतिथियो । ततो ज अम्हे फुडं भणामो तो खिच्छुभामो, तत्थऽरुणेहिं भरागइ एस देवयस्को ऽवि पट्टियाबाहो सधारो वा सी तो हिकाणि अच्छह, सच्चाउदजाणिव बडबडानेह जहा से सद्दो न सुब्वति ।
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(१३७७) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सावस्थी सिरिभद्दा, निंदु पिउदा पवस सिवदने । दार गणी नखवालो, हलि६ पडिमाऽगणी पहिआ । ४७६ । ततो सामी सावरिंथ गयो तरथ सामी बाहि पडिमं डियो, तत्थ गोसालो पुच्छति तुम्ने अती ? सिद्धत्थो भगति - श्रज्ज अम्हं अंतरं, सो भणति - श्रज्ज श्रहं किं लभिदामि आदारे १ ता सिद्धत्यो भवतु अज्ज माणुसमंसं खाइव्वं ति, सो भणति - तं श्रज्ज जेमेमि जत्थ मंससंभवो नऽत्थि, किमंग ! पुरा माणुसमंसं ? सो पहिंडिन । तत्थ य सावत्थीए नयरीए पिउदत्तो वाम गाहाव, तस्स सिरिभद्दा नाम भारिया सा य शिंदू सिंदू नाम मरतविधाही सा सिवदतं नेमित्ति पुच्छर कि हवि मम पुत्तभंडं जीविजा ? सो भणति - जो सुतवस्सी तस्स तं गब्भं सुसोधितं रंधिऊण पायसं करेत्ता ताहे देह, तस्स य परस्स ओ हुतं दारं करेजासि मा सोजाहि ति एवं से घिरा पया भविस्सा, ताप वहा कर्य गोसाली हिंडतो तं परं पवित स्स सो पायसो महुघयसंजुत्तो दिण्णो, तेण चिंति-एरथ मंसं को भरिसर ति ताहे तु भुतंभराति बिरं ते केमित्तिय करेंतस्थ असि सरि फिडिओ, सिद्धत्थो भण्इ-न विसंवयति, जइ न पत्तियस वमाहि, वमियं दिट्ठा नक्खा विकूइए श्रवयवा य । तादेरुडो घर म तेहि विवारं मोहादियं सं तेरा न जायति, ओहाडियो करे जाहे न लभ ताड़े भतिजा मम धम्मायरियस्स तबतेओ अस्थि तो उज्झउ, ताहे सव्वा दड्ढा बाहिरिश्रा । ताहे सामी इलिदुगो नाम गामो तं गन, तत्थ महप्यमाणो हलि
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दुगरुखो, तत्थ सावत्थीओ णगरीश्रो निग्गच्छंतो पविसंतोय, तत्थ पसर जब सत्यनिषेसो सामी तस्थ पडि ठिमी, ते सत्चेदि रति सीयकाल अम्मी जालिश्रो, ते बड़े पभाए उट्ठेत्ता गया, सो अग्गी तेहिं न विउमावि सी तो सामिस्स पास गयो, सो सामी प रितावे, गोसालो भवति-भगवं ! नासह, एस अम्मी पर सामिस्स पाया दहा गोसालो नहो ।
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ततो य गंगलाए, डिंभमुखी अच्छिकडणं चेव । भावने मुहासे, मुणिओ ति अ वाहि बलदेवो ॥४८०॥ ततो सामी नंगला नाम गाम्मे, तत्थ गतो, सामी वासुदेवघरे पडिमं डिओ, तर गोसालो विडियो तत्थ व बेडरुवाणि खेति सोऽपि तानि बेडरूपाणि अच्छी कहिऊस बीहावे, ताई ताणि धाताणि पति, फोडि अंतिया भजेति पच्छसि अम्माप परो सामंतू तं पिति पच्छा भांति देवागस्स एसो
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दालो नूयं न डाति ठाणे भरणे वारेति अलाहि, देवयज्ञयस्स मियवं पच्छा सो मति इम्मानि तुम्भे न
वारे सिद्धन्धो भगति-न टासि तुमं एकलो वस्त्रं पिट्टिज्जसि, ततो सामी श्रवत्तानाम गामो तत्थ गतो, तस्थवि सामी पडिमं ठिओो बलदेवघरे, तत्थ मुहमकडाहिं भेसर, पिट्टेति चि । ततो सामी ताकि बेडरुवाणि रूवंताणि श्रम्मापिऊं साइंति, तेहिं गंतू घेश्चिनो, मुयो सिकार्ड मुको, मुणियो पिसाचो, भांति य-किं पण हरणं ?, एयं से सामि हणामो जो एयं न वारेह । ततो सा बलदेवपडिमा हल बहुसाहिक्खियिऊ उडिया तो तायि पायपरियाणि सामि खामेति ।
चोरा मंडव मोजं, गोसालो पण तेव भ्रामणया । मेो य कालहन्थी, फलंपुयाए उ उवसम्गा ॥ ४८१ ॥ ततो सामी चोरायं नाम संणिवेस गश्रो, तत्थ गोट्ठिभत्तं रज्झइ पञ्चति य । तत्थ य भगवं पडिमं ठिश्रो, गोसालो भगति पथ चरिय सिद्ध भग अम्हे अच्छामो, सोऽवि तत्थ खिउडकुडियाए पलोहकि देसकाल नवति तत्थ चोरभये, ताहे ते जातिएस पुणे पुणी पलोपत्र, मराणे एस चारिम्रो होन्ज सितादे सो पेण निखट्टे हम्मद सामी पहले अगोसालो भगति-मम धम्मापरियस्स जर तो अत्थि तो एस मंडवो डझड, डड्डो । ततो सामी कलंबुगा नाम सरिगवेसो तत्थ गओ, तत्थ पचतिश्रा दो भायरो - मेहो, कालहस्थी य। सो कालहत्थी, बोरेहिं समं उदाइच, इमे व पु अग्गे पेच्छइ, ते भरांति के तुब्भे ?, सामी तुसिणीओ - च्छर, ते तत्थ हम्मेति, न य साइंति तेरा ते बंधिऊण महलस्स भाउअस्स पेसिया, तेरा जं भगवं दिट्ठो तं उट्ठा
"
श्रो खामिश्र य, तेण कुंडग्गामे सामी दिट्ठपुव्वो । लांडे व उवसग्गा, पोरा पुष्पा फलसा व दो तेय । वजहया सक्के, भद्दित्र वासासु चउमासं ॥। ४८२ ॥ ततो सामी बि कम्मे निरेयन्ये सादाविसचामि ते श्रणारिया, तत्थ निज्जरेमि । तत्थ भगवं अच्छारिया दितं दिए करे। ततो पबिट्टो लादाधिस कम्मनिजरातिरथहीनाहि बहुं कर्म निजरे, पच्छा ततो शी सरथ पुरसकलसो नाम प्रणारियग्गामा तत्र्थतरा दो तेणा लाढाविसयं पविसिउकामा अबसउणो एयस्स बहाए भवति कट्टु अनि कहिएं सीस दिदासि पार्थि आ सके ओहिणा आभोइला दोऽचि बजे हया प विहरता मलिनपरि पत्ता, तत्थ पंचमो पासारतो, तर चाउम्मासियखमणेणं अच्छति, विचित्तं च तवोकम्मं ठाखादीहि ।
कपालिसमागम भोषण, मंखलि दहिकर भगवच्च पढिमा जंबूसंडे गोडी, य भोयां भगवओ पडिमा || ४८३ ॥ ततो बाहि पारेता विहरंतो गयो, कयलिसमागमो नाम गामो तत्थ सरकाले अच्छारियमसाणि दधिरेण निस दि अति तस्थ गोसालों भगति बच्चामो, सिद्धत्यो भगति सद
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अभिधानराजेन्द्रः। अंतरं, सो तहिं गो, भुंजा दहिकर सो, बहिफोडो न चेव
कद्वेण सालिसीसे, विसुज्झमाणस्स लोगोही ॥४८६॥ धार, तेहिं भणियं-बई भायणं करंबेह, करंबियं, पच्छा न
ततो सामी गामायं नाम सविसं गो, तत्थुज्जाणे विहे. नित्थरा, ताहे से उबरि छूढ़, ताहे उकिलंतो गच्छद । ततो
लप बिभेलयजक्खो नाम, सो भगवत्रो पडिम ठियस्स महि भगवं जंबूसंडं नाम गामं गो, तत्थ वि अच्छारिया भत्तं
मं करे। ततो भगवं सालिसीसय नाम गामो तहिं गतो, ततहेव नवरं तत्थ खीरकूरे, तेहि वि तहेव धरिसिमो जिमि
त्थुज्जाणे पडिम ठिो माहमासो य वट्टा, तत्थ कडपूयणा भों ।
नाम वाणमंतरीसामि दळूण तेयं असहमाणी पच्छा तावसीतंबाएँ नंदिसेणो, पडिमा प्रारक्खि वहण भय डहणं ।। रूवं विउब्वित्ता पक्कलनियत्था जडा भारेण य सम्वं सरीरं कृवियचारियमोक्खे, विजयपगम्भा य पत्तेभं॥४८४॥
पाणिपण ओलेत्ता देहम्मि उवरि सामिस्स ठाउं धुणति वातं
च विउवा, जड अनो होतो तो फुट्टो होतो, तिब्वं वेत्रवं ततो भगवं तंबायं णाम गामं एइ, तत्थ नंदिसणा नाम अहियासिंतस्स भगवो प्रोही विप्रसिउन लोगं पासिउमा थेरा बहुस्सुत्रा बहुपरिधारा पासावञ्चिज्जा, तेऽवि जिणक
रद्धो, सेसं कालं गम्भाओ पाढवेत्ता जाब सालिसीस ताव प्पस्स परिकम्मं करेंति, इमोऽवि बाहिं पडिमं ठिओ, गोसा
एकारस अंगा सुरलोयप्पमाणमेत्तो योही, जावतिय देव. लो अतिगओ, तहेव पुच्छर,खिंसति या ते पायरिया तदि- लोपसु पेच्छिताइयो । सा वि वंतरी पराजिमा, पच्छा सा वसं चउले पडिमं ठायंति, पच्छा तहिं प्रारक्खियपुत्तेण चो.
उवसंता पूनं करे । रोसि काउं भल्लएण आहो, ओहिणाणं, ससं जहा मुणिबंदस्स, जाव गोसालो बोहत्ता प्रागतो। ततो सामी कृषि
पुणरवि भहिअनगरे, तवं विचित्तं च छट्ठवासम्मि । भं नाम सरिणवेसं गओ, तत्थ तेहिं चारिय त्ति काउंधिप्पं मगहाएँ निरुवसग्गं,मुणि उउबद्धम्मि विहरिस्था४ि८७॥ ति वज्झति पिट्टिजंति य । तत्थ लोगसमुल्लावो-अहो देव- ततो भगवं भहियं नाम नगरिं गतो, तत्थ छटुं वासं उजत्रो कवेण जोव्वणेण य अप्पतिमो चारित ति काउं गहि- धागो, तत्थ वरिसारत्ते गोसालेण समं समागमो, छोटे प्रो, तत्थ विजया पगम्भा य दोसि पासंतेवासिणीअो परि- मासे गोसालो मिलिश्रो भगवश्रो । तत्थ चउमासखमणं व्वाश्याओ लोयस्स मूले सोऊण-तित्थकरो पब्बाओ, ब- विचित्ते य अभिग्गहे कुणइ भगवं ठाणादीहि, बाहिं पाचामो ता पलोएमो, को जाणति ? होजा, ताहे ताहिं मोह- रेत्ता ततो पच्छा मगहाविसए विहरह निरुवसग्गं अट्ट श्रो दुरप्पा! ण याणह चरमतित्थकरं सिद्धत्थरायपुतं, अज उडुबद्धिए मासे, विहरिऊणं । भे सक्को उबालभहिइ, ताहे मुक्को खामित्रो या, पत्तेयं ति
पालभित्राए वासं, कुंडागे (तह) देउले पराहुत्तो। पिहिपिहीभूता सामी गोसालो य, कहं पुण?,तेसि वचंतारणं दो पंथा ताहे गोसालो भणति-अहं तुम्भेहिं समं न वचा
मद्दण देउलसारित्र, मुहमूले दोसु वि मुणि त्ति ॥४८॥ मि, तुम्भे ममं हम्ममाणं न वारेह, अवि य-तुब्भेहिं समं बहू
आलंभिधे नयरिं एइ , तत्थ सत्तमं वासं उवागमो, चवसग्गं, अमंच-अहं चेव पढम हम्मामि, तो एक्कल्लो
उमासखमणेण तवो, बाहिं पारेना कुंडागं नाम सनिविहामि । सिद्धत्थो भणति-तुम जाणसि,ताहे सामी वेसा
वेस तत्थ एति । तत्थ वासुदेवघरे सामी पडिम ठिीलीमुहो पयानो, इमो य भगवो फिडियो अण्णो पट्टि
कोणे. गोसालोऽवि वासुदेवपडिमाए अहिट्ठाण मुहे कामो, अंतरा य छिएणद्धाणं, तत्थ चोरो रुक्खविलग्गो ओ
ऊणं ठिो, सो य से पडिचारगो भागो, तं पेच्छा लोए ति, तेण दिवो भणति एक्को नग्गो , समणो एह, ते
तहा ठियं , ताहे सो चिंतेइ-मा भर्णािहइ रागदोसिनो धय भणति-एसो न य वीहेर नस्थि हरियध्वंति, अज्ज से
म्मिओ, गामे जाइत्तु कहेह, एह पेच्छह भणिहिर, राइनत्थि फेडो, जं अम्हे परिभवति ।
तो ति । ते श्रागया दिट्ठो पिट्टिो य, पच्छा पं
धिजर, अन्ने भणति-एस पिसाओ , ताहे मुक्को, तो नितेणेहि पहे गहिओ, गोसालो माउलो ति वाहणया ।
ग्गया समाणा महणा नाम गामो, तत्थ बलदेस्स घरे भगवं वेसालीए, कम्मार घणेण देविंदो ॥ ४८५॥ सामी अन्तोकोणे पडिम ठिो, गोसालो मुहे तस्स सा
आगो पंचहि वि सरहिं वाहिश्रो माउल ति काऊणं, प. गारिश्र दाउ ठिो , तत्थ वि तंहव हो , मुणिो ति उछा चिंतेह बरं सामिणा समं । अषि य-कोर मोएड सार्मि?
काऊण मुक्को । मुणिो नाम पिसाश्रो। तस्स निस्साए मोयणं भवइ, ताहे सामि मग्गिउमारो बहुसालग सालवणे, कडपूअण पडिम विग्घणोवसमे । सामी वि वेसालिं गो, तत्थ कम्मकरसालाए अणुएणवेत्ता
लोहग्गलम्मि चारिय,जिमसत्तू उप्पले मोक्खो॥४८६।। पडिमं ठिो,सा साहारणा,जे साहीणा तत्थ ते अणुराणवि
ततो सामी बहुसालगनाम गामो तत्थ गो, तत्थ सालमा। अराणदा तत्थेगो कम्मकरो छम्मासपडिलम्गो पाढ
वणं नाम उजाणं, तत्थ सालज्जा वाणमंतरी , सा भगवतो सोहणतिहिकरणे, आउहाणि गहाय आगो, सानि च
श्रो पूअं करेड, अम भणंति-जहा सा कडपूप्रणा वाणमंपासइ, अमंगलं ति सार्मि पाहणामिति पहावित्रो घणं उ
तरी भगवो पडिमागयस्स उवसग्गं करेड, ताहे उवसंग्गिरिऊणं सक्केण य श्रोही पउत्तो, जाव पेच्छद,तहेव निमि
ता महिमं करेह । ततो णिग्गया गया लोहग्गलं रायहासंतरेण भागओ, तस्सेब उपरि सो घणो साहिओ, तह चेव
णिं, तत्थ जियसत्तू राया, सोय पणेण राणा समं विमो, सक्कोऽवि वंदित्ता गो।
रुडो, तस्स चारपुरिसेहिं गहिा, पुच्छिजंता न साहगामागविहेलग ज-क्ख तात्रसी उवसमा वसाण थुई ।। ति, तत्थ नारिय ति काऊण रगणो मत्थाणीवरगयस्स:
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बीर
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विज्ञातत्य उपलो अडिगामा सो पुष्यमेव अतितो, सो व ते दिउडियो तिक्खु तो वंदर, पच्छा सो भगइ ए एस बारिओ, एस सिद्धस्थरायपुतो धम्मवरचकपट्टी एस भगये पाणि प से पेच्छड, तत्थ सक्कारिक मुझे ।
( १३७८) अभिधानराजेन्द्रः।
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ततो व पुरिमताले बम्गुर ईसाथ अक्षर पडिमा | मल्लिजिणायणपडिमा उधार बंसि बहुगोट्टी ||४६०॥ ततो सामीपुरमा पत्र तर वग्गुरो नाम सेट्ठी त स्स भद्दा भारिश्रा, वंझा अवियोउरी जाणुकोप्परमाया, बइणि देवस्स उवादिगोणि काउं परिसंता । श्रण्णया सगमुद्दे उना उज्जेलियाए गया, तन्ध पासंति देव उलं सडियपडियं तत्थ सिमिलो पडिमा तं गर्मसंति, जइ श्रम्ह दारश्रां दारिश्रा वा जायति तो एवं चेव देउलं करेस्सामो, एय भन्तादि य होहामो, एवं नर्मसत्ता गयाणि । तत्थ श्रासन्निहिश्राप वाणमंतरीप देवयाए पाविरं कथं धाय गम्भो जं बेच आओ तं देवउलंकामारखाणि प्रतीय तिस पूर्ण करैति पचतिय अनियंति एवं सो सायनो जाओ। इम्रो व सामी बिहर माणो सगड़मुहस्स उज्जाणस्स नगरस्स य अंतरा पडिमं डिम्रो परो य हाम्रो उलपडसादयो सपरिजो म इया ही विविकुसुमहत्योतं आयो जाइ ईसा व देविंद पुण्यागो सामि वंदिता पज्वासति पम्पुरं च वीतीवंत पासह भगति य-भोवगुरा ! तुमं पचतित्थगरस्य महिम न करे तो प डिमं जासि, एस महावीरो वद्धमान तो आगओ मिष्ठार्ड कार्ड सामेति मदिमं च करे। ततो सामी उसका बच्चा, पत्ता वधूवरं स पर ताण पुरा दोरि षिविरुवा इंतिखमाणित सालो भणति अहो हमो सुसंजोगो- “ ततिल्लो विहिराया जातिदूरे व जो जहिं वसर । जे जस्स छोइ सरिसं, तं तस्स विजयं देव ॥ १ ॥ " जाहे न ठाह ताहे तेहिं पिट्टिश्रो, पिट्टित्ता बंसीकुडंगे छूढो, तत्थ पडिओ प्रत्ताणश्रो ओ अच्छा, यार सामि, ताई जित्यो भणति सर्पकयं ते, ताहे सामी अदूरे, गंतुं पडिच्छर, पच्छा ते भराति- नूणं पस पयस्स देवज्जगस्स पीढियावाहगो वा छतधरो या आणि अर्याल, ता मुद्द, ततो मुझे। अछे भांति - पहिपहिं उतारिओ सामिं अच्छतं दद्ल । गोभूमिपलाटे, गोवकोवे व पंसि जिसमे । रायगडूमवासा, वभूमी बहुसम्या ।। ४६१ ॥ ततो सामी गोभूमि वार पत्थंतरा अडवी घणा, सदा गावीओ चरंति तेण गोभूमी, तत्थ गोसालो गोवालए भराइअरे वज्जलाढा ! एस पंथो कहि वचइ ? । वज्जलाढा नाम मेच्छा । ताई ते गोवा भांति कीस अकोससि ?, ताहे सो भणा अपपुत्ता! खरपुत्ता! सद भोसामि, ताई तेि मिलता पट्टा बंधित बंसी छूटो र पुलोमो
गो
जिसमें ततो रायगडं गया तत् सारचं तत्थ चाउम्मासखवणं विचित्ते अभिग्गद्दे बाहि पा१- प्रसविनी । २-उपयाचितानि ।
बीर
रेसा सरप दितं करेति समतीय, जहा - पगस्स कुबुं - बियरस बहुसाली जाओ, ताहे सो पंधि भणति तुम् भिदेमि मम पर्व सो उवास - खावे, एवं चैव मम वि बहुं कम्मं अच्छा, एतं अच्छारिनिज्जराय ते अणारिसे लाडाव भूमी सुद्धभूमी तत्थ विहरियो, सो अारो दर, जहा बंभचेरेसु, छु छु करेंति आईसु समयं कुकुरा डसंतुति एवमादि, तत्थ नवमो वासारतो कनो, सो य अभडो ग्रासी । वसती वि न लग्भः । तत्थ छुम्मासे अशिवजागरि विहरति । एस नयमो पासारो ।
अनित्रयवासं सिद्ध-त्थपुरं तिलभंत्र पुच्छ निष्फत्ती । उप्पाडेर भणजो, गोसालो वासवदुलाए । ४६२ ॥ ततो निम्नया पढमसरप सिद्धरथपुर गया तो स्थि पुरानो कुम्मगामं संपट्टिश्रा, तत्थंतरा तिलथंबओ, तं दडूगोसालो भण-भगवं! एस तिलत्थं किं निष्फलदिति न वलि १, सामी भणति निष्फखद्वितिय सत तिलपुष्कजीवा उद्दाहनाएगाए लिगलिया बचावादि विततो गोसाले असतेस घोसरिऊण सलेगो उप्पाडि ओ एते पडियो अहासविडियदि य वाणमंतरेद्दि मा भगवं मिच्छायादी भव वासं वासितं असत्था बहुलिया य गावी आ गया, ताए खुरेण निक्लिसो पट्टिश्रो पुप्फा
य पच्चाजाया ।
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मगहा गोवरगामो, गोसंखी वेसियाण पाखामा || कुम्मग्गामायावण, गोसाले गोवण पउट्ठे ॥ ४६३ ॥ ताहे कुम्मगाम संपत्ता, तस्स बाहिं वेसायो बालतवस्सी आयावेति तस्स का उत्पती १ पाए नवरी रायहिस् य अंतरा गोब्बरगामो, तत्थ गोसंखी नाम कुढुंबिश्रो, जो तेसिं अधिपती आभीराणं, तस्स बन्धुमती नाम मज्जा अवियाउरी । इओ य तस्ल अदूरसामंते गामो चोरेहिं हो, तं इंतूण बंदिग्गहं च काऊण पहाविथा। एका चिरपसूया पतिम्मि मारिते चेडेल समं गहिया सा बेडं हाचिया, सो बेडओ तेरा गोसखिया मरुचाएं गए दिट्ठो गद्दियो य, अप्पणियार महिलियाप दिलो. तत्थ पगासियं - जहा मम महिला गूढगभा सी. तत्थ य छगलयं मारेला लोहित्रगंध करेसायानेच दिया सम्यं जं तस्य इतिकलव्यं तं कीरह, सोडाव ताव संवर, सावि से माया पाए वि किपा, पेसिया बेरी गडिया, एस मम धूप ताहे जो ग या उपयातं सिफ्लाविया सा तस्य नाम निम्गया गणिया जाया । सो य गोसंखियस्स पुसो तरुणो जाश्रो, घियसगडे चंपं गओ सवयंसो, सो तत्थ पेच्छ नागरजणं जद्दिच्छित्रं श्रभिरमंतं, तस्स वि इच्छा जाया अहमपि ताव रमामि सो तत्थ गतो बेसावादयं तस्थ सा चैव माया अभिरुयाम देवा दाविि वचइ । तत्थ वश्यंतस्स अंतरा पादो श्रभेज्झेण लिनो, सो न जाणइ केणावि लित्तो । पत्थंतरा तस्स कुलदेवया मा किच्च मायरउ वोहेमि त्ति तत्थ गोट्ठए गावि सबच्चिय
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चिठिया, ताहे सो तं पार्थ, तस्स उपरि फुलति, ताहे सो वच्छलो भइ - किं श्रम्मो ! एस ममं उवरि श्रमेज्झलित्तयं पादं फुसइ ? ताहे सा गावी माणुसियाप वायाए भइ -' किं तुमं पुत्ता ! अधिर्ति करेसि ?, सो अज्ज मायाए समं संवास गच्छद्द, तं एस परिसं किच्च ववसर, अर्थ पिनि काहिति सि । ताडे तं सोऊ तस्स बिता समुप्परयागतो दामि ता पविट्ठो पुच्छर - का तुझ उत्पत्ती ?, ताहे सा भूराति - किं तव उप्पत्ती ? महिलाभावं दापर सा, ताहे सो भणति अपि पति मोठं देमि, साइ सम्भाव ति सहसाविया सम्यं सिद्धति, ताहे सो निम्न सम्मा मेमो, अम्मापियरो य पुच्छर ताणि न साइति, ताहे ताव असिओ ठिओ जाव कहियं । ताहे सो तं मायरं मोयावेत्ता वेसाचो पच्छा विरागं गयो । यावत्था विसय ति पाणामाए पवज्जाय पव्वइओ, एस उप्पत्ती । विहरतोयसे कालं कुम्मम्णामे आयावेर, तरस य जडादितो प्ययाची आइच्यकिरणाविद्याओ प डंति जीवहिवार पडियाओ वेब सीसे हुमा । तं गोसालो दण ओोसरिता तत्य गम्रो कि? भवं मुणी मुणि उपाडु जुचासेखातरो १, कोऽर्थः मन्प्रवजितो नेति, अथवा कि इत्थी पुरिसे वा? पदो तिरिय वारे, ताहे बेसिमायो रुझे तेयं निसिरह, ताहे तस्स अणुकंपणट्टाए वेसियायणस्स य उसितेपपाखाहरणद्वार प्रत्यंतरा सीयलिया तेयलेस्सा निस्सारिया, सा जंबूदरी भगवओ सीयलिया तेयलेसा, अतिरओ वेदेति, इतरा तं परियंचति सा तत्थेव सीपञ्जियार विज्भाविया, ताहे सो सामिस्स रिद्धि पासिता भगति से गयमेवं भगयं से गयमेवं भवर्थ १, कोऽर्थः १न याणामि जहा तुम्भं सीसो, खमद्द, गोसाली पुच्छरसामी ! किं एस जूसेज्जातरो भणति ?; सामिणा कहियं, ताहे भीओ पुच्छर - किह संखितविउलतेयलेस्सो भवति ?, भगवं भणति जे गं गोसाला ! बटुं बट्टे प्रणिक्खिलेणं तथोकम्मे आयावेति, पारलर सराहार कुम्मास, पिंडियाए एमेश व पिपडास जावेद जाव दम्मासासे संभवतेयलेस्सो भवति । या सामी कुम्मगामाओ सिद्धधपुरं पत्थिश्रो, पुणरवि तिलयंयगल्स अदूरसामंतेण वीतिवयर, पुच्छर सामि जहा-न निष्फरणो कहियं जाणो, तं एवं वणसईवं परिहारो (पपरिहारो नाम परावत्वं परावर्त्य तत्रिव सरीर उति असदमा गंतवा तिलसँगलियं - स्थेत फोडिता ते तिले गरेमा सति एवं सच्चजीबाचि पउ परियइति वियहवाएं धणियमा करेड उपदि सामिया जहा संखिलितेयले सो मवति, ताहे सो सामिस्स पासाश्रो फिट्टो सावत्थीए कुंभकारसाला ठिश्रो तेयनिसग्गं श्रायावेद, छहिं मासेहिं जाओ, कूवतडे दासीओ विण्यासिनो, पच्छा छदिसा रा आगया, तेहि निमितउलोगो कहिलो एवं सो अजिलो जिल्लाबी बिहर, एसा से विभूती संजाया ।
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वेसालीए पडिमं डिंभमुनि (बी) उति तरथ गणराया ।
( १३००) अभिधानराजेन्द्रः ।
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वीर पूह संखनामो, चित्तो नावाऍ भगिनुिभो ॥४६४॥
भगवं पि वेसालि नगरिं पत्तो, तत्थ पडिमं ठिश्रो, डिमेहि मुणिउ ति काऊण खलयारिओ, तत्थ "संखो" नाम गणराया, सिद्धत्थस्स रराणो मित्तो सो तं पूरति । पच्छा वाणियग्गामं पहाविधो, तत्यंतरा गंडा नही, तं सामी गावा उतिरो ते याचा सामि भतिदेहि मोनं एवं याति तत्थ संखरो भाइ चित्तो नामका गोदावाकडप पर, ताहे तेरा मोह महिओ ।
वाणियगामायाण, आनंदो ओहिपरीसहसर्हिति । सावत्थीए वासं, चित्ततवो साणुलट्ठि बहिं ॥ ४६५ ॥
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ततो वाणियग्गामं गश्रो तस्स बाहिं पडिमं ठिलो, तत्थ आणंदो नाम सावओो उई बड़े भाषावे तस्स महिना समुप्पएवं जाव पेच्दा तिरर्थक बंदति भलति अहो सामिया परीसहा अडियासेज्जति पचिरेण काले तु केवलनाथ उप्पविहिति पूपति व । ततो सामी सावरिंथ गनो, तत्थ दसमं वासारतं, विचित्तं च तोकम्मैाणादि ततो सालयिं नाम गामं गयो ।
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पडिमा मद महाभ-द सम्यशोभद पदमिया चउरो । अट्ठय वीसाणंदे, बहुलिय तह उज्झिए दिन्वा ।। ४६६ ॥
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तत्य भई पडिमं ठार, केरिसा भद्दा ! पुब्वासो दिवसं छह, पच्छा रर्त्ति दाहिण्हुसो, अवरेण दिवलं, उतरेण रति, एवं भसेण निट्टिश्रा, पच्छा न चेव पारेह अपारिओ वेष महाभई पडिमं डाइ, सा पुरा पुन्याए दिखाए अहोरतं एवं चउसु वि दिलासु चत्तारि अहोरताणि, एवं सादसमे निट्ठाइ, ताहे अपारिश्रो चैव सव्वनोभ पडिमं ठाइ, सा पुण सव्वतोभद्दा इंदाए अहोरतं एवं श्रग्गेईए जामाए नेरह वारुणीए वायव्वाए सोम्माए ईसाणीए विमलाए जाई उडलोडया दव्याणि तानि निरायति, तमाप-डिज्ञाई, एवमेवेसा दसहि विदिसादि वावी सइमेणं समप्पर । 'पदमिया चउरो' सि पुण्याय दिखाए बार जामा, दाहि खापवि चत्तारि जामा, अवराय वि वत्सारि जामा, उत्तरा वि चारि जामा, बितियाए अट्ट, पुव्वाप बे खउरो जामाणं एवं दाहिलाय उत्तराए वि अ एष अटु ततियार दीसं, पुव्वाद दिसाए बेचउक्कं जामाणं जाव श्रहो बेचउक्का, एए बीसं पच्छातासु समता आनंदस्त गाहाबहस्स परे बहुलि याए दासीए महासिणीए भायणाणि खणीकरेंतीए दोसीं छुड्डेकामाए सामी पविट्ठो, ताए भगति - किं भगवं ! अट्ठो सामिया पाणी पसारियो, ताप परमार सद्वा दिवं पंच दिव्यासि पाउाणि ।
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दडभूमीए महिमा पेढाल नाम होइ उज्जाणं । पोलास चेइयम्मी, ठिएगराई महापडिमं ॥ ४६७ ॥ ततो सामी भूमि गयो तीसे वाहि पेढाल नाम जाणं, तत्थ पोलासं चेइनं तत्थ अट्टमेणं भत्ते एगराइयं पडिमेडिओ, पगपोग्यलनिदिट्ठी अगमिखनयो त स्थ वि जे अचित्ता पोग्ला तेसु दिई निवेसेह, सचिनेहिं
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(१३८१), बीर अभिधानराजेन्द्रः।
वीर दिढेि अप्पाइज्जर, जहासंभवं ससाणि वि भासियव्याणि , | वर्णेति, पच्छा सप्पे विसरोसपुर उग्गविसे डाहजरकारए, ईसिं पन्भारगो-ईसिं ओणयकाओ।
तेहि विन सका, मूसए विउव्वर, ते खंडाणि अवणेत्ता तसको भदेवराया, सभागमो भणइ हरिसिओ वयणं । स्थेव वोसिरंति मुत्तपुरीसं, ततो अतुला वेयणा भवति । तिमि वि लोगसमत्था, जिणवीरमणं न चालेउं ॥४६॥
जाहे न सका ताहे हथिरूवं विउव्वति, ते ण हत्थिरूवेण
सुडाए गहाय सत्तऽटुताले आगास उक्विवित्ता पच्छा दंतइश्रो य सको देवराया, भगवंतं श्रोहिणा प्राभोएत्ता स
मुसलेहि पडिच्छति, पुणो भूमीए विंधति, चलणतलहिं भाए सुहम्माए अत्थाणीवरगो हरिसिश्रो सामिस्स न
मलइ, जाहे न सको ताहे इत्थिगियारूवं विउब्वति , सा मोकारं काऊण भणति-अहो भगवं तेलोकं अभिभूध ठि
हस्थिणिया सुंडाएहिं दंतेहिं विधइ फालेइ य पच्छा काइओ, न सका केणइ देवेण वा दाणवेण वा चालेउ।।
एण सिंचा, ताहे चणणेहिं मलेइ जाहे न सका ताहे पिसोहम्मकप्पवासी, देवो सक्कस्स सो अमरिसेणं ।। सायरूवं विउब्वति, जहा कामदेवे, तेण उवसग्गं करेइ । जा. सामाणिन संगमओ, वेइ सुरिंदं पडिनिविट्ठो ॥४६६||
हे न सक्का ताहे वग्घरूवं विउव्वति, सो दाढेहिं नखेहि य तेल्लोकं असमत्थं, ति पेहए तस्स चालणं काउं ।
फालेइ, सारकाइएण सिंचति, जाहे न सका ताहे सिद्ध
स्थरायरूवं विउव्वति, सो कट्टाणि कलुलाणि विलवाअब्जेव पासह इम, मम वसगं भट्ठजोगतवं ॥ ५००॥।
एहि पुत्त ! मा मा उपझाहि, एवमादि विभासा, ततो तिअह आगमो तुरंतो, देवो सक्कस्स सो अमरिसेणं ।। सलाए विभासा, ततो सूर्य, किह ? सो ततो बंधावारं कासी य ह उवसग्गं, मिच्छद्दिट्टी पडिनिविट्ठो।।५०१| विउब्वति, सो परिपेरंतेसु आवासिओ, तत्थ सूतो पत्थरे इयो य संगमो नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सकसामा
अलभंतो दोण्ह वि पायाण मज्झे अग्गि जालेत्ता पायाण णिो अभवसिद्धीओ, सो भणति-देवराया अहो रागण
उवरि उक्खलियं काउं पयइश्रो, जाहे एएण वि न सका उल्लवेइ को माणुसो देवेण न चालिजह?, अहं चाले
ततो पक्कणं विउब्बति, सो ताणि पंजराणि बाहुसु गलए मि, ताहे सको तं न वारेह, मा जाणिहिइ-परनिस्साप
कमेसु य ओलएइ, ते सउणगा तं तुंडेहिं खायंति विंधति भगवं तवोकम्मं करेइ, एवं सो आगो ।
सम्म काइयं च वोसिरंति, ताहे खरवायं विउब्वेइ, जेण सक्का
मंदर पिचालेउ, न पुण सामी विचलइ, तेण उप्पाडेत्ता धूली पिवीलिआओ, उइंसा चेव तह य उण्होला।
उप्पाडेत्ता पाडेह, पच्छा कलंकलियवार्य विउब्वइ, जेण जहा बिछुय नउला सप्पा, य मूसगा चेव भट्ठमगा॥५०२।।
चक्काइटुगो तहा भमाडिज्जर, नंदिश्रावतो वा, जाहे एवं न हत्थी हत्थिणिपाओ, पिसायए घोररूववग्यो य।। सका ताहे कालचकं विउव्वति, तं घेत्तूण उहूं गगणतल गओ, थेरो थेरीइ सुओ, आगच्छइ पकणो य तहा ॥५०३।।
एत्ताहे मारेमि ति मुबह वजसंनिभं जं मंदरं पि चूरेज्जा,
तेण पहारेण भगवं ताव णिवुडो जाव अग्गनहा हत्थाणं , खरवायकलंकलिया, कालचकं तहेव य ।
जाहे न सका तेण वि ताहे चिंतेति-न सक्को एस मारे, पाभाइयउवसग्गे, वीसइमो होइ अणुलोमो ॥ ५०४॥
अणुलोमे करेमि, ताहे पभायं विउव्वर, लोगो सव्वो चंकसामाणिदेवढेि, देवो दावेइ सो विमाणगो । मिउं पवत्तो भणति-देवज्जगा! अच्छसि अज्ज वि?, भभणइ य वरेह महरिसि!, निष्फत्ती सग्गमोक्खाणं।५०५॥ यवं पि नाणण जाणइ जहा न ताव पभाइ जाव सभावो
पभायंति, एस वीसइमो । अन्ने भणन्ति-तुट्ठोमि तुज्झ भउवहयमइविष्माणो, ताहे वीरं बहुप्प साहेउं ।
गवं! भण किं देमि?, सग्गं वाते सरीरं नेमि मोक्वं वा ओहीए निझाइ, झायइ छज्जीवहियमेव ।। ५०६॥ | नेमि, तिरिण विलोए तुझ पादेहिं पाडेमि?, जाहे न तीताहे सामिस्स उरि धूलिवरिसं बरिसर, जाहे अ-| रह ताहे सुट्टयरं पडिनिवेसं गओ, कल्लं काहिति, पुणो वि च्छीशि कराणा य सव्वसोत्ताणि पूरियाणि, निरुस्सासो| अणुकह। जाओ , तेण सामी तिलतुसतिभागमित्तं पि झाणाओ वालुयपंथे तेणा, माउलपारणग तत्थ काणच्छी। न चलइ, ताहे संतो तंतो साहरित्ता ताहे कीडिओ
तत्तोसुभोम अंजलि, सुच्छित्ताए य विडरूवं ॥ ५०७॥ विउव्वर वज्जतुंडाओ, ताओ समंतो विलग्गाश्रो खायंति, श्रणातो सो तेहिं अन्तोसरीरगं अणुपविसित्ता अराणणं |
ततो सामी वालुगा नाम गामो तं पहाविश्रो, एत्थंतरा सोगणं अतिति अरणण णिति, चालिणी जारिसो को ,
पंच चोरसए विउव्वति, वालुगं च जत्थ खुप्पह, पच्छा तेहि तह वि भगवं न चालिश्रो, ताहे उइंसे बजतुंडे विउव्वर, ते माउलोत्ति वाहिश्रो पब्वयगुरुतरेहिं सागयं च वरजसरीरा तं उइंसा वज्जतुंडा खाति, जे एगेण पहारेण लोहियं नी
दिति जहिं पव्वयावि फुट्टिजा, ताहे बालुयं गओ, तत्थ सामिति, जाहे तह वि न सक्का ताहे उपहोला विउब्वति , मी भिक्खं पहिडिओ, तत्थावरेतुं भगवतो रूवं काणच्छि उण्होला तेल्लपाइआश्रो, ताओ तिक्खेहिं तुंडेहिं अतीव अविरदयाश्रो णडेइ, जाओ तत्थ तरुणीश्रो ताओ हम्मति, डसंति , जहा जहा उवसग्ग करेह तहा तहा सामी अती-| ताहे निग्गतो ! भगवं सुभोमं वश्चइ, तत्थ वि. व झाणेण अप्पाण भावेर, जाहे तेहिं न सक्किो ताहे वि- भिक्खायरियाए, तत्थ वि आवरेत्ता महिलाण अंजलि करेच्छुए विउब्वति, ताहे वायति जाहे न सक्का ताहे नउले इ, पच्छा तेहिं पिट्टिजति, ताहे भगवं णीति, पच्छा सुच्छेविउब्बर, ते तिक्खाहिं दाढाहिं उसंति, खंडखंडाईच अ-1 त्ता नाम गामो तहिं बच्चा जाहे अतिगतो सामी भिक्खाए
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वीर
ताहे इमो श्रवरेता विडरूवं विउव्वर, तत्थ इसइ य गाय य अट्टट्टहासे य मुंचति, काराच्छियाओ य जहा विडो तहा करे, असिद्धाय व भगर, तत्थ वि हम्मर, ताहे तो चि पीति ।
( १३८२) अभिधानराजेन्द्रः ।
मलए पिसायरूवं, सिवरूवं हत्थिसीसए चैव ।
ओहसणं पडिमाए, मसाथ सको जवणपुच्छा ॥ १०८ ॥ ततो मलयं गतो गामं, तत्थ पिसायक विन्दति उम्म तयं भगवती कर्व करे, तस्थ अविरयाओ भवता - राद्दर, तत्थ बेडकारकयारेहि भरिर लेड्डु (हु) भरिज्जर एहि च हम्मद्द, ताणि य विहावे ततो ताणि छोडिया पडियाणि नाति, ताकहिते हम्मति, ततो सामी निम्तो इरियसीसं गामं गतो, तत्थ भिक्खाए अविगयस्स भगवओ सिवरुवं विउब्वर सागारियं च से कसाइययं करेइ, जाहे पेच्छा, अविरइयं ताहे उट्ठवेद, पच्छा हम्मति, भयवं चिंतेति - एस अतीव गाढं उड्डाहं करेइ असणं च तमदा गामं चैव न पविसामि यादि अच्छामि, धरणे भरांतिपंचालदेवरूपं जदा तदा विजयति तदा फिर उप्पो पंचालो, ततो वाहि निग्गश्रो गामस्स, जो महिलाजूनं तत्र कसाइततेण ऋच्छति, ताहे किर ढोढसिवा पवत्ता, जम्हा सकेण श्रोताहे ठिया, ताहे सामी एगंतं श्रच्छति, ताहे संगमय उसेइ न सका तुम ठायाओ चालेड ?, पेच्छामि ता गामं श्रतीहि ताहे सको आगतो पुच्छह-भगवं ! जत्ता मे जब अयाबाई फासूपविहारं १, वंदिता ग
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तोसलिकुसीसरूवं, संधिच्छेयो इमो ति वज्झो य । मोह इंदालिङ, तत्थ महाभूइलो नामं ॥ ५०६ ॥ ताहे सामी तोसलिं गतो, बाहि पडिमं ठिश्रो, ताहे सो देवो चिंतेइ एस न पविसह एत्ताहे एत्थ वि से ठियस्स करेमि उवसग्गं, ततो खुड्डुगरूवं विउग्वित्ता संधि छिंदर उवकरणेहिं गहिएहिं धाडीप तो सो गहितो भणति - मा अहं कि जाग्राम आयरिए अहं पेसियो कहिं सो ?, एस बाहिं अमुए उज्जाणै, तत्थ इम्मति, बज्भतिथ मारे वो सीओ तत्थ भूलो नाम इंदजालियो, ते सामी कुंग्गामेदिओ ताहे सो मोर, साहइ य-जहा एस सिद्धत्थरायपुत्तो, मुको स्वामिश्रो खुट्टओ मग्गिय न विट्टो, नायं जहा से देवो उस करे।
मोलि संधि सुभागह, मोएइ रडिओ पिउवयंसो ।
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तोसलि व सतरज्जू बावची तोसलीमोक्खो ॥११०॥ ततो भग मोलि गयो, तर विवाह पडिमं डियो, तत् चिसो देवो खुरु चियिता संधिमग सोहेर पडिलेहेर व सामिस्स पासे सय्याणि उपगराणि चित्रव्यइ, ताहे सो खुड्डश्रो गहिश्रो, तुम कीस एत्थ सोहेसि ?, साहइ - मम धम्मायरियो रति मा कंटए भंजिहिति सो सुरचितं गिहिनि सो कहिँ ?, कहिले गया, दिट्टो सामी, ताण व परिपेरन्ते पार्थति, गहितो त स्थ सुमागहो नाम रट्ठश्रो पियमित्तो भगवओो सो मोह, तनो सामी तोसलि गयो, तत्थ वि तद्देव गहिश्रो, नवरं-उक्कलं विजिउमादत्तो तत्थ से रज्जू छिरणो, एवं सत्त वारा
बीर
छिौ, ताहे सिद्धं तोसलियस्स खत्तियस्स, सो भणति - मुग्रह एस श्रचोरो निहोसो, तं खुइयं मग्गद्द, मग्गिज्जतो न दीसह, नायं जहा देवो ति ।
१.
सिद्धत्यपुरे तेथे ति कोसिओ आसवाणिओ मोक्खो । वयगामर्हिडऽसण, बिइयदिणे बेइ उवसन्तो ।। ५११ ।। ततो सामी सिधपुरं गतो, तस्य पितेा तहा क जहा तेणो ति गहिश्रो, तत्थ कोसिश्रो नाम अस्सवालियो, ते कुंडपुरे सामी दिल्लओ, तेरा मोयाविशो ततो सामी वामं ति गोडलं गयो - तत्थ य तद्दिवसं छणो, सव्वत्थ परमं उवक्खडियं, चिरं च तस्स देवस्स दिवस सम्म कार्ड सामी चिंतेर गया मासा, सो गतो ति श्रतिगओ जाव असणाओ करेति ततो सामी उवउत्तो पासति, ताहे अद्धहिंडिए नियतो बाहिं पडिमेडियो, सोय सामि हिला प्रभोपति- किंम
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"
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परिणामो न व सितारे खामी तद्देव सुखपरिणामो ताद आउट्टो, न तीरह खोमेडं, जो इदि मासेदिं न चलियो यस दीणावि काले न सको चालताहे पादे पडिश्रो भणति-सचं जं सबको भणति, सव्वं खामेह-भगवं ! अहं भग्गपतितो तुम्हे सम्मत्तपतिरणा ।
बच्चह हिंडह न करे-मि किंचि इच्छा न किंचि दत्तव्यो । तत्थेव वच्छवाली, थेरी परमभवसुहारा ।। ५१२ ।।
मासे बद्धं, देवो कासी य सो उ उवसग्गं । दय वयग्गामे, बंदिय वीरं पडिनियचो ।। ५१३ ॥ जाह एसा अती न करेमि उपसर्ग, सामी भणति भो संगमय ! नाहं कस्सर वत्तव्यो, इच्छाए अतीमि वा या ताई सामी चितियदिवसे तत्थेय गोडले हिंडतो -
"
वालचेरी दोसीस पायसेस पडिलाभिओ ततो पंच दिव्यासि पाउम्भूपाणि एगे भांति जदा तदिवस भीरं न यं ततो वितियदिवसे ऊहारेऊण उपसडिये ते पडिलाभिश्रो इम्रो य सोहम्मे कप्पे सम्ये देवा दि इसे उपग्गमणा अच्छति, संगम य सोहम्मे गो तत्यसको तं ददरा परंमुडो ठिथो, भवर-देवे भी! सुयह एस दुरप्पा, ए एएण अम्ह वि चित्तावरक्खा कया असिया देवा जतिक प्रसारोन एए
3
अम्ह कज्जं, असंभासो निव्विसश्रो य कीरउ । देवो चु(ठि) महिडिओ, वरमंदरचूलियाइसिहरम्मि | परिवारिउ सुरबहुर्हि, आउम्मि य सागरे सेसे || ५ १४ ।। ताहे निच्छुढो सह देवीहिं मंदरचूलियाए जाणपण विमा
गम्म डियो, सेसा देवा देश वारिता, तस्स सागरोषमदिती सेसा ।
श्रालभियं हरि विज्जू, जिणस्स भत्तीऍ वंदओ ए इ । भगवं पिपुच्छा जिय, उवसम्मति चेदमवसे ॥५१५।। हरिसह सेयवियाए, सावन्थी खदपडिमसक्को य । यरिउं पडिमाए, लोगो आउट्टियो वंदे ॥ ५१६ ।।
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(१३८३)
अभिधानराजेन्द्रः। तत्थ सामी पालभियं गो, तत्थ हरि विज्जुकुमारिंदी| यधूया दासत्रण पत्ता नियलबद्धा मुंडियसिरा रोवमापति, ताहे सो वंदित्ता भगवो महिमं काऊण भणति- णी अट्ठमभत्तिया, एवं कप्पति, सेसं न कप्पति, एवं भगवं! पिय पुच्छामो , नित्थिरणा उवसग्गा , बहुं गर्य घेत्तूण कोसंबीए अच्छति । दिवस दिवसे भिक्खायरियं व थोवमवसेस, अचिरेण भे केवलणाणं उम्पजिहिति । ततो | फासर, किंनिमित्तं ? बावीसं परीसहा भिक्खारियाए सेयंबियं गो, तत्थ हरिसहो पियपुच्छो एड, ततो उदिजन्ति, एवं चत्तारि मासे कोसंबीए हिंडंतस्स ति। तासावत्थि गयो, बाहिं पडिम ठिो, तत्थ खंदगपडिमाए हे नंदाए घरमणुप्पविट्ठो , ताहे सामी णामो , तारे महिम लोगो करेह, सक्को ओहिं पउंजति , जाव पेच्छा परेण श्रादरेण भिक्खा णीणिया, सामी निग्गो, सा चंदपडिमाए पूर्य कीरमाणं, सामि गाढायति, उत्तिण्णो अधिति पगया, ताओ दासीओ भणति-एस देवजी सा य अलकिया रहं विलग्गिहिति त्ति , ताहे सक्को तं प- दिवसे दिवसे पत्थ पद-ताहे ताए नाय-नूणं भगवश्रो डिम अणुपविसिऊण भगवंतणं पट्टिो, लोगो तुट्ठो भण- अभिग्गहो कोइ, ततो निरायं चेव अधिती जाया , सुति-देवो सयमेव विलग्गिहिति, जाव सामि गंतूण वंद- गुत्तो य अमच्यो आगो, ताहे सो भणति-कि अधिति ति, ताहे लोगो प्राउट्टो, एस देवदेवो त्ति महिमं कर जा- करेसि ?, ताहे कहियं, भणति-किं श्रम्ह अमच्चसणेणं ?, व अच्छिनो।
एवचिरं कालं सामी भिक्ख न लहा, किं च ते विकोसंवि चंदमूरो-यरणं वाणारसी यसको उ।
पाणणं ? ,जह एवं अभिम्गहं न याणसि, तेण सा पा
सासिया, कल्ल समाणे दिवसे जहा लहर तहा करेमि । रायगिहे ईसाणो, महिला जणो य धरणो य ॥५१७॥
एयाए कहार वट्टमाणीए विजयानाम पडिहारी मिगावततो सामी कोसंविं गतो तत्थ चंदसूरा सविमाणा म- तीए भणिया सा केणइ कारणणं आगया, सा तं सोऊहिमं करेंति, पियं च पुच्छंति, वाणारसी य सक्को पियं पु- ण उल्लावं मियावतीए साहर, मियावती वि तं सोऊण कछह रायगिहे, ईसाणो पियं पुच्छर, मिहिलाए जणगो रा- महया दुक्खणाऽभिभूया, सा चेडगधूया अतीव अधिर्ति पया पूयं करेति, धरणो य पियपुच्छशो एछ।
गया, राया य ागो पुच्छइ, तीए भएण-किं तुज्झ वेसालि भूयणंदो, चमरुप्पाओ य सुसुमारपुरे ।
रज्जेणं ? मते वा ?, एवं सामिस्स पवतियं कालं हिंडंभोगपुरि सिंदकंदग, माहिंदो खत्तिो कुणति॥५१८॥
तस्स भिक्खाभिग्गहो न नजद, न च जाणसि पत्थ विह
रंतं, तेण आसासिया-तहा करेमि जहा कल्ले लभइ, ताहे ततो सामी वेसालि नगरिं गतो, तत्थेक्कारसमो वासारत्तो,
सुगुत्तं अमच्चं सहावेह, अंबाडेइ य-जहा तुम पागय सातत्थ भूयाणदो पियं पुच्छह नाणं च वागरे । ततो सामी
मिन याणसि, अज किर चउत्थो मासो हिंडतस्स, तासुसुमारपुरं पड, तत्थ चमरो उप्पयति, जहा पन्नत्तीए , ततो
हे तच्चावादी सद्दावितो, ताहे सो पुच्छिो सयाणीएण भोगपुरं पह, तत्थ माहिंदो नाम खत्तिो सामि दळूण
तुम्भं धम्मसत्थे सवपासंडाण आयारा आगया ते तुम सिंदिकंदयेण पाहणामि त्ति पहावितो, सिंदी-स्वर्जूरी।
साह, इमोऽवि भणितो-तुम पि बुद्धिबलिश्रो साह, ते वारणसणंकुमारे, नंदीगामे पिउसहा वंदे ।
भणति-बहवे अभिग्गहा, ण णज्जंति को अभिप्पाओ?, मंढियगामे गोवो, वित्तासणयं च देविंदो ॥ ५१६ ॥ दव्यजुत्ते खेत्तजुत्ते कालजुत्ते भावजुत्ते सत्त पिंडेसणाम्रो स
तपाणसणाओ, ताहे रगणा सव्वत्थ संदिट्ठारो लोगे, तेपत्थतरे सणंकुमारो पति, तेण धाडिओ तासिओ य पिय
ण वि परलोयकंखिणा कयामओ, सामी आगतो, न य च पुच्छह । ततो नंदिगामं गो,तत्थ णंदीणाम भगवो पि
तेहिं सव्वेहिं पयारेहिं, गेण्हा, एवं च ताव एयं । इनो यमित्तो,सो महेइ,ताहे मेंढियं पइ । तत्थ गोवो जहा कुम्मार
य सयाणीओ चंपं पहावित्रओ, दधिवाहणं गगहामि , ना. गामे तहेव सकेण तासिओ वालरज्जुएण पाहणतो।
वाकडएणं गतोएगातेरतीते, अचिंतिया नगरी वेढिया-तत्थ कोसंबिऍ सयॉणीओ, अभिग्गहो पोसबहुलपाडिवई । दहिवाहणो पलामो, रगणा य जग्गहो घोसिओ, एवं जग्गहे चाउम्मासमिगावइ, विजयसुगुत्तो य नंदा य॥५२०॥ घुटे दहिवाहणस्स रएणो धारिणी देवी, तीसे धूया वसुमती, तच्चावाई चंपा, दहिवाहण वसुमई विजयनामा।
सा सह यूयाए एगेण होडिएण गहिया, राया य निग्गो ,
सो होडिअो भणति एसा मे भज्जा, एयं च दारियं विकेणिधणवह मूला लोयण, संपुल दाणे य पयजा ।।५२१॥
स्सं, सा तेण मणोमाणसिपण दुक्खेण एसा मम धूया ग ततो कोसंबिंगओ, तत्थ सयाणीश्रो राया, मियावती दे- णज्जा कि पाविहिति त्ति अंतरा चेव कालगया, पच्छा वी, तच्चावाती नामा धम्मपाढो, सुगुत्तो अमचो, गंदा
तस्स होडियस्स चिंता जाया-दुटु मे भणियं-महिला से भारिया, सा य समणोवासिया, सा य साहिति मियाव- मम होहित्ति, एतं धूयं से ण मणामि, मा एसा वि मरिहिईए वयंसिया, तत्थेष नगरे धणावहो सेट्ठी, तस्स मूला ति, ता मे मोल्लं पिण होहि ति ताहे तेण अणुयत्तंतेण भारिया , एवं ते सकम्मसंपउत्ता अच्छति । तत्थ आणीया विवणीए उहिया, धणावहेण विट्ठा, अणलंकियला सामी पोसबहुलपाडिवए इमं एयारूवं अभिग्गहं - वरणाअवस्सं रणो ईसरस्स वा एसा धूया, मा भावई भिगिण्हा चउब्विह-दवो खित्तो, कालो, भावों, पावउत्ति, जत्तियं सो भणइ तसिएण मोल्लेण गहिया, वरं दब्बो कुम्मासे सुप्पकोणणं, खेत्तो पलुगं विक्खंभ- तेण समं मम तम्मि नगरे श्रागमणं गमणं च होहिति त्ति, इत्ता , कालो नियत्तेसु भिक्खायरेसु , भावतो जहा रा- पीया णिययघरं, कासि तुमं ति पुच्छिया, न साहा, पच्छा
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(१३०४) अभिधानराजेन्द्रः ।
वीर
तेरा धूय ति गहिया एवं सारदाविया, मूला वि तेरा भ शिया - एस तुज्झ धूया, एवं सा तत्थ जहा नियघरं तहा सुदं सुछति, ताप वि सो सदा सपरियो लोगो सीले विणण व सन्चो अप्पणियो कओ, ताहे वाणि सम्पाणि भांति अहो इमा सीलबंद सिः ताहे से बिति यं नाम जायं चंदण प्ति, एवं वच्यति कालो, ताए य धरणी
श्रवमाणो जायति मच्छरिज्जइ य, को जाणाति ? कयाति एस एवं पडियज्जेजा, ताहे अहं घरस्स अस्सामिणी भ विस्वामि, तीखे य वाला अतीच दीहा रमणिज्जा किएहाय, सो सेट्ठी मरभरहे जराविरहिए आगयो, जाय गरिय कोड जो पांदे सो सिता सा पाणियं गद्दाय निम्गया, तेरा बारिया, सा महोए पधाविया, ताहे धोती वा ला बज्रेल्लया छुट्टा, मा चिक्खिल्ले पडिहिति ति तस्स हत्थे लीलाकट्ठयं, तेण धरिया बद्धा य । मूला य श्रोलोयjवरगया पेच्छर, तीए णायं विणसियं कज्जं जइ एयं हि वि परिणे तो ममं एस नत्थि जाव तरुणश्रो याही ताव तिमिच्छामि नि सिट्टिम्मि निम्गए ताप तहाचियं सदावेत्ता बोडोविया नियलेहि बच्चा, पिट्टिया व वारियो साए परिजो-जो साहर बारियगस्स सो मम नरिथ, ताहे सो पिलिओ सा घरे हो बाहिरि कुडिया, सो कमेण
गोपुर - कहिं चंदणा ?, न कोइ वि साहइ भयेण, सो जाणाति-नूरमति उवरिं वा । एवं रातिं पि पुच्छि - या जाणाति सा सुत्ता नृणं, बितियदिवसेऽवि सा न दिट्ठा, ततियदियसे धणं पुच्छर साइड मा मे मारेह, ताहे घेरदासी एक्का; सा चिंतेइ किं मे जीविएण ? । सा जीव व राई; ताए कहिये - श्रमुयघरे; तेण उग्घाडिया, छुहाहयं पिच्छित्ता कूरं पमग्गितो, जाव समावतीए नत्थि ताहे कुम्मासा दिट्ठा, तीसे ते: सुप्पको दाऊण लोहारघरं गो, जानियागामि, ताहे सा इत्थिी जहा कुलं संभरिउमारा पलुगं विषमत्ता तेहिं पुरो का हिययम्मंतर रोवति, सामी य प्रतियची, तार चितियं सामिस्स देमि मम एवं अहम्मफलं भवति भगवं ! कप्पर ? सामिण पाणी पसारिश्रो, चउब्विहोऽवि पुराणो अभिग्गहो, पंच दिव्वाणि ते, बाला तयवत्था चैव जाया, ताणिऽवि से निलागि फुट्टासिसोदिया उराणि जायाणि दे बेडियसका कया, सक्को देवरायागो, सुहारा अतेरस हिराकोडिओ पाडिया, कोसंबी य सम्यधो उकेरा पुरा पुराणमंते अन सामी पडिला मिश्रो ?, ताहे राया संतेउर परियो आगो, ता तथ संपुला नाम दहिवाहणस्स कंचुइजो सो बंधिन्ता श्राणियओ तेरा साया, ततो खो पादे पडिपो, राया पुच्छर का एसा ! तेरा से कहियं-जहेसा दहिवाहणरराणो दुहिया, मियावती भगह - मम भगिणीधूयति, श्रमयोऽपि सपलीओ आगओ, सामि मंद, सामी विनिम श्रो, ताहे राया तं वसुहार पहिओ, सबके वारिओ, ज स्पेसा देव तस्याऽऽभव सा पुच्या भग-मम पिउ 'ताहे सेट्ठिा गहियं । ताहे सक्केण सयाणीश्रो भणिश्रो-एसा चरितसरीरा एवं सगोपादि०जाव सामिस्स नाग १- बलात् । २- मुडिता ।
वीर
उप्पर, एसा पदमसिलिगा, ताहे कांतेरेछूढा संघति । छम्मासा तया पंचहि दिवसेहिं ऊणा जद्दिवसं सामिया भिक्खा लया । सा मूला लोगेणं संपाडिया ही लिया य ।
तत्तो सुमंगलाए, सगँकुमार सुवित्त एइ माहिंदो । पालगवाइलवखिए, अमंगलं अप्पणो असिया।। ५२२ ।। सामी ततो निम्गंत सुमंगलं नाम गामो तहिं गनो, तत्थ सणकुमारो पर बंदति पुच्छति य । ततो भगवं सुच्छिलं गयो, तरथ माहिंदो पि पुच्छी पह। ततो सामी पाल नाम गामं गश्रो, तत्थ वाइलो नाम वाणियओ जताए पहाबियो अमंगलं ति काऊण असिं गद्दाय पहाविश्रो एयरस फलउ ति तत्थ सिद्धत्थे सहत्थेण सीसं छिरणं । चंपा वासावासं, जक्खिदे साइदत्तपुच्छा य ।
वागरखदुहपएसल, पञ्चक्खाणे यदुविहे उ ।। ५२३ ॥ ततो सामी बर्ष नगरि यो तत्थ सातिदत्तमाहसस्स श्रग्गिोत्सवाला वसई उदगयो, साथ चाउमा लमति तस्य पुराण- माणिभदा दुवे असा पिज्जुवासं ति, बसारि विमासे पूर्व करेति रनि निता सोि तेइकं जाति स तो देवा महंति ताहे विश्वासणानि मित्तं पुच्छर - को ह्यात्मा ?, भगवानाह - योऽहमित्यभिमन्यते । स की है, सूक्ष्मोऽसी । किं तत् सूक्ष्मम् पन्न गृह्णीमः । ननु शब्दगन्धानिलाः, नैते इन्द्रियग्राह्यास्ते न ग्रहणमात्मनः ननु प्रापिता खः किं भंते! पाय किं पच्चक्खाणं ?, भगवानाह सादिदत्त ! दुविहं पदेसणगं-धम्मियं, अधम्मियं च । पदेसणं नाम उवएसो । पश्चक्खाणेऽवि दुविहे मूलगुणपश्चक्खाणे, उत्तरगुणपच्चक्खाणे य । एएहिं पहिं तस्स उवगतं । भगवं ततो निग्गश्रो ।
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"
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जंभियगामे नाण - स्स उप्पया वागरेइ देविंदो । मिंढियगामे चमरो, बंद पियपुच्छणं कुणइ || ५२४॥ जंभियगामं गो, तत्थ सक्को श्रागश्रो, वंदित्ता नट्टविहिं उबइंसिना बागरे- जहा पनि दिवसेदिकेचलनास उप्पजि दिति । ततो सामी मिडियमा गयो तत्थ चमर पिपुच्छ व पति वंदिता पुन्ना य परिगतो। छम्माणि गोव फडसल-पवेस मज्झिमाऍ पावाए। खरओ पिओ सिद्धत्थ, वाणियओ नीहरावे ।। ५२५ ।। ततो भगवं मणि नाम मा गयो, तर बाहि पदिमं ठिश्रो, तत्थ सामिसमीवे गोवो गोरो छड्डेऊण गामे पविडो दोहणासि काऊ नि ते य गोगा अडवि पविट्ठा चरियव्वगस्स कज्जे, ताहे सो श्रागतो पुच्छति - देवजग ! कहिं ते वदल्ला ?, भयवं मोरोण अच्छर, ताहे सो परिकुविश्रो भगवतो करणे कसलगाओ हुइति एा इमे कराएगा इमे जाय दोषि वि मिलियाओ, ताहे मुले भ गाओ मा को उपसमिति नि के भांति का जाव इयरेण करणेण निग्गता ताहे भग्गा, ' करणेसु तरं तत्तं, गोवस्स कयं तिविट्टुखा रण्णा । करणेसु वज्रमाण-स्स [ते] टूटा डसलाया | १॥ भगवतो तहारवेषणीयं कम्मं उदिएं । ततो सामी ममं गतो तत्थ सिद्धस्था
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बीर
नाम वाणियगो, तस्स घरं भगवं श्रतीयश्रो, तस्स य मिसो खरगो नाम वेज्जो, ते दो वि सिद्धत्थस्स घरे अच्छति, सामी मिक्स पविट्ठो वासियो बंदति गति व वे भिक्खस्स य, जो तित्थगरं पासिऊण भणति - श्रहो भगवं सव्वलक्ख
तत्थ
पुण्य किं पुरा ससनो, ततो सो वाणियचो संतो भगति पलोपहि कहिं सो, ते पलोग विकराणे, तेण वाणियपण भरण - पीरोहि एयं महातवस्तिस्स पुराणं होहिति त्ति, तव वि मज्झ वि । भणति - निप्पडिकम्मो भगवं नेच्छति तादे पडियरावितो जाय दिडो उज्जाणे पडिमं ठिश्रो, ते श्रसहाणि गहाय गया, भगर्व दोणी निजामिक्सिको या बहुयहि से िजनो तो य, पच्छा, संडास महायति तत्थ समहिराओ सलानाओ अंदिया तालु यति भगवता आरसिये, ते व मलूसे उप्पादिता उट्टिश्रो, महाभेरवं उज्जाणं तत्थ जायं, देवकुलं च पच्छा संरोह ओस दिनं जे ताले पो ताहे वंदिता वामेत्ता य गया । सव्वेसु किर उवसग्गेसु कयरे दुब्विसहा है, उच्यते कडपणासीयं कालचक एवं स निक्कद्दिजंतं, श्रहवा–जहणणगाण उवरि कडपूयणासीयं, मग उपरि कालचके, उद्योगाच उपरि सल्लुजर एवं गोवेरा उसमा गोषेण देव निहिता । गोवो श्रहो सत्तमिं पुढवि गश्रो । खरतो सिद्धत्थो य देवलोगं तिव्वमवि उदीरयंता सुद्धभावा । श्राव० १ ० ।
3
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(२५) उपसर्गसहनानन्तरं वीरस्य श्रमत्यम्तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए, इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्वणासमिए उच्चारपासखेलसिंघाणजन पारिडाव लियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयंगु कायगुचे, गुले गुलिदिए गुत्तभयारी अकों म माणे अमाए अलोभे संते पसंते उवसंते परिनिव्बुडे अणासवे श्रममे किंचणे छिन्नगंथे । ( सू० १६ X ) ' णं तर सम भगवं महावीरे यत एव परीषदान् यत एव परीषहान् सहते ततः, वाक्यालङ्कारे, श्रमणो भगवान् महावी
"
रः ' अणगारे जाए' अनगारो जातः, किविशिष्टः परिअसमियां गमनागमनं तत्र समितः- सम्प प्रवृतिमान्' भासासमिए' भाषायां समितः 'एसणासमिए 'एद्विचत्वारिंशदोषवर्जिताया भिक्षाप्रद सम्प प्रवृत्तिमान् 'आयारामेडम त्तनिवासमिए' आदाने प्रहणे, उपकरणादेरिति ज्ञेयम् भाण्डमात्रायाः कर राजातस्य यद्वा- भाण्डस्य वस्त्रादेर्मृन्मयभाजनस्य वा, मात्रस्य च समितः प्रत्यवेश्य प्रमाज्यं मोचनात् उच्चार पांचसखेलधिराजलपारिकायचियासमिए उपचारःपुरीषं, प्रश्रवणम् - मूत्रं खेलो - निष्ठीवनं सिङ्घानो-नासिकानिर्गतं श्लेष्म, जल्लो - देहमलः, एतेषां यत् परि ष्ठापनं -- त्यागस्तत्र समितः - सावधानः, शुद्धस्थण्डिले परिष्ठापनात् । एतच्च अन्त्यसमितिद्वयं भगवतो भाण्डसिङ्घानाथसम्भवेऽपि नामाऽखण्डनार्थमित्यमुम्
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एवम्
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(१३८५) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
वीर
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'म समिए' मनसः सम्यक् प्रवर्त्तकः ' वयसमिए' वचसः सम्यक् प्रवर्त्तकः ' कायसमिए' कायस्य प्रवर्त्तकः ' मगुत्ते ' अशुभपरिणामाविकत्वात् मनसि गुप्तः व ' वयगुत्ते ' एवं वचसि गुप्तः ' कायगुत्ते' काये गुप्तः गुते गुतिदिए ' श्रत एव गुप्तः, गुप्तानि इन्द्रियाणि यस्य सः गुप्तेन्द्रियः 'गुत्तबंभयारी' गुप्तं वसत्यादिनववृत्तिविराजितम् एवंविधं ब्रह्मचये चरतीति गुप्तब्रह्मचारी कोडे अमाणे अमाप प्रलोभे 'क्रोधरहितः मानरहितः मायारदितः लोभरहितः 'संते' शान्तोऽन्तस्या 'पसंते प्रशातो पहिया उचसंते उपशान्तो ऽन्तर्बहिश्रोभयतः ' ' शान्तः, अत एव 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृतः - सर्वसन्तापवर्जितः सये अनाथयः पापकर्मबन्धरहितः हिं सावाधवद्वारविरतेः 'अम' ममत्वरहितः 'चिकि श्ञ्चनः किञ्चनं द्रव्यादि तेन रहितः 'छिन्नगंथे' छिन्नःत्यक्तो हिरण्यादि ग्रन्थो येन स तथा । कल्प०१ अधि० ६ क्षण । ("निरुवलेवे" इत्यादीनि भगवतः विशेषणपदानि 'गिरुलेव' शब्दे चतुर्थभागे २११५ पृष्ठे गतानि )
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से पांडेबंधे चउव्विहे पत्ते, तं जहा दव्वओ, खितत्र, कालओ, भावओ । दव्व सचित्ताचित्तमीसिएस दब्देसु खिचओ गामे वा नपरे वा, अरने वा खित्ते वा, घरे वा, अंगणे वा, नहे वा । कालो समए वा, आवलिआए वा आणपागुए वा, धोवे वा खवा, लवेवा, मुहुत्तेवा, अहारते वा, पक्खे वा, मासे वा, उऊ वा, अयणे वा, संवच्छरे वा, अन्नयरे वा, दीहकाल - संजोए । भावओ-कोहे वा, माणे वा मायाए वा, लोभे वा भए वा हासे वा पिजे वा, दोसे वा, कलहे वा अब्भक्खाणे वा, परपरिवार वा अरइरई वा, मायामोसे वा, मिच्छादंसणसल्ले वा, तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ ॥ ( सू० ११६ X )
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स च प्रतिबन्धः
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' से य पडिबंधे चउबिहे परणत्ते चतुर्विधः प्रज्ञप्तः चतुर्विधः शतः जहा तथा व्यओ वित्तओ तं " कालो भावश्री ' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतश्च 'दव्वओ सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु' द्रव्यतस्तु प्रतिबन्धः सचिताऽवित्तमिश्रितेषु द्रव्येषु सचितं वनितादि अचित्तम् - श्राभरणादि, मिश्र - सालङ्कारवनितादि, तेषु सथा' खित्तओगामे वा ' क्षेत्रतः क्वापि ग्रामे वा नयरे वा' नगरे वा ' अरण्ये वा श्ररण्ये वा खित्ते वा क्षेत्रं धान्यनिष्पत्तिस्थानं तत्र वाचले वाचलंधाय तुपपृथशरणस्थानं तत्र वा घरे वा गृहे पा श्रंगणे ' अङ्गणं-गृहाग्रभागस्तत्र वा 'नहे वा' नभः- आकाशं तत्र वा, तथा 'कालश्रो समय वा' कालतः --समय:सर्वसूक्ष्मकालः उत्पलपत्रशतवेध जीं पट्टाटिकापाटनादिदृष्टान्तसाध्यस्तत्र वा 'श्रवलियाए वा श्रावलिका-असकृन्यातसमयरूप आणपासुर वा अनयाली उच् ' '
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सनिःश्वासकालः 'थोवे वा 'धोये या १ स्तोकः - सप्तोच्छ्वासमानः 'खणे वा ' क्षणे घटिषष्टभागे वा ' लवे या
लव:-स
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वीर
(१३८६) अभिधानराजेन्द्रः।
वीर प्तस्तोकमानः ' मुहुत्ते वा ' मुहूर्तः-सप्तसप्ततिलबमानः | ताई। तेरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा बढमाणस्स, जे से 'अहोरसे वा, पक्खे वा, मासे वा, उऊ वा, अयणे वा, सं-| गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे तस्स णं बच्छरे वा' अहोरात्रे वा, पक्षे वा, मासे वा, ऋतौ वा, अयने वा, संवत्सरे वा 'अम्लयरे वा दीहकालसंजोए 'अ
वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए म्यतरस्मिन् वा दीर्घकालसंयोगे, युगपूर्वाङ्गपूर्वादी 'भाव- पोरिसीए अभिनिविट्ठाए पमाणपत्ताए सुन्वएणं दिवसेणं भो' भाषत:- कोहे वा, माणे वा, मायाए वा, लोभे वा, विजएणं मुहत्तेणं भियगामस्स नगरस्स बहिना उज्जुभए वा, हासे वा' क्रोधे वा, माने वा, मायायां वा, लोभे वा,
बालिआए नईए तीरे वेयावत्तस्स चेइअस्स अदूरसामंते भये वा, हास्ये वा, 'पिज्जे वा, कलहे वा, अम्भक्साणे वा' प्रेम्णि वा, रागेवा, द्वेषे-अप्रीतौ, कलहे-वाग्युद्ध, अभ्या
सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि सालपायवस्स आहे स्याने-मिथ्याकलङ्कदाने, 'पेसुन्ने वा, परपरिवाए षा' पैशू- गोदोहिआए उक्कुडिअनिसिजाए आयावणाए आयवेन्ये-प्रच्छन्नदोषप्रकटने, परपरिवादे-विप्रकीर्णपरकीयगुण
माणस्स छद्वेणं भत्तेणं अपाणएणं हत्युत्तराहि नक्खत्तणं दोषप्रकटने 'अरहरई वा, मायामोसे वा' मोहनीयोदया
जोगमुवागएणं झाणंतरित्राए वट्टमाणस्स अणंते अणुत्तचित्तोद्वेगः-अरतिः, रतिः-मोहनीयोदयाच्चित्तप्रीतिस्तत्र, मायया युक्ता मृषा मायामृषा तत्र 'मिच्छादसणसल्ले वा'
रे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुओं केवलवरनाणमिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं, तदेव अनेकदुःखहेतुत्वाच्छल्यं मि- | दसणे समुप्पो ॥ १२०॥ ध्यादर्शनशल्यं, तत्र 'तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवा'
'तस्स णं भगवंतस्स' तस्य भगवतः 'अणुत्तरेण नाणेणं' तस्य भगवतः एवं पूर्वोक्कखरूपेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु कुत्रा
अनुत्तरेण-अनुपमेन मानेन अनुत्तरेण दंसणेणे अनुपमेन दपि प्रतिबन्धो नैवास्तीति।
शनेन 'अणुत्तरेण चारित्तेणं' अनुपमेन चारित्रेण 'अणुत्तरेणं से णं भगवं वासावासं वजं अट्ट गिम्हहेमंतिए मासे गा-| बालपण' अनुपमेन पालयेन स्त्रीषण्डादिरहितवसतिसेवनेमे एगराइए नगरे पंचराइए वासीचंदणसमाणकप्पे समति
न 'अणुत्तरण विहारेण' अनुपमेन विहारेण, देशादिषु भ्रम
णेन 'अणुत्तरेणं पीरिएणं' अनुपमेन वीर्येण-पराक्रमेण अणुणमणिलेडुकंचणे समसुहदुक्खे इहपरलोगअप्पडिबद्धे ,
त्तरेणं अजवणं' अनुपमेन आर्जवं-मायाया अभावस्तेन जीवियमरणे अनिरवकंखे,संसारपारगामी कम्मसत्तुनिग्या 'अणुत्तरेणं महवेणं' अनुपमन , मार्दवं-मानाऽभावस्तेन यणढाए अन्मुट्ठिए एवं च णं विहरइ । (सू० ११६४) 'अणुत्तरेणं लाघवेणं' अनुपमेन, लाघवं द्रव्यतः अल्पोप‘से णं भगवं' स भगवान् ‘वासावास वज' वर्षावास
धित्वं , भावतो गौरवत्रयत्यागस्तेन 'अणुत्तराए खंतीए' चतुर्मासी तां वर्जयित्वा 'अट्ट गिम्हहेमंतिए मासे' अष्टौ ग्री
अनुपमया क्षान्त्या-क्रोधाऽभावेन 'अणुत्तराप मुत्तीए' अनुमहेमन्तसम्बन्धिनो मासान् ‘गामे एगराइए' ग्रामे एक- पमया मुक्त्या, लोभाऽभावेन 'अणुत्तराए गुत्तीर' अनुपमरात्रिका, एकरात्रिवसनस्वभावः 'नगरे पंचराइए ' नगरे
या गुप्त्या, मनोगुप्त्यादिकया 'अणुसराए तुट्ठीए' अनुपमया पञ्चरात्रिका, पुनः किंविशिष्ठः-'वासीचंदणसमाणकप्पे'
तुष्टथा-मनःप्रसत्या 'अणुत्तरेणं सच्चसंजमतवसुचरिय' वासी-सूत्रधारस्य काष्ठच्छेदनोपकरणं, चन्दनं प्रसिद्धं, त.
अनुपमेन-सत्यं, संयमः-प्राणिदया , तपो-द्वादशप्रकारम् योर्द्वयोर्विषये समानसङ्कल्पस्तुल्याध्यवसायः,पुनः किं विशि- एतेषां यत्सुचरण-सदाचरणं तेन कृत्वा 'सोवचियफलनिट:-'समतिणमणिलेटुकंचणे' तृणादीनि प्रतीतानि नवरं ले
व्वाणमग्गेणं'सोपचयं-पुएं फलं मुक्तिलक्षणं यस्य एवंविधो यः
परिनिर्वाणमार्गो रत्नत्रयरूपस्तन , एवमुक्नेन सर्वगुणसमूहेष्टुः-पाषाणः, समानि तुल्यानि तृणमणिलेष्ट्रकाञ्चनानि यस्य
न 'अप्पाणं भावमाणस्स' आत्मानं भावयतो ' दुबालस संव स तथा 'समसुहदुक्खे' समे सुखदुःखे यस्य स तथा 'इह
च्छराई विकंताई' द्वादश संवत्सरा व्यतिक्रान्ताः, ते चैवम्परलोगअप्पडिबद्धे' इहलोके परलोके च अप्रतिबद्धः, अत
एकं परमासक्षपण, द्वितीयं षण्मासक्षपणं पञ्चदिनन्यून , नव एव 'जीवियमरण निरवकंखे' जीवितमरणयोर्विषये निरव
चतुर्मासक्षपणानि, द्वे त्रिमासक्षपणानि,षद् द्विमासक्षपणानि, कालो वाम्छारहितः 'संसारपारगामी' संसारस्य पार
हे साकमासक्षपणे, द्वादश मासक्षपणानि, द्वासप्ततिः पक्षगामी ' कम्मसतुनिग्घायणटाए ' कर्मशत्रुनिर्घातनार्थम् ,
क्षपणानि, भद्रप्रतिमा दिनद्वयमाना, महाभद्रप्रतिमा दिनच'अब्भुट्टिए' अभ्युत्थितः-सोद्यमः ‘एवं च णं विहरह'
तुष्कमाना,सर्वतोभद्रप्रतिमा दशदिनमाना, एकोनत्रिंशदधिएवम् अनेन क्रमेण भगवान् विहरति-आस्ते ॥ ११६॥
कं शतद्वयं षष्ठाः, द्वादश अष्टमाः, एकोनपश्चाशदधिकं शततस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणणं, अणुत्तरेणं दंस-1
अयं पारणानां, दीक्षादिनम् ततश्चेदं जातम्-“बारसचेव यः गणं, अणुत्तरेणं चरित्तेणं, अणुत्तरेणं आलएणं, अणुत्तरे- वासा,मासा छच्चेव अद्धमासंच॥ वीरवरस्स भगवश्रो, एसो शं विहारेणं,अणुत्तरेणं वीरिएणं,अणुत्तरेणं अञ्जवेणं,अणु- छउमत्थपरिश्राश्रो ॥१॥” इदं च 'तेरसमस्स संवच्छरस्स' तरेणं महवेणं, अणुत्तरेणं लाघवेणं, अणुत्तराए खंतीए,
प्रयोदशस्य संवत्सरस्य 'अंतरा वट्टमाणस्स' अन्तरा
वर्तमानस्य 'जे से गिम्हाणं' योऽसौ ग्रीष्मकालस्य 'दुअणुत्तराए मुत्तीए, अणुत्तराए गुत्तीए, अणुत्तराए तुट्टीए, |
च्चे मासे चउत्थे पक्खे' द्वितीयो मासश्चतुर्थः पक्षः अणुत्तरेणं सञ्चसंजमतवसुचरिअसोवचित्रफलनिव्वाणम- | साहसडेवैशाखमय TET'म्स म ग्गेणं, अप्पाणं भावमाणस्स दुवालस संवच्छराई विइक्कं- स्स दसमी पक्खेणं' तस्य वैशाखशुद्धस्य दशमीदिवसे
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चीर
* पाईरुगामितीय छावार पूर्वगामिन्यां छायायां सत्य 'पोरिसीए अभिनिविद्वाय' पाभ्रात्वपौरुष्याम् अभिनिवृत्तायां जातायां सत्यां कीदृशायाम् 'पमाणपचार' प्रमाणप्राप्तायां, न तु न्यूनाधिकायां 'सुव्वरणं दिवसे' सुव्रतनामके दिवसे 'विजय मुहुरा' विजयनामके मुह 'भियगामस्स नगरस् बहिया' जृम्भिकग्रामनामकस्य नगरस्य वहिस्तात् ' उज्वालुवा न तीरे' ऋजुवालुकायाः नद्यास्तीरे 'येयायसस्स वेयस्स' व्यावृत्तं नाम जीर्णम एवंविधं वचैवं स्यन्तरायतनं तस्य 'अदूरसामंते' नातिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः ‘लामागस्स गाद्दावरस्स' श्यामाकस्य गृहपतेः- कौटुम्बिकस्य 'कटुकरणंसि' क्षेत्रे 'सालपायवस्स अहे' सालपादपस्य अधः 'गोदोहियाए' गोदोहिकया 'उक्कुडियनिसि जाए : उत्कुटिकया निषद्यया 'श्रयावणाए श्रायावेमाणस्स' श्रातापनया श्रातापयतः प्रभोः 'छट्टे भत्ते श्रपापणं पठेन भज्ञेन जलरहितेन इत्युत्तराहिं नक्स जोगमुवागएवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे चन्द्रेण योगमुपागते सति 'झारिया हमारा' ध्यानस्य अन्तरे-मध्य मागे वर्तमानस्य कीऽर्थः शुच्याने चतुर्था-पृथक्त्वतर्फ सविचारम् (१) एकत्ववितर्कम् श्रविचारम् (२) सूक्ष्मक्रियम् श्रप्रतिपाति (३) उच्छिन्नक्रियमनिवर्त्ति ( ४ ) पतेषां मध्ये आयमेध्याते इत्यर्थः 'अनंते' अनन्तवस्तुविषये 'असुर' अनुपमे 'निदाघार निव्यधाते, मिश्यादिभिर स्खलिते 'निरावरणे' समस्तावरणरहिते 'कसिणे' समस्ते 'पडिपुराणे' सर्वावयवोपेते 'केवलवरनारादंसणे समुपपन्ने विधे केवलज्ञानदर्शने समुत्यन्ने | १२० ॥ (२१) वीरस्य केवलज्ञानोत्पत्ति:
तए णं समखे भगवं महावीरे अरहा जाए, जिखे, केवली, सब्वन्न्, सम्बदरिसी,सदेयमणुश्रायुरस्त लोगस्स परिश्रार्य जागर, पास सब्बलोए सब्बजीवाणं आगई गई हिं चवणं उवत्रायं तक्कं मणोमाखसि तं कर्ड पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा भरहस्स भागी तं तं कालं मणवयकायजोगे वट्टमायाणं सव्वलोए सव्वजीवासं सम्बभावे जालमा पासमा विहरह ।। १२१ ।।
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'तर गं समण भगवं महावीरे' ततो ज्ञानोत्पस्यनन्तरं श्रमणो भगवान् महावीरः 'अरहा जाए' अर्हन् जातः, अशोकादिप्रातिहार्यपूजा योग्यो जातः पुनः कीदृश:-जिले केवली सम्यन्नू सन्यदरिसी 'जिनो- रागद्वेषजेता केव स्त्री सर्वज्ञः सर्वदर्शी सदेवमयुभासुरस्त लोगस्स देवमनुजाऽसुरसहितस्य लोकस्य परियायं जागर पासह ' पर्यायमित्यत्र जातावेकवचनं, ततः पर्यायान् जानाति पश्यति च - साक्षात् करोति, तर्हि किं देवमनुजाऽसुराणामेव पर्यायमात्रं जानातीत्याह -' सव्वलोए सव्वजीवाणं' सर्वलोके सर्वजीवानाम् 'आगई गई ठिहं चवणं उववायं' श्रागतिं भवान्तरात्, गतिं च भवान्तरे, स्थिति तद्भवसत्कमायुः कार्यस्थिति वा, व्यवनं - देवलोकान्तिर्य - नरेषु अवतरणम् उपपातो देवलोके नरकेषु पोत्पत्तिः 'तक्कं मणो' तेषां सर्वजीवानां सम्बन्धि तत्कम् - ईदृशं यन्मनः ' माणसियं ' मानसिकं, मनसि चिन्तितं 'भुतं '
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अभिधानराजेन्द्रः ।
"
वीर
"
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"
भुक्तम्, अशनफलादि 'कडं ' कृतं, चौर्यादि ' पडिसेविये प्रतिसेवितं मैथुनादि ' अधिकम्मं ' आधिः कर्म-प्रककृतं रोक कर्म-प्रकृतम्पत् सर्व सर्वजीयानां भगवान् जानातीति योजना । पुनः किविशिष्टः प्रभुः - ' अरहा' न विद्यते रहः प्रच्छन्नं यस्य, त्रिभुवनस्य करामलकवद् दृष्टत्वात् अराः अरहस्स भागी' रहस्यम् - एकान्तं तन्न भजते इति, 'तं तं कालं मणवयकायजोगे' तस्मिन् तस्मिन् काले मनोवचनकाययोगेषु यथार्ह ' वट्टमाणां ' वर्त्तमानानां ' सव्वलोए सव्वजीवा सर्वलोके सर्वजीवानां सव्वभावे जाणमाये पासमा विरह सर्वभावान् पर्यायान् जानन् पश्यध विहरति, 'सव्वजीवाणं' इत्यत्र अकारप्रश्लेषात् सर्वाऽजीवानां धर्मास्तिकायादीनामपि सर्वपर्यायान् जानन् प श्ध विहरतीति व्याख्येयम् ॥ १२१ ॥
खं काले ते समएणं समणे भगवं महावीरे अट्ठियगामं नीसाए पदमं अंतरावासं वासावासं उनागए, चंपं च पिट्ठचंपं च नीसाए तो अंतरावासे वासावासं उवागए, वेसालि नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुबालस अंतरावासे वासावासं उवागए: रायगिहं नगरं नालंदं च बाहिरि नीसाए चउदस अंतरावासे वासायास उवागए, छ मिहिलाए, दो भद्दिश्राए एगं आलंभियाए, एगं सावत्थीए, एवं परिणमभूमिए एवं पावाए मज्झिमाए हत्थिपालस्स रहयो रज्जुगसभाए अपच्छिम अंतरवास वासावासं उवागए । १२२ ।। तत्थ णं जे से पावा मज्झिमाए हरिथपालस्य रम्रो रज्जुगसभाए अपच्छिम - तरावासं वासावासं उवागए । १२३ ।।
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'ते काले' तस्मिन् काले ते समतस्मिन् समये समये भगवं महावीरे भ्रमतो भगवान् महावीर अ ट्टिश्रग्गामं निस्साए ' अस्थिकग्रामस्य निश्रया' पढमं - तरावास ' प्रथमं वर्षारात्रं चतुर्मासीति यावत् वासावासं उवागए ' वर्षासु वसनं वर्षावासार्थमुपागतः चंप व पिटुपं च निस्साए ' ततः चम्पायाः पृष्ठचम्पायाश्च निश्रया तो अंतरावासे' त्रीणि चतुर्मासकानि वासावासं उपागम वर्षावासार्थमुपागतः साल नगरि वाशिमगाम च निस्साए बैठायाः नमः वाणिज्यग्रामस्य च निश्रया' दुबालस अंतरायासे ' द्वादश चतुर्मासकानि वासावासं उपागर वर्षावासार्थमुपागतः ' रायगिहं नयरं नालंदं च बाहिरिश्रं नीसाए ' राजगृहस्य नगरस्य नालन्दायाश्च बाहिरिकायाः निश्रया चउदस अंतरायासे च चतुर्मासचतुर्दश - कानि 'वासावासं उवागए' वर्षावासार्थमुपागतः, तत्र नालन्दा - राजगृहनगरादुत्तरस्यां दिशि बाहिरिका शाखा पुरविशेषस्तत्र चतुर्द्दश वर्षारात्रान् उपागतः 'छ मिहिलाए ' पद मिथिलायां नगर्यो ' दो भदिआए' द्वे भद्रिकायाम् एवं शाभिश्राप 'एकमालम्मिकायाम् ' एगे सावस्थी एकं श्रावस्त्याम् ' एगं पणिभूमीप' एकं प्रणीतभूमौ वज्र
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बीर
(१३८८) अभिधानराजेन्द्रः।
वीर भूमास्याऽनार्यदेशे इत्यर्थः 'एग पावाए मज्झिमाए ' एक इति प्रोच्यते, उपशम इति तस्य द्वितीयं नामेत्यर्थः 'देवापापायां मध्यमायां 'हत्थिपालस्स रणो' हस्तिपालस्य णंदा नाम सा रयणी' देवानन्दा नाम्नी सा अमावास्या राज्ञः 'रज्जुगसभाए' रज्जुका-लेखकाः "कारकुन" इति रजनी 'निरति ति पचह' निरतिः इत्यप्युच्यते नामालोके प्रसिद्धास्तेषां शाला-सभा जीर्णा-अपरिभुज्यमाना, न्तरेण 'अच्चे लवे' अर्चनामा लवः, 'मुहुसे पाण' तत्र भगवान् 'अपच्छिम अतरावासं'अपश्चिममम्त्यं चतु- मुहर्सनामा प्राणः 'थोव सिद्धे' सिद्धनामा स्तोकः 'नागे सिकं 'वासावासं उवागए' वर्षावासार्थमपागतः, पूर्व करणे' नागनामकं करणम् , इदं च शकुन्यादिस्थिरकरकिल तस्य नगर्या अपापेति नामाऽऽसीत् , देवैस्तु पापेत्युक्तं णचतुष्टये तृतीयं करणम् , अमावास्योत्तरार्द्ध हि एतदेव तत्र भगवान् कालगत इति ॥ १२२ ॥ 'तत्थ णं' जे से पा
भवतीति 'सव्वटुसिद्धे मुहुत्ते' सर्वार्थसिद्धनामा मुहर्सः वाए मज्झिमाए' तत्र यस्मिन् वर्षे पापायां मध्यमायां 'ह-[ 'साणा नक्षत्तेणं जोगमुवागएणं ' स्वातिनामनक्षत्रेस स्थिपालस्स रणो' हस्थिपालस्य राज्ञः 'रज्जुगसमाए' ले- चन्द्रयोगे उपागते सति भगवान् 'कालगए . जाव सव्वखकशालायाम् ' अपच्छिमं अंतरावासं' अन्त्यं चतुर्मासकं दुक्खप्पहीणे' कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः ॥ १२४ ॥ 'वासावास उवागए ' वर्षावासार्थमुपागतः ॥ १२३ ॥
जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए० जाव (२७) वीरस्य निर्वाणगमनकालः
सव्वदुक्खप्पहीणे, सा णं रयणी बहूहिं देवेहि, देवीहि य तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सतमे पक्खे कत्तिबहुले तस्स णं कत्तियवहुलस्स पन्नर
उवयमाणेहिं उप्पयमाणेहि य उोविया आविहुत्था ।। सीपक्खेणं जा सा चरमा रयणी तं रयणि चणं समणे भगवं
१२५ ॥ ज रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए महावीरे कालगए विइक्कंते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरण
• जाच सव्वदुक्खप्पहीणे साणं रयणी बहूहिं देवेहिं देबंधणे सिद्धे वुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्प
वेहिं देवीहि य उवयमाणेहिं उप्पयमाणेहि य, उप्पिजलहीणे--चंदे नामे से दोचे संवच्छरे, पीइबद्धणे मासे, गमाणभूआ कहकहगभूषा आऽविहुत्था ॥ १२६ ॥ नंदिवद्धणे पक्खे, अग्गिवेसे नाम दिवसे, उवसमे त्ति पवु
"जं रयणि च प' इत्यादितः 'उज्जोविया याऽवि होत्थ'ति श्वइ, देवाणंदा नाम सा रयणी निरति त्ति पवुच्चई, अच्चे
यावत् सुगमम् ॥१२५॥ 'जं रयणि च णं' इत्यादितः 'कह
कहगभूषा याऽवि हुत्थति यावत्सूत्रं प्राग्व्याख्यातम् ।१२६। लवे, मुहुत्ते पाणू , थोवे सिद्धे, नागे करणे, सव्वट्ठसिद्धे
जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव मुहुत्ते, साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, कालगए०जाव | सव्वदुक्खप्पहीणे ।। १२४ ॥
सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं जिट्ठस्स गोअमस्स ई. 'तस्स ग अंतरावासस्स' तस्य चातुर्मासकस्य मध्ये दभूइस्स अणगारस्स अतवासिस्स नायए पिज्जबंधणे व'जे से वासाणं' योऽसौ वर्षाकालस्य 'चउत्थे मासे सत्तमे | च्छिन्ने, अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुपक्खे' चतुर्थः मासः सप्तमः पक्षः 'कत्तिबहुले कार्तिकस्य | प्पने ॥ १२७॥ कृष्णपक्षः 'तस्स णं कत्तिबहुलस्स' तस्य कार्तिकक
'जं रयणिं च णं समण भगवं महावीरे' यस्यां राष्णपक्षस्य पसरसीपक्खणं ' पञ्चदशे दिवसे 'जा सा चरमा रयणी' या सा चरमा रजनी ' तं रयणि च णं
त्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः 'कालगए • जाव सव्वदुक्ख समणे भगवं महावीरे' तस्यां रजन्यां च श्रमणो भगवान्
प्पहीणे' कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः 'तं रयणि च महावीरः 'कालगए' कालगतः-कायस्थिति-भवस्थिति
णं जिट्टस्स' तस्यां च रजन्यां ज्येष्ठस्य किंभूतस्य 'गोकालागतः - विकंते संसाराद् व्यतिक्रान्तः ' समुज्जाए'
श्रमस्स' गोत्रण गौतमस्य 'इंदभूइस्स' इन्द्रभूतिनाम
कस्य 'अणगारस्स अन्तेवासिस्स' अनगारस्य शिष्यसमुद्यातः सम्यग् अपुनरावृत्त्या उर्व यातः 'छिन्नजाइ
स्य 'नायए पिरजबंधणे वुच्छिन्ने' ज्ञातजे-श्रीमहावीजरामरणबंधणे' छिन्नानि जातिजरामरणबन्धनानि, जन्म
रविषये प्रेमबन्धने व्युच्छिन्न-त्रुटिते सति 'अणन्ते' अनजरामरणकारणानि कर्माणि येन स तथा 'सिद्धे' सिद्धः
न्तवस्तुविषये 'अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पसाधितार्थः 'बुद्ध' बुद्धः-तत्त्वार्थज्ञानवान् — मुत्ते' मुक्नो
म्ने' अनुत्तरे यावत् केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने । कल्प० भवोपप्राहिकर्मभ्यः 'अंतगडे' अन्तकृत् सर्वदुःखानाप
१ अधि० ६ क्षण । (भावोद्योताभावे द्रव्योद्योतः कृतरिनिन्खुडे' परिनिर्वृतः सर्वसन्तापाऽभावात् , तथा च की
स्तत्समयराजभिः,ततः प्रभृति दीपोत्सवपर्व प्रवृत्तम् ।) दृशो जातः 'सव्वदुक्खप्पहीणे' सर्वाणि दुःखानि शारीरमानसानि तानि प्रहीणानि यस्य स तथा, अथ भगवतो नि. जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए ०जाव र्वाणवर्षादीनां सैद्धान्तिकनामान्याह-चंदे नामे से दोश्चे
सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं खुदाए भासरासी नाम संबच्छरे ' अथ यत्र भगवानिवृतः स चन्द्रनामा द्वितीयः
महग्गहे दोवाससहस्सट्टिई समणस्स भगवो महावीरस्स संवत्सरः'पीइवखणे मासे' प्रीतिवर्द्धन इति तस्य मासस्य कार्तिकस्य नाम 'नंदिवद्धले पक्खे' नन्दिवर्द्धन जम्मनक्खत्तं संकते ॥ १२६ ।। इति तस्य पक्षस्य नाम 'अग्गिवेसे नाम दिवसे' अग्निवेश्य | रयणि च णं समणे भगवं महावीरे ' यस्यां रात्री इति तस्य दिवसस्य नाम ' उवसमे ति पवुच्चा' उपशम | श्रमयो भगवान् महावीरः 'कालगए • जाव सम्वदुक्रू
से पातयः मास: सातबहुलवादशे दिवसे
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वीर
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अभिधानराजेन्द्रः। प्पहीणे ' कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः 'तं रयणि च |
हुत्था ॥ १३६ ॥ समणस्स भगवो महावीरस्स सुलण' तस्यां च रात्रौ 'खुदाए भासरासी नाम महग्गहे'
सारेवइपामुक्खाणं समणोवासिवाणं तिमि सयसाहस्सीखुद्रामा करस्वभावः एवंविधो भस्मराशिनामा त्रिंशत्तमो ३० महाग्रहः,किम्भूतोऽसौ-दोबाससहस्सट्टिई' द्विसहस्रब
ओ अट्ठारस सहस्सा उकोसिया समणोवासिया णं संस्थितिकः २००० एकस्मिन् ऋक्षे एतानन्त कालमवस्थानात् पया हुत्था ॥१३७॥ समणस्स भगवो महावीरस्स ति'समणस्स भगवो महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महा- नि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सवीरस्य 'जम्मनक्षत्तं सकते, जन्मनक्षत्रम्-उत्तराफाल्गुनी- व्वक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं उनक्षत्रं संक्रान्तः । कल्प०१ अधि०६ क्षण । (तत्राष्टाशीतिहाः, ते च 'महग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव दर्शिताः ।)
कोसिश्रा चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था ॥ १३८ । स(कार्तिककृष्णामावास्यारात्रौ वीरनिर्वाणगमनम् । कार्ति
मणस्स भगवओ महावीरस्स तेरस सया ओहिनाणीणं कशुक्लादारभ्य तत्संवत्सरप्रवृत्तिांता ४६६ श्रीवीरसं- | अइसेसपत्ताणं उक्कोसिया ओहिनाणिसंपया हुत्था ॥१३॥ वत्सरे गते सति ततोऽग्रे चैत्रशुक्लादारभ्य विक्रमस- समणस्स भगवो महावीरस्स सत्त सया केवलनाणीणं वत्सर १ प्रथमप्रवृत्तिांता।)
संभिन्नवरनाणदंसणधराणं उक्कोसिया केवलवरनाणीणं जरयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए .जाव
संपया हुत्था ॥ १४० ॥ समणस्स भगवो महावीरस्स सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च ण कुंथ अणुद्धरी नाम स
सत्त सया वेउब्बीणं अदेवाणं देविडिपत्ताणं उक्कोमुप्पन्ना, जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं सिया वेउव्वियसंपया हुत्था ॥ १४१ ॥ समनिग्गंधीण य नो चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, जा अट्टिा णस्स णं भगवो महावीरस्स पंच सया विउलचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य चक्खु
मईणं अड्डाइजेसु दीवेसु दोसु अ समुद्देसु सन्नीणं पंचिंफासं हव्वमागच्छइ ॥१३२॥ जं पासित्ता बहूहिं निग्ग- |
दियाणं पजत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उकोथेहिं निग्गंथीहि य भत्ताई पच्चक्खायाई-से किमाहु भंते!
सिया विउलमईणं संपया हुत्था ॥ १४२॥ अजप्पभिई संजमे दुराराहे भविस्सइ ॥ १३३ ॥
'समणस्स णं' इत्यादितः 'अज्जिया संपया हुत्थ' ति पर्यन्तं 'जे रयणि च णं' इत्यादितो 'हब्वमागच्छति' त्ति प- सुगमम् ॥ १३५ ॥ एवं पञ्चचत्वारिंशत्सूत्रं यावत् सूत्राणि यन्तं तत्र यस्यां भगवानिवृतस्तस्यां रात्रौ ' कुंथु 'त्ति सर्वाणि प्रायः सुगमानि ।१३७-१३८-१३६-१४०-१४१-१४२। कुन्थुः प्राणिजातिः 'अणुद्धरि' त्ति योदतुं न शक्यते
समणस्स भगवो महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सएवंविधा समुत्पन्ना या स्थिता-एकत्र स्थिता अत एव अचलन्ती सती छमस्थानां चक्षुःस्पर्श-दृष्टिपथं 'हव्वं 'ति देवमणुासुराए परिसाए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया शीघ्रं नागच्छति, या च अस्थिता-चलन्ती छद्मस्थानां चक्षुः- | वाइसंपया हुत्था ॥ १४३ ।। समणस्स भगवओ महावीरस्पर्श शीघ्रमागच्छति ॥ जं पासित्ता' इत्यादितो 'दुराराहए भ- स्स सत्त अंतेवासिसयाई सिद्धाई, जाव सव्वदुक्खप्पहीविस्सर'त्ति पर्यन्तं तत्र 'जंपासित्त' त्ति यां कुन्थुम् अणुद्धरिह णाई चउद्दस अज्जियासयाई सिद्धाई॥ १४४॥ समस्स ष्टा बहुभिः साधुभिः, बडीभिः साध्वीभिश्च भक्कानि प्र
भगवो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गइत्याख्यातानि अनशनं कृतमित्यर्थः, से किमाहुभंते' त्ति शिष्यः पृच्छति-तत् किमाहुर्भदन्ताः, तत् किं कारणं यद्भ- कल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिमा कानि प्रत्याख्यातानि, गुरुराह-अद्य प्रभृति संयमो दुरा- अणुत्तरोववाइयाणं संपया हुत्था ॥ १४५ ॥ राध्यो भविष्यति पृथिव्याः जीवाऽऽकुलत्वात् संयमयोग्यक्षे- अनुत्तरोपपातिकक्षेत्रे 'गइकल्लाणाणं' ति गतौ अागामिप्राभावात्पाषण्डिसंकराच्च ॥ १३३॥
न्यां मनुष्यगती कल्याण-मोक्षप्राप्तिलक्षणं येषां ते तथा ते(२८) वीरस्य श्रमणादिसंपत्
षां 'ठिकल्लाणाण'ति स्थितौ देवभवेऽपि कल्याण येषां ते तेणं कालणं तेणं समएणं समणस्स भगवमो महावीरस्स तथा तेषां वीतरागप्रायत्वात् , अत एव 'आगमेसिभदाणं ' इंदभूइपामुक्खाओ चउद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया
ति आगमिष्यद्भद्राणाम् , आगामिभये सेत्स्यमानत्वात् ।
समणस्सणं भगवओ महावीरस्स दुविहाअंतगडभृमी हु समणसंपया हुत्था ॥ १३४ ॥ 'तेणं काले णे' इत्यादितो 'हुत्थ' ति यावत् सुगमम् ॥१३४॥ |
स्था, तं जहा-जुगंतगडभृमी य, परियायंतगडभूमी य. समणस्स भगवो महावीरस्स अज्जचंदणापामुक्खायो जाव तच्चामा पुारसजुगाया जुगतचउवासपारयाए। छनीसं अजियासाहस्सीओ उक्कोसिया अजिया संपया हु-|
मकासी ॥ १४६ ॥ स्था ॥१३॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स संखसयग
__ 'समणस्स' इत्यादितः 'अंतमकासी' ति पर्यन्तम् सुगमम् ।
तत्र भगवतो द्विविधा अन्तकृभूमिः अन्तकृतो मोक्षगामिपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सीओ अउ
नस्तेषां भूमिः कालोऽन्तकृमिः, तदेव द्विविधत्वं दर्शगद्रिं च सहस्सा उक्कोसिया समणोबासगाणं संपया यति-'जुगंतकडे' त्यादि युगान्तरुमिः , पर्यायान्तकृद्
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वीर
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(१३६०)
अभिधानराजेन्द्रः। मिश्च । तत्र युगानि कालमानविशेषास्तानि च क्रमवर्ती- ति पर्यन्तं तत्र भगवतोनिवृतस्य नव वर्षशतानि १०० व्यति नि तत् साधाये क्रमवर्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः कान्तानि दशमस्य वर्षशतस्यायमशीतितमः ८० संवत्सरः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमिता अन्तकृद्भूमिर्या सा युगा- कालो गच्छति । कल्प०१ अधि० ६ क्षण । न्तकृभूमिः । 'परियायंतगडभूमि' त्ति पर्यायः प्रभोः केवलि
(२६) बीरस्तववाध्ययनम्स्वकालस्तमाश्रित्य अन्तकृभूमिः पर्यायान्तकृभूमिः तत्राद्यां निर्दिशति- जाव ' इत्यादि इह पञ्चमी द्वितीयार्थे
पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, ततो यावत्तृतीयं पुरुष एव गुग पुरुषयुगम् - ज
आगारिणो या परतित्थित्रा य । म्बूस्वामिनं यावत् युगान्तकृभूमिः 'चउवासपरियाय' त्ति से केइ गंतहियं धम्ममाहु, शानोत्पत्स्यपेक्षया चतुर्वर्षपर्याये च भगवति 'अंतमकासि '
अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥१॥ त्ति अन्तमकार्षीत् कश्चित्केवली मोक्षमगमत् , प्रभोज
कहं च णाणं कह दंसणं से, नानन्तरं चतुर्यु गर्षेषु गतेषु मुक्तिमार्गों वहमानो जातो जम्बूस्वामिनं यावश्च मुक्तिमागों वहमानः स्थित इति भावः ।
सीलं कहं नायसुतस्स अासी । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरं तीसं
जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, वासाई अगारवासमझे वसित्ता साइरेगाई दुवालस वासाई
अहासुतं बूहि जहाणिसंतं ॥ २॥ छउमत्थपरियागं पाउणित्ता देसूणाई तीसं वासाइं केव
अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः , तद्यथा-तीर्थकलिपरियागं पाउणित्ता वायालीसं वासाइं सामन्नपरियागं
रोपदिऐन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युकालमुपेक्षतेत्युक्तं , तत्र
किम्भूतोऽसौ तीर्थकृत् येनोपदिष्टो मार्ग इत्येतत् पृष्टवन्तः पाउशित्ता बावत्तरिवासाई ७२ सव्वाउअं पालइत्ता खीणे श्रमणाः-यतय इत्यादि , परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु बुध्येत यवैयणिज्जाउ नामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दुसममुस- दुक्तं प्रागिति . एतच्च यदुत्तरत्र प्रश्नप्रतिवचनं वक्ष्यते तश्च माए समाए बहुविइक्कंताए-तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य
बुद्धयेतेति , अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य संहि
तादक्रमेण व्याख्या प्रतन्यते , सा चेयम्-श्रानन्तरोक्नां बहुमासेहिं सेसेहिं, पावाए मज्झिमाए हत्थिपालस्स रन्मो
विधां नरकविभक्तिं श्रुत्वा संसारादुद्विग्नमनसः केनयं प्ररज्जुगसभाए एगे अबीए छटेणं भत्तेणं अपाणएणं सा-| तिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् अप्रातुः-पृष्टवन्तः ‘णम्' इणा नक्ख तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयंसि सं- इति वाक्यालङ्कारे, यदिवा-जम्बूस्वामी सुधर्मस्वापलियंकनिसन्ने पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागा
मिनमेवाह-यथा केनैवंभूतो धर्मः संसारोत्तरणसइ पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं च अपु
मर्थः प्रतिपादित इत्येतदहवो मां पृष्टवन्तः , त
द्यथा-श्रमणा-निर्ग्रन्थादयः, तथा ब्राह्मणा-ब्रह्मचदुवागरणाई वागरित्ता पहाणं णाम अझयणं विभावेमाणे र्याद्यनुष्ठाननिरताः , तथा अगारिणः-क्षत्रियादयो ये च विभावेमाणे कालगए विइकंते समुजाए छिबजाइजराम- शाक्यादयः परतीर्थिकास्ते सर्वेऽपि पृष्टवन्तः । किं तदिति रणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सम्बदुक्खप्प
दर्शयति-स को योऽसावेनं धर्म दुर्गतिप्रसृतजन्तुधारकमेहीणे ॥१४७ ।। समणस्स मगवो महावीरस्स जाव
कान्तहितम् आह-उक्तवान् अनीदृशम्-अनन्यसहशम् अ.
तुलमित्यर्थः , तथा-साध्वी चासो समीक्षा च साधुससबदुक्खप्पहीनस्स नववाससयाई विइकंताई दसमस्स य मीक्षा-यथावस्थिततत्वपरिच्छित्तिस्तया , यदिवा-साधुसवाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छह वायणं- मीक्षया-समतयोक्तवानिति ॥१॥ तथा तस्यैव सानादि. तरे पुण अयंते णउए संवच्छरे काले गच्छह इति दीसह
गुणावगतये प्रश्नमाह-कथं केन प्रकारेण भगवान् शान॥१४८॥
मवाप्तवान् ? , किम्भूतं वा तस्य भगवतो शान--विशे
पावबोधकं ? , किम्भूतं च ' से ' तस्य दर्शन-सामान्यार्थ'तेणं कालेणं' इत्यादितः 'सव्यदुक्खप्पहीले त्ति पर्यन्तं सुग- परिच्छेदकं ? 'शीलं च' यमनियमरूपं कीरक ? ज्ञाताः-- मं,नवरं 'छउमत्थपरिआय पाउणित'त्ति छमस्थपर्याय पूरयि- क्षत्रियास्तेषां पुत्रो-भगवान् वीरवर्द्धमानस्वामी तस्य श्राखेत्यर्थः । ' एगे अबीए 'ति एकः सहायविरहात् अद्वितीयः सीद्-अभूदिति, यदेतन्मया पृष्टं तत् भिक्षो!-सुधर्मस्थाएकाकी एव नतु ऋषभादिवद्दशसहस्रादिपरिवार इति । अत्र मिन् ! याथातथ्येन त्वं जानीधे-सम्यगवगच्छसि ‘णम्' कविः-"यन्न कश्चन मुनिस्त्वया सम.मुक्तिमापदितरैर्जिनैरिव ।
इति वाक्यालङ्कारे तदेतत्सर्व यथाश्रुतं त्वया श्रुत्वा च यथा दुस्समासमयभाविलिङ्गिनां.व्याजि तेन गुरुनिर्व्यपेक्षता"॥१॥| निशान्तम् इति-अवधारितं यथा दृएं तथा सर्वे ब्रूहि-श्रा'पच्चूसकालसमयंसि' ति प्रत्यूषकाललक्षणो यः समयोऽव- | चक्ष्वति ॥२॥ सरस्तत्र' संपलिअंनिसन्ने' ति पद्मासननिविष्टः पञ्चपश्चाशदध्ययनानि पापफलविपाकानि पश्चपश्चाशत् क
स एवं पृष्टः सुधर्मस्वामी श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिगु
णान् कथयितुमाह-- ल्याणफलविपाकानि पत्रिंशत् अपृष्टव्याकरणानि व्याकृत्य पहाणं ' ति एकं मरुदेवाध्ययनं विभावयन भग
खेयत्रए से कुसलाऽऽसुपन्ने, वानिवृतः ।।१४। समयस्स ' इत्यादितः 'दीसद ।। अशंतनाणी य अणंतदंसी।
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(१३६१) वीर
अभिधानराजेन्द्रः। जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स,
किश्चान्यत्जाणाहि धम्मं च धिइंच पेहि ॥३॥
से सम्वदंसी अभिभूयनाणी, उड्डे अहेयं तिरियं दिसासु,
णिरामगंधे धिइमं ठितऽप्पा। तसा य जे थावर जे य पाणा।
अणुत्तरे सव्वजगंसि विजं, से णिच्चणिञ्चेहि समिक्ख पने,
गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥ ५॥ दीवे व धम्म समियं उदाहु ॥४॥
से भूइपले अणिए अचारी, सः-भगवान् चतुर्विंशदतिशयसमेतः खेद-संसारान्त
ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । चर्तिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं दुःखं जानानीति खेदो
अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात् , यदि वा-क्षेत्रो-यथायस्थितात्मस्वरूपपरिशानादात्मज्ञ इति । अथवा-क्षेत्रम्
वइरोयणिंदे व तम पगासे ॥६॥ आकाशं तज्जानातीति क्षेत्रो-लोकालोकस्वरूपपरिझाते. 'स-भगवान् सर्व-जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टुं शीलत्यर्थः, तथा भावकुशान्-अष्टविधकर्मरूपान् लुनाति-छि- मस्य स सर्वदर्शी, तथा अभिभूय-पगजित्य मत्यादीनि च. नत्तीति कुशलः-प्राणिनां कर्मोच्छित्तये निपुण इत्यर्थः, स्वार्यपि सानानि यद्वर्तते ज्ञान केवलाख्यं तेन मानेन शानी, श्राशु-शीघ्र प्रज्ञा यस्यासावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगाद्, अनेन चापरतीर्थाधिपाधिकत्वमावेदितं भवति, 'ज्ञानक्रिन छद्मस्थ इव विचिन्त्य जानातीति भावः, महर्षिरि- याभ्यां मोक्ष' इति कृत्वा तस्य भगवतो मानं प्रदर्श्य क्रियां ति कचित्पाठः, महांश्वासावृषिश्च महर्षिः अत्यन्तोग्रत- दर्शयितुमाह-निर्गतः-अपगत आमः-अविशोधिकोट्याख्यः पश्चरणानुष्ठायित्वादतुलपरीषहोपसर्गसहनाञ्चति, तथा अ-1 तथा गन्धो-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामनन्तम्-अविनाश्यनन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञान-विशेषग्रा- गन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः, हकं यस्यासावनन्तज्ञानी, एवं सामान्यार्थपरिच्छेदकत्वे- तथाऽसह्यपरीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपि निष्पकम्पतया चारित्रे नानन्तदर्शी, तदेवम्भूतस्य भगवतो यशो-नृसुरासुराति- धृतिमान् तथा-स्थितो-व्यवस्थितोऽशेषकर्मविगमादात्मशाय्यतुलं विद्यते यस्य स यशस्वी तस्य लोकस्य चतुःपथे- स्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा, पतथशानक्रियलोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्म-1 योः फलद्वारेण विशेषणम्। तथा नास्योत्तरं-प्रधानं सर्वस्मिव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन च शुर्भूतस्य वा जानीहि-अवग. सपि जगति विद्यते (यः) स तथा, विद्वानिति सकलपकछ धर्म-संसारोद्धरणस्वभाव, तत्प्रणीतं वा श्रुतचारित्राख्यं, दार्थानां करतलामलकन्यायेन वेत्ता, तथा बाह्यग्रन्थात् सतथा तस्यैव भगवतस्तथोपसर्गितस्यापि निष्प्रकम्पा चारि- चित्तादिभेदादान्तराश्च कर्मरूपाद , अतीतः-प्रतिक्रान्तो पाचलनस्वभावां धृति-संयमे रतिं तत्प्रणीतां वा प्रेक्षस्व-स-1 ग्रन्थातीतो-निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि म्यकुशाग्रीयया बुद्भया पर्यालोचयेति, यदि वा-तैरेव श्रमणा-1 भयं यस्यासावभयः; समस्तभयरहित इत्यर्थः, तथा न विदिभिः सुधर्मस्वाम्यप्यभिहितो यथा त्वं तस्य भगवतो यश- द्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यनायः, दग्धकर्मबीजखिनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्म धृतिं च जानीषे ततोऽस्मा- त्वेन पुनरुत्पनरसंभवादिति ॥५॥ अपि च-भूतिशब्दो वृकं पहि' त्ति कथयेति ॥३॥ साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् | द्धौ मङ्गले रक्षायां च वर्तते, तत्र भूतिप्रमः-प्रवृद्धप्रक्षः - कथयितुमाह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु सर्वत्रैव चतुर्दशरज्ज्वात्मके नन्तज्ञानवानित्यर्थः , तथा-भूतिप्रक्षो जगद्रक्षाभूतप्रक्षः लोके ये केचन त्रस्यन्तीति प्रसास्तेजोवायुरूपविकलेन्द्रियप- एवं सर्वमङ्गलभूतप्रज्ञ इति , तथा-अनियतम्-अप्रतिबद्धं श्रेन्द्रियभेदात् त्रिधा, तथा ये च 'स्थावराः' पृथिव्यम्बुवन- परिग्रहायोगाचरितुं शीलमस्यासावनियतचारी तथौधं-संस्पति भेदात् त्रिविधा, एत उच्छासादयः प्राणाविद्यन्ते येषां | सारसमुद्रं तरितुं शीलमस्य स तथा, तथा धीः-बुद्धिस्तया ते प्राणिन इति, अनेन च शाफ्यादिमतनिरासेन पृथिव्याये- राजत इति धीरः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा धीरः, तथा केन्द्रियाणामपि जीवत्वमावेदितं भवति, स भगवांस्तान् प्रा. अनन्तं-याऽनन्ततया नित्यतया वा चचुरिव चक्षु:-केवणिनः प्रकरण केबलझानित्वात् जानातीति प्रक्षः, स एव |
लज्ञानं यस्यानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशकतया चक्षुप्रासो, नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात्-समीक्ष्य- भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः, तथा यथा-सूर्यः अनुसरंकेवलज्ञानेनार्थान् परिक्षाय प्रशापनायोग्यानाहेत्युत्तरेण स
सर्वाधिकं तपति न तस्मादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति, एवम्बन्धः, तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः,
मसावपि भगवान मानेन सर्वोत्तम इति, तथा वैरोचनःयदिवा-संसारार्णवपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वासहे
अग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रो यथाऽसौ तमोऽपनीय तुत्वात् द्वीप इव द्वीपः, स एवम्भूतः संसारोत्तारणसमर्थ
प्रकाशयति,एवमसावपि भगवानहानतमोऽपनीय यथावस्थिधर्म-श्रुतचारित्रास्यं सम्यक् इतं-गतं सवनुष्ठानतया रा
तपदार्थप्रकाशनं करोति ॥६॥ गद्वेषरहितत्वेन समतया वा । तथा चोक्तम्-"जहा पुरणस्स कत्था तहा तुच्छस्स कथा" इत्यादि, समं वा-धर्मम् उत्-प्रावल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थ न पूजा
अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, सत्कारार्थमिति ॥४॥
आया गुणी कासव आसुपये।
किश्च
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वीर
देव देवाण महाणुभावे, सहस्सा दिवि णं विसिडे ॥७॥ से पाया अक्खयसागरे वा, महोदही वाव अणाले वा श्रसाइमुके,
तपारे ।
( १३६२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
सकेव देवाहिवई जुईमं ॥ ८ ॥ नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमिममनुत्तरं धर्मे जिनानाम्ऋषभादितीर्थकृतां सम्बन्धिनमयं - मुनिः- श्रीमान् वर्द्धमानाख्यः काश्यपः गोत्रेण, श्राशुप्रज्ञः केवलज्ञानी - उत्पनदिव्यज्ञानो नेता -प्रणेतेति ताच्छीलिकस्तृन् तद्योगे'न लोकाव्ययनिष्ठे ' ( पा० २-३-६६ ) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयैव, यथा चेन्द्रो दिवि - स्वर्गे देवसहस्राणां महानुभावो महाप्रभाववान् 'राम् इति वाक्यालङ्कारे, तथा नेता-प्रणायको विशिष्टो-रूपबलवर्णादिभिः प्रधानः एवं भगवानपि सर्वेभ्यो विशिष्टः प्रणायको महानुभावश्चेति ॥ ७ ॥ श्रपि च - सौ भगवान् प्रज्ञायते ऽनयेति प्रज्ञा तया अक्षयः- न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, साच साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्रभावैरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद्, एकदेशेन त्वाहयथा - ' सागर ' इति श्रस्य चाविशिष्टत्वात् विशेषणमाह - महोदधिरिव - स्वयम्भूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गम्भीरजलोऽक्षोभ्यश्च एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमणानन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च, यथा च अलौ सागरः अनाविलः - अकलुषजलः, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति, तथाकषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी न कषायी अकषायी, तथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्लो-मुक्तः, भिक्षुरिति कचित्पाठः, तस्यायमर्थः - सत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोकपूज्यत्वे च तथापि भिक्षामात्र जीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः द्युतिमान् दीप्तिमानिति ॥ ८ ॥ किश्ञ्च - से वीरिए सं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा गगसव्वसे । सुराल वासिमुदागरे से, विरायऽगगुणोववे ॥ ६ ॥ सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते ।
से जोयणे यवणवते सहस्से,
उस्सितो दुसहस्समेगं ॥ १० ॥
स- भगवान् वीर्येण - औरसेन बलेन धृतिसंहननादिभिश्व वीर्यान्तरायस्य निश्शेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा सुदशनो- मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः स यथा नगानां पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः - प्रधानः तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति, तथा यथा - सुरालयः -- स्वर्गस्तनिवासिनां
वीर
मुदाकरो - हर्षजनकः प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शप्रभावादिभि - गुणैरुपेतो विराजते - शोभते, एवं भगवानप्यनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति । यदिवा-यथा त्रिदशालयो मुदाकरोनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति एवमसावपि मेरुरिति ॥ ६ ॥ पुनरपि दृष्टान्तभूतमेरुवणैनायाह - स मेरुर्यो जनसहस्राणां शतमुच्चैस्त्वेन, तथा त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डः, तद्यथा-भौमं, जाम्बूनदं, वैडूर्यमिति । पुनरप्यसावेव विशेष्यते' पण्डकवैजयन्त' इति पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्तीकल्प - पताकाभूतं यस्य स तथा तथाऽसावूर्ध्वमुच्छ्रितो नवनवतिर्योजन सहस्राण्यधोऽपि सहस्रमेकमवगाढ इति ॥ १० ॥
तथा
पुट्ठे मे चिट्ठभूमि डिए, जं सूरिया अणुपरिट्टयंति । से हेमवन्ने बहुनंदणे य
जंसी रतिं वेदयतीमहिंदा ॥ ११ ॥ से पव्व सहमहप्पगासे, विरायती कंचणमवभे । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे,
गिरीवरे से जलिए व भोमे ॥ १२ ॥
नभसि स्पृष्टो - लग्नो नभो व्याप्य तिष्ठति तथा भूमिं चावगाह्य स्थित इति ऊर्ध्वाधस्तिर्य ग्लोकसंस्पर्शी यथा यं मेरुं सूर्या- श्रदित्या ज्योतिष्का अनुपरिवर्तयन्तियस्य पार्श्वतो भ्रमन्तीत्यर्थः, तथाऽसौ हेमवर्णो- निष्टप्तजाम्बूनदाभः, तथा बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि भूमौ भद्रशालवनं ततः पञ्चयोजनशतान्यारुह्य मेखलायां नन्दनं, ततो द्विषष्टियोजन सहस्राणि पञ्चशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं, ततः षट्त्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य शिखरे पण्डकवनमिति । तदेवमसौ चतुर्नन्दनवनाद्युपेतोfararanीडास्थानसमन्वितः, यस्मिन् महेन्द्रा अभ्यागत्य त्रिदशालयाद्रमणीयतरगुणेन रतिम्-रमणक्रीडां वेदयन्ति-अनुभवन्तीति ॥ ११॥ अपि च-सः- मेर्वाख्योऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरित्यैवमादिभिः शब्दैर्महान् प्रकाशः-प्रसिद्विर्यस्य स शब्दमहाप्रकाशो विराजते - शोभते काञ्चनस्येव मृष्टः -- श्लक्ष्णः शुद्धो वा वर्णो यस्य स तथा एवं न विद्यते उत्तरः- प्रधानो यस्यासावनुत्तरः, तथा गिरिषु च मध्ये पर्वभिः– मेखलादिभिर्देष्ट्रा पर्वतैर्वा दुर्गो-विषमः सामान्यजन्तूनां दुरारोहो गिरिवरः- पर्वतप्रधानः तथाऽसौ मणिभिरौषधीभिश्व देदीप्यमानतया भौम इव-भूदेश इव ज्वलित इति ॥ १२ ॥ ( त्रयोदशमी १३ गाथा 'जम्बूदीव शब्दे चतुर्थभागे १३७८ पृष्ठे गता । )
साम्प्रतं मेरुदृष्टान्तोपक्षेपेण दाष्टन्तिकं दर्शयतिसुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पच्चई महतो पव्वयस्स । तोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदंसणनाणसीले ॥ १४ ॥
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बीर
एतदनन्तरोक्तं यशः - कीर्तनं सुदर्शनस्य मेरुगिरेः महापर्व - तस्य प्रोच्यते, साम्प्रतमेतदेव भगवति दार्शन्तिके पोतेएषा अनन्तरोक्लोपमा यस्य स एतदुपमः कोऽसी - श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टतदेहो ज्ञाताः - क्षत्रियास्तेषां पुत्रः श्रीमन्महावीरपर्द्धमानस्यामीत्यर्थः स च जात्या सर्वजातिमद्भ्यो यशसा अशेषवशस्त्रिभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सफलईशनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्तशीलपद्भ्यः श्रेष्ठः प्रधानः, अक्षरघटना तु जात्यादीनां कृतानामतिशायने अरीयादित्वादप्रत्ययविधानेन विधेयेति ॥ १४ ॥
पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतो व्यादर्शनमाडगिरीवरे वा निसहाऽऽययाणं,
रुपए व से बलयायताणं ।
तओवमे से जगभूइपन्ने,
मुणी मज्मे तमुदाहु पन्ने ॥ १५ ॥ अणुत्तरं धम्ममुरता,
अणुत्तरं काणवरं झियाई ।
सुसुकसुक्कं अपगंड, संखितवदातमुक्कं ।। १६ ।।
(१३६३) अभिधानराजेन्द्रः
यथा निषधो-गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे श्रन्येषु वा द्वीपेषु दैर्येण श्रेष्ठः प्रधानः तथा-वलयायतानां मध्ये रुत्रकः पर्वतोऽन्येभ्यो वलयायतत्वेन यथा प्रधानः स हिं रुचकद्वीपान्तर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायतः संख्ये - ययोजनानि परिक्षेपेणेति, तथा स भगवानपि तदुपमः यथा areायतवृत्ताभ्यां श्रेष्ठौ एवं भगवानपि जगति-संसारे भूतिप्रज्ञः प्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः तथा अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षे जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्यरूपविदः उदाहुः- उदाहृतवन्तः; उक्तवन्त इत्यर्थः ॥ १५ ॥ किञ्चान्यत्नास्योत्तरः प्रधानो उपाधम विद्यते इत्यनुत्तरः तमेवम्भूतं धर्मम्, उत् प्राबल्येन ईरयित्वा कथयित्वा प्रकाश्य अ नुत्तरं प्रधानं ध्यानवरं ध्यानश्रेष्ठं ध्यायति । तथाहि उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्मं काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थ शुक्लध्यानभेदं व्युपरतक्रियम्-अनिवृतास्वं ध्यायति एतदेव दर्शयति-सुष्ठु-शुक्रवत् शुक्रं ध्यानम्, तथा अपगतं गण्डम् - अपद्रव्यं यस्य तदपनिर्दोषार्जुनवत् शुक्रं यदिवा-पगडम् उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः । तथा शंखन्दुवदेकान्तावदाशु-प्यानो मे ध्यायतीति ॥ १६ ॥ अपि चअतरगं परमं महेसी,
9
,
असेसकम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिं गते साइतपते,
ख़ाणेण सीलेण य दंसणेण ।। १७ ।। रुक्मु खाते जह सामली ना,
se
।
जसि रतिं वेययती सुवन्ना । बवादमा सेहूं,
नाणेण सीले य भूतिपन्ने ॥ १८ ॥
तथा असौ भगवान् शैलेश्वयस्थापादितवानचतुर्थमेदानन्तरं साद्यपर्यवसानां सिद्धिगति पञ्चमी प्राप्तः सिद्धिगतिमेव विशिनष्टि अनुत्तरा चासो सर्वोत्तमत्वादझ्याच लोकाप्रव्यवस्थितत्वादनुराध्या तां परम-प्रधानां महर्षिः - श्रसावत्यन्तोप्रत पोविशेषनिष्टप्तदेहत्वाद् श्र शेषं कर्म- ज्ञानावरणादिकं विशोध्य- अपनीय च विशिष्टेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेन च क्षायिकेण सिद्धिगति प्राप्त इति मीलनीयम् ॥ १७ ॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेण भगवतः स्तुतिमाह-वृतेषु मध्ये यथा ज्ञातः प्रसिदो देवकुरुपपस्थितः शाल्मलीवृक्षः स च भयनपतिकीडास्थानम् यत्र-व्यव स्थिता अन्यतयागत्य सुपर्णा भवनपतिविशेषाः रतिरमक्रीडां वेदन्ति अनुभवन्ति वनेषु च मध्ये बचा नन्दनं धर्म देवानां कीडास्थाने प्रधानम् एवं भगवानपि ज्ञानेन केवलारूयेन समस्तपदार्थाविर्भावकेन शीलेन - चारित्रेण यथाख्यातेन श्रेष्ठः - प्रधानः भूतिप्रज्ञः - प्रवृद्धतानो भगवानिति ॥ १८ ॥
9
श्रपि च
धणिय व सहाय अणुत्तरे उ
चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेवा चंदणमा से,
एवं मुखीणं अपडिममाहु ॥ १६ ॥ जहा सयंभू उदहीण सेट्ठे,
नागे वा घरसिदमा सेडे । खोयोदय वा रसवेजयंते,
वीर
तवोवहा मुणिवेजयंते ॥ २० ॥ यथा शब्दानां मध्ये स्तनितं- मेघगर्जितं तद् अनुसरंप्रधानं, तुशब्दो विशेषणार्थः समुच्चयार्थी था, तारकाणां च - नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिया कान्या मनोरमा श्रेष्ठ, गन्धेषु इतिगुरुगुणिनोरभेदाम्मतुलोपाडा गन्धयन्तु मध्ये यथा चन्दनं - गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः, एवं मुनीनां महर्षीणां मध्ये भगवन्तं नास्य प्रतिक्षा इहलोकपलोकासिनी विद्यते इत्यप्रतिहस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमारि ति ॥ १६ ॥ अपि च-वयं भवन्तीति स्वयम्भुवो देवाः ते मुद्राणां मध्ये यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रः समस्तद्वीपसातत्रागत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः तदेवम् उदधीनां-सगरपर्यन्तवर्ती श्रेष्ठः - प्रधानः नागेषु च भवनपतिविशेषेषु मध्ये धरणेन्द्रं घर यथा माडु, तथा 'बोओए' इति इक्षुरस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः स यथा रसमाश्रित्य वैजयन्तः - प्रधानः स्वगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थितः एवं तपपधानेन विशिष्टतपोविशेषेण मनुते जगतस्त्रिकालापस्थामिति मुनिः-- भगवान् वैजयन्तः प्रधानः समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्ती-- योपरि स्थितइति ॥ २० ॥
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(१३६४) वीर
अभिधानराजेन्द्रः। हत्थीसु एरावणमाहु गाए,
रूपसंपदा-सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकशानदर्शनाभ्यां सीहो मिगाशं सलिलाय गंगा।
शीलेन च शातपुत्रो भगवान् श्रमणः प्रधान इति ॥ २३ ॥
किश्च-स्थितिमतां यथा-लवसत्तमाः-पश्चानुसरविमानवासिपक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो,
नो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानाः, यदि किल तेषां निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१ ।। सप्त लबा आयुष्कमभविष्यत्ततः सिद्धिगमनमभविष्यजोहेसु खाए जह वीससेणे,
दित्यतो लवसप्तमास्तेऽभिधीयन्ते, सभानां च पर्षदां च पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहू ।
मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छेष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानैरुपेत
त्यात्तथा यथा सर्वेऽपि धर्मा निर्वाणश्रेष्ठाः-मोक्षप्रधाना खत्तीण सेढे जह दंतवके,
भवन्ति , कुप्रावनिका अपि निर्वाणफलमेव स्वदर्शनं त्रुइसीण सेढे तह वद्धयाणे ॥ २२ ॥
वते, यतः; एवं सातपुत्रात्-वीरवर्धमानस्वामिनः सर्वज्ञात् हस्तिषु-करिवरषु मध्ये यथा ऐरावणं-शक्रवाहनं ज्ञातं- सकाशात् परं-प्रधानं अन्यद्विज्ञानं नास्ति, सर्वथैव भगवान् प्रसिद्ध दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तकाः, मृगाणां-श्वा
अपरशानिभ्योऽधिकशानो भवतीति भावः ॥२४॥ पदानां मध्ये यथा सिंहः-केसरी प्रधानः तथा भरतक्षेत्रा
किश्चान्यत्पेक्षया सलिलानां-मध्ये यथा गङ्गासलिलं प्रधानभावमनु- पुढोवमे धुणइ विगयगेही, भवति, पक्षिषु-मध्ये यथा गरुत्मान् ; वेणुदेवापरनामा
न समिहिं कुव्यति आसुपन्ने । प्राधान्येन व्यवस्थितः, एवं निर्वाणं-सिद्धिक्षेत्राख्यं कर्मच्युतिलक्षणं वा स्वरूपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वा यदितुं शीलं
तरिउं समुदं व महाभवोघं, येषां ते तथा तेषां मध्ये शाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः-अप
अभयंकरे वीर अणंतचक्खू ॥ २५॥ त्यं शातपुत्र:-श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामी स प्रधान इति, स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाऽऽधारा वर्तते तथा यथावस्थितनिर्वाणार्थवादित्वादित्यर्थः ॥ २१ ॥ अपि त्र- सर्वसत्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वाऽसावाधार इति, योधेषु मध्ये झातो-विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा-हस्त्य- यदि वा-यथा पृथ्वी सर्वेसहा एवं भगवान् परीपहोपसश्वरथपदातिचतुररूबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनः- र्गान् सम्यक् सहते इति, तथा धुनाति अपनयत्ययप्रकार चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्द कर्मेति शेषः, तथा विगता-प्रलीना सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुप्रधानमाहुः, तथा क्षतात् श्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां पु गृद्धिः गार्चममिलायो यस्य सः विगतगृद्धिः, ( सूत्र० ) मध्ये दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्त- ( सन्निधिपदव्याख्या ' सरिणहि' शब्दे करिष्यते।) तथा वाक्यः-चक्रवर्ती यथा असौ श्रेष्ठः तदेवं बहन रयान्तान् आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् न छद्मस्थवन्मनसा पर्याप्रशस्तान प्रदाधुना भगवन्तं दाष्टान्तिकं स्वनामग्राह- लोच्य पदार्थपरिच्छित्ति विधत्ते स एवम्भूतः तरित्वा समाह-तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान् वर्धमानस्वामी श्रेष्ठ मुद्रमिवापारं महाभवौघं चतुर्गतिकं संसारसागरं बहुव्यइति ॥२२॥
सनाकुल सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान् । पुनरपि तमेव दाणाण सेढ अभयप्पयाणं,
विशिष्टि-अभयं प्राणिनां प्राणरक्षारूपं स्वतः परतश्च स
दुपदेशदानात् करोतीत्यभयंकरः, तथाऽष्टप्रकारं कर्म विसचेसु वा प्रणवजं वयंति ।
शेषेणरयति प्रेरयतीति वीरः, तथा अनन्तम्-अपर्यवसानं तवेसु वा उत्तमबंभचेरं,
नित्यं शेयानन्तत्वाद्वा अनन्तं चक्षुरिव चक्षुः केवलज्ञानं यलोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥ ३३॥
स्य स तथेति । (सूत्र।) (अध्यात्मदोषान् न कुर्वन्ति न ठिईण सेट्ठा लवसत्तमा वा,
कारयन्ति केवलिन इति 'अज्झत्तदोस' शब्दे प्रथमभा
गे २२७ पृष्ठे गतम् ।) सभा सुहम्मा वसभाण सेट्ठा ।
किश्चान्यत्निव्वाण सेट्ठा जह सव्वधम्मा,
किरियाकिरियं वेणइयाणुवाय, ण गायपुत्ता परमत्थि नाणी ॥ २४॥
अण्णाणियाणं पडियच ठाणं । ('दाणाण सटुं अभयप्पयाणं ' अस्य पादस्थ व्याख्या
से सम्बवायं इति वेयइत्ता, 'अभयप्पदाण' शब्दे प्रथमभागे ७०८ पृष्ठे गता I ) तथा सत्येषु च वाक्येषु यद् अनवद्यम्-अपापं परपीडानुत्पा
उवट्ठिए संजमदीहरायं ।। २७॥ दकं तत् श्रेष्ठं वदन्ति , न पुनः परपीडोत्पादकं सत्यं ,
अपिचसद्भ्यो हितं सत्यमिति कृत्वा , तथा चोक्तम्-" लोकेऽपि से वारिया इत्थि सराइभत्तं, श्रयते वादो , यथा सत्येन कौशिकः । पतितो वधयुक्न ,
उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए । नरके तीववेदने ॥१॥" अन्यञ्च-तहेव काणं काण ति, पंडगं पंडग त्ति वा । बाहिय वा वि रोगि ति, तेणं चो
लोगं विदित्ता प्रारं परं च, रो तिनो वदे ॥१॥" तपस्सु मध्ये यथैवोत्तमं नवविध
सव्वं पभू वारिय सव्ववारं ।। २८॥ ब्रह्मगुप्त्युपेतं ब्रह्मवर्य प्रघानं भवति तथा सर्वलोकोत्तम| तथा स भगवान् किवावादिनामक्रियावादिनां वैनयिका
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अभिधानराजेन्द्रः।
वीर नामज्ञानिकानां च स्थान-पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, यदि
(३०) प्रकीर्णकवार्ताःवा-स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थान-दुर्गतिगमनादिकं प्रतीत्य
कल्पकिरणावल्याम्-मरुदेव्यभ्ययनं विभावयन् वीरः सि. परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः, एतेषां च खरूपमुत्तरत्र न्य
द्धि गतः, तत्र मरुदेन्यध्ययनं कया रीत्या विभावितम् , क्षेण व्याख्यास्यामः, लेशतस्त्विदम्-क्रियैव परलोकसाध.
तत्सम्यक् प्रसाधमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-कल्पसूत्रानायालमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तेषां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः, अक्रि.
वचूर्णी मरुदेव्यध्ययनं विभावयन्-प्ररूपयनित्येव व्याख्या
तमस्ति, न तु विभाबनरीतिरिति ॥२०॥ सेन० १ उमा० । यावादिनस्तु शानवादिनः, तेषां हि यथावस्थितवस्तुपरिशानादेव मोक्षः । तथा चोक्तम्-" पञ्चविंशतितस्थनो, यत्र
सिन्धुदेशे श्रीवीरस्वामिगमने पञ्चशताधिकसहस्रसाधुभितत्राश्रमे रतः । शिखो मुण्डी जटी वापि, सिध्यते नात्र सं
रनशनं कृतं तदक्षराणि प्रसाद्यानीति ? प्रश्नः, अश्रोत्सरम्शयः ॥१॥" तथा विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशालकमतानुसा
तदक्षराणि निशीथचूतौ सन्ति, तथा भूयते च अप्कायमरिणो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः,तथा अज्ञान
चित्तं जानाना अपि केवलमनःपर्यायावधिश्रुतहानिनोन मेवैहिकामुष्मिकायालमित्येवमहानिका व्यवस्थिताः, इत्येवं
परिभुअते, अनवस्थाप्रसङ्गभीरुतया, तथा श्रीवर्द्धमान
स्वामिना विमलसलिलशैवलपटलत्रसादिरहितो महाद्रहो रूपं तेषामभ्युपगम परिच्छिद्य-स्वतः सम्यगवगम्य-सम्यग
व्यपगताशेषजलजन्तुकोऽचित्तवारिपरिपूर्णः स्वशिष्याणां यबोधन,तथा स एव वीरवर्धमानस्वामी सर्वमन्यमपि बौद्धादिकं यं कञ्चनवादमपरान् सत्त्वान् यथावस्थिततत्त्वोपदेशेन
तृबाधितानामपि पानाय नानुजझे, तथा अचित्ततिलशवेदयित्वा-परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यव
कटस्थण्डिलपरिभोगानुज्ञा चानवस्थादोषसंरक्षणाय भगस्थितो न तु यथा अन्ये । तदुक्तम्-"यथा परेषां कथका विद.
वता न कृतेति, श्रुतज्ञानप्रामाण्यज्ञापनार्थ च इत्याचाराङ्गग्धाः, शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञामलिनोप
प्रथमाध्ययनतृतीयोद्देशकवृत्ताविति ॥७०॥ सेन०३ उल्ला । चारै-वक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्ति ॥६॥" इति दीर्घरा- कृत्रिमजिनप्रतिमानामुत्कर्षतो जघन्यतश्च किं मानं, यदि अम् । इति यावजीवं संयमोत्थानेनोत्थित इति ॥२७॥ अपि- पञ्चधनुःशतान्युत्कृष्टं जघन्यमङ्गुष्ठप्रमाणं तदा श्रीभरतेनाब-स भगवान् वारयित्वा-प्रतिषिध्य, किं तदित्याह- टापदे स्वस्वशरीरप्रमाणोपेतेषु श्रीऋषभादिचतुर्विंशति'त्रियम्' इति-स्त्रीपरिभोगं मैथुनमित्यर्थः, सह रात्रिम- जिनबिम्बेषु कारितेषु. उत्सेधाङ्गलेन सप्तहस्तमाना श्रीवीकेन वर्तत इति सरात्रिभक्तम् उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यदपि रस्वामिनो मूर्तिर्भरतस्याङ्गुष्ठप्रमाणाऽपि कथं भवति ? भप्राणातिपातनिषेधादिकं द्रष्टव्यम् , तथा उपधान-तपस्तद्वि- रतस्यैकस्मिन्नात्माङ्गले उत्सेधाङ्गालसत्कानि षोडशाङ्गलाधिद्यते यस्यासौ उपधानवान्-तपोनिष्टप्तदेहः, किमर्थमिति कानि चत्वारि धषि भवन्तीति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-भरते. दर्शयति-दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्म तस्य क्षयः- न श्रीमहावीरशरीरप्रमाणेन तस्याः कारितत्वात् । यद्यपि अपगमस्तदर्थ, किञ्च-लोकं विदित्वा श्रारम्-इहलोका
सा भरतस्यात्माङ्गलप्रमाणा न भवति तथाऽपि न किमख्यम् , परं-परलोकाख्यं, यदिवा-प्रारं-मनुष्यलोकं, पर- प्यनुपपत्रं, भरताङ्गुलप्रमाणस्यात्रानधिकृतत्वात् , तस्य च मिति-नारकादिकं, स्वरूपतस्तत्प्राप्तिहेतुतश्च विदित्वा | प्रायिकत्वादिति ॥२॥सेन० १ उल्ला० । श्रीवीरजन्मपत्री सर्वमेतत् प्रभुः-भगवान् सर्ववारं-बहुशो निवारितवान् ; ए- छटकपत्रे चैत्रसुदित्रयोदशीभौमे उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे तदुक्तं भवति-प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च सिद्धियोगे रात्रिघटी १५ मकरलग्ने सिद्धार्थराजगृहे पुत्रो स्थापितवान् । न हि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमल
जातः, स्कन्धपुराणादुदृता इत्येवं लिखिता दृश्यते, परं वीरमित्यर्थः, तदुक्तम्-" बुवाणोऽपि न्याय्यं स्ववचनविरुद्धं
जन्मपत्रीयमेवान्यथा वेति ? प्रश्नः,अत्रोत्तरम्-वीरजन्मपत्री व्यवहरन्, परान्नालं कश्चिदमयितुमदान्तः स्वयमिति । भवान् तु स्कन्दपुराणनाम्नि छूटकपत्रे लिखिता दृश्यते न तु निश्वित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दम- ग्रन्थे रयाऽस्तीति ॥ १५४ ॥ सेन० ३ उल्ला। तथा-श्रीयितुमदान्तं व्यवसितः॥१॥". इति, तथा-" तित्थयरो वीरजिमजन्मोत्सवावसरे मेराविन्द्रस्य सन्देहो यः समुत्पन्नः पउनाणी, सुरमहिनो सिज्झिय ब्व धृयम्मि । अणिमूहिय
स सौधर्मेन्द्रस्य ततः कथं प्रथममच्युतेन्द्रः पयतीति बलविरिओ, सव्वत्थामेसु उज्जमई ॥१॥" इत्यादि । युक्तिमदिति ? प्रश्नः , अत्रोत्तरम्-श्रीवीरजन्माभिषेकासोचा य धम्म अरहंतभासियं,
बसरे सौधर्मेन्द्रस्य संशयस्समुत्पन्नः तदनु सन्देहापनोसमाहितं अट्ठपदोवसुद्धं ।
दात् सौधर्मेन्द्राशया अच्युतेन्द्रः प्रथम स्नपयतीति नायुतं सदहाणा य जणा अणाउ,
निमत् , श्रीवीरचरित्रादौ तथैव दर्शनादिति ॥ १६२ ।।
सेन० ३ उल्ला। तथा-चीरशासने प्राचार्याभूयापि किंसंइंदा व देवाहिव श्रागमिस्सं ॥ २६ ॥
ख्याका नरकगामिनः सूरय उक्ताः सन्ति? तदक्षराणि च कुत्र त्ति वेमि इति श्रीवीरथुतीनाम छट्ठमझयणं ।। ग्रन्थ इति सव्यासं प्रसाद्यमिति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-श्रीवीर(२६) गाथाव्याख्या 'धम्म' शब्द चतुर्थभागे २७०८ पृष्ठे शासने एतावत्संख्याका आचार्या नरकगामिनः इति ग्रन्थे गता।) इतिशब्दः परिसमाप्तौ ब्रवीमिति पूर्ववत् । इति वीर- दृष्टं न स्मरति , किच-"तीश्राणागयकाले , केइ होहिति स्तवाण्यं षष्ठमध्ययनं परिसमाप्तमिति । सूत्र. १ श्रु०६. गोअमा! सूरी। जेसिं नामग्गहणे, नियमेणं होइ पच्छित्त अ०। ('णिराहग' शब्दे चतुर्थभागे २०२४ पृष्ठे वीरतीर्थ-1 ॥१॥” इति श्रीगच्छाचारप्रकीरणके प्रोक्तमस्तीति ।३५॥ निह्नवा दर्शिताः।)
| सेन०३ उल्ला।
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( १३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
धीरंगय
चौरंगय- वीराङ्गद-पुं० । बलदेवपुत्रस्य रेवतीगर्भसम्भूतस्य निषधकुमारस्य पूर्वभवजीवे, नि० । ( 'णिसद' शब्दे चतुर्थभागे, २१३७ पृष्ठे तत्कथोक्ला । ) चेटकराजस्य रथिनि, प्रा० क० ४ ० ।
बीरकण्ह - वीरकृष्ण - पुं० । श्रेणिक महाराजभार्यायाः वीरकणायाः पुत्रे, नि० । ( स च वीरान्तिके प्रव्रज्य वर्षत्रयं व्रतपर्यायं परिपाल्य महाशुक्रे सप्तमे कल्पे समुत्पद्य सप्तदशसागरोपममायुरनुपाल्य ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति निरयायलिकायाः सप्तमेऽध्ययने सूचितम् ।) वीरकहा- वीरकृष्णा- स्त्री० । श्रेणिक महाराजभार्यायां वीरकृष्णकुमारमातरि, नि० । ( सा च वीरान्तिके प्रवज्य महतीं सर्वतोभद्रप्रतिमां प्रतिपद्य सिद्धेत्यन्तकृद्दशानामष्टमे वर्गे सप्तमे श्रध्ययने सूचितम् । ) वीरकप्प - वीरकल्प - पुं० । 'कक्षाणयणीय' शब्दे तृतीयभागे २१३ पृष्ठे व्याख्याते भगवतो महावीरस्य कल्पे, ती० ४८ कल्प। वीरकूड - वीरकूट - न० । चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०
४ सम० ।
बीरग- वीरक- पुं० | द्वारवत्यां वासुदेवभक्ते कौलिके, श्राव०
३ श्र० ।
वीरगणि- वीरगणिन् - पुं० । श्रीगणिशिष्ये वलभीनाथव्यन्तरप्रतिबोधके चामुण्डराजपुत्रदे श्राचार्ये, श्रयमाचार्यः ६३८ विक्रम संवत्सरे जातः, ६८० संवत्सरे दीक्षितः ६६१ संवत्सरे, स्वर्गतः । जै० इ० ।
वीरघोस - वीरघोष - पुं० । वीरजिनविहृते मोराकसन्निवेशे स्वनामख्याते कर्मकरे, आ० म० १ ० । श्रा० चू० । arreira - वीरचरित्र - न० । हेमचन्द्रविरचिते वीरजिनचरितनिबद्धे ग्रन्थके, ध० २ श्रधि० ।
वीरजिण - वीरजिन -- पुं० । वीरश्वासौ जिनश्च कषायादिप्रत्यर्थिसार्थजयाद् वीरजिनः । श्रीवर्द्धमानस्वामिनि, कर्म्म० २ कर्म० । “जयति जगदेकदीप- प्रकटितनिःशेषभावसद्भावः । कुमत पतङ्गविनाशी, श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् ॥१॥" श्र०म०
१ श्र० ।
वीर-वीरण- पुं० | तृणवनस्पतिकायभेदे, यन्मूलमुशीर भवति । श्राचा० १ ० १ श्र० ५ उ० । सूत्र० । म्लेच्छभेदे, प्रशा०
१ पद ।
वीरतव -- वीरतपस् - न० । वीरप्रभोश्छाद्मस्थिके तपसि श्रा०
म० १ श्र० । श्राव० ।
तपसा केवलमुत्पन्नमिति कृत्वा यद्भगवता तप श्रासेवितं तदभिधित्सुराह जो य तवो अणुचिम्पो, वीरवरेणं महाणुभावेणं । arमत्थकालियाए, अहकमं कित्तहस्सामि ॥ ५२७ ॥ व्याख्या- यश्च तप श्राचरितं वीरवरेण महानुभावेन छद्मस्थकाले यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् तद्यथाक्रमं येन क्रमेणानुचरितं भगवता तथा कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः ।। ५२७ ।।
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वीरतव
तचेदम्
नव किर चाउम्मासे, छक्किर दोमासिए उवासी य । बारस य मासियाई, बावत्तरि श्रद्धमासाई || ५२८ ॥ व्याख्या -नव किल चातुर्मासिकानि तथा षट् किल द्विमासिकानि उपोषितवान् किलशब्दः - परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः, द्वादश च मासिकानि द्विसप्तत्यर्द्धमासिकान्युपोपितवानिति क्रियायोग इति गाथार्थः ॥ ५२८ ॥
एवं किर छम्मासं, दो किर तेमासिए उवासी य
डाइजाइ दुवे, दो चैव दिवड्डमासाई || ५२६ || व्याख्या - एकं किल पारामासं, द्वे किल त्रैमासिके उपोषितवान्, तथा ' अड्डाइजार दुवे' ति श्रर्द्धतृतीयमासनिष्पनं तपः- क्षपणं वाऽर्धतृतीयं, ते अर्धतृतीये द्वे, चशब्दः क्रियानुकर्षणार्थः, द्वे एव च ' दिवमासाहं 'ति सार्धमासे तपसी क्षपणे वा, क्रियायोगोऽनुवर्त्तत एवेति गाथार्थः ॥ ५२६॥
भदं च महाभद्दं, पडिमं तत्तो य सव्वओोभद्दं । दो चचारि दसेव य, दिवसे ठासी य अणुवद्धं ॥ ५३० ॥ व्याख्या - भद्रां च महाभद्रां प्रतिमां ततश्च सर्वतोभद्रां स्थितवान्, अनुबद्धमिति योगः, श्रासामेवानुपूर्व्या दिवसप्रमाणमाह--दौ चतुरः दशैव च दिवसान् स्थितवान्, अनुबद्धं - - सन्ततमेवेति गाथार्थः ॥ ५३० ॥ गोयरमभिग्गहजुयं, खमणं छम्मासियं च कासी य । पंचदिवसेहि ऊणं अवहित्रो वच्छनयरीए ॥ ५३१ ॥ व्याख्या - गोचरेऽभिग्रहो गोचराभिग्रहस्तेन युतं तपखं पाण्मासिकं च कृतवान् पञ्चभिर्दिवसैर्न्यनम् श्रव्यथितःश्रपीडितो बरसानगर्यो - कौशाम्ब्यामिति गाथार्थः ॥ ५३१ ॥
दस दो य किर महप्पा, ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं । अट्टमभत्तेण जई, एक्केकं चरमराईयं ।। ५३२ ।। व्याख्या-- दश द्वे च संख्यया द्वादशेत्यर्थः किल महात्मा'ठासि मुखि ' ति स्थितवान् मुनिः एकरात्रिकी प्रतिमां पाठान्तरं वा एकराइए पडिमे ' ति एकरात्रिकीः प्रतिमाः, कथमित्याह श्रष्टमभक्लेन - त्रिरात्रोपवासेनेति हृदयम्, यतिः -- प्रयत्नवान् एकैकां चरमरात्रिकीं चरमरजनीनिपन्नामिति गाथार्थः ॥ ५३२ ॥
दो चैव य छसए, उणातीसे उवासिया भगवं । न कयाइ निश्चभत्तं चउत्थभत्तं च से यासि ॥। ५३३ || व्याख्या - द्वे एव च पशते एकोत्रिंशदधिके उपोषितो भगवान् एवं न कदाचिन्नित्यभक्तं चतुर्थभक्तं वा 'से' त स्याssसीदिति गाथार्थः ॥ ५३३ ॥
बारस वासे अहिए, बटुं भत्तं जहण्णयं यसि । सव्वं च तवोकम्मं, अपाणयं श्रसि वीरस्स ||५३४ || व्याख्या - द्वादश वर्षाण्यधिकानि भगवतश्छ्नस्थस्य सतः षष्ठं भक्तं ' द्विराश्रोपवासलक्षणं जघन्यकमासीत्, तथा सर्व च तपःकर्म अपानकमासीद्वीरस्य । एतदुक्तं भवति-क्षीरादिद्रवाहारभोजनका ललभ्यव्यतिरेकेण पानकपरिभोगो नाssसेवित इति गाथार्थः ॥ ५३४ ॥ श्राव० १ ० ।
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(१३१७) वीरस्थय अभिधानराजेन्द्रः।
बीरिय वीरत्थय-चौरस्तव-पुं० । महावीरस्वामिगुणकीर्तनप्रतिबद्धे वीरवर-वीरवर-पुं० । वीरेषु वरः प्रधानो वीरवरः । वर्द्धमानपाष्टे सत्रकताकाध्ययने,सूत्र०१श्रु०६ अ०। प्रश्न । आ० चू०। स्वामिनि म०प्र०२० पाह० प्रश्र
आव० । (तच्चाध्ययनं 'वीर' शब्दे १३६० पृष्ठे दर्शितम् ।) वीरदेवा-बीरदेवा-स्त्री० । सुधर्मस्वामिनो मातरि, प्रा०चू०पारपरनामाघज-चारवरनामधय-५
वीरवरनामधिज-वीरवरनामधेय-पुं० । वीरवरेति प्रशस्तनामनि, प्रश्न०१ अाश्र० द्वार।।
वीरवलय-वरिवलय-न० । वीरत्वसंसूचके बलये, कल्प०१ वीरधवल-वीरधवल-पुं० । गुर्जरधरित्र्यां धवलकपुरराजे व
अधि० ३ क्षण । सुभटो हि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी स्तुपालतेजःपालमन्त्रीश्वरे वीसलदेवनृपतिपितरि, ती० ४१
यदसौ मां विजित्य मोचयत्वेतानि वलयानीति स्पर्द्धयन् कल्प।
यानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते । शा०१ श्रु० वीरपुर-वीरपुर-न० । नेमिनाथस्य तीर्थकरस्य प्रथमभिक्षा
१०। औ०। लाभस्थाने, प्रा०म०१०!
| वीरसासण-वीरशासन-न० । वर्तमानतीर्थे, नं० । वीरभद्द-वीरभद्र-पुं० । कनकपुरादौ पूज्यमाने यक्षभेदे, विपा०२७०६०। आव०। पार्श्वनाथस्य सप्तमे गणधरे.स.
वीरसूर-वीरशर-पुं० । वीराणां मध्ये ऽत्यन्तसाहसपने शर, ८ सम० । कल्प। स्था। आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णककर्तरि
| प्रश्न०४ संव० द्वार। वीरजिनसाधौ, पातु।
वीरसूरि-वीरसूरि-भक्तामरकर्तृ"मानतुङ्ग"सूरी, ग०३ अधिक। वीररवि-धीररवि-पुं० । वीरजिनादित्ये, “उद्बोधो विदधे वीरसेण-वीरसेन-पुं० । सम्यक्त्वप्राधान्ये दृष्टान्ततयोक्त उद.
जाना-मिव भव्यशरीरिणाम् । गवां विलासर्येनाऽसौ, जी- यसेनराशोऽन्धे पुत्रे, प्राचा०१०४ १०१ उ०। यदुकुल. याद् वीररविश्चिरम् ॥ १॥" ग०१अधि।
प्रसिद्ध वीरे, प्रा० चू० १ अ०। प्रा० म० । अन्त। वीररस-वीररस-पुं० । शूर वीर विक्रान्तौ इति वीरयति-वि-प्रीमिय
| वीरसेणिय-वीरसैनिक-न० । चतुर्थदेवलोकस्थविमानभेदे , कामयति त्यागतपोवैरिनिग्रहेषु प्रेरयति प्राणिनमित्युत्त
स०६ सम०। मप्रकृतिपुरुषचरित्रश्रवणादिहेतुसमुद्भूते दानाद्युत्साहप्रकत्मिके काव्यरसभेद, अनु० ।
वीराइपुत्तमाउ-वीरादिपत्रमात-स्त्री० । अहिलपट्टननगरे
वीरादिकानामनेकेषां पुत्राणां जनन्यां वसुन्धर्या श्राविकातत्थ परिच्चायम्मि अ, दाणतवचरणसत्तुजणविणासे ।
याम् , जी०१ प्रति०। अणणुसयधितिपरक्कम-लिंगो वीरो रसो होइ ॥२॥
वीरायमाण-वीरायमाण-त्रि०। वीरमिवात्मानमाचरति,प्रा. तत्र तेषु नवसु रसेषु मध्ये परित्यागे दाने तपश्चरण-तपोविधाने शत्रुजनविनाशे च यथासंख्यमननुशयधृतिपराक- चा० १ श्रु० ६ १०४ उ०। मचिह्नो वीरो स्सो भवति । इदमुक्तं भवति-दाने दत्ते वीरायरिय-चीराचार्य-पुं० । चन्द्रगच्छस्य शाण्डिल्यशाखायदानुशयो-गर्वः पश्चात्तापो वा तं न करोति तपसि च यां विजयसिंहसूरिशिष्ये सिद्धराजमित्रे बौद्धसाइयदिगकृते धर्ति करोति नार्तध्यानं, शत्रुविनाशे च पराक्रमते म्बराचार्याणां जेरि आचार्य, स च ११६० विक्रमसंवत्सरे नत वैक्तव्यमवलम्बते, तदा एतैलिङ्गीयतेऽयं प्राणी वी-| आसीत् । जै००।। ररस वर्तत इत्येवमन्यत्रापि भावना कार्येति ।
वीरासण-वीरासन-न० । सिंहासनोपविष्टस्य भुविन्यस्त___ उदाहरणनिदर्शनार्थमाहवीरो रसो जहा
पादस्यापनीतसिंहासनस्येवावस्थाने, शा० १ श्रु. १०।
वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद श्रासो नाम महावीरो, जो रजं पयहिऊण पब्वइयो। । स्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासने इच निविष्टे मुक्तकामकोहमहास-त्तु पक्खनिग्घायणं कुणई ॥३॥ । जानुके इव निरालम्बनेऽपि यदास्ते । दुष्करं चैतत् , अत एव वीरो रसो यथा इत्युपदर्शनार्थमेतत् ‘सो नाम' गाहा वीरस्य-साहसिकस्यासनं वीरासनमित्युच्यते । वृ०५ उ०। पाउसिद्धा , नवरं वीररसवत् पुरुषचेष्टितप्रतिपादनादेवप्र- बा। सूत्र० । श्राचा० स्था०। (धीरासनविवरणम् 'पाकारेषु काव्येषु वीररसः प्रतिपत्तव्य इति भावार्थः । अपरं सण' शब्दे द्वितीयभागे ४७० पृष्ठे गतम् ।) चेहोत्तमपुरुषजतव्यकामक्रोधादभावशत्रुजयनैव वीररसो- | वीरासणिय-वीरासनिक-पुं० । वीरासनमुक्तं तदस्यास्तीति दाहरणं मोक्षाधिकारिणि प्रस्तुतशास्त्रे इतरजनसाध्यसंसा
वीरासनिकः । सूत्र०२ श्रु०२०।सिंहासने निविष्ट - रकारणद्रव्यशत्रुनिग्रहस्याप्रस्तुतत्वादिति मन्तव्यमिति एव.
वासीने, स्था०७ ठा०३ उ० दशा० । वृ० भ० । (नि मन्यत्रापि भावार्थोऽवगन्तव्य इति । अनु।
ग्रंन्ध्या वीरासनिकया भवितुं न कल्पते इति 'पासण' वीरखसउण-वीरलशकुन-पुं० । उलूकजातीये हुलापकपक्षि
शब्दे द्वितीयभागे ४६० पृष्टे गतम् ।) णि, पृ. ३ उ० । नि० चू० ।
वीरिय-वीर्य-न० । विशेषेण ईर्यते चेष्ट्यतेऽनेनेति वीर्यम्। वीरवयण-वीरवचन-न०। भगवस्महावीरवर्द्धमानस्वामिप्रव
उत्त०३३ अ०। विशेषेणेरयति प्रवर्तयति श्रात्मानं तासु चने, आव०६अ।
तासु क्रियास्थिति वीर्यम्। "स्वाद-भव्य-चैत्य-चौरसमेषु
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(१३६८) वीरिय अभिवानराजेन्द्रः।
वीरिय यात्" ।।२।१०७ ॥ इति संयुक्तस्य यात्पूर्व इद । प्रा०। वलम्बते (मवष्टम्भते )। ततस्तदवष्टम्भतो जातसामर्थ्यकर्म० । सामर्थ्य विशेषे, उत्स० ३ ० । शक्ती, अर्थक्रिया विशेषः सन् तान् प्राणापानादिपुगलान् विसजतीति सामध्ये, मनसः स्वविषयज्ञानोत्पादने , सूत्र०२ श्रु. ५ परिणामालम्बनग्रहणसाधनं वीर्यम् । तेन च वीर्येण योगअ० । श्रा० म० । आन्तरोत्साहे. चं०प्र०२० पाहु० । संझकेन मनोवाकायावष्टम्भतो जायमानेन 'लद्धनामतिपाचू । जीवाश्रिते, स्था० ३ ठा० ३ उ० । पराक्रमे , गं' ति लग्धं नामत्रिकम् । तद्यथा-मनोयोगो, वाग्योगः, कल्प०१ अधिः ६ क्षण । पं० भा०। प्रा० चू० । काययोगः इति । तत्र मनसा करणभूतेन योगो मनोयोगः, योगो बीर्य शक्तिरुत्साहः पराक्रम इति पर्यायाः । कर्म० वाचा योगो वाग्योगः, कायेन योगः काययोगः । स्यादेतत् , २ कर्म०। प्रा० चू० । आव० । जी० । उत्त० । व्य- सर्वेषु जीवप्रदेशेषु तुल्यक्षायोपशमिक्यादिलब्धिभावेऽपि वसाये, पं० चू०१ कल्प। औ०। जं०। उत्साहातिरेके, किमिति कचित्प्रभूतं कचित् स्तोकं कचित्स्तोकतरमित्येस्था०८ ठा०३ उ०। चित्तोत्साहे, पश्चा०१६ विव० । औरस वं वैषम्येण वीर्यमुपलभ्यत इत्यत आह- कजे' त्यादि, बले.सूत्र०१ श्रु०६अ। जीवबले, भ७ श०७ उ० । स्था। यदर्थ चेष्टते तत्कार्य,तस्याभ्याशः, अभ्यशनमभ्याशः, अशुङ्
व्याप्तावित्यस्याभिपूर्वस्य घन्तस्य प्रयोगः, कार्याभ्याश:प्रथमतो वीर्यमेव प्ररूपयति
कार्यस्यासन्नता निकटीभवनमित्यर्थः । तथा जीवप्रदेशानाविरियंतरायदेस-क्खएण सव्वक्खएण वा ली। । मन्योऽयं परस्परं प्रवेशः शृङ्गालावयवानामिव परस्परं स
अभिसंधिजमियरं वा, तत्तो विरियं सलेसस्स ॥ ३ ॥ म्बन्धविशेषः । ताभ्यां कृत्वा विषमीकृताः प्रभूताल्पाल्पतरवीर्यान्तरायस्य देशक्षयेण सर्वक्षयेण वा लब्धिर्वीर्यलब्धि
सद्भावतो विसंस्थुलीकृताः प्रदेशा:-जीवप्रदेशा येन जीव
वीर्येण तत्कार्याभ्याशान्योऽन्यप्रदेशविषमीकृतप्रदेशम् । तरसुमतामुपजायते । तत्र देशक्षण छद्मस्थानां, सर्वक्षयेण
थाहि-येषामात्मप्रदेशानां हस्तादिगतानामुत्पाद्यमानघटा(ब) केवलिनाम् । तस्याश्च वीर्यलब्धः सकाशादुपजा
दिलक्षणकार्यनैकट्य तेषां प्रभूततरा चेष्टा , दूरस्थानामयमानं वीर्य सलेश्यस्यापि च भवति, अलेश्यस्यापि च ।
शादिगतानां स्वल्पा, दूरतरस्थानां तु पादादिगतानां स्वल्पकेवलमिह सलेश्यवीर्येणाधिकार इति तदेवोपदर्शयति
तरा । अनुभवसिद्धं चैतत् । अपि च--लोष्ठादिनाऽभिधाते 'अभिसंधिजमियरं वा तत्तो विरियं सलेसस्स' ततस्त
सति यद्यपि सर्वप्रदेशेषु युगपद्धवनोपजायते , तथापि येषास्थाः क्षायिकक्षायोपमिकरूपाया वीर्यलब्धेः सकाशात्
मात्मप्रदेशानामभिघातकलोष्ठादिद्रव्यनैकट्यं तेषां तीवतरा मलेश्यस्य वीर्यमभिसंधिजमितरद्वा भवति । तत्र यद्बुद्धि
वेदना, शेषाणां तु मन्दा मन्दतरा।तथेहापि जीवप्रदेशेषु परिपूर्वकं धावनवल्गनादिक्रियासु नियुज्यते तदभिसन्धिजम् ,
स्पन्दात्मकं वीर्यमुपजायमानं कार्यद्रव्याभ्याशवशतः केषुइतरदनभिसन्धिजम् । यद्भुक्तस्याऽऽहारस्य धातुमलत्वरूप- चित्प्रभूतमन्येषु मन्दमपरेषु तु मन्दतमं भवति । एतञ्चवं परिणामापादनकारणमेकेन्द्रियाणां वा तत्तरिक्रयानिबन्धनम् , जीवप्रदेशानां परस्पर संबन्धविशेषे सति भवति, नान्यथा एतच्चाभिसन्धिजमनभिसन्धिजं वा वीर्यमवश्यं यथासंभवं यथा शृङ्खलावयवानाम् । तथाहि-तेषां शङ्खलावयवानां परसूक्ष्मवादरपरिस्पन्दरूपक्रियासहितं, योगसंशमप्यतदेव । ए. स्परं संबन्धविशेषे सति एकस्मिन्नवयवे परिस्पन्दमानेऽपकार्थिकानि चास्यामूनि-"जोगो विरियं थामो , उच्छाह रेऽप्यवयवाः परिस्पन्दन्ते, केवलं केचित् स्तोकमपरे स्तोपरिक्कमो तहा चिट्ठा । सत्ती सामत्थं चिय , जोगस्स ह. कतरमिति । सम्बन्धविशेषाभावे त्वेकस्मिन् चलति मापरवंति पज्जाया ॥१॥" इति ॥ ३॥
स्यावश्यंभावि चलन,यथा गोपुरुषयोः,तस्मात्कार्यद्रव्याभ्या. संप्रत्यस्यैव योगस्य परिणामादिहेतुतां भेदं च; तथा | शवशतो जीवप्रदेशानां परस्परं संबन्धविशेषतश्च वीर्य जीवजीवप्रदेशेष्वस्य वैषम्येणावस्थाने कारणं च प्रतिपिपादयि
प्रदेशेषु केषुचित्प्रभूतमन्येषु स्तोकमपरेषु तु स्तोकतरमित्येपुरिदमाह
वं वैषम्येणोपजायमानं न विरुध्यत इति ॥४॥
तदेवं वीर्य प्रतिपाद्य संप्रत्यस्यैव जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्ठपरिणामालवणगह-ण साहणं तेण लद्धनामतिगं। ।
स्वपरिक्षापनाय प्ररूपणां चिकीर्षुरिमानाधिकारानाह-- कजब्भासनोन्न-प्पवेसविसमीकयपएसं ॥ ४ ॥
अविभागवग्गफडग-अंतरठाणं प्रणतरोवणिहा। परिणमनं परिणामः । णिजन्तात् घम् प्रत्ययः (श्रीम० कृ० |
जोगे परंपराबु-डिसमयजीवप्पबहुगं च ॥ ५ ॥ -३) परिणामापादनमित्यर्थः । पालम्ब्यत इत्यालम्बनं,
योगे-योगविषये,प्रथमतोऽविभागप्ररूपणा कार्या १। तभावेऽनद् (श्रीम० कृ०६-२) (गृहीतिर्ग्रहणम्) तेषां सा
तो वर्गणाप्ररूपणा २। ततः स्पर्धकस्य प्ररूपणा ३। तदनधनं साध्यतेऽनेनेति साधनं योगसंशं वीर्य , करणेऽन
न्तरमन्तरप्ररूपणा ४। ततः स्थानप्ररूपणा ५॥ ततोऽनन्तद(श्रीम. १०६-४)। तथाहि-तेन वीर्यविशेषेण योगसं
रोपनिधा । ततः परंपरोपनिधा ७ तदनन्तरं वृद्धिग्ररूपणा. सकेनौदारिकादिशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलान् प्रथमतो गृह्णा
साततः समयमरूपमा ।। ततो जीवानामल्पबहुत्वग्ररूपति, गृहीत्वा चौदारिकादिरूपतया परिणमयति । तथा
गति १०। तत्र यस्यांशस्य प्रज्ञाच्छेदनकेन विभागः कर्तुं न प्राणापानभाषामनोयोग्यान पुद्गलान् प्रथमतो गृह्णाति , शक्यते सोऽशोऽविभाग उच्यते। किमुक्तं भवति ?--इह गृहीत्वा च प्राणाऽपानादिरूपतया परिणमयति । परिणम- जीवस्य वीर्य केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन छिद्यमानं छिद्यमानं ग्य च तन्निसगहेतुसामर्थे विशेषसिद्धये तानेच पुद्गलानव- यदा विभागं न प्रयच्छति , तदा सोऽन्तिमोऽशोऽविभाग सम्यते । यथा मन्दाक्तिः कश्चिनगरे परिभ्रमणाय पनि ।
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(१३६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बीरिय
ते चाविभागा एकैकस्मिन् जीवप्रदेशे यावन्तो भवन्ति तावत आह-
पायविभा, लोगासंखेज गप्पएससमा । विभागा एकेके, होंति पएसे जहञेयं ॥ ६ ॥
प्रज्ञाछेदनकेन चिचाः सन्तो ये वीर्यस्याविभागा जातास्ते एकैकस्मिन् जीवप्रदेशे चिन्त्यमाना जघन्येनाप्य संख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा भवन्ति । उत्कर्षतो ऽप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा एव । किं तु ते जघन्यपदभाविवीर्याविभागापेक्षयाऽसंख्येयगुणा द्रष्टव्याः इति ॥ ६ ॥ उक्काऽवि
भागप्ररूपणा |
संप्रति वर्गणाप्ररूपणामाह
जेसि पसाय समा, अविभागा सम्वतो य थोवतमा । ते वग्गणा जहना, अविभागहिया परंपरओ ॥ ७ ॥
येषां जीवप्रदेशानां समास्तुल्यसंख्या वीर्याविभागा भवन्ति, सर्वतश्च सर्वेभ्योऽपि चान्येभ्योऽपि जीवप्रदेशगतवीर्याsविभागेभ्यः स्तोकतमाः, ते जीवप्रदेशा घनीकृतलोकासंख्येयभागवर्त्य संस्थेयप्रतरगत प्रदेशराशिप्रमाणाः समुदिता एका वर्गला । सा च जघन्या स्तोकाऽविभागयुक्तत्वात्, श्रविभागाधिका परंपरत इति । ततः परा वर्गणा एकैके नाविभागेनाधिका वक्तव्या । तद्यथा— जघन्यवर्गणातः परे ये जीवप्रदेशा एकेन वीर्याविभागेनाभ्यधिका धनीकृतलोकासंख्येय भाग वर्त्य संख्येय प्रतरगत प्रदेशराशिप्रमाणा वर्तन्ते, तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा । ततः परं द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिकानामुक्तसंख्याकानामेव जीवप्रदेशानां समुदायस्तृतीया वर्गेणा । ततोऽपि त्रिभिवयांविभागैरधिकानां तावत्संख्याकानामेव जीवप्रदेशानां समुदायश्चतुर्थी वर्गला । एवमेकैकवीर्याविभागवृद्धया वर्धमानानां तावतां तावतां जीवप्रदेशानां समुदायरूपा वर्गणा असंख्येया वक्तव्या इति ॥ ७ ॥
तान कियस्य इति तनिरूपणार्थे स्पर्धकप्ररूपणामाहसेढिअसंखित्रमित्ता, फड्गमे तो अंतरा नडत्थि । जाव असंखा लोगा, तो बीयाई य पुब्वसमा ॥ ८ ॥ इह धर्नाकृतस्य लोकस्य या एकैकप्रदेशपतिरूपा श्रेणिस्तस्याः श्रेणेरसंक्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्मात्रस्तावत्प्रमाणा यथोक्तस्वरूपा वर्गणाः समुदिताः, एकं स्पर्धकं, स्पर्धन्त इवोत्तरोत्तरवृद्धया वर्गणा अत्रेति स्पर्धकम् । हुलमिति ( श्रीम० कृ० १-११) वचनादधिकरणे धुम् । उक्का स्पर्धकप्ररूपणा । सांप्रतमन्तरप्ररूपणामाह-' एतो अंतरा नत्थि ' इतः पूर्वोक्तस्पर्धकगतचरमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशा अनन्तरा न सन्ति । किमुक्तं भवति ? - ऊर्ध्वमेकैकवीर्याविभागवृद्धया निरन्तरं वर्धमाना जीवप्रदेशा न लभ्यन्ते, किंतु सान्तरा एव । तथाहि पूर्वोक्तस्पर्धकगतचरमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशा नैकेन वीर्याविभागेनाधिकाः प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्यां नापि त्रिभिः, नापि चतुर्भिः यावन्नापि संख्येयेः, किं त्वसंस्येयैरेवासंस्येयलोकाकाशप्रदेश प्रमासैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते ।
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बीरिय ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा । 'तो बीयाई य पुण्यसमति ततो द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणातः परतो द्वितीयादयो वर्गणाः पूर्वसमाः पूर्वस्पर्धकस्येव वतव्या इत्यर्थः । तथाहि प्रथमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशानामेकेन वीर्याविभागेनाधिकानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिकानां समुदायस्तुतीया वर्गणा । एवं तावद्वाच्यं यावत् श्रेण्यसंख्येयभागगत प्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा भवन्ति, तासां व समुदायो द्वितीयं स्पर्धकम् । ततः परं पुनरप्येकेन वीर्याविभागेनाघिका जीवप्रदेशा न लभ्यन्ते, नापि द्वाभ्यां नापि त्रिभिः, यावन्नापि संक्येयैः, किं त्वसंख्येयैरेवासंख्येयलोकाकाशप्रदेप्रमाणैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते ततस्तेषां समुदायस्तृतीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा । तत एकैकधीर्याविभागवृद्ध्या द्वितीयादयो वर्गणास्तावद्वाच्या याच्छ्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, तासां च समुदायस्तृतीयं स्पर्धकम् । एवम संख्येयानि स्पर्धकानि वाच्यानीति ॥ ८ ॥ तदेवं कृताऽन्तरप्ररूपणा ।
संप्रति स्थानप्ररूपणां करोति
सेढि संखियमेता हूँ फड्डगाई जहभयं ठाणं । फडगपरिवुडिओ, अंगुलभमो असंखतमो ॥ ६ ॥ इह पूर्वोक्तानि स्पर्धकानि श्रेण्यसंख्येयभामगतप्रदेशराशिप्रमाणानि जघन्यं योगस्थानं भवन्ति । एतश्च सूक्ष्मनिगोदस्य सर्वाल्पवीर्यस्य भवप्रथमसमये वर्त्तमानस्य प्राप्यते । ततोऽन्यस्य जीवस्याधिकतरवीर्यस्य येऽल्पतरवीर्या जीवप्रदेशास्तेषां समुदायः प्रथमा वर्गणा । तत एकेन वीर्याविभागेन वृद्धानां समुदायो द्वितीया वर्गणा । द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिकानां समुदास्तृतीया वर्गणा। त्रिभिवर्याविभागैरधिकानां समुदायश्चतुर्थी वर्गणा, एवं तावद्वाच्यं यावच्छ्रेण्यसंस्थेयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति । तासां समुदायः प्रथमं स्पर्धकम् । ततः प्राक्रनयोगस्थानप्रदशितप्रकारेण द्वितीयादीन्यपि स्पर्धकानि वाच्यानि । तामि च तावद्वाच्यानि यावच्छेण्यसंस्थेयभागतप्रदेशराशिप्रमारणानि भवन्ति, ततस्तेषां समुदायो द्वितीयं योगस्थानम् । ततोऽन्यस्य जीवस्याधिकतमवीर्यस्योपदर्शितप्रकारेण तृतीयं योगस्थानं वाच्यम् । एवमन्यान्यजीवापेक्षया तावद् योगस्थानानि वाच्यानि यावत्सर्वोत्कृष्टं योगस्थानं भवति । इह द्वितीये योगस्थाने प्रथमे स्पर्धके प्रथमवर्गलायां जीवप्रदेशाः प्रथमयोगस्थानचरमस्पर्धकचरमवर्गणागतर्वार्याविभागापेक्षया असंख्येयैवर्याविभागैरधिकाः प्राप्यन्ते । तृतीयेऽपि योगस्थाने प्रथमस्पर्धके प्रथमवर्गलायां जीवप्रदेशा द्वितीय-योगस्थानचरम स्पर्धक चरमवर्गणागतवीर्याविभागापेक्षयाऽसंख्येयैवर्याविभागैरधिकाः प्राप्यन्ते । एवं सर्वेष्वपि द्रष्टव्यम् । तानि च योगस्थानानि सर्वाण्यपि कियन्ति भवन्तीति वेदुच्यते-- श्रेण्यसंख्येयभागगत प्रदेशराशिप्रमाणानि । ननु जीवानामनन्तत्वात्प्रतिजीवं च योगस्थानस्य प्राप्यमाणत्वादनन्तानि योगस्थानानि प्राप्नुवन्ति, कथमुच्यते-रायसेस्येय भागगतप्रदेशप्रमाणानीति ? नैष दोषः, यतः एकै
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वीरिय अभिधानराजेन्द्रः।
वीरिय कस्मिन् योगस्थाने सहशे सरशे वर्तमानाः स्थावरजीवा शराशिप्रमाणेषु योगस्थानेष्वतिक्रान्तेष्वधस्तने योगस्थानेअनन्ताः प्राप्यन्ते, ततः सर्वजीवापेक्षयाऽपि सर्वाणि योग- | ऽर्धानि प्राप्यन्ते । एवं तावद्वाच्यं यावज्जधन्यं योगस्थानस्थानानि केबलिप्रज्ञया परिभाव्यमानानि यथोक्तप्रमाणा- मिति द्विगुणवृद्धिस्थानतुल्यानि द्विगुणहानिस्थानानि । न्येव प्राप्यन्ते, नोना (ततोना) धिकानीति । कृता स्था- यानि चामूनि द्विगुणवृद्धिस्थानानि द्विगुणहानिस्थानानि नप्ररूपणा । साम्प्रतमनन्तरोपनिधावसरः; तत्रोपनिधान- वा तानि सर्वस्तोकानि; तेभ्यः पुनरेकस्मिन् द्विगुणवृद्धिमुपनिधा धातूनामनेकार्थत्वान्मार्गणमित्यर्थः, अनन्तरेणो
स्थानयोर्द्विगुणहानिस्थानयोर्वाऽन्तरे यानि योगस्थानानि मनिधा अनन्तरोपनिधा, अनन्तरं योगस्थानमधिकृत्योसर स्य योगस्थानस्य स्पर्धकविषये मार्गणमित्यर्थः । तदेवाह
तान्यसंख्येयगुणानि इति ॥१०॥ तदेवं कृता परंपरोपनिधा। 'फडगे' त्यादि । अतः प्रथमाद्योगस्थानात् द्वितीयादिषु सांप्रतं वृद्धिप्ररूपणां चिकीर्षुराहयोगस्थानेषु प्रत्येक स्पर्धकानां परिवृद्धिरकुलभागोऽसंख्येयतमः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रसत्केऽसंख्येयतमे भागे यावान् प्रदे
वुड्डीहाणिचउकं तम्हा कालोत्थ अंतिमन्त्रीणं । शराशिस्तावत्प्रमाणानि पूर्वपूर्वयोगस्थानगतस्पर्धकापेक्षयो- अंतोमुहुत्तमावलि, असंखभागो य सेसाणं ॥ ११ ॥ त्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् योगस्थाने स्पर्धकान्यधिकानि भवन्तीत्यर्थः । कथमेवं शायत इति चेदुच्यते-ह प्रथमयोगस्था
क्षयोपशमो हि वीर्यान्तरायस्य कचित्कदाचित्कथंचिनगतवर्गणापेक्षया द्वितीययोगस्थानगतवर्गणा मूलत एव
द्भवतीति तनिबन्धनानि योगस्थानानि कदाचित्प्रवर्धसर्वा अपि हीनहीनतरजीवप्रदेशा भवन्ति, प्रभूतप्रभूतत
मानानि भवन्ति, कदाचिद्धीयमानानि । तत्र वृद्धिश्चतुरवीर्याणां जीवप्रदेशानां स्तोकस्तोकतरतया प्राप्यमाण
र्धा, तद्यथा-असंख्येयभागवृद्धिः, संख्येयभागवृद्धिः, संस्वात् । ततोऽत्र विचित्रवर्गणावाहुल्यसंभवतो यथोक्तं ख्येयगुणवृद्धिः, असंख्येयगुणवृद्धिः । एवं. हानिरपि चतुर्धा, स्पर्धकबाहुल्यमुपपद्यत एव । एवमुत्तरोत्तरेष्वपि योगस्था- तद्यथा-असंख्येयभागहानिः,, संख्येयभागहानिः, संख्येयगुनेषु पूर्वपूर्वयोगस्थानगतस्पर्धकापेक्षया स्पर्धकबाहुल्यं परि- णहानिः, असंख्येयगुणहानिः । यस्मादेवं वृद्धिहान्योश्चतुभावनीयमिति ॥६॥ तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधा। एकं वर्तते तस्मादत्र प्रत्येक कालो नियतो वक्तव्यः । तसांप्रतं परम्परोपनिधाया अवसरः, तत्र परम्पराया उप
श्रान्तिमयोवृद्धिहान्योरसंख्येयगुणलक्षणयोः प्रत्येकं 'कालो'
ति अन्तर्मुहूर्त शेषाणां त्वाद्यानां तिसृणां वृद्धीनां हानीनिधा मार्गणं परम्परोपनिधा, तां चिकीर्षुराह
नां चावलिकाया असंख्येयभागमात्रः । एतदुक्तं भवतिसेढिप्रसंखियभाग, गंतुं गंतुं हवंति दुगुणाई । तथाविधक्षयोपशमभावतो विवक्षितात् योगस्थानात् प्रति
समयपरस्मिन्नपरस्मिन्नसंख्येयगुणवृद्धे योगस्थाने यवर्तपल्लासंखियभागो, नाणागुणहाणि ठाणाणि ॥ १० ॥
ते जीवः साऽसंख्येयगुणवृद्धिः । यत्पुनः क्षयोपशमस्य मप्रथमाद्योगस्थानादारभ्य श्रेणेरसंख्येयतमे भागे या-1 न्दमन्दतमभावतः प्रतिसमयमपरस्मिन्नसंख्येयगुणहीने योवन्त आकाशप्रदेशास्तावन्मात्राणि योगस्थानानि गत्या-1 गस्थाने वर्तते साऽसंख्येयगुणहानिः । सा चासगत्वा-अतिक्रम्यातिक्रम्य यद्यत्परं योगस्थानं तत्र तत्र पूर्व- ख्येयगुणवृद्धिरसंख्येयगुणहानिर्वोत्कर्षतोऽन्तर्मुहर्त कालं योगस्थानापेक्षया स्पर्धकानि द्विगुणानि भवन्ति । एतदुक्तं यावनिरन्तरं भवति । श्राद्याः पुनस्तिस्रो वृद्धयो हाभवति-प्रथमे योगस्थाने यावन्ति स्पर्धकानि भवन्ति तद- नयो वोत्कर्षत श्रावलिकाया असंख्येयभागमात्र कालं, जपेक्षया श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि योगस्था- धन्यतस्तु चतम्रोऽप्येकं द्वौ वा समयौ यावद्भवन्ति ॥११॥ नान्यतिक्रम्यानन्तरे योगस्थाने द्विगुणानि स्पर्धकानि भ- __ स्यादेतत्, कियन्तं कालं यावत्पुनर्यथोक्तवृद्धिहानिरहिता वन्ति । ततः पुनरपि ततो योगस्थानात्परतस्तावन्ति यो- जीवा योगस्थानेष्ववस्थिताः प्राप्यन्त इति प्रश्नावकाशमागस्थानान्युल्लवयापरस्मिन् योगस्थाने द्विगुणानि स्पर्धकानि
शङ्कय समयप्ररूपणामाहप्राप्यन्ते । एवं भूयो भूयस्तावद्वाच्यं यावदन्तिमं योगस्थानम् । कियन्ति पुनर्योगस्थानानि पूर्वपूर्वयोगस्थानापेक्षया
चउराई जावट्ठग-मित्तो जाव दुगं ति समयाणं । द्विगुणद्विगुणस्पर्धकानि भवन्त्यत आह-'पल्लासंखियभागो' पञ्जत्तजहन्नाओ, जावुक्कोसं ति उक्कोसो ॥ १२ ॥ ति सूक्ष्मस्याखापल्योपमस्यासंख्येयतमे भागे यावन्तः सम यास्तावत्प्रमाणानि द्विगुणवृद्धिस्थानानि भवन्ति । 'नाणागु.
चत्वार आदिर्यस्याः सा चतुरादिः, समयानामवणहाणिठाणाणि' ति नानारूपाणि यानि गुणहानिस्थानानि
स्थितिकालनियामकानां वृद्धिः, सा च तावद्वाच्या यावदद्विगुणहानिस्थानानि तान्यपि पल्योपमासंख्येयभागगतस
एकम् । इत ऊवं पुनः समयानां हानिर्वक्तव्या, सा मयप्रमाणानि भवन्ति । तथाहि-उत्कृष्टाद्योगस्थानादार- च तापद्यावद् द्विकम् । सा च चतुरादिका वृद्धिः, पर्याभ्याघोऽधोऽवतरणे सति यदा श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशरा
सजघन्यात्-पर्याप्तसूक्मनिगोदसत्कजघन्ययोगस्थानादारभ्य शिप्रमाणानि योगस्थानान्युलकितानि भवन्ति, सदाऽनन्तरेऽ- तावदवसेया यावष्टकम् ततः परं हानिः- साऽपि तावद्याधस्तने योगस्थानेऽन्तिमयोगस्थानगतस्पर्धकापेक्षयाऽर्धानि | वदुत्कृष्ट योगस्थानम् । एष उत्कृषोऽवस्थितिकालः । एपर्घकानि प्राप्यन्ते । ततः पुनरपि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदे- तदुक्तं भवति-पर्याप्तसम्मनिगोदस्य सर्वान्यवीर्यस्य ..
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धीरिय
(१०१) पीरिय
अभिधानराजेन्द्रः। काजघन्यायोगस्थानादारभ्य क्रमेण यानि योगस्थानानि बायरवियतियचउरम-णसन्नपञ्जत्तगजहन्नो ॥१४॥ श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तान्युत्कर्षतश्चतुरः
इहासंख्येयगुण इति उत्तरगाथातः संबध्यते । सासमयान् यावदवस्थितानि प्राप्यन्ते । ततः परं यानि यो
धारणस्य सूदमस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमागस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तान्यु.
नस्य जघन्यो योगः सर्वस्तोकः । ततो बादरैकेन्द्रियस्य त्कर्षतः पञ्च समयान , ततः परं यानि योगस्थानानि पू
लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोवोक्तप्रमाणानि तान्युत्कर्षतः षट् समयान् , ततोऽपराणि
ऽसंख्येयगुणः । ततो द्वीन्द्रियस्य लक्ष्यपर्याप्तकस्य प्रथमपानि योगस्थानानि पूर्वोक्तप्रमाणानि तान्युत्कर्षतः सप्त स
समये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः । ततस्त्रीमयान् , ततोऽपि पराणि क्रमेण योगस्थानानि पूर्वोक्नसं
न्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो ख्याकानि तान्युत्कर्षतोऽष्टौ समयान् , ततः पराणि पुन
योगोऽसंख्येयगुणः। ततश्चतुरिन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य र्यानि क्रमेण योगस्थानानि श्रेण्यसंख्ययभागगतप्रदेशराशि
प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः। ततो प्रमाणान्येव तान्युत्कर्षतः सप्त समयान् यावदवस्थितानि
ऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानप्राप्यन्ते । तदनन्तरं यथोक्नसंख्याकान्येव योगस्थानान्यु
स्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः । ततः संक्षिपञ्चेन्द्रियस्य स्कर्षतः षद् समयान् , ततोऽपि पराखि यथोक्तप्रमाणा
लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोन्येव योगस्थानानि पञ्च समयान् , एवं तावद्वाच्यं याव
संख्येयगुणः ॥ १४ ॥ दन्तिमानि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणान्युत्कर्षतो ही समयौ यावदवस्थितानि प्राप्यन्ते ॥ १२॥ तदेवमुक्तमु
आइदुगुकोसो सिं, पजत्तजहन्नगेयरे य कमा । स्कृष्टमवस्थानकालमानम् ।
उक्कोसजहन्नियरो, असमत्तियरे असंखगुणो ॥१॥ ___सांप्रतं जघन्यमवस्थानकालमानमाह
आदिद्विकमपर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियलक्षणं तस्योत्कृष्टो एगसमयं जहनं, ठाणाणप्पाणि अट्ठसमयाणि।
योगः परिपाट्याऽसंख्येयगुणो वक्तव्यः । तद्यथा
लब्ध्यपर्याप्तकसंक्षिपश्चेन्द्रियजघन्ययोगात् सूक्ष्मनिगोदस्य उभो असंखगुणिया-खि समयसो ऊपठाणासि ।१३।
लम्ध्यपर्याप्तकस्यैवोत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततोसर्वेषामुनखरूपाणां योगस्थानानां जघन्यत एक
ऽपि बादरैकेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टोऽसंख्येसमयं यावदयस्थानम् । तथा यान्यप्यपर्याप्तसूक्ष्म
यगुणः । 'सिं पजत्तजहन्नगेयरे य कमा' अनयोः सूक्ष्मबादनिगोदयोग्यान्यसंख्येयानि योगस्थानानि पूर्वमनुक्लकालनियमानि तेषां जघन्यत उत्कर्षतो वा पकं सम
रैकेन्द्रिययोः पर्याप्तयोर्जघन्य इतरश्वोत्कृष्टः क्रमात् कमे
णासंख्येयगुणो वक्तव्यः । तद्यथा-लब्ध्यपर्याप्तकबादरकेयं यावदवस्थानम् ; यतः सर्वोऽप्यपर्याप्तोऽपर्याप्तावस्थायां वर्तमानः प्रतिसमयमसंख्येयगुणरूपया योगवृद्धथा व
न्द्रियोत्कृष्टयागात् सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्य जघन्यो योसंते, सतस्तद्योगस्थानानामजघन्योत्कृष्टकमेकमेव समय
गोऽसंख्येयगुणः । ततो बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य ज
घन्ययोगोऽसंख्येयगुणः । ततः सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्यो. यावदवस्थानम् । तदेवमुक्ना समयप्ररूपणा ॥ सांप्रतमेतेषा
स्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततोऽपि बादरैकेन्द्रियस्य पर्यामेव चतुरादिसमयानां योगस्थानानामल्पबहुत्वमाह-ठा"णाणी' त्यादि । अष्टसामयिकानि स्थानानि योगस्थानानि,
सस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । 'उक्कोसजहनियरो त्रअल्पानि शेषसप्तसामयिकादियोगस्थानानि प्रतीत्य स्तो
समत्तियरे असंखगुणो' ति असमाप्तोऽपर्याप्तो द्वीन्द्रियादिकान्येव प्राप्यन्ते इति कृत्वा, तेभ्यः प्रत्येकसमयमसंख्येयगु
स्तस्मिन्नुत्कृष्ट इतरसिंश्च पर्याप्त द्वीन्द्रियादी जघन्य इतरलानि पूर्वोत्तररूपोभयपार्श्ववर्तीनि सप्तसामयिकानि, अल्प
श्वोत्कृष्टः परिपाट्याऽसंख्येयगुणो वक्तव्यः । तद्यथा-पर्यातरस्थितिकत्वात् खस्थाने तु तानिइयान्यपि परस्परं तुल्या
तकबादरैकेन्द्रियोत्कृष्टयोगात् द्वीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकनि । तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपार्श्ववर्तीनि षट्साम
स्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततस्त्रीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्या
सकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततश्चतुरिन्द्रियस्य लयिकानि, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि । तेभ्योऽप्यसंख्येय
मध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततोऽसंहिपगुणानि पञ्च सामयिकानि उभयपार्श्ववर्तीनि, स्वस्थाने तु|
वेन्द्रियस्य लक्ष्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । परस्परं तुख्यानि । तेश्योऽप्यसंख्येयगुणानि चतुःसामयि-|
ततोऽपि संक्षिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽ कानि उभयपार्श्ववर्तीनि, खस्थाने तु परस्परं तुल्यानि ।। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि त्रिसामयिकानि; तेभ्योऽप्यसं
संख्येयगुणः । ततो द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योख्येयगुणानि द्विसामयिकानि । 'समयसो ऊपठाणाणि' ति
गोऽसंख्येयगुणः।ततस्त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोसमयशः समयेन समयेन ऊनानि अष्टसामयिकेभ्यो व्यति
ऽसंख्येयगुणः। ततश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगो. रितानि सप्तसामयिकादीनि स्थानानि योगस्थानानि ॥१३॥
उसंख्येयगुणः । ततोऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो तदेवमुक्तं चतुरादिसमयानां योगस्थानानामल्पबहुत्वम् ।।
योगोऽसंख्येयगुणः । ततः संक्षिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य
जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः । ततो द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तकसंप्रति तेषु योगस्थानेषु वर्तमानानां सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वी
स्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततस्त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तकन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसंशिसंक्षिपश्चेन्द्रियाणां पर्याप्ताप- स्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततोऽपि चतुरिन्द्रियस्य र्याप्तानां जघन्योत्कृष्टयोगविषयेऽल्पयहुत्वमभिधित्सुराह- पर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । पर्याप्तकाश्च सर्वत्रासव्वत्थोवो जोगो, साहारणसुहुमपढमसमयम्मि। पि करणपर्याप्त वेदितव्याः ॥१५॥
३५१
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(१९०२) वीरिय
अभिधानराजेन्द्रः। श्रमणाणुत्तरगेवि-अभोगभूमिगय तइयतणुगेसुं। नोभागमतश्च । मागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नौकमसो मसंखगुणिो , सेसेसु य जोगुउकोसा ॥ १६ ॥
आगमतस्तु शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं सचित्ताचित्तमिअमना-असंही पर्याप्तचतुरिन्द्रियोत्कृष्टयोगात् अस
अभेदात्त्रिधा वीर्य , सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् शिपश्चेन्द्रियपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । त
त्रिविधमेव, तत्र द्विपदानामईन्चक्रवर्तिबलदेवादीनां यद्वीतोऽनुत्तरोपपातिनां देवानामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः।
ये स्त्रीरत्नस्य वा यस्य वा यद्वीय तदिह द्रव्यवीर्यत्वेन ततो ग्रैवेयकाणां देवानामुस्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः ।
ग्राह्यम् , तथा चतुष्पदानामश्वहस्तिरत्नादीनां सिंहव्याघ्रततो भोगभूमिजा (गता) नां तिर्यङ्मनुष्याणामु
शरभादीनां वा परस्य वा यद्वोढव्ये धावने वा वीर्य तस्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः । ततोऽप्याहारकशरीरिणामुत्क
दिति , तथा अपदानां गोशीर्षचन्दनप्रभृतीनां शीतोष्णहो योगोऽसंख्येयगुणः । ततः शेषाणां देवनारक
कालयोरुष्णशीतवीर्यपरिणाम इति । नियमनुष्याणामुत्कयो योगोऽसंख्येयगुणः। असंख्येयगुण
अचित्तवीर्यप्रतिपादनायाहकारश्च सर्वत्रापि सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागगतप्रदेश- अच्चित्तं पुण विरियं, आहारावरणपहरणादीसु । राशिप्रमाणो द्रष्टव्यः । तइयतणुगेसु' ति तृतीया तनु
| जह प्रोसहीण भणियं, विरियं रसवीरियविवागो।।१२।। राहारकशरीरम् ॥ १६ ॥ तदेव कृता सप्रपञ्चं योगप्ररूपणा । सांप्रतमेभिर्योगैर्यत्करोति तदाह
आवरणे कवयादी, चक्कादीयं च पहरणे होति ।
खित्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले जे जम्मि कालम्मि॥१३॥ जोगेहि तयणुरूवं, परिणमई गिण्हिऊण पंच तणू।
अचित्तद्रव्यवीर्य त्वाहारावरणप्रहरणेषु यद्वीर्य तदुच्यते , पाउग्गे वालंबइ, भासाणुमणत्तणे खंधे ॥ १७॥
तत्राऽऽहारवीर्यम् ‘सद्यः प्राणकरा हृद्या, घृतपूर्णाः कफाsयोगैरनन्तरोक्तस्वरूपैः प्रायोग्यान् स्कन्धान--पुनलस्क- पहाः' इत्यादि, ओषधीनां च शल्योद्धरणसरोहणविषाधान् गृहीत्वा यथायोग 'पंचतणु' ति पञ्च श- पहारमेधाकरणादिकं रसवीर्य, विपाकवीय च यदुक्तं चिरीराणि परिणमयति औदारिकादिपश्चशरीरतया परि- कित्साशास्त्रादौ तदिह प्राह्यमिति । तथा योनिप्राभृतकाणमयतीत्यर्थः । कथं पुनर्गृहातीति चेदत आह-तदनुरूपं नानाविधं द्रव्यवीर्य द्रष्टव्यमिति । तथा-आवरणे कवचायोगानुरूपम् । तथाहि-जघन्ययोगे वर्तमानः स्तोकान् पुद्र- दीनां प्रहरणे चक्रादीनां यद्भवति वीर्य तदुच्यत इति । लस्कन्धान गृह्णाति, मध्यमे मध्यमान , उत्कृष्ट च योगे वर्त- अधुना क्षेत्रकालवीर्य गाथापश्चार्धेन दर्शयति-क्षेत्रवीर्य तु मानः प्रभूतामिति । उक्नं चान्यत्रापि-"जोगऽणुरुवं जीवा, देवकुर्वादिकं क्षेत्रमाश्रित्य सर्वाण्यपि द्रव्याणि तदन्तर्गपरिणामंतीह गिरिहउं दलियं" ति, इति । अथवा-तच्छ- तान्युत्कृष्टवीर्यवन्ति भवन्ति, यद्वा-दुर्गादिक क्षेत्रमाश्रित्य ब्देन पञ्च शरीरासि संबध्यन्ते । ततश्च तदनुरूपं पञ्चश- कस्यचिद्वीोल्लासो भवन्ति , यस्मिन्वा क्षेत्रे वीर्य व्यारीरानुरूपं शरीरपञ्चकमायोग्यतयेत्यर्थः पुनलस्कन्धान गृ- ख्यायते तत्क्षेत्रवीर्यमिति । एवं कालवीर्यमप्येकान्तसुषमाहाति। तथा भाषाप्राणापानमनस्त्वप्रायोग्यान पुद्गलस्कन्धा- दावायोज्यमिति । तथा चोक्तम्-" वर्षासु लवणममृतं , म् प्रथमतो गृह्णाति । गृहीत्वा च भाषादित्वेन परिणमयति । शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं परिणमय्य च तनिसर्गहेतुसामर्थ्य विशेषसिद्धये तान् पुद्ग- वसन्ते गुडश्चान्ते ॥१॥" तथा-" ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुलस्कन्धानालम्बते । ततस्तदवष्टम्भतो जातसामर्थ्यविशेषः
सैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया सन् विसृजति,नान्यथा। तथाहि-यथा वृषदंशः स्वान्यान्यू- शुण्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण वे गमनाय प्रथमतः संकोचव्याजेनावलम्बते, ततस्तदवष्ट
संयोजिता, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शम्भतो जातसामर्थ्य विशेषः सन् तान्यङ्गान्यूज़ प्रक्षिपति ,
प्रवः ॥१॥" नान्यथा शक्नोति,'द्रव्यनिमित्तं वीर्य संसारिणामुपजायत'
भाववीर्यप्रतिपादनायाहइति वचनप्रामाण्यात्, तथेहापि भावनीयमिति ॥१७॥ क.
भावो जीवस्स सवी-रियस्स विरियम्मि लद्धिष्णेगविहा। प्र०१प्रक०। कुशीलत्वं सुशीलत्वं च संयमवीर्यान्तरायोदयात्तत्क्षयोपश
ओरस्सिदिय अझ-प्पिएसु बहुसो बहुविहीयं ।।६४॥ माच्च भवतीत्यतो वीर्यप्रतिपादनायेदमध्ययनमुपदिश्यते , मणवइकाया प्राणा-पाणू संभव तहा य संभब्वे । तदनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सोत्तादीणं सद्दा-दिएसु विसएसु गहणं च ।। ६५॥ उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, तत्राप्युपमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो
सवीर्यस्य-वीर्यशक्त्युपेतस्य जीवस्य बीर्य-वीर्यविषये - ऽयं, तद्यथा-बालबालपण्डितपण्डितवीर्यभेदात्त्रिविधमपि
नेकविधा लब्धिः, तामेव गाथापश्चार्द्धन दर्शयति, तद्यथावीर्य परिक्षाय पण्डितवीर्ये यतितव्यमिति, नामनिष्पन्ने
उरसि भवमौरस्यं शारीरबलमित्यर्थः, तथेन्द्रियबलमाध्यातु निक्षेपे वीर्याध्ययन, वीर्यनिक्षेपाय नियुक्तिकृदाह
त्मिकं बलं बहुशो-बहुविधं द्रष्टव्यमिति । पतदेव दर्शयिविरिए छक्कं दवे, सच्चित्ताचित्तमीसगं चेव ।
तुमाह-प्रान्तरेण व्यापारेण गृहीत्वा पुनलान् मनोयोदुपयचउप्पयअपयं, एयं तिविहं तु सञ्चित्तं ।। ६१॥ ग्यान् मनस्त्वेन परिणमयति, भाषायोग्यान् भाषात्वेन पबीयें मामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा निक्षे- रिणमयति , काययोग्यान कायत्वेन, मानापानयोग्यान तपः, तत्रापि नामस्थापने बुध, द्रव्यवीय, विधा-आगमतो| ब्रायनेति । तथा मनोवाकायादीनां तनावपरिपतानां -
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पीरिय
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परि
डी-सामर्थ्यं तद् द्विविधं सम्भवे सम्भाव्ये व सम्भवे तापसीकृतामनुसरोपपातिकानां च सुराणामतीय पनि मनोइम्याणि भवन्ति । तथाहि तीर्थकृतानामनुत्तरोपपातिकसुरमनः नः पर्यायज्ञानिप्रश्नव्याकरणस्य द्रव्यमनसैव करणात् अनुत्तरोपपातिकसुरा व सर्वव्यापारस्यैव मनसा निपादनादिति । सम्भाव्ये तु यो हि यमर्थे पटुमतिना प्रोच्य मानेन शक्रोति साम्यतं परिणमपि सम्भाव्य कर्म्यमाणः शक्ष्यत्यमुमर्थं परिणमयितुमिति । वाग्वीर्यमपि द्विविधम्-सम्म सम्भाव्ये च तत्र सम्भवे तीर्थकृतां योजननिर्धारिणी वाकू सर्वस्वस्वभाषानुगता च, तथाऽन्येपामपि शीरमध्वासवादिलब्धिमतां वाचः सौभाग्यमिति । तथा इसकी कसादीनां सम्भपति स्वरमाधुर्य, संभाग्ये तु सम्भाव्यते श्यामायाः स्त्रिया गानमाधुर्यम् । तथा चोहम् गायति मधुरं काली गायति परं रुक्खं च " इत्यादि, तथा सम्भावयामः - एनं श्रावकदारकम् प्रकृतमुखसंस्कारमप्यक्षरेषु यथावदभिलप्तव्येष्विति, तथा संभावयामः शुकसारिकादीनां वायो मानुषभाषापरिग्रामः । कायवीर्यमप्यौरस्यं यद्यस्य बलं तदपि द्विविधम्-सम्भवे सम्भाव्ये च संभवे यथा चक्रवर्तिवलदेववासुदेवादीनां बाहुबलादि कायबलम तद्यथा-कोटिशिला प्रिपृष्ठेन बामकरतलेनोद्धृता । यदिवा' सोलस रायसहस्सा इत्यादि यावदपरिमितबला जिनवरेन्द्रा इति सम्भाव्ये तु सम्भाव्यते तीर्थकरो लोकमलोके कन्दुकवत् प्रम तथा मेदद्गृहीत्या सुधांशुत्रवद्धर्तुमिति तथा सस्भाव्यते श्रन्यतरसुराधिपो जम्बूद्वीपं वामहस्ते पद
"
मयत्नेनैव च मन्दरमिति तथा सम्भाव्यते अयं दारकः परिवर्धमानः शिलामेनामुद्धर्नु हस्तिनं दमयितुमश्वं वाहवितुमित्यादि । यचलमपि श्रोत्रेन्द्रियादि विषयम
समर्थ पञ्चधा एकैकं द्विविधं समये, सम्भाव्ये च सम्भ ये यथा श्रोत्रस्य द्वादशयोजनानि विषयः एवं शेषाणामपि यो यस्य विषय इति । सम्भाव्ये तु यस्य कस्यचिदनुपहतेन्द्रियस्य भ्रान्तस्य क्रुद्धस्य पिपासितस्य परिग्लानस्य वा अर्थग्रहणासमर्थमपि इन्द्रियं सद्यथोक्तदोषोपमे तु खति सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति ।
(१४०३) अभिधानराजेन्द्रः ।
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साम्प्रतमाध्यात्मिकं वीर्य दर्शयितुमाहउज्जमधितिधीरतं, सोंडीरतं खमा य गंभीरं । उपभोगजोगतवसं - जमादियं होइ भन्झप्पो ।। ६६ ।। भारमन्यधीत्यध्यात्मं तत्र भयमान्यात्मिकम्-प्रान्तरक्लिजनितं सात्विकमित्यर्थः तच्चानेकधा-तत्रोद्यमो ज्ञानतपोनुष्ठानादिषूत्साहः, एतदपि यथायोगं सम्भवे संभाव्ये च योजनीयमिति पृतिः संयमे चित्तसमाधानमिति यावत् । धीरत्वं परीषदोपसर्गाद्योभ्यता, शीडी-स्थागसम्पन्नता, षट्खण्डमपि भरतं त्यजतश्चक्रवर्तिनो न मनः कम्पते, यदिवा श्रापद्यविषयता, यदिवा - विषमेऽपि कर्तव्ये समुपस्थिते पराभियोगमकुर्वन् मयेदेतत्कर्तव्यमित्येवं हर्षायमाणोऽविषो विधत इति । समावी तु परेराकुश्मामोऽपि मनागपि मनसा न क्षोभमुपयाति भावयति च तत्थम् । तचेदम्-“कुऐन मतिमता, स्वार्थगवेषणे मतिः
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वीरिप कार्या। यदि सत्यं कः कोपः स्यादनुतं किं नु कोपेन ॥ १ ॥ तथा - " अक्कोसद्दणणमारण - धम्मब्भंसाणबालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तरां प्रभाव ( लाभ ) स्मि ॥ १ ॥ ' गाम्भीर्यवीर्ये नाम परषहोपसगैरधृष्यत्वं यदिवा-यत् मनचमत्कारकारिण्यपि खानुष्ठाने अनीत्यम् उच-"ल्लुच्छलेह जं. होइ, ऊणयं रितयं कणकणेइ । भरियाइँ ग 'खुम्ती सुपुरिसविधायाई ॥१॥ " उपयोगी साका रानाकारभेदात् द्विविधम्-तत्र साकारोपयोगोऽष्टधा अनाकार से चोपयुक्त विषयस्ययक्षेत्रकालभावरूपस्य परिच्छेविध इति तथा योगयी विविध मनोवा कायभेदात् तत्र मनोचीयमकुशलमनोनिरोधः कुशलमनसा प्रवर्तनं मनसो वा एकावभावकरणम् । मनोवीर्येण द्वि निर्मन्थसंयताः प्रवृद्धपरिणामा अवस्थित परिणामास भवन्तीति । वाग्बीर्येण तु भाषमाणो ऽपुनरुकं निरवयं च भाषते कायवीये तु यस्तु समाहितपाणिपादः कूर्मयदबतिष्ठत इति। तपोवीर्य द्वादशप्रकारे तपो पहलालायन् विधत्त इति एवं सप्तदशविधे संयमे एकत्वाद्यध्यवसितस्य यद्बलात्प्रवृनिस्तत्संयमवीय कथमहमतिचारं संयमे न प्राप्नुयामित्यव्यवसायिनः प्रवृत्तिरित्येवमाद्ययामवीर्यमित्यादि व भावचीयमिति । वीर्यवादपूर्वे या नन्तं वीर्य प्रतिपादितं किमिति १ यतो ऽनन्तार्थे पूर्वे भवति तत्र च वीर्यमेव प्रतिपाद्यते अनन्तार्थता वा तोऽवगम्यया। तद्यथा-" सम्बई जा हो-ज वालुवा गणणमागया सन्ती । तत्तो बहुयतरागो, अत्थो एगस्स पुव्वस्स ॥ १ ॥ सव्वसमुद्दाण जलं, जर पत्थमियं हवि
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"
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कलिये तो बहुयतरायो, अन्धो दगस्स पुण्यस्स ॥ २ ॥ " तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्याद्वीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता वीर्यस्येति ।
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सर्वमप्येतद् वीर्यं त्रिधेति प्रतिपादयितुमाहसव्वं पिय तं तिविहं, पंडियबॉलविरियं च मीसं च । हवा व होति दुविहं अगार असगारियं चैव ॥ १७ ॥ सर्वमध्येतद्भाववीर्य पण्डितबालमिश्रभेदात् त्रिविधम् तनगाराणां परितवीर्य, वालपरिडतवीर्ये त्वगाराणां - - दस्थानामिति । तत्र यतीनां परितवीय साहिसपर्यवसि तं सर्वविरतिप्रतिपत्तिकाले सादिता सिद्धावस्थायां तदभावात्सान्तम्, बालपरिडतीये तु देशविर तिसद्भावकाले सादि सर्वविरतिसङ्गावे तद्भ्रंशे वा सपर्यवसानम्, बालबीर्ये स्वविरतिलक्षणमेवाभव्यानामनाद्यपर्यवसितम्, भव्यानां वनादिपर्यवसितम् खादिसपर्यवखितं तु विरतिभ्रंशात् सादिता पुनर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुत्कृष्टतोऽपार्क पुलपरावतत् विरतिसद्भावात् सान्तवेति । सायपर्यवसितस्य तृतीयभङ्गकस्य त्वसम्भव एव । यदिवा - पण्डितवीर्ये सर्वविरतिलक्षणम्, विरतिरपि चारित्रमोहनीयक्ष यक्षयोपशमोपलक्षणा त्रिविधेष अतो वीर्यमपि त्रिचैव भवति । मतो नामविष्यको निशेषः ।
"
तदनु सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारचितव्यं चेदम्
:
दुहा वेयं सुक्खायं, वीरियं ति पवुचई ।
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वीरिय
धारिष
(१४०४)
अभिधानराजेन्द्रः। किं नु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पवुचई ? ॥१॥ व्यानामनादि अपर्यवसितम् ,भव्यानामनादि सपर्यवसितंबा, कम्ममेगे पवेदेति, अकम्मं वाऽवि सुव्वया।
सादि सपर्यवसितं बेति, पण्डितवीर्य तु सादि सपर्यवसित
मेवेति ॥ ३॥ तत्र प्रमादोपहतस्य सकर्मणो यहाल- . एतेहिं दोहि ठाणेहिं, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥२॥
वीर्य तदर्शयितुमाह-शस्त्रं स्वगादिप्रहरणं शास्त्रं वा हे विधे-प्रकारावस्येति द्विविध-द्विप्रकारम् , प्रत्यक्षा- धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमईकारि तत् सुष्ठु सातसन्नवाचित्वात् इदमो यदनन्तरं प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते गौरवगृखा एके-केचन शिक्षन्ते-उद्यमेन गृहवीर्य तद् द्विभेदं सुष्वाख्यातं स्वाख्यातं तीर्थकरादिभिः, 'वा'- न्ति । तच शिक्षितं सत् प्राणिनां जन्तूनां विनाशाय वाक्यालकारे, तत्र'ईर'-गतिप्रेरणायोः, विशेषेण ईरयति- भवति, तथाहि-तत्रोपदिश्यते एवंविधमालीढप्रत्यालाढाप्रेरयति अहितं येन तद्वीय जीवस्य शक्तिविशेष इत्यर्थः,
दिभिर्जीवे व्यापादयितव्ये स्थान विधेयम् । तदुक्तम्-"मुष्टितत्र किं नु वीरस्य-सुभटस्य वीरत्वम् ?, केन वा का
नाऽऽच्छादयेाक्य, मुष्टी दृष्टि निवेशयेत् । हतं लक्ष्य विरणेनासी वीर इत्यभिधीयते?,नुशयो-वितर्कवाची । एत- जानीया-यदि मूर्धा न कम्पते ॥१॥" तथा एवं लावकरसः द्वितर्कयति-किं तद्वीर्यम् ?, वीरस्य या किं तद्वीरत्वमिति ? क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्चेति । तथा एवं चौरा॥१॥ तत्र भेदद्वारेण वीर्यस्वरूपमाचिख्यासुराह-कर्म
देःशूलारोपणादिको दण्डो विधेयः,तथा चाणक्याभिप्रायेण क्रियानुष्ठानमित्येतदेके वीर्यमिति प्रवेदयन्ति , यदिवा
परो वञ्चयितव्योर्थोपादानार्थम्,तथा कामशास्त्रादिकं चोच. कर्माष्टप्रकारं कारणे कार्योपचारात् तदेवं वीर्यमिति प्र
मेनाशुभाध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रास्य धनुर्वेदादेः शा. वेदयन्ति । तथाहि-औदयिकभावनिष्पन्नं कर्मत्युपदिश्यते
खस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्व बालवीर्यम् । किञ्च-एकेऔदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एवं बालवीर्यम् ।
केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकानाथर्वणानश्वमेधद्वितीयभेदस्त्वयं-न विद्यते कर्मास्येत्यकर्मा-धीर्यान्तराय
पुरुषमेघसर्वमेधादियागार्थमधीयते । किम्भूतानिति दर्शक्षयजनितं जीवस्य सहजं वीर्यमित्यर्थः । चशब्दात् चा
यति-प्राणा-द्वीन्द्रियादयः भूतानि-पृथिव्यादीनि तेषां रित्रमोहनीयोपशमक्षयोपशमजनितंच, हे सुनता! एवम्भूतं
विविधम्--अनेकप्रकारं हेठकान्-बाधकान् ऋक्संस्थापरितवीर्य जानीत यूयम् । प्राभ्यामेव द्वाभ्यां स्थानाभ्यां
नीयान् मन्त्रान पठन्तीति । तथा चोक्तम्-"षद् शतानि नि. सकर्मकाऽकर्मकापादितबालपण्डितवीर्याभ्यां व्यवस्थितं वी.
युज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचना-न्यूनानि यमित्युच्यते । यकाभ्यां च ययोर्वा व्यवस्थिता मत्र्येषु
पशुभित्रिभिः॥१॥' इत्यादि ॥४॥ भवा माः 'दिस्संत' इति दृश्यन्तेऽपदिश्यन्ते वा। अधुना 'सस्थ' मित्येतत्सूत्रपदं सूत्रस्पार्शिकया नियुक्तितथाहि-नानाविधासु क्रियासु प्रवर्तमानमुत्साहबल
__कारः स्पष्टयितुमाहसंपलं मत्यै दृष्या वीर्यवानय मर्त्य इत्येषमपदिश्यते, तथा तदावारककर्मणः क्षयादनन्तबलयुक्तोऽयं मर्त्य
सत्थं असिमादीयं,विजा मंते य देवकम्मकयं । इत्येवमपदिश्यते दृश्यते चेति ॥२॥
पत्थिववारुणअग्गे-य वाउ तह मीसग चेव ॥६॥ इहबालवीर्य कारणे कार्योपचारात्कमैव वीर्यत्वेनाभिहितम्, शस्त्र-प्रहरणं तच असिः-खङ्गस्तदादिकं, तथा विसाम्प्रतं कारणे कार्योपचारादेव प्रमादं कर्मत्वेनापदिशन्नाह- द्याधिष्ठित मन्त्राधिष्ठित देवकर्मकृतं-दिव्यक्रियानिष्पादितं
तश्च पञ्चविधम् ,तद्यथा-पार्थिव वारुणमाग्नेयं वायव्यं तपमा कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं।
थैव द्यादिमिश्रं चेति ॥ तम्भावाऽऽदेसभो वाऽवि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥
किश्चान्यत्सत्थमेगे तु सिक्खता, अतिवायाय पाणिणं ।
माइणो कटु माया य, कामभोगे समारभे । एगे मंते अहिजंति, पाणभूयविहेडियो ॥४॥
हंता छेत्ता पगम्भित्ता, यसायाणुगामिणो ॥ ५॥ प्रमाद्यति सदनुष्ठानरहिता भवन्ति प्राणिनो येन स |
मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो। प्रमादो-मद्यादिः, तथा चोकम्-"मजं विलयकसाया, णिहा विगहा य पंचमी भणिया । एस पमायप
आरओ परो वाऽवि, दुहाऽवि य असंजया ॥६॥ माओ, णिहिट्ठो वीयरागेहिं ॥१॥" तमेवम्भूतं प्रमाद क-| माया-परवञ्चनादि (मि) का बुद्धिः सा विद्यते येषां मोपादानभूतं कर्म आहुः-उक्लवन्तस्तीर्थकरादयः, अ- ते मायाविनस्त एवम्भूता मायाः-परवञ्चनानि कृत्वा एकग्रप्रमाद च तथा अपरमकर्मकमाहुरिति । एकदुनं भवति- हणे तज्जातीयग्रहणादेव क्रोधिनो मानिनो लोभिनः सन्तः प्रमादोपहतस्य कर्म बध्यते, सकर्मणश्च यत्क्रियानुष्ठानं त- कामान्-च्छारूपान् तथा भोगांश्च शब्दादिविषयरूपान् द्वालवीर्यम् , तथाऽप्रमत्तस्य कर्माभावो भवति, एवंविधस्य समारभन्ते-सेवन्ते । पाठान्तरं वा-'प्रारंभाय तिवट्टइ' च पण्डितवीर्य भवति, एतच बालवीर्य पण्डितवीर्यमिति त्रिभिः मनौवाकायैरारम्भार्थं वर्तते, बहून् जीवान् व्यापावा प्रमादवतः सकर्मणो बालवीर्यमप्रमत्तस्याकर्मणः पण्डि- दयन् बनिन् अपध्वंसयन् आशापयन् भोगार्थी: वित्तोनवीर्यमित्येवमायोज्यम् । 'तम्भावाऽदेसो वावी' ति तस्य- पार्जनार्थ प्रवर्तत इत्यर्थः । तदेवम् आत्मसाताबालवीर्यस्य कर्मणश्च पण्डितवीर्यस्य वा भावः-सत्ता स| नुगामिनः-स्वसुखलिप्सवो दुःखद्विषो विषयेषु गृद्धाः सद्भावस्तेनाऽऽदेशो-व्यपदेशः ततः, तद्यथा-वास्तवीर्यमभ- । कपायकलुषितान्तरात्मानः,सन्त एवम्भूता भवन्ति,तद्यथा
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वीरिय
इन्तारः प्राणिव्यापादयितारस्तथा देशारकर्तनासिकादेस्तथा प्रकर्तयितारः पृष्ठोदरादेरिति ॥५॥ कथमित्याहतदेतत्प्राण्युपमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिम अन्तशः कायेनाराकोऽपि तदुलमत्स्यवमनचैव पा पानुष्ठानानुमत्या कर्म बध्नातीति । तथा भारतः परतश्चेति लौकिकी वाचोयुक्तिरित्येवं पर्यालोच्यमाना देहिकामुमित्यर्थः कयोः द्विधाऽपि खयं करदेन परकरणेन चाखयता-जीवोपघातकारिण इत्यर्थः ॥ ६ ॥
साम्प्रतं जीवोपघातविपाकदर्शनार्थमाहवेराइं कुब्बई बेरी, तत्र वेरेहि रजती । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ! ७ ॥ संपरा शियच्छंति, अचदुरूडकारियो ।
(twok) अभिधान राजेन्द्रः ।
रामदासस्सिया वाला, पावं कुब्वंति से बहुं ॥ ८ ॥ वैरमस्यास्तीति वैरी, स जीयोपमहंकारी जन्मशताब धीनि वैराणि करोति ततोऽपि च वैरादपरेर्वैरैरनुरज्यते संबध्यते वैरपरम्परानुपी भवतीत्यर्थः किमिति यतः पापम् उप - सामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः, क एते ? - आरम्भाः सावयानुष्ठानरूपाः अन्तशो-विपाककाले दुःखं स्पृशन्तीति दुःखस्पर्शा - सातोदयविपाकिनो भवन्तीति ॥ ७ ॥ किञ्चान्यत् - ' संपरायं शियच्छंती 'त्यादि, द्विविधं कर्म र्यापर्थ, साम्परायिकं च । तत्र सम्परायायादरकचायास्तेभ्य आगतं साम्परायिकं तत् जीवोपमदकरवेन वैरानुपतिया आत्मदुष्कृतकारिणः पापविधायिनः सन्तो नियच्छन्तिन्ति तानेव विशिनष्टि-रागद्वेषाधिता-कपायकलुषितान्तरात्मानः सदसद्विवेकविकलत्वात् बाला इव बालाः, ते चैवम्भूताः पापम् श्रसद्वेद्यं बहुअनन्तं कुर्वन्ति विद्यति ॥ ८ ॥
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एवं बालवीर्य प्रदश्यपसंजिघृक्षुराहएयं सकम्मविरियं, बालागं तु पवेदितं । इतो अकम्मविरियं, पंडियासं सुखेह मे ॥ ६ ॥ दoिor बंधणुम्मुके, सन्चो छिनबंधणे | पोल पावर्क कम्मं स कंतति अतसो ॥ १० ॥ पनत्यत्प्रा प्रदर्शितम्, तद्यथा प्राणिनामतितार्थ शस्त्रं शास्त्रं वा केचन शिक्षन्ते, तथा परे विद्यामन्त्रान् प्राणिबाधकानधीयते, तथाऽन्ये मायाविनो नानाप्रकारां मायां कृस्या कामभोगार्थमारम्भान् कुर्वते, केवन पुनरपरे पैरिस
कुतः येन वैरनुयन्ते (ते) तथाहि जमदग्निना स्वभार्याऽकार्यव्यतिकरे कृतवीर्यो विनाशितः, तत्पुत्रेण तु कार्तवीर्ये मर्जमदग्नि, जमदग्निसुतेन परशुरामेण सप्त वारान् निःक्षत्रा पृथिवी कृता, पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सुभूमेन सियो ब्राह्मणा व्यापादिताः। तथा बोल
"अपकारसमेन कर्मणा न नरस्तुतिमुपैति शक्रिमान् । अधिकां कुरुतेऽरियातनां द्विषतां जातमशेषमुद्धरेत् ॥ १ ॥ " तदेनं कषायवशगाः प्राणिनस्तत्कुर्वन्ति येन पुत्रपौन्धो भवति तदेतत्कर्मणां बालानां नवप्रवेदिनं प्रवेदिनं प्रति
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वीरिय पादितमिति यावत् ऊर्ध्वमकर्मणां परितानां पीये तन्मे - मम कथयतः शृणुत यूयमिति ॥ ६ ॥ यथा प्रतिज्ञातमेवाह - द्रव्यो - भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः 'द्रव्यं त्र भव्य ' इति वचनात् रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोऽकंपा
बीत्यर्थः पदिया-बीतराग व वीतरागोऽस्यकपाय
तथा चौक्रम्" किसका बोनुंजे, सरागधम्मम्मि कोइ कसाथी। संते बि जो कसाए, निगिरहई सो ऽपि तनु ॥ १ ॥" स च किम्भूतो भवतीति दर्शयतिबन्धनात् कषायात्मकाम्मुको बन्धनोन्मुक्का तु कपायायां कर्मस्थितिहेतुत्वात् । तथा चोक्रम् - "बंध कसायवसा" कषायवशात् इति, यदिवा बन्धनोन्मुक्त इव बन्धनोन्मुक्तः, तथाऽपरः सर्वतः सर्वप्रकारे सूक्ष्मवादक छिन्नम् श्रपनीतं बन्धनं कषायात्मकं येन स छिन्नबन्धनः, तथा प्रथमे पापं कर्मकारणभूतान् वाऽऽयानपनीय शल्यबच्छत्यं शेषकं कर्म तत् कृन्तति-प्रपनयति अन्तशोनिरवशेषतो विघटयति । पाठान्तरं वा सल्लं कंतर अप्पणो ति शल्यभूतं यदष्टप्रकारं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्तति - छिनत्तीत्यर्थः ॥ १० ॥
"
यदुपादाय शयमपनयति तद्दर्शयितुमाहनेगाउयं सुक्खायं, उपादाय समीइए।
भुजो भुञ्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥ ११ ॥ ठाणी विविहठाणाणि, चहस्संति व संसयो । अणियत्ते अयं वासे, खायएहि सुहीहि य ॥ १२ ॥ नयनशीलो नेता, नयतेस्ताच्छीसिकस्तृन् स चात्र सम्यग्दशनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः तचारित्ररूपी वाम मोक्षनयनशीलत्वात् गृह्यते तं मार्गे धर्म या मोक्षं प्रति नेतारं सुष्ठु तीर्थकरादिभिराज्यातं स्वाध्यातं तम् उपादाय गृहीया सम्यक मोक्षाय दते चेहते ध्यानाच्य यनादायुधमं विधते धर्मध्यानारोह सालम्बनायाह-भूयो भूयः पौनःपुन्येन यद्वालयीय तदवीतानागतानन्तभयग्रहणेषु दुःखमावास्यतीति दुःखावासं वर्तते । यथा यथः च बालवीर्यवान् नरकादिषु दुःखावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्याशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरूपमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मध्यानं प्रवर्तत इति ॥ ११ ॥ साम्प्रतमनित्यभावनामधिकृत्याह-स्थानानि विद्यन्ते येषां ते स्थानिनः, तद्यथा देवलोके इन्द्रस्तत्सामानिकायस्त्रिंशत्पापंचादीनि मनुष्येष्वपि वर्तवलदेवचासुदेवमहामण्डलकादीनि तिर्यपि यानि कानिविदिशाभिगम्यादी खा नानि तानि सर्वापि विविधानि नानाप्रकारातमा धममध्यमानि ते खानिनस्त्यस्यन्ति नात्र संशयो विधेय इति तथा सोक्रम्" अशाश्वतानि खानानि सर्वाणि दिवि चेह च देवासुरमनुष्यासा- मृजयक्ष सुखानि च ॥१॥" तथाऽयं ज्ञातिभिः बन्धुभिः साधे सहावेध मित्रैः सुहृद्भिर्यः संवासः सोऽनित्योऽशाश्वत इति । तथा वोक्रम् - " सुविरतरमुपिया बान्धवैर्विप्रयोगः सुधिरमपि हि रम्या नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सुपुष्टं याविना शरीरं सुचिरमयि विचिन्त्यो धर्मः सहा
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(१४०६) वीरिय
अभिधानराजेन्द्रः। यः॥१॥" इति । चकारी धनधान्यद्विपदचतुष्पदशरीरा- बी-मर्यादावान् सदसद्विवेकी वा पापानि-पापरूपाण्यघनिस्यत्वभावनाओं (र्थम्) अशरणाद्यशेषभावनार्थ चानुक्कस- नुष्ठानानि अध्यात्मना-सम्यग्धर्मध्यानादिभावनया समामुच्चयार्थमुपात्ताविति ॥१२॥
हरेत्-उपसंहरेत् , मरणकाले चोपस्थिते सम्यक संलेखनअपि च
या संलिखितकायः पण्डितमरणेनात्मानं समाहरेदिति ॥१६॥ एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिदिमुद्धरे।
संहरणप्रकारमाहबारियं उवसंपजे, सव्वधम्ममकोवियं ॥ १३ ॥ साहरे हत्थपाए य, मणं पंचिंद्रियाणि य । सह संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा ।
पावकं च परीणाम, भासादोसं च तारिसं ॥१७॥ समुवट्ठिए उत्रणगारे, पच्चक्खाए य पावए ॥१४॥ अणुमाणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए । अनित्यानि सर्वारयपि स्थानानीत्येवम् आदाय-अवधा- सातागारवणिहुए, उवसंते णिहे चरे ॥१८॥ र्य मेधावी-मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वा आत्मनः पादपोपगमने इकिनीमरणे भक्तपरिज्ञायां शेषकाले वा सम्बन्धिनी गृद्धि-गाद्वयं ममत्वम् उद्धरेद-अपनयेत् , ममे
कर्मवद्धस्तौ पादौ च संहरेद-व्यापाराग्निवर्तयेत् , तथा दमहमस्य स्वामीत्येवं ममत्वं कचिदपि न कुर्यात् , तथा श्रा
मनः-अन्तःकरणं तथाकुशलव्यापारेभ्यो निवर्तयेत् , तराचातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यो-मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनशा
था शब्दादिविषयेभ्योऽनुकूलप्रतिकूलेभ्योऽरक्रद्विष्टतया श्रो. नचारित्रात्मकः, आर्याणां वा-तीर्थकदादीनामयमार्यों मार्ग
वेन्द्रियादीनि पञ्चापीन्द्रियाणि । चशब्दः समुच्चये । तथा स्तम् उपसम्पयेत-अधितिष्ठेत् समाश्रयेदिति। किम्भूतं मार्ग
पापकं परिणाममैहिकामुष्मिकाशंसारूपं संहरेदित्येवं भामित्याह-सर्वैः कुतीथिकधमैंः अकोपितः-अदृषितः स्वमहि
पादोषं च तादृशं-पापरूपं संहरेत् , मनोवाकायगुप्तः सम्नैव दूषयितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठां गतः (तं ), यदि वा
न् दुर्लभं सत्संयममवाप्य पण्डितमरणं वाऽशेषकर्मक्षयासर्वैर्धमैः-स्वभावैरनुष्ठानरूपैरगोपितं-कुत्सितकर्तव्याभावा
थै सम्यगनुपालयेदिति ॥१७॥ तं च संयमे पराक्रममाणं त् प्रकटमित्यर्थः ॥ १३ ॥ सुधर्मपरिज्ञानं च यथा भवति
कश्चित् पूजासत्कारादिना निमन्त्रयेत् , तत्रात्मोत्कर्षों न तहर्शयितुमाह-धर्मस्य सार:-परमार्थों धर्मसारस्तं शात्या
कार्य इति दर्शयितुमाह-चक्रवर्त्यादिना सत्कारादिना पूअवबुध्य कथमिति दर्शयति-सह सन्-मत्या स्वमत्या वा
क्यमानेन अणुरपि-स्तोकोऽपि मानः-अहंकारो न विधेविशिष्टाभिनिबोधिकज्ञानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा, स्व
यः , किमुत महान् ? , यदिवोत्तममरणोपस्थिते नोग्रतपोपरावबोधकत्वात् शानस्य; तेन सह , धर्मस्य सारं ज्ञात्वे
निष्टप्तदेहेन वा अहोऽहमित्येवंरूपः स्तोकोऽपि गर्यो न त्यर्थः, अन्येभ्यो वा-तीर्थकरगणधराचार्यादिभ्यः इलापु.
विधेयः , तथा पण्डगर्ययेव स्तोकाऽपि माया न विधेयाप्रवत् श्रुत्वा चिलातपुत्रवद्वा धर्मसारमुपगच्छति,धर्मस्य वा
किमुत महती ? , इत्येवं क्रोधलोभावपि न विधेयाविति । सारं चारित्रं तत्प्रतिपद्यते , तत्प्रतिपत्तौ च पूर्वोपा
एवं द्विविधयाऽपि परिक्षया कषायांस्तद्विपाकांश्च परिझाय, तकर्मक्षयार्थ पण्डितवीर्यसम्पन्नो रागादिबन्धनविमुक्तो
तेभ्यो निवृत्ति कुर्यादिति । पाठान्तरं वा 'प्राइमाएं च बालवीयरहित उत्तरोत्तरगुणसम्पत्तये समुपस्थितोऽन.
मायं च, तं परिणाय पंडिए ' अतीव मानोऽतिमानः गारः प्रवर्धमानपरिणामः प्रत्याख्यातं-निराकृतं पापकं
सुभूमादीनामिव तं दुःखावहमित्येवं ज्ञात्वा परिहरेत् । सावद्यानुष्ठानरूपं येनासौ प्रत्यास्यातपापको भवतीति ॥१४॥
इदमुक्तं भवति-यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्याकिश्चान्यत् ।
तथाप्युदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कुर्यादित्येवं मायायामजं किंचुवकम जाणे, पाउक्खेमस्स अप्पणो। प्यायोज्यम् । पाठान्तरं था 'सुयं मे इहमेगेसि, एवं वीरस्स तस्सेव अंतरा खिप्पं , सिक्खं सिक्खेज पंडिए ॥१५॥
वीरियं । येन बलेन संग्रामशिरसि महति सुभटसंकटे
परानीक विजयते तत्परमार्थतो वीर्य न भवति, अपि तुजहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे ।
येन कामक्रोधादीन् विजयते तद्वीरस्य-महापुरुषस्य वीएवं पावाइँ मेधावी, अझप्पेण समाहरे ॥ १६ ॥ यम् । इहव-अस्मिन्नेव संसारे मनुष्यजन्मनि वैकेषां तीर्थउपक्रम्यते-संवय॑ते क्षयमुपनीयते आयुयेन स उपक्रम
करादीनां सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतम् , पाठान्तरं वा स्तं (यं) वश्चन जानीयात् , कस्य ?-श्रायुःक्षेमस्य-स्वायु
'आयतटुं सुश्रादाय , एवं वीरस्स वीस्यि' प्रायतो-मोप इति । इदमुक्त भवति-स्वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारे
क्षोऽपर्यवसितावस्थानत्वात् स चासावर्थश्च तदर्थों वाखोपक्रमो भावी यस्मिन् वा काले तत्परिक्षाय तस्योप-1
तत्प्रयोजनो वा सम्यग्दर्शनशानचारित्रमार्गः स प्रायतार्थक्रमस्य कालस्य वा अन्तराले क्षिप्रमेवानाकुलो जीवि- स्तं सुष्ठादाय-गृहीत्वा यो धृतिबलेन कामक्रोधादिजयाय तानाशंसी पण्डितो विवेकी संलेखनारूपां शिक्षा भक्तप- च पराक्रमते एतद्वीरस्य वीर्यमिति । यदुनमासीत् 'किं(तुनु रिसेवितमरणादिकां वा शिक्षेत् , तत्र ग्रहणशिक्षया यथा वीरस्य वीरत्वमि' ति तद्यथा भवति तथा व्याख्यातम् । वन्मरणविधि विज्ञायाऽऽसेवनशिक्षया त्वासेवेतेति ॥१५॥ किश्चान्यत्-सातागौरवं नाम सुखशीलता तत्र निभृतःकिश्चान्यत्-यथेति उदाहरणप्रदर्शनार्थः, यथा कूर्मः-कच्छपः | तदर्थमनुयुक्त इत्यर्थः , तथा क्रोधाग्निजयादुपशान्तःस्वान्यङ्गानि-शिरोऽधरादीनि स्वके देहे समाहरेद्-गो-शीतीभूतः शब्दाविषयेभ्योऽप्यनुकूलप्रतिकूलेभ्योऽरकपयेद्-अव्यापाराणि कुर्याद् एवम्-अनयैव प्रक्रियया मेधा- द्विष्टतयोपशान्तो जितेन्द्रियत्वात्तेभ्यो निवृत्त इति , तथा
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(१४०७) अभिधानराजेन्द्रः ।
पीरिय
निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा- माया न विद्यते सा यस्यासावनिहो; मायाप्रपञ्चरहित इत्यर्थः, तथा मानरहितो लोभवर्जित इत्यपि द्रष्टव्यम्; स चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं चरेत् कुर्यादिति, तदेवं मरणकाले अन्यदा वा परिडतवीर्यवान् महाव्रतेषूद्यतः स्यात् । तत्रापि प्राणातिपातविरतिरेव गरीयसीति कृत्वा तत्प्रतिपादनार्थमाह-" उडुमहे तिरियं वा, जे पाणा तसथावरा । सब्वस्थ विरतिं कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥ १ ॥ " श्रयं च श्लोको न सूत्रादर्शेषु दृष्टः, टीकायां तु दृष्ट इति कृत्वा लिखितः, उत्तानार्थखेति ॥ १८ ॥ सूत्र०१ भु० ८ श्र० । ( अबुद्धा इव बालवीर्यबन्त इति 'अयुद्ध' शब्दे प्रथमभागे ६८४ पृष्ठे गतम् । )
साम्प्रतं पण्डितवीर्यणोऽधिकृत्याऽऽह - जय बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसियो । सुद्धं तेसिं परतं, अफलं होइ सव्वसो || २३ ॥ तेसिपि तवो ण सुद्धो, निक्खता जे महाकुला । जने वने वियागंति, न सिलोगं पवेज्जए ॥ २४ ॥ अप्पपिंडास पाणासि, अप्पं भासेज सुव्वए । खंतेऽभिविबुडे दंते, वीतगिद्धी सदा जए || २५ ॥ झाणजोगं समाहद्दु, कायं विउसेज सव्वसो । तितिक्खं परमं गच्चा, आमोक्खाए परिव्वए । । २६ ।। आसि
बेमि, इति श्रीवीर्यारूयमष्टममध्ययनं संमत्तं ।
ये केचन स्वयंबुद्धास्तीर्थकराद्यास्ताच्या वा बुदबोधिता गणधरादयो महाभागा महापूजाभाजो वीराः - कर्मविदारणसहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गुणैर्विराजन्त इति वीराः तथा सम्यक्त्वदर्शिनः - परमार्थतस्ववेदिनस्तेषां भगवतां यत्पराक्रान्तं- तपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तच्छुखम् अवदातं निरुपरोधं सातगौरवशल्यकषायादिदोषाक लङ्कितं कर्मबन्धं प्रति अफलं भवतिनिरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः । तथाहि सम्यग्दृष्टीनां सर्वमपि संयमतपः प्रधानमनुष्ठानं भवति, संयमस्य चानाश्रवरूपत्वात् तपसा निर्जराफलत्वादिति । तथा च पठ्यते - " संयमे अणण्यफले तवे वोदाणफले " इति ॥ २३ ॥ किञ्चान्यत्- महत्कुलम् इदवाक्कादिकं येषां ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्यादिभिर्गुणैर्विस्तीर्ण यशसस्तेषामपि पूजासत्काराद्यर्थमुत्कीर्त्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति । यच क्रियमाणमपि तपो नैवान्ये दानश्राद्धादयो जानन्ति । तत्तथाभूतमात्मार्थिना विधेयम्, अतो नैवात्मश्लाघां प्रवेदयेत्- प्रकाशयेत् । तद्यथा-- श्रहमुत्तमकुलीन इभ्यो वाssसं साम्प्रतं पुनस्तपोनिष्टप्तदेह इति, एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वं कीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति ॥ २४ ॥ श्रपिच अल्पं-सवीरिया, करणवीरिएखं सवीरिया वि, अवीरिया वि। से स्तोकं पिण्डमशितुं शीलमस्या सावल्पपिएडाशी यत्किञ्चनाशीति भावः एवं पानेऽप्यायोज्यम् “हे जं व तं व झासी य, जत्थ व तत्थ व सुद्दोषगयनिहो । जेल व तेल व संतु—ट्ठ, वीर ! मुणिश्रोऽसि ते अप्पा” ॥ १ ॥ तथा "अट्ठकुक्कुडिशंडगमेत्तप्पमाणे कवले शाहारेमाणे अप्पाहारे दुबालसकवलेहिं भवहोमोयरिया -
लद्विवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया । तत्थ णं जे ते असेले सिपडिवनगा ते गं लद्विवीरिएवं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि । से तेद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - सवरिया वि, अवीरिया वि || नेरइया यं भंते! किं सवीरिया, अवीरिया १, गोयमा ! नेरइया लद्विवीरिएसं
तथा चागमः
atfor सोसलहिं दुभागे पत्ते बउवीस श्रोमोदरिया, तीसं प माणप्पत्ते बत्तीसं कवला संपुरणाहारे " इति अत एकैककव लहान्यादिनोनोदरता विधेया, एवं पाने उपकरणे बोनोदरतां विदध्यादिति । तथा चोक्तम्-" थोवाहारो थो व भणिश्रो अ जो छोर थोवनिहो । थोवोवहिडवकरणो, तस्स हु देवा वि पणमंति ॥ १ ॥ " तथा ध्रुवतः --साधुः अल्प- परिमितं हितं च भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः । भावावमौदर्यमधिकृत्याह-भावतः क्रोधाद्युपशमात् क्षान्तः क्षान्तिप्रधानः तथा अभिनिर्वृतो- लोभादिजयान्निरातुरः, तथा इन्द्रियनोइन्द्रियदमनात् दान्तो जितेन्द्रियः । तथा चोक्तम्-" कपाया यस्य नोच्छिना, यस्य नात्मवशं मनः इन्द्रियाणि न गुप्तानि प्रव्रज्या तस्य जीवनम् ॥ १ ॥ " एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिः श्रशंसादोषरहितः सदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने यतेत-यत्नं कुर्यादिति ॥२५॥ 'अपि च- ' भाणजोगं ' इत्यादि, ध्यानं-चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्तं ध्यानयोगं समाहत्य - सम्यगुपादाय कार्य- देहमकुशलयोगप्रवृत्तं व्युत्सृजेत् परित्यजेत् सर्वतः - सर्वेणापि प्रकारेण हस्तपादादिकमपि परपीडाकारि न व्यापारयेत् । तथा तितिक्षां - क्षान्ति परषहोपसर्गसहनरूपां परमां- प्रधानां ज्ञात्वा श्रमोक्षाय - अशेषकर्मक्षयं यावत् परिव्रजेरिति--संयमानुष्ठानं कुर्यास्त्वमिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २६ ॥ समाप्तं चाटमं वीर्यास्यमध्ययनमिति । सूत्र० १० ८ ० ।
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जीवा गं भंते! किं सवीरिया अवीरिया, गोयमा! सवीरिया वि, अवीरिया वि । से केणऽद्वेगं १, गोजमा ! जीवा दुविहा पद्मत्ता, तं जहा संसारसमावनगा य, असंसारसमा - वनगा य । तत्थ गं जे ते श्रसंसारसमावभगा ते खं सिद्धा, सिद्धा गं अवीरिया; तत्थ गं जे ते संसारसमावनगाते दुविधा पत्ता, तं जहा- सेलेसिपडिवनगा य, असेलेसिपडिवनगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवनगा ते
केसऽट्टे १, गोयमा ! जेसि खं नेरइयाणं श्रत्थि उड्डाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकारपारक्कमे ते गं नेरइया लद्धिवीरिएस वि सवीरिया, करणवीरिएण वि सवीरिया, जेसि खं नेरइयाणं नत्थि उट्ठाये० जाव परकमे ते खं नेरइया लद्धिवीरिएयं सवीरिया, करणवीरिएखं अवीरिया । से
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(१४०८) अभिधान राजेन्द्रः ।
वीरिय
des गोयमा ! जहा नेरइया एवं० जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा श्रोहिया जीवा । नवरं सिद्धवजा भाणियव्वा, वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा नेरइया । सेवं भंते ! (सेवं ) भंते । ति । सू०-७१ )
'सिद्धा णं श्रवीरिय' ति सकरणवीर्याभावादवीर्याः सिद्धाः, 'सेलेसिपडिवनगा य' त्ति शीलेशः- सर्वसंवरंरूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था, शैलेशो वा - मेरुस्तस्यैव या Sवस्था स्थिरता साधर्म्यात्सा शैलेशी, सा च सर्वथा योगनिरोधे पञ्च हखाक्षरोच्चारकालमाना तां प्रतिपन्नका ये ते तथा, 'लद्विवीरिएणं सवीरियत्ति वीर्या न्तरायक्ष यक्षयोपशमतो या वीर्यस्य लब्धिः सेव तद्धेतुत्वाद्वीर्ये लब्धिवीर्ये तेन सवीर्याः । एतेषां च क्षायिकमेव लब्धिवीर्यम् ' करणवीरिएणं' ति लब्धवीर्यकार्यभूता क्रिया करणं तद्रूपं करणवीर्य, 'करणवीरिएंस - वीरिया विवीरिया वि'त्ति तत्र सवीर्याः-उत्थानादिक्रियावन्तः श्रवीर्यास्तूत्थानादिक्रियाविकलाः, ते चापर्याप्त्यादिकालेsaगन्तव्या इति । 'नवरं सिद्धवज्जा भाणियव्व' त्ति श्रीघिकजीवेषु सिद्धाः सन्ति, मनुष्येषु तु नेति, मनुष्यदण्डके वीर्य प्रति सिद्धखरूपं नाध्येयमिति । भ० १० ८ उ० । क्रियाधिकार एवेदमाह
,
दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरितया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अनमने सद्धिं संगामं संगामेन्ति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइराइ, एगे पुरिसे पराइजर, से कहमेयं भंते ! एवं १, गोयमा ! सवीरिए पराइइ, अवीरिए पराइजइ । से केऽट्ठे० जाव पराइजइ १, गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई णो बद्धाई णो पुट्ठाइं० जाव नो अभिसन्नागयाई नो उदिन्नाई उवसंताई भवन्ति से पराइराइ, जस्स गं वीरियवज्झाई कम्माई बद्धाई • जाव उदिन्नाई नो उवसंताई भवंति से गं पुरिसे पराइ अइ, से तेणऽट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सवीरिए पराइ - इ, अवीरिए पराइजइ । ( सू० ७० )
' सरिसय त्ति सदशकौ कौशलप्रमाणादिना ' सरितयति सत्व - सदृशच्छवी 'सरिव्वयं' ति सहग्वयसौ -- समानयौवनाद्यवस्थौ 'सरिसभंडमत्तोवगरण' ति भाण्डं - भाजनं मृन्मयादि मात्रो मात्रया युक्त उपधिः स च कांस्य भाजनादिभोजनभण्डिका भाण्डमात्रा वा गणिमादिव्यरूपः परिच्छदः उपकरणानि - अनेकधावरण महणा दीनि ततः सदृशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्तौ त था, अनेन च समानविभूतिकत्वं तयोरभिहितं 'सवीरिए ' तिसवीर्य : ' वीरियवज्झाई ति वीर्य वध्यं येषां तानि तथा। भ० १०८ उ० । वीर्यप्रतिपादकेऽष्टमे सूत्रकृताङ्गाध्ययने, आ० चू० ४ ० ।
वीरियंतराय -- वीर्यान्तराय- न० अन्तरावपापकर्मभेदे, यदुदयवशाद् बलवान् नीरुजो वयस्थोऽपि च तृणकुरजीकरणे प्यसमर्थो भवति । कर्म० १ कर्म० । यदुदयवशात्सत्यापि
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वीरियाता
नीरुजि शरीरे यूनोऽल्पप्राणता भवति । कर्म० ६ कर्म० । स० । वीरियद्भिवण - वीर्यर्द्धिवर्णन - न० । प्रकर्षरूपायाः शुद्धाचारवललभ्यायास्तीर्थकरपर्यवसानाया वीर्यर्द्धवर्णने, ध० १
अधि० ।
वरियता - वीर्यता- स्त्री० । वीर्ययोगाद् वीर्यः प्राणी तद्भावो वीर्यता | अथवा वीयैमेव स्वार्थिकप्रत्ययाद्-वीर्याणां वा भावो वीर्यता । वीर्यभावे, भ० १ श० ४३० ॥ वीरियपवाय- -वीर्यपवाद - न० । सकर्मेतराणां जीवानामजीवानां च वीर्ये प्रवदतीति वीर्यप्रवादम् । कर्मण्यण् प्रत्ययः । चतुर्दशपूर्वाणां तृतीये पूर्वे, तस्य पदपरिमाणं सप्ततिपदशतसहस्राणि । नं० सं०
वीर्याभिधायिनः पूर्वस्य स्वरूपमाह
वीरपुव्वस्स अट्ठवत्थू अट्ठ चूलियावत्थू पत्ता । ( सू० ६२७ )
'वीरियपुव्वे' त्यादि वीर्यप्रवादास्यस्य तृतीयपूर्वस्य वस्तूनि-मूलवस्तूनि अध्ययनविशेष आचारे ब्रह्मचर्याध्ययनवत् चूलावस्तूनि त्वाचाराप्रवदिति वस्तुवीर्यादेव गतयोऽपि भवन्तीति । स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
वीरियपवायरस यं पुव्वस्स एकसत्तारं पाहुडा पत्ता । ( सू० ७१x )
' वीरियपुण्यस्स ' त्ति तृतीयपूर्वस्य 'पाहुड' सि प्राभृतमधिकारविशेषः । स० ७१ सम० ।
वीरियफड्डय - वीर्यस्पर्धक - न० । त्रित्वेन एकत्र समुदितेषु असंख्येयवीर्यभागान्वितेषु जीवप्रदेशेषु, कर्म० ५ कर्म० । वीरियबल - वीर्यबल - न० । वीर्यमेव बलं वीर्यबलं यद्वशात् गमनागमनादिकासु विचित्रासु क्रियासु वर्त्तते यश्चापनीय सकलकलुषपटलमनवरतानन्दभाजनं भवति । तथाभूते बलभेदे, स्था० १० ठा० ३ ३० ।
वीरियलक्खण - वीर्यलक्षण - न० । लक्षणभेदे, विशे० । श्रा० म० । ( वीयैलक्षणम् : लक्खण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५६३ पृष्ठे गतम् । )
वीरियसंपण - वीर्यसंपन्न - त्रि० । वीर्यमुत्साहातिरेकस्तेन सम्पन्नः । स्था० ८ ठा० ३ उ० । सपराक्रमे, कल्प० १ अधि० ५ क्षण ।
वीरियस जोगसद्दव्यया-वीर्यसजोगसद्द्रव्यता- स्त्री० । वीर्ये वीर्यान्तरायक्षयादिकृता शक्तिः योगा - मनः प्रभृतयः सह योगैर्वर्तत इति सयोगः सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणि तथाविधपुङ्गला यस्य जीवस्यासौ सद्द्द्रव्यो वीर्यप्रधानः । सयोगो वीर्यसयोगः स वासी सद्द्रव्यश्चेति विग्रहस्तद्भावस्तत्ता वीर्यसयोगसद्द्द्रव्यता । सवीर्यतायां सपोगतायां सद्द्रव्यतायाम् भ० 門 श० ६ उ० । (वीर्य सयोग सद्द्द्रव्यता 'बंधण' शब्दे पञ्चमभागे १२२५ पृष्ठे व्याख्याता । )
वीरियाऽऽता - वीर्यात्मन् पुं० । वीर्यमुत्थानादि तदात्मा । सर्वमारियां वीर्यरूपे आत्मनि १२ ० १० २०१
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(१४०८) वीरियाऽऽयार अभिधानराजेन्द्रः।
वीससापरिणय वीरियाऽऽयार-वीर्याचार-पुं०। अनिहतबाह्याभ्यन्तरसामर्थ्य-1
१उ०२प्रक० । स्वपक्षाच्छावकादेः,परपक्षाद मिथ्यादृष्टयास्य सतोऽनन्तरोनषट्त्रिंशद्विधे शानदर्शनाद्याचारे, यथा- | देरविभ्यति प्राणातिपाताद्यकृत्यं सेवमाने,जीत० । स्वपक्षतः शक्तिप्रतिपत्तिलक्षणे पराक्रमणे, प्रतिपत्तौ च । यथाबलं पाल- परपक्षतो वा निर्भयं प्राणातिपातादिसेविनि, व्य०१० उ० । ने, ध०१ अधिक। स्था० । आचा।
वीसत्थत्त-विश्वस्तत्व-न । विश्वासे, परस्परगुह्यगोपनविइदाणि वीरियायारो--
षये प्रत्यये, ०१ उ०३ प्रक० । अणिगृहियबलविरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो।
| वीसत्थमंतभेय-विश्वस्तमन्त्रभेद-पुं०। विश्वस्ता-विस्वासजुजइ य जहाथामं, णायन्वो वीरियायारो ॥४३॥ । मुपगता ये मित्रकलत्रादयस्तेषां मन्त्रो-मन्त्रणं तस्य भेदःवीरियं ति वा बलं ति वा सामत्थं ति वा परकमे तिवा प्रकाशनम् । खदारमन्त्रभेदनरूपे पञ्चमे तिचारे, ध०। तस्याथामो ति वा एगट्ठा । सति बलपरक्कमे अकरणं गृहणं नुवादरूपत्वेन सत्यत्वाद्यद्यपि नातिचारता घटते, तथापि निगृहणं अगृहणं बल-सारीरं संघयणोवेवया । बीरियं मन्त्रितार्थप्रकाशनजनितलज्जादितो मित्रकलत्रादेर्मरणादिसं. णाम-शक्तिः, सा हि वीर्यान्तरायक्षयोपशमाद्भवति । भवेन परमार्थतोऽस्याऽसत्यत्वात्कथंचिद्भङ्गरूपत्वेनातिचारअहवा-बल एव वीरियं बलबीरियं परक्कमते आचरते- तेव , गुह्यभाषणे गुह्यमाकारादिना विज्ञायाऽनधिकृत एव त्यर्थः । जो इति साहू यथा उक्तं यथोक्नं अव्वत्थं जुत्तो श्रा- गुह्य प्रकाशयति, इह तु स्वयं मन्त्रयित्वैव मन्त्र भिनत्तीत्यजुत्तो वा; अप्रमत्तेत्यर्थः । जुजइय-'जुजिर' योगे,जोजयति च, नोर्भेद इति पञ्चमो ऽतिचारः । ध० २ अधिक। चशब्दः समुच्चये, कहं जोजयति?, अहथाम णाम--जहावीसत्थसहावासा-विश्वस्तसुखावासा-स्त्री० । विश्वस्ताना थामं पा (गड) ययलक्खणेण जगारस्स बंजणे लुत्ते सरे ठिते निर्भयानामनत्सुकानां वा सुखः-सुखस्वरूपः शुभो वा श्राअहथामं भवति,एवं करेंतस्स गायब्वो बीरियायारो वीरिया- | वासो यस्यां सा तथा । सुखनिवसजनायां पुरि, औ०ारा०॥ यारपमाणपसिद्ध पच्छित्तपरूवणत्थं च भाइ ।
वीसदेवा-विष्वग्देवा-स्त्री० । उत्तराषाढायाम् . सू० प्र० १० णाणे दंसणे चरणे, तावच्छत्ती सती य भेदेसु ।।
पाहु। विरियं ण तु होवजा, सटाणारोवणा बेंते ॥ ४४॥ |
वीसम-विश्रम-धाश्रमापनयने, “विथमेर्णिब्वा" ॥४१५६॥ अदविहोणाणाऽऽयारो, दसणाऽऽयारो वि अट्टविहो, चरि- विश्रभ्यतेर्णिब्या इत्यादेशे-णिव्वाइ । अन्यत्र-वीसमइ । वित्ताऽऽयारो वि अट्टविहो,तवाऽऽयारोबारसविहो,एते समुदि- धामति । प्रा०। प्रश्न । ना छत्तीसं भवंति । एतेसु छत्तीसतिसुभेदेसु वीरियं तहावे.
वीसर--विस्मृ-धा० । अनुभूतविषयकोबोधाभावे, “विस्मुः यव्वं जाव हावेतस्स य सट्टाणारोवणाभवति । सट्टाणारोवणा
पम्हुस-विम्हर-वीसराः” ॥ ८।४ । ७५ ॥ इति विस्मरतेणाम-सटाणारोवणायारं हावेतस्स जं णाणायारे पच्छित्तं
सिरादेशः। वीसरह । विस्मरति । प्रा० ४ पाद। तं चैव भवति । एवं सेसेसु वि पच्छित्तं सट्टाणं । एसा चेव ' सटाणागेवणा । गतो वीरियाऽऽयारो। नि० चू०१ उ०। ।
विस्वर-त्रि० । विरूपध्वनिषु, विपा०२ श्रु०७ अ० । "श्रवीरुण-वीरुण-पुं० । पर्वकभेदे, प्रज्ञा० १ पद।
व्यायामेव रूवंतं वीसरसरं भरणइ" नि० चू० १६ उ० । वीरुत्तरवडिंसग-वीरोत्तरावतंसक-न । चतुर्थदेवलोकस्थवि | वीसरिण-व्युत्सर्जन-न० । “गोणादयः " ॥८।२ । १७४ ॥ मानभेदे, स० ६ सम।
इति व्युत्सर्जनस्थाने वीसरिणादेशः । त्यागे, प्रा०२ पाद । वीलण-देशी-पिच्छिले, दे० ना० ७ वर्ग ७३ गाथा। वीसलदेव-विश्वलदेव-पुं० । गुर्जरधरित्र्यां धवलकपुररावीली-देशी-तरङ्गे, दे० ना० ७ वर्ग ७३ गाथा ।
ज्ये वीरधवलनृपानन्तरे वस्तुपालतेजःपालाभ्यां प्रसिद्धवीवाह--विवाह-पुंज परिणयने,जी०३ प्रति०४ अधि० प्रश्न।।
मन्त्रिभ्यामभिषिक्ने स्वनामख्याते नृपे, ती०४१ कल्प । वीसंदण-विस्यन्दन--न० । अर्द्धनिर्दग्धघृतमध्यक्षिप्ततन्दुलनि
| वीससा-वीस्रसा-स्त्री० । विगता ससना विनसा। श्रा० चू०
१० । स्वभावे , विश० भ० । झा० । जरायाम् , पन्ने खाद्यपदार्थे, वृ०१ उ०२ प्रक०। पं०व०। सूत्र०। प्र
जरापर्यायतया लोके रूढस्य स्वभावार्थत्वात् । भ० ११० व० । 'अम्हा णं पुण वीसंदणं अविगई' त्ति, बृहच्चूर्णिकृत् ।
३ उ०। वीसंभ-विश्रम्भ-पुं० । विश्वासे, दर्श०४ तत्त्व । 'वीसंभनि
वीससाकरण--विनसाकरण-नाविगता ससना विरसा तवेसिश्राणं "लुप्त-य-र-व-श-ब-सांश-ष-सां दीर्घः" ॥८ |
स्करणम् । विगतप्रयोगकरणे करणभेदे, श्रा०चू०१०। ।१।४३ ॥ इति श्रादेः स्वरस्य दीर्घः । प्रा०१ पाद ।
( इदं च सभेदं 'करण ' शब्दे तृतीयभागे ३६० पृष्ठे बीसंमणवेस-विश्रम्भवेष-पुं० । संविग्नवेषधारिणि,०३ उ०।।
व्याख्यातम् ।) वीसंभर-विश्वम्भर-पुं० । जीवविशेषे, ओघ ।
वीससापरिणय-विसापरिणत-त्रि० । स्वभावपरिणते, भ० वीसत्थ-विश्वस्त-त्रि० । दोभाभावेन (कल्प० १ अधि०१८ श०१ उ० । विश्रस्तपरिणामेन चाभोगोऽपि पुराणक्षण) निर्भये, अनुत्सुके, शा०१ श्रु०१०। विश्वासवति, तयेति विश्रसा स्वभावतस्तत्परिणता अभ्रेन्द्रधनुरादिनिरुत्सुके, बा.१ थु.. । औ । रा। मिरुद्रिग्ने, -। पदिति । स्था३ ठा०३ उ.।
३५३
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बीससाबंध
बीसाबंध - विवसाबन्ध - ५० स्वभावसंपद्ये, पुत्रलानां का पापत्यादिना रूपेण बन्धे, सुष० १ ० १ ० १ ० बंधण ' शब्दे पञ्चमभागे १२२३ पृष्ठे दर्शितोऽयम् । ) वीससिय- वैसिक पुं० बिनसा परिणामसिद्धे संध्यारागादौ, श्रा० म० १ ० ।
(१४१०) अभिधानराजेन्द्रः ।
- विश्वसेन- पुं० । विश्वा हस्त्यश्वरथपदातिचतुरङ्गवलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनः । चक्रवर्तिनि सूत्र० १ ० ७ ० शान्तिजिनपितरि ति० प्रा० म० अहोरा त्रस्याष्टादशे मुहूर्से, ज्यो० २ पाहु० । जं०। बीसाएमा विस्वादयत्-त्रि विशेषेण स्पादयति, ०३
"
1
श० १ उ० ।
-
वीसा - विष्वाण पुं० । विश्वस् - खुम् । पत्यत्वे बलोपे " लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः " ॥ ८ ॥ ६ ॥ ४३॥इति इकारस्य दीर्घः। विष्वाणः । बीसाणो । भोजने, प्रा० बीसावणिज - विस्वादनीय त्रि० विशेषतः स्यादनीये प्र
।
"
शा० १७ पद ४ उ० ।
वीसाम विश्राम ५० तुम-प-र----सांश पां बा " ॥ ८ । १ । ४३ । इति मकारस्य । प्रा० । क्षमापनये, आ० म० १ ० ।
-
वीसामण - विश्रामण-- न० । श्रमापनयनकरणे, ध० ३ अधि० । बीसाल- मिथि घा० संयोजने "मिसाल मेली ॥ ८ । ४ । २८ ॥ इति मिश्रयतेएर्यन्तस्य वौसालमेलवी इत्यादेशौ । वीसाला । मिश्रयति । प्रा० ४ पाद । वीसास विश्वास ५० विश्वाखयतीति विश्वासः । व्ययद्वारे वञ्चनाया करणे, व्य० ३ उ० । त्वं मम माता भगिनी दुहिता वा तो मा मेचीरेव पयोऽनुरूपे अविरुद्धे वचने, बृ० ३ उ० । नि० चू० । वीसुं विष्वच्-अव्य०। " ध्वनिविश्वचोरुः " ॥ ८ । १५२॥ इत्यादेरस्य उस्वम् । प्रा० । 60 लुप्त-प-र----स
-
66
|
ष - सां दीर्घः " ॥ ८ । १ । ४३ । इति इकारस्य दीर्घौ वा । प्रा० । "स्व" | ८ | १ | २४ ॥ इत्यन्त्यस्वरे परेऽनुस्वारो वा प्रा० पृथगर्थे विशे० प० 1 नि० चू० ।
वीलुंडवस्य विष्वगुपाश्रय-पुं० विश्व भेदेन उपाश्रय आश्रयः । पृथक पृथगाधये, प्रोय० ।
- ।
बीसुंकरण- विष्वकरण-न० । विसंमेोगकरणे व्य०७ उ०
9
न० चू० ।
बीसुंभण--विष्वग्भवन्--न० । मरणे, शरीरात् पृथग्भवणे, स्था०
५ ठा० २३० । बृ० । व्य० ।
वी-देशी- पृथगित्यर्थे ३० ना० ७ वर्ग ७३ गाया । वीसेगि विश्रेणिस्त्री० । विषमश्रेणौ, मञ्चाः क्रोशन्तीति म्यायाद् वित्रेय्पियस्थित, विशे० । व्य० । स्था० ।
पति
बीइयग-भयानक न० भयोत्पादके प्रश्न० १ ० द्वार
था० म० ।
,
वीहि-वीथि-श्री० । रथ्यादिशेने प्रा०म० १० प थि, आचा० १ ० १ ० ३ उ० ।
शुक्रस्य नव वीथयःसमधरणितादुपरिष्टादयो जनशताभ्यन्तरचारिणो ग्रहविशेषस्य व्यतिकरमाह
सुक्कस्स णं महागहस्स नव विहीओ पसत्ताओ, तं जहा - हयवीही गयवीही गागवीही बसहवीही गोवीही उरगवीही यवीही मियवीही वेसाणरवीही । (सू०६६६ )
शुक्रस्य महाग्रहस्य नव वीथ्यः - क्षेत्रभागाः प्रायस्त्रिभित्रिभिति तत्र संज्ञा बीधी पीथीत्येवं ससर्वत्र । संज्ञा च व्यवहारशेषार्थे या चेह हयवीथी साऽन्यत्र नागवीथीति रूढा, नागवीथी वैरावणपदमित्येतासांच
भद्राप्रसिद्धाभिरायाभिः क्रमेण लिखते -" भरणी स्वात्याग्नेयं, नागाला वीधिकतरे मार्गे रोहिण्यादिरिभाख्या, श्रादित्यादिः सुरगजाख्या ॥ १ ॥ " ( श्राग्नेय कृतिका आदित्यं पुनर्वसुरिति ) “वृषभाख्या वैयादि पैत्र्यादिः, श्रमसादिच्यमे जरवाण्याः । प्रोष्ठपदादिचतुष्के गोवीविस्तासु मध्यफलम् ॥ २ ॥ वैश्यं मया मध्यमे इति-मार्गे प्रोष्ठपदा पूर्वभाद्रपदा ) "अजबधी हस्तादि-मृगवीथी केन्द्र देवतादिः स्यात् । दक्षिणमार्गे वैश्वानर्याषाढद्वयं ब्राहम्यम् ॥ ३ ॥ इन्द्रदेवता ज्येष्ठा ब्राम्यमभिजिदिति) “तासु भृगुर्विचरति, नागगजेरावतीषु वीचिषु वेद्बहुवर्षेत्जेयः सुलभीषधयोऽर्थवृद्धि ॥ ४ ॥ पशुमध्यम-सस्यफलादिर्यदा चरेद्भृगुजः । श्रजमृगवैश्वानरवीविवादितो लोकः ॥ ५ ॥” इति पीथिविशेपचारे ण व शुक्रादयो ग्रहा मनुजादीनामनुग्रहोपघातकारिणो भवन्तीति द्रव्यादिसामन्या कर्मणामुदयादिसद्भावादिति । स्था० ६ ठा० ३ ३० | सूत्र० । पं० ६० । उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन श्रेणिद्वये, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
वीडिया वीथिका श्री० मार्गे, स्था० ६ ठा०३ ३०
--
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वुइय उक्त-- त्रि० । स्वरूपतः प्रतिपादिते, सूत्र० २ श्रु० १ श्र०।
स्था० ॥ भ० ।
सुंद-वृन्द-न० । “उदत्यादी" ॥ ८ ॥ १ ॥ १३१ ॥ इति बुंदार-वृन्दारक-पुं० "निवृत्त तुम्हारा ४८।१। उत्त्वम् । समूहे. प्रा० १ पाद । १३२ ॥ इति ऋत उस्वम् । देवते, प्रा० १ पाद । बुंदावणन्दावनउदत्वा
।
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॥ ॥
॥ ८१ ॥ १३२ ॥ इति त उत्पम् मधुरासविधे स्वनामप्रसिद्धे धरण्ये, प्रा० । बुकंत-व्युत्क्रान्त-जि० परिणते विध्वस्ते, आया० २ ०
"
१ ० १ ० १ उ० ।
बुकंतजोखिय-व्युकान्तयोनिक प०। कान्ता अपगता योनिरुत्पत्तिस्थानं यत्रतत्यु कान्तयोनिकम् । प्राके, पिं युतिपुरान्ति श्री० उत्पस मे
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(१४२९)
अभिधानराजेन्द्रः। वुकम्म-व्युतक्रम्य-अम्य०। आगत्यत्यर्थे, सूत्र०२७०३० सम्यक प्रयोक्ता,अन्तभूतिकारितार्थत्वाद्वा प्रयोजयिताभवती
ति द्वितीयम् । तथा स एव यानि श्रुतस्य पर्यवजातानि-सू. बुग्गह-ध्युग्रह-पुं० । विशेषेण उद्ग्रहः । दण्डादिप्रहारजनि
पार्थप्रकारान् धारयति-धारणाविषयीकरोति तानि काले तं युवं व्युद्ग्रहः । उत्स०१७ १०। संग्रामे,प्रव०२६७ द्वार।
काले-यथावसरं न सम्यगनुप्रवाचयिता भवति-न पाठयतीव्यापा० का स्था०। दण्डादिघातजनिते बिरोधे,कलहे,
त्यर्थः इति तृतीयम्।काले अनुप्रवाचयितेत्युक्तम् तत्र गाथा:उत्त०१७ मा “बुग्गहो त्ति वा कलहो त्ति वा भंड
___ “कालकमेण पत्तं, संवच्छरमाइणा उ जं जम्मि । णं ति वा विवादो त्ति वा एगटुं" नि०० १६ उ० । परस्प
तं तम्मि-चेव धीरो, बाएजा सो य कालोऽयं ॥१॥ रविग्रहे,व्य०७ उ०। मिथ्याभिनिवेशे, स्था०५ ठा०३ उ० ।
तिवरिसपरियागस्स उ, आयारपकप्पनाममज्झयणं । बुग्गहवाण-विग्रहस्थान-न० । कलहाश्रये, स्था।
चउबरिसस्स य सम्म,सूयगडं नाम अंग ति ॥२॥ आयरियउवज्झायस्स गं गणंसि पंच बुग्गहट्ठाणा प
दसकप्पब्बवहारा, संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव ।
ठाणं समवानोऽवि य, अंगे ते अट्ठवासस्स ॥ ३ ॥ एणत्ता । तं जहा-बायरियउवज्झाए णं गणंसि पाणं
दसवासस्स विवाहो, एकारसवासयस्स य इमे उ । वा धारखं वा नो सम्म पउंजेत्ता भवति १, पायरियउ-1 खुड़ियविमाणमाई, अज्झयणा पंच नायव्वा ॥४॥ वज्झाए णं गणंसि आधारातिणियाते कितिकम्मं नो बारसवासस्स तहा, अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । सम्म पउंजित्ता भवति २, पायरियउवज्झाए गणंसि जे|
तेरसवासस्स तहा, उढाणसुयाइया चउरो॥५॥
चोहसवासस्स तहा, पासीविसभावणं जिणा विन्ति । सुतपजवजाते धारेंति ते काले काले णो सम्ममणुप्पवा- पनरसवासगस्स य,विट्ठीविसभावणं तह य॥६॥ तित्ता भवति ३, आयरिश्रउवज्झाए गणंसि गिलाणसेह- सोलसवासाईसु य, एक्कोत्तरखुडिएसु जहसंखं । चेयावच्चं नो सम्ममभुट्टित्ता भवति४, आयरियउवज्झाए|
चरणभावणमहासुवि-ण भावणा तेयगनिसग्गा ॥ ७॥
इणवीसवासगस्स, उ दिट्ठिवाश्रो दुवालसममंग । गणंसि प्रणापुच्छितचारी याऽवि हवइनो आपुच्छियचा
संपुरणवीसवरिसो, अणुवाई सब्यसुत्तस्स ॥ ८॥ इति, री ५, आयारियउवज्झायस्स णं गणंसि पंचाऽवुग्गहट्टा
तथा स एव ग्लानशैक्षवैयावृत्त्यं प्रति न सम्यक स्वणा पण्णता, तं जहा-आयरियउवज्झाए गणंसि आणं यमभ्युत्थाता-अभ्युपगन्ता भवतीति चतुर्थम् । तथा स एव वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता भवति, एवमाधारायिणि- गणमनापृच्छय चरति क्षेत्रान्तरसंक्रमादि करोतीत्येवं शीयाते सम्म किइकम्मं पउंजित्ता भवइ, पायरिअउवज्झाए
लोऽनापृच्छयचारी। किमुक्तं भवति-नो आपृच्छबचारीति
पञ्चमं विग्रहस्थानम् । स्था० ५ ठा० १ उ०। णं गणंसि जे सुतपज्जबजाते धारेति ते काले काले सम्म
व्युदग्रहस्थान-नाविप्रतिपत्ती,स्था०६टा० ३ उ० । व्युनअणुपवाइत्ता भवइ , पायरिभउवज्झाए गणंसि गि
हेण मिथ्याऽभिनिवेशेन विप्रतिपत्त्यर्थे, स्था० ६ ठा०३ उ०। लाणसेहवेयावच्चं सम्मं अन्भुद्वित्ता भवति, पायरियउ
बुग्गहवकंत-व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्त-पुं०। कलहं कृत्वा निष्कान्ते, वज्झाते गणंसि आपुच्छियचारी याऽवि भवति; णो अणा- |
नि० चू०१६ उ०। पुच्छियचारी । (सू. ३६६)
बुग्गाहिय-व्युद्ग्राहित-त्रि० । प्रतारिते, सूत्र० १७० ३ अ० तथा प्राचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वः कर्मधारयो वा,
पकरटीकतविपर्यासे. स्था०३ ठा सतश्चाचार्यस्योपाध्यायस्य 'गणसि'त्ति गणे विग्रहस्था
संप्रति व्युहाहितं व्याचिख्यासुः द्वीपजातरष्टान्तमाहनानि-कलहाश्रयाः, प्राचार्योपाध्यायौ द्वयं वा गणे-गणविषये प्रामां-हे साधो ! भवतेदं विधेयमित्येवंरूपामादि
| पोतविवत्ती आव-म सत्तफलएण गाहिया दीयं । ष्टिं धारणांन विधेयमिदमित्येवंरूपां नो-नैव सम्यग् औ- सुतजम्मवडिभोगा, बुग्गाहणणा व वणियाए ॥३३॥ चित्येन प्रयोक्ता भवतीति साधवः परस्परं कलहायन्ते अस- एगो वणिजो तस्स भजा अईव इट्टा, सो वाणिज्जेण गंतुम्यग्नियोगाद् दुनियन्त्रितत्वाच्च । अथवा-अनौचित्यनि- कामो तं पापुच्छति । तीए भणिय-अहं पि आगच्छायोक्ताग्माचार्यादिकमेव कलहायन्ते इत्येवं सर्वत्रेति । अथवा मि, तेण सा नीता । सा गुम्विणी समुहमज्मे विणटुं जागूढार्थपदैरगीतार्थस्य पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनाय णवसं । सा फलगं बिलग्गा अंतरदीवे पसा । तत्थेव पजागीतार्थो यदतिचारनिवेदनं करोति साजा, असकृदालो- ता दारगं । सो वणिश्रो समुहे मनो। सा महिला म्मि बेसनादानेन तत्प्रायश्चित्तविशेषावधारणं सा धारणा, योन, वदारए संपलग्गा । तीए सो बुग्गाहिमो-जा माणुसं पिसम्यक प्रयोक्नेति, स कलहभागिति प्रथमम् । तथा स एव छिज्जासि तो नासेज्जासि, ते माणुसहवेण रक्खसा। अन्न'आहाराइणियाए 'त्ति रत्नानि द्विधा द्रव्यतो, भावतश्च । या दुब्वाहयपोपण वणिया आगया। ते दटुं सो नासह । तेहि तत्र द्रव्यतः कर्केतनादीनि, भावतोशानादीनि । तत्र रत्नैः- माय बुग्गाहिओ केण वि, कहं वि अल्लीणे पुच्छियो । सानादिभिर्व्यवहरतीति रात्निकः बृहत्पर्यायः यो यो रा- सव्वं कहर , तेहिं बहुसो पनाविमो एवं महापावं परिनिको यथारालिकं तद्भाषस्तता तया यथारानिकतया- ब्वयाहि तहा वि जो परिचयति" । अथातरार्थः-पोतः प्रयथाज्येष्ठ कृतिकर्म-चन्दनकं विनय एवं वैमयिकं सच्चन बहणं तस्य विपत्तिः पापनसस्वा च यथा सा फलकेन
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बुग्गाहिय अभिधानराजेन्द्रः।
बुग्गाहिय द्वीपं ग्राहिता सुतस्य च जन्म वृद्धिश्चाभवत् , भोगांश्च तेन
सुवर्णकारदृष्टान्तमाहसह भोकमारब्धाः न्युड्रहणं च कृतम् , नौवणिजश्च विराध
लोभण मोरगाणं, भव्वग ! छिज्जेज मा हु ते कमा । यन्तः एवंविधा व्युडाहिताः प्रशापनाया अयोग्याः ।
छादेमि तंबएणं, जति पत्तियसे न लोगस्स ॥ ३४३ ॥ तथा चाहपुदि वुग्गाहिया केइ, णरापंडियमाणिणो।
कश्चिद्-वोन्दः सुवर्णकारेण भणितो, यथा-भव्यक ! भाणेच्छंति कारणं किंचि, दीवजाते जहा णरे ॥ ३४० ॥
गिनेय ! ' मोरगाणं' ति कुण्डलानां लोभेन मा ते-तव करें पूर्व ब्युहाहिताः केचिन्नराः पण्डितमानिनः नेच्छन्ति का
छिद्यताम् , अतो यदि लोकस्य न प्रत्ययसे ततस्तं प्रयरणं किंचित् (श्रोतुं )द्वीपजातो यथा नरः ।
च्छ छादयाम्यहमित्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-" एगस्स
वोंदस्स जच्चसुवन्नर्घाडयाणि कुंडलानि कन्नेसु सुवन्नकाअथ एवं शीलदृष्टान्तमाह
रेण दिवाणि । तो तेण भन्नइ-भागिणेज ! अहं तव एते चंपा अणंगसेणो, पंचत्थं थेरणयण दुमवलए। एवं करेमि जहा पगाणियस्स वि पंथे वच्चमासस्स न विहपासणयणसावग, इंगिणिमरणे य उववातो॥३४१॥
कोइ हरह । अन्नहा ते सुवराणलोभेण चौरहिं कराणा छिचम्पायामनङ्गसेनः सुवर्णकारः कुमारनन्दीति तस्य ज्जेस्संति । तेण भणियं एवं होउ त्ति । कलाएण ते कुंनामान्तरम् । तस्य च पंचशीलद्वीपवास्तव्याभ्यामप्सरोभ्यां डले घेनं अन्ने सुवनरिरीयामया काउं दिएणा , भणब्युद्भाहितस्य स्थविरेण तत्र नयनम् , द्रुमश्च वटवृक्षोऽपान्त
ओ य जणो भणिहिइ कलाएण सुट्टोवरात्रो न य ते पत्तिराले दृष्टः तत्रारोहण स्थविरस्य वलये श्रावर्ते गत्वा मर
ज्जियवं, एवं पडिवज्जित्ता निग्गो । लोगो जो जो पाणम् । 'विहपास' ति विहगाः पक्षिणस्तषां दर्शनं तैः पञ्चशी
सहसो सो भणड सुंदरा रीरिया। से भणइ सोवन्नयाए लद्वीपनयनं हासप्रहासाभ्यां भूय इदानीं तस्य श्रावकेण
तुज्झे विसेसं न याणह । च बहुतरं प्रज्ञाप्यमानस्य तस्यङ्गिनीमरणप्रतिपत्तिः ततः प
किं चशशीले द्वीप उपपात इत्यक्षरार्थः । कथानकं तु सुप्रतीतं बहुविस्तरं चेति कृत्वा न लिख्यते ।
जो इत्थं भूतत्थो, तमहं जाणे कलातमामो य । अन्धदृष्टान्तमाह
वुग्गाहितो न जाणति,हितएहि हितं पि भयंतो ॥३४४॥ अंधलगभत्तपत्थिव-किमिच्छ सेजऽम धुत्तवंचणता । योऽत्र कोऽपि भूतार्थः-परमार्थः तमहं जाने कलादमामकअंधलभत्तो देसो, पव्वयसंघाडणा हरणा॥३४२॥ व जानाति, एवमसौ तेन सुवर्णकारेण व्युहाहितो हितेः अन्धभक्त:-कश्चित्पार्थिवः स किमपीप्सितं शय्याउन्ना- पुरुषैः हितमपि भण्यमानो न जानाति । ईदृग्व्युहेण मूदिदानं ददाति । धूर्तेन च तेषां वञ्चना , कथमित्याह-अ- ढा मन्तव्याः। अज्ञानमूढादयस्तु सुगमत्वात् नाख्याता न न्धलभक्तोऽमुको देशः समस्ति तत्र युष्मान्नयाम इत्युक्त्वा व्याख्याता अत एवास्माभिारगाथायामेव व्याख्याता पर्वते संघाटना कृता, परस्परं लगयित्वा तत्र भ्रामिता इति। इत्यर्थः । ततो हरणं तदीयं द्रव्यं कृत्वा गता इत्यक्षरार्थः ।
अथैषां मध्ये के मूढाः के वा व्युह्राहिता इति दर्शयन्नाहभावार्थः पुनरयम्-अन्धपुरं नगरं तत्थ अणधो राया, सो य अंधभत्तो । तेण सभं काउं अंधलयाण अग्गाहारो
रायकुमारो वणिओ, एते मूढा कुला य ते दो वि । दिनो । तत्थ खाणपाणाइएसु परिग्गहिया सुस्सूसिजंता
बुग्गाहिया य दीवे, सेलंधर भद्दए चेव ॥ ३४५ ॥ अच्छति । तेसिं सुबहु दव्वं अत्थि । अन्नया य एगेण यो राजकुमारो मातृप्रतिसेवको,यश्च वणिग्यटिको वोन्दाधुत्तेण दिट्ठा तो सुस्सूसामि त्ति मिच्छोवयारेण ते अ- स्यो ये च ते सेनापतिमहत्तरसत्के द्वे अपि कुले पते तीव उवचरंति । अनया तेण अंधलया भणिया-अम्हं सूढा मन्तव्याः । यस्तु द्वीपजातः पञ्चशैलसुवर्णकारो ये अंधलगामो जत्थ अम्हे वसामो सो सम्वो वि देसो अंधलग- चान्धा यश्च भद्रकः सुवर्णकारभागिनेयः उपलक्षणत्वात् दत्तो । राया य तत्थ अंधलाणं अम्मापियरं तुज्झे पत्थ ये च भरतादिकुशास्त्रेषु भाविता अक्षाने मूढा एते व्युदुविहिया जइ इच्छह तो तत्थ णमो। तेहिं हच्छियं । त- ब्राहिता मन्तव्याः। श्रो रातो नीणेत्ता नाइदृरेण भणिया,इहत्थिचोरा जइभे स. अथैषां मध्ये के प्रवायितुं योग्याः के वा नेत्याहमं भामिया भणिया य पत्थरे गेएहह , जो किंचि श्रे
मोत्तूण वेदमूढं, अप्पडिसिद्धा उ सेसका मूढा । तरधणं अस्थि तो अप्पेह । ते देमि । वीसंभेण अप्पियं । तो तेण ते पुरिल मग्गिल्लस्स लाइत्ता अन्नोनलग्गा महंतं सि
घुग्गाहिता य दुट्ठा, पडिसिद्धा कारणं मोत्तुं ॥ ३४६ ॥ लं छिन्नटंक डोंगरसमं जो भेअल्लियह तं पहाणज्जाह । जह वेदमूढं मुक्त्वा ये शेषा द्रव्यक्षेत्रमूढादयस्ते अप्रतिषिद्धा, लोको भणइ-पमुसियो केण वि अंधो डोंगरं भामिय प्रवाजयितुं कल्पन्ते इत्यर्थः । ये तु व्युडाहिता दुष्टाश्च जो ण दत्ते चोर त्ति उपहणिज्जाद, एवं भणित्ता पलाणा । कषायदुष्टादयस्ते कारणं मुक्त्वा प्रतिषिद्धाः कारणे तु ते य गोवालमाईहिं दिट्ठा भगति य-मुद्धा बरागा डोंगरं
कल्पत इति भावः। भामिया धुत्तेणं, तो पभाते चोर त्ति काउं पत्थरे
.किमर्थमेते प्रतिषिद्धा इत्याह-- विवंति , ढोयं च न दिति।
जं तेहि अभिग्गहिये, आमरणं ताए तं न मुंचंति । १-पत्रशल
सम्मत्तं पिस लग्गति,तेसि कत्तो चरित्तगुणा ॥३४७॥
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( १४१३) अभिधान राजेन्द्रः ।
grafer
यते व्युग्राहितादिभिः किमपि शक्यादिदर्शनमन्यद्वा - भा. रतादिकं मिथ्याश्रुतमभिगृहीतमाभिमुख्येनोपादेयतया स्वी
कृतं तदामरणान्तं न मुञ्चन्ति, त्रैव चैतेषां सम्यक्त्व
मपि न लगति कुतश्चारित्रगुणा इति ।
कथं पुनरमीषां सम्यक्त्वमपि न लगतीत्याहसोयसुघोररणमुह-दार भरणपेयकिच्च मइए | सग्गे देवपूयण - चिरजीवणदाणदिट्ठेमु || ३४८ || इच्चैवमाइलोइय-कुस्सुइबुग्गाहणा कुहियकन्ना । फुडमवि दाइजंतं, गिरहंति न कारणं केई || ३४६ ॥ इह भारतादौ शौचसुतघोररणमुखस्वदारभरणप्रेतकृत्यमयेषु देवपूजनचिरजीवनदानदृष्टेषु च स्वर्गेषु ये भाविता भवन्ति । तथा शौचविधानात् पुत्रोत्पादनात् घोरसमरशिरःप्रवेशात्, धर्मपत्नीपोषणात्, पिण्डप्रदानादि प्रत्येकं कर्मविधानात्, वैश्वानरादिदेवपूजनात् चन्द्रसहस्रादिरू पचिरकालजीवनात् धनुःधरित्र्यादिदानात् स्वर्गा - वाप्यन्ते इत्येवमादिलौकिककुश्रुतिव्युग्राह णाकुथितकर्णाः सन्तस्तस्याः कुश्रुतेरघटनायां स्फुटमपि दर्श्यमानं कारणमुपपत्ति केचिहरुकर्माणो न प्रतिपद्यन्ते ते दुःसंज्ञाप्या
मन्तव्याः । वृ० ४ उ० ।
बुग्गाहिया - वैग्राहिकी - स्त्री० । कलह प्रतिवद्धायां कथायाम्,
दश० १० अ० |
बुग्गामाण- व्युद्ग्राहयत्-त्रि०। विविधत्वेनाधिक्येन च ग्राहयति ज्ञा० १ ० १२ ० । व्युदग्रहे योजयति श्र० । विरुद्धवन्तं कुर्वति भ० ६ ० ३३ उ० । बुच्चमाण- उच्यमान- त्रि० । आक्रुश्यमाने, सूत्र० १ श्रु०
६ श्र० ।
बुच्छिण किरिय-व्युच्छिन्नक्रिय त्रि० । योगाभावात् क्रियारहिते, "बुब्लिन्नकिरियं अपडिवाइ परमसुकज्भां भियाद्द" आव० ४ अ० ।
पगतगर्भकालिक मनोरथायाम्, कल्प० १ अधि० ४ क्षण । बुच्छेय-व्यवच्छेद - पुं० | स्थगने, संवरणे, निवृत्तौ, आव० ६ अ० । दाने, श्राव० ६ श्र० । वुट्ठाण - व्युत्थान- न० । श्रात्ममात्रप्रतिबन्धलक्षणे व्यवहारे,
द्वा० ।
व्युत्थानं व्यवहारवे- न ध्यानाप्रतिबन्धतः ।
स्थितं ध्यानान्तरारम्भ, एकध्यानान्तरं पुनः ॥ ३० ॥ व्युत्थानमिति व्यवहार - श्रात्ममात्रप्रतिबन्धलक्षणं ध्यानप्रतिबन्धेन व्युत्थानं चेत्, न ध्यानाप्रतिबन्धतः सुत्र्यापारलक्षणस्य तस्य करणनिरोधेऽनुकूलत्वादेव चित्तविक्षेपाणामिव तत्प्रतिबन्धकत्वात् । एकध्यानानन्तरं पुनः ध्यानान्तरारम्भे मैत्र्यादिपरिकर्मणि स्थितम् तथा च तावन्मात्रेण व्युत्थानत्वे समाधिप्रारम्भस्यापि व्युत्थानत्वापचिरिति न किंचिदेतत् । द्वा०२८ द्वा०
३५४
प्रत्थि भंते ! पजने कालवसी वुद्विकार्यं पकरेंति ?, हंता प्रत्थि । जाहे गं भंते ! सक्के देविंदे देवराया वुट्टिकायं काउकामे भवति से कहमियाणि पकरेंति ?, हंता गोयमा ! ताहे चैव गं से सक्के देविंदे देवराया अभितरपरिसए देवे सहावेति, तए णं ते अभितर परिसगा देवा सदाविया समाणां मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति । तएणं ते मज्झिमपरिसगा देवा सदाविया समाया बाहिरपरिसर देवे सद्दार्वेति, तए गं ते बाहिरगा देवा देवा सदाविया समारणा बाहिरं बाहिरगा देवा सहावेंति । त
ते बाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा श्रभियोगिए देवे सद्दार्वेति । तए गं ते ०जाव सहाविया समाणा वुट्टि का देवे सहावेंति । तए गं ते बुट्टिकाइया देवा सद्दाविया समाणा बुट्ठकार्य करेंति, एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया बुडिकायं करेति । अस्थि भंते ! सुकुमारा वि देवा त्रुट्टिकायं पकरेंति ?, हंता अन्थि । किं पत्तियन्नं भंते ! असुरकुमारा देवा वुट्ठिकार्य पकरेंति', गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंता एएसि गं जम्मणम
बुच्छिण्णदोहला-व्युच्छिन्नदोहदा स्त्री० । पूर्णवाञ्छत्वाद- हिमासु वा निक्खमणमहिमासु वा पा परिनिव्वाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमावि देवा कार्य करेंति, एवं नागकुमारा वि एवं० ata freकुमारा वाणमंतरजोइसियवेमाणिय एवं चैव । ( सू०-५०४ )
का
बुट्ठाणवत्ति (ग् ) - व्युत्थानवर्तिन् - त्रि० । योग प्रतिपन्थिदशावस्थिते, द्वा० २५ द्वा० ।
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वुट्ठि-वृष्टि-स्त्री० । वर्षणं वृष्टिः । श्रधः पतने, स्था० ३ ठा० ३
उ० | महावर्षे, भ० ३ श० ७ उ० । “आदित्याज्जायते वृष्टि-वृरनं ततः प्रजाः । " दश० १ अ० ।
बुट्टिकाय - वृष्टिकाय- पुं० । वर्षणधर्मयुक्तस्योदकस्य राशौ,
स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
अथ वृष्टिकायकरणरूपं तमेव देवेन्द्रादिदेवानां दर्शयन् प्रस्तावनापूर्वकमाह
'श्रत्थि ' मित्यादि, 'अत्थि' त्ति अस्त्येतत् 'पजन्ने ति पर्यन्यः कालवासि' त्ति काले प्रावृषि वर्षतीत्येवंशीलः कालचर्षी, अथवा कालश्चासौ वर्षी चेति कालवर्षी, वृष्टिकायं-प्रवर्षतो जलसमूहं प्रकरोति प्रवर्षतीत्यर्थः । इह स्थाने शक्रोऽपि तं प्रकरोतीति दृश्यम् । तत्र च पर्जन्यस्य प्रवर्षणक्रियायां तत्स्वाभाव्यतालक्षणो विधिः प्रतीत एव । शक्रप्रवर्षक्रियाविधिस्त्वप्रतीत इति तं दर्शयन्नाह-- जाहे ' इत्यादि, अथवा पर्जन्य इन्द्र एवोच्यते स च कालवर्षी काले- जिनजन्मादिमहादौ वर्षतीति कृत्वा 'जाहे ं ति यदा 'से कहमियारिंग पकरे ति स शक्रः कथं तदानीं प्रकरोति ? वृष्टिकायमिति प्रकृतम् । असुरकुमारसूत्रे किं-प
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बुट्टिकाय
विति किं प्रत्ययं कारणमाधित्वेत्यर्थः जम्मणम हिमासु व 'सि जन्ममहिमासु जन्मोत्सवान् निमित्तीकृत्येत्यर्थः । भ० १४ श० २ उ० ।
(१४१४) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
वुड-वृद्ध-जि०।" इग्ध विदग्ध-वृद्धि-वृद्धेः " २४०॥ इति संयुक्तस्य ढः । " द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः " ॥ ८ ॥ २ ॥ ६० ॥ इति ढोपरि ङः । प्रा० । श्रुतेन पर्यायेण वयसा च मह ति, व्य०५ उ० । सूत्र० । स्यविरे, ग० ३ अधि० । प्रवयसि, ध० २०१ अधि०१७ गुण । स च " मध्यमः सप्तति यावत्परतो वृद्ध उच्यते ।" आचा० १ ० २ ० १ ३० । सप्ततिवर्षेभ्य उपरि वृद्ध' । श्रन्ये त्वाहुः श्रर्वागपीन्द्रियादिहानिद शनात् षष्टिवर्षेभ्यो ऽप्युपरि वृद्धोऽभिधीयते । ग० १ अधि०। ध० । सप्ततिवर्षाणां मतान्तरापेक्षया षष्टिवर्षाणां वा उपरि वर्तिनि पिं० । तापसे, अनु० । प्रथममुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाले दीक्षाप्रतिपत्तेः । ० १ ० १४ अ० । पितृमातुलादी, सूत्र० १ श्रु० २ ० १ ३० । स्थविरस्यार्यकालकस्य शिष्ययोः संप्रज्वलितार्यभद्रयोः शिष्ये, कल्प० २ अधि०८ क्षण । "बुति देशी पदत्वादवदग्धम् । विनष्टे, बृ० १ उ० २ प्रक० । बुड्डुकुमारी वृद्धकुमारी - स्त्री० । बृहत्त्वादपरिणीतत्वाच्च गृहत्कुमारी । अधिकवयः कन्यायाम, ज्ञा० २ ० १ वर्ग १ अ० । वुत्त- वृद्धत्व - न० । जरायाम्, श्राचा० ।
" गात्रं समुचितं गतिर्विगलिता इन्नाथ नाशं गता, दृष्टिक्षम्यति रूपमेव हसते व च खालायते । वाक्यं नैव करोति वान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, धिक्कं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥ १ ॥ न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्यं कुत एव विभ्रमः । श्रथ तेषु च वर्त्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बनाम् ॥२॥” जं जं करेह तं तं न सोहए जोन्वणे अतिकंते । पुरिसस महिलिया, एक धम्मं मुभूतं ॥१॥" आचा०१ श्रु० २ ० १ ३० ।
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बुडवाइरिइदवादिरिपुं० लाढवे
नगरे क
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दिवाकरस्य पादजेतरि सावायें, ती० ४५ कल्प वुडुवाय वृद्धवाद पुं० [प्रवज्यादानादनन्तरं संलेखनापर्यन्ते साधुधर्मे, प्राचा० १ ० ६ ० १ उ० । बुसानम-वृद्धावक पुं० भरतादिकाले धावकाणामेव सतां पश्चात् ब्राह्मणत्वभावाद् ब्राह्मणेषु अनु० झा० । वुडसील - वृद्धशील - त्रि० । निभृतशीले, श्रवञ्चनशीले, दशा० १ श्रु० ४ श्र० ।
1
वुडसीलया - वृद्धशीलता - स्त्री० । वपुर्मनसोर्निर्विकारता
याम्, स्था०८ ठा० ३ उ० । वपुषि मनसि च निभृतस्वभावतायाम्, उत्त० १ श्र० । दशा० । वृद्धशीलो - निभृतशीलः श्रवञ्चनशील इति यावत् । अर्थग्रहणात् - वृद्धेषु ग्लानादिषु सम्यग् वैयावृत्यादिकरणकारापणयोरुयुक्तो भवति एवंविधा, अथवा वृद्धशीलता च दूषितमनसि च निभृतस्यभावता - निर्विकारतेति यावत् । दशा० १ श्रु० ४ श्र० । य० ।
आ० म० ।
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बुडावास बुड्डा-वृद्धा-श्री० [प्रतिक्रान्तयौवनायाम् ग० २ अधि० । बुड्डाऽणुग- वृद्धाऽनुग- त्रि० । वृद्धाननुगच्छतीति वृद्धानुगः । तत्र वृद्धास्तपः श्रुतपर्यायवयःप्रभृतयस्तदाचरितानुष्ठायी । दर्श० २ तत्व | परिणतमतिपुरुषसेवके, घ० १ श्रधि० । वृद्धजनानुगत्या हि प्रवर्त्तमानः पुमान् न जातुचिदपि विपदः पदं भवति । ध० १ अधि० । प्रय० । वृद्धान् परिणमतीति गुरुजनयुद्धया सेवत इति वृद्धानुगः ।
प्रव० २३६ द्वार ।
बुड्डा (ड्ड) वास-- वृद्धा (द्ध) वास- पुं० । वृद्धगत श्रवासो वृद्धावासः | पं० चू० १ कल्प ।
सम्पति वृद्धायासाम्यस्य व्युत्पत्तिमाहवुड्स्स उ जो वासो, वुद्धिं पगतो उ कारणं तु । एसो तु बुढवासो, तस्स उकालो इमो होइ ॥ ५१८ ।। वृदस्य- जरसा परिणतस्य परिक्षीणजालस्य पासो वृद्धवासः । अथवा वृद्धः कारवशेन रोगेस वृद्धिं गतो यासो हृदयासः । एष खलु वृद्धवासो बुद्धवासशब्दार्थः, तस्य तु वृद्धवासस्य कालोऽयं पदपमा जघन्यादिभेदभिन्नो भवति ।
तमेवाहतोमुडुतकालं, जहन्नमुकोस पुव्यकोडीओ ।
नुं गिहिपरियागं, जं जस्स व आउयं तिरथे ।। ५२६ ।। वृद्धवासो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तकालम् । कथमिति चेत्, उच्यते वृद्धवासबुद्धया स्थितस्यान्तमुंह सोनन्तरं मरणभावादुत्कर्षतः पूर्वकोटिगृहिपर्यायं नववर्षलक्षणं मुक्त्वा नववपना पूर्वकोटी इत्यर्थः कथमेतावान्कालो वृद्धवासस्य लभ्यते इति चेत् ?, कोऽपि नववर्षप्रमाण एव श्रमणो जातः स च श्रामण्यपरिग्रहात्तदनन्तरमेय प्रतिकूलकमवशतः ज बलतया रोगेण वा विहर्तुमसमर्थो जातस्तत एकत्र वासो पोकामानो भवति इदं यत्तोपासकालप रिमा भगवत शुभती करतीर्थान्यधिकृत्याह यस्य वा तीर्थकरस्य तीर्थे यत् उत्कृष्टमायुः प्रमाणं वकीनं तस्य तीर्थे तावान् उत्कृष्टो वृद्धवासकालः । तत्र योऽसौ जरापरिणामेन वृद्धयासीभूतः स एतादृशः । केया विखा चरिवं लाघवे, ततो तो देखियो सिद्धिमग्गो । अहाविहिं संजम पालइचा
दीहाउलो बुद्धवासस्स कालो ।। ५३० ॥ विद्या नामसूत्रार्थतदुभयं तत्कृतम् तद्यथा द्वादश सर्षाणि सूत्रग्रहणं कृतं द्वादश वर्षात्वर्थग्रहणं तदनन्तरं चरितं देशदर्शनाय द्वादश वर्षाणि भ्रमणं कृतम्। तथा-सदैव सापयेन उपकरणलाघवादिना वर्त्तितम्, यथा चतुषा 55दिरूप नानाप्रकारं तपः तथा अनिल देशर्शनानन्तरं द्वादश वर्षाण्यव्यवच्छित्तिं कुर्वता ज्ञानादिकः सिद्धिमाग देशितः सदैव च यथाविधि श्रुतोपदेशेन । सप्त दशविधः संयमः परिपालितस्तं सकलकालं संयमं यथाविधि
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( २४१५ ) अभिधानराजेन्द्रः |
बुडावास
पालयित्वा द्वादश वर्षाण्यव्यवच्छितिं कुर्वता यदि शिष्यो निष्पादितस्ततस्तं गये स्थापयित्वा स्वयमभ्युद्यतविहारेण विहर्तव्यमिति भगवतामर्हतामुपदेशः । अथ न कोऽपि शिच्यो निष्पन्नस्तर्हि गच्छः परिवर्द्धनीयः, तथा यद्यपि च न निष्पन्नः कोऽपि शिष्यस्तथापि कश्चिदसमर्थो भवत्यभ्युद्यतविहारेण विहतु सोऽपि नाभ्युद्यतविहारं प्रतिपद्यते, तस्य शिष्यनिष्पत्यभावेनाभ्युद्यतविहारप्रतिपत्स्यशक्त्या वा गच्छं परिपालयतो दीर्घाऽऽयुषो वृद्धवासस्य कालः । एनामेव गाथां व्याख्यानयति
सुत्तागमो बारसमा - चरियं देसाय दरिसणं तु गतं । उवकरणदेहइंदिय-तिविहं पुण लाघवं होइ ।। ५३१ ॥ विद्या नाम- सूत्रागमः स द्वादश वर्षाणि यावत् तदुपलक्षणमेतदर्थागमो ऽपि विद्या सोऽपि द्वादश वर्षाणि कृतः, तथा चरितं नाम देशानां दर्शनं तदपि द्वादश वर्षाणि कृतम् । लाघवं पुनस्त्रिविधं भवति । तद्यथा-उपकरणलाघवं देहलाघवम्, इन्द्रियलाघवं च । तत्रोपकरणलाघवम्-उपधेररूपीकरणं यदतिरिक्तमुपकरणं न गृह्णाति गृहीतं वाsरद्विष्टः सन् सूत्रोक्तविधिना परिभुङ्क्ते, देहलाघवं यन्नातिकृशो नातिस्थूलः, शरीरेण, इन्द्रियलाघवम्-यदीन्द्रियाणि तस्य वशे वर्त्तन्ते ।
चउत्थ छट्ठादि तवो, कतो उज्वोच्छित्तीऍ होइ सिद्धिपहो । सुत्तविहीए संजम, बुड्डो ग्रह दीहमाई तु ।। ५३२ ॥ तपश्चतुर्थषष्ठादिकं कृतं तथा अव्यवस्थितौ क्रियमाणायां सिद्धिपथो-मोक्षमार्गे देशितो भवति, तथा सूत्रविधिना संयमः परिपालितः स च जातो वृद्धोऽप्यथ दीर्घमायुः । अन्भुञ्जतमत एंतो, अगीतसिस्सो व गच्छपडिबद्धो । अच्छति जुन्नमहल्लो, कारणतो वा अजुपोऽवि ||५३३ ॥ 'अभ्युद्यतविहारमशक्नुवन् श्रगीताः शिष्या अद्यापि यस्यासौ वा गच्छप्रतिबद्धो - गच्छ परिपालनप्रवृत्तः सन् जीर्णो महान् वृद्धवासे तिष्ठति । श्रजीर्णोऽपि वा - तरुणो ऽपि वा कारणतः क्षीणजङ्घाबलतया रोगादिना वा वृद्धाबासमुपसेवते ।
तदेव कारणजातं गाथाद्वयेनाहजंघाबले व खीणे, गेलन सहाय ताव दुब्बल्ले । अहवाऽवि उत्तमट्ठे, निष्फत्ती चैव तरुणायं ।। ५३४ ॥ खेत्ताणं च अलंभे, कयसंलेहेव तरुणपरिकम्मे । Reir कारणेहिं, बुडावासं वियाग्राहि ।। ५३५ ॥ जावलं वा क्षीणं, ग्लानत्वं वा तस्यान्यस्य वा जातम्, असहायता वा समुत्पन्ना दौर्बल्यं वा शरीरस्योपजातम्, अथवा उत्तमार्थप्रतिपक्षः, अथवा तरुणानामात्मपरलक्षणानां निष्पत्तिः सूत्रतोऽर्थतश्च कर्तव्या । क्षेत्राणां वा संयमस्फीतिहेतू नामलाभः । कृतसंलेखो वा प्रतिपन्नसंलेखनाको वर्तते । यदि वा तरुणस्य - रोगविमुक्तस्य सतः प्रतिकर्म बलविवृद्धिकरणं समारब्धं ततो वृद्धावासः । तथा चाह - एतैः कारणैर्वृद्धावासं विजानीहि ।
तत्र प्रथमद्वारे - अहाबलं परिक्षीणमित्येवंरूपं कियत् क्षेत्रं कियता कालेन गन्तुं शक्नुवन् विहरणाहों भवति ।
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बुडावास कियद्वा अशक्नुवन् जङ्गाबलपरिक्षीण इत्येतत्प्रतिपादयतिदोणि वि दाऊण दुबे, सुत्तं दाऊण अत्थव च । दोषी दिवड्डमेगं, तु गाउ तंतीसु अणुकंपा ॥ ५३६ ॥ arovar - सूत्रपौरुषी, अर्थपौरुषी चेत्यर्थः । दवा यावद्विक्षावेला भवति तावद्यो द्वे गव्यूते व्रजति एष सपराक्रमो विहर्तुम् । 'सुत्तं दाऊण अत्थवज्रं चे' ति सूत्रं सूत्रपौरुष दस्व अर्थवर्जम् - अर्थपौरुषीमदत्वा यो भिक्षावेलातः अर्वाग् द्वे गव्यूते व्रजति सोऽपि सपराक्रमो विहर्तुम् । शब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । स चैतत् सूत्र पौरुषीमर्थपौरुष वा दवा भिक्षावेलात आरतो यो द्वे गव्यूते याति एषोऽपि सपराक्रमो विहर्तुमिति । एवमेते त्रयः प्रकारा गव्यूतद्वयेऽभिहिताः । एते एव त्रयः प्रकारा इव गव्यूते, त्रयश्च प्रकारा गव्यूते द्रष्टव्याः । एतेषु च त्रिष्वपि द्विकद्वयर्द्धगग्यूतरूपेषु तस्यानुकम्पा विश्रामणादिरूपा वक्ष्यमाया कर्तव्या ।
संप्रति चशब्दसूचितं तृतीयं प्रकारमुपदर्शयतिखेत्ते अद्धजेोयण, कालें जाव भिक्खवेलाओ । खेत्ते य कालेय, जाखसु सपरकमं थेरं ॥ ५३७ ॥ सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीं वा कृत्वा कालतः प्रातर्वेलात आरभ्य यावद् भिक्षावेला भवति तावत् यः क्षेत्रतोऽर्द्धयोजनं गव्यूतद्वयप्रमाणं व्रजति तं जानीत, क्षेत्रतः कालतश्च सपराक्रमं स्थविरम् । तदेवं गव्यूतद्वयविषये चशब्दसूचितः तृतीयः प्रकारः । प्रकारत्रयदर्शिता एवं द्वधर्द्धगव्यूते गब्यूतेऽपि च द्रष्टव्याः ।
तथा चैतदर्थख्यापनार्थमेव गव्यूतविषयं तृतीयं प्रकारमाहजो गाउयं समत्थो, सूरादारम्भ भिक्खवेलाओ । विहरउ एसो सपर -- कमो उ नो विहरते ण परं ॥ ५३८ ॥ यः सूरात् -- सूरोङ्गमादारभ्य यावद्भिक्षावेला भवति तावत् व्यूतं गन्तुं समर्थ एषोऽपि सपराक्रम इति विहर्तुम् । ततः परं गव्यूतमिति तावता कालेन गन्तुमशक्नो विहरेत् । इदमुक्तम् -- त्रिष्वपि गव्यूतद्वयादिष्वनुकम्पा कर्तव्येति । तत्र तामेवानुकम्पामाह
वीसामण उवगरणे, भत्ते पाणे व लंबणे चैत्र ! गाउयदिवडदोसुं, अणुकंपेसा तिसुं होइ ॥ ५३६ ॥ अन्तराऽन्तरा यत्र विश्रमणार्थे तिष्ठति तत्र विश्राभ्यते, उपकरणे - उपकरणविषये अनुकम्पा कर्त्तव्या, यत्तस्योपकरणं तदम्ये वहन्ति, यैश्च तस्य शीतं न भवति तादृशानि वस्त्राणि देयानि । तथा भक्तं पानंच तत्प्रायोग्यं शुद्धं न लभ्यते, तदा पञ्चकपरिहाण्या तदुत्पादनीयम् । यत्र च विषमं तत्र बाहुप्रदानादिनाऽवलम्बनं कर्त्तव्यम् । चशब्दात् स तेन कालेनोवालमीयो यस्मिन्नुष्णादिभिर्न परिताप्यते । एषाऽनुकम्पा त्रिषु गव्यूतपर्स - गव्यूत-द्विगव्यूतेषु भवति ज्ञातव्या । अथवा - त्रिष्वनुकम्पेति प्रकारान्तरेण व्याख्यानयति
हवा आहारोवहि, सेजा अणुकंप एस तिविहो उ । पढमालिया विस्सा-मखादि उबही य बोधव्या । ५४० |
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(१४१६) अभिधानराजेन्द्रः ।
वडावास
अथवा श्राहारे उपधौ शय्यायां च या अनुकम्पा एषा त्रिविधाऽनुकम्पा भवतितत्राहारे-प्रथमालिकानं शय्यायां गतस्य विश्रामणादि, मार्गे चोपधिर्वोढव्यः । सांप्रतमपराक्रममाह
खेत्ते अद्धगाउय, कालेख य जाव भिक्खवेला उ । खेते व कालं य, जासु अपरकर्म घेरं ॥ ५४१ ।। यः कालतः रोमादारभ्य यावद्भिजावेला तावत् यः क्षेत्रतोऽयाति तं क्षेत्रतः कालध जानीत अपराक्रमं स्थविरम् ।
म जस्स न जायइ, दोसो देहस्स जाव मज्झएहो । सो विहर सेसो पुण, अच्छति मा दोराह वि किलेसो ५४२ प्रातरारभ्य यावन्मध्याह्नस्तावत्तस्य गच्छतो देहस्यान्यो दोषो भ्रम्पादिलायो 'नोपजायते स विहरति शेषः पुनस्तिष्ठतिमादित्याह माइयानामपि तस्य सहायानां शोभूयादिति हेतोरन्यो दोषो न ज्ञायते इत्युक्तम् । तत्रान्यं दोषमाह
भो वा पिच्छावा उसासो व खुब्भति । गतिविरए वि संतम्मि, इच्चादिसु न रीयति ॥ ५४३ ॥ यस्मिन् गतिविरतेऽपि सति भ्रम-आकस्मिकी भ्रमिः, पिनिमित्ता मूर्च्छा पित्तमूर्च्छा ऊर्द्धश्वासों वा तुभ्यति -चल. ति दिदा शिरोष्यधादिपरिग्रहः, ततो न रायसेन ग च्छतिः न विहारक्रमं करोतीति भावः ।
तस्य चापराक्रमस्य वृद्धावासेन तिष्ठतः सहाया दातव्यास्तेषां परिमाणमाह
चउभागतिभागऽद्धो, सव्वेसिं गच्छतो परीमाणं । संतासंततीए, बुड्डावासं वियाखाहि ॥ ५४४ ॥ गच्छतो—गच्छुमधिकृत्य साधूनां परिमाणं कृत्वा सर्वेषां भागोऽया सहायास्तस्य वृदावासप्रतिपन्नस्य दीयन्ते । तत्र त्रिभागोऽर्द्ध वा दीयन्ते । 'संता संत सतीए' सद्भावेन सद्भावेन चेत्यर्थः । तत्र सद्भावे सन्ति साधवो भूयांसः केवलमगीतार्थास्ते सन्तोऽप्यसन्तः । श्रसद्भावो न सन्ति बहवः साधवः। एवं वृद्धावासं ससहायं जानीहि । ततो गच्छतां साधूनां परिमाणं ज्ञात्वा सर्वेषां चतुर्भागसहाया दातव्या इत्युक्तं ततो परिमाणजन्यादिभेदेन आहअट्ठावीसं जहोणं, उकासेण सयग्गसो ।
सहाया तस्स जेसिं तु, उबट्ठाणा न जायति ॥ ५४५ ॥ गब्दस्य परिमाणे जघन्यतोऽष्टाविंशतिरुत्कर्षतः शताग्रशः शतादारभ्य यावत् द्वात्रिंशत्सहस्राणि । तत्राष्टाविंशतिकस्य गच्छस्य चतुर्भागः सप्त एतावन्तः सहायास्तस्य दातव्याः यैरुपस्थापना उप-सामीप्येनस्था त्यस्यामिति उपस्थापना शय्या बजादियाठादात्प्रत्ययः, नित्यवसतिर्न जायते । इयमत्र भावना-प्रतिमासमम्याडम्यान लभ्यते स बालामो विधासङ्गाभः, असलामश्व Rs लामो नाम - लभ्यन्ते व
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वुडावास सतयः, किं त्वकल्पिकाः, सल्लाभो मूलत एव न लभ्यन्ते वसतयः । एवं सनाभेनासल्लाभेन वा प्रतिसमयमम्यान्यवसत्यलाभे एकस्यामेव वसती जायल परिक्षी बसति, तस्य च सहाया अष्टाविंशतिः कस्यचिद् गच्छस्य व चतुर्भागमाषाः सप्त प्रदतास्ते नुदे काले एक मासं स्थित्याग जति अन्ये सप्त सहायाः स्थापिरस्यागच्छन्ति, तेsपि द्वितीये मासे परिपूर्णे गतास्ततोऽन्ये सप्त समागच्छन्ति, तेऽपि तृतीये मासे पूर्णे गतास्ततोऽन्ये सप्त सहायाः श्रायान्ति तेऽपि चतुर्थ मासं स्थित्वा गं व्रजन्ति ये प्रथमे मासे सप्तागच्छन् ते भूयः समागच्छन्ति । एवं त्रिमासान्तरितः सर्वेषां पुनर्वारको भवति एवं पारेण वारेण गमने व्यवसतिदशेषः परितो भ यति । अथ सद्भावेनाविशतेरूनो गच्छो वर्तते यावदेकविंशतिस्तस्य विभागे सप्त तेषां दिमासान्तरितो वारको भवति । तथैव सद्भावेनासङ्गावेन वा यदि चतुर्दशको मच्छो भवति तदा तेषामधेन सप्त तेषामेकमासान्तरितः पुनर्वारकः । एवं प्रतिमासमन्यान्यवसत्यभावे वृद्धस्यैवैकस्य वृद्धावासो भवति नतु सहायानाम् । अथ सद्भावेन अद्द्भावेन वा चतुर्दश गच्छे न सन्ति तदा त एव सप्त जनाः चिरकालमपि तिष्ठन्तो यतनया तं वृद्धं परिपालयन्ति ।
मुमेवार्थमभिधित्सुराह
चत्तारि सत्तगा तिमि दोसि एक्को व होज असतीए । संतास अगीया, ऊणा उ असंत असती ॥ ५४६ ॥ चत्वारः सप्तका बारे वारे वृद्धपरिपालनाय प्रेपणीयाः। असति सद्धभावेन वाऽष्टाविंशतेरभावे यः सप्तका बारेल प्रेष्याः । तावतामध्यभावे ही सप्तको वारेण येथी। तयो रप्यभावे एक सप्तकः सदाऽवस्थायी तत्परिपालको भवेत्। सद्भावेमाऽसद्भावेन वा असतीत्युक्तम् । तत्र सद्भावं व्यास्यानपति 'संतासती' ति सद्भावो नाम पद् अमीतार्थाः, तेहि सन्ति भूयांसः परं ते सोसतो वृद्धस्य सहायकार्येष्वसमर्थत्वात् । श्रसन्तेउ असती ' श्रसद्भावः स्वभावतस्तूनाः ।
श्रथ कस्मात्सप्त सहायाः क्रियन्ते न न्यूना इत्याहदो संघाडा भिक्खं, एक्कोवहि दो य गएहए थेरं । आलितादिसु जयथा, इहरा परिताय दाहादी ॥४४७|| द्वौ संघाटी भिक्षां हिण्डेते, एको बहिर्वसतेस्तिष्ठति रक्षकः द्वौ च स्थविरं गृह्णीतः, एवं सप्तसु सत्सु श्रादीप्तादिषु-प्रदीपनादिषु यतना भवति । इतरथा परितापदाहादिकं वृद्धादेरुपजायेत । अथ सद्भावेन श्रसद्भावेन वा सप्तको गच्छो तुषादिकस्तदापि सर्वेऽपि वृद्धावासिका भवन्ति, यतनया च तं परिपालयन्ति ।
तामेव यतनामाह
हारे जयणा वृत्ता, तस्स जोगो य पाणए । निवाय मउ चैव विनाशादिसु ॥ ३४८ ॥
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(१५१७) बुडावास
अभिधानराजेन्द्रः। तस्य वृद्धस्य योग्ये माहारे उपाश्रये निवाते छविस्त्राणं | वर्षाकालकल्पं वर्षासु तुवकालकल्पं म कुर्वन्तीति वस्त्रं तस्मिन् मृदुके च एषणीयानि, तदलाभे पञ्चकपरि-] भावः । तथा त्रिविधा यतना ऋतुबद्ध काले च कर्तव्या। हाण्याऽप्युत्पादनीयानि । तदेवमुक्ता चतुर्विधा यतना। __ सांप्रतमविपरीतमेव काल व्याख्यानयतिसंप्रति प्रकारान्तरेण चतुर्विधामेव यतनामाह
अविवरीतो नाम , कालं उवठाणदोस परिहरति । वुड्डावासे जयणा, खेत्ते काले य वसहि-संथारे । असती वसहीए पुण, अम्बिवरीमो उवद्वेऽवि ॥५५३।। खेत्तम्मि नवगमादी, परिहाणी एकहि वसई ॥५४६॥ अविपरीतो नाम कालः क्रियमाणः, एष यत् काले ऋतुबवृद्धावास यतना चतुर्विधा, तद्यथा-क्षेत्रे, काले, वसतौ,
वे प्रतिमासमन्यान्यवसतिभिक्षादिग्रहणत उपस्थानदोषान् संस्तारे च । तत्र क्षेत्रे नवकोटिविभागः नवकमादिं कृत्वा
नित्यवासदोषान्परिहरति । असत्यभावे वसतेरुपलक्षणमेएकैविभागे परिहाण्या तावद्वक्तव्यं यावदेकस्मिन्नपि भागे
तत् भिक्षाद्यभावे च उपस्थेऽपि एकस्यां वसती सततमचिरकालं वसति । इयमत्र भावना-क्षेत्रे नव भागाकरोति
वस्थितेऽपि यतना कर्तव्या।। नौकस्मिन् भागे वसतिं गृहीत्वा तस्मिन्नेव भागे संस्ता- तिविहा जयणाऽऽहारे, उवहीसेजासु होइ कायव्वा । रकभिक्षादीनि निर्दिशति,शेषानष्टौ भागान परिहरति ।ततश्च तावत्परिपूों मार्गशीर्षः। ततो द्वितीये पौषमासे द्वितीये
उग्गमसुद्धा तिविहा, असईए पणगपरिहाणी ॥५५४॥ भागे बसत्यादि गृह्णाति शेषानष्टौ भागान्परिहरति । एवं आहारे उपधौ शय्यासु च वसतिषु का यतनेत्यन तृतीयादिषु विभागेषु माघादय भाषाढान्ता मासा नेतव्याः, पाह-त्रीण्यपि प्रथमत उद्गमाविशुद्धानि-उद्मोत्पादनैषणावर्षाकाले चतुरो मासान् नवमे भागे वसत्यादि गृह्णाति शे- शुद्धानि ग्रहीतव्यानि । तेषामसत्यभावे पञ्चकपरिहाण्याऽपि पानी भागान्परिहरति । तथाविधभिक्षाद्यभावे नव वसतयः समुत्पादनीयानि । गता कालयतना । अष्टो भिक्षादियोग्या भागाः परिकल्पनीयाः, षसत्यलाभे अष्टौ
वसतियतनामाहभागा वसतियोग्या नव भागा भिक्षादियोग्याः, वसत्यला-|
सेलियकाणिदृघरे, पक्केडाऽऽमे य पिंडदारुघरे । भे भिक्षाद्यलाभे चाष्टौ वसतिभागा अष्टौ भिक्षादिभागाः, एवं त्रिभिः प्रकारेकैकभागपरिहाण्या तावत् शेयं यावदेक- कडगे कडगत्तघर, वोच्चत्थे होति चउगुरुगा ।। ५५५ ।। स्मिन् भागे वसतिं भिक्षादीनि च गृह्णाति ।
शैलिकं नाम पाषाणेष्टकाभिः कृतं 'काणिट्ट' त्ति लोहमएतदेव प्रतिपिपादयिषुराह
य्य इष्टास्ताभिः कृतं काणेष्टकागृहं 'पक्केह' इति पक्केष्टकाभागे भागे मासं, काले वी जाव एक्कहिं सव्वं ।
गृहम् 'श्रामेय'त्ति आमा अपक्कास्ताभिरिएकाभिः कृतं
गृहमामेष्टकागृहम् । 'पिण्डदारुघर' मिति गृहशब्दः प्रत्येपुरिसेसु वि सत्तण्हं, असतीए जाव एको उ ॥५५०॥
कमभिसंबध्यते पिण्डगृहं चिक्खल्लपिण्डैर्निष्पादितं दारुगृहं ऋतुबद्ध काले भागे भागे मासं कुर्यात्, अलाभे वसतिभिक्षा.
करपत्रस्फाटितदारुफलकमयं गृहम् 'कडक' त्ति वंशदलनिरीनां च पूर्वप्रकारेणैकैकपरिहाण्या तावद्यतेत यावत् का- मौपितकटात्मकं गृहं कटकगृहं, तृणगृह-दर्भादितृणमयम । लेऽपि-ऋतुबद्धकालेऽपि सर्व वसत्यादिकमेकस्मिन् भागे
एतेषां सति लामे प्रथम प्रहीतव्यं, तदभावे द्वितीयम् , एवं गृह्णीयात् । पुरुषेष्वपि सहायभूतेषु चिन्तायां सप्तानामभावे शेषारयपिभावनीयानि । यदि पुनः सति विपर्यस्तं कुर्यात् . एकैकपरिहाण्या तावद्यतना विधेया यावदेकोऽपि सहायो
तदा विपर्यस्ते-विपर्यासे प्रायश्चित्तं भवति चत्वारो गुरुकाः। भवत्विति ।
तत्राद्येषु चतुषु गृहेषु यो गुणो भवति तमभिधित्सुराहपुव्वभणिया उ जयणा, वसही भिक्खे वियारमादी य।
कोटिमघरे वसंतो, आलित्तमवि न डज्झती तेणं । सा चेव य होइ इहं, वुड्डावासे वसंताणं ॥ ५५१॥ |
सेलादीणं गहणं , रक्खति य निवायवसहीओ।५५६। पूर्वम्-श्रोधनियुक्ती,कल्पाध्ययने वा या वसतौ भिक्षायां वि |
कोटिमुपरिषद्धभूमिकं गृहं तच्च शिलादिमयं तस्मिन्यचारादौ च यतना भणिता महताप्रबन्धेन सैव चेह वृद्धावासे सन् आदीप्तेऽपि प्रदीपनकेऽपि न दह्यते तत्रानेः प्रवेशाsबसतां भवति-पातव्या । उक्ला क्षेत्रयतना।
संभवात् , तेन कारणेन शिलादीनां ग्रहणम् । तथा रक्षति कालयतनामाह
निवाता वसतिः शीतादिकमिति वा शैलादिग्रहणमका
रि। उक्ता वसतियतना। धीरा कालगच्छेयं, करेंति अपरक्कमा तहिं थेरा। कालं वा विवरीयं,करेंति तिविहं तहिं जयणा ॥५५२।।
संप्रति संस्तारकयतनामाहधीरा-बुद्धिमन्तः संयमकरणोद्यता अप्रमादिनोऽपराक्रमा
थिरमउमस्स उ असती, अप्पडिहारिस्स चव वञ्चति । जहावलपरिहीनाः स्थविरास्तत्र वृद्धावासे कालगच्छेदं कु
बत्तीसजोयणाणि वि, आरेण अलब्भमाणम्मि १५५७१ बन्ति, ऋतुबद्धे काले भष्टसु मासेषु प्रतिमासमन्यान्यवसति यो वसतौ यथा संस्कृतश्चम्पकपट्टोऽन्यो वा स्थिरमृदुकः भिक्षादिग्रहणतो वर्षासु चतुरो मासान् एकवसत्येक- संस्तारकोऽप्रतिहार्यः स ग्रहीतव्यः । तस्याभावे वसतेरेवभागभिक्षादिग्रहणतस्तद्भागे पूर्वोक्लयतनया कालत्रुटिं कु-| संवन्धि यन्निवेशनं गृहं तस्मादानेतव्यः । तस्याप्यलाभे वायन्ति । तथा कालमविपरीतं च कुर्वन्ति । ऋतुबद्धे काले | टकादहिष्ठोऽप्यानेतव्यः। तत्राप्यसति स्वग्रामे दूरतोऽपि, त
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( १४१८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बुवावास
त्राप्यलाभे परग्रामादेरर्द्धक्रोशान्तथाऽप्यलाभे क्रोशादपि, एयमकोशदया तावङ्गन्तव्यं यावदुत्कर्षतोऽपि द्वात्रिंशतोयोजनेभ्यो ऽपि तथा चाह-स्थिर मृदुकस्याप्रतिहार्येश्य से स्तारकस्य वसत्यादावलामे अप्रतिदायैस्यैव संस्तारकस्थानयनाय परग्रामे प्रजन्ति तत्र च धारतो लभ्यमाने द्वात्रिंशतियोजनान्यपि यावत् व्रजन्ति । एतदेव सुव्यक्तमाह
बस हिनिवेसणसाही, दूरागणयसं पि जो उ पाउग्गो । असतीए पडिहारिय, मंगलकरणम्मि नीर्णेति ॥५५८ || बसती यथासंस्तस्थिरमृदुः संस्तारको मार्गशीयः - बभावे निवेशने अप्रतिहार्यो नवेषणीयः तत्राप्यलाभे ' साहिसि वाटके तत्राप्यलाभे यः प्रायोग्योऽप्रतिहार्यः सं स्तारकस्तस्य दूरादपि द्वात्रिरायोजनमा कर्णव्य म् एवमपि तथारूपस्थाप्रतिहार्यस्य संस्तारकस्यासति-लाभे प्रतिहार्य मङ्गलकरणे - मङ्गलकरणनिमित्तं धियमाणं 'नीणयन्ति' आनयन्ति ।
"
एतदेव स्पष्टतरमाहओगालीफलगं पुरा, मंगलबुद्धीऍ सारविजंतं । पुणरवि मंगलदिवसे, अश्च्चियमहियं पवेसिंति || ५५६ ॥ श्रोगालीफलकं नाम आर्यक प्रायकप्रभृतीनामावल्या समा गतं चम्पकपट्टादिफलकं मङ्गलबुद्धया ' सारविजंतं ' प्रियमाणम् । तथाहि -ते मङ्गलबुद्धया तं फलकं धरन्ति, उत्सवादिषु च तं फलकं श्रीखण्डादिना श्रर्चयन्ति, पुष्पादिभिर्महयन्ति न चकोऽपि तं फलकं परिभुक्ते, एवं मङ्गलबुद्धया साराप्यमाणं साधवो याचन्ते । यथा- अस्माकमाचार्याः स्थवि - रास्तेषामिदं फलकं प्रातिहार्ये समर्पयत अस्माकं विरतानां पूग्यास्ते देवानामपि पूज्याः किं पुनर्युष्माकम् ते
सन्तो मुखते - सत्यं दद्मः केवलमुत्सयदिषसे आनेतव्यो येन वयं पूजयामः । ततः पुनरपि दास्यामः, एवमुक्ते तं नीत्वा उत्सवदिवसे तस्यां पूजावेलायां प्रेषयन्ति । येनावष्वष्करणोPoorster दोषा न भवन्ति । ततः पुनरपि तस्मिन् मङ्गलदिवसे अर्चितमहितं चम्पकादिपट्टकं वसतौ प्रवेशयन्ति । पुसम्म अप्परांती, अमस्स व बुडवासियो देति । सुगबुवासि, भावजई पउल सेसे ।। ५६० ॥ पूर्णे वृद्धया से कालगतत्वादिना पश्चास्य सत्कचम्पकादिपइस्तस्य तं समर्पयन्ति, अन्यस्य वा बुद्धवासिनो इति वृद्ध वासिनं मुक्त्वा यद्यन्यस्य शेषस्य समर्पयन्ति ततः शेषे शेषस्य समर्पणे तेषां प्रायश्चित्तमापद्यते चतुर्लघु । ईदृशस्य फलकस्यालाभे यदन्यत्- अपरिशाटिफलकं तदप्रातिहार्ये मृगयतला प्रातिहार्यमपि । एवं क्षेत्रकालच सति संसाररूपतना कर्त्तव्या । एतरयतनाविभागासंभवे त्रिविभागा यतना कर्त्तव्या तस्या प्यसंभवे एकविभागाऽपीति । गतं जङ्गाबलक्षीणमिति द्वारम् ।
इदानीं ग्लानद्वारमाहपडियरति गिलासं वा, सयं गिलाणो वि तत्थ वि तहेव ।
बुड्डावास प्रतिचरति ग्लानम्, यदि वा स्वयं ग्लानो जातस्ततस्तस्प वृद्धावासो भवति, तत्रापि तथैव क्षेत्रकालयसतिसंस्थारकयतना द्रष्टव्या । गतं ग्लानद्वारम् |
असहायताद्वारमाह-
भावियकुले अच्छति, असहाए रयतो दोसा ।। ५६१॥ भावितकुलेषु संविग्नभाषितेषु फुलेप्यसहायः- सहावीनस्तिष्ठति । यतस्तस्य रीयमाणस्य विहरतो बहवो दोषास्यादिभ्यः । गतमसहायताद्वारम् ।
संप्रति दौर्बल्यद्वारमाह
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ओमादी तबसावा, अचईतो दुब्बलोऽवि एमेव संतासंतसतीए, बलकरदव्ये व जयखाओ || ५६२ ।। अथमम् दुर्मिम् आदिशब्दात् नगररोधादिपरिग्रहः त मौदर्येण दुर्बलीभूतो न शक्नोति विहर्तु तपसा या शामीभूतः कथमित्याह- संतासंततीय सद्भावेनाऽसद्भावेन था। तब सद्भावो न लभ्यते, प्रायः यथावृति भव्य केवलमतं शान्तं तेन सामीभूतः असद्भावो यथावृति भैयाभावः । स तथा क्षामीभूतो न मनुयन एवमेव श्री राजङ्घावलगतेन प्रकारेण तिष्ठति, केवलं तेन बलकरद्रव्यैर्यतना कर्त्तव्या । प्रथमत उद्गमादिशुद्धं तदुत्पादनीयं तदभाव पञ्चकपरिहास्यापि ततो बलिकीभूतो विहरति । गतं दौर्यल्यद्वारम् ।
९.
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सांप्रतमुत्तमार्थद्वारमाह
पडिवन उत्तमट्ठे, पडियरगा वा वसंति तनिस्सा | प्रतिपन्न उत्तमार्थो ऽनशनं येन स प्रतिपन्नोत्तमार्थः । स वा तस्य प्रतिचारकस्तन्निथा उत्तमार्थप्रतिपन्ननिश्राः, मासातीतं वर्षाकालातीतं वा तिष्ठन्ति । गतमुत्तमार्थद्वारम् ।
श्रधुना तरुणनिष्पत्तिद्वारमाह
थायपरे निष्फली, कुमायो वा वि अत्थेा ॥ ५६३ || श्रात्मनः परस्य च सूत्रार्थतदुभयेन निष्पत्ति कुर्वन्वा वृद्धावासेन तिष्ठेत् ।
कियन्तं कालमत ग्राहसंवच्चरं च स(झ) रए, बारस वासाह कालियसुयम्मि, सोलस य दिट्टिवाए, एसो उक्कोसतो कालो || ५६४ ॥ संवत्सरं यावत्कालिक भरत परावर्तयति ग्रह पुनः कालिकते। कालिकतस्य लगन्ति द्वादश वर्षाणि हटिया-दरियादमधिय पोडश वर्षाणि एप पतावान् आत्मपर निष्पत्तिमधिकृत्यैकत्रावस्थानस्योत्कृष्ठतः
कालः ।
एतदेव सुव्यक्तमाह
बारस वासे गहिए, उकालिये स(झ)रति वरसमेगं तु । सोलस उदिट्टिवाए, गहणं स ( झ ) रणं दस दुवे य ।। ५६५ || द्वादश वर्षाणि यावत् यत्परिपूर्णे गृहीतम् उत्कालिकश्रुतं तत् वर्षमेकं श (झ) रति - एकेन वर्षेण परावर्त्यते । ग्रहणमधिकृत्य दृष्टिवादे पोलिगन्ति श(क)रचित् पुनदेश द्वे च द्वाइस वर्षातीत्यर्थः । ततो ग्रहणं श(म)र वाधित्य तावन्तं कालमेकत्रावतिष्ठते ।
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बुड़ावास
अत्र पर श्राह
स ( झ )रए य कालियसुए, पुव्वगए जइ उ एोि कालो । यार (प) कप्पनामे,
कालच्छेदे उ कयरेसिं ॥ ५६६ ॥ कालिकधुते च पूर्वगते च श्रुते श(झ) रके चशब्दात् - प्राहके व यदि एतावान् कालो लगति तर्हि श्राचारप्रकल्पनासि निशीथेऽध्ययने योऽसौ कालच्छेदः कृतो यथा ऋतुबद्धे मासे मासमासितव्यं, वर्षासु चतुरो मासानिति स कतरेषां
दृष्टव्यः ।
सूरिराहसुतत्थ तदुभएहिं, जे उ समत्ता महिड्डिया थेरा । एएसि तु पकप्पे, भणितो कालो निययसुते ॥ ५६७॥ सूत्रार्थतदुभयैर्ये समाप्ता महर्द्धिकाः स्थविरा एतेषामाचारप्रकल्पे नैत्यिक सूत्रे भणितः कालो द्रष्टव्यः, न तु सूत्रार्थग्राहकाणामपि ग्रहणे श(झ) रणे च । तावानुत्कृष्टः कालो यथा लगन संभवति तथोपदर्शयतिथेरे निस्साणेणं, कारणजातेण एत्तियो कालो ।
(१४१६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जाणं पणगं पुण, नवगग्गहणं तु सेसाणं ॥ ५६८ ।। स्थविरे - जङ्घाबलपरिक्षीणे निश्रणेन-निश्रया कारणजातेन श्रात्मपरनिष्पत्तिलक्षणेन जातेन कारणेन एतावान्पूर्वोप्रमाण एकत्र स्थाने उत्कृष्टः कालो भवति । श्राचार्याणामाकाणां पुनर्वृद्धवासमावसन्तीनां पञ्चकं - क्षेत्रपञ्चकं भवति । तद्यथा-स बाह्य क्षेत्रे द्वौ भागौ बहिद्व भागावन्त एकः, एकैकस्मिंश्च क्षेत्रविभागे द्वौ द्वौ मासाववस्थानं पञ्चमो वर्षारात्र योग्यः क्षेत्रविभागः, शेषाणां साधूनां पुनः कारणवशत एकत्र स्थितानां नवकग्रहणं नवभिर्भागैः क्षेत्रकरणम् ।
इह ये जहाबलपरिक्षीणाः स्थविरास्तेषां समीपे आस्मरनिष्पत्तिमिच्छतां यादृशाः सहाया दातव्यास्तादृशानभिधित्सुराह
जे गिरिहउं धारयिउं व जोग्गा,
राख ते देति सहायहेउं ।
हंति ठाखठिया सुहेणं,
किच्चं च थेराय करेंति सव्वं ॥ ५६६ ॥ सूत्रमर्थे च ग्रहीतुं धारयितुं च योग्यास्तान्सहायकान् स्थविराणां ददति । ततस्ते स्थानस्थिताः कालिकतं, दृष्टियादं या सुखेन गृह्णन्ति कृत्यं च सर्वे स्थविराणां कुर्वन्ति । एवं तेषां ग्रहणे श (झ) रणे च पूर्वोक्त उत्कृष्टः काल एकश्रावस्थाने भवति । गतं तरुणनिष्पत्तिद्वारम् ।
अधुना क्षेत्राला भद्वारमाहश्रा (सञ) भव्व खेतकाले, बहुपाउग्गा न संति खेत्ता वा । निबं च विभत्ताणं, सच्छंदादी बहू दोसा ॥ ५७० ॥
बुि
श्रा(सद्य) भाव्य-प्रतीत्य क्षेत्रकालौ, तद्यथा-अन्येषु क्षेत्रेष्वशिवादीनि कारणानि, यदि नास्ति सांप्रतमन्येषु क्षेत्रेषु तादशः कालो येन संस्तरन्ति, अथ बहुप्रायोग्यानि महागणप्रायोग्यानि न सन्ति क्षेत्राणि, यदि पुनर्महतो गणस्य विभागः क्रियते ततो विभक्तानामद्याप्यपरिनिष्यन्नत्वेनागीतार्थानां नित्यमवश्यं स्वच्छन्दादयो दोषा भवन्ति । एतैः कारणैः ऋतुबद्धातीतं वर्षातीतं च कालमेकक्षेत्रे यतनया तिष्ठन्ति ।
अधुना कृतसंलेखद्वारम्, तरुणप्रतिकर्म्मद्वारं वाऽऽहजह चैव उत्तमट्ठे, कयसंलेहम्मि ठंति तह चैत्र । तरुणपडिकम्मं पुण, रोगविमुके बलविवड्डी ।। ५७१ ॥ यथा चैवमुत्तमार्थे प्रतिपन्ने तिष्ठन्ति तथा बैषं कृतसंलेखेऽपि तिष्ठन्ति । इयमत्र भावना-यथा प्रतिपश्चोत्तमार्थास्तत्प्रतिचारका वा तनिश्रया एकत्र वसन्ति एवं प्रतिपन्नसंलेखनास्तत्प्रतिचारकाश्चैतनिश्रा एकत्र स्थाने वसन्ति । तरुणप्रतिकर्म्म नाम - रोगविमुक्तस्य सतस्तस्य बलविवृद्धिकरणं तन्निमित्तं मालातीतं वर्षातीतं च कालं तिष्ठन्ति । व्य० ४ उ० | जी० । दर्श० । पं० भा० । श्रा० ० । बुड्डि-वृद्धि-स्त्री० । 'उहत्वाद' ॥ | १ | १३१ ॥ इति श्रुत उस्वम् । प्रा० । “ दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः ॥ ८२ ॥ ४०॥ इति संयुक्तस्य ढः । प्रा० । प्रति० । शरीरस्य वर्द्धने, स्था० ३ ठा० २ ० | सूत्र० । स्फीतौ, पञ्चा० ७ विव० आ० म० । वृद्धिहानौ दण्डकः
जीवाणं भंते! किं वति हायंति अवट्टिया १, गोयमा ! जीवा णो वडूंति नो हायंति अवट्टिया । नेरइया सं भंते ! किं वङ्कंति हायंति अवट्ठिया, गोयमा ! नेरइया बति वि, हायंति वि, अवट्टिया वि, जहा नेरइया एवं ० जाव वेमाणिया । सिद्धा यं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा व ंति, नो हायंति, अवट्टिया वि । जीवा णं भंते ! केवतियं कालं अवडिया [वि] १, सव्वर्द्ध, नेरइया सं भंते ! केवतियं कालं वङ्कंति १, गोयमा ! जहसेणं एगं समयं उकोसेणं आवलियाए असंखेजतिभागं, एवं हायंति । नेरइया णं भंते केवतियं कालं अवट्टिया १, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेयं चउव्वीस मुहुत्ता एवं सत्तसु वि पुढवीसु बङ्कंति हायंति भाखियव्वं । नवरं अवट्ठिएसु इमं नागतं तं जहा - रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, सकरप्पभाए पुढवीए चोद्दस रातिंदियाणं, वालु
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प्पभा पुढवीए मासं पंकप्पभाए पुढवीए दो मासा, धूमप्पभाए पुढवीए चचारि मासा, तमाए अट्ठ मासा, तमतमाए बारस मासा । असुरकुमारा वि वति हायंति जहा नेरइया, अवट्टिया जहसेणं एगं समय उनकोसे अत्तालीसं मुहुत्त । एवं दसविहा वि, एगिंदिया बडूंति विहायंति वि भवट्टिया वि, एएहिं तिहि बि जह
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(१५२०) अभिधानराजेन्द्रः।
बुहोवुद्धि मेणं एक समयं, उक्कोसणं भावलियाए असंखेजतिभाग, | तमासवर्षरूपस्य द्विगुणितत्वेऽपि संख्यातत्वमेवेस्थतः संवेइंदिया वटुंति हायंति तहेव, अवट्ठिया । जहमेणं एक्कं|
स्याता मासा इत्याद्युक्तम् , ' एवं गेषेज्जदेवाणं ' ति इह
यद्यपि प्रैवेयकाधस्तनत्रये संख्यातानि वर्षाणां शतानि मसमयं उक्कोसेणं दो अंतोमुहुत्ता, एवं० जाव चउरिंदि
ध्यमे सहस्राणि उपरिमे लक्षाणि विरह उच्यते तथाऽपि या, अवसेसा सव्वे वइंति हायंति तहेव । अचट्ठियाणं द्विगुणितेऽपिच संख्यातवर्षत्वं न विरुध्यते, विजयादिषु त्वखाणत्तं इम, तं जहा-समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया
संख्यातकालो विरहः स च द्विगुणितोऽपि स एव, सर्वार्थ
सिद्ध पल्योपमसंख्येयभागः सोऽपि द्विगुणितः संख्येयभाग णं दो अंतोमुहुत्ता; गम्भवकंतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, सं
एव स्यादत एवोक्तम्-'विजयवेजयंतजयंतापराजियाणं मुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालसिं मुहुत्ता, गम्भवतियम
असंखेजाई वाससहस्साई' इत्यादीति । श०५ श०८ उ० । गुस्साणं चउव्वीस मुहुत्ता, वाणमंतरजोतिससोहम्मीसा
वृद्धिकर-वृद्धिकर-त्रि०। वर्द्धनकारिणि, पञ्चा०४ विव० । खेसु अढचत्तालीसं मुहुत्ता, सणकुमारे अट्ठारसरातिदियाई
वृद्धिकज-वृद्धिकार्य-न०। पुत्रकार्यादिषु वृद्धिकर्तव्येषु, ध० चत्तालीस य मुहुत्ता, माहिंदे चउवीसं रातिदियाई वीस य
२ अधि०। मुहुत्ता,बंभलोए पंचचत्तालीसं रातिदियाई, लंतए नउति |
| बुविधम्मय-वृद्धिधर्मक-न० । वर्धनशीले जीववद्धशरीरे, रातिंदियाई,महासुके सद्धिं रातिदियसतं, सहस्सारे दो रा, |
| आचा०१ श्रु०११०५ उ०।। तिंदियसयाई,आणयपाणयाणं संखेजा मासा, मारणच्चु
| बुड़िपय-वृद्धिपद-न० । वृद्धिस्थाने, “धडा य गाणचरणे, या संखेजाई वासाई, एवं गेवेअदेवाणं विजयवेजयंतज- जम्हा तम्हा उ तेण वहिपदं । परं पहाणमेतं, सवेसि यंतभपराजियावं असंखिजाई वाससहस्साई, सव्वट्ठसिद्धे रायदेवाण" पं० भा०५ कल्प । य पलिमोवमस्स असंखेज्जतिभागो, एवं भाणियव्वं ,बुछोड़ि-वृद्धयपवृद्धि-स्त्री० । प्रतिमासे मुहूर्तानां चन्द्रमवइंति हायंति जहालेणं एकं समयं उक्कोसेणं प्रावलि- सो वृद्धयपवृद्धौ, सू०प्र०। (चन्द्रमसो वृद्धधपवृद्धी 'चंद' याए असंखेजतिभागं, अवट्ठियाणं जं मणियं । सिद्धा
शब्दे तृतीयभागे १०६ पृष्ठे गते।) सं भंते ! केवतियं कालं वर्दति ? , गोयमा ! जहएणे| ता कहं ते बद्धोवद्धी(वुड्डोवुड्डी)मुहुत्ताणं माहितेति वदेएकं समयं उक्कोसेणं अट्ठ समया, केवतियं कालं अव- आता अट्ठ एकूणवीसे मुहुत्तसते सत्तावीसं च सद्विभागे ट्ठिया ?, गोयमा ! जहम्मेणं एकं समयं उक्कोसेणं छम्मा-| मुहुत्तस्स माहितेति वदेजा । (सू०८) सा । (सू० २२२४)
'ता कहं ते वद्धोवद्धी मुहुत्ताण ' मित्यादि अत्र ताब
च्छब्दः क्रमार्थः, क्रमश्चायमस्त्यन्यदपि चन्द्रसूर्यादिविषय 'जीवाण' मित्यादि, 'नेरहया णं भंते! केवतियं काल
प्रभूतं प्रष्टव्यं, परं तदास्तां सम्प्रत्येतावदेव तावत्पृच्छामि । अवट्ठिया?, गोयमा ! जहन्नेणं पकं समयं उक्कोसेणं च
कथम्-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-त्वया मुहूर्तानां-दिउब्बीसमुहु' ति, कथम् !, सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादश मु- वसरात्रिविषयाणां वृयपवृद्धी आख्याते इति भगवान् इन् ियावन्न कोऽप्युत्पद्यते उद्वर्सते वा, उत्कृष्टतो वि
प्रसादमाधाय बदेत्-यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं कथयेत् , येन रहकालस्यैवंरूपत्वात् , अन्येषु पुनर्वादशमुहर्तेषु यावन्त मे संशयापगमो भवति, अपगतसंशयश्च परेभ्यो निःशङ्कउत्पद्यन्ते तावन्त एवोवर्सन्त इत्येवं चतुर्विशतिमुहूर्तान् मुपदिशामीति । अत्राह-ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरस्सयावसारकाणामेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृजिहाम्योरभाव र्वाक्षरसत्रिपाती सम्भित्रश्रोतास्सकलप्रशापरिक्षापनीयभावइत्यर्थः । एवं रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोदर्सनाविरहकाल
कुशलः सूत्रतश्च प्रवचनस्य प्रणेता सर्व्वदेशीय एवाउन चचतुर्विंशतिमुहर्तादिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु "सखाईए वि भवे,साहजं वा परोउ पुच्छेन्जानियणं प्रणाइसत्तुल्यस्य ममसंख्यानामुत्पादोर्चनाकालस्य मीलनाद् द्वि- सेसी, वियाणाई एस छउमत्थो ॥१॥" ततः कथं संशयसगुणितः समवस्थितकालोटचत्वारिंशन्मुहर्तादिकः सूत्रोको म्भवस्तदभावाच्च किमर्थ पृच्छतीति ?, उच्यते-यद्यपि भवति,विरहकाला प्रतिपदमवस्थानकालाईभूतः स्वयमभ्यू- भगवान् गौतमो यथोक्लगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि मव इति । 'एगिदिया वहति विसि तेषु विरहाभावेऽपि बहु
तिज्ञानावरणीयाधुदये वर्तमानत्वात् छन्मस्थता, छमस्थस्य तराणामुत्पादादल्पतराणां चोद्वर्तनात् , "हायंति वि' सि च कदाचिदनाभोगोऽपि जायते । यत उलम्-"महिना. बहुतराणामुद्वर्तनादल्पतराणां चोत्पादात् , 'अवट्ठिया वि' मानाभोग-श्छमस्थस्येह कस्यचिनेति । ज्ञानावरणीय हि, नि तुल्यानामुत्पादादुद्वर्तनाचेति । एतेहिं तिहिं वि' ति शानावरणप्रकृतिकर्म ॥१॥" ततोऽमाभोगसम्भवादुपपएतेषु त्रिवपि एकेन्द्रियवृद्धवादिष्वावलिकाया असंख्येयो चते भगवतोऽपि संशयः, न चैतदना, यत उलमुपासकश्रुते भागस्ततः परं यथायोगं वृद्धयादेरभावात् , 'दो अंतोमु- प्रानन्दश्रमणोपासकावधिनिर्णयविषय-'तेणं भंते! किं पारणंदुत्तचि एकमन्तर्मुह विरहकालो द्वितीयं तुसमानानामुत्पा- देणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स बालोइयव्यं० जाव पडिदोवर्सनकाल इति । 'आयपाल्याणं संखेज्जा मासा आ- कमियब्वं उयाहु मप?,ततो खंगोयमादि समणेभगवं महावीरखनुयाणं संखेज्जा घास'
सिपिरहकालस्य संख्या- रे गोयम एवं वयासी-तुमचेवणं तस्स ठाणम्स पालोएहि०
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नोव
जाव पडिक्कमाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमटुं खामेहि । तर ं समणे भगवं गोयमे ! समणस्स भगवश्रो महावीररस अंतिम एवम विसर पडि, पडसुखिता तस्ल डाणस्स आलोएड० जाय पडिक्रम, आनंद व समोवासयं एयमहं खामेइ' इति । अथवा - भगवान् श्रपगतशयोऽपि शिष्य सम्प्रत्ययार्थे पृच्छति, तथाहि--तमर्थ शिष्ये. भ्यः प्ररूप्य तेषां सम्प्रत्ययार्थ तत्समक्षं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति । यदि वा - इत्थमेव सूत्ररचनाकल्प इति न कविदोषः । एवं भगवता गौतमेन प्रश्न कृते सति भगवान् श्रीवर्तमानस्यामी प्रतिवचनमभिधातुकामः सविशेषधनाय प्रथमतो नक्षत्रमासे यावन्तो मुहर्त्ताः सम्भवन्ति तातो निरूपयति ता अडे' त्यादि, तावदिति शिष्योपदानुवादः, स च न्यायमार्गप्रदर्शनार्थम् । तथाहि सर्वेणापि गुरुणा शिष्येण प्रश्ने कृते सति शिष्यपृष्टस्य पदस्य अन्यस्य या शिष्योस्य तथाविधस्य पदस्य अनुवादपुरस्सरं प्रतियच ममभिधायं येन गुरुपु शिष्याणां बहुमानो भवति यथाऽदं गुरूणां सम्मत इति । शन्यच्च तावच्छब्दस्यायमर्थः - श्रास्तामम्यत्यतिक्रम्यमिदानीं तावदेव तवामे कथयामि एतस्मि
(१४२१) अभिधानराजेन्द्रः ।
मासे अमुतानि एकोनविंशानि - एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुद्रस्य सप्तविंशति सप्त भा मानदमाख्याता इति स्वयिभ्यो वदेत्। एतेन चैतदावे दयति-इह शिष्येण सम्यगधीतशास्त्रेणापि गुर्वनुज्ञातेन सता तस्योपदेशो ऽपरस्मै दातव्यो मान्यचेति । अथ कथमेकश्मिनक्षत्रमासे अटी शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः इति ?, उच्यते-ह युगे-चन्द्र- यन्द्रचन्द्राऽभिवर्द्धित-चन्द्राऽमिवर्द्धित-चन्द्रचन्द्राऽभिवर्द्धितरूप संवत्सरपञ्चकाऽऽत्म- वुत्तित्ता - उक्त्वा श्रव्य० । पदवाक्यादिकं भणित्वेत्यर्थे, स्था०
भ० ११ श० ११ उ० ।
,
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के सप्तपर्निक्षत्रमासाः युगे चोकस्वरूपे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते लब्धाः सप्तविंशतिर होरात्रा, शेषा तिष्ठति एकविशतिः सा मुनयमार्चागुते जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा नव मुहूर्त्ताः ६, शेषाऽवतिष्ठते सप्तविंशतिः । श्रागतं नक्षत्रमासः - सप्तविंशतिरोराणः नच मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, तत्र सप्तविंशतिरहोरात्रा मुहूर्त्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते जातान्यष्टौ शतानि दशोत्तरा१० तेषां मध्ये उपरितना नव मुहूर्त्ताः प्रचियन्ते जातान्यष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि, ८१६, श्रागतं नक्षत्रमासे मुहूर्त्तपरिमाणमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति । इदं नक्षत्रमासगतमुपरिमाणमुपलक्षणम् तेन सूर्यादिमासानामप्यहोरात्रसंख्यां परिभाव्य मुद्रपरिमाणं यथा35भावनीयम् । तचैवम् सूर्यमासा युगे षष्टिर्भवन्ति, युगे तातिभिराधिकान्यहोरात्राणम्, ततस्तेषां प या मागे हते सम्धाः त्रिंशददोरात्राः एकस्य बाहोराअस्वार्थम् एतावत्सूर्यमासंपरिमाणं त्रिमुहूर्नबाहोरात्र इति गुरुपले जातानि नय शतानि मुद्द नाम चाहोरात्रस्य पञ्चदश महनः। तत भाग
३५६
•
सीमंत
मासे मुहूर्त्तपरिमाणं नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ११५, तथा युगे द्वाषष्टिश्चन्द्रमासास्ततोऽष्टादशशतानां विंशदधिकानां द्वापष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशदडोरामा द्वात्रिंशच द्वापरिभागा अहोरात्रस्य तत्र द्वाविशद् द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य करणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि षष्ट्यधिकानि ६६० तेषां द्वाषया भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषा तिष्ठति त्रिंशत् ३०, एकोनत्रिंशश्चाहोरात्रा मुहूर्त्तकरणार्थ त्रिशता गुरुयन्ते जातान्यथे शतानि सप्तत्यधिकानि ८७० ततः पाश्चात्याः पञ्चदश मुहूर्त्ता एषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, तत भागतं चन्द्रमासे मुहर्त्तपरिमाणमही शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि विशथ द्वाष्टभागा मुहूर्त्तस्य कर्ममा त्रिशदहोरात्रप्रमाणस्ततस्तत्र मुहर्त्तपरिमाणं नव शतानि प रिपूर्णानि तदेवं मासगतं मुहूर्त्त परिमाणमुक्तम् तदनुसारेण च चन्द्रादिसंपत्सरगतं युगगतं च मुहूर्त्तपरिमाण स्वयं परिभावनीयम् । सू० प्र० १ पाहु० । बुत-उक्त-त्रि०" विषको परर्मनो दुध दुस- विचम् " ८ । ४ । ४२१ ॥ इति 'उक्त' शब्दस्य वुत्तादेशः । प्रा० । अभिहिते, सूत्र० १ ० १ ० ३ उ० । आचा० । नि० चू० । व्युक्त प्रि० विशेषेणोले, संचा० । - । वृत्तंत- वृत्तान्त-पुं० | " उहत्वादौ ” ॥ ८ । १ । १३१ ॥ इति ऋत उत्त्वम् । प्रा० । समाचारे, श्रा० म० १ ० ।
वृत्तपडिवुत्तिया उक्तप्रत्युक्तिका स्त्री० भतिप्रतिि
।
३ ठा० २ उ० ।
बुदगुल- बुद्गुड- पुं० । आई गुडे, वृ० २ उ० । बुन्न विषय- त्रि" विषयो-वर्मनो दुध बुरा विचम् " ॥ ८ | ४ | ४२१ ॥ विषष्ठस्थाने वुन्नादेशः । प्रा० । भीतोद्विग्नयोः, दे० ना० ७ वर्ग १४ गाथा । बुप्फ- देशी - शेखरे, दे० ना० ७ वर्ग ७४ गाथा । बुबावचा विवाप्य-अन्य० प्रवज्याभेदे खा० २ ठा०२ ४० । ( विशेषार्थस्तु ' पवज्जा ' शब्दे पञ्चमभागे ७३१ पृष्ठे गतः । ) वुसिय- व्युषित- पुं० । अनेकप्रकारं दशविधचक्रवालसामाचार्या स्थिते, सूत्र० १ ० १ ० ४ ३० ।
-
बुसी - वृषी- स्त्री० । व्युषन्तः सीदन्त्यस्यामिति वृषी । ऋषीणामासने, क० प्र० १ प्रक० । चारित्रे, सूत्र० १ ० १४० संविनि० ० १६ उ० ।
बुसीमंत वश्यवत् त्रि० श्यात्मा इन्द्रियाणि वा वा "नि विद्यन्ते येषां ते वश्यवन्तः 'वसंत वा साहुगुसी मंत, अदया सीमा संविग्गा तेखि वि उ०५० आत्मवशगेषु वश्येन्द्रियेषु, सूत्र० १० ८ अ० । तीर्थकृत्सु, सत्संयमवत्सु, सूत्र० १० ८ प्र० । पुं० । एकचत्वारिंशे म हाम्रो, स्था० २ ठा० ३ उ० । सू० प्र० । चन्द्रपुत्रे ज्योतिष्कभेदे, प्रज्ञा० २ पद ।
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सीमंत
(१४२२) अभिधानराजेन्द्रः।
बेउब्विय व्यवसिन-त्रि० । बुधरवकार्ययुक्त, " पठकः पाठकश्चैव, ये| द्विधा वेदिका बाहोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा ४ , एकतो चान्ये कार्यतत्पराः। सवै व्यसनिनो राजन् !, यःक्रियावान् वेदिका एकं जार्नु बाहोरन्तरे कृत्वेति ५, षष्ठी-प्रमादप्रत्युपेस पण्डितः॥१॥" स्था०४ ठा०४ उ० ।
क्षणेति प्रक्रमः । स्था०६ ठा०३ उ० । उत्त०। ओघ०। ध०। वृढ-व्यूढ-त्रिका नीते, दृ०३ उ०। 'ततो वंसी कुडंगोतं पुं० । उपवेशनयोग्यमत्तवारणेषु, जी. ३ प्रति०४ अधिक। बूढो,' प्रा०म०१ अ०।
वेड्यापुड-वेदिकापुट-न० । वेदिकायुग्मे , जी० ३ प्रति०४ वृणक-देशी-पुत्रादौ वालके, व्य० २ उ० ।
अधिक। वदल (न)-व्यदल-पुं० । महोवाग्रामजे माहाभ्रातरि वेड्यापुडंतर-बेदिकापुटान्तर-न। द्वयोर्वेदिकयोरपान्तराले, प्रसिद्ध वीरे, ती० ३३ कल्प।
जी०३ प्रति०४ अधिक। बह-व्यूह- पुंग। स्थाणुरेवाऽयमिति निश्चये,मा०१ श्रु०१ अगवेइयाबद्ध-वेदिकाबद्ध-न० । दशमे बन्दनदोषे, पृ०। दशम इदमित्थमेवरूप निश्चये, औ०। संयोगगिशेषे , सम्म०३ दोषमाह-"पंचेव घड्याउ" ति, जानुनोरुपरि हस्तौ निकाण्ड । युयुत्सूनां सैन्यरचनायाम् , यथा चक्रव्यूहे चक्रीकृ
वेश्याधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा एकं जानु दक्षिणं वा तो तुम्बारकप्रध्यादिषु राजन्यस्थापना । जं० २ वक्षारा। वामं वा करद्वयान्तः कृत्वा वन्दनकं यत्र करोति तद्वेदिकाबनि०चू० । स्था० स०) समुदाये, शा०१७०१ श्र०ा प्रश्न खम् । ०३ उ०। वे-वै-श्रव्य० । अवधारणे, प्रा० म०१०। निश्चये, कल्प० | वेइल-विचकिल-पुं०"स्थविर-विचकिलायस्कारे" ॥८॥ १अधि०६ क्षण।
१६६ ॥ इत्यादेः खरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सहैत् । प्रा० । वेअड-खच-धा० । बन्धने, चुरा० । अदन्तः । “खचेर्वेश्रड' | तैलादित्वालद्वित्वम् । मदनवृते, प्रा०२ पाद । 1८11८६ ॥खचेर्वेअडादेशः। वेअडइ । खचयति । प्रा०1 वेउब्धिय-वैक्रिय-न०। कर्म० । विविधा विशिष्टा वा क्रिवेअड-देशी-भल्लातके, दे० ना०७ वर्ग ६६ गाथा। या विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् । तथाहि-तदेकं भूत्वाउने वेइजमाण-वेद्यमान-त्रि०। अनुभूयमाने कर्मणि, भ० । 'बेह- भवति अनेकं भूत्वा एकम् ,अणु भूत्वा महद्भवति महद्भूत्वा जमाणे वेइए 'वेदनं कर्मणामनुभव इत्यर्थस्तच्च वेदनं स्थि- अणुः, तथा-खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति भूचरं भूत्वा खचरतिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य
म् , अदृश्यं भूत्वा रश्यं भवति दृश्यं भूत्वा अदृश्यमित्यादि।
शरीरभेदे कर्म०१ कर्म०। भवति । तस्य च वेदनाकालस्याऽसंख्येयसमयत्वादायसमये घेद्यमानमेव वेदितव्यं भवतीति । भ०१श०१3०।
वैकुर्विक-न। विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति बैकुम्चिकं पृषोदराव्यज्यमान-त्रिका कम्पिते, व्यजितं कम्पितम् । एज'कम्पने, दित्वावभीष्टरूपसिद्धिः। कर्म०१ कर्म०। शरीरभेदे . प्रश्न इति वचनात् । भ०१ श०१ उ०। (व्येजनमपि तपापे
३ आश्रद्वार । जी०। प्रशा। स्था। अनु। प्राय। क्षयोत्पाद एवेति 'कजकारणभाव' शब्दे तृतीयभागे १६६ । कइविहे णं भंते ! वेउब्वियसरीरे पामते, मोयमा! पृष्ठे व्याकृतम् ।)
दुविहे परमत्ते, एगिदियवेउब्बियसरीरे य, पंचिंदियवेउवेइत्थी-वेदखी-स्त्री०। पुरुषाभिलाषरूपे स्त्रीवेदोदये, सूत्र०१
ब्वियसरीरे अ। एवं • जाव सणंकुमारे पाढतं. जाव श्रु०४०१ उ०।
अणुत्तराणं भवधारणिजा. जाव तेसिं रयणीरयणी पवेहय-वेदित-त्रि० । कथिते, प्राचा०१ श्रु०२ १०३ उ०।।
रिहायइ । (सू० १५२४) स्वेन रसविपाकेन प्रतिसमयमनुभूयमाने अपरिसमाप्त शेपानुभावे, भ०१ श०१ उ०।
'काबिहे ण ' मित्यादि स्पष्टं , नवरं विविधा विशिवैदिक-पुं० । बेदे विदिता वैदिकाः । विद्यवृद्धेषु , दश०४
टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् । विविध विशिष्ट अ०प्राचा० । वैदिकानां हिंसैव गरीयसी धर्मसाधनयो
वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति । वा । तत्रैकेन्द्रियबक्रिय
शरीरं वायुकायस्य पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं नारकादीनाम् पदेशात् तस्य च तया विनाऽभावात् । सूत्र०२७०२ अन
'एवं जावे' स्यादेरतिदेशादिदं द्रष्टव्यम् , यदुत 'जा पगिवेदाश्रिते, स्था०३ ठा०३ उ०।।
दियवेउब्वियसरीरए किं वाउकाइयएगिदियवेउब्वियसरीव्येजित-त्रि० । विशेषतः कम्पिते , जं.१ वक्षः। जी०। ।
रए अवाउकास्यएगिदियवेउब्धियसरीरए !, गोयमा! वावेडया-वेदिका-स्त्री० । देवार्चनस्थाने , नि०। जम्बूद्वीपजग- उकाइयएगिदियसरीरए नो अवाउकाइय' इत्यादिनाऽभित्यादिसम्बन्धिनीषु , प्रशा०२ पद । (वेदिकाप्रमाणं तु 'पु- लापेनायमों श्वः । यदि वायोः किं सूक्ष्मस्य बादरस्य क्वरवरदीवह' शब्दे पञ्चमभागे ६६६ पृष्ठे द्रष्टव्यम् ।) उपवे- वा?, बादरस्यैव । यदि बादरस्य किं पर्याप्तकस्याऽपर्याप्तशनयोग्यासु भूमिषु , जं०२ वक्षः। (जम्बूद्वीपादीनां वेदि- कस्य या', पर्याप्तकस्यैव । यदि पञ्चेन्द्रियस्य किं नारकाः 'पउमवरवेश्या' शब्दे पञ्चमभागे १५ पृष्ठे गताः।)सुण्डा कस्य पश्चेन्द्रिपतिरको मनुजस्य, देवस्य वा, गौतम ! प्राकारे, स्था०३ ठा०३ उ०। प्रत्युपेक्षणाप्रकारे, स्था। सर्वेषाम् । तामारकस्य सप्तविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च । बेदिका पश्चप्रकारा-तत्र ऊर्ध्ववेदिका यत्र जानुनोरुपरिह- यदि तिरबा लिम्बूर्छिमस्य इतरस्य वा', सरस्व, स्तौ हत्या प्रत्युपेक्षते १, अधोवेदिका जानुनोरधो हस्ती नि- तस्यापि समातबर्वायुष एव पर्याप्तस्य , तस्यापि जवेश्य २, एवं तिर्यग्वेदिका जानुनोः पार्श्वतो हस्तौ नीत्वा ३, । लचरादिभेदेमालवियस्यापि । तथा मनुष्यस्य गर्भजस्यैव
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(१४२३) घेउब्धिय अभिधानराजेन्द्रः।
वेउब्दियलद्धि तस्यापि कर्मभूमिजस्यैव, तस्यापि संख्यातवर्षायुषः पर्या- यभागवयंसंख्येयश्रेणीनां यः प्रदेशराशिस्तसंख्यानि संसकस्यैव । तथा देवस्य भवनवास्यादेः, तत्रासुरादेर्दश- भवन्ति , मुक्तानि यथौदारिकाणि तथैव । अनु । शरीरषिधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, एवं व्यन्तरस्याष्टविधस्य तद्वतोरभेदोपचारान्मत्वर्थीयलोपाद वा वैक्रियशरीरवति ज्योतिकस्य पचविधस्य । तथा यदि वैमानिकस्य किं जीव,विशे० । 'विकु विक्रियायामिति धातुगणे धातुः, हलकल्पोपपत्रस्य, कल्पातीतस्य ?, उभयस्यापि पर्याप्तस्या-1 चेति पत्रि। विकुर्वण विकुर्वस्तेन चरतीति ठकि ठस्येक' इति पर्याप्तस्य चेति । तथा वैक्रिय भदन्त ! किंसंस्थितम् । इकादेशे च वैकुर्विकः । प्रव०१द्वार। वैक्रियलब्धिमति मउच्यते-नानासंस्थितम् , तत्र वायोः पताकासस्थितं, नारका-| नुष्ये, वातादिविक्रियविशेषान्महाप्रमाणे सागारिके, महाराणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थितं, पश्चेन्द्रियति- ट्रविषये वेराटकप्रक्षेपेण विकृते सागारिके , ०१ उ. र्यग्मनुष्याणां नानासंस्थितं,देवानां भवधारणीयं समचतुरस्र- | ३ प्रक० । नि० चूछ । भोगाद्यर्थ निष्पादिते विमानभेदे, स्था० संस्थानसंस्थितमुत्तरवैक्रियं नानासंस्थितं, केवलं कल्पाती- ३ ठा० ३ उ०। विकते, स्था० ३ ठा०३ उ० । विशे। तानां भवधारणीयमेव । तथा वैक्रियशरीरावगाहना भद-| वेउब्वियंगोवंगणाम-वैक्रियाङ्गोपाङ्गनामन-त्रिका अनोपानन्त ! किंमहती?, गौतम! जघन्यतोऽकुलासंख्येयभागमु- नामकर्मभेदे, यदुदयाद वैक्रियशरीरत्वेन परिणतानां पुद्रला. त्कर्षतः सातिरेक योजनलक्षम् , वायोरुभयथा अकुलासं- नामकोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तक्रियाङ्गोपाङ्गनाम । ख्येयभागम् , एवं नारकस्य जघन्येन भवधारणीयम् , उ-| कर्म०६ कर्मः। त्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि , एषा च सप्तम्यां , षष्ठयादिषु वेउब्बियछक-वैक्रियषटक-न० । देवगतिदेवानुपूर्वीनरकगत्वियमेव अर्वार्द्धहीनेति, उत्तरवैक्रिया तु जघन्यतः सर्व- तिनरकानुपूर्वीवैक्रियशरीरक्रियाोपामिति वैकियोपलषामायकलसंख्येयभागमुत्कर्षतश्च नारकस्य भवधारणीय- तिते पटे कर्मकर्मका दिगणति । पञ्चेन्द्रियतिरश्चां योजनशतपृथकत्वमुत्कर्षतः, | वेउब्वियऽग-वैक्रियाष्टक-मादेवगतिदेवानुपूर्वीदेवायुर्नर. मनुष्याणां तूत्कर्षतः सातिरेक योजनानां लक्षं, देवानां
कगतिनरकानुपूर्वीनरकायुर्वैक्रियशरीरवैक्रियाहोपाङ्गोपलत लक्षमेवोत्तरवैक्रियं, भवधारणीया तु भवनपतिव्यन्तर- क्षितेऽष्टके, कर्म०१ कर्म। ज्योतिष्कसौधम्र्मेशानानां सप्त हस्ताः, सनत्कुमारमाहेन्द्र-वेरखियणाम-वैक्रियनामन-न। वैक्रियनिबन्धनं नाम वैयोः षद् , ब्रह्मलान्तकयोः पञ्च, महाशुक्रसहनारयोश्चत्वारः,
क्रियनाम । यदुदयवशात् वैक्रियशरीरप्रायोग्यान पुद्गलानापानतादिषु प्रयो, अवेयकेषु दयनुत्तरेग्वेक इति । अनन्तरोज सूत्रमेवाह-' एवं० जाव सणंकुमारे' त्यादि, एव
दाय वैक्रियशरीररूपतया परिणामयति, परिणमय्य च जी
वप्रदेशैः सहाऽन्योऽन्यानुगमरूपतया संबन्धयति, तथाभूते मिति-'दुविहे पत्रले पगिदिय' इत्यादिना पूर्वदर्शितकमेण प्रज्ञापनोक्नं वैक्रियावगाहनामानसूत्र वाच्यम्। कियद्
नामकर्मभेदे, कर्म०१ कर्म। .
| वेउव्वियदुग-वैक्रियद्विक-न० । वैक्रियशरीरवैक्रियानोपानदूरमित्याह-यावत्सनत्कुमारे प्रारब्धं भवधारणीयवैकि- वन यशरीरपरिहाणिमिति गम्यम् , ततोऽपि यावदनुत्तराणि- मात वाक्रयापलाक्षत द्वय, कम०१ कमे। अनुत्सरसुरसम्बन्धीनि भवधारणीयानि शरीराणि यानि भ- वजाब्वयपरदारगमय-वक्रियपरदारगमन-न०देवानागवन्ति तेषां रत्नी रतिः परिहीयत इति ,पतदर्थसंत्रं भवे| मने, आव०६अ। त तावदिति । पुस्तकाम्तरे विदं वाक्यमन्यथाऽपि श्यते, वेउब्वियमीससरीरकायप्पभोगक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग तत्राप्यक्षरघटनैतदनुसारेण कार्येति । स० १५२ सम। पुं०। देवनारकेषु उत्पद्यमानस्यापर्याप्तकस्य कायप्रयोगे, वैप्रशाणसूत्रा(सूत्राणि 'ओगाहणा' शब्दे तृतीयभागे ७८ पृष्ठे| क्रियशरीरस्य कार्मणेनैव लब्धिः ,वैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकउकानि।)
प्रवेशाऽद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौ केवडमाण भंते ! वेउब्वियसरीरा पत्ता १. गोयमा!| दारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रता इति । भ०८ श०१ उ०। दुविहा परमत्ता, तं जहा-बद्धेवया य, मकेचया य । तत्थ | वेउब्धियलद्धि-वैक्रियलन्धि-स्त्री०। वैक्रियशरीरकरणशक्ती, णं जे ते बद्ध्वया ते णं असंखिजा असंखेजाहिं उस्स
साचानेकधा-अणुत्वरमहत्त्वरलघुत्वश्गुरुत्वत्प्राप्तिश्प्राका
म्येशित्व वशित्वाऽप्रतिघातित्वाऽन्तर्धान१०कामरूपिप्पिणीमोसप्पिणीहिं भवहीरंति कालो, खेत्तो-असं
त्वादिभेदात्। तत्राणुत्वम् अणुशरीरविकरणम्,येन विसच्छिद्र खिजामो सेढीनों पयरस्स असंखेजहभागो। तत्थ णं जे ते मपि प्रविशति तत्रच चक्रवर्तिभोगानपि भुस॥महत्त्वम्-मेमुकेशया तेसं अशंतामणंताहिं उस्सप्पिणीभोसप्पिणीहिं
रोरपि महत्तरकशरीरकरणसामर्थ्यम्॥शालघुत्वम्-थायोरपि भवहीरति कालभो , सेसं जहा पोरालिअस्स मुक्केन्छया
लघुतरशरीरता ॥३॥ गुरुत्वम्-बज्रादपि गुरुतरशरीरतया
इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलैर्दुःसहता ॥४॥ प्राप्तिभूमिष्ठस्य तहा एए वि भाखिभन्या ।
अकुल्यग्रेख मेरुपर्वतप्रभाकरादिस्पर्शसामर्थ्यम् ॥५॥ प्राकातब नारकदेवानामेतानि सर्वदैव बज्ञानि संभवन्ति, म-1 म्यम्-अप्सु भूमाविव गमनशक्ति,तथा अपिच-भूमावुन्मखनुष्यतिरश्चां तु वैशियलम्धिमतामुत्तरवैक्रियकरणकाले-त- ननिमजने ॥६॥ ईशित्वम्-त्रैलोक्यस्य प्रभुना तीर्थकरत्रिदशेतः समान्येन चतुर्गतिकानामपि जीवानाममूनि बद्धाम्य- श्वरऋद्धिविकरणम्॥७॥ वशित्वम्-सर्वजीववशीकरखलसंस्थयानि लभ्यन्ते, तानिब काखतोऽसंख्ययोत्सर्पिण्य- धिः॥ अप्रतिघातित्वम्-अग्निमध्येऽपि निःसजगमनम् बसर्पिणीसमयराशिवल्यानि, क्षेत्रतस्तु पूर्वोक्रपतरासंख्ये- अन्तर्वानम्-अदृश्यरूपता १० कामरूपित्वम्-युगप
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( १४२४ ) अभिमानराजेन्द्रः ।
बेब्बद्धि
देव नानाकाररूपविकरणशक्तिः ॥ ११ ॥ २६ ॥ ग० २ अधि० । पा० ॥ श्र० ।
वेव्वयसमुग्धाय - वैक्रियसमुद्धात पुं० । वैक्रिये प्रारभ्यमाये समुद्घातो वैकियसमुद्घातः, पं० सं २ द्वार । रा० । वैक्रियग्धिमतो वैक्रियोत्पादनाय बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपे, आचा० १ थु० २ अ० १ उ० | हा० । वैक्रियसमुद्घातगतः पुनर्जीवः स्वप्रदेशान् शरीराद्वहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भवाद्दल्यमानमायामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्रावच्छातयति । तथा चोक्तम् - " वेउब्वियसमुग्धापणं समो हण समोहणिता संखेजाई जोयणाई दंड निसरह निसिरिता अद्दाबायरे पुग्गले परिसाडेद्द” इति । प्रशा० १२ पद । सघातो जहा कसायसमुग्धातो तहा निरवसेसो भाणितव्वो, नवरं जस्स नऽत्थि तस्स न वुश्च्चति, एत्थ वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा । (सू० ३३५x) 'वि' इत्यादि, वैक्रियसमुद्घातो यथा कषायसमुद्घातः प्राक् प्रतिपादितः तथा निरवशेषो भणितव्यः, केवलं यस्य वैक्रियसमुद्घातो नास्ति वैक्रियलब्धेरेवासम्भवात् तस्य नोच्यते, शेषस्य उच्यते । स चैवम् - एगमेगस्स गं भंते! रस्स नेरहयते केवइया वेउब्वियसमुग्धाया श्रतीता?, गो. यमा ! अंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सर प्रत्थि कस्सर नऽत्थि, जस्स अस्थि जहमें एक्को वा दो वा तिथि वा उक्कोसेणं सिय संखेज्जा वा सिय श्रसंखेज्जा वा सिय श्रणंता वा । एगमेगस्स ं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया बेव्वियसमुग्धाया श्रतीता ?, गोयमा ! श्रणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सर नऽत्थि, जस्सत्थि सिय संखिया सिय असंखिजा सिय अरांता वा एवं नेरइयस्स० जाव थणियकुमारते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविकाइयत्ते केवइया वेउब्वियसमुग्धाया - तीता ?, गोयमा ! नउत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! नऽत्थि, एवं० जाव उक्काश्यते, एगमेगस्स गं भंते नरइयस्स वाउकाइयते केवइया वेडब्बियसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा अता, केवइया पुरेकखडा ? गोयमा ! कस्सइ श्रत्थि, कस्सइ नऽत्थि, जस्सऽत्थि जहरणेग एकको वा दो वा तिरिण वा उक्कों संखेज्जा वा श्रसंखेज्जा वा श्रता था, वणस्सइकाइयते० जाव चउरिदियत्ते जहा पुढविकाइयते, तिरिक्खपंचिदियत्ते मनुस्सत्ते जहा घाउकाइयसे, घाणमंतरजोइसियवेमाणियत्तेसु जहा असुरकुमारते " इह यत्र बैंकियसमुद्घातसम्भवस्तत्र भावना कषायसमुघातवद् भावनीया, अन्यत्र तु प्रतिषेधः सुप्रतीतः वैकिलब्धेरेवासम्भवात् यथा च नैरयिकस्य चतुर्विंशतिदएडकक्रमेण सूत्रमुपदर्शितमेवमसुरकुमारादीनामपि चतुर्विशतिदडकक्रमेण प्रत्येकं सूत्रमवगन्तव्यम्, नवरमसुरकुमारादिषु स्तनितकुमार पर्यवसानेषु व्यन्तरादिषु स परस्परं स्वस्थाने एकोतरिका परस्थाने संख्येयाइयो वक्तव्याः, वायुकायिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येषु तु परस्परं स्वस्थाने परस्थाने वा एकोतरिकाः शेषं तथैव । एव
बेजयंत
मेतान्यपि चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति । तथा वाह' एवमेते चडवीसं चवीला दंडा भणितब्बा' एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण अत्रापि - वैक्रियसमुद्घातविषयेऽपि चतुर्विंशतिः - चतुर्विंशतिसंख्याः' चवीसा' इति चतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिस्थानपरिमाणा दण्डका - दण्डकसूत्राणि भणितव्याः । प्रज्ञा० ३६ पद । वेउन्वियसय- वैक्रियशत- न० । वैक्रियलब्धिमति शते, स
६०० सम० ।
वेउव्वियसरीर वैक्रियशरीर- न० । शरीरभेत्रे, कर्म० ५ कर्म०। वेउब्वियसरीरकायप्पयोग- वैक्रियशरीरकायप्रयोग-पुं० । वैक्रियपर्याप्तस्य कायप्रयोगे, भ० ८ श० १ उ० । वेउव्वियसरी रि-वैक्रियशरीरिन्- त्रि० । विभूषितशरीरे, २०१८ श०५३०। ('वग्गणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७८६ पृष्ठे व्याख्यातम् ।) वेउब्विया-वैकुर्विका--स्त्री० । विकुर्वितनानारूपधारिण्याम्,
चं० प्र० १६ पाहु० ।
|
वेकुंठ - वैकुण्ठ - पुं० । विकुण्ठास्य विष्णुलोकाधिपतौ प्रा० १पाद । वैकुंठतित्थ - वैकुण्ठतीर्थ- न० । मथुरायां वैष्णवतीर्थभेद, ती०
८कल्प ।
वेकुंथु-वैकुन्धु-पुं० । चमरसुरेन्द्रस्य पीठानीकाधिपती, स्था०
५ ठा० १० ।
वेग-वेग- पुं० । जवे, तं० । प्रश्न० । गतिविशेषे, औ० । रये,
आव० ४ अ० । सम्म० ।
वेगच्छ वैकक्ष- न० । उत्तरासङ्गे, उपा० २ श्र० । वेगच्छछिएणग-वैकच्छच्छिमक-पुं० । उत्तरासङ्गन्यायेम विदारिते श्र० । सूत्र० ।
वेगच्छिया वैकचिकी - स्त्री० । संयतीनामुपकरणविशेषे, वृ० १ ३०२ प्रक० । “वेगच्छिया उ पडे कंचुकमुक्कच्छ्रियं च छादेति" औपकक्षिकीविपरीतो वैकक्षिकीनामकः पटः स च कञ्चुकमौपकक्षिकीं वस्त्रं छादयन् वामपार्श्वे परिधीयते । बृ० ३ उ० | पं० व० । नि० चू० । वेगवई - वेगवती स्त्री० । अस्थिकप्रामस्य समीपनद्याम्, ती० ३ कल्प । श्रा० क० । श्रा० म० । श्रा० चू० ।
वेगसर- वेगसर - पुं० । अश्वतरे, स्था० ३ ठा० ४ ० । बेगुस - वैगुण्य- न० । वैधर्मे, विपरीतभावे, नाव० ४ अ० । बेजयंत- वैजयन्त--पुं० । ऊर्ध्वलोकेऽनुत्तरोपपातिकविमानानां द्वितीये विमाने, स्था० ५ ठा० ३ उ० । जी० । प्रज्ञा० । अणु० । स० । जम्बूद्वीपस्य लवणसमुद्रस्य धातकीखएडस्य कालोदस्य पुष्करवरद्वीपस्य पुष्करोदस्य च दक्षिगद्वारेषु, स्था० ४ डा० २७० । स० । वैजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाह
कहि णं भंते ! जंबूदीवस्स वेजयंते खामं दारे पत्ते १ गोयमा? जंबूदीने दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाधाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरंते लवणसमुद्ददाहिणा उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीव
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( १४२५ ) अभिधानराजेन्द्रः 1
बेजयंत
स्स वेजयंते णामं दारे पत्ते । श्रट्ट जोयणाई उड्ड उच्चचेयं सच्चैव सव्वा वचव्यता जाव थिये । कहि खं मंते ! ० रायहाणी १, दाहिणे सगं ० जाव वेजयंते देवे ॥ २ ॥ जी० ३ प्रति० २४०
वैजयन्तद्वारं जयन्तद्वारवद्वाच्यम्, “समं जयंत पि अप्पडिजे में लवणस्स दाहि राहाणी" ( जी० ।) “ कहि णं भंते " ! इत्यादि क भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशप्ते,भगवानाह - गौतम ! लवणसमुद्रस्य दक्षिणपर्यन्ते धातकीटद्वीपास्वोसरतोऽत्र लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशप्तम् । एतद्वक्तव्यता सर्वाऽपि विजयद्वारबदवसेया नवरं राजधानी वैजन्तद्वारस्य दक्षिणतो वेदितव्या । जी० ३ प्रति० २ उ० । जं० । प्रधाने, स्वगुणैरपरेषां पताकायामिव व्यवस्थिते, सूत्र० १
श्रु० ६ ० ।
वैजयंतकुड वैजयन्तकूट १० जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे - । रुचकवरपर्वतस्यार्द्धकूटे, स्था० ८ ठा० ३ उ० । बेजयंती- वैजयन्ती स्त्री० [अङ्गारकादीनां महाप्रहाणामत्रमहिष्याम्, स्था० ४ ठा० १ उ० जे० । पताकायाम्, सूत्र० १ श्रु० ६ ० | चं० प्र० । पताकाविशेषे, शा० १ श्रु० १ ० । रा० आ० म० प्रश्न० प्रा० चू० स० पूर्वरुचकवास्त व्यायां स्वनामख्यातायां दिक्कुमार्याम्, ति० । स्था० आ०म० दो वेजयंती (सूत्र ६२) स्था० २ ठा० ३ उ० ।
श्रा०क०| जं० | द्वी० | रुचकस्य नैर्ऋत कोणदेव्याम्, ति श्रौ. सराहाञ्जनादिपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि नन्दापुष्करिल्याम्, स्था० ४ ठा० २ उ० | ती० । पश्चिमाञ्जनाद्रेर्दक्षिणतो न दापुष्करिण्याम् द्वी० शक्रस्य प्रायखिंशोत्पातपर्वतराजधान्याम्, द्वी० 1 पक्षस्य पञ्चदश्यां रात्रौ ज्यो०४ पाहु० जं० ॥ कल्प० । जम्बूद्वीपे द्वीपे प्रथमबलदेवमातरि, स० । षष्ठजिमनिष्कम शिविकायाम्, स० ।
पेज-वेद्य त्रि० अनुभावनीये (प्राचा० १०५०४ उ० ।) तस्व, अने०४ अधि० । मले, वक्खहं ति वा चोां ति वा कलुसं ति वा वेळं ति वा वेरं ति वा पंको ति वा मलो सिवा सत्त एगट्टिता नि० ० २० उ ।
वैद्य - पुं० । " ऐत पत् " ॥ ८ । १ । १४८ ॥ इत्यैकारस्य एकारः । प्रा० । आयुर्वेदशे, आ० क० ।
अत्र वैद्येन दृष्टान्तः "एकस्य नृपतेरेक तनुजोऽतीव पक्षभः ।
दध्यौ माऽस्य रोगोऽभू-श्चिकित्सां कारयामि तत् ॥ १ ॥ कार्य वैद्यानूचे स चिकित्सत सुतं मम । यथाऽस्य नैव रोगः स्या-दूचिरे तैः करिष्यते ॥ २ ॥ राजोचे कीरशाः कस्य, योगा एकोऽवदत्ततः । रोगाः स्युश्चेन्निवर्त्तन्ते, न स्युश्चेन्मारयन्ति तम् ॥ ३ ॥ द्वितीयः स्माह रोगश्चेद्भवेत्तदुपशाम्यति । नोवेदं गुणं वा दोषं वा न किंचिदपि कुर्वते ॥ ४ ॥ तृतीयोऽभिदधे रोगः स्याचेत्तदुपशाम्यति । न स्याच्चेद्वर्णलावण्य-तथा परिणमन्ति ते ॥ ५ ॥ ३५७
बोटम
राहा दुतीयन, कारिता वैद्यकक्रिया । नीरोगः समभूद्दिव्यरूपलावरायचा ॥ ६ ॥ एवं प्रतिक्रमणेऽपि स्वादोषद्विशुध्यति ।
न स्याश्चैश्चरणस्यैव, शुद्धिः शुद्धितरा भवेत् ॥ ७ ॥” आ० क० ४ श्र०
वेजगणा (पा) य वैद्यकज्ञात न० आयुर्वेदोदाहरणे, पञ्चा० ४१ विव० ।
9
वेजमाण - वेद्यमान- त्रि० । अनुभूयमाने, विशे० । वेजसंवेज - वेद्यसंवेद्य - त्रि० । वेद्यं संवेद्यते यस्मिन्नपायादिनिबन्धनं परं तद् वेद्यसंवेद्यपदम, वेद्यं वेदनीयं वस्तुस्थित थाभावयोगिसामान्येनाविकल्पकज्ञानग्राहामित्यर्थः संवेद्यते क्षयोपशमानुरूपं निश्चयबुद्धधा विज्ञायते यस्मिन्नाशयस्थाने पायादिनिबन्धनं नरकखर्गादिकाररुपादितसंवेद्यपदम् अपायादिनिबन्धवेदके, नपुं० । ग्रन्थिभेदजनितेरुचिविशेषे च । द्वा० २२ द्वा० । बेडुगम-वेष्टनक- ५० श्रीदेवताच्यासितपट्टे ०६० भरणविशेषे, ०२ चक्ष० । वेगगबद्ध-वेष्टनकपद्ध-पुं० श्रीदेवताध्यासितपट्टी येनक उच्यते, तद्यस्य राज्ञाऽनुज्ञातं स वेष्टनकबद्धः । श्रेष्ठिनि वृ०
। क
६ उ० ।
1
बेड ग्रीड - त्रि० मीडा स्पास्तीति मीडः भूमार्थेऽस्त्यर्थमत्ययः । लज्जाप्रकर्षवति भ० १५ श० । वेडा - व्रीडा- स्त्री० । लज्जायाम, भ० १५ श० । वेडंबय-विडम्बक- पुं० । विदूषके, नानावेषादिकारिणि, अनु० |
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वेडिस - वेतस - पुं०। 'इ: स्वप्नादौ” || १ | ४६ ॥ इत्यत इत्त्वम् । “इवे वेतसे" ॥ ८ । १ । २०७ ॥ वेतसे तस्य डो भवति इत्वे सति । इति तस्य डः । वेत्रे, प्रा० १ पाद । वेद-वेष्टधा वेष्टने, ""४२२१ ॥ इति कृतलोपस्य वेष्टधातोरन्त्यस्य ढः । वेढइ । प्रा० । वेष्टयते कोशिकारकीट इव । प्रश्न०३श्राश्र० द्वार । वेदिजइ । पो" वेष्टेः परिचालः ॥ ८ । ४ । २१ इति परिवालादेशे - परियाले वेढे । वेष्टयति । प्रा० ४ पाद ।
वेष्ट - पुं० । वेष्टने, स्था० ४ ठा० ४ उ० । छन्दोविशेषे, नं० । एकार्थप्रतिबद्धवचनसंकलिकायाम्, स० । वेद-वेष्टक - पुं० । एकवस्तुविषयपदपद्धती, शा० १ ० १६ अ० । वर्णनार्थायां वाक्यपद्धती, शा० १ ० १६ अ० । निक्षेपनिर्युक्त्युपोद्घातनिर्युक्तिलक्षणे सूत्रव्याख्याने, अनु० । वेदिम-वेष्टिम-१० वेष्टनं वेष्टस्तेन निर्वृतं वेष्टिमम् । स्था०४ ठा० ४ ४० । वेष्टननिष्पत्रे पुष्पलम्बूसकादी २०६० ३३ उ० | रा० । शा० । आचा० । दश० यद् प्रथितं वेष्टयते यथा पुष्पलम्बूकः मेन्दुक इत्यर्थः । ज्ञा० १ श्रु० १ ० पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्ने आनन्दपुरादिप्रतीतरूपे एकं दोश्रीणि उत्थापिते रूपके, अनु०नि०चु० वस्त्रादिनिर्वर्तितपुतलिकादिके, श्राम्रा०२५०२चू ५ ० । पुष्प. मुकुट उपर्युपरि शिखरीकृत्य मालास्थापने, जी० ३ प्रति०
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(१४२६) बोटिम अभिधानराजेन्द्रः।
वेणइया अधिका('श्रावस्सय' शब्दे द्वितीयभागे ४४६ पृष्ठे विशेषतो। संख्यानं संख्या-परिच्छेदः उप-सामीप्येन संख्या उपव्याख्यातमिदम् ।)
संख्या-सम्यग्यथावस्थितार्थपरिक्षानं नोपसंख्याऽनुपसंख्या वेढिमा-वेष्टिमा-स्त्री०। माषपिष्टपूरितकरोटिकायाम् , प्रश्न तयाऽनुपसंख्यया-अपरिझानेन व्यामूढमतयस्ते वैनयिकाः ५ संव० द्वार ।
स्वाग्रहास्ता इति एतद्-यथा विनयादेव केवलात्स्वर्ग
मोक्षावाप्तिरित्युदाहतवन्तः । एतच ते महामोहाच्छादिताः वेण-पुं०। वीणा-स्त्री० । “स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ।
'उदाहुः ' उदाहृतवन्तः, यथैवं सर्वस्य विनयप्रतिपत्त्या ।४।३२६ ॥ इत्यपभ्रंशे ईकारस्थाने एकारः। वाद्यमेदे, प्रा० । स्वोऽर्थः-स्वर्गमोक्षादिकः अस्माकम् अवभासते-आविवणइय-चैनयिक-न । विनय एव वैनयिकम् । दश० अ०१
भवति प्राप्यते इति यावत्, अनुपसंख्योदाइतिश्च तेषामे
वमवगन्तव्या । तद्यथा-शानक्रियाभ्यां मोक्षसद्भावे सति उ० । स्था० । गुरुशुश्रूषायाम् , भ० १२ श०५ उ० । सानादि
तवपास्य विनयादेवैकस्मात्तदवाप्त्यभ्युपगमादिति । यदप्युविनये कर्मक्षयादिके विनयफले, नं० । भ० । स्या०। त्रिभावि.
तम्-'सर्वकल्याणभाजनं' तदपि सम्यग्दर्शनादिसंभवे सनयेन चरति बैनयिकः। शिष्ये, दश०३०। विनयमहन्तीति
ति विनयस्य कल्याणभाक्त्वं भवति, नैककस्येति, तद्रहितो वैनयिकाः। प्राचार्यादिषु, व्य०३ उ०। विनयादेव मोक्ष इत्येवं
हि विनयोपेतः सर्वस्य प्रहुतया न्यत्कारमेवापादयति, ततगोशालकमतानुसारिणि,सूत्र०१श्रु०६१०। “वैनयिकमत वि.
श्व विवक्षितार्थावभासनाभावानेषामेवंवादिनामझानानावृतनय-चतोवाकायदानतः कार्यः। सुरनृपतियतिशाति-स्थविरा
त्वमेमावशिष्यते, नाभिप्रेतार्थावाप्तिरित्युक्ता वैनयिकाः । धममातृपितृषु सदा" ॥१॥ इति । स्था०४ ठा०४ उ. । नं० ।
सूत्र०१० १२ १०। पुनः-इदानी वैनयिकानां विनयादेव केवलात्परलोकमपीच्छता द्वात्रिंशदनेन प्रक्रमेण योज्याः। तद्यथा-सुरनृपति- वेणइयवाइ-वैनयिकवादिन-पुं० । विनयेन चरति स वा यतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु मनसा वाचा कायेन दानेन प्रयोजनमेषामिति वैनयिकाः, ते च ते वादिनश्चेति वैनयिचतुर्विधो विनयो विधेयः । सूत्र०१ श्रु० १२ १०।
कवादिनः । विनय एव वा वैनयिकं तवेग ये स्वर्गादिहेतु
तया बदन्त्येवं शीलाच ते वैनयिकवादिनः । विधृतलिङ्गाअथ वैनयिकवादं निराचिकीर्षुः प्रक्रमते- चारशास्त्रविनयप्रतिपत्तिलक्षणेषु वादिषु, भ० ३० श. १ सचं असञ्चं इति चिंतयंता,असाहु साहुत्ति उदाहरंता ।
उ०।०। स्था। जे मे जणावेणइया अणेगे,पुट्ठा विभावं विणइंसुणाम।३ | वेणइया-चैनयिकी-स्त्री० । विनयो गुरुशुश्रूषा सकारणमस्यासभ्यो हितं सत्य-परमार्थों यथावस्थितपदार्थनिरूपण
स्तत्प्रधाना वैनयिकी । स्था० ४ ठा०४ उ०। प्रा० म० । गु. वा मोक्षो वा तदुपायभूतो वा संयमः सत्यः तदसत्यम् इति
रूविनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्ये बुद्धिभेदे, शा० १७०१ एवं चिचिन्तयन्तो-मन्यमानाः, एवमसत्यमपि सत्यमिति
अ० । श्रा० क०। मन्यमानाः । तथाहि-सम्यग्दर्शनशानचारित्राख्यो मोक्षमार्गः संप्रति वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयतिसत्यस्तमसत्यत्वेन चिन्तयन्तो विनयादेव मोक्ष इत्येतदस- भरनित्थरणसमत्था, तिवरगसुत्तत्थगहिअपेमाला । त्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानाः, तथा असाधुमप्यविशिष्टकमेकारिणं वन्दनादिकया विनयप्रतिपत्त्या साधुम् इति-पवम्
उभो लोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ॥६॥ उदाहरन्तः-प्रतिपादयन्तो न सम्यग्यथावस्थित धर्मस्य निमित्ते १ अत्थसत्थे अ२, परीक्षकाः, युक्लिविकलं विनयादेव धर्म इत्येवमभ्युपगमात् ,
लेहे ३ गणिए अ४ कूब ५ अस्से अ६ । क पते इत्येतदाह-ये इमे-बुद्धया प्रत्यक्षासन्नीकृता जना इव-प्राकृतपुरुषा इव जना विनयेन चरन्ति वैनयिकाः
गद्दभ ७ लक्खण ८ गंठी ६, विनयादेव केवलारस्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं वादिनः अनेके
अगए १० रहिए अ११ गणिया य १२॥६॥ बहवो द्वात्रिंशद्भेदभिन्नत्वात्तेषाम्। ते च विनयचारिणः केन
सीमा साढी दीहं, च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स १३ । चिद्धर्मार्थिना पृष्टाः सन्तोऽपिशब्दादपृष्टा वा भावं-परमार्थ यथार्थोपलब्धं स्वाभिप्रायं वा विनयादेव स्वर्गमोक्षा
निव्वोदए अ१४गोणे,घोडगपडणं च रुक्खाओ१५॥१६॥ वाप्तिरित्येवं व्यनेषुः-विनीतवन्तः-सर्वदा सर्वस्य सर्वसि- इहाऽतिगुरुकार्य दुर्निवहत्वाद्भर इव भरस्तनिस्तरणे द्वये विनयं ग्राहितवन्तः । नामशब्दः संभावनायाम्। संभा- समर्थाः भरनिस्तरणसमर्थाः, यो वर्गास्त्रिवर्गाः लोकरूव्यत एव विनयात्स्वकार्यसिद्धिरिति । तदुक्तम्-“तस्मात् । ज्या धर्मार्थकामास्तदर्जनोपायप्रतिपादकं यत्सूत्रं यश्च तदकल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः इति ॥ ३॥"
र्थस्तौ त्रिवर्गसूत्रार्थों तयोर्गृहीतं 'पेयालं' प्रमाणं सारो किं चान्यत्
वा यया सा तथाविधा। अत्राह-नन्वश्रुतनिश्रिता बुअणोवसंखा इति ते उदाहु,
द्धयो यमभिप्रेताः, ततो यद्यस्यास्त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतअढे स अोभासइ अम्ह एवं ।
सारत्वं ततोऽश्रुतनिश्रितत्वं नोपपद्यते, न हि श्रुताभ्यास
मन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं संभवति । अत्रोच्यतेलवावसंकी य अण्णागएहिं,
इह प्रायो वृत्तिमाश्रित्याश्रुतनिश्रितत्वमुक्तं, ततः स्वल्पयो किरियमाइंसु अकिरियवादी॥४॥ श्रुतभावेऽपि न कश्चिदोषः । तथा उभयलोकफलवती
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ऐहिके आमुष्मिके च लोके फलदायिनी विनयसमुत्था बुद्धिर्भवति । सम्प्रत्यस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थमुदाहरखैः स्वरूपं दर्शयति-गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्यो ऽवसेयः । तानि च प्रत्यगौरवभयात्संक्षेपेोच्यन्ते तत्र 'निमित्ते ' इति कचित्पुरे कोऽपि सिद्धपुत्रकः, तस्य द्वी शिष्यो निमित्तशाखमधीतयन्ती एको बहुमानपुरस्सरं गुरोर्विनयपरायो यत्किमपि गुरुरूपदिशति तत्सर्वे तथेति प्रतिपद्य स्वचेतसि निरन्तरं विमृशति विमृशतश्च यत्र कादि सन्देद उपजायते तत्र भूयोऽपि विनयेन गुरुपादमूलमागत्य पृच्छति एवं निरन्तरं विमर्शपूर्व शास्त्रार्थ तस्य चिन्तयतः प्रशाप्रकर्षमुपजगाम । द्वितीयस्त्वेतद्गुणविकलः । तौ चान्यदा गुरुनिदेशात् कचित्प्रत्यासन्ने ग्रामे मन्तुं प्रवृत्ती पथि व कानिचित् महान्ति पदानि तायदर्शताम्, तत्र विश्वकारिणा पृष्टम् भोः कस्यामुनि पदानि नोक्रम्-किमत्र हस्तिनो मुनि पदानि ततो विसृश्यकारी प्रामैवं भाषिष्ठाः इस्तिम्या अमूनि पदानि सा च हस्तिनी वामेन चचुषा कायाांचाधिरूढा गच्छति काचिद्राशी सा च समर्तुका गुर्थी च प्रजने कल्या, श्रद्य श्वो वा प्रसविष्यति, पुत्रश्च तस्या भविष्यति । तत पपमुक्ते सोऽविमृश्यकारी भूते-कथमे तदवसीयते ? विमृश्यकारी प्राह- 'ज्ञानं प्रत्ययसार 'मित्यप्रे प्रत्ययतो व्यक्तं भविष्यति । ततः प्राप्तौ तौ विवक्षितं ग्रामं दृष्टा चावासिता तस्य ग्रामस्य बहिः प्रदेशे मद्दासरस्तटे राशी परिभाषिता च इस्तिनी वामेन चचुषा काणा । अत्रान्तरे च काचिद्दासचेडी महत्तमं प्रत्याहपर्याप्यसे राशः पुत्रलाभेनेति । ततः शब्दितो विश्वकारिहा द्वितीयः परिभाषय दासपेटीपचनमिति तेनोपरिभाषितं मया सर्वे, नान्यथा तव ज्ञानमिति । ततस्तौ हस्तपादान् प्रक्षाल्य तस्मिन् महासरस्तटे न्यग्रोधतशेरधो विश्रामाय स्थिती, दृष्टौ च कवाचिन्यस्तजलभृतघटिका वृद्धश्रिया परिभाषिता च तयोरातिः । ततश्विन्तयामास- नूनमेती विद्वांसी, ततः पृच्छामि देशान्तरगतनिजपुत्रागमनमिति । पृष्टं तया । प्रश्नसमकालमेव च शिरसो निपत्य भूमी घटः शयखरबो भग्नः । ततो झटित्येवाविश्यकारिणा प्रोचे गतस्ते पुजो घट इव व्यापत्तिमिति वितृश्यकारी भूते रम-मा वयस्यैव वादीः पुत्रोऽस्या गृहे समागतो वर्णते याहि मात! ! पुत्रसुखमवलोकय ततः एवमुक्ा सा प्रत्युञ्जीयते वाशीर्वादतानि विमृश्यकारिणः प्रयुञ्जाना स्वगृहं जगाम धोलित स्वपुत्रो हमागतः । ततः प्रणता स्वपुत्रेष सा बाशीर्वादं निजपुत्राय प्रायुकथयामास च नैमित्तिकवृत्तान्तम्। ततः पुत्रमायुगलं रूपकांय कतिपयानादाय विश्वकारिः समर्णयामास अविश्यकारी च खेदमान् स्वचेतसि अचिन्तयत्- नूनमहं गुरुणा न सम्यक परिपाठितः, कथमन्यथाऽहं न जानामि ? एष जानातीति । गुरुप्रयोजनं कृत्वा समागतौ द्वौ गुरोः पार्श्वे । तत्र बिमृश्यकारी दर्शनमात्र एवं शिरो नमयित्वा कृताञ्जि पुढः समानमानन्दासाबितलोचनो गुरोः पादा
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( १४२७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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बन्तरा शिरः प्रक्षिप्य प्रणिपपात द्वितीयोऽपि च शैलस्तम्भ इव मनागप्यनमितगात्रयष्टिर्मात्सर्यसम्प
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तो धूमायमानो ऽवतिष्ठते । ततो गुरुस्तं प्रत्याह-रे ! किमिति पादयोर्न पतसि १ स प्राह-य एव सम्यक पाठितः स एव पतिष्यति, नाहमिति । गुरुराह -कथं त्वं न सम्यक् पाठितः १ ततः स प्राचीनं वृत्तान्तं सकलमचीकथत् यावदेतस्य ज्ञानं सर्व सत्यं न ममेति । ततो गुरुणा विमृश्यकारी पृष्टः कथय वत्स ! कथं त्वये शातमिति, ततः स प्राह-मया युष्मपादादेशेन विमर्शः कर्तुमारब्धो यथैतानि हस्तिरूपस्य पदानि सुप्रतीतान्येव विशेषचिन्तायां किं हस्तिन उस हस्तिम्याः, तत्र कायिक दृष्ट्रा हस्तिम्या इति निश्चितम् दक्षिणे च पार्श्वे वृत्तिसमारूढवल्लीवितान श्रालूनविशीरणों हस्तिनीकृतो दृष्टो न वामपार्श्वे ततो निश्चिक्ये - नूनं वामेन चक्षुषा काणेति । तथा नान्य एवंविधपरिकरोपेतो इस्तिन्यामधिरूढो गन्तुमर्हति ततोऽपश्यं राजकीय किमपि मानुषं यातीति निश्चितम्। तच मानुषं कचित्प्रदेशे - स्तिन्या उत्तीर्य शरीरचिन्तां कृतवत् कायिक दृष्ट्रा राशीति निश्चितम् । वृषावलग्ननखदशालेशदर्शनात् समईका भूमी हस्तं निवेश्योरथानाकारदर्शनाद् गुर्वी, दक्षिणचरणनिस्सहमोचननिवेशदर्शनात्प्रजने कल्येति । बृद्धखियाः प्रश्नानन्तरं घटनिपाते वे विमर्शः कृतो-पथैष पटो यत उत्पन्नस्तत्रैव मिलितस्तथा पुत्रोऽपीति । तत एवमुले गुरुणा स विमृश्यकारी चक्षुषा सानन्दमीक्षितः म सिता द्वितीयं प्रत्युवाच-तब दोषो यत्र विमर्श करोषि, न मम । वयं हि शास्त्रार्थमात्रोपदेशेऽधिकृताः विमर्शे तु यूयमिति । विमृश्यकारिणो वैनयिकी बुद्धिः ॥ १ त्यसत्वे सि' अर्थशास्त्रे कल्पको मन्त्री दान्तः, दहिकुंडला व इति संविधानके' सिलि पिपरिज्ञानं 'गरिए' गितिपरिज्ञानम् एते च द्वे अपि वैनयिक्यौ बुद्धी २-३-४ । ' कूवे ' सि खातपरिज्ञानकुशलेन केनाप्युक्तं यचैतद्दुरे जलमिति । ततस्तावत्प्रमाणं यातं परं मत्य जलम् ततस्ते सातपरिज्ञाननिष्णाताय निवेदयामासुः नोत्पन्नं जलमिति । ततस्तेनाहारेण पावन्याहत, आहतानि तैः, ततः पाणिप्रहारसमकालमेव समुच्छलतं तत्र जलम् खातपरिचानकुशलस्य पुंसो वैनयिकी बुद्धि ५!' अस्से' ति बहवोऽश्ववणिजो द्वारवतीं जग्मुः, तत्र सर्वे कुमाराः स्थूलान् बृहतश्राश्वान् गृह्णन्ति, वासुदेवेन पुनर्यो लघीयान् दुर्बलो लक्षणसम्पन्नः स गृहीतः स च कार्यनिवडी प्रभूताश्वावद्द
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जातः । वासुदेवस्य वैनयिकी बुद्धिः ६ । 'ग' ि कोऽपि राजा प्रथमयौयनिकामधिरूढस्तरुणिमानमेव रमसीयं सर्वकार्यक्षमं च मन्यमानस्तरुणानेव निजकटके घा रितवान् वृद्धांस्तु सर्वानपि निषेधयामास । सोऽम्पदा कटकेन गच्छखपान्तराले टम्यां पतितवान्, तत्र च समतोऽपि जनस्वषा पीयते, ततः किंकर्तव्यतामूढचेतारा.जा केनाप्युक्तो - देव ! न वृद्धपुरुषशेमुषी पोतमन्तरेणायमापत्समुद्रस्तरीतुं शक्यते, ततो गवेषयन्तु देवपादाः क्वापिवृद्धमिति । ततो पहा सर्वस्मिन्नपि कटके पट उशे
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(१४२८) वेषइया अभिधानराजेन्द्रः।
घेणइया षितः । तत्र चैकेन पितमान प्रच्छन्नो निजपिता समा-1 रितम् , विषं च प्रसरमाददानं यत्र तत्र प्रसरति तत्तत्सर्वे नीतो वर्तते , ततस्तेनोनं-मम पिता वृद्धोऽस्तीति । ततो विपचं कुर्वत् दृश्यते । वैद्यश्च राजानमभिधत्ते-देव! सनीतो रामः पार्वे, राक्षाच सगौरवं पृष्टः-कथय महा वोऽप्येष हस्ती विषमयो जातः । योऽप्येनं भक्षयति सोऽपुरुष ! कथं मे कटके पानीयं भविष्यति ? , तेनोक्तं देव ! पिविषमयो भवति, एवमेतद्विषं सहस्रवेधि । ततो राजा रासभाः स्वैरं मुच्यन्तां , यत्र ते भुवं जिनन्ति तत्र पा-| हस्तिहानिदनचेतास्तं प्रत्युवाच-अस्ति कोऽपि हस्तिनः मीयमतिप्रत्यासत्रमवगन्तव्यम् । तथैव कारितं राक्षा; समु-| प्रतीकारविधिः १, सोऽवादीत्-बाढमस्ति । ततस्तस्मिन्नेव त्पादितं पानीयं , स्वस्थीबभूव च समस्तं कटकमिति । बालरन्ध्रेऽगदः प्रदत्तः, ततः सर्वोऽपि झटित्येव प्रशान्तो स्थविरस्य वैनयिकी बुद्धिः ७। लक्खण 'त्ति पारसीकः विषविकारः, प्रगुणीबभव हस्ती, तुतोष राजा तस्मै वैद्याकोऽप्यश्वस्वामी कस्याप्यश्वरक्षकस्य कालनियमनं कृत्वा य । वैद्यस्य वैनयिकी बुद्धिः १० ।' रहिए गणिया य' सि अश्वरक्षणमूल्यं द्वावश्वौ प्रतिपन्नवान् , सोऽपि चाश्वखा- स्थूलभद्रकथानके रथिकस्य यत् सहकारफललुम्बित्रोटनं य. मिनो दुहित्रा समं वर्तते । ततः सा तेन पृष्टा-कावश्वौ च गणिकायाः सर्षपराशेरुपरि नननं ते वे अपि वैनयिकीभव्याविति ?, तयोक्तम्-अमीषामश्वानां विश्वस्तानां मध्ये बुद्धिफले ११-१२। 'सीये' त्यादि, कचित्पुरे कोऽपि राजा, यः पाषाणभृतकुतपानां वृक्षशिखरान्मुक्तानामपि शब्दमाक- तत्पुत्राः केनाप्याचार्येण शिक्षयितुमारब्धाः, ते च तस्मै एर्य नो अस्यतस्तौ भव्यौ ,तेन तथैवैती परीक्षितौ । ततो प्राचार्याय प्रभूतं द्रव्यं दत्तवन्तः । राजा च द्रव्यलोभी तं घेतनप्रदानकाले सोऽभिधत्ते-मह्यममुकममुकं वाऽश्वं दे- मारयितुमिच्छति, तैश्च पुत्रैः कथश्चितदेतज्ज्ञात्वा चिन्तिहि। अश्वस्वामी प्राह-सर्वानप्यन्यान् अश्वान् गृहाण, तम्-अस्माकमेष विद्यादायी परमार्थपिता, ततः कथमप्येकिमताभ्यां तवेति ?, स नेच्छति , ततोऽश्वस्वामिना स्व. नमापदो निस्तारयामः । ततो यदा भोजनाय समागतः भार्यायै म्यवेदि , भणितं च-गृहजामाता क्रियतामेष इति । स्नानशटिका याचते तदा ते कुमाराः शुष्कामपि शाटी व. अन्यथा प्रधानावश्वावेष गृहीत्वा यास्यति।सा नैच्छत् । ततो दन्ति-" अहो सीया साडी" द्वारसम्मुखं च तृणं कृत्वा ऽश्वस्वामी प्राह-लक्षणयुक्नेनाश्वनान्येऽपि बहयोऽश्वाः स- पदन्ति-अहो दीर्घ तृणं, पूर्व च क्रौञ्चकेन सदैव प्रदक्षिम्पद्यन्ते, कुटुम्ब च परिवर्द्धते, लक्षणयुक्तौ चेमावश्वौ, तस्मा. णीक्रियते, सम्प्रति तु स तस्यापसव्यं भ्रमितः । तत प्राक्रियतामेतदिति । ततः प्रतिपन्नं तया, दत्ता तस्मै स्वदुहिताः
चार्येण सात-सर्वे मम बिरनं, केवलमेते कुमारा मम भक्तिकृतो गृहजामातेति । अश्वस्वामिनो धैनयिकी बुद्धिः । 'गंठि'
वशात् शापयन्ति, ततो यथा न लक्ष्यते तथा पलाययामास त्ति पाटलिपुरे नगरे मुरुण्डो राजा । तत्र परराष्ट्रराजेन त्रीणि
कुमाराणामाचार्यस्य च वैनयिकी बुद्धिः१३ । 'निव्वोदएकौतुकनिमित्तं प्रेषितानि , तद्यथा-'मूद सूत्र, समा यष्टि
णं' ति काऽपि वणिग्भार्या चिरं प्रोषिते भर्तरि दास्या रलक्षितद्वारः समुद्रको जतुना घोलितः ' तानि च मुरुगडे
निजसद्भाव निवेदयति-आनय कमपि पुरुषमिति । ततन राक्षा-सर्वेषामप्यात्मपुरुषाणां दर्शितानि , परं केनापि |
स्तया समानीतो, नस्खप्रक्षालनादिकं च सर्व तस्य कारितं न शातानि, तत आकारिताः पादलिप्ताचार्याः । पृष्ठं राज्ञा
रात्रौ च तौ द्वावपि सम्भोगाय द्वितीयभूमिकामारूढी, मेभगवन् ! यूयं जानीत ? , सूरय उक्लवन्तो-बाढम् । ततःसू.
घश्च वृष्टिं कर्तुमारब्धवान् । ततस्तेन तृषापीडितेन पुरुषेण नी प्रमुष्णोदके क्षिप्तम् , उष्णोदकसम्पांच विलीनं मदम- मोदकं पीतम् । तदपि च त्वग्विषभुजङ्गसंस्पृष्टमिति तत्पामिति लब्धः सूत्रस्यान्तः । यष्टिरपि पानीये क्षिप्ता , ततो- मेन पञ्चत्वमुपगतः, ततस्तया वणिग्भार्यया निशापश्चिमगुरुभागो मूलमिति ज्ञातम् । समुद्रकेऽप्युष्णोदके क्षिप्त जतु याम एव शून्यदेवकुलिकायां मोचितः । प्रभाते च दृष्टो दासर्वे गलितमिति द्वारं प्रकट बभूव । ततो राजा सूरीन् प्र- एडपाशिकः, परिभावितं सद्यः तत्तस्य नस्वादिकर्म, ततः स्यवादीत्-भगवन् ! यूयमपि दुर्विज्ञेयं किमपि कौतुकं कुरु- पृष्टाः सर्वेऽपि नापिताः-केनेदं भोः कृतमस्य नखादिकं त येन तत्र प्रेषयामि । ततः सूरिभिस्तुम्बकमेकस्मिन् प्रदे- कर्मेति , तत एकेन नापितेनोक्रं-मया कृतममुकाभिधशे खण्डमेकमपहाय रत्नानां भृतम् । ततस्तथा तत्वएडं सी. वणिग्भार्यादासचेटयादेशेन । ततः सा पृष्टा-साऽपि च पूर्व वितं यथा न केनापि लक्ष्यते, भणिताश्च परराष्टराजकीयाः न कथितवती, ततो हन्यमाना यथावस्थितं कथयामास । पुरुषाः-एतदभऋत्वा इतो रत्नानि ग्रहीतव्यानि, न शक्तं ते. दाण्डपाशिकानां वैनयिकी बुद्धिः १४ । 'गोणे घोडगपडण रेवं कर्तुम् । पादलिप्तसूरीणां वैनयिकी बुद्धिः ।। 'अगए'त्ति च रक्खाओ' कोऽप्यकृतपुण्यो यद्यत्करोति तत्सर्वमापदे प्र. कचित्पुरे कोऽपि राजा , स च परचक्रेण सर्वतो रो- भवति । ततोऽन्यदा मित्रं बलीवदी याचित्वा हलं वाहयति, सुमारब्धः , ततस्तेन राशा सर्वाण्यपि पानीयानि विना- अन्यदा च विकालवेलायां तावानीय वाटके क्षिप्तौ । स शयितव्यानीति , विषकरः सर्वत्र पातितः। ततः कोऽपि
च वयस्यो भोजनं कुर्वनास्ते । ततः स तस्य पावें न गतः कियद्विषमानयति, तत्रैको वैचो यवमात्रं विषमानीय रामः केवलं तेनापि तौ दृश्यावलोकिताविति स स्वगृहं गतः । समपितवान्-देव ! गृहाण विषमिति । राजा च स्तोकं तौ च बलीवर्दी धारकानिःशृस्यान्यत्र गती । ततोsविषं पा चुकाप तस्मै, वैद्यो विशपयामास-देव ! सहस्रवे- प्यपहती तस्करैः । स च बलीवईखामी तमकृतपुण्यं वधीदं विषं तस्मादप्रसाद मा कार्षीः , राजाऽवादीत्-कथ- राकं बलिषी याचते । स च दातुं न शक्नोति । सतो नी. मेतदवसेयम्। १, स उवाच-देव! आनाय्यतां कोऽपि जीणों यते तेन राजकुलम् । पथि च गच्छतस्तस्य कोऽप्यश्वारूढः हस्ती । भानायितो राजा हस्ती । ततो वैधेन तस्य हस्ति- पुरुषः सम्मुखमागच्छति । स चाश्वेन पातितः। अश्वश्च नः पुच्चदेशे बाल(क)मेकमुत्पाटय तदीयरन्ने विषं सवा- | पलायमानो वर्तते । ततस्तेनोक्तम्-श्राइन्यतामेष दरडेना
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(१४२६) वेणइया
अभिधानराजेन्द्रः। श्व इति, तेन चाकृतपुण्येन सोऽश्वो मर्मण्याहतः, ततो । ये दाक्षिणात्यानां सुपर्णकुमाराणामिन्द्रे , स्था० २ ठा० ३ मृत्युमुपागमत् । ततस्तेनापि पुरुषेण स वराको गृहीतः ।। उ०। सूत्र० । प्रज्ञा । द्वी० । स०। ते च यावनगरमायातास्ताव रणमुत्थितमिति कृत्वा ते महापोंडरीए पंच गरुला वेणुदेवा । (सू० ५६४४ ) नगरबहिःप्रदेशे पवोषितः । तत्र च बहवो नटाः सुप्ता
स्था० १० ठा० ३ ठा० । वर्तन्ते । स चाकृतपुण्योऽचिन्तयत्-यथा नास्मादापत्समुद्राद् मे निस्तारोऽस्तीति वृक्षे गलपाशेनात्मानं बद्धा नि- वेणुफल-वेणुफल-न० । वेणुकार्ये करण्डकपेटिकादी, सूत्र० ययेति तेन तथैव कर्तुमारब्धम् । परं जीसंदण्डिवस्त्रखण्डेन १ श्रु०४०२ उ०। गले पाशो बद्धः, तच्च दण्डिवस्त्रखण्डमतिदुर्बलमिति त्रु
स्वखण्डमातदुबलामात त्रु- वेणुफलासिया-वेणुफलासिका-स्त्रीला वंशात्मिकायां श्लक्षणटितम् । ततः स वराकोऽधस्तात्सुप्तनटमहत्तरस्योपरि पपा
त्वक्काष्टिकायाम् , या दन्तैर्वामहस्तेन प्रगृह्य दक्षिणहस्तेन त। सोऽपि च नटमहत्तरस्तद्भाराकान्तगलप्रदेशः पञ्चत्व
वीणावद् वाद्यते, । सूत्र० १ श्रु०४ १०२ उ० । मगमत् । ततो नटैरपि स प्रतिगृहीतः । गताः प्रातः सवेऽपि राजकुलम्। कथितः सर्वैरपि स्वः स्वः व्यतिकरः। ततः
| वेणुयाणुजाय-वेणुकानजात-पुं० । वंशसदृशे, सू०प्र० १२ कुमारामात्येन स पराकः पृष्टः सोऽपि दीनवदनोऽवादीद
पाहु। देव ! यदेते ध्रुवते तत्सर्वे सत्यमपि । ततः तस्योपरि स- | वेणुलया-वेणुलता-स्त्री० । स्थलवंशलतायाम् , विपा० १ जातकपः कुमारामात्योऽवादीत्-एष बलीवर्दी तुभ्यं दास्य
दास्य- थु०६०। ति, तव पुनरक्षिणी-उत्पारयिष्यति, एष तदैवानृणो बभूव यदा त्वया चक्षुामवलोकिती बलीवर्दी, यदि पुनस्त्वया
| वेणुसलागिया-वेणुशलाकिकी-स्त्री० । वेणुवंशस्तस्य चचा नावलोकिती बलीवी स्यातां तदेषोऽपि स्वगृहं
शलाकास्तामिनिवृत्ता घेणुशलाकिकी । वेणुशलाकान यायात् , न हि यो यस्मै यस्य समर्पणायागतः स । निष्पन्नायाम् , रा०। तस्यानिवेदने समर्पणीयमेवमेव मुक्त्वा स्वगृहं याति। तथा वेणा-वेन्ना-स्त्री० । आभीरविषये अचलपुरासन्ने कृष्णाद्वितीयोऽश्वस्वामी शब्दितः, एषोऽश्वं तुभ्यं दास्यति, तव नदीसंगते नदीभेदे, प्रा. चू०१ अ० कल्प० प्रा० काश्रा० पुनरेष जिहां छत्स्यति, यदा हि त्वदीयजियोक्तम्-एन- म०। नं०। मश्वं दण्डेन ताडयेति तदाऽनेन दण्डेनाहतोऽश्वो, नान्य-1.
- वेएह-विष्णु-पुं० । व्यापके, परमेश्वरे, अमरः । कल्प० । दा । तत एष दण्डेनाऽऽहन्ता दण्ड्यते तव न पुनर्जिति ! कोऽयं नातिपथः ?, तथा नटान् प्रत्याह-अस्य पावें न
प्रा० क० । स्था० । प्रश्न । । किमस्ति ततः किं दापयमः ? , एतावत्पुनः कारयामः- वेतंडिय-वैतएिडक-पुं०। वितण्ड्या चरति वैतरिडकः । वितएषोऽधस्तात् स्थास्यति , त्वदीयः पुनः कोऽपि प्रधानो एडावादिनि, अभ्युपेत्य पक्षं यो न स्थापयति स वैन" ---- यथैष वृक्षे गलपाशेनात्मानं बद्धा मुक्तवान् तथाऽऽत्मानं इत्युच्यते; इति हि न्यायवार्तिकम् । वस्तुतस्तु श्रामुञ्चत्विति, ततः सर्वैरपि मुक्तः । कुमारामात्यस्य वैनयिकी स्वातत्त्वविचारमौखये वितण्डा, तया वादकर्तरि । बुद्धिः १५ । नं० । प्रा० म० । प्रा० चू०।
वेतबह-वैतृषाय-न। तृष्णाविच्छदे, प्रति०। वैमुख्ये, द्वा० वेगा-वेणा-स्त्री० । आर्यसम्भूतविजयस्य शिष्यायां स्थूल- ११ द्वा०। भद्रभगिन्याम् , कल्प०२ अधि०८ क्षण । आव० । पिं० । वेतस-वेतस-पुं०।"तदोस्तः" ॥८॥४॥ ३०७ ॥ इति पैशाच्या तिः। श्रा० क० । अाभीरविषये कृष्णासङ्गते नदीभेदे , आ.
य कृष्णासङ्गत नदाभव, श्रा०, तस्य त एव । वेत्रे, प्रा०४ पाद । म०१०। श्रा० चू।
वेतालि-देशी-तटे, प्रशा० १६ पद । वेणायय-वैनायक-पुं० । आगामिन्यामुत्सपिण्यां भाविनि विंशतितमे तीर्थकरे, ति।
वेत्त-वेत्र-पुं० । जलवंशे, प्रश्न. ३ प्राथद्वार । नि०० ।
प्रज्ञा० स० वेणी-वेणी-स्त्री० । वनिताशिरसः केशबन्धविशेषे, झा० १
वेत्तग-वेत्राग्र-न० । वेत्राहुरे , तथागवनेषु भाजीकृतं भक्ष्यश्रु०६अ।
|ते । आचा०२ थु०१चू०१०८ उ० । वेणीसंगम-वेणीसंगम-पुं० । गङ्गायमुनयोः सङ्गमे, तत्रादि
वेत्तदएड-वेत्रदण्ड-पुं० । वेत्ररूपे दराडे , प्रश्न. ३ आश्र नाथकमण्डलुः पूज्यः। ती०४३ कल्प।
द्वार। वेण-वेणु-पुं० । वंशे, सू० प्र० १२ पाहु० । प्रज्ञा० । नि० वेत्तपीढय-वेत्रपीठक-पुं०। वेत्रासने, नि० चूत १२ उ०। चूछ । सूत्र० । रा० । वंशविशेषे, जी०३ प्रति० ४ अधिः । मातोचविशेष, आचा०१ श्रु०१०५ उ० । नि००।
वेत्तलया-वेत्रलता-स्त्री। जलवंशलतायाम् , विपा०१ श्रु०६ वेणुदालि-वेणुदालि-पुं० । औत्तराहाणां सुपर्णकुमाराणा- |
अ०'कोएयाण जाहिर, वेत्तलयागुम्मगुविलहिययाणं ।
भावं भग्गासाणं, तत्थुप्पन्नं भयंतीणं ॥१॥ सूत्र०१ श्रु०४ मिन्दे, स्था०२ ठा० ३ उ० । भ०। प्रशा० । स०। द्वी०। | अ०१०। वेणुदेव-वेणुदेव-पुं० । गाडापरनामके सुपर्णकुमारजाती-! वेद-वेद-पुं०। वेद्यते ऽनेन तस्वमिति वेदः । सिदान्ते. उत्त.
३५०
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(१४३०) अभिधानराजेन्द्रः ।
वेद
"
१५ श्र० । सद्भूतार्थागमे, यो० वि० । व्य० | समस्तदर्शननां सिद्धान्ते, वृ० ३ उ० । विदन्ति तेन तमिति वा वेदः । विज्ञाने, अस्मद् । नि० ० १ ३० बेचते जीवादिस्वरूपमनेनेति वेदः। श्राधारायागमे भावा० १० १ ० १ उ० । वेद्यते सकलं चराचरमनेनेति वेदः । आगमें, आचा० १ श्रु० ४ ० ४ उ० । स च लौकिकलोकोत्तरकु प्रावचनिकभेदः श्रुतवद् व्याख्यातव्यः । ज्ञा० १ ० १ श्र० । रा०विदत्यस्माद्वेयोपादेयपदार्थानिति वेदः । श्रागमे स च नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाश्चतुर्धा, तत्र नामस्थापनाद्रव्याणि प्रतीतानि । भावे क्षायोपशमिकभावपर्ययमाचारः । श्राचा० १ श्रु० १ ० १ उ० । गादौ, स्था० ३ ठा० ४ उ० । ' चत्ताशे वेया संगोवंगा ' ( मिथ्याश्रुतं ) चत्वारश्च वेदा, ऋग्वेदयजुर्वेद सामवेदाथर्वणवेदलक्षणाः, साङ्गोपाङ्गाः- शिक्षा १ कल्प २ व्याकरण ३ छन्दो ४ निरुक्न ५ ज्योतिष्कानयन ६ लक्षणानि षडुपाङ्गानि तद्व्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्त्तन्ते । अनु० । विषा० । उत्त० । श्रा०म० । त्रिविधानि वेदपदानि - कानि चित् विधिप्रतिपादकानि यथा स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुया दित्यादीनि कानिचिदनुवादपराणि यथा- द्वादश मासाः संवत्सर इत्यादीनि कानिचित्स्तुतिपराणि यथा हवं पुरुष पयेत्यादीनि। कल्प०१ अधि०३ क्षण । (वेदानामपौरुषेयत्वम् आ गम' शब्दे द्वितीयभागे ५३ पृष्ठे चिन्तितम्।) वेदने, अनुभवे, सूत्र० १० २ ० १ उ० । वेद्यते इति वेदः । पं० सं० १ द्वार मैथुनाभिलाषे, स० ।
कइत्रिहे णं भंते ! वेए पण्णने १, गोयमा ! तिविहे वेए पण्णत्ते, तं जहा - इत्थीए, पुरिसवेए, पुंसगवेए । (सू० १५६५ )
'कवि' त्यादि, तत्र, स्त्रीवेदः - पुंस्कामिता, पुरुषदः खीकामिता नपुंसक वेद:- स्त्रीपुंस्कामितेति । एते च पूर्वोदिता अर्थाः समय सर स्थितेन भगयता देशिता इति । स० १५६ सम० | सूत्र० । ( विरतवेदस्वरूपं ' गोयरच - रिया' शब्दे तृतीयमागे १००६ पृष्ठे प्रतिपादितम् । ) संप्रति वेदकमाद
पुरसित्धि तदुभयं पर, अहिलासो जब्बसा हवइ सो उ । स्थीनरनपुंवेदओ, फुंफुमतनगरदाहसमो ॥ २२ ॥ प्रतिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, पुरुषं प्रति खियं प्रति तदुभयं प्रति स्त्रीपुरुष प्रतीत्यर्थः । यद्वायत्पातयामा बादा भवति जायते । तुशब्दः परस्परापेक्षया पुनरर्थे। स्त्री योषित्न:-पुरुषानपु' सि नपुंसकं तैवैद्यतेऽनुभू यते स्त्रीनरनपुंवेदस्तस्योदयः श्रीनरनपुंवेदयज्ञेय इति शेषः फुंकुमां करीष, तृणानि प्रतीतानि नगर-पुरं फुस्फु मातृनगराणि तेषां दाहस्तेन समस्तुल्य इति गाथाऽक्षरार्थः । भावार्थस्वयम् पशात् खियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति यथा पित्तवशान् मधुरद्रव्यं प्रति स कुंकुमादाहसमः, यथा यथा चाल्यते तथा तथा ज्वलति बृंहति च । एवमबलाऽपि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषेण तथा तथा क्या अधिकतरोऽभिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु सुखक दाहोऽभिलाषोः मन्द इत्यर्थः इति श्रीयेोदयः । वशात् पुरुषस्य प्रियं प्रत्यभिलाषो भवति यथा-
1
वेद
वशादम्लं प्रति स पुनस्तृणदाहसमः, यथा तृणानां दाहे ज्वलने विध्यापनं च भवति एवं पुंवेदोदये स्त्रियाः सेवनं प्रत्युत्सुकोऽभिलाषो भवति, निवर्त्तते च तत्सेवने शीघ्रमिति नरवेदोदयः । यद्वशानपुंसकस्य तदुभयं प्रत्यमिलाप भवति यथा पित्तश्लेष्मान्मजिक प्रति स पुनर्नगरदाहसमः, यथा नगरं दद्यमानं महता कालेन दह्यते विध्यापयति च महतेय एवं नपुंसकयेदोदयेऽपि श्रीपुरुषयोः सेवनं प्रत्यभिलाषातिरेको महताऽपि कालेन न निवर्त्तते नापि सेवनेरिति नपुंवेदोदयः । कर्म० १०० प्र० प्रा० प्रत्येकं किमङ्गाः- त्रिविधेऽपि प्रत्येकं त्रिकभङ्गः कर्त्तव्यो भवति, कथमिति चेदुच्यते- पुरुषः पुरुषवेदं वेदयति, पुरुषः स्त्रीवेदं वेदयति, पुरुषो नपुंसकवेदं वेदयति च । एवं स्त्रीनपुंसकयोरपि वेदत्रयो मन्तव्यः । बृ० ४ उ० । नैरयिकदण्डक
नेरयाणं भंते! किं इत्थींचेया पुरिसवेया सपुंसंगवेया पत्ता !, गोयमा ! णो इत्थीवेया, यो पुरिसवेया, पुंसगवेया पम्पत्ता । असुरकुमाराणं भंते । किं इत्थीवेया पुरिसवेया नपुंसगया है, गोयमा इत्यपेया पुरिसवेया, खो खपुंसगवेया० जाव थणियकुमारा । पुढवीचाऊतेश्रोवाऊवणस्सइबितिचउरिंदियसंमुच्छिम पंचिदियतिरिक्खमुच्छममणुस्सा पुंगवेषा गग्भवकंतियम गुस्सा पंचिदियतिरिया य तिवेया जहा असुरकुमारा तहा वाण - मन्तरा, जोइसियत्रेमाणिया त्रि । ( ० १५६ ) स० १५७ सम० ।
1
ते ते ! जीवा किं इत्थीवेया पुरिसवेया सपुंसगया १, गोयमा ! णो इत्थिवेया, यो पुरिसवेया, पुंसगवेया ।
' ते गं भंते!' इत्यादि ' इत्थीवेयगा ' इति स्त्रियाः वेदो येषां ते वेदका एवं पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयम्। तत्र स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः स्त्रीवेदः पुंसः खियामभिलाषः पुंवेदः, उभयोरप्यभिलाषो नपुंसकये भगवानाह- गौतम! न स्त्रीवेदका न पुरुषवेदका नपुंसकबेदकाः संमूच्छिमवात् । ' नारक संमूच्छिमा नपुंसका' इति भगवद्वचनम् । जी० १ प्रति० । ( निर्मन्थानां वेदः 'णिगंथ' शब्दे चतुर्थभागे २०३४ पृष्ठे गतः । ) ( परिहारविशुद्धिकानां वेदः परिहारविसुद्धिय' शब्दे पञ्चमभागे ६६५ पृष्ठे गतः । )
"
वनस्पतिजीवानां वेद:
ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीवेदबंधगा पुरिसवेदबंधगा नपुंसगवेदबंधगा ! गोयमा ! इत्थीवेदघर वा पुरिसवेदवए वा नपुंसगवेयबंध वा द व्वीसं मंगा । भ० ११ श० १ उ० ।
१ नपुंगवेद नपुंगवेदगा
(०२२) इति भ० ११ ० १ ० ।
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(१५१)
अभिधानराजेन्द्रः। (क्षपकश्रेण्यां वेदत्रयक्षपणं 'सवगसेदि' शब्दे तृतीयभा-| धिकाऽपि स्त्रीवेदस्याऽवस्थितिरवाप्यते, ततः किमेतावगे ७२८ पृष्ठे गतम् ।)
त्येवोपदिष्टा , तदयुक्तमभिप्रायाऽपरिज्ञानात् , तथाहि-दह वेदस्थितिनिरूपणम्
तावहेवीभ्यश्च्युत्वा असंख्येयवर्षायुष्कासु स्त्रीषु मध्ये श्री.
त्वेन नोत्पद्यते , देवयोनेश्च्युतानामसंख्येयवर्षायुकेषु मपुरिसत्तं सबित्तं, सयं पुहुत्तं तु होइ अयराणं ।
ध्ये उत्पातप्रतिषेधात् , नाप्यसंस्येयवर्षायुष्का सती योत्थीपलियसयपुरत्तं, नपुंसगतं अणुनद्धा ।। ४६॥
बिदुत्कृष्टायुष्कासु देवीषु मध्ये जायते , यत उक्नं प्रज्ञापपुरुषत्वम्-पुरुषवेदो निरन्तरं भवन् जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमु
नाटीकाकृता- जो असंखेन्जवासाउया उकोसटिईन स्कर्षतोऽन्तराणां-सागरोपमाणां शतपृथक्त्वं भवति , के
पावेइ' इति , ततो यथोक्तप्रमाणैव स्त्रीवेदस्योत्कृष्टा स्थिबलं तुशब्दस्याऽधिकार्थसंसूचनात्तदपि सागरोपमशतपृथ
तिरवाप्यते । द्वितीयादेशवादिनः पुनरेषमाहुः-नारीषु ति
रश्वीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवाननुभूय पत्वं मनाक सातिरेकं द्रष्टव्यम् , तथा चोक्नं प्रज्ञापनायाम्'पुरिसवेए णं भंते ! पुरिसवेए ति कालमो केव चिरं हो
पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोके वारद्धयमुत्कृष्टस्थितिकासु देवीषु १, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवम
मध्ये समुत्पद्यमाना नियमतः परिगृहीतास्वेवोत्पद्यते, नाs सयपुहुतं साइरेग' तथा संक्षी-पश्चेन्द्रियो गर्भजो जीवः,
परिगृहीतासु, ततस्तन्मतेन स्त्रीवेदस्योष्टमवस्थानमष्टातद्भावः संशित्वं , तदप्यवच्छेदेन जघन्येनान्तर्मुहूर्त का
दशपल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च । तृतीयाऽऽदेशवादिलम् , उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं भवति । अत्रापि
नां तु मतेन सौधर्मदेवलोके परिगृहीतदीषु सप्तपल्योपसागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकमवगन्तव्यम् , तथा प्रज्ञाप
मप्रमाणोत्कृष्टायुष्कासु मध्ये वारद्वयं समुत्पद्यते , ततस्तनायामभिहितत्वात् । तथा च प्रज्ञापनाग्रन्थ:-'सन्नी ण भंते |
न्मतेन चतुर्दशपल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि सन्नित्ति कालश्रो केचिरं होड ? , गोयमा! जहन्नेणं अंतो
स्त्रीवेदस्य स्थितिः। चतुर्थाऽऽदेशवादिना तु मतेन सौधर्मदेमुहुत्तं , उक्कोसेण सागरोवमसयपुडुत्तं साइरेग' ति तथा
वलोके पश्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुकास्वपरिगृहीतदे'थीपलियसयपुहुत्तं ' ति स्त्री-स्त्रीवेदो जघन्यत एकसमयम्
वीष्वपि मध्ये पूर्वप्रकारेण वारद्वयं देवीत्वेनोत्पद्यते , ततउत्कर्षतः पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वं च । तत्र समयमा
स्तन्मतेन पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिकमवाप्यप्रभावना क्रियते-काचित् युवतिरुपशमश्रेण्या घेदत्रयो
ते, एष एव चाऽऽदेशो प्रन्थकृता परिगृहीतः, प्रायोऽस्यैव पशमेनाऽवेदकत्वमनुभूय , ततः श्रेणेः प्रतिपतन्ती स्त्रीवे- बहुभिः सूरिभिः परिगृहीतत्वात् । पञ्चमादेशवादिनः पुनरिदोदयमेकं समयनुभूय द्वितीयसमये कालं कृत्वा देवेषू
स्थमाहुः-नानाभवभ्रमणद्वारेण यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थात्पद्यते , तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव , न स्त्रीत्वं , तत एवं नं चिन्स्यते,तर्हि पल्योपमपृथक्त्वमेव पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यजघन्यतः स्त्रीवेदः समयमात्रं भवति । उत्कर्षतः खीवेदाव- धिकं प्राप्यते,न ततोऽभ्यधिकम् । तत्र नारीषु तिरश्चीषु वा स्थानचिन्तायां पुनर्भगवता आर्यश्यामेन पूर्वपूर्वतनसरि- पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाऽधुमे भवे देवकुर्वामतभेदमुपदर्शयता पश्चादेशाः प्राप्ताः, तद्यथा-"इत्थीवेए- दिषु त्रिपल्योपमस्थितिकासु खीषु मध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्य , ण भंते । इत्थीवेए त्ति कालो केव चिरं होइ ?, गोयमा! ततो मृत्वा सौधर्मदेवलोके जघन्यस्थितिकासु देवीषु मध्ये एगणं आएसेणं जहन्नेणं एग समयं , उक्कोसेणं दसोत्त- देवीत्वेनोपजायते तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमधिगच्छतीरं पलिअोवमसयं पुव्वकोडीपुहुत्तमम्भहियं १, पगेणं श्रा-1 ति (पं० सं० )तथा नपुंसकं जघन्यत एकं समयमुत्कर्षएसेण जहन्नम् एकं समय, उक्कोसणं अट्ठारस पलिश्रो- तोऽनन्ताद्धा। तत्र एकसमयता स्त्रीवेदस्येव भावनीया अनधमाई पुवकोडिपुडुत्तमम्भहियाई २, एगेणं आएसेणं जह- न्ताद्धा च सांव्यावहारिकजीवानधिकृत्याऽसंख्येयपुद्गलनेणं एग सम्, उक्कोसणं चोइसपलिओवमाई पुवको-| परावर्तखरूपा द्रष्टव्या। तथा चोक्तम्-'नपुंसगवेए णं भंते ! डिपुहुत्तमम्भहियाई ३, एगेण आएसेणं जहन्नेणं पगं स- नपुंसकवेय त्ति कालो कियचिरं होइ ? गोयमा ! जहमयं उक्कोसणं पलिश्रोषमसयं पुषकोडिपुटुसमभहिय ४, श्रेणं एकं समयं , उक्कोसेणं अणतं कालं, अणंताओ एगेणं आएसेणं जहरणेनं पगं समयं , उक्कोसणं पलि- उस्सप्पिणीश्रोस्सप्पिणीश्रो कालो, खेत्तो-अणंता प्रोवमपुहुत्तं पुब्धकोडिपुहुत्तमम्भहियं ति ५," अमीषांचा- लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्टा श्रावलियाए असंखेजादेशानामियं भावना-कश्चिजन्तु रीषु तिरश्चीषु वा पूर्वको- भागो' असांव्यावहारिकजीवानधिकृत्य पुविधाऽनन्ताव्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवाननुभूय ईशानकल्पे पञ्चपञ्चा- ऽद्धा, कांश्चिदधिकृत्याऽनादिरपर्यवसाना, केचन कदाचिदशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये दे- प्यसांव्यावहारिकराशेरुद्धृत्य सांव्यावहारिकराशौ पतिष्यवीत्वेनोत्पन्नः, ततः स्वायुःक्षये ततश्च्युत्वा भूयोऽपि नारी- न्ति, कांश्चिदधिकृत्य पुनरनादिसपर्यवसाना। ये असांव्यावयु तिरश्चीषु वा पूर्वकोटयायुष्कासु मध्ये स्त्रीत्वेनोत्पन्नः, हारिकराशेरुद्धृत्य सांब्यावहारिकराशावागमिष्यन्ति, भागततो भूयो द्वितीयं चारमीशानदेवलोके पञ्चपञ्चाशत्प-| मिष्यतीति च प्रक्षापककालभाविनोऽसाव्यावहारिकराशील्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्वपरीगृहीतासु देवीषु मध्ये दे- वर्तमानान् जीवानधिकृत्योच्यते, अन्यथा ये असाव्यावहावीत्वेमोत्पन्नः , ततः परमवश्यं वेदान्तरमेव गच्छति ।। रिकराशनिर्गत्य सांव्यावहारिकराशावागमन् आगच्छन्ति एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्रा- आगमिष्यन्ति वा तेषां सर्वेषामपि नपुंसकवेदाऽद्धाऽनादिप्यते । अत्र पर माह-ननु यदि देवकुरुत्तरकुर्वादिषु सपर्यवसाना। पं० सं०२द्वार । प्रवृत्तिकाले वेदः पुरुषवेपल्योषमत्रयस्थितिकामु स्त्रीषु मध्ये समुत्पद्यते, ततोs- दो वा नपुंसकवेदो वा भवेत् , नसीवेदः खियाः परि
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( १४३२) अभिधानराजेन्द्रः ।
चेद
द्वारविशुद्धि कल्पप्रतिपत्यसंभवात् अनीतनयमधिकृत्य पु नः पूर्वप्रतिपन्नश्चिन्त्यमानः सवेदो वा भवेदवेदो वा । तत्र सवेदः श्रेणिमतिप्रस्थभावे उपरामणिप्रतिपतौ वा क्ष - पतिपतीत्ववेद इति उक्रं च वेदो पवित काले, इत्थीवज्जो उ होइ एगयरो । पुत्र्वपडिवनश्रो पुरा, होज्ज सवेश्रो अवेश्रो वा ॥ १ ॥ " कर्म० ४ कर्म० । ( सवे - दकानां कार्यस्थितिः' कायठिह ' शब्दे तृतीयभागे ४५५ पृष्ठे उक्का । )
वेदइत्ता - वेदयित्वा - अव्य०। परिज्ञाप्येत्यर्थे, सूत्र० १ ० ६ ० । ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र० १ श्रु० ५ श्र० २ उ० ।
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,
वेदंग - वेदङ्ग - पुं० | इभ्यजातिभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
वेदि वेदि-स्त्री० [वितर्दिकायाम् प्रश्न० १ ० द्वार वेदिग-वैदिक-० जात्पार्थभेदे स्था०] [६] डा० ३४० बेदी वेदी श्री० [देवाचनस्थाने, २०११ ० ६३०
वेदंत वेदान्त पुं० [ऋगादिवेदजनिते निर्णये खा० ३ डा०
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बेट्स देशी-लायाम्, दे० ना० ७ वर्ग ६५ गाथा | वेदेसिय- वैदेशिक - त्रि० । विदेशवर्तिनि व्य० ३ उ० । वैफल्ल वैफल्य न० निष्फलत्वे, अए० १७ अ० । वेभव-वैभव २० विभय एव वैभव प्रशादित्वात्स्वार्थेऽ विभोर्भावः कर्म वेति या वैभवम्। प्रकर्षे, स्था० । वेभार - वैभार - पुं० | स्वनामख्याते राजगृह क्रीडापर्वते, भ० ३
- ।
श० ४ उ० । ज्ञा० । प्रश्न० ।
४ उ० ।
।
वेज्यमान-त्रि० । विशेषेण कम्पमाने, स्था० ७ ठा० ६ उ० वेदयतु] विपाकेनानुभवति, ०३० वेदतवाह-वेदान्तवादिन् पुं० वेदान्तिके, आक्पवादिनि
।
आचा० १ ० ५ ० ६ उ० ।
वेदंतिय- वेदान्तिक -- पुं० । ध्यानाध्ययनसमाधिमार्गानुष्ठानासिद्धिमुपति सू० १ ० १ ० ३ ० एकात्म्यादिनि, विशे० ।
वेद-वेदक- पुं० । वेक्ष्यति निर्जरयति उपभुनक्तीति वेदकः । दश० १ ० प्रकृतिजनितस्य सुकृतजनितस्य सुकृतदुकृतस्य च प्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोक्करि, प्रश्न० २ श्र० द्वार वेदयत्यनुभवति सम्पङ्गलानिति वेदका अनुभवितरि तदनन्तरभूतत्वात्सम्वत्यभेदेच । वेद्यत इति वा वेदकम् । ( विशे० ) विहितप्रायदर्शन सप्तकक्षयेण जन्तुना बेचते बरमानमासमा पत्र - दकम् । विशे० । सम्यक्त्वपुद्रलंवेदनात् क्षायोपशमिके सम्यक्त्वे, कर्म० ४ कर्म० ।
इदानीं वेदकसम्यक्त्वमाह
जो चरमपोग्गले पुण, वेदंती वेयगं तयं चिंति । केसि चि यमादेशो वेयगदिट्ठी खओवसमो ॥ १२८ ॥ यो दर्शन सप्तकक्षपको यतोऽनन्तरसमये क्षीणसम्यक्त्वो भ विष्यति तस्मिन्समये वर्त्तमानसम्यग्दर्शनस्य चरमान पुलान्यस्य तपरमपुङ्गलवेद्नं वेदकसम्पत्वं पूर्वसुरवो मुते। केषांचित् पुनर्वोॉटिकाना मयमादेशो वेदकदृष्टिर्वेदसम्यग्दर्शनम् क्षयोपशमिकं सम्यग्दर्शननाशः तेषामयमनादेशः सम्यक्त्वापरिज्ञानादिति ० १ ० १ प्रक० | वेदनं वेदः वेद एव वेदकः । वेदोदये, कर्म० ६ कर्म० । वेदत्थ--वेदार्थ-पुं० । वैदिकानुष्ठाने, प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । बेदपरिणाम वेदपरिणाम पुं० । सख्यादिमेदात्धिा विधा भि परिणामभेदे स्था० १० ० ३ उ० । बेदपुरिस-वेदपुरुष ५० वेदानुभवप्रधानं पुरुषो पुर चः, स च स्त्री पुनपुंसक संबन्धिषु त्रिष्वपि लिङ्गेषु भवतीति ।
--
वैभार
श्राह च ' वेयपुरिसो तिलिंगो वि पुरिसवेयानुभूयकालमिति' । ज्यादिवेदानुभवनप्रधाने पुरुषे, स्था० ३ ठा० १३० । वेदमी-वैदर्भी श्री० विदर्भदेशजाताय भीष्मपुत्रदषिम । पुण्याम्, अन्त० १ ० ४ वर्ग १ अ० । वेदावेदुद्देसग - वेदावेदोद्देशक - पुं० । वेदे वेदने कर्मप्रकृतेरेकेस्या वेदो वेदनमन्यासां प्रकृतीनां पत्रोशकेऽभिधीयते स वेदावेदः सपदेशकः प्रज्ञापनायाः पञ्चविंशतितमे परे भ० १६ श० ३ उ० ।
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वैभारकल्पः--]]
"अथ वैभारकल्पोऽयं, स्तवरूपेण तन्यते । तिरुचितोपाय श्रीजिनप्रसूरिभिः ॥ १ ॥ बजार बैभारगिरे।
निर्भरं भारतां बुद्धि, भारती तत्र के वयम् ॥ २ ॥ सीमा तरलता - स्तथापि व्यापिभिः । राजन्तं तीर्थराजं तं स्तुमः किंचिज्जडा श्रपि ॥ ३ ॥ अत्र दारिद्रयविज्ञापि रूपकारसकृषिका ।
तशीताम्बुकुडानि कुर्युः कस्य न कौतुकम् ॥ ४ ॥ त्रिकूटखण्डिकादीनि शृङ्गाण्यस्य चकासति । निःशेषकरण्याम स्थापनानि वनानि च ॥५॥ श्रीषच्या विविधव्याधि- विध्वंसादिगुणेोजिताः । नयो योकाया, सरस्वत्यादयोऽनघाः ॥ ६ ॥ बहुधा लीकि तीर्थ, मागधालोचनादिकम् । यत्र चैत्येषु बिम्बानि, ध्वस्तबिम्बानि वाईताम् ॥ ७ ॥ मेरुद्याने चतुष्कस्य, पुष्पसंख्यां विदन्ति थे । अस्मिन् सर्वतीर्थानां विदांकुर्वन्तु ते मतिम् ॥ ८ ॥ श्री शालिभद्रघन्यः इहाततशिलोपरि । दृष्टीकृततनु, पुखां पापमथो इतः ॥ रा श्वापदाः सिंहशार्दूल-भल्लूरुगवलादयः । न जातुतीर्थमाहात्म्या - दिह कुर्वन्त्युपप्लवम् ॥ १० ॥ प्रतिदेश विलोक्यन्ते, विहाराधात्र सोगताः । आरुहने च निर्वाणं प्रापुस्तेऽपि महर्षयः ॥ ११ ॥ रौहिणेयादिवीराणां प्राग् निवासतया श्रुताः । निवाद्यन्ते तमस्काण्ड - दुर्विगाह्या गुहा इह ॥ १२ ॥ उपत्यका या मस्याद्रे-मति राजगृदं पुरम् । चितिप्रतिष्ठमित्यादि नामाभ्यम्बदा ॥ १३ ॥
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बेभार
क्षितिप्रतिष्ठचणक- पुरर्षमपुराभिधम् । कुशानपुरसंशं च क्रमाद्राजगृहाह्रयम् ॥ १४ ॥ छात्र चासीद् गुणशिलं, चैत्यं शैत्यकसन्निभम् । श्रीवीरो यत्र समव-सरे गणपतिः प्रभुः ॥ १५ ॥ प्राकारं यत्र मेतार्यः, शातकौम्भमचीकरत् । सुरेण प्राप्य सुहृदा, मणि स्वाजीहदच्छ्गम् ॥ १६ ॥ शालिभद्रादयो ऽनेके, महेभ्या यत्र अशिरै । जगचमत्कारकरी, येषां श्रीभगशालिनी ॥ १७ ॥ सहस्राः किल पट् त्रिंश-द्यत्रासम्वणिजां गृहाः । तत्र वार्द्धाः सौगतानां मध्ये चार्हतसंज्ञिनाम् ॥ १८ ॥ यस्य प्रासादपङ्कीनां श्रियः प्रेयातिशायिनीम् । त्यमाना विमानाख्या - मापुरित्यसुरालयाः ॥ १६ ॥ जगन्मित्रं यत्र मित्र - सुमित्रान्वयपङ्कजे । अश्वावबोधनिर्व्यूढ - व्रतोऽभूत्सुवतो जिनः ॥ २० ॥ यत्र श्रीमान् जरासन्धुः, श्रेणिकः कुणिको भयाः । मेघहलविलः श्री - नन्दिषेणोऽपि चाऽभवन् ॥ २१ ॥ यत्र श्रीमन्महावीर स्यैकादश गणाधिपाः । पादपोपगमान्मासं, सिद्धावासं समासदन् ॥ २२ ॥ जम्बूस्वामिकृतैः पुण्यैः, शय्यंभवपुरस्सराः । ययुपेतीश्वरा यत्र, नन्दाद्याश्च पतिव्रताः ॥ २३ ॥ एकादशो गणधरः, श्रीवीरस्य गणेशितुः । प्रभासो नाम पावित्र्यं यस्य चक्रे स्वजन्मना ॥ २४ ॥ नालन्दालेकृते यत्र, वर्षारात्राश्चतुर्दश । अवतस्थे प्रभुर्वीर- स्तत्कथं नास्तु पावनम् ॥ २५ ॥ यस्यां नैकानि तीर्थानि नालन्दानायन श्रियाम् । भव्यानां जनितानन्दा, नालन्दा नः पुनातु सा ॥ २६ ॥ .मेघनादः स्फुरनादः, शात्रवाणां रणाङ्गणे ।
• क्षेत्रपालाप्रणीः कामान्, कांस्तान् पुंसां पिपर्त्ति नः ॥ २७ ॥ श्री गौतमस्यायतनं, कल्याणस्तूपसंनिधौ । दृष्टमात्रमपि प्रीति, पुष्णाति प्रणतात्मनाम् ॥ २८ ॥ वर्षे सिद्धा सरस्वद्रसशिस्त्रिकुमिते वैक्रमे तीर्थमौली, सेवादेवाकिनां श्रीर्वितरसुरतरौ देवता सेवितस्य । वैभारक्षोणिकर्तुर्गुणगणभणनव्यापृता भक्तियुक्तैः, सूक्तिजैनमभीयं मृदुविशदपदा धीयतां वीरधीमिः ॥२६॥” इतिश्री वैभारगिरिमहातीर्थकल्पः । ती० १० कल्प । बेमेल- वेमेल- पुं० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले स्थिते सनिवेशे भ० ३ ० २ उ० । ० ।
मस्स - वैमनस्य- न० । दैम्ये, प्रश्न० १ अभ० द्वार । वेमवं- वेमवत्-पुं०। तन्तुवाये, “येन रक्तस्फटानागो, निवसन् बदरीवने । पातितः क्षतिशस्त्रेण, क्षत्रियः सैष बेमवान् ॥१॥" प्रय० २ द्वार । भाव० ।
( १४३३) अभिधानराजेन्द्रः ।
माणि वैमानिकी स्त्री० । वैमानिकवेवस्त्रियाम् जी० ४ प्रति० ३३० ।
१ पुंस्त्वमत्रत्वात् । ३५६
वैमाणिय
माणिय- वैमानिक - पुं० । विविधं मन्यन्ते उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानानि तेषु भवाः वैमानिकाः । देवभेदेषु, प्रज्ञा० १ पद ।
से किं तं वैमाणिया १, वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - कप्पोपगा य, कप्पाईया य । प्रज्ञा० १ पद ।
( कल्पोपगा 'कप्पोपग' शब्दे तृतीयभागे २४१ पृष्ठे उक्ताः । ) से किं तं कप्पाईया ?, कप्पाईया दुविहा पत्ता, तं जहा - विजगाय, अणुत्तरोववाइया य । से किं तं गेविअगा ?, गेविअगा नवविहा पत्ता, तं जहा - हिट्टिमहिमिगेविगा हिट्टिममज्झिमगेविजगा हिट्ठिमउवरिमगेविजगा, मज्झिमहेट्ठिमगेविजगा मज्झिममज्झिमगेविजगा मज्झिमउवरिमगेविजगा, उवरिमहेट्ठिमगेविजगा उवरिममज्झिम विज्जगा उवरिमउवरिमगेविजगा । ते समास दुविहा पष्पत्ता, तं जहा-पञ्जत्तगा य, अपजत्तगा य । सेतं गेविजगा ||
'कप्पोगा कप्पातीय' त्ति कल्पः श्राचारः स चेह इन्द्रसामानिकत्रयस्त्रिंशादिव्यवहाररूपस्तमुपगाः- प्राप्ताः कल्पोपगाः सौधर्मेशानादिदेवलोकनिवासिनः यथोक्तरूपं कल्पमतीताः - श्रतिक्रान्ताः कल्पातीताः अधस्तनाधस्तनग्रैवेयकादिनिवासिनः, ते हि सर्वेऽप्यहमिन्द्रास्ततो भवन्ति कल्पातीताः । प्रशा० १ पद । प्रव० । उत्त० (अनुत्तरोपपातिकाः ' श्रणुत्तरोववाइय' शब्दे प्रथमभागे ३८३ पृष्ठे उक्ताः । ) ( ठाण' शब्दे चतुर्थभागे १७०७ पृष्ठे वैमानिकानां स्थानानि विमानानि च । ) - ( स्थितिरेषां ' ठिह' शब्दे चतुर्थभागे १७२६ पृष्ठे गता । )
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संप्रति कियन्त एकस्मिन् समये उत्पद्यन्ते ?, इति निरुपखार्थमाह-
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सोहम्मीसासु देवा एमसम एवं केवतिया उववअंति ९, गोयमा ! जहमें एको वा दो वा तिष्मि वा उकोसेव संखेज वा श्रसंखेजा वा उववजंति एवं ० जाव सइस्सारे आणतादी गेवेजा अणुतरा य एको वा दो वा तिथि वा उक्कोसेणं संखेजा वा उववअंति ? सोहम्मीसाखेसु यं भंते ! देवा समय समए अबहीरमाया अवहीरमाला केवति एवं कालेयं भवहिया सिया १, मोयमा ! ते से असंखेजा समए समए भबहीरमाणा अवीरमाया असंखेज्जाहिं उस्सप्पिलीहिं अवहीरंति नो वेव से अवहिया सिया जान सहस्सारो, भावतादिगेसु चउसु वि गेवेज्जेसु अणुत्तरेतु प • समय समय ० जाव केवतिकालेयं अवहिया सिया, गोयमा ! ते से असंखेज्जा समए समय भबहीरमाया पलियोनमस्स असंखेज्जतिभागमेत्तेयं भवहीरंति, नो वेव खं भवहिया
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बेमाणिय
बेमाशिय
अभिधानराजेन्द्रः। सिया । सोहम्मीसाणेसुणं भंते कप्पेसु देवाणं के महालया| अंतिमगेवेज्जा देवा सम्मद्दिट्ठी वि मिच्छादिट्ठी वि सम्मासरीरोगाहणा पएणता?, गोयमा दुविहा सरीरा पगण- मिच्छादिट्ठी वि। अणुत्तरोववातिया सम्मद्दिडी णो मिच्छाता, तं जहा-भवधारणिजा य, उत्तरवेउब्बिया य । तत्थ दिट्ठी को सम्मामिच्छादिट्ठी॥ सोहम्मीसाणा किं णाणी णं जे से भवधारणिज्जे से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज
अण्णाणी!, गोयमा ! दो वि तिमि णाणा तिणि अतिभागो उक्कोसेणं सत्त रयणीयो । तत्थ गंजे से उ- एणाणा णियमा जाच गेवेजा । अणुत्तरोववातिया नाणी सरवेउम्बिए से जहएणणं अंगुलसंखेजतिभागो, उ-|
नो भएणाणी तिमि णाणा नियमा तिविधे जोगे दुविक्कोसेणं जोयणसतसहस्सं, एवं एकेका ओसारेत्ता णं हे उवयोगे सब्वेसिं जाव अणुत्तरा । (सू० २१५) • जाव अणुत्तराणं एका रयणी । गेविजगुत्तराणं एगे
| 'सोहम्मी' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवा एक
स्मिन् समये, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् , कियन्त भवधारणिजे सरीरे उत्तरवेउब्बिया नऽथि ॥ (सू०२१३)।
उत्पद्यन्ते ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्येन एको द्वौ वा प्रयो सोहम्मीसाणेसु णं देवाणं सरीरगा किंसंघयणी परमत्ता, वा, उत्कर्षतः संख्यया वाऽसंख्येया वा, तिरश्वामपि गर्भजगोयमा छएहं संघयणाणं असंघयणी पएणत्ता, नेवढि ने- पञ्चेन्द्रियाणां तत्रोत्पादात्, एवं तावद्वक्तव्या यावत्सहस्रारव छिरा न वि एहारू णेव संघयणमत्थि । जेपोग्गला इट्ठा
कल्पः । ' प्राणयदेवाणं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुग
मम् । भगवानाह-गौतम! जघन्येनैको द्वौ वा त्रयो वा कंता. जाव ते तेसि संघातत्ताए परिणमंति० जाव अणु
उत्कर्षतः संख्येयाः, मनुष्याणामेव तत्रोत्पादात् , तेषां कोतरोववातिया । सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा किंसं
टीकोटीप्रमाणत्वात् , एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुठिता पएणता ?, गोयमा! दुविहा सरीरा-भवधारणिज्जा त्तरोपपातिका देवाः। सम्प्रति कालतोऽपहारतः परिमाय,उत्तरवेउब्बिया य । तत्थ णं जे ते भवधारणा ते स- णमाह-'सोहम्मी ' त्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोमचउरंससंठाणसंठिता पमत्ता । तत्थ णं जे ते उत्तरवेउ-|
देवाः समये समये एकैकदेवापहारेणापहियमासा अपहि
यमाणाः कियता कालेनापहियन्ते ? , भगवानाहबिया ते णाणासंठाणसंठिया पएणत्ता. जाव अच्चुओ।।
गौतम ! असंख्येयास्ते देवाः समये समये एकैकदेवापहाअवेउब्बिया गेविजगुत्तरा, भवधारणिजा समचउरंससं- रेणापहियमाणा अपहियमाणा असंख्ययाभिरुत्सर्पिण्यवसठाणसंठिता उत्तरवेउम्बिया णत्थि । (सू० २१४) सोह- पिणीभिरपहियन्ते । एतावता किमुक्तं भवति?-असंख्येयाम्मीसाणेसु देवा केरिसया वम्मेणं पन्नत्ता,गोयमा! क
सूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः सौ
धर्मेशानदेवा इति । एवमुत्तरत्रापि भावना भावनीया। एतच णगत्तयरत्ताऽऽभा वमेणं परमत्ता । सणंकुमारमाहिदेसुणं प
कल्पनामा परिमाणावधारणार्थमुक्तं न पुनस्ते कदाचउमपम्हगोरा वरमेणं पण्णत्ता | बंभलोगे णं भंते ! गोयमा! नापि केनाप्यपहृताः स्युः, तथा चाह-' नो चेव संग अवअल्लमधुगवण्णाऽऽभा वएणणं पण्णत्ता,एवं०जाव गेवेजा, हिया सिया' एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकअणुत्तरोववातिया परमसुकिल्ला वएणणं परमत्ता ॥ सो
ल्पाः देवाः, 'प्राणयपाणयारणअच्चुएसु' इत्यादि प्रश्नसूत्र
सुगमम् । भगवानाह-गौतम! श्रानतप्राणतारणाच्युतेषु क. हम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवाणं सरीरगा केरिसया गं
ल्पेषु देवा असंख्येयाः, ते च समये समये एकैकापहारेणाघेणं परमत्ता ?, गोयमा से जहाणामए-कोद्वपुडाण वा | पहियमाणाः पल्योपमस्य-क्षेत्रपल्योपमस्य सूक्ष्मस्यासंख्येतहेव सव्वं. जाव मणामतरता चेव गंधेणं पएणत्ता.
यभागमात्रेण कालेनापहियन्ते । किमुक्नं भवति ?-सूक्ष्मजाव अणुत्तरोववाइया ।। सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा
अपल्योपमासंख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणास्ते
भवन्तीति, एवं प्रैवेयकदेवा अनुत्तरोपपातिनोऽपि वाच्याः । केरिसया फासेणं परमत्ता ?, गोयमा ! थिरमउयणिद्धसुकु
सम्प्रति शरीरावगाहनामानप्रतिपादनार्थमाह- सोहम्मीमालच्छवि फासेणं पण्णत्ता, एवं० जाव अणुत्तरोववाति-1 साणेसु णं भंते !' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पया ॥ सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसगा पुग्गला उस्सासत्ताए। योर्देवानां - किंमहालया' इति किंमहती शरीरावगाहना परिणमंति?,गोयमा! जे पोग्गला इट्ठा कंताजाव ते तेर्सि
प्रक्षप्ता, भगवानाह-गौतम! द्विविधा प्राप्ता, तद्यथाउस्सासत्ताए परिणमंति. जाव अणुत्तरोववातिया, एवं
भवधारणीया, उत्तरक्रिया च । तत्र या सा भवधारणीया
सा जघन्यतोऽङ्गलासंख्येयभागमात्रा उत्कर्षतः सप्त रत्नयः। पाहारत्ताए वि० जाव अणुत्तरोववातिया ।। सोहम्मीसाण
तत्र या सा उत्तरवैक्रिया सा जघन्यतोऽलस्य संख्येयं देवाणं कति लेस्सानो पसत्तामो ?, गोयमा ! एगा तेउ- भाग यावत् न त्वसंख्येयं तथाविधप्रयत्नाभावात् , उत्कलेस्सा परमत्ता । सणंकुमारमाहिंदेसु एगा पम्हलेस्सा, एवं
र्षत एकं योजनशतसहस्रम् , एवं तावद्वाच्यं यावदच्युबंभलोगे वि पम्हा सेसेसु एका सुक्कलेस्सा । अणुत्तरोववा
तकल्पो, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कर्षतो भवधारणीया
षद् रत्नयः, ब्रह्मलोकलान्तकेषु पञ्च , महाशुक्रसहस्रारतियाणं एका परमसुकलेस्सा । सोहम्मीसाणदेवा किं सम्म-1
कि सम| योश्चत्वारः, पानतप्राणतारणाच्युतेषु त्रयः, ' गेवेज्जगदेहिद्दी मिच्छादिड्डी सम्मामिच्छादिट्ठी तिमि वि,जाव! वाणं भंते !' इत्यादि, अवेयकदेवानां भदन्त ! किंमहती
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(१५३५) बेमाणिय अभिधानराजेन्द्रः।
वेमाणिय शरीरावगाहना प्राप्ता !, भगवानाह-गौतम ! प्रैवेयकदे-1 द्रला उच्छासतया परिणमन्ति !, भगवानाह-गौतम ! वानामेकं भवधारणीयं शरीरं प्रज्ञसं न तसरवैक्रिय, शक्ती। पुद्रलाः इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोशा मनापा एतेषां व्यासत्यामपि प्रयोजनाभावात्तदकरणात् . तदपि च भवधा- ख्यान प्राग्वत् , ते तेषामुल्छासतया परिणमन्ति । एवं तावरणीयं जघन्यतोऽङ्गलासंख्येयभागमात्रमुत्कर्षतो द्वौ रत्नी। द्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः। एवमाहारसूत्राण्यपि । एवमनुत्तरोपपातसूत्रमपि वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षत एका रत्नि- सम्प्रति लेश्याप्रतिपादनार्थमाह- सोहम्मी' स्यादि, सौधर्मेरिति वाच्यम्। सम्प्रति संहननमधिकृत्याह-'सोहम्मी'त्यादि, शानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां कति लेश्याः प्राप्ताः ?, सौधर्मेशानयोर्भदन्त !कल्पयोर्देवानां शरीराणि किंसंहननानि भगवानाह-गौतम ! एका तेजोलेश्या , इदं प्राचुर्यमङ्गीककि संहननं येषां तानि तथा प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! | त्य प्रोच्यते, यावता पुनः कथञ्चित्तथाविधद्रव्यसम्पर्कतो:पयां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनासंहननानीति, संहन- | न्यापि लेश्या यथासम्भवं प्रतिपत्तव्या। सनत्कुमारमाहेन्द्रनस्याऽस्थिरचनात्मकत्वात् तेषांचाऽस्थ्यादीनामसम्भवात् । विषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-गौतम! एका पत्रतथा चाह-' नेवऽट्ठी' इत्यादि, नैवास्थि तेषां शरीरेषु नापि लेश्या प्राप्ता, एवं ब्रह्मलोकेऽपि, लान्तके प्रश्नसूत्रं सुगशिराग्रीवाधमनिर्नापि स्नायूंषि शेषं शिराजालम् , किन्तु-ये मम् । निर्वचनं-गौतम! एका शुक्ललेश्या प्रक्षप्ता, एवं यावपुद्रला इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोशा मनापतरा पतेषां दनुसरोपपातिका देवाः । उक्तं च-" किरादा नीला काऊ, व्याख्यान प्राग्वत्, ते तेषां सताततया परिणमन्ति, ततः | तेऊलेसाय भवणवंतरिया। जोइससुहम्मिसाणा, तेऊलसा सहननाभावः एवं तावद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिकानां दे- मुख्यब्वा ॥१॥ कप्पे सणकुमारे, माहिदे चेव बंभलोए य । वानाम् । सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसा- एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ ॥२॥" सम्प्र
सु' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-गौतम! तेषां ति दर्शनं चिचिन्तयिषुराह- सोहम्मी' त्यादि , सौधर्मशरीरकाणि द्विविधानि प्रशतानि, तद्यथा-भवधारणीयानि, शानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवा णमिति वाक्यालङ्कारे किं सउत्तरवैक्रियाणि च । तत्र यद् भवधारणीयं तत्समचतुरस्त्र- म्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयः १, भगवासंस्थानसंस्थितं प्रशतं देवाना भवप्रत्ययतः, प्रायः शुभना
नाह-गौतम! सम्यग्दृष्टयोऽपि मिश्यादृष्टयोऽपि सम्यमकर्मोदयभावात् । तत्र यदुत्तरवैक्रिय तत् नानासंस्थान- ग्मिथ्यादृष्टयोऽपि । एवं यावद् प्रैवेयकदेवाः, अनुत्तरोपसंस्थित प्रशतं, तस्येच्छया निवर्त्यमानत्वात् । एवं तापद्ध
पातिनः सम्यग्दृष्टय एव वक्तव्याः न मिथ्यादृष्टयो नापि क्तव्यं यावदच्युतः कल्पः । 'गेविज्जगदेवाण' मित्यादि प्रश्न- | सम्यग्मिध्यादृष्टयः तेषां तथास्वभावत्वात्। सम्प्रति शासूत्र सुगमम्। भगवानाह-गौतम! प्रवेयकदेवानामेकं भवधा- नाक्षानचिन्तां चिकीर्षुराह- सोहम्मी'त्यादि प्रश्नसूत्रं सुरणीयं शरीरं तच समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं प्राप्तम् ,
गमम् । भगवानाह-गौतम! शानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि, तत्र एवमनुत्सरोपपातिसूत्रमपि । अधुना वर्णप्रतिपादनार्थमाह- येशानिनस्ते नियमात्त्रिज्ञानिनः, तद्यथा-आभिनिबोधिक'सोहम्मी ' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त । कल्पयोर्देवानां
शानिनः श्रुतशानिनोऽवधिशानिनः। ये अज्ञानिनस्ते नियमात् शरीरकाणि कीरशानि वर्णेन प्राप्तानि ?, भगवानाह-गौ- ज्यशानिनः, तद्यथा-मत्यशानिनः, श्रुताशानिनो,विभङ्गशानितम! कनकत्वग्युक्तानि,कनकत्वगिव रक्का आभा-छाया येषां
नश्च, एवं तावद्वाच्यं यावद् ग्रैवेयकाः। अनुत्तरोपपातितानि तथा वर्णेन प्राप्तानि, उत्तप्तकनकवर्णानीति भावः, एवं
नो शानिन एव वक्तव्याः। योगसूत्राणि पाठसिद्धानि । शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्बन- सम्प्रत्यवधितेत्रपरिमाणप्रतिपादनार्थमाहलोकेऽपि च पत्रपदमगौराणि, पमकेसरत्तुल्यावदातवर्णानी
सोहम्मीसाणदेवा भोहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति ति भावः, ततः परं लान्तकादिषु यथोत्तरं शुकशुक्लतरशुक्रतमानि, अनुसरोपपातिनां परमशक्कानि । उकञ्च- "क
पासंति ?, गोयमा ! जहमेणं अंगुलस्स असंखेअतिगत्तयरत्ताऽऽभा,सुरवसभा दोसु होति कप्पेसु। तिसु होति | मागं उक्कोसेणं अवही जाव रयणप्पभापुढवी , उड्डे पम्हगोरा, तेण परं सुक्किला देवा ॥१॥" सम्प्रति गन्ध
जाव साइं विमाणाई तिरियं जाव असंखेजा दीप्रतिपादनार्थमाह- सोहम्मी ' त्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम् । भगवानाह-गौतम ! 'से जहानामए-कोटपुडाण वा'
वसमुद्दा एवंइत्यादि, विमानवद्भावनीयम् , एवं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरो. "सकीसाणा पढम, दोचं च सणकुमारमाहिंदा । पपातिनाम् । सम्पति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह- सोहम्मी- तचं च बंभलंतग-सुकसहस्सारगचउत्थी॥१॥ त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीरशानि स्पर्शन प्राप्तानि ?, भगवानाइ-गौतम ! 'थि
माणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढदि । रमउयणियसुकुमाला फासेण पण्णता' इति स्थिराणि न तु
तं चेव भारणच्चुय, श्रोहीनाणेण पासंति ॥ २॥ मनुष्यालामिव विशरारुभावं विभ्राणानि मृदूनि-अकठिना- बढि हेद्विममज्मिम-गेवेजा सत्तमि च उवरिला । निस्निग्धानि-स्निग्धच्छायानि न तु लक्षाणि सुकुमाराणि
.. संभिष्मलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा ॥३॥" न तु कर्कशानि ततो विशेषणसमासः, स्पर्शन प्राप्तानि, एवं तावतव्यं यावदनुत्तरोपपातिनां देवानां शरीर
(सू० २१६) काणि । साम्प्रतमुच्छासप्रतिपादनार्थमाह- सोहम्मी' 'सोहम्मी' त्यादि सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोदेवाः त्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त कल्पयोर्देवानां कीरशाः पु- कियक्षेत्रमवधिना जानन्ति मानेन, पश्यन्ति दर्शनेन ? , भ
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( १४३६) अभिधानराजेन्द्रः ।
बेमाणिय
गवानाह - गौतम ! जघन्येनाङ्गुलस्यासंख्येयभागम् अत्र पर चाह - नन्वङ्गुला संख्येयभागमात्रक्षेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तिर्यग्मनुष्येष्वेव न शेषेषु । यत आह भाष्यकारः स्वकृतभाष्यटीकायाम् - "उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नाम्येषु मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेवं जघन्यो नाम्येषु शेषाणां मध्यम एवेति " तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः १, उच्यते - सौधर्मादिदेवानां पार भाविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः संभवति स एव कदाचित्सर्वजघन्योऽपि उपपातानन्तरं तु तद्भवजः ततो न कश्चिद्दोषः । आह व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः - " वेमाणियाण अंगुल -भागमसंखं जहन्नम होइ ( श्रोही ) । उववार परभविश्र, तभवजो होइ तो पुच्छा ॥१॥" ' उक्कोसेरा ' ति एवं यथाऽवधिपदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यम्, तच्चैवम् उक्कोसे अहे जाव इमीले रयणप्पभाष पुढवीप हेट्ठिल्ले चरिमंते श्रध स्तनाच्चरमपर्यन्ताद् यावदित्यथः 'तिरियं०जाव असंखेजे दीवसमुद्दे उडुं० जाव सगाई विमाणाई' स्वकीयानि विमानानि स्वकीय विमानस्तूपध्वजादिकं यावदित्यर्थः ' जाणंति पा संति एवं संकुमारमाहिदाऽवि नवरं अहे०जाव दोच्चाए सक्करप्पभाष पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते, एवं बंभलोगलंतगदेवा वि, नवरं अहे० जाव तथाए पुढवीय महासुकसहस्सारगदेवा, चडत्थीप पंकप्पभाष पुढवीए छेडिले चरिमंते श्राण्यपाण्यआरच्यदेवा श्रहे ०जाव पंचमीप पुढबीए धूमप्पभाष द्विशे चरिमंते, हेट्टिममज्झिमवेज्जगदेवा छुट्टी तमप्पभार पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते, उवरिमगेवेजगा देवा हे • जावसत्तमाप पुढवीप हेट्ठिशे चरिमंते, अणुतरोववादयदेवा खं भंते ! केवइयं स्वतं श्रोहिणा जाणंति पासंति, गोयमा ! संभित्र लोगमालिं 'पारपूर्ण चतुईशरज्ज्वात्मिकां लोकनाडीमित्यर्थः ' ओहिणा जाति पासंति' इति । उक्तश्च
"सक्कीसागा पढमं दोच्चं च सरांकुमारमाहिंदा । तच्चं च बंभलंतग- सुक्क सहस्सारग चउत्थि ॥ १ ॥ आणयपाण्यकप्पे, देवा पासंति पंचमिं पुढवि । तं चैव आरणच्य, श्रहीनाणेण पासंति ॥ २ ॥
हिट्टिममज्झिम- गेविखा सत्तमिं व उवरिल्ला । संभिन्न लोगनालि, पासंति अणुत्तरा देवा ॥ ३ ॥ " जी० ३ प्रति० २३० । (समुद्रातादयः समुद्वातादिशब्देषु ) वैमानिकानां वासस्थानमाह
केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा पण्णत्ता १, गोयमा इमी से गं रयप्पा पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागा उडुं चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बीह बत्ता बहूणि जोयखाणि बहूणि जोयलसयाणि बहूणि जोयणसहस्साणि बहूणि जोयणसयसहस्साखि बहु
जोयकोडीओ बहुओ जोयणकोडाकोडीओ - संखेज्जाओ जो कोडाकोडीओो उ दुरं वीश्वरचा एत्थ गं वैमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसासयंमारमाहिंदबंभलं तगसुकसइस्सारभाययपाश्यभारकच्यु - पसु गेवेज्जगमणुत्तरेसु य चउरासीइं विमाणावासस --
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बेमालिय
यसहस्सा सत्तबउई च सहस्सा तेवीसं च विमाथा भवतीति मक्खाया, ते णं विमाणा अचिमालिप्पभा भासरासिवण्णाऽऽभा अरया नीरया खिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सव्वरयणामया अच्छा सराहा घट्टा मट्ठा णिपंका किंकडच्छाया सप्पभा सस्सरीया सउज्जोया पा-साईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा । (सू० १५०X )
' केवre ' त्यादि रत्नप्रभायाः पृथिव्या ' बहुसमरमणि - जाओ भूमिभागाओ ' ति बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य ऊर्ध्व - उपरि तथा चन्द्रमसः - सूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणि णमित्यलङ्कारे किं ? - वीइवइस 'ति व्यतिव्रज्य - व्यतिक्रम्येत्यर्थः, तारारूपाणि चेह तारका एवेति, तथा - बहूनी ' त्यादि किमित्याह - ऊर्ध्वम् उपरि दूरमत्यर्थ व्यनिवज्य चतुरशीतिविमानलक्षाणि भवन्तीति सम्बन्धः' इति मक्खाय 'त्ति इति - एवंप्रकारा, अथवायतो भवन्ति तत श्राख्याताः सर्ववेदिनेति । 'ते गं' तितानि विमानानि णमिति वाक्यालङ्कारे ' अचिमालिप्पभ' त्ति अर्चिमांलिः- आदित्यस्तद्वत्प्रभान्ति – शोभन्ते यानि तान्यर्चिर्मालिप्रभाणि तथा भासानां प्रकाशानां राशि:- भासराशि:- आदित्यस्तस्य वर्णस्तद्वदाभा-छाया वर्णों येषां केषांचितानि भासराशिवर्णाऽऽभानि, तथा ' श्ररय ' ति श्ररजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'नीरय 'ति नीरजांसि आगन्तुकरजोविरहात् 'निम्मल'त्ति निर्मलानि 'कक्खड' त्ति ( कर्कश ) मलाभावात् 'वितिमिर ' ति वितिमिरालि आहार्यान्धकाररहितत्वात् विशुद्धानि स्वाभाविकतमोषिरहात् सकलदोषविरामाज्ञा सर्वरत्नमयामि न दार्वादिदलमयानीत्यर्थः मच्छाम्याकाशस्फटिकवत् श्लक्ष्णानि सूमस्कन्धमयत्वात् घृष्टानीव घृष्टानि खरशाण्या पाषाणप्रतिमेव मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाण प्रतिमेवेति निपका कलङ्कविकलत्वात् कर्द्दमविशेषरहितत्वाद्वा निष्कङ्कटा - निष्कवचा निरावरण- निरुपघातेत्यर्थः, छाया-दीप्तियेषां तानि निष्कङ्कटच्छायानि सप्रभाणि - प्रभावन्ति समरीचीनि — सकिरणानीत्यर्थः सोद्योतानि - वस्त्वन्तरप्रकाशनकारीणीत्यर्थः, 'पासाईए' त्यादि प्राग्वत् । स० १५० सम० । चतुर्निकायेषु विमानाधिपतयः सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वेति ? प्रश्नोऽत्रोत्तरं विमानाधिपतितया यो देवविशेष उत्पद्यते स सम्यग्दृष्टिरेव भवति, न कदापि स मिथ्यादृष्टिरित्यनादिकालीना जगद्व्यवस्थितिः, यतो विमानाधिपतितयोत्पद्यमानो देवः ' किं मे पुव्वं करणिजं ? किंमे पच्छा करणिअं ? कि मे पुब्वं सेयं ? किं मे पच्छा सेयं ? किं मे पच्छा सेयं किं मे पुष्वं पि पच्छा वि हियाए सुद्दा समाए मिस्साए श्रानुगामिश्रत्ताए भविस्सर ?' इत्यादिराजप्रश्नीयोक्तशुभाभ्यवसायविशेषेण सम्यग्दृष्टिरेपावसीयते, सम्यक्त्वमन्तरेण तथाध्यवसायरूपपरिणामातुत्पतेः । न चायं प्रकारों राजप्रश्नीयाद्युपाक्ने सूर्याभदेवसम्बन्धित्यारितामुवादरूपोऽतः कथं सर्वेषामप्यन्यविमानाधिपतित्वेनोत्पद्यमानानां देवविशेषाणामयमेव प्रकार इति णीयम् प्रन्थान्तरे प्रकारान्तरस्यानभिधानाद्, अयेषामपि विमानाधिपतितयोत्पद्यमानानां तथाप्रकारस्य व
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वैमाणिय
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क्तुमौचित्याद्, अत एव विजयदेवाधिकारे तथा प्रकार एव विजयराजधान्यामुत्पन्नमात्रस्य विजयदेवस्यागमे भणित इति । किञ्च विमानाधिपतिदेवानां मिध्यादृत्वेिऽभ्युपगम्यमाने सहिमानगतसिद्धायतनजिनप्रतिमानां मिथ्याष्टिभाषितत्वेन भावग्रामताव्याघातः स्यात्, सम्यग्दृष्टिभावितानामेष - सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतानामेवेत्यर्थः, तासां भावग्रामतया प्रवचने प्रतिपादनात् न तु मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतानामपीति तथाचोक्तम्जा सम्मभाविद्याओ, प डिमारा भावगामो उति बृहत्कल्पनिर्युक्त स्पेकदेशो यथा याः सम्यग्दृष्टिपरिगृहीताः प्रतिमाः ता माग्राम उच्यते, नेतरा - मिथ्यादृष्टि परिगृहीता इत्यादि, किच - विमानाधिपतयो देवाः परैर्मिथ्यादृशोऽभिधीयन्ते, ते देवाः कि सीतामाशानां परिहरन्ति न था ? यदि प रिहरन्तीत्युच्यते, तदा मिथ्यादृष्टित्वं तेषां दत्ताञ्जस्य सम्पन्नम् । ' श्रसायणवजणाश्रो सम्मत ' मिति वचनेन सम्यत्वस्यैवाभिधानात् तत्राशातनापरिहारोऽपि " अहो देवाण व सीतं विससिमा वि जि
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( १४३०) अभिधानराजेन्द्रः ।
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रसाईहि समं, हासं कीलं च बजंति ॥ १ ॥ " इति प्रवचनामिति पय नापरः, तस्यागमे ऽनुक्ले, स च मिथ्यारष्टित्वे सति स्वप्नेऽपि न सम्भवति, किन्तु नियमतः सम्यग्दृशामेवात एव तथाशातनायर्जनस्वरूपशासिनां देवविशेषाणां वर्णवादोऽर्हतां वर्णवाद्रवत्प्रेत्य सुलभबोधिताहेतुर्भणितः तथा च स्थानाङ्गसूत्रम् -' पंचहि ठाणेहिं जीवा सुलभवोहिअनार कम्मे परैति अरहंताणं वयमासे जब विकितवयंभरा देयाणं वरणं पयमाने 'तूविदेशो यथा-तत्र देवानां वर्णवादो यथा 'अहो देवास य सीलं' इत्यादि । यश्च कैश्विदाशङ्कयते - मिध्यादृशोऽपि स्थानकमाहात्म्यात्तथा तपाशातना वर्ज्जयिष्यन्तीति, तदपि परास्तमव सातव्यं यतो मिथ्यादृशां दूरे वर्णवादस्य सुलभवोधिताहेतुत्वं प्रत्युत सम्यत्यदूषकत्वमेव तस्यागमेऽभिहितम्, यदुक्तम्-" शङ्का १ का २ विचिकित्सा ३, मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् ४ । तत्संस्तयश्च पञ्चापि ५ सम्यक्त्वं दूपयन्त्यमी ॥१॥" इति योगशास्त्र अथ तं न परिहरन्तीति द्वितीयपक्षः, स तूपेक्षणीय एव, आगमे सिद्धायतनेध्वाशातनापरिहरणस्यैवाभिधानात् ' बहूणं देवाएं देवीण या अवणिजाओ इत्यादिना यन्दनपूजनादेराशातनापरिहार पूर्व्वकतयैव भावादिति । आस्तां सिदायतनेषु यत्र सुधसभासु स्वमाणवक चैत्यस्तम्भेषु श्रीमष्ट्रालंकृताः समुद्रकास्तिष्ठन्ति तत्रापि देया नैव मैथुनादिप्रवृत्तिकरणादिनाऽऽशातनां कुर्व्वन्तीति । तस्मात्सिद्धं सुलभबोधिताहेतुतीर्थकृदाशातना परिहारान्यथानुपपरया वि मानाधिपतयः सम्यग्डशो भवन्तीति । किञ्च यदि विमानाधिपतिर्देवो मिथ्याष्टिरपि जिनप्रतिमाः पूजयतीति कल्पस्थितिरिति परे कल्पयन्ति, तथा तद्देवानुवृस्या परेऽपि तद्विमानवासिनो देवा विध्याथः किं न पूजयन्तीति परिकस्पयन्ति, सम्यग्दृष्ट्रयस्तु मा अर्हत्प्रतिमा मोक्षाय भवियन्तीति बुद्धया पूजयन्ति ( एवं वेत्) सम्बेखि देवाएं सम्बेसि देवीण य अच्चणिजे ' इत्यादिका पाठरचना कृताभविष्यत् परं सा न कृता, प्रत्युत 'बहुं देवा देवीण |
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३६०
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बेमायविदया
अणि' इत्यादिका पाठरचना कृता, ततोऽवसीयते य एव सम्यग्दृशो देवास्त एव जिनप्रतिमाः पूजयन्ति शकस्तवं च पठन्तीति सुधीभिः परिभावनीयम् । यत्तु एवं ख लु देवाप्पिएं अंतेवासी तीसप णामं अणगारे छटुं छद्वेष जाब समस्य देविंदस्स देवरको सामाविता देवा केमहिडिया' इति भगवत्यां तृतीयशतके प्रथमोद्देशके शक्रसामानिकानां निजनिजविमाने प्रत्पत्तिभणनात्तदाधिपत्यभयनाच सर्व्वे सामानिकसुरा विमानाधिपतयो भणिता, तथा भराने च तदन्तमतः समाऽमरोऽपि विमानाधिपतिरेव भणितोऽवसेयः, स चाभव्यत्वान्नियमात् मिथ्यादृष्टिरेयेति कथं सम्यग्र एव विमानाधिपतयः सर्वेऽपीति - क्तुं पार्यते इति विकल्पयन्ति, तदपि न सम्यग्, प्रवचनाभिप्रायस्य तैरनाकलनात्, न हि 'सयंसि विमासि' इति पाठवलेन चिमानाधिपति सामानिकानां सरस्वति तथा पाठस्य विमानाधिपतित्वं विनाऽप्यागमे उपलम्भात्, यतो ज्ञाताधर्मकात्रे कालिया कालावतंसकविमाने उत्पत्तिरभिहिता सूरप्रभाय्याः सूरप्रभे विमाने यावत्पचा देव्याः सोधमें कल्ये पद्मावर्त विमाने तथा कृष्णादेया ईशाने कल्पे कृष्णावतंसकविमाने उत्पत्तिर्भणिता, देवीनां चाप्रमहिषीणां न भवनानि न विमानानि प्रवचनेऽभिहितानि सन्ति, अपरिगृहीतदेवीनामेव विमानानां भणनात् । श्रयं च भावो - यथा देवीनां पृथग् विमानानि न सन्ति परं मूलविमानसम्बन्धिविमानकदेशः स्योत्पत्तियोग्यः तद्विमानत्वेन भणितः एवं सामानिकानामपि शरुविमानसम्यधी तदेकदेशः प्रभूतादिना नियमितः तदीयविमानत्वेन भण्यमानो न दोषावह इति । तदभिव्यञ्जकं जिनजन्मोरसवादी शसिहासनमण्डनव तदद्ममद्दिपीसिंहासनमण्डनयच्च चतुरशीतिसहस्र सामानिकदेवानामपि तदसिंहासनमण्डनमेवावसेयम्। यदि ते खामानिकाः शुकविमानवासिनो न स्युः ततः कथमिव तेषां सिंहासनानि शक्रविमाने मण्डितानि भवेयुरित्यपि स्वधिया पय लोच्यम् 'सखि विमासि' इत्यादि पाठावलोकनेऽपि न कोऽपि व्यामोहः कार्यः एवं च विमानाधिपतयः सम्यग्रहो भवन्तीति श्रागमिकयुक्तेः श्रागमप्रामाण्यात् तत्सितस्यार्थस्यापि प्रामाणिकत्वं प्रतिपत्तव्यमेव यदुक्तम्- 'राह क्या जहा जहा तस्स अवगमो होई । श्रागमिश्रमागमेणं, जुतीगमं तु जुत्ती ॥ १ ॥ 'ति, पञ्चवस्तुके यथा, नवरं चविमाने चन्द्र उत्पद्यते तत्सामानिकात्मरक्षकादयोति चन्द्रमामाभृतकवृतिमान्ते ऽस्तीति अतोऽपि स मको न पृथक विमानाधिपतिरित्यवसीयते । इति विमानाधिपतयस्सम्यग्दृष्टय एवेति व्यवस्थितम् ॥ ३७ ॥
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वेमाणियदेवित्थिया - वैमानिकदेवस्त्रिका - स्त्री० । वैमानिकदे व्याम् जी० २ प्रति० ।
बेमायद्वितिया - विमात्रस्थितिका - स्त्री० 1 विमात्रा विषयमात्रा स्थितिरायुर्वेषां ते विमात्रस्थितयः । विषमायुष्केषु, २०३४ शु० १ उ० ।
बेमायसिद्धया-विमात्रस्निग्धता श्री विषमा मात्रा यस्याः सा विमात्रा, सा वासौ स्निग्धता चेति विमात्रस्निग्धता । विमात्रस्नेहे, भ० ३४ श० १ ३० ।
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माया
अभिधानराजेन्द्रः। वेमाया-विमात्रा-स्त्री० । कदाचित्सातं कदाचिदसातमित्या- अन्भुवगमोवकमिया,निदा य अणिदा य नायव्वा ॥१॥ दिरूपायां विविधमात्रायाम् . भ. ६ श० १ उ० । स्या। सायमसायं सव्वे, सुहं च दुक्खं अदुक्खमसुहं च । विविधा मात्रा परिमाणमासामिति विमात्रा । विचित्रपरि- माणसरहियं विगलि-दिया उ सेसा दुविहमेव ॥२॥ णामायाम् , उत्त०२०। श्राव। श्रा०म०।
'सीया ( य) दवे' त्यादि, वेदना प्रथमतः शीता चशबेयडिय-वैकटिक-त्रि० । सुरासन्धानकारिणि, व्य०६ उ०। ब्दादुष्णा शीतोष्णा च वक्तव्या, तदनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालभावेयड-वैताढ्य पुं०। पर्वतविशेष, प्रश्न । वैतात्यसमीपे द्वि- | वर्वेदना वक्तव्या; ततः शारीरी उपलक्षणान्मानसी च वदना सप्ततिबिलानि क सन्तीति प्रश्नः ?, अत्रोत्तरं-वैताव्यनि
वाच्या, ततः साता तथा दुःखा वदना सभेदा वक्तव्यतया अया गङ्गासिन्ध्वोदिसप्ततिबिलानि, तत्र दक्षिणभरतार्द्ध उ.
ज्ञातव्या भवति , तदनन्तरमाभ्युपगमिकी औपक्रमिकी च तरभरताद्धे च तत्तटद्वये नव नव बिलसद्भावादिति । ८७।।
वेदना वक्तव्यतया ज्ञातव्या, ततोऽप्यनन्तरं निदा, चानिदा सेन०४ उल्ला।
चेति । सातसुखादीनां विशेषमाभ्युपगमित्यादिशब्दानामवेयह-वेतन-न० । मूल्ये, विपा०१ श्रु० ३०। उत्त।
थै स्वग्रे वक्ष्यामः । सातादिवेदनामधिकृत्य यो विशेषो वच्यते
तत्संग्राहिका द्वितीया गाथा- सायमसाय' मित्यादि सर्वे वेदन-न० । अनुभवे, स्था० ८ ठा०३ उ०। प्राचा।।
संसारिणः सातामसातां चशब्दात्-सातासातां च वेदनां कर्म। सत्रः । अवनं गमनं वद मति पर्यायाः । श्रा० म० वेदयन्ते, तथा सुखा दुःखाम् , अदुःखासुखां च, तथा विक१५०म० । स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाक- लन्द्रिया-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः तुशब्दस्याधिकारार्थसंसूरणेन चोदयभावमुपनीतस्यानुभवने, स्था० ४ ०१ उ०। चनार्थत्वादसंक्षिपञ्चन्द्रियाश्च मानसरहितां-मनोविकलां वेदश । प्रतिसमयं स्वेन रसविपाकनानुभवने, स्था० ४ ठा० दनां वेदयन्ते, शेषास्तु द्विविधामेव शरीरमनोनियन्धनां , ४ उ०। उदय, वश०४०।
शारीरी मानसीं तदुभयसमुद्भवां चेति भावः, निदाऽनिवेयणहियासण-वेदनाध्यासन-न । खुदादिपीडासहने ,
दादिगतस्तु वशेषो न संग्रहीतो, विचित्रत्वात् सूत्रगतः । भ०१७ २०३ उ०।
तत्र 'यथाहश निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतः शीतादिबेयणंतिया-वेदनान्तिका-स्त्रीलाबाम्या लिपेहेंदे,स०१८सम।।
वेदनाः प्रतिपादनार्थमाहवेयणवेयावच्च-वेदनावैयावृत्य-न० । वेदना चचुवेदना वैया- कइविहा गं भंते ! वेदणा पत्ता, गोयमा ! तिविहा अयं चाचार्यादिकत्यकर वेदनावयावृत्यमा वेदनोपशम- वेदणा परमत्ता, तं जहा-सीता उसिणा सीतामिणा । मार्थे वैयावृत्यकरणे, म्था० ६ ठा० ३ उ० । वेदनावैयावृ- काविहा णं भंत!' इत्यादि , शीना-शीतपुदलसंपर्कस्थार्थ भुजीत तत्र खुवेदनोपशमनाय भुञ्जीत यतो नास्ति | समुत्था , एवमुष्णा , या च अवयवभेदन शीतोष्णपुगलसंसुत्सरशी वेदना । ग०२ अधिः ।
पर्कतः शीता उष्णा च सा शीतोष्णा। वेयणा-वेदना-स्त्री०। वेपतेऽनयति वेदना । योगशास्त्रपरि- पनामेव त्रिविधां वेदनां नैरयिकादिचतुर्विंशतिदराडभाषया स्पर्शनेन्द्रियजे माने, यत्प्रकर्षाहिव्यस्पर्शविषय शान
कक्रमेण चिन्तयतिमुत्पद्यते । दा० २६ बापावा वेदनं वेदना स्वभावेनो- नेरइयाणं भंते ! किं सीतं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं दीरणाकरलेन चोबजावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवने, सं- वेदेति, सीतोसिणं वेदणं वेदेति ?, गोयमा! सीतं पि बरविशेष छायोग्यवस्थारूपे कर्मणां वेदनैव भवति न बन्ध वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं वेदेंति, नो सीतोसिणं इति । स्था।
वेदणं वेदेति । केई एकेकपूढवीए. वेदणाओ भणंति , वेदनास्वरूपमाहएगा वेयणा । (सू०१५)
रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! पुच्छा , गोयमा ! नो वेदनं वेदना-स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयावलिका- सीतं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेति. नो सीतोसिणं प्रथितस्य कर्मणोऽनुभवनमिति भावः । सा च झानावरणी-- वेदणं वेदेति, एवं जाव वालुयप्पभापुढविनरहया, पंकयादिकापेक्षया अष्टविधाऽपि विपाकोदयप्रदशोदयापेक्ष- प्पभापुढविनरइया णं पुच्छा, गोयमा। सीतं पि वेदणं या द्विविधाऽपि श्राभ्युपमिकी-शिरोलोचादिका औपक्र-तिबेटोसोम मिकी-रोगादिनितेत्येवं द्विविधाऽपि वेदना सामान्यादेकैबेति । स्था० १ ठा० । औ०। स० । स्वशरीराव्यक्तचेतनायाम,
वेदेंति, ते बहुयतरागा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवआचा०१ श्रु०११०२ उ० कर्मानुभवे, 'णत्थि वेयण' तरागा जे सीतं वेदणं वेदेति । धूमप्पभाए एवं चेव दविहा, ति न संज्ञां निवेशयेत् । सूत्र०२ श्रु०५ अ०।शाने, साता. नवरं ते बहुयतरागाजे सीतं वेदणं वेदेति,ते थोवतरागाजे सातरूपे, सूत्र०२ श्रु०२०। सुखदुःखानुभवस्वभावा वे. उसिणं वेदणं वेदेति । तमाए य तमतमाए य सीयं वेदणं धन्त इति वेदनाः। शीतोष्णशाल्मल्याश्लेषणादी, उत्त०५ अ
वेदेति, नो उसिणं वेदणं वेदेति, नो सीतोसिणं वेदणं भावाचा०। नयनादिपीडायाम्, स्था०७ठा०३ उ०।। दुःखे, स्था०४ ठा०१उ० । उत्त।
वेदेति । असुरकुमारा णं पुच्छा, गोयमा! सीतं पि वेदणं . वेदनावक्तव्यतार्थाधिकारसंग्रहः
वेदेति उसिणं पि वेदणं वेदेति सीतोसिणं पि वेदणं मीता(य)दवसरीरा, साता तह वेदणा भवति दुक्खा । वेदेति, एवं जाव चेमाणिया । (सू० ३२८४)
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वेपणा मभिधानराजेन्द्रः।
यणा 'णेरइयाण' मित्यादि, तत्राद्यासु तिसषु पृथिवीपूष्णांव- वशः शीतोष्णपुरलसम्बन्ध इति , व्यन्तरज्योतिक्रवैमादनां वेदयन्ते, ते हि शीताः ये नरकावासाश्च तदाश्रयभूना: निकास्त्वसुरकुमारवत् भावनीयाः । उता शीतादिभवाद सर्वतो जगत्प्रसिद्धखादिराङ्गरातिरिकबहुप्रतापोष्णपुनलम-! त्रिविधा वेदना । प्रशा० ३५ पद । म्भूताः, चतुर्थ्यां तु पङ्कप्रभाभिधानायां पृथिव्यां केचिन्नरयिका उष्णवेदनां केचिच्च शीतवेदनामनुभवन्ति, तत्र
तिसुणं पुढवीसुणरायाणं उसिणवेयणा पत्ता , तं स्यनरकावासानां शीतोष्णभेदतो द्विधा भेदात् , केवलं ये जहा-पढमाए दोच्चाए तचाए, तिगुणं पुढवीसुगरइया उष्णवेदनां वेदयन्ते ते प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेपू. उसिणवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति-पढमाए दोचाए ष्णवेदनासद्भावात् । इतरे शीतवेदनामनुभवन्तः स्तोकाः,!
तच्चाए । (सू० १४७+) स्तोकतरेषु नरकावासेषु शीतवेदनासम्भवात् । धूमप्रभायामपि पृथिव्यां केचित् शीतवेदनाकाः केचिदुष्णवेदनाकाः,
'उसिणवेयण ' ति तिरुणामुधगम्वभावत्वात् , तिस्पु नवरं शीतवेदमाकाः प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेषु शी-1
नारका उष्णवेदना इत्युक्त्याऽपि यदुच्यते-नैरयिका उतवेदनासम्भवात् , स्तोका उष्णवेदनाः कतिपयध्वेव नर
ष्णवेदना प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति तत्तद्धेदनासातत्यप्रकावासघृष्णवेदनाभावात् । अधस्तम्योस्तु द्वयोः पृथिव्योः दशनाथम् । स्था०३ ठा० उ०।। शीतवेदनामेव नैरयिका अनुभवन्ति , तत्रत्यनैर- संप्रति तामेव वेदानां प्रकारान्तरेणाभिघित्सुः प्रश्ननिर्ययिकाणां सर्वेषामुष्णयोनिकत्वात् , नरकावासनां त्वनुप
चनसूत्रे आहमहिमानुषकत्वात् । एतावत्सूत्रं चिरन्तनेविप्रतिपत्त्या श्रू- कतिविहाणं भंते ! वेदशा परमत्ता.गोयमा ! चयते । केचिदाचार्याः पुनरेतद्विषयमधिकमपि सूत्रं पठान्त,
उबिहा वेदणा पएणत्ता,तं जहा-दव्यतो , खेत्ततो ततस्तम्मतमाह-केड एकेकीए पुढवीए वयणं भगति ' इति केचिदाचार्या एकैकस्यां पृथिव्यां प्रश्ननिर्वचनरूप- कालतो, भावतो । नेरइया णं भंते! किं दबतो बेदणं तया वेदना भणन्ति , यथा भणन्ति तथोपदर्शयन्ति-र- देंति जाव किं भावतो वेदणं वेदेति ?, गोयमा । यणप्पभे' त्यादि सुगमम् । तदेव नैरयिकाणां चिन्तिता शी. | दबओ वि वेदणं वेदेति जाव भावना वि वेदणं घेदें-- तादिवेदना । सम्प्रत्यसुरकुमाराणां तां चिचिन्तयिषुरिदमाह
ति, एवं० जाव वैमाणिया। 'असुरकुमाराणं पुच्छा' असुरकुमाराणां शीतादिवेदना
'काविहाण भंते!' इत्यादि, इह बेदना व्यक्षेत्रकालविषये पृच्छासूत्रं च वक्तव्यम्,'असुरकुमाराणं भंते ! किं
भावसामग्रीवशादुत्पद्यते, सर्वस्यापि वस्तुनो द्रव्यादिसासीय वेदणं वयंति उसिणं वेयणं वेयंति सीओसिणं बेयां वेयंति ?,' इति भगवानाह-'गोयमे' त्यादि, शी
मग्रीवशादुत्पद्यमानत्वात् , तत्र यदाऽस्यैव वेदना पुद्रलतामपि वेदनां वेश्यन्ते , यदा शीतलजलसम्पूर्णडवादिषु
द्रव्यसम्बन्धमधिकृत्य चिन्त्यते तदा द्रव्यवदना, द्रव्यतो निमज्जनादिकं विदधति , उष्णामपि वेदनां वेदयन्ते यदा
वेदना द्रब्यवेदना । नारकाद्युपपातक्षेत्रमधिकृन्य चिन्त्यमा
ना क्षेत्रवेदना । नारकादिभवकालसम्बन्धन विवक्षमाणा कोऽपि महर्थिकस्तज्जातीयोऽन्यजातीयो वा कोपवशात्
कालवेदना । वेदनीयकर्मोदयादुपजायमानत्वेन परिभाव्यविरूपतया उपचाऽवलोकमानः शरीरे सन्तापमुत्पादयति
माना भाववेदना । पतामेव चतुर्वेधां वेदनां चतुर्विशतियथा प्रथमोत्पन्नः ईशानेन्द्रो बलिचचाराजधानीवास्तव्या
दण्डकक्रमेण चिन्तयति-नरहया ण भंते ! किं दब्बतो नामसुरकुमाराणामुत्पादितवान् , अन्यथा वा तथाविधो
वेयणं वेदेति' इत्यादि, सकलमपि सुगमम् । ष्णपुगलसम्पृक्तावुष्णवेदनामनुभवन्तो वेदितव्याः । यदा
प्रकारान्तरेण वेदना प्रतिपिपादयिषुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे पाहत्ववयवभेदेन शीतपुरलसम्पर्क उष्णपुद्रलसंपर्कश्योपजायते
कतिविहा णं भंते ! वेदणा पएणत्ता १, गोयमा!तितदा शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ते । ननु उपयोगः क्रमेण जीवानां भवति तथास्वाभाव्यात् , कथमत्र शीतोष्णवेदनानुभवो युग
विहा वेदणा पएणत्ता, तं जहा-सागरा , माणसा, पत् प्रख्याप्यते इति ?, उच्यते-दहापि वेदनानुभवः क्रमेणैव, सारीरमाणसा । नेरइया णं भंते ! किं सारीरं वेदशं वेदेंतथाजीवस्वाभाब्यात् , केवलं शीतोष्णवेदनाहेतुपुद्गलस- ति माणसं वेयणं वेदेति सारीरमाणसं वेदणं वेदेति ?, म्पकों युगपदुपजायत इति सूक्ष्ममाशुसश्चारिणमुपयोग- गोयमा!, सारीरं पि वेदणं वेदेति माणसं पि वेदणं । क्रममनपेक्ष्य यथैव ते वेदयमाना युगपदभिमन्यन्ते तथैव
वेदेति सारीरमाणसं पि वेदणं वेदेति, एवं० जाव वेप्रतिपादितमिति न कश्चिदोषः, सामान्यतः सूत्रस्य प्रवृतत्वात् । एवं जाव वेमाणिय ति ' एवम्-असुरोलेन
माणिया। नवरं एगिदियविगलिदिया सारीरं वेदणं वेप्रकारेण यावद वैमानिकास्तावद सूत्रं वक्तव्यं, तश्चैवम्- दात, ना माणस पदक पदात, ना सारारमायस पदस 'पुदविकाइया णं भंते ! किं सीयं वेयणं वयंति उसिणं | वेदेति । बेयणं वेयंति सीआसिणं वेयणं वेति ?, गोयमा ! सीय | 'काविहाणं भंते !' इत्यादि शरीरे भवा शारीरी मनपि वेयण वेयति उसिणं पि वेयणं वयंति सीतोसिणं पि |सि भवा मानसी, तदुभयभवा शारीरमानसी, शारीरी व वेयणं वेयंति' इत्यादि । तत्र पृथिवीकायिकादयो मनु- मानसी च शारीरमानसी 'पुंवत्कर्मधारय' इति पुंबडावः।। व्यपर्यवसानाः शीतवेदनां हिमादिप्रपातेऽभिवेदयमाना - एतामेव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेन चिन्तयति-'नेस्या गं दिवग्याः , उष्णवेदनामयादिसम्प शीतोष्णवेदनामवय- | भंते ! कि सारीरं वेयरणं वेदेति' इत्यादि, तत्र यदा पर
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(१५४०) वेयणा अभिधानराजेन्द्रः।
बेयणा स्परोवारणतः परमाधार्मिकोदीरणतो वा क्षेत्रानुभावतो वा विहा णं भंते !' इत्यादि, या वेदना नैकान्तेन दुःखा भशरीरे पीडामनुभवन्ति तदा शारीरी वेदनां वेदयन्ते । णितुं शक्यते सुखस्यापि भावात् , नापि सुखा दुःखस्यापि यदा तु केवलं मनसि दुःखं परिभावयन्ति पाश्चात्य था भावात् । सा अदुःखसुखा सुखदुःखारिमका इत्यर्थः। अथ भवमास्मीयं दुष्कर्मकारिणमनुसृत्य पश्चातापमतीव कुर्वते सातासातयोः सुखदुःखयोश्च परस्परं कः प्रतिविशेषः १, तदा मानसी वेदनां वेदयन्ते । यदा तु शरीरे मनसि चो- उच्यते-ये क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुतलानुभवतः साताsकप्रकारेण युगपत् पीडाम् अनुभवन्ति तदा शारीरमानसी । साते ते साताऽसाते उच्येते, ये पुनः परोदीर्यमाणवेदनारूपे बहापि वेदनानुभवः क्रमेणैव केवलं विवक्षिततावत्का- साताऽसाते ते सुखदुःखे इति । एतामेव चतुर्विंशतिदण्डलमध्ये शरीरे च पीडामनुभवन्ति मनसि च एतावन्तं कक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया ण ' मिस्यादि । कालमेकं विवक्षित्वा युगपच्छरीरमनःपीडानुभवः प्रतिपादित इत्यदोषः। 'एवं जाव घेमाणिया' इत्यादि, एवं
वेदनामेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाहमैरयिकोकेन प्रकारेण सूत्रं तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः, कतिविहा णं भंते ! वेदणा पएणता!, गोयमा!दुमवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः शारीरी वेदनां वेदयन्ते न विहा वेयणा पएणता, तं जहा-अम्भोवगमिया य, मानसीं, तेषां मनसोऽभावात् , ततस्तदनुसारेण तद्विषयं
उवकमिया य । नेरड्या णं भंते ! अम्भोवगमियं वेदणं सूत्रं वक्रब्यम्।
वेदेति उवक्कमियं वेदणं वेदेति ?, गोयमा ! नो अब्भोप्रकारान्तरेण वेदनामभिधित्सुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे पाह
वगमियं वेदणं वेदेति, उवक्कमियं वेदणं वेदेति , एवं . कइविहा णं भंते ! वेदणा पएणत्ता ?, गोयमा ! ति
जाव चउरिंदिया , पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मरणूसा य विहा वेयणा पएणता, तं जहा-साता, असाता, साता
दुविहं पि वेदणं वेयंति, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जसाता | नेरइया णं भंते ! किं सायं वेदणं वेदेति, अ
हा नेरइया ॥ (सू० ३२६) सातं वेदणं वेदेति, सायासायं वेदणं वेदेति ? । गोय
'कतिविहा पे भंते !'इत्यादि , तत्राभ्युपगमिकी नाम मा! तिविहं पि वेयणं वेयंति, एवं सबजीवा० जा
या स्वयमभ्युपगम्यते, यथा साधुभिः केशोल्लुश्चनातापबवेमाणिया। कतिविहा णं भंते ! वेदणा पएणत्ता', नादिभिः शरीरपीडा, अभ्युपगमेन-स्वयमङ्गीकारेण निगोयमा ! तिविहा पमत्ता, तं जहा-दुक्खा, सुहा, अदु- वृत्ता आभ्युपगमिकीति व्युत्पत्तेः , उपक्रमणमुपक्रमःखसुहा । नेरइया यं भैते! किं दुक्खं वेदणं वेदेति पु- स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं च्छा, गोयमा! दुक्खं पि वेदणं वेदेति, सुह पि वेदणं
तेन निर्वृत्ता औपक्रमिकी , स्वयमुदीर्णस्य उदीरणाकर
णेन वा उदयमुपनीतस्य वेदनीयकर्मणो विपाकानुभवनेन वेदेति, अदुक्खमसुहं पि वेदणं वेदेति, एवं० जाव वेमा
निर्वृता इत्यर्थः । तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याच द्विवि. णिया । (सू. ३२८ ॥
धामपि वेदना घेदयन्ते , सम्यग्दृशां पश्चेन्द्रियतिराम'काविहा णं भंते !' स्यादि, तत्र साता-सुखरूपा - नुष्याणां च कर्मक्षपणार्थमाभ्युपगमिक्या अपि वेदनायाः साता-दुःखरूपा साताऽसाता-सुखदुःखात्मिका, पतामेव सम्भवात् , शेषास्त्वोपकमिकी मेष वेदनां घेदयन्ते नाभ्युनैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डककमेण चिन्तयति- नेराया ण' पगमिकीम् , पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणा मित्यादि, तत्र तीर्थकरजन्मादिकाले सातवेदनां वेदयन्ते, मनोविकलतया विवेकाभावतस्तथाप्रतिपत्तेरभावात् ,नाशेषकालमसातवेदना वेदयन्ते, यदा तु पूर्वसङ्गतिको देवो रकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च तथाभवदामवो था वचनामृतेः सिञ्चति तदा मनसि सातं श- स्वाभाब्यादिति । एतदेव सूत्रकत् प्रतिपादयति-'मेराएरीरे तु क्षेत्रानुभावतोऽसातम्, यदिवा-मनस्येव तहशमतः या णं भंते !' इत्यादि सुगमम् । सचमभषषतश्च सातं पश्चात्तापानुभवनतस्त्वसातमिति,
पुनः प्रकारान्तरेण वेदनामेवामिधिसुराहतदा सातासातवेदनामनुभवन्ति । अत्रापि तावन्तं विषशितकालमेकं विवक्षित्वा सातासातानुभवो युगपत् प्रति- कतिविहाणं मंते! वेदना पसत्ता, गोयमा दुविपादिता, परमार्थतस्तु कमेणैव व वेदितव्य इति । एव- हा वेदना पसत्ता, तं जहा-निदा य, मणिदाय। नेरइया मित्यावि.एवं-रथिकोकप्रकारेण सर्वे जीवास्ताववक्तव्या| भंते किंनिदायं वेयशं वेदयंते, भासिदाय वेपणं वेदयाववैमामिकाः, तत्र पृथिव्यादयो यावशाचाप्युपद्रवः स| निपतति तावत् सातवेदनां वेदयम्ते, उपद्रपसम्पाते स्वसा
यंते ?, गोयमा ! निदायं पि वेदणं बेदेंते , अणिदाय पि संवेदनामवयवभेदेनोपद्यसम्पातभावे सातासातवेदमाम् । वेदणं वेदयते । सेकेणड्डेसं मते! एवं खुचाइ, नेरहया निभ्यन्तरज्योतिम्कवैमानिका देवाः सुखमनुभवन्तः सातवेद- दाय पि अनिदा पिवेयशं वेदेति, गोयमानेरइया .. नो, व्यवमादिकाले वसातवेदना, परविभूतिदर्शनतो मा
दुविहा पत्ता ,जहा-सएणीभूया य, असमीभूया सर्याचमुमचे स्वबामदेवीपरियडापनुभवे च युगपज्जाबमाने सातासातवेदना घेदयन्ते इति । भूयः प्रकारान्त-1
या तत्वजेते समीभूया तेथे निदायं पिबेयर्थ वेरेल एतामेव प्रतिपादयम् प्रश्ननिर्वचनसूखे माह-का- देति , सत्यजेते असलीभता तेणं मणिदायं वेद
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(१४४१) वैयणा
अभिधानराजेन्द्रः। चेदेंति, से तेणड्डेणं एवं वुबह १, गोयमा! एवं नेरइया अनिदामपि वेदनां वेदयन्ते इति वक्तव्या इत्यर्थः। कस्मादिनिदाय पि वेयणं वेदेति अणिदायं पि वेयणं वेदेति, एवं०
ति चेत् , उच्यते-रह पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्याच जाव थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! नो
द्विधा भवन्ति. तद्यथा-सम्मूञ्छिमा, गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च ।
तत्र ये सम्मूच्छिमास्ते मनोविकलत्वाइनिदां घेदना वेदयनिदायं वेयणं वेदेति, अणिदायं वेयणं वेदेति । से केणद्वे
म्ते, ये तु गर्मव्युत्क्रान्तास्ते समनस्का इति निदा वेदनामनु. शं भंते ! एवं बुच्चइ पुढविकाइया नो निदायं वेयणं भवन्ति, व्यन्तरास्तु संविभ्योऽपि उत्पद्यन्ते, असमिभ्योऽपि वेदेति अणिदाय वेयणं वेदेति !, गोयमा! पुढविकाइया ततस्तेऽपि नैरयिकवत् निदा चानिदां च वेदनां वेदयमाना सम्वे असमी असमिभूयं अणिदायं वेयणं वेदें
भावमीयाः। 'जोइसियाण' मित्यादि, ज्योतिष्कास्तु सहि
भ्य एवोत्पद्यन्ते, ततस्तेषु न नैरयिकोक्नेन प्रकारेण निति, से तेण्डेणं गोयमा! एवं वुच्चइ पुढवि
दाऽनिदे वेदने सम्भावनीये, किन्तु प्रकारान्तरेण , काइया नो निदायं वेयणं वेदेति , आणिदायं ततस्तमेव प्रकार बुभुत्सुः प्रश्नसूत्रमाह-से केवेयणं वेदेति, एवं जाव चउरिदिया, पंचिदियतिरिक्ख- गटेणं भंते।' इत्यादि सुगमम् । भगवानाह-गोयमे' जोणिया मरणूसा वाणमंतरा जहा नेरइया । जोइसियाणं
त्यादि, ज्योतिष्का हिद्विविधाः-मायिमिथ्यारपुपपत्रका
ममाथिसम्यग्यु पपत्रकाचतत्र मायानिवर्सितं यत्कर्म पुच्छा, गोयमा! निदायं पि वेयणं वेदति मणिदार्य पि मिथ्यात्वादिकं तदपि माया, कार्ये कारणोपचारात्, माया वेयणं वेदेति । से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चह-जोइसिया विद्यते येषां ते मायिनः,अत एव मिथ्यात्वोदयात् मिथ्यानिदायं पि वेदणं वेदेति प्राणिदायं पि वेयणं वेदेति !, विपर्यस्ता राष्टिः-वस्तुतस्वप्रतिपत्तिर्येषां ते मिथ्यारष्टयः, गोयमा ! जोइसिया दुविहा पपत्ता, तं जहा-माइमिच्छ
मायिनश्च ते मिध्यादृष्टयश्च मायिमिथ्यादृष्टयस्ते च ते उपपदिद्विउववामगा य , अमाइसम्मद्दिहिउववष्णगा य । तत्थ
सकाच मायिमिथ्यारघुपपत्रकाः, तद्विपरीता प्रमायिस
म्यगृहयुपपत्रकाः। तत्र ये मायिमिथ्यारयुपपन्नकास्ते णजे ते माइमिच्छद्दिविउववलगा ते णं अखिदायं वेयणं पि मिथ्याष्टिस्वादेव व्रतविराधनातोऽजानतपोवशाद्वा ववेयंति, तत्थ णं जे ते अमाई सम्मदिट्टी उवमगा ते णं यमेवंविधा उत्पन्ना इति न जानते, ततः सम्यग्यथावस्थितनिदायं वेयणं वेदेति, से एतेणद्वेणं गोयमा! एवं वुश्चइ
परिक्षानाभावादनिदां वेदनां वेश्यमानास्ते वेदितव्याः। ये
त्वमाथिसम्यग्दृश्युपपन्नास्ते सम्यग्दृष्टित्वात् यथावस्थिजोइसिया दुविहं पि वेयणं वेदेति , एवं वेमाणिया वि ।
तं स्वरूपं जानन्ति, ततो यां काश्चन वेदना वेदयन्ते तां सर्वा(१० ३३० ) पसरणाए वेयखापयं समत्तं ॥३५॥ । मपि निदामिति । एवं चेव वेमाणिया वि' इति एवं-ज्यो'कतिविहा संभंते !' इत्यादि, निदा च, अनिदा च । तत्र
तिकोनेन प्रकारेण वैमानिका अपि निदामनिदां च वेदना मित निमितं वा सम्यक दीयते चित्तमस्यामिति निदा, |
वेदयमाना वेदितव्याः, तेषामपि मिथ्याष्टिसम्यग्दष्टिभेदतो बहुलाधिकाराद् 'उपसर्गादातः'।५।३।११०। इत्यधिकरणे
द्विविधत्वात् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाघम् सामान्येन चित्तवती-सम्यग्विवेकवती वा इत्यर्थः,
टीकायां वेदनाख्यं पञ्चत्रिंशत्तमं पदं समाप्तम् । प्रशा० ३५ इतरा त्वनिदा-चित्तविकला सम्यग्विधेकविकला वा,पता
पद । मेव चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण प्रतिपादयति--'नेस्या ग' । नेरड्या दसविहं वेयणिजं पच्चणुभवमाणा विहरति, तं मित्यादि.द्विविधा हि नैरयिकाः-संशिभूताः, असंशिभू- जहा-सीयं उसिणं खहं पिवासं कंडुपरज्म जर दाह भसाधा तत्र ये संशिभ्य उत्पन्नास्ते संशिभूताः, ये स्व-सहायता संशिभ्यस्तेऽसंविभूताः , असंशिनश्च पाश्चात्यं न किमपि जन्मान्तरकृतं शुभमशुभं वैरादिकं वा स्मरन्ति । स्मरणं |
'नेरइये' त्यादि, 'परज्म'सि पारवश्यम् । भ०७ श. हि तत्र तत्र प्रवर्तते यत्तीवेणाभिसन्धिना कृतं भवति,न | ८ उ०। चासंविभवे पाचात्ये तेषां तीवाभिसन्धिरासीत् , मनो- दोहिं ठाणेहिं आया वेएइ, देसण वि , सब्वेण वि । विकलत्वात् ततो यामपि कथञ्चिवदनां नैरायिका वेदय
(म-८०) न्ते तामनिदां , पश्चात्यभवानुभूतिविषयस्मरणपटुचित्ता
वेदयति-अनुभवति देशेन हस्तादिना अवयवेन सर्वेण ससम्भवात् । संशिभूतास्तु सर्व पाश्चात्यमनुस्मरन्तीति ते निदा वेदना वेदयन्ते इति । एवमसुरकु
वियवैराहारसत्कान् परिणमितपुद्गलान् इष्टानिष्टपरिणाममारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्त
तः । स्था०२ ठा०२ उ०। ( पूर्व वेदना पश्चात् क्रिया इति ज्याः , तेषामपि संनिभ्योऽसशिभ्यश्चोत्पादसम्भवात् ।
'किरिया' शब्द तृतीयभागे ५४६ पृष्ठे गतम् ।) पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रिया सम्मूछिमा यत्र पापं कर्म क्रियते तत्रैव बेचतेइति मनोविकलत्वातू अनिदामेव वेदनां वेदयन्ते। 'पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा वाणमंतरा जहा नेत्या'
जे देवा उड्डोववन्नगा कप्पोववनगा विमाणोववन्नगा इति, पश्शेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्या व्यन्तराश्च यथा नैर- चारोववनगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावनगा. यिकास्तथा वक्तव्या इति शेषः, निदामपि वेदनां वेदयन्ते । तेसिणं देवाशं सया समियं जे पावे कम्मे काइ तत्थ
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(१७४२) बेपणा अमिषानराजेन्द्र:।
बेपणा गया वि एगइया वेयणं वेयंति, अन्नत्थ गया वि एगइया
सा एकगम' ति शेषण ब्यन्तरज्योतिश्कवैमानिका एकबेयणं वेदेति, णेरड्या णं सता समियं जे पावे कम्मे
गमाः-तुल्याभिलापाः । ननु प्रथमसूत्र एव ज्योतिप्कवैमा
निकदेवानां विवक्षितार्थस्याभिहितत्वात् किं पुनरिह तणकजति तत्थ गता वि एगतिया वेयणं वेदेति अन्नत्थ नेनेति ?, उच्यते-तत्रानुष्टानफलदर्शनप्रसङ्गेन भेदतश्चोकगता वि एगतिया वेयणं वेदेंति, जाव पंचिदियतिरिक्स त्वादिह तु दण्डकक्रमेण सामान्यतश्चोक्लत्वादिति न दोजोणियाणं मणुस्साणं सया समियं जे पावे कम्मे कजइ षः , दृश्यते चेह तत्र तत्र विशेषोक्तावपि सामान्योक्तिइह गया वि एगतिया वेयणं वेदेति अन्नत्थ गया वि एग
रितरोनौ वितरेति । स्था०२ ठा०१ उ०। (नैरयिकाः दश
विधां वेदनां वेदयन्ति इति ' णरग ' शब्दे चतुर्थभागे इया वेयणं वेयंति मणुस्सवजा सेसा एकगमा । (मू०७७)
१६१८ पृष्ठे उक्तम् ।) 'जे देवे' त्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहाऽयमभिसंब
__ सम्प्रति क्षेत्रस्वभावजां वेदना प्रतिपादयतिन्धः-प्रथमोद्देशकान्त्यसूत्रे पादपोपगमनमुक्तम् , तस्माच्च इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं सीदेवत्वं केषाश्चिद्भवतीति देवविशेषभणनेन तत्कर्मबन्धवे- तवेदणं वेइंति उसिणवेदणं वेईति सीओसिणवेदणं वेदेंदने प्रतिपादयन्नाह-'जे देवे' त्यादि ये देवाः-सुराः व
ति ?, गोयमा ! खो सीयं वेदणं वेदेति उसिणं वेदक्ष्यमाणविशेषणेभ्यो वैमानिका अनशनादेरुत्पन्नाः, किंभूताः 'उद्ध' ति ऊर्ध्वलोकस्तत्रोपपत्रकाः-उत्पन्नाः ऊवोप
णं वेदेति नो सीतोसिणं, (ते अप्पयरा उपहजोणिया पन्नकास्ते च द्विधा-कल्पोपपन्नकाः-सौधर्मादिदेवलोको- वेदेति,) एवं जाव वालुयप्पभाए , पंकप्पमाए पुच्छा, त्पन्नास्तथा विमानोपपत्रका:-ग्रेवैयकानुत्तरलक्षणविमानोत्प गोयमा ! सीयं पि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेयणं वेमाः; कल्पातीता इत्यर्थः, तथा परे ' चारोववन्नग 'त्ति
देंति , नो सीमोसिणं वैयणं वेदेति , ते बहुतरगा जे चरन्ति-भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्रम चारो ज्योतिचकक्षेत्रं समस्तमेव , व्युत्पत्यथैमात्रानपेक्षणेन शब्दप्रवृत्ति
उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे सीतं वेदणं वेइंति । निमित्ताश्रयणात् , तत्रोपपन्नकाश्वारोपपन्नका:-ज्योतिषकाः,
धूमप्पभाए पुच्छा , गोयमा ! सीतं पि वेदणं वेदेति न च पादपोपगमनादेयोतिष्कत्वं न भवति,परिणामविशेषा- उसिणं पि वेदणं वेदेति यो सीतोसिणं वेदणं वेदिति, तेऽपि च द्विधैव, तथाहि चारे ज्योतिश्चक्रक्षेत्र स्थि-|
देंति । ते बहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति, ते थोवयरका जे तिरेव येषां ते चारस्थितिकाः-समयक्षेत्रबहिर्वतिनो घ
उसिणवेदणं वेदेति । तमाए पुच्छा , गोयमा । सीयं एटाकृतय इत्यर्थः, तथा गतौ रतिर्येषां ते गतिरतिकाः समयक्षेत्रवर्तिन इत्यर्थः, गतिरतयश्चाऽसंततगतयोऽपि भव
वेदणं वेदेति, नो उसिणं वेदशं वेदेति, नो मीतोसिणं वेस्तीत्यत आह-गति-गमनं समिति-सन्ततमापनका:- दणं वेदेति, एवं अहे सत्तमाए णवरं परमसीयं । इमीसे वं प्राप्ता गतिसमापनकाः; अनपरतगतय इत्यर्थः, तेषां देवानां
भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया केरिसयं णिरयमवं द्विविधानां पुनर्द्विविधानां सदा नित्यं समितं-सन्ततं य
पच्चणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! ते णं तत्थ णिचं त्पापं कर्म-शानावरणादि, सततबन्धकत्वात् जीवानां, क्रिय ते-बध्यते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं, भवति; सम्पद्यत इत्यर्थः,
भीता तिच्चं तसिता णिचं छुहिया णिच्चं उब्बिग्गा निते देवास्तस्य-कर्मणः अबाधाकालातिक्रमे सति 'तत्थ. च उपप्पुषा णिच्चं वहिया निच्चं परममसुभमउलमणुबगया वित्ति अपिरेवकारार्थस्तस्य चैवं प्रयोगः, तत्रैव- द्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति । एवं जाव अधे देवभव एव कल्पातीतानां क्षेत्रान्तरादिगमनासम्भवादिह
सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया मतत्रान्यत्रशब्दाभ्यां भव एव विवक्षितः, न क्षेत्रशयनासनादिति, गताः वर्तमानाः एके-केचन देवा वेदनाम्-उदयं
हाणरगा परमत्ता, तं जहा-काले महाकाले रोरुए महाविपाकं चेदयन्ति-अनुभवन्ति, 'अन्नत्थगया वि' त्ति देव- रोरुए अप्पत्तिट्ठाणे, तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तभवादन्यत्रैव भवान्तरे गता-उत्पन्ना वेदनामनुभवन्ति, केचि. | रेहि दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किच्चा अप्पत्तिद्वासे तूभयत्रापि, अन्ये विपाकोदयापेक्षया नोभयत्रापीति । एतच्च
णरए णेरतियत्ताए उववण्णा , तं जहा-रामे १, विकल्पद्वयं सूत्रे नाश्रितं, द्वित्वाधिकारादिति । सूत्रोक्कमेव विकल्पद्वयं सर्वजीवेषु चतुर्विशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह
जमदग्गिपुत्ते, ददाउ २ लच्छतिपुत्ते, वसु ३ उवरि'नेरहया' ण मित्यादि प्रायः सुगमम् , नवरं 'तत्थ गया.
चरे, सुभूमे ४ कोरव्वे , बंभ ५ दत्ते , चुलणिसुते ६, वि अन्नत्थ गया वि' एवमभिलापेन दण्डको नेयो या- ते णं तत्थ नेरतिया जाया काला (कालो) जाव परमवत् पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चोऽत एवाह-जावे' त्यादि, मनु- किएहं वरमेणं परमत्ता, तं जहा-ते णं तत्थ वेदणं वेव्येषु पुनरभिलापविशेषो दृश्यः, यथा-' इह गया वि एग
देंति उजलं विउलं जाब दुरहियास । उसिणवेदणिज्जेइया' इति सूत्रकारो द्दि मनुष्योऽतस्तत्रेत्येवंभूतं परोक्षानासन्ननिर्देश चिमुच्य मनुष्यसूत्रे इहेन्यवं निर्दिशति स्म
सुणं भंते ! णेरतिएसु णेरतिया कग्सियं उसिणवेदणं मनुष्यभवस्य स्वीकृतत्वेन प्रत्यक्षासन्नवाचिन इन
पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गायमा ! ये जहाणागए मशाइन्य विषयमा दिति : प्र वाइ---'मगुस्सवजा से- कम्मारदारए सितानरुग म र ३ के चिर
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(१४) बेण्या
अभिधानराजेन्द्रः। ग्गहत्थे दढपाणिपादपासपिटुंतरोरु (संघाय) परिणए हिम्मुयमाणाई जालासहस्साई पमुच्चमाणाई इंगालसहलंघणपवणजवणवग्गणपमद्दणसमन्थे तलजमलजुयलब- | स्साई पविक्खरमाणाइं अंतो अंतो हुहुयमाणाई चिट्ठति हुफलिहणिभवाहू घणणिचितबलियबट्टखंधे चम्मेद्वगदुह- ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहइ, ताइ भोगासमुट्ठियसमाहयणिचितगत्तगत्ते उरस्सबलसमलागए छेए हित्ता से णं तत्थ उएहं पि पविणेजा तएहं पि पविणेदक्खे पढे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं ज्जा खुहं पि पविणेज्जा जरं पि पविणेज्जा दाहं पि पविमहं प्रयपिंडं उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय णज्जा णिहाएज वा पयलाएज्ज वा सतिं वा रतिं पा कोडिय कोट्टिय उभिदिय उभिदिय चुलिय चुलिय०| घिति वा मतिं वा उवलभेज्जा । सीए सीयभूयए संकसजाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उकोसेसं अद्धमासं माणे संकसमाणे सायासोक्खबहुले याऽवि विहरेज्जा, भवेसंहणेजा से णं तं सीतं सीतिभूतं प्रोमएणं संदं- यारूवे सिया, णो इणद्वे समझे, गोयमा! उसिणवेदसएवं गहाय असम्भावपट्टवणाए उसिणवेदणिज्जेसु| णिज्जेसु णरएसु नेरतिया एत्तो अणिद्वतरियं चेव उसिसारणसु पक्खिवेजा । से णं तं उम्मिसियणिमिसियंतरे- णवेदणं पच्चणुभवमाणा विहरंति । सीयवदणिज्जेसु णं णं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि ति कह पविरायमेव पा-/ भंते ! णिरएसु णरतिया केरिसयं सीयवेदणं पच्चणुब्भसेजा पविलीणमेव पासेजा पविद्धत्थमेव पासेजा- वमाणा विहरंति ?, गोयमा! से जहाणामए कम्मारदायो चेव णं संचाएति अविरायं वा अविलीणं वा अवि-| रए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगते एग महं द्वत्थं वा पुणरवि पच्चुद्धरित्तए । से जहा वा मत्तमातंगे अयपिंड दगवारसमाणं गहाय ताविय ताविय कोट्टिय को[पाए ] कुंजरे सट्ठिहायणे पढमसरयकालसमयंसि वा ट्टिय जहा०एकाहं वा दुअआई वा तियाहं वा उक्कोसणं मासं चरमनिदाघकालसमयंसि वा उपहाभिहए तएहाभिहए| हणेजा, सेणं तं उसिणं उसिणभृतं अयोमएणं संदंसदवग्गिजालाभिहए आउर सुसिए पिवासिए दुल्बले कि- एणं गहाय असम्भावपट्टवणाए सीयवेदणिज्जेसु गरएस लते एकं महं पुक्खरिणिं पासेजा चाउकोणं समतीरं पक्खिवेज्जा, से तं [ उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि अणुपुबसुजायवप्पगंभीरसीतलजलं संछमपमत्तभिसमु
| पच्चुरिस्सामीति कह पविरायमेव पासेजा , तं चेव णालं बहुउप्पलकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय (महा-| णं जाव णो चेव णं संचाएज्जा पुणरवि पच्चुद्धरित्तए, पुंडरीय) सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियं छप्पयपरि
से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाव सोक्खबहुले भुजमाणकमलं अच्छविमलसलिलपुमं परिहत्थभमंतम- यावि विहरेज्जा] एवामेव गोयमा! असम्भावपढवणाए च्छकच्छभं अणेगसउणगणमिहुणयविरइयसदुबइयमहुर
सीतवेदणेहिंतो णरएहिंतो नेरतिए उव्वट्टिए समाणे जाई सरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं भोगाइ, मोगाहित्ता |
इमाई इहं माणुस्सलोए हवंति, तं जहा-हिमाणि वासे णं तत्थ उएहं पि पविणेजा तिराहं पि पविणेजा खुह
हिमपुंजाणि चा हिमपडलाणि वा हिमपडलपुंजाणि वा पि पविणिजा जरं पि पविणिजा दाई पि पविणिज्जा
तुसाराणि वा तुसारपुंजाणि वा हिमकुंडाणि वा हिमकुंडणिहाएज वा पयलाएज वा सतिं वा रतिं वा धितिं वा
पुंजाणि वा सीताणि वा ताई पासति,पासित्ता ताई भोगाहमतिं वा उवलभेजा। सीए सीयभूए संकसमाणे संकसमा
ति ओगाहित्ता से शं तत्थ सीतं पि पविणेज्जा तएहं पि णे सायासोक्खबहुले यावि विहरिजा, एवामेव गोयमा!
पविणेज्जा खुहं पि पविणेज्जा जरं पि पविणेज्जा दाई पि असम्भावपट्ठरणाए उसिणवेयणिज्जेहिंतो शरएहिंतो कुंभा- पविणज्जा निदाएज्ज वा पयलाएज्ज वा . जाव उसिणे रागणी वाणरइए उघट्टिए समाणे जाई इमाई मणुस्सलो| उसिणभृए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहुले यंसि भवंति (गोलियालिंगाणि वा सोंडियालिंगाणिवा भि- यावि विदरोला। गोयमा ! मीयवेगिजेम नग डियालिंगाणि वा) अयाऽऽगराणि वा तंबागराणि वा त- तिया एत्तो अणिद्वयरियं चेव सीतवेदणं पचणुभवमाणा उवागराशि वा सीसागराणि वा रुप्पागरानि वा सुबमा-1 विहरति । REEx] गरविवाहिरप्लानराशिवाइंभारागनीद वा ससाणखीदा 'रयरेत्यादि रत्नप्रभापृथिवीनरयिका भवन्त!किंशीताक या इयागली वाकवेल्लुयागलीइ वा सोहारं वरिसेहवानां बेदान्ते,उपमां वेदनां वेदयन्ते,शीतोष्णांबा?, भगवानरजंतवाडचुल्लीइ वा हंडियलित्थाणि वा सोंडियलिस्थाणि वा
गौतम !न शीतां वेदनां वेदयन्ते किन्तु उष्णां वेदनां वेदयन्ते,
ते हि शीतयोनिका योनिस्थानानां केवलहिमानीप्रख्यशीतगलागणीति वा तिलागणीति वा तुमागणीति वा तत्ताई।
प्रदेशात्मकत्वात् , योनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यत् सर्वमपि समज्जोदिभुसकिसुरसमाणाई उक्कासहस्साई वि- भूम्यादिखादिराकारादपि महाप्रतप्तमतस्ते उष्ण्वेदनामनुभ
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अभिधानराजेन्द्रः। बम्ति, नापि शीतोष्ण वेदनां वेदयन्ते, शीतोष्णस्वभावतया| पमिति पूर्ववत् , भदन्त ! नरकेषु नैरयिकाः कीरशीमुण्डवेदनाया नरकेषु मूलतोऽप्यसम्भवात् । एवं शर्कराप्रभावा- वेदना प्रत्यनुभवन्तः-प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति !, भगलुकाप्रभानरयिका अपि वक्तव्याः । पकप्रभापृथिवीनैरयि- यामाह-गौतम! स यथानामकः-अनिर्दिष्टनामकः कश्चिकपृच्छायां भगवानाह--गौतम ! शीतामपि घेदनां | त् कारवारका-लोहकारदारकः स्यात् , किंविशिष्ट ? :बेवयन्ते नरकावासभेदेनोष्णामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावा- त्याह-तरुणः-प्रवर्द्धमानवयाः, माह-दारका प्रवर्द्धमासभेदेनैव, न तु शीतोष्णाम् । तत्र ते बहुनरा ये उष्णां नवयाः एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन, न प्राबेदना वेदयन्ते. प्रभूततराणां शीतयोनित्वात् , ते स्तोकत- सन्ममृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात् , न शासनमृत्युः राये शीतां वेदनां वेदयन्ते अल्पतराणामुष्णयोनित्वात् , ए- प्रवर्द्धमानवया भवति, नच तस्य विशिष्टसामर्थ्यसम्भवः बंधूमप्रभायामपि वक्तव्यं,नवरं ते बहुसरा ये शीतवेदनां वेद- मासनमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थभैष प्रायन्ते, बहूनामुष्णयोनित्वात् ,ते स्तोकतरा ये उम्णवेदनां थे- रम्भस्ततोऽर्थवविशेषणम् । अन्ये तु व्याचक्षते-ह यदव्यं दयन्ते, अल्पतराणां शीतयोनित्वात् । तमःप्रभापृथिवीनैर- विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके प्रयिकपृच्छायो भगवानाह-गौतम ! शीतां वेदना वेदयन्ते, सिखं, यथा तरुणमिदमश्वत्थपत्रमिति, ततः स कारमोष्णां नापि शीतोष्णां तत्रत्यानां सर्वेषामुष्णयोनित्वात् ,
दारकस्तरुण इति । किमुक्तं भवति १-अभिनयो विशिष्टरयोनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यस्य सर्वस्यापि नरकभूम्यादेर्म,
दिगुणोपेतति, बलं-सामध्यं तदस्यास्तीति बलवान् , हाहिमानीप्रख्यत्वात् ,एवं तमस्तमाप्रभापृथिवीनैरयिका अपि तथा युग-सुषमदुष्पमादिकालः स स्वेन रूपेण यस्यास्ति वक्तव्या,नवरं परमां शीतवेदनां वेदयन्ते इति वक्तव्यम् ,तमः- न दोषदुष्टः स युगवान् । किमुक्कं भवति १-कालोपद्रवोऽपि प्रभाधिषीतः नमस्तमःप्रभापृथिव्यां शीतवेदनाया प्रतिप्र- सामर्थ्यविनहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपस्यमेतद्विशेबलत्वात् । सम्प्रति भवानुभवप्रतिपादनार्थमाह-'रयणे' षणम् , युवा यौवनस्थः, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येत्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! कीदृशं नरकभवं | तदुपादानम् , 'अप्पायके' इति अल्पशब्दोऽभाववाची प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमानाः विहरन्ति- अबतिष्ठ- अल्पः-सर्वथाऽविद्यमान प्रातहो-ज्वरादियस्यासावल्पातते ? भगवामाह-गौतम! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका नित्य
का, 'थिरागहत्थे'स्थिरी अग्रहस्तौ यस्य स स्थिराग्रहसर्वकालं क्षेत्रस्वभावजमहानिबिडान्धकारदशनतो भीताः, स्तः, 'दढपाणिपायपासपिटुतरोरुपरिणए' इति दृढानिसर्वत उपजातशत्वात् , तथा नित्यं-सर्वकालं स्वत
प्रतिनिविडचयापानि पाणिपादपार्श्वपृष्ठान्तरोरुणि परिएवाग्रेऽपि प्रस्ताः-परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितदुःख
णतानि यस्य स दृढपाणिपादपार्श्वपृष्ठान्तरोरुपरिणतः , संपातभयात्रासमुपपत्राः, तथा नित्यं-सर्वकालं परमा
सुखादिदर्शनात्पातिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा धनधार्मिकैः परस्परं वा त्रासिताः-त्रास प्राहिताः, तथा म्-अतिशयेन निचितौ-निबिडतरचयमापनौ बलिताविनित्यमुद्विग्नाः यथोक्तरूपदुःखानुभवतस्तद्वतावासप-| व बलिती वृत्ती स्कन्धौ यस्य स घननिचितबलितवृत्तराङ्मुखचित्ताः , तथा नित्यं सर्वकालम् , उपप्लुताः उप- स्कन्धः, 'चम्मेटुगदुघणमुट्टियसमाहयनिचियगायगते'चसवेनोपेता न तु मनागपि रतिमासादयन्ति, एवं नित्यं- मेष्टकेन दुघणेन मुष्टिकया च-मुष्टया च समाहत्य ये निसर्वकालं परममशुभम् अतुलम्-अशुभत्वेनानन्यसदशम् चितीकृतगात्रास्ते चमेष्टकघणमुष्टिकसमाहतनिचितगाअनुवद्धम्-अशुभत्वेन निरन्तरमुपचितं निरयभवं प्रत्यनु- त्रास्तेषामिव गात्रं यस्य स चर्मेष्टकबुघणमुष्टिकसमाहतभवन्तः-प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति, एवं पृथिव्यां पृथि- निचितगात्रगात्रः, 'उरस्सबलसमन्नागए' इति उरसि भव्यां तावद्वतन्यं यावदधः सप्तमी। अस्यांचाधः सप्तम्यां - वमुरस्यं तच्च तदलं च उरस्यबलं तच समन्वागरकर्माणः पुरुषा उत्पद्यन्ते नान्ये, तथा चास्यैवार्थस्य प्रदर्श- तः-समनुप्राप्तः उरस्यबलसमन्वागतः, प्रान्तरोत्साहवीर्यनार्थ पञ्च पुरुषान् उपन्यस्यति-'अहे सत्तमाए ण 'मि- युक्त इति भावः, 'तलजमलजुयलबाहू' इति , तलीस्यादि, अधः सप्तम्यां पृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके इमे-अन- तालवृक्षौ तयोर्यमलयुगलं-समश्रणीकं युगलं तलयमलभतरवक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च महापुरुषाः अनुत्तरैः सर्वो- युगलं, तद्वदतिसरली पीवरी च बाहू यस्य स तलयमलसमप्रकर्षप्राप्तः दण्डसमादानैः समादीयते कर्म एभि- युगलबाहुः, 'लंघणपवणजवणपमहणसमत्थे' इति, लानेरिति समादानानि-कम्मोपादानहेतवः दण्डा एव-मनो-| अतिक्रमणे प्रवने-मनाक पृथुतरविक्रमगतिगमने जवनेदण्डादयः प्राणन्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानानि द- अतिशीघ्रगतौ प्रमर्दने-कठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनकरणे एवसमादानानि तैः कालमासे कालं कृत्वोत्पन्नाः, तद्यथा- समर्थः लानप्रबनजवनप्रमर्दनसमर्थः, कचित् ' लंघणपवरामो-जमदग्निसुतः, परशुराम इत्यर्थः, दाढादालः-छाती- गजवणवायामणसमत्थे' इति पाठस्तत्र व्यायामने-व्यासुतः (जी०) (बसूराजवृत्तम् 'वसूवरिचर 'शम्नेऽस्मिमेव यामकरणे इति व्याख्येयम् , छेकः-द्वासप्ततिकलापण्डितः मागे उनम् । ) सुभूमोऽष्टमश्चक्रवर्ती, कौरव्यः-को- दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी, प्रष्ठः-चाम्मी कुशल:रव्यगोत्रो ब्रह्मदत्तश्चुलनीसुतः 'ते णं तत्थ बेयणं घेयंती' सम्यक्रियापरिक्षानवान् मेधावी-परस्पराव्याहतपूर्वापरास्थादि ते परशुरामादयस्तत्र-अप्रतिष्ठाने नरके वेदना नुसन्धानदक्षः, अत एच 'निपुणसिप्पोषगए' इति निपु. बेदयन्ते उज्ज्वला यावद् दुरध्यासामिति प्राग्वत् । णं यथा भवति एवं शिल्पं-क्रियासु कौशलमुपगतः-प्राप्तो सम्प्रति नरकेषणवेदनायाः स्वरूपमभिधित्सुराह-उ- निपुणशिल्पोपगतः एकं महान्तमयस्पिण्डम् 'उदकवारसिमवेदशिसु णं भंते !' त्यादि , उष्णवेदनेषु | कसमान' लघुपानीयघटससानं गृहीत्वा तम्-भयपिएक
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(१४४५) वेयणा अभिधानराजेन्द्रः।
यणा तापयित्वा तापयित्वा ततो घनेन कुदृयित्या कुट्टयित्वा इति पुष्करिणी ताम् , किं-विशिष्टामित्याह-चतुष्कोणांयावदेकाहं वा द्वयहं वा यावदुत्कर्षतोऽर्द्धमास सहन्यात् चत्वारः कोणा-अश्रयो यस्याः सा तथा तां, सम-विषततो णमिति वाक्यालङ्कारे, तम्- अयस्पिण्डं शीतम् , सच मोन्नतिवर्जितं सुखावतारं तीरं-नटं यस्याः सा समतीशीतो बहिर्मनाग्मात्रेणापि स्यादत श्राह-शीतीभूत-सर्वा- रा ताम् , अानुपूर्येण-नीचैनीचस्तरभावरूपेण न स्वेकहेलस्मना शीतत्वेन परिणतं अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा अस- यैव क्वचिद्गर्त्तारूपा क्वचिदुन्नतिरूपा इति भावः, सुष्टुद्भावस्थापनया-असद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति भवि अतिशयेन यो जातो वप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीध्यति वा केवलमसद्भूतमिदं कल्प्यत इति, उष्णवेदनेषु नर- रम्-अलब्धस्ताघ शीतल जल यस्यां सा श्रानुपूर्व्यसुजाकेषु प्रक्षिपेत् . प्रक्षिप्य च स पुरुषो णमिति वाक्यालङ्कारे, तवप्रगम्भीरशीतलजला ताम् , 'संछराणपत्तभिसमुणाल' 'उम्मिसियनिमिसियंतरेण' उन्मिषितनिमिषितान्तरेण याव
मिति संछन्नानि--जलेनान्तरितानि पयिसमृणालानि यताऽन्तरेण-यावता व्यवधानेन उन्मेषनिमेषौ क्रियेते तावद
स्यां सा संछन्नपत्रविसमृणाला ताम् , इह विस-मृणालन्तरप्रमाणेन कालेनातिक्रान्तेन पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामीति | साहचर्यात् पत्राणि पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, बिसानिकृत्वा यावद् द्रष्टु प्रवर्त्तते तावत् प्रवितरमेय-प्रस्फुटित
कन्दाः मृणालानि-पद्मनालाः, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनमेव, यदि वा-प्रविलीनमेव-नवनीतमिव सर्वथा गलि- लिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपतमेव , यदि वा-प्रविध्वस्तमेव-सर्वथा भस्मसाद्भूतमेव त्रैः केसरैः केसरप्रधानैः फुल्लैः विकसितैरुपचिता बहूत्पलपश्येत् , न पुनः शक्नुयाद् अचिरात्तम् , अप्रस्फुटितम् | कुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रअविलीनं वा अविध्वस्तं वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम् , एवं रू- सहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिता तां तथा पट्पदैः-भ्रमरैः परिपा नाम तत्रोष्णवेदना । अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरभावनार्थे
भुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यस्याः रान्तान्तरमाह-'से जहानामए' इत्यादि, से' सकल
सा षट्पदपरिभुज्यमानकमला तां, तथाऽच्छेन-स्वरूपतः स्फजनप्रसिद्धो यथेति दृष्टान्तत्वोपदर्शने । वाशब्दो विकल्पने ।
टिकवच्छुद्धेन विमलेन-श्रागन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अयं वा दृष्टान्तो विवक्षितार्थप्रतिपत्तये बोद्धव्य इति वि- अच्छविमलसलिलपूर्णा तां, तथा पडिहन्था-अतिरेकतः; अकल्पनभावना । मत्तः-मदकलितः मातङ्गः-हस्ती , इह मा- तिप्रभूता इत्यर्थः भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सा पडिहत्थतङ्गोऽन्त्यजोऽपि संभवति ततस्तदाशङ्काव्युदासाथै नाना
भ्रमन्मत्स्यकच्छपा, तथा अनेकैः शकुनिगणमिथुनकैः गणदेशजविनयजनानुग्रहाय ( वा ) पर्यायद्वयमाह-द्विपः
शब्दस्य प्राकृतत्वादस्थानेऽप्युपनिपातः, शकुनिमिथुनकर्षिद्वाभ्यां मुखेन करेण चेत्यर्थः पिबतीति द्विपः। " मूलवि
चरितैः इतस्ततः खेच्छया प्रवृत्तैः शब्दोन्नतिकम्-उन्नतशब्द भुजादयः" ५।१।१४४। इति कप्रत्ययः। को जीर्यतीति कुञ्जरः,
मधुरस्वरं नादितं यस्यां सा अनेकशकुनिगणमिथुनकवियदि वा-कुञ्जे-वनगहने रमति-रतिमावध्नाति कुञ्जरः,
चरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादिता, ततः पूर्वपंदन विशे'कचिदिति' उप्रत्ययः , षष्टिायनाः-संवत्सरा यस्य स
षणसमासः, तां दृष्टाऽवगाहेत, अवगाह्य च उष्णमपिपष्टिहायनः प्रथमशरत्कालसमये-कार्तिकमाससमये, इह
परिदाहमपि शरीरस्य तत्र प्रविनयेत्-प्रकरण सर्वात्मप्राय ऋतवः सूर्यर्तयो गृह्यन्ते ते चाषाढादयो द्विद्विमास
ना स्फोटयेत् , तथा सुधामपि प्रविनयत् प्रत्यासन्नतटप्रमाणाः, प्रवचने च क्रमेणैवनामानः । तद्यथा-प्रथमः प्रा
वर्तिशल्लक्यादिकिसलयभक्षणात्, सुषमपि प्रविनयेत् वृट , द्वितीयो वर्षारात्रः , तृतीयः शरत् , चतुर्थों हेमन्तः ,
जलपानात् , ज्वरमपि परिसंतापसमुत्थं प्रविनयत् परिपश्चमो वसन्तः, षष्ठो ग्रीष्मः , तथा चाह पादलिप्तसू
दायतुत्पिपासाऽपगमात् , एवं सकल जुद्रादिदोषापगमतः रिः-"पाउस वासारत्तो, सरो हेमन्त वसन्त गिम्हो
सुखासिकाभावेन निद्रायेत प्रचलायेत, तत्र अनिद्रावान् य । एए खलु छप्पि रिऊ, जिणवरदिट्ठा मए सिट्टा ॥१॥"
निद्रावान् भवतीति व्यर्थविवक्षायां निद्रादिभ्यो धर्मिणि ततः प्रथमशरत्कालसमयः कार्तिकसमयः इति विवृत्त)तम्,
क्यबिति कर्मणि क्यप्प्रत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निश्राह च मूलटीकाकृत्-"प्रथमशरत्-कार्तिकमासः" त- द्रादेराकृतिगणत्वात् । निद्राप्रचलयोस्वयं विशेषः-सुखस्मिन् वाशब्दो विकल्पने, चरमनिदाघकालसमये वा-च
प्रबोधा स्वापावस्था निद्रा, ऊर्द्धस्थितस्यापि या पुनश्चैरमनिदाघकालसमयो-ज्येष्ठमासपर्यन्तस्तस्मिन् , वाशब्दो
तन्यमस्फुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला । एवं विकल्पने । उष्णाभिहितः-सूर्यखरकिरणप्रतापाभिभूतः ।
च क्षणमात्रनिद्रालाभतोऽतिस्वस्थीभूतः स्मृति वा-पूअत एवोष्णैः सूर्यकिरणैः सर्वतः प्रतप्ताङ्गतया शोषभाव
नुभूतस्मरणं रति वा-तदवस्थाऽऽसक्तिरूपां धृति थातस्तृषाभिहतः, तत्रापि पानीयगवेषणार्थमितस्ततः स्वे
चित्तस्वास्थ्य मति वा-सम्यगीहापोहरूपाम् उपलभेतच्छया परिभ्रमतः कश्चिद्दवाग्निप्रत्यासत्तौ गमनतो दवा
प्राप्नुयात् । ततः शीतः बाह्यशरीरप्रदेशशीतीभावात् , शीग्निज्वालाभिहतः अतः एव अातुरः-कचिदपि स्वास्थ्यमल- तीभूतः-शरीरान्तरेऽपि निवृतीभूतः सन् 'संकसमाणे' इति भमानः सन् ाकुलः, सर्वाङ्गपरितापसम्भवेन गलतालु
सम्-एकीभावेन कसन्-गच्छन् सातसौख्यबहुलश्चापि' शोषभावात् शुषितः, क्वचित् - झिजिए ' इति पाठस्तत्र
सातम्-श्राहादस्तत्प्रधानं सौख्यं सातसौख्यं न त्वभितितेः-क्षीणशरीर इति व्याख्येयम् , असाधारणतृहवेदना- मानमात्रजनितमाहादविरहितं सातसौख्येन बहुलो-व्याप्तः समुच्छलनात्पिपासितः , अत एव दुर्बलः शारीरमानसाव- सातसौख्यबहुलश्चापि विहरेत्-स्वेच्छया परिभ्रमेत् , एएम्मरहितत्वात् , क्लान्तः-ग्लानिमुपगतः 'क्लमू' ग्लानी, इति वमेव-अनेनैवानन्तरोदितदृष्टान्तप्रकारेण हेगौतम ! असवचनात एकां मह्ती पुष्करिणी-पुष्कराण्यस्यां विद्यन्ते । द्भावप्रस्थापनया-अमद्रावकल्पनया नेदं वक्ष्यमायामभूत्
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वेपणा
(१९०६) वेयणा
. अभिधानराजेन्द्रः। केवलं नरकगतोष्णवेदनायाथात्म्यप्रतिपत्तये सत्कल्पत इति | यवेयणिज्जेसुण' मित्यादि, शीतवेदनीयेषु भदन्त ! निरभावः, उष्णवेदनेभ्यो नरकेभ्यो नैरयिकोऽनन्तरमुर्ति- येषु नैरयिकाः कीदृशीं शीतवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति?, तो-विनिर्गतः सन् यानि-इमानि प्रत्यक्षत उपलभ्यमानानि स यथा नामकः कर्मकरदारकः स्यात् , तरुण इत्यादि विइह-मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति । तद्यथा "गोलियालिंगा- शेषणकदम्बकं प्राग्वत्तावद् यावत्संहन्यात्नवरमुत्कर्षतो णि वा, सोडियालिगाणि वा मिडियालिंगाणि वा,' एते अ-| मासमित्यत्र ब्रूयात् । ततः सः-कर्मकरदारकः तम्ग्नेराश्रयविशेषणः। अन्ये तु देशभेदनीत्या पिष्टपाचनका- अयस्पिण्डमुष्णम् , स चोष्णो बाह्यप्रदेशमात्रापेक्षयाऽपि ग्यादिभेदनैतषां स्वरूप कथयन्ति , तदप्यविरुद्धमेवेति । स्यादत आह-उष्णीभूनं-सर्वात्मनाऽग्निवर्णीभूतमिति मा. तैलाऽग्निरिति वा तुगग्निरिति वा बुसाग्निरिति वा न- वः, अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वाऽसद्भावप्रस्थापनया शीतडाग्निरिति वा, नडा-तृणविशेषः,'श्रयागरार्णाति वा ' वेदनीयेषु नरकेषु प्रक्षिपेत् , ततः स-पुरुषः तम्-अय
वेदनीयेष नरकेष प्रतिपेत. प्रतः स-रुषः : आर्षत्वानपंसकनिर्देशः अयाकरा इति वा, येषु निर-| स्पिण्डमित्यादि प्रावतावाव्यं यावदिहाति न न्तरं महामूषास्वरोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाट्यते ते अया- 'से णं तं उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पच्चुरिस्साकराः , एवं ताम्राकरा इति वा अप्वाकरा इति वा सीस- मिति कट्ट पावरायमेव पासेज्जा पविलीणमेव पासेज्जा काकरा इति वा रूप्याकरा इति वा सुवर्णाकरा इति वा
पविद्धत्थमेव पासेज्जा नो चेव णं संचाएइ अविहिरण्याकरा इति वा, सुवर्णहिरण्ययोरत्र विशेषां वर्णा
रायं अविलीणं अविद्धत्थं पुणरवि पच्चुद्धरित्तए से विकृतो वेदितव्यः , इष्टकापाक इति वा कुम्भकारापाक जहानामए मत्तमायंगे . जाव सायासोक्खबहुले याऽवि इति वा कवेल्लु कापाक इति वा लोहकाराम्बरीष इति विहरइत्ति' 'एवामवे' त्यादि, अनेनैवाधिकृतदृष्टान्तोक्नेन वा , अम्बरीषः-कोष्ठकः , यन्त्रवाडचुल्ली इवेति , यन्त्रम्- प्रकारेण गौतम ! असद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेभ्यो नइक्षुपीडनयन्त्रं तत्प्रधानः पाटको यन्त्रपाटकः तत्र चुल्ली रकेभ्योऽनन्तरमुढतः सन् यानीमानि मनुष्यलोके स्थानायत्रेचुरसः पच्यते , इत्थम्भूतानि यानि मनुष्यलोके स्था- नि भवन्ति, तद्यथा-हिमानि वा हिमपुञ्जानि वा. सूत्रे, नानि तप्तानि-वह्निसम्पर्कतस्तप्तीभूनानि , तानि च का- नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , हिमपटलानि वा हिमकूटानि निचित् अयाकरप्रभृतीनि कदाचिदुष्णस्पर्शमात्राण्यपि चा, एतान्येव पदानि नानादेशजविनेयानुग्रहाय पर्यायासंभवन्ति ततो विशेषप्रतिपादनार्थमाह- समजोईभूयार' चष्टे-'सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा ' इत्यादि, तानि पश्येत् प्राकृतत्वात्समशब्दस्य पूर्वनिपातः , ज्योतिःसमभूता- दृष्टा तान्यवगाहेत, अवगाह्य शीतमपि-नरकजनितं नि साक्षादग्निवर्णानि जातानीति भावः , एतदेवोपमया शीतत्वमपि प्रविनयेत् . ततः सुखासिकाभावतस्तृषमपि स्पष्टयति-फुल्लकिशुकसमानानि-प्रफुल्लपलाशकुसुमकल्पा- जुधमपि ज्वरमपि नरकवेदनीयनरकसंपर्कसमुत्थं जायमनि' उक्कासहस्साई' इति ये मूलानितो वित्रुट्य वित्रु- पि प्रविनयेत् , ततः शीतत्वादिदोषापगमतोऽनुत्तरं स्वास्थ्य ट्याग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का इत्युच्यन्ते; तासां सह- लभमानो निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रतिं वा धृ. स्राणि उल्कासहस्राणि मुश्चन्ति, ज्यालासहस्राणि विनि- तिं वा लभेत, ततो नरकगतजाड्यापगमाद् उष्णः, सच मुश्चन्ति, अङ्गारसहस्राणि प्रविक्षरन्ति, अन्तरन्तईहूयमा- | बहिः प्रदेशमात्रतोऽपि स्यात्तत पाह-' उष्णीभूतः अन्तरेऽ नानि-अतिशयेन जाज्वल्यमानानि, कचित् 'अंतो अंतो पि नरकगतजाड्यापगमात् जातोत्साह इत्यर्थः, स एवंभूतः सुहयहुयासणा' इति पाठः, अन्तरन्तः सुहुतहुताशनानि- सन् यथास्वसुख ( संकसन् ) संक्रामन् सातसौख्यबहुलो सुष्ठ हुतो-हुताशनो येषु तानि तथा तिष्ठन्ति तानि प- विहरेत् , एवमुक्त गौतम आह-भवेयारूवे सिया? इत्याश्येत् राष्ट्रा चावगाहेत , अवगाह्य च उष्णमपि-नरको-| दिप्राग्वत् । जी० ३ प्रति०२०। पणवेदनाजनितं बहिः शरीरस्य परितापमपि प्रविनयेत् । नेरइया णं मंते ! किं एवंभूयं वेदयं वेदेति, अनेभयं नरकगतादुष्णस्पर्शादयश्राकरादिषष्णस्पर्शस्यातीव मन्द-|
वेदणं वेदेति ? गोयमा, नेरइया णं एवंभूयं वेदणं वेदेति त्वात् , एवं च सुखासिकामावतस्तृषामपि सुधमपि दाहमपि अन्तःशरीरसमुत्थं प्रविनयेत् । तथा च सति| अनेवभूयं पि वेदणं वेदेति । से केणद्वेखं तं चेव ?, गोयहडादिदोषापगमतो निद्रायेत वा, प्रचलायेत वा, स्मृति मा । जे णं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेयशं वेदेति वा रतिं वा धृति वा उपलभेत । ततः शीतः-शीतीभूतः ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति । जे णं नेरतिया जहा सन् संकसन् संकसन्-संक्रामन् संक्रामन् सातसौख्यबहुलो
कडा कम्मा णो तहा वेदणं वेदेति ते णं नेरइया अनेवविहरेत् । अमीषां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः । एतावत्यु के भगवान् गौतमः पृच्छति-' भवे एयारवे सिया ? ,
भूयं वेदणं येदेंति, से तेणऽडेणं, एवं. जाच वेमाणिया स्थात्-संभान्यते पतद् बक्षा भवेदुणवेदनापेषु पर- संसारमंडलं नेयच्वं । (५० २०२+) केषु एतद्रूपा उष्णवेदना, भगवानाह--गौतम ! मायमर्थः । 'एवंभूयं वेय' ति यथाविधं कर्म निवयमेवं प्रकारतयोसमथो यदुष्णवेदनीयेषु नरकेबु रयिका इति, अनन्तरं त्पनां वेदनाम्-मसातादिकर्मोदयं वेदयन्ति-अनुभवन्ति प्रतिपादितस्वरूपाया उष्णवेदनायाः अनिष्टतरिकामेव अ- मिथ्यात्वं चैतद्वादिनामेवम्-न हि यथा बद्धं तथैव सर्वेकप्रियतरिकामेव अमनोझतरिकामेव अननआपतरिकामेव मानुभूयते, आयुःकर्मणो व्यभिचारान् । तथाहि-दीर्घकाबेदनां प्रत्यनुभवन्तः-प्रत्येक वेश्यमाना विहन्त : सम्प्रति लानुपचनीयस्याप्यायुःकर्मगोपीयसाऽपि कालेनानुभवो शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतयेदनास्वरुप प्रतिवादयनि-सी- भवति. कथमन्यथाऽपमृत्युदयपदेशः सर्वजनप्रसिद्धः स्या
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बेयखा
त् ? कथं वा महासंयुगादी जीवलक्षाणामप्येकदैव मृत्युरुपपद्येतेति ?,— अणेवंभूयं पि' ति यथा बद्धं कर्म नैयंभू - ता अनेवंभूता श्रतस्ताम् भूयन्ते ह्यागमे कर्म्मणः स्थितिविघातरघातादय इति । एवं० जाव बेमाणिया संसारमंडल नेयब्वं' ति पत्रम् - उक्तक्रमेण वैमानिकावसानं संसारिजीवचक्रवालः नेतव्यमित्यर्थः । अथ बेह स्थाने वाचनान्तरे कुलकरतीर्थकरादिवक्तव्यता दृश्यते, ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिक संज्ञया सेह सूचितेनि संभाव्यत इति । भ० ५ ० ५ उ० । (करणतोऽकरणतो वा सातवदनां वेदयन्ते इति 'करण' शब्दे तृतीयभागे३७० पृष्ठे उक्तम् । )
(१४४) अभिधानराजेन्द्रः ।
महावेदन:
भंते! जे भविए नेरइएस उववजित्तए से गं भंते ! किं इहगए महावेदणे उववजमाणे महावेदणे उaa महावेदखे ?, गोयमा ! इहगए सिय महावेयशे सिय अप्पवेद उचवजमाणे सिय महावेदणे सिय अ प्पवेद अहे णं उववन्ने भवति तम्रो पच्छा एगंतदुक्खं वेणं वेयंति श्रहच्च सायं जीवे गं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए पुच्छा, गोयमा ! इहगए सिय महावेद सिय अप्पवेदणे उववजमाणे सिय महावेद सिग्र अप्पवेदखे आहे गं उववने भवर, तमो पच्छा एगंतसायं नेयणं वेदेति श्रहच असायं, एवं • जान थणियकुमारेस जीवे खं मते ! जे भत्रिए पुढविकास उववजितए पुच्छा, गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्पत्रेयणे, एवं उबवजमाणे वि, अहे ं उववमे भवति तत्र पच्छा वेमायाए वेयणं वेयति एवं ० जाव मणुस्सेसु, वाणमंतर जोइसियत्रेमागिएसु जहा असुरकुमारेसु । ( सू० २८३ X )
तत्र च एगं दुक्खं वेयणं' ति सर्वथा दुःखरूपां वेदनीय कर्मानुभूतिम् ' श्रहच सायं ' ति कदाचित्सुखरूपां नरकपालादीनामसंयोगकाले, ' एगतसायं ' ति भवप्रत्ययात् ' श्रहच्च असायं ' ति प्रहाराद्युपनिपातात् । भ०
७ शु० ६ उ० ।
सङ्घट्टश्चाक्रमणभेदोऽत श्राक्रान्तानां पृथिव्यादीनां यादृशी वेदना भवति तत्प्ररूपणायाह
पुढविकाइए णं भंते ! अते समाणे केरिसियं वेदगं पञ्चणुब्भवमाणे विहरति १, गोयमा ! से जहाना-एकेह पुरिसे तरुणे बलवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं जुर्म जराजजरिगदेहं • जात्र दुब्बलं किलंतं अदिति अभिहणि मे खं गोयमा ! पाणिया मुद्रासि अभिये विहरगंगायमर दु
i
7
For Private
बेहा रिसस्स वेदखाहिंतो पुढविकाइए अकंते समासे एलो प्रणिट्टतरियं चेत्र अकंततरियं ० जाव श्रमणामतरिखं चेव वेदणं पचणुन्भवमाणे विहरति । श्राउयाए भंते ! संघट्टिए समाये केरिसिगं वेदयं पचणुन्भवमासे विहरति १, गोयमा ! जहा पुढविकाइए एवं चैत्र, एवं तेऊयाए वि एवं वाऊयाए वि, एवं वयस्सइकाए वि ० जाव विहरति । सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ।। (सू०६५३x) 'पुढची' त्यादि, ' अकंते समा त्ति अाक्रमणे सति 'जमलपाणिण' त्ति मुष्टिनेति भावः । ' अणि समणाउसो ! ' ति गौतमवचनम् 'एस' त्ति उक्तलक्षणाया वेदनायाः स काशादिति । भ० १६ श० ३ उ० । ( सर्वे जीवाः अनेवंभूतां वेदनां वेदयन्त इत्यत्रान्ययूथिकैः सह विवादः 'अण्ण उत्थिय' शब्दे प्रथमभागे४५७ पृष्ठे दर्शितः) (यो महानिर्जरः स महादेवः या वेदना सा निर्जरा इति णिजरा' शब्दे चतुर्थभागे २०५७ पृष्ठे दर्शितम् । ) (चरमा अपि परमा नैरयिकाणां महाक्रियाः महावेदनाः इति 'चरम' शब्दे तृतीयभागे ११४० पृष्ठे दर्शितम् । )
मारणान्तिकवेदनोदये दृष्टान्तमाह
" रोहीडंग च नगरं, ललिश्रा गुडी अ रोहिणी गखिया । धम्मरुद्द कबु दुद्धि, दाणाइ अलेकम्मुदये ॥ १ ॥ " श्रनेजस्य निःकम्पस्य कर्मणामुदये । "रोहितकपुरे रोह-ल्लोलाललितगोष्ठिकाः । तथैका जीर्ण्यगणिका, रोहिणीत्यस्ति तत्र च ॥ १ ॥ अनन्यजीवनोपाया, भक्तं राघ्नोति तत्कृते । अन्यदा कटुकं तुम्बं पक्कं जातं विषोपमम् ॥ २ ॥ मा भूवं निन्दिता गोटया स्ततोऽन्यञ्चत्कृते कृतम् । श्राद्यं धर्मरुचेर्दत्तं, मासपारणके मुनेः ॥ ३ ॥ स गत्योपाधये साधु-स्तुम्बमालोचयद् गुरोः । गुरुर्विज्ञाय गन्धेन तमूचेऽमुं परित्यज ॥ ४ ॥ भक्षितं मृत्यवे होत-तस्यक्तुं स गतोऽटवीम् । कथंचित् पतितो बिन्दुः, पात्रात्तत्रेत्य कीटिकाः ॥ ५ ॥ लग्नमात्रान्मृता दृष्टा, दध्यौ मे सुमृतिर्वरम् । माऽन्यजीवविघातो भू-दिति त्यक्वाऽखिलोपधिम् ॥६॥ एकत्र स्थरिडले स्थित्वा विधायाराधनाविधिम् । तद्भक्त्वा वेदनां तीव्रा-मधिसा शिवं ययौ || ७ ||" श्रा० क० ४ अ० । ० चू० ।
यथोदीरणवेदननिर्जराः कुर्वन्ति देहिनस्तथा प्रतिपादयतिजीवा गं दोहिं ठाणेहिं पावकम्मं उदीरेइ, तं जहा- श्रभोवगामियाए चैत्र, वेयखाए, उवक्कमियाए चैव वेयणाते । एवं वेदेति एवं सिजति अन्भोवगमियाए चैत्र वेयखाए उवकमिताते चैत्र वेयणाते : ( मू० ६६ + )
'जी' त्या गतार्थम् नवरम् उदीरयन्ति - श्रप्राप्तावसम् सदये प्रवेशयति अभ्युपमेन-अडी
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(१४४०) वेयणा अभिधानराजेन्द्रः।
बेयतिग निवृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचत-| श्रोसनशब्दो देशीवचनो बाहुल्यवाचको, यथा-“ओसन्न पश्चरणादिकया वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणका-| देवा सायं वेयणं वेयंति" तत्र 'ओसन्नं' बाहुल्येन-प्रायेरणेन निवृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी तया-ज्वराती- णेत्यर्थः, सुराश्च-देवा मनुजाश्व-मनुष्याः सुरमनुजं समाहा सारादिजन्यया , एवमिति-उक्तप्रकारत एव वेदयन्ति रद्वन्द्वस्तस्मिन सुरमनुजे सुरेषु-मनुजेष्वित्यर्थः, सात-सातविपाकतोऽनुभवन्त्युदीरितं सदिति, निर्जरयन्ति-प्रदेशे- वेदनीयं भवति । श्रोसन्नग्रहणाच्च्यवनकालेऽन्यदाऽपि सुराभ्यः शाटयन्तीति । स्था० २ ठा०४ उ०।
णामसातोदयोऽप्यस्ति, चारकनिरोधवधबन्धनशीतातपादि वेयणाखंध-वेदनास्कन्ध-पुं०। सुखाः दुःखा अदुःखसुखा चे. भिर्मनुजानामप्यसातमिति नरकभवाः प्राणिनोऽप्युपचाति वेदनालक्षणे बौद्धपरिभाषिते पञ्चस्कधेष्वन्यतमे स्क- रात् नरकाः, ततस्तिर्यञ्चश्व नरकाश्च तिर्यग्नरकास्तेषु तिन्धे, सूत्र०१ श्रु०१ १०१ उ०।
र्यक्षु नरकेवित्यर्थः । श्रोसनशब्दस्यहापि संबन्धादसातम् । वेदणाभय-वेदनाभय-नवेदना-पीडा तद्भयं वेदनाभयम् । तुः पुनरथे, व्यवहितसंबन्धश्च! स चैवं योज्यते-तिर्यग्नरभयभेदे, स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
केषु पुनरसातं प्रायो भवति भोसन्नग्रहणात्केषांचित्पटवेयणासमुग्याय-वेदनासमुद्घात-पुं० । असाषधकर्माश्रये | हस्तितुरङ्गादीनां तिरश्चां नारकाणामपि जिनजन्मकल्या समुद्धातभेदे, स०६ सम । स्था० । प्रज्ञा । तत्र वेदनास
णकादिषु सातमप्यस्तीन्युक्तं द्विविधं वेदनीयम् । कर्म०१
कर्म०( वेदनीयानि अकर्कशवेदनीयानि च कर्माणि स्वस्वस्थामुद्धातगत आत्मा असातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-वेदनापीडितो जीवः स्वप्रदेशान् अनन्तानन्त
ने उक्नानि ।) कर्मस्कन्धयेष्टितान् शरीरादहिरपि विक्षिपति तैश्च प्रदेशैर्वद
साताऽसातवेदनीयानि त्विहनजठरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्यायाम
अत्थि णं भंते ! जीवाणं सायावयणिजा कम्मा कजंति तो विस्तरतश्च शरीरमात्र क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूर्त यावदवतिष्ठते,तस्मिश्चान्तर्मुह से प्रभूतासातावेदनीयकर्मपुद्गलपरि ।
हंता अस्थि । कहम भंते! जीवा णं सायावेयणि कम्मा शातं करोति । प्रज्ञा० ३६ पद । पं० सं० । ('समुग्धाय' शब्दे कजंति ?, गोयमा ! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीविशेषतो ब्याख्या वक्ष्यते ।)
वाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए बहूणं पाणाणं • जाव सवेयणिज-वेदनीय-न० । वेद्यते श्राहादादिरूपेण यदनुभूयते
त्ताणं अदुक्खयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पतवेदनीयम् । कर्मण्यनीयप्रत्ययः । वेदनीये कर्मणि, स्था०२
णयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा! ठा०४ उ०। वेयणिजे कम्मे दुविहे पमत्ते , तं जहा-सायावेयणिज्जे
जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति एवं नेरइयाण वि
एवं०जाव चेमाखियाखं । अत्थि शं भंते ! जीवा खं असायचेव, असायात्रेयणिजे चेव । (सू० १०५ ४) तथा वेद्यते अनुभूयत इतिवेदनीय,सातं सुखंतपतया चे |
यखिजाकम्मा कजंति,इंवा अस्थि कदम मंते ! जीवावं द्यते यत्तत्तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् इतरद् एतद्विपरीतम,श्राह असायावेयसिज्जा कम्मा कजंति ?, गोयमा! परदुक्खणच “ महुलित्तनिसियकरवा-लधारजीहाएँ जारिसं लिहणं । याए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टतारिसयं वेयणियं मुहदुहउप्पायगं मुगह ॥१॥” इति । (स्था० णयाए परपरितावणयाए जाव परियावणयाए एवं ख२ ठा०४ उ०।) कर्मभेदे, यद्यपि सर्वकर्माण्यप्येवं तथापि प
लु गोयमा! जीवा णं असायावेयणिज्जा कम्मा कजंति जादिशब्दवत् वेदनीयशब्दस्य रूढविषयित्वात् साताऽसा. तरूपमेव कर्म वेदनीयमित्युच्यते। कर्म ६ कर्म० । पं० सं०।
एवं नरइयाण वि एवंजाव वेमाणियाणं। (सू० २८६) जं०। दशा०। साम्प्रतं तृतीय कर्म वेद्यवेदनीयापरपर्यायं व्याचिख्यासुराह
'अदुक्खणयाए' ति दुःखस्य करणं दुःखनं तदविद्यमान
यस्यासावदुःखनस्तद्भावस्तत्ता तया अदुःखनतयाः अदुःखमहलित्तखग्गधारा-लिहणं व दहा उ वेयणियं ॥१२॥
करणेनेत्यर्थः। एतदेव प्रपच्यते 'असोयणयाए'त्ति दैन्यानु'महुलित्ते 'दि, मधुना-मधुरसेन लिप्ता-खरण्टिता |
त्पादनेन, 'अजूरणयाए'त्ति शरीरापचयकारिशोकाऽनुत्पादखड्गस्य-करबालस्य धारा--तीदणाग्ररूपा तस्या जिहुया ले
नेन, 'अतिप्पणाए' ति अथुलालादिक्षरणकारणशोऽकानुहनमिवास्वादनसदृशं द्विधैव-द्विप्रकारमेव साताऽसातभे
त्पादनेन 'अपिट्टणयाए' ति यष्टवादिताडनपरिहारेण, 'अदात् । तुशब्द एषकारार्थः । वेदनीयं वेद्यं कर्म भवति । इह च
परितावणयाए 'त्ति शरीरपरितापानुत्पादनेन । भ०७ श०६ मधुलेहनसंनिभं सातवेदनीयं खड्गधाराच्छेदनसममसात
उ०। (वेदनीयस्य बन्धोदयसत्तास्थानानां संवेधः 'कम्म' वेदनीयम् । उक्तं च--"महुअासायणसरिसो, सायावेयस्स | शब्द तृतीयभागे २७६-२६३ पृणे गतः।) होइ हु विवागो । जं असिणा तहि छिज्जर, सो उ विवागो असायरस ॥१॥"
वैयणिजजुगल-वेदनीययुगल-न० । सातवेदनीयाऽसातवेअथ गतिचतुष्टये साताऽसातस्वरूपमाह
दनीयरूपे द्विविधे वेदनीये , कर्म०२ कर्म । ओसन्नं सुरमणुए,सायमसायं तु तिरियणरएसु। वेयतिग-वेदत्रिक-न। स्त्रीवेदवेदनपुंसकवेदाख्ये वेदत्रये, मर्जर मोहणीयं. दविहं दंसणचरणमोहा ॥३॥ । कर्म०२ कर्य।
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(१४४५) बेयहिया अभिधानराजेन्द्रः।
वेयालिय वेयहिया-वितर्दिका-खी। वेदिकायाम् , नि०१७०१ वर्ग वेयवत्त-वेदव्यक-नाम्भिकग्रामस्य बहिर्यपालिकाया १०।ौ० । शा।
उत्तरकूले स्वनामख्याते चैत्ये, प्राचा०२ शु०२चू०। वेयधिगरम-वैयधिकरण्य-म० । विभिन्नमधिकरणमस्येति
| व्यावृत्त-नाजृम्भिकग्रामस्य बहिः ऋजुपालिकाया उत्तरव्यधिकरणस्तद्भावो वैयधिकरण्यम् । परस्परविरुद्धयोर्ध- क्ले स्वनामख्याते चैत्ये, प्राचा० २ २०३चूछ । मेयोरेका समावेशे, अने०१ अधि०।
| वेयवि-वेदविद्-पुं० । वेद्यते जीवादिस्वरूपमनेनेति प्राचावेयपय-वेदपद-न०। वैदिकशम्ने, “वेयपयाणं अत्य, नया
राजाद्यागमस्त वेत्तीति वेदवित् । प्राचा०१ श्रु. ३५०१ णसी, तेसिमेयटुं" इति इन्द्रभूत्यादीन् प्रति वीरजिनः ।
उ०। भागमविदि तीर्थकरे, गणधरे , चतुर्दशपूर्वविदि प्रा०म०१०। विशे०। प्राध
च। प्राचा०१ श्रु०५ १०४ उ० । श्रा० म०। सर्वोप वेयपुरिस-वेदपुरुष-पुं० । वेदः-पुरुषवेदस्तदनुभवनप्रधानः
देशवर्तिनि , आचा०१ श्रु०४ १०४ उ०।। पुरुषो वेदपुरुषः । पुरुषभेदे, स्था० ३ ठा० १ उ० ।
रामोवरयं चरिज लोढ, विरए वेयवियाऽऽयरक्खिए (२) वेयबंधय-वेदबन्धक-पुं० । वेदयते अनुभवतीति वेदः, तस्य
बेचते अनेन तस्वमिति वेदः-सिद्धान्तः तस्य वेदनं विबन्ध एव बन्धकः । कति प्रकृतीर्वदयमानस्य कतिप्रकृतीनां
तया आत्मा रक्षितो दुर्गतिपतनात्त्रातोऽनेनेति बेदविदात्मबन्धो भवतीति तत्र निरूप्यते, ततस्तद्वेदस्य बन्ध इति
रक्षितः । यद्वा-वेदं वेत्तीति वेदवित् , तथा रक्षिता प्रायाः प्रक्षापनायाः पढुिंशतितमे पदे, प्रज्ञा० १ पद । ('कम्म'
सम्यग्दर्शनादिलाभः येनेति रक्षितायो रक्षितशब्दपरनिशम्ने तृतीयभागे २९३ पृष्ठे व्याख्यातमिदम्।)
पातः प्राग्वत् । उत्त०१५ १०। वेयमाण-वेदयत्-त्रि० । अनुभवति, भ० १८ श० ३ उ०।
वेयवेय-वेदवेद-पुं० । कां प्रकृति वेदयमानः कति प्रकृतीबेयमह-मेदमख-नवेदानां मुख्यभागे ओंकारे, “न वि- यो प्रतिपाटके मापनायाः साविंशतितो पटे. जाणसि वेयमुहं, न वि जन्माण मुहं" इति जयघोषविज- । प्रशा०१पद। यघोषसंवादः । उत्त०२५ १०।
वेयाईय-वेदातीत-पुं०। अवेदके, विशे। वेयरणी-वैतरणी-स्त्री० । क्षारोष्णरुधिराकारजलवाहिन्यांवेयागरणी-वैयाकरणी-स्त्री०। प्रवव्रजिषुः सन्देहनिराकरबरकनद्याम् , सूत्र०१श्रु०५ ०१ उ०। आचा। प्रा- पात्प्रवज्यायाम् , “वेयागरणीए सोमिल, पच्छा जहवावाद्वारवत्यां नगर्यो कृष्णवासुदेवस्य विद्यायाम् , “वार- यरे भगवं" पं० भा०१ कल्प। पं० चू० । वती नगरी नत्थ कण्हो वासुदेवो तस्स दो विजा, धनं
हो विजा, धन. वेयाणवीह-वेदानवीचि-स्त्री० । वेदः पुंवेदोदयस्तस्यानुवीतरी, वेयरणी य । धनंतरी प्रभवितो, वेयरणी भवितो।"
| चिः-आनुकूल्यम् । मैथुनाभिलाषे, सूत्र १ श्रु०४ अ. प्रा०म०१०। प्रा० चूछ । पूयरुधिरत्रपुताम्रादिभिरतितापात्कलकलायमानेभृतां विरूप तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति, यथार्थी नदी विकुळ तत्तारणेन कद
वेयारणिया-वैदा(चतामणी-स्त्री० । विदारणं विचार र्थयति नारकानिति (स० १५ सम.) त्रयोदशे परमाधा-1
वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् वैदारणी । कियाभेदे, मिके, पुं०।सूत्र।
स्था०२ठा०१उ०। भाव। तद्वर्णनमाह
वेयाल-वेताल-पुं० । विकृतपिशाचे, प्रश्न० ३ अाश्र० द्वार। पूयरुहिरकेसहि-वाहिणी कलकलेंतजलसोया । | वेयालग-विदारक-न० । ह-विदारणे इत्यस्य धातोर्विपूर्ववेयरणिगिरयपाला, गरइए ऊ पवाहंति ॥२॥ | स्य छान्दसत्वात् भावे एवुल प्रत्ययान्तस्य विदारकम् 'प्यरुहिरे' स्यादि, वैतरणीनामानो नरकपालाः वैतरणी | विदारणे, सूत्र.१७०२ १०१ उ०। नदी विकुर्वन्ति, सा च पूयरुधिरकेशास्थिवाहिनी महाभया- | वेयालण-वेदारण-न। विशेषेण द्वैधीकरणे, सूत्र०१ श्रु.. नका कलकलायमानजलश्रोता तस्यां वक्षारोष्णजलाया- | २०१०। मतीव बीभत्सदर्शनायां नारकान् प्रवाहयन्तीति । सूत्र०१
वेयालिय-विदारणीय-न। विदारणकर्मणि, सूत्र। वेयवं-वेदवत-पुं०। वेचते जीवादिस्वरूपमनेनेति वेदः-श्रा
निक्षेपः-- चाराकाघागमस्तं वेत्तीति वेदवित् । आगमले, प्राचा०१|
वेयालियम्मि वेया-लगो य वेयालणं वियालणियं । भु० ३५०१ उ०।
तिमि वि चउक्कगाई.वियालो एत्थ पुण जीवो ॥३६॥ वेयवक-वेदवाक्य-२० । वैदिकपदसमूहे, त्रिविधानि वेद-| तत्र प्राकृतशैल्या बेयालियमिति ह-विदारणे इत्यस्य धावाक्यानि । कानिचिद् विधिवादपराणि-तत्रानिहोत्रं जुहु- तोषिपूर्वस्य छान्दसत्वात् भावे रावुलप्रत्ययान्तस्य विदारयात् स्वर्गकाम इत्यादीनि विधिवादपराणि, अर्थवादस्तु | कमिति क्रियावाचकमिदमध्ययनाभिधानमिति , सर्वत्र स विधा-स्तुत्यर्थवादो निन्द्रार्थवादधेत्यादिवेदप्रतिपादितम् । क्रियायामेतत्त्रयं सन्निहितम् तद्यथा-कर्ता,करण,कर्म चेति। मा० म०११ विशे०।
अतस्तदर्शयतिविदारको विदाग विदारगी व तेषां
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वेपालिय अभिधानराजेन्द्रः।
बेवालिय प्रयाणामपि नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्दा निक्षेपेण त्री- बहुविध शब्दादाक्र्थेऽनित्यताविप्रतिपादकोऽर्थाधिकारो भणि चतुष्ककानि द्रष्टव्यानि । अत्र च नामस्थापने पुराणे, णित इति , तृतीयोद्देशके अज्ञानोपचितस्य कर्मणोऽपचद्रव्यविदारको यो हि द्रव्यं काष्ठादि विदारयति , भाववि
यरूपोऽर्थाधिकारो भणित इति यतिजनेन च सुखप्रमादारकस्तु कर्मणो विदार्यत्वात् नोागमतो जीवविशेषः
दो वर्जनीयः सदेति ॥४१॥ साधुरिति ॥ ३६॥
संबोधश्च प्रसुप्तस्य सतो भवति, स्वापश्च निद्रोदये, निकरणमधिकृत्याऽऽह
दासंबोधयोश्च नामादिश्चतुर्दा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने दव्वं च परसुमादी, दंसणणाणतवसंजमा भावे । ।
अनाहत्य द्रव्यभावनिक्षेपं प्रतिपादयितुं नियुक्तिकदाहदव्वं च दारुगादी, भावे कम्मं वियालणियं ॥ ३७॥
दव्वं निदावेओ, सणनाणतवसंजमाभावे । नामस्थापने घराणे. द्रव्यविदारणं परवादि, भावविदारणं अहिगारो पुण भणिो ,नाणे तवदंसणचरित्ते ॥ ४२॥ तु दर्शनशानतपःसंगमाः, तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्यमि- इह च गाथायां द्रव्यनिद्राभावसंबोधश्च दर्शितः . त्युक्तं भवति । विदारणीयं तु नामस्थापने अनारत्य द्रव्यं तत्राचन्तग्रहणेन भावनिंद्राद्रव्यबोधयोस्तदन्तर्वर्तिनोहणं दार्वादि, भावे पुनरष्टप्रकारं कर्मेति ॥ ३७॥
द्रष्टव्यम् , तत्र द्रव्यनिद्रा निद्रावेदे, वेदनमनुभवः । साम्प्रतं 'वेयालिय' मित्येतस्य निरुक्तं दर्शयितुमाह- दर्शनावरणीयविशेषोदये इति यावत् । भावनिद्रा तुझानवेयालियं इह दे-सियं ति वेयालियं तो होइ ।
दर्शनचारित्रशून्यता । तत्र द्रव्यबोधो द्रव्यनिद्रया सुप्तस्य
बोधनम् ,भावे-भावविषये पुनर्बोधो-दर्शनशानचारित्रतपःचेयालियं तहा वि-समत्थि तेणेव य णिबद्धं ॥ ३८॥
संयमा द्रष्टव्याः। इह व भावप्रबोधनाधिकारः स च गाथापइहाध्ययनेऽनेकधा कर्मणां विदारणमभिहितमिति कृत्वैतद
श्वान सुगमेन प्रदर्शित इति । अत्र च निद्राबोधयोर्द्रव्यभाध्ययनं निरुक्तिवशाद्विदारकं ततो भवति । यदि वा-वैतालीय
वभेदाचत्वारो भका योजनीया इति ॥ ४२ ॥ सूत्र० १ श्रु. मित्यध्ययननाम,अत्रापि प्रवृत्ती निमित्तं-वैतालीयं छन्दोवि
२०१ उ०। शेषरूपं वृत्तमस्ति, तेनैव च वृत्तेन निबद्धमित्यध्ययनमपि चैतालीयम् , तस्य चेदं लक्षणम्-"चैतालीय लगनैधनाःष-]
सव्वं नच्चा अहिट्ठए, धम्मऽट्ठी उवहाणवीरिए । इ युक्पादेऽष्टौ समे च लः । न समोऽत्र परेण युज्यते, नेतः गुत्ते जुत्ते सदा जए, पायपरे परमायतहिते ॥१५॥ षट् च निरन्तरा युजोः ॥१॥" ॥३॥
सर्वम्-एतद्धयमुपादेयं च ज्ञात्वा सर्वशोतं मागै सर्वसाम्प्रतमध्ययनस्योपोद्घातं दर्शयितुमाह
संवररूपम् अधितिष्ठत्-आश्रयेत् , धर्मेणार्थों धर्म एवं कामं तु सासयमिणं, कहियं अट्ठावयम्मि उसमेणं ।।
वाऽर्थः परमार्थेनान्यस्यानरूपत्वात् धर्मार्थः, स विद्यते अट्ठाणउतिसुयाणं, सोऊणं तेऽवि पब्बइया ॥ ३०॥
यस्यासौ धर्मो-धर्मप्रयोजनवान् , उपधान-तपस्तत्र वीर्य
यस्य स तथा अनिगृहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा मनोवाकामशब्दोऽयमभ्युपगमे , तत्र यद्यपि सर्वोऽप्यागमः
कायगुप्तः, सुप्रणिहितयोग इत्यर्थः, तथा युक्तो ज्ञानादिभिः शाश्वतः तदन्तर्गतमध्ययनमपि , तथापि भगवताss
सदा-सर्वकालं यतेताऽऽत्मनि परस्मिश्च । किंविशिष्टःदितीर्थाधिपेनोत्पन्नदिव्यज्ञानेनाष्टापदोपरि व्यवस्थितेन भ
सन् ?, अत पाह-परम-उत्कृष्ट आयतो-दीर्घः सर्वकारताधिपभरतेन चक्रवर्तिनोपहतैरष्टनवतिभिः पुत्रैः पृष्टेन
लभवनात् मोक्षस्तेनार्थिकः-तदभिलाषी पूर्वोक्तविशेषणवियथा भरतोऽस्मानाशां कारयत्यतः किमस्माभिर्विधेयमि- शिष्टो भवेदिति ॥ १५॥ सूत्र० १ श्रु०२ १०३ उ०। स्थतस्तेपामकारदाहकदृष्टान्तं प्रदर्श्य न कथञ्चिज्जन्तोभों
एतदाहगेच्छा निवर्तत इत्यर्थगर्भमिदमध्ययनं कथितम्-प्रतिपादि. तम् ,तेऽप्येतच्छुत्या संसारासारतामवगम्य विषयाणां च
अभविसु पुरावि भिक्खुओ,आएसा वि भवंति सुब्बता । कटुविपाकतां निःसारतां च ज्ञात्वा मत्तकरिकर्णवच्चप- एयाइँ गुणाइँआहुते, कासवस्स अणुधम्मचारिणी ॥२०॥ लमायुर्गिरिनदीवेगसमं यौवनमित्यतो भगवदाईव श्रेयस्क- हे भिक्षवः!-साधवः!, सर्वशः स्वशिष्यानेवमामन्त्रयति,पेडरीति तदन्तिके सर्वे प्रवज्यां गृहीतवन्त इति । अत्र 'उ- भूवन्-अतिक्रान्तो जिनाः-सर्वक्षाः 'पाएसाऽपि' त्ति देसे निसे य' इत्यादिः सर्वोऽप्युपोद्घातो भणनीयः॥३६॥ | श्रागमिन्याश्च ये भविष्यन्ति, तान् विशिनष्टि-सुबताःसाम्प्रतमुद्देशार्थाधिकार प्रागुल्लिखितं दर्शयितुमाह- शोभनव्रताः, अनेनेदमुक्तं भवति-तेषामपि जिनत्वं सुव्रतपढमे संबोहो ऽनि-चया य बीयम्मि माणवजणया।
त्वादेवायातमिति, ते सर्वेऽप्येतान्-अनन्तरादितान् गुणा
न पाहुः-अमिहितवन्तः, नाऽत्र सर्वज्ञानां कश्चिम्मतभेद अहिगारो पुण भणियो,तहा तहा बहुविहो तत्थ ।।४०॥ इत्युक्तं भवति । ते च काश्यपस्य-ऋषभस्वामिनो बर्द्धउद्देसम्मि य तहए, अन्नाणचियस्स अवचो भणियो। मानस्वामिनोवा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति। अनेन च बञ्जयन्बो य सया, सुहप्पमाप्रो जइजणेणं ॥४१॥ ।
सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मक एक एव मोक्षमार्ग इत्यावेतत्र प्रथमोद्देशके हिताहितप्राप्तिपारिहारलक्षणो बोधो वि
दितं भवतीति ॥२०॥ धेयोऽनित्यता चेत्ययमर्थाधिकारः, द्वितीयोद्देशके मानो
अभिहितांश्च गुणानुद्देशत भाहपर्जनीय इत्ययमर्धाधिकारः, पुनश्च तथा तथा अनेकप्रकारो। तिविहेस वि पास मा हसे,मायहिते अखियास संडे।
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( १४५१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
वेपालिय
एवं सिद्धा असो, संपइ जे अ अणागयावरे | २१|| एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी प्रणुत्तरनादंसणधरे अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिउ वियाहिए ।। २२ ।। ति बेमि । इति श्रीवेयालियं वितियमज्झयणं समतं ॥
त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन, यदि वा कृतकारितानुमतिभिर्वा प्राणिनो - दशविधप्राणभाजो मा इम्यादिति, प्रथममिदं महाव्रतम्, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् । एवं शेषाण्यपि दृष्टव्यानि । तथाऽऽत्मने हित श्रात्महितः, तथा नास्य स्वर्गावाप्त्यादिलक्षणं निदानमस्तीत्यनिदान:, तथेन्द्रियनोइन्द्रियैमनोवाक्कायैव संवृतः त्रिगुप्तिगुप्त इत्यर्थः एवम्भूतश्चावश्यं सिद्धिमयामोतीत्येतद्दर्शयति- एवम् अनन्तरोकमार्गानुष्ठानेनानन्ताः सिद्धा - श्रशेषकर्मक्षयभाजः संवृत्ता विशि
स्थानभाजो वा, तथा सम्प्रति वर्तमाने काले सिद्धिगमनयोग्ये सिध्यन्ति । अपरे वा अनागते काले पतम्मार्गानुष्ठायिन एव सेत्स्यन्ति, नापरः सिद्धिमार्गोऽस्तीति भावार्थः ॥ २१ ॥ एतच्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिप्रभृतिभ्यः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयतीत्याह-'एवं से' इत्यादि, एवम्-उद्देशकत्रयाभिहितनीत्या स ऋषभस्वामी स्वपुत्रानुदिश्य उदाहृतवान् प्रतिपादितवान् नास्योत्तरं प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं तच तज्ज्ञानं च अनुतरज्ञानं तदस्यास्तीत्यनुत्तरशानी तथाऽनुत्तरदर्शी - सामान्यविशेषपरिच्छेदकावबोधस्वभाव इति । बौद्धमतनिरासद्वारेण ज्ञानाधारं जीवं दर्शयितुमाहअनुसरज्ञानदर्शनधर इति-कथञ्चिद्भिन्नज्ञानदर्शनाऽऽधार इत्यर्थः । श्रहन् – सुरेन्द्रादिपूजार्हो ज्ञातपुत्रो वर्द्धमानस्वामी ऋऋषभस्वामी वा भगवान् - ऐश्वर्यादिगुणयुक्तो विशाल्यां नगर्थ्यो घर्द्धमानोऽस्माकमाख्यातवान् ऋषभस्वामी वा विशालकुलोद्भवत्वाद्वैशालिकः । तथा चोक्तम्" विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा । विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः ॥ १ ॥ " एवमसी जिन श्राख्यातेति । इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थी, ब्रवीमीति उक्तार्थो, नयाः पूर्ववदिति ॥ २२ ॥ समाप्तं द्वितीयं बैताली
मध्ययनम् । सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० । (अनित्यता धर्मदेशना 'परी सहा' ऽऽदिशब्देषु ।)
वैक्रिय - पुं० | नरके परमाधार्मिकनिष्पादिते पर्वते, सूत्र० १
० ४ ०२ उ० ।
वैकालिक - अपराह्नादौ, विगतकाले जाते, दश० १ अ० । ('दसवेयालिय' शब्दे चतुर्थभागे १४८० पृष्ठे व्युत्पत्तिरुक्ता । ) बेयालिया-वैतालिकी--स्त्री०। विताले तालाभावे च भवतीति बैतालिकी । देवतायाः पुरतो वाद्यमानायां मङ्गलवीणायाम्, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । जं० ।
बेयाली - वैताली - स्त्री० । नियताक्षरप्रतिबद्धे विद्याभेदे, सा
किल कतिभिर्जेपैर्दण्डमुत्थापयति । सूत्र० २ ० २ ० । बेयावश्च वैयावृत्य - न० | व्याविवर्त्ति स्मेति व्यावृतस्तस्य भावः वैयावृत्यम् । प्रव०६ द्वार । व्यावृतस्य शुभव्यापारवतो भावः कर्म वा वैयावृत्यम्, भक्तादिभिर्धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपद्म
For Private
बेयावच
हकरणे, स्था० ५ ठा० १ उ० । प्रति० । पा० । साधूनामाहाश्रौषधपथ्यादिनाऽवष्टम्भे, घ० २ अधि० । ४० । प्रश्न० । ग० । राद्यानयन साहाय्ये, उत्त० २६ श्र० । पञ्चा० नं० स० । स्था० । धर्मसाधननिमित्तं व्यावृतभावे, दश० १ ० । व्य० । "वेयावश्यं वा वडभावो इह धम्मसाद्दणणिमित्तं " प्रव०६ द्वार । वैयावृत्यभेदानाह
- दसविहे वेयावचे परमते, तं जहा श्रायरियवेयावचे १, उवज्झायवेयावच्चे २, थेरवेयावच्चे ३, तबस्सिवेयावच्चे ४, सेहवेयावच्चे ५, गेलावेयावच्चे ६, साहम्मियत्रेयांवचे ७, कुलवेयावच्चे ८, गणवेयावच्चे ६, संघवेयावच्चे १०, आयरियवेयावचं करेमाणे समये निग्गन्थे महानिअरे महापजबसाणे भवति ।
श्रस्याक्षरगमनिका - नवरं वैयावृत्यं त्रयोदशभिः पदैस्तान्यग्रे वक्ष्यन्ते । महानिर्जरः प्रतिसमयमनन्तानन्तकर्म्म परमानिर्जरणाद् महापर्यवसानसिद्धिगमनात् ।
अंत्र भाष्यप्रपञ्चः
दसविहवेयावचं, इमं समासेण होइ विशेयं । आयरिय उवज्झाए, थेरे य तवस्सिसेहे य ॥ १२३ ॥ अतरंतकुलगणेज, संघे साहम्मिवेयवचे य । एतेसिं तु दसहं, कायव्वं तेरसपएहिं ॥ १२४ ॥ दशविधमिदं वच्यमाणं समासेन विज्ञेयम्, तद्यथा - श्राचार्यस्य १, उपाध्यायस्य २, स्थविरस्य ३. तपखिनः ४, शैक्षकस्य ५, अतरत्-ग्लानस्तस्य ६, साधर्मिकस्य ७, कुलस्य ८, गणस्य ६, सङ्घस्य १०, वैयावृत्यम् । गाथायां सप्तमी सर्वत्र प्र तिपत्तव्या एतेषां त्वाचार्यादीनां दशानामपि यथायोगं त्रयोदशभिः पदैर्वैयावृत्य कर्त्तव्यम् ।
तान्येव त्रयोदश पदान्याह
भले पाये सयणाऽऽमणे (य) पडिलेहपायमच्छिमद्धाणे । राया तेथे दंड-ग्गहे य गेलममत्ते य ।। १२५ ॥ भक्तेन भक्तानयनेन वैयावृत्यं कर्त्तव्यम्, १, पानेन-पानीयानयनेन २, शय्या - संस्तारकेण वा ३. श्रासनेन - श्रासनप्रदानेन४, प्रतिलेखनेन क्षेत्रस्योपधेर्वा प्रत्युपेक्षणेनापि ५, पाए 'सि पादप्रमार्जनेन ६, यदि वा - औषधपानेन प्रणोः अक्षिरोगि णो भेषजप्रदानेन ७, अध्वनि-अध्वानं प्रपन्नानामुपग्रहेण ८, राजद्विष्टे निस्तारणेन ६, 'तेरा ' त्ति शरीरोपधिस्तेनेभ्यश्च संरक्षणेन १०, तथाऽतिचारादिभ्य श्रागतानां दण्डग्रहणा ११, ग्लानत्वे जाग्रतो यथायोग्यं तत्संपादनेन १२, ' मत्ते य' सि मात्रिकत्रिकढौकनेन १३, एतानि त्रयोदश पदानि ।
जा जस्स होइ लद्धी, तंतुन हावेइ संतविरियम्मि । एयात्तत्थाणि य, पयाइँ किंचित्थ वुच्छामि ॥ १२६ ॥ या यस्य भवति लब्धिः स तां सति वीर्ये पराक्रमे नहापयेदिति । व्याख्यानार्थे त्रयोदश पदान्युपासानि एतानि यो. कार्थानि सुप्रतीतानि तथापि किंचिदत्र विनेयजनानुग्रहाय वक्ष्यामि ।
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अभिधानराजेन्द्रः। पायपरिकम्मपाए, मोसहमेसज देइ अच्छीसं ।
इति कथमाचार्यग्रहणेन स गृहीतः,तत आह-आचारं सा
नादि पश्चप्रकारमुपदिशन् ,किंवा केन वा कारणेन न भवश्रद्धाणे उबगेएहइ, रायडुढे य नित्यारे ।। १२७॥
स्थाचार्यः१,भवत्येवेति भावः । स्वयमाचारकरणं परेषामप्या. 'पाय' ति पादपरिकर्म प्रमाजनादि करोति । यदि बा
चारोपदेशममित्याचार्यशम्दप्रवृत्तिनिमित्तम् ,ततः तीर्थकरो. श्रोषधं पाययति । 'अच्छि' ति अपणो रोगे समुत्पने ऽपि समस्तीति भवति तीर्थकरः। प्राचार्यः अत्र निदर्शनम्भेषजं ददाति मध्वनि प्रतिपत्रान् उपगृहाति, उपधिग्रह- यथा स्कन्दकेन भगवान् गौतमः पृष्टः, केनेदं तव शिष्टं-कणतो विधामणाकरन योपटभ्नाति, राजद्विष्टे समुत्पनेत- थितमिति !, स प्रत्याह-धर्माचार्येणेति। तो निस्तारयति।
तम्हा सिद्धं एयं, पायरियग्गहणेण गहियतित्थयरा। सरीरोवहितेणेहि ,सा रक्खति सति बलम्मि संतम्मि ।
मायरियादी दस वी, तेरस गुण होंति कायवा।१३।। दंडग्गहं कुणंती, गेलने याऽवि जं जोग्गं ॥ १२८ ॥
तीसुत्तरसयमेगं , ठाणेणं वत्रियं तु सुत्तम्मि । शरीरस्तेनेभ्य उपधिस्तेनभ्यश्च सति-विद्यमाने बले स
वेयावचे सुविहिय-पप्पं निव्वाणमग्गस्स ॥ १३६ ॥ ति रक्षति विचारभूम्यादिभ्य भागतानां पर्यायादिवृद्धानां साधूनां दण्डग्रहणं करोति, ग्लानत्वे च जाते यत् योग्य
यस्मायुक्तिनिदर्शनं चास्ति तस्मात्सिद्धमेतत् प्राचार्यग्रहतत्संपादयति।
हैन तीर्थकरो गृहीतः प्राचार्यादीनि च दशापि पदानि
प्रयोदशगुणानि भवन्ति-कर्तव्यानि। एकैकस्मिन्पदे त्रयोदशउच्चारे पासवणे, खेले मत्यतियं तिविहमेयं ।
भिः पदेयावृत्यकरणात् । एवं च सति वैयावृत्ये-पैयावृत्यसन्वेसिं कायब्वं, साहम्मिय तत्थिमा विसेसो।।२१।।
विषये सूत्रेऽपि त्रिशदुसरं स्थानानां शतं वर्णितम् । किविउच्चारे प्रश्रवणे खेले श्लेष्मणि मात्रकत्रिकमेतत् प्रयो- शिष्टमित्याह-सुविहितानां प्रापकं निर्वाणमार्गस्थ । . बशपदात्मकं वैयावृत्य त्रिविधं मनसा वाचा कायेन च स- ववहारे दसमाए, दसविहसाहुस्स जुतजोगिस्स । बषामाचार्यादीनां दशानामपि कर्तव्यम् । तत्रायं सामिके
एगंतनिअरा से, नहुनवरि कयम्मि सज्झाए ॥१३७॥ विशेषः। तमेवाss
व्यवहारे दशमे उद्देशके यत् वविधं वैयावृत्यमुक्तं तहोज गिलाणो निण्हवो,
स्मिन्साघोर्यनयोगस्यैकान्तनिर्जरा भवति, 'नहनवरि' के
वलं स्वाध्याये रुते 'से' तस्य एकान्तनिर्जरेति। व्य. १० न य तत्थ विसेस जाणइ जलो उ।
उ०। उत्त । प्रव० प्रा०००। तुज्झत्थ प्पव्यतितो,
अनलेन वैयावृत्यं कारयतिन तरति किंतू कुणह तस्स ॥१३०॥
जे मिक्ख प्रणलेख वेयावच्चं करेइ करतं वा साइजह ताहेमा उहाहो,होउ ति तस्स फासुएणं तु ।
॥१३॥ पडियारणं करेंती, चोएती एत्य अह सीसो॥ १३१ ।।
कारतस्स बउगुरुं पच्छित भाषादिया व दोसा। ग्लानः कोऽपि निववो भवेत् , नच तत्र जनो विशेष जानाति
गाहाएष निहाव एते च सुसाधव इति । ततो जनो ध्यात्-युष्माकमत्र प्रवजितोन तरति-न शक्नोति तस्य किंतु कुरुत
पुवं विय पडिसिद्धा,दिक्खा अणलस्स कहमियाणित। प्रतिजागरणं ततो माभूत् प्रवचनस्योडाह इति तस्या
वेयावच्चं कारे, पिंडस्स अकप्पिए मुत्तं ॥ ४७६ ।। पि प्रासुकेन प्रत्यषतारण भनपानादिना वैयावृत्यं करोति । वेयावच्चे अगलो, चउन्चिहो प्राणुपुव्वीए । प्रधानम्तरमत्र शिष्यश्चोदयति ।
सुत्तत्य अभिगमेख य, परिहरणाए व नायव्वा ॥४८॥ किं तदित्याह
बेयावच्चं प्रति प्रणलो चउब्बिहो-सुत्ते, प्रत्ये, अभिगमे, खित्वगरवेजवञ्चं, भय णियमे त्थं तु किन कायव्वं ।
परिहरणे य । सुत्ततो जेणं पिंडेसणाण पढित्ता अभिगमणं किंवान होति निजर-तहियं ग्रह वेति मायरिते॥१३२॥
जो वेयावच्च मा सहहति, परिहरणे-जो अकप्पियं न परिअत्र तीर्थकरवैयावृत्यं कस्मात्र भवितं किन्तु न कर्तव्यम् !,
हरति । चोदकाह-मणु जो पबजाते भणलो स व्यावकिंवा तत्र निजरा न भवति? एवं शिष्येणोदितोऽथानम्त-|
स्स वि मणलो किं पुढो सुकरणं । उच्यते-जो पबजाए रमाचार्यों प्रवीति ।
अणलो स वेयावच्चस्स नियमा प्रणलो, जो पुखवेयावयमायरियग्गहरणं, तित्ययरो तत्व होइ गहिरो उ । स्स अखलो स पन्बजाए मलो बा, अनत्तो वा । अतो पि किंवा नहोयायरिमो, आयारं उवदिसंतो उ॥१३॥ इसुत्तकरणं। बिदरिसपत्य जहरखं-दएस पुड्डोय गोयमो भयवं । केख उ तुह सिढुंता, धम्मायरिए पचाह॥१३४॥ | एए सामएलतरं, अगलं जालाइ माति कारज्जा। मावायग्रहणेन तत्र वशानां मध्ये तीर्थकरो गृहीतो . यावर्ष भिक्ख सो पावति माणमादीसि ॥४८॥ व्यः । अथ तीर्थकरखिलोकाधिपतिराशर्यस्तु सामान्य कंठा ।
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(१४५३) अभिधानराजेन्द्रः ।
बेपावच
गाहा
बितियपए एगागी, गेलले सहु अलद्धिमंते य । ओमे य अहियासे, गिहीसु वा मंदधम्मेसु ।। ४८२ ॥ गच्छे एक्को चैव पिंडादिकप्पितो सव्वेसिं कार्तुं ण तरति । जे कप्पिया ते गिलाणा । श्रसहू वा अलद्धिमता श्रमे वा असंथरंतो अणले कारविज अणहियासति, अने जाव भिक्खादिगया ण पंति ताव कोऽवि भिक्खू छुहालू लेख कारविज्जा गिहिलो वा मंदधम्मया उग्गं न वेति सो य अणलो लद्धिसंपनो ताहे सो ।
गाहा---
एहि कारणेहिं, पिंडेसुस्सारकप्पियं काउं । बेयावश्चमलंभे, कारेजा सो य अणलेणं ।। ४८३ ॥
एवं असढो कारवेतो सुद्धो । नि० चू० ११ उ० । ( आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे ४१४ पृष्ठे उपसंपदालोचनायां के कस्य वैयावृत्यं कुर्वन्तीत्युक्तम् । )
यावच्चे तिविहे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य । अणुसट्ठि उबालंभे, उवग्गहे चैव तिविहम्मि ||३७४ || ० १ ० । ( ' परिहार ' शब्दे पञ्चमभागे ६६४ पृष्ठे व्याख्याता । )
साम्भोगिकानां परस्परं वैयावृत्यमाह
जे निग्गंथा यग्गिंथी ओ य संभोइया सिया, नो एहं कप्पर अनमस्स संतिए वेयावडियं कारवेत्तए । अत्थि या इत्य एवं केइ वेयावच्चकरे, कप्पति यहं तेणं वेयावचं करावित्तए, नऽत्थि याइ एवं केवि वेयावचं करे, एवं एहं कप्पइ अन्नमन्नेखं वेयावश्चं कारवित्तर || २० ॥
ये निर्मन्था निर्मन्ध्या सांभोगिकास्तेषां नो, 'राह ' मिति वाक्यालंकारे, कल्पते श्रन्योऽन्यस्य वैयावृत्यं कारयितुम् । अस्ति कश्चित् वैयावृत्यकरः ततः कल्पते तं वैयावृत्यं कारयितुम् । नास्ति चेत् कचित् वैयावृत्यकर एवं सति कल्पते अम्योऽन्यस्य वैयावृत्यं कारयितुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः ॥
अधुना भाष्यविस्तरःआलोयाऍ दोसा, वेयावच्चेऽवि हुंति तह चैत्र । नवरं पुण खायचं, बितियपए होइ कायव्वं ॥ ८१ ॥ ये व विपक्षे आलोचयतां दोषा उक्ताः परस्परं वैयावृत्तेऽप्रि-वैयावृत्य करणेऽपि त एव दोषा भवन्ति, ये वाभ्यधिकास्ते ऽनन्तरगाथया वक्ष्यन्ते, नवरं पुनर्नानात्वं द्वितीयपदेअपवादपदे भवति कर्त्तव्यम् ।
तत्राभ्यधिकान् दोषानभिधित्सुराहउउभजमाणसुहेहिं, देहसहावापुलोमज्जेहिं । कठिणहिययाण व मणं, बंधंतऽचिरेण कइयविया ॥८२॥ श्रुतौ ऋतौ यैर्भजमानैः सेवमानैर्भज-सेवायामिति वचनात्, सुखं जन्यते तानि ऋतुभजमानसुखानि तैस्तथा देहः-शरी
३६४
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बेयावच
परं तस्य स्वो भावः-स्वरूपं देहस्वभास्यानुलोमान्यनुकूलानि यानि तैर्वैयावृत्यं कुर्वत्यः संयत्यो ; ये संयतीभिरानीतं भुञ्जते तेषां कठिनहृदयानामपि धृतिबलिष्ठानामपि संयमात्मनोऽचिरेण कालेन बध्नन्ति बाधयन्तीत्यर्थः । कथंभूता इत्याह-- कैतविषयः- कैतवेन-कपटेन अन्यन्मनस्यन्यद्वाचि इत्यादिलक्षणेन निर्वृत्ताः कैतविषयः ।
सम्प्रति द्वितीयपदे विपक्षेऽपि वैयावृत्यकरणे युक्तिमुपन्यस्यति
जह चैव य बितियपदे, लभंति आलोयणं विपक्खेऽवि । एमेव य बिइयपदे, वेयावच्चं तु अस्सों ॥। ८३ ।
यथा चैव द्वितीयपदे -- अपवादपदे विपक्षेऽपिं यतनया संयत्यः श्रमणानां पार्श्वे आलोचनां ददति एवमेव द्विती पदे अन्योऽन्यस्मिन्परस्परं वैयावृत्यमपि कुर्वन्ति । तदेव द्वितीयपदमाहभिक्खुमयखच्छेवग, एएहि गयो उ होज श्रावष्ठो । वाए पराइ से, संखडिकरणं च वित्थिां ॥ ८४ ॥ भिक्षूपासकः कोऽपि विश्रमिश्रं भोजनं दद्यात् मदनं-मदनकोद्रवकूरं वा प्रतिलाभयेत् । ' देवग' त्ति मारिर्वा सकलस्यापि साधुगणस्योपस्थिता । एतैः कारणैर्गण आपनो विपश्नो भवति । तत्र प्रथमतो भिक्षूपासकस्य प्रतिनिविट्रस्य विषमिश्रभोजनदानं भावयति — कोऽप्युपासको-मिक्षूपासको बहुजनमध्ये वादे पराजितस्ततः स प्रतिनिविष्टशे जातः । स च कैतवेनाचार्याणां सपीपे सम्यगुपस्थितः, कथय मे भगवन्नाईतं धर्म्मम् । श्राचार्येण कथितस्ततः स कैतवेन ब्रूते अद्य प्रभृति ममाहंतो धर्मो मया युष्मत्समीपे गृहीतः, एवमुक्त्वा श्राचार्यान्विज्ञपयति । यथा मया भिक्षूणामर्था
विस्तीर्ण संखडिकरणं कृतं प्रभूतं परमान्नमुपस्कृतं-कारितमित्यर्थः, तन्मा असंयतास्ते भुञ्जीरनिति साधूनां प्रयच्छामि, अनुगृह्णीत मां यूयमिति । एवमुक्ते साधवश्चिन्तय
- सत्यमेतत् यदेव ब्रूते ततो गृहीम इति । ततस्ते गतेषु तस्मिन्परमान्ने विषं क्षिप्तं साधूनां पर्याप्तं दत्तम्, तच्च साधुभिराहारितं तेन सर्वे पतिताः । यदि वा तत्प्रदतं मदनकोद्रवकूरं भुक्त्वा पतिताः ।
एतदेवाह
कतिपयधम्मकहाए, आउट्टो वेति भिक्खुगालऽट्ठा । परमनमुत्रक्खडियं, मा जाउ असंजयमुहाई ॥ ८५ ॥ तं कुम्हं मे, साहू जोग्गेल एसबिज्जेयं । पडिलामा विसेयं, पडिया पडिती य सन्वेसिं ॥ ८६ ॥ कैतवेन धर्मकथायां कथितायामावृत्तौ ब्रूते - मया भिक्षुकाणामर्थाय परमान्नमुपस्कृतं कारितं तम्मा असंयतमुखानि यातु तस्मात्कुरुत में साधुयोग्येनैषणीयेनानुग्रहम्, एवमुक्ते गतेषु साधुषु तेन पापीयसा विषेण- विषसम्मिश्रेण परमान्नेन प्रतिलाभना कृता । यदिवा - मदनकोद्रवकुरेः सा वसत्यागतानां साधूनां मुखेषु पतिता, ततः सर्वेषां साधूनां पतितिः- मरणमभूत ।
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वेयावच्च अभिधानराजेन्द्रः।
वेगावच्च भायंबिल खमगा सइ, लद्धा ण चरंतरण उ विसेणं । । प्रतिपृच्छय वैद्यान् यदि दुर्लभद्रव्येण प्रयोजनं जातं विदयपदे जयणाए, कुणमाणि इमा उनिहोसा ॥७॥
ततस्तस्मिन् उत्पाद्ये भवति वक्ष्यमाणा यतना, तामेवान च तत्र कोऽपि क्षपक आचाम्लो वा प्रासीत् , यो
ह-'विसघाई' इत्यादि विसघाति खलु कनकं, विषेण चो
पहताः साधवस्तिष्ठन्ति, ततः सुवर्णेन प्रयोजनं जातम् । विषादुद्धरति, ततः क्षपकानामाचाम्लानां चासति-अभागे
तत्र यदि शानममत्र निधिः-निखातोशायते तर्हि तमुत्स्वतेषां च साधूनां चरता-संचरिष्णुना विषेण लब्धानां-मृ
न्य यावता प्रयोजनं तावत् गृहाति शेषं तथैव स्थापयतानामित्यर्थः , मार्या वा समुपस्थितया मृतानां द्वितीयपदे इयं संयती यतनया वैयावृत्यं कुर्वाणा निदोषा ।
ति । अथ निधिपरिक्षानं नास्ति तहि योनिप्राभृतोलन प्र- कीरशी पुनर्वैयावृत्यकरणे योग्येत्यत पाह
कारेणोत्पादयेत्। अथ योनिप्राभृतमपि नास्ति तर्हि श्राद्धान् संबंधिणि गीयत्था, ववसाया थिरतणे य कयकरणा।
श्रावकान् याचेत। चिरपब्बइया य बहु-स्सुता य परिणामिया जा य॥८॥
असती य अमलिंगं, तं पि य जयणाएँ होइ कायध्वं । गंभीरा मद्दविया, मियवादी अप्पकोउहल्ला य ।
गहणे पसवणे वा, भागाढे हंसमादी वि ॥ ५ ॥ साहुं गिलाणगं खलु, पडिजग्गति एरिसी प्रजा ॥८६॥
अथ श्राद्धा अपि ताशा न सन्ति ये सुवर्ण याचितं द
दति ततस्तेषां श्राद्धानामसति-अभाचे प्रात्मना ग्रहणाया-आर्या ग्लानस्य प्रतिजाप्रमाणस्य भगिन्यादिनाऽन्त्र
य प्रज्ञापनाय च यत्तत्रान्यदर्चितं लिनं तदपि यतनया कर्त्तकेण संबन्धिनी तथा गीतार्था-एषणीयानेषणीयविधौ स
व्यम् । सा चेयम्-पूर्वमगारस्त्रीलिङ्गेनोत्पादयति तथाऽप्यम्यक कुशला तथा व्यवसायिनी या च स्थिरत्वे वर्तते;
नुत्पत्तावर्चितलिनेन तेनाप्युत्पादनाऽशक्ती हंसादि वा स्थिरा इत्यर्थः तथा कृतकरणा चिरप्रवजिता बहुश्रुता
यन्त्रमयं कृत्वा तेनोत्पादयेत् । यथा-कोक्कासो यन्त्रमया तथा या पारिणीमिकी-गम्भीरा मार्दविता-संजातमार्दवा
न्कपोतान् कृत्वा शालिमुत्पादितवान् एवं तावनिर्ग्रन्थी मितवादिनी-अल्पकुतूहला ईशी प्रार्या गणाभावे ग्लानं निर्ग्रन्थस्य वैयावृत्यं करोत्येवं संयतोऽपि संयत्या ग्लानाया खलु प्रति जागर्ति।
वैयावृत्यं करोति। संप्रति व्यवसायिन्यादिपदानां व्याख्यानार्थमाह
त्रयाणां वैयावृत्यम्-- ववसायिणि कायब्वे, थिरा उजा संजमम्मि होइ दढा। निग्गथं च णं रातो वा चियाले वा दीहपिद्रो लसेज्जा कयकरणा जा य बहुसो, वेयावच्चाइकुसला य ॥१०॥
हैइत्थी वा पुरिसस्स भोमावेजा, पुरिसो वा इत्थीए भोमावेया कर्तव्ये व्यवसायकारिणी नालस्येनोपहता तिष्ठति
जा । एवं से कप्पति, एवं से चिट्ठति, परिहारं च से णं सा व्यवसायिनी , या संयमे भवति दृढा सा स्थिरा, यया ब
पाउणति-एस कप्पे थेरकप्पियाणं, एवं से नो कप्पति, हुशो वैयावृत्यानि कृतानि सा कृतकरणा-कुशला इत्यर्थः । एवं से नो चिट्ठति, परिहारं च नो पाउणइ-एस कप्पे चिरपब्बइय समाणं, तिरहुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी । । जिणकप्पियाचं ति बेमि ॥२१॥ परिणामिय परिणाम,जाणइ जा पोग्गलाणं तु ॥४१॥ ।
भस्य (२१) सूत्रस्य संबन्धप्र
तिपादनार्थमाहचिरप्रनजिता नाम या तिसृणां समानां वर्षाणामुपरि या
पडिसिद्धमणुमायं, वेयावच्चं इमं खलु दुपक्खे । प्रकल्पधरी सा बहुश्रुता, तथा पुनः पुद्रलानां विचित्रं परिणामं जानाति सा परिणामिकी।
सो चेव य समणुप्मा, इहं पि कप्पेसु नाणत्तं ।। ६४॥
अनन्तरसूत्रे विपक्ष वैयावृत्यकरणं प्रतिषिद्धम् । तदं वैकाउंन उत्तुणेई, गंभीरा महविभविम्हइया ।
यावृत्यं खलु पुनर्द्विपक्षे-स्वपक्षे, परपक्षे चेत्यर्थः । सूत्रेणेवाकजे परिमियभासी, पियवादी होइ मजा उ॥ १२॥ । नुमापनात् "अत्थियाई एह केई वेयावच करे कप्पति एवं या वैयावृत्यं कृत्वा न उणेई' गर्वबुध्या में प्रकाशयति वेयावचं करावित्तए" इति वचनात् , सा च समनुमा बैसा गम्भीरा , मर्दविनी-अविस्मयिता तथा कार्य परिमित- यावृत्यसमनुहा, इहापि अस्मिन्नपि सूत्रेऽभिधीयते केवलं भाषिणी-मितवादिनी।
कल्पयो नात्वमधिकमित्येष सूत्रसंबन्धः। कक्खंतरगुज्झादी, न निरिक्खे अप्पकोउहवाए। । ___ पुनः प्रकारान्तरेल सम्बन्धमाहएरिसगुणसंपना, साहूकरणे भवे जोग्गा ।। ६३ ॥
भत्थेण व आगादं, भणितं इहमवि य होइ भागाढं । या कक्षान्तरगुह्यादीनि न निरीक्षते सा भवत्यल्पकुतह
प्रहवा प्रतिप्पसत्तं, तेख निवारेइ बिणकप्पे ।। ६५|. ला । ईशगुणसंपन्ना साधुकरणे-साधुवैयावृत्यकरखे भवेद् |
• वाशब्दः पक्षान्तरद्योतने, पूर्व सूत्रेऽर्थेऽनागादं भणितम्योग्या।
सचितम् , तथा चागाढे प्रयोजने समुत्पने संयती संयतसंप्रति वैयावृत्यकरणविधानमाह
स्य वैयावृत्यं कुर्वती समनुशाता, नान्यथा । इहापि च भपडिपुच्छिऊण विजे, दुल्लभदबम्मि होइ जयणा ।।
वस्यागादं प्रयोजनमधिकृत्य वैयावृत्यकरणमिति संबन्धः ।
अथवाऽतिप्रसक्तं खलु वैयावृत्यकरणं तेन जिनको निविसपाई खलु कणगं, निहि-जोखीपाहुडे सड्ढे ॥ ६॥ वारयति ।
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बेयावच्च अभिधानराजेन्द्रः।
याव सुत्तम्मि कटियम्मी, वोच्चत्थ करेंति चउगुरू हुँति । । चोदयति-प्रश्नयति शिष्यः, परकरणे-परपक्षे वैयावृत्यकप्राणादियो य दोसा, विराहणा जा भणिय पुब्धि ॥६६॥ |
रणं दोषपरिहरणहेतो-दोषपरिहरणनिमित्तं नेच्छामः किं पुनः
केवल 'भेसज्जगणो' औषधसमूहो ग्लानरक्षा ग्रहीतव्यः । सर्वत्रापि सूत्रे कर्षिते-उच्चारिते सति संबन्धः प्रदर्शमीयः। तथा श्रमणः श्रमणस्य वैयावृत्यं कर्त्तव्यम् , श्रमणीभिः
अत्रैव विपक्ष दोषमाहश्रमण्याः। यदि पुनर्विपर्यासं करोति तर्हि विपर्यासं कुर्वतां पुवं तु अहिगएहिं, दूरा जा सहाई आणेति । प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, न केवलं प्रायश्चित्तम्-आशादय- तावत्तो उ गिलाणो, दिद्रुतो दंडियाईहिं ।। १०२ ॥ श्व-आज्ञानवस्थामिध्यात्वविराधनारूपाश्च दोषाः । तथा या
पूर्वमगृहीतेषु भषजेषु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतपूर्व वेयावृत्यसूत्रे भणिता विराधना शीलविराधना सा प्र
त्वात् । यावदार्या दूरादीपधान्यानयति तावत् ग्लानस्य प्रापि द्रष्टव्या।
आगाढादिपरितापना भवति,नद्भावे च परमार्थतस्त्यलोभ___ 'सुत्तम्मि कहियम्मि' इत्येतदेव प्रपञ्चयति
वति । अत्रार्थ च रयान्ता दण्डिकादिभिः । संबन्धो दरिसिजइ, उस्सुत्तो खलु न विजते अत्थो ।
तमेव विभायपुराहउच्चारितछिएणपदे, विग्गहिए चेव प्रत्थो उ ।। ६७|| उवट्ठियम्मि संगामे, रमा बलसमागमे । सूत्रे उचारिते सति संबन्धोऽनन्तरसूत्रादिभिः सह द- एगो बेजोस्थ वारेई, न तुन्भे जुद्धकोविया ॥१०३ ॥ यते, यतः संबन्धोऽर्थतो भवति वर्णानां स्वतः संबन्धा- घेप्पंतु ओसहाई, वणपट्टी मक्खणाणि विविहाणि । भावात् । स चार्थः खलु उत्सूत्रः-सूत्ररहितो न विद्यते संबन्धश्वोपदर्शाते-उच्चारितसूत्रस्य छिनानि पदानि कर्त
सो चेव मंगलाई, मा कुणइ अणागयं चव ॥ १०४ ॥ व्यानि पदच्छेदो विधातव्य इत्यर्थः। ततो यानि पदानि द्वयोर्दण्डिकयोरुपस्थिते संग्रामे मिलिते च द्वयोर्थलेऽपि विग्रहमानितेषु विग्रह उपदर्शनीयः विगृहीते च सूत्र-1 राझोः वैद्या उपस्थिताः । तत्र एको दण्डिको बैद्यांस्तत्र संतोऽर्थो व्याख्येयः।
प्रामप्रस्ताव उपस्थितान् वारयति न यूयं युद्धकोविदास्ततः अक्खेवो पुण कीरइ, कत्थति कत्थइ विणा वि तस्सिद्धी।
किं युष्माभिः संग्राम कर्तव्यम् , एवमुक्ने ते वैद्याः प्राहु-यच
पिन वयं युद्धकोविदास्तथापि प्रहारप्रणितेषु अस्माकं वैद्यजत्थ अवायनिदरिसण, एसेव उहोइअक्खेवो ॥ ८॥
क्रियोपयोगिनीः तस्माद्वयमागच्छामः। गृह्यतां चौपधानि.व. आक्षेपः पुनः कचित् क्रियते, यथा-किं कारणं परपक्ष णपट्टीनि, विविधानि चानेकप्रकाराणि च प्रक्षणाणि । एववैयावृत्यं न क्रियते । कुत्रचित्पुर्विनाऽध्याक्षेप तत्सिद्धिराक्षे । मुक्त स दण्डिको ब्रवीति मा कुरुतानागतमेवामङ्गलानि तपसिद्धिः। कथमित्याह-यत्रापायनिदर्शनमपायप्रकटनमेष ए-1 स्मानिवर्तध्वं यूयमिति । व भवत्याक्षेपः प्राक्षेपहेतुकत्वात् , न खल्वाक्षेपसूचामन्तरे
किं घेत्तव्वं रणे जोग्गं, पुच्छिया इयरेण ते । णोपायप्रदर्शनं विपक्षे भवतीति परिभावनीयमेतत् ।
भणंति वणतिलाई घयदब्बोसहाणि य ॥१०५ ।। . संप्रत्याक्षेपप्रसिद्धी एव वैविक्त्येनाह
इतरण-द्वितीयेन दण्डिकेन ते प्रात्मीया वैद्याः पृष्टाः, किं किं कारणं न कप्पड़, अक्खेवो दोसदरिसणं सिद्धी । कारणे-संग्रामे योग्यं ग्रहोतव्यम् . एवमुक्तास्ते भणन्ति-वणलोए वेदे समए, विरुद्धसेवादयो नाता ॥६६i
सरोहकाणि तैलानि व्रणतैलानि तथा जीसै घृतं द्रव्योषधाकिं कारणं विपक्षे वैयावृत्यं न कल्पते इत्याक्षेपः, विपक्ष
निच यैरौषधैः संयोजितैस्तैलं घृतं वा निष्पद्यते । व्रणरो. दोषदर्शन सिद्धिः-प्रसिद्धिः । अत्राथें लोके वेदे समये च
हकं चूर्ण यद्वा-व्रणरोहणाय यानि भवन्ति । तानि द्रव्यौविरुजसेवादयोशातानि । किमुक्तं भवति । यथा-लोके वेदे
षधानि ततो रामा पुरुषाः संदिष्टा यवैधरुपदिष्टं तत्सर्वे समये च विरुद्धसेवायामकल्पिकसेवायां च दोषोपदर्शन
ग्रहीतव्यम्। म्, तदकरणे प्रसिद्धिरेवमिहापि विपक्षवैयावस्यकरणेऽपा- भग्गसिब्बियसंसित्त-(बीदिये) वणा वेजेहिं जस्स उ। यप्रदर्शनमेव तदकरणे प्रसिद्धिः ।
सो पारगो उ संगामे, पडिवक्खो विवज्जए॥१०६ ॥ तम्हा सपक्खकरणे, परिहरिया पुश्ववरिणया दोसा।
ततः संग्रामे वर्तमाने यस्य राज्ञो ये पुरुषा मुद्रादिनकप्पे छद्देसे, तह चेव इहं पि दडब्बा ॥१०॥
हारहतास्तेषां प्रहारो वेधैरौषधैर्भग्नाः ये च वलितास्तेषां
व्रणाः सीवितास्तत्र औषधैः संसिक्ताः । एवं प्रणिता यस्मादेवं विपक्षे वैयावृत्यकरणे प्रायश्चित्तादयो दोषास्त- प्रहारिता द्वितीये दिवसे युद्धसमर्था जाताः । एवं द्विस्मात् स्वपक्षे वैयावृत्यं कर्तव्यम् । खपक्षवैयावृत्यकरणे च ये| तीयदिवसे इव तृतीयदिवसेऽपि कृतम् । एवं स राजा वैपूर्ववर्णिता दोषास्ते यथा-कल्पाध्ययने षष्ठोदेशे परिहतास्तथा | चोपदेशेनौषधसंग्रहतः संग्रामे पारमोऽभूत् प्रतिपक्ष विपवैव हापि द्रष्टव्याः ।
ययो; जित इत्यर्थः । एष रटान्तः। अत्र परः प्रश्नमाह
भयमर्थोपनयःचोएंती परकरणे, नेच्छामो दोसपरिहरणहेउं । एवमेवऽसपेजाइ, खजलेजाखि जेसि उ। कि पुल मेसजगणो, घेत्तब्बो गिलाणरक्खा ॥१०१॥ मेसजाई सहीणाई, पारगा ते समाहिए ॥ १०७॥
चा
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पणतमाशे दुःखसंभवमस्ति । इहलोक नाय अक्षमः,
वेयांव अभिधानराजेन्द्र:।
बेयावच एवमेव दण्डिकदृष्टान्तगतेन प्रकारेण येषामाचार्याणां भेष
एतदेवातिप्रसझापादनेन दूषयतिजानि 'स' ति प्रशनरूपाणि पेयानि-पानकरूपाणि खा. पानि-खादिमरूपाणि लेह्यानि च-स्वादिमानि ते आत्मनो
कोसकोट्ठारदाराणि, पदातीमादियं बलं । गच्छस्य च समाधेः पारगा भवन्ति । ये पुनरौषधानां न सं
एवं मणुयपालाणं, किं नु तुज्मं पि रोयह ॥ ११४ ॥ ग्रहीतारस्ते समाधेरपारगाः।
कोशकोष्ठागारदाराः पदात्यादिकं बलमेतन्मनुष्यपालानांभ प्रकारान्तरेण दण्डिकदृष्टान्तमाह
पति, तदेततिक नु तवापि रोचते। एतदपि रष्टान्तवलेन महवा राया दुविहो, प्रायभिसित्तो परामिसित्तो य।
गृह्यतामिति भावः। भायमिसित्तो भरहो, तस्स उ पुत्तो परेणं तु॥१०८।।
जो वि भोसहमादीणं, निचयो सोवि अक्खमो। अथवेति प्रकारान्तरद्योतने । राजा द्विविधो भवति । तच
न संचये सुहं अस्थि , इह लोए परस्थ य ।। ११५॥ था-आत्माभिषिक्तः पराभिषिक्तश्च । प्रान्मनैव निजवलेन
योऽप्यौषधानां निचयः सोऽपि सुनोत्पादनाय अक्षमः , राज्येऽभिषिक्तः प्रात्माभिषिक्तः. परैरभिषिक्तः पराभिषिक्तः ।
यतो न संचये सुखमस्ति । इहलोके तदुत्पादनतद्रतत्रात्माभिषिक्लो भरतश्चक्रवर्ती , तस्य पुत्र मादित्ययशाः
पणतनाशे दुःखसंभवात् परत्र च-परलोके च सुखं नास्ति पराभिषिक्तः।
परिग्रहधारणतः कुगतिप्रपातात् । बलवाहणकोसा य, बुद्धी उप्पत्तियाऽऽदिया।
दारगाहासाहगा उभयोवेता, सेसा तिमि असाहगा ॥१०६ ॥ ऑदिसुत्तस्स विरोधो, समणा चत्ता गिहीण भणुकंपा। बल-हस्त्यादि वाहनानि-यानाान कोशो-भण्डागारं तथा- पुब्बाऽऽयरियऽनाणी, प्रणवत्था वंतमिच्छत्तं ॥११६॥ बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका। अत्र भकाश्चत्वारः । एको बलवाह-|
आदिसूत्रस्य-दशकालिकस्य विरोधस्तथा एवं वाणो नादिसमनो नो बुद्धिसमनः १ ; एको बलवाहनादिसमनः | किंतु बुद्धिसमेतः २, एको बलवाहनादिसमेतोऽपि बुद्धि
भवान् परिग्रहे साधून नियुक्ते, तन्नियोगाच ते स्यक्तास्तथा समेतोऽपि ३, एको नो बलवाहनादिसमेतो नापि बुद्धिव
गृहिशामनुकम्पा-अनुग्रहस्त्यक्तः साधूनां स्वत एव भैषज्यलोपेतः ४, एषु चतुर्यु भनेषु मध्ये य उभयोपेतो बलवाह
कादेः संभवात्। तथा ये पूर्वाचार्याः सन्निधि प्रतिषिद्धयन्तस्ते नादिसमेतो; बुद्धिसमेतश्चेत्यर्थः , स राज्यस्य साधकः शेषा
प्रशानीकृताः समिधेभेवता गुणोपदर्शनात्। अनवस्था चैवं
प्रसज्जते सनिधिरिव भवताऽन्येनाम्यस्यापि ग्रहणप्रसक्तः, बयोऽसाधकाः । एष दृष्टान्तः ।
तथा वान्तप्रतिसेवनं भवतः समापतितं प्रतिषिद्धस्यापि अयमर्थोपनयः--
संचयस्य पुनर्ग्रहणात् । तथा मिथ्यात्वं-मिथ्याषादित्यमनुषबलवाहणत्थहीणो, बुद्धिविहीणो न रक्खए रज्ज। ।
जते यथावादमरणात् । निष्परिग्रहा वयमित्यभिधाय परिइय सुत्तत्थपिहीणो, प्रोसहहीणो उ गच्छं तु ॥११०॥ प्रहधारणात्। यथा बलेन वाहनैरथेन च हीनो बुद्धिहीनश्च राज्य राजा
एनामेव गार्या व्वाचिल्यासुः प्रथमतः न रक्षति । एवमाचार्योऽपि सूत्रार्थविहीनः औषधविही
सूत्रस्य विरोधमुपदर्शयतिनव गच्छं न रक्षति ।
जं वुत्तमसणं पाणं, खाइमं साइमं तहा । (तम्हा) आयपराभिसिनेणं, जम्हा आयरिएण उ। संचयं तु न कुध्विजा, एयं ताव विरोहियं ॥११७॥ भोसहमादीणिचनो, कायन्बो चोयती सीसो ॥११॥ यद् दशवकालिके उक्तम्-अशनं पानं खादिम स्वादिमं तेषां तस्मादाचार्येण आत्माभिषिक्लेन-श्रुतकेवलिना इतरेण च
संचयं न कुर्यात् , तथा तहन्थ:-'असणं पाणगं चेव, स्वाइम पराभिषिक्तेन औषधादिनिचयः कर्त्तव्य इति । शिष्यश्चोदय
साइमं तहा।जे भिक्खू सन्निहिं कुजा, गिही पवाए न ति-व्रते।
से ॥२॥" इति । तदानी विरोधितं विरोधमापादितं सन्निधेसीमेणाऽभिहिते एवं, बेइ आयरिओ ततो ।
रिदानी त्वयाऽभ्युपगतत्वात्।। वदतो गुरुगा तुझ, प्राणादीया विराहणा॥११२॥
परिग्गहे निजुजंता, पारश्चत्ता उ संजया । एवं शिष्यणाभिहिते तत प्राचार्यों छूते । एवं वदत
भारादिमाइय. दोसा, पेहा पेहकयाइया ।। ११८ ॥ स्तथा प्रायश्चित्तं चन्यारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषा विराध. संयताः परिग्रहे नियुज्यमानाः परित्यक्ताः संसारे ना सूत्रस्य।
पातनात्। किंचान्यत्-हलोकेभारादयो-भारवाहनादयो एतदेव भाषयति
दोषा प्रादिशब्दात्-कायक्लेशसूत्रार्थहान्यादिदोषपरिग्रहः । दिटुंतसरिसं काउं, अप्पाण परं च केइ नासंति ।
तथा प्रेक्षादिकाच, तथाहि-यदि सर्व प्रत्युपेक्षते ततः सू
त्रार्थपरिमन्थः, अथन प्रत्युपेक्षते तर्हि संसक्तिभावः । माप्रोमहमादीनिचनो, कायव्यो जहेव राईणं ॥११३॥
दिशब्दात्-तत्परितापमादिदोषपरिग्रहः। केचित्तव सहशा दृष्टान्तसहशं दण्डिकसरशमात्मानं परं च कृपा नाशयन्ति । तथा औषधादिनिचयः कर्तव्यो यथा
अहवा तप्पडिबंधा य, अत्यंते नितियादयो । राशामिति।
अणुग्गहो गिहत्थाणं, सया वी ताण होइ उ॥११॥
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बेयावच्च
(१४५७) अभिधानराजेन्द्रः।
बेयाचच अथवा तत्प्रतिबन्धाद्-औषधनिचयप्रतिबन्धात्तिष्ठन्ति स- थावरजंगमजलजं, थलजं चेमादि दुविहं तु ॥ १२५ ।। दावस्थायितया न तु विहारक्रमं कुर्वन्ति । तथा च सति नैत्यिकारयो नैत्यिको-नित्यवासी, आदिशब्दात्-पार्श्वस्थादि
द्विविधं द्रव्यम्-सचित्तम् , अचित्तं वा । यदिवा-परीतम् .
अनन्तकायिकं वा । अथवा-संयोगिकम् अनेकसंयोगनिपरिग्रहस्तदारयो दोषाः प्रसजन्ति । गतं 'समणा चत्ता'
पत्रम् , इतरत्-असंयोगिकम् । अथवा-स्थावरं, जङ्गमम् । इति द्वारम् । अधुना ' गिहीण अणुकंपे' त्ति व्याख्या-|
प्रत्युत्पन्न कार्ये यदि स्थावरद्रब्यप्रयोगतः कथमपि गुणो न नयति-गृहस्थानां सदा साधूनां भेषजादिप्रयच्छतामनु
भवति तदा अनन्यगत्या जङ्गमं द्रव्यं प्रयुज्यते । अथवाग्रहो भवति । स इदानी परित्यक्तः साधूनां स्वत एव त
द्विविधं द्रव्यम्-जलजम् , स्थलजं च । एवमादिद्विविध द्रव्यं निचयभावात्।
ग्रहीतव्यम् । इयं चिकित्सा दीर्घपृष्ठविधविधातायाभिहिता। सम्प्रति 'पुवायरियऽनाणी' त्येतदु व्याख्यानयति
संप्रत्यतिदेशेनान्यरोगेष्वपि तामाहपडिसिद्धा सन्निही जेहिं, पुवायरिएहि ते विउ ।
जह चेव दीहपिटे, विजा मंता य दुविहदवा य । अनाणी उ कया एवं, अणवत्थापसगंतो ॥ १२० ॥
एमेव सेसएमु वि, विजा दव्वा य रोगेसु ।। १२६ ।। यैः-पूर्वाचायः प्रतिषिद्धः सन्निधिस्तेऽपि त्वयैवं वता
यथा चैव दीर्घपृष्ठदेशे ( सर्पविषदरीकरणाय-'मोय' शअनानीकृताः । अनवस्थाद्वारमाह-अनवस्थाप्रसङ्गतो
ब्दो दृष्टव्यः) विद्या मन्त्रा द्विविधानि च द्रव्याणि ग्रहीतयथा स्वयौषधसंचयः कृतस्तथाऽन्येऽन्यस्यापि करिष्य
व्यानि, एवमेव शेषेष्वपि रोगेषु विद्या द्रव्याणि च प्राथाणि। न्तीति प्रसङ्गतः सर्वस्याप्यनवस्था । वान्तद्वारं मिथ्यात्वद्वारं चाह
संजोगदिदुपाढी, न य धरती तम्मि चउगुरू हुँति । वंतं निसेवियं होइ, गिरहंता संचयं पुणो ।
प्राणादिणो य दोसा, घिराहणा (इ)मेहि ठाणेहिं ।१२७/ मिच्छत्तं न जहावादी, तहाकारी भरति तु ॥ १२१ ॥
प्राचार्यण स्वयं संयोगद्दष्पाठिना भवितव्यम् । यदि पु
नः सति शक्तिसंभवे सांगहपाठं न धर्गत तर्हि तस्मिन् असंचयं त्यक्त्वा पुनस्तं गृह्यतो वान्तं निषवितं भवति ।
धरति प्रायश्चित्तं चत्वारी गुरुकाः, न कवलं प्रायश्चित्तं किंतथा मिथ्यात्वं यतो न यथावादिन उत्सूत्रप्ररूपणाऽपि त
त्वासादयश्च दोषास्तथा विराधना एभिर्वक्ष्यमाणः स्थानः । थाकारिणः संचयकरणात् ।
साम्यवाहएए अमेय जम्हा उ, दोमा होति सवित्थरा ।
उप्पमे गलस, जो गणधारी न जाणइ तिगिच्छं।। तम्हा मोसहमादीणं, संचयं तु न कुब्बए ॥ १२२ ॥ दीसंततो विणासो, मुहदुक्खा तेण उ चत्ता ।। १२८ ।। यस्मादेते मनन्तरोदिता अन्ये च दोषाः सविस्तरा भव- उत्पन्ने ग्लानत्वे यां गणधारी चिकित्सां न जानाति तन्ति तस्मादौषधादीनां संचयं न कुर्यात् ।
स्य पश्यतः सतो ग्लानस्य विनाश इति; तेन सुखदुःखिनः..
सुखदुःस्रोपसंपन्नकाः स्थशिष्याः प्रतीच्छिकाश्च परित्यक्ताः। परस्यावकाशमाह-.
कथं पश्यतः सतो ग्लानस्य स्वशिष्यकाणां जह दोसा भवतेते, किं सुघेत्तव्ययं ततो।
व विनाश इत्यत श्राहसमाहिट्ठावणवाए, भमती सुण ता इमो ॥ १२३ ।। । माउरत्तेण कायाणं, विसकुंभादिघायए। योते अनन्तरोदिता दोषा भवन्ति ततः किं खु' डाहच्छेजे य जे अमे, भवंति समुवदवा ॥१२६॥ समाधिस्थापनाय ग्रहीतव्यम्?, प्राचार्य बाह-भएयते-अप्रो'त्तरं दीयते । तदेव तावदितोऽनन्तरमुच्यमानं शृणु ।
एते पावइ दोसे, मणागए अगहियाएँ वेजाए ।
असमाही सुयलंभ, केवललंमं तु बुकजा ॥ १३० ।। तदेवाहखियमा विजागहणं, ठातव्वं होड दविहदवं च।
कस्यापि साधोर्विषकुम्भलूना . श्रादिशब्दाहाहाविपरि
प्रहस्तस्मिन्नुस्थिते आतुरत्वेनाकुलत्वेन विषकुम्भाविधानकः संजोगदिदुपाढी,असती गिहिअन्नतिन्धीहि ॥ १२४ ॥ कायानामुदकादीनामुपद्रव्यं कुर्यात् । तथाहि-विषकुम्भ यया विद्यया अपमार्जन क्रियते तस्या भन्यासां च विद्या- दाहे वा समुपस्थिते पाकुलीभूतः, स तु तं शीतलेनोदकेन मामाचार्येण नियमात् ग्रहणं कर्तव्यम् , तथा यदि करण- सिञ्चत् , सचित्तेन वा कर्दमेन लिम्पेत् । तथा दाहस्छेदे व तश्छिन्नमण्डपे स्थातव्यं भवति, ततो दीर्घपृष्ठविविधाता- ये अम्ये भवन्ति समुपद्रवाः,एतान् दोषाननागतायामगृहीयद्विविधं द्रव्यं ग्रहीतव्यम् , तथा वक्ष्यते । तस्मादाचार्यः तायां विद्यायां प्राप्नोति । तथा तीवायां वेदनायामनुपशान्तासंयोगहपाठी भवेत् । संयोगान्-अनेकान् व्यापार्यमालान् बामसमाधिना-असमाधिमरणेन म्रियेत । तथा च सति यो दृष्टवान् यश्च तत्पाउं पठितवान् स संयोगदृष्पाठी । दीर्घ संसारमनुपरिवत्र्तत । चिरं च यदि जीवति तहिं भूयां अथ स्वयं संयोगष्ट्रपाठी न भवति,तर्हि तस्यासति गृहिभिः सं श्रुतलाभ प्राप्नुयात् . केवलज्ञानं चोत्पादयेत् । कार्यते चिकित्सा । तेषामप्यसत्यन्यतीर्थिमिः। यदुवंद्विषिधं व्यं ग्रहीतम्यं तदभिधिसुराह
इहलोगियाण परसो-गियाम लड़ीण फेडियो होइ। विसमचित्तपरित्तम संत संजोइयं च इतरं च । इहलोगा मोसादी, परलोमा ऽणुत्तरादीया ॥ १३१ ।।
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वेयावच अभिधानराजेन्द्रः।
बेयाषच असमाधिमरणेन मरणतः स ऐहलौकिकीनां पारलौकिकी-| सपक्षाणां वैद्यानामसति-अभावे गृही तत्पिता भातामां च लब्धीनां स स्फेटितः-याजितो भवति । तत्र इहलोके। स्वजनो वा स्थविरादिभेवतत्रिविधो यः संबन्धी स वैपेहलौकिक्यो लम्धयः-श्रामषिध्यादयः । परलोके पारलौ-1 यावृत्यं कारणीयः । तवभावे असंबन्धी स्थविरमध्यमतरुणकिक्योऽनुत्तरादयोऽनुत्तरा लवसत्तमा देवाः । प्राविशम्दात्- भेदतस्त्रिभेदः पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तरः कारणीयः , तस्यासुकुलप्रत्यायातिश्रुतलाभादिपरिग्रहः ।
प्यभावे परतीर्थिकः पितृभ्रात्रादिसंबन्धेन संबन्धी स्थविराअसमाहीमरणेणं, एवं सम्वासि फेडितो होइ। दिस्त्रिभेदः पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तरः कारणीयः। तस्याजह भाउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाया ॥१३२॥
लाभे असंबन्ध्यपि स्थविरादिभेदतत्रिविधः उक्लकमेण का
रयितव्यः । पते सर्वेऽपि द्विविधा अशीचयादा वा इतरे च। एवम्-अमुना प्रकारेण सर्वासामैहिकीनां पारत्रिकोणां
तत्र प्रथमतः सर्वत्राप्यशौचवादः कारयितव्यस्तदसंभवे इतलब्धीनामसमाधिमरणेन स्फेटितो भवति, यथा-आयुष्क- रोऽपि। परिहीणा देवा लवसप्तमा जाता, आयुष्कपरिहाण्या सिद्धिलाभतो भ्राः; यथा देवा लवसप्तमा जाता इत्यर्थः । (व्य०)
एएसिं असतीए,गिहि(भ)गिणिपरतिस्थिगी तिविहमेया (लवसप्तमदेवस्वरूपम् 'लवसत्तम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे | एएसिं असतीए, समणी तिविहा करे जयणा ।। १३७॥ गतम्।)
एतेषां--प्राग्गाथानिर्दिष्टानां सर्वेषामसति प्रभावे गृहस्था उपसंहारमाह
माता भगिनी, तदभावे स्वजनाः स्थविरमध्यमतरुणभेदततम्हा उ सपक्खेणं, कायन गिलाणगस्स तेगिच्छं ।
स्विविधाः पूर्वपूर्वालामे उत्तरोत्तराः कारयितव्याः । तदभावे विवक्खेण न कारेजा, एवं उदितम्मि चोदेति ॥१३४॥ असंबन्धिनी स्थविरादिभदतस्त्रिविधा प्राक्क्रमेण कारयियस्माद्विपक्षे दोषास्तस्मात्सपक्षण ग्लानस्य चिकित्साकर्म तव्या । तस्या अलाभे परतार्थिकाः स्थविरादिभेदस्त्रिप्रकर्तव्य, विपक्षण पुनर्न कारयेत् । तदेष सम्बन्धस्ततः सूत्र
काराः पूर्वपूर्वालामे उत्तरोत्तराः कारयितव्याः । एतेषां च व्याख्यालक्षणं तदन्याक्षेपपरिहारौ तत्प्रसक्त्याऽन्यदपि चा
भेदानां सर्वेषामप्यसत्यलामे श्रमणी त्रिविधा-स्थविरादिभेभिहितम् । सम्पति सूत्रव्याख्या क्रियते-निर्ग्रन्थं चशम्दानि
दर्तास्त्रप्रकारा पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तरा यतनया करोति । ग्रन्धी च रात्री वा विकाले वा दीर्घपृष्ठः-सप्पो लूपयेत्-द
तामेव यतनामाहशेत् तत्र स्त्री वा पुरुषस्य हस्तेन तं विषमपमार्जयेत् पुरुषो
दती अदाइ वत्थे, अंतेउरिया य दम्भतो भेया। षा स्त्रिया हस्तेन, एवं 'से'.तस्य स्थविरकल्पिकस्य कल्पते स्थविरकल्पकस्यापवादबहुलत्वाद् । एवं चामुना प्रकारेणाप
वियणे य तालवेटे, चवेडो मजणा जयणा ॥१३८॥ वादमासेवमानस्य 'से' तस्य तिष्ठति पर्यायः, न पुनः स्थवि. काचिद् दृतविद्या भवति, तया च दूतविद्यया यो दूत रकल्पात् परिभ्रश्यति येन छेदादयः प्रायश्चित्तविशेषास्तस्य आगच्छति तस्य दंशस्थानमपमापते तेनेतरस्य दंशस्थान सन्ति, परिहारं च तपो न प्रामोति कारणेन यतनया प्र- नमुपशाम्यति , 'अदाइ' ति अपरा आदर्श विद्या तयावृत्तः, एष कल्पः स्थविरकल्पिकानाम् । एवममुना प्रकारेण आतुर आदर्श प्रतिविम्बितः अपमाळते आतुरः प्रगुणो सपक्षण विपक्षण वा वैयावृत्यकारापणं 'से' तस्य जिन- जायते । प्रन्या विद्या वस्त्रविषया भवति , यया परिजपिकल्पिकस्य न कल्पते केवलोत्सर्गप्रवृत्तत्वात्तस्येति भावः।। तेन वस्त्रेण वाऽपमृज्यमानः पातुरः प्रगुणो भवति। - एवमपवादसेवनेन 'से' तस्य जिनकल्पपर्यायो न तिष्ठति परा विद्या अन्तःपुरे आन्तःपुरिकी विद्या भवति, यया जिनकल्पात्पततीत्यर्थः । परिहारं च तपोविशेष न परिपा
मातुरस्य नाम गृहीत्वा पात्मनोऽमपमार्जयति आतुरच लयति, एष कल्पो जिनकल्पिकानाम् । एवं सूत्रे व्यवस्थिते
प्रगुणो जायते सा प्रान्तःपुरिकी । अन्या दमें वर्भविषया यदाचार्येण प्रागुदितं सपक्षण वैयावृत्यं कारयितव्यं न पर- भवति विद्या, यया दभैरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति। पक्षणेति तत्र चोदयति-घूते ।
'वियणे ति व्यजनविषया विद्या,यया,व्यजनमभिमन्यते तेपरः यदुक्कवास्तदाह
नातुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति सा व्यजनविण । एवं मुत्तम्मि अणुमाई, इह ई पुण अत्थतो निसहेइ ।
तालवृन्तविद्याऽपि भावनीया । चपेटा-चापेटी विद्या यया
अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः स्वस्थीभवति सा चाकायब्व सपक्खेणं, चोयग! सुत्तं तु कारणियं ॥१३॥
पेटी । तत्र पूर्वे दूत्या विद्ययाऽपमार्जनं कर्तव्यं तदभावे मा. सूत्रे विपक्षणापि वैयावृत्यकारापणमनुज्ञातम् , इह-इदा-|
दशिक्या, एवं तावद्यावदन्ते चापेटया । एषा अपमार्जनायभीम , इः पादपूरणे, पुनरर्थतो यूयं परपक्षण वैयावृत्यका-|
तना। गपणं निषेधयत 'कर्तव्यं सपक्षणे' ति वचनात्, ततः सूत्र
पतदेव स्पष्टतरमाहभवदयाल्यानयोर्विरोधः । अत्राचार्य आह-म विरोधो यतो हेचोदका सूत्रमिदं कारणिकं-कारणापेक्षम् ।
यस्स पमाइजइ, असती अदागपरिजवित्ता। तदेव कारणमाह
परिजवियं वत्थं वा , पाउअइ तेण वोमाए ॥ १३६ ॥ विजसपक्खागसती, गिहिपरतित्थी उ तिविहसंबंधी। एवं दम्भादीसुं, प्रोमाएऽसंफुसंतो हत्येणं । एमेव असंबंधी, असोयवादेतरा सब्वे ॥२३६॥ चावेडीविजाए, प्रोमाएँ चवेडयं देंतो॥१४॥
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( १४५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
बेयावच दृत्या विद्यया स्वागतस्याङ्गममाज्यंते, तस्या विद्याया असति आदर्श संक्रान्तमातुरप्रतिविम्बं परिजयातुरः प्रगुव्हीकर्तव्यः । तदभावे वस्त्रविद्यया परिपितं बखे प्राचा येते, तेन वा परिजपितेन वस्त्रेणातुरोऽपमायते । एवं दर्भादिभिः परिदर्भविद्यादिभिर्हस्तेनासंस्पृशनपमार्जयेत् । चापेटपा वा विद्ययाः अन्यस्य चपेटां ददन्योऽपमायते एता स्तु विद्याः प्रायः पुरुषेषु य िए वननागमो निस्थानां बेदितव्यः । एष एव पतनागमो निर्वन्धीनामपि भवति ।
तथा वाह
एसेच गमो नियमा, निग्गंधीयं पि होइ नायब्यो । विजादी सुगं सकुसलऽकुसले व करणं वा ।। १४१ ।। एवं पत्रानन्तरोदितो यतनागमो नियमात् निर्ग्रन्धीनामपिता तदा निर्मन्थनां विद्यादि न दातव्यं मुक्या पूर्वगृहीतमसाधनं मन्त्रम सहि कदाचिदयतेन चः । तथा यदि निर्ग्रन्थोऽकुशलो भवति निर्मन्धी च कुशला रात्र करणं निर्मथ्या निधी कारयेदित्यर्थः ।
"
"विजादी मुण" मित्येतदेव व्याख्यानयतिमंतो इविज विजा-श्रो कोइ ससाहणा न दायव्वा । तुच्छा गारवकरणं पृथ्वाहीया उ फारेन ।। १४२ ।। तस्माङ्गीवमात्मनोऽपि जायते तेन न कुर्यात् । या तु पूर्या saीता पूर्वगृहीता विद्या तां प्रागुक्तयतनाक्रमेण कुर्यात् । अजाणं मेलन्ने, संथरमाणा सयं तु कायव्वं । बोत्थ मासचउरो, लडुगुरुगा थेरए तरु || १४३|| आर्यिका यदि ग्लानप्रयोजने स्वयं समर्थास्ततः स्वयमेव ताः कुवन्ति एवं निर्ग्रन्था अपि भावनीयाः । यदि पुनर्विपर्यासः कियते, यथा-निर्बन्धानां ग्लानाये संस्तरति निर्मयो यदि कुर्वन्ति, निर्मन्थीनां वा यदि निर्मन्था इति तदा तस्मिन् स्थारे कारके प्रायधितं चत्वारो लघुकाः तस्येत्या गुरुकाः ।
संप्रति कल्प नानात् भावयति
जिeकप्पिए न कप्पर, दप्पेणं अजयणाए थेरां । कप्पर य कारणम्मि, जयखा गच्छे स साविक्खो ॥ १४४ ॥ जिनकfeपके स्वपक्षेण परपक्षेण वा वैयावृत्यकारापं न कल्पते, तथाकल्पत्वात् विरागां-रिकल्पनां पुनर्दर्पेण निष्कारणमयतनया च न कल्पते, कारणे यतनया पुनः कल्पते यतो गच्छे स सापेक्ष इति ।
चिट्ठ परियाओ से तेयं वेदाइया न पावेंति । परिहारं च न पावर, परिहारतवो ति एगङ्कं ॥ १४५ ॥ यतः ' से ' तस्य पर्यायस्तिष्ठति तेन कारणेन छेदादिका - स्तस्य न प्राप्नुवनि भवन्तीत्यर्थः । परिहारमपि न प्राप्नोति, कारण यतनया कारापणात् । परिहारः, तपइत्येकार्थम् ०५४० आचार्यस्योपाध्यायस्य च वैया नृत्यकरसम् इच्छ्या भवतीति तरफ असेस' शब्दे प्रथमभागे १७ पृष्ठे गतम्) (ग्लानवैद्ययोपावृत्यकरणम्। ' गिलाण' शब्दे तृतीयभागे ८ः पृष्ठे गतम् । )
4
जह जच्चत्राहलाणं,
अस्साणं जणवसु जायाणं । सयमेव खलिणगहणं,
अहवा वि बलाभियोगेणं ॥ [भाव० १ ० । (इति 'इच्छुकार' शब्दे द्वितीयभागे पुढे व्याख्यानम् ।) (यादवेषानृत्यकरं स्थापनाले प्रवेशयेत् तागु 'उपयाकुल' शब्दे चतुर्थभागे १६६२) स्वयमानेनापि आचार्याद्यर्थमाहारो गृहीत्वाऽऽनेतव्यः ।
गावच
पुरिसं तस्सुवयारं, अवयारं चप्पणो य नाऊणं । कुआ वेभावडियं, माणं काउं निरासेसो || ५४० ॥ पुरुषम् श्राचार्यादिं तस्योपकारं स्वाध्यायवृद्धिसत्वोपदेशादिम् अपकार पीहासश्लेष्मचर्यादिमन पकारमपकारं च हत्या, उपकारो ज्ञानादेरुपएम्भः गुरुगुरु जननियोगान्निर्जराव्यत्ययादपकारः । अथवा ग्लानाद्यपेक्षarunravery arsयो । एवं कुर्यात् वैयावृत्यम् अशनदानादि. 'आशां कृत्वा' - श्रागमप्रामाण्यान्निराशंसो विहितानु नवो बेति गाथार्थः ।
अस्यैव गुगमाद
भरण यि पुव्यभवे, वेषाचचं कथं सुविहियाणं । तस्स फलविवागणं, श्रासी भरहाहिवो राया ।। ५४१ ॥ भरतेनापि चक्रवर्तिना पूर्वभवे अन्यजन्मनि कात्कृतं सुविहितानां - साधूनाम् । तस्य वैयावृत्यस्य फलविपाकेन सात वेदनीयोदयेन श्रासीद्भरताधिपो राजा चक्रवर्तीति गाथार्थः ।
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भुंजितु भरहवास, सामन्नमरणुत्तर अणुचरिना । अविकम्मको भरनरिंदो गओ सिद्धिं ॥ ५४२ ॥ स च भरतः भुक्त्वा भरतवर्षे षट्खण्डं तदनु- श्रामण्यमनुत्तरं प्रधानमनुचरित्वा केवलियिद्वारेणाविधकम्मुक्तः सन् चरमकाले भरतनरेन्द्रो महात्मा गतः सिद्धि-सर्वोत मामिति गाथार्थः ।
पासंगि भोगेणं, वेयावच्चम्मि मोक्खफलमेव । आणाआराहणओ, अणुकंपादिति बिसयम् ||५४३ ॥ प्रासङ्गिकभोगेन हेतुभूतेन वैयावृत्यविषयमेवं मोक्षफलमेव पारंपर्ये । अत्रोपपत्तिः प्राज्ञाया श्राराधनात् तीर्थकरवच नाऽऽराधनादनुकम्पादय हव विषये आदिशब्दादकामनिरादिपरिग्रहः निदर्शनमेतदिति गाथार्थः ।
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देव भावार्थमाह
सुहरुछायाइजुओ, अह मग्गो होह कस्सह पुरस्स । एको भलो हवं, सिवपुरमग्गो वि इम येो ॥ ५४४|| शुभतरुच्छायादियुक्तः, आदिशब्दात्पुष्पफलपरिषद, यथामार्ग:-पन्था भवति कस्यचित्पुरस्य वसन्तपुरादे: एक एवं भूतः, अन्यो नैवंभूतः, आप तु-विपर्ययवान् । शिवपुरमाविविध देव इति गायार्थः ।
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sures
विशेषतो वैविध्यमाह-
अनुकंपा पात्र पढो, सुहपरगामीण सोजिणाई तयजनतो उ इअरो, सदेव साम साहू || ५४५ ॥ अनुकम्पावेयानृत्यप्राप्तो मार्गः शिवपुरस्य प्रथमः स व जिनादीनां ज्ञेयः । सुख परंपरागामिनां तयज्ञतस्त्वनुकउपाययत्नेन इतरो माग द्वितीयः स च सदेव सामान्यसाधूनां ज्ञेयः आत्मार्थपराणामिति गाथार्थः पं० ० २ द्वार वैयावृत्यफलमाह
यावरचे भंते! जीये किं जयगह है, बेयावचे ति वेरंगिय-वैरङ्गिक-पुं० संविग्ने, "आबाल्यादपि यः प्रसिद्ध त्थयरनामगोयं कम्मं निबंधेइ ||४३|| महिमा वैरप्रामणीः पृष्टः शाब्दिकपलिषु प्रतिभटेज यो न यस्तार्किकैः । " कल्प० ३ अधि० ६ क्षण ।
हे भगवन! वैयावृत्येन ब्राहारादिसाहाय्येन जीवः किं जनयति त-हे शिष्य ! येायेन तीर्थकरना मगोत्रं कर्म निवध्नाति वैयावृत्यं कुर्वन् तीर्थकर नामगोत्रं कर्म बनातीत्यर्थः । उत्त० २६ श्र० । ( वैयावृत्ये संभोगो भवतीति संभोग शब्दबध्यते) त्रेयावचक्रम्मपडिमा वैयावृत्यकर्मप्रतिमा स्त्री० भक्तपानादिभिरुपएम्भ कियाविषयेषु अभिप्रदविशेषे, स० एकासउद परवेयावचकम्मपहिमाओ पछताओ । ( ० ६१ ) ।
तत्र परेषामात्मव्यतिरिक्रानां वैयावृत्यकांति पानाfafenugreferस्तद्विषयाः प्रतिमाः - अभिग्रह विशेषाः परवैयावृत्य कर्म्मप्रतिमाः । एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि कचिदपि नोपधानि केवलं विनयययावृत्यभेदा प संभवन्ति । स० ६१ सम० !
गरवैयात्यकर प्रवचनार्थ स्यामृतभाषे, गांपक्षात ०२ अधि० बेवायचगरा संतिगराम सम्मसमाहिगरा करेमि काउसमा " ० ल० । arranger - वैयावृत्योचित पुं० । भक्लाद्युपष्टम्भयोग्य, ग च्छावितवाल ग्लानादिके, पञ्चा० १८ विव० । यायियाय न० व्यावृतभाष वैयावृत्यम् अन्ना दिसम्पादन दश० ३ ० पानवेपग्रहस्तः साधुभ्यो दाने स्था०५०२ ३० । अङ्गमनादिके, आचा० १ ० ८ ० ३ ३० । श्रघ० ।
( १४६०) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
-
वेषाचल ज्यान ०ि जी व्यावृत्त । जीर्णे,
" अभियगामस्स नगरस्स
गदिया उज्जुपालिया नई तीरे वायरस पेपर -
दूरसामंते ॥" कल्प० १ अधि० ६ शरा ।
बर-पैर-म० धीरस्य भावः । विरोधे विद्वेषे बाच०। जे, कर्मविरोधे ०२ पूर्वोपार्जितद्वेपबन्धने, उत्त० ४
बेरदस
46
न्धे, प्रश्न० २ संव० द्वार । परस्परमसहनतया हिंस्यहिंसकमावाध्यवसाये "कलुति वा वेति वा वेर लिया पंको त्ति वा मलो त्ति वा एगट्ठा। " जी० ३ प्रति० ४ अधि० । प्रव० । जं० । नि० चू० । मातापित्रादिवधोत्थे राज्यापहारा'दिभवे (आतु०|) परस्पररागद्वेषोद्भवे ( दर्श० १ तस्व । ( पुरु. पादिवसमुत्थे (आचा० १ ० ३ ० २ ० ) अभिमानसमुत्थे वा श्रमपदेशपरापकाराध्यवसाये, स० ३४ सय० । बेरहेतुत्वाद्गीरामैथुने, प्रश्न० ० द्वार
i
बेरंभास वैरभ्यान १० बैरं मातापित्रादिवत्यं राज्याच हारादिभवं वा तस्य ध्यानं वैरध्यानम् । पर्शुरामसुभौमादीनाम दुध्याने आ
जक्खा हु वेयाबडियं करेंति, तम्हा उ एए निहया कुमारा । येन यक्ष साधुन जैक निवारण साधुभक्ति कुबेर-वैराज्य-म० न्ति तस्मात् ' हु' इति निश्चयेन एते कुमाराः यतैर्निहताः । उन० १२० (गुहिलो यानृत्यम् असाधार' राब्दे प्रथमभांगे३१२ पृष्ठे व्याख्यातम् । )
19
बेरम्य वैराग्य-न० तथाविधरागाभावो वैराग्यम् । श्राव० ४ अ० विरागस्य भावः अभिष्याभावे ०२२राग्यस्य ' मुणि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३०६ पृष्ठे विशेषतो व्याक्या गता ) " या वशीकार० (८) इत्यादियों के बैराग्यवक्तव्यता ' जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२२ पृष्ठे उक्ता । ) विरागतायाम्, द्वेषाभावाविना भूतत्वाद् वैराग्यस्य विगत पता । हा० २४ अष्ट० । पं० व० । श्रदासीन्ये, अष्ट० १६ अष्ट० । पानी।
बेरग्गकर--वैराग्यकर - न० । वैराग्यजनके उत्तराध्ययनादौ, वृ० १ ३० ३ प्रक० । नि० चू० । बेरग्गकहा- वैराग्यकथा-श्री० विषयेप्यनभिग्यङ्गकारिकायां कथायाम्, आव० ४ ० ।
।
बेरग्गभावणा- वैराग्यभावना श्री० अनित्यत्वादिभावनारूपायां विषयेश्वरकृताभावनायाम् भा० २ ० ३ ० ।
वेरचाग - वैरत्याग-- पुं० । सहजविरोधिनामध्यहिन कुलादीनां सित्वपरिहारे, "अहिंसाप्रतिज्ञायां तत्संनिधी वैरत्यागः "| द्वा० २१ द्वा० ।
3
राज्ये "रंथ रखे जाये
"
व जत्थ रजं वा । जं च विरज्जह रज्जे, ण विगयरायं च वेरजं ॥ ६२० ॥ " वृ० १३०३ प्रक० नि० चू० । आचा० । ( इर्द विहार शब्देऽस्मिनेष भागे १३०८ पृष्ठे विरुराज्ये गमनागमनप्रस्तावे उक्तम् । )
बेरलिय-वैरकिक-५० कालविशेषे ध०३ अधि० सू०
प्र० ।
०५० ० तु वेरदस- बेरदस-पुं० श्रीनेमिनाथतीर्थकृतः प्रथमे गधरे, ० प्रश्न० अनुशयाडव
1
ति
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अभिधानराजेन्द्रः।
बेरियता चेरदिहि-वैरदृष्टि-स्त्री०। वैरप्रधाना विरष्टिः । वैरबद्धौ,
दारंप्रश्न०३ प्राथ० द्वार।
विरताविरतीए पुण, भोहेण अणुब्धता भवे पंच । बेरबहल-वैरबहल-त्रि० । वैरानुबन्धप्रचुरे, दशा०६०।। उत्तरगुण अभिग्गहे, हवंति सिम्खावता सत्त । सूत्र।
एत्थं पुण अहिगारो, विस्तीकरण होति दुविहेणं । बेरमण-विरमण-न । सामान्येन रागादिविरतौ, उत्स०२॥ जह तेमु य अतियारो, ण होति तह आययतियव्वं ।। अ० भ० । स० निवृत्ती, पा। औचित्येन रागादिनिवृ
दारंतौ, भ०२ श०५ उ० । असंयमादिभ्यो निवर्तने, तं० । सम्य
उञ्जमे रक्खियाणं, महब्बयाणं को हवति पीला। ग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकसर्वथा निवर्तने, दश०४ अ० । प्राणेभ्यो जीवस्य व्युपरतो, प्रश्न० १ आश्र० द्वार।
भएणतिऽऽहारादीहिं, तिहि पीडा होतिऽसुद्धेहिं ।। बेरमणकप्प-विरमणकल्प-पुंगद्रव्यतो भावतश्च विरमणस्यैः उज्जमउज्जोतो खलु, एतेणं रक्खिताण तु बयाणं । व साध्यतायाम् , पं० भा०।
पीला उवघातो खलु, भवति कहं पुच्छती सीसो । दंसणणाणचरित्ते, तवपवयणसच्चसमितिहिं गुत्तो। भमति आहारोवहि-सेजासंथारए य एतेहिं । हतरागदोसनिम्मम-खमदमणियमद्वितो णिचं । उग्गमदोसादीहि तु, पीला संजायति वयाणं ॥ भावकप्पे त्ति गये।
तम्हा तु उग्गमादी-हि विसुद्धाहारिमादयो कुजा । दार
वेरमणकप्पो एसो। पं. भा. ५ कल्प। तदुभयकप्पो अहुणा, एते चिय दव्यभावकप्पा तु ।
याणि वेरमणकप्पो । दुविहं वेरमणकप्प-श्रोद्दे दोषिह वि मिलिया एते, तदुभयकप्पो इमो सो य ॥
अमिग्गहे य । पोहे-अवविरह पंच महन्वयाणि आहारे अविहे, सेज्जोपहियं च पंचगविसोही। .. अभिग्गह-उत्तरगुणे पिंडस्म जा विसोही। अविरह ओहेग दंसणचरित्तगुत्तो, तवसमितिगुणेहि सोहेति ॥
असंजमो अभिग्गहण कोहाई विरयाविरं । पोहे पंच -
गुब्बया, अभिग्गहे उत्तरगुणा सत्त सिक्खाक्याणि गाहाअसणादीतो चउहा, उवकारि चउब्धिहो य तस्सेव । उज्जुमनुज्जुणाम-उद्यमः प्रयन्न इत्यर्थः, उजमेण रक्खियार एसञ्छविहाऽऽहारो, परूवणा तस्सिमा होति ।। बयाणं को पीला भवा ?, उच्यते-आहारसेन्जोयहीहिन्य
ताहि असुद्धाहिं पीला भवइ, उग्गमुपायणेसणाहि मुअसणं तु मोदणादी, तस्सुवकारी उ खीरकुसणादी।
द्धाहिं निष्पत्तिः निर्वाणमार्गस्य भवति । एस धेरमणकापो पाणं तु पाणमेव तु, कप्पूराऽदी तु उवकारी ॥ पं० चू०५ कल्प। खाइम फलाइयं तु, मूलादी होति तदुवकारी तु । | वेरसेणा-धरसेना-स्त्री० । नन्दनवने सागरचित्रकूटदेव्याम . साइम तंबोलादी, तुण्हादी तदुवकारी तु ॥ स्था०६ ठा०३ उ०। एवं भाहारादी, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं ।
वेरागर-वैराकर-पुं०। वज्ररत्नोत्पत्तिभूमी, शा०१ थु०१६अ। उप्पाएँ दंसणादीहि, जुत्तो अहवा तदद्वाए ॥ वेराणुगिद्ध-वैरानुगृद्ध-त्रि० । येन केन कर्मणा परोपतापरूपे दारं
ण वैरमनुबध्यते-जन्मान्तरशतानुयायि भवति । तत्र गृद्धे. विरतीय अविरतीय, विरयाविरतीय तिविहकरणं तु ।
सूत्र० १ श्रु० १० १०॥ एकेकं होति दुहा, आहे य अमिग्गहे चेव ॥
वेराणुबंधि-वैरानुवन्धिन्-त्रि० । वैरमनुबध्नन्ति तच्छीलाविरतीकरणं मोहे, पंचेव महब्बया भवंती तू ।
नि च घरानुबन्धीनि । जन्मशतसहस्रदुर्मोचेपु, सूत्र : होति अभिग्गहकरणं, पिंडविसद्धादिऽणेगविहं॥
शु०१०१० अहवा मोहे संजमों, विभागतो होति सत्तरसभेदो ।
| वेराणुबद्ध-बैरानुबद्ध-त्रि० । पूर्वोपार्जितद्वेषबन्धनबद्ध, उत्त. दारं
४ अ०। स्था। अविरतिमसंजमोहे, मट्ठारस अभिग्गहे इणमो ॥
वेरायतख-वैरायतन-न० । वैरानुबन्धे, सूत्र० २ श्रु० २ १० बावातिवातमोसे, प्रदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव ।।
वेरि(ण) वैरिन-त्रि०। वैरमस्यास्तीति बैरी । सजीवोपमईहमारमायलोमे, पजे दोसे तहेब कलहे व ।।
कारिणि, सूत्र०१ श्रु० ८ ०। सानुबन्धशत्रुभावे, बा.
भु०२०। भन्मालाब सुबे, अरविरती चेव मायमोसे था।
वेरियता-बैरिकता-स्त्री० । शत्रुभावानुबन्धयुक्तायाम् , म. मियादवबसने, अट्ठारस अभिग्गहे एस ।। J १२२० उ०।
मनुज्जुणाम उत्तरगुणा सारयाविरं । भावर पोहेग
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बेरुलिय
वेरुलिय-वैर्य न० वैश्य वेवलियम् ॥ ८ ॥२॥१३३॥ इति वैडूर्यशब्दस्य 'वेरुलिय' श्रादेशः । प्रा० । नीलमणी, उत्त० ३४ श्र० । कल्प० । सूत्र० । श्रा० म० । प्रशा० । श्र० । रा० । द्वी० । संथा० आय० । वैडूर्यरत्नमये, त्रि० । रा० । 'वेरुलिय रुइरकखंभा" वैर्यरत्नमया रुचिराः स्तम्भा यस्य तद् । बेरनरुनिरस्तम्भम् जी० ३ प्रति० ४ अधि० । "वेरलियम लिफलिपडलोयडाओ व मिि मयानि स्फाटिकपनि प्रानि-तटसमीपवर्ति नोsयुप्रदेशापासां ता वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्ययतटाः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
.
वेरुलियकंड - वैदूर्यकाण्ड - न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्या वज्रमये प्रथमकाण्डे, स्था० १० ठा० ३३० ।
महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य
(PUER) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
-
वेलियकूट कूट १०
"
ये फूटे स्था० २ ठा० ३ ० दे!ञ्जा-वैरोद्या स्त्री० श्रीर्माजिनस्य शासनदेव्याम्, सा कृष्णवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा वरदायुद चिणपाणिया बीजपूरकशक्तियुक्रयामपाविया च । प्र
च
२६ द्वार ।
वेरोयण - वैरोचन - पुं" | बलिपालिते भवनपतिविशेषे श्र०
म० १ श्र० ।
वेरोवरय - वैरोपरत - पुं० । श्रभिमानसमुत्थोऽमवेशपरापकाराष्यवसायो वैरं तस्माद् उपरतः वैरोपरतः । शत्रुभावमती ते श्राचा० १ ० ३ ० १ उ० ।
-
वेलंधर- वेलन्धर - पुं० । वेलां लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्तीं बहियां यान्तमशिखां च धारयन्तीति संज्ञात्वा ध राः । लवस्लमुद्रशिखापात निवारकेषु नागराजेषु स्था० ४ ठा० २ ० । (वेलन्धरवक्क्रयता लवणसमुद्द' शब्देविभागे ६४३ पृष्ठे मता ) वेलघरोक्वाय-वेलन्धरोपपात-पुं० । संक्षेपितदशानां नवमे ध्ययने, स्था० १० डा० ३ उ० । यत्परावर्त्तयतः श्रमणस्य वेलन्धरो नाम नागराज उपतिष्ठते, वरदानाभिमुखश्च भयति । अरुणोपपातशध्दवदत्र भावयितव्यम् । पा० । व्य० । वेलब-वेलम्ब - पुं० । दाक्षिणात्यानां वायुकुमाराणामिन्द्रे, भ० ३ श० ८ उ० । द्वी० । स्था० 1 स० । यूपकाव्यमहापातालकलशदेवे, स्था० ४ ठा० २ उ० प्र० । वेलंबग - विडम्बक- ५० विदूषके, औ० झा० कल्प० नि
|
1
चू० प्रश्न० रा० । बेलबगलिंग विम्बकलिङ्ग-म० भरडादिलक्षणे भाव०
३ अ० ।
3
·
वेलंबसुहय-वेलम्बसुखद- पुं० न० 1 बेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्र स्य संबन्धिनि मानुषोत्तर पर्वतस्य दक्षिणा परस्यां दिशिरनोचकूटे, स्था० ४ ठा० २३० । वेल- व्रीडनक - पुं० । व्रीयति लज्जामुत्पादयतीति लज्जनीय वस्तुदर्शनादिमभवे मनोव्यलीकता दिखरूने काव्यरसे,
अतुण
अथ व्रीडारसं हेतुतो लक्षणतश्चाऽऽद्दविश्रवयारगुज्मगुरु दारमेरावश्कयो । वेलणओ नाम रसो, लआसंकाकरणलिंगो ॥ १० ॥ बेलसमो रसो जहा
बेला
किं लोइ करणीओ, लजणीश्रतरं लज्जयामि । बारिसम्म गुरुयो, परिवंदति जं बहुप्पोचं ॥ ११ ॥ विनयोपचारगुधगुरुदारमर्यादानां व्यतिक्रमः स्थितिल
त्यो श्रीडनको नाम रसो भवति । तत्र विनयादिनयोपचारव्यतिक्रमे शिष्टस्य पश्चात् व्रीडा प्रादुरस्ति, पश्यत मया कथं पूज्यपूजाव्यतिक्रमः कृत इति तथा मु रहस्ये तस्य च व्यतिक्रमे अन्यकथनादि लक्षले वडारसः प्रादुर्भवति । तथा गुरवः पितृप्यकला ग्राहकोपाध्यायादयस्तद्वारे सहा ब्रह्मवादिलक्ष मर्यादाम्यतिक्रमे ते बजारः प्रादुर्भवतीति एवमन्योऽपि द्रष्टव्यः । फिल इत्याह-लर-विधानं पिस्य स तथा तत्र शिरसोऽघोऽवनमने गाचादि
"
मां न कचिद धि किंमतीत सर्वत्रामित् शङ्केति । अत्रोदाहरणम् -'किं लोइय' गाहा-इह कचिदेशेऽयं स मायारो बहुत-अभिनवच्या सभां यत्प्रथमयोग् शोणितचर्चितं तन्निवसनम् अक्षतयोनिरियं न पुनरंद्रऽप्यासेवितानावारेति संज्ञापनार्थ प्रतिगृभ्राम्यते, सकलजनसमक्षं च श्वश्रूश्वशुरादिस्तदीयगुरुजनः सतीत्वख्यापनार्थे तद्व न्दत इति एवं व्यवस्थिता सखीपुरतो वधूर्भणति - 'किं लोइयकरणी किरणी-कियालीफिकफिया लोकि ककर्तव्यात्सकाशात् किमन्यजनीयर नचिदित्यर्थः । इत्यतो लखिता भवामि किमिति यतो 'वारेजो' विवाहस्त गुरुजनो वन्दते 'बहुप्पोतं ' ति-वधूनिव सनमिति ।
अनु० ।
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वेलव-उपालम् - उप-आ-लभ्-धा० । दूषणे, “उपालम्भेर्भ
श-पकचार - वेलवाः " ॥ ८ । ४ । १५५ ॥ उपालम्भेवेलवादेशः। बेलया। उपालभते । प्रा० ४ पाद
वेलव- पञ्चधा० बञ्चने, "वह पेलव-जूरबो-मकछाः ॥ ८ । ४ । ६३ ॥ इति वञ्चतेर्वेलवादेशः । वेलवद्द। वञ्च६। वञ्चति । प्रा० ४ पाद ।
वेलवण-वेलपन - न० । आक्रीडने, व्य० ५ उ० । वेलवास (म्) - वेलावासिन् पुं० । समुद्रवेलासनिधिवासिनि वानप्रस्थ भ० ११ श० ६ उ० । नि० । श्र० । बेला-बेला स्त्री० [जलवृद्धिलक्षणायाम् (नं० स्था०|) उदकशिखायाम्, स्था० १० ठा० ३ उ० । जलप्रवाहे, श्र० पृ० २२ श्र० । लवण समुद्रशिखायाम्, उत्त० २ ० । प्रशा० । स्वाध्यायकरण प्रस्तावे, उत्त० २ श्र० । उचिते काले, नि० ० १ उ० अवसरे, विपा० २ ० १ ० मर्यादावाम्, सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । आचा० । वारायाम्, पञ्चा० १२ विष० ।
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बेलागय अभिधानराजेन्द्रः।
बेसमणप्पभ वेलागय-वेलागत-पुं० । लोमपक्षिमेवे, जी०१ प्रति०।
व्येष्य-पुं० । विशेषत एष्यमेषणीयम् । यलोपे "न दीर्घानुवेलंक-देशी-विरूपाथें, देना०७वर्ग ६३ गाथा।
स्वारात्" ॥८।२।१२॥ इति शेषस्य षस्य न द्वित्वम् ।
प्रा० । विशेषतोऽभिलषणीये, व्य०३ उ०। वेषोचिते , भ. वेल-वेणु-पुं० । “वेणौ णो वा" ॥८।१।२०३॥ इति ण
२श०५ उ०। स्य लः। बेलू । वेणू । प्रा० । स्थलवंशे, नि० चू०१ उ० । प्रा० चू० प्रक्षा।
द्वेष्य-त्रि०। अप्रीतिकरे, विशे० प्रा०म०। वेलणा-देशी-लज्जायाम् , दे० ना.७ वर्ग ६५ गाथा ।
वेसइय-वैषयिक-पुं० । विषयरूपे अाधारभेदे, मोक्षे इच्छाबेलोनिय-लोचित-त्रि०पाकातिशयतो ग्रहणकालोचिते, स्तीत्यादीन्यस्योदाहरणानि । प्रा०म०१ मा दश०७०। प्राचा।
वेसण-वेशन-न। चणकपिष्टे, १०१ उ०२ प्रकल०प्र०। बेख-रम-धा। क्रीडायाम् , " रमेः संखुड़-खेडोभाव-कि
वेसता-द्वेष्यता--स्त्री० । शत्रुभावे, भ०१२ श० ७ उ०। लिकिश्च-कोटुम-मोहाय-णीसर-वेल्लाः"॥८।४।१६८ ॥ इति रमधातोर्वेलादेशः । रमइ । रमते । प्रा०४ पाद । वेसमण-वैश्रमण-पुं० । इन्द्रादीनामुत्तरदिग्लोकपाले , जी. वेव-वेप-पुं०। वातसमुत्थे शरीरावयवानां कम्प, “प्रकामं वे | ३ प्रति ४ अधिक। भ०। (यक्तव्यता 'लोगपाल' शम्देडपते यस्तु , कम्पमानस्तु गच्छति । कलापखलं तं विद्या-1
स्मिन्नेव भागे ७२० पृष्ठे गता ।) यक्षनायके कुवेरे,
अनु०। प्रा० म०। शा० । स० ।" दाणसूरे समणे " म्मुक्तसन्धिनिबन्धनम् ॥ १॥" इति । प्राचा०१ ध्रु०६०
स्था०४ ठा० ३ उ० । ब्रह्मदत्तचकिभार्यायाः श्रीमत्याः पितरि,
उत्त० १३ अ० । चतुर्दशेऽहोरात्रमुहर्ते, नपुं० । स. ३० वेवंत-वेपमान-त्रि० । “वेपेरायम्बायज्झौ"॥४१४७॥
सम० ज०।०प्र० । ज्यो । इति आदेशाभावे शतप्रत्यये । “शत्रानशः" ॥ ८ । ३ । १८१॥ शवमानश् इत्येतयोः । प्रत्येकं न्त माण इत्येतावा- वसमणकाइय-श्रवणकायिक
| वेसमणकाइय-वैश्रवणकायिक-पुं० । वैश्रवणस्याशावर्सिदेशाविति शतुःन्ताऽऽदेशः। प्रा० । कम्पमाने, पिं० । नि देवे, भ० ३ श०७ उ०। वेबज्म-वैवाघ-न। विवाह एव तत्कर्म वा वैवाह्यम् । परि-| वेसमणकुंडधारि (प)-वैश्रवणकुण्डधारिन्-पुं० । वैश्रव. णयने, ध०१ अधिक।
णस्य-धनदस्य कुण्डम्-आयतता तां धारयन्तीति । कुवेरवेवस्सय-वैवस्वत-पुं० । विवस्वतः पुत्रे यमे, अहरहनयमा-|
स्वामिकेषु जम्भकदेवेषु, कल्प०१ अधि०४ क्षण । नो गामश्वं पुरुषं पशु वैवस्वतो न तृप्यति, सुराया इव दु-वेसमणकुमार-वैश्रवणकुमार-पुं० । कनकपुरराजस्य प्रियचमैदी । गा।
न्द्रस्य पुत्रे, विपा०२ श्रु०६०। ('घणवर' शब्दे चवेविय-वेपित-त्रि० । कम्पिते, शा०१ श्रु०१०। तुर्थभागे २६५७ पृष्ठे वक्तव्यता गता।) बेवियंऽगी-वेपिताङ्गी-स्त्री०। कम्पितगात्रायाम् , बा०१ श्रु० वेसमणकूड-वैश्रवणकूट-न० । वैश्रवणलोकपालनिवासभूतं १०।
कुटं वैश्रवणकूटम् । जं. १ वक्षः । बुद्रहिमवर्षधरपवेविर-वेपिन्-त्रि० । “ शीलाधर्थस्यरः" ॥८।२। १४५ ॥ तस्य वैश्रवणदेवावासे अष्टमकूटे , स्था०२ ठा० ३ उ० । शीलधर्मसाध्वथै विहितस्य इर इत्यादेशः। कम्पनशीले,प्रा०।
जंक। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य सीताया महानद्या दक्षिणकूले ब
क्षस्कारपर्वते, स्था०४ ठा०२ उ०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दवेब-अब्य० । आमन्त्रणे, "वेब बेबेच आमन्त्रणे॥ २॥ क्षिणे रुचकवरपर्वतस्य कूटे, स्था०८ ठा० ३ उ० । सर्वेषां १६४ा वेव-घेवेच आमन्त्रणे प्रयोक्तव्ये । येन्य गोले । प्रा०।
भरतैरवतविजयक्षेत्रदीर्धवैताख्यानां वैश्रवणदेवावासकटेषु, बेब्वे-मय-आमन्त्रणे, प्रा. २ पाद ।
स्था०६ ठा० ३ उ०। वेस-वेश-पुं० । नेपथ्ये , औ० । रा०।
वेसमणदत्त-वैश्रवणदत्त-पुं०। रोहीडकनगरराजे पुष्पनम्दी
कुमारपितरि, विपा०१ श्रु०६ ०। वेश्य-त्रि० । केशे साधौ, औ०।
वेसमखदास-वैश्रवलदास-पुं० । सिंहसेनाचार्यवाहकरिष्टावैश्य-
पु षभदेवोपदेशादग्न्युत्पत्तावयस्कारादिशिल्प-1 वाणिज्यवृस्था वेशनाद् वैश्यः। वाणिज्यवृत्तौ तृतीयवणे,प्रा
मात्यसेविते उज्जयिनीराजे, संथा। सा०६ ध्रु०१०१३०
वेसमखदेवकाइय-वैश्रवसदेवकायिक-पुं० । वैश्रवणसामावेष-पुं० । बसाभरणादिभोगे, ध०१ अधिः । स्था। ध
निकदेवपरिवारभूतेषु देवेषु, भ०३०७ उ०। बलाकारे, औ० । निर्मलवनधारखे ,जी०१प्रति नेप-वेसममप्यम-वैश्रवणप्रभ-पुं०। रतिकरपर्वतसमवकन्यताके ध्ये,०१९०१०नि०।
| वैभवशदेवावासपर्वतेजी। स्था।
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(१४६४) वेसमणभर अभिधामराजेन्द्र:।
बेसासिय बेसमणभह-वैश्रवणभद्र-पुं०। स्वनामख्यातेऽनगारे, (यं प्र- 'चउसु विदिसासु' ति विदिनु पूर्वोत्तराद्यासु लवणसमुद्र तिलाभ्य कौशाम्न्यां धनपाल उत्तरमवे विजयपुरे वास
त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाह-उलय ये शाखाववदत्तस्य नृपस्य पुत्रो भूत्वा सिद्धः।) विपा०२ श्रु०४०।
भागा वर्तन्ते ' एत्थ' ति एतेषु शाखाविभागेषु अन्तरे
मध्ये समुद्रस्य द्वीपाः, अथवा--अन्तरं--परस्परविभागसमणोववाय-वैश्रवणोपपात-पुं० । संक्षेपिकदशानां दशमे
स्तत्प्रधाना दीपा अन्तरद्वीपाः , तत्र पूर्वोत्तरायामेकोरुऽध्ययने, स्था० १० ठा० ३ उ० । यत्परावर्तयतः श्रमणस्य काभिधानो योजनशतत्रयायामविष्कम्भो द्वीपः, एवमाभावैश्रवणो देवो वरार्थमुपतिष्ठते । पा०।
पिकवैषाणिकलाङ्गलिकद्वीपा अपि क्रमेणाग्नेयीनैर्ऋतीवाबेसवण-वैश्रवण-पुं० । यक्षनायके कुवेरे , झा० १ श्रु० ८ यव्यास्विति , चतुर्विधा इति समुदायापेक्षया न त्वेकैकअारा
स्मिन्निति , अतः क्रमेणैते योज्याः। द्वीपनामतः पुरुषाणां
नामान्येच, ते तु सर्वानोपासुन्दरा दर्शने मनोरमाः स्वबेसवडियगण-वेश्यपाटिकगण-पुं० । स्थविरशाखाया अंर्द्ध
रूपतो, नकोरुचकादय एवेति । स्था०४ ठा० २ उ०। इह निर्गते गणे, कल्प०२ अधि०८ क्षण।
जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिरेसविहार-वेश्याविहार-० । वेश्यामन्दिरे , शा० १ श्रु० निमग्नपञ्चविंशतियोजनो योजनशतोच्छ्यपरिमाणो भरत१६ श्र०।
क्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयश्चीनपट्टयों नानावर्ण
विशिष्टद्युतिमणिनिकरपरिमरिडतोभयपार्श्वः सर्वत्र तुल्यससामंत-वेश्यासामन्त-पुं० । गणिकागृहसमीपे, दश ५
विस्तारो गगनमण्डलोल्लेखिरत्नमयैकादशकूटोपशोभितोअ०। (भियुर्वेश्यागृहसमीपे भिक्षार्थ न गच्छेदिति · गोयर
बजमयतलावविधमणिकनकमण्डिनतटभागदशयोजनाववरिया' शब्दे तृतीयभाग १८२ पृष्ठे गतम् । )
गाढपूर्वपश्चिमयोजनसहस्रायामदक्षिणोत्तरपश्चयोजनशतषि देसा-वेश्या-खी । वेशजीवायां गणिकायाम् , वेश्येव निरा. स्तारः पन-इदशोभितशिरोमध्यभाग सर्वतः कल्पपादशंसो गृहवासं पालयतीति सप्तदशे भावश्रावके, ध० र० । परिणरमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणोदार्णवजलसंस्पर्शी वेश्येव निराशंसो गृहवासं पालयतीति
हिमवन्नामा पर्वतः (प्रज्ञा०१ पद। ) तस्यैव हिमवतः
पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपश्चिमायां--नैर्ऋसप्तदशं भेदं व्याख्यानयनाद
तकोण इत्यर्थः , त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य वेस व निरासंसो-अजं कल्लं चयामि चितंतो।
दंष्ट्राया उपरि यथोक्तप्रमाणो वैवाणिकनामा द्वीपः । प्रज्ञा परकीयं पिच पालइ. गेहावासं सिढिलभावो ।। ७६ ॥ १ पद । उत्त० । जी। वेश्या-पण्याङ्गना तद्वनिराशंसः-परित्यक्तास्थाबुद्धिः । य
वेसायण-वैश्यायन-पुं० । वैश्यनार्षिगोत्रापत्ये, कल्प। थाहि-वेश्या निर्द्धनकामुकाद्विशिष्टलाभमसंभावयन्ती किं
प्रभुः कूर्मग्रामगनस्तत्र च वैश्यायनतापसस्य आतापनानचिल्लभमाना चाध श्वो वैनं त्यजामीति मन्दादरा तमुपचर
हणाय मुत्कलमुक्तजटामध्ये यूकाबाहुल्यदर्शनात् गोशाति-भावशावकोऽप्येवमेवाद्य श्वो वा मोक्तव्योऽयं मयेति म.
लो यूकाशय्यातर इति तं वारं वारं हसितवान् । ततस्तेम नोरथवान् परकीयमिवान्यसत्कमिव पालयति गृहवासं कु
कुद्धेन तेजोलेश्या मुक्का. तां च कृपारसाम्भोधिभगवान् शीतोऽपि हेतोः परित्यनुमशक्नुवन्नपि शिथिलभावो-मन्दादरः |
तलेश्यया निवार्य गोशालं रक्षितवान् । कल्प-१ अधि. ६ सन् । स हि किल वताप्राप्तावपि कल्याणमवामोति वसुधे
क्षण । भ० प्रा०म० प्रा०चू। वैश्यायनऋषरुत्पत्तिः 'वार' ठिसुतसिद्धवत् । ध०र०२ अधि० । (वसुधेष्ठिसुतकथा 'व
शब्दऽस्मिन्नेव भागे १३७६ पृष्ठे गता।)" पुवासादा वे सुशन्देऽस्मिन्नेव भागे १०५२ पृष्ठे गता।)
सायणसगोत्ता" ५० प्र०१० पाहु।
वेसालिय-वैशालिक-त्रि०विशाल एव वैशालिकः । बहसागार-वेश्यागार- नवेश्याभवने, शा०१ भु०२०।
छरीरे, सूत्र ।" विशाला जननी यस्व. विशालं कुलमेव बेसाणिय-वैषाणिक-पुं० । लवणसमुद्रमध्ये ऽन्तर्वीपभेदे ,
पा । विशालं वचनं चास्य ,तेन वैज्ञालिको जिनः॥१॥" "वेसाणी चेव मंगूली" नं० । स्था० । प्रव० । कर्म० । प्रशा। इत्युक्तलक्षले वीरजिने, सूत्र० १६०२ १०३ उ०।.. जी० । उत्स।
सालियसावग-वैशालिकश्रावक-पुं० । भगवतो महावीरजंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिसेणं चुनहि-| स्य श्रावके, भ०१ श०१. उ०। मवंतस्स वासहरपब्वयस्स चउस विदिसास लवखस-वेसाली-वैशाली-खी० । नगरीभेदे, यत्र वीरजिनेन्द्र एकागई तिमि तिनि बोयमसयाई भोगाहिता एस्था दश वरात्रं कृतवान् । प्रा०म०१०मा०पू० कल्प। चत्तारि अंतरदीषा पमना, तं जहा-एगोरुयदीवे मा-1
("इतो बैशालिकापुरि । “बेटको हबकुला, मापोऽ
म्योन्यप्रियोग्रवाः॥१२॥ पुत्रिकाः सप्त तस्यासन" बाक. मासियदी बेसावितदीवे खगोलिबदी । तेसु वं दीवे
४ात्रावामा०म०। ('कुलबालग' शब्वे दतीवभाग सचउम्विहा मणुस्सा परिक्संति, तं जहा-एगोरुता प्रा-1 ६३६ पृष्ठे अशोकचन्द्रेण वैशालिकाग्रहणमुक्तम् ।) मासिता वेसाखिता संगोलिया । (सू०३०४४) बेसासिय-वैश्यासिक-न । विश्वासः प्रयोजनमस्येति वैन
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बेसामिय
अभिधानगजेन्द्रः। श्वासिकम् । औला विश्वासस्थाने, भ० १ श०३३ उ० । तवः। यथाऽस्मदादीनां गवादिप्वश्वादिभ्यस्तुल्याऽऽकृतिहा। तं० । विश्वासस्थानीकृते , विश्वासे भवानि योग्या
गुणक्रियाऽवयवोपचयाऽवयवविशेषसंयोगनिमित्ता प्रत्ययनि वैश्वासिकानीति व्युत्पत्तेः । व्य०३ उ०। विश्वास- व्यावृत्तिर्रा-गौः शुक्रः शीघ्रगतिः पीनः ककुमान् महाप्रयोजने, स्था०५ ठा०३ उ०। विश्वसनीये, नि०१ श्रु०१ घण्ट इति, तथाऽस्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्यषु तुल्या वर्ग १०। विपाशा। अत्र लप्स्येऽहमिति विश्वासप्र- कृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु, मुक्तात्ममनःसु चाऽन्यनिमियोजने । निश्चिते, कल्प०३ अधिक्षण। .. ताऽसम्भवाद् । येभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधारं विलक्षणोऽयं वेसाहवाण-वैशाखस्थान-न। योधस्थानभेदे, यद्धि पा- विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः, देशकालविप्रकृष्ट च की अभ्यन्तराभिमुखे कृत्वा समश्रेण्या करोति अग्रिमतले
परमाणौ स पवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्या बहिर्मुखे ततो युध्यते तत् । व्य०१ उ० । नि००।
विशेषाः" इति । अमीच विशेषरूपा एव, न तु व्यथा
दिवत् सामान्यविशेषोभयरूपाः, व्यावृत्तरेव हेतुत्वात् । वेसाहिल-वैशाखिल-पुं० । काव्यसाहित्यशास्त्रकारे लौकि
तथा अयुतसिद्धानामाधार्याऽधारभूनानामिह-प्रत्ययकर्षों, स्था०७ठा०३ उ०।।
हेतुः सम्बन्धः समवाय इति । अयुनसिद्धाः परस्पवेसित्थी-वेश्यास्त्री--स्त्री० । सर्वसाधारणवनितायाम् , पृ०४
रपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितयोराश्रयायिभावः । उ०। ('हत्थकम्म' शब्दे विस्तरतस्तदागमने तदवारणे प्रा
तन्तुषु पटः' इत्यादेः प्रत्ययस्यामाधारणं कारणं समवायश्चित्तादि दर्शयिष्यते ।)
यः; यवशात् स्वकारणसामर्थ्यादुपजायमानं पटाचाधार्य वेसिय-व्येषित-त्रिविशेषेण विविधैर्वा प्रकारैरेषितं व्येषि
तन्त्वाचाधारे सम्बध्यतेः यथा-छिदिक्रिया छेद्येनेतिः सोतम् । ग्रहणैषणाप्रासैषणाविशोधिते, भ०७ श०१ उ०।। ऽपि द्रव्यादिलक्षणवैधात् पदार्थान्तरमिति पद पदार्थाः । वैषिक-त्रि० । वेषो-मुनिनेपथ्यं स हेतुर्लाभो यस्य तद् | साम्प्रतमक्षरार्थों व्याक्रियत-सनामपन्यादि-सतामणि वैषिकम् , भ० ७ ० १ उ० । रजोहरणादिवेषमात्रा
सवुद्धिवेद्यतया साधारणानामपि, पराणां पदार्थानां लन्धे उत्पादनादिदोषरहिते, प्राचा०२६०१ चू०१०
मध्ये, कचिदेव-केषुचिदेव, पदार्थपुः सत्ता-सामा३ उ०। श्रा० म०। सूत्र० ।
न्ययोगः, स्याद्-भवेत् न सर्वेषु। तेषामेषा वाचायुक्तिःवैशिक-पुं० मायाप्रधाने कलोपजीविनि वणिजे, सूत्र०१ श्रु०
सदिति, यतो-'द्रव्यगुकर्मसु सा सत्ता' इति वचनाद्मामाचा कामशास्त्रे,नपुंग सूत्र०१ श्रु०४१०१ उ०।
यत्रैव सत्प्रत्ययस्तत्रैव सत्ता; सत्प्रत्ययश्च-द्रव्यगुणकर्मस्व
व, अतस्तेष्वेव सत्तायोगः । सामान्यादिपदार्थप्रये तु न: बेसिया-वेश्या स्त्री० । गणिकायाम् , प्रा० म०१०।
तदभावात् । इदमुक्तं भवति-यद्यपि वस्तुस्वरूपम्-श्रवेसियाकरंडग-वेश्याकरएडक-पुंज वेश्यासत्कजतुपूरितस्व- स्तित्वं सामान्यादित्रयेऽपि विद्यते; तथापि तदनुवृत्तिभरणादियुक्त करण्डके, स्था० ४ ठा०४ उ० ।
प्रत्ययहेतुर्न भवति य एव चानुवृत्तिप्रत्ययः स एवं सवेसेसिय-वैशेषिक-पुं० । विशेष वेद वैशेषिकः । कणादशि- दिति प्रत्यय इति, तदभावाद् न सत्तायोगस्तत्र । द्रव्यादीध्ये, स्या०।
नां पुनस्त्रयाणां पदपदार्थसाधारण वस्तुस्वरूम्-अस्तितन्मतम् (स्था०) अथ सत्ताऽभिधानं पदार्थान्तरम् ,
त्वमपि विद्यते, अनुवृत्तिप्रत्ययहनुः सत्तासम्बन्धोऽप्यूस्ति, पात्मनश्च व्यतिरिक्त कानाख्यं गुणम् , आत्मविशेषगुणोच्छे
निःस्वरूपे शशविषाणादौ सत्तायाः समवायाभावात् । सादस्वरूपांच मुक्तिम् , अज्ञानादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाह
मान्याऽऽदित्रिके कथं नानुवृत्तिप्रत्ययः ?, इति चद् : बासतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता ,
धकसद्भावादिति ब्रूमः । तथाहि-सत्तायामपि सत्तायोगा
श्रीकारे-अनवस्था । विशेषेषु पुनस्तदभ्युपगमे-व्यावृत्तिहेचैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत् ।
तुत्वलक्षणतत्स्वरूपहानिः । समवाये तु तत्कल्पनायां-सम्ब'न संविदानन्दमयी च मुक्तिः,
न्धाऽभावः, केन हि सम्बन्धेन तत्र सत्ता सम्बध्यते ?. सुमूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः॥८॥
समवायान्तराऽभावात् । तथा च प्रामाणिकप्रकाण्डमुदयवैशेषिकाणां द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्याः षट् नः-" व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं, सङ्कराऽथानवस्थितिः। रूपहापदार्थास्तस्वतयाऽभिप्रेताः,तत्र पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशः निरसंबन्धो, जातिबाधकसंग्रहः॥१॥" इति । ततः स्थिकालो दिगात्मा मन इति नव द्रव्याणि।(स्या०)(गुणाश्चतुर्वि
तमेतत्सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्तेति । तथा , चैतन्यशतिस्ते च'गुण'शब्दे तृतीयभागे १०६ पृष्ठे दर्शिताः) कर्माणि
मित्यादि, स्या०। (चैतन्यं-बानम् , इति ‘णाण' शब्दे पश्च,तद्यथा-उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुचनं प्रसारणं गमनमिति । चतुर्थभागे १९५८ पृष्ठे गतम् ।) (सत्तासमवायादिशब्देषु च गमनग्रहणाद्-भ्रमणरेचनस्यन्दनाविरोधः । ( सामान्य | व्याख्यास्यते ।) 'साम' शब्दे दर्शयिष्यते ।) (स्या०) तथा विशेषाः-नित्य- वेसेसियगुण-वैशेषिकगुण-पुं०। विशेषे भवा वैशेषिकास्ते द्रव्यवृत्तयः , अन्त्याः-अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवः , ते द्रव्यादि- ते गुग्णाश्च वैशेषिकगुणाः । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नरूपेवेलक्षण्यात् पदार्थान्तरम् । तथा च प्रशस्तकरः-"अन्ते- घुमात्मनोऽसाधारणगुणेषु, "वेशषिकगुणरहितः, पुरुषों पुभवा अन्त्याः, स्वाश्रयविशेषकत्वाद् विशेषाः । विना- ऽस्यामेव भवति तत्त्वेन” । घो०१५ विव० शाऽऽरम्भरहितेषु नित्यद्रव्यष्वरवाकाशकालदिगाऽऽत्मम- वेस्स-वैश्य-पुं० । वाणिज्योपजीविनि तृतीयवणे, सूत्र० नस्सु-प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहे।
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वेस्स अभिधानराजेन्द्रः।
बोज्म वेव्य-त्रि। वेषोचिते, सू० प्र० २० पाहु.।। |वोंडय-वोएडज-त्रि० । वोएडं वनीफलं तस्माजातं वोएडद्वेष्य-त्रि० । अनिष्टे, "बेस्सा अकामतो निजरा मरिऊण | जम् । कासिकसूत्रादौ, विशे०। अनु। वंतरी जाता" वृ०६ उ०। स्था।
वोंडसमुग्गय-वोएडसमुद्क-न० । वोएडं-कार्पासीफलं तस्य वेस्साउर-वेश्यापुर-न० । गणिकावासे, श्रा० क०१०। समुद्रकं-संपुटमभिन्नावस्थम् । कापीसीफले, मा० १ थुक वेहम्म-वैधर्म्य-न। विपरीतभावे, श्राव० ४ अ०। वि
। १७ अ०। पक्ष, विशे।
| वोक्क-विज्ञापि-धा० । निवेदने, विश्नपोक्कावुझौ ।८।४॥३८॥ वेहल्ल-विहल्ल-० । राजगृहे श्रेणिकस्य राक्षः पुत्रे, अणुन
इति विपूर्वस्य जानातेर्यन्तस्य धोकादेशः । वोकाई । विश
पयति । प्रा०४ पाद। स्था०। (स च वीरान्तिके प्रवज्य षण्मासान् श्रामण्यं परि
वोकंत-व्युत्क्रान्त-त्रि०।" श्रोत्संयोगे" ॥८।१ । ११६ ॥ पाल्य संलेखनया मृत्वा सिद्ध इति अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गे | दशमे अध्ययने सूचितम् ।)
इत्यादेरुत ओत्वम् । निष्कृष्टे, प्रा०१ पाद । वेहव-वन-धा०। प्रलम्भने, “वशेहय-थेलव-जूरवोम- वोकस-वोकस-पुं० । अनार्यदेशभेदे , तत्र जाते म्लेच्छभेदे च्छाः "॥८।३॥ इति वचतेर्वेहवाऽऽदेशः । वेहवा।। च । सूत्र० १७०६०। प्रशा० । प्रव० । वञ्चति । प्रा०४पाद।
| वोक्कसिजमाण-व्यपकृष्यमाण-त्रि० । अपकर्ष गच्छति, भ. वेहव्व-वैधव्य-न० । “ऐत एत्" ॥८।१।१४८ ॥ इति ऐ- ५ श०६ उ० । आचा। कारस्यैत्वम् प्रा० । मृतभर्तृकरवे, पञ्चा०५ घिव०। वोग्गडा-व्याकृता-स्त्री० । प्रकटायाम् , प्रशा० ११ पद । बेहाणस-बैहायस-न०। विहायस्याकाशे भवं वृक्षशास्त्राद्युब- लोकमतीतशब्दार्थायां भाषायाम् , भ० १० श० ३ उ०। .
धनेन यत्तनिरूलवशाद् वैहायसम् । बालमरणभेदे, भ० २ वोच्छिदमाण-व्यवच्छिन्दत-त्रि० । परित्यजति, स्था० ६ श०१ उ०।
ठा०३ उ०। वैहानस-न० । प्राकृतत्वाद् वेहाणसं । स्था०२ ठा०४ उ
।। स्था० २ ठा०४ उ० वोच्छिञ्जमाण-व्यवच्छिद्यमान-त्रि० । निवारणं गच्छति,
सी उक्तलञ्चने, व्य०७ उ० । प्राचा० । बालमरणभेदे, नि० चू० ११ उ०1
वोच्छिन्न-व्यवच्छिन्न-त्रिका त्रुटिते,कल्प०१अधि०६क्षण। वेहाणसिग-बैहा(ण)यसिक-त्रि। बिहायसि-आकाशे तरु
श्राचा० । खण्डिते, प्राचा०२ श्रु०१०७० २ उ० । शाखादावात्मन उल्लम्बनेन यन्मरणं भवति तद्वैहानसम् । तत्र
अनुदिते, भ०७ श०१ उ० । नि० चू० । जीवरहिते, प्राचा० भवाः चैहानसिकाः। “वेहाणसिया" चैहायसाख्यबालम-२०१० ११०१ उ० । सिद्ध, स०। रणेन मृतेषु, औ०।
वोच्छिम्मदोहला-व्यवच्छिन्नदोहदा-स्त्री त्रुटितवाञ्छायावेहास-विहायस्-न । आकाशे, भ०१३ श०३ उ०।स्था
म् , भ० ११ श० ११ उ०। अन्तराले, बा०१ श्रु० अ०।
वोच्छिलमडंब-व्यवच्छिन्नमडम्ब--न० । प्रामाभ्यन्तरवर्ति बेहासमरण-पैहायसमरण-न०। वृक्षशाखाधुबद्धत्वेन मर-! ग्रामघोषादिरहिते. “वोच्छिण्णमडयं णाम जत्थ दुजोयण
णे, स०१७ सम०। ('मरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०६ पृष्ठे भतरे गामघोसादि णऽस्थि" नि० चू०१ उ० । व्याख्या।) "उब्बंधणाइवेहासं" ति उत्-ऊर्ध्व वृक्षशाखादौ | बन्धनमुन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुमपातादेरात्मजनि
वोच्छित्ति-व्यवच्छित्ति-स्त्री०। उच्छित्ती, पं० सू०१ सूत्र । तस्य मरणस्य तदुद्वन्धनादि । 'बेहासं' ति प्राकृतत्वात् आ० म० । स्था। यलोपे वैहायसम् । उद्घद्धस्य हि विहायस्येव भयनमिति । वोच्छित्तिणय-व्यवच्छित्तिनय-० । व्यवच्छित्तिप्रतिपाउत्त०४०।
दनपरो नयो व्यवच्छित्तिनयः । पर्यायास्तिकनये. नं० । वो-युष्मान्-युष्मद्-शस् । “यो तुज्झ तुम्भे तुम्हे उय्हे भेश |.
शवोच्छेय-व्यवच्छेद-पुं० । उच्छेदे, ति०। (वीरतीर्थे केवल्या. सा" ||६३॥ इति शसा सह युस्मदो 'वो' इत्यादेशो वा। दिव्यच्छेदः 'तित्थुग्गालिय' शब्दे चतुर्थभागे २३१६ पृष्ठ वो । तुम्भे । बहुत्वे कर्मतामापन्ने युष्मच्छब्दार्थे, प्रा०३ पाद । विशेषत उक्तः।) वोंड-वोएड-न । अविकासितावस्थे कमले, विशे। श्रा० वोज्ज-त्रस-धा। उद्वेगे, "त्रसेडर-वोज-वजाः" । मा कार्यासीफले, शा० १७० १७ अ० । फले, जी०३ ४।१६८॥ इति त्रसधातोः वोजादेशः । वोज्जह । त्रस्यप्रति०४ अधिः । तं । श्री।
ति । प्रा०४ पाद । वोडकप्पास-बोएडकार्पास-न० । वोराड-वनी तस्य फलं प- वोझ-उद्य-त्रि० । नेये," णासाणीसासवोझ" हा० १ माणि कल्पनीयानि कार्यासः । रूते, नि. ३ उ०। । श्रु०१०।
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वोक्तव्व
बोस इतिहा
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वोव्व वक्रव्य त्रि०" वचो योत् ॥ ८ ४ २११ ॥ इति बोसट्टकायन्युरसृष्टकाय पुं० विविधाः शेा वच्धातोस्तव्यप्रत्यये बोदादेशः । कथनीये, प्रा० ४ पाद । परीषदोपसगैस डिप्लोपः-कायः शरीरमनेनेति वो वक्तुम् अप० विच-तुमुन्। "बचो बोत्॥२२९॥ व्युत्सृष्टकायः । उत्त० १२ श्र० । परिकर्मधर्जनतस्त्यक्तशरीरे, स्था० ६ ठा० ३ उ० आ० म० भ० । कल्प० । इति पधातोपदादेशः । प्रा० गदितुमित्यर्थे जीवा सूत्र० । धाचा० | प्रब० । व्य० । १४ अधि० ।
बोस उक्रवा-अध्य० च्या "बच्चो बोत्" ॥ ८४ ॥ २१ ॥ इतिपदादेशः गदित्वेत्यर्थे प्रा० ४ पाद । वोदाण-व्यवदान - विशेषेण श्रवदानं कर्म शुद्धिर्व्यवदानम् । उ० २२ अ० दाप्यने अथवा दे शोधने, इति यचनात् । पूर्वकृतकर्मचनगहनस्य सपने, प्राकृतकर्मकच वरशोधने, भ० २०५ उ० । स्था० । पूर्वकर्मक्षपणे प्रव० २ द्वार। पञ्चा० । कर्मनिर्जरणे, भ० २ श०५ उ० । उत्त० ।
(१७६७) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
चोदाणे भंते ! जीवे किं जणयइ १ वोदाणे किरियं जणय, अकिरियाए भविता तो पच्छा सिज्झइ बुझइ सुधार परिनिब्वायद सव्वदुक्खाणमंत क रेह ।। २८ ।।
,
हे भारत! व्यवदानेन जीवः किं जनयति गुरुराशिष्य दानेन जीवोऽपिं जनयति । न विद्यते किया यस्मिन् सः अस्तिम् अक्रियं व्यपरतक्रियारूपं शुकलध्यानस्य चतुर्थ भेदं जनयति । अक्रियको भूत्वा व्यपरतक्रियाख्यशुक्लध्यानवर्ती भूत्वा ततः पश्चात् सिद्धिं व्रजति । बुध्यते- ज्ञानदर्शनाभ्यां सम्यक् वस्तुवेत्ता भवति, मुच्यते संसारात् मुनो भवति, परिनिर्वाति-परि-समन्तात् निर्धाति कर्माति विध्याय शीतलो भवति, सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । उत्त० २६ श्र० । हरितवनस्पतिभेदे, प्रा० ।
७ उ० ।
वोम व्योमन् न० । विशेषेणावनात् व्योम भ० २० श० २ उ० । श्राकाशे, विशे० । द्वा० । दर्श० । श्राव० । अम्बरे, अनु० आ० क० । “योमाइपद्वासे, "व्योमादिप्रतिष्ठाममित्यत्र च प्रतिष्ठितः प्रतिष्ठानं भावे ययाकाशः । श्रादिशब्दाद बाह्यादिपरिग्रहः । व्योमादौ प्रतिष्ठानमस्येति व्योमादिप्रतिष्ठानः । दर्श० ४ तस्य । बोबसिजमाण व्यवकृष्यमाण- शि० द्वीयमाने २०१०
बोलट्टमाय म्युनषि० विशेषत उझडतीय आयु जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
बोलिचा अतिक्रम्य - अव्य० उल्लङ्घयेत्यर्थे, “सिप
॥ ६ । ४ ।
वायं वोलेत्ता देसनवर सेणं " श्राव० १ अ० । बोलीस- अतिक्रान्त-त्रि "क्रेनासादयः २४८ ॥ इत्यतिकान्तस्थाने बोलीचादेशः गते, प्रा० ४ पाद बोस म्युन्सृष्टषि० । त्यले स्था० ६ डा० ३ ० ( ब्यु- सृष्टं रजोहर न धारणीयमिति रम्रोहरण 'शब्देऽस्मि जेब मागे ४७४ पृष्ठे उक्तम् । )
6
इदानीं नित्यं युष्टाकाय इति परं व्याख्यायते । निचं दिया व रातो, पडिमा कालो व जत्तिओ भणितो । दब्वम्मिय भावम्मिय, वोसङ्कं तत्थिमं दब्वे ॥ ६ ॥ नित्यम् - सदः दिवा रात्री च । श्रथ वा यावान् प्रतिमा कालो भणितस्तापान् कालो युग्टष्टकायः । तच व्युत् द्विधाद्रव्ये, भावे च । तत्र द्रव्ये इतो वच्यमाणम् ।
तदेवाऽऽद्द
असणारा भूमिसवण, भविभूसाकुलवधू पउत्था रक्ख पतिस्स से, अणिकामा दव्ववोसडा ॥ ७ ॥ कुलवधूः प्रोषितधवा बनाना भूमिशयना अकृतविभूषा । एवं द्रव्यव्युत्सृष्टा अनिकामा सकामा पत्युः शय्यां रक्षति । एतद् द्रव्यव्युत्सृष्टम् ।
भावव्युत्सृष्टमाह
वातियपित्तियसिंभिय-रोगायकेहि तत्थोऽचि । न कुइ परिकम्मं सो, किंचि वि बोसट्ठदेहो उ ॥ ८ ॥ तत्र ययमध्यायां यज्ञमयायां वा चन्द्रप्रतिमायां वा तिकपेसिक श्लैष्मिक रोगात स्पृष्टोऽपि सन्देदो न किंचिदपि परिकर्म करोति । व्य० १० उ० । स्था० । निर्मन्ध्या व्युत्सुकाविकया व भवितव्यम्नो कप्पति निग्गंधीए वोसटुकाइयाए होत्तए ॥ २१ ॥ जोनिया युत्सृष्टाविकायाः परित्यक्रदेहाया भवितुमिति सूत्रार्थः ।
अत्र भाष्यम्
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सकापेल - तरुणाई गहरादोस ते चैव । दम्बाई अगिसम्म, सावयभयबोहिए वितियं ।। २६४ ।। स्युःकाविका नाम दियायुपस मया सोढव्या हत्य भिग्रहं गृहीत्वा शरीर ब्युत्सृज्य समयप्रसिद्धेनाभिभवकायोत्सर्गे स्थितावादीमा प्रेर
मदोषा मन्तस्याः द्वितीयपरे तु पानिमन्त्रनापद्मये बोधिकभये या गाढतरे उपस्थिते व्युष्टाधिकाऽपि भवेत् । वृ० ५ उ० ।
वोसट्टचत्तदेह - व्युत्सृष्टत्यक्तदेद्द- पुं० । व्युत्सृष्टः परिकर्माभावेन त्यक्तो ममत्वत्यागेन देहः कायो येन स तथा । निष्प्रतिकर्मशरीरे, निर्ममे पश्चा० ५ विव० । बोसकृतिद्वारा भ्युत्सृष्टत्रिस्थान- वि० ब्युत्ानि परित्या नि त्रीणि स्थानानि ज्ञानादिरूपादि येन स युत्पत्रिरथामः । पार्श्वस्थे, ग० १ अधि० ।
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बासु,
(१४६८) बोसहदेह
अभिधानराजेन्द्रः। वोसदेह-व्युत्सृष्टदेह-पुं० । व्युत्सृष्टो-भावप्रतिबन्धाभा-वोसिरण-व्युत्सजन-न० । परित्यागे, पाव०४० दशा वेन त्यक्लच विभूषाकरणेन देहः-शरीरं यस्य स तथा । संस्कारादिव्यापारकारणेन परित्यागे, मा० ० ५ ०। द्वा० २६ द्वा० । परीषहोपसर्गसहने कल्पितकाये , उत्त०१२ पात्मनो दुष्टकर्मकारिणस्तदनुमतित्यागे, आव०३० ('वोम०।
सिरामि' इत्यस्यार्थः-'सामाइय' शब्दे वक्ष्यते।) मुहूर्मबोसङमाण-व्युत्सृजन-त्रि० । जलप्राचुर्यादेव विकसति पुरीपोत्सर्गविधाने, मोघ01 पं०१० स्फारीभवति । वर्दमाने, म १२० उ०। परिपूर्णभूतत-वोसरियव्व-व्युत्सृष्टव्य-त्रि० । त्यक्तव्ये, वृ०३ उ०। या उल्लुठति, जी०३ प्रति अधिक।
वासु-व्यास-पुं०"अभूतोऽपिकचित्"॥८॥३६६॥ इत्यपभ्रं. वोसरिय-व्युत्सृष्ट-वि०। कृतपुरीषप्रभवणोत्सर्गे , मोघः।। रेफागमः । कृष्णद्वैपायने, "बासु महारिस पउ भण" प्रा०।
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इति श्रीमरसौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकरूपश्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १०७७ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते 'अजिधानराजेन्द्र'
___वकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समासम् ॥ । तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं षष्ठो भामः ।।
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