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(१९४२) विजयकुमार अभिधानराजेन्द्रः।
विजयकुमार इत्थंतरम्मि नियसिय, कत्ती कशी रउद्दपाणितलो। तस्स य मिच्छट्ठिी , मित्तो प्रावल्लहो घणो नाम । असिमसिकसिणसरीरो, गुंजापुंजारुणस्थिउडो ॥ १३॥ सो पडिवजह वजि-विसनो ताव सवय काया ॥ ३६ ॥ अट्टहासजियपु-दृमाणवंभंडभंडचंडरवो।
तो चिंता जिणदासो, एए अनाणिणो वि जइ एवं । हण हण हण त्ति भणिरो, समुट्टिो रक्खसो एगो ॥१४॥
पावभरपसरभीरू, विसं व विसए परिहरति ॥ ३७॥ भणड य जोहरेरे, अणज! अज वि अकजसज्ज इहं। अवगयभवस्सरूवा, जिणपवयणसवणनायनायव्वा । मझ वि पूयमकाउं, चिट्ठसि ता धिट्ट! नट्ठोऽसि ॥ १५ ॥ निम्मलविवरणो विहु, ता कि अम्हेन ते चामो॥ ३८॥ मह मुहकुहरहुयासे, नुह संगिल्लं इमं कुमारं पि।
इव चिंतिन सविणयं , विणयंधरगुरुसमीवगाहियवो। लहु दहउ तणगणं पिव, अहव कुसंगो न कि जणई ॥१६॥ अणसणविहिणा मरिउं; जाश्रो सोहम्मसग्गसुरो॥ ३६॥ तब्वयणसवणउप्प-श्रमन्नुभरिओ भणे तो कुमरो। मित्तं पि वंतरं तं , जायं सो झत्ति ओहिणा दटुं। रेरे! तुहऽज्ज पत्तं, कयं तदत्तं समणुपत्तं ॥१७॥ निययं रिद्धिसमुदयं , निदसए बोहणत्थं सो॥४०॥ मह पासठिए विग्छ, इमस्स सको विकाउ नहु सको।
चिंतेइ वंतरो तो, अब्बो लहिऊण मणुयजम्ममहं; इय जपतो पत्तो, झत्ति कुमारो तयासत्रं ॥ १८॥
जह जिणधम्मं तया, सेवतो तो सुही इंतो ॥ ४१ ॥ अह दोवि कोवकडनिव-डभिउडियो फुरफुरंतअहरदला। जहरे जिय !गुणगुरुखो, गुरुणो अमरत्तरु व सेवंतो। अन्नुनं पहरंता, तरजंता फरुसवयणेहिं ॥ १६॥
तो रुद्ददरिदं पिव, न लहंतो हीणअमरत्तं ॥ ४२ ॥ जा संपत्ता दूरं, ता नवरयणीयरु ब्व रयणियरो।
जइ जियजिणपवयण श्रम-यपाणपवणो तया तुम हुँतो। खिसमित्तण कुडिलो, नयणगोयरपहं पत्तो ॥२०॥ असरिस अमरिसविसपर-बसत्तणं तो न पावतो ॥४३॥ पडियागो कुमारो, गयजीय जोइयं निएऊण ।
इञ्चाइ बहुवियं जू-रिऊण नियमित्तअमर वयणेण । गुरुतरविसायविहुरो, पलोयए खेयरिं तेण ॥२१॥
सम्मं सम्मं धम्मो, पडिवन्नो मुक्खतरुवीयं ॥४४॥ तमवि मयच्छिमपिच्छिय-हयसब्बस्सुब्ब दीणकसिणमुहो। दसवरिससहस्सठिई, निययं जाणित्तु भणइ सुरपवरं । निदइ अत्ताणमत्ता-ण कारण सरणपत्ताणं ॥२२॥
परकन्जचित्तमणुय-त्तणे वि बोहिजं मित्त !॥ ४५ ॥ इत्तो झत्ति स पत्तो, खयरो कुमरं नमितु वज्जरह ।
तियसेण वि पडिवन्ने , उबट्टिय वंतरो तुम जाओ। तुझ पभावेण मए, निहो दक्खो वि पडिवक्खो ॥२३॥ पकंतवीरवित्ती, न मुणसि नामं पि धम्मस्स ॥ ४६॥ ता परनारि सहोयर !, सरणागयवजपंजर ! सुधीर !।। तो तुज्झ बोहणकए, मए इमा बहुल बहुलिया विहिया। श्रणबज्जकज्जअप्पसु, मह पाणपियं पियं कुमर ! ॥२४॥ श्रोहावणं अपत्ता, जंन हु बुझंति माणधणा ॥४७॥ परकजउज्जयमणो, अह बीश्रो नत्थि इत्थ जियलोए। इय सुणमाणुश्चिय जा-इसरणफुडवियडमुणियनियचरित्रो जयतुंगरायवंसो, विभूसिनो तुज्झ जम्मेण ॥ २५ ॥ कुमरो विनयह सुरं, घिवोहि ओ साहु साहु तर ॥ ४८॥ जह जह थुब्याह कुमरो, तह तह उब्धिम्ग माणसो धणियं । तुं मह मित्तो तुंम-ज्झ-बंधवो तुं सया गुरू मझ। लज्जाभरमंथरकं-धरो य न हु किं पि जपेद ॥ २६ ॥ इय भणिय गिराहइ वयं, सुरअप्पियसाहुनेवत्थो ॥ ४६ ॥ तं पह पुणो पयंपाद, खयखारं पिय खरं गिरं खयरो। तो कयकाउस्सगं, कुमरमुणि खामिउं पणमिउं च । जा तुह कज्जं मह पण-इणीइ ता जामि एस अहं ॥ २७ ॥ पत्तो सुरो सठाणं, उदिश्रो इत्थंतरम्मि रवी ॥ ५० ॥ तुह-सरिसपवरपुरिस-स्स महप्पिया जइ सि जाइ उपभोग।
तत्थेव तया पत्तो , जयतुंगनिवो वि कुमरसुद्धिकए । लद्धं जं लहियवं, मणं पि मा कुणसु मणखेयं ॥ २८॥
पुत्तं निइत्तु सहस, त्ति लुतबिहुरं भणइ दीणो॥ ५१ ॥ इय वुतं उप्पो , खयरो ता चिंतए इमं कुमरो।
हा वच्छ ! पणयवच्छल!, छलिया अम्हे वि कह तप एवं।
धवलजस धरसु अज्ज वि, रजधुरुद्धरणधवलतं ॥ ५२ ॥ अह ह बह पावभरिश्रो, निम्मलकुलदसणो श्रह ये ॥२६॥
बुहवय उचियमेयं, वयमुज्जसु झत्ति सत्तिनयनकलिय। सरणागए न रक्खा, विजयकुमार त्ति किं न पज्जतं ।
तुह वयणामयपाणं, लहु लहा जणो इमो वच्छ॥ ५३॥ जं कुणसि परस्थिकलं-कअंकियं मझरे दिव्व !॥ ३०॥
इय जपंतं निसुणिय, मोहतिव्वं निवं वियोहेउं । वरमिहपाणचाओ, लज्जिकधणाण पवरपुरिसाणं ।
पारियकाउस्सग्गो, कुमरमुणी भणइ वयणमिण ॥ ५४ ॥ भट्टपइन्नाण कलं-कियाण न जिय पि जं भणियं ॥३१॥
भो भो नरिंद ! तडिलय-चलाइ अभिमाणमित्तसुद्दयाए । लज्जां गुणौघजननी जननीमिवार्या
सग्गापवग्गसंस-ग्गमग्गगुरुविग्धभूयाए ॥ ५५ ॥ मत्यन्तशुद्धहदयामनुवर्तमानाः॥
नरयबाहदुसह दुहका-रणाइ धम्मतरुजलणजालाए । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति ।
को एप्पमई अप्पं विडंबए रायलच्छीए ॥ ५६ ॥ सत्यवतव्यसनिनोन पुनः प्रतिक्षाम् ॥ ३२॥
पिउणा जशियं लच्छिं, भदणं पिव अप्पणा उ धूयं व । इह चिंताभरविहुरं, कुमरं को वि हु सुरो सुकंतिल्लो ।
परसतिय परस्थि, व किह ण सेविज लजालू ॥ ५७ ॥ जंपहाहरणपहा, उज्जोइयसयलदिसिचको ॥ ३३ ॥
पवणपहरिल्लकम्मलग्ग-लम्गजललवचलम्मि जीयम्मि।
कल्ले का धम्म, को भणह सकन विनाणो ॥ ५८॥ मा कुणसु कुमर ! खेयं, सेयं एवं सुणेहि मह वयणं । इयरो वि भणइ तुह वय-णसवणपवणा य मे सवणा ॥३४॥
जोआह सुरो वीरपुरे, पुरम्मि जिणदासनामवरसिट्टी ॥ जस्स ऽस्थि मच्चुणा सक्खं , जस्स वास्थि पलायणं । कयगुरुजण अणुसिट्टी, अचम्मिट्ठी विमलदिट्टी,॥ ३५॥ । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुएसियं ॥५६
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